1950 के दौरान औद्योगिक विकास नीतियों की उपलब्धियां क्या हैं 1990 - 1950 ke dauraan audyogik vikaas neetiyon kee upalabdhiyaan kya hain 1990

विकास एक बहुआयामी तत्व है। यह न केवल आर्थिक संवृद्धि का एक प्रश्न है, अपितु एक सामाजिक एवं राजनीतिक प्रक्रिया है जो लोगों को जीवन की मुख्यधारा में शामिल होने के लिए अभिप्रेरित करती है और विकास प्रक्रिया में उन्हें सहभागी बनाती है। विकास अंततः आत्मनिर्भरता, समानता, न्याय एवं संसाधनों का एकसमान वितरण है तथा लोकतंत्र के बारे में बताता है।

ब्रिटिश शासन काल में, भारत ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा आर्थिक शोषण के कारण अल्पविकसित था।ब्रिटिश सरकार ने भारत से धन का निष्कासन इंग्लैंड को किया; स्वदेशी, राष्ट्रीय एवं हथकरघा उद्योग को बर्बाद किया और भारत को ब्रिटिश सामान की पूर्ति का एक बड़ा बाजार बना दिया और इसे ब्रिटिश उद्योगों हेतु कच्चे माल के स्रोत के रूप में परिवर्तित कर दिया। संयुक्त प्रभाव वाली करारोपण व्यवस्था, बढ़ती भूमि कीमतें एवं अत्याचार तथा शोषण से बड़ी तादाद में लोग निर्धन हो गए।

स्वदेशी औद्योगिक विकास सीमित था और उस पर ब्रिटिश उद्यमियों का प्रभुत्व था। पूंजी निर्माण बेहद कम था, तकनीकी विकास निम्न स्तर पर था, और बचत एवं निवेश की दर अत्यधिक कम थी।

स्वतंत्रता पश्चात् भारत ने एक विकास रणनीति अपनाई जो समाजवादी समाज की व्यवस्था लेकर आई। समाजवाद ने कामगारों के हितों की पहले रखा। वे ऐसे लोग होते हैं जो उत्पाद तैयार करते हैं और इसलिए, उन्हें उनके श्रम का लाभ मिलना चाहिए। समाजवादी समाज को दो तरीके से स्थापित किया जा सकता है। प्रथमतः, कामगार वर्ग, जिसमें श्रमिक एवं कृषक वर्ग दोनों शालिल हैं, वर्ग-संघर्ष द्वारा पूंजीपति वर्ग को उखाड़ फेंकेंगे और शक्ति एवं सत्ता हासिल करेंगे। राज्य शक्ति तब कामगार वर्ग के लाभ में कार्य करेगी। द्वितीय, जैसा कि सरकार सर्वोच्च संगठन होता है, जो संसाधनों का पुनर्वितरण कर सकता है और सामाजिक असमानता की वृद्धि को रोक सकती है। पहले प्रतिमान में, कामगार वर्ग उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व हासिल कर लेता है, और दूसरे प्रतिमान में, वे उत्पादन के पुनर्वितरण के लाभ को प्राप्त करते हैं। नेहरू समाजवादी थे लेकिन उन्होंने दूसरे प्रतिमान को अपनाया क्योंकि वे मतभेद एवं संघर्ष की स्थिति का सामना नहीं करना चाहते थे जो नवजात देश में व्यवधान उत्पन्न करेगा। इस प्रकार उत्पादन के आधारिक क्षेत्रों को सरकारी नियंत्रण में लाया गया जिससे उन्हें पुनर्वितरण की नीतियों के साथ जोड़ा जा सके और नियोजन एवं राज्य हस्तक्षेप द्वारा समाजवादी समाज स्थापित किया जा सके।

विकास के नेहरूवादी प्रारूप ने निम्न विशेषताओं की मूर्तरूप दिया

  • राज्य संसाधनों की गतिशीलता की सुनिश्चितता, प्रमुखताओं के निर्धारण, अर्थव्यवस्था की ऊंचाइयों के निर्माण एवं आत्मनिर्भरता को सुसाध्य बनाने के लिए इसके विविधीकरण के द्वारा स्वयं को प्रत्यक्ष रूप से विकास में संलग्न रखेगा। साथ ही साथ, इसने सामाजिक एवं आर्थिक असमानताओं को कम किया।
  • राज्य आर्थिक नियोजन के माध्यम से हस्तक्षेप करेगा जो सोवियत पंचवर्षीय योजना प्रतिमान पर आधारित था।
  • हालांकि, राज्य उत्पादन के प्रत्येक क्षेत्र को हस्तगत नहीं करेगा। आयुध सामग्री, आणविक ऊर्जा, रेलवे जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर सरकारी एकाधिकार होगा और सरकार को स्टील एवं आयरन, कोयला, खनिज, जहाजरानी, टेलीफोन, विनिर्माण, टेलीग्राफ, एयरक्राफ्ट इत्यादि पर एकाधिकार करने का अधिकार होगा। निजी क्षेत्रको बिना राष्ट्रीयकरण वाले क्षेत्रों में सहयोग के लिए बुलाया जाएगा। इस प्रकार मिश्रित अर्थव्यवस्था, जिसमें लोक एवं निजी क्षेत्रों का मिश्रण होता है, की अवधारणा को आर्थिक विकास हेतु सम्मुख रखा गया जिसे 1948 में संविधान सभा के समक्ष औद्योगिक नीति प्रस्ताव में रखा गया था।

भारत में नियोजन की अवधारणा

नियोजन से अभिप्राय है राज्य के अभिकरणों द्वारा देश की आर्थिक सम्पदा एवं सेवाओं की एक निश्चित अवधि हेतु आवश्यकताओं का पूर्वानुमान लगाना। यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि आर्थिक नियोजन अपने आप में सामाजिक नियोजन की अवधारणा को भी सन्निहित करता है। वर्तमान में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में आर्थिक नियोजन के पीछे समाज को विकसित करने का लक्ष्य रखा जाता है। कहा जा सकता है कि आर्थिक एवं सामाजिक नियोजन एक साथ चलते हैं तथा इन पर साथ ही साथ विचार करना चाहिए।

आर्थिक नियोजन प्रत्येक समाज की आवश्यकता बन चुका है। चाहे वे पूंजीवादी राष्ट्र हों अथवा स्वतंत्र अर्थव्यवस्था वाले राष्ट्र हों।

आर्थिक नियोजन मात्र आर्थिक आवश्यकताओं की ही पूर्ति नहीं करता वरन् विस्तृत रूप में समाज व राजनीतिक विचारों को लेकर चलता है।

मिश्रित अर्थव्यवस्था में योजना के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निजी एवं लोक क्षेत्र दोनों के सहयोग को सुनिश्चित करने की मुख्य चुनौती होती है। इसके अतिरिक्त, आज इस बात की भी जरूरत है कि अर्थव्यवस्था के समग्र विकास के लिए निजी क्षेत्र का ध्यान आर्थिक क्रियाशील सामाजिक भूमिका निभाने की ओर परिवर्तित किया जाए।

भारत में नियोजन ने अपने उद्देश्यों एवं सामाजिक निहितार्थों को संविधान में प्रस्तुत प्रस्तावना एवं राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों से लिया है। इस पर आधारित, योजना आयोग ने नियोजन के चार निम्न उद्देश्यों को निर्धारित किया है-

  1. उत्पादन में संभावित अधिकतम वृद्धि करना ताकि उच्चस्तरीय राष्ट्रीय एवं प्रति व्यक्ति आय प्राप्त की जा सके;
  2. पूर्ण रोजगार की स्थिति प्राप्त करना,
  3. आय एवं संपत्ति की असमानताओं को कम करना;
  4. समानता एवं न्यायपर आधारित समाजवादी समाजस्थापित करना और शोषण को शून्य करना।

इसके अतिरिक्त आत्मनिर्भरता भी दीर्घावधि से एक उद्देश्य रहा है। सामाजिक न्याय के साथ संवृद्धि एवं गरीबी निवारण भारतीय नियोजन के प्राथमिक उद्देश्य रहे हैं।

इस रुपरेखा के तहत, प्रत्येक पंचवर्षीय योजना वर्तमान संभावनाओं एवं मौजूदा बाधाओं को ध्यान में रखते हुए अपने अल्पावधिक उद्देश्यों को शामिल करती है। आर्थिक संवृद्धि, जो वास्तविक राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय में तीव्र एवं निरंतर वृद्धि में प्रतिबिम्बित आय में वृद्धि का लक्ष्य निर्धारण जहां प्रथम पंचवर्षीय योजना में 2.1 प्रतिशत था वहीं दसवीं पंचवर्षीय योजना में यह 8 प्रतिशत के आस-पास पहुंच गया।

समाज में निर्धनता वर्गों के जीवनस्तर में सुधार सामाजिक आयाम का एक पहलू है। लाभों, धन एवं संपत्ति के वितरण में असमानताओं में कमी करना दूसरा पहलू है। प्रथम चरण से (1950 और 1960 का दशक) भूमि का पुनर्वितरण एवं अन्य भूमिसुधारों पर जोर देकर निर्धनता पर प्रमुख कार्रवाई की गई। 1960 के उत्तरार्द्ध में रणनीति लक्षित समूहों के उन्मुख उपागम की तरफ झुक गई। इस दूसरे चरण में रोजगार अवसरों को बढ़ाने और गरीबों के बीच नवीकरणीय संपत्ति के वितरण पर जोर दिया गया। खाद्य सब्सिडी और अनिवार्य वस्तुओं की दोहरी कीमत गरीबों तक आय हस्तांतरित करने के अप्रत्यक्ष उपाय थे। अगला चरण, जो कि 1980 से प्रारंभ हुआ, में अधिक पूंजी निर्माण पर प्रमुख जोर था और संवृद्धि के द्वितीय प्रभाव लेने के लिए निर्धनों को सक्षम बनाना था।

योजना दर योजना, निर्धनता उन्मूलन के उद्देश्यों की कभी भी अवहेलना नहीं की गई, यद्यपि विभिन्न कार्यक्रमों की प्रभावोत्पादकता पर प्रश्न चिन्ह हो सकता है।

उल्लेखनीय है कि भारत में सामाजिक न्याय हेतु नियोजन सामाजिक अभियांत्रिकी (जाति सचेतना में कमी, पिछड़े वर्गों हेतु सकारात्मक कार्रवाई इत्यादि) को शामिल नहीं करता।

योजनाओं ने माना कि रोजगार सृजन असमानताओं को समाप्त करने एवं संवृद्धि दर बढ़ाने का एक महत्वपूर्ण कारक है। बेरोजगारी की समस्या से निपटने के लिए रणनीति योजना दर योजना परिवर्तित होती रही।

संवृद्धि का महालनोबिस मॉडल

दूसरी पंचवर्षीय  योजना के साथ भारतीय नीति नियंताओं द्वारा विकास की रणनीति का स्पष्ट निरूपण किया गया। प्रो. पी.सी. महालनोबिस ने रूस के अनुभव पर आधारित द्वितीय पंचवर्षीय योजना का निर्माण किया। औद्योगिकीकरण प्राप्त करने के लिए उन्होंने भारी उद्योग में निवेश करने की रणनीति पर बल दिया जिसे त्वरित आर्थिक संवृद्धि हेतु आधारभूत शर्त माना गया। यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू ने भी भारी उद्योगों के विकास को औद्योगिकीकरण का पर्यायवाची माना। विकास की महालनोबिस रणनीति के तीन मुख्य पहलू थे-

  1. दीर्घावधिक संवृद्धि की प्रक्रिया शुरू करने के लिए बेहतर आधार विकसित करना;
  2. वास्तविक विकास शुरू होने पर औद्योगिकीकरण को उच्च प्राथमिकता देना; और
  3. उपभोक्ता वस्तु उद्योगों की अपेक्षा पूंजीगत वस्तुउद्योगों के विकास पर बल देना।

