मोहनजोदड़ो के विशाल स्नानागार के बारे मे आप क्या जानते है? - mohanajodado ke vishaal snaanaagaar ke baare me aap kya jaanate hai?

मोहनजोदेड़ों सभ्यता के नष्ट होने का पहला कारण : ऐसा प्रतीत होता है कि पृथ्वी की संरचना आंतरिकी में हुए बदलाव, भूकंप और जलवायु परिर्वत के चलते जहां सरस्वती भूमिगत हो गई वहीं सिंधु नदी ने अपना मार्ग बदल दिया। पहले सिंधु हिमालय से निकलकर कच्छ की खाड़ी में गिरती थी अब इसका रुख ‍बदलकर अन्य हो गया।

लगभग इसी काल में एक वैश्विक सूखा पड़ा जिसके कारण संसार की सभ्यताएं प्रभावित हुईं और इसका दक्षिण योरप से लेकर भारत तक पर असर हुआ। करीब 2200 ईसा पूर्व में मेसोपोटेमिया की सुमेरियाई सभ्यता पूरी तरह खत्म हो गई। उस समय मिस्र में पुराना साम्राज्य इस जलवायु परिवर्तन के कारण समाप्त हो गया। श्रीमद्भागवत में एक स्थान पर कहा गया है कि श्रीकृष्णजी के भाई बलराम के कारण यमुना ने अपना रास्ता बदल दिया था, जो कि उस समय सरस्वती की एक प्रमुख उपधारा थी।

पर भूकम्पों जैसे बड़े भौगोलिक परिवर्तनों के चलते नदी की दोनों ही बड़ी धाराएं समाप्त हो गईं। इसका एक परिवर्तन यह भी हुआ कि राजस्थान का बहुत बड़ा इलाका बंजर हो गया। अगर आप भारतीय उपमहाद्वीप के नक्शे पर सरस्वती नदी के रास्ते का निर्धारण करना चाहें तो आप समझ सकते हैं कि यह सिंधु नदी के रास्ते पर करीब रही होगी। पुरातत्वविदों का कहना है कि तब भारतीय उपमहाद्वीप में जो सबसे पुरानी सभ्यता थी, उसे केवल सिंधु घाटी की सभ्यता कहना उचित न होगा, क्योंकि यह सिंधु और सरस्वती दोनों के किनारों पर पनपी थीं। डैनिनो जैसे शोधकर्ताओं की खोजों ने इस बात को सत्य सिद्ध किया है। 

जलवायु परिवर्तन ने करीब 4 हजार साल पहले सिन्धु घाटी या हड़प्पा सभ्यता का खात्मा करने में एक बड़ी भूमिका निभाई थी। यह दावा एक नए अध्ययन में किया गया है। नॉर्थ कैरोलिना स्थित एप्पलचियान स्टेट यूनिवर्सिटी में नृविज्ञान (एन्थ्रोपोलॉजी) की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. ग्वेन रॉबिन्स शुग ने एक बयान में कहा कि जलवायु, आर्थिक और सामाजिक परिवर्तनों, सभी ने शहरीकरण और सभ्यता के खात्मे की प्रक्रिया में भूमिका निभाई, लेकिन इस बारे में बहुत कम ही जानकारी है कि इन बदलावों ने मानव आबादी को किस तरह प्रभावित किया।

अंत में दसवां रहस्य जानकर चौंक जाएंगे आप...

Back to contents

नगर-निवेष: मुहेंजो-दड़ो में क्रम से बसे कई नगरों में अवशेष पाए गए हैं। ये नगर एक-दूसरे के ऊपर बने हुए थे और सिन्धु की बाढ़ अथवा अन्य कारणों से नष्ट हो गए। अब तक सात विभिन्न तहों की खुदाइयाँ हुई हैं। सम्भव है, उनसे भी प्राचीन तहें भूमि के नीचे दबी हों। अभी जो अवशेष मिले हैं उनसे नगर-निर्माण की अद्भुत कुशलता का परिचय मिलता है। नौ से चौंतीस फ़ुट तक विभिन्न चौड़ाइयों की सड़कें यथाविधि सूत खींचकर बनायी गई हैं। और कहीं-कहीं तो आध-आध मील तक सीधी चली गयी हैं। मुख्य सड़कें तो सूत के समान सीधी बनायी गयी हैं जो समकोणों पर एक दूसरे को काटतीं और नगर को वर्गाकार अथवा आयताकार टुकड़ों में बाँटती हैं। प्रत्येक टुकड़ा लम्बाई अथवा चौड़ाई में गलियों द्वारा विभक्त है। आरम्भिक नगरों के भवन इन सड़कों अथवा गलियों की भूमि पर तनिक भी बढ़े हुए नहीं मिलते और प्रत्येक सड़क अथवा गली में थोड़ी-थोड़ी दूर पर कुँए और दीपस्तम्भ बने हुए हैं। नगर में पानी बहने के लिए नालियों की विस्तृत व्यवस्था थी जो बड़ी-बड़ी पुलियों से होती हुई नदी में जाकर मिलती थीं।

