जहाँ पहिया है पाठ के लेखक का नाम क्या है? - jahaan pahiya hai paath ke lekhak ka naam kya hai?

‘जहाँ पहिया है’ Summary, Explanation, Question and Answers 

कक्षा 8 पाठ 13 

जहाँ पहिया है

लेखक – पालगम्मी साईनाथ 

जन्म – 1957 


जन्म स्थान – मद्रास

जहाँ पहिया है पाठ प्रवेश


“जहाँ पहिया है” पाठ के लेखक “पालगम्मी साईनाथ जी” हैं। पालगम्मी साईनाथ जी इस लेख के द्वारा एक साईकिल आंदोलन की बात करते हैं और तमिलनाडू के क्षेत्र में प्रसिद्ध जिले में किस तरह से महिलाऐं साइकिल के पहिऐ को एक आंदोलन का रूप देती हैं और किस तरह से वह स्वतंत्र होती हैं। अपने घर और सामाज से बाहर निकलकर आत्मनिर्भर बनती हैं। साईकिल का पहिया एक साधान के रूप में प्रस्तुत होता है और उसका उपयोग होता है एक बहुत ही बड़े आंदोलन के रूप में जहाँ पर पुरुष प्रधान सामाज में पहले स्त्रियों को किसी भी तरह की स्वतंत्रता नहीं थी, कोई भी काम करने की या घर से बाहर जाकर कमाने की। लेकिन इस पहिये के ही द्वारा उनमें आत्मनिर्भरता जागी और उन्होंने अपने काम स्वंय करने आंरभ किए, अब वे बिलकुल स्वतंत्रता से अपने कार्य करती हैं और उनमें एक नई आज़ादी का अनुभव या संचार हुआ है।

इस लेख में तमिलनाडु के एक गरीब जिले में होने वाले सामाजिक परिवर्तन तथा आंदोलन का वर्णन कर रहे हैं। लेखक के अनुसार लोग रूढ़ियों से मुक्त होने के लिये रास्ते चुनते हैं। कई बार वे बहुत अजीब होते हैं जैसे उक्त जिले में अपनी पहचान प्रदर्शित करने के लिए साइकिल का चयन किया। वहाँ नव साक्षर लड़कियाँ, महिलाएँ साइकिल चलाती हैं। लेखक के अनुसार साइकिल चलाने संबंधी इस आंदोलन ने महिलाओं के न सिर्फ आर्थिक पक्ष को मजबूत किया बल्कि उनमें एक नए आत्मविश्वास का संचार भी हुआ।
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जहाँ पहिया है पाठ की व्याख्या

पुडुकोट्टई (तमिलनाडु) : साइकिल चलाना एक सामाजिक आंदोलन है? कुछ अजीब-सी बात है न! लेकिन चौंकने की बात नहीं है। पुडुकोट्टई ज़िले की हज़ारों नवसाक्षर ग्रामीण महिलाओं के लिए यह अब आम बात है। अपने पिछड़़ेपन पर लात मारने, अपना विरोध व्यक्त करने और उन जंजीरों को तोड़़ने का जिनमें वे जकड़़े हुए हैं, कोई-न-कोई तरीका लोग निकाल ही लेते हैं।

चौंकने – हैरानी

नवसाक्षर – नयी पढ़ी लिखी

इस पाठ में लेखक पुडुकोट्टई जो तमिलनाडु का जिला है उसके बारे में बात कर रहे हैं यहाँ की स्त्रियों ने समाज में परिवर्तन लाया है, यह एक रिपोर्ट के रूप में प्रस्तुत किया गया है। लेखक दुविधा में सोचता है कि क्या साइकिल चलाना एक सामाजिक आंदोलन हो सकता है? लेखक अपने ही प्रश्न का उत्तर देते हुए कहता है कि बहुत अजीब सी बात है क्योंकि एक साइकिल का पहिया किस तरह से समाज में बदलाव ला सकता है? कैसे एक आंदोलन का रूप ले लेता है? लेकिन लेखक अपने प्रश्न को सही साबित करते हुए कहता है कि इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं हैं। क्योंकि पुडुकोट्टई ज़िले की हज़ारों नवसाक्षर ग्रामीण महिलाओं के लिए यह अब आम बात है। जहाँ देखो साइकिल चलाती हुई नजर आती हैं और उन्होंनें आत्मनिर्भर होकर यह साबित कर दिया। लेखक कहते हैं कि लोग अपने पिछड़़ेपन से छुटकारा पाने के लिए, किसी बात पर अपना विरोध प्रकट करने के लिए और उन जंजीरों को तोड़़ने के लिए जिनमें वे जकड़़े हुए हैं, कोई-न-कोई तरीका निकाल ही लेते हैं। 

कभी-कभी ये तरीके अजीबो-गरीब होते हैं। भारत के सर्वार्धक गरीब जिलों में से एक है पुडुकोट्टई। पिछले दिनों यहाँ की ग्रामीण महिलाओं ने अपनी स्वाधीनता और गतिशीलता को अभिव्यक्त करने के लिए प्रतीक के रूप में साइकिल को चुना है। उनमें से अधिकांश नवसाक्षर थीं।

स्वाधीनता – आज़ादी

गतिशीलता – प्रगति

अभिव्यक्त – प्रकट

प्रतीक – निशानी

नवसाक्षर – नयी पढ़ी लिखी

लेखक कहता है कि लोग जिन तरीकों को अपने कष्टों के निवारण के लिए चुनते हैं, वे तरीके कभी-कभी बहुत अजीबो-गरीब होते हैं। ऐसा ही एक उदाहरण लेखक प्रस्तुत करते हैं – भारत के सबसे गरीब जिलों में तमिलनाड़ू का पुडुकोट्टई जिला माना जाता है। कुछ दिनों पहले इस पुडुकोट्टई जिले की ग्रामीण महिलाओं ने अपनी आजादी की लड़ाई और अपने काम को आगे प्रगति की और ले जाने के लिए प्रतीक के रूप में साइकिल को चुना है। एक छोटा सा बदलाव किस तरह से उनकी जीवन और उनकी स्थिति को बदल कर रख सकता है, यह पुडुकोट्टई के जिले की गाँव की महिलाओं ने कर दिखाया। उनमें से अधिकतर औरतें और  लड़कियाँ नयी-नयी पढ़ लिखकर स्कूल या कॉलज से आई थीं और उन्होंने साइकिल आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। 

