लेखक परित्यक्त चीनी किले में जब ठहरा तो उन्होंने क्या पिया? - lekhak parityakt cheenee kile mein jab thahara to unhonne kya piya?

श्रुति, स्मृति, इतिहास और पुराण आदि सिद्ध अयाचक और याचक द्विविध ब्राह्मण प्रदर्शनपूर्वक, उनके धर्म, आचार-व्यवहार एवं पदवियों आदि की विवेचना, अयाचक ब्राह्मणों के साथ याचक ब्राह्मणों के विवाह सम्बन्ध आदि का प्रदर्शन, आधुनिक इतिहास, व्यवस्थापत्र आदि प्रमाण निरूपण और विविध आक्षेप निराकरण आदि अति प्रयोजनीय विषयों की सविस्तर मीमांसा।

श्री मत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य श्री 108 स्वामीसहजानन्दसरस्वती, द्वारा लोकोपराकार्थ विरचित

आदावन्ते च यन्नास्ति वर्त्तमानेपि तत्तथा।

वितथै: सदृशा: सन्तोवितथा इव लक्षिता:॥

नाम परिवर्तन

आज से 8-10 वर्ष पहले कुछ भूमिहार ब्राह्मणों ने, जिनसे हमारा विशेष परिचय था, हमसे यह अनुरोध किया कि हम लोगों के इतिहास से सम्बन्ध रखनेवाला कोई ग्रन्थ आप लिख दें तो बड़ा उपकार हो। हम इस बात से सहमत हो गए। प्रथम कोई विशेष विचार न था, इसलिए तय पाया कि उस ग्रन्थ का नाम भूमिहार ब्राह्मण परिचय रखा जावे। हमारा विचार था कि कोई छोटी-मोटी पुस्तक लिख दी जावेगी। पर, जब हमने सामग्री एकत्र करना और लिखना आरंभ किया तो ब्राह्मण मात्र के इतिहास और धर्म पर प्रकाश डालने और विचार करने को हम बाध्य हो गए। इसके लिए बीच में और भी कारण आ गए। फलत: ग्रन्थ विस्तृत हो गया या और उसमें सभी ब्राह्मणों का विचार भी आ गया। फिर भी पूर्वनिश्‍चय और संकल्प के अनुसार वही रखा गया। परंतु हमें इस बात का दु:ख उसी समय हुआ और वह अन्त तक बना रहा कि व्यापक विषय की पुस्तक लिख कर उसका संकुचित नाम रखना अच्छा न हुआ और वह दु:ख तभी से बराबर बना रहा। इतना निश्‍चय तो हमने उसी समय कर लिया था कि दूसरी आवृत्ति में इसका नामक अवश्यमेव बदल देना होगा। तदनुसार कुछ और भी इतिहास-सामग्री और धार्मिक विषय मध्य में संगृहीत हुए और पूर्व पुस्तक में उनका भी समावेश कर के प्रस्तुत पुस्तक तैयार की गई है और नाम भी उसी के अनुसार ब्रह्मर्षि वंश विस्तर रखा गया है, जो इस ग्रन्थ के लिए सर्वथा उपयुक्‍त हैं। त्यागियों और गौड़ों के सम्बन्ध आदि का विशेष रूप से इस बार समावेश किया गया है। यद्यपि बहुत यत्‍न करने पर भी सरस्वतों और महियालों के सम्बन्ध की विशेष बातें इस बार न दी जा सकीं। तथापि आशा हैं तीसरे संस्करण में यह कमी भी पूरी हो जावेगी। इस व्यापक नाम से प्रचार भी विशेष होगा, जो पहली बार इसी कारण नहीं हो सका और यही हमारा लक्ष्य हैं।

- सहजानन्द सरस्वती

स्वामी सहजानन्द सरस्वती-जीवन-वृत्त एवं कृतित्व

1889 ई. - महाशिवरात्रि के दिन गाजीपुर जिले के देवाग्राम में जन्म।

1892 ई. - माता का देहांत।

1898 ई. - जलालाबाद मदरसा में अक्षरारंभ।

1901 ई. - लोअर तथा अपर प्राइमरी की 6 वर्ष की शिक्षा 3 वर्षों में समाप्त।

1904:-ई. - मिडिल परीक्षा में संपूर्ण उत्तर प्रदेश में छठा स्थान प्राप्त कर छात्रवृत्ति प्राप्ति।

1905 - विवाह (वैराग्य से बचाने के लिए)

1906 - पत्‍नी का स्वर्गवास।

1907 - पुन: विवाह की बात जान कर महाशिवरात्रि को घर से निष्क्रमण तथा काशी पहुँच कर दसनामी संन्यासी स्वामी अच्युतानन्द से प्रथम दीक्षा प्राप्त कर संन्यासी बने।

1908 - प्राय: वर्षपर्यंत गुरु की खोज में भारत के तीर्थों का भ्रमण।

1909 - पुन: काशी पहुँच कर दशाश्‍वमेध घाट स्थित श्री दंडी स्वामी अद्वैतानन्द सरस्वती से दीक्षा ग्रहण कर दंड प्राप्त किया और दंडी स्वामी सहजानन्द सरस्वती बने।

1910 - से 1912 तक - काशी तथा दरभंगा में संस्कृत साहित्य व्याकरण, न्याय तथा मीमांसा का गहन अध्यायन।

1913 - स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती के प्रयास से 28 दिसंबर को बलिया में हथुआ-नरेश की अध्यक्षता में संपन्न अ. भा. भूमिहार ब्राह्मण महासभा में प्रथम बार उपस्थित तथा ब्राह्मण समाज की स्थिति पर भाषण।

1914 - काशी से 'भूमिहार ब्राह्मण पत्र' निकाल कर 1916 तक उसका संपादन तथा प्रकाशन।

1914-15 - भारत के विभिन्न भागों में भ्रमण कर भूमिहार ब्राह्मणों तथा अन्य ब्राह्मणों का विवरण एकत्र करना।

1916 - 'भूमिहार ब्राह्मण परिचय' का प्रकाशन। [काशी के अतिरिक्‍त विश्‍वंभरपुर (गाजीपुर) में अधिकांश समय निवास।]

1917 - प्रथम बार भोजपुर के डुमरी में आगमन तथा कान्यकुब्ज और शाकद्वीपी ब्राह्मणों के विवाद में पं. देवराज चतुर्वेदी (का. ब्रा. भा.) द्वारा।

1919 - सिमरी (आरा) आ कर पुन: विश्‍वंभरपुर (गाजीपुर) वापस।

1920 - 5 दिसंबर को पटना में श्री मजहरुल हक के निवास पर ठहरे महात्मा गांधी से राजनीतिक वार्ता तथा राजनीति में प्रवेश का निश्‍चय कर कांग्रेस में शामिल।

1921 - गाजीपुर जिला कांग्रेस का अध्यक्ष चुना जाना तथा अहमदाबाद कांग्रेस में शामिल होना।

1922 - 2 जनवरी को गिरफ्तार हो कर 1 वर्ष का कारावास।

1923 - जेल से छूटने पर सिमरी (भोजपुर) में निवास।

1924 - सिमरी तथा आसपास प्रयत्‍न से खादी वस्त्रोत्पादन के लिए 500 चर्खे तथा 4 कर्घे का चलवाना प्रारंभ। सामाजिक सभाओं में ब्राह्मणों की एकता तथा संस्कृत शिक्षा प्रचारार्थ भाषण। सिमरी (भोजपुर) में चार महीने में 'कर्मकलाप' (जन्म से मरण तक के संस्कारों का 1200 पृष्ठों के हिंदी के विधि सहित विशाल ग्रन्थ की रचना)।

1925 - काशी में आयोजित संयुक्‍त प्रान्तीय भू. ब्रा. सभा में भू. ब्रा. द्वारा पुरोहिती करने से संबंधित भाषण। दिसंबर में खलीलाबाद (बस्ती) में राजा चंद्रदेश्‍वर प्र. सिंह (मकसूदपुर, गया) की अध्यक्षता में संपन्न अ. भा. भूमिहार ब्राह्मण महासभा में पुरोहिती वाला प्रस्ताव पेश कर उसमें महत्वपूर्ण भाषण।

1925 - भूमिहार ब्राह्मण परिचय का परिवर्द्धन कर 'ब्रह्मर्षि वंश विस्तर' नाम से प्रकाशन।

1926 - 'कर्मकलाप' का काशी से प्रकाशन।

1926 - अमिला, घोषी आजमगढ़ में आयोजित भू. ब्रा. महासभा में भाषण तथा संस्कृत शिक्षा प्रचार का संदेश।

समस्तीपुर में निवास तथा पटना में आयोजित अखिल भारतीय भू. ब्रा. महासभा में त्यागी ब्राह्मण चौ. रघुवीर सिंह को अध्यक्ष निर्वाचित कराना तथा पुरोहिती के प्रस्ताव को पारित कराना।

1927 - समस्तीपुर से आ कर पटना जिले के बिहटा में श्री सीताराम दास जी द्वारा प्रदत्त भूमि में श्री सीतारामाश्रम बना कर स्थायी निवास तथा पश्‍चिमी पटना किसान सभा की स्थापना।

1928 - सोनपुर (छपरा) में 17 नवंबर को संपन्न बिहार प्रान्तीय किसान सम्मेलन का अध्यक्ष चुना जाना।

1929 - अंतिम बार मुंगेर की अ. भा. भूमिहार ब्राह्मण महासभा में सम्मिलित, मतभेद के कारण वापस।

1930 - अमहरा (पटना) में 26 जनवरी को नमक कानून भंग के कारण 6 माह का कारावास। हजारीबाग जेल में 'गीता रहस्य' (गीता पर महत्वपूर्ण भाष्य) की रचना। जेल से लौट कर कांग्रेस तथा किसान सभा के कार्यों में संलग्न होना।

1934 - भूकंप पीड़ितों की सेवा हेतु बिहार में समिति गठित कर सेवा कार्य का संचालन।

1935 - पटना जिला कांग्रेस के अध्यक्ष प्रादेशिक कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य तथा अ. भा. कांग्रेस समिति का सदस्य चुना जाना।

1936 - अ. भा. किसान सभा का संगठन तथा प्रथम अधिवेशन का अध्यक्ष पद ग्रहण। (लखनऊ)

1937 - अ. भा. किसान सभा का महामन्त्री चुना जाना।

1938 - 13 मई से 15 मई तक संपन्न अ. भा. किसान सम्मेलन (कोमिल्ला, बंगाल) के अध्यक्ष।

1939 - अ. भा. किसान सभा के महामन्त्री निर्वाचित तथा 1943 तक उक्‍त पद पर।

1940 - (19-20 मार्च) को रामगढ़ (बिहार) में श्री सुभाषचंद्र बोस की अध्यक्षता में आयोजित अ. भा. समझौता विरोधी सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष। उपर्युक्‍त सम्मेलन में भाषण के लिए 3 वर्ष का कारावास।

1941 से 43 - जेल में कई पुस्तकों की रचना।

1944 - 14,15 मार्च को बेजबाड़ा (अंधार) में अ. भा. किसान सम्मेलन के अध्यक्ष।

1948 - 6 दिसंबर को कांग्रेस की प्राथमिक एवं अ. भा. कांग्रेस की सदस्यता का त्याग तथा साम्यवादी सहयोग से किसान मोर्चा का संचालन।

1949 - महाशिवरात्रि को बिहटा (पटना) में हीरक जयंती समारोह समिति द्वारा साठ लाख रुपए की थैली भेंट तथा उसका तदर्थ दान।

1949 - 9 अप्रैल (रामनवमी) को अयोध्या में संपन्न अ. भा. विरक्‍त महामंडल के प्रथम अधिवेशन में शंकराचार्य के बाद अध्यक्षीय भाषण।

1950 - अप्रैल में रक्‍तचाप से विशेष पीड़ित हो कर प्राकृतिक चिकित्सार्थ डॉ. शंकर नायर (मुजफ्फरपुर) से चिकित्सा प्रारंभ। मई-जून से अपने अनन्य अनुयायी किसान नेता पं. यमुना कार्यी (देवपार, पूसा, समस्तीपुर) के निवास पर निवास।

1950 - 26 जून को पुन: डॉ. नायर को दिखाने आने पर मुजफ्फरपुर में ही पक्षाघात का आक्रमण तथा 26 जून की रात्रि 2 बजे प्रसिद्ध वकील पं. मुचकुंद शर्मा के निवास पर देहांत।

27/6/50 को शव का पटना गांधी मैदान में लाखों लोगों द्वारा अंतिम दर्शन

डॉ. महमूद की अध्यक्षता में शोकसभा, नेताओं द्वारा श्रद्धांजलि।

28/6/50 डॉ. श्रीकृष्णसिंह मुख्यमन्त्री तथा अन्य नेताओं का अर्थी के साथ

श्री सीतारामाश्रम, बिहटा (पटना) में पहुँचना तथा वहीं अंतिम समाधि।

- डॉ. राजेंद्र प्रसाद आदि का शोक संदेश।

स्वामी जी द्वारा रचित पुस्तकें

ब्रह्मर्षि वंश विस्तार, ब्राह्मण समाज की स्थिति, झूठा भय मिथ्या-अभिमान, कर्म-कलाप, गीता-हृदय (धार्मिक) क्रांति और संयुक्‍त मोर्चा, किसान सभा के संस्मरण, किसान कैसे लड़ते हैं, झारखण्ड के किसान, किसान क्या करें, मेरा जीवन संघर्ष (आत्मकथा) आदि।

स्वामी जी द्वारा संपादित पत्र

स्वामी जी ने क्रमश: भूमिहार ब्राह्मण, काशी और लोक संग्रह, पटना नामक पत्रों का संपादन 1911-16 और 1922-24 तक सफलतापूर्वक किया। उनके लेख 'हुंकार' पटना, जनता (पटना), विशाल भारत (कलकत्ता) तथा कल्याण (गोरखपुर) के ईश्‍वरांक तथा योगांक में भी प्रकाशित हुए थे।

स्वामी जी के नाम पर स्मारक संस्थाएँ

श्री सीतारामाश्रम बिहटा, पटना, अध्यक्ष श्री वैद्यनाथ शर्मा, मन्त्री श्री रामकृष्ण शर्मा

स्वामी सहजानन्द संस्कृतोच्च विद्यालय, बिहटा, पटना।

स्वामी सहजानन्द स्मारक प्रेस - बिहटा, पटना।

स्वामी सहजानन्द महाविद्यालय - जहानाबाद (गया)

स्वामी सहजानन्द पीरो (भोजपुर)।

स्वामी सहजानन्द आरा (भोजपुर)।

स्वामी सहजानन्द मोतीहारी।

स्वामी सहजानन्द महिला महाविद्यालय, बिहटा (बेगूसराय)

स्वामी सहजानन्द बिनोवा महाविद्यालय, सिमरी (भोजपुर) पं. सूर्य ना. शर्मा द्वारा स्थापित।

स्वामी सहजानन्द स्मारक समिति, मंदिरी (पटना) - मन्त्री, श्री वैद्यनाथ पांडेय, एम.एल.सी.

स्वामी सहजानन्द स्मारक न्यास, पांडेपट्टी, बक्सर (भोजपुर), अध्यक्ष, स्वामी विमलानन्द सरस्वती द्वारा संस्थापित।

स्वामी सहजानन्द परिषद सिंदरी (धनबाद) - अध्यक्ष, प्रो. विश्‍वेश्‍वर प्र. सिंह।

स्वामी सहजानन्द सेवा समिति, बोकारो।

स्वामी सहजानन्द कन्या उच्च विद्यालय, बसंतपुर (गया)।

स्वामी सहजानन्द सरस्वती विद्यापीठ महाविद्यालय, गाजीपुर - संस्थापक : केशव प्रसाद शर्मा।

भूमिका

॥श्रीगणेशाय नम:॥

गता गीता शास्त्रां क्वचिदपि पुराणं व्यपगतम्।

विलीना: स्मृत्यर्था निगमवचनं दूरमगमत्॥

इदानीं रैदासप्रभृतिवचनान्मोक्षपदवी।

न जाने को हेतु: शिव शिव कलेरेष महिमा॥ 1॥

विद्वांसी मत्सरग्रस्ता: प्रभव: स्मयदूषिता:॥

अबोधोपहताश्‍चान्ये जीर्णमंगे सुभाषितम्॥ 2॥

आजकल का समय बहुत ही विलक्षण हैं। जिधर दृष्टिपात करिए उधर ही विचित्र लीलाएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं। 'अपनी-अपनी डफली और अपनी-अपनी गीत' की ध्वनि, जिधर आँख उठाइए और कान दीजिए, उधर ही गूँज रही हैं। सभी लोग डेढ़ चावल की खिचड़ी पका रहे हैं। जो बात सामने आती हैं उसी का चटपट मनमाना फैसला कर देना प्रत्येक व्यक्‍ति के लिए एक साधारण बात हो रही हैं। सभी अपनी-अपनी उच्छृंखल और अनिश्‍चयपूर्ण सम्मति, हर बात में, देने को लालायित हो रहे और दे रहे हैं। जिसके मन में जो ही धुन समाई उसने चट लेखनी उठाई और उसे ही लिख मारा। जानने को तो संस्कृत का काला अक्षर भैंस बराबर, परंतु बड़ी-बड़ी व्यवस्थाएँ लिखी जाने लगी हैं। कोई तो अंग्रेजी की दो-चार किताबें पढ़ चट धर्म तथा जाति-पाँति के निर्णय करने का बीड़ा उठा लेता हैं और कोई थोड़ा-सा केवल ज्योतिष, व्याकरण अथवा काव्यादि ही पढ़ कर पूर्वोक्‍त विषयों में मनमानी बकने लगता हैं। आजकल की बड़ी-बड़ी समस्याएँ शीघ्र बोध और मुहूर्तचिंतामणि से ही हल होती हैं। पुराणों के आधार पर बड़े-बड़े तान टूटते हैं, परंतु पुराणों में उनकी गंध भी नहीं हैं। कितने ही नूतन काल्पनिक पुराणों की रचनाएँ और तांत्रिक तथा पौराणिक ग्रन्थों के नाम पर दो-चार श्‍लोकों का जिस किसी विषय में लिख देना ही आजकल के प्रखर पांडित्य का प्रतिफल हैं और इसी टट्टी की ओट में शिकार खेल कर अपने दिल की पुरानी कान निकाली जाती है, बाप-दादों के बदले चुकाए जाते हैं। इतना ही नहीं, इन्हीं कल्पित श्‍लोकों और दोहे-चौपाइयों के आधार पर दूसरे ग्रन्थ बनाए जाते हैं, ओैर उन्हीं के आधार पर तीसरे इत्यादि। वाह रे मानसिक प्रसादकल्पना! बस अब क्या हैं; इन्हीं कल्पित पोथी को ले कर पंडित से मूर्ख तक सब विषयों की व्यवस्थाएँ करने लग जाते हैं। क्या कहें, पढ़े-लिखे संसार में ही अंधेर मच रही हैं। चाँदनी रात में भी डाके पड़ना यह विचित्र और अघटित घटना आज देखने में आ रही हैं। जिस समाज के लोग आजकल के जैसे चार अक्षर पढ़े-लिखे भूत नहीं हैं उसकी तो दुर्दशा हैं; उसके लिए तो 'अंधों की गैया राम रखवैया' की बात हैं। सुना करते थे कि सरकारी बंदोबस्त के समय चतुर जमींदार सैकड़ों वर्ष के अनपढ़ और सीधे-सादे काश्तकारों को शिकमी लिखा लिया करते थे, या करते हैं। परंतु वह बात तो आज जाति-पाँति निर्णय के विषय में आँखों देखी जा रही हैं। पाठकों को उदाहरणार्थ 'वर्ण विवेक चंद्रिका' नामक चार पन्ने की पुस्तक का तत्व दिखलाते हैं। उसमें लिखा है कि 'पुराणं शूकराख्यं वै तंत्रां भुवलसंज्ञकम्। विलोक्य जातिबोधय रच्यते वर्णचंद्रिका॥ 2॥' इसका अर्थ यह है कि 'शूकर (वराह) पुराण और भुवलतन्त्र को देख कर जातियों का ज्ञान होने के लिए, वर्ण (विवेक) चंद्रिका नामक ग्रन्थ बनाता हूँ। परंतु यदि ग्रन्थकर्ता महाशय के बताए हुए बारह पुराण को देखिए तो उसमें जाति-विचार का गंध भी नहीं हैं, निरूपण तो दूर रहा। जिसको इसकी जाँच करनी हो, वह अन्यत्र मुद्रित तथा 'एशियाटिक सोसाइटी' कलकत्ता मुद्रित पुस्तक का अवलोकन करे। उसमें प्रत्येक अध्याय के विषयों का पृथक सूची पत्र भी दिया हुआ है और संपूर्ण पुराण का सारांश प्रति अध्याय के विषय सूचन द्वारा संक्षिप्त गद्यात्मक संस्कृत के 60 या 70 पृष्ठों में लिखा हुआ है। पं. ज्वाला प्रसाद का 'पुराणदर्पण' देखने से भी शीघ्र ही उक्‍त पुराण के विषयों का ज्ञान हो सकता है, और आद्योपांत पुस्तक देखने से तो शंका भी नहीं रह सकती हैं। यह तो हुई महाशय जी के बताए पुराण की कथा। अब दूसरे आधार 'भूवल तन्त्र' को देखिए। प्रथम तो यह नाम ही विचित्र हैं। क्योंकि ह्रस्व भु शब्दवाला नाम अप्रसिद्ध हैं। यदि 'भूवल' ऐसा नाम हो तो 'बृहज्जोतिषार्णव' ग्रंथांतर्गत पृथ्वी निरूपण प्रकरण में तीन ग्रन्थ इस तरह के मिलते हैं - (1) भूगोल वर्णनाध्याय, (2) भूवल निरूपणाध्याय, (3) मानध्याय गणित नाममालाध्याय। परंतु इन तीन ग्रन्थों में जातिनिरूपण प्रसंग ही नहीं। इस बात को लोग क्रमिक तीनों नामों, प्रसंग तथा ग्रन्थ नाम से भी अच्छी तरह समझ सकते हैं। साथ ही, यह भी याद रखना चाहिए कि ग्रन्थकर्ता ने जाति विषयक दो प्रकरण अलग ही बनाए हैं - (1) ब्राह्मणोत्पत्तिमार्तण्ड, (2) वर्णशंकरजातिनिरूपण। यदि ऐसा कहा जावे कि इस नाम का कोई तन्त्र ग्रन्थ हैं सो भी ठीक नहीं मालूम होता। क्योंकि मिथिला तथा अन्य देशीय बड़े-बड़े पण्डितों और तांत्रिकों से पूछने पर भी इस नाम के तन्त्र ग्रन्थ का पता न लगा। मुद्रित तन्त्र ग्रन्थों में तो इसका नाम भी नहीं हैं। क्योंकि मुद्रित तन्त्र ग्रन्थ ये हैं - (1) आश्‍चर्य योग रत्‍नमाला, (2) आसुरीकल्प, (3) इंद्रजाल, (4) उड्डीश, (5) काम रत्‍न, (6) क्रियोड्डीश, (7) गुप्तसाधन, (8) गौतम, (9) गंधोत्तम-निर्णय, (10) दत्तत्रेय, (11) धन्वंतरितन्त्र शिक्षा, (12) महानिर्वाण, (13) मन्त्रमहार्णव, (14) मन्त्रमहोदधि, (15) माहेश्‍वरी, (16) मेरु, (17) योगिनी, (18) योगमाला, (19) वधया, (20) सिद्धशंकर इत्यादि।

