इस्लाम और ईसाई में क्या संबंध है? - islaam aur eesaee mein kya sambandh hai?

नई दिल्ली : केंद्र सरकार ने भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश के. जी. बालकृष्णन की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया है। यह आयोग उन लोगों को अनुसूचित जाति (एससी) का दर्जा देने के मामले का परीक्षण करेगा, जिनका ऐतिहासिक रूप से अनुसूचित जाति से संबंध है, लेकिन जिन्होंने किसी अन्य धर्म को अपना लिया है। संविधान (एससी) आदेश, 1950 कहता है कि हिंदू या सिख धर्म या बौद्ध धर्म के अलावा किसी अन्य धर्म को मानने वाले व्यक्ति को अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जा सकता है। हालांकि, मुस्लिम और ईसाई समूहों ने अक्सर उन दलितों के लिए समान स्थिति की मांग की है जिन्होंने उनका धर्म अपना लिया है:

  1. आयोग बनाने के पीछे सरकार की मंशा क्या है?
    इससे जुड़ा मामला सुप्रीम कोर्ट में है और केंद्र सरकार को अगले कुछ दिनों में अपना स्टैंड बताना था। चूंकि सरकार इस मामले पर बहुत हड़बड़ी नहीं करना चाहती है, ऐसे में वह कमिटी बनाकर सुप्रीम कोर्ट को बता सकती है कि वह मामले पर अध्ययन कर अपनी राय देगी। इस कमिटी का कार्यकाल दो साल दिया गया है। मतलब तब तक 2024 का आम चुनाव बीत चुका होगा। दरअसल, पिछले कई वर्षों से यह मामला उठता रहा है और हर सरकार इसमें संभावित विवाद को देखते हुए टालने के मोड में रही है।
  2. संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 क्या कहता है?
    संविधान (एससी) आदेश, 1950 (समय-समय पर संशोधित) के तहत अनुसूचित जाति (एसी) का दर्जा सिर्फ हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म मानने वाले व्यक्ति को मिलता है। पहले तो सिर्फ हिंदू धर्म को ऐसा दर्जा मिलता था। बाद में इसमें सिख और बौद्ध धर्म को इसमें जोड़ा गया था।
  3. क्या अचानक उठा मुद्दा?
    यह मुद्दा अचानक नहीं उठा है। पिछले डेढ़ दशक से भी अधिक समय से सुप्रीम कोर्ट में यह मामला चल रहा है। एक बार यूपीए सरकार भी कमिटी बनाकर अध्ययन कर चुकी है। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने एक बार सरकार से उनका रुख जाना है।
  4. किन्हें होगा फायदा?
    अगर धर्म बदलने वाले दलितों को एसी का दर्जा दिए जाने की अनुशंसा होती है तो इसका लाभ दलित ईसाई और दलित मुस्लिमों को मिलेगा। अभी तक ये लोग इससे बाहर हैं। हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म को शामिल करने के बाद मुस्लिम-ईसाई धर्म के प्रतिनिधि इस कानून में संशोधन की मांग करते रहे हैं। पिछली सरकारों ने भी इस मांग पर विचार के लिए अलग-अलग समय में कमिटी बनाई लेकिन कभी इसपर सहमति नहीं हो सकी।
  5. बीजेपी क्यों करती है मांग का विरोध?
    बीजेपी ने हमेशा इस मांग का विरोध किया है। वह एससी कोटे में दलित मुस्लिम और दलित ईसाईयों को शामिल करने के विरोध में रही है। हालांकि पार्टी ने आधिकारिक रूप से इस मामले पर कुछ नहीं कभी कुछ नहीं बोला है। लेकिन पार्टी का मानना है कि इससे धर्म परिवर्तन और तेजी से बढ़ेगा, जिसके वह खिलाफ रही है।
  1. आयोग बनाने के पीछे सरकार की मंशा क्या है?
    इससे जुड़ा मामला सुप्रीम कोर्ट में है और केंद्र सरकार को अगले कुछ दिनों में अपना स्टैंड बताना था। चूंकि सरकार इस मामले पर बहुत हड़बड़ी नहीं करना चाहती है, ऐसे में वह कमिटी बनाकर सुप्रीम कोर्ट को बता सकती है कि वह मामले पर अध्ययन कर अपनी राय देगी। इस कमिटी का कार्यकाल दो साल दिया गया है। मतलब तब तक 2024 का आम चुनाव बीत चुका होगा। दरअसल, पिछले कई वर्षों से यह मामला उठता रहा है और हर सरकार इसमें संभावित विवाद को देखते हुए टालने के मोड में रही है।
  2. संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1950 क्या कहता है?
    संविधान (एससी) आदेश, 1950 (समय-समय पर संशोधित) के तहत अनुसूचित जाति (एसी) का दर्जा सिर्फ हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म मानने वाले व्यक्ति को मिलता है। पहले तो सिर्फ हिंदू धर्म को ऐसा दर्जा मिलता था। बाद में इसमें सिख और बौद्ध धर्म को इसमें जोड़ा गया था।
  3. क्या अचानक उठा मुद्दा?
    यह मुद्दा अचानक नहीं उठा है। पिछले डेढ़ दशक से भी अधिक समय से सुप्रीम कोर्ट में यह मामला चल रहा है। एक बार यूपीए सरकार भी कमिटी बनाकर अध्ययन कर चुकी है। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने एक बार सरकार से उनका रुख जाना है।
  4. किन्हें होगा फायदा?
    अगर धर्म बदलने वाले दलितों को एसी का दर्जा दिए जाने की अनुशंसा होती है तो इसका लाभ दलित ईसाई और दलित मुस्लिमों को मिलेगा। अभी तक ये लोग इससे बाहर हैं। हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म को शामिल करने के बाद मुस्लिम-ईसाई धर्म के प्रतिनिधि इस कानून में संशोधन की मांग करते रहे हैं। पिछली सरकारों ने भी इस मांग पर विचार के लिए अलग-अलग समय में कमिटी बनाई लेकिन कभी इसपर सहमति नहीं हो सकी।
  5. बीजेपी क्यों करती है मांग का विरोध?
    बीजेपी ने हमेशा इस मांग का विरोध किया है। वह एससी कोटे में दलित मुस्लिम और दलित ईसाईयों को शामिल करने के विरोध में रही है। हालांकि पार्टी ने आधिकारिक रूप से इस मामले पर कुछ नहीं कभी कुछ नहीं बोला है। लेकिन पार्टी का मानना है कि इससे धर्म परिवर्तन और तेजी से बढ़ेगा, जिसके वह खिलाफ रही है।
  6. किसको कितना आरक्षण, क्या पहले की सरकारों के सामने भी आया ये मुद्दा?
    एससी समुदाय के लिए मिलने वाली सुविधाओं में केंद्र सरकार की नौकरियों में सीधी भर्ती के लिए 15 प्रतिशत आरक्षण, एसटी के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण और ओबीसी के लिए 17 प्रतिशत कोटा है। ईसाई या इस्लाम अपनाने वाले दलितों के लिए एससी रिजर्वेशन का सवाल पहले की सरकारों के सामने भी आया है।

इस्लाम और ईसाई में क्या संबंध है? - islaam aur eesaee mein kya sambandh hai?

कोविड-19 भारत के लिए एक चेतन मंत्रJuly 23, 2020

इस्लाम और ईसाई में क्या संबंध है? - islaam aur eesaee mein kya sambandh hai?

महाद्वीपीय बहाव सिद्धांत, प्लेट टेक्टोनिक सिद्धांतJuly 23, 2020

2

ईसा मसीह और मुहम्मद साहब: ईसाई, यहूदी और इस्लाम धर्म की पारस्परिक विवेचना

इस्लाम और ईसाई में क्या संबंध है? - islaam aur eesaee mein kya sambandh hai?

जीसस ने कहा  “ऐ बनी इस्राईल मैं तुम्हारी तरफ़ अल्लाह का भेजा हुआ रसूल हूँ, तस्दीक (पुष्टि) करने वाला हूँ उस तौरात की जो मुझसे पहले से मौजूद है, और ख़ुशख़बरी देनेवाला हूँ एक रसूल की जो मेरे बाद आएगा, उसका नाम अहमद होगा” सूरह अस-सफ़्फ़ 61:6

यूहन्ना 14:16,15:26 और यूहन्ना 16:7

 आत्मायो के पैगम्बर 

मुस्लिम साहित्य में ईसा की तारीफ कुरान से पहले की जाती है | सूफी दार्शनिक अल गजली उनहे “आत्मायो का पैगम्बर मानते है |

यह प्रतिवेदन प्रभु जीसस और पैगम्बर मुहम्मद साहब के जीवन आदर्श और विचारो का तुलनात्मक अध्यन करेंगा | इस प्रतिवेदन में यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में आपसी संबंधो का भी चिंतन करंगे | यीशु और मुहम्मद साहब के सबंधो और उनके द्वारा दीये गए उपदेश और दर्शन का विश्लेषण करेंगे |

प्रतिवेदन का सार-

          यह शोध प्रतिवेदन जीसस और मुहम्मद साहब के जीवन दर्शन, विचार, मौलिक व्यवहार, संबधो पर अपना विचार प्रस्तुत करेगा | यहाँ दोनों के द्वारा किये गए ऐतिहासिक और चमत्कारिक कार्यो के तरीको और परिणामो की तुलना करेगे | यहाँ यीशु  के बारे में दो बातो को प्रस्तुत करेंगे, पहला ऐतिहासिक मानदंडो का उपयोग करके उनके बारे में जानने का प्रयास करेगे और दूसरा यीशु कुरान शरीफ में और मुस्लिम धर्म से सम्बन्ध क्या है ? ऐसे ही मुहम्मद साहब का ईसाइयत और जीसस से क्या सम्बन्ध है इसका विचार और शोध यहाँ करेंगे |

          यहाँ विभिन्न स्त्रोतों और पुस्तकों के द्वारा इस विषय का अध्ययन करने का प्रयास किया जायेगा | कुछ सामग्री इन्टरनेट और अन्य शोध प्रतिवेदनो द्वारा ली जाएगी|

 हम इस पत्र में ईसाई, यहूदी और मुस्लिम धर्म के आपसी संबंधो के बारे में जानेगे | यहाँ यहोबा, मुसा, मरियम, जीसस और मुहम्मद साहब के बारे में भी संक्षिप्त में समझने का प्रयास करेगे | यहाँ तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा दोनों इन सभी के दर्शन को समझेंगे |

यीशु और मुहम्मद साहब की समानता और भिन्नता को भी समझेंगे |

          मुस्लिम का बाइबल और जीसस के बारे में क्या मानना है ? और ईसाई समाज भी मुहम्मद और कुरान के बारे में क्या सोचते है ?

शोध के बिन्दुं निम्नलिखित है–

  • अब्राहम, यहोबा, मुसा, मरियम, जीसस और मुहम्मद साहब का संक्षिप्त वर्णन और आपस में सम्बन्ध
  • ईसाई धर्म, यहूदी धर्म और इस्लाम धर्म का संक्षिप्त परिचय
  • ईसाई धर्म , यहूदी और मुस्लिम धर्म की तुलना
  • यहूदी, मुस्लिम और ईसाइयों के सम्बन्ध की पारस्परिक विवेचना
  • जीसस और मुहम्मद साहब के बीच पारस्परिक भिन्नताएं और समानताएं
  • उपसंहार
यह पुण्य नहीं कि तुम अपने मुँह को पूर्व या पश्चिम की ओर कर लो। पुण्य तो यह है – परमेश्वर, अन्तिम दिन, देवदूतों, पुस्तक और ऋषियों पर श्रृद्धा रखना, धन को प्रेमियों, सम्बन्धियों, अनाथों, दरिद्रों, पथिकों, याचिकों और गर्दन बचाने वालों के लिए देना, उपवास (रोज़ा) रखना, दान देना, जब प्रतिज्ञा कर चुके तो अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करना, विपत्तियों, हानियों और युद्धों में सहिष्णु (होना), (जो ऐसा करते हैं) वही लोग सच्चे और संयमी हैं

धार्मिक पथ प्रदर्शको का संक्षिप्त वर्णन–

  • अब्राहम–

अब्राहम(लगभग 2000 ई.पू.) ईश्वर के आदेश से मेसोपोतेमिया के ऊपर तथा हारान नामक शहरों को छोड़कर कनान और मिस्र चले गए। बाइबिल में अब्राहम का जो वृत्तांत मिलता है (उत्पत्ति ग्रंथ, अध्याय 11-25), उसकी रचना लगभग 1000 ई.पू. में अनेक परंपराओं के आधार पर हुई थी। इसमें संस्कृति और रीति-रिवाजों का जो वर्णन है वह हम्मुराबी (लगभग 1728-1686 ई.पू.) से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। इब्रानो तथा हम्मुराबी के बहुत से कानून एक जैसे हैं। आधुनिक खुदाई द्वारा हम्मुराबी का अच्छा परिचय प्राप्त हुआ है।

