समस्त ग्रंथों और अनुर्व क्या निष्कर्ष है? - samast granthon aur anurv kya nishkarsh hai?

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_ विज्ञान-परिष ३, प्रधागक्ाा छुल्-पन्र विज्ञानं अद्येति व्यजानात, विशानादुध्येत्र अध्विमानि यूतानि जायन्ते । विज्ञानेन जातानि जीवन्ति, विज्ञार्न प्रयन्ध्य भिसंविशन्‍्तीति ।। दै० 3० ३।५। ऑम्केग्केलेलोर प्लेन जंदंनॉलॉपली जल कलर ली कल कलर क दल जिलए4ह कल कक तुला, सम्बंध २००१ । भ्रांग ६ 2 पड मे अक्टूबर १६४५ । संख्या १ 22220 22227 हक 7 272 2/ 2222 27202 2772: 720 //2/ 2८ 22203 मंजलाअंलीद-पुररकार अड़े आनन्दुकी बात है कि इस ब हिन्दी-लाहिए्य- ग्स्मेलनका १३००) वाला मंगलातजअश्षाद-पुरस्कार श्री महावीरप्रसादजी श्रीवात्तवका उनकी रुचमा सूत्र सिद्धांत के विज्ञानन्भाष्यपर मिलता है। पुरस्कार सब प्रकारसे उचित ही ग्ंथपर मिल्रा है। 'विज्ञान-भाष्य' के वक्षरक्ी पुस्तकें कम देखनेमें आती ६ । हमारे लिए गीोरवकोीं बात यह है कि यह विज्ञान- भाष्य पहले-पहल इसी विज्ञान मा।लेक-पंत्रमे धारावाहिक रूपमे निकला था । चस्तुतः लिल्लान-परिषद ऐसी अश्थाए दी 'विज्ञान-भाष्य' का छुपरा। संभव कर दिया, वर्यीकि ऐसी पुस्तकीकी बिक्री अपश्ाकृद कम होती है ओर लाभकी लालचसे प्रकाशन करनेवाले व्यापारों ऐेसी पुस्तकोक छापनेके [लिये सहमत नहीं होते हैं । विशेष संतोपकी बात थह हैं कि मद्राबीरभसादजी हेडमास्टरीसे अवकाश अहण करते ही विज्ञान-परिषद्‌के मन्त्री हो गये शरीर तबसे बशाबर अपना स्राश समय हिन्दी-संवार्म लगा. रहे हैं। भारतीय ज्योतिषपर उनकी एक पुस्तिका हमारे सरत्त विज्ञान-लागरमें शौध्र ही प्रकाशित होनेधाली हैं, इसके अतिरिक्त थे आयभद्टकी उ्योतिष-पुस्तकों पर भाष्य लिख रहे हैं| इंश्वर उन्हें स्वास्थ्य भर दीर्घायु भदाव करे जिसमें वे अपने विह्वतापूर्ण प्रंथोंसे हिन्दीका भंडार भर सके । गोरखप्रसाद अखिल भारतवर्षीय हिन्दी साहित्थ सम्मेलन के ३९वें भ्रधिपेशन के विज्ञान-परशिषद्‌ के सभापति श्री ४१० धत्यपरदाशके माषणका सारांश उपश्थित समाहिस्यानुरागी देवियों श्रौर सब्जनो, आजलसे लगभा। चार व घूव छूसोी अश्िव्त भारत- वर्दीय हिल्दी साहिष्प सम्मेज्मव्हे २०वे अधिवेशन जो पुण्म हुआ था आुझे छस विशन-परियद्के सभाषति होवेका गौरव प्राप्त हुआ, आर आज फिर जय पुरके हुस अधिवेशन- में खुझे उज्ी प्रकारकी पेव्यका अवसर दिया जा रहा है, उससे पम्मेलयका मेरे उपर शअन्लुभ स्पष्ट हे | हस क्ृपादे लिये धन्यवाद तो दिया ज्ञा सकता है, पर इतने शीत्म ही हृखस आखनपर अमे दोबारा बिठा देनेसे यह ग्रभ्िप्राय भी व्यक्वित होता है, कि हिल्‍्दी स्वाहित्यके लेशामिक चऔैन्रमम सेवा करनेवालोकी संज्या कुल सीमित और संकुचित है। हिन्दी-भादी प्रान्तर्म छुप झूमय प्ः विक्विद्यात्मय हैं। इस इष्टिसे हिन्दी-भा यिषोक्तो एक विशेष छुविधा प्राष्ठ है। धसी परिस्थितिमें जहाँ वैक्ञानिक विभागेमिं सेकछो विशेपक्ष हिन्दी प्रान्तोम कार्य कर रहे हों, हिन्दी स्वाहिल्यिक क्ेश्र- में इतने कम वैज्ञानिकीका सहयोग होना देशाके लिये कुछ अधिक गंा।रवकी बात नहीं है। इपके तीन चरण रै हैं। हि+दा-शव्तोके विश्वविधाल्तयके वैशञलिक लिपार्गोपर आन्य- भाशे वेक्षानिकोफा अम्लुत्व, जो श्र शन्तेःशने कुछ कम अवश्य हो रहा है; हिन्दीनभापी वैज्ञालिषर्में भी स्यापा-झान- का कुछ अभाव ओर फिर श्रग्रेज़ीके द्वेतते छुए हिन्दीके अति उनकी उद्ासीनता । २० व्ष पूकी अ्रपेत्त इस समय परिस्थिति कुछ उन्नत अ्रवश्य हुई है, श्रौर यह सम्तोषकी बात है, पर अ्रभी हमें इस भ्रोर बहुत कुछु करना है। पुणंके श्रधिवेशनमें जिस समय सेंने आ्वाग लिया था, उस समय इस विश्वव्यापी युद्धकी परिस्थिति कुंध ओर थी, ओर इन चार वर्दोम युद्ध ऋब दूसरी स्थितिसे आगया है। मेंने युद्ध-लम्बन्धी परिस्थिलिकी ओर इप्तत्लिये निर्देश किया कि आजकलके युद्धका बहुत बुद्ध संचातान लैज्ञा- निर्कोके हाथमे दे ओर युदछकालीन का रणा नो का छूस इष्टिसे विशेष महत्व है। खपत पुछूके दिये स्वफत वैज्ञाणिक हे] ४ विज्ञान, अक्टूबर, १६४४ [ भाग ६० ४७७७७) शिक्षणका होना अनिवार्य हैं | युद्ध जब तक भारतीय जनसभूहका युद्ध नहीं होगा, तब तक भाड़ेके टटूटू लेगिकों, स्वार्थ्म निरत व्यवेसा यियों, एवं उत्ततु लक्ष्योग दनेवाले वेझानिकोीसे इसमें वास्तविक सफलता नसंहों शास्त की सकती । सफल्न युद्धके छिये केम्धस्थ स्वराष्ट्रीय परिषद्‌कों जहाँ आवश्यकता है, चहों उसके किये स्वदेशाय भादा द्वारा उत्पक्ष ब्ाहिस्य और उसके द्वारा दिये गये बैशानिद शिक्षणदी भी आवश्यकता है । काई भी राष्ट्रीय संस्था तंब सक पूर्शरूपेश राष्ट्रीय नहीं फही जा सकती, कब तब वह अपने समस्त इष्टिकोशुसि राषटीय मे है। । युद्धानन्‍व्तरीय योजनाअ्रसि हमें ज्रारबार यह स्मरण वदिल्लाया जा रहा है कि यह देश “क्षव्ि-प्राधान्य” है, और कृषिके उद्योगकों युद्धके प्रन्तर प्रोव्याइन दिये जानेकी झायोजना हो रही है। बाहाइष्टिसे यह बात कोई बुरी नहीं प्रतीध होती, पर इस भावनाके शब्तगंत पुक कुटिष्- नीति भी 6। इस भावनाका अर्थ यह हैं, कि हमारा देश केवल कच्चे माछकी पूतिका छेश्न बना रहे, ओर देशके उद्योगों और कारज़ानोंकों युद्धके अनन्तर बन्द कर दिया ' ज्ञाय । युद्धके इन पॉच वर्षा'में अनेक रूामग्रियेंके कार- खाने देश खुसे हैं, भोर इन्होंने गौरव भी प्राप्त किया हैं, व्यवस्ायियों मे प्रखुर कंदमी इनके कारण कमायी हे. . और वे युद्ूछे अनन्तर कारख़ामों ओर उद्योगोका इ देशमें पाश्चाव्य ढंगपर प्रसार करनेके लिये उत्सुक भी हैं | इन कारख़ानोंका शासन-फ्त्ताकी ओभोरखे जहाँ संसचण भिक्षणा चाहिये था, वहाँ इनके मागमें विभिन्व प्रकारके छघरोध प्रस्तुत किये जायगे | साथ ही साथ यह भी स्पष्ट हैं कि यूरोप आर असरीकास हमारे देश राखायॉनिक पद्कर्थ ओर यांत्रिक सामग्री पूतरपिदया बहुत अधिक भाजामें आने छगगी, जिलका निश्चित परिणाम थद्द होगा कि हमारे नवस्थापित कारज़ान बन्द हो जावेगे। इन जारज्षामोस इस समय वैज्ञानिक शक्षा-प्राप- युवक संलक्षता- से फाम छर रहें दें; ६ बेकार हो जायेंगे | एशी परिस्थिति- में वैज्ञाभिक शिशणकी आयोजनाओंका पक्का पहुँचेगा। आवश्यक तो यद्द था कि इस सुद्धके अनन्तर अपनों शिक्षशन्योजबाशींश क्राम्ति उत्पन्त करते, पर संभवतः इमारे भाग्य एसा अवसर आना अली दूरूमविष्यकी आल है। अभी हमें विपरीत परिस्थितियोंसे संधर्ष करना हूँ। चेज्ञानिक शिक्षाके इष्टिकोशकों परिवत्तित कर्ता दे मेरा विश्वास तो यह है कि थुद्धानल्तरीय काल्में भारतका यवि गीरवपुर्ण सइयोग बाच्छित समझा गया तो यहाँकी वैज्ञानिक शिक्षण पदछतियमे विशेष परिवददत दारभे पड़ेंगे ओर इम परिवत्तनेरमिं सबसे सुख्य परिवतन हे।ा चाहिये- इ्विन्दी आाषार्म वैज्ञानिक शिक्षण । जनतामें वेश्ानिक प्रशृत्ति आागरुत कानेके लिये हिन्दीमें लाकर््रिय साहित्यको बृद्द परिसायार् सब्टि करमा मिताश्त आवश्यक होगा । हेदरी समिति पुणोके अधिवेशनमें मेने वेज्ञानिक पारिभाषिक शब्दीक्षे संबंध कुछ विचार प्रस्तुत किये थे। इधर गत चार वर्षोर्मे इस संबंध कुछ विशेष कार्य तो हिन्‍्दों स्राहित्यके जैन्नम नहीं हो सका है. पर यह संतोगका बिए्स हैं दि. किसी न किसी खझूपमें हसकी कुछ विशेष चर्षा रही है | संने अपने गत भापणरमे 'सेद्टक्ष एडगइज़री बोर्ड ऑफ एजकेशनकी साइंटिफिक १४ पोलेमी कमिटीका, जिसके अध्यफ स्वर्यीय रूए अत्यरः «दरी थे, थोढ़ा-श्षा भिदृश किया था । उस समय सकः इस कंसिटीकी पूरी रिपेर्ड प्रकाशित नह हुई थी ; सभ १६४१३ ई० में यट्ट अकाशित हुई । हस्त कॉमटीके + अयोका सारोश अछझ् (बद़ुमें इस कार हैँ .+-+ १०-दैट इन झाढंर हु ओसेद दि फर्दर छेवकर्पमेंट आव्‌ स्ार्यटिफिक स्टढीज़ इन इंडिया, हट इज़ डिज़ाइरेबुक्ष टू एडोप्ट एु कासन दर्मिनीलेजी से फार पेड़ में थि प्रेक्टिकेब्दा पुणढ फुछ रिया शुद्ध थिदेंड हु एटेम्प्ट्स दििव हैव आलरेडी बीन कैरि आउट घबिद दिस आब्जेक्ट के २-- दैट दन आडर हु मेनटेन दि नेसेस्सरी कॉब्टेड्ट बिट्टवील साथ टिफिक डइंवलपर्मंट इन इंडिया एण्ड सिमिद्षर देवेलपसेंट्स इन अदर फाट्रीज़, दि खायंटिफिक टमिनेक्ाजी पडेप्टेंड फार इंडिया शुद्ध एस्सिमिल्लेट ज्हरेवर पासिड्क् दोज़ ढग्ल बिच हैव आवरेडी सिकयोद जनरद्य इँटरनेश- नत्ष एक्सेप्टेन्ल । इस ब्यू, द्वाउपुबर, आवू दि वेशइडीज संखरूया १ | आव्‌ लेंग्वेजेज़ इन यूज़ इन इंडिया एण्ड आवू दि फैक्ट हट दौज़ आर नौट डिराहब्ड फ्रीम घन कामन पेरंट स्टाक. हुट बिल बि नेसेस्सरी ट इम्प्लोय,- इन ऐडिशन दु ऐन हंटरमेशनल टर्मिनालेजी, टर्स बारोड ओर एडेप्टेड फ्रौम दि ह मेन स्टाक्स ट्‌ व्हिच मोस्ट इंडियन लैंग्वेजेज़ बिलोंग पेज तेल पेज़ टम्से छिच आर हम कामन यूज़ इन हंडिविदग्नल लेंतेजेज़ । पैस इंडियन सार्यटिफिक टमिनालाोजी बिल, देयर- फ़ोर, कब्सिस्ट आवू :+- (१) ऐन हंटरपेशनल दसिनालेाजी, इन इट्स इंग्लिश फॉर्म, विवि विल बि इस्प्लेयेडल थ आउट इंडिया: () टस्पे पिल्यलियर टर॒ इंडिविडुअल लेंग्वेजेज़ हज़ रिवेन्शन ओन दि ग्राउंड आराव फैसिलयारिटी से वि इसेंशल हल हठि दरेरेस्ट आवब पोपुलर एजुकेशन । इन दि हायर स्टेजेष आब एजुकेशन टस्ले फ्रौ्म कैटिगोरी (]) में कि प्रोग्रेसिवली “वसांब्ट्यटेड फोर दोज़ इन कैटिगोरी ॥% हैदरी कमिटीदे गे पशामश न तो नये हैं, और न इनमें का विशेषता ही है। 7 सब भी इस कप्रिटीके निश्सयोंसे कहे बातें ऐः प्रति: ' जन होनी हैं, जा हसारे परिवतित इष्टिकाेणकी परिश्चःद्रएा मे इस कमिटी तीन ता डाइरेक्टर शिक्षा-विभागके >' हर श्री आर आारजेट सार- तीय सरकारके एजुकेशनत्त €' ,तमर मे और उनकी अआोइसे इस प्रकारके परामशाका * 'ना ६7 नो शमाणित कमलः है कि ये सब सज्जन इस शतके फ्च+ हैं कि वेज्ञाभिक शिक्षा- का माध्यम भारतीय भाषा ( या भाषायें ) बना दी ज्ञाय, अंग्रेज़ी द्वारा दी जानेवाली वैज्ञानिक शिक्षा भारतके ट्वितमें नहीं है | इृष्टिकोशमें इस ग्रकारका परिवत्तन है| जाना इमारे लिये गोरव ओर सम्तेषकी वात है । अन्तजञातीय शब्द कया हैं ? हैदरी कमिटीके परामशर्मि इस प्रकारके शब्द हैं -- “इससे विहच हैव ओोलरेडी सीक्याई जनरल इन्टरनेशनल एक्लेप्टेन्स” 'ऐस हन्टरमेशनल टमिनालेजी'-- इन स्थ्तों- पर प्रयुक्त 'इन्टरनेशनल” या अन्तर्जातीय शब्दसे में सदा घबराया करता हैँ । मुझे ते ऐसे स्थल्लॉपर “अन्तर्जातीय शब्दका प्रयोग अनेक देशोंके लिये अपमानका सूचक प्रतीत _ आाषणाका सारांश : करनेकी स्वतंत्रता उवादपजमपता>क कर य४- स.बकप:4प उंक 2 फतकए: अप. २७ ३०४८ कल 4य पाक कक +कलत के न आक साारिदाण री. हैा।ता है। कोई शब्द केवल हतनेसे ही कैसे “अन्तर्जातीय हे। जायगा यदि हल्का प्रयोग युरोपके कुछ देशों और शप्रीकार्ें ही हैाता हो । इनके शब्दोंका जब कोई अन्तर्जातीय घोषित कर्ता है, तो उसे हस बातका ध्यान विस्पत है! जाता है कि संसाशके किसी कोानेसे वे जावतियाँ भी जीवित हैं जिनकी भाषाएं हेसेटिक, सेमेटिक, इंडोएरि- यमन, होविडियन, सक्ोलियल आदि वंशकी हैं उन जातियों- के भानव-पाशिशोंकी संख्या यरेपीय और अमरौकन प्रशेशोंम. रहनेवाले ध्यक्तियोंसे अधिक है, उनकी भी भाषायें हैं, संस्कृति है. और उत्के पास सी साहित्य है, उनकी अपनी एक प्रथक परम्परा है, एवं उनके भी जीविल रहनेका अधिकार है । अस्त, मेरी धारणा यह है कि कोई भाषा या कोई शब्द अन्तर्जातीय नहीं है। हमारे इस मानव समाज इतना समुचित विस्तार है कि इससें तीन-चार पदतियों पर प्रचलित शब्दावली सुगमतासे चस्त सके । सबके लिये मुक्त क्षेत्र विधलान है। (१) एक यथाशक्य समान पारि- भाषिक शब्दावली अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जमेन, हृटेलियन आदि , भाषाओंकी हो (२ दसरी समान शब्दावली मिश्र, अरब, नके, पारस ओर अफ़रगासिस्तान वालोंकी हो, और हमारे उद के प्रेमी इसको अपनाना चाहें. तो हम कोई आपस्ति नहीं ओर ने हमें लनसे प्रतिस्पर्धा ही है। :३) तीसरी शब्दावली आश्यदेशस्थ भारतीय भाषाओंकी हो । (४) चीन-जञापान वालोकी संगोल्षिगन शब्दावली ही ! उढ़े बाल्नोंकी प्रवृत्ति मेरी धारणा यह है कि उससानिया यूनिवर्सिटीका कायये उत-सेन्रकी इष्टिसे ठीक ही मार्गपर हो रहा है, ओर हिन्दी-लेत्रको लगभग उसी नीतिपर अपने चेत्रम कास होनी चाहिये। पर यह आशा रखना कि उदु की यह शब्दावली हिन्दी जेत्रमें भी व्यवह्नत हो सकेगी, प्रवंचना मात्र है । क्रियाओंके समान होनेपर भी अपने शब्द-भंडारके कारण उदू' हिन्दीसे बहुत एथक हो घुकी है, और साहित्यिक हिन्दी श्रोर साहित्यिक उदूमें क्रियायें तो अपना सहश्यपूर्ण स्थान खो खुकी हैं, है, था. रहा, गया छ विज्ञान, अक्टूबर, १६४७७ आदि छुछु साधारण क्रियायें ही रह दंवी हैं, रवंनाम अवश्य अब भी समान हैं। यह आश्चर्यकी यात है कि सर्वनाम ओर क्रियाओंके भिन्न होने पर भी वर्समान हिन्दी से अबधी, डुन्देलखन्डी, त्जभाण, राजपूतानी, और यही नहीं, बंगाली, गुजराती और मरादी भी. अधिक निकट प्रतीत होती हैं, पर फारठी, शरबी ओर तुरकीके भंडारले लद़ी हुईं उद्‌' सवनाम ओर क्रियाओ्रेंे समान होनेपर भी हमसे दूर जा पड़ी है । हि । ए ब भ्् कार फ हिन्दी उद्से दूर हो रही है. अथवा उद हिन्दीसे ? यह स्पष्ट है कि आजकल हिन्दी ओर उद्‌'के साहि- त्यिक रूपसें बहुत अन्तर आ गया है, साधारण भाषयों ओर वक्ताओंकी माषामें भी अन्तर है | बाज़ार बोलीमें ( अथवा बेश्विक भापामे ) यह आब्तर अधिक नहीं है, पर बेसिक भाषाका भंडार केषज्न १००० शब्दोंका है। इसमें बहुतसे शब्द फारसी श्रौर संस्कृतके भी हैं, पर उन्हें बहुचा सभी समझ लेते हैं । ... पर प्रश्न यह है कि इस पार्थक्यका उत्तरदायित्व हिन्दी वालोंपर है, अथवा उदू' वालोपर । पार्थक्य स्वभावतः एक भाषासे संस्कृत-आधाम्य शब्देकिे कारण है, और दूसरीमें फारसी-प्राधान्य । उद्‌' वाले कहते हैं, और बहुतसे राष्ट्रीयवादी भी, कि हिन्दीकी वत्तसान प्रवृत्ति अपनेमें संस्कृत शब्दोंको पूवपित्तया अधिक ग्रहण करनेकी ओर अग्रसर हे रही है । इस विषयकी विस्तृत मीमांसा करनेका यहाँ स्थत्न नहीं है। मेरे विचारमें यह धारणा नितान्त अममलक है कि हम पृव्वापेतया अब अपनी हिन्दी भाषाकों अधिक संस्क्ृतग्भित बना दे रहे हैं | हिन्दी सापाके परम्परागत रूपका संक्षिप्त निद्शन पँ० असरनाथजीने अपने अबोहरके भाषणमें कराया था। हमारी साथपा आज भी उतनी ही संस्कृतगरभित है, जितनी चन्दुबरदायी, कबीर, नानक, सूरदास, मीरा, तुलसी, केशव, बिहारो, रसखान, जायसी या देवके समयमें थी। यह सम्भव है कि कभी हमने तदूभव शब्दोंका प्रयोग किया हो, ओर कभी तत्समों का । तुलसी, कबीर ओर सूरके पद आज भी सार्वजनिक जन ताके लिये भाषा सम्बन्धी आदर्श हैं। 'झ्लरन, सरोरह जब ४०७- ++#>क प्रक्ा(2 ८ अप कर 3सपवर कर करन था इक शफ्ध्स्गाआवात [ भाग ६० ध्पस्र- पक बिहग. कूृजत गुंजत झूँग । वैर विगत विहरत विपिन, मृग बिहंग बहुर॑ंग-- यह हमारी जनताके सर्वप्रिय कवि नुलसीदासजीकी भाण है । “ज्ञान समागम ग्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास । गुरु सेवा ते पाइये सतगुरू चरन निवास” यह भाषा अशिक्षित कबीरकी हे। रेदास, पल्टू, दूलन आदि जनशभ्रेणीके संत कवियोंकी भाषा भी सदा ऐसी ही रही है । अतः यह लाॉँच्छन व्यथ है कि हिन्दीकी वत्तमान प्रत्नक्ति पूर्वापेत्ञया अधिक संस्कृत-गसित होनेकी ओर है । वस्तुतः जब हम किसी ऐसे शब्दका पयोग करते हैं, जो दूसरोको संस्कृत ०तीत होता है (ओर सोभाग्यतः वह संस्कृत के कोषमें है भी) तो हमारा अभिपाय किसी ऐसे शब्दके पयोग करनेका नहीं होता है, जो शब्द हमारा नहीं है । मोहनदास, पुरुषोत्तमदास, . सम्पूर्णोनन्‍्द गंगापश्ाद, अशोक, ये सब नाम जब हस अपने व्यक्तियोंके रखते हैं, तो वे सब शब्द हमारी दृष्टिमें हिन्दीके ही शब्द हैं । ये सब जनताके शब्द हैं, जनताके साहित्थिकोंके शब्द हैं, इनकी परम्परा बहुत पुरानी है, इन शब्दोंका पयोग कोई. आजकी हमारी नथी नीति नहीं है । अ्रतः स्पष्ट है, कि हमारा परम्परागत- शाब्दिक भण्डार छगभग एकला ही रहा है। यह स्मरण रखना चाहिए कि संस्कृत शब्दोका पयोग अड्रेज़ी अथवा पारसी शब्दोंके प्योगके समकचषमें महीं रकत्रा जा सकता है । कुछ अक्गरेज़ी ओर फारणी शब्दोंके हमने उदाश्तावश पचानेका पथतन अंवश्य' किया है, पर संस्कृत शब्दोंके सम्बन्धर्म पचाने” शब्दका पयोग नहीं किया जा सकता । वे तो हमारी पैत्तक सम्पत्ति हैं; यही नहीं, उनसे प्रथक इसाश कोई अस्तित्व ही नहीं है, हम तो उन्हींके दूसरे रूप हैं, हमारा पवाह उन्हींकी परस्परामें है। हंस्कृत कोषकी पत्येक संज्ञा हमारी संज्ञा हैं, यह परम्परागत देन सभी भारतीय आय्य भाषाओंको पाप्त हैं। यह दूसरी बात है कि किसी पान्तमें अथवा किसी समयमें हस किसी एफ शब्दका अधिक प्रयोग करें, ओर अन्य प्रान्तमें अथवा अन्य समयमे उसी शब्दके किसी अन्य पर्य्याय का | फारसी और अगरेज्ञीके शब्द इम किसी विशेष समय पर विशेष आवश्यकता होने पर अवश्य ग्रहण करेंगे, ओर आवश्यकताके मिद जाने पर उस शब्दकों फिर निकाल बाहर भी कर दूँगे, पर संस्कृतके शब्द जो संख्या ९ ] भाषशणाका सारांश ४ अपने ही शब्द हैं, एक-रस प्रवाहमें यहाँ हमारे साथ रहेंगे । आवश्यकता पड़नेपर हसने “मकतब' शब्दको अपनाया, मकतबोंके दिल बीते, “स्कूल” शब्द भी हसने पचा लिया, पर पाठशाला और विद्यापीद शब्द तो अवाहके साथ प्रत्थेक युगर्म रहेंगे । मुसलमारी शादम : कचहरी शब्द मिला और आजकल कोट । ये शब्द साम- यिक हैं, पर न्‍्यायालय शब्द साहित्यमें अमर रहेगा। उस्ताद ओर टीचर या मास्टर ये शब्द समय पर आये ओर समय परिवत्तित होने पर ये ल्ाहित्यसे निकाल भी दिये जायगे पर गुरु और अध्यापक शब्द प्रवाहके साथ निरंतर चलेंगे। इस प्रकार स्पष्ट है कि अड्गरेजी, फारसी आदि शब्दोंका प्रयोग व्यावहारिक, और कालापेक्षित है पर इनके होते हुए भी हमारा एक स्थायी शब्द भरणडार है, वह हमें संस्कृत आर प्राकतके प्रवाहसे मिल्ला है, वह अपना है, ओर उसके शब्द-संडारका सामयिक-शब्द भण्डारके समकक्तमें नहीं रखा जा सकता है | मेरे इस दृष्टिकीणके आधार पर घिचार करनेसे यह स्पष्ट हो जायगा कि हिन्दी तो अपने पूर्त प्रवाहकी परम्परा- में अब भी आगे बढ़ रही है. ओर हिन्दी-उद के पार्थक्यका संपूर्ण उत्तरदायित्व उदू' लेखकों पर है। स्वभावतः यह पार्थथ्य अब इस स्लीमा तक पहुँच गया है,---उद्‌' वालोंने अपनेको हमसे ओर अपने मूल्त परम्पराके रूपसे इतना अलग कर लिया है कि उसको अब पदचानना भी कठिन हो शया । यह सोचने सस्तिष्ककों बल देना पड़ता कि कभी वे भी हमसें ही थे, पर दुराग्रह्वताके कारण आज हमसे प्रथक हो गये हैं। में दस चर्चाको यहाँ न छेड़ता, पर वे झ्ानिक पारिभा- घिक शब्दावलीका संस्कृतके कोप-संडारपर क्‍या अधिकार है, यह भिश्चय करनेके दिये इन विचारोंको उपस्थित करना सैंने आवश्यक समझा । चे ज्षिण त्य भाषाओंकी शब्दावली लगभग सभी दक्षिणात्य सायाओरम वज्ञानिक साहित्य थोड़ा बहुत अग्रसर अवश्य हुआ हैं | पुस्तकें अब तक स्कूली कक्ताओंके योग्य ही अधिक लिखी गयी हैं, और उनसे अयुक्त शब्दावली उनके स्राहित्यमें बहुत कुछ स्थायी रूप प्राप्त कर खुकी है। उनकी मासिक पत्रिकाओंमे लोक- प्रिय एवं तास्विक लेख भी यदाकदा प्रकाशित होते रहते हैं, और कुछ लोक-प्रिय ग्रम्थोद्ी सी रचना हुई है। शब्दावक्लीके स्थिरीकरणके छिये भी उन्होंने लगभग २७ वर्षोले कुछ न कुछ अथनन किया है। सरकाशकी ओरसे पारिभादिक शब्दोंके संबंध १६२३ से प्रयत्थ किया जा रहा है । जून १६४० में सरकारकी ओरसे सरकारी औौर ग़ेर- सरकारी सदस्योकी एक समिति पारिभापिक शब्दावली सम्बन्धी नीति निर्धारण करनेके लिये बसी जिल्लके संयोजक माननीय श्रीनिवास शास्त्री मिथुक्त हुए । शास्रीसितिकी चारणायें बहत उपयक्त थीं. पर पता नहीं कि गत तीन वर्याम इनके आधारपर कोडे काम अग्रसर हुआ हैं था बीं। जहाँ तक भेशा विचार है, सभी स्रसितियाँ इस विधयमें अब एकसत हैं कि जहाँ तक आय्य-द्वाविड भाषाओंका संबंध हे, कुछ शब्द अपनी भाषाके लिये जाय, कुछ अग्रेज़ीके अपनाये जाय, कुछ संस्कृतके आधारपर नये बनाये जाय। अपनी भाणके प्रचल्नित शब्देकेा लेनेमें किसीको आपत्ति नहीं होगी, इससे अपनी भाषाओंका व्यक्तित्थ जीवित रहता हैं, पर पारिभाषिक शब्दछोगक्के अगाघ भंडारमें ऐसे शब्दोंकी. संख्या १-९ प्रतिशतले अधिक न होगी । अग्रेज़ीमें प्रयुक्त पारिभाषिक शब्द ज्योंके स्यों कितने छिये जाय. इसका निश्चय किसी वियमके आध्रारपर नहीं किया जा सकेगा । विज्ञानके प्रत्येक विभागकी कंदिनाइयाँ अलग-अलग हैं आर प्रत्यक्ष विभागम एक एथक नीति ही मिधारित करनी होगी। मेरे विचारमें ऐसे अभेज़ी शब्द ले लेनेमें कोई आपत्ति नहीं है, जिस शब्दके अन्य वेयाकश्णरूप हमें बनाने ने पड़े । जिन शब्दोंके अमेक झरूपान्वरोंक अपनी वेज्ञानिक भाभामें प्रयोग कश्ना पड़े, उनके लिये आअग्रेज़्ी था विदेशी रूप अहण करना भाषाकी उमतासे वाध्ा डाज्णता 5 । शब्दोंके रुपान्तर तो प्रत्येक भाषामें अपनी-अपनी व्याकरणके आधारपर ही बनाये जायगे। हमस विदशी भाधषाके किसी एक झरूपको ता गुण कर सकते हैं, पर उसके अहण करनेके अनन्तर शेप भावात्मक रूप अपनी व्याकरण अथवा अपनी भाषा-परिपादीके अनुसार हि विज्ञान, अक्टूघर, १६ 8 ब्रमानेकी हमें स्वत॑श्रता होनी चाहिये। विदेशी ग्रहीत शब्दोंमें रुपान्तरित होनेकी क्षमता कम हो जाती है । डउदाइरणतः, क्योंकि इमें साहित्यमे 80॥80॥7098/, 80 8667660०, ७66 िलते, त4026॥7+06, आदि एक शब्दके अनेक रूपोकी ग्रावश्यकता होगी, और स्पष्टतः ऐसे स्थलोपर इस अग्रेज्ीके सभी रूपोका व्यवहार नहीं कर सकते हैं, अतः यट्ट शब्द हमें संस्कृतसे ही लेने पढ़ेँगे । यही अवस्था, 8007, ॥'880॥0॥), 806घ0४0ए, 86 ए89580, 980609787070, 7790607 शञ्रादि शब्दोंके लिये भी हैं। यदि हम “पैक्शन” शददको झ्पना लेवें सो क्‍या साहित्यमें "880007 के लिये भ्रत्येक्शन शब्द बनानेकी स्वतंत्रता होगी । यदि हम शेक्टिविटी अपनाते हैं, तो क्या हम इससे ऐक्टिवेटित, ऐक्टिवीकरण, अनैक्टिव, आदि रूप बना सकेंगे ! विश्वविद्यालयोंमें वैज्ञानिक शिक्षरा इधर दो-तौम पर्षोर्म लखनऊ विश्वधिद्यालयकी सायंस फेकल्टीने मातृभाषामें वैज्ञानिक शिक्षणकी ओर कुछ विशेष अ्वृत्ति दिखायौ है, ओर उनका यह प्रयास स्तुत्य अवहय है, पर उनके एकाथ निश्चय ऐसे हैं जिनसे कुछ अकश्याण होनेकी आशंका है। हिन्दी और उदृ की व्याव- हारिक कठिनाई दूर करनेके लिये उन्होंने रोमन ज्षिपिका डप्योग करना निश्चय किया हैं। रोमन लिपिमें कुछ विशेषतायें होते हुए भी वह इमारे साहित्यके लिये नागरी लछिपिकी स्थानापक्ष नहीं हो सकती । पर हमारी अआस्था अपनी छिपिके श्रति इतनी है कि यह आशा रखना व्यर्थ है, कि रोमन लिपिके पते हम अपनी लिपिका कभी बह्चिई्कार कर सकेंगे । प्रयाग विश्वविधाज़य अथवा काशी विश्वधिद्यालय हिन्दी भाषाकों माध्यम बनानेसें अभी सफल नहीं हो सके है। मेरा अपना अनुभव यह है, कि बी० एस-सी० कक्षामें पढ़नेवाले अधिकांश विद्यार्थियोंका हिन्दी-उदू. भाषा संबंधी श्ञान बहुत कबन्चा होता है । यदि उनके लिये हिन्दी पढ़नेकी कुछ सुविधायें विश्वविद्यालय दी जाये, श्रोर उनसे वैज्ञानिक विषयोपर क्षेख घझिखबाये जाये, दो आगे | आग ६० है; हिन्दीकों माध्यम बनातेओें बहुत सुविधा होगी। अयाग विश्वविद्यालयमें जनरह्य-इंग्लिशका जो स्थान है, लगभग वैसा ही स्थान हिन्दीका हो जाना चाहिये । विश्वविद्यालयॉकी आझावश्यकताकी इृष्टिसे “साश्तीय- हिन्दी परिषद्‌” ने भी फऋच्छी आयोजना तेथार की है | इस परिषद्ने एम० एस-सी० के विद्याथियों ओर अध्यापकोकी आवश्यकताकी प्रति कर सकनेवाले रग्रेज़ी-डिन्दी वैज्ञानिक कोषके कार्यको प्रारंभ कर दिया है । नमनेके छुछ पृष्ठ भी “हिल्दी अनुशीलन” में प्रकाशित हुए हैं | परिणदर्के प्रधान श्रोर मंत्री दोनों डा० वर्मा श्री भीरेऱ जी एवं शामकुमार जी) इस कार्यके लिये ध्रमका संचय भी कर रहे हैं। ये सब आशाके चिन्ह हैं, जिनसे हिन्दीके गोरवकी शख्ि हुई | है। हिन्दुस्तानी एकेडमी भी इस प्रकारके कार्यके किये उत्सुक अतीत होती है. फ्रोर जिस एगतिश्ते वातावरण हमारे अनुकूल हो रहा है, वह हमारे सोभाग्यकी बात है । अजलेक लिपियोंका प्रयोग अंग्रेज़ी साहित्यग रोमन लिपिके साथ-साथ प्रीक अच्रोका भी बहत प्रयोश होता हि,--हमारे स्कूलके विद्यार्थी रेखागशित और बीजशशितस् अँगेज़ीके ए. शी, सी, एक्स, बाड़े, ज़ेड आदि वर्णा'का प्रणोग करते हैं. रासायनिक समौफर णोमे श्दोंके संकेत भी रोमन लिपियें लिखना एक प्रकारसे सतमसान्य हो गया है. | इसका फल यह है कि हिन्दीमें लिखे गये वेश्ञानिक साहित्यर्मं नागरी, शोेभमन और ग्रीक तीमकी वर्णमाल्ाओंका प्रयोग करना पड़ेगा । मेरा घिचार यह है कि छापेखानेकी सविधाकी इृष्टिसे जहाँ. तक सस्भव हो (३) अग्रेज़ी घर्णमालाका कमसे कम उपयोग किया जाय,-ख्रीजगशित ओर रेखा- गणितमें नागरी अ्च्चरोसि काम आसानीसे निकाला जा सकता है। हिन्दी साहित्य सम्मेखनके पास गणितकी जो पुस्तकें प्रकाशनाथ आयी हैं, ये इस बातके लिये आदश हैं। श्री सुधाकर द्विवेदीजीने अपने तलन-कखन, समीकरण-मभीमांसा आदि प्रन्थेर्मे सत्र नागरी-अचछरोंका ही प्रयोग किया है। (३! जिन स्थलॉपर कोई अक्षर झढ़ि हो गया हो (जैसे मीकका “पाई” अक्षर व्यास ओर परिविके सम्बन्धके क्षिये), उस्तकों छोड़कर थथा-शक्‍्य ग्रीक पु संख्या १ | भाषणका सारांश 5 अज्षरोंका अथोग किया ही न जाय | पेक्षफा किरण, बीटा किरण, गामा किरण ये शब्द के लिये जायें, पर इन्हें उधारण शह्धित भांगरी लिपि ही किखा जाय, इसली प्रकार पुस-किरण लिखना शुद्ध माना जाय न॑ कि - किरण । (६) समीकरणा सूत्रेमे जहाँ मागरी ल्िपिके अक्षर कुछ विभिन्नता करनी आवश्यक प्रतीत हो वहाँ धंगाली लिपिके अक्षरोंका प्रयोग किया जा सकता है। वदि उच्चारणक किये ध्यत्ि-भेद भी आवश्यक हो सो घहाँ उच्चारण करते समय अकार, मकार, गकार इस प्रकारका उच्चारण किया जाय, अर्थात्‌ बोलते समय नागरी आञ' को अ' कदा जाय ओर बंगालीके ञझ' को 'अकार' बोला ज्ञाय इस प्रकार बोढनेमें वह अन्तर उत्पन्न किया जा सकता है जो एु और एलफा, थी और बीटा, जी श्र गामाम है । यदि ओर आवश्यक हो गुजरातीकी लिपिके अक्षर भी अपनाये जा सकते हैं । (४) श्री सुधाकर दिवेदी ने जैसा अपनी समीकरण-मीमांसामें किया हैं, 8, 8, &“, ७“ से ऊपर ज्याये गये इशॉको म्रात्राओं द्वारा व्यक्त किया जाय - क, का, कि, की । डेशॉकी अपेक्षा यद्द पदति हिन्दीमें बहुत सफल रही है ओर इसका अनुसरण किया जा सकता है। . सार्राश यह है कि यथा-शक््य बागरी क्िपिसे बगाम निकादा जाय, ओर अनिवाय्यें परिस्थितिथोंमें ही इतर किपियोंका उपयोग किया ज्ञाय । पुल प्रतीत द्वोता है कि राप्तायनिक समीफरणोरम रोमन संकेतोका ही प्रयोग करना पड़ेगा । कया रोभन गिनतियोँ अपना ली ज्ञाय॑ यूरोपमें तो रोमन गिनतियोंका अ्योग होता ही दे, बीन और जापान वबालेने भी इन गिवतियोंकों अपनाया है, क्योंकि उनकी अपनी लिपि गिन तियोंके ब्विये ऐसे चिद्ध न थे जिनका गणितर्म खुविधा-पु्वंक डप्थोग किया जा सके। यही परिस्थिति दृज्षिणात्य ल्िपियोंकी रही है । इदाइरणुतः तामिलमे जो मूल गिनती है वह वर्णसाजाका #ब्क्याका अभिम्राथ हे थे गिनतियाँ जिन अंग्रेज अरबी गिनती फहते हैँ, अर्थाद्‌ $, २, ३, . े “>संग्पादुक कुछ रूपानतर है, ओर उसके द्वारा बड़ी संख्याओंको प्रकट करमेकी पुरानी परिषादी बड़ी जअटिल्त है । इसीकिये इन साधाओंने भी रोसन गिनतियोंकों अपना लिया है। अब प्रश्न यह है कि क्या हम अपने नागरी अइंको छोड़ हें ? जहाँ तक सिद्धांतका सम्बन्ध है हमारे इन भ्लमें कोई मौलिक भेद नहीं है9। में इस समस्याकों अपने प्राढ़ित्यिक मित्रेके समझ उपस्थित कर रहा हूँ, और आशा करता हूँ कि वे इस संबंधर्म उचित परामश दँगे | वे कृपया यह भी बतावें कि [34 70, खुत्रको 3५ 70, लिखना शोभा देंगा था नहीं । व्यक्तिवाच क संज्ञाओंका वर्णानुक्रम अन्त एक विशेष विपयकी ओर ध्यान झाकर्षित करना चाहता हूँ। यह विषय साहित्यिकोकी शष्टिसे अब तक उपेक्षित रह्दा है। वेशानिक प्षेत्रम हो नहीं, समाचार- पत्नेंके छेन्रमें भी यद विषय अपना महत्व रखता है। हमें अपने लेखोंमि बहुतन्ली विदेशी व्यक्तिवाचक संज्ञाप्रोका प्रयोग करना पड़ता है। ये शब्द अग्रेज्ीम वर्णानुक्रमिल होकर हमारे सामने आते दें । अंग्रेजी वण्माक्षाकी ध्वस्या- नमक कक्षा इतनी अ्निश्चित है कि उस वश्माक्षार्मे वर्णानुक्रमित किसी शब्दका उच्चारण क्या होना चाहिये यह कोई नहीं कह सकता । कहनेकों तो यूरोपके सभी देशोर्मे बर्शमाक्ा एक ही अकारकी हैं. और इसके श्राधार- पर अमवश लोग रोमन किपिको स्वसमभ्मत लिपि घोषित कर भी दते है । पर यदि अक्तरोंका उच्चारण सी एक हो तब लिपि समान कहक्का सकती है; भ्थवा नहीं। 7-4-8-]-5 लिखा गया शब्द फ्रान्समें पेरि उच्चरित होता है, ओर श्रप्नेज्ञीम पेरिस। (-१-९-॥ शब्द अँग्रेज़ीमं माइद है और जन्मे मिने । इतना अग्हर द्ोने पर भी यह कट्दता कि रोमन लिपि सर्वमास्य है, इसका कोई अर्थ नह्ढीं | उच्चारणका यह अन्तर व्यक्तिवाचक संजाध्र्म बहुत शलंममंक +. ७५७ 3... ->क++-जक-ा--कलननिलानगा "आन विललाअशीजटाकक & स्मिथ और कारपिंस्कीने भ्रपनी पुस्तकर्म लिझू कर दिया है कि अरबवात्नोको से गिनतियाँ भारतसे मिक्षीं ओर यूरोपवाक्ञोंकों अरबसे । “संपादक द विज्ञान, अक्टूबर, >>ज्ताजतककमल0उकाटएज:करपददादा+कपफाशस्‍ाि:- 7००४4: जप पा: | खटकता है । शिपए0]09 शब्दकों कोई हिन्दीमें योरुप लिखता है, कोई यूरोप, कोई योरोप । |.७|फटांट को भूगोक्षकी पुस्तकें लीपज़िग लिखा ज्याता है, यद्यपि इसका शुद्ध उच्चारण लाइपसि्खिग हैं। ,8ए0व898 0897' फ्रेश वेशामिकका नाम कोई लथासिये लिखता है. को छवाशिये, कोई लिवोइसिये ; यद्यपि इसका उच्चारण लाब्यालीए है। चीनी-जापानी नगरोंके वाम भी हमारे सामने अगेज्ी वर्णानुक्राणमें आते है, आर हम उनका मनभाना उच्चारण करने लगते हैं। अ्रेगेज़ञी वर्णानुकमणके आधारपर _ उच्चारण करना और तदनुकूत नागरीमें क्षिष्यन्तरित करना कोई गोरवपूर्ण पद्धति नहीं है | ल्लाहिस्य सम्मेलनसे मेरा अनुरोध है कि बह एक ऐला! कोप प्रका- शित करे जिम्ममें भूगोल्र्म प्रयुक्त बगरों, प्रान्तों, सरिताश्रं, प्वतों आदिके ना्मोकी आदर्श सूची हो, ओर इनके उच्चारण यथा-शकक्‍य शुद्ध दिये हों । शुद्धसे मेरा अभिश्नाय उस उच्चारण से है, जो बदाँका देशवास्री करता हो | एक खूची पुतिहासिक ओर वैज्ञानिक साहित्यमें प्रयुक्त होने- वाजे पुरुणषवाचक नामोकी भी होनी चाहिये । जबसे रेडियोका व्यवहार बढ़ा ह तबसे हमें सभी देशोके मौलिक उच्चारण सुननेका अवसर प्राप्त होने लगा है, पर अब इसमें अ्रपना अश्रेज्ञी क्षिपि द्वारा सीखा गया अष्ट उच्चारण बहुत खटकने जगा हैं । नागरीमें लिप्यन्तरित करनेकी क्षमता मेंने कई बार अपने लेखेंमि यह अनुरोध किया है कि नागरी अज्षरेंभि ही हमें विदेशी भाषाओंके उद्धरणोको प्रस्तुत करना चाहिये। यदि रोसनाक्षरोँमि आपके वेद-शास्रादि प्रकाशित मिलते हैं ओर अधिकांश पाश्चात्य देशेंमिं अपनी क्षिपिमें ही दूसरोंकी भाषाओंके उद्धरणोको सिप्यन्तरित करनेकी पछति है, तो हम भी ऐसा ही क्‍यों न करें । इसने अपनी लिपिको फारसी ओर अरबीके शब्दोंके उपयुक्त तो बना ही लिया है, ओर इन भाषाश्रोंके उद्धरणोंको बहुधा हम अपनी लिपिमें ही प्रस्तुत करते आये हैं. तो कोई काश्ण नहीं कि हम आँग्रेज़ी, फ्रेघ्च, जमेन अथवा चीन-जापानकी भाषाअ्रके उदछूरणोकोी अपनी लिपिमें ही क्यों न लिखें | दूसरी भाषाओंकी नयी ध्वनिर्योके लिये नये संकेत हमें अपने विशेष! कार्मोेके लिये बनाने पढ़ेंगे, पर | भाग ६० है यह अनभिवाय्य नहीं है कि हम लिप्यन्तरित करनेमे सदा इन स्वरोका व्यवद्यार करें।। साधारण कार्थोके लिये हमारी हा <ू वि ओर वर्णसाला पर्याप्त हिन्दीम अनुसन्धानोंकी पत्रिका एक बातकी ओर ध्यान और आकर्षित करके में अपने इस भाषणको समाप्त करनेका प्रथास करूँगा | अब तक हमने “विज्ञान” पन्मिका द्वारा लोकप्रिय अथवा पाश्य- पुस्तक सम्बन्धी खाहित्य ही प्रकाशित किया है। इक प्रकारका कार्य करते हुए हमें ३० वर्ष हो गये। अ्रश्व आवश्यकता है कि हम पुक पा आगे पढ़ें । मेरा प्रध्ताव है कि हिन्दीमें एक वैज्ञानिक अनुसंधान पत्रिका आरध्य करनी चाहिये । जापानमें तो जापानी भाषामें अनेक अनुसंधान-पत्निकायं अनेक वर्षसि प्रकाशित हो रही हैं। हमें भी यह काम किसी दिन आरम्भ करना है। जापान- वाले इन पत्रिकाश्रेंमे प्रकाशित लेखोंका सारांश अमग्रेज्ञी जन, और ऋफ च भाषाश्रेंमं भी प्रकाशित करते हैं, जिससे यूरापवाले इनकी प्रभांतथोंसे परिचित रहें। में हिब्दीमें इस भकारकी पत्रिकाके लिये उत्सुक हो रहा हूँ। में इसके संपादनका भार अपनेपर लेनेको तैयार हूँ; यदि साहित्य सम्मेलन ००) वार्षिकके लगभग इस पर व्यय करनेको तैयार हो तो नागरी प्रचारिणी पान्निकाके समान एक श्रैसा- स्िक पत्रिकाले आर॑भ किया जाय । भारतवर्षमें इस समय अश्नेज्ञीमें कह अनुसंधान-पत्रिकार्ये निकल रही हैं, और जो समस्त विदेशोर्म जाती हैं, पर उनपर कहीं भी किसी भारतीय भाषा या लिपिका चिह्न तक नहीं होता। ये पात्निकायं विदेशर्म यही भावनायें उत्पक्ष कश्ती होंगी कि हमारे देशकी न कोई भाषा है, ओर न कोई लिपि ही । इस दृष्टिसि चीनी और जापानी पत्निकायें हमसे कहीं अधिक गौरव अपनी भाषाको देती हैं । मेंने उनकी अगरेज्ञी पश्निकाओंपर भी पत्रिकाका नास एवं उसके परिषद्के पदाधिकारियोंके नाम उनकी ही वर्णमाज्षा्में प्रकाशित देखे हैं । मेरी यह हार्दिक इच्छा है कि स्वतोन्भुखी गोरच बढ़े । प्रतिबिम्ध पड़ता परमोच्च सेवा है । हे हमारी भाषाका दास हमारी मनोव्नत्तिका । राष्ट्रीय भाषाकी सेवा राष्ट्रकी एक सुप्रसूति-विज्ञान क्या है ? [ लेखक -ठाकुर शिरोमणिसिंह चौहान, विद्यालंकार, एम० एस-स्री०, विशारद, सब-रजिस्ट्रार, सकफ़ीपुर (उन्नाव) ] 'ऊची अच्छी जाति जम्तुओंकी जनमायी, आगामी आदर्श मनुज-रखना सिखलायी ।' आजकल्न सुशि्षित समाजका ध्यान सुप्रसूति-विज्ञान' की ओर बहुत झुका हुआ है। अमेरिका, जमेनी आदि उन्नतिशील देशमिं सुप्रसूति-विज्ञान संबंधी लोजों और निरीबण-परीक्षण संबंधी बातेंमे अपरिमित धन ओर समय लगाया जा रहा है । किन्तु हमारे देशके अधिकांश लोग इस विश्ञानसे प्रवंथा अपरिचित हैं; बहुतोंने तो इल विज्ञानका वाम भी न सुना होगा। फिर अनेकों ऐसे हैं जो इस विज्ञानके नामकेा जानते हुए भी यह नहीं आतते कि असलमें यद विज्ञान क्या है, इसका उद्देश्य क्या है, इसके वियम किन सिद्धान्तोंपर आश्रित हैं ओर यह मानव जातिको किस तरहसे लाभदायक है अग्रेज्ञीके एक असिद्ध कोपमें इस विज्ञानके, “उत्कृष्ट खंतान ( विशेषतः मानव-संतान ) उत्पन्न करनेकी विद्या बताया गया है। इस विज्ञनका कक््य आदृर्श मानव- समाज उत्पन्न करना है--संजुष्यको शनेः शने! ऐसे सदू- गुर्णोसि अल्लकृत कर देना दे कि भविष्यमें, वे कर्मनिष्ठ गौरवपूर्ण, हृष्ट छुष्ट, म्रतिभावान्‌ और अच्छे बन जाय । जिन नियर्मोसे इस विज्ञानका बंचाज्षन होता हैं थे सावाश्णुतः उन नियमोले मिलते-जुलते है जिनका अब- लंबन, पशु-पालक अह-पासित' पशुओं ओर कृषक अपने पेड-पोधोंकी नस्क सुधारनेस करते हैं। विशेषता यह है कि मानव-्सुधारकी येजवारम हम पशु-पालकों एवं कृषकों- की तरह शिक्ा-दीक्षा एुवं पारिषाश्विक बातावरण आदि बाहरी लाधनोंकेा अधिक महत्व नहीं देते हैं श्रौर न प्रसव की हुई अर्वाब्छित संतानका निदुयता-पूर्वेक दुसन करते हैँ । भानव-जांतिके सुधार अभीष्-प्राप्तिके हेतु हमें जिन कल्याणकारी और महत्वपूर्ण लक्षशोंकी आव- श्यकता दोॉती दे उनका सम्बन्ध प्रायः भनुष्यके मस्तिष्क (790) ले द्वोता है। मानव-सुधारकी योजनाएँ इसें सानव-धरीरके आभ्यंतरिक (मनो) ध्यापार ([7687'09) छ 077॥2)-- उनकी नेसर्गिक अवृत्तियों ([/0॥'॥! $97097088) अर्थात्‌ बीज-परस्परा (3 6'808ए) को प्रभावित करना द्वोता है| इस विज्ञानका प्रधान घन मनुष्यके अजित लक्षणोर्मि वृद्धि एुवं सुघार करवा नहीं है, वरन्‌ उसके वंशयगत चेसर्गिक दाय-भाग ( पिंऋ्प्रा&! 2768 ) में सुधार और अ्ृद्धि करना है! हसका उद्देश्य भनुष्यकों श्रेष्ठ स्वभाव ( 50.0707॥' 08+प्/€ ) से विभूषित करना है, उसे अच्छा बनाना हैं । बहुत समय हुआ थूनानके पुक प्रखिछ कृधि--- धियाशिसने मानव-धसाजपर यह आज्षेप किया था कि वह थोड़ों, गढदीं, कुत्तों ओर पत्षियोर्म अच्छे बंशकी सोज इस समझसे करता है कि अच्छेसे अच्छेकी ही उत्पक्ति हे।ना' स्वाभाविक हे | किन्तु एक उच्च वंशका पिता घन एवं अन्य लौकिक प्रतिष्ठाके प्रतोभनमें पड़कर कैसे अना- यास ही अपने पुश्रका विवाह पुरे वंशकी एक बुरी कब्या- से कर लेता है। कबिका यह आज्षेप मनुष्य जातिपर आज भी जैसा-का-तैसा भटित हे रहा है : कारण कि समाजके वैबाहिक संस्कारके बंधन अथवा नियसम दिन-दिल शिथिल्न पढ़ते जा रहे हैं | नई रोशनीके ज्लोगोंनि तो विवाह- की एक व्यक्तिगत व्यापार समझ रखा हैं। सबुष्च आज भी भोतिक सुधारकी अपेज्ञा अपने वंश-सुधारमें कहीं अधिक उद्यासीन पाया जाता है। वह भोदिक प॒व॑ लोकिक बातोंके झ्ञनाजन कर्नेकी तो प्रबद्न बेष्टा करता है किन्तु ने जाने क्यों, वह अपने विपयममें अधिक आगने और उस्छ जानकारीसे अधिक ज्ञॉभ उठानेकी उतमी करता | उसे जितना प्रचा बहा आनंद भोतिक-विशानके अशु्संधान एवं छान-बीनमें आता है उतना आवंद ज्ञीब-विज्ञन एुज॑ वंशानुक्रम-विज्ञानके अध्ययन एवं अनुशीजन वहीं आतःर | यही कारण है कि आज हम ब्ोकिक उच्नतिकी तो चरस सीमापर पहुँच गये हैं किन्तु पहलेकी अपेश हमार! अंतःकरण अधिक दूषित, हमारी मानसिक शक्तियाँ अधिक चीण श्र हमारे. शारीरिक पराक्रममें अधिक हास हे! गया है। समाज-पतनके ये प्रधान लक्षण हैं । दूसमें इसारे भाग्यका दोष नहीं है, इस दोपका सारा उत्तरदायित्व तो इसीपर है। हम झलुष्य हाकर भी मानव- तत्व-जीव-विज्ञानके संबंधर्मं निर्तांत उदासीन रहते हैं। बच ५९१ _हकन >म्क>- बैमारी सामाजिक प्रणालीकी विह्ंलकार्शिणी संकीर्ता पुव॑ अखिक भोतिक झुखके क्ोमके कारण हममस अधिकाँश स्यक्ति अपने बच्चोके विवाह ठहराने शमंध वर-कस्या छुव॑ उनके कुंलोकि उन वंशगत गु्णो>«कुलफे इतिहासल-- की पुछु-लाछु आर विश्लेषण नहीं करते जिनके प्रस्तुत होनेसे हमारी भावी संतान बुद्धिमान, स्वस्थ, कर्मेशील और अच्छी पेंदा हो ; हम उनके चंशानचुगत गरण्णो--शारीरिक मानसिक और आचरण संबंधी गरणेका विचार नहीं करते मिनन्‍्दे उन्होंने अपने पृथजोस विरास्तके झपमें भाप किये हैं आर जिन्हें थे जैसे-केलेस अथवा कुछ हेर-फेरके साथ अपनी संतानकों विशलत (डत्तराधिकार) के रूपमें सींपेंगे । जाति-सुधारमे यही गुथ कश्ची सामप्री हैं। इसी कब्यी सामअीमेंसे---अ्रच्छे गणवाले बर-कन्याश्रोमिसे--विशेष अच्छे गणवाल्ले चुन-खुनकर उन्हें प्रजोतप्पादनका अवसर दिया जाय ओर उनकी बृद्धि की जाते, इस चविज्ञानका यही ध्येत्र हैं । इस कंपनमें अस्युक्ति न होंगी कि एक अत्यंत्त मेधावी चस्क्तिकी संतान पक साधारण योग्यतावाक़ें व्यक्तिकी संतानकी अपेक्षा अधिक घीमान होगी। इसमें संदेह नहीं कि आखीक्षत खुनावस थूल सी हो सकती है । सांवधानीस खुनाव करनेका फल अच्छा होता है। संमाजक ऋत्याथके लिये हमे अपनी वेवाहिक प्रणालीको सुप्रखूति-विज्ञानके नियमेकि अनुसार निर॑त्रित करना चाहिये। विवाहके जो निश्रम हमारे स्मृतिकारोंने बनाये श्रेकार जिनका पालन दमाई पूर्वज बढ़ी तत्परतासे करत थे, उन्द्रींके अनुसार हमें किर अपने चब्ाहिक संस्कार दर-फेर करता होगा, नहीं ता आजकल बंशानुकम-विज्ञान- की जितनी बजल्चनतति हुई जआनवर्रों ओर पौ्डी ही तक सीमित रह जायगी | मनुष्यक्रा उसले कुछ मी लाभ त हो सकेधा । प्राशीकृत - कृत्रिम चुनाव द्वारा पींचों आह पशु- पक्षियोंकी मसल सुंधारनेके फल बड़े चमत्कारी और समाजके किये बड़े उपयोगी हुए हैं | इस क्रियामें हम अपनी इच्छा- चुल्यार सचर्णावात्े प्राशियोंको चुनकर उन्हींको प्रजोत्पादन- का सुअबसर देते हैं और दोषयुक्त लत्तणोंवाले प्रांशियोको बंझबूदि करतेका अवसर नहीं देते । इसी सकारके धुतावके विज्ञान, अक्टूबर, १६५४ हैं शसकी सारी डफ्योगिता पाह्षत्‌ | भांग ६० 4७४४७ ४-#-छ७छ॒७४ बाय जछबय4# पार आधारपर हमने ग्रे-हाउंड था शिकारी कुत्ते उत्पन्न किये जो शिकार खोजने और उसका पीछा करनेसें बड़े निधुण होते हैं । इसके अतिरिक्त अपनी आवश्यकतानुसार हमने विविव अकारकी आक्ृति ओर प्रकृतिके घोड़े, गायें, भेद, बकरियाोँं, कबूत्तर, सुर आदि पशु-पक्षियोंको उपजाया। अपने मन-बदलाव एवं शोकके लिये हमने अनेक प्रकारके मनो-मोहक पव॑सोरभवान चुष्प उत्पक्ष किये। प्राकृतिक चुनाव द्वारा जा सुधार साधारणत: सदियों होते, कृत्रिम चुनाव हारा वहीं था उनसे कहीं श्रधिक उत्कृष्ट और डपफ्योगी सुधार हमने शीघ्रतापूर्वक आप्त कर लिये । तो फिर क्या यह संभव नहीं है कि उसी प्रकार कृत्रिम चुनाव द्वारा हम मानव जातिको अपेक्षाकृत शीघ्र अच्छे व्यक्तियोंसे भर दें । प्राचीन कालसे लोगोंकी यह धारणा रही है कि हम शिक्षानदीक्षा एवं पारिपाश्वक वातावरणको सुधारकर किस्तीः व्याक्तकां सुधार सकते हैं। किन्तु यह धारणा एक अंश तक ही सही हैं । उत्तम शिक्षा ओर उत्तेस् भोजैनसे सजमुध्य सुशिक्षित एवं बलवान्‌ हो सकता हैं। सुशितित और बलाबानू होते हुए भी अनेकों व्यक्ति अ्रन्यायथी दराचारी और समाज कर्षोकी होते हुए पाये जाते हैं । हाँ, इसमें संदेह नहीं कि बिरासतर्स मिक्की सहज प्वृत्तियोंके दीक तौरस पनपने एवं विकसित होनेके लिये उपयुक्त अवल्लर-->उत्तम शिता और अनुकूल वात[बुरणकी परम आवश्यकता होती हैं। ससाजक अने जिन्होंने अपने पू्चजोसे बढ़े उत्तम यूण आख् किये हैं, उपयुक्त शिक्षा प्राप्त न हो घकनेके कारण समाजका कुछ भी हित न कर स्के। सुअवसर अर अच्छे साधन न मिलनेंके कारण उनके गृ्णोका यथैष् खूपसे घविकाल ने हो सका | किस्तु जाति-इत्थानके विय्यारल ते आदक्ष पुरुष हैं । समाजकी उन्नतिके लियें उपयुक्त शिक्षा श्रोर अदुकृत आतावरणकी मनुष्यके लिये उतनी ही आवश्यकता है जिचनी आवश्यकता बीजकों जसने और ठीक तौरसे पमयनैके हेल सर्मी, अकाश आर खादकी आवश्यकता होती है । जिस भाँति प्रकाश आर खाद खट्ट नीबू को मीड संतरे पश्शित्त नहीं कर सकते उसी सौंति उत्तम शिवा और पुष्ठ सोजन मजुष्यके सहज लंजखोंको नहीं बदद्य सकते। थर्दि इम्च संख्या १ | ड़ जन्मसे ही अच्छे गुण न ग्राप्त करें तो अनुकृज्ञ वातावरण- का प्रभाव हमारे ऊपर अधिक नहीं पढ़ता | प्रायः देखा गया हैं कि कुछ घरानोंके पुरुष नामी कल्मावान, कुछ बरानोंमें प्रख्यात संगीतज्ञ ओर कुछमें बड़े-बड़े गणितज्ञ होते हैं, ओर यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी तक उस धरानेके सभी अथवा अधिकांश व्यक्तियोमें जारी रहता है। अग्रेजीमं एक कहावत है कि कछ पुरुष सहानता सहित उत्पन्न होते हैं, कछ अपनेको महान बना लेते हैं ओर कुछके सिर महासता मढ़ी जाती है” इनमेंसे हमें प्रथम श्रेणीके समुदायके व्यक्तियोँसे जातिके कल्याणकी आशा करनी चाहिये | जब तक इस बातका सपंदट रूपसे पता न चला था कि एक ही माता-पिताकी संतानोंमे समानता होते हुए भी उसकी पारस्परिक आकृसि और प्रकृतिम कुछ विविधता भी डोती है तब तक वेज्ञानिक चेत्रमें सुप्रसुति-विज्ञान संबंधी “किचारोका बीजारोपण भी न हो सका था। किसी बचश्चेम एक गुण घष्कर- और दूसरेमें दूसरा गुण बढ़कर प्रदर्शित होता है; इस प्रकारकी विभिश्नता हर मा-बापक बच्चेस उन्पन्न हो जाती है । एक बलवान हुआ तो दूसरा धीमान हुआ । इस झलतसे हम इस निष्कषपर पहुँचते # कि वेशानुगठ लक्षण ( अच्छे ओर बुरे पेवक गण 3 सनुष्यस से भाँति बिखरे रहते हैं कि गर्भाधानके समय कुछ ग्रंण हुक व्यक्तिक्के भागे वूसरेकी अपेक्षा यूनाधिक आ जाते हैं। संतान अपने माता-पितासे की गुण प्राप्त करती ही हैं, इसके अतिरिक्त वह कुछ गुण और ऊँचे विरसो-+नाना, नानी, दादा, दादी और कुछ भाग उनसे भी ऊँचे विर्सॉसे प्राप्त करती है। माता-पिताने जो गुण .अपने पू्॑जोसे प्राप्त किये हैं, गर्भाधान कालमें उन दोनों--जननी-जनकके समस्त गुर्णोका पुनः सम्मिश्रण € १68॥प772 ) होता है। सम्मिश्रणके अंतर्में फिर नवीन संयोग (()0॥7- 78003)8) बनते हैं। नवीन संयोगेमिं किसी गुण विशेषकी मात्रा घट जाती है, किसी बढ़ जाती है और क्रिसीमें उसका सर्वधा लोप हो जाता हैं। इन्हीं या इली तरहके श्रौर कारणोंसे संतानोंकी प्रकृतिम विविधता आ जाती है; नयी नयी विशेषताएं आ जाती हैं। कुछ विशेषताएँ वंशानुगत होती हैं, कुछ नहीं भी होती हैं । सुप्रसुति-विज्ञान कया है ? 8१ कलम आय की आए सुप्रसृति-विज्ञानके अनुसार यदि श्रेष्ठ गुण सम्पन्न संयोगोंसे विभुषित अश्चोंको झुन-चुनकर वैवाहिक संबंध द्वारा उनकी वृद्धि की जाथ और वोषयुक्त गुणवाले संयोग प्राप्त अज्चोंफको प्रजोत्पाइनका अवसर न विया जाय तो विश्वास है कि भविष्यमें संसारका स्वरूप ही बदले जायगा, वह प्रतिभावान, सुन्दर, शक्तिशाली, गौरघपूर्ण और दीवजीबी पुरुषोसि परिपूर्ण हो जायगा । अब हम लोग इस बातपर पूरे तोरसे विश्वास करते हैं कि आजका मनुष्य आरंभके श्रीधे-सादे आदि-प्राणियों ( ए7४ए6. क7/7788 ) से करोड़े वषोसि विकसित हुआ हैं। उनसे हमारा विकास धीरे-धीरे अलु- कूक्ष वातावरण और प्राकृतिक सुनाव द्वारा हुआ है । फिर हम सोच सकते हैं कि जब अ्रव्यवस्थित प्राकृतिक शुनाथ द्वारा सीधे-सादे प्राशियोंसे आजके संजुध्यका उन्भव होना संभव हो गया है तो क्या इम यह आशा नहीं कर सकते हैं कि अनुकूल वातावरण और सतक कृश्निस खुनाध (सुप्रसूति-विज्ञान) द्वारा हम भविष्यम उनमें आदर्श शुर उत्पक्ष न कर सकेंगे । थोड़ी देरके किये मान भी लिया जांच कि देस इन उपायोसे मानव जातिके सहज गुर्यो्म और अधिक उंज्त्ति ने कर सकेंगे तो क्या इसे इस बातका विश्वास हे कि इस माँति उदासीन बडे रहनेसे दस पतन ( (6286॥278- 0॥) से अपनी जातिकी रक्षा कर सकेंगे | गत शताब्दी में संसारके ध्रायः सभी सभ्य देशोंकी जन-संख्याम अद्क्रुत वृद्धि हुई है। किन्तु इस वृद्धिका अनुपात सभी श्रेणीक पुरुषोम एक्सों नहीं हुआ हैं। इन सब देशेके आऑकरड़ींकी परीक्षा करनेंसे भी स्पष्ट है कि जिन श्रेशियोंकों इस आज उच्च श्षेणी समभते हैं उन प्रेशिये्स सिम्त श्रेण्ियोंकी अपेज्ञा कम संतानें उत्पन्त हुई हैं। गाँवो्मि देखा जाता हैं कि शिक्षित और धनी परिवारोंमें जन्म-संख्या कमर हो शही है। अधिक शिज्ञाके साथ-साथ जन्म अनुपात घट रहा है । क्या इस संसार-व्यापी मह्ायुद्धमे मानव जातिके छुने हुए पुरुषोंकी आहुति नहीं हो रही है और युद्धोपराँत भाषी संतान उत्पक्ष करनेके हेतु साधारण या निकम्मे को्िके पुरुष शेष रह जायेंगे ! जाति-सुधारकी योजतामें हमें इन आातॉपर भी ध्यान रखना पढ़ेगा । 9२ विज्ञान, अक्टूबर) १६४४ | आग ६० हुस प्रकार श्रेष्ठ गण सम्पन्न संतान उत्पन्न करनेकी सानव-लालस! जिस विश्ञानके आधारपर फलीभूत होना संभव है उसे सुप्रसूति-विज्ञान कहते हैं। इसकी व्यावहारिक क्रियामें हमें मानव जातिके पेतक लक्षणेकि संक्रमण छुव॑ उनके प्रकटीकरण होनेपर उनपर प्राकृतिक प्रभावोंकी जान- कारीकी ही आवश्यकता न होगी, वरन्‌ जाघिकी सामाजिक तथा आर्थिक अवस्थाओंपर भी सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि रखनी होगी। तभी हम मनुष्य-समाजके अन्य जेन्रेंसि संबंध रखनेवाल्षे ध्याधातोंते उसकी रक्षा कर सकेंगे ओर तभी वंशानुकम-विशासके अनुसार समाजके पुनसंज्ञगन एवं बद्धार करनेसे सफलीभूत हो सकेंगे । महोकी शचला बज [ लेखक--श्री त्रज्यासीलाल, एस०एस-सी०, डी० फ़रिल्ल ० गशित विभाग, अयाग विश्ववियालय | हमारे सोश्मण्डलके जन्मके सम्बन्ध. अब तक कई मत गस्तुत किये जा चुके हैं। परन्तु उन सबमें एक कठि- नाई रही है कि अहॉकों यथेष्ठ शक्ति तथा कोणीय घूरणे कहाँसे प्राप्त हो आता हैं। प्रहोकी रखनाके बारेगे सबसे पहुले ज्ञाप्लासन एक मत दिया था झोर इस शतादिदका मवीनतस मत अस्मेड सिद्धान्वका है। इन दो खिद्धान्तों- के अलावा कई ओर सिद्धान्त हसारे सामने आये हैं। इधर दो-तीन वप बीते शोफेसर अमियाचरण वन्दयोपाध्या: ने सोरमण्ठलकी उत्पत्तिके सम्बन्ध अपना सेफाइड सिद्धान्त दिया है। इसके अन्दर शक्ति अथवा 7) 078॥]- $077 की बाघा नहीं खड़ी होती है। जहाँ तक लेखकन को ज्ञात है प्रोफेसर वन्थोपाध्यायका सिद्धान्त ही ऐसा है जो सीरमण्डल्की उत्पत्तिका वास्तविक मर्म बतला सकता हैं। उन्हेंने खूयकी फहफपना एक सेफाइड-चल (0७797०४0 ०७११७ 0]8) के रुपमें की हैं जो भोटेसे स्पन्‍दव कर रहा हा । जब कोई तारा उसके, निकदसे होफर जाता हैँ तो कोट बढ़ जाता है, मिसव ह् अखसके कारश गति अस्थिर हो जाती हढै। ( यह गणित द्वारा सिद्ध किया जा चुका है )। फलत: कुछ पदार्थ उसमेंसे निकल जाता है जो पअ्रहोंका रूप धर लेता है। गतिमें अस्थिरता हो जानेके कारण , इस देतुसे कि पदार्थके निकलने- के लिये यथेष्ट शक्ति प्राप्त हो जाय, सूचे अपने उपकेन्द्रीग खोत ( 5िपरा)7706७8/' 8007'068 ) से शक्ति लेगा ओर फिर स्थिर अवस्थाको प्राप्त हो जायगा । इस प्रक्रियामें बहुत-सा भार निकल जायगा जिसके कारण सूथ महा- कायिक अवस्थासे सामान्य अवस्था पर आ जायगा और अन्ततः स्पन्दन ख़त्म हो जायेंगे । प्रोफेसर बन्‍्योपाध्यायके उक्त सिद्धान्तमें यह आस्षेप फिया जा सकता है कि जन्मदाता सेफाइड तारेका भार सूर्यके भारके बराबर नहीं पाया जाता । इसके प्रग्युत्तरमें उन्होंने नया सिद्धान्त प्रतिपादित किया है जिसके ऋचर सेफाइड-घल्का भार सूर्यके भारसे नोगुना रखा है । जब कोई तारा इस्त सेफाइडके पाससे होकर भिकल्ल. गया तो स्पनदर्नोका कोटा बढ़ गया ओर गति अस्थिर हो गईं । हम इसी सिद्धान्तकों आगे लेकर चलेंगे । आरमब्भर्म जब प्रतिबाधक ( [770 0|॥2 ) तारा अपना ज्वार- भावरात्मक प्रभाव लगाने लगता है तो सूर्यसे निकलते वाले पिश्डकी गति ओर वेगात्तर दोनों बहुत कम होते हैं | परन्तु जब तारा काफी निकट आ जाता है तो वेगान्तर बढ़ जाता है ओर पदार्थ तारेकी दशारमें सीधे चलने लगता है। जब पदार्थ बाहरकी ओर कुछ दूरी ते कर लेता है तो तारा तो अब उसकी गतिकी दिशामें रहता नहीं है, इसलिये अपने पाश्व॑में वह हसे आ्राकर्पिंत करता है। इस- लिये एक गति सूथंकी चारों ओर ओर दूसरी सूथके परे नई बन जायगी | यदह्द तो विचार करता गलत है कि सारा निकला हुआ पदार्थ एक ही परिधिसे निकल पड़ेगा । पदार्थ शने: शरने: निकलता है इसलिये मिकलनेका विल्तु ( 90॥76 07 8]80+607 ) अवश्य करके तारेकी ओर रहता हैं ओर तारेकी गतिके साथ-साथ बह विन्दु भी बदलता रहता हैं। इस प्रकार विभिन्न पिंड विभिक्ष स्थितियोंस मनिकलते हैं और विभिन्न सार्मोपर चलते हैं । अगर पदार्थ कुछ दर तक निकलता रहे तो सारा निकला हुआ पदार्थ किसी समयके पश्चात एक तम्तुका रु संख्या १ | व्यावहारिक मनोविज्ञान १३ , | रूप ले लेगा । हम यह अनुमान कर सकते हैं कि पदार्थके निकलानेकी गति, आरस्भसें कम होगी, फिर बढ़ते-बढ़ते उच्चतम मानकों उस ससय प्राप्त होगी जब तारा ईससे निकटतम होगा और अंतर्मे फिर शुल्य गतिकों प्राप्त होगी । अगर यह ठीक है तो ऐसे तस्तुका रेखा-घनत्व हर सिरेपर तो शून्य होगा और बीचमें महत्तम। फिर क्योंकि तस्तुसे गर्मीका नाश बिकिरणकी विधि द्वारा हुआ है इसलिये सिरोंपर तापक्रमका उत्तार सबसे ज़्यादा रहेगा ओर क्वीभवन भी वहीं प्रारम्भ हो जायगा। इस प्रकार कुछ कालान्तर में तन्तुके सिरे तो द्रवरूपमें होंगे ओर बीच- का भाग चाष्प ही बना रहेगा । सघनीभवन जब इस प्रकारसे हो रहा होगा तो गुरुवात्मक अस्थिरता (87'8ए]- $86078| 470808 0||78 ए) के फलस्वरूप पृथक पिंड बन जायगे। प्ुतदर्थ जो ग्रह तब्तुके सिरोपर बनेंगे उनका भार सबसे कम होगा ओर जो बीचके भागसे बनंगे उनका सबसे ज़्यादा । इस प्रकार हम यह स्पष्ट कर सकते ५ कि छोटे प्रहोंके सारमें कम्ी-बेशी क्यों हैं और साथ ही साथ यह भी कि सबसे ज्यादा भारके ग्रह बीचमें क्यों हैं। इस चीज़की पुष्टि सर जेम्स जीरस, इशपिनसर तथा जैफरीसकी भाँधि शणतना करने पर गणितसे हो जाती है । | अपनी प्रसिरझ पुस्तक दी अर्थ से जेफ़रीसने कहा है कि “पृथ्वीके अतिरिक्त कोई दूसरा श्रह शायद ऐसा नहीं है जिसके परिअ्रमणमें उन ज्वारभारों (089) से ज़्यादा असर पढ़ा है जो उसके उपग्रहोंके कारण उठे हो। मगर शुक्रकी बाबत कोई निष्कर्ष निकालना कठिन है, सिवाय इसके कि इसका परिश्रमण-काल उस हद तके नहीं बढ़ गया है. जिस इृद तक प्रथ्वीका ।” बात तो यह है कि शुक्र- का परिश्षमण इतना मंद है कि अथेष्ट ज्वारभादात्मक प्रभाव तभी प्राप्त हो सकता हैं जब हम यह मान लें कि खरारम्सस शुक्रका एक उपग्रह इतना भारी था जितना बुध । गणित द्वारा भी यह सिद्धू किया जा सकता है कि शुक्रकी . गतिकी पूरी व्याख्या तभी की जा सकती है जब बुधकों आरम्भममें उसका एक उपग्रह मान जे । ऐसा छगता है. कि बुधका इतिहास भी चन्द्रमा जैसा रहा है। चंद्रमाकी तरह बुध अपनी त्षीण गुरुवात्मक शक्तिके कारण वायुमण्डल तो रख नहीं सका होगा और इसके अन्दर जो धर्षण रद्द होगा वह समस्त पिंडमें व्याप्त रहा होगा । जब यह शुक्रका उफ्प्रह रहा होगा तो उसी आवरत्तकालसे परिभ्रमण कर रहा होगा जो शुक्रके गसिद इसका परिधि आधवत्तकाल है। और जिस प्रकार चंहमा नित्य धरतीकी ओर झुख किये रहता है, खुध भी शुक्रकी ओर किये होगा । परन्तु जब यह वृधका उपग्रह स्थिर उपतारिक परित्िके ज्षेत्रके बाइर ज्वारन्धर्यणके कारण ढकेल दिया गया होगा तो यह स्वत॑त्न ग्रह स्वयं बन बंठा । उस समय उसका परिभ्रमण आवत्तकाल भी बढ़ गया होगा । और सूर्य-जनित पिंडमें व्याप्त ज्वार-यपंण ही अकेला इतना काफ़ी रहा होगा कि उसका मुख सृर्यकी- ओर हो गया होंगा। फिर उस खसमयले यही अवस्था कायम रही हैं । व्यावहारिक मनोविज्ञान पहनेकी कला [लेखक---श्री राजेन्द्र विहारीज्ञाल, एम० एसू-सी०, इंडियन स्टेट रेलवे] द पढ़नेका यंत्र-विज्ञान इृष्टि संकेतोंकों मानसिक अधस्थाम भाषाव्तर करना ही पढ़ना हैं! इस क्रिया ध्यान देने योग्य एक बाल यह है कि शाँख छुपी हुई सतरपर लगातार बिना रुके हुए नहीं चलती है. वरन्‌ रुकते ओर विश्राम लेते हुए चलती है। वस्तुतः नेत्रीय चाल एक भटकेवाली चाल है, जिसमें दृष्टि हर बार गहनेके बाद रुककर विराम लेती रहती है । आप जब किसी सतरपर इृष्टि डालते हैं तो वह पंक्तिके कुछ भागका पकड़ लेती है, फिर ज़रा थम जाती है, फिर भागेके भागकेा देखती है ओर फिर रुक जाती है--- ऐसा ही बराबर हे।ता रहता है जैसा निम्नांकित चित्रसे स्पष्ट हो जागगा! | 4०००क+न्‍व / इस्‍ब ही: अर, ऋण -बटि::६+#प्फिआ 40: औननाककमा सफीआतयार, का.3.#ना उस ७:७७४०७७ कक + कॉम शातककीक + +कक+ गम, यह सीधी लाइन नेत्रों हारा देखना प्रगट करती है ओर बीचकी खाली जगहें इष्टिका थमना बतलाती हैं। ्खश्दः हें तो आप केवल एक ही शब्दको नहीं देखते हैं वश्न धक शब्द- समृहको, जिसका अर्थ प्रायः उसी चाण समभमें आ जाता है। शब्दोंकी उस संख्याका जिसे आप एक बारके दृष्टि गाड़मेमे पकड़ लेते हैं अहण-विस्तार ( 7?87/06॥7076: हर आर जब आपके नेश्न काशाज़पर केन्द्रित होते 8987 ) कहते हैं। आपका यह बविदित द्वोना चाहिये कि तेज़ पाठक एक-एक शब्दका कम समयमें नहीं पढ़ लेता वश्न्‌ एक ही समयमें अश्विक शब्दोंका पढ़ लेता है--उसका पहुण-विस्तार अधिक बड़ा रहता है, अथात वह एक बारके दृष्टि गाड़नेमें अधिक शब्दोके। पकड़ लेता है । एक कम पढ़ा आदमी किसी छुपे अनच्छेदका कदाचित्‌ एक-एक अक्षर करके धीरे-धीरे पढ़ेंगा, लेकिन जो एक अवीण पाठक होगा वह एक बारके दृष्टि गाड़नेमे एक समूचे वाक्यकों पढ़ लेगा और केकल पढ़ ही नहीं लेगा, वश्न उसके अथका भी साथ-साथ समझ जायगा । यह बात अच्छी तरह समसूनेके लिये कि आप सचमुच शब्द-समूहोंके एक साथ पढ़ते हैं, आप एक छोटा-सा प्रयोग कर सकते हैं। बराबर लम्बाईकी चार खड़ी पंक्तियाँ ' ज्लीजिये जिसमें एकमें केवल अक्षर हों, दूधरीसें छोटे-छोटे तथा सीसरीमें अढ़े-बड़े शब्द ओर चोथीसें वाह्य हों :--- (१) (२) (४) (४) कम कमलबननयन कमलका फूल हाथमें लो । र॒ रघु रधु-कुल-तिक्षक गधु रासकें परदादा थे । पे पर परम-पूज्य परम पूज्य केसरिया प्यारा । रू झऋम भानभनाहट भंडा ऊँचा रहे हमारा । म महा महाराजाघिराज महात्मा गाँधी जेक्ष में हैं । प॒ पुक् पुल्चकायथमान पलपलमे आकाशका रंग बदलता है। त तर तरंशित. तरबूज चाकूसे काटो । हूँ इईश इंश्वरीय. ईश्वर सबका रक्षक है । क कल कल्युगी . कल्नयुगमम ऐसा ही होता है । से सच सच्िदानन्द सच बरशाबर तप नहीं | भ भाग भसागीरथी भागीरथी गंगाका ही नास है । रा राम रासेश्वरस रास रास कहु राम सनही | प्रत्येक खड़ी पंक्तिके खुपचाप पढ़ जाइगे ओर उसे पदनेसे जितना समय लगे उसे सांवधानीसे नोट कर लीजिये | आप देखेंगे कि पढ़नेकी सामग्री त्ोथी पंक्तिसे विज्ञान, अक्टूबर, ? /भ | भाग ६० ४ पहलीसे कोई ग्यारह गुनी, दूसरीसे पाँच गुनी ओर तीसरी- से दुगनीके करौब है, लेकिन इन पंक्तियोंके पहनेमे लगे हुए समयमें यह अनुपात कदापि नहीं है| इन खड़ी पंक्तियोंके पढ़नेमें क्रमश: लगभग ४. ६, ६ और २० सेंकण्ड लगते हैं। चोथी पंक्ति, पढ़नेमे लगे समयके अनुसार, पहली पंक्ति- की पाँच गुभी श्रोर अक्षरोंके अनुसार ग्यारह गुनी है । अब आपको स्पष्ट हा! गया होगा कि जितनी जल्दी शबद- समूहके श्रॉँख देखती है. और मस्विष्क समझता है प्राय: उत्तनी ही जल्दी वह एक अक्षर था शब्दका देखती है। अतः इस ग्रयोगसे यह शिक्षा मिल्री कि अध्यधिक श्रवद-समुहोंको एक साथमें देख लेनेका प्रयत्न करते हुए आप शपते पढ़ने- की चालका इदलासे बढ़ाते जाइये ।. सप्तकना या वेग ? पढ़नेकी गति तेज बनानेके लिये आपको अपना ग्रहण-विश्तार विश्तत करनेका प्रयध्त करता चाहिये को नित्यप्रतिके अ्र्याससे किया जा सकता है। किन्तु यह भी ध्यान रहे कि पठन-क्रिया हदसे अधिक सचेत भी न हो जाय नहीं तो आपके पद़नेकी गति लेज्ञ होनेके अलाय और भी मनन्‍्द हो जाथगी । इसका अर्थ यह है कि पह़ते समय आपका ध्यान पहनेकी ही ओर द्ोना चाहिये न कि हंस ओर कि किस प्रकार उस पृष्ठ, पाठ या पुस्तकको जरुद- सेनजद्द ज़तम कर डाला जाय । अगर आपका ध्यान केवल इस ओर रहा कि कैसे जलद्ीसे श्रन्त तक पहुँचे तो आप देखेंगे कि आप समझ महीं रहे हैं, आपको एक ही वाक्य बार-बार पढ़ना पड़ रहा है | किलीको उपन्यास या अख़बार पढ़नेसें प्रति मिनट तीन सो शब्दोंसे कममें तो सन्त॒ष्ट होना ही नहीं चाहिये ओर चार सौसे बढ़ जानेंके लिये भी उसे भरसक चेष्टा करनी चाहिए । आशा तो यह है कि वेंज़ पढ़नेके लिये आपके इढ़ निश्चयपूवंक प्रयत्नसे ही कुछ समय आपका अह खण॒-विस्तार बढ़ जायगा । परव्तु हल बातकफा ध्याव रहे कि पढ़नेको गति बढ़ानेके पीछे समभनेका बक्षिदान कदापि न हों जाय, क्योंकि आपका पढ़ना जानकारीके लिये ही हो रहा है। पर क्या सचमुच पढ़नेकी क्रियामे तेज्ञ गति और संख्या १ | समता परस्पर विराधी हैं ? नहीं | पढ़नेकी गति सीच बनाते समय जो आदचर्येजनक सन्‍य आप अनुभव करेंरो वह यह है कि पढ़नेकी गति लेता दोनेके साथ ही साथ आपकी जतदीसे समभनेकी शोग्यता भी तीत्र होती आयी । प्रवीण पढनेवाल्े सदा तेज़ पढ़नेबाले होते हैं ओर उसकी दक्नताके दोनों अंग-- तेज़ी ओर अच्छी तरह सममूना-- साथ-साथ चलते हैं । शब्द-भंडार बढ़ाना एक निपुण पाठक सबेंदा तेज़ पढ़नवाला हुआ करता &। धीरे-बीरे पढने एक बड़ा ख़तरा यह रहता है कि मनको भटकनेका अवसर सिल्न जाता हैं ओर उसमें इधर- उधरके विचार घुस आते हैं जो उसकी पएकाग्रत्ताकों भंग कर देते हैं। अब प्रश्न उठता है कि सुस्त पढ़नेके क्‍या कारण है ? . थकाबट ओर अभिरुतचिकी कमीसे स्वभावतः पदनेकी गधि मन्द हो जाती हैं । इसके अतिरिक्त सुस्त पढ़नेका एुक ओर भी कारण हैं जो बंदा महत्त्वपूर्ण हैं -- परिचित शब्दोंकी संख्याकी कमी अथवा अुद्दावरों ओर उनके अथैले अवभिज्लता । अगर आपसे यह दोष है तो निश्चय ही इससे आपके पढ़ने बाधा उपस्थित हो जायगी और आप जुमलों और पेराम्मार्फोकों कहे आर पढ़ने- की उत्चकनर्त पद आबेगे, शिंससे आपकी पंडम-क्रियाकक परयाइम पड़ी बाया आ उपस्थित ढींगी । इसे बचनेके खये निश्सनाइद्ध थही पुक उपाय ४ कि आप अपना दाद अयंडार ओर मुद्रावराकी आनकार। जेंढे[ईब्न्‍्यह दौना बात #छकोीषको अधिक ग्रयीगम क्ानेस मात ही सकती हैं | अपनी साप्ताहिक पराक्षा आपका इर इफ्ते अपनी जाँच करते रहना चाहिये । यह बढ़ा मनोर॑जन और उपयोगी काम है । पढ़ाडईकी जॉचके (लये अग्रेज्ञीम तो बहुतसे अच्छे परीक्षान्पत्न बाज़ार- मे मिद्ारे हैं जो थोड़े दी मत्यमं खरीदे जा सकते हैं । आप उनमेस कुछ ख़रीद ले। वे पायः दो था अधिक को श्रसि बने होंगे, जैसे---.8 , 0. (). ताकि आप कऋरमा- शह अंश्वाहॉस उनका अथोग कर्के अपनी उद्धतिका पता छत क्ष्; | आप उनके द्वाश स्वर्य अभ्वा अपने किसी दंयाबहारिक मनोविज्ञान 9४ मित्रक्ती सहायतासे अपनी जाँच कर सकते हैं। ओर यदि जी चाहे तो घरके ही बने परीक्षा-पत्रोफो काम ला सकते बज हैं। अपने सिन्नसे कहिये कि वह एक चुन हुए पकरश ( ?28889268 ) के बारेमे कुछ प्रश्न बनाये, जिसमें उंख प्रकरण की बारीकसे बारीक बात तक पूद्ठ ली जाथ । अपने दोस्तसे कहिये कि अपने प्रश्नर्मि हरएक विचार, दृर्णुक घटना... दरणपक तककों शामिल्ञ कर ले। आपकी परीक्ता निस्मन्देद् आपके उद्देश्यके अनुसार होभी चाहिये-- यदि आप यथार्थ बातों ( #'80$8 ) के लिये पढ़ रहे हों वो परीक्षाम॑ यथार्थ बातें ही होनी चाहिये- यदि विचारोंके क्षिये तो विचार, इत्यादि। मतलब यह है कि अपनी उन्नति जाननेका कुछ साधन ज़रूर होना चाहिये। अनेक व्यक्तियोंके अनुभवकों देखते हुए तो यही आशा है कि आप भी अपनेको तेज़ ओर निश्चित उन्नति करते हुए पायेंगे । अपनो छिपी हुई कमज्ञोरियोंकों देखकर दाचित आपको - आश्चय हो, पर यह देखकर आपको और भी अचम्भा होंगा कि कितनी शीघ्रतांसे ने कम- ज़ोरियाँ सुयोग्य उपचार द्वारा दूर हो जाती हैं । साथ ही साथ अपने अभ्यासका कुछ समय आप अपने पढ़नेकी रासि बढाने लगाव । केपक्ष तेज़ पढ़चेके विचार- को सामने रखकर पढ़नेसे ही पहनेकी भतिमें उम्रति हो जाथगी । विस्सन्देद्र उयो-ज्यो फढ़नेमें आपकी इंच्षता बढ़ती जायगी, थपके पढनेकी चाल भी तेज़ होती जायगी। गर यह टेखनेसे आया हैं कि केवश रफ़्तार बढ़ानेके उद्देश्यले जान-बूककर किये हुए. प्रयन्नसे भी लाभ होता है । पेराधाफोके पढ़नेम लगे हुए समंयको नोट कर लीजिये और पहना समाप्त करने पर शब्दोंकों गिन लीजिये-- इससे आपको पढ़नेकी यति मालूम हो जायर्ग! । अपनी उन्नतिकों लिखते जाइये और हर हक़े अपनी रफ़ारकी तुलना पिछले हफ़ोंकी गक्ारले कीजिये। अनुभवस यहां पत्ता चलता हैं कि आप भा लुथारकी आशा कर सकते हे और आपकी उन्नति भी अस्थायी नहीं प्रस्युत स्थायी होंगी । क्योंकि बदम जब आप गति गढानेकी कोई चेष्ठा न भी करते होंगे तब भी देखेंगे कि आपकी साधारण, आरामसे और बिता जढदी की हुई, रक़्ार भी पहलेसे अच्छी हो चुकी होगी। यहे से समझिये- शि इस कासले फ़ायदा डइंडानेके 9] १६ विज्ञान, अक्टूबर, १६४४ | भांग है० ग्म्न्न्न्तल्जााााौ।ए।।एूा ४ 55ससससससलससलतललनललनननक> «न लिये आपको घंदों कड़ा परिश्रस करना पड़ेगा। तेज़ रक़ारसे.. कर लिया है और शाप उसके बारेसे उतना जान गये हे 3 कक पढ़नेके थोड़ी देर तक किये गये प्रयास भी अत्यन्त अभाव-. जितना कोई जानता है। इससे आपको दक्षता और आत्म- शाली होते हैं । विश्वास प्राप्त हो जायगा, साथ ही साथ आप शक्ति और श्रश्नेज़ीमें कुछ सासिक-पत्र ऐसे हैं जिनमें अन्येक लेखके.. अवर्णनीय आनन्दका भी अनुभव करेंगे। पढुनेका समय दिया रहता हैं। पाठक इससे यह अनुमान योजना बनाकर पढ़ना लगा सकते हैं कि उनके पढ़नेकी गति तीज है. अथवा स्वभावतः आप अपनी अधिक-से-अधणिक पढ़ाई अब- भन्‍्द । हिन्दीसे भी, विशेषकर नवयुवर्कोक्े माखिक पत्मोंमे,. काशके ही समयर्म करना चाहते हैं। क्योंकि समय थोड़ा साधारण पढनेका समग्र हर लेखके अन्तमें देना चाहिये ।. ही होगा इसलिये बुदधिमानी इस्लीसे है कि आप पदनेके पढ़नका शोक लिये एक योजना तैयार कर लें और उसीके अनुखार« प्रत्येक युवक और युवतीके लिये यह सलाह है कि अध्ययन करें । कभी इधर और कभी उधरको पुस्तक पढ़ने वड़ कालेज या इ्ाईस्कूल छोड़ते समय अपने पाव्य-विषयों-.. से मनोर॑जन श्रवश्य होता है किन्तु इससे समय श्रकारथ मेंसे किसी एक प्रिय विषययकी पढ़ाईको बतौर अपने सान-. जाता है और मानसिक उन्नति भी नहीं होती । सिक भनोर॑जन ( 0009 ) के जारी रक्खे, था किली उदाहरणके लिये कदाचित्‌ आपकी यह योजना हो दूसरे दी विषयका अध्ययन जिसमें उसका विशेष अनुराग. कि जाज॑ वनोर्ढ शा? की रचनाओंकी पूर्ण जानकारी प्रा हो आरम्भ कर दे । इस प्रकारके श्रध्ययनमें सबसे महस्व-.. कर लें । अविल्स्ख आप पढ़ना आरम्भ कर दजिये ! जब पूर्ण बात यह होगी कि दिमाग़ अपनी ही इच्छा-वश कास आप उनकी सभी रचमाओंका आधोपान्त अध्ययन कर करेगा नकि केवल प्रतिदिनकी आवश्यकताओं था घटनाओं- . झुकेंगे तो आप अवश्य अपनेको पहलेसे अधिक बुद्धिमान की उत्तेजनाके प्रध्युत्तरमे था आाहरकी परिस्थिसियोंके कारण, पायगे और अपने स्वय॑के अनुभवसे उनकी ऋतियोंके जैसा कि प्रायः जीवनके कारोबारमें हुआ करता है। अगर. सम्बन्ध्म बोल सकेंगे | अगर आपकी योजनामें वाटक, कोई मनुष्य केवल बाहरी उत्तेजनाले भेरित होकर ही डेपन्यास, कबिताएं या जीवनियाँ आदि सम्मिलित सोचता या विचार करता रहा दे तो थह्द क़रीब-क़रीब दें तो उन्हींको रखिये । परन्तु पहलेखे समभ-बूसकर कोई निश्चय है कि जब सुनने, देखने आदिकी शारीरिक शक्तियाँ.।. योजना आप श्रवश्य तैयार करलें । यदि ऐसा कर लेंगे और चीण होने लगेगी और बाहरी चीजॉका पुवेबतू अधिकार. डेंसेके अजुस्तार काम करेंगे तो निस्सन्देद आपको अधिक यानपर न रह जायगा श्रौर जिज्ञासा कम हो चल्लेगी तो. जाम होगा। < ् उस मजुष्यकी मानसिक उद्योगिता भी घट जायगी | वेकिन 20258. 032:3:02::20:8: का ब्का 89028 हक! जहा ८ 22% 80 5 यद्वि कोई आदमी श्रान्तरिक प्रेरणासे या अपनी ही इच्छा- शी शालिग्नाम पल वश होकर अपने मस्तिष्ककों काममें लगाता रहा है और अपनी इच्छाशक्तिसे अभावित हो काम करनेका अभ्यस्त यह लिखते दुःख होता है कि परिषद्के सभ्य और रहा है तो कोई कारण नहीं कि उसकी मानसिक शक्तियाँ आपके स्वास्थ्य बहुत अच्छा था, शरीरसे भी हृष्ट-पुष्ट थे, पास्तकम आय: ऐसा ही होता भी है। केवल इतना और अख्तमें न्‍्यूमोनियाके प्रकोपसे आपका अचानक यह मइसूल करनेका सन्‍्तोष मित्र जावगा कि आपने मान- इईंकवरसे प्रार्थना! करते हैं कि दिवंगत आतव्माको शान्ति दे । “विज्ञान' के पुराने सेवक श्री शालिप्राम वर्माका स्वगंबांस गत ४ सितस्वर खत १६४४ की रातको हो जया। उसके शरीरकी शअ्रत्ति ब्व मेंभी ब स्नरि कक ५ शी कप के हक रा सा हा के ने नियमित खूपसे माततःकाल अमण भी करते थे; परन्तु सीन क्र ८ भें श्स्त्र्‌ ब्छ्‌ छू सफ री पट कप बनायं न रखें। जार सधाहके मलेरिया ज्वरमें आपका शरीर जर्जर हो गया ही नहीं एक मानसिक शोक री ॥। ये ज्ञाभ होते हर ( 2 अं ) 2 & रेखनेसे से स्वगंचास हो गया । हंस आपके चद्ध पिता तथा धर्म-पत्मी भा उडुतल काम होते हैं। चाहे जढदी था देरमें आरापको और पुत्र-पुत्रियोंसे द्वार्दिक समवेदना प्रकट करते है और सिक ज्ञानके किसी अंग था विषयत्र पूर्ण अधिकार आप -म७ प्र० श्रीवास्तव 4५825 85523 20,004 50000 0४ २ जि कै [ लेखक--श्री श्रानन्दमोहन बी० एस-सौ०, “ १8४३ के विज्ञान (ईसाग ८, संख्या २ पृष्ठ ७६ ) में रेल्गाढ़ी-संचालनके नियमोंका वर्णन करते समय स्रिगनलोंके विषपयमें संक्षेप कुछ कड़ा जा खुका ई। प्रस्तुत लेख उल्ल विषयमें कुछ अधिक जामकारीके लिये सिखा गया है। स्टेशनसे सिगनल रेलगाड़ीके चालकों (ड्राइवरों) को संकेत देते हैं ओर इन संकेतोंके अनुलार उनको रुकमा था चलना पड़ता है। उनोंके आमे-जानेके गरबंधर्मे काममें खाये जानेवाले सिगम्ल मिम्नलिखत' तीस प्रकारके होते हैं :..- (क) गड़ हुए सिगनल्त ( +560 (ख: हाथ के सिगनक्ल ( जंश्ताधह ). (ग) पटाखे ( ॥36६07 ॥छ ७९2॥548 ) २--प्रस्तुत छेलम॑ कंबल गड़ें हुए. पस्िगनलॉका ही वर्णन किया जायगा । सब सिगनलॉंसे ये ही हुख्य हैं। इन सिगनलम झुख्यतर एक स्तंभ और एक हस्था होता है। इस हस्थेकी स्थितिसे ही ड्राइवरोंकों संकेत दिया जाता है। गड़े हुए सिगनल कई प्रकारके होते निम्नलिखत काममें क्वाये जाते हैं :--- (क) स्टाप सिगवल् ( 500]0 958॥/8! ) ख) बानर सिगनल ( ४४४)'8॥' 527)09 ) (ग) कीलेंग आन सिगनल्-( (४8:798 ६) १ '378).34& । न ७]0 ( बरद्ाधदर न ११४६] हि (घ) शंटिंग सिगनल्ल ( 5प7॥2 ७४१७ ) इन सोम स्टाप व्िगनत्ल ओर वार्मर सिगनल सुख्य लिखित दो सूचनाएं दी जावी हैं अथांव (३) झहरो (8000) (२) आगे बढ़ो (६7300९0) (ख) 'ठद्वरो' की सूचना देनेके लिये स्टाप सिगनक्षका ० 9 न मा लगे आल ( ६8]9०५ 9879| ) कमशियल सुपरिदडेंद ईस्ट इंडियन रेलठे, कलकता | दंत्था ( ७77 ) स्वंभस ( ?05॥ ) पर एकदम दग्ब रहता हैं। जैसा पहले क्ेखके पृष्ठ ७९ के प्रथम चित्रमें दिखल्याया गया है । | रातके समय जब हत्था दिखलाई नहां पता, यह सूचना हत्थेकी जड़में लगे हुए एक लेम्पक सामने लाल शीशेके आ जातेसे पेदा हुई लाल रोशनीसे दी. जाती है । शरेकी इस स्थितिकों आव-स्थिति (()8 #05४007) कहये हैं आर ४८ससे ड्ाइवरकों पुकदस रुक जानेका संकेत दिया ज्ञाता है तथा यह आज्ञा की जाती हैं कि जब तक इतथा ते गिशा दिया जाय या रातके समय रोशनी बदल्ल- कर हरी न कर दी जाय, तब तक आगे न बढ़ी । (ग) दूसरी अधान आगे बढ़ो 7#008७०।* सूचना देनेके लिये स्टवाप सिगनलका हृत्था लितिज रेखा (पड़ी दिशा) से ४४९ से ६०९ के कोण तक रुका होता है । यह एक दूरस्थ ज़्गहसे तार खींचकर संचालित किया जाता है । रातके समय यह सूचना लैग्पके सामने एक हरे शीशेके आ जानेसे पेंद्रा हुई हरी रोशनी द्वारा दी जाती । जब ड्राइवरको स्टाप सिगनल द्वारा यह सूचना सिल्वती है, तो वह इस सिशनक्से आगे ट्रेल (गाड़ी) लेकर जा सकता है। हृत्थेकी इस स्थितिको स्थाप प्िग- नलकी आफ़-स्थिति' ((*ग 7005040॥) कहते हैं, जो पहले लेखके पृष्ठ ७६ के दूसरे चित्र दिखलाई गई हे । शि4 ५ [लगन ल्का जल नथा से केत ४--वार्नर सिगनलः--(क) वार्नर सिगनलका हत्था भछलीकी प्‌ छुके आकार्का होता है ओर बह द्राइवरकों नीचे बताई हुईं दो सूचनाएं देनेके छाममें आता हैः--- ।१) खात्रवानीके साथ आगे बढ़ो । आगे स्टाप सिगनल आ रहा है। उसपर रुकनेके लिये तैयार रहो।” (२) आगे बढ़ो (70:00680)। स्टेशनके अगले प्ब स्टाप सिगनल आफ़ ( (07 )' स्थितिमें हैं तथा अगला! रोक-खण्ड ( 3]00: 5860+07 ) खाली है ।” ८ विज्ञान, अक्टूबर, १६४४ [ भाग ६० (ख्र) “स्रावधानीके साथ आगे बढ़ो” सूचना देनेके किये इत्था सीधा श्र्थात्‌ स्तंभपर लग्ब रहता है। शातके समय दो रोशनियाँ दिखलाई [पढ़ती हैं। एुकांतों इत्थेकी / भड़के पास;लाल रोशनी और एक हरी रोशनी उसके ५ था घिम्च २--- वार सिगनक्षकी आन स्थिति । ७ फीट ऊपर । कह्दी-कद्दी गवर्णमेंट इन्सपेक्टरकी अनुमतिसे इन दो रोशनियोंकी जगह इत्थेकी जड़पर एक पीली रोशनी विखाई देनेसे यही सूचना दी जाती है। यह स्थिति जो धारनरकी “आन (:!7)! स्थिति कह्लाती है पहले ओर दूसरे चित्रोंमे दिखलाई गयी है।. “(ग) “आगे बढ़ी” सूचना देनेके लिये वानरका हत्था चितिज रेखासे ४४" से ६०" अ्ंशके कोण तक झुका होता है। रातके समय इस सूचनाको देनेके लिये एक हरी रोशनी इत्थेकी जड़पर और दूसरी हरी रोशनी उससे ७ था ७ फीट ऊपर दिखाई देती है। थह स्थिति बारनर की आफ़ ( ()# )' स्थिति कहक्वाती है और निम्नाद्वित खिन्रमें दिखाई गई है । ० चिन्न ६ -.- वानर सिगनलकी आफ़ स्थिति । (ध) कुछ अ्रवस्थाश्रेंमिं वार्नर और स्टेशनके प्रथम स्टाप सिगनलको एक ही खम्मेपर कर देते हैं। ऐसी अ्रवस्थामें वानरके ऊपरकी स्थाई रोशनी हटाकर उसके स्थानपर प्रथम स्टाप सिगनल कग दिया जाता है | : ऐसी अवस्थाओंम हत्येकी रोशनिर्योके भिन्न भिन्न मिल्यावर्थेसे जो संकेत होते हैं, थे नीचे दिखलाए गये हैं । खिन्न ७-- एक “सावेधानीसे आगे बढ़ो आगे बढ़ो । दम दहर जाओ! और अगले स्टाप- अगला रोक- सिगनलपर रुकनेके. खंड (3|0८|९- लिये तेयार रही ।”” 5६९८४०ा) साफ़ कालिंगनआन -सिगनल ((9७]]7ए-2॥-928) ५ कालिंग-आन-सिगनल एक छोट-शा हत्था है जो किसी स्टाप सिगनल्लके नीचे उसी खस्भेपर लगा हुआ हो सकता है। जत्र यह हत्था आन' की हालतमें होता है तो ड्राइवर ऊपरके स्टाप सिगनल्वके आना को हालतमें ड्ोते हुए भी सावधानीसे धीरे-धीरे उस स्टाप सिगनलके आगे बढ़ सकता है । शंटिंग सिगनल (509970708& 827)) (क) स्टेशनके इातेके भीतर ट्रेनों, इंजिनोंको इधरसे संख्या १ | द अर उधर जाने (8॥07072) की आज्ञा देनेके लिये स्टाप सिगनल “आफ” की हालतमें नहीं किये जाते क्योंकि ये सस्‍्टाप सिगनल्न अधिकतर ट्रेनोंके पिछुल्ले स्टेशनसे आने तथा अगले स्टेशनकों चले जाने देने की आशा देनेके काममें थाते हैं | यदि थे शंटिंगके भी काममें लाये जाएं, तो गड़- बढ़ हो ज्ञानेका अंदेशा है। इस कामके ल्लिए शंटिंग सिग- नत्ञ कासमें लाये जाते हैं | थे दो प्रकारके होते हैं । (१) छोटे सीमाफोर शैटिंग खिगनल और (२) घूमते हुए डिस्क सिगनल । (ख) छोटे सीमाफोर शंदिंग सिगनत्लमें एक सफेद डिस्कके ऊपर एक ज्ञाल घारी खींची रहती है। जब यह चित्र ५--- “छोटा सीमाफोर शंटिक्ु-सिगनल्ष' सिगनल चलता है, तो लाल घारी उसी तरहसे घूमती है. .. जैसे स्टाप सिगनलका हत्था । इसलिये इस सिगनलके दिन ओर रातके संकेत बिल्कुल स्टाप सिगनलकी तरहके होते हैं । पक (गः घूमते हुए डिस्क सिनलोंमिं आन” पोजीशनमें डाइवरकों एक लाल डिस्क दिखलाई देती है और “आफ! पोजीशनमें नह डिस्क घूमकर सामनेसे हट जाती है। रातके वक्त 'आन'! पोजीशनमें ज्ञाल रोशनी दिखाई देती है ओर आफ पोजीशनमें हरी । सिगनलोंका प्रयोग ६०-उपरोक्त सब सिगनकोमे स्टाप और चानंर मिगनल ही मुख्य हैं ओर उन्हींका प्रयोग कुछ विस्तारसे जानने योग्य है । स्टाप मिस लॉका प्रयाग ७०““नेवस्बर १६४३ के विज्ञानमे रेलगाड़ी संचालनकी रेज्ञवें-सिगनल १६ सम्पूर रोक-प्रणाली ( . 8006. /300 898« $67) ) का वर्णन किया गया है ओर दो ढल्लाक स्टेशनों: के रोक खणडको बतलाया गया है। तथा यह भी बतलाया गया हैं. कि रोक खण्डकी सीमाएं नियत करनेमें स्टाप सिगनल काममें छ्ाये जाते हैं। संत्तेपमें उसे दोहरा देना आवश्यक है । चित्र ६ में 'क' और ख्' दो उल्याक स्टेशन ( 3008 8/58॥]078 ) है जिनपर प, प, ओर फ्‌, फ, नियत स्थान हैं । फ से कुछ नियत दूरी भागे ब पुक स्थान हैं। इसी तरहसे फ, से कुछ नियत-दूरी' आगे ब, एक स्थान है। “प-ब” को 'क' स्टेशनसे “ख' स्टेशन- की दिशाका रोकनखण्ड ( 3]06< 86७४0॥ ) कट्ते हैं। और “प५ ब,” को 'ख' स्टेशनसे 'क' स्टेशनकी दिशाका रोक-खण्ड कहते हैं । एबसोल्यूट ब्लाक सिस्टम ( >ऊफैषछपाछए डि006ॉ: 59 8086॥7]) ) के अनुसार कोई रेलगाड़ी 'क' स्टेशनके नियत प स्थानसे 'ख' स्टेशन- की तरफ बिना ख' स्टेशनकी आज्ञा मिलते नहीं जा सकती तथा ख स्टेशन ऐसी आज्ञा जभी देता है जब (१) न केवल 'प' से लेकर 'फ' तककी पटरी बिश्लकुछ साफ़ हो बढिक (३) पटरी 'फ' से भी कुछ ' नियत-दूरी” आगे 'ब' तक भी खाली हो । इसी प्रकार खत से कोई गाडी का को नहीं जा सकती जब तक प, ब. रोक-संड बिलकुल साफ न हो । नियत स्थानों प, फ, ब, प्‌ फ. बे, को इंगित करनेके लिये इन स्थानोपर स्टाप खिगनका लगाये जाते हैं | आती हुई ट्रेनोंके लिय स्वाप सिगनल ८-«> फ स्थानपर क-ख दिशाका प्रथम स्टाप सिगनछ्त झोर 'ब' स्थानपर दूसरा स्टॉप सिगनल क्गाया जाता है । प्रथम स्टाप स्िंगनल् या तो होम ( सि07१8 ) था आउटर (()0॥०7) सिगनल कहलाता है। जहाँ आउटर कहलाता है, वहाँ होम सिगनल दूसरे स्टाप सिगनक्के स्थान ब' पर होता है | &-- होम (0॥78) सिगनल्ष सदा उस लाहन- के जिससे उसका सरोकार हो उस स्थानसे बाहर गाढ़ा ६० विज्ञान, अक्टूबर, १६४४ [ भाग ६० स्वनक जा... _ _॒_ _[ 2 स्टेशनख' स्टेशन क “के से खतक का रोक - रेड वसव>ऋल>».>-- दु>पेनटरेकरशललममससकसा5»यथ«५नकबककनभभा५फन्फान]प्ेट, है । है ] ञ् स्टेचान रे पु हि “>। पं ७ 3७५०३ पल बरंआ सं क ४६--+++ घख से के लक का रीक-खंड जज चिन्न ६ जाता है जहाँसे उस लाइनमेंसे स्टेशनके भीतरवाली ओर दूसरी ल्ाइनें निकलती हों । जब एक त्ञाइनसे स्टेशन- के भीतरवाली कई लाइनें निकल्नती हैं तब हरएक लाइनके लिये अलग-अलग 'होम सिगनल” होता है ओर इन सब होस सिगनलोंके खम्भोंको एक मिश्र-सिगनल-ब्रिजपर रख देते हैं, पर ब्रिजपर उनके खग्मे अलग-अलग रहते हैं तथा इस तरह लगे रहते हैं कि हरएक लाइनका सिगनल अलग-अलग पहचानमें आवे। नीचेके चित्रसे यह साफ- साफ दिखलाई देगा । संल्कााउांाकरका 4 क्र ६.) ' | चित्र ७ जब इस प्रकार एक त्रिजपर कई सिग़ननल लगे. होते हैं तब सबसे बाई ओरका सिगनल सबसे आईं ओरकी क्ाइनके , लिये. होतर है आर उससे थोड़ा : इधरका दूसरा सिगनत्य दूसरी लाइनके लिये होता है । तीसरा तीसरी लाइनके लिये, इत्यादि । तथा सीधी लाइनके सिगनलको ओर लिगनलोंसे ऊँचा रखा जाता है । जिस स्टेशनपर मालगाड़ियोंके लिये पेसेंजर लाइनसे अलग लाइन हो, वहाँ माल्गाड़ीवाली लाइनके सिगनल- को दूसरोसे अलग दिखानेके लिये उसपर एक थेशा ( 702 ) लगा दिया जाता है, जेला ऊपर चित्रमें दिखता दिया गया है। १०-- आती हुई ट्रेनॉंकों अन्दर लेनेके लिये कोई सिगनल चाहे होम चाहे आउटर आफ! नहीं किया जा सकता जब तक कि लाइन अ्रगले स्टाप सिगनल तक ही नहीं बल्कि उससे भी “नियत-दूरी ( 8 ]0]0/0780 [)548/]05 )” आगे तक बिल्कुल साफ न हो । यह नियत-दूरी इसलिये आवश्यक है कि शायद ड्राइचर कुछ तेज्ीमं हो ओर अगले स्टाप सिगनत्के आन! हालतमें होते हुए भी रुकते-रुकते, कुछ उससे आगे निकल जाय । यदि ऐसा हुआ, तो उस स्टाप सिगनलके बाद ही खड़ी हुई किसी ट्रेन था डिब्वेके साथ लड़ जानेकी सम्भावना है । परन्तु यदि उस स्टाप सिगनलके आगे भिश्रत-दूरी' तक लाइन ओर साफ छुटी पड़ी हैं, तो ऐेसी दुर्घटना न हो सकेगी । उस्र हालतमें जब लाइन अगले स्टाप स्लिगनक्त तक तो साफ हो, पर उसके आगे नियत-दूरी' तक साफ न हो, तो आती हुई ट्रेनको।आउटर था होम स्गिनलपर रुकना पढ़ेगा ओर उसके बाद आउटर था ह्रोम सिगनल आफ' किया जायेगा । इस दशामें अगले स्टाप सिगनल पर न रुक सकनेका डर नहीं रहता क्योंकि ड्राइवर जब रुकनेके बाइ फिर चलता है तो ट्रेनकी गति बहुत कम होती है ओर ड्राइवरकों पहलेसे ही इस बातका ज्ञान रहता है कि अगले स्टाप स्िगनलपर रुकना है । संख्या ? |] रेलवेनसिगनल २१ जाने बाली ट्रेनोंके लिये स्टाप सिगनल १९-- प्‌ स्थानपर 'क' से 'ख' की दिशाका रॉक-खण्ड आरश्म होता है ओर इस स्थानसे आगे 'क” स्टेशनपर खड़ी हुई ट्रेन बिना स्टेशन खा! की आज्ञाके आगे नहीं बढ़ सकती । हस स्थानको अ्रैकित करनेके लिये ५" स्थान पर का स्टेशनका अंतिम स्टाप सिगनल' लगा होता है। जब यह आफ! होता है तभी गाड़ी आगेके रोक- खरडमें प्रवेश कर सकती है। अन्तिम स्टाप सिगनल या तो 'स्टाटेर ( 5॥87/6' )' या एडवान्स्ड स्टाटर ( &तेएता0९ते ४६8॥27 )! कहलाता है| (३ जहाँ केवल एक ही लाइन हो और ट्रेनकों आगे चलनेकी आधा देनेवाला एक हो सिगनल हो, तो वही श्रन्तिस स्थाप सिगनल है और 'स्टाटर कहलाता है । (२ अधिकतर स्टेशनोके अन्दर ट्रेनॉंकों खड़े होनेके लिये कई पटरियाँ होती हैं । ये सब्र स्टेशनके दोनों किनारों पर मिलकर एक ही लाइन बन जाती है ओर फिर यह की ही लाइन आगे दूसरे स्टेशनकों जाती है। स्टेशनके अन्दर प्रत्येक लाइनपर गाडी चालू करनेके लिये अलग- अलग स्टार्टर रहता है। जब तक स्टार्ट आफ' नहीं होता, गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकती । थे स्टाटर ऐसी जगह लगे होते हैं कि किसी एक गाड़ीके चलने पर उसको बाकी - खड़ी हुई गाड़ियोंसे भिड़ जानेकी कोई सम्भावना नहीं होती । सब स्टाटरोंसे आगे जहाँ स्टेशनके भीतरकी सब लाइनें फिर मिलकर एक हो जाती हैं, एक ओर स्टाप सिगनल जो अन्तिस है, रहता है उसको एडवान्सूड स्टार ( 3तए७708त ७8/%87 ) कहते हैं । बानरका भयोग १९-- वारनर सिगनल भी आती हुई ट्रेनॉंकी सूचना देनेवाला ही सिगनल होता है और इसका प्रयोग उन मुख्य लाइनॉपर होता है जहाँ ट्रेनें अधिक गठिसे चलती 'क जा बॉनिर आऔफटर | मन ब्य छह +5 मा ० आम. रशनिनिनिलिक अत ज लीक धान | / 3304-9७. कथनपरमीक2५३००६४० ५३५ मनननननम>क«की 49५++49०७>३+-4+7 हैं और जहाँ आवश्यक है कि ड्राइवरोंके स्टेशनोंपर आनेके कांफी दूर, पहले ही यह सूचना दी जाय कि उसे अगले स्टेशनपर रुकना पड़ेगा या बिना रुके घढ़चड़[ते निकल जाना होगा । यदि ड्राईवरोंको यह खबर पहले न दी जा सके, तो उन्हें हमेशा इस बातका खटका लगा रहेगा कि कहीं स्टेशनपर कोई स्टाप सिगनल आन' न हों क्योंकि उस हालतमे उन्हें उस सिगनल पर रुकना पड़ेगा । इंस- लिये वे अपनी ट्रेनकी गतिको अधिक बढ़ाना न चाहेंगे । पर अगर उन्हें वार्नर द्वारा पहले ही पता चल जाता है कि आगे!उसःस्टेशनके किसी स्टाप सिशनलपर उन्हें रुकना है या नहीं, तो उन्हें यह गुंजाइश रहती है कि खूब. तेज 'चर्ले और वार्नरकी स्थिति देखकर अपनी ट्रेनको स्टेशनके किसी स्थाप सिगनलपर रुकनेके लिये तैयार रखें, था धदुधड़ाते बढ़ते चले । जहाँ आउटर प्िगनल्त नहीं होता वहाँ वानंर 'होस सिगनल' से प्रायः चौथाई मील पहले एक खस्मेपर लगाया जाता है और उसके संकेत पेरा ४ सि,ग) के अनुसार होते हैं । जहाँ आउटर सिगनल होता है वहाँ वार्नर सिशनल आउटर सिगनल' वाले खम्भेपर ही आउ- टर' सिगनत्के नीचे लगा दिया जाता है ओर तब उसके संकेत पेरा ४ (घ॑) के अनुसार होते हैं । उपरोक्त ८ से १२ पेरोंम) वर्णित कथनकों अधिक स्पष्टाकेश्नेके लिये अब|हम नीचे अंकित चित्रकी सहायता लेंगे । उसमें एक साथारण स्टेशन दिखलाया गया है। ओर उसपर साधारणतया जो आनेन्‍्जानेवाली टू ने मिगनल्ष दोते हैं, उनको दिखलाया गया है। सिगनल एक ही तरफ जानेवाली ट्रनॉके दिखलायें गये हैं। दूसरी तरफके उसी तरह दिखलाये जा सकते हैं | 'प स्थानपर आउटर ओर वानौर एक ही खस्भेपर लगे हुए हैं । 'फ' स्थान पर होम सिगनल्न है। इसमें ब्रिजपर ३ होम सिगनलोंके हत्थे दिखाये हैं जो स्टेशनके 8 छ। 35% --++#+: >> लता टफनपे धन... शेडचीन्सइ स्टादर _ > धटार्टर 'चिन्न ८ ९ श्र विज्ञान, अक्टूबर, १६४४ [ आग ६० अन्दरवाली ३ ज्ञाइनोंके अक्षग-अलग होम सिगनल्न हैं | इनमेंसे सबसे- बाएं हाथका सिगनल सबसे बाई" ओरचाली झाइनके लिये है, सबसे दाहिने दाथका सिगनत् सबसे दाहिनी क्षाइमके लिये है श्र बीचका ऊंचा सिगनलत क्षीधी ज्ञाइनके किये है । प' स्थान 'फा स्थानसे चौथाई मील पहले है। ब' स्थानपर जहाँ स्टेशनके भीतरकी तीनों लाइनें समाप्त होती हैं, अत्येक लाइनके लिये झलग-अत्य स्टाटर दिखलाया गया है | सब लाइलों- के प्रमाप हो जानेके बाद भा स्थानपर स्टेशनका अन्तिम स्टाप सिगनकत्ष एडवान्सूड स्टार (. तै५७708४ 96087+8/) दिखक्लाया गया दे । उपरोक्त चित्रमं आनेवाली गाड़ीके डाइवरकों प्रथम :प' स्थानपर आउटर ओर वार्नर दिखलाई दंगे। यदि दोनों आउटर ओर वानेर आफ हैं तो वह सम्रक जेगा कि आगेके सब सिंगनक्ञ आफ! हैं ओर उस स्टेशनपर रुकना नहीं है, निकणे चले जाना है । यदि आउटर आफ! है और बानर आन' है तो इसका अथ यह है कि स्टेशनके किसी स्टाप सिगनल्लपर रुकमेके किये तैयार रहो | टाइवर अपनी ट्रंनकी गतिको फौरन कम कर देगा और झुकनेके लिये तेयार हो जायेगा । यदि दोनों आउटर ओर वानेर “भ्रान” हैं तो उसे वहीं रुक जाना पड़ेगा । 'प स्थानसे आगे “फ स्थान पर होम है। यदि तीनों होम आन! हैं तो वहीं रुकना होगा। यदि उनमेंसे कोई भी हत्या 'आफ' है तो डाइवरकों पता चल जायगा कि स्टेशनके अन्द्रकी किस लाइन पर जाना है, स्रीधी कि बाई या दाहिनी ल्वाइनपर जाना द्वोगा । “जब” स्थानपर स्टाटर है। स्टेशनके अन्दर जिस ज्वाइन पर डाइवर है, जब उसका स्टाट्टर आफ' होगा तभी डाइवर आगे बढ़ सकेगा | 'भ! पर ऐडवबाखड स्टाटर होम ३ खेर कि मा 3 लि आय ण्पः घ्टारर है जो आफ' न किया जायगा और जिसके आगे कोई गाड़ी न बढ़ सकेगी, जबतक अगले स्टेशनसे आज्ञा न आ गई हो कि अब 'भ! से आगेके रोकन्ख॑इमें ट्रोन बढ़ सकती है । १३ इसी प्रकारसे दूसरी तरफ जानेवाली गा ड़ियके लिये सिगनत्र लगे होते हैं, नीचेके चित्रमें दोनों ओरके सिगनल लगाकर दिखाये गये हें । १४--उपरोक्त चित्नर्म दोनों ओरके सिगनल स्टेशनेकि बीचमें एक ही रेलवे लाइनपर दोनों ओर घचत्ननेवाली गाड़ियोंके क्षिण दिखलाये गये हैं। ऐसे सेक्शनको जहाँ स्टेशनोके बीच दोनों ओरकी ट्रेने' एक ही रेलवे-लाइनपर चलती हों सिंगिल-लाइननसेक्शन ( 5॥28] ॥.76 55९६0॥ ) कहते हैं। परन्तु उन सेक्शनोपर जहाँ नोकी संख्या ज्यादा दो वहाँ स्टेशनोंके बीचमें दो-रेलावे- लाइन बना देते हैं । जहाँ ऐसा होता है, वहाँ एक औओरफकी गाड़ियाँ एक ल्ञाइनपर ओर दूसरी ओरकी दूसरी ल्वाइनपर चलती हैं। ऐसे सेक्शनको डबल-लाइन-सेक्शन ( ॥000]8 ],[78 8७०४४०॥ ) कहते हैं । नीचे डबल लाइन सेक्शनपर स्टेशनके सिगनल्न दिखाये गये हैं । सिगनलॉपर स्टेशन मास्टरका नियंत्रण १५ - (क) गड़े हुए सिगनल हमेशा “आन' को स्थितिमें रखे जाते हैं। जब किसी टूर नको उनके हारा आने या जानेकी आशा देनी होती है तभी वे स्टेशन मास्टरकी आज्ञासे ही आफ! किये जाते हैं ओर फिर ज्योही टन पूर्णझपसे उस सिगनक्षके बाहर मिकल जाती है व्योंही वे सिगनल फिर 'आन' कर दिये जाते हैं। (ख) स्टेशन मास्टरकी यह ड्यूटी (कर्तव्य) है कि 'ह्टार्टर ऐड बोन्सड्स्टाटः 8 5 पर आजम लक हक शेड वोन्सडे-स्टाटर मशीन [| आऊटर वागर य ६ ४६४७३ ६ ६305 बे पट बखिन्र & संख्या १ ] रेलवे-सिगनल ह ३३ [] रे +०७५३००७०भ०----9> कि वानेर कब जा एडयोसडु-स्टोट२. मं ८०" बडा शाऊटः कफॉज ना ं शा नमी »# मिड / कक. द्व एंडवासड - घ्टी2 ध/. 4«> / ह | रे की 2 कलर आज १ धार बोनी होम चिन्न १० अब एक तरफसे दो या अधिक ट्रेनें एक ही साथ आती हों तो एक वक्तमे स्रिफे एक ट्रेनके सिगनत्ञ आफ! की स्थितिमें किये जाएँ ओर बाकी सब सिगनल आन” की स्थितिमें रहें। जब वह ट्रेन जिसके लिये स्रिगनल्न आफ किये गये हैं स्टेशनपर आकर रुक जावे, या अगर उस स्टेशन- पर न रुक़नेवाली गाढ़ी हो, तो उस स्टेशनसे आगे निकल जाय, तब हो दूसरी गाडी (ट्रेन) को स्टेशनके अन्दर लेनेक ज्िये सिगनल्ल 'आफ' किये जाय । (ग) स्टेशन सास्टरकी यह ड्यूटी है कि सूरज छिपने पर या उससे पहले, सब सिगनल्ञके लैस्पोंकी बत्तियोंको जलवा देवे, ये रातभर जलती रहेँ श्रोर उनकी रोशनी तैज रहे ओर लैम्पोंके सामने आनेवाले सिगनल्तोके लाल और हरे शीशे साफ रहें । ... (घ) रातके समय थ्षिगबलकों आफ करनेसे पहले स्टेशन मास्टरकों यद्व देख लेनेकी ड्यूटी है कि सिगनलके लैम्पकी बत्तियाँ जल रही हैं या नहीं | अ्रधिकांश सिगनत्ष स्टेशनसे कुछ दूरी पर द्वी होते हैं शोर उनकी सामनेकी रोशनी स्टेशन मास्थरकों नहीं दिख सकती | इसलिये ऐसा प्रबन्ध रहे. कि जब तक कोई सिगनल “आन' रहेगा तब तक उसके पीछेसे एक सफेद रोशनी स्टेशन सास्टरको दिखाई देती रहेगी | यह रोशनी बेक-लाइट ( 380 ६- ].200 ) कहलाती दे। जब सिंगनल आफ: हो जाता है, तब स्टेशन मास्टरको बेंक-लाइट नहीं दिखाई पड़ती इस तरहसे सिंगनलकी रोशनी जल रही है या नहीं इसका ज्ञान स्टेशन मास्टरकों रहता है । बिगड़ हुए सिगनल्त १३६-- (क) जब कोई सिगनक्ष बिगढ़ जाता हैतो स्टेशन-सास्टरका यह कर्तव्य है कि वह एकदम उस सिग- वलको तार खींचकर या किसी दूसरी तरहसे आन . स्थितिमं करवादे ओर वह स्रिगनल उसी स्थिति रहे जब तक कि वह ठीक न हो जाय । (सर) जब आउटर या होम सिगनल बिगढ़ जाता है तो स्टेशन मास्टरको पिछले स्टेशनोपर डाइवर्रोकों सूचना दिलवा देनों होती है ओर बिगड़े सिगमलपर आदमी तैनात करते होते हैं। इन मलुष्योका काम यह होता है कि दाथ-रूण्डियों ओर पदाखों द्वारा आनेवाल्ली ट्रेनोकों वही सूचना दें जो वह स्िगदल ठीक होनेकी अवस्थामें देता । उदाइरणा« यदि 'आउटर' (00887) बिगढ़ गया है, तो उसपर बैनात आदमी दाथ-रूण्डी इत्यादिके द्वारा होम स्िगनलपर दिये जानेवात्ने संकेतोंकों देँगे। अगर पिछले स्वेशनपर कोई गाड़ी चल दी हो झोर उसके ड्वाइबरकेा चहाँ खबर म की जा सकी हों, तो उसे बिगढ़े हुए सिग- नसपर रुक जानेपर लिखी हुई आशा देनी पढ़ेगी, या . किसी रेलवे कर्मचारीकी इस्लिनपर चढ़कर ड्राइवरको बिगड़े हुए सिगनक्ले आगे पार कराके के जाना पड़ेगा। अगर उपरोक्तमेंसे एक भी काम न किया गया, तो डाइवर अपनी ट्रेनके बिगढ़े हुए सिगनलपर खड़ा रखेगा ओर आगे न बढ़ेगा । जब एडवांसूड-स्टादर ( 3 त०७70९ ४ ६8767] बिगढ़ ज्ञाता है, तो वहाँ कोई रेलवे कमंचारी तैनात नहीं किया जाता, बल्कि जानेवाली गाड़ीके डाइवरके एक छिखा हुआ आज्ञा-पत्र दिया जाता है जिसके द्वोनेसे डाइवर बिगड़े हुए एडवासूइ-स्टांटरफो झान' स्थिति्में पार कर सकता है। रेछ विज्ञान, अक्टूबर, १६2४ डाइपरोंके सिगनल्लॉकी आज्ञा मानना अनिवाय 3७---(क) दाइवरोंके लिए सिगनलोंके विषयमें सर्व प्रथम! नियम यह है कि वह जो सिगनल उसके लिये हो उसकी आज्ञा माने, चाहे बह उस सिगनलसे दिये गये संकेवका कारण जानता हो था न जानता हो । (ख) इसके अतिरिक्त उसे स्िगनलों पर ही सर्वथा निभेर न हो ज्ञाना चाहिए, बल्कि उसे सदा चोकज्ना और सावधान रहना चाहिए । (ग) यदि उस जगह जहाँ फिक्सूड-सिगनल होना चाहिए कोई फिक्सूड-सिगनल न हो, या हो तो, पर ठीक- ठीक न दिखाया गया हो, तो डाइवरकों आज्ञा है. कि उस सिगनलका आन' स्थिति समझकर काम करे । (घ) अगर कुद्दासे, श्रघेरे, था किसी अन्य कारणसे (68. 6. ॥ 3१% ४3 लकड़ीके तख्तेकों जोड़ने।बाले गांदके गुणोंका वर्णन किया गया है । यह पता चलता है कि दूधके कैसीनके स्थान पर इसका उपयोग किया जा सकता है । पानी पर कोई प्रभाव नहीं पडता । और इसकी जुड़ाई बहुत शरराय तक खुलती नहीं मर गफलीके इस रक्षायनको; किस प्रकार बनाया जाथ इसकी विधि पुर्तिकार्मं बतलाई,गई हैं। व्यापारके लिये बनाये जाने वाले लकड़ीके परतदार चख्तोंके लिये गोंद बसानेके कई ओर नुरुखे अनुसस्थानशाला हारा प्रकाशित दूसरी पुस्तिकाश्रोंस पहले ही दिये जा चुके हैं । दूधके केखीनके स्थान पर इस वनस्पति-कैसीनको प्रयोग लानेके कारण ओर कुछ परिणामर्म दक्षिणी अमेरिकासे केसीनका आयात होनेके कारण भारतीय दूध के केसीनके बहुत बढ़े हुये मृल्योंमे कुछ कमी हो गई है । कोई सिंगनल साफ इश्गिचर न हो, तो ड्राइवरके आज्ला ४“ ")०77ल्‍7ू5ै37700:४555क्‍क्‍8+४+/+/++ दे कि जहाँ तक हो, सावधानीसे चले और रेलगाड़ीको पूरे अख्तियारमें रक्खे । + (3) यदि ड्राइवर सिगनलोंके संकेतोंकोी आज्ञा मानने प्रश्चान सम्पांदक- तथा उनके विषयमें पूरे सावधान न हों, तो बड़ी से बड़ी दुधेटनाओंका हो जाना मामूली बात हो जाय | इसलिए जब कभी किसी ड्राइवरके सिगनलके सखंकेतके उपेत्ता करनेकी रिपोर्ट मित्राती है, तो उसे सख्त सज़ा दी जाती है चाहे उसकी उपेक्षाके फल-स्वरूप काई दुर्घटना घटी हो या न थटी हो । परतदार तख्ते बनानेका उपाय बन्य अजुसन्धानशाल्ा द्वारा खोज युद्धजन्य परिस्थितिके कारण और विदेशोंसे परतदार तख्ते क्ञानेके किये जहाज़ों पर प्रतिबन्ध होनेके कारण भारतमें बने हुए परतदार तख्तोंकी माँग बहुत बढ़ गई है । उत्तम श्रेणीके परतदार तख्ते बनानेके लिये बढ़िया जोड़ाई करने वाले गोंदकी आवश्यकता होती है। चूँ कि दूधके कैलीनके आयात पर प्रतिबन्ध क्ञगा दिया है इसलिये चन्‍्य अनुसन्धानशात्ा द्वारा, प्रकाशित भारतीय जंगल हाय पुस्तिका न॑० ६७ में मूंगफलीले बनाये गये परतदार आम अर जो मुद्रक तथा प्रकाशक--विद्ववप्रकाश, कल्ना प्रेस, प्रयाग । ॥ विज्ञान--वाषिक मूल्य ३) डा० गोरखप्रसाद डी०« एस-सी ० #बक ७9१७३ छड़ ७ थ ०७49 9० 3३७+७५०३५०२७७०७७०७४०४५००७ ०७ क 4०४ ९७० ७ ०० # २४७ २१७कफमे क क | छ $ ७ फ़ ७ ७ ७ 0३० क न के क्‍ झा का कल कफओा सके क कसी आशा कक कफ कक कक किक पता श्रीयुत'* न न टाल नन्वन न 2 बल विज्ञान-परिषद्‌, प्रयागका झुख-पन्न विज्ञानं श्रह्मेति व्यजानात, विजश्ञानाद्ध्येव सल्विमानि भूतानि जामन्‍्ते । विज्ञानेब जातानि जीवन्ति, विज्ञानं प्रयन्व्य भिस्ंविशन्‍्तीति ॥। तै० 3० !६॥५। कम्केट के के के ॥ ३ के आजतक केक 3३३; आज डेट ओे लेप क आज पेज केले केपफ लेटे « भांग ६० | ई दश्िचिक, सम्बत » लक कम, संख्या २ सेबस्चर १६४४ वॉर के लॉप्पेह दर लत नर तरल: वर बे मर नजर तीनो, के मेप्लेई देर नीरज ले कई कह कैप्लेर नेई है दूजे: म६ नै मई औपतीर कै अलमूनियम [ क्ेखक-- श्रीयुत रामचरण मेहरोत्रा, एम० एस० स्री० ] आजले लगभग ६० बर्ष पूथें कोई भी विधि ऐसी न भालूम थी जिससे अलमूनियम धातु व्यापारिक परिमाण में तैयार की जा सकती | लगभग (८८० में फ्रॉसके दरबारमे स्थामके राजाको एक अल्लमूनियमकी घड़ी सेंट की गई थी और वह इस आश्वयंजनक दल्की धातुकी वस्तु पाकर अति असन्न हो गया था। परन्तु आज स्थिति इसके बिल्कुल विरुद्ध है, अलमूनियम संसारमें सबसे ज्यादा उपयोगी धातुश्रोमेंसे एक हो रहा है। सन्‌ १९३६ में संसार क्षमभग ५३ लाख दन अलमुनियम निकाला गया था | सन्‌ १६४१ में लगभग १० लाख दन और खन्त्‌ १६४३ में संसारमें निकाले गये अलमुनियमकी भांत्रा ३० लाख टनसे भी अधिक थी । अल्मूनियमके बगेर स्पिट फायर, ब्यू फ्राइटर; लैंकेस्टर; स्टलिज्ञ ऐसे भयानक लड़ाकू जद्दाज़ कभी इतने उपयोगी न हो सकते थे । आधुनिक हवाई जहाज़के भारका ७९: हिस्सा अल्लमूनियमका बना होता है। यद्ञपि आजकल अलमूनियम हवाई यंत्रेमें बहुत प्रयोग किया जा रहा है, परन्तु शांतिकालमें भी अल- मूनियमका इस्तेमात स्थल व जलमें चलनेवाले वाहरनों- में बहुत काफ़ी मात्नामें होने लगा था। इनके श्रतिरिक्त अंक्षमूनियम विद्युत-वाहक तारों और आधुनिक इमारतोंके कुछ भागोंके बनानेमें भी बहुत उपयोगी सिद्ध हो रहा था । इतनी उपयोगी धातु लगभग बीसवीं शताबदीके आरग्भ तक तैयार न की जा सकी, इसका कारण एथ्थी पर अलमृनियमके खनिर्जेकी कमी न थी। बढिकि यदि बहुतायतकी इष्टिसे देखा जाथ तो अलमूमियम प्रथ्वी पर सबसे अधिक मात्रार्मे ( लगभग ७०८०८ ) पायी जाने वाली धातु है । लोहा भी अलमूनियमसे बहुत कम मात्रा में मिलता है, परन्तु अलमूनियम लोहेके सदियों बाद भी प्रयागमें न लाया जा सका । इसके झुख्य कारण अक्वन मूनियम खनिजोंमें उपस्थित अशुद्धियाँ ओर उसके झुख्य खनिज वाक्छाइटको अपनचित करनेकी कठिनाइयाँ थीं । सन्‌ १८८६ में एक २२ वर्षीय विद्यार्थी सी० डब्त्यू० दालने मालूम किया कि बाक्साइट पिघलाये हुए क्रायो- लाइटमें आसतानीसे घुल जाता है ओर इस घोलके वैद्युत्‌ विश्लेषण द्वारा अलमुनियम धातु आखानीसे तैयार की जा सकती है। इस विधिसें प्रति टव धात्वीय अतमृनियम- के लिए लराभमग २६,००० किल्दोबाट-आवर शक्तिकी आव- श्यकता होती है! इतनी ज्यादा शक्ति को आवश्यकताके कारण यह स्पष्ट है कि ओद्योगिक व व्यवसायिक परि- | माणमें अ्रलमृनियम बनानेके लिये सबसे मुंख्य वस्तु सस्ती चैद्युत शक्ति है। अलमृनियमकी मुख्य खनिज, जो धातुको प्राप्त करनेके क्षिए इस्तेमाल की जाती है. बाक्साइट है। बास्साइटका सूत्र &).0., ० ४नि,० है और यह प्राय: अनेक अशुद्धियेसि मिश्रित होता ढे। बाक्पाइद फ्रांसमें बहुतायतसे मिलता है। बाकसाइटका नाम भी भ्रांखर्मे आस नगरके समीप जाक्स नामी ज़िले पर पढ़ा है । फ्रांसके बाक्साइटमें अलभूनियमकी माज्ना काफ़ी ज्याद होती है। फ्रॉसके अतिरिक्त अमेरिका, इटली, आयरलेण्ड, ब्रिटिश गिनी ओर दक्षिणी अमेरिकार्में भी बाक्साइट पाया जाता है। हिन्दोस्तानमें बाक्साइट मुख्यतः बाला- घाट ज़िल्लेमें बेहीर की वादीम, जबलपुर ज़िलेमें विजय- राघोगढ़ और कटनीमें, सतारा जिल्ेमें ओर कालादाण्डी, छोटा नागपुर, भूपाल ओर रीवाको रियासतेमें पाया ९६ विज्ञान, नवम्बर, १६४४ | भांग ६० जाता है। ब्रिटिश द्वीपसमूहमें बाक्लाइट कहां नहीं मिलता; वहाँ बाहरसे आये हुए बाक्साइटसे ही अलमूनियम बनाया जाता है। भारतमें पाया जानेवाला बाक्साइट काफ़ी अच्छी जातिका होता है। सखाधारणतया मारतीय बाइसा- इटमें 34, 0५, €००७०१/ तक उपस्थित होता है । हालांकि जमंनीमें 48३ ४-३८ तकके कालमें दुनिया- का केवल 322 बाक्साइट खोदकर निकात्ा गया फिर भी इस्र कालमें जर्मनीमें ओर देशेसि कहीं ज्यादा अलमृनियम तैयार किया गया। जमनीके बाद दूसरा नम्बर संयुक्त प्रदेश अमेरिकाका आता है ओर उसके बाद केनेडा ओर फ्रांतका | भारतवर्ष बाकलाइट इतनी मात्रामें उपस्थित होते हुए भी अ्रभी तक कोई ऐसा कारखाना नहीं है जो अच्छे परिमाणमें अलमूनियम बनानेमें सफल हुआ हो । जुग्गी- लाल कमलापत समूहका एक अल्लमूनियमका कारखाना आखसनमश्रोब्लसे ८ मील दूरीपर अवश्य खुला हैं । यदि यह प्रो तेज़ीसे काम करे ता एशियार्म जापानके एक का रखाने- को छोड़कर सबसे बड़ा कारखाना होगा। परन्तु अभाग्यवश कुछ कारणंसे जिनमें अच्छे हलके पानीकी कमी सबसे सुख्य है, यह कारखाना अभी , उस हृदु तक सफल नहीं हो सका है जेसा इसे होना चाहिये था । आसनसोल कार- खानेके अतिरिक्त एक अलथधूनियमका कारखाना ट्रावनकोरमें और है परन्तु यह कारखाना अपना बाक्खाइट खुद शुद्ध करके नहीं निकाज्ञता, बल्कि अमेरिकासे आये हुए बाक्साइट पर आश्रित रहता है । | अलमूतियम घातुका प्राप्त करता--अलमूनियम धातुको प्राप्त करनेवाले कारखाने दो मुख्य भागेमि विभा- जित होते हैं । पहले भागको 'अल्यूमिना घर! ओर दूसरे भाग को 'सेलघर! कहते हैं । अल्यूमिना घरमें कच्चे बाक्साइट खनिजको शुद्ध किया जाता है ओर वहाँसे प्राप्त शुद्ध अल्यूमिनाकों सेलघरमें ले जाकर वैद्युत्‌ विश्लेषण द्वारा विच्छेदित करके शुद्ध अल्ममृुनियम तेयार किया जाता है । अल्यूमिनाधरमें कच्चे बाक्साइटकी अशुद्धियोंको दूर करनेके लिये कई विधियाँ प्रयोगमें त्ञाई जाती हैं । ट्ूनमें मुख्य विधि 'बेयरकी विधि है.। बेयर-विधिमें अशुद्ध है. बाक्साइटको कारिटिक सोडामें घोलनेका प्रयत्न किया जाता हैं ओर जब कास्टिक सोडामें सोडा अल्यूमिनेटका घोल तैयार हो जाता है तो उसमें पानी मिलाकर और ज्यादा शुद्ध अल्यूमिनाकों डालकर शुद्ध अल्मूनियम हाइड़रो- . क्साइटको प्रच्नेषित कर लिया जाता है। आसनसोल्ञके कारखानेम भी इसी बेयर-विधिक्का प्रयोग किया जाता है। अऋरसमें एक दूलरी विधि 'सरपेक विधि बहुत ज्यादा प्रयोग होती है। इसमें भुख्य लाभ यह है कि अल्ममूनियम को पहले अलमूनियम नाइट्राइडमं परिवर्तत किया जाता है ओर इस अलमूनियम नाइट्राइडको पानीके साथ मिलाने पर शुद्ध अलमूनियम हाइड्रोक्लाइड ओर अमोनिया प्राप्त होते हैं । इस तरह इस विधिमें एक बहुमूल्य सहजातीय ( बाई-प्रोडक्ट ) पदार्थ अमोनिया मित्र जाता है । 'सेल घर' में बहुतसे बैद्यत्‌ सेलें एक श्रेणीमें लगी रहती हैं। अल्यूमिनाको वैद्युत्‌ विच्छेदित करनेके लिये भी कई विधियाँ इस्तेमाल होती हैं।. इनमें 'हालकी विधि' ओर हेरांउत्तकी विधि' मुख्य हैं। हाजकी विधिमें शुद्ध अल्यू मिनाको क्रायोलाइट और फ़्लोर-स्पार ( कैल्शियम फ़्लोराइड ) के साथ सेलोंमें ले ल्लिया जाता है ओर फिर बैद्युत्‌ तापद्वारा इस मिश्रणकों पिघला लिया जाता है। लगभग ६४०" सेग्टीग्रेड पर वैद्यत्‌ घारा बहने पर शुद्ध अत्ममृनियम कैथेड पर प्राप्त होता है। हेशाउत्त विधिमें क्रायोज्ञाइट या फ्लोर-स्पार कुछ भी डाला नहीं जाता बल्कि शुदछू अल्यूमिना ही इस्तेमाल की जाती. है । इस विधिकी विशेषता यह है कि इसमें साथ ही साथ ताँबे ओर अलमृनियमकी उपयोगी मिश्र धातुएँ भी तैयार की जा सकती है । अलमूनियमके उपयोग ६ - अल्भूनियम जब पहले- पहल बनकर बाजारमें आया उसको कोई विशेष उपये- गिता न थी। अलमृनियमस बने बरतन, धातुर्मे उपस्थित अशुद्धियोंके कारण बहुत जल्दी खराब हो जाते थे और उनकी चपड़ी बन-बनकर उखड़ने लगती थी। इसके अतिरिक्त धातु इतनी झुल्लायम हीती थी कि इसे किसी भी विशेष काममे न लाया जा सकता था | परन्तु अब शान्ति व युद्ध दोनों कालोंमें अपने निम्न गु्णोके कारण अलमृ- नियम धातु बहुत उपयेगी हो गई है । संख्या २ | अलमूनियम द ... २७ (१) अल्षमुनियम बहुत हल्की धातु है। इसका धनत्व लोहे या पीतलके घनस्वका लगभग 3 है, इसलिए वादु- यानों आदिके बनानेके लिए यह बहुत ही उपयेगी है । (२) अलमृनियमका मुख्य अवशगुण उसकी नरमी है, परन्तु इसकी दूसरी धातुश्रोके साथ जो मिश्र घातुए तेयार की गई हैं वह इस दृष्टिकोशसे भी बहुत उपयोगी हैं । उदांहरण के लिए एक मिश्र धातु ड्रालमनियम'! जिसमें लगभग ६५० अलमनियम, ४० ताँबा ओर १० मैग्नी- शियम ओर सैगनीज़ मिश्रित होते हैं बहत ही उपयोगी सिद्ध हो रही है। इसका मुख्य कारण इस मिश्र धातुका हल्कापन ओर साथ ही साथ कड़ापन है। कड़ेपनमें यह इस्पातसे भी ज्यादा है । ( ३ ) अलमूनियम अच्छा ताप-वाहक है इसलिए घरेलू कामके लिये बरतन इत्यादिके लिए बहुत उपयोगी है। ( ४ ) बरतनोंके कामके लिए इसका विशेष अचगुण यह है कि यह वायुमण्डलके प्रभावकों सहन नहीं कर सकता । परन्तु अब यह स्पष्ट हो गया है कि यह अवगुण शुरू अलमूनियममम काफ़ी हद तक दूर हो सकता है ओर विशेष तौरपर खुद अलमूनियमकी सत्तहपर एक बहुत . ही पतली तह अलमूनियम आक्साइडकी बन जाती है, जिसके बाद धातुपर वायुमण्डलका और प्रभाव नहीं पड़ता । आजकल अलमूनियमके इस गुणको भी काममें लाया जाता है। एक वैद्यत विधि द्वारा इस अलमूनियम आक्साइडकी तहकों ज्यादा मोटा कर दिया जाता है जिससे - वह वायुमण्डलसे बिलकुल प्रभावित नहीं होती । इसके इस गुणको जर्मनोंने एक मिश्र धातु 'के० एस० सीवासर” के बनानेमें इस्तेमाल किया है जो समुद्र के पानीसे प्रभावित नहीं होती । ( € ) अलमूनियम विद्यतका भी अच्छा वाहक है। यदि आयतनके दृष्टिकोशले देखा जाय तो अलमूनियमकी वेद्यत-चाहकता उतने ही आयतनके ताँबेकी वैद्यत-वाइकता से ६ होगी परन्तु भारके दृष्टिकोणसे अलमनियम ताँबेसे त ही अच्छा वैद्यत-बाहक है। इस गुणके कारण विद्युत्‌ वाहक तारोंके लिए अलमूनियमका उपयोग प्रतिदिन बढ़ रहा है। शांतिकाल्लमें अभिश्चित अलमूनियम धातुका उपयोग घरेलू बरतनों, विद्यतवाहक तारों, मोटरॉके बहुतसे हिस्सों ओर रेलॉके बहुतसे .भारगोंको बनानेमें बहुत चल गया था | हलकेपनके कारण अलमूनियसका पत्तर खानेव गेरहकी चीजों को ढकनेके लिये बहुतायतसे इस्तेमाल होने लगा था । शुद्ध अलसूनियम प्रकाशके परिवर्ततके लिये बहुत ही उपयोगी है । इस शुणका मुख्य कारण यह है कि चाँदीकी तरह अलमृनियम जल्दी वायुमण्ड्ञके प्रभावमें खराब नहीं होता और दूसरे यह अल्ट्रा वायलेट प्रकाशके परा- वत्तित करनेमें चाँदीसि अधिक अच्छा है। इन कारणोसे सन्‌ १६३४-३५ में माउंट विल्सनकी ६० और १०० इंची दूरबीनके तालों (लैन्ज्ों) पर अलसूनियमकी तह चढ़ाई गई थी, जो आजकल बहुत अच्छी तरह काम दे रही है | अलमनियमकी सिश्र धातुएं भी बहुत ही उपयोगी सिद्ध हो रही हैं। यह मिश्र-धातुएँ पिटाऊ और दज्लाऊ दोनों प्रकारकी होती हैं । इन मिश्र-धातुओंका मुख्य अब- गुण इनकी मुलायमियत थी, परन्तु १६०६ में जर्मन धात्वीय वैज्ञानिक डाक्टर अह्फोड वीनने मालूम किया कि यदि इन मिश्र -धातुओके! गरम करके बुक्चा दिया जाय ओर फिर कई दिनके लिए अलग रख दिया जाय तो इन तीन-चार दिनेंसे इनका कड़ापत बहुत अधिक बढ़ जाता है। वीनकी इस खोजने अलमुनियमकी मिश्र धांतुओंकी उपयोगिता सेकड़ों गुनी कर दी है। अलमृनियमकी मिश्र धातुओंका दूसरा अवगुण ग्रह है कि यह वायुमण्डलके प्रभावको उस हद तक सहन नहीं कर पाती जितना शदह अलमनियम | यह दर्गेश भी अब इन मिश्र-बातुओं पर लगभग देह इंच सोदा शुद्ध अलमृनियसका पत्तर चढ़ाकर दूर करनेका प्रयत्न किया गया है। इस प्रकारकी बहुतसी उन्नतियाँ कर देनेके बाद आज- कल अल्मनियमकी मिश्र-बातए बहत ही डपयोगी सिद्ध हे! रही हैं। इस मिश्र -धातुओंमें मुख्य ड्रालमनिय्रम' है जिसकी चर्चा ऊपर हो चुकी है । इनके अतिरिक्त मिश्र-धातु ओऔर ९. ॥., ७६ व ॥', '. ५७ उल्लेखनीय है। इनमें लगभग ६९४०८ अलमनियस, २-४०८ ताबा, १.2 निकेत्त मैगनीशियम ओर सिल्लीकान हे।तता है ओर इनका विशेष ध्ष्द विज्ञान, नवम्बर, १६४४ [ भाग ६० गुण इनका कड़ापन है। अलगूनियस थोगिकोके दूसरे उपयोग>--अल- मनियमके धात्वीय उपयोगेके अतिरिक्त भी ओर उपयोग हैं। बाक्साइट बहुतसे एब्रेज़िव बनानेके काममें लाया जाता है। बाक्साइटके एन्रेज़िव उसे वेधुत-भट्िवियोंमें पिघल्लाकर बनाये जाते हैं ओर बाजारमें एलण्डन, एलो- क्साइट आदिके नामसे बिकते हैं। अतल्लमृनियमके मुख्य योगिक जो बाक्साइटसे तैथार किये जाते हैं, सल्फेट दाइड्रोक्साइड, क्लोराइड और मिश्रित सल्फेट ( फिटकरी ' हैं। यह अलमृूनियम योगिक बहुतायतसे काग़ज़ बनाने, चमड़ा कमाने, पानीके शोधन, तेलोॉका रंग ओर बदबू उड़ानेके लिए प्रयोग किये जाते हैं | अलमूनियमकी उपयोगिता प्रतिदिन बड़ी तेजीके साथ बढ़ रही है। पिछड़े होनेके कारण आज हमको अनु- मान भी नहीं है कि युद्धके इम चार-पाँच वर्षो'में अल मुनियमके कितने नये उपयोग निकल्ष खुके होंगे। जैसा ऊपर लिखा जा चुका; हे, हमारे देशके कई भागे काफ़ी अच्छी जातिका बाक्साइट ग्राप्त होता है और यह स्थान अलमूनियमके कारखाने बनानेके उपयुक्त भी है क्योंकि बाक्साइटके पाये जानेवाले स्थानोके प्रायः आस- पास ही कोयला भी बहुतायतसे मिलता है और श्र पानीके भी प्राकृतिक प्रबन्ध हैं। अलमनियसकेा सस्ते दार्मोपर तैयार करनेके लिए सबसे मुख्य प्रश्न सस्ती बिजलीका है। आजकल इस ओर सरकारका कुछ ध्यान आकर्षित हुआ है ओर जलल-प्रपार्तों या दूसरे ज़रियोसे बिजली बनानेकी योजनाएँ बनाई जा रही है। अच्छा होता यदि इन बिजली उत्पादक यंत्रोंके स्थापनके समय इस बात का भी ध्यान रक््खा जाता कि विद्यत्‌ शक्ति अलमनियमके कारखानेमं भी आवश्यक होगी और इसलिए कुछ उत्पादकन्यंत्र बावसाहट पाये जानेवाले स्थानोके आसन्पास भी उपयुक्त स्थानोपर बनाये जाये । प्रगतिशील चिकित्साशासत्र [ लेखक--श्रीयुत जगदीश ] पेलोपेथिक सायन्सके विविध अंग्रोमें जो असाधारण उन्नति पिछुले कुछ वर्षो में हुई है, उसे देखकर आश्चर्य हा है () नम दोता है। नवीन अन्वेषकोके अज्ञत आविष्कारोंने जनता- को अचस्सेमें डाल दिया है । चिकित्सा केवल वानस्पतिक आपध तक ही सीमित नहीं रह गई; सूर्थकी रश्मियाँ, ज्-किरण, रेडिय हारा चिकित्सा करना, इत्यादि बहुत से नये इलाज प्रचलित हो गये हैं | परन्तु इस्त सबके होते हुए भी मानव समाजका स्वास्थ्य प्रतिदिन गिरता चला जा रहा है। जब इन सब अन्वेष्णोसे इम अ्रनभिज्ञ थे, तब मनुष्य कहीं अधिक स्वस्थ था, म्र॒त्यु-संख्या कहीं कम थी । नवीन चिकित्साकी प्रगतिके साथ मानवके स्वास्थ्यका भमापदण्ड ऊचा नहीं उठ सका है। इसके कई कारण उप- स्थित किये जा सकते हैं--यथा गरीबी. बड़े-बड़े नगर्रोकी अस्वास्थ्यप्रदु जलवायु एवं बातावरण : परन्तु इसके साथ वत्तमान प्रचलित ऐलोपेथिक सायन्स भी कम उत्तरदायी नहीं है । ऐलोपेथीके डाक्टर लोग जिस प्रगतिपर गर्व करते हैं, वास्तवमें चह्दी प्रशति' ही इस चिकित्साकी असफल्नता- का सबसे बढ़ा ओर स्पष्ट नमूना है। यूरोपमें इस चिकित्सा-पद्धतिके विध्मान होते हुए भी 'नेचरोपेथी' 'बायोकेमिक' तथा होम्योपेथीका उद्धव इसके प्रति उत्पन्न अग्रन्तोषका प्रत्यत्ष उदाहरण है । जिन परिस्थितियोर्में ऐल्लोपेधीका उद्धव हुआ था, उनके जान लेनेपर इस चिकित्साकी असफलताके कारणों- का ज्ञान हो जाता है। यूरोपमें ऐलोपेथीसे पूर्व थुनानी चिकित्सा' प्रचलित थी । इसके द्वारा रोगेंका शमन धोीरे- धीरे होता था । अतः एक ऐसी चिकित्सा-प्रणालीकी आब- श्यफता हुई जो शीघ्र ही रोगका निवारण कर दे। यह तभी संभव था यदि लाक्षणिक चिकित्सा की जाय । परिणा- मतः वनस्पतिके सत्व तथा कच्ची धातुश्रोंकी अधिकतम मात्रामें प्रयुक्त किया जाने लगा । इससे रोगके लक्षणोंको शान्त करनेमें तो सफलता मिली परन्तु रोग (दोष - की शान्ति न हो सकी । दोष किसी अन्य रूपमें प्रकट हो जाता था। फिर इन नये लक्षणोंकों दबानेके लिये नये तरीके प्रयुक्त किये गये । इस प्रकार डाक्टरों तथा व्याधियोंके बीच जो संघर्ष हुआ, उसीका परिणाम है--ऐलोपेथी । धीरे-धीरे डाक्टर लोग लाक्णिक चिकित्सासे घिझ्ुख होने क्गे | क्योंकि इसके द्वारा रोगका इत्लाज नहीं होता | शेष पृष्ठ ४४ पर | मास और धर्ष .. तारोफी पहचानके लिए भ्रूव और सप्तर्षिको किसीसे पूछुकर पहचान लेना चाहिए | फिर यहाँ दिये गये नकशों- मेंसे किसी एककों लेकर ( ऋतु और समयके अबुसार जो उचित पड़े ), ओर नकशेके किनारेके उस भागको नीचे रखकर जो आपके देखनेकी दिशाके लिए लागू हो, अन्य तारोंकी पदचान की जा सकती है। तारंसे परिचय प्राप्त करनेका काम पहले उत्तर दिशासे आरम्भ किया जाय तो जाने हुए ध्रुव तारे या सप्तपिसे सहायता मिल्लेगी । गणित-ब्यांतिष भारतवर्षमं तिथि-नक्षत्रोंका इतना प्रचार है कि सभी भारतीयोंकों जानना चादिए कि ये क्या हैं । पढले ही मोटे एक तारान्पुञ्ञ । तारा-पुझमे हजारों तारे एक साथ ही दिखल्वाई पहले हैं ओर दूरद्शंकर्मे बे बहुत सुन्दर जान पढ़ते हैं । - भाग ६०. संख्या २ | ३६१ हिसाबसे बतलाया जा चुका है कि वर्ष क्‍या है, परल्तु सूक्ष्म रीतिसे देखा ज्ञाय तो दो तरहके वर्ष लिये जा सकते हैं। किसी एक तारेसे बलकर सूर्य फिर उसी तारे तक कितने समयमें ल्लोट आयेगा इसको एक नाक्न्न वर्षो ( तारों वाला वर्ष ) कहते हैें। परन्तु तारोके हिसाबसे सूयका चक्कर लगाना इमारे लिये उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना ऋतुओंका त्ोट आना । इसलिए साधारणतः पक बरसातसे दूसरी बरसात तकके समयको ही व कद्दते हैं, यां, थदि इसका कोई विशेष रूपसे बोध कराना चाहे तो हुसे साथन वर्ष कद्दते हैं । श्रयनका अथ है जाता । उत्तरॉन यनका अर्थ है उत्तर जाना; दक्षिणायनका श्रयं है दश्षिण जाना । प्रति वर्ष २३ दिसबरके क्गभग सू+ उत्तर जाने करता है। उत्तर यात्रा आरम्भ द्वेनेके ुणसे उत्तरायन आरभम्भ होता है छः महीने दाद, लगभग २३ जूनको सूर्य उत्तरी ओर भद्ठत्तम दूरी तक पहुँच जाता है भोर तब दुरुण जाने क्गता है | जिस जणसे सूर्य दरुण जाने लगता है उस ७णसे दलिणायन आरम्भ होता है। पुक उत्तरायन-आरं भसे दूसरे उत्तरायन-आरम्भ तकका समय एक स्ायन ब्ष है | ध्यान देने योग्य बात यह है कि नाहत्र वर्षो और सायन वर्षमें लगभग २० मिनटका अन्तर है । यह बात प्राचीन ज्योतिष्यिेंकों ज्ञात नहीं थी । उस समय सायन वर्षका मान भी इतनी सूक्ष्म रीसिसे ज्ञात नहीं था जितनी श्राज-कल् । इनन्‍्हां फारणंसे प्राचीन ढंगसे गणना करने पर सब बातें श्रांज ठीक नहीं उतरतीं । यद्ष समझ कर कि प्राचान पद्धतिका स्यांग अधर्म होगा हमारे अ्रधिकाँश पंचांग श्राज भी कई अंशोम प्राचीन ढंगसे बनते हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि जो त्योहार पहले उत्तरायन- झारम्भके अवसर पर मनाया जाता था श्राज २२ या २३ दिन बाद मनाया जाता है। कालिदासके समयमें जो ऋतु कुआरमें रहती थी, वह अब भादेमि रहती है--या यों कहें कि ऋतुके अनुसार जिस मद्दीनेको हमें कुआर कहना चाहिए उसे गणनाकी गढ़बबीके कारण दम भादों कहते हैं। भ्भी तो बह. श६२ छगमग २३ दिनका ही अन्तर पड़ा है, परन्तु यदि कोई घुधार न हुआ सो अन्तर बढ़ता हो जावगा । इसमें अंदृइ नहीं कि बषकों क्ोगनि बेशिक कालसे ही ऋतुओंसे खंबंतित रतखा था। वे शब्द स्वर बा या बरसातसे रबंध रखता है। घदके लिए अन्य परयवाची शब्द हैं अब्द, वस्तर, शरद और हेमंत । स्पष्ट है क इन पघबका अंतुओंसे संबंध है। उचित जान पड़ता है कि हम अब वर्षका ऐला मान घुनें कि ऋतुओं और महददीनेंका संबंध बना रहे - हम भावष्यमें भी सावव-भादों उन्हीं मदीनोंकों कहें जिनमें पानी बरसता है । पृथ्वीके पुक बार अपने अज्ञ पर नाच लेने एक दिन- रातके बराबर समय छगता है, सूथकी एक प्रदर्टिणा करनेमें एक वर्ष । फिर, चंद्रमा हमारी पश्वीकी प्रदर्षिणा एक सासमें करता है । इस प्रकार हमें दित, मास और वर्ष प्रकृतिसे मिलते हैं। ये मनुष्यके गढ़े माप नहीं हैं। यह इमारे वशमें नहीं है कि हम चंद्रमा को शाज्ञा दे दे' कि वह इस वेगसे चले कि एक भाससें पूरे-पूरे तीस दिन पड़े, था एक वें पूरे पूरे बारह चांद्र-मास रहें | वस्तुत: एक मासमें--एक पूर्णिमासे दूसरी पूर्णिमा तकके समयमें--लगभग २४३ दिन होते हैं; सच पूछा जाय तो पूरे २६३ दिन भी नहीं, २६ दिन १२ घंटा ४४ मिनट २९७८ सेकंड । यदि हम ठीक उसी क्षण मद्दीना बदला करें जिस छंण पूणिमा होती है तो बद्दी आदि रखने प्राचीन संदिरोका अवशेष बाझुल श्ाग उचे-ऊचे स्थानोपर मंदिर बनाते थे और उनकी दछुतेलि ज्योतिषका बेघ किया करते थे । सूर्य, चन्द्र, मे और नत्तत्र ल्‍ पय7०35६/१७/ शत :45 208 जल पक >थद् | में बड़ी कठिनाई होगी। उदाहरणतः » दि इस चुण सावन दे तो संभव है आगामी «शर्म भादों रहे, क्योंकि पुणिमा के हॉनेका समय दोपहरके हिस्ाबसे कुछ बेँधा तो हैं नहीं । अह घटना दिन-रातके किसी भी रुणसें हो सकती है । इक्ष अइंचनका कया उपाय किया जाथ ? हमारे प्राचीन ज्योतिषियोंने यह उपाय किया कि किसी महीने में ३० दिन रहें ऑर किसीमें २९५ दिन, परंतु उनका ऋम इस अकार रहे कि मासका आरंभ यदि एक बार पूणिमासे हो तो बराबर मालद्ारंभ लगसग पूर्णिमासे ही हुआ करे। दृसलिए उन्होंने सूक्ष्म वियम बना दिये जिनका आधार गयित ज्योतिष ही था। इन नियर्मोका सार यह है कि भहीने तीख्त दिनके हों, परंतु जब कभी एक दिनसे अधिक- का अंतर पड़ने वाला हो तो एक तिथि छोड़ दी ज्ञाय | यही कारण है कि कभी-कभौ एक लिथिका “ूय? हो जाता है । उदाहरणत:ः, ऐसा हो सकता है कि तृतीयाके पश्चात्‌ चतुर्थी न आकर पंचमी आ जाय । इस प्रचार लगे काला- बधिसें महीनेकी लंबाईका परता वही पढ़ता है जो प्रकृतिमें हैं। अब स्पष्द हो गया होगा कि भारतीय” महीनों और दिनोंका समन्वय केसे होता रहता है । कुछ कसे ठीक पूर्णिमाके छण पर ही किये जाते हैं । उदाहरणत:, होलिका ठीक उस क्षण जलाई जाती है... था जलानी चाहिए--जब फाल्युन की पूर्णिमा होती है। उसी क्षण पुराना घर समाप्त समझा जाता है। यही कारण है कि प्र्येक वर्ष होलिका एक ही समय नहीं जलती । कभी राजत्रिके आरंभमें हीःजलती है, कभी बहुत रात बीते । महीनों ओर वर्षका समन्वय करनेकी रीति भी बड़ी सुन्दर है। साधारणतः १२ महीनेका वर्ष रक्‍्खा जाता है पर॑तु वर्ष वस्तुतः ११ भहीनोंले लंबा है। इसलिए लगातार एक वर्में १९ महीने रखनेसे घीरे- धीरे अंतर बढ़ ज्ञाता है। जब लगभग एक महीनेका अंतर पड़ने बाला रहता है तो भारतीय प्रथा यह्द है कि एक महीना बढ़ा दिया जाथ। इस फालतु महीनेको अधिक मास, अधिसास, मलमास, या लौंदका महीना कद्ते हैं । जिस वर्षमें एक अधिक सास पड़ता है उसमें १3३ मद्दीने हो जाते हैं। उस बर्षमें दो सावन था दो राशि और नक्षत्र भादों या अन्य कोई महीना दो बार रहेगा। पूर्वाक् नियमससे बारह ओर तेरह महीने वाले वर्षा'का क्रम इस प्रकार पड़ता है कि चाहे कितने भी वर्ष बीत जाये, ऋतुओं और महीनोंका संबंध नहीं हटने पायेगा । यदि कालिदासके समयमें पानी बरसने बाले दो महीने सावन-भसादों कहलाते थे तो आज भी वे सावन-भादों कहलायें गे--- वर्षमानकी भ्रटिके कारण कोई गड़बड़ी पड़े तो बात दूसरी है। सुसलमानोंकी पद्धतिमें यह सुन्दरता नहीं है | उनका महीना ऋतुओंके हिसाबसे बदलता रहता है। यदि सुहरंमका महीना--वस्ततः महरंम उनके एक महीने का नाम हेन्--एक वर्ष बरसातमें पडता है तो कुछ व बाद वह गर्समें पड़ेगा, फिर जाड़ेमे और लगभग ३३ वर्ष बाद वह फिर बरसातमें पढ़ेगा। कारण यह है कि वे प्रत्येक धर्षमे १२ ही चांद्रमास माचते हैं । राशि ओर नक्षत्र एक घथमें लगभग १२ महीने होते हैं। इसलिए प्राचीन ज्योतिदियों ने सूके मार्गको ठीक बारह बराबर भागमे बॉँट दिया ओर उनका नाम रख दिया। उनके नाम हैं मेष, व्रूष, सिधुन, कक, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक. घनु, मकर, कुभ ओर सीन । यदि आँखसे यह देखा जा - सकता कि सूर्य इनमेंसे किस भागमें हे--दूसरे शब्दमें, सूर्य किस तारा-समहमें है--तो तुरंत पता चल जाता फि फोन-सा महीना है। यद्यपि सर्यके तेजके आगे तारे छिप जाते हैं ओर इसलिए सीधे यह नहीं देखा जा सकता कि सू्े किस शशिमें है, तो भी सूर्यादयके पहलो पूर्वीय जसितिजके पासके तारोंकों देखकर ( या च॑द्रमाकी स्थिति देखकर ) अनुमान किया ज्ञा सकता थां कि सूर्य किस राशिमें है। अर्त्य॑त प्राचीन कालमें, जब्र कोहे विशेष य॑त्र नहीं थे, इन्हीं मोटे ही बेघोंसे पता लगाया गया था कि एक चर्षमें कितने महीने या कितने दिन होते हैं । यच्पि एक पूणिमासे दूसरी पूणिमा तक लगभग २६३ दिन होते हैं, तो भी तारोंके. हिलाबसे चंद्रमा ऐड | ज्योतिषियोंने चंद्रमाके मार्कको ( ओर स्मरण रहे कि आकाशमें चंद्रमा ओर सूर्यके मार्गमें अधिक अंतर नहीँ हैं; २७ बराबर भागेमिं बाँठ दिया था और गस्येकका नाम रख दिया। ये ही हमारे “नक्षत्र' हैं, जिनके नाम हैं अश्विनी, भरणी, कृत्तिका आदि& । भ्रत्येक नक्षत्नके चम्र- मंदिर या बेघशाल्ा ! बाबुल लोग ऊँचे-ऊचे मंदिर बनाया करते थे :० १ ओर उनकी छुतों परसे आकाशीय पिंडोंका बेच किया करते थे । ... #नक्तन्न शब्दके अब तीन अ्थ हैं (१) कोई तारा, (२) चन्द्र-मार्ग का सत्ताइसवाँ भाग, ओर (३) चन्द्र-मार्ग के सत्ताइसवे भार्गमिंसे किसी एकका प्रसुख तारा या प्रमुख एुक चक्कर २७४ दिनमें ही लगा लेता है। इस प्रकार ; तारोंका समूह । प्संगसे पता चल जाता है कि कहाँ क्या मोटे हिसाबलसे चंद्रमा किसी तारेसे चलकर उसी तारे अर्थ है, परंतु यदि उन तारोंका बोध कराना हो जो किसी सक २७ दिनमें लोटता है, इसीलिये प्राचीन भारतीय | सत्ताइसवें भागमें पड़ते हैं तो उनको तारा-समूह न कटकर आग ६०, संख्या २ ] औ१ ३६४ सूर्य, चने, गह और नक्षत्र कीले तारेका नाम भी यही है शो नदन्रका है भौर यदि किसी नक्षश्नमें एक तारा नहीं है तो दो-चार तारों को मिल्लाकर उन्हें ही नत्तन्र धाला नाम दे दिया गया है| इन तारेके ज्ञानसे श्राकाशकों देखते ही पता चल्नता था कि आज चन्द्रमा किस नक्षअर्मे है। नणत्रोंकों बराबर देखते रहनेसे इमारे प्राचीन झाचाय॑, बिना यंत्रोंके ही, चन्द्रमाकी गतिको श्रच्छी तरह जान गये थे। इमारे पंचांगर्मि झ्राज भी चन्द्रमाका नक्षत्र छुपा रहता है, परंतु ख्ेदकी बात है कि इमारे अधिकांश फल्षित ज्योतिषी--- यहाँ तक कि कुछ पत्रा बनाने बाले भी--इहन बातोंका मोक्षिक अर्थ भूलन्से गये हैं। वे आचीन ऑकड्रॉकी ही द कद लकी मु डा ि नन् ० न हम | ही] ५, अं" ५ ये बी (दहशत हम, हक के ४ ८१० 88६0 * ४ , ५ टिकआ | 7 5,आाक है ४ #क रे छेकर गणना करते हैं, चाहे उनसे उत्तर कितना भौ क्यों न अशुद्ध निकले | प्राचीन अकडोॉसे पहले उत्तर शुरू निकलता था। परंतु अब उत्तर शशुद्ध निकश्तता है-..- क्यों, यु नीचेके प्रकमसे सममझमे झा जायगा : अब तो कई घंटोंका अंतर पढ़ जाता है। यदि पन्ना कहता है कि चन्द्रमा अश्वनीले भरणीमें झाज ११ बजे रात को जायगा तो संभव है कि बस्तुत: वह इससे दस्त घंटे पहले या दस घंटे पीछे अश्विनीसे निकले ! प्राचीन प्रणाली अत्र क्‍यों नहीं शुद्ध उतर देती भिन्षों और दशभखतवोंके मकटसे बचनेके लिए इसारे 'प्राचीन गाधायनि बढ़ा सुन्दर हंग निकाला था। यह पा 2 बतलानेके बदले कि च॑द्रमाके एक चछुएमें इतना का हि दिन, इतना घंटा, इतना मिनद इतना दशसखव पा हतना, इतना, इतमा सेकेंड समय लगता है उन्होंने रे. एक लंबी अवधि ली ( जिसे उन्होंने युग कहा)! ओर गा बतला दिया कि पक थुगर्मे चंद्रमा कितने पक्कर 2 2 लगाता है। यह प्रथा बहुत-कुछ वैसी ही थी जैसी < आज भी हमारे ब्राजारेंमें काममें आती है। यह ४ कहनेके बदलते कि एक अमरूदका दाम है पेसा या का ! * ०४ पैसा है खटिक यही कह्देगा कि दो पेसेमें पाँच सर व अ्रमरूद मिलेंगे । रुपयेमें तेरह या चोदह आम भी न पी पट श्य बिक सकते हैं | इसी प्रकार हमारे आचायाने भी है आम आ, सह हा पका 0 5800 हे या जुना । अहाहजगात: हमारी जगदू विक्थात अल नी 2४29 ३३६ बार चक्षर !ताराके हिसावसे) लगाता है। युग ह मा ४० टेक जितना ही बड़ा होगा घंद्रमाकी गति उतनी ही सूच्म शड 5 24! बल कक . पा 2 मु] ःफ,, न है ७ भे ७5 ५ और+ कंन ५? हे शक “कह अली यम के ला 5० 2 का हि ब्अ डॉ है, ? + हु, ० 3007 6 08 4५.» “.॥ हि का डे है050 ४: पके पाक ० ५8 हक 2 कल 7 हा 72७ # 46 ६. 5 6/* «कक 8 १ प्रा का औी कदपार ४ बी अदा पुन के हु लक ए हे ये कक पा हहक कर हु जा लि 8 (ही. न जद 8 0 कर शक 4# %. _>है न, कर हा के 2. ते ॒ मई | सम रस्न्क् स्ड 5. रे हार 5 जि 297५ "4 हल, ८6 «हर कर 4७ ८ + 2५ है] #> छु ७ ही ० है) हम रे हट के हल भर #, ५2. 6 ला हक |! है; डक कप क्छ हे कह ः ही ज्यट + 9६ कर कक है शत 0 कक ५ पे हे दो की । की यत, ग 5० पा का कै 6 कल ६7९:५४ | «४ & ही हि टला हे कि, मजा (४४.4 “ 5 « 63 $ गे ग् हे के पद, 87०५ ४२२ 5 जा " ऑल न- है +' ० ड्‌ ५०५ ६ हि पीकर | 75. है ! अर; 6 मी कक 7 काल. ५ २०३६ न» अंमबेप४० <घ०० अत ७ + विशोक, अनीे के »-फलड़ी। / ताज * झंबर नरेश महाराज सवाई जयसिंह द्वितीय तारिका-पु'ज कहना चाहिए, क्योंकि तारा-समूइ शब्द को उन बढ़ेब्बढ़े ८८ समूहोंके लिए पृथक कर रखना उचित होगा जिनमें सारा आकाश बाँट दिया गया है | >क कप 8. ५5०8. रीतिसे बतलाई जा सकेगी । इसीसे युग बहुत छंबा लिया जाता था । | मम लक मम डी चैद्रमाके चल्वनेका वेग तो पूर्वाक्त ढंगसे जात हो गया, पर॑तु यह भी तो जानना शरवश्यक हैं. कि आरंभमे चंद्रमा कहाँ था । आरंभ' का अर्थ क्या है ? किसी भी छणको आरंभ काल माना जा सकता है, परंतु सुविधाके लिए इमारे आचायोने ऐसे चणको आरंभ काल साना था जब सभी ग्रह, सूर्य ओर चंद्रमा एक बिंदु पर या जय[तिहकी वेधश।लाएँ प्रायः एक दिंदु पर थे। इसीको कल्षियुगका आरंभ कहते थे। यह दिन सन ३१०२ ईसासे पूर्वकी फरवरीकी तारीख ' १०, १८ की अधेरात्रि थी । अब चंद्रमाकी गति भी सालूस है, प्रारंभिक स्थिति भी ज्ञात है ओर यह भी कि आरंभसे आज तक कितना समय बीता ; थोड़ी-सी राणना से पता चल ज्ञाता है कि आराज चन्द्रमा आकाशके किस विंदुपर होगा । इसी भार अन्य भ्रहोकी स्थितियोंकी भी गणना होती है । परंतु इस रीतिमें विशेष सुभमता होते हुए भी एक अवगुण था। वढ़ यह कि ज्यों-ज्यों मूलबिंदुसे अधिक समय बीतता गया। त्पॉ-्यों गशित-शिद्ध स्थान हृटि घढ़ती गयी । कारण यह था कि चन्द्रमाका वेग चाहे कितनी भी सूक््मतासे क्यों न बंताण जाय, कुछ-न-कुछ ब्रुटि उसमें रद्द दी जाती है, या तो बेनोंमें असावधानौसे, या यंत्रोंकी स्थृत्वतासे, या युगके काफी बड़े न रहनेसे । परिणाम यह हुआ है कि उन्हीं पुराने अंकोसे गणना करने- से आज वही सचाई नहीं आती जो इन नियमेंके बननेके समय आती थी । | बात बहुत कुछ वैसी ही है जैसे किल्रीके पास घड़ी हो भी घढ़ीकी रेट इतनी सच्ची नहीं की जा सकती कि धर्ष भर बराबर चलने पर भी मिनट, दो सिनटका अंतर मे पड़े । किसी घड़ीमें हजार, डेढ़ दज्ञार वर्षम भी कुछ अंतर न पड़े यह बढ़े आश्चर्यकी बात होगी । इसलिए यह आशा करना कि प्राचीन अंकोसे ही हम बराबर काम चला सकेंगे बड़ी भूल होगी | हमारे प्राचीनतम आचार्य के अकर्मे कई प्राचीन आचाया' ने सुधार किया था। अंतिम सुधार सन्‌ १४६६ भें गणेश देवज्ञ नामक ज्योतिदीने किया था। परंतु आज-कलके पंडितोंकी हठधर्मी कि अब सुधार नहीं होगा चाहिए--कुछ तो गशेश देहझके सुधारोंको भी छोड़ देते हैं--आश्वयजनक है। यह तो चैसा ही होगा जैसे कोई कहे कि हमारी घदीको हमारे प्रपितामहजी चला गये थे और दीक कर गये थे। अब जो यह घड़ी समय . बताते वही ठीक है। इसकी सुईकों आगे बढ़ाना पाप है, हमारे प्रपितामहजीकी इससे माक कट जायगी ! चक्कर लगानेके समयकी भगशकाल कहते हैं : भगण- कालमें त्रुटिके कारण ही अधिक अंतर पड़ता है पर॑त कुछ अंतर इसलिए भी पढ़ता है कि हमारे प्राचीन आचार्यो- की गणना-विधि इतनी सूच्म नहीं थी जितनी आज-कक्- की ओर उनको आकर्षण-प्रिद्धांत ज्ञात नहीं था कि उसके ओर वह बराबर चलती रहे । सब कुछ उपाय करने पर । सहारे वे आकाशीय पिंडोंकी स्थितियाँ निकाले | फू ६. कि ठ | रे है श व अर खि हा ५ 7७ कि 5० हट 2३४. बॉ पे ५ ह ब्ध् हक ३६ प हे 24] | “३ ड्र्त :५४य( 7५ सूछका ्छ 5 | हू? /.. ६6 डर "रद डी -ज हर, ५३ ब्बर बढ 9५ 64 4 फ्कीपद हम अत. 5 0 4 का 5 2 जर न कु हे 9. ढआा रु आज 2 हक जप |. हि व कक ' रे ड 4 है. अप 38 े हक कै अं. ' हे हल $:% # न ७! लि /अमबों 90.3 थे ल्‍्ष्फ्ि प्र 2 बडा ध् * हे ह] ब्ो मम , न क्र हि *६$५ ५ हु + कआााइ पा पथ एके 24:08 पक मच 2 88, 5 डर सम्राट यंत्र भाग ६०, संख्या २ | | * अयमिहकी वेधशालाएँ अंजर-नरेश महाराज सवाई जयफिंह द्वितीयने ( सत १६४ ६- १७४३ 3) प्राक्चीन ज्योतिषके सुधारके लिए सूचम बेघ करनेका “-तारों ओर चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह शादि की.स्थितियोंको मापनेका--- अवश्य प्रयत्न किया, परंतु कुछ सुधार हो नहीं पाया, क्योंकि के ६2 8! 4484 गि ब्ू $ मद अ हर है कण की के ह क्री 2 थ्‌ का रहा छत ४० / 30 ्रगय |! ! 2 ४, जा ले कर रे पक जम हसरों उनके बे्धों अर रणयनाश्ष ह रे कल नमाज छुकर हा 5र्ी 6 हु क है न णी ह० जन 4५ ५-* न्‍छ 44007 एन ५" मे अर, ः हे ब्रज तक हक (विषनप७ का वी हे. हनन से लाभ नहीं उठाय ने आग, 5 पु रे ;ं ५ न प्‌ हे > हैंड बनवाई बेघशालाएं दिहली, जय- पुर, उज्जैन ओर बसारसमें अब भी वर्तमान हैं श्रौर देखने योग्य हैं। कुछ यंत्र तो प्रचलित सुसलमानी झई ६६ सुंथ, चन्द्र, भेंह और नक्षेश्र य॑त्रोंकी मकल थे, परंतु तीन यंत्र पूर्णतया या अंशतः बेलनाकार सतहाोंपर चिह्न बने रहते हैं जिनसे दिनमें तुरंत नवीन थे। ये थे सम्राट यंत्र, जयप्रकाश और रामयंत्र । ठीक समयका ज्ञान हो जाता है। दीवारकी कोर भी अंकित सम्राट यंत्र बहुत ही सुन्दर यंत्र है। इसके बीचमें दो रहती है; बेलनाकार सतहकी छोरपर आँख लगाकर समानांतर भीतियाँ रहती हैं जिनका ऊपरी छोर ठीक ओर यह देखकर कि दीवारकी कोरके किस विंदुकी सीधे श्र वकी ओर रहता है। अगल-बगल अर्थ-बेलनाकार सतहें कोई तारा दिखलाई पढ़ता है तारे या ग्रह आदिकी स्थिति होती है जिनपर धूपमें भोतके छोरकी परछाई पड़ती है। भी जानी जा सकती है । ; ५८२ पर ४ 28 कप, मम, ह8 पक (४० ए पल आफ । है... ३ ऑई”हं नल न सन "णु। ः 'कण्ूननाण 'कॉ एन णात 8५४९ 7078 “पाए, पाया: टपदापटएए एप, पट पएउशाश दा एएफएए ए "गर १080 लाए का शश पाक भर ॥3,2५ 22 रो, ! गई! ४ है हि हि न छ के #धटा | अपर ० ड्ड भ &०), ॥/ 0 ५72४ १ (की को 3०! मु ५ । के अपर) "' ् / हा १2 जजों 0 फ के थे, ० 6 सन! रे ४ ९ पे; १० १! ५ ५ मर ओ। ० ककया पटक 26 0 7 ४८ के गा 0 70४ 2 [800 & कक जग + ५ पी ६ का 2! ५ फर्क 7 5 9 हों स भर फ १84५00.॥ ५ 3007 / 277 ॥ ज्योतिषक्ा संज्विप्र इतिहास भारतीय ज्योतिष--वेदोंमें ज्योतिष सम्बन्धी कुछबा तोकी चर्चा है ओर ब्राह्मणोंमे यज्ञ आदिके संबंध कई ज्योतिषिक बातें हें, परंतु सबसे प्राचीन ज्योतिष-पुस्तक ज्योतिष वेदंग है जो आज भी आाप्य है। थह लगभग सन्‌ ,. १७७७ टू पू०७ की लिखी हुई द है। इसमें तिथि आदिके संबंधमें ८ नियम दिये गये हैं। कुछ स्थूलता श्रवश्य है, परंतु यह आइचयंकी बात है कि उतने प्राचीन समयमें क्‍ हिल के भी तिथि शआादिकी गणनाके लिए ५ अच्छे नियम दिये हैं। . _-+# :. न है] कप ०४% ३728 0, 72 कल 2:2५ के रे पा पाप > ि १ हर ५ 4७ ; कई कम ही 72070 “उयोतिष बेदांगके बादकी:कंई . ४ 2, ३8 कम पक आह ४ जि जा ८ ४2% (हे मि ४ रू ढंग ३ 0५ फैन ककाणा हे 5 +ह॥क हि + कप ४ न पुस्तकीकों इम केवल मामसे जानते. हैः रे 5 । ० ः . रा 3 5 पं एक 5 5... हैं क्योंकि उनकी चर्चा पीछेकी ; कम 7 ' 3 | रे पक 8 हि 5 रा पुस्तकरमं आ गयी है परंतु वे अाक म ही का पा मा ः | मे शब लुप्त हो गयी हे । प्राष्य ला 8 मी ये पा , पुस्तकॉमेंसे ज्योतिषवेदांगके बाद हे 7 रा वरामिहिरकी प॑चसिद्धांतिका है। यह पुस्तक लगभग सन्‌ ५०० डूँ० सें लिखी गयी थी । इसमें पाँच सिद्धांतका सार दिया गया है न्‍ 2, जिनमेंसे एक सूर्य-सिद्धांत है । 8 अप 8 । न 37 8 सूर्य-सिद्धांतमें कुछ परिवर्तन मा कण मय आय का कक पाए लक... पीछेसे अवश्य हुए, क्योंकि आजके (कप अदक 20 202 82, 92280 27226: / 027 7232 2228 502 किम ० प्रचलित सूर्य-सिद्धांत और बराह- ' मिहिरकी। पंचसिद्धांतिकाके सूर्थ- ५ इक जे प+ कर ई_ कं करा न क ५१2 8६६ व्योतिषका संत्तिप्त इतिहास ३६७ कि 7/.778 उप अके 5 १४ £ 20277 ' परे ४ डर] ४ अप पल हा | 20372 चाह ८ पा तक, प परफप 08६2 कै. एप ८४०" 7 हा क27 डर हा हे 4 7.03. | हे फ़ोटोआफ़ीसे हो पायी है । सिद्धांतमें अंतर है। सुथ-सिद्धांके आरम्भ लिखा है. कि सू् भगवानने स्वयं मय नामक असुरकों अग्रोत्तिवकी शिश् दी और मयसे यह विद्या दूसरों -को मिल्ली । सूर्य-सिद्धांतका ज्योतिष यूंनानियों (अीख दालों ) के ज्योतिषसे कई बातोंमें मिलता है। इससे समझा जाता है कि यूनानियोंसे उनकी नवीन बातोंकों सीखनेके बाद यह पुस्तक लिखी गयी हैं । हमारे प्राचीन मंथकारोंमि आयेभटद्ट ( जन्म सन ४७६ ६० ) ओर भास्कराचार्य ( जन्म सन्‌ ११६४ ई० ) प्रसिद्ध हैं। सास्कराचार्यने प्िद्धांत शिरोमणि नामक पुस्तक लिखी थी । भास्कराचार्यके बाद कोई ऐसा प्रभावशाली ज्योतिषी न हो सका कि मवीन बातोंका अनुसंघान करके प्रचत्षित प्रणालीमें उसका समावेश कर सके । लोगमें तब तक प्राचीन आचायों के प्रति इतनी श्रद्धा उत्पन्न हो गयी थी कि उनकी श्रुटियोंकों दूर करनेका या उनसे आगे बढ़नेकी प्रवृत्ति ही नहीं रह गयी थी । इसीसे भारतवर्षमें ब्योतिष फिर आगे न बढ़ सका। 20727 226: न 2457५ हम (| 4 ८ (! 5 ' ५745 | ट्् ५ हे क्र है) अप सू्य-प्रहएणके अवसरपर फोटो लेनेकी तैयारी आधुनिक ज्योतिषकी आश्चर्यजनक उन्नति बहुत-कुछु दूरद्शक और प्राचीन पाइचात्य ज्योतिष-- घाढदी लोगेनि ( जो आधुनिक बगदादके आस-पासके देशमें रहते थे ) लगभग २००० ई० (० में तारोंको तारा-समूहोंमे बॉँदा था ओर उसका नकशा बनाया था | उनको यह भी पता लगा कि १८ वर्ष बाद ग्रइणोंका क्रम फिर पदले-मैसा हो जाया करता है । यूनानियों (श्रीस वालों ) ने ज्योतिष्में विशेष उन्नति की | १३ ०६०पू० के लगभग हिपाकसने १३०८० तारोंको सूची प्रस्तुत की। उसको यह भी पता चला कि वह विंदु जदाँगर सूर्यके रहनेसे दिन ओर शत बराबर हो जाते हैं तरोंके बीच स्थिर नहीं है। सन्‌ १४० ई० के लगभग टॉलमी ने झपनी पुस्तक अलमजेस्ती लिखी '। यह पुस्तक इतनी अच्छी धी कि यूरोपमें लगभग डेढ़ हज़ार वर्षा तक यही एक प्रामाणिक पुस्तक मानी जाती थी । अरब लोग--<१३ ई० में अलमामूनने अलमजेस्ती- का उल्था अरबीमें क्रिया । कई ज्योतिषियोंने ( अल्वबटेनि- यस, अल्सुफी, अबुलवफा, उल्लुगबेग शादिने ) अच्छे बेध किये । उलुराबेग अपने देशका राजा था ओर उसने बड़े-बड़े यँत्र बनवाये थे । मूर लोग--सच्‌ ३२३० में अलसजेस्तीके अरबी अनुवादसे लैटिन अज्ुवाद बना। कई ज्योतिषियनि बेच किये और ज्योतिष-ज्ञानमें टॉलेमीसे आगे बढ़ गये। सच १२७० में ऐलफ़ॉन्ज़ोने नवीन सारिणियाँ बनवाई जिनमें वहाँके विश्वविद्यालय अध्यापकंनि मिलकर परिश्रम किया था । क्‍ यूरोप--मूर लोगोंसे भ्योतिष विद्याका प्रचार यूरोपमें हुआ । कोपरनिकस (१४७३-१४४३) ने यह सिद्धांत घोषित किया कि सूर्य स्थिर है, पृथ्वी ओर ग्रह उसकी प्रदक्षिणा फरते हैं; गेज्ीक्ियों ( १६६४-१६४२ ) ने दूरदशकका रेल, नि + ४ हु ध्् २० पं ता 5520 प४ ््मि के न ०-३. के है "इन श ि श्र फ कई ५] > ९५" ४ ३ #५0४५७६ ..