जर्मनी के एकीकरण की प्रक्रिया में कौन कौन सी बाधाएँ थीं? - jarmanee ke ekeekaran kee prakriya mein kaun kaun see baadhaen theen?

जर्मनी के एकीकरण की प्रक्रिया में कौन कौन सी बाधाएँ थीं? - jarmanee ke ekeekaran kee prakriya mein kaun kaun see baadhaen theen?

जर्मनी के एकीकरण की प्रक्रिया में कौन कौन सी बाधाएँ थीं? - jarmanee ke ekeekaran kee prakriya mein kaun kaun see baadhaen theen?

मध्य यूरोप के स्वतंत्र राज्यों (प्रशा, बवेरिआ, सैक्सोनी आदि) को आपस में मिलाकर १८७१ में एक राष्ट्र-राज्य व जर्मन साम्राज्य का निर्माण किया गया। इसी ऐतिहासिक प्रक्रिया का नाम जर्मनी का एकीकरण है। इसके पहले यह भूभाग (जर्मनी) ३९ राज्यों में बंटा हुआ था। इसमें से ऑस्ट्रियाई साम्राज्य तथा प्रशा राजतंत्र अपने आर्थिक तथा राजनीतिक महत्व के लिये प्रसिद्ध थे।.

परिचय

फ्रांस की क्रांति द्वारा उत्पन्न नवीन विचारों से जर्मनी प्रभावित हुआ था। नेपोलियन ने अपनी विजयों द्वारा विभिन्न जर्मन-राज्यों को राईन-संघ के अंतर्गत संगठित किया, जिससे जर्मन-राज्यों को एक साथ रहने का एहसास हुआ। इससे जर्मनी में एकता की भावना का प्रसार हुआ। यही कारण था कि जर्मन-राज्यों ने वियना कांग्रेस के समक्ष उन्हें एक सूत्र में संगठित करने की पेशकश की, पर उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।

वियना कांग्रेस द्वारा जर्मन-राज्यों की जो नवीन व्यवस्था की गयी, उसके अनुसार उन्हें शिथिल संघ के रूप में संगठित किया गया और उसका अध्यक्ष ऑस्ट्रिया को बनाया गया। राजवंश के हितों को ध्यान में रखते हुए विविध जर्मन राज्यों का पुनरूद्धार किया गया। इन राज्यों के लिए एक संघीय सभा का गठन किया गया, जिसका अधिवेशन फ्रेंकफर्ट में होता था। इसके सदस्य जनता द्वारा निर्वाचित न होकर विभिन्न राज्यों के राजाओं द्वारा मनोनीत किए जाते थे। ये शासक नवीन विचारों के विरोधी थे और राष्ट्रीय एकता की बात को नापसंद करते थे किन्तु जर्मन राज्यों की जनता में राष्ट्रीयता और स्वतंत्रता की भावना विद्यमान थी। यह नवीन व्यवस्था इस प्रकार थी कि वहाँ आस्ट्रिया का वर्चस्व विद्यमान था। इस जर्मन क्षेत्र में लगभग 39 राज्य थे जिनका एक संघ बनाया गया था।

जर्मनी के विभिन्न राज्यों में चुंगीकर के अलग-अलग नियम थे, जिनसे वहां के व्यापारिक विकास में बड़ी अड़चने आती थीं। इस बाधा को दूर करने के लिए जर्मन राज्यों ने मिलकर चुंगी संघ का निर्माण किया। यह एक प्रकार का व्यापारिक संघ था, जिसका अधिवेशन प्रतिवर्ष होता था। इस संघ का निर्णय सर्वसम्मत होता था। अब सारे जर्मन राज्यों में एक ही प्रकार का सीमा-शुल्क लागू कर दिया गया। इस व्यवस्था से जर्मनी के व्यापार का विकास हुआ, साथ ही इसने वहाँ एकता की भावना का सूत्रपात भी किया। इस प्रकार इस आर्थिक एकीकरण से राजनीतिक एकता की भावना को गति प्राप्त हुई। वास्तव में, जर्मन राज्यों के एकीकरण की दिशा में यह पहला महत्वपूर्ण कदम था।

