5. रसोइया ने बिना खबर दिए लेखक के मित्र की नौकरी क्यों छोड़ दी ? - 5. rasoiya ne bina khabar die lekhak ke mitr kee naukaree kyon chhod dee ?

5. रसोइया ने बिना खबर दिए लेखक के मित्र की नौकरी क्यों छोड़ दी ? - 5. rasoiya ne bina khabar die lekhak ke mitr kee naukaree kyon chhod dee ?

Show

Video

  • HOME
  • Live kabaddi
  • Videos
  • Photos
  • Wallpapers
  • Players
  • Officials
  • Posters
  • Results
  • About Us
  • Contact us
  • Login
  • Register


Duration : null: mins

Posted in :  

Views : 940

Discription :



COMMENTS


5. रसोइया ने बिना खबर दिए लेखक के मित्र की नौकरी क्यों छोड़ दी ? - 5. rasoiya ne bina khabar die lekhak ke mitr kee naukaree kyon chhod dee ?


Categories

Copyright © 2020 365 SMART NETWORK All rights are Reserved.

प्रकरण 1

सामान्य परिचय

देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके देवमंदिर गिराए जाते थे, देवमूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गए। इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिंदू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी-सी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?
यह तो हुई राजनीतिक परिस्थिति। अब धार्मिक स्थिति देखिए। आदिकाल के अंतर्गत यह दिखाया जा चुका है कि किस प्रकार वज्रयानी सिद्ध , कापालिक आदि देश के पूरबी भागों में और नाथपंथी जोगी पश्चिमी भागों में रमते चले आ रहे थे।1 इसी बात से इसका अनुमान हो सकता है कि सामान्य जनता की धर्मभावना कितनी दबती जा रही थी, उसका हृदय धर्म से कितनी दूर हटता चला जा रहा था।
धर्म का प्रवाह कर्म, ज्ञान और भक्ति, इन तीन धाराओं में चलता है। इन तीनों के सामंजस्य से धर्म अपनी पूर्ण सजीव दशा में रहता है। किसी एक के भी अभाव से वह विकलांग रहता है। कर्म के बिना वह लूला-लँगड़ा, ज्ञान के बिना अंधा और भक्ति के बिना हृदयविहीन क्या, निष्प्राण रहता है? ज्ञान के अधिकारी तो सामान्य से बहुत अधिक समुन्नत और विकसित बुद्धि के कुछ थोड़े-से विशिष्ट व्यक्ति ही होते हैं। कर्म और भक्ति ही सारे जनसमुदाय की संपत्ति होती है। हिन्दी साहित्य के आदिकाल में कर्म तो अर्थशून्य विधिविधान, तीर्थाटन और पर्वस्नान इत्यादि के संकुचित घेरे में पहले से बहुत कुछ बद्ध चला आता था। धर्म की भावात्मक अनुभूति या भक्ति, जिसका सूत्रपात महाभारत काल में और विस्तृत प्रवर्तन पुराणकाल में हुआ था, कभी कहीं दबती, कभी कहीं उभरती किसी प्रकार चली भर आ रही थी।
अर्थशून्य बाहरी विधिविधान, तीर्थाटन, पर्वस्नान आदि की निस्सारता का संस्कार फैलाने का जो कार्य वज्रयानी सिध्दों और नाथपंथी जोगियों के द्वारा हुआ, उसका उल्लेख हो चुका है।2 पर उनका उद्देश्य 'कर्म' को उस तंग गङ्ढे से निकालकर प्रकृत धर्म के खुले क्षेत्र में लाना न था बल्कि एकबारगी किनारे ढकेल देना था। जनता की दृष्टि को आत्मकल्याण और लोककल्याण विधायक सच्चे कर्मों की ओर ले जाने के बदले उसे वे कर्मक्षेत्र से ही हटाने में लग गए थे। उनकी बानी तो 'गुह्य, रहस्य और सिद्धि ' लेकर उठी थी। अपनी रहस्यदर्शिता की धाक जमाने के लिए वे बाह्य जगत् की बातें छोड़, घट के भीतर के कोठों की बात बताया करते थे। भक्ति, प्रेम आदि हृदय के प्रकृत भावों का उनकी अंतस्साधना में कोई स्थान न था, क्योंकि इनके द्वारा ईश्वर को प्राप्त करना तो सबके लिए सुलभ कहा जा सकता है। सामान्य अशिक्षित या अर्धशिक्षित जनता पर इनकी बानियों का प्रभाव इसके अतिरिक्त और क्या हो सकता था कि वह सच्चे शुभकर्मों के मार्ग से तथा भगवद्भक्ति की स्वाभाविक हृदय-पद्ध ति से हटकर अनेक प्रकार के मंत्र, तंत्र और उपचारों में जा उलझे और उसका विश्वास अलौकिक सिद्धि यों पर जा जमे? इसी दशा की ओर लक्ष्य करके गोस्वामी तुलसीदास ने कहा था
गोरख जगायो जोग, भगति भगायो लोग।
सारांश यह कि जिस समय मुसलमान भारत में आए उस समय सच्चे धर्मभाव का बहुत कुछ ह्रास हो गया था। प्रतिवर्तन के लिए बहुत कड़े धक्कों की आवश्यकता थी।
ऊपर जिस अवस्था का दिग्दर्शन हुआ है, वह सामान्य जनसमुदाय की थी। शास्त्रज्ञ विद्वानों पर सिध्दों और जोगियों की बानियों का कोई असर न था। वे इधर-उधर पड़े अपना कार्य करते जा रहे थे। पंडितों के शास्त्रार्थ भी होते थे, दार्शनिक खंडन-मंडन के ग्रंथ भी लिखे जाते थे। विशेष चर्चा वेदांत की थी। ब्रह्मसूत्रों पर, उपनिषदों पर, गीता पर, भाष्यों की परंपरा विद्वन्मंडली के भीतर चली चल रही थी जिससे परंपरागत भक्तिमार्ग के सिध्दांत पक्ष का कई रूपों में नूतन विकास हुआ।
कालदर्शी भक्त कवि जनता के हृदय को सँभालने और लीन रखने के लिए दबी हुई भक्ति को जगाने लगे। क्रमश: भक्ति का प्रवाह ऐसा विकसित और प्रबल होता गया कि उसकी लपेट में केवल हिंदू जनता ही नहीं, देश में बसने वाले सहृदय मुसलमानों में से भी न जाने कितने आ गए। प्रेमस्वरूप ईश्वर को सामने लाकर भक्त कवियों ने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को मनुष्य के सामान्य रूप में दिखाया और भेदभाव के दृश्यों को हटाकर पीछे कर दिया।
भक्ति का जो सोता दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला। रामानुजाचार्य (संवत् 1073) ने शास्त्रीय पद्ध ति से जिस सगुण भक्ति का निरूपण किया था उसकी ओर जनता आकर्षित होती चली आ रही थी।
गुजरात में स्वामी मध्वाचार्य जी (संवत् 1254-1333) ने अपना द्वैतवादी वैष्णव संप्रदाय चलाया जिसकी ओर बहुत से लोग झुके। देश के पूरबी भाग में जयदेव जी के कृष्ण प्रेम संगीत की गूँज चली आ रही थी जिसके सुर में मिथिला के कोकिल (विद्यापति) ने अपना सुर मिलाया। उत्तर या मध्य भारत में एक ओर तो ईसा की पंद्रहवीं शताब्दी में रामानुजाचार्य की शिष्य परंपरा में स्वामी रामानंद जी हुए जिन्होंने विष्णु के अवतार राम की उपासना पर जोर दिया और एक बड़ा भारी संप्रदाय खड़ा किया, दूसरी ओर बल्लभाचार्य जी ने प्रेममूर्ति कृष्ण को लेकर जनता को रसमग्न किया। इस प्रकार रामोपासक और कृष्णोपासक भक्तों की परंपराएँ चलीं जिनमें आगे चलकर हिन्दी काव्य को प्रौढ़ता पर पहुँचाने वाले जगमगाते रत्नों का विकास हुआ। इन भक्तों ने ब्रह्म के 'सत्' और 'आनंद' स्वरूप का साक्षात्कार राम और कृष्ण के रूप में इस बाह्य जगत् के व्यक्त क्षेत्र में किया।
एक ओर तो प्राचीन सगुणोपासना का यह काव्यक्षेत्र तैयार हुआ, दूसरी ओर मुसलमानों के बस जाने से देश में जो नई परिस्थिति उत्पन्न हुई उसकी दृष्टि से हिंदू मुसलमान दोनों के लिए एक 'सामान्य भक्तिमार्ग' का विकास भी होने लगा। उसके विकास के लिए किस प्रकार वीरगाथाकाल में ही सिध्दों और नाथपंथी योगियों के द्वारा मार्ग निकाला जा चुका था, यह दिखाया जा चुका है।3 वज्रयान के अनुयायी अधिकतर नीची जाति के थे अत: जाति पाँति की व्यवस्था से उनका असंतोष स्वाभाविक था। नाथ संप्रदाय में भी शास्त्रज्ञ विद्वान नहीं आते थे। इस संप्रदाय के कनफट रमते योगी घट के भीतर के चक्रों, सहस्रदल, कमल, इला, पिंगला, नाड़ियों इत्यादि की ओर संकेत करनेवाली रहस्यमयी बानियाँ सुनाकर और करामात दिखाकर अपनी सिध्दाई की धाक सामान्य जनता पर जमाए हुए थे। वे लोगों को ऐसी बातें सुनाते आ रहे थे कि वेदशास्त्र पढ़ने से क्या होता है, बाहरी पूजा-अर्चा की विधियाँ व्यर्थ हैं, ईश्वर तो प्रत्येक के घट के भीतर है, अंतर्मुख साधनाओं से ही वह प्राप्त हो सकता है, हिंदू-मुसलमान दोनों एक हैं, दोनों के लिए शुद्ध साधना का मार्ग भी एक है, जाति-पाँति के भेद व्यर्थ खड़े किए गए हैं, इत्यादि। इन जोगियों के पंथ में कुछ मुसलमान भी आए। इसका उल्लेख पहले हो चुका है।4 
भक्ति के आंदोलन की जो लहर दक्षिण से आई उसी ने उत्तर भारत की परिस्थिति के अनुरूप हिंदू मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्तिमार्ग की भी भावना कुछ लोगों में जगाई। हृदयपक्षशून्य सामान्य अंतस्साधना का मार्ग निकालने का प्रयत्न नाथपंथी कर चुके थे, यह हम कह चुके है।5 पर रागात्मक तत्व से रहित साधना से ही मनुष्य की आत्मा तृप्त नहीं हो सकती। महाराष्ट्र देश के प्रसिद्ध भक्त नामदेव (संवत् 1328-1408) ने हिंदू मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्तिमार्ग का भी आभास दिया। उसके पीछे कबीरदास ने विशेष तत्परता के साथ एक व्यवस्थित रूप में यह मार्ग 'निर्गुणपंथ' के नाम से चलाया। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, कबीर के लिए नाथपंथी जोगी बहुत कुछ रास्ता निकाल चुके थे। भेदभाव को निर्दिष्ट करने वाले उपासना के बाहरी विधानों को अलग रखकर उन्होंने अंतस्साधना पर जोर दिया था। पर नाथपंथियों की अंतस्साधना हृदयपक्षशून्य थी उसमें प्रेमतत्व का अभाव था। कबीर ने यद्यपि नाथपंथ की बहुत-सी बातों को अपनी बानी में जगह दी, पर यह बात उन्हें खटकी। इसका संकेत उनके ये वचन देते हैं
झिलमिल झगरा झूलते बाकी रही न काहु।
गोरख अटके कालपुर कौन कहावै साहु?
बहुत दिवस ते हिंडिया सुन्नि समाधि लगाइ। 
करहा पड़िया गाड़ में दूरि परा पछिताइ
करहा = (1) करभ; हाथी का बच्चा; (2) हठयोग की क्रिया करनेवाला]
अत: कबीर ने जिस प्रकार एक निराकार ईश्वर के लिए भारतीय वेदांत का पल्ला पकड़ा उसी प्रकार उस निराकार ईश्वर की भक्ति के लिए सूफियों का प्रेमतत्व लिया और अपना 'निर्गुणपंथ' धूमधाम से निकाला। बात यह थी कि भारतीय भक्तिमार्ग साकार और सगुण रूप को लेकर चला था, निर्गुण और निराकार ब्रह्म भक्ति या प्रेम का विषय नहीं माना जाता। इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के उस बड़े भाग को सँभाला जो नाथपंथियों के प्रभाव से प्रेमभाव और भक्तिरस से शून्य और शुष्क पड़ता जा रहा था। उनके द्वारा यह बहुत ही आवश्यक कार्य हुआ। इसके साथ ही मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में उन्होंने आत्मगौरव का भाव जगाया और भक्ति के ऊँचे से ऊँचे सोपान की ओर बढ़ने के लिए बढ़ावा दिया। उनका 'निर्गुणपंथ' चल निकला जिसमें नानक, दादू, मलूकदास आदि अनेक संत हुए।
कबीर तथा अन्य निर्गुणपंथी संतों के द्वारा अंतस्साधना में रागात्मिका 'भक्ति' और 'ज्ञान' का योग तो हुआ, पर 'कर्म' की दशा वही रही जो नाथपंथियों के यहाँ थी। इन संतों के ईश्वर ज्ञानस्वरूप और प्रेमस्वरूप ही रहे, धर्मस्वरूप न हो पाए। ईश्वर के धर्मस्वरूप को लेकर, उस स्वरूप को लेकर, जिसकी रमणीय अभिव्यक्ति लोक की रक्षा और रंजन में होती है, प्राचीन वैष्णव भक्तिमार्ग की रामभक्ति शाखा उठी। कृष्णभक्ति शाखा केवल प्रेमस्वरूप ही लेकर नई उमंग से फैली।
यहाँ पर एक बात की ओर ध्यान दिला देना आवश्यक प्रतीत होता है। साधना के जो तीन अवयव कर्म, ज्ञान और भक्ति कहे गए हैं, वे सब काल पाकर दोषग्रस्त हो सकते हैं। 'कर्म' अर्थशून्य विधि-विधानों से निकम्मा हो सकता है, 'ज्ञान' रहस्य और गुह्य की भावना से पाखंडपूर्ण हो सकता है और 'भक्ति' इंद्रियोपभोग की वासना से कलुषित हो सकती है। भक्ति की निष्पत्ति श्रध्दा और प्रेम के योग से होती है। जहाँ श्रध्दा या पूज्य बुद्धि का अवयव जिसका लगाव धर्म से होता है छोड़कर केवल प्रेम लक्षणा भक्ति ली जायगी वहाँ वह अवश्य विलासिता से ग्रस्त हो जायगी।
इस दृष्टि से यदि हम देखें तो कबीर का 'ज्ञानपक्ष' तो रहस्य और गुह्य की भावना से विकृत मिलेगा, पर सूफियों से जो प्रेमतत्व उन्होंने लिया वह सूफियों के यहाँ चाहे कामवासनाग्रस्त हुआ हो, पर 'निर्गुणपंथ' में अविकृत रहा। यह निस्संदेह प्रशंसा की बात है। वैष्णवों की कृष्णभक्ति शाखा ने केवल प्रेमलक्षणा भक्ति ली; फल यह हुआ कि उसने अश्लील विलासिता की प्रवृत्ति जगाई। रामभक्ति शाखा में भक्ति सर्वांगपूर्ण रही; इससे वह विकृत न होने पाई। तुलसी की भक्तिपद्ध ति में कर्म (धर्म) और ज्ञान का पूरा सामंजस्य और समन्वय रहा। इधर आजकल अलबत्ता कुछ लोगों ने कृष्णभक्ति शाखा के अनुकरण पर उसमें भी 'माधुर्य भाव' का गुह्य रहस्य घुसाने का उद्योग किया है जिससे 'सखी संप्रदाय' निकल पड़े हैं और राम की भी 'तिरछी चितवन' और 'बाँकी अदा' के गीत गाए जाने लगे हैं।
यह सामान्य भक्तिमार्ग एकेश्वरवाद का एक निश्चित स्वरूप लेकर खड़ा हुआ, जो कभी ब्रह्मवाद की ओर ढलता था और कभी पैगंबरी खुदावाद की ओर। यह 'निर्गुणपंथ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसकी ओर ले जानेवाली सबसे पहली प्रवृत्ति जो लक्षित हुई वह ऊँच नीच और जाति-पाँति के भाव का त्याग और ईश्वर की भक्ति के लिए मनुष्य मात्र के समान अधिकार का स्वीकार था। इस भाव का सूत्रपात भक्तिमार्ग के भीतर महाराष्ट्र और मध्य देश में नामदेव और रामानंद जी द्वारा हुआ। महाराष्ट्र देश में नामदेव का जन्मकाल शक संवत् 1192 और मृत्युकाल शक संवत् 1272 प्रसिद्ध है। ये दक्षिण के नरुसीबमनी (सतारा जिला) के दरजी थे। पीछे पंढरपुर के विठोबा (विष्णु भगवान) के मंदिर में भगवद्भजन करते हुए अपना दिन बिताते थे।
महाराष्ट्र के भक्तों में नामदेव का नाम सबसे पहले आता है। मराठी भाषा के अभंगों के अतिरिक्त इनकी हिन्दी रचनाएँ भी प्रचुर परिमाण में मिलती हैं। इन हिन्दी रचनाओं में एक विशेष बात यह पाई जाती है कि कुछ तो सगुणोपासना से संबंध रखती हैं और कुछ निर्गुणोपासना से। इसके समाधान के लिए इनके समय की परिस्थिति की ओर ध्यान देना आवश्यक है। आदिकाल के अन्तर्गत यह कहा जा चुका है कि मुसलमानों के आने पर पठानों के समय में गोरखपंथी योगियों का देश में बहुत प्रभाव था। नामदेव के ही समय में प्रसिद्ध ज्ञानयोगी ज्ञानदेव हुए हैं जिन्होंने अपने को गोरख की शिष्य परंपरा में बताया है। ज्ञानदेव का परलोकवास बहुत थोड़ी अवस्था में ही हुआ, पर नामदेव उनके उपरांत बहुत दिनों तक जीवित रहे। नामदेव सीधे सादे सगुण भक्ति मार्ग पर चले जा रहे थे, पर पीछे उस नाथपंथ के प्रभाव के भीतर भी ये लाए गए, जो अंतर्मुख साधना द्वारा सर्वव्यापक निर्गुणब्रह्म के साक्षात्कार को ही मोक्ष का मार्ग मानता था। लाने वाले थे ज्ञानदेव।
एक बार ज्ञानदेव इन्हें साथ लेकर तीर्थयात्रा को निकले। मार्ग में ये अपने प्रिय विग्रह विठोबा (भगवान) के वियोग में व्याकुल रहा करते थे। ज्ञानदेव इन्हें बराबर समझाते जाते थे कि 'भगवान क्या एक ही जगह हैं; वे तो सर्वत्र हैं, सर्वव्यापक हैं। यह मोह छोड़ो। तुम्हारी भक्ति अभी एकांगी है, जब तक निर्गुण पक्ष की भी अनुभूति तुम्हें न होगी, तब तक तुम पक्के न होगे'। ज्ञानदेव की बहन मुक्ताबाई के कहने पर एक दिन 'संतपरीक्षा' हुई। जिस गाँव में यह संत मंडली उतरी थी, उसमें एक कुम्हार रहता था। मंडली के सब संत चुपचाप बैठ गए। कुम्हार घड़ा पीटने का पिटना लेकर सबके सिर पर जमाने लगा। चोट पर चोट खाकर भी कोई विचलित न हुआ। पर जब नामदेव की ओर बढ़ा तब वे बिगड़ खड़े हुए। इस पर वह कुम्हार बोला, 'नामदेव को छोड़ और सब घड़े पक्के हैं'। बेचारे नामदेव कच्चे घड़े ठहराए गए। इस कथा से यह स्पष्ट लक्षित हो जाता है कि नामदेव को नाथपंथ के योगमार्ग की ओर प्रवृत्त करने के लिए ज्ञानदेव की ओर से तरह-तरह के प्रयत्न होते रहे। 
सिद्ध और योगी निरंतर अभ्यास द्वारा अपने शरीर को विलक्षण बना लेते थे। खोपड़ी पर चोटें खा खाकर उसे पक्की करना उनके लिए कोई कठिन बात न थी। अब भी एक प्रकार के मुसलमान फकीर अपने शरीर पर जोर-जोर से डंडे जमाकर भिक्षा माँगते हैं। 
नामदेव किसी गुरु से दीक्षा लेकर अपनी सगुण भक्ति में प्रवृत्त नहीं हुए थे, अपने ही हृदय की स्वाभाविक प्रेरणा से हुए थे। ज्ञानदेव बराबर उन्हें 'बिनु गुरु होइ न ज्ञान' समझाते आते थे। संतों के बीच निर्गुण ब्रह्म के संबंध में जो कुछ कहा-सुना जाता है और ईश्वरप्राप्ति की जो साधना बताई जाती है, वह किसी गुरु की सिखाई हुई होती है। परमात्मा के शुद्ध निर्गुणस्वरूप के ज्ञान के लिए ज्ञानदेव का आग्रह बराबर बढ़ता गया। गुरु के अभाव के कारण किस प्रकार नामदेव में परमात्मा की सर्वव्यापकता का उदार भाव नहीं जम पाया था और भेदभाव बना था, इस पर भी एक कथा चली आती है। कहते हैं कि एक दिन स्वयं विठोबा (भगवान) एक मुसलमान फकीर का रूप धरकर नामदेव के सामने आए। नामदेव ने उन्हें नहीं पहचाना। तब उनसे कहा गया कि वे तो परब्रह्म भगवान ही थे। अंत में बेचारे नामदेव ने नागनाथ नामक शिव के स्थान पर जाकर बिसोबा खेचर या खेचरनाथ नामक एक नाथपंथी कनफटे से दीक्षा ली। इसके संबंध में उनके ये वचन हैं
मन मेरी सुई, तन मेरा धागा। खेचरजी के चरण पर नामा सिंपी लागा।

सुफल जन्म मोको गुरु कीना। दुख बिसार सुख अंतर दीना
ज्ञान दान मोको गुरु दीना। राम नाम बिन जीवन हीना

किसू हूँ पूजूँ दूजा नजर न आई।
एके पाथर किज्जे भाव। दूजे पाथर धारि पाव
जो वो देव तो हम बी देव। कहै नामदेव हम हरि की सेव
यह बात समझ रखनी चाहिए कि नामदेव के समय में ही देवगिरि पर पठानों की चढ़ाइयाँ हो चुकी थीं और मुसलमान महाराष्ट्र में भी फैल गए थे। इसके पहले से ही गोरखनाथ के अनुयायी हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिए अंतस्साधना के एक सामान्य मार्ग का उपदेश देते आ रहे थे।
इनकी भक्ति के अनेक चमत्कार भक्तमाल में लिखे हैं, जैसे विठोबा (ठाकुर जी) की मूर्ति का इनके हाथ से दूध पीना, अविंद नागनाथ के शिवमंदिर के द्वार का इनकी ओर घूम जाना इत्यादि। इनके माहात्म्य ने यह सिद्ध कर दिखाया कि 'जाति-पाँति पूछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।' इनकी इष्ट सगुणोपासना के कुछ पद नीचे दिए जाते हैं जिनमें शबरी, केवट आदि की सुगति तथा भगवान की अवतार लीला का कीर्तन बड़े प्रेमभाव से किया गया है
अंबरीष को दियो अभय पद, राज विभीषन अधिक करयो।
नव निधि ठाकुर दई सुदामहिं, धा्रुव जो अटल अजहूँ न टरयो।
भगत हेत मारयो हरिनाकुस, नृसिंह रूप ह्वै देह धारयो।
नामा कहै भगति बस केसव, अजहूँ बलि के द्वार खरो

दसरथरायनंद राजा मेरा रामचंद। प्रणवै नामा तत्व रस अमृत पीजै

धानि धानि मेघा रोमावली, धानि-धानि कृष्ण ओढ़े कावँली।
धानि धानि तू माता देवकी, जिह गृह रमैया कवँलापती।
धानि धानि बनखंड वृंदावना, जहँ खेलै श्रीनारायना।
बेनु बजावै, गोधान चारै, नामे का स्वामि आनंद करै
यह तो हुई नामदेव की व्यक्तोपासना संबंधी हृदयप्रेरित रचना। आगे गुरु से सीखे हुए ज्ञान की उद्ध रणी अर्थात् 'निर्गुन बानी' भी कुछ देखिए
माइ न होती, बाप न होते, कर्म्म न होता काया।
हम नहिं होते, तुम नहिं होते, कौन कहाँ ते आया।

चंद न होता, सूर न होता, पानी पवन मिलाया।
शास्त्र न होता, वेद न होता, करम कहाँ ते आया

पांडे तुम्हरी गायत्री लोधो का खेत खाती थी।
लै करि ठेंगा टँगरी तारी लंगत लंगत आती थी
पांडे तुम्हरा महादेव धौल बलद चढ़ा आवत देखा था।
पांडे तुम्हारा रामचंद सो भी आवत देखा था
रावन सेंती सरबर होई, घर की जोय गँवाई थी।
हिंदू अंधा तुरुकौ काना, दुहौ ते ज्ञानी सयाना

हिंदू पूजै देहरा, मुसलमान मसीद।
नामा सोई सेविया जहँ देहरा न मसीद
सगुणोपासक भक्त भगवान के सगुण और निर्गुण दोनों रूप मानता है, पर भक्ति के लिए सगुण रूप ही स्वीकार करता है, निर्गुण रूप ज्ञानमार्गियों के लिए छोड़ देता है। सब सगुणमार्गी भक्त भगवान के व्यक्त रूप के साथ-साथ उनके अव्यक्त और निर्विशेष रूप का भी निर्देश करते आए हैं जो बोधगम्य नहीं। वे अव्यक्त की ओर संकेत भर करते हैं, उसके विवरण में प्रवृत्त नहीं होते। नामदेव क्यों प्रवृत्त हुए, यह ऊपर दिखाया जा चुका है। जबकि उन्होंने एक गुरु से ज्ञानोपदेश लिया तब शिष्यधर्मानुसार उसकी उद्ध रणी आवश्यक हुई। 
नामदेव की रचनाओं में यह बात साफ दिखाई पड़ती है कि सगुण भक्ति पदों की भाषा तो ब्रज या परंपरागत काव्य भाषा है, पर 'निर्गुण बानी' की भाषा नाथपंथियों द्वारा ग्रहीत खड़ी बोली या सधुक्कड़ी भाषा।
नामदेव की रचना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि 'निर्गुणपंथ' के लिए मार्ग निकालनेवाले नाथपंथ के योगी और भक्त नामदेव थे। जहाँ तक पता चलता है, 'निर्गुण मार्ग' के निर्दिष्ट प्रवर्तक कबीरदास ही थे जिन्होंने एक ओर तो स्वामी रामानंद जी के शिष्य होकर भारतीय अद्वैतवाद की कुछ स्थूल बातें ग्रहण कीं और दूसरी ओर योगियों और सूफी फकीरों के संस्कार प्राप्त किए। वैष्णवों से उन्होंने अहिंसावाद और प्रपत्तिवाद लिए। इसी से उनके तथा 'निर्गुणवाद' वाले और दूसरे संतों के वचनों में कहीं भारतीय अद्वैतवाद की झलक मिलती है तो कहीं योगियों के नाड़ीचक्र की, कहीं सूफियों के प्रेमतत्व की, कहीं पैगंबरी कट्टर खुदावाद की और कहीं अहिंसावाद की। अत: तात्विक दृष्टि से न तो हम इन्हें पूरे अद्वैतवादी कह सकते हैं और न एकेश्वरवादी। दोनों का मिलाजुला भाव इनकी बानी में मिलता है। इनका लक्ष्य एक ऐसी सामान्य भक्ति पद्ध ति का प्रचार था जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों योग दे सकें और भेदभाव का कुछ परिहार हो। बहुदेवोपासना, अवतार और मूर्तिपूजा का खंडन ये मुसलमानी जोश के साथ करते थे और मुसलमानों की कुरबानी (हिंसा), नमाज, रोजा आदि की असारता दिखाते हुए ब्रह्म, माया, जीव, अनहद नाद, सृष्टि, प्रलय आदि की चर्चा पूरे हिंदू ब्रह्मज्ञानी बनकर करते थे। सारांश यह कि ईश्वरपूजा की उन भिन्न भिन्न बाह्य विधियों पर से ध्यान हटाकर, जिनके कारण धर्म में भेदभाव फैला हुआ था, ये शुद्ध ईश्वर प्रेम और सात्विक जीवन का प्रचार करना चाहते थे।
इस प्रकार देश में सगुण और निर्गुण के नाम से भक्तिकाव्य की दो धाराएँ विक्रम की पंद्रहवीं शताब्दी के अंतिम भाग से लेकर सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक समानांतर चलती रहीं। भक्ति के उत्थान काल के भीतर हिन्दी भाषा की कुछ विस्तृत रचना पहले पहल कबीर ही की मिलती है। अत: पहले निर्गुण मत के संतों का उल्लेख उचित ठहरता है। यह निर्गुण धारा दो शाखाओं में विभक्त हुई एक तो ज्ञानाश्रयी शाखा और दूसरी शुद्ध प्रेममार्गी शाखा (सूफियों की)।
पहली शाखा भारतीय ब्रह्मज्ञान और योगसाधना को लेकर तथा उसमें सूफियों के प्रेमतत्व को मिलाकर उपासना के क्षेत्र में अग्रसर हुई और सगुण के खंडन में उसी जोश के साथ तत्पर रही जिस जोश के साथ पैगंबरी मत बहुदेवोपासना और मूर्तिपूजा आदि के खंडन में रहते हैं। इस शाखा की रचनाएँ साहित्यिक नहीं हैं फुटकल दोहों या पदों के रूप में हैं जिनकी भाषा और शैली अधिकतर अव्यवस्थित और ऊटपटाँग है। कबीर आदि दो एक प्रतिभासंपन्न संतों को छोड़ औरों में ज्ञानमार्ग की सुनी सुनाई बातों का पिष्टपेषण तथा हठयोग की बातों के कुछ रूपक भद्दी तुकबंदियों में हैं। भक्तिरस में मग्न करने वाली सरसता भी बहुत कम पाई जाती है। बात यह है कि इस पंथ का प्रभाव शिष्ट और शिक्षित जनता पर नहीं पड़ा, क्योंकि उसके लिए न तो इस पंथ में कोई नई बात थी, न नया आकर्षण। संस्कृत बुद्धि , संस्कृत हृदय और संस्कृत वाणी का वह विकास इस शाखा में नहीं पाया जाता जो शिक्षित समाज को अपनी ओर आकर्षित करता। पर अशिक्षित और निम्न श्रेणी की जनता पर इन संत महात्माओं का बड़ा भारी उपकार है। उच्च विषयों का कुछ आभास देकर, आचरण की शुद्ध ता पर जोर देकर, आडंबरों का तिरस्कार करके, आत्मगौरव का भाव उत्पन्न करके, इन्होंने इसे ऊपर उठाने का स्तुत्य प्रयत्न किया। पाश्चात्यों ने इन्हें जो 'धर्मसुधारक' की उपाधि दी है, वह इसी बात को ध्यान में रखकर।
दूसरी शाखा शुद्ध प्रेममार्गी सूफी कवियों की है जिनकी प्रेमगाथाएँ वास्तव में साहित्य कोटि के भीतर आती हैं। इस शाखा के सब कवियों ने कल्पित कहानियों के द्वारा प्रेममार्ग का महत्व दिखाया है। इन साधक कवियों ने लौकिक प्रेम के बहाने उस 'प्रेमतत्व' का आभास दिया है जो प्रियतम ईश्वर से मिलाने वाला है। इन प्रेम कहानियों का विषय तो वही साधारण होता है अर्थात् किसी राजकुमार का किसी राजकुमारी के अलौकिक सौंदर्य की बात सुनकर उसके प्रेम में पागल होना और घर बार छोड़कर निकल पड़ना तथा अनेक कष्ट और आपत्तियाँ झेलकर अन्त में उस राजकुमारी को प्राप्त करना। पर 'प्रेम की पीर' की जो व्यंजना होती है, वह ऐसे विश्वव्यापक रूप में होती है कि वह प्रेम इस लोक से परे दिखाई पड़ता है।
हमारा अनुमान है कि सूफी कवियों ने जो कहानियाँ ली हैं वे सब हिंदुओं के घरों में बहुत दिनों से चली आती हुई कहानियाँ हैं जिनमें आवश्यकतानुसार उन्होंने हेरफेर किया है। कहानियों का मार्मिक आधार हिंदू हैं। मनुष्य के साथ पशु पक्षी और पेड़-पौधों को भी सहानुभूति सूत्र में बद्ध दिखाकर एक अखंड जीवनसमष्टि का आभास देना हिंदू प्रेम कहानियों की विशेषता है। मनुष्य के घोर दुख पर वन के वृक्ष भी रोते हैं, पक्षी भी सँदेसे पहुँचाते हैं। यह बात इन कहानियों में भी मिलती है।
शिक्षितों और विद्वानों की काव्य परंपरा में यद्यपि अधिकतर आश्रयदाता राजाओं के चरितों और पौराणिक या ऐतिहासिक आख्यानों की ही प्रवृत्ति थी, पर साथ ही कल्पित कहानियों का भी चलन था, इसका पता लगता है। दिल्ली के बादशाह सिकन्दरशाह (संवत् 1546-1574) के समय में कवि ईश्वरदास ने 'सत्यवती कथा' नाम की एक कहानी दोहे, चौपाइयों में लिखी थी जिसका आरंभ तो व्यास जनमेजय के संवाद से पौराणिक ढंग पर होता है, पर जो अधिकतर कल्पित, स्वच्छंद और मार्मिक मार्ग पर चलनेवाली है। वनवास के समय पांडवों को मार्कंडेय ऋषि मिले जिन्होंने यह कथा सुनाई
मथुरा के राजा चंद्रउदय को कोई संतति न थी। शिव की तपस्या करने पर उनके वर से राजा को सत्यवती नाम की एक कन्या हुई। वह जब कुमारी हुई तब नित्य एक सुंदर सरोवर में स्नान करके शिव का पूजन किया करती। इंद्रपति नामक एक राजा के ऋतुवर्ण आदि चार पुत्र थे। एक दिन ऋतुवर्ण शिकार खेलते खेलते घोर जंगल में भटक गया। एक स्थान पर उसे कल्पवृक्ष दिखाई पड़ा जिसकी शाखाएँ तीस कोस तक फैली थीं। उसपर चढ़ कर चारों ओर दृष्टि दौड़ाने पर उसे एक सुंदर सरोवर दिखाई पड़ा जिसमें कई कुमारियाँ स्नान कर रही थीं। वह जब उतर कर वहाँ गया तो सत्यवती को देख मोहित हो गया। कन्या का मन भी उसे देख कुछ डोल गया। ऋतुवर्ण जब उसकी ओर एकटक ताकता रह गया तब सत्यवती को क्रोध आ गया और उसने यह कह कर कि
एक चित्त हमैं चितवै जस जोगी चित जोग।
धरम न जानसि पापी, कहसि कौन तैं लोग
शाप दिया कि 'तू कोढ़ी और व्याधिग्रस्त हो जा।' ऋतुवर्ण वैसा ही हो गया और पीड़ा से फूट-फूट कर रोने लगाए
रोवै व्याधी बहुत पुकारी। छोहन ब्रिछ रोवैं सब झारी
बाघ सिंह रोवत बन माहीं। रोवत पंछी बहुत ओनाहीं
यह व्यापक विलाप सुनकर सत्यवती उस कोढ़ी के पास जाती है; पर वह उसे यह कहकर हटा देता है कि 'तुम जाओ, अपना हँसो खेलो'। सत्यवती का पिता राजा एक दिन जब उधर से निकला तब कोढ़ी के शरीर से उठी दुर्गंध से व्याकुल हो गया। घर आकर उस दुर्गंध की शांति के लिए राजा ने बहुत दान-पुण्य किया। जब राजा भोजन करने बैठा तब उसकी कन्या वहाँ न थी। राजा कन्या के बिना भोजन ही न करता था। कन्या को बुलाने जब राजा के दूत गए तब वह शिव की पूजा छोड़कर न आई। इस पर राजा ने क्रुद्ध होकर दूतों से कहा कि सत्यवती को ले जाकर उसी कोढ़ी को सौंप दो। दूतों का वचन सुनकर कन्या नीम की टहनी लेकर उस कोढ़ी की सेवा के लिए चल पड़ी और उससे कहा
तोहि छाँड़ि अब मैं कित जाऊँ। माइ बाप सौंपा तुव ठाऊँ
कन्या प्रेम से उसकी सेवा करने लगी और एक दिन उसे कंधो पर बिठाकर सत्यवती तीर्थस्थान कराने ले गई, जहाँ बहुत से देवता, मुनि, किन्नर आदि निवास करते थे। वहाँ जाकर सत्यवती ने कहा, 'यदि मैं सच्ची सती हूँ तो रात हो जाय।' इस पर चारों ओर घोर अंधकार छा गया। सब देवता तुरंत सत्यवती के पास दौड़े आए। सत्यवती ने उनसे ऋतुवर्ण को सुंदर शरीर प्राप्त करने का वर माँगा। व्याधिग्रस्त ऋतुवर्ण ने तीर्थ में स्नान किया और उसका शरीर निर्मल हो गया। देवताओं ने वहीं दोनों का विवाह करा दिया।
ईश्वरदास ने ग्रंथ के रचनाकाल का उल्लेख इस प्रकार किया है
भादौं मास पाष उजियारा। तिथि नौमी औ मंगलवारा
नषत अस्विनी, मेष क चंदा। पंच जना सो सदा अनंदा
जोगिनीपुर दिल्ली बड़ थाना। साह सिकंदर बड़ सुल्ताना
कंठे बैठ सरसुती विद्या गनपति दीन्ह।
ता दिन कथा आरंभ यह इसरदास कवि कीन्ह
पुस्तक में पाँच पाँच चौपाइयों (अर्धालियों) पर एक दोहा है। इस प्रकार 58 दोहे पर यह समाप्त हो गई है। भाषा अयोध्या के आसपास की ठीक ठेठ अवधी है। 'बाटै' (= है) का प्रयोग जगह जगह है। यही अवधी भाषा, चौपाई, दोहे का क्रम और कहानी का रूप रंग सूफी कवियों ने ग्रहण किया। आख्यान काव्यों के लिए चौपाई, दोहे की परंपरा बहुत पुराने (विक्रम की ग्यारहवीं शती के) जैन चरित काव्यों में मिलती है, इसका उल्लेख पहले हो चुका है।6
सूफियों के प्रेमप्रबंधों में खंडन मंडन की बुद्धि को किनारे रखकर, मनुष्य के हृदय को स्पर्श करने का ही प्रयत्न किया गया है जिससे इनका प्रभाव हिंदुओं और मुसलमानों पर समान रूप से पड़ता है। बीच बीच में रहस्यमय परोक्ष की ओर जो मधुर संकेत मिलते हैं, वे बड़े हृदयग्राही होते हैं। कबीर में जो रहस्यवाद मिलता है वह बहुत कुछ उन पारिभाषिक संज्ञाओं के आधार पर है जो वेदांत और हठयोग में निर्दिष्ट हैं। पर इन प्रेम प्रबंधकारों ने जिस रहस्यवाद का आभास बीच बीच में दिया है, उसके संकेत स्वाभाविक और मर्मस्पर्शी हैं। शुद्ध प्रेममार्गी सूफी कवियों की शाखा में सबसे प्रसिद्ध जायसी हुए, जिनकी 'पद्मावत' हिन्दी काव्यक्षेत्र में एक अद्भुत रत्न है। इस संप्रदाय के सब कवियों ने पूरबी हिन्दी अर्थात् अवधी का व्यवहार किया है जिसमें गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपना रामचरितमानस लिखा है।
अपना भावात्मक रहस्यवाद लेकर सूफी जब भारत में आए तब यहाँ उन्हें केवल साधनात्मक रहस्यवाद योगियों, रसायनियों और तांत्रिकों में मिला। रसेश्वरदर्शन का उल्लेख 'सर्वदर्शनसंग्रह' में है। जायसी आदि सूफी कवियों ने हठयोग और रसायन की कुछ बातों को भी कहीं कहीं अपनी कहानियों में स्थान दिया है।
जैसा ऊपर कहा जा चुका है, भक्ति के उत्थानकाल के भीतर हिन्दी भाषा में कुछ विस्तृत रचना पहले पहल कबीर की ही मिलती है, अत: पहले निर्गुण संप्रदाय की 'ज्ञानाश्रयी शाखा' का संक्षिप्त विवरण आगे दिया जाता है जिसमें सर्वप्रथम कबीरदास जी सामने आते हैं।
संदर्भ
1. देखो, पृ. 17-23
2. वही
3. देखो पृ. 22
4. वही पृ. 22-23
5. वही
6. देखो, पृ. 16-17

प्रकरण 2


निर्गुण धारा
ज्ञानाश्रयी शाखा

कबीर इनकी उत्पत्ति के संबंध में अनेक प्रकार के प्रवाद प्रचलित हैं। कहते हैं, काशी में स्वामी रामानंद का एक भक्त ब्राह्मण था जिसकी विधवा कन्या को स्वामी जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद भूल से दे दिया। फल यह हुआ कि उसे एक बालक उत्पन्न हुआ जिसे वह लहरतारा के ताल के पास फेंक आई। अली या नीरू नाम का जुलाहा उस बालक को अपने घर उठा लाया और पालने लगा। यही बालक आगे चलकर कबीरदास हुआ। कबीर का जन्मकाल जेठ सुदी पूर्णिमा, सोमवार विक्रम संवत् 1456 माना जाता है। कहते हैं कि आरंभ से ही कबीर में हिंदू भाव से भक्ति करने की प्रवृत्ति लक्षित होती थी जिसे उनके पालनेवाले माता पिता न दबा सके। वे 'राम-राम' जपा करते थे और कभी-कभी माथे पर तिलक भी लगा लेते थे। इससे सिद्ध होता है कि उस समय में स्वामी रामानंद का प्रभाव खूब बढ़ रहा था और छोटे बड़े, ऊँच नीच, सब तृप्त हो रहे थे। अत: कबीर पर भी भक्ति का यह संस्कार बाल्यावस्था से ही यदि पड़ने लगा हो तो कोई आश्चर्य नहीं। रामानंद जी के माहात्म्य को सुनकर कबीर के हृदय में शिष्य होने की लालसा जगी होगी। ऐसा प्रसिद्ध है कि एक दिन वे एक पहर रात रहते ही उस (पंचगंगा) घाट की सीढ़ियों पर जा पड़े जहाँ से रामानंद जी स्नान करने के लिए उतरा करते थे। स्नान को जाते समय अंधेरे में रामानंद जी का पैर कबीर के ऊपर पड़ गया। रामानंद जी बोल उठे, 'राम राम कह'। कबीर ने इसी को गुरुमंत्र मान लिया और वे अपने को गुरु रामानंद जी का शिष्य कहने लगे। वे साधुओं का सत्संग भी रखते थे और जुलाहे का काम भी करते थे।
कबीरपंथ में मुसलमान भी हैं। उनका कहना है कि कबीर ने प्रसिद्ध सूफी मुसलमान फकीर शेख तकी से दीक्षा ली थी। वे उस सूफी फकीर को ही कबीर का गुरु मानते हैं।1 आरंभ से ही कबीर हिंदू भाव की उपासना की ओर आकर्षित हो रहे थे। अत: उन दिनों जबकि रामानंद जी की बड़ी धूम थी, अवश्य वे उनके सत्संग में भी सम्मिलित होते रहे होंगे। जैसा आगे कहा जायगा, रामानुज की शिष्य परंपरा में होते हुए भी रामानंद जी भक्ति का एक अलग उदार मार्ग निकाल रहे थे जिसमें जाति पाँति का भेद और खानपान का आचार दूर कर दिया गया था। अत: इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर को 'राम नाम' रामानंद जी से ही प्राप्त हुआ। पर आगे चलकर कबीर के 'राम' रामानंद के 'राम' से भिन्न हो गए। अत: कबीर को वैष्णव संप्रदाय के अंतर्गत नहीं ले सकते। कबीर ने दूर दूर तक देशाटन किया, हठयोगियों तथा सूफी मुसलमान फकीरों का भी सत्संग किया। अत: उनकी प्रवृत्ति निर्गुण उपासना की ओर दृढ़ हुई। अद्वैतवाद के स्थूल रूप का कुछ परिज्ञान उन्हें रामानंद जी के सत्संग से पहले ही था। फल यह हुआ कि कबीर के राम धनुर्धर साकार राम नहीं रह गए; वे ब्रह्म के पर्याय हुए
दसरथ सुत तिहुँ लोक बखाना।
राम नाम का मरम है आना
सारांश यह कि जो ब्रह्म हिंदुओं की विचारपद्ध ति में ज्ञान मार्ग का एक निरूपण था उसी को कबीर ने सूफियों के ढर्रे पर उपासना का ही विषय नहीं, प्रेम का भी विषय बनाया और उसकी प्राप्ति के लिए हठयोगियों की साधना का समर्थन किया। इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया। उनकी बानी में ये सब अवयव स्पष्ट लक्षित होते हैं। 
यद्यपि कबीर की बानी 'निर्गुण बानी' कहलाती है, पर उपासना क्षेत्र में ब्रह्म निर्गुण नहीं बना रह सकता। सेव्य-सेवक भाव में स्वामी में कृपा, क्षमा, औदार्य आदि गुणों का आरोप हो ही जाता है। इसीलिए कबीर के वचनों में कहीं तो निरुपाधि निर्गुण ब्रह्म सत्ता का संकेत मिलता है, जैसे
पंडित मिथ्या करहु बिचारा। ना वह सृष्टि, न सिरजनहारा
जोति सरूप काल नहिं उहँवाँ, बचन न आहि सरीरा 
थूल अथूल पवन नहिं पावक, रवि ससि धारनि न नीरा
और कहीं सर्ववाद की झलक मिलती है, जैसे
आपुहि देवा आपुहि पाती। आपुहि कुल आपुहि है जाती
और कहीं सोपाधि ईश्वर की, जैसे
साईं के सब जीव हैं कीरी कुंजर दोय।
सारांश यह कि कबीर में ज्ञानमार्ग की जहाँ तक बातें हैं वे सब हिंदू शास्त्रों की हैं जिनका संचय उन्होंने रामानंद जी के उपदेशों से किया। माया, जीव, ब्रह्म, तत्वमसि, आठ मैथुन (अष्टमैथुन), त्रिकुटी, छह रिपु इत्यादि शब्दों का परिचय उन्हें अध्ययन द्वारा नहीं, सत्संग द्वारा ही हुआ, क्योंकि वे, जैसा कि प्रसिद्ध है, कुछ पढ़े लिखे न थे। उपनिषद् की ब्रह्मविद्या के संबंध में वे कहते हैं
तत्वमसी इनके उपदेसा। ई उपनीषद कहैं संदेसा
जागबलिक औ जनक संबादा। दत्तात्रेय वहै रस स्वादा 
यहीं तक नहीं, वेदांतियों के कनक कुंडल न्याय आदि का व्यवहार भी इनके वचनों में मिलता है
गहना एक कनक तें गहना, इन महँ भाव न दूजा।
कहन सुनन को दुइ करि थापिन, इक निमाज, इक पूजा
इसी प्रकार उन्होंने हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद के कुछ सांकेतिक शब्दों (जैसे चंद, सूर, नाद, बिंदु, अमृत, औंधा कुऑं) को लेकर अद्भुत रूपक बाँधे हैं जो सामान्य जनता, की बुद्धि पर पूरा आतंक जमाते हैं; जैसे
सूर समाना चंद में दहूँ किया घर एक। मन का चिंता तब भया कछू पुरबिला लेख
आकासे मुखि औंधा कुऑं पाताले पनिहारि।
ताका पाणी को हंसा पीवै बिरला आदि बिचारि
वैष्णव संप्रदाय से उन्होंने अहिंसा का तत्व ग्रहण किया जो कि पीछे होने वाले सूफी फकीरों को भी मान्य हुआ। हिंसा के लिए वे मुसलमानों को बराबर फटकारते रहे
दिन भर रोजा रहत हैं, राति हनत हैं गाय।
यह तो खून वह बंदगी, कैसे खुसी खुदाय
अपनी देखि करत नहिं अहमक, कहत हमारे बड़न किया।
उसका खून तुम्हारी गरदन, जिन तुमको उपदेश दिया
बकरी पाती खाति है ताको काढ़ी खाल।
जो नर बकरी खात हैं तिनका कौन हवाल
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ज्ञानमार्ग की बातें कबीर ने हिंदू साधु संन्यासियों से ग्रहण की जिनमें सूफियों के सत्संग से उन्होंने 'प्रेमतत्व' का मिश्रण किया और अपना एक अलग पंथ चलाया। उपासना के बाह्य स्वरूप पर आग्रह करने वाले और कर्मकांड को प्रधानता देने वाले पंडितों और मुल्लों दोनों को उन्होंने खरी खरी सुनाई और राम-रहीम की एकता समझा कर हृदय को शुद्ध और प्रेममय करने का उपदेश दिया। देशाचार और उपासना विधि के कारण मनुष्य मनुष्य में जो भेदभाव उत्पन्न हो जाता है उसे दूर करने का प्रयास उनकी वाणी बराबर करती रही। यद्यपि वे पढ़े लिखे न थे पर उनकी प्रतिभा बड़ी प्रखर थी जिससे उनके मुँह से बड़ी चुटीली और व्यंग्य चमत्कारपूर्ण बातें निकलती थीं। इनकी उक्तियों में विरोध और असंभव का चमत्कार लोगों को बहुत आकर्षित करता था, जैसे
है कोई गुरुज्ञानी जगत महँ उलटि बेद बूझै।
पानी महँ पावक बरै, अंधाहि ऑंखिन्ह सूझै
गाय तो नाहर को धारि खायो, हरिना खायो चीता।
अथवा
नैया बिच नदिया डूबति जाय।
अनेक प्रकार के रूपकों और अन्योक्तियों द्वारा ही इन्होंने ज्ञान की बातें कही हैं जो नई न होने पर भी वाग्वैचित्रय के कारण अपढ़ लोगों को चकित किया करती थीं। अनूठी अन्योक्तियों द्वारा ईश्वर प्रेम की व्यंजना सूफियों में बहुत प्रचलित थी। जिस प्रकार कुछ वैष्णवों में 'माधुर्य' भाव से उपासना प्रचलित हुई थी उसी प्रकार सूफियों में भी ब्रह्म को सर्वव्यापी प्रियतम या माशूक मानकर हृदय से उद्गार प्रदर्शित करने की प्रथा थी। इसको कबीरदास ने ग्रहण किया। कबीर की बानी में स्थान स्थान पर भावात्मक रहस्यवाद की जो झलक मिलती है, वह सूफियों के सत्संग का प्रसाद है। कहीं इन्होंने ब्रह्म को खसम या पति मानकर अन्योक्ति बाँधी है और कहीं स्वामी या मालिक, 
जैसे
मुझको तूँ क्या ढूँढ़ै बंदे मैं तो तेरे पास में।
अथवा
साईं के संग सासुर आई।
संग न सूती, स्वाद न जाना, गा जीवन सपने की नाई
जना चारि मिलि लगन सुधायो, जना पाँच मिलि माड़ो छायो।
भयो विवाह चली बिनु दूलह, बाट जात समधी समझाई
कबीर अपने श्रोताओं पर यह अच्छी तरह भासित करना चाहते थे कि हमने ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है, इसी से वे प्रभाव डालने के लिए बड़ी लंबी चौड़ी गर्वोक्तियाँ भी कभी कभी कहते थे। कबीर ने मगहर में जाकर शरीर त्याग किया जहाँ इनकी समाधि अब तक बनी है। इनका मृत्युकाल संवत् 1575 में माना जाता है, जिसके अनुसार इनकी आयु 120 वर्ष की ठहरती है। कहते हैं कि कबीर की वाणी का संग्रह उनके शिष्य धर्मदास ने संवत् 1521 में किया था जबकि उनके गुरु की अवस्था 64 वर्ष की थी। कबीर की वचनावली की सबसे प्राचीन प्रति, जिसका अब पता लगा है, संवत् 1561 की लिखी है।
कबीर की वाणी का संग्रह 'बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है, जिसके तीन भाग किए गए हैं रमैनी, सबद और साखी। इसमें वेदांत तत्व, हिंदू मुसलमानों को फटकार, संसार की अनित्यता, हृदय की शुद्धि , प्रेमसाधना की कठिनता, माया की प्रबलता, मूर्तिपूजा, तीर्थाटन आदि की असारता, हज, नमाज, व्रत, आराधन की गौणता इत्यादि अनेक प्रसंग हैं। सांप्रदायिक शिक्षा और सिध्दांत के उपदेश मुख्यत: 'साखी' के भीतर हैं जो दोहों में हैं। इसकी भाषा सधुक्कड़ी अर्थात् राजस्थानी, पंजाबी मिली खड़ी बोली है, पर 'रमैनी' और 'सबद' में गाने के पद हैं जिनमें काव्य की ब्रजभाषा और कहीं कहीं पूरबी बोली का भी व्यवहार है। खुसरो के गीतों की भाषा भी हम ब्रज दिखा आए हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि गीतों के लिए काव्य की ब्रजभाषा ही स्वीकृत थी। कबीर का यह पद देखिए
हौं बलि कब देखौंगी तोहि।
अहनिस आतुर दरसन कारनि ऐसी ब्यापी मोहि।
नैन हमारे तुम्हको चाहैं, रती न मानै हारि
विरह अगिनि तन अधिक जरावै, ऐसी लेहु बिचारि।
सुनहु हमारी दादि गोसाईं, अब जनि करहु अधीर
तुम धीरज, मैं आतुर, स्वामी, काँचे भाँडे नीर।
बहुत दिनन के बिछुरे माधौ, मन नहिं बाँधौं धीर
देह छता तुम मिलहु कृपा करि आरतिवंत कबीर।
सूर के पदों की भी यही भाषा है।
भाषा बहुत परिष्कृत और परिमार्जित न होने पर भी कबीर की उक्तियों में कहीं कहीं विलक्षण प्रभाव और चमत्कार है। प्रतिभा उनमें बड़ी प्रखर थी इसमें संदेह नहीं।
रैदास या रविदास रामानंद जी के बारह शिष्यों में रैदास भी माने जाते हैं जो जाति के चमार थे। इन्होंने कई पदों में अपने को चमार कहा भी है, जैसे
1. कह रैदास खलास चमारा।
2. ऐसी मेरी जाति विख्यात चमार।
ऐसा जान पड़ता है कि ये कबीर के बहुत पीछे स्वामी रामानंद के शिष्य हुए क्योंकि अपने एक पद में इन्होंने कबीर और सेन नाई दोनों के तरने का उल्लेख किया है
नामदेव कबीर तिलोचन सधाना सेन तरै।
कह रविदास, सुनहु रे संतहु! हरि जिउ तें सबहि सरै
कबीरदास के समान रैदास भी काशी के रहनेवाले कहे जाते हैं। इनके एक पद से भी यही पाया जाता है
जाके कुटुंब सब ढोर ढोवंत
फिरहिं अजहुँ बानारसी आसपासा।
आचार सहित बिप्र करहिं डंडउति
तिन तनै रविदास दासानुदासा
और रैदास का नाम धन्ना मीराबाई ने बड़े आदर के साथ लिया है। 
रैदास की भक्ति भी निर्गुण ढाँचे की जान पड़ती है। कहीं तो वे अपने भगवान को सब में व्यापक देखते हैं
थावर जंगम कीट पतंगा पूरि रह्यो हरिराई।
और कहीं कबीर की तरह परात्पर की ओर संकेत करके कहते हैं
गुन निर्गुन कहियत नहिं जाके।
रैदास का अपना अलग प्रभाव पछाँह की ओर जान पड़ता है। 'साधो' का एक संप्रदाय, जो फर्रुखाबाद और थोड़ा बहुत मिर्जापुर में भी पाया जाता है, रैदास की ही परंपरा में कहा जा सकता है, क्योंकि उसकी स्थापना (संवत् 1600) करने वाले बीरभान उदयदास के शिष्य थे और उदयदास रैदास के शिष्यों में माने जाते हैं। 
रैदास का कोई ग्रंथ नहीं मिलता, फुटकल पद ही 'बानी' के नाम से, 'संतबानी सीरीज' में संग्रहीत हैं। चालीस पद तो 'आदिगुरुग्रंथसाहब' में दिए गए हैं। कुछ पद नीचे उध्दृत किए जाते हैं
दूध त बछरै थनह बिडारेउ। फुलु भँवर, जलु मीन बिगारेउ
माई, गोविंद पूजा कहा लै चढ़ावउँ। अवरु त फूल अनूपु न पावउँ
मलयागिरिवै रहै हैं भुअंगा। विषु अमृत बसहीं इक संगा
तन मन अरपउँ, पूजा चढ़ावउँ। गुरु परसादि निरंजन पावउँ
पूजा अरचा आहि न तोरी। कह रविदास कवनि गति मोरी
अखिल खिलै नहिं, का कह पंडित, कोई न कहै समुझाई।
अबरन बरन रूप नहिं जाके, कहँ लौ लाइ समाई।
चंद सूर नहिं, राति दिवस नहिं, धारनि अकास न भाई
करम अकरम नहिं, शुभ अशुभ नहिं, का कहि देहुँ बड़ाई