इनके अतिरिक्‍त 'एशियाटिक रिसर्चेज' (Asiatic Researches) नामक अंग्रेजी ग्रन्थ में, जो सन 1801 ई. में छपा हैं, हिंदू जातियों के निरूपण प्रकरण के पृष्ठ 62 में कुछ तन्त्र ग्रन्थों के नाम 'दुर्गामहत्व' नामक तन्त्र ग्रन्थ के आधार पर गिनाए हैं, जिसका भावार्थ यह है कि (1) काली, (2) मुंडमाला, (3) तारा, (4) निर्वाण, (5) सर्वरसरण, (6) वीर, (7) शृंगार्चन, (8) भूत, (9) उड्डीशान, (10) कालिकाकल्प, (11) भैरवी तन्त्र,(12) भैरवीकल्प, (13) तोडल, (14) मातृबृहदच, (15) मायातन्त्र, (16) वीरेश्‍वर, (17) विश्‍वेश्‍वर, (18) समय तन्त्र, (19) ब्रह्म यामल, (20) रुद्र यामल, (21) शंकर यामल, (22) गायत्री, (23) कालिकाकुलसर्वस्व, (24) कुलार्णव, (25) योगिनी तन्त्र, (26) महिषमर्दिनी। हे भैरवि! यही तन्त्रग्रन्थ सर्वसाधारण में प्रचलित हैं। इनके अतिरिक्‍त तन्त्र ग्रन्थों का पता नहीं चलता। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि जाति निरूपण का जहाँ कहीं प्रसंग आया है, चाहे संस्कृत, हिंदी अथवा अंग्रेजी ग्रन्थों में, वहाँ केवल रुद्र यामल का ही लोग नाम लेते हैं। इससे यही स्पष्ट झलकता हैं कि जैसे बारहपुराण का नाम ग्रन्थकर्ता महाशय ने झूठ-मूठ लिया हैं वैसे ही या तो तन्त्र ग्रन्थ का कल्पित नाम रख दिया है, अथवा यदि ऐसा ग्रन्थ कहीं पर्वतादि के गुफाओं में मिले भी तो उसमें जाति का विचार नहीं हैं। उसका नाम यों ही धोखा देने के लिए लिया गया है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि 'वर्णविवेक चंद्रिका' बहुत ही अल्पकाल हुए वेंकटेश्‍वर प्रेस में छपी हैं। यदि ग्रन्थकार को अन्य ग्रन्थों का प्रमाण देना था, तो उनके अध्याय आदि का तो नाम, कम से कम, दे देते। क्योंकि आजकल की प्रथा ऐसी ही हैं। परंतु उन्हें तो लोगों को भुलावा देना था, इसलिए तन्त्र ग्रन्थ का नाम लिया। क्योंकि वे आजकल प्राय: अप्रचलित हैं, इसलिए झुठाई का पता न लगेगा। परंतु यदि इस प्रकार से लिखना हो तो जिस किसी के भी विषय में तंत्रादि के नाम से बहुत से कल्पित श्‍लोक आदि कहे जा सकते हैं, जिससे हाहाकार मचने के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता है। ऐसे ही स्वार्थन्ध और दुर्बुद्धि महाशयों ने पुराण आदि का नाम भी बदनाम कर दिया है। अत: उधर से लोगों को अश्रद्धा होने लग गई है। अस्तु, इसी 'वर्ण-विवेक चंद्रिका' के आधार पर पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र ने 'जातिनिर्णय' नाम का ग्रन्थ बनाया हैं। या यों कहना चाहिए कि भाषा में उसकी टीका कर के कुछ इधर-उधर से उसमें पैबंद लगा दिया है। उस ग्रन्थ में आप बहुत जगह लिखते हैं कि 'इति वर्णविवेक चंद्रिका'। क्या वर्णविवेक चंद्रिका भी कोई आर्ष ग्रन्थ हैं जिससे वह भी स्वतन्त्र प्रमाण मानी जावे? तो फिर कबीर साहब की साखी और दादू साहब की बानी तथा गुलबकावली आदि को भी क्यों न मानेंगे? बल्कि बाइबिल और कुरान को भी मान कर जाति-पाँति को ही धो देना चाहिए। यदि संस्कृत श्‍लोक या गद्यों ही पर अन्धविश्‍वास हो तो बाइबिल आदि का भी संस्कृत अनुवाद संतोष के लिए मिल सकता है। जातिनिर्णय ग्रन्थ को बना कर विद्यावारिधि जी ने अपनी विद्यावारिधिता का खूब ही परिचय दिया है! यदि वर्णविवेक चंद्रिका के श्‍लोकों को पुराणादि के वाक्यों द्वारा प्रमाणित कर देते तो और भी आपका यश नभोमंडल में छा जाता। परंतु दुर्भाग्य हम लोगों का कि वारिधि मिलने पर भी प्यासे ही रहना पड़ा! वारिधि जी की ज्वाला का विशेष परिचय आगे इस ग्रन्थ में ही करा कर आपका तथा वर्णविवेक चंद्रिकाकार का विशेष परिचय वहीं देंगे। दूसरी पोथी 'भूमिहारोत्पत्ति' नाम की लक्ष्मीवेंकटेश्‍वर प्रेस, बंबई में छपी हैं, जिसके अन्त में लिखा है कि 'इति श्रीस्कंदपुराणे पाताल खण्डे धर्मारण्यमहात्म्यवर्णने भूमिहारोत्पत्ति वर्णनं नामैकादशोध्याय:'। बस, अब क्या हैं, लोग देखते ही समझेंगे कि जिस विषय में ग्रन्थ और उसके अध्याय आदि तक लिखे हुए हैं उस विषय की पोथी कब झूठी हो सकती हैं? परंतु यदि स्कंदपुराण में ऐसी पंक्‍ति 11वें अध्याय में या अन्यत्र देख कर कोई इस ग्रन्थ की सत्यता की परीक्षा करना चाहे तो सिवाय पोल खुलने के और कुछ हाथ न लगेगा। प्रथम तो प्राचीन हस्तलिखित स्कंदपुराण में इन सब विषयों का जिक्र ही नहीं हैं। वहाँ तो धर्मारण्यखण्ड में अथवा ब्रह्मखण्ड में प्रदोष, शिवरात्रि आदि का निरूपण हैं। रह गई स्कंदपुराण के नाम से वेंकटेश्‍वर प्रेस में छपे पुराण की बात। उसके भी 10वें अध्याय में गोभुज बनियों का वर्णन तो अवश्य हैं। परंतु न तो उसमें कहीं भूमिहार शब्द ही आया है ओैर न इस विषय का कुछ पता ही हैं और अन्त में ऐसा भी नहीं लिखा है जैसा कि इति श्रीस्कंदपुराणे' इत्यादि ऊपर दिखला चुके हैं। साथ ही, उसमें भी जो बहुत से कुचर इत्यादि शब्द और श्‍लोक मिला कर मनमाना अर्थ किया है, उसका पर्दा उखेड़ प्रसंगवश पुस्तक में ही कर के ग्रन्थकार का पूर्ण परिचय देंगे। ऐसा ही 'जगतराय दिग्विजय' नामक ग्रन्थ में भी बिना प्रसंग के ही झूठ-मूठ कुछ लिख मारा हैं, क्योंकि जिस 'जगतराय' का दिग्विजय उसमें वर्णित हैं वह कोई ऐसा प्रतापी राजा नहीं हुआ है, जिसके यहाँ काशिराज मिलने को गए थे। और जो तिथि जगतराय के काशी में आने की उसमें लिखी हैं उस समय काशी में कोई हिंदू राजा ही नहीं था। इस बात को ग्रन्थ में ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा दिखला कर उस ग्रन्थ के वाक्यों की भी कठिन समालोचना की जावेगी। अन्त में मैं दो-एक हिंदी के ऐतिहासिक ग्रन्थों का दिग्दर्शन करा कर इस विषय को ही यहीं आगे के लिए छोड़ना चाहता हूँ। पहला ग्रन्थ 'विशेनवंश वाटिका' नाम का हैं जो खड्गविलास प्रेस में 1887 में छपा हैं। इसके विषय में इस जगह मुझे यही कहना हैं कि उस ग्रन्थ के नाम पर ग्रन्थकर्ता को केवल अपनी योग्यता की नोटिस देनी थी, क्योंकि ग्रन्थ के टाइटिल पेज पर आपने अपने सारे विशेषण लिखे थे ही, फिर उन्हीं की आवृत्ति 90वें पृष्ठ से ले कर प्राय: दो परिच्छेदों में की। परंतु जब उससे भी संतोष न हुआ तो पुस्तक के अन्त में भी अपनी प्रशंसा की बहुत सी सनदें पेश कर डालीं। दूसरी बात यह है कि आप उसी पुस्तक के 45-46 पृष्ठों में लिखते हैं कि 'शंकर दिग्विजय से स्पष्ट जाना जाता है कि मयूरभट्ट ही के समय में शंकराचार्य भी उत्पन्न हुए थे और शंकराचार्य को एक हजार वर्ष से कम न हुए, इसी से मयूरभट्ट के भी समय का अनुमान किया जा सकता है।' और फिर 53 से 55 पृष्ठ तक मयूरभट्ट से ले कर 114 राजाओं की वंशावली लिखी हैं और इस विषय में ईलियट साहब की भी सम्मति पृष्ठ 49 में दिखलाई हैं कि 'वर्तमान राज्यकर्ता मयूरभट्ट से 115 पीढ़ी में हैं।' पाठक इस जगह ही ग्रन्थकर्ता महाशय की सुबुद्धि का पता लगा कर संपूर्ण ग्रन्थ की बातों की सच्चाई-झुठाई समझ सकते हैं। बात यह है कि मयूरभट्ट से आज तक 115 राजाओं को गिना कर भी उनका समय 1000 वर्ष बताना, या उसे बता कर उन राजाओं को गिनाना उनकी अलौकिक बुद्धिमत्ता का फल नहीं तो और क्या हो सकता है? नहीं मालूम कि ग्रन्थ लिखने के समय दिमाग आकाश में चक्कर लगा रहा था या और कहीं गया था। ऐसी दशा में उनकी पवित्र लेखनी से जो कुछ भी न लिखा गया हो उसी में आश्‍चर्य हैं। एक जगह आप लिखते हैं कि 'यह महाशय (मयूरभट्ट) उसी ऋषिकुल के हैं, जिस ब्रह्मवंश में द्रोणाचार्य, भीष्माचार्य और रामाचार्य हुए। वाह-वाह क्या ही बुद्धिमत्ता हैं? मयूरभट्ट वत्सगोत्री भृगु, वत्स, च्यवनादि के वंश में हो सकते हैं। परंतु द्रोणाचार्य जी का भरद्वाज गोत्र था, क्योंकि महाभारत, आदि पर्व 168वें अध्याय में भरद्वाज से घृताची अप्सरा द्वारा उनकी उत्पत्ति लिख कर लिखा है कि 'वनन्तु प्रस्थितं रामं, भरद्वाजसुतोब्रवीत। आगतं वित्ताकामं मां विद्धि द्रोणं द्विजोत्ताम॥ 9॥ अर्थ यह है कि 'जब परशुराम जी पृथ्वी नि:क्षत्रिया कर के उसे कश्यपादि ब्राह्मणों को दे कर वन जाने लगे तब भरद्वाज के पुत्र ने उनसे जा कर कहा कि हे द्विजोत्ताम! मैं द्रोण हूँ और धन की इच्छा से आया हूँ।' फिर दोनों एक कुल के कैसे हुए? उस पर भी तुर्रा यह है कि उसी वंश में क्षत्रिय वंशोद्‍भव भीष्म पितामह तथा श्रीराम जी को भी आप लिख रहे हैं। वाह-वाह क्या ही अच्छा शास्त्र तथा व्यवहार का परिशीलन हैं। एक जगह आप लिखते हैं कि यद्यपि मिस्टर ईलियट के कथनानुसार मझौली राज्य मयूरभट्ट ने ही प्राप्त किया। परंतु पुराने कागजों में विशेन का ही प्राप्त करना सिद्ध होता है। तथापि यह विरोध ऐसा नहीं हैं जिससे अर्थभंग हो। एक तो आपको ऐसी दशा में, जबकि प्रबल इतिहासज्ञ अंग्रेज के साथ विरोध पड़ता हैं तो जैसे ग्रंथांत में आपने अपनी सनदें पेश की हैं वैसे ही उस कागजी प्रमाण को भी लिख देना था। क्योंकि आपके निज के सर्टिफिकेट से वह अधिक उपयोगी हैं। परंतु आपके पास तो कुछ हैं नहीं। केवल जगह-जगह कागजी प्रमाण कह कर लोगों को डरवाते और श्रद्धा पैदा करना चाहते हैं। दूसरे यदि ऐसे विरोध से ऐतिहासिक अर्थ का भंग नहीं तो आप भंग मानते हैं किससे? एक दूसरे से बिलकुल विरुद्ध कहे और फिर भी अर्थ भंग नहीं? बस, इसे यहीं रहने देते हैं। अवशिष्ट वक्‍तव्य प्रसंगवश आगे प्रकाशित करेंगे। क्योंकि बुद्धिमान इतने ही से उस ग्रन्थ की बातों का तत्व जान गए होंगे। दूसरा ग्रन्थ निरंजन मुखोपाध्याय रचित 'भारत वर्षीय राजदर्पण' हैं। यद्यपि इस ग्रन्थ की बातों का खण्डन आगे करेंगे। परंतु उसका परिचय इसी जगह करा देना उचित होगा। ग्रंथावलोकन से यह स्पष्ट झलकता हैं कि उसका लेखक काशीराज का निपट द्रोही था। अतएव जिस किसी ग्रन्थ में भी उनकी प्रशंसा की बात लिखी गई है वह चाहे कितनी ही सत्य क्यों न हो, उस पर आक्षेप करना उसका मुख्य उद्देश्य प्रतीत होता है। बनारस सूबे के इतिहास का जो प्रथम खण्ड आयरलैंड के इनवर्नेस प्रदेश में छपा हैं और जिसके प्रत्येक पृष्ठ में हर बातों पर सरकारी कागजों का नोट दिया हुआ है, उसके विषय में यदि कुछ भी बुद्धि न चली हैं तो भूमिका पृष्ठ 4 में लिख दिया है कि महाराज ईश्‍वरीप्रसाद नारायण सिंह ने अपने वंश को बढ़ा कर लिखवाने के लिए उसे छपवाया हैं और कहीं-कहीं वार्न हेस्टिंग्ज के समय के कागजों से उसको प्रमाणित करने की चेष्टा की गई है। यह लेख कहाँ तक सत्य हैं वह उस पुस्तक के देखने से विदित हो जावेगा। फिर आगे भूमिका पृष्ठ 5 में आप लिखते हैं कि 'जब से मनसा राम मझवा ग्राम के पहलवान सिंह की नौकरी छोड़ कर आधे ग्राम के चतुर्थांश के एक अंश की मलिकाई से ऊँचे दर्जे पर चढ़े, तब से उन्होंने और उनके वारिसों ने सब तरह से स्वाधीन राजाओं के माफिक इज्जत के लिए कोशिश की हैं लेकिन उसे सरकार ब्रिटिश गवर्नमेंट ने कभी मंजूर नहीं किया है।' देखिए, इन कलुषतापूर्ण शब्दों से कैसा द्वेष झलकता हैं? विवेकी ऐसे शब्दों का प्रयोग कभी नहीं कर सकते। ब्रिटिश गवर्नमेंट ने इसको कभी स्वीकार नहीं किया है, यह कहना तो उन्हीं महाशय को शोभा देता हैं। क्योंकि यदि गवर्नमेंट उसे न मानती तो द्विजराज महाराज काशीराज को स्वतन्त्र क्यों कर देती? हाँ, जब तक महाराज ने न चाहा था तब तक गवर्नमेंट को इससे मतलब ही क्या था कि उनको स्वतन्त्र राजा कहती फिरे? उसी जगह आपने फिर लिखा है कि 'वार्न हेस्टिंग्ज ने भी राजा चेतसिंह के साथ बराबर वैसा ही बर्ताव किया था जैसा जमींदार के साथ करना चाहिए।' परंतु जब आपने राजा चेतसिंह के बारे में कौंसिल में वार्न हेस्टिंग्ज द्वारा कही हुई बातों का पृष्ठ 21 में उल्लेख किया है तो वहाँ लिखते हैं कि हेस्टिंग्ज साहब ने कहा कि राजा के साथ एक निरूपित मालगुजारी पर इस्तमरारी बंदोबस्त किया जावे और उनके इलाकों के तमाम अख्तियार उन्हें दे दिए जावे जिसमें किसी तरह से पीछे उस पर दस्तंदा जी करने का अख्तियार न रह जावे और इलाके में रेजीडेंट भी न रहे। वे कंपनी को पटने के इलाके में मालगुजारी दाखिल किया करें। क्योंकि रेजीडेण्ट मोकर्रर होने से वे राज्य और राजा पर अपना अख्तियार जारी करने की कोशिश करेंगे और उनमें राजा के साथ उनका विवाद हो कर कौंसिल में हमेशा नालिश आया करेगी, जिसमें रेजीडेंट की बात में नि:स्संदेह विश्‍वास कर के राजा के विपक्ष में सब फैसला होएगा और पश्‍चात एतद द्वारा उनका सब नुकसान कर के उनको साधारण जमींदार की अवस्था में घटा ले आएगा। साथ ही, आप राजा चेतसिंह की सनद पेश करते हुए उनके दीवानी आदि के अधिकारों को भी स्वीकार करते हैं। फिर यह लिखना कि वार्न हेस्टिंग्ज का व्यवहार उनके साथ साधारण जमींदारों का-सा था कितनी बड़ी धृष्टता और द्वेष का फल हैं? आप सुबहान अली के बलवंतनामे की निंदा करते हैं, क्योंकि उससे काशीराज के महत्व की सूचना होती है। इसीलिए उस पर दिलोजान से रंज हैं। परंतु खैरुद्दीन के बलवंतनामे की आपने खूब प्रशंसा की हैं और उसे प्रामाणिक भी ठहराया हैं। तो भी कई जगह उसके भी विरुद्ध लिख कर काशिराज की निंदा करने से न हटे। दृष्टांत के लिए हम रुस्तम अली के मामले को उपस्थित करते हैं। पृष्ठ 6 में आप लिखते हैं कि 'सन 1734 ई. में जब अवध के नवाब ने रुस्तम अली पर खफा हो कर उन्हें बनारस से निकालने के लिए अपने नायब सफदरजंग को भेजा, तो रुस्तम अली ने मनसाराम को अपनी तरफ से उनको मनाने के लिए जौनपुर भेजा। परंतु मनसाराम ने अपने मालिक के साथ दगाबाजी कर के सफदरजंग के पास से बनारस, जौनपुर और चुनार के परगने अपने बेटे बलवंत सिंह के नाम बंदोबस्त करवा लिए' इत्यादि। अच्छा, अब खैरुद्दीन के बलवंतनामे को देखिए, जो गवर्नमेंट प्रेस, प्रयाग में 1875 ई. में छपा हैं। उसके 8 और 9 पृष्ठों में लिखा है कि - "However, in 1150 Hijree, being summoned by the Emperor Mahomed Shah to Delhi, he went, leaving his son-in-law, Nawab Abdul Munsur Khan, as his deputy. The enemies of Roostum Alee, finding this an opportunity, poured their complaints and accusations into the ears of Sufdar Jung , asserting that Roostum Alee paid no attention to state business, but spent all his time in persuit of pleasure; that he entertained enmity towards the servants of the state and meditated encroachment on the prerogative of Meer Murtaza; and thus they succeeded in causing Sufdar Jung to mistrust him. When Nawab Abdul Munsur Khan got wind of these accusations, he became greatly irritated and at once started from Fyzabad to infict chastisement. When he had reached Jaunpore, the wellwisher of Roostum Alee, who always had a spite against Munsaram, insinuated that he was the originator of all this ill-feeling; that openly he professed friendship but in his heart was contriving schemes to injure; and that he it was who had excited Sufdar Jung against him (Roostum Alee). Roostum Alee was thunder-struck at hearing all these stories and asked Raja Munsaram what they meant. Munsaram, a clever and open-minded man, assured Roostum Alee that it was impossible for him, whom he had raised from nothing, to be guilty of such treachery, and that it was merely the invention of enemies who were envious of Roostum Alee and also wished to injure him (Munsaram). To this Roostum Alee replied that if such was really the case, some steps must be taken to induce Sufdar Jung to return at once from Jaunpore to Fyzabad. Munsaram answered that any direct application to that effect would not do; but if Roostum would permit, he himself would proceed to the Nawab by making things smooth with the Nawab's ministers and presenting gifts to remove his suspicions; but he added that he felt doubtful about Roostum's feelings towards him while absent; that it was likely his enemies would take this chance of misrepresenting all his actions, and thus cause a coldness to arise between them in which case his efforts would be fruitless. Roostum Alee approved of Munsaram's plan, and assuring him of the continuance of his friendship, sent him with costly presents to the Nawab. Rajah Munsaram, on his arrival at Jaunpore and obtaining an audience, laid these presents from Roostum Alee before the Nawab, and by his address and knowledge of affairs, completely cleared the mind of the Nawab from the doubts he had regarding Roostum Alee, and brought him to look again with favour upon the latter. During the discussions about these affairs, Munsaram had offered an increase of Four Lakhs of rupees in revenue, if the four Surkars were continued to Roostum Alee, when a letter came from Boorhanoolmoolk to Sufdar Jung go the effect that the Ghazipur province was to be given to Sheikh Abdoollah. Munsaram, on hearing of this project, without consulting Roostum Alee strongly objected and the argument between the Nawab's ministers and Munsaram waxed hot on the point, when suddenly Sheikh Abdoollah appeared on the scene and bid eight lakhs additional for the four Surkars. Munsaram's enemies about Roostum Alee represented to him that all these proceedings were merely dodges of Munsaram, and succeeded in causing Roostum Alee to suspect him. An angry correspondence then began. Roostum showed displeasure openly to Bulwant Singh who was at his court, and permitted the enemies of Munsaram to attend and take part in his councils. By their advice, he sent another envoy to the Nawab, who was directed to carry on the negotiation, without consulting Munsaram, through some of the Nawab's ministers; and by no means to allow Munsaram to interfere. These things were soon known to Munsaram and grieved him greatly; he consulted those of his friends who were at Nawab's court, and was advised by them that, since his principal had thrown him over, his best plan was to act for himself in the business to spend money, and court the favour of the Nawab. Accordingly, as he fully perceived that his power in the country, and influence with Roostum Alee would go with his loss of favour, and not liking to fall back into a position of inferiority, he made overtures to Nawab's ministers and obtained their consent to getting the three Surkars by paying 13 Lakhs of rupees revenue..."