मोहनजोदड़ो के विशाल स्नानागार के बारे मे आप क्या जानते है? - mohanajodado ke vishaal snaanaagaar ke baare me aap kya jaanate hai?

मकान: निवास-गृह विभिन्न आकारों के मिलते हैं जिनमें धनिकों के प्रासाद और गरीबों के दो कमरों के आवास भी हैं। ये मकान एकदम सादे होते थे और उनमें नक्काशी का सर्वथा अभाव है। घर कलात्मक की अपेक्षा सुखकर बनाने का उद्देश्य ही सम्भवत: इसका एक कारण रहा है। मकान में स्नानागार और ढकी नालियों की अच्छी व्यवस्था थी। ये नालियाँ सड़क की नालियों में जाकर गिरती थीं। नालियाँ एवं मकानों की दीवारें अच्छी पक्की ईंटों की बनती थीं और आज भी ज्यों-की-त्यों भली प्रकार सुरक्षित हैं। आधुनिक मानदण्डों से भी उनकी बनावट अत्यन्त सराहनीय है। नींव में कच्ची ईंटों का प्रयोग होता था और छतें सपाट और लकड़ियों की बनती थीं। खुले आँगन के चारों ओर कमरे होते थे जो उनकी गृह-योजना की विशेषता है। कुछ मकानों में ऊपरी तल्ला भी था जिनमें लगी खड़ी नालियों से जान पड़ता है कि ऊपर भी स्नानागार थे। अधिकांश मकानों की ऊँचाई की सीध इतनी शुद्ध है कि जान पड़ता है साहुल अथवा वैसे ही किसी अन्य औज़ार का प्रयोग किया जाता था। आवासगृहों के अलावा जितने मकान मिले हैं उनमें विशेष उल्लेखनीय एक विशाल भवन है, जो १८० फुट लम्बा और १०८ फुट चौड़ा है। उसका कुण्ड ३९ फुट लम्बा, २३ फुट चौड़ा और ८ फुट गहरा है, जिसके चारों ओर बरामदे और उनके पीछे कमरे और गलियारे हैं। चारों कोनों पर चबूतरों से लगी सीढ़ियाँ हैं। कुण्ड में पानी भरने और निकालने के लिये एक ६११ फीट लम्बी ऊँची ढकी नाली है। कुण्ड के पास ही एक विशाल अन्नागार था, जो प्रारम्भ में १५० x ७५ फुट विस्तृत तथा माल भरने की सभी सुविधाओं से युक्त था। उस भवन के वास्तविक उद्देश्य प्राय: अच्छी तरह से समझ में नहीं आते। 

हड़प्पा के सबसे बड़े भवन को विशाल अन्नागार का नाम दिया गया है। वह १६९ फुट लम्बा और १३५ फुट चौड़ा है तथा दो भागों में बंटा हुआ है। बीच में २३ फुट चौड़ा रास्ता है। प्रत्येक खण्ड में छह हाल हैं जिनके बीच पाँच गलियारे हैं। हड़प्पा एवं कुछ अन्य स्थानों में सुदृढ़ दुर्ग होने का पता लगा है किन्तु इसका कोई चिन्ह मुहेंजो-दड़ो में अभी तक नहीं मिला है।

खाद्य: नगर की आबादी काफ़ी अधिक थी। उसे खाद्य पहुँचाने के लिये विस्तृत खेती होती थी। इसका कुछ आभास वहाँ बड़ी संख्या में मिली चक्कियों से मिलता है। खँडहरों में गेहूँ और जौ के जो नमूने मिले हैं, वे जंगली किस्म के नहीं हैं और इस बात के द्योतक हैं कि उनकी नियमित खेती होती थी। सम्भवतः धान भी बोया जाता था। खजूर पैदा होने का प्रमाण वहाँ पायी गई उनकी गुठलियों से मिलता है। इनके अतिरिक्त वहाँ के निवासियों के खाद्य फल, तरकारी, दूध, मछली और विभिन्न जानवरों – गाय, भेड़ और सूअर – के गोश्त तथा पक्षी थे।