सारी बाइबिल में इब्राहम का महत्व स्वीकृत है-

(1) ये एक ईश्वर के मार्ग चलते थे। बाइबिल के अनुसार ईश्वर ने उनको कानान देश दिलाने की प्रतिज्ञा की थी। इनके साथ ईश्वर का जो व्याख्यान हुआ था उसकी स्मृति में यहूदी खतना करते हैं। हजरत मुहम्मद, हजरत मूसा और हजरत ईसा इब्राहम के सबसे महान्‌ वंशजों में से हैं।

(2) इब्राहम को ईश्वर का मित्र कहा गया है। ईश्वर के आदेश पर ये अपने एकमात्र पुत्र (जिनको हज़रत इब्राहीम ने ईश्वर के आदेश पर अरब के मक्का में छोड़ा था)हज़रत इस्माइल की कुर्बानी करने के लिए तैयार थे। वस्तुत: अब्राहम उन समस्त लोगों के आध्यात्मिक पिता माने जाते हैं, जो एक ईश्वर पर आस्था रखते हैं।

इस्लाम धर्म के ग्रन्थ कुरान के अनुसार, हज़रत इब्राहीम एक बहुत बड़े पैगम्बर हैं ।कुरान में इब्राहीम के नाम से एक अध्याय (सूरा) भी है जिसे “सूरह-इब्राहीम” कहते हैं।

  • यहोवा–

यहोवा यहूदी धर्म में और इब्रानी भाषा में परमेश्वर का नाम है। यहूदी मानते हैं कि सबसे पहले ये नाम परमेश्वर ने मूसा को सुनाया था। ये शब्द ईसाईयों और यहूदियों के धर्मग्रन्थ बाइबिल के पुराने नियम में कई बार आता है।

यहूदियों की धर्मभाषा इब्रानी (हिब्रू) की लिपि इब्रानी लिपि में केवल व्यंजन लिखे जा सकते हैं और ह्रस्व स्वर तो बिल्कुल ही नहीं। सो ये शब्द चार व्यंजनों से बना हुआ है : י (योद) ה (हे) ו (वाओ) ה (हे), या יהוה यानि कि य-ह-व-ह। इसमें लोग विभिन्न स्वर घुसाकर इसे विभिन्न उच्चारण देते हैं, जैसे यहोवा, याहवेह, याहवेः, जेहोवा, आदि (क्योंकि प्राचीन इब्रानी भाषा लुप्त हो चुकी है)। यहूदी लोग बेकार में ईश्वर (यहोवा) का नाम लेना पाप मानते थे, इसलिये इस शब्द को कम ही बोला जाता था। ज़्यादा मशहूर शब्द था “अदोनाइ” (अर्थात मेरे प्रभु)। बाइबिल के पुराने नियम / इब्रानी शास्त्रो में “एल” और “एलोहीम” शब्द भी परमेश्वर के लिये प्रयुक्त हुए हैं, पर हैरत की बात ये है कि यहूदी कहते हैं कि वो एक हि ईश्वर को मानते हैं, पर “एलोहीम” शब्द बहुवचन है !

यहशाहा ४५:१८, हामै पर्मेश्वेर का साही अर्थ सामझाता है।

यहूदी और ईसाई मानते हैं कि यहोवा का शब्दिक अर्थ होता है : “मैं हूँ जो मैं हूँ” — अर्थात स्वयंभू परमेश्वर। जब बाइबल लिखी गयी थी, तब यहोवा यह नाम ७००० बार था। – निर्गमन ३:१५, भजन ८३:१८

  • मुसा–

मूसा अलैहिस्सलाम भी कहा जाता है मोशे Rabbenu हिब्रू में ( מֹשֶׁה רַבֵּנוּ , जलाया “मूसा हमारे शिक्षक”), में सबसे महत्वपूर्ण नबी है –यहूदी धर्म ।  वह ईसाई धर्म , इस्लाम , बहाई धर्म और कई अन्य अब्राहमिक धर्मों का एक महत्वपूर्ण पैगंबर भी है । बाइबल की कथा में वह इज़राइलीयोंका नेता थाऔर शास्त्रकार, जिसे करने के लिए ग्रन्थकारिता के तोरा, या स्वर्ग से तोरा के अधिग्रहण, पारंपरिक रूप से जिम्मेदार ठहराया है।

मूसा अल्लाह के पैगंबर थे जिनकी शिक्षा यह थी कि अल्लाह एक है और मैं उससे पैगंबर (ईश्वरीय सन्देशवाहक) हूं लेकिन उनकी वफात के बाद यहूदी लोग उनको अपना संस्थापक मानने लगे और यहूदी धर्म का जन्मदाता मानने लगे लेकिन वह एक अल्लाह की संदेश लेकर आए थे कुरान और बाइबिल में हज़रत मूसा की कहानी दी गयी है, जिसके मुताबिक लगभग १२०० ई.पू. मिस्र के फिरोन के ज़माने में जन्मे मूसा बनी इज़राइली माता-पिता की औलाद थे, उस समय फिरौन मिस्र का बादशाह हुआ करता था उसको किसी ज्योतिषी ने यह बताया था कि तुम्हारा अंत एक पैगंबर करेगा और वह जन्म लेने वाला है उसके बाद फिरौन ने बनी इसराइल में हो पैदा होने वाले सभी बच्चों को मरवा देता था लेकिन मूसा अली सलाम को तो पैदा होना ही था तो उनकी मां ने उनको एक संदूक में रखकर दरिया ए नील में डाल दिया फिर संदूक दरिया ए नील से तैरते दर्दे फिरौन के घर के पास जा गया जो कि फिरौन की बीवी इस्लाम कबूल कर चुकी थी वह बच्चे को देखकर बहुत खुश होती है और कहती है कि हम इस बच्चे को पालेंगे उनको फिर फिरोन की पत्नी हजरत आशिया(जो अल्लाह पर ईमान लायी थी),ने पाला और मूसा एक मिस्री राजकुमार बने। फिरौन को शक हुआ कि यह वही बच्चा तो नहीं जो बड़ा होकर नबी बनकर पैगंबर बनमेरा अंत करेगा तो उसने उसको फिरौन ने आजमाने के लिए एक तरफ आग का शोला और एक तरफ ठंडी चीज रखी तो अल्लाह का हुक्म हुआ मूसा अली सलाम आग के शोले को उठा कर मुंह में रख लिए जिसे फिरौन को लगा यह कोई पैगंबर नहीं वरना यह बच्चा समझदार होता कुछ समय बाद में मूसा को मालूम हुआ कि वो बनी इसराईली हैं और बनी इज़राइल (जिसको फिरोन ने ग़ुलाम बना लिया था) अत्याचार कर रहा था हजरत मूसा का एक पहाड़ पर परमेश्वर से साक्षात्कार हुआ और परमेश्वर की मदद से उन्होंने फ़राओ को हराकर बनी इज़राइल को आज़ाद कराया।

  • मरियम–

मरियम यीशु मसीह की माँ का नाम था, जिन्हें कुँवारी माता, ख़ुदावंद की माँ या मुक़द्दस कुँआरी मरियम भी कहलातीं हैं। उनकी कहानी बाईबल के नया नियम में बताई गई है, जिसके अनुसार वो फ़िलिस्तीन के इलाक़े गलील के शहर नासरत में रहनेवाली एक यहूदी औरत थीं|  इंजील ब-मुताबिक़ मत्ती, इंजील ब-मुताबिक़ लूक़ा और क़ुरान में बताया गया है कि वे कुँआरी थीं। उनके व्यक्तित्व को ईसाई धर्म तथा इस्लाम में भी पवित्र और पूजनीय माना जाता है।

ईसाई धर्म में मरियम के प्रति मान्यताएं विभिन्न हैं, जैसे कि मरियम की “बेदाग़ पैदाइश” और “जन्नत में चढ़ाव” विशेषकर, रोमन कैथोलिक मरियम की भक्ति करते हैं और उन्हें “आसमान की मलिका” और “कलीसिया की जननी” की रूप में उनके लिए विशेष श्रद्धा रखते हैं। औसतन, प्रोटेस्टैन्ट मरियम को इस भूमिका तक नहीं चढ़ाते हैं क्योंकि उनकी नज़रिए में, मरियम की भूमिका बाइबल में ही छोटी है। मरियम को इस्लाम में भी महिलाओं में उच्चतम स्थान हासिल है।कुरान मरियम का उल्लेख अनेकों बार आता है। बल्कि क़ुरान में मरियम का उल्लेख बाइबल से अधिक बार है।

  • यीशु–

ईसा इब्न मरियम (यानि: मरियम के पुत्र ईसा) या ईसा मसीह (सम्मानजनक रूप से:हज़रात ईसा अलैहीस्सलाम), इस्लाम के अनुसार, अल्लाह द्वारा, मानव जाति को भेजे गए पैग़म्बरों में से एक हैं, जोकि ईसाई धर्म के प्रमुख व्यक्तित्वों में से एक हैं। ईसा, इस्लाम के उन २५ पैग़म्बरों में से एक हैं, जिनका उल्लेख क़ुरान में किया गया है। इस्लामी धर्मशास्त्र के अनुसार, ईसा को मुहम्मद के बाद दुसरे सबसे महत्वपूर्ण स्थान पर रखा जाता है। बाइबिल में दिए गए उनकी आत्मकथा से जुड़े लगभग सारी दैवी घटनाओं को इस्लाम में माना जाता है, जिसमें: कुँवारीगर्भ से जन्म, उनके चमत्कार, उनके क्रूस पर चढ़ाय जाने, मृत्यु और मृतोत्थान शामिल हैं। हालाँकि कुरान के कुछ विवोचनों के अनुसार, क्रूस पर चढ़ाना, मृत्यु और मृतोत्थान जायसी घटनाएँ नहीं हुई थी। बहरहाल, मसीहियों के विरुद्ध मुसलमान, ईसा को ईश्वरपुत्र या त्रिमूर्तित्व को नहीं मानते।

इस्लाम में ईसा मसीह को एक आदरणीय नबी (मसीहा) माना जाता है, जो ईश्वर (अल्लाह) ने इस्राइलियों को उनके संदेश फैलाने को भेजा था। क़ुरान के अनुसार, अल्लाह ने ईसा को इंजील नमक पवित्र किताब का इल्हाम दिया था, जोकि इस्लामिक मान्यता के अनुसार, अल्लाह द्वारा मानवता को प्रदान किये गए चार पवित्र किताबों में से एक है। क़ुरान में ईसा के नाम का ज़िक्र मुहम्मद से भी ज़्यादा है और मुसलमान ईसा के कुँवारी माता द्वारा जन्मा मानते हैं।

इस्लाम में ईसा मसीह सभी नबियों की तरह ही महज़ नबी ही माना जाता है, और ईसाई मान्यता की तरह, ईश्वर-पुत्र या त्रिमूर्ति का सदस्य नहीं माना जाता है, और उनकी पूजा पर मनाही है। उन्हें चमत्कार करने की क्षमता ईश्वर से मिली थी और स्वयं ईसा में ऐसी शक्तियां नहीं मौजूद थीं। यह भी नहीं माना जाता है कि वे क्रूस पर लटके। इस्लामी परंपरा के मुताबिक ईश्वर ने उन्हें सीधे स्वर्ग में उठाया। सब रसूलों की तरह, ईसा मसीह भी क़ुरान में एक रसूल कहलाए गए हैं। क़ुरान के मुताबिक़, ईसा ने अपने आप को ईश्वर-पुत्र कभी नहीं माना और वे क़यामत के दिन पर इस बात का इंकार करेंगे। मुसलमानों की मान्यता है कि क़यामत के दिन पर, ईसा मसीह पृथ्वी पर लौट आएंगे दज्जाल को खत्म करेंगे।

ईसा की आकृति का कोई भी प्रामणिक चित्र अथवा वर्णन नहीं मिलता, तथापि बाइबिल में उनका जो थोड़ा बहुत चरित्रचित्रण हुआ है उससे उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली होने के साथ ही अत्यंत आकर्षक सिद्ध हो जाता है। ईसा 30 साल की उम्र तक मज़दूर का जीवन बिताने के बाद धर्मोपदेशक बने थे, अत: वह अपने को जनसाधारण के अत्यंत निकट पाते थे। जनता भी उनकी नम्रता और मिलनसारिता से आकर्षित होकर उनको घेरे रहती थी, यहाँ तक कि उनको कभी-कभी भोजन करने तक की फुरसत नहीं मिलती थी।

वह बच्चों को विशेष रूप से प्यार करते थे तथा उनको अपने पास बुला बुलाकर आशीर्वाद दिया करते थे। वह प्रकृति के सौंदर्य पर मुग्ध थे तथा अपने उपदेशों में पुष्पों, पक्षियों आदि का उपमान के रूप में प्राय: उल्लेख करते थे। वह धन दौलत को साधना में बाधा समझकर धनियों को सावधान किया करते थे तथा दीन दुखियों के प्रति विशेष रूप से आकर्षित होकर प्राय: रोगियों को स्वास्थ्य प्रदान कर अपनी अलौकिक शक्ति को व्यक्त करते थे, ऐसा लोगों का विश्वास है। वह पतितों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करने वाले पतितपावन थे तथा शास्त्रियों के धार्मिक आंडबर के निंदक थे। एक बार उन्होंने उन धर्मपाखंडियों से कहा- वेश्याएँ तुम लोगों से पहले ईश्वर के राज्य में प्रवेश करेंगी। वह पिता परमेश्वर को अपने जीवन का केंद्र बनाकर बहुधा रात भर अकेले ही प्रार्थना में लीन रहते थे।