भावार्थ यह है कि '1150 हिजरी अर्थात 1732 ई. में बादशाह मुहम्मद शाह के बुलाने से नवाब सआदत खाँ अपने दामाद अब्दुल मंसूर खाँ (सफदरजंग) को अपना नायब बना कर दिल्ली चला गया। यह मौका पा रुस्तम के शत्रु सफदरजंग के कानों में शिकायतें यह कह कर भरने लगे कि रुस्तम अली राज्य कार्य की ओर कुछ भी ध्यान नहीं देता, विषयासक्‍ति में अपना सब समय बिताता, राज्य के नौकरों से शत्रुता रखता और मीरमुर्तजा के अधिकारों को दबा लेने के लिए सोचा करता है। इस प्रकार से उन्होंने सफदरजंग के दिल में रुस्तम अली की ओर से अविश्‍वास पैदा कर दिया। जब नवाब सफदरजंग (अब्दुल मंसूर खाँ) के पास ये शिकायतें पहुँचीं तो वह बहुत ही नारज हुआ और तुरंत रुस्तम अली को दंड देने के लिए फैजाबाद से रवाना हुआ। जब वह जौनपुर पहुँच गया तो रुस्तम अली के खैरख्वाह ने, जो मनसाराम से सदा से विरोध रखता था, धीरे से यह उकसाया कि मनसाराम ही इस शत्रुता का कारण हैं। जो कि बाहर से वह मित्रता सूचित करता है, परंतु हृदय में आपके सताने की युक्‍तियाँ सोचा करता है। यही, शख्स हैं जिसने सफदरजंग को आपके विरुद्ध उभाड़ा हैं। रुस्तम अली इन बातों को सुन कर भौंचक्का-सा रह गया और उसने मनसाराम से पूछा कि इन सब बातों का अर्थ क्या हैं? मनसाराम ने, जो कि चतुर और प्रतिभाशाली पुरुष था, रुस्तम अली को निश्‍चय करवाया कि मेरे लिए इन सब छल-कपटों का अपराधी होना असंभव हैं, जिसे आपने एक तुच्छ दर्जे से ऊँचे पर चढ़ाया हैं। यह केवल शत्रुओं की मिथ्या कल्पना हैं, जो आपके द्वेषी हैं और मुझे भी सताना चाहते हैं। इस पर रुस्तम अली ने उत्तर दिया कि यदि सचमुच यह बात हैं तो सफदरजंग को जौनपुर से फैजाबाद तुरंत लौट जाने को राजी करने के लिए कोई उपाय करना चाहिए। मनसाराम ने कहा कि इस विषय में सीधा यत्‍न कुछ काम न करेगा। लेकिन यदि आप आज्ञा दे तो मैं स्वयं नवाब के मंत्रियों से मिल कर नवाब के पास जाऊँ और उसे नजर दे कर उसके संदेह दूर करूँ। लेकिन अपनी अनुपस्थिति में मुझे अपने साथ आपके बर्ताव का संदेह हैं; क्योंकि यह हो सकता है कि ऐसे समय में मेरे शत्रु मेरे सब कामों को आपकी दृष्टि में उलटा जँचा दे और इस तरह से मेरे-आपके बीच मनोमालिन्य पैदा कर दे; जिस दशा में मेरा यत्‍न निष्फल हो जावेगा। रुस्तम अली ने मनसाराम के उपाय को पसंद किया और अपनी मैत्री के स्थिर रखने का विश्‍वास दिला कर बहुत सी बहुमूल्य भेंट के साथ मनसाराम को रवाना किया। मनसाराम ने जौनपुर पहुँच अवसर पा कर दरबार में इन सब भेंटों को नवाब के सामने रख दिया और अपनी बातचीत और व्यवहारकुशलता से नवाब के चित्त को रुस्तम अली संबंधी सब संदेहों से बिलकुल रहित कर दिया और रुस्तम पर उसकी कृपादृष्टि उत्पन्न कर दी। जबकि इसी विषय के विवाद के समय मनसाराम ने कहा कि यदि चारों सरकारें रुस्तम अली के ही अधिकार में रहने दी जावे तो मैं चार लक्ष अधिक दूँगा, उसी समय एक पत्र बुरहानुल मुल्क (सआदत खाँ) के पास से सफदरजंग के नाम इस बात का आया कि सूबा गाजीपुर शेख अब्दुल्ला को दिया जावेगा। जब मनसाराम को यह मालूम हुआ तो रुस्तम अली से पूछे बिना ही इस बात को उसने बहुत ही रोका और मनसाराम तथा नवाब के मंत्रियों के बीच इस विषय पर बहुत कड़ा वाद-विवाद हुआ। परंतु उसी समय अकस्मात शेख अब्दुल्ला पहुँच गया और उसने चारों सरकारों के लिए 8 लाख और देने को कहा। इसी समय मनसाराम के शत्रुओं ने रुस्तम से कहा कि ये सब कार्रवाइयाँ केवल मनसाराम के ही छल हैं और ऐसा कह कर रुस्तम अली का उसकी ओर से शक पैदा कर दिया। उस समय चिढ़-चिढ़ी की लिखा-पढ़ी होने लगी। रुस्तम ने बलवंत सिंह के प्रति, जो उस समय दरबार में उपस्थित थे, अपनी अप्रसन्नता सूचित की और मनसाराम के शत्रुओं को दरबार में भाग लेने और उपस्थित होने की आज्ञा दे दी और उन लोगों की राय से दूसरा राजदूत नवाब के पास भेजा, जिसको समझा दिया कि बिना मनसाराम के पूछे ही नवाब के कुछ मंत्रियों द्वारा बातचीत करें और किसी प्रकार से भी मनसाराम को दखल देने न दे। जब यह बात मनसाराम को मालूम हुई तो उसको बहुत ही दु:ख हुआ। उसने अपने मित्रों से जो कि नवाब के दरबार में थे, सलाह की। उन्होंने राय दी कि जबकि आपके मालिक ने आपको बेइज्जत या अलग कर दिया, तो आपके लिए सबसे अच्छी बात यह है कि अब अपने ही लिए इस विषय में यत्‍न करें, रुपए खर्चें और नवाब को अपने पक्ष में लावें। इसी के अनुसार जबकि मनसाराम ने भी खूब विचार किया कि मेरे ऊपर रुस्तम को नामिहरबानी के साथ उसके ऊपर मेरा प्रभाव और देश के ऊपर अधिकार भी जाता रहेगा और तुच्छ हो कर रहना भी अच्छा नहीं हैं तो, उसने नवाब के मंत्रियों से बातचीत की और 13 लाख रुपए मालगुजारी पर तीनों सरकारों को पाने की मंजूरी उसने कर ली।'

बस अब पाठक लोग ही निरंजन मुखोपाध्याय की दी हुई इस मामले की तारीख और इस मामले का मिलान कर ले। आपने यह भी भूमिका में ही लिख दिया है कि खैरुद्दीन ने चेतसिंह के परम विश्‍वासी बाबू औसान सिंह की जो शिकायत की हैं उसे छोड़ कर और सब कुछ उनका लिखा ठीक हैं। परंतु आगे चल कर आप ही लिखते हैं कि बनारस राज्य के असली अधिकारी मनिहार सिंह को छल-कपट से हरा कर ही औसान सिंह ने चेतसिंह को राजा बनाया। दूसरी जगह और भी लिखते हैं कि वार्न हेस्टिंग्ज की तरफ 2 लाख रुपयों के लिए हुकुम आदि जारी करवाना बाबू औसान सिंह का ही छल तथा द्वेष था। क्योंकि उनकी गद्दी दिलवा कर उसके ऊपर वे अपना अधिकार आदि जमाने की इच्छा किए हुए थे। भला इसको निंदा नहीं कहते हैं तो क्या कहते हैं? बलिहारी हैं ऐसे पूर्वापर विरुद्ध लेखक की बुद्धि की! आप लिखते हैं कि मनसाराम ने बलवंत सिंह के साथ 1738 ई. में धूमधाम से राजा के ठाटबाट में काशी में प्रवेश किया। परंतु उसी बलवंतनामे के दसवें पृष्ठ में लिखा है कि "Rajah Munsaram arrived at Benares on the 21st day of the month Safar in the year 1151, Hijree, and at once entered upon the Government of his three provinces..." अर्थात 'राजा मनसाराम 1151 हिजरी (सन 1733 या 34) के सफर महीने की 21वीं तारीख को बनारस पहुँचे और उसी समय अपने तीनों सरकारों के राज्य पर अधिकार किया इत्यादि'। इसी से विचारा जा सकता है कि ऐसे लेखक महाराज द्विजराज श्री काशीराज, अथवा भूमिहार ब्राह्मण समाज मात्र के विषय में या दूसरों ही के विषय में जो कुछ लिख डालें उसी में आश्‍चर्य हैं। परंतु उनकी बातें कहाँ तक सत्य हो सकती हैं, इनके कहने की अब आवश्यकता नहीं हैं। विशेष रीति से निरंजन मुखोपाध्याय के वाक्यों का विचार ग्रन्थ में ही चल कर करेंगे। आश्‍चर्य तो इस बात का हैं कि ऐसे आदमियों के वाक्यों को भी ऋष्यादि वाक्यों की तरह प्रामाणिक मान और हवाला दे कर बाबू हरिश्‍चंद्र-ऐसे लेखक भी अकांड तांडव करने में न चूके। नहीं तो भला बताइए, 'मुद्राराक्षस' की टीका करने में भूमिहार ब्राह्मणों की उत्पत्ति लिख कर राक्षसी मुद्रा दिखलाने की क्या आवश्यकता थी? यदि हँसुए के ब्याह में खुरपे की गीत ही गानी थी तो आपने अपने ही घर का विचार कर के संतोष क्यों न कर लिया?

बाबू रामदीन सिंह तो उनके गहरे चेले ही थे, अत: उनसे भी 'बिहार दर्पण' में गुरु जी का अनुसरण किए बिना न रहा गया। क्या बिहार में आपका और गुरु जी का वंश नहीं हैं? यदि बड़े भारी योग्य हुए तो घर तथा गुरु घराने के ही इतिहास भवन में दीपक क्यों न जलाया? यदि हम भी 'शठे शाठ्‌यं कुर्यात्' के अनुसार ऐसा ही करने लग जावे तो जीवितों के कौन कहे मरे हुओं के भी कलेजे फट जावे, और हाहाकार मच जावे। परंतु हमको इस व्यर्थ तथा निष्प्रयोजन झगड़े से मतलब ही क्या हैं? बहुत सी बेसिर-पैर की तथा द्वेषपूर्ण व्यर्थ बातों का लिखना एवं निष्प्रयोजन किसी का कलेजा दुखाना आप जैसे ही सत्पुरुषों को मुबारक हो। बस, यहाँ पर इतना ही। आप लोग घबड़ावें न। आप लोगों का विशेष विचार प्रकृत विषय को ले कर ग्रन्थ में ही किया जावेगा।

एक और महात्मा का नाम प्रसंगवश याद आ गया। अत: पाठकों को उनका भी कुछ परिचय करा देना उचित समझता हूँ। आपका शुभ नाम था पं. दुर्गादत्त परमहंस। आप डुमराँव के निवासी थे और अपने विषय में बहुत डींगें हाँका करते थे, जैसा कि आपने अपने दिग्विजय में लिख-लिखा दिया है। आप अपनी दिग्विजयनाम्नी उस पुस्तिका में जगत्प्रसिद्ध धुरंधर विद्वानों की भी अवहेलना करने में न चूके। आप लिखते हैं कि हमने श्रीयुत गंगाधर शास्त्री, श्रीयुत राजाराम शास्त्री तथा श्री बालशास्त्री प्रभृति गणनीय विद्वानों को परास्त किया। भला, इतने ही अल्पकाल की बात की ऐसी बनावट! आपने इसके गवाह न लिख दिए, जिससे संभवत: किसी को शंका होती तो मिट जाती। ऐसा करने में शायद आप समझते थे कि हाल की बात हैं। इसलिए ढँकी-ढँकाई बातों का भंडाफोड़ हो जावेगा तो फिर चेलों में अप्रतिष्ठा हो जावेगी। यदि आप ऐसे अद्वितीय विद्वान थे तो आपकी प्रसिद्धि ब्रह्मांडांतर तक होनी चाहिए थी; क्योंकि पं. बालशास्त्री आदि को ही समग्र भारत वर्ष जानता हैं और ठहरे आप उसके विजेता! परंतु शोक हैं कि आपको तो दूसरे जिले के भी लोग प्राय: न जानते होंगे।

एक बात और भी आप लिखते हैं कि उनके ही समय में थोजेंद्र नाम का राजा डुमराँव में था जो प्रति नूतन श्‍लोक के लिए एक लाख मुद्रा देता था इत्यादि। भला इस बात का कोई ठिकाना हैं? उस समय तथा पूर्व के बाद के डुमराँव-नरेशों को कौन नहीं जानता? आप समझते थे कि भारतवर्ष भोलाभाला ही हैं। हमारे बराबर भी किसी को सुबुद्धि नहीं हैं। सब लोग भोज के नाम पर ही भूल जाएँगे। इसीलिए सरासर असत्य भाषण में जरा भी न हिचके। आपने अपनी परमहंसता खूब ही दिखलाई! अब, ऐसे महात्मा पुरुष जिस किसी के विषय में जो कुछ लिख देंगे उसमें कितना लेश सत्य का होगा इसे बुद्धिमान लोग स्वयं समझ लेंगे। आपकी विशेष लीला आगे आपके बनाए भानमती के पिटारे को ही खोल कर दिखलाएँगे।

यह तो हुई संस्कृत और हिंदीदाँओं की विचित्र कथा। अब अंग्रेजीदाँओं का भी थोड़ा परिचय कर लीजिए। आजकल के लोग परछिद्रान्वेषण में बहुत तत्पर हो रहे हैं और 'अपना ढेंढ़र न देख कर दूसरे की फुल्ली निहारने' वाले किस्से को चरितार्थ करने में जरा भी संकोच नहीं करते। बस चटपट किसी अंग्रेज की बनाई किताब की दो-चार बातें किसी जाति के विषय को देख कर तदनुसार ही फोनोग्राम की तरह स्वर भरने लग जाते हैं। इतना भी नहीं विचारते कि मेरे विषय में उन्हीं अंग्रेजों ने लिखा है, उसे भी तो जरा देख लूँ। उन्हें इससे मतलब ही क्या हैं? दूसरे की झूठमूठ हँसी-ठट्ठा कर के केवल अपने पवित्र चित्त को संतुष्ट करना है। उन्हें बकरे की जान की क्या पड़ी हैं? केवल अपनी लोलुप जिह्ना के स्वाद से ही प्रयोजन हैं। साथ ही, यह भी बात हैं कि यदि वे लोग अपनी जाति तथा दूसरे की दुर्दशा उन्हीं अंग्रेज लिख्खाड़ों द्वारा की गई देख ले तो फिर उनकी आई-बाई हज्म हो जावे; और लिखने का रोजगार ही मारा जावे; जिससे दूसरों के सामने पूँछ हिला कर चार पैसे कमा सकना भी असंभव हो पड़े। क्योंकि दूसरे की निंदा करने से ऐसी दशा में वे इसलिए डरेंगे कि इन्हीं ग्रन्थों को देख कर दूसरे भी धज्जियाँ उड़ाने लग जावे। अत: वे लोग कूपमंडूक बनना ही अपने रोजगार कायम रखने के लिए पसंद करते हैं। अथवा बहुतेरे जान बूझ कर भी अपनी सज्जनता का परिचय इसलिए देते हैं कि कोई मेरे विरुद्ध लिखेगा ही क्यों कर? क्योंकि वे मद में फूले रहते हैं कि ये पुस्तकें देख ही कौन सकता है? और यदि कोई लिखेगा भी तो यह कह कर निकल जाएँगे कि 'जूते तो उसने अवश्य मारे, परंतु वे लाल थे'। परंतु इसको बुद्धिमानी और भलेमानुसी नहीं कहते।

लेखक को चाहिए कि जो कुछ लिखे उसका पूर्वापर विचार लेवे। केवल अंग्रेज लेखकों की दो-चार बातों पर भूल कर किसी का दिल व्यर्थ ही दुखाना या उसकी हँसी-ठट्ठा करना अच्छा नहीं हैं। क्योंकि किसी देश की रस्म-रिवाज तथा जाति-पाँति के विषय में लिखनेवाले अंग्रेजों का यह पूर्व से ही अटल सिद्धांत रहता हैं कि जैसे हम लोगों में इसका विचार नहीं हैं वैसे भी भारतादि देशों में भी प्रथम नहीं था। बस, इसी सिद्धांत की पुष्टि करने के लिए वे लोग दिलोजान से परिश्रम करते और छिद्रान्वेषण करते रहते हैं। अन्त में पुराणादि के दो-चार आख्यानों तथा आचार-व्यवहारों को पढ़, सुन कर सब जातियों के धोने में अग्रसर हो जाते हैं। उनको इस प्रकार सब जातियों को हल कर एक सिद्ध करने में जनसाधारण की कल्पित किंवदंतियाँ बड़ी ही सहायक हुआ करती है। इसीलिए इस तरफ उनका ध्यान बहुत ही रहा करता है और प्राय: उनकी सभी पोथियों में इनकी भरमार पाई जाती है और इन्हीं तथा दो-चार वर्तमान आचारों के आधारों पर वे अपने मनोराज्य किया करते और तदनुगुण सिद्धांतों को निकाला करते हैं। यदि आगे प्रसंग होगा तो हम उनकी इस किंवदंती आदि वाली शैली को स्पष्ट दिखलाएँगे। लेकिन इनके आधार उनके ऐसा करने में उनका अपराध ही क्या कहा जा सकता है? अपराध तो सरासर हम भारतीयों का हैं, जो एक-दूसरे के निपट द्रोही बने हुए हैं। जहाँ एक ही जाति में एक-दूसरे को नीच बनाने का रात-दिन यत्‍न हो रहा हैं और इसकी पूर्ति के लिए गढ़ंत पुस्तकें लिखी तथा नई-नई किंवदंतियाँ गढ़ी जा रही हैं, वहाँ एक जाति दूसरे के साथ ऐसा न करे इसमें आश्‍चर्य ही क्या हैं? अन्त में फल इसका यह होता है कि जो दूसरे की निंदा के लिए ऐसी कुछ कल्पना करता है वह भी उसकी निंदा के लिए ऐसा ही किया करता है और ऐसा करने में बड़े-बड़े ग्रन्थ, पुराण तथा उपपुराणों के नाम से रच दिए जाते हैं। कहीं-कहीं प्राचीन ग्रन्थों में ही कुछ मिला दिया जाता है या बड़े-बड़े कल्पित इतिहास तथा उपन्यास तैयार करा कर उनमें ही कुछ-न-कुछ सटा दिया जाता है। जिसका प्रतिफलरूप महान अनर्थ यह हो जाता है कि वे वैदेशिक लोग उन्हीं बातों तथा किंवदन्तियों को ले उड़ते और उसी आधार पर सभी जातियों को स्वाहा कर डालते हैं और उन्हीं की कल्पित बातों को ले कर आजकल हमारे नई रोशनीवाले बहुत से अंग्रेजी तथा हिंदी ग्रन्थों, समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं के मनमाने लिख्खाड़ भी फैसला करने लग जाते हैं। धिक्कार हैं हम लोगों की आर्यता, भारतीयता और हिंदूपन को! हम इस प्रकार दूसरे के पाँव चलनेवाले हो गए कि अन्त में जाति-पाँति और धर्म के विषय में उन्हीं के ग्रन्थों का प्रमाण देते हुए लज्जा भी नहीं करते और न पूर्वापर विचार ही करते हैं।

वैदेशिक लोग यदि हमारे ही देश में जन्म बितावें तब भी हमारे आचारों तथा विचारों के पूरे-पूरे ज्ञाता नहीं हो सकते। फिर 2-3 या 10-20 वर्ष ही रहनेवालों की बात ही क्या हैं! परंतु हम लोग तो इतने बह गए कि इस विषय में भी उन्हीं का उच्छिष्ट स्वीकार करने लग गए हैं। हमारी बुद्धि इस प्रकार मारी गई है कि हम अपने ही देश, जाति और कुल के मनुष्यों को नीच बनाने के लिए सहस्रों कुकल्पनाएँ तथा रचनाएँ करने में तनिक भी नहीं हिचकते; जिसका फल यह होता है कि हम भी उसी अंधाकूप में बलात् ढकेले जाते हैं। क्या ब्राह्मणों में ही परस्पर एक-दूसरे को सवालक्खी बनानेवाले यह नहीं जानते कि वह भी हमारे विषय में ऐसी ही कुछ कल्पनाएँ करेगा? और जब साक्षात् या परम्परा या हमारे साथ उसका ब्याह सम्बन्ध या खान-पान हैं तो फिर हम क्या होंगे? परंतु फिर भी द्वेष या पक्षपात ऐसी वस्तु हैं कि उनसे यह बात करवा ही डालती हैं। जिसका फल यह होता है कि उनको लाचार हो कर वैदेशिकों की दुरुक्‍तियों तथा निंदाओं का लक्ष्य बनना पड़ता हैं। ऐसी ही दशा अन्य जातियों के भी विषय में तथा परस्पर दो जातियों की भी जाननी चाहिए। हाँ, ब्राह्मणों में जरा इनकी विशेषता होते-होते पराकाष्ठा हो गई है। क्योंकि उन्हें तो 'ब्राह्मणो ब्राह्मणं दृष्ट्वा श्‍वानवद् गुर्गुरायते' अक्षरश: सिद्ध करना है और अब विशेष योग्यता के रह जाने से, अविद्यांधकार की बहुलता और व्यक्‍तिगत स्वार्थांधता के कारण एक-दूसरे की आँखें तेली के बैल की तरह बंद कर के ही अपना कार्य साधना चाहते हैं; छल-कपट तथा दंभ से ही अपनी पूर्व प्रतिष्ठा रखने का अब यत्‍न किया जाता है।

