अमीर खुसरो के संबंध में क्या सही नहीं है? - ameer khusaro ke sambandh mein kya sahee nahin hai?

अमीर खुसरो फारसी के बहुत बड़े कवि तथा विद्वान थे। फारसी के अतिरिक्त उन्हें हिन्दी भाषा से भी गहरा लगाव था। इसी वजह से हिन्दी भाषा को फारसी भाषा से हीन नहीं समझते थे। वे अपनी फारसी रचना ‘गुर्रतुल कमाल’ की भूमिका में लिखते हैं-

चूं गन तूती ए हिन्दम अजरासत पुर्सी।

जगन हिन्दवी पुर्स ता नग्ज गोयम॥

अर्थात् सही पूछो तो मैं हिन्दी का तोता हूँ। यदि तुम मुझ से मीठी बातें करना चाहते हो तो हिन्दवी में बातें करो।

विदेशों में अमीर खुसरो की लोकप्रियता क्यों और कितनी है ?

विदेशों में अमीर खुसरो की लोकप्रियता उनके फारसी साहित्य के कारण प्रचलित है। मगर हिन्दुस्तान में मुख्यत: जनमानस में वह अपने हिन्दी साहित्य की वजह से प्रसिद्ध हैं। अमीर खुसरो के नाम से हिन्दी साहित्य में अनेक पहेलियां, कहमुकरियाँ, दोहे, गीत और कव्वाली आदि प्रचलित हैं।

हिन्दी साहित्य के आदिकालीन कवि हैं अमीर खुसरो

खुसरो ने ऐसे काल में हिन्दी रचनाएं की जिस समय सर्वत्र फारसी की धाक थी। खुसरो हिन्दी साहित्य के आदिकालीन कवि है। इस काल की रचनाएं अधिकांशत: धर्म तथा राजनीति मुद्दों पर आधारित थीं। लेकिन अमीर खुसरो इन प्रवृत्तियों को किनारे कर मनोरंजन प्रधान कविताएं लिखीं।

राजकुमार वर्मा के अनुसार- ‘चारण कालीन रक्तरंजित इतिहास में जब पश्चिम के चरणों की डिंगल कविता उद्धत स्वरों में गूँज रही थी और उनकी प्रतिध्वनि और भी उग्र थी, पूर्व में गोरखनाथ की गंभीर धार्मिक प्रवृत्ति आत्म शासन की शिक्षा दे रही थी, उस काल में अमीर खुसरो की विनोदपूर्ण कविता हिन्दी साहित्य के इतिहास की महान निधि है।’

क्या अमीर खुसरो की रचनाएँ साहित्यिक नहीं हैं ?

अमीर खुसरो की कुछ हिन्दी रचनाओं को कुछ विद्वान गंभीर साहित्यिक रचनायें नहीं मानते। आचार्य रामचंद्र शुक्ल खुसरो की रचनाओं को फुटकल खाते में डालते हैं। उनका मानना है कि खुसरो की रचनाओं में जन साधारण की बोल-चाल भाषा का ज्ञान मिलता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कहना है- वीरगाथा काल के समाप्त होते-होते हमें जनता की बहुत कुछ असली बोलचाल और उसके बीच कहे सुने वाले पद्यों की भाषा के बहुत कुछ असली रूप का पता चलता है। पता देने वाले हैं दिल्ली के खुसरो मियाँ और तिरहुत के विद्यापति।

अमीर खुसरो की साहित्यिक भाषा क्या है?