वस्त्र: कपड़ों के वास्तविक नमूने तो नहीं मिले हैं किन्तु वहाँ मिली मूर्तियों को देखने से जान पड़ता है कि स्त्री और पुरुष दोनों के पहनावों में दो कपड़ों का इस्तेमाल होता था। एक तो धोती की तरह जान पड़ता है, जिससे शरीर का निचला भाग ढका जाता था और दूसरा था उत्तरीय जो दुपट्टे की तरह बायें कन्धे और दाईं काँख के नीचे से डालकर ओढ़ा जाता था। इससे दाहिना हाथ मुक्त रह जाता था पुरुषों के केश लम्बे होते थे, जो अनेक प्रकार से सँवारे जाते थे। स्त्रियाँ पंखे की शक्ल के शिरोवस्त्रों से अपने बाल ढकती थीं और इस कारण कहा नहीं जा सकता कि वे अपने बाल किस ढंग से संवारती थीं।

आभूषण: स्त्री और पुरुष दोनों ही सोने, चाँदी, ताँबा एवं अन्य ज्ञात धातुओं और शंख के बने गहनों तथा कुछ बहुमूल्य प्रकार की मणियों —यथा कार्नेली, सूर्यकान्त, वैदूर्य, हरिताश्म तथा नीलवर्ण मरकतमणि आदि के बने मनकों का प्रयोग करते थे। बनावट के अनेक प्रकार तथा महीन कारीगरी उनकी विशेषताएँ थीं। पुरुष सिरबन्द, हार, अँगूठी और अंगद पहनते थे और स्त्रियाँ अपने शिरोवस्त्रों के अतिरिक्त कान की बालियाँ, चूड़ी, कंगन, करघनी और पैर के कड़े पहनती थीं। प्रसाधन की वस्तुओं और उनके रखने के लिये हाथी-दांत और अन्य धातुओं के बने बक्सों से ज्ञात होता है कि सौन्दर्य-संस्कृति में मुहेंजो-दड़ो की स्त्रियाँ अपनी आधुनिकों बहनों से सम्भवतः बहुत पीछे न थीं। वे सुरमा लगाना और चेहरे को रँगना तथा अन्य प्रकार के श्रृंगार करना जानती थीं। प्रसाधन के काम में आनेवाली धातु की गोल सलाइयाँ, लिपस्टिक, काँसे के अण्डाकार आईने, विभिन्न आकार की हाथी-दांत की कंघियाँ, जिनमें से सम्भवतः कुछ बालों में भी खोंसी जाती थीं, और छोटे-छोटे प्रसाधन के पीढ़े मुहेंजो-दड़ो और अन्य स्थानों में मिले हैं।

फ़र्नीचर और बर्तन: वहाँ विभिन्न प्रकार के जो फ़र्नीचर और बर्तन मिले हैं, वे ऐसी उच्च सभ्यता के द्योतक हैं जिसके विकास में निश्चय ही शताब्दियाँ गुज़री होंगी। इनमें रसोईघर के बहुधा सुन्दर ढंग से रंगे हुए घड़ों और घड़ियों-जैसे मिट्टी के बर्तन, पत्थर की बनी चक्कियाँ, तश्तरियाँ और बर्तन रखने की चकिया; ताँबे अथवा काँसे की बनी सुइयाँ, टेकुए, छुरियाँ, कुल्हाड़ियाँ, आरियाँ, हँसिया और मछली मारने के काँटे (सुई और तकुए हाथीदाँत के भी पाए गए हैं), लकड़ी की बनी कुर्सियाँ और चारपाइयाँ; झाऊ के स्टूल; बेंत की चटाइयाँ; ताँबे, शंख और मिट्टी के दीपक, मोमबत्तियों-जैसी मिट्टी की बत्तियाँ, मिट्टी के बने हुए बच्चों के लिये खिलौने—–मुख्यतः सीटी, झुनझुने, स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षियों की मूर्तियाँ (जिनमें रस्सी के सहारे हाथ-पैर हिलाने वाले, ऊपर-नीचे चढ़ने-उतरने वाले खिलौने भी हैं) विशेष उल्लेखनीय हैं। मिट्टी की गाड़ी वाले खिलौनों का इस दृष्टि से इसलिये विशेष महत्त्व है कि वे अब तक ज्ञात पहियेदार सवारियों के प्राचीनतम नमूने हैं। संगमरमर की बनी गोलियाँ और पासे लोगों के प्रिय खेल थे। शिकार, वृषयुद्ध, पक्षी और मछली मारना लोगों के मनोरंजन के अन्य साधन थे। छत अथवा बिना छत की साधारण सामान्य ढंग की बैलगाड़ियाँ लोगों की सवारी का मुख्य साधन थीं, यद्यपि हड़प्पा से ताँबे का एक नमूना मिला है जो आधुनिक छतरीदार इक्के के समान है। तराजू और नियमित वजन के बाट तथा शंख के रेखांकित टुकड़े इस बात के द्योतक हैं कि तौल और लम्बाई नापने की नियमित इकाइयाँ प्रयोग में आती थीं।