अगर हम दस वर्ष से कम उम्र की लड़़कियों को अलग कर दें, तो इसका अर्थ यह होगा कि यहाँ ग्रामीण महिलाओं के एक-चौथाईं हिस्से ने साइकिल चलाना सीख लिया है। 

लेखक कहता है कि पुडुकोट्टई के जिले में जितनी महिलाओं की संख्या है, यदि उसमें से दस वर्ष की युक्तियों को अलग कर दें तो इस आंदोलन के लिए गाँव की महिलाओं का एक-चौथाई हिस्सा साइकिल चलाना सीख गया था। वे बढ़-चढ़ कर आंदोलन में हिस्सा ले रहीं थीं। 

इन महिलाओं में से सत्तर हज़ार से भी अधिक महिलाओं ने ‘प्रदर्शन एवं प्रतियोगिता’ जैसे सार्वजनिक कार्यक्रमों में बडे गर्व के साथ अपने नए कौशल का प्रदर्शन किया और अभी भी उनमें साइकिल चलाने की इच्छा जारी है। वहाँ इसके लिए कई ‘प्रशिक्षण शिविर’ चल रहे हैं।

कौशल – प्रवीणता

शिविर’ – सीखने के कैंप

लेखक आगे बताता है कि इन महिलाओं में से सत्तर हज़ार से भी अधिक महिलाएँ जो कि एक बहुत बड़ी संख्या है, इन्होंने अपने साइकिल चलाने के कौशल को  सर्वजानिक कार्यक्रमों की प्रतियोगिताओं के मुकबले में हिस्सा लिया, जो उनके लिए एक बड़े गर्व की बात थी और उन्होंनें अपने इस कौशल को बहुत ही शानदार तरीके से प्रस्तुत किया। उनकी इच्छा अभी मारी नहीं है। वहाँ इसके लिए कई ‘प्रशिक्षण शिविर’ चल रहे हैं। जहाँ अब लोगो के द्वारा स्त्रियों को साइकिल चलना सीखाया जा रहा है और स्त्रियाँ भी बढ़-चढ़ कर साइकिल चलना सीख रही है। 

ग्रामीण पुडुकोट्टई के मुख्य इलाकों में अत्यंत रूढ़िवादी पृष्ठभूमि से आईं युवा मुस्लिम लड़कियाँ सड़कों से अपनी साइकिलों पर जाती हुई दिखाई देती हैं। जमीला बीवी नामक एक युवती ने जिसने साइकिल चलाना शुरू किया है, मुझसे कहा – “यह मेरा अधिकार है, अब हम कहीं भी जा सकते हैं। अब हमें बस का इंतजार नहीं करना पड़ता।

लेखक कहता है कि अब पुडुकोट्टई का नजारा बहुत ही अदभुत है जहाँ पहले मुस्लिम लड़कियों को घर से बाहर निकलने की बिलकुल आजादी नहीं थी, वह हमेशा परदे में रहती थी, घर में कैद रहती थी और पुरानी रूढ़िवादी परम्पराओं में जाकड़ी हुई थी, ग्रामिण पुडुकोट्टई इलाके की इन महिलाओं ने भी अब बढ़-चढ़ कर साइकिल चलाना सीख लिया है और अब यह चारों तरफ दिखाई देती है। जमीला बीवी जोकि एक मुस्लिम युवती है, जिसने साइकिल चलाना शुरू किया है, लेखक से कहती हैं कि – साइकिल चलना उनका अधिकार है, जिस तरह से पुरूषों को आजादी मिलती है, साइकिल चलाने की या कोई वाहन चलाने की, घर से बाहर निकल कर काम करने की तो स्त्री होने के नाते उनको भी यह अधिकार मिलना चाहिए। अब वे भी कहीं भी जा सकती हैं। अब उन्हें बस का इंतजार नहीं करना पड़ता। 

मुझे पता है कि जब मैंने साइकिल चलाना शुरू किया तो लोग फब्तियाँ कसते थे। लेकिन मैंने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया।’’ फातिमा एक माध्यमिक स्कूल में पढ़ाती हैं और उन्हें साइकिल चलाने का ऐसा चाव लगा है कि हर शाम आधा घंटे के लिए किराए पर साइकिल लेती हैं। एक नयी साइकिल खरीदने की उनकी हैसियत नहीं है। 

फब्तियाँ – ताने

हैसियत – औकात

लेखक को फातिमा बीवी बताती हैं कि जब उन्होंने साइकिल चलाना शुरू किया था तो लोग कई तरह से उन पर ताने कसते थे। बहुत बुरा भला कहते थे। लेकिन उन्होंने उन लोगों की बातों को पर जरा सा भी ध्यान नहीं दिया और नजर-आंदज कर उन्होंने अपनी स्वतंत्रता को पाया है। फातिमा एक माध्यमिक स्कूल में पढ़ाती हैं और उन्हें साइकिल चलाने का ऐसा शौक है कि वह हर शाम आधा घंटे के लिए किराए पर साइकिल लेती हैं क्योंकि उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है उन्हें साइकिल चलाना इतना पसंद करती है कि वह आधे घंटे के लिए किराए पर साइकिल चलती है। 

फातिमा ने बताया कि- ’’साइकिल चलाने में एक खास तरह की आज़ादी है। हमें किसी पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। मैं कभी इसे नहीं छोडूँगीं।’’ जमीला, फातिमा और उनकी मित्र अवकन्नी – इन सबकी उम्र 20 वर्ष के आसपास है और इन्होंने अपने समुदाय की अनेक युवतियों को साइकिल चलाना सिखाया है।

