Haryana State Board HBSE 10th Class Hindi Solutions Kshitij Chapter 13 मानवीय करुणा की दिव्य चमक Textbook Exercise Questions and Answers. मानवीय करुणा
की दिव्य चमक Class 10 HBSE प्रश्न 1. मानवीय करुणा की दिव्य चमक के प्रश्न उत्तर HBSE 10th Class प्रश्न 2. मानवीय करुणा की दिव्य चमक HBSE 10th Class प्रश्न 3. मानवीय करुणा की दिव्य चमक प्रश्न उत्तर HBSE 10th Class प्रश्न 4. Class 10 Hindi Kshitij Chapter 13
Summary HBSE प्रश्न 5. Kshitij Chapter 13 HBSE 10th Class प्रश्न 6. मानवीय करुणा की दिव्य चमक पाठ के प्रश्न उत्तर HBSE 10th Class प्रश्न
7. (ख) जिस प्रकार उदास शाँत संगीत को सुनकर व्यक्ति तन्हाइयों में डूब जाता है, उसी प्रकार फादर को याद करके, उनके साथ बिताए गए सुखद क्षण और उनके वात्सल्य भाव को याद करके मन में एक शांति का भाव अभिव्यंजित होता था। अतः यह कहना उचित है कि फादर बुल्के को याद करना एक उदास शाँत संगीत को सुनने जैसा है। रचना और अभिव्यक्ति- Class 10 Hindi Chapter Manviya Karuna Ki Divya Chamak Question Answer HBSE प्रश्न 8. Ch 13 Kshitij Class 10 HBSE प्रश्न 9. हमें भी अपनी जन्मभूमि अपने प्राणों से भी अधिक प्यारी है। हमारी जन्मभूमि संसार में सबसे सुंदर है। यह ऋषि-मुनियों की तप-स्थली है। हमारे जीवन में हमारी जन्मभूमि की मिट्टी की महक बसी हुई है। हमारी जन्मभूमि ही हमारी संस्कृति व संस्कारों की पहचान करवाती है। हम अपनी जन्मभूमि का हृदय से सत्कार व आदर करते हैं। हमें उसके सम्मान को कभी किसी प्रकार की आँच नहीं आने देनी चाहिए। भाषा-अध्ययन- प्रश्न 10. भारत में विभिन्न धर्मों, जातियों और संप्रदायों के लोग रहते हैं, किंतु फिर भी यहाँ सांस्कृतिक एकता विद्यमान् है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक हमारा देश एक है। यहाँ अनेक महत्त्वपूर्ण स्थान हैं। हरिद्वार, काशी, कुरुक्षेत्र, मथुरा, गया, जगन्नाथपुरी, द्वारिका आदि यहाँ के प्रसिद्ध तीर्थ हैं। शिमला, मसूरी, नैनीताल, मनाली, दार्जिलिंग आदि सुंदर पर्वतीय स्थान हैं। मुंबई, कोलकाता, चेन्नई आदि यहाँ के प्रमुख औद्योगिक केंद्र हैं। नई दिल्ली हमारे देश की राजधानी है। भारत कृषि प्रधान देश है। भारत में लगभग छह लाख गाँव बसते हैं। इसकी लगभग अस्सी प्रतिशत जनता गाँवों में रहती है। यहाँ गेहूँ, मक्का, बाजरा, ज्वार, चना, धान, गन्ना आदि की फसलें होती
हैं। अन्न की दृष्टि से अब हम आत्म-निर्भर हैं। भारत महापुरुषों की जन्म-स्थली है। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, नानक आदि महापुरुष इसी देश में हुए हैं। महाराणा प्रताप, शिवाजी और गुरु गोबिंद सिंह जी इसी देश की शोभा थे। दयानंद, विवेकानंद, रामतीर्थ, तिलक, गांधी, सुभाष, चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह आदि इसी धरती का श्रृंगार थे। वाल्मीकि, व्यास, कालिदास, तुलसीदास, सूरदास, कबीर आदि की वाणी यहीं गूंजती रही। भारत ने ही वेदों के ज्ञान से संसार को मानवता का रास्ता दिखाया। आज भारत में प्रजातंत्र है। यह एक धर्म-निरपेक्ष देश है। भारत संसार का सबसे बड़ा प्रजातंत्र गणराज्य है। हमारा अपना संविधान है। संविधान में प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार दिए गए हैं। भारतवासी सदा से शांतिप्रिय रहे हैं, किंतु यदि कोई हमें डराने या धमकाने का प्रयत्न करे तो यहाँ के रणबांकुरे उसके दाँत खट्टे कर डालते हैं। तिरंगा हमारे देश का राष्ट्रीय ध्वज है। यहाँ प्रकृति की विशेष छटा देखने को मिलती है। यहाँ हर दो मास बाद ऋतु बदलती रहती है। कविवर जयशंकर प्रसाद ने ठीक ही लिखा है-“अरुण यह मधुमय देश हमारा।” प्रश्न 11. आशा है कि आप सब वहाँ कुशलतापूर्वक होंगे। कुछ दिन पूर्व आपका पत्र प्राप्त हुआ था। उससे ज्ञात हुआ कि आपका विद्यालय गर्मी की छुट्टियों के लिए बंद हो चुका