लोकमत जनमत निर्माण के साधनों का वर्णन कीजिए - lokamat janamat nirmaan ke saadhanon ka varnan keejie

जनमत किसे कहते हैं, इसके बारे में कोई स्थिर परिभाषा नहीं दी जा सकती। फिर भी जनमत या लोकमत किसी राष्ट्र की समस्त संस्कृति अथवा जीवन के प्रति दृष्टिकोण को कहते हैं। किसी भी निश्चित समस्या पर राष्ट्र का एक प्रबल बहुमत किस प्रकार विचार करता है, इसे जनमत या लोकमत कहते हैं। किसी भी समस्या पर व्यक्तिगत सम्मतियों के संकलन से जनमत का निर्माण होता है।

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जनमत या लोकमत की परिभाषा 

जनमत या लोकमत की परिभाषा पर अनेक विद्धानों और मनीषियों ने अपने-अपने विचार प्रकट किये हैं, जो इस प्रकार है -

लोकमत के बारे में जाॅन स्टुअर्ट मिल की परिभाषा

उ0 जाॅन स्टुअर्ट मिल के अनुसार - ’’जनमत के नाम पर या कानून द्वारा स्थापित व्यवस्था के आधार पर, जनसाधारण से एक विशेष स्तर के व्यवहार और आचरण की अपेक्षा की जाती है। व्यवहार के यह मापदंड या तो स्वयं जनसाधारण तय करता है या समाज का सत्ताधारी वर्ग अपने प्रभाव से काम लेता है और यह फैसला सम्बद्ध वर्गों की पसन्द और नापसन्द पर ही होता है, जिसे जनमत या लोकमत की संज्ञा दी जाती है।’’

मार्क्सवादियों के अनुसार लोकमत की परिभाषा

‘‘लोकमत’’ की व्याख्या माक्र्सवादी अपने ढंग से करते हैं। उनके तर्क के अनुसार वे राजसत्ता यानी स्टेट को शासक वर्ग के हाथ की कठपुतली मानते हैं। उनका यह सिद्धान्त है कि किसी भी राजनीतिक सामाजिक ढांचे की बुनियाद वर्ग संघर्ष पर टिकी होती है और राजसत्ता अर्थात् हुकूमत तो शासक या शोषक वर्ग की ओर से व्यवस्था चलाने वाली कार्यकारिणी सीमित होती है।

जनमत निर्माण के लिए क्या आवश्यक है ?

लोकसम्पर्क की दृष्टि से जनमत निर्माण का उद्देश्य मानव के वैयक्तिक एवं सामूहिक आचरण और व्यवहार को नियमित करके उसे किसी पूर्व निर्दिष्ट लक्ष्य की पूर्ति में संलग्न करना है। अतः जनमत निर्माण के लिए आवश्यक है कि मानव व्यवहार के प्रेरक और आधारभूत तत्वों का अध्ययन किया जाए।