फ्रांस की क्रान्तियों का प्रभाव

जर्मनी की जनता में राष्ट्रीय भावना कार्य कर रही थी। देश के अंदर अनेक गुप्त समितियाँ निर्मित हुई थीं। ये समितियाँ नवीन विचारों का प्रसार कर रही थीं। यही कारण था कि 1830 ई . और 1848 ई. में फ्रांस में होने वाली क्रांतियों का प्रभाव वहाँ भी पड़ा और वहाँ की जनता ने भी विद्रोह कर दिया। यद्यपि ये क्रांतियाँ सफल न हुई तथापि इससे देश की जनता में राजनीतिक चेतना का आविर्भाव हुआ।

1860 ई . में जब इटली की राष्ट्रीय एकता का कार्य काफी कुछ पूरा हो गया तब जर्मन जनता में भी आशा का संचार हुआ और वह भी एकीकरण की दिशा में गतिशील हुई। इटली के एकीकरण का कार्य पीडमाण्ट के राजा के नेतृत्व में हो रहा था। इसी तरह जर्मन देशभक्तों ने प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी के एकीकरण के कार्य को संपन्न करने का निश्चय किया। इस समय प्रशा का शासक विलियम प्रथम तथा चांसलर बिस्मार्क था किन्तु इन जर्मन देशभक्तों के समक्ष दो प्रमुख समस्यायें थीं-

  • 1. आस्ट्रिया के प्रभुत्व से छुटकारा पाना,
  • 2. जर्मन-राज्यों को प्रशा के नेतृत्व में संगठित करना।

बिस्मार्क का उदय

ऑटो एडवर्ड लियोपोल्ड बिस्मार्क का जन्म 1815 ई. में ब्रेडनबर्ग के एक कुलीन परिवार में हुआ था। बिस्मार्क की शिक्षा बर्लिन में हुई थी। 1847 ई. में ही वह प्रशा की प्रतिनिधि-सभा का सदस्य चुना गया। वह जर्मन राज्यों की संसद में प्रशा का प्रतिनिधित्व करता था। वह नवीन विचारों का प्रबल विरोधी था। 1859 ई. में वह रूस में जर्मनी के राजदूत के रूप में नियुक्त हुआ। 1862 ई. में वह पेरिस का राजदूत बनाकर भेजा गया। इन पदों पर रहकर वह अनेक लोगों के संपर्क में आया। उसे यूरोप की राजनीतिक स्थिति को भी समझने का अवसर मिला। 1862 ई. में प्रशा के शासक विलियम प्रथम ने उसे देश का चाँसलर (प्रधान मंत्री) नियुक्त किया।

बिस्मार्क ‘रक्त और लोहे की नीति' का समर्थक था। उसकी रुचि लोकतंत्र ओर संसदीय पद्धति में नहीं थी। वह सेना और राजनीति के कार्य में विशेष रुचि रखता था। इन्हीं पर आश्रित हो, वह अपने उद्देश्यों को प्राप्त करना चाहता था। वह प्रशा को सैनिक दृष्टि से मजबूत कर यूरोप की राजनीति में उसके वर्चस्व को कायम करना चाहता था। वह आस्ट्रिया को जर्मन संघ से निकाल बाहर कर प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी का एकीकरण करना चाहता था। वह सभाओं और भाषणों में विश्वास नहीं करता था। वह सेना और शस्त्र द्वारा देश की समस्याओं का सुलझाना चाहता था। वह अवैधानिक कार्य करने से भी नहीं हिचकता था।

प्रशा की सैनिक शक्ति में वृद्धि कर तथा कूटनीति का सहारा लेकर उसने जर्मन राज्यों के एकीकरण के कार्य को पूरा किया। इस कार्य को पूरा करने के लिए उसने तीन प्रमुख युद्ध लड़े। इन सभी युद्धों में सफल होकर उसने जर्मन-राज्यों के एकीकरण के कार्य को पूरा किया। इससे यूरोपीय इतिहास का स्वरूप ही बदल गया।

डेनमार्क से युद्ध (1864 ई.)