है। यहाँ हमारी परीक्षाएँ भी समाप्त हो चुकी हैं। मेरा परीक्षा परिणाम अभी कुछ दिन बाद घोषित किया जाएगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि मैं अच्छे अंक लेकर पास हो जाऊँगा। इस बार गर्मी की छुट्टियों में हम पिताजी के साथ शिमला व कुल्लू, मनाली जा रहे हैं। पंद्रह दिन तक हम शिमला में मामाजी के पास ठहरेंगे और फिर कुछ दिनों के लिए कुल्लू, मनाली भी जाएँगे। शिमला व कुल्लू, मनाली यहाँ के दर्शनीय स्थल हैं। प्रिय मित्र, यदि आप भी हमारे साथ चलें तो और भी आनंद आएगा। आप किसी प्रकार का संकोच न करें। अपने माता-पिता से आज्ञा लेकर भारत आ जाओ। मेरे पिताजी आपसे मिलकर बहुत खुश होंगे। आप अपना यहाँ आने का कार्यक्रम बनाकर हमें सूचित कर देना। हम 15 मई को शिमला जाएँगे। शिमला व कुल्लू, मनाली से लौटकर कुछ दिनों के लिए जम्मू-कश्मीर जाने का विचार भी है। जम्मू-कश्मीर तो प्राकृतिक दृश्यों की खान है। वहाँ अनेक दर्शनीय स्थान हैं। वैष्णो देवी का मंदिर तो वहाँ मुख्य आकर्षण का केंद्र है। मैंने भी अभी तक यह मंदिर नहीं देखा है। आशा है कि इस बार अवश्य इसे देलूँगा। आप अपना यहाँ आने का कार्यक्रम बनाकरं हमें अवश्य सूचित कर देना। अपने
माता-पिता को मेरा सादर नमस्कार कहना। प्रश्न 12. पाठेतर सक्रियता फादर बुल्के का अंग्रेजी-हिंदी कोश’ उनकी एक महत्त्वपूर्ण देन है। इस कोश को देखिए-समझिए। फादर बुल्के की तरह ऐसी अनेक विभूतियाँ हुई हैं जिनकी जन्मभूमि अन्यत्र थी लेकिन कर्मभूमि के रूप में उन्होंने भारत को चुना। ऐसे अन्य व्यक्तियों के बारे में जानकारी एकत्र कीजिए। कुछ ऐसे व्यक्ति भी हुए हैं जिनकी जन्मभूमि भारत है लेकिन उन्होंने अपनी कर्मभूमि किसी और देश को बनाया है, उनके बारे में भी पता लगाइए। एक अन्य पहलू यह भी है कि पश्चिम की चकाचौंध से आकर्षित होकर अनेक भारतीय विदेशों की ओर उन्मुख हो रहे हैं इस पर अपने विचार लिखिए। इसलिए अनेक भारतीय पाश्चात्य चकाचौंध की ओर आकृष्ट हैं। इसके दो पहलू हैं एक तो यह कि ऐसा करने से भारत में विदेशों से अधिक पैसा लाया जा सकेगा। दूसरा पक्ष है कि अपनों से दूर रहने का दुःख सदा बना रहता है। पश्चिमी चकाचौंध से आकृष्ट व्यक्ति दोहरी जिंदगी जीते हैं। वे वहाँ रहते हुए पाश्चात्य जीवन के अनुसार अपने-आपको ढालने का प्रयास करते हैं, किंतु भारतीय जीवन पद्धति को भी पूर्ण रूप से वे त्याग नहीं सकते। आज आवश्यकता है कि हम अपने देश में अपनी प्रतिभा के बल पर नए-नए कार्य करें, देश के विकास में योगदान दें। हम यहाँ रहकर भी धन कमा सकते हैं। विदेशों में जाकर दूसरों की सेवा करना एवं अपनों को भुला देना कोई अच्छी बात नहीं है। यह भी जानें परिमल-निराला के प्रसिद्ध काव्य संकलन से प्रेरणा लेते हुए 10 दिसंबर, 1944 को प्रयाग विश्वविद्यालय के साहित्यिक अभिरुचि रखने वाले कुछ उत्साही युवक मित्रों द्वारा परिमल समूह की स्थापना की गई। ‘परिमल’ द्वारा अखिल भारतीय स्तर की गोष्ठियाँ आयोजित की जाती थीं जिनमें कहानी, कविता, उपन्यास, नाटक आदि पर खुली आलोचना और उन्मुक्त बहस की जाती। परिमल का कार्यक्षेत्र इलाहाबाद था, जौनपुर, मुंबई, मथुरा, पटना, कटनी में भी इसकी शाखाएँ रहीं। परिमल ने इलाहाबाद में साहित्य-चिंतन के प्रति नए दृष्टिकोण का न केवल निर्माण किया बल्कि शहर के वातावरण को एक साहित्यिक संस्कार देने का प्रयास भी किया। फादर कामिल बुल्के (1909-1982) HBSE 10th Class Hindi मानवीय करुणा की दिव्य चमक Important Questions and Answersविषय-वस्तु संबंधी प्रश्नोत्तर प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. उन्होंने भारत आकर बी.ए., एम.ए., पी.एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त की। उन्होंने संस्कृत भाषा का भी गहन अध्ययन किया। वे रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में हिंदी-संस्कृत के विभागाध्यक्ष थे। उन्होंने अंग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश भी तैयार किया। उन्होंने बाइबिल का हिंदी अनुवाद भी लिखा। विचार/संदेश संबंधी प्रश्नोत्तर प्रश्न 6. प्रश्न 7. अति लघुत्तरात्मक प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. मानवीय करुणा की दिव्य चमक गद्यांशों के आधार पर अर्थग्रहण संबंधी प्रश्नोत्तर (1) फादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने जैसा है। उनको देखना करुणा के निर्मल जल में स्नान करने जैसा था और उनसे बात करना कर्म के संकल्प से भरना था। मुझे ‘परिमल’ के वे दिन याद आते हैं जब हम सब एक पारिवारिक रिश्ते में बँधे जैसे थे जिसके बड़े फादर बुल्के थे। हमारे हँसी-मज़ाक में वह निर्लिप्त शामिल रहते, हमारी गोष्ठियों में वह गंभीर बहस करते, हमारी रचनाओं पर बेबाक राय और सुझाव देते और हमारे घरों के किसी भी उत्सव और संस्कार में वह बड़े भाई और पुरोहित जैसे खड़े हो हमें अपने आशीषों से भर देते। मुझे अपना बच्चा और फादर का उसके मुख में पहली बार अन्न डालना याद आता है और नीली आँखों की चमक में तैरता वात्सल्य भी-जैसे किसी ऊँचाई पर देवदारु की छाया में खड़े हों। [पृष्ठ 85] प्रश्न- (ख) जिस प्रकार उदासी के समय व्यक्ति शांत संगीत को सुनकर कल्पना लोक में विचरने लगता है; उसी प्रकार फादर से मिलकर व्यक्ति शांति और सुकून अनुभव करने लगता है। वस्तुतः फादर सदा ही वात्सल्य भाव से भरे रहते थे। वे जब भी मिलते थे स्नेह से पूर्ण रहते थे। ऐसे फादर को याद करते ही उदास शाँत संगीत सुनने जैसा अनुभव होता था। (ग) लेखक जब भी फादर से मिलते थे तो उनके व्यवहार से उन्हें लगता था कि मानो वे करुणा के निर्मल से जल से स्नान कर रहे हैं तथा उनसे बात करने पर अपने कर्म के प्रति संकल्प से भर जाते थे। (घ) लेखक के साथ फादर के पारिवारिक संबंध थे। उनके संबंधों में घनिष्ठता थी। वे परिवार में मनाए जाने वाले हर उत्सव में लेखक के साथ रहते थे। ऐसे अवसर पर लेखक उनको बड़े भाई के समान अनुभव करते थे। फादर बड़े भाई व पुरोहित की भाँति अनेक आशीष दिया करते थे। लेखक के पुत्र के मुख में फादर ने ही पहली बार अन्न डाला था। (ङ) लेखक फादर को देवदारु की छाया-सा कहता है। कारण यह है कि फादर ने सभी को स्नेह एवं आशीर्वाद दिया है। उन्होंने सबके सुख-दुःख में साथ दिया। फादर का जीवन दया, करुणा, स्नेह व ममता से सदा भरा रहता था। इसी कारण लेखक की दृष्टि में फादर का जीवन देवदारु की छाया के समान था। (च) परिमल एक साहित्यिक संस्था थी। इस संस्था में समय-समय पर साहित्यिक विचार गोष्ठियों का आयोजन किया जाता था। यहाँ तत्कालीन साहित्य की विभिन्न विधाओं पर चर्चा की जाती थी। इन गोष्ठियों में नए-पुराने सभी साहित्यकार अपने-अपने विचार व्यक्त करते थे। (छ) लेखक के घर के उत्सवों में फादर बुल्के सबके साथ मिल-जुलकर प्रसन्नतापूर्वक भाग लेते थे। वे बड़े भाई अथवा एक पारिवारिक पुरोहित के समान सबको आशीर्वाद देते थे। उनके इस व्यवहार से घर के सभी लोग प्रसन्न हो उठते थे। (ज) प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज’ भाग 2 में संकलित ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ नामक पाठ से उद्धृत है। इस पाठ के लेखक श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हैं। इस पाठ में उन्होंने फादर कामिल बुल्के के जीवन से जुड़ी यादों का अत्यंत भावपूर्ण शैली में उल्लेख किया है। इन पंक्तियों में लेखक ने फादर के अत्यंत स्नेहपूर्ण, वात्सल्यमय एवं अपनेपन के व्यवहार का उल्लेख किया है। आशय/व्याख्या-लेखक ने फादर कामिल बुल्के को स्मरण करते हुए कहा है कि फादर को याद करना एक उदास शांत संगीत को सुनने के समान है। जिस प्रकार व्यक्ति शांत संगीत को सुनकर कल्पनालोक में विचरने लगता है, उसी प्रकार फादर से मिलने पर व्यक्ति को शांति और सुकून