जब हम होते तब तू नाहीं, अब तू ही, मैं नाहीं।
अतल अगम जैसे लहरि मइ उदधि, जल केवल जलमाहीं

माधव क्या कहिए प्रभु ऐसा, जैसा मानिए होइ न तैसा।
नरपति एक सिंहासन सोइया, सपने भया भिखारी
अछत राज बिछुरत दुखु पाइया, सो गति भई हमारी।
धर्मदास ये बांधवगढ़ के रहनेवाले और जाति के बनिये थे। बाल्यावस्था से ही इनके हृदय में भक्ति का अंकुर था और ये साधुओं का सत्संग, दर्शन, पूजा, तीर्थाटन आदि किया करते थे। मथुरा से लौटते समय कबीरदास के साथ इनका साक्षात्कार हुआ। उन दिनों संत समाज में कबीर की पूरी प्रसिद्धि हो चुकी थी। कबीर के मुख से मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, देवार्चन आदि का खंडन सुनकर इनका झुकाव 'निर्गुण' संतमत की ओर हुआ। अंत में ये कबीर से सत्य नाम की दीक्षा लेकर उनके प्रधान शिष्यों में हो गए और संवत् 1575 में कबीरदास के परलोकवास पर उनकी गद्दी इन्हीं को मिली। कहते हैं कबीरदास के शिष्य होने पर इन्होंने अपनी सारी संपत्ति, जो बहुत अधिक थी, लुटा दी। ये कबीरदास की गद्दी पर 20 वर्ष तक लगभग रहे और अत्यंत वृद्ध होकर इन्होंने शरीर छोड़ा। इनकी शब्दावली का भी संतों में बड़ा आदर है। इनकी रचना थोड़ी होने पर भी कबीर की अपेक्षा अधिक सरल भाव लिए हुए है, उसमें कठोरता और कर्कशता नहीं है। इन्होंने पूरबी भाषा का ही व्यवहार किया है। इनकी अन्योक्तियों के व्यंजक चित्र अधिक मार्मिक हैं क्योंकि इन्होंने खंडन मंडन से विशेष प्रयोजन न रख प्रेमतत्व को लेकर अपनी वाणी का प्रसार किया है। उदाहरण के लिए कुछ पद नीचे दिए जाते हैं
झरि लागै महलिया गगन घहराय।
खन गरजै, खन बिजली चमकै, लहरि उठै शोभा बरनि न जाय।
सुन्न महल से अमृत बरसै, प्रेम अनंद ह्नै साधु नहाय
खुली केवरिया, मिटी अन्धियरिया, धानि सतगुरु जिन दिया लखाय।
धरमदास बिनवै कर जोरी, सतगुरु चरन में रहत समाय

मितऊ मड़ैया सूनी करि गैलो
अपना बलम परदेस निकरि गैलो, हमरा के किछुवौ न गुन दै गैलो।
जोगिन होइके मैं वन वन ढूँढ़ौ, हमरा के बिरह बैराग दै गैलो
सँग की सखी सब पार उतरि गइलीं, हम धानि ठाढ़ि अकेली रहि गैलो।
धरमदास यह अरजु करतु है, सार सबद सुमिरन दै गैलो
गुरुनानक गुरुनानक का जन्म संवत् 1526 कार्तिकी पूर्णिमा के दिन तिलवंडी ग्राम-जिला लाहौर में हुआ। इनके पिता कालूचंद खत्री जिला लाहौर, तहसील शरकपुर के तिलवंडी नगर के सूबा बुलार पठान के कारिंदा थे। इनकी माता का नाम तृप्ता था। नानकजी बाल्यावस्था से ही अत्यंत साधु स्वभाव के थे। संवत् 1545 में इनका विवाह गुरुदासपुर के मूलचंद खत्री की कन्या सुलक्षणी से हुआ। सुलक्षणी से इनके दो पुत्र श्रीचंद और लक्ष्मीचंद हुए। श्रीचंद आगे चलकर उदासी संप्रदाय के प्रवर्तक हुए।
पिता ने इन्हें व्यवसाय में लगाने का बहुत उद्योग किया, पर ये सांसारिक व्यवहारों में दत्तचित्त न हुए। एक बार इनके पिता ने व्यवसाय के लिए कुछ धान दिया जिसको इन्होंने साधुओं और गरीबों को बाँट दिया। पंजाब में मुसलमान बहुत दिनों से बसे थे जिससे वहाँ उनके कट्टर एकेश्वरवाद का संस्कार धीरे-धीरे प्रबल हो रहा था। लोग बहुत से देवी देवताओं की उपासना की अपेक्षा एक ईश्वर की उपासना को महत्व और सभ्यता का चिद्द समझने लगे थे। शास्त्रों के पठन पाठन का क्रम मुसलमानों के प्रभाव से प्राय: उठ गया था जिससे धर्म और उपासना के गूढ़ तत्व को समझने की शक्ति नहीं रह गई थी। अत: जहाँ बहुत से लोग जबरदस्ती मुसलमान बनाए जाते थे वहाँ कुछ लोग शौक से भी मुसलमान बनते थे। ऐसी दशा में कबीर द्वारा प्रवर्तित 'निर्गुण संतमत' एक बड़ा भारी सहारा समझ पड़ा। 
गुरुनानक आरंभ से ही भक्त थे अत: उनका ऐसे मत की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक था, जिसकी उपासना का स्वरूप हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को समान रूप से ग्राह्य हो। उन्होंने घर बार छोड़ बहुत दूर दूर के देशों में भ्रमण किया जिससे उपासना का सामान्य स्वरूप स्थिर करने में उन्हें बड़ी सहायता मिली। अंत में कबीरदास की निर्गुण उपासना का प्रचार उन्होंने पंजाब में आरंभ किया और वे सिख संप्रदाय के आदिगुरु हुए। कबीरदास के समान वे भी कुछ विशेष पढ़े लिखे न थे। भक्तिभाव से पूर्ण होकर वे जो भजन गाया करते थे उनका संग्रह (संवत् 1661) ग्रंथसाहब में किया गया है। ये भजन कुछ तो पंजाबी भाषा में हैं और कुछ देश की सामान्य काव्यभाषा हिन्दी में हैं। यह हिन्दी कहीं तो देश की काव्यभाषा या ब्रजभाषा है, कहीं खड़ी बोली जिसमें इधर उधर पंजाबी के रूप भी आ गए हैं, जैसे चल्या, रह्या। भक्त या विनय के सीधे सादे भाव सीधी सादी भाषा में कहे गए हैं, कबीर के समान अशिक्षितों पर प्रभाव डालने के लिए टेढ़े मेढ़े रूपकों में नहीं। इससे इनकी प्रकृति की सरलता और अहंभावशून्यता का परिचय मिलता है। इनका देहांत संवत् 1596 में हुआ। संसार की अनित्यता, भगवद्भक्ति और संत स्वभाव के संबंध में उदाहरणस्वरूप दो पद दिए जाते हैं
इस दम दा मैनूँ कीबे भरोसा, आया आया, न आया न आया।
यह संसार रैन दा सुपना, कहीं देखा, कहीं नाहि दिखाया।
सोच विचार करे मत मन मैं, जिसने ढूँढा उसने पाया।
नानक भक्तन दे पद परसे निसदिन राम चरन चित लाया

जो नर दुख में दुख नहिं मानै।
सुख सनेह अरु भय नहिं जाके, कंचन माटी जानै
नहिं निंदा नहिं अस्तुति जाके, लोभ मोह अभिमाना।
हरष सोक तें रहै नियारो, नाहि मान अपमाना
आसा मनसा सकल त्यागि कै जग तें रहै निरास।
काम, क्रोध जेहि परसे नाहि न तेहिं घट ब्रह्म निवासा
गुरु किरपा जेहि नर पै कीन्हीं तिन्ह यह जुगुति पिछानी।
नानक लीन भयो गोबिंद सो ज्यों पानी सँग पानी
दादूदयाल यद्यपि सिध्दान्त दृष्टि से दादू कबीर के मार्ग के ही अनुयायी हैं पर उन्होंने अपना एक अलग पंथ चलाया जो 'दादूपंथ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दादूपंथी लोग इनका जन्म संवत् 1601 में गुजरात के अहमदाबाद नामक स्थान में मानते हैं। इनकी जाति के संबंध में भी मतभेद है। कुछ लोग इन्हें गुजराती ब्राह्मण मानते हैं और कुछ लोग मोची या धुनिया मानते हैं। कबीर साहब की उत्पत्ति कथा से मिलती जुलती दादूदयाल की उत्पत्ति कथा भी दादूपंथी लोग कहते हैं। उनके अनुसार दादू बच्चे के रूप में साबरमती नदी में बहते हुए लोदीराम नामक एक नागर ब्राह्मण को मिले थे। चाहे जो हो, अधिकतर ये नीची जाति के ही माने जाते हैं। दादूदयाल का गुरु कौन था, यह ज्ञात नहीं। पर कबीर का इनकी बानी में बहुत जगह नाम आया है और इसमें कोई संदेह नहीं कि ये उन्हीं के मतानुयायी थे।
दादूदयाल 14 वर्ष तक आमेर में रहे। वहाँ से मारवाड़, बीकानेर आदि स्थानों में घूमते हुए संवत् 1659 में नराना में (जयपुर से 20 कोस दूर) आकर रह गए। वहाँ से 3-4 कोस पर भराने की पहाड़ी है। वहाँ भी ये अन्तिम समय में कुछ दिनों तक रहे और वहीं संवत् 1660 में शरीर छोड़ा। वह स्थान दादूपंथियों का प्रधान अड्डा है और वहाँ दादूजी के कपड़े और पोथियाँ अब तक रखी हैं और निर्गुणपंथियों के समान दादूपंथी लोग भी अपने को निरंजन निराकार का उपासक बताते हैं। ये लोग न तिलक लगाते हैं, न कंठी पहनते हैं, साथ में एक सुमिरनी रखते हैं और 'सत्ताराम' कहकर अभिवादन करते हैं।
दादू की बानी अधिकतर कबीर की साखी से मिलते जुलते दोहों में है, कहीं कहीं गाने के पद भी हैं। भाषा मिलीजुली पश्चिमी हिन्दी है जिसमें राजस्थानी का मेल भी है। इन्होंने कुछ पद गुजराती, राजस्थानी और पंजाबी में भी कहे हैं। कबीर के समान पूरबी हिन्दी का व्यवहार इन्होंने नहीं किया है। इनकी रचना में अरबी फारसी के शब्द अधिक आए हैं और प्रेमतत्व की व्यंजना अधिक है। घट के भीतर के रहस्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति इनमें बहुत कम है। दादू की बानी में यद्यपि उक्तियों का वह चमत्कार नहीं है जो कबीर की बानी में मिलता है, पर प्रेमभाव का निरूपण अधिक सरस और गम्भीर है। कबीर के समान खंडन और वाद विवाद से इन्हें रुचि नहीं थी। इनकी बानी में भी वे ही प्रसंग हैं, जो निर्गुणमार्गियों की बानियों में साधारणत: आया करते हैं; जैसेईश्वर की व्यापकता, सतगुरु की महिमा, जाति पाँति का निराकरण, हिंदू मुसलमानों का अभेद, संसार की अनित्यता, आत्मबोध इत्यादि। इनकी रचना का कुछ अनुमान नीचे उध्दृत पद्यों से हो सकता है
घीव दूध में रमि रह्या व्यापक सब ही ठौर।
दादू बकता बहुत है मथि काढ़ै ते और
यह मसीत यह देहरा सतगुरु दिया दिखाइ।
भीतर सेवा बंदगी बाहिर काहे जाइ
दादू देख दयाल को सकल रहा भरपूर।
रोम रोम में रमि रह्या तू जनि जानै दूर
केते पारिख पचि मुए कीमति कही न जाइ।
दादू सब हैरान हैं गूँगे का गुड़ खाइ
जब मन लागे राम सों तब अनत काहे को जाइ।
दादू पाणी लूण ज्यों ऐसे रहै समाइ

भाई रे! ऐसा पंथ हमारा।
द्वै पख रहित पंथ गह पूरा अबरण एक अधारा।
वाद-विवाद काहु सौं नाहीं मैं हूँ जग थें न्यारा।
समदृष्टी सूँ भाई सहज में आपहिं आप बिचारा।
मैं, तैं, मेरी यह मति नाहीं निरबैरी निरबिकारा
काम कल्पना कदे न कीजै पूरन ब्रह्म पियारा।
एहि पथि पहुँचि पार गहि दादू सो तब सहज संभारा
सुंदरदास ये खंडेलवाल बनिए थे और चैत्र शुक्ल 9, संवत् 1653 में द्यौसा नामक स्थान (जयपुर राज्य) में उत्पन्न हुए थे। इनके पिता का नाम परमानंद और माता का नाम सती था। जब ये 6 वर्ष के थे तब दादूदयाल द्यौसा में गए थे। तभी से यह दादूदयाल के शिष्य हो गए और उनके साथ रहने लगे। संवत् 1660 में दादूदयाल का देहांत हुआ। तब तक ये नराना में रहे। फिर जगजीवन साधु के साथ अपने जन्मस्थान द्यौसा में आ गए। वहाँ संवत् 1663 तक रहकर फिर जगजीवन के साथ काशी चले आए। वहाँ 30 वर्ष की अवस्था तक ये संस्कृत व्याकरण, वेदान्त और पुराण आदि पढ़ते रहे। संस्कृत के अतिरिक्त ये फारसी भी जानते थे। काशी से लौटने पर ये राजपूताने के फतहपुर (शेखावाटी) नामक स्थान पर आ रहे। वहाँ के नवाब अलिफखाँ इन्हें बहुत मानते थे। इनका देहांत कार्तिक शुक्ल 8, संवत् 1746 को साँगानेर में हुआ।
इनका डीलडौल बहुत अच्छा, रंग गोरा और रूप बहुत सुंदर था। स्वभाव अत्यंत कोमल और मृदुल था। ये बालब्रह्मचारी थे और स्त्री की चर्चा से सदा दूर रहते थे। निर्गुण पंथियों में ये ही ऐसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्हें समुचित शिक्षा मिली थी और जो काव्यकला की रीति आदि से अच्छी तरह परिचित थे। अत: इनकी रचना साहित्यिक और सरस है। भाषा भी काव्य की मँजी हुई ब्रजभाषा है। भक्ति और ज्ञानचर्चा के अतिरिक्त नीति और देशाचार आदि पर भी इन्होंने बड़े सुंदर पद कहे हैं। और संतों ने केवल गाने के पद और दोहे कहे हैं, पर इन्होंने सिद्ध हस्त कवियों के समान बहुत से कवित्त, सवैये रचे हैं। यों तो छोटे मोटे इनके अनेक ग्रंथ हैं पर 'सुन्दरविलास' ही सबसे अधिक प्रसिद्ध है, जिसमें कवित्त, सवैये ही अधिक हैं। इन कवित्त सवैयों में यमक, अनुप्रास और अर्थालंकार आदि की योजना बराबर मिलती है। इनकी रचना काव्यपद्ध ति के अनुसार होने के कारण और संतों की रचना से भिन्न प्रकार की दिखाई पड़ती है। संत तो ये थे ही पर कवि भी थे। इससे समाज की रीति नीति और व्यवहार आदि पर भी इनकी बड़ी विनोदपूर्ण उक्तियाँ हैं, जैसे गुजरात पर 'आभड़ छोत अतीत सों होत बिलार और कूकर चाटत हाँडी', मारवाड़ पर 'वृच्छ न नीर न उत्तम चीर सुदेसन में गत देस है मारू', दक्षिण पर 'राँधत प्याज, बिगारत नाज, न आवत लाज, करै सब भच्छन'; पूरब देश पर 'ब्राह्मन, क्षत्रिय, वैसरु, सूदर चारोइ बर्न के मच्छ बघारत'।
इनकी रचना के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं
गेह तज्यो अरु नेह तज्यो पुनि खेह लगाइ कै देह सँवारी।
मेह सहे सिर, सीत सहे तन, धूप समै जो पंचागिनि बारी।
भूख सही रहि रूख तरे, पर सुंदरदास सबै दुख भारी।
डासन छाँड़िकै कासन ऊपर आसन मारयो, पै आस न मारी
व्यर्थ की तुकबंदी और ऊटपटाँग बानी इनको रुचिकर न थी। इसका पता इनके इस कवित्त से लगता है
बोलिए तौ तब जब बोलिबे की बुद्धि होय, 
ना तौ मुख मौन गहि चुप होय रहिए।
जोरिए तो तब जब जोरिबै की रीति जानै, 
तुक छंद अरथ अनूप जामे लहिए
गाइए तौ तब जब गाइबे को कंठ होय, 
श्रवन के सुनत ही मनै जाय गहिए।
तुकभंग, छंदभंग, अरथ मिलै न कछु,
सुंदर कहत ऐसी बानी नहिं कहिए
सुशिक्षा द्वारा विस्तृत दृष्टि प्राप्त होने से इन्होंने और निर्गुणवादियों के समान लोकधर्म की उपेक्षा नहीं की है। पातिव्रत्य का पालन करने वाली स्त्रियों, रणक्षेत्र में कठिन कर्तव्य का पालन करने वाले शूरवीरों आदि के प्रति इनके विशाल हृदय में सम्मान के लिए पूरी जगह थी। दो उदाहरण अलम् हैं
पति ही सूँ प्रेम होय, पति ही सूँ नेम होय, 
पति ही सूँ छेम होय, पति ही सूँ रत है।
पति ही जज्ञ जोग, पति ही है रस भोग,
पति ही सूँ मिटै सोग, पति ही को जत है
पति ही है ज्ञान ध्यान, पति ही है पुन्य दान, 
पति ही है तीर्थ न्हान, पति ही को मतहै।
पति बिनु पति नाहिं, पति बिनु गति नाहिं,
सुंदर सकल बिधि एक पतिव्रत है

सुनत नगारे चोट बिगसै कमलमुख,
अधिक उछाह फूल्यो मात है न तन में।
फैरै जब साँग तब कोउ नहीं धीर धारै,
कायर कँपायमान होत देखि मन में
कूदि कै पतंग जैसे परत पावक माहिं,
ऐसे टूटि परै बहु सावत के गन में।
मारि घमसान करि सुंदर जुहारै श्याम, 
सोई सूरबीर रुपि रहै जाय रन में
इसी प्रकार इन्होंने जो सृष्टि तत्व आदि विषय कहे हैं वे भी औरों के समान मनमाने और ऊटपटाँग नहीं हैं, शास्त्र के अनुकूल हैं। उदाहरण के लिए नीचे का पद लीजिए जिसमें ब्रह्म के आगे और सब क्रम सांख्य के अनुकूल है
ब्रह्म तें पुरुष अरु प्रकृति प्रगट भई, 
प्रकृति तें महत्तात्तव, पुनि अहंकार है।
अहंकार हू तें तीन गुण सत, रज, तम,
तमहू तें महाभूत बिषय पसार है
रजहू तें इंद्री दस पृथक पृथक भई, 
सत्ताहू तें मन, आदि देवता विचारहै।
ऐसे अनुक्रम करि शिष्य सूँ कहत गुरु,
सुंदर सकल यह मिथ्या भ्रमजार है
मलूकदास मलूकदास का जन्म लाला सुंदरदास खत्री के घर में वैशाख कृष्ण 5, संवत् 1631 में कड़ा, जिला इलाहाबाद में हुआ। इनकी मृत्यु 108 वर्ष की अवस्था में संवत् 1739 में हुई। ये औरंगजेब के समय में दिल के अंदर खोजने वाले निर्गुण मत के नामी संतों में हुए हैं और इनकी गद्दियाँ कड़ा, जयपुर, गुजरात, मुलतान, पटना, नेपाल और काबुल तक में कायम हुईं। इनके संबंध में बहुत से चमत्कार या करामातें प्रसिद्ध हैं। कहते हैं कि एक बार इन्होंने एक डूबते हुए शाही जहाज को पानी के ऊपर उठाकर बचा लिया था और रुपयों का तोड़ा गंगा जी में तैरा कर कड़े से इलाहाबाद भेजा था। आलसियों का यह मूल मंत्र
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम। 
दास मलूका कहि गए, सबके दाता राम
इन्हीं का है। इनकी दो पुस्तकें प्रसिद्ध हैं रत्नखान और ज्ञानबोध। हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को उपदेश देने में प्रवृत्त होने के कारण दूसरे निर्गुणमार्गी संतों के समान इनकी भाषा में भी फारसी और अरबी शब्दों का बहुत प्रयोग है। इसी दृष्टि से बोलचाल की खड़ी बोली का पुट इन सब संतों की बानी में एक सा पाया जाता है। इन सब लक्षणों के होते हुए भी इनकी भाषा सुव्यवस्थित और सुंदर है। कहीं-कहीं अच्छे कवियों का सा पदविन्यास और कवित्त आदि छंद भी पाए जाते हैं। कुछ पद्य बिल्कुल खड़ी बोली में हैं। आत्मबोध, वैराग्य, प्रेम आदि पर इनकी बानी बड़ी मनोहर है। दिग्दर्शन मात्र के लिए कुछ पद्य नीचे दिए जाते हैं
अब तो अजपा जपु मन मेरे।
सुर नर असुर टहलुआ जाके मुनि गंधर्व हैं जाके चेरे। 
दस औतारि देखि मत भूलौ ऐसे रूप घनेरे
अलख पुरुष के हाथ बिकाने जब तैं नैननि हेरे।
कह मलूक तू चेत अचेता काल न आवै नेरे
नाम हमारा खाक है, हम खाकी बंदे।
खाकहि से पैदा किए अति गाफिल गंदे
कबहुँ न करते बंदगी, दुनिया में भूले।
आसमान को ताकते, घोड़े चढ़ फूले
सबहिन के हम सबै हमारे । जीव जंतु मोहि लगैं पियारे
तीनों लोक हमारी माया । अंत कतहुँ से कोइ नहिं पाया
छत्तिस पवन हमारी जाति । हमहीं दिन औ हमहीं राति
हमहीं तरवरकीट पतंगा । हमहीं दुर्गा हमहीं गंगा
हमहीं मुल्ला हमहीं काजी । तीरथ बरत हमारी बाजी
हमहीं दसरथ हमहीं राम । हमरै क्रोध औ हमरै काम
हमहीं रावन हमहीं कंस । हमहीं मारा अपना बंस
अक्षर अनन्य संवत् 1710 में इनके वर्तमान रहने का पता लगता है। ये दतिया रियासत के अंतर्गत सेनुहरा के कायस्थ थे और कुछ दिनों तक दतिया के राजा पृथ्वीचंद के दीवान थे। पीछे ये विरक्त होकर पन्ना में रहने लगे। प्रसिद्ध छत्रसाल इनके शिष्य हुए। एक बार ये छत्रसाल से किसी बात पर अप्रसन्न होकर जंगल में चले गए। पता लगने पर जब महाराज छत्रसाल क्षमा-प्रार्थना के लिए इनके पास गए तब इन्हें एक झाड़ी के पास खूब पैर फैलाकर लेटे हुए पाया। महाराज ने पूछा, 'पाँव पसारा कब से?' चट से उत्तर मिला 'हाथ समेटा जब से'। ये विद्वान थे और वेदांत के अच्छे ज्ञाता थे। इन्होंने योग और वेदांत पर कई ग्रंथ राजयोग, विज्ञानयोग, ध्यानयोग, सिध्दांतबोध, विवेकदीपिका, ब्रह्मज्ञान, अनन्यप्रकाश आदि लिखे और दुर्गासप्तशती का भी हिन्दी पद्यों में अनुवाद किया। राजयोग के कुछ पद्य नीचे दिए जाते हैं
यह भेद सुनौ पृथिचंदराय । फल चारहु को साधन उपाय
यह लोक सधौ सुख पुत्र बाम । परलोक नसै बस नरक धाम
परलोक लोक दोउ सधौ जाय । सोइ राजजोग सिध्दांत आय
निज राजजोग ज्ञानी करंत । हठि मूढ़ धर्म साधात अनंत
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है निर्गुणमार्गी संत कवियों की परंपरा में थोड़े ही ऐसे हुए हैं, जिनकी रचना साहित्य के अंतर्गत आ सकती है। शिक्षितों का समावेश कम होने से इनकी बानी अधिकतर सांप्रदायिकों के ही काम की है, उसमें मानव जीवन की भावनाओं की वह विस्तृत व्यंजना नहीं है जो साधारण जनसमाज को आकर्षित कर सके। इस प्रकार के संतों की परंपरा यद्यपि बराबर चलती रही और नए-नए पंथ निकलते रहे पर देश के सामान्य साहित्य पर उनका कोई प्रभाव न रहा। दादूदयाल की शिष्य परंपरा में जगजीवनदास या जगजीवन साहब हुए जो संवत् 1818 के लगभग वर्तमान थे। ये चंदेल ठाकुर थे और कोटवा (बाराबंकी) के निवासी थे। इन्होंने अपना एक अलग 'सत्यनामी' संप्रदाय चलाया। इनकी बानी में साधारण ज्ञान चर्चा है। इनके शिष्य दूलमदास हुए जिन्होंने एक शब्दावली लिखी। उनके शिष्य तोंवरदास और पहलवानदास हुए। तुलसी साहब, गोविंद साहब, भीखा साहब, पलटू साहब आदि अनेक संत हुए हैं। प्रयाग के वेलवेडियर प्रेस ने इस प्रकार के बहुत से संतों की बानियाँ प्रकाशित की हैं।
निर्गुणपंथ के संतों के संबंध में यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि उनमें कोई दार्शनिक व्यवस्था दिखाने का प्रयत्न व्यर्थ है। उन पर द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि का आरोप करके वर्गीकरण करना दार्शनिक पद्ध ति की अनभिज्ञता प्रकट करेगा। उनमें जो थोड़ा बहुत भेद दिखाई पड़ेगा वह उन अवयवों की न्यूनता या अधिकता के कारण है जिनका मेल करके निर्गुण पंथ चला है। जैसे किसी में वेदांत के ज्ञान तत्व का अवयव अधिक मिलेगा, किसी में योगियों के साधना तत्व का, किसी में सूफियों के मधुर प्रेम तत्व का और किसी में व्यावहारिक ईश्वरभक्ति (कर्ता, पिता, प्रभु की भावना से युक्त) का। यह दिखाया जा चुका है कि निर्गुणपंथ में जो थोड़ा बहुत ज्ञानपक्ष है वह वेदांत से लिया हुआ है; जो प्रेमतत्व है, वह सूफियों का है, न कि वैष्णवों का।2 'अहिंसा' और 'प्रपत्ति' के अतिरिक्त वैष्णव तत्व का और कोई अंश उसमें नहीं है। उसके 'सूरति' और 'निरति' शब्द बौद्ध सिध्दों के हैं। बौद्ध धर्म के अष्टांग मार्ग के अंतिम मार्ग हैं सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि। 'सम्यक् स्मृति' वह दशा है जिसमें क्षण क्षण पर मिटने वाला ज्ञान स्थिर हो जाता है और उसकी श्रृंखला बँध जाती है। 'समाधि' में साधक सब संवेदनों से परे हो जाता है। अत: 'सुरति', 'निरति' शब्द योगियों की बानियों से आए हैं वैष्णवों से उनका कोई संबंध नहीं।
संदर्भ
1. ऊजी के पीर और शेख तकी चाहे कबीर के गुरु न रहे हों पर उन्होंने उनके सत्संग से बहुत सी बातें सीखीं इसमें कोई संदेह नहीं। कबीर ने शेख तकी का नाम लिया पर उस आदर के साथ नहीं जिस आदर के साथ गुरु का नाम लिया जाता है; जैसे 'घट घट है अविनासी सुनहु तकी तुम शेख' इस वचन में कबीर ही शेख तकी को उपदेश देते जान पड़ते हैं। कबीर ने मुसलमान फकीरों का सत्संग किया था, इसका उल्लेख उन्होंने किया है। वे झूँसी, जौनपुर, मानिकपुर आदि गए थे जो मुसलमान फकीरों के प्रसिद्ध स्थान थे।
मानिकपुरहि कबीर बसेरी। मदहति सुनी शेख तकि केरी
ऊजी सुनी जौनपुर थाना। झूँसी सुनि पीरन के नामा
पर सब की बातों का संचय करके भी अपने स्वभावानुसार वे किसी को ज्ञानी या बड़ा मानने को तैयार नहीं थे, सबको अपना ही वचन मानने को कहते थे
शेख अकरदीं सकरदीं तुम मानहु वचन हमार।
आदि अंत औ जुग देखहु दीठि पसारि
2. देखो, पृ. 61-62

प्रकरण 3
निर्गुणधारा
प्रेममार्गी (सूफी) शाखा

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इस काल के निर्गुणोपासक भक्तों की दूसरी शाखा उन सूफी कवियों की है जिन्होंने प्रेमगाथाओं के रूप में उस प्रेमतत्व का वर्णन किया है जो ईश्वर को मिलाने वाला है तथा जिसका आभास लौकिक प्रेम के रूप में मिलता है। इस संप्रदाय के साधु कवियों का अब वर्णन किया जाता है
कुतबन ये चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य थे और जौनपुर के बादशाह हुसैनशाह के आश्रित थे। अत: इनका समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दी का मध्यभाग (संवत् 1550) था। इन्होंने 'मृगावती' नाम की एक कहानी चौपाई दोहे के क्रम से सन् 909 हिजरी (संवत् 1558) में लिखी जिसमें चंद्रनगर के राजा गणपतिदेव के राजकुमार और कंचनपुर के राजा रूपमुरारि की कन्या मृगावती की प्रेमकथा का वर्णन है। इस कहानी के द्वारा कवि ने प्रेममार्ग के त्याग और कष्ट का निरूपण करके साधक के भगवत्प्रेम का स्वरूप दिखाया है। बीच बीच में सूफियों की शैली पर बड़े सुंदर रहस्यमय आध्यात्मिक आभास हैं।
कहानी का सारांश यह है चंद्रनगर के राजा गणपतिदेव का पुत्र कंचनपुर के राजा रूपमुरारि की मृगावती नाम की राजकुमारी पर मोहित हुआ। यह राजकुमारी उड़ने की विद्या जानती थी। अनेक कष्ट झेलने के उपरांत राजकुमार उसके पास तक पहुँचा। पर एक दिन मृगावती राजकुमार को धोखा देकर कहीं उड़ गई। राजकुमार उसकी खोज में योगी होकर निकल पड़ा। समुद्र से घिरी एक पहाड़ी पर पहुँचकर उसने रुक्मिनी नाम की एक सुंदरी को एक राक्षस से बचाया। उस सुंदरी के पिता ने राजकुमार के साथ उसका विवाह कर दिया। अंत में राजकुमार उस नगर में पहुँचा जहाँ अपने पिता की मृत्यु पर राजसिंहासन पर बैठकर मृगावती राज्य कर रही थी। वहाँ वह 12 वर्ष रहा। पता लगने पर राजकुमार के पिता ने घर बुलाने के लिए दूत भेजा। राजकुमार पिता का संदेशा पाकर मृगावती के साथ चल पड़ा और उसने मार्ग में रुक्मिनी को भी ले लिया। राजकुमार बहुत दिनों तक आनंदपूर्वक रहा, पर अंत में आखेट के समय हाथी से गिरकर मर गया। उसकी दोनों रानियाँ प्रिय के मिलने की उत्कंठा में बड़े आनंद के साथ सती हो गईं
रुकमिनि पुनि वैसहि मरि गई । कुलवंती सत सों सति भई
बाहर वह भीतर वह होई । घर बाहर को रहै न जोई
विधि कर चरित न जानै आनू । जो सिरजा सो जाहि निआनू
मंझन इनके संबंध में कुछ भी ज्ञात नहीं है। केवल इनकी रची हुई मधुमालती की एक खंडित प्रति मिली है जिससे इनकी कोमल कल्पना और स्निग्धस हृदयता का पता लगता है। मृगावती के समान मधुमालती में भी पाँच चौपाइयों (अर्धालियों) के उपरांत एक दोहे का क्रम रखा गया है। पर मृगावती की अपेक्षा इसकी कल्पना भी विशद है और वर्णन भी अधिक विस्तृत और हृदयग्राही है। आध्यात्मिक प्रेमभाव की व्यंजना के लिए प्रकृति के भी अधिक दृश्यों का समावेश मंझन ने किया है। कहानी भी कुछ अधिक जटिल और लंबी है जो अत्यंत संक्षेप में नीचे दी जाती है
कनेसर नगर के राजा सूरजभान के पुत्र मनोहर नामक एक सोए हुए राजकुमार को अप्सराएँ रातोंरात महारस नगर की राजकुमारी मधुमालती की चित्रसारी में रख आईं। वहाँ जागने पर दोनों का साक्षात्कार हुआ और दोनों एक दूसरे पर मोहित हो गए। पूछने पर मनोहर ने अपना परिचय दिया और कहा 'मेरा अनुराग तुम्हारे ऊपर कई जन्मों का है इससे जिस दिन मैं इस संसार में आया उसी दिन से तुम्हारा प्रेम मेरे हृदय में उत्पन्न हुआ।' बातचीत करते करते दोनों एक साथ सो गए और अप्सराएँ राजकुमार को उठाकर फिर उसके घर पर रख आईं। दोनों जब अपने अपने स्थान पर जगे तब प्रेम में बहुत व्याकुल हुए। राजकुमार वियोग से विकल होकर घर से निकल पड़ा और उसने समुद्र मार्ग से यात्रा की। मार्ग में तूफान आया जिसमें इष्ट मित्र इधर उधर बह गए। राजकुमार एक पटरे पर बहता हुआ एक जंगल में जा लगा, जहाँ एक स्थान पर एक सुंदर स्त्री पलँग पर लेटी दिखाई पड़ी। पूछने पर जान पड़ा कि वह चितबिसरामपुर के राजा चित्रसेन की कुमारी प्रेमा थी जिसे एक राक्षस उठा लाया था। मनोहर कुमार ने उस राक्षस को मारकर प्रेमा का उध्दार किया। प्रेमा ने मधुमालती का पता बता कर कहा कि मेरी वह सखी है। मैं उसे तुझसे मिला दूँगी। मनोहर को लिए हुए प्रेमा अपने पिता के नगर में आई। मनोहर के उपकार को सुनकर प्रेमा का पिता उसका विवाह मनोहर के साथ करना चाहता है। पर प्रेमा यह कहकर अस्वीकार करती है कि मनोहर मेरा भाई है और मैंने उसे उसकी प्रेमपात्री मधुमालती से मिलाने का वचन दिया है। 
दूसरे दिन मधुमालती अपनी माता रूपमंजरी के साथ प्रेमा के घर आई और प्रेमा ने उसके साथ मनोहर कुमार का मिलाप करा दिया। सबेरे रूपमंजरी ने चित्रसारी में जाकर मधुमालती को मनोहर के साथ पाया। जगने पर मनोहर ने तो अपने को दूसरे स्थान में पाया और रूपमंजरी अपनी कन्या को भला बुरा कहकर मनोहर का प्रेम छोड़ने को कहने लगी। जब उसने न माना तब माता ने शाप दिया कि तू पक्षी हो जा। जब वह पक्षी होकर उड़ गई तब माता बहुत पछताने और विलाप करने लगी, पर मधुमालती का कहीं पता न लगा। मधुमालती उड़ती उड़ती बहुत दूर निकल गई। कुँवर ताराचंद नाम के एक राजकुमार ने उस पक्षी की सुंदरता देख उसे पकड़ना चाहा। मधुमालती को ताराचंद का रूप मनोहर से कुछ मिलता जुलता दिखाई दिया इससे वह कुछ रुक गई और पकड़ ली गई। ताराचंद ने उसे एक सोने के पिंजरे में रखा। एक दिन पक्षी मधुमालती ने प्रेम की सारी कहानी ताराचंद से कह सुनाई जिसे सुनकर उसने प्रतिज्ञा की कि मैं तुझे तेरे प्रियतम मनोहर से अवश्य मिलाऊँगा। अंत में वह उस पिंजरे को लेकर महारस नगर में पहुँचा। मधुमालती की माता अपनी पुत्री को पाकर बहुत प्रसन्न हुई और उसने मंत्र पढ़कर उसके ऊपर जल छिड़का। वह फिर पक्षी से मनुष्य हो गई। मधुमालती के माता पिता ने ताराचंद के साथ मधुमालती का ब्याह करने का विचार प्रकट किया। पर ताराचंद ने कहा कि 'मधुमालती मेरी बहन है और मैंने उससे प्रतिज्ञा की है कि मैं जैसे होगा वैसे मनोहर से मिलाऊँगा।' मधुमालती की माता सारा हाल लिखकर प्रेमा के पास भेजती है। मधुमालती भी उसे अपने चित्त की दशा लिखती है। वह दोनों पत्रों को लिये हुए दु:ख कर रही थीं कि इतने में उसकी एक सखी आकर संवाद देती है कि राजकुमार मनोहर योगी के वेश में आ पहुँचा है। मधुमालती का पिता अपनी रानी सहित दलबल के साथ राजा चित्रसेन (प्रेमा के पिता) के नगर में जाता है और वहाँ मधुमालती और मनोहर का विवाह हो जाता है। मनोहर, मधुमालती और ताराचंद तीनों बहुत दिनों तक प्रेमा के यहाँ अतिथि रहते हैं। एक दिन आखेट से लौटने पर ताराचंद, प्रेमा और मधुमालती को एक साथ झूला झूलते देख प्रेमा पर मोहित होकर मूर्च्र्छित हो जाता है। मधुमालती और उसकी सखियाँ उपचार में लग जाती हैं।
इसके आगे प्रति खंडित है। पर कथा के झुकाव से अनुमान होता है कि प्रेमा और ताराचंद का भी विवाह हो गया होगा।
कवि ने नायक और नायिका के अतिरिक्त उपनायक और उपनायिका की भी योजना करके कथा को तो विस्तृत किया ही है, साथ ही प्रेमा और ताराचंद के चरित्र द्वारा सच्ची सहानुभूति, अपूर्व संयम और नि:स्वार्थ भाव का चित्र दिखाया है। जन्म जन्मांतर और योन्यंतर के बीच प्रेम की अखंडता दिखाकर मंझन ने प्रेमतत्व की व्यापकता और नित्यता का आभास दिखाया है। सूफियों के अनुसार यह सारा जगत् एक ऐसे रहस्यमय प्रेमसूत्र में बँधा है जिसका अवलंबन करके जीव उस प्रेममूर्ति तक पहुँचने का मार्ग पा सकता है। सूफी सब रूपों में उसकी छिपी ज्योति देखकर मुग्ध होते हैं, जैसा कि मंझन कहते हैं