निर्भर – आश्रित

फातिमा आगे लेखक को बताती हैं कि साइकिल चलाने  उन्हें एक खास तरह की आज़ादी का एहसास होता है। अब वह किसी तरह से किसी पर भी निर्भर नहीं है। साइकिल के द्वारा वे कहीं भी आ जा सकती हैं, उन्हें अब कहीं आने-जाने के लिए किसी पर निर्भर अर्थात् आश्रित्र नहीं रहना पड़ता। फातिमा कहती हैं कि वे कभी भी साइकिल चलना नहीं छोड़ेगीं। जमीला, फातिमा और उनकी मित्र अवकन्नी यह तीनों बहुत ही अच्छी मित्र हैं, इन सबकी उम्र 20 वर्ष के आसपास है और इन्होंने अपने समुदाय की अनेक युवतियों को साइकिल चलाना सिखाया है। इससे सीख मिलती है कि अपनी ही आजादी की लड़ाई न लड़े, पुरे समाज और पुरे समुदाय की लड़ाई लड़े। इसमें सबकी भलाई है और जो जमीला, फातिमा और अवकन्नी ने कर दिखाया।

इस ज़िले में साइकिल की धूम मची हुई है। इसकी प्रशसंकों में हैं महिला खेतिहर मजदूर, पत्थर खदानों में मज़दूरी करने वाली औरतें और गाँवों में काम करनेवाली नर्सें। बालवाड़ी और आँगनवाड़ी कार्यकर्ता, बेशकीमती पत्थरों को तराशने में लगी औरतें और स्कूल की अध्यापिकाएँ भी साइकिल का जमकर इस्तेमाल (उपयोग) कर रही हैं।

इस्तेमाल – उपयोग

लेखक बताते हैं कि इस ज़िले में साइकिल की धूम मची हुई है। जहाँ देखों चारों तरफ साइकिल की ही बात होती है, स्त्रियाँ, पुरूष सब साइकिल चलते हुए नजर आते हैं। इसको पंसद करने वालों में, जो महिलाएँ खेतों में काम करती हैं, पत्थर खदानों में मजदूरी करने वाली औरतें और गाँवों में काम करने वाली नर्सें। यह सभी शामिल है। बालवाड़ी और आँगनवाड़ी कार्यकर्ता, बेशकीमती पत्थरों को तराशने में लगी औरतें और स्कूल की अध्यापिकाएँ भी साइकिल का जमकर उपयोग कर रही हैं। यहाँ पर देखा जा रहा है कि हर वर्ग की स्त्रियाँ चाहे वो अध्यापिका हैं, नर्स है या फिर खेतीहर मजदूर हैं, पत्थर की खदानों में काम करने वाली औरतें हैं, सब बढ़-चढ़ कर साइकिल चला रही हैं और आत्मनिर्भर बन रही हैं। इसमें उनकी बहुत उन्नती हुई है उनकी आर्थिक स्थिति सुधारी है।

ग्राम सेविकाएँ और दोपहर का भोजन पहुँचाने वाली अैरतें भी पीछे नहीं हैं। सबसे बडी़ संख्या  उन लेगों की है जो अभी नवसाक्षर हुई हैं। जिस किसी नवसाक्षर अथवा नयी-नयी साइकिल चलाने वाली महिला से मैंने बातचीत की, उसने साइकिल चलाने और अपनी व्यक्तिगत आज़ादी के बीच एक सीधा संबंध बताया। 

लेखक बताता है कि इन सब स्त्रियों के साथ-साथ गाँव में सेवाएँ देने वाली औरतें और दोपहर को जरूरतमंद के लिए भोजन पहुँचाने वाली औरतें भी इस कार्य में पीछे नहीं रही हैं, अब वह भी साइकिल के द्वारा आपने काम पर आती-जाती नजर आती हैं। सबसे बड़ी संख्या उन महिलाओं की है जिन्होंने अभी-अभी साइकिल चलाना सीखा है।  लेखक बता रहे हैं कि जब उनकी नव युवतीयों से और नई नई साइकिल चलाने वाली बड़ी उम्र की महिलाओं से बात हुई तो उन्होंने कहा कि अब उन्हें साइकिल चलाने में और अपने व्यक्तिगत आजादी में एक संबंध महसूस होता है। एक बहुत ही जुड़व महसूस होता है क्योंकि यह उनकी आजादी का एक जारिया बना। 

साइकिल आंदोलन की एक अगुआ का कहना है, ’’मुख्य बात यह है कि इस आंदोलन ने महिलाओं को बहुत आत्मविश्वास प्रदान किया।’’ महत्वपूर्ण यह है कि इसने पुरुषों पर उनकी निर्भरता कम कर दी है। अब हम प्रायः देखते हैं कि कोई औरत अपनी साइकिल पर चार किलोमीटर तक की दूरी आसानी से तय कर पानी लाने जाती है। 

अगुआ – आगे चलने वाला

लेखक कहता है कि साइकिल आंदोलन की शुरुआत करने वाली महिलाओं में से एक आगे चलने वाली महिला का कहना है कि इस आंदोलन की महत्वपूर्ण बात यह है की इसने महिलाओं को बहुत आत्मविश्वास प्रदान किया है। उनका यह स्वयं का मनाना है कि इस साइकिल आंदोलन ने महिलाओं की पुरुषों पर उनकी निर्भरता कम कर दी है। अब अक्सर यह सब देखने में आता हैं कि कोई औरतें अपनी साइकिल पर चार किलोमीटर तक की दूरी आसानी से तय कर पानी लाने जाती है। ऐसा वह पहले नहीं कर सकती थी वह सिर पर बोझा उठाकर बहुत दूर कई किलोमीटर तक पैदल जाना पड़ता था और बोझा उठाकर घर वापिस आना पड़ता था, लेकिन साइकिल के द्वारा अब वह यह काम आसानी से कर सकती है। इस आंदोलन ने आत्मनिर्भर बनाने में उनकी बहुत सहायता की है। 

कभी-कभी साथ में उसके बच्चे भी होते हैं। यहाँ तक कि साइकिल से दूसरे स्थानों से सामान ढोने की व्यवस्था भी खुद ही की जा सकती है। लेकिन यकीन मानिए, जब इन्होंने साइकिल चलाना शुरू किया तो इन पर लोगों ने जमकर प्रहार किया जिसे इन्हें झेलना पड़ा।

