अलंकारअलंकार का शाब्दिक अर्थ है- सजावट, शृंगार, आभूषण आदि। साहित्यशास्त्र में अलंकार शब्द का प्रयोग काव्य सौन्दर्य के लिये होता है। alankar Show अलंकार की परिभाषा'अलंकरोति इति अलंकारः - alankar ki paribhasha अर्थात् जो अलंकृत करे, उसे अलंकार कहते हैं। जिस प्रकार आभूषण पहनने से व्यक्ति का शारीरिक सौन्दर्य और आकर्षण बढ़ जाता है, उसी प्रकार काव्य में अलंकारों के प्रयोग से उसके सौन्दर्य में वृद्धि होती है। दूसरे शब्दों में काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्म अलंकार कहलाते हैं। इससे कम से कम यह निष्कर्ष निकलता है कि अलंकार काव्य को रमणीयता प्रदान करते हैं। alankaar hindi अलंकार के प्रकारअलंकार तीन प्रकार के होते है- शब्दालंकार, अर्थालंकार उभयालंकार अलंकार के मुख्य दो भेद हैं- alankar ke bhed (1) शब्दालंकार (2) अर्थालंकार, जहाँ शब्दों के कारण-कविता में सौन्दर्य या चमत्कार आ जाता है वहाँ 'शब्दालंकार' और जहाँ अर्थ के कारण रमणीयता आ जाती है, वहाँ 'अर्थालंकार' होता है, alankar hindi विशेष - जहाँ शब्द और अर्थ दोनों में ही विशेषता आ जाने से सौन्दर्य या चमत्कार आ गया हो तो वहाँ 'उभयालंकार' होता है। alankar kya hai शब्दालंकारशब्दालंकार 7 प्रकार के होते हैं। इनमें अनुप्रास, यमक, श्लेष तथा वक्रोक्ति मुख्य है। अनुप्रास अलंकार जहाँ किसी पंक्ति के शब्दों में एक ही वर्ण एक से अधिक बार आता है, वहाँ अनुप्रास होता है। जैसे - 1. चारुचन्द्र की चंचल किरणें खेल रही हैं जल थल में। यहाँ 'च' वर्ण की आवृत्ति हुई है। पावस ऋतु थी पर्वत प्रदेश, पल पल परिवर्तित प्रकृति वेश। यहाँ 'प' वर्ण की आवृत्ति हुई है। अनुप्रास के पाँच भेद होते हैं- (1) छेकानुप्रास (2) वृत्यनुप्रास (3) लाटानुप्रास (4) श्रुत्यानुप्रास (5) अन्त्यानुप्रास। इनमें निम्नलिखित तीन महत्वपूर्ण हैं। (1) छेकानुप्रास (2) वृत्यनुप्रास (3) लाटानुप्रास छेकानुप्रास अलंकार जहाँ कोई वर्ण केवल दो बार आवे, वहाँ छेकानुप्रास होता है-
वृत्यनुप्रास अलंकार जहाँ किसी वर्ण की आवृत्ति वृत्तियों के अनुसार हो वहाँ वत्यानुप्रास होता है। वृत्तियाँ तीन प्रकार की होती हैं-
जिस रचना में य, र, ल, व, स आदि कोमल अक्षरों की प्रधानता हो वहाँ कोमला, जहाँ ओज की व्यंजना करने वाले कठोर शब्द आवें जैसे ट वर्ग के वर्ण अथवा द्वित्य वर्ण वहाँ परुषा वृत्ति होती है। उपनागरिका वृत्ति में सानुनासिक वर्ण आते हैं। तीनों के उदाहरण लीजिए - 1. कूलनि में केलि में कछारन में कुंजन में क्यारिन में कलित कलीन किलकंत है। वीथिन में ब्रज में नबेलिन में बेलिन में बनन में बागन में बगर्यो बसंत है। उक्त पंक्तियों में कोमल वर्णों की आवृत्ति हुयी है। 2. चरन चोट चटकन चकोट अरि उप सिर वज्जत। विकट कटक विद्दरत वीर वारिद जिमि गज्जत। यहाँ ट वर्ग की आवृत्ति और संयुक्त वर्ण के कारण परुषावृत्ति है। 3. रघुनंद आनंद कंद कोशल चंद दशरथ नंदनम्। यहाँ सानुनासिक वर्णों की आवृत्ति के कारण उपनागरिका वृत्यानुप्रास है। लाटानुप्रास अलंकार लाटानप्रास में ऐसे शब्द या वाक्य दुबारा आते हैं, जिनका सामान्य अर्थ तो एक ही होता है; किन्तु अन्वय करने से पूरी उक्ति का अर्थ बदल जाता है। 1. पूत सपूत तो क्यों धन संचिय? पूत कपूत तो क्यों धन संचिय? यहाँ कई शब्द दो बार आये हैं-पूत, तो क्यों, धन, संचिय। प्रथम बार सबका अन्वय सपूत के साथ है और दूसरी बार कपूत को साथ। 2. पराधीन जो जन, नहीं स्वर्ग, नरक ता हेतु। पराधीन जो जन नहीं, स्वर्ग नरक ता हेतु। उपरोक्त दोनों पंक्ति में शब्द प्राय: एक से हैं और अर्थ भी एक ही है। श्रुत्यनुप्रास जहाँ मुख के एक ही उच्चारण स्थान से उच्चरित होने वाले वर्णों की आवृत्ति होती है तब वहाँ श्रुत्यनुप्रास अलंकार होता है, जैसे- उच्चारण स्थान इस प्रकार हैं-