बस, इन्हीं सब बातों को देख कर वैदेशिक लोग इन्हें किताबों में ज्यों की त्यों लिख पुरोहित दल को स्वार्थी कह कर उसकी मट्टी पलीद किया करते हैं। अंग्रेजों के ग्रन्थों में से दो-एक को छोड़ कर सभी के देखने से यही सिद्ध होता है कि याचक ब्राह्मण (पुरोहित), भाट, नाई, बारी, भर और कुर्मियों आदि; राजपूत, जाट, कहार, भर, राजभर, अहीर, पासी और कुर्मियों एवं कायस्थ, भड़भूँजा कहारादि में कुछ भी भेद नहीं हैं। यही लोग क्रमश: याचक ब्राह्मण, राजपूत तथा कायस्थादि बन गए हैं। अत: इनको प्रमाण मान कर उसी आधार पर किसी की जाति का निर्णय करना सभी जातियों की संकरता का सूत्रपात करना है। अत: मेरी समझ में कम-से-कम जाति तथा धर्म के विषय में इनका नाम भी लेना उचित नहीं हैं। हाँ, ऐतिहासिक अंश में वे प्रमाण माने जा सकते हैं, जिसको उन्होंने पालि तथा ग्रीक आदि ग्रन्थों और प्राचीन शिलालेखों आदि के आधार पर लिखा है। परंतु उस आधार पर जो सिद्धांत (theory) वे निकालने लग जाते हैं उस अंश में वे माने नहीं जा सकते। अतएव मैं इस ग्रन्थ में केवल ऐतिहासिक अंश में ही जहाँ-तहाँ उनकी सम्मतियाँ प्रमाण रूप से उद्धृत करूँगा। हाँ, उनके जो कुतर्क और कुकल्पनाएँ कहीं-कहीं अयाचक ब्राह्मण समाज के विषय में आपातत: लक्षित हुई हैं, अथवा उन्हीं भित्तियों पर हमारे देशीय नवीन बाबुओं ने जो मानसिक प्रसाद खड़े किए हैं उनके ध्वंस करने के लिए 'मियाँ जी की जूती और मियाँ जी का सिर' इस न्यायनुसार उनका अवलंबन कहीं-कहीं करूँगा, न कि स्वतन्त्र प्रमाण रूप से। अथवा दो-एक जगह 'तुष्यतु दुर्जन' न्याय से ही उन महाशयों का नाम स्मरण करूँगा, क्योंकि आजकल के अर्द्धदग्धा बाबू लोग उन्हीं के वाक्यों को इस विषय में भी ब्रह्मा, व्यास तथा वसिष्ठादि के वाक्यों से बढ़ कर माननेवाले हैं और उन्हें उनके बिना संतोष नहीं होता उनके मनाने को दूसरा उपाय ही क्या हैं? और हमको तो मानना ठहरा सभी को।

यद्यपि ऐतिहासिक अंश में भी हम उन्हें न मानते, यदि हमारे घर में ही पूर्ण सामग्री उसकी भी होती। परंतु हम लोगों ने तो पौराणिक काल के बाद से या तो इतिहासों का लिखना ही छोड़ दिया, या लिखा भी तो उसे भी उपन्यास, नाटक अथवा प्रहसन ही बनाने में दत्तचित्त हो कर सत्यांश को बिलकुल तिलांजलि ही दे दी, और राग-द्वेष में आ कर जिसके विषय में जैसा मन में आया लिख कर बदला चुका लिया। इसलिए हार मान कर तत्वजिज्ञासुओं को आज तक के इतिहास को शृंखलाबद्ध करने के लिए पालि, ग्रीक तथा तन्मूलक वैदेशिक वाक्यों का अवलंबन करना ही पड़ता हैं और ऐसा करने में कुछ हानि भी नहीं हैं। परंतु धार्मिक तथा जातीय अंश में तो उनको मानने में विशेष कर या तो उच्चजातियों की दुर्दशा हैं, या जिनकी किसी प्रकार से प्रसिद्धि हैं और संसार में किसी-किसी अंश अथवा बहुत से अंशों में प्रतिष्ठित समझे जाते हैं उनकी। जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय या राजपूत, अग्रवाले, खत्री, कायस्थादि।

मैंने अंग्रेजी ग्रन्थों में लिखा हुआ प्रत्येक जाति का तत्व जानने के लिए जिन ग्रन्थों का प्राय: आद्योपांत अवलोकन किया है उनके नाम ये हैं ─

(1) टाड साहब का राजस्थान (Tod's Rajasthan),

(2) डब्ल्यू. एच. ईलियट कृत भारतवर्ष का इतिहास (W.H.Elliot's History of India),

(3) सन 1865 से 1911 तक की भिन्न-भिन्न प्रांतों तथा समस्त भारतवर्ष की मनुष्य-गणना का विवरण (Census report of India, from 1865 to 1911),

(4) नेविल का संयुक्‍त प्रांत का गजेटियर (Nevill's Gaetteer of N.W.P.)

(5) फिशर का संयुक्‍त प्रांत का गजेटियर (Fisher's Gazetteer of N.W.P.),

(6) शेरिंग का भारतीय जाति विवरण (Tribes and Castes of India by M.A. Sherring)

(7) रिजले का भारतीय मनुष्य (H.M. Risley's People of India),

(8) डबोइस कृत भारतीय मनुष्य संबंधी रस्म-रिवाज आदि का विवरण (Description of the Character, Manner and Customs of the People of India by J.A. Dubois),

(9) क्रुक का संयुक्‍त प्रान्तीय जाति विवरण (Crooke's Tribes and Castes of N.W.P.), (

10) नेस्फील्ड का संयुक्‍त प्रान्तीय संक्षिप्त जाति विवरण (Brief views of the Castes System of N.W.P. and Oudh by J.C. Nesfield M.A.),

(11) डॉक्टर विल्सन कृत भारतीय जाति (Dr. Wilson's Indian Caste),

(12) डॉ. ओल्डहम कृत गाजीपुर आदि का विवरण (Dr. Oldham's Memoir of Ghazipur etc.),

(13) ईलियट की सप्लीमेंटल ग्लासरी (H.M. Eliot's Supplemental Glossary),

(14) बौद्धकालिक भारत (The Buddhist India by Rhys David),

(15) प्राचीन भारत, मेक्क्रिंडिल कृत (Ancient India by J.W. Mc. Crindle),

(16) एलफिंस्टन कृत भारतीय इतिहास (History of India by Hon. Elphinston),

(17) बलवंतनामा (Bulwant Namah Translated by Fredrick Curven),

(18) आईन-ए-अकबरी (Ain. i. Akbari Translated by Col. Jarrett),

(19) एशिया संबंधी अंवेषण (Asiatic Researches by Jonaathan Duncan etc.) इत्यादि।

इसके अतिरिक्‍त और भी बहुत सी छोटी-बड़ी अंग्रेजी किताबों का अवलोकन किया है। जिनमें केवल प्राय: शेरिंग को छोड़ कर (क्योंकि उन्होंने बहुत जाँच कर जैसा पाया हैं वैसा ही लिख दिया है और उससे कोई सिद्धांत (theory) सिद्ध नहीं किया है। अत: उनका लेख प्राय: विश्‍वसनीय हैं) सबों ने प्रसिद्ध जातियों का विशेष कर बहुत ही परिहास किया है और बहुत-सी किंवदंतियों आदि के आधार पर सभी को जैसा कि पहले कह चुके हैं, एक सिद्ध करने का खूब ही यत्‍न किया है। बल्कि एक प्रकार से अयाचक ब्राह्मणों (भूमिहार आदि ब्राह्मणों) को बाल-बाल बचा दिया है। क्योंकि इनके विषय में दो-एक किंवदंतियाँ मात्र कहीं-कहीं लिख-भर दी हैं और फिर उनका खण्डन भी अपने आप ही कर दिया है, जैसा कि आगे चल कर विदित होगा। परंतु उन किंवदंतियों के आधार पर इनके विषय में कोई सिद्धांत (theory) नहीं निकाला हैं। बल्कि खुले शब्दों में स्वच्छ आर्य संतान कहा और चेहरे-मोहरे तथा चाल-व्यवहार से सिद्ध भी कर दिया है। परंतु याचक ब्राह्मण, राजपूत तथा कायस्थादि के विषय में बहुत-सी किंवदंतियों तथा आचार-व्यवहारों को लिख कर उनके आधारों पर बहुत से सिद्धांत निकाले हैं, और इस तरह सभी को रसातल पहुँचाने तथा संकर कर देने में कुछ भी नहीं छोड़ रखा हैं। इसलिए मैं अथवा कोई भी आस्तिक पुरुष उनके वाक्यों को इस विषय में प्रमाण मानने का साहस भी नहीं कर सकता, उनके आधार पर किसी बात का निर्णय करना तो दूर रहा। मेरा विचार जहाँ तक हैं, ऐसी दशा में किसी भी जाति-पाँति के माननेवाले असली भारत संतान की लेखनी केवल उनके आधार पर नहीं उठ सकती और यदि उठेगी तो उसकी भारत-संतानता में ऐसी दशा में अवश्य संदेह किया जा सकता है और किया जावेगा।

सारांश यह है कि उनके आधार पर कुछ भी किसी समाज के विषय में लिख डालना प्रबल निर्लज्जों का ही काम हैं, न कि भद्र पुरुषों का। इसलिए अन्त में मेरी प्रार्थना उन सज्जनों से, जिनको फिर भी उन्हीं आधारों पर लिखने की असदाग्रहपिशाची ग्रसे हुए हैं, यही हैं कि वे लोग किसी भी समाज का व्यर्थ दिल दुखाने के लिए कुछ वाक्य बाण चला कर अपनी सज्जनता का परिचय अवश्य दे। परंतु लिखने से पहले उन सभी ग्रन्थों में अपने समाज का भी किया गया सत्कार पूर्ण रीति से देख ले। नहीं तो मुँह ही खानी पड़ जावेगी और लेने के देने भी पड़ जाएँगे। किं बहुना, 'रोजा को गए नमाज गले पड़ी' वाली कहानी चरितार्थ होने लग जावेगी।

एक बात और भी विचारने की हैं कि वायुपुराण के अध्याय 59 में लिखा हुआ है कि 'इज्यावेदात्मक: श्रौत: स्मात्तरो वर्णाश्रमात्मक:। 39।' अर्थात्, 'यज्ञ तथा वेदादि का पढ़ना वगैरह श्रौत (श्रुतिसिद्धि) धर्म है और वर्णाश्रम विभागदि स्मार्त्त (स्मृति सिद्ध) धर्म है। याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखा है कि 'पुराणन्यायमीमांसा धर्मशास्त्रांग मिश्रिता:। वेदा: स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश। 3।' भाव यह है कि 'पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, चारों वेद और षडंग ये ही विद्या और वर्णाश्रमादि धर्म के स्थान हैं।' मनु जी ने भी लिखा है कि 'वेद: स्मृति: सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मन:। एतच्चतुर्विधांप्राहु: साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्।' अ.2 श्‍लो. 12। जिसका अर्थ यह है कि 'वेद, मन्वादिस्मृति तथा पुराणादि, सत्पुरुषों का आचरण और जहाँ पर दो कामों में से किसी एक को करना हो वहाँ पर अपनी इच्छा ये ही साक्षात जाति, वर्णादि धर्मों के बतानेवाले हैं।' सबका तात्पर्य यह है कि वर्ण, आश्रम आदि विभाग, जाति-पाँति का विचार तथा प्रत्येक धर्म ये सब श्रुतियों, स्मृतियों और पुराणादि द्वारा ही जाने जाते हैं; क्योंकि ये सब विभाग आधुनिक लोगों के बनाए हुए नहीं हैं, किंतु प्राचीन महर्षियों के ही किए हुए हैं। इनके नियमादि और पहचान पुराण तथा स्मृतियों में उन्होंने लिख दिए हैं, न कि अंग्रेजी पोथों में इनका वर्णन किया गया है। अत: जिसको जाति विभाग तथा उसके धर्म आदि जानने की इच्छा होगी, वह उन्हीं आर्ष ग्रन्थों का परिशीलन करे तभी इन सबों के यथार्थ स्वरूप को जान सकेगा, न कि अंग्रेजी ग्रन्थों और अंग्रेजी महावाक्यों के भक्‍त होने से। अतएव भगवान श्रीकृष्ण का गीता में यह अमृतोपदेश हैं कि 'य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:। न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥ 23॥ तस्माच्छास्त्रां प्रमाणं ते कार्यकार्य व्यवस्थितौ। ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥ 24॥ अध्याय 16॥ जिसका भाव यह है कि जो कोई श्रुति, स्मृति, पुराणादि प्रतिपादित धार्मिक व्यवस्था को छोड़ कर मनमाने डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाता हैं, उसके न तो किसी कार्य की सिद्धि ही होती है, न उसे इस संसार में सुख ही मिलता है और न अन्त में मोक्ष ही। इसलिए अच्छे और बुरे सभी कार्यों में इन शास्त्रों को ही प्रमाण मान कर उन्हीं के अनुसार कार्य करना उचित हैं। मनु जी ने भी कहा है कि योवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयात् द्विज:। स साधुभिर्बहिष्क नास्तिको वेदनिंदक: ॥ अ. 2। 11॥

अर्थात 'जो आधुनिक काल्पनिक कुतर्कों के बल से धर्म के मूलभूत उन श्रुति-स्मृतियों का निरादर कर के मनमानी करता है, सत्पुरुषों को उचित हैं कि उसे समाज से बाहर कर दे, क्योंकि वह वेदादि का निंदक होने से नास्तिक हैं। अब आप ही लोग बताएँ कि वैदेशिक ग्रन्थों के आधार पर जाति और धर्म की व्यवस्था करनेवाले मानने योग्य हैं या नहीं और उनका यह कर्तव्य कहाँ तक समुचित हैं। इसलिए हम इस पुस्तक में, जैसा कि प्रथम भी सूचित कर चुके हैं, केवल श्रुति, स्मृति, सदाचार और दार्शनिक विचारों से ही प्राय: सर्वत्र काम लेंगे। केवल इतिहासांश में कुछ-कुछ अन्य ग्रन्थों का अवलंबन करेंगे, परंतु प्राधान्य सर्वदा श्रुति-स्मृत्यादि का ही रहेगा। यों यदि प्रासंगिक वैदेशिक ग्रन्थों के भी वाक्य लिख दिए जावे सो दूसरी बात हैं। और हमारी अल्प बुद्धि जहाँ तक जाती है, इस विषय में सभी लोगों को ऐसा ही करना उचित हैं। अस्तु, अब हम अपने प्रिय पाठकों को प्रकृत विषय तथा ग्रन्थ का कुछ परिचय करा कर अपने इस वक्‍तव्य को यहीं समाप्त करना चाहते हैं। यद्यपि हमारे इस इतने लेख से बुद्धिमानों को इस ग्रन्थ के लिखने का कारण विदित हो ही गया होगा, तथापि थोड़ा-सा कह देना कोई अनुचित बात न होगी। यह बात तो सबको विदित ही हैं कि अयाचक ब्राह्मण समाज प्राचीन काल से भूम्यधिकारी होने और विशेष कर राजकीय झंझटों से अधिक सम्बन्ध रखने के कारण संस्कृत से प्राय: रहित-सा हो रहा हैं। क्योंकि जमींदारी तथा राजपाट और संस्कृतविद्या का विशेष कर इस समय में नितान्त विरोध हैं, जिसका अनुभव प्रत्येक मनुष्य करता है।

जिनकी जीविका आजकल केवल उसी विद्या पर निर्भर हैं वे ही जब वास्तविक संस्कृत ज्ञान से शून्यप्राय हो रहे हैं; शीघ्रबोध, मुहूर्तचिंतामणि, कुछ व्याकरण और सत्यनारायण तथा दुर्गापाठ ही अनाप-सनाप घोख-घाख कर काम चला रहे और अर्थ का अनर्थ कर रहे हैं, जो कि सभी के नेत्रों के सन्मुख ही हैं। तो फिर जिनको उसका पढ़ना जीविका के लिए नहीं, वरन पारलौकिक कार्यों के ही लिए हैं और साथ ही बबुआनी जैसी पिशाचिनी ग्रसे हुए हैं तथा निरक्षर भट्टाचार्य पुरोहित जी एवं गुरु जी भी, यह विचार कर कि यदि हमारे यजमान या शिष्य बाबू साहब चार अक्षर पढ़ जावेंगे तो फिर हमारे बैल न रह जावेंगे और हमारी हर बातों में नुक्‍ताचीनी कर के हमारी फजीहत करते रहेंगे, जिससे हम मनमाने लूट न सकेंगे इत्यादि, यही दिन-रात ठसने तथा पोथों में लिख तक डालते हैं कि आप तो बाबू हैं, आपको केवल साधु ब्राह्मणों की सेवा करना तथा अंग्रेजी-फारसी आदि पढ़ना चाहिए। संस्कृत तो भिखमंगी विद्या हैं। इसे पढ़ कर आप क्या करेंगे? क्या आपको दुर्गा और सत्यनारायण बाँचने, मुहूर्त देखना या कथा बाँचनी और पत्रो उलटने हैं? इत्यादि; उनके लिए इसका पढ़ना ही आश्‍चर्य हैं। जब पुरोहित एवं गुरु जी ही संध्या; गायत्री के ब्याज से केवल झूठे नाक दबाना और चिड़ियाँ उड़ाना ही जानते हैं तो बाबू साहब क्यों कर जानने लगे? और उन्हें यह शिक्षा ही कौन दे? हाँ कोई परोपकारपरायण विद्वान संन्यासी (दंडी) इसका उपदेश कर सकता और संस्कृताध्यायन में बाबू साहब को लगा सकता है। परंतु मूर्ख पुरोहितों और गुरुओं ने, यह समझ कर कि विद्वान महात्मा के प्रवेश होने से हमारी टिक्की ही उड़ जाएँगी, और यदि बारातों में वे लोग आ कर धर्म का उपदेश करेंगे तो बहुत जगह के लोगों को एक ही साथ ज्ञान हो जावेगा, पहले ही से यह भरना प्रारंभ कर दिया कि उनका दर्शन महा अमंगल हैं। यदि वे लोग श्राद्ध में आ जावे तो पितृलोग भाग जावे इत्यादि। फिर क्या हैं? अब वहाँ दंडी जी की कौन गिनती? उनकी प्रतिष्ठा वहाँ कुत्तो से भी बढ़ कर की जाने की तैयारियाँ होने लगीं। अब आप ही लोग विचारिए, इस सीधे-सादे अयाचक बाबू मंडल में अज्ञानांधकार न छा जावे तो क्या होगा? जहाँ पर श्राद्ध संन्यासियों (दंडियों) के विषय में ऐसा लिखा हुआ है कि -

अकाले यदि वा काले श्राद्धं कुर्यादतन्द्रित:।

पितृणां तृप्तिकामस्तु यतीन्प्राप्य द्विजोत्ताम:॥ - ब्रह्मांडपुराण।

बिना मांसेन मधुना बिना दक्षिणयाशिषा।

परिपूर्णं बभवेछाद्धं यतिषु श्राद्धभोजिषु॥ - दक्ष।

मुण्डं यतेन्द्रियं शान्तं ध्यान भिक्षुमकल्मषम्।

त्तान्नित्यं भोजयेछ्राद्धे दैवे पित्रये च कर्मणि॥ - स्कंदपुराण।

निवेशयेत्तु य: श्राद्धे पितृकर्मणि भिक्षुकम्।

आकल्पकालिका तृप्ति: पितृणामुपजायते॥ - पराशर।

अर्थात 'ब्रह्मांडपुराण में लिखा है कि यदि किसी भी काल में संन्यासी द्वार पर आ जावे तो पितृ तृप्ति के लिए अवश्य श्राद्ध करे। दक्षस्मृति में लिखा है कि यदि दंडी श्राद्ध में भोजन कर ले तो बिना दक्षिण तथा मधु आदि के ही श्राद्ध पूर्ण समझा जाता है। स्कंदपुराण में लिखा है कि एक दंडवाले शांत और ध्यानरत संन्यासी को नित्य ही श्राद्ध और पितृकर्म में भिक्षा करानी चाहिए। पराशर ने लिखा है कि जो पितृ कर्म में भिक्षु (दंडी) को खिलाता हैं उनके पितरों की तृप्ति एक कल्पभर होती है इत्यादि।' वहाँ पर संन्यासी को देख कर पितरों के भाग जाने की शिक्षा जो अनर्थन करवा दे उसी में आश्‍चर्य हैं। संन्यासी लोग स्वयं श्रद्धान्न को गर्वित समझ कर नहीं ग्रहण करते यह दूसरी बात हैं। बारातों या अन्य कार्यों में संन्यासी का उपदेश के लिए भी जाना अमंगल हैं यह बात तो कहीं भी मनु आदि धर्मशास्त्रों या अन्य ग्रन्थों में नहीं लिखी हुई हैं। फिर यह निर्मूल प्रलाप सर्वथा अनादर योग्य और नाश करनेवाला हैं। संन्यासी का दर्शन तो शुभ कार्य में निषिद्ध नहीं हैं, परंतु नीचों और शूद्रों की पुरोहिती और उनके अन्न से पेट भरने वालों का यदि मुख कहीं दीख पड़े, तो वह महा अमंगल हैं, जिसके लिए मनु भगवान ने डंका पीट दिया है। परंतु उसको तो बलात याचक ब्राह्मणों के सिर पर प्राय: धारण कर लिया हैं और अपने मुख से पंडित कहते तथा अन्यों से कहवाते हुए जरा भी नहीं हिचकते। वे लोग न जाने किस प्रकार मुख दिखलाने और बोलने का साहस करते हैं? यदि संन्यासी का दर्शन अमंगल भी मानें तो उसका यह अर्थ तो हैं नहीं कि वह अमंगल बाँधे फिरता हैं। किंतु आँख आदि अंगों का अकस्मात फड़कना जिस प्रकार अनिष्ट का सूचक हैं, न कि स्वाभाविक आँखों का हिलना भी, उसी प्रकार यदि अकस्मात संन्यासी का दर्शन हो जावेगा तो उससे सूचित हो जावेगा कि तुम्हारा कोई अनिष्ट होनेवाला हैं, सजग हो जाओ, ऐसी चेतावनी उसे मिल जाती है और वह होशियार कर देने से उपकारक ही हैं। परंतु यदि जानबूझ कर संन्यासी को कहीं लागेगा तो उससे अमंगल की सूचना भी कैसे होगी? क्या अपने से आँख हिलाने पर भी अमंगल की सूचना समझी जाती है? यदि गेरुआवस्त्र निषिद्ध हैं तो फिर विवाहों में उससे ही मकान क्यों रंगते हैं? संन्यासी मुर्दा समान हैं इस निर्मूल बात के कहनेवाले ही मुर्दे हैं। यदि मुर्दा भी हैं तो अच्छा ही हैं, क्योंकि मुर्दे का दर्शन तो मंगल सूचक हैं। यदि कहीं पर भी काषाय वस्त्रधारी का निषेध मान भी लेंगे तो वह लड़के-बालोंवाले गुसाइयों का होगा, क्योंकि वे लोग शास्त्र से अति निंदित सिद्ध होते हैं।

