सेवक धर्म में भक्ति की तुलना हनुमान जी से क्यों की गई है? - sevak dharm mein bhakti kee tulana hanumaan jee se kyon kee gaee hai?

सेवक धर्म में भक्ति की तुलना हनुमान जी से क्यों की गई है? - sevak dharm mein bhakti kee tulana hanumaan jee se kyon kee gaee hai?
भक्तिन कक्षा 12 महादेवी वर्मा /भक्तिन पाठ के प्रश्न उत्तर/Bhaktin Class 12 By Mahadevi Verma

छोटे कद और दुबले शरीरवाली भक्तिन अपने पतले ओठों के कानों में दृढ़ संकल्प और छोटी आँखों में एक विचित्र समझदारी लेकर जिस दिन पहले-पहले मेरे पास आ उपस्थित हुई थी तब से आज तक एक युग का समय बीत चुका है। पर जब कोई जिज्ञासु उससे इस संबंध में प्रश्न कर बैठता है, तब वह पलकों को आधी पुतलियों तक गिराकर और चिन्तन की मुद्रा में ठुड्डी को कुछ ऊपर उठाकर विश्वास भरे कण्ठ से उत्तर देती हैं-- ‘तुम पचै का का बताई—यहै पचास बरिस से संग रहित है।’ इस हिसाब से मैं पचहत्तर की ठहरती हूँ और वह सौ वर्ष की आयु भी पार कर जाती है, इसका भक्तिन को पता नहीं। पता हो भी, तो सम्भवत: वह मेरे साथ बीते हुए समय में रत्तीभर भी कम न करना चाहेगी। मुझे तो विश्वास होता जा रहा है कि कुछ वर्ष तक पहुँचा देगी, चाहे उसके हिसाब से मुझे 150 वर्ष की असम्भव आयु का भार क्यों न ढोना पड़े।



सेवक-धर्म में हनुमान जी से स्पर्द्धा करनेवाली भक्तिन किसी अंजना की पुत्री न होकर एक अनामधन्या गोपालिका की कन्या है-नाम है लाछमिन अर्थात लक्ष्मी।पर जैसे मेरे नाम की विशालता मेरे लिए दुर्वह है
, वैसे ही लक्ष्मी की समृद्धि भक्तिन के कपाल की कुंचित रेखाओं में नहीं बँध सकी। वैसे तो जीवन में प्राय: सभी को अपने-अपने नाम का विरोधाभास लेकर जीना पड़ता है; पर भक्तिन बहुत समझदार है, क्योंकि वह अपना समृद्धि सूचक नाम किसी को बताती नहीं। केवल जब नौकर की खोज में आई थी, तब ईमानदारी का परिचय देने के लिए उसने शेष इतिवृत्त के साथ यह भी बता दिया; पर इस प्रार्थना के साथ कि मैं कभी नाम का उपयोग न करूँ। उपनाम रखने की प्रतिमा होती, तो मैं सबसे पहले उसका प्रयोग अपने ऊपर करती, इस तथ्य को देहातिन क्या जाने, इसी से जब मैंने कण्ठी-माला देखकर उसका नया नामकरण किया, तब वह भक्तिन जैसे कवित्वहीन नाम को पाकर भी गद्गद् हो उठी।

भक्तिन के जीवन का इतिवृत्त बिना जाने हुए उनके स्वभाव को पूर्णत: क्या अंशत: समझना भी कठिन होगा। वह ऐतिहासिक झूँसी में गाँव-प्रसिद्ध एक अहीर सूरमा की एकलौती बेटी ही नहीं

, विमाता की किंवदन्ती बन जाने वाली ममता की काया में भी पली है। पाँच वर्ष की वय में उसे हँड़िया ग्राम के एक सम्पन्न गोपालक की सबसे छोटी पुत्रवधू बनाकर पिता ने शास्त्र से दो पग आगे रहने की ख्याति कमाई और नौ वर्षीय युवती का गौना देकर विमाता ने, बिना माँगे पराया धन लौटाने वाले महाजन का पुण्य लूटा।

पिता का उस पर अगाध प्रेम होने के कारण स्वभावत: ईर्ष्यालु और सम्पत्ति की रक्षा में सतर्क विमाता ने उनके मरणान्तक रोग का समाचार तब भेजा

