These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Geography. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 7 Landforms and their Evolution (भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास) Show पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर 1. बहुवैकल्पिक प्रश्न प्रश्न (ii) एक गहरी घाटी जिसकी विशेषता सीढ़ीनुमा खड़े ढाल होते हैं, किस नाम से जानी जाती है? प्रश्न (iii) निम्न में से किन प्रदेशों में
रासायनिक अपक्षय प्रक्रिया यान्त्रिक अपक्षय प्रक्रिया की अपेक्षा अधिक़ शक्तिशाली होती है? प्रश्न (iv) निम्न में से कौन-सा वक्तव्य लैपीज (Lapies) को परिभाषित करता है? प्रश्न (v) गहरे, लम्बे व विस्तृत गर्त या बेसिन जिनके शीर्ष दीवारनुमा खड़े ढाल वाले व किनारे खड़े व अवतल होते हैं उन्हें क्या कहते हैं? 2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 30 शब्दों में दीज़िए प्रश्न (ii) घाटी रन्ध्र अथवा युवाला का विकास कैसे होता है? प्रश्न (iii) चूनायुक्त चट्टानी प्रदेशों में धरातलीय जल प्रवाह की अपेक्षा भौमजल प्रवाह अधिक पाया जाता है, क्यों? प्रश्न (iv) हिमनद घाटियों में कई रैखिक निक्षेपण स्थलरूप मिलते हैं। इनकी अवस्थिति के नाम बताएँ। प्रश्न (v) मरुस्थली क्षेत्रों में पवन कैसे अपना कार्य करती है? क्या
मरुस्थलों में यही एक कारक अपरदित स्थलरूपों का निर्माण करता है? 3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 150 शब्दों में दीजिए (i) आई व शुष्क जलवायु प्रदेशों में प्रवाहित जल ही सबसे महत्त्वपूर्ण भू-आकृतिक कारक है। विस्तार से वर्णन करें। (ii) चूना चट्टानें आई व शुष्क जलवायु में भिन्न व्यवहार करती हैं, क्यों? चूना प्रदेशों में प्रमुख व मुख्य भू-आकृतिक प्रक्रिया कौन-सी है और इसके
क्या परिणाम हैं? (iii) हिमनद ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों को निम्न पहाड़ियों व मैदानों में कैसे परिवर्तित करते हैं या किस प्रक्रिया से यह कार्य संपन्न होता है, बताइए? परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर || बहुविकल्पीय प्रश्न प्रश्न 1. मरुस्थलों में कोमल और कठोर शैलों के लम्बवत् एकान्तर क्रम
से स्थित होने पर बनते हैं प्रश्न 2. अन्धी घाटियाँ अपरदन के किस कारक से उत्पन्न होती हैं? प्रश्न 3. निम्नलिखित में से कौन-सी आकृति वायु द्वारा बनती है? | प्रश्न 4. यारडंग का सम्बन्ध निम्नलिखित में से अपरदन के किस अभिकर्ता से है? प्रश्न 5. निम्नलिखित में से कौन-सी आकृति नदी के कार्य द्वारा बनती है? प्रश्न 6. अपक्षेप मैदान का सम्बन्ध निम्नलिखित
में से अपरदन के किस अभिकर्ता से है? प्रश्न 7. ‘यू’ -आकार की घाटी का सम्बन्ध निम्नलिखित में से अपरदन के किस अभिकर्ता से है? प्रश्न 8. “बालुका-स्तूप” का सम्बन्ध निम्नलिखित अपरदन अभिकर्ताओं में से किस अभिकर्ता से है? प्रश्न 9. निम्नलिखित स्थलाकृतियों में से कौन एक नदी के अपरदन कार्य से सम्बन्धित है? प्रश्न 10. निम्नलिखित में से कौन-सी स्थालाकृति हिमानी के अपरदन से बनी है? प्रश्न 11. प्राकृतिक पुल अपरदनात्मक स्थलरूप है प्रश्न 12. निम्नलिखित में से कौन-सी स्थलाकृति नदी द्वारा निर्मित है? प्रश्न 13. हिमोढ़ के निर्माण के लिए निम्नलिखित में से कौन अभिकर्ता उत्तरदायी है? प्रश्न 14. ‘बरखान का सम्बन्ध निम्नलिखित अपरदन अभिकर्ताओं में से किससे है? प्रश्न 15. निम्नलिखित में से किस स्थलरूप का निर्माण हिमानी द्वारा किया गया है? प्रश्न 16. निम्नलिखित स्थलाकृतियों में से कौन भूमिगत जल का अपरदनात्मक कार्य है? अतिलघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. टार्न क्या है? इसका निर्माण कैसे होता है? प्रश्न 2. इन्सेलबर्ग क्या है? ये कहाँ मिलते हैं? प्रश्न 3. अपरदन के कारकों का नामोल्लेख कीजिए। प्रश्न
4. नदी का अपरदन कितने प्रकार का होता है?
प्रश्न 5. बहते हुए जल (नदी) की अपरदन क्रिया से उत्पन्न दो स्थलाकृतियों के नाम लिखिए। प्रश्न
6. नदी के दो निक्षेपणात्मक आकारों का उल्लेख कीजिए। प्रश्न 7. लटकती घाटी अपरदन के किस साधन से उत्पन्न होती है? प्रश्न 8. हिमोढ अपरदन के किस कारक द्वारा निर्मित होते हैं? प्रश्न 9. कार्ट स्थलाकृतियाँ कहाँ पायी जाती
हैं? प्रश्न 10. बालुका-स्तूप कहाँ और कैसे बनते हैं? प्रश्न 11. कन्दरा स्तम्भ कैसे बनते हैं? प्रश्न 12.
नदी की जीर्णावस्था (वृद्धावस्था) में बनने वाली किसी एक आकृति का उल्लेख कीजिए। प्रश्न 13. गंगा-ब्रह्मपुत्र का डेल्टा किस प्रकार की डेल्टा है? प्रश्न 14. पंजाकार डेल्टा का एक उदाहरण दीजिए। प्रश्न 15. हिमानी द्वारा
निर्मित मुख्य अपरदनात्मक स्थलाकृतियों के नाम बताइए। प्रश्न 16. वायु द्वारा निर्मित मुख्य अपरदनात्मक स्थलाकृतियों के नाम बताइए। प्रश्न 17. जलोढ़
पंख से क्या अभिप्राय है? प्रश्न 18. नदी की युवावस्था में बनने वाली दो आकृतियों का उल्लेख कीजिए। प्रश्न 19. नदी की प्रौढावस्था में बनने वाली दो आकृतियों का उल्लेख कीजिए। प्रश्न 20. हिमानी के निक्षेपण कार्य से निर्मित दो भू-आकृतियों का उल्लेख कीजिए। प्रश्न 21. ‘यू’ आकार की घाटी की किन्हीं दो विशेषताओं को लिखिए। प्रश्न 22. बरखान का निर्माण किस क्रिया द्वारा होता है ? प्रश्न 23. अन्धी घाटी किसे कहते हैं ? प्रश्न
24. हिमरेखा क्या होती है? प्रश्न 25. पाश्विक हिमोढों का आधिक्य कहाँ मिलता है? प्रश्न 26. हिमानी जलोढ़ निक्षेप द्वारा कौन-कौन-सी स्थलाकृतियाँ बनती हैं? प्रश्न 27. हिमनद कटक (एस्कर) क्या व कैसे बनते हैं? प्रश्न 28. डेल्टा और एस्चुअरी में अन्तर बताइए। प्रश्न 29. घोल रन्ध्र (स्वालो होल्स) से सम्बन्धित स्थलाकृतियों के नाम लिखिए। लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न
1. नदी की प्रौढावस्था का विवरण दीजिए। प्रश्न 2. नदी के निक्षेपणात्मक कार्य का विवरण दीजिए। प्रश्न 3. नदी के परिवहन सम्बन्धी कार्य को समझाइए। परिवहन = नंदी की कुल शक्ति – घर्षण में नष्ट शक्ति – अपरदन में नष्ट शक्ति गिलबर्ट के अनुसार नदी की परिवहन शक्ति उसके वेग में छठे घात के तुल्य होती है अर्थात् यदि नदी । का वेग दुगुना हो जाए तो उसकी परिवहन शक्ति 64 गुना बढ़ जाती है। प्रश्न 4. नदी के अपरदनात्मक कार्य से उत्पन्न दो स्थलाकृतियों की विवेचना कीजिए। 2. जल-प्रपात-पर्वतीय क्षेत्रों में नदी द्वारा निर्मित जल-प्रपात एक प्रमुख स्थलाकृति है। जब नदी ऊँची पर्वत-श्रेणियों से नीचे की ओर प्रवाहित होती है, तो धरातलीय ढाल की असमानता के कारण मार्ग में अनेक जल-प्रपात या झरने बनाती है, परन्तु यदि उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में नदी के प्रवाह-मार्ग में कोमल एवं कठोर चट्टाने एक साथ आ जाएँ तो जल कोमल चट्टानों का आसानी से अपनदन कर
