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Email(s): Email ID Not Available DOI: Not Available Address: डाॅ. देवेन्द्र कुमार1, डाॅ. अब्दुल सत्तार2, श्रीमती भारती कुलदीप3 Published In: Volume - 8, Issue - 4, Year - 2020 Cite this article: ''क्या मौसम के इस तेवर से तुम्हारा दिल दहल नहीं जाता? इस बार जरुर फसल बहुत खराब होगी.....और कीमतें आसमान छू रही होंगी- इनके साथ ही एक अपूर्व कमी होगी रोजगार की, जिसकी कल्पना से ही लगता है कि शरीर का मांस कंकाल से अलग होकर गिरने लगेगा-एक तिहाई आबादी मर-खप जाएगी-बेहतर होता कि इन लोगों को गलियों, सड़कों पर निकाल कर इनकी गर्दने ही काट देते, ठीक उसी तरह जैसा कि हम पालतू सूअरों के साथ करते हैं।'' (रिकार्डो के नाम मिल के पत्र का अंश, अमर्त्य सेन की पुस्तक से उद्वत½ है। संपन्न धान बीजों के प्रसार के नाम पर स्थानीय जैविक संपदा को खत्म करने के साथ ही रासायनिक खाद और कीटनाशकों को छत्तीसगढ़ के बाजार में खपाया गया। इससे फसल तो बढ़ी पर लाभान्वित सिर्फ बड़े किसान हुए वह भी कुछ वर्षों के ही लिए। छोटे किसान भूमिहीन हो गए। हलों का स्थान ट्रेक्टरों ने लिया,ग्रामीण रोजगार की संभावना लगातार कमतर होती गई। नवोदित राज्य छत्तीसगढ़ का वर्तमान परिदृश्य विचित्र विरोधाभासी है, जहां शहरी जनता इस नए राज्य के उदय का जश्न मनाते हुए इसका अधिकाधिक लाभ उठा लेने की फिराक में है, वहीं ग्रामीण जनता अपने उदर-पोषण के लिए, आस-पास में कहीं भी किसी रोजी-रोजगार की संभावना के अभाव में पलायन करने को विवश है। यह पलायन इलाहाबाद क्षेत्र या मिर्जापुर, मेरठ या दिल्ली, पंजाब, कश्मीर, सूरत या कहीं भी दूर प्रदेशों तक हो सकता है। इस बार के सूखा-अकाल ने शहरी बनाम ग्रामीण के भेद को अत्यंत स्पष्ट कर दिया है क्योंकि सूखे का दुष्प्रभाव अभी गांवो तक ही सीमित है, शहर इससे पूरी तरह अप्रभावित है। स्थानीय अखबारों में ग्रामीण इलाकों से छत्तीसगढ़ी मजदूरों के पलायन की खबरों अगस्त महीने से ही प्रकाशित होने लगी थी। ग्रामीण रोजगार आश्वासन योजना (इ.जी.एस.) के बावजूद लगातार वृद्धिगत क्रमों में पलायन करते गए और आज तक यह सिलसिला बिना किसी व्यवधान के जारी है। नवोदित राज्य छत्तीसगढ़ के गठन तथा इस राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री के मनोनयन तक हर किसी राजनेता या नौकरशाह ने इस समस्या को नजरअदांज ही किया, यद्यपि उनका ऐसा करना लोकतांत्रिक भावना के अनुकूल नहीं था। रायपुर के सासंद और केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री श्री रमेश बैस ने सूखा के कारण छत्तीसगढ़ से चार लाख लोगों के पलायन करने संबंधी बयान देकर शासन और प्रशासन को इस दिशा में कुछ करने को मजबूर किया। छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत गैर-सरकारी, स्वयंसेवी संगठनों ने अपने-अपने इलाकों से 75 फीसदी तक मजदूरों की पलायन की बातें की अब तो सरकारी आंकड़े भी पलायन करने वालों के आंकड़े एकाधिक लाख बताते हुए इस आंकड़ों को अपूर्ण होना स्वीकार कर रहे हैं और वास्तविक पलायनकर्ताओं की तादाद इससे दो गुनी से भी अधिक हो सकती है, ऐसा मानने लगे हैं। अब भी जो लोग गांवों में रह रहे हैं वे या तो उन भाग्यशाली लोगों में से हैं जिनके पास रहने, खाने के लिए अगले साल भर का इंतजाम है या फिर ऐसे लोग हैं जो शारीरिक अस्वस्थता के कारण बाहर नहीं जा सकते, उन्हें हर हाल में यहीं जीना है या मरना है। छत्तीसगढ़िया मजदूरों का मजदूरी की तलाश में महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश,
