भारत का GDP विकास(2004–05 के स्थिर मूल्य पर)उदारीकरण के पश्चात सेवा क्षेत्र के GDP में सर्वाधिक वृद्धि हुई।
उदारीकरणशब्द की उत्पत्ति 19वी शताब्दी में प्रारंभ राजनीतिक विचारधारा 'उदारवाद'से हुई है।कई बार इस शब्द का प्रयोग मेटा विचारधारा के रूप में किया जाता है,जो अपने में कई विरोधी मूल्यों और मान्यताओं को अपनाने में सक्षम है।यह विचारधारा एड्म स्मिथ की लेखनी में परिलक्षित सामंतवाद के विघटन और बाजार या पूंजीवादी समाज की वृद्धि का परिणाम है।[१]
उदारीकरण एक ऐसी नीति है,जिसके तहत सरकार अर्थव्यवस्था के प्रतिबंधों को दूर कर विभिन्न क्षेत्रों को मुक्त करती है।1960 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था के आर्थिक गतिविधियों के लिए बनाये गए नियम-कानून ही इसके संवृद्धि और विकास के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा बन गए।[२] उदारीकरण तब होता है जब किसी चीज़ पर प्रतिबंध लगाया जाता था, जिसे अब प्रतिबंधित नहीं किया जाता है, या जब सरकारी नियमों में ढील दी जाती है। आर्थिक उदारीकरण अर्थव्यवस्था में राज्य की भागीदारी की कमी है।
भारत में उदारीकरण[सम्पादन]
वैसे तो औद्योगिक लाइसेंस प्रणाली,आयात-निर्यात नीति,तकनीकी उन्नयन,राजकोषीय और विदेशी निवेश नीतियों में उदारीकरण 1980 के दशक में ही आरंभ की हो गए थे।परंतु 1991 में प्रारंभ की गई सुधारवादी नीतियाँ कहीं अधिक व्यापक थीं।जिसके तहत निम्नलिखित क्षेत्रों में उदारीकरण की प्रक्रिया अपनाई गई।
औद्योगिक क्षेत्र का विनियमीकरण :-1991 के बाद आरंभ हुई नीतियों ने निम्नलिखित छ:उत्पादों को छोड़ शेष उत्पादों के लिए लाइसेंसिंग व्यवस्था को समाप्त कर दिया।- अल्कोहल,सिगरेट,जोखिम भरे रसायनों,औद्योगिक विस्फोटकों इलेक्ट्रॉनिकी,विमानन तथा औषधि-भेषज।
- प्रतिरक्षा उपकरण,परमाणु ऊर्जा उत्पाद और रेल परिवहन सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित किए गए।
- लघु उद्योगों द्वारा उत्पादित अनेक वस्तुएं भी अब अनारक्षित श्रेणी में आ गई हैं।
- भारत में आरबीआई वित्तीय क्षेत्रक का नियंत्रण करता है।आरबीआई की तय करता है कि कोई बैंक अपने पास कितनी मुद्रा जमा रख सकता है।यही ब्याज की दरों तथा विभिन्न क्षेत्रकों को उधार देने की प्रकृति को भी तय करता है।
- वित्तीय क्षेत्रक सुधार नीतियों का एक प्रमुख उद्येश्य आरबीआई को इस क्षेत्रक के नियंत्रक की भूमिका से हटाकर उसे सहायक की भूमिका तक सीमित करना था।
- बैंकों की पूँजी में विदेशी भागीदारी की सीमा 50% कर दी गई। कुछ निश्चित शर्तों को पूरा करने वाले बैंक अब आरबीआई की अनुमति के बिना ही नई शाखाएँ खोल सकते हैं तथा पुरानी शाखाओं के जाल को अधिक युक्तिसंगत बना सकते हैं।
- विदेशी निवेश संस्थाओं(F.I.I) तथा व्यापारिक बैंक म्युचुअल फंड और पेंशन कोष आदि को भी अब भारतीय वित्तीय बाजारों में निवेश की अनुमति मिल गई है।[३]
- प्रत्यक्ष कर:- व्यक्तियों की आय और व्यावसायिक उद्यमों के लाभ पर लगाए जाते हैं।1991 के बाद से व्यक्तिगत आय पर लगाए गए करों में कमी की गई है।और तर्क यह दिया गया कि करों कि दरें कम होने पर बचतों को बढ़ावा मिलता है और लोग स्वेच्छा से अपनी आय का विवरण दे देते हैं।