८, घर के खृ $. # पु, हि कक 4 बा पा ४ व 40 हु ३६८ आविष्कार किया. केपक्षर ( १४७१-१६३०७ ) ने अहंकि धलतनेके निशमोका पता क्रगाथा, क्‍्यूटंव (१६४२-१ ७२७) ने आकपणसिद्धांत बतलाया ओर इसके बाद ज्योतिष शीघ्र ओर आइचथ4जनक उद्चधति हुई, जिप्नकी एक रलक पाठकोंकों इस पुस्तकके पढ़नेले मिल गयी होगी । | ऐ गोरखप्रसाद भारतीय ज्योतिष प्रारम्भिक ज्ञान--भारतवर्ष्म ज्योतिष-शास्यपर प्रचीनकालमें कितना विचार हुआ था और भारतवर्षका पहला आवाय कोन था इस सम्बन्धमें विद्वानोंमें बड़ा मतभेद है| कुछ खोग कद्दते हैं कि ज्योतिष सिद्धान्तपर मारतवास्षियेंके नवीन और मौल्क विचार बहुत कम हैं । हसके विरुद्ध कुछ लोग कहते हैं कि भारतीय ज्योतिष शास्त्र श्राचीन कालमें बहुत उच्च कोटिपर पहुँच गया था | इन दोनों मतोंके समर्थक अपने अपने पछ्षमें वेदों, आह्मरणों, झोर पुराणोसे प्रमाण उपस्थित करते हैं जिनके देखंकर ब्योतिष शाख्का साधारण विद्यार्थी चकरा जाता है और किसी एक मतको मान केनेको बाध्य द्वोता है। परन्तु व्योतिषशाश्षका गंभीर विद्यार्थी इससे सन्तुष्ट नही झोेता | वह भनिष्प्त भावसे जानना चाहता है कि प्राचीन कालमें इस शाहझ्पर किन किन देशोंने कितने कितने रहस्योका उद्घाटन किया है। इसका विचार करनेके लिए उसे देखना पड़ता है कि किन किन देशमें ज्योतिष शास्त्र सम्बन्धी क्या क्या धारणाएं थीं क्योंकि इस सम्बन्धकी सबसे प्राचीन जो पुस्तक प्राष्य है वह साढ़े तीन इजार वध से अधिक पदहल्ेकी नहीं रिदू होती । परन्तु ज्योतिष झरबन्धी ज्ञान हतना ही पुराना नहीं हो सकता क्र्योकि बैयोतिष केवल तात्विक विज्ञान ही नहीं है व्यावह्षारिक भी है जिसका काम मलुष्यके प्रतिदिनके, व्यवहारमें पड़ता है। इसलिए जब सृष्टिका आरम्भ डेढ़ दो अरब वर्बासे माना जाता है तब यह कैसे मान त्िया जाय कि ज्योतिष- शाह्का आरम्भ केवल सीन चार इजार घर्षों से ही हुआ है।... | पथ, चन्द्र, मह भौर नक्षत्र." उयोतिषका प्रवतेक सूय--जबसे मनुष्य-सब्टिका आरम्भ हुआ तभीसे देश ओर कालका शमसी झारम्भ हुआ होगा क्योंकि सबसे पहले सजुष्यते यह देखा ही होगा कि जब प्रकाश ओर गरमी पहुँचाने वाला एक गोक़ा ऊपर उठता है तब सब जगद्ट उजेत्ञा हो जाता है और सभी चीज़ें साफ़ साफ़ देख पड़ती हैं और जब वह गोला: नीचे चत्ना जाता है तब सभी जगह अंधेरा छा जाता है ओर कोई चीज़ देख नहीं पड़ती । उसने यह सी देखा होगा कि जब यह गोला निकलने लगता है तब पशुपर्ी आदि उठ पड़ते हैं ओर अपनी अपनी पेट-पूजार्मे क्षण जाते हैं और जब वह छिप जाता है तब सब विश्राम करने लगते हैं ओर सो जाते हैं । इस तरह दिन और रातका बोध उसके सबसे पहले हुआ होगा और यह ज्ञान उसके अपने आप सूर्यसे ही मिला होगा। इसलिये यदि यह समान लिया जाय कि ज्योतिष-शास्त्र-का प्रव्तक सूर्य ही है तो अ्रसुचित नहीं है । वास्तवमें तो हमारी इस प्ृृथ्वीका - भवर्तक भी सूर्य ही है जिसे आजकलके वैज्ञानिक भी मानते हैं । इसलिए जब यह कहा जाता है कि ज्योतिष शाखत्रका) ज्ञान पहले पहल सूर्य भगवानने ही दिया था दो इसमें कोई देव नहीं जान पड़ता । ज्योतिषशाल्न ही नहीं इमारे अध्यात्मशास्॒कार प्रवर्तक भी सूर्य ही है । . चन्द्रमासे मासका ज्ञान- उस आदिकालमें मनुष्य ने यह भी देखा होगा कि दिनर्में तो सूथसे गरमी और प्रकाश मित्रते हैं ओर रातमें जब सब जगई अंधेरा छा जाता है तब ऊपर प्रकाशके अनगिनत बिन्दु जगह जगह १-४ एुष्बेकमनाः पूर्व यदुक्त शानमुत्तमस्‌ । युगे युगे महर्षोर्या स्वयमेव विवस्वता ॥५॥ शाखमार्य तदेवेदं यत्‌ पूव आह भास्कर: । थुधानां परिवर्तन काजभेदो5न्र केवल: ॥५९॥। सूयसिद्धान्त, मध्यमाधिकार । ३-- हद विवसस्‍्बते योग॑ प्रोक्ततानहमव्ययसर । विवस्वान्‌ मनवे प्राह सशुश्चिवाकवेअबबीत्‌ ।। १॥| पुर्व॑ परम्पराप्राप्तमिम राजवंयों बितु। । सकालेनेह मदहता योगों नष्ट: परंत्प |२॥ भगवदूगीता, भतुर्थ श्रध्याय भलमास और युग १६६ देख पढ़ते हैं जिनमें कोई बड़े हैं ओर कोई बहुत छोटे, जिन्हें तारे कहते हैं । इनके सिवा एक घड़ी चमकीजी वस्तु ओर है जो अपना आकार भी बदलती है और तारोंके जीच जगह भी | श्राज एक तारेके पास है तो कल दूसरे तारेके पास और परसों और आगे, तीसरे तारेके पाश्न । इससे अंधेरेसे प्रकाश प्िलता है आर जब यह पूरी उत् हो जाती है तब रात भर दिखाई पढ़ती ह और हमको काफी प्रकाश देती है | उसने घह भी देखा होगा कि यह प्रति दिन अपना आकार भी बदलती है। पहले पहल जब यह सूर्यास्तके बाद पब्छिममें दिखाई पड़ठदी है तब पतले हंसुए की तरह होती हैं | दुसरे दिन कुछ मोटी हो जाती है । इस तरह बढ़ते बढ़ते सात आठ दिन, में आधा गोल हो जाती हैं और उसके बाद आधेसे भी बढ़ते बढ़ते वह पुरा गोल हो जाती हैं । यह क्रम प्रायः १४ दिन तक चलता है। फिर थद्द घटने क्गती हैं ओर दूसरे चोदह दिन तक घटते घटते पतले हंसुएकी तरह हो जाती है । इसके बाद एक या दो दिव तक देख ही नहीं पड़ती, फिर वही हंसुएकी तरह सूर्यासतके बाद दिखाई देती है । इस प्रकार इसके १५ दिन तक बढ़ने ओर फिर १७ दिन तक घटने ओर अदृश्य हो जानेका एक फेरा प्रायः ३० दिनमें पूरा हो जाता है | इसलिए सूर्मस समयकी एक इकाई अदोराज़' ओर चन्द्रमासे दूसरी इकाई “मास या महीने को बोध हुआ । इस प्रकार॒ सूर्य ओर चबन्द्रमासे समयकी दो प्राकृतिक इकाइयों दिनरात! या केवल 'दिना और सान्नका बोध हुआ । १षघ--हसख तरह धौरे-घीरे जब सहझों दिन और सैकड़ों मास बीते होंगे तब उसे एक बातका ओर भी अनुभव हुआ होगा । उसने देखा होगा कि वर्षा, जाडा और गरमीका भी बार बार फेरा होता है। अनेक वर्षाके निरन्तर अध्ययन और विचारसे यह ज्ञान हुआ होग। कि महीनेसे भी बड़ी काल्की एक इकाई है जो सूर्यकी उत्तर दक्षिण गतियों पर अवलंबित है और जिसमें गरमी, वर्षा और जाड़ेका एक चक्र पूरा हो जाता है । इसे वर्षा कहते हैं। पहले पहल तो उसको ठीक ठीक न मालूम हुआ होगा कि वर्ष कितना बड़ा दोता है। परन्तु उसने इतना अवश्य समझ लिया होगा कि जितने समयमें गरमी वर्ष और जाइँका एक चक्र पूरा होता है प्रायः उठनेंही समयसें चन्प्॒मार्क १२ माल पूरे होते हैं। इसलिए उसने निश्चय किया होगा कि एक वष में १९ महीने होते हैं। ज्योतिष शाख्का यह पहला पांठ था कि एक महीने ६० दिन और एक व में १२ साख अथदा ६६० दिन होते हैं। इसे अपने आप सीखनेस आदिम समुष्यका लेके महीने लग गये हॉंथे ; जो बात मनुष्यमे सृष्टिके आरम्भ निबचयकी थी चही आजकल भरी स्राधारण व्यवहारसें भागी जाती हैं। आज भी हम छोटे छोटे बदोंकों पहले यदी बतज्ाते हैं कि एक महीनेमें ३० दिंय आर एक वर्षमें बारह महीने होते हैं । मल्मास और युग--बष , महीने, पक्त ओर दिनके हिसाबसे अनेक वषे। तक काम चला होगा। फिर देखा' गया होंगा कि ऋतुओं और महीनोंके हिसाब अन्तर पड़ रहा है। कुछ वषे। तक तो बारह बारह महीनोंके बाद ही वर्षों, जाड़ा या गरमी आती है परन्तु फिर तेरह महीने ओर चोद॒ह महीने बीत जाते हैं तब भी वर्षा नहीं आती । इस प्रकार मालूम हुआ होगा कि पहली गणना स्थूल है जिसमें कुछ संशोधचनकी आवश्यकता है। श्लोचते सेचते यह युक्ति सकी होगी कि यदि प्रात तीसरा वर्षा १३ भहीनोंका सावन लिया जाया करे तो काम चल सकता है । इसकिए हर तीघ्चरा वध १३ महीने का माना जाने कगा और १३वें महीनेको अधिमास कहने लगे । इस हिसावसे भी कई वर्षेमें देखा' गया होगा कि ऋतुएं अब शीक्र आरस्म हो जाती हैं | इसलिए फिर यह निश्चय किया गया कि ५ वर्षोर्मे दो अधिमास मांच लिये जाँच । महा- भारतके विराटपवर्म इसी गणनाकी चर्चा है। यही गणना वेदाज्ञ ज्योतिपमें अधिक स्पष्ट करके लिखी गयी है । इसमें बतलाया गया है कि ५ संवत्सरोंका एक युग होता है जिसका आरम्भ माघ माससे होता है और ३० महीनेके बाद श्रावशका महीना दुहरा दिया ज्ञाता है। फिर ३० मासके बाद माधका महीना दुहरा दिया जाता है। इस प्रकार ६२ चान्द्रमासोंका € व या एक थुग माना जाने ल्षगा । दक्जालीन ज्योतिष ओर नज्ञत्र- परन्तु इससे यह समर लेता चाहिए कि महामारतके पहले ऋषियोंका इससे अधिक ज्ञान नहीं था ।+ संस्कृत साहित्यमे: वेद सबसे भाचीन समझे जाते हैं। इनमें अधियार्सोकी चर्चा अचुर मात्रार्म है जहाँ कई नाम रखे गये थे । यजुद दमें इधके माय संखर और मल्िस्लुख थं। उस प्राचीन काछस महीनोंके वाम चेतन, वशाख आदि नहीं थे बन मधु, साधव आदि थे जो ऋतुओंके सूचक थे। उस वे ी & घशूयक वेदिक कालमें भी आकाशके उन २८ मदज्रोंका पूरा ज्ञान हे। छुका था जिसमें चलता हुआ चन्द्रमा २७ दिन ओर ८ घंटेमें एक फेरा कर कोता है । उन्होंने सूफी गतिका भी जान सच्मतापूवक प्राप्त कर लिया था। वेदाज्ञ-ज्योतिष कालसे बहुत पहले उन्होंने सू्बंकी उत्तरायण और दक्षिणा- यन गतियोंका निश्चय कर लिया था। वेदाज़् ज्योतिपसें बतलाया गया है कि घनिष्ठा ननज्नन्नके आदि पर जब सय ता हैं तप्र उत्तरागयण आरम्भ होता है | परन्तु मैत्रायिर्ण उपनिषद्‌ ) में बतल्लाया गया है कि जब सूथ मधा नज्षत्नके आरम्भर्म हे।ता है तब दक्षिशायन आरम्भ होता है और जब घनिष्ठाके मध्यमें हेतता है तब उत्तरायण आर॑भ होता है। इससे यह प्रकट होता है कि उस प्राचीनकालमें आकाशीय घटनाओंका अवलोकन ध्यानपूथंक किया जाता था | जो इस विपयके पंडित होते थे उन्हें नज्नन्न दर्शर और उनके ज्ञानको नज्षन्न-विद्या : कहते थे। परन्तु यहां इसकी चचा विस्तारमें कश्नेकी आवश्यकता नहीं है । हिन्दू ज्योतिषकों अ्रच्छी तरह समभनेके लिए इन नक्षत्रोंका नाम याद रखना आवश्यक हैं जो नीचे दिये जाते हैं:---- १--अधिवनी, २--भरणी, ३ क्षत्तिका, ४ .- रोहियी, €--मुराशिरा, ६ -आर्दा, ७--पुनवंसु, ८ पुष्य, ९-- आश्लेपा या अश्छोपा, १०--मघा, ११ पूर्वाफाल्युनी, १२--उत्तरा फाल्गुती, १३--हसरुत १४--चित्रा, १९--- स्वाती, १६ विशाल, १७--अनुराघा, ८ ज्येष्टा, का १ -भधा्् अविष्ठाहमास्नेय क्रमेणोन्क्रमेश लापाधि श्रविष्ठाद्वान्त सोस्य प्र० ६ १४ २“मद्धानातथ ने उच्चनदशम, यजुक , ३०,५१० । ३- छीन्दोग्य उपनिषद अध्याय ७, १२४ । हे भाश्तीय ज्योतिर्ष १६--मूल, २०. पूर्वाषाढ़, २१ -- उत्तराबोढ़, २९--अभि- जित, २३-- श्रवण, - बनिष्ठा, २९-- शतभिज या शतभिपा, २६--पूर्वाभादपह, २७. उत्तराभावपद, रप-- श्वती । यह नक्षत्र तारोंके वह समूह हैं जो चन्द्रमाके मार्गों ते हैं। इसी मार्गके निकट प्रध्यीका मार्ग भी है जिसे पहले सभी दंशोंके लोग स्यका मार्ग समझते थे । आज- कल भी सुविधाके विचारसे थह सान ल्लेमेंमे कोई हज नहीं हैं कि थह्व समका माग हं। चन्द्रमा इन नज्षत्नोका एक फ्रेश सर २७ दिन मे घंटेसे करता है। इसीलिए चन्द्रमागकों समान भागंमिं बॉदा गया और प्रत्थेक भागको छुत्र कहने लगे । फिर गणनाकी सुविधाके लिए केवल २७ ही समान भागके नज्न्न माने जाने क्गे और अभि- जितका नाम निकाल दिया गया। यह अफट है कि चन्द्रमा एक नज्न्नमे प्ररथः एक दिनशत रहता इस प्रकार दक्ष प्रजापतिकी २७ कम्याओशों और चन्द्रमाके विचाहकी कथाका आरंभ हुआ होगा । ्श्ध्ज फद 5, सं जिस नक्षन्न-चक्रको चन्द्रमा २७ दिन ८ घंटेमें पूरा करता है उसे खर्य १२ महीनों या ३६४ दिनमें पूरा करता हुआ जान पड़ता है । इसलिए सभ॑ एक नहन्नम १३६ या १४ दिन तक रहता हैं। ऋतुझश्नोका बरी इसी सर्यके नक्षत्रोंसे हो किया जाता है जिसे किसान नखत कहते हैं।: . जब रुय श्रार्दा नक्षन्नमे रहता है तब बरसात आरंभ होती है ओर किसान खेत जोतने बोने लगते हैं । इलाहाबाद जिले के एक किसानने बोनेका एक सूत्र यह बतलाया है... अदा धान, पुनवंसु जोधरी, चढ़त चिरेया बोथ बजरी”; दथियारें चना, चिन्नामें गेहूँ, मटर ओर स्वातीम जब बोनेकी परिपाटी है। पुष्य नक्षत्रको चिरैया कहते हैं। 'मधा बरसे, माता परसे' कहाचतका अथ्थ यह है कि मधा नक्षन्नमें सूयेके रहते समय जो वर्षा होती है उससे प्रथ्व्री बेंसी ही तृप्त होती है जैसे माताके प्रेम पूर्वक भोजन परसनेसे बच्चोका पेट भर जाता है । इस संबंधमं घाघ और भद्ठरीकी कहावतोंकी तो पुस्तकें भी छुप गयी हैं। नज्षत्र-चक्र--२७ नक्षन्नोंके चक्रको सूर्य एक वर्ष अथवा मोटे हिस्ाबसे ३६० दिनमें पूरा करता हुआ जान | विज्ञास, नवम्बर, १६७४७ प्‌ कह हो 5 520 ना तिथि . पढ़ता है इसलिए इस चक्रके ३६० बराबर भाग कर दिये गये जिसे अंश कहते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता हैं कि सूर्य एक दिनमें एक अंश चलता है। अंशके ६०वें भाग को कला कहते हैं यहो सूचंकी एक घड़ीकी चाल है । कला के ६०वें भागकों विकल्ा कहते हैं जो सूर्यकी एक पल्की चाल है । इस तरह कोण और समय नापनेकी इकाइयों में सीधा सम्बन्ध है । जब २७ नक्षत्र ३६० अंशके समान माना गया तो एक नज्ञन्न डैछ या 5 अंश या १३ अंश २० कलाके समान हुआ । तिथि--जिस समय खूर्य ओर चन्द्रमा आकाशमें एक साथ रहते हैं उस समय अमावस्या या अमावस होती है । जब चन्द्रमा सूथसे आगे १२ अंश बढ़ जाता है तब प्रति- पद्दा था पारवा तचांथ पराो हा जातो है आर छताया या दूदज लगती है। इसी दिन सूर्यास्तके बाद ही चन्द्रमा पच्छिम चितिजरमे पतलासा! दिखाई पड़ता हैं | सूथले २४ अंश आगे बढ़नेपर तृतीया या तीज आरंभ होती हैं । इसी तरह सूयसे बारह-बारह अंश चन्द्रमाके आगे बढ़ने- पर तिथि बदलती हैं। जब सूर्यसे चन्द्रमा १८० अंश आगे बढ़ जाता हैं तब पूर्णमास्री होती हैं। इस दिन चन्द्रमा :.. पूरा गोल हो जाता है ओर सूर्यास्त कालमें पूर्व चितिजपर -* उदय होता हुआ देख पइता है । इसी दिन शुक्तु पक्ष का अंत होता हैं। जब चन्द्रमा इससे आगे बढ़ता है तब १६वा ताथ लगती है जिश्न कृष्ण पक्षकी प्रतिपदा कहते हैं। इसी दिनसे चन्द्रमा धीरें-चीरे घटने लगता हैं आर इसके पूर्वर्म उदय होनेका समय प्रतिदिन ल्वगभग एक मुह या दो-दो घड़ी पीछे होता जाता है। इन्हीं तिथियों- के विचारसे हमारे पर्व ओर त्योहार जन्माष्टमी, होली, दिवालों, दशहरा आदि निश्चित किये जाते हैं । ्ेक तिथियोंके नाम क्रमानुसार यह हैं।-- क्रम संख्या शुक्र पक्ष क्रम संख्या. कृष्ण पैक्ष थ्‌ प्रतिपदा था परिवा १६ प्रतिपदा २ द्वितीया यथा दूइज १७ दूद्व्ज ] ततीया था तीज १८ तीज भाग ६०, संख्या २ | ४०९ ४. चतुर्थी या चौथ १६ चौथ ४ - पंचमी २० पंचमी ६ पष्ठी या छुठ २१ छुठ ७ सप्तमी २२ सप्तमी ८ अष्टमी २३ अष्ठमी 8 नवमी २४ नवमी १० दशमी २६ दशमी ११ एकादशी श्ध एकादशी १९. द्वादशी २७ द्वादशी १३ त्रयोदशी या तेरस. २८ तेरस १४... चतुदंशी २६ 'चतुदंशी १०. पूर्णमासी या पूर्िसा ३० अमावस्या या अभावस पंचांगेंमि १६वीं, ४७वीं तिथिके स्थानमें १, २, डे, आदि लिखा रहता हैं, केवल अमावसके लिए ३०की संख्या लिखी जाती है | तिथियोंके दिसाबसे भासका आरंभ जब शुक्ल पक्की प्रतिपदासे होता हैँ तो उसका अन्त कृष्ण पक्षकी अमावसको होता हैं। यह रीति बहुत प्राचीन है ओर गुजशत, महाराष्ट्र तथा मद्रासमें अब भी प्रचलित है। ऐसे मासकों अमान्त चान्द्र मास कहते हैं । परन्तु अन्य प्रान्तोम महीनेका आरंभ कृष्ण पत्चकी प्रतिपदासे होता है ओर अंत शुरू पक्की पूणिसाकों होता है । इसलिए ऐसे मासकों पूर्णिमान्त चान्द्रमास कहते हैं। देखनेस। यह रीति सुगम जान पढ़ती है क्योंकि पूर- मासीको मासका पूर्ण होना स्वाभाविक ज्ञान पड़ता इन दोनों प्रकारके महीनोंके शुकू पक्ष तो एक ही होते हैं परन्तु कृष्ण पक्षके मार्सोमें भेद हो जाता हैं। इसी कारण इस प्रान्तमें भाद्द कृष्ण अपएमीकों कृष्ण जन्माष्टमी मनायी जाती है, जो महाराष्ट्र ओर गुजरात प्रान्तेमें श्रावण कृष्णाष्टमी समझी जाती है । सिद्धान्तोंमं अमान्त गणनाके अनुसार ही मलंमासों का हिसाब रखा जाता है इसीलिए हमारे प्रान्तके पश्चांगेमें मलमासके हिलाबमें कुछ गड़बड़ी रहती है। मत्रमास्त वाले महीनेके पहले महीनेका कुष्णपक्ष शुद्ध माना जाता हैं फिर दो पक्ष मलमासके होते हैं, उसके बाद उसी नामके शुद्ध महीनेका शुरू पक्ष आता है 0३६, 8०५ भारतीय ब्योत्तिष' तिथियोंकी व्ृद्रि और कज्ञय--यदि सूर्य और चन्द्रमाकी गतियाँ समान होतीं तो झत्येक तिथिकी अवधि भी समान होती। परन्तु सूथे और चल््रमाकी गतियाँ समान नहीं है । इसलिए तिथियोंका मान भी बदलता रहता है ओर कभी तिथि प्रातः काल समाप्त हो जाती है कभी दोपहर, कभी संध्याके समय ओर कभी रशातको | इसलिए लोकिक व्यचहारमें तो हम वही तिथि सारा दिन ओर सारी रात मानते हैं जो सू्ोदय कालमें होती है परन्तु अत उपवास आदिके लिए दूसरे निथम हैं। तिथि का छोटेसे छोटा मान «१ घड़ीके लगभग ओर बड़ेसे बड़ा मान ६६ घड़ीके लगभग होता है। इसलिए ऐसा होता है कि कोई तिथि सूथोदयसे आधी घड़ी उपशबन्त लगी और दूसरे सूथोदयसे पहले ही समाप्त हो गयी । ऐसी दशा यह तिथि मे तो उस दिन भानी जायगी जिसके सूयोदयके उपरब्त लगी ओर न दूसरे ही दिन मानी जायगी जिसके सूर्योदयके पहले ही समाप्त हो गयी । ऐसी तिथि को क्षय तिथि कहते हैं। परन्तु यदि कोई तिथि ६० घड़ीसे बड़ी हुई और सूर्थोदयसे कुछ पहले आरंभ हुई और दूसरे दिन सूर्यादयसे कुछ पीछे समाप्त हुईं वह दोनों दिन भानी जायगी। इसीको तिथिकी ध्ृद्धि कहते हैं। इसीलिए कोई पक्त १५ दिन का होता है कोई १४ दिन का और कोई १६ दिन का । बहुत दिनोंके बाद कभी-कभी कोई प्ष १३ . दिनका भी हो ज्ञात है । तिथियोंकी गणना एक कठिनाई और भी है। थह नियम है कि सूर्योदय कालमें जो तिथि वर्तमान रहती है वही दिन भर मानी जाती है। परन्तु सूथोदयकाल सब स्थानोमें एक ही समय नहीं होता । पूवरम सू्ोदय जल्‍दी होता है पच्छिममें देरमें । इसलिए पूब देशेमिं सूयोदयकाल में ज्ञो. तिथि वर्तमान है वह पच्छिस के स्थानेमें सूर्यो दयसे पहले समाप्त हो सकती है। ऐसी दशामें दोनों स्थानोंकी तिथियेमिं मेद्र पढ़ जाता है। कल्मकता ओर बस्बई एक दूसरेसे बहुत दूर हैं, दोनोंके सूयोद्यकालमें एक घंटेसे अधिकका अन्तर है इसलिए इसकी बात जाने दीजिए | दो ऐसे स्थान लीजिए जो एक दूसरेसे निकट हों जैसे काशी ओर प्रयाग । इन दोनके सूर्योदय कालोंमें ४ मिनट ४० सेकेंड अथवा लगभग १२ पलका श्रन्तर होता है? है। यदि कोई तिथि काशीके सूथोदयसे २ मिनट पहले आरंभ हुई तो वह काशीमें दिनन्‍रात लिखी जायगी । परन्तु अयागमें उस तिथिका अन्त सूथोदयसे पहले ही हो जायगा । इसलिए प्रयागर्मं उसके आमेकी तिथि मनायी जायगी | हससे लोकिक व्यवहारसें बड़ी अड्चन पड़ सकती है । मान लीजिए कि दोनों स्थानोंमें तिथियोंके सिवा भर किसी प्रकारकी तारीखका प्रयोग नहीं किया जाता ओर काशीसे एक आदमी प्रयागको तार भेजना चाहता है। तार भेजनेकी तारीख काशीकी तिथि होगी । डसके पहुँचने की तारीख प्रयागकी । इस प्रकार एक दिनका भेद पड़ जायगा यद्यपि तार जिस दिन भेजा गया उसी दिन पहुँच गया । इसलिए जब हमारा संबंध भारतवष के दूर-दूरके प्रान्तोंसे ही नहीं वरन संसारके प्रत्येक देशसे बढ़ रहा है तो व्यवह्ार्मं तो हमारी तिथि काम नहीं दे सकती । इसी- लिए लोकिक कार्मोर्मे दूसरी पदछुतिका सहारा लेना पड़ता है। बद़ाल और पञ्चाबमें तो सोर तिथियोंका चलन बहुत दिनसे है । हमारे प्रान्तमें भी अश्रब सौर तिथियोंका व्यव- हार हिन्दी साहित्य सम्मेलन, काशी नागरी प्रचारिणी सभा तथा ज्ञान मण्डल कार्यालयमें होने छूगा है । संक्रान्ति और सौर तिथि-- इस स्थानपर सौर तिथि के सम्बन्धमें भी कुछ लिखना आवश्यक है क्योंकि जैसे-मैले हमारा व्यवहार भारतीय ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय हो जायगा . उस समय हमें इसीका सहारा लेना पड़ेगा । जिम्म प्रकार नक्षत्र चक्र २७ समान भागोंमे बाँठ गया है उसी प्रकार. वह १२९ समान भागेंमें भी बाँदा गया है जिसे राशि कहते हैं। इनके नाम यह हैं :-- १>मेष, २०-दंघ, ३-० मिथुन, ४ कके, ७--सिंह, ६. कन्या, ७ - तुला, ८+-छ्ृश्चिक, 8०“-धनु, १००० मकर, ११--कुश्भ, १२ “मीन | यह प्रकट है कि एक राशि खा दो नक्षत्र था ३० अंशके समान होती है। विह्ठार्नोर्मे बहुत दिनोंसे यह विवाद चल रहा है कि राशियों या नक्षत्नोका आरंभ स्थान क्या साना जाय । इस प्रान्तम आरश्स स्थान वही माना जाता है जो सूर्य सिद्धान्तकी गणनाके अनुसार सिद्ध होता है। इसीसे मिलता जुलता .एक ओर नियम है जिसके [ विज्ञान, नवस्थर, १६४४ तिथि, मास और नक्षत्रका संबंध ४०३ हि अनुसार चित्रा तारा राशि चक्रके ढीक मध्यमें माना जाता है अर्थात्‌ चित्रा तारा वहाँ है जहाँ ६ठी राशि समाप्त होती है ओर सातवीं आरंभ होती- है । जब सूर्य मेष राशिमें प्रवेश करता है तब मेष संक्रान्ति होती है। आजकल यह १४ या १४ अग्रेल् को होती है । ... संक्रान्तिक्ले बाद जो सूर्योदय होता है उसीसे पहली सोर तिथिका आरस्भ होता है। दूसरे सूर्योदयसे दूसरी सौर तिथि चलती है। जब तक सूर्य मेष राशिमें होता है तब तक बड़ाल ओर पश्षाबमें वेशाखका महीना माना जाता है। यही प्रथा यहाँ भी प्रचलित हो रही है। चान्‍न्द्र मास वाला वैशाख इससे कुछ भिन्न होता है इसलिए इसे सौर वैशाख कहा जाता है। यह ३१ दिनका होता है। जब झूथ वृष राशिमें प्रवेश करता हैं तब सौर ज्येष्टका महीना लगता है। यह भी ३१ दिन का होता है। सोर आधषाढ़ ३२ दिनका होता है क्योंकि इस महीनेमें सूर्यकी चाल बहुत स॑ंद होती है इसलिए ३० अंश चलनेमें ३१ दिनसे भी अधिक समय लगता है। इसी प्रकार जब मकर संक्रान्ति लगती है तब सोर भमाधका आरंभ होता है | यह १३ या १४ जनवरी को होती है जब प्रयागमें सकरका मेला लगता है। यह संक्रान्तियाँ अंग्रेजी महीनेके बीच में १३. १४, १० या १६ तारीख तक पढ़ती हैं। मदासमें भरी संक्रान्तियोंके हिसाबसे ही महीनेकी गशना की जाती है। विज्ञान परिषद्से प्रकाशित विज्ञान साल्िक पत्रमें आरंभसे ही संक्रान्तियोंके अनुसार मासकी गणना मानी जाती है । तिथि मास ओर नक्षत्र का सम्बन्ध--अंब तक जो कुछ लिखा गया है उससे प्रकट है कि सूर्य ओर चन्द्रमा की सापेश गंतियोंसि तिथिकी गणशनाकी जाती है ओर सूर्य तथा चरद्रमाकी अलग-अलग गतियोंसे यह गणना की जाती हैं कि वे किस न्न्नमें हैं। नक्षन्नोंकी गणनापे आकाश उनकी स्वत्तस्त्र स्थितियोंका बोध होता है। जब हम कहते हैं कि आर्दा नक्षत्न या 'अद्रा नखत लगनेपर वर्षाका आर॑स होता है तब इसारा अर्थ यह होता है कि सूर्य आहो नक्षत्रमें स्थित है। परन्तु जब हम कहते हैं कि भाग ६० संख्या रे | भादों कृष्ण अष्टमीकों रोदिणी नक्षश्नमँ भगवान्‌ ' कृष्णका जन्म हुआ था तब हमारा अथ यह होता है कि उस समय चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्में था। यह बतलाया गया है कि चन्द्रमाकी चाल बहुत तेज है इसलिए वह प्‌ृक नक्न्न लगभग एक दिनमें पूराकर छेता है परन्तु सूर्यकी चाल उससे बहुत मन्द है इसलिए वह एक नच्षन्न तेरह या चौदह दिनमें पूरा करता हैं । महीनोंके नामाँकी साथकता--तीन हज़ार वर्षसे ऊपर हुए जब तिथि, मास ओर नह्त्नोका संबंध भारतीय नक्षश्नद्शों ने स्थिर किय्रा था। थह नियम इतने उत्तम थे कि विचारकोंकों अब भी आश्चर्थ्में डाल देते हैं। किसी भी प्राचीन देशकी ज्योतिपर्स ऐसे नियम नहीं पाये जाते । इसलिए इसका भी दिग्दर्शन यहाँ करा दिया ज्ञाता है । अह बतलाया जा चुका है कि अहुत प्राचीन काछमें महीनों- के नाम चेत, बेसाख आदि नहीं थे वरन्‌ सधु, माधव आदि थे, जो ऋतु सूचक हैं। ३००० वर्ष पहलेसे ही चैत बैसाख आदिका चलन हुआ । इनका सिद्धान्त यह है कि जिस मासकी पूर्णिमाकों चन्द्रमा चित्रा या स्वाती नक्षन्नमें होता है उस मासको चैन्न मास कहते हैं ओर जिस मासकी पूणिमाकों चलूमा चिशाखा था अनुराधामे होता है उसे वैशाख मास कहते हैं । नक्षन्नोकी सचीमे देखिए, बारह नक्षन्र ऐसे मिलेंगे जिनके नामपर भमहीनोंके नाम रखे गये हैं । उपयुक्त सूचीमें इनकी क्रम संख्या है १, ३, ९, ८, १०. ११ या १२, १४, १६. १८४ २० था २१, २२ और रण था २६ । अश्विन मासकी पूर्णिमा अश्विनी नक्तन्नमें या इससे . एक नक्षत्र आगे पीछे होती है। कार्तिक मासकी पूर्णिमा कृत्तिका या रोहिणी नज्॑त्रम होती है।- मार्गशीपष या अग- हनकी पृणिमा झुगशिरा था आर्दा नज्नन्नमें होती है | इसी तरह अन्य भमासेके बारेगे समकना चाहिए। कहीां-कहीं अश्विनको आसोज् या कुंआर कहते हैं, मार्गशीर्पको मग- सिर या अगहन ओर माधको साहा कहते हैं। इसका कारण यह हैं कि श्रश्विनीका दूसरा नाम अश्वयुज और इसका देवता अश्विनी कुमार हैं इसलिए कहीं अश्वयुजके नाम पर आसोज और कहीं कुमारके नाम पर कुंआर' का चलन हो गया । सिद्धान्तर्में कोई परिवर्तत नहीं हुआ । ४१ है०्ह भारतीय ज्योतिष सगशिरा नक्षन्नकों अप्रहायण ( ()707 ) भी कहते हैं इसलिए महौनेका नास सार्गशीष, मगसिर था अगहन प्ड़ा। नकन्नोंके तामपर सहीनोंका मास रखनेसे सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि रातमें आकाशकों देखकर बतल्ा सकते हैं कि कोन महीना है और क्या समय है। यदि आप नक्तत्नोंकों पहचानते हों तो सूर्यास्तके बाद जब तारे दिखाई पड़ने लगें, पूर्व क्षतिजकी ओर देखिए और पहचानिए कि कोन नक्षत्र पूव खझितिजमें उदय हो रहा है या उदय हो चुका है। बस, इसीके या इसके आगे पीछे वाल्ले नक्षश्रके नामका महीना चल्ल रहा है। दूसरे शब्दोंसें इसे यों कह सकते हैं कि कारतिक मासमें कृत्तिका या रोहिणी नक्तन्न सूर्यास्तके बाद पर्वज्ञेतिजमें उदय होता और सारी रात आकाशसे घुमता हुआ प्रातः काल परिचम क्षितिजमें अस्त हो जाता है। अ्रगहनके महीनेंमें सुगशिरा या आर्दा नक्षत्र सूर्यास्तके बाद ही पूर्वमें उदय होता है और सारी रात आकाशसें घूमता हुआ प्रातःकाल पश्चिममें अस्त हो जाता हे । पूस्रके महीनेमें पुनर्वसु या पुष्य नक्तत्र इसी तरह शामकों उदय होकर सारी शत्त आकाश्में चक्कर लगाता हुआ प्रातः काल पश्चिम अस्त हो जाता है। पुष्यको छोड़कर थे सभी नक्षत्र अपनी चमकके कारण बढ़ी आसानी से पहचाने जा सकते हैं ओर शरद ऋतुमें रात भर लोगों- को समयकी सूचना देते रहते हैं । इन महीनोंमिं किसान रातका समय इन्हीं नक्षत्नोसे जान लेते हैं। कृत्तिकाको कचपचिया, रोहियीको हरणी और झ॒गशिराको हज्ञा कहते हैं। यह प्रकट है कि जब कोई नज्षेत्र शामको प्रबमें उदय होगा तब एक पहर रात बीते वह या तो शिरोविन्दु ओर क्षितिजके बीचमें रहेगा या पूरब दक्षिणके कोने पर; आधी रातको-सध्य आकाशमें, :तीन पहर रात बीते शिरोविन्द: ओर पश्चिम क्षितिजके बीचमें या पश्चिस दक्खिनके कोने पर रहेगा। इस अकार हिन्द महीने ओर नक्ञत्नोंकी जान- कारीसे कोई भी सनुष्य- रातमें संम्रका स्थृत्त 'ज्ान आपसानीसे प्राप्त कर सकता है। संसारके किसी भी देशके महीनोंके नाम ऐसी विशेषता नहीं है। थे नाम किसी देश या पुरुषके नामसे नहीं रखे गये हैं। इसलिए साव- देशिक भी हैं । द्र डे तिथियों और नक्षत्रोंका संबंध--ऊपर जो कुछ लिखा गया है उससे प्रकट होता है कि पूर्णमासी तिथिका सम्बन्ध तो उस नामके नक्षत्र या उसके आगे पीछे वाले नचत्रसे होता है ओर तिथियोंका सम्बन्ध भी किसी न किसी नक्षत्रसे बराबर बना रहता है। कृष्ण जन्माष्टमी प्रति वष. शेहिणीम नहीं पड़ती । मल्लमासके बाद वह रोहिणीम अवश्य पड़ती है। परन्तु वैसे साधारणतः कृत्ति- कार्में पढ़ती है। विजयदशमी भी मलभासके बाद श्रवण नपक्ान्नमें पड़ती है, पैसे एक नक्षत्र पहले ही हो जाती है | वह पर्व बहुत महत्वपूर्ण समझे जाते हैं जो तिथि ओर मास के सिवा किसी विशेष बार ओर नक्ष॒त्नसे भी सम्बद्ध रहते हैं। ऐसा योग कई व्षो'के बाद आता है । सिद्धान्त-- तिथि, नक्षत्र ओर मासका विचार सूर्य और चन्द्रमा की अलग-अल्लगग तथा रापेदा गतियोपर आ- श्रित है। चन्द्रमा एक दिनसें एक नवनत्नके लगभग चत्नता है जो सवा १६ अंशका ४ता हैं। सूर्य एक दिनमें एक अंशके लगभग चलता है। इसलिए सूर्यसे चन्द्रमाका अन्तर प्रतिदिन लगभग बारह-बारह अंश बढ़ता जाता है । मान लीजिए कि दिवालीकी रातको सूर्य श्रोर चन्द्रमा एक साथ स्वाती नक्षन्नमें हैं | दूसरे दिल चन्द्रमा विशाखा नक्षत्र “ में चला जायगा ओर कातिककी प्रतिपदा तिथि होगी इसी तरह १५ दिन तक चन्द्रमा बढ़ते-बढ़ते पुणिमाकालमें कृत्तिका नक्षत्नमं पहुँच जायगा परन्तु सूर्य स्वातीसे विशा- खामें ही पहुँच सकेगा। पूणिमासे १३ दिन उपरान्त अथवा दिवालीसे २७ दिन बाद चन्द्रमा तो फिर स्वातीमें पहुँच जायगा क्योंकि उसका एक चक्कर २७ दिन <« घंटेमें पूरा हो जाता है परन्तु तब तक सूर्य विशाखासे अनुराधामें पहुँचा रहेगा । इसलिए चन्द्रमाको सूर्य तक पहुँचनेके लिए ढाई दिन और चज़ना पड़ेगा, तब चन्द्रमा. ओर सूर्य दोनों अनुराधा नक्षन्नमं होंगे अर्थात्‌ इस सास (अगहन) की अमावस स्वाती नक्षत्र न होकर अमुराधामें होगी और छसी प्रकार पूणिमा कृचिकामें न होकर ऋंगशिरमें होगी । यह क्रम १२ महीने तक ठीक चल्लेगा अर्थात्‌ पूर्णमासी प्रायः उसी नक्षत्र पर होगी जिसके नामका महीना होगा | परन्तु आरह महीने बाद चन्द्रमाका मछन् पिछुडने लगेगा | विज्ञान, नवम्बर) १६४४ ऋतुओं ओर महीसोंका संबंध कैसे टूट रहा है ? 2०६४ क्योंकि बारह चबन्द्रमासोंमें १२३५८ २६"४३०६ दिन अर्थात ३०५७४ ३६७ दिन अथवा लगभग ३५४ दिन ८ घंटे ओर ४८ मिनट होते हैं ओर चन्द्रमाक्रे १३३ चक्कर ३ ३८ २७' ३२१७ दिन अर्थात्‌ ३९५"१८२१ दिन था ३५४ दिन ४ . घंदे २२ मिनरटमें होते हैं। इसलिए जब दूसरी दिवाली आवचवेगी तब अमावसके दिन सू्थ ओर चन्द्रमा दोनों स्वाततो में न रहकर चिन्नार्से, एक नक्षन्न पीछे, रहेंगे । इसी प्रकार पृशिमा कृततिकार्म ने होकर भरणीमें होगी। दो वर्षामें यह अब्तर ओर बढ़ जायगा। यह तो हुई तिथि ओर नत्नन्नों को बात | ऋतुओक कऋ्रममें सी अंतर पड़ता रहेगा, क्योंकि ऋतुओंका क्रम सूर्य की गति पर आश्रित हैं ओर सूर्यका एक चक्कर क्ञरगभग ३६५७ दिन ६ घंटेम होता है परन्तु १२ चान्द्रमासोका वर्ष ३५४ दिन ५ घंटेम ही पूरा हो जाता हैं । इसलिए ऋतुओंका क्रम अति वप १३ दिनके लगभग पिछड़ जाता है, जिस प्रकार मुखल्भानी त्यचहार प्रतिवर्ष ११ दिन पिछडते रहते हैं ओर जाडा-गरमी-बरसात सभीमभें फेरे लगाया करते हैं । इसलिए तीसरे वष जब यह अंतर पूरे एक महीनेका : हो जाता है तब एक महीना दहरा दिया जाता हैं जिसे मस्मास या लोंदका महीना कहते हैं | इससे ऋतुओंका » हिसाब तथा चन्द्रसाका नत्षत्रभी ठीक हो जाता है, क्योंकि 'एक चन्द्र बप में चन्द्रमा अ्रपने नक्तत्रपर २० घंटे बाद पहुँचता है और दो वष बाद वह ४० घंटेके लगभग पिछड जाता है। परन्तु जब तीसरे वष सल्लमास पद जाता है तो इस महीनेमें चन्द्रमा भी अपनी कमी पूरी कर लेता है क्योंकि उम्चको २७ दिन ८ घंटे तो अपना चक्कर पूरा करने के लिए. मित्र जाते हैं ओर २ दिन ४ घंटे अपनी कमी पूरी करनेको मिल जाते हैं। इस प्रकार मलमाससे ऋतुओं का ही क्रम टीक नहीं किया जाता वरनू नच्नत्नोंका क्रम भी ठीक हो जाता हे , इसीलिए हमारे पवा' ओर त्यवहारोंकी तिथि, नक्षत्र ओर ऋतु का सम्बन्ध बराबर बना रहा है । यह नियम ३००० वर्ष तक काम देता रहा है परन्तु अब एक और कारणसे इसमें शिथिलत्ाा आ रही हैं जिसका निराकरण हमको आज न सही तो सो पत्तास वर्षा बाद अवश्य करता पड़ेगा, नहीं ।तो त्यवहारों ओर ऋतुओं का सम्बन्ध टूट जायगा और हजार डेढ़ हजार व में होक्षी भाग ६०, संख्या २ | गरसीमें होने लगेगी ओर दिवाली जाड़ेमें, परन्तु यह परि- बर्तन करनेके लिए धर्मशासत्रके पुराने नियमों को हृदाकर बिल्कुल नये नियम बनाने पढ़ेंगे जो भावीच प्रथापर चंलने वाले लोगंके लिए कुछ समय तक बहुत भयानक प्रतीत होंगे। इसलिए आरंभ कुछ कठिमाईका सामना करना पड़ेगा । ऋतुओं आर महीनोंका संबंध केसे टूट रहा है ? अब हम संक्षपमं उन कारणों पर भी विधार करना चाहते हैं जिनसे हमारे महीनों ओर ऋतुओंका संबंध धीरे- धीरे टूट रहा हैं। आकाशके जिस मार्गसे सूर्य वर्ष भरमें एक चक्कर पूरा करता हुआ देख पड़ता हैं उस पर चार स्थान बड़े महत्वके हैं जहाँ सूर्य प्रायः तौन-तौन महीने पर पहुँचता | पहला स्थान वह है जहाँ पहुँचने पर सूर्च सबसे दक्खिन देख पड़ता है । जिस दिन ऐसा होंता है उस दिन भारतवर्षम ही नहीं सारे उत्तरी गोलार्थम दिनमान (सूर्यके उदय कांखसे अस्तकाल तकका संमय) सबसे छोटा और रात्रि सबसे बड़ी हाती है । इस स्थानको उत्तरायण बिन्दु कहते हैं क्योंकि ग्रहाँ पहुँचकर सूर्य उत्तकी ओर बढ़ने कगता हैं। यह कोई भी देख सकता हे--प्रातः काज़ देखकर निश्ल्‍रचयकर लीजिए कि उदय होता हुआ सर्य- कलितिजके किस स्थानपर उछ्ता हुआ दिखाई पड़ता है । पुसी जगह खंड द्वोकर देंखिएु जहाँंसे निकलता हुआ सर्ये किसी पेड़की साध दिखाई पड़े। इसी तरह प्रतिदिन ठीक उसी जगह खड़े होकर उद्य होते हुए सूर्यको देखिए । दी हों। चार दिनमें प्रकट हो जायगा कि सर्च उत्तरकी ओर बढ़ रहा हैं। आजकल उत्तरायण विन्यु मूल नचत्रके सातवें अंशपर अ्रथवा इसके बीचोबीच है | यहाँ सूर्थ २६ दिसम्बर को आता है। इसलिए २३ दिसम्बरकों उत्तरी गोलार्ध॑में जिसमें भारतवर्ष भी है खबसे छोटा दिन ओर सबसे बड़ी रात होती हैं। इस स्थानसे ६ महीने तक सूर्य बराबर उत्तरी ओर बढ़ता जाता है जिससे दिनमान बढ़ता जाता है आर राज्नि छोटी होती जाती हैं। इसी ६ महीनेके समसयकीो उत्तरायण कहते हें । तीन महीनेके बाद अर्थात २१ मार्चका सूर्ब अपने सार्यके एक और विशेष स्थानपर से पहुँच जाता दे. जिले त्िषुवत्‌ बिच्दु या बिदुब सम्पांत भेके भारतीय ज्योतिष कहते हैं । जब सूर्य यहाँ पहुँचता है तब यह ठीक पू्वर्मे उदय होता है ओर सारे संस्ारमें दिन रात बराबर हे जाते हैं अर्थात्‌ १२ घंटेका दिन ओर १२ घंटेकी रात है! जाती हैं, उत्तरी गोलाघंम सदी घट जाती है ओर गर्मी बढ़ने लगती हैं। आजकल विदुव संपात उत्तरा भाद्र पद नचत्रके चोथे अंशपर हैं। इसके बाद तीन महीने तक वह आर उत्तर बढ़ता रहता हैं। २२ जूनके वह उल्ल जगह पहुँच जाता . है जहाँ उत्तरकी ओरका बढ़ना रुक जाता है ओर दुक्खिन- की ओर भुद़् जाता हैं। इसीके दलिणायम विन्दु कहते हैं। इस दिन उत्तर गोलारधमें सबसे बड़ा दिन बढ़ा दिन और सबसे छोटी रात होती है। इसी दिनसे ६ महीनेका दक्षिणाथन आरम्भ होता है। आजकल यह स्थान आधा नक्षत्नके ठीक आरंभमे है। इससे तीन महीने बाद २३ सितम्बरके सर्य फिर ठीक पूर्वमें उदय दाता है और सारे संलारमें दिन रात बराबर कर देता है । यह स्थान आजकल उत्तरा- फालह्गुनी नज्न्नके दस अंशपर है | इस विन्दुकों शरद सम्पात्‌ कहते हैं। यहांसे दक्खिन बढ़नेपर दिन छोटा श्रीर रात बड़ी होने लगती है। तीन महीनेमें वह फिर उत्तरायण विन्दुपर पहुँच जाता है ओर अपना क्रम पूरा कर देता है। ऋतुओंका क्रम इसी कालके अनुसार बदलता है जो ३६४ दिन ७ घंटा और ४८ मिनटके समान है | इस वर्षको साथन दर्ष कट्दते हैं । 7“ परुतु नक्षत्नचक्रमें यद्ट उत्तरायण था दक्षिणायन बिन्दु अथवा विषुव सस्पात्‌ स्थिर नहीं है, बहुत मंद गतिसे पीछे की ओर खसक रहे हैं। यह गति इतनी मंद है कि ७२ वर्ष में केवल एक अंशका अन्तर पढ़ता है। परन्तु इतनी मंद गति भी लगभग ५९७० वर्षमें अयन-विन्दु या वसंत सम्पातकों एक नचन्न पीछे हटा देती हैं। सोभाग्यकी बात है कि इस बातका उल्लेख इमारे प्राचीन अन्धों, आाह्मणों, डपनिषदों, वेदाड़ ज्योतिष, विष्णु पुराण तथा वराह मिहिर- की पंचसिद्धान्तिकर्म स्पष्ठ रूपसे किया गया है कि उत्तरा यश या दुक्षिणायनका आरंभ किस-किस नन्नन्नपर दोता था। इसी कारण दम निस्लन्देह बतला सकते दें कि उन प्रस्थेमि लिखी हुई बातें कितनी प्राचीन हैं। मैन्रनायिणी उपनिषद्का उद्धरण पहले दिया जा चुका है कि उत्तरायण का आरंभ घनिष्ठा नक्षत्रके मध्यमें ओर दक्षिणायनका ४४ आरंभ मधा नक्षत्रके आदिम होता था। आजकल दक्षिणा- यनका आरंभ आंदाके आदियें होता है। ४प दोनोंके बीच में चार नक्षत्रोका अंतर हैं इसलिए वह काल ४ २८ ६६० ६: शे८घ०० वर्ष पुराना हुआ। नेदाज्ञ ज्योतिषसें धनिशके आदिमें उत्तरावशका आरंभ होता था, आमकतल मूत्त नकज्षन्नके मध्यमें होता हैं। यह अन्तर झाढ़े तीन गत्त॒न्नोंके बराबर हुआ । इसलिए वेदाज्ञ ज्योतिषकाज् ६५० ८ इसे बर्ष अर्थाव लगभग ३३६२० वर्ष पुराना है । बारह मिहिर* अपने समयकी उत्तरायणकी स्थित्ति हस प्रकार बतलाते हैं - आश्लेंशके आधे भागपर सूर्य 'दस्िणायन ओर धरन्निष्ठाके आदिमे उत्तरायण होता है, यह पू्े शास्रेमें बतलाया गया है, परन्तु आजकल यह क्रमशः कके राशिके आरंभर्मे ओर मकर राशिके आर॑भर्मे होता है। यहाँ वराहमिहिर पहले पृर्वके शा्ओओं वेदाज्ञ ज्योतिष आदिके दक्षिणायन ओर उत्तराधण मक्षात्रोंकी चर्चा करते हैं। अब देखना चाहिये कि कर्क और मकर राशियोंका आरंभ किस नक्षत्रमे होता है। राशियोंके क्रममें कके चौथी ओर मकर १०वीं राशि है। इनके आरंभ स्थान वही हैं जो तीसरी और नवीं राशियेंके अ्रन्तिम स्थान हैं । एक राशिमें २। सवा दो मक्चन्न होते हैं इसलिए ३ राशियों- में पोने सात ६॥॥ नचान्न हुए ओर ९ राशियोंमे २०। नक्षत्र हुए । पीने लात नक्षत्र पुनवंसुका तीसरा चरण और २०। नज्ञत्न उत्तराषादका प्रथम चरण हुआ इसलिए वराहमिह्िर्के समयमें दक्षिणायन पुनर्वसुके तीसरे चरणके अंतर्म और उत्तरायण उत्तराषादके प्रथम चरणके अंतर्म होता था। आजकल यह आद्रके आर॑समें ओर मूलके मध्य भागपर होता है । इसलिए यह सहज ही जाना जा सकता है कि + - अपयेते श्रविष्ठादों सुर्याचन्द्रससावदुक | सार्पाध दक्षियाकंस्तु मापश्रावणयों: सदा 0 याजुपज्योतिष ७; आच ज्योतिष, ६ २ -आश्लेपादादक्षियसुत्तरमयन रेघ॑निष्ठाद्मम । नु्न कदाचिदासीयेनोक्त पूत्र शा्रेघु ॥१॥ सामप्रतसमयन सवितु: ककटाओं सगादितदकवान्यत । उक्ताभावे विकृृति: प्रत्यक्ष परीक्षणेव्य॑क्तिः ॥२७ बृइतू संहिता, आदित्यचार विज्ञान, नवम्बर, १६०४ प्रभतिशील चिकित्साशाद्त भ्४ प्रगति-शील चिकित्साशार्र [ पृष्ठ २८ का शेषांश ] था, परस्तु लक्षणोंका इलाज होता था। रोगोंके कारणका पता जब्गानेके लिये नये नये परीक्षण किये गये । इसीका परिणाम था--जीवाणु-विज्ञान । पता यह लगाया गया कि रोगोंका कारण कई प्रकारके सूक्ष्म जीवाणु हैं जो विभिन्न रोगोंको उत्पन्न करते हैं। यदि उनको नष्ट कर दिया जाय तो कारणके नष्ट हो जानेसे रोग भी नष्ट हो जायगे। मन्लेरियार्मं कुनीन तथा न्यूमोनियामें एम० बी० ६६8३ का व्यवहार इसी आधारपर किया जाता है। जो चिकित्सा रोगके झ्ञात कारणको हटाकर रोगनिवारण करती थी, उस चिकित्सा-प्रणालीका नाम हुआ--5]08070 $788- 70 875 ॥ ऐल्ोपेथीकी यह चरम उन्नति थी | परन्तु वह भी कुछ समय तक ही सफल बन सकी, आगे चलकर वह भी असफल 'हो गई ! स्पष्टीकरणके लिये एक-दो उदाहरण कीजिए -- शरीरमें पूथ दृत्यादिकों उत्पन्न करनेवाले जीवाणुओंके नाशके बिये 89]7॥87]9877]06 £27/०0७% का ब्यवहार आँख मूंदकर किया जाता है। 0धोएी8- 0ए700]786 जो बाज्ञारमें एम०बी० ६१३ के नामसे प्रसिद्ध है, इसी वर्गकी एक ओपषध है । पु्व॑ंके सब ओषधोंकी अपेक्षा न्‍्यूमोनियामें यह आश्चर्यजनक प्रभाव दिखलाती है। ३६-७२ घराटेसें ज्वर उत्तर जाता है। इसका अभीष्ट असर देखनेके लिये आवश्यक है कि इलकी अधिकतम मात्रा ६-१२ गोली टी जाथ | अधिक मात्रा इसलिये दी जाती है कि शरीरके प्रत्येक अणु-अणुर्मे प्रविष्ट होकर न्यूमोनियाके जीवाणुओंको मार दे। परन्तु ज़रा सोचें, जो मात्रा जीवारछुओके लिये घातक है, क्‍या वह शरीरके 0७९!]8 पर बुरा प्रभाव न डालेगी ? कदाचित्‌ इसका इतना दुष्प्रभाव होता है कि रोगीकों इवास-काटिन्य, वसन आदि लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं; उसका जीवन खतरेमें पढ़ जाता है। 580]]])8]097]78 ज्यरको शान्त कर देती है, परन्तु अपने विपैज्ञे ग्रभावले शरीरकों भी निबंल बना देती है । क्योंकि इसके द्वारा ज्वरका निराकरण रोग- के जीवाणुश्रोंके नाशसे होता है, न कि शरीरमें रोगके प्रति प्रतिशक्ति ( 7॥7]077]69 ) को बढ़ाकर | अ्रतः दुबारा न्यूमोनियाकी आशंका पहलेसे अधिक हो जाती है। अतः शरीरकी जीवनौय शक्ति पूर्वापेच्ा बहुत निर्बत्त हो गई है । अगली बात कह्दनेसे पूर्व एक उदाहरण श्रवश्यक है । प्रतिदिनके देखनेकी बात है। अ्रफीमची लोग अफीमकी वह मात्रा भी आसानीसे हम कर लेते हैं जिसका चतुर्थाश खानेसे ही एक साधारण पुरुषकी रूत्यु हो जाय । संखिया अफीमसे भी अधिक तेज़ ज़हर है। परन्तु अभ्यस्त लोग इसे भी प्रतिदिन खाते हैं । क्योंकि सतत थोड़ी-थोड़ी मात्रा बढ़ानेसे उन्हें यह विष भी सात्म्य हो गया है ओर बढ़ी- से-बड़ी मात्रा सहमेंकी शक्ति उत्पन्न हो गई है। जो मलुष्य- के बारेमें सच है, वही|जीवाण॒श्रोंके बारेमे भी सत्य है । लगातार एम० बी० ६8३ के प्रयोगसे एक दिन न्यूमों- नियाके जीवासुओंमें भी इस विषकों सहनेकी शक्ति उत्पन्न हो जाती है ओर घातक मांत्राकों भी वे सहन कर लेते हैं। इस स्टेजपर आकर :ऐकोपेथी फेल: हो जाती है | जो एम० बी० ६६३ एक समय ३६-७२ घण्टेमें ज्वर उतार देती थी अब उसकी अधिकतम मात्रा भी कोई प्रभाव नहीं दिखाती है। परिणामत: एक नथे समासकी खोज की जाती है जो पूर्वते अधिक तेज्ञ हो ओर इसी प्रगति यथा अस्‍्वे- पणका परिणाम होता है एक नया समाख जो अब बाज्ञार- में पेनिसिलीन! के नामसे प्रख्यात है । यह विगत “फरवरी :मासमें माता कस्त्रबा पर भी आजमाई गई थी! यह प्रगति यहीं न रुफेगी। इसके झग्सफल होने पर एक नये समासकी ज़रूरत पड़ेगी । यह्ढ सिलसिला इसी रुपमें' चलता रहेगा। एक दूसरा उदाहरण है--कुनीनके बारेमें। पिछले तीन-चार वर्षो्म मलेरियाके कारण भारतर्भ बहुत भोतें हुई हैं । कुतीमका अभाव भी इसमें कारण है, परन्तु बहुत- से वे भी व्यक्ति जिनको कुनीन प्राप्त हो सकी मलेरियासे न बच सके। मेंने स्वयं कई ऐसे मरीज़ोका आयुवदके द्वारा उपचार किया है, जिनको मलेरिया था, रक्त-परीक्षामें मलेरिया-पराश्रयी उपस्थित थे। कुनीन दी जाती थी, एक-दो दिनके लिये ज्यर उत्तर जाता था ओर फिर कुनौन बन्द करते ही ज्वर ग्रारंभ हो जाता था। इस प्रकार क्गा- तार 9७, ५ मास डाक्टरोंका इलाज करवानेके बाद भी वे ठीक न हुए । डाक्टर ज्ञोग भी इससे सहसत हैं_ कि कुनीन ४६ विज्ञान, नवम्बर, १६४४ मलेरियाकी पुनराध्रत्तियों (।'०]90965) को तोडनेमैं प्रायः असफल सिद्ध होती है। कारण कि धीरे-धीरे मलेरियाके पराश्रयी कुनीनके प्रति साह्य हो गये हैं। अब वे कमीन- की अधिकतस मात्राकों भी सह सकते हैं---फु्तीनके रक्तमें विद्यमान होने पर भी जिन्दा रह सकते हैं। ४६८) तथा [7908॥9708?777 के आविष्कारकी ज़रूश्त भी ऊपर कथित कारणोंसे पढ़ी। परन्तु एक दिन थे भी निरथंक हो जायेगे ! ऐल्ोपेधीका आधार प्रारम्भसे ही गलत होनेसे डसे इन सब असफलताओंका साझना करशा पता है। संभव है यह कथन श्रत्यूक्तिपूर्ण तथा अयुक्तिपूर्ण समझा जाय । जिस विज्ञानका शरीर संबंधी ज्ञान->- शरीर रचना-विज्ञान, शरीर-क्रिया-विज्ञान-यक्ति तथा तकपर ही नहीं परन्‍्त प्रत्यक्ष प्रसाणके आधारपर स्थित है, क्‍या उस सायन्सकी चिकित्साका आधार गलत हो सकता है ? विश्वास करना कठिन है। परन्तु इसके उत्तरमसें यही कहना चाहता हैँ कि जिस प्रकार रेखागशित तथा बीजगणितर्में एक भानित्त- सिद्धान्त ( 7ए[00%॥0९878 ) स्वीकार कर लिया जाता है, ओर प्राप्त उत्तर उस मानित-सिद्ध न्तकी परिधि ही सत्य होता है, उसी प्रकार ऐलोपेथीने प्रारंभ शरीरकी खोज करनेके लिये जिन सिद्धान्तोका निश्चय कर आगे अन्वेषण प्रारंभ किया उन्हीं सिद्धान्तोंकी सीमाके अन्दर वे जात परिणाम- शरीरकी रखना तथा क्रिया सम्बंधी-..- सत्य है। वस्तुतः सत्यकी कसोटी तो चिकित्सा है । यदि चिकित्सामें विफलता मिल्ले तो वे वास्तव ठीक नहीं कहें: जा सकते | इसके अतिरिक्त कुछ ओर उदाहरण लीजिए । आश- वेंदमें' अजु नत्वक चूर्ण! हृदयकी निर्बलतामें सफलताके साथ व्यवहत होता है । परन्तु ऐलोपेथिक विश्लेषण विधि- के अनुसार ज्ञात परिणामोंसे पता चलता है कि इसमें ऐसा कोई तत्व नहीं जो हृदयपर प्रभाव करता हो । आयुर्वेदमे विडंगका चूर्ण आन्त्रकृमियं आशातीत प्रभाव दिखाता है, परन्तु ऐलोपेथीके अन्वेए्ण इसका विरोध करते हैं| इसी प्रकार अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं, जो इस बातको स्पष्ट करते, हैं कि ऐलोपेथीकी विहलेष्ण विधि कहीं झुटि- पूर्ण है । हे [भाग ६० इन्जेक्शन-वचिकित्सा-निःसन्देह इन्जेक्शन चिकित्सा एक सीमा तक उपयोगी है। मरणासल्न व्यक्तिके रक्तमें सीचा ओषध पहुँचाकर शीघ्र प्रभाव देख सकते हैं। परन्तु इसका प्रयोग अन्धाधुन्ध किया जाने लगा है। चिकित्सामें इसके कई दोष हैं । सुख हारा जो ओषघ ली जाती है उसे रक्तमें पहुँचनेसे पूने कई प्रक्रियाअ्रमेंसे गुजरना पढ़ता है । अन्तर्में रक्तमं उसका वही भाग प्रवेश पाता है जो शरीरके छिये सात्म्य होता है, शेष किहके रूपमें बाहर - निकल जाता है. परन्तु जो ओषध रक्तमें सीधा पहुँचा दी जाती है, उसमें इस बातका ध्यान नहीं रखा जाता। ओषधका प्रभाव तीवतासे तो होता है. परन्तु च्णिक । उस ओषधर्म वे सब तत्व भी उपस्थित रहते हैं जिनको शरीर ओपषधणके रुपमें मुख द्वाश लिये जाने पर मलके रूप- में बाहर निकाल देता । तथा यह रक्तमं एक अ्स्तात्य समासके रूपमें प्रविष्ट होती है, एतदर्थ रक्त इसे एक विजातीय द्वव्यके रुपमें शीघ्र ही।स्वेद, मूत्र या श्वास द्वारा मिकाल देता है । भोजन--अन्तिम बात भोजनके बारेमें कहकर समाप्त करता हैं । भोजनके बारेमे ऐलोपेथीका दृष्टिकोण भी ब्ुटि- पूर्ण है। समय था जब “विटासिन'का नारा ज़ोर पकड़ गया था। डाक्टर लोग प्रायः प्रत्येक रोगका कारण विदा- मिनकी कमी बतल्ायथा करते थे. परन्तु यह भी उतनी सफल न साबित हुईं । जिन रोगोंमें ऐलोपेथी विशामिनकी कमी बतलाती है. आयवेद उनकी चिकित्सा उन द्वव्योके ह्वारा करता है जिनके बारें ऐलोपेथीका यह अन्वेषण हे कि इनकी विटामिन नष्ट हो चुकी है। यथा 0.0 7607४+8 में त्रिफलाघृतका प्रयोग । यह भी आयुर्वेद- का ऐलोपेथीके मूल-आधारोपर कुठाराधात है। इस विषय पर बहुत कहा जा सकता है, परन्तु लेख लम्बा हो जानेके भयसे एक बात कहकर समाप्त किया चाहता हूँ । आयुर्वेदर्स भोजन सम्बंधी सिद्धान्त प्राचीन होते हुए भी ऐलोपेथीके सिद्धान्तोंसे कहीं उत्तम है। ऋतु-काल्कों देखकर भोजन करना, द्वव्यके रस, वीय, विपाककों जानकर उनका ग्रहण करना कितना वैज्ञानिक तरीका है निचले उदाहरणसे स्पष्ट हो सकेगा--में गुसकुल काँगड़ीके आथु- वेद महाविद्यालयमें पढ़ा करता था। मेश एक सहपाठी संख्या २ ] रा था जिसे ऐलोपेथीका पर्य्याध शोक था ओर ज्ञान सी था । प्रत्येक बातको वह ऐलोपेथीके विचारसे महण किया करता था । उसने दिसम्वर्की सदियों गश्लेका रस प्रातः १० बजे पीना आरंभ कर दिया | हमने बहुतेरा समझाया कि तुम्हें पहले ही आमसवातकी शिकायत रहती है, गन्ना शीतवीयय होता है, कहीं फिर आमवात थे जाग उठे । परन्तु उसका कहना था कि गजन्नामें ग्लूकोज़ होती है, जो हृदयकों बलवान बनाती है । अतएवं इसका कोई दोष नहीं । वह पीता ही . रहा | दो सप्ताह बाद वास्तवर्म उसे आमवबात' का फोप हो गया जिस कारण कई रोज तक चारपाईपर लेटे रहना पड़ा । समालो चनाएँ आंगल्न-सारतीय महाकाष--संपादक, डाक्टर रघुवीर, एम० ए०, पी-एच० डी०, इत्यादि। भाम १, एखायनशास्त्र पृष्ठ १०+-२०+-६--३१००। अकाशक, सरस्वती विहार, लाहीर। इस खंडमें डाक्टर रघुतीरने ६००० रासायनिक शबदों- का संस्कृत रूपाँतर दिया है ओर उसे देवनागरी, ब्रगला, तामिल ओर कन्नड अक्तरमे छापा है। कार्य सराहनीय है परंतु पता नहीं हमारे विद्वानोंकी रघुवीरजीके गढ़े शब्द कहाँ तक पसंद आयेंगे । डाक्टर रघुवीरका एुराने हिंदी शब्दोंकी पूर्ण उपेज्ञा करता क्रमालोचकहों पर्संद भहीं आया ! 7 के लिये न्पु, 8।887)]6 के लिए नेपादी 57]9॥प7 के लिए शुल्बारि, ४770 के लिए छुप्यातु, 80497! के लिए आरातु, 0540प्रशा के लिए चुर्णातु शाथद्‌ ही चल सकें, ओर यदि थे शब्द नहीं प्रच- लित हो सकेंगे तो अन्य शब्द तो ओर भी न चल्न पायेंगे, क्योंकि वे अधिक टेढ़े हैं, जैसे दियासलाई के लिए दीपेषी- का ओर रांगेकी पत्नी (77-0]!) के लिए त्रपु-पर्यायन उदाहरणके लिए नीचे एक स्त॑भके सब शब्द दिये जा रहे हैं! -- 5िप7!0प्रए86 ए६8 दीपेपीका) 58 0॥07808--8४!]07077268 80].007'80707 - शुंद्बारीयण ]68 शुद्बारीयित इसीका समालोचना ४७ ४प | 0907%॥07'-- शुल्बारीयक, (8) ७0[09- #कापड पड्छते 7 8प970795।3398) शुल्बारीयण--यंत्र । 8घ/#07० ए. 5 शुल्बारीयण, (६0 00॥7- 076 ४76 5प/0॥४)) शुल्बारियोजन, (६09 7|9782879878 फ़(॥ हप।0पा") शुल्ब्रास्व्यिपन ह 5"प: 00766: उद्दजन | 8प0792८ शुल्बा, ( 00 ०000776 0! 09/6208676 छ६0॥) 807]प07' 07 छाए 0 |$8 00770 पा पै8, 80607[., $0प्त28॥0 . 09" 0॥68060 एछ्ञ$॥ 80.07 घि068 ) शुद्बारि-योजन,--- व्यापन - घूमने 90 70॥:7::# 07 शल्बारीयण ६0]] 0778 बंगकायव, (६09 50॥ 078 फ0॥ 6९|| 7 घात) बंगक-ब्यापन , ($0 6788 ज़ 0 $8]!ए7 धात। ) वंगक-साधव $8/प07860 07'&8 बंगकायित अयस्क | (90:02 ९7 शुब्बारीयित ट्ब 'वेंडियत डिक्शनरी अ'ग ३ । लेखक अथवा संपादक, सुखसंपत्तिताय भंडारी । प्रकाशक, डिक्शवरी पर: लशिग दास, अजमेर । इं४-सवख्यां ३२-- १७४ +- २९ -- १६ + ६९०- ६०+-७२, जिनमें कई पृष्ठ रिक्त हैं परंतु प४-संख्यामें जोड़ लिये गये हैं। बढ़ा आदर (७” % ९६) । कपड़ेकी जिल्‍द | मूढ्य १७) । सुखसंपत्तितायजीके कोपके दो भाग पहले छप चुके हैं। यह तीपरा भाग हैं | इसमे (१) शासन (२) क्गान (३) कारखाने, (४) भसावा-विज्ञन, (०) गणित, (६) जीव-विज्ञान ओर (७) 'भाकृतिक' (१) विज्ञानपर शब्द हैं। शब्द- संख्या लगभग २०,००० है । संडाशीजी हिंदीकी विशेष सेवा कर रहे हैं, ऐसी मेरी धारणा थी, परंतु प्रस्तुत खंडको देखकर तो संदेह होता है कि अब भंडारीजी केवल पेसा कमाना चाहते हैं, चाहे हिन्दीकी सेवा हो था नहीं। प्रमाणमें में निम्न बातोंको पाठकोंके सम्भुख रखना चाहता हूँ । छ्र्८ विज्ञान, नवम्बर, १६४४ फ००, १०, 4 878 (१) काशी नागरी-प्रचारिणी सभाकी हिन्दी वैशानिक ... शब्दावल्लीके गणित-विज्ञानमेंसे ही शब्दोकों चुदकर भंडारी- जीने अपने कोपसें दिया है ओर संभवतः इस विचारसे कि उनका कोष नागरी-प्रचारिणी स्माके कोषकी प्रति- क्िपि मात्र तजान पड़े, सभाके कोपको उन्होंने छिन्न- भिन्न करके चार खंडोंमें छापा है--अंकगणित, बीजगरित, ज्यामिति ओर चलन-कलन । परंतु इस तोद-मरोइसे पाठककेा कितनी अ्रसुविधा है।गी इसके भंडारीजीने संभवत: ध्यानमें नहीं रक्खा । गणितके शब्द मुहरबंद विभागेंमें बटे नहीं रहते--एक दी शब्द अंकाणित, बीजगणित, ज्यासिति और चलन-कलन सभी विभागरोमें प्रयुक्त हे सकता है। ऐसी अवस्थामें पाठक बेचारा किसी शब्दके कहाँ खोजेगा / अवश्य ही उसका बहुत-सा समय बेकार नष्ट जायगा। मेरे विचारमें तो वैज्ञानिक कार्षर्मे गणितके विविध खंडोंके ही नहीं, विज्ञान- के सभी विभागोंके शब्दोके एक द्वी क्रममें देना चाहिए, क्योंकि एक ही शब्द गणितके अनेक खंडेंमें, भोतिक विज्ञान, रसायन, ज॑तुशाख, वनस्पतिशासत्र, भूगर्भशास्तर, चिकित्साशासत्र श्रादि सभीमें प्रयुक्त दवा सकता है। परंतु गणितके शब्दोंके प्रचक्षित कोषसे लेकर अत्षग-अक्तग खंडों- में दापना पाठकोंके प्रति निरा अन्याय है । इस विभाजनमें कुछ शब्द अशुद्ध स्थानमिं पहुँच गये हैं, कुछ शब्द कई स्थार्नमें आ गये हैं और बहुत-से शब्द छुट भी गये हैं | केवल छोटा-सा उदाहरण पर्याप्त होगा । सभाके काषमें .+ से .५ 0० तकमें ण८ शब्द हैं । इनमेंसे भंडारीजीके केपमें कुल २६ शब्द आये हैं । एक शब्द दो बार आया है, एक बार ज्यामितिमें, एक बार चलन-कलन में । इससे स्पष्ट है. कि भंडारीजीके केषका गणित-संबंधी भाग सभाके कापसे कहीं अधिक निश्च श्रेणीका है। इस बातको देखते हुए भंडारीजीके कार्यकी सराहना अब हम नहीं कर सकते । (२) कोषका मूल्य बहुत अधिक रक्खा गया है। हम जानते हैं कि काग़ज़का दाम इन दिनों पहलेकी अ्रपेत्षा बहुत बढ़ गया है । छुपाई भी बहुत महँगी हो गयी है। मुद्रक तथा प्रकाशक--विश्वप्रकाश, कला प्रेस, प्रयाग । हे 7 प आटे-दालका भी दाम बढ़ गया है, जिसके कारण लेखक तथा प्रकाशककों पहलेकी अपेक्षा अधिक ज्ञाभ होनाः. * अनिवाय है। तो भी २८० पृष्ठकी पुसुतकका दाम 3७) होना मेरी रायमें अच्षम्य है। ओर आश्चय तो यह है कि भंडारीजीको दूसरोंसे आधिक सहायता भी मिली है | आि्ााककाइड ८५: डयह 50.4० ५-- फपपमपनन्‍म न बा 4 ज एजब:प-य रथ २ पमकपयय 8 पर-->प्टफबो न्‍ल्‍ममन्म ये विज्ञान--वार्षिक मूल्य ३) प्रधान सम्पादक-छ]० सनन्‍्तप्रसाद टंडन कर ७३ कक ३० +० ०००» ०» नल ७ क) 9 क१+३०फ२७ ०७७०9 3३ ०००७७३+३४३२फक७++०9७ ७५७ सा क लक ल॑++ 3253३ ०१-++२ २७३ फनओं कम नम ११० जाए मय आकेआ ओला पंता+-- श्रीयुत ७ # - # हे $ 8 ६ 49 0 ५ ० ७" 7 0९ के सके को दो फ़ का प७#+ ९ + ' &2& & जछ्ञा सास विज्ञान-परिषद्‌, प्रयागका सुख-पतन्र विज्ञान ब्रह्मेति व्यजानाव, विज्ञानादृध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । विज्ञानेन जातानि जीवन्ति, विज्ञान प्रयन्त्य भिसंविशन्तीति ।। तै० ड० ॥३।७। नस्लप्वेग्किप्लॉप्फेननॉम्लेग्डनिलर के के नाक कर , नॉप्देर लेने न वेप्न जीप नर वप्लेल कक नॉलईनॉ लेक |. बनु, सम्बतू २००१ | उंछ गया हट |. दिसम्बर रधछ४.. | रे ६08 88 04008, 22222 2 22222 22222 22232 27722 4: वनस्पति तेल डाक्टर रामदाल तिवारी, एम्‌० पएसू-खी०, ढी० फिल्नू०, रखायन विभाग, प्रयाग विश्वविद्याज्नय गत चालीस या पचाप्त वर्षों के अन्दर रसायन विज्ञान - की बहुत तीज्र उन्नति हुईं है। रसायनकी इस डज्नतिसे हर एक उद्योग को कुछ न कुछ ज्ञाभ अवश्य हुआ है। रसायन श/ख्रके प्रत्येक विभाग में अनुसन्धानों द्वारा अनेक नई नई बातें मालूम की गई हैं जिनका भ्रन्य वैज्ञानिक विषयों तथा उद्योगों पर बहुत ही महत्वपूर्ण प्रभाव पढ़ा है। तेल्ञोंकी रासायनिक तथा औद्योगिक उन्नति भी इसी प्रभावका फक् है । मनुष्यके देनिक जीवनमें तेल्लॉका महत्व कुछ कम नहीं है। अनेक उद्योगोंमें भी इनके बिना काम नहीं चत्त सकता । लाबुन, मोमबत्तो, ग्लिसरोन, रंगसाजी, वार्निश, वनस्पति घी तथा अनेक दुवाइयोंके बननेसें इनका बहुत प्रयोग होता है । आजकल्न नकली रबढ़ बनाने तथा कुछ विशेष अ्रकारके इंजन चल्लानेमें भी इनका महत्व बढ़ता जा रहा है। मलुष्यों तथा पशुओोंके आहारका भी यह आवश्यक अंग हैं । अतः किसी भी देश अथवा राष्ट्रकी उन्नति वहाँके पैदा होने वाले तेलोंकी मात्रा पर भी निर्भर है । देशकों मनसंब्या तथा तेज्ञोंके नये नये डपयोगोंके मालूम होनेके साथ साथ तेकोंकी आवश्यकता भी बढ़ती जाती दे । पथ्वी तथा पशुश्रोंसे प्राप्त होने वात्ने तेल तथा चरबी (8/ ) की मात्रा तो सीमित है परन्तु वनस्पतियों द्वारा मिलने वाले तेज्ञोंकी मात्रा आवश्यकतानुसार घटाई बढ़ाई ला सकती दे । भारतवर्ष एक कृषि प्रधान देश है ओर यहाँ आवश्यकता पढ़ने पर उन वस्तुश्रोंकी खेती बढ़ाई जा सकती है जिनसे तेल प्राप्त हो सकते हैं। यहाँका जल- वायु ऐसा दे कि इस देशमें न होने वाले पेढ़ भी यहाँके किसी न किसी हिस्से में आसानो से क्षगाये जा सकते हैं । संसारमें सबसे अधिक तिलहन पेदा करने वात्या देश चीन हैं; भारतवर्ष का स्थान दूसरा है । युद्धकाल्नोन परिस्थितियोंके कारण तेल्नोंकी आवश्यकतायें बढ़ती ही गईं हैं। अतः गत कुछ वर्षों ति्नहनकी खेती की वृद्धि हुई है। इसके साथ ही साथ तेल सम्बन्धी अनुसन्धान भी अब बढ़े पैमाने पर किये जा रहे हैं जिससे उन्हें अधिकसे अधिक ज्ञाभदायक बनाया ज्ञा सके । इन सब बातोंसे स्पष्ट है कि इस ड्य्योगका भविष्य बहुत ही उज्वल्ञ है । तेज्ञों के सम्बन्ध में ओर बातें लिखने के पहले यह्द बतत्ला देना आवश्यक ह कि यह तीन प्रकारके द्वोते हैं--- ( १ ) खनिज तेत्ल ( 77767'8) 078 ) बहन तेज्ष हैं जो प्रथ्वीके गर्ससे निकत्नते हैं, डदाइरणार्थ पेटोल या मिद्टीका तेत्ष ! ( २ ) डदनशील तेल (८४४७7३४४०) 07 ए0]8« 57/6 0]9 ) बह तेज्न हैं ;जो रखने पर उड़ जाते हैं । अधिकांश सुगन्धित फूल्नों, पत्तियों अथवा जड़ोंसे भपके द्वारा यद्द निकाले जाते हैं। जैसे ज्ञोंग का तेज, नींबू , खख या केवड़ेके तेक्ष इत्यादि । (३ ) स्थिर तेत्न (560 07 &॥09 ०0]8) वह हैं जो रखने पर नहीं उड़ते और दो प्रकारके पदार्थोले प्राप्त हो सकते हैं (अ ) जानवरोंसे ( ब ) वनस्पतियों से । उपयुक्त वर्णित तीनों प्रकारके तेज्ञ एक दूसरेसे बिल्कुल भिन्न होते हैं। यहाँ पर हमारा सम्बन्ध उन्हीं तेलोंसे दे जिनको स्थिर तेल कद्दते हैं और नो वनस्पतियों से प्राप्त किये जाते हैं | इन्हें हम वनस्पति तेज्ञ कद्दते हैं । ० विज्ञान, दिसम्बर, १६४४ तेल तथा चर्बी | !33 । में कोड रासायनिक अंतर नहीं है । अंतर केवल भौतिक गुणोंका ही हे और वह यह है कि साधारण तापक्रम पर चर्बी ठोस रझूपमें तथा तेल द्रव खूपमें होते हैं। तापक्रमका अन्तर होनेले एक ही पदार्थकों हम एक देशमें च्री तथा दूसरे देशमें तेल कह सकते हैं। एक ही देशमसें कोई पदाथ भिन्न भिन्न ऋतुआम तापक्रमक अनुसार चनब्री या तेल हो सकता हैं | उदाहरणार्थ नारियत्ञका तेल भारतवर्ष सें जादेंगें चर्बी (756) तथा गर्ममें तेन् कहा जा खकता है । चर्बी अथवा तेल एक प्रकारके कार्वोनिक [ 5!'छ ५।) 2) पदार्थों के समुहकों कहते हूं जो चर्बरल्ने तेजाब (|७॥॥%$ &068) तथा ग्लिसरोनके आपसमें ऐस्टर (23॥९/॥ रूपमें मिललनेसे बने हैं। ग्किसरीनर्स तीन हाइड्रोक्सी समूह ((9 405५9 ४75॥]05) होते हैं जो चर्बीले तेलाबोंके तीन अणुओं (7:0८00 €&) के साथ मित्र कर पानीके ६३ श्रणु निकाल कर एक नया पदार्थ बनाते हैं जिसको ग्लिसराइड (|५5387४0०) कहते हैं । ढदा- हरणाथे, ग्लिसरीत और स्टीयरिंक तेजाब मिलकर दाई स्टीयरीन नामक नया पदार्थ बनता है | 08,,.0प्त. छ&छ00500,; मर, | ह 5 जो 736 कक । 28० 38 8 के आम ग्लिलरों इञ्रणु स्टीयरिक तेज्ञाब 5 0 6 की दम | "6 - एाव0, 000, , 8,, +98, ' आल & का हे ही के पूज ६79 १ क 2 (6५ कप, कै ट्ाईस्टीयरीन पानी बनस्पति तेलोंक ग्लिसराहडो्म पाये जाने वाले चर्दीलि तेजाबोंम ल्ञारिक : क्रााईट ६ । ,3 (2) 7 मिरिध्टिक ६ के! 3]./6 ६! के 759 + (घन है] पामिठिक ( |)8:॥/00 (४, ८ 34 (६2६१६ ), स्टीयरिक. ( ४8 ००706 (०: ५८ (५20)7 ), सम कतर/या 272 हु7::6 भर ०३:०६०७९, १६४ :क्ए राय: "०: पाक अक एप्प । कि हू बेहिनिक [ )0ी॥ह76 (/,, ,38 (६ पत) ल्िगनोसेरिक ([87006/0 (४५ ५ 7 | (/(१()-), ओ्ोक्नीक कह जि क, (2 लिनोलिक ( ।॥0]606 (/).,, ५4 ५४४)! ), तथा ल्िनोलेनिक ((॥0|]070 (१, « ०५0 (7 (3 7) प्रधान हैं । बनस्पति तेल पेंड़ोके लगभग प्रत्येक भागमें पाये जाते हैं परन्तु बीजों, फल्नों तथा फूल्लों में गह मुख्यतः होते हैं! पेड़के प्रारंभिक ज्ञीवन तथा वृद्धिछक समय यह उनके खाद्यका काम देते हैं। अधिकांश वेज्ञानिकोंका मत है कि यह शकरीय - पदाथों (680[)0॥9 0॥ ७; 0५) से बनते हैं । यह देखा गया है कि जैसे जैसे शकरीय पदाथों की मात्रा कम होती जाती है, तेलकी मात्रा बढ़ती जाती है | डदाहरणार्थ बादामके बीजोंमें पकनेके पहले शकीरीय पदार्थों की मात्रा तेलकी मात्रासे कहीं अधिक होती है परन्तु जब वह पूर्ण रूपले पक जाते हैं तो दीक इसका डब्टा होता है अर्थात तेलकी मात्रा शर्करीय पदार्थों की मात्रासे अधिक हो जाती है । कन्चो तथा पक्ते बीजोंके बीचकी अनेक अवस्थाओंम उनका तेल निकालकर अध्ययन करनेसे यह मालूम हुआ दे कि पहले तृप्त तथा अधिक भारके चर्ब॑ल्ने तेज्ाब बनते हैं, अतृप तथा कम भारके बाद में । चर्बले तेजाब तथा ग्लिसरीनका संगठन ल्ाइपेज़ (0886) नामक पुन्ज्ञाइम (०॥29॥॥8) के द्वारा होता है । यह स्मरण रखने योग्य बात है कि यही ल्ाइ- पेज तेलके ग्लिसराइडों को चर्बीले तेजाब तथा र्लिसरीनमें विभाजित भी कर सकता है। इस क्रियाको जल्न-विभाजन (09070]988) कहते हैं । एक या दो चर्बीले तेज्ञाबों को छोड़कर जिनके अस्तित्वमें कुछ संदेह भी है, तेल्ल में पाये जाने वाले अधिकाँश चर्बीले तेज्ञाबोंमँ कारबन :05'204)) के पर्माणुओं (80078) की संख्या सम दोती है । तेलोंका रासायनिक संगठन उनके पेद्ा होने वाले स्थान की जलवायु तथा अन्य परिस्थितियों पर भी निर्भर है । गर्म स्थानोंमे पदा होने वाले लेल्लोमें तृप्त चर्बीले तेज़ाब अधिक होते हैं ओर सर्द स्थानोंम होने वाले तेलोंमें अतृप्त । अतः सूखने वाले तथा कम सूखने वाले तेज अधिकांश संख्या ३ | वनस्पति तेल ५९ उंढे देशोंमें उत्पन्न होने वाले बीजोमें पाये जाते हैं और न सूखने वाले तेल गर्म देशोंसें पैदा होने वाले बीजों ! वनस्पति विज्ञानके अनुसार सभी पेड कुछ जातियों ([8077|[68) में बॉँट दिये गये हैं | यह देखा गया है कि एक ही जातिमें होने वाल्ने पेडोंके बीजोंके तेलोंमें अधि- कांश एक ही ग्रकारके चर्बीछे तेज्ञाब पाये ज्ञाते हैं। यह समता यहाँ तक पाई जाती है कि कुछ वैज्ञानिकोंका मत है कि चर्बीले तेज़ाबोंके आधार पर भौ बक्षों का वर्गीकरण किया जा सकता हैं । यह भी देखा गया है कि पक विशेष समूहमें कोई चर्बीला तेज्ञाब बहुतायतसे पाया जाता है अन्यमे नहीं । उदाहरणार्थ पामी ([)5!756) जातिके बीजोंके तेलोंमें लारिक नामक तेज़ाब अवश्य होता है। इसी प्रकार मिरिस्टीजली 97860 0०१०९) ज्ञातिके बीजोंके तेलोंमें मिरिस्टिक तेज्ञाब होता है । वनस्पति तेलोॉंका वर्गीकरण कई प्रकारसे किया जा सकता है । अधिकांश लोग इन्हें तीन समूहोंमे बॉटते हैं (१) सूखने वाले (॥ए72 (२) कम सूखने चाले 88770%ए472 (३) न सूखने चाले 707:70 #ए|772 आयोडीन संख्यासे इस बात का पता लग जाता है कि तेल किस समूहका है । जिन तेलांकी आयोडीन संख्या १३० के ऊपर होती है वह सूखने वाले जिनकी १०० वा १३० के बीचमें होती है वह कम सूखने वाले ओर जिनकी १०० ले कम होती है वहन होते हैं । जैसा पहले कहा जा चुका है तेल चर्बीले तेज़ाबोंके ग्लिसराइड द्वोते हैं । ग्लिसरीनमें ३ हाड़ोक्सी समूह होते है अतः एक ही चर्बील्षे तेजाबसे हमें तोन प्रकारके ग्लिपत- राइड मिल सकते हैं । । थ्र (१) (/ लि: ते 0, 075 + 40 00 सूखने वाले तेल 0प्त, 0प्त | .. (2प (प + 3, ६) 0प्न,. 00098 इसमें चर्बछि तेजाब का एक अणु ग्लिसरीनके १ अणु के साथ इस प्रकार मिलता है कि एक ही हाइड्ोक्सी समूह ऐस्टर बनाता है बाझी दो खाली रहते हैं। इस अकारके ग्खिसराइडकाी सानो ग्लिसराइड : :;६5. 2५), हे हज /.8० 3) कहते हैं । एम, 0प का. > | (९ #। ६४, * 3 2 चूक 69 है ० हे (२) 007 ञ0] 008 कक शक 8 एप, छत ने (590. ((४/६+ ६ 5, () | रद (छल, 0). (0९४ इससे चर्बीके तेजाबके २ अणु ग्लिसरीनके एक अ्रणुके साथ इस प्रकार मिलते हैं कि दो हाइडक्ली समूहोंके साथ पुस्टर बनता है, तोघरा खाली रहता है | इनफो डाइरिलि- सराइड (५।249 00०: :४०) कहते हुं 09, 07+ 87) ) 0, ४४ पलक? (३) 0प्र0[8 + छू 0 00. & एप्न, 0]5 + प06| 00, & 0प्च, 0. 00. 8 | ड़ * (ता), 00, 8+8 8, 0 | 0प, 0, 00. & ९० ६. इसमें चर्ब॑ले तेज्ञाबके ३ श्रणु ग्लिसरीनके एक अणु | शेषांश पृष्ठ ए२ के पहले स्तम्भके नींचे| “4: विज्ञान, दिसम्बर, १६४४ भारतकी खेतीमें बेकार वस्तुओं की उपयोगिता लिखक--डा० हीरालाल दुबे, एम० एस-ली; डी० फिल | प्रोफेलतर बाबा करतार सिंह, एस-सी० ढी० के सभापतित्वमें डाक्टर साम हिगिनबाटमने 'भारतकी खेतीमें बेकार वस्तुश्रोकी उपयोगिता! पर एक बड़ा मनोर॑जक ओर लाभदायक भाषण इलाहाबाद यूनीवसिटीकी रासायनिक के तीनों हाइड्रोक्सी समूहोंके साथ मित्नकर ऐस्टर बनाते हैं श्र कोई भी हाइड्रोक्सी समृह खाली नहीं रहता । इनको टाईग्लिसराइड कहते हैं । प्रकृतिमं केवल दाईं ग्लिसराहुड ही बनते हैं, मानो या डाई ग्लिसराइड ताज़ तेलोंमें नहीं पाये जाते । संभव है कि पुराने तेलोम बहुत दिन रक्‍खे रहनेके कारण जल- विभाजन कियासे यह कुछ अंशर्में बन जाते हों । टाई ग्लिसराहुड २ प्रकारके हो सकते हैं । एक तो वह जिनमें एक ही चर्बीले तेजाबके ३ श्रणु ग्लिसरीनके साथ ऐस्टर रूपमें मिले हों जैसे दाई पामिटीन (॥77]08 [१४- ॥$7) इत्यादि । इनको साधारण टाईग्लिसराइड (8]77- 006 70 2ए0९१४ १९५) कहते हैं। दूसरे वह जिनमें दो या तीन चर्बले तेजाबोंके ३ श्रणु ग्किसरीनके एक अणु के साथ मिलकर ऐस्टर बनाते हैं जैसे पामियों डाई स्टीय- रीन था पामिटों स्टीयरो ओोज्ञीन। इनको मिश्रित टाई ग्लिसराहृड (7560 +72]ए0९७7०08५) कहते हैं । कुछ वर्ष पहले तक लोगों का विश्वास था कि तेक्षोंमें साधारण टाई ग्विसराइड ही होते हैं परन्तु गत दस पनन्‍द्रह वर्षकि अन्दर किये गये नवीन अनुसन्धानोंसे यह धारणा गलत सिद्ध की जा चुकी है। प्रकृतिमें साधारण थाई ग्लिसराइड बहुत ही कम होते है, यथा संभव मिश्रित ग्लिसराहड ही पाये जाते हैं। साधारण टाई ग्लिसराइड जभी बनते हैं जब मिश्रित ग्विसराइड बनना किसी प्रकार भी संभव नहीं रह जाता। इस विषयमसें झागे चलकर विशेष विवरणके स्लाथ विचार किया व्ययगा ! | भांग ६० परिवदर्म दिया था जिसका सारांश विज्ञानके पाठकोंके ल्ाभके लिए यहाँ दिया जाता है । डा० हिगिनवाटमने कहा कि भारतका प्रधान व्यवसाथ खेती हे ओर इस ओर ध्यान देना प्रत्येक हिनतस्तानीका कत॑व्य है। ज़मीनसे जितनी अधिक उपज हो सके उत्तना ही अच्छा है । उन्होंने बतलाया कि इस देशकी उपजञाऊ ज़मीनमेंसे तीन चोथाई ऐसी है जिसमें कोई सुधार नहीं किया गया है। सुधारसे केवल्न उपज शक्ति ही बढ़ानेसे मतलब नहीं है वरन यह भी कि फसल होने पर उसे आसानीसे बाज़ारमें बेचा भी जा सके | मध्यप्रांत और मध्यभारतर्में हज़ारों एकड़ ज़मीन पड़ी हुईं है जिसमें खेती नहीं की जाती । इसका कारण केवल यही है कि इस ज़मीनको खेतीके लायक नहीं बनाया गया, क्योंकि सिंचाई आदिके लिए कोई सुभीता नहीं है ओर रेल या सड़कका भी अभाव है जिससे चीज़ बाज़ारमें आसानीसे बेची नहीं जा सकतीं। यदि ऐसी लाखों एकड़ ज्ञमीनका जो भार तसें बेकार पड़ी है, सुधार किया जाय ओर वैज्ञानिक ढंगसे खेती की जाय तो फिर हमें किसी तरहका हर न होना चाहिए कि हम देशकी बढ़ती हुई जनसंख्याके खानेका प्रश्न केसे हल करेंगे । डाक्टर साहबने इस बात पर ज्ञोर दिया कि भारत- की खेतीके दो मुख्य अद्भ सिंचाई और खाद हैं। इन दोनों- के बिना खेती असम्भव है। सिंचाईके लिए पानी द्वारा बिजली पैदा करनेका उपाय अच्छा है।. बड़े-बड़े पानौके कुण्ड ख़ास-ख़ास जगहों पर बनाए जा सकते हैं जिनसे केवल बिजली ही नहीं मिलेगी वरन्‌ साथ ही साथ वह पानी भी सिंचाईके काममें आ सकेगा। खादके विषय उन्होंने कहे! कि बड़ी खुशीकी बात है कि बड़ी माज्रामें रासायनिक खांद बनानेका उपाय भारतमें ही होने जा रहा है । उनकी रायमें रासायनिक खादमें घास पत्ती ओर गोबर आदिकी भी खाद मिलाकर काममें लानेसे फसलमें अ्रधिक बढ़ती होती है। केवल रासायनिक खादमें उतनी अच्छी फसल नहीं होती । गोजर तो खादके काम आता ही .है परंतु गाय भेसोके मृत्रका सी उपयोग खादके रूपमें हो सकता है यदि उसे ठीक प्रकारसे काममें लिया जावे । झभी तक जो मृश्न बेकार ही जाता है, ख़ासकर गोशाज्ञमें, संख्या ३ ] वह बहुत अच्छा खादका काम दे सकता है। जहाँ पर गाए, मैंसे बांधी जाती हैं वहाँ यदि पत्तियाँ बिछा दी जाये ओर उनका मूत्र इसमें सोख जाय तो मूत्रमें भींगी हुई इन पत्तियेंसि अच्छी खाद बत सकती है । दूसरी बहुत ही उपयोगी खाद मलुष्योंका मत्र है । परन्तु बड़ी मात्रा यह पदार्थ बेकार ही जाता है ओर इसका उपयोग दीक प्रकारसे नहीं किया जाता | गॉबेमिं स्ली पुरुष दिशा फ़रागतके लिए खेतोमें जाते हैं। परन्तु इस मलका बहुत-सा हिस्सा पशु ओर पत्ती ही ख़त्म कर देते हैं ओर दुर्गंध भी फैलती है। कुछ वर्षाके पानीमें बह जाता है और कुछ सूखते-सुखते हवामें मिलकर उड़ जाता है। सबसे अच्छी रीति यह है कि खेतोंमें छोटी छोटी खाइयाँ बनाकर उसमें मल डालकर ऊपरसे मिट्दीसे ढंक दिया जाय । परच्त यदि यह अच्छा न समझा जाग तो खेतोंमें फुट डेढ़ फुट गहरी खाई खोदकर उसकी मिट्टी अगज् बगल चढ़ा दी जाय और एक किनारेसे उसी नाली- में पाखानेके लिए बेठा जाय । फिर मलकों अगल बगलकी मिट्टीसे ढक दिया जाय | ऐसा करनेसे मज़्का सभी अंश खेतमें मिल जायगा ओर किसी प्रकार बेकार नहीं जायगा और गन्दगी नहीं फैलेगी | यह बहुत ही स्वाभाविक रीति है जिसे कुत्ते बिल्ली आदि पशु अपनी सडजवुद्धिसे सदैव करते हैं । फिर उन्होंने पशुओंकी ओर ध्यान दिलाया और बत- लाया कि हमारे पशओंकों पेट भर भोजन नहीं मित्रता ओर इस कारण उनकी दूधकी मात्रा भी बहुत कम होती है | दूसरे देशोंकों देखते हुए भारतवासियोंकों तो दूध पीने को मिलता ही नहीं और यह एक कारण है जिससे आज हम लोग निर्बेल ओर स्वास्थ्यहीन हो रहे हैं। यदि भारत- वासी बलवान ओर स्वस्थ होना चाहते हैं तो उन्हें सेर सवा सेर दूध हर रोज़ पीना चाहिए। परन्तु यह तभी संभव है जब दूधकी मात्रा जितनी आजकल उत्पन्न होती है उसकी कमसे कम चोगुनी या पंचगुनी बढ़ायी जाय । इसके केवल दो ही उपाय हो सकते हैं, या तो गायों भेखोंके दूधकी सात्रा बढ़ाई जावेया परशओंकी बढ़ती की जाने । । दूधकी मात्रा बढ़ानेके लिए गडओँफो पेर भर भोजन भारतकी खेतीमें बेकार वस्तुओंकी उपयोगिता ४३ मिलना चाहिए। डा० दिगिनबाटमने कहा कि इसके लिए चरागाहका रखना अधिक उपयोगी नहीं है क्योंकि इसमें बहुत-सी ज़मीन जिसमें अच्छी खेती हो सकती है केवल चाराके ही लिए छोड़ दी जाती हैं। यदि इसमें खेतीकी जाय तो नाजके साथ ही साथ चारा भी हो सकता है। चरागाहोंमे मक्का, जुबवार आदि बोनेसे करीब तीन गुना अधिक चारा मिल सकता है ओर साथ ही अनाज भी पेदा हो जाता है! यदि भारतवर्धके चरागाहोंका उपयोग इस प्रकार किया जाय तो भारतके मनुष्यों व जानवरोंके भोजनका प्रश्ग भी बहुत कुछ हल हो सकता है ! पशुश्ोकी संख्या बढ़ानेका प्रश्न ध्यान देने योग्य है। इसके लिए अच्छी नमसलके विदेशी साँड लाने चाहिए जिससे दूधकी मात्रा भी बढ़ेगी और गरउओंकी मसल भी अच्छी होती। इहरापर छन्न प्रयोग भेनी एप्रीकलचरत इनस्टीव्यूटमें किए गए हैं ओर उनमें सफलता प्राप्त हुई है । खासकर कृश्चिम राभाधानव क्रिया (7 ॥ि06१9॥ 77720778.07) से संख्या ओर अच्छी नसलमें बहुत ही जल्दी बढती हो सकती है। इस क्रिया द्वारा एक ही बारतें पाँच गठओंकों गर्भ रह जाता है परन्तु स्वाभाविक क्रियासे तो एक ही गाय गाभिन हो सकती है | दूसरी वस्तु जो बेकार जाती है वह है पशुओंका खून ! क़साईखानोंका ख़ुन नालियंमें बहा दिया जाता है परंतु इसका बहुत ही अच्छा उपयोग हो सकता है जो एम्री- कलचरल इनस्टीव्यूट नेनीमें किया गया है । ख़ूनकों गरम करके उसका पानीका हिस्सा जिसे सीश्म' कहते हैं अल्वग कर लिया जात) है ओर वह खादके काम आता है। बचा हुआ हिस्सा जो कि ख़नका छोथड़ा होता है पेर लेते हैं जिससे बचा हुआ पानी भी निकल आता है। इस प्रकार खूनकी खली निकल आती है जो रूपमें सरसों या बिनोलेकी खलोके समान होती है। इस ख़नकी खल्लीमें प्राणी सम्बन्धी प्रोटीन! खूब होता है ओर इस खलीको चारा सिल्लाकर देनेसे बछुडा बहुत ही हृष्ट-पुष्ट होता हैं! चार पाँच दिन बछुड़ेकों माताका दूध मिलता है फिर दस दिन तक ऊपरी दूध पिज्लाया जाता है। पंद्रह दिनके बाद चारामें यह खली दी जाती है। इससे न केवल बचचढ़े ही बक्रवान और पुष्ठ ड्वोते हैं बरन्‌ काफ़ी मात्रा दूध २४ विज्ञान, दिसम्बर, १६४४७ मजुष्योंको मित्र जाता है जो अभी इबछड़े ही पी जाया करते हैं। एक ओर लाभ है कि इस खत्लीके खाने वाले बचुडे उन बचछुडोंसे अधिक अच्छे होते हैं जो दूध या चारा पर ही पाले जाते हैं । अन्तर डा० हिरिनबाटसने भारतके नोजवानोंसे आशा की कि वे खेतीमें वैज्ञानिक ढंगले सुधार करके भार तन की आधिक दशा सुधारनेमें सफल होंगे । अन्त प्रोफेसर बाबा करतार सिंहने ढा० हिगिन- बाथमको धन्यवाद देते हुए बतलाया कि हमारे देशमें ऐसी कई चीज़ बेकार जाती हैं जिनका उपयोग हो सकता है । तारकोल सी बेकार चीज़ें आज बहुत ही उपयोगी हैं जिससे सेकड़ों प्रकारके रासायनिक पदाथ बनाए जा रहे हैं | शीरा भी बड़े काममें आ सकता है। ऐसी ही कई चीज़ों- का सदुफ्योग करनेसे भारतकी कल्लाकोशल ओर आर्थिक देशशमं बहुत वृद्धि हो सकती है । वहस्पति [ छेखक - पं० चन्द्रशेखर शुक्ल सिद्धान्त विनोद ] | सभी वैज्ञानिक फलित ज्योतिषको अवैजक्ञानिक मानते हैं ओर बहुतोंका इसमें विश्वास नहीं है। परन्तु जो विश्वास रखते हैं उनके विचारके लिए यह लेख प्रकाशित किया जा रहा है| --सम्पादक ] शनेश्वरके बाद ही वृहस्पतिका स्थान अ्रथवा कक्षा है । यह अह सब्॒ ग्रहोंसे बड़ा हैं। हमारी प्रध्वीसे प्रायः ११ गुना व्यासमें ओर ३३०० गुना आयतनमें बड़ा है । पृथ्वीसे लेकर नेप्चून तक स्लातों अहोंकों ओर उनके सब उपग्रहों ( चन्द्र ) को यदि फोड़कर एक गोला बचाया जाय तो वह भी आयतनमे चुहस्पतिसे छोटा होगा । पुराणों तथा प्राचीन आप ग्रन्थोमें इसे विश्वका बड़ा ही कल्याखकारी अइ माना सया हैं। यूनान तथा रोसके प्राचीन अन्धों ( :+786/ €& छिछठाउ छत व ए+0॥- 02 ए ) में इश्चके अ्मक महत्वपूर्ण वरणन पाये जाते हैं । अग्रेजीम इसका नाम 'जुपिध्श है। हिन्दू शाख्षमें जेसे इन्द्रकों देवताओंका राजा, ऐरावत, हाथोको उनका वाहन | भाग ६० | धमहाक ओर वजञ्चञ आयुध कहा गया है, इसी प्रकार वहाँके भ्न्‍्थ्मे जुपिटरकों देवताओंका राजा, ईंगल चिड़िया वाहन, ओर आयुध वच्ध ( 07007 ) कहा गया है । जुपिटरकी सख्रीका नाम जूनो! है । ग्रीसके निवासी इसकी मूत्तिकी पूजा करते थे ओर रोस निवासी भी इसको बड़े उच्च कोटिका ग्रह मानते थे । इसे स्वर्गीय. विमल्ञ ज्योतिकी खान, वजच्भपात, प्रबल बात शिल्ञावृष्टि एवं अतिवृष्ठिका निरोधक, ऋतुओंकी शटडुला, समयोचित सुवृष्टि, प्रकाश एवं गरसीका साम्यकारक सात्विक भाव, दिव्यज्ञान तथा अध्यात्म ज्योतिकी खान कहा गया है । इसकी कक्षा शनेश्चर तथा मंगलकी कच्षाके मध्यम है, अतः शनेश्चरकी शीतलता तथा रुक्षताको और मंगल- की तीथ्रता तथा उष्णताको निरोध करता है। यहाँ तक देखा गया है कि फोई पुच्छुलतारा ( (/0776+ ) यदि इसके समीपसे मिकलता है तो, अपनी प्रबल आकर्षण शक्तिके द्वाराया तो उसे अपनी तरफ खींच लेता है, या हमेशाके लिये उसका मार्ग ही बदल देता है । दूसरे ज्योतिष्कोंके साथ संघर्ष होनेका मोका ही नहीं रहता ! इन सब बातोंसे जगतका बढ़ा कल्याणकारी ग्रह समझा जाता है। है अत्पक्ति-- हिन्दू पुराणोर्मं, तथा सिद्धान्तोमें इसकी: जो जन्म कथाएं पाई जाती हैं, ये सब विसंवादी हैं एक . दूसरेसे मेल नहीं खातीं। उतपलोछुत पराशर तथा महा- भारतके वनपवे एवं अनुशासन पवसे इसे अंगिराका पुत्र ओर शभा नाज्नी माताके गर्भने उत्पत्ति किखी है। परन्तु यह बात किसी एक गप्रकाणढह उ्योतिष्क पिण्ड पर लागू नहीं हो सकती ! ऋग्वेद तथा अथव संहिता में जो बात पाई जाती है, वह युक्ति युक्त है । उनमें लिखा है कि त्रहस्पति अति उच्च स्थान महान्‌ आकाशर्मे उत्पन्न हुआ है। तेत्तिरीय ब्राह्मण में लिखा हैं कि बृहस्पति तिथ्या ( पुष्या ) के पुत्र हैं, पुष्या उनकी माता है । ढ सुन्दर पुष्पा नक्षत्र जन्म, और वहाँसे विक्तिप्त हो अनंत कोटि मील दूर स्थित इस सौर जगतके चंगुल्में आना भी सम्पूर्ण असम्भव बात है| क्योंकि, नक्षत्रोंकी च्छ्छ हर संख्या ३ | दूरी इतनी अधिक है कि, वह बहुत बदी संख्यामें लिखी जा सकती है। उसकी गणना ग्रकाश-वर्षो'में होती दे । यह बात सम्भव हैं कि, किसी समग्र गरु और पुष्य नक्षन्नकी भेदयुति ( ]3797$ ) हुई होगी । थुतिके बाद बहस्पतिको क्रमशः खिसकते देख दर्शाकोंने पुष्याका पुन्न मान लिया होगा । सुख्यतः सब भह उपम्रहोंकी स्टि से हुई है, वृहस्पतिकी भो बैसे ही हुई होगी । इस विषय पर अधिक सोचनेसे बुद्धि चक्करमें पड़ जाती है। सीमित झान विशिष्ट मलुष्यका ज्ञान अनन्तज्ञान भण्डार तथा असीम विश्व साम्राज्यका पता कैसे पा सकता है ! आद्वार प्रकार इसका आकार सब भ्रहोंकी तरह गोल है । केन्द्रअसारिणो शक्तिके प्रभावसे मध्य भाग कुछ मोटा हो गया है और दोनों मेरू ग्रान्त कुछ चिपटे हैं । मेरु प्रान्तका व्यास करीब ८र८०० मील और विघुव पदेश- का व्यास मम»०० मील हैं । इसलिए यह हमारी एथ्वीके . व्याससे ११ गुना अधिक बढ़ा है । दोीरी ओर अदुद्षिण काल :--सूर््य केन्द्रसे इसकी मध्यस दूरी ४८ करोंड ३६ लाख मील है । जब यह एंथ्वी के अति निकट आ जाता है तब प्ृध्वीसे इसको दूरी प्राय ३६ करोंड भील रह जाती है। यह ४३३२"०८् दिंनमें सृथर्यकी एक अदक्षिणा कर लेता है। इससे अधिक जानकारी फल्ित ज्योतिषके लिये अनावश्यक है । पारिभाषिक संज्ञायं ओर नाम्र--इहस्पति, देच गुरु, इज्य, जीव, वाचस्पति, वचलाम्पति, चित्रशिखसिडिज अंगिरस, पुष्यः, सुरज्येष्ट, देवमंत्री, देवकवि, वाभीश ओर देवतेन्द्र है । ईथत्‌ पिंगल लोचनः श्रुति धरः सिंहाकनादः स्थिरः । सत्वाब्यः सुचिशुद्ध कांचनतनुः पीनोजन्नवोरुस्थलः ॥ हस्थो धमेमतिः विनीत निछुणो वृद्धोद् भागः क्षमी । आपीताम्बर भुत्‌ कफाधिक तदुःसेद प्रधानों गुरु: ॥ १॥ रणवीर उ्यो० म० निबन्धे | बृहदुद्र शरीरः पीत वर्णः कफात्मा, सकल गुण समेतः सर्व शाखाधिकारी । कपिल रुचिकटाक्ः सात्विको तीब धीमान्‌, अलघु तृपति चिन्ह श्रीघरो देवमंत्री ॥२॥ जानक पारिजाते | धृंहृश्पति न ुन न नननननननननननननन ननननवननन कन न न न मनन न न नन नकल + तन न न नमन नमन न न नन मनन न नमन न न पान न + न न नल ननन++-नमन नमन नमन न “3 ननन_नन मनन कम नमन नम नं नि नननननससनसअअन33$5% ४४ रूप रंग ओर प्रकृति--ज्योतिष अन्धोर्मे बतलाया गया है कि इसके अधिष्ठाता देवताके नेन्नका रंग किचित पिंगल वर्ण शरीर, काश्नन वर्ण केश, सूच्म एवं कुंचित श्रुतिधर ( असाधारण मेवावी ) सर्व शाखज्ञ, लकल गुण- की खान, अत्यंत चमा शील, दिव्य लणण युक्त, परभ- धार्मिक, विनयी सतोगुणी, गंभीर, स्थिरथी, श्लेषमाधिक प्रकृति, मेदखार ( ()070]974 ) पीत चखधारी, स्थविर मेघगर्जनवत्‌ ग़ग्भीर स्वर, विशाल लोचन, उन्नत ललाट, प्रशस्तवक्षस्थल, हृस्वश्नीव ओर शरीर, बड़ा उद्र ऐसा बृहस्पतिका रूप हे । स्वस्थान तथा उच्चादि--धनु और मीन राशि बवृहस्पतिका जेन्न ( गृह ) है, एक से लेकर १० अंश तक धनुराशि मूल जिकोण, बाकी २० अंश गृह हैं कक राशि तुँग ((६58।080707) और मकर रांश नीच (4।) कर्बका पाँचवाँ अश परमोच्च ( राकेल साहबक मतस १२<वों ओअश ) ओर भकरका पाँचवाँ अथवा १७वाँ परम नीच है । मूरथ्य, चन्द्र ओर मंगल इसका. मित्र, शनि सम, एव शुक्र ओर बुध शन्र हैं। बलाबल तथा शुभाशुभत्वके वषयर्म जो बातें शनैश्वरमें लिखी गई हें, वे सब यहां भी लागू होंगी | विशेषता यह हे कि अपनी राशिमें स्थित होने पर भी ऐहिक शुभ फल्ष नहीं देते । जिस महके साथ रहते हैं, अथवा सम्बन्ध करते हैं, उनकी अनिष्ठकारिका शक्ति को घटा देते हैं। शुभ अहके साथ होनेपर अथवा सम्बन्ध करने पर डस अहके शुभ फलकों अधिक बढ़ा देते दें | गुरुकी नवम एुवं पाँचवीं दृष्टि (77776 88]0900) अत्यंत्त शुभकारी एवं अम्ृतमयी कही गई हैं । मकर तथा कुम्म राशिमें रहने पर भी शुभ फल्ष नहीं दंते। कके, मीन, धनु ओर कुम्भ राशिके होने पर यदि पंचम स्थानसें स्थित होते हें तो, सनन्‍्तानेंके लिये अशुभ होते हैं ओर बातोंके लिये नहीं । विश्वके प्रतिभाशाली न्याय एवं दशन शाख्रके विद्वानों की जन्म पत्नी देखने पर स्पष्ट पता चलता है. कि उचकी जनन्‍्मपत्नियोंमि शभ फल दाता वलवान्‌ बृहस्पति श्रेष्ठ स्थानोंमे ( भावोंमें ) देखे जाते हैं। इस परिदर्शनमें कोई ह नहीं है | फलित ज्योतिषसे यह बात भी निविवाद सिद्ध है कि बलवान छंहस्पतिके अनुकृत् होनेके बिता 4 विज्ञान, दिसम्बर, १६४४ हि विशुद्ध सात्विक भाव विमल तत्वशान, परोपकार रुप्ठह्ा, पूर्णविशता ( एा8007॥ ) स्वर्गीय विमल आनन्द, अथवा झञान ज्योतिका विकाश नहीं होता। सुभ्रसिद्ध जर्मन योगी स्वीडेन वर्ग महोदय इस विपय में बहुत कुछ कह गये हैं, उनकी दाशंनिक बातों का स्थान यहां नहीं है । इन्ही सब बातोंके कारण फलित शाख्रमे वृहस्पतिका स्थान सर्वोच्च माता गया है, ओर वेद में देवेन्द्र संशा है । यहां तक कहा गया है कि बृहस्पति बलवान, अनुकूल तथा केन्द्रमें रहते किसी भी दुष्ट ग्रह का प्रभाव जातक पर बुरा असर नहीं ढाल सकता, ओर न कुछ बिगाड़ ही सकता है । वास्तवमें वृहस्पतिका अ्रस्तित्व तथा किरणों की शुभकारिता बिश्वमें अतुलनीय हे । गुरु की कारकृता--वाक्‍क्य, धोरिणी ( जनश्रुति ) राजतंत्र ( 80॥7778078॥707। ) नैष्टिक, स्वकर्म्म ( यजन, याजन अध्ययन, अध्यापन ) निगम ( बेद तथा तन्त्र ज्ञान ) कर्म ( दशम भाव विषयक ) पुत्र, सम्पद, जीवनोपाय, आन्दोलन, मित्र, देव, आह्यण, सिंहासन, योग साधन, ज्ञान, विज्ञान, यान ( ५७॥]०।०७७ ) प्रश्टति । शुभ कारकता--विनय, भ्रज्ञा, घैय्पे, उमा, स्थैय्य, धर्म्मं और न्‍्यायपरायणता, रूदु भाव, विश्वास, उच्चालि- ज्ञाषा, सरलता, मैत्री, समदर्शिता और कत्नहसे दूर रहना | अशुभकारिता--अधिक अभिमान, अतिव्यय, भकखी, ककोरका फकोर, देशाचार तथा अनुष्ठानिक आइम्बरों में अधिक रत, कपठाचार ( 9ए79007489 ) प्र गल्मता, पराये ऊपर बृथा दोषारोपण, प्रभ्ठ॒ति । शुभ क्रिया--पदोक्षति, देह और मनको पृष्टि, धन ओर सन्तान ज्ञाभ, सामाजिक घटना ( ४०९॥६8 ) गौरवबूद्धि, आधिपत्य, श्री वृद्धि, सोख्य, यान-वाहन-वस्त- गृह-घान्यादि प्राप्ति, धरम में मति, तत्व ज्ञान, सन्तानादि- वंशवृद्धि, ओर तीथंदुर्शन । द्रव्य कारकृता--सुबर्ण, जस्ता (270, जीवन्ती हर, बदाम, मोम, आम्र, कटहल, नारियल, कुसम्भ, पीत धान्य, पीतवस्च, शेलल तथा लताजात द्रध्य, मूंग, पीत* रत्न ( पुष्पराग ) तगर, हरिद्वा, प्रभ्ठति । व्यक्ति कारकता+-बराह्मण ( भारतवर्ष में ) अन्य देशों में धम्मे माजक ( [27680,) अध्यापक, उपदेष्टा, | भाग ६० कम शाख्रह्ष, विचारक, दृश्डविधान अणेता (| ,628]8॥07') मंत्री, नीतिश, पुरोहित, ओर वेदास्त विद । अंग प्रत्यंग कारकता--वसा, भेद ( चर्बी ) दक्षिण कर्ण, धमनी, यक्ृत्‌ प्राणेन्द्रिय, धासनिक प्रवाह, गल्तेसे लेकर वछ॑स्थल तक स्थान । व्याधि--स्वास यंत्रका रोग, गल तथा तालू रोग, वन, उद्रामय, यकृत रोग, मेद वद्धि , कामल्ा रोग अभ्दृति । रसप्रियता-स्वादुरस 59 0686 8॥0 0 7'0 27'8]/; देवता--इन्द्र, तारा ( महाविद्या ), वामन । जैमि- निके मत से हरपावंती की युगुल्न मूर्ति । | वर्ण कारकता--काँचन वर्ण, हरका नीका, बैजनी | पशु पक्ती कारकता--गाभी, झूग, इस्ती, अश्ब, सारस पक्षी, शंक, चील्ह, चातक, पीतवर्ण शक पक्षी । शुभ पत्थर तथा घातु--( 4.प्र०टए 800768 ) पोखराज ( |'0782 ) पीताभ मुक्ता, स्वश्षेत्र गत वृहस्पतिमे स्वर्ण भी शुभ होता है । अद्मदुण्डी की जड़ भी धारण करना शुभ कहा गया है। शुभ संख्या--( ,0५0/2५ [पिंप्7)0678 ) तीन की संख्या, अथवा जिन जिन संख्याश्रों का जोढ़ तीन होता हो, जैसे--१२, २१, १११ प्रभ्वति । भावादि कारकता--२, &, ६, १०; १३१ इन सब भावों के स्थिर कारक । विशेषतः वृहस्पतिसे पुत्र, विद्या, श्री, सुख, पितामह, सत्री जातकमें पति, एवं जावतीय धार्मिक बातों का विचार करना । दिक्‌ , तत्व, गुण, और वयः--ईशान कोण, आ्राकाश तत्व, सत्वगुण, स्थविर ( €७-द८ आयु ) और पुरुष । जिसकी जन्मपन्नीम चुदृ्पति बत्वान्‌ एवं शुभ स्थान गत होते हें, उसका स्वभाव, रूप-रंग, क्रियादि, वृत्ति; रस्श्रिथता एवं ब्रव्यप्रियता उपरोक्त प्रकारकी होते देखी ज्ञाती है । इंसाके अन्‍्मके पहले ग्रीसके ओद्निस्पिया नगरमें हाँथी- दांत तथा स्वणंसे निर्मित ६० फिट की ऊँची जुपिटरकी एक प्रकाण्ड मूर्ति थी । ततकालीव घ्थ्वीके सप्ताश्चय्योँसे इस मूत्तिका नम्बर तीसरा था। दूर दूरसे यूहुदी लोग इसके दुशनाथ आते थे। प्रति ५७वें वर्ष एक महा भेला भी होता था | अब भी मंदिर्का चिन्ह है | संख्या ३ | रबर ६४ ् ८३४८ // ् ०2 23] 4४, [ लेखक श्री ऑकारनाथ परती | श्र बट रबर एक रोजन पदार्थ है जो पेदसे निकलते समय दूध की भाँति होता है ।॥ रबरका पेड उच्ण और तर जत्ल- वायुमें होता है । यह पेड सबसे पहले दल्िणी अमेरिकामें असेज़न नदोके तट पर स्थित घने जड़सोंमे णाया गया था| यहाँ दो अकारके पेड़ थे, पहला देविया (6788) और दूसरा कास्टीलोआ ((/980]]08) । सन्‌ १३१८ ई० तक रबर सुख्यतः इन्हीं अदेशोसे संलारके सब सागगर्में जाती थी । कुछ समय तक बेलजियन काँगोंले भरी रबर बाहर जाती थी किन्तु श्रेष्ठ पारा (737'8) रबर, ( पारा उस बन्दरगाह का नाम हें जहाँते रबर बाहर जाती थी। ) त्रेजिलसे ही आती थी ओर बहुत खलम्नय तक रबश्के व्यव साथमें त्रे जिल सर्वप्रधान था । पूर्वमं रबरके व्यवसायका श्रेय देनरी वाइबबस [नि 8- 07ए ५७१०४ ८४7] को दे: इन्होंने खत््‌ १८७६ ई० में रबरके कुछ बीज बं जिलसे छुरायथे । उस समयके सारत सचिव (सेफ्रेंटटी आफ स्टेट फार इन्डिया) ओर लर॒ जोसफ हुकर ( छीा 70899॥ +008७7 | ने, जो क्यू (7०७) के बागोंके डाइरेक्टर थे, हैनरी वाइखस कों ब्रेज़िल भेजा । वाइसम पहली बार असफल्न रहा । उसने बीजोंके पानेके लिये दुबारा प्रयत्व किथा। । इस समय सास्य ने उसका लाथ दिया । वह वहाँके योश्पीय व्यवत्लाइयंले बीजोंके भेजनेके विषयमें परासश कर रहा था कि उसे समाचार मिला कि अमेज्ञन नामक एक जहाज़ वहाँ आया है और अब खाली ही वापिश्न जायेगा! डसने भारतीय सरकारके लिये यह जहाज़ किराये पर के लिया ओर जहाज के कछानसे कहा कि वह उसे उस स्थान पर मिले जहाँ टापाज्ञोस ( : 80808) ओर अमेज़न नदियाँ मिलती हैं। उसने टापाजोस और अडीरिया (४ ७५०१४ ७) के बीचके जड़लसे, जहाँ सबसे अच्छी पारा रबर होती थी । बहुतसे बीज इकट्ठा किये और इन बीजों को कुलियों पर ल्द्॒वा- # अप्सा-प- मा 92:04: 4::20::०१० ::पएाम-य-->चर +२7५.००६:- दम ७३ ५+३२३०..2:+-.--२प्यम:एऊे 7.४२ आज #>०ए. .. -7२४: >>7. जे जलकर | पत्र कलेखक द्वारा सर्वाधिकार सुरक्षित । कर शीघ्र ही जहाज्ञ तक पहुँचा दिया! उच्चनने लगभग सत्तर हज़ार बीज एकत्रित कर लिये। जद्दाज़ जब पारा बन्दरगाह पहुँचा तो वाइखम को डर क्गा कि कहीं मे ज़िल की सरकार उनके जहाज़को शेक न ले, किन्तु चहाँक्े ब्रिटिश राजदूतके प्रभावसे उन्हें किसीने पहीं रोका । बीज बड़ी लावधानीर रखे गये थे आर कुशल्पुर्नक लिवरपूल तक पहुँच गये। लिवरपूलसे रेल द्वारा यह बीज क्यूके वागों तक पहुँचा दिये गये । क्यूके बागोंमे यह बीआ बोये गये और लगभग चार प्रतिशतर्म अंकुर आ गया । इनमेंस एक भाग सीलोन और सल्ाया सेजा गया । यहाँ लगभग नब्बे प्रति- शत्में अंकुर आ गया ओर इन प्रदेशोर्म रबरका व्यवसाय प्रारम्भ हैं; गया। बिडिशराजने -हेलरी वाहुखस को सर का खिताब देकर सम्मानित किया | रबरके व्यवश्ाइयोंकी संस्था ( किए 0089 (70 ए8/78 88500860॥) ' ने सर हेनरी वाइखमकों एक सुबर्ण पदक प्रदान करके उनका बहुत सम्मान किया । मचुम्थके लिये सबरकी महत्ताका पता लगाने वाला कोई वेज्ञानिक न था, वरनू दक्षिणी अमेरिकाके जड्जलो निवासी थे | कदाजित्‌ एक दिन किली ने देखा कि रबरके पेड़की छाल काट देनेले उसमेंले एक दूध ला पदार्थ नि- कल्ञता है और यह दूध कुछ समय बाद अपने आप ही जमकर एक ठोस पदार्थ बन जाता है। फिर किसीने यह देखा होगा कि इस पदार्थ पर पानोका बहुत कम प्रभाव पड़ता है । कोजग्बसने अपनी दूसरी थात्षासें यह देखा कि हायती निवासी (्ि9687878) इस प्रकारकी ठोस पदाथ की गेंदांसे खेलते थे । स्पेनके निवासी टारक्यूमाडा (१'87'00870 80 8) ने लगभग सवा चार सी वर्ष पूर्व यह देखा कि मैक्सिको ()४०57०0) के निवासी इस दूध से अपने कपड़ोंको ऐल्ला बना लेते हैँ कि उनपर पानीका विशेष प्रश्नाव नहीं पड़ता ह। अठारहदीं शताब्दीके श्रव्तमें किसीने यह ज्ञात किया कि रबरसे कामज़पर लिखे पेन्सिल के निशान सिठाये जा खकते हैं। इज्जकेण्डमें सन्‌ १८२० ईं० के लगभग रबरका प्रयोग आरस्स हुआ | इस समय इसका प्रयोग मुख्यतर चित्रकार करते थे और आधे इश्च के पक टुकड़े रबर का मुल्य लगभग दो रुपया था । इसके ६६ द विज्ञान, दिसम्बर, १६४४ कुछ समय पश्चात स्काटलैणडके दिवाली चाढ्स मैकिस्टोशने सब प्रथम बससातीका कपड़ा बनाया | किन्तु इस लमय तक वह खोज जिससे रबरका प्रयोग इज्ारों मकाश की वस्तुओंमें होने लगा हे दूर थी। इसके पहले कि हम उस- का वरशन करें यह अच्छा हागा कि रबरकी खेतीके विप में कुछ कहा जाय ! हर स््पन्‍नक्यु ते गे (87 स्वर पहिले कहा जा छुका है कि रबरके पेड़ दो प्रकारके होते हैं। इनमेंसे डेंविया ब्राप्तील्षियन्लिस (नि०ए७७ छ+बरद् ]:॥88) से सबसे बढ़िया “पारा रबर नि- कलताी है | भारतवर्पमें रचरकी खेती सबसे पहिल्ले पेरीयार रियासत, ट्रावन्कोर और पूनूर रियासत, दक्षिणी भालाबार में हुईं थो | रबर की खेती इन प्रदेशोंमें सफल्लत्रापूथक हुईं | सन्‌ १६२४ ई० में ७६५०० एकडमें रबर बोई गई और ३१ दिसम्बर सन्‌ १६०२ ई० में इन खेतों की नाप १३७३४१ एकड़ तक हो गयी | भारतवर्ष में हेविया पेड़ ही अधिक तर क्रगाया जाता हैं| दँविया पेड इचूफोरबियासी ( # घ0॥07- 048.088. ) वर्ग का हैं। यह समुद्र तलसे १४०० फीट की उडचाई तक खूब पनपता हैं। इससे अ्रधिक उँचाई पर पेड़ छोटे होने लगते हैं ओर उनसे रबर भी कम निकलती है। इस पेडके लिये वर्ष में दघ० से २०० इंच तक की वर्षा सबसे अच्छी है। यह सप्लद्के पानी अच्छी तरह नहीं पतपता, अत! जहाँ समुद्के पानीकी बाढ़ आती हो वहाँ इसकी सतेती नहों की जा सकती । रबर की खेती करनेके लिये पइले भूमि साफ़ कर ली जाती है । यदि जंगल हो तो पेड़ का८ कर जला डिये जाते हैं। पहले पेड़ काट कर छोड दिये जाते थे आर सूख जाने पर उन्‍हें आग जग दी जाती थीं। आजकल केवल छोटे छोटे पेड़ ही जलाये जाते हैं ओर बड़ बड़े पेड़ छोड़ दिये जाते हैं। यह अजुभव किया यया है कि ऐसा करने से अंगलकी भूमि अधिक उपन्ञाऊ रहती है । जब भूमि साक् कर ली जाती है ओर ठीक तरह से खेत बना लिये जाते हैं तब रबर के पेड़ छगमाने के प्रति पुकड् १८० से २६० तक गड्ढे खोद लिये जाते इन गड़ढेंमें मिद० और खाद भर दी जाती हक श्छ #॥7 5 दवा? | भाग ६०७ फार्म: दालप्रपयप- 7८:20: 47%०कएए प्रकाक(0:कडख:%१5क३३११२७३::८ फअबदच कर: उमकाा:222::5१००:८:५:५- कप 3 प्रयेक गड़ढे में तीन भार बीज छोड़ दिये जाते हैं और बीज हक्यी मिट॒टीसे ढक दिये जाते हैं । केभी कभी बीज अलग बोये जाते हैं आर जब दौधे एक साहके [हर जाते हैं तो उन्हें उठाकर खेतों में ज्ञगा दिया जाता हैं। पेड़ोंकी बाह्याव॑स्थामें भुमिकी उपज्ाऊ शक्ति स्थिर रखनेके लिये सारे खेत में येलें लगा दी जाती हैं । इनमें ज्ुख्य सेन्ट्रोसीसा ( (/87707088॥॥] 8 ) प्यूरेरिया [7िप्878779), इन्डिगो करा ([79020- 6/8 ) ओर डेश्नमोडियम ( [)887070 04प70 )ढ। आजकलके अनुसन्यानोंसे ज्ञात हुआ है कि इन पेल्लोंके साथ यदि क्रोटाल्लारिया ((7/008]879%) और टिफरो- सिया ६ ॥७७॥7088 ) था अल्वबीज्ञि | मौलूकाना (3 /2%8 70]प700878) और डिल्लरीस्रीडिया मक्यूलाय ((+]700& ४8८घ] 98) भी लगाये जॉय तो भूमि की डपजाऊ शक्ति और भी स्थिर रहती है । हमारे देशमें रबर की खेती द्रावनकोर में सबसे अधिक होती है। मद्रास, कोचीन कुर्ण और मैसूरमें भी रबर की खेती होती है । निश्चवलिखित आँकड़ों से इसका अनुमान हो सकता है कि भारत में रबर की खेती कहाँ, कितनी. और केसी होती हैं | ढ...५० स्थान भारत से रबरकी खेती प्रति एकड़ रबरकी प्रतिशत चापिक उपज ट्रावनकोर ७८ १३३ सेर मदराखस ११ १२६ !?? कोचीन ८ बृछजू कु १३४ )?! मैसूर १ ४२! सोटे दिस्वाबसे यह कहा जा सकता हैं कि अच्छे खेतों में अतिवर्ष श्रति एकड़ रबरकी पैदावार लगभग १४६ सेर (३०० पड) होती है। रबरकी पैदावार तीम रीतियोंसे बढ़ाई जा सकती है; अच्छे प्रकार के पेड़ लगाकर: श्रच्छी खाद पर्याप्त सात्रा में देकर और पेड़ों की बीमारियाँ दूर करके । अच्छे प्रकारके बीज प्रयोग करनेसे पेड़ स्वस्थ और अच्छे ह ते हैं। उपयुक्त खादके प्रयोगसे पेड़ शीघ्र बढ़ते हें ओर अधिक रबर देते हैं । ' पेड़ों की बीमारियाँ तीन प्रकार की हैं ; ... रबर ६७ (१) जड़ों की बीमा[रिया--- यह कई अकार की होती हैं और छोटे पौधों तथा पेड़ दोनों में ही णई जाती हैं | इसका इलाज तो किन है किन्तु इसका प्रकोप कम करनेके लिये रोगग्रस्त पेडॉकी चारों ओर एक खाई खोद कर उन्‍हें अन्य पेडोंसे अलग कर दिया जाता है। इससे यह बीमारी फैलने नहीं पाती है । (२) तने की बीमारियाँ :-- अभी तक ऐसी आठ बीमारियाँ ज्ञात हो सकी हैं। जिनसे बचनेके लिये राप्तायनिक द्रवोका प्रयोग करना पड़ता है। बीमारीके उपयुक्त दवा तनों पर छिड़क दी जाती है ओर इस बीमारीका अन्त हो जाता है | . (३) पत्तों की बीमारियाँ :-- अभी तक ऐसी एक दर्जन बीमारियाँ ज्ञात हो सकी हैं। इनमें सुख्य फाइटोफथोरा (2]॥960.)/6907'8) है जो हेबिया पेड़ॉमे बरसातके दिनो हो जाती है। प्रति वर्ष बोडॉमिक्चचर (307त68प5 ए हुए 8) पत्तियों पर छिड़कने से इस बीमारीका अन्त हो जाता है। भारत के सूखे प्रदेशोर्मे ओयडियम हैबिया / 004 पा 6२७० ) नामक बोसारी भी होती हे । यह बीसारी ऊंचे स्थलों अधिक होती हैं । पत्तियों पर प्रतिवर्ष गन्धक छिइकमसे इस बीमारीकी रोक थाम की जा सकती है ! .. रबर का पेड पाँचसे सात साल तक में पूर्ण रूपसे लेयार हो जाता हैं। जब इन पेड्रोका तना लगभग बीस इच्च मोटा हो जाता है तब एक टेढ़ी लकीरके रूपमें एक खुरपीसे इनकी छाल क|ट दी जाती है। कटे हुए स्थान से दूधसा निकलता है ओर नीचे. रखे हुए. एक बतं॑नमें जसा होता जाता है | एक पेड अपने जीवन भरमें लगभग पचीस गैलन ऐसा दूध देता है, ओर इससे त्वगभग २४ सेर रबर निकल आती है | पेडॉंकी छाल अधिकतर एक दिन छोड़कर काटी जाती है। कभी रबर अधिक निकालनेके लिये एुककी जगह दो जगह छाल काटी जाती है ओर ऐसा तीन दिनमें एक बार किया जाता है | इस दूसरी रीतिसे १ फरवरीसे १६१ माच तक ओर १५ जुनसे ५५ अगस्त तक दक्षिणी भारतके खेतेंमें लगभग २३ प्रतिशत अधिक रबर प्राप्त हुई । रबर दुग्ध हेबिया पेइसे प्राप्त रबर-दुग्ध गायके दृधकी तरह होता है। यह वास्तव में अन्य काबबनिक पदार्थोके साथ पानीमें रबरका एक घोल सा है। इस दुः्धका घनस्व जितनी रबर उसमें हो इस पर निभर हैं। उदाहरण के लिये नीचे हम पुक हेबिया रबर-दुग्ध का विहलेपण देते हैं :-- पदार्थ अमेजनके डेल्टा सीलोनके खेतोसे से प्राप्त रबर-हुस्त प्राप रबर-हुग्घ पानी ४५७,० प्रतिशत ५९.२ प्रत्तिशत रचर है९.० , १ हू , खनिज 8.७ ,, ०.४ ,, प्रोटीन २.३ :, २२ .,, रोजन &.,० .,$ २.० ,॥ शकरा नल ०.४ दर लगभग सभी प्रकारके रबस-दम्धर्स थोड़ी मात्रामें शकर। और ग्लूकोसाइड ((3]५०००००७) रहते हैं । आधुनिक रासायनिक अनुसन्धानेंसे ज्ञात होता है कि यह शकरा अधिकतर आयोची सिटोल ([0778040]) वर्ग ५ हैं । रवर-दुग्ध लाजक़ त्िटगलकों मीजा कर दुता है । कुछ हि सप्तय सुछ ई ०24 व्क् खे रहने पर इसमें सुख्यतर लेक्टिक अम्ल बनने लग्ता है और रबर अपने आप जमने लगती है । फाइकस (प098) वर्गीय पेड़ी के दुग्ध असल होते हैं । सब ग्रकारके रबर-दुम्धोंसे ओकक्‍्सीडेजन (()5]08889) होते हैं, इस कारण जब रबर-दुग्ध हवामें रख दिया जाता है तो उसका रंग सफेदसे भूरा पड़ने लगता है। इससे बचनेके लिये यदि रवर-दुग्धमं थोढ्ना सोडियम बाइसल फाइट (504० 089]90॥6) मिल्रा दिया जाय तो न-तो रबर-दुश्थमें भूरापत आता है ओर न उससे प्राप्त रबरमें कोई अन्तर पढ़ता है। रबर-दुग्धर्म थोड़ी माज्नामे स्टीराल (8$670]8) भी रहते हैं । रबरके पेड़के त्लिए यह दुग्ध तीन प्रकारसे उपयोगी है, (१) इसमें रबरके पेड़के खाद्य पदार्थ रहते हैं; (२) इसके द्वारा पेड़में शक्ति देने वाले पदार्थ पहुँचते हैं, और (३) इसके रहने से कीड़े पेढ़के कम नुकसान पहुँचाते हैं । हद विज्ञान, दिल्मम्बर, १६४४ | भाग ६० अब दिन प्रति दिन रबरके दुग्घको ही खेतसे बाहर भेजने का रिवाज घढता जाता है। भारतमें अधिकतर अमोनिया (8 ॥॥ 7)079) गेस देकर इस हम्धको ऐसा बना दिया जाता है कि यह शीत अमता बहीं। ऐला दुग्ध बाजार्स सलसहन्‍्त सुख्यतर रबर चादरों भेजी जाती हैं। रबरको आदर दम से रबर अस्चग की जाती है । बिक ल्लूं कप कक. ७ न कफ बअरटूपपकाी अत्ाता रबर-हम्धके जमानेके छिये तीन रीतियाँ काममें लाई जाती हैं । (१) धुएसे--- यह पुरानी रीति है। इससे रबर-ठग्ब चोड़े-चोड़े छिछले बरतनंमें भरकर धुएमें रथ दिया ज्ञाता है। थोड़े समयसे इसमेंसे पानी वाष्प बनकर उड़ जाता है ओर जमी हुई रबर रह जाती है । यह रीत अमेज़दके शद्देशों काममें लाई जाती थी किन्तु आजकल इसका प्रयोग बहुत कम होता है । (२) अलस --- आशधुनिक समयमें यहीं रीति काममें लाई जाती है । रबर-हग्जसे मिद्दी आदि छानकर अलग बार दी जाती है । यह दुग्ध एक बड़े बरतनसे भर दिया जाता है आप इससे थोड़ा पानी सिल्लाया जाता है । अब इसका घनत्व घत्तत्व- मापक हाइड्रोमीटर) से निकाला जाता हैं। इसले यह ज्ञाल हो जाता हैं कि इसमें कितनी रबर है। फिर इसमें आधी छुटांक सिरकासल (एसिटिक एसिड) अथवा आश्ी छुर्गक फासक (70/700) अब्ल प्रति & पेर रबरके अचुपातसे मिला दी जाती है | लगभग चोबीरः धम्टेमें रबर पूर्ण रूपले जम जाती हैं । यदि रबर कोड़कर जमाई जा हुग्घ्र शलूमीमिय पा अत्ूभीनियसकी चादर चढ़े हुए लच्स्डीके बश्तनींम भर दिया जाता है । इन बरतनोेंशें खाने बने पते उतनी ही लम्बाई चोड़ाईके हो जिस नापकी श्वरकी चादरें बनानी होती हैं । । अष्त् ऋखानक बाद झद्ु ते हैं ते फ् न] / मी सर सबरमे (३) अपने आप -«- यदि रबर दम्धमें ०९ प्रतिशत ग्लूकोज़ मिलाकर रख दिया जाय तो लगभग १८ घन्टेंमें यह जम जाता है । ऐसे जमाई हुई श्वस्से इल्की मीठी खुशबू होती है। अग्लसे जमानेम एक हर्गन्य- मी आ जाती है। ग्ूकोल द्वारा जमानेकी शीत मकायार्म काममें लाई जाती थी । भारत वषसें अधिकतर अश्लसे जम्तानेकी विधि ही काममें लाई जाती है। ग्लूकोज़से जमानेकी विधि अधिक अच्छी है आर आशा है कि अक्िष्यर्म यह विधि ही अधिक प्रयुक्त होगी । काहयी रब पहले कहा जा चुका है कि रबर-हुस्म बरतने जमाया ज्ञासा है। जम जाने पर यह खादरोके रूपमें हो जाता है| ये चादरें बरतनोंमेंसे मिकाल ली जाती हैं और बड़े बड़े ल्लोहेके ओेलनों (रोलरों! में दबाई जाती हैं। फिर इनपर छोटी-छोटी बिनिदियाँ सी छाप दी जाती हैं जिससे इकट्ा रखने पर एक दूसरेसे चिपक ने जाय | अब यह चादरें घोकर सृत्णई जाती हैं। सूखनेपर रह एक घछुआ- धार कमरेंसे लघ्का दी जाती हैं। घुआ अधिकतर ना- रियल्ञकी जटाकों जलाकर उत्पन्न किया जाता है और कमरेका ताउमान लंगभग ११०" फा० रखा जाता है। इस कमरेसे लगभग पन्‍न्द्रह दिन तक यह चाइरें रखी आती हैं। आशुनिक खमयके चुआ-घरमे लगभग चार ही दिनमें यह चादरें सूख जाती हैं। सूखने पर इनका रह्जः भूरा या काला पढ़ जाता है। यह कामपराश्दर्शी होती दराओोंं अब अच्छी तरह देग्का जाता हे आर कर अदाग कर दिया जाता है । फिर नद्ट रूप गुणके अनु सार छांट की जाती हैं ओर इनकी गांड वॉच दी जाती येक्क सा मन २६ श्बर होती हिना 4२०५० ०००५+-५००३४४क०-«__-+कन हज, संख्या ३३] मक्केसे अरारोट बनाना ६६ मकेसे अशरोट बनाना लेखक-- शिवशरण वर्मा वेद पंजाब श्रान्तके फगवाड़ा स्थानमें सुखजीत श्वाश् कम्पनी मक्कासे स्टा्च केसे बनाती है, इसका संक्षिप्त वर्णन विज्ञानके पाठकोंकी जानकारीके लिए दिया जाता हैं। 'स्टाच' अन्नमय पदार्थ हैं । यह मका से बनाया जाता हैं। मक्काका पंजावमें ज्वार भी कहते हैं। मध्यदेशम इसे भुद्दा के नामसे पुकारतें हैं | पीले ज्वारकी अपेक्षा श्वेत ज्वास्का स्वार्थ अधिक श्वेत निकला करवा है! सूखी ज्वार लेकर उसे साफ कर छोते है, मशीनमें डालकर दक खेत हैं आर गंघक मिक्षित जलवाणे हहे बड़े लकईीके ढोलेंसें भिश्री बचे हैं | वैसे तो छोटे छोट ढोलोंसे काम चल जाता हैं परन्तु लाखोंका व्यवसाय करनेवाले लकड़ीके ऐसे ढोल बनवाते हैं जिसमे कमसे कम ६०-८० बोरियां ज्वासर्कों आ सके । गंधक शिश्चवित जलके स्टीम द्वारा गरस किया जाता है। मक्काके दाने भीगकर नरझ् हे! जाते हैं। पानी बीचमे कल द्वारा घूमता रहता हैं। जब ज्वार २०-३० धंटोंके बाद पूर्शतया नरस है| जाती हैं तो उसे एुक बड़े पाइप द्वारा नीचे चलती चक्की पीसनेके लिये पानी सद्ठि का डाला जाता है| वहां वह पिस्कर एक होज्ञमं गिरती रहती वहाँसे दूसरे पर्प द्वारा दृखरी उक्कीसे गिरती रहती | यहाँ यह अधिक बारीक है। जाती है ओर पानीमें घुल २ बड़े बड़े तॉबिके छिद्रदार हौज्ञोंसे मिशती रहती है | यहा फूस पृथक हो जाता है और भेंदा सिश्चित पानी प्रथक | यह गेदा शिश्चित पानी पुन रेशमी वस्त्र द्वारा मह्ठी हुई बडी बड़ी छुलनियोमेंसे छुमता है ओर एक होज़में जा मूमि पर छलनियोंके नीचे बने रहते हैं इकट्ठा होता रहता है | वहीं यह यत्त किया जाता है कि वह घोल पानीमें घुला ही रहे ! अन्यथा फर्श पर जम जाता है।. और पानी प्थक ऊपर ऊपर है। जाता है। इस्त जमे हुए पदार्थका पुनः उत्ताना ठदा कढित होता है । इसलिये किनारी पर खड़े 5“”क्ति था सजदर लम्बे सग्बे फावडेॉसे जलमें नीचे तलछुटको पानीमें घोलने रहते हैं। पानी दृध- सा दिखाई देता है ओर गाढ़ा होता है। एक पम्प हारा उसे उपर खींचकर पाईप हारा धारा बांचकर स्रीमेंटकी बनी हुई लम्बी लस्मी बड़ी नालियोंमें छोड़ा जाता है। यह नालियाँ एक फुट चोड़ी लगभग ६ इंच गहरी और ८०- ६०-१०० फुट हाम्त्री होती है । एक साथ १०-१५ नासियाँ इकट्ठी बनी हे।ती है । जब एक नाज्ीमे काफी श्वेत जल है तो वह भर जाता है बाममें लाते हैं १7 [5 हि हु + की है चर हि । ४ सदा दलरशा माक्तांक | | ग्रे 54 डा हा ) ० ल्‍चन ््ि ल्‍नन्खे श्ध्ने डक जोड़ हि 3 टिप दल श। न्‍्नल्चै धन 0 8] >्ख् पीला श्वेतका ह पीलेकीा ग्लूटिन ; है । सबसे नीचे दा, लखसदार ताला दाता है अतः नीचे जमता है : पीछामाशग झ्टाओं या द्त 0॥/ रे चुका [ के कक 4० धन छाए ऋतिक धहिर्केल हत्का आर अल्प हांता & अ्रद् ऊपर अमता है । अत्र वारी बारी उस नाल्ीके ऊपर दूर खड़े होकर नल्से ७० विज्ञान, दिसम्बर, १६४४ पानी घारसे डाला जाता है तो पीला भाग जल्नमें घुक्ककर लस्सी मी बनकर बह जाता है और एक नालीके द्वारा इकट्ठा होकर एक अन्य प्स्प द्वारा एक पृथक होजमें डाला जाता है जहाँ उसमेंसे ग्लूटिनको प्राप्त किया जाता है। उस डवेत स्टार्चकों पुनः पानीमें घोल्ा जाता है ओर पानीके बहावके साथ एक टेंकमें भर दिया जाता है। इस पानीकेा उस डेंकमें बलोनी द्वारा चलता रखना पड़ता है। जब टेंक भर जाता है। तो (१७7607ए४०) ( शुष्क ) मशीन में एक साथ २ सन, ३ मन श्वेत पानी ले लिया जाता है। इसकी चक्की तेजीके साथ घूमती है और पानी को पृथक कर देती है। उसकी दीवारोंके साथ चिपकी हुई मोटी-मोटी तड़के उत्तारकर मजदूर लोग पानी सुखाने के ढोलोंमें डालकर भाषके द्वारा सुखा लेते हैं और रेशमी वखसे सूखा स्टाच छान-छानकर बोरिमेंमे भरा जाता है। बोरियां नवीन होती हैं ओर उनके भीतर लट्टा लगा रहता है ताकि स्टाच खराब न हो और न बाहर निकले । जब मक्का पिसनेके बाद छुनती है तो उसमेंसे भूसा निकलता है जा गीला होता है। इसके भीतर ज्वारकी प्रोटीन और तेलका अंश शेष होता हैं। इसके सुखाकर गाय भैसोका चाराकी तरह दिया जाता है ओर ३) या ४) मन बिक जाता है। इस स्टार्चका कार्न फ़्लावर, अरारखूट और साया भी कहते हैं। यह खाया जाता है । ज्लाग दूधमें फीरीनी बनाते हैं। अराख्ट ओर सागूदानेके मिठाई ओर बिस्कुट बनानेके कःममें लाते हैं। इसका प्रयोग सभी स्थानोपर होता है! वर्खोपर माड़ी लगानेके काममें भी इसे इस्तेमाल करते हैं। हमारे नगरका यह व्यवसाय सभोीकोा पसन्द होर समालोचना शासन-शब्द-संगरह । संपादक, राजराजेन्द्र कर्नल मालोजीराव नृलिहराव शितोल्ले। संग्रहकर्ता, हरिहर निवास द्विवेदी, एम० ए० एुल-एल० बी० | प्रकाशक विद्या मन्दिर-प्रकाशन, मुरार ( स्वाल्षियर राज्य )। पृष्ठ-संख्या ३१३ - १९३ | भृत्य ३) है [ भाग ६० #०४ न इस कोषके प्रथम भागमें शासन-संबंधी हिन्दी शब्दोंके लिए पर्यायवाची अंग्रेज़ी शब्द दिये गये हैं, दूसरे भागमें हिन्दी शब्दोंके लिए अंग्रेज़ी शब्द और अंतिम भागमसें उदू' शब्दोंके लिए हिन्दी शब्द हैं। अत्येक भागे लगभग २००० शब्द हैं। हिन्दी शब्दोंका चुनाव साधारणतः बहुत अच्छा हुआ है। ऐसी पुस्तककी उपयोगिता स्पष्ट है, परंतु यह पुस्तक उन रियासतों और सरकारोंके दफ्तरों के लिए विशेष उपयोगी सिद्ध होगी जो अपना कारबार हिन्दीमें करना चाहते हैं | डउदाहरणके लिए आधे एष्टकी सामग्री नीचे छापी जा रही है :--- सिप्रा॥ चोट, स्ंप्४087४० पत्ति, लेंए/0506- 08॥707। गिरा-अहण, 379[007॥688 कब्पना [068 विचार, [067+॥ए पहचामना, ]040+$ मे 60] मूर्ति, [8॥0797708 अनभिज्षता, [27077877/ अनभिज्ञ, [27707'6 उपेक्षा करना, ॥]]028] अवैध, 4]]629)फए अवैधता । पुस्तककी छुपाई यदि ओर घन की जाती तो अच्छा रहता । तब पृष्ठ-संख्या संभवतः चोथाई हो जाती और मृल्य भी बहुत-कुछु कम किया जा सकता । कृषि-शब्दाबल्ञी । संपादक, प्यारेलाल गर्ग । प्रकाशक नागरी-प्रचा रिणी-सभा, काशी । पृष्ठ-संख्या ३३ मूल्य )) इस पुस्तकमें लगभग १००० शब्द हैं। पर्यायवाची शब्दोंका संकलन अच्छा हुआ है। नये गढ़े शब्द भी हैं। पुस्तक उपयोगी होगी, परंतु यदि शब्दोंकी संख्या अधिक होती तो और भी अच्छा होता । छापेकी अशुद्धियाँ आवश्यकतासे अधिक हैं। परंतु विषयका ज्ञाता काम चला सकता है। कहीं-कहीं अरबी- फ्रारसीके शब्द भी निष्प्रयोजन ही घुसा दिये गये हैं। उदाहरणतः, (087'79877676 फ़रां!0 का अथ्थ दिया गया है 'स्थायी हवायें' | यदि इसे स्थायी पवन (या वायु या समीर) लिखा जाता तो क्या हानि होती ? गो०्प्र्० संख्या ३ ] विज्ञोन-परिषद्की प्रकाशित प्राप्य पुस्तकोंकी सम्पूर्ण सूची कर कप ४ विज्ञान-परिषद्‌की प्रकाशित प्राप्य ने र्‌ः पुस्तकांकी सम्पूण सूची १“ विज्ञान प्रवेशिका, भाग १०-विज्ञानकी प्रारम्भिक बातें सीखनेका सबसे उत्तम साधम--ले० श्री राम- दास गौड़ एम० ए० ओर प्रो० साक्िगराम भागव एस० एस-सी० . ।) २--ताप--हाईस्कूलमें पढ़ाने योग्य पाव्य पुस्तक--- प्रो० प्रेमवत्लभ 'जोशी एम० ए० तथा श्री विश्वम्भर नाथ श्रीवास्तव, ढी० एस-सी० ; चतुर्थ संस्करण; ॥#) ३“-चुम्बक--हाईस्कूलमें पढ़ाने योग्य पुस्तक -ले० प्रो० सालिगरास भार्गव एम०एस-सी०; सजि०; ॥) ४--मनो रक्चक रसायन--इसमें रसायन विज्ञान उप- न्‍्यासकी तरह रोचक बना दिया गया हैं, सबके पढ़ने योग्य ,हैं -- ले० प्रो० गोपालस्वरूप भार्गव एम० एस-सी० ; १॥।) ४--सूय-सिद्धान्त--संस्कृत मूल तथा हिन्दी विज्ञान- भाष्य'-- प्राचीन गणित ज्योतिष सीखनेका सबसे सुलभ उपाय -- पृष्ट संख्या १९१४ , १४० चित्र तथा वकशे--ले० श्री महाबीरप्रसाद श्रीवास्तव बी० एस्न-सी०, एल० टी०, विशारद: सजिल्द: दो भागसिं; मूल्य ६) । इस भसाष्यपर लेखककों हिन्दी साहित्य सस्मेब्ननका ११००) का मंगल्ा प्रसाद पारितोषिक मिला है । | ६--वबेज्ञानिक परिमाण--विज्ञानकी विविध शाखाओकी इकाइयोॉंकी श्षारिणियाँ--ले० डाक्टर मनिहालकरण सेठी डो० एस सी०; ॥॥) ७->समसीकरण भीसांखा--गणितके एम० एु० के विद्यार्थियोंके पढ़ने योग्य--ले० पं० सुधाकर द्विवेदी, मथम भाग १॥), छ्वितीय भाग ।#) . ++-निरांयक ( डिटर्मिनैंट्स )-गणितके एम० ए० के विद्यार्थियोंके पढ़ने योग्य--ले० प्रो० गोपाल केशव गर्दे और गामती प्रसाद अभिहोत्री बी० पुस्े सी० ; ॥) ड़ ६--बीजज्यामिति या भरुजयथुग्म रेखागेशित--इंटर- मीडियटके गशितके विद्याथियोंके लिये--ले० डाक्टर सत्यप्रकाश डी० एस-सी०; १।) १०-गुम्देवके साथ यात्रा--डाक्टर जे० सी० बोंसकी यात्राओंका लोकप्रिय वर्णन ; [“) ९ “दे दा र-्चद्री यात्रा--केदरानाथ और बद्रीनाथके यात्रियोंके लिये उपयोगी; ।) १२--अर्षों और वत्तस्पति--लोकप्रिय विवेचन--ल्ले श्री शह्नरराग ओशी; |) १३ - मनुष्यका आहार--कौन-सा आहार सर्वोत्तम है-- ले० वैद्य गापीनाथ गुप्त: ।#) कं ए्‌ [ 4 ऐ 4५, क् 9 १४ “सुबणुकार[--क्रयात्मक - से० श्री गंगाश॑कर पैचोली; ।; १५-रखायल इत्तिहास--इंटरमीडियेटके विद्याथियोंके बोग्य--ले० डा० आसाराम डी० एस-सी ०; ॥॥) १६--विज्ञानका रजतन्मयन्ती अंक--विज्ञान परिपद्‌ के २७ वर्षका इतिहास तथा विशेष लेखोंका संग्रह, १) १७--विज्ञानका उ्द्योग-व्यवसायाडु--रुपया बचाने तथा धन कंमानेके लिये अनेक संकेत--१३० पृष्ठ, कई चित्र--सस्पाइक श्री रासदास गौड़ ; १॥) १८--कतन-संर क्षण --दूखरा परिवर्धित संस्करण-फरल्नोंकी डिब्वावन्दी, मुरब्बा, जैम, जेली, शरबत, अचार आदि बनानेकी अपूर्व पुस्तक; २१२ पृष्ठ; २४ चित्र -- ले० डा० गारखप्रसार डी० एस-सी०, २) १६ --ठ्यज्ञ चित्रणु-+-( काहू न बनानेकी विद्या )»»ले० एल० ए० डाउस्ट ; अचुवादिका श्री रत्नकुमारी पएुम० ए०; १७२ पृष्ठ; सेकड़ों चित्र, सजिल्द; १॥) २०--मिद्ठेके बरतन-- चीनी मिद्ठीके बरतन केसे बनते हैं ल्लोकप्रिय-- ल्ले० प्रो० फूलदेव सहाय वर्मा पृष्ठ: ११ चित्र; सजिल्द; १॥) २१--वायुमंड ज्ञ--ऊपरी वायुमंडलका सरक्ष वर्णुन-.. ले० द्वाक्टर के० बी० माथुर; १८६ प्रष्ठ, २५ चित्र, सजिल्द; ॥) २२>-क्षकड़ी पर पॉलिश-- पॉलिश करनेके नवीन और पुराने सभी ढंगेका व्योरेवार वर्णन । इससे कोई भी पाँज्ञिश करना सीख सकता है--क्े० ढा० गारख १७५ [2.0१ %-# कदर: 457 ५४४१: सेकढ2: दा पर हक ह। 2 ज्ब्ग्कु कि रे 334 जी ब ह[सबत्य भटनागर, हैँ द्न्र पएस०, एु०; २६८ हुवे २३--य्प्यागी वें आर हरईु३-- सम्पादक हा५ सारा विद आर डॉन झत्यप्रकाश, कअऋाकार बढ़ा लिंक मन कफ हिप ब्व जिस्ड ला 'व्टकुन + पलक, प्र , २६० पेड ; २००० मुखखे है धो पल रा प च्] भू किम बुझूखेंते सेक्रहों रुपये बनाये चर | 3] इंजारा खूपथं पु कर धर कक 5 + (3 कक 3 ६. बह या मजा लिथे उपाय : मत्य अजिल्द *2 आ खड़े ् १५--क सं सन्पेबंद-- को ५ भरी शंकश्राव जोशी, २०० प्रठ: ऐ० चिन्न; मालियों, मालिकों ओर कृपकोर्क लिये उपयोगी; रूजिलड: ३५० ह्‌ गी 3॥4/ दसाजी--क्रिनात्मक श्रों शिल्दसाज़ी सीख छकते हं--ले० श्री सनन्‍्वजोचग एस० ए०, १८० पेज, ६२ चित्र: झजिछ $। ) चीनी सिंट्टियों -- श्रोद्योगिक पाठ्शालाओं योके लिये--ल्० ग्रों० एम० एल मिश्र, ; १३ चित्र; सजिएद्‌ १॥|) दूध्तरा परिवाधित संस्करण प्रध्येक वैद्य और युहस्थके लिये--ले० श्री रामेशवेदी आयुववेदालंका २१६ पृष्ठ; ३ चिन्न ६ पुक रज्ञीच ) सजिल्द २) यह पुस्तक गुरुकुतल आयुवद भहा|वयात्रय १३ श्रेणी दब्यगुणके स्वाध्याय पुस्तकर्के रुपमे शिज्ञापटल्षम स्वीकृत दो चुको है २८->मधु सक्ख्री-पाजन-+-लेण परण्डित दवारास झुगड़ा[न भूतपूर्व अब्य |, ज्वॉन्नीकोद सरकारी भशुवदों: क्रिया- सके आर व्यारेवार' मधु्मक्णी पाह्चकोफे लिये उप- योगी! ता ह॥& दे. जनसलाधारणको इब्च पुस्तकका अधिकांश अन्यन्त रोचक प्रतीत होगा; सघुमक्खियों की रहत-सहन पर पूरा प्रकाश छाला गया हैं | ४०० ८; अनेक चित्र ओर नकशे, एक रंगीन चित्र; पजितद: २॥; २६-घरलू डाकदर--लेखक धर आठ बाएं, एरा० व्योस्वार । इससे बसा भारतीय के बियया५ रे ३० पु यु ही ६०] ६४“अजत्र का ओर सम्पादक डाक्टर 20025. “४ दां० बी० एम०, डोी० टी० एस भ्रै अ | प्रोफ़ेसर डाइटर बद्ीनारायण शसाद, पी० एच० डी०, एम० बी०, केंप्टेन डा० उस्राशंकर असाद, विज्ञान, दिसर २, १६४४ के तथा अकाशक--ब इबप्रकाश, कला प्रेस, प्रयाग | ०४. ४०0. & 3802 5 एस० बी बी० एस०, डाक्टर गोरखप्रसाद, आदि २६० एछ्ठ, १:० चित्र, आकार बड़ा ( विज्ञानके ; उेजिल्द: ३) है पुस्तक अत्यन्त उपयागी एक ग्रसि अवश्य ए है। प्रध्येक घरमें पहिय । दिन्हुस्तान रिविउ खिवता ह--8700]त0 98 जांधेररीए एछ७]९- 0086 9 की8 स्रीतती 'दवा5ज्ञयत९ 007|706 १॥) +॥8 08007$7 अत बाजार पत्रिका लिखती है --]६ एछ4]] [7प67 स 9 907870 [0]808 |7 ७ए७ पु 0796 ॥&8 ६08 7#00] ७ 09790. ३० लैरसा-- तैरता सीखने ओर इवते हुए लोगोको बचाने को रीति अच्छी तरह समभमायी ल्ते० डाक्टर मोरखप्रसाद, पृष्ठ १०४, आूंत्प १) है । ३१०-अंजीर--लेखक श्रां रामेशबेदी, आधयुवेदालंकार- अंजीर का विशद्‌ वर्णन ओर उपयोग करनेकी रीति पृष्ठ ४२, दो चित्र, मूल्य ॥) यह घुरुतक भी गुरुकुल आयुवंद महाविद्यालयके शिक्षा महल स्वीकृत हो छुकी है । १२--सरल विज्ञान सागर, प्रथम्त भाग-«सम्पादक डाक्टर गोर्खप्रसाद । बड़ी सरल और शेचक भाषा में जंतुओंके विधिन्न संसार, पेढ़ पीर्धों की श्रचरञ्ञ भरी हुसिया, सूर्य, चन्द्र ओर तारोंकी जीवन कथा तथा भारतीय ज्योतिषके संक्तिप्त इतिहास का वर्णन है। विज्ञानके आकार के ४५७० प४ और ३२० चिन्नसि सजे हुए अ्रन्थ की शोभा देखते ही बनती है । सजितद, मूल्य २) सिम्न पुस्तकें छप रहीं हैं रेडियो-- ल० प्रो० आर- जी० सक्सेना सरकल्ष विज्ञान सागश (द्वितीय खंड।- सम्पादक द्ा० गोरखग्रसाद पिज्ञान-मालिक पत्र, विज्ञान परिषद्‌ अयागका झुखपन्न है। सम्पादक डा० संतप्रसाद टंडन, लेक्चरर रसाथन विभाग, इज्काहाबाद, चिर्वावद्याखय, बाषिक चन्दा ३) गोर टाउन, इलाहाबाद । विज्ञान परिष अत नि कि शक रु ८, गिल. अधयाकआशाआफ । कक रू ७2० ] विज्ञान-परिषद्‌, प्रधागका छुख-पत्र « विज्ञान ब्रह्मेति व्यजानातू, विज्ञानादुध्येच खत्विमानि भूतानि जायन्ते । विज्ञानेन जातानि जीवन्ति, विज्ञानं प्रयन्व्य भिसंविशन्तोति ॥ ते० 3० ।शाणा कल के फैलने न के कल के के , कलर ने ओपन लेवल कक ओके लॉक कै % के के डर मकर, सम्बत्‌ २००१ नम जनवरी १६४४५ १ । सख्या ४ 200 0 कं के 8 8 5 ही 2 2 0 2 28 0 2 2 2 0 2 8 2 पारिभाषिक शब्दावली (हा ० शजमोहन पी-एच, ढीं., काशी हिन्दू विश्वविद्यालय) आजकक्ष देशकी कई संस्थायें पारिभाषिक शब्दावली की समस्याकों सुल्स्तानेके प्रयत्नमें संलग्न है। परन्तु इन संस्थाओंमें आपसमें कोई सहयोग नहीं है। इतने बढ़े देशम किसी भी प्रश्नपर मत मताब्तर होना स्वाभाविक ही है। कुछ व्यक्तियोंका तो यह विचार है कि हमें किसी भी विदेशी शब्दकों कदापि अपनावा नहीं चाहिथे। ज्ञो शब्द इमारी भाषामें चालू हो गये हैं, उन्हें भी निकाल बाहर करना चाहिये | यह लोग तो 'लालटैन' को 'हस्त- -काच-दीपिका' या प्रकाश सन्दिर' ओर 'रेलवे स्टेशन' को . पटरी-गाड़ी विरामस्थला या भाप गाड़ी-विरामस्थल' कहना पसन्द करेंगे । इसको तो में केवल दइृष्टिकी संकी- गुता समझता हूँ । जिम्न भकार स्वस्थ मनुष्य उसे कहते हैं जो अधिकसे अधिक भोजन हन्म कर सके, उसी प्रकार ज्ञीवित भाषा उसी भाणकों कहेंगे जो अधिकसे अधिक शब्द पचा सके । यदि अग्रेज़ीमेसे समस्त जम, ओऔक, लैटिन आदि भाषाओंके शब्द मिकाल दिये जांय॑ तो पता नहीं अग्रेजीम कितने शब्द बचेंगे। आ्राज भारतवर्षका बच्चा २ समझता है कि अन्जन, स्टेशन और रेडियो किसे कहते हैं । यदि इन शब्दोंके लिये भी नये शब्द गढ़े जाये तो देश भरमें उन शब्दोंका नये प्लिरेसे प्रचार करना होगा और देशके भावी युवरकोंके मस्तिष्क पर एक भारी बोर आ पढ़ेगा। ऐसी योजना न आवश्यक है, न वाश्छुतीय, न सर्मयतव | हर दूसरा मत उस व्यक्तियोंका है जिनके विचारमें इसमे समस्त पारिभाषिक शब्द श्रग्नेज़ोसे ब्योके स्ों ले लेने चाहिये जैसा कि जापानने किया हैं। ऐसा करनेसे एक लाभ तो अवश्य होंगा। आजकल देशके बहुतसे कार्य- कर्ताओंकी जितनी शक्ति पारिभाषिक शब्दावली बनानेमें खर्च हो रदह्दी है, सब बच रहेगी ओर रचनात्मक कार्यमें लग जायगी | परन्तु सब इृष्टिकोणोसे विचार करनेसे क्‍या ऐसी योजना स्तुत्य होगी ? भारतकी+--यदि अशिक्षित जनता को छोड़ भी दे तो--अर्धशिक्तित जनता या केवल भारतीय-भाषा- भादी जनताके लिये अश्रेजी शब्दोंका सी- खना सरव्वन हे या भारतीय भाषाअके शब्दोंका ! परीश्ण के लिये एक बच्चे, एक घोबी ओर एक कह्दार को एकत्रित कर लीजिये ओर उन्‍हें दो शब्द अ्रेजी के, श्ोकक्‍्सीजन ((3598०7) ओर क्वाड्रीलेटरल ((प७प7४७68- 78) और दोनोंके हिन्दी पर्यायः जारक ओर चतुभुज याद करा दीजिये । फिर अगले दिन उनसे पूछ कर दुखिये कि उन्हें अ्रश्ेज़ी शब्द याद है या हिन्दी शब्द। डपरि- लिखित मतके समर्थक यह कहते हैं कि आजकल सब विद्यार्थी अ्रश्नेज्ञी शब्द याद करते हैं। यदि हम हिन्दीमें पुक नई शब्दावली बनायेंगे तो उन्हें नये सिरेसे ट्विन्दी शब्द याद करने पढ़ेंगे। इससे उन्हें दुहरा परिश्रम करना पड़ेगा । परन्तु यह कठिनाई केवल्ल बतमान पीढ़ीके विद्या- थियोंकों ही पड़ेंगी। अगली पांढ़ीके विद्यार्थी स्कूबसे दी हिन्दी शब्द सीखेंगे, उन्हें अंग्रेज़ी शब्दोंके सीखनेकी आवश्यकता ही नढ़ीं पड़ेगी । इन दोनों मार्गोके बाचर्म एक मध्य पथ भी है। जो शब्द हमारी भाषामे चालू हां गये हैं, उन्हे ज्योंका व्वयों रहने दिया जाय चाहे वह शब्द किल्ली भी स्वदेशों या विदेशी भाषाकी उपज हों । क्राउन्टेन-पेनको 'निर्मेरिणी! या 'रेडियो' को नभोवाणी बनानेकी कोई आवश्यकता नहीं । दिन! (!"7) को हम लोग परम्परासे दिन! कहते आये हैं। डा० रघुबीरके आँगल-भारतीय कोपमें 'टिन! का नाम रकखा हैं 'त्रपु'। इसी प्रकार सत्र! ( 8]- 97प्ाए ) का नाम 'गंघक' के बदले 'शुल्वारि! दिया है | इस तरह ज्ञात नामके स्थानपर कठिन श्रज्ञात नाम रखना कहाँ तक युक्तिसंगत होगा ? आजसे लगभग १ वर्ष पूव॑ काशी चागरी प्रचारिणी सभाने एक वैज्ञानिक शब्दावली तैयार की थी। उस शब्दावक्वीके बहुतसे शब्द ऐसे हैं जो #हिच्क्षकु ह हो है ॥ 888 8 88 32964 88088 6 चर] 00 28 8 0889४ 8 हद ड2 0286४ 0॥8328 6 6 84 6 28086 8.28 ४४848 62॥288884% 682 4269 60 वैज्ञानिक पुस्तकें प्रचलित हो गये हैं। 'इन-सर्किल! ( ॥7-0770]6 ) को सब लेखक अन्त त्त ओर डाइने- मिक्स ( [29787708 ) को गति-विज्ञान लिखते हैं । इस प्रकारके जितने शब्द चालू हो गये हैं, उनमें कोई संशोधन करना उचित न होगा जब तक कि पर्याय बिल्कुल ही अनुपयुक्त या कठिन न हों । उस शब्दावल्नीमें कुछ शब्द अवश्य ऐसे हैं जो या तो बहुत बड़े हैं या अन्य कारणोले अज्षुपयुक्त हैं। ऐसे शब्दोंको बदुलना होगा। धरिकल' ( ५४०7॥09) ) का पर्याय ऊर्ष्वाधर! बहुत बढ़ा ओर कठिन है। हस (वर्टिकल! को खड़ा, होरी- ज्रोन्टल' ( ्ि0/20768)] ) को पड़ा' और स्लैण्ड' ( 5]876 ) को 'तिरछा” कह सकते हैं। एक ओर उदाहरण लीजिये, उस शब्दावल्लीमें 0]|7056 का नाम दिया है दीपं-बृत्त । मेरा अपने भिन्रोंसे कई वर्षसे इस बात पर मतभेद चला आता है कि वह “दीध॑-बृत्त' शब्द्‌- ही अपनाना चाहते हैं और में 6)]||086 के लिये एक नये शब्द “अ्वलय' की सृष्टि करना चाहता हूँ। मुझे दी्घं-वत्तः नाम पर भारी आपत्ति है। मान लीजिये कि हम निम्नलिखित वाक्योंका हिन्दी अनुवाद करना चाहते हैं :-.- (१) 7॥6 986॥ ० 008 9]9706+ 8 8. 58 04988; ॥॥960 07 $+॥6 0+$706+7 ३8 8 8]8]] 8!]/086, (२) ॥१)8 9%॥॥ 07 006 9]976+ 8 87 8॥]788; +#0860 07 $960 04॥67 ३8 & 07:0]6. (३) ॥॥6 9860 07 0706 9]9706+ 48 & णं-्ट ०७70)6; ४3% ० 5४096 00967 49 & 877 9]] ०70]9, (४) 2 007॥78] .0]9776 ४९७०६१0॥ 0 ६७ 8797878 78 & (37986 0|708]6: 870ए 06067 9]8776 280007 78 & 8778]] ०७॥7७] ७, यदि हम 'दोध॑-इत्त! नाम को स्वीकार करलें तो इन घाक्योंका अनुवाद इस प्रकार करना होगा: (१) एक अहका पथ एक बड़ा दीध॑ दत्त है, दूसरेका पुक छोटा दीघ-बूत्त। * विज्ञान, जनवरी, १६४४ | भाग ६० _ कह्इरजबाइजहएअआध 4 88862842/6040 86488 40 48086॥ 98) 080१ 04॥॥ 8 8॥0009006 06484 श्रक्र शा ३०४३३७७७७ (२) एक अहका पथ एक दीघ॑-घृत्त है, दूसरेका एक तृत्त। (३) एक प्रहका पथ एक बड़ा (या बृहतू) छृत्त है, दूसरेका एक छोटा बृत्त । (४) किसी गोल का कोई केन्द्रीय समतल्न काट पक बढ़ा दृत्त होता है; कोई भी अन्य समतल्न काट पक छोटा बृत्त होता है। पहले वाक्यमें बड़ा दीघ॑-बृत्तः और 'छ्ोय दीघ॑-बृत्त कितने भद्दे वाक्यांश प्रतीत होते हैं। विद्याथियोंके मस्तिष्क में सदैव “बड़े बत्त! और 'दीघं दृत्त' में भ्रम हुआ करेगा । दूसरी बात यह है कि वाक्य (४) में (37'.886 ७॥06]6 और 8709] 270]6 पारिभाषिक अर्थमें व्यवहृत हुये हैं। इनका श्रर्थ केवल 8 ०770]9 और 5703]] 070।6 नहीं है | इसलिये इनके नामेमें कुछ विभिन्नता लानी पड़ेगी । यदि ॥]][986 के लिये 'अवल्नथ! नाम स्वीकृत हो जाय तो उपरित्चिखित वाक्यों का अनुवाद इस प्रकार होगा:--- (१) एक झहका पथ एक बड़ा अवलय है, दूसरेका एक छोटा अवल्वय । (२) एक अह का पथ एक अवल्वय है, दूसरे का एक चृत्त । (३) का अनुवाद वही रहेगा । (४) किसी गोत्षका कोई केन्द्रीय समतज्ष काद एक दीघ वृत्त होता है; कोई भी अन्य समतल काट एक लघु बुत्त होता दै । पाठक विंचार करलें कि इनमेंसे कौन सी नामावली अधिक उपयुक्त होगी । इन्हीं बातों पर विचार करके मैंने शाँकवोंके नामोंमें थोडासा अन्तर करनेका प्रस्ताव किया है :-- (0फ06 ना० प्र० स० मेरा प्रस्तावित .. का नाम नाम # 8'9 20]& परवलय परवलय ह9:]7086 दीध-बृत्त अवलय #7]007'00]9 अ्रतिपरवलय अतिवलय इस बातका उद्योग-भ्ी होना चाहियेकि समस्त भारतीय भाषाओेंमें एक दी पारिभाषिक शब्दावली बन संख्या ४ ] पारिभाषिक शब्दावली ७३ ६9899%98 0 # ३0996 60989 69880 92884 49॥0%5%98# 99 8226880 9 0888 980 $ ४७४88 $8928 8 ॥689# 8 9 8 ॥ 3 & 8 अध्त्रहड हु 828 48830 9 88888 89866 8888 88026 8 हड॥॥4ढड3298883॥588889984289॥ 888 08# 88838 28286090292॥#38% 69 03॥ 988 8 6 8३ जाय । ऐसा तभी हो सकेगा जब नये शब्द संस्कृत मुलसे लिये जाय॑ । इस दिशामें डा० रघुवीर का कार्य स्तुत्य है | उन्होंने हाइड्रोजन ([979070208॥) ओर आक्सिजन (05ए20०॥)) के लिये नये शब्द 'उदजन! और “जारकः बनाये हैं। यह श्रसम्भव नहीं है कि इन्हीं शब्दोंको भारतकी समस्त भाषाय (डद को छोड़कर) स्वीकार करले । कितना अच्छा होता यदि उर्दू भाषी भी इस नामावलीको अपना लेते। परन्तु उन लोगोंको तो संस्कृत के नामसे चिद्र है। वह तो अपना स्फुरण अरबी ओर फारसीसे लेते हैं | उस्मानिया विश्वविद्याक्नयने जो नामा- वली तैयार की है. उसमें इन दोनों गे्सोंके नाम हैं क्रमश: “हमज़ीन' ओर 'मायीन' | यह सोलह आने विदेशी शब्द किसी भी अन्य भारतीय भाषाको स्वीकृत नहीं हो सकते। समस्त देशकी एक शब्दावज्ञी बनानेके लिये उसी मार्गका अवल्लग्बन करना होगा जिसका डा० रघुवीर कर रहे हैं | केवल उनसे इतनी प्रार्थना है कि वह उन्हीं शब्दोंके लिये नये नाम गढ़ें जिनके छिये परिचित नाम पहलेसे मौजूद नहीं हैं। परिचित शब्दोंके लिये नये अपरिचित शब्दोंकी सृष्टि करना वाब्छनीय नहीं है । कुछ लोगोंका मत है कि प्रत्येक अंग्रेज़ी शब्दके लिये एक ही हिन्दी पर्याय होना चाहिये, परन्तु यह सम्भव नहीं है। यह अप्रेज्नीकी विरोषता (या दोष ?) है कि अधिकांश शब्दके कई २ अर्थ होते हैं। इन सब अथोके ल्विये हिन्दी का एक ही पर्याय होना युक्ति-प्रंगत नहीं है । यह बात में तीन शब्दोंके उदाहरण देकर दिखाता हैँ : एक ऐसे शब्द का जिश्नका अथ परिभाषिक विपयमें साधारण अथ से भिन्न हो जाता है, दूसरा एक अर्थ-पारिभावषिक शब्द का ओर तीसरा एक पारिभाषिक शब्द का | (१) 8९१॥86 58७7]56 समझ 7 ए86 8४८४७४८ तुमने व्यक्षक का प्रयोग 7%ए78 9०घ घ8860( $76 किस अर्थ से किया 6507:88807) ? हे ? ए7])8॥ 8 $]9 ४८४४४ बक्तव्प का आशय क्या 07 78 8580987)876 ? है? ' है। हिन्दीमें 'घन' का शढई [7 $78 89776 88१४8 ॥ै ]876॥) +0 88779 एक ए 70प70 ()([8॥6778608.) (२) 5॥09709/7 थ 57765? 07 79888779077676 मापदण्ड 3४ #4%6676 04 ॥ए772 जीवन का धरातल 69वें2+ दें त800070&7ए प्रामाणिक शब्द-कोष 53०7 6८0476 40777 पर & नियत सूत्र (३) (॥/0790प70 (07996 8 4096507 मिश्र योग (077790079व4 [7097680.._ चक-चबूद्धि ब्याज 9 (/0%2|707224 ([07088) (बल) संयोजन करना इन उदाहरणोंसे स्पष्ट है कि भिन्न २ अथोके भिन्न २ पर्याय बनाने पई गे | साथ ही, यह उद्योग करना चाहिये कि यथा-साध्य हिन्दीका प्रत्येक शब्द केवल एक ही अर्थ के लिये नियुक्त किया जाय । इन पंक्तियकि लेखकने शब्दा- वली बनानेमें इस उद्देश्यकी पूतिका गंभीर प्रयत्त किया अभी तक तीन अधथाका द्योतक है। ॥'॥]70 9०छ८॥ ०प७ और 800 इन तीन शब्दोंके लिये मेरे श्रस्तावित पर्याय यह हैं : [70 9098॥' घन 0घ0७8 घनन्न ४0]4 थे ठोस हिन्दी शब्द श्रेणी के भी कई अर्थ हैं--पंक्ति, सेना, जुलूस, कत्ता, 87''89, 8०7१88 | इनमेंसे पहिले तीन अर्थ तो साधारण बोल चालके हैं, शेष तीनों गणितके पारिभापिक शब्द हैं। इस सम्बन्धमें हमें गणितमें पाँच शब्दोंके पर्याय बनाने होंगे--0]६8४8, 86768, 87787, 78075, 0७६9॥7970| । इनमेंसे अन्तिम शब्दके लिये तो 'लारणिक' शब्द बन चुका है। शेष चारोंके लिये हम इस प्रकार शब्द नियुक्त कर सकते हैं. :-- एक दी चेतना में (888. कत्ता 80677068 _ श्रेणी (जो प्रचल्षित है) 'ह7'89 श्रेणिक ७७ विज्ञान, अनव री, १६४४ [ आग ६० है 875 ध्यूह इस प्रकार श्रेणो? शब्द केवल एक ही अथर्मे लिया जायगा और आन्तिकी सम्भावना बिल्कुल नहीं रहेगी । इसी तरह बहुतसे शब्दोंको हम केवल एक ही अथर्म प्रयोग कर सकते हैं परन्तु यह सेब दशाअ्रमिं सम्भव नहीं है । कुछ शब्द जो रुढ़ हों गये हैं, उन्हें हटाना वाष्छुनीय नहीं है। सम' का शब्द कई अथोरमे अचल्षित हो चुका है:-- क्‍ (१) सम . ४ बराबर समभुजीय + 7ि0ध]०७/97'8 | समकोणिक + शित्॒पा -87080]9॥' समता न्‍+ /.0708$9 (२) सम _ २62७०)]87 ( सममुजीय और समको णिक) सम बंहुसुज ४ १6८0७।७7 [00|ए 2070 (३) दम ब चोरस समतत्ष॒ +०9०]876, 9]9॥6 8प्रा'/808 समतल्न भूमि ८ चोरस भूमि (विषम तत्न >रि०पढ९) 8५7४४ ०७७, रूच्त भूमि) (४) सम + प7707'7 (080780876) सम गति-दृद्धि न परा#0770 80098॥8॥007 (७) सम न्प्ा0णएा) ( ० पघ070॥0 8867 9. ) सम छुड़ प्रता 0777 700 (६) सम नन्ए्क समरेखिक 52 00]]8768]' समचक्रीय. ८ 008-0ए0]40 (७) सम (संख्या) ++ 9 ए४8७॥) (7ध॥7 08) (८) 'समकोण) ८ (8 72]/ &786) में 'सम' का विशेष श्रर्थ है। इसका नाम 'समकोण' इसलिये रक्ष्खा गया होगा कि इस दशामें दोनों संलरन कांण बराबर हो जाते हैं । परन्तु यह अर्थ विशेष है, इसमें केवल “बराबर' की ही धारणा नहीं है। आज हम ९९7+ 872)० को ही 'समकोण” कहते हैं, 76६००) 37॥2]68 को सम कोण” नहीं कहते बल्कि समान कोण' कहते हैं । समान का वास्तविक अर्थ है !;|:० परन्तु समस्त गणित पुस्तकोर्मे 'सशान' बराबर के श्रर्थमें प्रयुक्त हो चुका है। गणितीय शब्दावल्ीमें इस अर्थ का बदलना सम्भव नहीं है। न्यायतः इमें ९५७४।१$ए के लिंये 'समानता' कहना चाहिये । परन्तु यह असम्भव है क्योंकि आज तक 'समा- नता' कभी इस अथर्मे प्रयुक्त नहीं हुआ इसलिये साधारण जनता समानता से !/670888 का अथ्थ लगांयेगी | अतः हमें अपनी शब्दावक्की इस प्रकार बनानी पड़ेगी । # 679] ४ 702]898४ समान कोण प्रधुप8!$पर समता [78 $60778.. सजातीय पद ।/78089988 सजातीयता ऊपर लिखे उदादइरणोंसे स्पष्ट है कि शब्द 'सम' कई भिन्न २ अथोर्मे रूढ़ हों चुका है। इस शब्दावलीमें हेर फेर करना उचित नहीं है। कुछ लोग यह कह सकते हैं कि छुटे अर्थंकों तो हम हटा सकते हैं। 20))70968४8॥: को इस 'एकरैखिक” और ८०7-०ए ८८ को “पएकचक्रीय' कह सकते हैं। परन्तु ऐली दशामें र०७-००])।7687 को अनेकरैखिक या अ-एकरैखिक या वि-एकरैखिक कहना होगा । यह शब्द बहुत ही भद्दे और अनुफ्युक्त होंगे। अतः; मेरे विचारमें शब्दावलो इस प्रकार होनी चाहिये: ()0]]]78 8]' - समरैखिक 07-00)7778४97 '. »& बिपषमरैखिक (४07]57087' म समतलस्थ (२७०0१7) 00]0879' - विषमतलस्थ (१0709ए७॥6 ल्‍ समचक्रीय पर -0070090॥6' ल्‍ विषमचक्रीय । ६ क्रमशः ) टिप्पणी-- पारिभाषिक शब्द बनाने वाले सज्वनोंको ध्यान रखना चाहिये कि जो शब्द संस्कृत साहित्यमैं प्राचीन कालसे प्रयुक्त होते आरहे हैं उनका वहिष्कार न किया जाय | 'ऊर्ध्वांघर शब्द कमसे कम १४०० चर्षोंसे भारतीय ज्ततिषमें प्रयुक्त हो रहा है इसलिए इसकी जगह 'खड़ा' शंब्दका व्यवहार करना उचित नहीं है । इस विषय पर डाक्टर गोरखप्रसाद जी का लेख पृष्ठ ८६ पर पढ़ने की कृपा करें । . ““म० प्र० श्री० सरल विज्ञान सागर अपनी योजनाके अनुसार हम सरल विज्ञान सागरका एक भर अंश यहाँ देते हैं । 5 ऊ हर कर, प्रथम आयमर्ट ... छह : इकाई, सेकड़ा, दसहजार, दसलाख आदि विषम. लगी है जो १००) था १००००के समान है. इसलिए ख्यु स्थानोंकों वर्ग स्थान ओर दहाई, हजार, लाख आदि सम-. का अर्थ हुआ ३२१८ १००३१ या ३२०००० | ध्केघका स्थानोंको अवबर्ग स्थान कहते हैं क्योंकि १, १००, १०००० अर्थ है ४७ और ऋ का १००३ या १००००००, ,, £ का आदिके वर्गमूल पूर्णाज्ञोमिं जाने जा सकते हैं परन्तु | श्र्थ हुआ ४००००००, इसलिए ख्युट्ट >खु+यु+ 5 । १०, १०००, १००००० ग्रादिके वर्गमूल पूर्णा ड्रॉमें नहीं . अब हि ख़ु +- २०००० निकल सकते | संस्कृत या हिन्दी व्याकरणमें वर्णमालाके यु 5 अक्षर दो भागोंमें बांटे गये हैं, १६ स्वर और ३३ व्यंजन । ही व ४००००५० फिर व्यंजन दो भागेमें बाँटे गये हैं वर्ग और अबर्ग । क से ख्युप्चत्|$. ४३२०००० मे तकके अक्षर पाँच वर्गों, कवर्ग, चवर्ग, टवंगं, तबरों इसी प्रकार, चर न ओर पतवर्गमें बांटे गये हैं। शेष ८ अक्षरोंकी अबर्ग कहा के ३० गया है। १६ स्वरोमें केवल नव स्वर अ, इ, उ, ऋ, ल, गिर ३०० ए, ऐ, ओ, ओ नव वर्ग और श्रवर्ग स्थारनोंकों प्रकट करते ः हि ब- ३००० जिनको लिखनेके-लिए नवदूने १८ शून्य काममें लाये हु ०००० जाते हैं। इसलिए अच्षरोसे संख्या लिखनेकी रीति यह शुर ७००००० हुई ु कि हज ७ज७०००००० कतः१च ः दृट ८ +१$त-९६|प + २१ य ३०(प ८० 02033 खन्‍्+रछत ७०5 रु १७फ ++ २२र 55 ४ ०स ८ ६० यहाँ छ में लू की मात्रा नहीं लगी है वरन्‌ छु ओर ल हजरत मंडे १३ रेदि न १4|ब 7 २शेलित्४०ह ०१०० में ऋ की मात्रा लगी है इसलिए छुल का अर्थ हुआ ५७ । घर ४मर- €ढ १४ धि- १8४मिरः २४व ++ ६० ऐसे ही छिः 2०० डा ८+ २, + १० णु ८ $५नि+ २०म + २शशि 5८ ७० न या आर $, हे २३००, उ ++ १०००० या १००१, दा अं सु क्- २३०००० ऋषणन१०००००० थीं १००२, रहू> १०००००००० ५ पे यह -- बृ७०००७०००००७ या १०० , ए--१०००००००००० या १००“ हि है सा 3१ ४ खझ्ष -+ ८5६२००५०००० एूं>>१००००७००००००० थ| १००१, २ - अं <- १५७०५००००००७०००० या १००० हु हा 3९८९२२३४७८६०० ञो पः१००००००५०००७००५००० या १०० हर इस हल बड़ा दोष यह हे कि दिअत्तरमे: डृ ५ इसका और विस्तार न करके केवल तीन उदाहरण... ४ कट हर सं है रे जि ता बह माह मलिक देकर बतलोया जायगा कि आयंभटने अपनी रीतिका ० के हे मम हर ५ बइर गत कनको हु। ग्् व्यवहार कैसे किया है। एक महायुगमें सूर्य पृथ्वी का पुस्तकमें बु के स्थानमें पु छुप गया है जिसका अर्थ हुआ न न्‍ हद ४३,२०,००० चक्कर (भगण)" लगाता हुआ साना गया 08९०७ जब तु का अथ होता है २३०००० । है, चस्द्रमा €७७०३३६६ और पृथ्वी १५८२२ ३१९०० १- भगण के 'भ का अर्थ है नक्षत्र, इसलिए भगण का बार घूमती हुई मानी गयी है। इन तीन संख्याश्रोंको थे हुआ नक्त त्रगण या क्रान्तिवृत्तके २० नक्षत्र. जिन किक हु आयभदने इस प्रकार प्रकट किया है पर एक बार चलनेसे अहोंका एक चक्कर पूरा होता है । ख्युध्न, चयगियिडशुद्धूल ओर छिशिबुणु छूरुष इसलिए भगणका अथ हुआ चक्कर ओर भगण काल ख २ के लिए लिखा गया है ओर य ३० के लिए | : का अथ हुश्रा एक चकर या परिक्रमा करने का समय दोनों अ्रक्षर मिज्ञाकर लिखे गये हैं ओर इनमें उ की मात्रा ([06740व छा ॥७ए४०घ६०४) भाग ६०, खंख्या 8)... .. ७४ * ४१६ दूसरा दोप यह है कि ् में ऋकी मात्रा क्गायी जाय तो इसका रूप वही होता है जो रू स्वरका, परसच्तु दोनंके अर्थोर्मे बढ़ा अन्तर पढ़ता है। दूसरे उदाहरणमें छल में छ ओर ल अलग अलग अक्षर हैं जिन दोनेमें ऋकी मात्रा लगायी गयी है | परन्तु तीसरे उदाहरणमें ण में रू की मात्रा लगी है, ल् रवतन्त्र अक्तर नहीं है। दूसरे उदा- हरणका छु अक्र एक अंककी संख्या सूचित करता है इस लिये यह ज्ञ के साथ जो 4० की संख्या सूचित करता है जोड़ा जा सकता है और दोनोंमें ऋ की मात्रा लगायी जा सकती है परन्तु तीसरेमें पहला श्रक्षर ण १६ की संख्या सूचित करता है इसलिये इसमें ल अज्षर नहीं जोड़ा जा सकता वरन्‌ रू की मात्रा लगायी जा सकती है । इन दोषोके होते हुए भी इस प्रणालीके लिये आयेभट की ईतिभाकी प्रशंसा करनी ही पड़ती है। इसमें उन्होंने थोड़े दी श्लोकॉमें बहुत सी बात लिख ढाल्ी हैं, गागरमें सागर भर दिया है | _ ऊपरके उद्धुत श्लोक तथा इससे पहले के प्रथम श्लोक की जिसमें तरह्मा ओर परमब्रह्मकी बंदनाकी गयी है कोई क्रम संख्या नहीं दी है क्योंकि यह प्रस्तावके रूपमें हैं ओर गीतिकापादमें सम्मिलित नहीं किये गये हैं जैसा कि गीतिकापादके ११ वे श्लोक" में आर्यभटने स्वयं लिखा है । इसके बादके इल्ोककी क्रम संख्या १ है जिसमें सूय॑, चन्द्रमा, एथ्वी, शनि, गुरु, मंगल, शुक्र, बुधके “सहायुगीय भगणोंकी संख्या बततल्ायी गयी दै। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि अयभटने एक महायुगर्मे एथ्ची के श्रमण ([068007)) की संख्या भी दी है क्योंकि उन्हदनि प्रृथ्वीका दैनिक अमण माना है ओर इसके लिये . आगे गोजक्षपादके श्वें श्लोकर्मे नोकाके चलनेका उदाहरण भी दिया है। इस बातके लिए पीछेके आचार्या,बराहइमिद्विर, ब्रद्ययुप्त आदि ने इनकी निन्‍्दाकी दे। इससे भी आय॑भरट की स्वतंत्रताका पता चल्नता है । अगले छोकमें ग्रहोंके: उच्च और पातके महायुगौय भगरणोंकी संण्या बतत्लायी गयी है। तीसरे शोक १ दशगीतिका सूत्रमिदं भूगम्रदचरित भपज्जरे झात्वा |, ग्रहूभगणय परिभ्रमण स यातिभिरिया परंव्रह्म | ७६ भारतीय ज्योतिष 2००७७४७५५७३४९१३०७/४५०७७॥/३०पा७०७७५॥७५७५५०२७०४०३७;६४०००७७०७फ००७०००७६५७>॥५० ०३० ाज#7० पर) ८2: भावा/०७६५७० काका प धरम नदामाउाक आरा अपन मानक नहा भन्‍गाावापवानि+- कम न्‍:मक७ ०५ न माह पका ा ७ रा प७।