, जब वह मृत्यु की सूचना भी बन चुका था। रोने-पीटने के अपशकुन से बचने के लिए सास ने भी उसे कुछ बताया। बहुत दिन से नैहर नहीं गई, सो जाकर देख आवे, यही कहकर और पहना-उढ़ाकर सास ने उसे विदा कर दिया। इस अप्रत्याशित अनुग्रह ने उसे पैरों में जो पंख लगा दिये थे, वे गाँव की सीमा में पहुँचते ही झड़ गये। ‘हाय लछमिन अब आई’ की अस्पष्ट पुनरावृत्तियाँ और स्पष्ट सहानुभूतिपूर्ण दृष्टियाँ उसे घर तक ठेल ले गईं। पर वहाँ न पिता का चिह्न शेष था, न विमाता के व्यवहार में शिष्टाचार का लेश था। दु:ख से शिथिल और अपमान से जलती हुई वह उस घर में पानी भी बिना पिये उल्टे पैरों ससुराल लौट पड़ी। सास को खरी-खोटी सुनाकर उसने विमाता पर आया हुआ क्रोध शान्त किया और पति के ऊपर गहने फेंक-फेंककर उसने पिता के चिर बिछोह की मर्मव्यथा व्यक्ति की।

जीवन के दूसरे परिच्छेद में भी सुख की अपेक्षा दु:ख ही अधिक है। जब उसने गेहुँएँ रंग और बटिया जैसे मुख वाली पहली कन्या के दो संस्करण और कर डाले तब सास और जिठानियों ने ओठ बिचकाकर उपेक्षा प्रकट की। उचित भी था

, क्योंकि सास तीन-तीन कमाऊ वीरों की विधात्री बनकर मचिया के ऊपर विराजमान पुरखिन के पद पर अभिषिक्त हो चुकी थी और दोनों जिठानियाँ काक-भुशुण्डी जैसे काले लालों की क्रमबद्ध सृष्टि करके इस पद के लिए उम्मीदवार थीं। छोटी बहू के लीक छोड़कर चलने के कारण उसे दण्ड मिलना आवश्यक हो गया।

जिठानियाँ बैठकर लोक चर्चा करतीं

, और उनके कलूटे लड़के धूल उड़ाते; वह मट्ठा फेरती, कूटती, पीसती, राँघती और उसकी नन्हीं लड़कियाँ गोबर उठातीं, कंडे पाथतीं। जिठानियाँ अपने भात पर सफेद राब रखकर गाढ़ा दूध डालतीं और अपने गुड़ की डली के साथ कठौती में मट्ठा पीती उसकी लड़कियाँ चने-बाजरे की घुघरी चबातीं।

इस दण्ड-विधान के भीतर कोई ऐसी धारा नहीं थी

, जिसके अनुसार खोटे सिक्कों की टकसाल-जैसी पत्नी के पति को विरक्त किया जा सकता। सारी चुगली-चबाई की परिणति, उसके पत्नी-प्रेम को बढ़ाकर ही होती थी। जिठानियाँ बात-बात पर घमाघम पीटी-कूटी जातीं; पर उसके पति ने उसे कभी उँगली भी नहीं छुआई। वह बड़े बाप की बड़ी बात वाली बेटी को पहचानता था। इसके अतिरिक्त परिश्रमी, तेजस्वनी और पति के प्रति रोम-रोम से सच्ची पत्नी को वह चाहता भी बहुत रहा होगा, क्योंकि उसके प्रेम के बल पर ही पत्नी ने अलगौझा करके सबको अँगूठा दिखा दिया। काम वही करती थी, इसलिए गाय-भैंस, खेत-खलिहान, अमराई के पेड़ आदि के संबंध में उसी का ज्ञान बहुत बढ़ा-चढ़ा था। उसने छाँट-छाँट कर, ऊपर से असन्तोष की मुद्रा के साथ और भीतर से पुलकित होते हुए जो कुछ लिया, वह सबसे अच्छा भी रहा, साथ ही परिश्रमी दम्पत्ति के निरन्तर प्रयास से उसका सोना बन जाना भी स्वाभाविक हो गया।