मिलता था। फादर सदा ही वात्सल्य एवं करुणा भाव से परिपूर्ण रहते थे। उन्हें देखना करुणा के जल में स्नान करने के समान था। उनसे बातें करने से व्यक्ति को कर्म करने की प्रेरणा मिलती थी। वे सदा ही एक कर्मठ व्यक्ति की भाँति कर्म में लीन रहते थे। लेखक ‘परिमल’ के दिनों को याद करता हुआ बताता है कि जब वे सब एक पारिवारिक संबंध में बंधे हुए जैसे थे। उन सब में फादर सबसे बड़े थे। वे उम्र में बड़े होते हुए भी हमारी हँसी-मजाक में भी पूर्ण भाग लेते थे। हमारी संगोष्ठियों में वे बहुत गंभीरतापूर्वक बहस करते थे अर्थात् वाद-विवाद करते थे। वे लेखक व उनके अन्य साथियों द्वारा लिखी गई रचनाओं के विषय में बिना किसी पक्षपात के अपनी सलाह देते थे। इतना ही नहीं, लेखक व उनके साथियों के पारिवारिक उत्सवों व संस्कारों में भी बड़े भाई की भाँति और पुरोहित की भाँति ही अपने शुभ आशीर्वाद से उनके जीवन को भर देते थे। कहने का तात्पर्य है कि पारिवारिक उत्सवों में पुरोहित की भूमिका निभाते हुए आशीर्वाद देते थे। लेखक अपने बच्चे को याद करता हुआ कहता है कि फादर कामिल बुल्के ने ही उनके बच्चे के मुख में प्रथम बार अन्न डाला था। उस समय उनकी नीली-नीली आँखों में बच्चों के प्रति अथाह वात्सल्य भाव दिखलाई पड़ा था। लेखक ने फादर के स्नेह को देवदारू वृक्ष की छाया की भाँति बताया है अर्थात् फादर के साथ रहने से सदा ही उनका स्नेह और आशीर्वाद मिलता रहता था। (2) फादर बुल्के संकल्प से संन्यासी थे। कभी-कभी लगता है वह मन से संन्यासी नहीं थे। रिश्ता
बनाते थे तो तोड़ते नहीं थे। दसियों साल बाद मिलने के बाद भी उसकी गंध महसूस होती थी। वह जब भी दिल्ली आते ज़रूर मिलते-खोजकर, समय निकालकर, गर्मी, सर्दी, बरसात झेलकर मिलते, चाहे दो मिनट के लिए ही सही। यह कौन संन्यासी करता है? उनकी चिंता हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखने की थी। हर मंच से इसकी तकलीफ बयान करते, इसके लिए अकाट्य तर्क देते। बस इसी एक सवाल पर उन्हें झुंझलाते देखा है और हिंदी वालों द्वारा ही हिंदी की उपेक्षा पर दुख करते उन्हें पाया है। घर-परिवार के बारे में, निजी दुख-तकलीफ के बारे में
पूछना उनका स्वभाव था और बड़े-से-बड़े दुख में उनके मुख से सांत्वना के जादू भरे दो शब्द सुनना एक ऐसी रोशनी से भर देता था जो किसी गहरी तपस्या से जनमती है। ‘हर मौत दिखाती है जीवन को नयी राह।’ मुझे अपनी पत्नी और पुत्र की मृत्यु याद आ रही है और फादर के शब्दों से झरती विरल शांति भी। प्रश्न- (ख) फादर बुल्के ने दृढ़ निश्चयपूर्वक संन्यास लिया था। उन्होंने किसी के कहने अथवा दबाव में आकर संन्यास नहीं लिया था। किसी लालच में आकर अथवा कर्म-क्षेत्र से पलायन करने के लिए भी उन्होंने संन्यास नहीं लिया था। उन्होंने स्वेच्छा से संन्यास लिया था। इसीलिए लेखक ने उन्हें संकल्प से संन्यासी कहा है। (ग) एक संन्यासी होते हुए भी फादर बुल्के रिश्तों की गरिमा अथवा महत्त्व को बहुत अच्छी तरह से समझते थे। वे रिश्तों को निभाना भी भली-भाँति जानते थे। जिसके साथ भी उनका कोई संबंध बन जाता था, उसे वे अंत तक निभाते थे। वे रिश्तों को जोड़कर कभी तोड़ते नहीं थे। अतः स्पष्ट है कि फादर बुल्के रिश्तों के संबंध में गंभीर विचारधारा रखते थे। (घ) निश्चय ही फादर एक महान् मसीहा थे। वे लोगों के दुःख-दर्द को महसूस ही नहीं करते थे, अपितु उनमें सम्मिलित भी होते थे। उनकी करुणामयी बातों को सुनकर हृदय को शांति मिलती थी क्योंकि वे बड़े-से-बड़े दुःख को भी कम करने की समर्थता रखते थे। अतः कह सकते हैं कि फादर बुल्के किसी मसीहा से कम नहीं थे। (ङ) फादर बुल्के विदेशी थे। उनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी। किंतु हिंदी के प्रति उनके हृदय में अत्यधिक प्रेम था। वे हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित देखना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अनेक अकाट्य तर्क भी दिए। वे हिंदी भाषियों के द्वारा ही हिंदी की उपेक्षा देखकर आक्रोश व्यक्त करते थे। उन्होंने हिंदी का केवल अक्षर-ज्ञान ही प्राप्त नहीं किया, अपितु शोधकार्य भी किया। (च) लेखक कहता है कि यदि फादर बुल्के से कई वर्ष बाद मुलाकात होती थी, तो भी वे इतने प्रेम से मिलते थे कि उनके साथ उसके जो रिश्ते थे, उसकी गहराई की सुगंध उस मिलन में महसूस होती थी। उनका यह अपनापन रिश्तों को और भी अधिक मज़बूत आधार प्रदान करता था। (छ) इस गद्यांश को पढ़ने से पता चलता है कि फादर बुल्के का व्यक्तित्व संन्यासी जैसा था। किंतु वे बहुत ही आत्मीय, स्नेही और अपनेपन के भाव से भरे रहते थे। इस गद्यांश को पढ़कर हम यह भी जान जाते हैं कि फादर राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रबल समर्थक थे और हिंदी के विकास के लिए हर संभव कार्य करने के लिए तत्पर रहते थे। वे करुणावान व्यक्ति थे। उनके हृदय में दूसरों के लिए दया, स्नेह आदि भाव विद्यमान रहते थे। (ज) प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज’ भाग 2 में संकलित ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ नामक पाठ से लिया गया है। इस पाठ के लेखक श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हैं। इस पाठ में उन्होंने फादर कामिल बुल्के के जीवन के महान गुणों का उल्लेख किया है। इन पंक्तियों में बताया गया है कि फादर बुल्के का जीवन संन्यासी का जीवन था। वे स्वेच्छाचारी संन्यासी थे। आशय/व्याख्या-लेखक का कथन है कि फादर कामिल बुल्के ने दृढ़ निश्चयपूर्वक संन्यास लिया था। उन्होंने किसी मज़बूरी या दबाव में आकर संन्यास ग्रहण नहीं किया था। लेखक को तो प्रतीत होता है कि फादर बुल्के संकल्प से संन्यासी थे, मन से संन्यासी नहीं थे। वे रिश्तों को बनाते थे तो उन्हें कभी तोड़ते नहीं थे। यदि कोई उन्हें दस वर्ष के बाद भी मिलता था तो उन्हें उनकी पहले जैसी भावना का अनुभव होता था। वे जब भी दिल्ली आते लेखक से अवश्य मिलते। भले ही उन्हें लेखक को खोजना ही क्यों न पड़ता था। वे गर्मी, सर्दी व बरसात के कष्टों को झेलकर भी मिलते थे। ऐसा भला कौन संन्यासी करता है। उनकी सबसे बड़ी चिंता थी हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूप देखने की। वे चाहते थे कि हिंदी को राष्ट्र भाषा का पद अवश्य मिले। वे हर मंच पर इस पीड़ा का उल्लेख करते थे और हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने के लिए अकाट्य तर्क भी प्रस्तुत करते थे। लेखक ने उन्हें एक इसी बात पर दुःखी होते देखा है कि हिंदी वाले ही हिंदी की उपेक्षा करते हैं। वे जब भी अपने मित्रों से मिलते थे, सदा उनके घर-परिवार की कुशलता के विषय में अवश्य पूछते थे। बड़े-से-बड़े दुख में उनके सांत्वना व सहानुभूति के दो शब्द जीवन में जादू की तरह प्रभाव डालते थे। उनके सहानुभूतिमय शब्द सुनने वाले के जीवन में ऐसी गहन रोशनी भर देते थे कि जो गहरी तपस्या से उत्पन्न होती है। वे कहते थे कि हर मौत जीवन को नया मार्ग दिखाती है। लेखक को जब अपनी पत्नी और पुत्र की मृत्यु याद आई, उस समय फादर बुल्के के शब्दों से लेखक को एक अनोखी शांति अनुभव हुई थी। (3) मैं नहीं जानता इस संन्यासी ने कभी सोचा था या नहीं कि उसकी मृत्यु पर कोई रोएगा। लेकिन उस क्षण रोने वालों की कमी नहीं थी। (नम आँखों को गिनना स्याही फैलाना है।) प्रश्न (ख) फादर बुल्के एक संन्यासी थे। संन्यासी सबका मोह त्याग देता है और सांसारिक जीवन से उसका मोह नहीं रह जाता। किंतु वे ऐसे संन्यासी नहीं थे। वे सबके साथ मिलकर रहते थे। सबके सुख-दुःख में बराबर सम्मिलित होते थे। सबके प्रति उनके मन में सहानुभूति, दया व करुणा की भावना थी। इसलिए फादर बुल्के की मृत्यु पर बहुत सारे लोगों को दुःख हुआ था। उन्होंने उसके न रहने पर आँसू बहाए