देखत ही पहिचानेउ तोहीं। एही रूप जेहि छँदरयो मोही
एही रूप बुत अहै छपाना। एही रूप रब सृष्टि समाना
एही रूप सकती औ सीऊ। एही रूप त्रिाभुवन कर जीऊ
एही रूप प्रगटे बहु भेसा। एही रूप जग रंक नरेसा
ईश्वर का विरह सूफियों के यहाँ भक्त की प्रधान संपत्ति है जिसके बिना साधना के मार्ग में कोई प्रवृत्त नहीं हो सकता, किसी की ऑंख नहीं खुल सकती
बिरह अवधि अवगाह अपारा । कोटि माहिं एक परै त पारा
बिरह कि जगत अबिरथा जाही?। बिरह रूप यह सृष्टि सबाही
नैन बिरह अंजन जिन सारा । बिरह रूप दरपन संसारा
कोटि माहिं बिरला जग कोई । जाहि सरीर बिरह दुख होई
रतन की सागर सागरहिं, गजमोती गज कोइ।
चंदन कि बन बन ऊपजै, बिरह कि तन तन होइ?
जिसके हृदय में वह विरह होता है उसके लिए यह संसार स्वच्छ दर्पण हो जाता है और इसमें परमात्मा के आभास अनके रूपों में पड़ते हैं। तब वह देखता है कि इस सृष्टि के सारे रूप, सारे व्यापार उसी का विरह प्रकट कर रहे हैं। ये भाव प्रेममार्गी संप्रदाय के सब कवियों में पाए जाते हैं। मंझन की रचना का यद्यपि ठीक ठीक संवत् नहीं ज्ञात हो सका है पर यह निस्संदेह है कि रचना विक्रम संवत् 1550 और 1595 (पद्मावत का रचनाकाल) के बीच में और बहुत संभव है कि मृगावती के कुछ पीछे हुई। इस शैली के सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय ग्रंथ 'पद्मावत' में जायसी ने अपने पूर्व के बने हुए इस प्रकार के काव्यों का संक्षेप में उल्लेख किया है
विक्रम धँसा प्रेम के बारा । सपनावति कहँ गयउ पतारा
मधूपाछ मुगधावति लागी । गगनपूर होइगा बैरागी
राजकुँवर कंचनपुर गयऊ । मिरगावती कहँ जोगी भयऊ
साधो कुँवर ख्रडावत जोगू । मधुमालति कर कीन्ह बियोगू
प्रेमावति कह सुरबर साधा। उषा लागि अनिरुधा बर बाँधा
इन पद्यों में जायसी के पहले के चार काव्यों का उल्लेख है मुग्धावती, मृगावती, मधुमालती और प्रेमावती। इनमें से मृगावती और मधुमालती का पता चल गया है, शेष दो अभी नहीं मिले हैं। जिस क्रम से ये नाम आए हैं वह यदि रचनाकाल के क्रम के अनुसार माना जाय तो मधुमालती की रचना कुतबन की मृगावती के पीछे ठहरती है।
जायसी का जो उद्ध रण दिया गया है उसमें मधुमालती के साथ 'मनोहर' का नाम नहीं है, 'खंडावत' नाम है। 'पद्मावत' की हस्तलिखित प्रतियाँ प्राय: फारसी अक्षरों में ही मिलती हैं। मैंने चार ऐसी प्रतियाँ देखी हैं जिन सब में नायक का ऐसा नाम लिखा है जिसे खंडावत, कुंदावत, कंडावत, गंधावत इत्यादि ही पढ़ सकते हैं। केवल एक हस्तलिखित प्रति हिंदू विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में ऐसी है जिसमें साफ 'मनोहर' पाठ है। उसमान की 'चित्रावली' में मधुमालती का जो उल्लेख है उसमें भी कुँवर का नाम 'मनोहर' ही है
मधुमालति होइ रूप देखावा। प्रेम मनोहर होइ तहँ आवा
यही नाम 'मधुमालती' की उपलब्ध प्रतियों में भी पाया जाता है।
'पद्मावत' के पहले 'मधुमालती' की बहुत अधिक प्रसिद्धि थी। जैन कवि बनारसी दास ने अपने आत्मचरित में संवत् 1660 के आसपास की अपनी इश्कबाजी वाली जीवनचर्या का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उस समय मैं हाट बाजार में जाना छोड़, घर में पड़े पड़े 'मृगावती' और 'मधुमालती' नाम की पोथियाँ पढ़ा करता था
तब घर में बैठे रहैं, नाहिंन हाट बाजार।
मधुमालती, मृगावती पोथी दोय उचार
इसके उपरांत दक्षिण के शायर नसरती ने भी (संवत् 1700) 'मधुमालती' के आधार पर दक्खिनी उर्दू में 'गुलशने इश्क' नाम से एक प्रेम कहानी लिखी। 
कवित्त, सवैया बनाने वाले एक 'मंझन' पीछे हुए जिन्हें इनसे सर्वथा पृथक् समझना चाहिए।
मलिक मुहम्मद जायसी ये प्रसिद्ध सूफी फकीर शेख मोहिदी (मुहीउद्दीन) के शिष्य थे और जायस में रहते थे। इनकी एक छोटी सी पुस्तक 'आखिरी कलाम' के नाम से फारसी अक्षरों में छपी मिलती है। यह सन् 936 हिजरी में (सन् 1528 ईसवी के लगभग) बाबर के समय में लिखी गई थी। इसमें बाबर बादशाह की प्रशंसा है। इस पुस्तक में मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने जन्म के संबंध में लिखा है
भा अवतार मोर नौ सदी। तीस बरस ऊपर कवि बदी
इन पंक्तियों का ठीक तात्पर्य नहीं खुलता। जन्मकाल 900 हिजरी मानें तो दूसरी पंक्ति का यह अर्थ निकलेगा कि जन्म से 30 वर्ष पीछे जायसी कविता करने लगे और इस पुस्तक के कुछ पद्य उन्होंने बनाए।
जायसी का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है 'पद्मावत', जिसका निर्माणकाल कवि ने इस प्रकार दिया है
'सन नौ सै सत्ताइस अहा। कथा अरंभि बैन कवि कहा'
इसका अर्थ होता है कि पद्मावत की कथा के प्रारंभिक वचन (अरंभि बैन) कवि ने 927 हिजरी (सन् 1520 ई. के लगभग) में कहे थे। पर ग्रंथारंभ में कवि ने मसनवी की रूढ़ि के अनुसार 'शाहेवक्त' शेरशाह की प्रशंसा की है
सेरसाहि देहली सुलतानू । चारिउ खंड तपै जस भानू
ओही छाज छात औ पाटा । सब राजै भुइँ धारा लिलाटा
शेरशाह के शासन का आरंभ 947 हिजरी अर्थात् सन् 1540 ई. से हुआ था। इस दशा में यही संभव जान पड़ता है कि कवि ने कुछ थोड़े से पद्य तो सन् 1520 ई. में ही बनाए थे, पर ग्रंथ को 19 या 20 वर्ष पीछे शेरशाह के समय में पूरा किया। 'पद्मावत' का एक बँग्ला अनुवाद अराकान राज्य के वजीर मगन ठाकुर ने सन् 1650 ई. के आसपास आलोउजाला नामक एक कवि से कराया था। उसमें भी 'नव सै सत्ताइस' ही पाठ माना गया है
शेख महम्मद जति जखन रचिल ग्रंथ संख्या सप्तविंश नवशत
पद्मावत की हस्तलिखित प्रतियाँ अधिकतर फारसी अक्षरों में मिली हैं जिसमें 'सत्ताईस' और 'सैंतालीस' प्राय: एक ही तरह लिखे जायँगे। इससे कुछ लोगों का यह भी अनुमान है कि 'सैंतालीस' को लोगों ने भूल से सत्ताईस पढ़ लिया है। 
जायसी अपने समय के सिद्ध फकीरों में गिने जाते थे। अमेठी के राजघराने में इनका बहुत मान था। जीवन के अंतिम दिनों में जायसी अमेठी से दो मील दूर एक जंगल में रहा करते थे। वहीं इनकी मृत्यु हुई। काजी नसरुद्दीन हुसैन जायसी ने, जिन्हें अवध के नवाब शुजाउद्दौला से सनद मिली थी, अपनी याददाश्त में जायसी का मृत्युकाल 4 रजब 949 हिजरी लिखा है। यह काल कहाँ तक ठीक है, नहीं कहा जा सकता। 
ये काने और देखने में कुरूप थे। कहते हैं कि शेरशाह इनके रूप को देखकर हँसा था। इस पर यह बोले 'मोहिका हँसेसि कि कोहरहि?' इनके समय में ही इनके शिष्य फकीर इनके बनाए भावपूर्ण दोहे, चौपाइयाँ गाते फिरते थे। इन्होंने तीन पुस्तकें लिखीं एक तो प्रसिद्ध 'पद्मावत' दूसरी 'अखरावट' तीसरी 'आखिरी कलाम'। 'अखरावट' में वर्णमाला के एक एक अक्षर को लेकर सिध्दांत संबंधी तत्वों से भरी चौपाइयाँ कही गई हैं। इस छोटी सी पुस्तक में ईश्वर, सृष्टि, जीव, ईश्वर प्रेम आदि विषयों पर विचार प्रकट किए गए हैं। 'आखिरी कलाम' में कयामत का वर्णन है। जायसी की अक्षय कीर्ति का आधार है 'पद्मावत' जिसके पढ़ने से यह प्रकट हो जाता है कि जायसी का हृदय कैसा कोमल और 'प्रेम की पीर' से भरा हुआ था। क्या लोकपक्ष में, क्या अध्यात्म पक्ष में दोनों ओर उसकी गूढ़ता, गंभीरता और सरसता विलक्षण दिखाई देती है।
कबीर ने अपनी झाड़ फटकार के द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों के कट्टरपन को दूर करने का जो प्रयास किया वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं। मनुष्य मनुष्य के बीच जो रागात्मक संबंध है वह उसके द्वारा व्यक्त न हुआ। अपने नित्य के जीवन में जिस हृदयसाम्य का अनुभव मनुष्य कभी कभी किया करता है, उसकी अभिव्यंजना उससे न हुई। कुतबन, जायसी आदि इन प्रेम कहानी के कवियों ने प्रेम का शुद्ध मार्ग दिखाते हुए उन सामान्य जीवन दशाओं को सामने रखा जिनका मनुष्यमात्र के हृदय पर एक सा प्रभाव दिखाई पड़ता है। हिंदू हृदय और मुसलमान हृदय आमने सामने करके अजनबीपन मिटानेवालों में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा। इन्होंने मुसलमान होकर हिंदुओं की कहानियाँ हिंदुओं की ही बोली में पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्मस्पर्शी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामंजस्य दिखा दिया। कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया था। प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी। यह जायसी द्वारा पूरी हुई।
'पद्मावत' में प्रेमगाथा की परंपरा पूर्ण प्रौढ़ता को प्राप्त मिलती है। यह उस परंपरा में सबसे अधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसकी कहानी में भी विशेषता है। इसमें इतिहास और कल्पना का योग है। चित्तौर की महारानी पद्मिनी या पद्मावती का इतिहास हिंदू हृदय के मर्म को स्पर्श करने वाला है। जायसी ने यद्यपि इतिहास प्रसिद्ध नायक और नायिका ली है, पर उन्होंने अपनी कहानी का रूप वही रखा है जो कल्पना के उत्कर्ष द्वारा साधारण जनता के हृदय में प्रतिष्ठित था। इस रूप में इस कहानी का पूर्वार्ध्द तो बिल्कुल कल्पित है और उत्तरार्ध्द ऐतिहासिक आधार पर है। पद्मावती की कथा संक्षेप में इस प्रकार है
सिंहलद्वीप के राजा गंधर्वसेन की कन्या पद्मावती रूप और गुण में जगत् में अद्वितीय थी। उसके योग्य वर कहीं न मिलता था। उसके पास हीरामन नाम का एक सूआ था जिसका वर्ण सोने के समान था और जो पूरा वाचाल और पंडित था। एक दिन वह पद्मावती से उसके वर न मिलने के विषय में कुछ कह रहा था कि राजा ने सुन लिया और बहुत कोप किया। सूआ राजा के डर से एक दिन उड़ गया। पद्मावती ने सुनकर बहुत विलाप किया। 
सूआ वन में उड़ता उड़ता एक बहेलिया के हाथ में पड़ गया जिसने बाजार में लाकर उसे चित्तौर के एक ब्राह्मण के हाथ बेच दिया। उस ब्राह्मण को एक लाख देकर चित्तौर के राजा रतनसेन ने उसे ले लिया। धीरे धीरे रतनसेन उसे बहुत चाहने लगा। एक दिन जब राजा शिकार को गया तब उसकी रानी नागमती ने, जिसे अपने रूप का बड़ा गर्व था आकर सूए से पूछा कि 'संसार में मेरे समान सुंदरी भी कहीं है?' इस पर सूआ हँसा और उसने सिंहल की पद्मिनी का वर्णन करके कहा कि उसमें तुममें दिन और अंधेरी रात का अंतर है। रानी ने इस भय से कि कहीं यह सूआ राजा से भी पद्मिनी के रूप की प्रशंसा न करे, उसे मारने की आज्ञा दे दी। पर चेरी ने उसे राजा के भय से मारा नहीं, अपने घर छिपा रखा। लौटने पर जब सूए के बिना राजा रतनसेन बहुत व्याकुल और क्रुद्ध हुआ तब सूआ लाया गया और उसने सारी व्यथा कह सुनाई। पद्मिनी के रूप का वर्णन सुनकर राजा मूर्छित हो गया और अंत में वियोग से व्याकुल होकर उसकी खोज में घर से जोगी होकर निकल पड़ा। उसके आगे आगे राह दिखाने वाला वही हीरामन सूआ था और साथ में सोलह हजार कुँवर जोगियों के वेष में थे।
कलिंग से जोगियों का यह दल बहुत से जहाजों में सवार होकर सिंहल की ओर चला और अनेक कष्ट झेलने के उपरांत सिंहल पहुँचा। वहाँ पहुँचने पर राजा तो शिव के एक मंदिर में जोगियों के साथ बैठकर पद्मावती का ध्यान और जप करने लगा और हीरामन सूए ने जाकर पद्मावती से यह सब हाल कहा। राजा के प्रेम की सत्यता के प्रभाव से पद्मावती प्रेम में विकल हुई। श्रीपंचमी के दिन पद्मावती शिवपूजन के लिए उस मंदिर में गई, पर राजा उसके रूप को देखते ही मूर्छित हो गया, उसका दर्शन अच्छी तरह न कर सका। जागने पर राजा बहुत अधीर हुआ। इस पर पद्मावती ने कहला भेजा कि समय पर तो तुम चूक गए; अब तो इस दुर्गम सिंहलगढ़ पर चढ़ो तभी मुझे देख सकते हो। शिव से सिद्धि प्राप्त कर राजा रात को जोगियों सहित गढ़ में घुसने लगा, पर सबेरा हो गया और पकड़ा गया। राजा गंधर्वसेन की आज्ञा से रतनसेन को सूली देने ले जा रहे थे कि इतने में सोलह हजार जोगियों ने गढ़ को घेर लिया। महादेव, हनुमान आदि सारे देवता, जोगियों की सहायता के लिए आ गए। गंधर्वसेन की सारी सेना हार गई। अंत में जोगियों के बीच शिव को पहचान कर गंधर्वसेन उनके पैरों पर गिर पड़ा और बोला कि 'पद्मावती आपकी है जिसको चाहे दीजिए।' इस प्रकार रतनसेन के साथ पद्मावती का विवाह हो गया और दोनों चित्तौरगढ़ आ गये।
रतनसेन की सभा में राघवचेतन नामक एक पंडित था जिसे यक्षिणी सिद्ध थी। और पंडितों को नीचा दिखाने के लिए उसने एक दिन प्रतिपदा को द्वितीया कहकर यक्षिणी के बल से चंद्रमा दिखा दिया। जब राजा को यह कार्रवाई मालूम हुई तब उसने राघवचेतन को देश से निकाल दिया। राघव राजा से बदला लेने और भारी पुरस्कार की आशा से दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन के दरबार में पहुँचा और उसने दान में पाए हुए पद्मावती के कंगन को दिखाकर उसके रूप को संसार के ऊपर बताया। अलाउद्दीन ने पद्मिनी को भेज देने के लिए राजा रतनसेन को पत्र भेजा, जिसे पढ़कर राजा अत्यंत क्रुद्ध हुआ और लड़ाई की तैयारी करने लगा। कई वर्ष तक अलाउद्दीन चित्तौरगढ़ घेरे रहा, पर उसे तोड़ न सका। अंत में उसने छलपूर्वक संधि का प्रस्ताव भेजा। राजा ने उसे स्वीकार करके बादशाह की दावत की। राजा के साथ शतरंज खेलते समय अलाउद्दीन ने पद्मिनी के रूप की एक झलक सामने रखे हुए एक दर्पण में देख पाई, जिसे देखते ही वह मूर्छित होकर गिर पड़ा। प्रस्थान के दिन जब राजा बादशाह को बाहरी फाटक तक पहुँचाने गया तब अलाउद्दीन के छिपे हुए सैनिकों द्वारा पकड़ लिया गया और दिल्ली पहुँचाया गया।
पद्मिनी को जब यह समाचार मिला तब वह बहुत व्याकुल हुई; पर तुरंत एक वीर क्षत्राणी के समान अपने पति के उध्दार का उपाय सोचने लगी। गोरा, बादल नामक दो वीर क्षत्रिय सरदार 700 पालकियों में सशस्त्र सैनिक छिपाकर दिल्ली पहुँचे और बादशाह के पास यह संवाद भेजा कि पद्मिनी अपने पति से थोड़ी देर मिलकर तब आपके हरम में जायगी। आज्ञा मिलते ही एक ढँकी पालकी राजा की कोठरी के पास रख दी गई और उसमें से एक लोहार ने निकल कर राजा की बेड़ियाँ काट दीं। रतनसेन पहले से ही तैयार एक घोड़े पर सवार होकर निकल आए। शाही सेना पीछे आते देखकर वृद्ध गोरा तो कुछ सिपाहियों के साथ उस सेना को रोकता रहा और बादल रतनसेन को लेकर चित्तौर पहुँच गया। चित्तौर आने पर पद्मिनी ने रतनसेन से कुंभलनेर के राजा देवपाल द्वारा दूती भेजने की बात कही जिसे सुनते ही राजा रतनसेन ने कुंभलनेर को जा घेरा। लड़ाई में देवपाल और रतनसेन दोनों मारे गए।
रतनसेन का शव चित्तौर लाया गया। उसकी दोनों रानियाँ नागमती और पद्मावती हँसते-हँसते पति के शव के साथ चिता में बैठ गईं। पीछे जब सेना सहित अलाउद्दीन चित्तौर पहुँचा तब वहाँ राख के ढेर के सिवा कुछ न मिला।
जैसा कि कहा जा चुका है प्रेमगाथा की परंपरा में पद्मावत सबसे प्रौढ़ और सरस है। प्रेममार्गी सूफी कवियों की और कथाओं से इस कथा में यह विशेषता है कि इसके ब्योरों से भी साधना के मार्ग, उसकी कठिनाइयों और सिद्धि के स्वरूप आदि की जगह जगह व्यंजना होती है, जैसा कि कवि ने स्वयं ग्रंथ की समाप्ति पर कहा है
तन चितउर मन राजा कीन्हा । हिय सिंघल, बुधि पदमिनि चीन्हा
गुरु सुआ जेइ पंथ देखावा । बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा
नागमती यह दुनिया धांधा । बाँचा सोइ न एहि चित बंधा
राघव दूत सोई सैतानू । माया अलाउदीं सुलतानू
यद्यपि पद्मावत की रचना संस्कृत प्रबंधकाव्यों की सर्गबद्ध पद्ध ति पर नहीं है, फारसी की मसनवी शैली पर है, पर श्रृंगार, वीर आदि के वर्णन चली आती हुई भारतीय काव्यपरंपरा के अनुसार ही हैं। इसका पूर्वार्ध्द तो एकांत प्रेममार्ग का ही आभास देता है, पर उत्तरार्ध्द में लोकपक्ष का भी विधान है। पद्मिनी के रूप का जो वर्णन जायसी ने किया है वह पाठक को सौंदर्य की लोकोत्तर भावना में मग्न करने वाला है। अनेक प्रकार के अलंकारों की योजना उसमें पाई जाती है। कुछ पद्य देखिए
सरवर तीर पदमिनी आई । खोंपा छोरि केस मुकलाई
ससि मुख, अंग मलयगिरि बासा । नागिन झाँपि लीन्ह चहुँ पासा
ओनई घटा परी जग छाँहा । ससि कै सरन लीन्ह जनु राहा
भूलि चकोर दीठि मुख लावा । मेघ घटा महँ चंद देखावा
पद्मिनी के रूप वर्णन में जायसी ने कहीं कहीं उस अनंत सौंदर्य की ओर, जिसके विरह में यह सारी सृष्टि व्याकुल सी है, बड़े सुंदर संकेत किए हैं
बरुनी का बरनौं इमि बनी । साधो बान जानु दुइ अनी
उन बानन्ह अस को जो न मारा । बेधि रहा सगरौ संसारा
गगन नखत जो जाहिं न गने । वै सब बान ओहि कै हने
धारती बान बेधि सब राखी । साखी ठाढ़ देहिं सब साखी
रोवँ रोवँ मानुस तन ठाढ़े । सूतंह सूत बेधा अस गाढ़े
बरुनि बान अस ओपहँ, बेधो रन बन ढाँख
सौजहिं तन सब रोवाँ, पंखिहि तन सब पाँख
इसी प्रकार योगी रतनसेन के कठिन मार्ग के वर्णन में साधक के मार्ग के विघ्नों (काम, क्रोध आदि विकारों) की व्यंजना की है
ओहि मिलान जौ पहुँचे कोई । तब हम कहब पुरुष भल सोई
है आगे परबत कै बाटा । बिषम पहार अगम सुठि घाटा
बिच बिच नदी खोह औ नारा । ठाँवहि ठाँव बैठ बटपारा
उसमान ये जहाँगीर के समय में वर्तमान थे और गाजीपुर के रहनेवाले थे। इनके पिता का नाम शेख हुसैन था और ये पाँच भाई थे। और चारों भाइयों के नाम थे शेख अजीज, शेख मानुल्लाह, शेख फैजुल्लाह, शेख हसन। इन्होंने अपना उपनाम 'मान' लिखा है। ये शाह निजामुद्दीन चिश्ती की शिष्य परंपरा में हाजी बाबा के शिष्य थे। उसमान ने सन् 1022 हिजरी अर्थात् 1613 ईसवी में 'चित्रावली' नाम की पुस्तक लिखी। पुस्तक के आरंभ में कवि ने स्तुति के उपरांत पैगंबर और चार खलीफों की, बादशाह (जहाँगीर) की तथा शाह निजामुद्दीन और हाजी बाबा की प्रशंसा लिखी है। उसके आगे गाजीपुर नगर का वर्णन करके कवि ने अपना परिचय देते हुए लिखा है कि
आदि हुता विधि माथे लिखा । अच्छर चारि पढ़ै हम सिखा।
देखत जगत चला सब जाई । एक वचन पै अमर रहाई।
वचन समान सुधा जग नाहीं । जेहि पाए कवि अमर रहाहीं।
मोहूँ चाउ उठा पुनि हीए । होउँ अमर यह अमरित पीए
कवि ने 'योगी ढूँढ़न खंड' में काबुल, बदख्शाँ, खुरासन, रूस, साम, मिस्र, इस्तंबोल, गुजरात, सिंहलद्वीप आदि अनेक देशों का उल्लेख किया है। सबसे विलक्षण बात है जोगियों का अंग्रेजों के द्वीप में पहुँचना
बलंदीप देखा अंगरेजा । तहाँ जाइ जेहि कठिन करेजा
ऊँच नीच धान संपत्ति हेरा । मद बराह भोजन जिन्ह केरा
कवि ने इस रचना में जायसी का पूरा अनुकरण किया है। जो जो विषय जायसी ने अपनी पुस्तक में रखे हैं उन विषयों पर उसमान ने भी कुछ कहा है। कहीं कहीं तो शब्द और वाक्य विन्यास भी वही हैं। पर विशेषता यह है कि कहानी बिल्कुल कवि की कल्पित है, जैसा कि कवि ने स्वयं कहा है
कथा एक मैं हिए उपाई। कहत मीठ और सुनत सोहाई
कथा का सारांश यह है
नेपाल के राजा धरनीधर पँवार ने पुत्र के लिए कठिन व्रत पालन करके शिव पार्वती के प्रसाद से 'सुजान' नामक एक पुत्र प्राप्त किया। सुजानकुमार एक दिन शिकार में मार्ग भूल देव (प्रेत) की मढ़ी में जा सोया। देव ने आकर उसकी रक्षा स्वीकार की। एक दिन वह देव अपने एक साथी के साथ रूपनगर की राजकुमारी चित्रावली की वर्षगाँठ का उत्सव देखने के लिए गया और अपने साथ सुजानकुमार को भी लेता गया। और कोई उपयुक्त स्थान न देख देवों ने राजकुमार को राजकुमारी की चित्रसारी में ले जाकर रखा और आप उत्सव देखने लगे। कुमार राजकुमारी का चित्र टँगा देख उस पर आसक्त हो गया और अपना भी एक चित्र बनाकर उसी की बगल में टाँग कर सो रहा। देव लोग उसे उठा कर फिर उसी मढ़ी में रख आए। जागने पर कुमार को चित्रवाली घटना स्वप्न सी मालूम हुई, पर हाथ में रंग लगा देख उसके मन में घटना के सत्य होने का निश्चय हुआ और वह चित्रावली के प्रेम में विकल हो गया। इसी बीच में उसके पिता के आदमी आकर उसको राजधानी में ले गए। पर वहाँ वह अत्यंत खिन्न और व्याकुल रहता। अंत में अपने सहपाठी सुबुद्धि नामक एक ब्राह्मण के साथ वह फिर उसी मढ़ी में गया और वहाँ बड़ा भारी अन्नसत्र खोल दिया।
राजकुमारी चित्रावली भी उसका चित्र देख प्रेम में विह्नल हुई और उसने अपने नपुंसक भृत्यों को, जोगियों के वेष में राजकुमार का पता लगाने के लिए भेजा। इधर एक कुटीचर ने कुमारी की माँ हीरा से चुगली की और कुमार का वह चित्र धो डाला गया। कुमारी ने जब यह सुना तब उसने उस कुटीचर का सिर मुंड़ाकर उसे निकाल दिया। कुमारी के भेजे हुए जोगियों में से एक सुजान कुमार के उस अन्नसत्रा तक पहुँचा और राजकुमार को अपने साथ रूपनगर ले आया। वहाँ एक शिवमंदिर में उसका कुमारी के साथ साक्षात्कार हुआ। पर ठीक इसी अवसर पर कुटीचर ने राजकुमार को अंधा कर दिया और एक गुफा में डाल दिया जहाँ उसे एक अजगर निगल गया। पर उसके विरह की ज्वाला से घबराकर उसने उसे चट उगल दिया। वहीं पर एक वनमानुष ने उसे एक अंजन दिया जिससे उसकी दृष्टि फिर ज्यों की त्यों हो गई। वह जंगल में घूम रहा था कि उसे एक हाथी ने पकड़ा। पर उस हाथी को एक पक्षिराज ले उड़ा और उसने घबराकर कुमार को समुद्रतट पर गिरा दिया। वहाँ से घूमता फिरता कुमार सागरगढ़ नामक नगर में पहुँचा और राजकुमारी कँवलावती की फुलवारी में विश्राम करने लगा। राजकुमारी जब सखियों के साथ वहाँ आई तब उसे देख मोहित हो गई और उसने उसे अपने यहाँ भोजन के लिए बुलवाया। भोजन में अपना हार रखवाकर कुमारी ने चोरी के अपराध में उसे कैद कर लिया। इस बीच सोहिल नाम का कोई राजा कँवलावती के रूप की प्रशंसा सुन उसे प्राप्त करने के लिए चढ़ आया। सुजानकुमार ने उसे मार भगाया। अंत में सुजानकुमार ने कँवलावती से, चित्रावली के न मिलने तक समागम न करने की प्रतिज्ञा करके विवाह कर लिया। कँवलावती को लेकर कुमार गिरनार की यात्रा के लिए गया।
इधर चित्रावली के भेजे एक जोगी दूत ने गिरनार में उसे पहचाना और चट चित्रावली को जाकर संवाद दिया। चित्रावली का पत्र लेकर वह दूत फिर लौटा और सागरगढ़ में धुईं लगाकर बैठा। कुमारसुजान उस जोगी की सिद्धि सुन उसके पास आया और उसे जानकर उसके साथ रूपनगर गया। इसी बीच वहाँ पर सागरगढ़ के एक कथक ने चित्रावली के पिता की सभा में जाकर सोहिल राजा के युद्ध के गीत सुनाए; जिन्हें सुन राजा को चित्रावली के विवाह की चिंता हुई। राजा ने चार चित्रकारों को भिन्न भिन्न देशों के राजकुमारों के चित्र लाने को भेजा। इधर चित्रावली का भेजा हुआ वह जोगी दूत सुजानकुमार को एक जगह बैठाकर उसके आने का समाचार कुमारी को देने आ रहा था। एक दासी ने वह समाचार द्वेषवश रानी से कह दिया और वह दूत मार्ग ही में कैद कर लिया गया। दूत के न लौटने पर सुजानकुमार बहुत व्याकुल हुआ और चित्रावली का नाम ले लेकर पुकारने लगा। राजा ने उसे मारने के लिए मतवाला हाथी छोड़ा, पर उसने उसे मार डाला। इस पर राजा उस पर चढ़ाई करने जा रहा था कि इतने में भेजे हुए चार चित्रकारों में से एक चित्रकार सागरगढ़ से सोहिल के मारने वाले राजकुमार का चित्र लेकर आ पहुँचा। राजा ने जब देखा कि चित्रावली का प्रेमी वही सुजानकुमार है तब उसने अपनी कन्या चित्रावली के साथ उसका विवाह कर दिया।
कुछ दिनों में सागरगढ़ की कँवलावती ने विरह से व्याकुल होकर सुजानकुमार के पास हंस मिश्र को दूत बनाकर भेजा जिसने भ्रमर की अन्योक्ति द्वारा कुमार को कँवलावती के प्रेम का स्मरण कराया। इस पर सुजानकुमार ने चित्रावली को लेकर स्वदेश की ओर प्रस्थान किया और मार्ग में कँवलावती को भी साथ ले लिया। मार्ग में कवि ने समुद्र के तूफान का वर्णन किया है। अंत में राजकुमार अपने घर नेपाल पहुँचा और उसने वहाँ दोनों रानियों सहित बहुत दिनों तक राज्य किया।
जैसा कि कहा जा चुका है, उसमान ने जायसी का पूरा अनुकरण किया है। जायसी के पहले के कवियों ने पाँच पाँच चौपाइयों (अर्धालियों) के पीछे एक दोहा रखा है, पर जायसी ने सात चौपाइयों का क्रम रखा और यही क्रम उसमान ने भी रखा है। कहने की आवश्यकता नहीं, इस कहानी की रचना भी बहुत कुछ आध्यात्मिक दृष्टि से हुई है। कवि ने सुजानकुमार को एक साधक के रूप में चित्रित ही नहीं किया है, बल्कि पौराणिक शैली का अवलंबन करके उसने उसे परम योगी शिव के अंश से उत्पन्न तक कहा है। महादेव जी राजा धरनीधर पर प्रसन्न होकर वर देते हैं कि
देखु देत हौं आपन अंसा। अब तोरे होइहौं निज बंसा
कँवलावती और चित्रावली अविद्या और विद्या के रूप में कल्पित जान पड़ती हैं। सुजान का अर्थ ज्ञानवान है। साधनकाल में अविद्या को बिना दूर रखे विद्या (सत्यज्ञान) की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसी से सुजान ने चित्रावली के प्राप्त न होने तक कँवलावती के साथ समागम न करने की प्रतिज्ञा की थी। जायसी की ही पद्ध ति पर नगर, सरोवर, यात्रा, दानमहिमा आदि का वर्णन चित्रावली में भी है। सरोवर क्रीड़ा के वर्णन में एक दूसरे ढंग से कवि ने 'ईश्वर की प्राप्ति' की साधना की ओर संकेत किया है। चित्रावली सरोवर के गहरे जल में यह कह कर छिप जाती है कि मुझे जो ढूँढ़ ले उसकी जीत समझी जायगी। सखियाँ ढूँढ़ती हैं और नहीं पाती हैं
सरवर ढूँढ़ि सबै पचि रहीं । चित्रिनि खोज न पावा कहीं
निकसीं तीर भईं बैरागी । धारे ध्यान सुख बिनवै लागी
गुपुत तोहिं पावहि का जानी । परगट महँ जो रहै छपानी
चतुरानन पढ़ि चारौ बेदू । रहा खोजि पै पाव न भेदू
हम अंधी जेहि आप न सूझा । भेद तुम्हार कहाँ लौं बूझा
कौन सो ठाउँ जहाँ तुम नाहीं । हम चख जोति न देखहिं काहीं
पावै खोज तुम्हार सो, जेहि दिखरावहु पंथ।
कहा होइ जोगी भए, और बहु पढ़े गरंथ॥ 
विरहवर्णन के अंतर्गत षट्ऋतु का वर्णन सरस और मनोहर है
ऋतु बसंत नौतन बन फूला । जहँ जहँ भौंर कुसुम रँग भूला
आहि कहाँ सो भँवर हमारा । जेहि बिनु बसत बसंत उजारा
रात बरन पुनि देखि न जाई । मानहुँ दवा देहुँ दिसि लाई
रतिपति दुरद ऋतुपती बली । कानन देह आइ दलमली
शेख नबी ये जौनपुर जिले में दोसपुर के पास मऊ नामक स्थान के रहने वाले थे और संवत् 1676 में जहाँगीर के समय में वर्तमान थे। इन्होंने 'ज्ञानदीप' नामक एक आख्यान काव्य लिखा, जिसमें राजा ज्ञानदीप और रानी देवजानी की कथा है।
यहीं प्रेममार्गी सूफी कवियों की प्रचुरता की समाप्ति समझनी चाहिए। पर जैसा कहा जा चुका है, काव्यक्षेत्र में जब कोई परंपरा चल पड़ती है तब उसके प्रार्चुय काल के पीछे भी कुछ दिनों तक समय समय पर उस शैली की रचनाएँ थोड़ी बहुत होती रहती हैं, पर उनके बीच कालांतर भी अधिक रहता है और जनता पर उनका प्रभाव भी वैसा नहीं रह जाता। अत: शेख नबी से प्रेमगाथा परंपरा समाप्त समझना चाहिए। 'ज्ञानदीप' के उपरांत सूफियों की पद्ध ति पर जो कहानियाँ लिखी गईं उनका संक्षिप्त उल्लेख नीचे किया जाता है।
कासिमशाह ये दरियाबाद (बाराबंकी) के रहनेवाले थे और संवत् 1788 के लगभग वर्तमान थे। इन्होंने 'हंस जवाहिर' नाम की कहानी लिखी, जिसमें राजा हंस और रानी जवाहिर की कथा है।
फारसी अक्षरों में छपी (नामी प्रेस, लखनऊ) इस पुस्तक की एक प्रति हमारे पास है। उसमें कवि ने शाहेवक्त का इस प्रकार उल्लेख करके
मुहमदसाह दिल्ली सुलतानू । का मन गुन ओहि केर बखानू
छाजै पाट छत्रा सिर ताजू । नावहिं सीस जगत के राजू
रूपवंत दरसन मुँह राता । भागवंत ओहि कीन्ह बिधाता
दरबवंत धरम महँपूरा । ज्ञानवंत खड्ग महँ सूरा
अपना परिचय इन शब्दों में दिया है
दरियाबाद माँझ मम ठाऊँ । अमानउल्ला पिता कर नाऊँ
तहवाँ मोहिं जनम बिधि दीन्हा । कासिम नाँव जाति कर हीना
तेहूँ बीच विधि कीन्ह कमीना । ऊँच सभा बैठे चित दीना
ऊँच संग ऊँच मन भावा । तब भा ऊँच ज्ञान बुधि पावा
ऊँचा पंथ प्रेम का होई । तेहि महँ ऊँच भए सब कोई
कथा का सार कवि ने यह दिया है
कथा जो एक गुपुत महँ रहा । सो परगट उघारि मैं कहा
हंस जवाहिर बिधि औतारा । निरमल रूप सो दई सवारा
बलख नगर बुरहान सुलतानू । तेहि घर हंस भए जस भानू
आलमशाह चीनपति भारी । तेहि घर जनमी जवाहिर बारी
तेहि कारनवह भएउ वियोगी । गएउ सो छाँड़ि देस होइ जोगी
अंत जवाहिर हंस घर आनी । सो जग महँ यह गयउ बखानी
सो सुनि ज्ञान कथा मैं कीन्हा । लिखेउँ सो प्रेम रहै जग चीन्हा
इनकी रचना बहुत निम्न कोटि की है। इन्होंने जगह जगह जायसी की पदावली तक ली है, पर प्रौढ़ता नहीं है। 
नूर मुहम्मद ये दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के समय में थे और 'सबरहद' नामक स्थान के रहने वाले थे जो जौनपुर, आजमगढ़ की सरहद पर है। पीछे सबरहद से ये अपनी ससुराल भादों (जिला-आजमगढ़) चले गए। इनके श्वसुर शमसुद्दीन का और कोई वारिस न था इससे वे ससुराल ही में रहने लगे। नूर मुहम्मद के भाई मुहम्मद शाह सबरहद ही में रहे। नूर मुहम्मद के दो पुत्र हुए गुलाम हुसैन और नसीरुद्दीन। नसीरुद्दीन की वंश परंपरा में शेख फिदाहुसैन अभी वर्तमान हैं जो सबरहद और कभी कभी भादों में भी रहा करते हैं। अवस्था इनकी 80 वर्ष की है। 
नूर मुहम्मद फारसी के अच्छे आलिम थे और इनका हिन्दी काव्यभाषा का भी ज्ञान और सब सूफी कवियों से अधिक था। फारसी में इन्होंने एक दीवान के अतिरिक्त 'रौजतुल हकायक' इत्यादि बहुत सी किताबें लिखी थीं जो असावधानी के कारण नष्ट हो गईं। इन्होंने 1157 हिजरी (संवत् 1801) में 'इंद्रावती' नामक एक सुंदर आख्यान काव्य लिखा जिसमें कालिंजर के राजकुमार राजकुँवर और आगमपुर की राजकुमारी इंद्रावती की प्रेमकहानी है। कवि ने प्रथानुसार उस समय के शासक मुहम्मदशाह की प्रशंसा इस प्रकार की है
करौं मुहम्मदशाह बखानू । है सूरज देहली सुलतानू
धरमपंथ जग बीच चलावा । निबर न सबरे सों दुख पावा
बहुतै सलातीन जग केरे। आइ सहास बने हैं चेरे
सब काहू परदाया धारई । धरम सहित सुलतानी करई
कवि ने अपनी कहानी की भूमिका इस प्रकार बाँधी है
मन दृग सों इक राति मझारा । सूझि परा मोहिं सब संसारा
देखेउँ एक नीक फुलवारी । देखेउँ तहाँ पुरुष औ नारी
दोउ मुख सोभा बरनि न जाई । चंद सुरुज उतरे भुइँ आई
तपी एक देखेउतेहि ठाऊँ । पूछेउँ तासौं तिन्हकर नाऊँ
कहा अहै राजा औ रानी । इंद्रावति औ कुँवर गियानी
आगमपुर इंद्रावती, कुँवर कलिंजर रास
प्रेम हुँते दोउन्ह कहँ, दीन्हा अलख मिलाय
कवि ने जायसी के पहले के कवियों के अनुसार पाँच पाँच चौपाइयों के उपरांत दोहे का क्रम रखा है। इसी ग्रंथ को सूफी पद्ध ति का अंतिम ग्रंथ मानना चाहिए।
इनका एक और ग्रंथ फारसी अक्षरों में लिखा मिला है, जिसका नाम है 'अनुराग बाँसुरी'। यह पुस्तक कई दृष्टियों से विलक्षण है। पहली बात तो इसकी भाषा है जो सूफी रचनाओं से बहुत अधिक संस्कृत गर्भित है। दूसरी बात है हिन्दी भाषा के प्रति मुसलमानों का भाव। 'इंद्रावती' की रचना करने पर शायद नूर मुहम्मद को समय समय पर यह उपालंभ सुनने को मिलता था कि तुम मुसलमान होकर हिन्दी भाषा में रचना करने क्यों गए। इसी से 'अनुराग बाँसुरी' के आरंभ में उन्हें यह सफाई देने की जरूरत पड़ी
जानत है वह सिरजनहारा । जो किछु है मन मरम हमारा
हिंदू मग पर पाँव न राखेउँ । का जौ बहुतै हिन्दी भाखेउ
मन इस्लाम मिरिकलैं माँजेउँ । दीन जेंवरी करकस भाँजेउँ
जहँ रसूल अल्लाह पियारा । उम्मत को मुक्तावनहारा
तहाँ दूसरो कैसे भावै । जच्छ असुर सुर काज न आवै
इसका तात्पर्य यह कि संवत् 1800 तक आते आते मुसलमान हिन्दी से किनारा खींचने लगे थे। हिन्दी हिंदुओं के लिए छोड़कर अपने लिखने पढ़ने की भाषा वे विदेशी अर्थात् फारसी ही रखना चाहते थे। जिसे 'उर्दू' कहते हैं, उसका उस समय तक साहित्य में कोई स्थान न था, इसका स्पष्ट आभास नूर मुहम्मद के इस कथन से मिलता है
कामयाब कह कौन जगावा । फिर हिन्दी भाखै पर आवा
छाँड़ि पारसी कंद नवातैं । अरुझाना हिन्दी रस बातैं
'अनुराग बाँसुरी' का रचनाकाल 1178 हिजरी अर्थात् 1821 है। कवि ने इसकी रचना अधिक पांडित्यपूर्ण रखने का प्रयत्न किया है और विषय भी इसका तत्वज्ञान संबंधी है। शरीर, जीवात्मा और मनोवृत्तियों को लेकर पूरा अध्यवसित रूपक (एलेगरी) खड़ा करके कहानी बाँधी है। और सब सूफी कवियों की कहानियों के बीच में दूसरा पक्ष व्यंजित होता है पर यह सारी कहानी और सारे पात्र ही रूपक हैं। एक विशेषता और है। चौपाइयों के बीच बीच में इन्होंने दोहे न लिखकर बरवै रखे हैं। प्रयोग भी ऐसे संस्कृत शब्दों के हैं जो और सूफी कवियों में नहीं आए हैं। काव्यभाषा के अधिक निकट होने के कारण भाषा में कहीं कहीं ब्रजभाषा के शब्द और प्रयोग भी पाए जाते हैं। रचना का थोड़ा सा नमूना नीचे दिया जाता है
नगर एक मूरतिपुर नाऊँ । राजा जीव रहै तेहि ठाऊँ
का बरनौं वह नगर सुहावन । नगर सुहावन सब मन भावन
इहै सरीर सुहावन मूरतिपुर । इहै जीव राजा, जिव जाहु न दूर
तनुज एक राजा के रहा । अंत:करन नाम सब कहा
सौम्यसील सुकुमार सयाना । सो सावित्री स्वांत समाना
सरल सरनि जौ सो पग धारै । नगर लोग सूधौ पग परै
वक्र पंथ जो राखै पाऊ । वहै अधव सब होइ बटाऊ
रहे सँघाती ताके पत्तान ठावँ।
एक संकल्प, विकल्प सो दूसर नावँ
बुद्धि चित्त दुइ सखा सरेखै। जगत बीच गुन अवगुन देखै।
अंत:करन पास नित आवैं। दरसन देखि महासुख पावैं
अहंकार तेहि तीसर सखा निरंत्रा।
रहेउ चारि के अंतर नैसुक अंत्रा
अंत:करन सदन एक रानी । महामोहनी नाम सयानी
बरनि न पारौं सुंदरताई । सकल सुंदरी देखि लजाई
सर्व मंगला देखि असीसै । चाहै लोचन मध्य बईसै
कुंतल झारत फाँदा डारै । लख चितवन सों चपला मारै।
अपने मंजु रूप वह दारा । रूपगर्विता जगत मँझारा
प्रीतम प्रेम पाइ वह नारी । प्रेमगर्विता भई पियारी
सदा न रूप रहत है अंत नसाइ।
प्रेम, रूप के नासहिं तें घटि जाइ
जैसा कि कहा जा चुका है कि नूर मुहम्मद को हिन्दी भाषा में कविता करने के कारण जगह जगह इसका सबूत देना पड़ा है कि वे इस्लाम के पक्के अनुयायी थे। अत: वे अपने इस ग्रंथ की प्रशंसा इस ढंग से करते हैं 
यह बाँसुरी सुनै सो कोई । हिरदय स्रोत खुला जेहि होई
निसरत नाद बारुनी साथा । सुनि सुधि चेत रहै केहि हाथा
सुनतै जौ यह सबद मनोहर । होत अचेत कृष्ण मुरलीधार
यह मुहम्मदी जन की बोली । जामैं कंद नबातैं घोली
बहुत देवता को चित हरै । बहु मूरति औंधी होइ परै
बहुत देवहरा ढाहि गिरावै । संखनाद की रीति मिटावै
जहँ इसलामी मुख सों निसरी बात।
तहाँ सकल सुख मंगल, कष्ट नसात
सूफी आख्यान काव्यों की अखंडित परंपरा की यहीं समाप्ति मानी जा सकती है। इस परंपरा में मुसलमान कवि ही हुए हैं। केवल एक हिंदू मिला है। सूफी मत के अनुयायी सूरदास नामक एक पंजाबी हिंदू ने शाहजहाँ के समय में 'नल दमयंती कथा' नाम की एक कहानी लिखी थी, पर इसकी रचना अत्यंत निकृष्ट है। 
साहित्य की कोई अखंड परंपरा समाप्त होने पर भी कुछ दिन तक उस परंपरा की कुछ रचनाएँ इधर उधर होती रहती हैं। इस ढंग की पिछली रचनाओं में 'चतुर्मुकुट की कथा' और 'यूसुफ जुलेखा' उल्लेख योग्य हैं।