छत्तीसगढ़ का कृषि जलवायुभौगोलिक दृष्टि से छत्तीसगढ़ उप-आर्द्र जलवायु का क्षेत्र कहा जाता है। औसतन 1400 मिलीमीटर वार्षिक वर्षा के क्षेत्र को भौगोलिक दृष्टि से तीन इकाइयों में बांटा गया है:- (1) बस्तर का पठार : इसके अंतर्गत कांकेर तहसील के अलावा संपूर्ण बस्तर संभाग आता है। रबी के मौसम में उत्तारी पहाड़ी क्षेत्र में 106 मी.मी. वर्षा होती है जिससे बिना किसी सिंचाई व्यवस्था के भी वहां कुछ रबी फसलें हो जाती हैं शेष छत्तीसगढ़ में इसकी संभावना नगण्य है। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर के मौसम वैज्ञानिक डॉ. शास्त्री ने उपरोक्त जानकारियों के अलावा यह बताया कि पिछली एक शताब्दि में वर्षा की अस्थिरता भी देखी गई है। इसका सबसे ज्यादा प्रभाव महासमुंद और देवभोग में हुआ है, जहां अब 1400 से घटकर 1000 मि.मी. ही वर्षा होती है। महासमुंद क्षेत्र में वर्षा की कमी होना वहां से हर साल होने वाली पलायन का एक मूल कारण हो सकता है। छत्तीसगढ़ राज्य के तीनों कृषि जलवायु की विभाजित इकाइयों में भिन्न-भिन्न वर्षा औसत में श्रेष्ठ उत्पादकता देने की क्षमता सम्पन्न हजारों किस्म के धान की किस्में हैं जिनमें अवर्षा और अतिवर्षा में भी अच्छे उत्पादन देने की क्षमता है जो हजारों साल से इस इलाके के किसानों को पालते-पोषते रहे हैं। देशी धान के बीज की इसी विशिष्टता के आधार पर देश प्रेमी कृषि वैज्ञानिक डॉ. राधेलाल हरदेव रिछारिया ने म.प्र. चावल शोध संस्थान रायपुर में इनका संकलन करके इनमें ही आवश्यकतानुसार संकर अत्यंत किस्में पैदा करने की योजना बनाई थी और प्रंशसनीय कार्य भी किया किन्तु साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था ने इस देश प्रेमी वैज्ञानिक के शोध को बीच में खत्म करा दिया और धान की हजारों किस्में जो डॉ. रिछारिया ने दूर-दूर से एकत्रित की थीं उन्हें भी चोरी-छिपे अंतर्राष्ट्रीय चावल शोध संस्थान मनीला भिजवा दिया गया। इससे भी ज्यादा दुर्भाग्य जनक यह है कि उनके शोध के दस्तावेजों को भी सरकारी या विश्वविद्यालय स्तर पर हिफाजत से नहीं रखा गया न ही उनका प्रकाशन हुआ। उपरोक्त विवेचना से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि सिर्फ खेती से साल भर मजदूरी पाने की संभावना छत्तीसगढ़ में है ही नहीं। यानी जिन ग्रामीणों को सिर्फ मेहनत-मजदूरी करके ही आजीविका चलानी है उन्हें रोजी की तालाश में अन्यत्र जाना ही होगा। छत्तीसगढ़ में अकाल का इतिहास
अकाल और हस्तक्षेप
