परिचय[संपादित करें] Show विकासवादी मनोविज्ञान यह घ्यान में रखता है कि कैसे हमारे पितर से मिली आनुवंशिक विरासत हमारे व्यवहार को प्रभावित करती है। यह विकासवादी पहुँच यह बताती है कि हमारी कोशिका मे जो रासायनिक संकेतिकरण होती है, वह निर्धारित करती है कि हमारे बाल का रंग क्या होगा और हमारी नस्ल कैसी होगी। यह ही नहीं, यह विकासवादी पहुँच हमे समझाती है कि किस व्यवहार ने हमरे पितर को जीवित रखा और प्रजनन करने में सहायता की। विकासवादी मनोविज्ञान चार्ल्स डार्विन की १८५९ की किताब 'ओन द ओरिजिन ओफ स्पीशिस' में पहली बार देखा गया था। चार्ल्स डार्विन का कहना है कि प्राकृतिक चुनाव कि प्रक्रिया से हम देख सकते है कि जो सबसे योग्य है वह हि जिवित रह सकता है। उनका यह भी कहना है कि हमरे लक्षण के विकास ने ही हमारे जाति को हमारे वातावरण के साथ अनुकूलन करने मे सहायता की है। विकासवादी मनोविज्ञानिकों ने चार्ल्स डार्विन के विचारो पर चर्चा की है। उनका कहना है कि हमारे आनुवंशिक विरासत हमारे भौतिक लक्षण, जैसे हमारे बालों और आँखो का रंग, के साथ हमारे व्यक्तित्व के लक्षण और हमारे सामाजिक व्यवहार के बारे में भी बताता है। उदाहरण, विकासवादी मनोविज्ञानिकों का कहना है कि कुछ व्यवहार जैसे शर्म, ईर्ष्या और अपार सांस्कृतिक समानता जो संभावित साथियों मे वांछित की जाती है, वे कईं हद तक आनुवंशिक विज्ञान से निर्धारित की जाती है। उनका मानना है कि यह इस लिये होता है क्योंकि इस व्यवहार ने मानव के जिवीत रहने कि गति को बढ़ाया है।[1] विकासवादी मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि विकासवादी मनोविज्ञान केवल मनोविज्ञान का एक उप-अनुशासन नहीं है। उनका कहना है कि विकासवादी मनोविज्ञान हमें एक मूलभूल्, सैद्धांतिक ढाँचा तय करता है जिससे सारे मनोविज्ञान का क्षेत्र एकीकृत हो सकता है। विकासवादी मनोविज्ञान के सिद्धांतों और निष्कर्ष के कई क्षेत्रों में प्रयोग हैं। कुछ क्षेत्र हैं -- अर्थशास्त्र, पर्यावरण, स्वास्थ्य, कानून, प्रबंधन, मनोरोग विज्ञान, राजनीति और साहित्य। परिभाषा[संपादित करें]भौतिक और सामाजिक वातावरण के परिवर्तन; विशेष रूप से मस्तिष्क संरचना या संज्ञानात्मक तंत्र का परिवर्तन और व्यक्तियों के बीच व्यवहार मतभेद पर मानव के मनोवैज्ञानिक रूपांतरों के अध्ययन को विकासवादी मनोविज्ञान कहते है। [2] आलोचना[संपादित करें]हालांकि यह विकासवादी मनोविज्ञाना आज-कल बहुत प्रसिद्ध है, इसने कई विवादों को उत्पन्न किय है। विकासवादी मनोविज्ञानिकों का कहना है कि कई महत्वपूर्ण व्यवहार अपने आप होते है, अर्थात वे हमारे आनुवंशिक विरासत के परिणाम है। इसके कारण वातावरण और समाज का हमारे व्य्वहार मे महत्व कम हो जाता है। इस आलोचना के उत्पन्न होने पर भी विकासवादी मनोविज्ञान ने कई अनुसंधानों को उत्पन्न किय है जो यह खोजते है कि कैसे हमरी जैविक विरासत का हमारे लक्षण और व्यवहार पर प्रभाव उत्पन्न होता है। विकासवादी मनोविज्ञान के यह आलोचनाए है :-