अमीर खुसरो का काव्य सरल एवं स्वाभाविक है। उसमें पाण्डित्य प्रदर्शन एवं कृत्रिमता का अभाव है। उनकी खड़ी बोली तथा ब्रज भाषा का मिश्रण है। प्रो. एस. शाहजहाँ ने खुसरो को खड़ी बोली हिन्दी का प्रथम कवि मानते हुए लिखा है- खड़ी बोली हिन्दी की मधुमई काव्य धारा का श्री गणेश हिन्दी के आदि कवि अमीर खुसरो के हाथों हुआ था।

खड़ी बोली हिन्दी के आदि कवि हैं अमीर खुसरो

नि:सन्देह अमीर खुसरो ही खड़ी बोली हिन्दी के प्रथम कवि हैं।

खुसरो साहब ने एक ऐसे समय पर हिन्दी नामक नाबालिग लड़की को सहारा दिया जब सब कहीं, फारसी, ब्रज भाषा और अवधी का राग विलास हो रहा था।

अमीर खुसरो की हिन्दी भाषा में कितनी काव्य रचनाएँ है यह निश्चित तौर पर नहीं मालूम है। क्योंकि अमीर खुसरो का हिन्दी काव्य लोक में प्रचलित मौखिक परम्परा से प्राप्त होता है। अमीर खुसरो के हिन्दी काव्य की कोई प्राचीन पाण्डुलिपि भी नहीं मिलती है। इसलिए डॉ. ज्ञानचंद्र जैन का कहना है, ‘चूंकि खुसरो ने हिन्दी कलाम को मदून नहीं किया इसलिए वह सदियों तक सीना-बसीना चला आया, इसका कोई कदीम नुस्खा नहीं मिलता। इसलिए एक तरफ तो इसकी जुबान मुसलसल इस्लाह तहरींक के सबब मौजूदा दौर के मुताबिक हो गई। दूसरी तरफ इसमें कसरत से इल्हाक हो गया। साथ ही उनका बहुत सा हिन्दी कलाम तलंफ भी हो गया होगा। मौजूदा रिवायत में उनका जो कलाम मिलता है उसका लिसानी रंग-रूप ऐसा है जो महंक्कीन के नजदीक माबतर है।’

अमीर खुसरो हिन्दी काव्य (Amira Khusaro ka Hindavi kavya) का उल्लेख सर्वप्रथम श्प्रिंगर ने किया है। सैयद शम्सुल्लाह कादरी (Syed Shamsullah Qadri) को श्प्रिंगर के 1854 ई. में प्रकाशित लेख से सूचना मिली थी कि अवध के बादशाहों के पुस्तकालयों में जो मोतीमहल तथा तोपखाना में थे उनमें अमीर खुसरो की दो सौ पहेलियाँ तथा इसके अतिरिक्त एक संग्रह में फारसी मिश्रित ग़ज़ल तथा मुकरियाँ आदि मौजूद है।

खुसरो की हिन्दी रचनाओं को मौलाना अमीन अब्बासी चिरमाकोठी ने ‘जवाहर खुसखी’ नाम से 1918 ई. में अलीगढ़ से संपादन किया था।

हिन्दी के ब्रजरत्न दास ने सं. 2030 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा से संपादित किया था। इन संग्रहों में पहेलियां, कहमुकरियां, दोहे, निस्बतें, दो सुखने, ढकोसले आदि संकलित हैं।

आज खुसरो की हिन्दी रचनाओं में खालिकबारी, दोहे, पहेलियां, कहमुकरियां, ढकोसले, गीत, कव्वाली, दो सुखने, निस्बते, गज़लें, फारसी, हिन्दी मिश्रित छंद तथा फुटकल छंद आदि प्राप्त होते हैं।

अमीर खुसरो ने फारसी तथा हिन्दी भाषा में मिश्रित कविताओं की भी रचना की थी। इस प्रकार की उनकी कुछ कवितायें प्राप्त हैं जिनमें पहला वाक्य फारसी का तथा दूसरा वाक्य हिन्दी भाषा का है। खुसरो ने अपने फारसी साहित्य में भी कुछ हिन्दी शब्दों का प्रयोग किया है। वे अपनी मसनवी तुगलकनामा में लिखा है-