दूसरा कारण अयाचक ब्राह्मणों के संस्कृत न पढ़ने का यह भी हैं कि राज्य तथा जमींदारी का सम्बन्ध होने से यवनों से बहुत काल तक विशेष सम्बन्ध रहा, जिससे 'संसर्गजा दोषगुणा भवंति, अर्थात 'तुख्म तासीर सुहबत असर' के अनुसार उन्हीं यवनों के बहुत से गुण आने लग गए। जैसा कि फारसी पढ़ना, राय, सिंह, ठाकुर, चौधरी और बाबू आदि शब्दों से ही प्रसन्न होना, न कि पांडे, तिवारी आदि शब्दों से। तम्बाकू पीने और सलाम करना-करवाना इत्यादि। जैसा कि आज तक अन्य ब्राह्मणों में भी पाया जाता है, जिसको आगे चल कर प्रसंग से दिखलाएँगे और जब यह भी नीति हैं कि 'राजानमनरुवत्तान्ते, यथा राजा तथा प्रजा' तो इन ब्राह्मणों के इन सब आचारों के विषय में संदेह करना और उसका और अर्थ लगाना अनुचित नितान्त भ्रम हैं। क्योंकि मिथिलादि देशों को लीजिए, तो जहाँ प्रथम यदि 100 पढ़नेवाले होते थे तो सभी संस्कृत ही पढ़ते थे, वहाँ अब केवल संस्कृत पढ़नेवाले कठिनता से 100 में 10 मिलेंगे, जिनका चित्त भी अंग्रेजी की ओर लगा हुआ रहता हैं और अन्ततोगत्वा कुछ-न-कुछ उसे पढ़ लेते ही हैं और 90 तो उधर ही लगे हैं। यह बात क्यों होती है? आजकल सभी का सम्बन्ध अंग्रेज जाति के साथ समान और घनिष्ठ हैं और जो ही उसे पढ़ता हैं वही उनके दरबार में प्रतिष्ठित हैं। इसीलिए सब लोग उधर ही टूटते हैं। ठीक ऐसा ही यवन काल में भी जान लीजिए। हाँ, उस समय इतना विशेष अवश्य था कि जो ही फारसी पढ़ ले उसी की प्रतिष्ठा नहीं होती थी, क्योंकि वे लोग अंग्रेज लोगों के जैसे विद्या के प्रेमी न थे। किंतु बड़े-बड़े बाबुआनों की ही प्रतिष्ठा थी। इसीलिए और राजकार्य के भी उसी विद्या में होने से उन्हें फारसी अवश्य पढ़ना पड़ता था। इसीलिए अन्य ब्राह्मण या तो कुछ पढ़ते ही न थे, अथवा यदि दो-एक पढ़नेवाले होते भी थे तो लाचार हो कर उसी संस्कृत को ही जिलाए रखते थे।

जब इस प्रकार से अयाचक ब्राह्मण दल में संस्कृत का प्राय: अभाव हो गया और उसकी विरोधिनी वह फारसी पिशाची उसकी जगह आ बैठी, तो उन लोगों को ब्राह्मण किसे कहते हैं, कौन ब्राह्मण श्रेष्ठ कहा जा सकता है और उसके धर्म या कर्म कौन से हैं इसका यथार्थ ज्ञान न हो सका। बल्कि उसका होना एक प्रकार से असंभव-सा हो गया। क्योंकि ये सब बातें बिना संस्कृत के जानी नहीं जा सकतीं, इनका वर्णन केवल संस्कृत ग्रन्थों में ही हैं। और धीरे-धीरे उनमें से प्राय: बहुतेरे ऐसा समझने लगे (जैसा कि मुसलमान लोग समझते थे और समझते हैं तथा प्राय: अंग्रेजी ग्रन्थकारों की भी अब तक वही धारणा हैं) कि जो पुरोहिती आदि करे ओैर प्रतिग्रहादि तथा भिक्षा से अपना जीवन व्यतीत करे उसे ही पक्का ब्राह्मण कहते हैं। हम लोग भी ब्राह्मण ही हैं। परंतु पक्के नहीं, किंतु राजा, बाबू, जमींदार हैं। उसी दिन से विशेष कर जमींदार ब्राह्मण कहने की प्रथा पड़ गई, जैसी आज भी प्रयाग, बाँदा तथा पूर्वीय अन्य प्रांतों में पाई जाती है। इस विषय का मुझे स्वयं अनुभव हुआ है।

मैं रेलवे ट्रेन में जाता था। इतने में दरभंगा प्रांत के बछवारा जंक्शन के पास बाजिदपुर स्टेशन पर एक मनुष्य गाड़ी पर इंटर क्लास में चढ़ा। उसके चेहरे से प्रतीत होता था कि ब्राह्मण हैं। मैंने पूछा कि क्या आप मैथिल ब्राह्मण हैं? उसने कहा कि हाँ हम मैथिल ब्राह्मण हैं, परंतु जमींदार हैं, न कि साधारण मैथिल और जाले जलैवार मूल के हैं। पाठक उसके इस वाक्य का अर्थ लगा लें। क्या मेरे बतलाए हुए अभिप्राय से दूसरा हैं? बस इसी निश्‍चय को गुरु और पुरोहित भी बहुत दिनों तक पक्का करने लगे और धीरे-धीरे कहने लगे कि ब्राह्मण क्या आप तो राजा बाबू हैं और बाबू साहब भी इसी पर फूलने लगे। थोड़े दिन तक ऐसा ही होते-होते जब कुछ प्रमाद और बढ़ गया और संस्कृत का एकदम अभाव हो कर प्रचंड मूर्खता सिर पर सवार हो गई और उधर पुरोहत जी वाला वह उपदेश कि ब्राह्मण क्या आप तो राजा, बाबू, जमींदार हैं, खूब दृढ़ हो गया, तो उन बाबुओं को यह निश्‍चय हो गया कि पुरोहिती आदि करने, प्रतिग्रह लेने और भिक्षावृत्ति से जीविका करनेवाले को ही ब्राह्मण कहते हैं, हम लोग तो जमींदार हैं। इस निश्‍चय के दृष्टांत आज भी पाए जाते हैं, क्योंकि जब कोई किसी के द्वार पर गिरता, भिक्षादि लेने में विशेष आग्रह करता और जान देने पर तैयार हो जाता है तो उसी समय लोग कहते हैं कि यह 'बम्हनई' करता है। सदाचारी और पंडित के व्यवहार पर 'बम्हनई' शब्द का प्रयोग नहीं होता। दरभंगा प्रांत में किसी मैथिल ब्राह्मण ने किसी पश्‍चिम ब्राह्मण से कहा कि आप ब्राह्मण हैं या बाभन? तो उसने चट उत्तर दिया कि मैं तो बाभन हूँ, ब्राह्मण आप ही हैं। जब फिर उसने कहा कि ऐसा क्यों साहब? तो उसने उत्तर दिया, क्योंकि 'वराह यानी शूकर की तरह जिसका मन हो उसे ब्राह्मण कहते हैं, अर्थात जैसे शूकर विष्ठा की ओर दौड़ा करता है वैसे ही जो दिन-रात खाने के पीछे दौड़ा करे और प्रतिग्रह कमाता फिरे उसे ब्राह्मण कहते हैं और मैं वैसा नहीं हूँ।' क्या ये सब बातें उपर्युक्‍त सिद्धांत को अक्षरश: सिद्ध नहीं करतीं?

बस इन्हीं दिनों से अयाचक ब्राह्मण दल में केवल जमींदार शब्द का प्रयोग चला जो आज तक भी बहुत जगह पाया जाता है। कुछ दिन के बाद उसी दल के (अयाचक ब्राह्मण दल के) कुछ लोगों ने विचारा कि जमींदार तो सभी जातियों को कह सकते हैं, फिर हममें और अन्य जातियों में, जो जमीनवाली हैं, भेद क्या रह जावेगा? और थोड़े दिन बाद गड़बड़ मचने लग जावेगी। इसीलिए जमींदार शब्द के ही अर्थ में संस्कृत भूमिहार शब्द का प्रयोग अपने समाज में करना प्रारंभ कर दिया। यद्यपि भूमिहार जमींदार शब्दों के अर्थ एक ही हैं, तथापि पृथक संकेत कर लेने से अब सबके मिलने का डर न रह गया। क्योंकि जैसे नमस्कार और प्रणाम शब्दों के अर्थ एक ही हैं तथापि ब्राह्मण ही परस्पर एक-दूसरे को नमस्कार करते हैं और दूसरे लोग प्रणाम ही करते हैं। मिथिला में तो यहाँ तक प्रचार हैं कि शूद्र तथा अंत्यज भी ब्राह्मणों को प्रणाम ही करते हैं, परंतु यदि अन्य जाति नमस्कार शब्द का प्रयोग कर दे तो दंगा मच जावे। हालाँकि दोनों के अर्थ में कुछ भी भेद नहीं हैं, परंतु सांकेतिक भेद मान लिया गया है। बस यही दशा भूमिहार और जमींदार शब्दों की हैं। केवल सांकेतिक भेद मान लिया गया है जिससे भूमिहार कहने से अयाचक ब्राह्मणदल का बोध होता है, न कि जमींदारादि शब्द कहने से। इसके विषय में विशेष विचार तथा इसका प्रयोग कब से हुआ इस विषय में भी अच्छी तरह से विचार ग्रन्थ में ही आगे चल कर किया जावेगा।

इसी जगह इतना और समझ लेना चाहिए कि यवनादि काल में जहाँ इन ब्राह्मणों का प्राधान्य नहीं रहा हैं, किंतु राजपूत आदि जातियाँ ही प्रधान रही हैं, वहाँ ये लोग अब तक उसी पांडेय, तिवारी, चौबे, दूबे तथा मिश्रादि नामों से शाहाबाद आदि प्रांतों में कहे जाते हैं, क्योंकि वहाँ डुमराँव राज्य का ही प्राधान्य रहा हैं। ऐसे ही अन्यत्र भी उन्हीं पांडेय आदि के घनिष्ठ सम्बन्ध से लोग प्रधान होने पर भी उसी पुराने नाम से कहे जाते हैं।

बस अब क्या हैं? इसी अविद्यांधकार में स्वार्थांध, द्वेषी और परीहितकारी डाकुओं की बन पड़ी और बहुत सी किताबें लिखी जाने और किंवदंतियाँ रची जाने लगीं। जिनका मुख्य उद्देश्य यह था और हैं कि और बातों में तो वे लोग बढ़े ही हैं, परंतु बबुआई ठाट में विद्या नहीं पढ़ते। यहाँ तक मस्त हैं कि अंग्रेजी का भी नाम नहीं लेते। इसलिए सहस्रों कुकल्पनाएँ कर के इन्हें जाति में ही नीचा कर दो, जिसे ये लोग समझ भी न सकें और हम लोगों का स्वार्थ भी सिद्ध हो जावे और फिर इन्हें लूट कर खा जावे। क्योंकि यदि सिंह को यह अभिमान हो जावे कि मैं गीदड़ हूँ तो फिर उसकी पीठ पर बोझ लादने में क्लेश ही क्या हो सकता है? इसी प्रकार ये लोग यदि जात्यभिमान में नीचे पड़ जावेंगे तो इनकी सब योग्यता मिट्टी में मिल जावेगी। और हम स्वार्थी गुरु, पुरोहित तथा कर्मचारियों की खूब बन पड़ेगी, फिर जैसा चाहेंगे 'चें-में' बोलाया करेंगे। इसीलिए बड़े-बड़े छल से ऐसी-ऐसी पुस्तकें बनी जिनमें यह तो स्पष्ट रूप से लिख अथवा लिखवा दिया गया कि आप लोग केवल ब्राह्मणों की सेवा के लिए बनाए गए हैं इत्यादि। और वे अविद्याग्रस्त होने से उस आंतरिक छल-कपट और द्वेष की या तो समझ ही न सके, अथवा इन्हें यह अवसर और सौभाग्य ही न प्राप्त हुए कि उन ग्रन्थों को देखें भी। उधर मनुष्यगणना के विवरण तथा अन्य वैदेशिकों के ग्रन्थों में भी लोगों ने कुछ झूठ-साँच कह-सुन कर छल-कपट से उलटा-पलटा कुछ-का-कुछ लिखवा दिया। इधर दोनवार, किनवार तथा गौतमादि नाम देख अंग्रेजों के साथ मिल कर यह विचार और निर्णय किया जाने लगा कि ये लोग क्षत्रिय हैं इत्यादि। इसी तरह की बहुत सी स्वार्थ और द्वेषपूर्ण कल्पनाएँ होने लगीं जिनकी विस्तारश: समालोचना आगे की जावेगी। बड़ा भारी आश्‍चर्य तो यह है कि ये जितनी बातें की गईं वे सब इस समाज के सामने न की जा कर चोरी से परोक्ष में की गईं। इसीलिए अंग्रेज लोग अपनी सभी किताबों में यही लिख गए हैं कि 'Their Brahman and Chhatri neighbours insinuate etc...'-जिसका तात्पर्य यह है कि 'इन (भूमिहार ब्राह्मणों) के पड़ोसी ब्राह्मण और राजपूत चुपके से इशारा करते या उकसाते हैं कि...'। इसीलिए साफ दिल होने से अन्त में लिख भी दिया है कि 'To this view, however, there is no evidence' 'अर्थात लेकिन उन लोगों की इन उक्‍तियों में कोई भी प्रमाण नहीं हैं।'

भला जहाँ पर किसी अज्ञानांधकार में पड़े हुए सर्वोच्च और प्रतिष्ठित समाज को नीचा दिखलाने के लिए इस प्रकार छल-कपट और चोरियाँ की जाती है वहाँ कल्याण की कौन सी आशा की जा सकती हैं? इन्हीं सब अनर्थों को देख कर एक ऐसे ग्रन्थ के बनाने की आवश्यकता हुई जिसमें इन सब मिथ्या कुकल्पनाओं की खुले शब्दों में निष्पक्षपात भाव से समालोचना की जावे और इस विषय पर आज तक जितनी कुशंकाएँ हुई हैं या हो सकती हैं उनका मुँहतोड़ उचित समाधन कर दिया जावे, जिसमें भविष्य के लिए मार्ग साफ रहे और श्रुति, स्मृत्यादि प्रमाणों से अयाचक ब्राह्मणों का उज्ज्वल और सर्वोत्तम स्वरूप प्रकाशित कर दिया जावे, जिसमें अकारण द्वेषी और स्वार्थी लोग चूँ न कर सकें।

एक बात और भी हैं कि जैसे अन्य ब्राह्मणों तथा दूसरे समाजों का कुछ-न-कुछ इतिहास लिखा हुआ है इसी कारण से उनके ऊपर विशेष रूप से कोई भी आक्रमण करने का साहस नहीं कर सकता। क्योंकि जागनेवाले गृह में चोरी करने का साहस कौन कर सकता है? वैसे ही यदि अयाचक ब्राह्मण समाज का कोई निज का टूटा-फूटा भी सच्चा इतिहास होता तो आज इसकी ऐसी दुर्दशा न होती और जो ही चाहता वही मनमानी निंदाएँ करने का साहस नहीं करता। इसलिए इस महती त्रुटि की पूर्ति के लिए भी ऐसे ग्रन्थ की नितान्त आवश्यकता थी।

सबसे बड़ी बात यह है कि जिस जाति, देश या समाज का इतिहास नहीं होता, वस्तुत: उसकी स्थिति संसार में रही नहीं सकती। इसीलिए जो समाज जिसको दबाना चाहता हैं वह प्रथमत: उसके इतिहास को ही बिगाड़ता हैं, यह विषय इतिहासवेत्ताओं को परोक्ष नहीं हैं। क्योंकि किसी समाज का सच्चा इतिहास ही उसके पूर्वोत्तर पुरुषों की स्थिति का परिचय कराता हुआ गिरे हुओं को उठाने में संजीवनी बूटी का-सा काम करता है। क्योंकि वह हमें सिखलाता हैं कि हमारे पूर्वपुरुष अमुक-अमुक कार्य करने से उन्नति के शिखर पर आरूढ़ थे। इसलिए हमको भी उन्नति प्राप्त करने के लिए वैसे ही कार्य करने चाहिए। हम मृगराज के वंशज हैं, न कि शृगाल के। अत: हमको अपने वास्तविक गौरव और स्वरूप का स्मरण करना चाहिए इत्यादि।

इन्हीं सब उद्देश्यों को ले कर मेरी प्रवृत्ति इस ग्रन्थ में हुई हैं। ताकि अयाचक ब्राह्मण समाज के सुचारु इतिहास भवन की प्रतिष्ठा (नींव) तैयार हो जावे, जिसमें भित्ति आदि द्वारा उस सुशोभापूर्ण रमणीय भवन के निर्माण करने वालों को भविष्य में सौकर्य हो। इस महा विशाल इतिहासागर की प्रतिष्ठा (नींव) सुदृढ़ और सुचारु रूप से बननी चाहिए। अत: उसकी दृढ़ता के लिए मैं उन्हीं श्रुति, स्मृति, पुराण तथा शिष्टाचार प्रमाणरूप अमूल्य पाषाणों का अवलंबन करता हुआ विषय-विवेचन करूँगा। विषय का सम्यग्विभाग रहे और जन साधारण भी उसको पूर्णतया हृदयंगम कर सके इसके लिए मैं इस ग्रन्थ को पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध इन दो विभागों में विभक्‍त करूँगा और अन्त में परिशिष्ट रहेगा। जिनमें से पूर्वभाग का नाम द्विविध ब्राह्मण विचार और उत्तर का नाम कंटकोद्धार होगा। द्विविध ब्राह्मण विचार प्रकरण में श्रुति, स्मृति, पुराण तथा सदाचारादि प्रमाणों से अयाचक ओैर याचक इन दो प्रकार के ब्राह्मणों के स्वरूपों का सुस्पष्टतया निरूपण होगा और उसकी पुष्टि में साम्प्रतिक परस्पर दोनों के नमस्कारादि के पत्रों, समाचार-पत्रों तथा बड़े-बड़े विद्वानों के हस्ताक्षर युक्‍त बड़ी-बड़ी व्यवस्थाओं का प्रदर्शन किया जावेगा और जो सबसे प्रबल और संप्रति विद्यमान प्रमाण इस विषय में परस्पर विवाह सम्बन्ध हैं, जो जमींदार, भूमिहार, पश्‍चिमी ब्राह्मणों का सर्यूपारीणों, कान्यकुब्जों तथा मैथिलों के बड़े-बड़े कुलीनों के साथ होता था और हो रहा हैं और त्यागी ब्राह्मणों का गौड़ ग्राही ब्राह्मणों के साथ हो रहा हैं और जिसे मैथिल महासभा, मिथिला मिहिर पत्र तथा भारत मित्रादि पत्रों ने भी बिना रोक-टोक स्वीकार किया है, उसके भी विस्तारश: प्रदर्शनपूर्वक रहस्यों का उद्घाटन करेंगे। इसके अतिरिक्‍त इस प्रकरण में बहुत से छोटे-छोटे अवांतर प्रकरण होंगे, जिनमें वैदिक समय से ले कर आज तक के शृंखलाबद्ध ब्राह्मणों के स्वरूप तथा आचार, व्यवहार और जीविका रूप इतिहास का वर्णन स्वदेशी तथा विदेशी प्रामाणिक ग्रन्थों के आधार पर होगा। जिसका प्रदर्शन विस्तारश: वैदिक, स्मार्त्त, पौराणिक, बौद्ध, यवन और ब्रिटिश कालक्रम से किया जावेगा। साथ ही, भूमिहार, पश्‍चिम, जमींदार, त्यागी, महियाल वगैरह संज्ञा संबंधी कालादि का भी विशेष विचार करते हुए ब्राह्मणों के जीविकार्थ तथा धार्मिक कर्मों का निरूपण किया जावेगा और ठाकुर आदि उपाधियों का विवेचन करते हुए साम्प्रतिक आचारों का भी दिग्दर्शन करा कर उनके औचित्यनौचित्य का विचार किया जावेगा और उनके कारण भी दिखलाए जाएँगे इत्यादि।

एवं द्वितीय प्रकरण में, जिसका नाम कंटकोद्धार होगा इस ब्राह्मण समाज पर आज तक जितने अनुचित और भ्रममूलक मिथ्या आक्षेप हुए हैं उनके प्रदर्शनपूर्वक उनकी कड़ी समालोचना करते हुए उनका उचित समाधन किया जावेगा और उसके बहुत से छोटे-छोटे अवांतर प्रकरणों में अयाचक ब्राह्मणों के उत्पत्ति विषयक प्रश्नों की समालोचना होगी और इस विषय पर कल्पित ग्रन्थों की निस्सारता का सुचारु रूप से निरूपण होगा। इसके बाद इस विषय की तथा अन्य विषयक जितनी किंवदंतियाँ आदि और तन्मूलक स्वदेशी तथा विदेशी सज्जनों के जो वाक्य-बाण हैं उनके लिए उचित और अभेद्य रक्षा स्थान बनाया जावेगा। किनवार, दोनवार, सकरवार तथा गौतमादि सदृश नाम-रूप-दोषों के ज्ञानचक्षु में लग जाने से लोगों को जो भ्रम उत्पन्न हो गए हैं और उसी दशा में जो कुछ वे लोग बक गए हैं, उसके लिए उचित अंजन तैयार किया जावेगा और वह ऐसा होगा कि एक बार उसके लगा देने से फिर भविष्य में ऐसे रोग कभी हो ही न सकें। इसके अतिरिक्‍त जो स्फुट अनेक प्रकार के प्रश्‍न हुआ करते हैं उनकी भी उचित मीमांसा की जावेगी।

ग्रंथांत में परिशिष्ट होगा। जिसमें संपूर्ण कथन के चरम परिपाक के प्रदर्शन पूर्वक अवशिष्ट, अत्यंतोपयोगी और अवश्य वक्‍तव्य तथा कर्तव्य विषयों का निरूपण करते हुए ग्रन्थ की समाप्ति की जावेगी।

अन्त में जगदाधार सर्वांतर्यामी से यही प्रार्थना हैं कि वह इस ब्राह्मण समाज तथा भारत वर्ष की अज्ञान निद्रा को भंग कर के सबको यथार्थ ज्ञान और द्वेष तथा पक्षपात शून्य बात बोलने और लिखने की सुबुद्धि प्रदान करे और साथ ही, मेरे इस अल्प परिश्रम से लोगों को लाभ उठाने की भी सुमति दे, जिसमें मेरा केवल परोपकारार्थ यह दीर्घकाल का श्रम सफल हो। सबके पश्‍चात मैं इसके अवलोकन तथा समालोचना करने वालों से यह प्रार्थना करता हूँ कि लोग यद्यपि इनमें दोषोद्घाटन तो अवश्य करेंगे ही। क्योंकि वे भी अपनी अपरिहार्य छिद्रारोपिका प्रकृति रमणी के किंकर हैं। परंतु ऐसा करने से पूर्व इस ग्रन्थ को निष्पक्षपात भाव से सम्यक्‍तया आलोड़न कर लें और मेरे तात्पर्य को भली-भाँति हृदयंगम कर के उचित दूषण दें तो मैं उसे सहर्ष शिरोधारण करने के लिए सर्वदा कटिबद्ध हूँ। क्योंकि तात्पर्य को समझ कर दूषण देने से दु:ख नहीं होता। अब मैं श्रीयुत कुमारिल स्वामी तथा रघुनाथ शिरोमणि भट्टाचार्य के इसी विषय के वचनों को पाठकों के सम्मुख प्रदर्शित कर के अनुरोध के साथ अपने इस वक्‍तव्य को यहीं पर समाप्त करता हूँ और आशा करता हूँ कि आप लोग इस धृष्टता को क्षमा करेंगे। वे वचन निम्नांकित हैं :-

¹नचात्रातीवर् कर्त्तव्यं दोषदृष्टिपरं मन:

दोषोह्यविद्यमानोपि तद्‍दृष्टीनां प्रकाशते।

मान्यान्प्रणम्य विहिताञ्‍जलिरेष भूयो,

भूयो विधाय विनयं विनिवेदयामि।

दूष्यं वचो मम परं निपुणं विभाव्य,

भावावबोधविहितो न दुनोति दोष:॥ इति॥ - लेखक

॥ॐ शम्॥

¹ तात्पर्य यह है कि सभी जगह अत्यन्त दोष दृष्टि नहीं करना चाहिए , क्योंकि जिसकी दृष्टि में दोष (पित्त रोग) हो जाता है उसे सभी वस्तुओं में न रहनेवाला भी दोष (पीलापन) मालूम होता है।

ब्रह्मर्षि वंश विस्तर

निर्भीतिभूषितकरात्स्फटिकाभगात्रा-

दाशाम्बरादरुणपद्मदलाधारोष्ठात्

राकेशसुंदरमुखात्सरसीरुहाक्षा-

च्छम्भो: परं किमपि तत्वमहं न जाने॥ 1 ॥

कले: प्रभावादबलोक्य हानं धर्मस्य देवैर्मुहुरर्द्यमान:।

समावतीर्णोम्बुधिदेश्यवर्गैंर्य: शंकरो धर्मगुपेसनोव्यात्॥ 2 ॥

तस्यैव वैनेयपरम्परायामन्तर्गतोन्त्याश्रमसंज्ञितायाम्।

श्रीविश्‍वरूपोननुविश्‍वरूपोयोभूदहंप्रा जलिरानतस्तम्॥ 3 ॥

यस्येति वाक्यात्तात्पादपद्मेभृंगायमाणं तमनन्यभावम्।

तच्छिष्यमानौमि गुरुं गुरोमरें भूमादिमानन्दसरस्वतीं वै॥ 4 ॥

क्रीडन्तमद्वयानन्देऽद्वैतानन्दसरस्वतीम्।

तुर्याश्रमस्थं तुर्यं स्वं देशिकं प्रणमाम्यहम्॥ 5 ॥

क्रियते सहजानन्दसरस्वत्याख्यदंडिना।

ब्रह्मर्षि वंशविस्तारोन्वसौ सर्वांगसंयुत:॥ 6 ॥

पूर्वार्द्ध-द्विविध ब्राह्मण विचार

ब्राह्मणा द्विविधा राजन धर्मश्‍च द्विविध: स्मृत:।

प्रवृत्तश्‍च निवृत्तश्‍च निवृत्तेहं प्रतिग्रहात्॥ (म. शां.)