बचाव[संपादित करें]विकासवादी मनोविज्ञानिकों ने कई आलोचनाओं को संबोधित किया है। उनका कहना है कि कुछ आलोचनाओं का आधार गलत पोषण विरोधाभास बनाम प्रकृति या अनुशासन की गलतफ़हमी पर निर्भर है। रोबेर्त कुर्ज़्बन का कहना है कि "...इस क्षेत्र के आलोचक, जब वह कहते हैं, तब वह निशाने से सीर्फ़ जरा सा ही नही चूकते हैं। उनका भ्रम गहरा और गम्भीर है। ऐसा नहीं है की वह ऐसे लक्ष तय करते हैं जो निशाना पूरा कर सकते हैं; बस वह उनकी बंदूक पीछे की ओर से पकड रहे है। सन्दर्भ[संपादित करें]
सुनयना के बेटे के हाथ से तभी एक बंदर छीन कर
मूंगफलियों का पैकेट ले जाता है। बंदरों के लिए भी यह रोज का काम है, इसलिए वे ढीठ हो चले हैं। उन्हें इंसानों के साथ की इतनी आदत पड़ चुकी है कि वे मौका पाते ही हाथों से खाने-पीने की चीजें उड़ा ले जाते हैं। वे चिड़ियाघर में होकर भी आजाद हैं, वरना इंसानों के अलावा इस इलाके में आजाद घूमना विरलों के नसीब में आता है! सामने बैठी चिम्पैंज़ी और ऊपर पेड़ पर जा बैठे बंदरों को देखकर सुनयना सोच में पड़ जाती हैं। वह और उस जैसे दुनिया के अरबों इंसान किस तरह से चिम्पैंज़ियों-बंदरों से जुड़े हैं? अगर किसी कवि या
दार्शनिक या साधु से इसका जवाब पूछा जाए तो वह यह कहेगा कि सभी जीव-जंतु पृथ्वी पर उपजे हैं और इसलिए उसी की संतानें हैं। लेकिन विज्ञान विस्तार मांगता है। वह सिर्फ भावनात्मक बातों पर ठहर नहीं सकता, उसे तथ्यों और प्रयोगों के आधार पर ही अपनी बात सामने रखनी होती है। सुनयना जीव-विज्ञान की टीचर हैं। वह चार्ल्स डार्विन और उनकी थिअरी से वाकिफ हैं। वह जानती हैं कि पेड़ पर मूंगफलियां खाते बंदर और बाड़े में बैठी मादा चिम्पैंज़ी उनके दूर के भाई-बहन हैं। लेकिन बात इतनी ही कहां है? रिश्तेदारी तो मनुष्यों की
उस मूंगफली के पौधे से भी है, जिसे पैकेटों में लिए लोग खाते घूम रहे हैं। और फिर उन मूंगफलियों पर, पैकेट पर, हाथों पर चिपके वे खरबों बैक्टीरिया- क्या उनसे हमारा कोई नाता नहीं? संबंधी तो हमारे वे भी हैं! सुनयना अपने सबसे पहले पुरखे को याद करने कोशिश करती हैं- वह कैसा रहा होगा? हम आज इंसान हैं, हम हमेशा इसी तरह के न थे। हर वक्त इस धरती पर इंसानों का ही बोलबाला न था। हर समय यहां जल-थल-नभ में आज जैसे जीव-जंतु और पेड़-पौधे नहीं पाए जाते थे। विज्ञान यह मानता है कि संसार में आई 99 प्रतिशत