प्रकरण 4
सगुणधारा
रामभक्ति शाखा

जगत्प्रसिद्ध स्वामी शंकराचार्य जी ने जिस अद्वैतवाद का निरूपण किया था, वह भक्ति के सन्निवेश के उपयुक्त न था। यद्यपि उसमें ब्रह्म की व्यावहारिक सगुण सत्ता का भी स्वीकार था, पर भक्ति के सम्यक् प्रसार के लिए जैसे दृढ़ आधार की आवश्यकता थी वैसा दृढ़ आधार स्वामी रामानुजाचार्य जी (संवत् 1073) ने खड़ा किया। उनके विशिष्टाद्वैतवाद के अनुसार चिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म के ही अंश जगत् के सारे प्राणी हैं जो उसी से उत्पन्न होते हैं और उसी में लीन होते हैं। अत: इन जीवों के लिए उध्दार का मार्ग यही है कि वे भक्ति द्वारा उस अंशी का सामीप्य लाभ करने का प्रयत्न करें। रामानुज जी की शिष्य परंपरा देश में बराबर फैलती गई और जनता भक्तिमार्ग की ओर अधिक आकर्षित होती रही। रामानुज जी के श्री संप्रदाय में विष्णु या नारायण की उपासना है। इस संपद्राय में अनेक अच्छे साधु महात्मा बराबर होते गए। 
विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के अंत में वैष्णव श्री संप्रदाय के प्रधान आचार्य श्री राघवानंद जी काशी में रहते थे। अपनी अधिक अवस्था होते देख वे बराबर इस चिंता में रहा करते थे कि मेरे उपरांत संप्रदाय के सिध्दांतों की रक्षा किस प्रकार हो सकेगी। अंत में राघवानंदजी रामानंद जी को दीक्षा प्रदान कर निश्चिंत हुए और थोड़े दिनों में परलोकवासी हुए। कहते हैं कि रामानंद जी ने भारतवर्ष का पर्यटन करके अपने संप्रदाय का प्रचार किया। 
स्वामी रामानंद जी के समय के संबंध में कहीं कोई लेख न मिलने से हमें उसके निश्चय के लिए कुछ आनुषंगिक बातों का सहारा लेना पड़ता है। वैरागियों की परंपरा में रामानंद जी का मानिकपुर के शेख तकी पीर के साथ वाद विवाद होना माना जाता है। ये शेख तकी दिल्ली के बादशाह सिकंदर लोदी के समय में थे। कुछ लोगों का मत है कि ये सिकंदर लोदी के पीर (गुरु) थे और उन्हीं के कहने से उसने कबीर साहब को जंजीर से बाँधकर गंगा में डुबाया था। कबीर के शिष्य धर्मदास ने भी इस घटना का उल्लेख इस प्रकार किया है
साह सिकंदर जल में बोरे, बहुरि अग्नि परजारे।
मैमत हाथी आनि झुकाए, सिंहरूप दिखराए
निरगुन कथैं, अभयपद गावैं, जीवन को समझाए।
काजी पंडित सबै हराए, पार कोउ नहिं पाए
शेख तकी और कबीर के संवाद प्रसिद्ध ही हैं। इससे सिद्ध होता है कि रामानंद जी दिल्ली के बादशाह सिकंदर लोदी के समय में वर्तमान थे। सिकंदर लोदी संवत् 1546 से संवत् 1574 तक गद्दी पर रहा। अत: इन 28 वर्षों के काल विस्तार के भीतर चाहे आरंभ की ओर, चाहे अंत की ओर रामानंद जी का वर्तमान रहना ठहरता है।
कबीर के समान सेन भगत भी रामानंद जी के शिष्यों में प्रसिद्ध हैं। ये सेन भगत बाँधवगढ़ नरेश के नाई थे और उनकी सेवा किया करते थे। ये कौन बाँधवगढ़ नरेश थे, इसका पता 'भक्तमाल रामरसिकावली' में रीवाँ नरेश महाराज रघुराज सिंह ने दिया है
बाँधवगढ़ पूरब जो गायो । सेन नाम नापित तहँ जायो
ताकी रहै सदा यह रीती । करत रहै साधुन सों प्रीती
तहँ को राजा राम बघेला । बरन्यो तेहि कबीर को चेला
करै सदा तिनकी सेवकाई । मुकर दिखावै तेल लगाई
रीवाँ राज्य के इतिहास में राजा राम या रामचंद्र का समय संवत् 1611 से 1648 तक माना जाता है। रामानंद जी से दीक्षा लेने के उपरांत ही सेन पक्के भगत हुए होंगे। पक्के भगत हो जाने पर ही उनके लिए भगवान के नाई का रूप धरने वाली बात प्रसिद्ध हुई होगी। उक्त चमत्कार के समय वे राजसेवा में थे। अत: राजा रामचंद्र से अधिक से अधिक 30 वर्ष पहले यदि उन्होंने दीक्षा ली हो तो संवत् 1575 या 1580 तक रामानंद जी का वर्तमान रहना ठहरता है। इस दशा में स्थूल रूप से उनका समय विक्रम की 15वीं शती के चतुर्थ और 16वीं शती के तृतीय चरण के भीतर माना जा सकता है।
'श्री रामार्चन पद्ध ति' में रामानंद जी ने अपनी पूरी गुरुपरंपरा दी है। उसके अनुसार रामानुजाचार्य जी रामानंद जी से 14 पीढ़ी ऊपर थे। रामानुजाचार्य का परलोकवास संवत् 1194 में हुआ। अब 14 पीढ़ियों के लिए यदि हम 300 वर्ष रखें तो रामानंद जी का समय प्राय: वही आता है जो ऊपर दिया गया है। रामानंद जी का और कोई वृत्त ज्ञात नहीं। 
तत्वत: रामानुजाचार्य जी के मतावलंबी होने पर भी अपनी उपासना पद्ध ति का उन्होंने विशेष रूप रखा। उन्होंने उपासना के लिए बैकुंठ निवासी विष्णु का स्वरूप न लेकर लोक में लीला विस्तार करने वाले उनके अवतार राम का आश्रय लिया। इनके इष्टदेव राम हुए और मूलमंत्र हुआ राम नाम। पर इससे यह नहीं समझना चाहिए कि इनके पूर्व देश में रामोपासक भक्त होते ही न थे। रामानुजाचार्य जी ने जिस सिध्दांत का प्रतिपादन किया उसके प्रवर्तक शठकोपाचार्य उनसे पाँच पीढ़ी पहले हुए हैं। उन्होंने अपनी 'सहस्रगीति' में कहा है 'दशरथस्य सुतं तं बिना अन्यशरणवान्नास्मि'। श्री रामानुज के पीछे उनके शिष्य कुरेशस्वामी हुए जिनकी 'पंचस्तवी' में राम की विशेष भक्ति स्पष्ट झलकती है। रामानंद जी ने केवल यह किया कि विष्णु के अन्य रूपों में 'रामरूप' को ही लोक के लिए अधिक कल्याणकारी समझ छाँट लिया और एक सबल संप्रदाय का संघटन किया। इसके साथ ही साथ उन्होंने उदारतापूर्वक मनुष्यमात्र को इस सुलभ सगुणभक्ति का अधिकारी माना और देशभेद, वर्णभेद, जातिभेद आदि का विचार भक्ति मार्ग से दूर रखा। यह बात उन्होंने सिध्दों या नाथपंथियों की देखादेखी नहीं की, बल्कि भगवद् भक्ति के संबंध में महाभारत, पुराण आदि के कथित सिध्दांत के अनुसार की। रामानुज संप्रदाय में दीक्षा केवल द्विजातियों को दी जाती थी, पर स्वामी रामानंद ने रामभक्ति के द्वार सब जातियों के लिए खोल दिया और एक उत्साही विरक्त दल का संघटन किया, जो आज भी 'बैरागी' के नाम से प्रसिद्ध है। अयोध्या, चित्रकूट आदि आज भी वैरागियों के मुख्य स्थान हैं।
भक्तिमार्ग में इनकी उदारता का अभिप्राय यह कदापि नहीं है जैसा कि कुछ लोग समझा और कहा करते हैं कि रामानंद जी वर्णाश्रम के विरोधी थे। समाज के लिए वर्ण और आश्रम की व्यवस्था मानते हुए वे भिन्न भिन्न कर्तव्यों की योजना स्वीकार करते थे। केवल उपासना के क्षेत्र में उन्होंने सबका समान अधिकार स्वीकार किया। भगवद्भक्ति में वे किसी भेदभाव को आश्रय नहीं देते थे। कर्म के क्षेत्र में शास्त्र मर्यादा इन्हें मान्य थी; पर उपासना के क्षेत्र में किसी प्रकार का लौकिक प्रतिबंध ये नहीं मानते थे। सब जाति के लोगों को एकत्र कर रामभक्ति का उपदेश ये करने लगे और राम नाम की महिमा सुनाने लगे। 
रामानंद जी के ये शिष्य प्रसिद्ध हैं कबीरदास, रैदास, सेन नाई और गाँगरौनगढ़ के राजा पीपा, जो विरक्त होकर पक्के भक्त हुए।
रामानंद जी के रचे हुए केवल दो संस्कृत के ग्रंथ मिलते हैं वैष्णवमताब्जभास्कर और श्री रामार्चनपद्ध ति। और कोई ग्रंथ इनका आज तक नहीं मिला है। 
इधर सांप्रदायिक झगड़े के कारण कुछ नए ग्रंथ रचे जाकर रामानंद जी के नाम से प्रसिद्ध किए गए हैं जैसे ब्रह्मसूत्रों पर आनंद भाष्य और भगवद्गीताभाष्य जिनके संबंध में सावधान रहने की आवश्यकता है। बात यह है कि कुछ लोग रामानुज परंपरा से रामानंद जी की परंपरा बिल्कुल स्वतंत्र और अलग सिद्ध करना चाहते हैं। इसी से रामानंद जी को एक स्वतंत्र आचार्य प्रमाणित करने के लिए उन्होंने उनके नाम पर एक वेदांतभाष्य प्रसिद्ध किया है। रामानंद जी समय समय पर विनय और स्तुति के हिन्दी पद भी बनाकर गाया करते थे। केवल दो-तीन पदों का पता अब तक लगा है। एक पद तो यह है जो हनुमान जी की स्तुति में है
आरति कीजै हनुमान ललाकी । दुष्टदलन रघुनाथ कला की
जाके बल भर ते महि काँपे । रोग सोग जाकी सिमा न चाँपे
अंजनी-सुत महाबलदायक । साधु-संत पर सदा सहायक
बाएं भुजा सब असुर सँहारी । दहिन भुजा सब संत उबारी
लछिमन धरती मेंमूर्छि परयो । पैठि पताल जमकातर तोरयो
आनि सजीवन प्रान उबारयो । मही सब्रन कै भुजा उपारयो
गाढ़ परे कपि सुमिरौं तोहीं । होहु दयाल देहु जस मोहीं
लंकाकोट समुंदर खाई । जात पवनसुत बार न लाई
लंक प्रजारी असुर सब मारयो । राजा राम के काज सँवारयो
घंटा ताल झालरी बाजै । जगमग जोति अवधपुर छाजै
जो हनुमान जी की आरती गावै । बसि बैकुंठ अमर पद पावै
लंक विध्वंस कियो रघुराई । रामानंद आरती गाई
सुर नर मुनि सब करहिं आरती। जै जै जै हनुमान लाल की 
स्वामी रामानंद जी का कोई प्रामाणिक वृत्त न मिलने से उनके संबंध में कई प्रकार के प्रवादों के प्रचार का अवसर लोगों को मिला है। कुछ लोगों का कहना है कि रामानंद जी अद्वैतियों के ज्योतिर्मठ के ब्रह्मचारी थे। इस संबंध में इतना ही कहा जा सकता है कि यह संभव है कि उन्होंने ब्रह्मचारी रहकर कुछ दिन उक्त मठ में वेदांत का अध्ययन किया हो, पीछे रामानुजाचार्य के सिध्दांतों की ओर आकर्षित हुए हों।
दूसरी बात जो उनके संबंध में कुछ लोग इधर उधर कहते सुने जाते हैं वह यह है कि उन्होंने बारह वर्ष तक गिरनार या आबू पर्वत पर योगसाधना करके सिद्धि प्राप्त की थी। रामानंद जी के जो दो ग्रंथ प्राप्त हैं तथा उसके संप्रदाय में जिस ढंग की उपासना चली आ रही है उससे स्पष्ट है कि वे खुले हुए विश्व के बीच भगवान की कला की भावना करने वाले विशुद्ध वैष्णव भक्तिमार्ग के अनुयायी थे, घट के भीतर ढूँढ़ने वाले योगमार्गी नहीं। इसलिए योग साधना वाली प्रसिद्धि का रहस्य खोलना आवश्यक है।
भक्तमाल में रामानंद जी के बारह शिष्य कहे गए हैं अनंतानंद, सुखानंद, सुरसुरानंद, नरहर्यानंद, भावानंद, पीपा, कबीर, सेन, धाना, रैदास, पद्मावती और सुरसरी।
अनंतानंदजी के शिष्य कृष्णदास पयहारी हुए जिन्होंने गलता (अजमेर राज्य, राजपूताना) में रामानंद संप्रदाय की गद्दी स्थापित की। यही पहली और सबसे प्रधान गद्दी हुई। रामानुज संप्रदाय के लिए दक्षिण में जो महत्व तोताद्रि का था वही महत्व रामानंद संप्रदाय के लिए उत्तर भारत में गलता को प्राप्त हुआ। यह 'उत्तर तोताद्रि' कहलाया। कृष्णदास पयहारी राजपूताने की ओर के दाहिमा (दाधीच्य) ब्राह्मण थे। जैसा कि आदिकाल के अंतर्गत दिखाया जा चुका है, भक्ति आंदोलन के पूर्व देश मेंएविशेषत: राजपूताने मेंएनाथपंथी कनफटे योगियों का बहुत प्रभाव था जो अपनी सिद्धि की धाक जनता पर जमाए रहते थे। जब सीधे सादे वैष्णव भक्तिमार्ग का आंदोलन देश में चला तब उसके प्रति दुर्भाव रखना उनके लिए स्वाभाविक था। कृष्णदास पयहारी जब पहले पहल गलता पहुँचे, तब वहाँ की गद्दी नाथपंथी योगियों के अधिकार में थी। वे रात भर टिकने के विचार से वहीं धूनी लगाकर बैठ गए। पर कनफटों ने उन्हें उठा दिया। ऐसा प्रसिद्ध है कि इस पर पयहारीजी ने भी अपनी सिद्धि दिखाई और वे धूनी की आग एक कपड़े में उठाकर दूसरी जगह जा बैठे। यह देख योगियों का महंत बाघ बनकर उनकी ओर झपटा। इस पर पयहारीजी के मुँह से निकला कि 'तू कैसा गदहा है?' वह महंत तुरंत गदहा हो गया और कनफटों की मुद्राएँ उनके कानों से निकल निकलकर पयहारीजी के सामने इकट्ठी हो गईं। आमेर के राजा पृथ्वीराज के बहुत प्रार्थना करने पर महंत फिर आदमी बनाया गया। उसी समय राजा पयहारीजी के शिष्य हो गए और गलता की गद्दी पर रामानंदी वैष्णवों का अधिकार हुआ। 
नाथपंथी योगियों के कारण जनता के हृदय में योगसाधना और सिद्धि के प्रतिआस्था जमी हुई थी।1 इससे पयहारीजी की शिष्यपरंपरा में योगसाधना का भी कुछ समावेश हुआ। पयहारीजी के दो प्रसिद्ध शिष्य हुएएअग्रदास और कील्हदास। इन्हीं कील्हदासजी की प्रवृत्ति रामभक्ति के साथ साथ योगाभ्यास की ओर भी हुई जिससे रामानंद जी की वैरागी परंपरा की एक शाखा में योगसाधना का भी समावेश हुआ। यह शाखा वैरागियों में 'तपसी शाखा' के नाम से प्रसिद्ध हुई। कील्हदास के शिष्य द्वारकादास ने इस शाखा को पल्लवित किया। उनके संबंध में भक्तमाल में ये वाक्य हैं
'अष्टांग जोग तन त्यागियो द्वारकादास, जानै दुनी'
जब कोई शाखा चल पड़ती है, तब आगे चलकर अपनी प्राचीनता सिद्ध करने के लिए वह बहुत सी कथाओं का प्रचार करती है। स्वामी रामानंद जी के बारह वर्ष तक योगसाधना करने की कथा इसी प्रकार की है जो वैरागियों की 'तपसी शाखा' में चली। किसी शाखा की प्राचीनता सिद्ध करने का प्रयत्न कथाओं की उद्भावना तक ही नहीं रह जाता। कुछ नए ग्रंथ भी संप्रदाय के मूल प्रवर्तक के नाम से प्रसिद्ध किए जाते हैं। स्वामी रामानंद जी के नाम से चलाए हुए ऐसे दो रद्दी ग्रंथ हमारे पास हैं एक का नाम है योगचिंतामणि, दूसरे का रामरक्षा स्त्रोत। दोनों के कुछ नमूने देखिए
(1)
विकट कटक रे भाई। काया चढ़ा न जाई
जहँ नाद बिंदु का हाथी। सतगुर ले चले साथी
जहाँ है अष्टदल कमल फूला। हंसा सरोवर में भूला
शब्द तो हिरदय बसे, शब्द नयनों बसे, 
शब्द की महिमा चार बेद गाई।
कहैं गुरु रामानंद जी, सतगुर दया करि मिलिया,
सत्य का शब्द सुनु रे भाई
सुरत नगर करै सयल। जिसमें है आत्मा का महल
(योगचिंतामणि से)
(2)
संध्यातारिणी सर्वेदु:ख विदारिणी।
संध्या उच्चरै विघ्न टरै। पिंड प्राण कै रक्षा श्रीनाथ निरंजन करै। नाद नादं सुषुम्ना के साज साज्या। चाचरी, भूचरी, खेचरी, अगोचरी, उनमनी पाँच मुद्रा सधांत साधुराजा। 
डरे डुँगरे जले और थले बाटे घाटे औघट निरंजन निराकार रक्षा करे। बाघ बाघिनी का करो मुख काला। चौंसठ जोगिनी मारि कुटका किया, अखिल ब्रह्मांड तिहुँ लोक में दुहाई फिरिबा करै। दास रामानंद ब्रह्म चीन्हा, सोई निज तत्व ब्रह्मज्ञानी।
(रामरक्षा स्त्रोत से)
झाड़फूँक के काम के ऐसे-ऐसे स्त्रोत भी रामानंद जी के गले मढ़े गए हैं। स्त्रोत के आरंभ में जो 'संध्या' शब्द है नाथपंथ में उसका पारिभाषिक अर्थ है'सुषुम्ना नाड़ी की संधि में प्राण का जाना' इसी प्रकार 'निरंजन भी गोरखपंथ में उस ब्रह्म के लिए एक रूढ़ शब्द है जिसकी स्थिति वहाँ मानी गई है जहाँ नाद और बिंदु दोनों का लय हो जाता है
नादकोटि सहस्राणि बिंदुकोटि शतानि च।
सर्वे तत्रा लयं योति यत्रा देवो निरंजन:
'नाद' और 'बिंदु' क्या है, यह नाथपंथ के प्रपंच में दिखाया जा चुका है।2 
सिखों के 'ग्रंथसाहब' में भी निर्गुण उपासना के दो पद रामानंद के मिलते हैं। एक यह है
कहाँ जाइए हो घरि लागो रंग । मेरो चंचल मन भयो अपंग
जहाँ जाइए तहँ जल पषान । पूरि रहे हरि सब समान
वेद स्मृति सब मेल्हे जोइ । उहाँ जाइए हरि इहाँ न होइ
एक बार मन भयो उमंग । घसि चोवा चंदन चारि अंग
पूजत चाली ठाइँ ठाइँ । सो ब्रह्म बतायो गुरु आप माइँ
सतगुर मैं बलिहारी तोर । सकल विकल भ्रम जारे मोर
रामानंद रमै एक ब्रह्म । गुरु कै एक सबद काटै कोटि क्रम्म
इस उद्ध रण से स्पष्ट है कि ग्रंथ साहब में उध्दृत दोनों पद भी वैष्णव भक्त रामानंद जी के नहीं हैं, और किसी रामानंद के हों तो हो सकते हैं।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, वास्तव में रामानंद जी के केवल दो संस्कृत ग्रंथ ही आज तक मिले हैं। 'वैष्णवमताब्जभास्कर' में रामानंद जी के शिष्य सुरसुरानंद ने नौ प्रश्न किए हैं जिनके उत्तर में रामतारक मंत्र की विस्तृत व्याख्या, तत्वोपदेश, अहिंसा का महत्व, प्रपत्ति, वैष्णवों की दिनचर्या, षोडशोपचारपूजन इत्यादि विषय हैं। 
अर्चावतारों के चार भेद स्वयं व्यक्त, दैव, सैद्ध और मानुष करके कहा गया है कि वे प्रशस्त देशों (अयोध्या, मथुरा आदि) में श्री सहित सदा निवास करते हैं। जातिभेद, क्रियाकलाप आदि की अपेक्षा न करने वाले भगवान की शरण में सबको जाना चाहिएए
प्राप्तुं परा सिद्धि मकिंचनो जनो-द्विजादिरिच्छंछरणं हरिं ब्रजेत्।
परम् दयालु स्वगुणानपेक्षितक्रियाकलापादिकजातिभेदम्ड्ड
गोस्वामी तुलसीदास जी यद्यपि स्वामी रामानंद जी की शिष्य परंपरा के द्वारा देश के बड़े भाग में रामभक्ति की पुष्टि निरंतर होती आ रही थी और भक्त लोग फुटकल पदों में राम की महिमा गाते आ रहे थे, पर हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में इस भक्ति का परमोज्ज्वल प्रकाश विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध्द में गोस्वामी तुलसीदास जी की वाणी द्वारा स्फुरित हुआ। उनकी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा ने भाषाकाव्य की सारी प्रचलित पद्ध तियों के बीच अपना चमत्कार दिखाया। सारांश यह कि रामभक्ति का वह परम विशद साहित्यिक संदर्भ इन्हीं भक्तशिरोमणि द्वारा संघटित हुआ जिससे हिन्दी काव्य की प्रौढ़ता के युग का आरंभ हुआ।
'शिवसिंहसरोज' में गोस्वामी जी के एक शिष्य बेनीमाधवदास कृत 'गोसाईंचरित्र' का उल्लेख है। इस ग्रंथ का कहीं पता न था। पर कुछ दिन हुए सहसा यह अयोध्या से निकल पड़ा। अयोध्या में एक अत्यंत निपुण दल है जो लुप्त पुस्तकों और रचनाओं को समय समय पर प्रकट करता है। कभी नंददास कृत तुलसी की वंदना का पद प्रकट होता है जिसमें नंददास कहते हैं
श्रीमत्तुलसीदास स्वगुरु भ्राता पद बंदे।
× × ×
नंददास के हृदय नयन को खोलेउ सोई
कभी सूरदास जी द्वारा तुलसीदास की स्तुति का यह पद प्रकाशित होता है
धान्य भाग्य मम संत सिरोमनि चरन कमल तकि आयउँ।
दया दृष्टि ते मम दिसि हेरेउ, तत्व स्वरूप लखायो। 
कर्म उपासन ज्ञान जनित भ्रम संसय सूल नसायो3
इस पद के अनुसार सूरदास का 'कर्मउपासन ज्ञानजनित भ्रम' बल्लभाचार्य जी ने नहीं तुलसीदास जी ने दूर किया था। सूरदास जी तुलसीदास जी से अवस्था में बहुत बड़े थे और उनसे पहले प्रसिद्ध भक्त हो गए थे, यह सब लोग जानते हैं। 
ये दोनों पद 'गोसाईंचरित्र' के मेल में हैं, अत: मैं इन सबका उद्गम एक ही समझता हूँ। 'गोसाईंचरित्र' में वर्णित बहुत सी बातें इतिहास के सर्वथा विरुद्ध पड़ती हैं, यह बात माताप्रसाद गुप्त अपने कई लेखों में दिखा चुके हैं। रामानंद जी की शिष्य परंपरा के अनुसार देखें तो भी तुलसीदास के गुरु का नाम नरहर्यानंद और नरहर्यानंद के गुरु का नाम अनंतानंद (प्रिय शिष्य अनंतानंद हते। नरहर्यानंद सुनाम छते) असंगत ठहरता है। अनंतानंद और नरहर्यानंद दोनों रामानंद जी के बारह शिष्यों में थे। नरहरिदास को अलबत्ता कुछ लोग अनंतानंद का शिष्य कहते हैं, पर भक्तमाल के अनुसार वे अनंतानंद के शिष्य श्रीरंग के शिष्य थे। गिरनार में योगाभ्यासी सिद्ध रहा करते हैं, 'तपसी शाखा' की यह बात भी गोसाईंचरित्र में आ गई है। 
इसमें कोई संदेह नहीं कि तिथि, वार आदि ज्योतिष की गणना से सब कुछ ठीक मिलाकर तथा तुलसी के संबंध में चली आती हुई सारी जनश्रुतियों का समन्वय करके सावधानी के साथ इसकी रचना हुई है, पर एक ऐसी पदावली इसके भीतर चमक रही है, जो इसे बिल्कुल आजकल की रचना घोषित कर रही है। यह है 'सत्यं, शिवं, सुंदरम्।' देखिए
देखिन तिरषित दृष्टि तें सब जने, कीन्ही सही संकरम्।
दिव्याषर सो लिख्यो, पढ़ै धुनि सुने, सत्यं, शिवं, सुंदरम्
यह पदावली अंग्रेजी समीक्षा क्षेत्र में प्रचलित 'द ट्रयू, द गुड, ऐंड द ब्यूटीफुल' का अनुवाद है, जिसका प्रचार पहले पहल ब्रह्मसमाज में, फिर बँग्ला और हिन्दी की आधुनिक समीक्षाओं में हुआ, यह हम अपने 'काव्य में रहस्यवाद' के भीतर दिखा चुके हैं।
यह बात अवश्य है कि 'गोसाईंचरित्र' में जो वृत्त दिए गए हैं, वे अधिकतर वे ही हैं जो परंपरा से प्रसिद्ध चले आ रहे हैं। 
गोस्वामी जी का एक और जीवन चरित्र, जिसकी सूचना 'मर्यादा' पत्रिका की ज्येष्ठ 1969 की संख्या में श्रीयुत् इंद्रदेव नारायण जी ने दी थी, उनके एक दूसरे शिष्य महात्मा रघुवरदास जी का लिखा 'तुलसीचरित' कहा जाता है। यह कहाँ तक प्रामाणिक है, नहीं कहा जा सकता। दोनों चरितों के वृत्तांतों में परस्पर बहुत कुछ विरोध है। बाबा बेनीमाधवदास के अनुसार गोस्वामी जी के पिता जमुना के किनारे दुबेपुरवा नामक गाँव के दूबे और मुखिया थे और पूर्वज पत्यौजा ग्राम से यहाँ आए थे। पर बाबा रघुवरदास के 'तुलसीचरित' में लिखा है कि सरवार में मझौली से तेईस कोस पर कसया ग्राम में गोस्वामी जी के प्रपितामह परशुराम मिश्र जो गाना मिश्र थे रहते थे। वे तीर्थाटन करते करते चित्रकूट पहुँचे और उसी ओर राजापुर में बस गए। उनके पुत्र शंकर मिश्र हुए। शंकर मिश्र के रुद्रनाथ मिश्र और रुद्रनाथ मिश्र के मुरारि मिश्र हुए जिनके पुत्र तुलाराम ही आगे चलकर भक्तचूड़ामणि गोस्वामी तुलसीदास जी हुए।
दोनों चरितों में गोस्वामी जी का जन्म संवत् 1554 दिया हुआ है। बाबा बेनीमाधवदास की पुस्तक में तो श्रावण शुक्ल सप्तमी तिथि भी दी हुई है। पर इस संवत् को ग्रहण करने से तुलसीदास जी की आयु 126-127 वर्ष आती है जो पुनीत आचरण के महात्माओं के लिए असंभव तो नहीं कही जा सकती। शिवसिंहसरोज में लिखा है कि गोस्वामी जी संवत् 1583 के लगभग उत्पन्न हुए थे। मिरजापुर के प्रसिद्ध रामभक्त और रामायणी पंडित रामगुलाम द्विवेदी भक्तों की जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म संवत् 1589 मानते थे। इसी सबसे पिछले संवत् को ही डॉ. ग्रियर्सन ने स्वीकार किया है। इनका सरयूपारी ब्राह्मण होना तो दोनों चरितों में पाया जाता है और सर्वमान्य है। 'तुलसी परासर गोत दूबे पतिऔजा के' यह वाक्य भी प्रसिद्ध चला आता है और पं. रामगुलाम ने भी इसका समर्थन किया है। उक्त प्रसिद्धि के अनुसार गोस्वामी जी के पिता का नाम आत्माराम दूबे और माता का नाम हुलसी था। माता के नाम के प्रमाण में रहीम का यह दोहा कहा जाता है
सुरतिय, नरतिय, नागतिय, सब चाहति अस होय।
गोद लिये हुलसी फिरैं, तुलसी सो सुत होय
तुलसीदास जी ने कवितावली में कहा है कि 'मातु पिता जग जाइ तज्यौ बिधिहू न लिख्यो कछु भाल भलाई।' इसी प्रकार विनयपत्रिका में भी ये वाक्य हैं 'जनक जननी तज्यौ जनमि, करम बिनु बिधिहु सृज्यौ अवडेरे' तथा 'तनुजन्यो कुटिल कीट ज्यों, तज्यो मातु पिता हूँ।' इन वचनों के अनुसार यह जनश्रुति चल पड़ी कि गोस्वामी जी अभुक्त मूल में उत्पन्न हुए थे, इससे उनके माता पिता ने उन्हें त्याग दिया था। उक्त जनश्रुति के अनुसार गोसाईंचरित में लिखा है कि गोस्वामी जी जब उत्पन्न हुए तब पाँच वर्ष के बालक के समान थे और उन्हें पूरे दाँत भी थे। वे रोए नहीं, केवल 'राम' शब्द उनके मुँह से सुनाई पड़ा। बालक को राक्षस समझ पिता ने उसकी उपेक्षा की। पर माता ने उसकी रक्षा के लिए उद्विग्न होकर उसे अपनी एक दासी मुनिया को पालने पोसने को दिया और वह उसे लेकर अपनी ससुराल चली गई। पाँच वर्ष पीछे जब मुनिया भी मर गई तब राजापुर में बालक के पिता के पास संवाद भेजा गया, पर उन्होंने बालक को लेना स्वीकार न किया। किसी प्रकार बालक का निर्वाह कुछ दिन हुआ। अंत में बाबा नरहरिदास ने उसे अपने पास रख लिया और कुछ शिक्षा दीक्षा दी। इन्हीं गुरु से गोस्वामी जी राम कथा सुना करते थे। इन्हीं अपने गुरु बाबा नरहरिदास के साथ गोस्वामी जी काशी में आकर पंचगंगा घाट पर स्वामी रामानंद जी के स्थान पर रहने लगे। वहाँ पर एक परम विद्वान महात्मा शेषसनातन जी रहते थे जिन्होंने तुलसीदास जी को वेद-वेदांग, दर्शन, इतिहास, पुराण आदि में प्रवीण कर दिया। 15 वर्ष तक अध्ययन करके गोस्वामी जी फिर अपनी जन्मभूमि राजापुर लौटे; पर वहाँ इनके परिवार में कोई नहीं रह गया था और घर भी गिर गया था।
यमुनापार के एक ग्राम के रहने वाले भारद्वाज गोत्री एक ब्राह्यण यमद्वितीया को राजापुर में स्नान करने आए। उन्होंने तुलसीदास जी की विद्या, विनय और शील पर मुग्ध होकर अपनी कन्या इन्हें ब्याह दी। इसी पत्नी के उपदेश से गोस्वामी जी का विरक्त होना और भक्ति की सिद्धि प्राप्त करना प्रसिद्ध है। तुलसीदास जी अपनी इस पत्नी पर इतने अनुरक्त थे कि एक बार उसके मायके चले जाने पर वे बढ़ी नदी पार करके उससे जाकर मिले। स्त्री ने उस समय ये दोहे कहे
लाज न लागत आपको दौरे आएहु साथ। 
धिक धिक ऐसे प्रेम को कहा कहौं मैं नाथ
अस्थि चर्ममय देह मम तामे जैसी प्रीति।
तैसी जौ श्रीराम महँ, होति न तौ भवभीति
यह बात तुलसीदास जी को ऐसी लगी कि वे तुरंत काशी आकर विरक्त हो गए। इस वृत्तांत को प्रियदास जी ने भक्तमाल की अपनी टीका में दिया है और 'तुलसीचरित' और 'गोसाईंचरित' में भी इसका उल्लेख है। 
गोस्वामी जी घर छोड़ने पर कुछ दिन काशी में, फिर काशी से अयोध्या जाकर रहे। उसके पीछे तीर्थयात्रा करने निकले और जगन्नाथपुरी, रामेश्वर, द्वारका होते हुए बद्रिकाश्रम गए। वहाँ से ये कैलाश और मानसरोवर तक निकल गए। अंत में चित्रकूट आकर ये बहुत दिनों तक रहे जहाँ अनेक संतों से इनकी भेंट हुई। इसके अनंतर संवत् 1631 में अयोध्या जाकर इन्होंने रामचरितमानस का आरंभ किया और उसे 2 वर्ष 7 महीने में समाप्त किया। रामायण का कुछ अंश, विशेषत: किषकिंधाकांड, काशी में रचा गया। रामायण समाप्त होने पर ये अधिकतर काशी में ही रहा करते थे। वहाँ अनेक शास्त्रज्ञ विद्वान इनसे आकर मिला करते थे क्योंकि इनकी प्रसिद्धि सारे देश में हो चुकी थी। ये अपने समय के सबसे बड़े भक्त और महात्मा माने जाते थे। कहते हैं कि उस समय के प्रसिद्ध विद्वान मधुसूदन सरस्वती से इनसे वाद हुआ था जिससे प्रसन्न होकर इनकी स्तुति में यह श्लोक उन्होंने कहा था
आनंदकानने कश्चिज्जक्ष्मस्तुलसीतरु:।
कवितामंजरी यस्य रामभ्रमर भूषिता
गोस्वामी जी के मित्रों और स्नेहियों में नवाब अब्दुर्रहीम खानखाना, महाराज मानसिंह, नाभाजी और मधुसूदन सरस्वती आदि कहे जाते हैं। 'रहीम' से इनसे समय समय पर दोहों में लिखा पढ़ी हुआ करती थी। काशी में इनके सबसे बड़े स्नेही और भक्त भदैनी के एक भूमिहार जमींदार टोडर थे जिनकी मृत्यु होने पर इन्होंने कई दोहे कहे हैं
चार गाँव को ठाकुरो मन को महामहीप।
तुलसी या कलिकाल में अथ टोडर दीप
तुलसी रामसनेह को सिर पर भारी भारु।
टोडर काँधा नहिं दियो, सब कहि रहे उतारु
रामधाम टोडर गए, तुलसी भए असोच।
जियबो मीत पुनीत बिनु, यहै जानि संकोच
गोस्वामी जी की मृत्यु के संबंध में लोग यह दोहा कहा करते हैं
संवत् सोरह सै असी, असी गंगा के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर
पर बाबा बेनीमाधवदास की पुस्तक में दूसरी पंक्ति इस प्रकार है या कर दी गई है
श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो शरीर।
यही ठीक तिथि है क्योंकि टोडर के वंशज अब तक इसी तिथि को गोस्वामी जी के नाम सीधा दिया करते हैं।
'मैं पुनि निज गुरु सन सुनी, कथा सो सूकर खेत' को लेकर लोग गोस्वामी जी का जन्मस्थान ढूँढ़ने एटा जिले के सोरों नामक स्थान तक सीधे पच्छिम दौड़े हैं। पहले पहल उस ओर इशारा स्व. लाला सीताराम ने (राजापुर के) अयोध्याकांड के स्वसंपादित संस्करण की भूमिका में दिया था। उसके बहुत दिन पीछे उसी इशारे पर दौड़ लगी और अनेक प्रकार के कल्पित प्रमाण सोरों को जन्म स्थान सिद्ध करने के लिए तैयार किए गए। सारे उपद्रव की जड़ है 'सूकर खेत' जो भ्रम में सोरों समझ लिया गया। 'सूकर छेत्रा' गोंडे के जिले में सरजू के किनारे एक पवित्र तीर्थ है, जहाँ आसपास के कई जिलों के लोग स्नान करने जाते हैं और मेला लगता है।
जिन्हें भाषा की परख है उन्हें यह देखते देर न लगेगी कि तुलसीदास जी की भाषा में ऐसे शब्द, जो स्थान विशेष के बाहर नहीं बोले जाते हैं, केवल दो स्थानों के हैं चित्रकूट के आसपास के और अयोध्या के आसपास के। किसी कवि की रचना में यदि किसी स्थान विशेष के भीतर ही बोले जाने वाले अनेक शब्द मिलें तो उस स्थान विशेष से कवि का निवास संबंध मानना चाहिए। इस दृष्टि से देखने पर यह बात मन में बैठ जाती है कि तुलसीदास जी का जन्म राजापुर में हुआ जहाँ उनकी कुमार अवस्था बीती। सरवरिया होने के कारण उनके कुल के तथा संबंधी अयोध्या, गोंडा, बस्ती के आसपास थे, जहाँ उनका आना जाना बराबर रहा करता था। विरक्त होने पर वे अयोध्या में ही रहने लगे थे। 'रामचरितमानस' में आए हुए कुछ शब्द और प्रयोग नीचे दिए जाते हैं जो अयोध्या के आसपास ही (बस्ती, गोंडा आदि कुछ भागों में) बोले जाते हैं
माहुर = विष। सरौं = कसरत। फहराना या फरहराना = प्रफुल्लचित्त होना (सरौं करहिं पायक फहराई)। फुर = सच। अनभल ताकना = बुरा मनाना (जेहिराउर अति अनभल ताका)। राउर, राउरेहि = आपको (भलउ कहत दुख रउरेहि लागा)। रमा लहीं = रमा ने पाया (प्रथम पुरुष स्त्री, बहुवचन, उदा.-भरि जनम जे पाए न ते परितोष उमा रमा लही)। कूटि = दिल्लगी, उपहास।
इसी प्रकार ये शब्द चित्रकूट के आसपास तथा बघेलखंड में ही (जहाँ की भाषा पूरबी हिन्दी या अवधी ही है) बोले जाते हैं
कुराय = वे गङ्ढे जो करेल पोली जमीन में बरसात के कारण जगह जगह पड़ जाते हैं (काँट कुराय लपेटन लोटन ठावहिं ठाँव बझाऊ रे।विनय.)।
सुआर = सूपकार, रसोइया।
ये शब्द और प्रयोग इस बात का पता देते हैं कि किन किन स्थानों की बोली गोस्वामी जी की अपनी थी। आधुनिक काल के पहले साहित्य या काव्य की सर्वमान्य व्यापक भाषा ब्रज रही है, यह तो निश्चित है। भाषा काव्य के परिचय के लिए प्राय: सारे उत्तर भारत के लोग बराबर इसका अभ्यास करते थे और अभ्यास द्वारा सुंदर रचना भी करते थे। ब्रजभाषा में रीतिग्रंथ लिखनेवाले चिंतामणि, भूषण, मतिराम, दास इत्यादि अधिकतर कवि अवध के थे और ब्रजभाषा के सर्वमान्य कवि माने जाते हैं। दास जी ने तो स्पष्ट व्यवस्था ही दी है कि 'ब्रजभाषा हेतु ब्रजवास ही न अनुमानौ'। पर पूरबी हिन्दी या अवधी के संबंध में यह बात नहीं है। अवधी भाषा में रचना करने वाले जितने कवि हुए हैं सब अवध या पूरब के थे। किसी पछाहीं कवि ने कभी पूरबी हिन्दी या अवधी पर ऐसा अधिकार प्राप्त नहीं किया कि उसमें रचना कर सके। जो बराबर सोरों की पछाहीं बोली (ब्रज) बोलता आया होगा वह 'जानकीमंगल' और 'पार्वतीमंगल' की-सी ठेठ अवधी लिखेगा, 'मानस' ऐसे महाकाव्य की रचना अवधी में करेगा और व्याकरण के ऐसे देशबद्ध प्रयोग करेगा जैसे ऊपर दिखाए गए हैं? भाषा के विचार में व्याकरण के रूपों का मुख्यत: विचार होता है। 
भक्त लोग अपने को जन्मजन्मांतर से अपने आराध्य इष्टदेव का सेवक मानते हैं। इसी भावना के अनुसार तुलसी और सूर दोनों ने कथाप्रसंग के भीतर अपने को गुप्त या प्रकट रूप में राम और कृष्ण के समीप तक पहुँचाया है। जिस स्थल पर ऐसा हुआ है वहीं कवि के निवास स्थान का पूरा संकेत भी है। 'रामचरितमानस' के अयोध्याकांड में वह स्थल देखिए जहाँ प्रयाग से चित्रकूट जाते हुए राम जमुना पार करते हैं और भरद्वाज के द्वारा साथ लगाए हुए शिष्यों को विदा करते हैं। राम सीता तट पर के लोगों से बातचीत कर ही रहे हैं कि
तेहि अवसर एक तापस आवा। तेजपुंज लघु बयस सुहावा
कवि अलषित गति बेष बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी
सजल नयन तन पुलक निज इष्ट देउ पहिचानि।
परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि
यह तापस एकाएक आता है। कब जाता है, कौन है, इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं है। बात यह है कि इस ढंग से कवि ने अपने को ही तापस रूप में राम के पास पहुँचाया है और ठीक उसी प्रदेश में जहाँ के वे निवासी थे, अर्थात् राजापुर के पास।
सूरदास ने भी भक्तों की इस पद्ध ति का अवलंबन किया है। यह तो निर्विवाद है कि बल्लभाचार्य जी से दीक्षा लेने के उपरांत सूरदास जी गोवर्ध्दन पर श्रीनाथ जी के मंदिर में कीर्तन किया करते थे। अपने सूरसागर के दशम् स्कंध के आरंभ में सूरदास ने श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए अपने को ढाढ़ी के रूप में नंद के द्वार पर पहुँचाया है
नंद जू! मेरे मन आनंद भयो, हौं गोवर्ध्दन तें आयो।
तुम्हरे पुत्र भयो मैं सुनि कै अति आतुर उठि धायो
×××
जब तुम मदनमोहन करि टेरौ, यह सुनि कै घर जाऊँ।
हौं तौ तेरे घर को ढाढ़ी, सूरदास मेरो नाऊँ
सबका सारांश यह है कि तुलसीदास का जन्म स्थान जो राजापुर प्रसिद्ध चला आता है वही, ठीक है।
एक बात की ओर और ध्यान जाता है। तुलसीदास जी रामानंद संप्रदाय की बैरागी परंपरा में नहीं जान पड़ते। उक्त संप्रदाय के अंतर्गत जितनी शिष्य परंपराएँ मानी जाती हैं उनमें तुलसीदास जी का नाम कहीं नहीं है। रामानंद परंपरा में सम्मिलित करने के लिए उन्हें नरहरिदास का शिष्य बताकर जो परंपरा मिलाई गई है वह कल्पित प्रतीत होती है। वे रामोपासक वैष्णव अवश्य थे, पर स्मार्त वैष्णव थे। 
गोस्वामी जी के प्रादुर्भाव को हिन्दी काव्य क्षेत्र में एक चमत्कार समझना चाहिए। हिन्दी काव्य की शक्ति का पूर्ण प्रसार इनकी रचनाओं में ही पहले पहल दिखाई पड़ा। वीरगाथाकाल के कवि अपने संकुचित क्षेत्र में काव्यभाषा के पुराने रूप को लेकर एक विशेष शैली की परंपरा निभाते आ रहे थे। चलती भाषा का संस्कार और समुन्नति उनके द्वारा नहीं हुई। भक्तिकाल में आकर भाषा के चलते रूप को समाश्रय मिलने लगा। कबीरदास ने चलती बोली में अपनी वाणी कही। पर वह बोली बेठिकाने की थी। उसका कोई नियत रूप न था। शौरसेनी, अपभ्रंश या नागर अपभ्रंश का जो सामान्य रूप साहित्य के लिए स्वीकृत था उससे कबीर का लगाव न था। उन्होंने नाथपंथियों की 'सधुक्कड़ी भाषा' का व्यवहार किया जिसमें खड़ी बोली के बीच राजस्थानी और पंजाबी का मेल था। इसका कारण यह था कि मुसलमानों की बोली पंजाबी या खड़ी बोली हो गई थी और निर्गुणपंथी साधुओं का लक्ष्य मुसलमानों पर भी प्रभाव डालने का था। अत: उनकी भाषा में अरबी और फारसी के शब्दों का भी मनमाना प्रयोग मिलता है। उनका कोई साहित्यिक लक्ष्य न था और वे पढ़े लिखे लोगों से दूर ही दूर अपना उपदेश सुनाया करते थे। 
साहित्य की भाषा में, जो वीरगाथा काल के कवियों के हाथ में बहुत कुछ अपने पुराने रूप में ही रही, प्रचलित भाषा के संयोग से नया जीवन सगुणोपासक कवियों द्वारा प्राप्त हुआ। भक्तवर सूरदास जी ब्रज की चलती भाषा को परंपरा से चली आती हुई काव्यभाषा के बीच पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित करके साहित्यिक भाषा को लोकव्यवहार के मेल में लाए। उन्होंने परंपरा से चली आती हुई काव्यभाषा का तिरस्कार न करके उसे एक नया चलता रूप दिया। सूरसागर को ध्यानपूर्वक देखने से उसमें क्रियाओं के कुछ पुराने रूप, कुछ सर्वनाम (जैसे जासु तासु, जेहि तेहि) तथा कुछ प्राकृत के शब्द पाए जाएँगे। सारांश यह कि वे परंपरागत काव्यभाषा को बिल्कुल अलग करके एकबारगी नई चलती बोली लेकर नहीं चले। भाषा का एक शिष्ट सामान्य रूप उन्होंने रखा जिसका व्यवहार आगे चलकर बराबर कविता में होता आया। यह तो हुई ब्रज भाषा की बात। इसके साथ ही पूरबी बोली या अवधी भी साहित्य निर्माण की ओर अग्रसर हो चुकी थी। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अवधी की सबसे पुरानी रचना ईश्वरदास की 'सत्यवती कथा' है।4 आगे चलकर 'प्रेममार्गी शाखा' के मुसलमान कवियों ने अपनी कहानियों के लिए अवधी भाषा ही चुनी। इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने समय में काव्यभाषा के दो रूप प्रचलित पाए एक ब्रज और दूसरी अवधी। दोनों में उन्होंने समान अधिकार के साथ रचनाएँ कीं।
भाषा पद्य के स्वरूप को लेते हैं तो गोस्वामी जी के सामने कई शैलियाँ प्रचलित थीं जिनमें से मुख्य ये हैं(क) वीरगाथाकाल की छप्पय पद्ध ति, (ख) विद्यापति और सूरदास की गीत पद्ध ति, (ग) गंग आदि भाटों की कवित्त सवैया पद्ध ति, (घ) कबीरदास की नीति संबंधी बानी की दोहा पद्ध ति जो अपभ्रंश से चली आती थी और (ङ) ईश्वरदास की दोहे, चौपाई वाली प्रबंध पद्ध ति। इस प्रकार काव्यभाषा के दो रूप और रचना की पाँच मुख्य शैलियाँ साहित्य क्षेत्र में गोस्वामी जी को मिलीं। तुलसीदास जी के रचनाविधान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा के बल से सबके सौंदर्य की पराकाष्ठा अपनी दिव्य वाणी में दिखाकर साहित्यक्षेत्र में प्रथम पद के अधिकारी हुए। हिन्दी कविता के प्रेमी मात्र जानते हैं कि उनका ब्रज और अवधी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था। ब्रजभाषा का जो माधुर्य हम सूरसागर में पाते हैं वही माधुर्य और भी संस्कृत रूप में हम गीतावली और कृष्णगीतावली में पाते हैं। ठेठ अवधी की जो मिठास हमें जायसी के पद्मावत में मिलती है वही जानकीमंगल, पार्वतीमंगल, बरवैरामायण और रामललानहछू में हम पाते हैं। यह सूचित करने की आवश्यकता नहीं कि न तो सूर का अवधी पर अधिकार था और न जायसी का ब्रजभाषा पर। 
प्रचलित रचना शैलियों पर भी उनका इसी प्रकार का पूर्ण अधिकार हम पाते हैं।
(क) वीरगाथाकाल की छप्पय पद्ध ति पर इनकी रचना थोड़ी है पर इनकी निपुणता पूर्ण रूप से प्रदर्शित करती है; जैसे
कतहुँ विटप भूधार उपारि परसेन बरक्खत।
कतहुँ बाजि सो बाजि मर्दि गजराज करक्खत
चरन चोट चटकन चकोट अरि उर सिर बज्जत।
बिकट कटक बिद्दरत बीर वारिद जिमि गज्जत
लंगूर लपेटत पटकि भट, 'जयति राम जय' उच्चरत।
तुलसीस पवननंदन अटल जुद्ध क्रुद्ध कौतुक करत
डिगति उर्वि अति गुर्वि, सर्व पब्बै समुद्र सर। 
ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर
दिग्गयंद लरखरत, परत दसकंठ मुक्ख भर। 
सुरविमान हिमभानु, संघटित होत परस्पर।
चौके विरंचि संकर सहित, कोल कमठ अहि कलमल्यौ।
ब्रह्मांड खंड कियो चंडधुनि, जबहिं राम सिवधानुदल्यौ
(ख) विद्यापति और सूरदास की गीत पद्ध ति पर इन्होंने बहुत विस्तृत और बड़ी सुंदर रचना की है। सूरदास जी की रचना में संस्कृत की 'कोमलकांत पदावली' और अनुप्रासों की वह विचित्र योजना नहीं है जो गोस्वामी जी की रचना में है। दोनों भक्त शिरोमणियों की रचना में यह भेद ध्यान देने योग्य है और इस पर ध्यान अवश्य जाता है। गोस्वामी जी की रचना अधिक संस्कृतगर्भित है। पर इसका यह अभिप्राय नहीं है कि इनके पदों में शुद्ध देशभाषा का माधुर्य नहीं है। इन्होंने दोनों प्रकार की मधुरता का बहुत ही अनूठा मिश्रण किया है। विनयपत्रिका के प्रारंभिक स्त्रोतों में जो संस्कृत पदविन्यास है उसमें गीतगोविंद के पदविन्यास से इस बात की विशेषता है कि वह विषम है और रस के अनुकूल कहीं कोमल और कहीं कहीं कर्कश देखने में आता है। हृदय के विविधा भावों की व्यंजना गीतावली के मधुर पदों में देखने योग्य है। कौशल्या के सामने भरत अपनी आत्मग्लानि की व्यंजना किन शब्दों में करते हैं, देखिए
जौ हौं मातुमते महँ ह्वैहौं। 
तौ जननी जग में या मुख की कहाँ कालिमा ध्वैहौं?
क्यौं हौं आजु होत सुचि सपथनि, कौन मानिहै साँची?
महिमा मृगी कौन सुकृती की खल बच बिसिषन्ह बाँची?
इसी प्रकार चित्रकूट में राम के सम्मुख जाते हुए भरत की दशा का भी सुंदर चित्रण है
बिलोके दूरि तें दोउ वीर। 
मन अगहुँड़ तन पुलक सिथिल भयो, नयन नलिन भरेनीर।
गड़त गोड़ मनो सकुच पंक महँ, कढ़त प्रेमबल धीर
'गीतावली' की रचना गोस्वामी जी ने सूरदास जी के अनुकरण पर की है। बाललीला के कई एक पद ज्यों के त्यों सूरसागर में भी मिलते हैं, केवल 'राम' 'श्याम' का अंतर है। लंकाकांड तक तो कथा की अनेकरूपता के अनुसार मार्मिक स्थलों का जो चुनाव हुआ है वह तुलसी के सर्वथा अनुरूप है। पर उत्तरकांड में जाकर सूर पद्ध ति के अतिशय अनुकरण के कारण उनका गंभीर व्यक्तित्व तिरोहित सा हो गया है। जिस रूप में राम को उन्होंने सर्वत्र लिया है, उनका भी ध्यान उन्हें नहीं रह गया। 'सूरदास' में जिस प्रकार गोपियों के साथ श्रीकृष्ण हिंडोला झूलते हैं, होली खेलते हैं, वही करते राम भी दिखाए गए हैं। इतना अवश्य है कि सीता की सखियों और पुरनारियों का राम की ओर पूज्यभाव ही प्रकट होता है। राम की नखशिख शोभा का अलंकृत वर्णन भी सूर की शैली पर बहुत से पदों में लगातार चला गया है। सरयूतट के इस आनंदोत्सव को आगे चलकर रसिक लोग क्या रूप देंगे इसका ख्याल गोस्वामी जी को न रहा।
(ग) गंग आदि भाटों की कवित्त, सवैया पद्ध ति पर भी इसी प्रकार सारा रामचरित गोस्वामी जी कह गए हैं जिसमें नाना रसों का सन्निवेश अत्यंत विशद रूप में और अत्यंत पुष्ट और स्वच्छ भाषा में मिलता है। नाना रसमयी रामकथा तुलसीदास जी ने अनेक प्रकार की रचनाओं में कही है। कवितावली में रसानुकूल शब्दयोजना बड़ी सुंदर है। जो तुलसीदास जी ऐसी कोमल भाषा का व्यवहार करते हैं
राम को रूप निहारत जानकि, कंकन के नग की परछाहीं।
याते सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही, पल डारति नाहीं

गोरो गरूर गुमान भरो यह, कौसिक, छोटो सो ढोटो है काको?

जल को गए लक्खन, हैं लरिका, परिखौ, पिय छाँह घरीक ह्वै ठाढ़े।
पोंछि पसेउ बयारि करौं, अरु पाँय पखारिहौं भूभुरि डाढ़े
वे ही वीर और भयानक के प्रसंग में ऐसी शब्दावली का व्यवहार करते हैं।
प्रबल प्रचंड बरिबंड बाहुदंड वीर, 
धाए जातुधान, हनुमान लियो घेरि कै।
महाबल पुंज कुंजरारि ज्यों गरजि भट, 
जहाँ तहाँ पटके लंगूर फेरि फेरि कै।
मारे लात, तोरे गात, भागे जात, हाहा खात,
कहैं तुलसीस 'राखि राम की सौं' टेरि कै।
ठहर ठहर परे, कहरि कहरि उठै, 
हहरि हहरि हर सिद्ध हँसे हेरि कै

बालधी बिसाल विकराल ज्वाल लाल मानौ, 
लंक लीलिबे को काल रसना पसारी है।
कैधों ब्योम वीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,
बीररस बीर तरवारि सी उघारी है
(घ) नीति के उपदेश की सूक्ति पद्ध ति पर बहुत से दोहे रामचरितमानस और दोहावली में मिलेंगे जिनमें बड़ी मार्मिकता से और कहीं कहीं बड़े रचनाकौशल से व्यवहार की बातें कही गई हैं और भक्तिप्रेम की मर्यादा दिखाई गई है
रीझि आपनी बूझि पर, खीझि विचार विहीन।
ते उपदेस न मानहीं, मोह महोदधि मीन।
लोगन भलो मनाव जो, भलो होन की आस।
करत गगन को गेंडुआ, सो सठ तुलसीदास।
की तोहि लागहि राम प्रिय, की तु राम प्रिय होहि।
दुइ महँ रुचै जो सुगम सोइ, कीबे तुलसी तोहि
(ङ) जिस प्रकार चौपाई, दोहे के क्रम से जायसी ने अपना पद्मावत नाम का प्रबंधकाव्य लिखा उसी क्रम पर गोस्वामी जी ने अपना परम प्रसिद्ध काव्य रामचरितमानस, जो लोगों के हृदय का हार बनता चला आता है, रचा। भाषा वही अवधी है, केवल पदविन्यास का भेद है। गोस्वामी जी शास्त्रपारंगत विद्वान थे अत: उनकी शब्दयोजना साहित्यिक और संस्कृतगर्भित है। जायसी में केवल ठेठ अवधी का माधुर्य है, पर गोस्वामी जी की रचना में संस्कृत की कोमल पदावली का भी बहुत ही मनोहर मिश्रण है। नीचे दी हुई कुछ चौपाइयों में दोनों की भाषा का भेद स्पष्ट देखा जा सकता है
जब हुँत कहिगा पंखि संदेसी । सुनिउँ कि आवा है परदेसी
तब हुँत तुम्ह बिन रहे न जीऊ । चातक भयउँ कहत पिउ पीउ
भइउँ बिरह जरि कोइलि कारी । डार डार जो कूकि पुकारी
एजायसी
अमिय मूरिमय चूरन चारू । समन सकल भवरुज परिवारू
सुकृत संभु तनु विमल विभूती । मंजुल मंगल मोद प्रसूती
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी । किए तिलक गुन गन बस करनी
तुलसी
सारांश यह कि हिन्दी काव्य की सब प्रकार की रचनाशैली के ऊपर गोस्वामी जी ने अपना ऊँचा आसन प्रतिष्ठित किया है। यह उच्चता और किसी को प्राप्त नहीं। 
अब हम गोस्वामी जी के वर्णित विषय के विस्तार का विचार करेंगे। यह विचार करेंगे कि मानव जीवन की कितनी अधिक दशाओं का सन्निवेश उनकी कविता के भीतर है। इस संबंध में हम यह पहले ही कह देना चाहते हैं कि अपने दृष्टिविस्तार के कारण ही तुलसीदास जी उत्तरी भारत की समग्र जनता के हृदयमंदिर में पूर्ण प्रेमप्रतिष्ठा के साथ विराज रहे हैं। भारतीय जनता का प्रतिनिधि कवि यदि किसी को कह सकते हैं तो इन्हीं महानुभाव को। और कवि जीवन का कोई एक पक्ष लेकर चले हैं जैसे वीरकाल के कवि उत्साह को; भक्तिकाल के दूसरे कवि प्रेम और ज्ञान को; अलंकारकाल के कवि दांपत्य प्रणय या श्रृंगार को। पर इनकी वाणी की पहुँच मनुष्य के सारे भावों और व्यवहारों तक है। एक ओर तो वह व्यक्तिगत साधना के मार्ग में विरागपूर्ण शुद्ध भगवद्भक्ति का उपदेश करती है, दूसरी ओर लोकपक्ष में आकर पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों का सौंदर्य दिखाकर मुग्ध करती है। व्यक्तिगत साधना के साथ ही साथ लोकधर्म की अत्यंत उज्ज्वल छटा उसमें वर्तमान है।
पहले कहा जा चुका है कि निर्गुण धारा के संतों की बानी में किस प्रकार लोकधर्म की अवहेलना छिपी हुई थी। सगुण धारा की भारतीय पद्ध ति के भक्तों में कबीर, दादू आदि के लोकधर्म विरोधी स्वरूप को यदि किसी ने पहचाना तो गोस्वामी जी ने। उन्होंने देखा कि उनके वचनों से जनता की चित्तवृत्ति में ऐसे घोर विकार की आशंका है जिससे समाज विशृंखल हो जाएगा, उसकी मर्यादा नष्ट हो जायगी। जिस समाज से ज्ञानसंपन्न शास्त्रज्ञ विद्वानों, अन्याय अत्याचार के दमन में तत्पर वीरों, पारिवारिक कर्तव्यों का पालन करने वाले उच्चाशय व्यक्तियों, पतिप्रेम परायण सतियों, पितृभक्ति के कारण अपना सुख सर्वस्व त्यागने वाले सत्पुरुषों, स्वामी की सेवा में मर मिटनेवाले सच्चे सेवकों, प्रजा का पुत्रवत् पालन करने वाले शासकों आदि के प्रति श्रध्दा और प्रेम का भाव उठ जायगा उसका कल्याण कदापि नहीं हो सकता। 
गोस्वामी जी को निर्गुण पंथियों की बानी में लोकधर्म की उपेक्षा का भाव स्पष्ट दिखाई पड़ा। साथ ही उन्होंने यह भी देखा कि बहुत से अनधिकारी और अशिक्षित वेदांत के कुछ चलते शब्दों को लेकर, बिना उनका तात्पर्य समझे, यों ही 'ज्ञानी' बने हुए, मूर्ख जनता को लौकिक कर्तव्यों से विचलित करना चाहते हैं और मूर्खतामिश्रित अहंकार की वृद्धि कर रहे हैं। इसी दशा को लक्ष्य करके उन्होंने इस प्रकार के वचन कहे हैं
श्रुति सम्मत हरिभक्ति पथ संजुत विरति विवेक।
नहि परिहरहिं विमोहबस कल्पहि पंथ अनेक
साखी सबदी दोहरा कहि कहनी उपखान।
भगति निरूपहिं भगत कलि निंदहिं वेद पुरान
बादहिं शूद्र द्विजन सन हम तुमतें कछु घाटि।
जानहिं ब्रह्म सो बिप्रवर ऑंखि देखावहिं डाटि
इसी प्रकार योगमार्ग से भक्तिमार्ग का पार्थक्य गोस्वामी जी ने बहुत स्पष्ट शब्दों में बताया है। योगमार्ग ईश्वर को अंतस्थ मानकर अनेक प्रकार की अंतस्साधनाओं में प्रवृत्त करता है। सगुण भक्तिमार्गी ईश्वर को भीतर और बाहर सर्वत्र मानकर उनकी कला का दर्शन खुले हुए व्यक्त जगत के बीच करता है। वह ईश्वर को केवल मनुष्य के क्षुद्र घट के भीतर ही नहीं मानता। इसी से गोस्वामी जी कहते हैं
अंतर्जामिहु तें बड़ बाहिरजामी हैं राम, जो नाम लिए तें।
पैज परे प्रहलादहु को प्रगटे प्रभु पाहन तें, न हिए तें
'घट के भीतर' कहने से गुह्य या रहस्य की धारणा फैलती है जो भक्ति के सीधे स्वाभाविक मार्ग में बाधा डालती है। घट के भीतर साक्षात्कार करने की बात कहने वाले प्राय: अपने को गूढ़ रहस्यदर्शी प्रगट करने के लिए सीधी सादी बात को भी रूपक बाँधकर और टेढ़ी पहेली बनाकर कहा करते हैं। पर इस प्रकार के दुराव छिपाव की प्रवृत्ति को गोस्वामी जी भक्ति का विरोधी मानते हैं। सरलता या सीधेपन को वे भक्ति का नित्य लक्षण कहते हैं मन की सरलता, वचन की सरलता और कर्म की सरलता, तीनों को
सूधो मन, सूधो बचन, सूधी सब करतूति।
तुलसी सूधी सकल बिधि, रघुबर प्रेम प्रसूति
वे भक्ति के मार्ग को ऐसा नहीं मानते जिसे 'लखै कोई बिरलै'। वे उसे ऐसा सीधा सादा स्वाभाविक मार्ग बताते हैं जो सबके सामने दिखाई पड़ता है। वह संसार में सबके लिए ऐसा ही सुलभ है जैसे अन्न और जल
निगम अगम, साहब सुगम, राम साँचिली चाह।
अंबु असन अवलोकियत, सुलभ सबहि जग माँह
अभिप्राय यह कि जिस हृदय से भक्ति की जाती है वह सबके पास है। हृदय की जिस पद्ध ति से भक्ति की जाती है वह भी वही है जिससे माता पिता की भक्ति, पुत्र कलत्र का प्रेम किया जाता है। इसी से गोस्वामी जी चाहते हैं कि
यहि जग महँ जहँ लगि या तन की प्रीति प्रतीति सगाई।
सो सब तुलसीदास प्रभु ही सों होहु सिमिटि इक ठाई
नाथपंथी रमते जोगियों के प्रभाव से जनता अंधी भेड़ बनी हुई तरह तरह की करामातों को साधुता का चिद्द मानने लगी थी और ईश्वरोन्मुख साधना को कुछ बिरले रहस्यदर्शी लोगों का ही काम समझने लगी थी। जो हृदय सबके पास होता है वही अपनी स्वाभाविक वृत्तियों द्वारा भगवान की ओर लगाया जा सकता है, इस बात पर परदा सा डाल दिया गया था। इससे हृदय रहते भी भक्ति का सच्चा स्वाभाविक मार्ग लोग नहीं देख पाते थे। यह पहले कहा जा चुका है कि नाथपंथ का हठयोग मार्ग हृदयपक्ष शून्य है।5 रागात्मिका वृत्ति से उसका कोई लगाव नहीं। अत: रमते जोगियों की रहस्यभरी बानियाँ सुनते सुनते जनता के हृदय में भक्ति की सच्ची भावना दब गई थी, उठने ही नहीं पाती थी। लोक की इसी दशा को लक्ष्य करके गोस्वामी जी को कहना पड़ा था किए
गोरख जगायो जोग, भगति भगायो लोग।
गोस्वामी जी की भक्तिपद्ध ति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वांगपूर्णता। जीवन के किसी पक्ष को सर्वथा छोड़कर वह नहीं चलती है। सब पक्षों के साथ उसका सामंजस्य है। न उनका कर्म या धर्म से विरोध है, न ज्ञान से। धर्म तो उसका नित्यलक्षण है। तुलसी की भक्ति को धर्म और ज्ञान दोनों की रसानुभूति कह सकते हैं। योग का भी उसमें समन्वय है, पर उतने ही का जितना ध्यान के लिए, चित्त को एकाग्र करने के लिए आवश्यक है।
प्राचीन भारतीय भक्तिमार्ग के भीतर भी उन्होंने बहुत सी बढ़ती हुई बुराइयों को रोकने का प्रयत्न किया। शैवों और वैष्णवों के बीच बढ़ते हुए विद्वेष को उन्होंने अपनी सामंजस्य व्यवस्था द्वारा बहुत कुछ रोका जिसके कारण उत्तरी भारत में वह वैसा भयंकर रूप न धारण कर सका जैसा उसने दक्षिण में किया। यहीं तक नहीं, जिस प्रकार उन्होंने लोकधर्म और भक्तिसाधना को एक में सम्मिलित करके दिखाया उसी प्रकार कर्म, ज्ञान और उपासना के बीच भी सामंजस्य उपस्थित किया। 'मानस' के बालकांड में संत समाज का जो लंबा रूपक है वह इस बात को स्पष्ट रूप में सामने लाता है। भक्ति की चरम सीमा पर पहुँचकर भी लोकपक्ष उन्होंने नहीं छोड़ा। लोकसंग्रह का भाव उनकी भक्ति का एक अंग था। कृष्णोपासक भक्तों में इस अंग की कमी थी। उनके बीच उपास्य और उपासक के संबंध की ही गूढ़ातिगूढ़ व्यंजना हुई, दूसरे प्रकार के लोकव्यापक नाना संबंधों के कल्याणकारी सौंदर्य की प्रतिष्ठा नहीं हुई। यही कारण है कि इनकी भक्तिरसभरी वाणी जैसी मंगलकारिणी मानी गई वैसी और किसी की नहीं। आज राजा से रंक तक के घर में गोस्वामी जी का रामचरितमानस विराज रहा है और प्रत्येक प्रसंग पर इनकी चौपाइयाँ कही जातीहैं।
अपनी सगुणोपासना का निरूपण गोस्वामी जी ने कई ढंग से किया है। रामचरितमानस में नाम और रूप दोनों को ईश्वर की उपाधि कहकर वे उन्हें उसकी अभिव्यक्ति मानते हैं
नाम रूप दुइ ईस उपाधी । अकथ अनादि सुसामुझि साधी
नाम रूप गति अकथ कहानी । समुझत सुखद न परति बखानी
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी । उभय प्रबोधक चतुर दुभाखी
दोहावाली में भक्ति की सुगमता बड़े ही मार्मिक ढंग से गोस्वामी जी ने इस दोहे के द्वारा सूचित की है
की तोहि लागहिं राम प्रिय, की तु रामप्रिय होहि।
दुई महँ रुचै जो सुगम सोइ, कीबे तुलसी तोहि
इसी प्रकार रामचरितमानस के उत्तरकांड में उन्होंने ज्ञान की अपेक्षा भक्ति को कहीं अधिक सुसाध्य और आशुफलदायिनी कहा है। 
रचनाकौशल, प्रबंधपटुता, सहृदयता इत्यादि सब गुणों का समाहार हमें रामचरितमानस में मिलता है। पहली बात जिस पर ध्यान जाता है, वह है कथाकाव्य के सब अवयवों का उचित समीकरण। कथाकाव्य या प्रबंधकाव्य के भीतर इतिवृत्त, वस्तु व्यापार वर्णन, भाव व्यंजना और संवाद, ये अवयव होते हैं। न तो अयोध्यापुरी की शोभा, बाललीला, नखशिख, जनक की वाटिका, अभिषेकोत्सव इत्यादि के वर्णन बहुत लंबे होने पाए हैं, न पात्रों के संवाद, न प्रेम, शोक आदि भावों की व्यंजना। इतिवृत्त की श्रृंखला भी कहीं से टूटती नहीं है। 
दूसरी बात है कथा के मार्मिक स्थलों की पहचान। अधिक विस्तार हमें ऐसे ही प्रसंगों का मिलता है जो मनुष्य मात्र के हृदय को स्पर्श करने वाले हैं जैसे जनक की वाटिका में राम सीता का परस्पर दर्शन, राम वन गमन, दशरथ मरण, भरत की आत्मग्लानि, वन के मार्ग में स्त्री पुरुषों की सहानुभूति, युद्ध में लक्ष्मण को शक्ति लगना इत्यादि।
तीसरी बात है प्रसंगानुकूल भाषा। रसों के अनुकूल कोमल, कठोर पदों की योजना तो निर्दिष्ट रूढ़ि ही है। उसके अतिरिक्त गोस्वामी जी ने इस बात का भी ध्यान रखा है कि किस स्थल पर विद्वानों या शिक्षितों की संस्कृत मिश्रित भाषा रखनी चाहिए और किस स्थल पर ठेठ बोली। घरेलू प्रसंग समझकर कैकेयी और मंथरा के संवाद में उन्होंने ठेठ बोली और स्त्रियों में विशेष चलते प्रयोगों का व्यवहार किया है। अनुप्रास की ओर प्रवृत्ति तो सब रचनाओं में स्पष्ट लक्षित होती है।
चौथी बात है श्रृंगार की शिष्ट मर्यादा के भीतर बहुत ही व्यंजक वर्णन।
जिस धूमधाम से 'मानस' की प्रस्तावना चली है उसे देखते ही ग्रंथ के महत्व का आभास मिल जाता है। उससे साफ झलकता है कि तुलसीदास जी अपने ही तक दृष्टि रखनेवाले भक्त न थे, संसार को भी दृष्टि फैलाकर देखने वाले भक्त थे। जिस व्यक्त जगत के बीच उन्हें भगवान के रामरूप की कला का दर्शन कराना था, पहले चारों ओर दृष्टि दौड़ाकर उसके अनेक रूपात्मक स्वरूप को उन्होंने सामने रखा है। फिर उसके भले बुरे पक्षों की विषमता देख दिखाकर अपने मन का यह कहकर समाधान किया है
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जगजलधि अगाधू
इसी प्रस्तावना के भीतर तुलसी ने अपनी उपासना के अनुकूल विशिष्टाद्वैत सिध्दांत का आभास भी यह कहकर दिया है
सियाराममय सब जग जानी। करौं प्रनाम जोरि जुग पानी
जगत् को केवल राममय न कहकर उन्होंने 'सियाराममय' कहा है। सीता प्रकृतिस्वरूपा हैं और राम ब्रह्म हैं; प्रकृति अचित् पक्ष है और ब्रह्म चित् पक्ष। अत: परमार्थिक सत्ता चिदचिद्विशिष्ट है, यह स्पष्ट झलकता है। चित् और अचित् वस्तुत: एक ही हैं, इसका निर्देश उन्होंने
गिरा अर्थ, जल बीचि सम कहियत भिन्न, नभिन्न।
बंदौ सीताराम पद जिनहि परम प्रिय खिन्न
कहकर किया है। 
'रामचरितमानस' के भीतर कहीं कहीं घटनाओं के थोड़े ही हेर फेर तथा स्वकल्पित संवादों के समावेशों के अतिरिक्त अपनी ओर से छोटी मोटी घटनाओं या प्रसंगों की नई कल्पना तुलसीदास जी ने नहीं की है। 'मानस' में उनका ऐसा न करना तो उनके उद्देश्य के अनुसार बहुत ठीक है। राम के प्रामाणिक चरित द्वारा वे जीवन भर बना रहने वाला प्रभाव उत्पन्न करना चाहते थे, और काव्यों के समान केवल अल्प स्थायी रसानुभूति मात्र नहीं। 'ये प्रसंग तो केवल तुलसी द्वारा कल्पित हैं' यह धारणा उन प्रसंगों का कोई स्थायी प्रभाव श्रोताओं या पाठकों पर न जमने देती। पर गीतावली तो प्रबंध काव्य न थी। उसमें तो सूर के अनुकरण पर वस्तु व्यापार वर्णन का बहुत विस्तार है। उसके भीतर छोटे छोटे नूतन प्रसंगों की उद्भावना का पूरा अवकाश था, फिर भी कल्पित घटनात्मक प्रसंग नहीं पाए जाते। इससे यही प्रतीत होता है कि उनकी प्रतिभा अधिकतर उपलब्ध प्रसंगों को लेकर चलने वाली थी, नए नए प्रसंगों की उद्भावना करने वाली नहीं। उनकी कल्पना वस्तुस्थिति को ज्यों की त्यों लेकर उसके मार्मिक स्वरूपों के उद्धाटन में प्रवृत्त होती थी। गोपियों को छकाने वाली कृष्णलीला के अंतर्गत छोटी मोटी कथा के रूप में कुछ दूर तक मनोरंजक और कुतूहलप्रद ढंग से चलने वाले नाना प्रसंगों की जो नवीन उद्भावना सूरसागर में पाई जाती है वह तुलसी के किसी ग्रंथ में नहीं मिलती। 
'रामचरितमानस' में तुलसी केवल कवि रूप में ही नहीं, उपदेशक के रूप में भी सामने आते हैं। उपदेश उन्होंने किसी न किसी पात्र के मुख से कराए हैं, इससे काव्यदृष्टि से यह कहा जा सकता है कि वे उपदेश पात्र के स्वभावचित्रण के साधनरूप हैं। पर बात यह नहीं है। वे उपदेश उपदेश के लिए ही हैं। 
गोस्वामी जी के रचे बारह ग्रंथ प्रसिद्ध हैं जिनमें पाँच बड़े और सात छोटे हैं। दोहावली, कवित्तरामायण, गीतावली, रामचरितमानस, विनयपत्रिका बड़े ग्रंथ हैं तथा रामललानहछू, पार्वतीमंगल, जानकीमंगल, बरवैरामायण, वैराग्यसंदीपनी, कृष्णगीतावली और रामाज्ञाप्रश्नावली छोटे। पं. रामगुलाम द्विवेदी ने, जो एक प्रसिद्ध भक्त और रामायणी हो गए हैं, इन्हीं बारह ग्रंथों को गोस्वामी जी कृत माना है। पर शिवसिंहसरोज में दस और ग्रंथों के नाम गिनाए गए हैं, यथा रामसतसईं, संकटमोचन, हनुमद्बाहुक, रामसलाका, छंदावली, छप्पय रामायण, कड़खा रामायण, रोला रामायण, झूलना रामायण और कुंडलिया रामायण। इनमें से कई एक तो मिलते ही नहीं। हनुमद्बाहुक को पं. रामगुलाम जी ने कवितावली के ही अंतर्गत लिया है। रामसतसईं में सात सौ से कुछ अधिक दोहे हैं जिनमें से डेढ़ सौ के लगभग दोहावली के ही हैं। अधिकांश दोहे उसमें कुतूहलवर्धक, चातुर्य लिए हुए और क्लिष्ट हैं। यद्यपि दोहावली में भी कुछ दोहे इस ढंग के हैं, पर गोस्वामी जी ऐसे गंभीर, सहृदय और कलामर्मज्ञ महापुरुष के ऐसे पद्यों का इतना बड़ा ढेर लगाना समझ में नहीं आता। जो हो, बाबा बेनीमाधवदास के नाम पर प्रणीत चरित में भी रामसतसईं का उल्लेख हुआ है। 
कुछ ग्रंथों के निर्माण के संबंध में जो जनश्रुतियाँ प्रसिद्ध हैं, उनका उल्लेख भी यहाँ आवश्यक है। कहते हैं कि बरवै रामायण गोस्वामी जी ने अपने स्नेही मित्र अब्दुर्रहीम खानखाना के कहने पर उनके बरवा (बरवै नायिकाभेद) को देखकर बनाया था। कृष्णगीतावली वृंदावन की यात्रा के अवसर पर बनी कही जाती है। पर बाबा बेनीमाधवदास के 'गोसाईंचरित' के अनुसार रामगीतावली और कृष्णगीतावली दोनों ग्रंथ चित्रकूट में उस समय के कुछ पीछे लिखे गए जब सूरदास जी उनसे मिलने वहाँ गए थे। गोस्वामी जी के एक मित्र पं. गंगाराम ज्योतिषी काशी में प्रह्लाद घाट पर रहते थे। रामाज्ञाप्रश्न उन्हीं के अनुरोध से बना माना जाता है। हनुमानबाहुक से तो प्रत्यक्ष है कि वह बाहुओं में असह्य पीड़ा उठने के समय रचा गया था। विनयपत्रिका के बनने का कारण यह कहा जाता है कि जब गोस्वामी जी ने काशी में रामभक्ति की गहरी धूम मचाई तब एक दिन कलिकाल तुलसीदास जी को प्रत्यक्ष आकर धमकाने लगा और उन्होंने राम के दरबार में रखने के लिए वह पत्रिका या अर्जी लिखी। 
गोस्वामी जी की सर्वांगपूर्ण काव्यकुशलता का परिचय आरंभ में ही दिया जा चुका है। उनकी साहित्यमर्मज्ञता, भावुकता और गंभीरता के संबंध में इतना और जान लेना भी आवश्यक है कि उन्होंने रचनानैपुण्य का भद्दा प्रदर्शन कहीं नहीं किया है और न शब्द चमत्कार आदि के खेलवाड़ों में वे फँसे हैं। अलंकारों की योजना उन्होंने ऐसे मार्मिक ढंग से की है कि वे सर्वत्र भावों या तथ्यों की व्यंजना को प्रस्फुटित करते हुए पाए जाते हैं, अपनी अलग चमक दमक दिखाते हुए नहीं। कहीं कहीं लंबे लंबे सांग रूपक बाँधाने में अवश्य उन्होंने एक भद्दी परंपरा का अनुसरण किया है। दोहावली के कुछ दोहों के अतिरिक्त और सर्वत्र भाषा का प्रयोग उन्होंने भावों और विचारों को स्पष्ट रूप में रखने के लिए किया है, कारीगरी दिखाने के लिए नहीं। उनकी सी भाषा की सफाई और किसी कवि में नहीं। सूरदास में ऐसे वाक्य मिलते हैं जो विचारधारा आगे बढ़ाने में कुछ भी योग देते नहीं पाए जाते, केवल पादप्रत्यर्थ ही लाए हुए जान पड़ते हैं। इसी प्रकार तुकांत के लिए शब्द भी तोड़े मरोड़े गए हैं। पर गोस्वामी जी की काव्यरचना अत्यंत प्रौढ़ और सुव्यवस्थित है, एक भी शब्द फालतू नहीं। खेद है कि भाषा की यह सफाई पीछे होनेवाले बहुत कम कवियों में रह गई। सब रसों की सम्यक् व्यंजना उन्होंने की है, पर मर्यादा का उल्लंघन कहीं नहीं किया है। प्रेम और श्रृंगार का ऐसा वर्णन जो बिना किसी लज्जा और संकोच के सबके सामने पढ़ा जा सके, गोस्वामी जी का ही है। हम निस्संकोच कह सकते हैं कि यह एक कवि ही हिन्दी को प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफी है।
2. स्वामी अग्रदास रामानंद जी के शिष्य अनंतानंद और अनंतानंद के शिष्य कृष्णदास पयहारी थे। कृष्णदास पयहारी के शिष्य अग्रदासजी थे। इन्हीं अग्रदासजी के शिष्य भक्तमाल के रचयिता प्रसिद्ध नाभादासजी थे। गलता (राजपूताना) की प्रसिद्ध गद्दी का उल्लेख पहले हो चुका है।6 वहीं ये भी रहा करते थे और संवत् 1632 के लगभग वर्तमान थे। इनकी बनाई चार पुस्तकों का पता है
1. हितोपदेश उपखाणा बावनी
2. ध्यानमंजरी
3. रामध्यानमंजरी
4. कुंडलिया।
इनकी कविता उसी ढंग की है जिस ढंग की कृष्णोपासक नंददास जी की। उदाहरण के लिए यह पद्य देखिए
कुंडल ललित कपोल जुगल अस परम सुदेसा।
तिनको निरखि प्रकास लजत राकेस दिनेसा।
मेचक कुटिल विसाल सरोरुह नैन सुहाए।
मुख पंकज के निकट मनो अलि छौना आए
इनका एक पद भी देखिए
पहरे राम तुम्हारे सोवत । मैं मतिमंद अंधा नहिं जोवत
अपमारग मारग महि जान्यो । इंद्री पोषि पुरुषारथ मान्यो
औरनि के बल अनतप्रकार । अगरदास के राम अधार
3. नाभादास जी ये उपर्युक्त अग्रदास जी के शिष्य, बड़े भक्त और साधुसेवी थे। संवत् 1657 के लगभग वर्तमान थे और गोस्वामी तुलसीदास जी की मृत्यु के बहुत पीछे तक जीवित रहे। इनका प्रसिद्ध ग्रंथ भक्तमाल संवत् 1642 के पीछे बना और संवत् 1769 में प्रियादास जी ने उसकी टीका लिखी। इस ग्रंथ में 200 भक्तों के चमत्कारपूर्ण चरित्र 316 छप्पयों में लिखे गए हैं। इन चरित्रों में पूर्ण जीवनवृत्त नहीं है, केवल भक्ति की महिमासूचक बातें दी गई हैं। इनका उद्देश्य भक्तों के प्रति जनता में पूज्यबुद्धि का प्रचार जान पड़ता है। यह उद्देश्य बहुत अंशों में सिद्ध भी हुआ। आज उत्तरी भारत के गाँव गाँव में साधुवेषधारी पुरुषों को शास्त्रज्ञ विद्वानों और पंडितों से कहीं बढ़कर जो सम्मान और पूजा प्राप्त है, वह बहुत कुछ भक्तों की करामातों और चमत्कारपूर्ण वृत्तांतों के सम्यक् प्रचार से।
नाभा जी को कुछ लोग डोम बताते हैं, कुछ क्षत्रिय। ऐसा प्रसिद्ध है कि वे एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी से मिलने काशी गए। पर उस समय गोस्वामी जी ध्यान में थे, इससे न मिल सके। नाभा जी उसी दिन वृंदावन चले गए। ध्यान भंग होने पर गोस्वामी जी को बड़ा खेद हुआ और वे तुरंत नाभा जी से मिलने वृंदावन चल दिए। नाभा जी के यहाँ वैष्णवों का भंडारा था जिसमें गोस्वामी जी बिना बुलाए जा पहुँचे। गोस्वामी जी यह समझकर कि नाभा जी ने मुझे अभिमानी न समझा हो, सबसे दूर एक किनारे बुरी जगह बैठ गए। नाभा जी ने जान बूझकर उनकी ओर ध्यान न दिया। परसने के समय कोई पात्र न मिलता था जिसमें गोस्वामी जी को खीर दी जाती। यह देखकर गोस्वामी जी एक साधु का जूता उठा लाए और बोले, 'इससे सुंदर पात्र मेरे लिए और क्या होगा?' इस पर नाभा जी ने उठकर उन्हें गले लगा लिया और गद्गद हो गए। ऐसा कहा जाता है कि तुलसी संबंधी अपने प्रसिद्ध छप्पय के अंत में पहले नाभा जी ने कुछ चिढ़कर यह चरण रखा था 'कलि कुटिल जीव तुलसी भए, वाल्मीकि अवतार धारि।' यह वृत्तांत कहाँ तक ठीक है, नहीं कहा जा सकता, क्योंकि गोस्वामी जी खानपान का विचार रखने वाले स्मार्त वैष्णव थे। तुलसीदास जी के संबंध में नाभा जी का प्रसिद्ध छप्पय यह है
त्रोता काव्य निबंध करी सत कोटि रमायन।
इक अच्छर उच्चरे ब्रह्महत्यादि परायन
अब भक्तन सुख दैन बहुरि लीला बिस्तारी।
रामचरनरसमत्ता रहत अहनिसि व्रतधारी
संसार अपार के पार को सुगम रूप नौका लियो।
कलि कुटिल जीव निस्तारहित वाल्मीकि तुलसी भयो
अपने गुरु अग्रदास के समान इन्होंने भी रामभक्ति संबंधी कविता की है। ब्रजभाषा पर इनका अच्छा अधिकार था और पद्य रचना में अच्छी निपुणता थी। रामचरित संबंधी इनके पदों का एक छोटा सा संग्रह अभी थोड़े दिन हुए प्राप्त हुआ है।
इन पुस्तकों के अतिरिक्त इन्होंने दो 'अष्टयाम' भी बनाए एक ब्रजभाषा गद्य में, दूसरा रामचरितमानस की शैली पर दोहा चौपाइयों में। दोनों के उदाहरण नीचे दिए जाते हैं
गद्य
तब श्री महाराजकुमार प्रथम श्री वशिष्ठ महाराज के चरन छुइ प्रनाम करत भए। फिरि अपर वृद्ध समाज तिनको प्रनाम करत भए। फिरि श्री राजाधिराज जू को जोहार करिके श्री महेंद्रनाथ दशरथ जू के निकट बैठत भए।
पद्य
अवधपुरी की शोभा जैसी । कहि नहिं सकहिं शेष श्रुति तैसी
रचित कोट कलधौत सुहावन । बिबिधा रंग मति अति मन भावन
चहुँ दिसि विपिन प्रमोदअनूपा । चतुरवीस जोजन रस रूपा
सुदिसि नगर सरजूसरिपावनि । मनिमय तीरथ परम सुहावनि
बिगसे जलज भृंग रस भूले । गुंजत जल समूह दोउ कूले
परिखा प्रति चहुँदिसि लसति, कंचन कोट प्रकास।
बिबिधा भाँति नग जगमगत, प्रति गोपुर पुर पास
4. प्राणचंद चौहान संस्कृत में रामचरित संबंधी कई नाटक हैं जिनमें कुछ तो नाटक के साहित्यिक नियमानुसार हैं और कुछ केवल संवाद रूप में होने के कारण नाटक कहे गए हैं। इसी पिछली पद्ध ति पर संवत् 1667 में इन्होंने रामायण महानाटक लिखा। रचना का ढंग नीचे उध्दृत अंश से ज्ञात हो सकता है
कातिक मास पच्छ उजियारा । तीरथ पुन्य सोम कर वारा
ता दिन कथा कीन्ह अनुमाना । शाह सलेम दिलीपति थाना
संवत् सोरह सै सत साठा । पुन्य प्रगास पाय भय नाठा
जो सारद माता कर दाया । बरनौं आदि पुरुष की माया
जेहि माया कह मुनि जग भूला । ब्रह्मा रहे कमल के फूला
निकसि न सक माया कर बाँधा । देषहु कमलनाल के राँधा
आदिपुरुष बरनौं केहिभाँती । चाँद सुरज तहँ दिवस न राती
निरगुन रूप करै सिव धयाना । चार बेद गुन जेरि बखाना
तीनों गुन जानै संसारा । सिरजै पालै भंजनहारा
श्रवन बिना सो अस बहुगुना । मन में होइ सु पहले सुना
देषै सब पै आहि न ऑंषी । अंधकार चोरी के साषी
तेहि कर दहुँ को करै बषाना । जिहि कर मर्म बेद नहिं जाना
माया सींव भो कोउ न पारा । शंकर पँवरि बीच होइ हारा
5. हृदयराम ये पंजाब के रहनेवाले और कृष्णदास के पुत्र थे। इन्होंने संवत् 1680 में संस्कृत के हनुमन्नाटक के आधार पर भाषा हनुमन्नाटक लिखा जिसकी कविता बड़ी सुंदर और परिमार्जित है। इसमें अधिकतर कवित्त और सवैयों में बड़े अच्छे संवाद हैं। पहले कहा जा चुका है कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने समय की सारी प्रचलित काव्य पद्ध तियों पर रामचरित का गान किया। केवल रूपक या नाटक के ढंग पर उन्होंने कोई रचना नहीं की। गोस्वामी जी के समय से ही उनकी ख्याति के साथ साथ रामभक्ति की तरंगें भी देश के भिन्न भिन्न भागों में उठ चली थीं। अत: उस काल के भीतर ही नाटक के रूप में कई रचनाएँ हुईं जिनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध हृदयराम का हनुमन्नाटक हुआ। 
नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं
देखन जौ पाऊँ तौ पठाऊँ जमलोक, हाथ
दूजो न लगाऊँ, वार करौं एक करको।
मीजि मारौं उर ते उखारि भुजदंड, हाड़,
तोरि डारौं बर अवलोकि रघुबर को
कासों राग द्विज को, रिसात भहरात राम,
अति थहरात गात लागत है धार को।
सीता को संताप मेटि प्रगट प्रताप कीनों,
को है वह आप चाप तोरयो जिन हर को