धूम-धाम से बड़ी लड़की का विवाह करने के उपरान्त

, पति ने घरौंदे से खेलती हुई दो कन्याओं और कच्ची गृहस्थी का भार उन्तीस वर्ष की पत्नी पर छोड़कर संसार से विदा ली। जब वह मरा, तब उसकी अवस्था छत्तीस वर्ष से कुछ ही अधिक रही होगी; पर पत्नी उसे आज बुढ़ऊ कहकर स्मरण करती है। भक्तिन सोचती है कि जब वह बूढ़ी हो गई, तब क्या परमात्मा के यहाँ वे भी न बुढ़ा गये होंगे, अत: उन्हें बुढऊ न कहना उनका घोर अपमान है।

हाँ

, तो भक्तिन के हरे-भरे खेत, मोटी-ताजी गाय-भैंस और फलों से लदे पेड़ देखकर जेठ-जिठौतों के मुँह में पानी भर आना स्वाभाविक था। इन सबकी प्राप्ति तो तभी संभव थीं, जब भइयहू दूसरा घर कर लेती; पर जन्म से खोटी भक्तिन इनके चकमें में आई ही नहीं। उसने क्रोध से पाँव पटक-पटककर आँगन को कम्पायमान करते हुए कहा- ‘हम कुकुरी-बिलारी न होयँ, हमारा मन पुसाई तौ हम दूसरे के जाब नाहिं त तुम्हारा पचै के छाती पर होरहा भूँजब और राज करब, समुझे रहौ।’

उसने ससुर

, अजिया ससुर और जाने के पीढ़ियों के ससुरगणों की उपार्जित जगह-जमीन में से सुई की नोक के बराबर भी देने की उदारता नहीं दिखाई। इसके अतिरिक्त गुरु से कान-फुँकवा, कण्ठी बाँध पति के नाम पर घी से चिकने केशों को समर्पित कर अपने कभी न टलने की घोषणा कर दी। भविष्य में भी समर्पित सुरक्षित रखने के लिए उसने छोटी लड़कियों के हाथ पीले कर उन्हें ससुराल पहुँचाया और पति के चुने बड़े दामाद को घर जमाई बनाकर रखा। इस प्रकार उसके जीवन का तीसरा परिच्छेद आरम्भ हुआ।

भक्तिन का दुर्भाग्य की उससे कम हठी नहीं था

, इसी से किशोरी से युवती होते ही बड़ी लड़की भी विधवा हो गई। भइयहू से पार न पा सकने वाले जेठों और काकी को परास्त करने के लिए कटिबद्ध जिठौतों ने आशा की एक किरण देख पाई। विधवा बहिन के गठबन्धन के लिए बड़ा जिठौत अपने तीतर लड़ानेवाले साले को बुला लाया, क्योंकि उसका हो जाने पर सब कुछ उन्हीं के अधिकार में रहता है। भक्तिन की लड़की भी माँ से कम समझदार नहीं थी, इसी से उसने वर को नापसन्द कर दिया। बाहर के बहनोई का आना चचेरों भाईयों के लिए सुविधाजनक नहीं था, अत: यह प्रस्ताव जहाँ-का-तहाँ रह गया। तब वे दोनों माँ-बेटी खूब मन लगाकर अपनी सम्पत्ति की देख-भाल करने लगीं और ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान’ की कहावत चरितार्थ करनेवाले वर के समर्थक उसे किसी-न-किसी प्रकार पति की पदवी पर अभिषिक्त करने का उपाय सोचने लगे।

एक दिन माँ की अनुपस्थिति में वर महाशय ने बेटी की कोठरी में घुसकर भींतर से द्वार बन्द कर लिया और उसके समर्थक गाँववालों को बुलाने लगे। अहीर युवती ने जब इस डकैत वर की मरम्मत कर कुण्डी खोली