देता है जबकि कठोर चट्टानों को अपरदन करने में वह सफल नहीं हो पाता। इस प्रकारे प्रवाहित जल अकस्मात ऊँचाई से नीचे की ओर गिरने लगता है जिसे जल प्रपात या झरना प्रश्न 5. नदी के निक्षेपण कार्य द्वारा निर्मित डेल्टा के मुख्य प्रकार बतलाइए। 2. पंजाकार डेल्टा-सागर में मिलने से पूर्व नदी की धारा अनेक उपशाखाओं में बँट जाती है। प्रत्येक शाखा के पाश्र्वो पर महीन अवसाद का निक्षेप हो जाता है। यह निक्षेप पक्षियों के पंजे की भाँति दिखलाई पड़ता है, जिससे इसे पंजाकार डेल्टा कहा जाता है। मिसीसिपी नदी का डेल्टा इसका उत्तम उदाहरण है। 3. ज्वारनदमुख डेल्टा-इस प्रकार के डेल्टा का निर्माण नदियों के पूर्वनिर्मित मुहानों पर होता है। कभी-कभी नदी, धारा की तीव्र गति के कारण अवसादों को बहा ले जाती है। दूसरी ओर ज्वार-भाटा भी निक्षेप किए हुए मलबे को बहाकर सागर में ले जाता है; अतः पूर्ण डेल्टा नहीं बन पाता। एसे डेल्टाओं को ज्वारनदमुख डेल्टा कहते हैं। राइन नदी का डेल्टा इसका प्रमुख उदाहरण है। प्रश्न 6. लम्बवत एवं अनुप्रस्थ बालू के स्तूप कहाँ व कैसे बनते हैं? 2. अनुप्रस्थ बालू के स्तूप-जब मन्द गति से प्रवाहित होने वाली वायु के मार्ग में बाधा उत्पन्न होती है तो छोटे तथा असमान आकार के टीलों का निर्माण होता जाता है। इनका विस्तार पवन की दिशा के अनुप्रस्थ रूप में होता है। इन टीलों का आकार भी विषम होता है। इन स्तूपों का ढाल वायु की दिशा की ओर मन्द तथा विपरीत दिशा की ओर तीव रहता है। वायु की विपरीत दिशा की ओर बालू का जमाव न होने के कारण ये खोखले हो जाते हैं। प्रश्न 7. भूमिगत जल की निक्षेपण क्रिया द्वारा निर्मित दो स्थलरूपों का वर्णन कीजिए। 2. कन्दरा स्तम्भ–कन्दरा की छत से टपकने वाले घोल द्वारा कन्दरा की छत एवं फर्श पर क्रमशः निर्मित आश्चुताश्म एवं निश्चुताश्म के परस्पर मिल जाने से स्तम्भ की रचना होती है, जिसे कन्दरा स्तम्भ या चूने का स्तम्भ (Limestone Pillars) कहा जाता है। कभी-कभी कन्दरा की छत से रिसने वाला पदार्थ कन्दरा के फर्श से जा मिलता है अथवा कन्दरा की छत से टपकने वाला पदार्थ फर्श से ऊपर की ओर बढ़ता हुआ छत से मिल जाता है। अतः इन दोनों अवस्थाओं में कन्दरा स्तम्भ की रचना हो जाती है। प्रश्न 8. हिमोढ कैसे बनते हैं? ये कितने प्रकार के होते हैं? 1. पाश्विक हिमोढ़ (Lateral Moraines)-हिमानी के दोनों पाश्र्वो के सहारे एक सीधी रेखा में निक्षेपित मलबा जो शिलाखण्ड, बालू, मिट्टी तथा पत्थरों के अर्द्ध-चन्द्राकार ढेर के रूप में होता है, पाश्विक हिमोढ़ कहलाता है। ऐसे हिमोढ़ों का आधिक्य ग्रीनलैण्ड एवं अलास्का में अधिक पाया जाता है। अलास्का में कई स्थानों पर हिमोढ़ की ऊँचाई 1000 फुट तक देखी गयी है, परन्तु इनकी सामान्य ऊँचाई 100 फुट तक ही पायी जाती है। 2. मध्यस्थ हिमोढ़ (Medial Moraines)-दो हिमनदों के मिलन-स्थल पर उनके पार्श्व परस्पर जुड़ जाते हैं। इस प्रकार उनके मध्य में जमे हुए अवसाद को मध्यस्थ हिमोढ़ की संज्ञा दी जाती है। अत: दोनों हिमानियों के मध्य में कंकड़-पत्थरों की श्रृंखला के रूप में स्थित अवसाद को मध्यस्थ हिमोढ़ कहा जाता है। 3. तलस्थ हिमोढ़ (Ground Moraines)-हिमानी अपनी तली के द्वारा पर्याप्त.अवसाद ढोती है। हिम के पिघलने पर यह अवसाद घाटी की तली में चारों ओर बिखरा रह जाता है, जिसे तंलस्थ हिमोढ़ के नाम से पुकारा जाता है। दक्षिणी कनाडा में इस प्रकार की हिमानियाँ तथा हिमोढ़ अधिक पाये जाते हैं। तलस्थ हिमोढ़ के क्षेत्रों में झीलें एवं दलदल बहुत मिलती हैं। 4. अन्तिम हिमोढ़ (Terminal Moraines)-हिमनद की अन्तिम सीमा जब पिघलने लगती है तो हिमनद द्वारा लाया गया बहुत-सा पदार्थ वहाँ अर्द्ध-चन्द्राकार रूप में एकत्रित होने लगता है। इस | जमाव को अन्तिम हिमोढ़ कहते हैं। इन हिमोढ़ों को निक्षेप प्रायः श्रेणियों के रूप में होता है तथा इनका आकार भी अर्द्ध-चन्द्राकार रूप में होता है। प्रश्न 9. बरखान या अर्द्ध-चन्द्राकार बालू के टीलों का निर्माण किस प्रकार होता है? । प्रश्न
10. वायु के कार्य बतलाइए तथा अपरदन कार्य की प्रक्रिया समझाइए।
वायु का अपरदनात्मक कार्य वायु का अपरदनात्मक कार्य अपवाहन (Deflation) और अपघर्षण (Abrasion) की क्रिया द्वारा सम्पन्न होता है। अपवाहन अर्थात् उड़ाकर ले जाने की क्रिया द्वारा वायु मरुस्थलों में उथले बेसिन बना देती है जिन्हें वात गर्त कहते हैं। जब इन वात गर्ता में वायु द्वारा अपरदित बालू का उठान जल-स्तर तक पहुँच जाता है तो मरुद्यान (Oasis) निर्मित हो जाते हैं। तीव्र वायु अपने साथ कंकड़-पत्थर, शिलाखण्ड एवं बालू लेकर शैलों पर तीव्र प्रहार करती है तथा शैलों को रेगमाल की भाँति खरोंच देती है। इस प्रकार वायु भौतिक अपरदन का कार्य अधिक करती है। अपघर्षण का सबसे अधिक प्रभाव ऊँची उठी हुई शैलों पर पड़ता है। वायु के साथ उड़कर चलने वाले पदार्थ परस्पर भी खण्डित होते रहते हैं, जिसे सन्निघर्षण की क्रिया कहते हैं। इसके अतिरिक्त ये बालू के कण मार्ग में पड़ने वाली शैलों को अपने प्रहार से घिसते हैं तो उस क्रिया को अपघर्षण कहा जाता है। प्रश्न 11. मरुस्थलों में झील कैसे बनती है? वाजदा और प्लाया को समझाइए। प्रश्न 12. रोधिकाएँ क्या हैं? इनसे सम्बन्धित स्थलरूप बताइए। प्रश्न 13. समुद्र तट पर बनी अपतटीय रोधिकाओं का सुनामी आपदा को रोकने में क्या मध है? प्रश्न 14. जलोढ़ पंख एवं जलोढ़ शंकु और रॉक बेसिन तथा टार्न में अन्तर बताइए। 2. रॉक बेसिन तथा टार्न-यह हिमनद द्वारा बनी स्थलाकृति है। वास्तव में सर्क की तली (Basin) में हिमनद के अत्यधिक दबाव तथा अपरदन से कालान्तर में एक गड्ढे का निर्माण होता है, जिसे रॉक बेसिन कहते हैं। जब तापमान अधिक होने पर हिम पिघल जाता है तो रॉक बेसिन में जल भरा रह जाता है। इस प्रकार एक झील का निर्माण होता है, जिसे टार्न कहते हैं। प्रश्न 15, बाढ़ के मैदान एवं प्राकृतिक तटबन्ध किस प्रकार निर्मित होते हैं? प्राकृतिक तटबन्ध–जिस समय नदी में बाढ़ आती है वह अपने किनारों पर बालू, बजरी तथा मिट्टी आदि अवसाद का निक्षेप कर देती है। इस प्रकार किनारों पर नदी के समानान्तर दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे बाँध से बन जाते हैं, जिन्हें प्राकृतिक तटबन्ध कहते हैं। ये प्राकृतिक तटबन्ध नदी के जल को नदी के किनारों के बाहर फैलने से रोकते हैं। प्रश्न 16. गोखुर झील या धनुषाकार झील किस प्रकार निर्मित होती है? दीर्घ उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. नदी अथवा बहते हुए जल के अपरदन कार्य का उसकी विभिन्न अवस्थाओं में वर्णन कीजिए। नदी अथवा प्रवाहित जल के कार्य नदी, अपरदन का एक शक्तिशाली कारक है। नदियाँ अपघर्षण तथा सन्निघर्षण द्वारा अपनी घाटियों को काट-छाँट कर चौड़ा करती जाती हैं तथा मलबे को प्रवाहित कर अन्यत्र स्थान पर जमा कर देती हैं। इनके फलस्वरूप धरातल पर विभिन्न स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। जिनका विवरण निम्नवत् है 1. नदी का अपरदनात्मक कार्य (Erosional Work of River)-नदी द्वारा अपरदन कार्य दो रूपों में सम्पन्न होता है-(अ) रासायनिक एवं (ब) भौतिक या यान्त्रिक अपरदन। रासायनिक अपरदन में नदी-जल घुलनशील तत्त्वों द्वारा चट्टानों को अपने में घुलाकर काटता रहता है, जबकि यान्त्रिक अपरदन में नदी-तल या किनारों का अपरदन अपरदनात्मक तत्त्वों से होता रहता है। नदियों द्वारा अपरदन की इस क्रिया में पाश्विक अपरदन तथा लम्बवत् अपरदन होता है। इस प्रकार नदी द्वारा अपरदन कार्य बड़ा ही व्यापक है। उद्गम से लेकर मुहाने तक नदी के कार्यों को तीन भागों में विभाजित किया जाता है-