हथियार: युद्ध के तरह-तरह के अनेक हथियार होते थे, यथा—-कुल्हाड़ी, बर्छा, छुरा, धनुष-बाण, गदा, गुलेल और तलवार, जो प्रायः ताँबे अथवा काँसे के बनते थे। ढाल और कवच भी मिले हैं। काम के औज़ारों में विशेष महत्त्व दाँतेदार आरियों का है जो इससे पूर्व के काल में अज्ञात थीं।

औद्योगिक कलाएँ और शिल्प: औद्योगिक कलाओं में ऊन और सूत की कताई अमीरों और गरीबों दोनों में समान रूप से प्रचलित जान पड़ती है, क्योंकि सस्ती और कीमती दोनों ही प्रकार की सूत लपेटने की नलिकाएँ मिली हैं। वे लोग कपड़ों कि रंगाई भी जानते थे। यह इस बात से साबित है कि रंगरेज़ी के बर्तन खुदाई में पाये गये हैं। विभिन्न शक्लों और ढंगों के चाक पर बने बर्तन इस बात के द्योतक हैं कि कुम्हारों की कला अत्यन्त विकसित थी।

एक मुहर पर पोत का चित्र अंकित है जो उनके नौ-वहन का द्योतक है। सिन्धु घाटी के निवासी केवल भारत के अन्य भागों के साथ ही व्यापार करते हों, ऐसा नहीं, सुमेरु और पश्चिमी एशिया के सुप्रसिद्ध एशिया के सुप्रसिद्ध केन्द्रों और सम्भवतः मिस्र और क्रीट के साथ भी उनके व्यापार-सम्बन्ध होने के प्रमाण पाये जाते हैं।

कला: मनुष्यों और पशुओं की आकृतियाँ बहुत बड़ी संख्या में मिली हैं। कुछ पशु-आकृतियाँ, विशेषतः जो मुहरों पर खुदी हैं, उच्च कोटि की कारीगरी और कला-कुशलता की द्योतक हैं। कुछ मुहरें तो नक्काशी की कला का अद्धभुत नमूना समझी जाती हैं। हड़प्पा में मिली दो छोटी मूर्तियों के देखने से जान पड़ता है कि सिन्धु घाटी के कलाकार मानव-आकृति बनाने में सिद्धहस्त हो चुके थे। अवयव-विधान की सफ़ाई तथा भावों और गति का उतार-चढ़ाव दोनों को देखते हुए उनकी गणना उच्च कोटि के कलाकारों में करनी होगी। कुछ यूरोपीय आलोचकों का तो यहाँ तक कहना है कि सादगी और भावाभिव्यक्ति के इस सर्वोत्तम नमूने की तुलना यूनानी मूर्तिकला के पूर्व कहीं नहीं पाई जाती।

