Show
प्रयोग संख्या-1.1 प्रयोग का नाम: दूर अवस्थित वस्तु के अवतल दर्पण में बनने वाले प्रतिबिम्ब द्वारा दर्पण की फोकस दूरी ज्ञात करना। आवश्यक उपकरण/सामग्री: अवतल दर्पण, मीटर स्केल, स्टैण्ड के साथ सफेद पर्दा, साहुल सूत्र इत्यादि। सिद्धान्त: अनन्त पर स्थित वस्तु से दर्पण की सतह पर आपतित किरण एक दूसरे के समान्तर होती है। जब अवतल दर्पण को किसी दूर अवस्थित वस्तु के सामने रखा जाता है तो वस्तु से दर्पण की सतह पर आपतित समान्तर किरणें अवतल दर्पण की सतह से परावर्तित होकर दर्पण के फोकस तल पर मिलती है और वास्तविक, उल्टा तथा छोटा प्रतिबिम्ब बनता है । प्रयोग विधि: (i) दिए गए अवतल दर्पण को दर्पण स्तंभ में लगाते हुए टेबुल पर रखें। (ii) अवतल दर्पण का मुख प्रयोगशाला की खिड़की या दरवाजे की ओर इस प्रकार रखें कि दूर अवस्थित किसी भवन या पेड़ से आने वाली किरणें दर्पण पर अपतित हो । (iii) दर्पण के सामने एक सफेद पर्दा लगाएँ। स्केल दूरस्थ वस्तु से आती किरणे अवतल दर्पण स्टैण्ड पर्दा लगाएं
(iv) पर्दा को दर्पण के सामने इस प्रकार व्यवस्थित करें कि दूर स्थित उस चयनित भवन या पेड़ का स्पष्ट प्रतिबिम्ब बने। (v) मीटर स्केल की सहायता से पर्दा एवं अवतल दर्पण के बीच की दूरी ज्ञात करें (vi) इस प्रयोग को कम से कम तीन बार दुहराएँ। (vii) अवतल दर्पण एवं पर्दा के बीच की दूरी का औसत ज्ञात करें। यही औसत दूरी अवतल दर्पण की फोकस दूरी होती है।
अवतल दर्पण को फोकस दूरी = 25.49cm. सावधानियाँ: दूर अवस्थित वस्तु स्पष्टतः खुली आँख से दिखाई देनी चाहिए। (i) स्पष्ट प्रतिबिंब पर्दे पर या दीवार पर बनाना चाहिए। (iii) स्केल की मदद से दूरी मापते समय स्केल को क्षैतिज रखना चाहिए। (iv) साहुल जब स्थिर हो जाय तब पठन लेना चाहिए । (v) पर्दा को उदग्र रखना चाहिए । (vi) दूरी की माप दर्पण के धुव से की जानी चाहिए । विकल्पात्मक प्रश्न . निम्नलिखित प्रश्नों के दिए गए विकल्पों में से सही उत्तर का चयन कीजिए।
निष्कर्ष : अवतल दर्पण को फोकस दूरी = 25.49cm. सावधानियाँ: दूर अवस्थित वस्तु स्पष्टतः खुली आँख से दिखाई देनी चाहिए। (i) स्पष्ट प्रतिबिंब पर्दे पर या दीवार पर बनाना चाहिए। (iii) स्केल की मदद से दूरी मापते समय स्केल को क्षैतिज रखना चाहिए। (iv) साहुल जब स्थिर हो जाय तब पठन लेना चाहिए । (v) पर्दा को उदग्र रखना चाहिए । (vi) दूरी की माप दर्पण के धुव से की जानी चाहिए । विकल्पात्मक प्रश्न . निम्नलिखित प्रश्नों के दिए गए विकल्पों में से सही उत्तर का चयन कीजिए। निष्कर्ष : अवतल दर्पण को फोकस दूरी = 25.49cm. सावधानियाँ: दूर अवस्थित वस्तु स्पष्टतः खुली आँख से दिखाई देनी चाहिए। (i) स्पष्ट प्रतिबिंब पर्दे पर या दीवार पर बनाना चाहिए। (iii) स्केल की मदद से दूरी मापते समय स्केल को क्षैतिज रखना चाहिए। (iv) साहुल जब स्थिर हो जाय तब पठन लेना चाहिए । (v) पर्दा को उदग्र रखना चाहिए । (vi) दूरी की माप दर्पण के धुव से की जानी चाहिए । विकल्पात्मक प्रश्न . निम्नलिखित प्रश्नों के दिए गए विकल्पों में से सही उत्तर का चयन कीजिए। प्रयोगसंख्या-1.2 प्रयोग का नाम: किसी दुर्बअवस्थित वस्तु के प्रतिबिम्ब को प्राप्त कर उत्तल लेंस की फोकस दूरी ज्ञात करना । आवश्यक उपकरण/सामग्री: मीटर स्केल, उत्तल लेंस, स्टैड, पर्दा, साहुल सूत्र इत्यादि। सिद्धान्त : अनन्त पर स्थित वस्तु से लेंस पर आपतित प्रकाश किरणें समान्तर मानी जाती हैं । उत्तल लेंस पर आपतित किरणों का किरणपुंज लेंस से गुजरने के बाद लेंस के फोकस तल में अभिसरित होता है । उत्तल लेंस के प्रकाशति केन्द्र और फोकस तल के बीच की दूरी को लेंस की फोकस दूरी कहते हैं। प्रयोग विधि: (i) एक लेंस स्टैण्ड में लगाते हुए एक उत्तल लेंस को टेबुल पर रखें। प्रयोगशाला की खिड़की या दरवाजे से बाहर एक भवन या किसी पेड़ का चयन करें तथा उत्तल लेंस को टेबुल पर इस प्रकार रखें कि दूरस्थ लभवन या पेड़ से आती समान्तर किरण पुंज उसमें आ सके। (iii) लेंस के पीछे एक सफेद पर्दा स्टैण्ड के साथ लेंस के तल के समान्तर रखें। (iv) स्टैण्ड में लगे पर्दे का इस प्रकार व्यवस्थित करें कि दूरस्थ वस्तु भवन या पेड़ का उस पर स्पष्ट प्रतिबिम्ब बने। मीटर स्केल की सहायता से पर्दा एवं उत्तर देने के बीच की दूरी मापने