थे। (ग) लेखक ने फादर बुल्के के जीवन में दया, सहानुभूति, करुणा आदि मानवीय गुणों की अधिकता को देखकर उन्हें ऐसे विशाल वृक्ष की संज्ञा दी है जिसकी छाया में अनेक लोग बैठते हैं और जिसके फल-फूल दूसरों के लिए होते हैं। किंतु वह स्वयं कुछ भी ग्रहण नहीं करता। (घ) लेखक के लिए फादर बुल्के की स्मृति अत्यंत पवित्र भावनाओं से युक्त थी जैसी किसी यज्ञ की पवित्र अग्नि की तपन सदा अनुभव की जा सकती है, ठीक उसी प्रकार फादर की पवित्र स्मृति लेखक के मन में आजीवन बनी रहेगी। उनके जीवन की महानता ने ही लेखक के मन में यह भावना उत्पन्न की थी। (ङ) लेखक ने प्रस्तुत पाठ के माध्यम से उनके जीवन की कुछ घटनाओं का वर्णन करते हुए उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की है। (च) लेखक की दृष्टि में फादर कामिल बुल्के मानवीय करुणा की दिव्य चमक के समान थे। वे उनके लिए बड़े भाई के समान स्नेहशील, मार्गदर्शक, आशीर्वाद देने वाले और शुभचिंतक थे। लेखक के लिए वे महान हिंदी प्रेमी, संन्यासी होते हुए भी संबंधों की गरिमा बनाए रखने वाले और संबंधों का भली-भाँति निर्वाह करने वाले थे। (छ) लेखक फादर कामिल बुल्के के पवित्र जीवन और महान् मानवीय गुणों के प्रति श्रद्धानत है। (ज) प्रसंग-प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज’ भाग 2 में संकलित ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ नामक पाठ से लिया गया है। इस पाठ के लेखक श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हैं। इस पाठ में लेखक ने फादर बुल्के के जीवन से जुड़ी स्मृतियों का भावपूर्ण भाषा में उल्लेख किया है। इन पंक्तियों में लेखक ने फादर बुल्के की मृत्यु की घटना से जुड़ी यादों का उल्लेख किया है। आशय/व्याख्या-लेखक का कथन है कि वह नहीं जानता कि इस संन्यासी ने कभी सोचा था या नहीं कि उसकी मृत्यु पर कोई रोएगा या नहीं, किंतु उसकी मृत्यु पर रोने वालों की कमी नहीं थी। उनके नाम गिनना व्यर्थ होगा। इस प्रकार फादर बुल्के हमारे बीच से चले गए अर्थात् उनकी मृत्यु हो गई। वे हमसे अधिक छायादार अर्थात् दूसरों को सहारा देने वाले और सद्गुणों रूपी फल-फूल सद्भावना रूपी गंध से भरे हुए थे। वह सबसे अलग होते हुए भी सबके थे। सबसे महान थे। उनके जीवन में मानवीय करुणा की चमक लहलहाती थी। जो भी उनके समीप थे, उनके जीवन में उसकी यादें यज्ञ की अग्नि की पवित्र आँच की भाँति जीवन भर बनी रहेंगी। लेखक उस पवित्र ज्योति की स्मृति में श्रद्धानत बना रहा। कहने का भाव है कि फादर कामिल बुल्के की मृत्यु पर अनेक लोगों को दुख हुआ और उनकी यादें लोगों के जीवन में सदा बनी रहेंगी। यही उनकी महानता की पहचान है। मानवीय करुणा की दिव्य चमक Summary in Hindiमानवीय करुणा की दिव्य चमक लेखक-परिचय प्रश्न- 2. प्रमुख रचनाएँ-सर्वेश्वर दयाल सक्सेना बहुमुखी प्रतिभा वाले साहित्यकार थे। उन्होंने कविता के अतिरिक्त अन्य हिंदी विधाओं पर भी सफलतापूर्वक कलम चलाई है। उनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं- (क) कविता-संग्रह ‘काठ की घंटियाँ’, ‘खूटियों पर टँगे लोग’, ‘जंगल का दर्द’,
‘कुआनो नदी’ । 3. साहित्यिक विशेषताएँ-सर्वेश्वर दयाल की पहचान मध्यवर्गीय आकांक्षाओं के लेखक के रूप में की जाती है। उन्होंने मध्यवर्ग के जीवन के विविध पक्षों का मार्मिकता से चित्रण किया है। मध्यवर्गीय जीवन की महत्त्वाकांक्षाओं, सपनों, संघर्ष, हताशा 4. भाषा-शैली-सर्वेश्वर दयाल के गद्य साहित्य की भाषा-शैली अत्यंत सरल, सहज, व्यावहारिक, भावपूर्ण तथा प्रवाहमयी है। ‘मानवीय करुणा की दिव्य चमक’ इनका फादर कामिल बुल्के से संबंधित संस्मरण है। इसमें लेखक ने उनके जीवन से संबंधित कुछ अंतरंग प्रसंगों को उजागर किया है। सक्सेना जी ने अपनी रचना में वात्सल्य, आकृति, साक्षी, वृत्त, यातना आदि तत्सम शब्दों के साथ-साथ महसूस, ज़हर, कब्र आदि