जीव-जातियां अब इस दुनिया में जीवित नहीं हैं, नष्ट हो चुकी हैं। आम लोगों की सोच यह कि बंदर से इंसान निकला है, ध्यान करके सुनयना को हंसी आती है। लोग जीव-विकास को कितना कम और सतही समझते हैं। वे बंदर और चिम्पैंज़ी को मनुष्य का पूर्वज बताते हैं, जबकि ऐसा बिलकुल भी नहीं है। बंदर-चिम्पैंज़ी-गरिल्ला-ओरैंगउटान जैसे मनुष्य-से दिखने वाले जीव हमारे पूर्वज नहीं हैं, वे हमारे कज़िन हैं। हमारे समकालीन हैं। मानव-बंदर-चिम्पैंज़ी-गरिल्ला-ओरैंगउटान जैसे जीवों का बहुत पहले कोई एक साझा पूर्वज था। वह पूर्वज आज कहां है? उसे हम आज क्यों नहीं देख पा रहे? हमें आज कोई जानवर इंसान में बदलता क्यों नहीं दिखाई दे रहा? ये वे सवाल हैं जो सुनयना रोज अपने रिश्तेदारों से ही नहीं, अपने विद्यार्थियों से भी सुनती आई हैं। विकास शाखाओं में बढ़ता है, सीधे एक-ही तने में नहीं। समय के साथ नई शाखाएं फूटती जाती हैं, पुरानी शाखाएं नष्ट होती जाती हैं। जीव-जातियां सदा बदलती रहती हैं। आज का इंसान पहले के इंसानों-सा नहीं है। आज का बाघ भी पहले के बाघों से अलग है। समस्या यह है कि आम लोग जिन नामों से जानवरों और पौधों को बुलाते हैं, वे अपर्याप्त-अधूरे हैं। जीव-जाति आगे बढ़कर बदल जाती हैं, नाम पिछला-पुराना ही रह जाता है। सच यही है कि हम कभी एक तने से निकले थे और आज शाखाओं-प्रशाखाओं में बंटते-बंटते यहां तक आ पहुंचे। किस्म-किस्म के बंदर, मानव, चिम्पैंजी, ओरैंगउटैन आदि सभी आनुवंशिक स्तर पर मिलते जुलते हैं। उनमें जो डीएनए के फर्क हैं, वे धीरे-धीरे पर्यावरण से तालमेल बिठाने की जरूरतों की वजह से पैदा हुए और इसीलिए डीएनए की बनावट बदलती चली गई। हरेक में अपने इलाके के हिसाब से अगल-अलग बदलाव हुए। फिर वक्त के साथ ये पूरी तरह से अलग-अलग जीव हो गए। करोड़ों-करोड़ साल पहले इंसानों-चिम्पैंज़ियों-गरिल्लों-बंदरों का जो वह पूर्वज था, वह न मनुष्य था, न चिम्पैंज़ी, न गरिल्ला और न ही बंदर। वह आज के हम-सा और हमारे जैसे वानरों-कपियों-सा कुछ भी नहीं था। लेकिन हम हैं कि अपने आज को देखकर अतीत के लिए शब्द गढ़ते हैं। अपने आसपास के जीव-जंतुओं को जान-समझ कर सोचते हैं कि हजारों-लाखों बरसों से जीव-जंतु-पेड़-पौधे ऐसे ही रहे होंगे। सभी जंतुओं का पहला पूर्वज एक है- यह बात जीवन के विकास के मूल में है। वह पहला जीव एक जीवित कोशिका थी, उस एककोशिकीय जीव से हम सब निकले हैं। सभी पेड़-पौधे-शैवाल-फफूंद, सारे कीड़े-मकोड़े-मछलियां-सांप-पक्षी-जंगली जीव, जीवन के सभी प्रकार उसी एक पहले जीव की संतानें हैं। वह बढ़ा, बंटा, बढ़ता गया, बंटता गया। लेकिन उसे अपना रूप बदलने में और आज के जीवन की तरह जटिल होने में अरबों साल लग गए। सुनयना की क्लास के विद्यार्थियों की तरह आम लोगों की भी धारणा है कि विकासवाद का सिद्धांत (Theory of Evolution) जीवन की उत्पत्ति के बारे में है, जबकि ऐसा नहीं है। वह जीवन के पैदा होने के बाद उसका क्या हुआ, इसकी बात करता है। अरबों साल पहले