जानकी को मुख न बिलोक्यों ताते कुंडल,
न जानत हौं, वीर पायँ छुवै रघुराई के।
हाथ जो निहारे नैन फूटियो हमारे, 
ताते कंकन न देखे, बोल कह्यो सतभाइ के
पाँयन के परिबे कौ जाते दास लछमन
यातें पहिचानत है भूषन जे पायँ के। 
बिछुआ है एई, अरु झाँझर हैं एई जुग
नूपुर हैं, तेई राम जानत जराइ के

सातों सिंधु, सातों लोक, सातों रिषि हैं ससोक,
सातों रबि घोरे, थोरे देखे न डरात मैं।
सातों दीप, सातों ईति काँप्यई करत और
सातों मत रात दिन प्रान हैं न गात मैं
सातों चिरजीव बरराइ उठैं बार बार, 
सातों सुर हाय हाय होत दिन रात मैं।
सातहूँ पताल काल सबद कराल, राम
भेदे सात ताल, चाल परी सात सात मैं

एहो हनू! कह्यौ श्री रघुबीर कछू सुधि है सिय की छिति माँही?
है प्रभु लंक कलंक बिना सुबसै तहँ रावन बाग की छाँहीं
जीवति है? कहिबेई को नाथ, सु क्यों न मरी हमतें बिछुराहीं।
प्रान बसै पद पंकज में जम आवत है पर पावत नाहीं
रामभक्ति का एक अंग आदि रामभक्त हनुमान जी की उपासना भी हुई। स्वामी रामानंद जी कृत हनुमान जी की स्तुति का उल्लेख हो चुका है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमान की वंदना बहुत स्थलों पर की है। 'हनुमानबाहुक' तो केवल हनुमान जी को ही संबोधन करके लिखा गया है। भक्ति के लिए किसी पहुँचे हुए भक्त का प्रसाद भी भक्तिमार्ग में अपेक्षित होता है। संवत् 1696 में रायमल्ल पांडे ने 'हनुमच्चरित्र' लिखा था। गोस्वामी जी के पीछे भी कई लोगों ने रामायणें लिखीं, पर वे गोस्वामी जी की रचनाओं के सामने प्रसिद्धि न प्राप्त कर सकीं। ऐसा जान पड़ता है कि गोस्वामी जी की प्रतिभा का प्रखर प्रकाश डेढ़ सौ वर्ष तक ऐसा छाया रहा कि रामभक्ति की और रचनाएँ उसके सामने ठहर न सकीं। विक्रम की 19वीं और 20वीं शताब्दी में अयोध्या के महंत बाबा रामचरणदास, बाबा रघुनाथदास, रीवाँ के महाराज रघुराज सिंह आदि ने रामचरित संबंधी विस्तृत रचनाएँ कीं जो सर्वप्रिय हुईं। इस काल में रामभक्ति विषयक कविता बहुत कुछ हुई। 
रामभक्ति की काव्यधारा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें सब प्रकार की रचनाएँ हुईं, उसके द्वारा कई प्रकार की रचना पद्ध तियों को उत्तेजना मिली। कृष्णोपासी कवियों ने मुक्तक के एक विशेष अंग गीतकाव्य की ही पूर्ति की, पर रामचरित को लेकर अच्छे अच्छे प्रबंधकाव्य रचे गए।
तुलसीदास जी के प्रसंग में यह दिखाया जा चुका है कि रामभक्ति में भक्ति का पूर्ण स्वरूप विकसित हुआ है। प्रेम और श्रध्दा अर्थात् पूज्य बुद्धि दोनों के मेल से भक्ति की निष्पत्ति होती है। श्रध्दा धर्म की अनुगामिनी है। जहाँ धर्म का स्फुरण दिखाई पड़ता है वहीं श्रध्दा टिकती है। धर्म ब्रह्म के सत्स्वरूप की व्यक्त प्रवृत्ति है, उस स्वरूप की क्रियात्मक अभिव्यक्ति है, जिसका आभास अखिल विश्व की स्थिति में मिलता है। पूर्ण भक्त व्यक्त जगत् के बीच सत् की इस सर्वशक्तिमयी प्रवृत्ति के उदय का, धर्म की इस मंगलमयी ज्योति के स्फुरण का साक्षात्कार चाहता रहता है। इसी ज्योति के प्रकाश में सत् के अनंत रूप सौंदर्य की भी मनोहर झाँकी उसे मिलती है। लोक में जब कभी वह धर्म के स्वरूप को तिरोहित या आच्छादित देखता है तब मानो भगवान उसकी दृष्टि से उसकी खुली हुई ऑंखों के सामने से ओझल हो जाते हैं और वह वियोग की आकुलता का अनुभव करता है। फिर जब अधर्म का अंधकार फाड़कर धर्मज्योति अमोघ शक्ति के साथ साथ फूट पड़ती है तब मानो उसके प्रिय भगवान का मनोहर रूप सामने आ जाता और वह पुलकित हो उठता है। भीतर का 'चित्त' जब बाहर 'सत्' का साक्षात्कार कर पाता है तब 'आनंद' का आविर्भाव होता है और 'सदानंद' की अनुभूति होती है।
यह है उस सगुण भक्तिमार्ग का पक्ष जो भगवान के अवतार को लेकर चलता है और जिसका पूर्ण विकास तुलसी की रामभक्ति में पाया जाता है। 'विनयपत्रिका' में गोस्वामी जी ने लोक में फैले अधर्म, अनाचार, अत्याचार आदि का भीषण चित्र खींचकर भगवान से अपना सत् स्वरूप, धर्म संस्थापक स्वरूप व्यक्त करने की प्रार्थना की है। उन्हें दृढ़ विश्वास है कि धर्मस्वरूप भगवान की कला का कभी न कभी दर्शन होगा। अत: वे यह भावना करके पुलकित हो जाते हैं कि सत्स्वरूप का लोकव्यक्त प्रकाश हो गया, रामराज्य प्रतिष्ठित हो गया और चारों ओर फिर मंगल छा गया
रामराज भयो काज सगुन सुभ, राजा राम जगत विजई है
समरथ बड़ो सुजान सुसाहब, सुकृत सेन हारत जितई है
जो भक्तिमार्ग श्रध्दा के अवयव को छोड़कर केवल प्रेम को ही लेकर चलेगा, धर्म से उसका लगाव न रह जायगा। वह एक प्रकार से अधूरा रहेगा। श्रृंगारोपासना , माधुर्य भाव आदि की ओर उसका झुकाव होता जायगा और धीरे धीरे उसमें 'गुह्य, रहस्य' आदि का भी समावेश होगा। परिणाम यह होगा कि भक्ति के बहाने विलासिता और इंद्रियासक्ति की स्थापना होगी। कृष्णभक्ति शाखा कृष्ण भगवान के धर्मस्वरूप को लोकरक्षक और लोकरंजक स्वरूप को छोड़कर केवल मधुर स्वरूप और प्रेमलक्षणा भक्ति की सामग्री लेकर चली। इससे धर्म सौंदर्य के आकर्षण से वह दूर पड़ गई। तुलसीदास जी ने भक्ति को अपने पूर्ण रूप में, श्रध्दा प्रेम समन्वित रूप में, सबके सामने रखा और धर्म या सदाचार को उसका नित्यलक्षण निर्धारित किया।
अत्यंत खेद की बात है कि इधर कुछ दिनों से एक दल इस रामभक्ति को भी श्रृंगारी भावनाओं में लपेटकर विकृत करने में जुट गया है। तुलसीदास जी के प्रसंग में हम दिखा आए हैं कि कृष्णभक्त सूरदास जी की श्रृंगारी रचना का कुछ अनुकरण गोस्वामी जी की 'गीतावली' के उत्तरकांड में दिखाई पड़ता है पर वह केवल आनंदोत्सव तक रह गया है। इधर आकर कृष्णभक्ति शाखा का प्रभाव बहुत बढ़ा। विषयवासना की ओर मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण कुछ दिनों से रामभक्ति मार्ग के भीतर भी श्रृंगारी भावना का अनर्गल प्रवेश हो रहा है। इस श्रृंगारी भावना के प्रवर्तक थे रामचरितमानस के प्रसिद्ध टीकाकार जानकीघाट (अयोध्या) के रामचरणदास जी, जिन्होंने पति पत्नी भाव की उपासना चलाई। इन्होंने अपनी शाखा का नाम 'स्वसुखी शाखा' रखा। स्त्रीवेष धारण करके पति 'लाल साहब' (यह खिताब राम को दिया गया है) से मिलने के लिए सोलह श्रृंगार करना, सीता की भावना सपत्नी रूप में करना आदि इस शाखा के लक्षण हुए। रामचरणदास जी ने अपने मत की पुष्टि के लिए अनेक नवीन कल्पित ग्रंथ प्राचीन बताकर अपनी शाखा में फैलाए, जैसे लोमशसंहिता, हनुमत्संहिता, अमर रामायण, भुशुंडि रामायण, महारामायण (5 अध्याय), कोशलखंड, रामनवरत्न, महारासोत्सव सटीक (संवत् 1904 में प्रिंटिंग प्रेस, लखनऊ में छपा)।
'कोशलखंड' में राम की रासलीला, विहार आदि के अश्लील वृत्त कल्पित किए गए हैं और कहा गया है कि रासलीला तो वास्तव में राम ने की थी। रामावतार में 99 रास वे कर चुके थे। एक ही शेष था जिसके लिए उन्हें फिर कृष्ण रूप में अवतार लेना पड़ा। इस प्रकार विलास क्रीड़ा में कृष्ण से कहीं अधिक राम को बढ़ाने की होड़ लगाई गई। गोलोक में जो नित्य रासलीला होती रहती है उससे कहीं बढ़कर साकेत में हुआ करती है। वहाँ की नर्तकियों की नामावली में रंभा, उर्वशी आदि के साथ साथ राधा और चंद्रावली भी गिना दी गई हैं।
रामचरणदास की इस श्रृंगारी उपासना में चिरान छपरा के जीवाराम जी ने थोड़ा हेरफेर किया। उन्होंने पति पत्नी भावना के स्थान पर 'सखीभाव' रखा और अपनी शाखा का नाम 'तत्सुखी' शाखा रखा। इसी 'सखीभाव' की उपासना का खूब प्रचार लक्ष्मण किला (अयोध्या) वाले युगलानन्यशरण ने किया। रीवाँ के महाराज रघुराजसिंह इन्हें बहुत मानते थे और इन्हीं की सम्मति से उन्होंने चित्रकूट में 'प्रमोदवन' आदि कई स्थान बनवाए। चित्रकूट की भावना वृंदावन के रूप में की गई और वहाँ के कुंज भी ब्रज के से क्रीड़ाकुंज माने गए । इस रसिक पंथ का आजकल अयोध्या में बहुत जोर है और वहाँ के बहुत से मंदिरों में अब राम की 'तिरछी चितवन' और 'बाँकी अदा' के गीत गाए जाने लगे हैं। इस पंथ के लोगों का उत्सव प्रति वर्ष चैत्र कृष्ण नवमी को वहाँ होता है। ये लोग सीताराम को 'युगलसरकार' कहा करते हैं और अपना आचार्य 'कृपानिवास' नामक एक कल्पित व्यक्ति को बतलाते हैं जिसके नाम पर एक 'कृपानिवास पदावली' संवत् 1901 में छपी (प्रिंटिंग प्रेस लखनऊ)। इसमें अनेक अश्लील पद हैं, जैसे
1. नीबी करषत बरजति प्यारी। 
रसलंपट संपुट कर जोरत, पद परसत पुनि लै बलिहारी (पृ. 138)
2. पिय हँसि रस रस कंचुकि खोलैं।
चमकि निवारति पानि लाड़िली, मुरक मुरक मुख बोलैं।
ऐसी ही एक और पुस्तक 'श्रीरामावतार भजन तरंगिणी' इन लोगों की ओर से निकली है, जिसका एक भजन देखिए
हमरे पिय ठाढ़े सरजू तीर।
छोड़ि लाज मैं जाय मिली जहँ खड़े लखन के वीर
मृदु मुसकाय पकरि कर मेरो खैंचि लियो तब चीर
झाऊ वृक्ष की झाड़ी भीतर करन लगे रति धीर
भगवान राम के दिव्य पुनीत चरित्र के कितने घोर पतन की कल्पना इन लोगों के द्वारा हुई है। यह दिखाने के लिए इतना बहुत है। लोकपावन आदर्श का ऐसा ही बीभत्स विपर्यय देखकर चित्त क्षुब्ध हो जाता है। रामभक्ति शाखा के साहित्य का अनुसंधान करने वालों को सावधान करने के लिए ही इस 'रसिक शाखा' का यह थोड़ा सा विवरण दे दिया गया है। 'गुह्य', 'रहस्य', 'माधुर्य भाव' इत्यादि के समावेश से किसी भक्तिमार्ग की यही दशा होती है। गोस्वामी जी ने शुद्ध , सात्विक और खुले रूप में जिस रामभक्ति का प्रकाश फैलाया था, वह इस प्रकार विकृत की जा रहीहै।
संदर्भ
1. देखो, पृ. 21-22
2. देखो, पृ. 24
3. ये दोनों पंक्तियाँ सूरदास जी के इस पद से खींच ली गई हैं
कर्म जोग पुनि ज्ञान उपासन सब ही भ्रम भरमायो।
श्रीबल्लभ गुरु तत्व सुनायो लीला भेद बतायो (सूरसागरसारावली)
4. देखो, पृ. 67
5. देखो, पृ. 25-26
6. देखो, पृ. 105।