(vi) इस प्रयोग को दो बार दोहराए (vii) उत्तल लेंस और पर्दा के बीच की दूरी और औसत ज्ञात करें और सच उत्तल लेंस की फोकस दूरी है अवलोकन:
गणना:-
निष्कर्ष : दिए लेंस की फोकस दूरी = 30.32 cm. सावधानियाँ: (1) लेंस को उदग्र रखना चाहिए । (ii) पर्दे को उदग्र रखना चाहिए । (iii) लेंस तथा पर्दे का तल समांतर होना चाहिए । (iv) पर्दे पर तीक्ष्णतम (सुस्पष्ट) प्रतिबिम्ब के समय पठन लेना चाहिए । (v) स्केल को क्षैतिज रखना चाहिए । (vi) साहुल को स्थिर होने पर पठन चाहिए । (vii) स्केल पर स्थान बदल-बदलकर पठन लेना चाहिए प्रयोग संख्या-2 प्रयोग का नाम : काँच के आयताकार स्लैव (सिल्ली) से होकर, विभिन्न आपतन कोण पर जाने वाले प्रकाश की किरण पथ को दर्शाना तथा आपतन कोण, अपवर्तन कोण एवं निर्गत कोण मापना एवं उनके बीच संबंध स्थापित करना । आवश्यक सामग्री/उपकरण : काँच की आयताकार सिल्ली, ड्राइंग बोर्ड, पिन, कागज, स्केल, कोण मापक इत्यादि । सिद्धान्त: (i) काँच की आयताकार सिल्ली का सम्मुख पलक समान्तर होता है। (ii) प्रकाश को किरण जब एक समांगी माध्यम से दूसरे समांगी माध्यम में तिरछी प्रवेश करती है तब तल दोनों माध्यमों को अलग करने वाले संस्पर्श पर उसकी दिशा में परिवर्तन हो जाता है।
(iii) प्रकाश किरण जब विरल माध्यम से सघन माध्यम में जाती है तो अभिलम्ब को ओर मुड़ जाती है तथा जब प्रकाश किरण सपन माध्यम से विरल माध्यम में जाती है तो अभिलम्ब से दूर मुड़ जाती है। (iv) अपवर्तन के बाद उसी माध्यम में निर्गत होने पर आपतित किरण में विचलन नहीं होता है केवल आपतित किरण एवं निर्गत किरण समान्तर होती है। इस क्रिया को पाश्विक विस्थापन कहते हैं। प्रयोग विधि: (1) ड्राइंग बोर्ड पर ड्राइंग पिनों की सहायता से एक ताव कागज स्थिर करें। (ii) उसके मध्य भाग में काँच के आयताकार सिल्ली को रखें तथा पोसल से उसकी सीमा रेखा खींचे। आयताकार सिल्लो को हटाकर सीमा रेखा को आवश्यकतानुसार बढ़ा दें। (ii) काँच की सिल्ली की सीमा रेखा पर 30', 40°, 45°, 50° व 60° का आपतन कोण बनाने वाले रेखाखंडों को अलग-अलग बिन्दुओं में खींचे। (iv) कांच की सिल्ली को पुनः सीमा रेखा के अंदर सावधानीपूर्वक रखें। (v) एक आपतित पथ पर दो पिनों P, तथा Q, को उदग्र गाड़ें । P, तथा Q, के बीच की दूरी 10 सेमी से कम नहीं रखें। (vi) इन दोनों पिनों के प्रतिविम्ब को दूसरी ओर देखें तथा P, 'और Q, 'दो पिनों के उदग्र रूप से इस प्रकार गाउँ कि P, 'तथा Q,' के प्रतिविम्य तथा P, 'Q,' एक ही सीसी ना पर दिखाई देता P, 'तथा Q,' के बीच की दूरी 10 सेमी से कम न हो। (vii) चारों पिनों के स्थान पर छोटे से वृत्ताकार निशान (O) से घेरे दें तथा पिनों को हटा दें। (viii) यही प्रयोग हर आपतित किरणों के लिए करें । (ix) सिल्ली को हटा दें । (x) P.'.Q,' आदि को सीमा रेखा तक बढ़ाकर मिलायें। (xi) सीमा रेखा पर के बिन्दु A, तथा B को मिलायें । (xii) यहाँ PA, आपतित किरण, A,B, अपवर्तित किरण तथा BP,' निर्गत किरण है । (xiii) A, तथा B पर अभिलम्ब डालें । ZPAN, आपतन कोण, Z RA,B, तथा ZRA,BN निर्गत कोण निर्गत कोण हुआ । इसी प्रकार हर किरणों के लिए अपवर्तित किरण एवं निर्गत किरण के मार्ग निर्धारित करें । (xiv) आपतन कोण, अपवर्तन कोण एवं निर्गत कोण को सारणी में लिखें। अवलोकन एवं सारण::-
