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Duration : null: mins Posted in : Views : 940 Discription : COMMENTSRelated Videos CategoriesCopyright © 2020 365 SMART NETWORK All rights are Reserved. प्रकरण 1 सामान्य परिचय देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके देवमंदिर गिराए जाते थे, देवमूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे।
आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गए। इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिंदू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी-सी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था? सुफल जन्म मोको गुरु कीना।
दुख बिसार सुख अंतर दीना किसू हूँ पूजूँ दूजा नजर न आई। दसरथरायनंद राजा मेरा रामचंद। प्रणवै नामा तत्व रस अमृत पीजै धानि धानि मेघा रोमावली, धानि-धानि कृष्ण ओढ़े कावँली। चंद न होता, सूर न होता, पानी पवन मिलाया। पांडे तुम्हरी गायत्री लोधो का खेत खाती थी।
हिंदू पूजै देहरा, मुसलमान मसीद। प्रकरण 2 कबीर इनकी उत्पत्ति के संबंध में अनेक प्रकार के प्रवाद प्रचलित हैं। कहते हैं, काशी में स्वामी रामानंद का एक भक्त ब्राह्मण था जिसकी विधवा कन्या को स्वामी जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद भूल से दे दिया। फल यह हुआ कि उसे एक बालक उत्पन्न हुआ जिसे वह लहरतारा के ताल के पास फेंक आई। अली या नीरू नाम का जुलाहा उस बालक को अपने घर उठा लाया और पालने लगा। यही बालक आगे चलकर कबीरदास हुआ। कबीर का जन्मकाल जेठ सुदी पूर्णिमा,
सोमवार विक्रम संवत् 1456 माना जाता है। कहते हैं कि आरंभ से ही कबीर में हिंदू भाव से भक्ति करने की प्रवृत्ति लक्षित होती थी जिसे उनके पालनेवाले माता पिता न दबा सके। वे 'राम-राम' जपा करते थे और कभी-कभी माथे पर तिलक भी लगा लेते थे। इससे सिद्ध होता है कि उस समय में स्वामी रामानंद का प्रभाव खूब बढ़ रहा था और छोटे बड़े, ऊँच नीच, सब तृप्त हो रहे थे। अत: कबीर पर भी भक्ति का यह संस्कार बाल्यावस्था से ही यदि पड़ने लगा हो तो कोई आश्चर्य नहीं। रामानंद जी के माहात्म्य को सुनकर कबीर के हृदय में शिष्य होने की
लालसा जगी होगी। ऐसा प्रसिद्ध है कि एक दिन वे एक पहर रात रहते ही उस (पंचगंगा) घाट की सीढ़ियों पर जा पड़े जहाँ से रामानंद जी स्नान करने के लिए उतरा करते थे। स्नान को जाते समय अंधेरे में रामानंद जी का पैर कबीर के ऊपर पड़ गया। रामानंद जी बोल उठे, 'राम राम कह'। कबीर ने इसी को गुरुमंत्र मान लिया और वे अपने को गुरु रामानंद जी का शिष्य कहने लगे। वे साधुओं का सत्संग भी रखते थे और जुलाहे का काम भी करते थे। जब हम होते तब तू नाहीं, अब तू ही, मैं
नाहीं। माधव क्या कहिए प्रभु ऐसा, जैसा मानिए होइ न तैसा। मितऊ मड़ैया सूनी करि गैलो जो नर दुख में दुख नहिं मानै। भाई रे! ऐसा पंथ हमारा। सुनत नगारे चोट बिगसै कमलमुख, प्रकरण 3
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इस काल के निर्गुणोपासक भक्तों की दूसरी शाखा उन सूफी कवियों की है जिन्होंने प्रेमगाथाओं के रूप में उस प्रेमतत्व का वर्णन किया है जो ईश्वर को मिलाने वाला है तथा जिसका आभास लौकिक प्रेम के रूप में मिलता है। इस संप्रदाय के साधु कवियों का अब वर्णन किया जाता है देखत ही पहिचानेउ तोहीं। एही रूप जेहि छँदरयो मोही प्रकरण 4 जगत्प्रसिद्ध स्वामी शंकराचार्य जी ने जिस अद्वैतवाद का निरूपण किया था, वह भक्ति के सन्निवेश के उपयुक्त न था। यद्यपि उसमें ब्रह्म की व्यावहारिक सगुण सत्ता का भी स्वीकार था, पर भक्ति के सम्यक्
प्रसार के लिए जैसे दृढ़ आधार की आवश्यकता थी वैसा दृढ़ आधार स्वामी रामानुजाचार्य जी (संवत् 1073) ने खड़ा किया। उनके विशिष्टाद्वैतवाद के अनुसार चिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म के ही अंश जगत् के सारे प्राणी हैं जो उसी से उत्पन्न होते हैं और उसी में लीन होते हैं। अत: इन जीवों के लिए उध्दार का मार्ग यही है कि वे भक्ति द्वारा उस अंशी का सामीप्य लाभ करने का प्रयत्न करें। रामानुज जी की शिष्य परंपरा देश में बराबर फैलती गई और जनता भक्तिमार्ग की ओर अधिक आकर्षित होती रही। रामानुज जी के श्री संप्रदाय में विष्णु या नारायण
