घनानंद के प्रेम वर्णन की विशिष्टता क्या है? - ghanaanand ke prem varnan kee vishishtata kya hai?

प्रेम शब्द का अर्थ तृप्त करने वाला है। इस प्रकार प्रेम का अर्थ है किसी विषय, वस्तु या प्राणी के दर्शन और स्पर्श से मिलने आनंद।  

हिन्दी की रीतिकालीन कविता में मूलतः प्रेम के दो रूप का वर्णन हुआ है एक लौकिक प्रेम का और दूसरा पारलौकिक प्रेम का। उसमें भी रीतिकालीन कवियों का दिल लौकिक प्रेम में अधिक रमा, और भक्तिकाल के कवियों ने पारलौकिक प्रेम पर अधिक तवज्जोह दी है। 

घनानंद की गिनती रीतिकाल के रीतिमुक्त कवियों में होती है। घनान्द के प्रेम की पीड़ रीतिकाल के सभी कवियों में सबसे अधिक है। ठाकुर जहाँ प्रेम को मन की परतीत और बोधा तलवार की धार मानते हैं, वहीं घनानंद ने इसको स्नेह का सीधा मार्ग माना है जिसमें कपटी लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए वो प्रश्न भी करते हैं कि प्रेम तो देने का नाम है पर तुमने कौन सी पाती पढ़ ली है कि तुम लेते तो पूरा हो पर देते उसका छटांक भी नहीं। उनका प्रेम सच्चे आशिक़ का प्रेम है, जिसकी माशूक़ा उसे धोखा देती है, पर वो न उसकी शिकायत करते हैं और न उपालम्भ। ये वो पाकीज़ा प्रेम है जिसमें कोई कुटिलता नहीं है। तभी तो आचार्य शुक्ल को कहना पड़ा 'प्रेम की गूढ़ अन्तर्दशा का उद्घाटन जैसा उनमें है वैसा हिंदी के अन्य शृंगारिक कवि में नहीं’।

घनान्द का प्रेम मार्ग सहज और सरल है, जिसमें अहंकार की कोई गुंजाइश नहीं, तभी तो वो कहते हैं -

घनानंद प्यारे सुजान सुनो
यहाँ एक ते दूसरो आंक नहीं 

घनान्द मानते हैं प्रेम मार्ग में दूसरों के लिए कोई जगह नहीं होती। प्रेम में परेशान ये कवि बादल तक से कालिदास के यक्ष की तरह अपनी प्रेमिका सुजान के आँगन में  बरस जाने के लिए विनती करता है। कहता है तुम जल नहीं तो मेरी आँखों का आँसू लेकर ही सुजान के पास बरस जाओ, कवि की पंक्ति है... 

कबहूँ बा बिसासी सुजान के आँगन 
मो अंसुवन को       लै        बरसो

लेकिन प्रेमिका का इतना ख़्याल कि मेघ से आग्रह करता है कि मेरे खारे आँसू को तुम मीठे जल के रूप में पहुँचा देना। रीतिकाल के वास्तव में ये पहले कवि हैं जिन्होंने जिस्म और जिंस को पर्दे में रखा है। वो एक ऐसा चातक है जो अपनी प्रेमिका को बस निहारता है उससे कोई हाजत नहीं रखता-

मोहन सोहन जोहन की लगिये रहे
आँखिन     के उर            आरति 

घनान्द के लिए प्रेम गोपियों की तरह एक साधना थी। प्रेयसी सुजान का प्रेम उनके रोम-रोम में व्याप्त हो गया था। पर गोपियाँ तो कृष्ण से कुछ चाहत भी रखती थीं –  

तुम नीक रहो तुम्हें चाड कहां 
ये असीम हमारिये लीजिये जू 

पूरे प्रेम काव्य में घनान्द ऐसे इकलौते साहसी कवि हैं जो वियोग में भी हताश नहीं होते। उन्हें प्रेम में मर जाने से विरह में तड़पना ज़्यादा पसंद है। वो सुजान को देखना चाहते हैं उस सुजान को जिसे देखते ही उनका मन रीझ गया था और जिसे वो भुला नहीं पाते। हर तरफ़ उसी का चेहरा नज़र आता है -

