अपठित काव्यांश कक्षा 9 Hindi With Answers - apathit kaavyaansh kaksha 9 hindi with answairs

से कमज़ोर और नाशवान सहारे रूपी साँसों को प्रकट किया है जो हर समय चल तो रही हैं पर पता नहीं कब तक वे चलेंगी। 'नाव' से जीवन रूपी नौका को प्रकट किया गया है।

 

(ख) कवयित्री हर क्षण एक ही प्रार्थना करती है कि वह परमात्मा की शरण प्राप्त कर इस जीवन को त्याग दे पर ऐसा हो नहीं रहा। इसी कारण उस के हृदय से बार-बार हूक उत्पन्न होती है।

 

(ग) कवयित्री परमात्मा के पास जाना चाहती है। यह संसार तो उसका घर नहीं है। उसका घर तो वह है जहाँ परमात्मा है।

 

(घ) कवयित्री ने अपने रहस्यवादी वाख में परमात्मा की शरण प्राप्त करने की कामना की है। वह भवसागर को पार कर जाना चाहती है पर ऐसा संभव नहीं हो पा रहा। प्रतीकात्मक शब्दावली का प्रयोग सहज रूप से किया गया है। कश्मीरी से अनूदित वाख में तत्सम शब्दावली की अधिकता है। लयात्मकता का गुण विद्यमान है। शांत रस और प्रसाद गुण ने कथन को सरसता प्रदान की है। पुनरुक्ति, प्रकाश, रूपक, और अनुप्रास अलंकारों का सहज प्रयोग सराहनीय है।

 

(ङ) 'पानी टपकने' से तात्पर्य धीरे-धीरे समय का व्यतीत होना है। प्राणी जान भी नहीं पाता और उसकी आयु समाप्त हो जाती है।

 

(च) कवयित्री का घर परमात्मा के पास है। वही परमधाम है और उसे वहीं जाना है।

 

(छ) 'कच्चे सकोरे' से तात्पर्य मानवीय शरीर से है जो स्वाभाविक रूप से कमजोर है और निश्चित रूप से नष्ट हो जाने वाला है।

 

2. खा-खा कर कुछ पाएगा नहीं

न खाकर बनेगा अहंकारी,

सम खा तभी होगा समभावी

खुलेगी साँकल बंद द्वार की।

 

(क) कवयित्री ने 'न खाकर बनेगा अहंकारी' कह कर किस तथ्य की ओर संकेत किया है?

(ख) 'सम खा' से क्या तात्पर्य है?

(ग) कवयित्री किस द्वार के बंद होने की बात कहती है?

(घ) वाख में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।

(ङ) 'खा-खा कर' कुछ प्राप्ति क्यों नहीं हो पाती?

(च) मनुष्य अहंकारी क्यों बनता है?

(छ) कवयित्री क्या प्रेरणा देना चाहती है?

(ज) 'समभावी' किसे कहा जाता है?

 

उत्तर-(क) कवयित्री ने इस तथ्य की ओर संकेत किया है कि मानव ब्रह्म की प्राप्ति के लिए तरह-तरह के बाह्याडंबर रचते हैं। भूखे रह कर व्रत करते हैं पर इससे उन में संयमी बनने और अपने शरीर पर नियंत्रण प्राप्त करने का अहंकार मन में आ जाता है।

 

(ख) 'सम खा' से तात्पर्य मन का शमन करने से है। इससे अंत: करण और बाह्य-इंद्रियों के निग्रह का संबंध है।

 

(ग) कवयित्री मानव मन के मुक्त न होने तथा उस की चेतना के संकुचित होने को 'द्वार के बंद होने से' संबोधित करती है।

 

(घ) संत ललद्यद जीवन में बाह्याडंबरों को महत्त्व न देकर समभावी बनने का आग्रह करती है। उपदेशात्मकता की प्रधानता है। कश्मीरी से अनूदित वाख में संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है। पुनरुक्ति प्रकाश, रूपक और अनुप्रास अलंकारों का सहज प्रयोग किया गया है। लाक्षणिकता ने कथन को गहनता प्रदान की है। प्रसाद गुण और शांत रस की प्रधानता है। प्रतीकात्मकता ने कथन को गंभीरता प्रदान की है।