2. नदी का परिवहन कार्य (Transportational Work of River)-नदी का परिवहन कार्य भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। नदी के जल के साथ बहने वाले शिलाखण्ड आपस में टकराकर चलते रहते हैं तथा नदी-तल को भी कुरेदते हुए प्रवाहित होते हैं। इससे इनका आकार छोटा होता जाता है। इस प्रकार नदियाँ कंकड़, पत्थर, बजरी, रेत, मिट्टी आदि भारी मात्रा में जमा करती जाती हैं। नदियाँ जब मैदानी भागों में प्रवेश करती हैं तो उनके वेग एवं तीव्रता में कमी आ जाती है। इससे नदियाँ अपनी तली तथा किनारों पर निक्षेप करते हुए प्रवाहित होती हैं। इसीलिए पर्वतपदीय क्षेत्रों में बड़े-बड़े शिलाखण्ड पाये जाते हैं। नदी द्वारा परिवहन करने की क्षमता जल की मात्रा एवं उसकी गति पर निर्भर करती है। 3. नदी का निक्षेपणात्मक कार्य (Depositional work of River)-नदी की जलधारा अपंरदित पदार्थों को प्रवाहित करती हुई मार्ग में जहाँ कहीं भी जमाव कर देती है, वह निक्षेपण कहलाता है। निक्षेपण अपरदन क्रिया का प्रतिफल होता है। इस जमाव में बालू, मिट्टी, कंकड़, पथरी, बजरी आदि सभी छोटे-बड़े पदार्थ होते हैं जो नदियों द्वारा झीलों, सागरों अथवा महासागरों तक ले जाये जाते हैं। जैसे ही नदियाँ मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती हैं, उनमें भारी पदार्थों को वहन करने की क्षमता नहीं रह पाती। इसी कारण अनुकूल दशा मिलते ही नदियाँ अपनी तली एवं पाश्र्वो पर अवसाद का निक्षेप करने लगती हैं। भारी पदार्थों को नदियाँ पर्वतीय क्षेत्रों में वहन करती हैं तथा उसका निक्षेप पर्वतपदीय क्षेत्रों में करती हैं। मैदानी क्षेत्रों में हल्के पदार्थों का ही निक्षेप हो पाता है। जलाशयों में मिलने से पहले नदियाँ विस्तृत डेल्टाओं का निर्माण करती हैं, क्योंकि यहाँ तक बारीक मिट्टी तथा बालू ही पहुँच पाती है। डेल्टाई क्षेत्रों में नदियों का प्रवाह मार्ग समुद्र तल के लगभग समानान्तर हो जाता है; अतः यहाँ जल चारों ओर फैल जाता है। निक्षेपण की क्रिया में विभिन्न भू-आकृतियों की रचना होती है। जलोढ़ पंख, विसर्पण, छाड़न झील, तट-बाँध, वेदिका, बाढ़ के मैदान एवं नदी की चौड़ी घाटी प्रमुख भू-आकृतियाँ हैं। नदी की अवस्थाएँ नदियाँ अपने अपरदन, परिवहन एवं निक्षेपण का कार्य अपनी विभिन्न अवस्थाओं के अन्तर्गत सम्पादित करती हैं। बहता हुआ जल अथवा नदी अपने उद्गम स्थल (पर्वतीय क्षेत्र) से लेकर अपने संगम स्थल (मुहाना) तक तीन अवस्थाओं से गुजरती है तथा अनेक स्थलाकृतियों का निर्माण करती है, जिसका विवरण निम्नलिखित है– 1. युवावस्था (Youthful Stage)-पर्वतीय क्षेत्रों में वर्षा तथा हिमानी के पिघलने से छोटी- छोटी जलधाराओं का जन्म होता है। इस समय नदियों में जल की मात्रा कम तथा ढाल तीव्र होने के कारण वेग अधिक होता है। इस प्रकार युवावस्था में नदियाँ ऊबड़-खाबड़ पर्वतीय क्षेत्र में प्रवाहित होती हैं। पर्वतीय भागों में मुख्य नदी धीरे-धीरे अपनी घाटी को गहरा करना प्रारम्भ कर देती है तथा इसमें अनेक सहायक नदियाँ आकर मिलने लगती हैं। इस अवस्था में नदियाँ अपने तल का अधिक कटाव करती हैं जिससे गॉर्ज, कन्दरा, जल-प्रपात, जल-गर्तिकाएँ, कुण्ड आदि स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। युवावस्था में नदी निम्नलिखित भू-आकृतियाँ बनाती है (i) ‘v’ आकार की घाटी-नदियों द्वारा निर्मित गहरी एवं सँकरी घाटियों को ‘v’ आकार की घाटी कहते हैं। इनका आकार अंग्रेजी वर्णमाला के.’V’ अक्षर की भाँति होता
है, जिससे इन्हें v’ आकार की घाटी कहते हैं। इनके किनारे तीव्र ढाल वाले होते हैं। ये घाटियाँ किनारों पर चौड़ी तथा तली में अधिक संकुचित होती हैं। कुछ नदियाँ अपनी घाटी को और अधिक गहरा करती जाती हैं। इस अत्यधिक गहरी ‘V’ आकार की घाटी को कन्दरा (Gorge) कहते हैं। उदाहरण के लिए-भारत की सिन्धु, सतलुज, नर्मदा, कृष्णा, चम्बल आदि नदियाँ अनेक स्थानों पर कन्दराओं का निर्माण करती हैं। भाखड़ा बॉध तो सतलुज नदी की कन्दरा पर ही निर्मित है। कम चौड़ी, अधिक गहरी तथा अधिक सँकरी घाटी को कैनियन कहते हैं। (ii) जल-प्रपात या झरना (Waterfal)- यह नदी अपरदन द्वारा निर्मित प्राकृतिक सौन्दर्य में वृद्धि करने वाली प्राकृतिक स्थलाकृति है। जब कोई नदी उच्च पर्वत-श्रेणियों से नीचे की ओर गिरती है तो ढाल में असमानता के कारण जल-प्रपातों का निर्माण
करती है। नदी का जल मार्ग में पड़ने । वाली कठोर चट्टानों को नहीं काट पाता, परन्तु कोमल चट्टानों को आसानी से काट देता है। कुछ समय पश्चात् कठोर चट्टान को भी सहारा न मिल पाने के कारण वह शिलाखण्ड भी टूटकर गिर जाता है। इस प्रकार, “नदी प्रवाह की ऐसी असमानता जिसमें नदी का जल एकदम ऊपर से नीचे की ओर गिरता है, जल-प्रपात या झरना कहलाता है।” जल निरन्तर शैलों को काटता रहता है जिससे इन प्रपातों की ऊँचाई कम होने लगती है। 2. प्रौढ़ावस्था (Mature Stage)-नदी जब युवावस्था को पार कर मैदानी भागों में प्रवेश करती है। तो यह उसकी प्रौढ़ावस्था होती है। इस समय नदी का वेग कुछ कम हो जाता है तथा नदी द्वारा किये जाने वाले कटाव कार्य में कुछ कमी आती है। इस अवस्था में नदी अपनी घाटी को चौड़ा करना प्रारम्भ कर देती है।.नदी इस समय पाश्विक अपरदन अधिक करती है। इस अवस्था में नदी अपने साथ लाये हुए मलबे को जमा करना प्रारम्भ कर देती है। इससे जलोढ़-पंख, जलोढ़-शंकु, गोखुर झीलें, बाढ़ के मैदान आदि स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। इस अवस्था में नदी मैदानी भागों में बहुत मन्द गति से प्रवाहित होती है जिससे प्रवाह मोड़ों एवं बाढ़ के मैदानों का निर्माण करते हुए नदी आगे बढ़ती है। प्रौढ़ावस्था में नदी निम्नांकित भू-आकृतियों का निर्माण करती है (i) जलोढ़ पंख (Alluvial Fans)-पर्वतीय क्षेत्रों से जैसे ही नदी मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती है तो नदी की प्रवाह गति मन्द पड़ जाती है, जिसके कारण उसकी अपवाह क्षमता भी कम रह जाती है। अतः नदी भारी पदार्थों को अपने साथ प्रवाहित करने में असमर्थ रहती है और उनका निक्षेप करना प्रारम्भ कर देती है। पर्वतपदीय भागों में नदी बजरी, पत्थर, कंकड़, बालू, मिट्टी आदि पदार्थों का निक्षेपण शंकु के रूप में करती है। इनके बीच से होकर अनेक छोटी-छोटी धाराएँ निकल जाती हैं। इस प्रकार के अनेक शंकु मिलकर पंखे जैसी आकृति का निर्माण करते हैं जिससे उन्हें जलोढ़ पंख का नाम दिया जाता है। (ii) नदी विसर्प अथवा नदी मोइ (River Meanders)-जब नदी घाटी में उतरती है तो उंसका प्रवाह मन्द पड़ जाता है। इससे नदियों के अवसाद ढोने की शक्ति कम हो जाती है। अत: ऐसी दशा में नदियाँ अपने साथ लाये हुए अवसाद को किनारों पर छोड़ती जाती हैं, परन्तु उसके मार्ग में थोड़ा-सा भी अवरोध उसके प्रवाह को आसानी से इधर-उधर मोड़ देता है। ये मोड़ ही नदी विसर्प कहलाते हैं। (iii) धनुषाकार झीलें अथवा गोखुर झीलें (Oxbow