पलायन, धर्मपरिर्वतन और प्रवास19वीं सदी का उत्तरार्ध न केवल ऐतिहासिक अकालों के लिए वरन् इसके कारण हुए राजनीतिक उथल-पुथल के कारण भी ऐतिहासिक महत्व का रहा। इसी दौर में हुए एक अकाल के दौर में सोनाखान के आदिवासी बिंझवार जमींदार नारायण सिंह ने कसडोल के सूदखोर जमींदार से अनाज की मांग की थी जिसके इंकार करने पर उसकी अगुवाई में अनाज की कोठियां लूटकर उसे अकालग्रस्त लोंगों में बांटा और जब सूदखोर साहूकार की सहायता के लिए अंग्रेज हुकूमत ने हस्तक्षेप किया तो वीरनारायण सिंह के रातनीतिक विद्रोह ने अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध छत्तीसगढ़ में क्रांति की मिसाल बन कर 1857 में शहीद होकर अमरत्व प्राप्त किया। इसके बाद ही छत्तीसगढ़ में रेल लाइनें बिछी जिसने छत्तीसगढ़ के लोगों को मिट्टी खोदने/काटने व बिछाने के काम में मजदूरी दी। रेल की पटरियों के बिछने के साथ ही छत्तीसगढ़ से मजदूरों के पलायन का इतिहास भी शुरु हुआ। इसी समय असम में चाय बागान लगाए जा रहे थे। इसके लिए बड़ी तादाद में स्थायी मजदूरों की जरुरत थी। इसके लिए बिलासपुर में एक भर्ती कार्यालय खुला जहां से हजारों की तादाद में मजदूर परिवारों को असम ले जाया गया जो प्राय: एक बार यहां से जाने के बाद कभी वापस न आ सके। इनमें सबसे ज्यादा तादाद बिलासपुर के सतनामियों की थी जो परंपरागत रूप से तालाब निर्माण में सिद्धहस्त श्रमिक थे। इसी समुदाय की धार्मिक नेता स्व. मिनीमाता थीं जिनका जन्म असम के ही चाय बागान में हुआ था पर अपवाद स्वरूप वह वापस छत्तीसगढ़ आई और उन्होने इस क्षेत्र का संसद प्रतिनिधित्व भी किया था। इसके ठीक पहले, छत्तीसगढ़ में ईसाई मिशनरियों का आगमन भी इसी दौर में हुआ। उन्नीसवीं सदी के सातवें दशक में ही विश्रामपुर,बैतलपुर और परसाभदेर गांव बसाये गए। ईसाई मिशनरियों द्वारा बसाये गए गांवों की शतप्रतिशत आबादी ऐसे लोगों की थी जिन्होंने सतनामी से अपना धर्म परिवर्तन करके मसीहत स्वीकार किया था। बैलगाड़ियों पर नागपुर से आए मिशनरियों ने अकाल और ब्रिटिश हुकूमत का लाभ उठाकर मैदानी इलाके में ही नहीं बस्तर जैसे दुर्गम क्षेत्र में भी चर्च स्थापित किए इस धर्म परिवर्तन से पाश्चात्य शिक्षा व स्वास्थ्य सेवा की छत्तीसगढ़ में शुरुआत हुई साथ ही आंशिक रूप से पलायन पर भी अस्थायी रोक लगी। ब्रितानी हुकूमत ने बार-बार पड़ने वाले अकालों के दृष्टिगत यह माना कि <''काम करने योग्य लोगों को अभाव के वर्षों में काम देना सरकार की जिम्मेदारी है किन्तु शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को राहत पहुंचाने का दायित्व धर्मादा निकायों को निभानी चाहिए।'' कुछ वर्षों के बाद ही ब्रितानी हुकूमत को अपनी धारणाओं को बदल कर यह निश्चित किया कि ''सरकार का उद्देश्य हर एक के जीवन की रक्षा करना है'' पहली बार इसकी घोशणा 1868-69 में हुई। इसके बाद ब्रितानी हुकूमत ने और आगे बढ़कर 1877 में सिद्धांत: यह स्वीकार किया कि सरकार को भुखमरी से हर एक व्यक्ति के जीवन की सुरक्षा के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। लम्बे समय तक अधिकाधिक लोगों को मजदूरी देने के लिए ही ब्रितानी सरकार ने बालोद के निकट आदमाबाद, धमतरी के निकट रुद्री आदि सिंचाई परियोजनांए 20वीं सदी की शुरुआत में प्रांरभ किए जिससे पहले 1890 से 1900 के बीच लागातार कई अकाल पड़े थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ऐसे सिंचाई के उपक्रम साठ के दशक में खरखरा, गंगरेल आदि के नाम पर भी किए गए थे। 1878 में अकाल से राहत देने की प्रविधि बनाने के लिए अंग्रेजों ने पहला अकाल आयोग गठित किया था जिसे तत्कालीन सरकार ने स्वीकार भी किया और उसी की संस्तुतियां 1973 के अकाल संहिता में म.प्र. की सरकार ने भी अक्षरश: स्वीकार किया जिसके तहत निम्नलिखित निर्देश दिए गए है:- (क) अभाव की स्थिति से निपटने