५ पाक पभाक का काके 4५२० पकाका पाक भा काम करभारका भत्ता कामना भा नपताहााा ६५०५ ३था वा मकपका भा ५२७०० ७० कं 2 वाद भा भंग भाप पं ४३७ भा ३१४2७ 4 ध बतलाया गया है कि ब्रह्माके पक दिनमें कितने भन्वस्तर और युग द्ोते हैं और युधिष्टिरके महाप्रस्थानके दिन गुरु- वारसे पहले तक, कितने युग और युगपाद बीत चुके थे । इस 'छछोकमें भी एक नवीनता है। एक एक मद्दायुग में सतयुग, त्रेता, द्वापर श्रोर कल्नियुग भिन्न भिन्न परि- माणके माने जाते हैं परन्तु आयंभटने सबको समान माना है, इसी लिये लिखा है कि वर्तमान महद्दायुगके तीन युगपाद बीत गये थे जब कलियुग लगा । आगेके सात शछोकॉरमें राशि, अंश, कक्षा आदिका सम्बन्ध, आकाश कल्ाका विस्तार, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र आदिकी गति, अंगुल, दाथ, पुरुष और योजनका सम्बन्ध, प्रथ्वीके ध्यास तथा सूर्य, चन्द्रमा श्ौर ग्रद्वोंके बिस्बोंके ब्यासके परिमाण, ग्रहोंकी क्रान्ति ओर विज्ञेप, उनके पातों और मन्दोच्चोंके स्थान, उनकी मंदपरिधियों और शीघ्रपरिधियोंके परि- - माण, तथा तीन अंश ४५ कलाश्रेके प्रन्तर पर ज्या खंदं के मार्नोकी सारणी है। इस प्रकार प्रकट है कि आ्राय॑भरने अपनी नवीन संख्या-गणनाकी पदधतिसे ज्योतिष और त्रिकोणशसितिकी कितनी बातें दस श्लोंकॉर्मे भर दी हैं । गशितपादु--शआ्रर्यभट पहले आचाये हुये हैं जिन्होंने अपने ज्योतिषसिद्धान्त अंथर्में श्रंकमणित, बीजगणित ओर रेखागणितके बहुतसे कठिन प्रइनकेा ३० श्क्ोकोंमें भर दिया है। एक श्लोकमें तो श्रेढी गशितके < नियम आ गये हैं। पहले श्लोकमें अपना नाम और स्थान भी बतला दिया है| स्थान कुसुमपुर है जिसे आजककष पटना कहते हैं । दूसरे श्लोकमें संख्या लिखनेकी दुशमज्ञव पद्धति »की इकाइयोंके नाम है। इसके आगेके बल्नोकॉर्मे वर्ग, वर्ग पत्र, धन, घनफल, .वर्गमूल्, घनमूल, त्रिभ्रुजका चेन्रफत, त्रिभुजाकार शंकुका -घनफल, वृत्तका क्षेत्रफल, गोलका भधनफल, विषम चतुभुज ज्ेन्नके कर्णोके सम्पातसे भुजकी दूरी और ज्ञेत्ररक्ष तथा सब प्रकारके क्षेत्रोंकी मध्यम कम्बाई भोर चोढ़ाई जानकर घछेश्रफतन्न जाननेके साधारण नियम दिये गये हैं। एक जगह बतकाया गया है कि परिधिके छुट॑ भागकी जया उसकी श्रिज्याके समान दोती है। एके श्छोकर्म बतक्षाया गया है कि वृत्तका ध्यास २००० दो तो ठसकी परिधि ६२८३२ होती है। इससे परिधि और ब्यासका सम्बन्ध चौथे इशमज्ञव स्थान तक | विज्ञान, जनवरी, १६४४ ५ हर प्रथम भा्थ मर शुद्ध शुद्ध आ जाता है। दो श्क्लोकमें ब्या खंडोंके जानने की व्युत्पत्ति बतन्नायी गयी है जिससे स्िछ होता है कि ज्याभकी सारणी ( ६80]6 07 87788 ) आय॑भदने कैसे. बनायी थी। आगे वृत्त, त्रिभुज, चतुभु'ज खींचनेकी रीति, समतल घरातकके परखनेकी रीति, क्षम्बक (साहुज्) प्रयोग करनेकी रीति, शंकु और छायासे छायाकर्ण जानने की रीति, किसी दीपक और उससे बनी हुई शंकुकी -छोयासे दीपफकी ऊंचाई भोर दूरी जाननेकी रीति, एक ही रेखा पर स्थित दीपक ओर दो शंकुओ्रोंके सम्बन्धके प्रश्ककी गणना करनेकी रीति, समकोण अत्रिभ्ुजके भुजों ' शोर कर्णंके वर्गोका सम्बन्ध, जिसे पाइथेगोरसका नियम कहते हैं परन्तु जो सुल्व सूत्रमें इज़ारों वर्ष पदले लिखा गया था, बृत्तकी जीवा और शरोंका सम्बन्ध, दो काटते हुये वृत्तोके सामान्य खण्ड शोर शरोंका सम्बन्ध, दो श्लोकॉर्मे श्रेढ़ी गणितके कई नियम, एक श्ल्ोकमें एक एक बढ़ती हुई संख्याओंके वर्गों और घर्नोंका योगफक्ष जानने का नियम, (क-+ख )२-( क*+ख' )-२क ख, दो राशियोंका गृुशणनफल और अन्तर जानकर राशियोंका अलग भ्रत्नग करनेकी रीति, व्याजकी दर जाननेका एक कठिन प्रश्न जो वगे समीकरणका उदाहरण है, त्रेराशिक का नियम, भिन्नके दरेका सामान्य दरमें बदल्नेकी रीति, भिन्नेंको गुणा करने ओर भाग देनेकी रीति, बीज गणित के कुछ कठिन समीकरणोका सिछ करनेके नियम, दो प्रदेका युतिकाज्ष जाननेका नियम ओर कुट्कक नियम (80]प007 0० 4706॥87707869 €त(पघ०७६- 07)) बतल्ञाये गये हैं। जितनी बातें ३० इक्कोकॉर्मे बतत्नायी गयी हैं उनको यदि आजकक्षकी परिपाटीके अनुसार विस्तार करके लिखा जाय तो एक बड़ी भारी पुस्तक बन सकती है ओर इसके - सममभनेके लिए हाई स्कूल तककी शिक्षा पाये हुये विद्यार्थी कठिनाईका अनुभव करेंगे। ऋत्ञक्रियपाद--इस अ्रध्यायमें ज्योतिष संबंधी बातें हैं | पहले दो श्लोकमें काल और कोणकी इकाइयों का संबंध बतलाया गया है। आगेके ६ इलोकोर्मे अनेक प्रकारके सार्सों, वर्षो और युर्गोका संबंध बतलाया गया है। यहाँ पुक विशेषता है जिसकी चर्चा पद्क्षे की जा खुकी है। भाग ६०, संख्या ७ ] ४१७ बरहद्माका दिन या कर्प १००४८ महायुर्गोका बतक्ाया गया ह जो गीता, महुस्खति तथा अन्य सिद्धान्त अन्थोके प्रतिकृत् है क्योंकि वे एक हजार मद्दायुगका कर्प मानते हैं । नवें श्लोकमें बतल्ाया गया है कि युगका प्रथ- माध उत्सपिंणी और उत्तराध अवसर्पिणी काल है श्रोर इनका विचार चन्द्रोच्से किया जाता है। परन्तु इसका अथ सममभमें नहीं आता। किसी टीकाकारने इसकी सनन्‍्तोष जनक व्याख्या नहीं की है। दसवें श्लोककी चर्चा पदल्ने दी भा घुकी दें जिसमें आयभटने अपने जन्मका समय बतत्नाया है। इसके आगे बतलाया है कि चैत्र शुक्र प्रतिपदासे युग, वर्ष, मार और दिवसकी गणना आरंभ होती है। आगेके २० श्लोकॉमें अरहोंकी मध्यम ओर स्पष्ट गति संबंधी नियम हैं । गोलपाद--यह आयभदीयका अन्तिम अ्रध्याय है | जिसमें ४० श्क्ोक हैं । पहले श्लोकसे प्रकट होता है कि क्रान्तिवृत्तके जिस विन्दुकों आयभटने मेषादि माना है. वद्द वसंत-सम्पात-विन्दु था क्‍योंकि वह कद्दते हैं कि मेषके आ दिसे फनन्‍्याके अंत तक अपमण्डत्त (कान्तिवृत्त) उत्तर की ओर दृत रहता है श्रोर तुलाके आदिसे मीनके अंत तक दछ्चधिणकी ओर । शआगेके दो श्लोकोमें बतलाया गया है कि प्रहेके पात और प्ृथ्वीकी छाया क्रान्तिवृत्त पर अमयण करते हैं। चोथे श्लोकमें बतलाया गया है कि सूयसे कितने अंतर पर चंद्रमा, मज्ञल, बुध, आदि दृश्य होते हैं । ५ वाँ श्खोक बतलाता है कि एथ्वी, अहों ओर नक्षत्रोंका आधा गोक अपनी ही छायासे भ्रप्रकाशित है श्रोर भ्राधा सूर्यके सन्मुख होनेसे प्रकाशित है। नचत्रोंके संबंधर्मं यह बात ठीक नहीं है । इलोक ६, ७ में बतलाया गया दै कि भूगोल्ककी चारों शोर जल्ल वायु आदि फैले हुए हैं। र वें इलोकम यह विचित्र बात बतल्लायी गयी है कि ब्रह्माके दिनमें प्ृथ्वीकी गोलाई एक योजन बढ़ जाती है ओर बहा की रात्रिमं एक योजन घट जाती है। श्लोक #्में बतलाया गया है कि जैसे चलती हुई नाव पर बैठा हुआ मनुष्य किना रेके स्थिर पेड़ों को उल्नटी दिशामें चलता हुआ देखता है वैसे दी लंका (प्थ्वी की वधुबत्‌ रेखा) से स्थिर तारे पच्छिमकी ओर घूसते हुए दिखाई पढ़ते हैं । परन्तु १०वें श्जोकमें यह भी बतलाया! गया है कि प्रवद्ववायुके कारण कि 8१८ आंस्तोथ उ्योतिष नक्षत्र-चक्र और ग्रह पच्छिमकी ओर चलते हुए उदय अस्त होते हैं। श्लोक ११ में सुमेर पर्वत ( उचरी घधुव ).का आकार और श्लोक १२में सुमेर और बड़वामुख (दक्षि- सी ध्रुव) की स्थिति बतलायी गयी है। इल्लोक १३ में विपचत्‌ रेखा पर नब्बे नब्बे अंशकी दूरी पर स्थिति चार नगरियोंका वर्णन है। श्लोक १४में लंकासे उज्जेनका अंतर बतलाया गया है। इलोक १६४में बतलाया गया है कि भूगोल की मोटाईके कारण खगोल आधे भागसे कम क्‍यों दिखलाई पड़ता है। १४वें श्लोकमें बतलाया गया है कि देवताओं और असरोंको खगोल कैसे घूमता हुआ दिखाई पड़ता है। श्लोग १७में देवताओं, असुरों, ,पितरों श्रौर मनुष्योंके दिन रातका परिमाण है। इलोक १८से २१ तक खगोल गणितकी कुछ परिभाषाएं हैं। श्लोक २२, २३समें भूभगोल यंत्रका वर्णन है। श्लोक २४-३१में श्रिप्रइ्नाधि- ' कःरके प्रधान सूत्रोका वर्णन है जिनसे लग्न, काल आदि जाने जाते हैं | श्लोक ३४में लग्बन, ३४में दक्कम ओर ३६ में आयन दक्कम का चणन है। श्लोक ३० से ४७७ तक सूर्य ओर चंन्द्रमाके म्रहर्णोंकी गणना करनेकी रीति है। इलोक ४८में बतलाया गया है कि क्षितिज ओर सूर्यके योगसे सूयके, सूथे ओर चन्द्रमाके योगसे चन्द्रमाके ओर चन्द्रमा, ग्रह तथा तारोंके योगसे सब ग्रहोंके मूलाड़ जाने गये हैं। श्लोक ४६४सें बतलाया गंया है कि सत्‌ और असत्‌ ज्ञानके समुद्रसे बुद्धि रूपी नावमें बेठकर सद्ज्ञान रुपी ग्रन्थ रत्न किस प्रकार निकाला गया है| श्लोक &०में बतलाया गया है कि आयभटीय ग्रन्थ चैसा ही है जैसा आदि कालमें स्वयम्भूका था इसलिए जो कोई इसकी निन्‍दा करेगा उसके यश ओर आयुका नाश होगा । आयभटीयके इतने वर्णनसे स्पष्ट हो जाता है कि इसमें ज्योतिषसिद्धान्तकी प्रायः सभी बातें और उच्चयणितकी कुछ बातें सूत्र रुपमें लिखी गयी हैं । इसमें तिथि, नक्षत्र आदिकी गणना तथा नक्षत्रोंकी सूची ओर उनकी स्थितियों के संबंधमें कुछ नहीं कहा गया है। जान पड़ता है कि इन सब बातोंका विशद विवेचन आयभटने अपने दूसरे प्रन्थ्में किया था जिसका पता अरब नहीं है। महत्व--5क्षिण भारतर्मे।इसीके आधार पर बने हुए पंचांग वैष्णव धर्मवालोंको मान्य होते हैं। बह्मगुप्त जो ० ' आयभटके बड़े तीव्र समालोचक थे, अंतर्मे इसीके आधारपर खण्डखाथक नामक करण ग्रन्थ लिखा था। परन्तु ऐसी उत्तम पुस्तककी हिन्दीमें कोई अच्छी टीका नहीं है। संस्कृतमें इसकी चार टीकाएं हैं। प्रथम भास्कर, सुर्यदेव -यज्व परमेश्वर ओर नीलकंठकी टीकाश्ं की चर्चा हिस्टी आब दू मेथिमेटिक्समें है। जिनमेंसे परमेश्वर या परमा- दीश्वरकी भवटदीपिकाकी टीकाके साथ श्री उदयनारायण सिहजीने अपनी हिन्दीकी टीका सं० १६६३ में प्रकाशित की थी | सूयदेव यज्वकी संसक्षत टीकाका नाम आयभट प्रकाश है जिसकी हस्तलिखित प्रति ढा० अवधेश नारायण सिंह जीकी कृपासे इस लेखकको देखनेके लिए मिली । यह टीका दीपिकासे बहुत अच्छी है परन्तु अभी तक शायद छुपाई नहीं गयी है। अंग्रेजीमें इसकी एक टीका डा० कर्नने भटंदीपिकाके साथ सन्‌ १८७४ ई० में क्ेडेन ( हालेंड ) में छुणयी थी । | वराहमिहिर « आयभटके समंयके आसं-पास कई ज्योतिषी हुए जिनकी चर्चा ब्रह्मगुप्त ओर वराहमिहिरने की है परन्तु जिनके कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रचलित नहीं हुए। आर्यभटके शिष्य प्रथम भास्करकी महाभारकरीय और लघुभास्करीय का पता अब्र चका है जिनकी हरतल्लिखित प्रतियाँ मद्गास सरकारके अ्रधिकारमें हैं और जिनकी चर्चा पहले की गयी है। ब्राहमिहिर इन सबसमें असिद्ध हैं क्योंकि इन्होंने ज्यो- तिपकी प्र यः सभी शाखाओं पर ग्रन्थ लिखे हैं जो अब तक प्रामाणिक समझे जाते हैं । भारतीय ज्योतिषी ज्योतिषकी तीन प्रधान शाखाएं मानते हैं--( १ ) सिद्धान्त, ( २) संहिता और (३) हरा या जातक । सिद्धान्त, - ज्योतिषकी वह शाखा है. जिससे ग्रहों और नक्षत्रेकी स्थिति आकाशमें निश्चय की जाती हैं और ग्रहों ओर प्रहयुतियोँ का. समय जाना जाता है। आयंभदीय, सूय सिद्धान्त, ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त, सिद्धान्त-शिरोमणि, आदि ऐंसे ही ग्रन्थ हैं । सिद्धान्तके भी दो भेद हैं । जिन भ्न्थें में ग्रहोकी गणना कल्पसे अथवा सशष्टिफे आदिसे की जादी है उन्हें सिद्धान्त ओर जिनमें ग्रहोकी गणना किसी काल विशेषसे की जाती है उन्हें करण अन्य कहते हें। इस विचारसे सूर्यश्षिद्धान्त भी करण ग्रन्थ है क्योंकि इसमें | विज्ञान, जनवरी, १६४४ “बंराहमिहिर ४१६ ग्रहोंकी गणना वर्तमान महायुगके सतयुगके अन्तसे की जाती है |, संहिता, ज्योतिषकी वह शाखा है जिसमें आकाश या अंतरित्त ( वायुमणइल ) में होने वाली घटनाओंसे शुभ अशुभ बातोंका विचार किया जाता है ओर हो या ज्ञात ज्योतिषकी वह शाखा है जिप्से किसीकी जन्मकाज्लीन ग्रहाँ और नक्षन्नोंकी स्थितियोसे उसके जीवनकी शुभ अशुभ घटनाओंका विचार किया जाता है। प्राचीन काकमें प्रायः सभी देशेमें ज्योतिष सिद्धान्तकी उन्नति इसी विचारसे की गयी थी कि इससे संहिता ओर जातक संत्रंधी शुभाशभ फल शुद्ध शुद्ध निकल सकते हैं | , वराहमिहिरने इन तीनों शाखाओं पर जो ग्रन्ध लिखे थे उन्‍हें क्रश: पंचसिद्धान्तिका, वृहत्संड्ठिता या वाराही संहिता और बृहज्जातक कहते हैं। विवाद्यादि मुहृतोंका विचार करनेके लिए भी इनके ग्रन्थ हैं परन्तु इनकी चर्चा करनेकी आ्रावश्यकता नहीं है । पंचसिद्धान्तिका--जैसा नामसे प्रकट है इसमें पांच सिद्धान्तों पोल्निश, रोमक, वसिष्ठ, सौर और पेतामह सिद्धान्तोंका संग्रह" है। इसमें ग्रहणकी गणना करनेके लिये विशेष रूपसे विचार किया गया है। ४२७ शक (५०३ ई० ) का चैत्र शुक्त प्रतिपदा सोमवारका समय भ्ूव माना गया है। यह आयभटीयके- श्र वकाल (०.00॥) से केवल ६ वर्ष पीछेका है क्योंकि आर्यभटीय ' का प्रूव ३६०० कलि सम्बत्‌ था ४२१ शक काल है। 'कुछ विद्वान 3, यह सिद्ध करनेके लिये कि वराहमिहिर विक्रम संवतके प्रवर्तंक विक्रमादित्य राजाके नव रत्नमे थे, कहतें हैं कि ४२७ शक काल शाक्य काल है जो गोतम बुद्धके समयसे चला | इसका समर्थन जयाजी प्रतापके गत ४ थी जनवरीके अंकमें विक्रम विशेषांकके समालोचक महोदय भी करते हैं। परन्तु बराहमिहिरके लेखोंसे सिद्ध है कि ४२७ शक शालिवाहन शक है ओर यह उस विक्रमादित्य के दरबारके नवरत्नोंमें नहीं हो सकते जो विक्रम सम्बतका हु प्रवतंक समझे जाते हैं | १ पंचसिद्धान्तिका १, ३ २ पंचसिद्धातिका १, ८ _ ३ श्री सत्यकेतु विद्यालंकार (माधुरी) भाग ६०, संख्या ४ ] | _ बराहमिहिरके समयके सम्बन्धमें सबसे बड़ा प्रमाण झायभटका है जो निश्चय ही ३५९७७ कल्नि सम्वत्‌ या ३६८ शकफालमें हुए थे ओर जिन्होंने ३६०० कलि (४२१ शक या ४३६ ई०) का भ्र्‌ वकाल माना हैं। बराहमिहिर आयभटके पीछे नहीं तो समकाज्नीन अवश्य थे क्योंकि इन्होंने आयभटके भू-अमणकी बातका खण्डन किया है ओर यह भी बतलाया हैं कि आयभटदने दो पुस्तक लिखी थीं ।.बराहमिहिरने यह भी लिखा है कि उनके समयमें दक्षिणायन पुनर्वसुके तीसरे चरणपर होता था और उत्तरायण मकरके आदिम जिसकी चर्चा पहले हो चुकी है। इसके सिवा पंचसिद्धान्तिकाके अनुसार म्रहगणना करनेके लिये शोर वृहत्संहिताके अनुसार संवत्सर गणनाके लिये जो नियम दिये गये हैं वे तभी ठीक होते हैं जब ४२७ शकका शालिवाहन शक समझा जाय । इस विषय पर इन पंक्तियोंके लेखक ने माधुरी” में कई ओर प्रमाण दिये ” हैं जिनसे प्िद्ध है कि वराहमिहिरका समय ४२७ शक काल या १०५ ईस्वी है । पञ्चसिद्धान्तिकाकी दो हस्तलिखित प्रतियाँ डाक्टर थीबो ने बन्बई सरकारसे प्राप्त की थीं परन्तु उनमेंसे कोई भी शुद्ध नहीं थी। दोनोंमें जो अधिक शुद्ध थी उसको बायीं ओर देकर उसका स'शोधित रूप दाहनी ओर छुपाया गया था । इसका अंग्रेजी श्रभुवाद ओर टीका डाक्टर थीबोने स्वयम्‌ किया ओर संस्कृत संशोधन ओर टीका म० स० पं० सुधाकर दिचेदीने किया । इसके सिवा डाक्टर थीवोने पुक लम्बी भूमिका लिखी हे जिसमें यह दिखानेका प्रयत्न किया गया हैं कि भारतीय ज्योतिषका बहुत सा अंश ( युनानी ) यवन ज्योतिषसे लिया गया है । डाक्टर थीबो और म० म० सुधाकर दििवेदीके सहयोगसे पत्नसिद्धान्तिका का यह संस्करण आजसे ६ वर्ष पूर्व छुपा था | इसके बाद इस अन्थका कोई दूसरा संस्करण कदाचित्‌ नहीं हुआ । वृड्त्संहिता--यंह् बृहत्‌ ग्रन्थ बतल्नाता है कि आकाश ओर अन्‍्तरिक्षमें होनेवाली घटनाओं, ग्रहोंके चलने, युति करने ( युद्ध करने ), धूमकेतु, उक्कापात, और ४ माधुरी वर्ष ८ खरड २ संख्या ३ पृष्ठ १०६ ११४ संचत्‌ १९८६ वि० 3६ ४२* शकुनसिे संसारके शुभाशभ फल्न केसे जाने जाते हैं । इस पुस्तक पर भटाव्पत्ञ ने एक अच्छी टीका लिखी है जिसके आधार पर डाक्टर करन ने अंग्रेजीमें अच्छी टीका लिखी है। इस प्रांतके नवल्नकिशोर ग्रेसने पं ० दुर्गाप्रसादजी दिवेदी फो-हिन्दी टीकाके साथ इसे प्रकाशित किया था | बृहआातवः--यह जातकका प्रामाणिक ग्रन्थ समभा जाता है। इसकी हिन्दी टीकाएँ बम्बईके कई छापेजानोंसे निकले हैं । पशिनि आफिससे इसकी अंग्रेजी टीका भी निकली है। इसमें बहुतसे शब्द ऐसे आये हैं जो प्रकट करते हैं कि वे यूनानी ज्योतिषसे लिये गये हैं। बराह- मिह्दिर ने यवन ज्योतिषकी प्रशंसा भी की है। परूच- सिद्धान्तिका का रोमक सिद्धान्त यवन ज्योतिषका ही सार मालूम होता है | | सुयसिद्धान्त सू् सिद्धान्त ज्योतिषका एक प्रामाणिक ग्रन्थ है भर इसका बहुत आदर है। वराहमिद्दिरने पंचसिद्धान्तिकामें इसको विशेष स्थान दिया है और इसके कर्ता सूय (दिनकर) की सबसे पहले बन्दना को दै। परन्तु आयभटने इसकी कोई चर्चा नहीं की है। सूय॑ सिद्धान्तका जो रूप हस समय मिलता है वह वराहमिहिरके समयमें नहीं था । अंतरंग परीक्षासे सिद्ध है कि समय-समय पर इसमें सुधार भी किया गया है। इसका लेखक मयासुर कहा जाता है जिसने सूर्यकी तपस्या करके सूर्योश पुरुषसे सत- युगके अंतर्में आजसे लगभग २१६४०४५ वर्ष पहले इस प्रन्थको प्राप्त किया था जिससे पाश्चात्य लेखकोंने यह परिणाम निकाला है कि यह ग्रन्थ पहले पहल यवन ज्योतिषके आधार पर लिखा गया था परन्तु पीछेसे इसमें वराहमिहिर आदिने सुधार करके इसको. वतंमान रूप दिया है। यह बात म० म० पं० सुधाकर दिवेदी* तथा अबोधचन्द्र सेनगुप्त भी मानते हैं। इसका विस्तृत विवेचन इन पंक्तियोंके लेखकने सूर्यसिद्धान्तके विज्ञान भाष्यकी भूसिकामें किया है। इसपर संस्कृृतमें कई टीकाएँ लिखी गयी हैं ओर इसके आधार पर भारतवर्षके प्रत्येक प्रान्तमें सारिणियां बनायी गयी हैं जिनके आधार पर पंचांग १ --सुधावर्दिणी टीकाकी भूमि टीकाकी भूमिका देखिए । ध््ठ . भारतीय व्योतिष क्‍ हे प्र 3५2 अल कर लि जप पर अल जीप जी रजत डक कफ सील क लि डक कल ली सकल जल मनकिल न लक डर जलकर जि डिक दि ली बटर. लक कल मल कल एः १७ ३४६ बनाये जाते हैं | हस प्रान्तमें सकरन्‍्द सारिणी ४०० वर्षसे व्यवद्दारमें भरा रही है । अग्रेज़ी, फरॉसीसी,जरमन' भाषाओं में भी इसके अ्रच्छे . अनुवाद किये गये हैं जिनके लेखकोंने इसकी रचनाका ठीक-ठीक समय जाननेका प्रयत्न किया है। इनसे सिद्ध होता है कि यह गअ्न्थ विक्रयकी वीं शताब्दीसे आरंभ होकर दसवीं शताब्दी तक॑ अपने बत- मान रूपमें आया है। इसमें कुल १४ अध्याय हैं जिनमें पहले ८ अध्यायोंको अधिकार कहां गया है और चार अध्यायों को अध्याय इनके नाम क्रमानुसार यह है-- ३- सध्यमाधिकार, ३- स्पष्टाघिकार, ३-- त्रिप्रश्नाधि- कार, ४--चन्द्रभृहणाघिकार, £€- सय्यंग्रहणाधिकार, ६-परिलेखाधिकार, ७--अहयुत्यधिकार, ८-नक्षत्न- ग्रहयुत्यधिकार, £-- उदयास्ताधिकार, १०-- शज्जोन्नए एथि- कार, ११- पाताधिकार, १२-भूगोज्लाध्याय, १३--- ज्योतिषोपनिषदाध्याय और १४- मानाध्याय । इनके नामेंसे ही यह पता चलन जाता है कि किस अध्यायमें क्या विषय बतल्ाया गया है । भारतवर्षमें श्रब. भी बहुतसे पण्डित हैं जो समभते हैं कि यद अपौरुषेय है अर्थात्‌ इसे किसी पुरुषने नहीं बनाया वरन भगवान्‌ सयने स्वयम्‌ इसका उपदेश दिया है। परन्तु इतना तो सिद्ध है कि प्राचीन आचार्यो' ने भी इसमें संशोधन फरनेकी आवश्यकता समझी थी और इसमें सुधार किये थे। स्वयम्‌ इसके श्लोकोंसे भी सिद्ध होता है कि कालान्तरमें भेद पढ़ सकता है औरं इक्तुल्यताके लिये ही ग्रहको स्पष्ट करनेकी आवश्यकता पढ़ती है। इसलिए इमारा कतं॑व्य है कि हम इस बातका दृठ न करें कि सूर्यसिद्धान्तकी गणनामें बिना कुछ . संशोधन किये ही प॑चांग आदि बतायें। लाटदेब, पाण्डुरंग स्वामी, निःशह्ड, श्रीषेण, विष्णुचन्द्र, प्रद्यम्त, विजयनन्दि वराइमिहिरने पंचस्िद्धान्तिकामें जिन भन्थोंका संग्रह किया है उनके नाम ये हैं--पोलिश, रोमक, वासिष्ठ, सौर २- खण्ड खायककी अंग्रेजी टीका परिशिष्ट ३ देखिए । [ विज्ञान, जनवरी, १६४४ ब्रेद्वंग॒प डा ४१२१ ओर पेतामह सिद्धान्त | इनमेंसे पहले दो ग्रन्थोंके ब्याख्यात[* लायदेव बतलाये गये हैं जिससे सिद्ध द्वोता है कि लाटदेव . सूर्य सिद्धान्तके बनाने वाले नहीं थे जैसा अलबेरूनीने कई सो वर्ष पीछे विक्रकी ११वीं शताब्दीमें लिखा है। यदि ऐसा होता तो वराहमिद्विर भ्रवश्य स्वीकार करते । भास्कर प्रथमके रचे महाभास्करीयसे तो प्रकट होता क्ञाटदेव, पाण्डुरज्ञ स्वामी, निःशह्लु श्रादि आय॑भटके शिष्प थे*। रोमक सिद्धान्त निस्सन्देह यवत ( यूनानी ) ल्योतिषके आधार पर बनाया गया था क्योंकि इसमें यवनपुरके सूर्यास्तकाल रे से अ्रदर्गंथ बनानेकी रीति बत- ज्ञायी. गयी है । यह यवनपुर वर्तमान युक्तप्रान्तका जवनपुर नहीं है वरन्‌ शायद एल्लेकज़ंडरिया है जो यूनानी ज्योतिषियोंका केन्द्र था। अस्त द्वोते हुए सूर्यसे अहदरगंय निकालनेकी बात भी यही बात प्रकट करती है, क्योंकि मुसलमानी मद्दीने अब भी दृइजके चन्द्रदशनके संमयसे, जब सूर्यास्त होता है, भारंभ होते हैं। ब्रह्मगृपने भी ' रोमक सिद्धान्तको स्वृतिवाह्य* माना है। इश्से यह बात ओर भी स्पष्ट हो जाती है। पाण्डुरंगस्वामी ओर निःशह्न के बनाये कोई प्रन्थ नहीं मिल्ते हैं । श्रह्मगुप्तने श्रीषेण, विष्णुंचच्द्ध ओर विजयनन्दिकी चर्चा कई स्थारनॉपर विशेषकर तन्त्र परीक्षाध्यायमें की है जिससे प्रकट होता है- कि इन्होंने कोई स्वतन्त्र अन्थ नहीं लिखा था वरन्‌ पुराने ग्रन्‍्थोका सँग्रह मात्र अ्रथवा संशोधन मात्र किया था। ऊपरके पिछले चार ज्योतिषियोंका समय वराइमिद्दिरके उपरान्त ओर ब्रह्मगुप्तके पहले श्रर्थात्‌ संवत्‌ १६२ से ६६२५ के बोचर्मे है । बद्यग॒प्त कहते हैं कि श्रीषेणने त्ञाट, वशिष्ट, विजयनन्दि और आय॑भटके मूज्ञाइको लेकर रोमक नामक गुदढ़ी ४ तैयार की है शोर इन 'सबके आधार पर विष्णु चच्रने वाशिष्ट नामक ग्रन्थ रचा है | १ पंचसिद्धान्तिका ग््ु २ प्रबोधचन्द्र सेन गुप्तके खण्खाणककी भूमिका पृष्ठ #] 2 +। पं 6 सि ० ॥, | ४ आ० सि० ३, १३ * तब्रा० स्फू० सि० १ १, ऐ८-२१ भाग ६९, संख्या ४ ] है कि सास्‍तर प्रथम महा भास्करीय ओर ल्घुभास्करीय नामक दो प्रन्‍्थों की दस्तलिखित प्रतियां मद्रास सरकारके अधिकारमें है जिनकी प्रतिलिपि डाक्टर विभूति भूषणदत्तने प्राप्त की है। . इन दोनों अन्थोंमें आयभटके ज्योतिषका समावेश है ओर हनका रचयिता भास्कर नामका कोई ज्योतिषी. रहा होगा जो लीलावतीके लेखक प्रसिद्ध भास्कराचायसे भिन्न है। इस लिये इनका नाम प्रथम भास्कर लिखना उपयुक्त होगा । यह आयभटके- शिष्य रहें होंगे जैसा प्रथूदक स्वामी के कथनसे प्रकट होता है। इनकी चर्चा पहले झा गयी है इस लिए यह अधिक क्षिखनेकी आवश्यकता नहीं हे । कल्याण वर्मा पं० सुधाकर द्वितरेदीके अनचुसार* इनका समय शक ४०० के लगभग है। इस्होंने 'सारावली' नामक जातक शाखकी रचना वराहमिहिरके वृहजातकसे बढ़े आकारमें की है शोर स्पष्ट लिखा है कि वराहमिहििर यवन, नरेन्द्र रचित होराशास्के सारकों लेकर सारावली नामक गन्ध की रचनाकी दे। इसमें ४७२ अध्याय हैं। इस पुस्तककी चर्चा भटोत्पजने की है । शंकर बालकृष्ण दीक्षित * के मत से इनका समय 5२१ शकके लगभग है | .. ब्रह्मगप्त श्रद्गगुप्त गणित ज्योतिषके बहुत बड़े आचार्य दो गये हैं। प्रसिद्ध भास्कराचायने इनको गणकचक्रचूड़ा- मणि कहा है और इनके मूलाक्ोको* अपने सिद्धान्त शिरोमणिका आधार माना है। इनके प्रंथोंका भ्रनुवाद अरबी भाषामें भी कराया गया था बिन्‍्हें श्रबोमें असू सिन्ध हिन्द और अलू अकन्‍्द कहते हैं। पहली पुस्तक आद्वास्फुट सिद्धान्तका अनुधाद दे श्रोर दूसरी खयढखाद्यक का । इनका जन्म शक €$८ ( ६७३ वि० ) में हुआ था ओर इन्होंने शक <९० ( ६८५ घि० ) में ब्राह्मस्फुट ६ ब्रद्मस्फुट सिद्धान्त ११, २६ की टीका के ७ गणक तरंगिणी पृष्ठ १३ ८ भारतीय ज्योतिः शांख पूृ० ४८६; $ सिद्धाग्त शिरोमणि भगयाध्याय 5१ ४२२ भारतीय ज्योतिष अ्ानरकाण2भकपवएभयाा या १५७० पवार प का; घ१22० जा पर० ९४ का च555202:7%0-:रददापजवापावशायाप वाक्य द्रव ापरयद।दध पड भय काम पा दाापत पाभावत भा दल प पपरशभाक्ष कफ व 25०१ धा पापा काका पदाभ रात तप दादा द१९७ सिद्धान्तकी रचना" की थी। इन्होंने स्थान-स्थान पर- लिखा है कि आयभट, श्रीषेण, विषणुचन्द्र आदिकी गणना से ग्रहोंका स्पष्ट स्थान शुद्ध-शुद्ध नहीं श्राता इस लिये वे व्याज्य हैं ओर ब्रह्मस्फुट सिद्धान्तमें ध्गणितैक्य"" होता है इस लिए यही मानना चाहिये। इससे सिद्ध होता है कि बह्मगुप्त ने ब्राह्मस्फुट सिद्धान्तकी रचना गहोंका प्रत्यक्ष वेध करके की थी,भ्ोर यह इस बातकी आवश्यकता समभते थे कि जब कभी गणना ओर बेघमें श्रन्तर पड़ने लगे तो बेधके द्वारा गणना शुद्ध कर केनी चाहिये। यह पहले आचाय थे जिन्होंने गणित ज्योतिषकी रचना एक क्रमसे की ज्योतिष ओर गणितके विषयोंको क्रमानुसार अलग अलग अ्ध्यायोंमें बाँठा | इसके अ्रध्यायोंकां ब्योरा नीचे दिया जाता है-- ब्राह्मश्फूत सिद्धांत--१--मध्यमाधिकारमें गहाोँकी मध्यम गतिकी गणना है। २--स्पष्टघिका रमें स्पष्ट गति जाननेकी रीति बतलायी गयी है। इसी अ्रध्यायमें ज्या निकालने की रीति बतलायी गयी है जिसमें ब्रिज्याका मान ३२७० कला माना गया है जब आर्यभटने ३४१८ कक्षा माना था जिसे सूयंसिद्धान्त, सिद्धान्त शिरोमणि आदि अन्थोंमें भी स्वीकार किया गया है। आजकल भी रेडियनका मान ३४३८ के निकट समभा जाता है । इ३--श्रिप्रश्नाधिकारमें ज्योतिषके तीन मुख्य विषर्यों दिशा, देश ओर काल जाननेकी रीति है | ४--चन्द्रमहणाधिकारमें चन्द्रसहणकी गणना करने की रीति है । ५ -सूथग्रहणाधिकारमें सूययप्रहदृणकी. गणना करने की रीति है | ६--उदयास्ताधिका रमें बतत्लाया[ गया है कि चंद्रमा संगल्ञ, चुध, गुरु, शुक्र ओर शनि ग्रह सर्यके कितने पास आने पर अस्त हो जाते हैं अथात अधद्श्य हो जाते हैं १ ७७४ छाचातामारूणकंााााा आता ााायक्ट। १० संज्ञाध्याय ७, ८ ११ तन्‍्न्रश्न'शे प्रतिदिनसेब॑विज्ञाय घीमता यत्नः | कार्यस्तस्मिन्‌ यस्मिन्‌ दृगगणितिक्य॑ सदा भवति ॥६०॥ तनत्र परोक्षाध्याथ । द् 22 ओर कितनी दूर होने से उदय होते हैं अर्थात्‌ दिखाई पड़ने लगते हैं | ७५--चन्द्रश्ज्ञोज्त्याधिकारमें बतलाया गया है कि शुक्पणकी दूइजके ॥दिन जब अख्वमा स॑न्ध्यामें पहले- पहल दिखाई पड़ता है तब उसकी कौन-प्ती नोक उठी रहती है | ८--चन्द्रच्छायाधिकारमें उदय और अस्त होते हुए चन्द्रमाके बेघसे छाया, शक आदिका ज्ञान करनेकी रीति है । अन्य भ्रन्थोंमें इसके लिए कोई अलग अध्याय नहीं है। ६--प्रहयुव्याधिकारमें बतलाया गया है कि ग्रह एक दूसरे के , पास कब आ जाते हैं ओर इनकी युतिकी गणना केसे की जाती है। १०--भग्रहदुत्याधिकारमें बतत्लाया गया है कि नक्षत्रों या तारोंके साथ प्रह्ंकी युति कब होती है और इसकी गणना कैसे की जाती । इसी अध्यायमें नक्षत्रेंकि आ्रूवांश ओर शर भी दिये गये हैं और नक्षत्नोंकी पूरी सची है। ज्योतिष गणित सम्बन्धी यह दस अध्याय मुख्य हैं । ११०-तन्त्रपरी क्षाध्यायमें बह्यगुपने पहलेके आयभट अश्रषेण, विष्णचन्द्र आदिकी.पुस्तकोका खण्डन बड़े कड़े शब्दोंमें किया है जो एक प्रकारसे ज्योतिवियोंकी परिषाटी सी है परन्तु इससे यह बात सिद्ध होती है उस प्राचीन- कालमें भी ज्योतिषी बेधसिद्ध शुद्ू गणनाके पतमें थे पुरानी लकीरके फकीर नहीं रहना चाहते थे । _११--गणिताध्याय शुद्ध गणितके संबंधम है। इसमें जोड़, बाकी, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, धन, धनमूल्न, भिन्नके जोड़ बाकी आदि, त्रेराशिक, ब्यस्तत्रेराशिक, भाण्ड प्रतिभाण्ड ( बदंलेके प्रश्न ) मिश्रक व्यवहार आदि अंक गणित या पादी गणितके विषय है। श्रेढ़ी व्यवहार ( 0760)76॥08] 07087'858707] ), क्षेत्र व्यव- हार (त्रिभुज, चतुभु ज आदिके क्षेत्र फल्ष जाननेकी रीति), वृत्त चेत्र गणित, खातव्यवहार ( खाई आदिका धनफल ' ज्ञानने की रीति ), चिति व्यवहार ( ढालू खाई'का भन- फल जाननेकी रीति ), क्राकचिक व्यवहार ( आरा चलाने वालेके कामका गणित ), राशि व्यवहार ( नाजके ढेरका [ विज्ञान, जनबरी, १६४४ ब्रह्म गुंपे ४९३ परिमाण जाननेकी रीति ), छाया व्यवहार ( दीप स्तंभ और उसकी छायाके सम्बन्धके अनेक प्रश्न करनेकी रीति) आदि, २८ प्रकारके कर्म इसी अध्यायके अंतर्गत हैं । इसके आगे प्रश्नोत्तरके रुपमें पीछेके अ्रध्यायोंमें बतलायी हुई बातोंका अभ्यास करनेके ल्विए कई अध्याय हैं । १३--मध्यगति उत्तराध्यायमें गहोँकी मध्यगति संबंधी प्रश्न ओर उत्तर हैं । १४- स्फुटगति उत्तराध्यायमें संबंधी प्रश्न ओर उत्तर हें । १५ - श्रिप्रश्नोत्तराध्यायमें ब्रिप्रश्नाध्याय संबंधी प्रश्नो- त्तरदें। १६ -अहणीत्तराध्यायमें सुर्य-चन्त्रमाके गद्दण संबंधी प्रश्नोत्तर हैं । | १०७--/टक्ोन्न युत्तराध्यायमें. चन्द्रमाकी :क्लेन्नति सम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं । ह॒ १८० --कुद्काध्यायमें कुधककी विधिसे प्रश्नोंका उत्तर जाननेकी रीति है। इस अध्यायमें अह्यगुप्तने प्रस्येक प्रकार- के कुटककी रीति बतलायी है श्रोर दिखल्ाया द्वे कि इससे गह्दोंके भगण आदिके काल कैसे जाने जा सकते हैं। इस अध्यायका अग्रेज़ी अनुवाद कोलब्रुकने किया है। इस अध्यायके श्रंतर्गत कई खंड हैं । एक खंडमें धन, ऋण ओर शून्योंका जोड़, बाकी, गुणा, झग, करणी ( 57705 ) का जोड़, बाकी, गुणाभाग, आदि करनेकी रीति है । दूसरे खंड़में एकवर्ण समीकरण, वर्ग समीकरण, अनेक वर्ण समी- करण, आदि बीजगणितके प्रश्न हैं। तीसरा खंड।बीजगणित सम्बन्धी भावित त्रीज नामक है | चोथा खंड वर्ग प्रकृति नामक है । पांचवें खंडमें अनेक उदाहरण दिये गये हैं । इस प्रकार यह अध्याय १०३ श्क्षोकेमें पुर होता दे । १६--शक्कुच्छायादि ज्ञानाध्यायमें छायासे समय या किप्ती चीज़की ऊँचाई आदि जानने की रीति बतक्लायी गयी हैं। यह श्रिकोशमितिसे सम्बन्ध रखता है । २०-छन्दश्चिव्युत्तराव्यायमें १६ श्लोक हैं जिनका अर्थ इतना दुरूह है कि समभमें नहीं आता | २१--गोलाध्यायमें भुगोज्ञ ओर खगोल सम्बन्धी कुछ गणना है । इसमें भी कई खंड हैं--ज्या प्रकरण, स्फुटगति वांसना, गृहणवासना, गोक्बन्धाधिकार । इनमें ,भूगेल् ग्रहोंकी स्षपटगति भांग ६०, संख्या ४ | _ खगे।ल सम्बन्धी परिभाषाएँ ओर गुहोंके बिम्ब्रोके व्याक्ष आदि जाननेकी रीति हैं । २२--यंत्राध्यायमें ४० श्लोक हैं जिनमें अनेक प्रकार- के यंत्रोंका वर्णन किया गया है जिनसे समयका ज्ञान होता है और गह्ढोंके उन्नतांश, नरतांश आदि जाने जाते हें स्वयंवह यंत्रकी भी जर्चा है जो पारेकी सहायतासे अपने आप चलता कहां गया है । २३- मानाध्याय नामक छोटेसे अध्यायमें सोर, चारद्र सावन आदि नव मानोंकी चर्चा हैं। २४ - संज्ञाध्यायमें कई महत्वकी बातें बतल्ायी गयी हैं। पहले बतलाया गया है कि सूर्य, सोम, पुलिश, रोमक, वसिष्ठ और यवन सिद्धान्तोंमें एक ही सिद्धान्त ( तत्व ) का प्रतिपादन किया गया हैं। यदि कुछ भेद है तो वैसे ही जैसे सूयंकी संक्रान्ति स्थान भेदके कारण भिन्न-भिन्न काल्षोंमे कही जाती है। इससे पता चलता है. कि ब्रह्मगुप्त के समय उपयुक्त सिद्धान्त प्रचन्नषित हो गये थे और सबसमें प्राय: एक ही सी बातें थी। फिर ब्राह्मब् स्फुट सिद्धा्तके २४ श्रध्यायोंकी सूची दी गयी है । इसके बाद बतलाया गया है कि चापवंश तिलक व्यांध्र- मुख राजाके समयमें <९० शकमें जिषशुसुत ब्रह्मगुप्तने ३२ वर्षकी अ्रवस्थामें गणितज्ञों ओर गोलझ्ञोकी प्रसन्नता- के लिए यह ग्रन्थ रचा | एक श्लोकमें बतलाया है कि ७२ आर्या इन्दोंका ध्यानग्रहोपदेशाध्याय बाद्मस्फुट स्िद्धान्तमें जिसके २४ अध्यायोम कुल १००८ आर्या चन्द हैं नहीं जोड़ा गया। यह भी याद रखना चाहिए कि प्रत्येक अध्यायके श्रंतमें यह बतल्लाया गया है कि उसमें कितने छन्द हैं । ध्यानग्रहोपदेशाध्यायमें तिथि नक्षत्र आदिकी गणना करनेकी सरल रीति बतक्ायी गयी है । इस लम्बे विवरणसे स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मगुप्तने ज्योतिष संबंधी बातोंके सिवा -बीजगणित, अकगणित और ज्ेत्रमति आदि पर भी कितनी ऊँची बातें झानसे १३०० वर्ष पहले लिखी थीं ओर यह उसी गणनाकों ठीक मानते थे जो बेधसे भी ठीक उतरती थीं । खण्डखांद्यक्र- शक २८० में जब ब्रह्मगुप्त १६ वर्षके हो गये थे तब खण्ढखाद्यम नामक करण ग्रन्थ सी ने हर रचा था जिससे तिथि, नक्षत्र ओर ग्रहोंकी गणना सुगम रौतिसे की जा सके | आश्चर्यकी बात तो यह हैं कि ब्राह्म- स्फूट सिद्धान्तमें जिल आयभटकी निन्‍्दा अनेक स्थानेमें की गयी थी उसीके अनुसार इसे खण्डखाद्यक" की रचना की गयी हैं। इससे प्रकट होता है कि बृद्धावस्थामें इनको भी आयभटका महत्व समर पड़ा | परन्तु इस गन्थमें भी ब्रह्मगुप्तने नवीन बातें बतलायी हैं ओर कुछ संशोधन भी किये हैं । इस गनन्‍्थमें कुल १० अध्याय हैं जिनमें तिथि नज्ञत्रादिकों की गणना, पंच तारागहोंकी मध्य ओर स्पष्ट गणना, भरिप्रश्नाधिकार, चन्द्रगूहणाधिकार, सूथंगूहणाधि- कार, उदयास्ताधिकार, चख्दश््ञोन्नत्य धिकार, गृहयुत्यधि- कार नामक आठ अध्याय पूर्व खश्डखाग्यकमें हैं। उत्तर खण्डखाद्यकमे दो श्रध्याय हैं जिसके पहले श्रध्यायमें ब्रह्म- गुप्तने अपने संशोधनोंकी चर्चा की है ओर नयी बातें बतलायी हैं ओर दूसरे अ्रध्यायसें तारा गृहों ओर नक्षत्रों की युतिके सम्बन्धमं विचार किया है। यहां नक्षन्नोंके योग तारोंका भ्र्‌ वांश और विक्षेप बतलाया है। इन सब बातोंका विचार करनेसे सिद्ध होता है कि ब्रह्मग॒प्त एक महान्‌ श्राचार्य थे। इन्होंने जो पद्धति चलायी उसीका पीछेके प्रायः सभी आचायोने अनुसरण किया । इनके दोनों गन्थोंकी कई टीकाएँ संस्कृतमें ही नहीं निकलीं बरन्‌ अरबीमें भी की गयीं जिससे इनका नाम अरब ओर तुर्किस्तानमें भी फेल गया था। तलनल्तज् इनके समयके सम्बन्ध विद्वानेमें बढ़ा मतभेद है । म० म० सुधाकर द्विवेदी गणकतरंगिणीमें इनका समय ४२१ शक छिखते हैं क्योंकि आयभटीयके अनुसार आये हुए गहोमें बीजसंस्कार देनेके लिए ४२० शक घटाकर रे १--वच्यामि खयडखाद्रकमाचायायभट तुस्य फलम्‌ ।|१॥। ग्रायेणाय॑मटेन व्यवहारः प्रतिदिन॑ यत्तो5शक्यः । उद्दाइजा तकादिपु तत्समफलं लघुतरोक्ति रतः ॥२।| प्रथम अध्याय २--शाके नखाडिध रहिते, , .उश्रद्टार क्षिभक्ते ।। शिष्यभी- वृद्धिद अध्याय १, २३-६०, भध्याय १३, १८-११ भारतीय ज्योतिष गह स्पष्ट करनेके लिए इन्होंने कहा है । परन्तु इसी श्ल्वोकमें बतलाये गये नियमके अब्रुसार »बोधं॑चन्द्र सेनगुप्त अपनी खण्डखाद्यककी टीकाकी भूमिका ' में बतलाते हैं कि लब्ल का समय इससे २७० वर्ष पश्चात्‌ शक ६७० दे क्योंकि २७० से भाग देनेकी बातसे प्रकट होता है कि यह बीज संस्कार ज़्ल्लने 8२० शकसे २२० वर्ष पीछे निश्चिचत किये थे। यह बात सेनगुप्तजीने दूसरी तरहसे भी सिद्ध किया है। यह कट्ठते हैं कि लल्लने नक्षत्रोके योगतारों के जो भ्र्‌ वांश दिये हैं वे ब्राह्ममफुट थिद्धान्त के ६ तारोंके धवांशोंसे लगभग २ अंश अधिक हैं और दो तारोंके प्र वांशोंसे लगभग १" १० अधिक हैं इसलिए इनका समथ ब्रह्मगुप्तकके समयसे . कमसे कम ८४ वर्ष ओर अधिकसे अ्रध्रिक १४० वर्ष पश्चात होता है। बह्मगुप्तके पश्चात्‌ लब्लके होनेकी बात श्री बब्ुश्ा मिश्रकी संपादित खण्ड- खाद्रककी दीका एृ० २५ से भी सिद्ध होती है क्योंकि इन्होंने लल्तकी बनायी रूण्डबखाग्यपद्धति नामक गन्थ- की चर्चा की है जिसकी चर्चा न तो १० सुधाकर द्विवेदीने की है ओर न शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने। सुधाकर द्विवेदीजीका मत तो इस बातसे भी ठीक नहीं समर पड़ता कि यदि लदुल इतने पुराने होते तो ब्रह्मगुप्तजी जिन्होंने आयभट, श्रीसेन, आदि अपने पहलेके गन्थकारों की चर्चा कई जगह की है। इनकी चर्चा भी अवश्य करते । शंकर बालकृष्णं॑ दीक्षित इनका समय ७६० शक के क्षरभग बतलाते हैं जिससे यह ब्रह्मगुप्तके समकालीन सिद्ध होते हैं | परन्तु यह बात भी ठीक नहीं समरू पड़ती क्योंकि तब बीजसंस्कारके लिए २७५० से भाग देनेकी बात सममभमें नहीं आती । इसके स्रिद्ञा जब बब्ुआ मिश्र खण्डखायपद्धतिकी चर्चा करते हैं जो ब्रह्मगुप्तके खण्ड- खाद्यककी टीका ही हो सकती है तब तो प्रबोधचन्द्र सेन गुप्तका ही अनुमान ठीक समझ पड़ता है | शिष्यधीवृद्धिद तंत्र--यद लल्लका बहुत प्रसिद्ध ५ कार हैँ. गन्थ है जिसे आयभटीयके आधार पर लिखा गया है ओर बीज संस्कार देकर उसे शुद्ध करनेकी बात भी लिखी २--- [7]#8700000407 एष्ट & & ५]॥ भऔध॑र हससयप्भपायपाउपउक 5७७ ७१७७११५७ ०0 &७०७५५५६५५७५०७५ ५५ +नप५५५३०७+३७+१७भजा एज ७५५५» पा 2७ मार ५सदाला९॥०५५४७५५३ पका थाम ९> भा ताम ० पता नाकााप >> कक ना. ्कृ- गयी है | इस गन्धके रचनेका कारण? यह बतकाया जाता है कि आय॑भद या इनके शिष्योंके लिखे गन्‍्धोंसे विद्यार्थियोंके समभनेमें सुविधा नहीं होती थी इसलिए बिस्तारके साथ उदाहरण देकर ( कर्मक्रमसे ) यह गन्थ लिखा गया है। इसमें अंकगणित या बीजगणित संबंधी अध्याय नहीं है, केवल ज्योतिष संबंधी अध्याय विस्तारके साथ दिये गये हैं श्रोर कुल श्लोकोकी संख्या १००० है । इस गनन्‍्थके गणिताध्यायमें मध्यमाधिकार, स्पष्टाधिकार त्रिग्रश्नाधिकार, चन्द्रगहणाधिकार, सूर्यगहणाधिकार पव॑सस्भवा धिकार, गहोदयास्ताधिकार, चन्द्रच्छायाधिकार चन्द्रशब्ञोन्नत्यघिकार, गहयुत्यधिकार, भगहसयुत्यधिकार सहापाताधिकार और उत्तराधिकार नामक १३ अध्याय हैं। गोलाध्यायमें छेध्काधिकार, गोलबन्धाधिकार, मध्य- गतिवासना, भूगोलाध्याय, गहअ्नमसंस्थाध्याय, भुवन- कोश, सिध्याज्ञानाध्याय, यन्त्राध्याय और प्रश्नाध्याय हैं । इन अ्रध्यायोंके नामसे भी प्रकट होता है कि यह पुस्तक ब्राह्मस्फुट सिद्धान्तके पश्चात्‌ लिखी गयी है और ज्योतिष संबंधी जिन बातोंकी कमी ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तमें थी वह यहाँ पूरो की गयी है | शुद्ध गणित, अंक गणित या बीज गणित संबंधी कोई अध्याय इसमें नहीं हैं जिससे प्रकट होता है कि ब्रह्मगुप्तके बाद जब ज्योतिष और गणित संबंधी विकास बहुत बढ़ गया तब इन दोनों शाखाओंको अलग-अलग विस्तारके साथ लिखनेकी परिपाटी चली किसीने शुद्ध गणित पर विस्तारके साथ लिखना आरंभ किया जैसे श्रीधव और महाबीर और किसीने केवल ज्योतिष पर जैसे लहल, पएथूदक स्वामी, भटोत्पन्न आदि। यह आश्चर्यजनक है कि आयंभटके सिवा किसी अन्य प्राचीन आचायंका नाम इसमें नहीं आया है । रत्लकफ़रोश--शंकर बालकृष्ण दीकज्षि३४ लिखते हैं कि ३- विज्ञाय शाख्रमल्लमाय भटप्रणीत॑ । तंत्राणि यद्यपि कृतानि तदीय शिष्ये: | कर्मक्रमो न खलु सम्यगुदी रितस्तेः । कम ब्रवीस्यहमत: क्रमशस्तु सूक्त॑ |।२॥। मध्याधिकार ४-- भा रतीय ज्योतिष शास्त्र, पृष्ट २१७ भाग ६०, संख्या ४ ] ४१४ इस नामका एक मुहूर्त प्रन्थ ककलका रचा हुआ है। इसका अनुमान पं० सुधाकर द्विवेदी अपनी गणक तरंगिणी में भी करते हैं क्योंकि मुहूत चिंतामणिकी पीयूष धारा टीकामें क्ल्कके मतकी चर्चा है परन्तु यह पुस्तक टिवेदी जीके देखनेमें नहीं आयी थी । पादी गणित ( अंकगणित ) और बीजगणित की कोई पुस्तक भी लक्क्षकी बनायी हुई थी ऐसा हिवेदी की अनुमान करते हैं, परन्तु यह पुस्तक भी उनके देखनेसें नहीं आयी थी | सब बातोंका विचार करनेसे प्रकट होता है कि जब्त एक विद्वान ज्योतिषी थे और आकाशके निरीक्षणके द्वारा म्रहोंको रपट करनेकी आपशइ्यकता समभते थे। पद्मताभ यह बीजगशितके आचाय थे जिनके ग्रन्थका उक्छेख भास्कराचार्यने अपने बीजगशितमें किया हैं परन्तु हमके समयका पता किसीने नहीं दिया है। ढा० सिंह और त्द) लिखते हैं कि इनका बीजगणित कहीं नहीं मिक्षत। | शंकर बालकृष्ण दीक्षितः लिखते हैं कि कोक्नश्ुकके मतानुसार इनका काल शीधरसे पहलेका है इस क्षिए ७०० शकके क्षगभग ठहरता है। म० म॒० सुधाकर द्विवेदी गणक तरंगिणीमें ध्यघद्दार प्रदीप नामक ज्योतिष अन्थके कर्त्ता जिस पद्मननाभ मिश्र का वर्णन करते हैं वह इनसे भिन्न हैं। द्विवेदीओीने भी निश्चय पूवक नहीं कहा हैं कि दोनों एक ही हैं या शिश्ष । श्रीघर * यह भी बीजगणितके आधचाय थे जिनका उछ्लेख सोस्कराचार्यने बीजगशितरमे कई जगह किया है। डाक्टर सिंह और दत्तके मतसे इनका समय ७४० ई० के जञगभग है जो ६०२ शकके लगभग ठहरता है। इनकी पुश्तकका १-हिस्ट्री आव्‌ हिन्दू मैथिमेटिक्स भाग २ पृ० ११ की पाद टिप्पणी २--भारतीय ज़्योतिषशीस्न पृष्ठ २२६ क्र ४१६ भारताय ज्योतिष ्ड धादधयनाफपर्ाकणपक्षापाउकाकाकपधपारपपा/ध ८3५७५: -सथक0०० प८५४::0:>९६७४५४३५४८ :0फफरक४:५५५: मर -+५५२४०५७५३०॥रतत॥ भा भा ७४० घमपइतभ५५ ५७७92 भव 4०क ना ११७३१७७५७० »४३५४५३८५+भपा४कसतभानभाउ# ५ ता भा भा > परमाद5३७५५॥०५७०० भा काका वा तार ०+७ 2४ माताकातन४ कस छधामत5०जााए७* नकारा. नाम तज्रिशतिका है जिसकी एक प्रति गणक तरंगिणीके" अनुसार काशिक राजकीय पुस्तकालयमें ओर एक प्रति प॑० सुधाकर ह्विवेदीके मित्र राजाजी ज्योतिविंदके पास थी । इसमें ३०० श्लोक हैं जिसके एक श्लोकसे बिदित होता है कि यह श्रीधरके किसी बड़े प्रव्थका सार है। यह प्रधानतः पाटीगणितकी पुस्तक है जिसमें श्रेढ़ी व्यवहार चेन्र व्यवहार, खात ध्यवहार, चितिव्यवद्दार, राशिव्यवहार छायाव्यवहार आदि पर विचार किया गया है। द्विवेदी जीका मत है कि न्याय कन्दज्ञी नामक ग्रन्थके रचयिता भी यही श्रीधर है जिसकी रचना ६१३ शकमें की गयी थी, इसलिए श्रीधरका समय भी यही है । परन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि इस मतका समर्थन न तो दीक्षित करते हैंओरन ढा० सिंह था दत्त। दीक्षित" कहते हैं कि महावीरके गणितसारसंग्रह नामंक ग्रन्थमें शीधरके मिश्रकव्यवहारके कुछ वाक्य आये हैं जिनसे प्रकट होता है कि श्रीधर महावीरके पहले हुए हैं और महाबीरका समय दीक्षितके मतरें से ७७५ शक तथा ढा० सिंदके मत” से 2८९० ई० वा ७७२ शक होता है। महावीर यह बीजगणित ओर पाटीगणितके असिद्ध श्राचार्य हो गये हैं जिनके ग्रंथ गशितसार संप्रह् के अनेक अचतरण डा० सिंह और दत्त ने . अपने हिन्दूगणितके इतिहास में दिये हैं। इनका समय ८४० ई० अथवा ७७२ शक कहा जाता है। यह जैनधर्मी थे ओर जैनधर्मी राजा अमोधवर्षके आश्रय. रहते थे। राष्ट्रकूट वंशके राजा अमोघवर्ष ७०४ शकके लगभग थे इसलिये यही इनका समय सममभना चाहिये। दीक्षितके अनुश्षार गशित सार- संग्रह भास्कराचायकी लीलावतीके सदृश है परन्तु विस्तारमें इससे बढ़ा है! गणकतरंगिशीमें इनकी फहीं चर्चा नहीं है । १--गणाक तरंगिणी पृष्ठ २२ २--भारतीय ज्योतिषशांसखर पृष्ठ २३० ० ) 7 १५ हर ४--हिस्ट्री आव्‌ हिन्दू मैथिमैटिक्स भाग २ पृष्ठ २० आय भट द्वितीय यह गणित और ज्योतिष दोनों विषयोके अच्छे आचाय थे जिनका बनाया हुआ महाहिद्धान्त गंध ज्योतिष सिद्धान्तका अच्छा ग्रंथ है। इन्होंने भी अपना समय कहीं नहीं लिखा है । डा० सिंह ओर दत्तका मत" है कि यह ६५० ई० के लगभग थे जो शककाल झ७२ होता है। दीक्षित लगभग ८७७ शक कहते हैं इस लिये यही समय ठीक समझना चाहिये। गणकतरंगिणी में इनको चर्चा तक नहीं है जब कि सुधाकर द्विवेदीजी ने इनके महासिद्धान्तका स्वयम्‌ सस्पादन किया है। द्विवेदी जी इसकी भूमिकामें केवल इतना लिखते हैं कि भास्कराचायने हक्‍काणोदयके लिए ,जिस आयभटकी चर्चा की है वह आयभट प्रथम नहीं हो सकते क्योंकि डनके ग्रंथ आयंभटीयमें इकाणोदयकी गणना नहीं है परन्तु महासिद्धान्तमें हे इस लिये महास़्रिद्धान्तके रच- यित्ता आयंभट दूसरे हैं जो भास्कराचार्यसे पहलेके हैं। यही बात दीक्षित जी भी लिखते हैं । परन्तु यह बह्मगुप्त के पीछे हुए हैं क्योंकि बरह्मगुसने आ्रायभटकी जिन बातों: का खण्डन किया है वह आयंभटीयसे मिलती हैं महा- सिद्धान्तसे नहीं । महासिद्धान्तसे तो प्रकट होता है कि ग्रह्मगुप्तने आभ्रंभटकी जिन जिन बातोंका खंडन किया है वे इसमें सुधार दी गयी हैं । कुषककी विधिमें भी आर्यभट प्रथम, भास्कर प्रथम तथा बह्मगुप्तकी विधियोंसे कुछ उन्नति दिखाई पड़ती है इसलिये इसमें सन्देह नहीं है कि आयभट द्वितीय ब्रह्मगुप्तके बाद हुए हैं । ब्रह्मगुप्त ओर लल्लने अयन चलनके सम्बन्धमें कोई चर्चा नहींकी है परन्तु आर्यभट ह्वितीयने इस पर बहुत विचार किया है। मध्यमाध्यायके श्लोक ११-१२ में इन्होंने अयनबिन्दुकों एक ग्रह मानकर इसके कह्पभगण की घंज्या €७८०१५६ लिखी है जिससे अयनविन्दुकी वार्षिक गति १७३ विकला होती है जो बहुत ही अशुद्ध है | स्पष्टाघिकारमें स्पष्ट अयनांश जाननेके लिए जो रीति बतलायी गयी है उससे प्रकट होता हैं कि इनके अनुसार अयनाश २४ अंशसे अधिक नहीं हो सकता ओर अयन १--हिस्ट्री आव्‌ हिन्दू मैथिमेटिक्स भाग २ प्ृष्ट ८& अ्र्ा झायमट द्वितीय ४२४ बरी #न्‍-* बेड 5 ८ “४ 5“ 5 45८55 5594८ 4०००5 4४ ० >> >> >> लक 5 929 न >> «>> “>> न सर न रन नमन न« मन नल की धार्षिक गति भी सदा एक सी नहीं रहती कभी घटते-घटते शून्य हो जाती है और कभी बढ़ते-बढ़ते १७३ विकल्ा हो जाती है। इससे सिद्ध होता है कि आयभट का समग्र वह था जब अ्रयनगतिके सम्बन्धर्में हमारे स्िद्धान्तोंमें कोई निश्चय नहीं हुआ था । मुंज लके लघुमानसमें अयन-चलनके संबंधमें स्पष्ट उल्लेख है जिसके अनुलार एक कर्पमें अथनभगण १६६६६६ होता है जो वर्षमें ५६९६ विकला होता है। सुंजालका समय ८५४ शक या ९३२ इंस्वी है इस लिये आयभटका समय इससे भी कुछ पहले होना चाहिये। इस लिये मेरे मतसे इनका समय ८०० शकके लगभग होना चाहिये । इन्होंने लिखा है) कि इनका सिद्धान्त ओर पराशर का सिद्धान्त दोनों एक साथ कल्ियुगके आरस्भसे कुछ वर्षो बाद लिखे गये थे और इनकी ग्रह गणना ऐसी है कि वेधसे भी शुद्ध उत्तरती है। परन्तु यह कोरी कल्पना है, क्‍योंकि वराहमिहिर, ब्ह्मगुप्त, लस्ख आदि किसी आचाये ने इनकी पुस्तककों कोई चर्चा नहीं की हैं। इन्द्दोंने सप्तर्षिकी चालके सम्बन्धर्मं भी लिखा हैं जैसा वराहमिहिर लिखते हैं, जिससे जान पढ़ता है कि सप्तषि १०० वर्ष एक नक्षत्र चलते हैं। परन्तु यह भी कोरी कल्पना है । सप्तषिमें ऐसी कोई गति नहीं है | इनकी पुस्तकमें संख्या लिखनेके लिये एक नवीन पद्धति बतत्लायी गयी है जो आयभट प्रथमकी पदतिसे भिन्न है। इसे कटपयादि' पद्धति कहते हैं क्योंकि १ के लिये क, ट, प, य अक्षर प्रयुक्त होते हैं, २ के किये ख, ठ, फ, र, आदि । शून्यके लिये केवल जे ओर न प्रयुक्त होते हैं [९ संख्या लिखनेके लिये अक्षरोंकों बायेंसे क्रमा नुसार लिखते हैं जैसे अंकॉले संब्यायें छिखी जाती हैं। स्वर या उसकी मात्राओंका इस पदतिमें कोई मूल्य नहीं (>> >मानव पान मम ८५५-+ 4०. ४-० हवस पाार कल» 4 अकाक >हफक-अहक्‍-+नेत्णएक मरी नभ१३७4७+-+-+ २००) उणान्का:२७८ :#-कल "के के "हद. १--एतत्सिद्धान्तह॒यमीपषणाते कल्तौयुगे जातम्‌ | स्वस्थानेइक्तद्या अनेन खेथः स्कुटाः कार्या: ॥२॥। पराशरमसताध्याय २--रूपात्‌ कटपयपूर्वा वर्णा वर्णक्रमान्नवन्यक्षा: । ज्‌ नो शूल्य प्रथमार्थ आ छेदे ऐ तृतीयार्थ ।॥२॥ | मध्यसाध्याय भाग ६०, संख्या ४ | है| मात्राओंके जोड़नेसे भी अ्रक्षरोका वही अर्थ होता है जो बिना मात्राके। इस प्रकार क, का, कि, के आदि से + अंकका ही बोध होता है। यह रीति आर्ग्- भट प्रथमकी रीतिसे सुगम हैँ क्योंकि याद रखनेका काम बहुत कम है | संक्षेपमें यद्द रीति नीचे दी जाती है । क, 2, प.य + 9 सर , के ९. न| ग़, ड, बा, ले +। घ ढ़, भ, व ढछ, ण, मं, श च,त, प्‌ ॑++ छ, थ, का उहु ज, दु, हैं ःौः रू थे हे ञ, स्तृ न छ इस पद्धतिके अनुसार आयंभट प्रथमके उद्ाहरणमें दिये गये एक कहपमें सूयं ओर चन्द्रमाके भगण इस प्रकार लिखे जाय्रेंगे-- १ कह्पमें सूर्यके भगण - घडफेननेनननुनीना से 3३२९००००००० और १ कढपमें चंद्रमाके भगण - सथथमगग्लभननुना मन 25 ॥ ३३ १४००० इप्त प्रकार यह प्रकट होता हैं कि यह पद्धति लिखने ओर याद रखनेके लिये सुगम है | मह।सिद्धान्त--इस पन्थमें १८ अधिकार हें लगभग ६२४ आर्या छुन्द हैं। पहले १३ अध्यायेके नाम वही हैं जो सू्सिद्धान्त या ब्राह्मस्फुद सिद्धान्तके ज्योतिष संबंधी अध्यायोके हैं, केवल २ रे अध्यायका नाम हैं प्राशरसताध्याय । १४वें अध्यायका नाम गोलाध्याय है जिसमें ११ श्लोक तक पाटीगणशित या अंकगणितके प्रश्न हैं। इसके आगेके तीन श्लोक भूगोल्वके प्रश्न हैं और शेच ४३ शछोकॉमे अहरगण और ग्रहोंकी मध्यम गतिके संबन्धर्स प्रश्न हैं। १४वें श्रध्यायमें १९० आर्या हैं जिनमें पाटीगणित, क्षेत्रफल, घनफल आदि विषय हैं। १६वें अध्यायका नाम सुवनकेश पश्नोत्तर है जिसमें खगोल्त स्वर्गा- दि लोक, भूगोल आदिका वर्णन है। १०वाँ प्र्नोत्तराध्याय | | (०. |] &छ #&## नए 0 ज्छ नए ओर घन घ््श्८ भारतीय व्योतिष च्दूः ___ | ऋ ऊ$€इ4 र ऊ इक॒॒_ 7777“ _+“ है जिसमें भहोंकी मध्यमगति संबंधी प्रश्न हैं। १८वें अध्याय का नाम कुदकाध्याय है जिसमें कुदक संबंधी प्रश्नों पर ब्राह्मसफुट सिद्धान्त की अपेक्षा कहीं अधिक विचार किया गया है। इससे भी प्रकट होता है कि आयभद हिंतीय ब्रह्मगुप्तके पश्चात्‌ हुए हैं । मुंताल या मंजुल इस आचार्यका समय ० सुधाकर द्विवेदीने गणक तर॑गिणी पृष्ठ १९, २०में कोलब्रुक्रके मतानुसार अमवश (५८४७ शक लिख दिया है जो होना चाहिये ८४४, क्योंकि इन्होंने अपने लघुमानस नामक अन्धमें अहोंका भर वकाल ८५४शक बतलाया है जिसको दविवेदीजी भी उद्धत करते हैं, 'कृतेष्विससिते, शाके ८३४ सध्याह्वे रविवासरे चैन्रादो श्र व. कान वच्ये रविचन्त्रेन्दरुतुज्ञजानू ।/ इस समयकी सच्चाई इनके अयन चलन सम्बन्धी बातोंसे भी सिद्ध होती है । भास्कराचाय द्वितीयने) मुजालकी बतलजायो अयनगति लिखी है । मुनीश्वरने अपनी मरीचि नामक टीकामें मुंजाल के वचन? उद्ध त किये हैं जिनसे सिद्ध होता है कि मुजाल के अनुसार एक कह्पमें अयनके १६६६६६ भगण होते हैं जिपसे अयनकी वार्षिक गति १ कलाके लगभग आती है जो आरायः ठीक है | अलवेरूनीके अनुसार इस पुस्तक यहद्द भी तो लिखा है कि इस समय अयनांश ६१४० था। इसलिए यह निश्चित है कि सुंजालका समय ८५४ शक या ६३२ ई० हैं। मु'जाल एक अच्छे ज्योतिषी थे इसमें कोई सन्देह नहीं । तारोंका निरीक्षण करके नयी बातें निकालनेका श्रेय इनको मिलना चाहिए | इनके पहले अयनगतिके संबंधमें फिसी पोरुष सिद्धान्त ग्रन्थमें कोई चर्चा नहीं है | दूसरी महत्वको बात इनकी चन्द्र सम्बन्धी है । इनके पहले किसी भारतीय ज्योतिषीने यह नहीं लिखा था कि चन्द्रमा मन्दफल संस्कारके सिवा ओर कोई संस्कार भी करना चाहिए । निज रिकीकनीनिन बज अक 3 ॒अइबबबाााााााााभाााााआआआा १-गोलवन्धाधिकार, १८ २-- तक्नगणाः कलपे स्थुगॉरिसरसगॉकचन्द्र ११३६६ ४ सिताः ॥ भारतीय ज्योतिष शाख, ए० ३१३ परन्तु इन्होंने यह स्पष्ट लिखा है जिसको द्विवेदी जी" मानते हैं | लघुमानस--यह सुंजालका अन्य है जिसमें ज्योतिष सम्बन्धी ग्राठ अधिकार हैं| यह बृद्न्धानस नामक भन्‍्थका संक्षिप्त रूप है, जैसा अलूबेरूनी लिखते हैं। ब्रृहन्मानसका कर्ता कोई मनु हैं, जिसकी टीका उत्पलने लिखी है इस लिए इसका समय ८०० शकके लगभग है । उत्पन्न या भटोव्पल्न यह ज्योतिष अ्रन्थोंके बड़े भारी टीकाकार थे । बुहजा- तककी टीकार्म इन्होंने लिखा है कि स८८ शक (९६६६०) के चैत्र शुक्न € युरुवार को इसकी टीका लिखी गयी, और बृहत्संद्विताकी टीकामें लिखा गया है कि मम शकफी फाल्गुन कृष्ण द्वितीया गुरुवारकों यह विद्ृति लिखी गयी । दीचित नेर इस पर शंका प्रकट की है कि ये संचंत्‌ गत नहीं है वर्तमान हैं परन्तु उनकी यह शंका निमूल है। यह दोनों गत शक संबत्‌ हैं। दूसरी तिथि अमान्त फागुन मास की है जो इधरकी परिपाटीके अनुसार चैत्र कृष्ण कहा जा सकता है। खण्डखाद्यककी टोका इप्तसे भी पहले लिखी गयी थी* क्योंकि बृहत्संहिताकी टीकामें इसकी चर्चा है। लघुजातक पर भी इनकी टीका दे । द वृहत्संहिताकी टीकासे पता चलता है कि इन्होंने प्राचीन ग्रन्थोका खूब अध्ययन किया था । वराहमभिद्दिरने जिन जिन प्राचीन प्रंथोंके आधार पर दृहत्संहिताको रचना की थी उन खब प्रंथोंके अवतरण देकर इन्होंने अपनी टीका की रचना की है? । इससे यह भी पता चलता है कि वराह- की ललिलिकिनिकि नकवी, व» ० लुभााा४४७७७४७४एआ मिविमिशीिननिनिनिल नननशिन न आए १-- चन्द्रोच्वरव्यन्तरेण रविचन्द्रान्तरेण च स्पष्ट चन्द्रे तदीय गतो चान्य: संस्कारश्च पूर्वांचाय्रणीतसंस्कारतो विलचाण प्रतिपादितः ।...अय॑ संस्कारइच इवेकशन्‌ वेरिएशन नामक संस्कारवत्‌ प्रतिभाति । | गणक तरंगिणी पृ० २१ | २--भारतीय ज्योतिष शाख्र पृ० २३४ >ाा १3 95% २१< | बैर[हंमिहिंर सिह्िरके पहले संहिता पर ८, १० आचार्यों ने लिखे हैं। इस टीकामें सूथसिद्धान्तके जो वचन उद्भधुत कियें गये हें वे इस समयके सूय सिद्धान्त में नहीं मिलते । वराहमिहिर के पुनत्रकी लिखी पट्पञ्चाशिकाकी भी जिसमें शुभाशुम॑ प्रश्न पर विचार किया गया है इन्होंने टीका लिखी है । चतुबद प्रथूदक स्वामी इन्होंने ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त पर एक टीका लिखी है । भास्कराचाय छितीयने अपने प्रंधोमें इनकी चर्चा कई स्थान पर की है। दीक्षितके मत से यह भटोत्पलके सम- कालीन हैं । परन्तु बुआ समिश्रकी सम्पादित खण्डखाद्यक की आमराजकी टीकार्मे लिखा है) कि शक ८०० में इन्होंने अयनांश ६।| अंश देखा था। इस प्रकार इनका समय मुंजालसे भी पहलेका सिद्ध होता है। परन्तु भासकरा चाप). आंदिने इसका उल्लेख कहीं नहीं किया है। इन्होंने खरडखाद्यककी टीका भी की है जिसकी चर्चा प्रयोधचन्द्रसेन गुप्त अपनी टीकामें करते हैं ।* श्रीपति यद्द ज्योतिषकी तीनों शाखाञ्रोंके अद्वितीय पंडित थे| इनके लिखे ग्रन्थ हैं, १-सिद्धान्तशेखर, धीकोटि- फरण, रत्नमाला ( मुहूर्त प्रंथ )) ओर जातक पद्धटति ( जातक ग्रन्थ )। धघीकोटिकरणमें गणितका जो उदाइरण दिया गया है उसमें ९६१ शक की चच! है इस किये श्रीपतिका समय इसीके क्षगभग सन १०३५९ ई० हो सकता है। सिद्धान्तशेखरका एक संस्करण शायद कल्नकत्ता विश्वविद्यालयसे प्रकाशित हुआ है। प्रबोधचन्द्र सेनगुप् के” अनुसार श्रीपत्तिके पहले किसी भारतीय ज्योतिषी ने १--चतुवंदप्थूदकस्वामिना स्वेतद्सदुपणमित्यभिहितम्‌ । यतस्तेन खखाष्टसंख्यशाके साद्धों: षट्दृष्टा इति । कलकत्ता विश्वविद्यालयसे प्रकाशित ओर बबुआ मिश्र की सम्पादित खण्डखाद्यककी टीका ए० १०८ २--]76700 प्रत्ां 07 9. >&2077|, # &]7ए ३- चन्द्राज़्नन्‍दोन शको5कनिश्नश्चैत्रा दिमासेयुंगधो द्विनिन्नः ( गणक 'तरंगिणी पृष्ठ ३० ) ४--खण्डखाद्यककी पअ्रंग्रेजी टीका पृथ्ठ ३३ ४२६ काल समीकरणके उस भागकां पता नहीं लगा पायाथा जो कान्तिवृत्तके फुकावके कारण उत्पन्न होता है । भोनराज राज्षमगाकु नामक करण प्रंथके बनानेवाले राजा भोज कहे गये हैं। यह ग्रंथ ब्रह्मसिद्धान्तके प्रहोमें बीज संस्कार देकर बनाया गया है। इसका आरम्भकाल शक ९६४ है" और इसी समयके ग्रहोंका क्षेपक दिया गया है । यह नहीं कहा जा सकता कि इसके रचनेवात्ने स्वयम्‌ राजा भोज हैं अथवा उनका आश्रित कोई ज्योतिषी । इस पुस्तकका आदर चार पाँच सो वर्ष रहा। इसमें मध्यमा- घिकार और स्पष्टाधिकारके केवल ६६१ इल्लोक हैं।* अयनांश जाननेका नियम भी दिया गया है। ब्रह्म देख करणाप्रकाश- यह एक करण ग्रन्थ है। इसका आरंभ १०१४ शक (१०8४२६० ) में किया गया था ओर इसका, आधार आयभटीय है। इसके कर्त्ताका नाम ब्रह्मदेव है | प्रहोंकी गणनाके लिए आययभटके भ्रुवाह्लों में लल्लके बीजसंस्कार देकर काम लिया गया है। क्षेपक० चैत्र शुक्र प्रतिपदा शुक्रवार शाके ५०१४ का है। इसमें ६ अधिकार हैं जिसमें ज्योतिष संबंधी सभी बातें आ गयी हैं। इसमें ४४४ शक को शून्य अयनांश का समय माना गया है ओर अयनांश की वारषिक गति एक विकला मानी गयी है। यह ग्रन्थ आयपक्षका है इस लिए दक्षिण के माध्वसंप्रदायके वेष्णव इसीके अनुसार एकादशी ब्रत का निश्चय बरते आ रहे हैं: । ६४--भारतीय ज्योतिषशास्र, एष्ठ १३८ ६-- भारतीय ज्योतिषशास्त्र, पृष्ठ २३९ ७--किसी पुस्तककी अहगणनाके आरंभ काह्षमें सूर्य, चन्द्र, आदि प्रहोंकी जो स्थिति होती है उसे क्षेपक कहते हैं । इसको शआंगेद्दोने वाली भ्रहकी गतिमें जाड़े देनेसे डप्त समयकी अद्स्थिति ज्ञात द्वो जाती द्दै । ० ब--भारतीय ग्योतिषशास्त्र, पृ० २२४ ३9३० भारतीय ज्योतिष है. शतानन्द भास्वतीकरण--यह करण ग्रन्थ वराहमिहिर स्वीकृत सूयसिद्धान्वके आधार पर बनाया गया हैं । इसके लेखक शतानन्द हैं जिन्होंने प्रभ्थका आरंभ १०२१ शक (१०६६ ई० ) में क्रिया था। यह ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध था। मज्तिक मोहम्मद जायसी ने अपनी पद्मावतसमें इसकी चर्चा की है। इंसकी कई टीकाएं संस्कृतमें हैं | इस ग्रन्थक्री कुछ विशेषताएं नीचे दी जाती हैं :-- ग्रहोका क्षेफोक शक १०२१ की स्पष्ट मेष संक्रानित काल ( गुरुवार ) का है। दूसरी विशेषता य्रह्व है कि इसमें अहराणकी गणनासे ग्रहोंको रुगष्ट करनेकी रीति नहीं है वरन्‌ ग्रहोंकी वार्षिक गतिके अनुसार है, जिससे गणना करनेमें बड़ी सुविधा होती है, गुणा भाग नहीं.करना पड़ता, केवल जोइनेसे काम चल जाता है। तीसरी विशेषता यह है कि इन्होंने शर्ताशपद्धतिसे काम लिया है, अर्थात्‌ राशि, अंश, कल्ञा, विकला, आदि लिखनेकी जगह राशिके सर्वे भागेमें अथवा नक्षश्नके सर्वे भागेमिं भ्रद स्थिति बतलायी है। उदाहरणके' लिए चन्द्रमा की पुक वषकों गति ६६७६ नक्षत्र (शर्तांशों में) बंतलायी गयी हैं जिसका श्रर्थ है" --- ६८९६३ ब्तन्न पट «८०० कला वृ ८5० १० +: 9७६ ६ ६+ केला जम ४ राशि १२ अंश ७६ कला ४० विकला शनिका क्षेपक €8६४ शर्ताश राशि हैं जिसका श्रथ दशमल्षव भिन्न में हुआ €'६४ राशि | इस प्रकार प्रकट है कि शतानन्दने दुशमलव भिन्नका व्यावहारिक प्रयोग किया था। शायद शताश पद्धतिका आविष्कार करनेके कारण उन्होंने अपना नाम भी शतानन्द रखा था | भारवतीसें तिथिश्रुवाधिकार, ग्रहश्र॒ुवाधिकार, ह्फुट तिथ्यधिकार, ग्रहस्फुटाधिकार, त्रिप्रश्न, चन्द्रप्रहण, सूर्य- प्रहण, परिलेख नामक आठ अधिकार हैं । इसमें शक ४२० शून्य अयनांशका वर्ष माना गया है और अयनांश की वार्षिक गति १ कल्ना मानी गयी है। १--भारतीय ज्योतिषशासत्र, ४० २४४ भास्वतीकी कई टीकाएं हुई हैं। एक टीका हिन्दी भापास सबत्‌ १४८७ वि० ( शक १३६५०, १४२९८ ई० मे बनमाली पंडितने की थी जिसकी एक खंडितप्रति काशीके सरस्वती भवनमें हैं | इस समयके आस पास ओर कई ज्योत्तिपी हो गये हैं जिन्होंने करण ग्रन्थोंकी रचना की है परन्तु इनका नाम न गिनाकर अब हम प्रसिद्ध भास्कराचार्यका वर्ण॑न करेंगे जिनकी कीति सात सो वर्ष तक फेली रही और जिनकी बनायी पुस्तके, सिद्धान्तशिरोसणि और जलीलाचती अब तक भारतीय ज्योतिषके विद्यार्थियोंके पढ़नी पहती हैं। इस नासके एक ज्योत्ियी आश्रंभट प्रथमके शिष्य हो गये हैं इसल्षिए इनका नाम भास्कराचार्य॑ द्वितीय रखा जायगा | भाष्कराच।य द्वितीय इन्होंने अपना जन्‍्मस्थान सद्याद्रि पर्वतके निकट विज्ञइविदड् आम लिखा हे परन्तु पता नहीं इसका वर्तमान नाम क्या है | इन्होंने अपना जन्मकाल तथा ग्रन्थ निर्माण काल स्पष्ट भाषामें लिखा हैं: । इनका जन्म शक १०३६ (१११४ ई०) में हुआ था ओर ३६ वर्ष की श्रायुमें इन्होंने सिन्द्धान्त शिरोमणि की रचना की । करण कुतूहल ग्रन्थ का आरंभ १ ०३ शक में हुआ था इसल्लिए यही इसका रचनाकाल दे जो ११८३ ई० होता है। इससे प्रकट होता है कि करणकुतूहल की रचना ६६ वर्ष की अवस्थामें की गयी थी । इनके बनाये चार ग्रन्थ चहुत प्रसिद्ध हैं, ।-- सिद्धान्तशिरोमणि दो भागोंमें जिनके नाम गणिताध्याय और गोलाध्याय हैं, २--लीलावती, ३--बीजगणित और ४--करण कुतूहल । सिद्धान्तशिरोमणि पर इन्होंने स्वयम वासना भाष्य नामक टीका लिखी है ज्ञो सिद्धान्तशिरो- मणिका अश्रंग समस्ती जाती हैं और साथ ही साथ छुपती है | १-- गणक तरंगिणी पृथ्ड ३३ २-रसगुण पूर्ण मही सम शक नृप समये5भवन्‍्ममोत्पत्ति: | रफप्तगुण व्षण मया सिद्धान्तशिरोमणी रचितः ॥५८| गेलाध्यायका प्रश्नाध्याय संख्या ४ ] झप्तल! थो था वनस्पति द १ पारिभमाषिक शब्दावली [ त्ले० डा० गोरख म्रसाव ] डाक्टर ब्रजमोहनके विचारोंसे में श्रधिकतर सहमत हूँ, परंतु ऊर्ष्वाचर' (ए27/५03)) के बदले खड़ा शब्द का प्रयोग सुझे पसन्‍द नहीं है। क्योंके यह शब्द ज्योतिष की पुस्तकंर्मे सेफड़ों वर्षोसे अयुक्त होता आ रहा है। घोड़ा बैठा था, उठकर खड़ा हो गया,' या (६ 008 8$7872]6 [72 8॥8)09 ( खड़ा है ) 00 8&7060॥87 ##०७9 ४६१68 8एछ/0 07 58 80]50676 &77]28 876 #त0घक्क| 50 कछ0 72]6 877!65' में खड़ा शब्दसे क्‍या वही अर्थ नि- क्रालना होगा जो ऊर्ध्वांघरसे निकलता है! कदापि नहीं । तब फिर क्यों प्रतिदिनके व्यवहार वाले शब्दको विशेष पारिभाषिक अर्थमे प्रयोग किया जाय ओर उससे अपनी भाषाम भ्रम उत्पन्न होने की संभावना खड़ी की जाय £ यदि ऊर्ध्वाधरके बदले कोई अन्य शब्द हो जो छोटा हो परंतु जो साधारण बोलचालमें अन्य अर्थमे न आता हो तो यह आपत्ति लागू म होगी और वह शब्द अवश्य भ्रधिक उपयुक्त होगा । कुछ भाषाओंमे तो बहुत ही बड़े- बड़े शब्द प्रयुक्त होते हैं। उदाहरंणतः ज़रमन भाषा का ए%७7*80॥8॥70]40॥]/ 2$87'80॥) 772 क्षीजिये । इसके सासने तो इमारा ऊर्वाधर अध्यंत ननन्‍दा- साहैे। फिर 7.]]]088£ को दीघेशतस ही कहना चाहिए दीघवृत्त शब्द अब हिन्दीकी इतनी पुस्तकें आ चका कि उसे बदलना उचित न होगा | बड़ा दीघबृत्त' मुझे त तनिक भी नहीं खटकता । दीघंबृत्त सुनने पर मस्तिष्क कोई बडें-से वृत्त की धारणा नहीं होती, उस आकृति व भास होता है जिसे हम परिभाषाके अचुसार दीघत ( ७|988 ) कहते आये हैं। बृहत्‌ वृत्तले ( 27.88 0१7८]6कां बोध होगा | यह समझना कि विशेषज्ञको २ असम होगा, भूल है। और यदि डाक्टर बजमोहनके नर्दी शब्द अवज्य' पर ही विचार किया जाय तो पता चले कि वह अनुपयुक्त है क्योंकि उसका अथ है वह आकृ जो वल्य नहीं है! ओर इस प्रकार त्रियुज़, चतुभु ज अ सभीके ज्षिए्‌ 'अवद्धय शब्द उपयुक्त होना चाहिए । अमलो थो या वनस्पति घी [श्री रासेशबेदी, हिमालय हवल इंस्टिद्यूट, बादामो बाग़, द | लाहर ] दतस्पतियोंके तेलेंसे मशीन द्वारा बनाये नकत्नी घी की विशुद्ध देसी घीसे घुलता कश्मा ऐसा ही है जैसे मां के दूधकी डिब्बेके दूधले अथवा नकली सोनेकी असली सोनेसे तुल्नन! करता । दोनोंके रूप र॑गमें कुछ साह्श्य भले ही हो लेकिन नकली चीज़ असलीका प्रतिनिधि भी नहीं बन सकती । जिप्न तरह बच्चेके लिये मां का दे सब भोजनंसि अधिक सात्य है उसी तरह मानव शरीरके लिये देसी प्राकृतिक थी ही द्वितकर है। शरीर रसको सुगमतासे ग्रहुश करके अपना अंग बया सोेता हैं और अवयर्यों पर इश्नका किल्ली भी प्रह्ाइसे विपरीत अभाव नहीं होता । वनश्यति घीके निर्माणमें जिन अम्लों और रासावनिक पदाधोक- प्रतोेग होता हैं उसके धारण यह कृत्रिम चीज़ प्रजुष्य शरीरके लिये अनुकूल नहीं रह ज्ञाती | स्‍्नेहों के अन्दर डाली गई ओपधियोंके गुणोंके स्नेह बहुत जल्दी अपने अन्दर ले लेते हैं। ऐसा आयुर्वेदशास्त का मत हैं। नावाविध ओंपषधियोंसे संस्कार करके अनेक प्रकारके सिद्ध 720]0::060) ठेल और घी बनाये जाते हैं । दृ्धोके संयोगसे स्नेहोंमे गु्णोंके उदयके सिद्धांत का सत्य स्वीकार किया जाय तो निपीड़े हुए तेल्ञॉको बनरणति धी का रूप रंग दनेसे जिन हानिप्रद रासायनिककी (०।603098) का प्रयोग किग्रा गया है. उनके हानि- कारक अभावकोी अपनानेसें भी उन्हें उतमी ही शीहक्रता और योग्यता दिखानी चाहिये। इस लिये यह मिस्सन्देद बहुत मिक्षष्ट होनी चाहिये। थाने पर जिस अवयवर्के सम्पक्रगें यह आता हैं उसके विक्रत करता जाता हैं। अर चीज़ोंकी मिलावट के काईण तथा द्वानिकर राखायमिक पदाथों'की अधिकता के कारण गल्येके नीचे उसरते ही यह गल्ले और अन्न प्रणालीकी श्लेष्मिक झिल्ली (॥) 50008 ॥670 9]- ५॥86) के साथ चिपक कर एक ऐसी तह सी बना देता हे जिसके कारण गला पक्रडा हुआ सा, छाती दिक हुई हुई ओर मेदेमें जैसे बहुत बोक सा अनुभव होने त्ञगता है । इंच - हि हर विज्ञान, अनवरी, १६४४ [ भाग ६६ गलेकी खराश खाँसीका रूप धारण कर लेती है ओर गलेकी गिल्टियाँ लाल होकर तथा सूज कर (टोन्प्रिलाइ- टिसके रूपमें ) व्यापी संक्रमणका कारण बन जाती हैं । प्राकृतिक घी मद ओर सपच है। आत्म बिना किसी प्रकारका क्ञोभ उत्पन्न किये कोमल प्रकृति वालॉको भी हज्म हो जाता है। बनस्पत्ति घीमें विद्यमान दूषित रासायनिक पदार्थ आँतों और मेदेके विकुब्ध करते हैं जिससे स्वस्थ भनष्य भी कुछ काल बाद बदहज़्मी, अति-, सार. श्रांतोकी चिस्स्थायी शोथ तथा अन्त्रत्य आदि रोगों | का शिकार बनने की ओर कुकने लगता है। यह बात ग़त्तत है कि वनस्पति घीका शारीरिक अवयर्वों पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पहता और इसके मथे मढ़े जाने वाले सब विकार्गक्रा कारण सानसिक अम ही है । आयुर्वेदिक शा्खों और घार्मिक शा्खरोंके दृष्टिकोशसे पवित्र घीका ही प्रयोग करना चाहिये। नेत्रोकी हीन ज्योति, शरीरमें ओजस्‌ तत्वका अभाव, आदि अवस्थाएं : नकली घी के प्रमारके साथ साथ बढ़ रही हैं | देसी धों की पेदावार बढ़ा कर हम इन पर काबू पा सकते हैं । धी दूध प्रधान इस देशका जो करोर्डों रुपया नकली घीके बनानेमें लगाया जा रहा है वही धन यदि गौओंकी नसस्‍्तों का उन्नत करके देसी घीके उत्पादनमें लगाया जाय तो राष्ट्रका महान कल्याण हो । कल्पना कीजिये कि एक स्त्री अपने गरीब पतिकों सोनेके आभूषण ख़रीदनेके लिए बाधित करती है। अपनी सामधथ्यसे बाहरकी चीज़ देख कर वह निकल के गहनों पर सोनेका प'नी चढ़वा कर उससे प'नीके।! सजा छेोता है। इसका दूसरा तरीका भी हो सकता था। वह अपनेको अधिक साधन सम्पन्न बनाता ओर तब पत्नीको सजानेके लिये सोनेके गहने बनवाता । ठीक इसी तरह, यह सच है कि पतिन्न घी दुष्प्राप्य है, महँगा है, सोनेमें मिलावटकी तरह इसमें मिलावट बहुत है ओर परिवारका सुखिया डसे अपने बड़े परिवारके लिये खरीदनेमें असमर्थ है । परिवारका समझदार पालक बननेके लिये हमें अपनेको झ्धिक साधन सम्पन्न बना कर प्राकृतिक घीको जुटानेमें प्रथत्नवान होना चाहिये । है वैज्ञानिक अनुसन्धान हमें बताते हैं कि प्राकृतिक घी में पाये जाने वाले जीवनके लिए आवद्यक तत्व (चिटामीन्स कृत्रिम घीमें नहीं होते। जिनका अभाव आंखके रोग, प्रजनन अश्रंगों की निर्बलता, रोगेसे झुकावला करनेकी शक्तिका ह्ास, मसूड़ोंका सूजन, स्कर्वी, हड्डियोंका कमज़ोर तथा भंगुर होना (रिकेट्स) आदि अनेक रोग पैदा करनेका कारण बनता है । उड़नशील अम्ल ( ए0]8.0]6 80०।098 ) शअ्रत्प सात्रामें प्राकृतिक धाम विद्यमान होते हैं। घीमें जो विशिष्ट सुगन्ध ओर रुचिकर स्वाद होता है वद इनकी उपस्थितिके कारण ही है। कृत्रिम घीमें ये पदार्थ नाम मात्रको भी नहीं होते ओर यदि कृत्रिम रूपसे तथ्यार करके मिलाये जाय तब भी कुछ देर बाद स्वतः नष्ट हो जाते हैं और साथ हो इन्हें बनानेमें खर्चे इतना बढ़ जाता है कि नकली घी असल्ौसे भी कहीं अधिक महंगा पड़ता है। इसलिए यह स्पष्ट है कि निर्जीव यान्त्रिक प्रयोगशालामें बनाया धी प्रकृतिकी सजीव प्रयोगशालामें बने असली घोकी तुलना हि. भें बहुत अधिक हीन गुण वाला है ओर उसे असली घोके अनुरूप बनाना क्रिय्रात्मक तथा व्यापारिक इष्टिसे व्यवः हाथ भी नहीं । होलेण्डमें पहले पहल नकली घी बना। वहाँसे इसका प्रसार दूसरे देशेमें हुआ । सभ्य कही जाने वाली जातियों ने वेज्ञानिक साधनेंका पूरा लाभ उठाकर अपने देशर्मे प्रचलित नकली घोकी मार्जरिन आदि किस्मों को मक्खनके अलनुरूप बनानेमें सब सम्भव उपाय किये। रंग, स्वाद पौर गन्ध आदि को ऐसा बनाना चाहा जिससे लश्तरियों | परोसी हुई इस नकली चीज़में और ताज़े मक्‍्खनकी !कियामें कोई भेद न नज्ञर आये। हम ग़रीबोंके मुकाबले नके प्रयत्न महान्‌ थे। उन्हें आंशिक सफलता मिली थी। | किन विस्तृत खोजोंने उन्हें बताया कि रासायनिक धिश्रेमेंसे गुज्ञारकर तय्यार किये गये इस पदार्थमें घीके रश होनेकी क्षमता तो दूर रही उल्टे यह उनके राष:कि रंस्थ्य का सफाया कर रहा है| अ्रत्र कितने ही ऐसे देश आप हजनमें निर्जीव कारखानों की इस क्ृन्रिम पैदावारका अनके रूपमें प्रयोग बन्द हो गया है ओर उन देशोके अबारमें इसके विज्ञापन निकलने भी बन्द कर दिये गये हैं घी दूधके घर हमारे देशमें इसका प्रयोग लजा की बः समझो जानी चाहिए थी लेकिन यहाँ तो बड़े बड़े अर्धक ओर प्रेरणाजनक विज्ञापनोमें इसकी प्रश॑सामें ला रुपये बरबाद करनेके साथ-साथ देशके स्वास्थ्य को जावूभकर नष्ट किया जा रहा है। शत विज्ञान-परिषद्की प्रकाशित प्राप्य पुस्तकोंकी सम्पूर्ण सूची १--विज्ञान अवेशिका, भाग १«-विज्ञानकी प्रारम्भिक बातें सीखनेका सबसे उत्तम साधम--ल्ले० श्री राम- दास गीड़ एम० एु० और प्रो० साहिगराम भार्गव पुम० एए-प्ी० ; |) २०-ताप--द्वाईस्कूलमें पढ़ाने योग्य पाव्य पुस्तक-- ल्े० प्रो० प्रेमबद्लभम जोशी एस० ए० तथा श्री विश्वम्भर नाथ श्रीवास्तव, डो० पुस-स्ी० : चतुर्थ संस्करण; ॥) ३--चुम्बक--हाईस्कूलम पढ़ाने योग्व पुस्तक--त्ले० प्रो० सालिगराम भार्गव एम० एस-सी ०; सज्ि०; ।) ४--मनो रज्ञ 5 रसायन--इसमें रसायन विज्ञान उप- न्यास़की तरह रोचक बना दिया गया है, सबके पढ़ने योग्प है--ल्ले० प्रो० गोपात्तस्वरूप भाग॑व पुम० एस-सी ० ; १॥) #-सूय-सिद्धान्त--संस्कृत मूज् तथा हिन्दी “विज्ञान- भाष्य'--प्राचीन गणित ज्योतिष खीखनेका सबसे सुलभ उपाय--प्ृष्ट संख्या १२१४ ५ १४० चित्र तथा नकशे--ले० श्री महाबीरप्रसाद श्रीवास्तव बी० एस-सी०, एल० टो०, विशारद: सजिल्द: दो भागमें; मूल्य ६)। इस भाष्यपर लेखककों हिन्दी साहित्य सम्मेलनका ११९००) का मंगल्ा प्रसाद पारितोषिक मिला है | ६--बैज्ञानिक परिसाण--विज्ञानकी विविध शाखाओकी इकाइयॉंकी सारिणियाँ--ले० डाक्टर निहालकरण सेठी डी० एस सी०; ॥) 3न्न्लमीकरण मीमांसा--गणितके एम० ए० के विद्यार्थियोंके पढ़ने योग्य--ले० पं० सुधाकर द्विवेदी; प्रथम भाग १॥), द्वितीय भाग ॥८) ८--निशायक ( डिटमिसेट्स )--गणितके एम० ए० के विद्यार्थिथंके पढ़ने योग्य--ले० प्रो० गोपाल केशव गदँ ओर गोमती प्रसाद अमिद्दोन्नी बौ० पुसन्छी ० ; ॥) ६--वीजज्यासिति या -शुजयुग्म रेखागणित--इईंटर- मीडियेटके गणितके विद्याथियोंके लिये--ले० डाक्टर सत्यप्रकाश डी० एस-सी ०; १।) १४“शुरदेव के साथ यात्र--डाक्टर जे० स्ी० बोसकी : यात्राओंका लोकप्रिय वर्णन ; |“) १०-केंदार-बद्री यात्रा--केद्रानाथ और बद्रीनाथके यात्रियोंके लिये उपयोगी; |) १२-वर्षा और वनस्पति--ल्लोकप्रिय विवेचन--ल्े०७ श्री शक्नरराव जोशी; ।) ३-भनलुष्यका श्राहार--फोन-सा आहार सर्वोत्तम है-- ले० बेच गापोनाथ गुप्त; ८) १४--सुब्रणु का री--क्रियात्मक--ले ० श्री गंगाशंकर पंचोल्ली; |) १५--रसलायल इतिहास--इंटरमीडिबरटके विद्याधियोके योग्य--ल्ले० डा० आत्माराम डो० एस-सी०; ।॥) १६०--ैज्ञानका रज्ञत-जयन्ती अंक--विज्ञान परिषद्‌ के २९ वर्षका इतिहास तथा विशेष लेखेंका संग्रह; १) १७--विज्ञानका उद्योग-व्यवनायाह्ु--रुपया बचाने तथा धन कमानेके लिये अनेक संकेत---१३० पृष्ठ, कई चित्र--सम्पादक श्री रामदास गाह ; १॥) १८०“ उल्नन्सं रक्षणु -- दूसरा परिवर्तित संस्करण-फर्लोकी डिब्याबन्दी, सुरब्बा, जेम, जेली, शरबत, अचार आदि बनानेकी अपूच पुस्तक: २१२ पृष्ठ; २४ चित्र _.. ल्े० डा० गारखप्रसार डी० एस-सी०; २) १६- व्यड्भ-विन्रणु--( काहू न बनानेकी विद्या )--ले० एल० ए० डाउस्ट ; अलजुवादिका श्री रत्कुमारी एम० ए०; १७९१ पृष्ठ; सैकड़ों चित्र, सजिक्द; १ ॥) २०--मिट्टी के बरतन--चीनी मिद्दीके बरतन केसे बनते हैं, ज्ञोकप्रिय-- ल्ले० प्रो० फूलदेव सद्दाय वर्मा ; १७६ पृष्ठ; ११ चिन्न; सजिल्द; १॥) २१०-वायुमंडल-- ऊपरी वायुमंडलका ले० डाक्टर के० बी० माथुर; सजिल्द; १॥) २--त्ष कड़ी पर पॉलिश--पॉलिश करनेके नवीन और ह॒ पुराने सभी ढंगेका व्योरेवार वर्णन । इससे कोई भी पॉलिश करना सीख उकता है--ले० डा० गारख सरत्न वर्णन--- १८६ पृष्ठ; २९ चित्र, हा प्रसाद और श्रीरामयत्न सटनागर, एम०, ५०३ २१०८ पृष्ठ, ३१ चित्र, सज्िल्द: $॥) २६०-जपयांगी सच लरकाबये आर हुनर «>-सरपादक डा० गोरखप्रसाद ओर ढा० ख्यप्रकाश, आकार बढ | विज्ञानके बराबर 9 २६५ पृष्ठ $ २००७ नुसखे, १०० चित्र; एकएक लुसखेसे सैकड़ों रुपये बचाये जा सकते हैं था हज़ारों रुपये कमाये जा खकते हैं ! प्रय्येक मुहस्थके लिये उपयोगी ; मूल्य अजिदद २), सजिर्द २) ए्र्पेबंद- ले० क्री शंकरराव जोशी; २०० छुषट ४० चित्र; भालियों, मालिकों और कृपकेके द्िये उपयोगी; सजिल्द; १॥) २४--जिल्द साज्ा--क्रियाप्सक और व्योरेबार । इससे सभी जिल्दसाज़ी सीख सकते हैं -ले० श्री सत्यजीबन १३६ ५००७० कला वर्मा, पुस० एु०; १८० पेज, ६३ चित्र; श्जित १॥) ३१०-अं मीर--लेखक श्री रामेशबेदी, २६--सारतोीय चोनी मिट्टियाँ- औद्योगिक पाठशालाओं के विद्या्थियोंके लिये--ले० प्रो० एम० एल सिश्र, २६० पृष्ठ: १३ चित्र; सजिल्द १॥|) २७---त्रि ऊल्ला--दूखरा परिवर्धित संस्करण प्रत्येक वैद्य और ७९, ०, & 372 एम० बी० बी० पुस०, डाक्टर गोरखप्रसाद, आदि २६५ घृष्ट, ९०० चित्र आकार बढ़ा (६ विज्ञानके बराबर ); सजिल्द; ह३) हु यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी हैं। भश्रत्येक घरमें पुक प्रति अवश्य रह”) चाहिये। हिन्दस्तान रिविड लिखता है--8)१077व 98 छझा्वतेलाए ए86- 00श80 090४ +8 निीफता ४॥70०ज७छ77॥9 7000 370 $8 (00॥079, अम्नत बाजार पत्रिका लिखती है--[॥६ छा] [00 8] 47]00768])0 ए0908 [॥] 8ए8॥'ए 0॥08 ॥६8 $॥5 00] 87)089080. ३० -तैरना---तैरना सीखने श्रोर डूबते हुए लोगेंकों बचाने की रीति अच्छी तरद्द सममझकायी गयी है। दो० दाक्टर गोरखप्रसाद, पृष्ठ १०४, मूहय १) आयु वेदालंकार- अंजीर का विशदु वर्णन और उपयोग करनेकी रीति पृष्ठ ४२, दो चित्र, मुलय ॥) यह , पुस्तक भी शुरुकुल आयुवेद्‌ महाविद्याज्षयके शिक्षा महत्वमें स्वीकृत हो चुकी है । गुहस्थके लिये-- ल्ले० श्री रामेशवेंदी आयुवदालंकार, ३२-सरल विज्ञान सागर, प्रथम भाग--सम्पादक २१६ पट्ठ; ३ चित्र € एक रघ्जीन ) सजिल्द २) यह पुस्तक गुरुफुल आयुवद्‌ सदाविद्यान्नय १३ श्रेणी द्वव्यगुणके स्वाध्याय पुस्तकके रूपमें शिक्षापटलम स्वीकृत हो छुकी है । २८४--मरधु मक्खी-पालन--लें० परिडित दयाराम छुगड़ान, भूतपूर्व अध्यक्ष, ज्योलीकोट सरकारी सद्डुवटी; क्रिया-- व्मक और व्योरेबार: मधुमक्खी पात्रकोंके लिये उप- योगी तो है ही; जनसाधारणकों इस पुस्तककाः झ्रधिकांश अत्यन्त रोचक प्रतीत होगा; मछुसक्खियों की रहन-सद्दन पर पुरा प्रकाश डाला गया है | ४५४ (६5; अनेक चिन्न ओर नकशे, एक रंगीन चित्र; क्जिल्द; २॥) १६-“पर लू डाक्टर-- लेखक आड़े सम्पादक डाकउर डी० टी० एम८. ज्ञी० घोष, पएुम० बी० बी० घुल्ल० प्रोफेसर डॉक्टर बद्रीबारायण डी०, एम० बी०, कैप्टेन डा० उमाशंकर प्रस्ा< सादे, पी० एच८ झुद्रक तथा अक्ाश$इ्च्|व इवगशका रा, केजा प्स, प्रयाग | डाक्टर गोरखप्रसाद। बड़ी सरल ओर रोचक भाषा में जंतुअंकि विचिन्न संसार, , पेड़ पोधों की अचरज भरी दुनिया, सूर्य, चन्द्र ओर तारोंकी जीवन कथा तथा भारतीय ज्योतिषके संक्षिप्त इतिहास का वर्णन है। विज्ञान आकार के ४५० पृष्ठ झोर ३२० चित्रसे सजे हुए अन्थ की शोभा देखते ही बनती है। सजित्द, मूलूय ६) निम्न पुस्तकें छुप रही हैं शंडियो--ले० भों० आर० जी० सक्सेना सरक्ष विज्ञान सागर (द्वितीय खंड) -- सम्पादुक हा ० गोरखप्रसाद विज्ञान-मासिक पत्र, विज्ञान परिषद्‌ प्रयागका सुखपत्र है। सम्पादक डा० संतप्रसादु टंडन, लेक्चरर रसायन विभाग, इलाहाबाद, विश्व विद्यालय, वार्षिक चन्दा ३९ विज्ञान परिबद, ४२, टेगोर टाउन, इलाहाबाद । विज्ञान विज्ञान-परिषद, प्रयागका झसुख-पत्र 'विज्ञानं बह्मेति व्यजानात, विज्ञानादुध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । विज्ञानेन जातानि जीवन्ति, विज्ञान प्रयन्य्यभिसंविशन्‍्तीति ॥ तै० ड«४०) ३।७॥ 5 2 0 8 8 8 8 2 5220 0 22 2 2 ४ ४ ४ 20 8 2४ ४३ कुम्भ, सम्बत्‌ २००१ फरवरी १६४४५ ५3295 भाग ६० ६22 82/02/8224 4 ४४४७४, ४४४,४४४७४ प्लास्टर आफ पेरिस* ( लेखक--सर्जन बी० एुन० सिनहा एम० बी० नी० एस० (लखनऊ); एल० आर० सी० पी०; एम० आर-सी० एस० (लन्दन) एफ़० आर-सी०एस० (इज्नलेंड) आर्थोपीडिक सर्जन (अस्थिशल्य विशेषज्ञ) किंग जाज हासपिटल ज्लखनऊ ) व० श्रीमती कमलावती घिनहा एम० ए० डिप० ( लखनऊ ) ' रत्तास्टर आफ़ पेरिस एक प्रकारका सफ़ेद पाउडर है। इसका प्रयोग वर्तमान अमग्रगामी चिकित्सालयोंमें आर्थोपीडिक सजरी यानी अस्थिशल्य-क्रियामें हूटी या चिटकी, फटी हड्डीकोे जोड़ने अथवा टेढ़ी मेढ़ी हड्डी को स्रीधा करनेमें किया जाता है। यह पाउडर जिपसम साल्ट (09४798पा7) 88]09) से बनाया जाता है जिसमें विशेषतः कैलसियम संलफ़ेट (१8804 2]20) द्वोता है | जिपसभ-साल्टको मशीन द्वारा अत्यन्त बारीक पीस कर इतनों .गरम करते हैं कि वह जलरहित हो जाय । ऐसी निर्जल -अवस्थामें ही इसे ऐसे डिब्च्रोमें बन्द कर देते हैं जिसमें बाहरकी हवा घुसकर अपनी भापसे इसको गीला न कर सके | . ह जब कभी पट्टी बाँधनेकी ज़रूरत पंडती है उसी समय इस पाउडर को थोड़ेंसे पानीमें सानकर ओर कमि्ने : कपड़े (पट्टी बाँवने वाज्ञा कपड़ा 387082० ०0]08॥) जख : तहकी पैर उसे फैज्लाकर कपड़ेको गुनगुने पानोमें डुब्ो देते हैं। कुछ मिनट बाद जब पट्टी अच्छी तोरसे भीग जाती है पानीसे निकाल कर एक पटद्टौके दूसरी पट्टी पर रख कर तह ॒जमाते हैं, जिससे एक मोटी पदटी बन जाय । जिस अंगको बाँधना होता है उस पर यह. मोटी पट्टी अन्य पतली प्लास्टर की हुई पट्टियोंकी सहायतासे बांधकर ऊपरसे प्लास्टरका लेप (2?]88087' 07'6877 ) चढ़ाकर चिकना तथा सुडोल कर देते हैं। चिकनानेके . लिये सोडियम सलफ़ेटका २ प्रतिशत घोल (स्रए०- 87077 89)76) काममें लाते हैं। आवश्यकता पड़ने पर ऊपरसे बानिंश भी कर सकते हैं। इस प्रकारसे पट्टी बाँधनेकी कला इतनी बढ़ गई है कि प्रायः सभी लोग लाभ उठाते हैं। शल्यकारका काम भी बहुत हल्का हो गया दै। प्रारम्भमें एक दिन पट्टी बाँधने तदनन्तर दो एक दिन देखभाजके अतिरिक्त कुछु करना नहीं पढ़ता | प्रकृति स्वयं रोग निवारण करती है। एक नियमित समयके बाद प्लास्टर काटकर निकाल दिया जाता है और रोगी अपनेसे आप कष्टसे मुक्त हो जाता है। लेकिन इस कल्लामें जितना चमत्कार है उतनी ही वीभत्सता भी | यदि लापरवाही, नासमझकी या संयोगसे प्लास्टर ज्यादा कसकर बंध गया या त्वचा पर कोई कीटाए पहलेसे ही अपना रंग जमा चुके हों तो पटटीके अन्दर सड़न पैंदा हो जाती है और उसके निकाज़ने तक दशा भयानक हो जाती है । इस लिये यह आवश्यक है कि इस प्रकारके प्लास्टर लगानेका कार्य उसी विशेषज्ञके हाथों सोंपा जाय जो इस कायकोा ही करता रहता है। सड़न या अन्य उपद्रवोंसे बचानेके लिये प्ल्ास्टर चढ़ानेसे पहले अंगका शुद्ध स्पिरिट्से साफ़ करके डसटिज्ञ पाउडर छिड़क देते हैं जिससे न तो खुजली हो और न दाने ही निकलें। त्वचाके ऊपर रुईका पेड रख दिया जाता है या बनियाइंन जैसा कोई कपड़ा पहना दिया जाता है, तब ऊपरसे प्लास्टर चढ़ाया जाता है। ऐसे प्लास्टरका पेडेड प्ल्लास्टर कहते हैं। बिना रुई या कपड़ा रक्खे भी प्लास्टर चढ़ा दिया जाता है ओर उसे अनपैडेड प्ल्लास्टर कहते हैं| रुई रख देनेसे उठी हुई हड्डी पर दबाव नहीं पढ़ता । अयह लेख 'घर्कूश्डाक्टर' के द्वितीय भागका एक अंश दे । विज्ञान, फरवरी, १६४४ | भाग ६० ...............................................................................नन+-५3-> मनन नननननननीननननीनीनीननीनिनीनानीन ननननननननननक मनन नमन नमन ननननन न +- लाल: उजमभयप्रन्‍्यकाक ५ रबर ( ल्ल० श्री ओऑकारनाथ परती ) वरहनाइजेशन २ (ए7]08.)896%0) पहिले लिखी गई विधिसे कच्ची रबर प्राप्त होती दे । यह रबर उसी रूपमे होती है जैसी कोलस्बस या-टारक्यू- साडाने देखी थी। अत्र हम उस खेज़क़ा वर्णनव करेंगे जिससे रबर मनुष्यके लिये इतनी उपयेगी बन सकी | इस खोजकों वल्कैनाइज़ेशन कहते हैँ । चाल्स गुडियर ( ()॥87]6९8 (४00098687 ) ने सन्‌ १८३६ इं०भ यह आविष्कार किया था । चात्स गुडियर सन्‌ १८०० इं०में अमेरिकाके कनेक्टी- कट प्रान्तके न्यूहेवन नगरम पंदा हुआ था। यह एक ठटठेरे और लुह्दारका काम करता था । इसकी आशिक दशा बहत अच्छी न थी । एक दिन यह न्यूयाककी राक़प्नबरी रखर कम्पनीसे गया ओर तभीसे इसका ध्यान रबरको ओर आक्ृष्ट हो गया। रबरकी वस्तुओंके विपयर्स एक कठिन समस्या थी। यह वस्तुएण गर्सीके दिनामे सुल्ायस हों जाती थी ओर जाड़ेके दिनों में कड़ी हो जाती थीं । कम्पनीके मेनेंजरने गुडियरसे यह समस्या हल करनेके लिये कहा | इसी समयसे गुडियरके रबरकी धुन सवार है। गईं । गुडियर अपनी धुनका पक्का था। उसने लगभग बारह विभिन्न विधियोंसे रतरके इस दुर्गुणका दूर करनेका प्रयास किया । कसी ऐसा जान पड़ता था फि उसे सफल्नता मत्त "गई किन्तु फिर निराश है।ना पड़ता था। अपनी औरतकी कमाई पर, दूसरेंसे डथार लेकर, अपना सामान गिरवी रखकर, ओर एक समग्र तो अपने बच्चेंकी स्कूली किताबें तक बेचकर, ग्ुडियर अपने प्रयोग करता रहा। सन्‌ ५८३६ ई०्में एसिड राख ( 0०० (388 ) विधिसे बह छछ सफल रहा किलतु इस समय इसके साझी विज्वि- यम बलाड्डका दिवाला निकल गया ओर आशिक कि- नाइयेंके कारण गुडियरकों काम अन्द कर देना पड्ढा। पा इसके बाद वोबने, मंसाचुसेट्सके निवासी नथानियल्त हेवड़े ने गुडियरकेा एक तरकीब बताई । इस विधिके अनुसार असेखक द्वारा सर्वाधिकार सुरक्षित | ४ विज्ञान सांग ) दें के हे रे हक ६०, संझया ३ पके आये | की। रबर जज्नी नहीं रबर १३८ - सबके गॉदरम गन्बक मिलाकर उसे धृपमें रख देना था । इस तरकीबसे कुछ सफलता प्राप्त हुईं | गडिथरने श्वरकार के लिये डाकके थ्रेल्ले ऐसी रबरके बनाये। किन्तु उसकी आ्रशाओं पर तुपारपात हे! गया। थेन्ने रखे रखे अपने आप चूर-चूर हो गये । अन्तमें सन्‌ १८३६ ई० की शरद ऋतुम गुडियरके भाग्यने पलटा खाया । इस समय गुडि- यरक्री आथिक स्थिति बहुत शोचनीय हो गई थी । बह ग्रपने रसोई घरमें ही प्रयोग किया.करता था । संयोगसे एक दिन उसने कुछु रबर गन्धकके साथ चुल्हें पर गरम किन्तु चमड़ेकी तरह धीरे धीरे कोयला बन गईं | उसे बड़ा आश्चर्य हुआ । डसने एक दूसरा टुकड़ा रबर का लिया ओर उसे गन्धकके साथ गरम किया । जब दोनों चीज़ें अच्छी तरह मित्र गईं तो उसने उस रबरके टुकड़े के कड्ाकेकी टठरडमें दरवाज़े पर कीलसे लटका दिया। दूसरे दिन उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा | उसने देखा कि कड़ाकेकी ठंडे भी वह रबरका हकड़ा सुलायम रहा। गुडियरने इस आविष्कारका नाम: न जे वबल्कनाइजेशन रखा | वल्कैनाइज़ेशनसे रबरकी डउपयेगिता बहुत बढ़ जाती - है | वल्केनाइज़ेशनके बाद रबर गर्मी और सर्दी सदा एक प्री मुल्लायम रहती है| वह मज़बूत भी अधिक हो जाती हैं। आधुनिक कालमें वल्केनाइज़ेशन कई प्रकारसे किया जाता हैं ! -- हि (१) साधारण तापक्रम पर-- यह विधि पाकेने सन्‌ १८४६ ई० में निकाली थीं। इस विधिमें सत्फर क्ल्ोराइड [ 8प00प07 ०४॥०८ 706, 8, ०८], ] का एक घोल बनाया जाता है। पतली पतली रबरकी चादर इसमें सियों कर निकाल ली जाती हं। फिर इन चादरोंकों इसी घोलकी भापमें लटका दिया जाता है। थोड़ी देरमें वल्कनाइज़ेशन पूरा हो जाता है । (२) उच्च तापक्रम पर - . यह गुडियरकी विश्रि है। इस विधिमें गन्वक रबरके साथ कूट कर मिला दिया जाता है ओर यह गन्धक युक्त सेंटीग्रेड तक गरम की जाती है। कुछ समय बाद वल्केनाइज्रेशन पूरा हो जाता है। इस विधिमें गन्‍्धकके कई रासायनिक यौगिक भी गम्धककी १६०० | संख्या ५ ] जगह काममें लाये जा सकते हैं । (३) रासायनिक विधि-- : इस विधिका स्व प्रथम प्रयोग पीची (?2680॥)ए) ने सन्‌ १६१६ ई० में किया था। इस विधिमें रबरके घोले या रबरकी पतली चादरों पर हाड़ोजन सलफ़ाइड ( न्707028०70 80)9॥706 ) और सल्फ़र डाइ- श्रोक्साइड (80]9प7 040506) का प्रयोग किया जाता है। हाइड्रोजन सलफ़ाइड और सल्फ़र डाइओक्सा« इडके मिलनेसे गन्धक बनता है ओर वह रबरमें मिल जाता है । इस प्रकार वल्केनाइज़ेशन हो जाता है । 47% ६ 5 १ 3) 5 ७, 2 ऊपर लिखी गई विधियोंके अतिरिक्त, सेल्लीनियम - ( 8०]67प0० ), रबर हाइड्रोक्लोराइड, ओर कतिपय पोलीनाइट्रो वेनज़ीन ( 0] ए767.0 98792878 ) द्वारा भी वल्केनाइज़ेशन किया जा सकता है | सेलीनियम ओर गन्धकके मिश्रणसे कदाचित्‌ सबसे अच्छा वल्केनाइ- ज़ेशन होता है । बल्फेनाइज़ेशनके लिये तोलमें लगभग <« प्रतिशत गन्धक और ६४ प्रतिशत रबर ली जाती है ओर गरस की जाती है। रबरके गुण इस बात पर निभर हैं कि कितनी देर तक वह गरम की जाती है। अधिकतर उस मिश्रण को गरम करते रहते हैं. ओर समय समय पर थोड़ासा निकाल कर उसके गुरण्णोकी परीक्षा करते रहते हैं। जब उपयुक्त रबर तेयार हो जाती है तो गरम करना बन्द कर दिया जाता है। | वास्तवमें वल्केनइज़ेशनमें गन्धकके कुछ परमाणु रबर के अणुसे रासायनिक रूपमें मित्ल जाते हैं ओर कुछ गन्धक 'रबरमें मिश्रणके रूपमें रह जाती है | वल्फेनाइज़ेशनमें गन्धककी मात्रा बदलनेसे रबरके गुण भी बदल्ल जाते हैं| साधारण मुलायम रबर पतव्थरकी तरह एक ठोस पदा्थ, वल्केनाइट ( ए0]०४.॥ ४6 ) के रूपमें भी बदली जा सकती है| ऊँचे तापक्रम पर रबरमें ३५ प्रतिशत ( तोत्त में ) गन्धक मिलाने पर वल्केना[इट बनता है । ह रब्रकी वस्तुएँ केवल शुद्ध वल्केनाइज़ ( ५४७।७७- 7860 ) रबरकी नहीं होतीं। इनमें अधिकतर सिलावट रहती है । इस मिलावटसे रबरकी वस्तुओं का मूल्य कम रे भर 4 रह उमा "रााााशाय0७ पा 3१७७०००५ ५८५१४ ७५+ा-पमाा»० ०० ३४५२५०५३०“ध०३०॥७५३७ १9७५० कावाउतवासान मानता शत अामाक ५श०- १५० कादर ५काभादातउ भदानतााताक्‍क आज ल्‍क पपुककान न ५५ टूफरत अर 02 भधकाउभन0क लक धर घस्‍कागप एप चमकता पद; ाए 2 थ१ ५१७0० ाप्ाध#कअन७७ ८ कनक पा करनपरनाउवाल काका धपपन<ा पका उप 5 हो जाता है और उसके गुणमें इच्छानुलार परिवतन भी हो जाता है। उदाहरणके लिये, रबरमें ज़िन्क-ओक्साइड या मैगनीसिया मिलानेसे रबरकी शक्ति बढ़ जाती है और उसंपर दबाव और रगड़ का कम प्रभाव पढ़ता है, पेन्सिलके दाग मिटाने वाली श्रेष्ठ रतरमें “कृत्रिम सफेद रबर” ' मिह्नाई जाती है| यह “कृत्रिम सफेद रबर” रेप ऑयल ( ]08]09 0] ) पर श्त्फ़र-मौनोक्लोराइडके प्रयोगसे बनती है। रबरमें कभी -कभी रंग भी दिये जाते हैं । इस कामके लिये अधिकतर ऐन्टीमनी सल्षफाइड का प्रयोग होता है । यह रंग रबरमें मिल जाता है। अन्य पदार्थ जो रबरमें रंग देनेके काममें आते हैं यह हैं । आरक्षीनियस सल्लफ़ाइड, क्रोमियम ओक्साइड, ज़िन्क क्रोमेट, अल्ट्रामीरेन ओर काजल, काममें लायी पुरानी रबर भी नई .रबरमभे सिलाई जा सकती पुरानी रबरके बहुत छोटे छोटे टुकड़े कर लिये जाते हैं और इन्हें अम्ल था क्षारसे खूब अच्छी तरह धो लिया जाता है। .फिर इन्हें भापके दबावमें रखा जाता हैं| कुछ समय बाद यह टुकड़े सुल्लायम पड्ठ जाते हें। अब यह नई रबरमें मिक्नाये जा सकते हैं। कभी-कभी ऐसी रबरकी वस्तुएं भी बनाई जाती हैं। इसे रीक्ल्ेम्ड ([६०९]७7 7) ४०) रबर कहते हैं । वल्केनाइज़ेशन शीघ्र पूरा करनेके किये कच्ची रबर में कई वस्तुएँ मिल्लाथी जाती हैं। इन्हें वल्कनाइज्रेशन करनेवाले उत्तेजक (.80०८९]९7७६०7) कहते हैं। बहुत समय तक दो कार्बनिक योंगिक इस कामके लिये प्रयोग किये जाते थे--एनीलीन (8 ]76) ओर थायो-कार्बएनीलाइड ([]700987087]|06) | परंतु आधुनिक कालमें बहुतसे योगिक काममें लाये जाते हैं । इनमें से सुख्य मुख्य यह हैं--मैंगनीसिया ()/8278- 88.), चुना ओर लिथार्ज ([0॥878);: पाइपरी- ग्रेन (?9874070), डाइएसीन ([)97777768), ल्डीहाइड अमोनिया (8 ]08]908 877707 8) हेक्‍्सा-मिथिल्लीन-टेंट्रामीन ( ि6587766॥79678 $8$7'87708 ), डाईफिनाइल गखानीडीन (290])8- ॥92 0७ ४0286) | इनमें सबसे शक्तिशाल्री थायो बन. /)4० आई हु हे ॥' 6 श्र छ्‌ न्नि ६६ ; विज्ञान, फरवरी, १६४४ [भाग ६० काबएनीलाइड है | उत्तेजकेसे वल्केनाइजेशन थोड़े समयमें कम तापक्रम पर ही पूरा हो जाता है। इनके प्रयोगसे रबरके गुण ओर भी अच्छे हो जाते हैं। रबर कम घिसती है और रबरकी वस्तुओंकी आयु भी बढ़ जाती है । * कभी कभी यह अज्ुभव किया गया है कि कई उत्तेजक अनुचित रुपसे शक्तिशाली होते हैं। इनकी शक्तिको कम करनेके लिये इनमें कुछ पदार्थ और मिलाये जाते हैं। आधुनिक कालमें ऊपरसे कुछ मिलानेकी जगह उत्तेजकके अशुर्मे ऐश्वा परिवततन कर दिया जाता है जिससे उनकी शक्तिकी रोकथाम हो जाती है। अ्रति शक्तिशाली उत्ते जकोंके अशुमें अधिकतर एक शक्तिशाली (& ०॥76) डद्जन (ए07020॥)) परमाणु होता है। रासायनिक परिवतनों द्वारा इस शक्तिशाली उदजन परमाणुके स्थान पर एक कार्बनिक परमाणु समूह (()४8- ७70 78009]) कर दिया जाता है । इससे उत्तेजक की शक्ति कम हो जाती है | यह कार्बनिक परमाणु समूह ऐसा होता है जो आसानीसे इटाया जा सकता है ओर इस भाँति उत्तेजककी शक्ति बढ़ाई'जा सकती है। ...._ शक्तिशाली उत्तेजककी शक्ति कमः करनेके लिये . ऊपरसे मिल्नाये जाने वाले पदार्थ अधिकतर रोजन- (]१6878), वसाअ्रग्ल (#9'8६६ए 80] 08) या उनके एुनीलीन व यूरीया ((0769) लवण हैं |- इन पदार्थोंका . विशेष प्रभाव रबर पर तो कुछ: पढ़ता. नहीं किन्तु यह उत्तेजककी शक्तिको कम कर देते हैं। #(- +; * साधारणतया रबरकी वस्तुएं कुछ समय बाद कड़ी... होकर चिटखने लगती हैं। यह ओषजन ((059287) : के प्रभावसे होता है। इवामें ओषजन होता है और धीरे . धीरे यह .रासायनिक रूपसे रबरमें .मिल्लने लगता है।. इससे रबर कड़ी हो जातो है और “टूटने लगती है। ओषजनका प्रभाव कम करनेके लिये को उपाय काम्रमें म सायनिक पदाथों'क़ा घोल ... हा लाये जाते हैं--(१)-कुछ रासा थो'क़ा घोल , पुस्तक हिन्दी जनताके लाभकी हो सकती है | रबरकी बस्तुश्रों पर लगा दिय्वा जाता है जिससे . ओषजन : का प्रभाव उन पर कस पढ़ता ;है.। (२) कच्ची रबरमें ही कुछ रासायनिक योगिक-मिल्ना दिये. जाते हैं जिससे, ओोषज़नसे बच्चावकी शक्ति, रबरमें झा जाती है। कई काबनिक योगिक इस कामके ब्विये प्रयोग किये जा सकते हैं। इनमें से मुख्य फिनोल (7॥6708), हाइड्राक्पलिक योगिक (्रए07059]0 (09 00- प7१७), एमीन ( & 777768 ), और एल्डीहाइड (3]06)7068) वर्गके काबनिक योगिक हैं। यहाँ यह कहद्द देना उचित होगा कि इनमेंसे कई यौगिक रबर का रंग ख़राब कर देते हैं अतः इनके प्रयोगमें सतकंतासे काम लेना चाहिये । समांलो चना साबुन-विज्ञान- लेखक--ताराचन्द्र दोसी, प्रका- शक - हुनर विज्ञान साहित्य मंडत्न, सिरोही, मूल्य २) । साइनपर . हिन्दीमें , इसके पहले भी कुछ पुस्तकें निकली हैं जिन्हें देखनेका अवसर मुझे मिला है। उन सब पुस्तकोंके बारेमें मेरी घारणा है कि इस विषय पर उचित प्रकाश उन पुस्तकों ने नहीं ढाल्ा है । श्री ताराचन्द्र दोसी की पुस्तक देखकर और , इसकी भूमिका पढ़कर मुझे यह श्राशा हुईं थी कि इस पुस्तकमें साबुन-विज्ञान पर श्र्च्छा : प्रकाश डाला गया होगा। लेकिन पुस्तकको पढ़नेके बाद मुर्से निराशा, ही हुई । पुस्तकें जद्दॉ-जहाँ विषयका रासायनिक विवेचन किया गथा दै वह श्रपूर्ण होनेके अतिरिक्त अशुद्धियोंसे भरा है । जिन बातों पर ट्रीकसे प्रकाश डाज़्नेकी आवश्यकता थी उन्हें लेखकने इतने संज्षिप्त रूपसे समाप्त किया है किये . ठीकसे साधारण पाठकोंके समझें नहीं आ सकती । पुस्तक में वर्णित बहुत-सी निरर्थक बातोंको हटा कर मुल्य-मुख्य बातों पर अधिक प्रकाश डालना चाहिए था। पुस्तककी वर्णन ज्ञी तथा भांषां भी परिमार्जित नहीं है । वास्तव साबुनपेर हिन्दीमें एक श्रच्छी पुस्तककी | बहुत्त श्रावश्यकंता है। ऐसी पुस्तकर्मे इस विषयका रासा यनिक विवेचन होनेके साथ-साथ साबुन बनानेके सम्बन्धकी सभी व्यावहारिक बातोंका भी समावेश होना चाहिए । तभी सरल विज्ञान सागर अपनी योजनाके अनुसार इम सरल विज्ञान सागरका | एक और अंश यहाँ देते हैं । 0 जज बैविलाल कोचन्ना कलीज्ञाववी और बीजगणित भी यथाथरमें सिद्धान्त शिसेमणिके ही अंग माने गये हैं ओर इनके अंतर्मे यह लिख भी दिया गया हैं, क्योंकि सिद्धान्त ज्योतिषका पूरा ज्ञान तभी हों सकता है जब -विद्यार्थियोंकी पादीगणितका जिसमें क्षेत्रफल, घनफल, आदि विषयोंका भी समावेश है तथा बीजगणितका आवश्यक ज्ञान हो । लीलाबती--इसमें लीलावती नामक ल्लड़कीको संबोधन करके प्रश्नोत्तर रूपमें पाटीगणित, क्षेत्रमिति, आदि के प्रक्ष बहुत रोचक दड़्से बतलाये गये हैं। इसमें वह सब विषय आ गये हैं जिनकी चर्चा ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तके शुद्ध गणित भागमें की गयी है। अंतमें गणितपाश ( 907- ह0प७007 ) नामक एक अध्याय और है। इसको भाषा बड़ी ललित है। इसकी संस्क्ृत और हिन्दी टीकाएं कई हैं जो बस्बरई और लखनऊसे प्रकाशित होकर ज्योतिषके विद्यार्थियोंके काममें आती हैं। इसकी +चीन टीकाएं, गड़्ाधघरकी गणितारझृतसागरी (१३४२ शक), भरहलाधव- कार गणेश देवज्ञकी बुद्धेविलासिनी ( १४६७ शक ), धनेद्वर दैवजश्ञकी लोलावतीभूषण, मुनीश्वरकी लीला- वतीविशृत्ति (५४४७ शक), महीधरकी लीत्ावतीविवरण, रामकृष्णणी गणिताम्तलहरी, नारायणकी पाटीगणित कौमुदी, रामकृष्णदेवकी मनोरंजना, रामचन्द्र कृत क्ोला- वतती भूषण, विद्वहूपकी निसुषुदूती, सू््रदासकी गशिता- सुतकूपिका, तथा अन्य कई टीकाएँ हैं । वर्तमान्‌ कालमें पं० बापूदेव शाखीकी टिप्पणी और पं० सुधाकर द्विवेदी की डपपत्ति सहित टिप्पणी भी प्रकाशित हुई हैं । बीजगशित--इस पर कृष्ण देवज्ञ की बीजनवांकुर (शक ११२४७) और सूर्यदासकी टीका प्रसिद्ध हैं । उपपत्तिके साथ इसकी टीका पं० सुधाकर ह्िवेदीजीने भी की है । इनके सिवा और भी कई टीकाएँ हैं | सिद्धान्त शिरोमणि ( गणिताध्याय और गोला- ध्याय ) ज्योतिष सिद्धान्तका एक उत्तम ओर प्रसिद्ध भ्रंथ है । इसमें ज्योतिष सिद्धान्तकी- वह सभी बातें जिनका वर्णन ब्राह्मस्फुटसिरात अथवा महासिद्धांतमें है विस्तार और उपपत्तिके साथ बतल्लायी गयी हैं। इसकी अनेक टीकाएँ हैं। प्रहलाघवकार गणेश देवज्ञकी एक टीका है। नूसिंहने वासनाकत्पल्ञता अथवा वाखनावातिक, नामक . भाग ६० संख्या ४ ] ४३१" टीका १९४३ शकमें लिखी थी, सुनीश्वर या विश्वरुपकी मरीचि नामक टीका बहुत उत्तम ओर विस्तारके साथ १९४९७ शकमें लिखी गयी.थ्री। आयंभटीयके टीकाकार परमादीश्वरने सिद्धान्तदीपिका नामक टीका' को थी। रंगनाथकी मितभाष्णी नामक टीका शक१५८०के लगभग लिखी गयी थी । *- करण कुतूहज्ल-- इसमें ग्रहोंकी गणनाके लिए सुगम रीति बतलायी गयी है जिप्त पर कई टीकाएं लिखी गयी हैं। इसके अनुसार पंचांग बनानेका काम संरक्नतासे किया. जा सकता है। ; । हा अन्य भाषाअओंमें भी इन अन्थोका अनुवाद किया गया है। अकबर बादशाहके नवरत्न फेज़ीने फ़ारसीमें ल्लीलावतीका अनुवाद सन्‌ १०८७ ई० में किया था| शाहजहां बादशाहके समयेमें अताउबलाह रसीदीने १६३४ ई० में बीजगणितका अनुवाद किया था । कोल- त्र कने सन्‌ १८१७ ई० में लीलावती और बीजगणितका अनुवाद अंग्रेज्ञीमं किया था। टेलरने १८४१६ ई० में लीलावतीका अनुवाद तथा ई० स्ट्रेचीने बीज़गणितका अनुवाद सन्‌ १८१३ ई० में अंग्रेज़ीमें किया था | म०म० बापूदेव शाखत्रीने गोलाध्यायका अंग्रेजी अनुवाद 4८६६ . ईं० में किया था। पंडित गिरिज्ञाप्रसाद ह्विवेदीने गोला- ध्याय और गणिताध्याय दोनों पर संस्कृत ओर हिन्दीमें एक अच्छी टीका लिखी है जो नवल्किशोर प्रेससे १8११ ओर १६२६ ई० में प्रकाशित हुई है | क्‍ ऊपरके वर्णनसे स्पष्ट है कि भास्कराचायने गणित ज्योतिषका विस्तार किया ओर उपपत्ति संबंधी बातों पर पूरा ध्यान दिया परन्तु आकाशके प्रत्यक्ष बेघसे बहुत कम काम लिया । बेधोंके लिए इन्होंने ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तको आधार माना है. किसी-किसी ग्रन्थमें भास्कराचाय रचित मुहूते मनन्‍्ध तथा विवाह पटल नामक ग्रन्थका भी वर्णन है परन्तु यह उतने प्रसिद्ध नहीं हुए। - वाविलाल कोच्चन्ना तैलंग प्रान्त॒के उपयुक्त नामके ज्योतिषीने एक करण प्न्थ श० १२२० में लिखा था जिसमें फाल्गुन कृष्ण : ३० गुरुवार शक १२१३ का क्षेपक दिया है। यह पुस्तक ६७ ४३२ वत्तमान सुयसिद्धान्तके आधार पर लिखी गयी थी । इस पुस्तकें कोई बीज-संस्कार नहीं दिया है जैसा मकरंदमें है | मद्रासमें वास्त नामक अंग्रेज़ विद्वानने काल संकलित नामक एक ज्योतिषकी पुस्तक १८२६ ई० में लिखी है जिसमें इस पुस्तकसे बहुत कुछ लिया गया है । इससे जान पड़ता है कि मद्गास प्रान्तमें इस पुस्तकसे उस समय तक पंचांग बनाये जाते थे । बल्लालसन मिथिलाधिपति श्री लक्मणसेनके पुत्र महाराजाधिराज बदलालसेनने शक १०६० ( ११६८ ई० ) में अद्भुत- सागर नामक संहिताका एक बृहत्‌ अन्‍न्थ रचा जो वराहमिहिरकी वृहत्संहिताके ढंगका एक उत्तम अन्थ है । उसमें गे, बुछुगर्ग, पराशर, कश्यप, वराहसंहिता, विष्णु धर्मोत्त,, देवज्न, वसनन्‍्तराज, वटकणिक, महाभारत, बाल्मीकिरामायणं, यवनेश्वर, मत्स्यपुराय, भागवत, मयूरचित्रं, ऋषिपुत्र, राजपुत्र, पतब्चसिद्धान्तिका, ब्रह्मगुप्त, भट्ट बलभद्ग, पुलिशाचार्य, सूर्यसिद्धान्त, विष्णुचन्द्र ओर प्रभाकरके अनेक वचन उद्धुत हैं । वराहसंद्वितामें अध्यार्थों- के नाम 'चार' जैसे ग्रहचार, राहुचार आदिसे प्रकट किये गये हैं परन्तु अन्भुतसागरमें अ्रध्यायोंके नाम “आवत! रखे गये हैं जेसे अगस्त्यावतंमें अगस्त तारेके उदय अस्तके विषयमें है, इत्यादि | बल्लालसेनने कई आकाशीय धटनाओं का उल्लेख किया है जिससे जान पढ़ता है कि यह केवल ग्रन्थकार ही नहीं थे वरन्‌ तारों और. नच्षन्नोंका भी बेघ करते थे। बुध-सूप्रयुति ओर शुकर-सूययुति (#78॥)87 04 767007ए 07 ए७778) का भी परिचय इनको हों गया था । अ्रयन बविन्दुके संबंध भी इन्होंने स्वयम्‌* परीक्षा करके लिखा है । सब बार्तोका विचार करनेसे प्रकट होता है कि अज्भुतसागर वास्तवमें एक बढ़ा और अद्भुत .अन्थ है । १-- सकल वसुधाधिनाथ श्रीमद्‌ बत्लालसेनदेवेन । अयनदह्॒य॑ यथावत्‌ परीक्ष्य संलिख्यते सवितुः ॥ ह॒दानीं दृष्टिसंवादादयन दक्षिण रवेः । भवेप्पुनवंसोरादी विश्वादाबुत्तरायणम्‌ ॥ गणक त्रंगिणी पए० ४४ है भारतीय ज्योतिष 3 न जज बीज कक 3 कि. जड़ी की ब. ० कक सकल हक का चकी केशबाक इनका बनाया हुआ विवाह वृन्दावन नामक पुक मुह ग्रन्थ है जिसमें विवाह संबंधी मुहर्ताका अच्छा परिचय है | इसकी टीका भी पीछे की गयी थी। यह गणेश देवज्ञके पिता केशवाचार्यसे भिन्न थे और उनसे बहुत पहले हुए थे। गणक-तरंगिणीके अनुसार इनका समय शक ११६४ ( १२४२ ई० ) के लगभग ठद्दरता है क्योंकि गणेश देवज्ञकी टीकासे प्रकट होता है कि ग्रन्थ निर्माण कालमें अ्रयर्नांश १२ था । कालिदास ह इतिहासके बहुतसे विद्वान इनको शकुन्तलाके रच यिता प्रसेद् कालिदास समभते हैं ओर इनका समय विक्रमीय संवतके आरंभमें समभते हैं परन्तु यह दीक नहीं है । इन्होंने ्योंतिविदाभरण नामक एक मुहूत का ग्रन्थ रचा है जिसमें २० अध्याय हैं। अन्तिम अध्यायमें राजा विक्रमादित्यकी सभाका वर्णन किया गया है ओर लिखा गया है कि कलि संत्रत्‌ ३०६८ में यह ग्रन्थ रचा गया ।'* परन्तु यह या तो ल्ोगोंको ठगनेके लिए स्वयम्‌ ग्रन्थकारने लिखा है अथवा किसी अन्यने भ्रमसे यह लिख दिया है क्‍योंकि इसमें अ्रयर्नांश निर्णय करने ओर क्रान्तिसाम्यका विचार करनेकी बातें सिद्ध करती हैं कि यह ग्रन्थ इतना पुराना नहीं हो सकता । श्रयरनांश के संबंधमें प्रथमाध्यायके - १८वें श्लोकमें लिखा - है, #शाकः शराम्भोधियुगोनितों ह॒तो मान खतकेरयनांशका स्वरता” । क्रान्तिसाम्य कब संभव होता है, इस विषय में चोथे अध्यायमें लिखा है !-- ऐन्द्रे त्िभागे च गते भवेत्तयो: शेषे भर वेपक्रम प्तास्य संभव: | यद्येकरेखास्थित भेश चण्डगृस्यातां तदा$पक्रम चक्रवालके |। इससे प्रकट है कि काल्षिदासका समय वही हे जो केशवार्क का है । इसलिए यह रघुवंश या शकुन्तक्षा के काकिदाससे भिन्न हैंरे । २--वर्ष सिन्धुरदर्शनाम्बरगणे थातेकलेः संमिते । मासे माधव संज्ञिके च विहितो अन्थक्रियोपक्रमः । गणक तरंगिणी पृ० ४६ ३--गणक तरंगियी १० ४६-४७ [ बिज्लान, फरवरी, १६४४ मकरद्‌ ४३३ महादेव इन्होंने पेतामह, आयभट, ब्रह्मगुप्त, भास्कर, आदि आचायोके सिद्धान्तोंके अगाघ समुद्रको पार करनेके लिए महादेवी सारिणी नामक एक नोका शक ११३०८ में तेयार की थी। इसमें ग्न्थारंभकालके प्रहोंका क्षेपक देकर पग्रहोंकी वार्षिक गति दे दी गयी है जिसकी सहायता से ग्रहोंकी स्थिति बड़ी सरलतासे ज्ञात हो जाती है। इसमें कुल ४२१ श्लोक हैं । इसीके आदुश पर नुसिंह देवज्ञने शक १४८० में माहादेवी नामकी एक दूसरी सारिणी भी तेयार की है जिसमें अयनांश १३९४४" ओर पलभा ४।३० दिये गये हैं ।] महेन्द्रसरि यह फीरोज़शाह बादशाहकी सभाके प्रधान पंडित थे। इन्होंने थन्त्रराज नामक यंत्र भी १२६२ शक में बनाया था । इनको बनायी यम्त्रगाज्ञ नामक पुस्तकको टीका इनके शिष्य मलयेन्दुसूरिने लिखी थी जिसका उप- पत्तिके साथ म० म० सुधाकर हिवेदीने शक्त १८०४ ( $ ८८२ ई० ) में चन्द्रप्रभा प्रेससे प्रकाशित की थी | इन्होंने सूयंकी परम क्रान्ति २३९३५! पायी थी ओर अयनांशकी वाषिक गति «४ विकला लिखी है| इस ग्रंथ में पांच भ्रध्याय हैं जिनके नाम हैं--गणिताध्याय, यन्त्र- घटनाध्याय, यन्त्ररचनाध्याथ, यन्त्रशोधनाध्याय और यन्त्र- विचारणाध्याय । सुधाकर द्विवेदी समझते हैं कि यह ग्रन्थ शायद किसी फारसी ग्रन्थका अनुवाद है ।* महादेव इन्होंने पंचाग बनाने की सुविधा के लिए कामचधेनु नामक करणग्रन्थ शक १३७६ (ई० १३५७) में बनाया था । पदानाभ थ्रतश्रम यंत्र-- इस नामका ग्रंथ पद्मनाभने १३२० शकंके लगभग रचा था जिसमें केवल ३११ श्ल्लोक हैं । इसमें भ्रू वश्रमय्ंत्र का वर्णन है जिससे रातकों श्र वमत्स्य न[मक नज्ञन्न पुंजको बेघ करके समयका ज्ञान करनेकी रीति बतलायी गयी है | इप्च प्रन्थकी टीका स्वयम्‌ ग्रन्थ- १-गंणक तरंगिणी पृष्ठ ३७ -- ४६ २--गंणुक तरंगिणी पृष्ठ ४६ भाग ६०, संख्या ४ | हैं आम कारने की है। दिनमें सूथंके बेघसे समयका ज्ञान करनेकी रीति है जिससे लग्नका ज्ञान भी हो सकता है। २८ नक्षत्रोंके यागतारोंका मध्योननतांश भी दिये गये हैं जिससे प्रकट होता है कि यह २४ अच्ञांशके स्थानों के लिये बनाया गया था । दामोदर इनका भटतुल्य नामक आयभटानुसारी एक करण ग्रन्थ है जिसका आरंभ वर्ष शक १३३६ ( १४१७ ई० ) है। यहं (झ्नामके शिष्य थे और इन्होंने भ्र्‌ वश्मम यंत्र पर टीका लिखी थी। इसमें अश्रयनगति ४४ विकल्ला वार्षिक बतलायी गयी है। इन्होंने नक्षत्नोंके याोगतारोंके भागांश ओर शर दिये हैं जो अन्य प्रन्थकारोंके भोगांशोंसे कुछ भिन्न हैं जिससे जान पढ़ता है कि इन्होंने स्वथम्‌ बेध करके निश्चय किया है । गंगाघर इन्होंने कल्नि संवत्‌ ४४९३५ ( शक १३५६ ) में प्रच- लित सूर्यसिद्धान्तके अनुसार एक तनत्र ग्रन्थ रचा है चान्द्रमानाभिधान तनन्‍्त्र। इसमें चान्द्रमासके अनुसार गूहोंकी गति देकर गह .स्पष्ट करनेकी रीति बतल्ायरी गयी है | मकरंद इन्होंने शक्ष ४०० ( १४५८ ई० ) में सूर्यसिद्धान्त के अनुसार तिथ्यादि साधनके लिये श्रपने ही नामकी एक सारणी काशीमें रची थी जिसके अनुसार काशी ओर मिथिला आदि प्रान्तोर्में अब भी पंचाग बनाये जाते हैं । यह सारणी दिवाकर दैवज्ञके मकरन्द विवरण ओर विश्वनाथके उदाहरणके साथ प्रकाशित हुई है ऑर मिलती है। गोकुलननाथने १६८८ शकमें इसकी डपपत्ति भी लिखी है। इस सारणीका अनुवाद अंग्र जीमें बंटली साहबने किया था | इसीका विस्तार करके शहर मिरज्ञापुर के पं० रघुबीरदत्त ज्योतिषीने सिद्धंखेटिका नामक एक सारणी तैयार की थी जो शाके १८०५ (ई० १८०८३ ) में भारतमित्र यन्त्राज्यसे प्रकाशित हुई थी। इस सारणी में तिथि, नक्षत्र, योगों और अहोंका देनिक चालन दिया गया है जिससप्रे इन विषयोंको स्पष्ट गणना बहुत ही सुग- मतासे की जा सकडी दै। मिरजापुर निवासी पं० राम- ६ ४३४ प्रताप ज्योतिषीकी कृपासे जो. फरलित उ्योतिषके अच्छे विद्वान हैं . इसकी एक प्रति इन पंक्तियोंके लेखकको भी प्राप्त हुई है। इसमें पंचाँग बनानेकी प्रायः सभी बातें बतलायी गईं हैं। इसमें बीज-संस्कार करनेके लिये भी कहा गया है और इसका नियम बतलाया गया है | केशव द्वितीय विवाह-वृन्दावनके रचयिता केशवकी चर्चा पहले हो चुकी है जिन्हें गणक-तरंगिणीमें केशवाक कहा गया है। दूसरे केशव उनसे भिन्न हैं। यह ग्रहलाघवके प्रसिद्ध लेखक गणेश देवज्ञके पिता और ज्योतिषके महान आचार्य और संशोधक थे | इनका जन्म पश्चिमी समुद्र के तीर नंदिमाम में हुआ था। इनके अन्मका- समय कहीं नहीं. लिखा मिलता । सूर्य, चन्द्रमा और तारागहोंको बेध करके इनकी गणना ठींक करनेके लिये इन्होंने बड़ा जोर दिया है और भविष्यके लिये पथप्रदर्शका काम. किया है। इनकी असिदछ पुस्तक भ्रहकोौतुक है. जिसकी मिताक्षरा टीका भी इन्होंने स्वचम्‌ लिखी थी । इससे प्रकट होता है . कि गहोंको बेध करनेमें यह कितने निषुण थे और पुरानी लिखी हुईं बातोंको बेधसे ठीक करके संशोधन करनेमें बुराई नहीं समझते थे । बाह्म, आर्यभटीय ओर सूर्यसिद्धान्त आदिके. अनुसार आये हुये ग्रहोंके स्थानोंमें बहुत अंतर देखकर इन्होंने ज्िखा है कि. किस अ्हके लिये कितना . बीज-संस्कार देना चाहिये और धतलाया है कि सदैव वृतेमान घटनाश्रोंकोी देखकर ग्रहगणित करना.चाहिये | मेंने इस सम्बन्धमें ;इस पुस्तकका लग्बा अवतरण सूर्य सिद्धान्तके विज्ञानभाष्य प्ृरष्ठ १६७ पर. दिया है.जो यहाँ संक्षेप में दिया जाता है-+ पुव॑ बहुंतर' भविष्येः सुगणके नक्षत्रयोग ग्रह योगोदयास्तादिभि वर्तमान घटनामवल्तोक्थ.. न्यूनाथिक भगणाद अहगणितानि क्रार्याण । यदा तत्काल क्षेपक वर्ष भोगान्‌ प्रकत्ष्य लघु करणानि कार्यांणि) । ... .... »5 अदेकातुक का आरम्भ. शक १४७१८ ( ई० १४६६ ) मे हुआ था | इसके सिवा इन्होंने वर्ष महसिद्धि, तिथिसिद्धि .. : जातकपद्ति, जातकपद्धति निवधुति, .. ;ताजकपदछति १०० भारतीय ज्योतिष शाद्य रछ ९६६ ६ :। हि; १९ 2 भारतीय ज्योतिष “3. सिद्धान्तवासना पाठ, मुहूर्त तत्व, कायस्थादि धर्मपद्धति, कुण्डाष्क लक्षण, गणितदीपिका नामक पुस्तकोकी रचना की थी । इससे प्रकट है कि यह ज्योतिष की सभी शाखाओं के अच्छे विद्दान थे और ग्रहोंकी बेध सम्बन्धी बातोंकी आजकलके वैज्ञानिकोंकी तरह लिखते थे। ऐसे पिताके साथ रहकर गणेश देवज्ञ क्यों न अहलाधव जैसी पुस्तक बनावे जिसके अनुसार आज सी बम्बई, गुजरात, राज- पूताना में पदञ्माड़ बनाये जाते हैं । गणोश देवन् क्‍ .-.. यह भी अपने पिताके समान ज्योतिषक़ी प्रायः सभी शाखाओंके श्रच्छे विद्दान थे और गहाँका बेच करके उनकी डीक-ठीक गणना करनेके पक्षमें थे* | इनका मुख्य गन्ध ग्रहलाघव है जिसमें ग्रहोंकी गणना करनेके लिये ज्या, :कोटिज्या आदिसे काम नहीं लिया [गया है | यह बड़े पांडित्य की बात है | ग्रहलाघबषका आरम्भ जश़्क १४४२ (ई० १४२० ) है| यह इतत्ा अच्छा गन्थ समझा गया था कि इसकी कई टीफाएँ हुईं ।शक १४०८में गंगाघरने शक १९२४ में मह्लारिने, .लगभगः. शक १३६३७ में विध्वनाथने इसकी टीकाएँ लिखी थीं | म० म० . सुधाकर - द्विवेदीने इस' पर डउपपत्तिके साथ एक सुन्दर टीकां लिखी है जिसमें मल्कारि और. विश्वत्ाथकों.:ः टीकाओंका भी समावेश है | मक्लारिके - कई. वचन . सूर्य सिद्धान्तके विज्ञानभाष्यमें :इसी:-संस्करंणसे. किये, गये हैं। इस अन्थ का प्रचार महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, ग्वालियर आदि - प्रान्तों में अब भी है । , “इस भ्न्‍्थ में मध्यमाधिकार, स्पष्ठाधिकार,, पंचतारा- धिकार, त्रिप्रश्न, चन्द्रभहण, सूर्यग्रहण, मासगण ग्रहण, स्थूल गृहण साधन, डदयास्त, छाया, नक्षत्नछ्धाया, शड्गोन्नति गहयुति और महापात्त नामक १४ अधिकार हैं , विश्वनाथ २--केथमपि यदिद चेहूरिकाले इक्ष्थ स्यान्मुहुरपिं परिलक्ष्येन्द्र गहाद्र॒क्षयोगम्‌ । सदमले गुरुतुक्य॑ प्राप्त बुद्धि प्रकोशें: कथितसंदुपपत्याँ. शुद्धिकेन्द्र प्रचाल्ये । बृहत्तिथि चिंतामैरि। € गणक़ :त्तरज्ञिणी.. प्रष्ठ: ६३. के अनुसार ) आप हा हे [ विज्ञान| फंणवरील शध्छ४ रामदेवज्ञ ४३४ ्ल ॥७७७७७७७७॥७॥७॥/ए"७"/"श"श"/शशशशशश"श"""नशश/णणशणणणणणाशाणाआखआख ख खआख आ खआआशआआएणणणशआआाणणाणाणााााभान“ा “५ + 3 >> मम तमिल नल शक लिन डिक मिशन शशि ककक की शलफक लक कक इबकई ओर मह्लारिने अ्रपनी टीकाश्रोंसें पञ्माड़ गृहणाधिकार का नाम भी लिखा है | वृदत्तिथिचितामशि श्र लघुतिथिवितामणि नामक सारणियाँ भी गणेश देवज्ञकी बनाई हुईं हैं जिनसे पंचांगके तिथि, नक्षत्र योगोंका साधन बहुत. सरलतासे और कम समयंमें किया जा सकता है | इनके सिवा नीचे लिखे गन्थ भो गणेश देवज्ञके लिखे हुये हैं | घिद्धान्तशिरोमणि टीका, लोलावती टीका ( शक १४६७ ) विवाह बृन्दावन टीका (शक १४७६ ), मुहूत तत्व टीका, श्राद्धादि निर्यय छुन्दो$रणंव टीका; सुधीरञ्षनी, तर्जनी यन्त्र, कृष्ण जन्माष्टमी निर्णय ओर होलिका निर्णय | चद्मीदास इन्होंने शक १४२२ ( हैं० १९०० ) में भारकराचाय के सिद्धान्तशिरोमणिकी टीका उपपत्ति श्रोर उदाहरण के साथ की थी जिसका नाम है गणिततत्व चितांमणि | ज्ञानराज सिद्धान्त सुन्दर--नामक . करण गुन्थके कर्ता ज्ञानाज थे। यह वतेमान- सूर्यासिद्धान्तके - अनुसार बनाया गया है | इसका क्षेपक १४२४ शकका है इसलिये यही इसका रचना काल समझना चाहिये। पहले गोला- ध्याय- है जिसमें सश्क्रिम, लोकसंस्था आदि १२ अध्याय हैं श्रोर .गणिताध्यायमें मध्यमाधिकार आदि ८ अध्याय हैं। मध्यमाधिकारमें बीज संस्कारकीं बात भी. कही गयी है। यह नहीं बतलाया हैं कि इनके संमयमें अयनांश क्‍या था परन्तु अयनांशकी वार्षिक गति एक कल्ना बतल्ायो है ओर लिखा है कि मध्यान्ह छायासे जाने हुये स्पष्ट सूर्य ओर गंणनासे आये हुये स्पष्ट सर्यकां अंतर निकालकर अयथ- नांशका ठीक-ठीक ज्ञान कर लेना चाहिये जैसा सूर्यसिद्धान्त में बतलाया गया है । ः | सृूथ यंके । यह ज्ञानराजके पुत्र थे | भास्कराचायके बीजगणितकरे साष्य , में अपना नाम सूर्यदास लिखा है श्रोर किसी ग्रन्थमें अपना नाम सूर्यप्रकाश लिखा हैं। लीलावतीकी टीका - गणताम्रत कूपिका इन्हींकी लिखी हुईं है. जो १४६३ शकमें लिखी गयी थी जिस समग्र इनकी अच॑स्था ३४ चर्ष को थी। इसलिये 'इनेंकी जन्म शक १४२६ में हुआ था | इनके लिखें ग्रन्थों 3-:गणकतर गिणी, पृष्ठ, €८ ।. . 5. |; भाग ६०, खंख्या ५ | के नाम ये हैं--लीलावती टीका, बीज टीका, श्रीपतिप्रद्धति गणित, बीजगणित, तालिक अ्नन्थ, काव्यहय और बोध सुधाकर वेदान्त ग्रन्थ। केलबुक लिखते हैं कि इन्होंने सम्पूर्ण सिद्धान्तशिशेमणिकी टीका भी लिखी है परन्तु लीलावतो को टीकामें इन्होंने स्वयं ज्ञिन आठ ग्रन्थोंके नाम लिखे है उनमें यह नाम नहीं आया है | ह अनन्त प्रथम इन्होंने शक १४४७ में पंचांग बनाने के लिये अनन्त सधारस नामक ग्रन्थ लिखा था जो सुधाकर द्विवेदीके मत से एक सारणी है। ढंढिराज् इनका बनाया जातकाभरणा भअन्थ बहुत असिद्ध है जिससे जन्मपन्नी बनायी जाती है | श्रनन्तकृत सुधारस की टीका भी है जिसका नाम सुधारसंकरणचषक है। गहलाघवो दाहरण, गहफलोपपत्ति, पंचांगफल, कुडकव्पलता ग॒न्थोंको भी लिखा है। इन्होंने अपना जन्‍्मकाल कहीं नहीं लिखा है परन्तु ज्ञानराजके यह शिष्य थे इसलिये डनके पुत्र सूथ के समकालीन श्रवश्य रहे होंगे । नीलकंठ इन्होंने ताज्ञिक नीलकंठी नामक बहुत प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा है जिसे ज्योतिषी लोंग बंप फल बनानेके लिए अब भी काममें लाते हैं । इसमें फारसी ओर अरबीके बहुत से शब्द आये हैं। यह अकबर बादशाहके दरबरिके-संभा पंडित थे और मीमाँसा तथा. सांख्य शाख्रके अच्छे विद्वान थे। नीलकंठीका निर्माण काल शक ॥१०६ (ई० १४८७) है | इस पर विश्वनाथने उदाहरणके साथ एक टीका शक १७३१ में की थी। सुधाकर द्विवेदी जी लिखते हैं कि इन्होंने एक जातकपद्धति भी लिखी है जो मिथिज्ना प्रान्तमें बहुत प्रसिद्ध है । रामदेबज्ञ यह नीलकंठके छोटे' भाई थे | इनका शक १९२२ का रचा मुहतचिन्तामणि ग्रन्थ बहुत अधिंद है और ज्योतिषके. विद्या्थियोंकों पढ़ाया जाता है। इस प्रान्तमें यात्रा, विवाह, उत्सव आदि सभी बातोंके लिए इसी ग्रन्थ के आधार पर साइतननिकाली जाती है। इश्न ग्रन्थ पर रे ४३६ पीयूषबारा नामक टीका इनके भतीजे नीलकंढके पुत्र गोबिन्दने लिखी है जो बहुत प्रसिद्ध है । इनका रचा रामबिनोद नामक एक करण ग्रन्थ भी है जिसे अकबर बादशाहके कृपापात्र जग्रपुरके मद्दाराजा रामदासकी प्रसन्नताके लिए शक १५१२ में पंचांग बनानेके लिए लिखा गया था। इसमें वर्धभान, क्षेपक और ग्रह- गति वर्तमान सूर्य सिद्धान्तके अनुसार दिये गये हैं। बीज संस्कार भी दिया है। इसमें ११ अधिकार ओर २८० इलोक हैं । : क्रष्ण देवज्ञ ह बादशाह जहांगीरके प्रधान पंडित थे। भास्करा- चायके बीमगणितकी नवाह्वर नामक सुन्दर टीका इनकी लिखी हुई है जिसमें कई नवीन कढ्पनाएं हैं | सूर्यसिद्धास्त की गूढ़ार्थप्रकाशिका टीकाके लेखक रंगनाथ लिखते हैं कि कृष्णदैवश्ने श्रीपतिपद्धति की टीका ओर छाइक निर्णय भी लिखा है। इन्होंने अपना समय नहों लिखा है। सुधाकर ह्िवेदीजी का अनुमातव है कि इनका जन्मकाल शक १४८७ के लगभग होगा । गोविन्द देवक्ष यह नीलकंठ दैवज्ञके पुत्र ओर रामदैवज्ञके भतीजे थे । इन्होंने सुहुतं चिन्तामणिको पं/यूपधारा टीका काशी में शक १५२९ (१६०३ ई०) में लिखी थी । यद्द ज्योतिष, व्याकरण, काव्य, साहित्य, आदिमें निपुण थे और १४७१ शककी आशिवन शुक्त ० रविवार पुनवंसु नच्नन्न में उत्पन्न हुए थे । विष्णु विद देशमें पाथरी नामका एक प्रसिद्ध गाँव है जिससे पच्छिम १० कोस पर गोदा नदीके उत्तर किनारे गोलग्राम एक गाँव हैं । इसमें एक कुल ऐसा था जिप्ममें बहुतसे विद्वान और प्न्थकार द्वो गये हैं। विष्णु हल कुलके थे । इनका लिखा सौरपक्षीय एक करण पंथ हैं जिसका आरस्मवर्ष शक १५३० है। इसको टोका उदा- हरणके साथ इनके भाई विश्वनाथने शक १४४७ में की थी । सिद्धान्ततत्व-विवेकके कर्त्ता प्रसिद्ध कमज्नाकर इसी वंदके थे । + १ भारतीय ज्योतिष मललत्नारि यह उपयुक्त किणुके चंशर्मे थे । इन्होंने गहलाघव पर डपपत्ति सहित एक सुन्दर टीका लिखी है जिससे जान पड़ता है कि बेधके कामोंमें यह बड़े निषपुण थे और समभते थे कि प्राचीन ज्योतिष गन्धोंमें गणनाका जो भेद पड़ जाता है उसका कारण क्या है) ओर बीज संस्कार की आवश्यकता क्यों पड़ती हे । इन्होंने अपना समय नहीं लिखा है परन्तु सुधाकर द्विवेदीजीका मत है कि यह शक १४६३ में उत्पन्न हुए होंगे । विद्रवनाथ यह भटोत्पलके समान टीकाकार थे और पृ्ववर्णित गोलगाम में उत्पन्न हुए थे। ताजिक नीलकंठोकी टीकार्मे लिखते हैं कि शक १९४१ ( १६२९ ई० ) में यह टीका पूरी हुई थी । विष्णुकृत करण गुन्थकी टीका १५४५ में की गयी थी । इन्होंने जो उदाहरण दिये हैं वे शक १७५३४ के हैं । इनके उदाहरण मुख्यतः १५०८, १५३०, १७५३२ १५४२ और १४५५५ शकके हैं । इन्होंने सूर्यसिंद्धान्त पर॒गहनार्थप्रकाशिका तथा सिद्धान्तशिरोसणि, करणकुतुहल, मकरंद, गहलाघव, गणेश दैवज्ञ कृत पातसारणी, अनंत सुधारस, और रामविनोद करण पर टीकाएँ तथा नीलकंठी पर समातंत्रप्रकाशिका टीका ( शक १४४५१ ) लिखी हैं | इन सब गन्धोंको इन्होंने काशीमें लिखा था। नृर्मिह् है यह भी गोलग्रामके प्रसिद्ध वंशर्में उत्पन्न हुए थे ओर अपने चाचा विष्णु तथा मब्लारिसे शिक्षा पाई थी। शक १५९३३ में सूर्यसिद्धान्त पर सोरभाष्य नामक टीका उपपत्तिके साथ तथा सिद्धान्तशिरोसशि।ा .पर वासना वार्तिक टीका १४४३ शाकर्मे लिखी थी जिनमें पर्याप्त विशेषता है. जिससे प्रकट होता है कि यह गणित ज्योतिष में बड़े निपुण थे । ह 5 रंगनाथ | अकरनी यह विदर्भ प्रान्तझे पयोष्णी नदीके तीर दचिग्राम के प्रसिद्ध कुलमें उत्पन्न हुए थे। इन्होंने सुर्यसिद्धान्त.. :८->भ्ाप्पम्ण १--सूर्य सिद्धान्त, विज्ञानभाष्य छष्ठ १६६ । [ विज्ञान, फरवरी, १६४४ कम लाकर पर गूढार्थप्रकाशिका टीका लिखी है जो शक १५२५ ( १६०३ ई० ) में प्रकाशित हुईं थी जिस दिन इनके पुत्र _ मुनीदबवरका जन्म हुआ था । यह अ्योतिषसिद्धास्तके अच्छे आचार्य थे क्योकि अपनी टीका डपपत्ति सहित लिखी है। क्‍ मुनीशव र यह रंगनाथके पुत्र थे ओर शक १६२७ में उत्पन्न हुए थे। इन्होंने क्ीलावती पर निरृष्टारथदती क्रीलावतो- विज्वति नामक टीका सिद्धान्तशिरोमणिके गशणिताध्याय और गोलध्ययय पर॒मरीचि नामक टीका ओर [सद्ध न्त साव भी व नामक स्वतंत्र सिद्धान्त ग्रन्थ शक १५६८में रचा था । गणक तरंगिणीके प्रमुसार इन्होंने पाटीसार नामक स्वतंत्र गणित पर भी पुस्तक लिखी थी । यह प्रसिद्ध भासकराचार्यक्रे बड़े प्रशंसक थे। पिद्धान्त सार्वभो के वर्षमान, अदभगण, आदि सूर्यसिद्धान्तसे लिये गये हैं। इनका दूसरा नाम विश्वरूप था। यह शाहजहाँ घाद- शाहके आ्ाश्रयर्मे थे ओर इनके राज्याभिषेकका समय अपनी पुस्तकें लिखा है । दिवा|कर .._यहद्द गोलग्रामके प्रसिद्ध ज्योतिषियोंके कुल्ममें शक १४२८ में उत्पन्न हुए थे। शक १९४७ में जातकमांग पद्म नामक जातक गन्ध लिखा था । केशवी जातकपद्‌ति पर प्रौद़्मनोरमा टीका भी इन्हींकी लिखी हुई है । शक १७४१ में मकरंदसारिणोी पर मकरंद विवरण नामक उदाहरण सहित टीका लिखी थी । वेसलाकर यह ज्योतिषके एक प्रसिद्ध आचार्य हैं। इनका जन्म शक १५३० ( ६० १६०८ ) के लगभग हुआ था । सिद्धान्ततत्व विचे झ-- यह कमलाकरका प्रसिद्ध सिद्धान्तका गून्थ है जिसे इन्होंने काशीमें शक १४८० में प्रचलित सूरयसिद्धान्तके अचुसार लिखा था जिसमें बहुत सी नवीन बातोंका समावेश है परन्तु एक बात्तमें यह प्राचीन परम्पराके विरोधी थे। यहाँ तक जो कुछ लिखा गया है उससे सिद्ध होता है कि यह प्राचीन परंपरा है-कि ज्योतिषके गन्धथोंकी गणनासे यदि बेधसिद्ध गणनामें अंतर दिखाई पड़े तो उसमें बीज संस्कार करना है. भाग ६०; संख्यां ५ | । ४३४५ चाहिए । परन्तु इन्होंने इसका विरोध किय्रा ओर लिखा कि सूयसिद्धान्तकी गणनामें किसी प्रकारका बीज-संस्कार न होना चाहिए। इस विप्य पर इनके वचन" सूर्य सिद्धान्त- के अन्यभक्त बड़े ज़ोरोंसे अपने समर्थन में उपस्थित करते हैं जिश्नका खंडन इन पंक्तियोंके लेखकने सूर्य- सिद्धान्तके. विज्ञानभाष्यमें प्राचीन ज्योतिषियों के उद्धरण २ देकर अच्छी तरह किया है। इन्होंने भास्करा- चाय ओर मुनीश्वरकी कई ठीक बार्तोका खंडन केवल इस- “लिए किया है कि ये सूर्यसिद्धान्तके अनुकूल नहीं है । सिद्धान्तत ववित्रेकमं बहुत सी नयी बातें लिखी गयी हैं जिनसे पता चलता है कि.यह आकाशके सूचम निरीक्षक थे। किम्री भारतीय ज्योतिष गन्थमें ध्रू व तारा के चल्लनेकी बात नहीं लिखी है परन्तु इन्होंने ज्ञिखी है। स्थानोंक्े पूर्व पच्छिम अंतरको पुराने ज्योतिषी रेखांश या देशास्तर कहते थे परन्तु इन्होंने इसका नाम लाश! रखा है जे फ़ारसी के तूल' (लंबाई) शब्द से निकला है | वियुववृत्त पर खाल्दात्त नगर को मुख्य यामोत्तर वृत्त पर समझ कर २० नगरोंके अर्वश और तूलांश दिये गये हैं जिप्षके अनुसार कुछ नगरोंके अक्षांश ओर वूलांश नीचे दिये जाते त ५ सन लीं अन्ञांश तूज्ांश अंश कला अंश कज़ा उजयिनी श्रे १ ११२ ० इद्र्प्रस्थ्‌ र८ १३ ११४ (५८ सोमनाथ २२ ३५ १०६ काशी र्६ €९ ११७ २० लखनऊ २६ ३० ११४ १३ कन्नोज # २६३ ३५ ११४ लाहोर ३१ ४७० १०६ २० व्याबुल्ल ३४७४ ४3० १०४ ७6 समरकद ३६ ४० ६६. ० इसमें काशीका अक्षांश डेढ . अंशके लगभग अशुद्ध है। १--अद्ष्टफल सिद्धय्थ निर्वोजाकेक्तिमेवहि । गणित॑ यद्धिदष्टाओं तदृष्व्यक्वतः सदा ॥ मध्यमाधिकार ३२६ २--सूर्भ सिद्धान्त विशज्ञाज्ञभाष्य पृष्ठ १८--१७० १०९३ ये हि ४४५८ इन्होने तुरीययंत्रसे बेध करने: की रीति विस्तारके साथ लिखी है | यह भी लिखा है कि सूुयंगहण कालमें चैद्रमा पर रहनेवात्ञोको पथ्वी पर गहण लगा हुआ दिखाई पड़ता है जो बिलकुल ठीक है | यह भी लिखा है कि शुक्रसे सूर्य बिस्बरका भेद होता है। मेघ, भूकंप उल्कापांत का कारण भी लिखा है जो कुछ-कुछ ठीक है । अंकगणित, रेखागणित, क्षेत्र विचार, ज्यासाधनकी रीतियाँ बिलकुल नयी हैं। अधिकांश सिद्धान्त प्रै्थों में ३४३८ की लत्रिज्याके अनुसार ,ज्याश्रोकी सारणी दी गयी है परन्तु इश्लमें त्रिज्या ६० मान कर प्रत्येक अंश की ज्या दी गयी है जो गणनाके लिये बड़ी सुगम है । भ्रह के भोगांशसे विषुरवांश निकालनेकी सारणी भी है। यह बात किसी ओर सिद्धान्त पंथ नहीं है। इन सब नवीन बातोंकों लिखते हुए भी यह ज्योतिषकी शोधके बिलकुल विरुद्ध थे यह दुःखजनक बात है। इससे ज्योतिष सम्बन्धी गवेषण को बड़ा धक्का लगा, इसमें सन्देह नहीं है । इधरके बहुतसे आचाय॑ यहाँ तक कि पं० सुधाकर द्विवेदी जी भी इन्हींकी देखादेखी ज्योतिष सम्बन्धी सुधारके प्रबल विरोधी हो गये जिसके कारण यह प्रान्त अन्य प्रान्तोसे कमसे कम ४० बर्ष पिछड़ा हुआ है । पूर्व लिखित मुनीश्वर इनके समकालीन थे ओर, दोनों एक दूसरेके प्रबल विरोधी थे | सुनीश्वर भाष्कराचार्यके पत्षमें थे ओर यह सूयसिद्धान्तके पक्षमें, जैसे श्रर्वांचीन . काज्षमें म० म० प'० बापूदेव शाखी ओर प॑ ० सुधाकर द्विदी । एक नवीन सुधारके पक्षमें ओर दूसरे विपक्ष में । . सिद्धान्त तत्ववित्रेक ज्योतिषकी आखश्ाय परीक्षामें नियत है और इस पर प्रताबगढ़ ( अवध ) के मेहता संस्कृत विद्यालयके ज्योतिषके अध्यापक पं०गंगाधर मिश्र ज्योतिषाचार्यकी अच्छी टीका है। इसका एक संस्करण म० स० सुध[कर द्विवेदी ओर म० म० पं० मुरलीधरकाकी टिप्पणी सहित ब्रजभूषणदास कंपनीने सन्‌ १६२४ में प्रकाशित किया था | नित्यानन्द यह कुरुच्षेत्रके समीप इन्द्रपुडीके रहने वाले थे ओर १०४ के. भारतीय ज्योतिष संवत्‌ १६६६ (ई० १६३६ ) में सिद्धाग्तराज नामक ग्रन्थकी रचनाकी थी । इसमें गोलाध्याय और गणिता- ध्यायके प्रायः सब अधिकार हैं विशेषता यह है कि इसमें वर्षमान सायन है ओर इसीके अनुसार भ्रहोंके भगण मान दिये गये हैं ओर मीमांसाध्याय में कहा गया है कि सायनमान ही देवषिके मतके अनुप्तार ठीक है निरयण नहीं । इनके अनुसार एक कल्पमें सावन दिनोंकी संख्या १४७७८४७७४८१०१ है। इसलिये $ वर्षमें ३६९-२४२४- . ३४२८ दिन अथवा ३६९ दिन १४ घड़ी ३३ पल ७-४०४४८!विपल होते हैं। इस समय सूचम यंत्रोंसे निकाला हुआ सायन् वर्षका मान ३६५ दिन १४ घड़ी ३१ पत्ष <३-४२ विपल है । ग्रहोंकी स्पष्ट करनेके लिये बीज संस्कार करनेको भी कहा गया है । भग्नहयुत्यधिकारमें ४४ तारोंके भवांश ओर शर दिये गये हैं । जयपिंह द्वितोय ओर जगन्नाथ सम्राढ जयपुरके महाराजा सवाई . जयसिंह द्वितीय सन १६८६ इ० या शक १६०८ में उत्पन्न हुए थे जिस वर्ष यूरोपमें निउटनका भ्रसिद्ध अन्ध प्रिन्प्तिपिया प्रकाशित हुआ था । १३ वर्ष की अवस्थामें यह जयपुरकी गद्दी पर बैठे थे। यह ज्योतिषके अद्वितीय विद्वान ओर शोधक थे, इनका ओर इनकी बनवायी हुईं वेधशालाओं का विशेष विवरण पृष्ठ ३६६-३ ६८ पर दिया जा. चुका हैं । इन्होंने टाक्षमी की 'अलमेजिस्ट' ओर मिर्जाउलूगवेगकी सारणियों और युक्किडकी रेखागणितका खूब अध्ययन किया था और ग्रहोंकी सूच्मले सूचंम गतिका निर्णय करनेके लिये ः बड़े-बड़े यन्त्रों का निर्माण कराया था जो जयपुर, दिल्‍ली, उज्जैन ओर काशीसें अब भी इनकी कीति फेला रहे हैं। इन्होंने जगन्नाथ सम्राट के द्वारा टलमीके अलमेंजिस्ट के अरबी अनुवाद मिजिस्ट्रीका संस्कृतमें अनुवाद शक १६९३ में कराया था जिसका नाम सम्राट सिद्धान्त रखा गया था । ु ज़िज् मुहम्मदशाही--जयसिंहने इस नामकी एक ज्योतिष की सारणी बादशाह मुहम्मदशाह् के नाम पर १---भारतीय ज्योतिष शाख््र पृष्ठ २८३ । [ विज्ञान, फरवरी, १६७४ 5 - हा पु । मे नूसिह ंपनाम वापूदेव शाल्ली ४३६ ... बनवायी थी जिसमें श्रपने यंत्रोंके बेधोंके अनुसार प्र वांक ' रखे थे। इसमें .४८ नक्ष॒श्नोकी सूची दी गयी है जो उलूग वेगकी सूचीमें संशोधन करके बनायी गयी है । " उइल्होने भारतीय ज्योतिषका आवश्यक सुधार करनेके लिए बड़ा प्रयत्न किया परन्तु दुःख है कि इनके सुधारोंका प्रचार भारतवर्ष उतना नहीं हुआ जितना होना चाहिये। । मणिराम .* औ 5 ग्रहगणिवचितासणिमें शक १६६६ चैत्र शुक्क $ रविवारके प्रातःकाज्ञका च्षेषक दिया गया है जो ग्रह- जल्ञाधवके अनुसार बहुत कुछ मिलता है ओर भ्‌ वाक्न उससे सूचपम दैं। प्रन्थकार मणिरास सूर्पसिद्धान्तके अनुयायी जान पढ़ते हैं परन्तु ्रहलांधवकी पद्धतिसे काम लिया है। इन्होंने स्वथम्‌ बेध करके गूहोंके श्रूवांक शुद्ध किये हैं । अयनांश सूर्यस्िद्धान्तके अनुसार माना है) इस गन्यमें' कुल १२ अ्रधिकार हैं श्रोर 'इलोकॉकी संख्या १२० है । नृध्तिद्द उपनाम बापुदेव शास्त्री यह ज्योतिषके प्रसिद्ध आचाय थे ओर इस प्रान्तमें अपने दूसरे नामसे अब तेक प्रसिद्ध हैं। भारतीय ओर पाश्च[त्य ज्योतिषके यह अगांध विद्वान थे। इनका जन्म मद्दाराष्ट्र प्रास्तके अद्मदनमर जिलेमें गोदा 'नदीके किनारे टेंके गाँवमें शक १७४३ ( १८२१ ई० ) में हुआ था नागपुरमें दुण्डिराज़ सिश्रसे बोजगणशित, लौकत्ञावती ओर सिद्धान्तशिरोमणिका अध्ययन किया और अ्रन्तमें काशीमें आकर संस्कृत काब्िजके प्रधान गणिताध्यापक हुए । आप बंगाल्न एशियांटिक सोर्साइटीके, आदरणीय सभासर्द तथा कलकत्ता ओर इलाहाबाद विश्वविद्यालंयोंके सदस्य थे। श्रापको मद्दामद्ोपाध्यायकी पदवी भी मिली थी । ' आप भारतीय ज्योतिषमें सुधार करनेकी आवश्यकता समझते थे ओर चाहते थे कि पंचांगोंकी गणना शुद्ध बेध सिद्ध मुलाइसे करनी चाहियें। इसका प्रचार करंनेके ज्षिये आपने पुस्तक लिखी ओर पंचांग भी बनाना आरम्भ किया परन्तु उस समय काशाके पंडितोंके दुलने इनका घोर 4 भारतीय ज्योतिषशाश्ष प्ृष्ट २१६ भाग ६०, संख्या ५ ] विरोध किया | दैवटुविपाकसे स० म० सुधाकर दिवेदी इस विरोधी दल्कके अग्रणी थे इसकिये ज्योतिष सम्बन्धी सुधार अब तक नहीं हो पाया । आरंचर्य तो यह है कि जिस सूथसिद्धान्तकों द्विवेदीजी स्वश्रम आरषभब्यथ नहीं मानते” ओर कहते हैं कि यह हिपार्कैेस नामक यवन ज्योतिषीके गन्थके आधार पर लिखा गया द्वे* उसीको प्रमाणिक कह कर पंचांग बनानेके किये आवेश्यक समर- भते हैं ओर पहलेके आचायो' के चलाये हुये बीजसंस्कारकी' पद्धतिकों भी त्यांज्य समभते हैं। यदि दोनों विद्वान मिलकर काम करते तो- इंस॑ प्रान्तर्मे पंचांगकी जो दुदंशा हो रही है वह न होती । आपके बनाये हुये गनन्‍्थोंके नाम नीचे दिये जाते हैं ;-- रेखागणित प्रथमाध्याय, त्रिकोणमिति, साथनवाद, प्राचीन ज्योतिषाचार्याशयवर्णन, अ्रष्ठाद्शविचित्रप्रश्न संगह सोत्तर, तत्वविवेक परीक्षा, मानमन्दिरिस्थ यंत्र वर्णन, और अंकगणित | यह सब संस्कृत भाषामें हैं ओर छुपकर अकाशित हुए हैं। कुछ गनन्‍थ अप्रकाशित हैं जैसे चत्लन- कलन पिद्धान्तकके २० श्लोक, चापीय ब्रिकोणमिति सम्बन्धी कुछ सूत्र, सिद्धान्त गृन्थोपयी टिप्पणी, यंत्रराजो- पयोगी छेद्यक, ओर लुघुशंकुच्छिन्न क्षेत्रगुण । ; हिन्द्रीमें इनके नीचे लिखे ग़न्थ प्रकाशित हुए हैं-- अकगरणित, बीजगणित ओर फ़लित विचार, सायनवादा- नुवाद,सिद्धान्तशिरोमणिके गोलाध्यायका अंगरेजी अनुवाद स्वयं और विलकिनसनके सहयोगसे सूर्य साद्धान्तका श्रंगरेजी अनुवाद किया है। यह : दोनों गन्थ ई० सन्‌ १८६१-६२ में प्रकाशित हुए थे । आपने सिद्धान्तशिरोमणशिके गणित ओर गोल्न दोनों अध्यायोका शोधपुर्वक टिप्पणीके साथ पुक संस्करण शक १७८८ (६० १८६६) में ओर लीलावतीका १८०७ शकसें प्रकाशित किया था । * ५ १-- भटोत्प्ञानानतरं भास्कराचाय तः प्रागेव भारत - वर्षडस्य सूर्य सिद्धान्तस्य प्रचारो जातः। .सुधावर्षिणी टीकाकी भूमिका एष्ट $ ( १६२९ ई० की छपी ) २- प चांग विच्वार प्‌ ० ११, १२ । . श्ण्श्‌ हंए१ द भारतीय स्योतिभ आप शक १७६७ से १८१२ तक नाटिकल्न अलमेनकके आधार पर पंचांग बनाकर प्रकाशित करते थे। अब भी आपके नामके पंचांगमें यही विशेषता पायी जाती है | १८१२ शकमें आपका देहावसान हुआश्ना । नीलाम्बर शी आपका जन्म शक १७४५ ( ई० १८२३ ) में हुश्रा था और आप गंगा और गंडकीके संगमसे दो कोख पर पटनाके रहनेवाले मै।थल ब्राह्मण थे। आपने यूरोपीय पद्धतिके अनुसार गालप्रकाश नामक ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखा है. जिसको १०३३ शकमें पं० बापूदेव शाख्लीने शोधकर छुपाया था । इसमें पांच अध्याय हैं -ज्योत्पत्ति, ब्रिकोण-मितिसिद्धान्त, चापीयरेखागणितसिद्धान्त, चापीय त्रिकोशमिति सिद्धान्त ओर प्रश्न । विनायक डफ केरो- लदुभण छत्रे आपका जन्‍म महाराष्ट्र प्रान्तमें, शक १७४६ ( ई १८२४ ) में हुआ था । आप गणित, ज्योतिष और सृष्टि विज्ञानमें बड़े निपुण थे ओर बंबई प्रान्तके अनेक स्कूलों और कालेजोंसें उच्च पद पर काम करते थे।। आपका लोक़प्रिय नाम नाना था. । आपने फरांखीसी और अंग्रेजी ज्योतिष प्रन्थोंके आधार पर ग्रहसाधनकोष्ठक नामक एक मराठी अन्ध शक १७७३२ में तेयार किया था जो शक १४८३२. में छापा गया था। इस प्रन्थ्में वर्षमान सूर्यस्िद्धात्तके अनुसार किया. गया है परन्तु ग्रहगतिस्थिति सायन लिया. हे, ज़ीटा, पिसियमको रेचतीका योगतारा मानना है जो-शक्त ४६६ में बसंतसंपत पर था। अयनको वाबिक गति ३०.१ विकला मानी है । शक १७८७ ( १८६४ ई० ) से आपके नाविक पंज़ौगुके अनुसार पंचांग प्रक्रशित कना आरंभ किया । इस बातमें आबा साहब, पटब्रधनने आपकी सहा- यता की जिससे यह.पंचोंग खूत्र चलने लग़ा और इसका नाम पड़ गया नानापटवर्धनी पंचांग । तिथिसाधनके लिए तिथिचिंतामणशिके समान पक ग्रन्थ नाना साहबने लिखा था परन्तु अब्र इसका, प्रचार नहीं है । आपने स्कूलोंके लिए मराठीमें पदार्थ विज्ञान शाखत ओर अंकगणितकी. पुस्तक लिखी थीं.। 4६ बिसाजी ग्घुनाभ लेले आपका जन्म नासिकर्मे शक ।७४९ ( ई० $८२७ .) में हुआ था ओर शक १८१७ में ६८ वर्षकी अवस्थामें देहान्त हुआ । आपने मराठी ' पत्रिकाओं, इस बातका खूब आन्दोलन किया कि पंचाँग साथन पद्धतिसे बनाना 'चाहिए और इस बातमें केरोप॑तका. विशेध. किया । कई वर्ष तक ग्रहलाधवकी सहायतासे सायन पंचांग बनाकर चलाते रहे फिर नाविक पंचांगकी सद्दायतासे काम क्षेते थे, परन्तु इस काम्के लिए »&पना फोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं बनाया । चिंतास्नशि रघुनाथ आचाय आपका जन्म शक १७५० ( है० १८५८) में तामिल प्रान्तसें हुआ था । आप युरोपीय ज्योतिष ओर गणितके श्रच्छे विद्वान थे और रायल एशिएटिक सोसायटी, ' के फेज्नो थे । ई० १८४७ से आप मद्रास वेधशालामें, काम करने लगे और उसके प्रथम असिस्टेटके पद पर पहुँच गये थे । आपने यहाँसे तारोंका एक स्थितिपन्न (४9६8]08 0७ तैयार किया भर दो रूपविकारी तारोंकी. खोज की । ल्योतिषावितामणि ग्रन्थ आपका ही लिखा हुआ है जिसके तीन भाग है। पहलेमें मध्यम गति, एथ्वी आदि ग्रहोंके आकार और महत्व पर विचार किया गया है। दूसरेम #फुट गति आदि पर लिखा गया है और तीसरे का नाम करणपद्धति हैं जिसमें ग्रहगणणित करने के लिए बहुतसे कोष्टक हैं। यह ग्रन्थ तामिल भाषामें लिखा गया था | फिर संम्कृतमें भ्रनुवाद करके तामिल, तेंलगू ओर देव- नागरी लिपिमें छुपाने पर विचार करनेके लिए १८७४ हँ ० मं मद्रासमें एक सभा की राद थी। <०० प्रृष्ठोंकी €०० प्रतियाँ छुपानेमें ५०५०) का खर्च पढ़ता था इसलिए यह काम आरंभ नहीं किया गया । आप शक १७६१से नाविक प॑चोगके आधार पर रग्गणित पंचांग बनाकर प्रकाशित करने लगे जिसे आपके :- दो पुत्र शक १८०८ तक चलाते रहे । आपका <ंषमान सूय॑सिद्धान्तके अनुसार था और अयनाश २१७ था *॥ कृष्ण शाश्री गाड गले आपका जन्म शक १७४३ ( १८३१ ई०) में बंबई वह: 2-2 20० ३०००3. आकक 5०35. 32 रु १-- भारतीय ष्योतिष शाखर-पू० ३० पू० ३०४-३०५ [ विज्ञान, फरबरी,, १६४४: >् चन्द्रशोंधरपिंद सांमन्त ४४१ प्रांतिमें हुआ था । उस प्रांतके बहुतसे स्कूज्षोंके शि्कके पंदे परे रह कर आप हेडमास्टरीसे रिटायर हुएं और पून!में रहने लगे थे। आपने बरंबईकी वेधशालामें भी कुछ दिन - काम कियां था | $८८६ ई०में आपका स्वगंवास हुंश्रां । शक १३७ में आपने वामन कृष्ण जेशीं गांद्रेंके सहयोगसे गहलाधवका मराठी भाषांतर उंदाहरणं सहित किया जो प्रधानंतः विश्वनाथकी टीकाकां आार्षातर हैं। इस पुस्तकका दूसरा संस्करण भी छुपा है ! कुंध्णं शॉखी नें प्रह्लाधवकी उपपत्ति भी मंरा्टीमं क्िखी है। शक $5०७-.में एक छोटों सां ज्योधिष शाखका इतिंहांस लिंखा था। आपने पाठशाज्ञोपयोगी बहुत सी गणितंकी पुस्तकों की रचनांकीं थी | चंन्द्रशेंघरपिंह संरमन्त आपका जन्म शक १७५७ (इ० १४८३९) में उड़ीसा प्रान्तमें कटकसे ९०, ६० मील पच्छिम खंडपारा गाँवके पुक राजवंशर्में हुआ था | बचपनमें आपने संस्कृत, व्या- करण, स्मृति, पुराण, तकंशासत्र और आयुर्वेदकी शिक्ता पायी थी ओर सभी महत्वपूर्ण काव्य ग्रन्थोंको पढ़ लिया था। जब आप दस वर्षके थे तबं आपके एक चाचाने. आपको फंलित ज्योतिषका कुछ पाठ पढ़ाया और आकाश के कुछ नक्षत्रों और ग्रहोँंको दिखलाया क्योंकि इनका : फल्नित ज्योतिषसे बहुत सम्बन्ध रहता है। धीरे धीरे इसे बालकका मंन आकाशका दशन करने ओर तारोंकी बदल्नती हुईं स्थितिको देखने में लग गया क्योंकि फलित ज्योतिष में यहं ठीक ठीक जानना बहुत आवश्यक होता हैं कि किस समय क्या लप्न है। थोड़े दिनोंमें यह पूरे आकाशद्शक (88670707॥67) हो गये । परन्तु ऐसा कोई शिक्षक नहीं था जो आपको ज्योतिषसिद्धान्तका पाठ पढ़ाता क्‍योंकि संस्कृत औरं उड़िया भषाके सिवा आप ओर कोई भांपा नहीं ज्ञानतें थे। इस लिये घरके सकॉखिेयमें संसक्षत सिद्धान्तके जो ग्रंथ मिले उनको अपने आप ही भाष्योंकी सहायंतासे पढनें ओर समभने लगे । ही १४ वषकी- अवंस्थामें. जब “लेंस का श्र्थ समझने लगें ओर ग्रहोंकी स्थितिकी .