झलकै अति सुंदर आनन गौर 
छके दृग राजत कानन  छवै 

रीतिकाल में जहाँ स्त्रियाँ पुरुष की पिपासा मात्र बन गई थीं, वहीं घनान्द ने सुजान को सम्मान के उच्च शिखर पर पहुँचा दिया। सुजान की फ़ुर्कत में कवि को सारी दुनिया ही उजड़ी हुई दिखती है. . . उजरनि बसी है हमारी अंखयानि देखो। घनान्द प्रेमिका की बेवफ़ाई पर वियोग में जल जाते हैं लेकिन कभी बदले पर उतारू नहीं होते। ये बादल तो सिर्फ़ पावस में बरसता है, पर घनानंद की आँखें सालों भर बरसती रहती है। 

कहना न होगा कि प्रेम की जो नफ़ासत, बलाग़त, और सदाक़त घनानंद की कविताओं में मिलता है, वैसी चाशनी सूर को छोड़ कर हिन्दी साहित्य में कहीं नहीं है। 

सन्दर्भ

हिन्दी साहित्य का इतिहास -शुक्ल , पृष्ठ 178
घनांनद- डॉ. राजेश, पृष्ठ 47
हिन्दी काव्य का इतिहास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, पृष्ठ 109

घनानंद के प्रेम वर्णन की विशिष्टता क्या है? - ghanaanand ke prem varnan kee vishishtata kya hai?

घनानंद के प्रेम वर्णन की विशिष्टता क्या है? - ghanaanand ke prem varnan kee vishishtata kya hai?

घनानंद की काव्य रचनाओं का अंग्रेज़ी अनुवाद

घनानंद (१६७३- १७६०) रीतिकाल की तीन प्रमुख काव्यधाराओं- रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त के अंतिम काव्यधारा के अग्रणी कवि हैं। ये 'आनंदघन' नाम स भी प्रसिद्ध हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रीतिमुक्त घनानन्द का समय सं. १७४६ तक माना है। इस प्रकार आलोच्य घनानन्द वृंदावन के आनन्दघन हैं। शुक्ल जी के विचार में ये नादिरशाह के आक्रमण के समय मारे गए। श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी का मत भी इनसे मिलता है। लगता है, कवि का मूल नाम आनन्दघन ही रहा होगा, परंतु छंदात्मक लय-विधान इत्यादि के कारण ये स्वयं ही आनन्दघन से घनानन्द हो गए। अधिकांश विद्वान घनानन्द का जन्म दिल्ली और उसके आस-पास का होना मानते हैं।

जीवन परिचय

अनुमान से इनका जन्मकाल संवत १७३० के आसपास है। इनके जन्मस्थान और जनक के नाम अज्ञात हैं। आरंभिक जीवन दिल्ली तथा उत्तर जीवन वृंदावन में बीता। जाति के कायस्थ थे। साहित्य और संगीत दोनों में इनकी असाधारण गति थी।

कहा जाता है कि ये शाहंशाह मुहम्मदशाह रँगीले के दरबार में मीरमुंशी थे और 'सुजान' नामक नर्तकी पर आसक्त थे। एक दिन दरबारियों ने बादशाह से कह दिया कि मुंशी जी गाते बहुत अच्छा हैं। उसने इनका गाना सनने की हठ पकड़ ली। पर ये गाना सुनाने में अपनी अशक्ति का ही निवेदन करते रहे। अंत में बादशाह से कहा गया था कि यदि सुजान बुलाई जाय तो ये गाना सुनाएँगे। वह बुलाई गई और इन्होंने उसकी ओर उन्मुख होकर सचमुच गाया और ऐसा गाया कि सारा दरबार मंत्रमुग्ध हो गया। बादशाह ने आज्ञा की अवहेलना के अपराध में इन्हें दिल्ली से निष्कासित कर दिया। सुजान ने इनका साथ नहीं दिया। वहाँ से वे वृंदावन चले गए और निंबार्क संप्रदायाचार्य श्रीवृंदावनदेव से दीक्षा ग्रहण की। इनका सखीभावसूचक नाम 'बहुगुनी' था।

भगवान् कृष्ण के प्रति अनुरक्त होकर वृंदावन में उन्होंने निम्बार्क संप्रदाय में दीक्षा ली और अपने परिवार का मोह भी इन्होंने उस भक्ति के कारण त्याग दिया। मरते दम तक वे राधा-कृष्ण सम्बंधी गीत, कवित्त-सवैये लिखते रहे। कवि घनानंद दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के मीर मुंशी थे। कहते हैं कि सुजान नाम की एक स्त्री से उनका अटूट प्रेम था। उसी के प्रेम के कारण घनानंद बादशाह के दरबार में बे-अदबी कर बैठे, जिससे नाराज होकर बादशाह ने उन्हें दरबार से निकाल दिया। साथ ही घनानंद को सुजान की बेवफाई ने भी निराश और दुखी किया। वे वृंदावन चले गए और निंबार्क संप्रदाय में दीक्षित होकर भक्त के रूप में जीवन-निर्वाह करने लगे। परंतु वे सुजान को भूल नहीं पाए और अपनी रचनाओं में सुजान के नाम का प्रतीकात्मक प्रयोग करते हुए काव्य-रचना करते रहे। घनानंद मूलतः प्रेम की पीड़ा के कवि हैं। वियोग वर्णन में उनका मन अधिक रमा है।