(1) आपतन कोण से अपवर्तन कोण का मान कम है इससे निष्कर्ष निकलता है कि जब प्रकाश की किरणें विरल माध्यम से सघन माध्यम में जाती है, तो अभिलम्ब की ओर मुड़ जाती है । (ii)प्रत्येक स्थिति में आपतन कोण की ज्या (sin i) और अपवर्तन कोण की ज्या (sin r) का अनुपात लगभग समान अर्थात् स्थिरांक प्राप्त होता है । (iii) आपतन कोण और निर्गत कोण समान होते हैं । सावधानियाँ : 6) दो पिनों के बीच की दूरी 10 सेमी से कम नहीं होना चाहिए। (ii) पिनों को उदय गाढ़ना चाहिए (iii), पिनों का समंजन करते समय उनके निचले हिस्से पर विशेष ध्यान देना चाहिए । (iv) किरण के पथ को तीर के निशान से दर्शाना चाहिए । प्रयोग संख्या-3 प्रयोग का नाम: प्रतिरोधक के सिरों के बीच के विभवांतर पर धारा की निर्भरता का अध्ययन करना और उसके प्रतिरोध को ज्ञात करना आवश्यक उपकरण : वोल्टमीटर, अज्ञात प्रतिरोध, परिवर्ती प्रतिरोध, आमीटर, संयोजक, संयोजक तार कुंजी, सूखा सेल, रेगमाल (sand paper) आदि । सिद्धांत : ओम के नियमानुसार निश्चित ताप पर किसी चालक से प्रवाहित धारा उसके सिरों के बीच के विभवांतर के समानुपाती होता है। यदि धारा I तथा विभवांतर V हो तो V I या, I = R जहाँ R नियत होता है, इसे प्रतिरोधक का प्रतिरोध कहते हैं। प्रयोग विधि
(1) आकृति के अनुसार उपकरणों का संयोजन करते हैं। (ii) ऐमीटर तथा वोल्टमीटर की शून्य त्रुटि नोट करते हैं। (in) रियोस्टेट को ऐसे लगाते हैं कि परिपथ में कम-से-कम धारा प्रवाहित हो। (iv) ऐमीटर तथा वोल्टमीटर के पठन लिया गया नोट किया जाता है। (v) रियोस्टेट में प्रतिरोध का मान बढ़ाने पर धारा और विभवांतर के पठन में परिवर्तन होता है, इन पठनों को नोट करते हैं। (vi) इस प्रकार पाँच बार पठन नोट करते हैं। (vii) ऐमीटर के पठन को x-अक्ष पर तथा वोल्टमीटर के पठन को y-अक्ष पर रखकर आलेख खींचते हैं। निरीक्षण एवं गणना : 'एमीटर का परास (Range)0-5A एमीटर शून्यक त्रुटि= 0.0A वोल्टमीटर का परास (Range)0-20V वोल्टमीटर शून्यक त्रुटि 0.0V%
स्केल: x अक्ष : 1 सेमी = 0.1A y अक्ष : 1 सेमी = 0.30 V चित्र : 3.3 निष्कर्ष : (i) प्रतिरोध के सिरों के बीच विभवांतर बढ़ने पर धारा का मान बढ़ता है। (ii) धारा एवं विभवांतर के बीच का आलेख सरल रेखा प्राप्त होता है। सावधानियाँ : (i) संयोजन तार के सिरे को रेगमाल (Sand Paper) से रगड़ कर व्यवहार करना चाहिए । (ii) ऐमीटर तथा वोल्टमीटर के शून्य त्रुटि को नोटकर संशोधित पठन लेना चाहिए । (ii) कम प्रतिरोध का रियोस्टेट प्रयोग करना चाहिए । (iv) ऐमीटर तथा वोल्टमीटर के धन तथा ऋण सिरों को क्रमशः सेल के धन तथा ऋण सिरों से संयोजित करना चाहिए। (v) उच्च प्रतिरोध का वोल्टमीटर प्रयोग करना चाहिए । (vi) परिपथ में धारा प्रवाहित करने के पूर्व इसकी जाँच अवश्य शिक्षक से करवाना चाहिए । (vii) पठन लेने समय केवल कुँजी को लगाना चाहिए । प्रयोग संख्या-4 प्रयोग का नाम: दो प्रतिरोधकों को श्रेणीबद्ध संयोजित कर परिणामी प्रतिरोध ज्ञात करना। आवश्यक उपकरण: दो अज्ञात प्रतिरोध के प्रतिरोधक, आमीटर, वोल्टमीटर, परिवर्ती प्रतिरोधक, सेल, कुंजी, संयोजक तार आदि । सिद्धांत: (i) जब किसी प्रतिरोधक से धारा I प्रवाहित हो तथा प्रतिरोधक के सिरों के बीच विभवांतर V हो तो उस प्रतिरोधक का V प्रतिरो (R)= v / ओम I
(ii) जब R, तथा R, प्रतिरोध के दो प्रतिरोधकों को श्रेणीक्रम संयोजित किया जाता है तब परिणामी प्रतिरोध का मान (R+R.) होता है। प्रयोग विधि: (i) चित्रानुसार उपकरणों का संयोजन करते हैं । (ii) एमीटर तथा वोल्टमीटर को शून्यांक त्रुटि नोट करते हैं। (iii) प्रारम्भ में R, प्रतिरोधक के समान्तर वोल्टमीटर को परिपथ में जोड़ते हैं। (iv) रियोस्टेट का कुछ मान देकर कुंजी को बन्द कर देने पर परिपथ में धारा प्रवाहित होती है। (v) एमीटर तथा वोल्टमीटर का पठन नोट करते हैं । प्रयोग को तीन बार दुहराया जाता है । (Vi) वोल्टमीटर का प्रथम तथा प्रतिरोधक का प्रथम क अनुपात प्रत्येक स्थिति में ज्ञात करते हैं इस तरह प्रथम प्रतिरोध का प्रतिरोध ज्ञात करते हैं