उस वीरान धरती पर वह पहली कोशिका कैसे वजूद में आई, कौन-कौन से प्रभावों से रासायनिक तत्व आपस में मिले और उन्होंने जीवन का निर्माण किया, यह अभी पूरी तरह से मालूम नहीं हो सका है। लेकिन उसके बाद वह सरल जीवित कोशिका, जो हम सभी की सबसे पहली पूर्वज है, किस तरह से जटिल-जटिलतर-जटिलतम होती चली गई, इस पर वैज्ञानिकों ने बहुत काम किया है। चार्ल्स डार्विन को जीवन के विविध रूपों को देखने का मौका उन समुद्र-यात्राओं के दौरान मिला, जो उन्होंने एचएमएस बीगल जहाज से प्रशांत महासागर के द्वीपों की की थी। इस दौरान उन्होंने वहां की चट्टानों-शिलाओं-पौधों-जानवरों को देखा और उनके आकार-आकृतियों की बनावट और उनकी गतिविधियों को गंभीरता से परखा और समझा। फिर सन 1859 में आई अपनी किताब 'ऑन द ऑरिजिन ऑफ स्पीशीज़' में इन तमाम बातों का उन्होंने जिक्र किया। सुनयना डार्विन की बातों को याद करते हुए अतीत में 150 साल पीछे पहुंच जाती हैं। उन्होंने बताया था कि संसार के समस्त जीवों में ढेरों विविधताएं हैं। एक ही 'स्पीशीज़' के सभी जीव भी अलग-अलग हैं। सभी इंसान एक-से नहीं हैं, सारे
बाघ-गीदड़-चमगादड़-ऊदबिलाव-वेल-मच्छर-चींटी-बरगद-गुड़हल-चमेली-गन्ने अपने ही समूह में कितने अलग-अलग नजर आते हैं। हर शेर अलग दिखता है, उसकी गतिविधियां दूसरे शेर से अलग हैं। हर लौकी की लता दूसरी लौकी की लता से भिन्न है। यह विविधता उनके जीवित रहने को प्रभावित करती है। चूंकि तमाम जीवों गुणधर्म अलग-अलग हैं, तो जाहिर है कि इनके आधार पर उनकी उम्र तय होगी। कौन कितना लंबा जिएगा, यह इस बात पर निर्भर
करेगा कि उस जीव का कोई गुण उसे जीने में मदद दे रहा है या उसके जीवन के रास्ते में रोड़ा अटका रहा है। क्योंकि लंबा जीवन प्रजनन के अवसर दिलाएगा और जो जितना प्रजनन करेंगे ,वे उतना अपने गुणधर्म अपने बच्चों में पहुंचा पाएंगे। और जीवों के ये गुणधर्म किन पर निर्भर करते हैं? किनके कारण एक शख्स लंबा और दूसरा छोटा होता है? एक मेढक पीला और दूसरा हरा होता है? एक आम मीठा और दूसरा खट्टा होता है? सुनयना जानती हैं कि इन सब बातों के पीछे जीवों की कोशिकाओं में मौजूद डीएनए और उससे बने जीनों का हाथ है। जीन कोशिकाओं
के भीतर तरह-तरह के प्रोटीन बनाते हैं और वे प्रोटीन जीवों के तमाम गुणधर्मों को नियंत्रित करते हैं। चिम्पैंज़ी के बाड़े के पास अगला बाड़ा जिराफ का है। वह, जिसकी लंबी गर्दन विकासवाद के संदर्भ में गहरे मायने रखती है। सुनयना के बच्चे कुतूहल से उसकी लंबी गर्दन देख रहे हैं। फ्रांसीसी जीव वैज्ञानिक लैमार्क ने जिराफ की लंबी गर्दन की मिसाल देकर सन 1809 में सॉफ्ट म्यूटेशन की थिअरी सामने रखी थी। उनके अनुसार शरीर के जिस अंग का ज्यादा इस्तेमाल किया जाएगा, वह ताकतवर होता जाएगा। साथ-ही-साथ उस अंग की योग्यता