विभिन्न प्रधानमंत्रित्व काल में विकास यात्रा

प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री (1964-66) ने आर्थिक विकास के नेहरू उपागम को परिवर्तित करने के कदम उठाए। कृषि के अनुसार प्रमुखताएं निर्धारित की गई। भारत ने संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार के साथ घनिष्ठतापूर्वक मिलकर उनकी बीज प्रौद्योगिकी पर काम एवं प्रयोग करना प्रारंभ किया। भारत के योजना आयोग की शक्ति, जिसने कृषि विकास के बनिस्बत पूंजी गहन औद्योगिकीकरण रणनीति तैयार की थी, को नियंत्रित किया गया। भारत की आर्थिक नीति की 1965 में विश्व बैंक के साथ श्रेणीबद्ध किया गया। इन नीतिगत निर्णयों ने 400 मिलियन डॉलर की अतिरिक्त सहायता जुटाई, जिससे वार्षिक उपलब्ध वितीय मदद का स्तर 1.6 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया। इस आवश्यक मदद की यात्रा को चौथे पंचवर्षीय योजना के वितीयन हेतु आवश्यक माना गया।

इंदिरा गांधी ने प्रारंभिक तौर पर शास्त्री जी द्वारा तैयार किए गए निर्देशों का अनुसरण किया। उन्होंने विश्व बैंक की सलाह के साथ कृषि संवर्द्धन की नीति का अनुपालन किया। मैक्सिको गेहूं की उच्च पैदावार वाली किस्म को लाया गया जो भारतीय दशा के अनुकूल थी और जिससे 1965 और 1970 के बीच गेहूं का उत्पादन दोगुना हो गया। तत्पश्चात् इंदिरा गांधी वामपंथी दलों के नजदीक आई और 1969 और 1974 के बीच राज्य संचालित बेहद गहन औद्योगिकीकरण का अनुसरण किया। एकाधिकारी एवं प्रतिबंधित व्यापार व्यवहार अधिनियम (एमआरटीपी), 1969 ने 200 मिलियन रुपए से अधिक की पूंजी वाली निजी कंपनी पर बेहद कठोर विनियमन लगाए। विदेशी विनिमय विनियमन अधिनियम (फेरा), 1974 ने किसी भारतीय कंपनी में अधिकतम संभावित इक्विटी सहभागिता को 40 प्रतिशत कर दिया।

राज्य नियंत्रित एवं राज्य संचालित औद्योगिकीकरण को निर्धनता उन्मूलन एवं मानव विकास के लिए जरूरी माना गया। ये आशाएं पूरी नहीं हो सकीं। इंदिरा गांधी के निरंकुश शासन में धीमी वृद्धि एवं गरीबी का अस्वीकार्य स्तर प्रभावी रहा। इंदिरा गांधी ने 1975 में आपातकाल लागू किया।

भारतीय अर्थव्यवस्था 1975 के बाद बड़ी मात्रा में निजी क्षेत्र की पहल पर निर्भर होने लगी। मोरारजी देसाई (1977-79), चरण सिंह (1979-80), इंदिरा गांधी (1980-84), राजीव गांधी (1984-89), वी.पी. सिंह (1989-90), एवं चंद्रशेखर (1990-91) ने समाजवादी वाक्पटुता के बावजूद, निरंतर एवं प्रायः चोरी से निजी क्षेत्र की आर्थिक गतिविधियां को विनियंत्रित किया। इनमें से राजीव गांधी ने निजी क्षेत्र के प्रोत्साहन हेतु अत्यधिक कार्य किया।

भारतीय अर्थव्यवस्था ने 1975 के पश्चात् घरेलू विनियंत्रण किया लेकिन वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ नहीं जुड़ी। 1980 में भारत का व्यापार सकल घरेलू उत्पाद का 16 प्रतिशत था जो 1990 में भी इसी स्तर पर बना रहा। 1990 तक भारत पर बड़ा वित्तीय संकट मंडराने लगा। 1989-90 तक राजस्व घाटा 10.1 प्रतिशत के खतरनाक स्तर तक बढ़ गया। इसके अतिरिक्त, मंडल आयोग की रिपोर्ट के लागू होने का मतलब था कि सरकार को पूर्व की अपेक्षा पिछड़े वर्गों की सामाजिक गतिशीलता पर अधिक खर्च करना होगा।

नरसिम्हा राव की सरकार ने 24 जुलाई, 1991 को 80 के दशक के दौरान लिए गए उदारीकरण कदमों के प्रोत्साहन की दिशा में नवीन औद्योगिक नीति (एनआईपी) की घोषणा की। इस नवीन नीति ने औद्योगिक अर्थव्यवस्था को बड़ी मात्रा में विनियंत्रित किया।

नई नीति के प्रमख उद्देश्य हैं- पहले से मौजूद उपलब्धियों को सशक्त करना, उत्पन्न हो सकने वाले व्यवधानों को सही करना, उत्पादकता एवं रोजगार वृद्धि में वृद्धि बनाए रखना, और वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा को प्राप्त करना। नई नीति ने निवेश के स्तर से असंगत सभी लाइसेंसों को खत्म कर दिया, सिवाय सुरक्षा एवं रणनीतिक संवेदना से सम्बद्ध उद्योग, प्रकृति के उत्पादों के विनिर्माण एवं अभिजात्य वर्गों के उपभोग से जुड़े वस्तुओं के उत्पादन के।

1956 में, सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों की संख्या 17 थी जो 1991 में घटकर 8 हो गई। 1998 में इनकी संख्या 6 कर दी गई। 1999-2000 तक मात्र 4 क्षेत्र सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित सूची में रह गए।

विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) की आर्थिक विकास में भूमिका को स्वीकारते हुए नई औद्योगिक नीति ने विदेशी निवेश को प्रोत्साहित किया, विशेष रूप से आधारिक एवं अवसंरचनात्मक क्षेत्रों में।

विदेशी प्रत्यक्ष निवेश प्रस्तावों के लिए एक सरलीकृत अनुमोदन तंत्र तैयार किया गया। इसके लिए मात्र दो प्रतिमान हैं-

  1. रिजर्व बैंक (आरबीआई) गतिविधियों की प्रकृति के तहत् विशिष्टिकृत उद्योगों जहां 50 प्रतिशत/51 प्रतिशत/74 प्रतिशत/ 100 प्रतिशत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की अनुमति है, स्वतः अनुमोदन देता है।
  2. ऐसी गतिविधियां जिन्हें स्वतः अनुमोदन के निर्देशों में निश्चित नहीं किया गया है, उन्हें विदेशी निवेश संवर्द्धन बोर्ड (एफआईपीबी) द्वारा विचार किया जाता है। एफआईपीबी प्रस्ताव पर समग्रता के साथ विचार करता है और सरकार की अनुशंसा देता है।

11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान समावेशी विकास की अवधारणा को अपनाया गया । समावेशी विकास की अवधारणा को भारत विकास नीति समीक्षा 2006 ने लोकप्रिय बनाया, जिसका शीर्षक था, समावेशी विकास एवं सेवा प्रदायन: भारत की सफलता के निर्माणक। इस रिपोर्ट ने भारत द्वारा सामना की जा रही दोमुख्य चुनौतियों पर ध्यान दिया- मूलभूत लोक सेवाओं के प्रदायन में सुधार, एवं त्वरित संवृद्धि को बनाए रखना, जब इस संवृद्धि के लाभों का व्यापक रूप से विसरण किया जाता है।

समावेशी संवृद्धि प्रोत्साहन में श्रम विनियमन, कृषि प्रविधियों एवं अवसंरचना में सुधार, पिछड़े राज्यों एवं प्रदेशों को उन्नत प्रदेशों के साथ कदमताल करने में मदद करना, और उन्नतिशील नीतियों के माध्यम से निर्धनों को सशक्त करना जो बाजार में स्वच्छ एवं एकसमान शर्तों पर उनकी सहभागिता में मदद करेगा।

समावेशी विकास उपागम एक दीर्घावधिक परिदृश्य है, जैसाकि इसमें वंचित वर्गों की आय में वृद्धि करने की साधन के तौर पर प्रत्यक्ष आय पुनर्वितरण की अपेक्षा उत्पादक रोजगार पर ध्यान दिया जाता है।

समावेशी संवृद्धि हेतु नीतियां अधिकतर सरकारों की सतत् संवृद्धि की रणनीतियों का एक बेहद महत्वपूर्ण तत्व होती है। उदाहरणार्थ, एक देश जिसमें एक दशक से तीव्रता से विकास हुआ हो, लेकिन गरीबी में तात्विक कमी नहीं दिखाई देती, उसे विशेष रूप से अपनी संवृद्धि रणनीति की समावेशिकता पर ध्यान देने की आवश्यकता है। यह रणनीति व्यक्तियों एवं कपनियों के लिए अवसरों की समानता है। इसके अतिरिक्त, आय समानता की अपेक्षा संपत्ति असमानता संवृद्धि परिणामों में महत्व रखती है।

विकास में गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका

भारत विश्व की सबसे तेज बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। लेकिन मानव विकास सूचकांक में भारत की स्थिति संतोषजनक नहीं है। भारत के निर्धनों की आजीविका के स्तर में सुधार लाने के लिए स्वयंसेवी संगठन अनेक वर्षों से सक्रिय रूप से सरकार के सहभागी के तौर पर काम कर रहे हैं। स्वयंसेवी अथवा गैर-सरकारी संगठन क्षेत्र सामाजिक उन्नयन और आर्थिक विकास में योगदान देने वाली एक नई शक्ति के रूप में उभरा है। स्वैच्छिक संगठनसुदूर क्षेत्रों में स्वास्थ्य, शिक्षा, जल, पर्यावरण, मानवाधिकार, बाल अधिकार, निःशक्तता आदि जैसे अनेक क्षेत्रों में विकास कार्य कर रहे हैं और यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि लोगों को उनका हक मिले। सरकार ने विकास प्रक्रिया में स्वैच्छिक संगठनों की भूमिका को स्वीकार कर लिया है।

अनुमानतः भारत में 33 लाख पंजीकृत स्वैच्छिक संगठन हैं। वे सहभागी लोकतंत्र के क्रियान्वयन और उसकी ठोस रूप प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं। उनकी विश्वसनीयता समाज में उनकी रचनात्मक और उत्तरदायी भूमिका पर निर्भर है। वे दूरदराज के क्षेत्रों में जमीनी स्तर अर्थात जनसाधारण के लिए कम करते हैं\ और उनकी पहुंच व्यापक होती है। नब्बे के दशक में उभरने वाले स्वैच्छिक संगठन मुख्यतः बिना किसी आर्थिक लाभ के लक्ष्य के कल्याणोन्मुखी गतिविधियों से ही जुड़े हुए थे, परंतु वे धीरे-धीरे वैकासिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिकाएं अदा करने लगे। यह उभरता हुआ स्वैच्छिक अथवा स्वयंसेवी क्षेत्र तीसरे क्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है।

स्वैच्छिक संगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए ही 2002 में योजना आयोग की सरकारी संगठन और स्वयंसेवी संगठन के समन्वय के लिए नोडल एजेंसी बनाया गया था। राष्ट्रीय स्वैच्छिक क्षेत्र नीति, 2007 योजना आयोग और स्वयंसेवी क्षेत्र के बीच गहन विचार-विमर्श का परिणाम थीं। इस नीति में सरकार और स्वैच्छिक क्षेत्र के बीच एक नया कार्यकारी संबंध स्थापित करने का प्रयास किया गया है। स्वैच्छिक क्षेत्र की भूमिका का विस्तार होना उचित ही है क्योंकि इस क्षेत्र को समर्थन और प्रोत्साहन देने वाली सुविचारित नीति से ही विकास प्रक्रिया सुचारू रूप से आगे बढ़ सकती है।

विश्व बैंक के अनुसार एनजीओ एक निजी संगठन होता है जो, लोगों का दुख-दर्द दूर करने, निर्धनों के हितों का संवर्द्धन करने, पर्यावरण की रक्षा करने, बुनियादी सामाजिक सेवाएं प्रदान करने अथवा सामुदायिक विकास के लिए गतिविधियाँ चलाता है।

स्वैच्छिक संगठनों का मूल उद्देश्य सामाजिक न्याय, विकास और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए काम करना है। इनका वित्तपोषण प्रायः पूर्ण रूप से अथवा आंशिक रूप से सरकार से प्राप्त धन से होता है और वे सरकारी प्रतिनिधियों से दूरी बनाते हुए अपना गैर-सरकारी स्वरूप बनाए रखते हैं। परंतु यह ध्यान रखना होगा कि स्वैच्छिक संगठन राष्ट्रीय अथवा अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत् वैधानिक इकाइयां नहीं होती।