Lakes)-प्रारम्भ में नदी-मोड़ या विसर्प छोटे होते हैं, परन्तु धीरे-धीरे इनका आकार बड़ा तथा घुमावदार होता जाता है। जब ये विसर्प अधिक बड़े तथा घुमावदार होते हैं, तब नदी घुमावदार दिशा में प्रवाहित न होकर सीधे ही प्रवाहित होने लगती है तथा नदी का यह मोड़ कटकर मुख्य धारा से बिल्कुल अलग हो जाता है। इससे एक झील-सी निर्मित हो जाती है जिसकी आकृति धनुष के आकार में अथवा गाय के खुर के समान हो । जाती है। अत: इसे धनुषाकार झील अथवा छाड़न या गोखुरं झील कहते हैं। (iv) बाढ़ के मैदान (Flood Plains)-मैदानी प्रदेशों में नदियों की प्रवाह शक्ति क्षीण हो जाने के कारण उसकी तली में मलबा एकत्रित होना प्रारम्भ हो जाता है जिससे नदी को जल दोनों किनारों की ओर दूर तक फैल जाता है। एक समय ऐसा आता है कि नदी और अधिक जल को धारण करने की क्षमता नहीं रख पाती तथा यह जल किनारों को पार कर बाहर की ओर फैल जाता है। एवं नदी में बाढ़ आ जाती है। जैसे ही बाढ़ समाप्त होती है तो बालू एवं कांप मिट्टी के निक्षेप बाढ़-क्षेत्र पर छा जाते हैं तथा इसमें लहरें-सी पड़ जाती हैं। इन्हें ही बाढ़ के मैदान के नाम से जाना जाता है। (v) प्राकृतिक तटबन्ध (Natural Levees)-नदी जब बाढ़ से युक्त होती है तो वह अपने किनारों पर बजरी, कंकड़, बालू तथा मिट्टी आदि का जमाव कर देती है. जिससे किनारों पर ऊँचे-ऊँचे बाँध बन जाते हैं। इन्हें ही प्राकृतिक तटबन्ध के नाम से पुकारा जाता है। 3. वृद्धावस्था या जीर्णावस्था (Old Stage)-नदी के अन्तिम अवस्था में आते ही उसकी सामान्य स्थिति में बड़ा परिवर्तन हो जाता है। इस अवस्था में नदी मैदानी क्षेत्र से निकलकर डेल्टाई प्रदेश में प्रवेश करती है। नदी अपने सम्पूर्ण जल सहित आधार तल (Base level) तक पहुँच जाती है। इस समय नदी का अपरदन कार्य पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप नदी-घाटी की गहराई बहुत कम हो जाती है तथा नदी की चौड़ाई निरन्तर बढ़ती जाती है। इस अवस्था में नदियों के बाढ़ के मैदान अत्यधिक विस्तृत हो जाते हैं तथा नदी की भार वहन करने की शक्ति क्षीण हो जाती है। नदी अपने मुहानों पर डेल्टाओं का निर्माण करती है। इसी अवस्था में एस्चुअरी, बालुका-द्वीप एवं बालुका-भित्ति का निर्माण होता है तथा नदी डेल्टा बनाती हुई महासागर में गिर जाती है और अपना अस्तित्व सदा के लिए समाप्त कर देती है। वृद्धावस्था में निम्नलिखित स्थलाकृतियों का निर्माण होता है (i) डेल्टा (Delta)—प्रत्येक नदी अपनी अन्तिम अवस्था में सागर, झील अथवा महासागर
में गिरती है तो गिरने वाले स्थान पर अपने छ साथ लाये हुए अवसाद को एकत्रित करती रहती है। यह अवसाद लाखों वर्ग किमी क्षेत्र में एकत्रित हो जाते हैं तथा इसकी साधारण ऊँचाई समुद्र तल से अधिक होती है; अतः इस उठे हुए भाग को ही डेल्टा कहते हैं। इस डेल्टा शब्द को ग्रीक भाषा के अक्षर A (डेल्टा) से लिया गया है, क्योंकि इस स्थल स्वरूप का आकार भी इस अक्षर से मिलता-जुलता है। डेल्टा छोटे-बड़े कई प्रकार के होते हैं। इनका जमाव विशालतम पंखे जैसा होता है। इसके द्वारा नदी के मार्ग में अवरोध डाला जाता है। इसीलिए नदी
उसे कई स्थानों पर काट देती है। कहीं-कहीं कुछ भाग ऊँचे खड़े रह जाते हैं, जिन्हें मोनाडनाक कहते हैं। इनकी आकृति त्रिभुजाकार होती है। आकृति के अनुसार डेल्टा निम्नलिखित प्रकार के होते हैं– (अ) चापाकार या धनुषाकार डेल्टा-नदी की अवसाद में कंकड़, पत्थर, मिट्टी, बालू आदि जल में घुले रहते हैं। कुछ अवसाद बहुत ही बारीक होते हैं। अत: ऐसी नदी जो अपने साथ लाये हुए अवसाद को मध्य में अधिक तथा किनारों पर कम मात्रा में निक्षेपित करती है, चापाकार या धनुषाकार आकृति का निर्माण करती है, जिसे चापाकार डेल्टा कहते हैं। सिन्धु, पो, राइन तथा गंगा-ब्रह्मपुत्र के डेल्टा इसी प्रकार के हैं। (ब) पंजाकार डेल्टा-चिड़िया के पंजे की शक्ल में डेल्टाओं का निर्माण बारीक कणों से होता है, जो चूनायुक्त जल में घोल के रूप में घुले रहते हैं। बारीक कण भारी होने के कारण नदी के बहाव में सागर की तली में दूर-दूर तक पहुंच जाते हैं तथा तली में बैठते जाते हैं। अनेक.दिशाओं से आने वाली नदियाँ आपस में मिलकर अपने पाश्र्वो पर मोटी अवसाद जमा कर देती हैं जिनसे यह निक्षेप पक्षी के पंजे की भाँति हो जाता है, इसीलिए इसे पंजाकोर डेल्टा कहते हैं। (स) ज्वारनदमुखी डेल्टा-इस प्रकार के डेल्टा का निर्माण नदियों के पूर्वनिर्मित मुहानों पर होता है। ऐसे मुहाने जो नीचे को धंसे हुए होते हैं, उनमें अवसाद एक लम्बी, सँकरी धारा के रूप में जमा होती जाती है। नदियों के इस मुहाने को एस्चुअरी कहते हैं। यह अवसाद ज्वार-भाटे द्वारा सागरों में ले जायी जाती है। इसी कारण यह पूर्ण रूप से डेल्टा नहीं बन पाता। (ii) बालुका-द्वीप एवं बालुका-भित्ति-मन्द गति के कारण नदी अपने साथ लाये अवसाद को आगे बहाकर ले जाने में असमर्थ रहती है, क्योंकि जलगति क्षीण होती है। अतः अवसाद स्थान-स्थान पर कम होती जाती है। इस प्रकार नदी के बाढ़ के मैदान या चौड़ी घाटियों में बालू के द्वीप एवं बालुका-भित्ति का निर्माण होता है। इनका आकार भिन्न-भिन्न होता है। इन्हें भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। नदी के निक्षेपण कार्य से निर्मित भू-आकृतियों का मानव के लिए महत्त्व नदी के निक्षेपण कार्य से बनी भू-आकृतियाँ मानव के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुई हैं। जलोढ़ पंखों से बने नदी के मैदान कृषि, उद्योग, परिवहन एवं मानव बसाव की दृष्टि से बहुत उपयोगी हैं। धनुषाकार झीलें सिंचाई, पेयजल एवं नौका विहार की सुविधाएँ प्रदान करके मानव के हित में वृद्धि करती हैं। इनसे जलवायु पर भी समकारी प्रभाव पड़ता है। डेल्टाओं से उपजाऊ भूमि का निर्माण होता है। विश्व में गंगा, सिन्धु, ब्रह्मपुत्र, अमेजन और नील नदियाँ उपजाऊ डेल्टाओं का निर्माण करती हैं। डेल्टाई क्षेत्र चावल, जूट तथा गन्ना आदि फसलों के उत्पादन की दृष्टि से अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। अधिक उपजाऊ होने के कारण डेल्टाई क्षेत्रों में घनी जनसंख्या पायी जाती है। गंगा का डेल्टा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। प्रश्न 2. हिमानी द्वारा अपरदन एवं निक्षेपण