जनता से जनमत हासिल करने के लिए जनता से लोकसम्पर्क बड़ी स्पष्टता, से किया जाए। लोकसम्पर्क उद्देश्यपरक होना चाहिए और सहनशीलता सरलता से किया जाना चाहिए। जनमत से अभिप्राय समाज में प्रचलित उन विचारों या निर्णयों से है, जो लगभग निश्चित हैं, जिनमें स्थिरता है और जो समाज के एक बड़े वर्ग के लोगों में समान रूप से स्थित होते हैं। जनमत सार्वजनिक समस्या से सम्बद्ध होता है। यह सामान्य जनता का मत होता है, किसी विशिष्ट व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों का नहीं। (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({}); कभी-कभी ऐसे भी दिन आते हैं जब पंगु गिरि शिखर पर चढ़ जाते हैं और जो बोलने में असमर्थ होते हैं वे सिंह गर्जना करते हैं यह तब होता है जब लोकमत जाग उठता है। लोकमत में यह शक्ति हैं जो किसी भी निरीह शोषित और उत्पीडित समुदाय को समय आने पर विद्रोह का ध्वजवाहक और क्रांति का उद्घोषक बना देती है। लोकमत या जनमत की परिभाषा और हमारे जीवन में इसके महत्व पर अनेक विद्वानों और मनीषियों ने अपने-अपने विचार प्रकट किये हैं। जो इस प्रकार हैंप्रसिद्ध अंग्रेज लेखक जॉन स्टुअर्ट मिल (1806 1873) के अनुसार "जनमत के नाम पर, या कानून द्वारा स्थापित व्यवस्था के आधार पर जनसाधारण से एक विशेष स्तर के व्यवहार और आचरण की अपेक्षा की जाती है। व्यवहार के यह मापदंड या तो स्वयं जनता तय करती है या समाज का सत्ताधारी वर्ग अपने प्रभाव से काम लेता है और उसका फैसला सम्बद्ध वर्गों की पसन्द और नापसन्द पर ही होता है, जिसे जनमत या लोकमत की संज्ञा दी जाती है।"(मैक्यावली (1469-1526) इटली में राजनीति के सिद्धान्तों के प्रसिद्ध व्याख्याता थे। उन्हें यूरोप का चाणक्य भी कहा जाता है। मैक्यावली ने लिखा है "हम समझते हैं कि जब सरकारी नौकरियों या सार्वजनिक पदों पर नियुक्तियों का प्रश्न विचाराधीन हो तो बुद्धिमता इसी में है कि जनमत को पूरी तरह ध्यान में रखा जाए क्योंकि जब जनता जागरूक होती है तो वह कोई गलती नहीं होने देगी और अगर कोई गलती हो भी जाए तो यह बिल्कुल नगण्य सी और क्षम्य भी होगी। जहाँ जनमत का सत्कार होता है, वहां किसी प्रकार की धांधली नहीं हो सकती।"जेम्स ब्राइस (1838-1922) ने राजनीति के आधुनिक सिद्धांतों का जो आलोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है उसमें जनमत के बारे में उन्होंने लिखा है -एक समुदाय के सदस्य जनसाधारण के जीवन से सम्बन्ध रखने वाली समस्याओं पर जो भी विचार रखते हैं, उन सबके सामूहिक रूप को जनमत की संज्ञा दी जा सकती है। इसमें सब कुछ शामिल हैं विश्वास रूढ़ियां, उपलब्धियां आशाएं. आकांक्षाएं और सब प्रकार की कुण्ठाएं ये विचार प्रायः अस्पष्ट असंगत और अत्यन्त परिवर्तनशील होते हैं और इनका रूप प्रतिदिन या प्रति सप्ताह बदलता रहता है।" (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({}); "लोकमत" की व्याख्या मार्क्सवादी अपने ढंग से करते हैं। उनके तर्क के अनुसार वे राजसत्ता यानी स्टेट को शासक वर्ग के हाथ की कठपुतली मानते हैं। उनका यह सिद्धांत है कि किसी भी राजनीतिक सामाजिक ढांचे की बुनियाद वर्ग संघर्ष पर टिकी होती है और राजसत्ता अर्थात