फ़ादर की कोष विज्ञान की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि कौन सी है *? - faadar kee kosh vigyaan kee sarvashreshth upalabdhi kaun see hai *?

'अंग्रेजी हिंदी कोश' के लेखक, हिंदी के विद्वान और समाजसेवी फ़ादर कामिल बुल्के की जन्म शताब्दी इस वर्ष मनाई जा रही है.

फ़ादर कामिल बुल्के एक ऐसे विद्वान थे जो भारतीय संस्कृति और हिंदी से जीवन भर प्यार करते रहे, एक विदेशी होकर नहीं बल्कि एक भारतीय होकर.

बेल्जियम में जन्मे बुल्के की कर्मस्थली झारखंड की राजधानी राँची में उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को लेकर इस हफ़्ते विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन कर हिंदी के इस साधक को याद किया गया.

रॉंची स्थित सेंट जेवियर्स कॉलेज में बुल्के ने वर्षों तक हिंदी का अध्यापन किया.

सेंट जेवियर्स कॉलेज के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और बुल्के के शिष्य रहे डॉक्टर कमल कुमार बोस कहते हैं, "राज्य में पूरे वर्ष बुल्के जन्म शताब्दी समारोह मनाई जाएगी. उनके साहित्य और विचारों का प्रसार किया जाएगा. हमने उनके नाम पर कॉलेज में एक पीठ की स्थापना का निर्णय लिया है."

रामकथा के महत्व को लेकर बुल्के ने वर्षों शोध किया और देश-विदेश में रामकथा के प्रसार पर प्रामाणिक तथ्य जुटाए. उन्होंने पूरी दुनिया में रामायण के क़रीब 300 रूपों की पहचान की.

रामकथा पर विधिवत पहला शोध कार्य बुल्के ने ही किया है जो अपने आप में हिंदी शोध के क्षेत्र में एक मानक है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफ़ेसर नित्यानंद तिवारी कहते हैं, "फ़ादर कामिल बुल्के और मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक डॉक्टर माता प्रसाद गुप्त के निर्देशन में अपना शोध कार्य पूरा किया था. मैंने उनमें हिंदी के प्रति हिंदी वालों से कहीं ज्यादा गहरा प्रेम देखा. ऐसा प्रेम जो भारतीय जड़ों से जुड़ कर ही संभव है. उन्होंने रामकथा और रामचरित मानस को बौद्धिक जीवन दिया."

बुल्के ने हिंदी प्रेम के कारण अपनी पीएचडी थीसिस हिंदी में ही लिखी.

जिस समय वे इलाहाबाद में शोध कर रहे थे उस समय देश में सभी विषयों की थीसिस अंग्रेजी में ही लिखी जाती थी. उन्होंने जब हिंदी में थीसिस लिखने की अनुमति माँगी तो विश्वविद्यालय ने अपने शोध संबंधी नियमों में बदलाव लाकर उनकी बात मान ली. उसके बाद देश के अन्य हिस्सों में भी हिंदी में थीसिस लिखी जाने लगी.

उन्होंने एक जगह लिखा है, "मातृभाषा प्रेम का संस्कार लेकर मैं वर्ष 1935 में रॉंची पहुँचा और मुझे यह देखकर दुख हुआ कि भारत में न केवल अंग्रेजों का राज है बल्कि अंग्रेजी का भी बोलबाला है। मेरे देश की भाँति उत्तर भारत का मध्यवर्ग भी अपनी मातृभाषा की अपेक्षा एक विदेशी भाषा को अधिक महत्व देता है. इसके प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने हिंदी पंडित बनने का निश्चय किया."

विदेशी मूल के ऐसे कई अध्येता हुए हैं जिन्हें इंडोलॉजिस्ट या भारतीय विद्याविद् कहा जाता है. उन्होंने भारतीय भाषा, समाज और संस्कृति को अपने नजरिए से देखा-परखा. लेकिन इन विद्वानों की दृष्टि ज्यादातर औपनिवेशिक रही है और इस वजह से कई बार वे ईमानदारी से भारतीय भाषा, समाज और संस्कृति का अध्ययन करने में चूक गए.