मोहनजोदड़ो के विशाल स्नानागार के बारे मे आप क्या जानते है? - mohanajodado ke vishaal snaanaagaar ke baare me aap kya jaanate hai?
मुहरें: मुहेंजो-दड़ो में मिली वस्तुओं में सबसे मूल्यवान मुहरें हैं जो सभी तहों में मिली हैं और उनकी संख्या ४००० से अधिक है। वे सामान्यतः वर्गाकार अथवा आयताकार हैं और हाथीदाँत, Fiance और Steatile की बनी हैं। Steatile की कुछ मुहरों पर ऐसी आकृतियाँ और चिन्ह अंकित हैं जो एक प्रकार की प्रतीक-माला जान पड़ती है ।आजकल उनको प्रतीक-माला, चित्र-लिपि या लिपि नहीं मानी जाती है क्योंकि ४०० से अधिक चिन्ह हैं और उन की संख्या बढ़ती गयी, घटी नही। इतना तो निश्चय ही है कि उस समय सिंधु घाटी के बाहर — मिस्र और मेसोपोटामिया में लेखन-कला ज्ञात थी। सक्रिय व्यापार के कारण, मिस्र और मेसोपोटामिया में सिंधु घाटी सभ्यता की विभिन्न मुहरें (चिन्हों और आकृतियों के साथ) और अन्य वस्तुएं पाई जाती हैं और सिंधु घाटी में मिस्र और मेसोपोटामिया की वस्तुएं पायी जाती हैं, लेकिन उन बाहरी वस्तुओं में से किसी पर कोई भी चित्र-लिपि या हस्तलेख नहीं है।
मोहनजोदड़ो के विशाल स्नानागार के बारे मे आप क्या जानते है? - mohanajodado ke vishaal snaanaagaar ke baare me aap kya jaanate hai?
मानव एवं पशु-आकृतियाँ ताम्र-पट्टिकाओं पर भी पाई गई है। मुहरों पर अधिकांशतः एकश्रृंग, वृष, हाथी, बाघ, गैंडा, घड़ियाल और हिरन आदि पशुओं की आकृतियाँ हैं। सबसे अधिक एकश्रृंग कि आकृतियाँ मिलती हैं जिसमें अकेली सींग आगे को निकली हुई है। इनके अतिरिक्त ईहामृग, वृक्ष और स्त्री-पुरुषों की आकृतियाँ भी मिली हैं। इन आकृतियों के उपयोग और व्यवहार के सम्बन्ध में अभी तक कोई निश्चित व्याख्या नहीं की जा सकी है।  

 लिखित प्रमाणों के अभाव में उन लोगों के धार्मिक विश्वासों, विचारों और कर्मों के सम्बन्ध में अधिक नहीं कहा जा सकता तथापि इन मुहरों, मूर्तियों और आकृतियों से उन पर कुछ तो प्रकाश पड़ता ही है।

मातृका मूर्तियाँ: मातृका के रूप में नारी-शक्ति की उपासना का अस्तित्व बहुसंख्या में प्राप्त अर्धनग्न नारी-मूर्तियों से प्रमाणित है। ये मूर्तियाँ विस्तृत शिरोभूषण, कण्ठहार और करघनी पहने हैं। इस प्रकार की मूर्तियाँ पश्चिमी एशिया के अन्य प्राचीन सभ्यता-केन्द्रों में भी पाई गई हैं। मातृका-पूजन संसार के सभी आदिम निवासियों में खूब प्रचलित था। कुछ मुहरों पर ऐसे दृश्य हैं जिनसे जान पड़ता है कि देवी के सामने नर अथवा पशु की बलि दी जा रही हो।

मोहनजोदड़ो के विशाल स्नानागार के बारे मे आप क्या जानते है? - mohanajodado ke vishaal snaanaagaar ke baare me aap kya jaanate hai?
संन्यासी?: एक मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं जिसमें सिंहासन पर पालथी मारकर योगी के रूप में बैठे पुरुष का अंकन है। उसके सिर पर श्रृंड्गःयुक्त शिरोवस्त्र, गले में आभूषण और हाथ में अनेक चूड़ियाँ हैं। उसके तीन मुख हैं, सम्भव है चौथे की भी भावना रही हो, जो अदृश्य है। वह ऊर्ध्वलिंग है और उसके चारों ओर बाघ, महिष और गैंडे सदृश अनेक पशु हैं तथा उसके आसन के नीचे एक हिरन है। बहुत से विद्वान इसे शिव का प्रतीक मानते हैं, क्योंकि वे त्रिमुख पशुपति एवं महायोगी कहे गए हैं। उनका यह भी कहना है कि यह देवता पहले आर्यों को अज्ञात था, पीछे उन्होंने उसे भारत के लोगों के संपर्क में आने पर अपनाया। किन्तु इस मत से सब विद्वान सहमत नहीं हैं।

लिंग?: बड़ी संख्या में मिले नुकीले और गोल पत्थरों के लिंग की यथार्थ आकृति में पाए गए हैं। योनि की आकृति में भी कुछ पत्थर मिले हैं; लिंग-योनि में उपासना के प्रचलन का  अनुमान होता है, किन्तु इस मत से सब विद्वान सहमत नहीं हैं।