अंत्यानुप्रास जब छंद की प्रत्येक पंक्ति के अंतिम वर्ण या वर्णों में समान स्वर या मात्राओं की आवृत्ति के कारण तुकांतता बनती हो तो वहाँ अंत्यानुप्रास अलंकार होता है, जैसे- बुंदेले हरबोलों के मुँह, हमने सुनी कहानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी। रघुकुल रीत सदा चली आई। प्राण जाय पर वचन न जाई।। यमक अलंकार जहाँ कोई शब्द एक से अधिक बार आवे और प्रत्येक स्थान पर भिन्न-भिन्न अर्थ दे, वहाँ यमक अलंकार होता है। यमक का अर्थ ही होता है- दो। 1. जेते तुम तारे, तेते नभ में न तारे हैं। यहाँ 'सारे' शब्द दो बार आया है। परन्तु अर्थ अलग-अलग हैं। 2. कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाइ। वा खाये बौराइ नर, या पाये बौराय॥ यहाँ "कनक" शब्द दो बार आया है। दोनों का अर्थ अलग है। पहली बार अर्थ है धतूरा और दूसरी बार अर्थ है 'सोना'। श्लेष अलंकार जहाँ किसी शब्द के एक से अधिक अर्थ निकलें, वहाँ श्लेष अलंकार होता है। श्लेष का अर्थ होता है- चिपका हुआ। श्लिष्ट शब्द में एक से अधिक अर्थ चिपके रहते हैं। 1. 'रहिमन' पानी राखिये, बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥ यहाँ पानी के तीन अर्थ हैं- मोती के साथ कान्ति, मनुष्य के साथ इज्जत और चने के साथ जल। पानी के एक से अधिक अर्थ होने के कारण श्लेष अलंकार है। वक्रोक्ति अलंकार जहाँ बात किसी एक आशय से कही जाय और सुनने वाला उससे भिन्न दूसरा अर्थ लगा दे, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है। वक्रोक्ति दो प्रकार की होती है -
(क) जहाँ उक्ति की वक्रता का आधार श्लेष हो, वहाँ श्लेष वक्रोक्ति होती है। इसमें श्लेष के दो अर्थों में से वक्ता एक अर्थ ग्रहण करता है, श्रोता दूसरा। 1. को तुम हो? इत आए कहाँ? घनश्याम' हैं, तो कितहूँ बरसो। एक बार कृष्ण राधा के यहाँ गये और उनका बंद द्वार खटखटाया। भीतर से आवाज आई : कौन हो तुम? यहाँ क्यों आये हो? अपना नाम बताते हुए कृष्ण ने कहा : मैं घनश्याम हूँ। घनश्याम का एक अर्थ श्याम घन या काले बादल भी होता है। राधा के शरारत से कहा : यदि घनश्याम हो तो यहाँ तुम्हारा क्या काम है, कहीं जाकर बरसो। (ख) जहाँ कहे हुए वाक्य का कंठ की ध्वनि के कारण दूसरा अर्थ निकले, वहाँ 'काकु वक्रोक्ति' होती है। 2. आये हू मधुमास के प्रियतम ऐहैं नाहिं। आये हू मधुमास के प्रियतम ऐहैं नाहि? कोई विरहिणी कहती है कि बसन्त आने पर भी प्रियतम 'नहीं आयेंगे।' सखी उन्हीं शब्दों द्वारा कल्पित करती है कि क्या प्रियतम नहीं आयेंगे? अर्थात् 'अवश्य आयेंगे।' अर्थालंकारशब्दालंकार में किसी शब्द को हटाकर यदि उसका पर्याय रख दिया जाय, तो उस शब्द का सौन्दर्य नष्ट हो जाता है; अत: ऐसे अलंकारो की खोज हुई, जिनका चमत्कार शब्द पर निर्भर न करे, वरन् उसके न रहने पर भी बना रहे। आशय यह कि रमणीयता शब्द में नहीं, अर्थ में निहित रहे। ऐसे अर्थालंकारों की कोई संख्या नियत नहीं की जा सकती। फिर भी उनमें जो प्रमुख हैं, उनकी चर्चा की जा रही है। उपमा अलंकार जहाँ एक वस्तु की समता दूसरी वस्तु से की जाय, वहाँ उपमा अलंकार होता है। 'उप' का अर्थ होता है समीप, 'मा' का मापना या तोलना। अत: उपमा का अर्थ, हैं दो वस्तुओं को एक-दूसरे के समीप रखकर तोलना। जैसे- राधा रति के समान सुन्दरी है। (क) वस्तुओं की समता तीन कारणों से की जाती है-
(ख) उपमा के चार अंग होते हैं -
(ग) जब उपमा के चारों अंग उपस्थित रहते हैं, तब 'पूर्णोपमा' होती है। जब इनमें से किसी एक की कमी रहती है, तब 'लुप्तोपमा' कहलाता है। ऐसी उपमाएँ उपमेय लुप्तोपमा, धर्म लुप्तोपमा, वाचक लुप्तोपमा कही जाती है। उपमान लुप्तोपमा की कल्पना करना अनुचित है; क्योंकि जहाँ उपमान नहीं होगा, वहाँ उपमा भी नहीं होगी। पूर्णोपमा 1. नील गगन सा शांत हृदय था हो रहा। मैं समझ्यो निरधार, यह जग काँचौ काँच सौ। यहाँ पूर्णोपमा है। क्योंकि उपमा के चारों अंग वर्तमान हैं। 2. मोम सा तन घुल चुका अब दीप सा मन जल चुका है।