(1) ब्राह्मणलक्षण

श्रुति, स्मृति तथा पुराणादि के अवलोकन से स्पष्ट है कि मैथुनी सृष्टि से पूर्व विराट भगवान अथवा हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा वा प्रजापति) ने सांकल्पिक (मानसिक) सृष्टि की और तदनुसार ही ब्राह्मणादि वर्णों को परस्पर विलक्षण सूचित करने के लिए मुखादि भिन्न-भिन्न अंगों से उत्पन्न किया। जैसा कि शुक्ल यजुर्वेद के 32वें अध्याय के 12वें मन्त्र से स्पष्ट है :

ब्राह्मणो स्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृत:।

ऊरू तदस्ययद्वैश्य: पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥

जिसका तात्पर्य यह है कि 'हिरण्यगर्भ वा प्रजापति के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जंघे से वैश्य, और पाँव से शूद्र उत्पन्न हुए।' क्योंकि इसके बाद के मन्त्र 'चंद्रमा मनसो जात:' में पंचम्यंत पद 'मनस:' रखा हैं, जिसका अर्थ यही हो सकता है कि मन से चंद्रमा की उत्पत्ति हुई। तदनुसार ही इस पूर्व मन्त्र में भी अर्थ करना चाहिए। इस स्थान पर जो लोग यह कहा करते हैं कि ऐसा अर्थ करने से सृष्टि क्रम से विरोध पड़ता हैं, क्योंकि आजकल मुखादि अंगों से किसी की उत्पत्ति नहीं देखते। उनसे पूछना चाहिए कि अच्छा, तो फिर सृष्टि प्रारंभ काल में प्रथम स्त्री-पुरुष थे ही नहीं तो सृष्टि कैसे हुई? इसलिए यह मानना ही पड़ेगा कि प्रथमत: ईश्‍वर ने कुछ स्त्री-पुरुषों को संकल्प से ही उत्पन्न किया। तदनंतर सृष्टिक्रम उन्हीं से चला जो आज तक हैं। अत: मानसिक सृष्टि के विषय में, जिसका मानना अत्यावश्यक हैं, यह शंका हो ही नहीं सकती। मनु जी भी स्पष्ट रूप से प्रथमाध्याय के 31वें श्‍लोक में यही बात कहते हैं। जैसा कि लिखा है :

लोकानां तु विवृद्धयर्थं मुखबाहूरुपादत:।

ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निर्रवत्तायत्॥

इस श्‍लोक में तो स्पष्ट रूप से 'मुखबाहूरुपादत:' इस पंचम्यंत पद का प्रयोग हैं। यदि मुखस्थानपन्न ब्राह्मण हुए इत्यादि रूप अर्थ पर ही आग्रह हो तो भी हमारा कोई विरोध नहीं हैं। इस मानसिक सृष्टि के बाद उन्हीं उत्पन्न स्त्री-पुरुष व्यक्‍तियों द्वारा मैथुनी सृष्टि हुई और यद्यपि मानसिक सृष्टि में भी वर्णों का विभाग था, जैसा कि अभी कह चुके हैं, अत: उसके अनुसार भी जातियों का नियम हो सकता है, या था। तथापि आजकल के जीवों में मुख आदि से उत्पत्ति नहीं पाई जाती है। इसलिए महर्षियों ने 'मुख से जो उत्पन्न हुआ उसे ब्राह्मण कहते हैं' इत्यादि जातियों का लक्षण न कर के 'ब्राह्मण्यां ब्राह्मणेनैवमुत्पन्नो ब्राह्मण: स्मृत:' (हारीतस्मृतिं 1, अ. 15) अर्थात 'ब्राह्मणी के रज और ब्राह्मण के वीर्य से जो विधिवत उत्पन्न होता है उसे ब्राह्मण कहते हैं, इत्यादि रूप ही लक्षण किया है। ऐसी दशा में किसी का यह कथन कि 'क्योंकि तुम दान नहीं लेते और पुरोहिती नहीं करते हो, अत: ब्राह्मण नहीं हो केवल मूर्खता हैं। क्योंकि जब उसकी उत्पत्ति ब्राह्मण से है तो उसकी ब्राह्मणता में संदेह ही क्या हो सकता है? हाँ इतना अवश्य हो सकता है कि यदि वह ब्राह्मणोचित कर्म न करेगा तो पतित अथवा हीन ब्राह्मण समझा जा सकता है। परंतु प्रतिग्रहादि तो ब्राह्मणोचित कर्म नहीं हैं, प्रत्युत ब्राह्मणतत्व को सत्यानाश में मिलानेवाले हैं। जैसा कि मनु जी ने कहा है और अन्यत्र भी लिखा है कि :

प्रतिग्रहसमर्थो पि प्रसंगं तत्रा वर्जयेत्।

प्रतिग्रहेणह्यस्याशु ब्राह्मं तेज: प्रशाम्यति॥ म. 4/186

पौरोहित्यमहं जाने विगर्ह्यं दूष्यजीवनम्। स्कंदपु.

अर्थ यह है कि 'यदि प्रतिग्रह करने में सामर्थ्य भी रखता हो (अर्थात उससे होनेवाले पाप को हटाने के लिए बहुसंख्य गायत्रीजप और तपस्यादिक भी कर सकता हो) तो भी प्रतिग्रह का नाम भी न ले, क्योंकि उससे शीघ्र ही ब्रह्मतेज (ब्राह्मणता) का नाश हो जाता है। ब्राह्मण कहता हैं कि हम पुरोहिती को निंदित और जन्म को दूषित करनेवाली जानते हैं'। जैसा रामायण में स्पष्ट लिखा है कि 'उपरोहिती कर्म अतिमंदा। वेद पुराण स्मृति कर निंदा।' इत्यादि। इसका विस्तारपूर्वक विचार आगे होगा। ऐसी दशा में प्रतिग्रह या पुरोहिती से रहित किसी-किसी शुद्ध प्राह्मण या ब्राह्मण समाज को ब्राह्मण न कहना, या हीन ब्राह्मण कहना केवल मूर्खता, द्वेष, नास्तिकता और धृष्टतामात्र हैं। यदि प्रतिग्रह या पुरोहिती ब्राह्मणोचित कर्म मान भी लिए जावे तो भी उनका न करनेवाला ब्राह्मण क्यों न कहा जावेगा? क्योंकि कर्म करने से जाति मानना विधर्मियों का सिद्धांत और अनभिज्ञता हैं। सनातन धर्म का तो अटल सिद्धांत हैं कि आम्र के बीज से जो उत्पन्न होगा वह आम्र ही होगा चाहे उसका सिंचन आदि करिए या न करिए। श्रुति भी यही कहती हैं कि 'अष्टवर्षं ब्राह्मणमुपनयीत तं चाधयापयोत' अर्थात 8 वर्ष के ब्राह्मण का उपनयन संस्कार करा कर उसे पढ़ाएं।' मनु जी भी कहते हैं कि 'गर्भाष्टमेब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्'। 2 अ., 36। अर्थात 'गर्भ से आठवें वर्ष ब्राह्मण का उपनयन करावे।' यद्यपि उपनयन संस्कार से पूर्व उसने कोई भी ब्राह्मणता-संपादक कर्म नहीं किए हैं और न भविष्यत का ही निश्‍चय हैं, तथापि उसे ब्राह्मण ही, स्पष्ट शब्दों में, कह दिया है। इसलिए यही सिद्धांत हैं कि ब्राह्मणी और ब्राह्मण द्वारा जिसकी उत्पत्ति शास्त्रीय रीति से हो उसे ही ब्राह्मण कहते हैं। जिसके धर्म-संध्या-वदनादि हैं, न कि पुरोहिती या प्रतिग्रह आदि।

ब्राह्मण धर्म

(क) धर्मार्थ कर्म - अब यहाँ पर यह प्रश्‍न उत्पन्न हो सकता है कि अच्छा, ब्राह्मण जाति का यही सामान्य स्वरूप रहे। परंतु उसमें उत्तम, मध्यम तथा कनिष्ठ भाव किस प्रकार से हुआ और हो रहा हैं? क्या लोगों की यह धारणा कि अमुक विप्र उत्तम हैं और अमुक मध्यम इत्यादि, मिथ्या ही हैं? इस प्रश्‍न के हल करने का सबसे उत्तम उपाय यही हैं कि ब्राह्मणों के स्वरूप का विचार, उनके आचार-व्यवहारों की देखभाल और उनके धर्मों के विषय में शास्त्रों की आज्ञाओं का परिशीलन (मीमांसा पर विचार) कर लिया जावे कि याज्ञवल्क्यादि महर्षियों के समय से आज तक वे लोग किस मार्ग का अवलंबन करने से कैसे माने गए हैं। उन्होंने धर्म और जीविका चलाने के लिए किन-किन कर्मों का आश्रय लिया हैं, उनमें से किसे उत्तम, मध्यम अथवा हीन समझा हैं और भविष्य के लिए कौन से शिक्षा रूप बीज बोए हैं। क्योंकि शिष्टों (श्रेष्ठ पुरुषों) के आचार भी प्रमाण माने जाते हैं। अतएव पूर्व मीमांसा दर्शन के प्रथमाध्याय के तृतीय पाद के अष्टम अधिकरण में 'अनुमानव्यवस्थानात्तात्संयुक्तं प्रमाण स्यात्'॥ 15॥ इत्यादि सूत्रों द्वारा होलिकादि शिष्टाचारों को प्रमाण मान कर उनके विषय में विशेष विचार किया गया है और उसी पाद के 5वें अधिकरण में दाक्षिणात्य ब्राह्मणों में प्रचलित शिष्टाचार के अनुसार मामा की कन्या के साथ के विवाह को लोग उचित न समझ लें, इसके लिए :

मातुलस्य सुतामूढ्वा मातृगोत्रां तथैव च।

समान प्रवरां चैव त्यक्त्या चान्द्रायणं चरेत्॥

अर्थात ! मामा की लड़की, माता के गोत्र की लड़की और अपने गोत्रवाली लड़की से भूल कर ब्याह लेने पर भी उसे छोड़ कर चंद्रायण व्रत करें', इस स्मृति वचन के विरुद्ध होने से उस आचार को उन्होंने अप्रामाणिक ठहराया हैं। परंतु आजकल तो इतनी प्रबल मूर्खता हो गई है कि अज्ञानवश अथवा तृष्णादि में पड़ कर प्राय: सभी ब्राह्मण एवं अन्य जातियाँ अपने और माता के गोत्र में विवाह करने में नहीं हिचकतीं।

अस्तु, अब देखना चाहिए कि श्रुति तथा मनु आदि महर्षियों की आज्ञाएँ ब्राह्मणों के प्रति धार्मिक विषयों में-विशेष कर जीविका और धर्म के लिए किए जानेवाले कर्मों के विषय में कैसी हैं। इस जगह इतना और भी स्मरण रखना होगा कि सभी धर्म अनापात्कालिक (जो किसी दबाव या मजबूरी के किए जा सकें) और आपात्कालिक (जो तकलीफ-दबाव पड़ने पर हार कर किए जावे) इन दो प्रकार के हैं। इससे विषय के विवेचन (निर्णय) में आसानी होगी।

छान्दोग्योपनिषत् के द्वितीय प्रपाठक के 23वें खण्ड में लिखा है कि :

त्रयोधर्मस्कन्धा यज्ञो ध्यायनं दानध्मिति प्रथम:।

जिसका भाव यह है कि नित्य नैमित्तिकादि धर्म रूप वृक्ष की तीन बड़ी-बड़ी शाखाएँ, जिनमें पहली शाखा यज्ञ, वेद और शास्त्रों का पढ़ना और दान रूप हैं।' इन्हीं में संध्या और अग्निहोत्र वगैरह भी आ गए, क्योंकि अग्निहोत्र यज्ञ का स्वरूप ही हैं और गायत्री का जप भी उससे बाहर नहीं हैं। जैसा कि गीता में भगवान श्रीकृष्ण जी ने कहा है :

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथा परे। (अ. 4/28)

भावार्थ यह है कि 'कोई द्रव्यों (काष्ठ, घृत आदि) से यज्ञ करते, कोई गायत्री जप एवं व्रतादि रूप जो तप कहलाते हैं उन्हीं यज्ञों को करते और कोई समाधि रूप ही यज्ञ करते हैं।' यदि अध्यायन को भी यज्ञ में मिला ले तो कोई हानि नहीं हैं, परंतु पढ़ने का फल यज्ञ हैं इसलिए उसे श्रुतियों और स्मृतियों में यज्ञ से पृथक ही गिनाया हैं। मनुस्मृति में जो लिखा है कि :

अध्यापनमध्यायनं याजनं यजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहश्‍चैव षट् कर्माण्यग्रजन्मन:॥ 10। 75

अर्थात 'पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान और प्रतिग्रह ये छह कर्म ब्राह्मणों के हैं'। उसका भी यही आशय हैं कि अध्यायन (पढ़ना), दान और यज्ञ करना यही तीन कर्म धर्म के लिए हैं, शेष तीन तो जीविका के लिए हैं। परंतु जगदुत्पत्ति प्रकरण प्रथम अध्याय में इन छह कर्मों की उत्पत्ति के साथ ही कही गई है। इसलिए यहाँ भी सभी का नाम प्राय: उसी उत्पत्ति प्रकरण के श्‍लोक द्वारा लिया हैं। वास्तव में तो यह प्रकरण (मनुस्मृति का दसवाँ अध्याय) उन कर्मों का हैं जो आपत्काल में जीविका के लिए किए जा सकते हैं। इसीलिए अगले श्‍लोक में लिख दिया है :

षण्णां तु कर्मणामस्य त्रीणि कर्माणि जीविका।

याजनाध्यापने चैव विशुद्धाच्चप्रतिग्रह:॥ म.। 10। 76

अर्थात 'पूर्वोक्‍त छह कर्मों में से यज्ञ कराना, पढ़ाना और शुद्ध जनों का प्रतिग्रह करना ये कर्म तो जीविका के लिए हैं। परंतु यदि इन्हीं तीनों को यहाँ लिखने और पढ़ने, यज्ञ करने और दान को छोड़ देते तो जैसा कि लोग फिर भी आज समझने लग गए हैं; समझने लग जाते कि आपत्ति काल में पढ़ने, यज्ञ करने और दान देने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। क्योंकि मनुस्मृति में उसकी आज्ञा नहीं हैं। इसलिए मनु भगवान ने इन तीनों को भी साथ ही लिख दिया है। अत्रिजी भी लिखते हैं कि :

कर्म विप्रस्य यजनं दानमध्यायनं तप:।

प्रतिग्रहो धयापनं च याजनं चेति वृत्ताय:॥ 13॥

तात्पर्य यह है कि 'ब्राह्मण के कर्म (धर्म) तो यज्ञ, दान और अध्यायन ये तीन ही हैं, प्रतिग्रह, पढ़ाना और यज्ञ कराना ये तीन तो जीविकाएँ हैं। ब्राह्मण के धर्मर्थक कर्म यज्ञ, अध्यायन और दान तीन ही हैं। गीता में भी लिखा है कि :

शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥ 18॥ 42

अर्थ यह है कि 'मन और इंद्रियों का विषयों से रोकना, तपस्या, आभ्यंतर और बाह्य शौच, क्षमा, नम्रता, शास्त्र-ज्ञान और अनुभव रूप (साक्षात्कार रूप) ज्ञान ब्राह्मणों के स्वाभाविक धर्म है। इनमें याजन अथवा अध्यापन के तो नाम भी नहीं हैं। पराशर स्मृति के प्रथमाध्याय में भी लिखा है कि :

संध्या स्नानं जपो होमो देवतानां च पूजनम्।

आतिथ्यं वैश्‍वदेवं च षट्‌कर्माणि दिने दिने॥ 39॥

अर्थात 'रात और दिन की संधि समय में स्नान, गायत्री को जप, अग्निहोत्र, शिवविष्ण्वादि देवों का पूजन, यथाशक्‍ति, अतिथि का सत्कार और बलिवैश्यदेव ये छह कर्म ब्राह्मणों को नित्य करने चाहिए। मनु जी अन्त में भी 12वें अध्याय में लिखते हैं :

यथोक्‍तान्यपि कर्माणि परिहाय द्विजोत्ताम:।

वेदाभ्यासे शमे च, स्यादात्मज्ञाने च यत्‍नवान॥ 92॥

जिसका भाव यह है कि ब्राह्मणों के लिए जो बहुत से कर्म बतलाए गए हैं उनका त्याग भी कर के वे वेदाभ्यास, चित्तनिरोध (समाधि) आत्मज्ञान के लिए प्रयत्‍न करें। इससे स्पष्ट ही है, कि मनु जी को वेदाभ्यास प्रभृति कर्मों की ही प्रधानता विवक्षित हैं, जिनके अन्तर्गत संध्या और अग्निहोत्र भी हैं। याज्ञवल्क्य जी ने भी आचाराध्याय में कह दिया है कि :

जपन्नासीत्सावित्रीं प्रत्यगातारकोदयात्॥ 24॥

संध्यां प्राक्प्रातरेवंहि तिष्ठेदासूर्यदर्शनात्।

अग्निकार्यं तत: कुर्यात् सन्ध्ययोरुभयोरपि॥ 25॥

अर्थात 'संध्या समय पश्‍चिम मुख बैठ कर तारा के निकलने तक और प्रात: पूर्व मुख बैठ कर सूर्योदय पर्यंत गायत्री जप करे। उसके बाद दोनों संधिकाल में अग्निहोत्र करे।' श्रुतियों में यही अनुशासन (आज्ञा) अन्यत्र भी हैं, जैसा कि शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में लिखा है कि :

'स्वाधयायो ध्येतव्य:' 'अहरह: संध्या-

मुपासीत,' 'अग्निहोत्रीं जुहूयात्'।

अर्थ यह है कि 'वेद नित्य पढ़ना और संध्या अग्निहोत्र नित्य करना चाहिए।' इत्यादि शतश: श्रुति स्मृत्यादि प्रमाणों से सिद्ध हैं कि ब्राह्मणों के लिए धर्मर्थक कर्म केवल अध्यायन, संध्यानुष्ठान, अग्निहोत्र और वैश्‍वदेव आदि ही हैं, न कि अध्यापन (पढ़ाना) और याजन (यज्ञ कराना) आदि भी। याज्ञवल्क्य स्मृति, आचाराध्याय के 118वें श्‍लोक के व्याख्यान मिताक्षरा में साफ-साफ लिख दिया है कि :

तत्रा त्रीणीज्यादीनि धर्मार्थनि त्रीणि प्रतिग्रहादीनि वृत्तयर्थानि। षण्णान्तु कर्मणामस्य त्रीणि कर्माणि जीविका। याजनाध्यापने चैव विशुद्धाच्च प्रतिग्रह: (10/16) इति मनुस्मरणात्, अत इज्यादीन्यवश्यंर् कर्त्तव्यानि च प्रतिग्रहादीनि। द्विजातीनामध्यायनमिज्यादानं ब्राह्मणस्याधिका: प्रवचनयाजनप्रतिग्रहा: पूर्वेषु नियम: (10 अ.) इति गौतमस्मरणात्। जिसका अर्थ यह है कि 'छह कर्मों में से यज्ञ, अध्यायन और दान ये तीनों धर्म के लिए और याजन, अध्यापन एवं प्रतिग्रह ये तीनों केवल जीविका (पेट पालने) के लिए हैं, क्योंकि मनु जी ने कहा है कि छह कर्मों में से विशुद्ध प्रतिग्रह आदि तो केवल जीविका के निर्मित्त हैं। इसलिए यज्ञ, अध्यायन और दान अवश्य करने चाहिए, न कि प्रतिग्रह वगैरह भी, क्योंकि गौतमस्मृति के दशम अध्याय में लिखा है कि द्विज मात्र के लिए यज्ञ, अध्यायन और दान ये तीन कर्म हैं, और ब्राह्मणें के लिए यद्यपि याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह भी हैं, तथापि उनका करना आवश्यक नहीं हैं, किंतु यज्ञ आदि का ही।' यह मिताक्षरकार की सम्मति इस विषय में हैं।

हाँ, जीविका के लिए प्रतिग्रह कर सकते हैं। परंतु सो भी आपत्काल में जब उछ, शिल, कृषि और वाणिज्यादि एक भी न हो सके जैसा कि आगे चल कर विदित होगा। इतने पर भी प्रतिग्रह के बाद प्रायश्‍चित अवश्य ही करना होगा। क्योंकि मनुस्मृति चतुर्थ अध्याय में लिखा है कि :

अतपास्त्वनधीयान: प्रतिग्रहरुचिर्द्विज:।

अम्भस्यश्मप्लवेनेव सह तेनैव मज्जति॥ 190॥

अर्थात 'जो ब्राह्मण वेदादि शास्त्रों को पढ़ने और तपस्या करनेवाला नहीं हैं वह यदि प्रतिग्रह करे तो प्रतिग्रह के साथ ही उसका नाश वैसे ही हो जाता है जैसे पत्थर की नाव चढ़नेवाले के साथ डूब जाती है। इसका विशेष विचार फिर करेंगे। एक बात और भी विचारने योग्य है। वह यह कि किसी भी प्रसंग में सबसे प्रथम प्रधान वस्तु का ही नाम लिया जाता है, जैसे सभा में सभापति का इत्यादि। अब यदि इन षट् कर्मों के बतलानेवाले वाक्यों को देखते हैं तो सभी में प्रथम यजन, अध्यायन और दान के नाम आते हैं, पश्‍चात याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह के। इतनी बात अवश्य है कि अध्यापन (पढ़ाना) तीन प्रकार के होते हैं। जैसा कि हारीतस्मृति के प्रथम अध्याय में लिखा है :