बुल्के ने भारतीय साहित्य और संस्कृति को उसकी संपूर्णता में देखा और विश्लेषित किया.

फ़ादर कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम के फलैण्डर्स प्रांत के रम्सकपैले नामक गाँव में एक सितंबर 1909 को हुआ.

लूवेन विश्वविद्यालय के इंजीनियरिंग कॉलेज में बुल्के ने वर्ष 1928 में दाखिला लिया. इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने संन्यासी बनने की ठानी.

इंजीनियरिंग की दो वर्ष की पढ़ाई पूरी कर वे वर्ष 1930 में गेन्त के नजदीक ड्रॉदंग्न नगर के जेसुइट धर्मसंघ में दाखिल हो गए. जहाँ दो वर्ष रहने के बाद आगे की धर्म शिक्षा के लिए हॉलैंड के वाल्केनबर्ग के जेसुइट केंद्र में भेज दिए गए. यहाँ रहकर उन्होंने लैटिन, जर्मन और ग्रीक आदि भाषाओं के साथ-साथ ईसाई धर्म और दर्शन का गहरा अध्ययन किया.

वाल्केनबर्ग से वर्ष 1934 में जब बुल्के लूवेन की सेमिनरी में वापस लौटे तब उन्होंने देश में रहकर धर्म सेवा करने के बजाय भारत जाने की अपनी इच्छा जताई.

वर्ष 1935 में वे भारत पहुँचे जहाँ पर उनकी जीवनयात्रा का एक नया दौर शुरू हुआ. शुरूआत में उन्होंने दार्जिलिंग के संत जोसेफ कॉलेज और गुमला के एक मिशनरी स्कूल में विज्ञान विषय के शिक्षक के रूप में काम करना शुरू किया.

लेकिन कुछ ही दिनों में उन्होंने महसूस किया कि जैसे बेल्जियम में मातृभाषा फ्लेमिश की उपेक्षा और फ्रेंच का वर्चस्व था, वैसी ही स्थिति भारत में थी जहाँ हिंदी की उपेक्षा और अंग्रेजी का वर्चस्व था.

वर्ष 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने हिंदी साहित्य में एमए किया और फिर वहीं से 1949 में रामकथा के विकास विषय पर पीएचडी किया जो बाद में ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’ किताब के रूप में चर्चित हुई.

राँची स्थित सेंट जेवियर्स कॉलेज के हिंदी विभाग में वर्ष 1950 में उनकी नियुक्ति विभागाध्यक्ष पद पर हुई. इसी वर्ष उन्होंने भारत की नागरिकता ली.

वर्ष 1968 में अंग्रेजी हिंदी कोश प्रकाशित हुआ जो अब तक प्रकाशित कोशों में सबसे ज्यादा प्रामाणिक माना जाता है. मॉरिस मेटरलिंक के प्रसिद्ध नाटक 'द ब्लू बर्ड' का नील पंछी नाम से बुल्के ने अनुवाद किया. इसके अलावे उन्होंने बाइबिल का हिंदी में अनुवाद किया.

कोश एक ऐसा शब्द है जिसका व्यवहार अनेक क्षेत्रों में होता है और प्रत्येक क्षेत्र में उसका अपना अर्थ और भाव है। यों इस शब्द का व्यापक प्रचार वाङ्मय के क्षेत्र में ही विशेष है और वहाँ इसका मूल अर्थ 'शब्दसंग्रह' (lexicon) है। किंतु वस्तुत: इसका प्रयोग प्रत्येक भाषा में अक्षरानुक्रम अथवा किसी अन्य क्रम से उस भाषा अथवा किसी अन्य भाषा में शब्दों की व्याख्या उपस्थित करनेवाले ग्रंथ के अर्थ में होता है।

संस्कृत कोशों की परम्परा[संपादित करें]

वैदिक निघण्टु[संपादित करें]