यहाँ पूर्णोपमा है, क्योंकि उपमा के चारों अंग विद्यमान हैं। लुप्तोपमा के उदाहरण (क) उपमेय लुप्तोपमा - (1) भोगी कुसुमायुध योगी सा बना दृष्टिगत होता है। (2) कमल के समान सुन्दर। यहाँ उपमेय को छोड़कर उपमा के तीनों अंग विद्यमान हैं। (ख) धर्म लुप्तोपमा - कुंद इंदु सम देह! (ग) वाचक लुप्तोपमा - तरुण अरुण वारिज नयन। मालोपमा - साधारणत: किसी की तुलना एक ही उपमान से की जाती है। लेकिन जहाँ किसी उपमेय के लिये बहुत से उपमान लाए जाएँ और वहाँ उनकी एक माला-सी तैयार हो जाय, वहाँ मालोपमा होती है - 1. पन्नग-समूह में गरुड़ सदृश तृण में विकराल कृशानु सदृश राणा भी रण में कूद पड़ा घन अन्धकार में भानु सदृश। यहाँ राणा-प्रताप-एक उपमेय के लिये गरुड़, कृशानु (अग्नि) सभी का साधारण धर्म एक है-'कूद पड़ना।' रूपक अलंकार जहाँ उपमेय को उपमान के रूप में दिखाया जाय, वहाँ रूपक अलंकार होता है जैसे मुख-चंद्र। आशय है- मुख ही चन्द्रमा है। रूपक के तीन भेद होते हैं-
1. निरंग में केवल उपमेय और उपमान का अभेद रहता है। है शत्रु भी यों मग्न जिसके शौर्य-पारावार में। 2. जहाँ उपमेय में उपमान के अंगों का भी आरोप हो, वहाँ सांग रूपक होता है। (क) उदित उदय गिरि-मंच पर, रघुवर-बाल पतंग। विकसे संत-सरोजवन, हरषे लोचन भृङ्ग॥ जनक सभा में रखे गये धनुष का वर्णन है, जिसे तोड़ने के लिये श्रीराम मंच पर चढ गये हैं। कवि ने सांग रूपक द्वारा निरूपित किया है।
3. परंपरित रूपक में एक रूपक के द्वारा दूसरे रूपक की पुष्टि होती है। उदयो ब्रज नभ आइ यह हरि मुख मधुर मयंक यहाँ पहले ब्रज को नभ बनाया फिर हरि मुख को मयंक बनाया। दूसरे रूपक से पहला रूपक जुड़ा हुआ है। प्रतीप अलंकार जहाँ उपमान को उपमेय के समान कहा जाय अथवा उपमेय को उपमान से श्रेष्ठ बताया जाय।
पहली स्थिति में प्रतीप उपमा का उलटा होता है। प्रतीप का अर्थ ही होता है विरुद्ध या उलटा। यदि कहा जाय-मुख चन्द्रमा के समान है, तो हुई उपमा। इसके स्थान यदि लिखा हो-चन्द्रमा उसके मुख के समान है, तो प्रतीप होगा। ऊपर लालिमा से युक्त संध्या की तुलना कृष्ण के मुख की कांति से की गयी है। उत्प्रेक्षा अलंकार जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना की जाती है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। मानो, मानहु, मनहु, मन, जानो, जानहु, जनु, निश्चय, मेरे जान, इव आदि उत्प्रेक्षा के वाचक शब्द हैं। (क) चमचमात चंचल नयन बिच घूँघट पट झीन। मानहु सुरसरिता विमल जल उछरत युग मीन॥ (ख) सोहत ओढ़े पीत पट, स्याम सलोने गात। मनौ नीलमनि सैल पर, आतप पर्यो प्रभात॥ (ग) अस कहि कुटिल भई उठि ठाढ़ी। मानहुँ रोष-तरंगिनि बाढ़ी। उत्प्रेक्षा तीन प्रकार की होती है-
(1) जहाँ एक वस्तु में दूसरी वस्तु के आरोप की सम्भावना की जाय, वहाँ वस्तूत्प्रेक्षा होती है जान पड़ता नेत्र देख बड़े-बड़े। हीरकों में गोल नीलम हैं जड़े॥ पद्मरागों से अधर मानो बने। मोतियों से दाँत निर्मित हैं घने॥ यहाँ प्रस्तुत (नेत्र आदि) में अप्रस्तुत (हीरों में जड़े नीलम) आदि की सम्भावना की गयी है। 'जान पड़ता' और 'मानो' वाचक शब्द है। (2) जहाँ सम्भावना के मूल में कोई कारण या हेतु हो, वहाँ हेतूत्प्रेक्षा होती है - घिर रहे थे धुंघराले बाल अंस अवलंबित मुख के पास, नील घन शावक से सुकुमार, सुधा भरने को विधु के पास। (3) जहाँ किसी क्रिया के मूल में किसी फल की सम्भावना हो, वहाँ फलोत्प्रेक्षा होती है - नित्य ही नहाता क्षीर सिन्धु में कलाधर है, सुन्दरि, नवानन की समता की इच्छा से। व्यतिरेक अलंकार जहाँ उपमेय को उपमान से श्रेष्ठ बताया जाय और उसका कारण भी दिया जाय, वहाँ व्यतिरेक अंलकार होता है। (क) जनम सिन्धु, पुनि बंधु विप, दिन सलीन, सकलंक। सिय मुख समता पाव किमि, चन्द बापुरो रंक॥ (ख) 'साधू ऊँचे शैल सम, किन्तु प्रकृति सुकुमार।' यहाँ सज्जनों को पर्वतों के समान ऊँचा बताया गया है, पर उनमें यह बात अधिक बतायी गयी कि उनकी प्रकृति कोमल होती है जबकि पर्वतों की प्रकृति कोमल नहीं कठोर होती है। असंगति अलंकार जहाँ कारण कहीं हो और उसका कार्य कहीं, वहाँ असंगति अलंकार होता है। दृग उरझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति। परति गाँठ दुरजन हिये, दई नई यह रीति॥ यहाँ उलझती है आँखें, पर टूटता है कुटुम्ब से सम्बन्ध, फिर जो चीज टूटती है, वही पीछे जुड़ती है, यहाँ टूट तो रहा है कुटुम्ब पर जुड़ रहा है चतुरों के हृदय का प्रेम। वैसे ही जहाँ कोई वस्तु जुड़ती है तो गाँठ भी वहाँ पड़ती है, पर यहाँ जुड़ रही प्रेमी हृदयों की प्रीति और गाँठ पड़ रही दुर्जनों के हृदय में। इस प्रकार कारण कहीं और कार्य कहीं हो रहा है। निदर्शना अलंकार जब उपमेय और उपमान के से दो वाक्यों में अर्थ की भिन्नता होते हुए भी, एक दूसरे का सम्बन्ध इस प्रकार स्थापित किया जाय कि उनमें समानता प्रतीत होने लगे, तब निदर्शना अलंकार होता है। यह प्रेम को पंथ कराल महा, तरवार की धार पै धावनो है। प्रेम के पंथ पर चलना तलवार की धार पर दौड़ना नहीं है, पर तलवार की धार पर दौड़ने के समान उसे दुष्कर बताया गया है। विभावना अलंकार जहाँ बिना कारण के ही कार्य हो जाय वहाँ विभावना अलंकार होता है। बिनु पद चले सुने बिनु काना। कर बिनु करम करे बिधि नाना॥ आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु वाणी वकता, बड़ जोगी॥ यहाँ पैर बिना चलना, कान बिना सुनना और बिना हाथ के कार्य होना, इत्यादि कार्य बिना कारण ही सम्पादित हो रहे हैं। अत: विभावना अलंकार है। अतिशयोक्ति अलंकार जहाँ किसी वस्तु का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जाय अथवा सीमा के बाहर की बात कही जाय, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है। 1. देख लो साकेत नगरी है यही। स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही॥ 2. बाँधा था विधु को किसने इन काली जंजीरों से। मणि वाले फणियों का मुख, क्यों भरा हुआ हीरों से॥ यहाँ मोतियों से भरी प्रिया की माँग का वर्णन है। चन्द्र से मुख का, काली जंजीरों से केश का, फणियों से मोती भरी माँग का बोध होता है। अत्युक्ति अलंकार जहाँ किसी वस्तु का बढ़ा-चढ़ाकर किया गया वर्णन झूठा प्रतीत हो, वहाँ अत्युक्ति अलंकार होता है। लखन सकोप वचन जब बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥ लक्ष्मण के क्रोधित होकर बोलने से पृथ्वी डगमगा उठी और दिग्गज काँप उठे। अत: मिथ्यात्व पूर्ण वर्णन होने से अत्युक्ति अलंकार है। अतिशयोक्ति और अत्युक्ति मिलते-जुलते अलंकार हैं। भेद यह है कि उक्ति यदि सम्भव हो तो अतिशयोक्ति और असम्भव हो तो अत्युक्ति होगी। अपन्हुति अलंकार जहाँ सत्य बात का निषेध कर मिथ्या वस्तु का आरोप किया जाय, वहाँ अपन्हुति अलंकार होता है। सावन की अंधी रजनी वारिद-मिस रोती आयी। यहाँ जल-वर्षा का निषेध कर, अश्रुवर्षा का आरोप है। दृष्टांत अलंकार जहाँ पहले कोई बात कहकर, उससे मिलती-जुलती बात द्वारा दृष्टान्त दिया जाय; लेकिन समानता किसी शब्द द्वारा प्रकट न हो, वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है। सठ सुधरहिं सत संगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥ यहाँ सत्संगति से सठ का सुधरना वैसा ही है, जैसे पारसमणि के स्पर्श से कुधातु का चमकना। यहाँ प्रथम वाक्य की सत्यता प्रतिपादित करने के लिए दृष्टान्त रूप से दूसरा वाक्य आया है। उदाहरण अलंकार जहाँ किसी बात के समर्थन में उदाहरण किसी वाचक शब्द के साथ दिया जाय, वहाँ उदाहरण अलंकार होता है। 