पशु और वृक्ष: मुहरों पर पशु और वृक्षों के भी स्पष्ट चित्र पाए जाते हैं।  कुछ मुहरों पर स्वस्तिक और चक्र का अंकन भी है । एक पुरुष के सिर पर गेहुँअन सर्प का फन देखा जा सकता है। कभी-कभी शिव को गाड़ते थे और उसके साथ कब्र में साज-सामान एवं भेंट-सामग्री भी रख देते थे। कभी-कभी मुर्दे को पहले खुले में रख देते थे ताकि पशु उन्हें खा जाएँ (जैसी कि पारसियों में आज भी प्रथा है) और उसके बाद हड्डियों को जमाकर छोटे बर्तनों, गोलियों और मनकों के साथ एक बड़े अस्थिपात्र में रख देते थे। तीसरा तरीका शव को जलाने के बाद अस्थि और राख को अन्य अनेक वस्तुओं के साथ किसी पात्र में रखने का था।

सभ्यता का विस्तार: इन ब्यौरों से मुहेंजो-दड़ों और हड़प्पा में फैली हुई सभ्यता के सामान्य स्वरूप का अनुमान होता है। किन्तु यह सभ्यता इन दोनों नगरों अथवा उनके बीच के प्रदेशों तक ही सीमित न थी। बाद की खोजों से सिन्ध के वर्तमान हैदराबाद से उत्तर में जकोबाबाद तक अनेक दूसरे स्थानों में भी उसका पता चला है। इस सभ्यता के दो महत्त्वपूर्ण उपनिवेश चन्हु-दड़ों और अमरी में पाए गए हैं जो मुहेंजो-दड़ों से क्रमशः १०० मील दक्षिण-पूर्व और दक्षिण में स्थित हैं। इस संस्कृति के चिन्ह पश्चिमी भारत में दक्षिण की ओर नर्मदा की घाटी तक पश्चिमी सिन्ध और उसके भी पश्चिम उत्तरी और दक्षिणी बलूचिस्तान के बीच अनेक स्थलों से मिले हैं।

सिन्धु घाटी की मुहरें, मनकों एवं अन्य वस्तुओं से हुबहू मिलती-जुलती चीज़ों की प्राप्ति से इस संस्कृति का विस्तार पूर्व में उत्तर प्रदेश और बिहार में पटना तक और उत्तर में अम्बाला तक जान पड़ता है। सम्भव है कि भावी खोजों से उसका विस्तार समस्त उत्तरी भारत में ज्ञात हो सके।

आर्य संस्कृति पर प्रभाव: इतनी बड़ी संस्कृति और सभ्यता अपना कोई चिन्ह अथवा स्मृति छोड़े बिना ही कैसे लुप्त हो गई, यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका समाधान हमारे आज के ज्ञान के आधार पर नहीं किया जा सकता। किन्तु इतना तो निश्चित है कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता के परवर्ती विकास के समय उसके सभी अंगों पर इसका काफ़ी प्रभाव पड़ा। इस बात के तो पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं कि हिन्दु-धर्म के अनेक मौलिक सिद्धान्त इस संस्कृति के प्रभाव से लिये गए हैं

 शब्दार्थ

  • अग्रदूत = पहले से पहुँच कर किसी के आने की सूचना देनेवाला
  • अन्वेषण = शोध
  • अवशेष = बचा हुआ
  • अस्तित्व = विद्यमान होना
  • खंडहर = गिरा, ढहा हुआ, मकान का अवशेष
  • टीला = मिट्टी का ऊँचा ढेर
  • ताम्र = ताँबा
  • पाषाण = पत्थर
  • विद्वान = वैज्ञानिक

अभ्यास

मौखिक:

१. भारतीय संस्कृति की रूपरेखा के निर्माण का आरम्भ किस सभ्यता से होना चाहिये?

२. क्यों उसको सिन्धु-घाटी की सभ्यता कहते हैं?

३. इस सभ्यता के बारे में आप क्या जानते हैं?

लिखित:

१. निम्नलिखित शब्दों का वाक्यों में प्रयोग कीजिये:

अवशेष, अस्तित्व, खंडहर

२. चार शब्दों में से ठीक शब्द चुनकर रिक्त स्थानों को भरिये:

  • भूमध्यसागरीय लोग बोलचाल की भाषा में द्रविड़ नाम से _____________ यद्दपि द्रविड़ उनकी भाषा का नाम है और  उसका कोई नृतात्त्विक महत्त्व नहीं हैं।