ये प्रेमसाधना का अत्यधिक पथ पार कर बड़े बड़े साधकों की कोटि में पहुँच गए थे। यमुना के कछारों और ब्रज की वीथियों में भ्रमण करते समय ये कभी आनंदातिरेक में हँसने लगते और कभी भावावेश में अश्रु की धारा इनके नेत्रों से प्रवाहित होने लगती। नागरीदास जैसे श्रेष्ठ महात्मा इनका बड़ा संमान करते थे।

मथुरा पर अहमदशाह अब्दाली के प्रथम आक्रमण के समय, सं. १८१३ में, ये मार डाले गए। विश्वनाथप्रसाद मिश्र के मतानुसार उनकी मृत्यु अहमदशाह अब्दाली के मथुरा पर किए गए द्वितीय आक्रमण में हुई थी।[1]

रचनाएँ

घनानंद द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या ४१ बताई जाती है-

सुजानहित, कृपाकंदनिबंध, वियोगबेलि, इश्कलता, यमुनायश, प्रीतिपावस, प्रेमपत्रिका, प्रेमसरोवर, व्रजविलास, रसवसंत, अनुभवचंद्रिका, रंगबधाई, प्रेमपद्धति, वृषभानुपुर सुषमा, गोकुलगीत, नाममाधुरी, गिरिपूजन, विचारसार, दानघटा, भावनाप्रकाश, कृष्णकौमुदी, घामचमत्कार, प्रियाप्रसाद, वृंदावनमुद्रा, व्रजस्वरूप, गोकुलचरित्र, प्रेमपहेली, रसनायश, गोकुलविनोद, मुरलिकामोद, मनोरथमंजरी, व्रजव्यवहार, गिरिगाथा, व्रजवर्णन, छंदाष्टक, त्रिभंगी छंद, कबित्तसंग्रह, स्फुट पदावली और परमहंसवंशावली।

इनका 'व्रजवर्णन' यदि 'व्रजस्वरूप' ही है तो इनकी सभी ज्ञात कृतियाँ उपलब्ध हो गई हैं। छंदाष्टक, त्रिभंगी छंद, कबित्तसंग्रह-स्फुट वस्तुत: कोई स्वतंत्र कृतियाँ नहीं हैं, फुटकल रचनाओं के छोटे छोटे संग्रह है। इनके समसामयिक व्रजनाथ ने इनके ५०० कवित्त सवैयों का संग्रह किया था। इनके कबित्त का यह सबसे प्राचीन संग्रह है। इसके आरंभ में दो तथा अंत में छह कुल आठ छंद व्रजनाथ ने इनकी प्रशस्ति में स्वयं लिखे। पूरी 'दानघटा' 'घनआनंद कबित्त' में संख्या ४०२ से ४१४ तक संगृहीत है। परमहंसवंशावली में इन्होंने गुरुपरंपरा का उल्लेख किया है। इनकी लिखी एक फारसी मसनवी भी बतलाई जाती है पर वह अभी तक उपलब्ध नहीं है।

घनानंद ग्रंथावली में उनकी १६ रचनाएँ संकलित हैं। घनानंद के नाम से लगभग चार हजार की संख्या में कवित्त और सवैये मिलतें हैं। इनकी सर्वाधिक लोकप्रिय रचना 'सुजान हित' है, जिसमें ५०७ पद हैं। इन में सुजान के प्रेम, रूप, विरह आदि का वर्णन हुआ है। सुजान सागर, विरह लीला, कृपाकंड निबंध, रसकेलि वल्ली आदि प्रमुख हैं। उनकी अनेक रचनाओं का अंग्रेज़ी अनुवाद भी हो चुका है।