गणना करने लगे तबं आपको विदित हुआ कि गणनासे भ्रहोंकों जो - स्थिति निकलती भांग ६०, संख्या ४ ] थी वह अआ्राकांशमें ग्रेहोंकी प्रंत्यक्त स्थिंतिंस नहीं मिलती थी, दोनोमें बढ़ां अन्तर पंइंता था। इंसे बातकी जाँच आपने बार बार की परन्तु संदेव अस्तर देख पढ़ता थों।: तंबं आपको ग्रंथोर्मे दिये हुये अश्रंकोकी शुद्धतामे सनदेह हुआ । इस लिये आपंते स्वयम्‌ कुछ साधारण यंत्र बनाकर संमेये ओर ग्रहोंकी दूरियाँ नापनेका काम श्रांरंग्म किया । इस युंवरंकंकी बेघशाज्ञा्में नौना आकाश, भुूभंगोल यंत्र, एक ऊेध्व चक्र, जलघड़ी और कई प्रकोरके शरकु थे। परन्तु जिस यन्त्रका व्यवहार बहुत आप करते थे वह आपंदी का बनायों हुआ एक साधारण यंत्र था जिसे मानं- यम्त्र कहते थे। इस मानयन्त्रमें २४ अंगुलकी एक सौंधी ज्षकड़ी संमकोणं पर कसी जा सकती थी। इसमें जगह जेंगह छेद इस प्रकार किये गये थे कि लड़कीके दूसरे किनारे पर आँख रखकर छेदोंके द्वारा अहोंको देखकर उनका उन्नतांश जान लिया जाय | बस इन्हीं स्थूंल यंत्रोसे आपने सूर्य, चर्द्रमा और ग्रहोंके मूलाकका संशोधन करके एक पुस्तक लिख ढाली जिसका नाम है मिद्धान्तदप ण्‌। यह ज्योतिष सिद्धान्तंका एक सुन्दर ग्रंथ है ओर भास्कराचार्यके सिद्धान्तशिरोमणि अथवा कमलाकरके.. सिद्धान्ततत्वविवेककी टक्‍्करका है। जगन्नाथंपुरी ओर उड्जीसा प्रांतमें इसीके अनुसार बनाये हुए पंचांग शुद्ध माने जाते हैं । इस विद्वानने चुरोपीय आविष्कारों ओर अन्थोंका बिना सहारा लिये अपने स्थूल यंत्रोसे ज्योतिषमें जितने क्रान्तिकारी परिवतन कर दिये वह आश्चयंजनक है। महाराष्ट्र प्राव्तके विद्वानेने युरोपीय आविष्कारोंकी सहायतासे जो सुधार किये हैं उनकी तुलनामें यह सुधार और ही महत्व रखता है। सिद्धान्तदपंणंका मूल रूप तालपत्र पर उड़िया अचछ्षरोंम लिखा गया था जिसको कटक कालेजके गणितके अध्यापक श्री योगेशचन्द्र राय ने अपनी अंग्रेजी भूमिकाके साथ सन ८६६ हई० (श० 4८२१) में छुपाया है । यह ग्रंध उड़ीसा ओर विह्ारके ज्योतिषके छात्रोंको पढ़ाया जाता है | शंकर बालऋष्ण दीक्षित आपका जन्म भी शक १७७३ में आषाढ़ शुकर्ू १४ १०७ ह ४४२ भौसवार ( ता० २०-२१ जुलाई 'सन्‌ १६5६३ ई० ) को रेल्नागिरीके मुरुढ गांवमें हुआ था" कंठिताईके कारण आपकी शिक्षा मेट्रीकुलेशनसे श्रधिक नहीं हुईं थी | महा- शर्ट आन्तके अनेक मराठी और अंग्रेजी स्कूंजों भर ट्रेनिंग कालेजमें आप शिक्षकंको काम करतें रहे | परन्तु आपकी बुद्धिं बढ़ी)" अंखर थी । आपने मराठीमें विद्यार्थबुद्धि- वर्बिनी ( इ० स० १८७६ ), सथ्टिचसत्कार (इ०१८८३ ), ब्योतिर्विलास (ई० $८६२ ) ओर घंर्ममीमांधा ( १८5४५ ) नामक पुस्तकें छुपायी थी। व० 'मि० सिवेलके सहयोगसे आपने इंडियन केलेंडर (70897 (0967087 ) नॉमक अन्थ अंग्रेजीमें लिखा था | परन्तु आपंका सबसे उपयोगी और गंभीर विद्वत्ताका अन्य मराठीका भारतीय ज्योतिषशास्त्र दे जिसे आपने सन्‌ $८ं८प७ ई० ( शक १८४०६ ) नवम्बर मांसमें आरंभ किया था ओर सन्‌ $८८८ (शक १5१०) के अक्टूबर तक समाप्त किया । एक व्षके भीत्तर ऐसी उत्तम खोजकी पुस्तक लिखना«दीक्षित जी ऐसें£ परिश्रम- शीज्न ' विद्वानका द्वी' काम था । इस पुस्तक पर आपको पूनेकी (दक्षिण: प्राइज कमेटीसे ४१० ) का पुरस्कार मिन्ना था ढ़ ४, ,.. इस ग्न्धके पहले भागंके पंहले विभागमें वैदिकका्ल- का दर्शन हैं जिसमें वैदिक संहिता ओर बाहाणेमें आये हुए ज्योतिष संबंधी वचनोंका अवंतरणं देकर बंतलांयो गया है कि वैदिक ऋषियोंको ज्योतिंष संग्रंधी बोतोंका कितना ज्ञान थों। ' का दूसरे विभागमें वेदांगकालकी ज्योतिपका वर्णन है। जिसमें आज और याजुष ज्योतिषका पिस्तृत वर्णन है । इसके कुछ श्लोकोंका अर्थ भी जो पहले नहीं ज्ञात था किया. गया है। अथर्व ज्योतिषकी भी चर्चा है। इसी विभागमें कल्पसूत्र, निरुक्त ओर पाणिनीय व्याकरणमें आये हुए ज्योतिष संबंधी 'वचनेंका विवेचन है। यह पहले प्रकरणमें है । दूसरे प्रकरणमें स्मृति ओर भहाभिरतमें आंये' हुए 'सब 'ज्योतिप संबंधी वचनोंका विवेचन किया गया है। इस प्रकार पहला भांग “डिसाई सोइमेके १४७ पृष्ठोंमे समाप्त हुआ है ।..' हि £। दुसरे भांगिंमें 'क्यीतिषसिद्ध[रत+ कार्लक उब्रोतिवेशास- ४१8८ ट भारतीय ध्योतिष खाकर फरताएअाएनदमाया पद लग दा काया ३०-डलुमतपरथाभानपदातएक०दए धभापनलशचरा ना वसा पापा इ२लयशड५३त०कधप करा: तक रवारात पाना मध्य ५ पट .७ध५७९ १ तारा पाता पा "मप्र पाया का आए शमक्रदाक कप _पफ पर 5५९ अंड गा तर लता ये पर्फसयशमसम धारा का इतिहास दिया गया है। पंहले खंडका नाम गणिस- स्फंध है जिसके मध्यमाधिकार प्रकरण १ में प्राचीम सिद्धान्तपंचकके. . पितामहसिद्धाग्त, वसिध्टसिद्धान्त, रोमकसिद्धान्त ओर पुल्तिशसिद्धान्तका विवेचन बढ़ी विद्कत्ताके साथ किया गया है फिर वतमानकाख्के सूर्य सिद्धान्त, सोमसिंद्धान्त, वसिष्टसिद्धान्त ओर शाकल्य संहितोक्त ब्रह्मसिंद्धान्तका उत्तम वर्णन है। इसके बाद प्रथम आंयभटसे लेकर .( शक ४२१ ) सुधाकर द्विवेदी ( शक १८०६ ) तकके अखिदध ज़्योतिषके आचार्यों और उनके अन्थोंका वर्णन १११ प्रष्ठोंम किया गेंया है। अन्धेमें लिखे हुए कालकी शुद्धता जांचकर लिखी गयी है और यह भी बतलाया गया है कि किस ग्रन्थमें क्या विशेषता है। यह कितने परिभ्रमका काम है इसका अनुमान करना कठिन है । इसके बाद भारतीय ज्योतिष पर मुसलमान ग्रन्थ- कारों, विरोषकर अज़बेख्नीके मतका विवेचन किया गया है । , .ररे प्रकरणमें सुवन्संस्थाके संबंधों भिन्न सिश्ष ' आचायोके म्र्तोका, तुलनाध्मक विवेचन है। ४रे प्रकाशमें . अयन चलन, पर ,विस्तृतः पित्रेचन किया गया है। था प्रकरश बेधप्रकरणा, हैं जिसमें दिखलाया गया दै. कि हमारे अन्थोंमें बेश् संबंधी. बातों, ओर. यंत्रोका कैश़्ा वणन हे | 2; 3. ड़ जा 3. 7 मा; ग्ः जौ स्पशधिकारके प्रकरण में गहोंकी स्पध्ट गति ओर एिथितिके संबंधर्म तुलनात्मक विवेचन है, प्रकरण २में पंचाँग ओऔर विविध सनों तथा: संबतोंका वर्णन किया गया है। इसी प्रकरणमें: पंचांगशोधनविचार नामक एक अ्रध्याय है जिसके ३२ पृष्ठोंमें दिखाया गया-दै कि पंचांगका शोधन करना क्यों आवश्यक हैं, सायनपंचांग क्यों स्काभाविक हट इस प्रकार कुल ४४४ पृष्ठोम इतनी बातें लिखी गंथी हैं । इसके आगे संक्षेप॑में त्रिप्रइनाधिकार,” चँन्द्रेखूय- ग्रहणाधिकार, छायाधिकार, उदयास्ताधिकार, ःयब्जोश्नति अहयुति, मेंशहथुतिःऔर महाक्रत अ्रध्याय हैं। भगृहयुतति अध्यायमें योगंतारोंके भोंगांशों ' और शरों पर तुलनाध्मक विचार विस्तारकें सांध क्यितरगायो देश ०.५ ४ [ विज्ञान] फरवरी? (६४७४ बेंकटैश बापूजी केतकर ४४३ ० 3444 )७क७७))नक७)७७४०६३७४ ७०७ ४७॥७॥३७३०३०७७४३५३५७४७४ ५४९ नए ७७०५ ७++ब ३२७७७ ४५५७५ ५+५७७५५०५७ ७५०५०; भ५ा ता पाक ५ ७००९७ ५५०; कथा०५५५३७७७०५५९भा<+का५+का- ५2५३ जराराकावमता पाल, संदितास्कंधमें संहिता और सुहर्त संबंधी पुस्तकोंका बर्णन है। . जातकस्कंपर्म जातकशास्र संबंधी पुस्तकोंकों वश न है ओर बतलाया रैंया है कि जन्मपंत्री क्‍या है कैसे बनायी जाती है ओर उसका सिद्धान्त क्या है। अंतमें ताजिकपर भी थोड़ा सा विचार है जिससे वर्षफल बनाया जाता है| उपसंहारमें भारतीय ज््योतिषकी तुलना अन्य देशोंके ब्योतिषसे की गयी है और इस संबंधके अनेक भारतीय और विदेशी छिद्वानोंकेमर्तोंका विवेचन किया गया है | अंत संस्कृत और अन्य ज्योतिष गनन्‍्थोंकी एंक बृहत्‌ सूची तथा ज्योतिष गेन्थकारोंकी सूची दी गयी है । . ब्योतिषके सिवा अन्य पुस्तकोंकी सूची है जिससे ज्योतिष सम्बन्धी अव॑ंतरंण लिये गये हैं। इसके सिवा अन्य गन्ध कार्रो, व्यक्तियों और ह्थानोंकी सूची है। अंतर्मे विषयाजु- सार सूची देकर १६० पष्ठेंमें पुस्तक समाप्त की गंदगी, है.। “ऐसी अमूल्य पुस्तक लिखकर दीचितजीने भारतीय ज्योत्तिषका बड़ा उपकार किया है , इसमें सम्देह नहीं) इस गनन्‍्थसे इक़त:-पंक्तियोंके लेखकने बहुत लाभ उठाया है | बें्टेश बापूजी केतऋर आपका जन्म पोौष शुक्त १४ शुक्रवार- शक १७७०४ (ई० १८५४ ) में हुआ था और १०७४ ई० से आप बंबई प्रॉन्‍्तके स्कूलोंमे शिक्षकका कार्मा करने लगे थे। झाप बागलकोरंके अंग्रेजी स्कूलमें हेडमास्टरके पद पर भी रहे हैं। आप प्राच्य ओर पाश्चास्य - ज्योतिषके अद्वितीय विद्वान श्रोर अल्थंकार थे। आपकी रूध्यु शक ॥८४४ ।((ई० १६३०) में ७६॥ वर्षकी अवस्थामें हुई है | . आपने ज्योतिष 'पंर कई ग्रन्थ लिखे हैं जिनके नाम यह “*हैं-ज्योतिर्गंणितं, केतकीग्रहमणित, वैजयन्ती, केतकी परिशिष्ट, सोराय॑श्रद्मपक्तीयतिथिगणितम्‌, केतकी वासना माध्यम, शांशुद्धपद्चांगअ्यनांश निर्णय और भूंसण्डलीयसूयंग्रहणगणित . संस्कृतमें और नक्षत्र- विज्ञान, ग्रहेगणितम्‌, “मोल्द्वयप्रश्न, भूमंडलीयगणित म्ेशाठीमें लिखे हैं। :. + - का : ४: ज्योक्तिणित्त-+यह्द- बड़े आकारके लगभग ६०० भाग ६०) संख्या ५ |) पृष्ठोका अन्‍्थ है जिसमें पद्मांग बनाने, प्रहण की गणना करने, नच्श्नोंके उदय और अस्तका गणित फरनेकी सभी आवश्यक बातेंके लिए कोष्टक दिये गये हैं जिनकें आधार पर पद्चाक् सुगमता और शुद्धता पूवंक बनाये जा सकते हैं। ज्ञिन पाश्चात्य गवेषणाओं और गणनाओ्रोक्रे' आधार पर यह कोष्टक बनाये गये हैं उनके सूत्र भी दे दिये गये हैं। दशमत्व भिनश्नका उपयोग करके गुणाभाग करनेका काम बहुत सरत्न कर दिया गया है, भुजज्या, कोटिज्या आदिकी सारणी दे दी गयी है। यह एक भ्रपूव ग्रन्थ है ज़िससे अन्थकर्ता के गंभीर परिश्षम ओर विद्वत्ताका पता चलता है। इसके भ्र्‌ वो शक्‌ ३८००के हैं। इस प्रन्थमें इन्होंने रेवती योग ताराको नक्षश्नंचक्रका अदि विनदु मानकर तथा चित्राको नज्ञक्नेच्नेकका मध्य मानकर दोनों प्रकारसे अयनांश दे व्यरि हैं, क्योंकि महाराष्ट्र प्रान्तमें इन दोनों पद्धतियोंसे पंचांग बनाये जाते हैं ओर प्रत्येकके समर्थक बड़े- बड़े विद्वान्‌ हैं। परन्तु पीछेसे यदह्ट केवल चित्रा मतके समर्थक हो गये हैं ओर... केतकी ग्रंद गशित॑-तथा पंचाँग अयनांश निर्णयर्मे यह सिद्ध किया है कि प्राचीन पर॑पराके झनुसारः चित्रा तारा ही नक्षत्र चक्रका मध्य होना चाहिए जिससे अश्वनी नक्षत्र या सेषका आदि बिन्दु चिंम्रासे १८०१ पर ठहरता है +यह ग्रन्थ शक १८१४ के क्गभग लिखा गया था | केतरीग्रहगणशित-- यह ग्रहलाघवके . ढंग- परे संस्कृत इज्ञोकमें अर्वांचीन ज्योतिषके आधार पर पश्चांग बनानेके लिए उपयोगी ग्रन्थ है | पुराने ढड्के पंडित 'छोकों को याद करके गणना करनेका काम सुगमतासे कर सकते हैं इसलिए उनके लिए यह बहुत , उपयोगी है, इससे तिथि, नक्षन्न, आदि की तथा गहों की स्पच्ट गणना“काफी शुद्ध होती है । . इसपर .गुन्धक्रारने अपनी अंकविवृति व्योखुया* भी भी की है जिसमें उदाहरण देकर गृन्थको और सुगम बना दिया है। इसके साथ गन्थकारके सुयोग्य पुत्र दत्तराज बेंकटेश केतकरने केतकीपरिमलबवासन'भभाष्य नामक टीका लिखी है जिसमें चित्र देकर: वैज्ञानिक रीतिंसे नियमों की उपपत्तियोंका वर्णन बिस्तारके साथ, किया है । यह घुस्तक शक $रम३ंमें। लिखी गयी थी और शक ,३८७॥१ ०६ ४४४ (ई६० १६३०) में आर्यभूषण सुद्रणालयसे प्रकांशत हुई हैं ओर संस्कृतमें अर्वांचीन ज्योतिष पर अच्छी पुस्तक है । वैज्नयन्ती--इसमें पद्चागेोषयोगी तिथि, नक्षत्र और करणोंकी गणना करनेके लिए सारणी है जिससे गणना बड़ी आसानीसे की जा सकती है । इसमें चन्द्रमामें केवल ४ संस्कार देकर काम लिया गया है । नक्षत्र विज्ञान--इसमें आकाशके विविध प्रकार के तारोंका वर्णन, उनकी सूची, भोगांश, शर तथा आकाशके नकशे दिये गये हैं। जिन नक्षत्रोंके नाम भारतीय ज्योतिषमें नहीं है उनके नाम इन्होंने स्वयम्‌ बनाये हैं जैसे 0फ्रांप्राप्र०& को 'भुजगधारि', ?688808 को उन्चे:श्रवा, !,ए7.8 को स्वर मण्डल, आदि । बाल गद्गाघर तिज्ञक आपका जन्म शंक १७७८ (ई० १८९६) में हुआ । आप गणित, ज्योतिष, विज्ञान, प्राचीन इतिहास, दुर्शन ओर वेदके श्रद्धितीय विद्वान थे। राजनीतिके भी आप प्रकांड पंडित ओर नेता थे जिसके कारण आपको कई बार जेल जाना पड़ा था। इपसे आप देश विदेश सभी जगह प्रसिद्ध हैं और आपको 'लोकमान्य” कहा जाता है। श्राप 'मराठा' नामक अंगरेजी पतन्न तथा 'केसरी' मराठी पत्रके सफल सम्पांदक थे | आपके लिखे तीन गुन्थ बहुत प्रसिद्ध हैं - १--ओरायन, २- आफकंटिक होम इन्‌ दि वेदाज्ञ ओर, ३-- गीता रहस्य । झोरायन--यह अंग्रेजी ज्योतिष संबंधी गन्थ है ओर सन्‌ १८९३ ई० में लिखा गया था। इसमें आपने वेद, ब्राह्मण, संहिता तथा ज्योतिपके गन्धोंसे सिद्ध किया है कि किसी समय वसंतसंपात ओरायन ( ()70] झूगशिर ) नामक नक्षन्नमं होता था जिससे वेदका काल ४७०० वर्ष ईसापूर्व ददरता है । इसके पहले पाश्चात्य बिद्दान्‌ कहते भरे कि वेदकाल २००० ईसा पुृव॑ंसे अधिक पुराना नहीं है । आपके मतका समर्थन प्रोफेसर जेकोबीने भी श्रपनी स्वतन्त्र गणनासे किया। इस गन्थकी गंभीरता ओर नवीनता पर मुंग्ध थे | आकटिक होम इन दि वेदाज़--भी अंग्रेजीका प्रन्थ है जिसमें आपने वेदों, पुराणों तथा ईरानकी पोरा- 5 अ विदेशी परिडहत मसोक्षमुलर महाशय भारताय ज्योतिष शिक कथाओं और भूगर्भविज्ञानंके आधार परं॑ सिद्ध किया है कि प्राचीन आये उत्तरी भुवके पास निंव॑प्ति करते थे और बंहींसे जैसे जैसे जल्लेवायु प्रतिकूर्त होता गया वे भारतवर्षमें आये। यह पुस्तक सन १६५०४ ई० में लिखी गयी थी | गीतारहस्य- यह दर्शनशासत्रंका एक अंपूर्व अरथं है। इसमें भगवद्गीताके अनुवादके साथ साथ प्राच्य और पाइचात्य दर्शनकी तुलना करके दिखल्ञाया गया है कि भगवद्गीताका प्रिद्धान्त क्‍या है। इसीके एक श्लोक मासतानां मार्ग शीषौहस' के अर्थकी खोंजमें आपने 'ओरायंन? ग्रेथका निर्माण किया था । इन पुस्तकोंके सिवा अपने केप्तरी संमाचार परञनैके द्वारा महाराष्ट्र प्रान्तमें ज्योतिष संबंधी बातोंकी और ' लोगोंका ध्यान आकर्षित कियां ओर बंतले।पा कि - पँचौँगे बनानेकी रीतिसे किस प्रकारका सुधांर करनेकी आँवे- श्यकंता है । आपके मंतके अनुसार एक पंचांग महाराष्ट्र प्रान्तमें चलता हैं जिसमें अयनांशकां मारने रेकत पत्षके अनुसार माना जाता हैं जिसकी चेचाँ ज्योतिगणिंसिंके सम्बन्धर्मे पहले की जा चुकी है। आपका देहविंसोन सेने १६२१ ईं० में हुआ । सुधार द्विवेदी आप क!|शीके निकट खजुरी ग्रामके निवासी थे। आपका जन्म शक १७८२ ( १८६० ई० ) में हुआ था। पं० बापूरेव शाखीके पंशन लेने पर श्राप बनारस संस्कृत कालेजके गणित ओर ज्योतिषके मुझुंयाध्यापक हुए। आप को सरकारसे महामहोपाध्यायकी पदवी मिक्री थी। आप शक १८४४ (१६२२ ई०) में स्वगवासी हुए । आप गणित ओर ज्योतिषके अद्वितीय विद्वान थे। आपने अनेक प्राचीन ज्योतिष अंर्थोकी शोध करके दीकायें लिखी हैं ओर अर्वाचीन उच्च गणित पर स्वतन्त्र ग्रथ भी लिखे हैं। आपके रचे ग्रंथोंके नाम यह हैं :-- . १-दी्घंवृत्त लक्षण (१८०० शक), २- विचित्र प्रबन (शक १८5०१) जिकमें २० कठिन प्रश्न ओर उत्तर हैं, ३--वास्तव चन्द्रश्टंगोन्नतिसाधन . ( शक १८०२ ) इसमें लदल, भास्कर, ज्ञानराज, गणेश, कमलाकर, बापू: , व आदिकी लिखी .रीतियमिं दोष दिखला कर युरोपीय अं खक [ बिज्ञान, फरवरी, १६४४ पले० डी० स्वामी कन्नू पिल्लई छ8४ ल्‍ कक अका+ उस +७भ३० ७५3३५ व७5०३ ७५५ ताक ३७७५०५३३५७५+ पा व३ ७४४०-३५ ३०३७३ 3७१५७७३५३ कमल भर ५ भा५/ वाल ८ पदक साला ५७५५७५००७७७० ०५ ५५भधएप मत व५ा- ४4.५८ भ8 ३-४ भ0 नमाज शममन अनाथ के आन 2७७७७ ब आरंभ आांाााआा७७॥्ा“भाााभआ०८्ऋाआााआआआ है नया कि ज्योतिषशास्कके अनुसार वास्तवश्ंगोन्नति - सांघन कैसे किया जाता है दिखलाया गया है। इसमें ६२ पद्म हैं। .. ४--औ्चरखार (शक ६८०४) में ग्रहकी कक्षाका विवेचन युरोपीय ज्योतिषके अनुसार किया गया है । ६€--पिंडप्रभाकर शक १८०७ में क्िखा गया था इश्तमें वास्तु (भवन निर्माण! संबंधी बातें हे । ६--भाश्नसरेखा निरूपय में दिखाया गया है कि शंकु की छायासे कैता मार्ग बनता है। ७--घराअमर्म प्रथ्वीके दैनिक अमणका विचार किया गया है । ८--प्रदणकरणमें हस पर विचार किया गया है कि प्रहयोका मशित् केसे करना चाहिये । ६--गोलीय रेलागणित | १०--युछ्िडकी छुठीं, ११वीं और १२वीं पुस्तकों का संस्कृतमें श्लोकबद्ध अनुवाद है | १३--गणकलररंगियामें. भारतीय ज्योतिषियाौंकी जीवनी. और उनकी पुस्तकाका संक्षिप्त परिचग्र है जिसकी चर्चा यहाँ कई जगह पर आयी है। यह शक १८५१२ में ' ब्षिखी गयी थी.। यह खब अंथ संस्कृतमें है | सुधाकरजीकी संस्कृत टीकाके पंथ यह है-- 3-“यंत्रराज, पर प्रतिभावोधक टीका (श० १७६४) २--भास्कराचायकी लीलावती पर सोपपत्तिक टीका, शक १८०० | ३--मभास्कराचायके बीजगणितकी- सोपपत्तिक टीका शक १54५० ।' ु ->भास्कराचार्यक्रे करणकुवृदलकी वासनाविभूषण टीका; शक १८०३ में। - £४--पसहमिहिरकी पद्नसिद्धान्तिक पर पतद्चसिद्धा- न्तिक्राएकृश टीोका, शक १८१० में, जो डाक्टर थीबोकी प्रेजी टीका ओर भूमिकाके साथ शक १८११. में प्रका- शित्: हुई थी । -सूर्यस्तिद्धान्तकी सुधावर्षिणी टीका, १६०६ ई० के.जून मासमें पूर्ण हुई थी. ओर इसका पहला संस्करण 'बिव्योथिका इंडिका! के दो भागों (सं० ११८७ और १२६६) में सन ३१६०६ ओर १६१३ ई७ में प्रकाशित भागः ६०, संख्या. ४ |] पहले बनारस संस्कृत सीरीज संख्या १४८, हुआ था । इसका दूसरा संस्करण बंगालकी एशियाटिक सोसाइटी ने १६२९ ई० में प्रकाशित किया जो इस समय काशीमें मित्रता है | ७--ब्राह्मस्फूटसिद्धान्त टीका सहित १६०२ ई० में प्रकाशित हुआ था | ८--आयभट द्वितीयका महासिद्धान्त टीका सहित १४६ और १४० में निकला था जो १६१० में पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया था । ६--याजुप ओर आचे ज्योतिष पहले बनारसके पंडित! पत्रिकारमें सोमाकर ओर सुधाकरके भाष्य सहित निकला था जो ई० १६०८ में अलग पुस्तकाकार भी प्रकाशित किया गया था । * १०--गहलावबकी सोपपत्तिक टीका जिसमें मन्ञारि ओर विश्वनाथकी टीकाएँ भी सम्मिल्नितकी गयी हैं । इन टीकाअ्रंके पिता हिन्दी चत्ननकतन चलराशिकलन और समीकर्शामीमांसा नामकी उच्चगणितकी पुस्तकें भी सुधाकरजीकी लिखी हुई हैं। अंतिम पुस्तक दो भागेमें विज्ञान परिषदसे प्रकाशित है। आपने हिन्दी भाषाकी भी कई पुस्तकें लिखी हैं । उपयुक्त वणनसे स्पष्ट है कि सुधाकर द्विवेदी इस प्रान्वमें ज्यातिष ओर गणितके अज्भत विद्वान हो गये हैं । पता नहों, आप ज्योत्तिषके आवश्यक सुधारके. प्रतिकूल क्यों थे जब इस सम्बन्ध बहुत प्राचीनकालसे यह परंपरा चली आयी है कि इम्तुल्यताके लिये आवश्यक सुधार करते रहना चाहिये | यदि आप बापूदेव शास्त्री जी का सहयोग देते तो इस ग्रान्तमें ज्योतिषशास्रकी जो दुर्दशा है वह न होती ओर काशीके पदन्चांग भी शुद्ध ओर प्रामाणिक बनते होते । ०ल० डो० स्वासी कन्‍नू पिल्लई आपका जन्मकाल, जन्मस्थान आदिका पता नहीं मिलता परन्तु आपकी अंग जीमें लिखी इंडियन ऋनो त्ोंत्र। जिसमें सोर चान्द्र तिथियों और गहोंकी गणना कइने की रीति, उपप'त्त और सारिणयाँ दी गयी है श्रोर जिससे इस्वी सन्‌ के २००० वर्षोकी तिथि, नक्षत्र, जन्मपत्र तथा अन्य एतिहा सिक्न लेखोंकी ,तिथियाकी शुदृता परखी जा ९१ ४४६ सकती है, एक अनोखा गनन्‍्थ है जो इन पंक्तियोंके लेखक के पात्त गत २३ वर्षासे है श्रोर बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। इसमें भारतवर्ष भरमें प्रचलित सभी प्रकारके सम्वर्तों, तिथियों श्रोर तारीखोंके जाननेकी रीति बहुत सरत्न रीतिसे समझायी गयी है। थोड़ेसे अभ्याप्तसे किसी तारीखकी शुद्धताकी जाँच एक मिनटर्मे कर सकते हैं । विज्ञानके आकारके ११४ पृष्ठोमिं भारतीय उ्योतिष के सभी व्यावहारिक प्रंगों पर बहुत द्वी वैज्ञानिक रीतिसे प्रकाश ढाज्षा गया है | किप्त मासमें कोनली तिथि किस पर्व या स्योदारके ज्िये केसे निश्चित की जाती है, पत्चाग केसे बनाये जाते हैं, पत्चागके श्रेंग क्या है, इसका पूरा विवच्चन किया गया है.। इसके बाद २३२ प्ृष्ठामें २२ सारणियाँ हैं । पहली धारणीमें दर्तिण भारतमें प्रचत्नित 8६६० ई० से १६२६ ६० तकका संवत्सर-चक्र दिया गया है। दूसरीमें सूर्गस्िद्धात्त और आयंसिद्धान्त (आये- भटीय) के अनुधार खोरमासोंके मान, अधिमासों क्षय मार्सोकी सीमाएँ भौर तिध्रियोंके मान बतल्ाये गये हैं । तीसरीमें नक्षत्रोंके नाम, उनके देवता ओर उनके मान धतंमान प्रथा तथा गग॑ ओर ब्रक्माके अनुसार दिये गये ' हैं। चौथीमे केवल पक प्रष्ठम युरोपीय तारीखोंकी जंत्री (0070०0७७। ०७७ |७॥४067) दी गयी दे जिससे आप ३००१ ई० पू० से क्लेकर २३६१ ई० तक के श्र्थात्‌ कस्लि संवतके आरम्भसे १३६६ कक्षि ख्त तक की इसवी तारीखोंके वार श्राघ मिनटमें जबानी निकाल सकते हैं।.. शवीं में नक्षन्नों, योगों ओर संवत्सरोंके गुणक,' टी में सूर्येसद्धन्त और आयंसिद्धान्तके अनुसार शतादिद भ्रघांक ओर तिथिके अंश, कला, विकल्ा तकके गरुणक दिये गये हैं। «वीं में सूरसिद्धान्व ओर आयसिद्धान्तके अनुप्तार ३००० वरके मेबसंक्रान्तिकालके सौर वर्ष और पंद्रकेत्द्रके ध्रवांक तथा सोर वर्षकी पहली अमावस्याके प्र॒वांक तथा सू्र और चंद्रकेन्द्रको विकलात्मक गतिके गुग्गक दिये गये हैं। झवीं में यह जाननेके बतल्ाया - गया है कि किस अंग जी तारीखमें कोनसी सोर तिथि, चाँद तिथि, नक्षन्न, योग या करण है। नवीं सारणीमें तिथि नखनत्न ओर योगा स्पष्ट करनेकी रीति सूप्रस्रिद्धास्स ११९ श्ांरंतीय ज्योतिष ओर आर्यसिद्धान्तके अनुसार बतलायी गयी: हैं। इंससे पश्चांग बहुव दी आसानीसे बनाये जा सकते हैं। १०वीं सारणीके १०८ पृष्ठेमें इस्वी सन के आरम्भसे १६६६ ई० के अंत पसकके प्रत्येक मासकी अमावस्याकी अंग जी तारीख ओर वार, कल्षियुग, विक्रम ओऔर:ईस्वी सन, अधि- मास और क्षयमास और गदहणके दिन, सोर-. वर्षके आरंभ कालका समय, उस समयका चन्द्रकेन्द्र, आदि दिये हुए हैं, जिनसे आप २००० वर्षके किसी तारीखकी तिथि और वार £ मिनटर्मे जान सकते हैं । ९ १वींमे नक्षत्र और योग जाननेके भ्रवांक है। १२वीमें १८४० ई० से: १६२० ई० तकके कलियुग, शक, विक्रम, ईसस्‍्वी, द्विजरी, कोस्लम सनेंके अंक ओर प्रत्येक मासकी अ्रमावास्पथाका . मध्यम ओर स्पष्टकाल झोर सुर, चन्द्रमाके मखत्रकेन्द्र दिये गये हैं। ।श्वींमे ८ से लेकर ३५ अक्षांश - तकके एक-पुक अंशके अंतरके स्थानों तथा बम्बई ओर कलकत्ताके वर्षके प्रतिदिनके सूर्योदयका समय दिया गया .ह.।.. १४वॉमें नमेदोत्तर भारतमें व्यवहार किये जाने वाल्ले ११६६ ई० से १६४० ई० तकके संवत्सरचक़की .सारणी है,। १वॉमें आरंभसे लेकर १४७२१ दिज़री सनेंके स्मानार्थक 'ईस्वी सन और उन भद्दीनोंके नाम जिनमें हिजरी वर्ष आरम्भ होता है, दिये गये हैं । १६वींमें अवाचीन चान्द्रगणनाके अनुसार स्पष्ट तिथि निकालनेके कोष्ठक- हैं |. .5वॉर्मे ' सूर्य, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनिःझोर राहुको स्पष्ट . करनेके कोष्ठक हैं। १८वीमें उपयुक्त गृहोंकी स्पष्ट स्थिति दस दूध दिनके अंतरपर पघन्‌ १८४० से, ,॥६ १६ ई० तक की बतल्लायी गयी है जो जन्मपत्र मिलाने कालोंके सिए बहुत ही उपयोगी है। ५श्वींमें घड़ी ओर पत्के मान दिनके दशमज्ञव भिन्नेरमें तथा २०वींमें घंटा और मिनटके मान दिनके दशमक्षव भिन्नेमें लिखे गये हैं । २१वींमे नवमांशोका (भत्येक नत्षत्नके एक एक चरणका) , मान बत्- साया गया है। २२घींमें कलियुगके आरंभप्े किप्ती दिन तकके दिनों ( अदर्गंण ) की संख्या जाननेके!कोष्ठक हैं । अंतर्मे एक दृष्टि सारणी ( ०9० £90]6 ) है जिससे तिथियोंकी स्पष्ट गणना जवानी ही की जा सकती ह्दे.। [ विज्ञान, फरवरी, १६४५ की परिषदका ३ ॥वां वार्षिक अधिवेशन : विज्ञान-परिषदका ३१वां वार्षिक अश्रधिवेशन म्योर, संख्या ५ ] सेंट्रल कालेजके भौतिक-विज्ञान-विभागके व्याख्यान-भवन में १४ सोर माघ सं० २००१ वि० तदनुसार २७ जनवरी १६9९ ई०के ५ बजे अपराहमें प्रो० साह्मगराम भारग्गवके सभापतित्वमें हुआ । जलपानके पश्चात्‌ परिषदके सरभ्यों ओर अन्य सज्जनों तथा विद्यार्थियोंके सन्‍्मुख, लखनऊ विश्वविद्यालयके गणित-विभागके डा० रामाधर मिश्री का सापेक्षवाद पर मनोहर व्याख्यान हुआ और परिषदके ३१वें वषका कार्य विवरण पढ़ा गया जो नीचे अ्रकाशित है ।. ई १६४४-४५ वर्षके लिए डा० श्रीर॑जन सभापत्ति, डा० दीरालाज्न दुबे द्वितीय मंत्री, डा० सन्तप्रसाद टंडन प्रधान सम्पादक और प्रो० फूलदेवसहाय वर्माकी जगह पं० सालिगराम भागव उपसभापति तथां डां० बी एन० प्रसाद, श्री वेदमिन्न, डा० गोरखप्रसाद स्थानीय अंतरंगी चुने गये । शेष पदाधिकारियों ओर अंतरंगियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ । उपस्थित सज्ज़नों और डा० रामधरमिश्रकों धन्यवाद देनेके बाद सभा विसजित हुई । विज्ञान परिषद्‌ प्रयागका वार्षिक -... विवरण ( अक्टूबर १६४३से सितम्बर १६४४ तक ) , . विज्ञान परिषद्‌ प्रश्रागका इकतीसवाँ वर्ष गत वर्षोंकी अपेक्षा ' अधिक सफलतापूर्वक समाप्त हुआ । इस वर्ष पुस्तकोकी विक्रोसे जितनी आय हुई वह गत वर्षकी आय की दूनीसे भी अधिक है, इसलिए गतवर्षके अनुमानपत्रमें - जितनी आयका अनुमान “किया गया था उससे कहीं - अधिक आय हुई। विज्ञानकी ग्राहक संख्याभी अच्छी बढ़ी । कांगजके नियन्त्रणके कारण गत जुलाई माससे “| तिक्लानकी एृष्ट संख्या. ४४की जगह १४::करःदेनी पड़ी इस विज्ञान-परिषद प्रयागका वाषिक विवरण ११३ | लिए वर्षके अंतर्म ग्रहकोंकी संख्या कुछ मनद गतिसे बढ़ी ओर इस मध्ये आय अनुमानसे ८४।) कम पड़ गयी। साधारण और आजीवन सभ्य्रोंकी संख्या भी पर्याप्त मात्रा में बढ़ी । हमारे आजीवन सभ्य हैदराबाद निवासी पं० वंकटलाल ओकाजीने इस वर्ष भी परिषदके आजीवन सभ्य बनानेमें अच्छा प्रयत्न किया इसलिए परिपद उनका अत्यन्त आमभारी है । विज्ञानकी पृष्ठ संख्या कम कर दनेके लिए लाचार “होने पर अपने , ग्राहकों और सभ्योंकों अधिकसे अधिक पठनीय सामग्री देंनेके लिए हमने कबर पर ,भी लेख छुपाना आरंभ कर दिया। पतेके लिए अंतिम एष्ठका थोढ़ा-सा भाग छोड़ दिया जाता है। इससे एक हामि अवश्य हुई कि डाकखानेकी मुहर कभी कभी पटठनीय सामग्री पर पड़ जाती दे जिससे पढ़नेमें ही कठिनाई नहीं पड़ती वरन पत्रिकाका रूप भी कुछ बिगड़ जाता है। परन्तु अब्र यह कठिनाई नहीं रहेगी क्योंकि प्रयाग विश्वविद्यालयके भोतिक विज्ञानके प्रधान डाक्टर कृष्णननके उद्योगसे पेपर अफ- सरने कृपा करके २४ पृष्ठोका विज्ञान प्रकाशित करनेकी आज्ञा दी है भिससे अब हम विज्ञानके अन्तिम प्रेष्ठोंको लेखेंसे नहीं भरंगे। इस कृपाके लिए हम डाक्टर कृष्णनन्‌ ओर पेपर अफसरको धन्यवाद देते हैं । पुस्तक प्रकाशन--वरपके आरंभ घरेलू डाक्टर' सब सभ्योंके पास भेज दिया गया था | इसके उपरान्त डाक्टर गोरखप्रसाद जी की पुस्तक, 'तरना' ओर श्री रामेशबेदीजी की पुस्तक 'अंजीर' प्रकाशित हुई थी। श्री रामेशबेदीजीकी पहली पुस्तक त्रिफलाका दूसरा संस्करण भी छुप गया है ओर शीघ्र ही प्रकाशित किया जायगा । यह हप की बात है कि डाक्टर गोरखप्रसादज्ञीकी पुस्तक 'फल संरक्षण ओर उपयोगी नुप्तखे तरकीबें ओर हुनर'की मांग बहुत बढ़ | रही है | 'फल संरक्षण” का पहला संस्करण समाप्त भी हो गया है। इसलिए इसका दूसरा संस्करण जिसमें बहुत- सी उपयेगी बातें बढ़ा दी गयी हैं छुपनेकं लिए दे दिया गया है। कांगजके नियंत्रणके कारण छुपाईकी गति बहुत्त मन्द है। आशा है कि आगामी फरवरी तक हम इसे प्रकाशित- कर सकेंगे । रेडियोकी पुरतकका छुपना हा ११४ बहुत पहले आरंभ हुआ था परन्तु कई कठिनाइयोंके कारण .वह अब तक प्रकाशित नहीं की जा सकी । आशा है कि आगामी प्रीष्म-ऋतु तक यह अवश्य पूरी हो जायगी। 'धरल विज्ञान सागर!का प्रथमखंड छुप गया है झोर शीघ्र ही प्रकाशित हो जायगा । यह हपकी बात है कि विज्ञान परिपदकी »काशित पुस्तक सूयंसिद्धान्तके विज्ञान-भाष्य पर उसके लेखककों नागरी प्रचारिणी सभा काशीसे २००) का इन्नूलाल पुररकार ओर प्रीब्ज पदक मिला और अखित्न भारतवर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलनसे गत जयपुरके अधिवेशनमें १२००) का संगला प्रसाद पुरस्कार मिल्ला | परिपद॒की जो भूमि ओर दो कमरें क्रास्थवेट रोड पर थे वे बेच दिये गये ओर रुपया पंजाब नेशनल बेंकके स्थायी कोपमें जमा कर दिया गया है। अनुकूल समय आने पर विश्वविद्यालयके पास जहाँ परिपदके अधिकांश जाधिकारी रहते हैं पर्याप्त भूसि लेकर परिषदके लिए एक भवन निर्माण करनेका उद्योग किया जायगा जिसमें उप्राख्यानों के लिए एक हाल तथा दक़र और गा दामके लिए पर्याप्त कमरे बनवाये जायंगे । इश्चके लिए समय आनेपर सभ्यों और अन्य विद्याप्रेमियोंसे सहायताके लिए प्रार्थना की जायगी। इस वर्ष निम्ताड़ित सज्जन परिपदके पदाधिकारी रहें ६+- ह सभापति--प्रो ० सालगराम भार॑व उपसभापति -डा० धीरेन्द्र वमा ओ्रो० फूल्देव सहाय वर्मा प्रधान मन्त्री-- श्री महाबीर प्रसाद श्रीवास्तव : * मन्त्री - डा० रामशरण दास कोपाध्यक्ष--डा ० रामदाप़ तिवारी सस्‍्था० अन्तरंगी डा०.श्रीर॑जन रे प्रो० ए० सी० बेनर्जी न डा० सन्तप्रसाद टंडन, गम श्री महेशचन्द्र इंजीनियर प्रधान सम्पादक डा० गारख प्रसाद बाहरी अन्तरंगी श्रीबेंकटल्ााल ओमा (हैदराबाद). न श्री होरालाल खन्ना (कानपुर) हि श्रीपुरुषोत्तमदी सस्वामी (डू गरपुर) विज्ञान, फरवरी, (६४५ [ भाग ६० ण् हर श्री छोटभाई सुधार ( नडियाद) हु डा० दोलतसिंह कोठारी (दिल्ली) आय-व्यय परीक्षक डा० खत्यप्रकाश इस समय ( ३० प्िितम्बर सन्‌ १६४४ तक ) परिषद्‌ के आजीवन सभ्यों की संख्या ३५ और सभ्यों की संख्या १११ है | अक्टूबर १६४३ से ३० सितम्बर १६४४ तक नीचे लिखे सज्जन परिषंदके खब्य हुए :--- आजीवन सभ्य--- १--श्री श्रोकरनाथ शर्मा, आगरा २ - श्री कल्याण जी श्रोधव जी गांधी, बम्बई ३--स्वामी अभयाननन्‍्द जी, गुरुकुल घटकेश्वर ४ - श्री ऑकारनाथ परती रिसर्च स्कालर, इलाहाबाद. ४--राजा बेंकटलाल जी लोया;हैदराबाद दुक्खिन साधारण सभ्य -+ १--श्री कृष्ण शास्त्री ऐस्ट्रॉंलाजर, मद्रास २--श्री श्यामाचरण गुप्त, कानपुर ३--श्री आत्माराम गुप्त, हिन्दू होस्टल ४--पं० शिवगोविंद दुबे, पटना '६--श्री दयासागर एम० एस-प्री०, इलाहाबाद विश्व- विद्यालय | ६--श्री अभंयकुमार ,, १$ ७--श्री एफ़० सी० आलह्वक, दिल्ली वि० वि० ८ - श्री कृष्णलाल पोहार, कलकत्ता ९--श्री सी० पी० सिन्हा, इंजीनियर कल्नकत्ता १०--पं० अंबिकाग्रसाद्र पांडे, एडवोकेट, इलाहाबाद 4१--पं ० सीताराम ओका, गुलवर्गा १२--पं ० हरिश्चन्द्र भागंव, लश्कर १३--श्री वी० डी० आचार्य डेंटल सर्जन नरोना १४--श्री विद्याप्रकाश एम० एस-सी ०, आगरा १४--श्री कन्हेयाल्लाल गोविज्न, इलाहाबाद हमें खेद है कि इस वर्ष निमश्वल्लिखित सभ्यों का देहान्त हुआ जिनके फ्ुटुम्बियोंसे हम हादिक समवेदना प्रकट करते हैं । १--प्रो० ब्जराज, -२-सर पी० सी० राय, ३-भ्री शिवप्रसाद गुप, ओर ४--श्नी शालिग्नाम वर्मा रे संख्या ५ | विज्ञान परिषदका वार्षिछ विवरण ११४ अक्टूबर १९४३ से सितस्वर १९४४ तक गा, इका, झादि है के आय-व्ययका लेखा इस प्रकार हे-- अब क ह कागज खरीदा 4०६४६) है स बिक्रीकी पुस्तकें खरीदी 3० हक आजीवन स्वाति ६३६) सम्पादकके लिये पुस्तक २०॥ ) लावा लगाद ४०२॥०) ल्भाहा आदि १७॥॥) पा बिक्रोसे लि म्यूनिसिपेलिटीको घरकी चुनी १०॥£) 5 आहकोसे | | ध॒स्तकॉंकी जिल्द बंधाई ह श्श्श्ा परिपदकी भूमिकी बिक्रीसे ७8६००) बे वक 227 मन बिक की 3 कलम पेशगी ल्लोटाया २२।&) १२५२०॥-८)॥ ... साइकिलवी मरम्मत ओर टेक्स आंदि २८॥॥) गत वर्षकी रोकड़ बाकी ।मश३)। ऊँकर ६४%)॥ वर कक की मुकदमेंस खच ४ ०।|६०)॥। १४३७३॥“)।। इफ़्तरकीं क्रिताबोंक्ी जिल्द बंधाई ३॥०) वतंसान रोकड बाकीका व्यौरा रोक बाकी ६ ४८८॥॥॥-)। भूमिकी बिक्रोका ७६००) ] छः हल गतवर्षका संरक्षक ओर हि ६१८७) जॉन कि ७ ३॥०)।। ३800: द्‌ हे | है ज्ञानके सम्बन्ध खआावप-वउययका साधारण खचके लिए २६२०) व्यौरा यह हे बढ | ____ी आय ४४५६॥८०) . भाहकँसे ८१५ ॥) टिकट बचे हुए इ&)| कम ४) २१०) न धादा जिसे स्थाय्रीकोपम जमा होने वाले रुपयेसे & ४८८“ ;। पूरा किया गया 8 ३८०)।| व्यय रन अल रस क्ुवी २६५) १३२॥।२)|। चपरासी २६।२०)॥ व्यय दक़रका किराया 5७०) कागज ३१८) प्रूफ देखनेका पारिश्रमिक (विज्ञान) २०). प्रूफ दिखाई २०) ब्लाक बनवाई (विज्ञान) ४४५९) व्लाक ४४२५) मा (पुस्तकं) रप६ह) छपाई ७७ ६॥&) छुपाई (विज्ञान) ७५ ५|७) डाकखर्च १४४।)॥ कि पुस्तक * -/ ३६१॥) सम्पादनकी पुस्तक २० ।) डे फुटकर १६॥“) क्लाकका वेतन (तिहाई' ६८।-) डाकखर्च (विज्ञान) ( ३४४।)। चपरास्रीका.वेतन (तिहाई), ४२०) 9 (पुस्तकोंके लिये ! २१८८ )। रररर-<-<-<-स्‍<स्‍<स्‍<स्‍<स्‍<झ<झ<झ्झ्य्य्य्य्य्य्य्र्रर वचशिि>--+ज ४५... (बक्षर) ४० ॥&)॥ १६६३॥)॥ ११६ आगामी वर्ष १९४४-४५ के लिये इस्तकोंके ब्लाक परिषंदके आय व्ययका अलुमान पत्र अानय सं० प्रां० की सरकारसे बकाया ६००) ५... वतमात्त वर्षका ६००) विज्ञानके ग्राहकों से ६००) सभ्येसे ४००) बकाया किराया वसूल द्वोने पर २००) अपनी पुस्तकॉको बिक्रीसे २०००) अन्य पुस्तकोंका कमीशन ४०) ग़तचर्पकी रोकड़ की २६२४) (संरक्षक और श्राजीवन सदस्योंका चंदा छोड़कर) -. ४०४२%) व्यय विज्ञानके लिए-- प्रतिमास्त २४ पृष्ठोकी ५०० पतियाँ छुपने पर --- १] रीम कागज 3८) ३ फरमोंकी छपाई ओर बधाई &७) प्रृप दिखाई ६) ब्लाक ३०) - सम्पादनके लिये पुस्तकें, पत्रिकाएं, आदि १०) सहायक सम्पादक २०) डाक ध्यय वी० पी० आदिके लिये १२) इक्केका किराया १) स्टेशनरी ४ १) क्लाक (एक तिहाई वेतन) ८ )७ चपरासी. .,, 5) माध्तिक ख्च १६६“ /४५ वार्षिक २०३२) अ्रन्य मासिक खर्च । -- विज्ञान, फरंवरी, १६४४ /१७४. प ०. 4 84$ ३०) स्टेशनरी पैकिंग आदिके लिये... ४) डाक व्यथ हर २२) इक्का, तांगा, ठेला आदि ३) रेल भाड़ा आदि ु १। ) साइकिलकी मरम्मत चुन्नी आदि २॥) इंसीडेटेल चाज॑ तथा चेककी भुनाई १) दफ़्तर ओर गोदामका किया १७) क्लार्कका वेतन दो तिहाई १६॥ #)८ चपरासीका वेतन दे। तिद्दाई १२) अन्य मासिक खर्च का योग १०४॥८)८ वार्षिक खच १०३॥१)८ ५८ १२७ १३१६) . व्यय अन्य वार्षिक खत ह जिल्द बंधाई ४००) डिगरी इजरा कराने में खर्च १९४) स्थायी कोष को ऋण चुकाना ६००) नयी पुस्तकोंके लिए कागज ओर छपाई का खर्च १७६८) “0 २) “विज्ञान के प्रधान सम्पादुक डा० गोरखग्रसादजीने . इस वर्ष अस्वस्थ होते हुए भी विज्ञानके सम्पादन तथा पुस्तकोंके प्रकाशनके लिए बहुत परिश्रम किया है जिसके लिए हम उन्हें हृदयसे धन्यवाद देते हैं।" अन्तमें हम परिषद के सभापति प्रो० सालिगराम भाग॑ंव, कोषाध्यक्ष डा[० रामदास तिवारी तथा आयबध्यय परीक्षक ढ० सत्य- प्रकाशकों धन्यवाद देते हैं जिनके सहयोगसे विज्ञान परिषद्‌ का काम सरलता पूर्वक चलता रहा। आशा है कि भक्ष्यमें भी परिषदके लिए ऐसी सहायता मिलती रहेगी । ह महाबीरप्रसाद श्रीवास्तव , » प्रधान मंत्री कार्तिकी पूरणिमा, ३१ अक्टूबर १९४४ ई० मुद्रक तथा प्रकाशक - विश्वप्रकाश, कल्ला प्रेस, प्रयाग । €भ बीमांरीम--अतिचिन्तावस्थां ( &75607 86866 ), हिस्टिरिया ( [49800778 ). विक्ृत मानसिक प्रवृत्ति (060 0फ98689ाफ760. 607एप्रो8ंए6 ग6प< 70868 ) और मानसिक-धथकावट ( पि७४०७४४॥6- 779) का बोध होता है। मानसिक-कष्ट (6770868) से पीड़ित व्यक्तिको इच्छा हेती है कि वह अपने भज़ेकी दवा करावे किन्तु पागल ( 708700॥08 ) यह सम- भेता ही नहीं कि वह बीमार है. अथवा इलाजकी आवश्य- कता है। पागलपनके भी अनेक भेद हैं, जैसे उन्माद ()॥ 8770-06]076987ए6 9870॥088), आन्‍्तरिक शून्यता ( [7ए0]00009)॥ 70]870॥0]॥9 ), इत्यादि । चिकित्पा--मनका प्रभाव शरीर पर बहुत हे। विज्ञान विज्ञान-परिषद्‌, प्रयागका सुख-पत्र विज्ञानं त्रह्मेति व्यजानात्‌, विज्ञानाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते-। विज्ञानेन जातानि जीवन्ति, विज्ञानं प्रयन्त्य मिसंविशन्तीति ॥ तै० उ० ।शे।ण। ते ३३६7६ % ३६६ 2६26%: + ने प्लेट के ज 2 4 6) न व ३६) ने्नॉप्केनॉप्फ मोन, सम्वत्‌ २००२ » भाग ६० कि | संख्या ९ मार्च १६४४ ५ 2204 277 2740 27/72/2227; 4:77 77:::; 27; ;:; ;ै४ 3: 2 5४ 0 ४0 ४ ५४४50 | मनोवैज्ञानिक चिकित्सा : ( 7870॥0-7978]009 ) [ डाक्टर बद्रीनाराशण प्रसाद, प्रोफेसर, मेडिकल कॉलेज, पटना | ए8ए7000868 और 7?8ए70॥076प्रा'0868 या 776770808--यह चिकित्सा प्रायः मानप्षिक-कष्ट ( 90970076प्रा'ठ88 07 76प्रा/088 ) को दूर करनेके लिए प्रयोग की जाती है। आजकल्ष मस्तिष्क , विकार :( (०7709) 08859868 ) दो मुख्य भागेंमें बाँटा गया है--(क) मानसिक-कष्ट (7607'0808) और (ख) प्रल्लाप या पागलपन ( ?870॥0868 ) मानसिक-कष्ट (ए6ए७7०086७) में मनुष्यमें व्यक्तित्व- का ज्ञान वतंमान रहता है । इस रोगमें मानसिक अन्यसनस्क-अवस्था भिन्न-भिन्न श्रेणीकी पाई जाती है तथापि यह रोगी अ्रपनी स्थितिके ज्ञानसे परिचित रहता है। इसके विपरीत पागलपन *( ])870॥0868 ) में रोगी अपनी असली स्थितिसे शून्य रहता है। इस बीमारीमें मनुष्यका आत्म-ज्ञान पूणतया विकृत हो जाता है ओर उसके प्रत्येक काय्यसे यह बोध होता रहता है कि इस मनुष्यका दिमाग खराब है। मानसिक-कश्टकी मनुष्य जब बहुत ढर जाता है उस समय हृदयकी गति तीत्र हो जाती है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं | परीक्षाके समय विद्यार्थीकी शीघ्र २ पेशाबकी हाजत होती है। यह शरीर पर मस्तिष्कका प्रभावके उदाहरण है। कितनी ही बीमारियेर्मे खास डाक्टर पर विश्वास था किसी खास ओषधि पर विश्वास होनेसे लाभ शीघ्र पाया गया है। यह भी शरीर पर मस्तिष्क का प्रभावका उदाहरण है । मनुष्यके दिमागर्मे चेतन विचारके साथ अचेतन विचारकी तरंग भी चलती रहती है । इस अचेतन तरंग का प्रभाव शरीर पर बड़ा ज़बरदस्त होता है। इस प्रकार की बीमारीमें पहले केवल दुवा दी जाती थी किन्तु आधुनिक समयमें दवाके साथ-साथ मनोवैज्ञानिक चिकित्सा का प्रयोग किया जाता है । इस प्रकारके इलाजका एक साधारण उदाहरण यह॑ है-- रोगी श्रपने स्वास्थ्यके विषयमें ढाक्टरसे निर्भयरूपसे बातें करता है। डाक्टर बीमारीके लक्षणोंको उस रोगी को अच्छी तरह समभाता है। इसी समय डाक्टर विश्वास दिलाता है कि इन लक्षणोंसे कोई गूढ़ बीमारी प्रग्॑ नहीं होती है, ओर रोगी जिस कारणसे भयभीत है वह बिलकुल निमूल है। इस प्रकाकी बातचीत ओर आश्वासनसे बीमारी दूर हो जाती है। कभी कभी डाक्टरके विशेष ज़ोर देकर कौम कराना पड़ता है ओर एक बार सफक्ता श्राप्त होनेसे ही वह बीसारी दूर हि ११८ हो जाती है। एक घास्तविक उदाहरण यह है। एक शरीरसे बलवान घ्रुवक, जिसकी शादी हुये कुछ ही महीने हुये थे, सदा इस बातसे खिज्न रहता था कि वह अपने को दाम्पत्य फार्योमें बहुत कमजोर पाता था। सत्री भी बहुत सुन्दर और स्वस्थ थी। यह युवक जब डाक्टरसे मिला तब उस ढडाक्टरने उसे अपनाया और बाततंसे अपने विश्वांसमें ले लिया । फिर प्रता लगा कि चह युवक पहले हस्तमैथुनकी आदतर्मे फंसा था। उसके” साथियोंने बताया था कि इस आदतसे स्तंभन-शक्ति कमजओर हो जाती है। इसी प्रकारकी बेसरपेरकी बातें उसने पेटेन्ट दुवाश्रोंके विज्ञापनमिं भी पढ़ी थीं। अचेतन ज्ञान शक्तिपर इस बातका बढ़ा प्रभाव बुरा पढ़ा था जिससे वह युवक दाम्पत्य कार्योके समय बिलकुल डर जाता था ओर. इसीलिये यह कमजोरी थी। डाक्टरके विश्वास दिलाने पर और बहुत आश्वासन देने पर उसका डर कुछु घटा। फिर वह अपने कारमोंमें सफल हुआ ओर आश्वासन दिलानेके बांद भय दूर होते ही उसकी कल्पित बीमारी भी जाती रहो । मनोविश्लेषण. ([0870]0-979]ए878). का प्रयोग मानसिक कष्ट (677'0868) में बहुत लाभ पहुँचाता है। इस क्रिया रोगीको आज्ञादी दी जाती है कि चह अपना विचार पूर्णहपसे प्रकट करे । इस प्रकार का विचार प्रगट करना शिक्षितों से ही हो सकता है श्र इसीलिये यह चिकित्सा .शिक्षितोंके ही लिये लागू है। _ जब रोगी अपना विचार प्रग्ट करता रहता है तब डाक्टर उसका ग़ोरसे सुनता है। बीच बीचमें डाक्टर रोगीका विश्वास दिलाता जाता है जिसमें रोगी स्वतंत्र भावसे अपने विचारोंकों प्रटट करता जाय | इन बातमे डाक्टरकों विशेष ध्यान इस बात पर देना पड़ता है कि रोगी अपने घटना चक्रकी किसी बातकों कहाँ छिपाना चाहता है। यह मनोविडज्लेषण क्रिया कभी कभी बहुत समय लेती है |-महीतों इसमें समय लगाना पदता है । अस्मन्पभावब ( 3200-5878268007 )-- प्रभावित होने वाला व्यक्ति, सनोपैज्ञानिक-चिकित्सासे बहुत लाभ उडाता है । प्रभावितता ( 808808- विज्ञाम, माय, ९६४४ [माग ६० 67]09 ) होनेसे तात्ययं यह है कि व्यक्ति किसी बातकों विश्वाससे और बिना किसी तक-वितर्कके मान लेता है। इससे साफ पता चलता है कि वह उस मान- सिक अवस्थामें जिसमें न्याय और तकका आगमन नहीं हुआ है, विशेष प्रभावित होगा। ऐसी अ्रवस्था कम उमरवाले ओर दिमागसे कमजोर ध्यक्तियोंमें पाई जाती है। प्रभावित होने घाला व्यक्ति कभी-कभी 'आत्म-प्रभाव चिकित्सा' से खूब ज्ञाभ उठाता है| इस चिकित्सामें रोगी- को बगेर किसी तर्कके कोई ख़ास बताई बाते माननी ओर करनी पड़ती हैं ओर उसे कुछ भी अवकाश नहीं दिया जाता है कि वह स्वयं समझ जाय कि यह बनाया मंत्र त्रलकुल गलत है। इसके बाद उस बताये मंत्रके विपरीत मंत्र बताया ओर कराया जाता है। समझ अपने-आप उत्पन्न होने पर मस्तिष्कमें प्रोढ्ता आजाती हे ओर उसका रोग दूर हो जाता है। कये ( (१006 ) साहबकी आत्मत्प्रभाव चिकित्साका ब्योरा यह है- व्यक्ति- को आदेश दिया जाता है कि वह किसी एकान्त स्थान में एक हाथंकों दूसरे हाथसे जोरसे पकड़कर बैठ जाय ओर बिना कुछ भी रुके कहता रहे कि 'में अपने हार्थोको नहीं छुड्टा सकता' | कुछ ही देर बाद वह व्यक्ति कहना चाहेगा कि 'यह बिलकुल गलत है! | किन्तु यह अवस्था जब तक न आवबे तब तब वह व्यक्ति एक शक्तिहीन अवस्था अनुभव करता है। यह अवस्था बिल्कुल दूर तभी होगी जब वह २०-३० बार यह कहे कि “अब में अपने हाथोंको छुटा सकता हूँ ।' -इिलटम+कबवा००, फिवरसप्रशााप/+ पपपजलयाक्रमाकट पारिभाविक शब्दावली (२)* ( ४० ब्रजमोहन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ) पारिभाषिक शब्द जहाँ तक हो सके सरल ओर छोटे होने चाहिये। गणितकी पुरानी पुरतकेमें $+]8- 07७7) को प्रमेयोपपाद्य ओर 9700]977 को निर्मे- १8४४, में निकल चुका है । ३८ तन मनन 3 छा 8 ासुमुचुमुनुुत लुक अल ना अब ४ आरा ।भभााभाभऊएएऊघसधछछछाआआआ॥आआ॥॥॥0॥७८७/८एशशश/शशशशरा॥-७एाा अपहिला लेख विज्ञान भाग ६० संख्या ४, जनवरी संख्या ६ | पारिभाषि इऋ शब्दाब ली ११६ निधन ललिनकि नम लिम लक मन ड नल शकक कक डिश नन कल शिकिलिनविशि डिक लक किवनिफफफकललिलिलिरिक रजनी अ डक कल अल लक कक लक लक के ० » का बल नकल कल जज कल कल अजीत 3 ्चमुनभलुु इन ३ााा४ाएएएणएए। योपपाद्य कहते थे। यह नाम इतने बड़े थे कि किसी समयमें भी इनका चालू होना कठिन था। इन्हीं शब्दोंके संतिप्त रू अमेय” और “निर्मेय'ं आजकल गणितकी समस्त पुस्तकंमें प्रचल्चित हो गये हैं। ]0778॥7 ओर 0ए7"87770 के लिये अभी तक गणितकी पुस्तकें पमपाश्व' ओर “त्रिपाश्व!--शब्दोंका उपयोग हो रहा है । इन नामोंका उच्चारण कठिन है। यह आवश्यक है कि इनके नाम बदल्ले जाय॑ । यदि इस 'समपाक्वं के स्थान पर 'समकोर' कहें तो क्या हज दै ? 'समकोर! का तात्पर्य एक ऐसे ठोससे है जिसके कोर' (708७8) बराबर हों । अतः 'समकोर' से ए078॥7 का ही मतलब - निकलेगा । 0५7'87770 के किये अरबी नाम 'हरम' है। जब इतना सरक्ष और छोटा नाम मिक्ष रहा है तो इसे क्यों न अपना लिया जाय ? 8 9[070 577 8607 का पुराना पर्याय 'सन्निकटीकरण' बहुत कर्ण-कटट लगता है। मेरे विचारमें इस शब्दके लिग्रे 'उपनयन” कहें तो बहुत उप्युक्त होगा । कुछ सजनोंका मत है कि हमें समस्त अंग्रेजी शब्दों का यथा तथा शब्दानुवाद कर देना चाहिये, शब्दोके अथ पर बिलकुल ध्यान नहीं देना चाहिये। ऐसी नीति तनिक भी युक्ति-संगत न होगी। (08[0प्रोप8 का वास्तविक अर्थ कंकड़ है। तो क्‍या आज हम 00)#607.0877/889) (09]0प्रपर8 को “चलन कल्लन' न कह कर “आन्तरिक कंकड!' कहें £ ऑडिटर (&७०॥॥०॥) का शाब्दिक अर्थ है 'खुनने वाला! | अनुमानसे कह सकते हैं कि आरस्भमें ऑडिटर किसी संस्थाके भिन्न-भिन्न कर्मचारियोंसे एक दूसरेकी शिकायतें सुना करता होगा। परन्तु आज इसका काम केवल आय-वब्यय परीक्षण ही रह गया है। इसीलिये भिन्न भिन्न ' संस्थाओंमें ऑडिटर का पर्याय “निरीक्षक या आय- व्यय परीक्षक” रक़्खा जाता है। यदि हम “इसको' सुनक' कहना चाहें तो कहाँ तक उचित होगा ? स्पष्ट है कि पारिभाषिक शब्द बनानेमे अथ पर ही विशेष रूपसे ध्यान देना होगा। (व्चु अक्ष) (५१॥+79)) का शाब्िदक अर्थ है “वास्तविक । अतः हम गणितमें वचचु अल वक्क (पत+प्8) ७४०7४) का शाब्दिक झनुबाद वास्तविक कार्य! कर सकते हैं। परन्तु आधुनिक गणितमें इसका अर्थ 'वचु'झल' का बिल्नकुल्न उस्टा है। क्सु अज्न! वर्क उस कार्य” को कहते हैं जो देखनेमें वास्तविक-सा प्रतीत हो परस्तु यथार्थमें केवल कार्पनिक हो भ्रतः 'वचु अ्रत्न वर्क! को 'वास्तविक कार्य! के बदले आभास कार्य! कहना होगा | इसके विपरीत कुछ लोग दूसरे ही छोर पर पहुँच जाते हैं। वह चाहते हैं कि पर्यायवाची शब्दमें अ्र्थका इतना समावेश हो कि शब्दकी सारी परिभाषा उससे स्पष्ट हो जाय । 09879)]0)09]/080 का पुराना नाम है 'समानान्तर अष्टफलक' | इस नामसे ठोसकी परिभाषा तो बिलकुल स्पष्ट हो गई--'ऐसा ठोस जिसमें आठ फलक (8058) हों और सम्मुख फल्लक समानान्‍्तर हों। परन्तु क्‍या वास्तवमें इस गाड़ी भरे नाम-- समानान्तर अष्टफक्षक--के त्रिना काम नहीं चत्ध सकता: इस सम्बन्धर्मे अपने तीन चार प्रस्तावित नाम में यहाँ देता हूँ इलल+ मे अंग्रेजी नाम पुराना नाम मेरा प्रस्तावितत नाम 9978 ।60 समानान्‍्तर. समानाभुज 27'87] चतुभु ज ४0779 प08.. सम चतुभुज॒ समसभुज प+9]002प007). समलस्ब समलस्भुज चतु भुज ु 097'8, | 8 | 0ल्‍« समानान्तर समानाफलक 07960 अष्टफलक | दो वृत्तोकी 'रेडिकल ऐक्सिस' (]१8५॥09) & 58) का यद्द गुण है कि यदि उसके किसी बिन्‍्दुसे दोनों वृत्तोंको स्पर्शी खींचे जाय॑तो वह आपसमें बराबर होंगे | इसीलिये नागरी प्रचारिणी सभाकी शब्दावल्ीमें इसका पर्याय समस्पर्शाक्ष। दिया हे । इस नाममें 'रेडि- कल ऐक्सिस' की सारी परिभाषा निहित है परन्तु इतने बड़े शब्द तो तभी बनाये जाय॑ जब छोटे शब्द बन न सकें । हम अपनी शब्दावली इस प्रकार क्यों न बनायें ! 700+ मुझ | 8905089)] 987 मौक्ष चिन्ह 7१94॥09] 38 ह8 मौकाक्त १९० 99009] ()0007'.08 .., मौल केन्द्र : पाठक कहेंगे कि यहाँ शब्दानुवाद क्यों किया, श्र्था- नुवाद क्‍यों नहीं किया ? बात यह है कि शब्दावलीका प्रधान नियम यह होना चाहिये कि शब्द सरल्न श्रोर छोटे बन । शेष सब सिद्धान्त इस नियम पर बल्निदान हो सकते हैं । इस नियमका उह्लंघन तभी करना चाहिये . जब अर्थका अनर्थ होता हो या किसी अ्रन्य कारणसे सरल और छोटा” शब्द श्रनुपयुक्त प्रतीत होता हो। ऑटडिटरको 'सुनका कहनेमें अर्थका अनर्थ होता है, रैडिकल ऐक्प्तिसको 'मोलाक्ष” कहनेमें अर्थथा अनर्थ नहीं होता । मेरे मित्र ढा० राजनाथ& ने मुझे भूगभभविद्याके दो बहुत ही सुन्दर शब्द बताये हैं। कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई नदी अपने पथमें एक अधे-वृत्त बनाती हुई चलती है। कुछ वर्ष पश्चात्‌ वह अध-बृत्ताकार पथ को छोड़कर सरत् रेखामें चलने लगती है। इस प्रकार छोड़े हुये अ्रध-वृत्तको भूगभेकी अंग्रेज़ी शब्दावलीमें ऑक्स-बो लाइन! (05-00ए 7706) कहते हैं। ग्रामीणोर्मे इसका नाम छाड़न! है। दूसरा शब्द है ५४$7'0877]]077। पहाड़ी क्ञोग इसको 'डोरा' कहते हैं। 8००7७) ४0768977]008 78970 8 8607'68777? का अनुवाद होगा--'कई डोरोंके मिलनेसे एक नाला बनता है।' 'छाड़न' ओर 'डोरा!--कितने सरल, छोटे ओर उपयुक्त शब्द है। भूगर्भकी हिन्दी शब्दावलीमें क्‍यों न इन दोनों शब्दोंको ज्योंका त्यों अपना लिया जाय ? अंग्रेजीमं बहुतसे पारिभाषिक शब्द ऐसे हैं जो संज्ञा ओर विशेषण दोनोंका कार्य करते हैं। ऐसे शब्दोंके लिये हिन्दीमें दो प्धक-एथक पर्याय बनानेकी कोई आव- श्यकतां नहीं । एक ही शब्द्से काम चल सकता है । दो एक उदाहरणों पर विचार कर लीजिये : ( $ ) ५७४४ ०]० (विशेषण) ++ चल :-- 3 48 8 0674679868 धुप७70+फ री ल अमनिक किक ओके आकर रट 7352 * विवि किक, #काशी हिन्दू विश्वविद्यालयके भूगर्भ ((४००]08ए) विभागके अध्यक्ष । “ विज्ञान, माच, १६४४ [ भाग ६० - य! पक चत्न राशि है। ५ए०७7४४७०)6 (संशा)- चल : धतर०णछ 797पए 0०१४०068 97'8 ॥07'6 ]7 $76 80७०४0॥ ? + समीकरणमें कितने चल हैं? ( २ ) 80१0 (विशेषण) -- ठोस 3 8070 870॥076 709$8 +47# ए9067' -- एक ठोस गोला पानीमें तैरता है। 80]0 (संज्ञा) > ठोस : 80]768 07 छ6ए०]प्४०४ 876 70[ . ॥77'66 708 ह “ परिक्रम ठोस तीन प्रकारके होते हैं। भाषामें यथाशक्ति सरलता लानेका उद्योग करना चाहिये । कुछ लेखक संज्ञा ओर विशेषणमें सर्वथा अंतर करना चाहते हैं। उपरिलिखित जिन दोनों वाक्योंमे शब्द संज्ञाके रूपमें आये हैं, उनके अनुवाद वे इस प्रकार करेगे समीकरणमें कितनी चलराशियां हैं? परिक्रम ठे।सपिण्ड तीन प्रकारके होते हैं । परन्तु यह अनुवाद ए०४॥४५७०]०७ (209070ए ओर 80!0 ४७०0ए का हुआ, ४७॥79७0'6 और 80]व का नहीं हुआ | वास्तविक अनुवाद करनेके दिये धल' ओर “चतल्न राशि! के अतिरिक्त एक तीसरा शब्रद ए०७780]6 (संज्ञा) के लिये बनाना पढ़ेगा। इसी प्रकार 'ठोश्च! ओर “ठोस पिण्ड” के अतिरिक्त एक तीसरा शब्द 50]0 (संज्ञा) के लिये बनाना पड़ेगा। परन्तु इतनी छानबीनकी क्या आवश्यकता है ? अंग्रेजीमें कम : से कम पारिभाषिक भाषार्में एक हो शब्द अबाध्य रूप से संज्ञा ओर विशेषण दोनोंका काम करता है। डसी प्रकार हम भी हिन्दीमें, कमसे कम पारिभाषिक विषयों की भाषामें, दोनोंका काम एक ही शब्द्से क्यों न निकाल [ शेष प्रष्ठ १३७ पर] सरल विज्ञान सागर अपनी योजनाके अनुसार हम सरल्ष विज्ञान सागरका एक ओर अंश यहाँ देते हैं । संरुया ६ | यह ग॒न्थ ज्योतिषक्के विद्याथियों, इतिहासशों, पुरातत्व के श्रस्वेषककों श्रोर अदाल्वतोंके लिये कितना उपयोगी हे इसका वर्णन नहीं किया जा स्रकता। इसके विद्वान लेखकका देद्ावध्ान अभी ढ्वाज द्वीमें हुआ है । ज्ञाला छाटेतातल आपका जर्स कब ओर कहाँ हुआ था यह नहीं जात हो सका । आप एक सुयोग्य इओ्जीनियर थे । जहाँ तक याद पढ़ता है दो तीर वर्य हुए जब आपका देहाव- सान हुआ। ज्यातिवदेदाज पर आपने अंभ्रेजीमें एक सुन्दर भाष्य लिखा है जों १६०६-७ के हिन्दुस्तान रिविडमें प्रकाशित हुआ था । इसकी चर्चा वेदाड्शज्योतिषके संबंध में आ चुकी है। उससे प्रकट होता है कि आपने भारतीय ज्योतिषका अच्छा अध्ययन किया था ओर इसके साथ यूनान, मिश्र, बेंबिलन आदिके प्राचीन ज्योतिषका भी तुलनात्मक अध्ययन किया था। आपने वंदाइज्योंतिपके कई श्लोकोका अर्थ बड़ी विद्वत्ता पूर्वक किया है ओर अपना उपनाम 'बाहस्पत्य' रखा था। दुर्गांतसाद द्विवेदी . आपका जन्म संवतद १६२० (शक १७८४) सें श्रयो- ध्यासे ् कोस पच्छिम परिढत पुरी गाँवमें हुआ था । आप जयपुरके संस्कृत पाठशाज्ञाके अ्रध्यद् बहुत दिन तक रहे ओर अपनी विद्वत्ताके लिए महासद्वोपाध्यायकी पदुची प्राप्त की ! ह भास्कराचारयंकी लीलावती और बीजगणित पर आपने संस्कृत ओर हिन्दीमें डपपक्िति सहित दीका ओर सिद्धान्वशिरोमणिका प्राचीन और नवीन विचारोंसे चूर्ण उपपत्तन्दुशेखर चामक भाष्य लिखा है। चापीय ब्रि- कोणमिति, देश्नमिति, सूर्नश्निद्धान्ललमीकञा, अधिमास परीक्षा, पद्चाह् तत्व नामक पुस्तक ओर पुस्तिकाएँ भी आपने लिखी हैं। जेमिनिप्माझ्तत नामक जैमिनि सूत्रका पद्याचुवाद॒ सरस इन्दमि उदाहरण सहित किया है। ब्योतिषके ध्षिवा दर्शन ओर साहित्यमें भी आपने ग्रन्ध लिखे हैं । श्रापका देहावसान सं० १६६४ में हुआ | . > वीनानाथ शाख्री चुलेट आप घुक अद्वितीय ज्योतिषी हैं, और वेदोंके म्मज्ञ भी । आपने वेदोंके अध्ययनसे यह्द निस्कर्ष निकाला है कि बहुते दीनानाथ शाब्ो चुलैट १२१ से मन्द्रमिं गणित और ज्योतिष संबंधी बातें हैं । आपने कई ग्रन्थ लिखे हैं जितमें वेदकाज्न निाय और प्रभा- कर प्रिद्धान्त सुख्य हैं । वेदकाल निर्णय-- इस अन्थमें चुलेटजीने यद् सिद्ध किया है कि वेदोंका समय केबल छुः या साढ़े छः हजार वर्ष ही पुराना नहीं है. जैझा लोकमान्य तिज्ञकने अपने ओरायम' अन्थर्मे खिछ किया हैं वरनू इनके कुछ मन्न्रोंसे सूचित होता हैं कि यह ल्ार्खा वर्ष पुराने हैं। लोकमान्य तिलकजीने तो भगवद्ूगीताके 'मासानां मार्गशीषो5हम' से केवल यही सिद्धू किया ओर बड़ी कठिनताले कि मार्ग शीर्ष पहला मांस इस लिए समभ्या जाता था कि ६ हजार वष पहले इसी नामके मक्तन्नमें अर्थात झुगशिरा नक्न्नर्मे वसंत संपात होता था। परन्तु चुलैटजीने इसके प्रतिकूल यह सिद्ध किया हैं कि झुगशिरा नहश्नमें नहीं वरन्‌ मार्ग शीर्ष मासमें ही बसंत का आरंभ होता था अर्थात उस समय अनुराधा या ज्येष्ठा नक्षत्रमे वसंत संपात था इस प्रकार वह समय था १८००० वर्ष पुराना | इश्री प्रकार कात्यायन श्रोतसूत्रके भाष्यकार कर्काचार्य के उद्धरणोेसे आप घिछ करते हैं कि उनके समयमें वसंत संपात चित्रा ओर स्वाती नक्षत्रोके बीचमें था इसलिए कर्काचाय का समय चोदृह, पन्‍्द्रद्द हजार वर्ष प्राचीन है | इल पुस्तकमें आप भूगभावज्ञानके अनेक चित्र देकर यह स्लिद्ध करते हूँ कि संस्कृत साहित्यमें वणित जन प्रद्षयों ओर भूगर्म विज्ञानके विविध काल्नों (७०००|८) में कितना सामअस्य है । पुस्तक अश्रदूभुत हैँ ओर हिन्दी भाषामें लिखी गयी है। भाषा सरक्ष भर शुद्ध नहीं है इसलिए पढ़ने वाह्नोंको कुछ कठिनाई पढ़ती है । प्रभाकरधिद्धान्त--इ सम महल्ाघवर्क मुज्ञांकोमे अर्वांचीन ज्योतिषके आधार पर बीजसंस्कार देकर ग्ह्ढों की शुरू गणना करनेकी रीति बहुत सुगम कर दी गयी है। इसीके आधार पर शाख्री जी पढले प्रभाकर पद्च कु बनाते थे जिक्षमें ऐसा उपाय किया गया था कि वह सारे भारतवर्षमें काम दे सके | इसकी एक प्रति ्गभग २५ वर्ष हुए मुझे भी देखनेको मित्नी थी जिसमें ल्ोकमाम्य तिक्रक आदिके भी प्रशंसापत्र थे! इसीके आधारपर बनाया हुआ भारतर्बिज्य पतद्चाज्ञ इन्दोरके ज्योतिष १२२ विज्ञान, माच, १६४५ [सांग ६० सम्मेज्ञनकके बादु जिसका आयोजन आपने ही इन्दौर सरकार की सहायतासे ज्गभग & वर्ष हुए किया था संवत १88९ में प्रकाशित किया था। इस पद्चागर्मे भी इतनी सामग्री मर दी गयी है छि यह एक उपयोगी ग्रन्थ ला हो गया दे क््यांकि प्रन्थाकार छुपा भी है। इसे मेंते अपने पास बड़ी साववानीसे रखा हैं । इन्दीरके उ्रातिय सम्मेलनकी र्पोर्ट भी एक बुहदा- कार ग्रन्थ है जिसमें र्गणनाके पत्ष ओर विपज्ञ दोनों ओर की बातें रखकर सिद्ध किया है कि द्गणशना ही उचित है | शाल्यीजीके ्रवीन निमक्रषों' पर वेदके बिद्वार्नोको ध्यानसे विचार करनेकी आवश्यकता है। परन्तु जाव पढ़ता हैँ कि इस पर अभी तक उतना ध्यान नहीं दिया गया जित- देना चाहिए । गाविनद सदाशिव आप आपका जन्म शक्कर १७६९ ( १८७० ईूँ० ) में महा - राष्ट्र प्रान्तमें हुआ था। आप गणितके प्रोफेसर रहे हैं ओर रिटायर होने पर उज्जैनकी वेघशालाके अ्रधान बहुत दिन तक रहे अ्रभी तीन चार वर्ष हुए जब आपका देद्दाव- सान हुआ। आपने शक १८९३ ( १६२६ ई० ) में सर्वानन्द करण नामक ज्योतिप गन्‍्थकी रचना अखिद्ध प्रहक्लाघत्के ढंग पर की हैं। इसके पूथ खंडमें कुल ११ अधिकार है जिनमें सूर्य, चन्द्रमा और ग्रहोंकी गणना करनेकी सरत्ञ रीतियां बतल्ायी गयी है। चंद्रमा केवल पाँच संस्कार करनेको कहा गया है | इस मग्न्‍्थकी विशेषता यह हे कि इससे अड्डे जो भोगाश आते हैं वह सायत होते हैं | सावयनसे विरयण बनानेके लिए अयनाश घटा देना पढ़ता है। जो अपने अपने सतके अनुसार ग्रहण किया जा सकता हैं| इसलिए यह पुस्तक प्रस्येक पक्के लिए उपयोगी हो सकती है । इस संबंधर्म आप केतकरके चिन्नापतके प्रबन्न विरोधी हैं। आपने एक अंग्रेजी पुस्तिका में कई प्रमायोसे सिद्ध किया है फ्लि भारतीय राशिचक्रका आदि स्थान वह नहीं है जहसे चित्रा तारा डाक १८७. अंश पर है वरन्‌ रेवती नक्षत्रका ज़ीटा पिसियम तारा है ज्ञिसके अनुसार अ्यर्नाश खगसग ४ अंश कम उहरता है । आपके इस सतके समथक महाराष्ट्रमें कई विद्वान हैं। इस पके अनुसार वहां कई पंचाग भी बनते हैं | चित्रा और रेधती पतके पंचागोंमे सज्षमासके संबंधर्म बहुत भिन्नता रहती है जिसके कारण पर्वो और व्थवह्यारोंके निश्चय करने में वहां बहुत गइबढ़ रहती है। इस खंडमें एक उपकरणाधिकार है जिसमें चन्द्रमाकी सूचमगति निकालनेकी भी राति बतज्ायी गयी है। इससे चन्द्रप्रदण और सूर्ममहणका घखसय सूचमतापूर्वक बतलाया जा सकता है । सूर्यातिक्रमणात्रिकारम यह बतलाया गया है फि छुतर और शुक्र सुर्यके विम्बका बेध कब करते हैं । इस खंड के परिशिष्टमें आपने दस दूस कल्षा ओके भ्ुजक्या, कटिब्या आर स्पर्शब्याकी सारणी दी है जिसमें जिक्या १०००० मानी गयी है । ह ु उत्तर खंडमें आपने पहले दशमलब शिज्ञके गुणा भाग की रीति बतक्काकर नवीन शैहिसे अहगणशना करनेकी विधि लिखी है जिससे ब्रिकोशमिति, और गोक्षीय त्िकोश मितिके अनुसार गणना करनेकी रीति बतलायी गयी है क्योंकि यदह्व उन्हींको प्रिय हो सकता हैं जो उच्च गशितका ज्ञान रखते हैं । इसलिए इस खंड का मास पढ़ रंजन रखा है । द इसमें स्रोरायतिथि साधन, सुच्म सहछत्रानयम, तिथि तारिखानबन और उपपत्तिकथन नामक अ्रध्यात बहुत महावके हैं । ह यह अन्थ उज्जेनमें लित्ना गया था जिसकी बेधशाला का आपने फिर से उद्धार किया ई। रघुबीरदत्त आपका जन्स शहर मिरजाएरसे कुछ दर अजु नपुर गाँवमें हुआ था। सिरजापुर निवासी पं« रामप्रताप व्योतिपीसे ज्ञात हुआ है कि 'सिडुखेटिका छुपनेके १० घर्ष बाद ६० घर्षकी अवत्थामें आपकी झत्यु हुई थी | इसलिए आपका जन्‍म शक १७४९२ के लगभग हुआ होगा । सिद्धखिटिका--यह मसकरंदरसारिणीके आधार पर बनायी गयी है जिसमें तिथि, नक्षन्र, योग तथा प्रहों का देविक बालन दिया गया है। इससे पंचाग बनानेसे बढ़ी सुविधा होती है। इसके सिवा आपने लंस सारिणी शूह पिंड सारणी और आयुर्वक्षकी विशुद्ध सारणी नामक छोदी संख्या ६ ] छोटी पुस्तिकाएं लिखी थीं जिनका उपयोग जन्मकुण्डली बनाने में किया जाता है| उदयनारायण मिंह झापके जन्म ओर झायुके समयकां कुछ पता नहीं है। आपके आयंभटीयके हिन्दी अनुवादसे जिसमें परमे- श्वराचार्यकी संस्कृत टीका सम्मिन्वित है प्रकट होता है कि आप बड़े उत्साही क्न्निय कुमार बिहार आान्तके मसुज़फ्फर पुर जिलेके मधुरापुरके रहने वाल्ले थे, जहांके शाश्रप्रकराश कार्यालयसे आपने गोतमीय न्यायशाख, सामवेदीय गोभिक्ष गृह्मसूत्र, सूयसिद्धान्त, पिज्ञक्सूत्रका सटीक अनुवाद प्रकाशित किया था झोर सिद्धान्तशिरोमण, झचित्न भारतवर्षीय प्राचीन भूनोल तथा सबंदशनसंग्रहको प्रकाशित करनेवाले थे । आनभटीय हिन्दी अनुवाद सब्ित संबत १६६३ (६० १६०३१) में छुपा था । इसलिए सूर्यसिद्धान्त का अनुवाद इससे पहले हुआ होगा । बहुत दिन हुए पंडित रामजीलाल शर्माकी कृपासे इसकी एक प्रति मुझे थोड़े दिनके लिए मिलती थी । - इसमें एक बड़ी भूमिकाके बाद सूर्य तिद्धान्तका हिन्दी अनुवाद किया गया है। चि्न नहीं हैं, इसलिए विषयके सममनेमें कठिनाई दोती है । आयभटीयमें भी एक बड़ी भूमिका है जिसमें समुद्र- मंथन, श्रीकृष्ण लीला, रासलोल!।, वस्त्रहरण, आदि पोरा- - खिक कथाओंकी आकाशके राशिचक्र, नत्षत्न-चक्र, सूर्य, चन्दसमा आदिका रूपझू सानां गया हैं। आय्यभदटीयके श्लोकके साथ परमेश्वरकी भटदीपिका टीका देकर केवल इसीका हिन्दी अचुवाद किया गया हैं। जिससे विषयका ज्ञान स्पष्ट नहीं होता । चित्र भी कहीं नहीं हैं इसलिए इस पुस्तक विषयका बोध अष्छी तरह नहीं होता । साधब पुराडित आप जयपुरके निवासी थे। आपने सूयस्थछान्तकी सौरदीपिका नामक संस्कृत टीका तथा भाषा-माष्य टोका लिखी हूँ जो नवलकिशोर ग्रेससे उपरोतिषाचार्य पं० मिरिज्ा प्रसाद द्विवेदीमी से संपादित होकर १६०४ ई० में प्रकाशित हुई थी। सोरदीपिकामें श्लोकोके अन्दयके अलुसार संस्कृत दीका लिखी है ओर उसीका अनुवाद हिन्दीमें किया है, डपपत्ति भी क़िखी हैं। पुस्तकके अन्तमें शुभ संदत १६६० सन्‌ ५९०३ ६० लिखा ह जिससे सिद्ध इन्द्रनारायण द्विवेदी ११६ द्ोता है कि भाषाभाष्य इसी धर्षा समाप्त किया गया था। आपके सूर्यासिद्धान्तमें ऐसे श्लोक भी दिये गये हैं जो अन्य प्रामाशिक अ्न्थोंमें नहीं मिलते । पता नहीं यह कहाँसे लिये गये थे ओर क्यों किये गये थे । स्वासो विज्ञमानब्द आपका नाम इरिप्रसक्त चट्टोपाध्याय था। डिस्ट्रिक्ट इंजीनियरके पदुसे रिटायर द्वोकर आप स्वामी रामकृष्ण परमहँफके बेलूर मठमें रइने छागे थे। सन्यास लेने पर आपका नाम विज्ञानानन्द होगया । प्रयागके रामकृष्ण मिशनके आश्रम पर बहुत दिन तक. रहकर आपने प्रयाग निवासियोकी अच्छी सेवा की। थोड़े दिन हुये झापका देहावसान ही गया। आपने सूर्यासिद्धान्त पर बंगलामें एक अच्छी टीका लिखी है जिसमें पहले श्लोकोका अनुवाद दिया गया हैं फिर उपपत्ति, उदाहरण ओर चिन्न देकर समझाया गया है। अस्त वेदाज व्योतिषका मूल ओर पाठान्तर देकर एक बड़े अध्यायमें भारतीय ज्योतिषका संत्तिघ्त विवरण दिया गया है। इसके बाद पाश्चाध्य ज्योतिष और ग्रीक ज्योतिष ( यवन ज्योतिष ) के भी संक्षिप, विवरण दिये गये हैं । इस पुस्तकके अध्ययनसे सूर्याप्िद्ध/न्तका अच्छा ज्ञान हो सकता हैं । यह टीका शक १८३९ (ई० १६०६ ) में कलकत्त में छुपी थी । इन्द्रनारायण द्विवेदी | आप गअयागके बुद्धिपुरी ( सराय आाकितल ) के रहने वाले थे ओर प्रयागमें ही रहकर ज्योतिषका कार्य करते थे। हिन्दी साहित्य-्प्म्मेज्षनके आप उत्साही सदस्य थे | आपने सूयसिद्धान्तका हिन्दी अनुवाद टिप्पणी सह्वित संवत १६७४ वि०्में लिखा था और साहित्य-्सम्मेक्षन ने उसे संबत १६७ ४में प्रकाशित किया था। इसकी भूमिका अच्छी है। अनुवाद भी साधारणतः ठीक है परस्तु चित्रोंके अभावसे यह पुम्तक ऊढदी समझकम नहीं आती । आपका विश्वास था कि सू्रसिद्धान्तका बिना बीज संस्कार किये ही उपयोग करना चाहिये शोर उस्ीसे -ब्रतोषबासादिके किये तिथिका निश्चय करना चाहिए । आपने सुमतिप्रकाशिका नामक एक पुस्तक और लिखी है जिम़में लिछ करनेको चेष्टा की है कि प्रृथ्वी नहीं १२४ चलती है सूर्य ही चलता है। यह पस्तक संवत्‌ १६६९४में प्रयागके राधवेन्त्र यन्त्रालयसे प्रकाशित हुई थी । सुमतिप्रकाशिकाके विज्ञापनसे पता चलता है कि आपने सूयसिद्धान्तके अनुसार पंचांग बनानेके लिए, सस्सिद्धान्तप्रकाशिका और पं्चांगप्रकाशिका नामक पुस्तक ओर लिखी थीं जो शायद प्रकाशित नहीं हुई हैं । घल्नरेशपफाल मिश्र आप मुरादाबादके रहने वाले थे ओर संवत १६३२ में सूयंसिदान्तका हिन्दी अनुवाद बम्बईके खेमरॉज श्री कृष्णदासके द्वारा प्रकाशित किया था | हिन्दी अनुवादमें कोई विशेषता नहीं है ओर कलकत्तेके विमल्ञाग्रसाद सिद्धा- न्तवागीशके बंगानुवादका अक्षर-अक्षर अनुवाद है। उप- _पत्तिका कहीं नाम नहीं है । इस अनुवादके साथ रंगनाथ की संस्कृत गृदार्थभकराशिका टीका भीदेदी गहरे है इस लिए इस संस्करणका कुछ मुल्य हो गया है अन्यथा इससे किसीका कोई काम नहीं निकल सकता । हरिशंकरप्रणाद लात झाप मिर्जापुर शहरसे लगे हुए बथुआ गाँवके निवासी कानूनगो थे । गणित और फलित दोनों विषयोके अच्छे ज्योतिषी थे। मिर्जापुर निवासी पं० रामप्रताप ज्योतिषी लिखते हैं कि आपने सकर॑दकी उपपत्तिका संशो- घन कर एक मकरंदसारिणी सोदाहरण तैयार की थी जिसमें एक ओर सुर्यसिद्धान्त और दूसरी ओर मकरन्दके अंक्ौोकी तुलनाकी थी। यह बड़े परिश्रमसे ६ भागे लिखी गई है ओर बम्बई, जबलपुर, बनारस, कानपुरके प्रकाशकॉको छुपानेके ल्विए भेजी गयी थी परन्तु विशेष व्ययके कारण किसीने प्रकाशित करना स्वीकार नहीं किया | दूसरी पुस्तकका नाम जन्म दिवाकर' है जो खेमराज श्री कृष्णदासके यहाँ डेढ़ व्ष से पड़ी हुई है । इसके लिए शायद मसुकदमेबाजी भी होने वाली है । लगभग दस वध हुए जब आपकी रूत्यु हो गयी । अाइारतजाल शपत्रा आपका जन्म संबत्‌ ३६०६ वि० ( ॥८४६ ई० ) में रतल्ाममें हुआ था । गशित ओर फरल्नित दोनों प्रकारके ज्यों तिषमें बड़े निपुण थे और राजपूताना तथा गुजरातके विज्ञान, मार्च, १६४५ [ आग ६० प्राय: सभी राज्योर्मे सम्मानित हुए थे। आपके लिखे ग्रन्थ हैं, प्ि छान्तप्रकाश भाग ९ ओर णम्द्धान्त- प्रकाश भाग २। पहली पुस्तक अहमदाबादमें संवत्‌ १६४० के छागभग लिखी गेयी थी । आप लिखते हैं कि इसको पढ़कर सामान्य मनुष्य भी ज्योतिषका अच्छा गणितश्ञ हो सकता है |” दुःख है कि यह पुस्तक मेरे देखनेम नहीं आयी । आप ग्रहों या तारों का बेध करनेमें भी बड़े निपुण थे, ऐसा आपके लिखने ओर प्रमाण पत्रोंसे जान पड़ता है। जिद्धान्तप्रकाश भाग २ यथाथरमे बड़े परिश्रमसे लिखा गया है। संस्कृतमें श्लोक देकर हिन्दीमें व्याख्या ओर उदाहरण दिये गये हैं । भाषा शुद्ध नहीं है । इसमें मध्यस ग्रहाध्याय, स्पष्ट अ्रहाध्याय, गिप्रश्नाध्याय, चन्द्र- प्रहणाध्याय, सुयग्रहणाध्याय छायाधिकाराध्याय, उदया- स्ताधिकाराध्याय, * अड्भोन्नत्यधिकाराध्याय, युत्यधिकारा- ध्याय, नज्ञत्नयुत्यधिकाराध्याय, भूगोज्लाध्याय, यन्त्राध्याया पाताध्याय, फल्निताध्याय और प्रश्नाध्याय, नामक अ्रध्याय हैं। इस पुस्तकमें सबसे बढ़ा गुण यह है कि सिद्धान्त- शिरोमणि ओर सूर्य सिद्धान्तके अनुसार मध्यमग्रह गणना करनेकी सारणियाँ दी गयी हैं जिनसे अहोकी वार्षिक, देनिक ओर घड़ी, पत्ष तककी गति सहज ही जानी जा सकती है | जहां तक हो सका है प्रत्येक अध्यायमें सार- शियां दी गयी हैं। क्षेपक संबत्‌ १८०८ के मध्यम मेष संक्रान्ति काक्चका दिया गया है ओर इसीकालको ग्रन्था- रंभकाल कहां गया है जो अमोप्पादक है क्योंकि ग्रन्थकतां- का जन्म हुआ १६०६ संवतमें, इस लिए इसे पहल्ले वह ग्रभ्थ कैसे लिख सकता है । इस अन्धकी साप.का संशोधन ओर सम्पादन ठीक ठंगसे किया गया होता तो इसमें सन्देह नहीं कि यह ज्योतिष अन्‍्थोर्म)ं विशेष स्थान पा जाता | इस दशा इसका विशेष प्रचार नहीं हुआ | पिछले दो अध्याय फलित ज्योतिषके हैं | इस अन्धमें ग्रन्थकर्ताकी सवंत्‌ १६६८ तककी जीवनी दी गयी है| इसके बाद यह किसने दिन तक और जीते रहे इसका पता नहीं । यह ग्रन्थ खं० १8६६ बि० में विदुलनाथ प्रेस कोटामें सुक्वित हुआ था । संख्या ६ ] उपसंहार १२४ ५++न-+ननन+«न ७ ननमन५कप५न प न बन नक+++नभ«पन्‍८भ«++«++»+०+२>८८+-०323......3......... 0. उपसंहार भारतीय ज्योतिष और ज्योतिषियोंके संबंधमें यहाँ तक जो कुछ लिखा गया है उसकी बहुत-ली सामग्री स० म० सुधाकर द्विवेदीजीकी गणक तरंगिणी और श्राचाय॑ शंकर बालकृष्ण दीक्षितके मराठी भारतीय ज्योतिषशाखसे ली गयी है इस लिए लेखक उनका बहुत आभारी है। इनमें आये हुए कुछ ज्योतिषियों ओर उनके ग्रन्थोकी चर्चो विस्तार भयसे छोड़ दी गयी थी जो नीचेकी ताल्निकार्मे दी जाती है--. | शचनाकातल *.. शकत ग्रन्थकर्ता |... ग्रन्थ विशेष है ७... >> ज बल्नभद्र ( ८८८ ? | कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। भटोत्पल ओर प्रथूदक । स्वामीकी टीकाश्रेंमं कुछ इ्लोकोंके अवतरण हैं । वरुण खण्डखाद्यककी टीका . ६६२ $ । इस टीकामें ६६२ शकके उदाहरण दशबल्न करणकमखच मसारत॑ण्ड '. ६८० : राजरूगाक्रोक्त वीजसंस्कृत ब्रह्म-सिद्धान्तर्के अनुसार 34 अर मर '. फरख ग्न्‍न्ध । 2 | करणोत्तम . $०३८! इसकी चर्चा महादेव कृत श्रीपतिरत्नमाल्ामें कहे बार .. झ्ायी है और ताजक सारमें भी एक श्लोक है । सोमेश्वर- | अमिलविता्थ चिंतामणि. . १०९१ .. अनेक विपयोका संग्रह जिसमें ज्योतिपका सी विषय ह (भूलोकमन्न)- मानसोह्लास । आर १०७८१ शकके चेपक हैं । | माधव सिद्धान्तचूडा मणि भास्कराचायके सिद्धान्तशिरोमणिमें उल्लेख हैँ परन्तु । पुस्तकका अब पता नहीं है । ब्रह्मा बीजगणित 3). भास्कराचायंके बीजगशितर्मे उल्लेख हैं परन्तु पस्तकका विष्णुदेैव्श | बीजगशित | अनसन्तदेवज्ञ | ब्राह्मसफुट सिद्धान्तके छू रथ्रित्यु- त्तर और बृहज्ञातक पर दीकाएं भोजराज ? | आदित्यप्रताप सिद्धान्त पता नहीं हैं । शक ११४४ के एक शिक्षा लेखसे ज्ञात श्रीपतिको रुनमालाकी महादेवी टीका (शक ११म२९) के ४ ' इसके कुछ ताक्योंका उक्लेख हैं और आफ्रेच सूचीमें इसके कर्ता भाजगजञ कहे गये हैं | ड़ जन _ॉि ऑधिभ++जक--मील लत करे बीयन नल 2 >ममन्य7- नमी. सतत -+-न+-ननन पलक ८3०५-३५ जनक नऊन+>क-क न्‍करीग रण +ज जा । चक्रेश्वर. | अ्हसिद्धि २ नामंद सूर्यसिद्धान्तकी टीका था इसके | ५३०० के | यह पद्मनाभके विता थे । आधारपर कोई ग्रन्थ जिसका लगभग. पता नहीं है । सूर्यदेव यज्व| आयभठीयप्रकाशिका दीका.| इस्वीकी १२वीं शताब्दी ( दत्त ओर सिंह ) रामचन्द्र | करपदुम करण | करणकुतूहलकी १४८२ शककी टीकामें यह नाम है । अनम्त महादेवक्ृत कामधेनुकी टीका | | १४८५ | जातक पद्धति | | रघुनाथ सुबोधमंजरी ( करण , [४८४३ | ब्ह्मपत्तीय अन्ध कृपाराम | वास्तुथह्विका | शक ५४२०! बीजगणित, सकरंद, यंत्रचिंतामणि पर उदाहरण सहित के | के बाद. टीका तथा सर्वार्थ बिंतामणि, पंचपक्षी और मुहर्त तत्व । | को <ीका भी लिखी हैं । रघुनाथ शमा। मसिप्रदीप ( करण । १४८७ । सिद्धान्तक्षिरोभण आर सूर्यसिद्धान्तके श्राधारपर नारायण | मुहृतमातणशड और इसपर टीका | १४६३-६४ | मत अस्य मातंण्ड वल्लभ | । दिनकर खेटकसिद्धि, चन्द्राकीं | १६०० वह्मसिद्धान्तके अ्रनुसार फरशप्न्थ गंगाघर। गृहलाघवकी मनोरमा टीका... १६०८ दा [ भाग ६० विज्ञान, माच, १६४५ .._| शचनाकाल पक कर घिशेष मथुरानाथ | १-यन्त्रराज घटना शुक्र। २-नछच्र स्थापन विधि चिंतामणि | १-घूर्य सद्धान्तकी सारणी ११६ प्रम्थकर्ता | प्रन्थ श्रीनथ| ग्रदश्चितामण (करण) | गणेश | जातकालंकार । नाग था | ग्रहप्रवोध । नारोेश । विटुल- | सुह्दुतंकल्पहुम और उसकी | दीक्षित | टीका मुहृतकल्पद्ुममंजरी | नारायण | केंशवपद्धति ढाका । | ! दांगयशणीबीजक । शिवदेवज्ञ | अ्नन्तसुधारसविदृति (गणित) । | महतचूडामणि (झुहृत) बल्लभद्र मिश्र] हायनरत्त (ताजिक पन्ध) सोमदेवज्ञ | कह्पलता रंगनाथ | (१) सिद्धान्तशिरोमणिकी मित- | भापिणी टीका (२) सिद्धान्त | | चूड़ामणि । कृष्ण करणकोस्तुभ | यादव ग्रहप्रबोध पर उदाहरणसहित टीका रत्नकँठ प॑चांगकोतुक विदण वाषिक तंत्र । जटाधर फत्तेशाह प्रकाश दादाभट | किरणावलति शंकर वैदणव करण प्रसाननद- | प्रश्सनाशिक्यमाजा पाठक भुला बह्मस्चिद्धान्तसार । | | दीक्षित | २-गोलानग्द (वेधम्रस्थ) | राघव १-खेटकृति . (खाँडेकर] | २-पंचागाक ! ३-पद्ति चनम्द्रिका शिवदैवज्ञ॒: तिथिपारिज्ञात यश्ञेश्व॒ ! १-ज्योति: पुराण विरोच् मदंन (बाबा जोशी! २-यँत्रराज वासना टीका रोडे) ३-गोलानंदकी अनुभाविकी टीका| “>मशिक्लांति टीका । -प्रश्नोत्तमातकिका...... विनायक हि । पांडरंग वेनायिकी ताजिकप्रन्थ | खानापूरकर सिद्धान्तसार १९१२ 3६३ १४४१ १७९८ १८६४ १०९६ ४७ 3९६२ 25060 १२८८९ 3४८०७ १६० ०से पूच 3६२६ प5६४3१ पद्प्प्पर १६५७० १७०३ | १७०७ ४ / १७१३ | १७३ १ १७३६ १७४० १७४३७ १७९६ १७६४ १४७४६ जब्सकादें । । । जातकपर प्रश्चिद्ध पुश्तक इमाणितानुसार करणप्रन्‍्थ सुहृतप्रन्थ यह मुनीश्वरके गुरु थे जो शक ११२७ में पैदा हुए थे। । । ७५४... "2४००० अयत करकर-+ जनता १8७५4+ ७००. .५.५०-+-3-पनक+फ-नानमयनमनी अपनाकर नाक नपअम मनमानी. राजा हर +क ७ फअचीाओ, देसरी पुस्तक बीहगणित पर है । कृष्ण देवक्षके पुत्र और नृसिंदृदैवज्ञके अनुज रामदैवशके शिष्य, शाहजहाँके द्वितीयपन्न शाहसुजाके आश्रित । संवत्लरके राजा मंत्री, आदिके शुभाशुभ फल पर विचार | यह नुल्िहदैवज्ञके पुत्र और कमलाकरके भाई थे। सूयसिद्धान्तके अनुसार करण गृन्थकी रचना की थी | महाराज शिवाजीके समयमें गहकोतुक, गहलाघव तथा निज बेधके अनुसार करण गन्ध बनाया । खण्डरूद्यकके अनुलार पत्चांग बन नेके लिए उपयोगो । वतंमान्‌ सूर्यसिद्धान्तके अनुसार श्री नगरके चन्द्रवंशी राजाके नामपर सूयसिद्धान्तकी टीका भास्कशाचायके अनुसार जन्मकण्डलीके भाठोंका शुभाशुभ फल विचार हैं। यह काशिशराज बलवन्तसिंहके प्रधान गणशक थे । : ब्रह्मपत्षानुसार सिद्धान्तगन्ध सिद्धान्तशिरोमणि और गहलाघवके झआधारपर लिखा गया । शिवप्रसाद, सिततारे-दिन्दुओ बाबा डाक्षचन्दके आश्िित थे | पदलली पुस्तक गहलाधवके अनुसार हैं, दूसरी सिद्धान्त "नलकनओ भा 5 जनता ++क-ी वि लनीनीनकनल+की- लक बन ++ न + “नल क नियत किननन-+ 9 ७५+न>नस७33 ३3... गन्ध है और तीसरी जातक पर है। . गृहल्लाधवके अनुशक्षार कर सर भारतीय ब्योतिषका प्रसार १२७ मुरत्लीधर का आपने काशी संस्कृत काले जके परथमाध्यायकके पद पर रह कर कमत्ाकरके सिद्धान्ततल्वदिदेकेका सप्पादने अपनी विशेष ओर विस्तृत विप्यणियोंक्षे श्ञाथ सथ १६२४ ६० में किया था । इसके पहले आपने सन्‌ १8०८ इूँ०में मण्म० सुवाकर दिवेदीके वेदाज्ञज्योतिषके भाववके साय संस्कृतमें कधुविवरण तथा .अंग्रेज्ञीके परिशिष्टके साथ सम्पादन किया था जिसमें बाहस्पस्यजीके आज्ेपॉका उत्तर दिया गया था | गद्भाधर सिश्र आप प्रतायगढ़ (अबदब) के मेहता संस्कृत विधालयके प्रधाव अध्यापक थे और ब्विद्धान्त ज्योतिपमें बड़े निधुण थे। आपने मब्स० सुधाकर द्विवेदीक वास्तवचन्द्खड्ोज्नात सघावनकी उदाहरण सहित एक टीका छिखी थी जो १8३२ ई०में प्रकाशित हुई थी : कमलाकरके सिद्धान्ततश्वविवेककी एक अच्छी संस्कृत टीका नवज्ञविशोर प्रेत, लखनऊसे आपने सं० १६८९ वि० में प्रकाशित की थी। गत वर्ष आपका स्वगंवात्त ही गया | आप एक होनहार ज्योतिषी थे परन्तु दुर्भाग्यसे आपका देहान्त बहुत थोड़ी अवस्थामें होगया । इनके अतिरिक्त गणकतरंगि में प॑० शिवद्धाल् पाठक, लक्ष्मीपति, बबुआ ज्योतिषी, परमसुखोपाध्याय, बाल्झृष्ण ज्योतिषी, कृष्णदुव, दुर्गाशंकर पाठक, गाविन्दाचारी, जयरास ज्योतिषी, सेवारास शर्मा, लज्ञाशेकर शर्मा, नहठ- लाल शर्मा ओर देवकष्ण शर्माकी जीवनियाँ भो हैं. जो फ्योतिषके अच्छे विद्वान थे परन्तु जन्‍्हाँने किसी गधर्दा रचना नहीं का थी इसलिए इनका विशेष वन छोड़ दिया गया है | अ्योतिषके वर्तमान्‌ विद्वानों और गथकर्ताओंका विवरण भी इथ समय नहीं छिखा जा रहा है । - यहां तक भारतीय उ्वातिपके सम्धवमें जो कुछ लिखा गया है उश्नल विदित होता है. कि इसके अधिकाँश लेखड महाराष्ट्र अतिक हैं । सेयुक्तपात विद्या और महद्ादके भी जशाव ज्योतिषियोंकी चर्चा आ गयी है। परंतु बंगाल प्रांतके किसी सूथक्तर्ताक्ी चर्चा नहीं है क्योंकि इनके संबंधर्स ऐसी पुस्तक झ्ुक्ते नहीं मिली जिससे कुछ जाना जां सके। अवांचीन काल्नर्मे यद श्रेय कन्नकत्ता विश्वविद्या- दय और उसके सिद्ध कुलपति ( वाइस चॉसल्लर ) सर आशुतोश झुकुर्नीकोीं हैं जिनके कारण कल्कत्तेमें प्राचीन भारतीय ज्यातिव और गशितके अनुसंघानके लिए पर्याध् प्रबंध किया गया है जि +के फल स्वरूप व्हाँक़े कई विद्वानों मे अ्रंग्र जीमें कई पुस्तकें प्रकाशित की हैं। अब हम उस्त विदेशी विद्वानोंकोीं भी सज्षेपम चर्चा कर देना घाहते हूँ जिन्होंने भारतीय ज्योतिष पर अपनी भाषा अमर अनेक ग्‌'ध लिखे ह और जिनके कारण हमारी ज्यातियका प्रचार अरब, तु्किस्तान, -घुरोप और अमेरिका- में भी हुआ दे। इनमें सबसे पहले अरबके विद्ानोंका नाम आता है। डक भारतीय ज्यातिष का प्रसार (अरबी देशोंमें ) हमसके बर्णनमें यह चर्चा की गयी थी कि इनके दीना अन्धोका अनुदाद अरबीसे कराया गया था। यहाँ इस संबंधर्म कुछ विशेष बातें बतलायी जाती हैं। रोमके प्रोफेसर सी. ए नल्िनों 'इन्साह्लोपीडिया श्राफ़ रिक्षिजन एन्ड प्थिक्स' अध्याय १२, ६४" में खिखते हैं, “उ्योतिषके प्रथम वैज्ञानिक मूज्ाक्षेके खिए मुसलमान भारतवर्षके ऋणी हैं। ७७) ई० में भारतवर्षकी एक बिहवन्मंडली कगादाद संयी जिसके एक बिद्दानने अरबोको आाक्षत्फुद छ्िद्धान्तका परिचय काया जिसे ब्रह्मगप्तने संस्कृतमें रेप हू० में लिखा था। इस प्रन्य से (जिसे अरब वाले अस सिंदहिन्द छुकारते थे, इृब्ाहीस इब्न हबीब-अद्- फज़ारी ने मूलाह्ली ओर गणनाकी रीतियोंको लेकर अपने ज्योतिषकी सारणियाँ प्ुसल्लमानी चान्द्रवर्षके अदुसार तैयार कीं। प्रायः इसी कालछमें याकूब इब्न तारीकने अपना 'तरकीब-अल् अफलाक' (खगोल्न की रचना) लिखा जो वाह्मस्फुटसिद्धान्तके मुलाहों आर रीतियों पर तथा उन श्रुवाद्लों पर जिन्हें पुक दूसरे भारतीय वैज्ञातिकने एक दूसरी सण्डज्ञाके साथ १६९. हिजरी ( ७७७-७»८ दूँ० ) में बगदाद आकर दिया था १--जी. आर. के. की हिन्दूएस्ट्रोनोमी, पृष्ठ ४३ पादद्िप्पएणी | . « शरद आश्रित था। ऐसा जान पहता हैं कि प्रायः उसी समय खण्डखायकका! भी अरबी में 'अलअक़रद के मामसे अनुवाद किया गया जिसे ६६५ ई० में बहागुप्ते ही रचा था परन्तुं जिसके मूक्ञाक् उसके पहले ग्रन्थके मूलाडोसे भिन्न थे। अलकफ़ज़ारी और याकूब इब्न तारीकके समकालीन अबडु(ज् हसन अलू अहवाज़ी ने विद्वान भारतवासियके शायद मौखिक शिकाप्रोंसे प्रभावित होकर 'अल अजभद ( भारतीय ज्योतिषी आर्यमंटका बिग हुआ नाम जिसने (०० ईस्वीसें आयंमदीय लिखा था ) के अनुसार गहगतियोंका परिचय अरबॉकों कराया | सुसलिम संलारमें हिजरीकी पंचम शता5दीके पूर्वांद् के अन्त तक (इस्वीकी १६वीं शताब्दी |इन भारतीय गन्धोंके बहुतसे अनुगामी हुए, कुछ व्योतिषियोंने (जैसे, हबश, अननैरीज़ा, इब्न असू्ंभ) भारतीय मूलाईं शरीर प्रशाल्षियोंके आधार पर भी पुस्तके खिखीं और यूनानी-अरबी मूजाझके अनुसार भी | दूसरों ने (जैसे मुहम्मद इब्न इसहाक अस्‌-सरह्सी, अद्ुल्वफ़ा, अलूबीरूनी, अलहजीनी) उन मुल्ाह्ों को गृहण किया जिनकी गणना मुप्तक॒मान उज्योतिषियोनि भारतीय ज्योति- पियोंके अनुकरणमें कृत्रिम दीघे युगेंके अनुसार की थी ।” हस संबंधर्मे अलबीखनीने अपने अरबी गन्थ द (ुंडिकामें' जिसका अंगरेजी सापान्तर बलिनके प्रोफेसर एडवर्ड सी. साचो ने किया है ओर जिसका हिन्दी अनुवाद इंडियन प्रेसने प्रकाशित किया है बहुत कुछ ल्लिखा है । यह विद्वान €£०३ ई० में खीवामें उत्पन्न हुआ था ओर महमूद गज़नवीके साथ भारतवर्षसें आकर यहाँ सन १०१७ ई०से लेकर १०३१ ई० तक रहा था ओर संस्कृत भाषा सीखकर इसके साहित्यकी बहुत शक्षी, विशेषकर ज्योतिषकी बातें जानकर अरबीमें इंडिका गन्थका! निर्माण किया था। यह दिखता है कि पूतंकालान मुसल्िस ज्यो- तिबियोंने आयभद और अन्य सिद्धान्त ग॒न्धोंकी चर्चा की है । आयंभटका अरबी खूपान्तर आजबह था जो ओर बिगड़ कर आज़्जभर' हो गया। अलबीरूनी दिखता है कि 'सिंदहिंद! नाम की अरबी पुस्तककों हिन्दू सिद्धान्त कहते हैं । ....._[( यूरोप और अमेरिका में ) ईसा की १०वीं शताब्दीके श्रन्तमें यूरोपमें भारतीय , विज्ञान, माच, १६४४ | जाग ६6 ज्योतिषकी चर्चा भारंभ हुई जिसमें ल्ाप्नेस, बेली, प्रफेयर, डीलाम्नमर, सर विलियम जो स, जान बेंटले, आदि ने भाग लिया । १६६१ ई*«में क्रांसके प्रसिद्ध ज्योतिषी जियोबनी डोमिनिको केस्रितीने ही, ला लूबियरके आसाम से लाये हुए कुछ ज्योतिष संबंधी नियमोका प्रकाशन किया ओर उसके थोड़ी ही देर बाद 'हिस्टोरिया रेगी गीकोरम बेकट्रोयानी के परिशिष्टमें टी० एस बेयरने हिन्दू उ्रोतिषकी चर्चा की जिल्‍्में लियेनाडे आयलरका एक लिर्बंध ६३६५ दिन ६ घंटा १९ मिनट भीर ४३० सेकेंडके हिन्दू वप पर था | १७६६ ई० में “'लीवेंटिजक पांडीचेरीमें शुक्र की बेघयुति देखनेके लिए झाया और १७७२ इूँ० में उच्चने 'जिवेज्ञोर' कोष्ठ्कों ओर हिन्दू स्योतिष पर एक लेख प्रकाशित किया । इत्र प्रकाशनका सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव यह पड़ा कि जीन सिलवेन बेली ( पेरिसका पहला मेयर और नेशनल एसेबल्लीका सभापति जो १७३६ ई० में जन्मा और १०६३ ई० में शूल्ली पर चढ़ाया गया था) इस ओर आकषित हो रया ओर १७८७ ई० में भारतीय ज्योतिष पर एक गप्रस्थ" प्रकाशित किया । बेल्लीकी पुस्तक से 'ज्ाज्लेस' ओर 'प्लफेयर' का ध्यान इस ओर बहुत आकर्षित हुआ। प्लेफेयर ने १०६२ ई० में पशियाटिक सोसाइटीमें ब्याख्यान देकर सुझाया कि हिन्दू गणित ओर ज्योतिषका नियम पूर्वक अनुशीक्षन किया ज्ञाय । इक्षी बीचमें एसू डेक्सि ने १७८६ ई «में सूर्यसिद्धान्त का विश्लेषण किया ओर क्षिखा कि इस गन्थमें क्रान्तिवृत्त की परम क्रा।ति २७ अंश है जो आकाशके प्रत्यक्ष अब- लोकनसे जानी गयी होगी और यह श्रवल्लोकन २०६० ई० पूर्व किया गया होगा । सर विलियम जोन्सने इसका समर्थन किया ओर कहा कि भारतीय नक्षन्न चक्र-अरब या यूनानसे नहीं लिया गया । १७६६ ई० में जान बेंटल्ले ने बेलीकी इस बात का विरोध किया कि भारतीय ज्योतिष बहुत प्राचीन है ओर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया कि सूये सिद्धान्त १०६१ ई०के आसपासका बनाया हुआ है। इस संबंधर्मं कोल्बुक; डीलाग्बर ओर बेंटले ने १८२९ ई० सक अच्छा वादविवाद किया । परन्तु इसके साथ- साथ भारतीय १००० १'7'8706 06 ।88॥70!0776 [7008 - 76 €४$ 07607]79] 6 क्ौक्ाशके चित्र ज्योतिष का अनुशीलन भी होता रहा । बंगाल के सेना- नायक सर डबल्यू बाकरने काशीके जयसिंह निर्मित मान » मन्दिरके यंत्रोंका अध्ययन किया श्रोंर इसके कुछ बाद ही प्ष फेयर ने अपना सुझाव उपास्थत किया । १७६६ ई०में हँटर ने उज्ेन की बेघशाला का व्योरेवार वणन क्िखा । परन्तु भारतीय ज्योतषके इतिहास का सच्चा ज्ञान प्राप्त करनेके लिए वेबर (१८६०-६५ ६०), छ्विटनी (१5४८) ओर थीबों १८७७-१८८६) ने बुनियाद डाज़ी । वेबरने वेदाड़् ज्योतिष, हिटनी ने सूयसिद्धान्त का अनुवाद अपनी आज़ोचनात्मक टिप्पणियोंके साथ और थीबा ने वराह- मिहिर की पत्मपिद्वान्तिका अपने अनुवाद ओर टिप्पणियों के साथ प्रंकाशत कया । इनके साथ साचा ने अ्रत्नबीरूनी के 'भारत का अनुवाद्‌ किया ओर यह सिद्ध करने की चेष्टा को कि मध्यकालीन हिन्दू ज्योत्ष ओर यूनानी ज्योतिषमें घनिष्ट सम्बन्ध है। इस लिए प्राच्य विद्या विशारदोंका ध्यान वेदक आर वदोत्र कारलोंकी ओर गया। १८६३ ई० में जैकाबा श्रोर तिलकने अलग-अश्रलग सुझाव उपस्थित किये कि वैदिक प्रन्थोर्म ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि वैदिककाल बहुत प्राचीन है, परन्तु हिटना, भाल्डेनबर्ग ओर थीबाने इसका घोर वराध कि । ह इस वादविवादके बीचमें रेवरेंड ई . बच्तेंसने सन्‌ १८६० ई०में सुय॑ंसिद्धान्तका प्रसिद्ध अनुवाद श्रमेरिकन ओरिंएटल सोसाइटाके जरनलमें प्रकांशत कया जिसमें भारतीय ज्यांतषके पत्त ओर विप «में कहनेवाल्ोका वेज्ञानिक रोति« से विचार किया गया ओर दिखाया गया कि भारतीय ज्योतिषका महत्व क्या है । इस सुन्दर अनुवादका दूसरा संस्करण कल्नकत्ता विश्वविद्याज्ञयके फयान्द्रल्ञाल गंगाली द्वारा सम्पादित होकर प्रबाधचन्द्र सेनगुप्तकी भूमकाके साथ कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा सन १६३५ ई में प्रकाशित हुआ है झोर स्ंत्रह करने याग्य है। भारताय ज्योतिषका एक दूसरा अन्थ ढब्तू ब्रे नेंइने सन्‌ १८६५ ई० में लिखा था जिसके पहले भागके १३ 'स्‍ा-४७७७ नाक व ताकक्भतयत तय ५04 काबका अरूण १ -जी० आर» के की हिन्दू ऐस्ट्रोनोमीकी भू सका- का सारांश । श्ब६ . अध्यायोमें हिन्दू ज्योतिप्पर यूनान, मिश्र, चीन ओर अरबके ज्योतिपके साथ तुल्ननाः्मक विचार किया गया है ओर कई पौराणिक कथाओं, शिव ओर दुर्गाका विवाह, श्रतीकी झुस्यु आदिका संबंध ज्यांतिषिक धटनाओ्रोसे बतलाया गया है ओर दूसरे भागमे सुत्रसिद्धान्तका अंग्रेजीमें अच्छा अ;वाद कि गया है। इस विद्वानरा विश्वास था कि युरापगलांने हि छुश्नोंको इनके लाहिव्य ओर गणितीय. विज्ञानक लए उतना श्रेय नहां दि ज्ितनेके व आंधिकारा हैं इस लिए उनके 5 -तिपका ऐसी सरल भाषामें लिखा जाय जिखसे इ५ विषय राच रखने वार्लका स्वतंत्रतापुवंक विचार करनका अवल्तर [मसले कि यथार्थ बात कया हैं श्रार इक्ष संबंधभ ओर आधक खांज करें। यह गन्थ लद॒नमें $८६६ इ०स आद्वित आर प्रका- शित हुआ था ब्रंनेंड महाशय बंगाज्ञम बहुत दिन तक किसी कालेजके श्रध्य त रह चुक हैं । इन ग थोंके हाते हुए भा जा० आर० के मद्दाशव अपने वाविध लेखों आर हिन्दू एस्ट्रानेमा? में ह्विन्दू ज्योतिषक सबंधर्म कुछ बातें एस क्िखते हैं जिनस लिछ्ठ होता है कि यह भी भारतीय ज्यातिषकों उतना श्रेय नहीं देना चाहते जितनेका वह अधिकारा हँ । इसका उत्तर प्रयागके श्री नत्विनाबहारी मिन्नने १६१४- , इके माइने रिविउमें ओर कलकत्ता विश्ववद्याल्यके कई श्राचार्थों, विशेषकर डाक्टर विभूतिभूषण दत्त ओर प्रबोधचन्द्र सेन गुप्ने भारतीय ओर यूनानी ज्योतषका तुलनात्मक अध्ययन करके दया ह जिसे भारतोय ज्योतिषके अ्रज्चु- संधान कर्ताश्रोकी अवश्य पढ़ना चाहिए । आकाश # चित्र अब हम आकाशके कुछ नकशे जिनकी चर्चा पृ० ३७१ में आयी है, देकर बतलाना चहते हैं कि इनसे आकाशके तारोंका परिचय केसे हो सकता है. १ला नकशा उत्तर, भुवसे ४० अंश दूर तक फेले हुए तारों और नतन्न-पुंजाका है। के द्वमें श्राक्शका १००० ४ 67]07'8 07 6॥6 ७ 7/0॥9७९७) 89] 8प"प०ए 0 703, (१०.।8, ७०0 '8।०0 कर (0ए०"॥7600 07 [440 + 70 ]92%$ | ु मत न ४77 दस बजे रातको देखनेके लिए सारणी मास (टी तारीख २१वीं तारीख मास ६टीं तारीख २९वीं तारीख अग्रेल (११) >][ (१२) अक्टूबर #ह|।त[ (२३) 0(०) मई ह।]।| (१३) [५ (१४) नवम्बर [(4) [[(२) जून ४ (१५) 4५ ५[ (१६) दिसम्बर [4[ (३) [ए (४) जुलाई ६ ५([ (१७) 3. ५[[[ (१८) जनवरी आओ ४((६) अगस्त 2 (१६) 02 (२०) फरवरी ए७[। (७ ) ५।।[ (5) सितम्बर #&» (२१) 0 [| (२२) मा [2 (&) औ (१०) इना चाहिए कि यह खड़ा रहे आर जिस महीनेका आकाश दस बजें रातकों देखना हो उस महीनेके सामने वाज्ञा धंटा ( देखें सारणी ) ऊपर रहे । अन्य समग्रके लिए नकशेकों घुमाकर काम क्षिया जा सकता है, जैसे अग्रेलकी ६ तारीखको & बजे देखना चाहें तो दृश्न घंटे वाला विन्दु ऊपर रहे और ८ बजे देखना चाहें तो ६ घंटे वाल विन्दु ऊपर रहे | &ढीं तारीखके बाद प्रतिदिन चार-चार मिनट पहले ही यह स्थिति आ जाती है। यदि १४ अग्रेलको देखना हो तो ११ घंटे वाला विन्हु | $!।। साढ़े नो बजे ही ऊपर करना चाहिए। ऐसी स्थितिमें बायीं ओरके तारे पच्छिमकी ओर और दाहिनी ओरके तारे पूरनकी ओर दिखाई पं गे। | आजकलके परकारी समयक्ते अनुसार यह स्थिति १ घंटा बाद दिखाई पड़ेगी ] उत्तकी ओर श्रूव तारेके सामने मुँह करके खड़ा होकर इस नकशें को इस्र प्रकार पकड़े रह बिज्ञान, माच, १६४५ उत्त भू व दिखलाया गया है जिसके पास ही प्रसिद्ध भ्ूव नामक तारा है। धर वताराके पासके छोटे वृत्तको छोड़कर- शेष जितने भ्र्‌ वकेन्द्रिक बृत्त खीचे गये हैं वे भुवसे दुस-दस अंशके अंतर पर हं। परन्तु इन वृत्तोकी दूरी भवसे न देकर विषुववत्तसे दी गयी है जो क्रान्ति कहक्षाती है इसलिए धर वसे दस अंशपर जो वत्त है उस पर ८० लिखा हुआ है, बीस अंश पर जो बृत्त है वहां ७० लिखा हुआ है जिसका श्रथ है कि इन वृत्तेकी क्रान्ति क्रमशः ० था ७०१ है। इसी प्रकार ओर वृत्तेके लिए भी समभूना चाहिए । थ्र बसे जो स्रीधी रेखाएं बाहरी परिधि तक दिखलायी गयी हैं वे विषुवांश ( 72])6 8806९78४707 ) की रेखाएं हैं ओर एक-एक घंटे अथवा पन्‍्द्ृह-पन्द्रह अंश॑के अंतर पर खिंची हुई हैं। बाहरी परिधिके पास रोमन अंकंमें, जिनसे घड़ीके घंटे सूचित किये जाते हैं, घंटे लिखे हुए हैं। शून्यका घंटा वस॑त-लंपात-विन्दुसे श्रृूव तक* जाने वाली रेखा पर है इसी रेश्लापर शर्मिष्ठा नक्षन्न पु'ज- का प्रथम तारा स्थित है । २१ मा्चक्रो जब सूर्य वसंत सम्पात पर होता है तब यह रेख्ता मध्याहमें यामोत्तरवृत्त ( 7677 087 ) पर होती है और इस पर स्थित तारे मध्याहमें यामोत्तरवृत्त पर आते हैं। इस दिन मध्याहसे एक-एक घंदेके अंतर पर !, 7], ||, पए आदि रेखाएं यामोत्तर वृत्त पर आती हैं। इस दिन रातके «4 बजे 0(१[|१ घंटे वाली रेखा, ६ बजे [# घंटे वाली रेखा, १० यामोत्तरवृत्त पर देख पढ़ेंगी। इसी प्रकार अन्य घंटे वाली : रेखाएं भी यामोत्तर वृत्त पर आवेगी.। रातके १$ बजे 2] घंटे वाली रेखा यामोत्तरवृत्त पर रहेगी, इसी रेखा पर सप्तर्षि पु'जके पहले द्रो तारे हैं जि. हैं 'भ्‌ वसूचक भी कहते हैं। ११ घंटेसे लगभग १४ घंटे तक सप्तषिके तारे यामोत्तर वृत्तपर दिखाई पड़ेंगे । इसका सातवां तारा रातके ठीक पोने दो बजे यामोत्तरब्रत्त पर देख पड़ेगा । इसी प्रकार ओर नक्षत्नोंकी पहचान भी की जा सकती है । परन्तु यह याद रखना चाहिए कि यह समय विषुवकाल १--विषुव कालकी गणना उस समयसे आरम्भ होती है जब बसंत-सम्पात-बिन्दु यामोत्तरश्वत्त पर आता बजे ह घंटे वाली रेखाएं १३१ के अनुसार है और केवज्न २१ मार्चक लिए लागू हो सकता है। आजकल युद्धके कारण भारतवर्षका प्रामाणिक काल (80870870 +#76) १ घण्टा बढ़ा दिया गया है इसलिंए ऊपर जो समय दिया गया है उसमें १ घण्टा बढ़ा देनेसे २९ मार्चकों घड़ीका समय ज्ञात होगा । चित्र केसे देखना चाहिये-रातमें ध्रूवतारेको ओर मुँह करके खड़े हो जाये. और नकशेको इश्न प्रकार लें कि घण्टेवाला अंक ठीक ऊपर रहे । यदि २१ मार्चको आज- कलकी घड़ीके अनुसार १२ बजे आकाश देखना चाहें तो नकशेकी ११ घंटे वाली रेखा यानी सप्तरिके श्र्‌ वसूचक तारोंके ऊपरसे जानेवाली रेखा ऊपर कर लें। फिर आप देखेंगे कि सप्तर्षिके यह दो तारे ठीक उत्तरकी ओर, इसके अन्य तारे दाहिनी ओर, 'रथी” तारापु'न तथा इसका प्रमुख तारा त्रह्महदय उत्तर-पच्छिम ज्षितिजके पास और भूतेश' पु'जके तारे पूपसे कुछ उत्तर जितिजके पास दिखाई पढ़ेंगे। इस प्रकार चित्र पकड़नेले तारा-्यु'जेंके नाम उल्टे छुपे हुए दिखाई पढ़ेंगे, इस बातका ध्यान रखना चाहिए। ओर महीनों या तारीखोंमें घण्टोंके हिसाबमें कुछ भेद पड़ेगा क्योंकि जो तारा आज १० बजे रातको यामोत्तर वृत्त पर देख पड़ेगा वह कल ४ मिनट पहले ही उस स्थान. पर पहुँच जायगा । इसी प्रकार प्रति दिन चार चार मिनट पहले पहुँचते हुए १६ दिनमें वह एक घण्टा पहले आ जायगा और एक महीने-पीछे २ घण्टा पहले पहुँच जायगा । अर्थात्‌ सप्तर्षिका जो तारा २१ मार्चकों आजकलके १२ बजे और पुराने ११ बजे रातको देख पड़ेगा वह २१ अप्रेल को १० बजे रातको ही यामोत्तरवृत्त पर आ जायगा । २१ मईको यह स्थिति ८ बजे रातको ही हो जायगी। ७० ७७७७४ ७७- [छा : एच आआआएरशशणणणणननाणाणआऋआ, है | जब दूसरे दिन यह विन्दु फिर यामोत्तरवृत्त पर आता है तब विषुवकालके २४ घण्टे पूरे होते हैं। यह हमारी घड़ीके २४ घण्टे अथवा सोर दिनसे ४ मिनट छोटा होता है इसलिए इसके आगे बढ़नेकी देनिक गति ४ मिनट है । १४ दिनमें यह अन्तर १ घण्टेके बराबर हो जाता है अर्थात २१ मार्चकों यदि सप्तषिके सूचक तारे ११ बजे रात को याभोत्तरबृत्त पर आ जाते हैं तो ९ अग्नेलकों यह १० बजे ही ऊपर आ जञायंगे ओर २० अप्रेलकों & बज़े ही | #ब* *+ ४.६ 0 / “१, ४ $ ॥ 5 प १2 $ « ; + २0>+ तर हैंड व |अ० रत «न 3७ जे प ॥र हे + +र ० + ४ .१[*९£११९६९+१ १ है:+ | * 4० दल्षिण चित्र २ उत्तर मुंह खड़े होकर दार्थोकों ऊपर करके यह चित्र इस प्रकार थाम कि इसकी पीठ आकाशकी ओर रहे, जिस किनारे पर पच्छम लिखा है वह पच्छिमकी श्रोर ओर जिस किनारे पर पूवे लिखा हुआ है वह शिरोविन्दुसे कुछ पच्छिम रहे अर्थात ८वँ धंकी रेखा सिर पर रहे तो सिधुन राशिके पुन्वस नक्षत्र वाले दो तारे ( देखें चित्र ३) ठीक सिर पर दिवाई पड़ेंगे ओर सेष. वर्ष राशियोंके अश्विनी, कृत्तिका, रोहिणी मझूगशिरा, अग्रहायन श्वान, शशक आदि तारा-पुज् पल्छिस छितजसे क्रमश' ऊपर दिखाई पड़ेंगे । अर्थात पच्छिम क्षितिजके पास अश्विनीके तीन तारे, इससे ऊपर कृत्तिकाके कई तारे पास ही पास, कृत्तिकासे ऊपर ज़रा दक्खिन हटकर गोहिण'के तारे और रोहिणीसे भी ऊपर दक्खिनकी ओर सगपद या अ्रग्रहायनके बहुतसे तारे दिख है पड़ेंगे । उत्तर पुर्वंकी ओर सप्तर्षिं ओर उत्तर पच्छिमकी ओर ग्थी ब्रह्महदय ययाति, तारा पुत्र दिखाई पड़ेंगे | ” ६ अप्रेल को ८ ब्जेके क्रगभग ) ह दुक्विन मुँह खड़े होकर देखनेसे तिमि, शिल्पी, वैतरणी, शशक, श्वान और कपोत तारा घुंज दिखाई पड़ेंगे |. पच्छिम पत्चाड़ १३३ नि लिलिलिकिकि मन मिशन शक क शक किन शक ड नल लनििफसशकिकिफलिनफि सीकर जि ज अककज कक कल ललललल_ नल आल नल नमन यदि यह बात ध्यानमें रखकर मकशे देखे जाय॑ तो पाँचों नकशोंसे आकाशके उन सब तारोंकी पहचान हो सकती है जो भारतवषके किसी स्थानसे देखे जा सकते हैं | तारा-पुझ्लोंकी कत्पित सीमा बतज्ानेके लिए कटी . हुई टेढ़ी रेखाए' खिंची हुई हैं ओर भ्रत्येक पुअके तारोंके नाम नागरी वर्णमालाके सानुनासिक अक्तरोंकों छोड़कर अन्य अक्षरोंसे सूचित किये गये हैं। सप्तषि ताराफुअ्ञषके सात प्रधान तारे क, ख, ग, थ, च, छ ओर ज अक्तरोसे ओर अन्य तारे इसके आगेके अक्षरोंसे सूचित किये गये हैं। इस पुञ्का कुछ अंश तीसरे नकशेमें भी आया है जहाँ 'ल' अतर तकके पासका तारा भी आ गया है | “छ! अक्षरके दो तारे दिखाए गये है, छु१, छ२-क््योंकि यह युगल तारा 'वशिष्ट' है- जिसके पासका दूसरा तारा अरु'घती है। इस पुंतमें 2 5, ढ ढ, ओर त थ दो दो तारे क्रमशः नो, सवादस ओर सवाग्यारह घण्टों पर स्थित हैं। 5 की जगह *कशेमें भूलसे 'च' छुप गया है । पहले नकशेमें १८ धण्टेकी रेखा पर बीचमें एक गोल विन्दु है जिसे 'कदग्ब' कहा गया है। यहाँ यथार्थर्में कोई तारा नहीं है परन्तु यह वह स्थान द्वे जो नक्षत्नचक्र या क्रान्तिवृत्तका भव है। इसीकी चारों ओर हमारी पथ्वीका भ्रूव या विषुवमंढलका ध्र्‌व क्वग्भग २६००० वर्ष एक परिक्रमाकर लेता है । यह परिक्रमा पथ उस दृत्तसे प्रकट किया गया है जो हंस, वीणा, शोरी आदि पुंजोंसे होता हुआ जाता है ओर जिसे नकशेमें श्र वकत्चा कहां गया है । इसीके भीतर 'कालिय' और “ऋत्तिका' नामक पंज हैं। ऋत्तिकाकों लघु सप्तर्षि भी कद्दते हैं । दूसरे चित्नमें वे तारे दिखाये गये हैं जो शून्य धण्टेसे सात घरस्टे वाली रेखाओंके बीचमें ओर ९० अंश उत्तर, और दक्षिण क्रान्तियोंके बीचमें हैं। आकाशके इस भागमें बड़े महत्त्वके तारा-पुंज हैं। बीचोबीच आड़ी रेखा विषुव ब्रत्त सूचित करती है जिसकी क्रान्ति शून्य होती है। इसीके समानानन्‍्तर दस दस अंश क्रान्तिके अन्तर पर उत्तर ओर दक्षिण ओर रेखाएं खींची गयी है | उत्तरकी ओर तारा पंजोंकों पहचाननेके लिए उत्तर: तरफ मु ह करके खड़ा होना चाहिये । अप्रेलके पहले सप्ताहमें आजकल ८ या ६ बजे रातको आकाश देखनेसे ८ या $ धण्टोकी रेखावाले तारे उपर यामोत्तरतत्त वर देख पढ़ेंगे जो तीसरे चित्रमें हैं परन्तु तीन, चार और पाँच घण्टोंवाले तारे पच्छिमकी ओर हेंगे । द दूसरे नकशेमें विषुववृत्तके पन्छिम किनारे से एक धनुषाकार रेखा पूर्व किनारे के उस विन्दु तक खिंची हुईं है जो विषुवदत्त से २२ अंश के क्वगभग उत्तर की ओर है । यही क्रान्तिवृत्त है जिस पर प्ृथ्वीकी . वाषिक गतिके. कारण सुरज चल्लता हुआ देख पड़ता है ' विषुव वृत्त के पच्छिम किनारे वाला विन्‍्द्र जहाँसे क्रान्तिवत्त की रेखा निकली हुई दिखाई गयी है विषुवसम्पात या चसंत सम्पात हैं जहाँ सूये २५ मा को रहता हे । पूरे क्रान्तित्त के बारह समान भाग किये गये हैं जिन्हे राशि कद्दते हैं । बसंत-सम्पान विन्द्रसे ३० अंश तक मेष ३० अंश से ६० अंश तक वृष ओर ६० अंश से 8० अंश तक मिथुन (सायन) राशियां हैं । ६ घंटे विषुर्वांश पर क्रान्ति- बृत्त विषुवतृत्त सैँपरम अन्तर २३ अंश २७ कला पर हो जाता है। इसके बाद वह विषुवक्त्त की ओर झुकता है ओर १२ घंटे विधुवांश पर फिर विषुवव््त पर पहुँच जाता है जहाँ सूय २३ सितम्बर को पहुँचता है (दिखिए चित्र ३) यहाँ से क्रान्तिवृत्त विधुववृत्त से दक्खिन हो जाता है और १८ घंटे विषुवांश पर इसका अंतर सबसे अधिक २३९२७ हो जाता है जहां सूय २९ दिसम्बर को पहुँचता है।इस स्थानसे क्रान्तिवृत्त उत्तर की ओर सुड़ जाता है ओर २१ सार्चकी फिर बसंतसंपात विन्दु पर आ जाता है। क्रान्तिवृत्त के कुछ उत्तर या दक्खिन भारतीय ज्योतिष की मेष, वृष भ्रादि बारह राशियां ओर अश्विनी भरणी आदि २७ नत्ञत्न दिखलाये गये हैं । मघा, ओर चित्रा दो तारे क्रान्तिवतके बिलकुल पास हैं । पद्माड़ आकाश में सूर्य, चन्द्रमा श्रोर ग्रहों की स्थिति जानने , के लिए ज्योतिप्रन्थोके आधार पर पद्चाज्ञ बनाये जाते हैं। पन्चाज्ञ में मुख्यतः पांच अंग होते हैं जिन्हें (३) तिथि (२) वार, (३) नक्षत्र (४) योग ओर (४) करण कहते हैं। जिससे इन पांचेंका ज्ञान हों सकता है उसे पश्चाह्, पंजिका, पत्रा या तिथिपत्र कहते हैं| तिथियों ओर न्तत्रों की चर्चा पहले ही विस्तारसे की जा चुकी है । वार॒सात दा्ण चित्र ३ पहने नऊगेमें मद्दीनोंका जो क्रम दिया गया है उसीके अनुसार यह नकशा तथा आगे दिये गये # कशे भी देखे जा सकते हैं ! जेसे ६ अप्रेलकी दस बजे रातको उत्तर ध्रव तारेकी तग्फ़ मुँह करके खढ़ा होकर तीसरे नकशेको इस प्रकार थाँमें कि नकशेकी पीठ आकाशकी ओर ओर ११ घंटे वाली रेखा जो चित्र ३ में है ठीक ऊपर रहे तो बायीं ओर मिथुन श्रोर कके राशिय्रोंके तारे दिखाई पड़ेंगे, सिरके ऊपर सिंद् राशिके तारे होंगे ओर दाहिनी ओर झूगयाशुन, भूतेश, स्वाती किरीट, शोरी, आदिके तारे होंगे जो चित्र ४ में दिखाये गये हैं। दक्षिणक्री ओर सुह करके खड़ा होने पर 'काक' तारापुंत जिसे 'हरुत” था हथिया' नक्षन्न भी कहते हैं पृव-दत्तिण तज्षितिज पर देख पडेगा । 8६5५ 99 3३ | [४४१ ४8।6ाये' 3 5 ड हे ये | हप। ध्थविकनोे की ०९०८ दंड डियेयेदे|वे | है हि ढे& ऐे8 इे&छिये 8५, हित 6ादे थे ०४2४िऐ ०४ ३ ९४०५ ४5 जज 8 ३६३६ ७ ५६8,४ 85५93 ७५डे टध्टे४०४८८४िी०टेवे८|० है ा >४?४| देदेदेदेड्टे8 छेटे कटे डे ०४० ० हे दि ७४६४६ 8४४ ०६० ट््‌ 2284. . 3 2 ५» | हे ४६६ ६४६०६ ० हे 9 2४8 ४2४ +- झाछ ्टाब॥। |] ०६४०८ ४० ("घंटे "४8६ पर प्ग 33४४8 ४६ ८| छि।4 ४६६ न॑ डेडे।8 ९ प्मछाष# १0,०६।६३ '& ३१४६४ ४६ जन घर ६६६६४ ८ 3७ ०६६4 7५ ३६| 56 ४४8 08228 ७) 8 (३४ 285 [० | ह ४८हिश | | (६ उधधिरा७छ ०६३8 एक छोह निश जिम लिल मेटिते ४४८| “8६५ व वी कओ, वफवलकक, मम, आजम) किक न्श्य पदाइन >>, सा ० छ 82४७४ खरे ४ ५.) ४५६६ 8९ ३४॥७ "२६६६ हि दै || शह_ डे *# ५६ & 8७४७ |2४ ६६ 2४0% “2 डेवे।8 “६ हि है| "३४० ६७8०६ ०६ ६४ ४७४ ० ६ ४७३४१ [/ "कोड 8 0848 ६४) ६।०६ है। ,वथालडि '& येटे।हिं डे '॥६ ध्जन्च _ 8 वधिप्डछे वेद डेट लडिव5 मत विश मिट (दि हित 2०६ ते धिवघ ०६६८ + ६४४०|७४)४ ० ०७ धण्ड छेजटविल! ०0 टी 23 पम्प 88४३| | झड़ ३ एक ॥० #िशज ० हिट हेड 3१ छा ध३ 26 838, सिर >९| 28३ ३३ +िह | 5७8 सका :2% 2९ पछ 8० ६ ्टिष्धिकछरे दि हि | 3 ४६ 28॥%| 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मंगलवार, बुधवार, वृहरस्पति- वार, शुक्रवार और शंनिवार । यह खात ग्रहों के नाम पर . रखे गये हैं इसलिए ग्रहोंके पर्यायकें अनुसार इनके पर्याय भी हैं जैसे रविवार को आदित्यवार या छोटा नाम इतवार कहते हैं, सोमवारको चन्द्रवार, मंगलवारकों भोम- वार, वृहस्पतिवारकों गुरुवार आदि । संसारके सभी देशेमें वारोंके नाम एक से हैं और ग्रहों के नाम पर रखे गये हैं । वार का आरंभ सूर्योदय से माना जाता है। योग योग कई प्रकार के होते हैं , पश्चाज्ञ का योग' सूर्य ओर चन्द्रमाके भोगांशों के योगकों कला श्रेमिं लिखकर ८०० कला से भाग देने पर आता है।जो लब्धि आती है उससे गत योगों का पता चलता है ओर शेपसे वर्तमान योगका । यह योग भी २७४ हैं जिनके नाम हैं :--१-विष्कम्भ, २-प्रीति, ३-आयुष्मान, ४ सौभाग्य, £-शोभन, ६-अतिगंड, ७-सुकसों, म-उति, ६-शूल, १०-गंड, ११-वृद्धि, १२-म्रू व, १३-ब्याध्यात, १४-ह५षण, १६-वन्न, « १६-सिद्धि, १७-व्यतापात, $८-वरीयान, १६-परिघ, २०-शिव, २६-सिद्धि, २२-साध्य, २३-शुभ, २४-शुकहू, २९-न्ह्मा, २६-ऐन्द्र, २७-वैध्टति । करण--तिथिके आधे भागकों करण कहते हैं, इस- - ह्विए एक तिथि में दो करण होते हैं । यह दो प्रकार के हैं, चल ओर स्थिर | चल करण सात हैं, १-बव, २-बाल्नव. ३-कोलव , ४-तैतिल, €-गर, ६-वणिज और ७-विष्टि या भद्रा | स्थिर करण चार हैं-१-शक्ुनि, २-चतुष्पद, ३-नाग और ४-किस्तुन्न । शुक्ू पत्षकी प्रतिपद् के उत्तराध को बब ह्वितीया के पूर्वांधंकों बालव ओर उत्तराधेकों कोलव, तृतीया के पूर्वारध को तेतिल, और उत्तराधंको गर, चतुर्थीके पूर्वांंको विज ओर उत्तरार्ध को विष्टि करण कहते हैं । पंचमी के पूर्वार्धसे फिर बव का आरंभ होता है।इस प्रकार कृष्ण पतकी चतुर्दशाके पूर्वांध तक इन सात करणंके ८ फेरे होते हैं। इसीलिए यह चल कहलाते हैं | कृष्ण चतुदंशीके उत्तराधमें शकुनि, अमाव के पूर्वाधमें चतुष्पद उतराधे में नाग और शुक्ल प्रतिपदाके पूर्वाध में किंस्तुन्त होते हैं। शुभाशुभ विचारसे भद्रा अशुभ प्मभी जाती है। भारतीय ब्योतिष १३६ पत्नाड्न कैपे देखना चाहिए? उदाहरण के लिए . इस वर्ष के. काशीके एक पत्चाड़के शुद्ध चेत्र शुक्र पत्तकी एक प्रक्तिलिपि दी ज्ञाती है। पहले काज्षम के ऊपर “दि! से दिनमान अथात्‌ सूर्योदय से सूर्यास्त तक- का समय समभाना चाहिए जो घड़ी पत्षमें दिया जाता है | इसके नीचे पहले खाने में ३.) लिखा है जो ३१ घढ़ी २४ पल है। दूसरे खानेमें केवल २६ लिखा है जिसका अर्थ है ३१ घड़ी २५ पल । इसकी तथा चाचेक ओर खानों- की ३१ घड़ी जगहकी तंगीके कारण छोड़ दी गयी है। ३१।४८ के बाद जब दिनमान ३२ घड़ी $ पत्चषका हो गया तब ३२ भी लिख दिया गया। उसके बाद केवल् पब्के अंक लिखे गये हैं । एक सूपरोदयसे दूसरे सूर्योदय तकका समय ६० घढ़ीका होता है, इसलिए राज्निमान जाननेके लिए ६० घढ़ांसे दिनमान घटा देना चाहिए, जैसे परिवाके दिन शुक्रवारकों राज्निमान- ६० घढ़ी - ३१ घड़ी २९ पतल्ष >> २८ घड़ी ३४ पल | , दूसरे कालमके ऊपर 'ति से तिथि ओर तीसरे कालम- के ऊपर 'वा' से वार समझूना चाहिये | चौथा काल्मम दो पतले पतले कालमसों में बंटा है जहां घ, प, लिखे हैं; इससे समझना चाहिये कि परिवा १ तिथि शुक्रवारकों २४ घड़ी ४४ पल तक रहेगी उसके बाद दृइहन लगेगी, परन्तु लोकिक व्यवहारमें दृहदडका मान शनिवारकों होगा जब वह १८ घड़ी <७ पत्न तक ही रहेगी। इस तरह प्रकट है कि तिथिका मान प्रति दिन घटता जारहा हे, यहाँ तक कि बुधवारको छुठ सूर्योद्यसे $ घड़ी €२ पत्र तक रहेगी फिर सप्तमी लग जायगी जो इसके उपरान्त #&८ घड़ी ६ पल तक रहेगी श्रोर इसी दिन समाप्त हो जायगी ओर अष्टमी लग जायगी । इस लिए सप्तमी तिथि लौकिक व्यवहारमें नहीं लिखी जायगी ओर इसका हानि! (क्षय) , समझी जायगी । ऐसी तिथिकों 'अवम्र तिथि और वार को त्यहस्पर्श! कहते हैं क्योंकि इस दिन तीन तिथरयोंका स्पशं होता है । वृहस्पतिका अष्टमी <& घड़ी १७ पत्च तक ओर शुक्रवारका नवमी ९६ घड़ी ९३ पल्न तक रहेगी । शनिवारकों दुशमी पूरे दिन रात रहेगी और दू+रे दिन रविवारको १ घड़ी €३ पल पर समाप्त होगी । इसलिए दशमीकी वृद्धि हुईं। साधारणतः एक ही पक्तमें तिथि की बृद्धि और क्षय नहीं होता । ्ः - संख्या ६ ] पारिभाषिक शब्दावली १३४ ...[ शेष पृष्ठ १२० का ] पारिभाषिक शब्दावली (२) लें ? भाषाकों आवश्यकतासे अधिक क्यों जटिल बनाया जाय ? ह पारिभाषिक शब्दोंके सम्बन्धर्म एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि श्रप्नेजीमं बहुतसे शब्द ऐसे हैं जिनके साधारण अर्थोर्मे बहुत सूचमान्तर है परन्तु पारि- भाषिक श्रथोमें महान्‌ अन्तर हो जाता है। साधारण बोलचालमें (706, ।टांग0, 0]888, 0७॥6807ए, 8]00068, 787॥2, 080788--शब्दोंके अरथोर्मे बहुत थोड़ा-थोड़ा अन्तर है । परन्तु गणितीय विषयोंमें इनमेंसे लगभग प्रत्येकका. एक विशेष अर्थ है। अत: गणितीय शब्दावलोमें इन सबके लिये प्रथक-पृथक पर्याय नियुक्त करने होंगे ' हमारी शब्दावली इस प्रकारकी हो - सकती है : िः न्‍ $9]06 नमूना [प0 प्रकार - 0७।888 संघ 07069 (०0[ 8 0ा#, 006//.). वर्ण 07067 (0 $67778) क्रम 08॥6207'पए . जातिवर्ग 870080१68 जाति 78707 (07 & ?१६४४४४५ ) पद॒वी (68768 (07 87 ०७४७७६7070)... घात 362766 (7 97] 8708]0) अंश यदि किसी शब्दका पर्याय बनाना कठिन हो तो अंग्रेजीके शब्द ज्योंके त्यों लेनेमें कुछ हनन नहीं है, यदि शब्द सरल ओर छोटे हों । स्केल! को हम 'मापदण्ड' नहीं कह सकते क्योंकि 'मापदण्ड' हम '8097॥0870 के अर्थ ले चुके हैं। इसके अतिरिक्त स्केल एक छोटा ओर सरल शब्द है ज्ञिसके याद करनेमें अशित्षित लोगों को भी कठिनाई नहीं होगी । अत: 'स्केल' शब्दकों हम ज्योंका त्यों अपना सकते हैं । इसी प्रकारका शब्द ?0]6 है जिसके चार अर्थ हैं : | " ए00 (र्ण 90७7 0007079668) * आदि बिन्दु 706 8700 $%0]97 भ्रुव ओर भर वो 720)6 (708807'6) पोज्न... 2068 (0 9 पितठ070) श्र व परन्तु हम अग्रेजीके केवल ऐसे ही शब्द अद्दण कर सकते हैं जिन पर हिन्दी व्याकरणके नियमोंका प्रयोग न करना पड़े । 'पोल' और 'स्केल!--शब्दोंकों हम इसलिये अपना सकते हैं कि इन शब्दोंके किसी रूपान्तरकी गणितीय भाषामें आवश्यकता नहीं पड़ती। परन्तु यदि हम “(37'8])7” शब्दको अपनाना चाह तो (37'8]0070, (37"9]009), (97"809]7098ए ओर (3:80॥-09067' को क्रमशः ग्राफीय, ग्राफात्मक, ग्राफत: ओर ग्राफ्त -पत्र कहना होगा। आाफ-पत्र” को तो हिन्दी-भाषी कदाचित अंगीकार कर लें परन्तु अन्य शब्द कदापि स्वीकृत नहीं हो सकते। इसलिये आफ! के लिये एक नये शब्द आलेख' का सूजन करना आव'- श्यक है | इस प्रकार उपरिलिखित शब्दोंके पर्याय यह होंगे : (37'8]0/0 आलेख (+7'8]0]-09]097' आलेख-पत्र (778]0]0 ॥8]07'68- 87$&607 आलेखिक निरूपण (37'8]077[09] 7760॥॥00 आलेख विधि (378]07708]]फ आलेखतः व्यक्तिवाचक शहब्दोंके पर्याय तो व्यक्तिवाच्रक ही बनाने पढ़ेंगे। ॥06]'5 []6०7७४ को 'ओबेलका प्रमेष' के अतिरिक्त ओर कुछ भी कहना युक्ति-संगत न होगा । इस प्रकारके शब्दोंमे तो कोई कठिनाई नहीं पड़ेगी परन्तु कुछ व्यक्षक ऐसे हैं जिनके नाम विभक्ति रूपसें नहीं हैं वरन व्यक्तियोंके नामोंके रुपान्तर मात्र हैं। 80०77 8 6$6777|7876 का एक स्वतन्त्र नाम _ - ७0007&7॥) ही पड़ गया है। इसी प्रकार ७7०7- 8/'8 068097707708700 का नाम ७४7०078ट 97 ही पड़ गया है। इन नामोंके पर्याय यदि हम चाहें तो 'जैकोबीका सारणिको ओर 'रोन्स्कीका सारणिक' रख १३८ सकते हैं। परन्तु यहाँ एंक बात विचारणीय दे । जब हम 7प]०7/8 00780876 कहते हैं तो उसका अथ होता है एक ऐसा अचल जिसका अध्ययन या उपलंभन सबसे पहिले औयलर ने किया था।' इसलिये इसको 'ओऔयलरका अचल” कहना ही उचित होगा। इसी प्रकार यदि हम 800097) को ज्ञैकोबीका सारणिक' कहें तो कोई विशेष हानि नहीं है। परन्तु थें9000087 के विषय ने अपना एक स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित कर लिया है जिसका 'सारणिक' के साधारण नियमोंसे कोई विशेष सम्बन्ध नहीं रहा | ठं॥0009॥) के प्रसंगका श्रब वास्तविक विश्लेषण (068 /78* ]998) में ऐसा ही स्थान है जैसा ज्यासितिमें वृत्तका या बीजगणितम 'निर्ष्पत्ता ओर अनुपात का । इसलिये यदि 8009787। का सारशिक! विषयसे एक बिलकुल स्वतन्त्र नाम रख दिया जाय तो श्रस्युत्तम है । अतः 800/087 को हिन्दीमें भी 'जैकोबियन' - ही क्यों न कहें? यदि यह व्यापक नियम बना लें कि अग्रेजीके जो शब्द व्यक्तियोंके नामोंके रूपान्तर मात्र हैं उन्हें ध्योंका त्यों हिन्दीमं अपना लिया जाय तो बहुत सुविधाजनक होगा । इस ५कार हिन्दीमें भी | ०४७8 8॥ को 'हेसियन'! ओर 'फ़त'78|787)” को रोन्स्कियन!' ही कहेंगे । १७ जाओ जिम म--मपरधन्‍जाम्पककााओ हवाह फोटोग्राफी द्वारा सिंचाहके इज्जीनियरोंकी सहायता सिंचाईके इंजीनियर जब पानी इकट्ठा करनेके लिये किसी ताल्ञाबके निर्माणका विचार करते हैं तो इसके लिये जो चेत्र चुना जाता है, उसमें कितना पानी आ सकता है यह जानना अत्यन्त महत्व रखता है। अभी तक इसके लिये यह किया जा रहा है कि थोड़ी थोड़ी दूर पर सारे ज्ञेत्रके आरपारके कुछ भाग लेकर उन्हें एथक्‌ पृथक नाप कर ओसत निकाल लिया जाता है। इस अणालीमें जहाँ कहीं सन्देह रह जाय उसे दूर करनेके लिये सीधी. फोटोग्राफीसे काम लिया जाता है। आकाश से सीधे नीचेकी तस्वीर जी जाती हैँ। पएथ्वीका प्रत्येक भाग विज्ञान, माच, १६४४ उरमममाार ८५५५५ 3७४५ ७क थक ५७०३५ ७५५3७ ५३५७३५4३७५३७३३५०७५७७७५७३७७३०७५०३॥॥॥०५३५५॥॥३४३७ ५७,३७५: ७४॥०७७।७३॥०४००७५-३५३३३७३५४५०४७४७ा३१७७३४५७४५५३॥:५॥५७५३५७५७५३७५४७५७५३५३॥५३५५७४७०७७७७७+५३५८ नह ाकपााअा३5काओाामाक सन [ भाग ६० दो चित्रोंमें झा जाता है। जब इन चित्रेंके स्टीरियोस्काप य॑त्रसे देखा जाता है तो दर्शकका ऐसा मालूम द्ोता है कि वह एक ठोस भतिरूपको देख रहा है | दम दोनों सिल्रोंके| एक साथ नकशेमें जोड़कर रखनेसे उस स्थानमें पानी भरनेकी वास्तविक शक्तिका पता लग जाता है। पहली प्रणालीकी तरह इसमें बहुत सी बातेकोा यों ही मान नहीं लेना पढ़ता । यह प्रणाली इतनी महत्वपूर्ण सिद्ध हुईं है कि भारतीय पर्यवेक्षण विभाग ने यह निश्चय किया है कि भूमिकी शक्तिकी नाप जोखके लिये बहुत सा खर्च उठा कर उसे जगह जगह बराबर करनेकी आवश्यकता नहीं रही है | शाके-यकूत तेलका उपयोग 6 नाजोंका शकरी करण भारतमें शाक॑मछलीके यकृतके तेल्के उपयोगकी जो इधर पिछले ४ वर्षो'में उन्नति हुई है उश्रका कारण जितना चिकित्पाकी दृष्ठिसे इसका उत्तरोत्तर मान्य हो जाना है उतना ही विदेशसे आने वाले तेज्की युद्धकालीन कमी भी है। काड मछुलीके तेलके मानमें इसका उत्पादन श्रभी भारतमें १९,००,०० पोंड तक पहुँच सका है। - पौष्टिक तत्त्व प्रदान करनेके उद्देश्यसे इसका उपयोग व्यापक त्षेत्रमे संभव है ओर समुद्गतटके प्रदेशोंमें इसका उत्पादन लगातार बढ़ता जा रहा है। वस्तुतः इस उद्योगके रूपमें आय-वृद्धिकां एक नवीन साधन उपलब्ध हुआ है। इस उद्योगकी प्रगतिके सम्बन्ध्सें कुछ मद्टत्वपूर्ण प्रश्नों पर “वैज्ञानिक तथा ओद्योगिक अनुषतन्धान पत्रिका” के “ जनवरी मासके अ्रंकर्में प्रकाश डांला गया है। नाजेंमें उपस्थित स्टाचेको शक्‍्करमें परिवर्तित करने ओर उसके धोलोंका शराब, सिरका इत्यादि तैयार करनेके उचद्योगोंके लिये इसका विशेष महत्व है। नाजेके शकेरीकरणकी परम्परागत विधि उनके 'साल्‍्ट' तेयार करनेकी रही है। ज्वार, बाजरा, मकई ओर गेहूँके नये साधनों द्वारा शर्करी करणकी विधियों पर भी पत्रिकाके एक लेखमें काश डाला गया है। जा कि विज्ञान-परिषद्‌की प्रकाशित प्राप्य पुस्तकोंको सम्पूण सूची १--विज्ञान प्रवेशिका, भांग १०विज्ञानकी प्रारम्मिक बाते सीखनेका सबसे उत्तम साधन -ले० श्री राम- दास गौड़ एम० ए० और प्रो० सालिगराम भागंव एम० एपस-सा० ; )) २०-ताप--द्वाईस्कूलेमं पढ़ाने योग्य पाठ्य पुस्तक-- क्षे० प्रो० प्रेमवत्लभम जोशी एम० ए० तथा श्री विश्वम्भर नाथ श्रीवास्तव, डो० एस-सी० ; चतुथ संस्करण; 0), ३--चुम्बक--हाईस्कूलमें पढ़ाने योग्य पुस्तक--ले० प्रो० सालिगराम भागव एम० एस-सी०; सजि०; ॥#) ४--मनोरख्जक रसायन--इसमें रसायन विज्ञान उप न्यासकी तरह रोचक बना दिया गया है, सबके पढ़ने योग्य है--ले० प्रो० गोपालस्वरूप भागंव एम० एसन्सी० ; १॥), ४--सुर्य-सिद्धान्त--संस्क्ृत मूज्न तथा हिन्दी 'विश्ान- भाष्य'--प्राचीन गणित ज्योतिष सीखनेका सबसे सुलभ उपाय --प्रृष्ठ संख्या १२१४ ; १४० चित्र तथा नकशे--ले० ओऔओ महांबीरप्रसाद श्रीवास्तव बी० एस-सी०, एल० दी०, विशारद; सजिल्द; दो भागेमि, मूल्य ६)। इस भसाप्यपर लेखकको हिन्दी साहित्य सम्मेज्ननका १२००) का मसंगलाप्रसाद पारितोषिक मिला है । ६--वैज्ञानिक परिमाण--विज्ञानकी विविध शाखाश्रोंकी , इकाइयोंकी सारिणियाँ--ले० डाक्टर निहालकरण सेठी डी० एस सी०; ॥।), 3--समीकरण मीमांसा-गणितके एम० ए० के विद्यार्थियेंके पढ़ने योग्य--ले० पं० सुधाकर द्विवेदी; प्रथम भाग १॥), द्वितीय भाग ॥#), ८--निर्णायक ( डिटर्मिनेंट्स )-- गणितके एम० ए० के विद्यार्थियंके पढने योग्य--ले० प्रो गोपाल केशव गदें और गोमती प्रसाद श्रभिदोन्नी बी० एस सी० ; ||), ६--बीजज्यामिति या भुजयुग्म रेखागणित--ईटर मीडियेटके गणितके विद्यार्थियोंके लिये--ले० ढाक्टर सत्यप्रकाश ढी० एस-सी० ; ॥॥), १०--गुरुदेवके साथ यात्र--डाक्टर जे० सी० बोसकी यात्राओंका लोकप्रिय वर्णन ; ।“), ११--केदार-बद्री यात्रा--केदारनाथ ओर बद्रीनाथके यात्रियोंके लिये उपयोगी; |), १२--वर्षा और वनस्पति--लोकप्रिय विवेचन--ले० . श्री शझ्नरराव जोशी; |), १३--मनुष्यका आहार--कौन-सा आहार सर्वोत्तम है-- ले० वैद्य गापीनाथ गुप्त; /), ४--सुवणं का री-- क्रियात्मक - ले ० पैचोली; ।), १४--रसायन इतिहास--इंटरमीडियेटके विद्यार्थियोंके योग्य ल्ले० ढा० आत्माराम डी० एस-सी०; ॥॥), १६--विज्ञानका रजत-जयन्ती अंक--विज्ञान परिषद्‌ के २६ वर्षका इतिहास तथा विशेष लेखोंका संग्रह; १). श्री गंगाशंकर १७--विज्ञानका उद्योग-व्यवसायाझ्ु--रुपया बचाने तथा धन कमानेके लिये अनेक संकेत--१३० पृष्ठ, कई चित्र--सम्पादक श्री रामदास गाड़ ; १॥), १८० फंल्न्संरक्षण--दूसरापरिवर्षित संस्करण-फर््ञोकी : डिब्बाबन्दी, सुरब्बा, जेंम, जेली, शरबत, अचार आदि बनानेकी अपूर्व पुस्तक; २१२ पृष्ठ; २९ चित्र--- ले० डा० गारखप्रसार डी० एस-सी०, २), १६--व्यड्भ-चित्रण--( काह्न बनानेकी विद्या )ले० एल० ए० ढाउस्ट : अनुवादिका श्री रत्नकुमारी, . एम० ए०; १७१ पृष्ठ; सैकड़ों चित्र, सजिल्‍्द; १॥) २०--मिट्टाके बरतन--चीनी मिट्टीके बरतन केसे बनते हैं लोकभ्रिय-- ल्वले० प्रो० फूलदेव सहाय वर्मा : १७३ पृष्ठ; ११ चित्र, सजिल्द; १॥), २१--वायुमंडल--ऊपरी वायुमंडलका सरल वर्णन-- ले० डाक्टर के० ब्री० माथुर; १८६ पृष्ठ, २९ चित्र, सजिल्द, १॥), २२--क्षकड़ी पर पॉलिश- पॉलिशकरनेके नवीन ओर पुराने सभी ढंगेंका व्योरेवार वर्णन । इससे कोई भी पॉलिश करना सीख सकता है--ले० ढा० गेरख- दा च्क : प्रसाद और श्रीरामयत्न भटनागर, पुंस०, एं०;, ३१ पृष्ठ; ३१ चित्र, सजिल्द; ३। ।), २३--उपयोगी नुप्तखे तरकीबें ओर हुनर--सम्पादक डा० गोरखप्रसाद और डा० सत्यप्रकाश, आकार बड़ा ( विज्ञानके बराबर ), २६० पृष्ठ ; २००० लुसखे, १०० चित्र; एक-एक नुसखेसे सैकड़ों रुपये बचाये जा सकते हैं या हज़ारों रुपये कमाये जा सकते हैं। प्रश्येक गृहस्थके लिये उपयोगी ; मूल्य अजिल्‍ूद २), सजिल्द २॥), । २४--कलम-पेबंद--ले० श्री शंकरराव जोशी; २०० पृष्ठ: *० चित्र; माल्ियों, मालिकों ओर कृपकोंके लिये डपग्रोगी; सजिल्द; १॥), . २४५--ज्िल्दस|जी--क्रियाव्मक और ध्योरेवार। इससे सभी जिल्दसाज़ी सीख सकते हैं, ले० श्री सत्यजीवन वर्मा, एम० ए०; १८० पृष्ठ, ६३ चित्रसजिल्द १॥॥), २६--भारतीय चीनी मिट्टियाँ-- औद्योगिक पाठशालाओं के विद्यार्थियोंके लिये--ले० प्रो० एम० एल मिश्र, २६० पृष्ठ; १२ चित्र; सजिल्द १ ॥), २७--त्रिफल्ञा--दूसरा परिवर्धित संस्करण प्रत्येक वैद्य और गृहस्थके लिये - ले० श्री रामेशवेदी आयुर्वेदालंकार, २१६ पृष्ठ; ३ चित्र (एक रज्ञीन); सजिल्द २) - यह पुस्तक गुरुकुल आयुवंद महाविद्याह्षय 3३ श्रेणी द्वव्यगुणके स्वाध्याय पुस्तकके रूपमें शिक्षापटत्रमें स्वीकृत हो चुकी है |” २८--मधुमक्खी-पालन--ले० परिडत दयाराम जुगढ़ान, भूतपूर्व अध्यक्ष, ज्यो्लीकोट सरकारी मधुबटी; क्रिया- कक ओर व्यौरेवार; मधुमक्खी पात्नकॉके लिये उप- योगी. तो है ही, जनसाधारणको इस पुस्तकका अधिकांश अत्यन्त रोचक प्रतीत होगा, मधुमक्खियों की रहन-सहन पर पूरा प्रकाश छात्रा गया है | ४०० पृष्ठ; अनेक चित्र और नकशे, एक रंगीन चिन्न, सजिल्द; २॥), ब “घरेलू डाक्टर-- लेखक और सम्पादक डाक्टर 'जी० घोप, एम० बीं० बी० एस०, ढी० टी० एम०, प्रोफ़ेसर डाक्टर बद्गीनारायण पअस्राद, पी० एच० ..___ छस्क तवाबबाण शए जाग 7777 तथा प्रकाशक - विश्वप्रकाश, कल्षा प्रेस, प्रयाग | ६०४. ९०. & 82 डी०, एम० बी०, कैप्टेन डा० उमाशंकर प्रसाद, एम० बी० बी० एस० , डाक्टर गोरखप्रसाद, आदि | २६० ४ृष्ट, ११० चित्र, आकार बड़ा ( विज्ञानके बराबर ); सजिल्द; ३), * 3. यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी है। प्रत्येक घरमें एक प्रति अवश्य रहनी चाहिये.। हिन्दुस्तान रिविड लिखता है--8)।07]0 ४७७ ए़ा46]ए ए8]6- 07764 ४9ए $967 प्लांग6+ (70छ72 कप00 वध कका8 60प्राएए,..._ अमछत बाजार पत्रिका लिखती है--6 ७]। हि - 70-87 | 0700748॥6 9]806 47 9५6१ए क्‍0776 १॥6 ४॥6 [97704 8]778782८, . ३०-तैरना--तैरना सीखने. और डूबते 'हुए लोगोंको बचाने की रीति अच्छी तरह समभ्कायी गयी है। ले० डाक्टर गोरेंसप्रसाद, पृष्ठ ३०४, मूल्य ५ ) ३१--अंज्ञीर--लेखक श्री रामेशबेदी, आयुवंदालंकार- ३२--सरल विज्ञान सागर, प्रथम भाग--सम्पांदक अंजीर का विशद्‌ वर्णन और उपयोग करनेकी रीति । पृष्ठ ४२, दो चित्र, मूल्य ॥), यह पुस्तक भी गुरुकुल आयुवेद महाविद्यालयके शिक्षा पटक्षमें स्वीकृत हो चुकी है । डाक्टर गोरखप्रसाद । बड़ी सरल और रोचक भाषा में जंतुओंके विचित्र संसार, पेड़ पौधों की अचरजञ भरी दुनिया, सूर्य, चन्द्र और तारोंकी जीवन कथा तथा भारतीय ज्योतिषके संक्षिप्त इतिहास का वर्णन है । विज्ञानके आकार के ४७५० पष्ठ और ३२० चित्रोंसे सजे हुए ग्रन्थ की शोभा- देखते ही - बनती है। सजिल्द, मूल्य ६) ु निम्न पुस्तकें छप रही हैं. रेडियो--ले० प्रो० आर० जी० सक्सेना ! सरल विज्ञान सागर (द्वितीय खंड)-- सम्पादक ढा० गोरखप्रसांद । मं विज्ञान-मासिक पत्र, विज्ञान परिषद्‌ प्रयांगका मुखपत्र है । सम्पादुक डा० संतश्रसाद टंडन, लेक्चरर रसायन विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय । वार्षिक चन्दा ३) . विज्ञान परिषद्‌, ४२५ टेगोर टाउन, इलाहाबाद | विज्ञान _विज्ञान-परिषद्‌, प्रयागका सुख-पत्र विज्ञान ब्रह्मेति व्यजानात, विज्ञानादध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । विज्ञानेन जातानि जीवन्ति, विज्ञानं प्रयन्व्य भिस्ंविशन्तीति ॥ तै० 3० ।शे।७। मेष, सम्बत्‌ २००२ भांग ६१ अग्रेल १६४४ संख्या १ पारिमाषिक लिपि ( डा० ब्रजमोहन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ) आज कल 'नागरी लिपिमें सुधार! का प्रश्न छिढ़ा हुआ है। इस प्रश्नके व्यापक अंगेसे मुझे इस समय कोई प्रयोजन नहीं है । यहां केवल उन्हीं अंगी पर विचार करना है जिनका सम्बन्ध पारिभावषिक-शब्दावलीसे है। सबसे पहली बात तो यह दृष्टिगोचर होती है कि अंग्रेजी में कुछ स्वर ऐसे हैं जिनके लिए हिन्दीमें संगत-स्वर नहीं है, जैसे 000, और ि००४ए में 0! का उच्चारण और 80 और 870 में “8? का उच्चारण | लोग प्रायः [&6 को हिट और /8॥0 को ऐण्ड' लिखते हैं । यह रीति अब लगभग सर्वेब्यापी हो गई है । परन्तु अंग्रेजी के (४00 को कुछ लोग गाड, कुछ गॉड और कुछ अन्य लोग गौड' लिखते हैं । प्रश्न यह है कि इन तीनमेसे किस रूपको उचित माना जाय । इसी प्रकार अंग्रेजीके शब्द “677” के 6? के उच्चा- रणखके लिए हिन्दीमें कोई स्वर नहीं है। द्विन्दी भाषी इन शब्दोंके लिखनेमें 'ए? की मात्रासे ही काम लेते हैं। . अतः यह लोग 767 को पेन, (366 के गेट, 268 को पेस्ट लिखते हैं। इस प्रकार शअ्रंग्रेजीके (3060 ओर 0888 में, "७7 और ?8777 में तथा ??68॥ और 72886 में कोई अन्तर नहीं रहता। इसलिए कुछ लोगोंने यह प्रस्तावित किया है कि अंग्रेजीके इस स्वरके लिये हिन्दीकी 'ए! की उल्टी सात्रा निर्धारितकी जाय। थरदि यह प्रस्ताव मान लिया जाय तो हम उपरित्निखित शब्द इस प्रकार लिखेंगे (366 गेंट (3866 गेट ए8॥ पेन 78॥7) पेन 72687 पेस्ट 7?5806 पेस्ट , यह प्रस्ताव तक-सम्मत्त तो मालूम देता है परन्तु युक्ति-संगत नहीं है । श्रश्न यह है कि हमर हिन्दीका पारिभाषिक शब्द-भाँडर बढ़ाना चाहते हैं अ्रथवा हिन्दी भाषियोंका अंग्रेजी सिखाना चाइते हैं | जिस दिन हिन्दी भाषियोंकों नागरी लिपि द्वारा अंग्न जीका ज्ञान कराना होगा उस दिन तो नागरी लिपि अ्रथवा वर्णमालामें थोड़ें बहुत हेर फेर करने आवश्यक होंगे। परन्तु आज 'तो प्रश्न केवल्ल हिन्दीकी शब्द-सम्पत्ति बढ़ानेका है। इस अभिप्रायकी पूतिके लिए यह बिल्कुज्ञ अ्रनावश्यक है कि काई नया स्वर बनाया जाय | जितनी जीवित भाषायें संसारमें हैं सबकी सब अन्य भाषाओंसे शब्द ग्रहण करती हैं परन्तु वह उन शब्दोंको अपनी लिपि ओर वर्णमालाके अनुसार तोड़ मरोड लेती हैं, ओर उन्हें अपने ही व्याकरणके नियमोंले बाँधती हैं। उनके लिए कोई नया स्वर॒या व्यंजन नहीं बनातीं। चाणक्यका नाम अंग्रेजीमं इस प्रकार ५))७787 ए० लिखा जाता है, ण॒ के लिए कोई नया व्यंजन नहीं बनाया जाता। गंगाजी के नामके बिगाइकर अंग्र जोंने (+8॥7288 बनाया है | यदि नाम न भी बिगाड़ा होता तो भी वह लोग गंगाका (3७729 लिखते। “इ” के लिए कोई नया भक्षर नहीं बनाते । हिन्दीके अनेक शब्द और नाम ऐसे हैं जिन्हें अंगजीमें शुद्ध रूपमें लिख ही नहीं सकते . ऐसे शब्दोंका अंग्रेजी में निकटतम विक्ृत रूप ही लिखा जाता है भ्रोर वही चालू हे! जाता है जेसे विज्ञान-- जए2ए००७7 ( या ५]]792 ),दर्शन--2878॥ 077, इतिहास--07]88 । केवल कहीं-कहीं वह लोग इतना अवश्य कर देते हैं कि ऐसे स्थ्नों पर 0, 6, ६ के नीचे एक विन्दी क्गी देते दें । परन्तु यह प्रथा भी २ विज्ञान, अप्रैल, १६४५ | भाग ६१ सर्वव्यापी नहीं है । यदि आज हम अंग्रेजी नामों श्रथवा शब्देके अपनी पारिभाषिक शब्दावक्ञीमं महण करते खमय नये-नये चिन्ह ओर स्वर बनाने लगे' तो कल के यदि हम कोई शब्द फ्रेंच, जमन, या रूसी भाषासे लेंगे तो कदाचित हमें ओर भी कई नये चिन्ह बनाने पड़ेंगे । इस प्रकार तो नये नये चिन्होंके निर्मांणका कर्भी न्त- ही नहीं हेगा । जब हम ?8॥6 नाम हिन्दीमें लिखते हैं तो 'प्लेटः लिखा जाता है, & के उच्चारणके लिए कोई नया स्वर नहीं बनाया जाता| इसी प्रकार यदि हमका गणितज्ञ & [06] का नाम लिखना हो तो हम आपदवेल' या ओबेल' क्योंन किखें। उसके लिए एक नये स्वर 'ऑ का सृजन क्यों करें £ अंग्रे जीका एक और भी उच्चारण है जिसके लिए हिन्दीम केई चिन्ह नहीं है। अंग्रेजीके शब्द्‌ 760]08 के मेंने हिन्दीमें कई प्रकारसे लिखा देखा है-- पीपुक्ष, पीपल, पीपिल, पीप्क्ष . वास्तवमें यह चारों हिज्जे अशुद्ध हैं। क्योंकि इनमें से एक भी उस उच्चारणका द्योतक नहीं है जे। श्रंग्न जीके शब्द ?60]0]6 में समाविष्ट है। तो क्‍या हम इस उच्चारणके लिए भी एक नये चिन्हकी सृष्टि करें . इस प्रकार तो हमारी चिन्ह-सुची अथवा वर्णशमाला बढ़ती ही चली जायगी । मेरी समरूसे तो जहाँ कहीं हिन्दीमे अंग्रेजीके किली उच्चारणका अभाव दिखाई दे वहा निःसंके।च रूपसे उसके निकटतम हिन्दी उच्चारणके चिन्ह से काम लेना चाहिए। इस प्रकारके थोड़ेसे शब्दों और नामोंके उदाहरण में यहाँ देता हँ--- (१0)]028 कोलिज [0०६७फ होंकी (>9प58 गाउस ए/7078ट८] रोन्सकी [6 ( प्र लैेण्डाउ [ 6888 877 हेसियन प्रापा6' ओयलर 90/70॥४ श्ल्ि ख्ट १०॥ र्कः ए७०॥।9७७]७ द्विपिल 8.006 ए000 खिटिल बुड | इस सम्बन्धर्म एक प्रश्न ओर भी विचारणीय है। वह है विदेशियोंके नार्मेके रूप का । फ्रेंच ओर जमेनोंके नामोंके विकृत रूप ही अंग्रेजीमें प्रचल्चित हे। गये हैं। जैसे [26 ,४0]ए7'.8 का वास्तविक उच्चारण दः्खातने था । परन्तु अंग्र जीमें अधिकतर लोग इसे डी मौयबर पढ़ते हैं । अब प्रश्न यह है कि जब हम [)06 )/04907'8 का नाम हिन्दीमें लिखें तो दःम्वात्रे लिखें या डीमौयबर । हिन्दी लेखकोमें इल प्रकारके नामोंके लिखनेकी कोई निश्चित पद्धति नहीं है। मेरी समझमे जो नाम भारत- वर्यमें जिस रूपमें अंग्रेज़ीमं प्रचल्षित हे। गया है उसे हिन्दीमें भी उसी रूपमें लिखा जाय | अतः हम उपरि- लिखित नामके डी मोयवर खिखेंगे न कि दःम्वाते ।' जिन नामेंके दो या अधिक उच्चारण प्रचलित हों उनके वह उच्चारण लेंगे जो अधिक प्रचलित हों। अतः हम नामोंकेा इस प्रकार लिखेंगे :-- (70%॥]6+$ डिरिचले 008 (097'085 दः कार्ते 80॥फ़् 8'2 बवाज ए८॥ 0७०७ 70]! बेन्दर पोल विभिन्न रंगोंका शीशे का कपड़ा 'लन्दन तार ह्वारा-युद्धके बाद बृटेनका शीशा-उद्योग संसारमें सबसे अधिक सुन्दर कपड़े बनाना प्रारंभ कर देगा । बुटेनके अनुश्नंधान करने वाले वैज्ञानिकॉने ऐसी प्रणाली दहं ढ़ निकाली है जिसके द्वारा शीशेके तारोंसे बुने, रेशम जैसे चमकदार इस कपड़ेमें इन्द्रधजुपके सारे रंग बुने जा सकते हैं | ह कपड़ा सुन्द्र तो हैं ही पर साथ ही स्लाथ इसमें ये गुण विद्यमान हैं किन॒ तो इल पर धब्बा लगता है, न रंग फीका पड़ता हैं, ओर ने आगसे जलता है| मोडने तोड़ने पर भी न तो यह टूटता है और न इसमें विकार पेदा होता है। यह कपड़ा सजावटके काममें लाया जायगा | बृटिश वैज्ञानिक पुसी योजनाएँ बना रहे हैं जिससे यह पहलननेके भी काम आ सके । शेफीक्ड युनिव- लिंटीके ग्लास टेकनोलाजीके प्रोफेतर डब्ल्यू टर्नरकी धर्म- पत्नीने नववधूके रूपमें इसे पहना भी था। संख्या १ ] ्जॉ रजर डे ७ ७५..-.५०००-०००५००७3५००५..२००५.............................................................3०.33०-००न«+-न«-ा मनन न» नरम कक न नमक न न-+नन5 “न नल कप भननननन न न ननन- न» रजर# (ले०--श्री आऑकारनाथ परती) रबरका ध्यवक्षााव गुडियरकी खोजसे रबरकी उपयोगिता बहुत बढ़ राह ' किन्तु रबरका प्रयोग धीरे धीरे ही बढ़ा । सन्‌ १८६० इ० तक रबरसे बनाई जाने वाली मुख्य वस्तुएं यह थीं- जूते, बरसाती कोट, बार्गों में पानी देनेके पाइप ओर घरेलू वस्तुएं । इसके बाद बाइसिकिल आई ओर रबरके टायर ओर ट्यूबों की माँग बढ़ने त्वगीं। सन्‌ १६०७ ई० से मोटरकार बाज़ार में त्रिकने लगीं जिससे रबरके टायर ओर ट्यूबों की माँग बहुत बढ़ गई | इलीनौयस यूनिव- सिदीके प्रो० राजर एडस्सके कथनानुसार ““* 'रबरके दो पेड़ जितनी रबर साल भरमें देते हैं उससे फोडे मोटर का एक टायर बनता है। और जब यह ध्यान में: रखा जाये कि केवल संयुक्त राष्ट्र असेरिका में सन्‌ १६२९ ईं० में ६ करोड़ टायर बने थे तो संसारमें रबरके प्रयोग का कुछ अनुमान किया जा सकता है।यह अन्दाज़ लगाया गया है कि सन्‌ १६४१ ई० में संसारमें १५६०००० टन रबर पेड हुई थी । कुछ रबरका प्रयोग इबोनाइट [ै907768] और वल्फैनाइट बनानेमें भी होता है।यह रोजन हैं ओर इनसे बिजली के स्विच इत्यादि बनाये जाते हैं । भारतवर्षमं सन्‌ १६३८ ६० में रबर के व्यवसाय की यह दशा थी --- खेतों की गिनती ३२,२२१ खेतों का चेन्नफल (१) जो बोये गये है १,२४,०००एकड़ (२) जिनसे पेदावार होती न १ ,१९,००० ,, आदसी नोकर ३२,३७७ कच्ची रबरका बनना: , ३,१०,७७,०००पोंड सुखाई हुई रबर (३१-१२-१८ को) ८5०,११,००० टन भारतमे रबरका व्यय कितना होता है इसका अनुमान निश्चवलिखित आँकडंसे लगाया जा प्कता है। 48 चरेखक द्वारा सर्वाधिकार सुरक्षित इन ऑकड़ोंमें रबर और उससे बनाई हुई सब बस्तुए रबरके नाम से ही लिखी गई हैं :-- सन्‌ बाहरसे आयी रबर बाहर भेजी गयी रबर १६३५-३६ १६२ लाख रुपये ४७ लाख़ रुपये 3४३६-३७ 3६६ ,;, $१ हैंड 3 )ड़ १६३७-३८ १८६ ,, 3) दे ८... 38 482८-३६ १४३ ,; ७४ रे , 39 १8३६-४० फट ७, ७५ 88... कह भारतसे अधिकतर कच्ची रबर ही बाहर भेजी जाती है और यहाँ अधिकतर !'बर्मासे ही रबर आती थी। उदाहरणार्थ सन्‌ १६३८ ई० में बर्मासे ४१,२९६,००० पॉड रबर भारतमें आई थी । झाजकल मल्ाया, सिंगापूर और बर्मा जापानियों के हाथ में है | इन प्रदेशेमें संसार की ६० प्रतिशत रबर होती थी | इन प्रदेशके जापानियोंके हाथ चले जानेसे मित्र राष्ट्रके समक्ष रबर की बड़ी समस्या है| सब स्थानों में रबर पर नियन्त्रण (कन्ट्रोल्) है । इसका मुल्य बढ़ता जा रहा है। सन्‌ १६३० ई० में इसका मृल्य सबसे ऊँचा १२ शि० ६ पं० प्रति पोंड था, क्योंकि इस समय मोदर- कार नई नई चलने लगी थी । इसका फल यह हुआ कि सब लोग रबरकी खेती करने पर टूट-पड़े | सन्‌ १६२२ ई० में इसकी अत्यधिक उपज हुई ओर इसका भाव ६7 पस प्रति पोंड तक गया । इसके बाद स्टीवेन्सन स्कीम आई ओर सन्‌ १६२७ ई० में रबरका भाव ४. शि० झ पँं० प्रति पोंड हो गया। सन्‌ १६३० ई० के आरम्भ में रबर का भाव गिर कर २१० प्रति पॉंड ही रह गया । अब अन्तर्राष्ट्रीय रबर के रोक थाम की विधि [77897796078] रिप्री)067 &8207॥9607 80]67706] बनाई गई । इससे रबर का भाव कभी ६ पँ० प्रति पॉड्से नीचे नहीं गिरा । सन्‌ १६४४के अन्तमें रबरका भाव १ शि० प्रति पॉड पर स्थिर कर दिया गया । पहिले कहा जा चुका है कि बर्मा, मज्लाया और सिंगा- पूर जापानियों के हाथ में चले जाने से भारत में रबर का अभाव बढ़ गया है | इसके दो कारण हैं: एकतो बर्मा ओर मलायासे रबरका झाना बुन्द्‌ हो गया, ओर दूसरे डे क्‍ विज्ञान, अप्रेल, १६४४ मित्र राष्ट्रोको अब यहीं से रबर जाती है।इस अभाव को पूरा करने के लिये बड़ा परिश्रम किया जा रहा है। सरकारकी ओरसे कई स्थानों पर रबरके पेड़ लगाये गये हैं, परन्तु रबर के पेड़ पाँच से सात साज् के पहिले रबर नहीं देते अतः अभी तक रबरका अभाव ही है। भविष्यमें आशा है कि यह अभाव कुछ कम हो सकेगा । सबसे बड़े आश्चयंकी बात तो यह है कि अमेरिका में रबरका जन्म हुआ किन्तु आजकल कदाचित्‌ वहीं रबर का अभाव सबसे अधिक प्रतीत होता है। जबसे महायुद्ध प्रारम्भ हुआ है तबसे अमेरिकामें भी रबरकी खेती बहुत बढ़ा दी गयी है, किन्तु अभी इन नये खेतों से रबर निकलती नहीं | जमनी, इगलेंड, अमेरिका आदि देशों में कृत्रिम रबर बनती है जिसे योगिक रबर [89776]6॥70 हिप्र29७7] कहते हैं । योगिक रबर प्राकृतिक रबरसे मिलने झुलने वाल्ले सब पदाथों को यौगिक रबर कहते हैं। सन्‌ १८६० ई० में विज्तियम्स ने देखा कि रबरकों गरम करने पर उसमेंसे जो गेल निक- लती हैं उनमें सर्वश्रधान आइज्ञोप्रीन [[80]07.970] है । रासायनिक अनुसन्धानोंसे यह सिद्ध हो गया है कि रबर वास्तवमें आइज्ोप्रीन अणुओंसे बनी है। रबरके अणुमें आइज्ञोप्रीन अखु एक दूसरेसे गुथे हुये रहते हैं । यौगिक रबरका इतिहास बड़ा रोचक है। इंगलेंड वाले यह मानते हैं कि सर्वप्रथम टिल्डन ने इसको बनाया ओर इस खोजका श्रेय उसे मिलना चाहिये। वास्तव में सन्‌ १६०६ ई० में जर्मन रसायनज्ञ फ्रिदज़ होफमैनकी अध्यक्षतामें बायर कम्पनी [388967' (7/077[0979 | में योगिक रबर सफलतापूर्वक बनाई गई । इसके पहले कई रसायनज्ञों ने योगिक रबर बनाने का दावा किया किन्तु वह उसे दोबारा बनाने में असफक्ष रहे । इगलेंडमें टिल्डन और परकिनने योगिक रबरके ज्ेत्रमें उत्तम अनुसन्धान किये । जमंनीके निवासी हैरीज्ञ ने सर्वप्रथम ऐसी योगिक रबर बनाई जिसे वल्केनाइज़् किया जा सकता था। सन्‌ 8१२ ई० में न्‍्यूयाकर्में आठवीं अ्रन्त- रां््रीय ऐप्लाइड केमिस्ट्री की काँग्रेस हुई | इक्ष्में जमनी के _ भाग ६१ प्रतिनिधि काले ड्युसबर्ग थे । इन्होंने इस कांग्रेसमें यौगिक रबरके बनाये हुये कुछ मोटरके टायर दिखाये जो चार हज़ार मील चल चुके थे। योगिक रबरसे बनाई हुई यह प्रधम वस्तुएँ थी जिन्हें सारा संसार जान सका । आजकल यौगिक रबरके कई नाम हैं ओर कई प्रकारके कार्बनिक योगिक इसके बनानेमें प्रयुक्त होते हैं । नीचे एक सारिणी दी जाती है जिसमें यौगिक रबर, उनके नाम और मुख्य रासायनिक अह्ल दिये हुये हैं। इस सारिणी में केवल मुख्य योगिक रबरों का हात है। नाम मुख्य रासायनिक अड्ड एक्रोनाल [8 07078।] पोलीएकाइलिक एस्टर | [720)7७80/' 9 )| ७ €8$87"] ए० एक्स ० एफ [8.2.7',] कोपोलीमर आफ्र इथलीन [(2090897]67 076॥098॥76] बूना ८९ [307)9 05] ब्यूटाडाइन पोलीमर [30॥808976 .90॥9767'] बूना ११९ [3079 49] का हे बूना एन [3079 १४] हि कोपोलीमर [ , ००7००४॥॥ ७7] बूना एस [30798 5] 4५ हे बूना एस एस [37078 58| ,, न ब्यूटाइल [3 प0ए)] ओलीफीन-इाइओलीफीन कोपोली मर [(()]०॥78-0|-007706 (009097767 | केमीगम [(/607 80५77]... ब्यूटाडाइन कोपोलीमर [ 390880]86706 (४070947787' | इधानाइट [ 80)8768] . आरगैनिक पोलीसर्फाइड [0788770 [00]9ए80)]9॥7886| फ्लेमीनाल [']8770700!].. पोलीविनाइल छोराइड [7?0!9979] ७॥0770 6 | फोर्सवार [07'978.'] पोलीविनाइल फारमाल [?0]9ए779] 07॥9| ब्यूटाडाइन कोपोलीमर [[390907878 0000)9॥7787'] इगलाइट [88॥6 | पोली बिनाइल क्ोराइड [[20]9 ए79] ७॥0708 | ब्यूटाडाइन पोलीमर हाईकार[90४॥'] कर[ ९ ०7] संख्या १ ] रबर ७७८ २७७७७४४७७७७एएए [[376847)8 900]97767'] कोरोश्लील [[[070809)] . पोल्ली बिनाइल क्ोराइड [7?047ए7709ए] 6॥।0786 | मस्टोन [)(8॥076] कोरोप्रीन पोल्लीमर [((०0।070]0786॥8 700]97767"] नोवो प्लास [|४0ए०))]88] आरगनिक पोली सल्फाइड [(27289॥70 [00|ए5प0]006 | ओप्पानॉब [()0]097/0]]. आइसोब्यूटल्लीन पोक्तीमर [480 0 969]९728 [00]97787'] पी० वी० ए० [7.५ 8] पोली विनाइल्न एल्कोइल । [7?0]ए ४3॥ए] 8[00]0]] परबूनान एव-संट्रा [ 0670 प॥) 8॥0 8६5६१ ७ | प्लैक्तीगम [?]०5207)] .पोली पक्राइलिक एस्टर [704ए8079ए]6 ४४६८१] परड्यूरन [?67'007'67)] आरगैनिक पोली सत्फाइड [()7887)0 ]00ए87]])748 | पोलीथीन [0]90॥676] . पोलीमराइज़ड, इथल्ीन [?00]977677866 €॥।)9]९१6 | सारान [8878)] पोलीविनायलीडीन छोराइड [?0]ए974॥797]70676 0॥]0४७१06] एस० के० ए० [6.६ , 8.] ब्यूटाडाइन पोलीमर | 3.0890]8706 ]0909॥