विश्व बैंक ने स्वैच्छिक संगठनों को दो मुख्य वर्गों में चिन्हित किया है, यथा-क्रियात्मक (ऑपरेशनल) स्वैच्छिक संगठन और पैरोकार (एडवोकेसी) स्वैच्छिक संगठन। प्रथम संगठन का मूल उद्देश्य विकासोन्मुखी परियोजनाओं की रूपरेखा तैयार करना और उनको क्रियान्वित करना है। क्रियात्मक स्वैच्छिक संगठनों को राष्ट्रीय संगठन, अंतरराष्ट्रीय संगठन, समुदाय आधारित संगठन आदि के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। इसके विपरीत, पैरोकार स्वैच्छिक संगठनों का मूल उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय संगठनों की नीतियों और कार्यपद्धतियों को प्रभावित करना है।

वर्तमान समय में विभिन्न देशों में जारी लोक प्रशासन में सुधार प्रक्रिया के अंतर्गत सर्वाधिक महत्वपूर्ण अभिलक्षण सार्वजानिक कार्यों के निष्पादन की प्रक्रिया में नागरिकों को भी सम्मिलित किए जाने की प्रवृत्ति का होना है। भागीदारी प्रबंधन के इस निर्माण में कुछ नया ढूंढने का प्रयत्न अथवा थोड़े पुनर्प्रयास राजनीतिक संस्थाओं के लिए वैधीकरण तथा मानकों के सुधार के मार्ग तथा लोक सेवाओं की उपागम्यता आदि दृष्टिगत होते हैं।

इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में स्वैच्छिक संगठनों को तृतीय क्षेत्र के रूप में विशेष भूमिका सौंपी गई है। विगत कुछ वर्षों में स्वैच्छिक संगठन सरकार के विभिन्न स्तरों पर लोक प्रशासन एवं सार्वजनिक अधिकरणों हेतु महत्वपूर्ण सहयोगी बनकर उभरे हैं। एक ही समय में, राजनीति एवं अर्थव्यवस्था स्वैच्छिक संगठनों की एक प्रशंसनीय एवं सम्भावित कार्य सृजन क्षमता (अतः इसे सामाजिक अर्थव्यवस्था भी कहते हैं) क्षेत्र तथा आधुनिक राज्य में नागरिकता को पुनर्परिभाषित करने के प्रस्तावित मार्ग के रूप में देखा जाता है। है।

विकास एक बहुउद्देशीय, बहुक्षेत्रीय और एक समिष्टात्मक विचार है। समग्र विकास में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, नैतिक एवं पर्यावरण इत्यादि शामिल होते हैं। इसलिए विकास सामाजिक संतुष्टि, राजनीतिक सहभागिता और आर्थिक विकास का द्योतक है, जोकि सामाजिक न्याय और स्वस्थ वातावरण की मान्यताओं के अनुरूप होता है। उल्लेखनीय है की भारत में समाज सेवा और स्वैच्छिक सेवा सम्बन्धी उच्च भावना की प्राचीन परम्परा रही है। इस सेवा भावना सम्बन्धी पवित्र धर्म की पारम्परिक भावना के अतिरिक्त गत दो शताब्दियों में भारत में समाज में गरीबों, दीन-हीन, अपंग और कमजोर वर्गों की सहायतार्थ असंख्य परोपकारी और सेवायुक्त संस्थाएं अस्तित्व में आयीं। स्वयं महात्मा गांधी का राष्ट्रीय स्वतंत्रता संबंधी आंदोलन आंरभिक स्तर पर सामाजिक पुनर्निर्माण, स्वयं-सेवा एवं गरीबों में से सर्वाधिक निर्धन की सेवा संबंधी संदेश पर ही आधारित था जिसका मुख्य आधार स्वैच्छिक कार्यवाही था। इस प्रकार यह अपरिहार्य है कि ऐसे संगठनों से सम्बद्ध विभिन्न पहलुओं का व्यापक अध्ययन किया जाए।

स्वैच्छिक शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के voluntarism से हुई है और जिसका अर्थ है- इच्छा या स्वतंत्रता। हेराल्ड लास्की ने समुदाय या संघ बनाने की स्वतंत्रता के संदर्भ में कहा कि, रुचिगत उद्देश्यों के संवर्द्धन के लिए व्यक्तियों के एकत्र होने को मान्यता प्राप्त क़ानूनी अधिकार का नाम ही संघ बनाने की स्वतंत्रता है। स्वैच्छिक संगठनों को ऐच्छिक संगठन या गैर-सरकारी संगठन भी कहा जाता है। टी.एन. चतुर्वेदी जहां स्वैच्छिक संघ के नाम को सकारात्मक एवं गैर-सरकारी संघ के नाम को भ्रमात्मक और नकारात्मक मानते हैं, वहीँ सामान्य व्यवहार में दोनों मागों का प्रयोग पर्याय के रूप में किया जाता है। स्वैच्छिक या गैर-सरकारी संगठन एक ऐसा औपचारिक, पार्टी विहीन व निजी निकाय होता है जो व्यक्तिगत या सामूहिक प्रयत्न के माध्यम से अस्तित्व में आता है एवं जिसका उद्देश्य समाज के किसी विशेष तबके के जीवन को किसी भी मायने में बेहतर बनाने पर केंद्रित होता है। रिग्स के अनुसार, यह व्यक्तियों का एक ऐसा समूह होता है जिसका आधार राज्य नियंत्रण से परे स्वैच्छिक सदस्यता पर टिका होता है एवं जो सामान्य हित की अग्रसर करने पर अपना ध्यान केंद्रित करता है। स्वैच्छिक संगठन वस्तुतः व्यक्तियों का एक ऐसा समूह होता है जहां व्यक्तिगत हित का बलिदान कर सामूहिक हित को बढ़ावा देने का प्रयास किया जाता है। समूह की सदस्यता पूरी तरह स्वैच्छिक होती है। गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र की शब्दावली में गैर-सरकारी संगठन ऐसे अंतरराष्ट्रीय संगठन हैं जिसकी स्थापना अन्तरराज्यीय समझौतों के बिना होती है तथा इसमें वैसे संगठन भी शामिल हैं जो सरकारी संस्थानों व प्राधिकारों के द्वारा नामित सदस्यों को अपनी सदस्यता इस शर्त के साथ प्रदान करता है कि सांगठनिक स्वतंत्रता में उनका कोई अनुचित दखल नहीं होगा।

निहित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु समझौते द्वारा एक संगठन बनाने वाले व्यक्तियों के समूह को स्वैच्छिक संगठन कहते हैं।

स्पष्ट तौर पर कहा जाए तो किसी संगठन अथवा संघ के निर्माण हेतु कई बार कानूनी कार्यवाही की औपचारिकता की आवश्यकता नहीं होती। कुछ संगठनों को पुलिस अथवा अन्य आधिकारिक निकायों के समक्ष कानूनी रूप से पंजीकृत कराना अनिवार्य होता है कि इस प्रकार का जन-संगठन विद्यमान है। ये अनिवार्य रूप से राजनीतिक नियंत्रण के उपकरण नहीं होते किंतु इनमें से अधिकांश अर्थव्यवस्था को धोखे (fraud) से बचाने का मार्ग सिद्ध होते हैं।

स्वैच्छिक संगठन ऐसे अज्ञात एवं गैर लाभकारी संगठन होते हैं, जो ऐसे व्यक्तियों द्वारा संचालित किए जाते हैं, जिन्हें संगठन के संचालन हेतु सरकार की ओर से धन उपलब्ध नहीं कराया जाता है। कुछ स्वैच्छिक संगठन जैसे आंतरिक स्रोतों से अपने राजस्व का इंतजाम करते हैं।

भारत में गैर-सरकारी संगठन परिदृश्य

स्वैच्छिकतावाद या गैर-सरकारी संगठन की शुरुआत प्राचीन तथा मध्य युग में ढूंढी जा सकती है। इस अवधि में सामुदायिक हित से प्रेरित स्वैच्छिक शिक्षण व अनुसंधान केंद्रों का गठन किया गया जहां भोजन व आवास की मुफ्त व्यवस्था की जाती थी। वे अपने स्रोतों के माध्यम से धन उगाह कर चिकित्सालयों, विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा अनाथालयों की सहायता भी करते थे। उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाणों से यह स्पष्ट हैं की मानवकल्याण के लिए स्वैच्छिक संगठनों का अस्तित्व प्रत्येक काल में प्रत्येक जगह न्यूनाधिक मात्रा में अवश्य ही रहा है। इन स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से अपाहिजों, असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्तियों, विधवाओं एवं अनाथ बच्चों की सेवा-सुश्रुषा की जाती थी। उल्लेखनीय है कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का समुचित विकास न होने के कारण प्राचीन एवं मध्यकाल में प्राकृतिक आपदाओं से जूझने का एकमात्र सहारा परोपकार एवं सामुदायिक सहयोग भावनाएं ही थीं।

अधिकांश राजा भी जनकल्याण को महत्व देते हुए राज्य की ओर से सराय एवं धर्मशालाएं संचालित करवाते थे। सन् 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से भारत में ब्रिटिश सत्ता का प्रवेश हुआ। यूरोप के पुनर्जागरण काल, विज्ञान का विकास तथा भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के साथ ही संपूर्ण सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिदृश्य परिवर्तित होने लगा। सन् 1858 में मद्रास में स्थापित फ्रेन्ड्स इन सोसाइटी नामक स्वैच्छिक संगठन को भारत के स्वैच्छिक संगठनों केइतिहास में प्रारंभिक प्रयास माना जा सकता है। 19वीं शताब्दी के दौरान स्वैच्छिक संगठन धार्मिक एवं सामाजिक सुधार के रूप में अवतरित हुए, जहाँ सटी प्रथा, जाति प्रथा, बाल-विवाह आदि कई सामाजिक कुरीतियां दूर करने का सामूहिक रूप से स्वैच्छिक प्रयास किया गया। 20वीं शताब्दी में गांधीजी के अभ्युद्य के साथ कई रचनात्मक कार्यक्रमों को संगठित तरीके से चलाने का प्रयास किया गया। चरखा,खादी,ग्रामोद्योग,बुनियादी शिक्षा, स्वच्छता अभियान एवं अस्पृश्यता उन्मूलन इत्यादि प्रमुख रचनात्मक कार्यक्रमों में शामिल थे। उन्होंने विभिन्न कार्यक्रमों को सुदृढ़ करने के लिए हरिजन सेवक संघ, ग्रामोद्योग संघ एवं हिंदुस्तान तालीम संघ जैसे कई संगठनों को संगठित किया।

आजादी के पश्चात् विविध विकासात्मक कार्यक्रमों के लागू होने के साथ स्वैच्छिक प्रयास का केंद्र कल्याणकारी गतिविधियों से हटकर ग्रामीण विकास जैसे चुनौतीपूर्ण कार्य विशेषकर गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों पर केंद्रित हो गया। यह वह समय था जब जागरूकता एवं जनभागीदारी ने सिर उठाना शुरू कर दिया था। इस अवधि के दौरान चयनित समूहों, जिसमें भूमिहीन मजदूर, आदिवासी बच्चे एवं महिलाऐं, छोटे किसान महिला एवं बच्चे, अनुसूचित जाति एवं जनजाति इत्यादि शामिल थे, को लाभार्थी समूहों के तौर पर चिन्हित किया गया। इनमें से कुछ ने जहां अपना ध्यान गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों पर केंद्रित किया वहीं कुछ नेग्राम्य सुधार व परिवर्तन के लिए संघर्षरत संगठनों के लिए कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने का कार्य अपने हाथ में ले लिया।

आज भारत में गैर-सरकारी संगठनों का प्रसार काफी अधिक हो चुका है। ये सभी स्वैच्छिक संगठन वास्तव में समाज कल्याण के लिए ही गठित हो रहे हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। भारतीय समाज की सामाजिक समस्याओं में संख्यात्मक एवं गुणात्मक दोनों ही स्तर पर जटिलताओं में वृद्धि हुई है। फिर भी सामाजिक कार्यों में स्वैच्छिक संगठनों की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता है। आज भी बहुत सी समर्पित संस्थाएँ समाज कल्याण प्रशासन को व्यावहारिक सहयोग प्रदान करते हुए मानव कल्याण के क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य कर रही हैं।