सहृदय और मिलनसार होते हुए भी वह नितांत अनासक्त और निर्लिप्त थे। आत्मसंयमी होते हुए भी उन्होंने कभी शरीर गलाने वाली घोर तपस्या नहीं की। वह पाप से घृणा करते थे, पापियों से नहीं। अपने को ईश्वर का पुत्र तथा संसार का मुक्तिदाता कहते हुए भी अहंकारशून्य और अत्यंत विनम्र थे। मनुष्यों में अपना स्नेह वितरित करते हुए भी वह अपना संपूर्ण प्रेम ईश्वर को निवेदित करते थे। इस प्रकार ईसा में एकांगीपन अथवा उग्रता का सर्वथा अभाव है, उनका व्यक्तित्व पूर्ण रूप से संतुलित है।

मुहम्मद साहब–

पैगंबर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने ही इस्लाम धर्म की स्‍थापना की है। हज़रत सल्ल. इस्लाम के आखिरी नबी हैं, आपके बाद अब कयामत तक कोई नबी नहीं आने वाला है ऐसा कुरान कहती है ।

इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद साहब का जन्म 570 ई. को सउदी अरब के मक्का नामक स्थान में कुरैश क़बीले के अब्दुल्ला नामक व्यापारी के घर हुआ था। जन्म के पूर्व ही पिता की और पाँच वर्ष की आयु में माता की मृत्यु हो जाने के फलस्वरूप उनका पालन-पोषण उनके दादा मुतल्लिब और चाचा अबू तालिब ने किया था। 25 वर्ष की आयु में उन्होंने ख़दीजा नामक एक विधवा से विवाह किया। मोहम्मद साहब के जन्म के समय अरबवासी अत्यन्त पिछडी, क़बीलाई और चरवाहों की ज़िन्दगी बिता रहे थे। अतः मुहम्मद साहब ने उन क़बीलों को संगठित करके एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाने का प्रयास किया। 15 वर्ष तक व्यापार में लगे रहने के पश्चात् वे कारोबार छोड़कर चिन्तन-मनन में लीन हो गये। मक्का के समीप हिरा की चोटी पर कई दिन तक चिन्तनशील रहने के उपरान्त उन्हें देवदूत जब्रिल का संदेश प्राप्त हुआ कि वे जाकर क़ुरान शरीफ़ के रूप में प्राप्त ईश्वरीय संदेश का प्रचार करें। तत्पश्चात् उन्होंने इस्लाम धर्म का प्रचार शुरू किया। उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया, जिससे मक्का का पुरोहित वर्ग भड़क उठा और अन्ततः मुहम्मद साहब ने 16 जुलाई 622 को मक्का छोड़कर वहाँ से 300 किलोमीटर उत्तर की ओर यसरिब (मदीना) की ओर कूच कर दिया। उनकी यह यात्रा इस्लाम में ‘हिजरत’ कहलाती है। इसी दिन से ‘हिजरी संवत‘ का प्रारम्भ माना जाता है। कालान्तर में 630 ई. में अपने लगभग 10 हज़ार अनुयायियों के साथ मुहम्मद साहब ने मक्का पर चढ़ाई करके उसे जीत लिया और वहाँ इस्लाम को लोकप्रिय बनाया। दो वर्ष पश्चात् 8 जून, 632 को उनका निधन हो गया। उनकी वफात के बाद तक लगभग पूरा अरब इस्लाम के सूत्र में बंध चुका था और आज पूरी दुनिया में उनके बताए तरीके पर जिंदगी गुजारने वाले लोग हैं।

इबादत और इलहाम : आप सल्ल. अलै. बचपन से ही अल्लाह की इबादत में लगे रहते थे। आपने कई दिनों तक मक्का की एक पहाड़ी ‘अबुलुन नूर’ पर इबादत की। 40 वर्ष की अवस्था में आपको अल्लाह की ओर से संदेश (इलहाम) प्राप्त हुआ।

अल्लाह ने फरमाया, ये सब संसार सूर्य, चांद, सितारे मैंने पैदा किए हैं। मुझे हमेशा याद करो। मैं केवल एक हूं। मेरा कोई मानी-सानी नहीं। लोगों को समझाओ। हज़रत मोहम्मद सल्ल. अलै. ने ऐसा करने का अल्लाह को वचन दिया, तभी से उन्हें नबूवत प्राप्त हुई।

कुरान: हज़रत मोहम्मद साहब पर जो अल्लाह की पवित्र किताब उतारी गई है, वह है- कुरान । अल्लाह ने फरिश्तों के सरदार जिब्राइल अलै. के मार्फत पवित्र संदेश (वही) सुनाया। उस संदेश को ही कुरान में संग्रहीत किया गया है। 1,400 साल हो गए लेकिन कहते हैं कि इस संदेश में जरा भी रद्दोबदल नहीं है।

सबसे पहले ईमान : नबूवत मिलने के बाद आप सल्ल. ने लोगों को ईमान की दावत दी। मर्दों में सबसे पहले ईमान लाने वाले सहाबी हज़रत अबूबक्र सिद्दीक रजि. रहे। बच्चों में हज़रत अली रजि. सबसे पहले ईमान लाए और औरतों में हजरत खदीजा रजि. ईमानलाईं ।

ईसाई धर्म, यहूदी धर्म और इस्लाम धर्म का संक्षिप्त परिचय–

ईसाई धर्म–

ईसाई धर्म (मसीही या क्रिश्चियन) प्राचीन यहूदी परंपरा से निकला एकेश्वरवादी धर्म है। इसकी शुरूआत प्रथम सदी की यीशु के जन्म के लगभग 33 वर्ष बाद, फलिस्तीन में हुई, जिसके अनुयायी ईसाई कहलाते हैं। यह धर्म ईसा मसीह की शिक्षाओं पर आधारित है। ईसाइयों में मुख्ययतः तीन समुदाय  हैं-

 कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट और ऑर्थोडॉक्स तथा इनका धर्मग्रंथ बाइबिल है । ईसाइयों के धार्मिक स्थल को चर्च कहते हैं। विश्व में सर्वाधिक लोग ईसाई धर्म को मानते हैं।

ईसाई धर्म के अनुसार मूर्तिपूजा, हत्या, व्यभिचार व किसी को भी व्यर्थ आघात पहुंचाना पाप है। चौथी सदी तक यह धर्म किसी क्रांति की तरह फैला, किन्तु इसके बाद ईसाई धर्म में अत्यधिक कर्मकांडों की प्रधानता तथा धर्मसत्ता ने दुनिया को अंधकार युग में धकेल दिया था। फलस्वरूप पुनर्जागरण के बाद से इसमें रीति-रिवाज़ों के बजाय आत्मिक परिवर्तन पर अधिक ज़ोर दिया जाता है।

ईसाई एकेश्वरवादी हैं, लेकिन वे ईश्वर को त्रीएक के रूप में समझते हैं — परमपिता परमेश्वर, उनके पुत्र ईसा मसीह (यीशु मसीह) और पवित्र आत्मा। परमपिता इस सृष्टि के रचयिता हैं और इसके शासक भी।  पवित्र आत्मा त्रिएक परमेश्वर के तीसरे व्यक्तित्व हैं जिनके प्रभाव में व्यक्ति अपने अन्दर ईश्वर का अहसास करता है। ये ईसा के चर्च एवं अनुयाईयों को निर्देशित करते हैं। ईसाई धर्मग्रन्थ बाइबिल में दो भाग हैं। पहला भाग पुराना नियम कहलाता है, जो कि यहूदियों के धर्मग्रंथ तनख़ का ही संस्करण है। दूसरा भाग नया नियम कहलाता तथा ईसा के उपदेश, चमत्कार और उनके शिष्यों के कामों का वर्णन करता है।

ईसाइयों के मुख्य सम्प्रदाय हैं :

कैथोलिक-

कैथोलिक सम्प्रदाय में पोप को सर्वोच्च धर्मगुरु मानते हैं।

ऑर्थोडॉक्स-

ऑर्थोडॉक्स रोम के पोप को नहीं मानते, पर अपने-अपने राष्ट्रीय धर्मसंघ के पैट्रिआर्क को मानते हैं और परम्परावादी होते हैं।

प्रोटेस्टेंट-

प्रोटेस्टेंट किसी पोप को नहीं मानते है और इसके बजाय पवित्र बाइबल में पूरी श्रद्धा रखते हैं। मध्य युग में जनता के बाइबिल पढने के लिए नकल करना मना था। जिससे लोगो को ख्रिस्ती धर्म का उचित ज्ञान नहीं था। कुछ बिशप और पादरियों ने इसे सच्चे ख्रिस्ती धर्म के अनुसार नहीं समझा और बाइबिल का अपनी अपनी भाषाओ में भाषान्तर करने लगे, जिसे पोप का विरोध था। उन बिशप और पादारियों ने पोप से अलग होके एक नया सम्प्रदाय स्थापित किया जिसे प्रोटेस्टेंट कहते हैं।

यहूदी धर्म–

यहूदी जाति ‘यहूदी’ का मौलिक अर्थ है- येरूशलेम के आसपास के ‘यूदा’ नामक प्रदेशों का निवासी । यह प्रदेश याकूब के पुत्र यूदा के वंश को मिला था। बाइबिल में ‘यहूदी’ के निम्नलिखित अर्थ मिलते हैं- याकूब का पुत्र यहूदा, उनका वंश, उनकर प्रदेश, कई अन्य व्यक्तियों के नाम।

यहूदी मान्यताओं के अनुसार ईश्वर एक है और उसके अवतार या स्वरूप नहीं है, लेकिन वो दूत से अपने संदेश भेजता है। ईसाई और इस्लाम धर्म भी इन्हीं मान्यताओं पर आधारित है पर इस्लाम में ईश्वर के निराकार होने पर अधिक ज़ोर डाला गया है। यहूदियों के अनुसार मूसा को ईश्वर का संदेश दुनिया में फैलाने के लिए मिला था जो लिखित (तनाख) तथा मौखिक रूपों में था। यहोवा ने इजराइल के लोगों को एक ईश्वर की अर्चना करने का आदेश दिया।

यूदा प्रदेश के निवासी प्राचीन इजरायल के मुख्य ऐतिहासिक प्रतिनिधि बन गए थे, इस कारण समस्त इजरायली जाति के लिये यहूदी शब्द का प्रयोग होने लगा। इस जाति का मूल पुरूष अब्राहम थे, अत: वे ‘इब्रानी’ भी कहलाते हैं। याकूब का दूसरा नाम था इजरायल, इस कारण ‘इब्रानी’ और ‘यहूदी’ के अतिरक्ति उन्हें ‘इजरायली’ भी कहा जाता है।

यहूदी धर्मग्रंथ अलग अलग लेखकों के द्वारा कई सदियों के अंतराल में लिखे गए हैं। ये मुख्यतः इब्रानी व अरामी भाषा में लिखे गए हैं। ये धार्मिक ग्रंथ हैं तनख़, तालमुद तथा मिद्रश। इनके अलावा सिद्दूर, हलाखा, कब्बालाह आदि।

यहूदी धर्म को मानने वालों को यहूदी कहा जाता है। यहूदियों का निवास स्थान पारंपरिक रूप से पश्चिम एशिया में आज के इजराइल को माना जाता है जिसका जन्म 1947 के बाद हुआ। मध्यकाल में ये यूरोप के कई क्षेत्रों में रहने लगे जहाँ से उन्हें उन्नीसवीं सदी में निर्वासन झेलना पड़ा और धीरे-धीरे विस्थापित होकर वे आज मुख्यतः इजराइल तथा अमेरिका में रहते हैं। इजराइल को छोड़कर सभी देशों में वे एक अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में रहते हैं। इन्का मुख्य काम व्यापार है।

यहूदी धर्म को इसाई और इस्लाम धर्म का पूर्ववर्ती कहा जा सकता है। इन तीनों धर्मों को संयुक्त रूप से ‘इब्राहिमी धर्म‘ भी कहते हैं। यहूदी धर्म एक प्राचीन धर्म है |

सन्देशवाहक (नबी)

नूह

यहूदी धर्मग्रंथ तोराह के अनुसार हजरत नूह ने ईश्वर के आदेश पर जलप्रलय के समय बहुत बड़ा जहाज बनाया, और उसमें सारी सृष्टि को बचाया था।

अब्राहम

हजरत अब्राहम, यहूदी, इस्लाम और ईसाई धर्म तीनों के पितामह माने जातें हैं। तोराह के अनुसार अब्राहम लगभग २००० ई.पू. अकीदियन साम्राज्य के ऊर प्रदेश में अपने इब्रानी कबीले के साथ रहा करते थे। जहां प्रचलित बुतपरस्ती से व्यथित होकर इन्होंने ईश्वर की खोज में अपने कबीले के साथ एक लम्बी यात्रा को शुरू किया।