1. बूंद अघात सहैं गिरि कैसे। खल के वचन संत सह जैसे॥ 2. छुद्र नदी भरि चलि उतराई। जस थोरेहुँ धन खल बौराई॥ 3. ससि सम्पन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी॥ उपरोक्त उदाहरणों में उदाहरण वाची शब्द 'जैस', 'जस' और 'जैसी' शब्दों द्वारा प्रथम पंक्ति के अर्थ को और अधिक प्रभावशाली बनाया जा रहा है। यथासंख्य या क्रम अलंकार जब कुछ पदार्थों का उल्लेख करके उसी क्रम से उससे सम्बन्धित पदार्थों, कार्यो या गुणों का वर्णन हो, तो यथासंख्य या क्रम अलंकार होता है। 1. अमिय, हलाहल, मदभरे, श्वेत-श्याम-रतनार। जियत, मरत, झुकि-झुकि परत, जेहि चितवत इक बार॥ नायिका के नेत्रों में तीन रंग है सफेद, काला तथा लाल जो क्रमश: अमृत, विष और मद जैसे प्रतीत होते हैं। सुन्दरी ऐसे-ऐसे नेत्रों से जिसे देखती है, वह उसी क्रम में जीता, मरता और गिरता-पड़ता है। क्रमिक सम्बन्ध के कारण ही इनका चमत्कार है। आँख का सफेद रंग अमृत होने से जिलाता है। विषरूपी काला रंग मार डालता है तथा लाल रंग मतवाला बनाता है, जिससे वह ऊँघता है। उल्लेख अलंकार जब किसी वस्तु का अनेक प्रकार से वर्णन किया जाय, तब उल्लेख अलंकार होता है। जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरति देखी तिन तैसी॥ देखहिं भूप महा नरधीरा। मनहुँ वीर रस धरे शरीरा॥ डरे कुटिल नृप प्रभुहिं निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥ पुरवासिन देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥ यहाँ राम-लक्ष्मण का, अनेक व्यक्तियों के, अनेक दृष्टिकोणों द्वारा उल्लेख किया गया है। परिकर अलंकार जब विशेष्य के साथ किसी विशेषण का साभिप्राय प्रयोग हो, तब परिकर अलंकार होता है। सोच हिमालय के अधिवासी, यह लज्जा की बात हाय। अपने ताप तपे तापों से, तू न तनिक भी शान्ति पाय॥ यहाँ शान्ति न पाना क्रिया के प्रसंग में, 'हिमालय के अधिवासी' यह विशेषण साभिप्राय है। जो शीतल हिमालय का अधिवासी है, वही अपने ही तापों से सन्तप्त रहे तो वस्तुत: लज्जा की बात है। परिकरांकुर अलंकार जहाँ विशेष्य का प्रयोग अभिप्राय-सहित हो, वहाँ परिकरांकुर अलंकार होता है। 1. सुनहु विनय मम विटप अशोका। सत्य नाम करु, हर मम शोका॥ यहाँ शोक दूर करने का प्रसंग है। अत: अशोक वृक्ष के लिये अशोक (शोक रहित) नाम साभिप्राय है। सहोक्ति अलंकार जहाँ 'सह' 'संग' आदि शब्दों की सहायता से बहुत-सी बातों का कथन एक साथ किया जाय। जस, प्रताप, वीरता, बड़ाई, नाक, पिनाकहिं संग सिधाई॥ धनुष टूटने के साथ राजाओं की प्रतिष्ठा भी जाती रही। यहाँ नाक और धनुष-इन दो विजातीय वस्तुओं को 'संग' शब्द द्वारा एक ही क्रिया 'सिधायी' से अन्वित किया गया है। विनोक्ति अलंकार जहाँ 'बिना', 'रहित' आदि शब्दों की सहायता से, एक के बिना दूसरा पदार्थ शोभित अथवा अशोभित कहा जाय, वहाँ विनोक्ति अलंकार होता है। जिय बिनु देह, नदी बिनु वारि। तैसेहि नाथ, पुरुष बिनु नारि॥ यहाँ पर 'बिनु' शब्द की सहायता से कई पदार्थों का अशोभित होना वर्णित होने से विनोक्ति अलंकार है। कारणमाला अलंकार जहाँ एक कारण से उत्पन्न कार्य, किसी अन्य कार्य का कारण हो और इस प्रकार वस्तुओं का वर्णन एक श्रृंखला में किया जाय, वहाँ कारणमाला अलंकार होता है। आकर्षण से प्रेम, प्रेम से मोह उपजता भारी। स्नेह-रज्जु में बँध जाते हम, बन जाते संसारी॥ यहाँ एक कारण से जो कार्य हुआ वही क्रमश: अन्य का कारण बनता गया। यहाँ केवल, कारण और कार्य की श्रृंखला बनाई जाती है। संदेह अलंकार जहाँ किसी वस्तु को देखकर संशय बना रहे, निश्चय न हो वहाँ संदेह अलंकार होता है। 