हुकूमत तो शासक या शोषक वर्ग की ओर से व्यवस्था चलाने वाली कार्यकारिणी समिति होती है। अतः पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपतियों या उनके प्रभाव में आए हुए लोगों के विचारों को ही "लोकमत" के रूप में मान्यता दी जाती है। इसका एक कारण यह भी है कि पूंजीवाद में शिक्षा के संस्थानों, जनसंचार के माध्यमों (प्रेस, रेडियो, टेलीविजन आदि) और सांस्कृतिक सुविधाओं पर साधन सम्पन्न लोग अपना अधिकार जमा लेते हैं साधनहीन और शोषित वर्ग को आत्म अभिव्यक्ति के साधन उपलब्ध नहीं होते। यही अवस्था उन देशों या उपनिवेशों की जनता की भी है जो साम्राज्यवाद की गुलामी की शिकार है। वहां के लोगों की आवाज को दबा दिया जाता है और उनके नाम पर विदेशी शासक या उनके क्रीतदास जो कुछ कहें उसे लोकमत की संज्ञा दे दी जाती है। हर देश या काल में हर समय आप देखेंगे कि कुछ न कुछ विश्वास, सिद्धान्त व आदर्श प्रचलित रहते हैं। कई प्रकार के द्वेष और पक्षपात या अन्य विकार हमारी चेतना को आन्दोलित करते रहते हैं। इन सब को उस देश और काल के प्रसंग अनुसार जनमत कहा जाता है।जनमत की सृष्टि व्यक्तिगत इकाईयों के आधार पर होती है। किसी व्यक्ति के विचारों का निर्माण उसके जन्मजात गुण-दोषों, सामाजिक परिस्थितियों, निजी योग्यताओं, सफलताओं विफलताओं और आशाओं कुंठाओं के आधार पर होता है। व्यक्ति का बौद्धिक विकास उसके परिवार प्रशिक्षण सामाजिक जीवन, धार्मिक विकास और जीवकोपार्जन के साधनों पर निर्भर है इसलिए यह आवश्यक है कि प्रचार ऐसे ढंग से किया जाए जो विभिन्न रुचियों और स्वभाव रखने वाले व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित कर सके।जनमत निर्माण के लिए प्रचार वही सफल होता है जो प्रत्येक व्यक्ति की अपनी रूचि और पसंद को संतुष्ट करे। यही कारण है कि राजनीतिक पार्टियां चुनाव के समय अपने घोषणा पत्रों में हर तरह के लोगों को हर तरह की चीजें कर दिखाने का वचन देते हैं। (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({}); जनमत की विशेषताएं:सन् 1971 के आरम्भ में भारत सरकार के सामने भूतपूर्व राजाओं के प्रिवीपर्स को समाप्त करने की समस्या आई देश की सभी पार्टियों और उनके घटकों ने इस प्रस्ताव के समर्थन या विरोध में विचार प्रकट किए। प्रचार द्वारा यह सम्भव हो गया कि देश के समस्त नागरिक इस प्रश्न पर अपना अपना मत प्रकट करें प्रिवी पर्स को हटाने का प्रस्ताव इतना महत्वपूर्ण और व्यापक था कि इस पर जनगत का सक्रिय और सचेत होना स्वाभाविक था। अन्त में संसद द्वारा प्रिवी पर्स हटाने का फैसला हो गया क्योंकि इस बात के पक्ष में को इतना सबल और सशक्त बहुमत था कि इस निर्णय को लागू न करना असम्भव था एक उदाहरण के रूप में कहा जा सकता है कि यह निर्णय जनमत की शक्ति का परिणाम था ।जनमत में होने वाले परिवर्तनों ने हमारे देश में 1977 और 1980 में दो बार केवल तीन साल के अन्तर में दो चमत्कार दिखाए। 1977 के आम चुनावों में इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी की जबरदस्त हार का कारण यही था आपातकालीन नीतियों की वजह से जनता में उनके विरोध और असन्तोष की लहर दौड़ी हुई थी। 