क/ बुलाया जाता है        ग/ किर्तिमान हैं

ख/ समझाये जाते हैं       घ/ पुकारे जाते हैं

  • आज द्रविड़ भाषाएँ केवल दकन और दक्षिणी भारत के ही बड़े _____________ में बोली जाती हैं, किन्तु किसी समय वे सारे उत्तर भारत में प्रचलित थीं।

क/ अंग                         ग/ अंश

ख/ अंक                        घ/ विभाग

  • द्रविड़ भाषा के प्राचीनतम जीवित नमूनों के _____________ से पता चलता है कि उसके बोलने वाले लोग आद्य आस्ट्रोलॉयड लोगों की अपेक्षा अधिक सांसकृतिक थे।

क/ वर्णन                            ग/ विश्लेषण

ख/ टिप्पणी                         घ/ समीक्षा

  • उन्होंने अपने पूर्ववर्ती आद्य आस्ट्रोलॉयडों की ग्राम-संस्कृति के विपरीत एक नागर-संस्कृति को _____________ दिया था।

क/ पतन                             ग/ जन्म

ख/ उत्कर्ष                           घ/ उपज

  • उन्होंने नागर जीवन ही नहीं, वरन अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का भी _____________ किया।

क/ चढ़ाव                            ग/ मरम्मत

ख/ उन्नति                           घ/ विकास

  • _____________ तो नहीं कहा जा सकता, पर अनुमान है कि लेखन-कला भी जानते थे।

क/ निष्कर्ष                                   ग/ तत्त्व

ख/ निश्चित                                  घ/ संकल्प

  • साधारणतया मानते हैं कि हिन्दू धर्म और संस्कृति में जो कुछ अच्छाई है वह आर्यों की देन है और सभी बुराइयाँ अंध-विश्वास आदि उस में आदिम अनार्यों के दूषण से आयी है, परन्तु यह धारणा निश्चय ही _____________ है।

क/ धोखा देने वाली                        ग/ स्वावलंबित

ख/ भ्रांतिपूर्ण                                 घ/ गैरमौजूद

  • हमें यह मानना ही होगा कि आद्य आस्ट्रोलॉयड और द्रविड़ों के भारत में आने पर उन के _____________ के कारण आर्य धर्म, विचार और विश्वासों में काफ़ी परिवर्तन हुआ।

क/ विभाजन                                 ग/ संयम

ख/ सम्मति                                   घ/ संसर्ग

  • उन के प्रभाव की सीमा यद्यपि अभी अज्ञात है तथापि हिन्दु संस्कृति और सभ्यता के समस्त _____________ वे घुले-मिले हैं।

क/ ताने-बाने                                ग/ क्षेत्र

ख/ वृद्धि                                      घ/ संरचना

  • संभवत: कुछ बातों में तो, विशेषत: सभ्यता में, ये द्रविड़-भाषी लोग आर्यों से भी _____________ थे।

क/ अत्यंत                                     ग/ पढ़े-लिखे

ख/ सुदृढ़                                       घ/ बढ़े-चढ़े

  • जो भी हो, हिन्दू नाम से पुकारे जाने वाले परवर्ती भारतीय समाज के विस्तृत ढांचे के निर्माण में उन्हें आर्यों का _____________ समझना चाहिये।

क/ शत्रु                              ग/ साझीदार

ख/ मित्र                             घ/ सारथि

३. नीचे लिखे शब्दों के विशेषण लिखिये:

  • वर्ष-                                    
  • निर्माण-
  • सभ्यता-                                       
  • इतिहास-
  • अपेक्षा-

सूक्ष्म अन्तरवाले पर्यायवाची शब्द

आशंका, शंका, भय, संदेह, आतंक, त्रासआशंका और शंका में भय के साथ-साथ संदेह भी वर्तमान रहता है। शंका की अपेक्षा आशंका में विशेष रूप से भय रहता है। भय, डर और शंका दोनों अर्थों में प्रयुक्त होता है। किसी देश को शत्रुओं के आक्रमण की आशंका अथवा शंका होती है, अथवा भय होता है। छोटे देशों को बड़े देशों से भय होता है। लड़के को बन्दर से भय लगता है। शंका तर्कणा सबंधी संदेह के भी अर्थ में आता है। वेदों में कई जगह पंडितों को भी शंका होती है। संदेह तर्कणा संबंधी शंका के अर्थ में और साधारण शक के अर्थ में आता है। हिन्दी के विद्वानों को भी अनेक संज्ञाओं की जाति पर बहुधा संदेह हो जाता है। पुलिस को किसी अजनबी की गतिविधि पर संदेह हो जाता है। आशंका और शंका में संदेह की अपेक्षा गुरुत्व है आतंक आनेवाली विपत्ति का भय है। कोरिया की लड़ाई से कई देशो में आतंक फैल गया है। बहुत अधिक भय के अर्थ में भी आतंक का प्रयोग होता है। पुलिसवालों के अत्याचार से किसी गाँव में आतंक फैल जाता है। डाकू किसी गाँव में आतंक उत्पन्न कर देते हैं। अंग्रेज़ों के अत्याचार का आतंक अब तक एशियावालों के दिल में बना हुआ है। विपत्ति के आ जाने पर लोगों में त्रास फैल जाता है। डाकुओं के लगातार हमलों से गाँववाले त्रस्त हो गये हैं। बहुधा आतंक के अर्थ में भी त्रास का प्रयोग होता है। त्रास दिये जाने वाले दु:ख या कष्ट को भय कहते हैं। दुष्ट लोग सज्जनों को त्रास देते हैं।