यर्दन नदी की तराई के प्रदेश में पहुंचने के बाद प्रथम इज़राएली प्रदेश की नींव पड़ी। यहूदी मान्यता के अनुसार कालांतर में कनान प्रदेश में भीषण अकाल पड़ने के कारण इब्रानियों को सम्पन्न मिस्र देश में जाकर शरण लेनी पड़ी। मिस्र में कई वर्षों बाद इज़राएलियों को गुलाम बना लिया गया।

मूसा

हजरत मूसा का जन्म मिस्र के गोशेन शहर में हुआ था। यहूदी इतिहास के अनुसार इन्होंने इब्रानियों को मिस्र की ४०० वर्ष की गुलामी से बाहर निकालकर उन्हें कनान देश तक पहुंचाने में उनका नेतृत्व किया। मूसा को ही यहूदी धर्मग्रंथ की प्रथम पांच किताबों, तोराह का रचयिता माना जाता है। इन्होंने ही ईश्वर के दस विधान व व्यवस्था इब्रानियों को प्रदान की थी। तनख़ के अनुसार मूसा मिस्र में रामेसेस द्वितीय के शासन में थे, जो कि लगभग १३०० ई.पू. था।

इस्लाम धर्म–

इस्लाम एक एकेश्वरवादी धर्म है (जो कि, एक ईश्वर पर विश्वास करता है, जिसे अल्लाह कहा जाता है, “भगवान” के लिए अरबी में “अल्लाह”। यह इब्राहीमी धर्म है जैसे यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और बहाई धर्मो, ने पैग़म्बर हजरत इब्राहीम (अब्राहम) के पुत्र हजरत इश्माएल (अरबी में, इस्माइल) के माध्यम से अपनी आध्यात्मिक विरासत का पता लगाया। यहूदियों और ईसाइयों के विपरीत, जो मानते हैं कि इसहाक का हजरत इब्राहीम द्वारा बलिदान करने का आदेश दिया गया था, लेकिन मुसलमानों का मानना ​​है कि यह इश्माएल (इस्माइल) थे। इस्लाम के पहले नबी, मुसलमानों के अनुसार, पहला आदमी, हजरत एडम (अरबी में, आदम) और बाइबल में उल्लेखित थे, उन्हें भी मुसलमानों को पैग़म्बर के रूप में माना जाता है, हजरत मुहम्मद साहब को इस्लाम के अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण पैग़म्बर के रूप में माना जाता है।

इस्लाम का उदय सातवीं सदी में अरब प्रायद्वीप में हुआ। लगभग 613 इस्वी के आसपास हजरत मुहम्मद साहब ने लोगों को अपने ज्ञान का उपदेशा देना आरंभ किया था। इसी घटना का इस्लाम का आरंभ जाता है। हालाँकि इस समय तक इसको एक नए धर्म के रूप में नहीं देखा गया था। परवर्ती वर्षों में हजरत मुहम्म्द सहाब के अनुयायियों को मक्का के लोगों द्वारा विरोध तथा हजरत मुहम्मद साहब के मदीना प्रस्थान (जिसे हिजरा नाम से जाना जाता है) से ही इस्लामी (हिजरी) पंचांग माना गया। हजरत मुहम्मद साहब की वफात के बाद अरबों का साम्राज्य और जज़्बा बढ़ता ही गया। अरबों ने पहले मिस्र और उत्तरी अफ्रीका पर विजय प्राप्त की और फिर बैजेन्टाइन तथा फारसी साम्राज्यों को हराया। यूरोप में तो उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली पर फारस में कुछ संघर्ष करने के बाद उन्हें जीत मिलने लगी। इसके बाद पूरब की दिशा में उनका साम्राज्य फैलता गया। सन् 1200 ईस्वी तक वे भारत तक पहुँच गए।

अरबी के ‘मज़हब’ और ‘दीन’ शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त हैं, उसे अंग्रेज़ी का रिलीजन शब्द तो अवश्य व्यक्त कर सकता है। किन्तु संस्कृत या हिन्दी में उनका पर्यायवाची कोई एक शब्द नहीं मिलता। यद्यपि ‘पन्थ’ शब्द ठीक ‘मज़हब’ शब्द के ही धात्वर्थ को प्रकाशित करता है। किन्तु जिस प्रकार ‘धर्म’ शब्द अतिव्याप्त है, उसी प्रकार यह अव्याप्ति–दोषग्रस्त है। इस निबन्ध के वर्णनानुसार जो मार्ग मनुष्य के ऐहिक और आयुष्मिक श्रेय की प्राप्ति के लिए अनुसरण करने के योग्य है, वही इस्लाम पन्थ, धर्म या सम्प्रदाय है। आसानी के लिए हम प्रायः ‘पन्थ’ शब्द ही को इसके लिए प्रयुक्त करेंगे। हर एक पन्थ में दो प्रकार के मन्तव्य होते हैं। एक विश्वासात्मक, दूसरा क्रियात्मक। नीचे दोनों प्रकार के इस्लामी मन्तव्यों को क़ुरान के शब्दों ही में उदधृत किया जाता है— “यह पुण्य नहीं कि तुम अपने मुँह को पूर्व या पश्चिम की ओर कर लो। पुण्य तो यह है—परमेश्वर, अन्तिम दिन, देवदूतों, पुस्तक और ऋषियों पर श्रृद्धा रखना, धन को प्रेमियों, सम्बन्धियों, अनाथों, दरिद्रों, पथिकों, याचिकों और गर्दन बचाने वालों के लिए देना, उपवास (रोज़ा) रखना, दान देना, जब प्रतिज्ञा कर चुके तो अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करना, विपत्तियों, हानियों और युद्धों में सहिष्णु (होना), (जो ऐसा करते हैं) वही लोग सच्चे और संयमी हैं।”[i]

मुस्लिम जनसंख्या के मामले में दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिण एशिया, अफ्रीका और ज्यादातर मध्य पूर्व में सुन्नियां बहुसंख्यक हैं दुनिया के 90% मुसलमान सुन्नी हैं और शेष वाकी लगभग 10% शिया हैं, लेकिन पूरी स्थिति जटिल है; मुख्य रूप से सुन्नी क्षेत्रों में शिया अल्पसंख्यक हैं और इसके विपरीत। इंडोनेशिया में सबसे बड़ी संख्या में सुन्नी मुसलमान हैं, जबकि ईरान में दुनिया में शिया मुस्लिमों की सबसे बड़ी संख्या है। पाकिस्तान में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सुन्नी और दूसरी सबसे बड़ी शिया मुस्लिम आबादी है। पूरे मुद्दे को उलझाना यह तथ्य है कि शिया बहुसंख्यक देशों के कुछ हिस्सों पर ऐतिहासिक तौर पर सुन्नियों और इसके विपरीत शासन किया गया है। उदाहरण के लिए इराक में सद्दाम हुसैन एक सुन्नी मुस्लिम शासक थे, लेकिन इराक 60% शिया देश है। इसी के विपरीत सीरिया के वर्तमान राष्ट्रपति बशर अल-असद एक शिया परिवार से लेकीन सीरिया की लगभग 70% जनसंख्या सुन्नी मुसलमान हैं सीरिया में अशद परिवार पिछले 35 सालों से लगातार सीरिया पर शासन कर रहा है।

-: ईसाई, यहूदी और इस्लाम धर्म पर तुलनात्मक निबंध:-

मध्य पूर्व (Middle East) एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक क्षेत्र रहा है जहाँ इसने कई संस्कृतियों और धर्मों जैसे यहूदी, ईसाई  और  इस्लाम धर्म को जन्म दिया है | जैसा कि इन सभी धर्मो ने इसी क्षेत्र से अपनी विस्तार यात्रा आरम्भ की थी, इन प्रमुख दोनों धर्मो का (इस्लाम और ईसाइयत) का दुनिया इतिहास के पर काफी प्रभाव पड़ा है । हालांकि, ईसाई धर्म और इस्लाम में धार्मिक मान्यताओं और दो धर्मों के बीच विस्तार में काफी मतभेद ध्यान में आते है, वही दोनों में काफी समानता भी दिखाई देती है ।

ईसाइयों और यहूदियों की तरह अरबी लोग भी, अनदेखी आत्माओं में विश्वास करते थे जैसे कि देवता, रेगिस्तान की आत्माएं, राक्षस और पवित्र आत्माएं । प्रत्येक ईसाई और मुसलमानों का मानना ​​था कि इस जहाँ में केवल एक सच्चा ईश्वर है जो लोगों को देखने और उनकी मदद के लिए एक दूत या अपना पैगम्बर भेजता है ।

ईसाइयों का मत ​​था कि यीशु ईश्वर के भेजे हुए दूत थे और उनके पुत्र भी और इस्लाम का मानना ​​था कि मुहम्मद साहब एक स्वर्ग के दूत (पवित्र आत्मा)  से प्रेरित थे जब उन्होंने सवाल किया कि क्या आत्मा एक सच्ची ईश्वर है । दोनों धर्मों के अनुनायी लोगों का मानना ​​था कि यदि वे अच्छे कर्म करते हैं तो वे स्वर्ग (ईसाई धर्म) या जन्नत (इस्लाम के विश्वास) में जाएंगे । और पापी नरक या दोजख में जाएगा । दोनों धर्मों की अपनी-अपनी धार्मिक पुस्तक है कि वे मानते हैं कि वे ईश्वर के शब्द हैं । बाइबिल वह पुस्तक है जिसे ईसाई मानते हैं कि ईश्वर के शब्द हैं जिसे यीशु ने उनके आदेश पर कहा है ,और मुस्लिम कुरान को आल्लाह की नैबत से आसमान से उतरी हुई , ईश्वर के अप्राप्य शब्द से प्रेरित पवित्र किताब मानते है |
ईसाई धर्म और मुस्लिम धर्म का विस्तार अगर हम समझे तो उसमे लगभग 6 शताब्दी का अंतर है मगर फिर भी मुस्लिम धर्म तेजी से फैला । ईसाइयों ने मध्य पूर्व और यूरोप सहित कई शहरों में नए चर्चों की स्थापना की और ईसाईयों ने पहली दो शताब्दियों के दौरान ईसाई धर्म के प्रसार को अनिवार्य रूप से शहर घटना बना दिया । चूंकि अरब में बहुत कम शहर थे, इसलिए इस्लाम ज्यादातर गांवों और ग्रामीण इलाकों में फैला था । ईसाई धर्म और इस्लाम के विस्तार के बीच एक बड़ा अंतर यह कि उनके संदेशों को फैलाने के तरीकों के बीच । पहली दो शताब्दियों के दौरान, ईसाइयों ने अपने धर्म को दूसरों पर बल नहीं दिया, लेकिन मिशनरियों, उपदेशों, और प्रमुख ईश्वरीय जीवन पर लोगों को एक सच में आकर्षित करने के लिए भरोसा किया | मगर इस्लाम ने पुरे अरब, अफ्रीका और रूस के कुछ भागो में अपनी ताकत और शिक्षा के बल पर अपने धर्म का प्रचार और प्रसार किया |

ईसाई धर्म दुनिया के लगभग सभी आबादी वाले महाद्वीपों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व करने के साथ, विश्व धर्मों का सबसे व्यापक रूप से वितरित करने वाला धर्म बन गया है । इसकी कुल सदस्यता दुनियाभर में लगभग 1.7 बिलियन से अधिक हो सकती है । दुनिया में सबसे अधिक आबादी आज ईसाईयों की है |

आज इस्लाम भी दुनिया का एक प्रमुख विश्व धर्म बन गया है जिसकी अनुयायियों के संख्या दुनिया में दुसरे स्थान पर है, अरब में स्थापित और पैगंबर कहे जाने वाले मुहम्मद की शिक्षाओं पर आधारित है । जो इस्लाम धर्म की शिक्षाओं का पालन करता है वह मुसलमान है । मुसलमान कुरान शरीफ का भी अक्षरश: पालन करते हैं, जो मुहम्मद द्वारा रहस्योद्घाटन किताब है । मुस्लिम की आबादी विश्व में 1 बिलियन से अधिक है । इस्लाम सबसे तेजी से बढ़ता हुआ धर्म है ।

यहूदी धर्म दुनिया की सबसे पुरानी धार्मिक परंपराओं में से एक है । पूर्व-आधुनिक यहूदी धर्म का गठन (और पारंपरिक यहूदी धर्म आज का गठन करता है ) यहूदी कानून, रिवाज और व्यवहार की एक एकीकृत सांस्कृतिक प्रणाली, जिसमें व्यक्तिगत और सांप्रदायिक अस्तित्व की समग्रता शामिल है । यह पवित्रीकरण की एक प्रणाली है जिसमें सभी को भगवान के शासन के अधीन रखा जाना है । यहूदी धर्म की उत्पत्ति मध्य पूर्व में हुई थी, लेकिन यहूदी समुदाय एक समय या दुनिया के लगभग सभी हिस्सों में मौजूद रहे हैं, दोनों स्वैच्छिक पलायन और जबरन निर्वासन या निष्कासन दोनों का परिणाम है ।  ईसाई धर्म का केंद्रीय तत्व ईसा मसीह है जो स्वयं को परमात्मा का पुत्र घोषित करता है । एक यहूदी रब्बी नाज़रेथ यीशु ने निम्नलिखित लोगों को आकर्षित किया, जो उसे एक नया पैगंबर मानते थे । यीशु के शब्दों और कर्मों के उनके स्मरण पृथ्वी पर उनके दिनों को याद करते हैं और पहले ईस्टर पर मृतकों में से उनके पुनरुत्थान का चमत्कार है । इन यहूदी ईसाइयों ने यरूशलेम में पहला चर्च स्थापित किया । मोहम्मद साहब के समय (570 -632 ई.) में, अरब प्रायद्वीप खानाबदोश बेडौइन और शहर में रहने वाले अरबों द्वारा बसा हुआ था । मुहम्मद साहब ने 40 साल की उम्र में इस्लाम का प्रचार प्रसार शुरू किया, जब उन्होंने दावा किया, तो गेब्रियल ने उन्हें एक दृष्टि में अल्लाह का संदेश दिया । सबसे पहले मुहम्मद ने केवल अपने परिवार और करीबी दोस्तों को ही अपने विचार से अवगत कराया और उन्हें इस्लाम ग्रहण कराया । इस्लाम धर्म की अधिकतर बातें ईसाई धर्म से सम्बन्ध रखती है |