चु बकुशदंद तीर-ए-बेंखता रा,

बाजारी गुफ्त है है तीर मारा॥

इस प्रकार के अनेक उदाहरणों को खुसरो की फारसी रचनाओं में देखा जा सकता है। जनमानस में खुसरो के हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक पहलेलियां प्रसिध्द हैं। पहेली में गोपनीयता, सांकेतिकता और प्रतीकात्मकता की प्रवृत्ति लक्षित होती है। पहेली वास्तव में प्रस्ताव के रूप में होने वाली एक प्रकार का प्रश्नात्मक उक्ति या कथन है जिसमें किसी चीज या बात के लक्षण बतलाते हुये अथवा घुमाव-फिराव से किसी प्रसिद्ध बात या वस्तु का स्वरूप मात्र बतलाते हुए यह कहा जाता है कि वह कौन सी बात या वस्तु हैं।

पहेलियों में यथार्थ में किसी वस्तु का वर्णन होता है तथा यह ऐसा वर्णन है जिसमें अप्रकृत के द्वारा प्रकृत का संकेत होता है। पहेली में वस्तु को सुलझाने वाले उपमानों से निर्मित शब्द चित्रावली होती है, जिसमें चित्र प्रस्तुत करके पूछा जाता है कि यह किसका चित्र है।

खुसरो ने कितनी प्रकार की पहेलियाँ लिखी हैं?

खुसरो ने दो प्रकार की पहेलियाँ लिखी हैं- 1. बूझ पहेली 2. बिन बूझ पहेली।

बूझ पहेली में उत्तर पहेली के अंदर ही रहता है। यह उत्तर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में पहेली के अंदर ही बूझ लिया जाता है। खुसरो बूझ पहेली ‘नाखून’ में लिखते हैं।

बीसौ का सिर काट लिया।

ना मारा ना खून किया॥

बिन बूझ पहेली में उत्तर पहेली में नहीं होता है। बिन बूझ पहेलियों में अमीर खुसरो ने बहुत सुंदर भाव प्रवाह किए हैं। इस तरह की पहेलियों में पाठक अथवा सुनने वालों को स्वयं ही अनुमान से उत्तर देना पड़ता है। खुसरो की ऐसी ही एक पहेली का उदाहरण प्रस्तुत है –

झिलमिल का कुंआ रतन की क्यारी।

बताओ तो बताओ नहीं दँगी गारी॥

अमीर खुसरो के हिन्दी साहित्य में कहमुकरियां लिखने का सर्वप्रथम स्थान है। यह भी एक तरफ की पहेली ही होती है जिसमें सखी-सहेलियां आपस में मिलकर हास-परिहास करते हुए एक-दूसरे से पूछती हैं। यह लोक जीवन में अर्थ साजन होता है। लेकिन जैसे ही सखी उसका उत्तर, साजन बताती है, दूसरी सखी मुकर जाती है और अंत में भिन्न अभिप्राय व्यक्त करती है।

कविता प्राय: चार चरणों की होती है इसके पहले तीन चरण प्राय: ऐसे होते हैं, जिनका आशय दो स्थान घट सकता है। इनसे प्रत्यक्ष रूप से जिस पदार्थ का नाम लेकर उससे इंकार कर दिया जाता है। इस प्रकार मानों कहीं हुई बात से मुकरते हुये कुछ और ही अभिप्राय प्रकट किया जाता है। अमीर खुसरो ने इस तरह की बहुत सी मुकरियाँ कहीं है। इसके अंत में प्राय: सखी या सखियाँ भी कहते हैं। आम के बारे में कही गई खुसरो की एक मुकरी प्रस्तुत है।

बरस बरस वह देस में आवे।

मँह से मँह लगा रस प्यावे।

वा खातिर में खरचे दाम।

ऐ सखी साजन न सखी आम॥

खुसरो द्वारा लिखी गई कुछ निसबतें भी मिलती है। निसबत का अर्थ संबंध, लगाव या ताल्लुक इत्यादि से है। निसबत में दो वस्तुओं में परस्पर समानता ढूंढ़नी होती है। इसका मुख्य आधार होता है एक शब्द के अनेक अर्थ। अमीर खुसरो ने निसबतें में जो लिखा है वह भी एक प्रकार की पहेली है जिसमें वस्तुओं में समानता खोजनी पड़ती है तथा वही उत्तर होता है। खुसरो द्वारा लिखीं कुछ निसबतें दृष्टव्य है-