सर्वप्रथम बिस्मार्क ने अपनी शक्ति का प्रहार डेनमार्क के राज्य पर किया। जर्मनी और डेनमार्क के बीच दो प्रदेश विद्यमान थे, जिनके नाम श्लेसविग और हॉलस्टीन थे। ये दोनों प्रदेश सदियों से डेनमार्क के अधिकार में थे, पर इसके भाग नहीं थे। हॉलस्टीन की जनता जर्मन जाति की थी, जबकि श्लेसविग में आधे जर्मन और आधे डेन थे।

19वीं सदी में अन्य देशें की तरह डेनमार्क में भी राष्ट्रीयता की लहर फैली, जिससे प्रभावित होकर डेन देशभक्तों ने देश के एकीकरण का प्रयत्न किया। वे चाहते थे कि उक्त दोनों राज्यों को डेनमार्क में शामिल कर उसकी शक्ति को सुदृढ़ कर लिया जाए। फलस्वरूप 1863 ई. में डेनमार्क के शासक क्रिश्चियन दशम् ने उक्त प्रदेशं को अपने राज्य में शामिल करने की घोषणा कर दी। उसका यह कार्य 1852 ई. में संपन्न लंदन समझौते के विरूद्ध था, इसीलिए जर्मन राज्यों ने इसका विरोध किया। उन्होंने यह मांग की कि इन प्रदेशं को डेनमार्क के अधिकार से मुक्त किया जाए। प्रशा ने भी डेनमार्क की इस नीति का विरोध किया। बिस्मार्क ने सोचा कि डेनमार्क के खिलाफ युद्ध करने का यह अनुकूल अवसर है। वह इन प्रदेशं पर प्रशा का अधिकार स्थापित करने का इच्छुक था। इस कार्य को वह अकेले न कर आस्ट्रिया के सहयोग से पूरा करना चाहता था, ताकि प्रशा के खिलाफ कोई विपरीत प्रतिक्रिया न हो। आस्ट्रिया ने भी इस कार्य में प्रशा का सहयोग करना उचित समझा। इसका कारण यह था कि यदि प्रशा इस मामले में अकेले हस्तक्षेप करता तो जर्मनी में ऑस्ट्रिया का प्रभाव कम हो जाता। इसके अतिरिक्त वह 1852 ई. के लंदन समझौते का पूर्ण रूप से पालन करना चाहता था। इस प्रकार प्रशा और ऑस्ट्रिया दोनों ने सम्मिलित रूप से डेनमार्क के खिलाफ सैनिक कार्यवाही करने का निश्चय किया। फलस्वरूप 1864 ई. में उन्होंने डेनमार्क पर आक्रमण कर दिया। डेनमार्क पराजित हो गया और उसने आक्रमणकारियों के साथ एक समझौता किया। इसके अनुसार उसे श्लेसविग और हॉलस्टील के साथ-साथ लायनबुर्ग के अधिकार से भी वंचित होना पड़ा।

गेस्टीन का समझौता

इस समझौते के अनुसार श्लेसविग और हॉलस्टीन के प्रदेश तो डेनमार्क से ले लिये गए, पर इस लूट के माल के बंटवारे के संबंध में प्रशा और ऑस्ट्रिया में मतभेद हो गया। इस प्रश्न को लेकर दोनों के बीच काफी कटुता उत्पन्न हो गयी। ऑस्ट्रिया अपनी आंतरिक स्थिति के कारण युद्ध करने के पक्ष में नहीं था जबकि प्रशा इस प्रसंग के माध्यम से ऑस्ट्रिया को जर्मन राज्य संघ में कमजोर करना चाहता था। अंततः दोनों के बीच 14 अगस्त 1865 ई. को गेस्टीन नामक स्थान पर समझौता हो गया, जो ‘गेस्टीन-समझौता’ के नाम से जाना जाता है। यह समझौता इस प्रकार था-