निघंटु भारतीय कोश का प्राचीनतम रूप है। निघंटु सामान्यत: ऐसे कोशों को कहते हैं जिनमें ऐसे प्राचीन शब्दों का विवेचन होता था जो तत्काल प्रचलित न हों। निघंटु का आरंभ वैदिक भाषा के ऐसे शब्दों के संग्रह के लिये हुआ था जिनका प्रचलन लोक से उठ गया था और लोगों को उनके समझने में कठिनाई होने लगी थी। यास्क का निरुक्त ऐसे ही एक निघंटु का भाष्य है। यास्क द्वारा व्याख्यात निघंटु पंचाध्यायी कहा जाता है। इसके प्रथम तीन अध्यायों को नैघंटुक कांड कहा गया है। इन कांडों के शब्दों की व्याख्या यास्क ने अपने निरुक्त के दूसरे और तीसरे अध्याय में की है। इनमें 1341 शब्द हैं पर व्याख्या केवल 230 शब्दों की ही है। निघंटु के परिगणित शब्दों में संज्ञा अर्थात् नाम और आख्यात् एवं अव्यय पदो का संकलन है। सर्वप्रथम पृथिवीबोधक इक्कीस पर्यायवाची शब्दों का परिचय है; तदनंतर ज्वलनार्थक अग्नि के ग्यारह पर्याय किए गए हैं। इस रूप मे तीनों अध्यायों में पर्यायवाची अथवा समानार्थबोधक शब्दों का समूह है। इनमें अनेक शब्द अनेकार्थक भी हैं। निघंटु में उनका संकलन पर्याय के रूप में ही हुआ है; निरुक्त में उनके अनेक अर्थ उदाहरण सहित बताए गए हैं। चतुर्थ अध्याय में 278 स्वतंत्र पदों का जो किसी के पर्याय नहीं है, संकलन है। इनमें वे शब्द हैं जिनके अनेक अर्थ हैं अथवा ऐसे शब्द हैं। जिनकी व्युत्पत्ति अज्ञात है। अंतिम अध्याय में वैदिक देवताबोधक 151 नाम हैं। इस निघंटु के रचयिता के संबंध में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। कुछ लोग यास्क को ही निघंटु और निरुक्त का रचयिता अनुमान करते हैं। कुछ उसे ऐसे वेदज्ञ ऋषि की रचना मानते हैं जिसका नाम अज्ञात है और कुछ उसे अनेक व्यक्तियों को रचना बताते हैं। इस उपलब्ध निघंटु के अतिरिक्त अन्य अनेक निघंटु तैयार हुए होंगे पर वे सभी लुप्त हैं।

वैदिक निघंटुओं की परंपरा कदाचित् आगे चलकर लुप्त हो गई परंतु अथर्ववेद के उपवेद आयुर्वेद में इस नाम के ग्रंथो की परंपरा चलती रही। इस प्रकार का एक निघंटु धन्वंतरि निघंटु है जो चौथी शती ई. के पूर्व किसी समय की रचना अनुमान की जाती है। नौ अध्याय के इस ग्रंथ में पारिभाषिक शब्दों के अर्थ के साथ साथ उनके गुण-दोष का भी उल्लेख है।

निघंटु ग्रंथों के अनंतर[संपादित करें]

निघंटु ग्रंथों के अनंतर संस्कृत कोशों की परंपरा का उद्भव धातुपाठ, उणादिसूत्र, गणपाठ, लिंगानुशासन के रूप में हुआ। आगे चलकर संस्कृत के जो कोश प्रस्तुत हुए, वे धातुपाठ अथवा गणपाठ शैली से सर्वथा भिन्न है। इन कोशों में मुख्यत: नामपदों और अव्ययों का संग्रह है। कवियों को काव्यरचना करते समय शब्दों के चयन में सुविधा हो, इस दृष्टि से वाड्मय के विस्तृत क्षेत्र से शब्दों का संग्रह करके मुरारी, मयूर, वाण, श्रीहर्ष, विल्हण, आदि कवियों ने कोश प्रस्तुत किए। संस्कृत काश प्रधानत: पद्यात्मक हैं और उनमें शब्द और अर्थ का परिचय है।