- निगम कर भी धीरे-धीरे कम कर दी गई है।
- अप्रत्यक्ष कर वस्तुओं और सेवाओं पर लगाए गए करों में सुधार कर एक साझे राष्ट्रीय स्तर के बाजार की रचना की जा सके।
व्यापार नीतियों के सुधारों के लक्ष्य थे:-
- आयात और निर्यात पर परिमाणात्मक प्रतिबंधों की समाप्ति।
- प्रशुल्क दरों में कटौती और
- आयतों के लिए लाइसेंस प्रक्रिया समाप्ति।
1996 में नव उदारवादी वातावरण में सार्वजनिक उपक्रमों की कुशलता बढ़ाने,उनके प्रबंधन में व्यवसायीकरण लाने और उनकी स्पर्धा क्षमता में प्रभावी सुधार लाने के लिए सरकार ने 9 सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का चयन कर उन्हें नवरत्न घोषित कर दिया। उन्हें कंपनी के कुशलता पूर्वक संचालन और लाभ में वृद्धि करने के लिए प्रबंधन और संचालन कार्यो में अधिक स्वायत्तता दी गई थी।लाभ कमा रहे अन्य 97 उपक्रमों को भी अधिक परिचालन,वित्तीय और प्रबंधकीय स्वायत्तता प्रदान कर उन्हें लघुरत्न का नाम दिया गया।
उदारीकरण का प्रभाव[सम्पादन]
भारत के आर्थिक उदारीकरण का प्रभाव व्यापक था,जिनमें से कुछ सकारात्मक थे और कुछ नकारात्मक। देश में विदेशी निवेश (विदेशी प्रत्यक्ष निवेश, पोर्टफोलियो निवेश और अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाजारों पर उठाया गया निवेश सहित) 1991-92 में घटकर US $ 132 मिलियन से 1995-96 में बढ़कर $ 5.3 बिलियन हो गया।[५] [45] दूसरी ओर, इसने एनरॉन जैसी कई कंपनियों को महंगी परियोजनाओं से अधिक भारत में निवेश करने में सक्षम बनाया। [४६] अमेरिकी सीनेट के अनुसार, 1992 के बाद से भारत में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का सबसे बड़ा हिस्सा एनरॉन (10% से अधिक) से आया था।[६]
निजीकरण[सम्पादन]
सरकारी कंपनियों का निजीकरण दो प्रकार से होता है।पहला सरकार का सार्वजनिक कंपनी के स्वामित्व और प्रबंधन से बाहर होना तथा दूसरा सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को सीधे बेच दिया जाना। किसी सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों द्वारा जनसामान्य को इक्विटी की बिक्री के माध्यम निजीकरण को विनिवेश कहा जाता है। इस प्रकार की बिक्री का मुख्य वित्तीय अनुशासन बढ़ाना और आधुनिकीकरण में सहायता देना था।
विनिवेश की प्रक्रिया के जरिए सरकार अपने शेयर बेचकर संबंधित कंपनी (PSU) में अपना मालिकाना हक घटा देती है। जिससे सरकार को दूसरी योजनाओं पर खर्च करने के लिए धन मिलता है।
योजनाएँ बनाने के सरकारी थिंक टैंक नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार के अनुसार, विनिवेश क़ानून के अंतर्गत होता है। वो कहते हैं, "जहाँ तक मैंने बात की है ट्रेड यूनियन से वो भी नहीं चाहते कि ऐसी कंपनी में काम करें जो हर साल नुकसान कर रही है. उनका भी मन करता है कि एक मुनाफ़ा कमाने वाली कंपनी में काम करें. प्राइवेट सेक्टर जब आता है तो उसे लाभदायक बनाने की कोशिश करता है."[८]