से निर्मित स्थलाकृतियों का वर्णन कीजिए। हिमानी के कार्य हिमानी निम्नलिखित तीन कार्यों को सम्पन्न करती है- 1. हिमानी का अपरदनात्मक कार्य हिमानी का अपरदन कार्य उसकी गति तथा उसके साथ प्रवाहित कंकड़-पत्थर पर अधिक निर्भर करता है। रैमसे एवं टिण्डल नामक विद्वानों ने बताया है कि हिमानी न केवल अपने अपरदन कार्यों द्वारा विभिन्न भू-आकृतियों का निर्माण करती है, बल्कि पहले से विकसित स्थलरूपों में परिवर्तन भी करती है। हिमानी अपरदन के द्वारा सुन्दर प्राकृतिक भू-दृश्यों का निर्माण करती है। हिमानीकृत अपरदन से निर्मित भू-आकृतियाँ–हिमानीकृत अपरदन में बड़ी भिन्नता पायी जाती है, क्योंकि इसका यह कार्य बहुत ही धीमी गति से होता है। हिमानी द्वारा अपरदन कार्य से निम्नलिखित भू-आकृतियों का निर्माण होता है (अ) ‘यू आकार की घाटी (‘U’ Shaped Valley)-हिमानी पर्वतीय क्षेत्रों में ऐसी घाटियों से प्रवाहित होती है जिनके ढाल खड़े तथा तली चौरस एवं सपाट होती है। घाटियों का अपरदन होने से इनका आकार अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षर ‘यू’ (U) की भाँति हो जाता है। विस्तृत हिमानी क्षेत्र में इन घाटियों के ऊपर सहायक घाटियाँ लटकती दिखाई देती हैं। इन घाटियों का निर्माण पहले से विकसित नदी-घाटियों में होता है। बाद में हिमानीकृत अपरदन कार्य से इसका
विस्तार एवं विकास कर लेती है। ‘यू’ आकार की घाटी के निर्माण में निम्नांकित विशेषताएँ होती हैं-(i) इस घाटी का भौतिक आकार अंग्रेजी के ‘यू’ (U) अक्षर जैसा होता है, (ii) इसका तल चौरस तथा गहरा होता है, (iii) ‘यू’ आकार की घाटी के किनारों का ढाल खड़ा होता है, (iv) इसमें छोटे-छोटे हिमोढ़ों का अभाव होता है, (v) इन घाटियों का विकास उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में होता है एवं (vi) इस घाटी के निर्माण में आग्नेय तथा परतदार चट्टानों का योग होता है। (ब) लटकती घाटी (Hanging Valley)-मुख्य हिमानी तथा उसकी सहायक हिमानियों के मध्य अपरदन के फलस्वरूप जो आकृति बनती है, उसे लटकती हुई घाटी अथवा निलम्बी घाटी कहते हैं। मुख्य हिमानी का अपरदन सहायक हिमानियों की अपेक्षा अधिक होता है, क्योंकि मुख्य हिमानी सहायक हिमानियों से अधिक गहरी होती है। इसी कारण सहायक हिमानियों की घाटियाँ मुख्य हिमानी से जहाँ मिलती हैं, वहाँ इनका ढाल तीव्र एवं खड़ा होता है। इसीलिए इन घाटियों की हिम लटकती हुई प्रतीत होती है। (स) सर्क या हिमज गह्वर (Cirque)-उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में हिमानी ढालों पर गड्ढे बनाती हुई प्रवाहित होती है। हिमानी के अपरदन से गड्ढे धीरे-धीरे काफी चौड़े एवं गहरे होते जाते हैं। ऐसे । विशाल, चौड़े तथा गहरे गत को हिमज गह्वर कहते हैं। इनकी आकृति कटोरे की भाँति होती है। इन्हें कोरी या कारेन अथवा सर्क भी कहते हैं। (द) हिमश्रृंग एवं हिमपुच्छ (Crag and Tail)-हिमानी द्वारा ऊँचे उठे भागों पर जब अपरदन द्वारा ऊबड़-खाबड़ खड़ा ढाल निर्मित हो जाता है तो हिमशृंग की आकृति का निर्माण होता है। इनका ढाल तीव्र होता है, जबकि दूसरी ओर ढाल मन्द होता है जो एक लम्बी एवं पतली पूँछ के आकार का होता है, जिसे हिमपुच्छ कहते हैं। (य) गिरिशृंग (Horm)-हिमानी द्वारा निर्मित यह एक प्राकृतिक स्थलाकृति है। पर्वतों की चोटियों के | सहारे जब चारों ओर निर्मित सर्क को हिमानी अधिक गहराई में काट लेती है तो इसकी आकृति शिखर की भाँति हो जाती है, जिसे गिरिशृंग के नाम से पुकारा जाता है। 2. हिमानी का परिवहन कार्य 3. हिमानी का निक्षेपणात्मक कार्य (अ) हिमनद हिमोढ़ (Glacial Moraines)-हिमानी जैसे ही आगे की ओर प्रवाहित होती है, नदी-घाटियों के शिलाखण्ड, बालू, कंकड़-पत्थर, मिट्टी आदि भी इसके साथ आगे की ओर बढ़ते हैं। अधिकांशतः यह मलबा शैलों के टूटने तथा हिमानी की तली एवं किनारों से प्राप्त होता है। इस प्रकार यह अवसाद विभिन्न भागों में एकत्र हो जाती है। एकत्रित अवसाद को ही हिमनद हिमोढ़ (ब) हिमनदोढ़ टिब्बा (Drumlin)-हिमानी के निक्षेपण कार्य से निर्मित यह एक टीलेनुमा आकृति होती है जो आकार में उल्टी नाव के समान होती है। हिमानी के सामने वाला भाग खड़े ढाल वाला तथा पीछे का भाग कम ढाल वाला होता है। वास्तव में इस प्रकार की आकृतियों का निर्माण हिमानी के आगे-पीछे हटने पर होता है। जब हिमानी पीछे हटती है तो वह आगे अग्रांतस्थ हिमोढ़ बनाती है। इस प्रकार कई बार आगे-पीछे हटने से एक ही क्रम में अग्रांतस्थ हिमोढ़ों की रचना होती है। जब हिमानी पुनः आगे की ओर प्रवाहित होती है तो पहले से विकसित हिमोढ़ों के ऊपर से होकर आगे बढ़ जाती है। इस प्रकार सामने वाला भाग खड़े ढाल वाला तथा खुरदरा हो जाता है तथा विपरीत ढाल सामान्य होता है, जिसे हिमनदोढ़ टिब्बा कहा जाता है। (स) एस्कर (Esker)-ये हिमानी एवं जल के मिश्रित प्रभाव द्वारा निर्मित घाटियों में स्थित कम ऊँचे, कम लम्बे तथा कम चौड़े बल खाते हुए टीले के आकार में घाटी के प्रवाह की दिशा में फैले होते हैं। हिमानी के मार्ग में पहले से विकसित जितनी भी भू-आकृतियाँ होती हैं, ये उनके ऊपर बिछ जाते हैं। ये 60 से 90 मीटर ऊँचे तथा 24 किमी तक लम्बे होते हैं। प्रश्न 3. मरुस्थलीय स्थलाकृतियों के विकास में वायु के कार्यों की विवेचना कीजिए। वायु अपने अपरदनात्मक कार्यों द्वारा स्थलीय भाग को अपरदित कर प्राप्त चट्टान-चूर्ण एवं रेत-कणों का कुछ दूरी तक परिवहन करती है तथा अवरोध पर उपस्थित होने पर निक्षेपण की क्रिया द्वारा विभिन्न स्थलरूपों का निर्माण करती है। (1) वायु का अपरदनात्मक कार्य । पवन द्वारा अपरदन का कार्य यान्त्रिक है। यह अपने साथ उड़ाकर ले जाए जाने वाले मोटे बालू-कणों एवं चट्टान-चूर्ण की सहायता से अपरदन कार्य सम्पन्न करती है। यह कार्य वायुमण्डल के निचले स्तरों में अधिक होता है, क्योंकि नीचे की ओर ही धूल-कणों की मात्रा अधिक होती है। शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क भागों में यह कार्य अधिक देखने को मिलता है। वायु द्वारा अपरदन कार्य तीन प्रकार से सम्पन्न होता है– (i) अपवाहन (Deflation)-इसे उड़ाने का कार्य भी कहते हैं। इसके लिए सतह का पूर्ण रूप से शुष्क होना अति आवश्यक है। इसमें वायु शुष्क एवं असंगठित पदार्थों को अपने साथ उड़ा ले जाती है। यह पदार्थ दूर-दूर तक पवन के साथ उड़ते चले जाते हैं। (ii) अपघर्षण (Abrasion)-तीव्र वेग वाली वायु अपघर्षण की क्रिया के लिए उपयुक्त होती है। वास्तव में मोटे धूल-कण ही अपरदन के मुख्य यन्त्र हैं। इनके द्वारा चट्टानें घिस-घिसकर चिकनी | हो जाती हैं। धूल-कणों के अपघर्षण से चट्टानों में खरोंचें पड़ जाती हैं। वायु द्वारा अपघर्षण का यह कार्य सतह के समीप अधिक होता है। (iii) सन्निघर्षण (Attrition)-वायु की तीव्रता में उड़ने वाले कण मार्ग में पड़ने वाली चट्टानों से टकराकर चट्टानों को तो घिसते ही हैं, साथ ही स्वयं टूटकर भी छोटे होते जाते हैं। इस प्रकार से परस्पर टकराने तथा बिखरने की क्रिया को सन्निघर्षण कहते हैं। वायु द्वारा अपरदन कार्य प्रत्येक क्षेत्र में समान गति एवं एक निश्चित समय में होना असम्भव है। वायु के अपरदन कार्यों पर तथ्यों को भी प्रभाव पड़ता है—(अ) वायु वेग, (ब) धूल-कणों का आकार एवं ऊँचाई, (स) चट्टानों की संरचना एवं (द) जलवायु।। वायु की अपरदनात्मक स्थलाकृतियाँ। 2. इन्सेलबर्ग (Inselberg)-इन्हें गुम्बदनुमा टीले भी कहते हैं। मरुस्थलीय क्षेत्रों में वायु के अपरदन से कोमल चट्टानें आसानी से कट जाती हैं, परन्तु कठोर चट्टानों के अवशेष ऊँचे-ऊँचे टीलों के रूप में खड़े