घोड़े और हरंफों में क्या निसबत है। (नुकता)

गहने और दरख्त में क्या निसबत है। (पत्ता)

‘दो सुखना’ को दो सखुना‘ भी कहा जाता है। खुसरो ने दो प्रकार के दो सुखने लिखे हैं- हिन्दी में दूसरे जिनमें एक पंक्ति फारसी में तथा दूसरी पंक्ति हिन्दी में है। दो सुखने में दो या तीन प्रश्नों का एक ही उत्तर होता है।

सुखन शब्द फारसी का है और इसका अर्थ है कथन या उक्ति खुसरो के दो सुखन ऐसे हैं जिनमें दो कथनों या उक्तियों का एक ही उत्तर होता है। इसका भी आधार शब्दों के दो अर्थ है। दो सुखना हिन्दी का एक उदाहरण द्रष्टव्य है-

राजा प्यासा क्यों।

गदहा उदासा क्यों। (लोटा न था)

दो सुखना फारसी का एक उदाहरण प्रस्तुत है-

माशूक रा चेमी बायद कर्द।

हिन्दुओं का रख कौन है। (राम)

अनमेल का अर्थ है बेमेल, बेजोड़, बेतुका, बे सिर पैर का ढकोसले का अर्थ धोखा देने का एक ढंग या ऐसा आयोजन जिसमें लोगों को धोखा हो। ऐसी कविता जो बेमेल, बेजोड़, बेतुकी या बिना सिर पैर की हो वह ढकोसले या अनमेलियाँ है। इस प्रकार की कविता का कोई अर्थ नहीं होता ये मात्र मनोरंजन की कविता है।

खुसरो ने कुछ इस प्रकार की कवितायें भी लिखीं थीं जिनको ढकोसले या अनमोलियाँ कहा जाता है। खुसरो का एक ढकोसले का उदाहरण द्रष्टव्य है-

भैस चढ़ा बबूर पर-लप मलूर खाय।

पोंछ उठा के देखा तो पूरन माँसी के तीन दिन॥

अमीर खुसरो ने अनेक गीतों की रचना की है। उनके अधिकतर गीत सूफी भावना से ओतप्रोत हैं। इसके अतिरिक्त उनके लोकगीत भी मिलते हैं। जिनको आज भी जन साधारण द्वारा विशेष अवसरों पर गाया जाता है। खुसरो का सावन का गीत बहुत प्रसिध्द है जिसे सावन में झूला झूलते हुए स्त्रियाँ गाती हैं-

अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया।

बेटी तेरा बाबा तो बुडढा री कि सावन आया।

अम्मा मेरे भाई को भेजो जी कि सावन आया॥

बेटी तेरा भाई तो बाला री कि सावन आया।

बेटी तेरा माँमू तो बाँका री कि सावन आया।

खुसरो के नाम से हिन्दी में अनेक कव्वालियाँ प्रचलित एवं प्रसिद्ध हैं। उनके काल में ये केवल सूफियों की हो गोष्ठियाँ में गाई जाती थीं। जब कव्वाल इन्हें गाते तो सूफियों को इन्हें सुनकर हाल आता था यह सामूहिक गान है, कव्वाल की व्युत्पत्ति कौल फारसी से मानी जाती है और इसका अर्थ है कहना अथवा प्रशंसा करना। कुछ लोगों की दृष्टि में इसका मूल अरबी की नकल धातु है और इसका अर्थ है बयान करना। किन्तु वास्तव में इसका मूल स्रोत फारसी ही है। क्योंकि कव्वाल की पद्धति ईरान में ही आविष्कृत हुई। यह राग या रागिनी नहीं, बल्कि एक विशेष प्रकार की धुन है और कई प्रकार के काव्य विधान इस धुन में गाये जाते हैं। सूफियों के माध्यम से इसे लोकप्रियता मिली, क्योंकि उपासना सभाओं में वे भावोन्माद के कारण गा उठते थे और सारा उपासक समाज उनका अनुकरण करता था।