, तब पंच बेचारे समस्या में पड़ गये। तीतरबाज युवक कहता था, वह निमन्त्रण पाकर भीतर गया और युवती उसके मुख पर अपनी पाँचों उंगलियों के उभार में इस निमन्त्रण के अक्षर पढ़ने का अनुरोध करती थी। अन्त में दूध-का-दूध पानी-का-पानी करने के लिए पंचायत बैठी और सबने सिर हिला-हिलाकर इस समस्या का मूल कारण कलियुग को स्वीकार किया। अपीलहीन फैसला हुआ कि चाहे उन दोनों में एक सच्चा हो चाहें दोनों झूठे; पर जब वे एक कोठरी से निकले, तब उनका पति-पत्नी के रूप में रहना ही कलियुग के दोष का परिमार्जन कर सकता है। अपमानित बालिका ने ओठ काटकर लहू निकाल लिया और माँ ने आग्नेय नेत्रों से गले पड़े दामाद को देखा। संबंध कुछ सुखकर नहीं हुआ, क्योंकि दामाद अब निश्चिंत होकर तीतर लड़ाता था और बेटी विवश क्रोध से जलती रहती थी। इतने यत्न से सँभाले हुए गाय-ढोर, खेती-बारी सब पारिवारिक द्वेष में ऐसे झुलस गये कि लगान अदा करना भी भारी हो गया, सुख से रहने की कौन कहे। अन्त में एक बार लगान न पहुँचने पर जमींदार ने भक्तिन को बुलाकर दिन भर कड़ी धूप में रखा। यह अपमान तो उसकी कर्मठता में सबसे बड़ा कलंक बन गया, अत: दूसरे ही दिन भक्तिन कमाई के विचार से शहर आ पहुँची।

घुटी हुई चाँद को मोटी मैली धोती से ढाँके और मानों सब प्रकार की आहट सुनने के लिए एक कान कपड़े से बाहर निकाले हुए भक्तिन जब मेरे यहाँ सेवकधर्म में दीक्षित हुई

, तब उसके जीवन के चौथे और सम्भवत: अन्तिम परिच्छेद का जो अर्थ हुआ, इसकी इति अभी दूर है।

भक्तिन की वेश भूषा में गृहस्थ और बैरागी का सम्मिश्रण देखकर मैंने शंका से प्रश्न किया--‘क्या तुम खाना बनाना जानती हो

?’ उत्तर में उसने ऊपर से होठ को सिकोड़े और नीचे के अधर को कुछ बढ़ा कर आश्वासन की मुद्रा के साथ कहा-- ‘ई कउन बड़ी बात आय। रोटी बनाय जानित है, दाल राँध लेइत है, साग-भाजी छँउक सकित है अउर बाकी का रहा।

महादेवी वर्मा के पाठ ‘भक्तिन’ के प्रश्नोत्तर।



प्रश्न : 1 : भक्तिन अपना वास्तविक नाम लोगों से क्यों छुपाती थी? भक्तिन को यह नाम किसने और क्यों दिया था?
उत्तर : भक्तिन अपना वास्तविक नाम लोगों से इसलिये छुपाती थी, क्योंकि उसका नाम लक्ष्मी था और भारतीय संस्कृति में लक्ष्मी को धन तथा समृद्धि की देवी माना जाता है। पर यह लक्ष्मी तो नितांत निर्धन और दर-दर की ठोकरें खाने वाला जीवन जी रही थी। अपने नाम के अर्थ और अपने जीवन में ऐसा उपहासपूर्ण विरोधाभास ही लक्ष्मी को अपना नाम बताने में संकुचित बना देता था।
भक्तिन को भक्तिन नाम इस निबंध की रचनाकार महादेवी वर्मा ने दिया था। यह नाम देने का कारण यह था कि भक्तिन की वेशभूषा ही ऐसी थी कि उसे भक्तिन कहा जा सके। उसका सिर घुटा हुआ था। गले में कंठीमाला धारण किये थी। सादगीपूर्ण वस्त्र पहनती थी।

प्रश्न : 2 : दो कन्या रत्न पैदा करने पर भक्तिन पुत्र-महिमा में अंधी अपनी जिठानियों द्वारा घ्रणा व उपेक्षाका शिकार बनी। ऐसी घटनाओं से ही अक्सर यह धारणा चलती है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है। क्या आप इससे सहमत हैं?

