‘आओ, मिलकर बचाएँ’ कविता का प्रतिपाद्य लिखिए। Show
निर्मला पुतुल द्वारा रचित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ में आदिवासी समाज के स्वरूप एवं समस्याओं को उकेरा गया है। कवयित्री संथाली समाज के साथ गहरे रूप से जुड़ी हुई है। उसने इस कविता में समाज में उन चीजों को बचाने की बात कही है जिनका होना स्वस्थ सामाजिक-प्राकृतिक परिवेश के लिए बहुत आवश्यक है। कविता का मूल स्वर है-प्रकृति के विनाश और विस्थापन के कारण आदिवासी समाज पर आया संकट। कवयित्री आदिवासी समाज के परिवेश को बचाए रखना और शहरी प्रभाव से मुक्त रखना चाहती है। वह झारखंडी स्वरूप की रक्षा चाहती है। संथाली समाज के ठंडेपन को दूर करना और उनमें उत्साह का संचार करना कवयित्री का लक्ष्य है। वहाँ के प्राकृतिक वातावरण के प्रति भी अपनी चिंता जाहिर करती है। वहाँ का राग-रंग उसकी नस-नस में समाया है, अत: इसके लिए उपयुक्त वातावरण की आवश्यकता महसूस करती है। कवयित्री आशावादी है, अत: बचे हुए स्वरूप में भी वह बहुत देख लेती है। 4255 Views प्रस्तुत कविता आदिवासी समाज की किन बुराइयों की ओर संकेत करती है? प्रस्तुत कविता आदिवासी समाज की निम्नलिखित बुराइयों की ओर संकेत करती है- 1 यहाँ के लोग शहरी प्रभाव में आते चले जा रहे हैं। 2. उनके जीवन में उत्साह का अभाव झलकता है। 3. वे अपने अस्त्र-शस्त्रों को त्यागते चले जा रहे हैं। 4. उनके जीवन में अविश्वास की भावना भरती जा रही है। 662 Views ‘माटी का रंग’ प्रयोग करते हुए किस बात की ओर संकेत किया गया है? -’माटी का रंग’ प्रयोग करते हुए कवयित्री ने संथाल क्षेत्र के लोगों की मूल पहचान की ओर संकेत किया है। वह माटी से जुड़ी संस्कृति को बचाए रखने की पक्षपाती है। 779 Views इस दौर में भी बचाने को बहुत कुछ बचा है-से क्या आशय है? इस अविश्वास भरे दौर में बचाने को बहुत कुछ बचा है-इससे कवयित्री का आशय यह है कि यदि संथाली समाज अपनी बुराइयों को दूर कर ले तो उसका मूल स्वरूप बहाल हो सकता है। अभी उनका परिवेश, उनकी भाषा, संस्कृति में अधिक बिगाड़ नहीं आया है। शहरी सम्यता का प्रभाव भी अभी सीमित मात्रा में है। अत: यहाँ के मूल चरित्र को बचाए रखना पूरी तरह से संभव है। इसे बचाना ही होगा। 370 Views दिल के भोलेपन के साथ-साथ अक्खड़पन और जुझारूपन को भी बचाने की आवश्यकता पर क्यों बल दिया गया है? ’दिल के भोलेपन’ में सहजता का भाव है। ‘अक्खड़पन’ से तात्पर्य अपनी बात पर दृढ़ रहने का भाव है और ‘जुझारूपन’ में संघर्षशीलता की झलक मिलती है। ये तीनों विशेषताएँ आदिवासी समाज की विशिष्ट पहचान हैं। इनको बचाए रखना आवश्यक है। इसीलिए कवयित्री ने इन पर बल दिया है। 395 Views भाषा में झारखंडीपन से क्या अभिप्राय है? भाषा में झारखंडीपन से अभिप्राय भाषा के स्थानीय स्वरूप की रक्षा करना है। यह स्वरूप यहाँ की बोली में झलकता है। यह यहाँ की मौलिकता की पहचान है। यहाँ खड़ी बोली का प्रयोग तो बनावटीपन की झलक दे जाता है। 456 Views Table of Contents: निर्मला पुतुल जी का जन्म सन 1972 ईस्वी में झारखंड में हुआ था। यह एक आदिवासी परिवार की लड़की थी। इनका बचपन बहुत संघर्षों में