संस्कृत के किसी प्राचीनतम कोश का अंश आठ पृष्ठों के रूप में मध्य एशिया के काशगर नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। उसे किसी बौद्धधर्मी ने प्रस्तुत किया था। काशिका नानार्थ, कात्यायन का नाममाला, वाचस्पति का शब्दार्णव, विक्रमादित्य का संसारावत, व्याडि की उत्पलिनी संस्कृत के प्राचीन कोश है। किंतु प्राचीन कोशों में सर्वश्रेष्ठ अमरसिंह विरचित नामलिंगानुशासन शब्दों का संग्रह है। यह लगभग चौथी-पाँचवी शती ई. की और उपर्युक्त कोशों के कदाचित् बाद की रचना है।

प्राचीनकालीन जो भारतीय कोश उपलब्ध हैं, उनमें शब्दों का संग्रह किसी विशेष क्रम से नहीं किया गया है। उनमें संक्षेप में अर्थ का ही संग्रह है। संस्कृत के कोष दो प्रकार के हैं :

  • (1) समानार्थी शब्दों के संग्रह, और
  • (2) अनेकार्थवाची शब्दों के संग्रह।

इन दोनों ही प्रकार के कोशों का कोई व्यवस्थित रूप नहीं है। प्रत्येक कोश में एक दूसरे से भिन्न पद्धति अपनाई गई है। कुछ कोश अक्षर अनुक्रम से हैं तो कुछ शब्दों के अक्षरों की संख्या के अनुसार है और कुछ पयार्यबाहुल्य शब्दों का संग्रह हैं। किसी में लिंग को संग्रह का आधार बनाया गया हैं।

मध्ययुगीन कोश[संपादित करें]

मध्ययुगीन कोशों में अनेकार्थ समुच्चय महत्व का कोश समझा जाता है। उसके बाद हलायुध के अभिधान रत्नमाला का स्थान है। इसकी रचना दसवीं शती के आसपास हुई थी। इसके सौ वर्ष पश्चात् यादवप्रकाश अथवा वैजयंती नाम से एक विस्तृत कोश की रचना हुई। इसमें प्रथम अक्षर की संख्या के आधार पर शब्दों का संग्रह किया गया है। उसके बाद लिंग-पद्धति से शब्द दिए गए हैं और फिर प्रत्येक प्रकरण में अक्षरक्रम से शब्द है। इस कोश में बड़ी मात्रा में नए शब्दों का संकलन है।

बारहवीं शती के पूर्वार्ध में धनंजय नामक जैन कवि ने नाममाला और महेश्वर कवि ने विश्वप्रकाश नामक कोश प्रस्तुत किए। विश्वप्रकाश नानार्थ कोश है। महेश्वर ने इसकी प्रस्तावना में अपने पूर्ववर्ती कोशकारों के रूप में योगींद्र, कात्यायन, वोपालित और भागुरी का उल्लेख किया है। इसी काल में मंख ने एक अनिवार्थ कोश की रचना की थी किंतु कश्मीर के बाहर उसका प्रचार नहीं है। इसी काल के एक अन्य प्रसिद्ध कोशकार हैं - हेमचंद्र (1088-1172 ई.)। उनके चार कोश उपलब्ध होते है-

  • (1) अभिधान चिंतामणिमाला- एकार्थ शब्दकोश,
  • (2) अनेकार्थ संग्रह,
  • (3) देशीनाममाला, और
  • (4) निघंटुशेष

इन चारों कोशों को उन्होंने अपने व्याकरण के परिशिष्ट के रूप में दिया है।

दसवीं और तेरहवीं शती के बीच किसी समय पुरुषोत्तमदेव ने अमरकोश के परिशिष्ट के रूप में त्रिकांडशेष नामक कोश प्रस्तुत किया। इसमें बौद्ध संस्कृत वाङ्मय से महत्व के शब्द चुने गए हैं। उन्होंने हारावली नाम से एक अन्य कोश की रचना की है जिसमें त्रिकांडशेष की अपेक्षा अधिक महत्व के शब्द संग्रहीत हैं।