प्रकरण 5
सगुण धारा
कृष्णभक्ति शाखा

श्रीबल्लभाचार्य जी पहले कहा जा चुका है कि विक्रम की पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में वैष्णव धर्म का जो आंदोलन देश के एक छोर से दूसरे छोर तक रहा उसके श्री बल्लभाचार्य जी प्रधान प्रवर्तकों में से थे। आचार्य जी का जन्म संवत् 1535, वैशाख कृष्ण 11 को और गोलोकवास संवत् 1587, आषाढ़ शुक्ल 3 को हुआ। ये वेदशास्त्र में पारंगत धुरंधर विद्वान थे।
रामानुज से लेकर बल्लभाचार्य तक जितने भक्त दार्शनिक या आचार्य हुए हैं, सबका लक्ष्य शंकराचार्य के मायावाद और वृत्तिवाद से पीछा छुड़ाना था जिसके अनुसार भक्ति अविद्या या भ्रांति ही ठहरती है। शंकर ने केवल निरुपाधि निर्गुण ब्रह्म की ही परमार्थिक सत्ता स्वीकार की थी। बल्लभ ने ब्रह्म में सब धर्म माने। सारी सृष्टि को उन्होंने लीला के लिए ब्रह्म की आत्मकृति कहा। अपने को अंशरूप जीवों में बिखराना ब्रह्म की लीलामात्र है। अक्षर ब्रह्म अपनी आविर्भाव तिरोभाव की अचिंत्य शक्ति से जगत् के रूप में परिणत भी होता है और उसके परे भी रहता है। वह अपने सत्, चित् और आनंद, इन तीनों स्वरूपों का आविर्भाव और तिरोभाव करता रहता है। जीव में सत् और चित् का आविर्भाव रहता है, पर आनंद का तिरोभाव। जड़ में केवल सत् का आविर्भाव रहता है, चित् और आनंद दोनों का तिरोभाव। माया कोई वस्तु नहीं।
श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं जो दिव्य गुणों से सम्पन्न होकर 'पुरुषोत्तम' कहलाते हैं। आनंद का पूर्ण आविर्भाव इसी पुरुषोत्तम रूप में रहता है, अत: यही श्रेष्ठ रूप है। पुरुषोत्तम कृष्ण की सब लीलाएँ नित्य हैं। वे अपने भक्तों के लिए 'व्यापी वैकुंठ* मं। (जो विष्णु के वैकुंठ से ऊपर है) अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ करते रहते हैं। गोलोक इसी व्यापी वैकुंठ का एक खंड है जिसमें नित्य रूप में यमुना, वृंदावन, निकुंज इत्यादि सब कुछ है। भगवान की इस 'नित्यलीला सृष्टि' में प्रवेश करना ही जीव की सबसे उत्तम गति है।
शंकर ने निर्गुण को ही ब्रह्म का परमार्थिक या असली रूप कहा था और सगुण को व्यावहारिक या मायिक। बल्लभाचार्य ने बात उलटकर सगुण रूप को ही असली परमार्थिक रूप बताया और निर्गुण को उसका अंशत: तिरोहित रूप कहा। भक्ति की साधना के लिए बल्लभ ने उसके 'श्रध्दा' के अवयव को छोड़कर, जो महत्व की भावना में मग्न करता है, केवल 'प्रेम' लिया। प्रेमलक्षणा भक्ति ही उन्होंने ग्रहण की। 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' में सूरदास की एक वार्ता के अंतर्गत प्रेम को ही मुख्य और श्रध्दा या पूज्यबुद्धि को ही आनुषंगिक या सहायक कहा गया है
''श्री आचार्य जी, महाप्रभु के मार्ग को कहा स्वरूप है? माहात्म्य ज्ञानपूर्वक सुदृढ़ स्नेह तो पराकाष्ठा है। स्नेह आगे भगवान को रहत नाहीं ताते भगवान बेर बेर माहात्म्य जनावत हैं। इन ब्रजभक्तन को स्नेह परम काष्ठापन्न है। ताहि समय तो माहात्म्य रहे, पीछे विस्मृत होय जाय।''
प्रेमसाधना में बल्लभ ने लोकमर्यादा और वेदमर्यादा दोनों का त्याग विधेय ठहराया। इस प्रेमलक्षणा भक्ति की ओर जीव की प्रवृत्ति तभी होती है जब भगवान का अनुग्रह होता है जिसे 'पोषण' या पुष्टि कहते हैं। इसी से बल्लभाचार्य जी ने अपने मार्ग का नाम 'पुष्टिमार्ग' रखा है।
उन्होंने जीव तीन प्रकार के माने हैं 1. पुष्टि जीव, जो भगवान के अनुग्रह का ही भरोसा रखते हैं और 'नित्यलीला' में प्रवेश पाते हैं। 2. मर्यादा जीव, जो वेद की विधियों का अनुसरण करते हैं और स्वर्ग आदि लोक प्राप्त करते हैं, और 3. प्रवाह जीव, जो संसार के प्रवाह में पड़े सांसारिक सुखों की प्राप्ति में ही लगे रहते हैं। 
'कृष्णाश्रय' नामक एक 'प्रकरण ग्रंथ' में बल्लभाचार्य ने अपने समय की अत्यंत विपरीत दशा का वर्णन किया है जिसमें उन्हें वेदमार्ग या मर्यादामार्ग का अनुसरण अत्यंत कठिन दिखाई पड़ा है। देश में मुसलमानी साम्राज्य अच्छी तरह दृढ़ हो चुका था। हिंदुओं का एक मात्र स्वतंत्र और प्रभावशाली राज्य दक्षिण का विजयनगर राज्य रह गया था, पर बहमनी सुलतानों के पड़ोस में रहने के कारण उसके दिन भी गिने हुए दिखाई पड़ते थे। इसलामी संस्कार धीरे धीरे जमते जा रहे थे। सूफी पीरों के द्वारा सूफी पद्ध ति की प्रेमलक्षणा भक्ति का प्रचारकार्य धूम से चल रहा था। एक ओर 'निर्गुण पंथ' के संत लोग वेदशास्त्र की विधियों पर से जनता की आस्था हटाने में जुटे हुए थे। अत: बल्लभाचार्य ने अपने 'पुष्टिमार्ग' का प्रवर्तन बहुत कुछ देशकाल देखकर किया।
बल्लभाचार्य जी के मुख्य ग्रंथ ये हैं
1. पूर्वमीमांसा भाष्य। 2. उत्तर मीमांसा या ब्रह्मसूत्र भाष्य जो अणुभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। इनके शुध्दाद्वैतवाद का प्रतिपादक यही प्रधान दार्शनिक ग्रंथ है। 3. श्रीमद्भागवत् की सूक्ष्म टीका तथा सुबोधिनी टीका। 4. तत्वदीप निबंध तथा 5. सोलह छोटे छोटे प्रकरण ग्रंथ। इनमें से पूर्वमीमांसा भाष्य का बहुत थोड़ा सा अंश मिलता है। 'अणुभाष्य' आचार्य जी पूरी न कर सके थे। अत: अंत के डेढ़ अध्याय उनके पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथ ने लिखकर ग्रंथ पूरा किया। भागवत की सूक्ष्म टीका नहीं मिलती, सुबोधिनी का भी कुछ ही अंश मिलता है। प्रकरण ग्रंथों में 'पुष्टिप्रवाहमर्यादा' नाम की पुस्तक मूलचंद तुलसीदास तेलीवाला ने संपादित करके प्रकाशित कराई है।
रामानुजाचार्य के समान बल्लभाचार्य ने भी भारत के बहुत से भागों में पर्यटन और विद्वानों से शास्त्रार्थ करके अपने मत का प्रचार किया था। अंत में अपने उपास्य श्रीकृष्ण की जन्मभूमि में जाकर उन्होंने अपनी गद्दी स्थापित की और अपने शिष्य पूरनमल खत्री द्वारा गोवर्ध्दन पर्वत पर श्रीनाथ जी का बड़ा भारी मंदिर निर्माण कराया तथा सेवा का बड़ा भारी मंडन बाँधा। बल्लभ संप्रदाय में जो उपासना पद्ध ति या सेवा पद्ध ति ग्रहण की गई उसमें भोग, राग तथा विलास की प्रभूत सामग्री के प्रदर्शन की प्रधानता रही। मंदिरों की प्रशंसा 'केसर की चक्कियाँ चलै हैं' कहकर होने लगी। भोगविलास के इस आकर्षण का प्रभाव सेवक सेविकाओं पर कहाँ तक अच्छा पड़ सकता था। जनता पर चाहे जो प्रभाव पड़ा हो पर उक्त गद्दी के भक्त शिष्यों ने सुंदर सुंदर पदों द्वारा जो मनोहर प्रेम संगीत धारा बहाई उसने मुरझाते हुए हिंदू जीवन को सरस और प्रफुल्ल किया। इस संगीत धारा में दूसरे संप्रदायों के कृष्णभक्तों ने भी पूरा योग दिया। 
सब संप्रदायों के कृष्णभक्त भागवत् में वर्णित कृष्ण की ब्रजलीला को ही लेकर चले क्योंकि उन्होंने अपनी प्रेमलक्षणा भक्ति के लिए कृष्ण का मधुर रूप ही पर्याप्त समझा। महत्व की भावना से उत्पन्न श्रध्दा या पूज्यबुद्धि का अवयव छोड़ देने के कारण कृष्ण के लोकरक्षक और धर्म संस्थापक स्वरूप को सामने रखने की आवश्यकता उन्होंने न समझी। भगवान के धर्मस्वरूप को इस प्रकार किनारे रख देने से उसकी ओर आकर्षित होने और आकर्षित करने की प्रवृत्ति का विकास कृष्णभक्तों में न हो पाया। फल यह हुआ कि कृष्णभक्त कवि अधिकतर फुटकल श्रृंगारी पदों की रचना में ही लगे रहे। उनकी रचनाओं में न तो जीवन के अनेक गंभीर पक्षों के मार्मिक रूप स्फुरित हुए, न अनेकरूपता आई। श्रीकृष्ण का इतना चरित ही उन्होंने न लिया जो खंडकाव्य, महाकाव्य आदि के लिए पर्याप्त होता। राधाकृष्ण की प्रेम लीला ही सबने गाई।
भागवत् धर्म का उदय यद्यपि महाभारत काल में ही हो चुका था और अवतारों की भावना देश में बहुत प्राचीन काल से चली आती थी, पर वैष्णव धर्म के सांप्रदायिक स्वरूप का संघटन दक्षिण में ही हुआ। वैदिक परंपरा के अनुकरण पर अनेक संहिताएँ, उपनिषद्, सूत्रग्रंथ इत्यादि तैयार हुए। श्रीमद्भागवत् में श्रीकृष्ण के मधुर रूप का विशेष वर्णन होने से भक्तिक्षेत्र में गोपियों के ढंग के प्रेम का माधुर्य भाव का रास्ता खुला। इसके प्रचार में दक्षिण के मंदिरों की देवदासी प्रथा विशेष रूप में सहायक हुई। माता-पिता मंदिरों में लड़कियों को चढ़ा आते थे जहाँ उनका विवाह भी ठाकुर जी के साथ हो जाता था। उनके लिए मंदिर में प्रतिष्ठित भगवान की उपासना पतिरूप में विधेय थी। इन्हीं देवदासियों में कुछ प्रसिद्ध भक्तिनें भी हो गई हैं। 
दक्षिण में अंदाल इसी प्रकार की एक प्रसिद्ध भक्तिन हो गई हैं जिनका जन्म संवत् 773 में हुआ था। अंदाल के पद द्रविड़ भाषा में 'तिरुप्पावइ' नामक पुस्तक में मिलते हैं। अंदाल एक स्थल पर कहती है, 'अब मैं पूर्ण यौवन को प्राप्त हूँ और स्वामी कृष्ण के अतिरिक्त और किसी को अपना पति नहीं बना सकती।' इस भाव की उपासना यदि कुछ दिन चले तो उसमें गुह्य और रहस्य की प्रवृत्ति हो ही जाएगी। रहस्यवादी सूफियों का उल्लेख ऊपर हो चुका है जिनकी उपासना भी 'माधुर्य भाव' की थी। मुसलमानी जमाने में इन सूफियों का प्रभाव देश की भक्तिभावना के स्वरूप पर बहुत कुछ पड़ा। 'माधुर्य भाव' को प्रोत्साहन मिला। माधुर्य भाव की जो उपासना चली आ रही थी उसमें सूफियों के प्रभाव से 'आभ्यंतर मिलन', 'मूर्छा', 'उन्माद' आदि की भी रहस्यमयी योजना हुई। मीराबाई और चैतन्य महाप्रभु दोनों पर सूफियों का प्रभाव पाया जाता है।
1. सूरदास जी सूरदास जी का वृत्त 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' में केवल इतना ज्ञात होता है कि ये पहले गऊघाट (आगरे तथा मथुरा के बीच) पर एक साधु या स्वामी के रूप में रहा करते थे और भजन किया करते थे। गोवर्ध्दन पर श्रीनाथजी का मंदिर बन जाने के पीछे एक बार बल्लभाचार्य जी गऊघाट पर उतरे तब सूरदास उनके दर्शन को आए और उन्हें अपना बनाया एक पद गाकर सुनाया। आचार्य जी ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया और भागवत की कथाओं को गाने योग्य पदों में करने का आदेश दिया। उनकी सच्ची भक्ति और पद रचना की निपुणता देख बल्लभाचार्य जी ने उन्हें श्रीनाथजी के मंदिर की कीर्तन सेवा सौंपी। इस मंदिर को पूरनमल खत्री ने गोवर्ध्दन पर्वत पर संवत् 1576 में पूरा बनवाकर खड़ा किया था। मंदिर पूरा होने के 11 वर्ष पीछे अर्थात् संवत् 1587 में बल्लभाचार्य जी की मृत्यु हुई।
श्रीनाथजी के मंदिर निर्माण के थोड़ा ही पीछे सूरदास जी बल्लभ संप्रदाय में आए, यह 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' के इन शब्दों से स्पष्ट हो जाता है
''औरहु पद गाए तब श्री महाप्रभुजी अपने मन में विचारे जो श्रीनाथजी के यहाँ और तो सब सेवा को मंडन भयो है, पर कीर्तन को मंडन नाहीं कियो है; तातें अब सूरदास को दीजिए।''
अत: संवत् 1580 के आसपास सूरदास जी बल्लभाचार्य जी के शिष्य हुए होंगे और शिष्य होने के कुछ ही पीछे उन्हें कीर्तन सेवा मिली होगी। तब से वे बराबर गोवर्ध्दन पर्वत पर ही मंदिर की सेवा करते थे, इसका स्पष्ट आभास 'सूरसारावली' के भीतर मौजूद है। तुलसीदास के प्रसंग में हम कह आए हैं कि भक्त लोग कभी कभी किसी ढंग से अपने को इष्टदेव की कथा के भीतर डालकर उनके चरणों तक पहुँचने की भावना करते हैं। तुलसी ने तो अपने कुछ प्रच्छन्न रूप में पहुँचाया है, पर सूर ने प्रकट रूप में। कृष्ण जन्म के उपरांत नंद के घर बराबर आनंदोत्सव हो रहे हैं। उसी बीच एक ढाढ़ी आकर कहता है
नंद जू मेरे मन आनंद भयो, हौं गोवर्ध्दन तें आयो।
तुम्हरे पुत्र भयो, मैं सुनि कै अति आतुर उठि धायो
×××
जब तुम मदन मोहन करि टेरौं, यह सुनि कै घर जाऊँ।
हौं तौ तेरे घर को ढाढ़ी, सूरदास मेरो नाऊँ
बल्लभाचार्य जी के पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथ के सामने गोवर्ध्दन की तलहटी के पारसोली ग्राम में सूरदास की मृत्यु हुई, इसका पता भी उक्त 'वार्ता' से लगता है। गोसाईं विट्ठलनाथ की मृत्यु सं. 1642 में हुई। इसके कितने पहले सूरदास का परलोकवास हुआ, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।
'सूरसागर' समाप्त करने पर सूर ने जो 'सूरसारावली' लिखी है उसमें अपनी अवस्था 67 वर्ष की कही है
गुरु परसाद होत यह दरसन सरसठ बरस प्रवीन
तात्पर्य यह कि 67 वर्ष के पहले वे 'सूरसागर' समाप्त कर चुके थे। सूरसागर समाप्त होने के थोड़ा ही पीछे उन्होंने 'सारावली' लिखी होगी। एक और ग्रंथ सूरदास का 'साहित्यलहरी' है, जिसमें अलंकारों और नायिका भेदों के उदाहरण प्रस्तुत करने वाले कूट पद हैं। इसका रचनाकाल सूर ने इस प्रकार व्यक्त किया है
मुनि सुनि रसन के रस लेख।
दसन गौरीनंद को लिखि सुबल संवत पेख।
इसके अनुसार संवत् 1607 में 'साहित्यलहरी' समाप्त हुई। यह तो मानना ही पड़ेगा कि साहित्य क्रीड़ा का यह ग्रंथ 'सूरसागर' से छुट्टी पाकर ही सूर ने संकलित किया होगा। उसके 2 वर्ष पहले यदि 'सूरसारावली' की रचना हुई, तो कह सकते हैं कि संवत् 1605 में सूरदास जी 67 वर्ष के थे। अब यदि उनकी आयु 80 या 82 वर्ष की मानें तो उनका जन्मकाल संवत् 1540 के आसपास तथा मृत्युकाल संवत् 1620 के आसपास ही अनुमित होता है।
'साहित्यलहरी' के अंत में एक पद है जिसमें सूर अपनी वंश परंपरा देते हैं। उस पद के अनुसार सूर पृथ्वीराज के कवि चंदबरदाई के वंशज ब्रह्मभट्ट थे। चंद कवि के कुल में हरिचंद हुए जिनके 7 पुत्रों में सबसे छोटे सूरजदास या सूरदास थे। 1 शेष 6 भाई मुसलमानों से युद्ध करते हुए मारे गए तब अंधे सूरदास बहुत दिनों इधर उधर भटकते रहे। एक दिन वे कुएँ में गिर पड़े और 6 दिन उसी में पड़े रहे। सातवें दिन कृष्ण भगवान उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें दृष्टि देकर अपना दर्शन दिया। भगवान ने कहा कि दक्षिण के प्रबल ब्राह्मण कुल द्वारा शत्रुओं का नाश होगा और तू सब विद्याओं में निपुण होगा। इस पर सूरदास ने वर माँगा कि जिन ऑंखों से मैंने आपका दर्शन किया उनसे अब और कुछ न देख्रू और सदा आपका भजन करूँ। कुएँ से जब भगवान ने उन्हें बाहर निकाला तब वे ज्यों के त्यों अंधे हो गए और ब्रज में आकर भजन करने लगे। वहाँ गोसाईंजी ने उन्हें 'अष्टछाप' में लिया।
हमारा अनुमान है कि 'साहित्यलहरी' में यह पद पीछे किसी भाट के द्वारा जोड़ा गया है। यह पंक्ति है
प्रबल दच्छिन बिप्रकुल तें सत्रु ह्वैहै नास।
इसे सूर के बहुत पीछे की रचना बता रही है। 'प्रबल दच्छिन विप्रकुल' से साफ पेशवाओं की ओर संकेत है। इसे खींचकर अध्यात्म पक्ष की ओर मोड़ने का प्रयत्न व्यर्थ है। 
सारांश यह है कि हमें सूरदास का जो थोड़ा सा वृत्त 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' में मिलता है उसी पर संतोष करना पड़ता है। यह 'वार्ता' भी यद्यपि बल्लभाचार्य जी के पौत्र गोकुलनाथजी की कही जाती है, पर उनकी लिखी नहीं जान पड़ती। इसमें कई जगह गोकुलनाथ जी के श्रीमुख से कही हुई बातों का बड़े आदर और सम्मान के शब्दों में उल्लेख है और बल्लभाचार्य जी की शिष्या न होने कारण मीराबाई को बहुत बुरा भला कहा गया है, और गालियाँ तक दी गई हैं। रंग ढंग से यह वार्ता गोकुलनाथ जी के पीछे उनके किसी गुजराती शिष्य की रचना जान पड़ती है।
'भक्तमाल' में सूरदास के संबंध में केवल एक यही छप्पय मिलता है
उक्ति चोज अनुप्रास बरन अस्थिति अति भारी।
बचन प्रीति निर्वाह अर्थ अद्भुत तुक धारी
प्रतिबिंबित दिवि दिष्टि, हृदय हरिलीला भासी।
जनम करम गुन रूप सबै रसना परकासी 
बिमल बुद्धि गुन और की जो यह गुन श्रवननि धारै।
सूर कवित सुनि कौन कवि जो नहिं सिर चालन करै
इस छप्पय में सूर के अंधे होने भर का संकेत है जो परंपरा से प्रसिद्ध चला आता है। जीवन का कोई विशेष प्रामाणिक वृत्त न पाकर इधर कुछ लोगों ने सूर के समय के आसपास के किसी ऐतिहासिक लेख में जहाँ कहीं सूरदास नाम मिला है वहीं का वृत्त प्रसिद्ध सूरदास पर घटाने का प्रयत्न किया है। ऐसे दो उल्लेख लोगों को मिले हैं
1. 'आईने अकबरी' में अकबर के दरबार में नौकर, गवैयों बीनकरों आदि कलावंतों की जो फेहरिस्त है उसमें बाबा रामदास और उनके बेटे सूरदास दोनों के नाम दर्ज हैं। उसी ग्रंथ में यह भी लिखा है कि सब कलावंतों की सात मंडलियाँ बना दी गई थीं। प्रत्येक मंडली सप्ताह में एक बार दरबार में हाजिर होकर बादशाह का मनोरंजन करती थी। अकबर संवत् 1613 में गद्दी पर बैठा। हमारे सूरदास संवत् 1580 के आसपास ही बल्लभाचार्य जी के शिष्य हो गए और उनके पहले भी विरक्त साधु के रूप में गऊघाट पर रहा करते थे। इस दशा में संवत् 1613 के बहुत बाद दरबारी नौकरी करने कैसे पहुँचे? अत: 'आईने अकबरी' के सूरदास और सूरसागर के सूरदास एक ही व्यक्ति नहीं ठहरते।
2. 'मुंशियात् अबुल फजल' नामक अबुल फजल के पत्रों का एक संग्रह है जिसमें बनारस के किसी संत सूरदास के नाम अबुल फजल का एक पत्र है। बनारस का कराड़ी इन सूरदास के साथ अच्छा बरताव नहीं करता था इससे उसकी शिकायत लिखकर इन्होंने शाही दरबार में भेजी थी। उसी के उत्तर में अबुल फजल का पत्र है। बनारस के सूरदास बादशाह से इलाहाबाद में मिलने के लिए इस तरह बुलाए गए हैं
'हजरत बादशाह इलाहाबाद में तशरीफ लाएँगे। उम्मीद है कि आप भी शर्फ मुलाजमात से मुशर्रफ होकर मुरीद हकीकी होंगे और खुदा का शुक्र है कि हजरत भी आपको हकशिनास जानकर दोस्त रखते हैं।' (फारसी का अनुवाद)
इन शब्दों से ऐसी ध्वनि निकलती है कि ये कोई ऐसे संत थे जिनके अकबर के 'दीन इलाही' में दीक्षित होने की संभावना अबुल फजल समझता था। संभव है कि ये कबीर के अनुयायी कोई संत हों। अकबर का दो बार इलाहाबाद जाना पाया जाता है। एक तो संवत् 1640 में फिर 1661 में। पहली यात्रा के समय का लिखा हुआ भी यदि इस पत्र को मानें तो भी उस समय हमारे सूर का गोलोकवास हो चुका था। यदि उन्हें तब तक जीवित मानें तो वे 100 वर्ष के ऊपर रहे होंगे। मृत्यु के इतने समीप आकर वे इन सब झमेलों में क्यों पड़ने जायंगे, या उनके 'दीनइलाही' में दीक्षित होने की आशा कैसे की जाएगी?
श्री बल्लभाचार्य जी के पीछे उनके पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथ जी गद्दी पर बैठे। उस समय तक पुष्टिमार्गी कई कवि सुंदर से सुंदर पदों की रचना कर चुके थे। इससे गोसाईं विट्ठलनाथ जी ने उनमें से आठ सर्वोत्तम कवियों को चुनकर 'अष्टछाप' की प्रतिष्ठा की। 'अष्टछाप' के आठ कवि हैं सूरदास, कुंभनदास, परमानंददास, कृष्णदास, छीतस्वामी, गोविंदस्वामी, चतुर्भुजदास और नंददास।
कृष्णभक्ति परंपरा में श्रीकृष्ण की प्रेममयी मूर्ति को ही लेकर प्रेमतत्व की बड़े विस्तार के साथ व्यंजना हुई है, उनके लोकपक्ष का समावेश उसमें नहीं है। इन कृष्णभक्तों के कृष्ण प्रेमोन्मत्त गोपिकाओं से घिरे हुए गोकुल के श्रीकृष्ण हैं, बड़े बड़े भूपालों के बीच लोकव्यवस्था की रक्षा करते हुए द्वारका के श्रीकृष्ण नहीं हैं। कृष्ण के जिस मधुर रूप को लेकर ये भक्त कवि चले हैं वह हास विलास की तरंगों से परिपूर्ण अनंत सौंदर्य का समुद्र है। उस सार्वभौम प्रेमालंबन के सम्मुख मनुष्य का हृदय निराले प्रेमलोक में फूला फूला फिरता है। अत: इन कृष्ण भक्त कवियों के संबंध में यह कह देना आवश्यक है कि वे अपने रंग में मस्त रहने वाले जीव थे, तुलसीदास जी के समान लोकसंग्रह का भाव इनमें न था। समाज किधर जा रहा है, इस बात की परवा ये नहीं रखते थे, यहाँ तक कि अपने भगवत्प्रेम की पुष्टि के लिए जिस श्रृंगारमयी लोकोत्तर छटा और आत्मोत्सर्ग की अभिव्यंजना से इन्होंने जनता को रसोन्मत्त किया, उसका लौकिक स्थूल दृष्टि रखनेवाले विषय वासनापूर्ण जीवों पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, इसकी ओर इन्होंने ध्यान न दिया। जिस राधा और कृष्ण के प्रेम को इन भक्तों ने अपनी गूढ़ातिगूढ़ चरम भक्ति का व्यंजक बनाया उसको लेकर आगे के कवियों ने श्रृंगार की उन्मादकारिणी उक्तियों से हिन्दी काव्य को भर दिया।
कृष्णचरित के गान में गीतकाव्य की जो धारा पूरब में जयदेव और विद्यापति ने बहाई, उसी का अवलंबन ब्रज के भक्त कवियों ने भी किया। आगे चलकर अलंकारकाल के कवियों ने अपनी श्रृंगारमयी मुक्तक कविता के लिए राधा और कृष्ण का ही प्रेम लिया। इस प्रकार कृष्ण संबंधि कविता का स्फुरण मुक्तक के क्षेत्र में ही हुआ, प्रबंध क्षेत्र में नहीं। बहुत पीछे संवत् 1809 में ब्रजवासीदास ने रामचरितमानस के ढंग पर दोहों, चौपाइयों में प्रबंधकाव्य के रूप में कृष्णचरित का वर्णन किया, पर ग्रंथ बहुत साधारण कोटि का हुआ और उसका वैसा प्रसार न हो सका। कारण स्पष्ट है। कृष्णभक्त कवियों ने श्रीकृष्ण भगवान के चरित का जितना अंश लिया वह एक अच्छे प्रबंधकाव्य के लिए पर्याप्त न था। उनमें मानव जीवन की वह अनेकरूपता न थी जो एक अच्छे प्रबंधकाव्य के लिए आवश्यक है। कृष्णभक्त कवियों की परंपरा अपने इष्टदेव की केवल बाललीला और यौवन लीला लेकर ही अग्रसर हुई जो गीत और मुक्तक के लिए ही उपयुक्त थी। मुक्तक के क्षेत्र में कृष्णभक्त कवियों तथा आलंकारिक कवियों ने श्रृंगार और वात्सल्य रसों को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया, इसमें कोई संदेह नहीं।
पहले कहा गया है कि श्री बल्लभाचार्य जी की आज्ञा से सूरदास जी ने श्रीमद्भागवत् की कथा को पदों में गाया। इनके सूरसागर में वास्तव में भागवत के दशम स्कंध की कथा संक्षेपत: इतिवृत्त के रूप में थोड़े से पदों में कह दी गई है। सूरसागर में कृष्ण जन्म से लेकर श्रीकृष्ण के मथुरा जाने तक की कथा अत्यंत विस्तार से फुटकल पदों में गाई गई है। भिन्न भिन्न लीलाओं के प्रसंग को लेकर इस सच्चे रसमग्न कवि ने अत्यंत मधुर और मनोहर पदों की झड़ी सी बाँध दी है। इन पदों के संबंध में सबसे पहली बात ध्यान देने की यह है कि चलती हुई ब्रजभाषा में सबसे पहली साहित्य रचना होने पर भी ये इतने सुडौल और परिमार्जित हैं। यह रचना इतनी प्रगल्भ और काव्यपूर्ण है कि आगे होनेवाले कवियों की श्रृंगार और वात्सल्य की उक्तियाँ सूर की जूठी सी जान पड़ती हैं। अत: सूरसागर किसी चली आती हुई गीतकाव्य परंपरा का चाहे वह मौखिक ही रही हो पूर्ण विकास सा प्रतीत होता है।
गीतों की परंपरा तो सभ्य असभ्य सब जातियों में अत्यंत प्राचीनकाल से चली आ रही है। सभ्य जातियों ने लिखित साहित्य के भीतर भी उनका समावेश किया है। लिखित रूप में आकर उनका रूप पंडितों की काव्यपरंपरा की रूढ़ियों के अनुसार बहुत कुछ बदल जाता है। इससे जीवन के कैसे कैसे योग सामान्य जनता का मर्म स्पर्श करते आए हैं और भाषा की किन किन पद्ध तियों पर वे अपने गहरे भावों की व्यंजना करते आए हैं, इसका ठीक पता हमें बहुत काल से चले आते हुए मौखिक गीतों से ही लग सकता है। किसी देश की काव्यधारा के मूल प्राकृतिक स्वरूप का परिचय हमें चिरकाल से चले आते हुए इन्हीं गीतों से मिल सकता है। घर घर प्रचलित स्त्रियों के घरेलू गीतों में श्रृंगार और करुण दोनों का बहुत स्वाभाविक विकास हम पाएँगे। इसी प्रकार आल्हा, कड़खा, आदिपुरुषों के गीतों में वीरता की व्यंजना की सरल स्वाभाविक पद्ध ति मिलेगी। देश की अंतर्वर्तिनी मूल भावधारा के स्वरूप के ठीक ठीक परिचय के लिए ऐसे गीतों का पूर्ण संग्रह बहुत आवश्यक है। पर इस संग्रह कार्य में उन्हीं का हाथ लगाना ठीक है जिन्हें भारतीय संस्कृति के मार्मिक स्वरूप की परख हो जिनमें पूरी ऐतिहासिक दृष्टि हो।
स्त्रियों के बीच चले आते हुए बहुत पुराने गीतों को ध्यान से देखने पर पता लगेगा कि उनमें स्वकीया के ही प्रेम की सरल गंभीर व्यंजना है। परकीया प्रेम के जो गीत हैं वे कृष्ण और गोपिकाओं की प्रेमलीला को ही लेकर चले हैं, इससे उन पर भक्ति या धर्म का भी कुछ रंग चढ़ा रहता है। इस प्रकार के मौखिक गीत देश के प्राय: सब भागों में गाए जाते थे। मैथिल कवि विद्यापति (संवत् 1460) की पदावली में हमें उनका साहित्यिक रूप मिलता है। जैसा कि हम पहले कह आए हैं, सूर के श्रृंगारी पदों की रचना बहुत कुछ विद्यापति की पद्ध ति पर हुई है। कुछ पदों के तो भाव भी बिल्कुल मिलते हैं, जैसे
अनुखन माधव माधव सुमिरइत सुंदरी भेलि मधाई।
ओ निज भाव सुभावहि बिसरल अपने गुन लुबधाई
×××
भोरहि सहचरि कातर दिठि हेरि छल छल लोचन पानि।
अनुखन राधा राधा रटइत आधा आधा बानि
राधा सयँ जब पनितहि माधव माधव सयँ जब राधा
दारुन प्रेम तबहि नहिं टूटत बाढ़त बिरह क बाधा
दुहुँ दिसि दारु दहन जइसे दगधाइ आकुल कीट परान। 
ऐसन बल्लभ हेरि सुधामुखि कवि विद्यापति भान
इस पद का भावार्थ यह है कि प्रतिक्षण कृष्ण का स्मरण करते करते राधा कृष्ण रूप हो जाती हैं और अपने को कृष्ण समझकर राधा के वियोग में 'राधा राधा' रटने लगती हैं। फिर जब होश में आती हैं तब कृष्ण के विरह में संतप्त होकर फिर 'कृष्ण कृष्ण' करने लगती हैं। इस प्रकार अपनी सुध में रहती हैं तब भी, नहीं रहती हैं तब भी दोनों अवस्थाओं में उन्हें विरह का ताप सहना पड़ता है। उनकी दशा उस लकड़ी के भीतर के कीड़े सी रहती है जिसके दोनों छोरों पर आग लगी हो। अब इसी भाव का सूर का यह पद देखिए
सुनौ स्याम! यह बात और कोउ क्यों समुझायकहै।
दुहुँ दिसि की रति बिरह बिरहिनी कैसे कै जो सहै
जब राधो, तब ही मुख 'माधौ माधौ' रटति रहै।
जब माधौ ह्वै जाति सकल तनु राधा बिरह दहै
उभय अग्र दव दारुकीट ज्यों सीतलताहि चहै।
सूरदास अति विकल बिरहिनी कैसेहु सुख न लहै।
(सूरदास, पृ. 564 वेंकटेश्वर)
'सूरसागर' में जगह जगह दृष्टिकूट वाले पद मिलते हैं। यह भी विद्यापति का अनुकरण है। 'सारंग' शब्द को लेकर सूर ने कई जगह कूट पद कहे हैं। विद्यापति की पदावली में इसी प्रकार का एक कूट देखिए
सारंग नयन, बयन पुनि सारंग, सारंग तसु समधाने।
सारंग उपर उगल दस सारंग केलि करथि मधु पाने
पच्छिमी हिन्दी बोलने वाले सारे प्रदेशों में गीतों की भाषा ब्रज ही थी। दिल्ली के आसपास भी गीत ब्रजभाषा में ही गाए जाते थे, यह हम खुसरो (संवत् 1340) के गीतों में दिखा आए हैं। कबीर (संवत् 1560) के प्रसंग में कहा जा चुका है कि उनकी साखी की भाषा तो 'सधुक्कड़ी' है, पर पदों की भाषा काव्य में प्रचलित ब्रजभाषा है। यह एक पद तो कबीर और सूर दोनों की रचनाओं के भीतर ज्यों का त्यों मिलता है
है हरिभजन को परवान।
नीच पावै ऊँच पदवी, बाजते नीसान।
भजन को परताप ऐसो तिरे जल पाषान।
अधम भील, अजाति गनिका चढ़े जात बिवाँन।
नवलख तारा चलै मंडल, चलै ससहर भान।
दास धू कौ अटल पदवी राम को दीवान।
निगम जाकी साखि बोलैं कथैं संत सुजान।
जन कबीर तेरो सरनि आयो, राखि लेहु भगवान
(कबीर ग्रंथावली, पृ. 190)
है हरि भजन को परमान।
नीच पावै ऊँच पदवी, बाजते नीसान।
भजन को परताप ऐसों जल तरै पाषान।
अजामिल अरु भील गनिका चढ़े जात विमान।
चलत तारे सकल मंडल, चलत ससि अरु भान।
भक्त धारुव को अटल पदवी राम को दीवान।
निगम जाको सुजस गावत, सुनत संत सुजान।
सूर हरि की सरन आयौ, राखि ले भगवान
(सूरसागर, पृ. 564, वेंकटेश्वर)
कबीर की सबसे प्राचीन प्रति में भी यह पद मिलता है इससे नहीं कहा जा सकता कि सूर की रचनाओं के भीतर यह कैसे पहुँच गया।
राधाकृष्ण की प्रेमलीला के गीत सूर के पहले से चले आते थे, यह तो कहा ही जा चुका है। बैजू बावरा एक प्रसिद्ध गवैया हो गया है जिसकी ख्याति तानसेन के पहले देश में फैली हुई थी। उसका एक पद देखिए
मुरली बजाय रिझाय लई मुख मोहन तें।
गोपी रीझि रही रसतानन सों सुधबुध सब बिसराई।
धुनि सुनि मन मोहे, मगन भई देखत हरि आनन।
जीव जंतु पसु पंछी सुर नर मुनि मोहे, हरे सब के प्रानन।
बैजू बनवारी बंसी अधार धारि वृंदावनचंद बस किए सुनत ही कानन
जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार कृष्णचरित गानेवाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास जी का। वास्तव में ये हिन्दी काव्य गगन के सूर्य और चंद्र हैं। जो तन्मयता इन दोनों भक्त शिरोमणि कवियों की वाणी में पाई जाती है वह अन्य कवियों में कहाँ? हिन्दी काव्य इन्हीं के प्रभाव से अमर हुआ, इन्हीं की सरसता से उसका स्रोत सूखने न पाया। सूर की स्तुति में, एक संस्कृत श्लोक के भाव को लेकर यह दोहा कहा गया है
उत्तम पद कवि गंग के, कविता को बल वीर।
केशव अर्थ गँभीर को, सूर तीन गुन धीर
इसी प्रकार यह दोहा भी बहुत प्रसिद्ध है
किधौं सूर को सर लग्यो, किधौं सूर को पीर।
किधौं सूर को पद लग्यो, बेधयो सकल सरीर
यद्यपि तुलसी के समान सूर का काव्यक्षेत्र इतना व्यापक नहीं कि उसमें जीवन की भिन्न भिन्न दशाओं का समावेश हो पर जिस परिमित पुण्यभूमि में उनकी वाणी ने संचरण किया उसका कोई कोना अछूता न छूटा। श्रृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक इनकी दृष्टि पहुँची वहाँ तक और कोई किसी कवि की नहीं। इन दोनों क्षेत्रों में तो इस महाकवि ने मानो औरों के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने गीतावली में बाललीला को इनकी देखादेखी बहुत अधिक विस्तार दिया सही, पर उसमें बालसुलभ भावों और चेष्टाओं की वह प्रचुरता नहीं आई, उसमें रूप वर्णन की ही प्रचुरता रही। बाल चेष्टा के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का इतना बड़ा भंडार और कहीं नहीं। दो-चार चित्र देखिए
1. काहे को आरि करत मेरे मोहन! यों तुम ऑंगन लोटी?
जो माँगहु सो देहुँ मनोहर, यहै बात तेरी खोटी।
सूरदास को ठाकुर ठाढ़ो हाथ लकुट लिए छोटी
2. सोभित कर नवनीत लिए। 
घुटुरुन चलन रेनु तन मंडित, मुख दधि लेप किए
3. सिखवति चलन जसोदा मैया। 
अरबराय कर पानि गहावति, डगमगाय धारै पैयाँ
4. पाहुनि करि दै तनक मह्यौ।
आरि करै मनमोहन मेरो, अंचल आनि गह्यो
व्याकुल मथत मथनियाँ रीती, दधि भ्वैं ढरकि रह्यौ
बालकों के स्वाभाविक भावों की व्यंजना के न जाने कितने सुंदर पद भरे पड़े हैं। 'स्पर्धा' का कैसा सुंदर भाव इस प्रसिद्ध पद में आया है
मैया कबहिं बढ़ैगी चोटी! 
कितिक बार मोहिं दूध पियत भइ, यह अजहूँ है छोटी।
तू जो कहति 'बल' की बेनी ज्यों ह्वैहै लाँबी मोटी
इसी प्रकार बालकों के क्षोभ के ये वचन देखिए
खेलत में को काको गुसैयाँ?
जाति पाँति हम तें कछु नाहीं, नाहिंन बसत तुम्हारी छैयाँ।
अति अधिकार जनावत यातें, अधिक तुम्हारे हैं कछु गैयाँ
वात्सल्य के समान ही श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का इतना प्रचुर विस्तार और किसी कवि में नहीं। गोकुल में जब तक श्रीकृष्ण रहे तब तक का उनका सारा जीवन ही संयोगपक्ष है। दानलीला, माखनलीला, चीरहरणलीला, रासलीला आदि न जाने कितनी लीलाओं पर सहस्रों पद भरे पड़े हैं। राधाकृष्ण के प्रेम के प्रादुर्भाव में कैसी स्वाभाविक परिस्थियों का चित्रण हुआ है, यही देखिए
(क) करि ल्यौ न्यारी, हरि आपनि गैयाँ।
नहिं न बसात लाल कछु तुमसों सबै ग्वाल इक ठैयाँ
(ख) धोनु दुहत अति ही रति बाढ़ी। 
एक धार दोहनि पहुँचावत, एक धार जहँ प्यारी ठाढ़ी।
मोहन कर तें धार चलति पय मोहनि मुख अति ही छबि बाढ़ी
श्रृंगार के अंतर्गत भावपक्ष और विभावपक्ष दोनों के अत्यंत विस्तृत और अनूठे वर्णन इस सागर के भीतर लहरें मार रहे हैं। राधाकृष्ण के रूपवर्णन में ही सैकड़ों पद कहे गए हैं जिनमें उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा आदि की प्रचुरता है। ऑंख पर ही न जाने कितनी उक्तियाँ हैं, जैसे
देखि री! हरि के चंचल नैन। 
खंजन मीन, मृगज चपलाई, नहिं पटतर एक सैन।
राजिवदल इंदीवर, शतदल, कमल, कुशेशय जाति।
निसि मुद्रित प्रातहि वै बिगसत, ये बिगसे दिन राति
अरुन असित सित झलक पलक प्रति, को बरनै उपमाय।
मानो सरस्वति गंग जमुन मिलि आगम कीन्हों आय
नेत्रों के प्रति उपालंभ भी कहीं कहीं बड़े मनोहर हैं
मेरे नैना बिरह की बेल बई।
सींचत नैन नीर के, सजनी! मूल पताल गई।
बिगसति लता सुभाय आपने छाया सघन भई
अब कैसे निरुवारौं, सजनी! सब तन पसरि गई
ऑंख तो ऑंख, कृष्ण की मुरली तक में प्रेम के प्रभाव से गोपियों की ऐसी सजीवता दिखाई पड़ती है कि वे अपनी सारी प्रगल्भता उसे कोसने में खर्च कर देती हैं
मुरली तऊ गोपालहि भावति।
सुन री सखी! जदपि नँदनंदहि नाना भाँति नचावति
राखति एक पाँय ठाढ़े करि, अति अधिकार जनावति।
आपुनि पौढ़ि अधार सज्जा पर करपल्लव सों पद पलुटावति
भृकुटी कुटिल कोप नासापुट हम पर कोपि कोपावति।
कालिंदी के कूल पर शरत् की चाँदनी में होने वाले रास की शोभा का क्या कहना है, जिसे देखने के लिए सारे देवता आकर इकट्ठे हो जाते थे। सूर ने एक न्यारे प्रेमलोक की आनंद छटा अपने बंद नेत्रों से देखी है। कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोपियों का जो विरहसागर उमड़ा है उसमें मग्न होने पर तो पाठकों को वार पार नहीं मिलता। वियोग की जितने प्रकार की दशाएँ हो सकती हैं सबका समावेश उसके भीतर है। कभी तो गोपियों को संध्या होने पर यह स्मरण आता है
एहि बेरियाँ बन तें चलि आवते।
दूरहिं ते वह बेनु, अधार धारि बारम्बार बजावते
कभी वे अपने उजड़े हुए नीरस जीवन के मेल में न होने के कारण वृंदावन के हरे भरे पेड़ों को कोसती हैं
मधुबन तुम कत रहत हरे?
बिरह बियोग स्यामसुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे?
तुम हौ निलज, लाज नहिं तुमको, फिर सिर पुहुप धरे
ससा स्यार औ बन के पखेरू धिक धिक सबन करे।
कौन काज ठाढ़े रहे वन में, काहे न उकठि परे
परंपरा से चले आते हुए चंद्रोपालंभ आदि सब विषयों का विधान सूर के वियोगवर्णन के भीतर है, कोई बात छूटी नहीं है।
सूर की बड़ी भारी विशेषता है नवीन प्रसंगों की उद्भावना। प्रसंगोद्भावना करने वाली ऐसी प्रतिभा हम तुलसी में नहीं पाते। बाललीला और प्रेमलीला दोनों के अंतर्गत कुछ दूर तक चलने वाले न जाने कितने छोटे छोटे मनोरंजक वृत्तों की कल्पना सूर ने की है। जीवन के एक क्षेत्र के भीतर कथावस्तु की यह रमणीय कल्पना ध्यान देने योग्य है। 
राधाकृष्ण के प्रेम को लेकर कृष्णभक्ति की जो काव्यधारा चली उसमें लीलापक्ष अर्थात् बाह्यार्थविधान की प्रधानता रही है। उसमें केलि, विलास, रास, छेड़छाड़, मिलन की युक्तियों आदि बाहरी बातों का ही विशेष वर्णन है। प्रेमलीन हृदय की नाना अनुभूतियों की व्यंजना कम है। वियोग वर्णन में कुछ संचारियों का समावेश मिलता है पर वे रूढ़ और परंपरागत है उनमें उद्भावना बहुत थोड़ी पाई जाती है। भ्रमरगीत के अंतर्गत अलबत्ता सूर ने आभ्यंतर पक्ष का भी विस्तृत उद्धाटन किया है। प्रेमदशा के भीतर की न जाने कितनी मनोवृत्तियों की व्यंजना गोपियों के वचनों द्वारा होती है।
सूरसागर का सबसे मर्मस्पर्शी और वाग्वैदग्धपूर्ण अंश 'भ्रमरगीत' है जिसमें गोपियों की वचनवक्रता अत्यंत मनोहारिणी है। ऐसा सुंदर उपालंभ काव्य और कहीं नहीं मिलता। उद्ध व तो अपने निर्गुण ब्रह्मज्ञान और योगकथा द्वारा गोपियों को प्रेम से विरत करना चाहते हैं और गोपियाँ उन्हें कभी पेट भर बनाती हैं, कभी उनसे अपनी विवशता और दीनता का निवेदन करती हैं। उद्ध व के बहुत बकने पर वे कहतीहैं
ऊधौ! तुम अपनो जतन करौ।
हित की कहत कुहित की लागै, किन बेकाज ररौ
जाय करौ उपचार आपनो, हम जो कहति हैं जी की।
कछू कहत कछुवै कहि डारत, धुन देखियत नहिं नीकी
इस भ्रमरगीत का महत्व एक बात से और बढ़ गया है। भक्तशिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना का निरूपण बड़े ही मार्मिक ढंग से हृदय की अनुभूति के आधार पर, तर्क पद्ध ति पर नहीं किया है। सगुण निर्गुण का यह प्रसंग सूर अपनी ओर से लाए हैं जिससे संवाद में बहुत रोचकता आ गई है। भागवत में यह प्रसंग नहीं है। सूर के समय में निर्गुण संत संप्रदाय की बातें जोर शोर से चल रही थीं। इसी से उपयुक्त स्थल देखकर सूर ने इस प्रसंग का समावेश कर दिया। जब उद्ध व बहुत सा वाग्विस्तार करके निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश बराबर देते चले जाते हैं तब गोपियाँ बीच में रोककर इस प्रकार पूछती हैं
निर्गुन कौन देस को वासी?
मधुकर हँसि समुझाय, सौंह दै बूझति साँच, न झाँसी।
और कहती हैं कि चारों ओर भासित इस सगुणसत्ता का निषेध करके तू क्यों व्यर्थ उसके अव्यक्त और अनिर्दिष्ट पक्ष को लेकर यों ही बक बक करता है
सुनिहै कथा कौन निर्गुन की, रचि पचि बात बनावत।
सगुन सुमेरु प्रगट देखियत, तुम तृन की ओट दुरावत
उस निर्गुण और अव्यक्त का मानव हृदय के साथ भी कोई संबंध हो सकता है, यह तो बताओ
रेख न रूप, बरन जाके नहि ताको हमैं बतावत।
अपनी कहौं, दरस ऐसो को तुम कबहूँ हौ पावत?
मुरली अधर धरत है सो, पुनि गोधन बन बन चारत?
नैन बिसाल, भौंह बंकट करि देख्यौ कबहूँ निहारत?
तन त्रिभंग करि, नटवर वपु धारि, पीतांबर तेहि सोहत?
सूर स्याम ज्यौं देत हमैं सुख त्यौं तुमको सोउ मोहत?
अंत में वे यह कहकर बात समाप्त करती हैं कि तुम्हारे निर्गुण से तो हमें कृष्ण के अवगुणों में ही अधिक रस जान पड़ता है
ऊनो कर्म कियो मातुल बधि, मदिरा मत्ता प्रमाद।
सूर स्याम एते अवगुन में निर्गुन तें अति स्वाद
2. नंददास ये सूरदास जी के प्राय: समकालीन थे और उनकी गणना अष्टछाप में है। इनका कविताकाल सूरदास जी की मृत्यु के पीछे संवत् 1625 में या उसके और आगे तक माना जा सकता है। इनका जीवनवृत्त पूरा पूरा और ठीक ठीक नहीं मिलता। नाभा जी के भक्तमाल में इन पर जो छप्पय है उसमें जीवन के संबंध में इतना ही है
चंद्रहास अग्रज सुहृद परम प्रेम पथ में पगे।
इससे इतना ही सूचित होता है कि इनके भाई का नाम चंद्रहास था। इनके गोलोकवास के बहुत दिनों पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के पुत्र गोकुलनाथ जी के नाम से जो 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता' लिखी गई उसमें इनका थोड़ा-सा वृत्त दिया गया है। उक्त वार्ता में नंददास जी तुलसीदास जी के भाई कहे गए हैं। गोकुलनाथ जी का अभिप्राय प्रसिद्ध गोस्वामी तुलसीदास जी से ही है, यह पूरी वार्ता पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है। उसमें स्पष्ट लिखा है कि नंददास जी का कृष्णोपासक होना राम के अनन्य भक्त उनके भाई तुलसीदास जी को अच्छा नहीं लगा और उन्होंने उलाहना लिखकर भेजा। यह वाक्य भी उसमें आया है 'सो एक दिन नंददास जी के मन में ऐसी आई। जैसे तुलसीदास जी ने रामायण भाषा करी है सो हम हूँ श्रीमद्भागवत भाषा करें।' गोस्वामी जी का नंददास के साथ वृंदावन जाना और वहाँ 'तुलसी मस्तक तब नवै धानुष बान लेव हाथ' वाली घटना भी उक्त वार्ता में ही लिखी है। पर गोस्वामी जी का नंददास जी से कोई संबंध न था, यह बात पूर्णतया सिद्ध हो चुकी है। अत: उक्त वार्ता की बातों को, जो वास्तव में भक्तों का गौरव प्रचलित करने और बल्लभाचार्य जी की गद्दी की महिमा करने के लिए पीछे से लिखी गई है, प्रमाण कोटि में नहीं ले सकते। 
उसी वार्ता में यह भी लिखा है कि द्वारका जाते हुए नंददास जी सिंधुनद ग्राम में एक रूपवती खत्रानी पर आसक्त हो गए। ये उस स्त्री के घर के चारों ओर चक्कर लगाया करते थे। घर वाले हैरान होकर कुछ दिनों के लिए गोकुल चले गए। वहाँ भी वे जा पहुँचे। अंत में वहीं पर गोसाईं विट्ठलनाथ जी के सदुपदेश से इनका मोह छूटा और ये अनन्य भक्त हो गए। इस कथा में ऐतिहासिक तथ्य केवल इतना ही है कि इन्होंने गोसाईं विट्ठलनाथ जी से दीक्षा ली। धारुवदासजी ने भी अपनी 'भक्तनामावली' में इनकी भक्ति की प्रशंसा के अतिरिक्त और कुछ नहीं लिखा है।
अष्टछाप में सूरदास जी के पीछे इन्हीं का नाम लेना पड़ता है। इनकी रचना भी बड़ी सरस और मधुर है। इनके संबंध में यह कहावत प्रसिद्ध है कि 'और कवि गढ़िया, नंददास जड़िया।' इनकी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक 'रासपंचाध्यायी' है जो रोला छंदों में लिखी गई है। इसमें जैसा कि नाम से ही प्रकट है, कृष्ण की रासलीला का अनुप्रासादियुक्त साहित्यिक भाषा में विस्तार के साथ वर्णन है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, सूर ने स्वाभाविक चलती भाषा का ही अधिक आश्रय लिया है, अनुप्रास और चुने हुए संस्कृत पदविन्यास आदि की ओर प्रवृत्ति नहीं दिखाई है, पर नंददास जी में ये बातें पूर्ण रूप से पाई जाती हैं। 'रासपंचाध्यायी' के अतिरिक्त इन्होंने ये पुस्तकें लिखी हैं
भागवत दशम स्कंध, रुक्मिणीमंगल, सिध्दांत पंचाध्यायी, रूपमंजरी, रसमंजरी, मानमंजरी, विरहमंजरी, नामचिंतामणिमाला, अनेकार्थनाममाला (कोश), दानलीला, मानलीला, अनेकार्थमंजरी, ज्ञानमंजरी, श्यामसगाई, भ्रमरगीत और सुदामाचरित्र। दो ग्रंथ इनके लिखे और कहे जाते हैं हितोपदेश और नासिकेतपुराण (गद्य में)। दो सौ से ऊपर इनके फुटकल पद भी मिले हैं। जहाँ तक ज्ञात है, इनकी चार पुस्तकें ही अब तक प्रकाशित हुई हैं रासपंचध्यायी, भ्रमरगीत, अनेकार्थमंजरी और अनेकार्थनाममाला। इनमें रासपंचाध्यायी और भ्रमरगीत ही प्रसिद्ध हैं, अत: उनसे कुछ अवतरण नीचे दिए जाते हैं

(रासपंचाध्यायी से)
ताही छिन उडुराज उदित रस रास सहायक।
कुंकुम मंडित बदन प्रिया जनु नागरि नायक
कोमल किरन अरुन मानो बन ब्यापि रही यों।
मनसिज खेल्यौ फाग घुमड़ि घुरि रह्यो गुलाल ज्यों।
फटिक छटा सी किरन कुजरंधा्रन जब आई।
मानहुँ बितत बितान सुदेस तनाव तनाई
तब लीनो कर कमल योगमाला सी मुरली। 
अघटित घटना चतुर बहुरि अधारन सुर जुरली
(भ्रमरगीत से)
कहन स्याम संदेस एक मैं तुम पै आयो। 
कहन समय संकेत कहूँ अवसर नहिं पायो
सोचत ही मन में रह्यो, कब पाऊँ इक ठाउँ।
कहि सँदेस नँदलाल को, बहुरि मधुपुरी जाउँ
सुनौ ब्रजनागरी।
जौ उनके गुन होय, वेद क्यों नेति बखानै। 
निरगुन सगुन आतमा रुचि ऊपर सुख सानै
वेद पुराननि खोजि कै पायो कतहुँ न एक।
गुन ही के गुन होहि तुम, कहो अकासहि टेक
सुनौ ब्रजनागरी।
जौं उनके गुन नाहिं और गुन भए कहाँ ते।
बीज बिना तरु जमै मोहिं तुम कहौ कहाँ ते
वा गुन की परछाँह री माया दरपन बीच।
गुन तें गुन न्यारे भए, अमल वारि जल कीच
सखा सुनु श्याम के।
3. कृष्णदास ये भी बल्लभाचार्य जी के शिष्य और अष्टछाप में थे। यद्यपि ये शूद्र थे पर आचार्य जी के बड़े कृपापात्र और मंदिर के प्रधान मुखिया हो गए थे। 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' में इनका कुछ वृत्त दिया हुआ है। एक बार गोसाईं विट्ठलनाथ जी से किसी बात पर अप्रसन्न होकर इन्होंने उनकी डयोढ़ी बंद कर दी। इस पर गोसाईं विट्ठलनाथ जी के कृपापात्र महाराज बीरबल ने इन्हें कैद कर लिया। पीछे गोसाईं जी इस बात से बड़े दुखी हुए और इनको कारागार से मुक्त कराके प्रधान के पद पर फिर ज्यों का त्यों प्रतिष्ठित कर दिया। इन्होंने भी और सब कृष्णभक्तों के समान राधाकृष्ण के प्रेम को लेकर श्रृंगार रस के ही पद गाए हैं। 'जुगलमान चरित्र' नामक इनका एक छोटा सा ग्रंथ मिलता है। इसके अतिरिक्त इनके बनाए दो ग्रंथ और कहे जाते हैं भ्रमरगीत और प्रेमतत्वनिरूपण। फुटकल पदों के संग्रह इधर उधर मिलते हैं। सूरदास और नंददास के सामने इनकी कविता साधारण कोटि की है। इनके कुछ पद नीचे दिए जाते हैं
तरनि तनया तट आवत है प्रात समय, 
कंदुक खेलत देख्यो आनंद को कँदवा
नूपुर पद कुनित, पीतांबर कटि बाँधो,
लाल उपरना, सिर मोरन के चँदवा

कंचन मनि मरकत रस ओपी।
नंदसुवन के संगम सुखकर अधिक विराजति गोपी
मनहुँ विधाता गिरिधर पिय हित सुरतधुजा सुख रोपी।
बदन कांति कै सुनु री भामिनी! सघन चंदश्री लोपी
प्राननाथ के चित चोरन को भौंह भुजंगम कोपी।
कृष्णदास स्वामी बस कीन्हें, प्रेमपुंज को चोपी

मो मन गिरधार छवि पै अटक्यो।
ललित त्रिभंग चाल पै चलि कै, चिबुक चारि गड़ि ठटक्यो।
सजल स्याम घन बरन लीन ह्वै, फिरि चित अनत न भटक्यो।
कृष्णदास किए प्रान निछावर, यह तन जग सिर पटक्यो
कहते हैं कि इसी अंतिम पद को गाकर कृष्णदासजी ने शरीर छोड़ा था। इनका कविता काल संवत् 1600 के आगे पीछे माना जा सकता है।
4. परमानंददास यह भी बल्लभाचार्य जी के शिष्य और अष्टछाप में थे। ये संवत् 1606 के आसपास वर्तमान थे। इनका निवास स्थान कन्नौज था। इसी से ये कान्यकुब्ज अनुमान किए जाते हैं। ये अत्यंत तन्मयता के साथ बड़ी ही सरल कविता करते थे। कहते हैं कि इनके किसी एक पद को सुनकर आचार्य जी कई दिनों तक तन बदन की सुध भूले रहे। इनके फुटकल पद कृष्णभक्तों के मुँह से प्राय: सुनने में आते हैं। इनके 835 पद 'परमानंदसागर' में हैं। दो पद देखिए
कहा करौ बैकुंठहि जाय?
जहँ नहिं नंद, जहाँ न जसोदा, नहिं जहँ गोपी ग्वाल न गाय।
जहँ नहिं जल जमुना को निर्मल और नहीं कदमन की छायँ।
परमानंद प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तजि मेरी जाय बलाय

राधो जू हारावलि टूटी।
उरज कमलदल माल मरगजी, बाम कपोल अलक लट छूटी
बर उर उरज करज बिच अंकित, बाहु जुगल बलयावलि फूटी।
कंचुकि चीर बिबिधा रंग रंजित, गिरधार अधार माधुरी घूँटी
आलस बलित नैन अनियारे, अरुन उनींदे रजनी खूटी।
परमानंद प्रभु सुरति समय रस मदन नृपति की सेना लूटी
5. कुंभनदास ये भी अष्टछाप के एक कवि थे और परमानंद जी के ही समकालीन थे। वे पूरे विरक्त और धान, मान मर्यादा की इच्छा से कोसों दूर थे। एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर इन्हें फतेहपुर सीकरी जाना पड़ा जहाँ इनका बड़ा सम्मान हुआ। पर इसका इन्हें बराबर खेद ही रहा, जैसा कि इस पद से व्यंजित होता है
संतन को कहा सीकरी सों काम?
आवत जात पहनियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम।
कुंभनदास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम
इनका कोई ग्रंथ न तो प्रसिद्ध है और न अब तक मिला है। फुटकल पद अवश्य मिलते हैं। विषय वही कृष्ण की बाललीला और प्रेमलीला है
तुम नीके दुहि जानत गैया।
चलिए कुँवर रसिक मनमोहन लागौं तिहारे पैयाँ
तुमहिं जानि करि कनक दोहनी घर तें पठई मैया।
निकटहि है यह खरिक हमारो, नागर लेहुँ बलैया
देखियत परम सुदेस लरिकई चित चहुँटयो सुंदरैया।
कुंभनदास प्रभु मानि लई रति गिरि गोबरधान रैया
6. चतुर्भुजदास ये कुंभनदासजी के पुत्र और गोसाईं विट्ठलनाथ जी के शिष्य थे। ये भी अष्टछाप के कवियों में हैं। इनकी भाषा चलती और सुव्यवस्थित है। इनके बनाए तीन ग्रंथ मिले हैं द्वादशयश, भक्तिप्रताप तथा हितजू को मंगल।
इनके अतिरिक्त फुटकल पदों के संग्रह भी इधर उधर पाए जाते हैं। एक पद नीचे दिया जाता है
जसोदा! कहा कहौं हौं बात।
तुम्हरे सुत के करतब मो पै कहत कहे नहिं जात
भाजन फोरि, ढारि सब गोरस, लै माखन दधि खात।
जौ बरजौं तौ ऑंखि दिखावै, रंचहु नाहिं सकात
और अटपटी कहँ लौ बरनौं, छुवत पानि सों गात।
दास चतुर्भुज गिरिधर गुन हौं कहति कहति सकुचात
7. छीतस्वामी ये विट्ठलनाथ जी के शिष्य और अष्टछाप के अंतर्गत थे। पहले ये मथुरा के एक सुसंपन्न पंडा थे और राजा बीरबल ऐसे लोग इनके जजमान थे। पंडा होने के कारण ये पहले बड़े अक्खड़ और उद्दंड थे, पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथ जी से दीक्षा लेकर परम शांत भक्त हो गए और श्रीकृष्ण का गुणानुवाद करने लगे। इनकी रचनाओं का समय संवत् 1612 के इधर मान सकते हैं। इनके फुटकल पद ही लोगों के मुँह से सुने जाते हैं या इधर उधर संग्रहीत मिलते हैं। इनके पदों में श्रृंगार के अतिरिक्त ब्रजभूमि के प्रति प्रेमव्यंजना भी अच्छी पाई जाती है। 'हे विधाना तोसों अंचरा पसारि माँगौं जनम जनम दीजो याही ब्रज बसिबो' पद इन्हीं का है। अष्टछाप के और कवियों की सी मधुरता और सरसता इनके पदों में भी पाई जाती है, देखिए
भोर भए नवकुंज सदन तें, आवत लाल गोवर्ध्दनधारी।
लटपट पाग मरगजी माला, सिथिल अंग डगमग गति न्यारी
बिनु गुन माल बिराजति उर पर, नखछत द्वैज चंद अनुहारी।
छीतस्वामी जब चितए मो तन, तब हौं निरखि गई बलिहारी
8. गोविंदस्वामी ये अंतरी के रहनेवाले सनाढय ब्राह्मण थे जो विरक्त की भाँति आकर महावन में रहने लगे थे। पीछे गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के शिष्य हुए जिन्होंने इनके रचे पदों से प्रसन्न होकर इन्हें अष्टछाप में लिया। ये गोवर्ध्दन पर्वत पर रहते थे और उसके पास ही इन्होंने कदंबों का एक अच्छा उपवन लगाया था जो अब तक 'गोविंदस्वामी की कदंबखंडी' कहलाता है। इनका रचनाकाल संवत् 1600 और 1625 के भीतर ही माना जा सकता है। ये कवि होने के अतिरिक्त बड़े पक्के गवैये थे। तानसेन कभी कभी इनका गाना सुनने के लिए आया करते थे। इनका बनाया एक पद दिया जाता है
प्रात समय उठि जसुमति जननी गिरिधर सुत को उबटि न्हवावति।
करि सिंगार बसन भूषन सजि फूलन रचि रचि पाग बनावति।
छुटे बंद बागे अति सोभित, बिच बिच चोव अरगजा लावति।
सूथन लाल फूँदना सोभित, आजु कि छबि कछु कहति न आवति
बिबिधा कुसुम की माला उर धारि श्री कर मुरली बेंत गहावति।
लै दरपन देखे श्रीमुख को, गोविंद प्रभु चरननि सिर नावति
9. हितहरिवंश राधाबल्लभी संप्रदाय के प्रवर्तक गोसाईं हितहरिवंश का जन्म संवत् 1559 में मथुरा से 4 मील दक्षिण बादगाँव में हुआ था। राधाबल्लभी संप्रदाय के पं. गोपालप्रसाद शर्मा ने इनका जन्म संवत् 1530 माना है, जो सब घटनाओं पर विचार करने से ठीक नहीं जान पड़ता। ओरछानरेश महाराज मधुकरशाह के राजगुरु श्री हरिराम व्यास जी संवत् 1622 के लगभग आपके शिष्य हुए थे। हितहरिवंश जी गौड़ ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम केशवदास मिश्र और माता का नाम तारावती था।
कहते हैं कि हितहरिवंश जी पहले माधवानुयायी गोपाल भट्ट के शिष्य थे। पीछे इन्हें स्वप्न में राधिका जी ने मंत्र दिया और इन्होंने अपना एक अलग संप्रदाय चलाया। अत: हित संप्रदाय को माधव संप्रदाय के अंतर्गत मान सकते हैं। हितहरिवंश जी के चार पुत्र और एक कन्या हुई। पुत्रों के नाम वनचंद्र, कृष्णचंद्र, गोपीनाथ और मोहनलाल थे। गोसाईं जी ने संवत् 1582 में श्री राधाबल्लभ जी की मूर्ति वृंदावन में स्थापित की और वहीं विरक्त भाव से रहने लगे। ये संस्कृत के अच्छे विद्वान और भाषा काव्य के अच्छे मर्मज्ञ थे। 170 श्लोकों का 'राधासुधानिधि' आप ही का रचा कहा जाता है। ब्रजभाषा की रचना आपकी यद्यपि बहुत विस्तृत नहीं है, तथापि है बड़ी सरस और हृदयग्राहिणी। आपके पदों का संग्रह 'हित चौरासी' के नाम से प्रसिद्ध है क्योंकि उसमें 84 पद हैं। प्रेमदास की लिखी इस ग्रंथ की एक बहुत बड़ी टीका (500 पृष्ठों की) ब्रजभाषा गद्य में है।
इनके द्वारा ब्रजभाषा की काव्यश्री के प्रसार में बड़ी सहायता पहुँची। इनके कई शिष्य अच्छे अच्छे कवि हुए हैं। हरिराम व्यास ने इनके गोलोकवास पर बड़े चुभते पद कहे हैं। सेवक जी, ध्रुवदास आदि इनके शिष्य बड़ी सुंदर रचना कर गए हैं। अपनी रचना की मधुरता के कारण हितहरिवंश जी श्रीकृष्ण की वंशी के अवतार कहे जाते हैं। इनका रचनाकाल संवत् 1600 से संवत् 1640 तक माना जा सकता है। 'हित चौरासी' के अतिरिक्त इनकी फुटकल बानी भी मिलती है जिसमें सिध्दांत संबंधी पद हैं। इनके 'हित चौरासी' पर लोकनाथ कवि ने एक टीका लिखी है। वृंदावन ने इनकी स्तुति और वंदना में 'हितजी की सहस्रनामावली' और चतुर्भुजदास ने 'हितजू को मंगल' लिखा है। इसी प्रकार हितपरमानंद जी और ब्रजजीवनदास ने इनकी जन्म बधाइयाँ लिखी हैं। हितहरिवंश की रचना के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं जिनसे इनकी वर्णन प्रचुरता का परिचय मिलेगाए
(सिध्दांत संबंधी कुछ फुटकल पदों से)
रहौ कोउ काहू मनहिं दिए।
मेरे प्राननाथ श्री स्यामा सपथ करौं तिन छिए
जो अवतार कदंब भजत हैं धारि दृढ़ ब्रत जु हिए।
तेऊ उमगि तजत मर्यादा बन बिहार रस पिए
खोए रतन फिरत जो घर घर कौन काज इमि जिए ?
हितहरिबंस अनत सचु नाहीं बिन या रसहिं पिए
(हित चौरासी से)
ब्रज नव तरुनि कदंब मुकुटमनि स्यामा आजु बनी।
नख सिख लौं अंग अंग माधुरी मोहे स्याम धानी
यों राजति कबरी गूथित कच कनक कंज बदनी।
चिकुर चंद्रिकन बीच अधार बिधु मानौ ग्रसित फनी॥ 
सौभग रस सिर स्रवत पनारी पिय सीमंत ठनी।
भ्रृकुटि काम कोदंड, नैन सर, कज्जल रेख अनी
भाल तिलक, ताटंक गंड पर, नासा जलज मनी।
दसन कुंद, सरसाधार पल्लव, पीतम मन समनी
हितहरिबंस प्रसंसित स्यामा कीरति बिसद घनी।
गावत श्रवननि सुनत सुखाकर विश्व दुरित दवनी

बिपिन घन कुंज रति केलि भुज मेलि रुचि
स्याम स्यामा मिले सरद की जामिनी।
हृदय अति फूल, रसमूल पिय नागरी
कर निकर मत्ता मनु बिबिधा गुन रागिनी
सरस गति हास परिहास आवेस बस 
दलित दल मदन बल कोक रस कामिनी।
हितहरिबंस सुनि लाल लावन्य भिदे
प्रिया अति सूर सुख सूरत संग्रामिनी
10. गदाधर भट्ट ये दक्षिणी ब्राह्मण थे। इनके जन्म संवत् आदि का ठीक ठीक पता नहीं। पर यह बात प्रसिद्ध है कि ये श्री चैतन्य महाप्रभु को भागवत सुनाया करते थे। इसका समर्थन भक्तमाल की इन पंक्तियों से भी होता है
भागवत सुधा बरखै बदन, काहू को नाहिंन दुखद।
गुणनिकर गदाधार भट्ट अति सबहिन को लागै सुखद
श्री चैतन्य महाप्रभु का आविर्भाव संवत् 1542 में और गोलोकवास 1584 में माना जाता है। अत: संवत् 1584 के भीतर ही आपने श्री महाप्रभु से दीक्षा ली होगी। महाप्रभु के जिन छह विद्वान शिष्यों ने गौड़ीय संप्रदाय के मूल संस्कृत ग्रन्थों की रचना की थी उनमें जीव गोस्वामी भी थे। ये वृंदावन में रहते थे। एक दिन दो साधुओं ने जीव गोस्वामी के सामने गदाधार भट्टजी का यह पद सुनाया
सखी हौं स्याम रंग रँगी।
देखि बिकाय गई वह मूरति, सूरत माँहि पगी
संग हुतो अपनो सपनो सो सोइ रही रस खोई।
जागेहु आगे दृष्टि परै, सखि, नेकु न न्यारो होई
एक जु मेरी अंखियन में निसि द्यौस रह्यो करि भौन।
गाय चरावन जात सुन्यो, सखि सो धौं कन्हैया कौन?
कासौं कहौं कौन पतियावै कौन करे बकवाद?
कैसे कै कहि जाति गदाधार, गूँगे ते गुर स्वाद?
इस पद को सुन जीव गोस्वामी ने भट्टजी के पास यह श्लोक लिख भेजाए
अनाराधय राधापदाम्भोजयुग्ममाश्रित्य वृन्दाटवीं तत्पदा(म्।
असम्भाष्य तद्भावगम्भीरचित्तान कुत:श्यामासिन्धो: रहस्यावगाह:
यह श्लोक पढ़कर भट्ट जी मूर्छित हो गए फिर सुध आने पर सीधे वृंदावन में जाकर चैतन्य महाप्रभु के शिष्य हुए। इस वृत्तांत को यदि ठीक मानें तो इनकी रचनाओं का आरंभ 1580 से मानना पड़ता है और अंत संवत् 1600 के पीछे। इस हिसाब से इनकी रचना का प्रादुर्भाव सूरदास जी के रचनाकाल के साथ साथ अथवा उससे भी कुछ पहले से मानना होगा। 
संस्कृत के चूड़ांत पंडित होने के कारण शब्दों पर इनका बहुत विस्तृत अधिकार था। इनका पदविन्यास बहुत ही सुंदर है। गोस्वामी तुलसीदास जी के समान इन्होंने संस्कृत पदों के अतिरिक्त संस्कृतगर्भित भाषा कविता भी की है। नीचे कुछ उदाहरण दिए जाते हैं
जयति श्री राधिके, सकल सुख साधिके, 
तरुनि मनि नित्य नव तन किसोरी।
कृष्ण तन लीन मन, रूप की चातकी,
कृष्ण मुख हिम किरन की चकोरी
कृष्ण दृग भृंग विश्राम हित पद्मिनी,
कृष्ण दृग मृगज बंधान सुडोरी।
कृष्ण अनुराग मकरंद की मधुकरी, 
कृष्ण गुन गान रससिंधु बोरी
विमुख पर चित्त तें चित्त जाको सदा,
करति निज नाह कै चित्त चोरी।
प्रकृति यह गदाधार कहत कैसे बने, 
अमित महिमा, इतै बुद्धि थोरी

झूलति नागरि नागर लाल।
मंद मंद सब सखी झुलावति, गावति गीत रसाल
फरहरात पट पीत नील के, अंचल चंचल चाल।
मनहुँ परस्पर उमगि ध्यान छबि, प्रगट भई तिहि काल
सिलसिलात अति प्रिया सीस तें, लटकति बेनी भाल।
जन प्रिय मुकुट बरहि भ्रम बस तहँ ब्याली बिकल बिहाल
मल्लीमाल प्रिया के उर की, पिय तुलसीदल माल।
जनु सुरसरि रवितनया मिलिकै सोभित श्रेनि मराल
स्यामल गौर परस्पर प्रति छबि, सोभा बिसद विसाल।
निरखि गदाधार रसिक कुँवरि मन परयो सुरस जंजाल
11. मीराबाइ ये मेड़तिया के राठौर रत्नसिंह की पुत्री, राव दूदाजी की पौत्री और जोधपुर के बसाने वाले प्रसिद्ध राव जोधा जी की प्रपौत्री थीं। इनका जन्म संवत् 1573 में चोकड़ी नाम के एक गाँव में हुआ था और विवाह उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज जी के साथ हुआ था। ये आरंभ से ही कृष्णभक्ति में लीन रहा करती थीं। विवाह के उपरांत थोड़े दिनों में इनके पति का परलोकवास हो गया। ये प्राय: मंदिर में जाकर उपस्थित भक्तों और संतों के बीच श्रीकृष्ण भगवान की मूर्ति के सामने आनंदमग्न होकर नाचती और गाती थीं। कहते हैं कि इनके इस राजकुलविरुद्ध आचरण से इनके स्वजन लोकनिंदा के भय से रुष्ट रहा करते थे। यहाँ तक कहा जाता है कि इन्हें कई बार विष देने का प्रयत्न किया गया, पर भगवत् कृपा से विष का कोई प्रभाव इन पर न हुआ। घर वालों के व्यवहार से खिन्न होकर ये द्वारका और वृंदावन के मंदिरों में घूम-घूमकर भजन सुनाया करती थीं। जहाँ जातीं वहाँ इनका देवियों का सा सम्मान होता। ऐसा प्रसिद्ध है कि घरवालों से तंग आकर इन्होंने गोस्वामी तुलसीदास जी को यह पद लिखकर भेजा थाए
स्वस्ति श्री तुलसी कुल भूषन दूषन हरन गोसाईं।
बारहिं बार प्रनाम करहुँ, अब हरहु सोक समुदाई
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु संग अरु भजन करत मोहिं देत कलेस महाई
मेरे मात पिता के सम हौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई
इस पर गोस्वामी जी ने विनयपत्रिका का यह पद लिखकर भेजा था
जाके प्रिय न राम बैदेही।
सो नर तजिय कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही
× × × ×
नाते सबै राम के मनियत सुहृद सुसेव्य जहाँ लौं।
अंजन कहा ऑंखि जौ फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं
पर मीराबाई की मृत्यु द्वारका में संवत् 1603 में हो चुकी थी। अत: यह जनश्रुति किसी की कल्पना के आधार पर ही चल पड़ी।
मीराबाई की उपासना 'माधुर्यभाव' की थी अर्थात् वे अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रूप में करती थीं। पहले यह कहा जा चुका है कि इस भाव की उपासना में रहस्य का समावेश अनिवार्य है। 2 इसी ढंग की उपासना का प्रचार सूफी भी कर रहे थे अत: उनका संस्कार भी इन पर अवश्य कुछ पड़ा। जब लोग इन्हें खुले मैदान मंदिरों में पुरुषों के सामने जाने से मना करते तब वे कहतीं कि 'कृष्ण के अतिरिक्त और पुरुष है कौन जिसके सामने लज्जा करूँ?' मीराबाई का नाम भारत के प्रधान भक्तों में है और इनका गुणगान नाभाजी, ध्रुवदास, व्यास जी, मलूकदास आदि सब भक्तों ने किया है। इनके पद कुछ तो राजस्थानी मिश्रित भाषा में हैं और कुछ विशुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा में। पर सबमें प्रेम की तल्लीनता समान रूप से पाई जाती है। इनके बनाए चार ग्रंथ कहे जाते हैं नरसीजी का मायरा, गीतगोविंद टीका, राग गोविंद, राग सोरठ के पद।
इनके दो पद नीचे दिए जाते हैं
बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
मोहनि मूरति, साँवरि सूरति, नैना बने रसाल।
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, अरुन तिलक दिए भाल
अधार सुधारस मुरली राजति, उर बैजंती माल
छुद्रघंटिका कटि तट सोभित, नूपुर शब्द रसाल
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्तबछल गोपाल

