भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुए 72 वर्ष हो चुके हैं। लेकिन यह अपनी अर्थव्यवस्था के संदर्भ में कैसे आगे
बढा है? आइए एक नजर डालते हैं। स्वतंत्रता के बाद से भारत के विकास की कहानी काफी साधारण रही है। दशकों तक बंद अर्थव्यवस्था का पालन करने के बाद, पीवी नरसिम्हा राव सरकार के कार्यकाल में आए उदारीकरण के दौर के बाद निजी और विदेशी दोनों तरह के निवेशों की बाढ आ गई। यह देश को प्रगति के एक सही राह पर लेकर आया। पूर्व पत्रकार, रिसर्चर और लेखक गौतम चिकरमाने ने अपनी किताब 70 पॉलिसीज दैट शैप्ड इंडिया: 1947 टू 2017 में इसे बहुत बेहतरीन तरीके से संकलित किया है। वे लिखते हैं, “यदि कहा जाए कि 1956 औद्योगिक नीति ने भारत अर्थव्यवस्था को बढने से रोक दिया था, तो वहीं 1991 की औद्योगिक नीति ने भारतीय अर्थव्यवस्था के आगे बढने के सभी रास्ते खोल दिए थे।” आज, भारत- जिसकी ग्रोथ रेट 2020 में 7% छूने की संभावना है, इसे एक उभरता हुआ बाजार माना जा रहा है। चीन, रूस और ब्राजील के साथ, भारत दुनिया की सबसे बडी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। (उभरते बाजार वे विकासशील अर्थव्यवस्थाएं हैं जिन्होंने विकसित राष्ट्र के रूप में आगे बढने के संकेत दिए हैं। इनमें से कुछ आर्थिक संकेतकों में स्वस्थ जीडीपी वृद्धि दर, नियामक संस्था की उपस्थिति, तरलता और देश के वित्तीय बाजार शामिल हैं।) इन-बिल्ट बफर आज जब भारत ने स्वतंत्र शक्ति होने के 72 वें वर्ष में प्रवेश किया है, यह याद रखना महत्वपूर्ण है
कि आर्थिक तस्वीर हमेशा से खुशनुमा नहीं थी। देश की अर्थव्यवस्था को धीमी गति से आगे बढते एक हाथी जैसा माना जाता था, देश की इस धीमी प्रगति को ‘हिन्दू विकास दर’ कहा जाता था। दिलचस्प बात यह है कि, यह नेहरू की रूढिवादी नीतियों की विरासत और भारत के 1991 के बाद के वैश्विक दृष्टिकोण का दोहरा प्रभाव था, जिसने यह सुनिश्चित किया कि देश 2008 के वैश्विक मंदी के कारण बडे पैमाने पर प्रभावित नहीं हो। बाद के दशकों में, भारतीय सोच में यह रूढिवादी दृष्टिकोण इतनी हद तक समा गया कि सभी बैंक और वित्तीय संस्थान जोखिम भरे उन उपक्रमों से दूर रहे जो अन्य जगहों पर वित्तीय संस्थानों के लिए हानिकारक साबित हुए और यही उन्हें 2008-2015 की मंदी की ओर ले गया। इसने विकसित अर्थव्यवस्थाओं में हुए वित्तीय उथल-पुथल के प्रभाव को कम करने में मदद की। साथ ही, आर्थिक मंदी के समय, भारत अन्य देशों के मुकाबले वैश्विक व्यापार और पूंजी पर बहुत कम निर्भर था। उदाहरण के लिए, भारत का विदेशी व्यापार चीन के 75% के मुकाबले अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 20% था। विशाल घरेलू बाजार, जिसमें जीडीपी का शेष हिस्सा समाहित था, उसने अर्थव्यवस्था की गति को बनाए रखा। ऐसा इसलिए क्योंकि मंदी के दौर में भी भारतीय निर्माता स्थानीय मांग को पूरा करने के लिए वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करते रहे। घरेलू निवेशकों ने भी अपना धन स्थानीय स्तर पर निवेश किया। यह सब 1991 की पॉलिसी में आए बदलाव के कारण संभव हुआ जिसमें निजी निवेश से बंधनों को हटा दिया था। एनआरआई-अनुकूल नीतियों ने यह सुनिश्चित करने में मदद की कि भारतीय प्रवासियों द्वारा भेजा जाने वाला धन लगातार बढता रहे। यह 2009-2009 में बढकर 46.4 बिलियन डॉलर पहुंच गया। वास्तव में, इन्हीं नीतियों ने यह सुनिश्चित किया कि आने वाले कई वर्षों तक भारत विदेशों से सबसे ज्यादा धन पाने वाला देश बना रहा। यह मूल्य 2018 में 75 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया। नतीजतन, घरेलू उपभोग में वृद्धि हुई, जिससे घरेलू उत्पादक 2008-2009 में तेजी से उत्पादन