की उपासना है। इस संपद्राय में अनेक अच्छे साधु महात्मा बराबर होते गए। गोरो गरूर गुमान भरो यह, कौसिक, छोटो सो ढोटो है काको? जल को गए लक्खन, हैं लरिका, परिखौ, पिय छाँह घरीक ह्वै ठाढ़े। बालधी बिसाल विकराल ज्वाल लाल मानौ, जानकी को मुख न बिलोक्यों ताते कुंडल, सातों सिंधु, सातों लोक, सातों रिषि हैं ससोक, एहो हनू! कह्यौ श्री रघुबीर कछू सुधि है सिय की छिति माँही? प्रकरण 5 श्रीबल्लभाचार्य जी पहले कहा जा चुका है कि विक्रम की पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में वैष्णव
धर्म का जो आंदोलन देश के एक छोर से दूसरे छोर तक रहा उसके श्री बल्लभाचार्य जी प्रधान प्रवर्तकों में से थे। आचार्य जी का जन्म संवत् 1535, वैशाख कृष्ण 11 को और गोलोकवास संवत् 1587, आषाढ़ शुक्ल 3 को हुआ। ये वेदशास्त्र में पारंगत धुरंधर विद्वान थे। (रासपंचाध्यायी से) कंचन मनि मरकत रस ओपी। मो मन गिरधार छवि पै अटक्यो। राधो जू हारावलि टूटी। बिपिन घन कुंज रति केलि भुज मेलि रुचि झूलति नागरि नागर लाल। मन रे परसि हरि के चरन। नवल किसोर नवल नागरिया। बसौ मेरे नैननि में दोउ चंद। सुघर राधिाका प्रवीन बीना, वर रास रच्यो, (साखी) या लकुटी
अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं। सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाहिं निरंतर
गावैं। (प्रेमवाटिका से) ('सिंगारसत' से) प्रकरण 6 जिन राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के बीच भक्ति का काव्य प्रवाह उमड़ा, उनका संक्षिप्त उल्लेख आरंभ में हो चुका है। 1 वह प्रवाह राजाओं या शासकों के प्रोत्साहन आदि पर अवलंबित न था। वह जनता की प्रवृत्ति का प्रवाह था जिसका प्र्रवत्ताक काल था। न तो उसको पुरस्कार या यश के लोभ ने उत्पन्न किया था और न भय रोक सकता था। उस प्रवाह काल के बीच अकबर ऐसे योग्य और गुणग्राही शासक का भारत के अधीश्वर के रूप
में प्रतिष्ठित होना एक आकस्मिक बात थी। अत: सूर और तुलसी ऐसे भक्त कवीश्वरों के प्रादुर्भाव के कारणों में अकबर द्वारा संस्थापित शांतिसुख को गिनना भारी भूल है। उस शांतिसुख के परिणामस्वरूप जो साहित्य उत्पन्न हुआ वह दूसरे ढंग का था। उसका कोई एक निश्चित स्वरूप न था; सच पूछिए तो वह उन कई प्रकार की रचना पद्ध तियों का पुनरुत्थान था जो पठानों के शासनकाल की अशांति और विप्लव के बीच दब सी गई थी और धीरे-धीरे लुप्त होने जा रही थी। पूत कपूत, कुलच्छनि नारि, लराक परोसि, लजायन सारो। गंग ऐसे गुनी को गयंद सो चिराइए। झुकत कृपान मयदान ज्यों उदोत
भान, देखत कै वृच्छन में दीरघ सुभायमान, मरकत के सूत कैधौं पन्नग के पूत अति चंचल न हूजै नाथ,
अंचल न खैंचौ हाथ, कैटभ सो नरकासुर सो पल में मधु सो मुर सो जिन मारयो। (रामचंद्रिका से) विधि के समान है बिमानीकृत राजहंस, मूलन ही की जहाँ अधोगति केशव गाइय। कुंतल ललित नील, भ्रुकुटी धानुष, नैन पढ़ौ विरंचि मौन वेद, जीव सोर छंडि रे। (बरवै नायिका भेद से) (मदनाष्टक से) (नगरशोभा से) (फुटकल कवित्त आदि से) जाति हुती सखी गोहन में मनमोहन को लखि ही ललचानो। कमलदल नैनन की उनमानि। (फुटकल से) काया सों विचार
प्रीति, माया ही मेंहार जीत, वृष को तरनि, तेज सहसौ करनि तपै, सेनापति उनए नए जलद सावन के दूरि जदुराई सेनापति सुखदाई देखौ, बालि को सपूत कपिकुल पुरहूत, कच्छप कहलि रह्यो, कुंडली टहलि रह्यो, रावन को बीर, सेनापति रघुबीर जू
की चले मैमता हस्ति झूमंत मत्ता। मनो बद्दला स्याम साथै चलंता चंद की उजारी प्यारी नैनन तिहारे, परे सूफी रचनाओं के अतिरिक्त भक्तिकाल के अन्य आख्यानकाव्य ऊपर दी हुई सूची में 'ढोला मारू रा दूहा' और 'बेलि क्रिसन रुकमणी री' राजस्थानी भाषा में हैं। ढोला मारू की प्रेमकथा राजपूताने में बहुत प्रचलित है। दोहे बहुत पुराने हैं, यह बात उनकी भाषा से पाई जाती है। बहुत दिनों तक मुखाग्र ही रहने के कारण बहुत से दोहे लुप्त हो गए थे, जिससे कथा की श्रृंखला बीच बीच
में खंडित हो गई थी। इसी से संवत् 1618 के लगभग जैन कवि कुशललाभ ने बीच बीच में चौपाइयाँ रचकर जोड़ दीं। दोहों की प्राचीनता का अनुमान इस बात से हो सकता है कि कबीर की साखियों में ढोला मारू के बहुत से दोहे ज्यों के त्यों मिलतेहैं। >>पीछे>> >>आगे>> |