मन रे परसि हरि के चरन। 
सुभग सीतल कमल कोमल त्रिविधा ज्वाला हरन
जो चरन प्रहलाद परसे इंद्र पदवी हरन।
जिन चरन धु्रव अटल कीन्हौं राखि अपनी सरन
जिन चरन ब्रह्मांड भेटयो नखसिखौ श्री भरन।
जिन चरन प्रभु परस लीन्हें तरी गौतम घरनि
जिन चरन धारयो गोबरधान गरब-मघवा-हरन।
दासि मीरा लाल गिरधार अगम तारन तरन
12. स्वामी हरिदास ये महात्मा वृंदावन में निंबार्क मतांतर्गत टट्टी संप्रदाय के संस्थापक थे और अकबर के समय में एक सिद्ध भक्त और संगीत कला कोविद माने जाते थे। कविताकाल संवत् 1600 से 1617 ठहरता है। प्रसिद्ध गायनाचार्य तानसेन इनका गुरुवत् सम्मान करते थे। यह प्रसिद्ध है कि अकबर बादशाह साधु के वेश में तानसेन के साथ इनका गाना सुनने के लिए गया था। कहते हैं कि तानसेन इनके सामने गाने लगे और उन्होंने जान बूझकर गाने में कुछ भूल कर दी। इस पर स्वामी हरिदास ने उसी गान को शुद्ध करके गाया। इस युक्ति से अकबर को इनका गाना सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। पीछे अकबर ने बहुत कुछ पूजा चढ़ानी चाही, पर इन्होंने स्वीकृत न की। इनका जन्म संवत् आदि कुछ ज्ञात नहीं, पर इतना निश्चित है कि ये सनाढय ब्राह्मण थे जैसा कि सहचरि सरनदास जी ने, जो इनकी शिष्य परंपरा में थे, लिखा है। वृंदावन से उठकर स्वामी हरिदास जी कुछ दिन निधुवन में रहे थे। इनके पद कठिन राग रागिनियों में गाने योग्य हैं। पढ़ने में कुछ ऊबड़ खाबड़ लगते हैं। पदविन्यास भी और कवियों के समान सर्वत्र मधुर और कोमल नहीं हैं, पर भाव उत्कृष्ट हैं। इनके पदों के तीन चार संग्रह 'हरिदास जी के ग्रंथ', 'स्वामी हरिदास जी के पद' 'हरिदास जी की बानी' आदि नामों से मिलते हैं। एक पद देखिए
ज्यों ही ज्यों ही तुम राखत हौं, त्यों ही त्यों ही रहियत हौं, हे हरि!
और अपरचै पाय धारौं सुतौं कहौं कौन के पैड भरि
जदपि हौं अपनो भायो कियो चाहौं, कैसे करि सकौं जो तुम राखौ पकरि।
कहै हरिदास पिंजरा के जनावर लौं तरफराय रह्यौ उड़िबे को कितोऊ करि
13. सूरदास मदनमोहन ये अकबर के समय में संडीले के अमीन थे। जाति के ब्राह्मण और गौड़ीय संप्रदाय के वैष्णव थे। ये जो कुछ पास में आता प्राय: सब साधुओं की सेवा में लगा दिया करते थे। कहते हैं कि एक बार संडीले तहसील की मालगुजारी के कई लाख रुपये सरकारी खजाने में आए थे। इन्होंने सबका सब साधुओं को खिला पिला दिया और शाही खजाने में कंकड़ पत्थरों से भरे संदूक भेज दिए जिनके भीतर कागज के चिट यह लिखकर रख दिए
तेरह लाख सँडीले आए, सब साधुन मिलि गटके।
सूरदास मदनमोहन आधी रातहिं सटके
और आधी रात को उठकर कहीं भाग गए। बादशाह ने इनका अपराध क्षमा करके इन्हें फिर बुलाया, पर ये विरक्त होकर वृंदावन में रहने लगे। इनकी कविता इतनी सरस होती थी कि इनके बनाए बहुत से पद सूरसागर में मिल गए। इनकी कोई पुस्तक प्रसिद्ध नहीं। कुछ फुटकल पद लोगों के पास मिलते हैं। इनका रचनाकाल संवत् 1590 और 1600 के बीच अनुमान किया जाता है। इनके दो पद नीचे दिए जाते हैं
मधु के मतवारे स्याम! खोलौ प्यारे पलकैं।
सीस मुकुट लटा छुटी और छुटी अलकै
सुर नर मुनि द्वार ठाढ़े, दरस हेतु कलकैं।
नासिका के मोती सोहै बीच लाल ललकैं
कटि पीतांबर मुरली कर श्रवन कुंडल झलकै।
सूरदास मदनमोहन दरस दैहौं भलकै

नवल किसोर नवल नागरिया। 
अपनी भुजा स्याम भुज ऊपर, स्याम भुजा अपने उर धारिया
करत विनोद तरनि तनया तट, स्यामा स्याम उमगि रस भरिया।
यौं लपटाइ रहे उर अंतर मरकत मनि कंचन ज्यों जरिया
उपमा को घन दामिनी नाहीं, कँदरप कोटि वारने करिया।
सूर मदनमोहन बलि जोरी नंदनंदन बृषभानु दुलरिया
14. श्रीभट्ट ये निंबार्क संप्रदाय के प्रसिद्ध विद्वान केशव कश्मीरी के प्रधान शिष्य थे। इनका जन्म संवत् 1595 में अनुमान किया जाता है अत: इनका कविताकाल संवत् 1625 या उसके कुछ आगे तक माना जा सकता है। इनकी कविता सीधी सादी और चलती भाषा में है। पद भी प्राय: छोटे छोटे हैं। इनकी कृति भी अधिक विस्तृत नहीं है पर 'युगल शतक' नाम का इनका 100 पदों का एक ग्रंथ कृष्णभक्तों में बहुत आदर की दृष्टि से देखा जाता है। 'युगल शतक' के अतिरिक्त इनकी एक छोटी सी पुस्तक 'आदि वाणी' भी मिलती है। ऐसा प्रसिद्ध है कि जब ये तन्मय होकर अपने पद गाने लगते थे तब कभी कभी उस पद के ध्यानानुरूप इन्हें भगवान की झलक प्रत्यक्ष मिल जाती थी। एक बार वे यह मलार गा रहे थे
भीजत कब देखौं इन नैना।
स्यामाजू की सुरँग चूनरी, मोहन को उपरैना
कहते हैं कि राधाकृष्ण इसी रूप में इन्हें दिखाई पड़ गए और इन्होंने पद इस प्रकार पूरा किया
स्यामा स्याम कुंजतर ठाढ़े, जतन कियो कछु मैं ना।
श्रीभट उमड़ि घटा चहुँ दिसि से घिरि आई जल सेना
इनके 'युगल शतक' से दो पद उध्दृत किए जाते हैं
ब्रजभूमि मोहनि मैं जानी।
मोहन कुंज, मोहन वृंदावन, मोहन जमुना पानी
मोहन नारि सकल गोकुल की बोलति अमरित बानी।
श्रीभट्ट के प्रभु मोहन नागर, 'मोहनि राधा रानी'

बसौ मेरे नैननि में दोउ चंद। 
गोर बदनि बृषभानु नंदिनी, स्यामबरन नँदनंद
गोलक रहे लुभाय रूप में निरखत आनंदकंद।
जय श्रीभट्ट प्रेमरस बंधान, क्यों छूटै दृढ़ फंद
15. व्यास जी इनका पूरा नाम हरीराम व्यास था और ये ओरछा के रहनेवाले सनाढय शुक्ल ब्राह्मण थे। ओरछानरेश मधुकरशाह के ये राजगुरु थे। पहले ये गौड़ संप्रदाय के वैष्णव थे, पीछे हितहरिवंश जी के शिष्य होकर राधावल्लभी हो गए। इनका काल संवत् 1620 के आसपास है। पहले ये संस्कृत के शास्त्रार्थी पंडित थे औरसदा शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार रहते थे। एक बार वृंदावन में जाकर गोस्वामीहितहरिवंश जी को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। गोसाईं जी ने नम्र भाव से यह पद कहा
यह जो एक मन बहुत ठौर करि कहि कौनै सचु पायो।
जहँ तहँ बिपति जार जुवती ज्यों प्रगट पिंगला गायो
यह पद सुनकर व्यास जी चेत गए और हितहरिवंश जी के अनन्य भक्त हो गए। उनकी मृत्यु पर इन्होंने इस प्रकार अपना शोक प्रकट किया
हुतो रस रसिकन को आधार।
बिन हरिबंसहि सरस रीति को कापै चलिहै भार?
को राधा दुलरावै गावै, बचन सुनावै कौन उचार?
वृंदावन की सहज माधुरी, कहिहै कौन उदार?
पद रचना अब कापै ह्वैहै? निरस भयो संसार। 
बड़ो अभाग अनन्य सभा को, उठिगो ठाट सिंगार
जिन बिन दिन छिन जुग सम बीतत सहज रूप आगार।
व्यास एक कुल कुमुद चंद बिनु उडुगन जूठी थार
जब हितहरिवंश जी से दीक्षा लेकर व्यास जी वृंदावन में ही रह गए तब महाराज मधुकर साह इन्हें ओरछा ले जाने के लिए आए, पर ये वृंदावन छोड़कर न गए और अधीर होकर इन्होंने यह पद कहाए
वृंदावन के रूख हमारे माता पिता सुत बंधा।
गुरु गोविंद साधुगति मति सुख, फल फूलन की गंधा
इनहिं पीठि दै अनत डीठि करै सो अंधान में अंधा।
व्यास इनहिं छोड़ै और छुड़ावै ताको परियो कंधा
इनकी रचना परिमाण में भी बहुत विस्तृत है और विषयभेद के विचार से भी अधिकांश कृष्णभक्तों की अपेक्षा व्यापक है। ये श्रीकृष्ण की बाललीला और श्रृंगारलीला में लीन रहने पर भी बीच बीच में संसार पर भी दृष्टि डाला करते थे। इन्होंने तुलसीदास जी के समान खलों, पाखंडियों आदि का भी स्मरण किया है और रसगान के अतिरिक्त तत्वनिरूपण में भी ये प्रवृत्त हुए हैं। प्रेम को इन्होंने शरीर व्यवहार से अलग 'अतन' अर्थात् मानसिक या आध्यात्मिक वस्तु कहा है। ज्ञान, वैराग्य और भक्ति तीनों पर बहुत से पद और साखियाँ इनकी मिलती हैं। इन्होंने एक 'रासपंचाध्यायी' भी लिखी है, जिसे लोगों ने भूल से सूरसागर में मिला लिया है। इनकी रचना के थोड़े से उदाहरण यहाँ दिए जाते हैं
आज कछु कुंजन में बरषा सी।
बादल दल में देखि सखी री! चमकति है चपला सी।
नान्हीं नान्हीं बूँदन कछु धुरवा से, पवन बहै सुखरासी
मंद मंद गरजनि सी सुनियतु, नाचति मोरसभा सी।
इंद्रधानुष बगपंगति डोलति, बोलति कोककला सी
इंद्रबधाू छबि छाइ रही मनु, गिरि पर अरुनघटा सी
उमगि महीरुह स्यों महि फूली, भूली मृगमाला सी।
रटति प्यास चातक ज्यों रसना, रस पीवत हू प्यासी

सुघर राधिाका प्रवीन बीना, वर रास रच्यो,
स्याम संग वर सुढंग तरनि तनया तीरे।
आनंदकंद वृंदावन सरद मंद मंद पवन,
कुसुमपुंज तापदवन, धुनित कल कुटीरे
रुनित किंकनी सुचारु, नूपुर तिमि बलय हारु,
अंग बर मृदंग ताल तरल रंग भीरे
गावत अति रंग रह्यो, मोपै नहिं जात कह्यो, 
व्यास रसप्रवाह बह्यो निरखि नैन सीरे

(साखी)
व्यास न कथनी काम की , करनी है इक सार।
भक्ति बिना पंडित वृथा , ज्यों खर चंदन भार
अपने अपने मत लगे , बादि मचावत सोर।
ज्यों त्यों सबको सेइबो , एकै नंदकिसोर
प्रेम अतन या जगत में , जानै बिरला कोय।
व्यास सतन क्यों परसि है , पचि हारयो जग रोय
सती, सूरमा संत जन , इन समान नहिं और। 
आगम पंथ पै पग धारै , डिगे न पावैं ठौर
16. रसखानब ये दिल्ली के एक पठान सरदार थे। इन्होंने 'प्रेमवाटिका' में अपने को शाही खानदान का कहा है
देखि गदर हित साहिबी, दिल्ली नगर मसान।
छिनहिं बादसा बंस की, ठसक छाँड़ि रसखान
संभव है पठान बादशाहों की कुल परंपरा से इनका संबंध रहा हो। ये बड़े भारी कृष्णभक्त और गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के बड़े कृपापात्र शिष्य थे। 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता' में इनका वृत्तांत आया है। उक्त वार्ता के अनुसार ये पहले एक बनिए के लड़के पर आसक्त थे। एक दिन इन्होंने किसी को कहते हुए सुना कि भगवान से ऐसा प्रेम करना चाहिए जैसे रसखान का उस बनिए के लड़के पर है। इस बात से मर्माहत होकर ये श्रीनाथजी को ढूँढ़ते ढूँढ़ते गोकुल आए और वहाँ गोसाईं विट्ठलनाथ जी से दीक्षा ली। यही आख्यायिका एक दूसरे रूप में भी प्रसिद्ध है। कहते हैं जिस स्त्री पर ये आसक्त थे वह बहुत मानवती थी और इनका अनादर किया करती थी। एक दिन ये श्रीमद्भागवत का फारसी तर्जुमा पढ़ रहेथे। उसमें गोपियों के अनन्य और अलौकिक प्रेम को पढ़ इन्हें ध्यान हुआ कि उसीमें क्यों न मन लगाया जाय जिस पर इतनी गोपियाँ मरती थीं। इसी बात पर ये वृंदावन चले आए। 'प्रेमवाटिका' के इस दोहे का संकेत लोग इस घटना की ओर बतातेहैं
तोरि मानिनी तें हियो फोरि मोहनी मान।
प्रेमदेव की छबिहि लखि भए मियाँ रसखान
इन प्रवादों से कम-से-कम इतना अवश्य सूचित होता है कि आरंभ से ही ये बड़े प्रेमी जीव थे। वही प्रेम अत्यंत गूढ़ भगवद्भक्ति में परिणत हुआ। प्रेम के ऐसे सुंदर उद्गार इनके सवैयों में निकले कि जनसाधारण प्रेम या श्रृंगार संबंधी कवित्त सवैयों को ही 'रसखान' कहने लगेएजैसे 'कोई रसखान सुनाओ।' इनकी भाषा बहुत चलती सरल और शब्दाडंबरमुक्त होती थी। शुद्ध ब्रजभाषा का जो चलतापन और सफाई इनकी और घनानंद की रचनाओं में है वह अन्यत्रा दुर्लभ है। इनका रचनाकाल संवत् 1640 के उपरांत ही माना जा सकता है क्योंकि गोसाईं विट्ठलनाथ जी का गोलोकवास संवत् 1643 में हुआ था। प्रेमवाटिका का रचनाकाल संवत् 1671 है। अत: उनके शिष्य होने के उपरांत ही इनकी मधुर वाणी स्फुरित हुई होगी। इनकी कृति परिमाण में तो बहुत अधिक नहीं हैं पर जो है वह प्रेमियों के मर्म को स्पर्श करनेवाली है। इनकी दो छोटी छोटी पुस्तकें अब तक प्रकाशित हुई हैंप्रेमवाटिका (दोहे) और सुजान रसखान (कवित्त सवैया)। और कृष्णभक्तों के समान इन्होंने 'गीतकाव्य' का आश्रय न लेकर कवित्त सवैयों में अपने सच्चे प्रेम की व्यंजना की है। ब्रजभूमि के सच्चे प्रेम से परिपूर्ण ये दो सवैये अत्यंत प्रसिद्ध हैं
मानुष हों तो वही रसखान बसौं सँग गोकुल गाँव के ग्वारन।
जौ पसु हों तो कहा बसु मेरो चरौं नित नंद की धोनु मझारन
पाहन हों तो वही गिरि को जो कियो हरि छत्रा पुरंदर धारन।
जौ खग हों तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदंब की डारन

या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहु सिद्धि नवौ निधि के सुख नंद की गाय चराय बिसारौं
नैनन सों रसखान सबै ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
केतक ही कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं
अनुप्रास की सुंदर छटा होते हुए भी भाषा की चुस्ती और सफाई कहीं नहीं जाने पाई है। बीच बीच में भावों की बड़ी सुंदर व्यंजना है। लीलापक्ष को लेकर इन्होंने बड़ी रंजनकारिणी रचनाएँ की हैं।
भगवान प्रेम के वशीभूत हैं, जहाँ प्रेम है वहीं प्रिय है, इस बात को रसखान यों कहते हैं
ब्रह्म मैं ढँढयो पुरानन गानन, वेदरिचा सुनी चौगुने चायन।
देख्यो सुन्यो कबहूँ न कहूँ वह कैसे सरूप और कैसे सुभायन
टेरत हेरत हारि परयो रसखान बतायो न लोग लुगायन। 
देख्यो दुरो वह कुंज कुटीर में बैठो पलोटत राधिाका पाँयन
कुछ और नमूने देखिए
मोर पखा सिर ऊपर राखिहौ, गुंज की माल गले पहिरौंगी।
ओढ़ि पितांबर लै लकुटी बन गोधान ग्वालन संग फिरौंगी
भावतो सोई मेरो रसखान सो तेरे कहै सब स्वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधार की अधारान धारी अधारा न धारौंगी

सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाहिं निरंतर गावैं।
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुवेद बतावैं
नारद से सुक व्यास रटैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भर छाछ पै नाच नचावैं

(प्रेमवाटिका से)
जेहि बिनु जाने कछुहि नहिं जान्यों जात बिसेस।
सोइ प्रेम जेहि जान कै रहि न जात कछु सेस
प्रेमफाँस सो फँसि मरै सोई जियै सदाहि।
प्रेम मरम जाने बिना मरि कोउ जीवत नाहिं
17. ध्रुवदास ये श्री हितहरिवंश जी के शिष्य स्वप्न में हुए थे। इसके अतिरिक्त इनका कुछ जीवनवृत्त नहीं प्राप्त हुआ है। ये अधिकतर वृंदावन ही में रहा करते थे। इनकी रचना बहुत ही विस्तृत है और इन्होंने पदों के अतिरिक्त दोहे, चौपाई, कवित्त, सवैये आदि अनेक छंदों में भक्ति और प्रेमतत्व का वर्णन किया है। छोटे मोटे सब मिलाकर इनके लगभग चालीस ग्रंथ मिले हैं जिनके नाम ये हैं
वृंदावनसत, सिंगारसत, रसरत्नावली, नेहमंजरी, रहस्यमंजरी, सुखमंजरी, रतिमंजरी, वनविहार, रंगविहार, रसविहार, आनंददसाविनोद, रंगविनोद, नृत्यविलास, रंगहुलास, मानरसलीला, रहसलता, प्रेमलता, प्रेमावली, भजनकुंडलिया, भक्तनामावली, मनसिंगार, भजनसत, प्रीतिचौवनी, रसमुक्तावली, बामन बृहत् पुराण की भाषा, सभा मंडली, रसानंदलीला, सिध्दांतविचार, रसहीरावली, हित सिंगार लीला, ब्रजलीला, आनंदलता, अनुरागलता, जीवदशा, वैद्यलीला, दानलीला, व्याहलो।
नाभा जी के भक्तमाल के अनुकरण पर इन्होंने 'भक्तनामावली' लिखी है जिसमें अपने समय तक के भक्तों का उल्लेख किया है। इनकी कई पुस्तकों में संवत् दिए हैं जैसे सभामंडली 1681, वृंदावनसत 1686 और रसमंजरी 1698। अत: इनका रचनाकाल संवत् 1660 से 1700 तक माना जा सकता है। इनकी रचना के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं

('सिंगारसत' से)
रूपजल उठत तरंग हैं कटाछन के, 
अंग अंग भौंरन की अति गहराई है।
नैनन को प्रतिबिंब परयो है कपोलन में, 
तेई भए मीन तहाँ, ऐसी उर आई है
अरुन कमल मुसुकान मानो फबि रही,
थिरकन बेसरि के मोती की सुहाई है। 
भयो है मुदित सखी लाल को मराल मन, 
जीवन जुगल ध्रुव एक ठाँव पाई है
('नेहमंजरी' से)
प्रेम बात कछु कहि नहिं जाई । उलटी चाल तहाँ सब भाई
प्रेम बात सुनि बौरो होई। तहाँ सयान रहै नहिं कोई
तन मन प्रान तिही छिनहारे । भली बुरी कछुवै न विचारे
ऐसो प्रेम उपजिहै जबहीं । हित ध्रुव बात बनैगी तबहीं
('भजनसत' से)
बहु बीती थोरी रही, सोऊ बीती जाय।
हित ध्रुव बेगि बिचारि कै बसि वृंदावन आय
बसि वृंदावन आय त्यागि लाजहि अभिमानहि।
प्रेमलीन ह्वै दीन आपको तृन सम जानहि
सकल सार कौ सार, भजन तू करि रस रीती।
रे मन सोच विचार, रही थोरी, बहु बीती
कृष्णोपासक भक्त कवियों की परंपरा अब यहीं समाप्त की जाती है। पर इसका अभिप्राय यह नहीं कि ऐसे भक्त कवि आगे और नहीं हुए। कृष्णगढ़ नरेश महाराज नागरीदासजी, अलबेली अलिजी, चाचा हितवृंदावनदासजी, भगवत रसिक आदि अनेक पहुँचे हुए भक्त बराबर होते गए हैं जिन्होंने बड़ी सुंदर रचनाएँ की हैं। पर पूर्वोक्तकाल के भीतर ऐसे भक्त कवियों की जितनी प्रचुरता रही है उतनी आगे चलकर नहीं। वे कुछ अधिक अंतर देकर हुए हैं। ये कृष्णभक्त कवि हमारे साहित्य में प्रेममाधुर्य का जो सुधा स्रोत बहा गए हैं, उसके प्रभाव से हमारे काव्यक्षेत्र में सरसता और प्रफुल्लता बराबर बनी रहेगी। 'दु:खवाद' की छाया आ आकर भी टिकने न पाएगी। इन भक्तों का हमारे साहित्य पर बड़ा भारी उपकार है।
संदर्भ
1. देखो, पृ. 45-46 पर चंद का वंशवृक्ष।
2. देखो, पृ. 129-130।

प्रकरण 6
भक्तिकाल की फुटकल रचनाएँ

जिन राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के बीच भक्ति का काव्य प्रवाह उमड़ा, उनका संक्षिप्त उल्लेख आरंभ में हो चुका है। 1 वह प्रवाह राजाओं या शासकों के प्रोत्साहन आदि पर अवलंबित न था। वह जनता की प्रवृत्ति का प्रवाह था जिसका प्र्रवत्ताक काल था। न तो उसको पुरस्कार या यश के लोभ ने उत्पन्न किया था और न भय रोक सकता था। उस प्रवाह काल के बीच अकबर ऐसे योग्य और गुणग्राही शासक का भारत के अधीश्वर के रूप में प्रतिष्ठित होना एक आकस्मिक बात थी। अत: सूर और तुलसी ऐसे भक्त कवीश्वरों के प्रादुर्भाव के कारणों में अकबर द्वारा संस्थापित शांतिसुख को गिनना भारी भूल है। उस शांतिसुख के परिणामस्वरूप जो साहित्य उत्पन्न हुआ वह दूसरे ढंग का था। उसका कोई एक निश्चित स्वरूप न था; सच पूछिए तो वह उन कई प्रकार की रचना पद्ध तियों का पुनरुत्थान था जो पठानों के शासनकाल की अशांति और विप्लव के बीच दब सी गई थी और धीरे-धीरे लुप्त होने जा रही थी।
पठान शासक भारतीय संस्कृति से अपने कट्टरपन के कारण दूर ही दूर रहे। अकबर की चाहे नीतिकुशलता कहिए, चाहे उदारता, उसने देश की परंपरागत संस्कृति में पूरा योग दिया जिससे कला के क्षेत्र में फिर से उत्साह का संचार हुआ। जो भारतीय कलावंत छोटे मोटे राजाओं के यहाँ किसी प्रकार अपना निर्वाह करते हुए संगीत को सहारा दिए हुए थे वे अब शाही दरबार में पहुँचकर 'वाह वाह' की ध्वनि के बीच अपना करतब दिखाने लगे। जहाँ बचे हुए हिंदू राजाओं की सभाओं में ही कविजन थोड़ा बहुत उत्साहित या पुरस्कृत किए जाते थे वहाँ अब बादशाह के दरबार में भी उनका सम्मान होने लगा। कवियों के सम्मान के साथ साथ कविता का सम्मान भी यहाँ तक बढ़ा कि अब्दुर्रहीम खानखाना ऐसे उच्चपदस्थ सरदार क्या बादशाह तक ब्रजभाषा की ऐसी कविता करने लगेए
जाको जस है जगत में, जगत सराहै जाहि।
ताको जीवन सफल है, कहत अकब्बर साहि
साहि अकब्बर एक समै चले कान्ह विनोद बिलोकन बालहि।
आहट तें अबला निरख्यो चकि चौंकि चली करि आतुर चालहिं
त्यों बलि बेनी सुधारि धारी सु भई छबि यों ललना अरु लालहि।
चंपक चारु कमान चढ़ावत काम ज्यों हाथ लिए अहिबालहिं
नरहरि और गंग ऐसे सुकवि और तानसेन ऐसे गायक अकबरी दरबार की शोभा बढ़ाते थे। 
यह अनुकूल परिस्थिति हिन्दी काव्य को अग्रसर करने में अवश्य सहायक हुई। वीर, श्रृंगार और नीति की कविताओं के आविर्भाव के लिए विस्तृत क्षेत्र फिर खुल गए। जैसा आरंभ काल में दिखाया जा चुका है, फुटकल कविताएँ अधिकतर इन्हीं विषयों को लेकर छप्पय, कवित्त, सवैयों और दोहों में हुआ करती थीं। मुक्तक रचनाओं के अतिरिक्त प्रबंध काव्य परंपरा ने भी जोर पकड़ा और अनेक अच्छे आख्यान काव्य भी इस काल में लिखे गए। खेद है कि नाटकों की रचना की ओर ध्यान नहीं गया। हृदयराम के भाषा हनुमन्नाटक को नाटक नहीं कह सकते। इसी प्रकार सुप्रसिद्ध कृष्णभक्त कवि व्यास जी (संवत् 1620 के आसपास) के देव नामक एक शिष्य का रचा 'देवमायाप्रपंचनाटक' भी नाटक नहीं, ज्ञानवार्ता है।
इसमें संदेह नहीं कि अकबर के राजत्वकाल में एक ओर तो साहित्य की चली आती हुई परंपरा को प्रोत्साहन मिला, दूसरी ओर भक्त कवियों की दिव्यवाणी का स्रोत उमड़ चला। इन दोनों की सम्मिलित विभूति से अकबर का राजत्वकाल जगमगा उठा और साहित्य के इतिहास में उसका एक विशेष स्थान हुआ। जिस काल में सूर और तुलसी ऐसे भक्त के अवतार तथा नरहरि, गंग और रहीम ऐसे निपुण भावुक कवि दिखाई पड़े उसके साहित्यिक गौरव की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक ही है।
1. छीहल ये राजपूताने की ओर के थे। संवत् 1575 में इन्होंने 'पंचसहेली' नाम की एक छोटी सी पुस्तक दोहों में राजस्थानी मिली भाषा में बनाई जो कविता की दृष्टि से अच्छी नहीं कही जा सकती। इसमें पाँच सखियों की विरह वेदना का वर्णन है। दोहे इस ढंग के हैं
देख्या नगर सुहावना, अधिक सुचंगा थानु।
नाउँ चँदेरी परगटा, जनु सुरलोक समानु
ठाईं ठाईं सरवर पेखिय, सूभर भरे निवाण।
ठाईं ठाईं कुवाँ बावरी, सोहइ फटिक सवाँण
पंद्रह सै पचहत्तारै, पूनिम फागुण मास।
पंचसहेली वर्णई, कवि छीहल परगास
इनकी लिखी एक 'बावनी' भी है जिसमें 52 दोहे हैं। 
2. लालचदास ये रायबरेली के एक हलवाई थे। इन्होंने संवत् 1585 में 'हरिचरित' और संवत् 1587 में 'भागवत दशम स्कंध भाषा' नाम की पुस्तक अवधी मिली भाषा में बनाई। ये दोनों पुस्तकें काव्य की दृष्टि से सामान्य श्रेणी की हैं और दोहे चौपाइयों में लिखी गई हैं। 'दशम स्कंध भाषा' का उल्लेख हिंदुस्तानी के फारसी विद्वान गार्सां द तासी ने किया है और लिखा है कि उसका अनुवाद फारसी भाषा में हुआ है। 'भागवत भाषा' इस प्रकार की चौपाइयों में लिखी गई है
पंद्रह सौ सत्तासी जहिया । समय बिलंबित बरनौं तहिया
मास असाढ़ कथा अनुसारी । हरिबासर रजनी उजियारी
सकल संत कहँ नावौं माथा । बलि बलि जैहौं जादवनाथा
रायबरेली बरनि अवासा । लालच रामनाम कै आसा
3. कृपारामएइनका कुछ वृत्तांत ज्ञात नहीं। इन्होंने संवत् 1598 में रसरीति पर 'हिततरंगिणी' नामक ग्रंथ दोहों में बनाया। रीति या लक्षण ग्रंथों में यह बहुत पुराना है। कवि ने कहा है कि और कवियों ने बड़े छंदों के विस्तार में श्रृंगार रस का वर्णन किया है पर मैंने 'सुघरता' के विचार से दोहों में वर्णन किया है। इससे जान पड़ता है कि इनके पहले और लोगों ने भी रीतिग्रंथ लिखे थे जो अब नहीं मिलते हैं। 'हिततरंगिणी' के कई दोहे बिहारी के दोहों से मिलते जुलते हैं। पर इससे यह नहीं सिद्ध होता कि यह ग्रंथ बिहारी के पीछे का है क्योंकि ग्रंथ में निर्माणकाल बहुत स्पष्ट रूप से दिया हुआ है
सिधि निधि सिव मुख चंद्र लखि माघ सुद्दि तृतियासु।
हिततरंगिनी हौं रची कवि हित परम प्रकासु
दो में से एक बात हो सकती हैया तो बिहारी ने उन दोहों को जान बूझकर लिया अथवा वे दोहे पीछे से मिल गए। हिततरंगिणी के दोहे बहुत ही सरस, भावपूर्ण तथा परिमार्जित भाषा में हैं। कुछ नमूने देखिए
लोचन चपल कटाच्छ सर अनियारे विष पूरि।
मन मृग बेधौं मुनिन के जगजन सहत बिसूरि
आजु सबारे हौं गई नंदलाल हित ताल।
कुमुद कुमुदुनी के भटू निरखे औरै हाल
पति आयो परदेस तें ऋतु बसंत को मानि।
झमकि झमकि निज महल में टहलैं करै सुरानि
4. महापात्र नरहरि बंदीजनएइनका जन्म संवत् 1562 में और मृत्यु संवत् 1667 में कही जाती है। महापात्र की उपाधि इन्हें अकबर के दरबार से मिली थी। ये असनी फतेहपुर के रहनेवाले थे और अकबर के दरबार में इनका बहुत मान था। इन्होंने छप्पय और कवित्त कहे हैं। इनके बनाए दो ग्रंथ परंपरा से प्रसिद्ध हैं'रुक्मिणीमंगल' और 'छप्पय नीति'। एक तीसरा ग्रंथ 'कवित्तसंग्रह' भी खोज में मिला है। इनका वह प्रसिद्ध छप्पय नीचे दिया जाता है जिस पर कहते हैं, अकबर ने गोवधा बंद कराया थाए
अरिहु दंत तिन धारै ताहि नहिं मारि सकतकोइ।
हम संतत तिनु चरहिं वचन उच्चरहिं दीन होइ
अमृत पय नित स्रवहिं बच्छ महि थंभन जावहिं।
हिंदुहि मधुर न देहिं कटुक तुरकहि न पियावहिं
कह कवि नरहरि अकबर सुनौ बिनवति गउ जोरे करन।
अपराध कौन मोहिं मारियत मुएहु चाम सेवइ चरन
5. नरोत्तमदास ये सीतापुर जिले के वाड़ी नामक कस्बे के रहनेवाले थे। शिवसिंहसरोज में इनका संवत् 1602 में वर्तमान रहना लिखा है। इनकी जाति का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। इनका 'सुदामाचरित्र' ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध है। इसमें घर की दरिद्रता का बहुत ही सुंदर वर्णन है। यद्यपि यह छोटा है, तथापि इसकी रचना बहुत ही सरस और हृदयग्राहिणी है और कवि की भावुकता का परिचय देती है। भाषा भी बहुत ही परिमार्जित और व्यवस्थित है। बहुतेरे कवियों के समान भरती के शब्द और वाक्य इसमें नहीं हैं। कुछ लोगों के अनुसार इन्होंने इसी प्रकार का एक और खंडकाव्य 'ध्रुवचरित' भी लिखा है। पर वह कहीं देखने में नहीं आया। 'सुदामाचरित' का यह सवैया बहुत लोगों के मुँह से सुनाई पड़ता है
सीस पगा न झगा तन पै, प्रभु! जानै को आहि बसै केहि ग्रामा।
धोती फटी सी, लटी दुपटी अरु पाँय उपानह को नहीं सामा
द्वार खड़ो द्विज दुर्बल एक, रह्यो चकि सो बसुधा अभिरामा।
पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा
कृष्ण की दीनवत्सलता और करुणा का एक यह और सवैया देखिए
कैसे बिहाल बिवाइन सों भए, कंटक जाल गड़े पग जोए।
हाय महादुख पाए सखा! तुम आए इतै न, कितै दिन खोए
देखि सुदामा की दीन दसा करुना करिकै करुनानिधि रोए।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सों पग धोए
6. आलम ये अकबर के समय के एक मुसलमान कवि थे जिन्होंने सन् 991 हिजरी अर्थात् संवत् 1639-40 में 'माधावानल कामकंदला' नाम की प्रेमकहानी दोहा चौपाई में लिखी। पाँच पाँच चौपाइयों (अर्धालियों) पर एक एक दोहा या सोरठा है। यह श्रृंगार रस की दृष्टि से ही लिखी जान पड़ती है, आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं। इसमें जो कुछ रुचिरता है वह कहानी की है, वस्तुवर्णन, भाव व्यंजना आदि की नहीं। कहानी भी प्राकृत या अपभ्रंश से चली आती हुई कहानी है।
कवि ने रचनाकाल का उल्लेख इस प्रकार किया है
दिल्लीपति अकबर सुरताना । सप्तदीप में जाकी आना
धरमराज सब देस चलावा । हिंदू-तुरुक पंथ सब लावा
×××
सन नौ सै इक्कानबे आही। करौं कथा औ बोलौं ताही
7. महाराज टोडरमल ये कुछ दिन शेरशाह के यहाँ ऊँचे पद पर थे, पीछे अकबर के समय में भूमिकर विभाग के मंत्री हुए। इनका जन्म संवत् 1550 में और मृत्यु संवत् 1646 में हुई। ये कुछ दिनों तक बंगाल के सूबेदार भी थे। ये जाति के खत्री थे। इन्होंने शाही दफ्तरों में हिन्दी के स्थान पर फारसी का प्रचार किया जिससे हिंदुओं का झुकाव फारसी की शिक्षा की ओर हुआ। ये प्राय: नीति संबंधी पद्य कहते थे। इनकी कोई पुस्तक तो नहीं मिलती, फुटकल कवित्त इधर उधर मिलते हैं। एक कवित्त नीचे दिया जाता है,
जार को विचार कहाँ, गनिका को लाज कहाँ,
गदहा को पान कहाँ, ऑंधारे को आरसी।
निगुनी को गुन कहाँ, दान कहाँ दारिद को।
सेवा कहाँ सूम की अरंडन की डार सी
मदपी को सुचि कहाँ, साँच कहाँ लंपट को, 
नीच को बचन कहाँ स्यार की पुकार सी।
टोडर सुकवि ऐसे हठी तौ न टारे टरै,
भावै कहाँ सूधी बात भावै कहाँ फारसी
8. महाराज बीरबल,इनकी जन्मभूमि कुछ लोग नारनौल बतलाते हैं और इनका नाम महेशदास। प्रयाग के किले के भीतर जो अशोकस्तंभ हैं उस पर यह खुदा है,'संवत् 1632 शाके 1493 मार्गबदी 5, सोमवार गंगादास सुत महाराज बीरबल श्री तीरथराज प्रयाग की यात्रा सुफल लिखित।' यह लेख महाराज बीरबल के संबंध में ही जान पड़ता है क्योंकि गंगादास और महेशदास नाम मिलते जुलते हैं जैसे कि पिता पुत्र के हुआ करते हैं। बीरबल का जो उल्लेख भूषण ने किया है उससे इनके निवास स्थान का पता चलता है।
द्विज कनौज कुल कस्यपी रतनाकर सुत धीर।
बसत त्रिाविक्रमपुर सदा तरनि तनूजा तीर
बीर बीरबल से जहाँ उपजे कवि अरु भूप।
देव बिहारीश्वर जहाँ विश्वेश्वर तद्रूप
इनका जन्मस्थान तिकवाँपुर ही ठहरता है; पर कुल का निश्चय नहीं होता। यह तो प्रसिद्ध ही है कि ये अकबर के मंत्रिायों में थे और बड़े ही वाक्चतुर और प्रत्युत्पन्नमति थे। इनके और अकबर के बीच होनेवाले विनोद और चुटकुले उत्तर भारत के गाँवों में प्रसिद्ध हैं। महाराज बीरबल ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे और कवियों का बड़ी उदारता के साथ सम्मान करते थे। कहते हैं, केशवदासजी को इन्होंने एक बार छह लाख रुपये दिए थे और केशवदास की पैरवी से ओरछा नरेश पर एक करोड़ का जुरमाना मुआफ करा दिया था। इनके मरने पर अकबर ने यह सोरठा कहा था,
दीन देखि सब दीन, एक न दीन्हों दुसह दुख।
सो अब हम कहँ दीन, कछु नहिं राख्यो बीरबल
इनकी कोई पुस्तक नहीं मिलती है, पर कई सौ कवित्तों का एक संग्रह भरतपुर में है। इनकी, रचना अलंकार आदि काव्यांगों से पूर्ण और सरस होती थी। कविता में ये अपना नाम ब्रह्म रखते थे। दो उदाहरण नीचे दिए जाते हैं,
उछरि उछरि भेकी झपटै उरग पर, 
उरग पै केकिन के लपटै लहकि हैं।
केकिन के सुरति हिए की ना कछू है, भए, 
एकी करी केहरि, न बोलत बहकि है।
कहै कवि ब्रह्म वारि हेरत हरिन फिरैं, 
बैहर बहत बड़े जोर सो जहकि हैं।
तरनि कै तावन तवा सी भई भूमि रही, 
दसहू दिसान में दवारि सी दहकि है

पूत कपूत, कुलच्छनि नारि, लराक परोसि, लजायन सारो।
बंधु कुबुद्धि , पुरोहित लंपट, चाकर चोर, अतीथ धुतारो
साहब सूम, अड़ाक तुरंग, किसान कठोर, दीवान नकारो।
ब्रह्म भनै सुनु साह अकब्बर बारहौं बाँधि समुद्र में डारौ
9. गंग ये अकबर के दरबारी कवि थे और रहीम खानखाना इन्हें बहुत मानते थे। इनके जन्मकाल तथा कुल आदि का ठीक वृत्त ज्ञात नहीं। कुछ लोग इन्हें ब्राह्मण कहते हैं, पर अधिकतर ये ब्रह्मभट्ट ही प्रसिद्ध हैं। ऐसा कहा जाता है कि किसी नवाब या राजा की आज्ञा से ये हाथी से चिरवा डाले गए थे और उसी समय मरने के पहले इन्होंने यह दोहा कहा था,
कबहुँ न भड़घआ रन चढ़े, कबहुँ न बाजी बंब।
सकल सभाहि प्रनाम करि, बिदा होत कवि गंग
इसके अतिरिक्त कई और कवियों ने भी इस बात का उल्लेख वा संकेत किया है। देव कवि ने कहा है,
'एक भए प्रेत, एक मींजि मारे हाथी'।
ये पद्य भी इस संबंध में ध्यान देने योग्य हैं,
सब देवन को दरबार जुरयो तहँ पिंगल छंद बनाय कै गायो।
जब काहू ते अर्थ कह्यो न गयो तब नारद एक प्रसंग चलायो
मृतलोक में है नर एक गुनी कवि गंग को नाम सभा में बतायो।
सुनि चाह भई परमेसर को तब गंग को लेन गनेस पठायो

गंग ऐसे गुनी को गयंद सो चिराइए।
इन प्रमाणों से यह घटना ठीक ठहरती है। गंग कवि बहुत निर्भीक होकर बात कहते थे। वे अपने समय के नरकाव्य करने वाले कवियों में सबसे श्रेष्ठ माने जाते थे। दासजी ने कहा है, 
तुलसी गंग दुवौ भए सुकविन के सरदार।
कहते हैं कि रहीम खानखाना ने इन्हें एक छप्पय पर छत्ताीस लाख रुपये दे डाले थे। वह छप्पय यह है,
चकित भँवर रहि गयो गमन नहिं करत कमलवन।
अहि फन मनि नहिं लेत, तेज नहिं बहत पवन घन
हंस मानसर तज्यो चक्क चक्की न मिलै अति।
बहु सुंदरि पद्मिनी पुरुष न चहै, न करै रति
खलभलित सेस कवि गंग भन, अमित तेज रविरथ खस्यो।
खानान खान बैरम सुवन जबहिं क्रोध करि तंग कस्यो
सारांश यह कि गंग अपने समय के प्रधान कवि माने जाते थे। इनकी कोई पुस्तक अभी नहीं मिली है। पुराने संग्रह ग्रंथों में इनके बहुत-से कवित्त मिलते हैं। सरल हृदय के अतिरिक्त वाग्वैदग्ध्य भी इनमें प्रचुर मात्रा में था। वीर और श्रृंगार रस के बहुत ही रमणीक कवित्त इन्होंने कहे हैं। कुछ अन्योक्तियाँ भी बड़ी मार्मिकहैं। हास्यरस का पुट भी बड़ी निपुणता से ये अपनी रचना में देते थे। घोर अतिशयोक्तिपूर्ण वस्तुव्यंग्य पद्ध ति पर विरहताप का वर्णन भी इन्होंने किया है। उस समय की रुचिको रंजित करने वाले सब गुण इनमें वर्तमान थे, इसमें कोई संदेह नहीं। इनका कविताकाल विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी का अंत मानना चाहिए। रचना के कुछ नमूने देखिए,
बैठी थी सखिन संग, पिय को गवन सुन्यो, 
सुख के समूह में बियोग-आगि भरकी।
गंग कहै त्रिाविधा सुगंधा कै पवन बह्यो, 
लागत ही ताके तन भई बिथा जर की
प्यारी को परसि पौन गयो मानसर कहँ, 
लागत ही औरे गति भई मानसर की।
जलचर जरे और सेवार जरि छार भयो, 
तल जरि गयो, पंक सूख्यो भूमि दरकी

झुकत कृपान मयदान ज्यों उदोत भान,
एकन ते एक मानो सुषमा जरद की।
कहै कवि गंग तेरे बल को बयारि लगे
फूटी गजघटा घनघटा ज्यों सरद की
एते मान सोनित की नदियाँ उमड़ चलीं,
रही न निसानी कहूँ महि में गरद की। 
गौरी गह्यो गिरिपति, गनपति गह्यो गौरी,
गौरीपति गही पूँछ लपकि बरद की

देखत कै वृच्छन में दीरघ सुभायमान,
कीर चल्यो चाखिबे को प्रेम जिय जाग्यो है। 
लाल फल देखि कै जटान मँड़रान लागे, 
देखत बटोही बहुतेरे डगमग्यो है
गंग कवि फल फूटे भुआ उधिाराने लखि,
सबही निरास ह्वै कै निज गृह भग्यो है 
ऐसों फलहीन वृच्छ बसुधा में भयो, यारो, 
सेमर बिसासी बहुतेरन को ठग्यो है
10. मनोहर कवि ये एक कछवाहे सरदार थे जो अकबर के दरबार में रहा करते थे। शिवसिंहसरोज में लिखा है कि ये फारसी और संस्कृत के अच्छे विद्वान थे और फारसी कविता में अपना उपनाम 'तौसनी' रखते थे। इन्होंने 'शतप्रश्नोत्तारी' नाम की पुस्तक बनाई है तथा नीति और श्रृंगाररस के बहुत से फुटकल दोहे कहे हैं। इनका कविताकाल संवत् 1620 के आगे माना जा सकता है। इनके शृंगारिक दोहे मार्मिक और मधुर हैं पर उनमें कुछ फारसीपन के छींटे मौजूद हैं। दो चार नमूने देखिए,
इंदु बदन, नरगिस नयन, संबुलवारे बार।
उर कुंकुम, कोकिल बयन, जेहि लखि लाजत मार
बिथुरे सुथुरे चीकने घने घने घुघुवार।
रसिकन को जंजीर से बाला तेरे बार
अचरज मोहिं हिंदू तुरुक बादि करत संग्राम।
इक दीपति सों दीपियत काबा काशीधाम
11. बलभद्र मिश्र ये ओरछा के सनाढय ब्राह्मण पं. काशीनाथ के पुत्र और प्रसिद्ध कवि केशवदास के बड़े भाई थे। इनका जन्मकाल संवत् 1600 के लगभग माना जा सकता है। इनका 'नखशिख' श्रृंगार का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसमें इन्होंने नायिका के अंगों का वर्णन उपमा, उत्प्रेक्षा, संदेह आदि अलंकारों के प्रचुर विधान द्वारा किया है। ये केशवदासजी के समकालीन या पहले के उन कवियों में थे जिनके चित्त में रीति के अनुसार काव्यरचना की प्रवृत्ति हो रही थी। कृपाराम ने जिस प्रकार रसरीति का अवलंबन कर नायिकाओं का वर्णन किया उसी प्रकार बलभद्र नायिका के अंगों को एक स्वतंत्र विषय बनाकर चले थे। इनका रचनाकाल संवत् 1640 के पहले माना जा सकता है। रचना इनकी बहुत प्रौढ़ और परिमार्जित है, इससे अनुमान होता है कि नखशिख के अतिरिक्त इन्होंने और पुस्तकें भी लिखी होंगी। संवत् 1891 में गोपाल कवि ने बलभद्र कृत नखशिख की एक टीका लिखी जिसमें उन्होंने बलभद्र कृत तीन और ग्रंथों का उल्लेख किया है,बलभद्री व्याकरण, हनुमन्नाटक और गोवर्ध्दनसतसई टीका। पुस्तकों की खोज में इनका 'दूषणविचार' नाम का एक और ग्रंथ मिला है जिसमें काव्यदोषों का निरूपण है। नखशिख के दो कवित्त उध्दृत किए जाते हैं,
पाटल नयन कोकनद के से दल दोऊ,
बलभद्र बासर उनीदी लखी बाल मैं।
सोभा के सरोवर में बाड़व की आभा कैंधौं, 
देवधुनी भारती मिली है पुन्यकाल मैं
काम-कैवरत कैधौं नासिकर उडुप बैठो,
खेलत सिकार तरुनी के मुख ताल मैं।
लोचन सितासित में लोहित लकीर मानो,
बाँधो जुग मीन लाल रेशम की डोर मैं