उत्तर : नहीं, हम इससे सहमत नहीं हैं। जरा सा भी नहीं। हमें इस धारणा के प्रचलन के पीछे छिपे हुए मनोविज्ञान को समझना होगा, तभी हम सत्य तक पहुंच सकेंगे। असल में पुरुष-सत्ताक समाज में प्रत्येक स्त्री विरोधी मूल विचार पहले पुरुषों में ही जन्म लेता है। पुत्र की महत्ता और उसे वंश बढ़ाने वाले के तौर पर परिवार में प्रधानता आखिर किसने दी, पुरुषों ने ही। फिर पुरुषों ने ही परिवार में अपनी सर्वोपरि स्थिति के चलते इस धारणा को स्त्री के मन में बैठा भी दिया।

जरा गौर कीजिये कि पुत्र और पति के शुभ के सारे व्रत स्त्री रखती है, पर पुरुष, अपनी पत्नी या पुत्री के लिये कोई व्रत नहीं रखता। यहां तक कि मां के चरणों को स्वर्ग से बढ़कर तो बताया जाता है, पर उनके लिये भी पुरुषों के लिये किसी व्रत-उपवास का विधान नहीं है। क्यों? इसलिये कि अंततः मां भी एक स्त्री ही है।

इन्हीं तरीकों से स्त्री को पुरुष की तुलना में कमतर या हीन होने की मानसिकता का शिकार बनाया जाता है। पुरुष प्रधान समाज में स्त्रियों की वास्तविक दशा प्रायः दोयम दर्जे की रही है। वे पुरुषों के विचारों की वाहक मात्र बना दी गयीं। इसलिये वे अगर स्त्री होते हुए भी स्त्री के प्रति घ्रणा, अत्याचार, अन्याय का व्यवहार करती हैं, तो असल में वे पुरुष विचारों का ही प्रतिनिधित्व कर रही होती हैं।

प्रश्न : 3 : भक्तिन की बेटी पर पंचायत द्वारा ज़बरन पति थोपा जाना एक दुर्घटना भर नहीं, बल्कि विवाह के संदर्भ में स्त्री के मानवाधिकार (विवाह करें या न करें अथवा किससे करें) इसकी स्वतंत्रता को कुचलते रहने की सदियों से चली आ रही सामाजिक परंपरा का प्रतीक है। कैसे?
उत्तरः- भक्तिन की बेटी पर पंचायत द्वारा जबरन पति थोपा जाना एक दुर्घटना भर नहीं है। यह पुरुष-प्रधानता वाले समाज की वृत्तियों और मानसिकता का ही एक लक्षण है। उसी भावना से संचालित आचरण है।

इसी के चलते भक्तिन के जेठ के लड़के ने संपत्ति के लालच में षड्यंत्र कर एक सरल हृदया बच्ची को धोखे से अपने जाल में फँसाया। उसने उसे अपने निठल्ले साले के साथ एक कोठरी में बंद कर दिया, ताकि उस पर लांछन लगाकर, अपने साले के साथ उसका विवाह करा सके।

मामला पंचायत में ले जाया गया। पंचायत करने वाले भी पुरुष ही थे और हर हाल में स्त्रियों को ही पाप और कलंक का भागीदार मानने की मानसिकता से भरे हुए भी। निर्दोष लड़की की कोई बात नहीं सुनी गयी और मनमाना निर्णय देकर उसका विवाह जबरदस्ती निकम्मे तीतरबाज से करवा दिया गया।

मात्र विवाह के संदर्भ में ही नहीं, स्त्री के तमाम अधिकारों को कुचलने की परंपरा हमारे देश में सदियों पुरानी है। इंद्र द्वारा अहिल्या के साथ छल करने का दंड भी इंद्र को नहीं, अहिल्या को ही पत्थर बनकर भोगना पड़ा था। भक्तिन की बेटी के साथ किया सलूक ऐसी ही सामाजिक कुपरंपरा का प्रतीक है।

प्रश्न : 4 : ‘भक्तिन अच्छी है, यह कहना कठिन होगा, क्योंकि उसमें दुर्गुणों का अभाव नहीं’ लेखिका ने ऐसा क्यों कहा होगा?
उत्तर : लेखिका ने ऐसा इसलिये कहा है क्योंकि भक्तिन में अनेक सद्गुणों के साथ-साथ अवगुणों की भी कुछ कमी न थी। यह स्वाभाविक भी है। हम सभी गुणों और अवगुणों का मिला-जुला स्वरूप होते हैं। हां, हम ष्श्कि्षा और समझ पाकर अपने अवगुण छोड़ते जाते हैं और गुणों का अनुपात बढ़ाते जाते हैं।