787 | पुस्र० के० बी० [७ ९ .3.] 9१ सोवप्रीन [809]0/'876 ] कछोरोप्रीन पोलीमर [(7॥070]07'878 ]00]ए77 67'| थायोकॉल [[7070)0] आरगैनिक पोलीसरुफाइड 2 [(272870 [00 ए5प]9!7886 | थायोनाइट [7!)॥077॥6] विनोड्यू [ ४70]098 | 8 79 १7] पोलो बिनाइल झोराइड [?0[97०]7]ए] 5])]070 6 | विनोलाइट [ ५१॥)$6] पोल्लीविनाइल कोराइड कोपोलीमर [70[9ए709ए] ७॥]0770 ८०90|97॥87"] विस्टानैक्स [ए9[8785] आइसो ब्यूटिल्लीन पोक्नीमर [[80 20॥9676 |१09767'] वल्काप्लास [ए७]०७०]88] आरगेनिक पोलीसरफाइड [(07288770 [00]ए87]]007 00] उपरोक्त सारिणीसे यह पता चलता है कि योगिक रबर बनानेमें मुख्यतर ब्युटाडाइन, आइसोब्यूदिलीन, एसिटलीन [8 097]8770] और इधलीन काममें लाई जाती हैं । ब्युयडाइन [3उिप90979] के अणुका राखा- यनिक रूप इस प्रकार है । (/0५ 5 (--(/ सर ७ (न. जरमनीमें यह था तो एसिटलीन गेससे बनाई जाती है जो कैलसियम कारबाइड पर पानी छोड़ने से पैदा होती है था पेट्रोल स्वच्छु करते समय निकलती हुई गेसोंसे एथक कर ली जाती है | अमेरिका में यह मुख्यत्तर पेट्रोलके सोतों से निकली हुई प्राकृतिक गैस्नेंसि प्राप्त की जाती हे। रूस में यह अल्कोहलसे रासायनिक परिवत्‌नों द्वारा प्राप्त की जाती है। यह अनुभव किया गया है कि एमिटलीनसे प्राप्त ब्युटडाइन अधिक स्वःछ होती हे। एसिटलीन पहिले हलके गन्धकाम्ल [5प्रीणापा"ं 6 86ांते] में पहुँचाई जाती है | इस क्रियासे एसिटलडीहाइड [& ८०७४७]069एत0] बनाते हैं। एसिटलहीदाइड में थोडा जार [ 8 !797] मिलानेसे एलडोल [8 ]00]] बन जाती है | एल्डोल में १००" से० तापक्रम पर थोड़ा सा निकल [स्‍70]76]] मिल्लाकर हाइड्रोजन गेस मिलाई जाती है। इससे व्युटिलीन ग्लाइकोल [0+#ए6॥8 27०७०] बनता है। ब्युटिल्लीन ग्लाईकोलके अणुसे पानीके अण निकाल देने पर ब्युटाडाइन बन जाती हे। संक्षेप में, एसिटलीनसे एसिटलडीहाइडसे एल्डोलसे व्युटिलीन ग्लाईंकोलसे व्युटाडाइन आइसोव्युटलीन [[8000॥ए 806 |: यह पेट्रो्नके स्ोतोंसे निकली हुई गम मिली रहती है। इनसे इसे पृथक कर लिया जा सकता है। यह पेट्रोलसे भी प्राप्त की जाती है । एसिट्लीन [ # 0809]8॥8 ) एसिटक्ीन अधिकतर केज्नसियम कारबाइड पर पानी छोड़ कर प्रात की जाती है। एसिटलीन से रासाझनिक अयोगों द्वारा कई पदाथे है विज्ञान, अप्रैल, १६४४ प्राप्त किये जाते हैं जिनसे यौगिक रबर बनाई जाती है। उदाहरण के लिये छोरोप्रीन [(!))]070]97876] बनाने के लिये पहले एसिटलीनसे मोनोविनाइल एसिटलीन [॥000ए|7ए 80669]6॥6 |] बनाई जाती है ओर फिर उससे कछोरोप्रीन एसिटलीनसे मौनोविनाइल एसिटलीनसे कोरी विना- इल मौनो एसिटलीन या कोरोप्रीत ... एसिटलीन पर हाइड्रोजन कलोराइड [उप0'08870 270700] के प्रयोग से विनाइल क्लोराइड [५४॥%] ०0४]077006] प्राप्त की जा सकती है। एसिटलीन पर ग्लेशियल एसिटिक अम्ल [(]808] 806#0 90४0 | के अयोग से [साथमें थोड़ेसे पारा के लवण (870- प्"ए 880) का रहना आवश्यक हैं] विनाइल एंसीटेट [ए47ए] 80९$४१6] प्राप्त होता है। इथलीन [7/8॥9 678]: यह अधिकतर पेट्रील के सो्तोंसे निकत्षी हुई गैससे प्राप्त की जाती है।यह यौगिक रुपसे भी तैयार की जा सकती है। रासायनिक क्रियाओं हारा इससे विनाइल क्लोराइड ओर घिनाइल एसीटेट प्राप्त किये जाते हैं। . इन यौगिकोके अतिरिक्त और भी यौगिक रबर बनाने की क्रियाओं में प्रत्यक्त होते हैं जिनमेंसे मुख्य स्टाइरीव [8॥0ए7७॥6] और पुक्राइलोनाइट्राइल [ है070- 7077]6 हैं । यौगिक रबर बनानेकी विधि यौगिक रबर बनाने की दो विधियाँ हैं। पहली विधि में कार्बनिक यौगि्कॉका जटिल अण बनानेके लिये अधिक- तर इन यौगिकॉर्में सोडियम मिला कर रख दिया जाता है। सोडियमके प्रभावसे एक ही प्रकारके अछ आपस में गुथसे जाते हैं और एक जठिल अण बन जाता हे । आजकल यह विधि अधिकतर खुसमें प्रयुक्त होती है ओर एस० के० बी० रबर ऐसे ही बनाई जाती है। दूसरी विधि में कार्बनिक यौगिक पानीमें थोड़ा साइन घोलककर सथ दिये जाते हैं| साबुनके अतिरिक्त ओर भी पदार्थ मिलाये जाते हैं । थोड़ी देर बाद रबरके दुग्धके समान एक पदार्थ बन जाता है जिससे रबर-दुग्घकी तरह रबर प्राप्त को जाती है। दूसरी विधि सर्वन्र प्रयोग में लाई जाती है | भाग ६१ और पहली विधिसे कई रूप में अच्छी है । क्‍ पहले जो सारिणी दी गयी है उससे यह ज्ञात हो सकता है कि किस यौगिक रबरमें कोनसा मुख्य रासा- यनिक अर है। इस मुख्य रासाण्निक अंक को लेकर उपरोक्त विधियों से वह यौगिक रबर तैयार की जाती है| यौगिक रबरमें बहुतले दुगु ण हैं ओर कई गुण | यौगिक रबरका मूल्य प्राकृतिक ,रबर से अधिक होता है कई प्रकार की योगिक रबर प्राकृतिक रबरसे घटिया होती है | यह देखा गया है कि साधारणतया प्राकृतिक: रबर ही उत्तम है किस्तु कुछ विशेष रूप में योगिक रबर अधिक अच्छी है । रबर की कड़ी ओर मज़बूत वस्तुएं बनानेमें योगिक रतर प्राकृतिक रबरसे अच्छी रहती है | इस महाथुद्धके प्रारम्भ होनेसे पहिले संखार में रबर इतनी बनाई जाती थी : -- प्राकृतिक रबर , भारत में, ....... ०० -२१०,००० टन रच » 3 मल्ाया आदिंभप्रदेशों में ..३०००००० यौगिक रबर. . .. . .. . «. «० «- ५ १८०२०८००० १) जब से यह महायुद्ध प्रारम्भ हुआ है तब से झुख्यतर अमेरिका, रूख और जमेनी में योगिक रबर अधिकाधिक मात्रा में बनाई जाती है। मत्लाया, लियापूर आदि जापा- नियों के हाथ में चले जाने से मिन्र राष्ट्री में रबर का बहुत अभाव हों गया इससे थोगिक रबर के बनाने वालों को बड़ी मद॒द्‌ मिली, रबर का मूल्य बढ़ गया और यौगिक रबर की महत्ता भी बढ़ गईं । ह पहले दी गई सारिणीस योगिक रबरकी जपत नहीं के बराबर दी गई है | वास्तव में ल्न्‌ १६३५ ह० में रूस. ने २७००० टन यौगिक रबर बनाई थी, ओर सन्‌ १६8४८ ई० में जसेनी में २९००० टन यौगिक रबर बनाई गई थी । अमेरिकार्में भी योगिक रबरका प्रचार बढ़ रहा था। अमरीकाकी रबर सर्वे कमेटी सन्‌ १६४२ ई० में योगिक . रबरके नये कारखाने बनाने की संल्ाह.दी थी । अमेरिका में लगभग ७६ करोड़ डालर यौगिक रबरके कारखारनों पर खर्च किये जा खुके हैं। इन कारखानावालों का अनु- मान है कि सनू १६४४५ डूँ ० में वह ८६०००० अन योगिक रबर बना सकेंगे ।यह अमेरिका के साधारण बापिक व्यय संख्या १ | से ४० प्रतिशत अधिक है । इस विचारसे सब सहमत होंगे कि भविष्य में रबर का प्रयोग बढ़ जायेगा | एक लेखक का अनुमात है कि भविष्य में रबर की प्राप्ति ऐसे होगी : प्राकृतिक रबर , भारत से, .... ... . ५. 9५ $ मैलाया आदि प्रदेशों से, ..१,००,००,०० $, योगिक रबर. ...... . . १,०० प्छ $ 0 9 ्टे। २,०३,००, ५ 9 ०५६ भारतसें योगिक रबर की सम्भावना भारतम पेट्रोलका अभाव है अतः पेट्रोलसे प्राप्त यौगिक भारतमें नहीं बनाये जा सकते । उपरोक्त विवरण से ज्ञात होता है कि यदि फेलशियम कारबाइड भारत में बनाई जाय तो उससे एप्िटल्ीन प्राप्त हो सकती हैं। हालमें बंगलोरमें किये गये अपुन्धानोंसे यह ज्ञात होता . है कि भारत में केलसियम कारबाइड बनाई जा सकती ह | देहली में ई० एफ० जी० गिल्लमोर इस विपय पर विचार कर रहे हैं कि भारतर्म केलसियम कारबाइड बनानेका ब्यवसाय केसे आरम्म किया जाय । किन्तु भारतमें यौगिक .रबरका व्यवसाय प्रारम्भ करनेके पहले इस वियय पर विचार करना चाहिये कि इस देश में यॉगिक रबरकी कितनी खपत होगी। विद्वानोंका मत हैं कि इस महायुद्धके बाद श्रकतिक रबरके सामने यंगरिक रंबर की खपत भारत में बहुत कम होगी | योगिक रबर कम मृत्य पर बनाने के लिये एक कारलानमें कम से कम २०,००० टन रबर प्रतिवर्ष बअननी चाहिये। ऐसा कारखाना बनाने में लगभग ३ करोड़ रुपये लगेंगे । इसके अतिरिक्त ऐसे कार- खानेमें काम करनेंके लिये रसायन विशेषज्ञोंकी आव- श्यकंता होगी । हमारे देशर्म इंस विपयके रखाथन विशेषज्ञ नहीं हैं | बोंगिक रबर को आजकल जो दशा है उसे देखते हुए यह कहना पड़ता है कि इसको सस्मावना भारत में बहुत थोंडी है । योगिक रबर का भविष्य रबरके विशेषज्ञोंका मत है कि महाजुद्धके बाद प्राकतिक रबर प्रति पोंड लगभग < आने में तेबार होगी । योगिक रबर का मूल्य लगभग ११ आने प्रति पॉंड होता है। युद्धकालमें तो भ्रोगिक रबरकी ख़ूब खपत हो रही हे | ३,०७० +2०0 टन ख़र ७ अमेरिकाके योगिक रबरके व्यवसाइयोंका विचार है कि| युद्धोपरान्त प्राकृतिक रबरके सामने योगिक रबरका टिकना कठिन प्रतीत होता है। हालमें योगिक रबरके व्यवस्लाइयनि अमेरिकार्मे सरकारसे इस विपय पर बातचीत की । सरकारकी ओरसे जो उत्तर मिला. उसमें कहा गधा-- यह ज्ञात होता हे कि आधुनिक विधियों के प्रयोग प्राकृतिक रबर युद्धीपरान्त पूवे के देशोंसे शाकर न्यूयाक में १० सेन्‍्ट [ लगमग £ आने | अ्रति पॉड में डिकेगी | अ्रतः योंगिक रबरके व्यवस्तायकों सुरक्षित रखनेके लिये कमसे कम १० सेन्‍्ट अ्रति पॉड और सम्भवत: २० सेन्‍्ट प्रति पोंड कर प्राकंतिक रबर पर लगाना पड़ेगा ।? इस उत्तरसें आगे कहा गया कि यदि पसा किया गया तो व्यापारकी हानि होगी श्रोर सम्भवत्तः अन्तमें एक ओर महायुद्धका श्रोगणेश होगा । योंगिक रबरका व्यवसाथ स्थिर रखनेके लिये कई प्रयत्त करनेकी आश्यकता हैं | ऐसी खोजोंकी आवश्य- कता है जिनसे इसका प्रयोग बढ़ जाय ओर इससे ऐसी वस्तुएं बनने लगें जो उपयोगी हों ओर प्रकृतिक रबर से न बनाई जा सके । इससे इसका महत्व बढ़ जायगा। अभी यह भी सम्भव है कि भविष्य में यह शोर सस्ती बनाई जा सके | एक बात स्पष्ट हैं कि यह चाहे जितनी सस्ती बनाई जाय प्राकृतिक रबरसे सस्ती नहीं बनाई जा घकती । इस मसहायुद्धमे कदाचित्‌ अमेरिकार्मस हो यौगिक रबर का व्यवसाय बहुत बढ़ गया है । यह आशा है. कि सिष्यम अमेरिकाकी रबर की माँग यागिक रबर से ही पूरी हो जायगी । युद्ध के बाद प्राकृतिक रबरके सामने योगिक रबर का टिकना कठिन हे | इसलिये अमेरिका की सरकार ने एक कानुन पाख किया हैँ कि सरकार जब चाहे यागिक रबर के कारखाने ले सकती है | इस युद्ध ने योंगिक रबर की उपयागिता सिद्ध कर दी है। इसलिए अमेरिका की सरकार यह नहीं चाहती कि युद्धोपरान्त यौगिक रबर के सब कारखाने बन्द हो जाय । युद्ध के बाद कदा चित अमेरिका की सरकार इन कारखानों को ले लेगी ओर उन्हें यदि आवश्यकता हुई तो घाटे पर ही चल्लाती रहेगी । खाक है विज्ञान, अप्रैल, १६४५४ आजकल योगिक रबर के क्षेत्र में अनेक अनुसन्धान हो रहे हैं। यह कहना कठिन है कि भविष्य में इसकी उपयोगिता कितनी बढ़ जायगी | सत्य तो थह ह कि अभी तक मोदर बारी के टायर बनाने में प्राकृतिक रबर का ही प्रयोग होता है ओर संसार में रबर का व्यय इसी रूप में सबसे अधिक होता है। ऐसा ज्ञात होता है कि भविष्य में प्राकृतिक रबर से ही अधिक वस्तुएं तेयार की जायेगी, ओर कुछ सुख्य और महंगी वस्तुएँ बनाने में यौगिक रबर का प्रयोग होगा । प्राकृतिक रबर और यौगिक रबर प्राकतिक रबर के गुण हें, बनाने की सरलता मुज्नायमियत, खिंचाव सहन करने की शक्ति और कम मूल्य । यौगिक रबर के गुण हैं तेल्ल, ताप ओर ओपजन का कम अभाव और कड़ापन । प्राकृतिक और यौगिक रबर के मुख्य गुणों को देखकर ज्ञात होता है कि आक- तिक रबर के व्यवसाइयों को योगिक रबर के व्यवसाइयों से मुकाबले में घबराना न चाहिये। इसमें सन्देह नहीं कि यौगिक रबर का चलन अब संसार में हो गया है | यौगिक रबर के क्षेत्र में नये-नये अनुसन्धान हो रहे हैं। इसके विपरीत प्राकृतिक रबर के क्षेत्र में अनुसन्धान नहीं के बराबर हैं । प्राकृतिक रबर के व्यवसाइयों को चाहिये कि वह एक अच्छी सी प्रयोगशाला बनाएँ जिसमें प्राकृतिक रबर पर नये-नये अनुसन्धान किय्रे जाय | अभी तक कोई ऐश्ी प्रयोगशाला नहीं हैं। प्राकृतिक रबर के व्यवसाइयों को सदा योंगिक रबर का ध्यान रखना चाहिये | उन्हें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि सन्‌ १६३० ई० की तरह रबर का भाव गिर जाने से ' इज्ञारों पेड़ न काट देन पड़ें । उपसंहार आजकल्ष रबर की चर्चा सब जगह हो रही है। आधुनिक सम्यता में रबर का प्रयोग बहुतायत से होता है । रबर से बनी हुई वस्तुषु हज़ारों रूप सें हमारे सामने श्राती हैं | जब से मल्ाया ओर सिंगापूर जापानियों के हाथ में चले गये हैं मिन्न राष्ट्रों मे सब जगह रबर का अ्रमाव हे । रबर का अभाव दो रीति से पूरा हो रहा है योगिक रबर बना। कर और रबर को खेती इलास्टिका [#0प8 6]88070&] हैं। | भाग ६१ बढ़ाकर | पहले दो पेड़ों के भाम दिये गये हैं जिनसे उत्तम रबर प्राप्त होती है, हैविया ओर कास्टीलोआ । इनके अतसिरिक्त ओर भी पेड़ हैं जिनसे रबर प्राप्त की जाती है । इनमें भुख्य सीरीआ [()/99788] और फाइकस किन्तु इन वृधोका ल्‍योग कम होता है। रबरके अभावकी पूर्ति के लिये बहुतते अपुसन्धान हो रहे हैं । यह देखा गया है कि क्रिः्टोस्टिजिया ग्रान्डीफ्लोरा [ (४79 90080688 2787)47 7078 ] नामक बेल से रबर प्राप्त हो सकती है । मधुराम लगभग ७००० एकइमें यह बेब लगाई गई है । अगस्त सन्‌ १६४४ ई० तक यह रबर देने सरगेंगी | आशा है कि २०० से <०० पोंड अति एकड़ प्रति वर्ष रबर इन खेतोंसे भ्राप्त हो सकेगी । कुछ विद्वानोंका मत है कि रबर एक ऐसा पदाभ है जो कृत्रिम या योंगिक रूपसे न बनानी चाहिये। जब प्रकृतिसे थोड़ेसे व्यय से अच्छी रबर प्राप्त हो सकती है तो योगिक पर क्यों करोड़ों रुपये व्यय किये जाँय। यौगिक रबर बनानेकी जगह क्‍या यह न अच्छा होगा कि रबरके पेड़ पर अनुसन्धान किये जाँय ओर प्रति पेड़से प्राप्त रबर की मात्रा बढ़ाने का प्रयत्न किया जाय । यह सर्चन्न ज्ञात है कि वेज्ञानिक खोजों द्वारा छुकन्दरमें चीनीकी मात्रा ४ प्रतिशत से १८ प्रतिशत तक बढ़ाई जा सकी | क्‍या यह सम्भव नहीं है कि रबरके पेड़में भी रबरकी मात्रा बढ़ाई जा सके उपरोक्त कथनर्मे बहुत कुछ सत्य है किन्तु इस महायुद्धने यह अ्रज्ञुभव करा दिया है कि युद्ध कालमें जिन राष्ट्रेके पास रबरके खेत नहीं हैं वहाँ रबरका अकाल सा पढ़ गया है। प्रकृतिक रबरके, पेड़ सब. देशों में नहीं पनंप स्कते। इन देशेंमें रबरके अभावकी पूर्ति केवल योगिक रबर द्वारा ही हो सकती है | यौगिक रतरके कारखाने हर जराह बनाये जा सकते हैं। इन देशोंके लिये योगिक रबरका व्यवसाथ आवश्यक है । | शेष पृष्ठ २१ पर | सरल विज्ञान सागर अपनी योजनाके अनुसार हम इसका एक और अंश यहाँ देते हें | संख्या $ | भारतीय ज्योतिष फ 59४. हे डै32 - (040९ 3,4%%+-४कमट/" ६." >दयार का /प नरक क परत पर करन्‍, ४ 7 "मा शाककाद: 2 कक रेपमपआवरपअपभापकट व कफ एफ व्कदाटाप उन मकफपाजक -:.. 77 अकेमकाद मत. पननधेकाफा ता. कल व.. ऑयल भय. पाए, 77 आ "ि्रकक: "यूता॥ हा के: ' जन्याउथव५०मीलवैनरीए कक ९" ललित लजण जज भिभओिलनिभयकक ० 6 ७ शक डक के 3०न्‍त 35 ल>+नहअन्‍षाम लनलज ++-+० 5 कि जन लि, विज लीन जी के फीड हिल + ् वाफा हआ सममक+अमवबप५++॑नक-अ का... “7 है है 84 हक | न्‍्प्क बम कर 0 2 है 5४4७४ ४ प् ; प् 3 शत + हा न्‍ | है ध कै (इसका मा 8 28003 205 | 3 २ हा जड] | ज्र जाओ ं * आथ &.. भारक *+ फांकनबके-ओी, न्‍मक-०क >> छचाआ हू ः के आय श्ि यग्मे। र हि कु कद: हर ढँ | है; हि तक ग.> 5, | भूलें जाम. आमममा जक, क्र |] + श्र बा कारक आओ के ्छ न | १ बइइहउप्ऋामकक्षऋ आकार ८5 को नजिणज+- कु ५ #ठ | छ हि | स्वाती कम ० ।(मखपियी. कसर है. हु किले, 4| मय: ४८200 अर लिललल 2 है $ $ । ह 3 शक | 22 अब कि कप ६] ) हु न्‍ा हु छ ट ! | ड़, ] प्रला- 7 फ् ॥ श्री | ्छ है. & छ शा 4 ॒ घ। नर की ध ८ - ट। हि च बज शशि... 8) लक, & छे ला 0] है] थ तुला छू साएती.. डंडा | पाया. सेाभ्ण उपर... आया»... जग). इहंबे.. कि: छ $ हि रे शार अमन ब्क+०३० न ५ रे [डक | [६ | *$ 5, 5, 3 आन ध्न कक व हर 5२2 झपन ८ दिरीद| । कि हट] शर्ट ् श्ड ने (अ : मिल किलत हि १4 5, 8 ७ हि“ ० का कै 8 हर ही ० |, ० ण्च कक ०7८ १० 0) चित्र ४ इस चित्रसे मईके अन्तिम सप्ताहमें १० बजे रातके लगभरा तारों की पहचान आसानीसे हो सकती है। इस समय उत्तर पूर्व आकाशर्म वीणा ओर हंसमण्डलके तारा पुंजों की शोभा और उत्तर पब्छिसमें सप्तर्षि की शोभा देखते ही बनती है। सिरके ऊपर किरीट विराजमान होगा, पच्छिम की ओर भूतेश, झूगयाशुन और मधघाके तारे देख पढ़ेंगे और दक्षिण फी ओर का आकाश बुक, बृश्चिक, धनुराशिके तारोंसे प्रकाशभान होगा । आकाश गज्ला भी इस समय उत्तर पूव फोनेसे दक्खिन की ओर पसरी हुई शोभायमान होगी । पूते की ओर बहुत ऊचे पर श्रवंण नक्षत्र दिखाई पड़ेगा । १७ विज्ञान, अप्रैल, १६४५ [ भाग ६१ पाँचवें खानेके तीन भागेंमि पलेमें न खिला है जो नक्षत्रके लिए हैं। इसके नीचे नक्षत्रेक्रे प्रथम अचार लिखे गये हैं । श्र,भ॒ क्रो से क्रमशः अश्विसी, भरणी, कृत्ति- का, रोहिणी आदि समझना चाहिए। 'आ के नीचे 'पु' दो बार लिखा गया है जिसमें पहला पुनवंसुके लिए ओर दूसरा पुष्यके लिए हैं। इसी प्रकार जहाँ कहीं एक ही अक्षर दो स्थानेमे हों वहां क्रके अनुम्तार नज्ञन्न सममझ लेना चाहिए | नक्षत्रके खाने में धड़ी, पलके नीचेके ग्रकोंसे यह समझना चाहिए कि वह नक्षत्र उस दिन सूर्यादयसे उस घड़ी ओर पत्र॒ तक वत्तमान्‌ था, उश्चके बाद आगेवाला! नक्षत्र लग गया। इस पक्षमें किसी नक्षत्र की क्षयवरद्धि नहीं है । छुट खाने के ऊपर 'यो योगक लिए लिखा गया हे । शुक्राारकों वि, विष्कम्भ योग रप घड़ी €&६ पल तक ओर शनिवारकों प्रीति योग २१ घड़ी र८ पत्च तक था। पंचमी के दिन मंगलवार को शोभन' योग ४ घड़ी ५२ पत्न तक रहा फिर अतिगगंड लगा जो शोभन के समाप्तिकालसे ४४ घड़ी €४ पल्ल तक रहकर समाप्त हो गया ओर सुकर्म' लग गया जो दूसरे दिन ५२ घड़ी २३ पल तक रहा। इस प्रकार इस पक्तमें अतिगंड योग का दिय' हो गया । ... सातवें खानेमें 'क' के नीचे उन करणोंके नाम हैं जो सृथादय्काज्षमें वत्तमान थे ओर आठवें खानेमें 'क' के नींगे उन करणोंके नाम हैं जो सूररोदयकाल वाल्ले करणोंके बाद कगे | शुक्रवारका सूर्योदय कालमसें 'बव' करण था जो २४ घइ्दी ४७४ पत्न पर समाप्त हे! गया तत्र चालव कारण लगा ओ आठवें खानेके 'क' के नीचे दिखल्ञाया गया है । यह ४१३ घड़ी ४० पत्न पर समाप्त हो गया। इस प्रकार प्रति दिन दो दो करण चले। बुधवारकों सप्तमी तिथिका क्षय हैं इसलिये इस दिन ॥$ घड़ी ४२ पत्न तक जब छुठ का अंत हो गया तेतिल करण रहा फिर सप्तमीके प्रथमार्थम ३० घड़ी ६४ पत्च तक गिर! करण रहा उसके बाद ३४६४८ तक विज करण रहा । पंचांग्म €८5|६ अमके कारण अशूद छुपा ह दशमी शनिवारकी गर करण ३० घ०७ ९४ पत्ष पर आरम्भ हुआ परन्तु उस दिन समाप्त नहीं हुश्रा इस जा ह लिये इसके सामने ६० लिखकर अगले दिन 'गर' करण 3।४३ तक दिखक्ाया गया है । जब वद्द समाप्त हो गया ।" यात्रा विवाहादिसें भद्रा करणंका विचार बहुत किया जाता है इसलिए अंतिम खानेमें भी इसकी विशेष चर्चा रहती है। तीजके दिन जहाँ 'भ ४१।६ 3! लिखा हैं उसका श्रर्थ है कि भद्रा सूर्योद्यसे ४१ घड़ी ६ पत्ल उपरान्त लगी और दूसरे दिन जहाँ 'भ ८४६ या! लिखा हुआ हैं उसका अथ है कि भद्गा सूर्येदियसे ८ घड़ी ४६ पल यावत ( तक ) रहीं। नव खानेके ऊपर योगा। शब्द उन योगोंके लिए है जो बार और नच्षत्रके विचारसे मुहूर्तचिग्तामप्िके अनुसार निश्चित किये जाते हैं। मुहूर्तादिके विचारमें नामके अनुसार इनका गुण भी होता है। . । १०वें, ११वें और १२वें खानोंमें अ' से अंग्रेजी. था इंस्वी, 'फा' से फारसी था हिजरी ओर 'सौ' से सौर तारीखें समझना चाहिये# | १४वें खानेमें बतलाया गया हैं कि चंद्रमा किस दिन कितने घड़ी पक्ष पर किस निरयण राशिमें प्रवेश करता है। जिस खानेके ऊपर “उ' लिया है वह बतलाता हैं कि सूर्यका उदय कितने धंटा मिचट पर ओर जिस खानेमें अ! लिखा है वह बतलाता है कि सूयका अस्त कितने घंदा मिनट पर होता है। घंटेके भ्रंक केवल पहली ही पंक्तिमें दिये गये हैं, नीचेकी पंक्तियों केवल मिनटके अंक है । सूर्य उत्तरायण में है जिसके लिए सबसे ऊपर 'सौम्यायनम्र! लिखा हुआ . है। इसमें प्रतिदिन सूर्योदय कुछ पहले होता है और सूर्यास्त कुछ देरमें | .परिवाकों सूय्योद्य « बजकर ४३ १--बड़ी, पलकों घंटा मिनटमें बदलनेके लिए यह द रखें-- १ घड़ी -- २४ मिनट, १ पत्ष -- २४ सेकंड, २१३ धड़ी + १ घंटा २३ पल + १ मिनट #अंग्रेजीका चालू महीना खबसे ऊपर कोनेसें लिखा हुआ है 'अग्रेल ४” | ४ का श्रर्थ है चौथा महीना। फारसी या हिजरी मास परिवा था दृइजके चंत्रदर्शनसे आरम्भ होता है। सौर मास संक्रान्तिक्रे दूसरे दिनसे आरस्म होता है । कमी न मी आय 2 रचा: वमक/मकासनकारपऋ)क अलखक4 77 #.. आपकी फीकी. कक ० हा # आज हि पा +4 ७ आज आथब 544 कक का 24 406: “मान सदर्टकातनज4>०- नमाज ९ 3३० ज्यावकल-१00- के भ2०2,१ ५ सागर र् + ै ५ अं. ३8०8 सका फल... केक नई है >३०००>२०७३क र-+क >नननलव-» 3 कफ > के #क »., ३3१95 + जज, के / “न १५३ & >--ननप«-%ॉपना 6३७३७» -पलनक ९-3७ > आ-७, + ३ रकन-क न्ननक 'आरीय #ब # 43 १९:९४ #| 87५4 पाक; ९ ९ ४ # कह ७००६ + | ै>.-34०००.० ०-२-७४७ अफकक-2कअजकलनक, फल ७3++>> न है क्‍क छा +3+-+ क के अनके #--क+ डिक अत ऋबाए१४घ० थ ५५५ पर कप पपपऊ पस अप कक प्राय '>म5 4:33 :-& :4 .-+७: ४/जदा ५११०: ५» अधधारभी कांप )क्‍व०४०थ५४का५ ३0७ सका । कक #+क* दक्षिया दी चित्र ४ इस चितन्रसे मई सासमें स्योदयसे डेढ़ या दो घंटा पूष प्रातःकाल आकाशका अवल्लोकत किय्रा जा सकता जिस समय असिज्ित नक्षत्र. सिर पर रहेगा। इस समय शमिष्टा उत्तर पूतर चितिजके पास और सप्तवि उत्तर पच्छिम क्षितिजके पास रहेंगे | प्विरके ऊपर कुछ उत्तकी ओर वीणापुकज्न, अभिज्ित और इनसे दाहिती ओर हंस, दसपुच्छुकी शोभा देखनेमें बड़ा आनन्द आता है। पूर्व क्षितिजके पास.भाद्रपदावर्ग और कुस्स राशिके तारे दिखाई पड़ेंगे । पूर्व दक्षिण दिशामें मकर राशिके तारे तथा दक्षिण पश्छिम दिशामें वश्चिक, धनु आर राशिके तारोकी अपूय शोभा देखते ही बनती है। श्रवण नज्ञन्न भी सिरके पास कुछ दक्खिनकी झोर दिखाई पड़ता है। आकाश गंगाकी छुठा भी अपूध है। पश्चिम क्षितिजके पास स्वाती नक्षत्र देख पड़ेगा । १२ ... विशान, अप्रैल, १६४४ मिनट और सूर्यास्त ६ बजकर १७ मिनट पर हुआ | दूसरे दिन सूर्योदय और सूर्यास्त क्रमशः € घंटा ४२ मिनट और ६ घंटा १८ सिनट पर हुए। पतक्तके अन्तमें सूर्योदय € घंटा ३४ मिनट पर ओर सूर्यास्त ६ घंटा २६ मिनट |पर हुये। , यह स्पष्ट है कि सूर्योदय ६ बजेसे. जितना पहले होता है, सूर्यास्त ६ बजेसे उतना ही पीछे । चतु्देशीके दिन सूर्योदय & घंटा ३४ मिनट पर हुआ परन्तु पत्रेमें ३ का अंक छूट गया है। यह सर्योदय या स॒र्यास्तका समय उस स्थानका धूपघडीके अनुसार स्पष्ट काल है जहाँका पंचांग बना हुआ है अर्थात काशीका । इसमें कालसभीकरणका संस्कार करके २ मिनट ८ सेकेंड घटाना पढ़ता है तब पुराना रेलका समय आता है। नया रेज्का समय इससे १ घंटा अधिक माना गया है । अंतिम खानेमें विशेष बातें लिखी रहती हैं । पहला शब्द चिन्द्दशन”ः है जिसका अर्थ यह है कि चन्द्रमा आज ही सूर्यास्‍्तके बाद दिखाई पड़ेगा क्योंकि परिवाका अन्त सूयादयसे २४ घड़ी ४७४ पल पर हुआ इस लिये दूदज इसी समयसे अर्थात सुर्यास्तसे लगभग पौने सात घड़ी पहले ही लग गयी । ऐसी दशारमें चन्द्रमाका दिखाई पढ़ना आज ही संभव है इस लिए हिजरी भास आज़ ही समाप्त हो जायगा ओर दूसरे दिन नये महीनेकी पहली तारीख होगी। हिजरी महीनेका नाम इस पंचांग नहीं दिया है परन्तु बड़े बड़े पंचांगोर्में यह भी दिया रहता है । 'चन्द्रदर्शन! के बाद ही 'मु० १५४! लिखा है। इसका अथ है सुहृर्त १४ जो यह सूचित करता है कि चन्द्र दशनका फल्न अच्छा नहीं है। यदि १७ की जगह ३० हो तो फल सम! शघमकना चाहिए और ४७ हो तो फल अश्छा समझना चाहिये। इसके बाद “'अशिवन्यां मेषेचाकः' लिखा है जिसका अर्थ है कि सूर्य अश्विनी नक्षत्र ओर मेष राशिमें प्रवेश करेगा और इसका फल सम होगा क्‍योंकि सु० ३० लिखा है। ३० के बाद तारा- चिह्न दिया हुआ है जो दूसरी पंक्तिमें भी देकर १६-३६ लिखा है। तारा चिह सूचित करता दे कि पहली पंक्ति की सब बातें उसमें पूरी नहीं हुई हैं इसलिए दूसरी पंक्तिम भी पहले ही दिनकी बातें जारी रखी गयी हैं। १६३६ सूचित करता है कि सुययोदयसे १६ घड़ी ३& | भाग ६१ पत्ल पर अध्विवनी नक्षत्र और मेष राशिमें सूर्थका प्रवेश हुआ भौर इसी समय मेष संक्रान्ति लगी । इस लिए सोर वैशाखका महीना भी दूसरे दिनसे ही आरम्भ होगा। 'तवरात्रारम्भ' का अथ स्पष्ट है। शुक्रास्तः प्रतीच्यां ६।१११ का अर्थ है कि पच्छिममें शुक्रका अस्त आज ही सर्यादयसे £ घड़ी ११ पलपर हुआ । कुछ लोगोंको आश्चय हो सकता है कि पच्छिमम तो शुक्र प्रतिदिन सूर्यास्तके बाई अस्त होता है परन्तु आज सयोदयसे 8 घड़ी ११ पल पर कैसे होगा। परन्तु यहाँ शक्रके अस्तका ओर ही अर्थ है। इसका अर्थ यह है कि 8 घड़ी ११ पल पर आज शुक्र सूर्थके इतना निकट हो गया है कि अब वह पच्छिम लितिजमें सन्ध्या कालमें नहीं दिखाई पड़ेगा ओर इस पद्नेके अनुसार इसी पतक्षकी छुठकों जब पूर्वमं उदय होगा तब पू्. चितिजमःं प्रात काल दिखाई पड़ेगा । 8।११ के बाद एक चिन्ह ओर लगाकर पहली पंक्तिकी बात तीसरी पंक्तिमें भी जारी रखी गयी है जहाँ लिखा है "पूर्वाभाद्र भें भौम:' जिसका अर्थ है कि मंगज्न पूर्वाभाद्पद नक्षत्रमें १३ घड़ी १ पल पर गया । इस प्रकार परिवाके दिनकी सब विशेष बातें पहली पंक्तिसे आरग्भ करके तीपरी पंक्तिमँ समाप्त की गयी हैं | तीजके दिन कोई विशेष बात नहीं है केवल भव्रा ४१ घड़ी & पत्ष उपरान्त लगी जो अन्तिम खानेमें दिखायी गयी है । चौोथके दिन भद्दया ८ घड़ी ४७६ पक्ष तक रहेगी जब चोथका शअ्रन्त होता है। इसके बाद स्वार्थ सिद्ध योग लिखा है | यह योग वार और नक्षन्नके विचारसे माना ज्ञावा है और शुभफल्दायक समझा जाता है। चन्द्रवारकों रोहिणी नक्षत्न सू्थादयसे १६ घड़ी 8६ पक्ष तक है | यह सवारथसिद्ध योग कहलाता है इस लिए यह भी सूर्यादयसे उतने ही पल तक लिखा गया है। इस योगके साथ साथ ',यो.' भी उतने डी समय तकके लिए लिखा है। यह रवियोगका लघुरूप है। यह सूर्य ओर चन्द्रसाके नक्षन्नोेसे भिश्चय किग्रा जाता है। सूर्य अद्विनी नज्ञन्नमें है ओर चन्द्रमा रोहिणीमें, सूमसे चसम्हसाका नज्ञत्न चोथा है इस लिए खंस्या १] अन्त रवियोग॥ है। यह भी शुभ समझा जाता है। इसी प्रकार झग्य बातोंके लिए भी समझना चाहिये । पंचाँगके नीचे ग्रहोंकी स्थिति एक सप्ताइकी दी जाती है। बड़े बड़े पंचांगेमें तो ग्रहोंकी दैनिक स्थिति भी देनेकी चाल है। यह अधिकतर पंचांगेरमें मकर॑दके अजुसार निश्चितकी जाती है। ऊपर पढहले १ से प्रकट होता है कि वर्षारं भके प्रथम सप्ताहकी गणना नीचे दी गयी है। पं० का अर्थ है पंक्ति | दूसरे ॥ का अर्थ है परिवा तिथि, भ्गौका अर्थ है,र्यु या शुक्रवार, ४६।२२ का अथ है काशीके सूर्योदयसे ४६ घड़ी २२ पत्न उपरांत का समय | यह कव्शीकी सध्यराज्रिका समय नहीं है वरन्‌ उज्जेनकी मध्यम मध्यरात्रि काजल है। मकरन्द सारणीसे भप्रहोंकी जो स्थिति आती है वह उज्मैनकी मध्यम मध्यरात्रि कालकी होती है | इससे काशीकी सध्यरात्रिकां ग्रह निकालनेमें बहुत गणना करनी पड़ती है इसलिए सुविधाके लिए पंचांगोर्मे उज्मैनके ही मध्यरात्रि की स्थिति लिख दी जाती और त्विख दिया जाता है कि काशीके सू्योदयसे कितने घड़ी पत्र उपरान्त यह समय होता है। इसमें काशीका देशान्तर, चरान्तर ओर काल-प्रमीकरण (उदयान्तर) का संस्कार करना पढ़ता है जो सुगम है। इश् समय को मिश्रमान काल कहते हैं | नीचे छोटे छोटे ८ स्तम्भ है. जिनके सिर पर भ्रहोंके नामके पहले अक्तर लिखे हैं। केवल चन्द्रमा का नाम नहीं है क्योंकि चन्द्रमाकी स्थिति नक्षत्र ओर चंद्र संचार के स्तस्भों से प्रकट हो जाती है। पहले स्तम्भ में 'सू! के नीचे ०,०,२८,३१, क्रम से लिखे हैं जो राशि, अंश, कक्षा और विकला के चोतऊ हैं | इससे प्रकट होता है कि आज मिश्रसान कालमें सूर्य शून्य राशि, शून्य अंश, ९८ कल्ला और ३१ विकला पर है अर्थात्‌ पहली राशि मेष के २८ कक्ला और ३१ विकला पर है ओर इसकी दैनिक गति ९४८ कला ४९ विकला हैं | दूसरे स्तस्भमें दिखलाया गया है कि मंगलका भोगांश १० राशि २० अंश £ कला और ४२ विकला उायपदकाका2 40७०: 5०, ५ दायर कया पद्म वश. ८-4 पर: प ३ फाएद- तारक दा परकनफ छुटां, $०वां, $१वां या २० वाँ हो वो रवियोग होता हैं ( मुहृर्तायिन्तामणि, शुभाशझुन प्रकरण, २७ ) 3 पक तक रस 2 १-सूयके नक्षत्रसे चन्हरमाका नक्षत्र चोथा, नवा, भारतीय ब्योतिष ह १३ ओर इसकी दैनिक गति ४४ कल्ञा ४४ विकला है । १० राशि गत है अर्थात्‌ मंगल दस राशिके उपरान्त ११ वीं राशिके २० अंश £ कला ३२ विकला पर है। तीसरे स्तम्भ में बु बुधो के नीचे ११,२६,१६ ९२ प्रकद करता है कि बुध ११ राशि गत बारहदीं राशि के २६ अंश १६ कला और «२ विकल्ला पर है। इसकी देनिक गति ४४ कला ९४६ विकला है परन्तु ग ध्ति वक्ी है अर्थात यह आकाशमें प्रबसे पच्छिम की ओर बढ़ रहा है | इसी प्रकार वृहस्पति और शुक्र भी वक्री है। राहु ओर केतुकी गति तो सदैव वक्री होती है। इसलिए उनके नीचे 'वकी” नहीं लिखा है । ग्रहोकी स्थितियोंकी बात बगल दूमरी तरह भी दिखाई गई है । चतुआु जाकार या वर्गाकार क्षेत्र दोनों करण खींच कर आसन्न भु्जेके मध्य विनत्ओंकों मिल्नाने- वाली रेखाएं खींचनेसे यह चित्र बनता है जो छापेमें कुछ विक्ृत सा हो गया है। यह क्षेत्र राशिचक्र का द्योतक है ' जहां १ लिखा है वह पहली राशि मेषका द्योतक है । जब तक सूर्य मेष राशिमें रहता है तत्र तक यही राशि सूयोदय कालमें पूर्व क्षितिज॒र्में उदय होती हुई या लगी हुईं रहती है, इस लिए यही सूर्योदय कालका लग्न है। आज सूर्य और चन्द्रमा दोनों मेष राशिमें हैं इसलिए १ के खानेमें र और च॑ दोनों दिखाये गये हैं। जहाँ २ लिखा है वह दूसरी राशिका खाना है।इस राशिमें कोई ग्रह नहीं है। तीसरी राशिमें शनि और राहु श ओर रा अंक्तरों से प्रक।ः किये गये हैं। ४थी राशिमें भी कोई ग्रह नहीं है । यह खाना राशिचक्र के उस भाग का है जो क्षितिजके नीचे मध्य आकाशर्म है। इसको पाताल भी कहते हैं। (वीं राशिमें बृहस्पति है। छठी राशिसें कोई अह नहीं है | ७वीं राशिमें भी कोई ग्रह नहीं हूं । इस खानेको अस्त त्वग्न कहते हैं क्योंकि यह राशि' चक्रका वह भाग हैँ जो पब्छिम चितिज में लगा रहता हैं जहां सूथ, चन्द्र, तारे आदि, अस्त होते हैं। ८वेंसे कोई ग्रह नहीं है, «वेंमें केतु है। राहु और केनु ग्रह नहों है बरनू एथ्वी ओर चर्ह्र की कचाश्रोंके पात (मिलन विन्दु) हैं जो एक दूसरेसे १८० अ्रशपर या ६ राशिके अंतर पूर या ७वीं राशिमे होते हैं। जिस १४ ” खाने में १० लिखा है वह राशिचक्र का वह भाग है जो मध्य आकाशर्म यामोत्तरद्चत्ततर लगा रहता है। इसलिए इसको मसध्यल्म्त या दशम लझ भी कहते हैं । ११वें खानेमें मंगल दिखलाया गया है क्योंकि यह ११वीं राशिमें है १२वें खाने या राशि में बुध और श॒क्र हैं । इसी प्रकार दूसरे सपाहकी नवमी विथिके मिश्र- मानकालिक अहोंकी स्थिति भी दिखलायी गयी हैं ! राशि- चक्र के क्षेत्रम रबि तथा अन्य ग्रह और राहु केतु उन्हीं शाशियमिं दिखक्ाये गये हैं जिनमें परिष् को थे केवल चन्द्रमाकी राशि बदली है। यह द्रतगतिके कारण एक सप्ताह चौथी राशि कहे में पहुँच गया है । इस प्रकार यह प्रकट होगया कि पंचाँगसे आकाशर्म सूय, चन्द्रमा, ग्रहों, राह, केतु, आदिकी स्थिति कैसे जानी जाती हैं । जन्मपन्न ग दमारे यहां बहुतसे लोग लड़कों था लड़कियों का जन्मपत्न बनवाते हैं जो फक्तित व्रयोतिषपर विश्वास रखने वालोंके लिए तो महत्वपूर्ण है ही परन्तु ' व्यावद्दा रिक उपयोगिताके विचारसे भी कम सहत्वका नहीं है । उन्नत देशों प्रत्येक लड़के या लड़कीका जन्मकात दिन, महीमा और सन्‌ म्यूनिसिपैलिटी या पुलिसके दक़र में लिखानेका नियम है । हमारे यहाँ यह लेखा प्रत्येक सम्पन्न गृहस्थ जनन्‍्मपत्रके द्वारा रखता है। इस कामके लिए प्रत्येक नक्षत्र चार समान भागोंमें बाँटा गया है जिसे नक्षत्नका चरण कहते हैं । इम्का दूसरा नाम नवांश भी है क्योंकि एक राशिका नर्वाँ भाग नक्षत्रके पक चरणके समान होता है पहले तो लड़केका राशिनाम ऐसा रखा जाता है जिश्वका पहला अक्षर नक्षत्रके चरणका द्योतक हो | प्रत्येक चरणके लिए अल्षग-अलग अक्षर - निर्दिष्ट हैं। चू , चे, चो, ज्ञा अश्विनीके चार चरणेके द्योतक हैं, की, लू, ले, लो भरणीके, इत्यादि । जनन्‍्मकालर्म चन्द्रमा नक्षत्नके जिस चरणमें होता है उसीका छ्ोोतक अक्षर नामका पहला अक्षर होता है . ऐसे नामको राशि वाम कहते हैं। इससे बर-वधूके स्वभाव आर प्रकृति आदिका पता लगाया जाता हैँ। जन्म पत्रमें सबसे मुख्य बात होती है जन्‍्मकंदली और विज्ञान, अप्रैल, १६४४ | भाग ६१ 3७७४०७०७ नर्वाशयक्र | दोनोंके चित्र एक ही तरहके होते हैं। केबल इन्हीं दो से भाप मनुष्यके जमन्मकालीन आकाशकी पूरी स्थिति जान सकते हैं और बतक्ञा सकते हैं कि उसका जन्म दिन में हुआ या रातमें, शुक्त पत्तर्मे हुआ या कृष्ण पत्ार्मे, कॉन महीना और कौन घष॑ था। एक उदाहरणसे यह बात स्पष्ट हो जायगी । एक मनुष्य का जन्म संबत्‌ १६७५ विक्रमीय माघ कृष्ण ८, तदुपरान्त ६, शुक्रवारकों सूथोदयसे ४५ घड़ी १६ पल पर हुआ । उसहसमय धनु राशिका १२९२६, १६” पूर्व जितिजमें लग्न था। धनु राशिचक्रकी ध्वीं राशि है। इसलिये जन्म कुण्डलीके पहले स्थानमें £ लिखा जायगा, दूसरे स्थानमें १०, सीसरे स्थानमें ११, चौथे स्थानमें १२, पाँचवे'में १, छुटेंमें २, सातवे'में ३, आठवे' में ४, नवे'में &, दसवे'सें ६, ११वेमें ७ और बारहथे' स्थानमें ८ द्िस्ने जायगे । उस समय काशीके पंचाँगके अनुसार ग्रहोंकी स्थिति यह थी :-- सू च॑ म॑ बु गुृ शु श रा के ल्प्म | ६ ६१७ ० ४९१२४ &$ ४3४ ७४ १६ ६४ अंश १$१ २० ४ २३ १६४ २७ ६ ३६ १६ ११२ कंकी ३९ २६ १६९ 4३ ४० १४ १३ ४३२ ४२ रे६ विकला ४ ४६ ६ ४२ १६ ४० १६४ रेईे ४ेहे १४६ राशि सूर्य दसवीं राशिमें है इस लिए कुण्डक्षीमें यह दूरे स्थानमें दिखाया जायगा जहाँ दसवीं राशि है। जन्कराडली संख्या १ ] भारतीय ज्योतिर्ष १ मंगल्य ११वीं राशिमें है इस लिए वह तीसरे स्थानसें दिखाया जायगा | इस प्रकार युक्तप्रान्तकी प्रथाके अनुसार जन्मकालीन क़ुण्डक्ञीका चित्र यह हुआ। यदि और कुछ मे मालूम हो, केवल यही दी हुई हो तो जन्मकान्ष का पता इस प्रकोर लगाया जाता है :-- जन्म दिनका है या रातका--जन्म क्ग्न धनुराशि है अर्थात्‌ जन्मकालमें धनु राशि उदय हो रही थी । पनु . राशिके बाद मकर राशिका उदय होता है भर एक राशि के उदय होनेमें क्वगभग दो घंटे छऋगते हैं इसक्षिए जन्मसे लगभग दो घंटे बादु जब मकरराशि ठदय हो रही थी तभी सूयोदय हुआ । इस किये जन्म रातमें सूयोद्यसे लगभग दो धंटा पहले हुआ | प्रातःकात् जन्म हो तो सूर्य उस राशिमें भी हो सकता है जो करन होती है । ऐसी दशा सूर्य पहले स्थानमें अथवा छरनमें ही दिखाया जायगा । यदि सायंकराल जन्म द्वो तो सूर्य उसी राशिमें हो सकता है जो अस्तक्षग्न है, ऐसी दशार्मं यूय॑ सातवें स्थानमें दिखाया जायगा। प्रात.काज्ञ या साथंकालके सिवा यदि रातके किसी अन्य भागमे जन्म हो तो सूर्य ! पहले और सातवें स्थानेंके बीच किसी घरमें रह सकता है। आधी रातका जन्म हो तो सूर्य चोथे स्थानमें होगा । इसी प्रकार यदि दिनमें जन्म हो तो सूर्य झवे' ले १२ वे' किसी स्थानमें रह सकता है। यदि सूयोदयसे कुछ ही बाद या सूर्यास्तसे कुछ ही पहले जन्म हो तो संभव हैं कि सूर्य पहले या सातवे' स्थानमें ही हो। इस प्रकार कुर्डलीमें सू्यकी स्थितिसे यह पता लग जाता है कि जम्म रातका है या दिनका | किस पद्षुका जन्म है! सूर्थ ओर चन्द्रमा दोनोंके स्थानेंसे पक्का पता चल्षता है। यदि सूयंसे बायीं ओर चलते हुए सातवे' घरके भीतर चन्द्रमा कहीं हो तो शुक्पचाका जन्म समझना चाहिये | सूर्यससे सातवे' घरसे भी आगे चन्द्रमा हो तो कृष्ण पत्रका जन्म है। उपयुक्त . कुण्डलीमें चन्द्रमा सूयंसे दसबे' घरमें पढ़ता हैं इसलिए ऋष्ण पंचका जन्‍्स हुआ | किस मासका जन्म है ! सूर्य ॥०वीं राशि सकरमें है। इस लिये सोर माध मास का जन्म है क्‍योंकि सूर्य मकर राशिमें १४ जनवरीके ज्ञगमग प्रवेश ऋरता है. जब मकर संक्रान्ति होती है ओर १३, फरवरी तक इसी शशिमें रहता हैं। इसी समयकों सौर साध कहते हैं। सूर्थकी राशिसे महीनेका पवा चलता है । किस वर्षका जन्म है ? यह जाननेके लिप शनि और ब्ृदस्पतिकी राशि देखते हैं । शनि एक राशिमे २॥ वर्ष रहता है ओर इसका एक चक्र लगभग ४६० वर्षमें पूरा होता है | बृहस्पति पुक राशिमें एक चर्ष रहता है और इसका एक चक्र क्वगभग १२ वर्ष में पूरा होता है। इस- ज्षिए इन दोनोंकी स्थितियंसे वर्षका पता प्रायः ठीक-ठीक लग जाता है। प्रस्तुत कु डब्नोमें शन्ति «वीं राशि सिंह में है श्रोर दृहस्पति ३री राशि मरिथुनमें | आजकल शनि मिथुनमें है श्रोर चृदस्पति सिंहमें | यदि आयु ३० वर्ष से कम है तो जन्मकात्नसे अब तक शनिका पहल्ला चक्र समाप्त नहीं हुश्ना । ऐसी दुशामें शनि १० राशिके लगभग चक्षा, इसलिए आयु १०७८२३-२० वंर्षके लगभग हुई । परन्तु इसमें एक या दो वर्ष का अंतर पढ़ सकता हैं क्योंकि यह पता नहीं कि जन्मकालमें शनि सिंह राशि के आरंभमें थाया मध्यमें या अन्तर्मे । इसलिए इसका मिलान दृहस्पतिकी राशिसे करना चाहिए । जन्मकाल्षमैं वृहस्पति मिथुन राशिमें था ओर अब सिंह राशिमें है। इसलिए संसव है कि जन्मकालसे अब तक वृहस्पति एक, दो, तीन या चार चक्कर पूरे करके रराशि आगे बढ़ा हो । यदि एक चक्कर पूरा हुआ तो जन्मसे अब तक १४ वर्ष हुए, दो चक्कर हुएतो २६ चर्ष ओर तीच चक्कर हुए तो इ८ वर्ष । इन तीनोंमें जो वर्षसंख्या शनिकी वर्ष संख्याके निकट हो वही यथार्थ आयु सममूना चाहिए । इस प्रकार वृहस्पतिके अनुसार २६ वर्ष हो गये | यह शनिसे आये हुए समयसे एक ही वर्ष अधिक है इश्॒क्षिण ढीक है। इसकज्षिए मनुष्यकी आयु ३६ वर्षकी है । नवांश कुंडली--यदि लप्न कुडलीके साथ नर्वाश कुडली भी दी हुईं हो तो जन्मकालका निश्चय बहुतही सूक्मतापूर्वक किया जा सकता है| ऊपर बतल्लाया गया है कि एक राशिमें नव नवांश होते हैं | इसलिए प्रत्येक नवांश ३ अ्रंश २० कल्लाका होता है। इन नर्थवाशोंके मास राशियोंके अनुसार भी*रखे गये हैं। मेष राशिका पहला १६ विज्ञान, श्रप्रेल, १६४५ _ भाग ६१ फ न 0 3 ही ,क 80 5० ५0 हक नर्वाश आाठवां २६९४० ह (प्थजलाथआ 0८22४: | राशि | पहला | दूसरा सातवां छुटठां + एछे श्‌ थक न्‍ँ ६६ है? 6 रँ आय 3205 तीसरा | चोथा पांचवां ०४७७7 २३०२ ७ ($३“२०| ५ २०० | .. न्वाँ १०० | तय री | ध्क्ष है. संख्या ह ] नवांश मेषका नवांश कहलाता है, दूसरा नवॉश वृषका तौसरा नवांश मिथुनका, इत्यादि । इस प्रकार मेंप राशिके ५ नवांश क्रमानुसार मेष, दृष,.. . धघनुके नवाश कहलाते हैं। वृष राशिका पहला नवांश मकरका नवांश, दूसरा नवांश कु'भका, तीसरा नवांश मीनका और चोथा नरव्वांश सेषका नवाश कहलाता है । आगे बृष, मिथुन आदि के नवांश हैं। चक्रसे यह सब बातें एक साथ ही समझें आ जाय॑गी। इस चक्रपे यह सहज ही जाना जा सकता है कि कौन प्रह किस राशिके नवांशर्मे है । सूर्य मकर राशि के ११९१४” पर है। चक्रमें मकर राशिक्रे १० अंश तक मीनका नरद्राश है उसके बाद १६०२०” तक सेपका नर्वांश है इसलिए नर्वांश कु'डल्लीमें सूर्य मेपमें दिखाया जाग्रगा । चन्द्रमा तुलाराशिके २०१२६” पर है इजलिए यह भी मेपके नवांशर्मे है । इसी प्रकार मंगल वृश्चिकके नवांशमें, डुध दृश्चिकके नवांशर्मे, बृहस्पति कु'भके नवांशमें, शुक्र कन्याके नवांशमें, शनि - वूषके नवांशमें, राहु धनुके नवांशमें, केतु मिथुनके नवांशमें और ल्ग्म कक के नवांशमें है। इसलिए नवांश कु डल्ली इस प्रकार हुई--लप्नमें कक राशिसूचक ४ का अंक रंखकर आगेके स्थानोंम क्रमानुसार अंक रखे गये हैं ओर जिस राशिके नवांशमें जो ग्रह है चह उस अंकके साथ रख दिया गया हैं । अब लग्न कुण्डली ओर नर्वांश कुण्डली दोनोंकी तुलना करनेसे किसी ग्रहकी स्थिति निकटतम तीन अंश - फलित ज्यौतिष १७ तक जानी जा सकती हैं| सूर्य ओर चन्द्रमा दोनों मेपके नवांशमें है परन्तु लग्ग कुण्डलामें सूर्य १० वीं राशिमें ओर चन्द्रमा ७वीं राशिमें है इसलिए सूय मकर राशिके १०९" और १३९२० के बीचमे है ओर चन्द्रमा तुज्नाराशि के २०१ ओर २३१२० के बीच में है। इससे जन्मतिथि काफी शुद्धता पूर्वक जानी जा सकती है ओर तारीखमें अधिकसे अधिक ३ दिनका अंतर हो सकता हे। इसी प्रकार नर्वांश चक्रसे प्रत्येक अहकी स्थिति निकटतम ३ अंश तक जानी जा सकती है । फलित ज्योतिष इस सम्बन्धर्म विद्वानोंमे बड़ा मतभेद हे जो बहुत प्राचीन कालसे चला आता है। शुद्ध विज्ञानवादी इसमें विश्वास नहीं करते क्योंकि एक तो अहोंकी स्थितिसे शुभाशुभ फत्न जाननेके नियमोकी वैज्ञानिक रीतिसे परीक्षा नहीं हो सकती दूसरे जो फल बताये जाते हैं वे पूरे ठीक नहीं उतरते ओर भिन्न भिन्न पंंर्थों में फलोंके सम्बन्धमें बहुत मतभेद है। तीसरे अशुभ फेंके पूर्व ज्ञानसे चित्तमें व्यर्थ ही खिन्नता उत्पन्न होती है। चोथी बात यह भी है कि श्रधिकांश फलितके ज्योतिषी गणित पघिद्धान्तोंसे अपरिचित ओर वराहमिहिरके शब्दोमें नच्षत्रसुचक" होते हैं जिनसे ल्लोगोंकों प्रायः धोखा होता है | परन्तु कुछ बातें ऐसी हैं जिनके कारण यह नहीं कह! जा सकता कि फलितमें विश्वास रखनेवाले _ केवल अन्ध परग्पराके भक्त हैं। दो चार उदाहरण ऐसे व्यक्तियोंके सुखसे सुननेमें आये हैं जिनके लिए यह नहीं कहा जा सकता किवे भुठे हो सकते हैं। हस्तरेखा विज्ञानवाले तो इतदा तक कहते हैं कि केवल हथेलीकी रेखाओंको देखकर वह बतला सकते हैं कि उनके जन्‍म कालमें कौनसी राशि लट्न थी ओर कोन कोनसे ग्रह किस किस राशिमें थे। इस्त प्रकार यदि हाथकी रेखाओंसे लग्न कुण्डली बनायी जा सकती है तो यह निस्सन्देह ठीक १ -- तिथ्युत्पत्ति' न जानंति ग्रहाणां नैव साधन । परवाक्येन वर्तते ते वें नच्षन्नसूचकाः ॥ अविदित्विव यः शार्ख देवश्त्व॑ प्रपच्यते | स॒ यंक्तिदूषक: पापों ज्ेयो नक्षन्नसुचकः । ६ वृहत्संह्ििता २-१७ श्द विज्ञान, अप्रेल, १६४५ | भाग ६१ है कि किसीके जन्मकालकी आकाशीय स्थिति और उसके शरीरकी बनावट अथवा उसकी प्रकृतिसम कोई घनिष्ट सम्बन्ध है। कोई कोई तो माथे पर की रेखाओँसे जन्म कुण्डली बनानेकी भी पटुता रखते हुए पाये गये हैं इश्त विषयम स्वर्गीय शंकर बालकृष्ण दीक्षित अपने भारतीय ज्योतिष शाझ्ममें इस प्रकार लिखते हैं? : -- बाबाजी काशोनाथ पटववर्धन' * '"कोरल्हापुरमें चकालत करते थे। ईस्वी सन १८प२ में एक द्वविड ब्राह्मण ज्यो- तिषीसे उनकी भेंट हुईं । वह विक्षिप्त था। मनुष्यके शरीरके ज्क्षणोंसे जन्मलग्न जाननेके कुछ मूलतत्व उसने पटवधनकों बतलाया । बादमें उन्होंने रवयं अनेक प्रन्न्थों को पढ़कर उनमें दिये लक्षणंको मिलाया ओर उनसे स्वयम्‌ खेकड़ों मनुष्योंकों देखकर नियम बनाकर अपना ज्ञान बंढ़ाया | ईस्व्री सन १८६१ से उन्होंने इस ज्ञानको २--बआाबाजी काशीन्वथ पटवर ्धन' ' कोल्हापुर णएथे वकिली करितात, इ० स० १८८२ मध्ये त्याँप्त एक द्वाविड ब्राह्मण ज्योतिषी भेटल्ला, तो तित्तिप्त होता, मनुष्याच्या शारीर लक्षणांवरून जन्मलग्ग सांगण्याची काँही मृलत- तस्वे' त्यानें पटवर्धनांप्त साँगितल्ी, पुढ़ें त्यानीं स्वतः अनेक प्रंथ पाहुन व्यांतलः लकुणांची एकवाक्यता भाली तितकी करून च स्वतः शेंकडों मजुष्ये पाहून नियम बसवून आपलें ज्ञान बाइबविलें, ६३० स० १८६१ पासून त्यांच्या या ज्ञानाची प्रसिद्धि काली. मसुखचर्या पाहुन कुण्डली मांडर्या- च्या कामी यांची बुद्धि मोठी तीव्र आहे, मनुष्य पाहतांच दां हां हाणतां त्याची कुण्डली मांडितात ती मुख्यतः मुखचर्या पाहून व कर्धी जीभ, प्राणि तलहात पाहुन मांडितात, शारीरलचर्मा वरून जन्म लग्न आशि जन्मकाली अमुक ग्रह अंमुक राशीस होता एचढेंच हे सांयतात असे नाहीं, तर अमुक ग्रह अम्मक राशीस श्रम॒ुक अंशावर होता इत्तक सांगतात, अंशांत फार तर पघरासरी एक दोन अंशांची चूक पढ़ते' असा अनुभव मीं पाहिल्षा आहे * भा०*क्यो० शा० पृष्ठ ४७७६ प्रसिद्ध किया । मुखचर्थाकोी देखकर कुण्डली बनानेके काममें यह बड़े प्रवीण हो गये । मनुष्यको देखते ही बात की बातमें यह उसकी जन्म कुण्डली बना लेते थे। शरीर के लक्षणेंसे जन्म क्ग्न ओर जन्मकाल में अम्लुक अमुक ग्रह अमुक अम्क राशिमें है यही नहीं बतक्ाते थे चरन्‌ यहाँ तक बता देते थे कि अम्मक ग्रह अम्ुक शशिके अमुक अंश पर थे | अंशेमें अधिकसे अधिक एक या दो अंशका अंतर होता था ऐसा अचुभव मेंने किया है। इन अजुभवोंके होते हुये फत्ित ज्योतिषको निस्सार समभना ठीक नहीं जान पड़ता | विद्दार्नोकी चाहिये कि इसमें भी अनुसन्धान करें ओर देखें कि पुराने ग्रथोमें बतल्ाये हुए फल कहां तक ठीक -उतरते हैं। इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि मनुष्यके शरीर, मन और बुद्धि पर पूर्व जन्मके कर्मों ओर संस्कारोंका भी प्रभाव होता है । यह भी सिद्ध है कि सूर्य ओर चन्द्रमाकी भिन्न भिन्न स्थितियोंका प्रभाव केवल स्थूल शरीर पर ही नहीं पड़ता, सन और बुद्धि पर भी पड़ता है, जैसे बहुतसे रोग शक्त पतमें बढ़ते हैं तथा उनका वेग दिनके किसी भागमें ।वशेष रुपसे होता है । इसलिये यह भी संभव हो सकता है कि सर्य, चन्द्रमाकी तरह अन्य गअहॉका भी स्थूल और सच्म जगल्में कुछ सच्म प्रभाव पड़ता हो । यदि शरीरके लक्षणोंसे जन्मकालीन नक्षत्र चक्र और अहॉकी स्थिंतियाँ जोनी जा सकती हैं तो यह भी ठीक है कि जन्मकालीन ग्रहोंकी स्थितियोंसे मनुष्यके शरौरका ही नहीं उमप्तकें मन ओर बुद्धि अथवा प्रकृतिका भी पता खगाया जा सकता है जो शिक्षा-विभागके लिए बड़ ही उपयोगी हो सकता है क्योंकि यदि बालकोंके स्वभाव ओर रुचिका पत्ता आसानीसे लग सके तो हमको उनकी बुद्धि ओर धव्वत्तियोँंकी परीक्षा करनेमें, जिसका अचार पाश्चात्य देशमें बड़े जोरोंसे हो रहा है बढ़ी सहायता मिलेगी । इस विचारसे भी इस विषयमें अनुसन्धान करंनेकी आवश्यकता है । महावीर प्रसाद श्रीवास्तव १... इसाउफाददड. >बएरकः»कज>मन»«्यकतना० बा | द मासिकध्म या ऋतुकाल [लेखकः डा० (मिस) पावेती मलकानी एस-बो० बी० पस०, (पंजाब), रजिस्ट्रार वा रेसिडेन्ट मेडिकल .. आफिसर क्ीन मेरी अस्पताल (लखनऊ मेडिकल कालेजका ख्री-रोग-विभाग) छल्लननऊ ।] प्रति मास एक नियमित समय पर युवा ख्थियाँ कुछ असाधारण सी पाई जाती हैं या बना दी जाती हैं । कहा जाता है, वद “अलग हैं”, “नासाज़ हैं”, "महीने से हैं,” बिल्ञोका गू बूड़ गई हैं, 'उनका हाथ नहीं है!' इत्यादि । घरके उत्सुक बालक चकराते हैं कि यह बात क्‍या हे। बात व्यवहारमें यद्द रजस्वत्ला ख्रियाँ सबसे अलग सी रदती हैं | पर॑तु इस विवित्रताका कोई कारण दिखल्लाई नहीं देता | ख्वियोंके बाल्यकालमें जब्र प्रथम बार योनि- द्वारसे रक्तस्नाव् होता है, लड़कियों कुछ घबड़ा सी जाती हैं और समरू नहीं पाती यह क्‍या और कैसे हो गया । उनको इसके विपयमें ठीक ज्ञान नहीं दिया जाता तो विचित्र घारणायें मनमें बेंठ जातीं हैं (या भर दी जाती हैं) | कितनाभी कमरमें दंदं हो, कितना ही खून जाय सत्र ख्लित्रोके माथे पर थोषा भाग्य ही समझा जाता है। मासिक घमंके 3से € दिन तक देश जाति व कुल रीति के अनुसार उनको अपनी दिनचर्या बदल देनी पढ़ती है । साधारणत: वे घरके काम काजमें हाथ नहीं फेलाने पाती । उनका ओढ़ना, ब्िछीोना अलग कर दिया जाता है। चाहे जितनी गर्मी पड़े वे दो दिन तक नहा नहीं सकतीं और तीखरे दिन कितना भी जाड़ेका मौपछम हो विधिवत्‌ स्नान अनिवाय है । इन तीन दिन्तों उनकी संज्ञा धोबिन की मानो जाती है और अगर कोई उन्हे धोखे घड़ीमें छ जाय तो उसे भी बाकायदा स्नान करना पढ़ता है। इन तीन दिनोंकी अछृतावस्थाके नियम इतने कठोर बना दिये गये हैं कि इस विषयर्मे ऋषि पंचमी नामक कथा धार्मिक प्रंथेंमें घुसेह दी गई है। नियम पालन रढ़ रखनेके लिये यह प्रथा बहुत दूषित हो गई है। कहा जाता है कि पहाड़ों पर मासिक धर्मके समय ख्त्रियों को घर से बाहर निकाल देते हैं । इन सब कुप्रथाओंसे लास एक ही निकलता है कि स्त्रियां इन दिनों पति सम्भोगसे अची रहें । इतने के कक बे च, + लिये वे सकड़ों कुरीतियों पर बलिदान हों, मह श्रवैज्ञानिक सामाजिक मुक्त है | मासिक धर्म एक साधारण प्रार्कतिक निय्रम है। इसका होना अच्छे स्वास्थ्य का लक्षण है इसका युवावस्थामें न होना रोग है या शरीरकी अप्रा- कृतिक रचनाका फन्न है | गरम देशेर्मि १२से १४ वषकी अवस्था तक और ठंढे देशोमे. कभी-कभी १८ वर्षको - अवस्था तकमें स्व्रियोंके र्भांशयसे एक प्रकार का द्वव पदार्थ जिसमें गर्भाशयकी भिल्नियां, कुछ रक्त व गर्भाशयके अन्य रस होते हैं निकलकर योनिद्वार होते हुये बाहर निकला प्रारम्भ करते हैं | यह दशा प्रायः.हर चोथे हके था अट्टाइसवें दिन हुआ करती है । कुछ ख्त्रियोंकों तीसरे हफ़ेमें ही मास्िकथर्म होता है और किसीमें पांचवें तक। चाहे कितने भी दिन पर मासिकधर्म हो हर बार उतनेहददी दिनपर होना चाहिये । दिनानतरमें विशेष घट बढ़ होना रोगसूचक है | खाव दो दिनसे लेकर पांच दिन तक होता है और उसकी मात्रा व्यक्तिगत है| लेकिन बहुत कम स्राव होना थ बहुत विशेष होना दोनोंही सरतें अच्छी नहीं हैं । किसी किसी लद़क्रियोमेँ विशेष अवस्था हो जाने पर भी मासिकधम प्रारम्स नहीं होता । इसके कई कारण होते हैं । यदि साधारण शरीर रचनामें आकस्मिक कोई भिन्नता आ जाती है तो उसे शल्यकार सहज ही में ढीक कर देते हैं। ऐसी दशामें लडकियोंके सरमें व कमरमें दु्द रहा करता है। शरीर अनमनासा और भारी मालूम होता है। ऐसी दशामें शल्यकार को तुरन्त दिखलाना चाहिये | रक्ताल्पतामें भी रज नहीं बनने पाता । ऐसी लडकियोंकी आंखेंव नख पीले पड़ जाते हैं। हाथ पेर फूलेसे लगते हैं, सुस्ती घेरे रहती हैं। ऐसी अवस्थामें रक्ताल्पता दर करनेका शीघ्र उपाय करना चाहिये नहीं तो अनेक उपद्रव खड़े होनेकी सम्भावना रहती है । किसी किसी लड़कियों में गर्भाशय ठीक नहीं बनता। इनको संख्या बांझ खियों में को जाती है। इधर कुछ दिलेसे पुंस डे घ्‌्० विज्ञान, अ्रप्रेल, १६४४ [ भाग ६१ हक प्रथियोंके रसके उद्योगले लाभ बतल्ाये गये हैं लेकित यह चिकित्सा विधि अभी पालनेमें ही खेल पाई है । कभी प्रथम रजोदर्शन विशेष रक्तत्नावके साथ होता है । ऐसी अवस्था -आ जानेपर अनुभवी शक्यकार को शीघ्र दिखलाना चाहिये। मासिक प्ररस्भसे ही सामयिक नहीं होने खगता | साल दो साल शरीरकों श्रपनी गति ठीक करनेमें लगता है। जब एक बार ऋतुकाल समय से होने लगता है अपनी गति सामयिक रूपसे पीस तीस वर्ष तक कायम रखता है। चालीस वर्षफी अवस्था तकमें या दस पांच सालके हेर फेरमें मसिकधर्म बन्द हो जाता है। स्थ्रियोका जीवन- काल परिवत्तित हो जाता है, फिर रजोदर्शन नहीं होता | एक दर मासिक अन्द हो जानेके बाद यदि फिर अकस्मात शुरू हो जाय तो इसे किसी कठिन रोगका प्रादर्भाव समझना चाहिये । तुरन्त किसी डाक्टर को दिखलाना चाहिये । युवावस्थामें रज या तो गर्भावस्‍था में या दूध पिल्लानेके दिनों बंद रहता है | यों यदि कभी डर समा जाता है या कोई मानसिक धक्का लग जाता है या मानसिक परिश्रम पड़ जाता है तो बंद हो जाता है किंतु कारण हट जाने पर फिर कायदेसे प्रारम्भ हो जाता है। इसके अतिरिक्त यदि रजोधममें किसी प्रकारकी गड़बड़ी पड़ जाय तो डाक्टर को दिखलाना चाहिये।..... साधारणतः युवावस्थामें जब रजोधर्म सामयिक व नियमित रूप पर आ जाय तो इसे स्वस्थ शरीरका लक्षण सममभना चाहिये | अपनी दिनचर्य्यामें केवल इसीके कारण फर्क न आने देना चाहिये। केवल बहुत ठंढ व विशेष कसरत से बचना चाहिये ओर पुरुष सम्भोग बंद रखना चाहिये। खाव सोखनेके किये योनिद्वारमें जल सोखने वाला स्वच्छु मुलायम कपड़ा रखना चाहिये और किसी भी हालतमें गंदे कपड़े का प्रयोग न करना चाहिये। साधारण व्यक्तिके लिए स्वास्थके जो नियम हैं यानी खुली हवामें रहना, हल्की कसरत करना, अच्छा ताजा भोजन सदाकी भांति करना, स्तान करना, वह सब>ठीक हैं। इन्हीं दिनों कक के उपलक्षमं रहनसहनमें कोई नवीनता न पैदा करनी चाहिये | हाँ विशेष अच्छा भोजन, ज्यादा सफाई, स्वास्थ्य- कर भोजन चिक्तप्रसन्नता, इत्यादिका आयोजन करे तो अच्छा ही है । कभी कभी रजस्वला खिर्योंको कब्ज व दस्त की शिकायत हो जाती है यानी पाचन प्रणाली कुछ बिगड़ जाती है । कब्ज रोकनेके लिये- हल्का जुलाब ले लेना चाहिये लेकिन यदि भोजन ठीक करनेसे ही, फल व तरकारी खानेसे पाचन-प्रणाली संभाली जा सके तो सराहनीय है । ख्रियाँ ऋतुमती होने पर रजस्वला होती हैं। रजोदर्शनके पहले ख्री-बीज गर्भाशयमें आते हैं और यदि इनको पुरुष बीज मिल जाय तो गर्भाधान हो जाता है। पुरुष बीज न मिलने पर ख्रीबीज रजके साथ मिल कर बाहर निकल जाते हैं। कदांचित इसी प्राकृतिक नियमकों समभकर समाजमें कन्याके रजस्वज्ञा होनेके पहलेही ब्याह कर देनेकी प्रथा चल पढ़ी थी ओर बहुत कुछ कायम भी ., है। रजोधर्म प्रारम्भ होते ही पुरुष बीज मिलने पर गर्भा- धान तो हो सकता है लेकिन यह वह समय है जब स्त्रीकी जननेरिद्रियाँ प्रारम्भिक कालमें रहती हैं तथा इनका रचना- काये जारी रहता है, दृढ़ नहीं रहतीं । इस प्रारस्मिककाल में यदि गर्भ आ जाता है तो जननेन्द्रियां सुदृढ़ नहीं होने पाती और शारीरिक शक्ति गर्भावकाश में लग जाती हैं। दो एक गर्भधारंगके बाद अनेक उपद्रव खड़े होनेकी सम्भावना रहती है। इसलिये मासिक का प्रारम्भ पुरुषलम्भोग व गर्भाधारण का ऋतुकाल-आगमसन न सम- झना चाहिये। लोगों में ऐसी धारणा है कि ऋतुकाल के एक हक़्े पहले ओर बाद के समय को छोड़कर मध्यम कालमें सम्भोग किया जाय तो गर्भाधारण के कम अवसर रहते हैं और संताननिग्रहके लिये इसी समय का लाभ उठाना चाहिये। यह विशेषतः किम्बदन्ती ही जान पड़ती है । स'ख्या १ ] रबर २१ रबर [ पृ० ८ का शेषांश ] इस भहायुद्धूमें सब ओर क्षति और हानि ही दिखाई पड़ती है। करोड़ों मनुष्य मारे गये हैं, करोड़ों धर बरबाद हो यये हैं ओर अभी तक यछ का अन्त नहीं दिखाई देता । इस यद्धकालमें जहाँ हज़ारों बाम्बर [0770 67'8] बने, नाता प्रकारके हथियार बने, वहाँ एक सुन्दर वस्तु भी बनी ओर यह है यौगिक रबर | यौगिक रबर आधुनिक रसायनकी -सफल्नताका एक जदाहरण है। इस पुस्तक के लिखने में निम्नलिखित पुश्नकों और लेखों से सहायता ली गई है। जिन पाठकोको किसी विशेष विषय पर जानकारी करनी हो वह इन लेखों का अध्ययन करें :-- , 770ए0]09860 9 37]$%8 7 0& 2. 300४ 07 [70 95602 6 ७, 9॥07ए 0 (७0ए78॥7पए--के, ], 2977'0 एफ 4, हिप्राप७प उ०09, 70प7. ० 806. 870 [70, $06७७७7०॥, 708, 944, २ 709. [24-27, रबर-दुश्धके लिये :-- 0० 70, 68:72. (3)॥67), 927,090.87. 6. वेएपा', छा 508, 06 07१७७. 987, 090. 397, 7', रबर-दुग्ध जमानेके लिये :--- 7, ब०प्र/ 07, 800. ० (॥॥००. 498, 99. 48, '. 8. (४07707/68' ७7008, 907, 907. 40., वल्केनाइज़ेशन के लिये :--... 9. र०प्र०, 04 800, ० (0॥७॥॥ 96, )00. 984 4]]0 , [70, 44, 70, 0, शराह॥80 ?8606760, 429826 0| 96 |. थ०0प्रा', 0 800. ए 0809०7॥, [70 924, 00-89, 7' 428, (॥8677- 8700 [70, 988, 90, 909. 98 | [8, 7077, ०0 800. ०07 00७४७, 498, 079 989, 98, 09. 75. 44. ४०प्रा'. 0 (४॥७7), 500, [7098, 4985, 8, ॥९ येगिक रबर के लिये :--- 8, श०08॥४ 8४ए॥4$08606 770 0878 977: 3७07 (94%) 46, वं6प्रा' 4942 9, 99. 98 4/. डिए8॥ 7?]988008, 942, 00, /293 48, छ008॥ ?]88608, 4989, 0, 900. 46. 49, वैएप 800 872 (४0७७), 494[, 88, 0]. 48482. $ ७948, 04, 070, 248 &, ?]9४४08, 94[, 5, 0.0. 9 88, उिपं080) 2॥98008, 4942, 3, 07 26,4; 709, |0 28... (0977, &7प /०७$, #02, 4940, 0]. 220, 60, १4, [70048. 7०)९७/ ]70,, 989-40, 00% 7॥% 04. 25... वें0प्रा' 07 80७. 8700 80. ह१686- 97'00, ।944, 3, 70046 -2&, [00 [700970, (४॥87). 800, ४ पा १3 99 १9 हि । ६4 ब्-ज््टि च््ञ सम्पादकीय न विज्ञान-परिषद प्रयाग एक अखिल भारतीय संस्था है माधुरीके दिसम्बर १६४४ के अंकमें ५॑० लक्ष्मीकान्त शुकत्र बी० एस-स्ली ०, बी० टी०, का “राष्ट्रभाषा हिन्दी का वैज्ञानिक साहित्य” लेख छुपा हैं. इस क्षेखमें लेखक ले हिन्दीमें वैज्ञानिक साहित्यका अभाव बतलाते हुये इस बातकी आवश्यकता बतलाई है कि इस कार्यको करनेके लिए एक अखिल भारतीय विज्ञान परिषदकी स्थापना को जाय । इस लेखसे पाठकोके हृदयमें यह विचार उठना स्वाभाविक है कि हिन्दीमें इस प्रकारका कार्य करने वाली कोई संस्था अभी तक नहीं है। विज्ञान- परिषद प्रयाग एक अखिल भारतीय संस्था है जो इस चेत्रमें पिछले बत्तीस वर्षोसे काय करती आ रही है। शुक्क जी ने अपने लेखमें विज्ञान परिषद्‌का कहीं' नाम सक नहीं दिया है। इसके दो ही कारण हो सकते हैं। पहला यह कि शुकृजीने विज्ञान-परिषद्का कभी नाम ही न सुना हो ओर दूसरा यह कि वह इस संस्थाको अखिल भारतीय संस्थाके रूपमें न मानते हो । यदि पहला कारण है तो बढ़े ही आइचयंकी बात है कि शुक्लज्नी ऐसे पढ़े-लिखे महानुभावकों इस संस्थाके अस्तित्व तक का पता नहीं। यदि दूसरा कारण है तो भी यह खेद- जनक बात है कि जिस संस्थाने हिन्दीके वैज्ञानिक साहित्यकी इतनी सेवा की हो, उसके सम्बन्धर्म ऐसी अनुचित धारणा शक्लजी ऐसे पढ़ें-लिखे सजन रखें । शुक्लजीको यह मालूम होना चाहिये कि विज्ञान परिषद्‌ ने हिन्दीके वैज्ञानिक साहित्यका काये उस प्रभय उठाया था जब इस ओर स्राधारण हिन्दी जनताका ध्यान भी नहीं था। प्रारम्भमें बहुतोंने विज्ञान-परिपद्के प्रयासकी हँसी उड़ाई थी ओर यह समझा था कि यह व्यर्थ है ओर सफल नहीं हो सकेगा । आज़ जब्न कि चारों ओर सातृभाषाके माध्यम द्वारा शिक्षणकी पुकार मची हुईं है विज्ञान-परिषद्के कार्योंकी महत्ता सब हिन्दी- ' प्रेमियोंकी समझमे आ रही है। विज्ञान-परिषदने अपने कायासे यह सिद्ध कर दिया है कि मातभाषामें ऊचेसे ऊँचे वैज्ञानिक साहित्यका लिखना ,प्रढ़ना और पढ़ाना है] ना सफलता पूर्वक हो सकता है। पहले जिन लोगोंको यह सन्देह था कि हिन्दीमें विज्ञानकी शिक्षा सफलतापूव क नहीं दी जा सकती, अब वे भी इस बातको स्वीकार करते हैं कि अपनी भाषा द्वारा यह शिक्षा अधिक सफल हो सकती है। विज्ञान साहित्यके क्षेत्रमें बतमान जागूति ल्ानेका पूरा श्रेय विज्ञान-परिषद्को ही है | विज्ञान परिषद्‌ का मुख्य उद्देश्य प्रारम्भसे ही यह था कि लोगोंको हिन्दी द्वारा विज्ञानकी शिक्षा दी जाय । आज अपने इस कार्यको कुछ अंशों तक सफल हुआ देखकर स्वभावतः हर्ष ओर संतोष है। अपने इस उद्देश्य की पूतिके निमित्त परिषदने हिन्दीमें वैज्ञानिक साहित्यका प्रकाशन काय भी प्रारम्भसे ही हाथमें लिया था। परिषद्‌ ने विज्ञानके सब ही विषयों पर लगभग ६० प्रंध निकाले हैं। परिषद्‌की योजनार्मे विज्ञानके सभी अंगॉपर ऊंचे से ऊचे ग्रं्थोका निर्माण करना है | इस संबंध कुछ कार्य हुआ भी है और हो भी रहा है। आर्थिक कठिनाइयोंके कारण हमारा प्रकाशन कार्य बहुत तेजीसे नहीं चल पाया है। यदि हिन्दी-प्रेमी-धनि्कोंसे अपने कार्यके किए परिषद्को प्रच आधिक सहायता मिल सके तो परिषद्‌ हिन्दीके वैज्ञानिक साहित्यकी अपूत' सेवा कर सकता है । हिन्दीमें वेज्ञानिक साहित्यके लेखन तथा प्रकाशन का कार्य करनेके लिये ओर संस्थायें खुलें, अथवा नागरी प्रचारिणी सभा या हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन द्वारा यह काये ओर बढ़ाया जाय इसमें परिषद्का कोई आपत्ति नहीं है | वैज्ञानिक साहित्य सस्बन्धी कार्य जितना भी बढ़ेगा परिषद्को प्रसन्नता ही होगी । किन्तु मेरे विचारसे कायकी अधिक सफलता के लिए श्रच्छा यह है कि परिषदकी ही आधिक कठिनाइयेका दूर कर इसके द्वारा यह कार्य करवाया जाय । परिषद्‌ की यह समस्या धनी ' हिन्दी प्रेमी जनताके पूर्ण सहयोगसे ही हल हो सकती है। अतः में डन लोगोंसे अनुरोध करूंगा कि वे परिपद्‌ के कार्योंमे अधिक रुचि लें ओर अपनी सहायता प्रदान करें जिससे परिषद्‌ हिन्दी ल्लप्चारकी वाज्छनीय सेवा कर सके | विज्ञान-परिषद्की प्रकाशित प्राप्प पुस्तकोंको सम्पूण सूची १-विज्ञान प्रवेशिका, भाग १- विज्ञानकी आरम्भिक बात सीखनेका सबसे उत्तम साधन - ले० श्री राम- दास गोड़ एसं० ए० ओर प्रो० साल्षिगराम सांगव एस्‌० एस-सी ० $ २-ताप--हाईस्कूलमें पढ़ाने योग्य पाव्य पुस्तक-- ले० प्रो० प्रेमचद्लम जोशी एम० एु० तथा श्री विश्वस्भर नाथ श्रीवास्तव, डो० एस-सीं० ; चहुथ संस्करण; ॥£), ३--चुम्बक--हाईस्कूलमे पढ़ाने योग्य पुस्तक ले० ओ० सालिगराम भागंव एम० एस-सी०; सजि०; |) ४9--मनो रज्ञक रसायन-+- इसमें रसायन विज्ञान उप न्‍्यासकी तरह रोचक बना दिया गया है, सबके पढ़ने योग्य हँ--ले० प्रो गोपालस्वरूप भागंव एम० एस-सी० ; १॥), ४--सुय्य-सिद्धान्त--संस्क्ृत मूल तथा हिन्दी 'विज्ञान- भांध्य'--प्राचीन गणित ज्योतिष सीखनेका सबसे सुलभ उपाय -४(ष्ट संख्या १२१४ ; १४० चित्र तथा नकशे--ले० श्री महाबीरप्रसाद श्रीवास्तव बी० एस-सी०, एल्० टी०, विशारद; सजिल्द; दो भागंमि, सत्य ६)। इस साध्यपर लेखककों हिन्दी साहित्य सस्मेज्ञनका १९००) का मंगलाप्रसाद पारितोषिक सिल्ता हैं । ६--वैज्ञानिक परिमाण--विज्ञानकी विविश्व शाखाओं की 7 इकाइयोंकी सारिणियाँ--ले० डाक्टर निहालकरण सेठी डो० एस सी ०: ॥।), ७--समीकरण मीमसांसघा-गणितक एस० विद्यार्थियके पढ़ने योग्य - ले० पं० खुधाकर द्िवेदी; प्रथम भाग १॥), द्वितीय भाग ॥#), ८प--निर्णायक ( डिटमिनेट्स ) - गणितके एस० एु० के विद्या्थियोंके पढ़ने योग्य- ले० प्रो० गापाल गद्े और गोमती प्रसाद अस्लनहोत्री ब्री० एश्न सी ० ; ॥), छ० के १८*-मऊल-संर क्षण ६--बी जच्यामिति या भुजथुग्स रेखागणित--ईर्दर्र- मीडियेटके गशणितके विद्यारथियोंके त्िये--ल्ले० दाक्टर सत्यप्रकाश डी ० एस-सीं० ; १।), १०८“शुरुदेवके साथ यात्रा--डाक्टर जे० सी० बोसकी यात्राओंका लोकप्रिय वर्णन ; |“), फघ?१--केदार-बद्री यात्रा--केदारनाथ और बद्रीनाथंके यात्रियोंके लिये उपयोगी; |), १२>वर्षा और बनस्पति--लोकप्रिय विवेचन--ल्ले० श्री शह्वरराव जोशी; |), १३- मसनुष्यका था! ह।र--कोन-सा आहार सवात्तम है-- ले० वैद्य गापीनाथ गुप्त; |), १४-सुवणशकारी- क्रियात्मक - ले०. श्री गंगाशंकर पंचोल्ली; ।) १४--रसायन इतिहास--हंटरमीडियंटके विद्याधयकि योग्य - क्े० डा० आत्माराम डी० एस-सी०; ॥), १६--विज्ञानका रजत-जयन्ती अंक़--विज्ञान परिषद्‌ के २५४ वषका इतिहास तथा विशेष लेखोंका संग्रह. १) (७--विज्ञानका उद्योग-व्यवमसायाड्ु--रुपया बचाने तथा धन कमानेके लिये अनेक संकेत---१३० पृष्ठ कई चित्र--सम्पादक श्री रामदास गौड़ ; १॥), - दूसरापरिवर्तेत संस्करण-फर्लोकी डिब्वाबन्दी, सुरब्बा, जैम, जेली, शरबत, अचार आदि बनानेकी अपूर्व पुस्तक; २१२ पृष्ठ; २६ चित्न--- ले० डा० गारखप्रसार ढी० एस-स्री०; २), १६--व्यड्भचित्रशु--( कारहन बनानेकी विधा )- ले० एल० एु० डाउस्ट : अनुवादिका श्री रत्नकुमारी एम० ए०: १७३ पृष्ठ: सेकड़ों चित्र, सजिह्द: ३ (8) २०-मद्टा के बरतन- चीनी मिद्दीके बरतन केसे बनते हैं ल्लोकप्रिय-- क्षे० प्रो० फूलदेव सहाय चर्मा * १७५ पृष्ठ; ११ चित्र; सजिल्द; १॥) २१--वायुमंडज्ञ--ऊपरी वायुमंडलका सरल वर्णन-- ले० डाक्टर के० बी० माथुर; १८६ पृष्ठ, २९ चित्र, सजिल्द; १॥), २२--ल्कड़ी पर पॉलिश--पॉलिशकरनेके नवीन और पुराने सभी ढंगेंका व्योरेवार वर्णन । इससे कोई भी पॉलिश करना सीखे सकता है--ले० ढडा० गारख- डक पैसोंद और श्रौरांमयत्न संदर्नांगर, एम०, एु०, २१८ पृष्ठ; ३१ चित्र, सजिल्द; $॥), २३- उपयागी नुमखे तरकीबें आर हुनर--सम्पादक डा० गोरखप्रसांद ओर डा० सत्यप्रकाशं, आकार बड़ा ( विज्ञानके बराबर ', २६० पृष्ठ ; २००० लुसखे. १०० चित्र. एक एक नुखखेसे सैकड़ों रुपये बचाये जा सकते हैं था हज़ारों रुपये कमाये जा सकते हैं । प्रत्येक गृहस्थके लिये उपयोगी ; मूल्य अजिल्‍ल्द २), सजिल्द २॥), २४--कलम “पेबंद-- ले० श्री शंकरराव जोशी, २०० पृष्ठ; _. ४० चित्र; मालियों, मालिकों और कृषकोंके लिये डपयोगी। सजिल्द; १॥), २४--त्रिल्द फ़ज्ञी--क्रियाव्मक और व्योरेवार । इससे सभी जिल्द्साज़ी सीख सकते हैं, ले० श्री सत्यजीवन वर्मा, एम० ए०; १८० पृष्ट, ६२ चित्रतजिल्द १॥), २६--भारतीय चीनी मिट्ठियाँ-- औद्योगिक पाठशालाओं के विद्यार्थियंके लिये--ले० ओ० एम० एल मिश्र; २६० पृष्ठ; १२ चित्र; रुजिल्‍द १॥), २७--त्रिफल्ला--दूसरा परिवर्धित संस्करण प्रत्येक वैध और ग्रृहस्थके लिये- ले० श्री रामेशवेदी आयुवदालंकार, २१६ पृष्ठ; ३ चित्र (एक रज्ञीन); सजिल्द २) यह पुस्तक गुरुकुल आयुर्वेद महाविद्यात्नय 3३ श्रेणी द्रब्यगुणके स्वाध्याय पुस्तकके रूपमें शिक्षापटलमें स्वीकृत हो चुकी है । ' | २८--मधुम क्खी-पालन--ले० परिडत दयाराम जुगढ़ान, :.... भूतपूव अध्यक्ष, ज्योलीकोट सरकारी मधुवटी; क्रिया- व्मक ओर व्योरेवार; मधुमक्खी पात्नकोके लिये उप- योगी तो है ही, जनसाधारणको इस पुस्तकका अधिकांश अत्यन्त रोचक प्रतीत होगा, मधुमक्खियों क 4९९४. ०. & 87१ डी०, एस० बी०, कैप्टेन डा० उमाशंकर पसाद, एसम० बी० बी० एस० , डाक्टर गोरखग्रसाद, आदि | २६० पृष्ठ, १५० चित्र, आकार बड़ा ( विज्ञानके बराबर ); सजिल्द; ३), यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी हैं । अत्येक घरमें एक प्रति अवश्य रहनी चाहिये | हिन्दुस्तान रिविड लिखता है--8॥0 पंत ७७ एछा08]ए ए8]८- 0060 097 46. लागवीं (739 एं 78 0प70॥0 वंश 48 60प007ए,.. / अस्त बाजार पत्रिका लिखतौ है--[6 ७१]]' [94-877 | 0) 7007976$ 0]806 ॥] 89ए8॥'ए (0776 4|॥6 $॥])७ ॥470] ७] [)9]8 0, . 8० - तेरना- सैरना सीखने श्रौर डूबते हुए ल्ोगोंको बचाने की रीति अच्छी तरह समभ्कायी गयी हे । ले० डाक्टर गोरखप्रसाद, पृष्ट ३०४, मूल्य ); ३१--अंजीर--लेखक श्री रामेशबेदी, आयुर्वेदालंकार- अंजीर का विशद्‌ वर्णन और उपयोग करनेकी रीति । पृष्ठ ४२, दो चिन्न, मूल्य ॥), यह पुस्तक भी गुरुकुल आयुर्वेद महाविद्यालयके शिक्षा पटलमें स्वीकृत हो चुकी है । ३२- सरल विज्ञान सागर, प्रथम भाग-सम्पादक डाक्टर गोरखप्रसाद । बड़ी सरल और रोचक भाषा में ज॑तुश्रके विचित्र संसार, पेड़ पौधों की अचरज भरी दुनिया, सूर्य, चन्द्र और तारोंकी जीवन कथा तथा भारतीय ज्योतिषके संक्षिप्त इतिहास का वर्णन है । विज्ञानके आकार के ४५० पष्ठ और ३२० चित्रसि सजे हुए अ्न्थ की शोभा देखते ही बनती है । सजिल्द, मूल्य ६) निम्न पुस्तकें छुप रही हैं को रहन-सहन पर पूरा प्रकाश ढाला गया है | ४०० रेडियो-- ले० प्रो० आर० जी० सक्सेना । पृष्ठ; अनेक चित्र और नकशे, एक रंगीन चिन्न, सांपों की दुनिया-- ले०श्री रामेशबेदी आयुवदालंकार - ब्र सब्िल्द; २॥), . चिज्ञान-मासिक पत्र, विज्ञान परिषद्‌ प्रयागका मुखपत्र है । न कल कक २६--ब रेल डाक्टर - लखक ओर सम्पांदक डाक्टर सम्पादक डा० संतप्रसाद टंडन, लेक्चरर रसायन जी० घोष, एम० बी० बी० एस०, डी० टी० एम०, प्रोफ़ेसर डाक्टर बद्रीनारायण प्रसाद, पी० एच० विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय । वार्षिक चन्दा ३) विज्ञान परिषद, ४२, टेगोर टाउन, इलाहाबाद । “3दक तथा प्रकाशक-- विश्वप्रकाश,प्रेस, ग्रयागकला | | सी विद्यान विज्ञान-परिषद्‌, प्रथागका सुख-पतन्र वि: नं ब्रह्मेति व्यजानातू, विज्ञानाद्ध्येव खल्विमानि . भूतानि जायन्ते । विज्ञानेन जातानि जीवन्ति, विज्ञान प्रयन्व्यभिसंविशन्तीति ॥। तै० ड० ।शाण। वृष, सम्बत्‌ू २००२ भाग ६१ मई १६४५ ः संख्या २ [ ठप्पेके लिए मोम--उप्पेके लिए मोममें पहलेसे भी कुछ ग्रेफ़ाइटं डाल दिया जाता है। नचुसखा यह है :--- (१) मधुमक्खी का मोम ५६ आउंस «तारपीन (टरपेंटाइन) ३ आउंस ग्रेक्नाइट (अत्यंत सूचम चूर्ण) २ आउंस या (२) मधुमक्खी का मोम ३ पाउंड तारपीन (टरपेटाइन) . ६ आउंस प्रफ्नाइट (सूच्म चूर्ण) $ आउंस गरम करके मित्लाना चाहिए, परंतु बरतनको आँच पर न चढ़ाकर खोलते पानीमें रखना अधिक अच्छा है। आँच पर रखनेसे मोसके जत्न जानेका डर रहता है। गरमी के दिनेंमें संभवत: पुवोक्त नुसखोंसे बना मोम कुछ नरम अजलजलेलाजललॉलनललॉलाना कनानननानननानलातलाननलभानलालाआनाजातः.. गति. पड़ेगा । ऐसी श्रवस्था में थोड़ा-सा बरगंडी पिच मिला कुछ उपयोगी नुसखे धातुओंकी कलई और रँगाई [ डाक्टर गोरख प्रसाद ] “उपयोगी चुसखे! के अध्याय १५में ब्रिजली द्वारा ताँबा, निकेल, क्रोमियम, चाँदी ओर सोनेकी कलई करनेकी रीतियाँ बतलाई जा चुकी हैं। अब कुछ अन्य धातुओंकी क़लई,तथा धातुओ्रोकी रंगाई पर विचार किया जायगा । विजलीसे ताँबेके ठप्पे--इस्पात, ताँबे, जस्ते, लकड़ी आदिके ठप्पेसे ( जिससे काग़ज्ञ या कपड़े पर चित्र या बेल.बूटे छापे जाते हैं ) बिजलीके द्वारा ताँबेके ठप्पे बनाये जा सकते हैं जो प्रथम ठप्पेकी सच्ची नक़ल होते हैं । संक्षेप में इसकी रीति यह दे कि असली उप्पेसे मोमका साँचा बना लिया जाता है; फिर मोसकी सतह पर अत्यंत्त सूच्म तह ग्रेफ़ाइटकी पोत दी जाती है, जिससे मोमकी सतह विद्युत-धाराका संचालक हो जाती है ( केवल मोम में बिजली नहीं घुस पाती ), फिर इस साँचेकी सतह पर ताँबा चढ़ाते हैं | ताँबेकी तह इतनी मोटी कर ली जाती है कि लकड़ी या सीसे आदि पर जड़नेसे वह उप्पे का काम दे सके | देना डचित होगा | अब धातुकी छिछुली तश्तरीमें पू्वाक्त रीतिसे बने मोमको उडेल देते हैं। तश्तरी 3 इंच गहरी हो | इसके एक किनारे पर दो धातुके हुक लगे हों जिससे तश्तरीको क़ल्नई करनेवाले घोलमें लटकाया जा सके | अब मोमकी सतहको आँच दिखलाकर नरम कर लिया जाता है ओर उसपर बहुत बारीक ग्रेफ़ाइटकी बुकनी नरम बुरुश से पोत दी जाती है। ग्रेफ़ाइटको पलंबेगो भी कहते हैं। विजलीसे क़छूई करनेका प्तामान बेचने वालोंके यहाँ ऐसी बुकनी खास इसी कामके लिए बनाकर बेची जाती है। फिर स्वच्छ नरस बुरुशसे पोंछकर फालतू बुकनी भाड़ दी जाती है। अब उस्र ठप्पेको जिसकी नकल करनी होती है ग्रेफाइट लगे मोम पर इतनी जोरसे दबाया जाता है कि सच्ची छाप उतर आये | अब इस छाप या साँचेकी मरम्मत हाथसे की जाती है। ठप्पेके दबानेसे जो मोम उमड़ आया होता है उसको चाकूसे काट ्रोर छील देते हैं । जहाँ आवश्यकता प्रतीत होती है वहाँ ओर मोम चिपका देते हैं। ऐसा करते समय स्मरण रखना चाहिए कि इस साँचेमें जहाँ-जहाँ मोम चिपकाया जायगा, वहाँ-वहाँ इस खाँचेसे बने ठप्पेमें गड़ढा रहेगा ओर इसलिए उस ठप्पे से वहाँ वहाँ सफेद छपेगा । इसके बाद साँचेमें जगह-जगह पर कीलें ठोक दी जाती हैं जिससे साँचे की ग्रेफ़ाइट लगी सतह और तश्तरी २६ हु .. विज्ञान, मई, १६४४ में बिजेली आने जानेके लिए अच्छा कनेक्शन हो जाय | तश्तरीकी पीठपर ओर किनारों पर स्वच्छु ( बिना ग्रेफ़ाइट पड़ा ) मोम पोत दिया जाता है कि उस पर तॉबा न चढ़ने पाये । सामनेकी ओर भी उन स्थानों पर मोम पोत दिया जाता है जहाँ ताँबा चढ़ाने की आवश्यकता नहीं रहती । इन स्थानों पर मोम न पोता जायगा तो बेकार बहुत-सी बिजली ओर बहुत-सा ताँबा खच होगा । फिर साँचेके उन भागेंमें जहाँ ताँबा चढ़ाना रहता है सृच्स जाँच की जाती है ओर आवश्यकता ग्रतीत होने पर अ्फ्ाइट पोत दिया जाता है, पर॑तु इस काम में साँचे के ब्योरे न मिदने पाये | अब साँचेकों ठंढे पानीसे धो डालते हैं जिसमें प्रफ़ाइटके वे कण जो मोममें चिपके नहीं रहते बह जाय । अंतर्में साँचेको कल्ई करने बाली टंकीमें ज्टकाकर ताँबेकी कलई करते हैं । इस काममें समय लगता है। साधारणतः ८ घंटे प्रतिदिन कलई करते रहनेसे काम २०-२४ दिन में समाप्त होता है । ताँबेकी चादर ओर मोमके साँचेके बीच साधारणतः श्या ४इंच स्थान रहता है। साँचेके प्रति वर्ग फुटके लिए १०से १५ ऐमपियर विद्युत चाहिए, परंतु आरंभ में जब तक सर्वत्र ताॉबा न चढ़ जाय, इससे बहुत कम विद्युतसे काम करना चाहिए । इतने विद्युतके लिए $से २ बोल्ट तककी आवश्यकता पड़ेगी । यदि टंकीके घोलका बराबर चलाते रहनेका कोई प्रबंध हो ओर इसका तापक्रम बढ़ा दिया ज्ञाय तो अधिक ऐमपियरका प्रयोग किया जा सकता है । ४ ०से १०० डिगरी (फारनहाइट) के तापक्रम पर धोल को बराबर चलाते रहने पर १७४४ ऐसपियर प्रसति वर्ग फुट तक पअयोग किया जा सकता है। इतनी विद्यतसे १२ घंटेमें ६ इंच मोटी तह ताँबेकी चढ़ जाती हे । धोल को बराबर चलाते रहने के लिए बड़े कारखातनों में विशेष प्रबंध रहता है। जिससे धोल्ममें वायुकी धारा बराबर आती रहती है, परंतु छोटे कारखानेंमें घोलको ल्ेलुलायडसे चलाते रहना काफी होगा । कभी भी तापक्रम इतना न हो जाय कि साँचेका मोम पिघल जाय । टंकी में निम्न घोल ठीक होगा :--- विशुद्ध तृतिया ३४ आउंस [ भांग १ फिटकरी (पोटेश ऐलम) २ आउंस विशुद्ध सलफ्यूरिक ऐसिड.._ २ (तरल) आउंस पानी १ गेलन [सलफ्यूरिक ऐसिड (गंधकके तेज़ाब) को धोल्नमें धीरे-धीरे डालना चाहिए ओर धोलकों बराबर चक्नाते रहना चाहिए | तेज़ाबमें पानी न छोड़ना चाहिए अन्यथा तेज़ाब छुटक पड़ेगा ।] जब ताबेकी तह काफ़ी मोटी हो जाय तब उसे सभालकर उखाड़ लेते हैं, अच्छी तरह धो लेते हैं. पीट पर हाइड्रोक्ोरिक ऐसिड त्वगा कर राँगे की पत्ती चिपका देते हैं ओर लोहेके साँचे (छिद्ुले बक्स) में रखकर उस पर पिघत्ना टाइप मेटल (वह धातु जिससे छापेश्वाने का टाइप बल्लता है) डाल देते हैं | इससे रॉगेकी पन्नी गल जाती है और टाइप सेटल ताँबे को अच्छी तरह पकड़ लेता है। फिर टाइप सेटलको काट श्रौर छोल कर (रंदा करके) ठप्पे को उचित नाप ओर उऊँचाईका कर लेते हैं । ठप्पेकी पीठ पर लगाने योग्य टाइप मेटलका नुसखा यह है-- ऐँ टिमनी 8 या & भाग सीखा (धातु) ६० भाग राँगा ६ था & भाग मोमके बदले निम्न मिश्रणको भी साँचे के लिए काम में ज्ञा सकते हैं । तगमे, सिक्के आदिकी नकल उतारनेके लिए यह विशेष उपयोगी है :-- गया पर्चा (बढ़िया) २ पाउंड सर्बी ३ पाउंड तीसीका तेत्न न आउंस पिघज्षाओ ओर अच्छी तरह मिलाओ । टाइपसे मैट्रिक्स--टाइपसे मैट्रिक्स (साँचा) बनाने के क्षिए टाइप पर ही ताँबा चढ़ाते हैं।जब ताँबेकी तह काफी मोटी हो जाती है तो पिघत्लाकर टाइपकों दूर कर देते हैं । टाइपफो स्पिरिदले स्राफ़ करके पोटैप्तियम या सोडियम बाइक्रोमेटके घोलसे साफ़ करना चाहिए। निम्न धोल उचित होगा-- पोटेसियम बाइक्रोमेट पानी श्पभन २ गेलन संख्या २ | कुछ उपयोगी नुसखे २७ पीतल की कलई--पीतल की कलई कराना (पीतल चढ़ाना) ताँबे, निकेल, सोने, चाँदी आदिकी कलईसे अधिक कठिन है क्योंकि पीतल ताँबा और जस्ताका संकर धातु है | कलई करने वाले घोलमें ताँबा ओर जस्ता दोनों साइनाइड रहते हैं। बने-बनाये चूर्ण बिकते हैं जिनको केवल घोल लेने से काम चल जाता है, परंतु निम्न घोल भी अच्छा है । पोटेसियम साइनाइड १६ आउंस कॉपर साइनाइड ६ आउंस ज़िंक साइनाइड ३ आउंस सोडियम बाइसलफ्राइड ३ आउंस अमोनियम क्लोराइड (विशुद्ध नोसादर) २ आउंस पानी एक गेल्लन ' ताँबे के ज्िण कम बोल्ट ओर जसतेके लिए अधिक वोल्ट की आवश्यकता होती है। इसलिए अधिक चोढ्टके क्षगानेसे पीतल हल्के र॑ग का चढइता है ( जर्ता अधिक रहता है ) और कम वोल्ट लगानेसे पीतल ज्लाल रंगका चढ़ता है ( ताँबा अधिक रहता है )। साधारणतः उंढे धोलों के लिए श्से ४ वोट ओर गरम घोलोंके ल्षिए (तापक्रम १२० डिगरी फारनहाइट) २)से ३ बोल्टकी आवश्यकता पड़ती है प्रति वर्ग फुट रेसे ४ ऐसपियर विद्वतकी आवश्यकता पड़ती है । डायनामो के धन (+-) संबंधित पीतल की जो चादर घोलमें लटकायी जाय उसकी बना- वट निम्न नुसखेके अनुसार हो तो अच्छा रहेगा--- ताँबा ६० भाग जस्ता ४० भांग कैडमियम की कलई--कैडमियम का रंग राँगे और चाँदी के बीच होता है । कैडमियम की कलई पर पीतल के तार के बुरुश से रगड़ने पर जो श्रध॑चमक आती है वह कुछ ज्लोगोंको बहुत पसंद्‌ आती है। यह चमक टिकाऊ होती है ओर धातु शीघ्र काज्ली नहीं पड़ती । परंतु ऐसे बरतनोंमें केडमियमकी कलई न करनी चाहिए जिसमें खटाई या भोजन रखना हो | लोहे पर कैडमियम की कलई करनेसे क्ोहे पर मुरचा नहीं लगता । केडमि- यम पर च्ारेंका (बोड़ा आदि का) कुछ असर नहीं पड़ता । लोहेको छोड़ अन्य धातुओं पर, विशेष कर पीतलपर कैडमियमकी कलई टिकाऊ नहीं होती | कैडमियकी कलई करना बहुत सरल है। जिस टंकी में कलई करने वाला घोल रक़्ख़ा जाय वह लोहेका हो । सीसेकी ८ंकियोंसे घोल खराब हो जाता है। केडमियम- पोटेसियम डबल साइनाइडके घोलके प्रयोगसे कलई होती है, परन्तु बने-बनाये विशेष लवर्णोकों ही खरीदना सुविधाजनक होगा । ये कक्लई करनेके सामान बेचने वालोसे मिलते हैं। इसमें पानी इतना मिलाना चाहिए कि घोलका घनत्व ट्वैडल हाइड्रोमीटरसें नापने पर १० था ११ डिगरी उतरे | घोल्का तापक्रम ६२ डिगरी फारु- हाइटसे कम न रहे। डायनासो के धन (-+) सिरेसे संबंधित केडमियमके पतन्न रक़खे जाते हैं, इसको प्रस्येक- बार साफ करके काममें लाना चाहिए। १० से १६ ऐमप्रियर प्रति वर्ग फुद विद्यत धारा की आवश्यकता पड़ेगी । इसके लिए २ से २। बोल्टकी आवश्यकता होगी । ु जस्ते की क़लई---प्तस्ते कार्मेमें जस्तेकी कलई करनेकी रीति यह हे कि पिघले जस्तेमें ध्वच्छु की गयी वस्तु को डुबा दिया जाय । चादरों पर जिनसे बाल्टी बनती है इसी प्रकार जस्तेकी क़ल्नई की जाती है। लोहेके बाल्ट्ू ओर ढिबरियों पर भी साधारणतः इसी तरहकी क़लई रहती है । परन्तु बारीक कार्मोमें ऐसी क़लई नहीं की जा सकती, क्योंकि जस्तत सब जगह बराबर नहीं लिपटता ओर वस्तुकी आकृति कुछ बदुल जाती है। इस्पातसे बनी वस्तुश्रेमिं भी पर्वोक्त रीतिसे क़लई नहीं की जा सकती क्योंकि ऐसा करनेंसे उनका पानी उत्तर जाता है ( अर्थात उनकी कड़ाई चल्ली जाती है- वे नरम हो जाते हैं ) जस्तेकी कलई बिजली द्वारा करनेके लिए ज़िंक सलफ़ेट ओर अमोनियम सलफेट, यथा ज्ञिंक क्लोराइड ओर अमोनियम क्ल्ोराइडके घोलोंके मिश्रणसे काम ,चल सकता है, परन्तु पोटेसियम साइनाइडके घोलमें जिंक ऑक्साइड या जिंक कारबोनेट घोलकर बनाये गये घोल अधिक अच्छे होते हैं। बिजलीसे कलई करनेका सामान बेचने वालोंके थहाँ इस कामके लिए बने बनाये लवण श्द्ध विज्ञान, मई, १६४५ [ भाग ६१ रे अर ल्ल्ल््डअसससससससससससीःी७ीीणीनी स्‍ न नीननन न कनयनकननपनन न ननऊन+न पतननन न न न न नमन कम नमक +५+.3५+७3+3+»»भ3+++» नमन» नम नकक्‍ जे» कद बिकते हैं जिन्हें केवल पानीमें घोलना रहता है और उन्हीं के खरीदनेमें सुविधा होती है । निश्च घोलसे भी अच्छा काम हो सकता है।--- जिंक साइनाइड ४०५ १६ आउंस सोड़ियम हाइड्रेट (कास्टिक सोडा) २४ आस जिंसाइट २ आउंस पानी १ गैलन पहले कास्टिक सोडाको घोलकर उसमें जिंक साइनाइड धीरे धीरे घुल्नाना चाहिये; अंत में ज़िसाइट ( 2777066 ) । यह घोल ६० डिगरी फारनहाइट पर अच्छा काम करता है । डायनामोके धन (+-) सिरे का संबंध विशुद्ध जस्ते की चादरसे करना चाहिये। जब कलईं न होती हो तो इस चादरको बाहर खींच लेना चाहिए | प्रति वर्ग फुट ३० ऐमप्यर विद्युत चाहिये ओर इसके ल्लिए २ से २॥ वोल्टकी आवश्यकता पड़ेगी । रांगेकी क़लई--पिघले राँगेकी क़लईका प्रचार इतना है कि सभीने रांगेकी कलई वाले बरतनोंको देखा होगा । परंतु बिजलीसे भी रॉगेकी कलई हो सकती है । तब निम्न घोल का प्रयोग किया जा सकता है-..- सोडियम स्टैने? १२ आउंस कास्टिक सोडा १ आउंस सोडियम ऐसिटेट २ आउंस हाइड्रोजन पेरॉक्साइड चोठ आडउंस पानी १ गेलन विद्युत श्रति वर्ग फुट२० से ३० ऐमपियर रहे'। इसके लिए ४ से ६ वोल्ट की आवश्यकता पड़ेगी। तापक्रम १६० से १७० डिगरी फारनहाइट रहे । डायनामोके घन (+-) सिरेसे संबंधित पन्न विशुद्ध राँगेका रहे और उसका क्षेत्रफल कल्नई की जाने वाली वस्तुके क्षत्रफलका तिगरुना रहे। लगभग ३० मिनटमें कलई काफी चढ़ जायगी । सीसेकी क़लई--सीसा गंधकके तेंजाबसे नहीं कटता | इसलिये जहाँ तेज़ाब या तेज्ञाबके धुंएके लगनेकी संभा- वना रहती है वहाँ जस्तेके बदले सीसेकी कलई की जाती है । | पीतल, लोहा, ताँबा आदि पर॒ सीसेकी कलई चढ़ रे सकती है। स्रीसेकी कलई उन वस्तुओं प्र न करनी चाहिए जो नाइट्रिक ऐसिड( शोरेके तेजाब ) या क्षार ( कास्टिक सोडा, कास्टिक पोटेश आदि ) के संपक में आयेंगे | लेड फ्लुओबोरेटके धोलसे सीसेकी कलई होती है, पर॑तु इसे कड़े रबड़के बरतनोंमें बनाना और रखना पढ़ता है | धातुके बरतनोंमें यह तुरंत खराब हो जायगा। कलाई करनेके सामान बेचने वालेसे बना-बनाया मिश्रण खरी- दुना अधिक उत्तम होगा । प्रति वर्ग फुट के क्षिए (८ ऐमपियर चाहिए । इसमें लगभग २ वोल्टकी आवश्यकता होगी । तापक्रम लगभग ६० डिगरी फारनहाइट हो । अधिक तापक्रम पर घोल अच्छा काम नहीं करता । ह लेड फ्लुओबोरटके बदले अन्य लवणोंसे भी काम चल सकता है, परंतु उसमें विद्यतको प्रति वर्ग फुट ४ ऐमपियर ही रखना पड़ता है और सीसा धीरे-धीरे चढ़ता है । डायनामों के धन (-+) सिरेसे संबंधित विशुद् सीसेके पश्नोंको टंकी में लटकाना चाहिए । प्लैटिनमकी क़्लई--प्लैटिनम देखनेमें चाँदीकी तरह ( कुछ लोहेकी तरह कालिमा लिए ) होता है। एकबार चमका देने पर प्रायः सदा ही चमकता रहता है।। यह बहुमूल्य धातु हे। साधारणतः यह सोनेसे भी मंहगा बिकता है । टंकीमें निम्न घोल देना चाहिए--- प्लेटिनम अमोनियम क्लोराइड. २३ आउंस अमोनियम क्लोराइड ९३ आउंस सोडियम साइट्रेट २० आउंस पानी रे १. गेल्षन घोज़्को गरम करके ( ३८० फारनहाइट पर ) प्रयोग . करना चाहिए। डायनामोके धन (५) दिरेसे संबंध रखने वाज्ञा पत्र चाहे प्लेटिनम का हो, चाहे कारबन का । प्लैटिनमके पत्रके रहने पर कलईका प्लैटिनम वस्तुतः घोलमें से ही निकलता है; प्लेटिनमका पन्न नहीं घुलता | द संख्या २ ] ४ या ६ वोल्टकी आवश्यकता होगी। वस्तु प्लेटिनम या कारबनके पास ही रहे जिससे विद्युत धारा काफी मात्रामें बह सके। घोलमें सम॒स॒ समय पर प्लेटिनम क्लोराइड छोड़नेकी आवश्यकता होती है जिसमें घोल फीका न पड़ने पावे। लोहेकी वस्तुओं पर प्लेटिनम की क़लई करनेके लिए पहले उनपर ताँबेकी क़लई करना आवद्यक है। बिना बिजली की कलहे तंबेकीं कलई-- तृतिया _ सक्षफ्यूरिक ऐसिड पानी 8च३ आउंख ३२ आउंस १ से २ गेज्नन तक इस घोलमें स्वच्छु किये लोहेकी वस्त॒कों दो चार सेकंड तक रखनेसे ताँबेकी हलकी कलई चढ़ जाती है, परंतु यह कलई इतनी हलकी होती है कि लोहेकी कोई विशेष रक्षा नहीं होती, केवल रंग भर बदल जाता है। यदि 'घूर्वोक्त घोलमें वस्तुकों अधिक देर तक रक्खा जायगा तो कलई भुसभुसी हो जायगी ओर रगड़नेसे छूट जायगी। सोनेकी कलई -- (१) गोल्ड कलोराइड २० भाग पोटेसियम साइनाइड ६० भाग पोटेसियम बाइटारटरेट ४. भाग प्रेसिपिटेटेड चाँक १०० भाग -स्रवित जल ( डिस्टिल्ड वाटर ). १०० भाग गोल्ड क्लोराइडको थोड़ेसे जलमें अ्रल्लण घोलना चाहिये, पोटेसियम साइनाइड ओर पोटैसियम बाइटारटरेट को शेष जलमें अत्वगग। दोनों घोल्ल को मिलाकर फिर प्रेप्नपिटेटेड चॉक ( खड़िया ) को मिलाना चाहिए। जिस वस्तु पर क़ल्लई करनी हो उसे पहलेसे स्वच्छ कर रखना चाहिये। उस पर अब पूर्वोक्त घोलकों उनी चिथड़ेसे अच्छी तरह रगड़ देना चाहिये। इस धोलसे चांदी, पीतल और तांबे पर क़लई हो सकती है | क़लई चमकदार होती है, परंतु बहुत पतली । कुछ उपयोगी नुसखे २६ (२) गोल्ड क्लोराइड १३. भागे क्रास्टिक पोटेश बृष्ध० भांग पोटैसियम कारबोनेट २०. भाग पोटेसियम साइनाइड ६ भाग पानी १५००० भांग घोलकर खौलाओ । स्वच्छु की हुई वस्तुको इसमें छोड़नेसे सोनेकी दहजकी कलई चढ़ जाती ह्ढै। ' रीति १या रीति २ से बहुधा पीतलके आशभुषण तथा बटन आदि पर सोनेकी हलको कूलई कर दी जाती है । (३) मुढ्लमा करना--- सोना ३ भाग पारा ८ भाग धरियामें रखकर आग पर गरम करो । घुल जाने पर पानी डालो और अंगुलीसे मसलो। सोने और प्रेका गादा मिश्रण अज्ग हो जायगा | जो पारा अलग हो जाय उसे कपड़ेंसे छानकर अलग कर लो । इस पारेम काफी सोना रहता है। इसलिये सुरक्षित रखना चाहिये और इसे फिर सोने ओर पारेका मिश्रण बनानेके काममें लाना चाहिये। ह गाढे मिश्रणसे चाँदी आदि पर सोना चढ़ानेके लिये मरक्यूरिक नाइट्रेटकी सहायता ली जाती है। इसके लिए १०० भाग पारेकों ११० भाग नाइंट्रिक ऐसिड (घनत्व १३३) में घुलाया जा सकता है। पीतलके तारके बुरुशकों मरक्‍्यूरिक नाइट्रेटके घोलसे तर करके सोने और पारे के सिश्रण पर रगड़ना चाहिये और तब उसी बुरुशको उस वस्त पर रगड़ना चाहिये जिध पर मुलस्सा करना हो। काफी सोना चढ़ जाने पर वस्त॒कों मन्द॒ आंच पर गरम करना चाहिये। इससे पारा उड़ जाता दे ओर सोनेकी,/ बहुत पतली तह वस्तु पररह् .जाती है। »इस तहदकों स्वचछ पीतलके बुरुश से रगइकर मंद आंँचमें तपानेसे सोनेका रंग बढ़िया हो जाता है। बिजलीसे .कलई। करनेके आविष्कारके पहले पारको सहायतासे ही सोनेकी क़लई की जाती थी । [ शेष फिर | हे | क्‍ विज्ञान, मई, १६४५ उएमपुरधन्र॥5एपपदकक्ाकाअ एकत्र ता धकानपक कपूर कलाम चहका मामा पर एाञ5लकूपमकपल सका भ!ग ६१ कमल [ जगदीश प्रसाद राजवंशी, एम० ए० | कितने ही शांत परोवरों तथा भीलॉमें सुन्दर कमल खिलकर अपनी पंखुड़ियोंसे इनकी शोभा बढ़ाते हैं । _ सूर्यकी किरणेंमें किलमिल पानीकी सतहके ऊरर ढालके समान कमलके पत्ते फैले रहते हैं । उन्हींके बीचमें से निकले किसी डंठलमें खिले कमलसे सरोवर का सोंदय और भी अधिक बढ़ जाता है। इसी सॉंदर्यके कारण हमारे पुराने काव्य प्रथेंमें कमल्ककी इतनी अ्रधिक प्रशंसा की गई है। कोई भी काव्य भ्ंथ ऐसा न मिलेगा जिसमें सुंदर और सुकुमार अंगोंकी उपमा कमलसे न दी गई हो | द विभिन्न रंग ओर खिलने के समय कमलके रंगों श्रोर खिलनेके समयके अनुसार संस्कृत पर्थेमें इसके बहुतसे नाम और भेद कर दिये गये हैं। किन्तु इनमें दो भेद सुरुय हैं: (१) कमल, जो सू्यके प्रकाशमें (दिनमें) खिलता है, तथा (२) कुमुंदिनी अथवा कुई वर्ग, जो चन्द्रमा के प्रकाश में (रात्रिमें) खिलती है । किन्तु नवीन वर्गीकरणके अनुसार कमत्ष ओर कुइयोंकी अनेक जातियाँ है। उनके फूकनेके समय भी भिन्न होते हैं । यदि एक सरोवरमे भिन्न-भिन्न प्रकारके १६-१७ भांतिके कमल लगे हाँ तो दिनके प्रायः प्रत्येक घंटेमें कोई- न-कोई फूल खिलता और दूसरा बंद होता रहेगा । प्रत्येक के खिलनेका समय भी प्रायः नियत ही रहता है | एक फूल २ दिनसे लेकर शया ७दिन तक खिलंता और बंद होता रहता है। अंत वह पानीमें डूब जाता है; था, यदि पानी छिछुला हुआ तो फूल केवज्न नीचे कुक जाता है। तब बीज पकना प्रारम्भ होता है । फूल खिलनेके समयके विषय में एक बात और देखी ज्ञाती है; जिस ससय पर कोई फूल पहले-पहल खिलता है, दूसरे दिन उससे एक घंटे पश्चात खिलता है और एक घंटे पहले बंद हो जाता है । प्रतिदिन इसी प्रकार समयमें भेद होता जाता है। फूलके डूबने या मुरमाने के लगभग द्से १० सप्ताहोंके पश्चात बीजकोप पूरा पक जाता है और फट जाता है । बीज उत्तरा कर पानीकी सतह पर आजाते हैं और कई धंटों तक हलके प्र अधीन उकापाका(अकाना कत. बा: 22 भा ना: अप वा/ भाक 223५ 0090७४५०:७+काञात५2 का प्रोग३ मप्र चाटआधाकामकमाारकातासवा ला ५ दााााभाभाक४ा जे हिलकेकी सहायतासे तेरते रद्दते हैं । यह छिलका अंतर्मे सड़ जाता है और चीज डूब ज़ाता है, पर तु तब तक वह पोधेसे दूर कहीं पहुँच जाता है। इस म्रकार पुराने स्थान से दूर नये कमल उत्पन्न हो सकते हैं। यदि कोई बीजों को निकालना चाहे तो जिस समय ये तेरते रहते हैं उस्च समय चलनी या बारीक जालकी सहायतासे इन्हें निकाल सकता है| कुई कई रंगोंकी होती हैं। सफेद, लाल,. नीला और पीला रंग अकसर देखनेमें आता है परंतु इन रंगेमिं भी हलका और गाढ़ा कई प्रक़ारका भेद होता है। भारत- वर्षमें अधिकतर सफेद कमल होता है, अमरीका अधिक- तर पीला कपल होता है । भारतवर्षम कमलको शुभ संगलका चिन्ह माना है। इसके अतिरिक्त अनेक पोराणिक कथाओंसे इसका संबंध होनेके कारण भी इसकी महिसा बढ़ गई है। मंदिरों के पास सरोवरमभें कमलको अकसर लगाते हैं। अनेक प्राचीन मंदिरके पास वाले सरोवरोंमें अबभी कमल खिलते हुए मिलते हैं । बाग़-बगीचों में साधारण ताल्-तलैयोम कमल और छुई खिलते देख कर बहुतसे लोग खोचने लगते हैं कि कमक्षके लिये केवल जलकी आवश्यकता है ओर वह कहीं भी उत्पन्न किया जा सकता है इसी आंतिके कारण उन्होंने अपने घरेंमें कमत्त उत्पन्न करने का प्रयत्न किया होगां, किन्तु वे इस पयासमें सफल न हो सके होंगे । कंमलके लिये जिन प्राकृतिक वस्तुओंकी आवश्यकता है वे जब तक सब एकत्रित नहीं की जायगी तत्र तक कमल उत्पन्न नहीं हो सकता । ये आवश्यक वस्तुयें हैं जल, अचुंर मात्रा में उपज्ञाऊ मिट्टी और खाद, तथा सूर्यका प्रकाश । जहाँ प्राकृतिक सरोवर या मील होते हैं वहाँ तो ये सब बस्तुयें प्राकृतिक रूपमें ही एकत्रित हो जाती हैं किन्तु जहाँ मनुष्य इन्हें पैदा करना चाहते हैं वहाँ सब वस्तुओंके होते हुए भी बहुधा प्रकाशका अभाव रहता है | प्रायः लोग वर्त्ोंकी छायामें ही इसे उत्पन्न करनेका प्रयत्न किया करते हैं | | संख्या २ ] : हौज़ यदि कोई धमें ही होज़ (कुंड ) खोद कर कमलके फूल क्गाना चाहे तो उसे उपयुक्त बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिये । गडढा जितना बड़ा बनाया जा सके बनाना चाहिये। गड़ढेकी दीवा रें सीमेंट कंकरीटकी या सीमेंट ओर इंटकी बनाई जा सकती हैं । गड़ढेकी तलीमें पानीकी निकासीके लिए छेद बना देना अच्छा है। साधारणतया इसे बंद रक्‍्खा जाता है | यदि होज़ का तत्न पक्का बनाया गया है तो उस पर ६ इंचसे १९ ईंच तक कुछ खाद मिली मिद्टी की एक तह बरिछा देनी चाहिये । जो लोग शौकके लिये कमल लगाते हैं वे अवश्य ही सुरुचिके अनुरूप सारी बातें उपस्थित करनेका प्रयत्न करते हैं और होज़ को साफ- सुथरा रखना चाहते हैं। होज़ में कोई कमल का पत्ता सूख गया है तो वे उसे अज्लग करना चाहेंगे। होज़ के बड़ा रहनेके कारण अकसर इसको किनारे परसे नहीं निकाला! जा सकता; इसलिये .नोकर था माली अवश्य पानीर्मे घुसेगा ओर पत्ते तक पहुँचकर डसे अलग करेगा। पत्ते तक पहुँचनेमें वह बहुत सी जड़ों को अपने पेरसे तोड़ देगा जिसके कारण कमल को नुकसान पहुँचेगा | इसके अतिरिक्त पानी भी गंदला हो जाता है ओर प॑,छे पानीमें मिक्ली मिद्दी पत्तियों पर बेंठ जाती हैं, इसलिये एक दूश्नरी विधिका उपयोग अच्छा होता है। होज़ के तल पर मिट्टी बिछानेके बदुले ३ या ४ फ़्ट नापके चौकोर ल्कड़ीके बक्स बनाये जा सकते हैं ओर उनमें मिट्टी भर कर कुछ दूर-दूर पर उन्हें रकत्रा जा सकता: है। कमल का पोदा इन्हीं बक्सेर्मे लगाया जाय। इस प्रकार कमलके पौर्षों को लगाने पर होज़के तल पर चलने फिरनेसे कोई हानि नहीं होगी | हौज़में पानीकी गहराई दो-ढाई फुंटके लगभग होनी चाहिये । मिट्टी किसी चरागाहसे लाई जाय या इसमें एक तिहाई गोबर का खाद मिल्ला लिया जाय | इस मिट्टटी को बिछ्लाकर, अथवा बक्सोंमें भर कर, उस पर रेत (बालू की एक तह) जमा देनी चाहिये। यह लेगभग 4३ व सोटी हो । पाती चाहे आप मेंह का भरें, चाहे कुएं का भरें, इससे कोई भेद नहीं होगा | स्रीमेंट के बने नये दोज़ अथवा तालाबमें पोदे नहीं बोना चाहिये, क्योंकि कमंर्ल 28 सीमेंटर्म क्र पदार्थ रहता है। ज्ञार पदार्थ कमलके लिगे हानिकारक होता है । इसलिये पहले नये बने हौज़ को साफ़ पानी से कुछ दिन भरा रख कर पानी बहा देना चाहिए ओर होज़ को साफ़ कर लेना चाहिये। इसके पश्चात्‌ कमल बोनेके लिये पानी भरना चाहिये। कुछ ल्लोग टबरमें भो कमल बोते हैं, किनत इसमें सफ़त्नता भाप्त नहीं हो सकती। जितनी खुराक टब में रक्वी जाती है वह कुछ ही समयमें समाप्तहो जाती है ओर फिर पोधा धीरे-घीरे सूख जाता है । बोनेकी रीति कमक्ञके पोर्धोके लिये बहुत अधिक खुराककी आवश्य- कता होती है| इसलिये इस बातका ढर नहीं रहता कि खादके अधिक मात्रा डालनेसे पौधोंको हानि होगी | मिद्टेके लिये किसी प्राकृतिक तालाब था कील पर जानेकी आवश्यकता नहीं । किस्ली भी मिद्ठैमें, जिसमें अन्य वनस्पति अच्छी तरह उत्पन्न हो सकती हैं, खाद मिलाकर काम चल्नाया जा सकता है। इसके लिये दोभाग मिद्दी, एक भाग सड़े गोबरका खाद और थोड़ास! हड्डीका बुरादा मिलाकर मिद्दीको तैयार करना चाहिये। साधारण मिध्टोप्ते करेली चिकनी? मिद्दी इसके लिये अ्रधिक उपयोगी सिद्ध होगी । पहल्ली बार कमल. लगानेके लिए कमलकी जड़ ( कद ) तालाबके किनारे उथले पानीमें लगाई जा सकती है। लगानेके स्थान की मिध्टीको खोदकर उससें कंदको गाड़ देना चाहिये; जड़ बेड़ी स्थिति में रहे । कंदके ऊरर ३ इंच मिट्टी रहे | कंदको मिद्ठीमें अपने स्थान पर पड़े रहनेके लिये कोई उपाय कर देना चाहिएु। यदि आवश्यकता हो तो जिम्न स्थान पर फंद गड्ढा हो वहां इंट या पत्थर सी रक्‍ल्ा जा सकता है । कृत्रिम तालातमें पहले बतलाई गई रीतिसे मिट्दीसे भरे बक्सोंका इस्तेमाल किया जा सकता है| इसके बदले जड़ोंकों एक नियत दायरेमें रखनेके लिये क॑ंद या जड़ोंके बोनेके स्थानकी चारों ओर एक दीवार भी बनाई जा सकती है। इस दीवारमें तीखे कोने नहीं रहने देना चाहिये, जहाँ कोने पड़े' वहाँ दीवार कुद ग्रोल कर देना चाहिये; नहीं तो जड़े' कोनेमें ज्ञाकर एक गुच्छा सा बना लेंगी । १२ विज्ञान, मई, १६४५ जब किसी प्राकृतिक तालाबके किनारे इतने खड़े होते हैं कि गहरा पानी प्रायः तट तक रहता है ओर गडढा खोदकर जड़ बोनेमें कठिनाई पड़ती है तब अलगसे मिट्टी सानकर ओर उसमें जड़ रख कर मिट्टी धीरेसे पानीकी तलीमें छोड़ दी जाती है, पर॑तु बहुत गहरे पानीमें कमल हो, नहीं पायेगा । यदि कमलकी जड़ ( अर्थात कंद ) न मित्र सके तो बीजको छिछुले पानीकी तलीमें गाड़ देनेसे भी कमल तैयार किया जा सकता है, परन्तु तब,पौधेके तेयार होनेमें बहुत समय . लगता है। कुछ , बीजोंसे पोधे उत्पन्न नहीं हो पाते, इसलिये कई-एक बीज बोना उचित होगा | कमल और कुइ में भेद ऊपर बतलाई गई रीतियाँ कमल ओर कुई (कोई) दोनों के लिए लागू हैं। परंतु कमत्नका पोधा कुई के पौधेसे बहुत बड़ा होता है, इसलिए इसके लिए कम से- कम ढाई फुट गहरा ओर पाँच या छुः फुट व्यास का हौज़ चाहिए । कमलका फूल कुई के फूलसे बहुत बड़ा होता है, इसकी पत्तियाँभी बड़ी होती हैं। कमलकी जड़की तरकारी बनती है ओर कुछ लोग इसे कच्चा ही खाना भी पसंद करते हैं । कमलके बीज नरम रहने पर कमलगट्‌टाके नामसे बिकते हैं । इसका भीतरी सफेद हिस्सा सिंधाड़ेकी तरह स्वादिष्ट होता है। पकने पर ये बीज सूखी अवस्थामें बनियों के यहाँ बिकते हैं | इसका इलुआ बहुत पोष्टिक और स्वादिष्ट भी होता है । रोग ओर कीड़े बाग लगाये कमल या कुई्टमें अकसर कीड़े लग जाते हैं। प्राकृतिक अवस्थामें लगे पोधोंकी भी कभी-कभी यही दशा होती है, परंतु वहाँ इसकी कोन परवाह करता है । तब सुरती (अर्थात तंबाकूके पोदेकी पत्तियों) से बना काढ़ा कीड़े लगे स्थानों पर छिड़कना चाहिए । कुछ कोड ऐसे होते हैं जो रस चूमने के बदले पत्तियों और तनों को काट देते हैं | इनके मारनेके लिए 'पेरिस ग्रीन” नामक छुकनी का इस्तेमाल किय्रा जा सकता है (इसमें संखिया रहती हेँ)। एक कीड़ा ऐसा होता है जो पत्तियोंके भीतर घुस कर रहता है | उसके «बनाए पत्तीके भीतरके | [मांग ६१. न सुरंग बाहरसे भी ऋूलकते हैं। ऐसे कीड़ोंके कारण पत्तियाँ मर _ जाती हैं, और कभी तो इतनी पत्तियाँ मर जाती हैं कि फूल लगने नहीं पाता । कीड़े वाली पत्तियोंको तोड़कर आगमें डाल देना चाहिए या अन्य प्रकारसे नष्ट कर देना चाहिए | संभवतः नई पत्तियाँ जो निकलेंगी डनमें कीड़े न लगेंगे । यदि आरंभमें ही 'किरोसिन इसमलशन” छिड़का जाय तो ये कीड़े सर जायेंगे। कभी-कभी भ्रुकड़ी (फरूँद) सी कोई वस्तु पत्तिश्रोंमि लग जाती है और पत्तियाँ रोग- ग्रस्त हो जाती हैं | इसके ल्लिए उन पर “बोर्डो मिक्‍त्चर ”, जिसमें तृतिया पड़ा रहता है, छिड़का जा सकता है। जाड़े में यदि रातमें पाला पड़ने का डर हो तो हौज़ को टाट या काठके पटरोंसे ढक देना चाहिए । क वैज्ञानिक वर्गीकरण कमल ओर कुदयोंके वैज्ञानिक धवर्मोकरणको जन- साधारणका समभता कठिन है। विज्ञान-संसारमें भी इस विषय में काफ़ी गड़बड़ी रही है ओर. आधुनिक वर्गीकरण पुराने वर्गीकरणसे भिन्न है। आधुनिक वर्गीकरणके अन्नु- सार नीलंबो ( ]१०)५7॥७०० ) था नील्ंबियम ( १०प्रा॥0प्7 ) एक वर्ग है और नींफ़िया (२००७) 0))869) दूसरा वर्ग । इनके फूल और पत्तियों की बनावटमें विभिन्नता है। नीलंबो वास्तवमें सिंघल द्वीपी (सीलोन का) शब्द है। आधुनिक वैज्ञानिक नीलंबो वर्गमं भारतवर्षके सफेद कमत्न ()४०७)७॥7४७० 4700& या '३०७]५४॥०० 70७0०7679) को रखते हैं। नील कमल (7४७7]0॥868 8॥67869), ज्ञाज्न कमल (प9॥7)0!968 7प0'8) और सफेद कुई (४ ७प7- 9]9 0$08) को निफ़निया वर्गमें रखते हैं. यद्यपि इनसें से नील कमल दिनमें ८ बजे स्ेरेसे २ बजे दिन तक खिलता है और सफेद कुई साढ़े सात बजे शाम से दस बजे सवेरे तक खिलती है। कारण यह है कि वैज्ञानिक फूलोके खिल्लनेके समय या उनकी नाप पर ध्यान न देकर उनकी बनावटके भरोसे ही वर्गीकरण करते हैं। निंफ़िया वर्गमे लगभग चाल्वीज् स्पष्ट जातियाँ हैं जिनमेसे कुछके फूल तो चोदह-पंद्रह इंच व्यास के होते हैं । मऋ0न्‍ूममनफराइकआक्य कष्ान+वपाव: जनपद, संख्या २ ] . लहसुन ऐतिहासिक विवेचन (ले०---श्री रामेशबेदी आयुर्वेदालइार, हिमालय हर्वेल् इंस्टिव्यूट, बादामी बाग, लाहोर ) छटसुन एशियाम पेदा होनेवाला पोदा है। इसकी कृषि कब प्रारम्भ हुई, इस सम्बन्धमें कोई ऐतिहासिक उल्लेख. उपल्नब्ध नहीं होता। कुछ ; लेखकोंने लिखा है कि सिश्चिज्ञी ओर फ्रांसके दक्षिणरमें यह प्राकृत रुपमें उगता है और जुलाईमें फूलता है । लीनियस ने अपने '“स्पिसीज़ प्ल्ाण्टेरस' में लहसुन का आदि घर सिश्चिली बताया है परन्तु हार्टस क्लिफॉर्टि- एनस' में, जहाँ पर वह अधिक सूक्ष्मदर्शो है, वह इसका उद्भव नहीं देता। सिसिली, इटली, यूनान, ऋ्रांस, स्पेन ओर अल्गेरियाकी वनस्पति-शाश्षकी सत्र आधुनिक पुरुतकोर्मे लहसुन इन स्थानेंकी प्राकृतिक उपज नहीं माना गया है । कुन्थने लिखा है कि यह मभिश्रमें प्राकृतिक मिल्नता है, लेकिन मिश्रके पोदोंका वर्णन करने वाले अधिक सच्चे लेखकों ने इसे वहाँ केवल खेती किया जाता हुआ ही पाया है। बोयस्सीर ( 3078867' ) के वनस्पति संग्रह ( हवेरियम ) में पूर्वीय पौदें बड़ी संख्यामें ओर विविध किस्मेंके संग्रहीत हैं । उसमें इसका कोई जंगली नमूना नहीं है। ढि कैण्डोल्ले) केवल एक ही प्रदेश ऐसा समझते हैं जहाँ लहसुन निश्चित रूपसे अपने आप पेदा होता है । वह प्रदेश सुगारी (8प88॥7) के किरगिस (॥772]78) का रेगिस्तान है। यहाँ से कन्द्‌ लाकर दोरपत* (])207080 में बोये गये थे | फ्रेडरिक पोटर स्मिथकी सम्मतिर्मे लहसुनका “अरबी नाम सोयन, चीनी शब्द स्वान या स्रानके सदश है ओर इस पोदेके खोतकी सूचना देता हैं ।” स्मिथ महोदय ने अरबी नाम थोम या फोम को सोयन (807) समझने $ ओरिजित ऑफ़ कल्टिवेटेड प्लास्ट्स ($८८४) २ लेडेबॉर; फ्लोरा पल्टायका, भाग २ पृ० ४: और फ़्लोरा रोसिका, भाग ४, पृ० १६२ । लेहंसुनं ३३ की भूल की है। चीन में 'स्वान! के नामसे इसको खेती बहुत दिनसे हो रही है | जापानकी वनस्पतियों पर लिखे ग्रंथर्में इसका वर्णन नहीं मिलता | इससे पता चलता है कि यह पूर्वीय साइबेरिया ओर डहुरिया ([)80778.) का प्राकृतिक पौदा नहीं है । कहा जाता है कि मंगोल इसे चीनमें ले गये थे | ([967060408) के अनुसार पुराने मिश्रवास्री इसका बहुत उपयोग करते थे। परन्तु पुरातन वस्तुओ्रोकी खोज करने वाल्षोंको पुराने स्मारकर्मे इस बातके प्रमाण नहीं मिले हैं। फिर भी यह बात सच हो सकती है क्योंकि पुरोहितों ने इसे अपविन्न समझ कर इसकी चर्चान की होगी । इसके विपरीत यह भी विश्वास किया जाता है कि मिश्र निवासी इसकी पूजा करते थे। रोमके लोग अपने मजदूरोंकों शक्ति प्राप्त करानेके लिए ओर सिपाहियों को जोश दिलाने के लिए ज्हसुन खिलाते थे। डनके लड्ठाकू मुर्गों को लड़नेसे पहले यह खिलाया जाता था। पसियस (!267'8प8) की रचनासे मालुम होता है कि किसी समय देवोंको प्रसन्न करनेके त्षिए यह समर्पित किया जाता था । 'किरगिसके जंगलमें यह स्वयं उगा हुआ मिलता हैं। यदि प्राचीनकाज्में भी यह केवल इसी भूभागमें अपने आप डगता रहा हो तो प्राचीन भाय इसकी खेती करते रहे होंगे ओर यहाँ से वे इसे भारत और यूरोपमें ले गये होंगे । लेकिन, यदि भारतसे यह और देशॉमें फेला होता तो इसके केल्टक ([?6]॥0), रुक्षाव (8]90), भ्रीक श्रोर लैटिन आदिके वर्तमान नामेंसे संस्कृत नामोंका कुछ साइश्य होता | परन्तु इनमें बढ़ी भिन्नता है। संस्कृत नाम क्शुन था रशून हिन्र के शूम ( 80॥#0प7 ) या शूमिन (800प777) नामसे सम्बन्धित प्रतीत होते हैं ओर इसीसे अरबी नाम थोम ३ मेंटीरिया मेडिका एण्ड नेचुरल हिस्ट्री । ४ (क) थनबयं; फ़्लोरा जैपेनिका । (ख) फ्रानहोट और सावादीयर; पएन्युमरेशियो (१८७६) । & ए॥290'., 7787267 (४6 498 ४ 00678, 9. 42 । 4&6867 ३४ विज्ञान, मई, १६४४ । भाग &१ ७७५०७७५००७७ 2-५ ०2.3७७५४००५/॥४न० व ॥/भ2५७22७:२५८,, पवार ००4 2५५०३७५४०५ ७०-2० ;क 4 भदााा2०9५3१५५५+9 3००० पा ५५५ न७++>-८+>;भ०+ वा +क५+433++>पममकनन नशा सन नमन नमन 9 न+-+नन न न न++नननननन-ननन मनन नननननननिनीननन->-न की ०+++ निकला । डि केण्डोलेकी इस विचारधाराके साथ यह तथ्य भी अवश्य महत्वग्ण होना चाहिये कि भारतमें यह इंस्वी पूव दूधरी सदीसे निश्चित रूपसे विद्यमान है। अग्निवेश ओर उनके समकाल्लीन लेखकॉकी संहिताश्रोके आधार पर हम कटद्द सकते हैं कि यह सावारण उपग्रोगमें आने चांली चीजेंमें;था। मालूम होता है कि यहाँसे यह अधिक पृव की श्रोर फैल गया । रीगल (९6209!) ने वालिच (४४७।!6॥) द्वारा संगहीत चह नमूना देखा था जिसे उसने बृटिश भारतसे जंगली अब-्थामें उगा हुआ प्राप्व किय्रा था। लेकिन बेकर (१८७४) ने भारत, चीन ओर जाप[नके एज्ियम्स! में इसके सरबन्धमें कु नहीं कहा। लइसुन भारतमें सब जगह साधारण रूपसे पायत्रा जाता द्वै। यह न केवल अपने आप उगता है, वरन्‌ मसलेंमिं उपयोगी होनेके कारण बहुत अधिक बोया जाता है।" करने चोपडाके उपयुक्त कथनसे इसका आदि घर भारत ही प्रतीत होता है । वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों तथा अन्यान्य भारतीय धर्मम्रंथोंमें लहसुनका वर्णन नहीं मिज्ञता |* ग्रेट त्रिटेनमें यह कब बोया जाने लगा, इस संबंधमें विद्वानोंकी मिन्न सम्मतियाँ हैं| १४४८३ या इससे कुछ काज्ष पहलेसे उटेनमें इसके" बोये जानेका मत ठीक नहीं प्रतीत होता! | वहाँ यह छुटी खदी“ से बोया जारहा होगा | मिश्र ओर भारतकी तरह कुछ दूसरे देशेमें भी यह पदले श्रच्छी इश्टिसे नहीं देखा जाता था। बहुत सी जातियोंमें यह हेय पदार्थ समझा जाता था। युनानमें 2 १ आर० एन० चोपड़ा; इस्डिजीनस डूग्स ऑफ इणिडया (१६३३), ४० २७३ । २ मनुस्खतिर्मे है (६-९, ५-१६) -सम्पादक विज्ञान । ३ जोहन स्टीफन्‍सन और जेम्स मॉर्ध चर्चित; मेडिकल वाँटनी । | ४ बाल्टर पी० राइट; डिक्शनरी आफ प्रेक्टिकल्त गाइनिंग । लहसुन खा लेने वाले को अष्ट समझते थे | चौनमें रोगी ओर पुरोहित का काम करने वालेके लिए यह निषिद्ध गिना जाता था ।* कुरानसें लहसुन और प्याज दोनोंही निकस्मे एदार्थ समझे गये हैं । यहूदी (इसराइल) लोग जब्र मिश्रसे अपने देश पेलेस्टाइन (फ़िल्लस्तीन) में वापिस आ गये तो उन्होंने दैवीय भोजन यजन्नो सुल्या' को खाने से इन्कार किय्रा और अपने पैगम्बर सूसा से कहने लगे कि ऐ मूसा हम लोगोंसे तो एक ही भोजन पर नहीं रहा जाता | आप हमारे ल्षिए अपने प/ल्ञक इेश्वर से वरदान मांगिये कि घरतीसे जो चीज़ें डगती हैं, अर्थात्‌ ककड़ी, गेहूँ, लहसुन, मसूर ओर प्याज्ञ आदि साग सब्ज्ियाँ, वे हमारे लिए भमन्नो सत्वा' की जगह पेददा करे। मूसाने - उन्हें इस धटिया सोदेको न माँगनेके लिए समभ्काया । फिर भी वे अपने श्राग्रह पर स्थिर रहे । तब मूसाने उन्हे ये पशर्थ दिये लेकिन उन पर ज़िल्लत और भोहताजी डाल दी गई जिसके कारण वे लोग इश्वरके क्रीधरका पतन्न बने संस्कृत साहित्यमें इसके उन्नवक्रे सम्बन्धर्मे जो आख्या- थयिकाएं उपलब्ध होती हैं उनमें भी इसे उच्चवर्गके लोगों के लिए वजित पदार्थ कहा गया है । एक आख्याथिका इस प्रकार है--अछत पान करते हुए राहुके गले को विष्सु भगवानके चक्र द्वारा काटे जाने पर उसमेंप्ते भू मे पर गिरी हुई अम्गतकी बूंदेसि लहसुनकी उत्पत्ति हुई और क्योंकि राहु राहध् था इसलिए उसके गल्लेमें ले गिरा हुआ अमस्ृत भी उच्छिष्ट समझा गया ओर इससे उत्पन्न लहखुन भो दुर्गन्धित बन गया । साजाव्‌ अमतसे उत्पन्न होने पर भी देव्य देहसे गिरा होनेके कारण लहशुत प्राम्य रसायन समझा जाता है । इसे उच्च जातिके वैष्णव, ब्राह्मण, व आदि नहीं खाते ।3 4 फ्रेडरिक पोर्टर स्मिथ, मैठीरिया सेडिका एण्ड नेचुरल हिस्टरी। - हे २ कुरान, अध्याय १, आयत ६१ । ३ राहोरच्युत चक्रेण लूनाधे पतिता गल्ात्‌ । अम्तस्य कणा भूमो ते रसोनत्वमागता; ।] 'द्विजा नाश्नन्ति तसतो देव्यदेह अमुद्धवम्‌ । लाहात्वसतपम्भूत॑ ग्रामीणक रसायनम्‌ | गे, नि, भांग २ औषधि कल्पानीक, २१२-२१३ । संख्या २ ] व्यावहारिक-मनो विज्ञान _ उद्देश्य, उत्साह और रुचि ( राजेन्रपिहारी लाल, एम० एस्र० सी०, इणिडियन स्टेट रेलज़वे ) उद्देश्य की आवश्यकता हर मनुष्यको एक निश्चित उद्देश्य, एक सचेत अकांक्षा- को आवश्यकता रहती है | हर जद्दाज़को एक दिशासूचक यन्त्र ओर हर देशाटन करने वालेको एक नक़शा रखना. पड़ता है | इनके बिना शायद दोनोंही इधर उधर भटकें ओर बहुत सा समय खो देनेके बाद फिर उसी जगह जा पहुँचे । जहाँ भी प्रगतिका सवाल हे वहाँ एक लक्षयकां होना श्रनिवाय है | ऐसी मनोकामना जिसे कृतार्थ करनेके लिये एक लहसुन भाव मिश्र का वन उपयुक्त आख्यायिकासे भिन्न है । वह लिखता है कि इन्द्रसे जब गरुइने अमृत छीन लिया तो जो अत विन्द गिरे वे पृथ्वी पर लहसुन बन कर उग आये |१ महषि मारीच कश्यप की कथा इस प्रकार है: सो साल तक जब हइन्द्राणी को गर्भ न हुआ तब टूल्द्र्ने क्जाती हुई पत्नी को अपनी सुन्दर बांयी भुज्ञामें लेकर सान्‍तवना देते हुए प्यारसे उसे अश्यत पिलाया। चाज़ुक तबियत होवेसे, पतिके पास होनेसे लज्जा । अनुभव होनेके कारण तथा अमृत का सार होनेसे जब उसे डकार आया तो देववश वह ज्ञमीन पर किसी गन्दे स्थान में आ गिरा । तब इन्द्र ने इन्द्राणी को कहा कि तू बहुत पुत्रों वाली होगी और यह अमरूत भूलोकमें रसायन बन जायगा, गन्दी जगह के कारण इसमें दुग्ध आयगी जिससे ब्राह्मण इसे नहीं खाँयगे | भूमि पर रहने बाले लोग इस अमृत को लशुन कहा करेंगे | १ यदाउम्रतं वैनतेयोजहार सुसन्तमातव्‌ । तदा ततो5पतद्‌ बिन्दु: रसोनो5भवद्‌ भुविः ॥ अ० प्र०, पू० ख, हरीत, २१८। ह २ देखे ; काश्यप संहिता, लशुन कढप, ६-१२। व्यावहारिक-मनोविज्ञान ३५ योजना बना लो जाय, जीवनको एक दिशा में लगाती है ओर दिमाग़ों ताक़तोंकों बेकार खचे करनेकी जगह उम्दगी और किफ़ायत से इस्तेमाल करनेमें मदद देती है। इसकी प्रेरणाके कारण हम ऐसी कठिनाई के मो्कों पर भी प्रयत्न में डरे रहते हैं जब कि हम किसी उद्देश्य या योजनाके न होने की दशामें निस्सन्देह ही कन्धा डालकर बैठ जाते हैं । समय समय पर मीलके पत्यरोंकों पीछे छूटते हुए देखनेसे पथिककों अपनी प्रगतिका अबनुमान हो जाता है जिससे उसका उत्साह बढ़ जाता है | उनको बिना देंख हुये कभी कभी उसे ऐसा जान पड़ता है कि वह काफ़ी तेजीसे आगे नहीं बढ़ रहा है। एक कहावत है--जों नाविक अपनी यात्राके अन्तिम बन्द्रगाहकों नहीं ज्ञानता उसके अनुकूल हवा कभी नहीं बहती ! ह जब आपको यही पता नहीं कि आप क्या चाहते हैं तो आप उसके लिए प्रयत्न ही क्‍या करेंगे और डस अज्ञात वस्तुकों भज्ा श्राप्त केसे कर सकते हैं मनोभावोंका प्रभाव? एक बड़े महत्व की, जानने योग्य बात यह है कि दृश्य संसारमें प्रकट होनेसे पहले हर चीज़ अदृश्य अथवा मानसिक संसारमें प्रकट होती है। यदि हम किसी पदार्थंको श्र।नी मानसिक सृश्मिं अच्छी तरह निर्माण कर लेते हैं तो प्रय्यक्ष जगतमें भी हम उसे अच्छी तरह बना सकेगे | दृश्य संपारमें कोई चीज़ तभी बन सकती है जब पहले उसकी सृष्टि सानसिक संसारमें कर ली। भावे । करपना जगतमें उत्पन्न होने के उपरान्त, बल्कि उस्तके कारण और उसकी सहायतासे ही नये पदाथोंका प्रादुर्भाव वाह्य जगत में होता है। मतमें एक निश्चित ध्येय निर्दिष्ट कर लेनेसे उसकी प्राप्तिमें एक ओर प्रकारसे भी बड़ी सहायता मिलती है | ज्यों ही आप अपने मनमभे एक र्पष्ट उद्देश्य निर्धारित कर लेते हैं ओर उसकी पूर्तिके लिये हृदय से कामना ओर आशा करने लगते हैं, त्यों हीं आप अपने इंष्टके साथ एक परोक्ष पर प्रबल्ल सम्बन्ध जोड़ लेते हैं । आपके मनोभाव, आपके आशापूर्ण विचार आपकी महत्वा- काचायें एक चुस्त्रकका काम करती हैं ओर अपने समान पदार्थोकों आकर्षित करती हैं--वे आपके उद्देश्यकी सिद्धि ओऔर सफलताकों अपनी ओर खींच क्लाठी हैं। मनुष्यका ३६ विज्ञान, मई, १६४५४ [ भाग ६१ मा भाग्य उसके मानस ही में छिपा रहता है । आप जो भी उद्देइय निर्दिष्ट 'करें उप्त पर अपनी कामना, अपने विचार, अपने मनोभाव ओर अपने उद्योग को केन्द्रित कीजिए जिससे वह एक सबल चुस्बककी तरह उन तमाम पदाथोंका श्रुवीकरण कर दे जिनसे आपका व्यवहार रहता है । विचारोंका भ्र वीकरण ( ?0]87789607 ० [0०पघ९8॥४ ) विद्याथियोंके उस प्रयोगसे प्रायः सभी परिचित होंगे जिसमें एक परखनलीको लोहे के बुरादेसे भरकर सुम्बक बनाते हैं। नलीके मुखको कायसे बन्द करके उसे मेज के ऊपर लिट देते है। जब उसके ऊपर एक चुम्बकको घोरे धीरे फेरते हैं, तो लोहेके कण सब उठकर एक दिशामें हो जाते हैं जिससे वह सबके सब एक साथ काम करने वाले छोटे छोटे चुम्बक बन जाते हैं। तब प्रयोग करनेसे पता चक्षता है कि कुल परखनली स्वयं एक चुग्बक बन गई है | पहले सब टुकड़े तितर-बितर पड़े थे; डस अवस्थामें यदि वे सब चुस्बक भी होते तो भिन्न दिशाश्रोमें दोनेके कारण, एक दूसरेको मिटा डालते हैं; पर बादमें जब सब एक दिशामें स्थित हो जाते हैं तब वे एक प्रबल चुम्बकका काम करने लगते हैं ओर उनके समीप यदि कोई नरम लोहेकां टुकड़ा ल्ञाया जाता है तो उस पर भी प्रभाव डालकर उसे चुम्बक बना देते हैं। ठीक इसी प्रकार यदि हमारे विचार मस्तिष्कमें यत्न तन्न बिखरे पड़े हो और उनका कुकाव अलग अलग दिशाओं हों तो वे एक दूसरेके प्रभाव को नष्ट कर देंगे । इसलिये यदि आप अपने जीवनमें, अपनी ईश्वर प्रदत्त शक्तियोंसे, पूरा पूरा फ़ायदा उठाना चाहते हों तो मानवीय उद्योगके किसी रोचक क्षेत्रको चुन लें, उद्नमें सिद्धि ओर सफलता प्राप्त करनेकी महत्त्वाकांज्ञाका एक स्थायी भाव अपने सनमें स्थापित कर लें और उसीके अनुकूल अपने समस्त जीवनका--अपने कर्म, विचार और भावना का--भ्र्‌ वीकरण कर लें। वह क्षेत्र कला, विज्ञान ईश्वर भक्ति, दशन या किसी और विषय सम्बन्धी हो सकता है या वह भाव एक कल्नाकार, वैज्ञानिक, इंजी नियर, कवि था दाशिनक का हो,सकता है -- यह चुनाव करना बिल्कुल आप ही पर निर्भर है। पर आपको कोई न कोई प्रिय उद्देश्य अवश्य ही चुन लेना चाहिये और उश्चीके अनुरूप अपने समस्त जीवन का धभ्रवी करण करना चाहिए । इसका यह अथ नहीं कि आपके विचार या कायकी तेज़ी कम हो जायगी या उसका स्वतंत्र प्रवाह धीमा पढ़ जायगा | इसका यद्ठ भी मतलब नहीं कि आप किसी बन था गुफ़ामें जाकर एकान्त बास करने लगेंगे और मानवीय सहानुभूति एवम्‌ अ्नुरागका परित्याग कर देंगे। और न इसका यह अथे है कि आप जीवनके प्रति उदासीनहो जायें ओर गर्मियोंमें मरुस्थलकी सूखी सरिताकी भाँति आपकी धमनियंर्मिं उष्ण रक्तका संचार बन्द हो जाय । हाँ, इसका यह अथ अवश्य है कि आपका सारा जीवन एक उद्देश्य से उद्चासित हो जाता है, आपकी सोती हुई शक्तियाँ जाग जाती हैं, और जो शक्तियाँ पहले बिखरी हुई पड़ी थीं वह एकत्र होकर परस्पर सहयोगसे काम करने लगती है । इसका अर्थ है परिवर्धधित विचार और उद्योग, पहलेसे अधिक विस्तृत संहानुभूति; क्योंकि तब आप सदा इस खोजमें रहेंगे कि हर चीज़ और हर अनुभबको अपने महान्‌ . उद्देश्य के लिए प्रयोग करें । बड़े आश्चय्ंकी -बात है कि कितने क्ञोग ऐसे हैं जो कोई निश्चितत उद्देश्य या आकांक्षा नहीं रखते, बल्कि अपनी जिन्दगीके दिन बत्रिना किसी योजनाके व्यतीत करते रहते हैं। अपने चारों ओर हम ऐसे युवक और युवतियोंको देखते. हैं जो निरुद्दे श्य होकर, ब्रिना पतवार या बन्दरगाहके जीवनके समुद्र पर इधर-उधर बहते रहते हैं और अपने समयको व्यर्थ खोते रहते हैं, क्योंकि जो कुछ भी वे कहते हैं उसमें न कोई गम्भीर प्रयोजन रहता है न कोई नियम | वे तो केवल ज्वार भाटेके संग इधर उधर बहते रहते हैं । यदि उनमेंसे किसीसे पृछ्धा जाय कि तुम्हारा या करनेका इरादा हैं, तुम्हारी क्‍या महत्ताकांक्षा है, तो यही उत्तर मिलेगा कि हमें ठीक ठीक पता नहीं, हम तो केवल इस अवसर की प्रतीक्षा में हैं कि कोई काम शुरू करें । ह उद्देश्यके तीन तत्व इंजीनियरिंग जगतमें जो स्थान यांञज्रिक शक्तिका है संख्या २ ] वही स्थान मानश्चिक विचार और कार्यके क्षेत्रमें उस संवेग जनित उकस्ावका है जो एक 5.बल उद्देश्य, श्रभि- रुचि या कहत्वाकॉँक्षासे उत्पन्न होता है। जिस प्रकार भाष, जज्ञशक्ति या चिद्युत शक्ति रेलगाड़ियाँ खींचती हैं और ऐसे ही अनेक उपयोगी कार्य करती है, उसी प्रकार निश्चित उद्देश्योकी ओर लगाई हुई महत््वाकाँता ही मनुष्यके सब प्रयासकी मूल शक्ति है। इस उपमाकों हम एक कदम ओर भी आगे बढ़ा सकते हैं। यांत्रिक शक्ति को अभिव्यक्तःकरने वाले तीन मुख्य तत्व हैं---उसका परिमाण, वह समय जितनी देर तक वह व्यवद्वारेमें लाई जातो है.और वह दिशा जिस ओर वह ज्ञगाई गई है | इसी प्रकार उद्देश्य या रुचिके भी तीन मुख्य अंश हैं-- उसको तीब्रता, अवधि और दिशा या लक्ष्य । यदि यह तीनों अंश एक दूसरेके अनुकूल न हों तो उद्देश्य निषफल हो जायगा। अगर एक उद्देश्य या अभिन्ञाषाकी तेज़ी दुबेल या मन्‍द है तो उसका होना न होना बराबर है-- ऐसा मनुष्य .तो आककाँज्ञाहीनें, सुस्त और निरुत्साह होगा । इसी तरह यदि एक उद्देश्यमें हमारा अनुराग प्रबल किन्तु क्षणिक या अस्थायी हो तो भी हम उससे विशेष लाभ नहीं उठा सकते, क्योंकि उदासीनताके वायुमंडलमें उठने वाले, अल्पकाल्लीन उत्साहके बलवान झोकों में भला कितनी उन्नति हो सकती है ? एक आवेगशील अस्थिर मनवाला व्यक्ति बहुत ही सरत्न या प्ताधारण कार्यों'को तो शायद सफलतासे कर सके, पर ज़रा भी कठिनाईवाले कामको पूरा करनेकी उससे शायद ही कोई आशा की जा सकती है, क्ग्रोंकि साधारणतः अध्यवसाथ सफलताकी एक आवश्यक शत्त है। उद्देश्योंको बार बार बदलते रहने से भी शक्तिका हास होता है । क्योंकि ऐसा करनेसे किसी उद्देश्पर्मे भी सफलता या दक्षता प्राप्त नहीं हो सकती । उद्देश्यका तीसरा अंश अथवा लक्ष्य भी कम महत्त्व- पुर्ण नही है। एक ऐसा मलुष्य भी जिसकी रुचि सबल . और स्थायी पर सर्व॑तोन्मुखी है, कुछ नहीं कर सकता । सफल्नताके लिए तो रुचिका विशेषोन्मुख होना और किसी विशिष्ट दिशामें लक्षित होना श्राचश्यक है । बहुतसे उद्देश्य रखनेसे शक्तिका उतना ही ह्ञास होता है जितना उद्देश्य को बार बार बदलते रहनेसे । उन्नति तो तभी हो सकती व्यावहारिक-मनोविज्ञान ३७ है जब रुचिसे उन्नुत शक्तियोंको हम सावधानी से चुने हुए थोड़ेसे लच्यों पर केन्द्रित करें ओर उन्हीं पर उस समय तक जमाये रक्‍खें जब तक सफकता नमिल्न . जाय । .. अपनी शक्तियोंका अधिकसे अधिक उपयोग करनेके लिए यह आदश्यक है कि हम अपने जीवनका एक उद्देश्य निर्धारित करलें, परन्तु यह उद्देश्य सामान्य नहीं बरन विशिष्ट होना चाहिए। हर काममें सफल होनेकी अभि लापाको, यद्यपि ऐसी अ्रभिलाषा अत्यन्त ही सराहनीय है, उद्देश्य नहीं कह सकते, बल्कि किसी विशेष दृष्ठ को प्राप्त करनेके इरादेको । इच्छामात्रको उद्देश्य न समझना चाहिए | उद्देश्यमं एक विशेष लच्य का होना आव- श्यक है । रु एक उद्दे श्यका श्र्थ है कि आप एक विशेष अभिनल्ञाषा या उमंगसे प्रेरित हैं। आपका उद्देश्य कुछु भी हो सकता! है--एक उपयोगी ध्शविष्कार करना, उत्कृष्ट कविता लिखना, नामी कल्लाकार बनना या अपने कारोबार में ही ऊँचा पद प्राप्त करना। यह आवश्यक नहीं कि आपका उद्देश्य बहुत ऊचा हो या स्व साधारणकी पहुँचके बाहर हो--पर उद्देश्य स्पष्ट और निश्चित होना चाहिए । अवकाशके समय का सदुपयोग कीजिये दुनियामें अधिकांश मनुष्योंको जीविकोपाजनके लिए कुछ न कुछ काम धन्धा करना पड़ता है। पर ऐसे भाग्य- शाली व्यक्ति शायद्‌ थोड़े ही होंगे जो अपना कारोबार स्वतंत्रतापर्वंक अपनी रुचिके अनुसार निर्धारित कर सकें । अधिकांश लोगोंको परिस्थितियोंसे विवश होकर रोज़ी कमाने के लिए ऐसा काम करना पड़ता है जिसमें उनकी रुचि नहीं है। इसमें उनकी शक्तियाँ पूर्ण रूपसे प्रथव्नशील नहीं होती ओर न कोई उन्नति ही कर पाती हैं। दूसरे लोग हैं जिनका घन्धा स्वयं रुचिकर है या उद्योग करते रहनेसे ओर समय बीत जानेसे रुचिकर हों गया है, ऐसे लोगों की कुछ शक्तियाँ उनके कार्मर्म पूर्णतः क्रियाशील हो, जाती हैं। फिर भी इस मुख्य व्यवसायका काम ऐसे ढरें पर पड़ जाता है कि उसमें व्पक्तिकी बहुत थोड़ीसी ही शक्तियाँ अयोगमें आती हैं, उनका अधिकांश भोग निकस्मा व सुसुप्त पड़ा रहता है। अपने जीवनको सार्थक बनानेके हि रद द विज्ञान, मई, १६४४ लिए ईश्वर की दी हुई शक्तियॉको अधिकसे अधिक उप" योगमें लानेके लिए ओर उनकी बिकसित करनेके लिए यह आवश्यक है कि हर मनुष्य अपने लिए अपनी स्वेच्छा से एक रोचक उद्देश्य चुन ले ओर उसकी प्राप्रिके लिए अवकाशकी घड़ियाँका उपयोग तत्परतासे करे । अगर आप ग़ोर से सोचेंगे तो देखेंगे कि फुरपतका समय ही आपके जीवनका सबसे मूल्यवान भाग है--यही वह भाग है जो आपके वशमें है, जिसे आप अपना कह सकते हैं, इसे आप धन, विद्वत्ता, लोकसेवा अथवा कीतिमें जैसी आपकी कामना हो परिवर्तित कर सकते हैं। महापुरुषोंकी जीव- नियाँ इस बातके उज्ज्वल उदाहरण हैं। गेलीलियो डाक्टरी करता था पर हम उसे डाक्टर की हैसियतसे याद नहीं करते बल्कि उन आविष्कारोंके लिए जो उसने बचे हुए चर्णोका उपयोग करके किए थे। माइकल्ल फ़्रेडे किताबोंकी जिहद बाँचा करता था। साथ ही अपने बचत के समय को वैज्ञानिक प्रयोग करने में लगाया करता था। ग्लेडस्टन सरीखा प्रतिभाशाली मनुष्य अपनी जेबमें एक छोटी सी पुस्तक हमेशा लेकर निकलता था कि कहीं कोई क्षण व्यर्थ न चला जाय । हर एक नवयुवककों अपने फुरसतके समयको किसी अच्छे काममें लगाना चाहिए। ऐसा करनेसे न केवल उनका जीवन अधिक सुखी ओर आनन्दमय हो जायगा बक्कि उनकी शक्तियाँ भी काममें लाये जानेके कारण उत्तरोत्तर बढ़ती जायँगी। भिन्न भिन्न मनुष्य अपने लिए भिन्न भिन्न उद्देश्य चुनेंगे। इसमें समता या साच्श्यका होना न तो आवश्यक है ओर न हितकर । यहाँ पर हम आपके उद्देश्यकों निर्धारित नहीं कर रहे हैं; हम तो केवल यह छमय दे रहे हैं कि आप अपनी परिस्थिति, अवकाश, नैसर्गिक बुद्धि ओर तबीयतके कुकावका सावधानीसे विचार कर अपने लिए एक उद्देश्य--अपने अ्रवकाशके समयके लिए एक प्रिय काम-चन लें, और उसप्तमें अ्वीणता, उप्त पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करनेके लिए भरसक प्रयत्न करें। ऐसा करनेसे व्यक्ति ओर समान दोनों का कल्याण है । उद्देश्य पूर्तिके लिए योजना आवश्यक है केवल कल्पना ओर धुन पर ही कार्य करता कभी - [ भाग ६१ अच्छा नहीं होता । जो कुछ करना हो उसका मसविदा तैयार कर लेना चाहिए। फिर उसीके अनुसार अपने क़दुमोंको साहस ओर स्थिरतासे बढ़ाते जाना चाहिए । उद्देदय ओर योजनाके अर्थकों ओर अधिक स्पष्ट करनेके लिए हम यहाँ पर एक उदाहरण देते हैं। एक युवक विश्वविद्यालयमें शिक्षा समाप्त कर एक अच्छे रोज़गारमें लग गया जिससे उसके दिन सुखपूवक कटने लगे । वह अपने काम को बड़ी तत्परतासे करता है ओर उस ओरसे उसे पूरा सन्‍तोपष है। वह अपने समय का सहुपयोग करता है। अपने व्यवसाय और आवश्यक मनोर॑जन ओर स्वास्थ रक्षाके कार्मोसे जो समय बचता है उसे आत्म-विकासके हेतु सत्संग, रवाध्याय तथा इसी प्रकारके दूसरे अच्छे कार्मों में व्यतीत करता है । समाज का वह उपयोगी सदस्य है ओर थोड़ी बहुत व्यक्तिगत उन्नति भी वह अवश्य ही कर लेगा--पर उसके आगे ओर कुछ नहीं, क्योंकि उसने अपना कोई उद्देश्य निर्धारित नहीं किया । दहुनियाँमें अधिकांश ,मलनुष्य इसी बर्गके होते हैं जिनकी ज़िन्दगीके साल बीत जाते हैं पर वे यह नहीं जानते कि विधाता ने उन्हें क्यों पेदा किया ओर उनके जीवन का कोई उद्देश्य है भी कि नहीं ! एक दूसरा युवक है जो ओर बातोंमें पहले हीके समान है पर अपने लिए एक उद्देश्य निर्धारित कर लेता है---शान का उपार्जन | फ़्संतकी हर घडीमें वह स्वाध्याय करता रहता है । पुस्तकालयमें जाकर नई'नई किताबें हूं ढता है । जो किताब चित्ताक्षक हुई उसे ले आता है और पढ़ने लगता है, थदि तबीयत लगी तो श्रन्त तक पढ़ डाला, नहीं तो उसे छोड़ कर कोई दूसरी पुस्तक पढ़नी शुरू कर दी | विविध विषयों पर उत्तम उत्तम अंथ . पढ़ते रहनेसे निस्सन्‍्देह उसकी जानकारीके भण्डारमें वृद्धि और उसकी मानसिक शक्तियोंमें उन्नतिकी आशा हो सकती है। वह उस पहले युवककी अपेरा अवश्य ही अधिक प्रगतिशील है जो कल्ला, व्यवसाय, इंजीनियरिंग, विज्ञान, साहित्य, ध्रिज तथा दुनिया को अधिकांश अच्छी अच्छी बातें सभीमें थोड़ी बहुत दिलचस्पी रखता है। लेकिन यह दूसरा युवक भी अपनी शक्तियों का पूरा पुरा उपयोग नहीं कर रहा है क्योंकि यद्यपि उसने ज्ञानोपान्ेन संख्या २ | ओर पुस्तकावल्लोककको अपना जीवनोंहेश्य निश्चित किया है, पर उसका लष्य सामान्य है, न कि विशिष्ट, क्योंकि उसने ;विद्याके किसी ख़ास विषयकों तो अपनाया नहीं बल्कि एक विषयसे दूसरे विषय पर ओर एक पुस्तकसे दूसरी पुस्तक पर भटकता रहता है। एक तीसरा युवक है। उसे भी अपने समयके सदु पपोग, अपनो शक्तियोंके विकास और समाज सेवा की कामना हैं। वह भी अपने लिए एक उद्देश्य नियत कर लेता है, शोर चेंकि बह भी अपने ज्ञान भाण्डारको बढ़ानेके लिए उत्सुक है, वह भी यही उद्देश्य खुन लेता है। पर अपने उद्देश्यको ठीक ठीक निश्चित करनेके लिए वह उसे एक विशेष विषय तक स्रीमित कर लेता है। वह यह ते करता है कि अगले पाँच वर्षामें वह भारत- वर्षका इतिहास या अर्थशा्त्र था मनोविज्ञान या शेक्सपियर की तमाम पुस्तकोका गहरा अध्ययन करके उसमें निपुणता ओर विशिष्टता प्राप्त करेगा । इतना ही नहीं बल्कि वह अपने उद्देश्यको ओर भी छोदे छोटे टुकड़ोंमें विभाजित कर लेता है। वह अगले तीन भहीर्नोके लिए अध्ययनका एक प्रोग्राम या योजना बना लेता है। वह यह ते कर लेता है कि उन तीन महीनेंमें वह अपने चुने हुए विषथ्की कौन कोन सी पुस्तकें पढ़ेगा | तीन मास बीतने पर वह अगले तीन था छु महीनेके लिए भो उस्ती तरहकी एक योजना तेयार कर लेता है और उस्लीके अनुसार अपने अध्ययतकों नियंत्रित करता है। धीरे धीरे वह अपने चुने विषयका छोटा सोटा विशेषज्ञ बन जाता है. उसकी स्रोई शक्तियाँ ज्ञाग उठती हैं, उसके मनकी उर्बरता बढ़ती है ओर वह मानवीय ज्ञानकी सीमाओंके प्रसार करनेकी योग्यता भी आप्त कर लेता है /] उद्देश्य चुननेके नियम कोई दूसरा व्यक्ति आपके लिए एक उद्देश्य निर्धारित करनेमें असमर्थ हैं पर इस सम्बन्धमें कुछ सामान्य बातें अवश्य बतायी जा सकती हैं जिबकी कसोटों पर आप अपने उद्देश्यको जाँच सकते हैं। पहली बात यह कि आप ऐसा ही उद्देश्य चुनें जिसमें आपको अनुराग हो। अपनी रुचिके विरुद्ध आप अधिक समय तक युद्ध नहीं ध्यावहारिक-मनोविज्ञ[|न॑ ३६ कर सकते--ऐसा करता समय ओर बलको व्यर्थ खोना है। जिस काममें आपकी रुचि नहीं उसे आप पूर्णतासे नहीं कर सकते ओर न उसमें सफलता ही प्राप्त कर सकते हैं। दूसरी बात जो उद्दे श्यका चुनाव करते समय ध्यानमें रखनी चाहिये वह यह हद कि उद्द्श्य ऐप्ा हो जिसमें आप अपनी भ्राकृतिक शक्तियोंकों श्रधिकसे अधिक परिमाणमें इस्तेमाल कर सके--जिससे उनका- विकास ओर घृद्धि हो । अगर एक व्यक्ति की मानसिक शक्तियों का विशेष भुकाव कला की ओर है तो उन्हें! विज्ञान या इतिहासमें लगाना उचित नहीं । अगर किश्रीका दिमाग़ गणितके यग्य नहीं तो उसे जबदंस्ती गणितर्मे ल्गानेसे कोई विशेष लाभ नहीं हो सकता । तीसरी कसौटी जिस पर अपने उद्द श्यकी जाँच करनी चाहिये वह यह है कि आपका उद्देश्य ऐसा हो जिससे मानव जाति और संसार का कह्याए हो । जिस उद्देश्स्से दूसरोंको जरा भी हानि पहुँचती हो, जिसमें ओरोंकी हानि करके अपना भलत्रा होता हो वह सवथा त्याज्य और निन्‍्दुनीय है। जिस उद्द श्यके बारेमें श्रापको ज़रा भी सन्देह है, जिसके न्‍्याययुक्त ओर अच्छे होनेमें ज़रा भी शक है, उसे एक- दम छोड़ देता चाहिये। इसमें कोंई सनन्‍्देह नहीं कि ज़िम्त उद्द श्यमें दुराचारका एक भो कीटाश होगा बह अवश्य ही आपको उन्नतिकी ओर ले जानेकी जगह पतन की ओर ले जायगा । उद्देश्यका चुनाव करते समय अपने हृदयसे केघल इतना ही व पूछिये कि कौन सा काम करके आप असिद्धि पा सकेंगे था घन कम्ता सकेंगे। परन्तु उसी उद्दंश्यको चुनिये जिसमें आप अपनी भजुष्प्रताकी सब शक्तियोंको लगा सकते हों ओर अपनेकों ओर ऊँचा डठा सकते हों । समृद्धि श्रोर कीतिंकी लालसा छुरी नहीं-- इससे दुनिया में बड़े बड़े काम होते हैं---पर मनुष्यत्व धन और कीतिंसे अच्छा है । अपने लिए उद्दे श्य ऐसा ही चुनना चाहिये जो दिल्लपशनन्द हो, जिसके प्राप्त करनेके प्रयत्नसे आपको आनंद मिल्े ओर आपकी सोती हुई शक्तियाँ जाग्रत हों, जो आपके चरित्र ओर मनुष्यत्वका विकास कर सके' शोर संसारके लिए हितकर हो | सनुष्यकी महत्वाकांत्षाके जल्षिए उचित लघचंय वही ० विज्ञान, मई, १६४५ ' डद्दे श्य हो सकता है जिससे [दुनियाके सम्बन्धमें मनुष्य का ज्ञान विस्तृत हो, जो अपने पड़ोसियोंको और भरी भाँति समभनेमें या उनके स्वास्थ्य, सुख, समृद्धि, आनंद आदिको बढ़ानेके उद्योगमें सहायक हो । महत्वाकांज्षा या उत्साह उद्देश्यका प्राण है 'जैपा :हम ऊपर लिख चुके हैं उद्देशरका एक महत्त्वपूर्ण अंश उसकी तीत्रता या प्रबलता है। महत्वा- काँता, उत्साह और रुचि इसी के दूसरे नाम हैं। मनो- विज्ञानके अनुसार महत्वाकांगा मनुष्यमें शक्तिकी खान” है। मनुष्य बचपनले अपने निस्सहाय ओर दुबंल होने का अनुभव करता रहता है जिसकी बजहसे उसमें रव- भावतः यह कामना उत्पन्न हो जाती है कि अपनी हीनता के भावको श्रेष्ठतासे ढककर अपनी मित्र मण्डली अपने समाज और संखारमें व्याति प्राप्त करे। श्रेष्ठता, नामवरी ओर वाहवाही प्राप्त करनेकी यह अभिन्वाषा मानव संस्कृतिमें बड़े महस्वका स्थान रखती है। यही मनुष्यमें शक्तिका भाण्डार है। यह बड़े बड़े कठिन काम करवाती द्ै। यही उसे कष्ट ओर बाधाओ्रोंको क्लेज्ष कर भी आगे कदम बढ़ाये जानेके ल्लि२ प्रोत्साहित करती है । ऊँचे हौसलेके बिना उत्थान नहीं हो सकता। सफ- क्ञता पानेसे पहले महत्त्वाकां शाका होना परमावश्यक है | ज्यों-ज्यों सम्यताकी उन्नति होती जाती है महत्त्वाकाँच्षा भी ऊँची होती जाती है, और जितनी ऊँची महत्वाकांक्षा होगी उत्तनी ही श्रेष्ट जनता होगी । अपनी सफलतासे केवल वही मनुष्य सन्तुष्ट हो सकता है जिसकी वृद्धि, जिसका विकास बन्द हो गया है। बढ़ता हुआ मनुष्य सदा सम्पूर्णता का अभाव महसूस करता है। उसे अपनी हर चीज़ अधूरी जान पड़ती द क्योंकि बह बढ़ रही है । फेल्नता हुआ मनुष्य अपनी सिद्धिसे सदा असन्‍्तुष्ट रहता है ओर आगे उन्नति करनेके लिए सदा प्रयत्न करता रहता है । ऊंचा होसला रखनेकी आदत जीवनमें एक बढ़ी उत्थान करने वाली शक्ति होती है।यह कुल्न मानसिक शक्तियों का असार करती हं ओर नई शक्तियों और सम्भा- : चनाओं का ग्रादुर्भाव करती है। यह अन्तइ्चेतनाकी उन शक्तियों को जगाती हे जो साधारण अवस्थामें सदा सोई | भाग ६६ #-न्‍यम्कापपरम३०2८याकाक मापा 2+5५पताआ७)3५३५ ५ भा७ ४७५७५ ;५७३७३५०३+क५ ५ राक१७०७१५ा३कनालाा॥० ७ | हुई रहती हैं और जिन तक हम अन्य और किसी साधनसे कदापि नहीं पहुँच सकते | केवल उद्देश्य का चुन लेना ही काफी नहीं। उसके प्रति हृदयमें अहूट प्रेम या उत्साह का होना भी परमाव- श्यक,है । उत्साह कार्यका प्राण।होता है। उत्साइहीनतासे कोई काम नहीं किया जा सकता। उत्साह न रहनेसे समस्त मानसिक शक्तियाँ कार्यमें भाग नहीं छेतीं। मन कहीं काम करता है तो हाथ कहीं जाते हैं | थोड़ी देर तक इस तरह स्वयं हो शरीरके भागोंमें युद्ध होता रहता है। घंटेभर का काम कई घंटोमें होता है, सो भी बुरी तरहसे । उन्साह एक अग्नि है जो हमारे कार्योंको चलानेके ल्निए भाष तेयार करती है । पानी खोलानेके लिए दोसों बारह दर्जेंकी गर्मी चाहिए । दो सो दर्जेकी गर्मीसे काम नहीं चत्नता । दोसो दूस इजकी गर्मासे भी भाप नहीं बनती। जब पानी खोलने लगता है तभी उसमें से इतनी भाप निकलती द्द कि उससे (जिन या रेल चलाई जा सके । गुनगुने पानीसे किसी प्रकारकी गाड़ी नहीं चत्माई जा सकती । परिश्रप्त व्यर्थ रहता है | सफलताके लिए निरुतताह और उदासौनता वैसे ही हैं जैसे|एंजिनकी गतिके लिए गुनगुना पानी । बहुतसे सलुष्य अपने जीवन रूपी गाड़ीको गुनगुने पानीसे अथवा ऐसे पानीसे जिसके खौलनेमें कुछ कसर है, चलानेका प्रयत्न करते हैं ओर फिर वे आश्चय॑ करते हैं कि उनकी गाड़ी क्‍यों नहीं चल्नती । वे अपने इंजरनोंकों दो सौ या दो सो दुस दु्जेकी गर्मीसे चलानेका प्रयत्न कर रहे हैं ओर फिर उन्तको समभमें यह नहीं आता कि वे आगे क्यों नहीं बढ़ते | उत्साहसे प्रफुन्लित व्यक्ति एक कूठी बात भी इस तरह से कद्दता हे कि लोगोंको उस्तकी बात पर विश्वास होने लगता है। परन्तु सच्ची बातकों रोनी सूरत लिए प्रकट करने दाला अपने परिश्रमको व्यर्थ जाते हुए देखता है | जो वक्ता अपनी बातोंको पूरे जोश और उत्साहके साथ जनताके सामने रखता है वही विजयी होता है। उसके वचनोंकों सुनकर रोम रोम खड़े हो जाते हैं । उसके हृदय से निकली हुई आवाज़से सुनने वाल्नोंका दिल हिल संख्या २ ] पर जाता है।. अपने उत्साइके कभी सन्‍्दु न होने दीजिये । इस बातका बड़ी सावधानीसे ध्यान रखिये कि उसमें शिथि- लता न आने पावे। उत्साह युवावस्था का प्रधान लक्षण है ओर यदि आप अपने उत्साहके! कायम रख सकते हैं सो आपके शरीरके वृद्ध हो जाने पर भी आपकी मानस्रिक शक्तियोंकी युवावस्था बनी रहेगी। जब तक उत्साह है तब तक जीवनसे आपका सम्बन्ध है । जब उत्साह मन्दू होने ब्गता है तब जीवनसे आपका नाता भी ढीला पढ़ने लगता दे । अपने उत्साहकी सावधानीसे रज्णा करना हर विचारशीक्ष पुरुषका कत्तंव्य है । अगर आप चाहते हैं कि आपकी कुल मानसिक शक्तियाँ परस्पर सहयोग से कास करें ओर आप उच्से पूरा-पूरा लाभ उठावें, अगर आपकी इच्छा है कि उन शक्तियोंका विकास हो, अगर आप चाहते हैं कि थोडेसे थोड़े बल्लके व्ययसे अधिकसे अधिक फक्न मिले, तो आप को अपने मनके साथ अपने हृदय को, अपने विचारोंके साथ अपनी भावनाझरों को, सहायक रूपमें मिलाना पड़ेगा। - आपको जे भी दिमागी काम करना हो उसे पूरा दिल ल्षरगा कर कीजिये क्योंकि दिमागके एंजिनका संचालन शोक या उत्साहकी गम भाषके बिना नहीं हो सकता । सानपछ्िक क्रियाओ्रमें सबसे महत्वका स्थान भाव या उमंग का है । यही वह खंचालिनी शक्ति है जो बुद्धिको उत्तेजित करती है ओर इच्छा शक्तिकों कार्यकी ओर प्रेरित करती हैं। जीवनके दर ढाँचेका भूलाधार निपुणता, सिद्धि, विजय प्राप्त करनेकी तीज्र इच्छा ही है। वह कोन सा भाव है जो जीवनके उद्दे श्यकी जान दे? वह चित्तवृत्ति या रुचि हे। प्रगतिशीक्ष पुरुपोंको यही रुचिकी द्वी भआन्तरिक प्रेरणा आगे बढ़नेको उकसाती रहती है। किसी काममें रुचि होनेका मतत्नब है उससे प्रेम होना। रुचि या शोक़के लाभ १--मनकी समस्त शक्तियोंको एक ओर लगाना । २--अवधानको बढ़ाना । ३--स्मरण शक्तिको सहायता पहुँचाना । _व्यावहारिक-मनोविश्ञान ४१ ४--मनकी उर्बर शक्तिकी वृद्धि करना । ४-- व्यवसाय या इच्छा-शक्तिको दृढ़ करना रुचि ओर मानसिक संश्लेषण रुचि ओर उद्देश्य मनको काययकी एकता प्रदान करते हैं, उनके हारा मनकी समस्त शक्तियोंका श्र वीकरण हो जाता है। बिना उद्दे इयके मनका कोई केन्द्र नहीं होता ओर वह इधर उधर भदकता रहता है। ज्यों ही एक उद्देश्य मिल जाता है मदुष्यकी स्मरण-शक्ति, कल्पना, न्याय बुद्धि, व्यवश्षाय-्ड सके मनकी कुल क्रियायें एक साथ मिल्लकर उस लषष्यकी दिशा उद्योग करने लगती हैं | अगर कोई उद्देश्य न हो तो मनुष्य जीवनके धारा प्रवाइके साथ ही बहता रहे, जीवनका कोई केन्द्र न हो ? न कोई कामका ढाँचा हो, न कोई नियम । इसका परि- णाम यही होगा कि हमारी थोग्यताय शिथिज्न पढ़ जायगी शोर एक दिन ऐसा आयेगा जब हमें पता चलेगा कि अब हम वह नहीं रहे जो कभी पहले थे। इसके - विपरीत, जो अपने सामने सदा काम करनेका होसका, कोई ८ई बात सीखनेका शौक, आगे बढ़नेकी आकाँचा यां किसी और प्रकारका उद्देश्य रखता है, उसकी शक्तियाँ सदा सजीव रहती हैं बल्कि उत्तरोत्त उनका विकास होता जाता है । रुचि श्रोर एकाग्रता किसी उद्देश्श्यकी पूर्तिके ल्षिए उद्योग करनेसे मन को एकाअ करनेकी आदुत पड़ती है। देखा गया है कि निरुहेश्य होनेसे ही ज़्यादातर लोगों के ध्यानके भटकनेकी आदत हो जाती है। ऐसे मन भटकने का इलाज भो यही दे कि जीवनको किक्ती निश्चित उद्देश्यकी सेवा्में लगा दिया जाय | निरुद्देश होनेसे मनुष्यका मन इधर उधर भटकता रहता है। बहुतसे उद्देश्य रखनेसे शक्ति छिन्न भिन्न होकर नष्ट द्वो जाती हे । रुचि ओर अवधानमें घनिष्ट सम्बन्ध है। किसी वस्तुमें जितनी अधिक आपकी रुचि होगी, वह जितनी चित्ताकर्षक होगी, उतना द्वी गहरा ध्यान उसमें लग सखकेगा। और क्योंकि ध्यान अधिक था कम लगनेसे ही कार्य-फत्के बड़े या छोदे दाने का अन्तर पढ़ जाता है; इसलिए ४२ विज्ञान, मई, १६४५ रुचिका मूल्य स्पष्ट हे। जाता है| रुचिसे लघब्य ओर लष्य से एकाग्रता की उत्पत्ति 'हेातो है । रुचि और स्मृति किसी उद्देशके लिए उद्योग करनेसे स्मरण-शक्ति बढ़ती है । अगर एक आदमीका किसी भज्ञमूनमें दिल्ल- चस्पी हैं ते वह उसका अध्ययन बड़े .