सरकारी एजेंसियों के प्रदर्शन में तेजी से आ रही गिरावट के कारण गैर-सरकारी संगठनों की महत्ता व प्रासंगिकता में कई गुना वृद्धि हुई है। इसका एक प्रमुख कारण है सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक न्याय, समता, पीने के पानी की व्यवस्था, ऊर्जा, वातावरण सरंक्षण, जल स्रोतों की रक्षा तथा कृषि के एकीकृत विकास को लेकर सरकारी एजेंसियों की अक्षमता, अपर्याप्तता, अकुशलता तथा उनकी संवेदनहीनता। अब उम्मीदें गैर-सरकारी संगठनों पर टिकी हैं। इसका कारण है कि जमीनी स्तर पर काम कर रहे संगठनों की स्थानीय जरूरतों व आवश्यकताओं के प्रति अधिक जागरूकता एवं संवेदनशीलता। नियोजित विकास में गरीबी को और भी व्यापक एवं जटिल कर दिया है। उनका काम सरकारी एजेंसियों पर नजर रखना तथा उन्हें सही लाभार्थियों की पहचान करने में मदद करना है। विविध पंचवर्षीय योजनाओं में गैर-सरकारी संगठनों की महती भूमिका को जनभागीदारी के परिप्रेक्ष्य में निरंतर रेखांकित किया जाता रहा है। इन सबके मद्देनजर सातवीं योजना में ग्रामीण विकास में गैर सरकारी संगठनों की भूमिका को तीव्र, व्यापक एवं ठोस करने के लिए अलग से धन की व्यवस्था की गई। इस प्रकार अन्य पंचवर्षीय योजनाओं में भी गैर-सरकारी संगठनों की विशेष भूमिका पर जोर दिया गया है।

समाज सेवा का कार्य धैर्य, त्याग एवं प्रतिबद्धता से ही हो सकता है। गैर-सरकारी संगठनों में गतिशीलता, लोकोन्मुखता, स्थानीय जरूरतों के प्रति जागरूकता, प्रेरक नेतृत्व तथा प्रेरित कार्यकर्ता, प्रभावी कार्यान्वयन इत्यादि विशेषताएं होती हैं जिससे ये सामाजिक विकास का कार्य बखूबी कर सकते हैं। इनके कार्यों के कारण ही इनका महत्व दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। स्वैच्छिक संगठनों का निर्माण उन व्यक्तियों की स्वेच्छा से होता है जो समाज की सेवा करना अपना धर्म समझते हैं। ये समाजसेवी व्यक्ति उन रोगियों, अनाथ बच्चों, विधवाओं, भिखारियों श्रमिकों एवं निःशक्तजनों की प्रायः सेवा करते हैं जिनसे अक्सर सभ्य समाज बचकर चलता है। इसी कारण सरकार अपने अधिकांश सामाजिक कल्याण एवं सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम इन स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से क्रियान्वित करती है। उल्लेखनीय है कि जनभागीदारी के अभाव में जनोन्मुख कार्यो की सफलता सदैव संदिग्ध रहती है। इसलिए अधिकाधिक जनभागीदारी द्वारा कार्यान्वयन की जिम्मेदारी स्वैच्छिक संगठनों ने अपने ऊपर ली है। अधिकतर विकासशील देशों में लालफीताशाही एवं राजनैतिक हस्तक्षेप के कारण कार्यक्रमों का लाभ वंचित तबकों तक नहीं पहुँच पाता है। यहां पर गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका खासी महत्वपूर्ण हो जाती है। यह स्थानीय प्रशासन को जवाबदेह व जिम्मेदार बनने के लिए बाध्य करते हैं। गौरतलब है कि ये संगठन जनसाधारण की मानसिकता को भली प्रकार समझते हुए उसी के अनुरूप अपनी कार्य-संस्कृति विकसित कर लेते हैं जबकि सरकारी संगठनों की जड़ता एवं नियमबद्धता बहुधा जनकल्याण में बाधक सिद्ध होती है।

किसी समस्या विशेष पर जनता में जागृति पैदा करने तथा उसके पक्ष या विपक्ष में जनमत निर्माण करने में राजनेता, प्रेस एवं स्वैच्छिक समाज सेवी संगठनों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। इन संगठनों के माध्यम से शिक्षा प्रसार तथा स्वास्थ्य से शिक्षा प्रसार तथा स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार का कार्य भी होता है। गैर-सरकारी संगठन रचनात्मक कार्यो की करने के अतिरिक्त सरकारी नीतियों के माध्यम से ग्रामीणों एवं ग्राम का विकास कहां तक हो रहा है। साथ ही ये संगठन विकास अधिकारियों के बारे में जरूरी सुझाव एवं स्रोत भी उपलब्ध कराते हैं। ये इस बात को भी सुनिश्चित करते हैं कि मजदूरों को सही वेतन मिल रहा है कि नहीं तथा उन्हें सही कार्य दशा उपलब्ध हो रही है या नहीं।

गैर-सरकारी संगठन ग्रामीण स्तर पर सूचनाओं का प्रचार-प्रसार भी करते हैं। कई बार सरकारी योजनाएं, प्रोजेक्ट, नीतियां तथा कार्यक्रम आदि का आम लोगों तक यथोचित प्रचार-प्रसार नहीं हो पाता है। इसके अलावा इन योजनाओं के विवेचन-विश्लेषण का काम निचले स्तर के सरकारी कार्यकर्ताओं पर छोड़ दिया जाता है जो ग्रामीण जरूरतों के बारे में पर्याप्त संवेदनशील नहीं होते हैं। ऐसे में स्वैच्छिक संगठन ही इस कार्य को अंजाम देते हैं। वर्तमान में जटिलतम होती सामाजिक संरचना में व्यक्ति अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों के प्रति लापरवाह दिखाई देता है। स्वैच्छिक संगठनों के कार्यों से प्रभावित होकर बहुत से व्यक्ति अपने उत्तरदायित्वों के प्रति सजग एवं सामाजिक नियंत्रण स्थापित करने के लिए राज्य सरकार द्वारा अनेक प्रकार के विधान बनाए जाते हैं। इन विधानों की सफल क्रियान्विति के लिए जनजागृति तथा जनसहयोग प्राथमिक आवश्यकता है। संचार के विभिन्न औपचारिक एवं अनौपचारिक माध्यमों से स्वैच्छिक संगठन इस कार्य को संपादित करवाते हैं।

सामाजिक संरचना एवं व्यवस्था में निरंतर परिवर्तन आते रहते हैं। इन परिवर्तनों के साथ विभिन्न प्रकार के मूल्य, प्रतिमान, आचार, जीवन शैली भी प्रभावित होती हैं। इन सामाजिक बदलावों की एक सुनिश्चित गति एवं सकारात्मक दिशा प्रदान करने में स्वैच्छिक संगठन एक निर्णायक भूमिका अदा करते हैं।

इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि गैर-सरकारी संगठन विकास प्रक्रिया में सक्रिय रूप से शामिल हैं और विशेष रूप से ग्रामीण विकास में। जनप्रतिनिधियों के साथ मिलकर काम करना जहां महत्वपूर्ण है वहीं यह बात भी खासी मायने रखती है कि स्वतंत्र व समुचित चुनाव व लोक सशक्तीकरण के बारे में समुदाय के स्तर पर जागरूकता का व्यापक प्रचार-प्रसार सुनिश्चित किया जाए। इस भूमिका को स्वैच्छिक संगठन बखूबी पूरा कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त ये संगठन महिला सशक्तीकरण तथा बाल विकास और वंचित तबकों के राजनैतिक प्रशिक्षण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस प्रकार गैर-सरकारी संगठन आम लोगों के जीवन में गुणवत्तापूर्ण बदलाव को सुनिश्चित करने वाला माध्यम बनते हैं। अतः स्वैच्छिक संगठनोंकोइसकी कल्याणकारी एवं महत्वपूर्ण भूमिका के चलते लोकतंत्र का पांचवां स्तम्भ भी कहा जा सकता है और ऐसा कहने में कोई अतिशयोक्ति भी नहीं है।

स्व-सहायता समूह की भूमिका

हालांकि स्व-सहायता समूह के वास्तविक संकल्पन और प्रसार के लिए कोई निश्चित तारीख निर्धारित नहीं की गई है, भारत में शहरी एवं ग्रामीण लोगों द्वारा मिलकर छोटे बचत एवं साख संगठन व्यवहार में अच्छी प्रकार से स्थापित हैं। शुरुआती दौर में, स्व-सहायता समूह मॉडल में अभिनव परिवर्तन लाने और पूरी तरह से प्रक्रिया के विकास के लिए इस मॉडल के कार्यान्वयन में गैर-सरकारी संगठनों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

स्व-सहायता समूह आंदोलन का आरम्भ 1935 में अल्कोहालिक अनोनिमस की स्थापना से हुआ। इस समूह की सफलता यद्यपि प्रभावी थी, तथापि अन्य समूहों का द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् तक अधिक विकास नहीं हो पाया था।

1960 में नागरिक अधिकार आंदोलन से इन समूहों को काफी बल प्राप्त हुआ। 1970 तक छोटे-छोटे समूहों का गठन किया जाने लगा। इसी समय सरकार भी अपने लगातार बढ़ते सार्वजनिक व्यय एवं इसकी असक्षमता की चुनौती का सामना कर रही थी। ये समूह कम व्यय एवं अधिक स्व-पक्ष समर्थन के लिए प्रतिक्रिया स्वरूप थे।

1976 में ये समूह अपने वर्तमान स्वरूप में सामने आए। स्व-सहायता समूहों पर अनेक पुस्तकों, जैसे- सपोर्ट सिस्टम्स एण्ड म्यूचुअल हैल्पः मल्टी-डिसीप्लनरी एक्सप्लोरेशन तथा द स्ट्रेन्थ इन असः सैल्फ-हैल्पयुप्स इन द मॉडर्न वर्ल्ड के प्रकाशन के पश्चात् लोगों में स्व-सहायता समूहों में सहभागिता हेतु जागरूकता बढ़ी। बाद में यह आंदोलन अमेरिका से निकलकर पश्चिमी यूरोप एवं जापान तक पहुंच गया।

1980 तक स्व-सहायता समूह लोकप्रिय होने लगे। वे न केवल इस बात की सूचना देते थे कि उपयुक्त समूहों का पता किस प्रकार लगाया जाए, अपितु वे इस तथ्य की भी जानकारी देते थे कि किस प्रकार नए समूह शुरू किए जाए। 1980 के दौरान ही स्व-सहायता सहायक समूहों के अंतरराष्ट्रीयतंत्र की स्थापना हुई। इन समूहों का अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन 1992 में ओटावा (कनाडा) में सम्पन्न हुआ।

1990 में ऑनलाइन स्व-सहायता समूह विकल्प के रूप में सामने आए। सहायता एवं/अथवा मार्ग-निर्देशन के इच्छुकों के लिए इन दोनों प्रकार के स्व-हित समूहों (विशिष्ट एवं ऑनलाइन) के लिए अलग-अलग बेव साइटों का निर्माण किया गया।

आज, स्व-सहायता समूह और सूक्ष्म वित्त संस्थान भारत में सूक्ष्म वित्त के दो प्रमुख रूप हैं।

स्व-सहायता समूह के प्रभाव 31 मार्च, 2005 में, नाबार्ड से प्रकाशित अवलोकनों के तहत् 1.6 मिलियन स्व-सहायता समूहों को 69 बिलियन की वित्तीय मदद प्रदान की गई। इसमें कोई शंका नहीं है कि स्व-सहायता समूहों के द्वारा निर्धनों को बड़ी मात्रा में वित्तीय सेवाएं प्रदान की जा रही हैं। निश्चित रूप से, दक्षिण भारत में यह पहुंच अच्छी रही है। हालांकि शेष भारत में इनकी पहुंच सीमित रही है।

इसके अतिरिक्त गैर-वित्तीय क्षेत्रों जैसे-सामाजिक सुरक्षा और लिंग आधारित गतिकी भी स्व-सहायता समूह आंदोलन से प्रभावित हुई है।