हजरत निजामुद्दीन औलिया के परम शिष्य थे अमीर खुसरो

खुसरो का संबंध दरबार तथा खानकाह दोनों से था। वे प्रसिद्ध सूफी हजरत निजामुद्दीन औलिया के परम शिष्य थे। खुसरो ने हजरत की सेवा में अनेक कव्वालियों की रचना की थी। अत: यह कहना अनुचित न होगा कि अमीर खुसरो ने संगीत कला के अनुसार कव्वाली की उन्नति और इसको विशिष्ट विधा बनाने में अपनी तबीयत के अनुसार ही हाथ बढ़ाया और विषय के अनुसार पैगम्बर ए इस्लाम और अन्य महापुरुषों के प्रवचन को इसी राग में ढालने की एक विशेष पद्धति को भी प्रचलित किया। इन्होंने हृदय में दर्द पैदा करने वाली ऐसी ग़ज़लों की रचना की जिन्हें कव्वाली की धुन में गाया जाने लगा। कव्वाली की धुन में ग़ज़ल, रूबाई तथा कसीदा कोई भी गाया जा सकता है। आज भी कव्वाल लोग खुसरो को ही अपना पहला उस्ताद मानते हैं। खुसरो के नाम से अनेक कव्वालियाँ प्रचलित हैं। इसी से उनकी कव्वालियों की लोकप्रियता का प्रमाण मिलता है। खुसरो द्वारा हजरत निजामुद्दीन औलिया की प्रशंसा में एक कव्वाली का उदाहरण दृष्टव्य है-

बहुत कठिन है डगर पनघट की

कैसे मैं भर लाऊँ मधवा से मटकी।

मोरे अच्छे निजाम पिया,

पनिया भरन को मैं जो गई थी

दौड़ झपट मोरी मटकी-पटकी। बहुत कठिन है डगर पनघट की

खुसरो निजाम के बलि-बलि जाइये

लाज राखे मोरे घूघंट पट की।

इन रचनाओं के अतिरिक्त खुसरो के कुछ फुटकल छंद भी मिलते हैं। जिनमें खुसरो कविता के माध्यम से कुछ उपचार के नुस्खे बताते हैं। इन उपचार में मंजन तथा सुरमा आदि प्राप्त है। मंजन के नुस्खे में खुसरो ने लिखा है-

त्रिफला त्रिकरा तीनों बोन पतंग

दाँत बजर हो जाता है माजोफल के संग।

खालिकबारी अमीर खुसरो द्वारा रचित अरबी-फारसी और हिन्दी का पद्यमय पर्यायवाची शब्दकोश है।

खालिकबारी की रचना खुसरो ने उस काल की ऐतिहासिक आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए की थी। उस समय राजभाषा फारसी थी तथा आम जनता को इस भाषा का ज्ञान होना आवश्यक था एवं भारत में आने वाले शरणार्थियों को यहां की आम बोलचाल की भाषा का भी ज्ञान होना आवश्यक था। इन दोनों की आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए खुसरो ने अरबी-फारसी तथा हिन्दी के छन्दबद्ध पर्यायवाची शब्दकोश की रचना की जो मदरसों में बच्चों को पढ़ाई जाने लगी। इस प्रकार 1061हि. में भी खालिकबारी अमीर खुसरो के नाम से ही प्रचलित थी। इसलिये तजल्ली अमीर खुसरो तथा उनके गुरु हजरत निजामुद्दीन औलिया की आत्मा से सहायता माँगते हैं।

तूतिए हिन्दकिसे कहा जाता है?

संक्षेप में कह सकते हैं कि अमीर खुसरो की रचनाएं अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। भारत के अतिरिक्त ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बंगलादेश इत्यादि देशों में खुसरो की रचनाओं को बड़े उत्साह से पढ़ा जाता है। उन्हें ‘तूतिए हिन्द’ कहा जाता है।

डॉ. एहतिशाम अली जाफरी

काशियान-9 जाफरी

हाथी डूबा, अमीर निशां

अलीगढ़-202002

(देशबन्धु)