प्रयोग, उपयोग– किसी वस्तु का साधारण व्यवहार करना अथवा अनुभव प्राप्त करने के लिए किसी पदार्थ को काम में लाना प्रयोग कहलाता है। सुन्दर ढंग से लाभ के लिये किया गया किसी वस्तु का व्यवहार उपयोग कहलाता है। प्रयोग का उद्देश्य अच्छा या बुरा कुछ भी हो सकता है। किन्तु उपयोग अच्छाई के लिए ही किया जाता है। दंगे में अक्सर बंदूकों और बमों का भी प्रयोग किया जाता है। सिपाही विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेज़ों ने अमानुषिक उपायों का प्रयोग किया था। जापान पर अमेरिका ने अणु-बम का प्रयोग किया। यदि अणु-शक्ति का उपयोग किया जाए तो औद्योगिक संसार में क्रांति हो जाए। जल और मिट्टी का उपयोग बहुत कम लोग जानते हैं। विष के भी अनेक उपयोग हैं।

विपरीतार्थक शब्द

  • अनुगामी – प्रतिगामी 
  • आयात – निर्यात       
  • उदय – अस्त        
  • उदात्त – अनुदात्त
  • उत्कृष्ट – अपकृष्ट       
  • ऊसर – उपजाऊ
  • कपटी – निष्कपट       
  • कृतज्ञ – कृतघ्न
  • कीर्ति – अपकीर्ति
  • कोमल – कर्कश
  •  क्रियावान – क्रियाहीन
  • खंडन – मंडन
  • खालिस – निखलिस 
  • प्रकृष्ट – निकृष्ट  
  • बढ़िया – घटिया         
  • बाढ़ – सूखा       
  • मामूली – गैरमामूली   
  • योगी – भोगी 
  • लोप – विलोप 
  • वैद्य – अवैद्य
  • वैमनस्य – सौमनस्य 
  • व्यर्थ – सार्थ   

Additional materials:

  •  

मोहनजोदड़ो के विशाल स्नानागार के बारे मे आप क्या जानते है?

वर्तमान समय में यह पाकिस्तान के सिंध प्रांत में आता है। यह मोहन जोदड़ो के उत्तरी भाग में स्थित है और एक कृत्रिम टीले के ऊपर बनाया गया था। यह हौज़ 11.88 m लम्बा और ७ मीटर चौड़ा है और इसका सब से अधिक भाग २.४३ मीटर की गहराई रखता है। इसमें उतरने के लिए एक सीढ़ी उत्तर में और एक दक्षिण की तरफ़ बनाई गई है

विशाल अन्नागार क्या है?

हड़प्पा के सबसे बड़े भवन को विशाल अन्नागार का नाम दिया गया है। वह १६९ फुट लम्बा और १३५ फुट चौड़ा है तथा दो भागों में बंटा हुआ है। बीच में २३ फुट चौड़ा रास्ता है। प्रत्येक खण्ड में छह हाल हैं जिनके बीच पाँच गलियारे हैं।

सिन्धु घाटी सभ्यता में विशाल स्नानागार के अवशेष कहाँ से प्राप्त हुये?

विशाल स्नानागार पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लरकाना जिले में सिन्धु नदी के दाहिने तट पर स्थित मोहनजोदड़ो नामक स्थान से प्राप्त हुआ है जहाँ 1922 में खुदाई करवाई गई थी।

विशाल अन्नागार कहाँ से मिला?

Notes: सिंधु घाटी सभ्यता में विशाल अन्नागार मोहनजोदड़ो में मिला है।