(vii) अब R, के बदले R, लेकर ऊपर के प्रयोग दुहराते हुए प्रतिरोधक R, का प्रतिरोध ज्ञात करते हैं । (viii) अब R, और R, को श्रेणीबद्ध करके अंतिम सिरों के बीच वोल्टमीटर को जोड़कर परिणामी प्रतिरोध ज्ञात करते हैं। निरीक्षण एवं गणना: एमीटर का पारस 0-1.5A एमीटर शून्यांक त्रुटि 0.0A वोल्टमीटर का परास 0-3V वोल्टमीटर शून्यांक त्रुटि 0.0V %3D गणना::- यहाँ R = 1.98; R, = 2.74 सूत्र R = R, + R, = 1.98 + 2.74 = 4.72 2 प्रयोग से समतुल्य प्रतिरोध R = 4.75 निष्कर्ष : श्रेणीबद्ध संयोजन में तुल्य प्रतिरोध का मान विभिन्न प्रतिरोधों के योगफल के बराबर होता है । सावधानियाँ: संयोजन तार के सिरे को रेगमाल से रगड़ कर व्यवहार करना चाहिए । (ii) एमीटर तथा वोल्टमीटर के शून्यांक त्रुटि को नोटकर संशोधित पठन लेना चाहिए। (iii) कम प्रतिरोध का रियोस्टेट प्रयोग करना चाहिए । (iv) एमीटर तथा वोल्टमीटर के धन तथा ऋण सिरों को क्रमशः सेल के धन तथा ऋण सिरों से संयोजित करना चाहिए । (v) उच्च प्रतिरोध का वोल्टमीटर प्रयोग करना चाहिए । (vi) परिपथ में धारा प्रवाहित करने के पूर्व इसकी जाँच अवश्य शिक्षक से करवाना चाहिए । (vii) पठन लेते समय केवल कुंजी को लगाना चाहिए ।
प्रयोग संख्या-1 प्रयोग का नाम: pH पेपर/सार्वत्रिक सूचक की सहायता से दिए गये नमूनों का pH ज्ञात करना : (i) तनु हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCI), (ii) तनु सोडियम हाइड्रॉक्साइड विलयन (NaOH), (iii) तनु एथेनॉइक अम्ल विलयन (CH COOH), (iv) नींबू रस, (४) जल (H,O), (vi) तनु सोडियम बाइकार्बोनेट (NaHCO.) विलयन। आवश्यक उपकरण एवं रासायनिक पदार्थ : तनु HCI अम्ल, तनु NaOH विलयन, तनु एथेनॉइक अम्ल, नींबू रस, जल, तनु NaHCO, विलयन, ड्रॉपर, बीकर, परखनली, कांच की छड़, PH पेपर, मानक रंग के चार्ट आदि। सिद्धांत : किसी विलयन का pH मान हाइड्रोजन आयन (H+) या हाइड्रोनियम आयन (H,O+) की सांद्रता (जिस मोल प्रति लिटर में मापते हैं) का ऋणात्मक लघुगुणक हैं। गणितीय रूप में pH = - log [Ht] = - log [HOT] [H] अथवा [H,O+], आयन की प्रतिलिटर में मोल संख्या को प्रदर्शित करता है। pH मान का परिसर 0 से 14 है। किसी माध्यम की प्रकृति उसके हाइड्रोजन आयन सान्द्रण और pH मान द्वारा सूचित होती है।
उदासीन विलयन 7 से अधिक 7 से क अम्लीय गुण बढ़ता है क्षारीय गुण बढ़ता है - किसी उदासीन विलयन में हाइड्रोजन ऑयन सान्द्रण 10-7 मोल प्रति लीटर होता है। अत: इसका pH मान 7 होता है। (iii) किसी अम्लीय विलयन में हाइड्रोजन आयन सांद्रण 10-7 मोल प्रति लीटर से अधिक होता है। अतः इसका pH मान 7 से कम होता है। (ii) किसी क्षारीय विलयन में हाइड्रोजन आयन सांद्रण 10-7 मोल प्रति लीटर से कम होता है। अत: इसका pH मान 7 से अधिक होता है। (iv) शुद्ध जल का pH मान 7 होता है। () pH पेपर कागज का एक टुकड़ा होता है। जिस पर सूचक विलेपित रहता है। प्रयोग विधि: (1) दिए गए नमूने विलयन को अलग-अलग परखनली में लें एवं उन नमूनों पर क्रमश: A,B,C,D, E एवं F लिखा लेबल लगा दें। (ii) pH पेपर के पैकेट से pH पेपर की एक पट्टी लें और इसे शुष्क काचित सफेद टाइल पर रखें। (iii) एक साफ एवं शुष्क ड्रॉपर में लेबल A लगा परखनली से विलयन की थोड़ी मात्रा निकालें और इसके एक बूंद विलयन pH पेपर पर डाल दें। (iv) pH पेपर के रंग में हो रहे परिवर्तन को ध्यान से देखें। (v) परीक्षण के लिए ली गई पट्टी के रंग में हुए परिवर्तन की pH पेपर के रंगीन चार्ट पर दिए गए रंग से तुलना करें। (vi) सात रंग का अंकित pH मान सारणी बना कर दर्ज करें। (vii) इसी प्रकार अन्य नमूने B,C,D,E, एवं F को लेते हुए इस प्रयोग को सम्पादित करें और प्राप्त प्रेक्षणों को दी गई सारणी में दर्ज करें। प्रेक्षण एवं परिणाम : सारणी
सावधानियाँ: (i) शुष्क एवं साफ परखनली में अलग-अलग नमूने लेकर पहचान हेतु लेबल लगा देना चाहिए। (ii). प्रत्येक उपयोग के बाद ड्रॉपर को अच्छी तरह धोएँ या प्रत्येक बार नया ड्रॉपर प्रयुक्त करें। (iii) pH पेपर को शुष्क काचित सफेद टाइल (Glazed white tile) पर रखना चाहिए। (iv) विभिन्न नमूने की बूंद लेते समय प्रत्येक बार ड्रॉपर को आसुत जल से धो लेना चाहिए। (v) pH पेपर के परिवर्तित रंग का मिलान सावधानीपूर्वक pH चार्ट पेपर से करना चाहिए। (vi) pH पेपरों को रासयनिक धूम्र से दूर रखना चाहिए। प्रयोग संख्या-2 प्रयोग का नाम: किसी अम्ल (HCl) के साथ (1) लिटमस का विलयन (नीला और लाल), (ii) जस्ता धातु तथा (iii) ठोस सोडियम कार्बोनेट की अभिक्रिया का अध्ययन