रह जाते हैं। इस प्रकार के टीलों या टापुओं को इन्सेलबर्ग के नाम से पुकारते हैं। इनका निर्माण नीस अथवा ग्रेनाइट चट्टानों के अपक्षय तथा अपरदन से होता है। 3. छत्रक शिला (Mushroom Rocks)-मरुस्थलीय भागों में कठोर शैल के ऊपरी आवरण के नीचे कोमल शैल लम्बवत् रूप में मिलती है तो उस पर अपघर्षण के प्रभाव से चट्टानों के निचले भाग इस तरह कट जाते हैं कि उनका आकार छतरीनुमा हो जाता है, जिन्हें छत्रक शिला कहते हैं। सहारा मरुस्थल में इन्हें हमादा के नाम से पुकारते हैं। 4. भू-स्तम्भ (Demoiselles)-शुष्क प्रदेशों में, जहाँ असंगठित मलबे से बनी कोमल चट्टानों के ऊपर कठोर चट्टान की परत जमा हो तो वहाँ वायु द्वारा असंगठित चट्टानों का अपरदन करते रहने से ऊँचे-नीचे टीले बने रह जाते हैं। इनके शिखर कठोर चट्टानों से निर्मित होते
हैं। इस प्रकार की भू-आकृतियों को भू-स्तम्भ कहते हैं। मरुस्थलीय नदियों की घाटियों में इस प्रकार के भू-स्तम्भ देखे जा सकते हैं। 5. ज्यूगेन (Zeugen)-इनकी आकृति ढक्कनदार दवात की भाँति होती है। इस प्रकार की आकृति मरुस्थलीय प्रदेशों में, जहाँ कोमल और कठोर चट्टानों की परतें एक-दूसरी के ऊपर बिछी होती हैं, निर्मित होती हैं। कठोर परतों की दरारों में ओस भरने के कारण तापमान निम्न हो जाता है जिससे दरारें और चौड़ी हो जाती हैं। दरारों के बढ़ने से कोमल चट्टानों की परतें निकल आती हैं। इन परतों का वायु आसानी से अपरदन कर लेती है जिससे चट्टानों के मध्य में घाटियाँ विकसित हो जाती हैं, जिन्हें ज्यूगेन कहते हैं। 6. यारडंग (Yardang)-यारडंग ज्यूगेन के विपरीत अवस्था में निर्मित होता है, अर्थात् जब कोमल और कठोर चट्टानों के स्तर लम्बवत् रूप में मिलते हैं तो वायु कोमल चट्टानों को आसानी से अपरदित कर उड़ा ले जाती है। इससे कठोर चट्टानों के अवशेष खड़े रह जाते हैं। मंगोलिया में इस प्रकार की स्थलाकृतियों को यारडंग कहते हैं। 7. त्रिकोण खण्ड (Dreikanter)-पथरीले मरुस्थलों के शिलाखण्डों पर वायु के अपरदन द्वारा खरोंचें पड़ जाती हैं, जिससे तरह-तरह की नक्काशी-सी हो जाती है। ऐसे शिलाखण्डों को त्रिकोण खण्ड कहते हैं। (2) वायु का परिवहन कार्य। वायु की दिशा अनिश्चित होने के कारण इसका परिवहन कार्य निश्चित नहीं होता। वायु भूतल की ऊपरी सतह पर चलती है; अतः अपरदित पदार्थों को बड़े पैमाने पर परिवहन नहीं कर पाती। हल्के पदार्थों का परिवहन दूरवर्ती भागों तक हो जाता है। सामान्यतया वायु के परिवहन द्वारा अपरदित पदार्थों का स्थानान्तरण अधिक दूरी तक नहीं हो पाता, परन्तु आँधी एवं तूफान के समय हजारों किमी की दूरी तक वायु द्वारा अपरदित पदार्थों को पहुंचा दिया जाता है। उदाहरणार्थ—सहारा के रेगिस्तान से चलने वाले तूफान बालू उड़ाकर भूमध्य सागर के पार इटली तथा जर्मनी तक पहुँचा देते हैं। (3) वायु का निक्षेपणात्मक कार्य। वायु का निक्षेपण कार्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है। जब वायु की गति मन्द होती है तथा उसके मार्ग में कोई बाधा उपस्थित होती है तो उसके द्वारा वहन किये जाने वाला बहुत-सा पदार्थ भूतल पर बिछता जाता है। हल्के पदार्थ काफी दूर तक वायु के साथ उड़ जाते हैं तथा वहीं पर बिछा दिये जाते हैं। वायु द्वारा निक्षेपणात्मक स्थलाकृतियों की रचना के लिए वायु के मार्ग में विभिन्न अवरोधों; जैसे—वनों, झाड़ियों, दलदलों, नदियों, जलाशयों आदि का होना अति आवश्यक है। निक्षेपणात्मक स्थलाकृतियाँ वायु के निक्षेपण कार्यों से निम्नलिखित प्रमुख स्थलाकृतियों का निर्माण होता है 2. बालुका-स्तूप या बालू के टीले (Sand-Dunes)-बालुका-स्तूप रेत के वे टीले होते हैं जो वायु द्वारा रेत के निक्षेप से निर्मित होते हैं। बालू के टीले उन स्थानों पर अधिक मिलते हैं जहाँ ढीले रेत के कण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हों तथा वायु की दिशा भी प्रायः स्थिर हो। इन टीलों के आकार तथा स्वरूप में पर्याप्त अन्तर मिलता है। बालू के टीलों का निर्माण शुष्क तथा अर्द्ध-शुष्क भागों के अतिरिक्त सागरतटीय क्षेत्रों, झीलों के रेतीले तटों, रेतीले प्रदेशों से बहने वाली नदियों के बाढ़ प्रदेशों आदि स्थानों में होता है। सामान्यतया बालू के टीलों की ऊँचाई 30 मीटर से 60 मीटर तक पायी जाती है, परन्तु लम्बाई कई किमी तक होती है। कुछ टीलों की ऊँचाई 120 मीटर तथा लम्बाई 6 किमी तक देखी गयी है। इनका आकार गोल, नव-चन्द्राकार तथा अनुवृत्ताकार होता है। बालुका-स्तूपों के निर्माण के लिए निम्नलिखित भौगोलिक दशाओं का होना अति आवश्यक है(i) बालू की पर्याप्त मात्रा, (ii) तीव्र वायु-प्रवाह, (iii) वायु-मार्ग में अवरोध की स्थिति, (iv) बालू संचित होने का स्थान एवं (v) वायु का एक निश्चित दिशा में निरन्तर बहते रहना।। बालू के टीलों का जन्म प्रायः घास के गुच्छों, झाड़ी या पत्थर आदि द्वारा वायु के वेग में बाधा पड़ने से होता है। भूतल की अनियमितता भी बालू के टीलों को जन्म देती है। यह बाधा वायु वेग को कम कर देती है जिससे वायु में उपस्थित रेत के कणों का निक्षेप होना आरम्भ हो जाता है। यह निक्षेप विकसित होते-होते बालू के टीले निर्मित हो जाते हैं। बालुका-स्तूपों के प्रकार (Types of Sand-Dunes)-आकार के आधार पर बालुका-स्तूप निम्नलिखित प्रकार के होते हैं (i) अनुप्रस्थ बालुका-स्तूप (Transverse Sand-Dunes)- इस प्रकार के बालुका-स्तूप ऐसे क्षेत्रों में पाये जाते हैं, जहाँ वायु काफी समय से एक ही दिशा में बह रही हो। इनकी संरचना वायु की दिशा से लम्बवत् होती है। इन टीलों का शीर्ष वायु के विपरीत तथा रचना अर्द्ध-चन्द्राकार आकृति में होती है। वायु द्वारा निर्मित टीलों से बालू के कण मध्य भाग से उड़ते रहते हैं, जिससे मध्य भाग धीरे-धीरे खोखला हो जाता है। (ii) समानान्तर बालुका-स्तूप, (Longitudinal Sand-Dunes)-इस प्रकार के बालुका-स्तूप की रचना एक विशेष परिस्थिति में होती है। इनकी आकृति पहाड़ी जैसी होती है। वायु की प्रवाह दिशा के समानान्तर लगातार इनका निर्माण होता रहता है। सहारा मरुस्थल में ऐसे टीलों को ‘सीफ’ नाम से पुकारा जाता है। विश्व में ऐसे बालुका स्तूप अधिक पाये जाते हैं, क्योंकि ये अधिक समय तक स्थिर रहते हैं। (iii) अर्द्ध-चन्द्राकार बालुका-स्तूप (Parabolic Sand-Dunes)-ऐसे स्तूप की रचना वायु की दिशा के तीव्र प्रवाह के विपरीत बालू को मार्ग में एकत्रित करने से होती है। इनका आकार लम्बाई में अधिक होता है। इन स्तूपों का ढाल वायु की दिशा की ओर मन्द तथा विपरीत दिशा में तीव्र होता है। इन पर वनस्पति उग आती है जिससे ये आगे-पीछे नहीं खिसक पाते। इन टीलों का निर्माण बहुत कम होता है। बालुका-स्तूपों का पलायन या खिसकना (Migration of Sand-Dunes)– अधिकांश बालुका स्तूप अपने स्थान पर स्थिर नहीं रहते तथा अपना स्थान परिवर्तन करते रहते हैं। बालुका टिब्बों के इस स्थान परिवर्तन को पलायन कहा। जाता है। इससे इन स्तूपों का आकार कम होता रहता है, परन्तु कुछ टीले इस : प्रक्रिया में नष्ट भी हो जाते