  • 1. श्लेसविंग प्रशिया को दिया गया,
  • 2. हॉलस्टीन पर आस्ट्रिया का अधिकार मान लिया गया,
  • 3. लायनवर्ग का प्रदेश प्रशा ने खरीद लिया, जिसका मूल्य ऑ स्ट्रिया को दिया गया।

यह समझौता बिस्मार्क की कूटनीतिक विजय थी। वह इसे एक अस्थायी समझौता मानता था, जिसकी अवहेलना कभी भी की जा सकती थी। अतः आगे चलकर इसके खिलाफ प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक थी।

वास्तव में बिस्मार्क की इच्छा ऑस्ट्रिया को युद्ध में परास्त कर उसे जर्मन संघ से बहिष्कृत करना था। इस दिशा में उसने तैयारी करनी आरंभ कर दी थी पर यह कार्य सरल न था, क्योंकि ऑस्ट्रिया यूरोप का एक महत्वपूर्ण राज्य था और उस पर आक्रमण करने से अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर असर पड़ सकता था। अतः ऑस्ट्रिया के खिलाफ सैनिक कार्यवाही करने के पूर्व बिस्मार्क अन्य राज्यों की मंशा जान लेना चाहता था। इस प्रकार युद्ध के पूर्व उसने कूटनीतिक चाल द्वारा अन्य राज्यों की संभावित प्रतिक्रिया को समझ लेना आवश्यक समझा। ग्रेटब्रिटेन के इस युद्ध में हस्तक्षेप करने की संभावना न थी, क्योंकि वह एकाकीपन की नीति पर चल रहा था। रूस बिस्मार्क का मित्र था। उसने फ्रांस को लालच देकर युद्ध में तटस्थ रहने का आश्वासन प्राप्त कर लिया। नेपोलियन तृतीय ने तटस्थ रहना राष्ट्रीय हित में उचित समझा। उसने यह सोचा कि ऑस्ट्रिया और प्रशा के युद्धों से उनकी शक्ति क्षीण होगी और उस स्थिति से फ्रांस को विकास करने का अवसर प्राप्त होगा। 1866 ई. में प्रशा और इटली के बीच संधि हो गयी, जिसके अनुसार इटली ने युद्ध में प्रशा का साथ देने का आश्वासन दिया। इसके बदले बिस्मार्क ने युद्ध में सफल होने के पश्चात इटली को वेनेशिया देने का वचन दिया। इस संधि की सूचना पाकर ऑस्ट्रिया बड़ा चिंतित हुआ। अब ऑस्ट्रिया और प्रशा की सैनिक तैयारियाँ तीव्र गति से चलने लगीं। इस प्रकार प्रशा और ऑस्ट्रिया के बीच युद्ध की स्थिति निर्मित हो गयी। अब युद्ध के लिए केवल अवसर ढूंढ़ने की आवश्यकता थी। श्लेसविग और हॉलस्टीन संबंधी समझौते में युद्ध के कारणों को ढूँढ़ निकालना कोई कठिन कार्य न था। 1866 ई. में प्रशा को यह अवसर प्राप्त हुआ और उसने ऑस्ट्रिया के खिलाफ युद्ध घोषित कर दिया। इटली प्रशा का साथ दे रहा था। यह युद्ध सेडोवा के मैदान में दोनों के बीच सात सप्ताह तक चला, जिसमें ऑस्ट्रिया पराजित हुआ। इस युद्ध की समाप्ति प्राग की संधि द्वारा हुई, जिसकी शर्तें इस प्रकार थीं-