आज सतह पर, इस्लाम और ईसाई धर्म की शिक्षा का अनुपालन करने वाले बहुत कम लोग दिखाई देते हैं उन्हें मानने वाले लोगो की संख्या हालंकि बहुत है , मगर जैसे कि आप अनुष्ठानों, विश्वासों, नैतिकता, संस्थापकों और पवित्र वस्तुओं जैसे क्षेत्रों में गहराई से उतरते हैं, तो विशेष रूप से मौलिक क्षेत्रों में मजबूत पारस्परिक समानता दिखाई देती हैं । इस निबंध के माध्यम से मैं दुनिया के सबसे बड़े और सबसे अधिक मान्यता प्राप्त धर्मों, ईसाई धर्म और इस्लाम को बनाने वाले सिद्धांतों की तुलना करूंगा ।

    इस्लाम शब्द का अर्थ है “समर्पण” या “प्रस्तुत करना”, अल्लाह की इच्छा के लिए प्रस्तुत करना, यह धर्म एक ईश्वर में विश्वास रखता है । इस्लाम का मूल पंथ संक्षिप्त है: मुस्लिम और ईसाई दोनों एकेश्वरवादी हैं, एक ही ईश्वर में विश्वास करते हैं, जिसे मुसलमानों द्वारा “अल्लाह” और कैथोलिकों द्वारा “ईश्वर” कहा जाता है । इस्लाम सिखाता है कि एक ईश्वर है, ब्रह्मांड का निर्माता और निरंतरता है । यह अल्लाह, दयालु और सम्मानित है । क्योंकि वह दयालु है, वह सभी लोगों को उस पर विश्वास करने और उसकी इबादत करने के लिए कहता है । क्योंकि वह भी विधिपूर्ण है, अंतिम दिन वह प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्मों के अनुसार न्याय देगा । अंतिम दिन, सभी मृतकों को जीवित किया जाएगा और या तो स्वर्ग में पुरस्कृत किया जाएगा या नरक में दंडित किया जाएगा ।

ईश्वर के एकवचन को देखने के लिए ईसाई धर्म समानता रखता है । ईसाई बाइबिल में दस आज्ञाओं में से एक में कहा गया है कि “मैं तुम्हारा भगवान हूँ ,  इससे पहले कि कोई अन्य देवता नहीं हैं” । इसके अलावा, इस्लाम के समान, ईश्वर को ब्रह्मांड का निर्माता माना जाता है, और वह भी दुनिया के आखिरी दिन, या फैसले के दिन, मृत को जीवित किया जाएगा और या तो स्वर्ग से पुरस्कृत किया जाएगा या नरक के साथ दंडित किया जाएगा । इस्लाम और ईसाई मान्यताओं में इस बात को सही माना गया है |

ईसाइयत में ईश्वर ने अपनी शिक्षा और मानव के मार्गदर्शन के लिए अपने पुत्र यीशु को धरती पर अवतरित किया है | इस्लाम में, भगवान ने अपनी इच्छा को संप्रेषित करने के लिए पैगंबर भेजे । ये नबी, सभी नश्वर पुरुष, दूत द्वारा चुने गए जिन्हें ईश्वर ने एक दूत के माध्यम से या प्रेरणा से बोला, यह ईसाई धर्म के समान है । पैगंबरों के उपयोग का एक और उदाहरण भगवान ने अपने लोगों को मिस्र से मुक्त करने के लिए मूसा को भेजा था ।  इस्लाम और ईसाई दोनों धर्मो में पैगम्बर का जिक्र आता है | दोनों धर्मो में मुसा का भी जिक्र आता है |

ईसाइयत, इस्लाम और यहूदी धर्म के मध्य एक संक्षिप्त तुलनात्मक समानताओ और भिन्नातायो का अध्ययन करेगे –

ईसाई, इस्लाम और यहूदी धर्मों के बीच, कई समानताएं और अंतर हैं । इन सभी धर्मों तुलना के दौरान, हम प्रत्येक धर्म के विभिन्न पहलुओं की तुलना और इसके विपरीत विचारो का अध्ययन कर सकते हैं जैसे कि उनके इतिहास के कुछ मूल तथ्य और उनमें से प्रत्येक में धार्मिक विश्वासों में से कुछ हैं और उन्हें एक दूसरे से अलग बनाते हैं । फिलिस्तीन(येरुशेलम) के रूप में जाने जाने वाले देश में, ईसाई और यहूदी धर्म के रूप में जाने जाने वाले धर्मों की स्थापना अलग-अलग ईश्वर के पैगम्बरों द्वारा की गई थी । यीशु ने ईसाई धर्म का निर्माण शुरू किया था और मूसा ने यहूदी धर्म की स्थापना की थी । सऊदी अरब में इस्लाम धर्म का जन्म मुहम्मद साहब के द्वारा हुआ था । प्रत्येक धर्म की उत्पत्ति को ध्यान में रखते हुए, ईसाई लोगों को ईसाई धर्म में विश्वास करने वाले और अरामी या ग्रीक की मूल भाषा में बात करने वाले लोगों के रूप में जाना जाता था । यहूदी धर्म में विश्वास करने वाले लोग हिब्रू की मूल भाषा में और इस्लाम में भरोसा करने वाले लोगों के लिए अरबी भाषा बोलते थे और मुस्लिम कहलाते हैं । ईसाइयों, मुसलमानों और यहूदियों के बीच, ईसाइयों के पास 2 बिलियन सदस्यों के साथ धर्मों की सबसे बड़ी आबादी है, और इस्लामिक धर्म के लिए, 1.3 बिलियन मुस्लिम और यहूदी धर्म में, लगभग 14 मिलियन यहूदी शामिल हैं । इससे ईसाई धर्म सबसे बड़े धर्म के रूप में जाना जाता है, इस्लाम दूसरा सबसे बड़ा और यहूदी धर्म सभी धर्मों में से 12 वें स्थान पर आता है । ईसाइयों की मुख्य सघनता यूरोप, उत्तर और दक्षिण अमेरिका, आस्ट्रेलिया और रूस सहित अन्य देशो ईसाई राष्ट्रों में है और आज के समय में अफ्रीका में ईसाई धर्म का विकास तेजी से हो रहा है । मुस्लिम मुख्य रूप से मध्य पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया में केंद्रित हैं और यहूदियों की मुख्य संख्या इजरायल, यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका में स्थित है ।

दोनों ही मतों के  धर्मालंबियों में अपने-अपने मतों के प्रति गहरा विश्वास है | एक चार्ट के माध्यम से दोनों धर्मो के बारे संक्षिप्त बातो को समझेंगे | दोनों सम्प्रदाए  के लोग आपस में बहुत सम्बन्ध नही रखते है मगर दोनों धर्मो का आपसी सम्बन्ध बहुत पुराना है | दोनों ही धर्मो और पैगम्बरों में के बारे में कुछ प्रचलित तथ्य है जो निम्लिखित प्रकार से है |[ii]

 विश्वासइस्लाम मतईसाई मतईश्वरएक ही ईश्वर है जिसे अल्लाह के नाम से पुकारा जाता है |यह मत भी एक ईश्वर को ही मानता है | जिसे यहोवा या परम पिता कहते है |उदयलगभग 613 ईसवींईसा के जन्म प्रथम सदी के लगभग 33 वर्ष बादपैगम्बरमुहम्मद साहबईसा मसीह (जीसस)यहूदीइस्लाम धर्म की अधिकतम मान्यता यहूदी धर्म पर आधारित है |और ईसाई मत भी यहूदी धर्म की मान्यता को स्वीकारता है |येरुशेलम (जेरुशलम)यरुशलम की अल अक्सा मस्जिद को ‘अलहरम-अलशरीफ’ के नाम से भी जानते हैं। मुसलमान इसे तीसरा सबसे पवित्र स्थल मानते हैं। उनका विश्वास है कि यहीं से हजरत मुहम्मद जन्नत की तरफ गए थे और अल्लाह का आदेश लेकर पृथ्वी पर लौटे थे। इस ‍मस्जिद के पीछे की दीवार ही पश्चिम की दीवार कहलाती है, जहां नीचे बड़ा-सा परिसर है। इसके अलावा मुसलमानों के और भी पवित्र स्थल हैं, जैसे कुव्‍वत अल सकारा, मुसाला मरवान तथा गुम्बदे सखरा भी प्राचीन मस्जिदों में शामिल है।ईसाइयों के लिए भी यह शहर बहुत महत्व रखता है, क्योंकि यह शहर ईसा मसीह के जीवन के अंतिम भाग का गवाह है। ईसाइयों का विश्वास है कि ईसा एक बार फिर यरुशलम आएंगे। पुराने शहर की दीवारों से सटा एक प्राचीन पवित्र चर्च है जिसके बारे में मान्यता है कि यहीं पर प्रभु यीशु पुन: जी उठे थे। माना यह भी जाता है कि यही ईसा के अंतिम भोज का स्थल है। जीससमुस्लिम मत जीसस को कुंवारी माता से जन्म दिया हुआ पैगम्बर तो मानता है मगर ईश्वर का पुत्र स्वीकार नही करता है |[iii][iv]जीसस कुंवारी माता मरियम से पैदा हुआ ईश्वर का दिव्य पुत्र है । वह परमेश्वर का वचन और मानवता का उद्धारकर्ता है |[v] सूली पर चढ़ानाजीसस को सूली पर नहीं चढ़ाया गया था । किसी और को को यीशु के स्थान पर  प्रतिस्थापित किया गया था और जीसस तब तक छिपे रहे जब तक कि वह अपने शिष्यों के साथ नहीं मिले |[vi]इतिहास का एक तथ्य जो पाप के प्रायश्चित और विश्वासियों के उद्धार के लिए आवश्यक है | जीसस को सूली पर चढ़ाया गया था |यीशु का पुनर्जीवनचूंकि मुसलमान क्रूसीफिकेशन में विश्वास नहीं करते हैं, इसलिए पुनर्जीवन पर विश्वास करने की कोई आवश्यकता नहीं  है |इतिहास का एक तथ्य जो पाप और मृत्यु पर भगवान की जीत का प्रतीक है | ईसाई मत की आस्था है कि प्रभु यीशु का पुनर्जीवन हुआ था |त्रिमूर्तियह धारणा ईश्वर-निंदा की निंदा है – तीन देवताओं में एक अल्लाह ही विश्वास का प्रतीक है । इस्लाम में, त्रिमूर्ति को गलती से भगवान, यीशु और मैरी माना जाता है |[vii]एक ईश्वर तीन अनादि और सह-व्यक्तियों में सदा प्रकट होता है: ईश्वर पिता, ईश्वर पुत्र और ईश्वर आत्मा |[viii]पापपाप स्थापित कानून की अवज्ञा है। पाप अल्लाह को दुखी नहीं करता है।[ix]पाप भगवान के खिलाफ विद्रोह है। पाप भगवान को दु: खी करता है |[x] मनुष्यमनुष्य अल्लाह द्वारा बनाया पापरहित प्राणी है |मनुष्य परमेश्वर की छवि में बना है और स्वभाव से पापी है |मोक्ष की कल्पनाअल्लाह की इच्छा को प्रस्तुत करने से मुक्ति प्राप्त होती है। मुक्ति का कोई आश्वासन नहीं है – यह केवल अल्लाह की दया से दी गई है |मोक्ष एक विश्वास है जिसे यीशु मसीह ने क्रूस पर प्रायश्चित में स्वीकार किया और ईश्वर की कृपा से प्रदान किया | बाइबल ग्रन्थमुसलमान बाइबल को स्वीकार करते हैं (विशेष रूप से पेंटाटेच[xi], भजन और सुसमाचार) को कुरान के साथ सहमत होने के नाते | मगर वो इससे पूर्ण सत्य नही मानते उनका मत है की बाइबल में बातो को जोड़ा गया है |बाइबल परमेश्‍वर का प्रेरित वचन है जो पूर्ण है और इसे जोड़ा नहीं जाना चाहिए | कुरान शरीफईश्वर का दिया हुआ अंतिम ज्ञान जो रहस्योद्घाटन कर बाइबल में की गयी त्रुटियों को सुधारता है और ठीक करता है | जिसमे परमेश्वर की लिखित वाणी है |ईश्वरीय रहस्योद्घाटन के रूप में स्वीकार नहीं किया गया | और कुरान बाइबल से बहुत पीछे का ग्रन्थ है | मुहम्मद साहबनबियों की पंक्ति में अंतिम पैगम्बर  और इसलिए, आध्यात्मिक मामलों में अंतिम अधिकार है | ऐसा मुस्लिम धर्म की मान्यता है |पैगंबरतो मानते है  मगर उनकी शिक्षायों वैध धर्मशास्त्रीय स्रोत के रूप में स्वीकार नहीं किया करते |स्वर्गदूतये दिव्य दूत प्रकाश से निर्मित होते हैं और इनकी पूजा नहीं की जाती है। शैतान भी एक स्वर्गदूत है |स्वर्ग में स्वर्गदूतों को परमेश्वर के स्वर्गीय सेवकों के रूप में परिभाषित किया गया है जो उनके दूत के रूप में कार्य करते हैंविभाजनयह दो प्रमुख मतों में विभाजित हुआ- सिया और सुन्नीयह तीन मतों में विभाजित हुआ है- कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट और ऑर्थोडॉक्सअद्वैतवाद-संबंधीकुछ मुस्लिम ग्रंथो में की मान्यता है कि वह और ईसाई मत एक दुसरे के पूरक है | कुरान में जीसस का जिक्र आता है |कुछ कुछ स्थानों पर दोनों के संबंधो का वर्णन मिला है | येरुशलम से दोनों धर्मो का जुड़ाव है | क़यामत का अंतिम दिनअंतिम गंतव्य के साथ शारीरिक पुनरुत्थान और अंतिम निर्णय होगा। सभी मुसलमान स्वर्ग में जाते हैं, हालांकि कुछ को पहले अपने पापों से मुक्त होना चाहिए। सभी काफिरो को नरक के लिए जाना हैं |अंतिम दिनों में शारीरिक पुनरुत्थान होगा। अंतिम निर्णय और शाश्वत गंतव्य (स्वर्ग या नरक) यीशु के उद्धारकर्ता और उसके पाप को हटाने के रूप में स्वीकार करने के आधार पर तय किया जाएगा जो प्रत्येक व्यक्ति को भगवान से अलग करता है |[xii]