मरकत के सूत कैधौं पन्नग के पूत अति 
राजत अभूत तमराज कैसे तार हैं। 
मखतूल गुनग्राम सोभित सरस स्याम, 
काम मृग कानन कै कुहू के कुमार हैं
कोप की किरन कै जलज नाल नील तंतु,
उपमा अनंत चारु चँवर सिंगार हैं। 
कारे सटकारे भींजे सोंधो सों सुगंधा बास,
ऐसे बलभ्रद नवबाला तेरे बार हैं
12. जमाल ये भारतीय काव्यपरंपरा से पूर्ण परिचित कोई सहृदय मुसलमान कवि थे जिनका रचनाकाल संवत् 1627 अनुमान किया गया है। इनके नीति और श्रृंगार के दोहे राजपूताने की ओर बहुत जनप्रिय हैं। भावों की व्यंजना बहुत ही मार्मिक पर सीधे सादे ढंग पर की गई है। इनका कोई ग्रंथ तो नहीं मिलता, पर कुछ संगृहीत दोहे मिलते हैं। सहृदयता के अतिरिक्त इनमें शब्दक्रीड़ा की निपुणता भी थी, इससे इन्होंने कुछ पहेलियाँ भी अपने दोहों में रखी हैं। कुछ नमूने दिए जाते हैं,
पूनम चाँद, कुसूँभ रँग नदी तीर द्रुम डाल।
रेत भीत, भुस लीपणो ए थिर नहीं जमाल
रंग ज चोल मजीठ का संत वचन प्रतिपाल।
पाहण रेख रु करम गत ए किमि मिटैं जमाल
जमला ऐसी प्रीति कर जैसी केस कराय।
कै काला, कै ऊजला जब तब सिर स्यूँ जाय
मनसा तो गाहक भए नैना भए दलाल।
धानी बसत बेचै नहीं किस बिधा बनै जमाल
बालपणे धौला भया तरुणपणे भया लाल। 
वृद्ध पणे काला भया कारण कोण जमाल
कामिण जावक रँग रच्यो दमकत मुकता कोर। 
इम हंसा मोती तजे इम चुग लिए चकोर
13. केशवदास ये सनाढय ब्राह्मण कृष्णदत्ता के पौत्र और काशीनाथ के पुत्र थे। इनका जन्म संवत् 1612 में और मृत्यु 1674 के आसपास हुई। ओरछा नरेश महाराजा रामसिंह के भाई इंद्रजीत सिंह की सभा में ये रहते थे, जहाँ इनका बहुत मान था। इनके घराने में बराबर संस्कृत के अच्छे पंडित होते आए थे। इनके बड़े भाई बलभद्र मिश्र भाषा के अच्छे कवि थे। इस प्रकार की परिस्थिति में रहकर ये अपने समय के प्रधान साहित्यशास्त्रज्ञ कवि माने गए। इनके आविर्भाव काल से कुछ पहले ही रस, अलंकार आदि काव्यांगों के निरूपण की ओर कुछ कवियों का ध्यान जा चुका था। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि हिन्दी काव्यरचना प्रचुर मात्रा में हो चुकी थी। लक्ष्य ग्रंथों के उपरांत ही लक्षण ग्रंथों का निर्माण होता है। केशवदासजी संस्कृत के पंडित थे अत: शास्त्रीय पद्ध ति से साहित्यचर्चा का प्रचार भाषा में पूर्ण रूप से करने की इच्छा इनके लिए स्वाभाविक थी।
केशवदास के पहले संवत् 1598 में कृपाराम थोड़ा रसनिरूपण कर चुके थे। इसी समय में चरखारी के मोहनलाल मिश्र ने 'श्रृंगारसागर' नामक एक ग्रंथ श्रृंगाररस संबंधी लिखा। नरहरि कवि के साथ अकबरी दरबार में जानेवाले करनेस कवि ने 'कर्णाभरण', 'श्रुतिभूषण' और 'भूपभूषण' नामक तीन ग्रंथ अलंकार संबंधी लिखे थे। पर अब तक किसी कवि ने संस्कृत साहित्य शास्त्र में निरूपित काव्यांगों का पूरा परिचय नहीं कराया था। यह काम केशवदासजी ने किया।
ये काव्य में अलंकार का स्थान प्रधान समझने वाले चमत्कारवादी कवि थे जैसा कि इन्होंने स्वयं कहा है,
जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरस सुवृत्त।
भूषन बिनु न बिराजई, कविता बनिता मित्ता
अपनी इसी मनोवृत्ति के अनुसार इन्होंने भामह, उद्भट और दंडी आदि प्राचीन आचार्यों का अनुसरण किया जो रस, रीति आदि सब कुछ अलंकार के अंतर्गत ही लेते थे; साहित्यशास्त्र को अधिक व्यवस्थित और समुन्नत रूप में लानेवाले मम्मट, आनंदवर्ध्दनाचार्य और विश्वनाथ का नहीं। अलंकार के सामान्य और विशेष दो भेद करके इन्होंने उसके अंतर्गत वर्णन की प्रणाली ही नहीं, वर्णन के विषय भी ले लिए हैं। 'अलंकार' शब्द का प्रयोग इन्होंने व्यापक अर्थ में किया है। वास्तविक अलंकार इनके विशेष अलंकार ही हैं। अलंकारों के लक्षण इन्होंने दंडी के 'काव्यादर्श' से तथा बहुत सी बातें अमररचित 'काव्यकल्पलतावृत्ति' और केशव मिश्र कृत 'अलंकारशेखर' से ली हैं।
पर केशव के 50 या 60 वर्ष पीछे हिन्दी में लक्षण ग्रंथों की जो परंपरा चली वह केशव के मार्ग पर नहीं चली। काव्य के स्वरूप के संबंध में तो वह रस की प्रधानता माननेवाले काव्यप्रकाश और साहित्यदर्पण के पक्ष पर रही और अलंकारों के निरूपण में उसने अधिकतर चंद्रालोक और कुवलयानंद का अनुसरण किया। इसी से केशव के अलंकारलक्षण हिन्दी में प्रचलित अलंकार लक्षणों से नहीं मिलते। केशव ने अलंकारों पर 'कविप्रिया' और रस पर 'रसिकप्रिया' लिखी।
इन ग्रंथों में केशव का अपना विवेचन कहीं नहीं दिखाई पड़ता। सारी सामग्री कई संस्कृत ग्रंथों से ली हुई मिलती है। नामों में अवश्य कहीं कहीं थोड़ा हेरफेर मिलता है जिससे गड़बड़ी के सिवा और कुछ नहीं हुआ है। 'उपमा' के जो 22 भेद केशव ने रखे हैं उनमें से 15 तो ज्यों के त्यों दंडी के हैं, 5 केवल नाम भर बदल दिए गए हैं। शेष रहे 2 भेद,संकीर्णोपमा और विपरीतोपमा। इनमें विपरीतोपमा को तो उपमा कहना ही व्यर्थ है। इसी प्रकार 'आक्षेप' के जो 9 भेद केशव ने रखे हैं उनमें 4 तो ज्यों के त्यों दंडी के हैं। पाँचवाँ 'मरणाक्षेप' दंडी का 'मर्ूच्छाक्षेप' ही है। कविप्रिया का प्रेमालंकार दंडी के (विश्वनाथ के नहीं) 'प्रेयस' का ही नामांतर है। 'उत्तर' अलंकार के चारों भेद वास्तव में पहेलियाँ हैं। कुछ भेदों को दंडी से लेकर भी केशव ने उनका और का और ही अर्थ समझा है। 
केशव के रचे सात ग्रंथ मिलते हैं,कविप्रिया, रसिकप्रिया, रामचंद्रिका, वीरसिंहदेवचरित, विज्ञानगीता, रतनबावनी और जहाँगीरजसचंद्रिका।
केशव को कविहृदय नहीं मिला था। उनमें वह सहृदयता और भावुकता न थी जो एक कवि में होनी चाहिए। वे संस्कृत साहित्य से सामग्री लेकर अपने पांडित्य और रचनाकौशल की धाक जमाना चाहते थे, पर इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए भाषा पर जैसा अधिकार चाहिए वैसा उन्हें प्राप्त न था। अपनी रचनाओं में उन्होंने संस्कृत काव्यों की उक्तियाँ लेकर भरी हैं। पर उन उक्तियों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में उनकी भाषा बहुत कम समर्थ हुई है। पदों और वाक्यों की न्यूनता, अशक्त, फालतू शब्दों के प्रयोग और संबंध के अभाव आदि के कारण भी अप्रांजल और ऊबड़ खाबड़ हो गई है और तात्पर्य भी स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं हो सका है। केशव की कविता जो कठिन कही जाती है, उसका प्रधान कारण उनकी यह त्रुटि है,उनकी मौलिक भावनाओं की गंभीरता या जटिलता नहीं। 'रामचंद्रिका' में 'प्रसन्नराघव', 'हनुमन्नाटक', 'अनर्घराघव', 'कादंबरी' और 'नैषधा' की बहुत सी उक्तियों का अनुवाद करके रख दिया गया है। कहीं कहीं अनुवाद अच्छा न होने के कारण उक्ति विकृत हो गई है, जैसेप्रसन्नराघव के 'प्रियतमपदैरंकितान्भूमिभागान्' का अनुवाद 'प्यौ पदपंकज ऊपर' करके केशव ने उक्ति को एकदम बिगाड़ डाला है। हाँ, जिन उक्तियों में जटिलता नहीं है,समास शैली का आश्रय नहीं लिया गया है,उनके अनुवाद में कहीं कहीं बहुत अच्छी सफलता प्राप्त हुई है, जैसे भरत के प्रश्न और कैकेयी के उत्तर में,
'मातु, कहाँ नृप तात? गए सुरलोकहिं; क्यों? सुत शोक लए।' जो कि हनुमन्नाटक के एक श्लोक का अनुवाद है। 
केशव ने दो प्रबंधकाव्य लिखे,एक 'वीरसिंहदेवचरित' दूसरा 'रामचंद्रिका'। पहला तो काव्य ही नहीं कहा जा सकता। इसमें वीरसिंहदेव का चरित तो थोड़ा है, दान, लोभ आदि के संवाद भरे हैं। 'रामचंद्रिका' अवश्य एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। पर यह समझ रखना चाहिए कि केशव उक्तिवैचित्रय और शब्दक्रीड़ा के प्रेमी थे। जीवन के नाना गंभीर और मार्मिक पक्षों पर उनकी दृष्टि नहीं थी। अत: वे मुक्तक रचना के ही उपयुक्त थे, प्रबंध रचना के नहीं। प्रबंध पटुता उनमें कुछ भी न थी। प्रबंधकाव्य के लिए तीन बातें अनिवार्य हैं,(1) संबंध निर्वाह, (2) कथा के गंभीर और मार्मिक स्थलों की पहचान और (3) दृश्यों की स्थानगत विशेषता।
संबंधनिर्वाह की क्षमता केशव में न थी। उनकी 'रामचंद्रिका' अलग अलग लिखे हुए वर्णनों का संग्रह सी जान पड़ती है। कथा का चलता प्रवाह न रख सकने के कारण ही उन्हें बोलनेवाले पात्रों के नाम नाटकों के अनुकरण पर पद्यों से अलग सूचित करने पड़े हैं। दूसरी बात भी केशव में कम पाई जाती है। रामायण की कथा का केशव के हृदय पर कोई विशेष प्रभाव रहा हो, यह बात नहीं पाई जाती। उन्हें एक बड़ा प्रबंधकाव्य भी लिखने की इच्छा हुई और उन्होंने उसके लिए राम की कथा ले ली। उस कथा के भीतर जो मार्मिक स्थल हैं उनकी ओर केशव का ध्यान बहुत कम गया है। वे ऐसे स्थलों को या तो छोड़ गए हैं या यों ही इतिवृत्त मात्र कहकर चलता कर दिया है। राम आदि को वन की ओर जाते देख मार्ग में पड़नेवाले लोगों से कुछ कहलाया भी तो यह कि 'किधौं मुनिशाप हत, किधौं ब्रह्म दोष रत, किधौं कोऊ ठग हौ।' ऐसा अलौकिक सौंदर्य और सौम्य आकृति सामने पाकर सहानुभूतिपूर्ण शुद्ध सात्विक भावों का उदय होता है, इसका अनुभव शायद एक दूसरे को संदेहकी दृष्टि से देखनेवाले नीतिकुशल दरबारियों के बीच रहकर केशव के लिए कठिन था।
दृश्यों की स्थानगत विशेषता (स्वबंस ब्वसवनत) केशव की रचनाओं में ढूँढ़ना तो व्यर्थ ही है। पहली बात तो यह है कि केशव के लिए प्राकृतिक दृश्यों में कोई आकर्षण नहीं था। वे उनकी देशगत विशेषताओं का निरीक्षण करने क्यों जाते? दूसरी बात यह है कि केशव के बहुत पहले से ही इसकी पंरपरा एक प्रकार से उठ चुकी थी। कालिदास के दृश्यवर्णनों में देशगत विशेषताओं का जो रंग पाया जाता है वह भवभूति तक तो कुछ रहा, उसके पीछे नहीं। फिर तो वर्णन रूढ़ हो गए। चारों ओर फैली हुई प्रकृति के नाना रूपों के साथ केशव के हृदय का सामंजस्य कुछ भी न था। अपनी इस मनोवृत्ति का आभास उन्होंने यह कहकर कि,
देखे मुख भावै, अनदेखेई कमल चंद, 
ताते मुख मुखै, सखी, कमलौ न चंद री
साफ दे दिया है। ऐसे व्यक्ति से प्राकृत दृश्यों के सच्चे वर्णन की भला क्या आशा की जा सकती है? पंचवटी और प्रवर्षण गिरि ऐसे रमणीय स्थलों में शब्दसाम्य के आधार पर श्लेष के एक भद्दे खेलवाड़ के अतिरिक्त और कुछ न मिलेगा। केवल शब्दसाम्य के सहारे जो उपमान लाए गए हैं के किसी रमणीय दृश्य से उत्पन्न सौंदर्य की अनुभूति के सर्वथा विरुद्ध या बेमेल हैं जैसे प्रलयकाल, पांडव, सुग्रीव, शेषनाग। सादृश्य या साधार्म्य की दृष्टि से दृश्यवर्णन में जो उपमाएँ, उत्प्रेक्षाएँ आदि लाई गई हैं, वे भी सौंदर्य की भावना में वृद्धि करने के स्थान पर कुतूहल मात्र उत्पन्न करती हैं। जैसे श्वेत कमल के छत्तो पर बैठे हुए भौंरे पर यह उक्ति,
केशव केशवराय मनौ कमलासन के सिर ऊपरे सोहै।
पर कहीं कहीं रमणीय और उपयुक्त उपमान भी मिलते हैं; जैसेजनकपुर के सूर्योदय वर्णन में, जिसमें 'कापालिक काल' को छोड़कर और सब उपमान रमणीय हैं।
सारांश यह कि प्रबंधकाव्य रचना के योग्य न तो केशव में अनुभूति ही थी, न शक्ति। परंपरा से चले आते हुए कुछ नियत विषयों के (जैसेयुद्ध , सेना की तैयारी, उपवन, राजदरबार के ठाटबाट तथा श्रृंगार और वीररस) फुटकल वर्णन ही अलंकारों की भरमार के साथ वे करना जानते थे। इसी से बहुत से वर्णन, यों ही बिना अवसर का विचार किए, वे भरते गए हैं। वे वर्णन वर्णन के लिए करते थे, न कि प्रसंग या अवसर की अपेक्षा से। कहीं कहीं तो उन्होंने उचित अनुचित की भी परवाह नहीं की है, जैसे भरत की चित्रकूट यात्रा के प्रसंग में सेना की तैयारी और तड़क भड़क का वर्णन। अनेक प्रकार के रूखे सूखे उपदेश भी बीच बीच में रखना वे नहीं भूलते थे। दानमहिमा, लोभनिंदा के लिए तो वे प्राय: जगह निकाल लिया करते थे। उपदेशों का समावेश दो-एक जगह तो पात्र का बिना विचार किए अत्यंत अनुचित और भद्दे रूप में किया गया है, जैसे वन जाते समय राम का अपनी माता कौशल्या को पातिव्रत का उपदेश। 
रामचंद्रिका के लंबे चौड़े वर्णनों को देखने से स्पष्ट लक्षित होता है कि केशव की दृष्टि जीवन के गंभीर और मार्मिक पक्ष पर न थी। उनका मन राजसी ठाट-बाट, तैयारी, नगरों की सजावट, चहल पहल आदि के वर्णन में ही विशेषत: लगता है।
केशव की रचना को सबसे अधिक विकृत और अरुचिकर करनेवाली वस्तु है, आलंकारिक चमत्कार की प्रवृत्ति जिसके कारण न तो भावों की प्रकृत व्यंजना के लिए जगह बचती है, न सच्चे हृदयग्राही वस्तुवर्णन के लिए। पददोष, वाक्यदोष आदि तो बिना प्रयास जगह जगह मिल सकते हैं। कहीं कहीं उपमान भी बहुत हीन और बेमेल हैं; जैसे राम की वियोग दशा के वर्णन में यह वाक्य,
'बासर की संपति उलूक ज्यों न चितवत।'
रामचंद्रिका में केशव को सबसे अधिक सफलता हुई है संवादों में। इन संवादों में पात्रों के अनुकूल क्रोध, उत्साह आदि की व्यंजना भी सुंदर है (जैसे लक्ष्मण, राम, परशुराम संवाद तथा लवकुश के प्रसंग के संवाद) तथा वाक्पटुता और राजनीति के दाँवपेंच का आभास भी प्रभावपूर्ण है। उनका रावण-अंगद-संवाद तुलसी के संवाद से कहीं अधिक उपयुक्त और सुंदर है। 'रामचंद्रिका' और 'कविप्रिया' दोनों का रचनाकाल कवि ने 1658 दिया है; केवल मास में अंतर है।
रसिकप्रिया (संवत् 1648) की रचना प्रौढ़ है। उदाहरणों में चतुराई और कल्पना से काम लिया गया है और पदविन्यास भी अच्छे हैं। इन उदाहरणों में वाग्वैदग्ध्य के साथ साथ सरसता भी बहुत कुछ पाई जाती है। 'विज्ञानगीता' संस्कृत के 'प्रबोधचंद्रोदय नाटक' के ढंग की पुस्तक है। 'रतनबावनी' में इंद्रजीत के बड़े भाई रत्नसिंह की वीरता का छप्पयों में अच्छा वर्णन है। यह वीररस का अच्छा काव्यहै।
केशव की रचना में सूर, तुलसी आदि की सी सरसता और तन्मयता चाहे न हो पर काव्यांगों का विस्तृत परिचय कराकर उन्होंने आगे के लिए मार्ग खोला। कहते हैं, वे रसिक जीव थे। एक दिन बुङ्ढे होने पर किसी कुएँ पर बैठे थे। वहाँ स्त्रियों ने 'बाबा' कहकर संबोधन किया। इस पर इनके मुँह से यह दोहा निकला,
केसव केसनि अस करी बैरिहु जस न कराहिं।
चंद्रबदनि मृगलोचनी बाबा कहि कहि जाहिं
केशवदास की रचना के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं,
जौ हौं कहौं रहिए तौ प्रभुता प्रगट होति, 
चलन कहौं तौ हितहानि नाहिं सहनो
'भावै सो करहु' तौ उदासभाव प्राननाथ!
'साथ लै चलहु' कैसे लोकलाज बहनो
केशवदास की सौं तुम सुनहु, छबीले लाल, 
चलेही बनत जौ पै नाहीं राज रहनो।
जैसियै सिखाऔ सीख तुमहीं सुजान प्रिय,
तुमहिं चलत मोहिं जैसो कछु कहनो

चंचल न हूजै नाथ, अंचल न खैंचौ हाथ, 
सोवै नेक सारिकाऊ, सुक तौ सोवायो जू।
मंद करौ दीप दुति चंद्रमुख देखियत,
दारिकै दुराय आऊँ द्वार तौ दिखायो जू
मृगज मराल बाल बाहिरै बिडारि देउँ, 
भायो तुम्हैं केसव सो मोहूँ मन भायो जू।
छल के निवास ऐसे वचन विलास सुनि,
सौ गुनो सुरत हू तें स्याम सुख पायो जू

कैटभ सो नरकासुर सो पल में मधु सो मुर सो जिन मारयो।
लोक चतुर्दश रक्षक केसव पूरन वेद पुरान विचारयो
श्री कमला कुच कुंकुम मंडन पंडित देव अदेव निहारयो।
सो कर माँगन को बलि पै करतारहु ने करतार पसारयो

(रामचंद्रिका से)
अरुण गात अति प्रात पद्मिनी प्राननाथ भय।
मानहु केशवदास कोकनद कोक प्रेममय
परिपूरन सिंदूर पूर कैधौं मंगल घट।
किधौं शक्र को छत्रा मढयो मानिक मयूख पट
कै सोनितकलित कपाल यह किल कापालिक काल को।
यह ललित लाल कैधौं लसत दिग भामिनि के भाल को

विधि के समान है बिमानीकृत राजहंस,
विविधा विबुधायुत मेरु सो अचल है।
दीपति दिपति अति सातौ दीप देखियत,
दूसरो दिलीप सो सुदक्षिणा को बल है।
सागर उजागर सो बहु बाहिनी को पति, 
छनदान प्रिय कैधौं सूरज अमल है।
सब विधि समरथ राजै राजा दशरथ,
भागीरथ पथ गामी गंगा कैसो जल है

मूलन ही की जहाँ अधोगति केशव गाइय।
होम हुतासन धूम नगर एकै मलिनाइय।
दुर्गति दुर्गन हीं, जो कुटिलगति सरितन ही में।
श्रीफल कौ अभिलाष प्रगट कविकुल के जी में

कुंतल ललित नील, भ्रुकुटी धानुष, नैन
कुमुद कटाच्छ बान सबल सदाई है।
सुग्रीव सहित तार अंगदादि भूषनन,
मध्यदेश केशरी सु जग गति भाई है
विग्रहानुकूल सब लच्छ लच्छ ऋच्छ बल,
ऋच्छराज मुखी मुख केसौदास गाई है।
रामचंद्र जू की चमू, राजश्री विभीषन की
रावन की मीचु दर कूच चलि आई है

पढ़ौ विरंचि मौन वेद, जीव सोर छंडि रे।
कुबेर बेर कै कही, न जच्छ भीर मंडि रे
दिनेस जाइ दूरि बैठु नारदादि संगही।
न बोलु चंद मंदबुद्धि , इंद्र की सभा नहीं
14. होलराय ये ब्रह्मभट्ट अकबर के समय में हरिवंश राय के आश्रित थे और कभी कभी शाही दरबार में भी जाया करते थे। इन्होंने अकबर से कुछ जमीन पाई थी जिसमें होलपुर गाँव बसाया था। कहते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने इन्हें अपना लोटा दिया था जिस पर इन्होंने कहा था,
लोटा तुलसीदास को लाख टका को मोल।
गोस्वामी जी ने चट उत्तर दिया,
मोल तोल कछु है नहीं, लेहु राय कवि होल
रचना इनकी पुष्ट होती थी पर जान पड़ता है कि ये केवल राजाओं और रईसों की विरुदावली वर्णन किया करते थे जिसमें जनता के लिए ऐसा कोई विशेष आकर्षण नहीं था कि इनकी रचना सुरक्षित रहती। अकबर बादशाह की प्रशंसा में इन्होंने यह कवित्त लिखा है,
दिल्ली तें न तख्त ह्वैहै, बख्त ना मुगल कैसो, 
ह्वैहै ना नगर बढ़ि आगरा नगर तें।
गंग तें न गुनी, तानसेन तें न तानबाज,
मान तें न राजा औ न दाता बीरबरतें
खान खानखाना तें न, नर नरहरि तें न,
ह्वैहै ना दीवान कोऊ बेडर टुडर तें।
नवौ खंड सात दीप; सात हू समुद्र पार, 
ह्वैहै ना जलालुदीन साह अकबर तें
15. रहीम (अब्दुर्रहीम खानखाना) ये अकबर बादशाह के अभिभावक प्रसिद्ध मोगल सरदार बैरम खाँ खानखाना के पुत्र थे। इनका जन्म संवत् 1610 में हुआ। ये संस्कृत, अरबी और फारसी के पूर्ण विद्वान और हिन्दी काव्य के पूर्ण मर्मज्ञ कवि थे। ये दानी और परोपकारी ऐसे थे कि अपने समय के कर्ण माने जाते थे; इनकी दानशीलता हृदय की सच्ची प्रेरणा के रूप में थी, कीर्ति की कामना से उसका कोई संपर्क न था। इनकी सभा विद्वानों और कवियों से सदा भरी रहती थी। गंग कवि को इन्होंने एक बार छत्ताीस लाख रुपये दे डाले थे। अकबर के समय में ये प्रधान सेनानायक और मंत्री थे और अनेक बड़े बड़े युध्दों में भेजे गए थे।
ये जहाँगीर के समय तक वर्तमान रहे। लड़ाई में धोखा देने के अपराध में एक बार जहाँगीर के समय इनकी सारी जागीर जब्त हो गई और कैद कर लिए गए। कैद से छूटने पर इनकी आर्थिक अवस्था कुछ दिनों तक बड़ी हीन रही। पर जिस मनुष्य ने करोड़ों रुपये दान कर दिए, जिसके यहाँ से कोई विमुख न लौटा उसका पीछा याचकों से कैसे छूट सकता था? अपनी दरिद्रता का दुख वास्तव में इन्हें उसी समय होता था जिस समय इनके पास कोई याचक जा पहुँचता और ये उसकी यथेष्ट सहायता नहीं कर सकते थे। अपनी अवस्था के अनुभव की व्यंजना इन्होंने इस दोहे में की है,
तबही लौं जीबो भलो देबौ होय न धीम।
जग में रहिबो कुचित गति उचित न होय रहीम
संपत्ति के समय में जो लोग सदा घेरे रहते हैं विपद के आने पर उनमें से अधिकांश किनारा खींचते हैं, इस बात का द्योतक यह दोहा है,
ये रहीम दर दर फिरैं, माँगि मधुकरी खाहिं।
यारो यारी छाँड़िए, अब रहीम वे नाहिं
कहते हैं कि इसी दीन दशा में इन्हें एक याचक ने आ घेरा। इन्होंने यह दोहा लिखकर उसे रीवाँ नरेश के पास भेजा,
चित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवध नरेस।
जापर विपदा परति है सो आवत यहि देस
रीवाँ नरेश ने उस याचक को एक लाख रुपए दिए।
गोस्वामी तुलसीदास जी से भी इनका बड़ा स्नेह था। ऐसी जनश्रुति है कि एक बार एक ब्राह्मण अपनी कन्या के विवाह के लिए धान न होने से घबराया हुआ गोस्वामी जी के पास आया। गोस्वामी जी ने उसे रहीम के पास भेजा और दोहे की यह पंक्ति लिखकर दे दी,
'सुरतिय नरतिय नागतिय यह चाहत सब कोय।'
रहीम ने उस ब्राह्मण को बहुत सा द्रव्य देकर विदा किया और दोहे की दूसरी पंक्ति इस प्रकार पूरी करके दे दी,
'गोद लिये हुलसी फिरै तुलसी सो सुत होय।'
रहीम ने बड़ी बड़ी चढ़ाइयाँ की थीं और मोगल साम्राज्य के लिए न जाने कितने प्रदेश जीते थे। इन्हें जागीर में बहुत बड़े बड़े सूबे और गढ़ मिले थे। संसार का इन्हें बड़ा गहरा अनुभव था। ऐसे अनुभवों के मार्मिक पक्ष को ग्रहण करने की भावुकता इनमें अद्वितीय थी। अपने उदार और ऊँचे हृदय को संसार के वास्तविक व्यवहारों के बीच रखकर जो संवेदना इन्होंने प्राप्त की है उसी की व्यंजना अपने दोहे में की है। तुलसी के वचनों के समान रहीम के वचन भी हिन्दी भाषी भूभाग में सर्वसाधारण के मुँह पर रहते हैं। इसका कारण है जीवन की सच्ची परिस्थितियों का मार्मिक अनुभव। रहीम के दोहे वृंद और गिरधार के पद्यों के समान कोरी नीति के पद्य नहीं हैं। उनमें मार्मिकता है, उनके भीतर से एक सच्चा हृदय झाँक रहा है। जीवन की सच्ची परिस्थितियों के मार्मिक रूप को ग्रहण करने की क्षमता जिस कवि में होगी वही जनता का प्यारा कवि होगा। रहीम का हृदय, द्रवीभूत होने के लिए, कल्पना की उड़ान की अपेक्षा नहीं रखता था। वह संसार के सच्चे और प्रत्यक्ष व्यवहारों में ही अपने द्रवीभूत होने के लिए पर्याप्त स्वरूप पा जाता था। 'बरवै नायिकाभेद' में भी जो मनोहर और छलकते हुए चित्र हैं वे भी सच्चे हैं,कल्पना के झूठे खेल नहीं हैं। उनमें भारतीय प्रेमजीवन की सच्ची झलक है।
भाषा पर तुलसी का सा ही अधिकार हम रहीम का भी पाते हैं। ये ब्रज और अवधी,पश्चिमी और पूरबी,दोनों काव्य भाषाओं में समान कुशल थे। 'बरवै नायिकाभेद' बड़ी सुंदर अवधी भाषा में है। इनकी उक्तियाँ ऐसी लुभावनी हुईं कि बिहारी आदि परवर्ति कवि भी बहुतों का अपहरण करने का लोभ न रोक सके। यद्यपि रहीम सर्वसाधारण में अपने दोहों के लिए ही प्रसिद्ध हैं, पर इन्होंने बरवै, कवित्त, सवैया, सोरठा, पद सब में थोड़ी बहुत रचना की है।
रहीम का देहावसान संवत् 1682 में हुआ। अब तक इनके निम्नलिखित ग्रंथ ही सुने जाते थे रहीम दोहावली या सतसई, बरवै नायिका भेद, श्रृंगारसोरठ, मदनाष्टक, रासपंचाध्यायी। पर भरतपुर के श्रीयुत् पं. मयाशंकरजी याज्ञिक ने इनकी और भी रचनाओं का पता लगाया है, जैसे नगरशोभा, फुटकल बरवै, फुटकल कवित्त सवैये और रहीम का एक पूरा संग्रह 'रहीम रत्नावली' के नाम से निकाला है।
कहा जा चुका है कि ये कई भाषाओं और विद्याओं में पारंगत थे। इन्होंने फारसी का एक दीवान भी बनाया था और 'वाकयात बाबरी' का तुर्की से फारसी में अनुवाद किया था। कुछ मिश्रित रचना भी इन्होंने की है,'रहीम काव्य' हिन्दी संस्कृत की खिचड़ी है और 'खेट कौतुकम्' नामक ज्योतिष का ग्रंथ संस्कृत और फारसी की खिचड़ी है। कुछ संस्कृत श्लोकों की रचना भी ये कर गए हैं। इनकी रचना के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं,
(सतसई या दोहावली से)
दुरदिन परे रहीम कह भूलत सब पहिचानि।
सोच नहीं बित हानि को जौ न होय हित हानि
कोउ रहीम जनि काहु के द्वार गए पछिताय।
संपति के सब जात हैं, बिपति सबै लै जाय
ज्यों रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय।
बारे उजियारो लगै, बढ़े अंधोरो होय
सर सूखे पंछी उड़ै, औरै सरन समाहिं।
दीन मीन बिन पंख के, कहु रहीम कहँ जाहिं
माँगत मुकरि न को गयो, केहि न त्यागियो साथ।
माँगत आगे सुख लह्यो, ते रहीम रघुनाथ
रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जाहिं।
उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत 'नाहिं'
रहिमन रहिला की भली, जौ परसै चितलाय।
परसत मन मैलो करै, सो मैदा जरि जाय

(बरवै नायिका भेद से)
भोरहिं बोलि कोइलिया बढ़वति ताप।
घरी एक भरि अलिया रहु चुपचाप
बाहर लैकै दियवा बारन जाइ।
सासु ननद घर पहुँचत देति बुझाइ
पिय आवत अंगनैया उठिकै लीन।
बिहँसत चतुर तिरियवा बैठक दीन
लै कै सुघर खुरपिया पिय के साथ।
छइबै एक छतरिया बरसत पाथ
पीतम इक सुमरिनियाँ मोहिं देइ जाहु।
जेहि जपि तोर बिरहवा करब निबाहु

(मदनाष्टक से)
कलित ललित माला वा जवाहिर जड़ा था।
चपल चखन वाला चाँदनी में खड़ा था।
कटितट बिच मेला पीत सेला नवेला।
अलि, बन अलबेला यार मेरा अकेला

(नगरशोभा से)
उत्तम जाति है बाह्मनी, देखत चित्त लुभाय।
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय
रूपरंग रतिराज में, छतरानी इतरान।
मानौ रची बिरंचि पचि, कुसुम कनक में सान
बनियाइनि बनि आइकै, बैठि रूप की हाट।
पेम पेक तन हेरिकै, गरुवै टारति बाट
गरब तराजू करति चख, भौंह मोरि मुसकाति।
डाँड़ी मारति बिरह की, चित चिंता घटि जाति

(फुटकल कवित्त आदि से)
बड़न सो जान पहचान कै रहीम कहा, 
जो पै करतार ही न सुख देनहार है।
सीतहर सूरज सों नेह कियो याहि हेत, 
ताहू पै कमल जारि डारत तुषार है
छीरनिधि माहिं धाँस्यो संकर के सीस बस्यो, 
तऊ ना कलंक लस्यो, ससि में सदा रहै
बड़ो रिझवार या चकोर दरबार है,
पै कलानिधि यार तऊ चाखत अंगार है

जाति हुती सखी गोहन में मनमोहन को लखि ही ललचानो।
नागरि नारि नई ब्रज की उनहूँ नंदलाल को रीझिबो जानो
जाति भई फिरि कै चितई तब भाव रहीम यहै उर आनो।
ज्यौं कमनैत दमानक में फिरि तीर सों मारि लै जात निसानो

कमलदल नैनन की उनमानि।
बिसरति नाहिं, सखी! मो मन तें मंद मंद मुसकानि।
बसुधा की बसकरी मधुरता सुधापगी बतरानि
मढ़ी रहै चित उर बिसाल की मुकुतमाल थहरानि।
नृत्य समय पीतांबर हू की फहर फहर फहरानि
अनुदिन श्रीवृंदावन ब्रज तें आवन आवन जानि।
अब रहीम चित ते न टरति है सकल स्याम की बानि
16. कादिर कादिरबख्श पिहानी जिला हरदोई के रहनेवाले और सैयद इब्राहीम के शिष्य थे। इनका जन्म संवत् 1635 में माना जाता है। अत: इनका कविताकाल संवत् 1660 के आसपास समझा जा सकता है। इनकी कोई पुस्तक तो नहीं मिलती पर फुटकल कवित्त पाए जाते हैं। कविता ये चलती भाषा में अच्छी करते थे। इनका यह कवित्त लोगों के मुँह से बहुत सुनने में आता है,
गुन को न पूछै कोऊ, औगुन की बात पूछै, 
कहा भयो दई! कलिकाल यों खरानो है।
पोथी औ पुरान ज्ञान ठट्ठन में डारि देत,
चुगुल चबाइन को मान ठहरानो है
कादिर कहत यासों कछु कहिबे को नाहिं, 
जगत की रीत देखि चुप मन मानो है।
खोलि देखौ हियो सब ओरन सों भाँति भाँति,
गुन ना हिरानो, गुनगाहक हिरानो है
17. मुबारक सैयद मुबारक अली बिलग्रामी का जन्म संवत् 1640 में हुआ था, अत: इनका कविताकाल संवत् 1670 के पीछे मानना चाहिए।
ये संस्कृत, फारसी और अरबी के अच्छे पंडित और हिन्दी के सहृदय कवि थे। जान पड़ता है कि ये केवल श्रृंगार की ही कविता करते थे। इन्होंने नायिका के अंगों का वर्णन बड़े विस्तार से किया है। कहा जाता है कि दस अंगों को लेकर इन्होंने एक एक अंग पर सौ सौ दोहे बनाए थे। इनका प्राप्त ग्रंथ 'अलकशतक' और 'तिलशतक' उन्हीं के अंतर्गत है। इन दोहों के अतिरिक्त इनके बहुत से कवित्त सवैये संग्रह ग्रंथों में पाए जाते और लोगों के मुँह से सुने जाते हैं। इनकी उत्प्रेक्षा बहुत बढ़ी चढ़ी होती थी और वर्णन के उत्कर्ष के लिए कभी कभी ये बहुत दूर तक बढ़ जाते थे। कुछ नमूने देखिए,
(अलकशतक और तिलशतक से)
परी मुबारक तिय बदन अलक ओप अति होय।
मनो चंद की गोद में रही निसा सी सोय
चिबुक कूप में मन परयो छबिजल तृषा विचारि।
कढ़ति मुबारक ताहि तिय अलक डोरि सी डारि
चिबुक कूप रसरी अलक तिल सु चरस दृग बैल।
बारी वैस सिंगार को सींचत मनमथ छैल

(फुटकल से)
कनक बरन बाल, नगन लसत भाल, 
मोतिन के माल उर सोहैं भलीभाँति है।
चंदन चढ़ाय चारु चंदमुखी मोहनी सी,
प्रात ही अन्हाय पग धारे मुसकाति है।
चूनरी विचित्र स्याम सजि कै मुबारकजू,
ढाँकि नखसिख तें निपट सकुचाति है।
चंद्रमैं लमेटि कै समेटि कै नखत मानो, 
दिन को प्रनाम किए राति चली जाति है
18. बनारसीदास ये जौनपुर के रहनेवाले एक जैन जौहरी थे जो आमेर में भी रहा करते थे। इनके पिता का नाम खड़गसेन था। ये संवत् 1643 में उत्पन्न हुए थे। इन्होंने संवत् 1698 तक का अपना जीवनवृत्त अर्ध्दकथानक नामक ग्रंथ में दिया है। पुराने हिन्दी साहित्य में यही एक आत्मचरित मिलता है, इससे इसका महत्व बहुत अधिक है। इस ग्रंथ से पता चलता है कि युवावस्था में इनका आचरण अच्छा न था और इन्हें कुष्ट रोग भी हो गया था। पर पीछे ये सँभल गए। ये पहले श्रृंगार रस की कविता किया करते थे, पर पीछे ज्ञान हो जाने पर इन्होंने वे सब कविताएँ गोमती नदी में फेंक दीं और ज्ञानोपदेशपूर्ण कविताएँ करने लगे। कुछ उपदेश इनके ब्रजभाषा गद्य में भी हैं। इन्होंने जैनधर्म संबंधी अनेक पुस्तकों के सारांश हिन्दी में कहे हैं। अब तक इनकी बनाई इतनी पुस्तकों का पता चला है,
बनारसी विलास (फुटकल कवित्तों का संग्रह), नाटक समयसार (कुंदकुंदाचार्य कृत ग्रंथ का सार), नाममाला (कोश), अर्ध्दकथानक, बनारसी पद्ध ति मोक्षपदी, धा्रुववंदना, कल्याणमंदिर भाषा, वेदनिर्णय पंचाशिका, मारगन विद्या।
इनकी रचना शैली पुष्ट है और इनकी कविता दादूपंथी सुंदरदासजी की कविता से मिलती जुलती है। कुछ उदाहरण लीजिए,
भोंदू! ते हिरदय की ऑंखें।
जे करबैं अपनी सुख संपति भ्रम की संपति भाखैं
जिन ऑंखिन सों निरखि भेद गुन ज्ञानी ज्ञान विचारैं।
जिन ऑंखिन सों लखि सरूप मुनि ध्यान धारना धारैं

काया सों विचार प्रीति, माया ही मेंहार जीत, 
लिए हठ रीति जैसे हारिल की लकरी।
चंगुल के जोर जैसे गोह गहि रहै भूमि,
त्यौं ही पाँय गाड़ै पै न छाँडै टेक पकरी।
मोह की मरोर सों मरम को न ठौर पावैं, 
धावैं चहुँ ओर ज्यौं बढ़ावैं जाल मकरी।
ऐसी दुरबुद्धि भूलि, झूठ के झरोखे भूलि,
फूली फिरैं ममता जँजीरन सों जकरी।
19. सेनापति,ये अनूपशहर के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम गंगाधार, पितामह का परशुराम और गुरु का नाम हीरामणि दीक्षित था। इनका जन्मकाल संवत् 1646 के आसपास माना जाता है। ये बड़े ही सहृदय कवि थे। ऋतुवण्र् ान तो इनके ऐसा और किसी श्रृंगारी कवि ने नहीं किया है। इनके ऋतुवर्णन में प्रकृति निरीक्षण पाया जाता है। पद विन्यास भी इनका ललित है। कहीं कहीं विरामों पर अनुप्रास का निर्वाह और यमक का चमत्कार भी अच्छा है। सारांश यह कि अपने समय के ये बड़े भावुक और निपुण कवि थे। अपना परिचय इन्होंने इस प्रकार दिया है,
दीक्षित परशुराम दादा हैं विदित नाम,
जिन कीन्हें जज्ञ, जाकी विपुल बड़ाई है। 
गंगाधार पिता गंगाधार के समान जाके,
गंगातीर बसति 'अनूप' जिन पाई है
महा जानमनि, विद्यादान हू में चिंतामनि,
हीरामनि दीक्षित तें पाई पंडिताई है।
सेनापति सोई, सीतापति के प्रसाद जाकी,
सब कवि कान दै सुनत कविताई है
इनकी गर्वोक्तियाँ खटकती नहीं, उचित जान पड़ती हैं। अपने जीवन के पिछले काल में ये संसार से कुछ विरक्त हो चले थे। जान पड़ता है कि मुसलमानी दरबारों में भी इनका अच्छा मान रहा, क्योंकि अपनी विरक्ति की झोंक में इन्होंने कहा है,
केतो करौ कोइ, पैए करम लिखोइ, तातें,
दूसरी न होइ, उर सोइ ठहराइए।
आधी तें सरस बीति गई है बरस, अब
दुर्जन दरस बीच रस न बढ़ाइए
चिंता अनुचित, धारु धीरज उचित,
सेनापति ह्वै सुचित रघुपति गुन गाइए।
चारि बर दानि तजि पायँ कमलेच्छन के,
पायक मलेच्छन के काहे को कहाइए 
शिवसिंहसरोज में लिखा है कि पीछे इन्होंने क्षेत्र संन्यास ले लिया था। इनके भक्तिभाव से पूर्ण अनेक कवित्त 'कवित्तरत्नाकर' में मिलते हैं, जैसे
महा मोहकंदनि में जगत जकंदनि में,
दिन दुखदुंदनि में जात है बिहाय कै।
सुख को न लेस है, कलेस सब भाँतिन को; 
सेनापति याहीं ते कहत अकुलाय कै
आवै मन ऐसी घरबार परिवार तजौं,
डारौं लोकलाज के समाज विसराय कै।
हरिजन पुंजनि में वृंदावन कुंजनि में, 
रहौं बैठि कहूँ तरवर तर जाय कै
यद्यपि इस कवित्त में वृंदावन का नाम आया है, पर इनके उपास्य राम ही जान पड़ते हैं क्योंकि स्थान स्थान पर इन्होंने 'सियापति', 'सीतापति', 'राम' आदि नामों का ही स्मरण किया है। कवित्तरत्नाकर इनका सबसे पिछला ग्रंथ जान पड़ता है क्योंकि उसकी रचना संवत् 1706 में हुई है, यथा,
संवत् सत्रह सै छ में, सेइ सियापति पाय।
सेनापति कविता सजी सज्जन सजौ सहाय
इनका एक ग्रंथ 'काव्यकल्पद्रुम' भी प्रसिद्ध है।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इनकी कविता बहुत मर्मस्पर्शिनी और रचना बहुत ही प्रौढ़ और प्रांजल है। जैसे एक ओर इनमें पूरी भावुकता थी वैसे ही दूसरी ओर चमत्कार लाने की पूरी निपुणता भी। श्लेष का ऐसा साफ उदाहरण शायद ही और कहीं मिले,
नाहीं नाहीं करै, थोरो माँगे सब दैन कहै,
मंगन को देखि पट देत बार बार है
जिनके मिलत भली प्रापति की घटी होति,
सदा सुभ जनमन भावै निराधार है
भोगी ह्वै रहत बिलसत अवनी के मध्य,
कन कन जोरै, दानपाठ परवार है
सेनापति वचन की रचना निहारि देखौ,
दाता और सूम दोउ कीन्हें इकसार है
भाषा पर ऐसा अच्छा अधिकार कम कवियों का देखा जाता है। इनकी भाषा में बहुत कुछ माधुर्य ब्रजभाषा का ही है, संस्कृत पदावली पर अवलंबित नहीं। अनुप्रास और यमक की प्रचुरता होते हुए भी कहीं भद्दी कृत्रिमता नहीं आने पाई है। इनके ऋतुवर्णन के अनेक कवित्त बहुत से लोगों को कंठस्थ हैं। रामचरित संबंधी कवित्त भी बहुत ही ओजपूर्ण हैं। इनकी रचना के कुछ नमूने दिए जाते हैं,
बानि सौं सहित सुबरन मुँह रहैं जहाँ, 
धरत बहुत भाँति अरथ समाज को। 
संख्या करि लीजै अलंकार हैं अधिक यामैं,
राखौ मति ऊपर सरस ऐसे साज को
सुनौ महाजन! चोरी होति चार चरन की,
तातें सेनापति कहै तजि उर लाज को।
लीजियो बचाय ज्यों चुरावै नाहिं कोउ, सौंपी 
वित्ता की सी थाती में कवित्तन के ब्याज को

वृष को तरनि, तेज सहसौ करनि तपै, 
ज्वालनि के जाल बिकराल बरसत है।
तचति धारनि जग झुरत झुरनि, सीरी
छाँह को पकरि पंथी पंछी बिरमत है
सेनापति नेक दुपहरी ढरकत होत
धामका विषम जो न पात खरकत है।
मेरे जान पौन सीरे ठौर को पकरि काहू
घरी एक बैठि कहूँ घामै बितवत है

सेनापति उनए नए जलद सावन के
चारिहू दिसान घुमरत भरे तोय कै।
सोभा सरसाने न बखाने जात कैहूँ भाँति
आने हैं पहार मानो काजर के ढोय कै
घन सों गगन छप्यो, तिमिर सघन भयो, 
देखि न परत मानो रवि गयो खोय कै। 
चारि मास भरि स्याम निसा को भरम मानि,
मेरे जान याही तें रहत हरि सोय कै

दूरि जदुराई सेनापति सुखदाई देखौ, 
आई ऋतु पावस न पाई प्रेमपतियाँ।
धाीर जलधार की सुनत धुनि धारकी औ,
दरकी सुहागिन की छोहभरी छतियाँ
आई सुधि बर की, हिए में आनि खरकी,
सुमिरि प्रानप्यारी वह प्रीतम की बतियाँ।
बीती औधिा आवन की लाल मनभावन की,
डग भई बावन की सावन की रतियाँ

बालि को सपूत कपिकुल पुरहूत,
रघुवीर जू को दूत धरि रूप विकराल को।
युद्ध मद गाढ़ो पाँव रोपि भयो ठाढ़ो,
सेनापति बल बाढ़ो रामचंद्र भुवपाल को

कच्छप कहलि रह्यो, कुंडली टहलि रह्यो,
दिग्गज दहलि त्रास परो चकचाल को।
पाँव के धारत अति भार के परत भयो,
एक ही परत मिलि सपत पताल को

रावन को बीर, सेनापति रघुबीर जू की
आयो है सरन, छाँड़ि ताहि मदअंधा को।
मिलत ही ताको राम कोप कै करी है ओप,
नाम जोय दुर्जनदलन दीनबंधा को।
देखौ दानवीरता निदान एक दान ही में,
दीन्हें दोऊ दान, को बखानै सत्यसंध को।
लंका दसकंधार की दीनी है विभीषन को,
संका विभीषन की सो दीनी दसकंधा को
सेनापतिजी के भक्तिप्रेरित उद्गार भी बहुत अनूठे और चमत्कारपूर्ण हैं। 'आपने करम करि हौं ही निबहौंगे तौ तौ हौं ही करतार, करतार तुम काहे के?' वाला प्रसिद्ध कवित्त इन्हीं का है।
20. पुहकर कवि ये परतापपुर (जिला मैनपुरी) के रहने वाले थे, पर पीछे गुजरात में सोमनाथ जी के पास भूमिगाँव में रहते थे। ये जाति के कायस्थ थे और जहाँगीर के समय में वर्तमान थे। कहते हैं कि जहाँगीर ने किसी बात पर इन्हें आगरे में कैद कर लिया था। वहीं कारागार में इन्होंने 'रसरतन' नामक ग्रंथ संवत् 1673 में लिखा जिस पर प्रसन्न होकर बादशाह ने इन्हें कारागार से मुक्त कर दिया। इस ग्रंथ में रंभावती और सूरसेन की प्रेमकथा कई छंदों में, जिनमें मुख्य दोहा और चौपाई है, प्रबंधकाव्य की साहित्यिक पद्ध ति पर लिखी गई। कल्पित कथा लेकर प्रबंधकाव्य रचने की प्रथा पुराने हिन्दी कवियों में बहुत कम पाई जाती है। जायसी आदि सूफी शाखा के कवियों ने ही इस प्रकार की पुस्तकें लिखी हैं, पर उनकी परिपाटी बिल्कुल भारतीय नहीं थी। इस दृष्टि से 'रसरतन' को हिन्दी साहित्य में एक विशेष स्थान देना चाहिए।
इसमें संयोग और वियोग की विविधा दशाओं का साहित्य की रीति पर वर्णन है। वर्णन उसी ढंग के हैं जिस ढंग के श्रृंगार के मुक्तक कवियों ने किए हैं। पूर्वराग, सखी, मंडन, नखशिख, ऋतुवर्णन आदि श्रृंगार की सब सामग्री एकत्र की गई है। कविता सरस और भाषा प्रौढ़ है। इस कवि के और ग्रंथ नहीं मिले हैं। पर प्राप्त ग्रंथ को देखने से ये एक अच्छे कवि जान पड़ते हैं। इनकी रचना की शैली दिखाने के लिए उध्दृत पद्य पर्याप्त होंगे,

चले मैमता हस्ति झूमंत मत्ता। मनो बद्दला स्याम साथै चलंता
बनी बागरी रूप राजंत दंता। मनौ बग्ग आसाढ़ पाँतैं उदंता
लसैं पीत लालैं, सुढालैं ढलक्कैं। मनों चंचला चौंधिा छाया छलक्कैं

चंद की उजारी प्यारी नैनन तिहारे, परे
चंद की कला में दुति दूनी दरसाति है। 
ललित लतानि में लता सी गहि सुकुमारि
मालती सी फूलैं जब मृदु मुसुकाति है
पुहकर कहै जित देखिए विराजै तित
परम विचित्र चारु चित्र मिलि जाति है।
आवै मन माहि तब रहै मन ही में गड़ि,
नैननि बिलोके बाल नैननि समाति है
21. सुंदर ये ग्वालियर के ब्राह्मण थे और शाहजहाँ के दरबार में कविता सुनाया करते थे। इन्हें बादशाह ने पहले कविराय की और फिर महाकविराय की पदवी दी थी। इन्होंने संवत् 1688 में 'सुंदरश्रृंगार' नामक नायिकाभेद का एक ग्रंथ लिखा। कवि ने रचना की तिथि इस प्रकार दी है,
संवत् सोरह सै बरस, बीते अठतर सीति।
कातिक सुदि सतमी गुरौ, रचे ग्रंथ करि प्रीति
इसके अतिरिक्त 'सिंहासनबत्तीसी' और 'बारहमासा' नाम की इनकी दो पुस्तकें और कही जाती हैं। यमक और अनुप्रास की ओर इनकी कुछ विशेष प्रवृत्ति जान पड़ती है। इनकी रचना शब्दचमत्कारपूर्ण है। एक उदाहरण दिया जाता है,
काके गए बसन पलटि आए बसन सु,
मेरो कछु बस न रसन उर लागे हौ।
भौंहैं तिरछौहैं कवि सुंदर सुजान सोहैं,
कछू अलसौहैं गौंहैं, जाके रस पागे हौ
परसौं मैं पाय हुते परसौं मैं पाय गहि,
परसौ वे पाय निसि जाके अनुरागे हौ।
कौन बनिता के हौ जू कौन बनिता के हौ सु, 
कौन बनिता के बनि, ताके संग जागे हौ
22. लालचंद या लक्षोदय ये मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह (संवत् 1685-1709) की माता जांबवती जी के प्रधान श्रावक हंसराज के भाई डूँगरसी के पुत्र थे। इन्होंने संवत् 1700 में 'पद्मिनीचरित्र' नामक एक प्रबंधकाव्य की रचना की जिसमें राजा रत्नसेन और पद्मिनी की कथा का राजस्थानी मिली भाषा में वर्णन है। जायसी ने कथा का जो रूप रखा है उससे इसकी कथा में बहुत जगह भेद है, जैसेजायसी ने हीरामन तोते के द्वारा पद्मिनी का वर्णन सुनकर रत्नसेन का मोहित होना लिखा है, पर भाटों द्वारा एकबारगी घर से निकल पड़ने का कारण इसमें यह बताया गया है कि पटरानी प्रभावती ने राजा के सामने जो भोजन रखा वह उसे पसंद न आया। इस पर रानी ने चिढ़कर कहा कि यदि मेरा भोजन अच्छा नहीं लगता तो कोई पद्मिनी ब्याह लाओ,
तब तड़की बोली तिसे जी राखी मन धारि रोस।
नारी आणों काँ न बीजी द्यो मत झूठो दोस
हम्मे कलेवी जीणा नहीं जी किसूँ करीजै बाद। 
पदमणि का परणों न बीजी जिमि भोजन होय स्वाद
इसपर रत्नसेन यह कहकर उठ खड़ा हुआ,
राणो तो हूँ रतनसी परणूँ पदमिनि नारि।
राजा समुद्र तट पर जा पहुँचा जहाँ से औघड़नाथ सिद्ध ने अपने योगबल से उसे सिंहलद्वीप पहुँचा दिया। वहाँ राजा की बहन पद्मिनी के स्वयंवर की मुनादी हो रही थी,
सिंहलदीप नो राजियो रे, सिंगल सिंह समान रे।
तसु बहण छै पदमिणि रे, रूपे रंभ समान रे
जोबन लहरयाँ जायछै रे, ते परणूँ भरतार रे।
परतज्ञा जे पूरवै रे, तासु बरै बरमाल रे
राजा अपना पराक्रम दिखाकर पद्मिनी को प्राप्त करता है।
इसी प्रकार जायसी के वृत्त से और भी कई बातों में भेद है। इस चरित्र की रचना गीतिकाव्य के रूप में समझनी चाहिए।

सूफी रचनाओं के अतिरिक्त भक्तिकाल के अन्य आख्यानकाव्य
आश्रयदाता राजाओं के चरितकाव्य तथा ऐतिहासिक या पौराणिक आख्यान काव्य लिखने की जैसी परंपरा हिंदुओं में बहुत प्राचीनकाल से चली आती थी वैसी पद्यबद्ध कल्पित कहानियाँ लिखने की नहीं थीं। ऐसी कहानियाँ मिलती हैं, पर बहुत कम। इसका अर्थ यह नहीं कि प्रसंगों या वृत्तों की कल्पना की प्रवृत्ति कम थी। ऐसी कल्पना किसी ऐतिहासिक या पौराणिक पुरुष या घटना का कुछ,कभी कभी अत्यंत अल्प,सहारा लेकर खड़ी की जाती थी। कहीं कहीं तो केवल कुछ नाम ही ऐतिहासिक या पौराणिक रहते थे, वृत्त सारा कल्पित रहता था, जैसे ईश्वरदास कृत 'सत्यवती कथा'।
आत्मकथा का विकास भी नहीं पाया जाता। केवल जैन कवि बनारसीदास का 'अर्ध्दकथानक' मिलता है।
नीचे मुख्य आख्यानकाव्यों का उल्लेख किया जाता है,
ऐतिहासिक पौराणिक कल्पित आत्मकथा
1. रामचरितमानस (तुलसी) 1. ढोला मारू रा दूहा (प्राचीन)
1. अर्ध्दकथानक 
(बनारसीदास)
2.हरिचरित्र (लालचदास) 2. लक्ष्मणसेन पद्मावती कथा 
(दामो कवि)
3.रुक्मिणीमंगल (नरहरि) 3. सत्यवतीकथा (ईश्वरदास)
4.रुक्मिणीमंगल (नंददास) 4. माधावानल कामकंदला
(आलम)
5.सुदामाचरित्र (नरोत्तमदास) 5. रसरतन (पुहकर कवि)
6.रामचंद्रिका (केशवदास) 6. पद्मिनीचरित्र (लालचंद)
7.वीरसिंहदेवचरित (केशव) 7. कनकमंजरी (काशीराम)
8.बेलि क्रिसन रुकमणी री (जोधपुर के राठौड़ राजाप्रिथीराज)

ऊपर दी हुई सूची में 'ढोला मारू रा दूहा' और 'बेलि क्रिसन रुकमणी री' राजस्थानी भाषा में हैं। ढोला मारू की प्रेमकथा राजपूताने में बहुत प्रचलित है। दोहे बहुत पुराने हैं, यह बात उनकी भाषा से पाई जाती है। बहुत दिनों तक मुखाग्र ही रहने के कारण बहुत से दोहे लुप्त हो गए थे, जिससे कथा की श्रृंखला बीच बीच में खंडित हो गई थी। इसी से संवत् 1618 के लगभग जैन कवि कुशललाभ ने बीच बीच में चौपाइयाँ रचकर जोड़ दीं। दोहों की प्राचीनता का अनुमान इस बात से हो सकता है कि कबीर की साखियों में ढोला मारू के बहुत से दोहे ज्यों के त्यों मिलतेहैं।
'बेलि क्रिसन रुकमणी री' जोधपुर के राठौड़ राजवंशीय स्वदेशाभिमानी कवि पृथ्वीराज की रचना है जिनका महाराणा प्रताप को क्षोभ से भरा पत्र लिखना इतिहास-प्रसिद्ध है। रचना प्रौढ़ भी है और मार्मिक भी। इसमें श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के विवाह की कथा है।
पद्मिनीचरित की भाषा भी राजस्थानी मिली है।
संदर्भ
1. देखो, पृ. 58-61


>>पीछे>> >>आगे>>