वह जीव अपने बच्चों में पहुंचा देगा। यानी जब उसके बच्चे होंगे तो उनमें वह अंग पिछली पीढ़ से ज्यादा मज़बूत मिलेगा। इस बात को समझाने के लिए उन्होंने जिराफ और उसकी लंबी गर्दन का उदाहरण दिया। लैमार्क के मुताबिक, जिराफों की गर्दन हमेशा से लंबी नहीं थी। उन्हें आसपास ज्यों-ज्यों भोजन की कमी होने लगी और वह ऊंचाई पर ही मिलने लगा तो जिराफ़ों ने गर्दन उचकाना शुरू किया और इसी वजह से उनकी गर्दन लंबी होती चली गई और आज के आकार में आ गई। सुनयना जानती है कि डार्विन को लैमार्क और पहले के विद्वानों की धारणाओं के पार जाना पड़ा। तभी वह अपनी नई थिअरी सामने ला पाए। डार्विनवाद के मूल में प्राकृतिक चुनाव है। जीवों में विविधताएँ इसलिए मौजूद हैं क्योंकि अलग-अलग समय पर कुदरत ऐसे जीवों को चुनती रही है। जीव जिस पर्यावरण में रहते हैं, वह बदल रहा है। उस बदलते पर्यावरण के अनुसार जीव बदलने की कोशिश करते हैं। यह एक प्रकार की प्रतियोगिता है जो जीवों के बीच लगातार चलती आई है। जो सफलतापूर्वक बदल पाते हैं, वे प्रजनन करते हैं और अपने बदलाव अगली पीढ़ी में पहुंचा देते हैं। नियमों और प्रयोगों से विकासवाद को पूरी तरह नहीं समझा जा सकता। हम बात करोड़ों-अरबों बरसों की कर रहे होते हैं, उसे एक घंटे, एक दिन, एक महीने, एक साल में सामने घटता नहीं देख सकते। प्रकृति चुनाव करती है- इसका यह अर्थ नहीं कि वह कोई शख्स है जो जीवों में छंटनी कर रहा है। प्रकृति कोई ईश्वरीय या दैवीय सत्ता नहीं, जो ताकतवर का राजतिलक करके शोषण को सही ठहरा रही है। असल में वह बदलते पर्यावरण के अनुसार जीनों में हुए बदलावों में से बेहतर जीनवालों को छांटकर उनसे आगे अगली पीढ़ियां पैदा करवाने का कुदरती तरीका है। जो बदल पाएंगे, वे आगे जी पाएंगे और प्रजनन कर अपने जैसी संतानें पैदा कर पाएंगे। सुनयना के बच्चों को ऊंची शाखाओं पर बैठे बंदर तरह-तरह के मुंह बनाकर डराने में लगे हैं। उनका ध्यान टूटता है और वह उठकर बच्चों के पास पहुंचती हैं। उनके हाथ पकड़ती हैं और चिड़ियाघर में आगे की ओर धीरे-धीरे बढ़ने लगती हैं। चलते हुए उन्हें महसूस होता है कि वह खुद किसी विशाल पेड़ पर चढ़ रही हैं। उनके साथ उनके पति हैं, जिनसे उनके जीन जा मिले हैं और दो बच्चों का जन्म हुआ है। न जाने कितने ही आनुवंशिक बदलाव लिए वह, उनका परिवार, उनकी मानव-स्पेशीज समय में आगे बढ़ रही हैं। न जाने कब तक मानव मानव रहेगा? न जाने आगे वह किन नई स्पीशीज़ में बंट जाएगा? न जाने मानवों से निकले वे नए जीव कैसे होंगे? वे कैसे समाज चलाएंगे? कैसे संबंध निभाएंगे और कैसे पृथ्वी पर रहेंगे? क्या वे भी किसी चिड़ियाघर का निर्माण करके दूसरे जीवों को बाड़ों में रखेंगे हमारी तरह? क्या है डार्विन थिअरी की आलोचना? क्या माता-पिता में हुआ हर बदलाव बच्चों