करना। आवश्यक उपकरण एवं रासायनिक पदार्थ : परखनली, होल्डर, ज्वालक, आसुत जल, लिटमस का विलयन (नीला एवं लाल), जस्ता का टुकड़ा, सोडियम कार्बोनेट आदि। सिद्धांत : हाइड्रोक्लोरिक अम्ल एक अम्लीय पदार्थ है। इसके संपर्क से नीला लिटमस लाल हो जाता है, परंतु लाल लिटमस पर इसका कोई प्रभाव नहीं होता है। हाइड्रोक्लोरिक अम्ल, जस्ता धातु के साथ प्रतिस्थापन अभिक्रिया में जिंक, हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से हाइड्रोजन को हटाकर जिंक क्लोराइड बनाता है। साथ ही, हाइड्रोजन गैस भी बनती है। हाइड्रोक्लोरिक अम्ल जब सोडियम कार्बोनेट के साथ अभिक्रिया करता है, तो सोडियम क्लोराइड और कार्बन डाइऑक्साइड गैस बनती है। रासायनिक समीकरण : Zn(S)+2 HCI (aq) → ZnCl) (aq) + H2 (g) 2HCl + Na C03 (S) → 2 NaCI (aq) + H,O(1) + CO2(g) प्रयोग विधि: एक परखनली में नीले लिटमस का विलयन तथा दूसरे परखनली में लाल लिटमस का विलयन लेते हैं इसमें तनु HCI के कुछ बूंदे डालते हैं। हिलाकर रंग के परिवर्तन नोट करते हैं। (ii) एक परखनली में जस्ता का टुकड़ा लेकर तनु HCl डालते हैं ताकि टुकड़ा पूर्ण रूप से डुब जाए चित्रानुसार मुँह पर बारीक छिद्र का जेट फिट करते हैं। अब परखनली को गर्म करते हैं। जलती हुई संठी जेट के मुंह पर लाते हैं तथा प्रेक्षण करते हैं।
(iii) एक फ्लास्क में सोडियम कार्बोनेट लेते हैं। इसमें आसतु जल मिलाकर हिलाते हैं। चित्रानुसार फ्लास्क के मुँह पर छिद्र वाला काग लगा कर एक में थिस्लकीप तथा दूसरे में निकास नली लगाते हैं। थिस्लकीप की सहायता से HCI डालते हैं। निकलने वाली गैस को चूना जल में प्रवाहित करते हैं तथा होने वाले परिवर्तन का प्रेक्षण करते हैं।
निष्कर्ष : हाइड्रोक्लोरिक अम्ल एक अम्लीय पदार्थ है, जिसकी ऊपर लिखित विशेषताएँ हैं। सावधानियाँ: (1) हाइड्रोजन जलाने के लिए बारीक जेट का प्रयोग करना चाहिए। (ii)रसायनों का उपयोग सावधानीपूर्वक करना चाहिए । (iii) हाइड्रोजन गैस के पास जलती हुई संठी ले जाने में सावधानी बरतनी चाहिए। (iv) प्रत्येक प्रयोग के पूर्व परखनली को आसुत जल में धो लेना चाहिए। प्रयोग संख्या-3 प्रयोग का नाम: किसी क्षार (NaOH) का () लिटमस का विलयन (नीला और लाल), (11) जस्ता धातु, और (ii) ठोस सोडियम कार्बोनेट के साथ अभिक्रिया का अध्ययन करना । आवश्यक उपकरण एवं रासायनिक पदार्थ : परखनली, ज्वालक, होल्डर, आसुत जल, लिटमस का विलयन (नीला एवं लाल), Zn का चूर्ण, HCI अम्ल, NaOH का विलयन, फीनॉल्फथेलीन आदि । सिद्धांत : सोडियम हाइड्रॉक्साइड एक क्षारीय पदार्थ है। इसके संर्पक से लाल लिटमस नीला हो जाता है, परंतु नीले लिटमस पर इसका कोई प्रभाव नहीं होता है। जिंक धातु और सोडियम हाइड्रॉक्साइड की अभिक्रिया में सोडियम जिंकेट और हाइड्रोजन गैस बनती है। सोडियम कार्बोनेट स्वयं भी एक क्षारीय पदार्थ है। इसीलिए सोडियम हाइड्रॉक्साइड सोडियम कार्बोनेट के साथ अभिक्रिया नहीं करता है। रासायनिक समीकरण : Zn (S) + 2 NaOH (aq) NazZnO2 (S) + H2 (g) प्रयोग विधि: (1) दो परखनलियों में अलग-अलग NaOH का 1 ml विलयन लेते हैं । एक में नीला लिटमस विलयन का दो बूंद और दूसरे में लाल लिटमस विलयन का दो बूंद डालते हैं तथा निरीक्षण को नोट करते हैं। एक परखनली में Zn का चूर्ण अल्प मात्रा में लेकर 2 ml NaOH का विलयन डालते हैं। मिश्रण को गर्म करते हैं और निकलने वाली गैस का परीक्षण जलती हुई संठी से करके प्रेक्षण नोट करते हैं । (ii) एक परखनली में NaOH का विलयन लेकर फीनॉल्फथेलीन की दो चार बूंद डालने पर विलयन का रंग गुलाबी हो जाता है अब विलयन HCl के बूंद तब तक डालते हैं जब तक कि वह रंगहीन न हो जाए। निरीक्षण :