यहूदी, इस्लाम और ईसाई धर्म का आपसी सम्बन्ध की विवेचना–

यहूदी, इस्लाम और ईसाइयत में प्रमुख समानताये क्या है ?वे सभी अब्राहम और उनके बेटों इश्माएल (पैगंबर और मोहम्मद के पूर्वज – इस्लाम) और इसहाक (यहूदियों और यीशु के पूर्वज) से आते हैं। वे सभी पुराने नियम को एक महत्वपूर्ण पाठ के रूप में पहचानते हैं, हालांकि इस्लाम इसे एक हद तक भ्रष्ट मानता है। जूदेव-ईसाई बाइबिल को सच्चे ईश्वर से मिले खुलासे के रूप में माना जाता है, लेकिन मुसलमानों का मानना ​​है कि संचरण और अनुवाद में बाइबल भ्रष्ट हो गई है। वे सभी मूसा को एक नबी के रूप में पहचानते हैं वे सभी एक ईश्वर में विश्वास करते हैं। वे प्रत्येक एक जीवन शैली में विश्वास करते हैं। उन सभी के पास एक पवित्र पुस्तक है। इन सभी में अनुष्ठान और त्योहार हैं |तीनों के बीच क्या अंतर है?मुख्य अंतर यह है कि ईसाई मानते हैं कि यीशु ईश्वरीय था, ईश्वर का पुत्र और वह ईश्वर द ट्रिनिटी है । पिता, पुत्र व पवित्र आत्मा |इस्लाम कहता है कि यीशु केवल एक नबी था ।यहूदी यह नहीं मानते कि यीशु एक पैगंबर थे, या किसी भी तरह से पवित्र थे । वे नहीं मानते कि वह मसीहा था । यहूदी धर्म को नहीं लगता कि यीशु ईश्वर के पुत्र हैं।मुसलमान ईसाई बाइबिल को एक पवित्र दस्तावेज के रूप में मानते हैं, क्योंकि यह उनके एक पैगंबर के जीवन और समय का वर्णन करता है, हालांकि वे कुछ विवरणों से सहमत नहीं हैं, खासकर पुनरुत्थान के ।प्रार्थना और अनुष्ठान- इस्लामपाँच महत्वपूर्ण अनुष्ठान (इस्लाम के स्तंभ के रूप में जाने जाते हैं): 1. शहादह – आस्था का पेशा। 2. सलात – रोजाना पांच बार प्रार्थना। 3. ज़कात – देने वाला भिक्षा। 4. सवाम – रमजान के पवित्र महीने के दौरान उपवास। 5. हज – पवित्र शहर मक्का की तीर्थयात्राप्रार्थना और अनुष्ठान यहूदी धर्मअनुष्ठानों में नवोदित यहूदी पुरुषों की परिधि शामिल है,
बार मित्ज़वाह- एक समारोह जिसमें यहूदी लड़कों की आने वाली उम्र ’और सब्त (शबत) का अवलोकन किया जाता है। जैसा कि दूसरे धर्मों में है, प्रार्थना महत्वपूर्ण है। यहूदी प्रार्थना पुस्तक को सिद्दुर कहा जाता है।तीनों धर्मों का मानना ​​है कि वे पापों का प्रायश्चित कर सकते हैं |प्रायश्चित का अर्थ है, पापों की क्षमा के लिए पूछना और काम करनाईसाइयों के लिए मुक्ति प्राप्त की जा सकती हैयीशु में विश्वास और उसके जी उठने और एक दूसरे के लिए प्यार के माध्यम सेमुसलमानों और यहूदियों के लिए मुक्तिअच्छे कार्यों के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता हैईसाईयों का मानना ​​है कि पवित्र आत्मा ईश्वरीय है और ट्रिनीटी का हिस्सा है।

 

परमेश्वर त्रिमूर्ति का तीसरा व्यक्ति, वास्तव में दिव्य: “…. पिता और पुत्र के साथ उनकी पूजा की जाती है और महिमा होती है।”(नीसिया पंथ)इस्लाम पवित्र आत्मा को एंजेल गेब्रियल नहीं भगवान के रूप में मान्यता देता हैमुसलमानों का मानना ​​है कि एंजेल गेब्रियल ने पैगंबर मोहम्मद को कुरान की पवित्र पुस्तक दी थी |यहूदी पवित्र आत्मा ईश्वर के रूप में मान्यता नही देते हैयहूदी पवित्र आत्मा को भविष्यद्वक्ताओं को दी गई पवित्र शक्‍ति के रूप में देखते हैंईसाई मत एकमात्र इब्राहीम पर विश्वास है जो कला में यीशु और भगवान की छवियों को दर्शाता है।यहूदी और मुसलमान यह नहीं मानते हैं कि किसी को भी भगवान / अल्लाह  को चित्रित करने का प्रयास करना चाहिए या नहीं करना चाहिए |यीशु के जन्म के संबध में
ईसाई और इस्लाम दोनों पारंपरिक रूप से कुंवारी माता के जन्म दिए जाने के विषय को स्वीकार करते है |मगर यहूदी समाज नही करता है |इस्लाम दिव्य रहस्योद्घाटन के रूप में तोरा, स्तोत्र और गोस्पेल (उनके मूल रूपों में) की पुस्तकों को पहचानता हैयहूदी धर्म बाइबल के नए नियम या कुरान को मान्यता नहीं देता हैइस्लाम के दो पवित्र ग्रंथ हैंइस्लाम में, दो मुख्य पवित्र ग्रंथ हैं: कुरान (“कुरान” भी) और हदीस (या हदीथ)। ये पुस्तकें इस्लामिक मान्यताओं, मूल्यों और प्रथाओं को सिखाती और चित्रित करती हैं। वे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज (विशेष रूप से कुरान) भी हैं, जो इस्लामी विश्वास की उत्पत्ति की कहानी बताते हैं।[xiii]पवित्र स्थानतीनों यरूशलेम का एक आम पवित्र स्थान के रूप में साझा करते हैं: यहूदी मानते है कि  – भगवान कहते हैं कि फिलिस्तीन उनका घर है – वेलिंग / वेस्टर्न वॉल – विश्वास यहूदी लोगों द्वारा बनाए गए मंदिर से बना हुआ है – ओल्ड टेस्टामेंट सी में रोमनों को नीचे रखा गया है |यरूशलेम यीशु मसीह के अंतिम दिनों की स्थान है | एम – डोम ऑफ़ द रॉक – जहाँ मुहम्मद की आत्मा अस्थायी रूप से चट्टान से स्वर्ग की ओर चली गई – यीशु, अब्राहम और मूसा के साथ बात की – मक्का भी जहाँ काबा है – तीर्थयात्रा

जीसस और मुहम्मद साहब के बीच तुलनात्मक अध्ययन –
          इस शोध पत्र का उद्देश्य यीशु और मुहम्मद साहब दोनों के जीवन की तुलना करना है । ऐतिहासिक धार्मिक आकृतियों का अनुबंध भी किया जाएगा । हम देखेंगे कि उनके जीवन, मृत्यु, इतिहास और शिक्षाएं आश्चर्यजनक रूप से समान हैं, फिर भी प्रमुख अंतरों के विपरीत हैं । इन आंकड़ों से आधुनिक ईसाई धर्म और इस्लाम को समझने में मदद मिली |

जीसस क्राइस्ट

यीशु के माता पिता जोसेफ और मैरी थे मगर उनका जन्म कुंवारी मैरी से हुआ था । “ईसा मसीह का जन्म इजराइल, फिलिस्तीन के बेथलहम में हुआ, उनके जन्म को शताब्दी का पहला वर्ष माना जाता है | जो अब कॉमन एरा के रूप में जाना जाता है” (फिशर, 2005, पृष्ठ.287) । बाइबल में ऐसे कई साक्ष्य हैं जो यीशु को अब्राहम के प्रत्यक्ष वंशज होने की ओर इशारा करते हैं । मरियम की गर्भावस्था के दौरान, मरियम और यूसुफ ने यीशु के जन्म के लिए बेथलेहम का सामना किया । उस समय यह रोमन कानून था, “कि हर किसी को जनगणना के लिए अपने पैतृक शहरों की यात्रा करनी चाहिए” (फिशर, 2005, पृष्ठ.288)। चूंकि बेथलहम में अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए उनके पास रहने के लिए कोई जगह नहीं थी, वे एक निर्जन स्थान पर रहे । यह उस स्थान के भीतर है जिसे यीशु ने पैदा होने के लिए कहा है । यह ईसाई परंपरा है कि यीशु के जन्म की रात में, तीन ऋषियों ने यीशु को सोने, लोबान और लोहबान के उपहार दिए ।

          12 साल की उम्र में, यीशु ने मैरी और यूसुफ के साथ फसह के लिए अपनी यरूशलेम की यात्रा की । वह खो गए, लेकिन बाद में एक मंदिर में रब्बियों के साथ बात करते पाए गए । यीशु और राबिया तोराह बोल रहे थे । उन्हें तोरा की एक उत्कृष्ट समझ थी । उनके प्रारंभिक वयस्क जीवन का बाइबिल इतिहास कोई नहीं है । यीशु की बाइबिल की कहानी तब शुरू होती है जब यीशु लगभग 30 वर्ष के हुए, यह अनुरोध करते हुए कि जॉन बैपटिस्ट अपना बपतिस्मा लेते हैं । जॉन ने शुरू में इनकार कर दिया, यह मानते हुए कि यह उसकी जगह नहीं है, लेकिन यीशु बेहद दृढ़ थे । यह माना जाता है कि भगवान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण यीशु ने बपतिस्मा लिया था । यीशु पानी पर चले, भूत-प्रेत का प्रदर्शन किया, बीमारों को चंगा किया और मृतकों को जीवित किया ।

          यीशु के अलग-अलग वर्गों के 12 शिष्य थे और विभिन्न वर्गों के कई अनुयायी थे । यीशु ने पूरे देश में शिक्षा दी । उन्होंने देश भर के समूहों को उपदेश दिया । उनका मुख्य केंद्र बिंदु लोगों को एक-दूसरे के लिए प्यार करना और भगवान के लिए प्यार सिखाना था । यीशु ने सिखाया कि उसकी बुद्धि परमेश्वर से थी । उन्होंने अपने आप को एक चरवाहे के रूप में सोचा जो आसानी से अपने झुंड के लिए खुद को बलिदान कर देगा । उन्हें कई लोगों ने एक खतरा माना था ।                                यीशु के एक शिष्य, यहूदा उन्हें धोखा दिया था, उसने यीशु के बारे में जानकारी का व्यापार किया जिससे यीशु की गिरफ्तारी हुई । यीशु ने अपने शिष्यों को निर्देश दिया था कि उन्हें ईश्वर के पुत्र के रूप में ही जाना जाये । इस घोषणा के बाद यीशु को हिरासत में ले लिया गया और पोंटियस पिलाट के सामने लाया गया जिसने उन्हें मौत की सजा सुनाई । यीशु को क्रूस पर चढ़ाया गया, और क्रूस पर उनकी मृत्यु हो गयी । तीन दिनों के बाद उनका पुनर्जीवन हुआ । उनके पुनरुत्थान के बाद, कई शिष्यों ने घोषणा की कि उन्होंने यीशु को मृत अवस्था से उठने के बाद देखा था । ईसाइयों के पुनरुत्थान के साथ-साथ पर्यवेक्षकों ने ईसाई धर्म की स्थापना में सहायता की । ईसाई धर्म ने जल्द ही पूरे रोमन साम्राज्य में शक्ति बढ़ा दी । क्रॉस ईसाई धर्म के सबसे बड़े प्रतीक के रूप में विकसित हुआ । यीशु की मृत्यु ने शाऊल के जीवन को विशेष रूप से बदल दिया, जो यीशु का बहुत बड़ा आलोचक था । शाऊल ने बपतिस्मा लिया और खुद का नाम बदलकर पॉल (फिशर, 2005) कर लिया । पॉल पूरे भूमध्य सागर में ईसाई धर्म का प्रचार करने लगे । पॉल ने ईसाई धर्म के विकास और प्रसार में सहायता की । यीशु मसीह की मृत्यु और पुनरुत्थान के कारण ईसाई धर्म प्रभावित और संपन्न हुआ ।