मोटे तौर भक्तिन में भी जो मानवीय-अवगुण हैं, उनकी सूची इस तरह बनायी जा सकती है –

1.
वह घर में इधर-उधर रखे हुए रुपये-पैसों को भंडार घर की मटकी में छुपा देती थी, पर अपने इस आचरण को चोरी से नहीं जोड़ती थी। कोई इस बारे में संकेत भी करे तो वह बहस करने लग जाती थी।


2. जैसे-तैसे कच्चा-पक्का, स्वाद-बेस्वाद खाना पका लेने को ही वह सच्ची पाक-विद्या मानती थी।
3. वह पूरी तरह सत्य पर ही चलने वाली महिला नहीं थी। महादेवी जी किसी बात पर गुस्सा न हो जायें, इसके लिये वह मामले को गोल-गोल बातों के जरिये बताने से भी नहीं हिचकती।
4. अपनी मान्यताओं को वह शास्त्रों में बतायी गयी मान्यता सिद्ध करने का हठ करती है।
5. अपने जीवन में परिवर्तन लाने के प्रति उसका रवैया विरोध का है। दूसरों को अपने अनुसार बदलने के लिये संकल्पित होकर भी खुद में कोई बदलाव नहीं लाना चाहती।

प्रश्न : 5 : भक्तिन द्वारा शास्त्र के प्रश्न को सुविधा से सुलझा लेने का क्या उदाहरण लेखिका ने दिया है?
उत्तर : भक्तिन द्वारा शास्त्र के प्रश्न को सुविधा से सुलझा लेने का उदाहरण लेखिका ने इस तरह दिया है- लेखिका को स्त्रियों का सिर मुंडवाना पसंद नहीं था। लेखिका ने भक्तिन को भी सिर न मुंडवाने की सलाह दी थी। भक्तिन ने तत्काल कह दिया कि ऐसा करना तो शास्त्र में भी लिखा है- ‘तीरथ गए मुँडाए सिद्ध’। पर किस शास्त्र में लिखा है, कहां लिखा है, इसका उसे पता ही नहीं है।

असल में यह भी पुरुष प्रधान समाज ने ही सिखाया है। विधवा स्त्री को सिर मुंडवाकर रहना सिखाया गया था, ताकि वह सुंदर न दिखे और कोई अन्य व्यक्ति उसके प्रति आकर्षित न हो सके। जबकि विधुर होने पर भी पुरुश अपनी सज-धज कम नहीं करता। भक्तिन अपनी बात मनवाने के लिये तीखा कुतर्क करने से भी नहीं चूकती।

प्रश्न : 6 : भक्तिन के आ जाने से महादेवी अधिक देहाती कैसे हो गईं?
उत्तर : भक्तिन के आ जाने से महादेवी अधिक देहाती इस तरह हो गईं, कि भक्तिन जैसा ग्रामीण जीवन स्वयं जीती थी, उसने महादेवी जी को भी वैसे ही जीवन में ढाल देने में कोई कसर न छोड़ी थी।

उसकी अटल मान्यताएं थीं कि यदि रात को बना मकई का दलिया, सुबह मठे के साथ खाया जाये तो सोंधा लगता है। बाजरे के तिल लगाये पुए गरम खाये जाये ंतो अच्छे नहीं लगते। ज्वार के भुने हुए भुट्टे के हरे दानों की खिचड़ी स्वादपूर्ण होती है। सफेद महुए की लपसी संसार भर के हलवे से बेहतर होती है।

यही सब खाते-खाते महादेवी जी भोजन के असली स्वाद को भी भूल गयी थीं। इसी तरह महादेवी के कपड़ों को तहाने में वह उन्हें और भी ज्यादा सलवटों से भर देती है और महादेवी जी को वैसे ही
तुड़े-मुचे कपड़े पहनना पड़ता था।

प्रश्न : 7 : आलो आँधारि की नायिका और लेखिका बेबी हालदार और भक्तिन के व्यक्तित्व में आप क्या समानता देखते हैं?
उत्तर : आलो आँधारि की नायिका और भक्तिन के व्यक्तित्व में यह समानता है कि दोनों ही घरेलू नौकरानियाँ हैं। दोनों को ही अपने परिवार से उपेक्षा मिली और दोनों ने ही अपने आत्म सम्मान को बचाते हुए स्वाभिमान पूर्ण जीवन का निर्वाह किया।