निष्कर्ष : सोडियम हाइड्रॉक्साइड एक क्षारीय पदार्थ है, तथा इसकी ऊपर लिखित विशेषताएँ हैं। सावधानियाँ : अभिक्रिया के दौरान निकली हाइड्रोजन गैस को सावधानीपूर्वक इस्तेमाल करें। प्रयोग संख्या-4 प्रयोग का नाम: एसीटिक अम्ल (एथेनॉइक अम्ल) के निम्नलिखित गुणों का अध्ययन करना (i) गंध, (ii) जल में विलेयता, (iii) लिटमस पर प्रभाव, तथा (iv) सोडियम बाइकार्बोनेट के साथ अभिक्रिया। आवश्यक उपकरण एवं रासायनिक पदार्थ : परखनली, परखनली होल्डर, नीला एवं लाल लिटमस पत्र, एसीटिक अम्ल, स्पिरिट ज्वालक, जल आदि । सिद्धान्त : दो द्रव घुलनशील कहलाते हैं यदि उन्हें मिलाने से प्राप्त मिश्रण समांगी हो, एसिटिक अम्ल की जल में घुलनशीलता का आधार है एसिटिक अम्ल तथा जल के बीच उपस्थित हाइड्रोजन बंधन (Hydrogen Bonds) - - - - H-0-C= --- - H-6- - - -H-0-0=3 । CH, 1 H CH, हाइड्रोजन बंधन अम्लीय पदार्थ होने के कारण एसिटिक अम्ल लाल लिटमस पर कोई प्रभाव नहीं डालता, परंतु यह नीले लिटमस को लाल कर देता है। सोडियम बाइकार्बोनेट के साथ संपर्क में आने पर एसिटिक अम्ल, सोडियम एसीटेट तथा कार्बन डाइऑक्साइड बनाता है। रासायनिक समीकरण : CH,COOH + NaHCO3 →CH,COONa+H,0+ CO2 एसिटिक अम्ल सोडियम सोडियम पानी कार्बन बाइकार्बोनेट एसीटेंट डाइऑक्साइड प्रयोग विधि : एक परखनली में एसीटिक अम्ल की थोड़ी मात्रा लेकर उसे सूंघते हुए गंध का अनुभव करें । पुनः एक परखनली में एसीटिक अम्ल लें और लिटमस पत्र से उसकी जाँच का अवलोकन करें एवं तालिका में लिखें । इसकें एसीटिक अम्ल को परखनली में लेकर आसुत जल मिलाकर उसकी विलेयता का अवलोकन करें । पुनः एक परखनली में एसीटिक अम्ल लेकर उसमें सोडियम बाइकार्बोनेट मिलाएँ । अभिक्रिया में उत्पन्न गैस को चूना जल से प्रवाहित करें एवं अवलोकनों को निरीक्षण तालिका में नोट करें । निरीक्षण :
निष्कर्ष : एसिटिक अम्ल जल में पूर्णतया घुलनशील हैयह सोडियम बाइकार्बोनेट के साथ अभिक्रिया कर सोडियम एसीटेट व कार्बन 7 डाइऑक्साइड गैस बनाता है। . सावधानियाँ : (i) एसीटिक अम्ल को सावधानीपूर्वक प्रयोग में लाना चाहिए । रसायनों से निकलने वाली वाष्प या गैस को सांस नहीं लेना चाहिए। (iii) यदि अभिक्रिया ऊष्माक्षेपी हो, तो फ्लास्क को ठड़े जल में रखना चाहिए।
प्रयोग संख्या-1 प्रयोग का नाम: पत्ते की झिल्ली अधिचर्म में रंधों की उपस्थिति दर्शाने के लिए उसका अस्थायी स्लाइड तैयार करना । आवश्यक उपकरण/सामग्री लिलो (कुमुदिनी) या ब्रायोफिलम का पत्ता, चिमटी, वॉच ग्लास, कवर, स्लिप, बस, सूई, सेफ्रोनीन, ग्लिसरीन, सूक्ष्मदर्शी । सिद्धान्त: स्टोमेटा वे छोटे-छोटे छिद्र होते हैं जो गैसों के आदान-प्रदान औरब वाष्पीकरण प्रक्रिया में पत्ते की सतह पर बने स्टामेटा छिद्रों द्वारा पानी का वाप्यीकरण होता है। स्टोमेट में सरंध्र छिद्र (स्टोमा) के ईद-गिर्द दो सुरक्षा कोशिकाएं होती हैं। सुरक्षा कोशिकाओं को बाहरी भित्ती, अंदरूनी कोशिका भित्ती से पतली होती है। प्रत्येक सुरक्षा कोशिका बमें एक केन्द्रक और अनेक क्लोरोप्लास्ट होते हैं। प्रयोग विधि: (1) पत्ती लेकर उसको इस प्रकार फाड़ते हैं जिससे झिल्ली द्वा जैसी रचना निकले। (ii) झिल्ली को लेकर ब्लेड से एक छोटा टुकड़ा इस प्रकार काटा जाता है कि कवर स्लिप से अच्छी तरह ढक जाए। (iii) टुकड़े को कांच की प्लेट में रखा जाता है। इसमें सेफ्रोनीन का घोल तथा थोड़ा सा पानी डाला जाता है। (iv) ब्रश की सहायता से घोल को हिलाया जाता है। जब झिल्ली अच्छी तरह रंग जाए तब स्लाइड लेकर उसके बीच में एक या दो बूंद ग्लीसरीन डाला जाता है। ब्रश की सहायता से झिल्लो को ग्लीसरीन में फैलाकर डाला जाता है। (vi) सूई को सहायता से कवर स्लिप को झिल्ली के उपर इस प्रकार रखा जाता है कि उसके अंदर हवा का बुलबुला न आए । (vii) अब स्लाइड को सूक्ष्मदर्शी के नीचे रखकर निरीक्षण किया जाता है।