1966-1977 तक पूरे ग्यारह वर्ष सत्ता की बागडौर जिस नेता के हाथ में रही उसी को जनता ने मताधिकार का प्रयोग करके अपदस्थ कर दिया और सारे उत्तरी भारत में उनकी पार्टी का सफाया हो गया। लेकिन इसके केवल तीन साल बाद 1980 की स्थिति आ गई जब मतदाताओं ने जनता पार्टी को दंडित कर दिया क्योंकि उसके नेताओं ने अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं के लिए मतदाताओं से विश्वासघात किया था इन्दिरा गांधी फिर प्रधानमंत्री बन गई। दूसरे शब्दों में 1977 के 1980 में जनमत ने दो क्रांतियों को 1977 और 1980 में सफल करके दिखाया। 1984 में राजीव गांधी को विशाल और व्यापक जनमत प्राप्त हुआ और उन्हें प्रधानमंत्री निर्वाचित किया गया। यह भी जनमत की शक्ति का ही प्रमाण है। अन्यथा बहुत से दिग्गजों और महारथियों के मैदान में होते हुए भी राजीव गांधी के नाम पर ही सब की सहमति होना किसी चमत्कार से कम नहीं था और यह इसलिए सम्भव हुआ क्योंकि देश की जनता चाहती थी कि इंदिरा गांधी का उत्तराधिकारी वही व्यक्ति बने जो उनकी नीतियों के अनुसार सरकार चलाए और जिस आदर्श के लिए उनका बलिदान हुआ था, वही विजयी हो (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({}); जनमत की कुछ विशेषताएं इस प्रकार हैं1. जनमत समाज के मौलिक घटकों (व्यक्तियों) की प्रतिक्रियाओं का प्रस्तुतिकरण है। वयस्क मताधिकार पर आधारित लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी-अपनी सम्मति का एक समान मूल्य है।2. प्रचार के लिए आवश्यक है कि जनमत लिखित अथवा मौखिक रूप या प्रतीकों द्वारा व्यक्त हो अव्यक्त भावनाएं चाहे कितनी भी गहरी हों, जनमत के मूल्यांकन के लिए नगण्य हैं, क्योंकि उनके अस्तित्व को ही संदिग्ध माना जाता है।3. जिस प्रश्न या समस्या पर जनमत का अध्ययन अपेक्षित है वह इतना स्पष्ट और प्रत्यक्ष होना चाहिए कि संबद्ध वर्ग अथवा जनसमुदाय उसका अस्तित्व तुरन्त स्वीकार कर लें। उदाहरणार्थ, टैक्सों के बोझ को तो सब कोई मानते हैं। लेकिन यह विषय इतना स्पष्ट नहीं इसके विपरीत बिक्री या अल्प विशेष टैक्स हटाया जाना चाहिए या उसमें कटौती या वृद्धि होनी चाहिए, इस पर जो भी प्रतिक्रिया प्रकट होती है, वह जनमत की परिधि में आती है।4. जनमत का रूप तभी स्पष्ट और ढोस होता जब जनसमुदाय किसी प्रस्ताव को "हाँ" या "न" द्वारा स्वीकार करे या ठुकरा दे नशाबन्दी के प्रश्न को लीजिए। वैसे तो सब कोई मानते हैं कि मदिरापान के दुष्परिणाम क्या हो सकते हैं तो भी यही कहना पड़ता है कि इस प्रश्न पर हमारे देश में जनमत पर्याप्त रूप से संगठित नहीं हुआ है क्योंकि नशाबन्दी को लागू करने के लिए अपेक्षित प्रयत्न नहीं किये जा रहे । इसके विपरीत परिस्थिति ऐसी हो गई हैं कि मदिरापान को प्रोत्साहन मिल रहा है। इसलिए यह कहना पड़ेगा कि नशाबन्दी के लिए देश का जनमत तैयार नहीं।5. लोकतंत्र में सबको विचारों की स्वतंत्रता होती है, इसलिए जो विचार किसी के मन में होता है वही जुबान पर या कलम की नोक पर आ जाता है। लेकिन कल्पना कीजिए उन दिनों की जब हमारे देश में विदेशी साम्राज्यवाद का बोलबाला था। हम अपने मन में तत्कालीन सरकार के बारे में जो कुछ सोचते-समझते थे. वह लिख या बोल नहीं सकते थे। ऐसी स्थिति में प्रापेगण्डा की सफलता इसी में थी कि लोगों की सच्ची भावनाओं को समझा जाए और उन्हें किसी न किसी तरह प्रकट किया जाए।