चावसे कश्ता है, उसमें निपुणता प्राप्त कशनेका प्रथव्न करता है और समझने तथा याद करनेकी कठिनाइयाँ शीघ्रतासे मिदने लगती हैं | इसके विपरीत, यदि उसके उस विपयसे अनुराग न है| तो वह अपनी पुस्तकोके! अस्थिर मनसे पढ़ेगा, उसका अवधान दुर्बल होगा ओर इस कारणसे स्मृतिभी इंघली, मर्द और अविश्वसमीय ही हवा । जहाँ तुम्हारा हृदय होगा वहीं तुर्दारी स्मृति भी हे।गी । इसमें कोई सन्देह नहीं कि उस अध्ययन, घन्धे या उद्योगकी बारीक बातें जिसमें हमें शोक होता हैं उन बारीक बातोंकी अपेशा कहाँ सहजमें याद है। जाती हैं जिनकी ओर हमारा था ते उदासीनता या शबत्रुताका भाव हे।ता है । ' डाक्टर. जान्सनका कहना है. कि स्मृतिकी जननी अवधान है ओर अवधानकी माता रुचि है। स्घति भाप्त करनेके लिए उप्षकी मां ओर नावी दे|नों के पाने को का शिश करनी चाहिए । रुचि और नये विचारों की उत्पत्ति रुचिसे विचारोंके उपजाऊपनकी वृद्धि होती है। खोज करनेसे पता चलता हैं. कि भहापुरुषोंकी मोलिकताओं, उनके श्रमुसन्धांन और आविष्कारों का कारण प्राय: यही आवेग, भावना या अन्त/ज्ञोभ होता है जो सहज़ में ही रूचि या शौक की दशासे बढ़कर कार्यक्रमके रूपमें परिणत हो जाता है । ध्यान, मनन ओर मानसिक उद्योग मनके अजुसन्धान के ल्लिए तैयार करते दें। पर इन सबकी संचालिनी शक्ति रुचि या शोॉकसे ही उत्पन्न दवोती है। एक प्रदत्त उद्देश्य या आकांचा की उत्तेजना ही मनकी शक्तियोका पअ्रूवीकरण करके समस्त मनेके एक चुम्बक बना देतो है जिससे वह . इच्छित नये बये विचारोंके अपनी ओर आकर्षित कर लेता है या विचार समूहमें से चुन लेवा है। यही उत्त जन [ भाग ६१ ६७६. २बत०बी 3544 अकढम ३2222 नंद +न०॥४ 3 बफ॥-२2:क४ (2४५७४: ३०२८४; ८२४४४३ +श्राय 2 ; है जो अन्तश्वेतनाका जामत करना है जिससे घह नये नये विचारोंका आदुर्भाव करके उन्हें वाह्य चेतनामें प्रका- शित् कर देती है। नये विचार पैदा होनेके लिए रुचिकी शक्तियोंका पूरे ज़ोरसे काम करना आवश्यक है । अगर आपकी रुचिकी शक्तियाँ ज़ोरके साथ काम करती रहें तो आपके विचार संख्या ओर गुण बढ़ते जाथंगे । जब रुचिकी अग्नि सन्‍द पड़ जाती है तब अवधान ओर मनकी अन्य शक्तियाँ शिथित्र पद्ठ जाती हैं और नये विधारोंका बनना भी कम हो जाता है। इसका इलाज आसाम है.। मनके उत्तेजनके तीत्र करो और नये विचार फिर बनने लगेंगे। रुचि ओर इच्छाशक्ति शोक़ या अबचुराग हमारी इच्छा-शक्तिको बढ़ाता हे | जिस काममें आपकी रुचि है, जिसे आप पूरे हृदयसे कश्ना चाहते हैं उसके करनेमें- आपको किसी कठिनाईका अनुभव नहीं होगा ओर आपको अपनी इच्छा-शक्तिका व्यय न करना पड़ेगा । आपका उत्साह सब कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर ल्ेगा--उसके कारण, चाहे आपको रात-दिन कड्दा परिश्रम ही क्यों न. करना पड़े, पर आप काम पर डटे रहेंगे । यद्यपि यह उथ्य हमारे मानसिक जीवनके सरत्त सत्योर्मि से है परन्तु बहुत कम जोग इसके महत्त्वको समभते हैं | वे ज्ञीग जो अपनेको सुस्त, दुर्बल, उदासीन या अकर्मण्य पाते हैं, वह ज्यादातर इस्री वजहसे कि. उनमें शौक़ था रुचिका अभाव रहता है अथवा उनके पास न फोई उद्देश्य होता है, न पुकाग्रता, न इच्छा- शक्ति । रुचि या उत्साहकी भांवनामे ही इच्छा-शक्तिका प्रथम आदुर्भाव हा।ता है ओर वहीं उसका पे।पण भी होता है, जिससे समय बीतने पर इच्छा-शक्ति का प्रयोग करना हमारे स्वभाव का अंग बन जात। है । यह ने समझना चाहिए कि एक प्रिय उद्देश्य या महत्त्वाकाजा का प्रभाव केवज्न मानसिक शक्तियाँ परहद्टी पड़ता है | उससे ते मजुष्य का चरित्र, उसका समस्त जीवम अकाशित है। उठता है । जिस प्रकार प्रेम आखलसी और निकम्मे भलुष्योक्रे भी सुधार देता है, उसी तरह चमड़ा द द * ४ चमड़ा [ ले० सहदेव प्रसाद पाठक, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ] चमड़ा क्या है ओर इससे क्या समझता जाता है ? चमढ़ा कभी कभी या अधिकतर खाक्के अर्थ उपयुक्त होता है। प्रायः सत्र जातिके जानटरोंकी खाल चमड़ा बंनानेके काममें आती है परन्तु सब खालोंको खाल कहना उपयुक्त न होगा। बड़े जानवरों ( गाय, सैंस, घोड़ा इत्यादि ) की खालकों खाल ( १0 ) और छोटे ज्ञान वरों ( भेड़, बकरी आदि ) की खालको खलरी (58॥770) कहना ठीक होगा। खाल था खलरी यदि राभाविक दशा में छोड़ दिये जाँय तो सड़कर खराब हो जाँय | अतः कुछ न कुछ संस्कार आवश्यक है जिससे इनका सड़ना रुके और ये उपयोगी हो जाँय । खाल या खलरी के उस परिवर्तित रूपको जिससे वह सड़ न सके और उप- योगी हो जाय चमड़ा ( [,0887 ) कहते हैं । चमड़ा बनाना भारतवर्षका एक प्राचीन व्यवसाय है। पुराशंमिं इसका वर्णन है। बहुत प्राचीन' कालसे इस देश में चमड़ा बनानेका काम होता रहा है। इस बातका पता हमारे देशकी चमार जातिसे चलता है जो हज़ारों वर्ष पूर्वसे इस भूमि पर पाये जाते हैं। इसीसे स्पष्ट है कि चमड़ा बहुत पहलेसे बनता रहा है। बाइबिलमें सी चसड़ेका उल्लेख ' हैंवू अतः मानना पड़ता है कि इस देशमें ही नहों बरन समस्त भूमंडलमें चमडा बनानेकी कला ल्ोगोंको मालूम थी। जानवरोंके मर जाने अथवा मारे ज्ञाने पर उनकी खाल चमडा बनानेके कासमें आती थी। ज्यों ज्यों मानव जातिका विकाषत होता गया, पशु जाति पर आफत आती व्यावहारिक मनो-विज्ञान एक चिंत्ताकर्षक उद्देश्य जीवनमें महान्‌ परिवर्तन कर देता है ओर चरित्रकी दुबंत्नताओं के इस तरह दूर कर देता : है साने किसी दैवीशक्ति ने जीवनमें प्रवेश कर लिया हो । एक इढ़ उद्देश्य चुन ल्लेनेमें ऐसा चमत्कार है कि कुरुपता ओर अव्यवस्था के हटाकर उनके स्थानमें सौन्दर्य और सुव्यवस्थाके| स्थापित कर देता है और अकमरय मनुष्य भी कमंठ बन जाता है । गई और मारे जाने वाले पशुओंकी संख्या बढ़ती गई यहाँ तक कि आज कल्ल ६६ प्रतिशत खाल मारे हुये जानवरों फो ही मित्नती है। मारे हुए जानवरोंमें से लगभग समस्त खानेके लिए ही मारे जाते हैं। बहुत थोड़ेसे जानवर शिकारियों द्वारा भी मारे जाते हैं जैसे हिरन, सिंह, रीछ और नीलगाय इत्यादि। उनकी भी खाल चमड़ा बनानेके काममें आती है। सगर, घड़ियाल, मछुल्ौ और साँपकी खालोंका भी चमड़ा बनता है जिससे सुन्दर और हल्की वस्तुएं बनायी जाती हैं। यह सब खालें स्वाभाविक दशा में सड़नशील होती है। इनको सढ़नेसे रोकने और काम- में लानेके उपयुक्त बनानेकी विधियोंकों चमड़ा कमाना ( [,69/067 ]'67णंगट्ट ) कहते हैं | खाल भारी और बड़ी होती है और खलरी हलकी ओर छोटी । यही भेद खाल और खलरीमें होता है। एक जातिके पशुकी झालकों खाल और खलरी दोनों कह सकते हैं। जैसे गायकी खालको खाल और उसके बछुडेकी खाल को खलरी कहते हैं। समस्त स्तनपोषी जानवरों ( 78॥77]8 [8 ) की खाल्लोंकी बनावट समान होती है। जाति भेदके कारण कुछ अन्तर अवश्य पड़ जाता है। इसी भेदके कारण उनके व्यवहारमें भी भेद पढ़ जाता है | जैसे गायकी खालका चमड़ा जूतोंके उपल्ले और तले दोनेकि काममें आ सकता है परन्तु भैंध की खालका चमड़ा उपल्लेके कामका नहीं होता। भेड़ की खालका चमड़ा अधिकतर अस्तरके काममें काया जाता है और बकरौकी खालका उपयोग उपल्कोमं होता है। उसड़ा बनानेके पहले, खांल पर दो तीन उपचार करने पड़ते हैं। कारण यह है कि खाल कारखानेमें ताजा नसक लगी हुई ( (47697 89]860 ), सूखी नमक लगी हुई ( [07'9 89]060 ) और सूखी ( [79 ) दशामें आती है। अतः उसको पहले सिगोते हैं जिससे खाल उस अवस्थार्में आ जाय जिसमें वह पशुके तन पर से उतारनेके बाद थी | इसके बाद खालको चूनेके धोलमें रखते हैं जिससे बाल ओर ऊपरी खालकी तह निकल जाय । फिर उसकी ऊपरी तह बालके साथ एक कु'द चाकू से निकालकर खाल्ञमें लगे हुए चुनेको रसायन द्वारा अलग कर देते हैं। इन तमाम उपचारोंके बाद खालको छोल कर चसड़ा कमाने ( ]'80777898 ) के ज्ञायक बना कर उसकी कमाई ( "8777९ ) करते हैं। गुणके साथ चमड़ा बनानेकी विधि भी बदल जाती है। चमड़ा बनानेकी विधियाँ[भ्रभेक हैं और अनेक भाँति के चमड़े भी आजकल्ञ बाजारमें मिलते हैं। परन्तु वस्तुतः दो ही रीतियाँ अधिकतर काममें लाई जाती हैं। पहली में- वनस्पतियोंसे चमड़ा कमाया जाता है और दूसरीमें रासा: यनिक पदार्था विशेषतः क्रोम द्वारा, वनस्पति ( ए७2०६- 8)6) पदार्थेसे प्राचीन कालमें और आजकल भी बहुता- यतसे चमड़ा बनाया जाता है। वनस्पति पद़ार्थामें पेड़ोंकी छात्र; पत्ती ओर फत्न फाममें लाये जाते हैं। इनमें एक प्रकार का कसेला पदार्थ होता है जिसे टैनिन ( '!8॥7- 78 ) कहते हैं जो पानी द्वारा क्राथके रुपमें अलग कर ली जाती है। और यह क्राथ ही चमड़ा बनानेके काम में आता । इस रीतिसे बना हुआ चमड़ा बहुत कामका होता है। यही नहीं वरन्‌ कुछ कार्मोके लिए इसी रीति से बना हुआ चमड़ा काममें लाया जा सकता है। दूसरी सुख्य विधि क्रोमियम ( (7]70फ्रांपए ) से चमडा कमाने की है। सोडियम या पोटसियम बाईक्रोमेट (900प्रा0 07 ?06988प्रात्-तां 08४7077866) से चमड़ा बनानेकी विधिको क्रोमसे चमडा कमाना ( 0॥70776 $8&77778 ) कहते हैं। जूता खरीदते वक्त बहुधा यह सुननेमें आता है कि यह 'क्रोम' चमड़ा ( 0॥70776 ,686]67 ) है। .यह ,वही चमड़ा दै जो सोडियम या पोटासियम बाई क्रोमेट से बनता है । इस विधिसे किसी भी जातिकी खाल या खलरी कमाई जा सकती है। परन्तु हर तरहकी खाल इस विधिसे कमाई नहीं जाती, क्योंकि हर जातिके चसढ़ेका अ्रल्नग-अलग उपयोग होता है और ल्ञागतका भी प्रश्न रहता है। कोम का चसड़ा महगा होता है अतः जहाँ सस्तेसे काम चल जाय वहाँ महया उपयोग करना भूल ही है। तात्पय,यह है कि क्रोमका चमड़ा विशेषतः जूततोंके उपह्ले और अन्य सुन्दर वस्तुओंके बनानेमें लगता है । | उपरोक्त दो विधियोंके अतिरिक्त और भी चमड़ा कमाने की विधियाँ हैं जैसे तेल्लसे चमढ़ा कमाना € ()॥] '87- प्रंएट् )। प्राचीन समय खाल पर उसी पशुकी खोपड़ी विज्ञान, मई, १६४५ [ भाग ६१ की गूदी या चर्बी लगाकर चमड़ा बनाते थे। आधुनिक समयमें तेलसे चमड़ा कमाना ( ()] '8777792 ) उसी क्रियाका सुधरा हुआ रूप है। शेसाय चमड़ा ( 0॥87708 4,0806/' ) इसी रीतिसे बने हुए चमड़ेका एक उदाहरण है। बाल सहित चमड़े भी इसी रीतिसे बनते हैं जैसे हिरन, रीछु तथा सिंह की खालका चमड़ा । द ह फिटकरीसे भी चमढ़ा कमाया जाता है। इसको टाइंग (78७7९ ) भी कहते हैं। इसमें आमतौर पर जो फिटकरीमें एक तत्व अलूमिनियम ( & ]प्रशाएंप्रधा ) हीता है चही क्रोमकी तरह खालके रेशेमें घुस जाता है ओर रेशोको लगभग अपघुल बना कर सदनेसे रोकता है ओर इस तरह चमड़ा बन जाता है। हिरन, चीता, लोमडी आदिकी खाल जिनमें बालका रखना मुख्य ध्येय है इस विधिसे ही अधिकतर बनाई जाती है । फार्मव्डीहाइड ( 90779]0॥]9006 ) से भी चमड़ा बनाया जाता है। १ से २॥ प्रतिशत फार्मल्डीहाइड के घोलमें खाल पकानेसे बिल्कुल तेलसे पके हुए चमड़े के सदश चमडा बन जाता है। बफ चमडा ( ऐप ],09008)' ) इस रीतिसे भी बनता है जो श्वेत र॑गका होता है। इस तरह उपरोक्त तमाम विधियोंसे चमड़ा कमाया जाता है जिनका प्रा वर्णन आगे किया जायगा । इतना और लिखना आवश्यक है कि चमड़ा बन जालेके . बाद उम्चका अन्तिम उपचार (77078॥]72 7%006- 8868 ) जो चमड़ा कमानेका एक आवश्यक अंग है, किया जाता है। इसका संक्षिप्त वर्णन यह है कि चनस्पतिसे या क्रोम से बनाये चमड़ेको छीलकर उंसकी मोटाई ठीक करके ( यदि क्रोम चमड़ा हो तो उसका अस्ख दूर करके ) यदि रंगाई करनी हो तो र॑गनेके बाद उसमें तेल लगाते ( 7७6 0007 702 ) है उसके बाद उसकी घोटाई करके नाप कर या तोत्य कर बाजारमें भेज देते हैं। इस देशर्मं आज कल्न भी चमड़ेके व्यवस्तायके लिये बहुत बड़ा ज्षेत्र है, आयात ( [70[0076 ) और निर्यात ([05४0007 ) की नीचे दी हुई सारिणीसे पता चलता है कि कितने रुपयेकी कच्ची खाल्य हमारे देशसे बाहर जाती है ओर कितने रुपयेकी कमाई हुई खाल ( चमड़ा ) अम्य संख्या २ ] चमड़ा - छू हि देशोंसे इस देशमें आती है । यह बात ध्यान देने योग्य बेकार समझा जाता है और बिना मूल्यका होता है वह है कि खाल और चमड़ेके मूल्यमें कितना अन्तर होता है। सरेस् बनानेके लिये बहुत उपयोगी होता हैं | सरेस भी यही नहीं, इस व्यवसाथमें खाल या चमड़ेका जो हिस्सा बहुत कामकी चीज़ है। सारणी ( ['906 ) हि खाल | चमड़ा ईस्वी सन, यों माल खास आयात निर्यात कसतुयें पूरी तौर श्रायात निर्यात कर बिना कमाया | (रुपयों सें) | (रुपयों में) | से या खास तौर (रुपयों में ) (रुपयमिं) हुआ से कमाई हुई रद करन मनन ली: जमीन शिि लि सिर अर शििविजिनीिय, का ७७४७2 खाल व खतल्लरी | १०,३२७, ०३५ ३,१३,०६९,७४३| खाल या खलरी ४९,११६,१८०२ [<९,४७,२२,३२२ कच्ची या बिना कमाई हुई या २९-३६ | संवारी ३०,००,३२१६१ [३,१३,०६,१६८| खंवारी हुई या | ४९,१३,९१५ ९,६२,८६,२६६ 777688 870 । चमड़ा ३६-३० | 5टए8 7&फ़ | १२,०३,३४५ |४,४३,४०,०१४५ ( 668 & | ९४१,१०,०१६ |७,३६,३०,२२२ 07 घ08788 577]8 ६8- ३६ | 80, १९,२३,३१६ | ३,६१,४३९,६७३| 786 07 078- | ४७,७०१,१६२ ६,९५९,७८,५१२ ह 8860 0% 6- ४० ३०,०७,९७६ | ३,९०,७२,४०१| 80)69 ) ५६,४२,९३० |७,६१,४१,४२६ 9१ २३०,४२,४२७ |४,१३,४२,९०४ ४४,११,६१६ |४,०९,४६,४४६ ऊपर दी हुई सारिणी को देखनेसे पता चल्लता है कि का कच्चा साल बाहर न जाता तो ६० लाखका माल .: अपने देशर्म किदनी गुंजाइश इस व्यवसायकी है। उदा- हमारे देशमें मगानेकी आवश्यकता न पड़ती ओर इतना : हं्णार्थ सन्‌ १६४० के अंक लीजिये | लगभग १७ लाख घन हमारे देशर्मे ही में रह जाता जिससे कितने बेकार का कच्चा साल आया परन्तु उसके बीस गुने से अधिकका आद्सियोंको काम मिलता और पू जोपतियों को घन। कच्चा मास बाहर गया। इसी तरह लगभग ६० लाख इस केवल यही व्यक्त करना चाहते हैं कि आज भी इस रुपया का फसाता हुआ साल देशमें आया। पर उसके देशमें चमड़ेके व्यवसाय का बहुत बढ़ा छेन्न है जिध्का १३ गुनेसे भी अधिक का कम्ताया हुआ साल बाहर गया। लाभ हम लोगों को उठाना चाहिये । . इसका अथ केवल यही है कि यदि हमारे देशले ३। करोड़. ( लेखक की अप्रकाशित पुस्तक 'चमड़ा' की भूमिका से ) ४६ विज्ञन, मई, १६४५ फुलवारीकी घासपातसे खाद शहरमिं जो लोग फुलवारी लगा सकते हैं या साग- भाजीकी खेती कर सकते हैं उन्हें खादकी भी जरूरत पड़ती हैे। यह भी देखा जाता है कि फुलवारीकी घास- . पात प्रायः फेंक दी जाती है। इससे बड़ी हानि होती है । यदि ये चौज़ें फेंकी न जाकर कायदेसे रखी जाये तो तीन चार महीनेमं अच्छी खाद तैयार हो सकती है। इसमें कोई मिहनत भी नहीं है, बस कायदेसे काम करनेकी जरूरत है। तरकीब नीचे दी जाती है -- फुलवारीकी घासपातको दो हिस्सेमें बांट लें । सूखी घास था पोदोके इंडल, भाड़ीके काटन, आदि, अलग करनलें ओर गोभी, शलजम, केना आदिकी हरी पत्तियाँ अलग रख लें। हातेके एक कोनेमे दस या बारह फुट लग्बी और पाँच या छः फुट चोड़ी ज़मीन ठीक करके उसमें पहले सूखी घास ओर डंठलकी चार पाँच इंच गहरी तह बिछा दूँ और उसपर गोबर, लीद और लकड़ी या कंडेकी राख- का पानी तीन चार बालटी छिड़ककर उसपर हरी पत्तियों- की पतली तह फेला दे जिनसे सूखी घासपातकी तह अच्छी तरह ढक जायथ। गोबर, लीद और राखका पानी इस तरह तैयार करें-- एक होदेमें गाय, मैसका गोबर, घोड़ेकी लीद या भेड़ बकरीकी लेडी रखकर उसमें लकड़ी या कंढ़ेकी राख जो चूल्हेसे निकलती है मिला दे और दो तीन बालटी पानी डालकर सबका घोल तेयार करलें । बस इसीको सूखी घासकी तहपर छिड़क देना चाहिए। हरी पत्तियोंकी तह विद्वानेके बाद उसपर चार पाँच इँच सूखी पत्तियोँ ओर डंठलॉकी तह फिर बिछाकर उसपर वैसे ही गोबर ओर राखका पानी छिड़ककर हरी पत्तियाँ फिर बिछा दी जाय । यह क्रिया इतनी बार करनी चाहिए . कि चार पाँच फुट ऊँची ढेर लग जाय । अब इसे दस दिन तक छोड़ देना चाहिए। दस दिनके बाद कुल ठेरकों इस तरह उलट पलट देना चाहिए कि सूखी ओर हरी पत्तियों- की तहें खूब मिल जाय । इसके बाद कुलपर पानी अच्छी तरह छिड़क देना चाहिए । ऐसा करनेसे सब चीज़ें अच्छी तरह सड़ने लगती हैं | दस दस दिनपर इस ढेरकों बराबर उलटते-पुलटते रहना चाहिए ओर पूननी छिड़कना चाहिए । तीन महीनेमें अच्छी खाद तेयार हो जायगी । आवश्यकता- [ भाग ६१ नुसार ऐसे कई ढेर लगाकर खाद तैयार की जा सकती है। श्रीकृष्ण श्रीवास्तव अफषा३3+४ ० फित-0त72 (5२मलादा। समालोचना हिन्दी 'उद्यम'--नमूना अंक, नम्बर १६४४, वाषिक मूल्य ४॥॥), सम्पादक वि० ना० वबाड़ेगाँवकर धर्मपेट, नागपुर स्ी० पी०। हिन्दी की पत्निकाओशों में उद्योग-घन्धे संबंधी लेख प्रायः निकलते तो रहे हैं किन्तु अभो तक कोई ऐसी पत्निका नहीं थी जिसमें केवल इसी विषयके लेख रहते रहे हों। “उद्यम” ने इस कमी को पूरा किया है। इस पत्रनिकासे व्यवसाय जगतकी बड़ी सेवा होगी। इस अंक में छुपे लेखों में “गेहूँ की निगरानी तथा उसके रोगों पर प्रतिबन्ध”, “हमेशा के लिए साग सक्ज़ी ”, “कास्टिक सोडा कैसे बनता है” आदि लेख अच्छे तथा उपयोगी हैं। जिस देशकी छृगभग तीन चौथाई जनता खेती पर ही निर्भर करती हो वहाँ के लिए ऐश्वी पशन्नमिकाओ्रंकी वास्तविक उपयोगिता है। साधारण पढ़े लिखे लोग इस प्रकारके लेखोंको पढ़कर छोटा-मोदा व्यवसाथ खोलमनेमें भी समर्थ हो सकते हैं। इस नमूनेके अंकको देख कर सुझे आशा है कि उद्यम भविष्य में सफलतापूवक निकलेगा । वे शग्यू--सम्पादक वैध विष्णुकान्त जैन, प्रकाशक वैद्य: हरिशंकर, सुरादाबाद, वाषिक मूल्य ३)। यह वैद्यक सम्बन्धी पुरानी पतन्निका है। पिछले वर्षो से यह सफलतापूर्वक निकल रही है | जनवरी १६४४ के अंक सें, जो मेरे सामने है, कई अच्छे स्वाध्य सम्बन्धी लेख हैं । श्राजकलके ज़मानेमें अच्छे वेच्ञोंके अभावके कारण जब लोगों का | विश्वास्त अपनी देशी दवाओंके ऊपरसे उठता सा जा रहा है ऐसी पत्निकाकी बढ़ी आवश्यकता है । इसके द्वारा लोगोंको अपनी देशी दुवाओंके गुण दोषों तथा उनके उपग्रोग आदिकी जान- कारी प्राप्त होती है जिससे वे आवश्यकता पहने पर लाभ उठा सकते हैं। मुझे विश्वास है कि इस पत्निकाका प्रचार हिन्दी में बराबर बढ़ता जायगा। “>रानीटंडन, एुस० एुड्ध०, कर क्र विज्ञान-परिषटकी प्रकाशित प्राप्य दो ९ पुस्तकोंकी सम्पूण सूची १-विज्ञान प्रवेशिका, भाग १«-विज्ञानकी प्रारम्भिक बातें सौखतेका सबसे उत्तम साधन--ल्ले० श्री राम- दास गोड़ एम० ए० और श्रो० सालिगराम भार्गव पएम० एज-सी० ; ।) २--ताप--हाईस्कूलमें पढ़ाने योग्य पाठ्य पुस्तक-- ले० प्रो० प्रेमबढ्लभ जोशी एस० ए० तथा श्री विश्वम्भर चाथ श्रीवास्तव, डो० एस-स्री० ; चतुर्थ संस्करण, ॥), ३--चुम्बक--हाईस्कूलमें पढ़ाने योग्य पुस्तक--त्ले० प्रो० सालिगरामस भार्गव एस० एस-सी०; सजि०;। (5) ४-मनोरज्लक रसायन-- इसमें रसायन विज्ञान उप- न्यासकी तरह रोचक बना दिया गया हैं, सबके पढ़ने योग्य है-- ले० प्रों० गोपालस्वरूप भार्गव एस० एस-सी० ; ३॥॥), ि ४--सूय-सिद्धान्त--संस्कृत मूज्न तथा हिन्दी “विज्ञान- भाष्य--आचीच गणित ज्योतिष सीखनेका सबसे सुलभ डउपाय- पृष्ठ संख्या ३९३४ ; १४० चित्र तथा नकशे--ल्वे० श्री महाबीरअस्ाद श्रीवास्तव बी० एस-खरी०, एत्नष० टी०, विशारद; सजिल्द: दो 7. भा; मूल्य ६)। इस भाष्यपर लेखकको हिन्दी 7 साहित्य सम्मेजनका ४ २००) का भंग्रलाप्रसाद पारितोषिक मिला है। . ६“-वेज्ञानिक परिमाण--विज्ञानकी विविध शाखाओंकी इकाइयोंकी सारिणियाँ--ले० डाक्टर निहालकरण सेठी डी० एस सी०; ॥), ७--समभमीकरण सीमांसा--गणितके एम० ए० के विद्याथियोंके पढ़ने योग्य--ल्ले० प॑० सुधाकर द्विवेदी, अथस भाग 4॥), द्वितीय भाग |), ८--निर्णायक ( डिटर्मिनेंट्स )-- गशणितके एस० ए० के विद्यार्थियोंके पढ़ने योग्य--त्ले० ओ० गोपाल कृष्ण गे ओर गोमती प्रसाद अ्रभ्मिहोत्री बी० पुत्र सी ७ ; ॥); &--बीज॑ज्यामिति या श्ुजयुग्म रेखांगणितं--इटर- मीडियेटके गणितके विद्यार्थियोंके लिये---ले० डाक्टर सत्यप्रकाश डी० एस-स्री० ; १।), १०--गुरुदेव के साथ यात्रान-डाक्टर जे० सी० बोसकी यात्नाओंका लोकप्रिय वर्णन ; |“), ११--केदार-बद्री यात्रा--केदारनाथ और बद्रीनाथके थात्रियोंके लिये उपयोगी; |), १२--वर्षा और वनस्पति--ल्ोकप्रिय विवेचन---ले० श्री शक्लरराव जोशी; |), १३- मनुष्यका आहार--कौन-सा आहार सर्वोत्तम है-- ले० वैद्य गेपीनाथ गुप्त; |), १४--सुव णका री--क्रियात्मक-- ले ० पचोली; ।), ९४--रसायन इतिहास--इंटरमीडियेटके विद्यारथयोंके योग्य -- त्वे० ढा० आधप्माराम डी० एस-सी ०; ।॥), १६--विज्ञानका रजत-जयन्ती अंक--विज्ञान परिषद्‌ के २९ वर्षका इतिहास दंथा विशेष लेखोंका संग्रह; १) (७--विज्ञानका उद्योग-व्यवसायाहु--रुपया बचाने तथा धन कमानेके लिये अनेक संकेत--. ६ ३० पृष्ठ, कई चित्र--सम्पादक श्री रामदास- गैड़ ; १॥), १८-“फत्न-संर क्षण -- दूसरापरिवर्धित संस्करण-फर्लोकी डिब्बाबन्दी, सुरब्बा, जैम, जेली, शरबत, अचार आदि बनानेकी अपूर्व पुस्तक; २१२ पृष्ठ; २७ चित्र. ले० डा० गारखप्रसार डी० एस-सी०; २), १६--व्यज्ञचित्रण--( काहून बनानेकी विद्या )-ले० - एल० ए० डाउर्द : अचुवादिका श्री रत्नकुमारी, पूम० ९०; १७२ पृष्ठ; सेकड़ों चित्र, सजिह्द; १॥) २०--मिट्टीके बरतन--चीनी मिद्दीके बरतन कैसे बनते हें ल्लोकप्रिय-- ल्े० प्रो० फूलदेव सहाय वर्मा ; १७३ ४४; १३ चित्र; सजिरद; १॥),.. - २१--वायुमंडल--ऊपरी वायुमंडलका सरत्न वर्णन... ले० डाक्टर के० बी० माधुर; १८६ पृष्ठ; २९ चित्र; सजिल्द, ॥॥), | २२--लकड़ी पर पॉलिश--पॉलिशकरनेके नवीन और पुराने सभी ढंगोंका व्योरेवार वर्णन । इससे कोई भी पॉलिश करना सौख सकता ह---ज्े० डा० गारख- श्री गंगाशंकर प्रसाद और औरामयत्न भंटर्नागर, एमे०, एु०; २१८ पृष्ठ; ३१ चित्र, सज्ञिरुद; $॥), २३--उपयोगी नुखेखे तरकीबें और हुनर--सखम्पादक डा० गोरखप्रसाद ओर डा० सत्यप्रकाश; आकार बढ़ा ( विज्ञानके बराबर ), २६० पुथ्ठ ; २००० लुखखे, १०० चित्र; एक-एक नुसखेसे लैकद़ों रुपये बचाये जा सकते हैं या हज़ारों रुपये कमाये जा सकते हैं | प्रत्येक गृहस्थके लिये उपयोगी ; मूल्य अजिद्द २), सजिल्द २॥)), | २४--कलम-पेबंदू--ले० श्री शंकरराव जोशी, ३०० एछ; ४० चित्र; मालियों, मालिकों ओर कृपकॉके लिये उपयोगी; सजिल्द; १॥), २४५--जिल्दसाजी--क्रियाव्मक और व्योरेवार । इससे सभी जिरद्साज्ञी सीख सकते हैं, ल्ले० श्री सत्यजीवम वर्मा, एम० ए०; १८० पृष्ठ, ६२ चित्रसजिल्द १॥), २६--भारतीय चीनी मिट्टियाँ-- श्रौद्योगिक पाव्शाल्ाओं के विद्यार्थियों के लिये---व्ले ० प्रो० एस5 एल मिश्र; २६० पृष्ठ; १२ चित्र; रूजिदद १॥), २७--त्रिफला--दूसरा परिवधित संस्करण प्रत्येक वैद्य ओर गृहर्थके लिये-ले० श्री रामेशवेदी आय्ुवंदालंकार, २१६ पृष्ठ; ३ चित्र (एक रज्ञीन); सजिल्द २) यह पुस्तक गुरुकुल आयुर्वेद्‌ महाविद्याह्षय १३ श्रेणी द्रव्यगुणके स्वाध्याय पुस्तकके रूपमें शिक्षापटलमें स्वीकृत हो चुकी है ।' १८--मधुमक्खी-पालन--ले० परिडत दुयाराम जुगढ़ान, भूतपूर्व अध्यक्ष, ज्योज्ञीकोट सरकारी मधछुवटी; क्रिया- व्मक ओर व्योरेचार; मधुमक्खी पाक्चकेकि लिये उप- योगी तो है ही, जनसाधारणको इंस पुरुतकका अधिकांश अत्यन्त रोचक प्रतीत होगा; मधुमक्खियों की रहन-सहन पर पूरा प्रकाश डाला गया है । ४०० पच्ठ; अनेक चित्र ओर नकशे, एक रंगीन चित्र; सजिल्द; २॥), २६--घरेलू डाक्टर-- लेखक ओर सम्पादक डाक्टर ँ जी० घोष, एमस० बीं० बी० पूस०, डी० टी० एम७०, प्रोफेतर डाक्टर बद्रीनारायण प्रसाद, पी० एच० कल्प: का-.85 आता ;पफमचाहार 808. |९0, & 878 - डौ०, एम० बी०, कैप्टेन डा० उमाशंकर प्रसाद, एस० बी० बी० एस० , डाक्टर गोरखभपसाद, आदि | . २६० पृष्ठ, ११० चित्र, आकार बड़ा ( विज्ञानके बराबर ); सजिल्द; ३), | ३० - तैरना-- पैरना सीखने और डूबते हुए ल्लोगोंको बचाने की रीति अच्छी तरह समझायो गयी है। ले० डाक्टर गोरखग्रस्ाद, पृंछ्ठ १०४, झुंहय १), ३९--अंमीर--ल्लेखक श्री रामेशबेदी, आयुर्वेदालंकार- अँजीर का विशद वर्णन और उपयोग करनेकी रीति । पृष्ठ ४२, दो चित्र, मूल्य ॥), यह पुस्तक भी गुरुकुल आयुर्वेद महाविद्यालयके शिक्षा पठलमें स्वीकृत हो चुकी है । ३२-सरल विज्ञान सागर, प्रथम भाग--सम्पादुक डाक्टर गोरखअसाद । बड़ी सरक्ष ओर रोचक भाषा में जंतुओंके विचित्र संसार, पेड़ पोधों की अचरज भरी दुनिया, सूर्बर, चन्द्र ओर तारोंकी जीवन कथा तथा भारतीय ज्योतिषके सौक्तिप्त इतिहास का वर्णन है । विज्ञानके आकार के ४७० पष्ठ ओर ३२० चिन्रेले सजे हुए ग्रन्थ की शोभा देखते दी बनती है । सजिल्‍्द, मुल्य ६) हमारे यहाँ नीचे लिखी पुस्तकें भी मिलती हैं।-- १---भारतीय वेशानिक--( १२ भारतीय वैज्ञानिर्कोकी जीवनियां ) श्री श्याम नारायण कपूर, सचित्न ओर सजिल्द, ६८० प्ष्ठ; ३) ' हे २+--यान्त्रिक-चित्रकारी--ल्ले० श्री ओकारनाथ शर्मा, ५० पएुम०आई०एल०६० | इस पुस्तकके प्रतिपाथ विषयको अग्रेज़ीमें 'मिकैनिकल्ल ड्राइंग! कहते हैं | ३०० पृष्ठ, ७० चिन्न; ८० उपयोगी सारिणियां; सस्ता संस्करण २॥ ) ३--वैक्युम-त्र क--ल्ले ० श्री श्कारनाथ शर्मा । यह पुस्तक रेलवेमें काम करने वाले फ्रिटरों, इजन-ड्राइवरों, फ्रोर- मेनों और कैरेज एग्ज़ामिनरोंके लिये अत्यन्त उपयोगी है। १६० पृष्ठ; ३१ चिन्न, जिनमें कई रंगीन हैं, २) विज्ञान-मासिक पत्र, विशाल परिपद्‌ श्रयागका सुखपत्र दे । सम्पादक डा० संतग्रसाद टंडन, लेक्चरर रसायन विभाग, इलादह्वाबाद विश्वविद्यालय । वार्षिक चन्दा ३) विज्ञान परिषद्‌, ७२, टेगोर टाउन, इलाहाबाद | * मुद्रक तथा प्रकाशक--विश्वप्रकाश, कला प्रेस, प्रयाग | £%, विज्ञान विज्ञान-परिषद्‌, प्रयागका झुख-पत्र विज्ञानं ब्रह्मेति व्यजानात्‌, विज्ञानादध्येव खल्विमानि भुतानि -जायन्ते । विज्ञानेन जातानि जीवन्ति, विज्ञान प्रयन्व्यमिसंविशन्तीति ॥। तै० ड० ।श।ण। वृष, सम्बतू २००२ संख्या ३ ऑन ओर ले: आते लीन ने कपल नर नर कर, नर कह कर जे कर ने नेट लेट नेट के: के: कर्क लेजर के ऋ कक केले केह कं: कुछ उपयोगी नुसखे [डाक्टर गोरखप्रसाद] निकेल की कलई--- क्रीम ऑफ़ टारटार २० भाग अमोनियस क्लोर|इड १० भाग ' सोडियम क्लोराइड ४ भाग टिन आक्सीक्लोर हाइड़ेट २० भाग निकेल सलफ़ेट सिंगल ३० भाग निकेल सलफ़्ट डबल ४० भाग पानी १०५०० भार वस्तु को खूब स्वच्छु करके (मानकर और पारी-पारी से सोडा ओर तेज्ञाब से धोकर) इस घोल में दो-तीन मिनट तक रखना चाहिए । फिर निकाल कर उसे राख से माँजना चाहिए । लोहे पर निकेल चढ़ाने के पहले उस पर ताँबे की क़लनई तृतिया ओर तेज़ाब में डुबाकर कर लेना चाहिए (ऊपर देखो) । चाँदी की क्लई--- १--सिलवर क्लोराइड ३ भाग नमक (सोडियम क्लोराइड) ३ भाग प्रेस्िपिटेटेड चाक २ भाग ऑस्टिक पोटाश 8 भाग थोड़ा-सा जज्ष मिला कर इस चूर्ण को कलई की जाने वाली वस्तु पर स्वच्छु नरम चमड़े से रगढ़ना चाहिए। उस वस्तु को पहले से ही मानकर ओर तेज्ञाब आदि से घोकर स्वच्छु कर लेना चाहिए । सिलवर क्लोराइड प्रकाश से खराब हो जाता है। इसे बनाने के लिए सिल्ञवर नाइट्रेट के घोल , में नमक के घोल को मित्राना चाहिए । जो तलछुट बने उसे सोखते ब्लाटिंग पेपर) से अल्लग करके, धोकर, अंधेरे में सुखा लेना चाहिए । २--सिलवर नाइट्रेंट पोटेसियम साइनाड १ भाग ३ भाग जलन आवश्यकतानुसार गाढ़ा लेप बनाओ । ऊनी चीथड़ से इपे उस दस्तु पर रगड़ो जिस पर कलई करनी .हो (वह वस्तु पहले से ही स्वच्छु कर ली गयी हो)। फिर धो डालो श्रोर चमड़े से रगड़ कर चमकीजञा कर डालो | पूर्वाक्त मिश्रण अत्यंत्त विषैला है, इसलिए उसे अग्ुज्षियों सेन छूना ही अच्छा है; यदि कहीं भी श्रंगुली की स्वचा कटी रहेगी तो विष भीतर घुप्त जायगा ओर रक्त में पहुँच कर भारी हानि करेगा। प्राण तक चला जा सकता है। ३--अंधेरेम निम्न लेप बनाओ«« पानो ३ से & आउंस सिल्लवर क्लोराइड ७ आउंस पोटेसियम ऑकज़लेट १० आउंख साधारण नमक, स्वच्छ १९ आउंस नोसादार ( अ्रमोनियम क्ल्लोराइड ) ३ आउंस तॉबेको वस्तुओं पर इसे बुरुश या ऊनी चीथड़े से रगड़ने पर क़ल्ई चढ़ जाती है जो इतनी चिमड़ी होती है कि तारके बुरुशसे रगड़ कर या इस्पात से घोंट कर खूब चमकाई जा सकती है । लेंपोंके पीछ्षे लगने वाले रिफल्ेक्टरां पर इस लेपसे कलई करके उनकी चमक को फिरसे नया किया जा सकता है। पूर्वाक्त लेपके बदले निश्न से भी काम चल सकता है--- घिलवर क्ल्तोराइड रेप आउंस क्रीम आफ टारटार ७ आउंस नमक ३२३ आउस पानी | आवश्यकतानुसार पानी इतना ही हो कि गाढ़ा क्लेप बने । ४--पारे में चाँदीको घोलकर भी वस्तुश्रों पर चॉदी चढ़ाई जा सकती है, परंतु इसकी प्रथा अब उठ्-सी गई है । ४-+निम्न घोलमें ताँबे, पीतल ।आदिको वस्तुओंको प ० विज्ञान, जून, १६४५ ०>पानपपारना»3५॥/१७५७८ अर: पक 20 पद; न» का नभस4७३००६७८४:४७५० ३033५>4;33: 40५ ॥४लफपाए पक । ३६ ६9 :/0.६६॥७४०५७०+थ ५५७७७ ५३७2० पामाा:34स्‍»95 ३३ मा७७१७६७७/॥० ५ ३५४३० का 2४3» "पावन "पक ३७७०2५३०७ १० ामाकएक5४००» दा +0५७५४४.५५००ननहाकत2४4५3३०3202:/299 09 5./44 4:00: 52400: भ५०६(४५७७४//४००७७७५७४७५४०७०,व०कक्ष७४२००७ ५४५ ३:५५/धावरकापाद2:क्‍35.006 #-०५४० ०० दक्ा'वटआ2५ मिलना 2 +8400:0:3> नाता (2४५७ :लवनदापरद-प कान भाा20+ 2 -कजहउनापकाए कक ८2३०ान्म व प +0पकांप+क: ++ धर क02445:22006+42 फ्री: ७४० ४0५५::00::003 के 0 कै डालकर निकाल लेनेसे उन पर चांदी की हल्की कलई चंद जाती है-- घप्िलवर नाइट ट €ये भाग हाइपो ( फोटोग्राफी के काम १० भाग में आने वाला ) अमोनियम क्लोराइड ६ भाग प्रेस्निपिटेटेड चाँक १० भाग पानी १०० भांग इसके बदले निम्न घोलका भ्योग किया जा सकता है, परंतु यह तीमघ्र विष है-- सिलवर नाइट ट ११ भाग पोटेपियम साइनाइड ६० भाग पानी ७४० भाग प्रेश्पिटेटेड चाक ११ भाग इस धोलको गाढ़े भूरे रंगकी शीशीमें, या काला काशाज़ लपेटी शीशीमें रखना चाहिए | काममें लानेके लिए इसमें दुगुना पानी ( आकाशका जल्न या स्रवित जल-- डिस्टिल्ड वाटर ) मिला लेना चाहिये । रांगेकी क्लई - ( $ ) रांगेको कलई साधारणतः पिघला हुआ रांगा पोत कर की जाती है | रीति बहुत सरल है। सभी इसमें सफलता प्रार॑ग्भसे ही पा सकते हैं । रांगेको पहले चूर कर लिया जाय तो शभ्रच्छा है | इसके लिए रांगेको लोहेके बरतनमें पिघत्षा कर जमने दिया जाता है, परंतु ज्योंही जमने लगता है इसे कूट कर चूर-चूर कर दिया जाता हैं। यदि रांग जमकर ठोस हो जाय तब कूटनेसे वह चूर न हीगा । कल्नई करनेके पहले बरतनकों बालू ओर राखसे मांज कर खूब साफ कर लिया जाता हैं। राखमें कुछ सोडा रहता है, परतु यदि कुछ राधारण सोडा ( सोडियम कारबोनेट ) इसमें छोड़ क्िय| जाय तो शोर भ्रच्छा होगा। सोडासे चिकनाहट कटती है। इसके बाद बरतनको सलफ्यूरिक ऐसिड मिल्ले जलसे धोया जाता है, परंतु यह विशेष आवश्यक नहीं हैं । फिर बरतनको कोयल्लेकी आंच पर इतना गरम किया जाता है कि उस पर रांगा छोड़नेसे रांगा पिघल जाय । अब बरतन पर आवश्यकताचुसीर राँगा ( रांगाका | भांग ६१ : चर ) छोड़ दिया जाता है | रांगा पिघलने लगता है। तब उसे नौखादार ( अमोनियम क्लोराइड ) क्गे स्वच्छ चीथड़े या रुई की।गद्दीसे रगड़ दिया जाता है | नौसादारके लगते हो रांगा बरतन पकड़ लेता है। अ्रत्र उसी रुई या चीथडेसे रांगेको सर्वत्र पोत दिया जाता है । रांगा कुल इतना ही रहे कि सब जगह पतली कल्नई हो जाय । बहुत मोटी कलई चिकनी नहीं हो पाती | कई करनेके बाद बरतनको अश्रच्छी तरह थो डालना चाहिए जिसमें नोसादार लगा न रह जाय | इस रीतिसे पीतल और तांब्रे पर बड़ी सुगमतासे कलईकी जा सकती है, परंतु लोहे पर भी कल्नई हो सकती है । नोसादार के बदले लोबान या रजन (रोज़िन ) का प्रयोग |भी किया जा सकता है, परंतु तब यह आवश्यक है कि बरतनको माँजनेके बाद उसे तेजाबके पानीसे घोकर स्वच्छु कर लिया जाय | (२) रांगा पारेमें घुल्ननशील्न है। पारेमें रांगेको घोलकर फिर उस्र धोलको पीतल आदिके बरतन पर रगड़कर ओर अंतर्मे बरतनकों गरम करके पारेकों उड़ा देनेसे उस पर रांगे की क़ल्नई हे! जाती है । परंतु इस रीतिका प्रयोग अ्रब प्राय: नहीं होता | (३) निम्न घेलमें पीतत्न आदिकी वस्तुको डुबानेसे उस पर रांगे की हल्की कल्वई चढ़ जाती है :--- अमोनिया ऐलम १७३ आउंस खोल्नता पानी १२३ आउंस टिन प्रोटोक्‍्लोराइड १ आउंस जब इसमें कलईके लिए बरतन डुबाये जाँय ते घोत्ल खूब गरम रहे | द जस्तेकी क्लई--जस्ते की कलई करनेको गेलवनाइज़ करना भी कहते हैं। बाज़ारमें जे! गेलवनाइज़ आयरन बिकता है उस पर जस्ते की ही क़लई रहती है । पहले वस्तुको बालू से खूब मांज डालना चाहिए। फिर हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड ३ भाग पानी २ भाग के हिसाब से बनाये मिश्रणमें वस्तुको कुछ घंटे तक रख कर फिर भांजना चाहिये | अच्छी तरह थो डालनेके बाद संख्या २ ] कुछ उपयोगी नुसखे ५६१ ४७७७७७७७४७७७॥७७७७७७७७४७७४७७७७७७७॥७॥/७/॥/७/७/ए"श/शश॥॥४४/0४७॥७॥एएशस्‍शस्‍/॥/॥शश/॥/0॥/॥0॥॥/॥/॥/एशशशशश/शशा ० तन मसल अली नव दीक जप दीकली जज अनील जज लक ज अर कान न 3 आभास वश्तुका निश्न घोल में डालना चाहिए--- नोसादार ( अमोनियम क्लोराइड) | पाइंट पानी १ गेलन इसमेंसे निकाल कर वस्तुकों आँच दिखाकर शीघ्र सुखाना चाहिए, परंतु आँच इतनी तेज्ञ न हो कि नौसा- दर उड़ जाय । सूख जाने पर वस्तु के पिघले जस्तेमें डुबा कर निकाल लेना चाहिये। यदि काम इतना अ्रधिक न हे। कि पिघले जस्तेमें वस्तुका डुबानेका प्रबंध किया जा. सके ते! बरतन पर जस्तेकी क़लई उसी रीतिसे करनी चाहिये जिसका वर्णन राँगेकी कलाई के संबंधमें दिया जा चुका है । जस्तेकी रवादार क़लई -साधारण क़ल्नई करनेके बाद वस्तुको ज्ञिक क्लोराइडके घेलसे था एक भाग नाइट्रिक ऐसिंड एक भाग पानीमें धोानेसे जस्ते पर सुंदर रवेदार आकृतियां बन जाती हैं । | #.. ५० (8 धातुओं की रंगाहे यहाँ धातुओं की रगाई से तात्पर्य यह है कि उनका रंग किस प्रकार रासायनिक रीतियों से या आँच दिखा कर बदल दिया जाय कि वे अधिक सु'द्र जँचने लगे। तैल-रंगों से रंगने की चर्चा यहाँ नहीं की जायगी । धातुओं की रंगाई तभी संभव है जब वे पूर्णतया स्वच्छु हों । इसके लिए उसकी सफाई उसी प्रकार करनी चाहिए जैसे बिजली से कल्नई करने के पहले की जाती है । फिर, उन वस्तुओं पर जिन्हें रंग बदलने के बाद चमकीला रखना होता है पहले ही से पाँज्ञिश करके चमक ला देनी चाहिए | अधंचमक वाली वस्तुओं को बालू की धार ( सेंड-ब्लास्ट ) से, चूरणो प्यूमिस पत्थर से घिम्त कर, तार के बुरुश से रगड़ कर, या उचित रासायनिक घोल में डुबा कर चमक को इच्छानुसार कर लेना चाहिए। नोचे जहाँ पोतल, ताँबा, आदि धातुओं. के रंग को बदलने की रीति दी गयी है वहाँ यह न समझना चाहिए कि सारी वस्तु उस धातु की बनी हो । वस्तु पर धातु की क़लईं का रहना पर्याप्त है, परंतु कलई इतनी हलकी न हो कि रंग बदलने वाले घोलों में यह कट जाय । एक ही घोल से कम या अधिक समय तक उसमें रखने से, न्यूनाधिक तापक्रम से, था घोल को गाढ़ा-फीका करके, या उसमें के विभिन्न रासायनिक पदार्थों को घटा: बढ़ा कर, विभिन्न रंग उत्पन्न किये जा सकते हैं। इन रंगों का सूचम वर्णन संभव नहीं है । केवल परीक्षा से ही पता चल सकता है कि किस प्रकार कौन-सा रंग आयेगा। रंग बदलने के बाद ऊपर से रंगीन लेरर पोतने से (आगे देखो) रंग कुछ और बदला जा सकता है।इस प्रकार श्रसंख्य रंग उत्पन्न किये जा सकते हैं। परीक्षा ओर प्रयोग से ही उचित रंग उत्पन्न किया जा सकता है । पुराना फूल--फूल नामक धातु के रंग को बदलने के लिए उत्तको गरम करना चाहिए। बरतन असली फूल का हो जिसका नुसखा यह है--- ताँबा ६० भाग जर्ता २ भाग . राँगा ८ भाग लगभग ३२९० डिगरी फारनहाइट तक तंदूर में गरम करो | गरम करने के पहले वस्तु पर इच्छानुसार पॉलिश कर जो । गरम करने से वस्तु पर काज्षिमा आ जाती है जिसे लोग बहुत पसंद करते हैं | इसे अंग्रेज़ी में ब्रॉब्ज़ मेंटल एंटीक फिनिश कहते हैं । नकाशी किये बरतनेंम उभरे भागों को चमका देने से ओर गहरे भागों को पूर्वोक्त रीति से काज्षिमा-म कर देने से विशेष सु दरता श्रा सकती है । ताॉचा--(१) ताँबा को काला करने के लिए उसे गरम करके कॉपर नाइट्रेट के धोल में डुबाओों और फिर गरम करो । २--बिसमथ क्लोराहड २ भाग कॉपर क्लोराइड १ भाग हाइड्रोक्लोरिक एसिड ६ भाग स्पिरिट £ भाग पानी ४० भाग इस घोल में स्वच्छु की गई को डुबा कर निकाल लो और वस्तु पर लगे घोल को उसी पर सूख जाने दो। फिर वस्तु को खोलते पानी में रक्खो ओर आधे घंटे तक पानी को खोलाते रहे | तब वस्तु निकाल ली जा., सकती है । यदि रंग काफी गाढ़ा न चढ़ा हो तो ऊपर की ' क्रिया को दोहराशो । रंग चढ़ जाय तो वस्तु पर तेल पोत्त कर घ२ विज्ञान, जून, १६४९ वस्तु को इतना गरम करो कि तेल धुओं के रूप में उड़ जाय । इस रीति से ताँबा काला हो जाता है। (३) नीला करने के लिए वस्तु को निम्न घोल में डुबाओ- पोटेसियम सल्लफाइड २ आउंस पोटेसियम क्लोरेट २ आउंस पानी १००० आउंस या निश्न घोल में-- पोटैसियम फ़ेरों साइनाइड 4 झाउंस हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड है आउंस पानी आवश्यकतानुसार पानी की मात्रा यथासंभव कम रहे, परंतु इतना अवश्य हो कि कुल्ल फेरोसाइनाइड घुल जाय | (४) गाढ़ा कत्थई रंग-- तृतिया १ आउंस हाइड्रोक्लो रिक ऐसिड 3 आउंस हाइपो (फ़ोटोग्राफी मे काम आने वाला) $ आउंस इसमें वस्तु को डुबाकर निकाल लो ओर सूखने दो। . फिर धो डालो । . या वस्तु को गरम करके उस पर निम्न घोत्न पोतो- कॉपर ऐपिटेट ४ भाग अमोनियम क्लोराइड ७ भाग ऐसेटिक ऐसिड १ भाग पानी ८७ भांग सूखने पर धो डालो | अंत में $ भाग मोम, ४ भाग तारपीन का घोल पोत दो । (४) ताँबे को हरा करने के लिए नसक हे भाग ल्लिकर अमोनिया ६ भाग नोसादर ३ भाग ऐसेटिक ऐस्लिड १०० भाग पानी २०० भाग रुई से लगाओ । एक बार में काफी रंग न बदले तो बार-बार लगाया जा सकता है। या निम्न घोल का प्रयोग करो-- झॉकज़ेजक्षिक ऐसिड श & भाग [ भाग ६१ नौसादर ३७ भाग ऐसेटिक ऐसिड (३० प्रतिशत) ४०० भाग (६) ताँबे को खूब लाज्न करने के लिए-- एंटिमनी सलफाइड १ भाग पोटैसियम कारबोनेट ४ भाग « पानी १०० भाग इसमें वस्तु को डुबाओ और फिर धो डाले | पीतल का रंग बदलना (१) काज्ञा करना-+- कॉपंर नाइट ट १ भाग पानी &€ भाग वस्तु पर इसे पोत दे! और सूखने दे। . फिर निम्न धाज्न में रकखेा-- पोटैजियम सलफाइड हाइड्रोक्लोरिक ऐसिड १ भार पानी २० भाग इसमेंसे वस्तुकों निकालकर इतना गरम करो कि यह काका हो जाय । । रे भाग लेंज, वृरद्शंक, आदिके भीतरी भाग कालिखसे काज्ना किये जाते हैं। इस्रके लिए फ्रेंच पॉलिश (जो मेथिलेटिड स्पिरिट में चपड़ा धोलनेसे बनता है) ओर कालिख मिला लिया जाता है. यदि फ्रेंच पॉलिश अधिक न रहेगा तो सुखने पर काके रंगर्मे चमक आ जायगी जो भ्रवांदुनीय है। यदि फ्रेंच पॉलिश बहुत कम रहेगा तो कालिख धातुको .ठीकसे पकड़ेगा नहीं | यदि फ्रेंच पॉलिश बहुत गाढ़ा हो तो पहले उसमें कुछ मेथिल्ेटिड स्पिरिट मिन्ना लेना चाहिए । (२ ) पीतलको नीला करना--- पोटैसियम सल्फाइड लिकर अमोनिया ३ भाग पानी २० भाग इसमें वस्तुको कुछ समय तक रख छोडनेसे अंतम्मे पीतल्न पर भ्रच्छा नीला रंग आ जाता है। हस काममें धोलको कांग त्गी बोतक्षमें रक्खा जाय, अन्यथा घोल १ भागा बहुत शीघ्र खराब हो जाता है । संख्या ३ | कुछ उपयोगी नुसंखे भू ४॥000॥0एएशभशशणशशशश॥शएएशननाएरण्णणाआआआ॥्र्शा््ए्न्ए्रएएए७्७७७एएए दाता 2 न मम आल अल ला (३) करथई रंगके लिए निश्न घोलका प्रयोग करना चाहिये -- पोटैसियम क्लोरेट १४७ ग्रेन तृतिया १४० ग्रेन पानी 3 गेलन (४ ) हरा करनेके लिए वस्तु के कॉपर नाइट्रेटके गाढ़े घोलमें उबालो; या फेरिक क्ल्लोराइडके गाढ़े घोल में डबाओ । ( ९ ) हलके हरे र॑ंगके लिए -- तुत्तिया ८ भाग ' नौसादार २ भाग पानी १०० भाग खोलते घेलमें चस्तुकों तब तक रहने दो जब्च तक रंग काफ़ो गहरा न हो जाथ । ( ६ ) निम्न से सुन्दर हरा रंग आता है-. ०८८० घनत्वकों आमोनिया १ आउंस नमक २ आउंस नोसादर २ आउंस अमोनिम ऐसिटेट २ आउंस पानी १४ आउस दो-दो धंदे पर बम्तुका इस घोलसे रंगना चाहिए। दे।-तीन बार रंगना काफी हेगा। फिर एक दिन बाद तेज़ ऐसेटिक ऐसिड से रंगना चाहिए ( यह हाथमें न क्वगे ) । (७ ) बैथनी (रंगके लिए वस्तुकों ऐंटीमनी क्लोराइडके गरम धोलमें डुबा कर रुई से रगड़ो । ( ८ ) खाकी रंगके लिए बेरियम सल्फाइड २ पाउंड पानी १ गैल्न खोलते हुए घोलमें वस्तुको लटकाओ । जब इच्छा- नुसार रंग आ जाय तो निकाल लो । चांदी--- + ) काला करनेके लिए पंटैसियम सानफाइड के घोल्ल में डुबाओ । - (२ ) कत्थई करनेके लिए नोसादार तू'तया | भार १ भाग ऐसेटिक ऐसिड ३१ भाग पानी ४ भाग घोलो । | ( है ) चाँदीके सफेद करनेके लिए निश्न घेलमें डुबाओ | सलफ्यूरिक ऐसिड १ भाग पानी २० भाग (४ ) काज्षिमा उत्तन्न करनेके लिए नोसादरके घोलमें डबाश्रो | ( ) लालिमा लानेके लिए कॉपर क्ले।राइडके गरम गाढे घेलमें दे--चार सेकंड के लिए डुवाओ । जस्ता - जस्ता के काला करनेके लिए निरू घोल अच्छा है | खूब काला रंग आता है-- कॉपर नाइट्रेट १ आउँंस नोसादर १ आउंस कॉपर क्लाराइड १ आउंस हाइड्रो क्लेतरिक ऐसिड १ आउंस पानी . १ गेलन एक सेकंड तक वस्तुका इसमें रक्‍्खो। फिर थो डाला, सुखाओो, और चाहे! ते मंद आंच पंर २१२ डिगरी फारनहाइट तक गरम करो । इस गरम करनेसे रंग कुछ अधिक अच्छा है| जाता है । इस्पात - ( १ ) इस्पात पर वालिमायुक्त नीला रंग लानेके लिए निम्न घाल अच्छा है--- पेटैसियम नाइट्रेट ( शोरा ) २० आउंस कास्टिक साडा २० आउंस पानी २४७ आाउंस संद्‌ आँच पर इस घेलके खोलते रहने दे। और खोलते हुए घोत्ममें वस्तु को छोड़ो, दे-चर सिनटमें रंग बदल ज्ञायगा। तब वस्तुका. निकाल कर था डाला, सुखाला, गरम तेलमें डुबाओ्रो ओर पोछ डालो । ( २ ) बंदूककी नालकों नीला करनेके लिए निम्त धेल्चका उपश्रोग करो--- पेलकाहल (या स्पिरिट) ४ आराउ'स इथर ४ आउ'स फेरिक क्लाराइड ४ आाउ'स नाइट्रिक ऐसिड ३ भश्राउ'स ४ विज्ञान, जुन, १९६४४ [ भाग ६१ है नि मी शनि लदल शनि शिकश शशि शि लिन न न डिक शिलिलिलिकि डिश ड लीक न मिलि निज कल अमन अब ३». 5ाममा2३७४७४७७७७/ए"-#//७/""#८"शशश/शश/शशशशशाशशशशशआआशशशआ्#शशशश्््णना तूतिया 8 शआउंस पानी २०० भाग मरक्यूरिक क्लोराइड १ आउस ख फ़ेरिक क्ोराइड 4 भाग पानी १ गेलभ पानी २०० भाग नाल का अच्छी तरह स्वच्छु करो | तेल आदि नाम मात्र भी न लगा रहे। इसके लिए कास्टिक सोडा से घेाओ । फिर पानी से धेओ। फिर खोलते पानी से घाओ | तुर॑त पूर्वोक्त घोल रुई से लगाओ | फिर नालकेा ऐसे तंदूर में रकखे। जिसके चारों ओर भाप की नालियाँ हों ओर इसलिए जिसका तापक्रम २१२९ डिगरी फारन हाइट बना रहे | इसमें नाल के तीन घंटे रहने दे । फिर १० मिनद तक खोलते पानी में नाल को रक्‍्खे । फिर घेल लगाओ, तीन घंटे तक गरम (रक्‍्खे -ओऔर घाओ | यदि आवश्यकता है| ते। इस क्रिया के एक बार फिर दाहराश्रो | तार के बुरुश से रगड़ा | अंत में गरम तेल लगाओ । ऊपर की रीति के बदले निम्न सरल रीति का ग्रयाोग किया जा सकता है, परंतु इससे काम उतना बढ़िया नहीं उत्तरता-- फेरिक छोराइड २ भाग एंटीमनी कोराइड २ भाग गेल्षिक ऐसिड १ भाग पानो ६ भाग नाल के खूब साफे करने के बाद इस धाल के रुई से लगाओ | सूख जाने दे! | फिर घेल लगाओ ओर सूख जाने दे । दो-तीन बार थेल लगानेकझे बाद था डाले। ओर सूखने दे! | फिर तीसी का तेल लगा कर कपड़े से स्गड़ा । (३) काला करने के लिए-- गंधक १ भाग तारपीन १० भाग गरम करके घाले | वस्तु पर पतली तह गरमागरम ही लगाओ और फिर वस्तु के इतना गरम करो कि काला हा जाय । | (४) नीला रंग लानेकी एक रीति यह भी है--- क--पोरटे सियम फेरोसाइनाइड १ भाग है. इन धोलों को अ्रलग-अल्लग बना कर एक में मिलाओ। फिर स्वच्छ की वस्तु को इसमें डबाओ्रो । (४) आँच में तपाने से भी लोहे पर नीला रंग चढ़ता है, परन्तु कड़ा किये गये इस्पात को गरम करनेसे वे नरम हो जाते हैं । इसलिए इस रीति का प्रयोग ऐसेही कामों के लिए किया जा सकता है जिसमें वस्तुकी कड़ाई आवश्यक नहीं है । धातुओं पर लेकर करना धातुओं पर चाहे कितनीभी पॉलिशकी जाय शओर चाहे उन्हें कितनी भी सावधानीसे उचित रंगका बनाया जाग्र वायुके आक्सिजन तथा अन्य अवयवोंके कारण वे कुछ समयमें काले पद जाते हैं या रंगमें कुछ परिवर्तन हो जाता है। केवल थोड़ेसे ही धातु ओर थोड़ेसे ही रंग ऐसे हैं जिनमें विशेष परिवर्तन नहीं होता, जैसे प्लैटिनम, या काला किया हुआ ताँबा । धातुओं की चमक और रंग को सुरक्षित रखनेकी एक सुगम रीति यह है कि उन पर लेकर कर दिया जाय | लैकर सेलुजलञायड, चमड़ा, श्रादि की तरह की वस्तुओं को उड़नशील तरल पदाथों' में घोल कर बनता है लेकर लगाने के बाद उडनशील पदाथ उड़ जाता है ओर सेलुलायड आदि की एक बहुत पतली पारदुर्शक तह वस्तु पर रह जाती है । इस्त तह के कारण वायु उस वस्तु पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकता ओर इसलिए चमक बहुत दिनों तक बनी रहती है । लैकर करनेके लिए सामान--लैकर करनेके लिए एक कोठरी अलग ही चाहिए जिसमें फश आदि पक्के हों ओर गद डड़नेका डर न हो। लैकरमें शीघ्र आग लग सकती है | इसलिए मकान लकड़ी का न हो, ओर न उप्रर्मे बेकार की वस्तुएं रखी जाय । गद से लैकर किये काम को बड़ी हानि पहुँचती है क्योंकि जब लैकर सूखता रहता है तो थिपचिपा रद्दता है और जितनी गद काम पर गिरती है सब उसी पर चिपक जाती है | इसलिए बड़े कारखानेंमें दरवाज़ों पर हवा को सेह्यां है ] छाननेके लिए विशेष यंत्र लगे रहते हैं| ऐसी अवस्थामें हवा को बलपूर्वक बिजली के पंखोंमें संचालित करके इन छुननोंमें डाला जाता है| कोठरीकी दूसरी ओर हवा को चुंस कर बाहर निकालनेके लिएभी पंखे लगे रहते हैं | कोठरीमें शीशा लगी बड़ी-अड़ी खिड़कियाँ रहें जिसमें प्रकाश की कभी न हो । हु लेकर करनेके लिए ऊट के बालके बने नरम बुरुश अरे होते हैं | छोटे कार्मों पर लेकर करनेके लिए उनको अल्युमिनियमकी जआाक्ष,की बनी टोकरी या बाल्टीमें रख- कर लेकरमें डुबा दिया जाता है। जाली जितनी खंखरी (दूर-दूर पर गे तारसे बनी) हो उतनाहदी अत्त्छा, परन्तु इतनी खेंखरीभी नद्ों कि वस्तु गिर सके। पीतल्लकी जालीसे भी काम चल सकता है, परन्तु तब जालीकी टोकरी को अधिक समय तक लेकर में न पड़े रहने देना चाहिए । बुरुशसे पोतनेके बदलते इन दिनों बड़े कार्मों,पर अक- सर स्प्रेगन से लैंकर चढ़ाया जाता है | स्प्रे-गन में से हवा की धार निकलती है । हवाके मोकेमें पड़कर लेकर अत्यंत सूच्म भींसीके रूप में निकलता दे भ्रोर वत्तु पर पहुँचकर बहुत शीघ्र सूखता है। स्प्रेगगनके साथ-साथ वायुको पंप करनेके लिए बिजलीकी मोटर या तैज्ञ-इंजन, पंप, रबड़की नली, इत्यादि भी चाहिए। हवाकों छाननेके लिए प्रबंध चाहिए। इसके अतिरिक्त एक ऐसा बम्प्त चाहिए जो सामनेसे खुला हो ओर ज़िप्तके पीछे हवा चूसनेके लिए पंखा लगा हो। ऐसे बक्सके अभावमें लेकरका उड़नशीत्त पदार्थ कार्यकर्ताके स्वास्थ्य पर थुरा प्रभाव डालता है। कामको शीघ्र सुखानेके लिए तंदूर मिक्षते हैं जिनको इच्छानुसार तापक्रम तक गरस किया जा सकता है। कुछ विशेष लैकर गरमागरम लगाये जाते हैं और उनके लिए घस्तुको गरम भी करना पड़ता है। ऐसे लैकरोंके लिए गरम मेज़ की भी आवश्यकता पड़ती है जिसको नीचेसे गरम करनेका प्रबंध रहता है । लेकर करनेकी विधि--लै कर लगामेंके पहले देख लेना चाहिए कि वस्तुएँ पूर्णतया स्वच्छ हैं। यदि वस्तुओं पर तेल आदि चिकनाहट बाल्ली वस्तुश्रोंकीप्रहायतासे पॉलिश किया गया हो तो वस्तुको चूनेके सृचम चूणसे रगड़कर कुछ उपयोगी नुसखें पूपू चिकनाहटको पूणुतया दूर कर लेना चाहिये। यदि ऐसा करना प्रसंभव हो- तो वस्तुको पेट्रोल या बेनज्ञीनमें तर किये गये कपड़ेसे साफ कर लेना चाहिए। जिन वस्तुओं को लोगों ने अगुुलियोंसे छुआ हो उन्हें भी अवश्य इस प्रकार स्वच्छ कर लेना चाहिए। बहुत गंदी वस्तुभ्रोंको उसी प्रकार स्वच्छु करना चाहिए जिम प्रकार बिजलोसे कल्नई करनेके पहले उनको स्वच्छ किया जाता है ( रीति पहले बतलायी जा चुकी है ,। पु+ने काम पर किरसे लेकर करना हो तो पहले पुराने लेकरको आवश्यकताजुसार स्पिरिट या ऐसिटोनसे, या कास्टिक सोडा, बालू आदिसे माँन कर. स्राफ कर लेना चाहिए | लेकरको बुरुशसे लगाते समय ध्यान रखना चाहिए कि तैल-रंगोंको लगाते समय जिस तरह रंगके रगड़- रगड़ कर लगाया जाता है उस्च तरह लैकर के नहीं लगाना चाहिए । लेंकरकों हलके हाथ पोत देना चाहिए, भर इस काम के फुरतीके साथ करना चाहिए, क्योंकि लेकर शीघ्र सखने लगता है। जब लैकर चिर्टाचट हो जाय तो उस पर बुरुश नहीं फेरना चाहिए। लेकरोंके नुसखे---लैकर का रवय॑ बनाना सुगम नहीं है। दरजनों तरहके लेकर होते हैं, कुछमें चपढ़ा, या वानिशों में पड़ने वाले गोंद पढ़ते हैं | कुछ वायुर्मे ही सूख जाते हैं, कुछ को सुखानेके द्विए गरम करना पड़ता है। सेलु- लोज़ से बने लेकर बहुत शीघ्र सूखते हैं। कुछ पारदर्शक होते हैं | कुछमें अ्पारदर्शक रंग पड़े रहते हैं | कुछ लेकर ऐसे होते हैँ कि ल्गानेके बाद वस्तु को तंदूरमें काफ़ी गरम करना पड़ता है| इस गरमीसे लेकरमें राफ्ायनिक परिचर्तन हो जाता है ओर तब बहुतह कड़ा, चिमडा ओर टिकाऊ परत वस्तु पर बन जाता है। बड़े कामों पर बुरुशसे लगानेके लिए जो लेकर बनाये जाते हैं वे जानबुऋ कर इस्त प्रकार बनाये जाते हैं कि अपेताकृत वे घीरे-धीरे सूर्खे। इस अ्रकार उनके लागानेमें बहुत हड़बड़ी नहीं करनी पड़ती, कुछ लेकर विशेष रूपसे इस प्रकार बनाये जाते हैं कि गरम जल, तेज़ाब या समुद्रके पानीसे खराब ने हों। कुछ लेकर पारदुर्शक होते हुएभो रंगीन दोते हैं । धूई विज्ञान, जूंत, १६४ [ भाग ६३ मोटरकारोंके रंगनेके आधुनिक रंग एक प्रकारके लैकरही हैं । नीचे कुछ लैकरोंके नुसखे दिये जाते हैं । लैकर शब्द हिंदुस्तानी लाश (लाह या चपढ़ा) से निकला है। लाख या चपड़ा को-अ्र्नेज़ी में।शेलेक या लेक कद्ते हैं.। पहले अधिकांश लेकर चपड़ेसे ही बनते थे | लैकर लकड़ी आदि पर भी क्गाया जाता है । पीतल के लिए लैकर-- (क) रतनजोत ह आउंस केसर है आउंस हलदी ३ आाउंस मेथिल्ेटेड स्पिरिट * आउंस (ख़) चपड़ा ३ भ्राउंस मेथिलेटेड स्पिरिट . ६ बोतल पहले रतनजोत, केसर, हल्दी को रिपरिट में अलग रख दिया जाता है। यह केवल रंग लानेके लिए है ।छानने के बाद इस रंग को र्पिरिट और चपड़ेके घे।ल में इच्छा- चुसारही सिलाता चाहिए । रंगलाने वाली विविध वस्तुओं की मात्राएं इच्छानुसार न्‍्यूनाधिक की जा सकती हैं । केसर के बदले अन्य वस्तुओं का प्रयोग किया जा सकता है क्योंकि केप्तर महगा द्वोता है । बहुत से बुकनी के रंग स्पिरिटर्मे घुछनशील हे।ते हैं । उनका प्रयेग अब अधिका- घिक हे। रहा दे । पुरानी वस्तुओं में खून खराब! ( ड्रैगन्स ब्लड ) ल्ञाल रंग के लिए बहुत अच्छा है। चसघ्तुतः यदि खुनखराबा का घेल्ल (स्पिरिट में) अलग और हल्दी का घे।ल्न श्रक्नय बना लिग्रा जाय ते इन दोनों के स्थृूनाधिक मात्रामें मल्नानेसे पीलेसे लेकर नारंगी ओर लाल सब रंग उत्पन्न किये जा सकते हैं । सेलुलोज़ लेकर--सेलुल्लेज़ लेकर तथा अन्य नवींन ढंग के लेकरों के बना-बनायाहो खरीदना उचित होगा क्योंकि वे पदार्थ जिनसे ये लैंकर बनते हैं भारतवर्षमें आप्ानीसे मिल्नते नहीं हैं । नमूनेके लिए स्वच्छ (पारदशंक) लेकर बनाने का चुसला दिया जाता है। नाइट्रो सेलुलाज़ (३ सेकंड चाला). १४० आउंस डामर गम (मामरहित) १२० आउंस एस्टर गम (माम रद्दवित) ३० उंस डाई ब्यूटिल थेल्लेट शी ३० आउंस पेट्रोल ४ गेंलन मेथिलेटेड स्पिरिट ४ गेलन एथिल्न ऐसिटेट 3 गेंलन ब्यूटिल ऐसिटेट २ गेल्न ब्यूटिल प्रोपियेननेट ह गेलन इसे बनानेके लिए पहले नाइट्रो सेलुलोज़ ( गन कॉटन ) को ब्यूटिल ओर पएथिल ऐसिटेटर्मे घोलना चाहिए । इसमें डासर और प्र्टर गमके धघोलों को सिलाना चाहिए जिसके बनाने की रीति नीचे बतायी जायगी । फिर धीरे-धीरे स्विरिट ब्यूटिल प्रोषियोनेट और अंतमें पेट्रोल मिज्लाना चाहिए । इन बस्तुश्रों को मित्राते समय यह आवश्यक है कि बहुत धीरे-धीरे इनको ढात्ा जाय और साथद्दी मिश्रण को ज़ोरसे चलाते रहा ज्ञाय | डामर के घोल्न के त्रिए लो डामर गम रथ पाउंड बेज़ोल 3३ पाइंट एथिल ऐसिटेट है पाइंट ऐप्िटोन.. 3 पाईट जब सब घुल्त ज्ञाय तो १३ पाइंट मेथिलेटेड स्पिरिट मिल्ला दो । इस श्रकार एक दूधिया मिश्रण बन जाता है| इसे कई दिन तक चुपचाप पड़ा रहने दो। तत्र वृवियापन नीचे बंठ जाता है। यह्द वस्तुत: डामरगमका मोम है। ऊपर से स्वच्छ घोल ले लो । इस स्वच्छ घोल के प्रत्येक गेलन से ३ पाउंड ठोस डामर रहता है। इसलिए जहाँ जहाँ पइले वाले चुसखे में । पाउंड डामर हो वहाँ ड््स घोल का ३ गैलन लेना चाद्विए । एस्टरगम के लिये लो । पएस्टर गस - २ पाउंड टूलॉल १३3 पाइंड ब्यूटिल ऐसिटेट है पाइट इस घोल़में गेलन पीछे. » पाउंड एस्टर गम रहता है। जहाँ पहले वाले चुल्लखेमें । पाउंड एस्टर गम की आवश्यकता पड़े वहाँ इस घोल्य का 3 गैलन डालना चाहिए।.... हु ' रंगीन अ्रपारदर्शक लेकर स्वच्छ लेकरमें तरह-तरहके रंग डाल कर बनाये जाते हैं जैसे टाइटेनियम आक्साइड, टिन ऑक्साइड, कालिख, प्रशियन ब्लू , आदि । संख्या ३ ] रसायन विश्ञानके संस्थापक गा रसायन विज्ञानके संस्थापक ( लेखक-- डा० सन्तप्रसाद टंडन ) रसायन विज्ञान की वेश्ञानिक नींव पढ़नेके पहले इस दिशामें जो लोग काम करते थे वे आलकीमी (8&]0]॥- 875॥8) कहलाते हैं । आज्ञकीमियों का मुख्य उद्देश्य पारस पत्थरकी खोज करना तथा उस पदाथ्थ को मालूम करना था जिसको खानेसे मनुष्य अमर ह्वो सके । अ्ररबर्मे इस प्रकारके आलकीमी बहुत थे। ये लोग अपनी प्रयोग- शाज्ञा तथा अपनी सारी बातें गुप्त रखते थे । इन आल- कीमियों के हार्थों में रसाथन विज्ञान बहुत दिनों तक रहा । उन दिनों यद्यपि वैज्ञानिक रीतिसे रसायन का अध्ययन और हस विषय की खोज न हो सको किन्तु फिर भी कई आकस्मिक खोजें इस प्रकार की हुई जिनसे रसा- यन के ज्ञानकी बृद्धि हुई ओर उसी ज्ञान के द्वारा आगे चल कर रसायन को,आलकीमियों के हाथ से छीन कर वेश्ञानिक रूप देने में रासायनिकों को सफलता प्राप्त हुई । रसायन विज्ञान की वेज्ञानिक स्थापना करने में तीन रासायनिर्कों के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं:---जोज़ेफ ब्लैक, जोज़ेफ प्रस्टिले और लावारियेष्ट । इन तीनों ने अपनी विशेष खोजें १६वीं सदी के अन्तिम ४० वर्षों में कीं । इनके पहले रसायन विज्ञान के प्रति लोगों में बड़ा मूंढग्राह प्रचक्षित था। इनके अन्वेषणों और प्रयर्नों के फल्नस्वरूप रसायन विज्ञान इस मृदढ़ ग्राह से निकल कर एक निश्चित विज्ञान के रूप में लोगों के सामने आया ओर लोगों को मालूम हुआ कि रसायन विज्ञान क्या है ओर इसके सिद्धान्त क्या हैं | यहाँ पर हम इंन्हीं तीनों के जीवन तथा कार्यों का संक्षेपर्मं उल्लेख करेंगे जिनसे हमें यह मालूम होगा कि रसायन विज्ञान की नींव किस प्रकार पड़ी । ् जोज़ेफ़ ब्लैक जोज़ेफ ब्लेक का जन्म इंगलेंड के बोडों (307099प5) नामक स्थानमें सन्‌ १७२८ ईखवीमें हुआ था । १२ वर्ष की अवस्था में ये बेलफास्ट (386)- 4986) के एक स्कूलमें पढ़नेके लिए भरती हुये। इस विद्याल्यमें ६ वर्ष पढ़नेके बाद यह ग्लासगो के विद्ववन- विद्यालय में ऊची शिक्षा प्राप्त करने के लिए सन्‌ १७४ ६में भरती हुये । श्रपने अ्रध्ययनमें यह सदा दत्तचित रहे । ग्लासगोमें इनकी रुचि प्राकृतिक विज्ञान की भर हुई ओर इन्होंने डाक्टरी का अश्रध्ययन डा० कूलेन के शिष्यत्व में प्रारर्भ किया । डा० कूलेन के रसायन सम्बन्धी विचार बहुत सुल्नक्े हुये थे ओर वह इसे अपने शिष्यों को एक विज्ञानके रूपमें समझाया करते थे । डाक़्टरी के लिए रसायन विज्ञान का कितना महत्व है यह बात ब्लैक ने डा० कूलेन के व्याख्यानंसे जानी ओर तभीसे वह इस विपयके अध्ययन की ओर विशेष रूपसे आकर्षित हुये । ब्लेक के कार्य करने का ढंग बड़ा अच्छा था। वह जिस कार्य को शुरू करते थे उसे नियमपूवंक करते थे ओर तब तक उसमें घेर तथा संलग्नता से लगे रहते थे जब तक वह पूरा नहीं हो जाता था । किसी रासायनिक खोज को प्रारम्भ करनेके बाद वह तब तक उसे नहीं छोड़ते थे जब तक उस्रका पूरा फल्न उन्हें नहीं ज्ञात हो जाता था। इसी विशेष गुणके कारण उलैेक अपने जीवनमें अच्छी खोजें सफल्नतापूवंक कर सके । सन्‌ १७९० में ब्लेक डाक्टरी का अध्ययन पुरा करने के लिए. एडिनबरा विश्वविद्याक्षय में पहुँचे । यहाँ भी उनके गुरु एक ऐसे सज्जन थे जो विज्ञानके महत्व को समझते थे | इन्हीं दिनों डाक्टरों का विशेष ध्यान चूना रौर चुने के पानीके उन गुणों को परीक्षामें लगा हुआ था जिसके कारण ये पदार्थ पथरी रोगमें लाभदायक सिद्ध होते थे। यह मालूम हुआ किवे खारी दवायें जो पथरी रोगर्मे लाभदायक थीं क्ञारीय (8 ]|78]70) थीं और वे चूने तथा अन्य किसी पदार्थके सहयोगसे बनती थीं। उन दिनों लोगों का ऐसा विश्वास था कि जिस समय चूनेका पत्थर (],॥7800॥6) आग पर चूना बनानेके लिए फूंका जाता दे उस समय चूना अभिसे क्षारीय गुण प्राप्त करता है । जब चूना सोडियम कार्बोनेट या पौदेसियम कार्बोनेट के साथ गरम किया जाता है तब चूना इन दोनों पदार्थों को चारीय पदार्थोर्मे बदुल देता दै। यह समझा जाता था कि चुना अस्निसे क्षारीय गुण प्राप्त करता है और उस भ््द गुण को सोडियम कार्बोनेट ओर पोटैसियम कार्बोनेट को प्रदान कर उन्हें क्षारीय कर देता है | ब्लैकने इस “ताप तत्त्त' के रूप का, जो चूने को अभि से प्राप्त होता है, पता लगाने का निश्चय किया | इस हेतु जब उन्होंने चनेके पत्थर को फूका तब उन्हें मालूम हुआ कि चनेके प्रत्थर का भार चनाःबनने पर घट जाता है। भारकी कक + बक इस कमी को उन्होंने तोल कर मालूम किया । इसके बाद : उन्होंने निश्चित तोलके -चुनेके पत्थर को निश्चित भारके नमकके तेज़ाबम घोला ओर रासायनिक क्रिया समाप्त होने के बाद सबको पुनः तोला । यहाँ भी तोलमें कमी हुई इस -कमी को उच्त कमीसे जो चनेके पत्थर को फूकने से हुई थी मिज्ञान किया ओर मालूम किया कि दोनों क्रियाश्रोंमें समान भारके चनेके पध्थर को लेनेसे भारमें सामान कमी होती है । इसी प्रकार मेगनीस्रियम कार्बोनेठ्के साथभी प्रयोग किये ओर पहले की भाँति ही फल प्राप्त हुये । इन फलोंके आधारपर ब्लैक ने , चनेके पत्थर तथा मैगनीखियम काबोनेट पर ताप का क्‍या प्रभाव पड़ता है पूरी ब्ञोर से मालूम किया | सन्‌ १७४४ में ब्लैक ने एक निबन्ध 'मिैगनीसिया, चना तथा अन्य ज्वारीय पदार्थ' के नाम खे अपनी एम० डी. की उपाधि प्राप्त करनेके लिए दिया। एम० डी. की उपाधि उन्हें मिल गई । इस निबन्धमें उन्होंने अपने प्रयोगों के जो फल दिये हैं वे रासायनिक प्रतिक्रिया के तोल कर फल मालम करनेके सम्भवत: प्रथम प्रयोग हैं । ब्लेक ने मेंगनीसियम सलफेट और पोटैसियम कार्बोनेट के घोलों के सम्मिलनसे मेंगनीसियम का्बोनेंट अपने प्रयोगों के लिए प्राप क्यि । उन्होंने यह दिखलाया कि जब मैगनीधियम काबोनेट गरम किया जाता है तो निम्न क्रियाय होती हैं: -- (१) मैगनीसियम काबनिट का भार घट जाता है। १२ भाग गरम करने से & भाग रह जाता है। (२) इस गरम किये हुये मैगनीसियम का्बोनिट के घोल को चूनेके घोलमें डालनेसे चूने का अवक्षेप नहीं प्राप्त होता जैसा साधारण मेगनीसियम कार्बानेट से होता है । इस प्रयोगेंसे ब्लेक ने यह निष्कष निकाला कि .. मैगनीसियम कार्बोनेटको गरम करनेसे इसमें से एक गैल विज्ञानं, जूँत, १६४, _ भाग ६१ न निकलती है जिसके कारण भारमें कमी आजाती है। मेंगनी सियम कार्बनिटको किसी अग्लके सम्पर्कमें लानेसे भी यही क्रिया होतो है और गेस निकलती है। ब्लैक ने अनुमान किया कि सम्भवतः ये दोनों गेसें ज्ञो मैगनी- स्ियिस का्बोनेटको गरम करनेसे तथा उसे किप्ली अम्लमें घोलनेसे प्राप्त होती हैं एक ही हैं। इस अनुमानकी ष्िटके ल्लिए उन्होंने निम्न प्रयोग किया । १२० ग्रेंन मैगनीलियम काबबनेटको खूब गरम किया | जब सारी गेस निकत्न गई तब बचे हुए पदार्थकी तोल की। यह ७० ग्रेन था। इसे गन्धकके तेज़ाबके हल्के घोलमें घोल दिया और फिर' इस घोलमें पोटैसियम कार्बोनेटका घोल मिल्ञाया। जो अवक्षेप आया उसे छान कर और सुखाकर तोला | इसका भार ल्लंगभग १२० प्रेन था। इसके भुणोंकी परीक्षा करने पर यह मालूस हुआ कि यह अवक्षेप शुद्ध ,मेगनीसियम' कार्बोनेद था। इस श्रयोगसे ब्लेकके, उस विचारकी, कि मैगनीसियम कार्बोनेटको गरम करने या किसी अस्लमें धोलनेसे एक ही'. प्रकारकी गैस निकलती है, पुष्टि हुई क्‍योंकि इस विच[रके आधार पर ऊपरके प्रयोगमें जो निष्कर्ष आने चाहिए वे ही आये । बादमें ब्लेक ने मैगनीसियम कार्बोनेटको गरम कर इस गेस्लकों एकत्र भी किया ओर इसके गुणणोंकी परीक्षा की । उल्होंने यह भी सिद्ध किया कि जो गैस हम अपनी सांससे बाहर निक/लदे हैं तथा जो अंगूर से शरत्र बनाते समय बाहर निकालती है वद मैगनीसियम कार्बोनेट वाली ही गैस है। ब्लेक ने पुनः यह सिद्ध किया कि चूनेके पत्थरको गरम करनेसे जो गैस निकलती है वह भी यही गैस है और इस क्रियामें जो रायायनिक परिवर्तन होता है वह भी वही है जो मैगनीसियम कार्बोनेटको गरम करने से होता है | आल्रकोमियोंकी भाँति ब्लेक ने भी यह स्वीकार किया कि प्रकृतिमें बराबर परिवतंन होते रहते हैं, किन्तु साथ ही ब्लेक ने बड़े महत्वकी बात यह बतल्ाई कि प्रकृतिसें होने वाले परिवतन सदा किसी नियमके अनुसार होते हैं ओर ठीक प्रयोगों द्वारा इन नियमोंकी जानकारी नुष्य कर सकता है। संज्या ३ ] रसायन विश्ञानके संस्थापक 9. . पूह ब्लेकका ऊपर बतलाया हुआ कार्य इस बातका नमूना है कि वैज्ञानिक खोजें किस भाँति करनी चाहिए। उनकी प्रणाली इसः प्रकार थी । कोई वैज्ञानिक निरीक्षण उन्होंने किया | ,फिर उस निरीक्षणके स्वरूपका ज्ञान उन्होंने प्रयोगों द्वारा प्राप्त किया | इस प्रक़ार जो निष्कर्ष निकला उसकेआधार पर एक पिद्धान्त रखा जिसकी सत्यता की जाँच उन्होंने बाद में अन्य प्रयोगों द्वारा भी मालूम की | यही वास्तवमें खोज करनेकी वेज्ञानिक प्रणाली है । इसी रीतिका अनुकरण करनेके कारण ब्लैक ने अपनी खोजोंके द्वारा रसायन विद्याको एक विज्ञानका स्वरूप प्रदान किया । मेगनीसिया ओर चूने पर ब्लैकके निबन्धके छुपनेके थोड़े दिनों उपरॉन्त ग्लासगो विश्वविद्यालयमें एक रसायन के अध्यापकका स्थान रिक्त हुआ ओर ब्लैक वहाँ नियुक्त हुये । ब्लेक .रसायन तथा डाक्टरी विषय पर वहाँ व्याख्यान देते थे। ब्लेक अपने विद्यार्थियोंकों बड़े मनसे पढ़ाते थे । उन्होंने अपने विद्यार्थियोंको रलायनकी ' नवोन बातें तथा खोज करनेकी नवीन वेज्ञानिक विधियाँ बतला कर उनकी रुचि रसायन विज्ञानकी ओर आकषित कर रसायन की बड़ी सेवाकी | अध्यापनके कार्यमें अधिक संलग्न रहनेके कारण उनका खोज सम्बन्धी कार्य इन दिनों अधिक नहीं हो स्का । सन्‌ १६५६ से १०६३ तक इलेक ताप ओर शीत! पर अपने प्रयोग करते रहे । इन प्रयोगेके आधार पर उन्होंने गोसके द्रवित होने तथा तरत्न पदार्थोके वाष्पीकरण होनेमें ताप सम्बन्धी जो परिवतन होते हैं उन्हें मालूम क्रिया । यदि एक टुकड़ा लकड़ीका, एक काँचका ओर एक बरफका एक ही सन्दूकमें रख कर ठंढा किया जाय तो ह्ाथमें उठाने पर काँच लकड़ीसे अधिक ठंढा मालूम होगा बरफ काँच तथा लकड़ी दोनोंसे अधिक । ब्लैक के पहले इसकी व्याख्या इस प्रकार की जाती थी कि लकड़ीसे हाथको थोड़ी ठंढक मिलती है, काँचसे कुछ अधिक और बरफसे इन दोनोंसे अधिक । उ्लेक ने इसका वेज्ञानिक कारण मालूम किया | उन्होंने बतलाया कि वाश्तवरमें ये पदाथ हाथसे गरमी ख़ींचते हैं जिसके कारण हाथे ठंढा हो जाता है। लकड़ी हाथसे कम 'गरमी लेती है, कॉँच उससे अधिक ओर बरफ इन दोनों से अ्रधिक | ;, : ब्लैक ने अनुमान किया कि जो ताप बरफको द्ववित करंनेमें खच होता है वह उस बरफसे प्राप्त हुए पानीमें - अवश्य -मोजूद रहता होगा। उन्होंने प्रयोग द्वारा यह मालूम किवा कि एक पोंड बरफको केवल द्ववित्र करनेमें ( जिसमें तापक्रम बिल्कुल न बढ़े ) जितना ताप लगता 'है बह उतने ताप के बराबर है जो एक पोंड पानीको १००१" फ तक गरम करने में खर्च होता है। इस तांष को जो पदार्थ को केवल द्ववित करनेमें लगता है और' : जिससे तापक्रम में कोई अन्तर नहीं आता, ब्लैक ने गुप्त ताप, ( ,80676 ॥९४४ ) नाम दियां। 'गुप्त ताप ( ,968770 )686 ) सम्बन्धी अपने प्रयोगोका पूरा विवरण उन्होंने सन्‌ १७६२ में ग्लासगो विश्वविद्यालय की अंतरंग सभा के सामने व्याख्यान के रूप में दिया था। कुछ, दिनोंके बाद अपने शिष्य जेम्स वाद ( थं8॥788 ५४४०७४+ ) के साथ मिल कर ब्लैक ने वराष्पीकरणका गुप्त ताप भी मालूम किया । उलेक ने इन प्रयोगोके आधार पर लोगोंको बतल्लाया कि वायुमंडलका तापक्रम नियंत्रित रखनेमें पानीके गुप्त वापका एक विशेष स्थान है । सन्‌ १७६६में ब्लेक एडिनबरा टिश्वविद्यालय में रसायनके प्रोफेसर हुये ओर झूृत्यु, पर्यन्त वह यहीं रहे । यहाँ उन्होंने प्रधानतया अपना ध्यान विद्यार्थियोंकों पढ़ाने तथा रसायनमें उन्हें रुचि दिल्लानेमें लगाया । ब्लैक अपने व्याख्यानकों तैयार करनेमें विशेष परिश्रम करते थे जिससे उनके विद्यार्थी रसायन विज्ञाननके सिद्धान्तोंको भली भाँति समझ ले । ब्लेक आजीवन ब्रह्मचारी रहे; उन्होंने अपना विवाह नहीं किया । शरीरसे यह कभी बहुत स्वस्थ नहीं रहे । अपने स्वास्थ्यकों ठीक रखनेके लिए अन्त तक वह प्रतिदिन नियमपूर्वक थोड़ा व्यायाम करते रहे । भोजन भी उनका सदा स्रादा रहा। इसी कारण स्वास्थ्य बहुत अच्छा न रहने पर भी वह काफ़ी आयु. तक जीवित रहे । ब्लैककी रूव्यु २६ नवस्बर सन्‌ ३७६ &<में शाहिति पूर्वक हुई सत्युके समय वह मेज़के सामने भोजनके लिए बेड/ ६० विश्ञन, जुन, १६४५४ हुये थे । जिस समय मृत्यु हुई न ठो उनके सं इसे फेन आदि निकला श्रोर न मुह पर कधष्टके कोई चिन्ह प्रकट हुये | बड़ी शान्तिपूर्वक वह झूत्युकी गोदमें सो गये । ब्लेक गंभीर ओर सहिष्णु स्वभावके थे। दूसरोके विचारों के लिए उनके हृदय में सदा स्थान रहता था । प्रत्येक प्रकारके लोगोंके बीचमें वह आसानीसे अपनेको मिला लेते थे। गंभीर होते हुये भी वह अपने मित्रोंके साथ हँसी मजाकमें पूरा हिस्सा लेते थे; अन्य वैज्ञानिकों की भाँति वह शुष्क नहीं थे। प्रयोगशालासे निकलनेके बाद वह अपने मित्रोंके साथ भिन्न भिन्न विषयोंकी बातें कर मन बहलाव करते थे । उनके मिन्रेमिं सभी विषयोंके विद्वान थे। प्रसिद्ध श्रथशाखज्ञ ऐेडम स्मिथ ( 2.0 8॥7) 8777+$ ) और विद्वान दाशनिक डेविड ह्ाम ])08ए0 [0776 ) ब्लैकके खास मित्रोमें से थे। झपने इन मित्रेके साथ ब्लेक का जीवन सदा सुखमय रहा । ब्लैक एक आदर्श अध्यापक थे। अपने आदश जीवन तथा अपने व्याख्यानों से उन्होंने अपने शिष्योको बड़ा प्रभावित किया । उनके विद्यार्थी उन्हें अपना सच्चा अभिभावक मानते थे ओर उनसे बड़ा प्रेम करते थे । व्यावहारिक जीवनके अ्रतिरिक्त विज्ञानके क्षेत्रमे भी अपने समय उनका बहुत ऊँचा स्थान था। विज्ञान सम्बन्धी परामश करने वैज्ञानिक उनके पास आया करते थे । अध्यापनकी दृष्टिसे भी ब्लेक एक सफल अध्यापक रहे । अपने ध्याख्यानेंको प्रयोगों द्वारा वह अच्छी प्रकार अपने विद्याथियोंकों समभाते थे । | वह सदा इस बातका ध्यान रखते थे कि जो बात वह कहना चाहते हैं क्रम के अनुसार आये ओर उसे सममभनेमें विद्या्थियोंकों कोई कठिनाई न अनुभव हो। व्यथंकी बात उनके व्याख्यान कभी नहीं आने पाती थी । ब्लैकके पहले लोगोंका खोज करनेका तरीका बिल्कुल गुलत था जिसके कारण वे गृल्लत तथ्य पर पहुँचते थे । वे ज्ञोग कोई गलत बात लेकर उसके अनुसार कोई गलत सिद्धान्त निर्धारित करते थे ओर फिर उसे सत्य सिद्ध करनेके ल्लिए बेढंगे तोरसे प्रयोग कर निष्कर्षोका उल्टा अर्थ लगाया करते थे। इस म्रकारके कार्यसे लाभ होनेके ॥ भाग ६१ बजाय हानि ही अधिक हुईं | ब्लैक ने श्रपने कार्य द्वारा लोगोंको खोज करनेकी वैज्ञानिक रीति बतलाई । उन्हेंने बतलाया कि पहले प्रयोग द्वारा फिसी सत्य निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए और फिर उस्रीके आधार पर कोई सिद्धान्त रखता चाहिए। पुन; अन्य प्रयोगों द्वारा उम्र सिद्धान्तकी सत्यताकी जाँच करनी चाहिए। ओर यदि वह दीक निकक्ने तभी मानना चाहिए । ब्लैक ने सदा इस बात पर ज़ोर दिया कि कोई भी सिद्धान्त तब तक सत्य न समझना चाहिए जब तक वह प्रयोगों हारा ठीक न सिद्ध किया जा सके । खोज करनेकी इस वेज्ञानिक विधिका अनुसरण करनेके कारण ही उन्होंने स्वयं तथा उनके अनुगामियों ने रसायनके जानकी बड़ी वृद्धि की । पदार्थोके जलने ( ()0॥77005+॥0॥ ) के सम्बन्ध में ढ्लेक ने जो विचार प्रकट किये हैं उनसे | मालूम होता है कि उनके ये विचार कितने ठीक और सत्य थे | ब्लेकर्म एक श्रोर श्रच्छा गुण था। यदि उन्हें कोई नया विचार अधिक सत्य समझू पड़ता था। तो अपने पुराने विचारको छोड़ कर उस नये विचारको माननेमें उन्हें कोई हिचक नहीं होती थी। लावाशिये की खोजोंके बाद जब फ्लोजिस्टंन ( 7?]0]8007 ) स्िद्धान्तकी सत्यताममें लोग सन्देह करने लगे तब ब्लेक ने इस विषयकी पूरी छाम बीनकी ओर जब उन्हें यह विश्वास होगया कि अधिक बातें फ्लो जिस्टन सिद्धान्तके बिरुद्ध हैं तथा लावाशियेके विचारों के पक्षमें हैं तो उन्हें फ्लोजिस्टन सिद्धान्तकों छोड़ कर लावाशियेके मतको माननेमें देर नहीं क्गी-। ब्लेक यद्यपि कोई बहुत बढ़े आविष्कारक नहीं थे फिर भी वह एक सफल्ल कार्य करने वाले थे । उन्होंने जो कुछ भी किया उसे सफलतापूर्वक किया | उनके रसायन सम्बन्धी बहुतसे कान भविष्यमें आने वाले रासायनिर्कोके लिये आधार स्वरूप हुये और वे लोग भ्रधिक महत्वकी खोजें कर सके | इस दृष्टिसे ब्लेकके कार्यकी महत्ता श्रत्येक रासायनिकको स्वीकार करनी पड़ती है | उनकी खोजेनि रसायनको एक वेज्ञानिक नींव प्रदानकी जिसपर भविष्यमें रसायनकी एक सुदृढ़ इमारत खड़ी करनेमें ;वैज्ञानि्कोको सफलता प्राप्त हुईं । ( अपूर्ण ) संख्या ३ ] पेनीसिलिन लेखक - श्री ० हरीप्रसाद्‌ शर्मा, एम० एस-सी ० इस युद्ध की संभवतः सबसे आश्चयंजनक चिकित्सा संबंधी खोज पेनीसिलिन है | वैसे तो इसकी खोज का श्रेय लंदन के एक वैज्ञानिक फ्लेमिंग ([7]977॥2) को है जिसने सबसे प्रथम १६२६ ई०में इस पदार्थ की घोषणा की, परन्तु पेनीसिल्लिन को व्यावहारिक रूपमें लानेका श्रेय आक्सफो्डके फ़्लोरी (7]07.99) एवं उनके सहायक वैज्ञानिकों को है जिन्होंने 4६४० में इस महत्वपूर्ण कार्य को पूर्ण किया । यह कम आश्चय की बात नहीं कि जीवाणु (380॥879) जहाँ अनेक रोगों का प्रसार करते हैं वहाँ मानवसमाज की सेवा में भी उनका हाथ कम नहीं होता। पेनीसिलिनभी एक प्रकारसे उन्हीं की देन है । पेनीसिलिनकी प्रथम तय्यारी में शुद्ध वस्तु का परि- माण १-२ प्रतिशतसे अधिक नहीं था। आक्सफोर्ड के वैज्ञानिकोंने इस औषधिके परिसाण बढ़ाने ओर शुद्धि करने के नवीन उपाय निकाले । अटलांटिक महासागर के दूसरी झोर अमेरिका में भी इस खोज की प्रगति धीमी नहीं रही और प्रचुर मात्रा में उत्पादन करने के उपाय वहींसे निकले । प्रारम्भमे ख़रगोशके साथ प्रयोग करने पर तापबृद्धि और मनुष्य शरौरमें इंजेक्शन देने पर उल्टी, सर दर्द, तथा अन्य ऐसेही लक्षण दिखाई पड़े, यद्यपि बाद की रिपोर्ट इसकी विरोधक हैं । पेनीसिलिन एक तेज अस्ल है। ईथर (6+$)67) एसीटोन (8००७(६०0॥6), जत्न इत्यादिमं यह घुलता दे | यह श्रग्ल जल शोषक है ओर जल की न्यूनतम मात्राभी इसका प्रभाव अ्रति क्षण कर देती है। पूर्णतया शुष्क होने परही यह ठहर सकता है। केलसियम ((/8]0[प0॥7) और सोडियम (800]077) के लव॒णके रूपमें इसका व्यवहार होता दे । इसके सूत्र (70॥70| 8) के बारे में मतभेद हैं। कुछ इसे (), ,छ, ५४५७ (अथवा , (/, ५ 4 प्‌ २९), लि ५ (2) ओर कुछ (2८ | 7047 (अथवा 0, मं 04 ॥, लि ५0) ठीक मानते हैं | पेनीसिलिन ६१ सलफोनामाइड ओषधियाकी तुलनामें इसका एक ख़ास गुण यह है कि इसका प्रयोग मवाद, रक्त और सिरम (8670॥7) की उपस्थितिमें चमत्कारिक प्रभाव दिखाता है जहाँ अन्य औषधियाँ बेकार साबित हो जाती हैं। उत्तरी अफरीका तथा इटालियन रणक्षेत्रेंमिं इसके प्रयोगसे आशातीत सफलता प्राप्त हुई है। परन्तु इसका प्रयोग मुख द्वारा न किये जा सकनेके कारण कुछ अड़्चन उप- स्थित होती है। सलफेथायोजोल (8५|9॥00020]6) इत्यादि ओषधियों से यह कहीं लाभदायक है। परन्तु हुर्भाग्यवश क्षय, प्लेग, इन्फ्लूऐज़ा में इसका प्रयोग सफल नहीं प्रतीत होता । इसका प्रभाव अन्य ओषधियोंसि कहीं स्थायी होता है| रोगासुओं पर इसका दोहरा प्रभाव पढ़ता है। प्रथम तो उनकी चृद्धि में रोक द्वितीय स्वयं उन पर घातक प्रभाव । शरीर में ठीक इसका प्रभाव क्या होता है यह निश्चित नहीं है । सुज्ञाक में इक्षके प्रयोग्से गहरी सफलता पाई गई है | यद्यपि गर्मो (59]))79) में इसका प्रभाव पूर्ण रूप से जाँचा न जा सका तो भी इसमें सन्देह|नहीं कि पेतीसिलन का मानव समामके इन वीभश्स रोगों को दूर करने में एक बढ़ा हाथ रहेगा | कुनैन और पेनीसिलिन झभी तक हमें प्रकृति द्वारा ही प्राप्त होते रहे हैं परन्तु वह समय दवुर नहीं जब दोनोंही वैज्ञानिक को रसायनशालार्में बनाये जा सकेंगे । कुनैस के बननेकी ख़बरें तो अमेरिका से आही चुकी हैं । भारतमें इसके प्रयोग की सबसे बढ़ी अड्चन इसको रेफरीजरेटरमें रखने की है श्रौर जब तक इसका कोइ अन्य हल नहीं मिलता तब तक गाँव इत्यादि में इसके लाभसे वंचित रहना पड़ेगा। प्रयोग करनेके प्रायः २४ घंटे पहले यह, तथ्यार की जांती है, परन्तु कुछ ढाक्टरों का कहना है कि बर्फ के बक्सों में यह एक मास तक सुरक्षित रखी जा सकती है । पेनी सिलिन अभी तो मेहगी है । परन्तु इसके स्थान पर॒ हाइफोलिन ( ्ि99॥0] ), चीवीसिलिन (५४४०४) इत्यादि तय्यार की जा रही हैं। प्रारम्भकालके दो वर्षों में इसका उत्पादन शून्यसे ९०० 5६२ हक) विज्ञान, जुन, १९६४५ पों० पहुँच गया है और अब तो इस संख्या का भी कई गुना योग पहुँचता है। यद्यपि इसकी उत्पादन कला मित्र राष्ट्रोने गुप्त रखने की चेष्ट। की परन्तु यदि रिपोर्ट सत्य हैं तो जर्म॑नीमें भी इसके प्रयोग दवोनेके. समाचार हैं | तीन चार वर्षों'में ही इसकी इतनी विख्याति का फैल जाना इसके गुणों को देखते कुछ आइचयजनक नहीं है | पेनीसिलिनका अधिक मात्रामें उत्पादन चिकित्सा सम्बन्धी अन्वेषण कार्पोरेशनकी सफलता लन्‍्दन, १७ मई १६४२ में बृटेन की सबसे अधिक आवश्यक पाँच रासायनिक कंपनियोंने अपने वैज्ञानिक अन्वेषण विभागों को संगठित किया जिसका नाम चिकित्सा संबंधी अन्वेषण कार्पोरेशन रखा गया है.। यह कार्परेशन, ओषध सम्बन्धी अन्वेषण कोंसिल की मात इस्पीरियल कालेज आफ साइन्स एंड टेक्नालोजीके वैज्ञा- निक कार्यकर्तादुलके साथ कार्य करता है तथा बटेन ओर संयुक्त राष्ट्रके वेश्ञनिकसे भी निकट संबंध रखता है । यद्द कार्य, सर्वप्रथम बड़े पैमाने पर पेनीौसिलिन का उत्पादन करनेके लिये किया गया था और उसमें पूर्ण सफलता श्प्त हुई | पिछले वर्षकी अपेक्षा पेनीसिलिनकी उत्पत्ति कई गुना अधिक बढ़ गयी है तथा अब यह सम्भव हो गया है कि इसको नागरिक केन्‍्द्रोमे वितरण करनेके लिए तथा अस्पतालॉकी मार्फत बांरनेके लिए स्वास्थ्य-विभाग को दिया जा सके। पेनीसिलिन की अधिक मात्रा अब भी युद्ध कार्ये- कर्तताश्रोंके ज्िप रखी गयी है परन्तु आशा की जाती है कि वह समय शीघ्र ही आ रहा है जब पेनीसिलिन स्वतंत्रता- पूवंक सब स्थानों पर प्राप्त हो सकेगी | १६४४ में पेनी- घ्रिलिन की ६४० प्रतिशत उत्पत्ति, बृटेनमें चिकित्सा संबंधी अन्वेषण कार्पोरेशनकी सदस्य कम्पनियों द्वाराही की गयी । ., + [भाग ६१ पत्थरमें पाये गये जीवोंके अवशेष [ श्री० मदनलाल जायसवाल, बी० एस-सौ० ] भूमिके भीतर पत्थरोंकी परतों में दबी हुई वस्तुएं पाई गई हैं जो देखने में पेढ़-पौधे यां जानवरों की इद्डियों से मिलती-जुलती हैं। ये पुरातन कालंके जीव-जन्तुओं ओर पेड़-पौधोंके श्रवशेष हैं, जे भूमि में दब गये थे। इन्हींको शि्नाजात ( ["088 ) कहते हैं । इन जीव. जन्तुके अ्रवशेषोंके मिलनेसे' भूगर्भशाख की विशेष उन्नति हुई है। इन अवशे्षों की उपस्थिति तो मनुष्यकेा बहुत पहले ही ज्ञात हो गई थी, परन्तु इनका वास्तविक अर्थ बहुत काल पीछे ज्ञात हुआ। - आरम्भ में लोग यह नहीं जानते थे कि शिन्ाजात परातन कालके जीव-जन्तुओंके अवशेप हैं। उनका यह , विश्वास था कि यह सब प्रकृति देविके खेल हैं जे कि छोटे-से-छोटे पत्थरोके. बनानेमें भी श्रपनी कार्य-कुशलता दिखल।ती है । जब लोगोंको इस बातका श्राभास मिला कि ये जीवोंके अवशेष हैं तब बहुत वाद-विवाद हुआ और . इसी वाद-विवादसे भूगर्भ-शासत्र की नोंव पड़ी । शिलाजात जीवों के अ्रवशेष हैं शिक्नाजात और जानवरोंके विभिन्न भागकी हड्डियों में समानता बहुतों ने देखी, परन्तु किसीके पूर्ण रूपसे यह विश्वास करने का साहस नहीं-हुआ कि शित्ञाजात वस्तुतः प्राचीन हड्डियाँ ही हैं। इस समय जे शिलाजात मिले थे वे छोटे और हूटे-फूटे थे । यह होते हुए भी पूर्वोक्त चाद- विवाद उठ खड़ा हुआ कि शिलाजात प्रकृतिके खिलवाड़ हैं अथवा जन्तुओ्ंके अ्रवशेष ? स्टेनो ( १६६६ ), जिसने ही भूगर्भ शाखकी नींव डाली, शिलाजातों को वास्तविक जन्तुओंका अवशेष मानता था। उसने शार्क मछलीका ' जबड़ा देखा था ओर उसके दाँतों का विशेष रूपसे अध्ययन किया था । उसका कहना था कि ये प्रकृतिके सबसे तीच्षण 'शत्र हैं । बादमें जब समुद्वेसे दूर पत्थरमें पायी गयी दर्जनों ' दंत-पंक्तियाँ उसे मिल्लीं तब उसे काई संदेह नही रहा कि ये शाकके दाँत हैं। ये तेज, तिकोनी वस्तुएँ बिलकुल उन बना: सब. 80-२६०५४२३८०५२:४-मटिकेता्: 25 :स 0004-०५ ४ &अबंपन्‍ ० किरवरावक #020%त:72:% 7: अत: सैखूयां है | दाँतोंसे मिलती थीं जिन्हें उसने शाकके जबड़े में देखा था । उसने तक किया कि जैसे आदमी का हाथ बिना आदमीके नहीं हो सकता इसी प्रकार शार्क सछुली के दाँत भी बिना शाक मछलीके नहीं आ सकते । इससे यह सिद्ध हो गया कि शिक्षाजात वस्तुतः ज्तुओंके अवशेष हैं। परन्तु इप्से अधिक महत्वपूर्ण तो यह बात थी कि शिलाजात परत पड़े हुये चट्टानों में पाये जाते हैं ।. इन चट्टानों की बनावट ऐसी है कि देखने में जान पढ़ता है किंपतध्थर की परतें एकके ऊपर एक रक्‍्खी हैं। जिन चट्टानों में शि्ञाजात पाये जाते हैं उनकी परतें अधिकतर समतल हैं | इससे स्टेनोके विश्वास हो गया कि ये चद्दानें पानीके श्रन्द्र बनी होंगी ओर जब एक परत जम गयी होगी तब दूसरो परत उसके ऊपर बनी होगी । यह सीधी-लादी बात डेढ़ शताबिद बाद भूगर्भ शाख्रके मुख़्य सिद्धान्तोमें गिनी जाने कगी | परन्तु प्रत्येक नये नि्णंय पर नये प्रश्न उठ खड़े होते हैं। शिज्नाज़ात और परत पड़े हुए चद्दानों की बनावट की खोजके बाद यह प्रश्न उठा कि ये चद्टानें, जेः:इनके अन्दर पाये शिल्लाजातके अनुसार पानीके भीतर होनी चाहिये ज्क्क थीं, पानीसे बाहर इतनी ऊँचे पर कैसे पहुँचीं? दूसरे शब्देमिं, शाकके दाँत शाक-मछलीके जबड़े में होते हैं, . ; इसलिये इन्हें पानी में रहना चाहिये था न कि ऊंचे पहाड़ों की चट्टानों में | इस प्रश्न के तीन उत्तर मिले। एक तो उनसे जो भूगर्भ के इस नये विज्ञान में बिलकुल विद्ववास नहीं करते थे | उनका कहना था कि ऐसी असंभव बातों की खोजसे , . भला क्‍या परिणाम निकत्ष सकता है| दूसरा उनसे जिन्हें थह प्रश्त ,बहुत सरल लगता था। उनका कहना था कि बाद में भुचालसे पानीके अन्दर की भूमि ऊपर भरा गईं होगी--यह मत आधुनिक भूगर्भ शाखले अधिक भिन्न नहीं है | तीसरा उत्तर था धर्म ग्रंथ । बाद बाइबिल में जे! बाढ़की कल्पना की गई है उससे इन प्रश्नेका उत्तर मिल्ल जाता है। पृथ्वी पर इतने मरे हुए जानवरों की उपस्थिति और सूखी भूमि पर परतदार चट्टानों का होना, जे कि स्टेने|के अनुसार पानीके भीतर पेत्थरमें पाये गये जीवोकि श्रवशेष ३ बनी होंगी, ये दोनों समस्याएं बाढ़ की 'कल्पनासे हल हो जाती हैं, क्योंकि बाइबिल में लिखा है कि पानी ऊँचे - पहाड़से भी ऊँचा. बढ़ गया था और सब जानवर मर गये थे, केवल. वही बचे जे। हजरत नूर ( नोभ्रा ) की नाव में थे | _ थदि बाढ़ की कल्पना का समथन बाइबिल्न ने न्भी किया होता तो भी कई भूगर्भ शाखवेत्ता इसका पत्त लेते । यही सब से स्पष्ट सिद्धांत था जो शिल्नाजातकी उपस्थिति का कारणभी बतक्ञाता था ओर बड़े-इड़े भूचालों की कल्पना भी नहीं करता था । फिर धर्मग्रंथ होने के कारण बाइबिल के विषयमें तक नहीं किया जा सकता, इसलिये लोगों ने इस पर ध्यान नहीं दिया कि इतनी बड़ी बाढ़का आना वस्तुतः असंभव है या नहीं । एक के ऊपर एक पड़ी दो परतोंमें बड़ी विभिन्नता देख कर धौरे-धीरे लोगों का यह विचार हुआ कि एकह्दी बाढ़के कारण सब परत न बने होंगे। ध्यान देने पर उन्हें यह मालूम हुआ्ला कि एक बात पर तो उन्होंने एक शताबिदि से विचार द्वी नहीं किया था । भ्रत्येक परत के जम जाने के बाद उसके ऊपर की परत जमी होगी, इसक्षिये उनका काल भिन्न-भिन्न है, ओर जब इन परतों की मोटाई बहुत अधिक है। जाती है, जैसे कालरेडो की घाटी में है, तब ऊपर ओर नीचे की परतों के बननेके €मय में बहुत अंतर रहा होगा । इसके अतिरिक्त, यह भी देखा गया है कि परतें कभी मुड्टी हुई ओर कभी तिरछी या खड़ी रहती हैं भर कभी-कभी ऊपर चल कर समतल चट्टानों तक पहुँच कर समाप्त हो जाती हैं। हले तो यह समझा गया कि यह मान लेने से कि , पृथ्वी पर कई प्रलयकारी बाढ़ें आई होंगी, सब कठिनाइयाँ दूर हो जायेंगी। परंतु आवश्यक बाढ़ों की संख्या धीरे- धीरे बढ़ती ही राई, और अंतर्में पेतालीसवें बाढ़के बाद लोगों ने समक लिया कि यह संख्या छियाज्ञीस परभी जाकर नहीं रुकेगी | तब शिताजात की समस्या पहले ही के समान रहस्यमयी हो गयी । शिलाजात का महत्व पूर्वोक्त समस्या का उत्तर अंतर्में मिलद्दी गया और साथमें हमें एथ्वी के इसिहास का ज्ञान भी हुआ। यह्द देर पर वकचएमप्ा/स ९ पर काल विफायददतपाा इतिहास हमें परतदार चट्टानोमें 'मित्ना द्वैे।इन पत्थर की परतों का जो इतिहास है वही एथ्वी का भी इतिहास है। आ्राज हमारे सम्पुख यह इतिहास सुव्यवस्थित रूपमें रक्खा हुआ मित्नता है परंतु डेढ़ शताब्दि पहले इन परतों के इतिहाब् के पन्‍ने तितर-बितर थे । अठारहवीं शत्तादिद के भूगर्भ शाख्र क्ाता इन पत्नों का सिलसिलेवार जगाने की चेष्टा कर रहे थे | | पृथ्वीके कुछ भागेंमें पत्थर की समतल परतें एक के ऊपर एक पाई गई । स्टेने के अनुसार जे परत जितनी अधिक गहराई पर होगी वह उत्तनी ही पहले बनी रही हैा।गी; दूसरे शब्दों में, उसकी आयु उतनी ही अ्रधिक होगी । केवल यदहदी एक बात थी जिससे यह जानाजा सकता था कि कौन परत कितनी पुरानी है। भिन्न-भिन्न परतों की अच्छी तरह जाँच की गई ओर गहराई के अजु- सार भत्येक काल निश्चित किया गया। इ्ष प्रकार धीरे- धीरे अ्रध्ययन से ऐसे सुब्यवस्थित परतों की संख्या बढ़ती गई जिनके प्रत्येक स्तर की सापेत्ष आयु ज्ञात थी। यह स्पष्ट हे! गया कि प्रृध्वी की सब परतदार चट्टानों के। उनकी आयु के हिसाब से क्रमामुसार लगाया जा सकता है। परंतु यद्यपि इस क्रमिक पद्धतिसे एक ही स्थलके विभिन्न स्तरों की श्रायुओं का अनुमान लग जाता था, ते भी विशिन्न प्रदेशों के प्रस्तरों की आयुओ्ं के संबद्ध करने का कोई उपाय नहीं मिलन सका । यह आवश्यक था कि केाई ऐसा उपाय रहे जिससे दूर-दूरके परतों का मिलान हो सके। कोई ऐसा उपाय रहे जिपसे किसी अश्रज्ञात चट्टान की एक परतको देखकर बतलाया जा सके कि वह किस कालकी चट्टान है, और उसे परतोकी क्रमिक पद्धतिमें किस स्थान पर रकखा जाय । उसकी आयुके अनुमानंके लिए लोग परतोंका व्योरेवार अध्ययन करते थे । यद्द देखते थे कि परत कितनी मोदी है, किस रंगकी है, किन अवयवोंसे बनी है, कितनी कड़ी हैं आदि। ये बातें किसी दूरस्थ परतेके अध्ययन करनेमें सहायक होती थीं। परन्तु फिर भी ये चिन्ह स्वथा स्तोष- जनक न थे, क्योंकि परतें अक्छर या तो भिन्न प्रकारकी चट्टानोंमें परिवर्तित हो जाती थीं या एकाएक समाप्त हो जाती थीं | है विज्ञान, जून, १६४६ | भांग ६३ इन सब खोजेंसे जितके लिये कई वेज्ञानिकोने अपना समस्त जीवन अपंण कर दिया, हमें परतोंके इतिहाप़का कुद्द कुछ ज्ञान हुआ । परन्तु हमें इस को सम्बद्ध करनेकी विधि नहीं मालूम हुई । अठारहवीं शताब्दिके अ्रन्तमें इंगलैंडमें भूमिके अन्द्रकी कई गुफ्राओं ओर सुरंगों की खुदाई हुई | भूगर्भ शाखके लिए यद्द बड़ा सुन्दर सुयोग था | विलियम स्मिथ नामक एक वैज्ञानिकने इन खुदे हुए स्थानोंमे जाकर बहुत छान-बीन की श्रोर तब उसने एक आश्वयजनक भ्िद्धान्त भूगर्भ शास्त्रियोंके सामने रक्खा। सरल भाषा में उसका सिद्धान्त यह है; “शिज्ञाजात बहुत दिनेंसे इकट्ठा किये गये हैं ओर उनका श्रध्ययन भी हुआ है। अब्र तक वे एक आश्चर्यजनक वस्तु की तरह देखे गये हैं | परन्तु इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया कि प्रकृति ने इन्हें कितने क्रम और व्यवश्थासे रचा है भौर पत्थरकी प्रत्येक परत विशेष जातिके शिक्षाजात द्वारा पहचानी जा सकती है ।' झर्थात्‌, प्रत्येक पत्थर की परत में भिन्न-भिन्न प्रकारके शिक्वाजात पाये जाते हैं, श्रोर विभिन्न स्तरोंका काल उनके शन्द्र पाये गये शित्राजातोसे लगाया जा सकता है | | इस सिद्धांन्तकी ब्यापकता निम्नलिखित पेतिद्दातिक घटनासे स्पष्ट हो जायगी । एक अ्रैगरेज्ञ भूगर्भ शास्त्र वेत्ता अमेरिकार्मे नियाप्रा जल्न-प्रषात देखने गया। वहाँकी चटूटानेकोी देखकर उसे बहुत आश्चर्य हुआ, क्योंकि वे इंगलेण्डकी चट्टानोंसे बहुत मिलती थीं । परन्तु उन दोर्नों के बीचकी दूरी इतनी अ्रधिक थी कि वह यह स्रोचह्दी नहीं. सकता था कि दोनों चटूटानें एक ही विधिसे बनी हैं । इस- लिए उसने इस बात पर अधिक ध्यान नहीं दिया। बादमें एक दूसरे भूगर्भशास्त्रवेत्ता ने उसी भूमिको देखा । स्मिथ के सिद्धांत ने डस पर बहुत प्रभाव डात्ा था, इसलिये उसने पथथर की जाँच की, और जाँच करने पर उसे इस पाथरमें वही सीप ओर घंधे मिलते जो इंग्लैण्डवाली चट्टान में मिले थे । यह चद्टान उसी पत्थर की बनी थी जिस पत्थर की इंगलेंड वाली चट्टान थी, और दोनोंके बननेका समय पुक,ही रहा होगा । इस प्रकार शिलाजात द्वारा दूर दूरके परतों की पहचान सुगम, हो सकी ओर परतोंका इतिहास सुब्यवस्थित रूपमें रक्खा जा सका । ब्रंख्या ३ ] तारे क्‍या हैं [ डाक्टर गोरखप्रसाद ] देहाती - जय राम जी को प्रोफेसर साहब ! प्रोफेसर - जय रास जो की, भाई, जय राम जी की ! दे०--आपने बड़ी कृपा की जो छुट्टी में गांव| पर श्रा गये । आप तो यूनिवर्सिटी में ज्योतिष पढ़ाते हैं न । प्रो०- हाँ, में ज्योतिष और गणित दोनों पढ़ाता हूँ। दे०---क्यों प्रोफेसर साहब, क्‍या ज्योतिष की बातें हम लोग भी कुछ समझ सकते हैं ? प्रो०--हाँ-हाँ, बहुत सी बातें ऐसी हैं जिन्हें सभी अच्छी तरह समझ सकते हैं । दे०---अच»] तो यह तो बताइये कि तारे क्‍या हैं ? प्रो००«जैसे हमारा सूरत आग का गोला है वैसे ही तारे भी आगके गोले हैं । दे०--सूरज से तो हमको बहुत गरमी मिलती है। रोशनी भी बहुत मिलती है। सूरज बड़ा सा भी दिखलाई देता हे । प्रो०--तारोंके छोटे ओर फीके दिखलाई पड़नेका कारण यह है कि वे हमसे बहुत दूर हैं। दे०--तो क्या सूरज दूर नहीं है। एक स्कूली लड़का हमको एक दिन सुना रहा था कि अगर हम तेज हवाई जहाज पर चढ़कर चलें तो सरज तक, पहुँचनेमें कीई २० वर्ष लग जाते हैं | "तो क्या सूरज बहुत दूर नहीं है । प्रोण---यह सच है, कि सूरज हमसे बहुत दूर है। लेकिन तारे उससे कहीं अधिक दूर हैं। जैसे यहाँ से पड़ोस वाले गाँव की दूरी ओर कलकत्तेकी दूरीमें अन्तर है वैसे ही सूरज ओर तारों की दूरीमें अंतर है । दे०--आखिर तारे कितनी दूर पर हैं ? कया कुछ अंदाज नहीं कि वे कितने सील पर हैं । . #श्रॉज्न इंडिया रेडियोकी सोजन्यतासे प्राप्त। यह सम्भाषण लखनऊ, रेडियो से २४ मई १६४४ को बॉड- कार्ट किया गया था | तारे क्या हैं द्पू ४ प्रो०--तुलसीदास जी ने अधिक धन बतल़ाने के लिये कहा था “अरब अरब लो द्रव्य हैं? परन्तु यदि मीलों में तारोंकी दूरी नापी|जाय तो अरब खरब मीलसे भी उनकी दूरी। अधिक आती है। रोशनी एक सेकन्डमें लगभग २ लाख़ भील दूर तक चल्नी जाती है । रोशनीसे तेज चलने वाली कोई चीज दुनियामें है ही नहीं तो भी पास वाले तारेसे आनेमें रोशनी को करीव ३ व लग जाते हैं । भू बतारेको तो तुम पहचानते होगे। वहाँसे रोशनीके आनेमें १०० से भी अधिक वर्ष लगते हैं | दे०--तब तो तारे सचमुच ही बहुत दूर हैं। अच्छा सूरज से रोशनी आनेमें कितना समय लगता है । प्रो:--सूरज से रोशनी आनेमें कुल आठ मिनट लगता हे । दे०--बस-श्रच्छा तो हम यह समझ गये कि तारे सूरज से कई गुनी अधिक दूरी पर हैं और उसीसे वे छोटे ओर फीके जान पड़ते हैं लेकिन असलमें वे सूरज की तरह बड़े ओर उसी तरह खूब गरम हैं । "०-- ठीक | सचमुच बहुतसे तारे तो सूरजसे भी बड़े हैं ओर उससे बहुत अधिक गरम भी हैं। दे०--बड़े अचरजकी बात है। प्रो० - हाँ आकाशमें ब्येष्ठा नामक तारा है जिसके र॑गमे जरा सी लाली दिखलाई पड़ती है । यदि उस तारे को किसी तरह लाकर सृरजकी बगलमें खड़ा कर दिया जाता तो हमारा सूरज उसके श्रागे बौना सा जान पड़ता | दे०- तो क्या सभी तारे हमारे सूरजसे बड़े हैं ? प्रो०--नहीं, बात ऐसी नहीं | कुछ तारे बहुत ही बड़े होते हैं। सायंस वालों ने इनका नाम दैत्याकार तारा रक्ल्ा है। अंग्रेजी में इन्हें 28॥+ कहते हैं | परन्तु बहुतसे तारे इनसे बहुत छोटे होते हैं। इनको अंग्रेजीमं 098॥ कहते हैं और 0७०77 का अर्थ है “बोना” । तारोंकी असली चमकमें भी बहुत फक है । थदि सब तारे एक ही दूरी पर होते तो कोई तारे तो हमारे सूर्यसे बहुत ही अधिक चमकीछे दिखलाई पड़ते, कोई बहुत कम । कुछ तारे तो ६६ विज्ञान, जून, १६४२१ [ भांग ६१, ६८० प न 2२५०2 2७०40 &ना0८ा 47040 :/द/धय ५4400 ८::2467465::+ा ५५८८६४८४-०५ ०७४: ५३३३५०::७/६७४०७६::५४:४फ५८३८::६५८::८०५७:०२३, के के ड दूः श्र €. ९७ त इतने कम्त चमकीले हैं कि ये बस दिखलाई भर वे०--केसे ! इतनी दूर भत्ता केसे कोई पहुँच सकता है। ही जाते हैं । प्रो०-- तारों की दूरी।वहाँ जाकर नहीं नापी गई है। दे०--ऐसां क्‍यों ? ॥ जैसे खेतों का सरवे याने नाप करने वाले बिना प्रो०--बात ऐसी जान पडता हैं कि तारे काफी गरम दूरके पेड़ तक गये ही उनकी दूरी नाप सकते हैं नहीं हैं | शायद यह तारे धीरे ,धीरे,ठंढे हो गये हैं उसी तरह साथंस वाले भी तारोंकी दूरी नापते हैं । ओर अब इनकी चमक मिटने ही वाली हे । फरक इतना ही है कि सरवे करने वाल्ले की दुरबीन दें०--इससे तो ज्ञान पड़ता है कि पक दिन हमारा आठ दूस इंच लम्बी होती है, ज्योतिषियोंकी तीस सूरज भी ठंढहा हो जायगा । चालीस फुटकी | लेकिन तरोका बिलकुत्ष एकन्पा प्रोष--पेसा हो तो कोई अचरजकी बात न होगी। है । इनसे पास वाले तारोंकी दूरी नाप ली लेकिन पिछुले दो हजार वर्षर्मि सूरजकी गरमी या जाती है। तब चमक देखकर दूर वाले तारोंकी दूरीका चमक कुछ घटी नहीं है । ह भी हिसाब लगा लिया जाता है । दे०--इसका कोई सबूत भी है। या केवल अन्दाज ही दे०-+यह बात तो हम अब समझ गये कि तारे असल अन्दान है । में बहुत गम॑ और बहुत चमकील्ले हैं ओर थे बहुत प्रो०--सबूत है क्‍यों नहीं। सायंश्त वाक्मे ब्रिना खबूतके दूर हैं लेकिन क्या तारोंका नाम भो रक़खा गया कोई बात नहीं मानते। सबूत यह है। कुछ पेड़ों है ? वे तो अनगिनती जान पड़ते हैं । को काट कर देखनेसे पता चलता है कि हर साल प्रो०--अनगिनती क्‍यों, गिनती में तो तारे बहुत कम पुरानी लकड़ी पर नयी लकड़ी की एक परत जम हैं। अगर तुम किसी तीन तारोंको चुन लो और जानेसे पेड़का तना मोटा होता है। कुछ पेड़ो्म ये उनसे बनी तिकोनी शकल्नके भीतरके तारोंको गिनो परतें बहुत साफ दिखाई पहइती है। इन परतोंके तो तुरन्त पता चलेगा कि तारे गिने जा सकते हैं । गिननेसे पता चक्कता है कि पेड़ कितनी उमरके हैं । . तारोंको एक साथ देखकर लोग हिम्मत हार जाते कुछ पेड़ दो हजार वपकी उमरके मिले हैं ओर हैं और समभते हैं कि उनका गिनना मुमकिन नहीं उनकी परतोंसे पता चलता है कि आजसे दो हजार है, लेकिन यदि एक सिलसप्रिले से गिना जाय तों साल पहले भी एक वपमें पेड़ उतना ही बढ़ते- हुत दिक्कत न होगी | द मुटाते थे जितना इन दिनों। इससे साफ पता दे०- तो आख़िर कितने तारे होंगे £ चलता है कि उस समय भी सृुरजसे उतनी ही प्रो०--जितने तारे आसमान भें हमे दिखतलाई पंडते हैं गरसी आती थी जितनी इश्च समय ओर उस गिनती में वे तीन हज़ारसे कुछ कम ही रहते हैं । जमानेमें भी पानी करीत्र उतना ही बरसता था लेकिन एक बार में हमें आधा आसमान ही दिखाई जितना इस समय । देता दे | इसलिये अगर सब तारों की गिनती पूछी दे०---क्या खूब | पेड़ देख कर सूरजके दो हजार बरस जाय तो कहना चाहिये कि आसमान में करीब ६ पहलेका हाल मालूम हो गया। अच्छा यह तो हज़ार तारे ऐसे हैं जो हमें दिखलाई पड़ घकते हैं। कहिये कि आपने जो बतलाया कि श्रूवतारेसे दे०--तो क्या विश्व में कुल इतने ही तारे हैं / रोशनी हमारे पास तीस वष में आती है चह भी प्रो०--नहीं ६ हज़ार तारे इतने चमकीले हैं कि हमें नापी गई होगी कि केंबल्ल अन्दाज ही लगाया दिखलाई पड़ सकते हैं, लेकिन करोड़ों तारे ऐसे हैं गया है । कि वे हमको यों नहीं दिखलाई पड़ते, दुश्बीन लगाने प्रोण--अन्दाज नहीं लगाया गया है; दूरी नापी गयी पर ही दिखलाई पड़ते हैं । है न। हि दें०--तो फिर इन सब का नाम केसे रक्‍्खा गया है संख्या ३ | तारे क्‍या है ६७ प्ोौ०--नाम तो कुल सौ सवा सो तारों का ही रक्खा गया है। बाफ़ी सब के रूमृह का नाम और नंबर बता कर काम चलाया जाता है| दे०-- समूह क्या प्रो०--तारों को कई टोलियों या समूहों में बाँठ दियां गया है | जैसे फौज, में गढ़वाल शइफढस या राजपूत रेजिमेंट यथा गोरखा रेजिमेंट आदि अलग अलग गरोह था समूह मान लिये गये हैं उसी तरह तारों को भी करीब अस्सी समूहों में बाँठ दिया गया है। कुछ .का नाम तो तुमने ज़रूर सुना होगा | सेप, बंप, मिथुन कर्क आदि ये तारा समूह हैं । दे० -समूद में किसी एक तारे को बतल्लाना हो तो क्‍या किया जायगा £ प्रो०--चमकीले तारों को अच्चरों से सुचित किया जाता है ओर फीके तारों को एक दो तीन वगैरह गिनती से | तारों की छुपी सूची बिकती है जिसमें हर एक तारे का नम्बर, उसका स्थान ओर उसकी चमक का पूरा ब्योरा दिया रहता है। दे०-- तारों के नाम की बात तो समझ में आ गयी, लेकिन हमारे दिहात के पंडित लोग मेप, घुप आदि राशें भिनते हैं या अश्विनी भरणी आदि नक्षत्र मिनते हैं वह सब क्या है £ प्रोण--सुर ज़ तारों के बीच चलता रहता है । एक चकर एक साल में वह पूरा करता है। उसके रास्ते में जो तारा समूह पइते हैं उन्हीं का नाम मेष, वृष आदि है । दे०--और अश्विनी भरणी आदि नक्तन्न क्या हैं? प्रो० -- चंद्रमा भी तारों के बीच चल्नता है। वह तारों के हिप्ताब से एक चक्कर करीब २७ दिन में [लगा लेता है | इसलिये पुराने ज्योतिषियों ने चन्द्रमा के रास्ते में पइने वाले तारों को २७ छोटे समूहों में बांद कर उनका अश्विनी, भरणी आदि नास रख दिया था। वह प्रथा अब भी चल्नी आ रही है। जब हमारे पंडित कहते हैं कि आज अश्विनी नक्षत्र है तब मतलब यह होता है कि चन्द्रमा उस तारा समूह में है जिसका नाम अश्विनी है | जब वे कहते हैं कि सूर्य मेष राशि में!हे तब उनका अर्थ यह होता है कि सूर्य उस तारा समूह में है जिसका नाम मेप है। जब पंडित कहते हैं कि बच्चा मेष लझ में पेदा हुआ तो अ्रभिप्राय यह होता है कि मेष नाम का तारा-समूह जब उदय हो रहा था, याने जमीन के नीचे से आसमान में आता दिखलाईं पड़ रहा था, तब बच्चा पंदा हुआ | दे०--तब ठो लप्न, नक्षत्र ओर राशि से समय का ज्ञान होता है | प्रो०--हाँ । यदि लघ्न मालूम हो तो पता चलता है कि समय क्या था । नक्षन्न ओर राशि मालूम हो तो पता चलता है कि तिथि ओर मदह्दीना कौन से थे। सच्ची बात तो यह है कि अगर किली की जनन्‍्मकुन्डली मालूम हो तो ज्योतिषी ठीक ठीक बतला सकता है कि टह किस सन्‌, किस महीने, किम्त दिन और किस घड़ी जन्मा था। द दें०--यह सब तो समझ लिया, लेकिन अब भी यह नहीं मालूम है कि विवाह आदिके समय क्यों राशि, नक्षत्र आदिका हिसाब लगाया जाता है। प्रो०--बात यह है कि सनातन धर्मियोंका विश्वास है कि विवाह आदि उसी समय करना चाहिए जब सूय चन्द्रमा ओर ग्रह विशेष विशेष स्थानों में हों । दे०--इस पर विज्ञान की क्या सम्मति है। शुभ भ्रशुभ लग में विश्वास करना चाहिये था नहीं । प्रो००-इस बारें कुछ कहना कठिन है । क्योंकि अधिकांश लोगों ने इसे धर्मका विपय बना रक्‍्खा है। परन्तु वैज्ञानिक लोग शुभ अशुभका विचार नहीं मानते । हिन्दू धर्म वालोंकों छोड़ कर अन्य धर्म वाले इसे प्रायः नहीं मानते। आयसमाजी लोग भी इसे नहीं मानते क्योंकि वेदेंके समममें, जहाँ तक इतिहास से पता चलता है, आजकलकी तरह फलित ज्योतिष की बातों पर विचार नहीं होता था । दें०--खैर इसे जाने दीजिये ! यह तो बताइये कि ग्रह क्या हैं? प्रो०--ग्ह हमारी प्रथ्वीकी तरह सूर्यका चक्‍कर लगाया रते हैं। वे इतने गरम नहीं -है कि अपनी चमकसे * [ शेष ७० पृष्ठ पर ] द्द्टः युद्ध कालमें विज्ञानकी उन्नति* युद्धकालमें आवश्यकताओंसे प्रेरित होकर लड़ने वाले देशों---विशेषकर जमेनी, इंगलेण्ड और अमेरिका--+के वैज्ञानिकोने तरह तरह की उपयोगी खोजें की हैं । इन सब नई खोजोंका पूरा हाल तो अभी तक मालूम नहीं हो पाया है, किन्तु जो कुछ सालूम हुआ है उसका कुछ थोड़ा सा हाल ही यहाँ दिया जाता है। जापान की लड़ाई समाप्त होनेके बाद सम्भव है हमें इस युद्ध-कालमें हुई कुछ अन्य आइचयजनक खोजों का हाल मालूम हो। इस युद्ध- कालमें कुछ ऐसी खोजें हुईं हैं जिनको देखकर अब यह नही कहा जा सकता कि मनुष्यके लिए कोई भी चीक्ञ मालूम करना सम्भव नहीं है। जिन बातोंका पहले सोच- कर ही लोग मनुष्योंके लिए अख्ग्भव कह देते थे वे ही वैज्ञानिकने इस युद्ध में सम्भव कर दिखा दी हैं । रेडार (88680) इस युद्धकी सम्भवतः सबसे बड़ी खोज रेडियो द्वारा शत्रुके उड़ते हुये हवाई जहाज तथा पानीके भीतर चलने वाली पनडुब्बीके स्थानोंकी ठीक-ठीक स्थिति मालूम करना है | इसके लिए जिस य॑त्रका आविष्कार किया गया है उसे रेडार (११७0४, नाम दिया गया है। जमेनोंके हवाई हमले तथा बिना चालकके बममारोंके (र000+ 0075 08) हमलेंसे अंगरेज़ इसी खोज की सहायत्ताके कारण अपनी रक्षा कर सके थे। प्लास्टिक पदार्थ (?]880 08) जिन दिनों अंग्रेज वैज्ञानिक रेडारके आविष्कारमें लगे हुये थे उन्हीं दिनोँ इंगलैणड की इस्पीरियल केमिकल इंडस्ट्रीज (, (), [.) के वैज्ञानिक एक नये प्लास्टिक 5 सर शानित स्वरूप भवनागरके अखिल भारतीय रेडियो, देहलीसे दिये गये एक भाषणुके आधार पर | विज्ञान, जूत, १६४१५ [ भाग ६१ पदार्थ को तैयार करने में जुटे हुये थे जिसका नाम पात्ीथीन (?०ए (070) है। पालीथीन इथाइलीन (7+॥9]6॥6) का एक संगठित यौगिक है (?०09- 7१67) । बहुत से इधाइल्लीन अशु--५०० या उससे भी अधिक-- ऊँचे दबाव तथा ऊँचे तापक्रम पर किसी उद्लेरक (()६॥७] ए87) के वर्तमान रहने पर रासायनिक रूप से संगठित होकर पालीथीन बनाते हैं | इस पदार्थ की विशे- पता उसके वैद्यतिक गुण, उसकी दृढ़ता, त्चीलापन और साथही उसके हलकेपन और उसपर पानीका कोई असर न होने में है। इसका उपयोग टेलीफोन, टेलीग्राफ़ और केबिलमें ओर विशेषकर ऊँची कुलन संख्या (सराहा (7९0८०४०७9) के विद्युत यन्‍्त्रों में बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ है| बिना इस पदार्थ को मालूम किये रेडार का बड़े पेमाने में उपयोग सफलतापूवक नहीं हो सकता था । दूसरा प्लास्टिक पदार्थ, जो इस युद्धकाल में ही बना है और उपयोगी सिद्ध हुआ है, 'सिललीकोन (5)00776) है। 'सिलीकोन!' एक रेज़िन (र०४7॥) है । रेज़िन बनाने के लिए साधारणतः इस्तेमाल होने वाले कुछ कार्बनिक पदार्थोके कुछ काबंन परमाणुओं के स्थान में सिल्लीकन के परमाणु रासायनिक रीति द्वारा कर देने से सिल्लीकोन बनता है। सिल्ीकोन प्रधानतया रोधन वानिंश ([फह्प्रॉधए2 ए8७/780) के कायो के लिए इस्तेमाल होता।है श्रोर बहुत ही उत्तम रोधक ( [780] 8- 607) है। इसके प्रयोग से विद्यु त-सम्बन्धी कारोबारमें काफ़ी उन्नति होने की संभावना है। रुई, कागज, और काँच की सतह पर केवल सिल्लीकोन की वानिश लगा देने से ही इन पदार्थों पर एक ऐसी पत्त॑ आ जाती है जिस पर पानी का कोई असर नहीं होता ओर जो धोने व रगदनेसे भी श्रासानीसे नहीं छुटती । हवाई जहां के। रेडियोमें संख्या ३ ] पोसिलेन के बने रोधर्कों पर सिलीकोन की वानिश कर देनेसे वह अधिक उपयोगी हो जाते हैं, क्योंकि इन पर जल- कण के इकट्ठा हो जाने पर भी यह विद्युत चालक नहीं हो पाते | सिलीकोन को रबरके समान पदाथों में भी बदल दिया जाता है । इस रूपमें यह सच लाइट आदिम इस्ते- माल किया जाता है। सिलीकोन की एक विशेषता यह भी है कि इस पर ऊँचे ताप का शीघ्र असर नहीं होता। अतः सच लाइट आदि ऊंचे तापवाले यंत्रेमें, जहाँ ताप की अधिकता के कारण अन्य रोधक नष्ट हो जाते हैं, सिलीकोनके रोधक बिना नष्ट हुए ठीक कार्य करते रहते हैं | कृमि-संहारक पदार्थ ([87860॥ ७१0७) जापानियों से उच्ण कटिबन्ध के घने जंगलमें युद्ध करनेके कारण अंग्रेजों को म'्छुरों तथा चीलरों आदि रोग फेलानेवाले कीड्ॉसे अपने सिपाहियों की रा करनेके लिए अच्छे कृमि-संहारक पदार्थों की आवश्यकता अनुभव हुई । इस आवश्यकता की पूत्तिके लिए प्रसिद्ध कृमि-संहारक डी. डी. टी, (2.]).]',) बड़े पैमाने पर सफलतापूर्वक तेयार किया गया | इसके अतिरिक्त अन्य कृमि-संहारक रासायनिक जैसे गैम्मेक्सेन ()877]659)6) और फ़िनोज़िटाँल (! )0705४6॥0]) भी इसी बीचमें तेयार किए गए । डी. डी. टी, का इस लड़ाई में बड़े पेमाने पर व्यवहार प्रथम बार १६४३ में नेपेज्स में उस समय किया गया जब कि वहाँ की सारी आबादीके टाइफस द्वारा नष्ट होने का डर हो रहा था। १० फी सदी डी, डी, टी. को पाउडरके साथ मिला कर इस्तेमाल करनेसे तीन ।सप्ताहके भीतरही टाइफप्त फेलाने वाले चीलरों का विनाश हो गया ओर इस प्रकार यह रोग उस समय चश्मे लाया युद्ध कालमें विज्ञानकी उन्नति ६६ गया | आजकल सिपाहियों को जो कमीज वर्दीके लिए दी जाती हैं उनमें डी, डी, टी. भिंदा रहता है। यह कमीज़ें दो-तीन बार धुलने परभी कमसे कम दो महीनों तक चीलरॉसे सिपाहियोका बचाव कर सकती है। डी. डी. टी, को 'परीथुम' ((2977+)7'9॥) ) के साथ मिलाकर तरलके रूपमें मच्छरों को मारने के लिए पिचकारी द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। इसको पेराफिन तेलमें मिलाकर स्थिर पानी तथा कीचड़ के स्थानमें, जहाँ मच्छुर के अंडे-बच्चे पत्ते हैं, डाक्ा जाता है। इससे मच्छुरोंके अंडे-बच्चे मर जाते हैं और मच्छुर बढ़ने नहीं पाते | कुमारिन रेज्ञिन ((४0 0॥7 8770 १68|7) के साथ मिला कर डी, डी. टी. सक्खियाँ को मारने में भी उपयोगी सिद्ध हुआ है । गेम्मेक्सेन नामक कृमिसंहारक तो माच १६४४ में ही आई. सी, ई. द्वारा तेयार हुआ है | गेम्मेक्सेन के गुणों को देखकर यह आशा! की जाती है कि यह डी. डी. टी की अपेया अधिक तेज कृमिसंहारक सिद्ध होगा। यह बेनज्ञीन-हेक्साक्षोराइड. (3672878 ]॥6590]0- 708) का एक समरूप ([5067) है। जनसाधारण में यह ६६६ के नाम से प्रसिद्ध है । पेटेन्ट दवाइयाँ--- इस युद्ध की एक बड़ी खोज पेनीसिलिन (९6४४- -6]7) भी है। कुछ फर्फूदियों में जीवाशुओं का आक्र- मण होने पर उनको नष्ट करने के लिए फफूदियोंसे एक रस खस्रधित होता है। इसी रसमें पेनीसिलिन रहना है ओर उसी से तेयार किया जाता है। आजकल रासायनिक रीति से पेनीसिल्िन तैयार करनेका भी थत्न किया जा रहा है। निमोनिया, रुधिर को विपैज्ञा बनाने वाले रोग, तथा स्टैफोलोकोकाइ, (569]0099]0000८) के रोगों (8० विज्ञान, जुन, १६४४ - कर मन मर न 8 272 0,%0० 4 ५ ००४४७ ५५७:००७००:-८७५०+७०५३४५४०५६० ४ ०३/24/०१०८ 9020-४५ ५,०८४ ०८० ३५ ७९३४० ३७४ + ८९५०७ 07070, छा टी का जी 2 अल 2. पप्ाख्ऋमम्दका |5१44055९/कट27%52420ए१९१5::0८ 2: में पेनीसिल्िन तुरंत लाभ पहुँचाता है. अन्य दवाओं की झपेत्षा इसमें एक विशेषता यह भी है कि इसका स्वय॑ का कोई विपैल्ा हानिकारक प्रभाव खून पर नहीं पड़ता । फिनो ज़ियाँल भी जीवाणु नाशक दवा है जो इसी युद्धकाल में तैयार हुई है| पेनीसिलिन के साथ मिलाकर क्रीम के रूप में इसका उपयोग जीवाणु रोगों पर करने पर उत्साहजनक परिणाम प्राप्त हुए हैं । हाल हीमें सिन्‍्थीडीन (890|00|70) नामक पदार्थ तैयार किया गया है, जिसके बारेमें यह कहा जाता है कि जीवाण रोगेंमें यह पेनी सिल्विन से भी अधिक प्रभावशाली सिद्ध होगा । इस लड़ाई में बहुतसे ऐसे शस्त्रभी आविष्कार किए गए हैं जो संहार के का में बहुत घातक सिद्ध हुए हैं। ऐसे शस्त्रों में बिना चालक के हवाई जहाज़ हैं जिनका आविष्कार जमंनी ने किया ओर जिनका श्रयोग सन्‌ १६४४ के अन्त में उसने इंगलेंड के विरुद्व किया। यह आशा की जा सकती है कि यही संहारकारी शख्त शान्ति- कालमें लाभदायक कार्यों के क्षिण उपयोग में ज्ञाए ज्ञा सकेंगे ओर उनसे मनुष्य समाज की सेवा हो सकेगी । तारे क्या हैं हमें दिखाई पढ़ें । जत्र उन पर धूप पड़ती है तो वे हमें दिखाई पढ़ते हैं । [ भाग ६१ दे०---उनकी पहचान क्या है ? प्रो०---आससानमें वे तारेसे ही दिखाई पड़ते हैं | परन्तु शुक्र भर बृहस्पति ये दोनों ग्रह तारोंसे बहुत अधिक चमकीले हैं ओर इसलिये आसानोसे यह जाने जा सकते हैं। शुक्र केवल या तो सबेरे पूरब में या शामको पश्चिम में दिखाई पड़ता है और वृहस्पतिसे अधिक चमकीला है। मंगल लाल है ओर अकसर तारोंसे बहुत अधिक चमकरीला होता है परन्तु उसकी चमक धटती-बढ़ती रहती है। शनि यानी सनीचर भी काफी चम्रकीला है लेकिन इतना नहीं कि देखते ही वह पहचाना जा सके । बुध हमेशा सूरजके पास रहता है ओर उसका देखना सुश्किल होता है । मंगल, बुध, बृहरपति, शुक्र और शनि ये ही. पाँच बड़े ग्रह हैं । पुराने लोग सूरज और चन्द्रमाको भी ग्रह मानते थे लेकिन यूरपके ज्योतिषी उनको ग्रह नहीं मानते । दे०--वधन्यवादई प्रोफेसर साहब अ्रभी तो बहुत सी बाते पूछुनेकी इच्छा है लेकिन फिर कभी पूछूँगा। आज तारोंकी बात जानकर बड़ा आनन्द हुआ । डे विज्ञान-परिषद॒की प्रकाशित प्राप्य पुस्तकोंकी सम्पूण सूची १--विज्ञान प्रवशिका, भाग १- विज्ञानकी आरम्भिक बातें सीखनेका सबसे उत्तम साधन--ल्े० श्री राम- दास गोड़ एर७ ए७ ओर प्रो" सागशम भार्गव एस्च० एस-सी० , ) २“त।प->द्ाईस्कू में पढ़ाने योग्य पाब्य पुस्तक-- ल्ले० प्रो० प्रेमवत्लभ जोशी एम० ए० तथा श्री विश्वग्भर नाथ श्रीवास्तव, डो० एस-प्ली० ; चतुर्थ संस्कस्ण,; ॥7), ३--चुम्त्रक-- हाईस्कूमें. पढ़ाने योग्य पुस्तक--ल्ले० प्रो० रूसराम भागेव एस० एम-सी०; सजि०; ॥/*) ४--मनो रज्ञक रसायद--इसमें रसायन विज्ञान उप. न्थासकी तरह रोचक बना दिया गया है, सबके पढ़ने योग्य है -- ले ० प्रो० गोपारवरूप भागव एम्म० एस-सी० ; १॥), ४--सूर्य-सिद्धान्त--संस्कृत मूल तथा हिन्दी 'विज्ञान- भाष्य'--- प्राचीन गणित ज्योतिष सीखमेका सबसे सुलभ उपाय- पृष्ठ संख्या १९१४ ; १४० चित्र तथा नकशे--ले० श्री महाबीरप्रसाद श्रीवास्तव बी० एप-सी०, एस० दी०, विशारद; सजिल्द; दो भागेंमिं; मूल्य ६)। इस भाष्यपर लेखककों हिन्दी साहित्य सम्मेलनका १२००) का मंगलाप्रसाद पेरितोषिक मिल! है । ६--वैज्ञानिक १रिमाश--विज्ञानकी विविध शाखाओंकी. इकाइयोंकी सारिणियाँ--लले० डाक्टर निहालकरण सेठी डी० एस सी०; ।॥), ७->समीकरण सीमांघता--गणितके एम० एु० के विद्यार्थियोंके पढ़ने योग्य--ले० पं० सुधाकर द्विवेदी, प्रथम भांग 3॥), द्वितीय भाग |), ८--निर्णा यक ( डिटमिनेंट्स )- गणितके एस० (० के विद्यार्थियोंके पढ़ने योग्य--ले० प्रो० गोपाल कृष्ण गदे। ओर गामती प्रसाद अ्रभ्निहोत्री बी० पश्न-सी ० ; ॥|), ६-बीजज्यामिति या भुजयुग्म रेखागशित--इईटर- मीडियेटके गणितके विद्यार्थियोंके लिये---ले० डाक्टर सत्यप्रकाश डी० एस-सी० ; १।), १०-शुरुदेव के साथ यात्र[*“डाक्टर जे० सी० बोसकी यात्राओंका लोकप्रिय वर्णन ; |“), १९ “--केदा२-चद़ी यात्रा+- केदारनाथ ओर बद्रीनाथके यात्रियोंके लिये उपयोगी; ।), १२-वर्षा और वनर्पति--ल्लोकप्रिय विवेचन--ल्ते० श्री शज्नरराव जोशी; |), १३-मलुष्यका आइहार--कोन-सा आहार सर्वोत्तम है-- ले० वैद्य गापीनाथ गुप्त; |), १४--सुब णे का री--क्रियाव्मक-- ले ० पचोत्ली; ।), १४--रसायन इतिहास--इंटरमीडियेटके विद्याधथय के योग्य-- ले० डा० आत्मारास डढी० एस सरी०; ॥।), १६०--विज्ञानका रज्मत-जयन्ती अंक--विज्ञान परिषद्‌ के २९ वर्षका इतिहास तथा विशेष लेखोंका संग्रह; १) १७--विज्ञानका उद्योगनव्यवसायाहु--रुपया बचाने तथा धन कमानेके लिये अनेक संकेत--१३० पृष्ठ, कई चित्र--सम्पादक श्री रामदास गौड़ ; ॥।), (८>-फल्न-सं रज्ञण -- दूसरापरिवर्षित. संस्करण-फर्ञोंकी डिव्बाबन्दी, मुरब्बा, जैम, जेली, शरबत, अ्रचार आदि बनानेकी अपूर्त पुस्तक; २१३२ पृष्ठ; २६ चित्न-. ले० डा० गेरखप्रसार डी० एस-सी०; २), १६--व्यज्ञ-चित्रण--( काहून बनानेकी विद्या )- ल्ले० _ एल० ए्‌० डाउसुट ; अजुवादिका श्री रत्नकुमारी, एस० ए०; १७२ पृष्ठ; सैकड़ों चित्र, सजिलद; १॥) २०--मिट्ट के बरतन--चीनी मिद्दीके बरतन कैसे बनते हैं, ल्लोकप्रिय--ल्ले० प्रो० फूलदेव सहाय वर्मा : १७३ पृष्ठ; ११ चित्र; सजित्द; १॥), २१--वायुमंडल--ऊपरी वायुमंडलका सरल वर्णन--- ले० ढाक्टर के० बी० माथुर; १८६ पृष्ठ; २९ चित्र; सजिल्द; १॥), २२-ज़कड़ी पर पॉलिश- पॉलिशकरनेके नवीन और पुराने सभी ढंगोंका ब्योरेवार वर्णन । इससे कोई भी पॉलिश करना सीखे सकता ह--छो० डा० गेरख- श्री गंगाशंकर अल्‍का प्रसाद भर श्रौरामयंत्ने भटनागर, एम०, एु०; २१८ पृष्ठ, ३१ चित्र, सजिल्द; १॥), २३- उपयोगी नुमखे तरकीबें ओर हुनर -सम्पादक डा० गोरखप्रसाद और डा० सखत्यप्रकाश; आकार बढ़ा ( विज्ञानके बराबर ), २६० पृष्ठ ; २००० नुसखे, १०० चित्र, एक-एक लुसखेसे सैकड़ों रुपये बचाये जा सकते हैं या हज़ारो रुपये कमाये जा सकते हैं । पस्येक गृहस्थके लिये उपयोगी ; मूल्य श्रजिल्द २), सजिल्‍द्‌ २॥), ेृ २४७--कल्षम-पेवंद--ले० श्री शंकरराव जोशी; २०० (एंष्ठ; ४० चित्र; माल्लियों, मालिकों और कृपकॉंके लिये उपयोगी; सजिल्द; १॥), २४--जिल्द साजी--क्रियाव्मक और ध्योरेवार । इससे सभी जिल्दसाज़ी सीख सकते हैं, ल्ले० श्री सत्यजीवन वर्मा, एम० ए०; १८० एष्ट, ६२ चित्रसजिल्द १॥।), २६--भारतीय चीनी मिट्टियाँ- श्रौद्योगिक पाठशालाओं के विद्याथियोंके लिये--ले० ओ० एम० एल मिश्र; २६० पृष्ठ; १३ चित्र; रूजिल्द १॥|), २७ -त्रिफल्ला--दूसरा परिवर्धित संस्करण प्रत्येक वैद्य ओर गृहस्थके लिये - ले० श्री रामेशवेदी आयुवदालंकार, २१६ पृष्ठ; ३ चित्र (एक रज्लीन); सजिल्द २) यह पुस्तक गुरुकुल आयुवद्‌ महाविद्याक्षय १३ श्रेणी द्वव्यगुणके स्वाध्याय पुस्तकके रूपमें शिक्षापटत्षमें स्वीकृत हो चुको है ।' श८-मधुमक्खी-पाज़्न--ले० पणिडित दयाराम जुगड़ान, भूतपूर्व अध्यक्ष, ज्योलीकोट सरकारी मधुचटी; क्रिया- त्मक और व्योरेवार; मधुमतखी पाज्नकोंके लिये उप- योगी तो है ही, जनसाधारणको इस्र पुस्तकका अधिकांश अत्यन्त रोचक प्रतीत होगा; मघुमक्खियों की रहन-सहन पर पूरा भ्काश डाला गया है | ४०० पष्ठ; अनेक चित्र ओर नकशे, एक रंगीन चित्र, सजिल्द; २॥), २६--घरेलू डाक्टर- लेखक ओर सम्पादक डाक्टर जी० घोष, एम० बीं० बी० एस्०, ढी० टी० एस०, प्रोफेसर डाक्टर बद्गनीनारायण प्रसाद, जा आग आल पी० एच० ु [062. ९०. & 3%९ डी०, एम० बी०, कैप्टेन डा० उभाशंकर प्रसाद, एम० बी० बी० एस० , डाक्टर गोरखप्रसाद, आदि | २६० पृष्ठ, ११० चित्र, आकार बड़ा ( विज्ञानके बराबर ); सजिल्‍ल्द; ३), ३०-तैरना-- तैरना सीखने और डूबते हुए लोगोंको बचाने की रीति अच्छी तरह समभ्ायी गयी है। ले5 डाक्टर गोरखप्रसाद, पृष्ठ १०४, मूल्य १ ), ३१--अंज्रीर--लेखक श्री रामेशबेदी, आयुर्वेदालंकार- अंजीर का विशद वर्णन और उपश्रोग करनेकी रीसि। पृष्ठ ४२, दो चित्र, मूल्य ॥), यह घुरुतक भी गुरुकुल आयुवेद महाविद्वालयके शिक्षा पटल्षर्म स्वीकृत हो चुकी है । ३२९- सरल विज्ञान सागर, प्रथम भाग - सम्पादक डाक्टर गोरखप्रसाद। बड़ी सरल और रोचक भाषा में जंतुओंके विचित्र संसार, पेड़ पौधों की भ्रचरज भरी दुनिया, सूर्य, चन्द्र और तारोंकी जीवन कथा तथा भारतीय ज्योतिषके संक्षिप्त इतिहास का वर्णन है । विज्ञानके आकार के ४५० प४ और ३२० चित्नसे सजे हुए ग्रन्थ की शोभा देखते ही बनती है। सजिद्द, मूल्य ६) हमारे यहाँ नीचे लिखी पुस्तकें भी मिलती हैं;-.. १--भारतीय वैज्ञानिक--( १२ भारतीय वैज्ञानिकोंकी जीवनियां ) श्री श्याम नारायण कपूर, सचिन्न और .. सजिल्द; ३८० प्रष्ठ; ३) 0 २--आन्त्रिक-चित्रकारी--ल्ले० श्री ऑकारनाथ शर्मा, ए० एम०आई०एल०ई० इस पुस्तकके प्रतिपाथ विषयको अग्रेज्ञीम 'मिकैनिकल ड्राइंग कहते हैं | ३०० पृष्ठ, ७० चित्र; ८० डपयोगी सारिणियां; सस्ता संस्करण २४) ३--वैक्युम-अब्रं क--ले ० श्री ऑकारनाथ शर्मा । यह पुस्तक रेलवेमें काम करने वाले फ़िटरों, इंजन-ड्राइवरों, फ़ोर- मैनों और केरेज एण्ज़ामिनरोंके लिये अत्यन्त उपयोगी है| १६० पुष्ठ; ३१ चित्र, जिनमें कई रंगीन हैं, २) विज्ञान-भासिक पत्र, विज्ञान परिपद्‌ प्रयागका सुखपत्र है । सम्पादुक डा० संतप्रसाद टंडन, लेक्चरर रसायन विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय । वार्षिक चन्दा ३) विज्ञान परिषद्‌, ४९, टेगोर टाउन, इलाहाबाद । मुन्नक तथा प्रकाशक - विश्वप्रकाश, कल्ला प्रेस, प्रयाग | , विज्ञान-परिषद, प्रधागका झुग्व-पत्र विज्ञान ब्रद्मेति व्यजानाव, विज्ञानादूध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । विज्ञानेन जातानि जीवन्ति, विज्ञान प्रयन्व्य भिसंविशन्तीति ॥ तै० उ० हज वृष, सम्बत्‌ २०० ! भाग ६९ जूलाई १६४५ संख्या ४ नह के ली: १८ न तर बेर पट वी शत नर के, हे केरल का कै: मर का कर के यार व कप य व्क यू लेप्नॉप् ते: के अगुजीवोंका प्रथम अन्वेषक वेनहुक ( [,९९॥छ७॥॥॥0७| ) | श्रीमती राठी टंडन, एस० एुड०, ] लगभग २३० वर्ष हुये एक सलुष्य स्यृवेनहुकने सृष्टि के उस आश्चयजनक जगतमें प्रथम बार प्रवेश किया जहाँ तरह तरहके अशुज्ीव विद्यमान थे। इन जीवों कुछ मलुष्योंके लिए घातक थे और कुछ डपयोगी । यद्यपि ल्युवेनहुकने ही सर्वेश्रथम अजुजीवोकी जान- कारी प्राप्त की, इस समय बहुत कम लोग ल्यूवेनहुक के नाम से परिचित हैं | ल्यूवेनहुकके बाद भी कितने ही जीव- वैज्ञानिक हुये जिन्होंने विभिन्न अशुजीबों को खोज निका- लने में अपने प्राणोंकी भी परवा नहीं को किन्तु इनमेंसे बहतों का नाम आजकल स्मरणमें भी कभी ही आया करता हे । वर्तमौन समयमें जब कि विज्ञानकी इतनी उन्नति हो गई है हमें इस बातकी कभी कह्पना भी. नहीं हो खकती कि ल्यूवेनहुक के समयमें विज्ञान की खोज का काम करना कितना कठिन था। यदि आप तीन सो वर्ष पहलेकी उस अवस्थाका ध्यान करें जब कि चारों ओर अन्धविश्वास का राज्य था और प्रकृति की छोटीसे छोटी घटना देवी इच्छा का फल समभी जाती थी तब सम्भवतः आपको थोड़ा सा इस बात का अनुमान हो सके कि ऐसे वायुमंडलमें विज्ञान का कार्य करने वालों को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड्ढा होगा । उन दिनों किसी घटना को देवी न मानना और उसका कारण हूढ़ निकालना एक अध्षम्य _ अपराध था । ऐसे ही समयमें ल्थूवेनहुक ने अन्धविश्वासोके विरुद्द अपनी आवाज्ञ उठाई। विज्ञनका यह वह युग था जब वेज्ञानिकों को सत्यकी खोजमें अपने जीवनकी बचल्नि देनी पड़ती थी । यह वहीं युग था जिफमें सरवीटख (807ए$प8) को, केवल इस अपराध में कि उसने एक मरे हुये मलुध्यके शरीर को चीरकर महुष्यके भीतरी अंगों की जानकारी प्राप्त करनी चाही थी, जीवित अंल्ा दिया गया था । इच्ली युग में गेलीसियो को, केवल इंम् बातके लिए कि उसने उन दिनो के अचलित विश्वासके विरुद्ध यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया था कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है, जीवन पर्यन्त जेलमें धाँव दिया. . गया था । एनटोनी क्यूवेनहुक (87077 4,66पए 9॥- ॥00602) का जन्म सन्‌ १६६२ ६० में हारलेंडके डेलफ्ट ((0०!70) नामक स्थानसें हुआ था। उनके कुटठम्बमें टोकरी बनाने तथा शराब खींचमनेका व्यवसाय होता था । हालेंडम उन दिनों शराब खींचना एक प्रतिष्ठित ब्यवस्ताय समझा जाता था। ल्यृवेनहुकके पिताका देहान्त छोटी अवस्थामें ही हो गया था। ल्वृवेनहुक की माताने उन्हें स्कूल पढ़ने को भेजा । उनकी यह इच्छा थी कि ल्यूवेनहुक पदुछिख कर कोई सरकारी अफ़सरी का पद ग्रहण करे। किन्तु स्यृवेनहुक १६ वर्षकी अवस्थामें ही कूल छोड़कर पएमध्टडंस से एक कपड़े की दूकानमे सहायक हो गये | यहाँ उसने ६ वष तक कास किया। २१ वर्षकी अवस्थामें वह डेलफ्ट वापस आये और अपनी एक स्वतन्त्र कपड़े की दूकान-खोल ली। इसी समय उन्होंने अपना विवाह भी किया । इसके बादसे २० बेचे तक स्यूवेनहुक के जीवन का कोई विशेष हाल नहीं मित्रता । केवल इतना ही ज्ञात हैं कि उनके दो पत्नियाँ थीं जिनसे कई बच्चे थे। ल्यूवेनहुक के कई बच्चे छोटी अवस्थामें ही मर गए थे । इन्हीं दिनों डेल्फ्टके टाउनहाल' में भी उन्होंने कुछ काम करना आरंभ किया। थहीं पर उन्हें ताल (!97888) बनाने का शौक हुआ । उन्होंने यह सुन रखा था कि यदि एक साधारण काँच को घिस ७४ विज्ञन, जूलाई, १६४५ | भाग ६१ कर एक छोटा लेन्स बनाया जाए तो उसके द्वारा चौजें अधिक बड़ी दिखल्नाई देती हैं | यद्यपि स्यूवेनहुक के जीवन के २०से ४० वर्षकी अवस्थाकाज् की अधिक बातें मालूम नहीं है किन्तु इतना अवश्य मालूम है कि उनकी गणना उस समयके पढ़े-लिखे लोगेमें नहीं थी | वह केवल डच भाषा जानते थे जो उस समय सभ्य समाजर्म एक देहाती भापा समभी जाती थी । विद्वत्‌ समाज में लेदिन भाषा का चलन था ओर ल्यूवेनहुक इस भापासे बिल्कुल अन- भिज्ञ थे। एक दृष्टि से ल्यूवेनहुक का अनपढ़ होना अच्छा ही था, क्योंकि वह अन्य लोगोंकी लिखी बातोंसे प्रभावत न होकर प्रध्येक बात स्वयं विचारते थे ओर अपना स्वतंत्र निर्णय करते थे। इस बात का परीक्षण करने के लिए कि ताज्न द्वारा धीज़ें बड़ी दिखलाई देती हें क्‍्यूवेनहुक ने स्वयं ताल बनाने का निएचय किया | ताल बनाने का कार्य उन्होंने चश्मा बनाने वाल्रोंके पास जा जाकर उनसे सीखा | इसी बीच वह आलकौमियों (8 [0)8778॥08) और अत्तारों के यहाँ भी दौड़े ओर उनसे कच्ची धातुओंमें से शुद्ध घातु प्राप्त करने की विधि मालूम की । ल्यूवेनहुक को इस बात का उत्साह था कि वह जो ताल बनायें वह बाज़ारके सब तालेंसे श्रेष्ट हो। बहुत प्रयत्नके बाद ल्यृवेनहुक इस प्रकारके ताल बनानेमें सफल हुये । अपने तालों को स्वयं ही उन्होंने अपने द्वारा शुद्ध की गई ताँबे, चाँदी या सेनेकी घातुश्रोंके फ्रेमों पर चढ़ाया । इन सब बातोंसे यह शअ्रनु- मान किया जा सकता है कि ल्यूवेनहुक में काम करनेकी कितनी ज्गन थी और कितना घेये था। ... ल्यूवेनहुक के पड़ोसी उसे समकी समभते थे किन्तु ल्यूवेनहुक ने कमी जनसत की परवा मर की श्रोर सदा अपनी लगनमें जुटे रहे । अपने कुटुम्ब तथा अपने मित्रों सब को भुला कर वह रात भर एकान्त में बेंठ कर काम करते रहते थे। बहुत प्रयत्नके बाद ल्यूवेनहुक को है इंच से भी कम व्यास (0977]667) का एक अच्छा ताल बनाने में सफलता प्राप्त हुई | इस तालसे सभी छोटी चीज़ें कई गुना बड़ी ओर बहुत साफ़ दिखलाई दीं। इस प्रकार एक अच्छा ताल बना लेने के बाद ल्यूवेन- हुक उसके द्वारा तरह तरह की चीहुँ अपने शोकके लिए निरीक्षण करने लगे । कसाई के यहाँ से बैल की आँख लाकर अपने ताल द्वारा उसका निरीक्षण किया। आँखके ताज्न को देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई । छोटे पौधोंके पतले कटे सेक्शन का भी ताल द्वारा उन्होंने निरीक्षण किया । ल्यूवेनहुक अपने इन सब निरीक्षणों का चित्र बना कर रखते थे। किसी चीज़ का चित्र वह तब तक नहीं बनाते थे जब तक फि उसे बहुत बार देख कर उन्हें उसके आकार की सत्यता का निश्चय नहीं हो जाता था। ल्यूवेनहुक केवल अपने संतोष तथा सुख के लिए ही कार्य करते थे । उन्हें इस बात की परवा नहीं थी कि उनके काय को कोई दूसरा सुने व देखे और उनकी प्रशंसा करे । इस प्रकार वह २० वर्ष तक काम करते रहे और उनके काम की जानकारी किसी दूधरे को न हो पाई। '* इन्हों दिनों सन्नहवीं सदी के बीच में संसार में विचारों की क्रान्तियाँ आरग्भ हुईं । अरस्तू ओर पोपको कही बातों पर अन्धविश्वास न करके लोग उन्हें तक्ककी कसोटी पर कसने लगे | ऐसेही विचारोंके कुछ लोगेंने मिल कर इंगलेंडमें एक संस्थाकी स्थापना की जिसका नाम उन्होंने अदृश्य कालेज” रखा | इस संस्था का सब कार्य गुप्त रखा जाता था जिससे उस समयके शासक, क्रॉमवेल, को इसका फ्ता न चले श्रोर वह इस संस्थाके सदस्यों को उनके नवीन विचारोंके कारण दंड न दे सके । इस संस्थाके सदस्यों में न्‍्यूटन, बाँयल (309]6) ऐसे लोग थे । यही संस्था बादमें चातस छ्वितीयके शासन कालमें रॉयल सोसा- इटीके नामसे प्रकट रूपसे काम करने लगी। ल्यूवेनहुक ने अपने कार्यों की सर्वप्रथम चर्चा इसी संस्था में की | डेह्फ्टमें रेग्नीर दि ग्रेफ़ (२०४॥)47 06 27"88.) ही एक सज्जन थे जो ल्यूवेनहुक के काम की हँसी नहीं उड़ाते थे । भ्रफ़ ख्रियोंकी शुक्र-मं थियोमें कुछ नई चीज़ें मालूम करने के कारण रायल सोसायटी के सदस्य बनाए गए थे | एक दिन ल्थ॒ुवेनहुक ने अपने ताल हारा अपनी चीजें भ्रेक्त को दिखाई, जिनको देखकर ग्रेफ़ को बड़ा आश्चय हुआ, ओर ल्यृवेनहुक के इस कार्यंकी तुज्ञनामें उन्हें श्रपना कार्य तुत्छु जान पड़ा । उन्होंने तुरंत रॉयल सोसायटी को लिखा कि वह ह्यूवेनहुक को पत्र लिख कर उसके काये का विवरण प्राप्त करे । रॉयल सोसायटीके पत्र अग॒जीबोंका प्रथम अन्वेषक ल्यूवेनहुक ७५, के उत्तरमें ल्‍्य॒वेनहुक ने अपने कार्य का एक लग्बा विवरण डच भाषामें लिखकर भेजा | इस विवरणमें ल्यूवेनहुक ने मकक्‍्खीके डंक, तथा कुछ फंफूदियों के संबंधके अपने निरी- करों का उल्लेख किया था | रॉयल सोसाइटी के सदस्यों को ल्यूवेनहुक के इस विवरणसे बड़ा आश्चर्य हुआ | इसके बाद सोसाइटी के प्रार्थना करने पर ल्य॒वेनहुक बरा- बर पत्र लिख कर अपनी खोर्जों का हाल बताते रहे | इन ..पश्रेमं बहुतसी निर्थक बातें पड़ोसियों आदिके संबंधकी रहा करती थीं । किन्तु इन निरर्थक बातके बीचमें महत्व- पूर्ण खोजो का वर्णन भी पढ़ने को मिलता था । आज हमें यह जानकर हसी सी आती है कि अशु- जीवों को जो इतनी सरलतासे अनुवीचण य॑त्रमेँ दिखलाई देते हैं, खोज निकालनेमे मनुष्य को इतमी देर ल्गी। ल्यवेनहुक ने ऐसा कौन सा कठिस कार्य उन्हें हे ढ़ निका- ल्ने में किया £ जत्र हम ऐसा सोचते हैं तो हम इस बात को बिल्कुल भूल जाते हैं। कि किसी भी नयी चीज़का खोज निकालना कितना कठिन कार्य है। खोज हो जानेके बाद तो सभी चीज़ें सरल ही दिखलाई देती हैं । ल्यूवेनहुकके पहले अशुजीवोकी खोज के न होने का एक कारण यह भीथा कि उन दिनों जो ताल्न थे वे इतने अच्छे नहीं थे कि उनसे अणुजीव देखे जा सकते | ल्यूवेनहुक ने ही सबसे पहिले ऐसे अनुवीदणयंत्र बताए जो इस योग्य थे कि उनके द्वारा अणुनीव दिखल्ाई पड़े | उन दिनोंके प्रचलित ताज्नों को यदि त्यूवेनहुक भी उपयोग में प्रयत्न करने पर उन्हें भी अशजीव दिखलाई न पड़ते । ल्यूवेनहुक के जीवन में वह दिन सबसे महत्वका था जब उसने वर्षाके जज्को अपने अनुधीचंण-यंत्रमें देखा । साधारण मनुष्यके मनमें तो कभी यह विचार भी नहीं उठ सकता कि वर्षाके जलमें जलके अ्रतिरिक्त कुछ ओर भी हो सकता है। ल्यूवेनहुकको तो केवल यह धुन थी कि वह अपने अनुर्व चण यंत्र द्वारा प्रत्येक पदार्थ को देखे । अपनी इसी धुनमें उसने एक दिन बागमें रखे हुये मिट्टीके बतनमें से, जिसमें वर्षाका पानी इकट्ठा हो रहा था, पानीकी एक बूँद स्लाइड पर रख कर अपने अलनुवीचण यंत्रमें देखा। अशुवीक्षण यन्त्रमें उसने जो कुछ देखा उससे उसे इतना अधिक हे हुआ कि वह लाते तो जीवन पयन्‍्त जोरसे चिल्ला उठा ओर अपनी १६ सालकी पुत्री मेरिया को आ्रावाज लगा कर कहा “शीघ्र यहाँ आओ ओर देखो इस वर्षा के जलमें छोटे जीव हैं जो तेर रहे हैं ओर आपस [8 आप में खेल रहे हैं। ये श्राँखेंसे दिखलाई देने वाले जन्तुओ्रों की अपेज्ञा बहुत ही छोटे हैं ।'” अचावक इस्र प्रकारके जीवोंको पानीमें देखकर ल्यूवेनहुकके मन में क्या विचार उठे होंगे ओर उसे कितनी, प्रसन्नता हुई होगी यह अनुभव करना हम ल्लोगेंके लिए बड़ा कठिन हैं। ल्यूवेनहुककी यह प्रसन्नता कितने गुना बढ़ गई होती यदि उस समय उसे कहीं यह मालूम हो जाता कि उसने उस जीघ-जगतमें प्रवेश किया था, जहाँ के जीव इतना छोटे होते हुये भी इतने शक्तिशाली ओर भयंकर है कि वे मुुष्योंकी पूरी की पूरी जातिको सरलतासे एकदम नष्ट कर सकते हैं । ल्यूवेनहुकको उम्र समग्र क्या पता था कि उसके यही अणुजीव आग उगल्ने वाले बड़े बड़े भयंकर “को ओर बरसोंसे भी अधिक भयंकर है। यही अणुजीव कोमल बच्चों तथा बड़े बड़े शक्तिशाली नरेशोंके जीवनकों क्षणमात्र में निद्यता पूचंक इस प्रकार समाप्त कर देते हैं कि किसी को कुछ पता ही नहीं लगता । उसकी यह खोज बड़े बड़े राज्योंके जीतने तथा नई दुनिया को खोज निकालनेसे भी कहीं अधिक महत्व की थी । ि जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं ल्यूवेनहुक किसी बात पर शीघ्र विश्वास करने वाह्ने मनुष्य नहीं थे। वर्षा के जलमें अणुजीवोंको देखकर ल्यूवेनहुक ने प्रारस्भर्मे यह संदेह किया कि संभवतः उसके निरीक्षणमें ही कोई त्रुटि है क्योंकि इतने छोटे और विचिन्न जीवॉकी सृष्टि का अ्रनुमान कोई कर ही नहीं सकता था। उसने बार- बार उसी वर्षा के पानीकी परीक्षाकी ओर घंटों अनुवीच्षण यंत्र में अपनी आंख गड़ाये निरीक्षण करता रहा। अंतर्मे उसे विश्वास हो गया कि अरणशुकज्ीय सचमुच एक प्रकारके जीव हैं ओर उनकी भी एक सृष्टि है। अधिक ध्यानसे देखने पर उसने यह भी मालूम किया कि यह सब जीव एक ही पकारके नहीं है। एक दूसरेसे भिन्न प्रकारके कितने ही जीव उसने देखे | क्यूवेनहुक ने स्वयं लिखा है कि इन जीवोंको फुर्ती ओर तेजीसे रंगते और तैरते हुये देखनेमें उसे बहुत आनन्द प्राप्त होता था। ७३ विज्ञान, जूलाईं, १६४५ अपने सबसे छोटे जीव की तुलना उसने चीलर की धाँख की लम्बाई से करते हये यह बतलाया कि वह जीव आाँखसे लगभग १००० गुणा छोटा था । _ ल्यूवनहुक ने सोचा कि ये ज॑। आये । क्‍या वे से रंग कर बर्तनमें पहुँच गये ? क्या उनकी सष्टि इश्वर स्वतन्त्र रुपसे कर उन्हें आकाशसे प्रृथ्वी पर ठपका देता है या उनको भी पैदा करनेवाले उन्हींके समान जीव हैं जो उनके माता-पिता हैं ? सन्नहवीं सदीके अन्य डच ल्ोगोंकी भाँति ल्यूवेनहुक को भी ईश्वर ऐसी देवी शक्ति में विश्वास ओर श्रद्धा थी | ईश्वर पर विश्वाप्त होते हुये भी वह यह मानता था कि संसार का प्रत्येक जीव किसी दूसरे जीवसे ही उत्पन्न होता है, अर्थात्‌ प्रत्येक जीवका कोई माता-पिता होता है । सष्टि की रचनाके सम्पन्धर्म उसका यह दृढ़ विश्वास था कि इंश्वर ने सारे जीवित पदार्थों को ६ दिन में उत्पन्न किया ओर उसके बाद वह निश्चिन्त होकर बेड गया । अतः इस विश्वासके आधार पर उसने अपने मनसे यह धारणा निकाल दी कि इस अणजीवों को इंश्वरने पुनः बनाकर आकाशसे टपकाया होगा । साथ ही उसने यह भी सोचा कि बिना किसी पितृजीब के आधार के उस बरतने भी ये आपले आप नहीं उत्पन्न हो सकते। अतः ये अणुजीव फिर कहाँ से ओर किस प्रकार बतनमें आये इस बात को खोज निकालने के लिए सव्युवेनहुक ने प्रयोग शुरू किए | उसने एक छोटे काँचके गिलास को घोकर सुखाया ओर उसे पानीके बतनके झुंहके किनारे रख दिया जिससे केबल वर्षा का शुद्ध जल ही गिल्लासमें आसके। इस गिल्लासके पानी की परीक्षा करने पर इसमें भी जीव दिख- लाई दिए । तब उसने सोचा संभव है यह जीव पानी इकट्ठा करने के बत॑चमें हो पहिले से रहे हों ओर वर्षाके पानी के साथ बह कर उसमें से गिलासमें चलते आए हो | इस विचार का निर्णय करने के लिए उसने एक बड़ी चीनी की प्याक्की ली जार एक ऊची तिपाईं के ऊपर रख कर बाहर वर्षा का जल पकन्न करने के लिए श्ख दिया । ऊंची तिपाई पर प्यात के श्सने में उसका ध्येव यह था कि पृथ्वी पर गिरमेवाले पानी की छींटों प्रथ्वी का कोई पदार्थ प्याल्ी मे च पहुँच जाए। आरम्भ संज[ पानी कि पास कहाँस झाकाशसे वर्षाके जलके साथ गिरे या पृथ्वी [ भाग ६१ प्रथल42४4:%-फ-पम्द् प्याज्ञीमें एकन्नित हुआ उसे उसने फेंक दिया । इसके बाद जो पानी प्यालीमें एकन्रित हुआ उसकी परीक्षा उसने की । इस पानीमें एक भी जीव नहीं था | छ्यूवेनहुंक ने इससे यह निष्कर्ष मिकाला कि जीव आकाश से वर्षाके जलके साथ नहीं आते । बर्षा के इस स्वच्छ जल को उसने संभाल कर रख लिया श्रोर प्रतिदिन उसका निरीक्षण करता रहा | चोभे दिन उसने देखा कि उस जलमें धूल्वके कण तथा सूतके महीन टुकड़ों के साथ साथ अशुजीव भी पहुँच गए थे । वर्षा के जल में अणशुज्ञीब देखने के बाद ल्यूवेनहुक ने विभिन्न स्थार्मोके पानोकी परीक्षा करनी आरण्म की | हवामें रखे पानी, डेहफ्ट की नहरके पानी ओर अपने बाग के कुर्येके पानी की परीक्षा उसने की । प्रथेक पानी में उसे असुज्ीय दिखलाई दिए | इन जीथों का बहुत छोटा आकार उसके किए आश्चयकी बात थी। - यह जीव इतने छोटे थे कि हज़ारों मिलकर भी बालू के एक कण के बराबर नहीं होते थे । पनीरमें पइनेवाले कीड़ों (77074$8) के श्राकारसे इन अणुजीवोके आक:र की तुलना करने पर उसने यह बतचलाया कि यह अखुजीव उस कोौड़े के सामने चैसे ही हैं जैसे घोड़ेके सामने एक मक़्खी । स्यूवेनहुक प्र्येक बात का कारण जानने के लिए उत्सुक रहता था । अपने इसी स्वभावके कारण वह ऐसी खोजें कर सका जिनके संबंधमें उसने पहिलेसे कोई धारणा ही नहीं की थी । एक दिन उसके मनमें प्रश्न उदय कि काल्ीमि क्यों इतनी कड़वी है। उसने सोचाकि काली मिर्च के कणों में संभवतः छोटे छोटे तेज्ञ न॒ुकीले काट होंगे जो जीभ को काटते हों। अपने इस विचार का निर्णय करने के लिए उसने कालीमिच के पतले-पतलने टुकड़े काट कर अल्ुवीषण थंत्रमें देखगा चाहा | सूखी काली मिर्च से पतले टुकड़े जब न कट सके तो उसने उसे कई सप्त ह तक सुलायम होनेके लिए पानीमें भीगे रहने दिया | इसके बाद जब उसने कालीमिच के कण निकाल कर देखे तो उसे उसमें भी अशुजीव देखकर आश्चय हुआ । आणुजीवों की विद्यमानताके बारे में जब ल्युवेनहुक को पूर्णत: संचोप हो गया तब उसने इस संबंधमें रॉयल सोसाइटी को बहुत बादमें पत्र लिखा । इस पतन्नमें उसने यह बतलाया कि बालू के एक कण की बराबरी करनेके लिए लाखों अशुजीव एकत्र करने पढ़ेंगे ओर कालीमिचके पानीकी एक बूंदमेँ २,००,००० से भी अधिक अणुजीव विद्यमान रहते हैं । ल्यथेनहक के पत्र का अंग्रेज़ी अचुवाद रॉयल सोसा इटीके सदस्यों के सम्मुख पढ़ा गया। बहुतसे सदस्यों को इन अणुजीयों की विद्यमानतामें विश्वास नहीं हुआ । वे लोग पनीर के कीड़े को ही इ्रेश्वर की स॒ब्टि का सबसे छोटा जीव मानते थे। लेकिन कुछ सदस्यों ने ल्यूवेनहुक के पत्र की बातों को हँसी में नहीं टाला | वे थह देख चुके थे कि उस समग्र तक ल्यृवेनहुक ने जो कुछ रॉयल सोसा- इटी को लिख! था वह खब ठीक निकला था। अतः उन्होंने सोचा कि अणुजी्यों की उसकी खोजमें भी सत्यता हो सकती है | रॉयल सोसाइटी ने ल्य॒वेनहुक को पत्र लिखकर यह बतलाने की प्रार्थना की कि वह अपने अनु- घवीदण यंत्र बनाने की विधि तथा उसके द्वारा निरोक्षण करने का ढंग सोसाइटी को लिखे । इस पतन्नसे ल्यूवेनहुक को थोड़ा आश्चर्य हुआ । वह अभी तक रॉयल सोसाइटी के सदस्यों को सच्चा दार्शनिक समझता था ! उसने सोचा कि क्‍या डेत्फ़्ट के साधारण लोगों की भाँति रॉयल सोसाइटी के सदस्य. उसकी बात पर हंसते हैं? वह विचारने लगा कि क्‍या रॉयल सोसाइटी को पुरा ब्योरा हिखभा उचित है था फिसीसे कुछ संबंध न रखकर एकान्तर्मं अपना कार्य करना ठीक है । बहुत सोच- विचार के बाद उसने रॉयल सोसाइटी को उत्तर दिया ओर यह विश्वास दिल्लाया कि उसने किसी भी बातकों बतलाने में अतिशयोक्ति से काम नहीं लिया था। पत्रके अन्त उसने लिखा कि डेलफ्ट के बहुतसे सजनों ने इन विचितन्न नए जीवों को उसके अगुवीदण यंत्रमं देखा था । उसने इन अणुजीवों की संख्या तथा आकार का हिसाब लगाने का पूरा ब्योरा भी लिख दिया। सबसे अन्त उसने यह लिखा कि बह डेल्फ्टके प्रतिष्ठित नागरिकों द्वारा अपनी इस खोज की सत्यताका प्रमाणपत्र भी हिखाकर भेज सकता है किन्तु अपने अणुवीदंण यंत्र चनानेकी विधि नहीं बतला सकता । ल्यृवेनहुक में कुछ सनक थी | बह लोगों को अपने अणुवीदण यंत्र में चीजें तो दिखला देता अगुजीवोंका प्रथम अन्वेषक ल्यूवैनहुक -. ७७ था किन्तु किसी को अपना अशणुवीद्रण यंत्र छूने नहीं देता था । रॉयल सोसायटी ने राबहुक (२0007+ 7006 8) नामक सजन के सुपुद यह काम किया कि वह एक अच्छा अ्रणुवीदण यन्त्र बनायें और कालीमिचे को पानीमे कई सघाह भिगाकर उसके पानीकी परीक्षा करं। १४ बम्बर सम्‌ १६७७ में हुक अपना अशुवीक्षण यन्त्र लिए हुये रॉयल सोसायटी की मीटिंग में पहुँचे और बतलाया कि ल्यवेनहक ने जिन विचिनत्र अणुजीयों की खोज की है चह सत्य हे आर थे अशुनज्नीव यहाँ मीजूद हैं। सदस्यों को इन अ्रणुज्ीवों को देखने की इतनी अधिक उत्सुकता हुईं कि सबने हुकके अ्रणुवीक्षण यन्त्रके चारों ओर भीड़ लगा ली । हुक के अशुवीदण यन्त्र में अणुजीयों को देखनेके बाद सब सदश्योने एकमतसे स्वीकार किया कि एयवेनहुक का निरीक्षण आइचर्यजनक था ओर ल्यवेनहुक का यह कार्य किसी आदूगरके कार्यसे कम नहीं था। इस कायके उपल्क्षम रॉयल सोखायटीने व्यूवेनहुक को अपना सदस्य चुना और एक सुन्दर डिप्लोमा एक चाँदी के बक्समें रख कर उसके पास भेजा | इस सम्मान के लिए रॉयल सोला- इूटी को धन्यवाद देते हुये ह्यवेभनहुक नें लिखा कि वह जीवमपर्थव्त सच्चाई के साथ सोसायटी की सेवा करता रहेगा | अपने इन शब्दों का उसने बराबर पालन किया । किस्तु अपना अशुवीदण यन्त्र सोसायटी को देनेसे उसने सदा इन्कार किया | उसने फहा कि वह अपने जीवित रहते ऐसा नहीं कर प्कता । रॉयल सोसायटी ने डा ० मॉलीन्यूक्स (7, )(0]90605) को डसके पास उसके कार्योकी रिपोट ल्लेने भेजा । माँलीस्यक्सने स्यवेनहुक को एक अशुवीदरण यंत्र के लिए काफी धन देनेका भी प्रद्देभन दिया किन्तु वह किसी भी शत पर अपना अणुवीद्षण यंत्र देने के ज्ञिणप तयार नहीं हुआ । यह बात नहीं थी ६ि उसके पास फालतू अणुवीषंण यंत्र न रहे हाँ। उसके पास बहुतसे अशणुवीचण यज्ञ थे किन्तु वह देना ही नहीं चाहता था। उसने भाँलीन्यक्स से कहा किजो भी चीज़ वह देखना चाहे उसके अणुवीदश थंत्रमं देखते किन्तु बह अपना अशणुवीच्ण थंत्र उसे दे नहीं सकता। डा० मालीन्युक्कक्ष को उसने अपने भिन्न-भिन्न नमूने फ विशान, जूलाई, १६४१ [ भाग ६१ दिखलाये । जब तक मालीन्यक्स उसके अशुवीचंण यंत्रमें उसके नमूने देखता रहा ल्यूवे नहुक यह निगरानी करता रहा कि मॉलीन्यक्स उसके यंत्र को छूकर उसके सरबन्धमें कुछ मालूम तो नहीं कर रहा है । माली: न्यक्स ने ल्यवेनहुक से कहा तुरहारा यंत्र बहुत उत्तम है और इंगलेंडमें हम लोगोंके पास जो ताल हैं उनसे हज़ारों गुना अधिक साफ़ इससे चौजें दिखलाई देती हैं ।” ल्यवेनहुक ने उत्तर दिया “मैं कितना चाहता हूँ कि में आपको अपना अ्रनुवीदण यंत्र दिखाऊँ जिसे में स्वयं अपने कार्योंके लिए उपयोगमें जाता हूँ । किन्तु में अपने स्वभाव से लाचार हूँ और इसीसे में उसको कभी किसी को भी देखने नहीं देता--अपने कुटुम्बके लोगों को भी नहीं ।” ह रॉयल सोसाइटी को ल्यूवे नहुक ने अपनी खोज का जो विवरण दिया उसमें उसने बतलाया कि अशुज्नीव प्रत्येक स्थानमें मोजूद रहते हैं । उसने यह बतलाया कि मुख ऐसा स्थान है जहाँ से बहुत आसानीसे अ्गणित अरखुजीव गुल्छों के रूपमें प्राप किए जा सकते हैं। मुख में अणुजीव रहते हैं यह बात ल्यूवे नहुक को कैसे मालूम हुई इस संबंधमें उसने स्वयं रॉयल सोसाइटी को इस प्रकार लिखा था | “मेरे दाँत यद्यपि में १० साल का हूँ बहुत अच्छे ओर मजबूत हैं | में अपने दाँतों की सफ़ाई की सदा फिक्र करता रहा हूँ । प्रतिदिन प्रातःकाल में अपने दाँतों को एक दातूमसे साफ़ करनेकें बाद एक मोटे कपड़ेसे रगड़ कर पोंछ लेता हूँ | सफ़ाई का इतना ध्यान रखने पर भी मेंने एक दिन ताल शीशेसे अपना दांत देखने पर मालूम किया कि दांतों के बीचमें कुछ सफ़ेद पदार्थ लगा हुआ था ! इस सफ़ेद पदार्थकों जांचनेके लिए मेंने इसे दांतसे ख़ु्च कर निकाला ओर शुद्ध पानीमें मिलाकर अशुवीक्षण यंत्र से देखा ! मुझे यह देखकर बहुत आश्चये हुआ कि उसमें भिन्न-भिन्न प्रकारके श्रगणणित अशुजीब इधर-उधर तैर रहे थे। उसमेंसे कुछ का आकार टेढ़े डंडे की तरह था और वे बहुत धीरे-धीरे चलते थे; कुछ चक्राकार आकारके थे जो गोलाईमें तेज़ीसे चक्कर काथते थे; कुछ ऐसे थे जो मछली की भाँति पानीमें उछाल भार रहे हैं, ओर कुछ कलाबाजी लेते हुए चल रहे ५ । मेरा सुंह क्‍या है मानों इन अशुज्ञीबों का पक जगत है।” झपने मुँहके अणजीर्वों का बहुँत देर निरीक्षण फरनेसे धकावट आज्ञानेके कारण वह एक दिन नहरके किनारे ऊँचे ब््ों की छाया में अमण करने निकला | यहाँ उसे एक वृद्ध मनुष्य मिला। ढ्यवेनहुंक ने इसको चर्चा राँयल सोसाइटी को भेजे अपने पत्रमेँ इस प्रकार को है। 