मुहम्मद साहब

मुहम्मद साहब का जन्म लगभग 570 कॉमन एरा (AD) में मक्का में हुआ था और उन्हें पैगम्बरों में अंतिम माना जाता है (फिशर, 2005)। मुहम्मद साहब के चाचा उनके प्राथमिक सरंक्षणकर्ता थे क्योंकि उनके पिता उनके जन्म से पहले ही गुजर चुके थे । अपने चाचा की तरह वह एक चरवाहा बन गए । कई विचारको ने अपने निष्कर्ष से निकाला कि मुहम्मद साहब अपने शरीर पर प्राप्त चिह्नों द्वारा एक पैगंबर थे जब वह अपने चाचा के साथ सीरिया में गए । मुहम्मद साहब ने खदीजा नाम की एक विधवा महिला के लिए काम किया, जिसने 25 साल की उम्र में उससे (फिशर, 2005) शादी करने की पेशकश की । खदीजा मुहम्मद के सबसे बड़े आध्यात्मिक समर्थकों में से एक थी ।

मुहम्मद साहब को लगभग 40 वर्ष की आयु में रमजान के दिनों के दौरान ईश्वर द्वारा भेजे गए गैब्रियल (एक स्वर्ग दूत) के द्वारा अल्लाह का संदेश प्राप्त हुआ और दुनिया के सामने कुरान का अवतरण हुआ है (ऐसी मान्यता है कि कुरान एक आसमानी किताब है), (फिशर, 2005) | मुहम्मद असहज और उस अनुभव से डरते थे जो उनके पास था । उनके अपनों द्वारा दिए गया समर्थन उन्हें लगातार प्रोत्साहित करता रहा है ।

कुछ साल बाद मुहम्मद साहब ने अल्लाह की दी हुई तालीम लो लोगो के सामने बोलना शुरू किया । उन्होंने अपने अनुयायियों को जमा करना शुरू किया, लेकिन आरम्भ में  संख्या कम से कम थी । मुहम्मद को संभ्रांत व्यवसायियों के एक समूह द्वारा पत्थरबाजी और यातना दी गई थी । इसके तुरंत बाद, मुहम्मद के अनुयायी बिलिल को सताया गया । उसे प्रताड़ित किया गया क्योंकि वह मुहम्मद को ईश्वर के चुने हुए पैगंबर के रूप में अस्वीकार नहीं कर रहा था । मुहम्मद और उनके अनुयायियों ने ध्यान और प्रार्थना के लिए एकांत में जाने के लिए सार्वजनिक दृष्टि छोड़ दी । कुरान और हदीसो में ऐसी मान्यता है कि अपने 50 के दशक में, मुहम्मद साहब स्वर्ग गए, वहां आदम और यीशु के साथ उनका मिलन हुआ, उन्होंने वहां स्वर्ग और नरक दोनों को देखा, और परम पिता परमेश्वर (फिशर, 2005) का आशीर्वाद प्राप्त किया ।

मुहम्मद साहब ने मक्का प्रस्थान किया और अपने दोस्त अबू बक्र के साथ एकांत में चले गए । दोनों एक शांत गुफा में रहते थे । गुफा में रहते हुए, मुहम्मद ने “ईश्वर के मूक स्मरण के गुप्त अभ्यास” (फिशर, 2005, पृष्ठ 367) में शिक्षा प्राप्त की ।

जीसस और मुहम्मद साहब के बीच एक संक्षिप्त तुलनात्मक भिन्नातायो का अध्ययन करेगे | दोनों ही सम्प्रदाय के लोगों को अपने अपने पैगम्बरों में पूर्ण आस्था है | एक चार्ट के माध्यम से दोनों व्यक्तित्व के बारे जानेंगे | अधिकतर दोनों समुदाए के लोग आपस में बहुत सम्बन्ध नही रखते है मगर दोनों धर्मो का आपसी सम्बन्ध बहुत पुराना है अभी हम दोनों नबियों के बीच की भिन्नता को यहाँ जानेगे और आगे दोनों की समानताओं पर विचार करेगें | दोनों ही धर्मो और पैगम्बरों में के बारे में कुछ प्रचलित तथ्य है जिसके बारे में हम बताया गया |

यीशु और मोहम्मद साहब के विचारो, व्यवहारों, धार्मिक शिक्षाओं और जीवन शैली में काफी अंतर है जिन्हें हमे तुलना करते समय ध्यान रखना चाहिए |

विषयजीससमुहम्मद साहबमृत्युऐसी मान्यता है जब जीसस को सूली पर चढ़ाया गया तो उनकी मृत्यु नही हुए वह पुनर्जीवित हुये और कई ग्रंथो और पुस्तकों के आधार पर माना गया है कि जीसस उसके बाद भारत आ गए | और जम्मू कश्मीर के पहलगांव में निवास करने लगे |[xiv]

 

मुहम्मद साहब की मृत्यु सामान्य अवस्था में हुई कोई चमत्कारिक नही |पहचानयीशु ने स्वयं को परमपिता परमेश्वर का पुत्र घोषित किया है और सामान्य जन के रूप में उनकी शिक्षा और मार्गदर्शन देने का अपना मकसद घोषित किया है | (युहन्ना-24:5)मुहम्मद साहब ने स्वयं को ईश्वर का सन्देश देने वाला पैगम्बर माना है | उन्होंने ईश्वर से एक सन्देश वाहक नबी के रूप में सम्बन्ध की घोषणा की |परमात्मा से सुननाजब यीशु ने परमेश्वर से सुना तो वह सचाई और निर्भीकता के साथ उनकी शिक्षा को फ़ैलाने के लिए निकल गए | और अपने समूह और मन्त्रालय की शुरुआत की | (Mark 1:14-15)जब मुहम्मद साहब ने ईश्वर से (स्वर्ग दूत के माध्यम से) सुना तो उनको अनिश्चिता थी कि वह कुरान में दी हुई शिक्षा को कैसे फैलायेंगे | उनमे हतास का भाव जाग्रत हुआ |

(कुरान-74:1-5)

निर्देश प्राप्त हुएजीसस कहते है कि उन्हें परम पिता परमेश्वर से सीधे निर्देश प्राप्त होते है | (जॉन-5:19)मुहम्मद साहब को स्वर्ग का दूत निर्देश देता है |जिंदगीयीशु ने शांति के मार्ग को अपने जीवन को जीने का रास्ता बनाया और उनके पास जीवन को लेने की शक्ति थी मगर उन्होंने सबकी चंगाई में ही अपना भला समझा और लोगो के जीवन को बहाल किया |

यीशु की उपस्थिति कभी किसी की मौत नही हुई |

मुहम्मद साहब ने अपनी शिक्षायों को बढ़ाने के लिए अहिंसा का भी सहारा लिया है और अनेक युद्ध कीये | मगर उनके धर्म का विस्तार तेजी के साथ हुआ |

मुहम्मद की उपस्थिति में कई लोगो की मौत हुई |

विवाहजीसस के बारे मान्यता है कि उन्होंने कभी विवाह नही किया, वह अविवाहित थे |

मगर कुछ विवादित बाते है कि जैसे उनकी शिष्या Mary Magdalene से उनके वैवाहिक सम्बन्ध थे | Da Vinchi Code नामक विवादित पुस्तक इसका सन्दर्भ लिया है |

मुहम्मद साहब की कुल 13 बीबियों का जिक्र आता है | उनकी हदीसों में इस बात का समर्थन किया है | उनका मानना था ये समाज के भले के लिए था | उनकी एक बीबी को छोड़कर बाकि सब विधवा थी |Ministry (ज्ञान प्राप्ति)ऐसी मान्यता है कि प्रभु यीशु सीधे ईश्वर की कही हुई वाणी को अपने उपदेशो में बोलते थे | उन्हें यह ज्ञान दिन के उजाले में स्वयं ईश्वर ने दिया था |मुहम्मद साहब को यह ज्ञान काबायों की पवित्र गुफा में स्वर्ग के दूत गब्रिल से प्राप्त हुआ |संदेश का प्रचारजीसस को अपना विचार स्थापित करने में लगभग 3 ½ वर्ष लगे |मुहम्मद साहब को लगभग 20 वर्ष का समय लगा |चमत्कारयीशु को एक चमत्कारिक दिव्य पुरुष के रूप में मान्यता है |मुहम्मद साहब को पैगम्बर माना जाता है मगर वह चमत्कारिक नही है |त्यागयीशु ने स्वेच्छा से अपना जीवन दुसरे के लिए निर्धारित किया है |मुहम्मद साहब के बारे में कई स्थानों पर कत्लेआम की घटनाओ का जिक्र आता है | कालान्तर में 630 ई. में अपने लगभग 10 हज़ार अनुयायियों के साथ मुहम्मद साहब ने मक्का पर चढ़ाई करके उसे जीत लियाकुरान / बाइबलकुरान ने ईसा का नाम 25 बार आया है |[xv] सूरा मरियम में उनके जीवन की कथा है और सुराह अली इमरान में भी | कुरान में ईसा का जिक्र मुहम्मद साहब से अभी अधिक है |[xvi]बाइबल में वैसे मुहम्मद साहब का जिक्र तो कही नही आता है | मगर कुछ ईसाई धार्मिक शास्त्रों में उन्हें अहमद के नाम से बताया गया है |हदीसमुहम्मद की हदीसो में है कि” तमाम नबी भाई है और ईसा मसीह मेरे सबसे करीब है क्यूंकि मेरे और यीशु के दरमियान कोई भी नबी नही है |–मरियम (मैरी) कुरानमैरी जीसस क्राइस्ट की माँ है | जिन्होंने कुवारी माँ के रूप में यीशु को जन्म दिया |कुरान शरीफ में पूरा एक अध्याय मरियम के ऊपर है |

उपसंहार–

             इस शोध प्रतिवेदन से हमे यह पता लगता है कि ईसाई धर्म, यहूदी धर्म और मुस्लिम धर्म में काफी समानताएं है | वह एक ईश्वर की मान्यता रखने वाले धर्म है | उनके धर्म ग्रंथो में भी समान सीखो का वर्णन मिलता है | इन मतों में पैगम्बर की भूमिका महत्वपूर्ण है | इनमे धर्मो में गहरा सम्बन्ध दिखता है कुछ निम्लिखित उदाहरण से हम इसे सम्जः सकते है – जैसे मुस्लिम धर्म का पवित्र ग्रन्थ कुरान सिखाता है कि ईसाई और मुसलमान एक ही ईश्वर की पूजा करते हैं, मगर वह यस बात भी स्पष्ठ करता है कि वे विभिन्न देवताओं की पूजा करते हैं । ईश्वर के गुणों में अंतर के कारण यह स्पष्ट है कि ईसाई और मुसलमान एक ही निर्माता की पूजा नहीं करते हैं[xvii]। दोनों विश्वासों में सहमति है कि झूठे भगवान की पूजा करने से ऐसे लोगों को स्वर्ग में प्रवेश करने से रोका जा सकेगा। यीशु ने कहा, “… मैं मार्ग, और सत्य और जीवन हूं । मेरे अलावा कोई भी पिता के पास नहीं आता ”|[xviii]  इसका कारण यह है कि केवल यीशु ने क्रूस पर पापों के लिए दंड का भुगतान किया और अपने पुनरुत्थान के माध्यम से मृत्यु पर काबू पा लिया। मगर इस्लाम इसे अस्वीकार करता है ।[xix]

मुहम्मद साहब और जीसस क्राइस्ट में समानता बहुत मिलती है और उतनी की भिन्नता भी | दोनों के लिए बहुत बाते महत्वपूर्ण है | मुहम्मद जीसस को अपना सबसे निकटम नबी कहते है मगर बाइबल में कही भी मुहम्मद साहब का जिक्र नही आता है | दोनों ही इब्राहिम को अपना मार्गदर्शक कहते है | मगर यह आपस में एक वंशावली के नही है | मगर कुछ बाते इस बात को सिद्ध करती है कि इनमे आपसी सम्बन्ध कही न कही है जैसे-