1. सारी बीच नारी है, कि नारी बीच सारी है, कि सारी ही की नारी है, कि नारी ही की सारी है? भ्रान्तिमान (भ्रम) अलंकार जहाँ समता के कारण किसी वस्तु में (उपमेयों में) अन्य वस्तु का (उपमान का) भ्रम हो जाय। 1. नाक का मोती अधर की कांति से, बीज दाडिम का समझकर भ्रांति से, देख उसको ही हुआ शुक मौन है, सोचता है अन्य शुक यह कौन है। यहाँ घर के पाले शुक को, नायिका की नाक और मोती में अनार का दाना पकडे शुक का भ्रम हो रहा है। 2. पाँय महावर देन को नाइन बैठी आय। पुनि पुनि जान महावरी एड़ी मोड़ति जाय॥ यहाँ नाइन एडी की लालिमा को महावर समझकर भ्रम वश उसे मोड़ती है। काव्यलिंग अलंकार जहाँ किसी उक्ति के समर्थन का कारण बताया जाय, वहाँ काव्यलिंग अलंकार होता है। 1. कनक कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाइ। वा खाये बौरात नर, या पाये बौराइ॥ धतूरा खाने से नशा होता है, पर स्वर्ण पाने से भी नशा होता है। यहाँ इसी बात का समर्थन किया गया है कि स्वर्ण में धतूरे से ज्यादा नशा होता है। दोहे के उत्तरार्ध में कथन की पुष्टि हुई है। स्वभावोक्ति अलंकार किसी के स्वभाव, धर्म, कर्म और दशा का यथावत् अथवा स्वाभाविक वर्णन करना स्वभावोक्ति अलंकार के अन्तर्गत आता है। भोजन करत चपल चित, इत उत अवसर पाइ। भाजि जात किलकात मुख, दधि ओदन लपटाइ॥ यहाँ राम आदि बालकों के बालस्वभाव का सर्वथा स्वाभाविक वर्णन है। समासोक्ति अलंकार जहाँ प्रस्तुत से अप्रस्तुत का भी बोध है, वहाँ समासोक्ति अलंकार होता है। 1. कुमुदिनिहु प्रमुदित भई साँझ कलानिधि जोय। यहाँ कवि का इच्छित अर्थ तो यह है कि संध्या समय में चन्द्रमा को देखकर कुमुदिनी फूल उठी, लेकिन इससे नायिका की स्थिति का भी संकेत मिलता है। 2. सो दिल्ली अस निबहुर देसू। कोइ न बहुरा कहै संदेसू॥ जो गबनै सो तहाँ कर होई। जो आवै कछु जानि न सोई॥ जो आँखों के सामने हो उसे प्रस्तुत और छिपा, दूर या अप्रत्यक्ष हो उसे अप्रस्तुत कहते हैं। पहली पंक्ति का अर्थ तो इतना ही है कि संध्या-समय कमदिनी चन्द्रमा को देखकर खिल उठी। लेकिन यहाँ उस नायिका से भी तात्पर्य है जो संध्या-समय अपने प्रेमी से दूर होने पर झलंक पाकर प्रसन्न हो उठी है। दूसरा उद्धरण जायसी से लिया गया है। रत्नसेन दिल्ली में अलाउद्दीन की कैद में है। उसका संदेश लाकर कोई नहीं देता। इन पंक्तियों का एक आध्यात्मिक अर्थ भी है। दिल्ली से तात्पर्य है परलोक का। जो परलोक का वासी हुआ, उसका संदेश मिलना सम्भव नहीं है। अप्रस्तुता प्रशंसा अलंकार जब अप्रस्तुत का वर्णन इस ढंग से किया जाय कि प्रस्तुत का ज्ञान हो, तब अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार होता है। माली आवत देखकर, कलियन करी पुकारि। फूले-फूले चुन लिये, काल्हि हमारी बारि॥ यहाँ माली, कली और फूलों के अप्रस्तुत कथन द्वारा 'काल, युवा-पुरुषों और वृद्ध जनों का अर्थ प्रस्तुत किया गया है। काल को आता देखकर युवा पुकार उठते हैं कि यह वृद्धों को ले जा रहा है, थोड़े समय में हम भी वृद्ध हो जायेंगे और फिर हमारी भी बारी आ जायेगी।' स्मरण अलंकार पहले से देखी हुई वस्तु अथवा सुनी हुई बात से मिलती-जुलती वस्तु या बात को देख या सुनकर जब पूर्व वस्तु या बात का स्मरण हो आता है, तब स्मरण अलंकार होता है। छू देती है मृदु पवन जो पास आ गात मेरा। तो हो आती परम सुधि है श्याम प्यारे करों की॥ यहाँ मृदु पवन का स्पर्श पाकर राधा को कृष्ण के हाथों के स्पर्श की याद हो जाती है। व्याजस्तुति अलंकार जहाँ देखने या सुनने में तो निन्दा-सी प्रतीत हो, पर वास्तव में प्रशंसात्सा हो, वहाँ व्याजस्तुति अलंकार होता है। काशी पुरी की कुरीति महा, जहाँ देह देए, पुनि देह न पाइए। यहाँ पर वास्तव में काशी नगरी की प्रशंसा की जा रही है क्योंकि वहाँ देह त्यागने पर मुक्ति मिलती है। व्याजनिन्दा अलंकार जहाँ की तो जाय स्तुति, पर वास्तव में निन्दा हो, वहाँ व्याजनिन्दा अलंकार होता है। 