अध्यापनं च त्रिविधां धर्मार्थ मृक्थ कारणात्।

शुश्रूषाकरणं चेति त्रिविधां परिकीर्त्तितम्॥ 18॥

अर्थ यह है कि 'अध्यापन' तीन प्रकार के होते हैं, (1) धर्म के लिए, (2) सेवा कराने के लिए, (3) धन प्राप्ति के लिए। अत: प्रथम के दो अंशों को ले कर अध्यापन भी याजन (यज्ञ कराने) और प्रतिग्रह की अपेक्षा उत्तम है। इसीलिए कहीं-कहीं अध्यापन को भी प्रथम लिख देते हैं। जैसा कि -

अध्यापनमध्यायनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहश्‍चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥ - मनु

यदि यज्ञ भी केवल परोपकारार्थ कराया जावे न कि दक्षिणा ले कर, तो वह भी किसी प्रकार अच्छा कहा जा सकता है। अतएव कहीं-कहीं एकाध स्थल में उसका नाम भी प्रथम लिया है। जैसा कि हारीतस्मृति के प्रथम अध्याय में लिखा है :

अध्यापनमध्यायनं याजनं यजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहश्‍चैव षट् कर्माणीति प्रोच्यते॥ 18॥

परंतु प्रतिग्रह का नाम तो कहीं भी प्रथम नहीं आया है। इसलिए वह महानिकृष्ट है। अध्यायन, यजन और दान इन तीनों में से भी अध्यायन (पढ़ना) सर्वोच्च हैं क्योंकि उससे परमात्मा के ज्ञान द्वारा मुक्‍ति मिल सकती हैं और शास्त्र एवं कर्मों के ज्ञान से यज्ञादि का अनुष्ठान भी हो सकता है। इसीलिए यज्ञ उससे मध्यम ठहरा, क्योंकि यह उसका फल है। यज्ञ में दान भी होता है और जप, हवन आदि भी। अतएव यज्ञ का एक भाग होने के कारण दान यज्ञ से भी मध्यम अर्थात कनिष्ठ हुआ। इस तरह से ये अध्यायन, यज्ञ और दान उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ धर्म है। इसी से पूर्वोक्‍त श्‍लोकों में प्रथम अध्यायन, बाद यज्ञ और उसके अनंतर ही दान का नाम आया है। इस प्रकार तीन प्रकार के धर्मों के हो जाने पर अब चौथे प्रकार का धर्म कहाँ से आ सकता है? क्योंकि संसार की सभी वस्तुएँ या तो उत्तम या मध्यम, अथवा कनिष्ठ इन तीनों ही प्रकारों की होती है। इसलिए जो धर्म होंगे उनका इन्हीं तीन अध्यायन आदि में अन्तर्भाव (मिलाव) करना होगा। परंतु प्रतिग्रह वगैरह तो इन तीनों में से किसी में भी मिल नहीं सकते। अत: वे सब कर्म धर्म के लिए नहीं हो सकते। अतएव मनु भगवान ने कहा है कि :

वेदाभ्यासो ब्राह्मणस्य क्षत्रियस्य च रक्षणम्।

वार्ता कर्मैव वैश्यस्य विशिष्टानि स्वकर्मसु॥ 108॥

इसका तात्पर्य यह है कि 'ब्राह्मण के कर्मों में वेदाभ्यास सबसे उत्तम है। एवं क्षत्रिय के कर्मों में रक्षा करना और वैश्य के कर्मों में व्यापार सर्वश्रेष्ठ है। अर्थात इस तीन ब्राह्मणादि वर्णों को क्रम से वेदाभ्यास आदि तीनों में विशेष ध्यान देना चाहिए'। अतएव अब इस शंका का भी अवसर न रहा कि यदि ब्राह्मण के भी तीन कर्म हैं और क्षत्रिय, वैश्य के भी तीन ही, तो फिर उनमें भेद ही क्या रहा? क्योंकि यद्यपि तीनों के लिए अध्यायन आदि समान ही धर्म है तथापि ब्राह्मण का प्रधान धर्म वेदाभ्यास है, क्षत्रियों का तीनों से अतिरिक्‍त रक्षा ही प्रधान धर्म है, एवं वैश्य का व्यापार। क्योंकि यदि क्षत्रिय रक्षक और वैश्य वाणिज्यकर्ता न हो तो विविध उपद्रव और धन की कमी से सब धर्म ही मिट्टी में मिल जावे। इसलिए क्षत्रिय और वैश्यों के लिए इन्हें ही प्रधान कर्म बतलाना बहुत ही युक्‍तिसंगत है और इन प्रधान कर्मों के भेद से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की परस्पर विलक्षणता हो गई। दूसरी बात यह है कि यदि ये धर्मार्थक कर्म तीनों के समान भी हो जावे तो भी जीविका के कर्म तीनों के भिन्न-भिन्न हैं। अत: उन्हीं के भेद से तीनों का परस्पर भेद हो सकता है। क्योंकि ब्राह्मणों के ही लिए शिल, उछादि बतलाए गए हैं, न कि क्षत्रिय और वैश्यों के लिए भी वे जीविकाएँ हैं। बल्कि हमारी समझ में ऐसी शंका करना ही न चाहिए। क्योंकि हम लोग (सनातनधर्मानुयायी) जन्म से ही जाति-भेद मानते हैं, न कि कर्मों से। नहीं तो ब्राह्मण और क्षत्रियों की एकता न हो जावे इस डर से यदि ब्राह्मणों के षट कर्म अवश्य माने जावे, तो यह पूछ सकते हैं कि अस्तु, यही बात रहे, परंतु क्षत्रियों और वैश्यों में परस्पर भेद कैसे रहेगा? क्योंकि उन दोनों के लिए तो धार्मिक कर्म अध्यायन, यजन और दान तीन ही हैं। अत: ऐसी शंका करना अनभिज्ञता मात्र है। याज्ञवल्क्यस्मृति के आचाराध्याय में भी लिखा है कि :

प्रधानं क्षत्रिये कर्म प्रजानां परिपालनम्।

कुसीदकृषिवाणिज्यं पाशुपाल्यं विश: स्मृतम्॥ 119॥

अर्थात 'क्षत्रिय का प्रधान कर्म प्रजारक्षण और वैश्य के प्रधान कर्म सूद पर रुपया देना, कृषि, वाणिज्य एवं पशुपालन है'। इसी जगह मिताक्षरा में लिखा है कि :

क्षत्रियस्य प्रजापालनं प्रधानं कर्म धर्मार्थं वृत्यर्थं च। वैश्यस्य कुसीदकृषिवाणिज्य पशुपालनानि वृत्यर्थानि कर्माणि।

अर्थात 'क्षत्रिय का प्रजापालन ही प्रधान कर्म हैं जो धर्म और जीविका दोनों के लिए हैं एवं वैश्य के सूद पर रुपए देने, कृषि, वाणिज्य और पशुपालन प्रधान कर्म हैं। इससे यह भी सूचित होता है कि कृषि वाणिज्यादि ब्राह्मणों के अप्रधान कर्म अवश्य हैं, हाँ वे प्रधान नहीं हो सकते यह दूसरी बात हैं। इन वाक्यों तथा गीता के 18वें अध्याय के 42, 43 और 44 श्‍लोकों में भी लिखे गए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के धर्मों को देख कर मूर्ख से भी मूर्ख को यह शंका नहीं हो सकती कि 'ब्राह्मणों के तीन ही कर्म मानने से क्षत्रिय और वैश्यों से उनका भेद न रह जावेगा।' इसलिए ब्राह्मणों को त्रिकर्मा कहना बहुत ही युक्‍ति-युक्‍त है, न कि जीविका के कर्मों को मिला कर षट्‌कर्मा। क्योंकि ऐसी दशा में शतकर्मा या सहस्रकर्मा क्यों न कहना चाहिए? क्योंकि मनुस्मृति चतुर्थाध्याय के अनुसार, जैसा अभी जीविकार्थक कर्मों के प्रकरण में दिखलाएँगे, शिल, उछ, कृषि, वाणिज्य और सूद पर रुपए देने भी ब्राह्मणों की अनापत्ति काल की जीविकाएँ हैं। बल्कि प्रतिग्रह वगैरह ही आपत्ति काल की जीविकाएँ हैं, जैसा कि वहीं विदित होगा। एवं पुराण, इतिहास तथा पराशर आदि स्मृतियों और शिष्टाचारों द्वारा भी राज्य, कृषि सेनापति के कार्य और युद्धादि भी ब्राह्मणों के कर्म बतलाए जाएँगे। यदि जीविका के कर्म भी परस्पर या धर्मार्थक माने जावे, तो स्नान तथा मल-मूत्रादि के त्याग प्रभृति भी उसी में आ जाएँगे, जिससे बलात षट्‌कर्मा मानने के बदले शत या सहस्र कर्मा मानना ही पड़ जावेगा। अत: यह निर्विवाद सिद्ध है कि वास्तव में ब्राह्मण त्रिकर्मा ही होते हैं, जैसे कि आजकल अयाचक (भूमिहार, पश्‍चिम, तगे या दान-त्यागी, महियाल, नागर, प्राय: कान्यकुब्ज और बहुत से पंक्‍तिबद्ध सर्यूपारी) ब्राह्मण पाए जाते हैं। अथवा यों कहना चाहिए कि सभी प्रांतों में किसी-न-किसी नाम या रूप में त्रिकर्मा अथवा अयाचक ब्राह्मण पाए जाते हैं।

यदि षट्‌कर्मा ही मानने में आग्रह हो तो सच्चे षट्‌कर्मा क्यों नहीं मानते? जैसे कि अयाचक ब्राह्मण भी पाए जाते हैं। क्योंकि मनु जी ने चतुर्थाध्याय के प्रारंभ में शिल, उछ, याचित, अयाचित, कृषि और वाणिज्य रूप छह जीविकाओं को ब्राह्मणों के निमित्त गिन कर कहा है कि :

षट्‌कर्मैको भवत्येषां त्रिभिरन्य: प्रवर्त्तते

द्वाभ्यामेकश्‍चतुर्थस्तु ब्रह्मसत्रोण जीवति॥ 9॥

अर्थ यह है कि 'इन पूर्वोक्‍त चतुर्विधा ब्राह्मणों में कोई तो षट्‌कर्मा होता है अर्थात पूर्वोक्‍त शिल, उंछ आदि छह जीविकाएँ करता है, कोई प्रथम के शिल आदि तीन ही, कोई दो ही और कोई शिल और उंछ में से एक ही करता है, इस वचन के अनुसार षट्‌कर्मा भी मानिए, हमें त्रिकर्मा ही मानने में आग्रह नहीं हैं। क्योंकि ये छह कर्म याचक और अयाचक ब्राह्मणों में समान ही हैं, किसी में कुछ भी कमी नहीं हैं।

अथवा पराशरस्मृति में कहे गए संध्या-स्नान आदि छह कर्मों को जिनका वर्णन प्रथम कर चुके हैं जो केवल धर्मार्थक ही हैं, ले कर भी दोनों प्रकार के (अयाचक और याचक) ब्राह्मण षट्‌कर्मा कहे जा सकते हैं क्योंकि यह नियम भी हैं कि 'कलौ पाराशरा: स्मृता:' अर्थात 'कलियुग में पराशरस्मृति में कहे गए धर्म ही माने जा सकते हैं, और उन्होंने स्पष्ट रूप से 'षट्‌कर्माणि दिने दिने' अर्थात संध्या-स्नानादि छह कर्म प्रतिदिन करने चाहिए' ऐसा लिख दिया है। इसलिए इन धार्मिक षट कर्मों को ले कर ही षट्‌कर्मा मानना बहुत ही उचित होगा जैसा कि दिखला चुके हैं। अत: अयाचक ब्राह्मण त्रिकर्मा या षट्‌कर्मा दोनों ही कहे जा सकते हैं और, साथ ही, अन्य ब्राह्मण भी। इस विषय का अवशिष्ट विवेचन अगले ग्रन्थ में चल कर होगा। उपसंहार में हम केवल इतना और कह देना चाहते हैं कि जब मनु जी स्वयं लिख देते हैं कि 'धर्मस्तु दानमध्यायनं यजि:' (10/79) अर्थात 'धर्मार्थक अथवा स्वयं धर्म स्वरूप कर्म तो दान, यज्ञ और अध्यायन (पढ़ना) ये तीन ही हैं, तो फिर इस विषय में विवाद ही क्या है? क्या इनमें कुछ ऐसी विशेषता है कि क्षत्रियादि के लिए ये धर्म हो न कि ब्राह्मणों के लिए? क्या किसी विचारहीन के केवल कथन मात्र ही से प्रतिग्रह आदि भी अपने वास्तव कलुषित स्वरूप को (जैसा कि सभी जानते और मानते हैं) छिपा कर धर्म बन जाएँगे? क्या लोग नहीं जानते हैं कि धर्म के नाम पर प्रतिग्रह लेना केवल फिर से धोने के लिए पंक में पाँव को घुसेड़ना हैं और धर्मशास्त्रकार चिल्ला-चिल्ला कर उन्हें रोकते हैं कि ऐसा न करो? क्या कोई भी विचारवान और नैष्ठिक ब्राह्मण प्रतिग्रह को उचित समझता है?

इस विषय में एक बात और कह कर इस प्रकरण की समाप्ति और जीविकार्थक कर्मों के विचार के प्रकरण का आरंभ करेंगे। वह यह कि अध्यापन (पढ़ाना), याजन (यज्ञ कराना) आदि कर्म काम्य हैं, अर्थात इच्छा रहने पर ही किए जा सकते हैं। परंतु अध्यायन (पढ़ाना) आदि तो नित्य हैं, अर्थात उनके करने की इच्छा न रहने पर भी उन्हें करना ही पड़ेगा। इसीलिए अध्यापन आदि करने के लिए शास्त्र बाधित नहीं कर सकता, बल्कि अपनी इच्छा के अनुसार ही लोग उसे कर सकते हैं या नहीं। क्योंकि काम्य कर्मों से यथानुष्ठान-शक्‍ति का नियम हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि जिस काम्य कर्म करने की इच्छा हो उसके सांगोपांग अनुष्ठान और प्रायश्‍चित्त वगैरह करने की शक्‍ति यदि हो तो उसे करे, नहीं तो उसे न करे। परंतु नित्य कर्मों को तो अवश्य करना ही होगा। इसलिए उनके विषय में यथाशक्त्यनुष्ठन का नियम है; जिसका भाव है कि नित्य कर्मों को जीवनपर्यंत करना आवश्यक हैं। परंतु जीवन-भर सब अंगों सहित करने की शक्‍ति नहीं रह सकती क्योंकि जरावस्था में स्नान या प्राणायाम आदि नहीं कर सकते। इसलिए प्रधानकर्म को न छोड़ कर उसके करते हुए स्नान प्रभृति उसके अंगों को यथाशक्‍ति करना चाहिए। इसीलिए यद्यपि नित्य और काम्य दोनों प्रकार के कर्मों के फल होते हैं, तथापि दोनों में भेद होता है। इसी बात को श्री पार्थ सारथि मिश्र ने अपने मीमांसा ग्रन्थ 'न्यायरत्‍नमाला' में इस प्रकार लिखा है कि :

काम्ये तु निमित्तावाक्यस्य कश्‍चिद्विरोधो नास्तीत्यंगान्य पेक्षितान्युपसंहियन्ते इति निखिलांग युक्‍तस्यैव प्रयोग:, नित्ये तु यथोक्‍तन्यायेनांगानां यथाशत्क्युपसंहार इति॥

तात्पर्य यह है कि जब कि काम्यकर्मों के सांगोपांग का ही अनुष्ठान करने में किसी भी निमित्त के साथ कोई विरोध नहीं हैं, (क्योंकि जीवन रूपं निमित्त तो वहाँ हैं ही नहीं, कि जीवन-भर अंगों के न कर सकने से विरोध होगा, और कामना रूप निमित्त तो आवश्यक नहीं है, क्योंकि यदि सांगोपांग कर्म को नहीं कर सकते तो कामना को छोड़ भी सकते हैं) इसलिए सभी अपेक्षित अंगों को करना ही पड़ता है, न कि उन्हें छोड़ कर भी। परंतु नित्य कर्म तो पूर्वोक्‍त प्रकार से जीवन-भर सब अंगों सहित लोग नहीं ही कर सकते हैं; अंगों के लिए प्रधान कर्म का भी त्याग उचित भी नहीं है और जीवन रूप निमित्त अपरिहार्य है। अत: वहाँ यथाशक्‍ति ही अंग किए जाते हैं। इससे तो स्पष्ट ही है कि अध्यापन आदि कर्म उसी दशा में किए जा सकते है, जब उनके करने की सामर्थ्य और कामना हो, न कि उनके करने के लिए शास्त्र अवश्य बाधित कर सकते हैं। जैसा कि स्वामी चित्सुखाचार्य जी अपने 'चित्सुखी' (तत्व प्रदीपिका) ग्रन्थ में स्पष्ट ही लिख दिया है कि :

किंच तमध्यायपयीतेति च नायमध्यापने विधिर्वृत्तयर्थत्वेनाध्यापनस्य याजनवत्, प्राप्तत्वात् उक्तं हि षण्णांतु कर्मणामस्य त्रीणिकर्माणि जीविका। याजनाध्यापने चैव विशुद्धाच्च प्रतिग्रह इति, तस्मात् यथैतयान्नाद्यकामं याजयेदित्यादिषु याजनं न विधीयते, किन्त्वेतयान्नाद्यकामो यजेतेति वाक्यार्थस्तथेहाप्यवर्षो ब्राह्मण उपगच्छेत्, सोधीयीतेति वाक्यार्थ: स्वीकार्य इति॥

इसका अर्थ यह है कि 'अष्टवर्षं ब्राह्मणमुपयीत तमध्यापयीत' इस श्रुति में उपनयन संस्कार करवाने और पढ़ाने की आज्ञा नहीं है, क्योंकि जैसे यज्ञ करवाना जीविका है, इसलिए उसका करना लोगों के लिए स्वत: (आप ही आप) सिद्ध है, न कि उसके लिए शास्त्रज्ञ की आवश्यकता है, वैसे ही अध्यापन (पढ़ाना) भी जीविका के ही लिए हैं, क्योंकि मनु जी ने कहा है कि छह कर्मों में से अध्यापन आदि तीन कर्म तो केवल ब्राह्मणों की जीविकाएँ हैं। इसलिए जैसे 'एतयान्माद्यकामं याजयेत्' इस श्रुति में यह आज्ञा नहीं हैं कि अन्नादि चाहनेवाले से 'अवेष्टि' नामक यज्ञ करवावे, क्योंकि यज्ञ करवाना तो बिना कहे ही सिद्ध है, किंतु वहाँ यज्ञ करने की ही आज्ञा है कि अन्नादि चाहनेवाला 'अवेष्टि' नामक यज्ञ करे, यज्ञ करवाने की आज्ञा केवल ऊपर से प्रतीत मात्र ही होती है। उसी प्रकार यहाँ भी यही आज्ञा हैं कि 8 वर्ष का ब्राह्मण गुरु के पास जावे और विद्या पढ़े, न कि गुरुओं के लिए पढ़ाने की आज्ञा है, वह तो प्रतीत मात्र होती है।

इसी 'चित्सुखी' ग्रन्थ की टीका 'नयनप्रसादिनी' में उसी जगह स्पष्ट शब्दों में लिख दिया है कि :

यथाहि न तावद्यथाश्रुति याजनं विधातुं शक्यं वृत्तयर्थ त्वेन तत्रा स्वत: एवप्रवृत्तत्वात्, अतो प्राप्तप्रयोज्यरूपसाक्षात् कर्तृव्यापारयागपरो विधिस्तथेहाप्यन्तो प्राप्तप्रयोज्यमाण वकव्यापारावुपगमनाध्यायने विधीयेते इत्यर्थ:॥

जिसका अर्थ यह है कि जैसे 'अवेष्टि यज्ञ करवाने की आज्ञा नहीं हो सकती, क्योंकि वह तो जीविका है, इसलिए बिना कहे ही उसे लोग कर सकते हैं। किंतु यज्ञ करने की ही वहाँ आज्ञा है। ठीक वैसे ही गुरु को अपने पास विद्यार्थी लाने और उसके पढ़ाने की आज्ञा शास्त्रों में नहीं दी गई है। क्योंकि बिना शास्त्राज्ञा के ही गुरु लोग ऐसा करने में जीविका के लिए तत्पर होते है, किंतु विद्यार्थी स्वयं गुरु के पास जावे और पढ़े, यही वेद की आज्ञा है। क्योंकि ऐसी आज्ञा के बिना कोई पढ़ नहीं सकता, जबकि हजार शास्त्राज्ञा के होते भी शास्त्र का पढ़ना दु:साध्य हो रहा है। पढ़ाना जीविका है इसे तो बहुत अच्छी तरह दिखला चुके हैं।

परंतु यदि कोई यह कहें कि पढ़ाना या यज्ञ करवाना आदि काम्य कर्म नहीं है, तो उसके लिए भी 'चित्सुखाचार्यजी' ने पूर्वोक्‍त प्रसंग में ही लिखा है कि :

तंत्रा संमाननोत्स जनाचार्यकरणेतिसूत्रोणाचार्यकरणे नयतेरात्मनेपदविधानात्, उपनयीत तमध्यापयीतेतिचोप नयनाध्यापन योरेकप्रयोगतावगमादुपनय पूर्वकाध्यापनसाध्याचार्यत्वप्रतीतौ तत्कामिनो नियोज्यत्वावगमात्। अपि चाध्यायनं नित्यं, 'योनधीत्य द्विजोवेदानन्यत्रा कुरुते श्रमम्। स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वय' इत्यादिना करणेप्रत्यवायस्मरणात्, अध्यापनं चानित्यंकाम्यत्वात्।

जिसका भावार्थ यह है कि 'उपनयीत' इस क्रियापद में जो 'आत्मनेपद' संज्ञकप्रत्यय लगा है वह 'संमाननोत्स जनाचार्यकरण ज्ञानभृतिविगणनव्ययेषु निय:। 1। 3। 26' इस पाणिनीय सूत्र के अनुसार आचार्यता संपादन के अर्थ में हुआ है। जिसका तात्पर्य यह है कि विद्यार्थी के उपनयन संस्कारपूर्वक पढ़ाने से वह पुरुष उसका आचार्य हो सकता है, क्योंकि उपनयन और अध्यापन (पढ़ाना) ये दोनों एक ही पुरुष के कर्तव्य प्रतीत होते हैं। अत: जिसको गुरु (आचार्य) बनने की इच्छा हो वही शिष्य का उपनयन संस्कार और अध्यापन कर सकता है और भी बात है कि अध्यायन (पढ़ाना) नित्य कर्म है, क्योंकि उसके न करने से मनुस्मृति में यह दोष लिखा है कि जो ब्राह्मण वेदों को न पढ़ कर दूसरे विषय में परिश्रम करता है वह जीता ही सपरिवार शूद्र सदृश हो जाता है और नित्य कर्मों के ही न करने में दोष हुआ करता है, क्योंकि उनका लक्षण ही यही है कि जिनके न करने में दोष हो। परंतु अध्यापन तो नित्य नहीं है, क्योंकि उसे कामना रहने पर ही कर सकते हैं।