स्व-सहायता समूह आंदोलन का समर्थन

स्व-सहायता समूह आंदोलन का नागरिक समाज के विभिन्न पहलुओं पर प्रभाव कई प्रकार का रहा है। स्व-सहायता समूह की निरंतर वृद्धि के लिए बाह्य सहायता की जरूरत होती है और नागरिक समाज तक व्यापक पहुंच एवं प्रभाव रखती है। अनुसंधान से यह स्पष्ट होता है कि उद्गम संबंधी कुछ बाधाएं स्व-सहायता समूह के नियंत्रण से बाहर होती हैं। निम्नलिखित बिंदुवार विश्लेषण किया गया है जहां सरकार, गैर-सरकारी संगठन, बैंक एवं अन्य जिसमें निजी क्षेत्र भी शामिल हैं, स्व-सहायता समूह की जरूरतों को प्रभावी रूप से हल करने के लिए मिलकर काम कर सकते हैं।

राजनीतिक: शासन का प्रशिक्षण: यह स्पष्ट है कि राजनीति में महिलाओं पर स्व-सहायता समूह का प्रभाव पड़ा है। इन्होंने महिलाओं के राजनीति में पदार्पण करने में विशेष सहायता की है। विशेष रूप से, महिलाओं को सु-शासन पर प्रशिक्षित किए जाने की आवश्यकता है।

सामाजिक सौहार्द: मिश्रित जाति स्व-सहायता समूह मॉडल की रचना: स्व-सहायता समूह सामाजिक तनाव का भली प्रकार प्रबंधन करते नहीं दिखाई दे रहे हैं। स्व-सहायता समूह इसे सही रूप से कर सकें, इसके लिए पारस्परिक लाभ के लिए स्थापित किए गए उद्यम में, सभी सदस्यों के बीच समानता एवं स्वामित्व की अवधारणा विकसित किए जाने की आवश्यकता है। इस प्रकार की ससंजकता प्रस्तुत वातावरण में बेहद मुश्किल है। स्व-सहायता राजनीतिक संस्थानमिश्रित स्व-सहायता समूह के मॉडल के गठन को प्रोत्साहित कर सकते हैं और अन्यों को भी इसे अपनाने की कह सकते हैं।

सामाजिक न्याय: कानूनी अधिकार एवं दावों के प्रति जागरूकता: स्व-सहायता समूह ने दबे-कुचले या वंचित सदस्यों के जीवन में एक अहम् भूमिका अदा की है। भारत में महिलाओं पर अत्याचार एवं शोषण के दौर में, स्व-सहायता समूहों से यह उम्मीद की गई कि वे अपने सदस्यों की कठिनाइयों का समाधान करें। हालांकि, इन्होंने न्याय करने की इच्छा प्रकट की। इसलिए, यदि विभिन्न स्थितियों की प्रक्रिया के लाभ एवं हानि में मदद की जाए और न्यायसंगत एवं सतत् स्थितियों तक पहुंचा जाए, तो स्थानीय समुदायों द्वारा महिलाओं को मध्यस्थ के तौर पर चयनित किया जा सकता है। वर्तमान में अधिकतर ग्रामों में मध्यस्थता पुरुष प्रधान क्षेत्र है, लेकिन महिलाओं के अधिकारों के लिए महिला बातचीत एवं समझौते में इनका अनुभव स्थानीय न्यायिक मुद्दों एवं मामलों में महिलाओं की भागीदारी की दिशा में अगला तार्किक कदम हो सकता है। चाहे एक सदस्य शामिल है या नहीं और चाहे एक सदस्य सही है या नहीं। स्व-सहायता राजनीतिक संस्थानोंको स्व-सहायता समूहों को मध्यस्थ के तौर पर उनके सशक्तीकरण में उन्हें तकनीकी मदद देनी चाहिए।

समुदाय: रणनीतिक समर्थन प्रदान करना: स्व-सहायता समूहों ने अपने सदस्यों और समुदायों की सहायता की है। समुदाय विकास में नेतृत्वकारी भूमिका के द्वारा स्व-सहायता समूहों को गांवों की निर्देशित शक्ति के बतौर समझा जाता है। हालांकि क्षमता के अनुपात समुदाय विकास में स्व-सहायता समूह की संलग्नता के उदाहरण कम हैं। स्वःसहायता राजनीतिक संस्थानों द्वारा प्रक्रियाओं को सुसाध्य बनाने में सहायता करनी चाहिए जिससे महिलाएं समग्र रूप में अपने गांवों के लिए दीर्घावधि योजनाएं बना सके और अपने गांव को आधुनिक और सतत् एवं रचनात्मक कार्यों के समान केंद्र में परिवर्तित करने की दिशा में धैर्यपूर्वक कार्य करें। महिलाएं प्रत्यक्ष रूप से दलगत राजनीति में शामिल होने के लिए चुनी जा सकती हैं या नागरिक समाज के परिप्रेक्ष्य में प्रहरी की भूमिका निभा सकती है। किसी भी रूप में महिलाएं अधिक उत्तरदायी राजनीति एवं सार्वजनिक जीवन के एक नए युग को विकसित करेंगी।

आजीविका: जीवनयापन में तकनीकी मदद: आजीविका समर्थन को निरंतर बढ़ते हुए क्रम में सूक्ष्म वित्त के महत्वपूर्ण क्षेत्र के रूप में देखा जा रहा है। आजीविका समर्थन की जरूरतस्व-सहायता समूहों के विकास के लिए अपरिहार्य है जैसाकि आजीविका की ऋण द्वारा वित्तपोषित किया जाता है जिसे सदस्य स्व-सहायता समूह से प्राप्त करते हैं। आंध्र प्रदेश में इंदिरा क्रांति पाथम जैसे राज्य सरकार के कार्यक्रम द्वारा विभिन्न गैर-टिम्बर वनोत्पादों पर आजीविका संबंधी हस्तक्षेप किया गया जिस कारण स्व-सहायता समूह सदस्य के पास नकदी में बढ़ोतरी हुई क्योंकि वे मध्यस्थों को लांघकर अपने सामान को सीधे बाजार में बेचने में सक्षम हो गए जिससे उनकी लागत में कमी आई और लाभ में वृद्धि हुई।

नीतिगत मनन: वास्तविक तकनीकी मदद के अतिरिक्त, सरकार की नीति उपरिलिखित क्षेत्रों में स्व-सहायता समूह आंदोलन की मदद कर सकती है। निर्धनता को निरन्तर अवस्थापना विकास में सार्वजनिक निवेश की कमी या अपकार्यात्मक सार्वजनिक व्यवस्था जिसमें शिक्षा एवं स्वास्थ्य देखभाल तथा अल्पविकसित बाजार भी शामिल हैं, के तौर पर चित्रित किया जाता है। संरचनात्मक ढांचे जैसे सड़क एवं पुल बनाने के लिए बड़े पैमाने पर निवेश की आवश्यकता है ताकि बाजार तक पहुंच सुनिश्चित की जा सके। इस प्रकार के निवेश की राज्य सरकार द्वारा पूरा करना होगा। एक बेहतर अवसंरचना निवेश एवं स्टाफ की गतिशीलता में वृद्धि करने में मददगार होगी। इससे आगे, बाजार तक अधिकाधिक पहुंच द्वारा जीवनयापन का स्तर अधिक समृद्ध हो सकता है।

कुछ क्षेत्रों में, सीमित मात्रा में अवसंरचना मौजूद है जिसे राज्य के स्वामित्व वाले ग्रामीण बैंक संचालित करते हैं। जैसा कि कुछ स्व-सहायता समूह विकसित हो चके हैं और एक बड़ा आकर प्राप्त कर लिया है, उन्हें अधिक वित्तीय सेवाओं की आवश्यकता है। सरकार अपने स्वामित्व वाले बैंकों द्वारा फ्लेक्सीबल और आसानी से प्राप्त उत्पादों को लाकर इस जरूरत को पूरा कर सकती है। विशेष रूप से, अभिनव बचत उत्पाद, सूक्षम बिमा, दीर्घावधि एवं बड़े ऋण, उद्यम वित्तपोषण जैसे उत्पादों को लाया जा सकता है। यदि राज्य के स्वामित्व वाले बैंक ऐसी पहल करते हैं तो अन्य बैंकर भी संभवतया इसका अनुसरण करेंगे और गरीबों के साथ काम करने में निवेश करके उन तक अपनी सेवाओं का विस्तार करेगें।

महिला सशक्तीकरण एवं विकास में स्व-सहायता समूह की भूमिका

बाजार और राज्य दोनों ही गरीबों, विशेष रूप से महिला के हितों को सुरक्षा प्रदान करने में असफल हो गए हैं। हाल के वर्षों में, गैर-सरकारी संगठन, स्वसहायता समूह पारस्परिक संघ और अन्य स्वैच्छिक संगठन जैसे नागरिक समाज संघ निर्धन और औपचारिक व्यवस्था के बीच एक महत्वपूर्ण संपर्क सूत्र के रूप में उदित हुआ है।

स्व-सहायता समूहों एवं सूक्ष्म साख संघों का एक लंबा इतिहास है। वियतनाम में टोनटिन्स एवं हुई ने 10-15 सदस्यों के साथ मिलकर वित्तीय गतिविधियों में संलग्न हुए। इंडोनेशिया में, साख संघ, मछुआरों का समूह, ग्राम आधारित साख संस्था सिंचाई समूह इत्यादि एक लम्बे समय से अस्तित्व में हैं। बांग्लादेश में ग्रामीण बैंक की सफलता सर्वविदित है। थाइलैण्ड, नेपाल, श्रीलंका और भारत जैसे देशों को भी ग्रामीण निर्धनों विशेष रूप से महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक दशा सुधारने में स्व-सहायता समूहों की भूमिका का अनुभव है।

महिलाएं प्रत्येक अर्थव्यवस्था का एक अभिन्न अंग होती हैं। किसी भी राष्ट्र का समग्र विकास एवं संवृद्धि केवल तभी संभव होगी जब प्रगति में पुरुष के साथ स्त्री को समान भागीदार समझा एवं बनाया जाएगा। आर्थिक विकास की मुख्य धारा में महिला श्रम के संयोजन हेतु महिला सशक्तीकरण अनिवार्य है। महिला सशक्तीकरण एक पवित्र अवधारणा है। यह एक बहु-आयामी उपागम है और इसमें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पहलू शामिल होते हैं। महिला विकास के इन सभी पहलुओं में आर्थिक सशक्तीकरण समाज के शाश्वत एवं सतत् विकास की प्राप्ति की दिशा में बेहद महत्वपूर्ण है।

स्व-सहायता समूह स्वैच्छिक संगठन होते हैं जो अपने सदस्यों को लघु वित्त वितरित कर उन्हें उद्यमी गतिविधियों में संलिप्त करते हैं। भारत में स्व-सहायता समूहों को गैर-सरकारी संगठनों, बैंकों एवं सहकारी संगठनों द्वारा प्रोत्साहित किया गया। फरवरी 1992 में, राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण बैंक (नाबार्ड) ने स्व-सहायता समूहों के आपसी सम्बद्धता के लिए एक पायलट प्रोजेक्ट आरंभ किया। रिजर्व बैंक ने सभी व्यापारिक बैंकों की इस कार्यक्रम में सक्रिय सहभागिता हेतु परामर्श किया। सामान्य रूप से, स्व-सहायता समूह के अस्तित्व के 6 माह पश्चात् और पर्याप्त वित्तीय कोष एकत्रित करने के बाद, समूह लिंक बैंक (व्यापारिक या सहकारी) को इसके क्रेडिट प्लान के लिए संपर्क करता है। नाबार्ड स्व-सहायता समूहों द्वारा बैंकों के उधार ऋण पर बैंकों को शत-प्रतिशत पुनर्वित्त मुहैया कराता है।