प्रश्न : 8 : भक्तिन की बेटी के मामले में जिस तरह का फ़ैसला पंचायत ने सुनाया, वह आज भी कोई हैरतअंगेज बात नहीं है। अखबारों या टी. वी. समाचारों में आनेवाली किसी ऐसी ही घटना को भक्तिन के उस प्रसंग के साथ रखकर उस पर चर्चा करें।
उत्तर : समाचार पत्र की घटना – आज के समाचार पत्र में एक घटना प्रकाषित हुई है। हरियाणा के एक गांव में दो भिन्न जातियों के युवक-युवती ने प्रेम-विवाह कर लिया तो उन्हें पकड़कर पंचायत के सामने पेश किया गया। पंचायत ने दोनों को निर्वस्त्र करके गांव में घुमाने का फैसला दिया।

महादेवी वर्मा का गद्य पाठ ‘भक्तिन’ के ‘भाषा की बात’ के अंतर्गत आने वाले प्रश्नोत्तर।

प्रश्न : 1 : . नीचे दिए गए विशिष्ट भाषा-प्रयोगों के उदाहरणों को ध्यान से पढ़िए और इनकी अर्थ-छवि स्पष्ट कीजिए-
(
क) पहली कन्या के दो संस्करण और कर डाले

उत्तर : (क) पुस्तक के एक संस्करण के समाप्त हो जाने पर, उसका दूसरा संस्करण प्रकाशित किया जाता है। लेखिका महादेवी जी ने अपने लेखन कर्म और पुस्तकों के प्रकाषन के अनुभव से उदाहरण देते हुए, भक्तिन द्वारा तीन बेटियों को जन्म देने पर यह उपमा दी है।


(
ख) खोटे सिक्कों की टकसाल जैसी पत्नी
उत्तर : (ख) टकसाल सिक्के ढालने के कारखाने को कहते हैं। हमारे पुरातनपंथी समाज में ‘लड़के’ को खरा सिक्का और ‘लड़की’ को खोटा सिक्का माना जाता है। जो लोग ऐसा मानते हैं कि समाज में लड़कियों का कोई महत्त्व नहीं होता, वही लड़कियों की माता को खोटे सिक्कों की टकसाल कह सकते है। यहां पर टकसाल की उपमा दी गयी है।
(
ग) अस्पष्ट पुनरावृत्तियाँ और स्पष्ट सहानुभूतिपूर्ण
उत्तर : (ग) जिन बातों को किसी से कहने की बजाय उसे सुनाने के लिये बोला जाता है, तो उनका स्वर अस्पष्ट ही होता है। भाव यह कि वह सुन भी ले और उससे ही कहा जा रहा है, यह भी न लगे।
जब कई लोग उसी बात को, उसी तरीके से बार-बार कहें तो उसे अस्पश्ट पुनरावृत्तियां ही कहा जायेगा।
पर सभी लोग चोट पहुंचाने वाली प्रवृत्ति के पहीं होते। बहुत बड़ी संख्या उनकी होती है, जिनमें सद्भाव होता हैं ऐसे लोग हमारे दुख के समय, अपनी आंखों में हमारे लिये वास्तविक सहानुभूति का भाव स्पश्ट तौर पर दर्षाते हैं। वे चाहते हैं कि हमें दुख सहने की ताकत मिले। इसे ही ‘स्पष्ट सहानुभूतिपूर्ण’ बताया गया है।

प्रश्न : 2 : बहनोई‘ शब्द ‘बहन (स्त्री.)$ओई‘ से बना है। इस शब्द में हिन्दी भाषा की एक अनन्य विशेषता प्रकट हुई है। पुल्लिंग शब्दों में कुछ स्त्री-प्रत्यय जोड़ने से स्त्रीलिंग शब्द बनने की एक समान प्रक्रिया कई भाषाओं में दिखती है, पर स्त्रीलिंग शब्द में कुछ पुं. प्रत्यय जोड़कर पुल्लिंग शब्द बनाने की घटना प्रायः अन्य भाषाओं में दिखलाई नहीं पड़ती। यहाँ पुं. प्रत्यय ‘ओई‘ हिन्दी की अपनी विशेषता है। ऐसे कुछ और शब्द और उनमें लगे पुं. प्रत्ययों की हिन्दी तथा और भाषाओं में खोज करें।
उत्तर : हिंदी भाशा के कुछ और शब्द इस प्रकार देखे जा उसकते हैं-
ननद $ ओई = ननदोई