यकीन – विश्वास

लेखक कहते हैं कि जब कई स्त्रियाँ घर से बाहर जाकर काम करना चाहती, तो वह छोटे बच्चों को घर पर अकेला नहीं छोड़ सकती थी, परन्तु अब वह अपने साथ बच्चों को भी साथ ले जा सकती हैं। यहाँ तक कि साइकिल पर दूसरे स्थानों से सामान ढोने की व्यवस्था भी खुद ही की जा सकती है। अब वह किसी के भरोसे नहीं है, अब वह खुद ही सभी काम कर सकती हैं। लेखक कहता है कि यह सब इन महिलाओं के लिए इतना आसान नहीं रहा, इनके लिए आप इस बात का विश्वास करे जब इन्होंने साइकिल चलाना शुरू किया था तो पुरूषों ने इन पर बहुत ही भली बुरी टिप्पणियाँ और बहुत ही भदे और बुरे ताने कहे ताकि यह पीछे हटकर चुपचाप घर में बैठ जाए और किसी तरह से यह आत्मनिर्भर न हो। 

गंदी-गंदी टिप्पणियाँ की गईं लेकिन धीरे-धीरे साइकिल चलाने को सामाजिक स्वीकृति मिली। इसलिए महिलाओं ने इसे अपना लिया। साइकिल प्रशिक्षण शिविर देखना एक असाधारण अनुभव है। किलाकुरुचि गाँव में सभी साइकिल सीखने वाली महिलाएँ रविवार को इकट्ठी हुई थीं। साइकिल चलाने के आदांलेन के समर्थन में ऐसे आवेग देखकर कोई भी हैरान हुए बिना नहीं रह सकता। उन्हें इसे सीखना ही है। 

आवेग – जोश

लेखक कहता है कि जब महिलाओं ने साइकिल चलाना शुरू किया तो पुरुषों ने गंदी-गंदी टिप्पणियाँ की लेकिन धीरे-धीरे साइकिल चलाने को समाज ने भी मान्यता दे दी। अब वह भी स्वीकार करने लगे कि इसमें किसी तरह की बुराई नहीं है औरतों को साइकिल चलाने की आजादी मिलनी ही चाहिए। इसलिए महिलाओं ने इसे अपना लिया। जो साइकिल सीखने का कैंप लगा रहे थे, वहाँ पर यह दृश्य देखना बहुत ही अदभुद है कि सभी वर्ग की औरतें मिलजुल कर साइकिल चलाना सीख रहीं हैं। किलाकुरुचि गाँव में सभी साइकिल सीखने वाली महिलाएँ रविवार को इकट्ठी हुई थीं। जब लेखक किलाकुरुचि पहुँचे तो वहाँ के गाँव का नजारा देखकर वह हैरान रह गए कि किस तरह से महिलाएँ छुट्टी वाले दिन सब एक जगह एकत्र होकर साइकिल चलाना सीख रही हैं। अब वह भी मानते हैं कि स्त्रियों को साइकिल चलाना आवश्यक सीखना चाहिए।

साइकिल ने उन्हें पुरुषों द्वारा थोपे गए दायरे के अंदर रोज़मर्रा की घिसी-पिटी चर्चा से बाहर निकलने का रास्ता दिखाया। ये नव-साइकिल चालक गाने भी गाती हैं। उन गानों में साइकिल चलाने को प्रोत्साहन दिया गया है। इनमें से एक गाने की पंक्ति का भाव है ’’ओ बहिना, आ सीखें साइकिल, घूमें समय के पहिए संग—’

रोज़मर्रा – प्रतिदिन का काम

लेखक कहता है कि साइकिल ने महिलाओं को पुरुषों द्वारा थोपे गए प्रतिदिन के काम की घिसी-पिटी चर्चा से बाहर निकलने का रास्ता दिखाया। जो नव- युवतियाँ हैं वह साइकिल चलाते हुए अपना मंनोरंजन भी करती हैं, गीत-संगीत के द्वारा गाने गाती हैं। उन गानों में साइकिल चलाने को बढ़वा दिया गया है। इनमें से एक गाने की पंक्ति का भाव है कि आओ हम सब महिलाऐं इस साइकिल के पहिए के संग दुनियाँ घूमें । 

जिन्हें साइकिल चलाने का प्रशिक्षण मिल चुका है उनमें से बहुत बड़ी संख्या में साइकिल सीख चुकी महिलाएँ अभी नयी-नयी साइकिल सीखने वाली महिलाओं को भरपूर सहयोग देती हैं। उनमें यहाँ न केवल सीखने-सिखाने की इच्छा दिखाई देती है बल्कि उनके बीच यह उत्साह भी दिखाई देता है कि सभी महिलाओं को साइकिल चलाना सीखना चाहिए।

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प्रशिक्षण – सिखाना

लेखक कहता है कि जिन महिलाओं को साइकिल चलाने का प्रशिक्षण मिल चुका था, उनमें से बहुत बड़ी संख्या में साइकिल सीख चुकी महिलाएँ अभी नयी-नयी साइकिल सीखने वाली महिलाओं को भरपूर सहयोग देती हैं। वह अन्य स्त्रियों को जिन्हें साइकिल चलाना नहीं आता है, उन्हें साइकिल चलाने में मदद करती है, उन्हें सीखाती है। उनमें यहाँ न केवल सीखने-सिखाने की इच्छा दिखाई देती है बल्कि उनके बीच यह उत्साह भी दिखाई देता है कि सभी महिलाओं को साइकिल चलाना सीखना चाहिए। वह अपने पूरे स्त्री वर्ग के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं, अकेले अपने स्वतंत्रता के लिए नहीं। 

1992 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के बाद अब यह ज़िला कभी भी पहले जैसा नहीं हो सकता। हैंडल पर झंडियाँ लगाए, घंटियाँ बज़ाते हुए साइकिल पर सवार 1500 महिलाओं ने पुडुकोट्टई में तूफान ला दिया। महिलाओं की साइकिल चलाने की इस तैयारी ने यहाँ रहने वालों को हक्का-बक्का कर दिया। 

हक्का-बक्का – चकित

लेखक कहता है कि 1992 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के बाद अब यह ज़िला कभी भी पहले जैसा नहीं हो सकता क्योंकि अब यहाँ की परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। महिलाओं ने अपने साइकिल आंदेलन के द्वारा अपनी आजादी की लड़ाई लड़ी और आत्मनिर्भर बनी हैं। उस दिन का दृश्य बताते हुए लेखक कहते हैं कि उस दिन स्त्रियाँ साइकिल पर रंग-बिरंगी झंड़ियाँ लगाए आई थी, घंटियाँ बज़ाते हुए साइकिल पर सवार 1500 महिलाओं ने पुडुकोट्टई में तूफान ला दिया। चारों तरफ स्त्रियाँ साइकिल पर नजर आ रही थी और इन्होंने बढ़-चढ़ कर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस में हिस्सा लिया। महिलाओं की साइकिल चलाने की इस तैयारी ने वहाँ रहने वालों को हैरान कर दिया था।