             अरब और मध्य एशिया में यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम को “पवित्र धर्मों” के रूप में संदर्भित किया जाता है क्योकि तीनो के धार्मिक पुस्तकों जैसे बाइबल, कुरान और पुरानी बाइबिल तौरेत में अब्राहिम का सम्बन्ध जुड़ता है । यहूदी परंपरा में, उन्हें अवराम एविनु या “अब्राहम, को पिता” कहा जाता है।

             बाइबल, कुरान और पुरानी बाइबिल तौरेत के अनुसार परमेश्‍वर ने इब्राहीम से वादा किया कि उसकी संतानों के माध्यम से, दुनिया के सभी राष्ट्रों को धन्य माना जाएगा (उत्पत्ति 12: 3), विशेष रूप से यीशु के संदर्भ के रूप में ईसाई परंपरा में व्याख्या की गई ।

             तीनों धर्मों ने अब्राहम को इज़राइल के लोगों के पिता के रूप में उनके पुत्र इसहाक के माध्यम से माना (cf. निर्गमन 6: 3, निर्गमन 32:13) ।

             मुसलमानों के लिए, इब्राहीम इस्लाम का एक पैगंबर है और अपने दूसरे बेटे इश्माएल के माध्यम से मुहम्मद के पूर्वज – उनकी दूसरी पत्नी, हागर द्वारा उनसे पैदा हुआ।

             लूका ३: २३-३38 यीशु की वंशावली को सूचीबद्ध करता है, और यीशु की २० वीं पीढ़ी के पूर्वज के रूप में जरुब्बाबेल है । ल्यूक के संस्करण में राजा डेविड के पुत्र नाथन के वंशज के रूप में ज़ेरूबबेल है,

             इस्लाम में, हाजिरा की कहानी कुरान में वर्णित है, लेकिन उसके नाम का उल्लेख नहीं है। उसकी भूमिका हदीस में विस्तृत है। वह अब्राहम के बेटे, इश्माएल की माँ थी, जिसे इजराइलीयों के पिता के रूप में माना जाता है यानी अरब। इन संबंधो के आधार पर हम इन दोनों (मुहम्मद साहब को ईसा मसीह के परिवार से जोड़ने का प्रयास) को जोड़ने का प्रयास करते है मगर अध्ययन के आधार पर और कोई प्रमाणिक साक्ष्य न होने पर इस बात पर विश्वास नही किया जा सकता है |

Genealogy of Prophets Jesus and Muhammad from Adam and Eve

Adam

  • Adam
  • Generations of Adam
  • “Family tree of Adam and Eve up to Jesus Christ“
  • Noah
  • Chronological Map from Adam {time of creation} to 4th century A.D.

– Abraham

  • Abraham

Abrahamic Religions: Judaism, Christianity and Islam.

Judaism, Christianity and Islam are sometimes referred to as the “Abrahamic religions“ because of the progenitor role Abraham plays in their holy books. In the Jewish tradition, he is called Avraham Avinu or “Abraham, our Father”.

God promised Abraham that through his offspring, all the nations of the world will come to be blessed (Genesis 12:3), interpreted in Christian tradition as a reference particularly to Jesus.

All three religions consider Abraham the father of the people of Israel through his son Isaac (cf. Exodus 6:3, Exodus 32:13) by his wifeSarah.

For Muslims, Abraham is a prophet of Islam and the ancestor of Muhammad through his other son Ishmael – born to him by his second wife, Hagar.

– Jesus

  • Jesus
  • Zerubbabel

Luke 3:23–38 lists the genealogy of Jesus, and has Zerubbabel as the 20th generation ancestor of Jesus. Luke’s version has Zerubbabel as the descendant of Nathan, son of King David,

  • “Timeline Diagram of Genealogy of Jesus Christ from Adam”

– Prophet Muhammad of Islam PBUH

  • Muhammad
  • Hagar

In Islam, Hagar’s story is alluded to in the Qur’an, but her name is not mentioned. Her role is elaborated in Hadith. She was the mother of Abraham’s son, Ishmael, who is regarded as the patriarch of the Ishmaelites i.e. the Arabs.[xx]

Jesus and Muhammad are Brothers

By Ibrahim Hooper
During the Christmas season, Christian families seek to maintain a focus on Jesus and his legacy.

Many of our Christian brothers and sisters may be surprised to know that Muslims love and revere Jesus as one of God’s greatest messengers to mankind, just as we love and revere the Prophet Muhammad, may peace be upon them both.

The Prophet Muhammad sought to erase any distinctions between the message he taught and that taught by Jesus, whom he called God’s “spirit and word.”

Prophet Muhammad said: “Both in this world and in the Hereafter, I am the nearest of all people to Jesus, the son of Mary. The prophets are paternal brothers; their mothers are different, but their religion is one.”

“Behold! The angels said: ‘O Mary! God gives thee glad tidings of a Word from Him. His name will be Jesus Christ, the son of Mary, held in honor in this world and the Hereafter and in (the company of) those nearest to God.’”

The quote above is not from the New Testament. It is taken from the Quran, Islam’s revealed text. (3:45)

Other verses in the Quran, regarded by Muslims as the direct word of God, state that Jesus was strengthened with the “Holy Spirit” (2:87) and is a “sign for the whole world.” (21:91) His virgin birth was confirmed when Mary is quoted as asking: “How can I have a son when no man has ever touched me?” (3:47)

An entire chapter of the Quran (Chapter 19) is named after Jesus’ mother Mary, “Maryam” in the Arabic of the Quran.

The Quran shows Jesus speaking from the cradle and, with God’s permission, curing lepers and the blind. (5:110) God also states in the Quran: “We gave (Jesus) the Gospel and put compassion and mercy into the hearts of his followers.” (57:27)

Muslims believe Jesus will return to earth in the last days before the final judgment. Disrespect toward Jesus is very offensive to Muslims.

The message of love, peace and forgiveness taught by Jesus, and accepted by both Christians and Muslims, can serve as a unifying force in a troubled world.

It is the same message of unity expressed by another verse in the Quran:

“Say ye: ‘We believe in God and the revelation given to us and to Abraham, Ismail, Isaac, Jacob, and the Tribes, and that given to Moses and Jesus, and that given to (all) prophets from their Lord. We make no distinction between any of them, and it is unto Him that we surrender ourselves.’” (2:136)

Obviously, Muslims and Christians have differing interpretations of the details of the life and message of Jesus. But by focusing on what we have in common, Christians and Muslims of goodwill can help build bridges of interfaith understanding and serve as a counterweight to the voices of division and extremism.

As the Quran tells us: “O humankind! We have created you male and female; and we have made you into nations and tribes so that you may know one another. Verily, the most honored of you in the sight of God is the most righteous of you.” (49:13)[xxi]

[i] कुरआन नूर की हिदायत 2:22:1

[ii] https://carm.org/comparison-between-jesus-and-muhammad- Matt Slick is the President and Founder of the Christian Apologetics and Research Ministry.

[iii] (Surah 3:49; 5:110; 9:30)

[iv] (Surah 4:158)

[v]  (John 10:30)

[vi] (Surah 4:155-158).

[vii] Surah 112:0-4

[viii] (Matthew 28:19-20; 2 Corinthians 13:14; John 10:30)

[ix]  (Surah 4:28).

[x]  (Psalm 51:5; Ephesians 2:1)

[xi] इंजील में मूसा की बनाई पाँच पुस्तकों

[xii] https://www.namb.net/apologetics-blog/comparison-chart-islam-and-christianity/

[xiii] https://quizlet.com/207569275/similaritiesdifferences-between-judaism-christianity-and-islam-flash-cards/– Juliette_BentleyTEACHER

[xiv]इस वाकया का आधार रांची से प्रकाशित पुस्तक योगी कथामृत से लिया गया है |

[xv] Jesus: A Summary of the points about islam and Christianity agree and disagree. DR Alan Godlas, university of Georgia

[xvi] इस्लाम धर्म में पैगंबर परंपरा का बहुत महत्व है। पवित्र कुरान में हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के अलावा 24 और पैगंबर का जिक्र है। इन पैगंबर की सूची में हजरत ईसा मसीह (अलैहे0) का नाम सबसे प्रमुखता से आता है। कुरान में कम से कम 25 बार ईसा (अलैहे0) का उनके नाम से वर्णन आता है।

[xvii] https://www.thereligionofpeace.com/pages/articles/jesus-muhammad.aspx

[xviii] (यूहन्ना १४: ६)

[xix] https://www.ohio.edu/orgs/muslimst/downloads/Where_Do_You_Stand.pdf

[xx] https://www.geni.com/projects/Genealogy-of-Prophets-Jesus-and-Muhammad-from-Adam-and-Eve/8209–

[xxi] https://www.cair.com/op_eds/jesus-and-muhammad-are-brothers/

References

Armstrong, K. A History of God: the 4000 Year Quest of Judaism, Christianity and Islam. New York: A.A. Knopf, 1993.

Brinner W.M. and Stephen D. Ricks ed. Studies in Islamic and Judaic Traditions. Atlanta: Scholars Press, 1986. Brown Judaic Studies, no. 110.

Burrell, D. and B. McGinn ed. Creation in Judaism, Christianity and Islam. Notre Dame: University of Notre Dame Press, 1989.

Cohen, M.R. Under Crescent and Cross: the Jews in the Middle Ages. Princeton: Princeton University Press, 1994.

Cragg, Kenneth. The Call of the Minaret. New York: Oxford University Press, 1956.

Sandals at the Mosque. New York: Oxford University Press, 1959.

Cutler A. H. and H. E. Cutler. The Jew as Ally of the Muslim: Medieval Roots of Anti-Semitism. Notre Dame: University of Notre Dame Press, 1986.

Ellis, Kail C. The Vatican, Islam, and the Middle East. Syracuse: Syracuse University Press, 1987.

Firestone, R. Journeys in Holy Lands: the Evolution of the Abraham-Ishmael Legends in Islamic Exegesis. Albany: State University of New York Press, 1990.

Goitein, S.D. Jews and Arabs: Their Contacts Through the Ages. New York: Schoken Books, 1955.

Hourani, A.H. Europe and the Middle East. Berkeley: University of California Press, 1980.

King, N.Q. Christian and Muslim in Africa. New York: Harper and Row, 1971.

Lewis, Bernard. The Jews of Islam. Princeton: Princeton University Press, 1984.

McAulliffe, Jane. The Quranic Christians: An Analysis of Classical and Modern Exegesis. New York: Cambridge University Press, 1991.

Newby, G. History of the Jews of Arabia From Ancient Times. Columbia, S.C.: University of South Carolina Press, 1988.

The Making of the Last Prophet. Columbia, S.C.: University of South Carolina Press, 1989.

Parrinder G. Jesus in the Quran. New York: Oxford University Press, 1977.

Peters FE. Judaism, Christianity and Islam: the Classical Texts and Their Interpretation. Princeton: Princeton

University Press, 1990.

Stillman, N.A. The Jews of Arab Lands: A History and Source Book. Philadelphia: Jewish Publication Society of North America, 1979.

Studies in Judaism and Islam. Jerusalem: Magnes Press, 1981.

Wassenstrom, S. ed. Islam and Judaism: Fourteen Hundred Years of Shared Values. Portland, Or.: The Institute for Judaic Studies in the Pacific Northwest, n.d.

Watt, Montgomery W. Muslim-Christian Encounters: Perceptions and Misperceptions. London and New York: Routledge, 1991.

This article was originally published in The Muslim Almanac (Gale Research Inc, Detroit, MI: 1996), p.423-429, ed. A. Nanji.

क्या मुसलमान ईसा मसीह को मानते हैं?

इस्लाम भले ही ईसा मसीह के जन्म का उत्सव नहीं मनाता है लेकिन जीसस की इज़्ज़त ज़रूर करता है. मुसलमानों की नज़र में ईसा मसीह ईसाइयों के पैगंबर हैं और ये मान्यता उनके मजहब का एक अभिन्न हिस्सा है. कुरान ईसा मसीह को एक ऐसी अहम शख़्सियत के तौर पर देखता है जो पैगंबर मोहम्मद के पहले आए थे.

ईसाई धर्म से पहले कौन सा धर्म था?

यजीदी- यजीदी धर्म प्राचीन विश्व की प्राचीनतम धार्मिक परंपराओं में से एक है। यजीदियों की गणना के अनुसार अरब में यह परंपरा 6,763 वर्ष पुरानी है अर्थात ईसा के 4,748 वर्ष पूर्व यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों से पहले से यह परंपरा चली आ रही है। मान्यता के अनुसार यजीदी धर्म को हिन्दू धर्म की एक शाखा माना जाता है।

मुस्लिम धर्म में सबसे पहले कौन आया था?

लगभग 613 इस्वी के आसपास मुहम्मद साहब ने लोगों को अपने ज्ञान का उपदेशा देना आरंभ किया था। इसी घटना का इस्लाम का आरंभ जाता है।

क्या ईसाई धर्म में खतना होता है?

खतना शब्द का जन्म लैटिन भाषा से हुआ है। यहूदी साम्प्रदायिकता में माना जाता है कि खतना का आदेश उनके ईश्वर ने दिया है। मुस्लिम और अफ्रीकन देशों में कुछ ईसाई भी खतना करवाते हैं।