उर्दू के शब्दों का भी सफल प्रयोग किया है। प्रस्तुत संस्मरण में तो उन्होंने विवरणात्मक शैली के साथ-साथ भावात्मक शैली का भी सफल प्रयोग किया है। इस पाठ में उन्होंने फादर कामिल बुल्के के जीवन से संबंधित अपनी यादों को अत्यंत सजीवता से प्रस्तुत किया है। मानवीय करुणा की दिव्य चमक पाठ का सार प्रश्न- फादर कामिल बुल्के के हृदय में सदा दूसरों के प्रति प्रेम रहा है। ईश्वर में उनकी अगाध श्रद्धा व आस्था थी। बीमारी के कारण उनकी मृत्यु से लेखक को गहरा शोक हुआ। लेखक का बुल्के साहब के साथ पैंतीस वर्षों का साथ रहा है। वे उनसे इतने प्रभावित थे कि उनकी याद आते ही निराश हो जाते थे। उनकी बातों में पवित्रता के दर्शन होते थे। वे अपने समीप के लोगों के जीवन के हर अच्छे-बुरे अवसर पर समान भाव से सम्मिलित होते थे। उनकी आँखों में एक बड़े भाई का स्नेह नज़र आता था। निश्चय ही फादर कामिल बुल्के अध्ययनशील व्यक्ति थे। जब वे इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में थे तो उन्होंने संन्यासी बनने की ठान ली थी। उनका एक भरा – पूरा परिवार था जिसमें माता-पिता, दो भाई व एक बहन थी। भारत आने पर भी परिवार के साथ उनका पत्र-व्यवहार चलता रहता था। अपने अभिन्न मित्र रघुवंश को वे उन सब चिट्ठियों को दिखाते थे। उनके पिता एक व्यवसायी थे। एक भाई पादरी बन गया था और दूसरा पिता के व्यवसाय में लग गया था। बहन जिद्दी स्वभाव वाली थी। माता के प्रति उनका प्रगाढ़ स्नेह था। भारत आने पर फादर बुल्के ने ‘जिसेट संघ’ में दो साल पादरियों के बीच धर्माचार की शिक्षा ग्रहण की। 9 से 10 वर्ष तक दार्जिलिंग में पढ़ाई की। उन्होंने कलकत्ता से बी०ए० की परीक्षा पास की तथा इलाहाबाद से एम.ए. ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’ पर उन्होंने सन् 1950 में इलाहाबाद से ही शोध प्रबंध पूरा किया। ‘परिमल’ में उनके अध्याय पढ़े गए। फादर बुल्के ने मातरलिंक के प्रसिद्ध नाटक ‘ब्लू बर्ड’ का ‘नीलपंछी’ के नाम से अनुवाद भी किया। बाद में वे सेंट जेवियर्स कॉलेज, राँची में हिंदी तथा संस्कृत के विभागाध्यक्ष हो गए थे। वहीं रहते हुए उन्होंने अंग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश की रचना की। उन्होंने ‘बाइबल’ का भी हिंदी रूपांतर किया। वे 47 वर्ष तक इस देश में रहे और 73 वर्ष की आयु तक जीवित रहे। फादर बुल्के संकल्प से संन्यासी थे। जिसके साथ वे रिश्ता बनाते थे, उसे अंत तक भली-भाँति निभाते थे। उन्होंने हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलवाने में अपना अनथक प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने अपने अकाट्य तर्क भी दिए। हिंदी वालों द्वारा हिंदी की उपेक्षा ही उन्हें बहुत अधिक दुःख पहुँचाती रही है। दूसरों के घर-परिवार की कुशलता पूछना तो मानो उनका स्वभाव था। लेखक की पत्नी व पुत्र की मृत्यु के समय पर जो उन्होंने शब्द कहे थे, उनसे प्राप्त शांति सदा याद रही। फादर बुल्के दिल्ली में रहते हुए बीमार पड़े और 18 अगस्त, 1982 की सुबह उन्होंने दम तोड़ दिया। उनके शव को कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में ले जाया गया। उनके साथ कुछ पादरी व रघुवंश जी का बेटा और उनके परिजन राजेश्वर सिंह, जैनेंद्र कुमार, विजयेंद्र स्नातक, अजित कुमार, डॉ० निर्मला जैन और मसीही समुदाय के लोग, पादरीगण, डॉ० सत्यप्रकाश आदि सभी कब्र के समीप खड़े थे। फादर की देह कब्र में लिटाई गई। मसीही विधि से अंतिम संस्कार किया गया। तत्पश्चात् जेवियर्स के रेक्टर फादर पास्कल ने उनके जीवन और कर्म पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए बताया, “फादर बुल्के धरती में जा रहे हैं। इस धरती से ऐसे रत्न और पैदा हों।” वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने फादर को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की