इस सारे मामले पर पुरुषों की क्या राय थी? इसके पक्ष में ‘आर-साइकिल्स’ के मालिक को तो रहना ही था। इस अकेले डीलर के यहाँ लेडीज़ साइकिल की बिक्री में साल भर के अंदर काफी वृद्धि हुई। माना जा सकता है कि इस आँकड़े को दो कारणों से कम करके आँका गया। पहली बात तो यह है कि ढ़ेर सारी महिलाओं ने जो लेडीज़ साइकिल का इंतजार नहीं कर सकती थीं, जेंट्स साइकिलें खरीदने लगीं। दूसरे, उस डीलर ने बड़ी सतर्कता के साथ यह जानकारी मुझे दी थी – उसे लगा कि मैं बिक्री कर विभाग का कोई आदमी हूँ। 

वृद्धि – ज़्यादा

इंतजार – प्रतीक्षा 

लेखक आगे कहता है कि इस सारे मामले पर पुरुषों की क्या राय थी? लेखक ने यह प्रश्न किया और इसके पक्ष में ‘आर- साइकिल्स’ के मालिक को तो रहना ही था। इस अकेले डीलर के यहाँ लेडीज़ साइकिल की बिक्री में साल भर के अंदर काफी वृद्धि हुई। ‘आर- साइकिल्स’ एक साइकिल डिलर है जिसके यहाँ से औरतों ने साइकिल खरीदना शुरू किया और साइकिल चलाने का सिलसिला आरंभ हुआ।  यह जो साइकिल खरीदने का आँकड़े अर्थात् इस संख्या को दो कारणों से कम तोला गया छोटा समझा गया। पहली बात तो यह है कि ढ़ेर सारी महिलाओं ने जो लेडीज़ साइकिल का इंतजार नहीं कर सकती थीं, जेंट्स साइकिलें खरीदने लगीं। तो इस तरह से ‘आर- साइकिल्स’ में दोनों तरह की साइकिलों की बिक्री बढ़ गई। दूसरे, उस डीलर ने बड़ी सतर्कता के साथ यह जानकारी मुझे दी थी क्योंकि उसे लग रहा था कि लेखक ब्रिक्री में कर विभाग में टैक्स के डिपार्टमेंट से आये हैं और वह इसकी जानकारी ले रहे हैं कि इस साल की बिक्री कितनी हुई है तो वह डीलर थोड़ा सावधान हो गया और उसने बहुत ही चालकी पूर्वक अपना पक्ष रखा। 

कुदिमि अन्नामलाई की चिलचिलाती धूप में एक अद्भुत दृश्य की तरह पत्थर के खदानों में दौड़ती-भागती बाईस वर्षीय मनोरमनी को लोगों ने साइकिल सिखलाते देखा। उसने मुझे बताया ’’हमारा इलाका मुख्य शहर से कटा हुआ है। यहाँ जो साइकिल चलाना जानते हैं उनकी गतिशीलता बढ़ जाती है।’’

चिलचिलाती – बहुत तेज़

लेखक अब कुदिमि अन्नामलाई की बात कर रहा है। यह भी पुडुकोट्टई जिले का एक गाँव है। वहाँ की गर्मी की दोपहरी में एक बहुत ही अनोखा नजरा देखने को मिला। लेखक जब उस क्षेत्र से गुजर रहा थे तो उन्होंने देखा किस तरह से पत्थर के खदानों में काम करने वाली बाईस वर्षीय मनोरमनी लोगों को साइकिल चलाना सिखा रही हैं। जब लेखक ने मनोरमनी से बात की तो उसने लेखक को बताया कि उनका इलाका मुख्य शहर से कटा हुआ है। वहाँ यातायात सुविधा नहीं मिलती। यहाँ जो साइकिल चलाना जानते हैं उनके काम में वृद्धि आ जाती है अर्थात् उनका काम आसानी से हो सकता है। 

साइकिल चलाने के बहुत निश्चित आर्थिक निहितार्थ थे। इससे आय में वृद्धि हुई है। यहाँ की कुछ महिलाएँ अगल-बगल के गाँवों में कृषि संबंधी अथवा अन्य उत्पाद बेच आती हैं। साइकिल की वजह से बसों के इंतजार में व्यय होने वाला उनका समय बच जाता है। खराब परिवहन व्यवस्था वाले स्थानों के लिए तो यह बहुत महत्वपूर्ण है।

व्यय – खर्च

लेखक कहता है कि साइकिल चलाने की कुछ आर्थिक फायदे भी थे, इससे आय में वृद्धि हुई है। यहाँ की कुछ महिलाएँ आस-पास के गाँवों में खेती से संबंधी अथवा अन्य उत्पाद बेच आती हैं। साइकिल की वजह से बसों के इंतजार में खर्च होने वाला उनका समय बच जाता है। जैसा कि पहले वे पैदल आती जाती थी तो उसमें ज्यादा समय खर्च होता था, अब साइकिल के कारण समय की बहुत बचत होने लगी है। जहाँ पर यातायात के साधान नहीं हैं या खराब परिवाहन व्यवस्था है, उन स्थानों पर तो यह साइकिल एक बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। यह बहुत ही उपयोगी सिद्ध हो रही है। 

दूसरे, इससे इन्हें इतना समय मिल जाता है कि ये अपने सामान बेचनें पर ज्यादा ध्यान केंद्रित कर पाती हैं। तीसरे, इससे ये और अधिक इलाकों में जा पाती हैं। अंतिम बात यह है कि अगर आप चाहें तो इससे आराम करने का क़ाफी समय मिल सकता है। 

