मुहावरा और उनके अर्थ 1. छाती चौड़ी होना- प्रसनन्ता या गर्व महसूस करना। 2. कथनी करनी एक होना- जो कहना वही करना। 3. सिर पर पांव रखकर भागना- तेजी से भागना 4. आंख में खटकना- अप्रिय लगना। 5. लोहा लेना- मुकाबल या युद्व करना। 6. प्राण फूंकना- जोश भरना। 7. साक्षात चंडी-सी- अत्यधिक क्रोधित स्त्री। 8. मंत्रमुग्ध होना- अत्यधिक प्रभावित होना। 9.आंख के आगे अंधेरा छाना- दिखाई न पड़ना। 10- अकल ठिकाने लगाना- सबक सिखाना। 11- अवस्था ढलना- बूढ़ा होना। 12. कीमत पहचानना- महत्व ज्ञात होना। 13. खून में उबाल आना- जोश में आना। 14. गोद सुनी होना- संतान की मृत्यु होने। 15. घर करना- मन को भा जाना। 16. चिंता की छाया- हानि की आशंका। 17. जीवन से हाथ धोना- जान गंवाना। 18. कार्य सिद्ध होना- काम बन जाना। 19. कलेजा धड़कना- घबराना। 20. खून की नदी बहाना- बाहुतेरों की हत्या करना। 21. दुनिया से कूच करना- मृत्यु होना। 22. दिल दुखाना- कष्ट पहुंचाना। 23. दिल हल्का करना- दुःख कम होना। 24. दम लेना- सुस्ताना,विश्राम लेना 25.दस्तक देना- खटखटाना। 26. धावा बोलना- हमला करना। 27. नाक में दम होना- परेशान होना। 28. पीठ ठोंकना- शाबाशी देना,उत्साहित करना। 29. बगुलों में हंस- मूर्खों में होशियार। 30. भांप जाना- छिपी बात जान लेना। 31. मूँह मोड़ना- सहायता न करना। 32.मन मोह लेना- आकर्षित कर लेना। 33. मिट्टी में मिल जाना- नष्ट हो जाना। 34. सीने में दिल न समाना- अत्यधिक प्रसन्न होना। 35. साहस न छोड़ना- हिम्मत न हारना। 36.शीश चढ़ाना- प्राण उत्सर्ग कर देना। 37.हिम्मत न हारना- साहस /धैर्य न खोना। 38. हृदय पर सांप लोटना- जलन होना। 39. भाग्य पर इठलाना- बिना प्रयास प्राप्त उपलब्धि पर गर्व करना। 40. नौ दो ग्यारह होना- तेजी से भागना। 41.उँगली उठाना- दोष लगाना। 42. उल्टी गंगा बहना- नियम विरोधी काम करना 43.उल्लू बनाना- मूर्ख बनाना। 44. कलई खुलना- पोल खुलना। 45. कान खड़े होना- सावधान हो जाना। 46. कोल्हू की बैल- सदा काम में लगे रहना। 47. ईंट का जवाब पत्थर से देना- शत्रु को कड़ा जवाब देना। 48.आस्तीन का सांप- कपटी मित्र। 49. आसमान सिर पर उठाना-अत्यधिक शोर करना। 50. अगर-मगर करना- टाल-मटोल करना। हंस लोक साहित्य में प्रचुर मात्रा में पाये जाते है। कुछ हंस और सरोवर के संवाद के है, कुछ काग और हंस की तुलनात्मकता के है, कुछ में हंस और तरूवर या पेड़ का संवाद है कुछ में हंस और बगुले का संवाद इत्यादि है। हंस और बगुला दोनों ही श्वेत होते हैं, पर हंस तो गुणग्राही और सज्जन होता है जबकि बगुला कुटिल, शठ होता है। गुसाई जी ने अपने महाकाव्य रामकथा को “रामचरितमानस” नाम देकर राम के चरित को मानसरोवर का रूपक देकर अप्रत्यक्ष रूप से पाठक और श्रोताऔं को एक गुणी मराल (हंस) के रूप में महिमान्वित किया है। “मानस का हंस” सुविख्यात लेखक