निरीक्षण : ( अधिचर्म में कोशिकाओं का केवल एक ही स्तर उपस्थित है। इन कोशिकाओं की बाह्य संरचना अनियमित है। अधिचर्म कोशिकाओं में छोटे-छोटे छिद्र दिखाई देते हैं। निष्कर्ष : स्लाइड में दिखाई पड़ने वाले छोटे-छोटे छिद्र रंध्र कहलाते हैं। प्रत्येक रंध्र सेम की आकृति की दो कोशिकाओं से घिरा होता है जिन्हें द्वार कोशिकाएँ कहते हैं। सावधानियाँ : (i) हमेशा ताजी पतियों को लेना चाहिए। (ii) पती को जल में डुबाकर रखना चाहिए। (iii) स्लाइड को हमेशा किनारे से पकड़ना चाहिए ताकि वह गंदा न हो। (iv) झिल्ली को पेट्रीडिश से उठाकर स्लाइड पर रखने के लिए ब्रश का प्रयोग करना चाहिए। झिल्ली को स्लाइड पर बीचों-बीच रखना चाहिए। (vi) कवर स्लिप रखते समय हवा का बुलबुला नहीं जाना चाहिए। (vii) ग्लिसरीन की एक या दो बूँद स्लाइड पर लेना चाहिए। प्रयोगसंख्या-2 प्रयोग का नाम: प्रयोग द्वारा यह दर्शाना कि प्रकाश संश्लेषण के लिए सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति अनिवार्य है। आवश्यक उपकरण/सामग्री : गमले में लगा पौधा, काला कागज, दो बीकर, दो पेट्रीडिस, माचिस, स्प्रिटलैम्प, पानी, त्रिपाद बैठकी, स्टैण्ड तार की जाली, एल्कोहल, आयोडिन आदि । सिद्धांत : प्रकाश संश्लेषण एक जैव रासायनिक अभिक्रिया है, जिसके द्वारा पौधे सूर्य के प्रकाश और हरित लवक की उपस्थिति में कार्बन डाईऑक्साइड और जल का उपयोग करके अपना भोजन तैयार करते हैं । सूर्य के प्रकाश की अनुपस्थिति में यह प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकती है। प्रकाश की उपस्थिति में पौधे का क्लोरोफिल पानी के को ऑक्सीजन, प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन में परिवर्तित कर देता है। ये प्रोटॉन और न्यूट्रॉन आगे की प्रक्रिया में प्रयुक्त किए जाते है, जबकि ऑक्सीजन बाहर छोड़ दी जाती है। अप्रकाशिक अभिक्रिया: 6C0, +12H,O प्रकाश ऊर्जा क्लोफिल CHO + 6H2O + CO, प्रकाशिक अभिक्रिया प्रयोग विधि: (1) गमले में लगे हुए एक स्वच्छ पौधे को 2-3 दिनों तक अँधेरे में रखा जाए। (ii) पत्ती के मध्य भाग को काले कागज से ठक्कर क्लिप से अच्छी तरह कस देते हैं। (iii) कुछ समय तक गमले को धूप में रखा जाता है । (iv) पत्ती को तोड़कर काला कागज हटा दिया जाता है (v) एल्कोहल रखे बीकर में पत्ती डूबा दिया जाता है (vi) बीकर को गर्म किया जाता है । कुछ समय के बाद गर्म करना बंद कर देते हैं। (vii) पत्ती को पानी से धोकर आयोडिन घोल में डुबाया जाता है। अब पत्ती को निकालकर धो लिया जाता है। निरीक्षण पत्ती को बिना ढका भाग नीले-काले रंग का हो जाता है, जबकि ढका भाग भूरा हो जाता है। निरीक्षण : पत्ती को बिना ढका भाग नीले-काले रंग का हो जाता है, जबकि ढका भाग भूरा हो जाता है ।
निष्कर्ष : प्रयोग से यह स्पष्ट होता है कि प्रकाश संश्लेषण के लिए सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति अनिवार्य है। सावधानियाँ: (i) गमले में लगे पौधे के साथ अनावश्यक छेड़-छाड़ नहीं करना चाहिए। (ii) प्रयोग के लिए गमले कागज से ढ़कते समय सावधानी बरतनी चाहिए। (iii) पत्ती को काले कागज से ढ़कते समय सावधानी बरतनी चाहिए। (iv) पत्ती को सीधे एल्कोहल में डालकर गरम नहीं करना चाहिए प्रयोग संख्या- 3 प्रयोग का नाम: प्रयोग द्वारा यह दर्शाना कि शासन की शिया में कान राम नैपनिकती है। आवश्यक उपकरण/सामग्री: चना के कुछ अंकुरित बीज, तिकोनी फ्लास्क, एक छिद्रवाला कार्फ, दो समकोण पर मुड़ी एक नली, परखनली, पानी, स्टैण्ड, छोटी परखनली, पोटाशियम हाइड्रोक्साइड का घोल, धागा आदि । सिद्धांत: श्वसन एक जैव रासायनिक प्रक्रिया है। श्वसन क्रिया में ग्लूकोज के ऑक्सीकरण द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड, पानी और ऊर्जा का निर्माण होता है। अंकुरित बीजों में एरोबिक श्वसन होता है। श्वसन में बनी कार्बन डाइऑक्साइड, पोटैशियम हाइड्रॉक्साइड (KOH) विलयन द्वारा अवशोषित कर ली जाती है। इसीलिए फ्लास्क में वैक्यूम बन जाता है। इस वैक्यूम को भरने के लिए बीकर का पानी ऊपर नली में चढ़ जाता है। श्वसन दो प्रकार का होता है- (क) ऑक्सी श्वसन-यह प्रक्रिया ऑक्सीजन की उपस्थिति में होती है। C,H,O + 60, ग्लूकोस 6CO, +6H,O + ऊर्जा (38A.T.P या 673Kcal) (ख) आनॉक्सी श्वसन-यह प्रक्रिया ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होती है। CH,O, पोस्ट C.H,OH+2CO,+ ऊर्जा (8A.T.P. या 58 Kcal) ग्लूकोस प्रयोग विधि : (i) लगभग 100 दाने अंकुरित चना लेकर फ्लास्क में रख दिया गया। (ii) एक छोटी परखनली में थोड़ा-सा KOH (पोटाशियम हाइड्रोक्साइड) का मोल लिया गया और धागे की सहायता से लटका दिया गया। (iii) चित्रानुसार उपकरण सजाया गया । नली के दूसरे सिरे को जल से भरे बीकर में रखा जाता है। (iv) जल के स्तर पर निशान लगा दिया जाता है (v) उपकरण तो नाग एक तर दगी पता' मा गया। निरीक्षण: हम देखते हैं कि सीसे की नली में जल स्तर ऊपर की ओर चढ़ जाता है क्योंकि जब बीज श्वसन करते हैं तब CO, गैस छोड़ते हैं । CO, को KOH द्वारा सोख लिया जाता है जिससे वहाँ दबाव कम हो जाता है । फलस्वरूप परखनली में पानी चढ़ जाता है ।