गुजरा था। वैसे तो इनका परिवार शिक्षित था, लेकिन फिर भी इनके परिवार में अकाली की समस्या के कारण इनकी पढ़ाई रुक गई। निर्मला पुतुल जी ने नर्सिंग में डिप्लोमा किया और इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी से इन्होंने स्नातक की डिग्री भी प्राप्त की। जब निर्मला जी नर्स की ट्रेनिंग ले रही थी उस दौरान इनका परिचय बाहर की दुनिया से भी हुआ। इन्होंने आदिवासी समाज के अंदर व्याप्त काफी चीजों को देखा। उनके साथ हो रहे अन्याय एवं अत्याचारों को भी करीब से उन्होंने देखा और महसूस किया। उन्हीं बातों को उन्होंने अपने कविता के माध्यम से रखने का प्रयास किया है। आदिवासी लोग किस तरीके से अपने जीवन में संघर्ष करते हैं, छोटी-छोटी चीजों से समझौता करते हैं। यह सब कुछ उनकी कविताओं में साफ साफ झलकता है। इन की प्रमुख रचनाएं- निर्मला पुतुल जी ने बहुत सारी रचनाएं रची है, जिनमें से प्रमुख है-
आओ मिलकर बचाएं कविता का सारांश- Aao Milkar Bachaye Poem Short Summaryप्रस्तुत कविता आओ मिलकर बचाएं में कवयित्री निर्मला पुतुल जी ने अपनी संस्कृति, अपने झारखंड के सभ्यता को बचाने का आह्वाहन किया है। शहरी सभ्यता के कारण झारखंड के लोग अपने निजी संस्कृति को भूलते चले जा रहे हैं। जिस कारण कवयित्री निर्मला पुतुल जी अपने झारखंड को फिर से वापस लाने के लिए, लोगों से आग्रह करती हैं कि लोग शहरी सभ्यता की आड़ में ना पले। झारखंड की संस्कृति में बहुत कुछ व्याप्त है और जब अपनी संस्कृति खूबसूरत हो, तो फिर शहरी संस्कृति को अपनाने की क्या जरूरत है। इन्हीं सब बातों की चर्चा इस संपूर्ण कविता में की गई है। अपनी बस्तियों को बचाएँ डूबने से अपने चहरे पर ठंडी होती दिनचर्या में भीतर की आग नाचने के लिए खुला आँगन बच्चों के लिए मैदान और इस अविश्वास-भरे दौर में आओ, मिलकर बचाएँ आओ मिलकर बचाएं कविता की व्याख्या- Aao Milkar Bachaye Poem Line by Line Explanationअपनी बस्तियों को बचाएँ डूबने से अपने चहरे पर व्याख्या- प्रस्तुत काव्य पंक्तियां निर्मला पुतुल जी द्वारा रचित है। यह कविता संथाली भाषा का अनुमोदित रूप है। इस कविता में कवयित्री ने अपने परिवेश की संस्कृति को बचाने का प्रयास किया है। इस कविता में कवयित्री ने शहरी वातावरण का विरोध किया है। उन्हें लगता है कि शहरी वातावरण के कारण उनकी बस्ती का वातावरण बर्बाद हो रहा है। वह अपने बस्ती को शहरी जीवन में परिवर्तित होता हुआ नहीं देख पा रही हैं। इसलिए वह लोगों का आवाहन करती हैं और कहती हैं कि हम सबको मिलकर हमारी बस्ती को बचाना चाहिए, क्योंकि यदि एक बार हमारी बस्ती को शहर की हवा लग गई, तो हमारी बस्ती पूरी तरीके से बर्बाद हो जाएगी। शहर के लोग, दूसरे लोगों का शोषण करते हैं और यही शोषण की हवा अगर हमारी बस्ती में लग जाए, तो हमारी बस्ती में भी कुछ नहीं बचेगा। सभी लोग शोषण के शिकार हो जाएंगे। कवयित्री फिर कहती हैं कि हम सबको अपनी संस्कृति को बचाना चाहिए। हम लोग संथाली लोग हैं और संथाल की मिट्टी, संथाल की भाषा हम सबके चेहरे पर साफ साफ झलकना चाहिए। हम उन शहरों के रंग में नहीं बदलने चाहिए, वरना हमारा अस्तित्व मिट जाएगा। ठंडी होती दिनचर्या में व्याख्या- प्रस्तुत काव्य पंक्तियों में कवयित्री निर्मला पुतुल जी ने यह कहा है कि शहरीकरण के कारण हमारी बस्ती की अवस्था इस कदर हो गई है। जिस तरीके से शहर के लोग अपने दिनचर्या को सही तरीके से नहीं निभाते हैं। उसी तरीके से हमारी बस्ती के लोग भी नहीं निभा पा रहे हैं। शहरीकरण के कारण हमारे बस्ती के लोगों के जीवन का उल्लास खत्म होता जा रहा है। उनके मन में जो पहले खुशियां झलकती थी, वह अब समाप्त होती जा रही है। कवयित्री कहती हैं कि लोगों को प्रयास करना चाहिए कि उनके मन में मौजूद जो उत्साह है, उनका अच्छापन का जो भाव है वह खत्म नहीं होना चाहिए। भीतर की आग व्याख्या- इन