'में इस वृद्ध मनुष्यसे बातें कर रहा था जिसने बढ़ा संयमितत जीवन बिताया था और जिसने अपने जीवनमें कभी तम्बाकू और शराब का प्रयोग नहीं किया था कि अचानक मेरी दृष्टि उसके दांतों पर पड़ी जो मुझे बहुत गंदे मालूम हैए । मैंने उससे पूछा कि उसने कितने दिनों से अपने दांतों को साफ़ नहीं किया था । उसने जवाब दिया कि उसने आजतक अपने जीवनमें कभी भी दांत साफ़ नहीं किये थे।” तुरन्त ल्यूवेनहुकके मस्तिष्कले सारी थकान दूर हो गई और उसने सोचा कि इस मनुष्यके मुँइमं तो अशजीवोकी एक बहुत बड़ी सृष्टि होगी। वह उस मनुष्यका अपनी प्रयोगशालामें लिया जाया ओर उसके दाँतोंमें जमे पदायकों खुचं कर उसका निरीक्षण किया । स्यूवेनहुकका विचार बिल्कुल ठीक निकला। उस वृद्धके सुखमें करोड़ों अशुजीब विद्यमान थे। इन अशाजीवोमें उसे एक नए प्रकारका अशुजीव | दिखलाई दिया जो सॉपकी तरह अपना शरीर टेढ़ा करता हुआ रंग रहा था । ल्यूवेनहुक ने अपने विवरण में कहीं भी यह नहीं कहा है कि अशुजीव हानि पहुँचाते हैं। उसने अणुजीवों के पौनेके जलमें, मुखमें, मेढक और घोड़ोंकी अतड़ियोंमें तथा स्वयं अपनी विष्टामें देखा । उसने यह भी निरीक्षण किया कि जिस समय उसे पतले दस्‍्तों की शिकायत हुई उस समय उसकी विष्ठामें अणशुजीव बहुत अधिक संख्यामें विद्यमान थे | यह निरीक्षण करने पर भी उसे कभी इत बातका संदेह तक नहीं हुआ कि इन्हीं अ्रणुजौवों के कारण उसे पेचिश हुई। वर्तमानकालके जीवाख वैज्ञानिक यदि उश्चकी जगह होते तो तुरूत यह कह बैठते कि अणुजीवोके कारण ही विशेष रोग होते हैं। अधिकांश रोगोंके जीवाश इसी अकार मालूम किये गये हैं। जब किसी रोगकी दशामें किस्ली विशेष प्रकारके संख्या ४ ] $ ] अ्ंगुजीवोंका प्रथम श्रन्वेषक ल्यूवेनहुक ७६ अणुजीव दिखलाई . दिए तो वतंमान कालके जीवाशु वैज्ञानिकों ने तुरंत उन्हें उस रोगकेा उत्पन्न करने वाक्ा बतलाया और अधिकतर इस प्रकारका कथन ठीक भी निकक्ला । किन्तु ल्यूवेनहुकके मस्तिष्कमें इतनी घिचार शक्ति नहीं थी। वह केवल प्रयोग द्वारा नई बस्तुओोके जाननेमें ही सल्लग्ग रहता था। उसकी सहज-उुद्धिको प्रत्येक वस्तु बहुत कठिन प्रतीत होती थी और इंसीलिए वह कभी यह प्रयव्न नहीं करता था कि किसी बातका मूलकारण मालूम करे। समयकी गतिके साथ ल्यृवेनहुक भी अपने निरीक्षण कार्यमें अधिकाधिक संक्षग्न होता गया। अपने इस परिंश्रमके फत्न-स्वरूप उसने बहुत सी आश्चर्यजनक खोजें कीं। उसने प्रथम बार मछुलीकी प्‌ छ्में रक्तकेशि- काओं ( 0]006 (7997]9768 ) के जाल्लको देखा ओर यह मालूम किया कि इनके द्वारा घमनियोसे शिराओं में रक्त जाता है। हार्वेकी शरीरके रक्तपरिश्रमणकी खोज में उसने अपनी इस नई खोजसे पूर्णता ज्ञादी। उसमे मनुष्यके शुक्र-रसमें शुक्र-कीटोंकी भी खोज्ञ की | कुछ वर्ष बीतनेके बादु समस्त यूरुप ह्यवनेहुकके नामसे परिचित है| गया | रूस का राजा पीटर उससे . मिलने आया ओर उसके प्रति अपना आदरभाव प्रकट किया । इंगलेंडकी रानी डेहफ्ट केवल इस लिए आई कि वह ल्यृवेनहुकके अगुवीचंण यंत्र द्वारा उसकी खोजी हुई आश्चर्यजनक बस्तुओंको देखे । ल्यूवेनहुक न्यूटन ओर बॉयलके बाद रॉयल सोसाइटी का सबसे प्रतिष्ठित सदस्य माना ज्ञाता था। प्रशंसाये उसके मस्तिष्क पर कुछ भी प्रभाव नहीं डालती थोीं। वह सदा नम्र बना रहा क्‍योंकि उसे उस ईश्वर पर पूर्ण श्रद्धा थी जे सारी सुष्टिका जनक और पालनकर्ता है । वह सदा सत्यका उप[सक रहा। उसका स्वास्थ्य प्रारम्भसे ही बहुत अच्छा था। ८० वर्षकी अवस्थामें भी अरणुवीक्षण यंत्र्से कार्य करते समय उसका हाथ हिलता नहीं था। उसको संध्या समय थोड़ी शरात्र पीने की आदुत शुरू से ही थी। वह डाक्टरोंके सदा विरुद रहा। वह कहा करता था कि डाक्टर रोगेंके बारेमें कया जान सकते हैं जबकि उन्हें शरीरकी आंतरिक रचनाके सम्बन्ध्म इतना भी नहीं मालूम है जितना कि भुझे मालूम है। उसने अपने रक्त की भी परीक्षा की थी । उसने रक्तमें गोलकण देखे और यह मालूम किया कि ये कण धमनियंसे शिराश्रोमें रक्त- कोशिकाओं द्वारा जाते हैं। एक दिन प्रात:काल उसे कुछ ज्वर आया। उसने विचार किया कि उसका रक्त कुछ गाद हो गया है श्र इस लिए इसका बहाव धमनियंसे शिराओ्रोंमें ठीकसे नहीं हो रहा दे । उसने से।चा कि रक्तको पतला करनेसे रोग दूर हो जायेगा । इस विचारसे उसने गर्स गर्म कहवा इतनी अ्रधिक मात्रामें पिया कि उसे खूब पस्तीना निकलने लगा। रॉयल सोखाहुटी को उससे पत्र में लिखा कि यदि इस विधिसे मेरा ज्वर दूर न हे सका तो अस्पतालों की सारी द॒वायें भी इसे दूर नहीं कर सकेगी । गर्म कहवा पीनेसे श्रणुज्ीवोके बारेसें उसे एक नई बात मालूम हुई । एक दिन प्रातःकाज्न गर्म कहवा पीने के बाद तुरन्त ही उसने अपने सामनेके दांतोमें जमे सफेद पदार्थका पुन; निरीक्षण किया | उसे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि एक भी अ्रशुजीव उसमें मौजूद नहीं थ।। उसने सोचा था कि यदि जीवित नहीं तो कमसे कम मरे हुये अणुजीव तो अवश्य ही उसे देखने को मिलेंगे | ल्यूवेनहुक ने इतना गर्म कहवा पिया था कि उप्तके मुखमें छाले पड़ गये थे । फिर उसने पीछेके दांतों में जमे पदार्थका निरीक्षण किया। उसे पुनः यह देख कर आइचर्य हुआ कि वहां पहिलेकी अपेज्ञा बहुत श्रधिक संख्यामें अणुजीव एकन्नित हो गये थे --इतने अधिक कि वह सोच भी नहीं सकता था। उसने इसका कारण जाननेके लिये कुछ प्रयोग किये । उसने एक शीशेकी नलीमें पानीके साथ अशुजीवों के क्ेकर इतना गर्म किया कि नत्ली हाथसे छुई न जा सके । इसके बाद उसने पानीको ठंडा किया। परीक्षा करने पर उसने देखा कि सब अणुज्ीव शिथिल्ष ओर गतिहीन हो गये थे--अर्थात्‌ वे मर गये थे। इससे उसने यह निष्कर्ष निकाल कि सामनेके दांतोंके बीचके अणुजीव गर्म कहवेके प्रभावसे मर गये थे, पीछे दांतों तक पहुँचनेमें कहवा कुछ ठंडा पड़ गया था अ्रतः वहांके अणुज्ञीव नहीं ८० विज्ञान, जूलाईं, १६४५ | भांग ६३१ मर सके थे--बल्कि अन्य स्थानोंके अशुजीब भी जा मरनेसे बचकर भाग सके थे वहाँ आकर एकन्नित हो गये थे। उलने अ्रशुजीबेंके आन्तरिक अंगों को मालूम करने का प्रयत्न किया। उम्तका यह अनुमभाव था कि मनुष्यों की तरह इन छोटे जीवों भी मस्तिष्क, हृदय, फ्रेफड़े, यक्ृत आदि सब अंग हैं। यह धारणा उसके मनमें पिस्सुश्नका अ्रशुवीदण यंत्रसे देखने पर हुईं थी। पिस्सू यथ्यपि बहुत सरल जीव है फिर भी अ्रदुवीदण यन्त्रमें देखने पर उसने ज्ञाद किया कि उद्चके आतररिक अंगोका अच्छा सज्ञग्न है। क्यृवेनहुक ने सेचा कि सम्भव: इन्हीं की भांति अशुजीवर्में भी आंतरिक अंगॉका रुज्ञझन होगा जे! उसे अपने अखुबीचण यन्त्र दिखलाई नहीं दे रहा है। यद्यपि ल्युवेनहुक यह नहीं मालूम कर सका कि भजुष्योंके रोग इन्हीं अशुज्ीवोंके कारण होते हैं और : इस प्रकार यह उनके संहारकर्ता है, उसने इतना अवदय बतलाया कि अ्रणुजीच अपनेसे भी बड़े जीवोंका भक्तण कर लेते हैं । एक दिन वह नहरमभें निकाले हुये सीपी जातिके जीवों ( 70888] ) का निरीक्षण कर रहा था । उसने देखा कि बहुतोंके गर्भमं हजारोंकी संख्यामें अण थे। ' डसे आइचय हुआ कि जब गत्येकके गर्भमें हजारों बच्चे विद्यमान थे तो क्‍या कारण था जे। नहर इन जीवोंसे पट कर रुक नहीं गई | वह इन अ णोंकी वृद्धिका प्रति दिन अशुवीदण यन्त्र द्वारा निरीक्षण करता रहा | उसने देखा कि जीवके सीपीके खोल ( 8])9]] ) के भीतर यह अण घौीरे धीरे कम होते जारहे थे । इसका कारण यह था कि इन अ णंके वे अखजीव बष्ट करते जारहे थे जिन्होंने इन सीपीके कीड़ों पर आक्रमण कर रखा था। उसने कहा -- जीवन जीवन द्वारा ही पोषित३ हो यही ईश्वरकी इच्छा है। एक दृष्टिसे यह लाभदायक ही है क्योंकि यदि इन सीपीके कीड़ोंके बच्चोंको खानेवाले अणुजीव न हों तो धीरे-धीरे इनकी बड़ी संख्यासे सारी नहर ही भर जाये ओर उसका बहना रुक जाये ।” इशस् प्रकार एक बच्चेकी भांति स्युवेनहुक इश्वरकी सृष्टिकी प्रत्येक बातको नम्रतासे मावकर उसके अरस्तित्वके लाभ के समझता था। ८० घर्षकी अवस्था हो जाने पर उसके दांत हिलने लगे | उसने तुरन्त अपना दाँत डखाडइ़कर अशुवीद्ण यन्त्रके नीचे रखा । उसने देखा कि दांतके अन्द्रका भाग बहुत खोखला हो गया था और उसमें बहुतसे अशुजीय विद्यमान थे । ८० यर्षकी अवस्थामें भी यह बड़ी मेहनत और लगनसे अपना काये करत। था। इस अवस्थामें भी बह घंटों अण॒वी बंण यम्न्रके ऊपर अपनी आँखें गड़ाए्‌ निरीछंण कार्य किया करता था। उसके मित्रों ने उसे समझाया कि अब उसे आराम करना चाहिये। उसमे उत्तर दिया, “पतभाड़में जो फल पकता है वह अधिक स्थायी होता है। उसके जीवनका भी यह पतमड़का समय है |” स्यवेनहुक केवल अपनी खोजें दूसरों के! दिखलाना ओर बतलाना ही जानता था। उसने किस्लीको अपनी विद्या पढ़ानेकी इच्छा नहीं की । वह कहता था कि यदि में एकको पढ़ाऊँगा तो बहुतोंकों पढ़ाना पड़ेगा और यह एक दासताका काय है। वह सदा अपनेके स्वतन्त्र रखना चाहता था | सच १७३३ में ६३ बप की अबस्थारमें जब वह अपनी ऋत्युशय्था पर था उसने अपने एक मिन्रके अपने दो अन्तिम पत्न रॉयल सेज्ाइटी के भेजनेका काम सुपुर्द किया | इस प्रकार उसने रागल सोसाइटीके! अंत तक अपने कार्योका विवरण भेजकर ९० वष' पहिले दिये हुये अपने बचनका पालन किया । यही उम्र ल्यृवेन्‌हुकके जीवनकी कहानी है जिसने अणुर्जावों की सष्टिकी सबसे पहले खोज की । स्यूवे नहुंक के बाद कई अधिक प्रसिद्ध अशुजीव खोजक हये जो ल्यूनवेन्‌हुकसे अधिक बोग्य थे और जिनका नाम इस समय तक भी उससे अधिक प्रसिद्ध है किन्तु इतना अवश्य मानना पड़ेगा कि उनमेंसे कोई भी ल्युनवेनहैंक को सच्चाई ओर लगनकी बराबरी नहीं कर सकता । 00050 22“, ४०4५-०० संख्या ४ | जैन प्रश्नशाख्रका मूलाधार ले०--पं० नेमिचन्द्र शास्त्री, न्याय ज्योतिष तीर्थ, साहित्यर॒त्न, आरा प्रश्शशास्त्र फलित ज्योतिषका महत्त्पूर्ण अंग है। इसमें प्रश्नकतके प्रश्नानुसार बिना जन्‍्मकुण्डलीके फल - बताया गया है | तात्कालिक फल बतलाने के लिये यह शास्त्र बड़े काम का है। जैन ज्योत्तिषके विभिन्न अंग्मे यह एक अत्यन्त विकप्चित एवं विस्तृत अंग है। उपलब्ध जैन ज्योतिष अम्धोंमें प्रश्न-ग्रन्थों की ही बहुलता है। इस शास्त्रमें जैनाचार्यो ने जितनासूचम फलका विवेचन . किया है उत्तता जैनेतर ग्रश्न-अन्योंमें नहीं है। प्रश्नकर्ता के प्रश्नानुसार प्रश्नोका उत्तर ज्योतिषमें तीन प्रकारसे दिया जाता है--- ( १ ) प्रश्न काक्नको निकाल कर उसके अनुसार फल बतलाना | इस पसिद्धान्तका मूल्ञाधार समय का शुभाशुभत्व है--समयानुसार तात्काज्षिक प्रश्न कुंडल्ली बताकर उससे ग्रहोंके स्थान विशेष द्वारा फल्ष कहा जाता है । इस पस्विद्धान्तमें मूजरूपसे फलादेश सम्बन्धी समस्त कारंबाई समय पर ही अवलग्बित है। (२) स्वर सम्बन्धी सिद्धान्त है। इसमें फल बतलाने वाला अपने स्वर ( श्वास ) के आगमन ओर निर्गमन से टृष्टा निष्ट फलका प्रतिपादन करता है । इस सिद्धाः्तका मूलाधार प्रश्नकर्ताका अदृष्द है क्योंकि उसके अहृष्टका तत्स्थानीय वातावरणके ऊपर प्रभाव पड़ता है, इसीसे वायु भी प्रकस्पत होकर प्रइनकर्ताके अद्ृष्टानुकूल बहने लगती है ओर चन्द्र एवं सूर्य स्वरके रूपमें परिवर्तित हो जाती है।यह सिद्धान्त मनोविज्ञानके निकट नहीं है। केवल अनुमान पर ही आश्रित है, अतः इसे अति -प्राचीनकालका अ्रविकृसत सिद्धात्त कह सकते हैं | (३ ) अश्नकरत्तरे प्रश्नात्रोंसे फल बतलाना है। इस सिद्धान्तका मूलाधार मनोविज्ञान है क्योंकि विभिन्न मानसिक परिस्थितियों के अनुसार प्रश्नकर्ता भिन्न-भिन्न प्रश्नाक्षरों का उच्चारण करते हैं । इन तीनों सिद्धान्तोंकी तुलना करने पर लग्न और स्वर वाले सिद्धाल्त प्रश्नात्र वाले सिद्धान्तकी श्रपेज्ञा जैन प्रश्नशास्रका मूलाधांर _ देर स्थूल और अमनोवैज्ञानिक हैं तथा कभी कदाचित व्य- भिचरित भी हो सकते हैं । जैसे उदाहरणके लिये मान लिया कि दुस व्यक्ति एक साथ एक ही समयमें एक ही प्रश्नका उत्तर पूछनेके लिये आये; “इस समयकी लग्न दुसों व्यक्तियोंकी एक ही होगी तथा स्वर भी एकही होगा । अतः सबका फल सहश ही आवेगा । हाँ, एक दो सेकिन्डका अन्तर पढ़नेसे नवांश, द्वादशांशादियें अन्तर भन्ने हो पढ़ जाय, पर इस अन्‍्तरसे स्थूल फल्ष में कोई फके नहीं पड़ेगा । इससे सभीके प्रश्नोंका फत्न हाँ था नाके रूपमें आयेगा । लेकिन यह संभव नहीं कि द्सों व्यक्तियोंके फल्न एक सदृश हों, क्योंकि किस्रीका कार्य सिद्ध होगा किसी का नहीं भी । तीसरे सिद्दान्तके अनुसार दु्सों व्यक्तियोंके प्रश्नात्तर एक नहीं होंगे, किन्तु भिन्न-भिन्न मानप्षिक परिस्थितियोंके अनुसार भिन्न-भिन्न होंगे । इससे फल्न भी दुर्खों व्यक्तियोंके अलगन्ञ्नत्नग . आयेगे। जैन प्रश्नशास्त्रमें प्रश्नातरोंसे ही फ़ल्नका प्रति- पादन किया गया है, इसमें लग्वादिका भ्रपन्न नहीं है । अत: इसका मूल|घार मनोविज्ञान है| बाह्य ओर आधभ्यन्त- रिक,. दोनों प्रकार की विभिन्न परिस्थितियोंके आधीन- मानव मनकी भीतरी तहमें जेसी भावनायें छिपी रहती हैं वैसे ही प्रश्नात्र निकलते हैं । मनोविज्ञानके परिदतों का कथन है कि शरीर यन्त्रके समान है जिसमें किसी भोतिक घटना या क्रियाका उत्तेजन पाकर प्रतिक्रिया हंती दे । यही पअतिक्रिया मानवके आचरणमे प्रदर्शित हो जाती है। क्योंकि अबाधभावानुसइसे हमारे मनके अनेक गुप्त भाव भावी शक्ति, अशक्तिके रूपमें प्रकट हो जाते हैं तथा उनसे समझदार व्यक्ति सहजमें ही मनकी धारा ओर उससे घटित होनेवाले फल्को समझ लेता है। आधुनिक भनोविज्ञानके सुप्रसिद् परिडत फ्रायड के मतानुसार भनकी दो अ्रवस्थायें हैं-.सशान और निश्ञान । सज्ञान अवस्था अनेक प्रकारसे निज्ञान अवस्था के द्वारा ही नियन्त्रित होती रहती है। प्रश्नों की छान- बीन करने पर इस सिद्धान्तके अ्रभुसार पूछे जाने पर मानव निर्शान अवस्था विशेषके कारण ही झट उत्तर देता दे ओर उसका प्रतिबिमग्ब सज्ञान मानसिक्‌ अ्रवस्था देर विज्ञान, जूलाई, १६४९ पर पड़ता है । अतणव प्रश्नके मूलमें प्रवेश करने पर संज्ञात इच्छा, असंज्ञात इच्छा, अ्रन्तर्श्ञात इच्छा और निर्ञात इच्छा ये चार प्रकार की इच्छायें मिल्वती हैं। इन इच्छाओ्रींमं से संज्ञात इच्छा बाधा पाने पर नाना प्रकार से व्यक्त होनेकी चेश करती है तथा इसीके कारण रुद्ध या अवद्मित इच्छा भी प्रकाश पाती है। यदि हम संज्ञात इच्छाका प्रकाश कालमें रूपान्तर जान सकते हैं, किन्तु असंज्ञात या अज्ञात इच्छाके प्रकाशित होने पर भी हठात कार्य देखनेसे उसे नहीं जान सकते । विशेषज्ञ प्रश्गावरोंके विश्लेषणसे ही असंज्ञात इच्छाका पता ... क्ञगा सकते हैं। फ्रायडने इश्नी विषयकों स्पष्ट करते हुए - बताया है कि सानवका संचालन प्रवृत्ति सूलक शक्तियों से होता है श्र ये प्रवृत्तियाँ मानवकों सदेव प्रभावित करती रहती हैं । मनुष्यके व्यक्तित्वका श्रधिकांश मांग अचेततन मनके रूपमें है जिसे प्रवृत्तियोंका अशान्त समुद्र कह सकते हैं | इन प्रव्नत्तितर्मे प्रधान रूपसे काम और * गौण खूपसे अन्य इच्छाओंकी तरंगें उठती रहती हैं। मनुष्यका दूसरा अंश चेतन मनके रूपमें है, जो धात- प्रतिघात करने वाली कामनाओं से प्रादुभूत है ओर उन्हीं को प्रतिबिम्बित करता रहता है | बुद्धि मानवकी एक प्रतीक है। उलीके द्वारा वह अपनी इच्छाओंको चरिताथ करता है। अतः सिद्ध दे कि हमारे विचार, विश्वास, कार्य ओर आचरणं जीवनमें स्थित चासनाश्रोंके प्रति- रछाया मात्र हैं। प्रश्नावरोंके विश्लेषण द्वारा भूत और भविष्यत्‌ रूपमें स्थित बुद्धिकी समस्त प्रवृत्ति मूल्नक क्रियाएं प्रकट हो जाती हैं| सॉराश यह है कि संज्ञात इच्छा प्रत्यक्षरूपे प्रइनाक्षरोंके रूपमें प्रकट होती है ओर इन प्रद्नाक्षरमिं छिपी हुई असंज्ञात ओर निर्शात इच्छाओंकों उनके बिश्लेषणसे अवगत किया जाता है | जैनाचायने प्रश्नशाखमें. उक्त असंज्ञात और निर्शात इच्छा सम्बन्धी सिद्धान्तों का विवेचन किया है | कुछ सनोवैज्ञानिकोने बतलाया है कि हमारे मस्तिष्क के भध्यस्थित कोषके आभ्यन्तरिक परिवतंनके कारण मानसिक विन्ताकी उत्पत्ति होती है। मस्तिष्क में विभिन्न जान कोष परस्पर संयुक्त हैं। जब हम किसी व्यक्ति से मानसिक चिन्ता सम्बन्धी प्रइ्नन पूछने जाते हैं तो उक्त [ भाग है ज्ञान कोषोंमें एक विचित्र प्रकारका प्रकम्पन होता है जिससे सारे ज्ञानतन्तु एक साथ हिल उठते हैं। इन तन्तुश्रोंमें से कुछ तम्तुश्रीका प्रतिबिग्ब श्रश्ञात रहता है। प्रश्नशास्त्रेके विभिन्न पहलुओं में--चर्या, चेष्ट आदि के द्वारा असंश्ञात या निर्शात इच्छा सम्बन्धी प्रतिबिम्ब का ज्ञाव किया जाता है। यह स्वयं सिद्ध बात है कि जितना असंज्ञात इच्छा सम्बन्धी प्रतिबिग्बित अंश--..जो छिपा हुआ है, केवल अलुमानगम्य है, स्वयं प्रश्नकर्ता भी जिश्नका अश्युभव नहीं कर पाया है, प्रश्नकर्ताकी चर्या ओर चेष्टासे म्रकट हो जाता है। जो सफल गणक चर्या “--प्रश्वकर्ताके उठने, बैठने, आसन, गमन . आदिका ढंग[एवं चेष्ट--बात-चीतका ढंग, अंग-स्पश, हाव-भाव, आकृति विशेष आदिकां मर्मझ होता है वह मनोवैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा भूत ओर भविष्यत्‌ काल सम्बन्धी प्रद्ननों का उत्तर बड़े सुन्दर ढंगसे दे सकता है। आधुनिक पाश्चात्य ज्योतिपके सिद्धान्तोंके साथ प्रश्नाचर सम्बन्धी ज्योतिषकी बहुत कुछ समानता है । पाश्वात्य फल्नित ज्योतिषका प्रत्येक अंग मनोविज्ञानकी कसोटी पर कस कर रखा गया है, इसमें ग्रहोंके सम्बन्धसे जो फल बत- - लाया है वह भी जातक ओर गणक दोनोंकी असंज्ञात और संज्ञात इच्छाश्रों का विश्लेषण ही हैं। जैनाचायनि प्रश्नकताके मनके अनेक रहस्य प्रकट करने वाले प्रश्नशाख्की पृष्ठभूमि मनोविज्ञानको ही लिया है । उन्होंने भात:काजसे लेकर मध्यान्हकाल तक फलका नाम, भमध्यान्दकालसे लेकर समन्ध्याकाज तक नदीका नाम ओर सन्ध्याकालसे क्लेकर रातके १०-१५ बजे तक पहाइका नाम पूछ कर म्इनका उत्तर दिया है | केवल ज्ञानप्रश्नचडामणिमें प्रश्वकत्ताके अश्नके कथनानुसार अ्रत्तरों से तथा अच्षर स्थापित कर उनका स्पश कराके प्रश्नोका फल बताया है । फल अवगत करनेके लिये अ क चट तप॒यश अक्षरोंका प्रथम वर, थ्रा ऐस छुझ धफ रप शअ्रक्तरों का द्वितीय वर्ग, इ श्रोग ज डदु बल स अछ्रों का तृतीय वर्ग; ईंओघमढधघभ व ह, भ्रक्तरोंका चतुर्थ वर्ग और उऊऊझकन खणनमर्अ श्र: अचज्रों का पंचम वर्गकी संज्ञा बताई है । इन पॉँचों वर्गों को स्थापित करके आलि* > खिया ४ | जैन प्रश्नशाख्रका मूलाधार हरे गित, असंयुक्तादि आठ भेदों द्वारा प्रश्नकर्ताके जीवन- मरण, हानि-लाभ१, संयोग-वियोग एवं सुख-दुःखका विवे- चन करना चाहिये। सूचम फलका ज्ञान करनेके लिये अधरोत्तर और वर्गोत्तर वाला निम्न प्रकार बताया है-- ... अधरोत्तर, वर्गोत्तर और वर्ग संयुक्त अधरोत्तर इस वर्ग अग्रके संयोगी नो भं्गों--उत्तरोत्तर, उत्तराधर, अधरोत्तर, अधराधर, वर्गोत्तर, अक्षरोत्तर, स्त्ररोत्तर, गुणोत्त और आदेशोत्तके द्वारा श््षात और निर्ज्ञात इच्छाओरोंका विश्लेषण किया है ।२ प्रश्नोंके प्रधानतः दो भेद बताये हैं--वाबचिक ओर मानसिक | वाचिक प्रश्नोंके उत्तर उपयुक्त अधरोत्तर, वर्गोत्तत आदि निश्रमोंसे दिये गये हैं ओर मानसिक प्रश्नों के उत्तर प्रइनावरों परसे जीव, धातु ओर मूल ये तीन प्रकारकी योनियाँ निकाल कर बताये हैं | अआ हु ए झो अः इक खगघ चछुजमकूटडडढयशह ये इक्कफीस वण जीवाचर; उ ऊ अं त थद्ध प फ ब भवस ये तेरह वर्ण धावक्षर ओर ई ऐ श्रोकण ण नमलरप ये ग्यारह वर्ण मूलाक्ष॑र संज्ञक कहे हैं। अश्नाक्षरों में जीवाचरों को अधिकता होने पर जीव सम्बन्धिनी, धावत्षरों की अधिकता होने पर धातु सम्बन्धिनी ओर मूलाचरों की अधिकता होने पर मलाच्र सम्बन्धिनी चिन्ता होती है | सूच्मताके लिये जीवाछ्षरोंके भी द्विप चतुष्पद, अपद ओर पादर्सकूल ये चार भेद बताये हैं अर्थात्‌ अए कच ट तप य श ये अच्षर ह्विदु, आ ऐ खछुडथफर ये चतुष्पद; इ जो गज द बल स अपद और ईओघम ढ घभ वहये पाद संकुल संज्ञक होते हैं । द्विपद योतिके देव, मनुष्य, पत्ती भर राक्षस ये चार 'पतान्यच्षराणि सर्वाद्च कथकस्य वाक्यतः प्रश्नाद्वा ग्रहीत्वा स्थापयित्वा सुष्ठु विचारयेत्‌ । तद्यथा--संयुक्त असंयुक्त', अमिहत:, अनभिहतः, अभिधातितः, इत्येता न्पंचालिगिताभिधूमितदस्धांश्च न्रीन्‌ क्रिया विशेषान्‌ प्श्ने तावहिचारयेत्‌ |”! अहरोत्तर बग्गोत्तत वोण य संयुतं अहरम । जाणइ परणायंस्रो जांणद ते हावणं सयलम ।| भेद भ्रत्तर सहित बताये गये हैं। सृच्मताके लिये देवों के चार भेद--अकारमें कत्पवासी, इकारमें भवन वासी, एकारमें व्यन्त और श्रोकारमें ज्योतिषी देवों की चिन्ता बतायी है. मनुष्य योनिके पाँच भेदोमे श्र क च ट त प यश शभक्तर ब्राह्मण योनि संज्क; आ.ऐ ख छठ थफ रप क्षत्रिय योनि संज़्|: इओ गज डदब लस वैश्य योनि संशक; ई औध सर ढ घधम वह शूद्ध योनि संशक और उऊ डज ण नम अं अः अन्तयज योनि संज्ञक कहे गये हैं । पश्नमें जिस योनिके अच्तरों की अधिकता हो उसी योनि घनन्‍्बन्धी चिन्ता समभझनी . चाहिये। इस मनुष्य योनिर्मे भी आलिंगित प्रश्नात्र ० होने पर पुरुष सम्बन्धी चिन्ता, अभिधूमित प्रश्नाक्षर होने : पर स्त्री सरबन्धी ओर दग्ध पश्नाक्षर होने पर नपुंसक सम्ब-धी चिन्ता जाननी चाहिये। स्त्री-पुरुषोंके भी रूप रंगको जाननेके लिये विशेष विचार करते हुये लिखा है कि आलिंगितमें गौर वर्ण: अभिधूमितर्में इयाम और दग्धम कृष्ण बण वाले व्यक्ति की चिन्ता रहती है। इसी प्रकार बालक, युवक ओर वृद्ध सम्बन्धी चिन्ता का अवान्तर प्रश्नात्षरके द्वारा स्पष्ट विवेचन किया है। यो साधारण दृष्टिसे यह विचार केरलके विचारके समान ही प्रतीत होगा, परन्तु केरलमें प्रश्नाक्षरोंके वण और सात्राओंके ध्रुवाइसे गणित करके प्रश्नोंका उत्तर दिया गया है। लेकिन जैन प्रश्नशास्त्र में वर्ण-सात्राश्रों के ध्रुवाक्लेके बिना केवल प्रइनाक्षरोंके सूचम विचार विनिमय परसे ही प्रश्नोंके उत्तर दिये गये हैं। दूसरी बात यह है कि केरलकारके सामने जैन प्रइनशास्त्रके चन्द्रोन्मीलन आयज्ञानतित्षक आदि ग्रन्थ रहे हैं, यह ग्रन्थ कारके खण्डन रूप" प्रोक्त चन्द्रोन्मीलनं शुक्रवस्त्रस्तच्चायुडं?” इत्यादि वाक्यसे सिद्ध है। इसी प्रकार राक्तस ओर पक्ति- योनिके भी अनेक भेद प्रभेद करके उत्तर दिये गये हैं। बिना गणितके यह मनुष्य सम्बन्धी विचार अत्यन्त गढ़ ओर गम्भीर है, इसके द्वारा जीव सम्बन्धी मानसिक चिन्ताका ज्ञान भज्ी ग्रकार हो सकता है। तथा चोरंके रंग, आयु, कद, जाति पुवं॑ नामादिका ज्ञान भी भले प्रकार हो सकता है । | धातु योनि के दो भेद्‌ हैं--धाग्य ओर अधाम्य | त द्‌ फोटोग्राफी संबंधी कुछ शब्दों की व्याख्या [ डाक्टर गोरख असाद ] एक्सपोज्ञर काउंटर (७७४|०08976 00प07॥867) -- काउंटर का अर्थ है गिनने वाला । एक्सपोज़र काउंटर एक ऐसा प्रबंध है जो बराबर सूचित करता रहता है कि कितनी बार प्रकाश-दर्शन दिया जा चुका है। साधारण केमेरों में यद्द प्रबंध नहीं रहता । उनमें एक खिड़की लगी रहती है जिसपर लाल सेलुलॉयड लगा रहता है और इसके , द्वारा फिल्‍म के साथ छागे काराज़ पर छुपा नंबर पढ़ा जा सकता है। पहले जो फिल्म बनते थे वे लाल रोशनी से - खराब नहीं होते थे परन्तु अब ऐसे भी फिल्म ( पेनक्रोमेटिक फिल्म ) बनते हैं जो ज्ञाल रोशनी से खराब हो जाते हैं । इस लिये या तो ज्ञाल खिड़की पर काला चिप्काऊ फीता : चिपकाये रहना पड़ता है जिसे केवल प्रकाश-दशन देने के बाद फिल्म के लपेटते समय संख्या देखने को खोलते हैं या खिड़की पर ढकक्‍्कन लगा रहता है या केमेरे में एक्ध्रपोज़र काउंटर कगा रहता हैं जिसमें कोई सुई गिनतियों पर घूमती है या कोई अन्य उचित प्रबंध रहता हैं। यदि केमेरे में प॒बठउरअंसा अच्षर घाम्य ओर घ-थ घफ भ ऊव ए अक्षर अधाम्य संज्ञक हैं । सृचमताके लिये धाम्यके सुवर्ण, रजत, ताम्न, काँसा, लोहा, सीसा, बन्िपु ओर रेतिका ये आठ भेद बताये हैं ओर इनका क्रमाक्षर विभा- जन बढ़ा मनोवैज्ञानिक है। इसी अकार मूल योनिके वृत्त, गुल्म, जता ओर बहली ये चार भेद बताये हैं दथा इनके कई भेद प्रभेद भी स्थिर कर अक्षर विभाजन किया हैं, इस पर से मानसिक मृल सम्बन्धी चिन्ता का ज्ञान बहुत अच्छी तरहसे हो सकता है | वस्तुतः जैनाचार्यों ने मानसिक प्रश्नोका बढ़ा ही मनोवैज्ञानिक विशलेपण किया है | प्रश्नोंकी सभी प्रक्रियाश्रोंका मूलाघार सनो- विज्ञान ही लिया है। वर्ण विभाजनमें जो जो संख्याएं रखी हैं वे श्रत्यन्त सार्थक ओर सन की अ्यक्त भावनाओं को प्रकाशित करने वाली हैं । । विज्ञान, जूलाई, १६४४ [ भाग ६१ _ फिल्म काउंटर हो तो अष्छा ही है। न हो तो भी काम चल सकता है । . डबल एक्स्पोज़र (१0घ७]७ 65७0807७)-अतिरोध कैमेरों में कोई ऐसा प्रबंध भी रहता है जिससे भूल्त से फिल्म के एक ही भाग पर एक बार से अ्रधिक प्रकाश-द्शन न दिया जा सके । सावधान व्यक्तियों से भी कभी न कभी ऐसी गलती हो ही ज्ञाती है कि वे प्रकाश-दशोन देने के बाद फिल्म लपेटना भूल जाते हैं | इस लिये यदि कैमेरे में कोई ऐसा प्रबंध लगा रहे कि प्रकाश-दर्शन देने के बाद बिना फिल्म लपेटे फिर शटर चले ही नहीं तो अच्छा ही है । व्यू फ़ाइंडर (ए8ए 7067)--परध्येक हैंड केमेरे में कोई न कोई ऐसा प्रबंध अवश्य रहता ई जिससे पता चल्ते कि प्लेट (या फिल्म) पर किस विधय का चित्र आ रहा है । रिफ्लेक्स केमेरे में तो लेंज़ से बनी मूर्ति ही अंधे शीशे पर पड़ कर फोटोग्राफ़र को दिखलाई पड़ती है। इस लिये उसमें अलग दृश्यबोधक की आ्रावश्यकता नहीं पड़ती । अकसलुमा केमेरों में दो दश्यवोधक लगे रहते हैं जिनमें से एक खड़े चितन्न लेते समय दिखलाई पढ़ता है, दूसरा बडे चित्र लेते समय । फ़ोल्डिंग केमेरों में एक दी दृश्यबोधक रहता है जिसे आवश्यकता पड़ने पर घुमा कर बेंड़ा किया जा सकता है । ऐसे दृश्यबोधक को रिवंसिबिल (४/8ए८7४]0]९) दृश्यवोधक कहते हैं । दृश्यबोधक की बनावट कई प्रकार की होती है। वे या तो केमेरे की तरह हो सकते हैं जिनमें एक ओर सस्ता लेंज़ ओर दुसरी ओर अंघा शीशा (870घ7॥०0 8888) लगा रहता है । बीचमें दर्पण रहता है जिसमें चित्र पड़ी सतह्द पर दिखलाई पढ़े | ऐसे दृश्यबोधक को ग्राउंड ग्लास व्यू फाइंडर (270प770 88.88. ए|8छ७ 77007) । कहते हैं। सस्ते केमेरों में ऐसा दृश्य बोधक रहता है । यदि उपयुक्त दृश्यबोधक में अंधे शीशे के बदले उन्नतोद्र (बोच में मोटा) सप्ता लेंच लगा दिया जाय तो चित्र बहुत चटक दिखल।ई पड़ता है । इस लिए ऐसे दृश्य बोंधक को ब्रिलियंट (07]]87/)) व्यू फाइडर कहते हैं । फोल्डिंग फेमेरों में साधारणत; ऐसा ही दृश्य बोधक रहता हे । उपयुंक्त दोनों दृश्यवोधकोमें दरपण! लगा रहता है, ओर » सख्या ४ ] ऐसे दृश्यवोधकों के इस्तेमाल में दश्यबोधक और इस लिए केमेरेको कमरके पास रखना पड़ता है परन्तु कछ दश्यबोधर्का में दर्पण नहीं लगा रहता और उनको इस्ते- माल करनेके लिये दृश्यवोधक और इस लिये केमेरेको आँखके- पास रखना पड़ता है। ऐसे दृश्यबोधर्का को डाइरेक्ट विजन ( 8760॥ एांशां0) ) द्श्यबोधक कहते हैं । इस शब्द का अर्थ है अवक्रदर्शों या सीधा देखने वाला । अवक्रदर्शी दइश्यबोधकोंमें सबसे सरल वह है जिसे वीयरंफ्रेम ( ए78-7876 ) श्र्थात वारके चौखटे वाला दृश्यबोधक कहते हैं। इसमें एक ओर तार का चौखंटा रहता है ओर दूसरी ओर आँखको स्थिति बतलाने के लिये कोई छेद । काम में सुविधा जनक ओर बनाने में सस्ता होते हुये भी बहुत से केमेरों में अन्य जाति का . इृश्यबोधक लगाते हैं क्‍योंकि ऐसा केमेरा बंनाना जिसमें चित्रके नापका चौखदा हो, जो दे हों ओर जो मुडकर थोड़े स्थान में आ साके सरल नहीं है | है ऑप्टिकल व्यू फाइंडर (0फञां6को शां०्ण़ 77067)-- ता रके चौखटेके बदले अकसर नतोदर (बीच में पतला) सस्ता लेंज़ लगा दिया जाता है। तब इसे ऑप्टिकल फाइंडर कहते हैं। अकसर आँख रखनेके स्थान पर साधारण छेंद रखनेके बदले एंक छोटां स्रा उन्नतोदर (बीच में भोठा) लेज़ लंगा देते हैं । , पैरालेक्स करेकशन--दृश्यवोधक का सेंज्ञ और केमेरे का लेज़ ठीक एक ही स्थान पर तो रह नहीं सकता । इस लिये दृश्यबोधक और केमेरे के चित्रों में जरा-सा अंतर रहता है ओर विषय ज्यों-ज्यों समीप आता जाता है त्यों- त्यों यह अंतर बंढ़ता जाता है। बहुमूल्य कैमेरमेंसे कुछमें ऐसा प्रबंध रहता है कि यह दोप सिटाया जा सकता है। इस दोष का नाम है पेरालैक्स ओर इसके सिटाने को पैरा- लैक्स करेकशन ([08.'8]|85 007'80+07) कहते हैं। एक लेज वाले रिफ्लेक्स केमेरंमिं इसकी आवश्यकता नहीं रहती ! पोट्रट अटैचमेंट---जैपा पहले बतक्काया जा चुका है,- जब कैमेरे में लेंज़ ओर प्लेट (या फिल्म) के बीच की दूरी को घटाने बढ़ाने के ल्लिए कोई ग्रबंध नहीं रहता, या रहता भी दे तो काफ़ी मात्रा में नहीं रहता, तो लेंज़ के ऊपर फोटोग्रांफ़ी संम्पन्धी कुंछ शब्दों की ब्याख्या ट््पू एक सहायक लेंज़ क्षगा देते हैं जिसे पोट्रेट अटैचमेंट या सप्लिमेंटरी (87[0]0]077677097'9)' लेंज़ कहते हैं । कुछ ज्लोग नाम के कारण अ्रम में पढ़ जाते हैं ओर समभते हैं कि बिना पोट्रेट अटैचमेंट लगाये पोर्ट्ट अर्थात मनुष्य चित्र खींचा ही नंहीं जा सकता, परन्तु बात ऐसी नहीं है । पोट्रट लेज़ ([)07॥7'87+ ]678)-- जब तेंज्ञ अनैस्टिगमैट नहीं बन पाते थे तब मनुष्य चित्रण के लिए विशेष लेंज़ बनते थे जो तेज तो होंते थे,|फरन्तु बहुत भारी ओर लंबे फोकल-लंबान के कारण अन्य विषयों के लिए अनुफ्युक्त होते थे | इन्हें पोट्ट लेज़ कहते थे । अ्रव भी ये सेकंड-हैंड (पुराने) मिलते हैं, परन्तु अनैस्टिगमैट की प्रतिदवंदिता सें इनका बनना बंद हो गये है । | डबलेट् (000))]6)लैंज्ञ--रैपिड रेक्टिल्िनियर को - कभी-कभी डबलेट लेज़ भी कहते हैं । | सीमेंटेड लेंज़--बहुंत से लेंज्ञों के कुछ अनयव केनाडा बालसम से इस प्रेकार चिंपकाये रहते हैं कि वे एंक ही शीशा जान पढ़ते हैं । सीमेंटेड का अंर्थ है चिषफाये हुए। कुछ अनैस्टिगमैट बिना चिपकीये हुए शीशों के भी बनते हैं। येदि इस तरह का अनैस्टिगमैट लिया जाय तो अच्छा है क्योंकि भारत वर्ष की गरसी और बरसात के कारण चिपकाने वाला मसाला कुछु वर्षो में खरांबं हो जाता है। परन्तु इतने आधिक लेंज़ों में कोई न कोई अवंयव चिपकायो रहता है कि इस बात पर अक्सर ध्यान नहीं दिया जा सकता । सिमेट्रिकल (8ए॥7776॥77 09) लेज़--सिमेट्रिकल का अर्थ यह है कि दोनों आधे एक ही तरह के हैं। साधा- णत: सिमेट्रिकज्ष तेज़ से रैपिंड रेक्टीलिनियर लेंज़ सममका जाता है, परन्तु प्विमेट्रिकल अमेस्टिगमैटसे ऐसा अनैस्टिगमैट ले समझना चाहिये जिसके दोनों आधे एक ही तरह के हैं ओर इस लिए आधा लेंज़ अलग भी लंबे फोकल-छंबान के लेंज़ की तरह काम में लाचा जा सकता है। प्लिमेंटरी ( 8५0]]97087697'ए & सहायक ) लेंज़-साधारणतः सप्लिमेंटरी लेंज़से पोट्रेट भरैचमेंट समझा जाता है, परन्तु कैमेरे के फोकलंदों'बान को घटाने बढाने के लिए अन्य सहायक लेंज़ोंका प्रयोगं किया जा सकता है । इनका प्रयोग बहुत कम होता है ओर आरंभ में इनको पद विज्ञान, जूलाई, १६४५. [ भाग ६१ िप न खरीदना चाहिये । ध् टेल्रिफ़ोटों लेंज़ (॥0]670]]00)--दूरस्थ विषर्यों का फोटो टेल्रिफ्नोटो लेज़ से बड़े पैमाने पर उतरता है, यह पीछे खरीदा जा सकता है। लेंज़ हुड ([,678-000 त)--फ्रोदो लेते समय लेज़ को धूप या कड़ी रोशनी से बचाने के लिए एक चाँगा (#- हुड) का इस्तेमाज्न किया जा सकता है। उपयोगी घरतु है परंतु खरीदने के बदले अपने हाथ से भी काले काराज़ का बनाया जा सकता है | फ़िलगर (766" )--प्राधारणतः फ़ोटोग्राफ़ीमे पीक्ा, हरा श्र लाल विषत्र आवश्यकता से अधिक काले दिखलाई पढ़ते हैं । नीला आवश्यकता से अधिक सफ़ेद . उतरता है, यहाँ तक कि नीले आकाश में सफ़ेद बादलों के रहने पर दृश्य के चित्रों में बादल मिट जाता है। इसका उपाय यह है कि ल्लेज़ के सामने पीला शौीशा (जिसे फिलटर या प्रकाश-छुनना कहते हैं) ज्ञगा दिया जाय । पीले के बदले अन्य र॑गाँ के प्रकाश-छनने भी लगाये जाते हैं । इन पर व्योरेवार विचार पीछे किया जायगा | कई प्रकार के चित्रों के लिए विशेष रंगों के . प्रकांश-छननों का प्रयोग आवश्यक है, परंतु आरंभ मेँ .._ इनके मोल लेने की आवश्यकता नहीं है । डिफ्यूज्इन डिस्क (त7प४0४ त80)--ल्ज्ञ के सामने इसे लगा देने से चित्र कुछ अतीच्ण हो जाता है। बहुत लोगों को ऐसे चित्र अधिक पसंद आते हैं। आपको भी ऐसे चित्र अच्छे लगें तो एक डिस्क ऐसा खरीद लें, पर॑तु इसे बाद में ही खरीदना अच्छा होगा । वायर (ए78) या केबुल रिलीज़ (5७8 78]6586) “-शटर के घोड़ों को अगूठे से दबाने में जब केमरे के हिलने का डर रहता है तो इसे श्रकृसर एक विशेष प्रकार से बने तार की सहायता से दबाया जाता है जिसे केवुल्न रिल्लीज़ ( > शटर-मोचक तार) कहते हैं | प्रायः सभी केमरों के साथ मिल्कले हैं । बॉडी रिलीज्ञ (0089ए 78]095898)--शवर के घोड़े । जिसके दबाने से शटर का घोड़ा दबता है | उदर में लगे घोड़े को बॉडी रिलीज़ कहते हैं । कैमेरे में यह लगा हो तो बहुत सुविधा होती है। . डिलेड ऐकशन (१०]७9७० 800807)---जिस शटर में डिलेड ऐकशसन का प्रबंध रहता है उस शटर में ऐसा भी किया जा सकता है कि घोड़ा दबाने के दस- पंद्रह सेकंड बाद शटर खुले ओर बंद हो, इतनी देर में फोटोग्राफ़र स्वयं कैसेरे के सामने इच्छित स्थान में जाकर खड़ा हो सकता है ओर हस प्रकार बिना दूसरे की सहा- यता लिए अपना ही चित्र खींच सकता है था चित्र में अपने को भी कटष्टीं रख सकता है। इसकी कभी-कभी ही आवश्यकता पड़ती है, इसलिये इसके लिये विशेष चिता की आवश्यकता नहीं है | (डिल्लेड > विलंब से होनेवाली; ऐकशन +-+ क्रिया) ' सेल्फ़-टाइमर (8७]-67१87)--जिन शर्रों में डिलेड ऐकशन का प्रबंध नही रहता उनके शटर मोचक तार में सेठफ़-टाइमर लगा देने से वही काम होता है जो डिलेड ऐकशन से। सेल्फ़ टाइमर जब चाहे तब मोल लिया जा सकता है क्योंकि यह असछ्ग से बिकता है। _ रैक ऐंड पिनियन फोकसिंग (+82< #&7्ते >7707 800प्रधं 72)--अधिकाँश प्लेट कैमेरों में लेंज़ को प्लेट से समीप या दूर करने के लिये कैमेरे के अग्रभाग में दांतीदार पट्टी (रैक ) ओर दाँतीदार छड़ (पिनियन) लगा रहता है | छुढ़ के पिरे पर घु'डी लगी रहती है जिसके घुमाने से अग्रभाग आगे-पीछे चक्तता है। इससे बड़ी सुविधा होती है। लिवर (]००७१) फोकसिंग--कुछ कैमेरों में कैमेरे के अग्र भांग को आगे-पीछे खिसकाने के लिये एक काँट लगा रहता है जिसके खिसकाने से |लेंज़ थोड़ा-सा आगे पीछे चल सकता है| हाथ से खिसकाने से तो यह प्रब॑ध अवश्य ही अच्छा है | फ़ोकसिंग माउंट ([00प872 770प0॥7), फोक- सिं। जैकेट ([00प्रधं72 ]90:709) या हेलिकल को अंगूठे से दबाने से केमेरा के ह्िल्ल जाने का डर रहता | (6!08.) फ़ोकसिंग--इस प्रबंध में लेंज़ चूड़ीदार है। इम्त लिये कुछ केमेरों में केमेरे के उद्दर (0009) नत्नी में जड़ा रहता है।इस नल्लीकों घुमाने से या में सुविधाजनक एक दूसरा घोड़े लगा रहता है। ' नल्ली की ढित्ररी को घुमाने से लेंज़ थोड़ा बहुत आगे पीछे - संख्या ४| फोटोग्राफी संबंधी कुछ शब्दौंकी ब्याखूया | ८२७ चल सकता है। केवल बहुमूल्य केमेरों में ही ऐसा प्रबंध रहता है। ग्राउंड ग्लास फ़ोकसिंग स्क्रीन (27०प्70 2]६88 £*00पशंप& 807/86877) --शीशे, एमरी पाउडर आदि जैसे किसी अत्यंत कड़े पदार्थ के चूर्ण से घित्र कर अंधा कर देने से आउंड ग्लास (८ अंधा शीशा) बनता है। केमेरे की पीठ में प्लेट के स्थान पर पहले ऐसा शीशा लगा कर देख लिया जाता द्वै कि चित्र ठीक आ रहा है या नहीं, फ़ोकस ठीक है या नहीं। इसलिए ऐसे अंधे शीशे को फोकसिंग-स्क्रीन (फ़ोकस-पर्दा) कहते हैं। प्रत्येक प्लेट केमेरा में यह रहता है | थी पॉइंट फ़ोकस (6॥766 900476 00प8)-- विषय की दूरी के हिसाब से लेंज़ ओर प्लेट (या फिल्म) के बीच की दूरी ठीक करनी पड़ती है। जब विषय की दूरी फुट में न बतत्ला कर उसे केवल तीन समूहों में बॉँट दिया जाता है तो थी (८ तोन) पॉइंट (> विंदु) फोकस कहा जाता है । ये तीन विंदु उदाहरणतः दृश्य, मनुष्य- समूह, और पोर्टेट हो सकते हैं | इससे अभिप्राय केवल यही है कि यह न सोचना पड़े कि विषय कितनी दूर पर है । यह कोई बड़ी बात नहीं दै--म्ुम्के तो यह बच्चों का खिलवाड़-सा जान पढ़ता दे | कुछ कैमेरों में ६ (- दो) पॉइंट फोकसिंग रहता है। रेंज फ़ाइंडर (78786 770067) - रिफ्क्षेक्स कैमेरों को छोड़ अन्य केमेरों में (विशेषकर फिल्म कैमरों में) फोकप्त ठोक करने के लछ्लिए विषय की दूरी का अच्चुमान करना पड़ता है। परंतु रंज-फाइंडर (दूरी-मापक) से यह दूरी वस्तुत: नापी जा सकती है | यह अलग भी बिकता दे और बहुमूल्य कैमेरों में लगा भी रहता दै। उपयोगी वस्तु है, परंतु पस्ते केमेरे वाज्ञों के लिये बहुत आवश्यक नहीं है (कारण फोकश्न की गहराई के अध्यन करने पर पता चलेगा । । डेप्थ श्रॉफ फोकस इंडिकरेटर (१6]8)) 07 400प्र५ [77008007)--बह फोकल की गहराई बतलाता है (यह एक थ्रागासी अध्याय में बतज्ञाया जायगा) । बहुत उपयोगी नहीं है । राइजिंग फ्रं<(08॥8 [70700)--यदि कैमेरे का अग्रभाग ऊपर उठ संकता हो तो उसे राइज्ञिंग फ्रंट (5 उठनाअ) कहते हैं। ऊँचे मकानों का फोशो लेने में इसकी आवश्यकता पड़ती है। प्रत्येक स्टेंड कैमेरा में लेंज़ काफ़ी ऊंचा उठाया जा सकता है | हैंड कैमेरों में से अच्छे प्लेट केमेरों में उनात्न रहता है | परंतु अकप्तर लेंज़ काफी ऊंचा नहीं उठ सकता। फ़िल्म कैमेरों में उठनाभ्र नहीं रहता । उठनाप्र न रहने से जो दोप उत्पन्न होता है वह एनूलार्ज करते समय मिटाया जा सकता है, इसलिये उठनाप्र रहने के विपय में विशेष बंता न करनी चाहिये । रहे तो अच्छा ही है । क्रॉस फ्रैं.८ (07088-707)--भ्रद्वि कैमेरे का झभ्र भाग अगल-बगल चल सके तो उसे ऋँस-फ्रंट (>पारवे चलाप्र) कंदते हैं | बेंड़ा चित्र जींचते समय , इससे उठताप्र का काम निकलता है, इसीखलिये पाश्व॑ चत्ाम् बनता है (ऊपर देखो) | ट्रिपोंड ((7000)--स्थिर बिषयों का चित्र लेते समय जब प्रकाश दृशन ३७ सेकंड से अधिक देना पढ़ता है तो केमेरे को किसी दृढ़ वस्तु पर टिकाना पड़ता है और द् के लिये सबसे सुगम वस्तु तिपाई (ट्रिपॉड) है, हैंड केमेरा से लिये गये अधिकांश चित्रों में बिना तिपाई के भी काम चल जाता है; इसलिए इसे पीछे खरीदा जां सकता हैं | परतु जब कभी भी तिपाई खरीदिये तो अच्छी तिपाई लीजिये । सस्ते दाम की तिपाई में शीघ्र ही हचक पैदा हो ज्ञाती है या आरंभ से ही (कमज़ोर होने के . कारण) वह हिला करती है । ऐसी तिपाई अधिकांश विषयों के लिए बंकार होती है।अधिक जोढ़ वाज्ली तिपाई में यह गुण अवश्य होता है कि वे सढ़॒ कर बहुत छोटी हो जाती हैं, परंतु उपयोगता की दृष्टि से कम जोड़ों वाली, इढ़ और ज्ञकड़ी की बनी तिपाई अ्रधिक अच्छी होती हे । रे खुलने पर तिपाई को ऊँचाई इतनी होनी चाहिए कि के सरा आऑखों की ऊचाई तक पहुँच जाय | ऐसा होने से फोकस देखने के लिए झुकना भी न पड़ेगा; परंतु इससे अधिक महंत्वपूर्ण बात यह है कि इतनी उचाई से ही स्वाभाविक चित्र ञ्र। सके गे | स्टेंड के मेरा के साथ दिपाई अबश्य रहती है। लय परमाणु-बम बनानेके प्रयोग जर्मनोंसे वैशानिकों के संधर्ष की कहानी ( श्री ई० डी० मास्टरमेन दवारा ) श्रब उस बातका रहस्योद्घाटन किया जा सकता है कि पाँच वर्ष तक किस प्रकार ब्रिटिश तथा जमेस परमाखु- बस बनानेके लिये परस्पर स्पर्धा करते रहे | यदि इनमें से कोई भी परत अपने प्रयत्नॉमिं सफल हो जाता तो दूसरे पर सहज ही में विजय भ्राप्त कर छेता । संसार भरके वैज्ञानिक एक विशेष प्रकारके रासायनिक जलन पर प्रयोग करते रहे हैं ओर उनका दृढ़ विश्वास रहा है कि यदि इसका व्यवहार वे बत्नपू्वंक यूरेनियम धातु पर कर सकें तो उन्हें यूरेनयिमके परमाणुकों प्रथक करनेमें सफलता मिल जायगी ओर ऐसा करने में भयानक विस्फोट जनित एक महान शक्तिका भी प्रादुर्भाव हो सकेगा | इस दिशामें प्रयत्न जारी रखनेके लिये जर्मन वेज्ञानिकों को केवल रासायनिक जल्की पर्याप्त मात्रा आवश्यकता थी। उस पदार्थ का उत्पादन एक नाव निवासी जुकेनमें भारी मात्नामें कर रहा था । उसके कारखाने पर अधिकार होने पर जमन वैज्ञानिक अपने प्रयोग आगे बढ़ानेके लिए सैय[र हो गये । कारखानेके भेनेजरसे जब जर्मन अधिका रिया ने प्रश्श किया तो देशभक्त दोनेके कारण उसने अधिक नही बताया । तब जसेन अधिकारियों ने कारखाने पर पहरा बैठा दिया, किल्तु प्रोफेसर ट्रंस्टाड द्वारा कागज नब्ट कर दिये गये ओर उन्हें कोई सहायता नहीं प्राप्त हो सकी । प्रोफेसर भाग कर इंग्लैश्ड पहुँचा इसी बीच में प्रोफेसर ट्रेटटाड भाग कर इंग्लैण्ड पहुँचा ओर वहाँ उसने प्रयोगों को आगे बढ़ाना आरस्भ कर दिया । जलन, स्थल्ल तथा हवाई सेनाके छंटिश चैज्ञा- लिकोकी सहायता से परमाण-बमस बनानेकी प्रतियोगिता तेजी से प्रारम्भ हो गयी | अब प्रश्न था कि जुकेन भें रासायनिक जल उत्पन्न करनेका जो कारखाना जर्मनोंके कब्जेमें पहुँच चुका था उसे किलर प्रकार नष्ट किया जाय । १४ ब्रिटिश वैज्ञानिकों को इस कार्यके किये चुना गया + दो देल्नीफेक्स बम विज्ञान, जूलाई, १६४५ [ भाग ६६ वर्षक चल पड़े श्रोर उनके पीछे २५ छतरी धारी अ्रंग्रेज ख्ञाइडरमें थे। इसी समय एक जबरदस्त तूफान आया । इसमें एक वायुयान नष्ट हो गया और दूसरेको विवश होकर समयसे पहले ही ग्लाइडर को छोड़ देना पढ़ा ग्लाइडर स्टेवेंजरके निकट भूमिसे लगा, किन्तु यात्री जानते न थे कि वे कहां हैं । वे स्टेवेंजरकी कड़कड़ाती सर्दी भोजन गोक्ी-बारूदू तथा तग्बुओंके बिना कई दिन तक भटकते रहे । चोथे दिन श्वेत भडा दिखा कर उन्होंने जम॑नोंके आंगे आत्मसम्पर्ण कर विया । जमैन अफसरका आदेश मिलने पर टाभीगनें गर्ज उठीं ओर पच्चीरों ब्यक्तियोंके शव भूमि पर गिर पड़े । इसके उपरान्त ६००० जर्मन सैनिक पहुँच गये और उन्होंने वहांका कोना-कोना छान डाज्ञा कि कहीं और अंग्रेज सेनिक कारखाना नष्ट करनेके इरादे से छिपे तो नहीं हैं । कारखाना नष्ट करनेका दूसरा प्रयत्न उपयुक्त दत्ञका माग-प्रद्शन ४ नारवेजियनों ने किया था ओर स्काट्लेंड से रेडियो द्वारा आदेश मिलने पर वे अपने शरण-स्थानों में ही छिपे रहे । कई महीने बाद छः छुतरीधारी सेनिक कारखाना नष्ट करनेके इरादे से उतरे। कारखाने पर जबदेस्त पहरा रहने पर भी येद्ध व्यक्ति उसमें घुसकर पहुँच गये | चारों नावेंजियन टाभीगन लिये बन्दूक तान कर बैठ गये । जरममनों ने जिस तिजोरी में रेडियम ओर यूरेनियम छिपा कर रखा था उनमें वे विस्फोटक पदार्थ लगा ही रहे थे कि एक कार्यकर्ता ने भीतर प्रवेश किया । उन्होंने उससे कहा “चुपचाप बाहर निकल जाओ। दस कारखानेको, नष्ट कर रहे हैं । यह कार्य हम नावेंके द्वित साधनके लिये कर रहे हैं ।? कायकर्त्ता ने उत्तर दिया “बहुत खूब प्रिश्रो, पूरौ सफाई से करना |?” २० मिनट बाद जमनेंके पातथ ने सो रासायनिक जला ही था ओर न यूरेनियम, रेडियम अथवा बह प्रयोगशाला ह्ठी | ( “डेली एक्सप्रेस से”) आकलन पप "पर तक्‍ा कप के, है 2720 रे ७५नाफाकधाप का बयदवाफतादपआपाप कफ प#टप:टा १ 0ए कक पल अप आअ कफ पव पके पाक आप: कम॒आकाटात का पपकभक . भद्दामान्य विदेशियोने कहा हैं। संख्या ४ ] ः विदेशोंमें गया हुआ मारतीय विज्ञान . [ल्षे०--भी श्यामचन्द्र नेगी और ओम प्रकाश] “भरत संसारकी शानमाता है” यह अनेक लिश्रोन डेक्षबसकों क्षीजिये, वह कहता है--आप श्रमेरिकामें जाइये तो वहाँ भी आपको यूरोपकी तरह भारतकी सखभ्यताका प्रभाव दिल्लाई देगा ।' भारतकी सभ्यता वर्तमान तथा विनष्ठ सभी सम्यताश्रेंसे प्राचीन है। किन्तु विदेशियोंने इसासे लगभग छुः सदी पूतर वि्यात तचशिजक्षा विश्व- विद्यालयके दिनोंमें, भारतके अक्षय शझ्ानकोषके अमूल्य रत्नोंको प्रदण किया था और ज्ञान यात्राश्नोंको प्रास्भ किया था । यहाँ हम यह बतायेंगे कि विदेशी दमारे विक्षातके कितना ऋणी हैं, जो कि हमारे विशाक्ष ओर विविध ज्ञानका अंशमान्र हैं। इतिहासके पृष्ठ इसके साही हैं कि आजके संसारमें कोई ऐसी सभ्यता नहीं है जिसने हमारे शावकों प्रदण नहीं किया। यद्दी नहीं, अपितु यह परम्परा आज़ भी बिता उ्यवधान के चक्की आ रददी है। चीन चीनने भारतसे न केवल आध्यात्मिक ज्ञानकी शिक्षा ग्रहण की है अपितु विज्ञान की भी । जिस तरह आज कक्ष एशियाके ज्ञोग किसी विकट-व्याधि की चिकित्सा के क्षिये यूरोप जाते हैं उसी प्रकार प्राचीन समयमें विदेशी भारत में आते थे। चीचका राजकुमार अपनी झाँखकी भयानक बीसारीके इलाजके लिये अपने देश से |निराश द्ोकर तशंशिल्वार्में आया था, जहांसे वह पूर्ण स्वस्थ हें।कर कौटा था । «वीं शताब्दिमं ओर उसके बहुत समय बाद तक भी नाज़नदा विश्वविद्यालयके सनातक चीनकी ज्योतिष सम्बन्धी संस्थाश्रोमें कार्य करते थे | प्रायः वे उनके अध्यक्ष होते थे | द ग्रीस प्रचीन श्रीस विवासी देलेन्स लोगोंमें यूरोपमें सर्वप्रथम जागृति हुई थी। पीकोक ने मीसमें भारत' नामक अपनी किताबें लिखा हे कि क्षार्ड बायरन अपनी किताब [56 0]6८8 0 87980006 के किये भारत विदेशोमें गया हुआ भारतीय विज्ञान द६्‌ का कितना ऋणी है। उन्होंने यहाँसे गणितशात्ष और आयुर्वेद की चिकित्सा पद्धुतिकों सीखा था। ढा० थीबो ने कद्दा है कि न केवल्न भीस अपितु सम्पूर्ण संसार रेखा- गणितके लिये भारतका सदैव ऋणी रहेगा । भोव को जब यह पता ज्ञगा था कि पाइथागोरस्का सिद्धान्त उस (१८२-१०० ई० पूरे) से अनेक वर्ष पू्ववर्ती सूदव- सुत्रेंमिं लिखा है तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ था। ढा० मेड्डोनज्नका कथन है कि पाइथागोरस ने भारतसे गणित सींखी है। पाश्चात्य चिकित्साके जन्मदाता बुकरात ([7777007'.9788) ने भी आयुवेदका आश्रय लिया था। पिकन्दर महान्‌ (३२६ ई० पूर्व) भी अपने साथ भारतीय वैधोको रखता था । न्यारकस्‌ , जिसने सिकनदर को भारतीय युद्धेंमिं सहयोग दिया था और जो ३२४५ हूँ ० पूवे तक यहाँ रहा था, कहता है कि प्रीक लोगोंको सप दंशकी चिकित्सा नहीं आती थी जब कि भारतीय इस विद्यार्म पूर्ण निष्णात हें ।|थियोपरेशस 2 श, पूर्व भारतमें आयुरवेद्के अध्ययनके क्षिये आया था। ढा० रोयज्ञ कहता है कि डायरकोरोडीस (१ ई० पृ) ने भारतके ह्व्यमुणशासत्रसे बहुत कुछ ग्रदण किया था । मिल हेलग्स लोगों की ज्ञान की आभा मन्द हो गई ओर नष्ट द्वो गई, परन्तु यह ज्ञान मिस्रमें चल्मा गया। सिकरदर की भ्रीसविज्यके बाद अनेक विद्वान्‌ वहां जाकर बस गये भर सिकन्द्रियाके प्स्िछ पुस्तकालयका निर्माण हुआ | मिल्लके लोगों ने अ्रपने श्ञान की वृद्धि की ओर भारतीय विज्ञानके सह्योगसे अपने ज्ञान की परिपुष्टि की। अशोकके धर्मप्रचारक स्थविर-पट्ट के द्वारा हमारा भायुवंद मिलमें पहुँचा, जिसके नामसे बिगड़कर थेराप्युटिक्स (+6778]0976708) बना है। सिकन्द्रिया का निवास्री पुटिश्र॒श्न (३६५-४४५) आयुतरे द में पूर्णतया निपुण था। तीसरी सदीमें उब्जेनके व्यापारियोंके द्वारा मिल क्ोगों ने भारतीय गणशितको सीखा था। रोम और सीरिया मिल्ल का पतन हो गया ओर हमारा विज्ञान रोम ओर सीरियामे पहुँच गया। छूटी सदीके ह्वगभग भारतीय गणित और ज्योतिष की सूच्म खोजों ने सीरियन झौर यहूवियोको बहुत प्रभावित किया था | ६० विज्ञान, जूलाई, १६४५ _ भोग ६६ अरब . इस्लाम के उद्दय के साथ अरब ने हमारी ज्ञानज्योत्ति को प्रहुण किया | यद्यपि स॑ रियाने अरबका भारतके विद्वानेसि परिचय करवाया था तथापि इश्नका मुख्य शेय खत्यौफा श्रत्ष मस्सूर (७४३-७७४६०) और हारूँ अलरशीद (७८घ०-प०८) को ही, क्योंकि वे हवन के परम प्रेमी ओर विद्वानों के आश्रयदाता थे। उनके यहाँ बरदाद के दरबार में भारतीय विद्वान थे। अल्लममन्सूर के यहां कक था और हारू के यहाँ चाणक्य ओर मैनाक थे। अरब के विद्वान बड़ी तत्परता से मौलिक कार्य कर रहे थे ओर संस्कृत के अनेक अनन्‍्थों को अनूदित कर रहे थे | कक्र के पास एक ज्योतिष की बृहत सिल्‌ द्विव्द'ं जामक किताब थी। जो सम्भवत: भारत के प्रतिष्ठित ज्योतिषी वराहमिह्िर (६०४-१८७६०) की चबृहत्स॑द्चिताः थी। सचाऊ ने “अलबूनी का भारत-वर्णन” नामक अपनी किताब में लिखा है कि अरबों ने ज्योत्तिष के व्यवस्थित ज्ञान को ब्रह्मयुप्त (शताब्दी) से सीखा है। हमारा इतना गहरा प्रभाव था कि अरब कई सदियों तक उज्जैन से देशान्तर दूरी को नापते थे, जो भारत का ग्रीवविच्च था | ज्योतिष के अतिरिक्त अरबोने भमारतसे गणित को सीखा था | हेवत्ष कहता है कि श्ररत्रों ने भारत से संख्याश्रों घर दशमल्वका ज्ञान प्राप्त किया था। मी सदी भें झुंइम्सद्‌ इवू सूसा ने अरबी में वीजगणित की प्रथम किताब लिखी थी, जो कि भारतीय नक्षत्र विद्या से ग्रहण की गई थी। लगभग ७वीं सदी में उन्होंने सारत से भोतिक विज्ञान को सीखा था । चीन के असिद्ध ग्ात्री छनखांग ने, जो (७शतावदी) कि भारतमें आया . था, लिखता है कि नात्न्दा विश्व-विद्याल्य में भौतिक विज्ञान की शिक्षा दी जाती थी। उन्होंने भारतीय वैशथ . चाणक्य ओर मैवाकके द्वारा बहुत कुछ सीखा था । उन्होंने चीर-फाड़ी इत्यादिके उत्तम ग्रभ्थ चरक और सुश्रतके अनुवाद में हार को सहायता दी थी। उन्हें ने भारतसे रसायनभी सीखी थी । स्पेनका एक सेरेसीन भारतीय रघावनसे परिचित था | यही नहीं अपितु तलिफ़ सरशीका नामक अरबी ग्रन्थमें लिखा है कि भारतीय संख्याके श्वेत शोषितके प्रयोगकी जामते थे जब कि भ्रीक इससे अनभिज्ञ थे । समय गुजरा, अ्रत्र काल के थपेड़ों फो मन सह ॒सके । परस्पर-विनाशकारी विपत्तियों ने और सुगत्नों तथा इसा- इयों के धमथुद्धों ने अरब की झान-फरिभा को नष्ट कर दिया । यूरोप श्रीर अमेरिका अरबा का भ्रकाश नष्ट हो गया। परन्तु उन्होंने अपने शान और संस्कृति को कई विश्वविद्याक्ष्यों द्वारा यूरोप में पहुँचा दिया जैसे-स्पेन का कारडोवा | किन्तु इसके बाद यूरोप में भ्ज्ञान श्रोर विस्कृति छा गई, और एक दीध समय तक अ्रंघविश्वासों का साथाज्य द्वो गया | इस समय को इतिहासमें 'अन्धकारथुग' कहते हैं। जीवन के सभी अंगों पर चर्चो का अधिकार हो गया | वैज्ञानिकों को प्राणदर्ड दिये जाने क्गे क्योंकि चर्च के लोग विज्ञान को इश्वरीय-ज्ञान का विरोधी समझते थे। जो लोग विज्ञान प्रेमी थे और जो अपने को वैज्ञानिक कहते थे, उन्हें कठिन अग्नि परीक्षाओं में से गुजरना पड़ता था। रेलेल्ियों के वेनिस के डोग” के आगे कुकना पढ़ा था ओर ग्रूनों को फांसी पर चढ़ना पड़ा था । इस तरह यूरोप में बुरी अवस्थायें नज्ञन्नों की तरह छाई हुईं थीं। तो भी दस अन्यकार ओर विष्क्षव के समय में उन्होंने भारतीय विज्ञान को अरबों के द्वारा सीखा था | पिसा भिवासी लिश्ोनाडों के द्वारा भारतीय गणित यूरोप में गई थी । १७वीं सद्दी तक. यूरोप की चिकित्सा पद्धति अरबों पर आधित थी, जो हमारे आयुर्वेद की उपज है। पैरेसलसल ( १४६३-१५४१ ) ने यूरोपीय- . चिकित्सा में पारे का उपयोग शुरू किया था, जिसने ड(० प्रफुक्लचन्द्रराय के अनुस्तार यह पूर्व से ही सीखा था। १८६४ में होनेवाली मेडिकज्न कान्फरेन्स में जब दैजा और अल्लभथ आदि की चिकित्सा ज्ञात नहीं थी, तो उन्हें।ने इनके निवारक उपायों के लिये भारतीय विद्वानों से बहु मूल्य परामश मांगे थे । यही नहीं अपितु शिव्य चिकित्सा का भी बहुत कुछ भाग भारत से गया है। हस्टर ने “इस्पीरियल्ल भज़ड आफ इस्डिया' में लिखा है कि ब्रिटिश कोगें ने भारतीयें से १०वीं सदी में कृत्रिम नाक बनाना क्षीखा था। जयपुर के महराज जयस्िंद्र द्वितीय ने भ्नन्न » संख्या ४] | विदेश में गया हुश्रा भारतीय विज्ञान ६१ विद्या के कारण यूरोप में अध्यग्त सम्मान प्राप्त किया था। उसने लहारी की 7'8090)6 4$8॥07'0707१709 नामक किताब का संशोधन किया था। अब हम ब्रिटिशकात्नीन भारत पर दृश्पात करेंगे । सरकार ने भारत में शिक्षा प्रसार के लिए बहुत ही कम प्रोत्थाइन दिया है। हस बात को दृष्टिफोश में रखते हुए हमारे प्रख्यात पत्रकार श्रीरामानन्द चद्टोपाध्याथ ने १६३८ की भारतीय विज्ञान परिषद में भारत की इस अधूरी वैज्ञानिक उन्नति पर शोक प्रकट किया -था। तो भी दासता में बंधे हुए भारत ने अनेक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक उत्पन्न किये हैं | इसका श्रीगणेश गणित से होता है। प्रो० रामचन्द्र (१८२१-८०) ने अपने स्मरणीय ग्रन्थ “ 7]8 9700- ]५॥ 07 (०ह४ां॥)8७ 8700 ५श)॥7१5” के द्वारा यूरोपीय गणितज्ञों में सम्मानित पद को प्राप्त किया था | रामाजुजन (१८८७-१६२०) की प्रसिद्धि विश्वध्यापी है | वे भारत के प्रथम रॉयल सोसायटी के सदस्य थे | उनके : हारे में प्रो० हा्डी एफआर-एस ने कहा था कि हस प्रतिभाशाली विद्दान ने उन समस्याञ्नों की कल्पना की थी, जिन्हें यूरोप के उत्तम से उत्तम गणितज्ञ भी १०० - क्यों में पूर्णतया नहीं सुलरा सकते। सन्‌ १६३९ में सर सुलेमान ने सापेत्षवाद की गणना में एक नवीन सिद्धान्त को उपस्थित किया था, ओर प्रो० आयन्स्टीन की गणना में कुछ दोष बनाये थे। उस वर्ष के सूर्य ग्रहण ने सुलेसान के पक्ष को सत्य सिद्ध किया था । वनस्पति विज्ञान में डा० जगदीशचन्ब चसु, एफू-आर-एस्‌, प्रोण्बीरध्ल साहनी एफ०्श्ार०एस्र०ओर डा०्बी०एस सिंह की महत्ता प्रख्यात है । डा० बसु ने न केवल मारकोनी से पूर्व 'बेतार के तारां का आविष्कार किया था अपितु उन्होंने अपनी अद्वितीय खोजों के द्वारा भारत के इस प्राचीन सनन्‍्तव्य को भी सिद्दू कर दिया कि पोर्धों में भी ज्ञीवन होता है| उनकी अनुसन्धान शाज्ा संसार के वैज्ञानिकों के लिए मक्का है, जैसे डा० बोरोनोफ़ उसे देखने के लिए आये थे | डा० साहनी १६३० ओर १8३९४ में होने वाली केमस्त्रिज तथा एमस्टडस की अन्तर्राष्ट्रीय वनस्पति विज्ञान परिषद्‌ के पुरातन विभाग के उपप्राधन रह चुके हैं। डा० सिंह की महत्ता को एडिनबरा विश्य- विद्यालय के ढा० क्रयू सरीखे वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है | वनस्पति शरीर-क्रिया विज्ञान के विशारद डा० क्राउ- थर को सडान सरकार ने डा० सिंह के कार्य के विशेष रूप से देखने के लिए सेजा था। उन्होंने आपको हन शब्दों के द्वारा स्तुति की थी कि आप ने मुझे अत्यधिक आनन्द दिया है और मैंने अपनी यात्रा में एक उत्तम कार्य का देखा है। भोतिक विज्ञानी सर सीं० वी० रमन्‌ एफ-आर-एस और डा० मेघनाथ साहा एफ-आर-एपस . संसार के गौरव हैं। १६३९ में रमन को 'रमनप्रभाव सम्बन्धी' खोजों पर नोयेल पुरस्कार मित्ला था। डा० साहा का नक्षत्र विज्ञान अध्यकधिक ऋणी है। संसार के मद्दानू जीवित वैज्ञानिक सर जेम्स जीन्स ने भारतीय विज्ञान परिषद के सजयतबयब्ती के उत्सव पर सभापतित्व पद से भाषण देते हुए डा० साहा को भव्य अ्रद्धाक्षलि दी थी कि वे ही प्रथम वैज्ञानिक हैं जिन्होंने तारों के बर्ण- पट के! स्फटतया व्यक्त किया था ओर इस प्रकार नक्षन्न विद्या के ज्ञान में एक नवीन मार्ग का उद्धाटन किया है । लगभग संसार की सभी वेधशाज्ञाए आपके आयनीकरण के छ्िद्धानत पर कार्य कर रही हैं| रस्तायन् शास्त्रियों में | प्रफुच्नचन्द्राय, ढा० पी० सीं० खान्‍्खेजे ओर डा० शान्ति स्वरूप भटनागर एफ-आर-एस अतिप्रप्चिद्ध हैं। सर ए० पेडला ने कहा है कि ढा० राय की पारदनत्रायित की खोज ने पारदश्रेणी के खाली स्थान को भर दिया है । इसलिए पारद श्रेणी के पूर्ण अध्ययन के लिए संसार आप का ऋणी है।डा० खान्खाजे एक महांव कृषि रसायनज्ञ भारतीय हैं जो मैक्सिको में बसे हुए हैं। वे वहीं की सरकार के कृविविभाग के संचालक हैं। उन्हेंने. अन्तराष्ट्रीय कृषिपर्थिद में बड़े सम्मान से भाग लिया था ।भदनागर ने अपनी विद्युत रसायन, कलोद, इसएशन आदि की खेाजों ओर उनके प्रयोगों के द्वारा आधुनिक रसायन के बहुत कुछ प्रदान किया है। ऋतुविद्या में बी० ५ एम० बैनजी एफ-आर-एस अपनी ऋतुविद्या की परिवर्तन . सम्बन्धी खेर्जों के कारण फ्रांस की असिद्ध 'नोविद्या और तुबिद्या अनुसंधान सम्बन्धी समिति” के सदस्य हैं । | शेष पृष्ठ ६४ पर ] ६२ विशान, जूलाई, १६४५ युद्धोत्तर काल में टेलीविजन की उन्नति अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की आशा (दा० स्री० पौ० स्‍्नो द्वारा) १६३६ में संसार में पहली बार इंग्लेंड में ही टेली * विजन व्यवस्था स्थापित हुईं | यह व्यवस्था १६४८ तक अन्य किसी देश में स्थापित न हुई थी भर इंग्लैंड डी एक मात्र ऐसा देश था जहाँ यह व्यवस्था थी। इस व्यवस्था के द्वारा बहुत से इंग्लैंडवासी अपने घरों में बैठे बैठे टेनिस भर क्रिकट के खेल तथा अन्य देशनीय घट- नाएं देखा करते थे । टेलीविजन का ट्रांसमिटिंग स्टेशन लंदन के उत्तर में था और ३० मील के अद्धव्यास में चारों शोर काम करता था । इससे एक चौथाई अंग्रेज जनता ज्ञाभ उठाती थी। यही नहीं स्टेशन से ९० मील की दूरी तक यह टेलीवि- जन स्टेशन फाम करता था और इसके दृश्य उतने ही स्पष्ट और आनंददायक होते थे लितने सिनेमा के संवाद चित्रों के दृश्य । दूसरे महायुद्ध से व्यवधान टेलीविजन की उन्नति में दूसरे भद्दायुद्धके छिड़नेसे बाधा उपस्थित हुई। सेनिक कारणेंसे देलीविजन स्टेशन बंद कर दिया गया। उस विषय के विशेषज्ञों को अन्‍न्यत्र आवश्यकता पढ़ी । रेडार की उन्नतिके लिये उनके विशेष ज्ञान की बहुत आवश्यकता थी । ब्रिटेन को यह पता था कि आतव्मरक्षा के छिये रेडार का उच्चत करना आवश्यक है। इस ओर से उदासीन होना उसके लिये घातक था। ब्रिटेव एक छोटा सा द्वीप है ओर शाही वाथुलेना के जहाओों की संख्या भी बहुत नहीं थी अतः वैज्ञानिकों ने अपनी पूरी शक्ति इसको उन्नत करने में लगा दी | ब्रिटेन पहले से ही इस ओर से सतके था ओर रक्षाव्मक युद्ध के समय अपनी सारी शक्ति लगा कर उसने इसे उन्नत बनाया। पर टेलीविजन को इसका शिकार बनना पढ़ा । गत दो वर्षो में त्रिटेन अपनी शेष शक्ति को संग्रह करके अपना काये आरम्भ करने की योजना बना रहा है । भावी कार्यक्रम लाई हैंकी जैसे संञ्जान्त व्यक्ति की अध्यक्षता में एक | भाग ६१ < सरकारी समिति ने यह सम्मति प्रकट की है कि यदि युद्ध न छिड़ा होता तो सुख्य टेफनिकल समस्या अरब तक हलत्ल हो गयी होती । यट्ट समस्या ऐसे चित्र डत्तारने की है, जिन्हें सिनेमा के पद पर दिखाया जा सके । युद्ध के कार्यो से खाली होते ही वैज्ञानिक अनुसंधान में लग जाय॑गे। रेडारके संबंधर्म जो अनुभव वैज्ञानिकों को प्राप्त हुए हैं वे भी उपय्रोगी सिद्ध होंगे । कुछ ही समय के बाद वह समय आने वाला है जब टेलीविजन द्वारा वेसे ही उत्तम चित्र भेजे जञा सकेंगे जैसे प्लिनेमा चित्र होते हैं । यह तो भविष्य की बात हुई । वत्तमान ध्मयके लिये भी योजनाएं बन रही है। समिति की सिफारिश है कि १६३६ की टेलीविजन व्यवस्था शौीघ्रातिशीघ्र फिर से चालू की जाथ । इसके बाद उसे पूर्णता प्रदान की जायगी । जिन्होंने १६३६ में टेलीविजन का कार्यक्रम देखा है वे उसके मनोर॑जन के महत्थय को समझ सकते हें । लंदन का पुराना स्टेशन केवल्न एक चौथाई जनता की श्रावश्य- कंता पूर्ण करनेमें समर्थ था। अब इसमें विस्तार हो सकता है। टेली विजन जनता के व्यवहार की वस्तु बनायी जानी चाहिये। ' ब्रिटेन का आकार-प्रकार काफी छोटा है | द्वीप में ६ स्टेशन बनाये जाय॑ तो &० प्रतिशत जनता उच्तसे लाभ उठा सकेगी | यह कार्य शीघ्र ही किया जायगा | जापानी युद्ध समाप्त दोनेपर ब्रिटेनवासी वेस्ट मिनिस्टर एब्ीके समा- रोह अपने घर बैठे देख सकेंगे | अन्तर्राष्ट्रीय व्यापकता यह तो श्रीगणशेश मात्र हैं। श्रागे चल कर देल विजन अन्तर्राष्टीय वस्तु बनेगी भर पुक्त देश की घदनाएं दूसरे देशेंमि देखी जा सखेंगी। अटलॉटिक पार टेल्ली विजन द्वारा घटनाओं का विभिमय करने से श्रभी समय लगेगा | किनमु फ्रांस और इंग्लैंड के मध्य संबंध शीघ्र स्थापित करने में कोई आधा नहीं है। अपने देश के अर्न्ग॑त प्रत्येक व्यक्ति के लिये टेलीविजन सुलभ करने वाज्ञा देश बत्रिदेन होगा | इसके बाद ही पश्चिमी यूरोप से उसका सम्बन्ध स्थापित होगा । / संख्या ४ ] फलों ओर बीजोंका विकिरण ( )8]087'89] 07 77प78 800 86808 ) [ ज्ञे०--डा० सन्तप्रस्ताद टणडन | पेड़ॉंकी अ्रच्छी वृद्धिके लिये डचित स्थान, जहाँ उन्हें डीक भोजन तथा रोशनी आदि मिल सके, बहुत आवश्यक है। यदि आप किसी पेड़ के बहुत से बीज को एक छोटी सी सीमित ज़मीन में छोड़ दीजिए तो श्राप यह देखेंगे ' कि पौधे बहुत घने रूप से एक दूसरे के इतना पास उगे हैं कि उनकी बाढ़ ठीकसे नहीं हों पायी है। बहुत से बीज ऐसे भी रह जायगे जो उग ही नहीं पाये। यदि उगे हुए सब पौधे उसी स्थान पर लगे रहने दिये जाय तो उनमेंसे बहुतसे कुछ दिनों बाद नष्ट हो जायेंगे। इस कुल बातका कारण यह है कि उस थोड़ेसे स्थानमें जहाँ इतने अधिक पौधे उग आये हैं इतना खाद्य पदाथ नहीं है कि सारे पौधोके भोजतकी आवश्कता पूरी हो सके । ऐसी दशा सब पौधेसे भोजनके लिये एक दूसरेसे दोढ़ होने लगती है और जो पौधे जितना अधिक भज़बुत्त होते हैं वे उसी अनुपातमें पहले भोजन ज़मीनसे खींच लेते हैं। नतीजा यह होता है कि सभीको श्ावश्यकतासे कम भोजन मिलता है और बहुतोको तो इतना थोड़ा मिलता है कि वे भर जाते हैं । चैज्ञानिकोकी भाषामें इसे जीवनसंग्राम ( &0'प28]8 07 #58- $67706 ) कहते हैं । बीजोंके बिखरनेका उद्देश्य इसी परस्परके जीघन- संग्रामको बचाना है जिससे पोधोंको सुरक्षित रूपसे जीवन बितानेका मोका मिल सके । यदि बीज अ्रपने पिछ पेड़ोंके हृद-गिद ही गिर जाये तो उस स्थानके सीमित भोजनसे उन सबका पोषण नहीं हो सकेगा और जीवन-संग्राम शुरू हो ज्ञायगा | खेती करने वाला किसान सदा इस बातको ध्यान रखता है ओर इसी कारण अपने खेतमें बीज इस प्रकार बोता है कि पेड़ अलग अक्ग थोड़ी-भोड़ी दूरसे उगें ओर पास पास जमघट न जगा ल्ञे' । आपने शायद कभी इस बातका निरीक्षण किया हो कि जब कभी फलों और बीजोंका विकिरण द £ १ किसी खेतमें पौधे घने होते हैं तो उनकी बाढ़ भ्रच्छी नहीं होती और उनके बीजों या फलॉकी उपज भी खराब होतौ है। यदि खेत गेहूँका है तो गेहूँ पतले तथा छोटे दानेके होंगे और प्रति बीधा उसकी पैदावार भी वक़नमें कम रहेगी | फर्तों और बीजोंका विकिरण निश्वलिखित माध्यमों द्वारा होता है---( १ ) हवा, (२ ) पानी, ( ह३ ) जस्तु तथा (9 ) फल्मोर्म मौजूद कोई फटनेकी तरकीब ! वायु विकिरण--जिन फर्लों श्र ब्रीज्ञोका विकिरयां हवा द्वारा होता है वे अपने रूप तथा रचनाकों इस प्रकार बनाते हैं कि हवाको विकिरणके कारयमें सहायता मिलती है और विकिरणकी क्रिया अधिक सफलत्तापूर्वक होती है। हवा द्वारा विकिरण होने दाले बीजेोंकी विशेषताये ये हैं-- (१ ) फल्न और बीज प्राय: बहुत छोटे, हल्के ओर चपदे होते हैं जिससे हवा उन्हें बड़ी आसानीसे उड़ा ले जाती है। सिरसाकी फली बड़ी हृढकी ओर चपटी होती है। शीशम झौर चीड़के बीज काग़जकी तरह इढके दोते हैं | (३ ) कुछ फलों बीजोंके निकलनेके माग॑ और उनकी स्थिति इस प्रकारकी होती है कि प्रत्येक हवाके ऊंकेके साथ थोड़ेसे बीज भटकेके स्राथ फलसे बाहर निकलते हैं ओर दूर जा गिरते हैं। पोस्तकी ढोंडीमें इसी अ्रकारकी तरकीब रहती है और प्रत्येक हवाके रोके साथ थोड़ेसे दाने ऊपरके छेदोंसे निकल कर दूर दूर छिंतर जाते हैं । | (३ ) कुछ फलेमिं ओर बीजेमें बालेंके भुंड लगे रहते हैं ओर कुछमें पंख लगे रहते हैं जिनके सहारे वे. हवामें बहुत दूर तक उड़ जाते हैं। सूरजमुखीके फक, मदार तथा रुईके बीजोंमें बाल्ोंके मुंड रहते हैं। चिल- बिल्ल, ढाक और मेपिल ( )४8]0]6 ) के फल पह्टदार होते हैं । वायु द्वारा उड़ा ले गये हुए बीजोमेंसे बहुतसे इंधर- उधर ऐसे स्थानंमिं गिर जा सकते हैं जहाँ उन्हें जमने का मोका ही कभी न मिले । उदाहरणके लिये वे ताज्षाब, [ भाग ६१ ५ 8१ | 'विशान, जूलाई, १६४५४ तो शरीरमें दृज्ञम हो जाती हैं किन्तु बीज अपने कड़ेपनके कारण बिना हूटे मज्नद्वाससे बाहर निकल शाते हैं ओर जन्तुके जगह जगह सत्न विश्तजन करनेसे दूर दूर तक फेल जाते हैं। बहुतसे फर्कोको स्वादिष्ट तथा रखीला बनानेमें पेड्ोंका उध्देश्य ही यह है कि ये फन्न जन्तुओं द्वारा खाये ज्ञाय जिससे उनके बीज विकरित हो सकें | आस, अमरूद, टमाटर सेव आदि इसी प्रशारके फल हैं । फलोंमें फटनेकी तरकीबका रहना--कुछ फल इतने झूटकेके साथ फटते हैं कि उनके घीज उछुल कर बहुत दूर जा गिरते हैं। पी यह बात फलके किसी स्थानपर बहुत अधिक तनाव रहनेके कारण होती है जिसके सबबसे उस स्थानपर ज़रा सा दबाव पड़नेपर फत्न झटकेसे फरते हैं। छीमी पाले फल इसी प्रकारके हैं (सदर, सेम आदि)। फली सुखनेपर ऐंडती है और बीज एक एक कर छिटक जाते हैं । गुलदज़ारेके पक्रे फलकों यदि आपने कभी छुआ होगा तो देखा होगा कि फल छूते ही एक दस सिक्‌ुइ कर फटता है और बीज छिटक कर दूर जा गिरते हैं। नदी या अन्य पातीके स्थानर्में था वथरीसे तथा अन्य मिहदी रहित स्थानमें गिर कर व्यर्थ जा सकते हैं। वायु विकरित बीज अच्छी मिट्ठीमें ही गिरे इसकी सम्भावना कम रहती है। अतः वायु विकिरण बहुत अपव्यय की रीति है। इसीजलिये इस विकिरण पर निर्भर रहने वाले पेड्ोको बहुत अ्रधिक मिकदारमें बीज पैदा करना पढ़ता है जिससे बहुत सा बीज ध्य्थ जानेके बाद भी कुछके ठीक मिट्टीमें पहुँचने की सम्भावना बनी रहे । जल विकिरण -यह रशौति प्रधानतः उन पोधो्मे :. पायी जाती है जो पानीमें था उसके किनारे उगते हैं। ' इस प्रकारके बीज प्रायः अपनेको स्पंजडी तरह इतना हृढका बनाते हैं कि वे बहुत आसानीसे पानीम दूर तक तैर कर जा सकते हैं। कमल इसका उदाहरण है। वायु विकरित बहुतले बीज भी प्रायः पानीमें गिर पड़ते हैं | उनमें बहुतसे तो नष्ट हो जाते हैं किन्तु कुछ ऐसे भी होते -- हैं जिनपर पानीका असर नहीं होता और वे बहते बहते .: ऐसे स्थानों पहुँच जा सकते है जहाँ उन्हें जमनेका मौका ... “मिल जाता है। कुछ बीज पानीमें तैरती हुई लकढ़ियोंके ' छपर गिर कर उनके हारा आगे बढ़ जाते हैं। नारियल थू कि समुद्रके किनारे अधिक होता है इस कारण इसकी बनावट पानीके विकिरणके लिये बहुत उपयुक्त है। इसकी जटायें इसको पानीके ऊपर तैराती रहती हैं और इसका [ शेष्र पृष्ठ ६१ का ] सन्‌ १३६३७ में पक भारतीय बेच ने स्टालिन की चिकिम्सा - कठोला एण्डोकार्प अन्दरके गर्भकी रक्षा करता है और वहाँ तक प्रानी नहीं पहुँचने देता । जन्तु विकिरण--बहुतसे बीम और फल जन्‍तुओंके -शरीरोंसे चिपक कर दूर दूर तक पहुँच जाते हैं। इसके "लिये फलोके ऊपर प्रायः कॉटेदार इस प्रकारके आकार . - रहते हैं ज्िञकी सहायतासे वे जन्तुओंके शरीरके बालोपर आसानीसे चिपक जाते हैं। बरखातके दिनेंमें आपने -; प्रायः एक प्रकारकी घास देंखी होगी जिसके ह्स्बे बालों वाले बीज कपड़ों आदिम इतनी मज़बूतीसे चिपक रहते हैं कि जब तक हाथसे उसे न निकाला जाय वे नहीं निक- «+जैते । गाजरके बीज भी इसी प्रकारके रहते हैं । बहुतसे रसीले फल्ॉके बीज कड़े होते हैं या कड़े एण्डोकापके अन्दर रहते हैं। जब इन फल्नोंकों पत्षियाँ, म्नुष्प तथा अन्य जस्तु खाते हैं तब फलकी शअ्रन्य चीज़ें की थी। जिश्नके कारण लेनिनमआादइ में चिकित्सासम्बन्धी बूटियों की खोज के लिये एक संस्था स्थापित की गई थी । कैलिफोनिया के ढा० काके ने श्राथुवेंद की प्रशंसा करते हुए कहा था-- केवल चश्क का अनुसरण करे, जिससे चिकित्सकों का कार्य हल्का हे। जायेगा ओर संसार से भयंकर ध्याधियों का विनाश हो जायेगा? । अभी संयुक्त- राष्ट्र अमेरिका ने अपने युद्धननिर्माण विभाग सें एक भार- तीय वेज्ञानिक को नियुक्त किया है। डा० होमी वाभा एफ-आर-एस का गाम वेज्ञानिकसंसार सें तथा विशान प्रेमियों में अभी ताजा है । हमने यहाँ इस विषय के संक्षेप से लिखा है, जिसको अच्छी तरह सूष्ट करने से लिये एक स्वत्तन्न्न पुस्तक किखी जा सकती है । ( अगरेज्ञी से संकलित ) उक न्फ़ विज्ञान-परिषदुकी प्रकाशित प्राष्य को पूः (ः स्‌ः पुस्तकोकी सम्पूण सूची विज्ञान प्रवेशिका, भाग १०-विज्ञामकी प्रारश्मिक बातें सीखनेका सबसे उत्तम साधन--ले० श्री राम- दास भौड एम० ए० आर प्रों० सागराम भागव . एम० एल-सी० ; ।) २“ताप--हाईस्कूलमें. पढ़ाने योग्य पाव्य पुस्तक-- ले० प्रो० प्रेमनत्लभ जोशी एम० ५० तथां श्री विश्वस्भर नाथ श्रीवास्तव, डी० एस-सी० ; चतुर्थ संस्करण; ॥0), ३“-चुम्बक--हाईसकूकमे पढ़ाने योग्य पुस्तक--क्षे० प्रो० सालिगरास भार्गव एम० एस-्सी०; सजि०; ॥#) ४9--सनोस्ख़क रसायल--इसमें रसायन विज्ञान उप न्यासकी तरह रोचक बना दिया गया है, लबके पढ़ने योग्य द्वैे--के० भो० गोपास्वकूप भागव एम० एस-ली० ; १॥), ५“-सूथ-सिद्धान्त--संस्क्त मूज्ष तथा हिन्दी 'विज्ञान- भाष्य'--प्राधीन गणित ज्योतिष सीखनेका सबसे सुशभ उपाय--(६ संख्या १९३४ ; १४० चित्र तथा भकशे>|ले० श्री मह्ाबीरमसांद धोवास्तथ बी० एस-सी०, पक्ष टी०; विशारदं; सजिर्द; दो भार्गमे, झुढ्य ६)। इस भाष्यपर लेखककों हिन्दी साहित्य सम्मेक्षषका १२००) का मंगलावप्रज्ाद पारितोषिक मिला है । ल्"्येज्ञामिक परिमाण-“विक्ञानकी विविध शाखाशोकी इकाइयोंकी सारिणियाँ--ले० डाक्टर निहालकरण सेठी डो० एस सी ०; ॥), रा ७>>ससीकरणा मीसांसा--गणितके एमस० (० के विद्यार्थियोंके पढ़ने योग्य--ले० पं० सुधाकर द्विवेदी, प्रथम भाग १॥), हितीय सांग ॥०), ८४--निर्णशा यक ( डिटर्मिनेंद्स )--गणितिके एस० एु० के विद्याथियोंके पढ़ने योग्य--कोे० भो० गोपात्ष कृष्ण गर्दे और गेामती प्रसाद अशिदोत्री बी० एस सी ० ; ||), द ६--बीअज्यामिति या शुंजयुग्म रेखागणित**इंटर मोडियेटके गणितके विंद्यार्थियोंके लिये--ले० डाक्टर सत्यप्रकाश डी० एस-ली० ; १।), १०--शुरुदेव के साथ यात्रा>-शक्टर जे० स्ी० बोसकीं यात्राश्रोंका लोकप्रिय वर्णन ; ।“); ११--केदार-बद्री यात्रा--केदारनाथ भोर बह्रीनांथके थात्रियोंके क्षिये डप्योगी; |), १२--वर्षा ओर वबनस्पति--कोकप्रिय विवेचन--ल्षे० श्री शक्लरराव जोशी; ।), १३--भनुष्यका आद्वार--कोनन्सा भाहार सर्वोत्तम है-- ले० वैद्य गापीनाथ गुप्त; ।), १४--मुब णे कारी--क्रियाप्मक-- के » पंचोत्ी; |) $ १४--रसायन इतिहास--इंटरमीडियेटके विद्यायंद्रे योभ्य -- क्ैं० हु ० ध्ा्जाराम दी० एस-ल्ली ० ३] ॥); । १६०विज्ञालका स्मततच्मयन्ती अंक-विज्ञान परिषदू के २६ बंका इतिहास तथा विशेष केखोंका संग्रह; १) भ्नी १७--विज्ञानका उद्योगन्‍व्यवर्सायाहु--रुपया बचाने . .. तथा घन कमानेके किये भ्रनेक संकेत---१६० पृष्ठ, कई चित्र--सम्पादक श्री रामदास गाढ़ ; १॥) गंगाशंकर (८>न्फलनसरचुर[ दूसरापरिवर्धषित संस्करण-फरक्षोकी द डिब्बा बन्दी, धरज्बा, जैम, जेली, शरबत, अचार आदि बनातनेकी अपूर्व पुस्तक; २१३ पृष्ठ; २५ चित्र--- ले० ड[० गारखप्रसार डी० एस-सी०; २), | १६ -व्यज्ञ-चित्रणु--( काहून बनावेकी विद्या )-- से ७ एल० ए०५ डाडस्ट ः अ्रतुवादिका श्री स्नकुमारी एस० ९०; १७१ ४४; सैकड़ों चित्र, सजिदद; ३॥) २००-मिद्गीके बरतन--घीनी मिद्टीके बरतन केसे बनते हैं क्ोकप्रिय--क्षे० भ्रो० फूलदेव सद्दाय वर्मा ; १७४६ पृष्ठ; ११ चित्र, सजिद्द: १॥) हे २१७-वायुमंडल--ऊपरी वायुमंडलका सरक्ष वर्णन--- शा रु ले० ढाकटर के० बी० माथुर; १८६ पृष्ठ, २९ चित्र, :* संजिल्द; १॥), २२०-ल्ञकंड़ी पर पॉलिश--पॉलिशकरनेके नवीन भर पुराने सभी ढंगोंका ध्योरेवार वर्णन | इससे कोई की पॉलिश करना सीक् सकता ह--क्षे० डा० गारख- हक प्रसाद और श्रौरासयतन सदनागर, एम०, ए०; २१८ पृष्ठ; ३९ चित्र, सजिल्द: १॥), २३--३पयोगी नुसखे तरकीबें अर हुनर--सखम्पादक ढा० गोरखप्रसाद और डा|० सत्यप्रकाश; भाकार बढ़ा ( चिज्ञानके बराबर ), २६० पृष्ठ $ २००० नुसखे, १०० चित्र; एक एक सुसखेसे सैकड़ों रपये बचाये ज्ञा सकते हैं या हज़ारों रुपये कमाये।जा सकते हैं | धश्येक गृहस्थके लिये उपयोगी ; मूल्य अजिद्द १), स्जिल्द २।।), २४--कलम-पेवंद--दो ० श्री शंकरराव जोशी, २०० ४४; ६० चिन्न; माल्ियों, साल्निकों और कृषकोंके किये उपयोगी; सजिहइ; १॥), ु २४०-झिरएद सा जी--फ्रियात्मक और ध्योरेवार । इससे . सभी मिरदसाज़ी सीख सकते हैं, ले० श्री सत्यजीवन _बर्मा, एम० ९०; १5० प्ृष्ट, ६२ चित्रंसजिल्‍द १॥॥), २६-+भारतीय चीनी भिट्टियाँ-- औद्योगिक पाठशाल्ाओं के विद्यार्थियों के लिये--- ले ० प्रो० एम० एल मिश्र; २६० पृष्ठ; १२ चित्र; रूजिद्द 4॥), . २७-त्रिकक्ञा--दूसरा परिवर्धित संस्करण प्रत्येक वैद्य भर गृहस्थके लिये--ले० भ्री रामेशवेदी आयुव्दालंकार, २३६ पृष्ठ; ३ चिन्न (एक रज्जीन); सजित्द २) ह .,' यद्द पुस्तक गुरुकुत आयुर्वेद मदाविद्याक्षय . १३. श्रेणी द्रव्यगुणके स्वाध्याय पुस्तकके रूपमें शिक्षापटक्षमं स्वीकृत हो चुकी है ।' श८--मधुभमकंखी-पालन--कले० पणिडत दयाराम शुगढ़ान, - भ्रूतपूवे अध्यक्ष, ज्योज्तीकोट सरकारी मधुवदी; क्रिया- क्मकः और ब्योरेवार: मधुमक्खी पाक्नषकोंके किये उप- 'ओोगी तो है दी, जनसाधारणको इस पुस्तकका : अधिकांश भझत्यन्त रोचक प्रतीत होगा; मधुमक्खियों . की रहन-सदहदन पर पूरा प्रकाश छात्रा गया है। ४०० पृष्ठ; अनेक चित्र और नकशे, एक रंगीन चित्र; सजिक्द; २॥), ए६&->धरेलू डाक्टर-- लेखक भोर सम्पादक डाक्टर जी० घोष, एम० बीं० बी० पएुस्र०, ढी० टी० एम०, प्रोफेसर डाक्टर बद्रीनाराथण अस्राद, पी० पुच० विन न जल पम्प 8्टा:::फ््मस्फल्पया-य न्परपगप्फपण कप: >नथपकपम्ट पाप द्द मुश्दक तथा प्रकाशक -- विश्वप्रकाश, कक्षा प्रेस; प्रयाग | ६९६४. ४०. & 372 ढी०, एस० बी०, कैप्टेन 'डा० उमाशंकर श्रसाद, पुम० ब्री० बी० एस० , डाक्टर गोरखप्रसाद, आदि | २६० (ृष्ठ, ११० चित्र, आकार बढ़ा ( विज्ञानके बराबर ); सजिल्द; ३), ३० - तैरसता--तैरना सीखने शोर इूथते हुए लोगोंको बचाने की रीति अ्रच्छी तरह समभकायी गयी है । ले० डाक्टर गोरखप्रसाद, पृष्ठ १०४, मूल्य १), ३१-अंजीर--लेखक श्री रामेशवेदी, आयुववेदालंकार- अंजीर का विशद्‌ धर्णन और उपयोग करनेकी रीति । पृष्ठ ३३, दी चित्र, मुख्य 0), यह पुस्तक हे भी गुरुकुज्न श्रायुबद महाविद्यालयके शिक्षा पटक्षमें स्वीकृत हो चुकी है | ३२--सरत्त विज्ञान सागर, प्रथम भाग --सम्पादक डाक्टर गोरखप्रसाद । बड़ी सरक्ष शोर रोचक भाषा में ज॑तुझ्रके विचित्र संसार, पेड़ पोधों की अचरज भरी दुनिया, सूर्य, चन्द्र और तारोंकी जीवन कथा तथा भारतीय ब्योतिषके संक्षिप्त इतिहास का वर्णन है। विज्ञानके आकार के ४५० प४ठ और ३२० चिप्रसि सजे हुए ग्रन्थ की शोभा देखते दी बनती है | सजिद्द, मूह्य ६) हमारे यहाँ नीचे लिखी पुस्तकें भी मिलती हैं।--- १--भारतीय वैज्ञानिक--(.१२ भारतीय चैज्ञानिकोंकी जीवनियां ) श्री श्याम नारायण कपूर, सचित्न भर सजिएद, ३८० ४६८5; ३) २--यान्त्रिक-चित्रकारी--छे ० श्री श्रॉकारनाथ शर्मा, (७ पुम०आई०एक०६० | इस पुस्तकके प्रतिपाद्य विषयको अ्ग्रेज़ीमें 'मिकेनिकल ड्राइंग! कहते हैं | ३०० पृष्ठ, ७० चिन्न; ८० उपयोगी सारिणियां; सह्ता संस्करण २॥ ) ३---वैक्युम-ब्र क--क्ले० श्री ओऑकारनाथ शर्मा। यह पुस्तक रेल्वेमें काम करने वाले फ्रिटरों, इंजन-ड्राइवरों, फ्रोर- मैनों और केरेज एश्ज़ामिनरोंके लिये अत्यन्त उपयोगी है। १३० पृष्ठ; ३१ चित्र, जिनमें कई रंगीन हैं, २) विज्ञान-मासिक पत्र, विज्ञान परिषद्‌ प्रथागका सुखपत्र है। सम्पादक ढा० संतप्रसाद “टंडन, लेक्चरर रसायन विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय । वार्षिक चन्‍्दा ३) विज्ञान परिषद्‌, ४२, टेगोर टाउन, इलाहाबाद | वि 220 विज्ञान-परिषद्‌, प्रथागका खुख-पतन्र विज्ञान ब्रह्मेति व्यजानाव, विज्ञानाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । विज्ञानेन जातानि जीवन्ति, विज्ञान प्रयन्त्य मिसंविशन्तीति ॥ तै० उ० ।शण। 22203 8 2 2 का "३ भाग ६ सह, सरवत्ू २००० संरू कै ने£ कर की के के पर व बेर जार वर बह लए कर पर: अह वीपली5 4548 मल जः के नह नी कर ने न फेम मै नो लीन वायुमंडलकी सूच्म हवायें ते०--डा[० सम्तप्रसाद 2इन खष्टिके आरस्मकालमे मनुप्यके हृदयमें आख पासकी वस्तुओंकी पूरी जानकारी पाप्त करने तथा प्रतिदिन या प्रायः घटित होने वाली धटनाओंके कारणोंको मालूम करनेकी इच्छा का उदय होना ही विज्ञानका प्रारम्भ कहा ज्ञा सकता है । विज्ञानका प्रारम्म तथा उन्नति दोनों ही मनष्यकी इसी इच्छाका परिणाम हे। जो ओ वस्तुयं मनष्यक्रे सबसे अधिक मिकट या सम्पकर्मं थीं उनके सम्बन्धकी वातें मालूम करनेका प्रयथल्ल सवसे पहले किया गया । वायुमंडल हमारे चारों ओर है । इसका अध्ययन रसायन विज्ञानमं बहुत पहले ही प्रारस्म हो गया था । वायुमंडलकी मुख्य मुख्य गेसोंकी जानकारी भो बहुत पहले ही की। जा चुकी थी। लेकिन इसकी वे गैसे, जिन्हें सूक्ष्म या अक्रिया- शील हवायें कहते है, १९वीं सदीके लगभग अन्त तक माह्ूम नहीं की जा सकी थीं | यह एक अवश्य आश्वययकी बात है कि वायुमंडलका इतना सब अध्ययन तथा निरीक्षण होने पर भी उसमे वर्तमान इन गेसोंकी जानकारी इतने समय तक नहीं हो सक्की | इसका कारण स्पष्ट है। -वायुमंडलम इन गेसोंकी मातायें इतनी कम हैं आर फर इनके गुण इस प्रकारके है।के रसाय- नक्ष के हृदयम कभी इस बातका संदेह भी नहीं उठ पाया के ऐेसी भी कुछ गेसे वायुमंडलमे मौजूद है। साथ ही उन दिनों रसाथनश्चके पास परोक्षण तथा निरीक्षणके उतने अच्छे यंत्र तथा अन्य सामग्रियों नहीं थी जो वाद में उसे प्राप्त हुईं ओर जिनकी सहायताक्रे विना वासुमंडलकी इन गंसोंकोी खोज निकालना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य था । वायुमंडल की सूक्ष्म गेसे पाँच हैं--(१) हीलि- यम (।6]07), (२) नियन- (४ 600),(३) आरणगन (3207) (४) कृपटन (77४ ])॥०॥) ओर (५) ज्ञीनन (£60707))। इन गेसोंकी खोज रसायन विज्ञानमं वड़े महत्वकी है। इन गेसोंने रसायन विज्ञान की कई समस्याओं पर सुन्दर प्रकाश डाला और उनके सुलमानेम सहायता की । इनके! खोज निकालने में कई वेज्ञानिकोंका हाथ रहा है किन्तु खोज्का सबसे अधिक श्रेय सर विलियम रेमज़े नामक एक अंग्र ज़ रसायनश्को है। रेमज़ेका नाम रसायनऊके इतिहासमे इन गैसोंकी खोज्ञके कारण अमर हो गया है। इन खोजोंके उपलक्षम रेमज़ेकी नोबुल पुरस्कार सी प्रदान किया गया था। इन गसोंकी खोज़का इतिहास बड़ा रचिकर है। उसका थोड़ा वण न यहाँ कर देना उचित जान.पड़ता है। ग्रारगनकी खोज सम २८०७ में लाड रेले नामक प्रसिद्ध अंग्रेज वेज्ञानिक नाइट्रोजनके घनत्ध पर कार्य कर रहे थे। उन्हांने वध्युमंडलसे भाप्त नाइट्रोजन के घनःवकी तुलना नाइट्रोजन योगिकोंसे रासायनिक विधि द्वारा प्राप्त नाइट्रोजनके घनत्वसे की। उन्हें हु देखकर आश्चय हुआ कि वायुमंडलके नाइट्रो- श्र जनका घनत्व रासायनिक नाइट्रोजनके घनत्वसे कुछ अधिक था, अथात हवाका नाइट्रोजन रासा- यनिक नाइट्रोजनसे कुछ भारी था। विज्ञानका प्रारश्सिक ज्ञान रखनेवाला विद्यार्थी भी यह जानता है कि प्रत्येक तत्व, चाहे वह जिस प्रकार था जहाँसे भी प्राप्त किया जाय, सदा अपने गुणोंम एक सा रहता है। यदि आपके पास एक टुकड़ा शुद्ध सोनेका है तो उसका घनत्व तथा उसके अन्य सारे गुण एक दूसरे शुद्ध सोनेके टुकड़ेके समान हर वात में होंगे। ज़रा भी किसी प्रकारका अन्तर गुणोंमे नहीं होगा। दो स्थानोंसे प्राप्त नाइट्रोज़नके घनतत्वका यह अन्तर खटकने वाला था। इस बातका निश्चय करनेके लिए कि यह अन्तर वास्तविक था या प्रयोग .या किसी अन्य प्रकारकी च्रुटियोंके कारण था रेैलेने इस , सम्बन्धर्म वहुतसे प्रयोग किये। उसने वहुतसे विभिन्न नाइट्रोज़न योगिकों से भिन्न भिन्न विधियों द्वार रासायनिक नाइट्रोजनके अलग अलग नमूने तैयार किये तथा वायुमंडलसे भी कहे विभिन्न विधियों द्वारा अलग अलग नाइट्रोजन प्राप्त किया । इन सब नाइट्रोजनके नमूनोंके घनत्वोंकी परस्पर : तुलना करने पर उसने देखा कि रासायनिक नाइ- टोजनोंके घनत्वोंमे आपसमे कोई अन्तर नहीं है। उसी प्रकार वायुम डलके नाइट्रोजनके सच नमूनों का घनत्वभी लगभग एकसा ही रहा। किन्तु रासायनिक नाइट्रोजज तथा वायुमंडलके नाइ- टोजनके घनत्वों में परस्पर अन्तर सदा वना रहा । नोचेकी सारणीमे रेलेके प्रायोगिक परिणाम दिये जाते हैं जिससे आपको इन दो प्रकारके नाइट्रोजन के अन्तर की मात्रा ज्ञात हो जायगी। (१) रासायनिक नाइट्रोजन घनत्व (अ) नाइट्रिक आक्साइडसे लाल तपे लोहे द्वारा प्राप्त ,.. २'३०००८ (ब) नाइट्स आक्साइडसे लाल तपे लोहे द्वारा प्राप्त २२०९९०४ (स) अमोनिय म नाइट्राइटसे प्राप्त... २२०८६० विज्ञान, अगस्त, १९४४ | भांग ६६ आज ला. (ड) यूरियासे सोडियम हाइपोब्रोमाइट को प्रक्रिया द्वारा प्राप्त २२९८४ 'ओऔखसत--२ २९९२७ (२) बायुमंडल का न।इट्रोजन (क) लाल तपे ताँबे द्वारा प्राप्त ... ... २.३१०२६ (रत) 59. - बह लोहे 99 हक लक 5 कट 8 २३१००३ (ग) गरम फैरस हाइड्राक्साइड द्वारा प्राप्त 9 २ ३१०२० ओरत---२३१० १६ इस सारणीसे आप भी रेलेकी भाँति इसी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि वायुम'डल और रासाय- निक नाइड्रोनके धनत्वॉका यह अच्तर प्रायोगिक च्रुटेयोंके कारण नहीं हो सकता, क्योंकि हर प्रयोगमे अन्तरकी मात्रा एक ही सी बनी रहती है। घनत्वोंके इस अच्तरसे यह निष्कर्ष स्पष्ट है किया तो दोनों नाग्रोजन या उनमेसे कोई एक एकदम शुद्ध नहीं है; किसी अन्य चीज़की मिलावट अवश्य है । मिलावट के लिए दो सम्भा- वनाय हो सकती हें--एणक यह कि रासायनिक नाइट्रोजनमे नाइड्रोजनले हल्की कोई अन्य गेस जैसे हाइड्रोजन मिली हो जो उसके घनत्वको कम कर देती हो और दूसरी यह कि वायुमंडल के नाइट्रोजनमें नाइट्रोज़नसे भारी कोई अन्य गैस मिली हो जो उसके घनत्वकी वृद्धिका कारण हो | इन दोनों सम्भावनाओंमेसे कैानसी आंधक संभव थी यह मालूम करनेके लिए रेलेने नेम्ध प्रयोग किये । रैलेने यह देखा कि दोनों नाइग्रोजनमें विद्य त प्रवाह करने पर उनके घनत्वमें कोई अच्यर' नहीं होता; घनत्व पहले जैसा ही वना रहता है। रैले ने प्रयोगों छारा यह भो सिद्ध किया कि रासाय निके नाइट्रोजनमे कोई दूसरी हल्की गैस जैसे हाइड्रोजन, अमोनिया या जल-वाष्प का मिश्रण नहीं है। इन प्रयोगोंसे अब कैचल एक ही सम्भा- वना रह गई । वह यह कि वायुमंडलके नाइट्रोजन . संख्या ५ ] में अवश्य नाइट्रोजनसे अधिक घनत्ववाली किसी गेसका मिश्रण है जिसके कारण वायुमंडलका नाइट्रोज़ज रासायनिक नाइट्रोजनसे भारी है। वायु पर खाज्ञ सम्बन्धों पुरने साहित्य का अवब- लोकन करने पर यह मालूम हुआ कि लगभश १०० साल पहले केवेन्डिश नामक अंग्नज़ रसाय- नशने भी इसको ओर संक्रेत किया था, किन्तु सम्भवतः प्रायोगिक कठिनाइयोंके कारण इस खोजको अधूरा छोड़ दिया था । कैवेन्डिशका प्रयोग इस भाँति था । केवेन्डिशने यह मालूम करनेके लिए कि हवा में नाइट्रोजनके नामसे एक ही गेस है या इसमें "कई गेसोंका मिश्रण है निम्न प्रयोग किया । उसने एक बन्द वरतनमें हवाके साथ बहुतसी शाद्ध अक्सिजन मिलाकर उसमे विद्य त प्रवाह किया । ग्रक्सिजन मिलाकर विद्युत प्रवाह करनेमें उद्देश्य यह था कि हवाकी सारी नाइट्रोजन आक्िसिजनके साथ मिलकर नाइट्रस गेसके योगिकम वदल जाय । नाइट्स गैस सावुनके पानीमे घुलनशील होती है। वरतनमे नाइट्स आक्साइड वन जाने के वाद उसमें साबुनका पानी डालकर इसे शोषित कर लिया । जब ओर आक्सिजन मिलाने तथा विद्युत प्रवाह करनेसे नाइट्रस गेसका बनना रुक गया तो यह माहूम हो गया कि हवाका सारा नाइट्रोनन निकल गया है। अब इस वची गेसमेसे आकिसजनको लीवर आफ़ सलफ़र ( .€ए९० ० 50]77 ४०, गन्धकका कास्टिक सेाड़ा में घोल ) में घुलाकर अलग कर दिया। यह सब करनेके बाद कैवेण्डिशने देखा कि अम्तम ज़रासी गेस दोष रह गईं जो कुल हवाके 5३5० भागके वराबर थी । अतः उसने यह निष्कर्ष निकाला कि हवाके नाइट्रोजनमें यदि कोई दूसरी गेस मिली है तो वह कुल हवाके ३३८ भागसे अधिक नहीं है। हवाके इस ब३5 भागके जाँच करने का काय उसने नहीं किया नहीं तो इन खूक्ण हवाओंकी खाज़ उसी समय हो गईं होती । वायुमंडलको सूक्ष्म हवाये' ९९, रैलेके प्रयोगके बाद जब लोगों का ध्यान इधर आक्ृष्ट हुआ तो केवेन्डिशके पुराने प्रयोगको नये अच्छे अपरेटस द्वारा फिर किया गया। यह देखा गया कि हवाका कुछ भाग सदा होष रह जाता है जिसका आयतन भी हवाके आयतनके अनुपात से सदा एक ही रहता है। रश्मिचित्र ( 85980[- 7०800]0 ) परीक्षासे यह सिद्ध हुआ कि यह बचा हुआ भाग नाइट्रोजन नहीं है । रैमज़े ओर रैलेने मिलकर हवामे से ग्राक्सि- जनको तपे ताँवे द्वारा तथा नाइट्रोजजकों गरम मैेगनीसियम दाश अलगकर इस नई गैसको प्राप्त किया। रश्मिचित्र परीक्षा द्वारा यह सिद्ध हुआ कि यह गेस ओर कैवेन्डिश के प्रयोग द्वारा प्राप्त गेस एक ही है। इस नह गैसको आरणन नाम दिया गया। श्रीक भाषामं आरगनका अर्थ होता है अक्रियाशील) चू कि यह गेस किसी भी रासाय- निक प्रक्रियामें साग नहीं लेती इसीसे इसे यह नाम दिया गया । इस गेसके आविष्कारका समाचार प्रथम बार १३ अगस्त सन्‌ १८०९७ में छुपा | यह हुई आरणगनके आविष्कारकी कहाती। हीलियमकी खोज हीलियमके आविष्कारकी कहानी सन्‌ १८६८ से प्ररश्म होती है। (८ अगस्त सन्‌ श्दद्८ के दिन हिन्दुस्तानमें एक पूर्ण सूथ्य ग्रहण पड़ा। इस अ्रहणुके समय प्रथम वार रश्मिचित्र दर्शक ( 8]8007080098 ) द्वारा सूय्यविबके गैसके बाहरी घेरेका निरीक्षण किया गया। इस घेरेको क्रोमोस्फियर ( ())॥/०07708]9॥678 ) कहते है. । क्रोमोस्फियरके रश्मिचित्र ( 898९0॥7प्रा ) में वेशानिकोंने एक पीली रेखा देखी जिसे उन्होंने सेडियम धातुकी 2 रेखा समभझा। किन्तु जैन- सीन ( थ 875९6॥ ) ने अधिक ध्यानसे परीक्षा करने पर वतलाया कि यह रेखा सेडियमकी 72. ओर 0५ रेखाओंसे भिन्न है। उसने इस रेखाका नाम 2: रबखा | कुछ ही समय बाद फ्रोकलड़ १०० विज्ञान, अगस्त, १९७४५ [ भाग ६१ ग्रौर लेकयर (8706 |90 870 .00/ 987) इस परिणाम पर पहुँचे कि यह रेखा उस समय तक मालूम किसी भी पृथ्वीके ठत्त्वकी नहीं ही सकती: यह किसी एक बये तत्त्व के कारण होगी जो सूथ्यम मौजूद है। इस काल्पनिक तत्त्वका नाम होंने सूय्यंके नाम पर हीलिंयम रबखा ( भ्रीक भाषामे सूर्य्यको हेलास कहते हैं. । इस नामको सब ही ज्योतिषियों ने उस तक््व के लिए स्वीकार कर लिया जिसके कारण सूर्ग्यके क्रोमोस्फियरमे 0. रेखा दिखलाई देती है। आगे चलकर जेसे जैसे अधिक निरीक्षण किये गये, यह देखा गया कि 0, रेखा के साथ ही साथ कई अन्य ओर रेखाय भी सदा रहती है। ये रेखाय भी उसी हीलियम तत्वकी समझी गई । सन शिया रे में पाम्ेणी (28॥7767) नामक ज्योतिषीने पेखूवियस ज्वालामुखीसे निकली गेंसके रश्मिचित्र भें 0. रेखा देखो । किन्तु पृथ्वी पर हीलियम खोज निकालने का वास्तविक काॉय. सर विज्लियम रैमजेने सन्‌ १८९७ के अभम्तिम दिनोंसे किया जब कि वह उन्हीं दिनों आविष्कृत हुई आरणनको प्राप्त करने के लिये भिन्न भिन्न खनिज्ञ पदार्थाकी परीक्षा कर रहे शे। जव रेमज़े आरणनकी इस खोजम लगे हुये थे मायस (५७०7४) नामक खनिज शास्त्रक्ष का एक पत्र उन्हें मिला। पत्रमे मायस ने कुछ ऐसे यूरेनाइनिटे खनिज्ञोंदी परीक्षा करनेकी सलाह दी थी जिवशरसे दिललब्ेंड ((/8॥)/8:) ने एक गेस प्राप्त की थी जिसे उसने याइट्रोजन बतलायथा था। इन खनिजोंको गंधकाम्लके साथ गरम करने या अदाहक जार (3 708|] 087'[)- 07976) के साथ अजन पर हइलब्रडका वह गेस मिली थी जिसे उन्होंने माइटोजन समझा था। स्मज़े ने घिय्यार किया कि यदि यह मान मी लिया जाथ के इन खनिज्ञोस माइट्रोजन योगिक मौजूद हैं तो भी हिलत्र डक्की विधिसे इन योगिकोंसे नाइट्रोजन प्राप्त हो इसकी सम्भावना बहत कम है। अतः रेमजे ने क्‍लीवीआइट (०]७ए७।६6०) नामक खभिजकी परीक्षा प्रारम्भ की (उन खनिज्ञोंम से एक जिनसे हिल- ब्रड्ध ने इश्रोजन प्राप्त हुईं वतलाया था ) । .. हिलन्र ड मे बलीविआाइटसे प्राप्त गैसमें नाइट्रो- जनका वतमान शहना इन प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया था--(अ) जब आक्िसिजनके साथ मिला कर इसमे जियत परवाह किया गया तो नाइट्स गेस बनी; (ब) जब हाइड्रोजन ओर हाइड्रोक्लोरिक पाॉसड गेसके साथ मिलाकर विद्यत प्रवाह किया गया तो अमोनियम क्लोराइड (नोखादर) बना (स) जब इस गेसकों चायुशून्थ नलींगे भरकर उसमे घिययत खिनगारी (४।828०४70 5]987):8) डाली गहे तो नाइट्रोज़नका रश्मिचित्र प्राप्त हुआ । स्मज्ञ ने बलीविआ्राइट गैससे झपने प्रयोग करनेके , वाद. हिलव्ेडके इन परिणामोंकी सत्यता स्वीकार की क्योंकि इस गेसमें जेसा कि रेमज़ने वादमें मालूम किया हीलियमके अतिरिक्त लगभग १२५ प्रतिशत नाइट्रोज़न था । रैगजेने सन्‌ १८०५५ में क्लीविआञाइटके चूरा हल्के गन्धकारतम गरम किया | जो गैस प्राप्त से आकिसजनके साथ मिलाकर एक बरतन जिसमे सोडा सकलखा था भर दिया। इस गेस बचद्युत चिनगारी डाली गई। सोडाम शोषित होनेके बाद जो गेस बची उसमसे ज्ञारीय पइरो गेलालके घोल द्वारा आकिसजन अलग कर दिया । वची हुईं गेखकों पानीके फुहारेस धोकूर ओर फिर सुखाकर एक वायुशून्य नल्लीम भरा। इसमें विद्यत चिनगारी डाली और भेससे जो किश्ण निकली उनका राश्माचत्र दशक द्ाश राश्माचन्र लिया । इस शश्मिांचित्र की परीकज्षासे शात हुआ कि इसमें हाइड्रोडज और आरगनके रंश्मिथित्र के अतिरिष्य एक उभकीली पीली रेखा है जो सोडियमकी पीली श्खाओंके निकट हे किन्तु उनसे भिन्‍म है । बाबस (()/००/8, ने सिद्ध किया कि यह पीली रेखा कै रच संख्या ५ ] द वायुमंडलकी सूक्ष्म हवाये' १०"*ैं सूथ्यके वायव्य मंडलकी 2, रेखासे सब बातोंमे मिलती है अ्रतः यह उसी होलियम तत्त्वके कारण है जो सूर्यभे मोजूद समझा जाता है। इस प्रकार क्लीवि्राइट गैसमें हीलियमका वर्तमान रंहना सिद्ध हुआ ओर इस समयसे हीलियमकी भो पृथ्वोके तर्वोम गणना हुई । रेमजे की इस खोजञकी पुष्टि शीघ्र ही क्लीच (0॥०४९) और लॉकयर (],008967) द्वारा की गईं जिन्होंने ब्रोगेशइट (8702297746) खनिज से प्राप्त गेसमे होलियमका वर्तमान रहना रश्मि चित्र द्वारा सिद्ध किया। हीलियमका आविष्काश हो जानेके बाद हिल- ब्रंड़ ने रैसजेको जो पत्र लिखा उसमें यह बतलाया कि अपने प्रयोगोंमे उसने यह देखा था कि नाइट्ूस गैस और अभोनियाका वनना बहुत धीरे धीरे हुआ था तथा क्लीविआआइट गेसके रश्मिचित्र में बहुत सी ऐसी रेखायें थीं जो नाइट्रोजनकी नहीं थीं। पहली घटनमनाकों उसने कोई महत्व . नहीं दिया था क्योंकि वह वहुत हढकी विद्य त आाराका प्रयोग कर रहा था। इसरी घठनाके सम्वन्धम उसने लिखा है कि यद्यापे उसने ओर' उसके सहयोगियोंने एक वार शुरूम यह थिचारा था कि समस्मवतः थे लोग क्लीविआइट गेसमें किसी नये तश्यका रश्मिचित्र देख रहे थे किन्तु कि उसे यह मालूम था कि गैसोंके रश्मिचित्र म॒ दवादके कारण काफी परिवतन हो जाया करते है, उसने इसे भी विशेष महत्य न देकर यहीं छोड़ दिया था। वास्तवमे हिलतव्े डका भाग्य ही उसके विरुद्ध था जिसके कारण -हालयमक इतना निकट पहुंच कर भी वह इसकी खोझ म कर सका ओर रेमजे हिलब् डके कायके आधार पर ही हीलियमको खोजका श्रेय प्राप्त किया । नियमकी खोज आरगन ओर हीलियमकी खोज हो चुकनेके बाद रसायनशोंमे इस बात पर कुछ दिनों तक विवाद होता रहा कि तत्त्वोंकी मेनडलोफकी सारणी (४९४०१०]]8४७ 726700॥06 ]'७७७) मैं कौन-सा स्थान दिया जाय। अन्तमे सब इस नतीजे पर पहुँचे कि इन तच्वोंके लिए डस सारणीमे एक नया वर्ग (070७०) पहले और आटठवे वर्गके बीचमें रखना चाहिए ओर इस धर्गकों शून्य बर्गंका नाम देना चाहिये | ऐसा करने पर होीलियम उसी जितिज (॥07' 52078) रेखामें रकखा गया जिसमे लीथियम था। गरगनका स्थान पोडेसियमकी लाइममें उसके पहले आया । इस प्रवच्धमे शून्य वर्गम हीलियम ओर आरगनके बीचमे सोडियमकी लाइनम एक स्थान रिक्त गह गया। अतः यह सोचा गया कि इस स्थानकी पूर्तिक लिए एक नया तरुव अवश्य होगा जिसका परमाणुभार सोडियमके परभाणुभार से२या ३ इकाई कम होगा। इस प्रकारके संकेत पर वैज्ञानिक इस नये तक्वकी खोजमे जुट गये । इस नवीन तत्त्वकी खोजकों आशाम रेमजे और ट्रेवर्स ने वायुम डलसे प्राप्त १८ लीटर आर- गन की परीक्षा ध्यानसे करनी शुरू की। इसे डियार ([22 ४७7) नत्लीम भर कर तरल वाशु हारा ठंढा कर तरल रुपमे परिणत किया गया। २५ घ०्स॑ण्तरल प्राप्त हुआ | इस तरलके तापक्रमको बहुत ही चीरे-घीरे बढ़ाया गया ओर अलग अलग तापक्र्मों पर निकली गैसोंको अलग अलग इकट्ठा किया गया । सबसे पहले जो गेस प्राप्त हुई उसका घनत्व लगभग १७.७ था। यह घनत्व लगभग उतना ही था जितना हीलियम ओर आरगनके मच्य स्थान के तक्त्वके लिए सोचा गया था। इस गेस का रश्मिचित्र लिया गया जिसकी परीक्षासे ज्ञात हुआ कि यह एक नये तर्व का रश्मिचित्र है। इस गेस के सम्वन्धमें एक बात ओर देखी गई । वायुशूम्य नत्नीमे भरी इस गससे विद्य त प्रवाह करने पर गहरे लाल रंगकी रोशनी निकलती है, किन्तु जैसे जैखे गेस पर दबाव घटाया जाता १०२ है रोशनी का रंग धीरे-धीरे चमकीले नारंगी रंग में बदल जाता है। द इस गेसको तरल वबाणु द्वार फिर ठंढा किया गया। यह देखा गया कि गेसका अधिक भाग तरल नहीं हुआ। न तरल होनेवाले इस भागका घनत्व ९६५ था। इसमें कुछ हीलियम और आर: गन अभी अशुद्धियोंके रूपमे मोजूद थीं। इन अशुद्धियोंकोी इसमेसे दर करनेसे कठिनाई मालूम पड़ी । अतः प्रयोग को आरफ्भमे ली हुई आरणनसे फिर शुरू किया। इस वार तरल आरणनके साथ कुछ तरल आकिसजन मिलाकर मिश्रणकों भीरे- धीरे वाष्पोकरण करके तीन तापक्रमों पर तीन जगहों में गेस इकट्टी की । बीचमें जो गेस इकट्टी की गई उसमेसे ग्राक्सिजनकों तपे तॉँबे द्वारा अलग करने पर जो गेस वची उसका घनत्व १०'१ था ओर वह शुद्ध नई गेंस थी । इस गेसका नाम नियन रक्खा गया ओर इसने हीलियम और आरशनके मध्य रिक्त स्थानकी पूर्ति की। सन्‌ १९१०में वाटसन ने पुनः शुद्ध नियन प्राप्त किया। सर जे. जे, टामसनने अपनी धन-किरणों (?08076 799) द्वारा यह द्खिलाया कि वायु से प्राप्त नियन में दो प्रकारके परमारा हैं। एक का परमाणु भाए २० तथा दूसरे का २२ है। २२ भार वाले नियन का नाम मेटानियन रखा गया। रसायनश्ञों ने इन देनों प्रकारके नियनको अलग अलग प्राप्त करनके बहुत से प्रयत्न किये किन्तु उन्हें सफलता प्राप्त न हो सकी । कृपटन और ज़ीननकी खोज इनकी खोज भी रैमजे ओर ट्रवर्सने ही की। बिक के कक ही ये लॉंग आरगन गेसको ठंढा करने के लिए वहुत सी तरल बायु का वाष्पीकरण. कर रहे थे। इस विज्ञान, अगस्त,।१९७४ | भाग ६१ वाष्पीकरणके अन्त वायका जो भारी भाग शेष बचा उसमैसे इन लोगोंने एक गैस अलग की जिसका घनत्व २९४५ था। रश्मिचित्र लेने पर मालूस हुआ कि यह एक नया तत्तव था। इसका नाम कृपटन रबखा गया (प्रीक भाषासमे कृपटन का अर्थ छिपा हुआ होता है)। तरल वायु के इस भारी भागमें से एक ओर भी गेस प्राप्त हुई जिसका घनत्व ६४५ था। इसके रश्मिचित्र से भी यह सिद्ध हुआ कि यह एक नया तत्त्व है। इसका नाम ज़ीनन रक्‍खा गया (ग्रीक भाषामे इसका अर्थ अजनबी होता है )। इन पाँचों गेसेंके मालूम हो जानेके बाद वेज्ञानिकोंने इस बातका पता लगानेका प्रयत्न किया कि क्‍या वायु में इनके अतिरिक्त: ओर भी कोई नवीन गेस है ? सर ज्ञे० जे० टामसन तथा आर० बो० मूर ने अपने प्रयोगों द्वारा यह निष्कर्ष निकाला कि बाथुमें ज़्ीननसे भारी कोई दूसरी गेस नहीं है। विलसन, बोडोस (७]]807, 807१89) आदि वैज्ञानिकोंने इसी प्रकार मालूम किया कि वायुमे हीलियमसे हल्की गैस भी दूसरी नहीं है। अतः यह निश्चय हो गया कि चाशुमे इन गैसोंके अतिरिक्त और कोई दूसरी नवीन गैस नहीं है । वायुसे आक्रिसजन और नाइड्रोलन अलग करने के वाद जो अशुद्ध आरणन प्राप्त होती है उसमें पाँचों गेसों की माचायें निम्न प्रकार होती हैं ;-- हीलियम ००४४ ग्रति शत नियम ०श्द ,, 95 आरन एशउपरए ,, . $ हापटन ००००५ ,, धन जझीनन ९०“७०७००६ । अह (अरसमभाप्त) देशांक पद्वति अथा हादृशांक विलोम पद॒ति* | ले०--प्रो० हरिश्चन््ध गुप्त, एम० ए० ] वर्तमान युग प्रंधानतः संख्या-युग है वर्तमान युगकी प्रवृत्ति अधिकाधिक संख्यामय भाषा प्रयोग करने की है। रेलवे टाइमटेबिलमें, बीमाकी प्रीमि- 'यम-तालिकाअ्रमें, जलवायु-सूचक् रिपोर्टमिं, रेशनके भावेमिं, सभी जगह अंकोंका सामना होता है। इस युग को संख्या-युग कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी । केल्विन नामक वैज्ञानिकने तो यहाँ तक कह डाला कि जो विद्या सांख्यिक भाषामें प्रदशितन की जाखके वह वास्तविक ज्ञान ही नहीं है । बिल्कुल ऐसा तो नहीं, किन्तु यह सभ्य है कि इस युगमें जिन्हें 'गणना' का समुचित ज्ञान नहीं, जीवन संग्राम में उनकी गणना नहीं । क्योंकि अब विवादास्पद प्रश्तके किसी पत्षको सिद्ध करनेके लिए संख्यामय भाषा का प्रयोग ही सर्वश्रेष्ठ अस्त्र है जिसके सम्प्रुख संख्या-ज्ञान- विधद्दीन अनभिज्ञ कदापि नहीं ठहर सकता | यही नहीं, हम देखते हैं कि "परिश्रम निवारक? विधानों की, गणना- मशीनों की तथा सारिणियों की उत्तरोत्तर वृद्धि ही होती जाती है। निकट भविष्य में ही 'स्लाइड रूल' (गणनाथ' एक रेखांकित पटरी ) घड़ी या तोक्क मशीनकी भाँति घर-घरमें दीघ पड़ेंगा | जब संख्याश्रोंका इतना महत्व हैँ तो यह अवश्य विचारणीय है कि वतसान अंकावल्लीमें ( जिसे ऑँग्रेज़ लोग अरबी पद्धति कहते हैं परन्तु जो वस्तुतः भारतीय पद्धति है ) क्‍या कोई खुधार नहीं हो सकता £ गत २०० वर्षोमं इस विषय पर कई दविद्वार्नों ने लिखा है जिनसें नेपोलियन बोनापार्ट, हशेल, लेबनीज्ञ, और ह्बट स्पेंश्वरके बन नममममनममनननीनन नमन स ख खिला ४3४४७2क|७छछञ ७०७७७ # इस लेखमें विद्वान लेखकने यह प्रमाणित करने की चेष्टा की है कि वर्तमान अंकगणित-प्रणाली, जिसमें दसकी संख्याको बिशेष महत्व दिया गया है, बहुत सुविधा- जनक नहीं है; इससे कहीं अधिक सुविधाजनक प्रणाली वह है जिसमें बारहको यह महत्ता दी जाय । अंकगणित- सधारकोंके लिये यह लेख अत्यन्त रोचक होगा, परन्तु नौसिलियों को ध्यान रखना चाहिये कि यह लेख पतक्षपात- रहित नहीं है |--संपादक नाम उद्लेखनय हैं। एंड ज्ञ की नई संख्याएँ' नामक पुस्तक इस विपय पर सबसे आधुनिक ओर पूर्ण है । दर्शांक पद्धतिके असंतोपजनक होनेका ज्वलंत प्रमाण यही हैं कि श्रमी तक २२४० पौंडका ठन, ४२८० फुट का मील और १२ मासका वर्ष आदि सुव्यवस्थित रुपसे प्रयोग में आते ही हैं। दस अंकोंका अन्वेषण स्वतः अत्यन्त महत्वपूर्ण हे ओर न्यूटनकी आकर्षण-शक्तिकी गवेपणा और सुद्दण-कल्लाके आविष्कारके समान ही विश्व- प्रगतिसें इसका प्रभाव रहा है । किस्तु यदि इसमें लेशमात्र भी सुधार . होनेकी संभावना हो तो वह करने ही योग्य है चाहे उसमें कितनी भी कठिनाई हो । भविष्यको वह एक गवंपूर्ण वरदान होगा । दर्शांक ओर रोमन पद्धतियों का विवरण प्रचलित दर्शांक पद्धतिमें शून्यसे नौ तक दस अंक हैं आर प्रत्येकका . मान धनाव्मक है श्रर्थात्‌ प्रत्येककी क्रिया संख्याके मानमें निश्चित और भिन्न-भिन्न वृद्धि करती है। किसीसे संख्यामें हास नहीं होता । यह पद्धति एक ऐसी मोटरगाड़ी के समान है जिसमें “रिवर्स गीअर' ( पीछेको चल्तानेव,ली कल ) न हो जो पीछे चलने के लिए पूरा चक्र लगा कर मुड़े शोर तब आगे बढ़े | भ्ुड़नेकी क्रिया वस्तुतः घटाने की क्रिया है। दर्शांक पद्धति का सबसे भंहत्वपूर्ण गुण अंकोंका स्थानीय मान है। किप्ली संख्याका कोई अंक यदि एक स्थान बाई' ओर हट जाय तो डश्न श्रंकका स्थानीय मान दस गुना हो जाता है ओर दाहिनी ओर हटने पर केवल दसवाँ भाग रह जाता है। उदाहरणाथ २३ में £ का स्थानीय मान &६० है लेकिन ३५ में एक स्थान दाहिनी ओर इटने पर इसका स्थानीय मान & रह जाता है। संख्याका मान इसके भिन्न अंकोके स्थानीय मार्नोका योगफल होता है। रोमन पदछतिमें अंकोके स्पानीय मान नहीं होते । केवल | को बाँई ओर लगानेसे इसका मान --१ और दाहिती ओर लगाने से +१ होता * है, यथा [५ और ए[में। स्थानीयमानका सबसे उपयोगी गुण यह है ज्म्प १०४ : कि केबल अंकोंके गुणनफल्न स्मरण होनेसे सभी संख्याओं के गुगनफल निकल सकते हैं । ऐसी बात रोमन पद्धति में नहीं है। अन्य पद्धतियाँ ओर उनका तुलनात्मक अध्ययन किन्तु यह निविबाद नहीं है कि अंक दस ही माने जाये और संपूर्ण अंकगाणितकी रचना दसको ही आधार मानकर उत्तम होती है।यह कहना कि दोनों हाथोंमें सिक्काकर दुख अंगरुत्वियाँ है, इस कारण दस्त तक गिन लेना स्वाभाविक है, कोई पुष्ट प्रमाण नहीं कि यह पद्धति श्रेष्ठ है । हम आठ को अथवा बारह को आधार मान कर अज्ञगणितका ग्रास्ाद खड़ा कर सकते हैं। यदि १२ को आधार माने तो १० और ११ के लिए कोई संकेत निश्चित करने होंगे, १२ को “१०१ से व्यक्त करना होगा ओर १४४ को १००' से । अब प्रश्म यह <3ठता है कि कोनसी संख्या सर्वश्रेष्ठ आधार द्ोगी। १ से ३० तक की संख्याओके गुणनखंडों को गिनें तो ज्ञात होगा कि २४ सबसे अधिक संख्याओं से विभाज्य है क्योंकि इसके गुणन खंढ हैं २, ३, ७, ६, ८५ और १२; फिर १२ है जिसके गुणनखंड हैं २, ३, 9, और ६ । १८ के गुणन्खंड २, २, $, ६; २० के २, ४, ९, १० और रप के २, ४, ७, १४ है | परन्तु २४ अज्डों की अज्ञावल्ी अ्रत्यधिक कम्बी हो जायगी; उसका प्रयोग भी दुष्कर होगा | ह््स प्रकार शेष संख्याश्रेम्तिं १२ ही सर्वश्रेष्ठ है। १८ और २० की तुलना में, १२ में ह एक विशेष गुण है । क्योंकि य्रह आरंभ को तीनों संज़्याओं २, ३, ४ से विभाज्य हे; ओर यह गुण अत्यन्त महत्वपूर्ण है जैसा कि आगे स्पष्ट होगा | अतएवं १२ को ही आधार मानकर क्यों न नवीन गणना-पद्धति स्थापित की जाय £ १२ का एक दर्जत और १२ दर्जन का एक प्रोप्त बहुत दिनों से प्रचल्नित हैं । - फहा जा छुका है कि दशांक पद&ति में ऋणात्मक संज़र्याओंकोी प्रकट करने की शक्ति नहीं | ऐसा करनेके लिए संखझ्याके पहले अलगसे ऋण का चिन्ह क्ग़ाया जाता है लेकिन अज्ञोंसे स्वत; ऋणाव्मक संख्या का बोध नहीं होता । किन्तु विश्व-व्यापारमें हमें दोनों प्रकारकी संज़्याएं मिलती हैं। आयके साथ व्ययकी, लाभके साथ विज्ञान, अगस्त, १९४५ [ भाग ६१ हानिकी, ऊचाईकी मापके साथ नीचाईकी मापकी, आदि | प्रचलित पद्धतिके इस अ्रभावके कारण बही खातेमें दो खाने रखने पढ़ते हैं | दादशांक वित्ञोम पद्धति इन सब कमियोंको दूर करनेका एकमात्र उपाय यह है कि दुसको आधार न सानक़र बारहकों आधार भाना जाय और १३ श्ञॉमें से ६ अक्ष धनाप्मक और ६ ऋणा- पसक मान प्रकट करें | इस श्रकार हमें ९६ ऋण अड्डों की ( वास्तव में € की ) रचना करनी पड़ेगी । मान लो ये हैं व्येक १( “ -१), विद्षो रे (००-०२), बिती ३(- -३), विचा ४ (5-४), विपा पृ (:०-९) और बिछ्ठः दे स्पा »« ६)२४ । ं न इध पद तिको द्वादरशांक विज्ञोम पद्धति? कहना डचित होगा । यदि एक संख्याके अक्लकि स्थानमें अत्येक्र अृका विल्लोम लिख दिया जाय तो पूर्व संख्या की सज्ञत 'विज्ञोम संख्या? आ्राप्त होती हैं। यह क्रिया 'विज्लोमीकरण' है। उदाहरणार्थ २५६ का विज्लोम २४६ है। घटानेवाली संख्या को विज्ञोम करके उसे जोड़ सकते हैं । स्पष्टता के लिए अब इस लेखमें दर्शांक पद्धतिमें लिखी हुईं संख्याओंके नीचे विन्टुमय रेखा होगी | विज्लोम अ्रक्केके समुचित नामोंकी अपेता उनके ल्िखनेके संकेतों ( रूपों ) को निर्दिष्ट करना कम कठिन नहीं; क्योंकि रूप ऐसे होने चाहिए जिससे छुपनेमें असु- विधा न हो । वेसे ही हिन्दी; उदू में मुद्रण बड़ा कषट- मय दै। शिरोरेखाका प्रयोग करके ( लघुरिबधर्में जैसे ३-२ में ३ का मान -३ है) ये विज्ञोम अड्ज दो संकेता- जरोंके संयोगसे लिखे गंये हैं। किन्तु केवल एक एक संकेत चाले रूप ही वांछनांय हैं। अभी दो हम इन्हीं संकेत- संयोगों से काम चलायेंगे | द्वितीय बात यह है कि प्रत्येक अछू और उश्षके वि्ञोम के रूपों में साइश्यं होना चाहिए जिससे जोड़ते समय उनके काटने में सुगमता हो । वर्तमान अक्लों ५, ८, & का श्रयोग जारी रकखेंगे लेकिन तभी जब #ये शब्द अक्लोके नामोंके प्रथम अत्तर्मं विज्ञोम सूचक “वि! प्रत्यय लगाने से बने हैं; यदि इनसे श्रेष्ठ तर नाम रकखे जा ख्॒कें तो वे भान्य होंगे । संख् है ब्यं। ५ | वे अकेले अथवा संख्याओओं के प्रथम अझ् हों । सामान्यता इनके रूप क्रमशः ११, १४, १६ होंगे। इस श्रकार सात दर्जन और चार को दोनों रूपों ७७ अथवा १५४ में लिख सकते हैं लेकिन ४ दमन और ७ को केवल «पं ही (न कि ४७) । विछुः के बिना भी काम चल सकता है क्योंकि ६ १६ । किन्‍्तु, जैसा आगे स्पष्ट होगा, किसी अमुक संझूया में ६ के दाहिनी ओर यदि घनाव्मक अझू हो तो उसके बाँद अइ को १ बढ़ाकर और छ: को विद्दः कर देने में लाभ है। यथा ६३ को १६३ और द£ को ह६पू लिखेंगे। | स्पष्ट है कि-७२से ७२ तक को संख्याओं को हम पूरे दर्जनों और द्ेसे६ तक के अंकों द्वारा व्यक्त कर सकते हैं ओर उनका नाम उनके अंकों के नामों के बीच मम! लगा कर रकखेंगे। इस प्रकार पू३ को विपामतीन कहँगे (अ्रथांत्‌ विपा देजन और तीन) | म! अक्षर का प्रयोग इसलिए किया गया है कि हिंदी भाषामें प्रयुक्त योगिक शब्दों एक-एक, अथवा दो-एक से भेद रहे। नामकरणकी यह विधि सरत्न है ओर वेजश्ञानिक भी। ७३से बड़ी ओर-७२से छोटी संख्याएँ तीन अंकों की दोंगी । उदाहरणा्थ १३४० ११२ (एकमोस ब्येकम दो, एक ग्रोस + १४४) २१३ ८ ०६१-(ब्येक ग्रोस विछ्मतीन) । यथ्पि थे नाम आरंभ में बड़े लगते हैं तथापि कुछ अ्रश्यास से सरल प्रतीत होने लगगे। 'ग्रोस ग्रोश्न” को मद्दाग्नोस कह सकते हैं। विस्तारभय से इस पद्धतिमें अंकगणितकी चार मूत्ष 7क्रियाओं का विवरण न देकर इस पदछतिके लाभोंका वर्णन करते हैं । देनिक जीवनम गुणनखंडों का ओर फलतः दादशांक पद्धति का महत्व-- जब रुपये पैसे, अंडे, साले, चाकू अथवा कोई भी वस्तु गिनमी होती है तो साधारणतः उसे दर्जनों में गिमते हैं क्योंकि एक साथ दो-दो, तीन-तीन अथवा चार- चार तक वस्तुएं गिन सकते हैं | किंतु यदि दल के हिसाब से गिमना हो तो केवल दो-दो या पाँच-पॉच लेकर ही गिन सकते हैं। साधारण व्यक्तिको शका ओर रेतक का बोध सरत्ञता से ।हो जाता दे, ४ का उससे कठिन ओर द्शांक पद्धति अंथवा द्वादशांक विज्ञोम पद्धति १०४ ४का तो और भी कठिन होता है । अतः बारह के आधार पर गिनने में सुविधा है। उदाहरणके लिए डिब्बाबंदी लीजिये | देनिसकी गेंदे बंद करने के लिए पेसा डिब्बा ही काम में आता है जिसकी त्ग्बाईमें ठीक १गेंदे और चौड़ाईमें २ आवें; इस प्रकार प्रति डिब्चे में आधी दर्जन गेंदें भर कर आती हैं । २ शोर € का अनुपात डिब्बे के विस्तार;के लिए उपयुक्त नहीं होता । पूरे दर्जन गेंदों के लिए ३०८ ४की नापका डिब्बा उपयुक्त होगा। दिया- सलाई के बक्सों की भी डिब्बा बंदी दर्जनों ओर भोस के हिसाबसे होती है । अस्तु डिव्वाबंदीमें भी बारहके आधार का ही सिद्धांत अंतर्निहित है। प्रामाणिक परि- माणों को छ्ीजिये। भिन्न-भिन्न परिमाणों के प्रमाण रखने हों तो बड़े परिम्राण छोटी इकाइयोंकी ऐसी पूर्ण संख्या के बराबर होने चाहिए जिसके अनेकों गुशनखंड किये जा सके । उदाइरणार्थ $ फुटर्ग क्कड़ीके यदि ,भिन्न नापों के शहृतीर काटने हों, जिनके परिमांण स्वयं सरल संख्याओं से प्रदर्शित हो सकते हों, तो यह तभी संभव है जब फुट बारह इंचका हो | वस्तुतः १, २, ३े, 9, ६ इंच के परि- भाण के बीस भिन्न प्रकार के शदहृतीर कट सकते हैं जिनके विस्तार (परिच्छेद के) पूर्ण इंचों के होंगे । साथही एकट्दी नापके सभी शहतीर काटने पर लकड़ी कुछ भी व्यर्थ नहीं जायगी । इम्तके विपरीत यदि फुट दस इंच का होता तो १, २, ५ इंच के भिन्न परिमाणोंके परिच्छेर केवल ६ही होते । & ज्यामिति से एक इश्ंत लीजिए । एक सम्पूर्ण अमणमें ४ समकोण होते हैं । यदि हम यहाँ मी दसके ही आधार पर अवलग्बित होते तो या तो समकोणकों ही छोड़ बैठते (क्योंकि समकोण तब पूरे दशर्मांश के बराबर नहीं होता) या अमण को ही कोण नापने का माप न सानते । उस्र स्थिति में उत्तर ओर दक्षिण तो रहते किंतु पूछे, पच्छिम लुप्त ही हो जाते | किंतु बारहके आधार पर' यह सभी बातें ठीक बेठती हैं | इसी प्रकार हमें दिन को २, हैं, ४७ १२, २४ (न कि दस्त) सागेर्मे विभाजित करना सुविध्ामय होता है क्योंकि चौबीस घंटे के दिनमें प्रध्येक अंश पूर्ण घंटे पर ही पड़ता है । अंकगणित के दृष्टि-विंदुसे देखिये। दो अंकोके गुणनफकल्ेमि शून्य पर समाप्त होने के १०६ वाली संख्या्रोंका (जिन्हें अंगरेज़ी में 'राउंड' कहते ् और हिंदी में 'र'ड' कहना अनुचित न होगा क्योंकि रुंड 'राउंड' का अपन्र'श भी माता जा सकता है। साथही इसका अर्थ घड़ है जो देदी का दीघ॑तर भाग दे जैसे कि ₹ंड संख्या अधिक शुद्ध संख्या का) बाहुब्य होगा। प्रचलित पदूटति में केवल २, ४, $, ८ को से गुणा करने पर कुल ४ रुड संख्याएँ प्राप्त होती हँ। दादर्शाक पद्धति में (8, २, २, ७, ६) को दसे गुणा करने पर और 8, ४ को हे अथवा इसे रुड संख्याएँ मिलेंगी और थे हैं ५ | दूनी से अधिक । इनके बाहुल्य से गुणनविधिमें यह सुविधा होती है कि दासिल जोइने की क्रिया सरलता आ जाती है. और भ्रुटियोकी संभावना कम हो जाती दे । । विलोम अंकायली से लाभ पाई एक/अंकों की संझृयामें प्राथमिक अंकही संख्यामान निर्दिष्ट करने में सर्वोपरि है और दाहिनी ओरके अंकोंकी महत्ता क्रमशः धटठती जाती दे। इस कारण हम यह धारणा कर सकते हैं कि दाहिनी ओर के अंक प्राथमिक झकों के निर्दिष्ट संध्यामान में केवल संशोधन रूप दें । किंतु यदि संज़्या में अंक धनात्मक एवं ऋणाव्मक दोनों प्रकारके हों -तो संख्या का मान-ज्ञान! उतनेही अंकोसे अपेदतया भ्रधिक विशुद्ध होगा | यही नहीं वरन्‌ जितने आओ तक शुद्ध, मान कोना हो उतने अंक रख अवशिष्ट बाई ओरके अंकोंको निस्संकोच छोड़ सकते हैं। उदा- हरणार्थ ७६३६१ का तीन साथ अंकों तकका मान : ४६६ है। किंतु दशमलवब पदुतिमें ४६३६१ का तीन साथीक-सान ४६४ होगा । यहाँ ३ के आंगे वाले अंक ६ पर भी ध्यान करना पड़ता है। विलोम पद्धति निकट- तम गणनाके लिए यदि संख्याक्रोका अंतिम भाग, पूछ! कांट दें तो जितने अंक रह जाय॑ वे सब सराथमान के परिचायक हैं | परंतु प्रचक्तित पद्धतिमें ऐसी सुविधा न होनेसे साधारण व्यक्ति को निकटतम गणित से स्वाभाविक भय होता है, क्योंकि विलोम पद्धति में लिखी संख्याश्रों में ऋणात्मक और घनात्मक अंक लगभग बराबर ही आएँगे, अतः कई एक संख्याश्रोंको भी जोइनेम ग्रयेक खानेका (एक ही स्थानीय मान वाले) योगफल एक छोडी विज्ञान, अगस्त, १९४४ | भाग ६३ ही संख्या होगी। इस प्रकार ब्रुटियोंकी संभावना कम रह जाती है। साथमें एक ज्ञाभ ओर है। यदि कुछ हादशमल्य स्थानों तक शुद्ध योगफल अभीष्ट हो तो उतने ही दादशमज्य स्थान तकके अंकों को रहने दे और शेष का विसर्जन कर दें तो अधिकांश उत्तर शुद्ध होगा। अर्थात्‌ निकटनमान निर्दिष्ट करनेके छ्षिए संख्याश्रोकी पूँछु काट सकते हैं क्योंकि उनके ध्योेगफल्ल का प्रभाव तांग्रहिक' नहीं होता; वह घटता बढ़ता न्यून ही रहता है। जैसा कि कहा जा खुका है दोनों प्रकार की (ऋणाप्मक ओऔर धघनातव्मक) संख्याश्रोकी एक साथ जोइनेमें इस विज्ञोम पद्धतिमें कोई असुविधा गद्दी होती चरन सुविधा ही होती दे, बंदीखातेमें आय और व्ययके दो खाने रखने को आवश्यकता बहीं | क्योंकि ध्येय तो विधि मिल्लावां होता है । वह पुक ही खानेमें जोड़से निर्दिष्ट हो सकती है। इस्र रीदिसे कागलकी भी बचत होगी और सुविधा भी, भ्योंकि लेमदेन की राशियाँ केट्सी जायेगी । देनिक जीवनर्भ दम देखते हैं कि यदि कोई भिन्नात्मक राशि कहना हो तो. उसके निकटतम पूर्णांक मानमें घटा- बढ़ी कर उसे प्रकट कश्ते हैं, यथा पोने छः । विलोम पद्धतिमें छ्िखेंगे भी इसे इसी भाँति, श्र्थात्‌ ६३, जिससे इसका ६से नैकठ्य स्पष्ट हो जाती है। गिनमेमें भी ७ दर्जज ओर ८ न कह कर ४ कम & दर्जन कहनेगे आबा है| दहादशांक विज्ञोम पदछतिन इसे लिखेंगे भी ४४- तोलने में सुविधा इसीमें होती है कि बाँद दोनों पत्ड़ोंमें खखे जाय जे! विज्ञोम पद्धति का चोतक है। तोब्को [नई पदधतिमें तुरंत लिख सकते हैं। प्रचलित पद्धतिमें विज्ञोमांक न होनेसे प्रयोगशालाशों के भादेशोंमें से इस पर विशेष आग्रह होता है कि बौँट एक ही पछाड़ेमें!रबखे जाये और इस कारण १३, २, २, €, ९०, २०. . .आंदि सांत्राशओं के कई एक हटी बाँट रखना आवश्यक हो जाता है । इसके विपरीत यदि विल्ञोम पदुति प्रचलित हो तो केवल 4, ३, ६, २० के बॉँटें से ही काम चल्ष जाय। विज्ञोम पदुति में एक लाभ और है। दाहिनी और थाई दिशाओं का संकेव हम केवल संख्या हारा ही कर सकते हैं, अत्ग से दिशाकों ध्यक्त करमेकी आवश्यकता नहीं । यदि दाहिनी दिशाके भार्पोकी घनात्मक भानें तो जिन संख्याओंका प्रथम अंक धनात्मक होगा वे दाहिनी दिशा के माप हैं और प्रथमाँक विज्ञोमाँक वाल्ली संख्याएँ बाई दिशाके । इसी प्रकार उत्तः और दत्तिणका भी, बिना स्पष्ट कहे केवल संख्यासे ही अर्थ लगाया जा सकता है। जंत्रियों में 'समय का समीकरण” नाम का संशोधन दिया रहता है; वह कहीं धनात्मक कहीं ऋणात्मक होनेसे सम- भने में ब्रुटि हो जाती है। नवीन पदतिमें सभी संशो- धन जोड़े जाते हैं, और .ब्रुटिकी संभावना। न्यूनतम हो जाती है। ु नवीन पद्धतिके प्रचारकी आवश्यकता पाठकगण के सस्सुख द्वादर्शांक टिल्ञोम पढतिकी कुछ विशेषताएं वर्णित की गई हैं । इससे उन्हें |यह स्पष्ट होगया होगा कि यदि एक सहस्र वर्ष पूर्व ही, जब अंक गणित का झञान इतना उन्नत नहीं था, किसी दूरदर्शी व्यक्तिने इस पद्धतिका प्रचार किया होता तो क्या ही : अच्छा होता । किंतु वे कहेंगे कि श्रब इस पदतिका अनु- सरण करने में कितनी ही कठिनाहयाँ हैं | १, सब व्यक्तियों को [एक नया अंकगणित सीखना होगा। अब तक जितनी पुस्तके' दर्शांक पद्धतिमें छुपी हैं वे फिरसे मुद्रित करनी होंगी; ओर यह स्वयं एक क्रांति है। हमें स्मरण रखना चाहिए कि उन्नति कभी क्रातिमय पथसे विचरण नहीं करती किंतु उसका विकास होता है। विकासवाद का मूल मंत्र 'सुयोग्य स्थापतित्व' है| अतएव यदि किसी पुष्ट 'विचार अथवा आविष्कारको समुचित प्रोत्साहन मिल्ते ओर अज्ञान एवं रुढ़ियोंके कठाराघातले उसका कोमल अंकर कुचल न डाला जाय तो वह अवश्य स्थापित हो जायगा | अत: हमें जनता में यह प्रकाशित करना चाहिए कि वर्तमान दर्शांक पद्धति दोपपूर्ण है भर इसमें सुधार अत्यंत वॉहनीय है | द्वादशांक विज्ञोम पद्धति अत्यंत स्वाभाविक और उपादेय है ओर आरंभमें प्रायो- गिक झूपसे जहाँ सम्भव हो इस पद्धति का अनुसरण होना धाहिए। अ्रम्म निवारणार्थ दोनों पद्धतियोंको सभेद रखने के लिए यह वांछहनीय है कि नई पदुतिमें अंकोकी रचना कुछ भिन्न हो, यद्यपि विज्ञोम अंकों की उपस्थितिसे प्रव्यत पता चल जायगा कि अम्ुक स्थानमें नवीन पद्धति का प्रयोग हो रहा है । पिला का एकमात्र ज्योतिष विज्ञान संबंधी जैन अन्य १०७ मम] ज्योतिष विज्ञान संबंधों जेन ग्रन्थ [ ले०--श्री अगरचन्द्‌ नाहटा, बीकानेर ] विज्ञान परिषद से सरत्ञ विज्ञाननागर नामक महत्व- पूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। उसके कुछ शअ्रध्याय “विज्ञान” पत्र के गत अंकर्में प्रकाशित हुए हैं जिससे प्रतीत होता है कि ग्रन्थ निर्माण में लेखक ने बहुत श्रम किया है | इस ग्रन्थर्मे भारतीय ज्योतिष सम्बन्धी साहित्य एवं उसके रचयिताओं परभी श्रच्छा प्रकाश डाला गया है, पर उनमें ब्योतिष सम्बन्धी जैनप्रन्थोंमें से केवल एकही यंत्रराज नामक जैन ग्रन्थका परिचय प्रकाशित देखकर ,इस लेखमें अन्य जैन ज्योतिष अन्थोंके सम्बन्ध संक्षेपमें प्रकाश डाला जा रहा है । ज्योतिष विज्ञानकी ओर प्राचीन समयसे जैन विद्वानों की अच्छी दिलचस्पी रही है। आजसे ढाई हजार वर्ष पूरे रचित एवं वि० स॑० ९१० में संकलित श्रोर लिखित जैन आगमों से इस सम्बन्धर्मं काफी जानकारों पाई जाती है। स्थानाइम्‌, समवायाद्रम ओर भगवती सूत्रादि प्राचीन मुख्य आगसों में से अंग ग्रन्थोर्मे ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख पाये हैं। चंद्रप्रज्ञप्ति ओर सूर्यप्रज्ञप्ति नामक उपाहु तो इस्त विषय के स्वतंत्र प्रन्थ हैं | इन ग्रन्थेसि ढाई हजार वर्ष पूर्व चंद्र, सूथे, नक्षत्रादिके सम्बन्धर्म भारतीय सान्य- ताओं का भलीभांति पता चलता है। वेदाड़' ज्योतिषको समसनेमें भी इन प्रस्थोंकी उपयोगिता बहुत अधिक दै१ | इसके पश्चातवर्ती अ्रन्थेमिं ज्योतिष-रत्न-करंडक; प्रश्- व्याकरण ( जयप्राभ्ृत ), गणिविज्ञा, मंडलप्रवेश ओर वेद्दान आचाय ५० हज़ारी प्रसादजी ह्विवेदी अपने “हिन्दी साहित्यकी मूमिका! प्रन्थके पृ० २६०में इन ग्रन्थों के सम्बन्ध में लिखते हैं-... “उपाहोमें से कई (नं० €-६-०) बहुत, ही महत्वपूर्ण हैं। उनमें ज्योतिष, भूगोल, खगोल आदि,का वर्णन है। सूर्य- प्रश्ति ओर [र्चंद्रप्श्ञप्ति संसारके ज्योतिषिक साहित्यमें अपना अहितीय सिद्धान्त उपस्थित करती हैं। वेदांग- ज्योतिष की भांति ये दोनों ग्रन्थ ख्रीष्ट पूर्व छठी शताब्दीके भारतीय ज्योतिष विज्ञान के रेकाड़े हैं ।” 3 #+2०50-2092 2». श१०प विज्ञान, अगस्त, १९४५ झंगविज्ञा आदि प्रन्थ विशेष डबलेखनीय है । उपयुक्त सभी भ्न्‍्थ प्राकृत भाषासें है। इनमें से चंद्रश्रशप्ति, सूर्य- प्रशध्ति और उ्योतिषरत्नकरंडक पर मलयागिरी रचित संस्कृत टीकायें भी उपलब्ध हैं । इनके अतिरिक्त भद्वबाहुसंहितार ग्न्थ भी प्राकृतर्मे था पर अभी बह संस्कृत|।का मिलता है जिसका रचना समय अभी अनि- श्वित है । संसक्षत भाषाका स्व प्रथम ज्योतिष अन्थ लग्नशुद्धि है जिसे सुप्रसिद्ध जैनाचाय हरिभद्गसूरिजी मे घि० आदवीं शताब्दीमें बनाया है | इसके पश्चात्‌ १३वीं शताब्दीसे निरन्तर जैन विद्वार्नोंने मौत्निक ज्योतिष ग्रन्थ एवं दीकाये रची है जिनकी संख्या ४००से अधिक है। इतने विशाल जैन ज्योतिष स्राहित्यके सम्बन्धर्मं अभी तक हमारी जानकारी नहींके बराबर है यह परम खेद का विपय है । १३वीं शताब्दीके ज्योतिष सम्बन्धी जैन ग्रन्थेंमिं नर- चंद्रसूरि रचित ज्योतिषसार, “नारच॑ द्र माम से प्रसिद्ध है। प्रशशशतक, जन्मसमद्रबृत्ति (।बेडाजातक ) उदयप्रभ सरि कृत, आरंभसिद्धि ओर पश्चप्रभ सरि का भुवनदीपक (गृहभाव प्रकाश ) ज्योतिष विज्ञानके प्रसिद्ध ग्रन्थों में है । इसी प्रकार सं० १३०५ में हेमप्रभ सरि रचित त्रेलोक्यप्रकाश भी ताजिक प्रश्नोंके सम्बन्धी महत्पू्णय ग्रन्थ हैं । १५वीं शताब्दीका यंत्रराभ और राज शेखर इसी कृत दिनशुद्धि दीपिका, और ज्योतिषसार अच्छे ग्रन्थ हैं । १७वों शताब्दीम इषकीतिं रचित ज्योतिष- सारोद्धार, जन्मपत्री पदुति, फ्ग्सुंदर का हायनसु'दर ज्योतिषहीर और १८वीं श०में मेघमहोदय,ज्योतिषरत्नाकर, जन्मपत्री पद्धति, मानप्तागरी पद्धति आदि बहुतसे महत्व- पूर्ण उपयोगी अन्थोंका निर्माण हुआ। उपरोक्त सभी न्‍्थ श्वेताग्बर जैन चिद्वानोंके रचित हैं। (इसी प्रकार दिगंबर जैन विद्वानोंने भी बहुतसे ज्योतिष विषयक अन्थ २ थ्राकृत भद्रबाहु संहिता के कुछ उद्धरणमेघ महोदयमें पाये जाते हैं | संसक्ृत भव्रबाहुसंहिताकी एक प्राचीन प्रति भंडारकर रिसर्च इन्स्टीव्यूट पूनेमें है। सुनि जिन विजयजी उसे छुपानेका विचार कर रहे हैं । इसी नाम का एक अन्ध दि-समाज की ओरसे छुपा भी है पर वह जुगल्नकिशोरजी मुख्तारके मताचुसार १७वीं शताब्दी का है । बनाये पर उनका रखना समय मुझ्ते ज्ञात नहीं है और म मैंने उन अन्थों को स्वयं देखा ही है, अत: उनके सम्बन्ध प्रकाश नहीं डाला जा सका । मौह्निक ग्रम्थ| रचना करने एवं जैन ज्योतिष ग्नन्‍्धों पर टीकायें रचनेके अनंतर जैन विद्वार्नोने जैनेतर ज्योतिष प्रभ्थों पर भी बहुत सी टीकार्ये बनाई हैं; जिनमें से ताजिक- सार, करण कुतुदल आदि पर सुमति हए की टीकाये एवं ज्योतिविंदा भरण पर भावश्रभ सरि की, अ्रहलाघव पर यशस्व सागरकी टीकायें तो बहुत ही उपयोगी वीर शासन जयंती महोत्सव पर गतवधष कलकत्तेमें प॑० नेमिच 'द्रजी शाखीने, जो ज्योतिपके श्रच्छे विद्वान हैं, जैन ज्योतिष साहित्यके महत्वके सम्बन्धमें एक विस्तृत खोज शोधपूर्ण निबंध पढ़ा था जिसमें इस विषय पर बहुत सुन्दर प्रकाश डाला गया है। परिशिष्ट रुपमें उन्हेंने ४००से अश्रधिक जैन चिद्बानों के रचित जेन ज्योतिष ग्रन्थों की सची भी संग्रह की है। अतः सरक्ष विशानसागरके लेखक महोदय पं० नेमिच द्रजी शासत्री--जैन सिद्धान्त भवन पो० आरा से पत्र व्यवहार कर आवश्यक जानकारी प्राप्त करें एवं अपने अन्धर्मे जैन विद्वानोंकी सेवाकों उचित स्थान आवश्य दें यही मेरा नम्न अनुरोध है। मेरी जानकारीमें अभोतक जिन-जिन ज्योतिष गन्धोंका पता चला है उनकी सच्ची १ नीचे दी जा रही है। आशा है इससे समुचित लाभ उठाया जायगा। निमित्त शास्त्रके ८ अंश माने जाते हैं । उनके सभी अ्रंगो पर ( जैसे स्वप्न सामुद्रिक, शक्रुन ) जैन विद्वानों ने अन्थ बनाये हैं। इन सब विषयोके साधारण उल्लेख तो उनके जैन भ्रम्थोंमें पाये जाते हैं । इवेसाम्बर जेन ज्योतिष्न अन्‍य प्राकृतः संस्क्ृत हे [ द् ॥ सूयप्रशप्ति वृत्ति सह, धु० मल्यगिरि, प्रकाशक आग- मोदय समिति सूरत «० 6. २० «०3307 ६2:०४ २३ ४2 /32/:5 :*53क , -/ / जन ७ १ कई वर्षा पूर्व ऐसी ही एक खसची जेन सिद्धा+ भास्करके या ४ सं० रसे४ में म॑ने वेधक भम्थों की सचीके साथ प्रकाशित की थी । उसी का यह स्रशोधित एवं परि* बतित रूप है । संख्या ५ ] ज्योतिष घिज्ञान संबंधी जैन प्रन्थ १०६ २ चद्रप्रशप्ति वृत्ति सह, वू०. मलयगिरि दे ज्योतिष करंडक| वृत्ति सह, धु० » अर ० कमभवेद मोरद्दीयत राजेन ४ गणिविज्ञा £ मंडल प्रवेश ६ प्रश्न व्याकरण (जयग्राल्‍्गत) जैसलमेर व्याटपर्भडार » भव्रबाहु संहिता (सं०) भद्वबाहु हे ११ (स्॑०) १5 8६० पुना & लपशुद्धि, हरिभद्वसूरि (८्ीं शताब्दी) १० ज्योतिषसार-सारच' दर, नरच'द्र सूरि (११वीं श०) ११ ४»... टीका, सागरच दसूरि (१४वीं श०) १२ जन्म समुद्र सटीक, मरच द्रसूरि (१४वीं श०) १३ ज्योतिष प्रश्न चतुविशिंका नरच'द्रसूरि (११वीं श०), हमारे संग्रह में सं ० खस्ाॉछ रि छ १४ प्रश्शशतक, नरच'द्वसूरि (१ श्वीं) १९ आरंससिद्धि, उद्यप्रभसूरि (११वीं) प्र० लब्धिसूरि भ्न्थमाला पो० छाणी १६ आरंभसिद्धि टीका हेमहँल स॑० ११०४ ,, १७ भुवन दीपक पद्मप्रभसूरि (१४वीं) प्रकाशित १८ ५ पृत्ति सिहलिलकसूरि खं० १३२६ 3६ ,, टीका, ख० रत्नधीर सं० १८०६ २० त्रेलोक्यप्रकाश हेमप्रभसूरि ख'० १३०४ २१ मेधमाला हेमप्रभसूरि, भा० रि० इं० पुमा २२ दिन शुद्धि दी पका गा० १४४ प्रा० रत्नशेखर सूरि (१४वीं) २३ दिन शुद्धिदीपषिका विश्वप्रभ[टीका मु० दृश नविजय प्र० चारित्र स्मारक सीरीज बढ़वाण २४ यंत्रराज, महेद्सूरि'स० १७४३७ हे ३ वृत्ति, मल्षयच द्रसूरि २६ ज्योतिषसार (प्र०) प्र» भगवानदास जैन जयपुर हि० अनुवाद सह २७ हायन सुन्दर, पद्ससुन्दर (१०वीं) २८ ज्योतिष मंडल विचार, विनयकुशल्न स'० १६०२ २६ दोप रध्नावल्ली, जयरब्न स्र'॑० १६६२. खंभात ३० ज्योतिषसारोद्धार, हव कीति सूरि (4७वीं) ह। ३१ जन्मपन्नी पद्धति. ,, े ३२ जन्मपत्री पद्धति लब्धिच'दू स० १७२५१ कांतिक ३३ ». महिमोदय (१८वीं) हमारे स मह्द में ३४ , (सान सागरीपद्धलि) मानसागर ! ३५ भेघ महोदय (वर्ष प्रबोध) सेघविजय सानुवाद प्न० भगवानदास जैन जैपुर ३६ उदय दीपिका, मेघविजय ३७ ज्योतिष रत्ताकर, महिसोद्य ३८ यशोराजराजि पद्धति, यशस्व सागर स'० १७६२ ३६ तिथिसारणी, बाघनी मुनि ल० १७८३ ४० ज्योति: प्रकाश ४१ ज्योतिष सार स'ग्रह भाषामे ४२ जोह सहीर हीरकज्ञषश सं० १६२१ हमारे संग्रहमें ४३ गणित सादियो, सहिसोद्य सं० १७३३ राखीपूनदा हमारे संग्रहमें ४४ उदयविलास बे० सूरि जिनोदय, जैसलमेर भंडार ४९ मेघमाला, मेघराज सं० १८८५१ ४६ पंचांग नयन सहिमोद्य सं० १७२४ माधसुदी २ हमारे संग्रहमें ४७" लशघटिका चोपइ, सोमविमल ४८ ज्योतिपसारोद्धास्पों, आनंद सुनि खं० १७३१ 3६ लीलावत यों ( गणित ) लालचंद सं० १७४३६ बीकानेर, हमारे सम्रहमें ४० वर्षफलाफल चोपइ, सूरचंद्र ( १७वीं ) ९१ विवाहपटल चोपई, अ्भयकुशद्ध धर न रूपचंद रे »$ हीर संस्कृत ( अवशिष्ट ) ४४ मासहानि वृद्धिविचार, नेमा कुशल १४ ज्योतिपत्चञ्नसार, विद्याहिम स० १८३० ४६ जगचंद्विका सारणी हीरचंद्र ४७ पटऋतु संक्रान्ति विचार, खुस्याल €प इृष्टतिथिक्षारिणी, क्ष्मीचंद्र स० ३७६० ४६ अहायु, पृष्पतिलक ६० प्रतिष्टासुहिर, समधसुन्द्र घिशान, अगस्त, १९४४ ....[ भाग ६१ सामुद्रविक ६१ अंगविद्या (आ०) ६२ कररेहालक्खण । ६३ सामुद्रिकतिल्षक, दुल्लभिराज ६४ हृस्तसंजोधन, मेघविजय ६ ९ हस्तकांड, पाश्व॑चंद्र ६६ अंगफुरकण चौपह, हेमाचंद ' ढ स्व ६७ स्वस सहातिका, जिनवस्लभ झुनि ( १४वीं ) हृए स्वप्न चिन्तासणि हुलेभराज ६६ स्वप्तप्रदीप, वद्धमानसूरि शकुन ७० यात्रा के ढक्ति गगफि ७१ शक्रनदीपिका चौपई जयविज्य स*० १६६० ७२ शकुनशस्त्र जिनदत्त सी ( १३वीं ) . ७३ शकुनसारोद्धार माणिनसूरि ७४ शकुनरत्नावत्ति, वद्धमानसूरि ७९ शक्ुनावक्ति, व्िद्धसेन ७६ अबयदी शक्षुनावल्ति रामचंदु स'० १८१७ नागपुर ७७ शक्रनप्रदीप ( हिन्दी ) लक्षमीचंद्रति जयधर्मः स*० १७६२ पानीपंथ ह रमल ७८ रमलशास मेधविजय ७६७. ,,. भोजसागर ७8 ,, सार विनयदानसूरि स्वरोदया ८० स्व॒रोदया भाधा चिदानंद खँ० १८०७ अनुपलब्ध ८१ काक्षकसंहिता ८२ भद्दबाहुस हिता (आरा०) ८३ तिथिकुलक ८०७ चातुयंशिव कुल्नषक ८५ मेधमाला विजप्रहीरसूरि जैनेतर ग्रम्थों पर जैन टीकाये + म& गणिततिलक दृत्ति सिहतिज्ञकसूरि स/० १३२२ प्रकाशित ध ८७ गणितसार बृत्ति, क्षिद्धसूरि ८८ लघुजातक टीका भक्तिन्लाभ स'० १४७१ बीकानेर मई ५ वात्तिक मतिसागर स० १६०४ ख्ल'गहमें ६० »५ देवा, खुस्यालसुन्दर ११ जातकपद्धति (बृत्तिः) जनेश्वरसूरि बड़ौदा २ ,,. दीपिका सुमतिहर्ष स'० १६७३ 8३ ताजिकसार टीका सुसतिदृर्ष स*० १६७७ ४४ कर्णकुतुहल टीका, सुमतितर्ष स'*० १६०८ 8५ होरामकरंदवृत्ति, सुमतिहरर्ष 8४६ मह।