 

(ङ) 'खा-खा कर' कुछ प्राप्त नहीं हो पाता। यह भोग-विलास का प्रतीक है। जीवात्मा जितनी भोग-विलास में लिप्त होती जाती है उतनी ही परमात्मा से दूर होती जाती है। वह ईश्वर की ओर अपना मन लगा ही नहीं पाता और ईश्वर को पाए बिना वह कुछ नहीं पाता।

 

(च) इंद्रियों पर संयम रखने और तपस्या का जीवन जीने से मनुष्य स्वयं को महात्मा और त्यागी मानने लगता है और इससे वह अहंकारी बनता है।

 

(छ) कवयित्री प्रेरणा देना चाहती है कि मानव को अपने जीवन में सहजता बनाए रखनी चाहिए। संयम का भाव श्रेष्ठ होता है और इसी से वह ईश्वर की ओर उन्मुख हो सकता है।

 

(ज) समभावी वह है जो भोग और त्याग के बीच के रास्ते पर आगे बढ़े।

 

3. आई सीधी राह से, गई न सीधी राह,

सुषुम-संत पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह।

जेब टटोली कौड़ी न पाई।

माझी को दें, क्या उतराई?

 

(क) 'गई न सीधी राह' से क्या तात्पर्य है?

(ख) 'माझी' और 'उतराई' क्या है?

(ग) कवयित्री को जेब टटोलने पर कौड़ी भी क्यों न मिली?

(घ) वाख में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।

(ङ) मनुष्य मन ही मन भयभीत क्यों हो जाता है?

(च) 'सुषुम-सेतु' क्या है?

(छ) कवयित्री का दिन कैसे व्यतीत हो गया?

 

उत्तर-(क) 'गई न सीधी राह' से तात्पर्य है कि संसार के मायात्मक बंधनों ने मुझे अपने बस में कर लिया और मैं चाहकर भी परमात्मा को प्राप्त करने के लिए भक्ति मार्ग पर नहीं बढ़ी। मैंने सद्कर्म नहीं किया और दुनियादारी में उलझी रही।

 

(ख) 'माझी' ईश्वर है; गुरु है जिसने इस संसार में जीवन दिया था और जीने की राह दिखाई थी। 'उतराई' सद्कर्म रूपी मेहनताना है जो संसार को त्यागते समय मुझे माझी रूपी ईश्वर को देना होगा।

 

(ग) कवयित्री ने माना है कि उसने कभी आत्मालोचन नहीं किया ; सद्कर्म नहीं किए। केवल मोह-माया के संसार में उलझी रही इसलिए अब उसके पास कुछ भी ऐसा नहीं है जो उसकी मुक्ति का आधार बन सके।

 

(घ) संत कवयित्री ने स्वीकार किया है कि वह जीवन भर मोह-माया में उलझकर परमात्मा तत्व को नहीं पा सकी। उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया जो उसे भक्ति मार्ग में उच्चता प्रदान करा सकता। वह तो सांसारिक छल-छद्मों की राह पर ही चलती रही। प्रतीकात्मकता ने कवयित्री के कथन को गहनता प्रदान की है। अनुप्रास और स्वरमैत्री ने कथन को सरसता दी है। लाक्षणिकता के प्रयोग ने वाणी को गहनता-गंभीरता से प्रकट किया है। 'सुषुम-सेतु' संतों के द्वारा प्रयुक्त विशिष्ट शब्द है।

 

(ङ) परमात्मा जब मानव को धरती पर भेजता है तो वह साफ़-स्वच्छ मन का होता है पर दुनियादारी उसे बिगाड़ देती है। वह सद्कर्मों से दूर हो जाता है जिस कारण वह अपने मन ही मन भयभीत होता है कि परमात्मा के पास वापस जाने पर वहाँ क्या बताएगा? भवसागर से पार जाने के लिए सद्कर्म ही सहायक होते हैं।