  • 1. ऑस्ट्रिया के नेतृत्व में जो जर्मन-संघ बना था, वह समाप्त कर दिया गया।
  • 2. श्लेसविग और हॉलस्टीन प्रशा को दे दिये गये।
  • 3. दक्षिण के जर्मन-राज्यों की स्वतंत्रता को मान लिया गया।
  • 4. वेनेशिया का प्रदेश इटली को दे दिया गया।
  • 5. ऑस्ट्रिया को युद्ध का हरजाना देना पड़ा।

जर्मन राजसंघ की स्थापना

इस युद्ध के फलस्वरूप जर्मन-राज्यों से ऑस्ट्रिया का वर्चस्व समाप्त हो गया। अब वहाँ प्रशा का प्रभाव कायम हो गया। इस युद्ध के बाद प्रशा को अनेक नवीन प्रदेश मिले, जिसके कारण अब वह यूरोप का शक्तिशाली राज्य माना जाने लगा। अब बिस्मार्क भी यूरोप में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गया। प्रशा की इस सफलता ने परोक्ष रूप से फ्रांस की भावी पराजय का संकेत दिया। इस प्रकार इस युद्ध से प्रशा को अनेक लाभ हुए।

हैनोवर, हेसकेसल, नासो और फ्रेंकफर्ट प्रशा के राज्य में शामिल कर लिये गये। इसके बाद उसने जर्मन-राज्यों को नये सिरे से अपने नेतृत्व में संगठित करने का प्रयास किया। किन्तु दक्षिण-राज्यों के विरोध के कारण ऐसा करना संभव नहीं हुआ। ऐसी स्थिति में यह उचित समझा गया कि चार दक्षिण जर्मन राज्यों को छोड़कर (बवेरिया, बुटर्मवर्ग, बादेन और हेंस) शेष जर्मन-राज्यों का संगठन प्रशा के नेतृत्व में बना लिया जाए। बिस्मार्क ने ऐसा ही किया। इस प्रकार उसने उत्तरी जर्मन राज्यों का गठन कर लिया। इसमें 21 जर्मन राज्य शामिल थे। इस नवीन संघ का अध्यक्ष प्रशा को बनाया गया। बिस्मार्क इस संघ का प्रथम चाँसलर नियुक्त हुआ। वह वहाँ गठित होने वाली संघीय परिषद का अध्यक्ष भी नियुक्त किया गया। इस परिषद में कुल 43 सदस्य थे, जिनमें 17 सदस्य प्रशा के थे। संघ के अध्यक्ष के रूप में प्रशा के राजा को अनेक महत्वपूर्ण कार्यों जैसे युद्ध एवं संधि को संपादित करने का अधिकार था। दूसरी सभा का नाम लोकसभा था, जिसके सदस्य वयस्क मताधिकार के अनुसार जनता द्वारा चुने जाते थे।

इस प्रकार बिस्मार्क जर्मनी के एकीकरण की दिशा में काफी आगे बढ़ गया। अब उसके लिए केवल अंतिम कार्य करना ही शेष था।

जर्मनी के एकीकरण के लिए बिस्मार्क ने फ्रांस से अंतिम युद्ध किया, क्योंकि उसे पराजित किये बिना दक्षिण के चार जर्मन राज्यों को जर्मन संघ में शामिल करना असंभव था। उधर फ्रांस ऑस्ट्रिया के विरूद्ध प्रशा की विजय से अपने को अपमानित महसूस कर रहा था। उसका विचार था कि दोनों के बीच चलने वाला युद्ध दीर्घकालीन होगा किन्तु आशा के विपरीत यह युद्ध जल्दी समाप्त हो गया, जिसमें प्रशा को सफलता मिली।