1. नाक-कान बिनु भगिनि निहारी। क्षमा कीन्ह तुम धरम-बिचारी॥ यहाँ देखने में रावण की प्रशंसा है, पर वास्तव में निन्दा है। विरोधाभास अलंकार जब दो विरोधी पदार्थों का संयोग एक साथ दिखाया जाय, तब विरोधाभास अलंकार होता है। 1. सुलगी अनुराग की आग वहाँ, जल से भरपूर तड़ाग जहाँ। यहाँ जल और आग दो विरोधी पदार्थों का संयोग एक साथ दिखाया गया है। 2. या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोय। ज्यों-ज्यों बूडै स्याम-रँग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय॥ भक्त का चित्त घनश्याम के काले रंग में ज्यों-ज्यों डूबता है, त्यों त्यों वह सफ़ेद होता जाता है। काले रंग में डूबने से वस्तु काली हो जाती है, उजली नहीं इस प्रकार श्वेत और श्याम का संयोग दिखाने के कारण विरोधाभास अलंकार है। दीपक अलंकार जहाँ उपमेय और उपमान दोनों का एक धर्म कहा जाय, वहाँ दीपक अलंकार होता है। संग ते जती, कुमंत्र ते राजा, मान ते ज्ञान, पान ते लाजा। प्रीति प्रनय बिनु, मद ते गुनी, नासहिं बेगि, नीति अस सुनी॥ यहाँ पर यति, राजा, ज्ञान, लज्जा, प्रीति तथा गुणी मनुष्य सभी उपमेय और उनके उपमानों का ही एक धर्म 'नासहिं' कहा जाने से दीपक अलंकार है। परिसंख्या अलंकार जब किसी वस्तु को अन्य स्थलों से हटाकर किसी एक ही स्थान पर स्थापित किया जाय, तब परिसंख्या अलंकार होता है। दण्ड जतिन कर, भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज। जी तौ मनसिज सुनिय अस, रामचन्द्र के राज॥ राम के राज्य में दण्ड केवल संन्यासियों के हाथ में था. अन्यत्र दण्ड (सजा) नही था। भेद (भेद की नीति) कहीं नहीं थी, केवल मर्तक समाज में सुर, ताल और राग का भेद देखा जाता था। विजय केवल काम की सुनी जाती थीं, एक दूसरे पर आक्रमण कर विजय की इच्छा किसी को नहीं थी। यहाँ दण्ड, भेद और विजय का अन्य स्थाना निषेध कर एकत्र रहना वर्णित है। अर्थान्तरन्यास अलंकार जहाँ किसी सामान्य बात का विशेष बात से तथा विशेष बात का सामान्य बात से समर्थन किया जाय, वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है। 1. जो 'रहीम' उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग। चंदन विष व्यापत नहिं, लिपटे रहत भुजंग॥ 'कुसंगति अच्छी प्रकृति वालों का कुछ नहीं बिगाड़ सकती' इस सामान्य अर्थ का विशेष से समर्थन है। सर्प लिपटे रहते हैं पर चन्दन में विष व्याप्त नहीं होता। तुल्ययोगित अलंकार जहाँ अनेक उपमेयों अथवा उपमानों का एक ही धर्म कथन किया जाय, वहाँ तुल्ययोगिता अंलकार होता है। चन्दन, चन्द, कपूर नव सित अम्भोज, तुषारा। तेरे यश के सामने, लगते मलिन अपारा ।। यहाँ चन्दन, चन्द्र, कपूर, श्वेत कमल और तुषार इन अप्रस्तुतों का एक ही धर्म 'मलिन लगते' कहा गया है। विशेषोक्ति अलंकार जहाँ कारण के होने पर भी कार्य न हो, वहाँ विशेषोक्ति होती है। पानी बिच मीन, मीन पियासी। मोहि सुनि-सुनि, आवै हाँसी॥ यहाँ पर 'मीन' पानी के बीच भी प्यासी है। यहाँ 'कारण' पानी होते हुए भी कार्य (प्यास बुझाना) नहीं हो रहा है। संकर अलंकार जब किसी पद्य में कई अलंकार दूध-पानी की तरह मिले हुए हों, तब संकर अलंकार होता है। इसमें अलंकार को पृथक् करना कठिन होता है। बंदहुँ गुरुपद-पदुम-परागा। सुरुचि-सुवास सरस-अनुरागा॥ यहाँ 'पद-पदुम' में छेकानुप्रास और रूपक दोनों होने से संकर अलंकार है। संसृष्टि अलंकार जब किसी पद्य में, कई अलंकार तिल-चावल की तरह मिले हों, तब संसृष्टि अलंकार होता है। इन अलंकारों को पृथक किया जा सकता है। जोरि पंकरुह पानि सुहाये। बोले वचन प्रेम जनु छाये। राम करौं केहि भाँति प्रसंगा। मुनि-महेस-मन-मानस हँसा॥ 