सदा तैयार रहना। उपरोक्त निर्देशों के व्यवस्थित संचालन के लिए रोजगार आश्वासन योजना बनाकर सबसे पहले महाराष्ट्र की सरकार ने मजदूरों को उनके निवास स्थान से 5 कि.मी. के दायरे में ही राहत देने का काम किया। इसके सफल संचालन से 1972-73 के अकाल में महाराष्ट्र की सरकार ने प्रभावकारी श्रेय हासिल किया जिसकी देखा-देखी अन्य राज्यों ने भी इस (ई.जी.एस.) को स्वीकार किया। इसके लिए आवश्यकतानुसार उद्योगों तथा व्यापारियों से राहत के लिए कर वसूले गए। वर्तमान परिदृश्यमानसूनी वर्षा इस साल हुई 40 प्रतिशत कमी ने पूरे छत्तीसगढ़ किसानों और कृषि मजदूरों को पंगु बना दिया और समय से पहले ही बेकारी की स्थिति ने इन्हें रोजी-रोटी की तालाश में दूर-दूर तक पलायन के लिए मजबूर कर दिया। इस साल अगस्त के महीने से ही ग्रामीण मजदूरों के पलायन का सिलसिला शुरु हो गया था जो सामान्यत: कृषि कार्य का सबसे महत्वपूर्ण महीना होता है, जिसमें ब्यासी, रोपा व निंदाई हुआ करती है। दुखद तथ्य यह है कि अगस्त से लेकर नवम्बर तक चार महीनों मे लाखों मजदूर पलायन कर गए पर तब तक कहीं भी किसी बड़े राहत कार्य की शुरुआत नहीं हो पाई। जब पलायन की गति सर्वाधिक थी उसी बीच छत्तीसगढ़ राज्य के गठन और प्रथम मुख्यमंत्री के मनोनयन को लेकर हर राजनेता व्यस्त थे, नए राज्य के मंत्रियों और मंत्रालयीन कर्मचारियों के लिए बंगलों और आवास की खोज में अधिकारीगण व्यस्त थे ऐसे में गरीब छत्तीसगढ़िया किसान-मजदूरों के कारण लोकतंत्र के सबसे बड़े जश्न को छोड़कर भला राहत की चिन्ता कैसे की जा सकती थी? विरोधी पार्टी के नेताओं ने भी इस मामले पर वांछित जोर नहीं दिया। छुट-पुट बयानों से राहत देने की नाकाम कोशिश की गई और केन्द्र ने एक समिति भेजी जिसने भ्रमण करके अपनी रिपोर्ट केन्द्र को सौंपी। छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने केन्द्र से 500 करोड़ के राहत कार्य की मांग के बिना किसी ठोस प्रस्ताव के राहत कार्य कहां कैसे और कब तक चलेंगे। इस बार समय पर राहत कार्य के न खोले जाने से सरकार के जिला सरकार और सरकार आपके द्वार, पंचायती राज से सत्ता के विकेन्द्रीकरण के सारे दावों प्रश्नचिह्न लग गया। अंग्रेज सरकार द्वारा 120 साल पहले मान्य स्वीकृतियों को भी लागू न कर पाया गांधी के सपनों को भारत बनाने का दावा करने वालों की घोर विफलता को ही रेखांकित करता है। 3 जुलाई, रथयात्रा पर्व के दिन इस बार एक बूंद भी बारिश नहीं हुई जिसने स्थानीय लोगों की इस मान्यता को ही सही सिद्ध कर दिया कि ''रथयात्रा सूखा तो किसान भूखा'' सूखे की खबरें 2 अगस्त से छापने लगीं। सिलियारी, सरायपाली आदि से सूखे की वजह से फसल नष्ट होने की खबरों के बीच ही। एक अगस्त को संयुक्त राष्ट्र आपदा राहत कोष के संयोजक के हवाले से यह खबर भी प्रकाशित हुई कि एशिया के 6 करोड़ लोगों को सूखे से राहत देने के लिए एक सुनियोजित कार्यक्रम