1200 ई. के आसपास केशस्वामी ने ‘नानार्थार्णवसंक्षेप’ नामक कोश की रचना की उसमें शब्द अक्षर क्रम और लिंग अनुग्रम से संकलित है। चौदहवीं शती में मेदिनीकर ने मेदिनी नामक नानार्थ शब्दकोश तैयार किया था जिसकी काफी ख्याति है।

प्राकृत कोशों में सबसे प्राचीन धर्मपालकृत पाइयलच्छी नाममाला (972 ई.) है। इसका उपयोग हेमचंद्र ने अपने देशी नाममाला में किया है। 12वीं शती में रचित अभिधानप्पदीपिका प्राकृत का एक अन्य प्रसिद्ध कोश है।

अकबर के शासनकाल में कृष्णदास ने 'पारसी प्रकाश' नाम से फारसी-संस्कृत कोश तैयार किया था। शाहजहाँ के समय वेदांगराय ने पारसीप्रकाश नाम से ज्योतिष विषयक कोश बनाया था। इसी काल का क्षेमेद्र कृत व्यवहारोपयोगी शब्दों का कोश लोकप्रकाश है।

हिंदी में कोशों की रचना हिंदी साहित्य के मध्यकाल से ही होने लगी थी, ऐसा हिंदी ग्रंथों के खोज विवरण से ज्ञात होता है। ऐसा ज्ञात होता है कि अनेक छोटे बड़े कोश बने थे जिनमें से अनेक लुप्त हो गए। जो उपलब्ध है उनमें ऐसा जान पड़ता है कि उनपर संस्कृत के कोशों से संकलित विषय और उनकी पद्धति का काफी प्रभाव रहा है। अधिकांश कोशकारों ने अमरकोश को अपनी रचना का आधार बनाया है। कुछ कोशकारों ने मेदिनी आदि से भी सहायता ली है। नाममाला और अनेकार्थमंजरी, नंददास रचित दो कोश हैं। जिनका स्वरूप उनके नाम से ही स्पष्ट है। तदनंतर गरीबदास का अनंगप्रबोध (1615 ई.) और रत्नजीत (1713 ई.) के भाषाशब्दसिंधु और भाषाधातुमाला अन्य उल्लेखनीय कोश हैं। मिर्जा खाँ का तुहफत्-उल-हिंद और खुसरो, की खालिकबारी मुसलमान कोशकारों के उल्लेखनीय ग्रंथ हैं। मिर्जा खाँ का कोश अनेक दृष्टि से नूतन पद्धति का निदर्शन उपस्थित करता है। इसमें शब्दसंयोजन में नवीनता और भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोण परिलक्षित होता है।

यूरोप में लातिन (लैटिन) रोमन धर्म और रोमन साम्राज्य की धार्मिक एवं राजनीतिक महत्ता के कारण प्रमुख भाषा बन गई थी। उस भाषा के ग्रंथों का अध्ययन महत्व का माना जाता था। एक प्रकार से वह समस्त विद्या और ज्ञान की प्रवेश द्वार थी। अत: लातिन शब्दसूचियों से, जिन्हें ग्लासेज (glosses) कहते थे, पाश्चात्य कोशरचना कला का प्रस्फुरण हुआ। लातिन ग्रंथों के पाठक ग्रंथों के हाशिए पर दुर्बोध और कठिन शब्दों का नोंध देते थे और कभी कभी अपनी स्मृति के आधार पर अथवा अन्य लोगों की सहायता से इन शब्दों के अर्थ भी लिख देते थे। यह 'ग्लास' कहलाता था। यह ग्लास-पद्धति केल्टिक एवं ट्यूटानिक प्रदेशों में उपयोगी सिद्ध हुई और व्यापक रूप से अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत आयाम में इस प्रकार की शब्दसूचियाँ बनीं। इस प्रकार सैक्सन, इंग्लिश, आयरिश, गथिक (प्राचीन जर्मन) आदि भाषाओं के प्राचीन शब्दरूप बड़ी मात्रा में सुरक्षित हुए और ये शब्दसंग्रह ग्लासेरयिम कहलाए।