'पंकरूह पानि' के कारण उपमा, 'प्रेम जनु छाये' के कारण उत्प्रेक्षा, 'मन-मानस हँसा' के कारण रूपक, ये तीनों मिश्रित अलंकार स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहे हैं। प्रतिवस्तूपमा अलंकार जब उपमेय और उपमान सम्बन्धी अलग-अलग वाक्यों में भिन्न-भिन्न शब्दों से एक ही अर्थ ध्वनित हो, तब प्रतिवस्तूपमा अलंकार होता है। तिनहि सुहाय न नगर बधावा। चोरहिं चाँदनि रात न भावा॥ यहाँ प्रथम और द्वितीय दोनों वाक्यों में रुचिकर न होने का भाव 'सुहाय न' और 'न भावा' दो भिन्न पदों से व्यक्त हुआ है। मीलित अलंकार जब दो समान गुण वाली वस्तुएँ ऐसी मिल जायँ कि दोनों का भेद लक्षित न हो तब मीलित अलंकार होता है। कजरारी अँखियान में कजरा ही, न लखाय। यहाँ कजरारी आँखों में काजल दिखायी ही नहीं पड़ता है। दोनों का भेद लक्षित न होने के कारण मीलित अलंकार है। उन्मीलित अलंकार जब दो समान गुण वाली वस्तुओं का एक-दूसरे में मिलने पर भी किसी कारण से भद लक्षित हो जाय, तब उन्मीलित अलंकार होता है। चंपक हरवा गर मिलि, अधिक सुहाय, जानि परै सिय हियरे, जब कुम्हिालय॥ यहाँ चम्पा का पीत वर्ण शरीर के कनक पीत वर्ण से मिल गया है और यह मान नहीं होता कि चम्पक माला पड़ी है, जब तक वह कुम्हलाती नहीं। तद्गुण अलंकार जब कोई वस्तु अपना गुण त्यागकर, अपने पास की किसी दूसरी वस्तु का गुण ग्रहण कर लेती है, तब तद्गुण अलंकार होता है। 1. केस मुकृत सखि मरकत मनिमय होत। केशों में गूंथे हुए मोती मरकत मणि बन जाते हैं। सफेद मोती काले केशों के सम्पर्क में आकर केशों के कालेपन को ग्रहण कर काले बन जाते हैं और नीलम (मरकत मणि) के समान जान पड़ते हैं। 2. अधर धरत, हरि के परत। ओठ, दीठि, पट ज्योति। हरित-बाँस की बाँसुरी, इंद्रधनुष-रँग होति॥ भगवान कृष्ण के होठों पर रखी बाँसुरी ओंठ, दृष्टि, पट की ज्योति पड़ने के कारण अपने असली रंग को छोड़कर, इन्द्रधनुष के रंग को ले लेती है। अत: रंग ग्रहण के कारण 'तद्गुण' अलंकार हुआ। पूर्वरूप अलंकार जब कोई वस्तु, किसी दूसरी वस्तु के संसर्ग में आकर अपना गुण छोड़ दे; परन्तु किसी तीसरी के सम्पर्क में आकर, अपना पहला रूप धारण कर ले, तब पूर्वरूप अलंकार होता है। केस मुकृत सखि मरकत मनिमय होत। हाथ लेत पुनि मुकता करत उदोत॥ यहाँ पर सफेद मोती, काले केशों के संसर्ग में आकर काले हो जाते हैं। परन्तु पुनः हाथ में लेते ही अपना पूर्व-रूप ग्रहण कर लेते हैं। उभयालंकारजहाँ अलंकार का चमत्कार उसके शब्द और अर्थ दोनों में पाया जाए तो वहाँ उभयालंकार होता है। श्लेष अलंकार उभयालंकार की श्रेणी में आता है। शब्द के आधार पर शब्द श्लेष तथा अर्थ के आधार पर अर्थ श्लेष। बादल बनते में कौन सा अलंकार है?यह अलंकार उभयालंकार का भी एक अंग है।
उत्प्रेक्षा अलंकार का उदाहरण क्या है?उत्प्रेक्षा अलंकार के उदाहरण
ज्यों भिक्षुक लेकर स्वर्ण। इस उदाहरण में कनक का अर्थ धतुरा है। कवि कहता है कि वह धतूरे को ऐसे ले चला मानो कोई भिक्षु सोना ले जा रहा हो। इसमें 'ज्यों' शब्द का इस्तेमाल हो रहा है एवं कनक–उपमेय में स्वर्ण–उपमान के होने कि कल्पना हो रही है।
बरसात बारिश बूंद में कौन सा अलंकार है?उत्तर – प्रस्तुत पंक्ति बरसत बारिद बूंद गही, चाहत चढ़न आकाश में अनुप्रास अलंकार है।
यमक अलंकार का उदाहरण क्या है?सरल शब्दों में कहें तो जब एक ही शब्द काव्य में कई बार आये और सभी अर्थ अलग-अलग हो वहां यमक अलंकार होता है। उदाहरण - ऊधौ जोग जोग हम नाहीं । उदाहरण - खग-कुल कुल-कुल से बोल रहा । प्रस्तुत पंक्ति में 'कुल' शब्द दो बार आया है।
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