जरुरी है। बिगड़ती हुई हालातों के बीच पूर्व सांसद संत पवन दीवान और पूर्व मंत्री धनेन्द्र साहू ने कृषि आधारित अर्थव्यवस्था की छत्तीसगढ़ के परिप्रेक्ष्य में छत्तीसगढ़ की आर्थिक योजना बनाने की मांग की। गरियाबंद, राजिम आदि क्षेत्रों से भी सूखे और पलायन की खबरें आने लगी। छत्तीसगढ़ के बुजुर्ग व्यवसायी, कांग्रेसी नेता, उद्योगपति और ''राइस किंग'' के रूप में विख्यात सेठ नेमीचंद श्रीमाल न बताया कि पिछले चार दशकों में उन्होने ऐसा भीषण अकाल कभी न देखा था। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के मौसम विज्ञानी डॉ. शास्त्री ने सांख्यिकीय विवरण देते हुए बताया कि ऐसा अकाल साठ साल पहले एक बार हुआ था। जिसे मिलाकर? विगत 100 सालों में यह स्थिति तीसरी बार बनी है। छत्तीसगढ़ की 800 चावल मिलों में से 700 बंद पड़ी हुई हैं सिर्फ 100 चावल मिलें ही कार्यरत हैं। ये वहीं मिलें हैं जिन्हें शुरुआती सालों में लेव्ही और टैक्स में रियायतें मिल रही हैं। चावल मिल मालिक संघ-अकाल के साल में भी लेव्ही नीति बदलने के लिए जोर डाल रहा है और वस्तुत: अकाल के बावजूद बाजार में धान की कमी न होने के कारण नई चावल मिलें भी खुल रहीं हैं जिनमें से एक का उद्घाटन पाटन में छत्तीसगढ़ के मंत्री भूपेश बघेल ने किया। इस विचित्रता को क्या कहेगें कि छत्तीसगढ़ में रबी फसल में उगाए गए धान अब तक उचित मूल्य के अभाव में नहीं बिक सके हैं, खरीफ फसल चौपट हैं, 700 मिलें बंद हैं, नई मिलें भी खुल रही हैं, छत्तीसगढ़ के सारे गोदामों में अनाज अटा-पड़ा है और किसान मजदूर भुखमरी के कारण पलायन कर रहा है। किसानों का क्रोध लखौली में स्पष्ट दिखा जहां बिना किसी संगठित या योजनाबद्ध तरीके के स्वस्फूर्त आंदोलनरत किसानों ने नहर पानी न दिए जाने पर न सिर्फ कलेक्टर से हुज्ज की वरन् एक नेता की कार भी जला दी क्योंकि कलेक्टर ने उन्हें कह दिया था कि गंगरेल बांध का पानी भिलाई इस्पात संयंत्र के लिए सुरक्षित है जो किसी भी हाल में नहरों से खेतों में नहीं दिया जा सकता। औद्योगीकरण से बेरोजगारी बढ़ीयहां इस बात पर ध्यान देना होगा कि पिछले पाँच दशकों में छत्तीसगढ़ में स्थापित भिलाई इस्पात संयंत्र, बैलाडीला लौह अयस्क परियोजना, ए.सी.सी. जामुल, सीमेंट कार्पोरेशन की मांढर व अकलतरा इकाइयां, मोदी (अंबुजा) सीमेंट, टाटा (लाफार्ज) सीमेंट, रेमंड सीमेंट, सेंचुरी सीमेंट, ग्रासीम सीमेंट, लार्सन टूब्रो सीमेंट, दक्षिण-पूर्वा कोयला प्रक्षेत्र, एनटीपीसी थर्मल पावार बालकों आदि संयंत्रों के खुलने से छत्तीसगढ़ के लाखों लोगों को अपनी पैतृक भूमि से बेदखल किया गया, सैकड़ो गाँव खाली कराए गए, छत्तीसगढ़ की जमीन पर ही उद्योग लगे जिसमें पैसा भी जनता का (राष्ट्रीयकृत बैंकों) का ही था पर छत्तीसगढ़ के लोगों को इसका कोई भी लाभ नहीं मिला। इसके विरुद्ध इन्हीं पांच दशकों में उपरोक्त उद्योगों में काम करने के लिए लाखों की तादाद में अन्य राज्यों कें लोगों ने आकर डेरा जमा लिया। छत्तीसगढ़ में हुए औद्योगिक विकास ने सिर्फ पूंजीवादी साम्राज्यवाद की पकड़ को ही घनीभूत किया है। इसी बीच सन् 1962 से फोर्ड फाउंडेशन समर्थित तथा उन पर आधारित हजारों मध्यम एवं लघु औद्योगिक