फ्रांस के राष्ट्रपति नेपोलियन तृतीय ने अपनी गिरती हुई प्रतिष्ठा को पुनः जीवित करने के लिए फ्रांस की सीमा को राइन-नदी तक विस्तृत करने का विचार किया, किन्तु वह इस कार्य में सफल नहीं हो सका। बिस्मार्क अपनी कूटनीतिक चालों द्वारा फ्रांस की हर इच्छा को असफल करता रहा। नेपालियन ने हॉलैण्ड से लक्जेमबर्ग लेना चाहा, पर बिस्मार्क के विरोध के कारण वह संभव न हो सका। इसमें दोनों के बीच कटुता की भावना निर्मित हो गयी। फ्रांस समझता था कि प्रशा के उत्कर्ष के कारण उसकी स्थिति नाजुक हो गयी है। उधर प्रशा भी फ्रांस को अपने मार्ग का बाधक मानता था। फलस्वरूप दोनों देशं के अखबार एक दूसरे के खिलाफ जहर उगलने लगे। ऐसी स्थिति में दोनों के बीच युद्ध आवश्यक प्रतीत होने लगा।

स्पेन की राजगद्दी का मामला

इसी बीच स्पेन में उत्तराधिकार का प्रश्न उपस्थित हो गया, जिससे वहां गृहयुद्ध प्रारंभ हो गया। 1863 ई. में स्पेन की जनता ने विद्रोह करके रानी ईसाबेला द्वितीय को देश से निकाल दिया और उसके स्थान पर प्रशा के सम्राट के रिश्तेदार लियोपोर्ल्ड को वहाँ का नया शासक बनाने का विचार किया। नेपोलियन इसके तैयार न था, क्योंकि ऐसा होने से स्पेन पर भी प्रशा का प्रभाव स्थापित हो जाता। फ्रांस के विरोध को देखते हुए लियोपोल्ड ने अपनी उम्मीदवारी का परित्याग कर दिया। किन्तु फ्रांस इससे संतुष्ट नहीं हुआ। उसने यह आश्वासन चाहा कि भविष्य में भी प्रशा का कोई राजकुमार स्पेन का शासक नहीं होगा। यह नेपोलियन की मनमानी और प्रशा का अपमान था। अतः इस घटना के कारण 15 जुलाई 1870 ई. को फ्रांस ने प्रशा के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

यह युद्ध सीडान के मैदान में लड़ा गया, जिसमें नेपोलियन तृतीय पराजित कर दिया गया। जर्मन सेनाएँ फ्रांस के अंदर तक घुस गयीं। 20 जनवरी 1871 ई. को पेरिस के पतन के पश्चात युद्ध समाप्त हो गया। अंततः दोनों के बीच एक संधि हुई, जो इतिहास में ‘फेंकफर्ट की संधि’ के नाम से विख्यात हुआ। इसकी शर्तें इस प्रकार थीं-

  • 1. फ्रांस को अल्सास और लॉरेन के प्रदेश प्रशा को सौंपने होंगे।
  • 2. फ्रांस को युद्ध का हरजाना 20 करोड़ पाउंड देना होंगे।
  • 3. हरजाने की अदायगी तक जर्मन सेना फ्रांस में बनी रहेगी।

यह संधि फ्रांस के लिए अत्यंत ही अपमानजनक सिद्ध हुई और इसके परिणाम दूरगामी सिद्ध हुए।इस सन्धि ने दोनों के बीच दुश्मनी की जड़ें मजबूत कर दीं।

जर्मन-साम्राज्य का गठन

सीडान के युद्ध के बाद दक्षिण जर्मनी के चार राज्यों - बवेरिया, बादेन, बुटर्मवर्ग और हेंस को जर्मन संघ में शामिल कर उसे जर्मनी (जर्मन साम्राज्य) एक नया नाम दिया गया। प्रशा का राजा जर्मनी का भी शासक घोषित किया गया। इस प्रकार जर्मनी का एकीकरण पूर्ण हुआ। 18 जनवरी 1871 ई. में विलियम प्रथम का राज्याभिषेक जर्मनी के सम्राट के रूप में हुआ। इस असंभव से लगने वाले कार्य को पूर्ण करने का श्रेय बिस्मार्क को है।