12वीं-13वीं शती ई. पहुँचते-पहुँचते यूरोप के विभिन्न भाषाओं में अनेक प्रकार के विभिन्न वर्गों के शब्दों की सूचियाँ संकलित की जाने लगीं। जिस प्रकार संस्कृत के अमरकोश आदि में पर्यायवाची शब्दों का वर्गाश्रित संग्रह मिलता है उसी प्रकार इन शब्दसूचियों में भी शारीरिक अंगों, पारिवारिक संबंधों, वस्त्राभूषण का अर्थ सहित संग्रह होता था। ये सूचियाँ 'वाक्युबुलेरियम्' कहलाईं। इन्ही वाक्युबुलेरियम् से 'डिक्शनेरियस' का विकास हुआ और कालक्रम में यूरोप की विभिन्न भाषाओं के अपने अपने शब्दसंग्रह हुए और उन्होंने अकारादिक्रम वाले कोशों का रूप धारण किया जिसे हम 'डिक्शनरी' के नाम से जानते हैं।

आधुनिक युग के हिन्दी कोश[संपादित करें]

जब यूरोपवासियों, विशेषत: अंगरेजों का भारत के साथ निकट संबंध स्थापित हुआ तब नवागंतुक अंगरेजों को इस देश की भाषाएँ जानने की विशेष आवश्यकता प्रतीत हुई। और तब उन्होंने अपनी सुविधा के लिये अपनी देशभाषा के कोशों के अनुकरण पर भारतीय भाषाओं के कोश बनाए। इस प्रकार इस देश में आधुनिक ढंग के और अकारादि क्रम से बननेवाले शब्दकोशों की रचना का सूत्रपात हुआ। भारतीय भाषाओं में कदाचित् सबसे पहले हिंदी, जिसे उस समय अंग्रेज हिंदुस्तानी कहा करते थे, के दो कोश जे. फर्ग्रुसन ने तैयार किए जो 1773 ई. में लंदन में छपे। इसी प्रकार हेनरी हेरिस के प्रयास के परिणामस्वरूप इसी ढंग का एक अन्य कोश 1790 ई. में मदरास में छपा। 1808 ई. में जोजेफ टेलर और विलियम हंटर के संयुक्त प्रयास से एक हिंदुस्तानी-अंगरेजी कोश कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। तदुपरांत 1810 में एडिनबरा से जे. बी. गिलक्राइस्ट का और 1819 में लंदन से जे. शेक्सपियर का अंगरेजी-हिंदुस्तानी और हिंदुस्तानी-अँगरेजी कोश निकले। ये सभी कोश रोमन अक्षरों में मुद्रित किए गए थे।

हिंदी भाषा और नागरी अक्षरों में पहला कोश पादरी एम. टी. एडम ने तैयार किया जो 1829 ई. में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। उसके बाद ऐसे अनेक कोश प्रस्तुत हुए जिनमें हिंदी शब्दों के अर्थ अंगरेजी में अथवा अँगरेजी शब्दों के अर्थ हिंदी में होते थे। ऐसे कोश प्रस्तुत करने वालों में एम. डब्ल्यू. फैलन, जे. टी. प्लाट्स और जे. डी. वेट के नाम विशेष उल्लेखनीय है। मुंशी राधेलाल पहले भारतीय थे जिन्होंने 1873 ई. में कोश प्रस्तुत किया। 1880 ई. में सैयद जामिल अली जलाल का गुलशने फैज नामक कोश प्रकाशित हुआ जो फारसी लिपि में था पर उसमें अधिकांश शब्द हिंदी के थे। 1892 ई. में बांकीपुर (पटना) से बाबा बैजूदास का विवेक कोश निकला। तदुपरांत हिंदी के छोटे छोटे अनेक कोश निकले।

हिन्दी शब्दसागर[संपादित करें]