देवीसारणी घृत्ति धनराज १६६२ 8४७ विज्लरपडान टीका हृ्कीतिसूरि _पए ,,. माला ऊमर ६६ .,,. विधाहेम १०० अहलाघक वाचिक आश्वतसागर छ*० १७६० १०१ ५. टिप्पन राजसोम | । १०३ ज्योतिपविदाभरणबृत्ति भावप्रभसूरि स० १७६८ १०३ पटपंचाशिकावाला, महिमोदुय १०४ चंद्राकॉव्रत्ति, क्ृपाविजय १०७ भ्रुवनदीपकवाला लक्ष्मीदिन्रप १७६७ सि० १०६ महूत्तेचिन्तामणि ट्या चतुरविज्ञय १०७ चमत्कारचिंतामणि टथा मतिसार १८२७ फरीदुकोट १०८ ॒ वृत्ति अभयकुशल् १०३ बर्सत्राज शक्कुन टीका भानुचन्द्र गणि 5 दिगम्बर जैन ज्योतिष ग्रन्थ १ गशितसार सटिप्पन, महाबीराचाय (११वीं) २ केवल्लाज्ञानहोरा, चंद्रसेन ३ आयज्षान तिल्नक (प्रा०) भट्ट केस्तरि ४ कं टीका (संं०) ९ जिनेन्द्रमाला (स०) ६, दीका ७ ज्ञानप्रदीपिका, प्रकाशित ८ निमित्त शास्त्र, भूमिपुत्र £ भिमित्तदीपक, जिनसेन ४या शफबशनी (नमक) 2७० ? भ-हकककण अन्‍न्‍्न्‍क, 7: विशेष जानभेके किये मेरा उत्त नाम वाला लेख देखें जो भारती विजय? भाग २ अ० ६४ में प्रकाशित हो सुका है। ह्म्प्द् कम प्रटट्रप 2 ... कल्पना और मौलिकता | ले० राजेन्द्र बिहारी लाज्, एम० एस० सी०, इशिडियन- स्टेट-रेलबेज | लोगों से अगर पूछा जाय कि क्या उनके पास अच्छी पह्पया शक्ति है तो उनमें से अधिकांश तुरन्त यह सोचने लगेंगे कि कया उतका मन असम्भवके साम्राज्यमें: उड्झान कर सकता है या क्या वे प्रेमचनद और शरत बाबूकी तरह सुन्दर उपन्यात्त लिख सकते हैं । पर सच पूछिये तो कछपना विचारकी एक ऐसी क्रिया नहीं है जिसका सम्बन्ध केवल वास्तविकता ओर सम्भावनाके कषेन्नसे परे की बातोंसे रहता है या जिसका उद्देश्य हमारे अवकाशके समयमें केवल हमारा भनोर॑जन करना होता है, बढिक यह तो देनिक जीवनकी एुक ऐसी अत्यन्त आवश्यक १० ज्प्रीतिषपटल्ल, मस्तावीर प्र ११ होराज्ञान, गौतम _ १२ सामुद्विक शास्त्र १४ शक्षुन॒दीपक १४ अरहन्तपासा केचल्लि, विभोदीकाल ३ 5 बुन्दावन, प्रकाशित १६ अक्षरीकेवली शकुन १७ अरिष्टाध्याय (प्रा०) ६८ वरपिंगक्षि (कताड) प्रभ॑द्र १६ जातकतिद्षक श्रीधर २० आपसबद्राचमवरण महिषेश २१ ऊर्धकांड दुमादवे २२ रिह सझुचय दुर्मादवे ( स० १०८६ ) २१३ जिनर्साहिता नंकित २४ घंद्रोम्मीलन २५ गगसंहिता टिप्पणी--कुछ म्रन्‍्थों ,ओर प्रम्थकारोंके नाम साफ़- साफ़ नहीं पढ़े जा सके, इल्नलिए अशुद्ध छुपे हैं | पाठकंगण जमा करें । ््््ि व्यावहा रिक-मनोविज्ञॉन व्यावहारिक-मनोविज्ञान क्रिया है जो हमारे सोचने विचारने ओर काम करनेके मार्ग पर प्रकाश डालती है भौर जिसके बिना हमारे ओर कार्य दूसरोंके अनचुकरण या अपनी तात्कालिक छुन पर ही अवज्ग्बित रह जाते हैं। मानव जीवनर्मे कद्पना का चेन्र व्यापक है न कि सकुचित | कदपना हमारी मानसिक आँखोंके सामने उन चीज्ञों- की प्रतिमा उपस्यित कर देती है जो हमारे भौतिक नेन्नोके सामने मौजूद न हों । इसका झुख्य काम दै पदार्थों की अनुपस्थितिर्म उनकी अ्तिमाओंकी मनमें प्रगट करना अथवा उनके सम्बन्धर्मं विचारोंका बनाना। ये प्रतिमाएँ कभी तो ऐसे पदार्थों या विषयक्ी द्वोती दें जिन्हें हम स्वयं, या दूसरोंकी सहायतासे, पहले अनुभव कर खुके हैं, और कभी पुंसी बातोंले सम्बन्ध रखती हैं जो हमारे किए बिक्षकुल मई हैं और जो हमारे अजुभवर्भे पहले कभी नहीं आईं । कल्पनाकी इन दो क्रियाओंका भेद शीघ्र दी स्पष्ट हो जायगा । एकमें पुराने विचारों और प्रतिमाओं का पुनः उन्नव होता है, दूसरीमें नई प्रतिमाश्ों था वये विचारोंका निर्माण । पहलौकों हम पुनरुत्भावक और दूसरी को रचनाध्मक कल्पना कहगे ॥ पुनरुद्धावक कठपना इतिहास, खाहित्य, कला इत्यादिके समझनेमें कल्पना की आवश्यकता होती है क्योंकि इन चीज़ोंकों तभी समस्त सकते हैं जब कि अपने सामने) उनके काल, लेखक; या कल्नाकारके विधारोंका चित्र साफ़-साफ़ बन जाय । इसी तरह विज्ञानके समझने के क्षिए सी कत्पनाकी बड़ी ज़रूरत द्ोती है। उदाहरणा्थ जब तक आपकी मानसिक इृष्टिके सामने अयुर्भो और परमाशुश्रोका ठीक-ठीक चित्न नहीं बन जाता तब तक शाप उम्दें समझ ही कैसे सकते हैं! कल्पताकी हम सब क्रियाअको हम पुनरुक्षावक कह सकते हैं| इस पुमभरुःपादक कक्पना ह्वारा हम अपने मन- में उन चित्रौको दोबारा उपस्थित कर देते हैं. जो दूसरेंके लिखनेरया बोछनेके कारण पहले अंकित हुए थे था जो हमारे निजी पिछले अचुभर्वोेत्ति [बनकर स्छतिंके रुपमें स'चित थे । यही अ्रतीतके,चित्रोंको हमारे समच् उपस्थित करती है भोर इस भाँति हमें भूतकालके भूपतियों, मदषियों तथा बीरोंके साथ रहनेका अवसर प्रदान करती ११३ है| कल्पनाके इस प्रयोगमें हमारा काम पीछे-पीछे चलना रहता है न कि अगुआ बनना, नक़ल करना नकि उत्पन्न करना, मई बातेका समझना वकि इनका आविष्कार करना । रचनात्मक कट्पना धूसरोंके विचार, भाव ओर क्वतियोंके समझने या उनकी व्याख्या करनेके सिवा कह्मताका एक और बड़ा महत्वपूर्ण काम है। मान कीजिये कि कविता पढ़नेकी जगह आप स्वयम्‌ एक काव्यकी रधना कर रहे हैं था किसी चित्र को देखनेकी जगह आप स्वपम एक चित्र बना रहे हैं। ऐसी अवस्थामें आपका उद्देश्य वूसरोंके पीछे-पीछे घलगा या उनकी नक़ल करनों नहीं होता बल्कि वूसरोंके क्षिए एक नये उदाहरण या चित्रका निर्माण करना होता है। कद्पनाकी इस क्रियाको हम रघनातव्मक क्रिया कह सकते हैं । दुनियाकी उन्नत्िके लिए ऐसे व्यक्तियोंकी परम आवश्यकता है जो नये भार्ग दिखायें, नई बस्तुएँ या नये विचार पैदा करें । सच तो यह है कि हर किसी को, चाहे उसका पद कितना दी छोटा हो या उसका जीवन कितना ही नीरस हो यहद्द आवश्यक है कि वह कुछ न कुछु हद तक मौलिकता या स्वयं किसी न किसी कामको प्रारम्भ करनेकी अइमता रकक्‍खे । यह योग्यता बहुत हृद तक रचनाव्मक कह्पता को काममें लानेकी दक्षता पर द्वी निर्भर रहती है । द करपना शक्तिका महत्व कव्पना शक्ति एक अत्यन्त ही मुल्यवान व्यावहारिक पूंजी है। यद्द बड़ी क्षफत्नता पाने चाल्ने व्यक्तियोंका विशेष लक्षण है। अगर नेपोलियन एक महान सेनाध्यत - था तो इसीलिए कि उस्नने परभ्पराकी झू्ियोंको तोड़ा ओर पक नये प्रकारके ल्लामरिक कोशल्की कल्पनाकी जिसका सुकाबता बहुत समय तक कोई दृघरा तन कर सका | इसी तरह नफ़ीरुड और हेनरीफ़ोड़े जैसे शिल्प- कारोंकी सफलता भी उन्तकी कल्पना-शक्तिके कारण है जिसने उनके सामने नई सम्सावनाओं, नये कार्यक्रम और स'गठन तथा फामके नये-तथे ढंगोंका प्राहुर्भाव किया । स्थवूटन ओर आइन्ध्टाइल जैसे विचारकोने जो नई मानव-विचार-अणाली स्थापित की वह न केवल इस आ विज्ञानं, अगस्त, १०४५ [ भाग ६१ वजहसे कि उनके पास ज्ञानका ।क्रृदृद्‌ भरडार था बल्कि इस कारण कि उन्होंने अपने मनकी सामम्रौसे विचारों ओर व्याख्याश्रोंका नया ताना बाना बुना । साधारण ज्षेत्रम भो रचनाव्मक कल्पना ही सफलता- का प्रधान सूत्र है। यदि आप उपन्याकप्त, नाटक या कविता लिखना चाहते हैं तो सबसे पदले आपको यही रहस्य समभना पड़ेगा । एक अबन्धक कर्मचारी जो किद्ली सस्‍्था को जमे हुए पुराने ढरें पर योग्यता पूर्वक चलाता है एक दूसरे व्यक्तिकी अपेज्ञा कहीं कम भाग्य होता है जो कि काम करनेके नये ढंगेका अनुसस्धान करता है ओर नवीन कार्य-कोशक्लकी रचना करता है। ईमानदारी ह ओर भेह्नतसे काम करने बाला अवश्य ही समाजका उपयोगी तथा श्रादरणीय श्रद्स्थ है जो अपने परिश्रमके पुरसकारसे कभी वंचित नहीं रह सकता। पर यदि बह इसे अधिक और कुछ नहीं है भौर यदि/उसमें रचना- व्मक कह्पना-शक्तिका अभाव है तो वह किसी नई व्यावखायिक क्रिया या उम्दा माल या और अधिक सफल आधिक स'स्थाकी रचना करके था किसी उपस्यास अथवा गरपको ल्विखकर अपने साथियंमें विशिष्ट स्थान नहीं प्राप्त कर सकता, उसकी गणना साधारण वर्ग ही रहेगी । अगर आप इस प्रकारके ज्षेत्रोंमे सफलता पानेके इच्छुक हैं. तो आपको अपनी कल्पना शिक्षित तथा घिक- सित करना चाहिए। उन्नति करनेकी यह आवश्यक शर्त है । हमारे दैनिक कामकाज में भी कर्पना का बहुत बड़ा हाथ रहता है। कल्पना भविष्य पर दृष्टि डाज् कर हमारे ल्षिए नमूने तैयार करती है भौर योजनायें बनाती है। यही हमारे आदर्शों का निर्भाण करती है और पहले ही से हमें आने वाली उस अवस्था का सुख-स्वप्न दिखा देती है जब हम:ंडन आद्शों को चरितार्थ कर घुके होंगे। कल्पना भविष्य में होनेवाली बातों का चित्र हमारे सम्मुख उपस्थित कर देती है और उनका कुछ|न कुछ आभास पहंचेसे करा देती। है। हमारे किसी कार्थसे भविष्प में किस फल्ष की आशा की जाय, हमारे कहे या लिखे हुए शब्दों का दूसरों पर क्‍या प्रभाव पड़ेगा, हमारे किसी प्रस्ताव, ग्रर्थना था मांग के विरुद्ध दूसरों के किन-किन आपत्तियोंके पेश करने की सम्भावना है--यह सब- पहले ही से कल्पना हारा समझा जा सकता है। इसीसे हम दूसरोंके मनके अन्दर पेदा होगेवाले विचारों और भावनाओं का अन्दाज़ पहलेसे कगा लेते हैं. जिछले हम उनकी शंका्ओों का समाधान करनेके किए तेंप्रार हो आते हैं । अगर क्या किया जाय तो हम फिसने ही काम एुसे कर डाले जिमसे सेंकों था अपने ही को हामि पहुँचे आर जिनके लिए दू में बहुत पछुताना पड़े । कह्पता वर्तसानमें आकर हसारे हर काम को प्रभावित करती हैं चाहे भह कितना हो धरल या जटिल क्यों न हो । सावस्तिक प्रवाहके. लिए यह वैसेद्ी पथप्रदरर्शन का काम करतो है जेसे एक दीपक अन्यकारमें चलते हुए उम्च पथिक के लिए जो कि दीपक को अपने साथ जे जाता है। वेपोद्ियनने लच कहा था कि “विश्व पर फल्पदा ही का साम्राज्य हैं ।! इसी तरह आपकी कहपर आपके जीवण पर शास्तरच करतों है । सानस्िक शक्तियोंमें कल्पना का स्थान सबसे ऊँचा है | दसरी शक्तियाँ--जैसे समझने ओर याद रखनेकी--हसमारे जीवनमें बड़ी ही उपयोगी ओर आवश्यक हैं । उनके बिना जीवन का कारोबार चलना असम्भव होगा। यह बात दो शाथरद्‌ कत्पनाके सस्वन्धर्म नहीं कही जा सबती पर कल्पना एक बड़े उच्च कोटि की शक्ति है । उश्चका काम नये विचारोंका उत्पादन करना, गई बातोंकों खोज निका- दाना और उन आदोंकों स्पष्ट रूपमें देखना है जिनका प्रव्यण और वतंमान संसारमें वाभ-निशानभी नहीं ओर जिनका अस्तित्व केदल सम्भावना या भविष्य या श्रत्ात के ही जगत में रहता है । वि कल्पना शक्ति का विकास क्या कब्रता-शक्ति मनुष्यके वशकी वस्तु ढेँ ? क्‍या प्रथर्तों द्वारा उमस्रकों बढ़ावा या विकसित करना ल्म्भव है ? क्या यह खच नहीं कि कुछ लोगंकों जन्‍्मसे यह शक्ति विशेष मात्रार्मे मिली रहती है ओर कुछ लोग इससे वंचित रहते हैं ? मिस्सन्‍्देह मनुष्यमात्रमें ओर प्रकारकी योग्यताओं की तरह कद्पना- शक्ति की सात्रा्मे भी भिन्नता रहती हे । कछ लोगेर्मे दस प्रकारको योग्यता, रहती है कछ ल्ोगेसे पाँच और कुछमें,एक दी कार की । परल्तु व्यावहारिक-मनोविज्ञान हो या उल्कका उचित प्रयोग ने - ११३ ऐसा कोई नहीं जिसमें कोई न कोई योग्यता न हो । हर व्यक्तिम कमसे कमर एक प्रकारक्नी योग्यता अवश्य रहती ' है। इसी प्रकार करपमा-शक्तिक्की मात्रा कुछ व्यक्तियेके पास कम हो सकती है पर बह निरुसन्देह बढ़ाई जा सकती हैं । उच ब्ोगोंके काममें भी जिन्हें प्रकृतिने प्रशुर मामप्रिक बल प्रदान किया है या जो बड़े हो प्रतिभा- सम्पन्न हैं, विकास या उन्नति का क्रम दीख पढ़ता है-- उनकी शक्तिप। भी सम्रय बीतनेके साथ बढ़तो हुई जान पड़ती हैं । ऐसा बहुतहदी कम होता है कि वे आरम्भसे ही अपनी पूरी शक्ति अगट करने लगें । उनकी रचनात्मक ज्ञभवाका वर्षों-तक पाहुव-पोपषण होता रहता है और उनकी योग्यता समय्रक्रे साथ और भी अधिक विस्तृत, , मौलिक ओर गहन बन करदही अपनी चरमप्त सीमा तक पहुँचती है। शेम्लपिथर और डार्विनकी रचनाओंसे भी काल्वान्तर एवं क्रमशः विकास ही का पता चल्षता है। थे भी अपने काम और जीवन द्वारा श्रपनी कल्पना-शक्ति को शिक्षित श्रीर परिवर्दधित करते दिखाई देते हैं शोर जो बात दस प्रकार की थोग्यता रखने वाला व्यक्ति कर सकता है वही बात--यद्यपि निश्चयही कम मात्रा. मैं--- एक योग्यता रखने वाला भी प्राप्त कर सकता है। यदि हम प्रकृति से मिल्ली हुईं कल्पना शक्तिकी मात्नाकों नहीं बढ़ा सकते तो अपने आपको इस तरह अवश्य शासित कर सकते दें कि जितनी भी कहपता शक्ति हमारे पास है उसीसे हमारी मामप्तिक कल्न अधिक दूरी तक ओर अधिक तेजी से जा सके । इसीलिए किसीको यह शमभने की आवश्यकता नहीं है कि उप्के भाग्यमें जीवनभर कठ्पना-विहीन परिश्रम करने वाला बना रहना ही लिखा है। अगर आप ऐसे भाभ्यके विचार से दबे रहते हैं तो दोष आप ही का है न कि आपके प्रारब्ध का | इसका कारण है उदासीनता एवं कुछ निराशा ओर इश्वराधीनता का भाव। मगर इससे भी जपादा इसका कारण है इस बात से अनभिज्ञता छिआप उन्नति कर सकते हैं। कल्पना-शक्तिसे जिस प्रकार बहुतोंने ज्ञाभ उठाया है उसी प्रकार आपभी उठा सकते हैं ओर उन्नत कर सकते हैं यदि आप मनो- विज्ञान के बताये हुए ग्रार्ग पर चढ़े । ११४ कल्पना ओर अन्तश्चेतना मस्तिष्क, उसकी क्रियाओं ओर उसकी रचनात्मक था कल्पनात्मक शक्तियों के सम्बन्ध्मं बहुत कुछ तो अभी तक रहस्य के पद ही में छिपा है पर इतना अवश्य मालूम है कि कत्पनामें सचेत ओर अचेत मव दोनोंही का संयोग रहता है | अधिक ठीक तो यह कहना होगा कि उच्चश्रेणी का अधिकाँश मानस्षिक काम अन्तश्वेतना के भीतर होता है । मनोविज्ञान वेत्ताशों ने इसके बहुतसे प्रमाण संत्रह किए हैं। इप्तका उत्तम दृष्टान्त हेमिक्टन ह्वारा की गई एक गणित-पसम्बन्धी खोज है। कोई पन्‍्दह वर्ष तक वह पएुक अश्नको हल्मध करनेमें -छागे रहे पर सफलता थ मिली । एक दिन जब बह अपनी पत्नी के साथ टहल रहे थे उनको ऐसा जान पड़ा कि विचार सम्बन्धी बिजली का भेरा बन्द हो गया और उससे जो चिनगारियाँ निकलीं दह वही मौलिक समीकरण थे जिनकी तज्ञाशम ये |वर्षासे थे। उन्होंने वहीं जेब से एक नोटबुक निकाली ओर उन समीकरणोकोी लिख ज्िया। इसका एक बढ़ा विचित्र उदाहरण चाललट ब्रोट (0॥97]0406 3707(8) के जीवनमें मिलता है। उसकी लिखी पुक पुस्तकर्म एक पात्रने दवाकी एक ख़्राकके साथ कुछ अफ्लोम खा ली । उम्नके बाद उस पात्रके मेन श्रोर शरीरकी देशाका जो वर्णन उससे पुस्तक में किया है वह इतना सत्य है कि उसे लेखिकाके एक भिन्न ने उससे पूछा कि क्‍या कभी उसने अ्रफ़र,म खाई थी । चारक्षट ब्रॉँट ने उत्तर दिया कि उसने अ्रफ्तीम कभी नहीं खाई, ओर बतलाया स्लि अफीम खा ल्षेनेके प्रभाव का जो वर्णन उसने लिखा वह उसको उसी क्रिया से मिलता जिसका अवल्म्बन वह सदा ऐसे मोक़ोपर लिया करती थी जब उसे किसी ऐसी बात का वर्णन कश्ना होता था जो उसके निजी अनुभवर्म कभी न आई हो । ऐसे अवसरों पर वह कई रात सोने से पहले अपने इच्छित विपय पर गर्भीर चिन्तन किया करती थी । यहाँ तक कि शअ्रन्त में, शायद्‌ उसकी कह्दानी की प्रगति कई हफ्तों तक बन्द रहती थी, उसे एक दिन सबेरे नींद से जागने पर सत्र बातें साफ़-साफ़ दिखाई पड़ने लगती थीं, मार्नों उसमे उसे स्वयं अनुभव किया हो | उसके बाढ़, उसका वर्णन अक्षरश; विज्ञानं, अगस्त, १९७४ चाय ऊफचछई,.224प220:2224:0024452-.6.3४ 7७:०५ प्रपप्रघष्ष7क- ६2३० प्र१५०--कपप९दजच १:07: ाफर'त्र*प३फ५यप््.:7>:क्लफजदएप | भाग ६३ दंड :/, विद: ४:20५५ उसी तरह कर देती थी जैसा कि वह घटित हुई। नये विचारों को आघ करने की यह बड़ी पुरानी रीति है। पुराने ज़माने के लोगों को जब कभी कोई गहन प्रश्न इल करना होना था तो रात को सोने से पहले वह उससे अपने दिमाश को भर जेते थे क्योंकि उन्हें अयुभव से थहद मालूम हुआ था कि ऐसा करने से एक दिन सबरे उसका इक उन्हें सित्ष जाया । यद्यपि आधुनिक मनोविज्ञान ने अ्रश्नी इतनी उन्नति नहीं की है कि वह उन नियमों या शर्ता की टीक-ठौक व्याख्या कर सके जो कि कल्पना-शक्ति के विकास के लिए पर्याप्त हैं, या उन साधनों का सुझाव कर स्लके जिनके द्वारा वे अवस्थायें इच्छानुज्वार पेदा की जा सकें, फिर भी मनो- वेक्षानिक्ों के निएंय निश्चय ही कुछ ऐसी बातें बता सकते हैं जो भोलिकता के लिए आवश्यक और उपयोगी. हैं। आगे इन्हीं नियर्मों का वर्णन किया गया है। कारयक्षेत्रका नियत करना कल्पनाशक्ति की उन्नतिके प्रयासमें पहककी सीढ़ी यह है कि अपने लिए इच्छा, आवश्यकता और बोग्यताके अनुसार एक निश्चित विपय या कार्यक्षेत्र नि्धारितकर ल्षिया जाय । व्यायाम करने-से सारे शरीर में बल का संचार होता है। धाथ, पैर और पुट्टे सुडौल और दृढ़ बनते हैं और काम करने की चमता बढ़ जाती है। इसी भ्रकार शायद आप सोचते होंगे कि यदि मनकी शक्तियोंको उपयुक्त व्यायाम ओर अभ्यास द्वारा मज़बूत बना लिया जाय तो उन्से हर अवसर पर ओर हर काम में लाभ उठाया जा सकेगा । पर वारुतव में ऐसा नहीं होता । एक बड़ी विचिन्न बात यह ६ कि सन की अधिकतर शक्तियाँ ओर क्रियायें विशेषोन्छुख-- नकि व्यापक--होती हैं । अवधान, स्थृति, कत्पना इत्यादि सभी चुने हुए क्षेत्रों में समुन्नत हो सकती हैं, पर उनकी पछता उच विशिष्ट विषयों तक ही स्लीमित रहेगी । एक व्यक्ति गणित में चतुर है पर उसकी बुद्धि शायद व्याकरण और इतिहास में नहीं चल पाती । एंक मनुष्य जो अपने व्यवसाय -था अपने प्रिय विष्य से सरबन्ध रखने बाली छोटी-छोटी घातोंको।भी खूब याद रखता है जब कि वह दूसरी बाते' बढ़ा प्रश्नत्म करने परभी स्मरण नहीं रख सकता बल्कि शीघ्र ही भूछ जाता है। इसी संख्या ४ | व्यावहारिक मनोविज्ञान ११५ तरह एक मनुष्य की कहपना भी उसके विशेष विषयके सम्बन्धर्म भये-नये विचार पेदा करने की योग्यता प्राप्त कर सकती है पर यह आशा करना ठीक न होगा कि एक विषयम कह्पना-शक्ति बढ़ाने से वह चमता बूखसरे विषयों में भी उपयोगी पघ्िद्ध होगी । मन की समस्त शक्तियाँ और क्रियाये' चुने हुए विशेष ज्षेत्रोंमे ही उन्नति कर सकती हैं--उनकी पक्तता अति ही विशेष हंगसे काम करती है। यह बात कल्पना के सम्बन्ध में भी लागू होती है, बल्कि सच तो यह है कि कल्पना जितनीही उच्चकोटि की शक्ति है उतनीही विशेष (89०० 8]880) हंग से वह काम करती है । जिस तरह स्मृति पर शासन करते में या उसकी जज्नति करनेमे हमारा लच्य यह नहीं रहता कि एक व्यापक धारण शक्ति पेदा करें बल्कि स्थति के कुछ विशेष कार्यों में अपनी दक्षता को बढ़ाना, इसी प्रकार कल्पना को अपने अधिकारमें रखने ओर उस पर शासन करने में हमारा ध्येय कुड मनोवांछित दिशाश्रमं अधिका- घिक योग्यता प्राप्त करना रहता है। एक उपन्यास लेखक का मन जो अपने छुने हुए काममें अत्यन्त डपजञाऊ है, आँजिक आविष्कारोंमें या युद्ध कोशल में बिल्कुल बंजर या उसर हो सकता है। हमको यह बात ध्यानमें रखनी चाहिए ओर उसश्लीके अनुप्तार प्रबन्ध करना चाहिए कि कद्पना का कास अत्यन्त ही विशेष प्रकार (86९० 8- ]880) का होता है। कदाचित्‌ इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण चाहसे डाविन था, जिसने अपने जीवनके अन्तिम दिनों में यह शोक प्रगठट किया कि वर्षों मन को विज्ञान पर एकाग्र करने के कारण वह कविता का प्रेम बिल्कुल ही खो बैठा | यह आवश्यक नहीं है कि हम सब को ऐसा ही मूल्य चुकाना पड़े, परन्तु यह तो स्पष्ट ही है कि अगर हमको चावल्ल पेदा करता है तो हम खेतमें बाजरा कदापि न बोयंगे | यही बात कछ्पना परभी लागू होती है | पहले आप तय कर लीजिए कि किस तरह की फ़सछ पेदा करनी है, तब उचित प्रकारके बीज अपने मन के खेत में वो दीजिये, फिर उनको हर तरहसे खाद देने, सीचने ओर बढ़ाने में लग जाइये | कल्पनाकी सामग्री दूसरी बात जो ध्यानमें रखने योग्य है यह है कि रचनात्मक कत्पनाओे काममें|कोई चीज़ बिलकुल मौहिक या स्वधा नई नहीं होती। भौतिक दुनियाँकी भाँति मानसिक हुनियाँमें भी मलुष्य कोई नई चीज़ शून्यसे उत्पन्न नहीं कर सकता । वह केवल इतना ही कर सकता है कि जो कुछ पहले से मौजूद है उप्तमें सुधार या उल्लट फेर करके उसे नये क्रम या रूपमें उपस्थित कर दे। कवियों या उपन्यासकारोंकी उत्तमसे उत्तम रचनायें भी उस्ती विचार सामग्रीसे बनती हैं जो पहलेसे उनके कब्जेम रहती हैं । ' कुछ लोग यह समझ लेते हैं कि ज्ञान या जानकारी का कत्पनासे कोई सरबन्ध नहीं है ओर मानसिक रचना का अथ है कि कुछ नहीं में से कुछ पेदा कर लिया जाय । यह तो सच है कि निर्शीव दिखावटी जानकारी काल्पनिक रचनाकी शत्र हो सकती है। पर जीता जागता ज्ञान तो, जो कि पचकर आपके सनका एक अंग बन गया है, कल्पनाका प्राणाघार है। स्कोट, डार्विन आदि बड़े बड़े लेखक ओर वैज्ञानिकों ने कड़े परिश्रमसे अपने विशेष विययो्मि विश्व-कोष की सी जानकारी संचितकी थी। ड्न लोगों ने अपनी नई रचनाओ्रोकी सामग्री तथ्योंकी कड़ी चट्‌्टानेसि खोदकर निकाली थी। उनके उद्भवकी नींच उनके कठिन परिश्रम पर ही बनी थी । बहुधा एक नौसिखिया यह समान लेनेकी भूल कर वेठता है कि रचनाव्मक कामका कठिन और ठीक ठीक परिश्रमसे कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका यह अम घातक है। कोई भी व्यक्ति किसी विपयके बारे अच्छी तरह नहीं विचार सकता जब तक कि वह उसे अच्छी तरह जानता नहीं। बिना यथे४ ज्ञानके नये विचार या तो मनमें प्रगट ही महीं होते ओर अगर होते भी हैं तो इतनी थोड़ी मान्रामें कि उनका कोई मूल्य नहीं। सदेव तथ्य ही नये विचारोंके सबसे अच्छे प्रवतंक होते . हैं। इसलिये यदि कभी आप नये विचारोंके अभावसे रुक जाँय तो तथ्योंकी ओर ध्यान दीजिये। यही आपके लिए नये साधन ओर काम करनेके नये ढंग मालूम करनेकी सबसे उचम रीति है। कुछ ।वर्ष हुए एक ११६ प्रयोग किया गया था जिम्नसे यह पता चल्ला कि लोगों के पास जो ज्ञान या जानकारी है उसकी मात्रा ओर उनकी रचनात्मक या भौत्षिक रूपसे विचार करनेकी योग्यतामें एक निश्चित सम्बन्ध है। प्रतिभावान्‌ पुरुर्षोकी मानसिक क्रियाओंके बारे हम जो कुछ जानते हैं दूससे भी इसी नतीजेकी पुष्टि होती है । शेक्सपियर ने अपनी अधिकतर रचनाओंकी सामग्री पुरावी कितांबों और कहानियोंमें से निकाली थीं। कितने ही आदमिशों ने, जिनकी कृतियोंकी उड़ान, विस्तार और नवोनतामें देवी भेंटकी भलक दीख पड़ती है, अपनी सफलताको अनगिनत घण्टों तक निहायत सूखे ओर अरोचक पदाथों का अध्ययन करके और उनमें से तथ्योंको चुन कर ही प्राप्त किया । कार्लाइल बड़े कड़े परिश्रमसे लिघता था ओर अपनी इतिहासकी बड़ी बढ़ी पुस्तफोंका एक एक' पृष्ठ लिखनेसे पहले उस विषयकी जानी हुईं लभी प्रामाणिक पुस्तक देख लेता था । डाक्टर आान्‍्सम का कहना था कि एक पुस्तकके ल्िखनेके लिए लेखककों आधा पुस्तकालय उल्नट डालना चाहिये। मानसिक पुतलीधर में से सुन्दर ओर नवीन पदार्थ तभी तैयार होकर निकल सकते हैं जब उसमें उत्तम कच्चा माल्ष अश्चुर मान्नार्में पहुंचाया जाय | | कै विस्तार पूथक विश्लेषण नये बिचार पैदा करनेके लिए तीसरा (नियम यह है कि जमाकी हुई मानसिक सामग्री या प्रश्नके तथ्यों पर गहरा सोच विचार किया जाय ओर उनका विस्तार पूवक विश्लेपण किया जाय । कल्पना तभी दो या अधिक प्रतिमाश्नोंकी भिल्लाकर एक कर सकती है ओर उनमें से एक बया विचार पेदा कर सकती है जत्र उन तथ्थोकों जिनसे विपयका सम्बन्ध है भल्ली भाँति श्क्‍रमझ लिया जाय ओर उनका मूल्य आऑक लिया जाय । जितने अधिक स्पष्ट ओर चमकीशद्ी आपके विचार हंंगे उतनी ही सुगमतासे वह जुड़कर नये विचार बना सकेंगे । जाने हुए तथध्योंका सविस्तार विश्लेषण करना कई तरहसे लाभकारी हैं। पुक वो यह उन विचारोंकों जो सन में पहल्लेसे मोजूद हैं, ऋमबद्ध करता है। दूसरे यह विज्ञान, अगस्त, १९४५ लत [ भाग ६१ र 'जै.०.पकर. २चा०प०२/चट यह कल. ०२३१:टटन -्व्टटा १4 2 प््: एल: फ्रेम सन ा2१2क्क्यालपस नथे तथ्योंकी खोजमें जिनका अरब तक पता नहीं, सहायक होता है, जैसे कि रासायनिक विश्लेषणसे हमें शेडियम “मिल गया | तीसरे यह मनको उपमाये या समानतायें हे ढ लेनेमें मदद देता है, क्योंकि बहुधा बड़ी महत्त्वपूर्ण समानतायें बड़े विचित्र ढड़्से छिपी रहती हैं। चौथे यह एक लच्चे संश्लेषणके लिए मार्ग खोल “देता है। सच तो यह है कि सावधानीसे किये गये कुल विश्लोषण में प्रायः सदेव ही नवीन परिणामोका निकालना शामिल रहता है । ड़ मनन ओर चिंतन हु जब आप ,अपने काम करने की मेज छोड़ तभी अपने काय्यंको न छोड़ ढेंँ। अगर आपकी इच्छा केवल साधारण - जीविका उपार्जन करना ही है तो ऐसा करना बिल्कुल: ठीक हो सकता है। पर यदि आप काहपनिक दृश्दशिता प्राप्त करना चाहते हैं तो ऐसा कश्ना कदापि उचित [। आपको अपने कामको अपने साथ मन में लिए रहना चाहिये। अ्रकेले रहने के अवसरों को अत्यन्त मुल्यवाब समझकर उपयोग कीजिये। ऐसे मौके पानेक प्रथत्न कीजिये । यही अवसर हैं जिनके हारा आप नित्य कमके विशेयज्ञते बढ़कर - जो कि कोई भी काम करने चाला कुछ समय बीतने पर बन जाता है---एक उत्पादक विशेषज्ञ बन सकते हैं । जब आप अपनी मेज ओर उन विस्तत कार्यो से जिनका प्रतीक आपकी मेज है छटटी पाये तो अपने सारेके सारे कामको साथ न छिये रहें---उसकी छोटी बात्तोकोी अथवा दैनिक कर्मो'को साथ नहीं रखना चाहिये। केवल बड़े बड़े प्रक्षेके ही सम्बन्धर्मस दियार कश्मा चाहिए । उसके बड़े बड़े सम्बन्धोंका और अच्छी तरह राममनेका ग्रयत्म कीजिये। यह सोचिये कि उसमें वया क्‍या सुधार किए जा सकते हैं। ऐसा करमेमें आपका अभिश्राय ऐसी आदत डालना है जिससे भगका कार्य ओर अवाह आपके अभीष्ट विषयदी ओर बिशा रोक टोकके चलता रहे। कल्पताके ज्ेश्रम बहुत सी सफलताओंका रहस्य छुटूटीके घंटोंका उचित उपयोग ही है। छुछ लेखक हुए रोज अपना कुछ स्रमय इस काम के लिये अलग निकाल रखते हैं जब वह अपने काम पर संख्या ५ ] एकाप्र मनसे ध्यान लगाते हैं चाहे वह एक भी लाइन लिखें या न लिखें। आपको ठीक ऐसा करनेकी आओआव- श्यकता तो नहीं पर याद रखनेकी बात यह है कि ये लोग एक महत्वपूर्ण मनोवैशानिक नियमको कामर्मे ला रहे हैं जिसका आपको भी आदर और प्रयोग करना चाहिये। चिन्तन, मनन ओर कड़े परिश्रमके ही द्वारा स॒- विश्यात होखकों ने अपनी रचनायें लिखीं । ऐडम स्मिथ ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक वेब्ध औफ नेशन्स (३ ०४!३) ..ऐ ऐं०६078) के लिखनेमें दस वर्ष ओर (37- कफूणा ने अपना रोमन झाम्राज्यकी अवनति ओर पतन! ([226॥88 हगवते [& 07 6098 80797 म्।0]7708) नामक ग्रंथ लिखनेमें बीस वर्ष लगाये । जब्र एक कवियित्री ने वर्डस्वर्थकों बताया कि . उसने अपने एक काव्यकी रचनामें ६ घन्टे ध्यत्तीत किये तो वडस्वथ ने उत्तर दिया कि वह स्वयं उसमें ६ हफ्ते लगाता | रड्याड किप्लिंग ने अपनी छोटी-छोटी कहानिर्योको, जो कि उत्कृष्ट कृतियाँ हैं, बड़ी कड़ी मेहचतसे लिखा । उनके लिखनेकी क्रियाका जिक्र करते हुए उसने लिखा कि बह उन कहानियोंकों लिख होने पर बेसे ही पढ़ा रहने देता था फिर कुछ समय बाद उन्हें पढ़कर उनके अनावश्यक शब्दों, वाक््यों ओर प्रकरणोंको काली रोशवाई ओर बुरुसमे काह्या करके मिंदा दिया करता था। इस तरह उसकी कहानियाँ सौनसे पाँच व्य तक पड़ी रहती थीं और हर शाल उत्तरोत्तर छोटो होती जाती थीं। नेफियर बीस साल तक कडिम परिश्रम करता रहा तब कहीं जाकर लघुगणक |.0/287'॥|॥7 का अनुसन्धान कर पाया | कामके बाद विराम मोलिंकताकी चोथी शर्त यह है कि कुछ देर मानसिक परिश्रम, गहरी छानबीन ओर चिस्तन करनेके बाद या तो मसामसिक क्रियाशक्तिकों कुछ समयके लिए बन्द कर दिया जाय या दिमाग को किसी दूसरे विपय में खाया आय । ह देखनेमें आता है कि बहुत देर तक अचेत काम होनेके उपशबन्त ही आकस्मिक उद्भास पेदा होते हैं। व्यावहारिक-मनोविज्ञान बिलकुक्ष निषफल दीख पंडने वाले उद्योगके बाद कुछ दिन बीत जाने पर ही वे प्राप्त होते हैं। इसके कुछ उदाहरण ऊपर दिये जा चुके हैं। एक बार छाके मेक्स्वेल ने प्रोफेसर टास्सनकों एक साध्य (])0]087707) दिया जिस पर मैक्स्वरेल स्वय॑ बहुत दिनसे लगे हुए थे। टाग्सन ने मेक्स्वेजको एक लम्बा पत्र लिखा जिसमें इसके सिद्ध करनेके अनेक सुझाव थे पर कोई भी ठीक घहीं उतरता था। कुछ दिन बाद जब टाय्धन रेलमें सफ़र कर रहा था तो उसे इच्छित लब्ध फल (90/7%00) मित्र गया । सर वाल्टर स्कोट जब कभी दिनके मय किप्ती कठिनाईकों हल करनेमें असफल रह जाता था तो वह सदा यह आशा रखता था कि अगले दिन प्रातःकाल्ष उसे उच्त प्रश्नका हल मिल्ल जायगा । उसे अपने प्रात! कालके विचारों पर बड़ा भरोसा रहता था और यदि उसे दिनमें काम करनेके श्मय कोई मनोवांच्छित विचार न मिल पाता तो वह कहा करता था कि कोई चिन्ता नहीं ! में कल सचेरे सात बजे उसे पा जाऊंगा। हेमिह्टन, चार्ताट त्रोट ओर टाग्ससकों तुरन्त ही इच्छित फल न प्राप्त हो सका। उसका कारण यही था कि अचेत क्रियाओं. को अपना काम पूरा करनेके लिए. दामपक्री आवश्यकता थी ओर उ्योंही वह काम पूरा हुआ उन्होंने उसके परिणाम या फलको तुरन्त ही सचेत मनमें भेज्न दिया। परिश्रम ओर विश्रामको ब]₹ बार इुहराना ही सोल्षिकताकी कओ है । बड़े प्रतिभावान्‌ व्यक्ति भी उन्‍क्ृष्ट मौलिक विच्वारोंको इच्छानुसार नहीं बुक्ला सकते ओर ऐसा जान पड़ता हैं कि बहुत देर तक किसी पिष्य पर मनको एकाग्र करना एक मनोवैज्ञानिक भूल है। दीक तरीका तो यह है कि कुछ देर तक ध्यान पूर्वक काम किया जाय उच्चके बाद फिर किसी दूसरें छित्तादपंक काममें सन छगाया जाय । फ्राँस_ के एक लेखकदा कहना था कि “जन से शेंने पढ़ना अन्द किया तब से मैंने बहुत कुछ सीखा है और सच तो यह है कि हमारी फुरसतके वक्त की चहल क़द्मियों ही में हमारे बड़े-बड़े सामनक्ेक ओर नैतिक अलुसन्धान किये जाते हैं ।” प्रोफेसर महाफी ( 'र/४!879 ) ने रेनीडी फार्टे ( [0670 70९80968 ) के सम्बन्धमें लिखा है श्र ' विज्ञान, अगस्त, १९४५ [ भाग ६१ कि वह बहुत सोया करता था ओर उत्तम कार्यके उपपादन के लिए निरुदयोगिताकी विशेषकर सिफ़ारिश किया करता थां। प्रोफ़ेसर विल्वियम जेम्स ने अ्रध्यापकोंकों व्याख्यान देते हुए बताया कि उनके एक दोस्त जब किसी विशेष काममें सफल्लता प्राप्त करनेके इच्छक होते थे तो किसी दूसरे विषयके सम्बन्धमें सोचने लगते थे और इसका परिणाम घच्छा ही होता था । उचित अंशर्मे दिमागी वेकारी प्रम्तश्चेतनाकों काम 'करनेका मौका देती है। इसके विपरीत दिमागी मेहनत जिसमें आपकी आँख ओर दिमाग़ मिरन्‍्तर लगे रहते हैं आपके जाग्रव मानसिक जीवनके सारे ज्लेत्र पर अधिकार जमा लेती है जिसके कारण अचेत मनको स्वय॑ काम करने का था सचेत मनके पास सन्देश भेजनेका बहुत कम अवसर मिलता है। इस मानेमें किसी वैज्ञानिक लब्धफल (80!प्ञ00) को पानेके ल्षिए या कविताछा ऐसा पद लिख डालनेके लिए जो दिमाग़में उम्र रहा है, कड़ा मानसिक परिश्रम करना मनोविज्ञानके नियर्मोके बिल्कुल विरुद्द है, जब तक सनको बेकारी या मनोर॑जन द्वारा विश्राम न दिया जाय। अचेत मनको इतना अवसर अवश्य मित्नना चाहिए कि वह अपनी रचनात्मक शक्तिका प्रयोग कर सके | शायद यह माननेके लिए कोई आसानीसे तैयार न होगा कि बेकारीसें भी कोई गुण है क्योंकि सब्॑ भाग्य सिद्धान्त तो यही है कि मनुष्यको सदा काम करते रहना चाहिए। पर क्‍या कामके मृत्यके सम्बन्ध्म जो प्रचलित विचार हैं वह श्रद्दरशः सत्य हैं ? यह तो अवश्य सत्य है ।कि परिश्रमसे चरिश्रका अनुशासन होता है, मगर दिखाग़ी |तरककीके लिए रोज़मर्राके काममें डूबे रहना था किसी प्रकारकी खोजमें निरन्तर बिना किसी विपय-परिवत॑न था विश्राम के लगा रहना सरासर भूल है ) किसी एक विषय पर मनको बहुत देर तक एकाग्र किए रहनेसे दिसारा न केवल थक जाता है बल्कि एक ही दिशा सोचते रहने के कारण खसमें बहुधा ऐसी लकीरें पड़ जाती हैं जो उसकी उबर शक्ति को दबा देती हैं। एक बुद्धिमाव चिचारक जो किसी प्रकारके अनुसन्धान करनेके ल्लिए उत्सुक है दूसरे सब काम छोड़कर एक ही विपयके पीछे पड़कर और उसीमें निरन्तर अविरास हँगसे लगे रह कर अपने दिमास को कभी नहीं थका डालता, बल्कि वह जानता है कि सावधानीसे काम करनेके बाद उस ओरसे सचेत मनको हट लेना चाहिए जिससे इच्छित फलके पैदा करनेमें अन्तश्चेतना भी उचित रुपसे भाग ले सके। . “कामके बाद विराम”! के नियम का एक और. कारण यह है, जैसा कि प्रकृतिमें ओर जगह भी देखने में आता है-- कि मानसिक क्षेन्नम भी आवतंन (0 ए॥]77 या 76770060॥9) का रण्य है। दिनके बाद रात आती है, समुद्र की लहरें चढ़ाव के बाद उतार होता है, दिल फैज्ने के बाद सिकुड जाता है--इसी तरह दिमाग़के भी फेलने और सिकुइने के समय होते हैं जो बारी-बारीसे प्रगठ होते रहते हैं । कुछ विशेष समय ऐसे होते हैं जब कि मनकी वर्बर शक्ति तीव्र होती है, श्रोर नये विचार गहराइयोंमे से बुललबुज्ञों की तरह उठ कर निकल ग्राते हैं। इसके बिपरीत कुछ समय ऐसे होते हैं जबकि मनकी उर्धराशक्ति शिथिल्न होती है ओर उसमें नये विचार नहीं उठते । ऐसी शिथिलताके समय भें मनके घोड़े को एड लागाकर जबरदस्ती उससे नये |विचार पेढा करनेकी कोशिश करना व्य्थ है । ऐसे कालमें म तो बेकार कोशिश करके शक्ति को नष्ट करना चाहिए और न असफलताके कारण निराश होना या अपनी खोज ही, को छोड़ बेठना चाहिए -- बल्कि आशा और उत्साह के साथ उबर काषके आने को प्रतीक्षा करनी चाहिए ।| सानस-सख्ागर में ज्वार- भाटा किस-किस समय आता है इसका तो अभी ठीक- ठीक पता नहीं है मगर मिरूपण ओर अलुभव से सम्भव है हर व्यक्ति अपने लिए उर्बरकालों का पता लगा ले ओर फिर उनसे लाभ उठा सके | [ पूर्ण ] ५ घु हे विज्ञान-परिषदकी प्रकाशित प्राप्य बीज पूः है सूः पुस्तकाकी सम्पूण सूची (विज्ञान परवेशिका, भाग १«-विज्ञानकी प्रारम्भिक बातें सीखनेफा सबसे उत्तम साधथन--दो० शी राम- दाक्ष गोद एम० ए० ओर प्रो० खागशम भार्गव एम० एस-सी० ; ।) २“ताप--हाईसकूलमे॑ पढ़ाने योग्य पाव्य पुस्तक-- ले० ग्रो० प्रेमबत्लभ जोशी एम० ए० सथा श्री विश्वम्भर नाथ श्रीवास्तव, डो० एम्र-प्ली० ; चतुर्थ संस्करण; ॥८), २७-घुस्बक--हाईसकु+में पढ़ाने योग्य पुस्तक-ल्वे० प्रो० साल्िगरास भागव एस० एस-सी०; खजि०; ॥।/+) ४--मनोरजञ्जक रस्तायन-- इसमें रखायव विज्ञान उप- न्यासकी तरह रोचक बना दिया गया है, सबके पढ़ने ग्रेग्य ह-- ले० ओ० गोपास्वरुप भागंव एम० पएस-सी ० ; १॥), ४--सूथ-सिद्धान्त-- संस्कृत मुझ तथा हिन्दी विज्ञान- भाष्य'-- प्राचीन गणित ज्योतिष सीखनेका सबसे सुल्लम उपाय -- हंष्ठ संख्या १९३४ ; १४० चित्र तथा मकशे-«ले० श्री महाबीरअ्साद ओीवास्तव बी० एसन्स्ी०, एल० टी०, विशारद; सजिरद; दो भागंमें, मूल्य ६)। इस भराध्यपर लेखककों हिन्दी साहित्य सम्मेज्ञकका ११००) का मंगलाप्साद पारितोषिक मित्रा है । ६०-वपेज्ञानिक परिमाणख--विशज्ञानकी विविध शाखाश्रोंकी इकाइयोकी सारिणियों--ले० डाक्टर भिहाज्जकरण सेडी डी० एस स्री०; ॥), ७->समीकरण सीमांसा--गणितके एम० एु० के विद्या्थियोंके पढ़ने योग्य--ल्ले० पं० सुधाकर ह्ित्रेदी, प्रथम भाग १॥), छ्वितीय भाग ।॥), ८--निर्णायक ( डिटसिनेंट्स )-- गणितके एुम० ए० के, विद्याथियोंके पढ़ने योग्य--ले० शो० भोपाक्ष कृष्ण गदें. ओर गेामती प्रसाद अभिदोन्री ब्ी० पृश्त सी ० ; ॥), ६&--बीअज्यामिति या शुजअयुग्स रेखागशित--इईंटर- मीडियेटके गणितके विद्यार्थियोँंके लिये--ले० डाक्टर सत्यप्रकाश डी० एस-सी० ; १।), १०० -गुरुद व के साथ यात्रा+-डाक्टर जे० स्ली० बोसकी यात्राओंका लोकप्रिय वर्णन ; ।“), ११०-केदार-बद्री यातरा--केदारनाथ और बद्ढीनाथके थात्रियोंके लिये उपयोगी; |), १२-वर्षा और वनस्पति--ल्ोकप्रिय विवेचन--क्षे० श्री शब्नरशव जोशी; ।), ' १३ - मनुष्यका आहार--कोन-सा आहार सर्वोत्तम है--- ले० वैथ गेपीवाथ गुप्त; |), १४--सुवण कारी--क्रियात्मक-- ले» श्री ग॑ंगाश॑कर पैचोंली; ।), ४-अलायमनस इतिहास--इंटरमीडियेटके विशज्ञाथयो के योग्य - ले5 हा० आत्माराम डी० एस-ली०; ॥) १६०निज्ञानका रपम्रतन्‍जयन्ती अंब:>-विज्ञान परिपदू के २९ वरषका इतिहास तथा विशेष लेखोंका संग्रह, १) ७--विज्ञानका उयोग-व्यवस्तायाकु--रुपया बचाने तथा घन कमानेके लिये अनेक संकेत--१४६० प्र कई चित्र--संस्पादक श्री रामदास गाढ़ : १॥) १८७ फल्नन्संर जुश -- दूसरापरिधाधित संस्करण-फर्कोकी डिब्बाबन्दी, सुरब्बा, जेस, जेली, शरबत्त, अचार आदि बनानेकी अपू्व पुस्तक; २१२ प्रष्ठ; २९ चित्न--. ले० डा० गेरसभ्रसार डी० एस-सी०; २), १६० व्यज्ञन चन्रणु--( काहन बनानेकी विद्या )-» क्षे० एल० ए० डाउस्ट ; अ्रभुवादिका श्री रत्मकुमारी एम० ९०; १७९ पृष्ठ; सैकड़ों विन्न, सजिरद; १॥) २०--मिट्ट के थरतन--धीमी मिद्दीके बरतन कैसे बनते हैं ल्ोकप्रिय-- क्े० प्रो० फूलदेव सहाय वर्मा ५४; ३१ चित्र; संजिल्द; १॥) २१०-बायुमंडज्ञ--ऊपरी वाथुमंडलका सरत्त वर्णन--- ले० डाक्टर के० बी० माथुर; १८६ पृष्ठ; २९ चित्र; सजिल्दू; १॥), २२० कड़ी पर पॉँलक्षिश-+पॉलिशकरनेके नवीन और पुराने सभी ढंगोंका व्योरेवार वर्णन । इससे कोई भी पॉलिश करना सीख सकता है--ज्े० ढा० गेरख- साद ओर श्रीरामयत्व भटनागर, एम०, ए०; २१८ पृष्ठ, ३१ चित्र, सजिल्द: १॥), उपयोगी छुरेखे वरदीबें आर हुत॒३०-लम्पादक डा० गोरखप्रसाद और डा० संत्यप्रकाश; शाकार बड़ा ( विज्ञायके बराबर ), २६० पृष्ठ ; २००० नुसखे १०० चित्र, एक एक सुसखेसे सेकड़ों रुपये बचाये जा सकते हैं या दृज़ारों रुपये कम्ताये जा सकते हैं । स्येक गुहस्थके लिये उपयोगी ; मूज्य अजिरूद २) संजिलद २॥१), २४--आह्षम-पेबंद--ले० भी शंकरराव जोशी, २०० शृष् ४० चित्र; माल्रियों, मालिकों और कृषकोंके लिये उपयोगी सजिक्इ; १॥), . १४--जअिहद साझी--क्रियाव्मक और बव्योरेवार । इसके सभी जिल्दुस्ाज़ी क्षीस सकते हैं, छो० श्री, सत्यजीवन वर्मा, एम० ए०; १८० एृष्ट, ६२ चित्रश्नजिरद १॥॥|) ए६०-भाग्वीय चीयी मिट्टिया-- श्रोग्योडिंक पाठ्शालाशं के विधाधिरोंके लिये-छो० प्रो० एमे० एल मिश्र, २६० पृष्ठ; 4१ चित्र; रू जल्‍द १॥|), २७--त्रिझक्षा--दूसरा परिवर्धित संस्करण प्रत्येक वैथ और गृहस्थके लिये--ले० श्री रामेशवेदी आयुर्वेदालंकार, २१६ पष्ठ; हे चित्र (एक रज्ञीन); सजिल्द २) ' यह पुस्तक गुरुकुल आयुर्वेद महाविद्याक्षय १३ श्रेणी ब्रव्यगुणके स्वाध्याय पुस्तकके रूपसें - शिक्षापटवरमम स्वीकृत हो चुकी है ।'' श८+-मघुमक्खी-पालन--ले० परिडत दयाराम जुगढ़ान भूतपूर्व अध्यक्ष, ज्योज्लीकोट सरकारी मधुवदी; क्रिया- व्मक और ध्योरेवार; मइुमक्खी पात्कके लिये उप- थोगी हो दे हो, जनलसाधारणको इस पुस्तकका अधिकांश शअ्ध्यन्त रोचक अतीत होगा; मधुमक्खियों की रहन-सहम पर पूरा भ्रकाश डाला गया है । ४७०० पद; अनेक चित्र ओर नकशे, एक रंगीन चित्र, सबिल्द; २॥), २६-“परेलू डावडर-- शेखक ओर" सम्पादुक डाक्टर जी० घोष, एमर० बीं० बी० एश्च०, डी० टी० एम०, प्ोफेसर डाकदर बद्रीनाराबण पल्लादु, पी० एच० २३० काग्धफयपरधएड जा: १8क०१एएए:7८:८३ ४३९० प्रदेश गयी एए-२-नपशशीचरर ८ र्मपमसिपट- मुहूक तथा प्रकाशक 0 ० मो ० पर विश्वप्रकाश, कला प्रेस, प्रयाग | . ]१62. ०, & $ डे डी०, .एम० बी०, कैप्टेन डा० उमाशंकर असाद, एम० बी० बी० एस० , डाक्टर गोरखंग्रसाद, आदि | २६० पृष्ठ, १४५० घि०, आकार बड़ा ( विज्ञानके बराबर ); सजिद्द: ३), ३० -“+ व रुसा तेरना सीखने झोर डूबे हुए कोगोंको बचाने की रीति अ्रच्छी तरह समझाभो गयी है। ले० डाक्टर गोश्खप्रसाद, पछ १०४, मूहय १), ३१०अजीर--लैखक श्री रामेशबदी, आयुध्धदालंकार- अंजीर का विशद वर्णन ओर उपयोग फरनेकी रीति । पृष्ठ ४२, दी चित्र, मूल्य ॥) यह पुस्तक भी गुरुकुल आयुवद भहाविद्यालयके शिक्षा पटल्म्म स्वीक्षत हो खुकी है । 3२९०>मरत्ञ विज्ञान साथर, प्रथग' भाग >सेरवा यह डाक्टर गोरखप्रसाद । बड़ी सरत्त और रोचक भाषा में अंतुओंके विचित्र संसार, पेड़ पौधों की अचरज़ भरी दुनिया, सूर्थ, चन्द्र और तारोंकी जीवन कथा तथा भारतीय ज्योतिषके संक्षिप्प इतिहास का वर्णन है । विज्ञानके आकार के ७७० पष्ठ और ३२० चिन्नसे सजे हुए अन्थ की शोभा देखते ही बनती है | सजिल्द, मूल्य ६) ' हमारे यहाँ नीचे लिखी पुस्तकें भी मिलती हैं।--. १--मभारतीय वेज्ञानिक--( १९ भारतीय वैज्ञानिकोंकी जीवसियां ) श्री श्याम नारायण कपर, सचिन्न और स्आएद, ३८० पृष्ठ ३) २--यान्त्रिक-चित्रकारी--क्षे० श्री श्रोकारनाथ शर्मा, एु० एम०्ञआाई०एकल्०ईं० । इस पुस्तकके प्रतिपाथ विपयको अग्रेज्ञीम 'मसिकेनिकल ड्राइंगः कहते हैं | ३०० पष्ड ७० चित्र; ८० उपयोगी सारिणियां; सश्ता संस्करण २७४) ३--वैक्युम-ब्र क--ले ० श्री ओकारनाथ शर्मा | यह पुस्तक रेलवेमें काम करने वाले फ़िटरों, इंजन-ड्राइवरों, फ्रोर- मैनों और केरेज एगजामिनरेके लिये अत्यन्त उपयोगी है| १६० पृष्ठ; ३१ चिन्न, जिनमें कई रंगीन हैं, २) विज्ञान-मापिक पत्र, विज्ञान परिषद्‌ प्रयागका अुखपत्र हे । सम्पादक डा० संतप्रसाद टंडन, जेक्चरर रखायन विभाग, इक्ाहाबाद विश्वविद्यालय । वार्षिक चम्दा ३) विज्ञान परिषद्‌, ७२, टेगोर टाउन, इलाहाराद । आया 2४४०४०९४४४ ५७७७४४७७७७॥७॥७७/एो शा 228०४ * मे 2222“ 5 ४7०2 ०0१६» >खर ॥« १-२ १६ 2&॥0 #ध्/ल्‍शक्तथटक 70१5 न वच्ञान विज्ञान-परिषद्‌, प्रयागका सुख-पतन्र विज्ञानं बह्मेति व्यजानाव, विज्ञानाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । विज्ञानेन जातानि जीवन्ति, विज्ञान प्रयन्व्यभिसंविशन्तीति ॥ तै० ड० ।३।७। कन्या, सम्बत्‌ २००२ भागे, ६१ सितस्वर १९४५ संख्या ६ -परमाणु-शक्ति ओर परमाणु-बम [ लेखक--श्री कुन्दनर्सिह सिंगवी, भै।तिक विज्ञान विमाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय और अनुवादक श्री मह्यबीरप्रसाद श्रीवास्तव ] इतिहासका सबसे बड़ा स्फोटन (थड़ाका) १६ जुलाई १९४४ है० को निउमेक्सिकोके रेगिस्तानमें नहीं हुआ था जब कि एक भारी इस्पातकी मीनार जिसमे परीक्षा करनेका परमाणु बम रखा हुआ था चायुमण्डलके ऊध्च तलको पतली हवामे ऐसी चमकके साथ उड़कर बिलोन हो गईं जो मध्याह् के सूर्यदी चमकसे कई गुना अधिक थी ओर जिससे उत्पन्न हवाके रोके ने २५० मील दूरकी खिड़कियोंकि! भी कनभना दिया था, वरन १९३९ की जनवरीमे वर्लिनके केसर विल्हेत्म इंस्टील्यट आवबू टेकूनिकल रिसचंकी एक छोटी सी कोठरी की दीवारोंके भीतर हुआ था जब यूरेनियमका परमाण दो भागोंमे तोड़ दिया गया था। उस समय इंस्टीव्यटकी खिड़कीका एक शीोशा भी नहीं भनमंनाया था। उस समय जमनीफे दो प्रसिद्ध भीतिक विज्ञानी डाक्टर ओटो हान और एफ स्टरोसमेन ने यह कल्पना भी नहीं को थी कि साढ़े छः वर्ष उपरान्त उनके महत्व पूर्ण आविष्कार के कारण हिरोशीमाका पूरा नगंर क्षण भरमे उड़ा कर हवामे मिला दिया जायगा। वे इसको कल्पना केसे कर सकते थे ? वे तो सभी सत्या- , न्वेषकोंकी तरह इस बातकी जाँच कर रहे थे कि . पंरमाणके गर्स (006प०) ऐै क्‍या पदस्थ भरा हुआ है| द इस समय परमाण-बमकी थाक साधारण मनुष्योंके हृदयमें ही नहीं वरन उन साधारण वेज्ञानिकोंके हृदयमे भी जम गयी है जो खोजके इस विशेष ज्ञेत्रसे ग्रनभिज्ञ हैं। उन लोगों के लिए जो भीतिक विज्ञानके इस क्षेत्रमे सेद्धांतिक ओर प्रायोगिक अन्चेषणमे जुटे हुए है यह समा- चार विस्मयकारी नहीं ज्ञान पड़ता। परमाणमे जो चृहतशक्ति वन्‍्द्‌ थी उसे ही इन वेज्ञानिकों ने मुक्तकर दिया है। जब यूरेनियमके परमाणका एक बीज फूटता है. तो इसके दो टुकड़े हो जाते हैं ओर साथ ही साथ २० करोड़ इलेक्ट्रन बोल्ट शक्ति विकिरण, गरमी ओर वेगके रूपमे उत्पन्न होती है। यद्यपि यह २० करोड़ इलेक्ट्रन चोल्ट की शक्ति उस बीजके लिए बहुत बड़ी है जिसमे यह होती है तथापि उपयोगिताके विचारसे यह बहुत ही कम है क्योंकि ऐसे ऐसे ५ पद्म (४५ १०१० ) बोजोंके स्फोटनसे इतनी शक्ति उत्पन्न हो सकती है जिससे ५ खेरका बोका १० फुट ऊँचा उठाया जा सके। परन्तु इतने असंख्य स्फोटनोंके लिए आध सेंर यूरेनियमके एक खरब भागके भी ठुकड़ेले काम चल जायगा. यदि पर- माणको तोड़नेकी क्रिया ग्रधिक्त कौशल और संग्रहके साथ को जाय । १९३५ में यही समस्या थी और ६ वर्षके लगातार प्रयत्नले सफलता मिल ही गयी जिसके कारण कुछ दिनोंसे समाचारपक्रों के मुख पृष्ठ भरे रहते है । परमाणु सौर-परिवारकी तरह है संसार जिस द्रव्यसे बना है वह सब छोटे- छोटे करोसे बने है जिन्हें परमाणु कहते हैं जो गत शताब्दीके अंत तक अविभाज्य ओर पदार्थके' सबसे छोटे अंशु समझे जाते थे। परन्तु अब १२५२ देखा गया है कि परभाशु एक शझ्लुद्र सौर पॉरचार की तरह है जिसका वीज ( 7५०।०॥8 ) सूर्यको तरह नाभिमें स्थिर रहता है और विद्यत्‌ करण ( ०0]७९८४००॥ ) इसके चारों ओर अपनी अपनी कत्ताओंम अहकी तरह परिक्रमा करते हैं । परमाणु बीज कितना छोटा होता है इसकी कव्पना भी नहीं की जा सकती । एक संटीमीटर घनके आयतनमे एक करोड़ अरब » एक करोड़ अरब अथवा १०) केन्द्र समा सकते हैं | यह याद रहे कि एक इंचमें ढाई संटीमीटर होते है )। परभाशणका कुल द्रव्य वीजमें ही एकत्र रहता है। द्रव्य (7 80097) के सारे भोतिक ओर शसाय निक गुण परिक्रमा करने वाले इलेक्ट्रनॉसे संबंध रखते है ओर वीज साधारणतः किसी क्रियामे भाग नहीं लेता । बीस वर्ष पहले इस बीजकी बमावटके बारेसे बहुत कम ज्ञानकारी थी और अभी हाल में ही शञात हुआ है कि इसमे भी छोटे- छोटे कण होते हैँ जिनको प्रोटन ( ]970॥070 ) ओर निजशन ( 709|7079) कहते है। अभी तक यह समझा जाता है कि यह अविभाज्य है अर्थात इनसे भी छोटे टुकड़े अब तक नहीं पाये गये है । इन दोनोंमे प्रायः वराबर द्रव्य मान ( 7708.88 ) होता है परन्तु निडटूनमें कोई विद्यत शक्ति नहीं पायी जाती और प्रोटनमे घनात्मक विद्यत भरी - रहती है। यह दोनों प्रचल आकषण शक्तिके द्वारा बीजके भीतर वधे रहते है। यथाथर्म परमाणु बीज पानीकी बून्दकी तरह है जिसमे निडद्ून ओर पोटन अर ( 708006 ) की तरह रहते है । संसारके भिन्न-भिन्न प्रकासके तत्वोंमे जो अंतर देख पड़ता है वह वीजके भीतरके इन पोटनों ओर निउ्टनोंकी संख्याके कारण है । यदि किसी तत्वक्रे प्रोटनों ओर निउटनोंकी संख्या में कमी बेशों कर दी जाय तो वह दूसरे तत्व मे बदल सकता है; लोहे से सोना बनाया. जा सकता है जो पहले कपोल-कल्पित वात सभमभी जाती थो | है विज्ञान, सितम्बर, १९७४४ [ भाणं दे १ । कीमियागरोंका स्वप्न सच निकला वर्गीय लाड रथरफोर्डने सन्‌ १९१५० में पहले पहल एक तत्वकेा बदल्लकर दूसरा बना देने में सफलता प्राप्तकी [इन्होंने नाइट्रोजनके -हीलियम गेस के बीज ( 700]6778 9 के द्वार जिसे अल्फा कण कहते है तोड़कर अकिसजन तेयार किया। लाड र्थरफोड के इस आविष्कारके उपरब्त इस वीख वर्षमे परमाणुके बीज के! निउटन और प्रोटन रूपी वाणों से तोड़कर सेकड़ों तत्वोंका परिवर्तन कर दिया गया है। लोहेके सेलनेमे बदलनेकी क्रिया अब कीमियागरों का स्वप्न नहीं है वरन रासाय- निक प्रयोगशाला में सचमुच की गयी है यद्यपि अभी इसे व्यापारिक मात्राम नहीं बना सकते। सब परमांण-अख्रों ( &॥४0०770 77:8|68 ) में निउ्नन का स्थान अद्वितीय है क्‍योंकि यह बीज ( 700]6॥)8 ) के केन्द्र मे.बिना किसी रुका: के घुस सकता है और .इस प्रकार एक मंदगामी निउट्न भी वीजमे प्रवेश करके उसको ठुकड़े-टुकड़े कर सकता है । परमाणु-बीज का भेदन ( 88407. ) १९३० ईसस्‍वी तक भोतिक विज्ञान तत्व- परिवतेन ( 07 &787]0॥9॥707 ) के प्रयोगों मे परमाण बीजोंके केवल ऊपरही ऊपर धक्का लगाकर अपने काम में सफल हुए थे। इनसे उस अपरिमित शक्तिका एक अत्यन्त छोटा भाग बाहर आता था जो गर्भमे निहित था । १५३०को जनवरी में हान और स्ट्रेसमानने पहले पहल यशेनियमके परमाण बीज के। मन्दगामी निउटून से तोड़कर दो टुकड़ों में विभकत कर दिया जिससे अपरिमित शक्ति उत्पन्न हुईं । जिस समय यूरेनियमका परमाणु बीज टूटा उस समय करे अनोखी ओर विस्मयज़नक घटनाएँ हुई । दो टुकड़ों के सिचा कुछ खाली निउटून भी बाहर निकल आये । ये दो नये दुकड़ें अस्थायी थे और प्रतिक्रिया की शशछुलाके पूरे चक्रमे निउटनों तथा अन्य कणोंक्रा उभाड़ते हुए अंत शान्त हो जाते थे। फल्ल यह था कि परमाणझों ओर अति- संख्या ६ ] परमाण-शक्ति ओर परमाण बम 92%-2८/20/5 लक । 53 ; /#3 //८८//०/ की । ((/द्त/(७/77 7५८८/2०5 ८/ ##९ ४८/५८ ०/ 60/८६/४४७9 60९//८ ॥60//2/75 €/7///९९८ 8९/0/8 //८ । #५८८/९८/६ ५672६/5 | हे न । #/29/722/ । 200 ///00 ४०८७०/. * €/7४/५) । | है ) । | ।ए९८/१०क्‍5 €077/धर/ 2५ (/7$/८8/० //29776/7 0७८८६॥३ #55/0॥.. #/७.7 रिक्त निउटूनोंका एक अद्भुत मिश्रण बन जाता था। अब प्रश्त यह हुआ कि क्‍या इन अतिरिषत या. गोण निडटनोंसे यह काम नहीं लिया जा सकता कि वे स्वयम्‌ एक बीजसे निकलकर दुसरे परमाण बीज में घुसकर उसे तोड़ दे जिससे दूसरा स्फोटन हो और दूसरे स्फोटन के निडटन तीसरे स्फोटनम भाग लेते हये स्फोटनॉंकी एक शडुला बना दे | क्या इससे यह संभव नहीं था फि यूरेनियम एक. भयंकर विस्फोटक सिद्ध हो जाय ? परन्तु उस समय तो प्रयोगशालाकी खिड़कीके एक शीशेमे भी कृनक नहीं उठी। किस कारण यह क्रिया शाछुलावद नहीं हुई? इसका कारण निडटूनका बेग था । यह पता जद्दी ही लग गया कि मंदगामी निउट्न भेदनकी क्रियामं बहुत फलोत्पादक होते हैं। जैसे-जैसे प्रतिक्रिया बढ़ती है अधिक-अपश्रिक शक्ति निक- छ /४2८///०8 00९ (/द्र(४/४ यक4ट्रएध5 यह ८) ॥2८(/८ 77857 ७/८/2/0/7 7५०८8205 लती है, ओर यरेनियम के लक्ष्य गरम हो जाते हैं ।' शायद गोण निडटन गरमीसे इतने तोब हो जाते है कि वे फिर तोड़-फोड़का काम नहीं कर सकते। इस प्रकार प्रतिक्रिया आगे बढ़कर महान काय करनेकी जगह बिना चाभी की घड़ी की तरह रुक जाती है। चित्र १ से प्रकट होता है कि यूरोनेयमके परमाण-बीजका भेदन किस प्रकार होता है। :चऔ न्यड्ता22/ हा निम्नांकित बातोंसि पता चलेगा कि यूरेनियमसे कितनी अपरिमभित शक्ति निकल सकती है। यूरेनियमके परमाण बीज का एक भेदन २० करोड़ इलेक्ट्रनवोल्ट शक्ति निकालता है.। इसलिए आध सेर यूरे- नियमसे ३७ अरब बी. ओ,दी शक्ति निकलेगी जो उतनी गरमीके समान होगी जो १६४० टन बंगालका कोयला जलानेसे निकलती है। १ टन हमारे २: मन १३ सेरके वशावर होता है इतनी गरती दस अश्ववल्न की मोटर को दिन रात बिना रुके ३० वर्ष तक. चला सकती है। यदि यह सब शक्षित इकद्ी करके मानव लाभ के कामों मं लगायी ज्ञाय तो संसार कितना अच्छा हो सकता है। परन्तु दुर्भाग्यसे बाजारम जो यूरेनि- यम मिलता है वह तीन प्रकारके परमाणओं का मिश्रण होता है. जिसमें उस कोटि के परमाण एक हज्जार पीछे केवल ७ हो होते ह जिससे भेदन किया ज्ञा सकता है। इसलिए अब प्रश्न यह है के इस विशेष प्रकारका यूरेनियम कैसे प्राप्त किया जाय जिससे हम परमाण शक्ति को अपने नियन्त्रण में कर सके । १९४० हैं० में भो० डबतू० क्रास्नी अगन ने इसको वड़ी मात्रा में अलग करने का प्रयत्न किया था। ३० फुट लम्बे तापप्रसारक नलों (!०४४ 0/[प्र७०7॥ ।00698) से केवल १"३ मिलोग्राम ऐसा यूरेनियम एक दिनमें निकलता है। इस द्रसे ३ वर्षम एक आम (लगभग एक माशा) . ऐसा यूरेनियम निकाला जा सकता था। १०४४ ईं० में वैज्ञानिकों ने बहुत ही पेचदार क्रियाओंके द्वारा व्यापारिक भात्रामं इसके अलग करनेकी विधि हूँढ़ निकाली | पाठकगण सहज ही अच्ञमान कर सकते हैं कि इसके कारखानेका विस्तार कितना होगा जिसके बनानेमें प्रेसीडेंट टू मैन के अनुसार सवा लाख आदमी लगे थे । शुद्ध भौतिक विज्ञानका विजयो सब अब तक यह बतलाया गया कि परमाण बीज के भेदनसे कितनी अपरिमित शक्ति उत्पन्न हो सकती है परन्तु साधारण मनृष्यको अब तक यह नहीं मालूम कि इतनी शक्ति कहाँ से आती है। उत्तर बड़ा सरल है। अभी तक हम यही समभते आये है कि शक्ति और द्वव्यमान (०7७7४ &0 7889) दो पृथक पदार्थ हैं ओर इनमें कोई संबंध नहीं है। परन्तु एस्टाइनके सापेक्षचाद ने बहुत पहलेसे असंदिग्ध प्रमाणों द्वारा यह सिद्धकर रखा है कि शक्ति और द्रव्यमान अभिन्न हैं। उसने दोनोंका संबंध गणितके इस सूतरद्धारा प्रकट किया है, शत द्र. प्र" (8-॥767 ), जहाँ श शक्तिका, द्र॒ द्ृव्यमानका- और प्र प्रकाशकी प्रति सेकंड गति अर्थात्‌ १८६००० मील प्रति सेकंडका बोधक है। द्रव्यमान्‌ चाहे ज्ञितना कम हो उसको प्रकाश को गति के वर्गसे गुणा करने पर शक्ति की बहत बड़ी भात्रा हो जाती है। उदाहरणके लिए यदि यह संभव होता कि आधपाव साधारण कोयलेके शक्तिम पूरी तरह बदल दिया जाय तो उपयुक्त सत्रके अनुसार १० खरब तापकी इकाइ्याँ (०9]07८8) उत्पन्न होंगी जिससे ५० लाख टन पानी उबालकर भाफमे बदला जा सकता है जो दुनिया भरकी सारी कलों (77980)7979 के पहियेको एक वर्ष तक चला नसकती है। यूरे- विज्ञान, सितम्बर, १९४४ | भाग ६१ नियमके परंमाण -बीजके प्रत्येक भेदनसे उत्पन्न टुकड़ोंके द्रव्यमानोंका योग मूल बीजके द्रव्यमान से कम होता है। द्वव्यमानका यह च्ञाय; यद्यपि बहुत कम है, अपरिमित शक्तिमे बदल जाता है जैसा कि हम ऊपर देख आये हैं। १ आम (१ माशा ) यूरेनियमम २० ५ १०१ परमाण होते हैं ओर एक भेद्नमें २ करोड़ इलेक़्ट्रान वोल्ट शक्ति उत्पन्न होती है इसलिण हमको आश्चय नहीं करना चाहिए यदि यह शक्ति इस्पातकी मोनारोंको भाफ में परिणत कर दे! . एक ओर प्रश्न केवल साधारण मनुष्योके लिए नहीं वरन विज्ञानके विद्यार्थियोके लिए बड़े महत्वका यह है कि मंदगामी निउशूनकी गोली उस परमाणु बीजको कैसे तोड़ देती है जिसमें निउ्टून और प्रोटन एक बड़ी आकषंण शक्तिसे बंधे रहते हैं। यह बतलाया गया है कि परमाण बीज पानीकी बूँदकी नाई' है। मंदशामी निउटन बीजमे बिना किसी प्रतिरोधके घुस जाता है ओर वहां इसकी, शक्ति बोज़के कुल_अवयवोंमे समान रीति से बट जाती है। इससे परमाण बीजमे हलयल उत्पन्न हो जाती है और वह उस गुब्बारेकी तरह स्पन्दन करने लगता है जो बड़ी तेजीसे फैलने या सिकुड़ने लगता है। स्पन्द का विस्तार ( 97070]0006 ) बढ़ने लगता है, यहां तक कि अंतमें आकर्षण शक्ति परमाण बोजके अवयवों के! एकत्र रखनेमें असमर्थ हो जाती है ओर फल यह होता है. कि इसके दो टुकड़े हो जाते हैं। वेज्ञानिकांने अबतक जाने गये ९२ तत्वों में यूरेनियमकेा इसलिए चुना है कि यह सब तत्वोंसे भारी होता है. इसलिए इसके परभाणके अवयवबोंमे आकषण शक्ति अपेक्षतः दुर्वल होती है। यूरेनियमके भेदनके लिए कमसे कम हलचल उत्पन्न करने धाली शक्तिसे काम चल जाता है क्योंकि यह स्थिरताकी सीमा पर है। | परमाणु बमको यान्त्रिक रचना ( ॥6 ८] ७77४7 ) शायद ऐसी होगी परमाण बमकी यथाथ याब्चिक रचनाका कि परमाण-शक्ति और परमाण -बम १२५ हे पि००/८॥ #67/72 7 (6/762/४5 | ८० </०/ ३4 । (707/7८2/85 5०0८९ 0/ (20६ /94//८/85 | ह चिट... #&5/#6.//८म5 ५.४४ #&70/4/८ 80/48, 6/9-2 पता नहीं है, परन्तु परमाणु-बोज संबंधी भौतिक विज्ञाकी जानकारीसे कुछ अन॒मान किया जा सकता है (चित्र २) | रेडियमसे निकले आहल्फा कण ( 8[079 7097+%0]७ ) बेरिलियमके मोटे परदे (0]0८॥) के घक्का मारते हैं जिससे घुसने वाले निउटून पाराफीन मोमके परदेमे घुसने पर मंद हो जाते हैं। यही मंद्गामी निउट्रन यूरेनियम- के विशेष रूप ( 800|/8 ) के परमाण बीजमे घुसकर उसके तोड़ देते हैं। इस क्रियाको केन्‍्द्री- भूल करनेके लिए यूरेनियम मोमसे लपेड दिया ज़ाता है जिससे आगे वनने वाले गौर निउट्ूम ओ भेद्नसे उत्पन्न होते हैं मंद पड़ जाते हैं। घड़ाका उत्पन्न करने वाली सारी सामग्री एक अंडे के बराबर आवरणाके भीतर आ सकती है। एक परदेके कारण आरफा कण बेरिलियमके! चोट नहीं पहुँचा सकते और यंत्ररचना ऐसी होती है कि यह उसी समय मिकलती है जब वम फूटमे को होता है। चित्र २ में परमाण वमके प्रधान अवयव दिखलाये गये हैं। द इतिहासमे इससे पहले मानव समाजके सामने इससे कठिन भश्न कभी नहीं उपस्थित हुआ था । वैज्ञानिक वेचारेका ,. इसमें कोई अपराध नहीं है क्योंकि उसने तो इेश्वरीय शक्तिको अनुष्यके हाथम कर दिया है ओर यह मनुष्यका काम है कि इसके। जिस तरह चाहे काममे ले आबे | हमे आशा करनी | कक चाहिए कि मनुष्यता /22/॥/0/0) मर 3३ ७. लिन ४००/४८० ७४४ और नेतिकता सस्ते ब। $/098/-784/7275 दामों नहीं बेची जायगी और यदि सत्ताधारी लोग जाति दंष ओर श्रुद्र राष्ट्रीययासे ऊँचे तलपर उठ जायें तो परमाणु की स्फोटन शक्ति अधिक उपयोगी कामोंमे लगायी जा सकती है। ट्प्पणी--इस लेख में जो चित्र दिये गये हैं वे . अंग्रेज़ी देनिक अमृत बाज़ार पत्रिकाकी कपासे प्राप्त हुए हैं जिसके लिए विज्ञान उसका अभारी है। --सम्पादक रूसी वेज्ञानिकके परमाएु सम्बन्धी परीक्षण केस्क्रिजम प्रोफेसेर कुपितजा का अनुसंधान परमाणु बस को कहानी वेज्ञानिक इतिहासमें एक चमत्कार है । इस दिशामें अनुष्तन्धान कार्य आजसे १० वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुआ था ।. प्रोफेसर पीटर कुपितजा ब्रिटेनमें अनुसन्धान कार्यमें अग्रणी थे । वे भौतिक विज्ञानके विशेषज्ञ हैं।वे महान्‌ घुम्बकीय शक्तियों द्वारा परमाश पर आक्रमण करनेके सस्बन्ध्मं छानवीन करते रहे हैं । कुछ समय तक परीक्तण करनेके बाइ उनके लिए केम्बिममें एक नयी प्रयोशाला बनाई गई । रायल सोसाइटी ने इसके निर्माणके लिप्‌ १९००० पॉड दिये । « १२६ विज्ञान, सितम्बर, १९४५ [ भाग ६१ १६३० में एक सम्मेलनमें भाग लेनेके लिए वे रूस गए थभ्रे और श्रभी तक वहीं पर हैं । परन्तु ब्रिटेनमें उन्हेंने जो कास प्रारम्भ किया था--वह निरन्तर जारी रहा है । यूरेनियम “१३५ की शक्ति एक पोंड ५०,००,०००पौंड कोयलेकी शक्ति परमाणु बस के सरबन्धमें की गई सरकारी घेषणाओं पर विचार करने के बाद शिकागो डिद्वःव्रिद्यालयके वैज्ञा- निर्कों ने यह मत स्थिर किया है कि चमकदार धातु यूरेनियम की विचित्र विशेषताओं और उससे निकलने वाले घातक “यू-२३१५१ से सम्बद्ध मुर्य समस्या सुलभ गई है । स्वयं यूरेनियम बहुत सस्ता हैं--इसका भाव १० शिलिंग प्रति पोंड है। एक पॉड “यू->२३५”-१४० पड यूरेनियमसे अ्रल्ग किया जा सकता है । वैज्ञानिकों का कहना है कि “यू-२३४” को एक छोटी सी मात्नासे एक हवाई जहाज संसारके गिदे चक्कर क्गा सकता है । उसके एक पोंड वजन की शक्ति ४०,००,००० पॉंड कोयले अ्रथवा ३०,००,००० पोंड पेट्रोल की शक्ति के बराबर होती है । | +., परमार में निहित महान शक्ति : परमसाखु की रचना और भी छोटे कर्णों विद्यत॒कर्णों उदासीन कर्णो आदि से होती है। इनको आपस में जोइने वाली महान्‌ शक्तियाँ होती हैं| यदि परमाणुओं को विभक्त किया जाय और उनमें निहित शक्तियाँ फूट पढें तो ये महान्‌ शक्तियाँ सुलभ हो सकती है। कोयलेको तुलना में इसकी शक्ति करोड़ों गुना होती है । युद्धसे कुछही पूष्े सबसे भारी धातु यूरेनियन को अलग करने की एक विधि का पता छाग चुका था। इसके लिये एक विशेष प्रकारके उप-परमाणविक कण द्वारा जिसे उदासीन कण कहते हैं प्रहार किया गया | विधटित होने पर यूरेनियतमें से ओर भी उदासीन कण निकलते थे। इससे यह संभावना हुईं कि नये उदास्तीन कण यूरेनियम पर और भो प्रहार करके उसे विघटित कर सकते हैं ओर इस प्रकार क्रम आगे चल सकता है। नये परमाणु-ब्मों का श्राधार संभवत; यही प्रतिक्रिया था इससे मिल्तती- जुलती कोई चीज है | ० रखता है चू'कि भारी पानी का उछलेख किया गया है अ्रत यह संभावना कि प्रहार करनेमें जिन गोलियोंका व्यवहार हुआ है वे डियूट्रान अर्थात्‌ भारी हाइड्रोजन का केन्द्र है। यह हाइड्रोजनका ही रूप हैं श्रोर इसका आकार सामान्य हाइड्रोजन से दुगना बढ़ा होता है। इस प्रकारके बमसें एक बार जहाँ विघदन की प्रणाली आरस्भ हुईं कि प्रस्येक परमाणु अपने चारों ओर के परमाणुओ्नों को विधटित कर देगा । ६ससे बहुत .बड़ी मात्रामें शक्ति उत्पन्न होगी और भयानक विस्फोट होगा । मांचेस्टर में किया गया प्रारस्मिक कार्य परमाशु संबंधी आधुनिक सावना माँचेस्टर विश्व- विद्यालय की भोतिक प्रयोगशात्ञा में डा० रदरफोड द्वारा किये गये प्रयोगों का परिणाम है । मांचेस्टर गाजियनका वैज्ञानिक संचाददाता लिखता है कि उन्होंने ही पहली बार कृत्रिम रूप में परमाणु को विघटित भी किया । उनके शिष्य जेम्स चेडविक, जो अ्रब लिवरपुलके प्रोफेसर सर जेम्स चैडविक के नाम से विख्यात है, उनके अत्यन्त प्रतिभाशाली सहकारी थे । उनकी शिक्षा मांचेस्टर के एक सेकंडरी स्कूलमें ओर मांचेस्टर विश्वविद्याल्ययमें हुईं थी और उसके बाद वे डा० रदरफीडड के पाल केम्ब्रिज चले गये । वहीं १६३२में प्रोफेप्र चेंडविक ने उदासीन कर्णों का आविष्कार किया | इस कणमें परमाणुओं के अन्तर को अद्भुत सरलतासे बेधने की शक्ति होती है क्योंकि परमाखुओंके श्रन्तरमें पहुँचने पर वैद्युत आवेशके झभावके कारण वह हटता नहीं । । उसी वर्ष मांचेस्टरके एक अन्य विद्यार्थी प्रोफेसर जे० डी० काकक्राफ्ट ने यन्त्र द्वारा परमाणु को अलग किया ओर परमाणु को तोइनेका कार्य श्रौद्योगिक उन्नति को सीमा में आ गया । राष्ट्रपति ट्र में न ने परमाणु विधटक एक महान्‌ यंत्र का उल्लेख किय्रा है जिसका उपयोग परमाण॒ बर्मो के निर्माणमें हुआ है। इनमें सबसे प्रसिद्ध वृत्तकण (साइक्रोट्रीस) है जिसका आविष्कार केलेफोर्निया के प्रोफेसर ई० ओ० लारेंसने किया था ओर प्रोफेसर काकक्रोफ्ट द्वारा प्रारम्भिक कास किये जानेके बाद इसका पहले पहल उन्होंने ही ब्यवहार किया । संख्या ६ ] ४४ परमाणु बम [ ले०--श्री रामचरण भेहरोत्र एम-एस० सी०, रसायन विभाग, प्रयाग विश्वविद्यालय | आदि कालसे मनुष्य दो दिशाओं में खोज करता रहा है। इसमें प्रथम है प्रकति पए विजय पाना और प्रकृतिके शक्ति-स्रोतों को अपने प्रयोग में लाना। इसी प्रयासमें उसने अशस्िका पता लगाया, खूथ्य की गरमीको इस्तेमाल किया, हवा व |पानीसे शक्ति उत्पादित की ओर विज्ञल्ली पर प्रयोग किये। शक्तिके दृष्टि कोशसे उन्चीसवीं श॒ताब्दीके अन्तिम भा्कों 'सापका युग” ओर 'बीसवीं शताष्दीके पूर्वांधभो 'बिजलीका थुग” कह . सकते हैं । इस व हमने शक्तिके एक नये थुगमे पदार्पण किया है, जिसे “परमाणुका युग” नाम देना उपयुक्त होगा। आजसे लगभग दूस बब पहिले वैज्ञानिकोंका ध्यान शक्तिके एक नये खजाने की ओर गया ओर चह था परमाणओंके केन्द्रोंमे पुकन्रित शक्तिका डृत्पादन व प्रयोग । ु ग्रपने निकटवर्त्ती लोगोंसे अधिक धनवान होनेकी स्वाभाविक इच्छाने दूसरी खोजञञको प्रोत्साहन दिया और चह थी. पारस” की खोज । किसी प्रकांरसे कम मूल्यवाली धातुओंकों बहु- मूल्य सोने ओर चाँदी में परिवर्सित किया जा सके, यह था उस खोजका लक्ष्य । आजका वैज्ञा- निक जानता है कि पारस बनानेकी जो विधियाँ उन पुराने लोगों ने खोज निकाली थीं वह सब गलत थीं, पर वद्ध एक बिद्कुल नवीन विधिखे उसी काम में सफल हो गया है जिसमे उसके पूर्यज असफल रहे। बड़े पेमाने पर तो नहीं, पर बहुत ही छोटे प्रयोगशालाके पेमाने पर तो आजका वैज्ञानिक तरव-परिवत्तेन कर ही सकता है। इन्हीं दो उपयुक्त खोजोंके फल स्थरूप आज हमको चमत्कारिक वस्तु मिली है-- परमाणु बस! । उच्नीसवीं शताब्दीके अन्तिम दस ओर बीसवीं शताब्दीके ४५ वर्ष विज्ञानके लिए बहुत फलदायक - प्रमाण न्‍वम १५७ रहे हैं। उन्नीसवों शताब्दीके अंतर्मे टामसन ने इल्े - कट्रान”का पता लगाया और मालूम किया कि उस पर विद्यत्‌का ऋणात्मक चार्ज है ओर उसका भार हाइड्रोजनके एक परमाणुके भारका ११८७० है। उन्ही वर्षों में रेम्टजन ने एक्स किरणों ओर बेकेरल ने रेडियोएक्टिविटीका पता लगाया। बीखबों शताब्दीके प्रारम्भिक कालमे टामसन ने धनात्मक चाजके कर्णोंका पता लगक्या । हाइड्रोजनके केन्द्रमें उपस्थित घनाव्मक चाज वाला कशण सबसे हठका था और उसे 'पघोटान” का नाम दिया गया। इसी प्रकार हाइड्रोजनसे भारी दूसरी गैस “होलियम” के केन्द्रका “५ कण” का नाम दिया गया। इसका भार प्रोटान या हाइड्रोजन परमाणुसे चौोगुना और चाज प्रोटानका दुगुना था। इन्हीं धनाव्मक चार्ज वाले करों पर प्रयोग करते समय टामसन ने समस्यानिकों? ((804096) का पता लगाया। समस्थानिकोंके अन्वेषणसे स्पष्ट हो गया कि सब तत्त्थोंके परमाणु प्रोटानों ओर इले- कट्ानोंके बने है ओर इसलिए हर प्रकारके परमाणु का भार हाइड्रोजनंके परमाणु भारसे “पूर्ण संख्या गुणा” ही भारी होगा ओर फलतः यह भी स्पष्ट हो गया कि तत्वोंके परमाणु भार इस कारण आंशिक है कि बह भिन्न भारों परन्तु एकसे गुणों चाले परमारुकोंके मिश्रण होते है। उदाहरणके लिए ठामसन ने पता लगाया कि नियान गेखे जिसका परमाणु भार २०'२ है, दो प्रकारके पर- माणुझोंसे मिलकर बना है जिनका परभाणु भार क्रमशः २० ओर २० है। सन १९१३ मे भोजले के प्रयोगों ने स्पष्ट कर दिया कि सम स्थानिकोंफे 'शुण एकसे होते है ओर उसका कारण यह है कि किसी भी तत्वके समस्थानिकोंके परमाणुश्रों के केन्द्रों पए स्थित धन-चार्ज एक ही भाषाका होता है और फलतः इस केन्द्रके चारों ओर उसी धनचार्जकी मात्राके बराबर ऋशण-चाजवाले इले- क्ट्रान घूमा करते हैं--उदाहरणके लिए नियानके दो समस्थानिक हैं,जिनका भार २० और २५ है। १श्८ पर इन दोनों प्रकारोंके परमाणुओंके केन्द्र पर १० इलेक्ट्रानोंके बराबर ही घन-चाअज है और दोनोंमे केन्द्रके बाहर १० इलेक्ट्रान घूमा करते हैं। तत्वों के परमाण ओंमे केन्द्रके बाहर घूमने वाले इले क्ट्रानोंकी संख्या बहुत ही मुख्य संख्या है, इसपर उस परमाणुक्के खब शुण आधारित होते है ओर इस संख्याकों उस तत्वकी परभाणु संख्या? का नाम दिया गया हैं। आजकल. किसी भी तत्वके परमाणुके! दिखानेके लिए उसका भार उसके दाहिने ऊपरकी ओर ओर उसकी परमाणु संख्या उसके बायें नीचेकी ओर लिखते है। उदाहरणतः नियानके दो प्रकारके परमांणुओको इस प्रकार दिखाया जाता है: ,ब्नियान*' और १०नियान* * + परमाणु संख्याके अन्चेषण ने यह स्पष्र कर दिया कि संसारके सब पदाथ केवल ९२ प्रकारके तत्वॉले मिलकर बने हैं। इन तत्वोंमे सबसे हहका हाइड्रोजन है ओर खब से भारो यूरे नियम, जिनकी परमाणु संख्या ऋमशः १ और ९२ है। सब तत्व एक ही प्रकारके करों प्रोटानों और इलेक्ट्रानॉसे मिलकर बने हैं, इसलिए यह अवश्य. ही सम्भव होना चाहिये कि यदि इन प्रोटानों व इलेक्ट्रानोंकी संख्यामं परिधर्तन किया जा सके तो एक तत्व दूसरे तत्वमें परिवर्तित किया जा सकता है। इस विचारको वचेज्ञानिकों ने किस प्रकार सफल - किया, इसका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जाता है। सन १९१५० में स्व॒रफोड ने मालूम किया कि जब « कण नाइट्रोजनके ऊपर डाले जाते हैँ या दुसरे शब्दोंमि जब नाइट्रोजन परमाणुओं पर < करों द्वार बमबाजी की जाती है तो उसमे से हाइड्रोजनके केन्द्रिक कण “प्रोटान” निकलते हैं--- यह प्रथम प्रयोग था जिसमें वेज्ञानिक एक तत्व को दूसरे तत्वमें परिवर्तन कर देनेमे सफल हुआ : 3नाइईट्रीज़न१* + -हीलियम--> १दाईंड्रीजन" + आक्सीजन। ५ यह परिवतंन इतृता नवीन प्रकारका था कि बहुत विज्ञान, सितम्बर, १९७४ [ भांग ६१ से वेज्ञानिकोंका ध्यान इसने अपनी ओर आकर्षित किया । अगले १० सालोंम॑ चादविक, रुदर- फोर्ड, णएलिस आदि ने ८ कणों द्वारा हल्‍्के तप्वोंमे “तत्व परिवतन” के वहुतले उद्याहरण इकठें कर दिये। सन १९३० भें काकशफ्ट और वाल्टन ने दिखाया कि यदि काफी ज्यादा वोल्टेज पर प्रोटान फेके जाये तो बह भी तत्थ परिवर्तन कर देनेमे सफल हो सकते हैं। पर १५३२ तक चैज्ञा निकों ने देखा कि उनके तत्व परिघतेनके प्रयोग पोटोसियमसे हतके तत्वाॉमि तो सफल हो ज्ञाते थे परन्तु पोडेसियमसे भारी तत्वोंमेकिसी भी प्रकारके कर तत्व-परिवतन में सफल नहीं होते थे। उनका विचार था कि यदि इन बमबाज् करण्णोंकी गति वोल्टेज बढ़ाकर बढ़ा दी जाये तो शायद यह पोदे-. सियमसे भारी तत्वोंमे भी तत्व-परिवर्तन कर सकगे। परन्तु शीघ्र ही एक नये कशके शअ्रन्वेषण ने उनके विचारोंकी दूसरी ओर बदल दि्या। यह नया कण “्यूट्रान” था। इसका भार, प्रोटानके बराबर था पर इस पर किसी भी प्रकार का विद्युतात्मक चार्ज नहीं था। इस कशके अन्वेधणका श्रेय चोथे, बेकर, जालियो और चाद- विकको /है । उन्होंने पता लगाया कि जब ५ करणोंसे बेरीलियम पर वमबाजीकी जाती है तो “न्यूट्रान” निकलते हैं <वेरीलियम * + .हीलियम--> न्यूट्रान * + कारबन * इस प्रकार प्राप्त करों. की दो मुख्य विशेषताएँ ) एक तो उन पर कोई भो विद्य ताव्मक चाज था और दूसरे वह बहुत ही चेगसे ( लगभग ३०५८ १०" सेश्टीमीटर अति सेकिए्ड) निकलते थे । यह दोनों ही विशेषताएँ“तत्व परिवर्तन” में सहायक : थीं। वेगफके अतिरिक्त चिद्य तात्मक उदासीनता भी सहायता देती है क्योंकि परमारुके केन्द्रों और को या थोटानोंमे जो घिक- पंण होता था वह यहाँ अनुपस्थित था। जद ही तत्व परिवतनके प्रयोग पोटेसियमसे भारी ही संख्या ६ ] .् पथ ८०८१2 अब अजय प्रा पा पकवपकरक5धाा० 2१2४ पलाबाउपप्रशव 55 2०१४७२८२७०८६४४७९२:८६ का काप:घटदप ७2: परमाणुओं पर भी सफल होने लगें। चादविक, स्ट्रास्मान,फ़ान हाल्वान, कोचारस्की आदि ने न्यूट्रानकि प्रयोग करके तत्व-परिवत॑त के वहुतसे नये उद्दाहरण दिखाये। एक सबसे मुख्य बात जो इन प्रयोगोंसे मालूम हुईं यह थी कि कुछ “परिवर्तित तत्वों? में वही गण -थे जो रैडियोएक्टिव पदार्थोंमे होते हैं--यानी उनके केन्द्र भी « कण, 8 कण ओर » किरणों देते हैं। इस रैडियोएक्टिविटीको “कृत्रिम रेडियोऐक्टि- ५विर्ट ” माम दिया गया है। इन प्रयोगों में एक बात स्पष्ठ दिखाई दी कि तत्वपरिषत॑नों में धोमे न्यूट्रान भी लगभग उतनी हो सफल होते . थे जितने कि तेज्ञ और आश्यय यह था कि कुछ - प्रयोगोंम तो केवल धीमे ही न्यूट्राब सफलता पाते थे । फरमी ओर उसके साथियों ने १०३५ . में पता लगाया कि जब न्यूट्रान हाइड्रोजन, पानी या किसी भी हाइड्रोजनके योगिकके अन्दर से गुज़रते है तो वह बहुत धोमे पड़ जाते हैं । शीघ्र ही वेशानिकोंने इस नये कणको धीरे- थीरे भमारीसे भारो तत्वों पर प्रयोग करना आरणस्स किया। फ़रमी में देखा कि जब इन थीमे न्यूट्रानोंके! यूरेनियम या थोरियम पर फेंका ज्ञाता है तो नये प्रकारके तत्व बनते हैं जिनकी परमाणुक संख्या ९२ से भी ज्यादह है। इन्हें उसने “टद्रान्स-यूरेनियक” तत्वोंका नाम दिया । इस प्रकार हान, स्ट्रासमान, माइतनर, फ़रमी आदि वेज्ञानिकों ने ४ वर्षोके अन्दर ही कहे नये तत्वोंका पता लगाया जिनको परमाणुक संख्या ९३ से ९७ तक थी। ऐसा लगता था कि इसी प्रकार आगे चलते जाने से. बहुत से नये तत्व मालूम हो जाये | परन्तु शीघ्र ही कुछ तथ्य ऐसे माल्यूम इये जिन्होंने साफ्‌ तौरसे स्पष्ट कर दिया कि यूरेनियम उपयुक्त विधि से नहीं परि- वत्तित होता, बल्कि यूरेनियमका केन्द्र न्यूट्रान द्वारा दो भागोंमे विभाजित हो जाता है । परमाशु-बम हे यूरेनियम + “न्यूट्रान *---> ५ ६बेरियम + 3६ क्रिपटन यूरेनियम बिद्त तत्वोंपे सबसे भारी तत्व है। यूरेनियम की रैडियोणक्टिविटी से स्पष्ट है कि यूरेनियमका केन्द्र अस्थायी होता है । जब ऐसे अस्थायी केन्द्र पर धीमे न्यूड्रानों द्वारा बमवाज़ी की जाती है तो यह' केन्द्र उस न्यूट्रान को भी सम्मलित कर लेता है। परन्तु यूरेनियम का नया केन्द्र प्राकृतिक यूरेनियमके केन्द्रसे भी अधिक अस्थायी हो जाता है । फलतः यह केन्द्र दो छोटे छोटे भागोंमे विभाजित हो जाता है, इनमेसे पहिला है वेश्यिम और दूसरा है क्रिप- टन । यह दोनों नये तत्थ भी रैडियोणक्टिव होते हैं । उनकी “कृत्रिम रैडियोणक्टिविटी” से ओर दूसरे तत्व, “कण और इलेक्ट्रान निकलते है। इस तरह यूरेनियम पर न्यूट्रानोंस बमबाज़ी करने से अन्तमें फल स्वरूप दो समूहके कई नये तत्व मिलते हैं; जिनमें से प्रथम है क्रिपटन समूह जिस, . में क्रिपटन , ब्रोमीन, रूबी- डियम, स्ट्रानशियम, और मालीबडेनम देखे गये हैं; द्वितीय समूह है वेरियम समूह जिसमें ज़ीन॑न, एग्टीमनी, टेल्यूरियम, आयोडीन, लैनथानभ और सोज़ियम पाये गये हैं। इस घकार यूरेनियमके केन्द्र बिल्कुल विध्वंस हो जाते हैं और कई पकार के हटके तत्वके परभारु इस ध्यंसके फल स्थरूप प्राप्त होते हं--इसीलिए इस प्रकारके परिचर्षन के। हान, स्ट्रासमान और भाइतनर, फ्रिश' ने “केन्द्रिक ध्यंस”श ( #770!687 458907 का नाम दिया है। इस. केन्द्रिक ध्यंस के फलस्वरूप साधारणुतः वहुत बड़ी मात्रामें शक्ति भी निक- लती है--ऐसा अज्ञमान है कि प्रत्येक यूरेनियम परमार के विध्यंस होने पर २०५..५ १०९ इलेक्ट्रान वोल्ट शक्ति उत्पादित होती है। इस शक्तिका स्रोत असल मे पदाथ की थोड़ी सी मात्रा है जो शक्ति के रूपमें परिवर्सित होकर बाहर निकलती है। आइनस्टाइनके ग़ुरके अनुसार अ” मात्राक्र १३० शक्ति में परिवक्षिंत होने पर “अ>ग"” शक्ति निकलेगी जब कि 'ग', प्रकाश की गति को सृचित करता है। इस प्रकार बहुत थोड़ी-सी. पदाथ की मात्रा इतनी अधिक शक्ति का उत्पादन कर देती है। इतनो शक्ति निकलने के साथ ही साथ यूरे- नियम के ध्वंस के समय न्यूट्रान भी निकलते है । १०३९-४० में फ़ान हाटवान, जोलियो, कोवारस्को ने देखा कि प्रत्येक यूरेनियम परमाणु के विध्यंस होने पर लगभग ३ न्यूट्रान निकलते हैं। इसलिए यह सोचा गया कि यदि यह न्यूट्रान यूरेनियम के और परमाणुओं के। विध्यंस कर सके तो एक प्रकार का “ऋ्रमिक (07977) परिवतंन” सम्भव हो सकेगा ओर फलस्वरूप बहुत बड़ी मात्रा में शक्ति निकलेगी :-- यूरेनियम + स्यन ३ न्यूटगन ३ यूरेनियम+ ३ न्यूट्रानक डक स्वस ? * सेह्रान यही विचार परमाणु-शक्ति को उत्पादित करने का प्रथम ठीक प्रयास था। क्‍योंकि एक न्यूट्रानसे एक यूरेनियम परमाणु का ध्वंस होता, उसके फलस्वरूप ३ न्यूट्रून निकलते जो ३ यूरेनियम परमाणुओझों को विध्चंस करते, इससे ९, न्‍्यूट्रान - निकलते जो आगे चलकर २७ न्यूट्रान देते और इसी प्रकार क्रमशः यह परिवत्त न आगे चढ़ता ६०६ > १०१: .. २३४, परमारु होंगे, इसलिए यदि्‌ एक श्राम यूरेनियम के सब परमारु उपयुक्त विधिसे विध्वंस किये जा सकते तो ९१ ९०)५ १००२ ९० २४४ ६०४ ज्ञाता। एक ग्राम यूरेनियममे लगभग इलेक्ट्रान बोल्ट शक्ति निकलती जो साधारण कैलोरी ५ ९ १०९१ ८ १"५४६ ५८ १०” _ या 5 आओ २» १०१ ' केलीरी शक्ति के वरावर होती। यह शक्ति कितनी अधिक है यह "साधारण रासाय- के पेमाने पर लगभग विज्ञान, सितम्बर, १९४४ [ भाग ६१ कम 02०८2 3००३६: निक क्रियाओं में उत्पादित शक्ति से तुलना करके अज्ुमान किया जा सकता है। उदाहरणतः ९ कार्बन_ डाई आक्खा: काबन + आक्सीजन ८ इड + 5 ३८० अल्ोर यानी १२ श्राम काबन के जलनेसे ९४,३८० कैलोरी गर्मी निकलती है; इसलिए एक ग्राम यूरेनियमके विध्यंससे निकलने वाली २१८१०१" केलोरी गर्मी लगभग ३ करोड़ आराम कार्बन जलने से पैदा होगी । यूरेनियमके इस क्रमिक विध्यंस के अन्‍्चे- पणसे वेज्ञानेक परमाणुओंक्े केन्द्रोंम स्थिति शक्ति को उत्पादित करनेके बहुत निकट आगये, परन्तु अभी उन्हें कई बड़ी कठिनाइयों का सामना करना था । वैज्ञानिकों ने बहुत जरदी मालूम कर. लिया कि यूरेनियम का केवल २३५ परमाणु भार वाला समस्थानिक इस ध्वंस में भाग लेता है ज्ञो यूरे- नियममें लगभग ०७४ की मात्राम उपस्थित होता है। बाक़ी यूरेनियम लगभग सब का सब शदट८ भारवाले परमाणुओंका बना होता है। ये परमार इस ध्वंस में कोई भाग नहीं ' लेते और जब तक यूरेनियमका २३५ भॉरवाला समस्थानिक काफ़ी मात्रा में एकत्रित नहीं हो जाता यह क्रमिक क्रिया सम्भव नहीं होती। सन. १९४० में स्वीडेन के वेज्ञानिक क्रास्नों एरगेन ने इस समस्थानिक को अलग करने का प्रयत्न किया, परन्तु उनके उपकरण में पृथक करने की गति इतनी धीमी थी कि उस गति खे लगभग ३ सालों में एक ग्राम समस्थानिक जमा किया जा सकता था। अब यदि यूरेनियम के २३५ भार वाले समस्थानिक के किसी योगिक की कुछ मात्रा लेकर पानी में घोल लें, ( पानी न्यूद्रानों को धीमा करनेके लिए लेते हैं जिससे सब न्यूट्रान यूरेनियमके परमाशणुओं के 'विध्यंस में सफल हो सके) तो इस प्रकार ऊपर दिया हुआ कृत्रिम परि- बर्तन सम्भव हो सकेगा। परन्तु इस प्रकार के परिवतंन के लिए नियंत्रण की भी विशेष आव- संख्या ६ ] श्यकता है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है प्रत्येक यूरेनियमके परमाणुके विध्वंस होने पर शक्ति निकलेगी और यह शक्ति जमा होती जायेगी, जिससे उपकरण व उसमें उपस्थित पदार्थों का तापमान बढ़ता जायेगा। यदि यही क्रिया क्रमिक रूप में जारी रहे तो एक अबस्था -ऐसी आ जायेगी जब उपकरण बढते हुए तापमान को सहन न कर सक्रेगा ओर विस्फोटित हो जायेगा। फल स्वरूप यूरेनियम के अध्यंसित परमांरंतु व न्यूट्रान सब बिखर जायगे ओर क्रमिक परिवर्तन रुक जायेगा। इसलिए परमाणु बम बनानेके लिए एक कठिनाई क्रमिक परिवतेन पर नियंत्रण करने की थी जिससे जब तक उपस्थित यूरेनियम के सच परमाणु विध्वंस न हो जाये विस्फोट न हो। वेज्ञा- मिक ऐंदलर ओर फ़ान हाल्वान ने इसके लिए एक बहुत ही कोशलपूर्ण विधि का पता लगाया। कैडमियम के परमाणु न्यूट्रानों को सोख लेते हैं ओर यह शोषणशक्ति न्यूट्रानों की गति बढ़नेसे बढ़ती जाती है। यदि यूरेनियम के साथ थोड़ासा कैडमियम का योगिक भी उपस्थित हो तो बह न्यूट्रानों की सोख लेगा, जिससे क्रमिक क्रिया इतनी तेज़ी से आगे नहीं बढ़ पायेगी कि आवश्य- कता से पहिले विस्फोट हो जाये | यदि कैडमियम उपस्थित हो तो ज्यों ज्यों तापमान वढता है निकले हुए न्यूट्रानों की गति बढ़ती जाती है. पर साथही साथ उनके केडमियममे शोषित होनेकी भी गति बढ़ती जाती है। फलस्वरूप एक अवस्था पेसी आ जायेगी जब एक ज्षणम जितने न्‍्यूट्रान निकलेगे उतने ही केडमियम शोषित कर लेगा। इस प्रकार क्रमिक क्रिया नियंत्रित हो जायगी । बस को घेरनेवाले इस्पात आदि की मज़बूती पसी की जा सकती है कि वह तभी विस्फोटिंत हो जब कि सब यूरेनियम परमाणओंके विध्यंससे शक्ति एकत्रित हो जाये | यदि ऊपर दी हुई विधि सही है, तो यूरेनियमक्रे बमके प्रयोगमे केवल एक कठिनाई रह जाती है। वह है यूरेनियमसे उसके परमाणु बस १३१ २३५ भार वाले समस्थानिक निकालना। थूरेनि- यम के दोनों समस्थानिकोंके भार इतने निकट है कि कोई भी विधि उन्हें तेज्ञीसे अलग नहीं कर सकती। प्रत्येक विधि इतनी धीमी होगी कि उसको सफल वनाने के लिए वहुत बड़ी फैक्टरी ओर बहुत अधिक काय्यकर्त्ताओं की आवश्यकता होगी । इससे स्पष्ट हो जाता है कि परमाणु बम बनानेमे किसलिए अमेरिका का इतना द्वव्य खच हुआ और क्यों इतने बड़े पैमाने पर फेक्टरी वनानी पड़ी । उपयुक्त विवरण से स्पष्ट हो गया होगा कि परमाणु वम की यदि ऊपर दी हुईं विधि ही सही है, तो परमाण बम बनाने के लिए इन वस्तुओंकी मुख्य आवश्यकता होगी : (१) रैडियम, जो «कण दे, (२) वेरीलिश्रम जिसपर *«करण गिर कर न्यूट्रान दे', (३) हाइड्रोजन का कोई ऐसा योगिक जो इन करणां को धीमा कर दे। ऐसा अनुमान है कि इसके लिए पेशफ़ीन, मोम इस्तेमाल किया 'जाता है, (४) यूरेनियम का २३५ समस्थानिक और (५) कैडमियम साद्ठ जो विध्यंस' की क्रमिक क्रिया को नियंत्रित कर सके । अनुमान किया जाता है. कि एक बम बनाने में लगभग ११ पाउण्ड यूरेनियम को आवश्यकता होती है। इतनी माता यूरेनियमकी पानेके लिए टनों खनिज्ञको इस्तेमाल करना पड़ता है। कुछ लोगों ने हिसाव लगाकर वताया है' कि यदि एक पाउण्ड यूरेनियम विध्बंस किया जाये तो इतनी शक्ति पैदा हो सकती है कि न्‍्यूयाकंकों १८२ खण्ड वाली 'एफ्पायर विब्डिज्ञ” हवा में २० मोल जाय | यह विष्कुल सही है कि परमासु वम से निकली हुई शक्ति इतनी काफ़ी होती है कि इस्पात के बड़े बड़े श॒म्वदों को गला देती है। हिरोशिमार्म एक परमाणु बम फेंका गया। उससे कितना नुक्लसलान हुआ यह आज तक अन्दाज़ा नहीं किया जा सका। परमाणु से उसी समय उड़ १३२ जो हानि हो ज्ञाती है उसके अतिरिक्त भी एक बहुत वड़ी हानिका डर रहता है और वह हानि अदृश्य होती है। जैसा कि कहा गया है यूरे- नियमके परमारुके विध्यंस होने पर बेरियम ओर क्रिपटन निकलते हैं ओर यह दोनों नये बने तरव ' “रैडियोणविटिव” होते हैं--इनसे गामा किरणों निकलती हैं जो एक्स किरणों की भाँति होती हैं पर उनसे बहुत अधिक सक्रिय होती हैं। इन गाभा किरणोंसे वहुतसे जख्म हो जाते हैं. जो अन्दुरूनी होने हैं ओर हफ्तों इन ज्ञख्मों का कुछ पता नहीं लगता, फिर यकायक अन्दर ही अन्दर कुल हिस्सेको सड़ा डालते हैं से शारीरिक ही नहीं मानसिक भी प्रभाव पड़ता मालूम दिया है। ज्ञापानम मित्र राष्रोंकी फ्लौजके साथ वेज्ञानेक भी गये है. जो इस बातका पता लगायेंगे कि परमाणु चमसे कितमी और किस 'प्रकारकी हानियाँ हुई हैं। ऐसा भी विचार है कि अमेरिकनोंने परमार बमकी काट भी पता लगा लो है--यह शायद रादरके सिद्धान्त पर होगी। रादरकी तरहझो हारा यह पता चल सकता है कि परमार बस किस जगह फका जा रहा है । उसकी सहद्दी स्थिति भी पता लगाई जा सकती है। अब यदि कोई ऐसी तरकीव हो सके कि वह बम ज्मीनसे काफ़ी ऊंचाई पर विस्फोडित किया ज्ञा सके तो उससे हानि वहुत कम हो जायगी । इसमें सन्देह नहीं कि युद्धने परमाणु-शक्तिके अन्वेषणम बहुत सहायता दी। एक दूसरेका गला काटने पर तत्पर राष्ट्रोमो यह होड़ हुई कि कोन इस भयानक शक्तिका पहिलकले पता लगा कर दूसरे पर इस्तेमाल करता है। इसी कारण प्रत्येक देशम परमाखुवम थे परमाणु शक्तिक्के प्रयोगोंको बिलकुल ही छिपा कर रफुखा गया जिससे दुसरे . राष्ट्र ढउसस लाभ व उठा सके, परु यह स्पष्ट है' कि परमाणु बम बनानम अब केघशमल एक ही समस्या विज्ञान, सितम्बर, १९४४ इन गासा किरणो- . | भाग ६१ मुख्य है वह है । आर्थिक परमाणु बभके लिए एक बहुत ही बड़े पेमाने पर यांचिक कलाकी बहुत होशियारीसे गढ़ी फ़ेक्टरीकी आवश्कता है ओर कोई भी शपघ्ट्र थोड़े ही समयमें इस शक्ति को युद्धके लिए प्रयोगमे ल्ञा सकेगा | विज्ञानके इस. नये अन्वेषणसे आगेका युद्ध कितना भयंकर होगा इसका अनुमान करना भी कठिन है'।. इस ओर प्रयत्न वहुत तेज़ीसे जारी हैं कि इस शक्तिको दूसरे लाभदायक तथा शान्तिपूण कासय्यों'में प्रयोग किया जाये और आशा है कि वैज्ञानिक अपने इस नये अन्वेषणकों मानवताके लाभफे लिए शीघ्र प्रयोग कर अपने ऊपर थोपे गये कलड्ड को थोड़ा वहुत थभो सकेगे | ' भयथे परमाणु-बस यूरेनियन के विधटन की विधि नये परमाश-ब्रमकी रचनाके लिये आवश्यक यूरेनियम एक कठोर ओ्रोर क्वेतवर्ण धातु है जिसका पता १७८४ में लगा था किन्तु १८४० तक वह प्रकाशमें न आ सका | यह काले रंग की खनिज पिष्ठीके रूपमें पाया जाता है ओर रश्मि उत्पादक अथवा रेडियोधर्मी होता है। इसी में से यूरेनियम को अल्लग किया जाता है। यह कार्नवात् बोहीमिया, नावे, अमरीकाके कई भागों और बेलजियन काँगो में पाया जाता है। यूरेनियम रेडियमधर्मी धातु का समृद्धतम स्रोत है। कनाडासे ही इसे परमाणु-बसम बनानेके लिये अमरीका भेजा गया था| कनाडाकी सरकारने एल्डोराडो माइनिंग एंड स्मेल्टिंग कंपगी को पश्माशु-बस कार्यक्रमके अंगके रूपमे अपने हाथमें लिया है। १६४४के जनवरी माससें यह कदम इसलिये उठाया गया था यूरेनियन की भाप्तिमें कोई बाघा न पड़े । परमाणु लोहा, आक्सीजन, अल्ुमीनियस, आदि पदाथों का छोटेसे छोटा कण है । यदि १० करोड़ पर- माणुओं को एक पंक्तिमें रखा जाय तब कहीं उसकी लंबाई एक इंच होगी । संख्या ६ ] वायुमणडलकी सूचम हवायें [ ले०---डा० समन्तप्रसाद टंडन | सूद्धप गैसों के पाने के स्थान आरगन--जैसा कि इनके इतिहाससे बिदित हुआ होगा ये सभी वायु मौजूद हैं। वायुमे आरणनकी मात्रा. एक प्रतिशत है। यद्यपि प्रतिशतमें यह मात्रा बहुत कम मालूम होती है किन्तु सारी वायुमे कुल आरणन कितनी है इसका हिसाव लगाने पर पता चलता है कि पृथ्चीके प्रत्येक वर्ग मीलके ' क्षेत्रमे लगभग ८००,०००,००० पौंड आरणन मौजूद है। पानीम कुछ घुलनशोल होनेके कारंण यह समुद्रोके पानीमे भो घुज्ञी श्रबस्थामें काफी रहती है। वाज़ारमे विकनेवालो तरल बायुमे इसकी मात्रा ₹८ प्रतिशत रहती है। वर्षाके पानीमें आरगन ओर नाइंट्रोजनका अनुपात हवासे अधिक रहता है क्योंकि आरणन नाइट्रोजनकी अपेत्ता पानीमे अधिक घुलनशील है। वाथ स्थानके पानी के खसेलेले निकलनेवाली गैेसाँमि आरगन १-३६ प्रतिशत रहती है । अन्य . स्थानोंके सातोंकी गेसों में भी आरणगनका रहना बतलायथा गया है । मिडिल त्रो (७१00]28॥70प४॥) नामक स्थान के पास नम्ककी खाने से निकले सेालेकी गैसों में आरगन माइट्रोजनके साथ मिली हुई निकलती है। जप आरगन कुछ पेड़ोंमे तथा जन्तुओंके रक्तमे भी पायी जावी है। जहाँ-जहाँ आरणगन पायी जाती है इसके साथ नाइट्रोजन भी अवश्य मिली रहती है और इन दोनोंकी मात्राये लगभग उसी अनुपात में रहती हैं जो वायु है। खूय्य तथा अन्य तारोंकी राशशीक्रे शश्मि- चित्रों मे आरगनके शश्मिश्ित्र की रंखाये देखनेका प्रथत्ध कई लोगों मे . किया किन्तु ये कभी नहीं दिखलाई दीं। फिर भी इसके वायुमण्डलको सूक्ष्म हवाये हकाद-यदंजच:्दाा आधार पर यह निश्चय रुपसे नहीं कहा जा सकता कि आरगन इन आकाशीय पिडोंमे मोजूद नहीं है, क्योंकि यह देखा गया है. कि थदि आरगनके साथ ३७ प्रतिशत नाइट्रोजन मिली हो तो नाइट्रोजनका हो रश्मिचिनत्न दिखलाई: देता है, आरगनका नहीं । सम्भव है ऐसा ही कोई कारण इन आक्राशोय पिडोंमे आरगनका रश्मिच्रिज् न दिखलाई देनेका हो। रेमज़ेने पुच्छलतारेके रूपमें गिरे आकाशीय खनिजोंम. आरगनका मौजूद रहना बतलाया है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि सम्भव है आकाशीय पिडोंमे यह मोजद हो । हीलियम--ही लियम पृथ्वीमे बहुत काफी फैली हुईं है यद्यपि अधिकतर स्थानोंमे इसकी मात्रा बहुत हो थाड़ी है। यह वायुमें, समुद्र तथा नदियों के जलमे, बहुतसे खनिज सातोंकी गेसोंमे तथा बहुतसी पुरानों चद्दानों ओर खनिजोंमें पायी जाती है। यह सूर्य्यके वायव्य मंडलमें मोजुद है। पुच्छलतारेके एक लोहेके ठुकड़ेमे भी यह पाई गई है। रश्मि चित्र-दर्शकके द्वारा आकाशीय पिडोंका निशीक्षण करने पर यह पता छकागता है कि हीलियम वहुतसे तारोंमे मौजूद है। रैगज़े ने मालूम किया है कि वायुमें हीलियम ०"०००८४६ पतिशत तोल में तथा ००००४. प्रति* शत आयतन मे है। क्‍ कुछ स्थानों से निकलने वाली प्राकृतिक गैसों में भी हीलियम काफ़ी मात्रामें पाई जाती है। ऐसे स्थान अमेरिकाम कहे हैं। अतः संसारमे सबसे अधिक हीलियम अमेशिकाके ही पास है। इन स्थानोंप शेक्सास (०5४७), ओकलाहोमा ((20]8॥07]8), तथा कन्सास (छ&-87888) मुख्य हैं। हीलियम वहुत सी खनिजों तथा चट्टानों में साधारणुतः अकेली ही पाई जाती है। इससे यह अच्चुभान ठीक मालूम होता है कि खनिज्ञों तथा चट्टानोंमे इसकी उत्पत्ति उनमें मौजूद किसी शी शश्मि शक्तिक (/90|0980]76) पदार्थके विनष्र होनेसे हुईं है। होलियम जिन खनिजोंमें पाया जाता है उनमें मुख्य ये हें--कलीवाइट तथा. पिचब्लेन्ड (?0॥0]6700) जातिके खनिज, मोनाज़ाइट (१(0॥82॥6), फरगूसोनाइट (9'७/2७8०0- 7॥6), ब्रोगेराइट (3/0228॥66), समरस्काइट (58॥797'8|766), थोरियानाइट.. ([॥67+8- 77॥6), ओर यूक्सनाइट ( "प्रषु00609) | नियन--वायुमें यह ०"००१२३ प्रतिशत आयतन के हिसावसे तथा ०००८८६ प्रतिशत तोलके हिसाबसे मोजूद है। बाथके सोतोंकी गैसोंमे भी यह थोड़ा मौजूद है। खनिजोंम नियन अभी तक नहीं मिली है। कृपटन--वायुमे इसकी मात्रा बहुत थोड़ी है। पक ग्राम कृपटन ७,०००,००० ग्राम वायमे है। कुछ गरम सोतोंकी गेसोंमे भी यह आरगणनके साथ पाई जाती है। क्लीवाइटसे प्राप्त हुई होलियममे भी इसकी थोड़ी मात्रा रहती है। जीनन--हवाक्रे १७०,०००,००० आयतने क्रेवल एक आयतन ज़ीनन मौजूद है। तोलके हिसाबसे ४०,०००,००० ग्राम हवामें एक आम ज़ीनन है। सूक्ष्म गेसोंमे इसी की भात्रा सबसे कम है। कुछ सोतों की गैसोंमें भी इसकी थोड़ी मात्रा पाई गई है। सृक्षम गेसोंका प्राप्त करना हीलियम--जैसा कि पहले बताया जा चुका है हीलियम तीन मुख्य स्थानोंमें विशेष रूपले रहती है--(१) वायु, २) कुछ खनिज, तथा (श कुछ खनिज सोते । इन्हीं पदाथोंले हीलियम प्राप्तकी जाती है। प्राप्त. करनेकी विधियाँ नीचे दी गई हैं। विज्ञान, सितस्बर, १९४५ [भाग दर | रेडियम बोमाइडके घोलसे भी हाइड्रोजन तथा आक्िसिजनके साथ कुछ हीलियम निकलती है। छ़ै खनिजोंसे हीलियम प्राप्त करना किसी उपयुक्त खनिज मोनाज़ाइट बालू या क्लोबाइट ) को अकेले |या हदके गन्धकाम्लके साथ गरमकर हीलियम बनाने का तरीका ही प्रारस्भम सबसे सस्ता था। (१) इस विधिमें जो अ्परेट्स प्रयोग होता है वह चित्र (में दिखलाया गया है.। खनिज को खूब महीन पीस कर लोहेकी नल्ली अर में भर दिया जाना है। नलीके मुँह पर रबर का डाट रहता है जिसके भीतर से होकर एक पतली नली जाती है। अ नलो का भटद्टीके बाहर बाला भाग दो दीवारोंके परिच्छुद से आवेधित रहता चित्र १ है| इस परिच्छदर्म ठंढे पानीके आने जाने का प्रबन्ध रहता है जो अ मलीके इस भाग को टंढा बनाये रखता है ओर रबर के डाट तथा स्वर करे जोड़ों को भद्दीकी गरमीसे जलाने नहीं देता । अर नलीसे जो गैस निकलती है वह द्‌ पतनमे पहुँचती है जहाँ पोटास भरा रहता है'। पोटास इस गैसमें मौजूद पानी तथा कार्बन डाइ-आकस।- को सोख लेता है। यहाँसे फिर यह गेस मिकल कर स बतनमे इकट्ठी होती है। स में था तो पारा परमांणु-बम १३४ या पोटास का गाढ़ा घोल भरा रहता है। प नली एक पंपसे जुड़ी रहती है।म एक मैनी-मीटर है जो अपरेट्सके अन्द्रके दबाव को बतलाता है। प्रयोग करते समय खनिज्ञ को अर नलीमे भसनेके बाद सारे अपरंटसके अन्द्रकों हवा पंप द्वारा निकालकर अन्द्र शूल्य (४७०पछ॥7) कर दिया आता है। नली को गरम करने पर खनिजसे धोरे-घीरे गैस कई घंटों तक निकलती रहती है। जब अन्दर इतनी गेस इकटी हो जातो है कि बहाँ का दबाव वायुमंडलके दबावक्े बरावर हो जाता है तो गैस स वर्तनर्म इकट्टी की जाती है। जब खनिजसे और गैस का निकलना वंद हो जाता है तो स बतन को डाटसे बंद कर दिया जाता है ओर अपरोेटस के अन्दर की बची हुई गेस को पंपले खींचकर या तो स बतनमे पहुँचा [दिया जाता है या अन्य बत॑नमे । ऊपर की विधिमे कभी-कभी थोड़ा परिवतन भी कर दिया जाता है। इस परिवर्तित विधिमे खनिज को कार्बन डाइ आक्साइडके धायुमंडलम ग्रभ करते है और निकलो गेस को पोटासकरे ऊपर इकट्ठा करते हे । खनिज को एक पोरसिलेनको नली मे १००७० « १२००? श पर गरम करनेखसे सबसे अच्छा परि शाम मिलता है।... (२५) दूसरी घिधिमे, जिसमे समयभी कम लगता है और गेसको मात्राभी अधिक प्राप्त होती है, खनिज को लगभग उसीकी तोलके बराबर पोडैसियम वाइसलफेटमे मिश्रित कर एक कड़े कॉचकी नलीमे गरम किया जाता है। (४) कुछ खनिजोंसे हीलियमकी सबसे अधिक मात्रा उनको हलके गन्धकास्लके साथ गरम करने पर प्राप्त होती है।इस विधिम जो अपरेटस इस्तेमाल होता है उसका रूप चित्र श्म दिखलाया गया है। खनिज्ञ कड़े काँचके बने एक वड़े गोल फ्लास्कम॑ (क गन्धकाम्लके साथ गरम किया जाता है। इस फ्लास्कका रबरका डाट (र) कुछ छ ड़ अन्दर घुसा रहता है ओर इसके ऊपर पारे की पक पत॑ रहती है जिससे कहींभी कोई छिद्र खुला नहीं रह पाता | कन्‍्डेन्सरका '(स) ऊपरी सिरा आवश्यकतानुसार पंपसे या गेस इकट्ठा करनेके बतनसे जोड़ दिया जाता है। प्रयोग इस भाँति किया जाता है। खूब महीन पिसा हुआ खनिज फ्लास्कमें भर दिया जाता है। कीप फ, से कई बार थाड़ा-धाड़ा पानी फ्लास्क में डालते हैं और कन्छेन्सरमें पंप लगाकर हरबार पानीके वाष्प को खोंच कर बाहर निकाल देते है। ऐसा करनेखे फ्लास्ककी सारी हवाभो पानी के वाष्पके साथ बाहर निकल जाती है। अब हटके गन्धकाम्ल (१८) को गरम कर उसकी हवा निकालनेके वाद कोप द्वारा फ्लास्कमें डालते हैं ओर साथ खनिज को लगभग आध धंरा तक उबालते है | फ्लास्क भे॑ बनी गेस कन्डेन्सर से होती हुईं गेस इकट्ठा किये ज्ञानेवाले बतनमे पहुँच ज्ञाती है। प्रयोगके अन्तम जो गेस- फ्लास्कमे बची रह जाती है उसेभी पंप द्वारा गैसवाले बतेन में पहुँचा देते है । यह विधि सबसे सरल ओर सस्ती है। अधिकतर वेज्ञानिकोंने अपने प्रयोगके लिए इसी विधि द्वारा होलियम प्राप्त की थी । चित्र २ प्राकृतिक गेक्षोंमें से हीलियम निकालना कुछ सोतोंसे निकलनेवाली प्राकृतिक गेसॉमें हीलियम की काफ़ी मात्रा रहती है। इनमें बाथ, मैज़ीस (॥४४५86783) और टीनी सफियोनी ( पता 80 ) के सोते तथा डेक्सटर १३द ([2०5४5४67) का गैसका कुआँ मुख्य हैं। इन खनिज सोतोंसे चित्र ३ में दिखलाये आपरो- रब टस दारा गैस इकट्ठी की 4५ जाती है। व एक टीनका बतेन है. जिसके दोनों सिरों पर टोटी लगी है। इसके जुड़ी रहती है। व बंतन तथा अ नली शुरूम पानी से भर दी जाती है।श्र नत्ीके दूसरे सिरे पर, लगी > कीप को सोतेके पानीखे :>-:४ कर बं और स टोटियों को खोल देते है-। “ गेस कीपसे होती हुईं व बतेनमे पहुँचती चिंत्र ३ है। जैसे-जैसे गैस इस बतनमे इकट्टी होती है इसका पानो स टोटीसे निकलता जाता है। जब स से . पानी निकलना बन्द हो जाता है ओर गेस निक- लनी शुरू होती है तो यह मालूम हो ज्ञाता है कि बतन गैससे पूरा भर गया है। अब दोनों टोटियों को बंद कर बतन अलग रख देते है । वायुसे हीलियम प्राप्त करना हवासे हीलियम तथा अन्य" सूक्ष्म गैस क्लाउड ((/9५०8७) के अपरेटस द्वारा प्रातकी जाती हैं। इस अपरेटसका वर्णोेन नियनके साथ किया गया है। जब तरल वायुकी एक बड़ी मात्रा धीरे-चीरे वाष्पीकरण होने दी जाती है तो पहले आकिस- जन और फिर नाइट्रोजन निकलती है। इन दोनोंके निकलनेके बाद वायुका जे। भाग बर्तनकी तलीमे बच रहता है उसमें कुछ कृपटन और ज़ीननके साथ मिली हुईं मुख्यतया आरणन रहती है। इन तीनों म्वे आरणन अधिक उड़नशील है। अतः इस भाग-को त्रलकर ओर पुनः बाष्पीकरण विज्ञान, सितस्व॒र, १९४४ ऊपरी सिरे पर एक नली अ्र | भाग देर करने पर आरगन पहले उड़कर अलग निकल आती है ओर कृपटन ओर ज्ञीनन बर्तन भें बची रह जाती हैं। कृपटन और ज्ीननके भागकों पुनः तरल में परिणतकर उबलती तरल बायुके ताप- क्रम पर रकखा जाता है। इस तापक्रम पर झृप- टन तो उड़ जाती है किन्तु ज्ञीनन तश्लकी ही अवस्थामे बची रह जाती है। इस प्रकार आर गन, कृपटन और ज्ञीनन ये तीनों अलग-अलग प्राप्त हो जाती हैं । वायुके नाइट्रोजन चाले भागभे हीलियम ओर नियन रहती हैं। अतः इस भागकों ठंढाकर पुनः तंरलमे परिणत किया ज्ञाता है, और ,तरलकी सतह पर हवाकी घारा प्रवाहित की जाती है। पेसा करने पर तरलका जो भाग पहले उड़कर निकलता है उसमें लगभग सारी नियन और हीलियम आ जाती हैं। इनके साथ कुछ नाइ- टोजन, आकिसजन तथा आरगणन भी मिली रहती हैं। आक्सिजन और नाइट्रोजनके! रासायनिक विधिसे अलगकर लिया जाता है। बची हुईं गैस, जिसमें नियम, हीलियम और कुछ आरणन रहती हैं, को तरलकर चाप्पीकरण करने पर आरणन अलग हो जाती है ओर होलियम और नियन एक साथ बची रहतो हैं। इन दोनोंके मिश्रणकेंत पुनः तरल में परिणतकर उबलते तरल हाइड्रोजन के तापक्रम पर रखते है। इस तापक्रम पर नियन तरल या ठोसकी अवस्थाम रहती है और हीलि- यम गैसकी अवस्थाम । अतः दोनों अलग-अलग प्राप्त हो जाती हैं । लकड़ीके के|यलेमें भिन्न-भिन्न गैसोंक्रे! सेखने की भिन्न भिन्न शक्ति होती है। केायलेक्रे इस गुणंकां लाम उठाकर डिवार ( क्‍060४8/ ) ने वायुकी भिन्न-भिन्न गेसोंका अलग-अलग प्राप्त किया ! तरल चायुके तापक्रम पर होलियम और: नियनके अतिरिक्त वाथुकी सब गेसे केायले द्वारा शोषित हो जाती हैं। . बा वायुमंडल की खूक्ष्म हवाय १३७ इसी प्रकांर आरगन ओर हीलियमके मिश्रण में से प्लेटिनम आरणगनकेा तो साख लेती है किन्तु हीलियम के! नहीं । अतः प्लेटिनम द्वारा ये दोनों एक दूसरेसे अलग को जा सकती हैं । हीलियम की शुद्ध करना अन्य खूक्ष्म गेसोंकी अपेक्ता नीचेके तापक्रमों पर यह अधिक उड़नशील है। इस कारण इसके शुद्ध करनेमे विशेष कठिनाई नहीं होती । यदि नाइट्रोजज ओर हाइड्रोजनकी मिलावट है तो गेसके! पहले मैगनीसियमके चूरे ओर बिना बुझे चूनेके गरम मिश्रणके ऊपर ले जाते हैं। यहाँ नाइट्रोजन मैगनीसियम और चूनेसे मिल कर रासायनिक योगिकके रूपमें गेससे अलग हो जाता है। इसके बाद भेसके! तपें ताँबेकी आक्साइडके ऊपर प्रवाहित करते हैं । यहाँ हाइड्रोजन ताॉँवेकी आवसाइड से आकिसजन लेकर पानीके रूपमे हो जाता है'। इस प्रकार हीलियमसे नाइट्रोज़ज ओर हाइड्रोजन अलग हो जाते हैं । । क्लीवाइट ओर मोनाज़ाइट्से प्राप्त हीलि: यममे अन्य खूक्ष्म गेसें नहींके बराबर होती हैं ओर नाइट्रोजन ओर हाइड्रोजनके ऊपरकी विधि द्वारा निकालनेके बाद काफी शुद्ध दीलियम प्राप्त हो जाती है। . सोतों से प्राप्त दीज्षियममे अन्य सूक्ष्म गेसे भी मिलो रहती हैं। इसमेसे ऊपरकी रोतिसे नाइट्रोजन ओर हाइड्रोजन निकालनेके बाद अन्य सूक्ष्म गेंसे निकाली जाती हैं। यदि आरणन मोजूद है तो गेसको बहुत कम दबावमे तरल वायुके वाष्पीकरण द्वारा ठंढा किया! जाता है। इस तापक्रम पर नाइट्रोज़न तथा आरगन- तो तरल अवस्थामेँ परिणत हो जाती है “किन्तु हीलियम गैस ही बनी रहती है और अलग कर ली जाती है। यदि नियन मौजूद है तो गैसको तरल हाइड्रोजन द्वारा ठंढा किया जाता है। इस तापक्रम पर नियन तथा अन्य सूक्ष्म गेसे तरल ही जाती है किन्तु हीलियम गेसकी दशामें रहती है ओर अलग कर ली ज्ञाती है। हीलियम को शुद्ध करनेका सबसे अच्छा तरीका नारियलके कोयले द्वारा है। डिवार ने मालूम किया कि तरल वायुके तापक्रम पर नारि- यत्रका कोयला हीलियम को छोड़कर अन्य सब ' शैसोंको पूर्ण रुपसे शोषित कर लेता है। इस विधि द्वारा हीलि- यमको शुद्ध करनेके लिए चित्र ४ चित्र ७ में दिखलाया अपरेट्स काममे लाया जाता है। इस अपरेटसमे अशुद्ध हीलियमको नारियलके ठंढे कोयलेके सम्पकरम लगभग आध घंटा रहने दिया जाता है। इसके बाद शुद्ध _ हीलियमको पंप द्वारा अपरेटससे निकाल कर एक बतनमे भर लेते हैं । जैकेराड (७०१४०7००५) और पेरोट (06770$) ने मालूम किया कि ११००" श॒ ताप क्रम पर रकक्‍खे क्वाठज़ (१५७७7४४) के भीतरसे हीलियम ओर हाइड्रोजन निकल ,जाती हैं किन्तु अन्य गेसे नहीं निकलती । अतः क्वार्टज़ ((६प०7०(५ ) के इस गुराके आधार पर हीलियमको शुद्ध, किया जा सकता है। इस विधिमे प्रयोगम आने चाहे अपरेटसका रूप चित्र ४ में दिखलाया गया है।ब क्वार्टज़ (१८७४४) का बढ्ब है जो प्लेटिनमकी चोड़ी नल्ली अ के अन्द्र रकखा हुआ है । प्लैटिनम नल्लोके अन्दर अशुद्ध हीज्ियम ४ प्रतिशत आकिसजनके साथ मिश्रितकर वायुमंडलसे कुछ अधिक दबाव पर भेजी जाती है। बदबके अन्दर की सब हवा पंप द्वार निकाल कर शून्य कर १६८ विज्ञान, सितम्बर, १०४४ [ भाग दर. ._._.ै.ै.खखख्ख<्र्रख़ऊ् ्ऊ़ऱ़्््््््््््््ज ््््अ५असििज+++5 अ >5»मप चिन्न ५ दिया जाता है। अब प्लेटिनम नलीका मध्य भाग ११७०९ तापक्रम पर गरम किया जाता है। हीलियम बद्बकी दीवारसे घुसकर अन्दर पहुँच जाती है ओर पंप द्वारा एक बतनमे भर ली जाती है। इस विधि द्वारा हीलियमको शुद्ध करनेमें समय अधिक लगता है किन्तु जे! हीलि- यम प्राप्त होतो है वह बहुत शुद्ध होती है । व्यावहारिक-मनोविज्ञान_ [ ल्े०--श्री राजेन्द्र विहारी लाल, एम० एस० सी०, इण्डियन-स्टेट-रेलवेज़ ] (विज्ञान भाग ६१ संख्या ९ के आगे ) संदेग-शक्ति कल्पना शक्ति बढ़ानेका पाँचवाँ उपाय यह है कि अपने चुने हुए विषय या कॉंरय क्षेत्र पर अपंनी भावना, अनुराग और ध्यानको केन्द्रित किया जाय। रुचि या शोककी ताक़त न केवल सर्चेत मनको संचालित करती है बल्कि यह अचेत मन पर प्रभाव डालने श्रोर उसको प्रेरित करनेका भी एक उत्तम साधन है। एक चुने हुए कामके श्रति तीध्र अनुराग मनकी तमाम बिखरी हुई शक्तियोंकों एकन्रित और संगठित कर देता है जिससे उनका बल्च कई गुना बढ़ जाता है। भावना या उत्साह होसे वह शक्ति पेदा होती है जिसके द्वारा सचेत मन चुने हुए विषयमें कड़ा परिश्रम करता है। इसी शक्तिसे उत्तेजित होकर अन्तरमनके भीतर पुराने विचार आपसमें मिक्चकर नये जुद्दे बन जाते हैं ओर इस्रीके कारण वे नये जुट्द अन्तश्चेतनाफी ख़तहकों पार कर बाह्य मनमें प्रगठ हो जाते हैं, जैसे पानीके अणु ( 770]607 68 ) ताप बल पाकर पानीकी सतहसे बाहर निकत्ध कर भाषका रूप धारण कर. वायुमण्डल्मं आ जाते हैं । यही बह शक्ति है जो मनकी शक्तियोंके अ्रस्तव्येस्त-अंगोको एक दिशामें कर देती है जिप्से सन एक प्रबल चुम्बककी तरह अपने अनुरूप पदार्थों, विचारों और तथ्योंको अपनी श्रोर खींच लेता है ्रोर उनसे नये जुद्ट बना देता है । रसायन शासत्रकी उपमा मन द्वारा नये विचारोंके उत्पादनकी तुलना हम रासायनिक ज्षेत्रमें नये पदार्थोके पेदा करनेकी क्रियासे कर सकते हैं | कुछ रासायनिक तत्वों या यौगिकोंमें परस्पर इतना प्रबल खिंचाव होता है कि अगर वे केवल एक दूसरेके सम्पक्में भ्रा जाते हैं तो तुरन्त ही रासायनिक ढंगसे मिलकर एक या अधिक नये पदार्थोको उत्पन्न कर देते हैं । उनके बीच रासायनिक क्रिया मानो श्रापसे आप हो जाती है । लेकिन कुछ दूखरे पदार्थ ऐसे होते हें जिनमें आपसमें खिंचाव होते हुए भी रासायनिक संयोग उस सर्मय तक नहीं होता जब तक कि उन्हें कोई बाहरी उत्ते जना न मिल्नले जिसके द्वारा ताप, प्रकाश या बिजलीके रूपमें शक्ति पहुँचायी जाय जो रासायनिक क्रियाको आरम्भ कर दे । इस सम्बन्ध्म रसायन शाखके ज्ञाताओं- को यादु होगा कि वे किस भ्रकारसे प्रयोगशाक्तार्में भिन्न- प्रकारके पदार्थ बनाया करते थे--तरहाँ पर एक परखनली में रासायनिक सांमग्री रहती थी जिश्वको वे काँचकी एक डंडीसे चलाते रहते थे और |आवश् क गर्मी पहुंचानेके लिए एक लेग्प या बनर रद्दता था । द क्या ही श्रच्छा होता यदि मनुष्यके मनमें नये विचार! पहले प्रकारकी रासायनिक क्रियाश्रोंकी तरह ही पैदा हो सकते यानी आपसे आप बिना परिश्रमके । मगर वास्तव में ऐसा नहीं होता बल्कि नये विचारोंके पैदा होनेकी क्रिया तो दूसरे प्रकारके रासायनिक परिवर्तनोंके समान है जिपमें कि नथे पदार्थोकों बनानेके लिए रासा«निक पदार्थोंके अतिरिक्त उनको क्षोमक ( 57768 ) और ज्वालक ( ऊिप्र7867 फ्रैप्राएवा०7 ) भी चाहिए। मनकी प्रयोगशालामें रासप्तायनिक पदार्थ तो थे तथ्य ((80॥8) अनुभव या ज्ञान हैं जो अ्रवलोकन, निरीक्षण वात्तोल्ञाप, अध्ययन तथा दूसरे उपायों द्वारा संग्रह किए गये हैं। चलाना या हिल्लाना इकट्ठा किए हुए तथ्योंका संख्या ६ ] ््ः मन द्वारा मनन तथा विश्लेषण है ओर बह शक्ति जो रासायनिक क्रिया को आरम्भ करती है ओर नथे योगिकों को सम्भव करती है एक चित्ताकषक रुचि पर चुम्बकीय लच्यसे उत्पन्न हती है। नये विचार शून्यमेंसे तो पेदा हो ही नहीं सकते. इसलिए ज्ञानका एक बढ़ा भांडार रखनेका मूल्य तो स्पष्ट ही हो जायगा । दूसरे इन तथ्यों- को मनमें इतने, ध्यानसे घुमाना, उन पर सोच विचार करना, उनको ग्रहण करना ओर उनका विश्लेषण करना , चाहिए ताकि समय पूरा होने पर अन्तश्चेतना उन्हें सचेत मनमें नये व्यूहोंके रूपमें पुनरुक्नाचन कर सके | ओर अन्तिम बात यह है कि एक हृदयग्राही शौक़ या लच्य होना चाहिए जो न केवल आपकों अपने विषय सम्बन्धी जानकारी इकट्ठा करने और पचानेमें मदद देगा बल्कि वह शक्ति भी प्रदान करेगा जो पुराने विचारोंमें से नये जुट्ट पेदा करनेके लिए परमावश्यक है । कदाचित इस बांतके मान लेनेमें फोई कंठिनाई न होगी कि नये विचार अकारण या अकरमात नहीं बन सकते बल्कि किसी उद्देश्य या लक्ष्य द्वारा निर्दिष्ट किये जाते हैं। इसे दूसरे शब्देंमिं यों कह सकते हैं कि कल्पनाकी क्विया उद्देश्य सम्बन्धी विचारसे ही आरम्भ होती है । इस नि्दंधक विचारके साथ स्ताथ उस्र उद्देश्य पूतिके लिए इच्छा भी सम्मिलित रहती है। मनमें जमा किये हुए ओर समय समय पर उठने वाले विचारोंमें से जो निर्देशक विचारके अनुरूप होते हैं उनको मन काममें ले आता है ओर बाक़ी जो इस घिचारके अनुरूप नहीं होते या किसी दूसरे कारणसे अरुचिकर होते हैं उन्हें मन छोड़ देता है । कदपना शक्ति बढ़ानेकी सारी क्रिया इस बात पर झवलम्बित है कि एक मानसिक झुकाव पेदा किया जाय । मनुष्य किसी वांछित या विशेष प्रकारके कल्पना फलको प्राप्त करनेमें अपने चित्तको लगाता है या यों कहिये कि किसी अभीष्ट विषय या ज्षेत्रमें अपनी कल्पना शक्तिको उन्नत करना चाहता है ओर धीरे-घीरे उसमें एक विशेष प्रकारकी अभिरुचि या अनुराग पेदा कर लेता है। वह अपनी इच्छा शक्ति या व्यवसाय ( ए7]] ) को भी उद्ची इच्छित दिशामें संगठित कर लेता है। पूरी सफल्नता प्राप्त करनेमें वर्षा' लग सकते हैं प्र अन्तमें वह व्यक्ति ब्यावहारिक-मनोविज्ञान १३९, अपने विषय या चुने हुए जषेत्रमें ऐसी तीचर कल्पना शक्ति, विचारोंका उपनाऊपन और विकल्प या पत्तान्तर (8 |॥6- 779072) का ज्ञान प्राप्त कर लेता है जिन्हें देखकर एक नोसिखिया आश्चर्यचकित रह जाता है । जब हम इस बातकी छाम बीन करते हैं कि कल्पना मनके भीतर ही भीतर क्या चीज़ है जो पुराने विचारोंको मिलाकर नये विचारोंकी उत्पत्ति करती है तो हमें पता चलता है कि विचारोंके स॑योगका सबसे फलोत्पादक कारण उनकी समानता या सादश्यकी शक्ति ही है। इस बातको हम इस तरह समझ सकते हैं कि आपके जीवनमें कोई काम, व्य(पार मनबहलावका धन्धा ( [[07759 ) या योजना है जिसके लिये आप बड़े उत्सुक हैं। बहुत अच्छा | आपके प्रिय उद्देश्यमें चाहे वह कुछ भी हो जो आपकी गहरी अ्रभिरुचि है वह एक चुग्बक का कास करती है । उस चुम्बककों आप बार बार अपने संचित अनुभवमें, जिसे स्मृति कहते हैं, डालते हैं तब वही चुम्बक खींच कर अपने सदश पदार्थों को निकाल लेता है ओर साथही साथ उन दूसरी चीज़ों को श्रलग कर. देता है जिनसे प्रबल भिन्नता या अन्तर है। आप अपने दैनिक जीवनके अनुभवों कोभी इस चुम्त्रककी सीमाके अन्दर लाते हैं तो वही फल मिलता है। सम्भव है कि आप जान-बूक कर ऐसा न करते हों। अभ्रधिकतर यह क्रिया अनजानमें आपके अन्तर मनमेंही होती रहतो दै। पुराने विचारोंमे समानता ओर असमानता हूं ढ़ निकालना नये विचारोंके उत्पादन की क्रिया का बढ़ा अंश है । क्‍ दुनियामें हर अच्छी चीमको प्राप्त करनेके ज्षिण उसकी कीमत अदा करनी पड़ती है | इसी तरह कल्पना सम्बन्धी योग्यता प्राप्त करनेके लिए यह आवश्यक है कि आप अपने मनको जी जानसे किसी चुने हुए प्रिय काममें लगा दँ। आप ओर हम शायद बाहरकी सड़कों पर मीलों चले जाते हैं। वहाँ मनुष्योंके कुण्ड ओर उनका आना-जाना देखते हैं पर इन 'सबका हमारे ऊपर कोई असर नहीं होता । एक उपन्यासकार जो उसी जगह टदलने जाता है ओर उन्हीं दृश्यों को देखता है, जब घर लौदता है तो अपने साथ आधो दु्जंन कहानियाँ आरम्भ करनेके लिए नये विचार ले आता है। इसका कारण यह यह है कि १४० वह अपने विशेष विषय पर ध्यान लगाये रहता है जिससे कि उसके मन पर पड़ी हर एक गहरी छापसे उसे एक कहानी का मसाला मिल जाता है। पुक आदमी वर्षो मोटरगाड़ी था रेडियो सेट चलाता है पर इस बातका ज़रा भी शौक श्रपने मनमें नहीं लाता कि केसे उनमें सुधार किया जा सकता है | एक दूसरा आदमी थोड़ाभी किसी यंत्र पर काम करता है तो डसके मनमें तरह-तरहके विचार पैदा हो जाते हैं---चाहे वे असाध्यही क्यों न हों--- कि कैसे उस यंत्रकी उन्नत्त की जाय या कैसे उसे एक ओर अच्छे नये ढंगसे बनाया जाय। दोनों प्रकारके मलुष्योमें क्या अन्तर है ? प्रधानतः यह कि वह अपने विपयमें किस सीमा तक तदल्लीन है ? कल्प्रनाशक्तिकी शिक्षाके क्षिए न केवल मनकी दूसरी शक्तियोंकी शिक्षा बलिके भावनाओंका उचित प्रयोग और ठीक मानसिक वृत्ति का पेदा करनाभी परमावश्यक है। दिमाग़ को सुचारु रूपसे काममें खानेमें जिन तत्वोंका हाथ रहता है उनमें भांवगा था सं॑वेग (77 00707) का स्थान सर्व्रधान है ओर भावनाही योग्यता श्रोर प्रतिभाका असली रहस्य है । अ्भिरुचि या . अनुरागके रूपमें भावनाही मनकी संचालक शक्ति है ओर . जिस कामसे आप प्रेम करते हैं उसके चारों ओर अ्रपकी कंल्पना निरन्तर विचरती रहती है और उसी उद्योगितासे नये विचार 3 पन्न होते रहते हैं। सहानुभूति अनुरागसे मिल्ता-जुलता भावनाका- एक और रूप है जो कल्पनाके काममें-- विशेषकर कवियों और उपन्‍्यास- कारोंके लिए---बड़ा लाभदायक है। हमारा संकेत सहालु- भूतिकी ओर है। सहानुभूति पेदा करना कह्पनाशक्ति बढ़ानेके लिए छुठझा उपाय है जिसका सुकाव हम यहाँ करते हैं । यहाँ पर. सहानुभूतिसे हमारा तात्पय समवेदना या दूसरोंके लिए जो कष्टमें हों,-दुःख अनुभव करना नहीं है बल्कि कह्पनामें दूसरोंके संग 'होकर उनके भाषों को समभाना व महसूस करना; है चाहे वे किसीभी परिस्थिति में हों । हम उन लोगके साथ-क्षाथ[ भी महसूस कर सकते हैं जो नाच-गा रहे हों ठीक ऊसी प्रकार, जैसे कि उन लोगों के साथ जो कि किसी कष्टसे पीड़ित हों.। सहानुभूति का विज्ञान, सितम्बर, १९४४५ अभिप्राय है पात्र (00]066) से अपने को एक कर [ भाग ६१ देना ; उसके विचार और भावनाओं जाकर बैठ जाना या यों कहिए कि थोड़ी देश्के ल्षिए अपने निञ्जी व्यक्तित्व के बाहर निकलकर उसकी भावनाश्रोंके भीतर घुस जाना | इसीके द्वारा हम दूसरोंके हृद्यके विचारों ओर भावनाओं को समझ सकते हैं जो दूसरी तरह तो हमारे लिए एक बन्द पुस्तकके समान हैं। इस प्रकार अपने व्यक्तित्वके बाहर निकलना कल्पनाही का काम है ; पर इसमें अ्वतंक शक्ति सहानुभूति ही है। अपलर्म दोनों सहानुभूति और कह्पना-सिल्चकर काम करते हैं ओर यह कहना कठिन है कि एक नये विचारके निर्माणमें उनका अलग-अलग कितना हाथ है । एक कवि मीठे संगीत और चमत्कारी विचारोंसे भरी हुई कवितायें तक शाखतर-या दल्लीलों द्वारा नहीं लिखता बल्कि भावनाके जरिये से ; श्रौर यह भावना सहानुभूति के रूपमें प्रगट होती है । प्रकृति, सीन्दर्य, मानवीय आनन्द, दुःख शोक इत्यादि कविकी शीघ्र आदी (86॥08- 07076) बुद्धि पर अंकित हो जाते हैं क्योंकि उदासीनता या विरोधका भाव रखनेकी जगह हर एक तथ्यमें सम्पूर्ण ,, मन और हृदयसे घुस जाता है जिससे वद्द सच्चाई को इसने अ्रच्छे तरीकेसे प्रहण कर लेता है जितना वह ओर छिसी साधन हारा न कर सकता | एक व्यवसायी था किसी और काम करने वालेकोा भी सहानुभूतिकी उतनी ही श्रावश्यकता हाती दे जितनी एक कविका | अन्तर केवल इतना ही है कि उनके सहा- नुभूति को प्रगट करमेके ढंग और उद्देश्य अलग-अलग होते हैं। एक न्यायाधीश भी, जोकि फ़ौजदारीके एक पेचीदा सुकदमेकी साक्षी को सुलकाना चाहता है, सहा- नुभूति ही को काममें लाता है कि अपनेको अभियुक्तके मन और हृदयमें रख सके ओर दोनों पक्ञोके गवाहँकी प्रबुत्तियोंकों समझा सके । अगर वह अपना फैसला केवल बयानोंको तराजूकी भाँति तोल कर ही देता है तो संभव है कि वह अन्याय कर बैठे | सच तो यह है कि यदि कोई व्यक्ति यह चाहता है कि उसके पास एक रचनात्मक मन हो जो नये विचारेंके पैदा करनेमें फलदायक हो तो उसकी एके बढ़ी आवश्य- संख्या ६ ] हि - व्यावहारिक-मनोविशान १४१ कता सहानुभूति है। उप्तमें दूसरोंके साथ महसूस करने की योग्यता होनी चाहिये। इसी भावनाके साथ कल्पना भी रहती है। दोनों अभिन्न हैं। कल्पताशक्ति शिक्षा का सबसे बड़ा अंग है कि ठीक-ठीक मानस्तिक ओर भावना सम्बन्धी गुण प्राप्त किए जाये । शायद कुछ क्लञोग यह प्रदूत करें कि सहानुभुतिको शक्तिको केसे प्राप्त किया जाय | कमसे कम एक विषयर्मे तो अवश्य ही आपके पास सहानुभूति पहलेसे मौजूद है--आपके प्रधान लक्ष्य या उद्देश्यके सम्बन्ध में । कोई बात जिम्नके बारेमें आप उत्स्राहपूर्ण हैं! उसमें अवश्य ही आपको सहानुभूति होगी। जिस किसी चीजके प्रति आपके हृदयमें उत्साह या उत्सुकता होगी डसमें आपको अवश्य ही सच्ची सहानुभूति भी होगी । सिद्धान्त बनाकर जांच करना सातवाँ उपाय जो नये विचारंके बनानेमें अ्रथवा छिपे हुए लब्ध-फल (30]0007)) के खोज निकालनेमें बड़ी सहायता करता है वह यह है कि जब कभी आपको रैकली व्यवसाय या कारोबार सम्बन्धी समस्याकी जाँच करनी हो तो आप हमेशा एक सिद्धान्त स्थिर कर के, बल्कि अच्छा तो यह होगा कि कई विकतप सिद्धान्त बना लें ओर फिर उन सब की एक एक करके परीक्षा करें । सच्चाई तक पहुँचनेके लिए यह सबसे अच्छा रास्‍्ता है। यही तरीका तमाम वेज्ञानिक खोजमें काम*में लाया जाता है। डाविन की आदुत थी कि वह हर विषथरम्में एक काद्पनिक सिद्धान्त बना लेता था। जो कुछ प्रमाण उसे निरूपण (00807'ए9॥07) और प्रयोग द्वारा मिलते थे उन्हीं के आधार पर वह एक सिद्धान्त, बना लेता था ओर फिर उसीकी दिशामें काम करना |झारस्मकर देता था। हर पेशे ओर हर व्यचसायमें एक काल्पनिक सिद्धान्त बना लेनेका नियम उतना ही उपयोगी है जितना एक वेज्ञा- निक के लिए। मान लीजिये एक व्यवसायीके कारोबार के सुनाफेमें कमी आ रही है और स्राधघारण निरीक्षण करने पर उसका कोई कारण नहीं मिल्लता तो ऐसी दशा में क्या किया जाधथ £ एक बार फिर जाँच कोजिये--इस बार एक निश्चित सिद्धान्त बना कर--जैसे कि विज्ञापन में त्रटि है या माल अच्छा नहीं है---भोर कुल्न मामले की इस दृष्टिसे परीक्षा कीजिये। बिना एक कसोटी बनाये आप केवल अधेरेमं ही भटकते रहते हैं और अपनी जाँच के बाद अपने को वहींका व थं पते हैं । पर एक सिद्धान्त बना लेनेके बाद श्राप आत्म-विश्वाससे आगे बढ़ते जाते . हैं कतोकि आपके पास एक पैमाना है श्रोर यद्यपि आपको यह पता चल्ले कि आप को विज्ञापनमें कोई द्रुटि नहीं है मगर आशा इस बात की है कि आपको ठोक दस बात का पता चल जायगा जिसकी वजइसे आपके लाभमें कमी हो रहो है | | उपमा ( 8॥8029 ) नये विचार पैदा करने और विशेषकर प्रकृतिके गुप्त नियमसोकों ढूंढ निकालनेका आठवाँ उँपाय उपसा का प्रयोग है। हमारा मन अनुभवसे विचार जमा करता है.। ये. विचार श्रेणियोंमें विभाजित किये जाते हैं, और हर श्रेणी के गुर्णोेके लिए अत्लग माप बनाया जाता है। अधिकतर नये तथ्य जाने हुए तथ्योंसे विभिन्नता हौके कारण पहचाने जाते हैं पर उनके अनुसन्धानका आरम्भ बहुधा समानता ओर सादइयकी बातों हीसे होता है। हमारी तमाम मानसिक क्रियाओं पर विभिनज्ञता ओर साइश्यका शासन रहता है। यदि हम मंगल ग्रह निवास्रियोंकी कक्पना- करते हैं तो भी मानवीय शब्देंर्में सोचे बिना नहीं रह सकते---किन बातोंमें वे हमारे समान हैं और किन बार्तों- में हमसे विभिन्न । सच तो यह है कि समानता (878]029) हमारे तमाम सोचनेकी एक आवश्यक विधि है। श्रोर अक्सर झजुत प्रतिभावान्‌ व्यक्ति केवल इतना ही करते हैं कि मानप्विकया प्राकृतिक घटनाअ्रमें ऐसी समानतायें या सम्बन्ध खोज निकालते हैं जिनका पहले पता नथा। हेवलाक पलिस ( ]8976]00/7 8॥!8 ) ने अपनी पुस्तक [77]0788870798 ७70 (707777676 में इस बातको बड़ी स्पष्टतासे थों लिखा है कि अरस्तूकी [ शेष पृष्ठ १४३ पर ] सम्पादकीय डा० श्याम सुन्दर दास का स्वगंवास चार वर्ष पूवं ७ अगस्त १६४१ के भारतने कवि सप्नाटू श्री रवीद्धनाथ ठाकुरको खुत्युका समाचार सुना था। देश व भाषाके इस सेवकके निधनसे देश शोकाकुल - था। अभी उस महान्‌ आत्माके विरहका दुःख लोग हल्का भी न कर पाये थे कि इस वर्षकी ७ अगस्तको भावृ- भाषाका एक दूसरा प्रेमी यमराज ने उनसे छीन लिया । डा० इयामसुन्द्र दासके निधनसे हिन्दी संखसार*« को भारी ज्ञत्ति पहुँची है। पर विधिके आगे मनुष्य विवश है। “जो आता है उसे जाना ही पढ़ता है, यद्दी संसार का क्रम है! यह सोचकर संतोष [करना ही पढ़ता है । डा० श्यामसुन्द्र दासकोी अनन्त कृतियोसे. सब ही .. हिन्दी प्रेमी परिचित है। प्राचीन, साहित्यकी खोज में! : उन्होंने जो महत्त्वपूर्ण काय॑ किये वह जनताके लिये अत्यन्त ही कामप्रद हैं। उनकी मौलिक कृतियाँ,) तथा वे बृहत्‌ प्रन्थ जिनका , उन्होंने संपादन किया, सब ही उदच्चकोटिके हैं। उनकी झमर कृति नागरी प्रचारिणी-सभा है। वह श्रत्र नहीं हैं, किन्तु उनकी |यह सभा चिरकाल तक हिन्दी भाषाकी सेवा करती रहेगी ओर इस "प्रकार चिरस्मरणीय डा० वयामसुन्द्र दासको स्मृतिको ओर भी चिरस्थायी बनाये रहेगी। हिन्दी संधार उनके ऋणसे उऋण नहीं हो सकता । प्रत्येक हिन्दी प्रेमीका कत्तंव्य है कि वह उनकी इस सभाकी:) उन्नतिके लिये सदा जी-जानसे यत्न करे।। मातभाषासे प्रेम व उसको सेवा करना ही पूज्य श्यामसुन्दर दासजंके प्रति सर्वोत्तम श्रद्धांजलि होगी; उनके जीवनके' प्रिय कार्य मातृभाषाकी सेवाकों स्रदा करते रहना ही उनका ' सबसे अच्छा स्मारक होगा | ः राष्ट्रकवि श्री मैधिलीशरण ग़॒प्तकी हीरक-जयन्ती पिछली १३ अग्रस्तकों काशों नागरी प्रचारिणी सभा को झोरसे काशीमें श्री गुप्तजीकी हीरक जयन्ती बड़े समा- शोइसे मनाई गई। देशके अच्य भागोंमें भी हिन्दी-प्रेमी कै जनताने इस अवसर को उचित समारोहके साथ मनाया उत्सवका पूर्ण आयोजन होने पर » अगस्त को बाबू श्यामसुन्द्र दास जीके निधन हो जानेसे लोगोंका हृदय शोकप्रस्त था, फिर भी राष्ट्रटविका सम्मान करनेमें किसी प्रकारकी कमी नहीं की गई । गुप्तनी भारतके श्रेष्ट राष्ट्ररवि है। उनकी रचनायें नवीन कल्पनाओं से ओत-प्रोत है। रामराज्य की उनका कल्पना, गांधीवादकी उनकी व्याख्या सब अपना निजी अपनत्व रखती हैं । साकेत, पंचवटी, यशोघरा, द्वापर कृगाल आदि उनकी सबही रचनाअ्रेमें प्राचीन कथानकों में नवीनता मिक्षती है। उनकी भारत-भारती प्रप्येक हिन्दुत्व प्रेमी युवक का कंठद्दार है । हम लोगोंकी कामना है कि भगवान्‌ गृप्तजी को 'चिर आयु करे जिससे बह भविष्य में भी अपनी सजीव कृतियों द्वारा देश व जातिका उपकार कर सके । समालोचना “उद्यम का साबुन अंक हिन्दी 'उच्म' विशेषांक साबुन”, अगस्त १६४४, संपादक वि०ना० वाडे गाँवकर, ध्ंपेठ, नागपुर, मूल्य १) रुू० । “उद्यम! का यह विशेषांक जनताके लिये बड़ा उपयोगी है। इस अंक को पढ़नेसे साधारण पढ़े लिखे लोगोंको भी साबुन विषयक ज्ञान हो सकता है। इसका अध्ययन करके घरेलू कार्यके लिये तथा छोटे पेमाने पर व्यवस्ताय !करनेके लिये सुगमता से साबुन तैयार किया जा 'सकता है। आशा है भविष्यमें भी इस प्रकारके अन्य व्यवसायोंके संबंधमें उद्यम द्वारा जनता का ज्ञान बढ़ेगा । जैनसिद्धान्त भास्कर भाग १२ किरिण १ और दि जैन ऐंटीकरी भाग ११ सर्या १ प्रकाशक जैन सिद्धान्त सन | थार! पृष्ट संख्या [(९ और २८ आकार रायल शअ्रय्पेजी ( जुलाई १६४५ दोनोंका संयुक्त वार्षिक मूल्य ६) पहले यद्द जैन पुरातत्व ओर' इतिहास विषयक महत्व- पूण पत्रिका अत्रेमासिक थी परन्तु कई कठिनाइयोंके कारण अ्रब बाण्मासिक कर दी गयी है। जैनसिद्धान्त भास्कर गमें ओर दि जैन ऐंटीक्क री जैसा नामसे प्रकट है अंग्रजीमें निकलते हैं। दोनेोंके सम्पादक बड़े-बड़े विद्वान फ् संख्या < ] 5... हैं। हिन्दी भागमें “जैनधर्म ओर कज्ता,” “भंडारा जिलैमें जैन पुरातत्व,” जैनकथासाहित्य आदि ८ उत्तम लेख, साहिध्य समालोचना और जैन सिद्धान्त भवनका वार्षिक विवरण हैं । सभी लेख उत्तम कोटिके विद्वार्नोंकी लेखनीसे जैनधर्म- के साहिध्य और प्रवर्तकोंके संबंधमें लिखे गये हैं और पढ़ने योग्य हैं । अंग्रेजी भागके सम्पादक भी वही हैं। इसमें पाँच उत्तम लेख जैन इतिहास श्र पुरातत्व पर हैं। इनके लेखक भी उच्चकोटिके विद्वान हैं । इसका दूसरा लेख है । ५॥ 67004&] 85७॥078607 0 9५868॥7- 9878 970 [02980]0097'9 0॥॥7070]080&) (78060078 ।” इसमें विद्वान लेखक ने श्वेताम्तर ओर दिगंबर कथा साहित्यसे यह निश्चय करनेका सफल प्रयत्न किया है कि विक्रम संवतके संस्थापक विक्रमादिः्यका समय ईसा से पूर्व (८ ई० में आर॑भ होता है ओर इनके »१ हा वर्ष उपरान्त शक संँवतके प्रवर्तंक नहवान' का सैमस आता है। इस नदह्गावनकों ही इतिहासमें नहवान्‌ बतलाया गता है। इस लेख से सिद्ध होता है कि भार- तीय इतिहाप्तकी बहुतप्ती गुत्थियों को सुलमानेके लिए जैन रूहित्यसे पर्याप्त प्रकाश मित्र सकता है | “-महावीर प्रश्नाद श्रीवास्तव सम्पादकीय १४३ [ एष्ठ १४१ का शेष ). व्यावहारिक-मनोविज्ञान यह कहावत बड़ी सुन्दर और सत्य है कि रूपक या उपमाका उस्ताद होना ही सबसे महत्त्व पूर्ण बात है। यह श्रज्नुत प्रतिभा ( (५०४ प्र8 ) कां लक्षण है क्योंकि इसका अर्थ है श्रसमान चौजेंमें समानता हढ़ निकालने- की योग्यतां। सब बड़े विचारक रूपकके उस्ताद हुए हैं क्योंकि स्पष्ट और चमकंदार “विचार सोचनेमें प्रतिमा श्रोंका प्रथोग होता है ओर जिस विचारक की उपमायें घुंधक्नी या हल्की हैं उम्तका' सोचना भी धुँपला और इलका ही होगा | हम जो उपमाको पसन्द करते हैं उसका कारण यह दे कि इसको सहायताखे बहुतसी चीज़ोंको छोटा करके (१60४०४) हम एक कर देते हैं, ओर ऐसा करना दर्शनशाश्षके निर्माणका एक आधार है। इसलिए यदि किसी मनुष्यको एक ऐसी रीतिकी तलाश है जिससे लाभ- दायक फल्नकी आशाकी जा सके तो उसे चाहिए कि अपने प्रश्कको एक असरबद्ध ([80]860) समस्या खथाल करने की जगह उग्नके सदहश तथ्योंकों दूसरे ज्षेत्रोमे तलाश करें क्योंकि उनका अध्ययन अवद्य ही उसके मुख्य प्रइ्नन पर कुछ न कुछ प्रकाश डाल्लेगा । विज्ञानका दर एक विद्यार्थी इस बातको जानता है कि अजुसन्धानके काममें उपमा या तुलनाका बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान हे। वैज्ञानिक खोजमें उपमाका इतना महत्व इसी कारण है कि संसारका निर्माण नियम ओर व्यवस्था पर है और उसमें एक न्याय संगत योजना है । . एक 8098/हछ द , शिकार वन्ञान : प्रयाग की विज्ञान परिषद्‌ का सुख पत्र (५8869 88 (9 इक प्रधान संपादक. डाक्टर सन्तप्रसाद टंडन डी० फिल अरिनननमक तन विशेष संपादक डाक्टर भ्री रंजन डाक्टर विशेभर नाथ श्रीवास्तव डाक्टर सत्य प्रकाश श्री श्रीचरण धर्मा डाक्टर रामशरणु दास 638 छछ98876)88(988698छ (98: 5छ आग ६०-६१ अक्टूबर १९४४-साच १९४५ अंकाशक विज्ञान पारषद, इलाहाबाद । 0० ककि (जिंक (कहे हैं जलता अनुक्रमणिका ओगधोगिक रघायन सरल विज्ञान सागर, भारतीय ज्योतिष, आकाशके कुच उपयोगी बुखखे, धातुओं की कलई और रंगाई चित्र, जन्मपत्र, फलित उ्योतिष--ल्े ० श्री महावीर प्रसाद श्रीवास्तव . & --ज्ञे० डा० गोरख प्रसाद २९,४४६ " चमड़ा -ले० श्री सहदेव प्रसाद पाठक, काशी बागवानी हिन्दू विश्वविद्यालय ४३ कमल--ले० भरी जगदीश प्रसाद राजवंशी एम०ए० ३० फोटो ग्राफी संबंधी कुछ शब्दों की व्यास्या-- फूलवारीके घास पातसे खादू--ले० श्री श्रीकृष्ण ले० डा० गोरखप्रसाद 5४. श्रीवास्तव एम० एप्न-सी० एल एल० बी० ४६ युद्धकालमें विशान की उन्नति--सर शान्ति स्वरूप दि क्‍ दे ह भाषा विज्ञान भटनागरके एक भाषण का सारांश ६८ . . रबर--ले० श्री ऑकारनाथ परती, रिसर्च स्कालर ३ पारिभाषिक-लिपि--जे ० डा० ब्रजमोहन गणित पी० एच० डी० | ह दुर्शांक पद्धति श्रथव द्वादशॉक पदुति--ले० भौतिक विज्ञान प्रो० हरिश्चन्द्र गुप्त एुभस० एू०... १०३. "रमाजे बम--ज्ञे० श्री के० एस० सिंगवी, चिकित्सा शास्त्र अनुवादुक श्री महावीर प्रसाद श्रीवास्तव. ११ “पेनीसिलीन--ले० श्री हरी प्रसाद शर्मा, ः सनोविज्ञात्र क्‍ एम० एसर-सी० ६३ वावहारिक मनोविज्ञान, उ्दे श्य, उत्साह ओर रुचि. ३५ मासिक धर्म या ऋतु काल - ले० डा० (मिस) कल्पना और मौलिकता | जज पावती मल्नकानी पुम० बी० बी० एस० १६ संवेगशक्ति, सहानुभूति, स्वतः विचार करने लहसुन (ऐतिहासिक विवेचन) --ले० श्री रामेशबेदी का अभ्यास ११ आयुर्वेदालंकार ३३ रखायन' जीवनी | «> रमाउ बम-ले० श्री रामचरण महरोत्र एम० एस-सी० ११ अशण जीवों का प्रथम भ्रन्वेषक त्यूवेनहुक--- वायु मंडलकी सृष्म हवाए-ले०ड|० सन्तप्रसाई टंडन ६७ श्र 4; ७ ह ' ले० श्रीमती रानी टंडन एस० एड० . ७३ साधारण रसायन विज्ञानके संस्थापक--ले० डा० सन्त अंश: टकुन ६६ पत्थरमें पाये गये जीवेंके अवशेष--ले० श्री मदन . ' लाल जायसवाल बी० एसनलसी० ६२ ज्योति षः परमाणु बम बनानेके प्रशोग---अ्मनेंसे वैज्ञानिकोंके जैन प्रश्न शास्र का मूलाधार--ल्ले० प॑० नेमिचन्द्र संधरषं की कहानी. 5८ शास्त्री, न्याय ज्योतिष तीथे, साहित्य रत्न ८३. फलों, और बीजों का विकिरण-- द ज्योतिष विज्ञान संबंधी जैन भ्न्थ --- ह्ले० डा० सन्त प्रसाद “टंडन 8३ ले० भरी श्रगरचन्द नाहठा १०७. विदेशोंसें गया हुआ भारतीय विशान--- तारे क्‍या हैं---ले० ड[० गोरखप्रसाद ६ <९ ले० श्री श्याम चन्द्र नेगी, ओर ओम प्रकाश ८६ 23३) ' प्मान्नोचना--ले० श्रीमती रानी टंडन एम०.ए५ छेद क्‍ ओऔद्योगिक रसायन मक्के से अरारोट बनान[--- ले० श्री शिवशरण शर्मा वैद्य ६४६ रबर--ज्ले० श्री श्रॉकार नाथ परती रिसच स्कालर ६९,९६४ शा यक्कत तेलका उपयोग, नाजोंका शर्करीकरण १8८ चिकित्सा शास्त्र असली धी या बनरपति घी-- क्‍ षृ ले० श्री रामेशवेदी आयुर्वेदालंकार ८१ प्रगतिशीज्ञ चिकित्सा शाख---ले० श्री जगदीश श्प पास्टर आंच पेरिसइ--ले० डा० बी०एन० पिनहा एम० बी० बी० एस०, श्रीमती कमलावती सिनहा एम० ए० डिप 8३ मनोचैज्ञानिक चिकिस्सा--ले० ड० बद्री नारायण प्रसाद, प्रोफेसर मेडिकल कालेज ४२०) ११७ जीवन विज्ञान सुप्रसूति विज्ञान क्या है--ले० ढा० शिरोमणिसिंह चौहान एम० एस० सी० विशारद ह ज्योतिष ग्रहों की रचना--ले० श्री ब्रजवासी लाल ' एम० एस-सी० , 'डी० फिल्ल० १२ वृहस्पति--भ्री चन्द्रशेखर शुक्ल सिद्धान्त विनोद. ९४ सरल विज्ञान सागर-गणित ज्योतिप--- ढा० गोरंख प्रसाद २६ भारतीय ज्योतिप--महाबीर प्रसाद श्रीवास्तव आकाशके चित्र १३६ ३ 5४. -. भाषा विज्ञान पारिभाषिक शब्दावज्ली--ल्ले ० डा० ब्रजमोहन पी० एच० डी० ७१, |. ७१ मनोविज्ञान व्यावह[रिक मनोविज्ञान, पढ़ने की कल्षा-- ले० श्री राजेन्द्र बिहारी लाज्ष एम० एसे-पती० १३ रसापन अ्लमूनियम--ल्षे ० श्री शामचरण भेहरोत्र, पुम० एस-सी ० - २४ पनस्पति तेल--ल्े० श्री रामदाश्न तिवारी, पएुम० एस-सी० डी० फिल्न० ४६ साधारण भारतकी खेतीमें बेकार वस्तुश्रोंफी उफ्योगित!--.- ले० डा० हीरा लाल दुबे, एम० एसनसी०, डी० फिल्ष० ४२ विज्ञान परिषद्‌ का वार्षिक विवरण (अक्टूबर १६४३० सितम्बर १६४४ तक) ३१वां वर्ष $ १३४६. मंगला प्रप्षाद पुरस्कार ' रेलवे सिगनल--ल्े० श्री आनन्द मोहन बी० एस-ल्ी, कमर्शल सुपरिन्‍्टेन्डेन्ट ह० इ० ई०... १७ समालोचना--ले० ढा० गोरख प्रसाद, ४ ढा० संत प्रसाद टंडन. ४७, ७०, ६७ हवाई फोटोप्रफी दवरा सिंचाईके इंजीनिथरों की सहायता हिन्दी साहित्य सम्मेलनके ३२वें अ्धिवेशनके विज्ञान परिषद्के सभापति ढा० सत्य प्रकाशके भाषण का सारांश १ * (0 विज्ञान-परिषदुकी प्रकाशित प्राप्य पुस्तकोंकी सम्पूण सूची १-विज्ञान प्रवेशिका, भाग १--विज्ञानकीं प्रारम्भिक बातें सीखनेका सबसे उत्तम साधन -ले० श्री राम- दास गौड़ एम० ए० और प्रो० सागराम भार्गव एम० एस-सी० ; ।) २--ताप--ह्वाईस्कूलमें पढ़ाने योग्य पाव्य पुस्तक-- ले० प्रो० प्रेमवत्लम जोशी एम० पए्‌० तथा श्री विश्वम्भर नाथ श्रीवास्तव, डी० एस-स्री० ; चतुर्थ संस्करण; ॥5), ; ३-चुम्मक--हाईस्कू «में पढ़ाने योग्य पुस्तक- ल्ले० मो० सालिगराम भागेव एस० एस-सी०; सजि०; ॥#) ४-“मनोरज्ञक रसायन- इसमें रसायन विज्ञान उप- न्याखकी तरह रोचक बना दिया गया है, सबके पढ़ने योग्य है- ले० श्रो० गोपास्वरूप भाग॑व एम० _ एस-सी० ; $॥), # #“सूय-सिद्धान्त--संस्क्ृत मूल तथा हिन्दी “विज्ञान भाष्य'-- प्राचीन गणित ज्योतिष स्ीखनेका सबसे सुलभ उपाय “पृष्ठ संझ्या १२१४ ; १४० चित्र तथा नकशे--ल्े० श्री महाबीरप्रसाद श्रीवास्तव बी० एस-सी०, एल० टी०, विशारद; सजिल्द; दो « भागुेंमें; मूल्य ६)। इस भाष्यपर लेखकको हिन्दी साहित्य सम्मेज्ञनका १२००) का मंगल्लाप्रसाद पारितोषिक मिलता है । ६--वैज्ञानिक परिमाणु--विज्ञानकी विविध शाखाओंकी इकाइयोंकी सारिणियाँ--ले० डाक्टर निहालकरण सेठी डी० एस सी०; ॥), 3-समीकरण मीमांसा--गणितके एम० ए० के विद्यार्थियोंके पढ़ने योग्य-ल्ले० पं० सुधाकर द्विवेदी, प्रथम भाग १॥), द्वितीय भाग ॥#), ८प--निर्णा यक ( डिटर्मिनेंट्स )--गणितके एम० ए० के विद्याथियोंके पढ़ने योग्य--ल्ले० प्रो० गोपाल कृष्ण गर्दे ओर गोमती प्रसाद अ्रम्मिहोत्री बी० घ्स स्री० $ | |); &- बीजज्यामिति या भुजयुग्म रेखागणित--इंटर- मौडियेटके गणितके विद्या्थियोंके लिये---ले० डाक्टर . सत्यप्रकाश डी० एस-स्री० ; 4।), १०- गुरुदेव के साथ यात्रा--डाक्टर जे० सी० बोसकी यान्नाओंका लोकप्रिय वर्णन ; ।“), ११--केदार-बद्री यात्रा- केदारनाथ और बद्रीनाथके यात्रियोंके लिये उपयोगी; |), १२--वर्षा और वनस्पति- लोकप्रिय विवेचन--त्े० श्री शह़्रराव जोशी; |), १३- मनुष्यका आहार--कौन-सा शआहार सर्वोत्तम है--- ले० वैद्य गापीनाथ गुप्त; |), १४-सुव णु कारी-- क्रियास्मक- ले० पंचोल्ी; ।), १५--रसायन इतिहास--इंटरमीडियेटके विह(थर्योक्े योग्य - क्षे० ह० आत्माराम डी० एस-सी ०; ।॥), १६-विज्ञानका रजत-जयन्ती अंक--विज्ञान परिषद्‌ के २९ वर्षका इतिहास तथा विशेष लेखोंका संग्रह; १) १७--विज्ञानका उद्योग-व्यवसायाडु- रुपया बचाने तथा धन कमानेके लिये अनेक संकेत---१३० पृष्ठ, कई चित्न--सम्पादक श्री रामदास गेड़ ; १॥), १८०७-फल्ष-संर क्षण - दूसरापरिवर्धित संस्करण-फर्नोंकी डिब्वाबन्दी, मुरब्बा, जैम, जेली, शरबत, अचार आदि बनानेकी अपूर्व पुस्तक; २१२ पृष्ठ; २६ चित्र--- ले० डा० गेरखप्रसार ढडी० एस-सी०; २), १६- व्यज्ञ-वित्रणु--( काहून बनानेकी विद्या )<- क्षे० एल० एृ० डाउस्ट ; अजुवादिका श्री रत्नकुमारी, एस० ए०; १७२ पृष्ठ; सैकड़ों चित्र, सजिद्द; १॥) २०--मिट्टं के बरतुन--चीनी मिद्टीके बरतन केसे बनते हें, ज्ोकश्य- ल्ले० प्रो० फूलदेव सहाय वर्मा ; १७३ ए४; ११ चित्र, सजिल्द; १॥), २१--वायुमंडल्-- ऊपरी वायुमंडलका सरत्न वर्णन. ले० डाक्टर के० बी० माथुर; १८६ पृष्ठ; २२ चित्र, सजिल्द; १॥), २२--ल्कड़ी पर पॉलिश--प्रॉलिशकरनेके नवीन और पुराने सभी ढंगोंका व्योरेवार वर्णन । इससे कोई भी पॉलिश करना सीख सकता है--के० डा० गेारख- श्री गंगाशंकर प्रसाद और भ्रीरामयत्न भटमागर, एस०, ९०; २१८ पृष्ठ, ३१ चिन्न, सजिल्द; १॥), २३-- उपयोगी सुंसखे तरकीबें और हुनर - सम्पादक डा० गोरखप्रसाद और डा० सत्यप्रकाश, आकार बड़ा . ( विज्ञानके बराबर ), २६० पृष्ठ ; २००० नुखखे, १०० खिन्र; एक-एक लुखखेसे सैकड़ों रुपये बचाये ज्ञा सकते हैं या हजारो रुपये कमाये जा सकते हैं | प्रत्येक गहस्थके लिये उपयोगी ; मूत्य अजिल्‍्द २) सजिल्द २।।), ह २४--कल्म पेबंदू-- ले ० श्री शंकरराव जोशी; २०० एंष्ट; ४० चिन्न; मांलियों, भालिकों और कृपकोंके लिये - उपयोगी; सजिल्द; ९॥), २४--जिल्द साज्ी--क्रियात्मक और च्योरेवार । इससे सभी जिल्द्साज़ी सीख सकते हैं, ले० श्री सत्यजीवन वर्मा, एम० ए०; १८० पृष्ट, ६२ चित्रसजिलद $॥॥), २६०-भारतीय चीनी सिद्धियाँ- औद्योगिक पाठशालाओं द कै विद्याथियं के ब्िये-- ल्ले ० प्रो० एस० एल मिश्र, २६० पृष्ठ; १३ चित्र; सजरद १॥), ु २७ -त्रिरुल्ा--दूसरा परिवर्थित संस्करण प्रत्येक वैथ और . शृहस्थके लिये - ले० आ्री रामेशवेदी आयुवदाल्तकार, २१६ पृष्ठ; ३ चित्र (एक रज्लीन); सजिल्द २) | यह पुस्तक गुंझुकुल आयुर्वेद महाविद्याक्नय १३ श्रेणी द्वव्यगुणके स्वाध्याय पुस्तकके रूपमें शिक्षापटक्षमें स्वीकृत हो चुकी. है ।'! - श्प--मधुमक्ली-पालन-ले० परिडेत दयाराम जुगड़ान, भूतपूर्व अध्यक्ष, ज्यो्वीकोट सरकारी मधुवटी; क्रिया- व्मक ओर व्योरेवार; मइमाखी पाल्षकंकि लिये उप- थोंगी तो है दी, जनसाधारणकों इस पुस्तकका अधिकांश अत्यन्त रोचक प्रतीत होगा; मधुमक्खियों की रहन-सहन पर पूरा प्रकाश छांशा गया हैं | 8०० पृष्ठ; अनेक चित्र क्‍ ओर नकशे, एक रंगीन चित्र; सजिल्द; २॥), २६->धरेलू डाक्टर- लेखक ओर सम्पादक डाक्टर जी० घोष, एम० बी० बी० स०, डी० दी० एम०,' प्रेफेलर डाक्टर जद्गीनारायण प्रसाद, पी० एच० (7६ दम प्रो णरनछे? व 4 ५2% ४५२२ ::जधा तप? पार्प्र५४७०७॥ ४० एीए (0० धन 4 #8जक कं एट। "६३ 772 <कप/कर एप्ररापटवर/पका रो कक 2४७७ मत कमरा मुद्ुक तथा प्रकाशक -- विश्वप्रकाश, कछ्ा अस्त, अयाग | 762, २४०. &. 28 डी०, एम० बी०, फैप्टेन डा० उमाशंकर प्रसाद, एसम० बी० बी० एस०, डाक्टर गोरखप्रसाद, आदि | - २६० पृष्ठ, १९० चित्र, आकार बड़ा ( चिज्ञानके बराबर ); सजिल्द; ३), ३०- तैरमा- तैरना सीखने भौर हचते हुए लोगोंको बचाने की रीति अ्रच्छी तरह समभायो गयी है । ले० डाक्टर गोरखप्रसाद, पृष्ठ १०४, झूढुय १), ३१--अंजीर--लेखक श्री रामेशबेदी, श्रायुर्वेदालंकार- अंजीर का विशद्‌ वर्णन श्रौर उपयोग करनेकी रीति । पृष्ठ ४२, दो चित्र, मूल्य ॥), यह पुस्तक भी गुरुकुल आयुर्वेद महाविद्यालय शिक्षा पटलर्म स्वीकृत हो चुकी है । ३९ सरल विज्ञान सागर, प्रथम भाग- सम्पादक - डाक्टर गोरखपअसाद। बढ़ी सरक्ष ओर रोचक भाषा में जंतुओंके विचिन्न संसार, पेड़ पौधों की अचरज भरी एुनिया, सूर्य, चन्द्र और तारोंकी जीवन कथा तथा भारतीय ज्योतिपके संक्षिप्त इतिहास - का वर्णन है। विज्ञानके आकार के ४७५० पष्ठ और ३२० चित्रोंसे सजे हुए अन्थ की शोभा देखते ही बनती है । सजिदद, मूल्य ६) हमारे यहाँ नीचे लिखी पुस्तके भी मिलती हैं।-- ,.« १--भारतीय वैश्ञानिक--( १२ भारतीय वेज्ञानिकाकी/ जीवनियां ) श्री श्याम नारागण कपूर, सचित्र और सुजिद्द; श८० एुष्ठ; ३) २--यान्त्रिक-चित्रकारी--छ्ले० श्री ऑकारभाथ शर्मा, एु० एम०आई०एल्त०ट्टं० । इस पुस्तकके प्रतिपाथ विषयको अ्ग्रेज़ञीम 'मिकेनिकत्त ड्राइंग! कहते हैं | ३०० पृष्ठ, क्‍ ७० चिन्न; ८० उपयोगी सारिणियां; सस्ता संस्करण २७) ३--वैक्युम-अ्ं क--ल्ले ० श्री श्रोकारनाथ शर्मा । यह पुस्तक रेलवेमें काम करने वाले फ़िटरों, इंजन-ड्राइवरों, फ़ोर- मेनों और कैरेज प्‌मजञामिमरोंकें क्षिये अ्रत्यन्त उपयोगी है। १६० पृष्ठ; ३१ चित्र, जिनमें कई रंगीन हैं, २) विज्ञाभ-मासिक पन्न, विज्ञान परिषद्‌ प्रयागका झुखपत्र दे । सम्पादृक डा० संतग्रसाद टंडन, लेक्चरर रसायन विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्याक्षय । वार्पिक चन्दा ३) विज्ञान परिषद, ४२, टेगोर टाउन, इलाहाबाद । उप्रदब_धटा 040... ४७०२००५००-केकर: कप र | ९९५० ६३६.४५ ९८ केक 2९०३५ )+०,३३३क+भ 3 थे वा 'उक/ ४ ७०४३० ५३०३ ४ -०-जैअरघक +॥//७ 7 3२४ आदर २/३३ ५ ।फाक थक

समस्त ग्रंथों और अनुभवों का निष्कर्ष क्या है?

समस्त ग्रंथों और महापुरुषों के अनुभवों को निष्कर्ष यह है कि संघर्ष से डरना अथवा उससे विमुख होना अहितकर है, मानव धर्म के प्रतिकूल है और अपने विकास को अनावश्यक रूप से बाधित करना है।

हम कोई भी कार्य करें सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने के लिए क्या लेकर चलें?

निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दें : ) समस्त ग्रंथों एवं ज्ञानी, अनुभवी जनों का कहना है कि जीवन एक कर्मक्षेत्र है। हमें कर्म के लिए जीवन मिला है। कठिनाइयाँ एवं दुःख और कष्ट हमारे शत्रु हैं, जिनका हमें सामना करना है और उनके विरुद्ध संघर्ष करके हमें विजयी बनना है ।

मनुष्य के कौन से र्ुण सफलता का मार्ग प्रशस्त करती है?

परिश्रम, दृढ़ इच्छा शक्ति व लगन आदि मानवीय गुण व्यक्ति को संघर्ष करने और जीवन में सफलता प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। दो महत्वपूर्ण तथ्य स्मरणीय हैं- प्रत्येक समस्या अपने साथ संघर्ष लेकर आती है। प्रत्येक संघर्ष के गर्भ में विजय निहित रहती है