करते रहे। 2008-2009 में भारत की जीडीपी विकास दर 6.7% थी, जबकि दूसरी ओर वैश्विक संकट दुनिया की अधिकांश अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित कर रहा था। लाइसेंस राज उस समय जब भारत ने अपनी पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56) शुरू की, जिसमें मुख्य रूप से राष्ट्रीय खाद्य उत्पादन बढाने पर ध्यान केंद्रित किया गया, जवाहरलाल नेहरू सरकार ने औद्योगिक (विभाग और विनियमन) अधिनियम, 1951 भी लागू किया। आम बोलचाल की भाषा में इसे आईडीआर अधिनियम 1951 के रूप में जाना जाता है, इसने सरकार को लाइसेंसिंग के माध्यम से औद्योगिक विकास के पैटर्न को विनियमित करने का अधिकार दिया था। 1951 के इस अधिनियम ने "लाइसेंस राज" को जन्म दिया – यह लाइसेंस, विनियमों और साथ में लालफीताशाही की एक विस्तृत प्रणाली थी जो एक औद्योगिक इकाई स्थापित करने और चलाने के लिए आवश्यक थी – इसी के चलते बाद में बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों का राष्ट्रीयकरण हुआ। इस प्रकार, 1955 में इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया का भारतीय स्टेट बैंक के रूप में राष्ट्रीयकरण कर दिया गया, वहीं 1956 में 200 बीमा कंपनियों और प्रोविडेंट सोसाइटियों को मिलाकर लाइफ इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन (एलआईसी) का गठन किया गया। 1956 में, सरकार ने औद्योगिक नीति प्रस्ताव की भी घोषणा की, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को बढाने की बात कही गई थी। वहीं निजी क्षेत्र से जहां संभव हो वहां निवेश कर सहयोग करने की बात कही गई थी। इस कार्यक्रम के तहत, 1956 के संकल्प ने उद्योग को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया: अनुसूची ए, बी और सी उद्योग। ये इस प्रकार विभाजित थे:
लेकिन भारत को आगे बढाने के बजाय, इस समाजवादी वर्गीकरण और उद्योग के लाइसेंस में तीन कमियां थीं जिन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था को जंजीरों में जकड़ लिया था:
1991 उदारीकरण 1991 में एक गंभीर विदेशी मुद्रा भंडार के संकट का सामना करते हुए, पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार ने एक नई आर्थिक नीति की घोषणा की, जिसमें लाइसेंस राज को समाप्त कर दिया गया, राज्य-नियंत्रित उद्योगों को विदेशी प्रौद्योगिकी निवेश के लिए खोला गया, और अनुचित व्यापार प्रथाओं को विनियमित करने के लिए कदम उठाए गए। नई नीति ने दिखाया कि भारत पहली बार जीडीपी वृद्धि और औद्योगिक दक्षता को बढाने के बारे में गंभीर हो गया था। जिन क्षेत्रों में यह देखा गया वे थे:
ये क्रांतिकारी कदम थे जिन्होंने चार दशकों में निर्मित प्रणालीगत कमियों को दूर किया और 1991 के बाद भारत में उद्योग को पनपने में मदद की, जिससे यह एक ऐतिहासिक नीति बन गई। वित्तीय बाजार वित्तीय क्षेत्र में भी सुधार लाए गए। 2011 में जारी एक रिपोर्ट में एशियाई विकास बैंक ने इसके बारे में बताया था। इसमें कहा गया था कि "भारत विश्व आर्थिक विकास में
महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है, इसलिए, यह देखना महत्वपूर्ण है कि भारत में वित्तीय विकास किस तरीके से हुआ है।" उदाहरण के लिए, सिक्योरिटी मार्केट में, इसने विभिन्न क्षेत्रों जैसे कि रेग्युलेटर, सिक्योरिटीज का रूप, उनके मूल्य निर्धारण, मध्यस्थ, डिस्क्लोजर मानदंड और अंतर्राष्ट्रीय बाजार तक पहुंच आदि के लिए 2009 की
स्थिति की तुलना 1992 की स्थिति से की। नियामक
सिक्योरिटीज़ का स्वरूप
मध्यस्थ केवल कुछ मध्यस्थ (स्टॉकब्रोकर, अधिकृत क्लर्क), जिन्हें एसआरओ (स्व-नियामक संगठन) द्वारा रेग्युलेट किया गया था;
बाज़ार में पहुंच
अंतर्राष्ट्रीय बाजार तक पहुंच
निष्कर्ष भारत ने केंद्र में सत्तारूढ दलों में बदलाव के बावजूद 1991 से बाजार संचालित अर्थव्यवस्था का अनुसरण किया है। इसके अनुरूप, नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल में वर्तमान सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में देश में उद्यमिता की संस्कृति को बढावा देने की कोशिश की है। इस प्रयास के तहत, इसने कई कार्यक्रम शुरू किए हैं। इनमें से एक, "मेक इन इंडिया" पहल है जिसका उद्देश्य भारत को वैश्विक विनिर्माण केंद्र में बदलना है, वहीं "स्टैंडअप इंडिया" अभियान उद्यमिता और रोजगार सृजन को बढावा देना चाहता है। अपने पहले कार्यकाल में, मोदी ने काले धन के खिलाफ एक अभियान चलाया और भारत की जटिल कर प्रणाली को सरल बनाने की कोशिश की। उन्हें बडे जनादेश के साथ दूसरे कार्यकाल के लिए दोबारा वोट दिया गया है। अर्थव्यवस्था को मजबूत विकास की धुरी पर लाने के लिए अधिक साहसिक उपायों की उम्मीद की जा सकती है। इन्हें देखें सरकार की आर्थिक विकास और वित्तीय स्थिरता की सहायता के लिए 7 योजनाएँ जिनसे आप लाभ उठा सकते हैं। स्वतंत्रता के समय भारतीय उद्योगों की क्या स्थिति थी?उत्तर: स्वतंत्रता के समय भारत की औद्योगिक स्थिति अच्छी नहीं थी क्योंकि भारत के ब्रिटिश शासन द्वारा वि-औद्योगीकरण (De-industrialization) किया गया; जिसका उद्देश्य भारत को केवल कच्चे माल का निर्यातक बनाना तथा निर्मित माल का आयातक बनाना था।
स्वतंत्रता के बाद से अर्थव्यवस्था में कैसे बदलाव हुए?खेती ही भारत के आत्मनिर्भर होने का मूल आधार थी लेकिन अंग्रेजों ने भारत की अर्थव्यवस्था को नष्ट करने के लिए भूमि व्यवस्था को बदलकर जमींदारी प्रथा आरंभ की। इससे वास्तविक किसान निरंतर गरीब होते रहे। खेती पर देश की आत्मनिर्भरता नष्ट होती गई। भारत में किसान आंदोलन का लगभग 200 वर्षों का इतिहास है।
1947 के बाद भारत में क्या परिवर्तन आये?स्टार्टअप से बढ़ रहे रोजगार के अवसर
आज़ादी के कई सालों बाद तक भी भारत में अपना स्टार्टअप शुरू करने के बारे में बहुत कम लोग ही सोचते थे। लेकिन आज भारत में स्टार्टअप की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 के मुताबिक, देश में 61,400 पंजीकृत स्टार्टअप हैं।
स्वतंत्रता के बाद भारत का क्या योगदान है?अंग्रेज़ों ने 1850 में भारत में रेलों का आरंभ किया। यही उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान माना जाता है।
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