और फादर के शव को कब्र में उतार दिया गया। उस समय सबकी आँखें नम थीं। इस प्रकार सबके बीच से फादर हमेशा के लिए चले गए थे। फादर छायादार, फलदार, सुगंध से भरा, सबसे अलग, सबका होकर, सबसे ऊँचाई पर मानवीय करुणा की दिव्य चमक में लहराता खड़ा है। उसकी यादें लेखक के मन में सदा बनी रहेंगी। कठिन शब्दों के अर्थ (पृष्ठ-85) मानवीय करुणा = मनुष्य के मन में उत्पन्न होने वाली दया। दिव्य = महान्। ज़हरबाद = जहरीला फोड़ा। विधान = रचना की नीति। आस्था = विश्वास। अस्तित्व = जीवन। यातना = दुःख, पीड़ा। उम्र = आयु। परीक्षा = इम्तिहान। आकृति = आकार। संकल्प = दृढ़ निश्चय। आतुर = अधीर, व्याकुल। ममता = अपनेपन की भावना। साक्षी = गवाह। बेबाक राय = खुलकर राय देना। संस्कार = विवाह आदि। अशीष = आशीर्वाद। वात्सल्य = छोटों के प्रति स्नेह । गोष्ठी = किसी विषय पर विचार करने के लिए बुलाई गई सभा। देवदारु = पहाड़ों पर उगने वाले पेड़ का नाम। आवेश = उत्साह, जोश। लबालब = पूर्ण रूप से भरा हुआ। (पृष्ठ-86) जन्मभूमि = जहाँ जन्म हुआ हो। स्मृति = याद। अभिन्न मित्र = गहरा दोस्त। व्यवसायी = व्यापारी। व्यक्त = प्रकट। घोषित करना = सबके सामने कहना। हाथ से जाना = वश में न रहना। धर्माचार = धर्म का पालन करना। (पृष्ठ-87) शोध प्रबंध = खोज करने के पश्चात् लिखी गई पुस्तक। परिमल = एक साहित्यिक संस्था जिसमें विभिन्न साहित्यकार साहित्य पर चर्चा करते थे। रूपांतर = बदला हुआ रूप। कोश = शब्दों का खजाना, शब्दकोश। राष्ट्रभाषा = जो भाषा पूरे राष्ट्र के द्वारा बोली जाए। बयान करना = वर्णन करना, कहना। अकाट्य = जो बात काटी न जा सके। तर्क = विचार। उपेक्षा = तिरस्कार करना। निजी = व्यक्ति का अपना। सांत्वना = तसल्ली। तपस्या = साधना। राह = मार्ग। झरती = बहती हुई। विरल = कम मिलने वाली। जादू भरे = प्रभावशाली। ताबूत = शव डालने का संदूक। जिस्म = शरीर। थिर = ठहरी हुई, स्थिर। शांति बरसना = शांति प्रकट होना। परिजन = रिश्तेदार। सँकरी = तंग। घनी = गहरी। छोर = किनारा। कब्रगाह = जहाँ मुर्दो को दफनाया जाता है। अवाक् = मौन। ठंडी उदासी = उत्साहहीन कर देने वाली निराशा। (पृष्ठ-88) आहट = हल्की आवाज़। मसीही विधि = ईसाई धर्म के अनुकूल। अंतिम संस्कार = मृत्यु के पश्चात् निभाई जाने वाली रस्में। अनुकरणीय = जो अनुकरण करने योग्य हो। नमन = नमस्कार। स्याही फैलाना = लिखने का व्यर्थ प्रयास करना। आजीवन = जीवन भर। श्रद्धानत = प्रेम और आदर से झुकना। लेखक ने फादर को छायादार फल फूल गंध से भरा क्यों कहा है *?फादर कामिल बुल्के को छायादार फल-फूल गंध से भरा इसलिए कहा गया है क्योंकि वह सब के प्रति दया ममता और करुणा का भाव रखते थे। Explanation: फादर कामिल बुल्के को छायादार फल-फूल गंध से भरा इसलिए कहा गया है क्योंकि वह सब के प्रति दया ममता और करुणा का भाव रखते थे।
लेखक ने फादर को पवित्र ज्योति क्यों कहा है?इसलिए कहा है क्योंकि लेखक फादर बुल्के अग्नि रूपी पवित्र ज्योति की याद में श्रद्धामत है, उनका सारा जीवन देश व देशवासियों के प्रति समर्पित था। जिस प्रकार यज्ञ की अग्नि पवित्र होती है तथा उसके ताप में उष्णता होती है उसी प्रकार फादर बुल्के को याद करना शरीर और मन में ऊष्मा, उत्साह तथा पवित्र भाव भर देता है।
लेखक ने फादर बुल्के को मानवीय करुणा की चमक क्यों कहा है?प्रश्न 5: लेखक ने फादर बुल्के को 'मानवीय करुणा की दिव्य चमक' क्यों कहा है? उत्तर: फादर बुल्के के मन में अपने प्रियजनों के लिए असीम ममता और अपनत्व था। इसलिए लेखक ने फादर बुल्के को 'मानवीय करुणा की दिव्य चमक' कहा है।
फादर बुल्के की अंतिम यात्रा में कौन कौन से साहित्यकार और विद्वान सम्मिलित थे?भारत सरकार ने 1974 में उन्हें पद्मभूषण दिया. दिल्ली में 17 अगस्त 1982 को गैंग्रीन की वजह से उनकी मौत हुई.
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