हैं। वायु की दिशा के सामने से बालू-कण शिखर पर पहुँचकर विपरीत ढाल पर एकत्रित होते रहते हैं। इससे वायु के सामने का भाग छोटा और ढाल बढ़ता जाता है। जब अधिक समय तक यही प्रक्रिया होती रहती है तो बालुका-स्तूप वायु की दिशा में स्थानान्तरित होने लगते हैं। टिब्बों का पलायन सभी स्थानों पर समान गति से नहीं होता। पलायन की गति स्थानीय परिस्थितियों पर निर्भर करती है। प्रायः बालुका टिब्बों का पलायन कुछ मीटर प्रतिवर्ष की दर से अधिक नहीं होता, परन्तु कहीं-कहीं पलायन की गति 30 मीटर वार्षिक की दर से अधिक पायी जाती है। संयुक्त राज्य के ओरेगन तट पर विशाल बालुका टिब्बा लगभग 1.2 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पलायन कर रहे हैं। (iv) बरखान (Barkhans)- ऊँची-नीची पहाड़ियों के मध्य बरखान पाये जाते हैं। कभी-कभी ये इधर-उधर भी बिखर जाते हैं। सहारा
मरुस्थल में बरखान के बीच आने-जाने का रास्ता भी होता है, जिसे गासी और कारवाँ के नाम से जानते हैं। इनकी आकृति भी अर्द्ध-चन्द्राकार एवं धनुषाकार होती है। वायु की दिशा बदलने पर बरखान की स्थिति में भी परिवर्तन आ जाता है। इनका आकार 100 मील तक लम्बा तथा 600 फीट तक ऊँचा होता है। बरखान के सामने वाला। ढाल मन्द तथा विपरीत वाला ढाले अवतल होता है। 3. लोयस (Loess)-वायु में मिट्टी के बारीक कण लटके रहते हैं। ये दूर-दूर जाकर वायु द्वारा निक्षेपित कर दिये जाते हैं। इस प्रकार वायु द्वारा उड़ाई गयी धूल-कणों के निक्षेप से निर्मित स्थल स्वरूपों को लोयस कहा जाता है। लोयस के निर्माण के लिए धूल आदि आवश्यक सामग्री मरुस्थलीय भागों की रेत, नदियों के बाढ़ क्षेत्र, रेतीले समुद्रतटीय क्षेत्र तथा हिमानी निक्षेपण जनित अवसाद मिलना अति आवश्यक है। लोयस का जमाव समुद्रतल से लेकर 5,000 फीट की ऊंचाई तक पाया जाता है। इसका रंग पीला होता है जिसका प्रमुख कारण ऑक्सीकरण क्रिया का होना है। विश्व में लोयस की मोटाई 300 मीटर तक पायी जाती है। चीन में ह्वांगहो नदी के उत्तर व पश्चिम में लोयस के जमाव मिलते हैं। 4. धूल-पिशाच (Dust-Devil)-इस क्रिया में धूल के कण वायु द्वारा ऊपर उठा दिये जाते हैं। वायु में भंवरें उत्पन्न होने के कारण धूल के महीन कण ऊपर उठकर एक पिशाच का रूप धारण कर लेते हैं। इसे ही ‘धूल-पिशाच’ कहा जाता है। 5. बजादा (Bajada)-मरुस्थलों में अचानक ही वर्षा हो जाने से बाढ़ आ जाती है। अस्थायी नदियाँ तीव्र ढालों पर घाटियाँ काट लेती हैं। ढाल का मलबा तीव्रता से कट जाता है तथा नीचे की ओर जलोढ़ पंख का निर्माण हो जाता है। जब किसी बेसिन में इस प्रकार के कई पंख एक साथ मिल जाते हैं तो एक गिरिपदीय,ढाल क्षेत्र बन जाता है, जिसे ‘बजादा’ कहा जाता है। 6. प्लाया (Playa)-मरुस्थलों में भारी वर्षा होने के कारण कहीं पर गड्ढा-सा बन जाता है। यहाँ पर जल भर जाने से झील निर्मित हो जाती है। ऐसी झीलों को प्लाया झील कहते हैं। 7. बोल्सन (Bolson)-यदि किसी पर्वत से घिरे विस्तृत मरुस्थल के निचले भाग की ओर नदियाँ बाढ़ के समय अवसाद गिराती हैं तो बेसिन का फर्श जलोढ़ मिट्टी से भर जाता है। ऐसे बेसिनों को ‘बोल्सन’ कहते हैं। प्रश्न 4. भूमिगत जल के अपरदनात्मक कार्य एवं उनसे उत्पन्न स्थलाकृतियों की विवेचना कीजिए। भूमिगत जल द्वारा अपरदनात्मक कार्य भूमिगत जल का अपरदन कार्य अन्य कार्यों की अपेक्षा कम महत्त्वपूर्ण एवं मन्द गति वाला होता है। यह जल चुनायुक्त प्रदेशों में रन्ध्रयुक्त शैलों में प्रवेश कर जाता है। इसी कारण यह स्वतन्त्र रूप से कार्य नहीं कर पाता। भूमिगत जल द्वारा यान्त्रिक अपरदन वर्षा ऋतु में अधिक होता है, जबकि रासायनिक अपरदन अबैध गति से चलता रहता है। वर्षा का जल भूमि में प्रवेश कर कार्बनयुक्त हो जाता है जिससे वह रासायनिक क्रिया कर चट्टानों को अपने में घोल लेता है तथा विचित्र प्रकार की स्थलाकृतियों को जन्म देता है। इसके अपरदन कार्यों (घोलन) द्वारा निम्नलिखित स्थलाकृतियों का निर्माण होता है अपरदनात्मक स्थलाकृतियाँ 2. घोल रन्ध्र (Sink or Solution Holes)-वर्षा का जल चुनायुक्त प्रदेशों में सक्रिय रहने के कारण पहले छोटे-छोटे छिद्रों का निर्माण करता है। बाद में इन छिद्रों का आकार बड़ा हो जाता है, जिन्हें घोल रन्ध्र कहा जाता है। यह प्रक्रिया अवकूट के बाद में होती है। इनकी गहराई 3 मीटर से 30 मीटर तक पायी जाती है। इन्हें ‘ऐवंस’ तथा ‘स्वालो होल्स’ के नाम से भी पुकारते हैं। 3. युवाला या विलयन रन्ध्र (Uvalas)-घोल रन्ध्र परस्पर मिलकर बड़े छिद्रों का निर्माण करते हैं; अर्थात् घोल रन्ध्र से बड़ी भू-आकृति को विलयन रन्ध्र कहते हैं। कभी-कभी आकार इतना विस्तृत होता है कि इनमें भूमिगत नदियों का लोप हो जाता है जिनसे उनकी धरातलीय घाटियाँ सूख जाती हैं। कभी-कभी इनका निर्माण गुफा के नीचे पॅस जाने से भी होता है। छोटे-छोटे विलयन रन्ध्रों को जामा’ कहते हैं। इन्हें सकुण्ड भी कहा जाता है। 4. पोल्जे या राजकुण्ड (Polje)-सकुण्डों से अधिक बड़े गत को ‘राजकुण्ड’ कहते हैं। वास्तव में यह सकुण्ड का विस्तृत रूप होता है। अनेक सकुण्डों के मिलने से राजकुण्डे का निर्माण होता है। इनका आकार प्रायः 259 वर्ग किमी तक देखा गया है। इन्हें ‘काकपिट’ भी कहा जाता है। इनका विकास जमैका में अधिक हुआ है। 5. पॉकिट घाटियाँ (Pocket Valleys)-इन घाटियों को ‘स्टीप हैड’ भी कहा जाता है। अनेक स्थानों पर मूंगे की चट्टानें इतनी पारगम्य होती हैं कि उनके तीव्र ढाल वाले मुख के आधार से जल । रिसता रहता है। यहाँ पर गड्ढे उत्पन्न हो जाते हैं जिनका सिर सीधा तथा फर्श समतल होता है। घुलन क्रिया द्वारा जब गड्ढे बड़े हो जाते हैं तो इन्हें पॉकिट घाटियाँ भी कहते हैं। 6. अन्धी घाटियाँ या कार्स्ट घाटियाँ (Blind Valleys or Karst Valleys)-जब धरातलीय नदियाँ घोल रन्ध्र, विलयन रन्ध्र आदि छिद्रों से प्रवेश करती हैं तो आगे चलकर अचानक ही इनका जल समाप्त हो जाता है। यदि वर्षा अधिक हो जाये तो नदियाँ कुछ दूर आगे बहने लगती हैं। इस नदी घाटी का आकार अंग्रेजी के ‘U’ अक्षर की भाँति होता है। जैसे ही वर्षा की मात्रा कम होती है, इन घाटियों का जल छिद्रों द्वारा नीचे बहता जाता है एवं घाटी सूख जाती है। इन्हें ही ‘अन्धी घाटियाँ’ अथवा ‘कार्ट घाटियाँ’ कहा जाता है। 