लेखक साइकिल के और ज्यादा फायदों को गिनाते हुए कहता है कि इससे दूसरा फायदा यह है कि इससे इन महिलाओं को इतना समय मिल जाता है कि ये अपने सामान बेचनें पर ज्यादा ध्यान केंद्रित कर पाती हैं। तीसरा, इससे ये फायदा है कि ये महिलाएँ अब अपना सामन बेचने और अधिक इलाकों में जा पाती हैं। अंतिम बात यह है कि अगर वे काम करके ज्यादा थक गई हों तो इससे उन्हें आराम करने का क़ाफी समय मिल सकता है। साइकिल के कारण महिलाओं का काम काफी आसान हो गया है।

जिन छोटे उत्पादकों को बसों का इंतज़ार करना पड़ता था, बस स्टॉप तक पहुँचने के लिए भी पिता, भाई, पति या बेटों पर निर्भर रहना पड़ता था। वे अपना सामान बेचने के लिए कुछ गिने-चुने गाँवों तक ही जा पाती थीं। कुछ को पैदल ही चलना पड़़ता था। जिनके पास साइकिल नहीं है वे अब भी पैदल ही जाती हैं। फिर उन्हें बच्चों की देखभाल के लिए या पीने का पानी लाने जैसे घरेलू कामों के लिए भी जल्दी ही भागकर घर पहुँचना पड़ता था।

निर्भर – आश्रित

लेखक कहता है कि जिन छोटे व्यापारियों को बसों का इंतज़ार करना पड़ता था, जो छोटे-छोटे सामान बेचते थे, गाँव-गाँव जाकर बसों के द्वारा पहले उन्हें काफी लंबा इंतजार करना पड़ता था। बस स्टॉप तक पहुँचने के लिए भी पिता, भाई, पति या बेटों पर निर्भर रहना पड़ता था कि कोई उन्हें बस स्टॉप तक छोड़कर आएगा। तब वह कहीं बस के द्वारा अपने मंजिल तक पहुँच पाएँगीं और अपना काम करके वापस लौट आएँगी। वे अपना सामान बेचने के लिए कुछ गिने-चुने गाँवों तक ही जा पाती थीं। क्योंकि इसमें बहुत ही अधिक समय लगता था। लेकिन साइकिल के द्वारा अब वह ज्यादा जगहों तक पहुँच पाती हैं और उनके सामान की ब्रिक्री भी बढ़ गई है। लेखक कहता है कि कुछ स्त्रियाँ ऐसी भी हैं जिनके आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है और वह साइकिल भी नहीं खरीद सकती तो वह उन्हें भी पैदल ही जाना पड़ता है। फिर उन्हें बच्चों की देखभाल के लिए या पीने का पानी लाने जैसे घरेलू कामों के लिए भी जल्दी ही भागकर घर पहुँचना पड़ता था। क्योंकि स्त्रियाँ घर और बाहर दोनों जगह सब काम संभल रही हैं। 

अब जिनके पास साइकिलें हैं वे सारा काम बिना किसी दिक्कत के कर लेती हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अब आप किसी सुनसान रास्ते पर भी देख सकते हैं कि कोई युवा-माँ साइकिल पर आगे अपने बच्चे को बैठाए, पीछे कैरियर पर सामान लादे चली जा रही है। वह अपने साथ पानी से भरे दो या तीन बर्तन लिए अपने घर या काम पर जाती देखी जा सकती है।

दिक्कत – परेशानी

लेखक कहता है कि अब जिनके पास साइकिलें हैं वे सारा काम बिना किसी परेशानी के कर लेती हैं। अब उन्हें किस काम करने में किसी तरह की कोई परेशानी नहीं आती।लेखक कहता है कि  अब यह नजरा आम हो गया है कि सुनसान रास्तों पर भी युवा स्त्रियाँ और माँऐं साइकिल पर अपने बच्चों को बिठाऐ और पीछे साइकिल पर आपना समान लादे, काम-काज पर आती-जाती नज़र आ जाती हैं। वह अपने साथ पानी से भरे दो या तीन बर्तन लिए अपने घर या काम पर जाती देखी जा सकती है। इस साइकिल के पहिये ने उनके लिए एक आजादी का रास्ता खोला है। अब वह स्वंतत्र है अपनी इच्छा अनुसार अपनी मर्जी से अपना कार्य कर सकती है।

अन्य पहलुओं से ज़्यादा आर्थिक पहलू पर ही बल देना गलत होगा। साइकिल प्रशिक्षण से महिलाओं के अंदर आत्मसम्मान की भावना पैदा हुई है यह बहुत महत्वपूर्ण है। फातिमा का कहना है ’’बेशक, यह मामला केवल आर्थिक नहीं है।’’ फातिमा ने यह बात इस तरह कही जिससे मुझे लगा कि मैं कितनी मूर्खतापूर्ण ढंग से सोच रहा था। उसने आगे कहा- ’’साइकिल चलाने से मेरी कौन सी कमाई होती है। मैं तो पैसे ही गँवाती हूँ।

पहलुओं – पक्ष

आर्थिक – धन से सम्बंधित

गँवाती – बरबाद

लेखक कहता है कि अन्य पहलुओं से ज़्यादा आर्थिक पहलू पर ही बल देना गलत होगा। जब हम इस रिर्पाट के बारे में जानते हैं और अलग-अलग पक्षों के बारे में जानते हैं लोगों की राय, स्त्रियों की दशा, तो अकेले आर्थिक पहलू को बल देना गलत होगा इसके अलावा भी स्त्रियों के जीवन में बदलाव आया है। आर्थिक पहलू तो सुधरा ही है इसके अलावा साइकिल सिखने से महिलाओं के अंदर उनका अपने ऊपर विश्वास, उनका आत्मसम्मान बढ़ा है। यह बहुत महत्वपूर्ण है। फातिमा लेखक से कहती है कि यह मामला केवल आर्थिक नहीं है। फातिमा ने यह बात इस तरह कही जिससे लेखक को महसूस हुआ कि वह कितना मूर्खतापूर्ण ढंग से सोच रहा था। फातिमा आगे कहती है कि साइकिल चलाने से उसकी कौन सी कमाई होती है। वह तो पैसे ही बर्बाद करती है क्योंकि किराये पर साइकिल लेकर चलाती है क्योंकि उन्हें साइकिल चलाने का शौंक है। वह कहती है इससे उसे खुशी मिलती है।

मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं कि मैं साइकिल खरीद सकूँ। लेकिन हर शाम मैं किराए पर साइकिल लेती हूँ ताकि मैं आज़ादी और खुशहाली का अनुभव कर सकूँ।’’ पुडुकोट्टई पहुँचने से पहले मैंने इस विनम्र सवारी के बारे में कभी इस तरह सोचा ही नहीं था। मैंने कभी साइकिल को आज़ादी का प्रतीक नहीं समझता था। 

प्रतीक – चिन्ह

फातिमा ने लेखक को बताया था कि उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है और वह साइकिल नहीं खरीद सकती। लेकिन हर शाम वह किराए पर साइकिल लेती है  ताकि वह आज़ादी और खुशहाली का अनुभव कर सके। पुडुकोट्टई पहुँचने से पहले लेखक ने इस विनम्र सवारी के बारे में कभी इस तरह सोचा ही नहीं था। उन्हें ऐसा कभी नहीं सोचा था कि एक साइकिल से स्त्रियों को आजादी और उनके जीवन में खुशहाली लौट आई। लेखक को कभी ऐसा नहीं लगा कि एक साइकिल लोगों की आजादी का कारण बन सकती है उसका चिन्ह बन सकती है। लेकिन पुडुकोट्टई की औरतों ने यह सब कर दिखाया अपने इस आंदोलन के द्वारा, एक अकेली औरत ही नहीं संपूर्ण समाज की स्त्रियों ने इस बदलाव में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और अपनी आजादी और आत्मनिर्भरता को पाया।

एक महिला ने बताया – “लोगों के लिए यह समझना बड़ा कठिन है कि ग्रामीण महिलाओं के लिए यह कितनी बड़ी चीज है। उनके लिए तो यह हवाई जहाज उड़ाने जैसी बड़ी उपलब्धि है। लोग इस पर हँस सकते हैं लेकिन केवल यहाँ की औरतें ही समझ सकती हैं कि उनके लिए यह कितना महत्वपूर्ण है। 

लेखक कहता है कि एक महिला ने उसे बताया लोगों के लिए यह समझना बड़ा कठिन है कि ग्रामीण महिलाओं के लिए साइकिल पर काम पर आना-जाना कितनी बड़ी चीज है। उनके लिए तो यह हवाई जहाज उड़ाने जैसी बड़ी उपलब्धि है। जो औरतें पहले घर से बाहर नहीं निकल सकती थी, अब वह साइकिल पर जाकर अपने खुशी से अपनी इच्छा से अपने काम कर सकती है। लोग इस पर हँस सकते हैं, लेकिन केवल यहाँ की औरतें ही समझ सकती हैं कि उनके लिए यह कितना महत्वपूर्ण है।

जो पुरुष इसका विरोध करते हैं, वे जाएँ और टहलें क्योंकि जब साइकिल चलाने की बात आती है, वे महिलाओं की बराबरी कर ही नहीं सकते। 

लेखक कहता है कि अब औरतों का कहना है जो उनके साइकिल चलाने का विरोध करते हैं, उन्हें महिलाएँ घूमने और टहलने को कहती हैं क्योंकि अब साइकिल चलाने में औरतों का मुकाबला वे नहीं कर सकते हैं। महिलाएँ जिस तरह से बहुत समय रूढ़ि पंरम्पराओं में जकड़ी हुई थी और उन्होंने अपनी आजादी की लड़ाई स्वंय लड़ी और समाज में परिवार से आगे बढ़कर आई और इसको इन्होंने आंदोलन का रूप दिया। एक स्त्री ही नहीं सभी स्त्रियाँ एक होकर अपने समुदाय अपने वर्ग के लिए लड़ी और आजादी में सफलता पाई।
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जहाँ पहिया है पाठ सार

लेखक इस रिपोर्ट के द्वारा बताते हैं कि जंजीरो द्वारा समाज में फैली हुई रूढ़ियाँ संकेत कर रही हैं कि हमारे पुरुष प्रधान समाज में नारी को हमेशा से दबना पड़ा है। पर जब वह दमित नारी कुछ करने की ठानती है, तो ये ज़ंजीरें लगती हैं। तमिलनाडु की महिलाओं ने इन्ही जंजीरों को तोड़ने के लिये साइकिल चलाना शुरू किया। साइकिल सीखी एक महिला ने लेखक को बताया कि उस पर साइकिल चलाने के कारण लोगो ने व्यंग किया पर उसने ध्यान नहीं दिया। 

लेखक बताते हैं कि फातिमा नामक एक महिला को साइकिल का इतना चाव था कि वो रोज़ आधा घंटा किराये पर साइकिल लेती थी, गरीब होने के कारण वह साइकिल खरीद नहीं सकती थी। वहाँ लगभग सभी महिलाएँ साइकिल चलाती थी। 1992 में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर 1500 महिलाऒ ने साइकिल चलाई। वह महिलाएँ जो पहले पिता या भाई पर आश्रित थी, वह अब आसानी से कहीं भी आ जा सकती थी। इस आंदोलन से महिलाओं के न सिर्फ आर्थिक पक्ष को मजबूत किया बल्कि उनमें एक नए आत्मविश्वास का संचार भी हुआ। पुरुष वर्ग को इससे एतराज़ नहीं होना चहिए पर यदि होता है तो भी महिलाएँ इसकी परवाह नहीं करती।
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जहाँ पहिया है प्रश्न अभ्यास (महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर )

प्रश्न-1 “….उन जंजीरों को तोड़ने का जिनमें वे जकड़े हुए हैं, कोई-न-कोई तरीका लोग निकाल ही लेते हैं….” आपके विचार से ‘जंजीरों’ द्वारा किन समस्याओं की ओर इशारा कर रहा है?