सावधानियाँ: सम्पूर्ण उपकरण वायु रुद्ध होना चाहिए। (11 स्वस्थ अंकुरित बीज लेना चाहिए। फ्लास्क के कार्क के चारों ओर ग्लीसरीन लगा देना चाहिए। (iv) KOH घोल को फ्लास्क में सावधानी पूर्वक लटकाना चाहिए। प्रयोगसंख्या-4 प्रयोग का नाम: तैयार स्लाइडों की सहायता से (i) अमीबा में द्वि विभाजन और (ii) यीस्ट में मुकुलन का अध्ययन करना। आवश्यक उपकरण/सामग्री: सूक्ष्मदर्शी, अमीबा में द्वि-विभाजन और यीस्ट में मुकुलन को दर्शाने वाले तैयार स्लाइड आदि । सिद्धान्त: प्रजनन द्वारा जीवित प्राणी संतान उत्पन्न करते हैं। अलैंगिक प्रजनन दो प्रकार के होते है- (i) द्वि-विखण्डन-इस क्रिया में सूक्ष्म जीव का केन्द्रक और साइटोप्लाज्य विभाजित हो जाते है। इस प्रकार का अलौँगक प्रजनन अमीबा, पैरामीशियम आदि में होता है। (ii) मुकुलन–इस क्रिया में सूक्ष्म जीव की कोशिका के एक ओर मुकुलन उत्पन्न होता है, फिर अलग होकर नया जीव बन जाता है। मुकुलन क्रिया यीस्ट में होती हैं। (i) स्लाइड को सूक्ष्मदर्शी की सहायता से पहले कम प्रयोग विधि: और बाद में अधिक शक्ति का लेन्स लगाकर देखते हैं। (ii) देखी गई विशेषताओं को अपने प्रैक्टिकल कापी में दर्ज किया जाता। (ii) चित्रानुसार उपकरण सजाया जाता है । नली के दूसरे सिरे को जल से भरे बीकर में रखा जाता है। (iv) जल के स्तर पर निशान लगा दिया जाता है । (v) उपकरण को लगभग एक घण्टे तक इसी प्रकार रखा जाता है। निरीक्षण : 1. अमीबा में द्वि-विभाजन (Binary Fission) (i) यह एक अलैंगिक जनन है जिसमें एक जनक कोशिका में दो संतति कोशिकाएँ बनती है और जनक कोशिका का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। (ii) इसमें केन्द्रक दो भागों में विभाजित हो जाता है। (iii) कोशिका द्रव्य भी दो भागों में विभाजित हो जाता है।
2. यीस्ट में मुकुलन यह एक लैंगिक प्रजनन है जिसमें एक जनक के शरीर से एक बल्वरूपी संरचना बाहर निकलती है, जिसे मुकुलन कहते हैं। (ii) केन्द्रक का सूत्री विभाजन होता है और इनमें से एक संतति केन्द्रक कलिका में चला जाता है। (iii) कलिका विकसित होकर पूरा आकार ले लेती है और इस प्रकार एक नया जीव बनता है।
निष्कर्ष : दिए गए स्लाइडों से अमीवा में द्वि-विभाजन और यीस्ट में मुकुलन का पता चलता है। सावधानियाँ: (i) स्लाइडों को पहले कम शक्ति और बाद में उच्च शक्ति का लेंस लगाकर देखना चाहिए। (i) स्लाइडों को सूक्ष्मदर्शी से देखकर नामांकित रेखाचित्र बनाना चाहिए। Md.Nezamuddin sir उत्तल लेंस की फोकस दूरी कैसे ज्ञात करते हैं?अथवा, f = uv u+v (10.3)
समीकरण (E 10.3) यह दर्शाती है कि u तथा v के मान अंतर्बदल हैं। जब कोई बिंब (जैसे, कोई पिन) किसी उत्तल लेंस के सामने 2 f के बराबर दूरी पर रखा जाता है, तो उसी साइज़ का उसका वास्तविक तथा उल्टा प्रतिबिंब लेंस के दूसरी ओर लेंस से 2 f के बराबर दूरी पर बनता है E10.
उत्तल लेंस की फोकस दूरी कितनी होती है?उत्तल लेंस को अभिसारी लेंस भी कहा जाता है। उत्तल लेंस की फोकस दूरी धनात्मक होती है।
उत्तल दर्पण की फोकस दूरी क्या होती है?Answer : उत्तल दर्पण की फोकस दूरी धनात्मक तथा अवतल दर्पण की फोकस दूरी ऋणात्मक होती है।
लेंस की फोकस दूरी क्या है?किसी प्रकाशीय वस्तु (जैसे दर्पण, लेंस आदि) की फोकस दूरी (फोकल लेन्थ) वह दूरी है जहाँ इस पर पड़ने वाली समान्तर रेखीय प्रकाश किरणें आकर मिलती हैं। फोकस दूरी, किसी प्रकाशीय तन्त्र के प्रकाश को मोड़ने की क्षमता की परिचायक है।
|