7. शुष्क लटकती घाटियाँ (Dry Hanging Valleys)-इन्हें ‘बाउरनेज’ नाम से भी पुकारा जाता है। जो नदियाँ चूना क्षेत्रों के बाहर से बहती हुई आती हैं, वे अपरदन द्वारा अपना मार्ग गहरा काट लेती हैं। इससे वहाँ का जल-स्तर नीचा हो जाता है। इन नदियों की सहायक नदियाँ, जो चूने या चॉक क्षेत्रों में प्रवाहित होती हैं, अधिक जल से युक्त नहीं होतीं तथा उनका जल घोल रन्ध्रों आदि से भूमिगत मार्गों द्वारा बह जाता है जिससे ये शुष्क दिखाई देती हैं। इन्हें शुष्क घाटियाँ कहते हैं। कुछ समय पश्चात् इनको तल मुख्य नदी की अपेक्षा इतना ऊँचा हो जाता है कि इन्हें, शुष्क निलम्बी घाटियाँ अथवा शुष्क लटकती घाटियाँ कहने लगते हैं। 8. हम्स या चूर्ण कूट (Hums)-जब किसी अपारगम्य शैल पर स्थित चूने की शैल घुलन-क्रिया द्वारा पूर्णतया नष्ट हो चुकी होती है तो उसके अन्तिम अवशेष को हम्स या चूर्ण कूट कहते हैं। इनका दूसरा नाम ‘मोनाडनाक’ भी है। 9. टेरा-रोसा (Terra-Rossa)-भूमि द्वारा जब वर्षा का जल सोखा जाता है तो धरातल की ऊपरी | पपड़ी के अनेक अंश घुलकर बह जाते हैं जिससे इस मिट्टी की रासायनिक संरचना में परिवर्तन हो जाता है। प्रायः इस क्रिया में लाल मिट्टी का निर्माण होता है। इसकी परतें कहीं-कहीं मोटी होती हैं। तथा कहीं पर महीन जिससे यह धरातल को ढक लेती है। इन्हें ही ‘टेरा-रोसा’ कहा जाता है। भूमिगत जल का परिवहन कार्य मन्द गति होने के कारण भूमिगत जल का परिवहन कार्य अधिक महत्त्व नहीं रखता। वर्षा के जल में कार्बन डाइऑक्साइड गैस होने के कारण इसकी घोलन शक्ति बढ़ जाती है जिससे यह चट्टानों को आगे की ओर बहा ले जाता है। भूमिगत जल घोल के रूप में अधिक कार्य करता है, परन्तु धरातल पर प्रत्यक्ष रूप में इससे कोई भू-आकृति नहीं बनती। यही कारण है कि भूमिगत जल का परिवहन कार्य अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है। भूमिगत जल का निक्षेपणात्मक कार्य भूमिगत जल का निक्षेपण कार्य अधिक महत्त्व रखता है, क्योंकि जल में खनिज लवणों को घोलने की अपार शक्ति होती है। इस जल में मैग्नीशियम, कैल्सियम कार्बोनेट, सिलिका एवं लोहांश की अधिकता होती है। इन खनिज लवणों की अधिकता के कारण यह जल अधिक आगे नहीं बढ़ पाता; अतः उसको निक्षेपण प्रारम्भ हो जाता है। निक्षेपण की इस क्रिया के लिए निम्नलिखित दशाओं का होना आवश्यक है-
निक्षेपणात्मक स्थलाकृतियाँ । 2. सीमेण्ट (Cement)-ढीले तलछट में जब भूमिगत जल सिलिका, कैल्सियम कार्बोनेट, आयरन ऑक्साइड आदि का निक्षेप मिला देता है तो यह तलछट कठोर होकर ठोस रूप धारण कर लेती है। भूमिगत जल द्वारा निक्षेप किये गये ऐसे पदार्थ सीमेण्ट कहलाते हैं। 3. स्टेलेक्टाइट (आश्चुताश्म) (Stalactite)-जब कन्दरा की ऊपरी छत से चूनायुक्त अवसाद रिस-रिसकर नीचे फर्श पर टपकता रहती है तो यह अवसाद अपने साथ घुलन क्रिया द्वारा प्राप्त पदार्थों को समाविष्ट किये रहता। है। इस जल की कार्बन डाइ ऑक्साइड उड़ जाती है और जल में
घुला कैल्सियम कार्बोनेट छत पर अन्दर की ओर जम जाता है। ये जमाव लम्बे किन्तु पतले स्तम्भों के रूप में होते हैं। ये कन्दरा की छत की ओर बढ़ते जाते हैं। इन लटकते हुए स्तम्भों को स्टेलेक्टाइट कहा जाता है। चूंकि स्तम्भ ऊपर से नीचे की ओर लटके रहते हैं; अतः इन्हें ‘आकाशी स्तम्भ’ भी कहते हैं। ये स्तम्भ छत की ओर मोटे होते हैं और नीचे की ओर पतले, इसलिए इन्हें ‘अवशैल’ भी कहा जाता है। 4. स्टेलेग्माइट (निश्चुताश्म) (Stalagmite)-कन्दरा की छत से रिसने वाले जल की मात्रा यदि अधिक होती है तो वह सीधे टपककर कन्दरा के फर्श पर निक्षेपित होना प्रारम्भ हो जाता है। धीरेधीरे निक्षेप द्वारा इन स्तम्भों की ऊँचाई ऊपर की ओर बढ़ने लगती है। इस प्रकार के स्तम्भों को स्टेलेग्माइट कहा जाता है। फर्श की ओर ये मोटे तथा विस्तृत होते हैं, परन्तु ऊपर की ओर पतले तथा ‘नुकीले होते हैं। कन्दरा स्तम्भ 5. कन्दरा स्तम्भ (Cave- Pillars)-स्टेलेग्माइट की अपेक्षा स्टेलेक्टाइट अधिक लम्बे होते हैं। निरन्तर बढ़ते जाने के कारण स्टेलेक्टाइट कन्दरा के फर्श पर पहुँच जाता है। इस प्रकार के स्तम्भ को कन्दरा-स्तम्भ कहते हैं। कभी-कभी स्टेलेक्टाइट एवं स्टेलेग्माइट दोनों के एक-दूसरे की ओर बढ़ने से तथा आपस में मिलने से भी कन्दरा-स्तम्भों का निर्माण हो जाता है। प्रश्न 5. समुद्र विभेदी अपरदन क्या है? इस क्रिया द्वारा निर्मित मुख्य स्थलाकृतियों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
सागरीय तरंगों द्वारा तीन प्रकार से अपरदन कार्य सम्पन्न होता है
स्थलाकृतियाँ-सागरीय तरंगों की अपरदन क्रिया से समुद्री भृगु, गुफा, स्टैक तथा मेहराब आदि स्थलाकृतियाँ निर्मित होती हैं। 2. समुद्री गुफा-जब ऊपरी चट्टान कठोर तथा निचली चट्टान कोमल होती है तो सागरीय तरंगें नीचे की कोमल चट्टान का कटाव कर देती हैं तथा ऊपर की कठोर चट्टान बनी रहती है। इस प्रकार समुद्री गुफा बन जाती है। ऊपरी कठोर चट्टान इतनी दृढ़ होती है कि वह बिना आधार के भी टिकी रहती है। 3. समुद्री मेहराब-जब सागरीय तरंगें गुफा के दोनों ओर से अपरदन करती हैं तो चट्टान के आर-पार एक सुरंग बन जाती है और चट्टान का ऊपरी भाग पुल की तरह बना रहता है। इसे समुद्री मेहराब या प्राकृतिक पुल (Natural Bridge) कहते हैं। We hope the UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 7 Landforms and their Evolution (भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Geography: Fundamentals of Physical Geography Chapter 7 Landforms and their Evolution (भू-आकृतियाँ तथा उनका विकास), drop a comment below and we will get back to you at the earliest. ग बालुका स्तूप क्या है इसका निर्माण कैसे होता है?इसका निर्माण कैसे होता है? उत्तर : मरुस्थलीय प्रदेशों में जब पवन के मार्ग में कोई बाधा होती है तब पवन का वेग कम हो जाता है, जिससे पवन के साथ उड़ने वाले पदार्थ धरातल पर गिरकर बालू के टीलों का निर्माण करते हैं। इन्हें बालुका स्तूप कहते हैं।
बालुका स्तूप का प्रकार कौन कौन से हैं?आकार तथा स्थिति के अनुसार बालुका स्तूप मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं- अनुदैर्ध्य, अनुप्रस्थ तथा परवालयिक स्तूप। सीफ स्तूप (seif dune) और बरखान बालुका स्तूप के ही विशिष्ट रूप हैं।
बालुका स्तूप कहाँ स्थित है?➧तारा बालुका स्तूप राजस्थान में जैसलमेर जिले में पाये जाते है।
अनुप्रस्थ बालुका स्तूप कौन से होते हैं?(स) अनुप्रस्थ बालुका स्तूप (Transverse sand dunes) – इनका विस्तार वायु की दिशा के लम्बचत होता है। इनकी आकृति अर्द्धचंद्राकार होती है। जब हवा दीर्घकाल तक एक ही दिशा में चलती रहती है तब इनका निर्माण होता है।
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