स्व-सहायता समूह, (स्वैच्छिक रूप से महिलाओं द्वारा गठित) किया जाता है, मासिक आधार पर एक निश्चित मात्रा में पारस्परिक रूप से सहमति एवं सहयोग से एक साझा कोष बनाता है, जो अपने सदस्यों की उत्पादक एवं आपातकालीन क्रेडिट आवश्यकता पर ऋण मुहैया कराता है। एक बार उनकी गतिविधियां सुस्थापित हो जाती हैं तो फिर ये समूह बैंकों से सम्बद्ध हो जाते हैं। लाभार्थियों के उद्यमीय विकास पर ध्यान देने के अतिरिक्त स्व-सहायता समूह गैर-क्रेडिट सेवाओं जैसे कि स्वास्थ्य, साक्षरता एवं पर्यावरणीय मुद्दों संबंधी जिम्मेदारियों को भी प्रदान करता है।

प्रत्येक स्व-सहायता समूह में 10-20 सदस्य होते हैं। स्व-सहायता समूह के सदस्य माह में एक या दो बार मिलते हैं। प्रत्येक स्व-सहायता समूह में एक अध्यक्ष, एक सचिव और एक कोषाध्यक्ष होता है। पदाधिकारियों की पदावधि चक्रण पर आधारित होती है जो सामान्यतः एक वर्ष होती है। सभी समूह रिकार्ड जैसे सदस्यता रजिस्टर, कैश बुक, मिन्यूट बुक, बचत बहीखाता और ऋण बहीखाता को व्यवस्थित करता है। अपनी प्रस्तावित गतिविधियों पर विस्तृत विचार-विमर्श करने के पश्चात वे कार्य योजना तैयार करते हैं। समूह के प्रत्येक सदस्य को अपने विचारों को रखने का पूरा अवसर प्राप्त होता है। महत्वपूर्ण निर्णय तक पहुंचने में मत की बहुलता पर विचार किया जाता है। इस प्रकार स्व-सहायता समूह ने महिलाओं को निर्णय-निर्माण की मुख्यधारा में लाने में सफलता प्राप्त की है।

स्व-सहायता समूह ने महिलाओं के जीवन पर अमिट छाप छोड़ी है और विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं की जीवन शैली पर। उनकी जीवन गुणवत्ता में आश्चर्यजनक सुधार हुआ है-

  • वे विभिन्न उत्पादक गतिविधियों में कौशल एवं क्षमताओं का विकास कर सकते हैं।
  • महिलाओं की आय, बचत एवं उपभोग व्यय में वृद्धि हुई है।
  • महिलाओं की आत्मनिर्भरता एवं आत्मविश्वास में वृद्धि ने विभिन्न लोक सेवाओं में उनके लाभ के लिए उनकी गतिशील क्षमता में सुधार किया है।
  • वे साहसी बनी हैं और बड़े जनसमूह के समक्ष स्वतंत्र रूप से बोल सकती हैं।
  • वे किसी भी कार्यालयीय कार्य को बिना किसी भय के निभा सकती हैं।
  • स्व-सहायता समूहों के सदस्यों के सामाजिक क्षितिज में भी विस्तार हुआ है। उन्होंने कई मित्र बनाएं हैं और महसूस किया है कि वे अब अधिक लोकप्रिय और सामाजिक रूप से क्रियाशील हो गए हैं।
  • अशिक्षित एवं आंशिक रूप से शिक्षित महिलाओं में संतुष्टि एवं इच्छापूर्ति की भावना दृढ़ हुई है। अब वे उत्पादक की भूमिका में हैं और परिवार की महत्वपूर्ण सदस्य बन गई हैं।
  • महिलाओं को उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है जिसने उनकी कार्यक्षमता में वृद्धि की है।
  • महिलाओं की आर्थिक अवसरों एवं सामूहिक पहल करने की क्षमता में सुधार के साथ ही घरेलू हिंसा, दहेज, बहुविवाह इत्यादि जैसे लिंग आधारित समस्याओं में भी कमी आई है। दिलचस्प बात है कि इनमें से कुछ स्व-सहायता समूह सदस्यों ने अन्य महिलाओं को स्व-सहायता समूह के गठन हेतु प्रोत्साहित किया है, ताकि वे भी लाभ एवं आत्मसम्मान प्राप्त कर सकें।

इस प्रकार इस बात की पुरजोर बल मिलता है कि स्व-सहायता समूह महिला सशक्तीकरण के प्रभावी यंत्र हैं। स्व-सहायता समूहों ने विभिन्न धार्मिक समूहों के सदस्यों के बीच बेहतर समझ को भी विकसित किया है जैसाकि स्व-सहायता समूह के सदस्य विभिन्न धर्मो के होते हैं। यह स्वागतयोग्य परिवर्तन है कि अन्य धर्मों के लोगों में आपसी समझ और सहिष्णुता स्थापित हुई है विशेष रूप से भारत जैसे देश में जहां धर्मों एवं जातियों की विशाल विविधता मौजूद है।

विभिन्न समूहों एवं संगठनों की भूमिका

भारत में ऐसे कई समूह एवं संगठन हैं जो देश के विकास में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। औद्योगिक क्षेत्र में वे अपेक्षाकृत अधिक संगठित एवं प्रभावी है। फेडरेशन ऑफ इंडियन चेम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) भारत में सर्वाधिक बड़ा एवं प्राचीन सर्वोच्च व्यावसायिक संगठन है। यह एक गैर-सरकारी, गैर लाभकारी संगठन है। फिक्की अपनी सदस्यता कॉर्पोरेट सेक्टर, जिसमें निजी और सार्वजानिकदोनों क्षेत्र हैं, और लघु एवं माध्यम उद्यम तथा बहुराष्ट्रीय निगम भी शामिल हैं, से प्राप्त करता है। फिक्की के मुख्य उद्देश्यों में शामिल हैं- व्यवसाय समुदाय एवं सरकार के बीच स्वस्थ मूल्यों को प्रोत्साहित करना; सरकार को प्रशासनिक एवं अन्य नियंत्रणों को हटाने के लिए मनाने द्वारा अर्थव्यवस्था के विनियंत्रण का कार्य करना; भारतीय अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण हेतु दशाएं उत्पन्न करना; निर्यात संवर्द्धन, आधुनिकीकरण, गुणवत्ता नियंत्रण, प्रदूषण नियंत्रण इत्यादि में सदस्यों की मदद करना; गरीबी निवारण के सामाजिक-आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने और रोजगार अवसरों की वृद्धि में सरकार की सहायता करना; और वैज्ञानिक अनुसन्धान, आयत प्रतिस्थापन और राष्ट्रीय संसाधनों की अधिकतम संभावित उपयोगिता को प्रोत्साहित करना।

भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई)

सलाहकारी एवं परामर्शकारी प्रक्रिया द्वारा ऐसे वातावरण को बनाए रखने का प्रयास करता है जो भारत के विकास के लिए, सरकार, और नागरिक समाज के लिए बेहतर हो। सीआईआई एक गैर-सरकारी, गैर-लाभकारी, उद्योग संचालित एवं उद्योग प्रबंधन संगठन है,जो भारत की विकास प्रक्रिया में एक अनुकूल एवं सकारात्मक भूमिका निभाता है।

एसोशिएटिड चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ऑफ इण्डिया (एसौचैम)

पहला सर्वोच्च चैम्बर है जो उद्योग एवं व्यापार के हितों का प्रतिनिधित्व करता है, नीतिगत मुद्दों पर सरकार के साथ बातचीत करता है और द्विपक्षीय आर्थिक मामलों को बढ़ावा देने के लिए अपने समकालीन अंतरराष्ट्रीय संगठनों से अंतक्रिया करता है।

एसौचैम सभी राष्ट्रीय एवं स्थानीय निकायों का प्रतिनिधित्व करता है, और इसलिए सक्रियता से उद्योग के विचारों को संप्रेषित करता है, तथा आर्थिक विकास के लिए लोक-निजी भागीदारी से जुड़े मुद्दों पर बातचीत भी करता है।

इन्डियन मर्चेंट चैम्बर, जिसका मुख्यालय मुंबई में है व्यवसाय की संवृद्धि एवं विकास को प्रभावित करने वाले मुद्दों की बड़ी श्रृंखला नीतिगत मामलों एवं कार्यान्वयन पर पक्षपोषण या वकालत की भूमिका निभाता है। यह बैंकिंग एवं वित्तीय सेवाओं, पर्यावरण, उर्जा, जल, संसाधन, भौगोलिक संकेतक एवं शिल्पियों के हितों की रक्षा, पर्यटन, सूचना प्रद्योगिकी, शिक्षा विनिर्माण इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करता है। चैम्बर अपने विचारों एवं युक्तियों को बताने के लिए मंत्रियों, वरिष्ठ नौकरशाहों एवं युक्तियों को बताने के लिए मंत्रियों, वरिष्ठ नौकरशाहों एवं अन्य के साथ अंतर्क्रियात्मक बैठक आयोजित करता है।

अखिल भारतीय उद्योग संघ (एआईएआई)

एक उच्च उद्योग संघ है जिसकी स्थापना वर्ष 1956 में प्रतिबद्ध व्यवसायियों द्वारा देश में औद्योगिक विकास बनाए रखने के प्राथमिक कार्य से की गई थी। इसने केंद्र एवं राज्य दोनों सरकारों की व्यापार एवं उद्योग से सम्बद्ध मामले प्रेषित करने के लिए एक प्रभावशाली मंच प्रदान किया। इसने भारतीय उद्योगों को उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की चुनौतियों से निपटने में भी मदद की।

राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी)

भारत में लोक-नीति भागीदारी का अपनी तरह का संगठन है। इसका उद्देश्य कौशल विकास को प्रोत्साहन देना है। यह वोकेशनल प्रशिक्षण पहल के लिए वित्त प्रदान करता है। इसका उद्देश्यगुण वत्ता आश्वासन,सूचना तंत्र एवं प्रत्यक्ष रूप से या भागीदारी द्वारा प्रशिक्षण देने वाले को प्रशिक्षित करके सहायक तंत्र को मजबूत करना भी है।

एनएसडीसी की स्थापना कपनी अधिनियम की धारा 25 के तहत् वित्त मंत्रालय द्वारा की गई, जो एक गैर-लाभकारी कपनी है। इसका इक्विटी आधार 10 करोड़ रुपए का है जिसमें भारत सरकार का हिस्सा 49 प्रतिशत, जबकि निजी क्षेत्र का 51 प्रतिशत है।

भारतीय लैड जिंक विकास संघ, जो लोकप्रिय तौर पर आईएलजेडडीए के नाम से जाना जाता है, को 1962 में स्थापित किया गया। यह सोसायटी अधिनियम के तहत् पंजीकृत एक अलाभकारी गैर-वाणिज्यिक संगठन है, जो बाजार विकास को समर्पित और सीसा, जिंक एवं उसके अनुप्रयोग के मामले में तकनीकी सूचना प्रदान करने का कार्य करने वाला संस्थान हैं।

भारतीय स्टेनलैस स्टील विकास संघ (आईएसएसडीए) भारत में स्टेनलैस स्टील के विकास एवं संवृद्धि तथा प्रयोग हेतु कार्य करता है। इसकी स्थापना 1989 में अग्रणी स्टेनलेस स्टील निर्माताओं द्वारा की गई। इसका निर्माण भारत में स्टेनलैस स्टील के अनुप्रयोग के विविधीकरण के उद्देश्य से किया गया और देश में स्टील के प्रयोग की मात्रा को बढ़ाना है।

भारतीय प्रोटीन भोजन एवं पोषण विकास संघ (पीएफएनडीएआई) का उद्देश्य पोषण के बारे में जागरूकता फैलाना है और उच्चगुणवत्ता एवं सुरक्षित खाद्य उत्पाद हेतु फूड उद्योग को सहायता प्रदान करता है। इसके बुलेटिन में खाद्य विज्ञान एवं तकनीकी के बारे में वैज्ञानिक जानकारी होती है।

भारतीय खनिज उद्योग संघ एक अखिल भारतीय अलाभकारी निगम है जिसका उद्देश्य उत्खनन, खनिज प्रसंस्करण, धातु निर्माण एवं अन्य खनिज आधारित उद्योगों के हितों को बढ़ावा देना है और उनके द्वारा अनुदान, नवीनीकरण, समय, उत्पादन, करारोपण, व्यापार, निर्यात, श्रम इत्यादि संबंधी उठाई जाने वाली समस्याओं को देखना है। यह राष्ट्र की समस्त गैर-ईंधन उत्खनन एवं खनिज प्रसंस्करण गतिविधियों प्रतिनिधित्व करता है।