में जा सकता है? क्या हमारा और अन्य जीवों का विकास आज भी चल रहा है? क्या हम इंसान कुदरत में बदलाव करके अपने विकास को प्रभावित कर रहे हैं? सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट टर्म से लगता है कि विकासवाद शक्तिशाली का हिमायती है? डार्विन की आलोचना के मुख्य बिंदु क्या हैं? डार्विन के विकासवाद और आधुनिक संश्लेषण में मोटे तौर पर तीन भेद हैं। डार्विन कहते हैं कि जीवन के विकास का मार्ग सिर्फ प्राकृतिक चुनाव से होकर जाता है, जबकि आधुनिक विज्ञान मानता है कि प्राकृतिक चुनाव जीवों के विकास और नई-नई जातियों के जन्म के कई तरीकों में से एक है। आधुनिक संश्लेषण डीएनए और उनसे बने जीनों के द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी में गुणों के हस्तांतरण की बात करता है, डार्विन को अपने समय में यह पता नहीं था। आधुनिक संश्लेषण यह भी मानता है कि जीवों के डीएनए में पहले छोटे-छोटे बदलाव होते हैं, जिसके कारण उनके गुणधर्म पहले थोड़े बदलते हैं और फिर वे पूरी तरह से शाखाओं में बंटकर नई जीव-प्रजातियों को जन्म दे देते हैं। Navbharat Times News App: देश-दुनिया की खबरें, आपके शहर का हाल, एजुकेशन और बिज़नेस अपडेट्स, फिल्म और खेल की दुनिया की हलचल, वायरल न्यूज़ और धर्म-कर्म... पाएँ हिंदी की ताज़ा खबरें डाउनलोड करें NBT ऐप लेटेस्ट न्यूज़ से अपडेट रहने के लिए NBT फेसबुकपेज लाइक करें निम्नलिखित में से कौन विकासवाद के चक्रीय सिद्धांत का प्रस्तावक है?(b) केवल 2 6.
डार्विन के सिद्धांत की मुख्य बातें क्या थी?साल 1858 में डार्विन ने 'थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन' को दुनिया के सामने रखा था. इस थ्योरी में कहा गया कि विशेष प्रकार की कई प्रजातियों के पौधे पहले एक ही जैसे थे, लेकिन दुनिया की अलग-अलग भौगोलिक स्थितियों में जीवित बचे रहने के संघर्ष के चलते उनकी रचना में बदलाव होता गया. इस वजह से एक ही जाति के पौधे की कई प्रजातियां बन गईं.
विकासवादी सिद्धांत के मुख्य प्रवर्तक कौन कौन है?चार्ल्स डार्विन का मत था कि प्रकृति क्रमिक परिवर्तन द्वारा अपना विकास करती है. विकासवाद कहलाने वाला यही सिद्धांत आधुनिक जीवविज्ञान की नींव बना. डार्विन को इसीलिए मानव इतिहास का सबसे बड़ा वैज्ञानिक माना जाता है.
विकासवाद का सिद्धांत क्या है?विकासवाद (Evolutionary thought) की धारणा है कि समय के साथ जीवों में क्रमिक-परिवर्तन होते हैं। इस सिद्धान्त के विकास का लम्बा इतिहास है। १८वीं शती तक पश्चिमी जीववैज्ञानिक चिन्तन में यह विश्वास जड़ जमाये था कि प्रत्येक जीव में कुछ विलक्षण गुण हैं जो बदले नहीं जा सकते। इसे इशेंसियलिज्म (essentialism) कहा जाता है।
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