अमृतलाल नागर का व्यापक प्रतिष्ठित बृहद हिंदी उपन्यास है जिसे गौस्वामी तुलसीदास के जीवन को आधार बनाकर रचा गया है। इस उपन्यास में गुसाईजी का जो चरित्र चित्रण किया गया है वह सहज मानवीय है। यह उपन्यास हिन्दी के क्लासीकल उपन्यासों में शुमार है और हिन्दी साहित्य के मानसरोवर का एक अप्रतिम मौक्तिक है। हंस और मानसरोवर का लोभ संवरण करने से ज्यादातर साहित्यकार खुदको रोक नहीं पाए है। आज मैं भी हंस, सरोवर, तरूवर और बगुला आदि पात्र/प्रतीकों से रचे गढे पुराने कवियों के कतिपय दोहे रूपी मौक्तिक आप सभी गुणीजन-पाठक-मराल के लिए राजस्थानी साहित्य/लोक साहित्य के मानसरोवर से चुन चुन कर प्रस्तुत कर रहा हूं। सुण समदर सौ जोजना,
लीक छोड़ मत जाह। हीलोल़ा दरियाव रा, झाझा हंस सहंत। हूंती मोटी आस, सायर झीलेवा तणी। मान सरोवर मांय, बग मराल़ भेल़ा वसै। संत कवि दादूदयाल जी इसी भाव को अपने दोहों के माध्यम से कुछ यूं बयां करते है। दादु हंस मोती चुगै, मान सरोवर न्हाय। दादु हंस मोती चुगै, मान सरोवर न्हाय। मान सरोवर मांय, सीपां रा मोती चुगै। सरोवर सूख गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि हंसों का संपोषक संवर्धक आज इस हालत में नहीं की उन की मान मनुहार और आवाभगत या स्वागत शुश्रुषा कर सके। कवि जब यह दृष्य देखता है तो कहे बिना नहीं रहता। कवि के शब्दों मे सरवर वै इज हे सखी!, हंसा करत हुलास। मन चाह्या मोती चुग्या, वधी प्रीत विख्यात। हंस ने मानसरोवर को छोड़ दिया है। अर्थात् किसी गुणीजन के वहां से प्रतिभा का पलायन हुआ है। तो कवि आश्चर्य चकित होकर पुछता है। मोती चुगणा मनसमा, सुख झाझौ नह साल। तो कवि को दुसरे दोहे में उसका जवाब मिलता है। विण सोभा दीसै बुरा, मांनसरोवर मित्त। मालै चुगता मोतियां, मुधरै बोल मराल। हंस और मानसरोवर के दोहों के साथ साथ हंस और तरूवर के दोहै भी राजस्थानी भाषा में पाये जाते है। पंछी जब तरुवर पर बैठता है तो तरूवर हिल जाता है या डगमगा जाता है। कहने का मतलब आश्रयदाता को अच्छा नहीं लगता आगंतुकों का आना। तब (हंस)पक्षी रूपी आगंतुक क्या कहते है जरा आप भी सुनें। डिगै मती रे तरवरां, मन में रहे सधीर। तब हंस को तरूवर जवाब देता है कि हे हंसा तू जो मुझे समझ रहा है वह नहीं हूं। तेरा भार वहन करने की क्षमता हे हंसा मुझमें नहीं है। म्है तो हंसा इरंड हां, बिट्टा पन मत देख। जंगल में दावानल प्रज्वलित हो उठा। सारा जंगल धू धू करता अग्नि की लपटों में समाहित हो भस्म होने लगा। चंदन का वृक्ष जिस पर कई हंसों नें अपना डेरा बना रखा था वह भी जलने लगा। लोक कवि चंदन के वृक्ष की उक्ति के स्वरूप में कहते है। आग लगी नवखंड़ में, दाझ्या चंदण वंस। तब वह हंस जवाब देता है। पांन मरोड्या रस पिया, बैठा इक इक ड़ाल़। ~~नरपत आसिया “वैतालिक”
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