अन्य व्यवसाय एवं उद्योग संबंधी संघ एवं निकाय हैं– ऑल इंडिया रिसॉर्ट डेवलपमेंट एशोसिएशन; एशोसिएटिड चेम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ऑफ इण्डिया; ऑटोमोटिव कम्पोनेंट मैन्युफैक्चर्स एसोसिएशन ऑफ इण्डिया, इलेक्ट्रॉनिक कम्पोनेंट इंडस्ट्रीज एशोसिएशन; फेडरेशन ऑफ होटल एंडरेस्टोरेंट एशोसिएशन ऑफ इण्डिया; फेडरेशन ऑफ इंडियन एक्सपोर्ट ऑर्गेनाइजेशन; इण्डियन एशोसिएशन ऑफ एम्यूजमेंट पार्क एंड इंडस्ट्रीज; इण्डियन मशीन टूल्स मैन्युफैक्चर्स एशोसिएशन; मैन्युफैक्चर्स-एशोसिएशन ऑफ इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी; नेशनल एशोसिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विस कम्पनीज; ऑल इण्डिया एशोसिएशन ऑफ इण्डस्ट्रीज; ऑल इण्डिया मैन्युफैक्चर्स एशोसिएशन; एसोसिएशन ऑफ म्युच्अल फण्ड्सइन इण्डिया; सोसायटी ऑफ इण्डियन ऑटोमोबाइल्स मैन्युफैक्चर्स, इलेक्ट्रॉनिक एंड कंप्यूटर सॉफ्टवेर एक्सपोर्ट प्रोमोशन काउंसिल; इंजिनियरिंग एक्सपोर्ट प्रोमोशन काउंसिल; फेडरेशन ऑफ इण्डियन चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंस्डट्री; इण्डिया ट्रेड प्रोमोशन ऑर्गेनाइजेशन; इंडियन इलैक्ट्रीकल एंड इलेक्ट्रॉनिक्स मैन्युफैक्चर्स एशोसिएशन; इंडियन मर्चेन्ट चैम्बर, मुम्बई (बॉम्बे) चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री; और ऑर्गेनाइजेशन ऑफ फार्मास्यूटिकल्स प्रोड्यूसर्स ऑफ इण्डिया।

कृषि से सम्बंधित मुख्य समूहों एवं संसाधनों का वर्णन इस प्रकार है-

ऑर्गेनिक फार्मिग एशोसिएशन ऑफ इण्डिया (ओएफएआई) देश का एकमात्र जैविक खेती करने वाले कृषकों का संगठन है। ओएफएआई संघ के निर्णयन ढांचे में महिला कृषकों के सक्रिय संलग्नता के प्रति प्रतिबद्ध है। ऐसी संलग्नता निदेशात्मक है और संगठन के उपनियमों में प्रतिबिम्बित होती है।

नेशनल सीड एशोसिएशन ऑफ इण्डिया (एनएसएआई) 250 से अधिक सदस्यों (कंपनियां) के साथ भारतीय बीज उद्योग का प्रतिनिधित्व करने वाला सर्वोच्च संगठन है। एनएसएआई का विजन है आयामीय, नवोन्मेषी एवं अंतरराष्ट्रीय रूप से प्रतिस्पर्द्धात्मक, अनुसंधान आधारित उद्योग का सृजन करके उच्च गुणवत्तापरक, उच्च पैदावार वाले बीजों एवं पौध पदार्थों का उत्पादन करना जो कृषकों को लाभ प्रदान करेंगे और भारतीय कृषि के सतत् विकास में महत्वपूर्ण योगदान देंगे।

एनएसएआईका मिशन है राज्य में उच्च निवेश एवं अनुसंधान एवं विकास को प्रोत्साहित करना जिससे भारतीय किसानों को उत्कृष्ट आनुवंशिकी एवं प्रविधिक बीज किस्म प्राप्त हो सके।

पोल्ट्री फेडरेशन ऑफ इण्डिया (पीएफआई) भारत के पोल्ट्री उद्योग के विकास एवं संवृद्धि के लिए कटिबद्ध है। पीएफआई का मिशन है ऐसी गतिविधियों का संरक्षण, प्रोत्साहन एवं परिरक्षण करना है जो भारत में पोल्ट्री उद्योग में शामिल लोगों को सही महत्व दे सके।

यूनाइटेड फार्मर्स एशोसिएशन तमिलनाडु में एक लॉबिंग संघ है। इसे खेती पारितंत्र के संरक्षण एवं संवर्द्धन के प्रयासों को संगठित करने में विशिष्टता प्राप्त है। संघ बेहतर कृषि तकनीकियों को प्रोत्साहित कर रहा है और जैविक खेती तकनीकियों को शामिल कर रहा है। एशोसिएशन ने कृषि उत्पाद के लिए बेहतर कीमत दिलाने में मदद की है।

दानकर्ताओं की भूमिका

दान एक उपहार है जिसे लोगों या कंपनियों द्वारा दिया जाता है। दान कई रूपों में हो सकता है जैसे नकद, भेंट, सेवाएं, नाइ एवं पुराणी चीजें, कपड़े, खिलौने, खाना एवं वहां इत्यादि। इसमें आपातकालीन सहायता या मानवतावादी सहायक मदें, विकास में सहायक मदद, और चिकित्सा देखभाल जरूरतें (रक्त या प्रत्यारोपण हेतु मानव अंग) भी शामिल की जा सकती हैं।

दान अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और वैयक्तिक दानकर्ताओं द्वारा किया जा सकता है। कई दानकर्ता संगठन एवं विश्व के देश काफी लंबे समय से तृतीय विश्व के देशों और कई अल्पविकसित एवं विकासशील देशों को विभिन्न प्रकार के सामाजिक-आर्थिक विकास कार्यक्रमों, जिसमें गरीबी उन्मूलन भी शामिल है, को संगठित करने हेतु सहायता एवं अनुदान के रूप में अरबों रुपया दान या बतौर ऋण दे रहे हैं। कई देश अपना विकास कार्य विदेशी सहायता से कर रहे हैं। विभिन्न प्रकार के विकास कार्यो, जिसमें गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों या कार्य भी शामिल है, को करने के लिए कई गैर-सरकारी संगठन एवं सरकारी संगठन स्थापित किए गए हैं।

अंतर्राष्ट्रीय दानकर्ताओं को बतौर सरकारी दानकर्ताओं एवं निजी लोकोपकारी दानकर्ताओं में वर्गीकृत किया जा सकता है। कुछ सर्वोच्च अंतर्राष्ट्रीय सरकारी दानकर्ताओं की गतिविधियों को पहले विवेचित किया गया है।

दानिश इंटरनेशनल डेवलपमेंट एजेंसी (डीएएनआईडीए) डेनमार्क सरकार के दानिश विदेश मंत्रालय के अधीन राजकीय विकास सहयोग एजेंसी है। दानिश विकास नीति गरीबी उन्मूलन पर बल देती है और पोषणीय विकास को सुनिश्चित करती है। यह चुनिंदा देशों में काम करती है और गैर-सरकारी संगठनों तथा सरकारी एजेंसियों को सहायता मुहैया कराती है। भारत में, यह एजेंसी डेयरी विकास एवं जल संभर विकास के क्षेत्र में कार्यरत है।

स्वीडिश अंतरराष्ट्रीय विकास सहयोग एजेंसी (एसआईडीए)

एक सरकारी अभिकरण है और स्वीडिश संसद और सरकार की ओर से कार्य करती है जिसका मिशनविश्व में गरीबी कम करना है। यह स्वीडिश विकास नीति के क्रियान्वयन के क्रम में कार्य करती है जो निर्धनों को उनके जीवन स्तर सुधारने में सक्षम बनाती है। इसके मिशन का एक अन्य भाग पूर्वी यूरोप के साथ सुधार सहयोग आयोजित करना है, जो एक विशिष्ट विनियोग माध्यम से वित्तपोषित होता है। मिशन का तीसरा भाग है, जरूरतमंद लोगों तक सहायता पहुंचाना। भारत के साथ स्वीडन का विकास सहयोग अधिकतर पर्यावरण एवं जलवायु को लेकर है। ऊर्जा एवं पोषणीय शहरी विकास पर भी ध्यान दिया जा रहा है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में इसका ध्यान मातृत्व एवं शिशु स्वास्थ्य पर रहा है।

विदेशी मामले मंत्रालय-विकास सहयोग (एफआईएन एनआईडीए) विकासशील देशों से सम्बद्ध घरेलू नीतियों एवं अंतरराष्ट्रीय सहयोग के सभी क्षेत्रों पर काम करता है। इन क्षेत्रों में पर्यावरण, कृषि, वानिकी, जलापूर्ति एवं स्वच्छता, स्वास्थ्य, सूचना समाज नीति शामिल हैं। जल क्षेत्र के लिए फिनलैंड की मदद द्विपक्षीय कार्यक्रम में मुख्य रूप से दीर्घावधिक रूप में रहा है।

किसान संगठन जैसे भारतीय किसान संग, भारतीय किसान यूनियन, ऑल इण्डिया किसान सभा, कर्नाटक रैयत संघ इत्यादि का भी कृषि से संबंधित सरकारी नीतियों के निर्माण में एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

भारत में पेशेवर एवं विकास गतिविधियों से सम्बद्ध कई संगठन या निकाय बड़ी संख्या में हैं। इनमें से कुछ खास निकायों का वर्णन निम्न प्रकार है-

सर्वोच्च न्यायालय बार एशोसिएशन की लोकतांत्रिक, विधि का शासन एवं न्यायपालिका की स्वतंत्रता जैसी संवैधानिक मूल्यों को अक्षुण्ण रखने, प्रबंधन करने एवं सशक्त करने में एक अग्रणी भूमिका रही है। 1951 में अपनी स्थापना से, बार संघ ने निर्धन याचिकाकर्ताओं के प्रति मानवीय चिंता जाहिर की और स्वयं एक क़ानूनी सहायता योजना प्रारंभ करने का निर्णय लिया।

इंडिपेंडेंट पॉवर प्रोडूसर्स एशोसिएशन ऑफ़ इण्डिया (आईपीपीएआई) एक स्वतंत्र निकाय है जो भारत में निजी ऊर्जा क्षेत्र के विकास के मुश्किल विषयों के परीक्षण एवं विमर्श हेतु तटस्थ मंच प्रदान करता है।

भारतीय बैंक संघ (आईबीए) 26 सितंबर, 1946 को गठित किया गया था जिसका उद्देश्य भारत में बेहतर एवं प्रगतिशील बैंकिंग बैंकिंग के विकास में योगदान देना है।

ऑस्ट्रेलियन एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (एयूएसएआईडी) आस्ट्रेलियाई सरकारी एजेंसी है जो ऑस्ट्रेलिया के विदेशों में अनुदान या सहायता कार्यक्रम के प्रबंधन हेतु जिम्मेदार है। ऑस्ट्रेलियाई सहायता का आधारिक लक्ष्य लोगों को गरीबी से मुक्ति दिलाना है।

कनाडियन इंटरनेशनल डेवलपमेंट एजेंसी (सीआईडीए) विकासशील देशों में विदेशी सहायता कार्यक्रमों को प्रशासित करती है और अन्य कनाडियन संगठनों के साथ निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों में भागीदारी करती है और साथ ही अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ मिलकर कार्य भी करती है।

हालांकि, हाल ही के वर्षों में सरकारी दानकर्ताओं के अतिरिक्त कुछ अन्य तरीके एवं वैकल्पिक साधनों से वित्त जुटाने में वृद्धि हुई है और गैर-सरकारी संगठनों के वित्तीय समर्थन में नवीन स्रोत जुड़े हैं जिनमें शामिल हैं-

वेब आधारित वैयक्तिक दान

इनमें वेब आधारित वित्त चेनलिंग साइटस शामिल हैं, उदाहरणार्थ गाइडस्तर, रज्जू, गिविंग व्हाइट वी केन, गिविंग वेल या निवेश चेनलिंग साइट्स (केआईवीएओआरजी)।

आय सृजक गतिविधियां

इसमें ट्रेडिंग व्यापार (उदाहरणार्थ ऑक्सफैम ट्रेडिंग, बीआरएसी बैंक) कमीशन एवं संविदा (उदाहरणार्थ टेक्नोसर्व), या नए फ्रेंचाइजी आधारित सोशल उद्यम (उदाहरणार्थ केन्या में सिडाई)।