सन्दर्भ

19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में जर्मनी भी इटली की तरह एक “भौगोलिक अभिव्यक्ति” मात्र था, जर्मनी अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित था. इन राज्यों में एकता का अभाव था. ऑस्ट्रिया जर्मनी के एकीकरण (Unification of Germany) का विरोधी था. आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से जर्मनी पिछड़ा और विभाजित देश था. फिर भी जर्मनी के देशभक्त जर्मनी के एकीकरण (Unification of Germany) के लिए प्रयास कर रहे थे. कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं जिनसे जर्मन एकता को बल मिला. जर्मनी की औद्योगिक प्रगति हुई. वाणिज्य-व्यापार का विकास हुआ. नेपोलियन प्रथम ने जर्मन राज्यों का एक संघ स्थापित कर राष्ट्रीय एकता का मार्ग प्रशस्त किया. जर्मनी के निवासी स्वयं को एक राष्ट्र के रूप में देखने लगे. 1830 ई और 1848 ई. की क्रांतियों के द्वारा जर्मनी के लोगों में एकता आई और वे संगठित हुए. प्रशा (Persia) के नेतृत्व में आर्थिक संघ की स्थापना से राष्ट्रीय एकता की भावना को बल मिला. इससे राजनीतिक एकीकरण को भी प्रोत्साहन मिला. औद्योगिक विकास ने राजनीतिक एकीकरण को ठोस आधार प्रदान किया. जर्मनी का पूँजीपति वर्ग आर्थिक विकास और व्यापार की प्रगति के लिए जर्मनी को एक संगठित राष्ट्र  बनाना चाहता था. यह वर्ग एक शक्तिशाली केन्द्रीय शासन की स्थापना के पक्ष में था, जर्मनी के एकीकरण (Unification of Germany) में रेल-लाइनों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण थी. रेलवे के निर्माण से प्राकृतिक बाधाएँ दूर हो गयीं. रेलमार्ग के निर्माण से राष्ट्रीय और राजनीतिक भावना के विकास में सहायता मिली. जर्मनी के लेखकों और साहित्यकारों ने भी लोगों की राष्ट्रीय भावना को उभरा. अंत में बिस्मार्क (Otto von Bismarck) के नेतृत्व में जर्मनी के एकीकरण का कार्य पूरा हुआ. इसके लिए उसे युद्ध भी करना पड़ा.

इन्हें भी देखें

  • जर्मनी का इतिहास
  • जर्मन साम्राज्य
  • तृतीय साम्राज्य
  • भारत का राजनीतिक एकीकरण
  • इटली का एकीकरण

बाहरी कड़ियाँ

  • जर्मनी के एकीकरण से जुड़े तथ्‍य और जानकारियां
  • जर्मनी का एकीकरण

जर्मनी के एकीकरण में कौन कौन सी बाधाएँ थीं?

1830 ई और 1848 ई. की क्रांतियों के द्वारा जर्मनी के लोगों में एकता आई और वे संगठित हुए. प्रशा (Persia) के नेतृत्व में आर्थिक संघ की स्थापना से राष्ट्रीय एकता की भावना को बल मिला. इससे राजनीतिक एकीकरण को भी प्रोत्साहन मिला.

जर्मनी के एकीकरण की प्रक्रिया में कौन कौन सी धाराएं थीं?

नब्बे के दशक के मध्य तक, 1991-3 के आर्थिक सुधारों के परिणामस्वरूप, भारत ने वैश्विक अर्थव्यवस्था में कुछ महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करने वाले देश के रूप में अपनी पहचान बनानी प्रारम्भ की है।