 

(च) हठयोगी सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से कुंडलिनी जागृत कर परमात्मा को पाने की योग साधना करते 'सुषुमसेतु' सुषुम्ना नाड़ी की साधना को कहते हैं।

 

(छ) कवयित्री ने अपना दिन (जागृत अवस्था) व्यर्थ की हठयोग-साधना में व्यतीत कर दिया।

 

4. थल-थल में बसता है शिव ही,

भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां।

ज्ञानी है तो स्वयं को जान,

वही हैं साहिब से पहचान॥

 

(क) कवयित्री के द्वारा परमात्मा के लिए 'शिव' प्रयुक्त किए जाने का मूल आधार क्या है?

(ख) भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां' में निहित अर्थ स्पष्ट कीजिए।

(ग) ईश्वर वास्तव में कहाँ है?

(घ) वाख में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।

(ङ) ईश्वर की पहचान कैसे हो सकती है?

(च) कवयित्री सांप्रदायिक भेद-भाव को दूर किस प्रकार करती है?

(छ) ज्ञानी को क्या जानने की प्रेरणा दी गई है?

(ज) कवयित्री ईश्वर के विषय में क्या मानती थी?

 

उत्तर-(क) कवयित्री शैव मत से संबंधित शैवयोगिनी थी। उस के चिंतन का आधार शैव-दर्शन था इसलिए उसने परमात्मा के लिए 'शिव' प्रयुक्त किया है।

 

(ख) परमात्मा सभी के लिए एक ही है। चाहे हिंदू हों या मुसलमान। उनके लिए परमात्मा के स्वरूप के प्रति कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। उपदेशात्मक स्वर में यही स्पष्ट किया गया है कि धर्म के नाम पर परमात्मा के प्रति आस्था नहीं बदलनी चाहिए।

 

(ग) ईश्वर वास्तव में संसार के कण-कण में समाया हुआ है। वह तो हर प्राणी के शरीर के भीतर भी है इसलिए उसे कहीं बाहर ढूंढ़ने की आवश्यकता नहीं है। उसे तो अपने भीतर से ही पाने की कोशिश की जानी चाहिए।

 

(घ) कवयित्री ने भेदभाव का विरोध तथा ईश्वर की सर्वव्यापकता का बोध कराने का प्रयास उपदेशात्मक स्वर में किया है और माना है कि ईश्वर संसार के कण-कण में विद्यमान है। उसे पाने के लिए आत्मज्ञान की आवश्यकता है। पुनरुक्ति प्रकाश और अनुप्रास अलंकारों का सहज प्रयोग किया गया है। अभिधा शब्द शक्ति ने कथन को सरलता-सरसता प्रदान की है। शांत रस और प्रसाद गुण विद्यमान हैं। अनुदित अवतरण में तत्सम शब्दावली का प्रयोग अधिक है।

 

(ङ) ईश्वर की पहचान अपनी आत्मा को पहचानने से संभव हो सकती है। आत्मज्ञान ही उसकी प्राप्ति का एकमात्र रास्ता है।

 

(च) कवयित्री सांप्रदायिक भेद-भाव को सर्वकल्याण के भाव से करती है। हिंदू-मुसलमान दोनों शिव-आराधना से आपसी दूरियाँ मिटा सकते हैं।

 

(छ) कवयित्री के द्वारा व्यक्ति को अपने आप को पहचानने की प्रेरणा दी गई है। अपने भीतर स्थित आत्मा को पहचानने के पश्चात् ही ईश्वर को पाया जा सकता है।

 

(ज) संत कवयित्री ललद्यद ने शैव-दर्शन के आधार पर चिंतन किया था। वह मानती है कि परमात्मा शिव रूप में संसार के कण-कण में विद्यमान है।