निजी लोकोपकारी दानकर्ता

पारिवारिक फाउंडेशन के माध्यम से दान एवं सामाजिक निवेश पहल जिसमें भली-भांतिस्थापित फांउडेशन (फोर्ड या रोकफेलर फाउंडेशन) आते हैं, निजी दान किया जाता है। अमेरिका के दस सर्वोच्च फाउंडेशन दान करते हैं जिसमें बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन, सुसान थॉम्पसन बफट फाउंडेशन, द वाल्टन फैमिली फाउंडेशन, और गॉर्डन एंड बेट्टी मूर फाउंडेशन शामिल हैं।

एशिया में, अधिकतर लोकोपकार निजी एवं बिना किसी दस्तावेज के अंतर्गत हैं, और प्रायः परिवार या गांव के दानकर्ताओं से जुड़ा होता है। हालांकि पेशेवर लोकोपकारी फाउंडेशन की संख्या में वृद्धि हुई है जिसमें भारत में टाटा फाउंडेशन, चीन में एड्रीम और खाड़ी देशों में न्यूइस्लामिक फाउंडेशन हैं जो जकात परम्परा पर आधारित हैं।

अन्य अंतरराष्ट्रीय दानकर्ता हैं- सेंटर फॉर इनोवेशन इन वोलेंटरी एक्शन; चेरिटीज एंड फाउंडेशन यूनाइटेड किंगडम में; क्रिश्चियन चाइल्ड फाउंडेशन; सीआईडीए; कॉन्फ्रेंस ऑफ एशियन फाउंडेशन एंड ऑर्गेनाइजेशन; डीएफआईडी; फ्रेडरिक एल्बर्ट फाउंडेशन; गेमोस लिमिटेड, यू.के.; जर्मन डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (जीटीजेड), इंडियन हाई कमीशन, लेडीज एशोसिएशन, यू.के.; जापान फाउंडेशन; ऑक्सफेम (इंडिया) ट्रस्ट; पक्कार्ड फाउंडेशन, रॉकफेलर फाउंडेशन; एसकेएफ, यू.के.; एसकेएफ (कनाडा); टाउन्स एंड डेवलपमेंट, जर्मनी; यूनीसेफ; वल्र्ड प्रेस फोटो फाउंडेशन।

कुछ महत्वपूर्ण राष्ट्रीय स्तरीय दानकर्ता इस प्रकार हैं- सर रतन टाटा ट्रस्ट (एसआरटीटी); सूनाबाई पीरोजशा गोदरेज फाउंडेशन; काउंसिल फॉर एडवांस्डमेंट ऑफ पीपुल्स एक्शन एण्ड रूरल टेक्नोलॉजी (कपार्ट); आत्माराम प्रोपर्टीज; एशोसिएशन फॉर इंडिया डेवलपमेंट; कॉलरचेम लिमिटेड; कोरोमंडल फर्टीलाइजर लिमिटेड; पर्यावरण विभाग, दिल्ली सरकार; एचडीएफसी बैंक; हाईएनर्जी बैटरीज लिमिटेड; आईसीआईसीआई बैंक; इंडियन बैंक; कस्तूरी एंड संस; कोनार्क फाउंडेशन; मंजूश्री चेरिटी ट्रस्ट; मैक्सवर्थ ऑचार्डस; मिलेज एडवर्टाइजिंग; गृह मंत्रालय, भारत सरकार; मुरे कलशा कंसल्टिंग; नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड; ओल्ड वर्ल्ड हॉसीटेलिटी; पिरोजशा गोदरेज फंड; पार्टिसिपेटरी रिसर्च इन इंडिया; पोनी शुगर्स एंड केमिकल्स; प्रभादत्त फाउंडेशन; रुकी एंड रामचन्द ट्रस्ट; एस.पी. सिंह मेमोरियल ट्रस्ट; शेषायी पेपर एंड बोर्ड; सेवा मंदिर; शिव डिस्टलिरी लिमिटेड; सियाल लिमिटेड; सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट; एसकेएम एनिमल फीड्स एंड फूडस; स्नोव्हाइट एंटरप्राइजेज; स्टर्लिग हॉलिडेरिजार्ट; सुंदरम फेसनर्स; टाटा संस लिमिटेड; टेल्को; वेंकटेशवरा हेचरीज; वी.जी. कम्यूनिकेशन; पंजाब नेशनल बैंक, नई दिल्ली; टाटा स्टील लिमिटेड, नई दिल्ली; लेविनोन कपूर कॉटन प्राइवेट लिमिटेड; मुम्बई; एवं डीसीएम श्रीराम शुगर डिवीजन, नई दिल्ली।

इसके अतिरिक्त बड़ी संख्या में वैयक्तिक रूप से लोग भारत के विकास हेतु दान करते हैं जैसे, अनु आगा; श्री अशोक एलेक्जेंडर; श्री डेविड आर्नोल्ड, श्री कल्याणबोस; कुमारी शुभा बोस, श्री एम.भूषण, डा. कमला चौधरी; श्री बी.के. झावर; श्रीमती एस.एस. कालरा; श्रीमती एस. कुंडूकुरी; श्री बी.एम. कपूर इत्यादि।

लोकोपकारी संस्थाओं का योगदान

दानशील संगठन एक प्रकार के अलाभकारी संगठन (एनपीओ) होते हैं। ये अन्य एनपीओ से भिन्न होते हैं और लाभ नहीं कमाना तथा लोकोपकारी उद्देश्य इसके केंद्र में होते हैं तथा साथ ही सामाजिक कल्याण (परोपकार, शैक्षिक, धार्मिक) एवं अन्य गतिविधियां लोगों के हित एवं साझा भलाई में करते हैं। यद्यपि लोकोपकार की जड़ धार्मिक विश्वास एवं प्रथा में पाई जाती है, परोपकारी ट्रस्ट एवं स्वैच्छिक संगठन इसके धर्मनिरपेक्ष एवं संस्थागत कार्यकरण करते हैं।

जो लोग सामाजिक सुधार या निर्धनों को सेवाएं मुहैया कराने के लिए एक साथ काम करना चाहते हैं, वे लोकोपकारी संगठन का गठन करते हैं। धार्मिक संगठनों, विशेष रूप से क्रिश्चियन मिशनों, ने निर्धनों को उनकी दशा सुधारने में मदद करने का बीड़ा उठाया है। स्वतंत्रता संघर्ष एवं जनमानस की दशा सुधारने के लिए स्वैच्छिक सृजनात्मक कार्य करने के गाँधीजि के आह्वान के साथ, अधिकाधिक स्वैच्छिक संगठनों का निर्माण किया गया।

वे लोग जो प्रत्यक्ष रूप से समाज की सेवा करने में असमर्थ थे, लेकिन धन एवं अन्य संसाधन मुहैया कराने में समर्थ थे, ऐसे संगठनों को प्रोत्साहित किया। भारत में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत ने बड़े लोकोपकारी संगठन स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त किया जिन्होंने कल्याण एवं विकास कार्य का समर्थन किया। बाद में, गांधी जी के संदेश कि धनी व्यवसायियों को स्वयं को समाज के न्यासी के तौर पर देखा जाना चाहिए और अपनी संपत्ति अत्यंत निर्धन लोगों के कल्याण हेतु रखनी चाहिए, अधिकतर धनी परिवारों और व्यवसायियोंने कई फाउंडेशन एवं न्यास गठित किए।

19वीं एवं20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के दौरान ऐसे संगठनों ने कानूनी मान्यता प्राप्त की जब सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860 और भारतीय ट्रस्ट अधिनियम 1882 जैसे कानून प्रभावी हुए। ऐसे अधिनियमों ने फाउंडेशन के जनकायों को मान्यता प्रदान की और उनकी आय एवं संपत्ति तथा उनके पदाधिकारियों के संरक्षण तक कानूनी विस्तार प्रदान किया। भारत में ब्रिटिश सरकार ने भी स्वीकार किया कि वह स्वयं समाज अभिप्रेरणा एवं उत्साह देकर लोक हित में सहायक परोपकारी संस्थाओं एवं योगदानकर्ताओं को प्रोत्साहित किया। इसमें राजकीय सम्मान एवं आयकर से दान की गई धनराशि को मुक्त करना जैसे अभिप्रेरणों को शामिल किया गया।

स्वतंत्रता पश्चात् कई स्वैच्छिक संगठनों ने राष्ट्रीय विकास लक्ष्य को पूरा करने में मदद की। स्वतंत्र भारत की सरकार ने कर छूट को पूर्ववत् बनाए रखा जैसाकि वह सामाजिक जरूरतों को पूरा करने में अपनी सीमाओं के बारे में सचेत थी। कंपनी अधिनियम 1956 की धारा 25  ने व्यक्तियों एवं निगमों की परोपकारी उद्देश्यों के लिए अलाभकारी कंपनियों को स्थापित करने हेतु सक्षम बनाया। आयकर अधिनियम 1961 ने परोपकारी उद्देश्यों की परिभाषा को व्यापक बनाया, जो वर्तमान में प्रवृत्त है। लोकोपकारिता को अब- गरीबों को सहायता, शिक्षा, चिकित्सा सहायता और लोक उपयोगिता की अन्य वस्तु के उन्नयन जिसमें किसी प्रकार की लाभ प्राप्ति की गतिविधि संलग्न न हो,  के तौर पर परिभाषित किया जाता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के साथ, विकास पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा और मानव संसाधन विकास पर जागरूकता में वृद्धि हुई। और इस बात को लेकर कि मात्र सरकारी तंत्र पर्याप्त रूप से समय की जरूरत को पूरा नहीं कर सकता, और सामाजिक परिवर्तन लाने में अलाभकारी संस्थाएं एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं क्योंकि वे सामाजिक और गैर-व्यावसायिक होती हैं, तथा स्थानीय लोगों के साथ उनकी घनिष्ठ अंतक्रिया होती है, सरकार एवं आमजन के बीच जागरूकता है।

लोकोपकारी संगठनों एवं परोपकार से सम्बद्ध कानूनी प्रावधान देशवार भिन्न हैं। भारत में अलाभकारी क्षेत्र को प्रशासित करने के पांच मुख्य कानून हैं, जिसमें से प्रत्येक को इस उद्देश्य के लिए सृजित अभिकरण द्वारा प्रशासित किया जाता है। संबंधित विधियां निम्न प्रकार हैं-

  • सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860, एक केंद्रीय अधिनियम है, और इसके संस्करण को विभिन्न राज्यों द्वारा लागू किया गया है। प्रत्येक राज्य में सोसायटी रजिस्ट्रार के द्वारा इस अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत संगठनों को विनियमित किया जाता है।
  • लोक परोपकारी न्यासों को पंजीकृत या विनियमित करने के लिए कोई केंद्रीय अधिनियम नहीं है। भारतीय ट्रस्ट अधिनियम 1882, के भिन्न रूप, जो मात्र निजी न्यासों पर लागू होते हैं, विभिन्न राज्यों में लागू हैं। महाराष्ट्र एवं गुजरात में चेरिटी आयुक्त के कार्यालय हैं, जिन्हें बॉम्बे पब्लिक ट्रस्ट अधिनियम, 1950 के तहत् गठित किया गया है। तमिलनाडु में धार्मिक एवं लोकोपकार दान विभाग है, और अन्य राज्यों में चेरिटेबल ट्रस्ट हेतु समान संगठन हैं।
  • कपनी अधिनियम, 1956 की धारा 25 गैर-लाभकारी कंपनियों से संव्यवहार་ करता है। इसे कंपनी रजिस्ट्रार द्वारा प्रशासित किया जाता है।
  • आयकर अधिनियम, 1961, एक केंद्रीय अधिनियम है जो समस्त भारत पर लागू होता है।
  • फॉरन कॉन्ट्रिब्यूशन रेगूलेशन अधिनियम, (एफसीआरए) एक केंद्रीय अधिनियम है, जो समस्त भारत पर लागू होता है, जो आवश्यक रूप से गैर-लाभकारी संस्थाओं को बाह्य वित्त के नियंत्रण हेतु एक सुरक्षा उपाय था, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हो सकता था।