6 जनमत के दो रूप होते -प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रत्यक्ष रूप में तो हमारा वह आचरण है, जब हम अनुभव करते कि हमारी कथनी करनी को दूसरे सब देख रहे हैं। इसलिए हम सोच-समझ कर किसी प्रश्न पर अपना मन प्रकट करते हैं। दूसरा अप्रत्यक्ष रूप है जब हम एकदम अपने आप में ही कोई अप्रत्यक्ष रूप में विचार प्रकट करते हैं। यह भी आवश्यक नहीं कि हम किसी को बताएं कि हमने क्या सोचा है। लोक सम्पर्क में हम जनमत के प्रत्यक्ष रूप पर ही प्रभाव डाल सकते हैं लेकिन मानना पड़ेगा कि प्रचार के किसी भी अभियान में अप्रत्यक्ष रूप की उपेक्षा नहीं की जा सकती। लोगों की पसन्द या नापसन्द के अप्रत्यक्ष रूप के महत्व और प्रभाव को दुकानों पर बिक्री का काम करने वाले "सेल्समैन" अच्छी तरह जानते हैं और समझते है। कोई भी माल खरीदने से पहले ग्राहक कुछ सोचता है या रुकता है। तकनीकी भाषा में इसे उपभोक्ता प्रतिरोध या Consumers resistance कहते हैं। काउंटर पर ग्राहकों को माल दिखाते दिखाते सेल्समैन अनुमान लगा लेते हैं ग्राहक की स्थिति कैसी है और वह कितनी कीमत दे सकता है वह यह भी जान लेते हैं कि ग्राहक वास्तव में चाहता क्या और कई बार तो खरीददार को भी ठीक ठीक पता भी नहीं होता कि उसे क्या चाहिए। सेल्समैन उसके सामने कपड़े या दूसरा सामान जो भी उसे चाहिए दिखाना शुरू कर देता है और ग्राहक की प्रतिक्रिया पर ध्यान भी रखता है और उसकी मांग के बारे में पूछताछ भी करता रहता है। जैसे ही ग्राहक को आंखों में पहचान" की थोड़ी भी चमक दिखाई दे तो वह सौदा पक्का कर लेता है। इसे कहते हैं कि लोगों के अचेतमन तक पहुंचना जनमत के इन दोनों रूपों को समझ लेने में एक और लाभ है। साधारणतया अनुभव किया जाता है कि किसी भी महत्वपूर्ण समस्या पर हमारी सब पहली स्वाभाविक प्रतिक्रिया प्रायः भावुकता प्रधान होती है। उसके बाद विवेक पैदा होता है। आदमी हानि-लाभ की बात सोचता है और फिर उसके आचरण में कुछ ठहराव और संयम आ जाता है।प्रचार के काम में इन दोनों पहली और दूसरी प्रतिक्रियाओं को समझना आवश्यक है। कई बार ऐसा भी होता है कि पहली प्रतिक्रिया के बाद जब हम दूसरी बार स्थिति पर विचार करते हैं तो उत्तेजना अधिक हो जाती है। समस्या कैसी भी हो, प्रोपेगेण्डा में इन सब स्थितियों को समझना नितान्त अनिवार्य है। जनमत निर्माण क्या है?

जनमत-संग्रह, (अंग्रेजी:Plebiscite या Referendum) जिसे मत-संग्रह या सिर्फ जनमत भी कहते हैं, एक ऐसा प्रत्यक्ष मतदान है जिसमें किसी क्षेत्र विशेष के सभी मतदाताओं को मतदान के द्वारा किसी एक विशेष प्रस्ताव को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने के लिए कहा जाता है।

लोकमत या जनमत क्या है?

समाज की सामूहिक इच्छा सामाजिक नियंत्रीकरण में हर देश काल में किसी न किसी रूप में सदा एक मान्य शक्ति रही है। जनमत वह संगठित शक्ति है जो समाज के सतत मान्य परंपरागत आदर्शों और अनुभूतियों का प्रतिरूप होती है एवं उस समाज की तात्कालिक भावनाओं का भी प्रतिनिधित्व करती है। जनमत प्रवैगिक और स्थैतिक दो प्रकार का होता है।