उत्तर – ‘जंजीरों’ द्वारा समाज में फैली हुई रुढियों और संकीर्णता की ओर संकेत कर रहे हैं। हमारे पुरुष प्रधान समाज में नारी को हमेशा से दबना पड़ा है। पर जब वह दमित नारी कुछ करने की ठानती है तो ये जंजीरे कटने लगती हैं। जैसे – स्त्री की आज़ादी और साक्षरता। 

प्रश्न-2 क्या आप लेखक की इस बात से सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण भी बताइए। 

उत्तर – हम लेखक की बात से पूर्ण सहमत हैं क्योंकि जब-जब किसी पर जंजीरे कसी जाती है तो वह इन रूढ़ियों के बंधनों को तोड़ डालती है। समय के साथ-साथ विचारधाराओं में भी परिवर्तन होता रहता है जब ये परिवर्तन होने प्रारम्भ होते हैं तो समाज में एक जबरदस्त बदलाव आता है जो उसकी सोचने-समझने की धारा को ही बदल देता है। मनुष्य आजाद स्वभाव का प्राणी है। 

वह रूढ़ियों के बंधन को बर्दाश्त नहीं करता और उसे तोड़ देता है। जैसे तमिलनाडु के पुडुकोट्टई गाँव में हुआ है। महिलाओं ने साइकिल चलाना आरम्भ किया और समाज में एक नई मिसाल रखी। 

प्रश्न-3 ‘साइकिल आंदोलन’ से पुडुकोट्टई की महिलाओं के जीवन में कौन-कौन से बदलाव आए हैं?

उत्तर – साइकिल आंदोलन से पुडुकोट्टई की महिलाओं के जीवन में कई बदलाव आए हैं- 

(i) साइकिल आंदोलन से महिलाएँ छोटे-मोटे बाहर के काम स्वयं करने लगी। 

(ii) साइकिल आंदोलन से वे अपने उत्पाद कई गाँव में ले जाकर बेचने लगी। 

(iii) साइकिल आंदोलन से उनकी आर्थिक स्थिति सुधरी है। 

(iv) साइकिल आंदोलन से समय और श्रम की बचत हुई है। 

(v)  साइकिल आंदोलन ने उन्हें आत्मनिर्भर बनाया।

प्रश्न-4 शुरूआत में पुरुषों ने इस आंदोलन का विरोध किया परंतु आर-साइकिल्स के मालिक ने इसका समर्थन किया, क्यों? 

उत्तर – शुरूआत में पुरुषों ने इस आंदोलन का विरोध किया परंतु आर-साइकिल्स के मालिक ने इसका समर्थन किया, क्योंकि आर-साइकिल्स के मालिक की आय में वृद्धि हो रही थी। यहाँ तक की लेडीज़ साइकिल कम होने से महिलाऐ जेंट्स साइकिल भी खरीद रही थी। आर-साइकिल्स के मालिक ने आंदोलन का समर्थन स्वार्थवश किया। 

प्रश्न-5 प्रारंभ में इस आंदोलन को चलाने में कौन-कौन सी बाधा आई?

उत्तर – प्रारम्भ में साइकिल आंदोलन चलाने में कुछ मुश्किलें आईं जैसे- 

(i) सर्वप्रथम गाँव के लोग बहुत ही रूढ़िवादी थे। उन्होंने महिलाओँ के उत्साह को तोड़ने का प्रयास किया। 

(ii) महिलाओँ के साइकिल चलाने पर उन पर फ़ब्तियाँ कसी।

(iii) महिलाओँ के पास साइकिल शिक्षक का अभाव था, जिसके लिए उन्होंने स्वयं साइकिल सिखाना आरम्भ किया और आंदोलन की गति पर कोई असर नहीं पड़ने दिया। 

प्रश्न-6 आपके विचार से लेखक ने इस पाठ का नाम जहाँ पहिया है? क्यों रखा होगा?

उत्तर – पहिया गति का प्रतीक है। लेखक ने इस पाठ का नाम ‘जहाँ पहिया है’ तमिलनाडु के पुडुकोट्टई गाँव के साइकिल आंदोलन के कारण ही रखा होगा। उस जिले की महिलाओं ने साइकिल चलाना शुरू किया, तब से उनकी परिस्थिति में सुधार आया तथा उनके विकास को गति मिली। इसिलए लेखक कहते है कि ये बात उस जिले की है ‘जहाँ पहिया है’। 

प्रश्न-7 अपने मन से इस पाठ का कोई दूसरा शीर्षक सुझाइए। अपने दिए हुए शीर्षक के पक्ष में तर्क दीजिए। 

उत्तर – इस पाठ के लिए उपयुक्त नाम साइकिल आंदोलन भी हो सकता था। साइकिल आंदोलन इस पाठ की केंद्रीय घटना है तथा पूरे पाठ में आंदोलन की चर्चा है, इसलिए ये शीर्षक उपयुक्त है।
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जहाँ पहिया है नामक पाठ के लेखक कौन हैं?

जहाँ पहिया है पाठ प्रवेश “जहाँ पहिया है” पाठ के लेखक “पालगम्मी साईनाथ जी” हैं। पालगम्मी साईनाथ जी इस लेख के द्वारा एक साईकिल आंदोलन की बात करते हैं और तमिलनाडू के क्षेत्र में प्रसिद्ध जिले में किस तरह से महिलाऐं साइकिल के पहिऐ को एक आंदोलन का रूप देती हैं और किस तरह से वह स्वतंत्र होती हैं

जहां पहिया है पाठ की विधा क्या है?

जहाँ पहिया है की साहित्यिक विधा रिपोर्ताज है। यह पाठ स्त्री विमर्श से संबंधित है। यह पाठ एक प्रेरणा स्त्रोत है। जिसमें लेखक ने पुडुकोट्टई (तमिलनाडु) की महिलाओं के जीवन संघर्ष का वर्णन किया है

जहाँ पहिया है पाठ से आपने क्या सीखा?

लेखक पी० साईनाथ ने पाठ का नाम 'जहां पहिया है' बड़ी ही सूझबूझ के साथ रखा है। इस पाठ में पहिया उन्नति एवं प्रगति का चिह्न है। पहिया समय के साथ-साथ चलने की प्रेरणा देता है। इसी प्रेरणा को ग्रहण कर पुडुकोट्टई की महिलाओं ने अपनी आजादी और गतिशीलता को दर्शाने के लिए चिह्न रूप में साइकिल को चुना।

जहाँ पहिया है कहानी हमें क्या संदेश देती है?

question. 'जहाँ पहिया है' पाठ के माध्यम में लेखक हमें क्या संदेश देना चाहते हैं​? ➲ 'जहाँ पहिया है' रिपोर्ताज पाठ के माध्यम से लेखक हमें संदेश देना चाहते हैं, कि साइकिल महिलाओं के सशक्तिकरण का एक प्रतीक भी बन सकती है। साइकिल का पहिया एक आंदोलन का रूप भी ले सकता है।