पंक्तियों के माध्यम से कवयित्री यह बताना चाहती हैं कि आदिवासी लोगों के जीवन में तीर, धनुष, कुल्हाड़ी इत्यादि का प्रयोग किया जाता है। फिर कवयित्री कहती हैं कि आदिवासी लोग जंगल, नदी, पर्वत जैसे प्राकृतिक चीजों से जन्म से जुड़े हुए होते हैं। वह कहती हैं कि मैं नहीं चाहती कि इन प्राकृतिक चीजों से हमारे बस्ती के लोग दूर हो जाए। इसलिए वह चाहती हैं कि बस्ती के लोग शहरीकरण के वातावरण में बिल्कुल भी ना ढ़ले। नाचने के लिए खुला आँगन बच्चों के लिए मैदान व्याख्या- प्रस्तुत काव्य पंक्तियों में कवयित्री कहती है कि शहरों में इतनी आबादी बढ़ चुकी है, इतने लोग बढ़ चुके हैं कि वहां पर रहने के लिए घर छोटा होता जा रहा है। वह कहती हैं यदि नाचने के लिए लोगों को खुला आंगन चाहिए, तो उनको सर्वप्रथम अपने आबादी पर नियंत्रण करना होगा। संथालियों के अपने गीत होते हैं और शहरी लोग फिल्मी गीत से ज्यादा प्रभावित होते हैं। वह लोगों को अपने गीतों से परिचित करवाना चाहती हैं, फिल्मी गीतों से नहीं। कवयित्री यह भी कहती हैं कि शहर के लोगों में तनाव ज्यादा है क्योंकि वह खुश रहना भूल गए हैं, वह अपने संस्कृति से ऐसा नहीं चाहते हैं। वह चाहती हैं उनके समाज के लोग खुलकर हंसे और तनाव से बिल्कुल मुक्त रहें। कवयित्री इसलिए शहरी वातावरण में नहीं ढलना चाहती है, क्योंकि शहर में रहने के लिए घर छोटे होते जा रहे हैं, बच्चों का खेल का मैदान गायब होता जा रहा है, पशुओं के चरने के लिए हरी घास नहीं मिल रही है और उम्र दराज के लोगों को शांत वातावरण नहीं मिल रहा है। वह अपने समाज को अपनी संस्कृति को बचाना चाहती है और इसके लिए वह सब को आगे आकर एक सामूहिक प्रयास करने के लिए आवाहन करती है। और इस अविश्वास-भरे दौर में आओ,
मिलकर बचाएँ व्याख्या- कविता के इस अंतिम छंद में कवयित्री कहती हैं कि आज संपूर्ण विश्व में एक अविश्वास का वातावरण चल रहा है। इस वातावरण में कोई भी किसी भी व्यक्ति पर विश्वास नहीं करता है। लेकिन हमें लोगों पर विश्वास करना चाहिए। यदि हम विश्वास नहीं करेंगे, तो हम जिंदगी में कैसे आगे बढ़ेंगे। हम एक की वजह से 10 लोगों को गलत नहीं समझ सकते हैं। हमें अच्छे कार्य करने होंगे और उस कार्य को करने के लिए लोगों पर थोड़ा सा विश्वास रखना ही होगा। हमें अपने थोड़े से सपनों को बचाना है, ताकि हम जो अपने अच्छे भविष्य की कल्पना कर रहे हैं, उस कल्पना के अनुसार अपने आप को ढाल सके। अंततः कवयित्री कहती हैं कि आइए हम सब मिलकर अपने संस्कृति को बचाएं। इस संस्कृति को हम ऐसा बनाएं, जिसे देखकर सभी लोग अचंभित हो जाए और हर एक व्यक्ति हमारे संस्कृति जैसे बनने का प्रयास करें। आइए हम सब अपनी सभ्यता अपनी संस्कृति जो हमारी धरोहर है, उसे बचाएं। Tags: aao milkar bachaye class 11 aao milkar bachaye class 11 summary आओ मिलकर बचाए कविता में कवित्री ने बच्चों और बड़ों के लिए क्या बचाना चाहती है?आदिवासियों की दिनचर्या का अंग धनुष, तीर, व कुल्हाड़ियाँ होती हैं। कवयित्री जंगलों की ताजा हवा, नदियों की पवित्रता, पहाड़ों के मौन, मिट्टी की खुशबू, स्थानीय गीतों व फसलों की लहलहाहट को बचाना चाहती है।
कवयित्री क्या क्या बचाना चाहती है?कवयित्री क्या-क्या बचाना चाहती है? उत्तर: कवयित्री पर्यावरण, आदिवासियों की पौराणिक संस्कृति, उनके प्राकृतिक वास अर्थात बस्ती को शहरी अपसंस्कृति से बचाना चाहती हैं। 5. कवयित्री एकांत की इच्छा क्यों करती हैं?
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