इस शती के आरंभ में काशी नागरीप्रचारिणी सभा ने हिंदी के ऐसे कोश के प्रकाशन की आवश्यकता का अनुभव किया जिसमे हिंदी के पुराने पद्य और नए गद्य दोनों में व्यवहृत होने वाले समस्त शब्दों का समावेश हो और 1904 में वह इस ओर अग्रसर हुई तथा उसने दस खंडों में हिंदी शब्दसागर नाम से बृहत् कोश प्रकाशित किया। पूर्ववर्ती अधिकांश कोशों की भाँति यह कोश किसी एक व्यक्ति द्वारा निर्मित न होकर भाषा और साहित्य के मर्मज्ञ अनेक सुधीजनों द्वारा तैयार किया गया था। इसमें ग्रंथों और व्यवहारप्रयुक्त भाषा और बोलियों के प्राय: समस्त उपलब्ध सामान्य और विशेष शब्द संगृहीत किए गए हैं। इसमें अर्थनिर्धारण के लिये व्याख्यात्मक पद्धति अपनाई गई है।

हिंदी शब्दसागर के प्रकाशन के पश्चात् उसका एक संक्षिप्त संस्करण भी प्रकाशित किया गया। इसे प्रथम व्यावहारिक और प्रामाणिक हिंदी कोश कहा जा सकता है। इसके पश्चात् उसके अनुकरण पर अथवा किंचित् भिन्न कोश समय समय पर प्रकाशित हुए हैं।

सामान्य कोशों के अतिरिक्त कोशकला ज्ञानकोश के रूप में विकसित हुई हैं। इसके बृहत्तम और उत्कृष्ट रूप को अंग्रेजी भाषा में 'एंसाइक्लोपीडिया' कहा गया है। इसके लिये हिंदी में 'विश्वकोश' शब्द का प्रयोग होता है। इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम बंगला भाषा में किया गया था और वहीं से वह हिंदी में गृहीत हुआ है। हिंदी में पहले विश्वकोश के रूप में बंगला विश्वकोश का भाषांतर प्रकाशित हुआ था। तदनंतर नागरीप्रचारिणी सभा ने बारह खंडों में हिंदी विश्वकोश प्रस्तुत किया।

फादर की कोष विज्ञान की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि कौन सी है?

Answer. Answer: वर्ष 1968 में अंग्रेजी हिंदी कोश प्रकाशित हुआ जो अब तक प्रकाशित कोशों में सबसे ज्यादा प्रामाणिक माना जाता है. मॉरिस मेटरलिंक के प्रसिद्ध नाटक 'द ब्लू बर्ड' का नील पंछी नाम से बुल्के ने अनुवाद किया.

फ़ादर ने कौन से विषय का प्रसिद्ध कोश तैयार किया?

फादर बुल्के ने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक 'ब्लूबर्ड' का हिंदी में 'नीलपंछी' नाम से रुपांतर किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने मसीह धर्म की धार्मिक पुस्तक बाइबल का हिंदी में अनुवाद किया। उन्होंने अपना प्रसिद्ध अंग्रेजी हिंदी शब्दकोश तैयार किया। उनके शोध' रामकथा: उत्पत्ति और विकास ' के कुछ अध्याय 'परिमल' में पढ़ें गए थे।

जहाँ डॉ कामिल बुल्के का जन्म कहाँ हुआ था वह किस महाद्वीप में स्थित है?

कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम के वेस्ट फ्लैंडर्स में नॉकके-हेइस्ट नगरपालिका (म्यूनीपीलिटी) के एक गांव रामस्केपेल में हुआ था। इनके पिता का नाम अडोल्फ और माता का नाम मारिया बुल्के था। अभाव और संघर्ष भरे अपने बचपन के दिन बिताने के बाद बुल्के ने कई स्थानों पर पढ़ाई जारी रखी।

फादर कामिल ने कौन सा कोश तैयार किया * अंग्रेजी संस्कृत कोश समांतर कोश अंग्रेजी हिन्दी कोश अंग्रेजी फ्रेंच कोश?

अंग्रेजी-हिन्दी का सबसे प्रमाणिक कोश भी उन्होंने तैयार किया । वे जीवन-भर हिन्दी पढ़ाते रहे। वे राँची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष बने ।