वैश्वीकरण[सम्पादन]
यह ऐसे संपर्क सूत्र की रचना का प्रयास है,जिससे मीलों दूर हो रही घटनाओं के प्रभाव भारत के घटनाक्रम पर भी स्पष्ट दिखाई देने लगे।यह समग्र विश्व को एक बनाने या सीमा मुक्त विश्व की रचना करने का प्रयास है।कानूनी सलाह,कंप्यूटर सेवा,विज्ञापन,सुरक्षा आदि सेवाएं पहले जहां केवल देश के भीतर ही प्रदान किया जा सकता था वहीं सूचना प्रौद्योगिकी के प्रसार के कारण इन सेवाओं को विदेशों से प्राप्त करने की प्रवृत्ति बहुत सशक्त हो गई है।
भारत की निम्न मजदूरी दरें तथा कुशल श्रम शक्ति की उपलब्धता ने सुधारोंपरांत इसे विश्व स्तरीय ‘बाह्य प्रापण'(आउटसोर्सिंग )का एक गंतव्य बना दिया है।
वैश्वीकरण के कारण भारतीय कंपनियाँ भी विदेशों में अपने पैर फैलाने लगी है। टाटा टी ने 2001 में इंग्लैंड की टेटली को 1870 करोड़ में खरीदकर विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया ।टेटली ने हीं 'टी बैग' का प्रारंभ किया था।2004 में टाटा इस्पात ने सिंगापुर की नेट स्टील को 1245 करोड़ में और टाटा मोटर्स ने डेबू का कोरिया स्धित भारी वाहन संयंत्र 448 करोड रुपए में खरीदा।विदेश संचार निगम लिमिटेड 'टाइको'के भूसागर मग्न संचार तार तंत्र को भी 572 करोड़ में खरीद रही है।भारत में वैश्वीकरण का प्रभाव[सम्पादन]
वैश्वीकरण के पश्चात स्थानीय और विदेशी उत्पादकों के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा से शहरी धनी वर्ग को विशेष फायदा हुआ। इन उपभोक्ताओं के समक्ष पहले से अधिक विकल्प और कम कीमत पर उत्कृष्ट गुणवत्ता के उत्पाद मौजूद हैं परिणामत:ये लोग पहले की तुलना में आज अपेक्षाकृत जीवन स्तर का आनंद ले रहे हैं।
विगत 20 वर्षों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में अपने निवेश में वृद्धि की है। इन कंपनियों ने शहरी इलाकों के उद्योगों जैसे सेलफोन,मोटर गाड़ियों,इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों ठंडे पेय पदार्थ और जंक खाद्य पदार्थ एवं बैंकिंग जैसी सेवाओं के निवेश में रुचि दिखाई है।इन उत्पादों के खरीददार संपन्न वर्ग के लोग हैं इन उद्योगों और सेवाओं से नए रोजगार उत्पन्न हुए हैं साथ ही उद्योगों को कच्चे माल इत्यादि की आपूर्ति करने वाले स्थानीय कंपनियां समृद्धि हुई।
सन्दर्भ[सम्पादन]
- ↑ भारतीय अर्थव्यवस्था,रमेश सिंह पृ-6.7
- ↑ //ncert.nic.in/ncerts/l/khec103.pdf,p-42
- ↑ //ncert.nic.in/ncerts/l/khec103.pdf,p-43
- ↑ //ncert.nic.in/ncerts/l/khec103.pdf,p-44
- ↑ Local industrialists against multinationals. Ajay Singh and Arjuna Ranawana. Asiaweek. Retrieved on 2 March 2007.
- ↑ "118High-Stakes Showdown; Enron's Fight Over Power Plant Reverberates Beyond India" (PDF). New York Times. 20 March 2001. मूल (PDF) से 25 October 2016 को पुरालेखित. पहुँच तिथि 26 November 2018.
- ↑ //economictimes.indiatimes.com/hindi/budget/budget-guide/do-you-know-the-meaning-of-disinvestment/articleshow/67452936.cms
- ↑ //www.bbc.com/hindi/49193755