प्रश्न : 3 : पाठ में आए लोकभाषा के इन संवादों को समझ कर इन्हें खड़ी बोली हिन्दी में ढाल कर प्रस्तुत कीजिए-

(क) ई कउन बड़ी बात आय। रोटी बनाय जानित हैं, दाल राँध लेइत हैं, साग-भाजी छँउक सकित हैं, अउर बाकी का  रहा।
उत्तर : (क) यह कौन बड़ी बात है। रोटी बनाना जानती हूँ। दाल बना लेती हूँ। साग-भाजी छौंक सकती हूँ और शेष क्या रहा।

(ख) हमारे मालकिन तौ रात-दिन कितबियन माँ गड़ी रहती हैं। अब हमहूँ पढ़ै लागब तो घर-गिरिस्ती कउन देखी- सुनी।
उत्तर : (ख) हमारी मालकिन तो रात दिन पुस्तकें पढ़ने में ही लगी रहती हैं। अब यदि मैं भी पढ़ने लगूँ तो घर-परिवार के काम कौन करेगा।

(ग) ऊ बिचरिअउ तौ रात-दिन काम माँ झुकी रहती हैं, अउर तुम पचै घूमती-फिरती हौ, चलौ तनिक हाथ बटाय लेउ।
उत्तर : (ग) वह बेचारी तो रात-दिन काम में लगी रहती हैं और तुम लोग बिना काम ही घूमती-फिरती रहती हो। चलो, थोड़ी मदद करो।

(घ) तब ऊ कुच्छौ करिहैं-धरिहैं ना-बस गली-गली गाउत-बजाउत फिरिहैं।
उत्तर : (घ) तब वे कुछ करेंगे-वरेंगे नहीं, बस गली-गली गाते-बजाते फिरेंगे।

(ङ.) तुम पचै का का बताईयहै पचास बरिस से संग रहित है।
उत्तर : (ङ.) तुम लोगों को क्या-क्या बताऊँ पचास वर्ष से साथ में रहती हूँ।

(च. )हम कुकरी बिलारी न होयँ, हमार मन पुसाई तौ हम दूसरा के जाब नाहिं त तुम्हार पचै की छाती पै होरहा भूँजब और राज करब, समुझे रहौ।
उत्तर : (च) मैं कुतिया-बिल्ली नहीं हूँ। मेरा मन करेगा तो मैं दूसरे के घर जाऊँगी, अन्यथा तुम लोगों की छाती पर ही होरा भूनुँगी राज करुँगी, यह समझ लो।

सेवक धर्म में भक्तिन की तुलना हनुमान जी से क्यों की गई है?

लेखिका ने भक्तिन के सेवक-धर्म की तुलना हनुमान जी से की है। यह इसलिए की है क्योंकि जिस प्रकार हनुमान अपने प्रभु राम की तन-मन और पूर्ण निष्ठा से सेवा किया करते थे। ठीक उसी प्रकार भक्तिन अपनी मालकिन लेखिका की सेवा करती है। वह उनके प्रति पूर्ण समर्पण भाव से सेवा भाव रखती है।

भक्तिन की तुलना किससे और क्यों की गई है?

भक्तिन की तुलना हनुमान जी से की गई है। हनुमान जी राम के अनन्य सेवक थे। इसी प्रकार भक्तिन लेखिका की अनन्य सेविका थी। 2.

हनुमान जी का उल्लेख भक्तिन पाठ में क्यों किया गया है?

उत्तर: भक्तिन के संदर्भ में हनुमान जी का उल्लेख इसलिए हुआ है क्योंकि भक्तिन लेखिका महादेवी वर्मा की सेवा उसी नि:स्वार्थ भाव से करती थी, जिस तरह हनुमान जी श्री राम की सेवा नि:स्वार्थ भाव से किया करते थे।

सेवक धर्म में भक्ति स्पर्धा करती है किसकी?

सेवक धर्म में भक्तिन किससे स्पर्धा करने वाली थी ? उत्तर — (घ) हनुमान।