काव्यगत विशेषताएँ

हिंदी के मध्यकालीन स्वच्छंद प्रवाह के प्रमुख कर्ताओं में सबसे अधिक साहित्यश्रुत घनआनंद ही प्रतीत होते है। इनकी रचना के दो प्रकार हैं : एक में प्रेमसंवेदना क अभिव्यक्ति है, और दूसरे में भक्तिसंवेदना की व्यक्ति। इनकी रचना अभिधा के वाच्य रूप में कम, लक्षणा के लक्ष्य और व्यंजना के व्यंग्य रूप में अधिक है। ये भाषाप्रवीण भी थे और व्रजभाषाप्रवीण भी। इन्होंने व्रजभाषा के प्रयोगों के आधार पर नूतन वाग्योग संघटित किया है।

उनकी रचनाओं में प्रेम का अत्यंत गंभीर, निर्मल, आवेगमय और व्याकुल कर देने वाला उदात्त रूप व्यक्त हुआ है, इसीलिए घनानंद को 'साक्षात रसमूर्ति' कहा गया है। घनानंद के काव्य में भाव की जैसी गहराई है, वैसी ही कला की बारीकी भी। उनकी कविता में लाक्षणिकता, वक्रोक्ति, वाग्विदग्धता के साथ अलंकारों का कुशल प्रयोग भी मिलता है। उनकी काव्य-कला में सहजता के साथ वचन-वक्रता का अद्भुत मेल है। घनानंद की भाषा परिष्कृत और साहित्यिक ब्रजभाषा है। उसमें कोमलता और मधुरता का चरम विकास दिखाई देता है। भाषा की व्यंजकता बढ़ाने में वे अत्यंत कुशल थे। वस्तुतः वे ब्रजभाषा प्रवीण ही नहीं सर्जनात्मक काव्यभाषा के प्रणेता भी थे।

कलापक्ष

घनानंद भाषा के धनी थे। उन्होंने अपने काव्य में ब्रजभाषा का प्रयोग किया है। रीतिकाल की यही प्रमुख भाषा थी। इनकी ब्रजभाषा अरबी, फारसी, राजस्थानी, खड़ी बोली आदि के शब्दों से समृद्ध है। उन्होंने सरल-सहज लाक्षणिक व्यंजनापूर्ण भाषा का प्रयोग किया है। घनानंद ने लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रयोग से भाषा सौंदर्य को चार चाँद लगा दिए हैं। घनानंद ने अपने काव्य में अलंकारो का प्रयोग अत्यंत सहज ढंग से किया है। उन्होंने काव्य में अनुप्रास, यमक, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा एवं विरोधाभास आदि अलंकारो का प्रयोग बहुलता के साथ हुआ है। 'विरोधाभास ' घनानंद का प्रिय अलंकर है। आचार्य विश्वनाथ ने उनके बारे में लिखा है-

विरोधाभास के अधिक प्रयोग से उनकी कविता भरी पड़ी है। जहाँ इस प्रकार की कृति दिखाई दे, उसे निःसंकोच इनकी कृति घोषित किया जा सकता है।

छंद-विधान

छंद-विधान की दृष्टि से घनानंद ने कवित्त और सवैये ही अधिक लिखे हैं। वैसे उन्होंने दोहे और चौपाइयां भी लिखी हैं। रस की दृष्टि से घनानंद का काव्य मुख्यतः श्रृंगार रस प्रधान है। इनमें वियोग श्रृंगार की प्रधानता है। कहीं-कहीं शांत रस का प्रयोग भी देखते बनता है। घनानंद को भाषा में चित्रात्मकता और वाग्विदग्धता का गुण भी आ गया है।

कवित्त व सवैया

इन पदों में सुजान के प्रेम रूप विरह आदि का वर्णन हुआ है

नहिं आवनि-औधि, न रावरी आस,
इते पैर एक सी बाट चहों।

घनानंद नायिका सुजान का वर्णन अत्यंत रूचिपूर्वक करतें हैं। वे उस पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देतें हैं

रावरे रूप की रीति अनूप नयो नयो लागत ज्यों ज्यों निहारिये।
त्यों इन आँखिन बानि अनोखी अघानि कहू नहिं आनि तिहारिये ॥

घनानंद प्रेम के मार्ग को अत्यंत सरल बताते हैं, इन में कहीं भी वक्रता नहीं है।

अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानप बांक नहीं।

कवि अपनी प्रिया को अत्यधिक चतुराई दिखाने के लिए उलाहना भी देता है।

तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ कहौ मन लेहूं पै देहूं छटांक नहीं।

कवि अपनी प्रिया को प्रेम पत्र भी भिजवाता है पर उस निष्ठुर ने उसे पढ़कर देखा तक नहीं।