इकाइयों तथा हरित क्रांति के अंतर्गत सघन कृषि विकास भी तत्कालीन रायपुर जिले (रायपुर,महासमुंद, और धमतरी) में शुरु हुई जिसके तहत ताइचुंग ने टिव से शुरु करके अनेक उच्च उत्पादकता संपन्न धान बीजों के प्रसार के नाम पर स्थानीय जैविक संपदा को खत्म करने के साथ ही रासायनिक खाद और कीटनाशकों को छत्तीसगढ़ के बाजार में खपाया गया। इससे फसल तो बढ़ी पर लाभान्वित सिर्फ बड़े किसान हुए वह भी कुछ वर्षों के ही लिए। छोटे किसान भूमिहीन हो गए। हलों का स्थान ट्रेक्टरों ने लिया,ग्रामीण रोजगार की संभावना लगातार कमतर होती गई। देश प्रेमी कृषि वैज्ञानिक डॉ. रिछारिया ने पारंपरिक जैविक विविधता को पुर्नस्थापित करके, देशी बीजों के सवर्धन से ही स्थानीय समस्याओं का समाधान करना चाहा था इसीलिए उनकी परियोजना यकायक बंद कर दी गई और उनके द्वारा संग्रहित हजारों किस्म की बीजों को अंतर्राष्ट्रीय चावल शोध संस्थान मनीला भिजवा दिया गया। छत्तीसगढ़ के जैविक संपदा की इस लूट के क्या अर्थ होते हैं? क्या यह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित के लिए किया गया एक षड़यंत्र नहीं है? पलायन की समस्या का मूल क्या है?सरसरी तौर पर तो यही लगता है कि अल्पवर्षा के कारण ही छत्तीसगढ़ से ग्रामीणों के पलायन की स्थिति बनी पर वस्तुत यह सत्य से परे है। प्रो. अमर्त्य सेन ने लिखा है- यदि हम छत्तीसगढ़ के श्रमिकों के पलायन के चरित्र को गौर से देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि एक बड़ी संख्या में इस क्षेत्र के श्रमिक सामान्य वर्षा के सालों में भी पलायन के लिए बाध्य हैं जो उत्तरी और पश्चिमी भारत के ईट भट्ठों या निर्माण कार्यों पर कमाने जाते हैं। इसका कारण है- (1) स्थानीय किसानों का तेजी से सीमांत कृषकों या भूमिहीन हो जाना। छत्तीसगढ़ में श्रम पलायन का क्या कारण है?छत्तीसगढ़ राज्य के श्रमिकों के प्रवास को पलायन की प्रवृत्ति से जोड़कर देखा जाता रहा है क्योंकि यहां के लघु व सीमांत कृषक तथा भूमिहीन मजदूर मूलनिवास के आस-पास रोजगार की संभावनाओं को तलाषने के स्थान पर सीधे ही देष व राज्य के बड़े नगरों की ओर रोजगार की तलाष में पलायन करते है।
पलायन के कारण क्या हैं?पलायन (गाँव से शहर की ओर)
वर्ष 2001 की जनगणना अवधि के दौरान देश में ज्यादा आर्थिक लाभ वाले शहरों या दूसरे इलाकों में काम करने के लिए 14 करोड़ 40 लाख लोगों ने प्रवास किया। देश में 25 लाख प्रवासी मजदूर कृषि एवं बागवानी, ईंट-भट्टों, खदानों, निर्माण स्थलों तथा मत्स्य प्रसंस्करण में कार्यरत हैं (एनसीआरएल, 2001)।
पलायन क्या है पलायन के कारण क्या हैं पलायन के सामाजिक आर्थिक प्रभाव क्या हैं 10 अंक 150 शब्द?STH-D-ECON भारत में गरीबी उन्मूलन के विभिन्न कार्यक्रमों से वांछित सामाजिक-आर्थिक प्रगति प्राप्त नहीं हुई है ।
पलायन की परिभाषा क्या है?एक स्थान से अन्यत्र चले जाने को पलायन कहते हैं ।
अनौपचारिक क्षेत्र में गरीब आमतौर पर आकस्मिक मजदूरों के रूप में पलायन करते हैं। प्रवासियों की ऐसी जनसंख्या में रोग फैलने की संभावना ज्यादा होती है और उन्हें स्वास्थ्य सेवाओं की सुलभता भी कम होती है।
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