जान अजान लौं टूक कियौ पर बाँचि न देख्यो।

रूप सौंदर्य का वर्णन करने में कवि घनानंद का कोई सानी नहीं है। वह काली साड़ी में अपनी नायिका को देखकर उन्मत्त सा हो जातें हैं। सावँरी साड़ी ने सुजान के गोरे सरीर को कितना कांतिमान बना दिया हैं।

स्याम घटा लिपटी थिर बीज की सौहैं अमावस-अंक उजयारी। धूम के पुंज में ज्वाल की माल पै द्विग-शीतलता-सुख-कारी ॥कै छबि छायौ सिंगार निहारी सुजान-तिया-तन-दीपति-त्यारी। कैसी फबी घनानन्द चोपनि सों पहिरी चुनी सावँरी सारी ॥

घनानंद के काव्य की एक प्रमुख विशेषता है- भाव प्रवणता के अनुरूप अभिव्यक्ति की स्वाभाविक वक्रता। घनानंद का प्रेम लौकिक प्रेम की भाव भूमि से उपर उठकर आलौकिक प्रेम की बुलंदियों को छुता हुआ नजर आता है, तब कवि की प्रियासुजान ही परब्रह्म का रूप बन जाती है। ऐसी दशा में घनानंद प्रेम से उपर उठ कर भक्त बन जाते हैं।

नेही सिरमौर एक तुम ही लौं मेरी दौर
नहि और ठौर, काहि सांकरे समहारिये

कवित्त

बहुत दिनान को अवधि आसपास परे,
 खरे अरबरनि भरे हैं उठी जान को।
कहि कहि आवन छबीले मनभावन को,
 गहि गहि राखति ही दै दै सनमान को ॥
झूटी बतियानि की पतियानि तें उदास हैव कै,
 अब न घिरत घन आनंद निदान को।
अधर लगे हैं आनि करि कै पयान प्रान,
 चाहत चलन ये संदेसों लै सुजान को ॥[2]

सन्दर्भ

  1. "घनानंद". ब्रज.कॉम. मूल (पीएचपी) से 28 अक्तूबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि २० नवंबर २००९.
  2. "लव पोयम्स ऑफ़ घनानंद". वैदिक बुक्स.नेट. मूल (एचटीएमएल) से 18 मई 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि २० नवंबर २००९.

बाहरी कड़ियाँ

  • घनानंद की रचनाएँ कविता कोश में
  • सुजानहित (घनानंद)

Q 5 घनानंद के प्रेम वर्णन की विशिष्टता क्या है?

उनकी कविता में प्रेम का सरल, सहज एवं स्वच्छंद रूप दिखाई पड़ता है जिसमें उदात्तता विद्यमान है। घनानंद प्रेम की पीर के कवि हैं। प्रेम विभोर हृदय की कोई ऐसी वृत्ति नहीं है जिसका चित्रण इन्होंने न किया हो । घनानंद ने सवैया, कवित्त, नाटक, त्रिभंगी, दोहा, चौपाई, छंदों का प्रयोग अधिक किया है।

घनानंद के प्रेम वर्णन की विशेषता क्या है?

घनानंद का संयोग श्रृंगार वर्णन इनकी प्रेम व्यंजना में इतनी आकुलता, इतनी व्यथा एवं इतनी पीड़ा है कि कठोर से कठोर श्रोता एवं पाठक भी द्रवित हो जाते हैं और उसमें संयोग-सुख की इतनी मादकता एवं उल्लास भावना भी भरी हुई है कि सहृद्यों को आनंद विभोर कर देती है। इनकी प्रेमानुभूति में आत्मानुभूति का सर्वाधिक योग है।

प्रेम की पीर के रूप में घनानंद की काव्यगत विशेषताएँ क्या है?

हिन्दी साहित्य में ये 'प्रेम की पीर' के कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनका साहित्य कई संवेदनात्मक व शैल्पिक विशिष्टताओं को धारण करता है। “दूसरों के लिये किराए पर आँसू बहाने वालों के बीच यह एक ऐसा कवि है जो सचमुच अपनी पीड़ा में ही रो रहा हैं।” "ये वियोग शृंगार के प्रधान कवि हैं।"

घनानंद को प्रेम की पीर क्यों कहा जाता है?

उत्तर - घनान्द को प्रेम की पीर का कवि माना जाता है क्योंकि उनकी रचनाओं में वैसे तो हमें संयोग और वियोग दोनों पक्ष देखने को मिलते हैं फिर भी इनकी कविताओं में, पदों में विरह की पीड़ा की विलक्षणता हमें सुजान के प्रति प्रेम की पीड़ा ही देखने को मिलती है।