इससे सिद्ध हो गया कि ब्राह्मण के लिए अध्यायन (पढ़ना), यजन (यज्ञ) और दान ही धर्म है। उन्हीं का करनेवाला श्रेष्ठ समझा जा सकता है। प्रतिग्रह, याजन (यज्ञ करवाने) और अध्यापन (पढ़ाने) के लिए शास्त्रों की आज्ञाएँ तो नहीं है, हाँ जो चाहे वह जीविका के लिए उन्हें उस दशा में कर सकता है जब अन्य कृषि आदि उपाय न हों। इसी से वैसा करने में उत्तम न हो कर मध्यम या कनिष्ठ (हीन) ही हो सकता है, जैसा कि विदित हो गया और होगा भी कि उनमें प्रायश्‍चित्त वगैरह के बखेड़े लगे हुए हैं, जिनका कर सकना प्राय: सब प्रतिग्रहियों के लिए असंभव है। और यह भी विदित हो गया कि इन्हीं प्रतिग्रह आदि तीन कर्मों के न करने और करने से दो प्रकार के ब्राह्मण सृष्टिकाल से ही चले आते हैं, एक निवृत्त और दूसरे प्रवृत्त, अथवा अयाचक और याचक। क्योंकि 'रुचीनां वैचित्रयात्' अर्थात 'सबकी रुचि एक प्रकार की नहीं हो सकती', इस नियम के अनुसार बहुत से विचारशील और शास्त्र तत्व के जाननेवाले पुरुष पुरोहिती और प्रतिग्रह वगैरह से अलग होने लगे, जैसी इच्छा प्रथमत: वसिष्ठ और विश्‍वरूप जी ने भी प्रकट की थी और अब तक भी अलग होते जाते हैं, जिन अयाचकों में ही पश्‍चिम, भूमिहार, त्यागी, जमींदार आदि ब्राह्मणों को भी समझना चाहिए। इसके विपरीत बहुत से ब्राह्मण लोग विचार और शास्त्र से काम न ले कर लोभ और आलस्यवश उन्हीं पुरोहिती और प्रतिग्रह वगैरह कर्मों में प्रवृत्त हो गए और हो रहे हैं, जिसमें से ही आजकल के भिक्षुक याचक या पुरोहित दलवाले ब्राह्मण हैं। इसका विशेष विवरण आगे के प्रकरणों में मिलेगा।

(ख) जीविकार्थक कर्म - अब प्रसंगवश इस विषय का विचार करना हम उचित समझते हैं कि ब्राह्मण किस जीविका को किस दशा में कर सकता है और साधारणत: कौन-कौन-सी जीविकाएँ श्रेष्ठ हैं।

यहाँ पर इस बात के स्मरण रखने से प्रकृत विषय के समझने में सुगमता होगी कि मनुष्य मात्र के, अतएव ब्राह्मण के भी, सभी धर्म दो प्रकार के होते हैं, एक आपत्कालिक और दूसरा अनापत्कालिक। इसका तात्पर्य यह है कि कुछ धर्म ऐसे होते हैं जिन्हें मनुष्य उसी दशा में कर सकते हैं जब दूसरा कोई भी उचित उपाय न मिले, अर्थात उनके किए बिना किसी प्रकार भी काम न चल सके। जैसे, यद्यपि संध्या करने के लिए स्नान आदि का करना आवश्यक है, तथापि, रोगावस्था में बिना जल स्नान के भी संध्या का करना आपत्कालिक धर्म है। दूसरे प्रकार के धर्म वे हैं जो बिना किसी रोक-टोक, दबाव या शर्त के ही सर्वदा किए जा सकते हैं, जैसे अध्यायन (पढ़ना) या संध्यानुष्ठान वगैरह। इन्हें अनापत्कालिक धर्म कहते हैं। बस, इसी तरह जीविका के लिए भी जिन उपायों को शास्त्रों में बताया है, उनके भी आपत्कालिक और अनापत्कालिक ये दो विभाग किए गए हैं जो सर्वमान्य मनु भगवान द्वारा मनुस्मृति के चतुर्थ और दशम अध्यायों में क्रमश: सुस्पष्टरीति से वर्णित हैं। वे चतुर्थ अध्याय के प्रारंभ में ही लिखते हैं कि :

चतुर्थमायुषोभागमुषित्वाद्यं गुरौ द्विज:।

द्वितीयमायुषोभागंकृतदारो गृहे वसेत्॥ 1॥

अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुन:।

या वृत्तिस्तां समास्थायविप्रीजीवेदनापदि॥ 2॥

जिसका अर्थ यह है कि ब्राह्मण अपने संपूर्ण आयु का प्रथम चतुर्थांश ब्रह्मचर्य आश्रम द्वारा गुरु के पास बिता कर, द्वितीय चतुर्थांश में विवाह कर के गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे और ऐसी दशा में जबकि उसके ऊपर किसी प्रकार की आपत्ति या दबाव न हो, अर्थात 'अनापत्काल में (जैसा कि ऊपर दिखला चुके हैं) ऐसे-ऐसे उपायों द्वारा जीविका करे जिनसे अन्य प्राणियों को या तो पीड़ा ही न हो, या हो भी तो बहुत थोड़ी।' क्योंकि शिल और उ×छ आदि में भी प्राणियों की पीड़ा अनिवार्य है। फिर लिखते हैं कि :

यात्रामात्रप्रसिद्धयर्थं स्वै: कर्मभिरगर्हितै:।

अक्लेशेन शरीरस्य कुर्वीत धनसंचयम्॥ 3॥

'अर्थात शरीर यात्रा के लिए ऐसे विहित उपायों द्वारा धन एकत्र करे जिनसे बहुत क्लेश न हो, (क्योंकि प्रतिग्रह आदि लेने में प्रायश्‍चित्त करने पड़ते हैं, जिनसे शारीरिक क्लेश होता है और अपने हाथों से ही हल जोतने में भी) और जिनका धर्म शास्त्रों में निषेधन हो, (क्योंकि अपने हाथों हल जोत कर कृषि करने और प्रतिग्रह इत्यादि का निषेध है। जैसा कि विदित होगा)।' प्रथम के दो श्‍लोकों में जिन उपायों का सामान्य रूप से वर्णन किया है उन्हीं को मनु भगवान इन अगले श्‍लोकों में विशेष रूप से गिनाते हैं। जैसा कि :

ऋतामृताभ्यां जीवेत्तु मृतेन प्रमृतेन वा।

सत्यानृताभ्यामपि वा न श्‍ववृत्तया कदाचन॥ 4॥

अर्थ यह है कि 'अनापत्काल में ब्राह्मण ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत और सत्यानृत नामक उपायों द्वारा शरीर यात्रा करे, परंतु श्‍व (श्‍वान) वृत्ति नामक जीविका का तो कभी भी अवलंबन न करे।' फिर भी मनु जी ने यह विचारा कि कदाचित ऋत आदि शब्दों के अर्थ लोग व्याकरण आदि के बल से मनमाना करने लग जावे (जैसी कि कुल्लूकभट्ट प्रभृति टीकाकारों ने फिर भी टाँग अड़ाई हैं), इसलिए अगले श्‍लोकों में आप ही उन शब्दों के अर्थ बतलाते हुए यह सूचित करते है कि वे ऋत और अमृत आदि नाम वैसे ही है, जैसे अश्‍वगंधा, शालपर्णी मंडप, ओदनपाकी और गदहपूर्णा वगैरह नाम औषधियों आदि के है, न कि यौगिक हैं। अर्थात उनके अक्षरों से अर्थ निकाले नहीं जा सकते, ऐसा करना नितान्त भूल है क्योंकि गद्हपूर्णा का यह अर्थ कभी नहीं हो सकता कि गद्हों से भरी हुई, या मंडप शब्द का अर्थ 'माँड़ पीनेवाला' नहीं हो सकता। वे श्‍लोक ये हैं :

ऋतमु छशिलं ज्ञेयमतृतं स्यादयाचितम्।

मृतं तु याचितं भैक्ष्यं प्रमृतं कर्षणं मतम्॥ 5॥

सत्यानृतं तु वाणिज्यं तेन चैवापि जीव्यते।

सेवाश्‍ववृत्तिराख्याता तस्मात्तां परिवर्जयेत्॥ 6॥

तात्पर्य यह है कि 'ऋत नाम उंछ और शिल वृत्तियों का है, उंछ कणश आदानं कणिशाद्यर्जनं शिलम्' इस वृद्ध वचन के अनुसार अन्न विक्रय के स्थान तथा खेतों में जा कर पड़ी हुई बालों और दानों के चुनने को उंछ और शिल कहते हैं) बिना माँगे यदि कुछ अन्न केवल भोजनार्थ मिल जावे तो उसे अमृत, भ्रमर की तरह द्वार-द्वार पर जा कर माँगने से जो मिले उसे मृत, और कृषि (खेती) को प्रमृत कहते हैं। वाणिज्य अर्थात व्यापार और उचित सूद पर रुपए देने को सत्यानृत कहते हैं। ये सभी जीविका के उपाय ब्राह्मणों के लिए हैं। परंतु श्‍व (श्‍वान) वृत्ति तो नौकरी का नाम है, अत: उसका परित्याग कर देना चाहिए। इन पाँच नामवाली अनापत्कालिक पाँच जीविकाओं में से जिसे चाहे उसे ही ब्राह्मण जब चाहे तभी कर सकता है, इनमें से किसी के भी करने से उत्तम या मध्यम नहीं समझा जा सकता। क्योंकि आगे चल कर मनु भगवान ही स्पष्ट रूप से लिखते हैं :

अतोन्यतमयावृत्या जीवंस्तु स्नातको द्विज:।

स्वर्गायुष्ययशस्यानि व्रतानीमानिधारयेत्॥ 13, अ. 4॥

अर्थात 'इसलिए गृहस्थ ब्राह्मण पूर्वोक्‍त पाँच जीविकाओं में से मनचाहे जिसे करता हुआ (क्योंकि इस श्‍लोक में 'अन्यतम' शब्द का प्रयोग हैं, जो ऐसी जगह बोला जाता है जहाँ पर बहुत सी बराबर वस्तुओं में से जिसे दिल चाहे उसे स्वीकार कर सकें। हिंदी में इसकी जगह 'इनमें कोई' ऐसा बोला जाता है) स्वर्ग, आयु और यश देनेवाले आगे कहे गए व्रतों का पालन करें।' हाँ इतनी बात अवश्य है कि जो प्राचीन महर्षियों (क्योंकि ऋषि लोग भी संन्यासी न थे, प्रत्युत गृहस्थ ही थे, कारण संतानवाले थे) की तरह उपराम रहना पसंद करें एवं अहर्निश शास्त्र चिंता तथा अरण्य निवास को ही रुचिकर और सुखद समझें, उनके लिए उस दृष्टि से शिल, उंछ आदि ही श्रेयस्कर (कल्याण साधक या उत्तम) हो सकते हैं, यह दूसरी बात है। परंतु जो संसार में प्रवृत्त हैं उनके लिए तो सभी बराबर हो सकते हैं और है भी।

यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि प्रवृत्तवाले जो ब्राह्मण कृषि, वाणिज्य आदि करते हैं और जो निवृत्तिवाले केवल उंछ, शिल वगैरह ही करते हैं उन दोनों में से किसी अंश को ले कर प्रथम श्रेणी के श्रेष्ठ हैं और किसी अंश में द्वितीय श्रेणी के। परंतु प्रवृत्तिवाले हो कर भी केवल शिल, उंछ करनेवाले तो किसी भी गिनती में नहीं हैं। इसीलिए भगवान मनु ने चतुर्थ अध्याय में ही लिखा है कि :

कुसूलधान्यको वा स्यात् कुम्भीधान्यक एव वा।

त्रयहैंहिको वापि भवेदश्‍वस्तनिक एव वा॥ 7॥

चतुर्णामपि चैतेषां द्विजानां गृहमेधिनाम्।

ज्यायान्पर: परो ज्ञेयो धर्मतो लोकजित्ताम:॥ 8॥

याज्ञवल्क्य स्मृति के आचाराध्याय में लिखा है कि :

कुसल: कुम्भीधान्यो वा त्रयाहिकोश्‍वस्तनोपि वा।

जीवेद्वापि शिलोछेन श्रेयानेषां पर: पर:॥ 128॥

सब वाक्यों का तात्पर्य यह है कि गृहस्थ ब्राह्मण चार प्रकार के होते हैं, कोई 3 वर्षों तक के लिए बड़े-बड़े कोठों में अन्न एकत्रित रखते हैं, कोई बारह या छह मासों के लिए, कोई तीन दिनों के ही लिए और कोई एक दिन के लिए भी नहीं। इन चारों में से जो एक-दूसरे से बड़े हैं वे श्रेष्ठ हैं। क्योंकि वे धर्म के द्वारा स्वर्ग आदि लोकों या ब्रह्मलोक को प्राप्त कर सकते हैं। इसके दो अभिप्राय हैं। एक तो यह है कि 7वें श्‍लोक में गिनाए हुए ब्राह्मणों के प्रकार 8वें श्‍लोक की अपेक्षा ज्यों-ज्यों दूर होते गए हैं त्यों-त्यों श्रेष्ठ है। अर्थात एक दिन के लिए भी न रखनेवाले से 3 वर्ष वाले। क्योंकि जिसके पास जितना ही अधिक धन होगा वह उतना ही दान और यज्ञ वगैरह अधिक करें स्वर्ग आदि लोकों में जावेगा तथा ज्योतिष्टोम आदि विशाल यज्ञों द्वारा भी वही उन विलक्षण-विलक्षण लोकों को प्राप्त कर सकेगा। क्योंकि लिखा है कि :

त्रैवार्षिकाधिकान्नो य: स हि सोम पिवेद्द्विज:।

प्राक्सौमिकी: क्रिया: कुर्याद्यस्यान्नं वार्षिकंभवेत्॥ 124 या.॥

यस्य त्रौवार्षिकं भक्तं पर्याप्तं भृत्यवृत्ताये।

अधिकं वापि विद्येत स सोमं पातुमर्हति॥ 7॥ म. अ. 11

त्रौवार्षिकाधिकान्नस्तुपिवेत्सोममतन्द्रित:॥ 16॥ शं. अ. 5

'जिसका अर्थ यह है कि जिस ब्राह्मण के पास 3 वर्षों या उससे अधिक तक के लिए भोजन वगैरह के सामान अन्न आदि हो वह ज्योतिष्टोम यज्ञ करे। परंतु जिसके पास एक ही वर्ष के लिए हो वह केवल अग्निहोत्र तथा दर्शपूर्ण मास आदि कर्म करे।' यही अर्थ दूसरे और तीसरे महर्षि वचन रूप श्‍लोकों का भी है। दर्श पूर्णमास या ज्योतिष्टम यंज्ञ करने से स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति होती है, इस बात में बहुत सी स्मृतियाँ और दर्श पूर्णमासाभ्यां स्वर्ग कामो यजेत् 'ज्योष्टोमेन स्वर्ग कामो यजेत्' अर्थात 'स्वर्ग की इच्छा करनेवाला पुरुष दर्शपूर्ण मास और ज्योतिष्टोम यज्ञ करे' इत्यादि श्रुतियाँ भी प्रमाण हैं। इस प्रकार से बहुत धनी कृषि और वाणिज्य आदि करनेवाला गृहस्थ ब्राह्मण ही उत्तम हुआ।

दूसरा अभिप्राय उन पूर्वोक्‍त वाक्यों का यह है कि जो एक के बाद दूसरे उस श्‍लोक में लिखे हुए हैं वे क्रमश: श्रेष्ठ हैं। अर्थात 3 वर्ष वालों से छह मासवाले, उनसे तीन दिनवाले और उनसे भी, जिनके पास एक दिन के लिए भी अन्न वगैरह नहीं है, वे श्रेष्ठ हैं। इसी अर्थ को कुल्लूकभट्ट नामक टीकाकार ने पसंद किया है। परंतु जब उनके ऊपर यह संकट आ पड़ा है कि ऐसे लोग उन स्वर्ग आदि लोकों को कैसे प्राप्त कर सकते हैं। जिनके प्राप्त करने से ही मनु जी ने इन्हें उत्तम बतलाया है? क्योंकि आप जिन्हें श्रेष्ठ बताते हैं वे तो क्रमश: बिलकुल ही धनहीन हैं। तो उन्होंने कहीं से कुछ प्रमाण न दे कर (जैसा कि पूर्व के अर्थ में स्वयं मनु जी के वचन ही प्रमाण स्वरूप दिखलाए गए हैं और अन्य ऋषियों के भी) वहाँ पर केवल इतना ही लिख दिया है कि 'वृत्तिसंकोचधार्मेण स्वर्गादिलोकजित्तामो भवति'। जिसका भाव यह है कि 'वह जीविका के संकोच रूप धर्म के बल से स्वर्ग आदि लोगों को प्राप्त कर सकता है'। परंतु इनसें तो काम चल सकेगा नहीं; क्योंकि केवल भीख माँगने से स्वर्ग मिलता है इस बात में तो भगवान मनु तथा अन्य महर्षियों की सम्मति कहीं भी नहीं पाई जाती। इसीलिए यह दूसरे अभिप्रायवाला पक्ष दुर्बल और प्रथम ही पक्ष प्रबल अथवा ठीक है। यदि दूसरे अभ्रिप्राय को भी मानने में आग्रह हो तो केवल कुल्लूकभट्ट के कथन से काम न चलेगा। हाँ, इतना अवश्य होगा कि जब जीविका का संकोच होते-होते ब्राह्मण चतुर्थ प्रकार का हो जावेगा, अर्थात उसके पास एक दिन के लिए भी भोजन आदि का सामान न रहेगा, तो जैसा कि छांदोग्योपनिषद के पंचम प्रपाठक के 9वें खण्ड में लिखा है कि :

तद्यइत्थं विदुर्येचेमे रण्ये श्रद्धातप इत्यपासते,

ते र्चिषमभिसंभवन्ति...ब्रह्मगमयति इत्यादि॥

जिसका भावार्थ यह है कि 'जो गृहस्थ शास्त्रभ्यासी और पूर्वोक्‍त पंचाग्नि विद्या के उपासक होते हैं, तथा जो वानप्रस्थ एवं ब्रह्मचारी आदि जंगलों में श्रद्धापूर्वक तप करते हैं, वे अर्चिरादि मार्ग (उत्तरायण) द्वारा क्रमश: ब्रह्मलोक में जाते हैं।'

अथवा जैसा कि शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि 'स घृतकुल्या पितृंस्तर्पयति' इत्यादि। अर्थात 'नियमपूर्वक प्रतिदिन वेदादि का अभ्यास करनेवाला सभी कर्मों के फल प्राप्त कर लेता है,' इसके अनुसार वही प्रथम प्रकार का ब्राह्मण ब्रह्मलोकादि प्राप्त कर सकता है, न कि दूसरे और तीसरे भी। इसीलिए यद्यपि इस द्वितीय अभिप्राय के वर्णन में मनु जी के भाव का संकोच अवश्य होता है, तथापि हम इस अभिप्राय को भी स्वीकार कर लेने में कोई बाधा उपस्थित नहीं करते। अत: सिद्ध हो गया कि कृषि आदि के करनेवाले भी ब्राह्मण न करनेवालों से किसी प्रकार से हीन नहीं हैं। किंतु दोनों समान हैं। उंछ, शिल आदि करनेवाले विशेष रूप से शास्त्रभ्यास और उसके द्वारा उत्तम-उत्तम फल प्राप्त कर सकते हैं यह दूसरी बात है। एतावता वह जीविका मंत्रादि महर्षियों की दृष्टि में मध्यम नहीं हैं।

जब यह विचार उठा कि पूर्वोक्‍त चतुर्विध ब्राह्मण किन-किन उपायों द्वारा अन्न संग्रह कर सकते हैं, तो मनु जी स्वयं उत्तर देते हैं कि :

षट्‌कर्मैको भवत्येषां त्रिभिरन्य: प्रवर्त्तते।

द्वाभ्यामेकश्‍चतुर्थस्तु ब्रह्मसत्रेण जीवति॥ 9॥

इसका अर्थ मेधातिथि ने ऐसा लिखा है कि :

कुसूलधान्यादीनां मध्यादेक: कुसूलधान्यक: प्रकृतैरु×छशिलायाचितया-चितकृषिवाणिज्यै: षट्‌कर्मा भवति षड्भिर्जीवति। अन्योद्वितीय: कुम्भीधान्यक: कृषिवाणिज्ययोर्निन्दितत्वात् तत्तयाग उ×छ शिलायाचितयाचितानां मध्यादिच्छातास्त्रिभरिर्वत्ताते। एकस्त्रयहैंहिको याचित लाभं विहायो×छशिलायाचितानां मध्यादिच्छया द्वाभ्यांर् वत्ताते। चतुर्थ: पुरनश्‍वस्तनिको ब्रह्मसत्रोण जीवति। ब्रह्मसत्रांशिलो×छयोरन्यतरावृत्ति-र्ब्रह्मणोब्राह्मणस्यसततभवत्वात्सत्राम्।

इसका मर्मानुवाद यह है कि :

'कुसूलधान्यादि संज्ञक चार प्रकार के ब्राह्मणों में से कुसूलधान्यक पूर्वोक्‍त उंछ, शिल, अयाचित, याचित, कृषि और वाणिज्य से जीविका करता हुआ षट्‌कर्मा कहलाता है। कुंभी धान्यक कृषि और वाणिज्य को छोड़ कर शेष चार में से तीन ही करता है, क्योंकि अपने हाथों उनके करने का निषेध है (और अन्य द्वारा करवाने में पराधीनता होती और द्रव्य व्यय होता है) जैसा कि आगे विदित होगा। तीसरा त्रयहैंहिक नामवाला याचित को अच्छा न समझ अवशिष्ट तीन में से दो ही करता है और अश्‍वस्तनिक नाम का तो केवल शिल अथवा उंछ करता है, जिनका नाम ब्रह्मसत्रा है, क्योंकि वे ब्रह्म अर्थात ब्राह्मण के लिए सतत (सदा) होते हैं। यह मेधातिथि का ही अर्थ यहाँ पर उचित है। क्योंकि इस श्‍लोक के अन्त में जब उनके मत से शिल, उंछ का वर्णन आया है, तभी अगले श्‍लोक के साथ संगति (सम्बन्ध) भी होती है। कारण उस श्‍लोक में भी शिल, उंछ का नाम लेते हुए उसके साथ कुछ विशेष बातें कही गई है, जैसा कि :

वर्तयंश्‍च शिलोछाभ्यामग्निहोत्रापरायण:।

इष्टी: पार्वायनान्तीया: केवल निर्वपेत्सदा॥

जिसका अर्थ यह है कि 'शिल, उंछ वाले के पास बहुत धन न होने से वह बड़े-बड़े यज्ञ नहीं कर सकता। इसलिए वह केवल अग्निहोत्र और दर्श पूर्णमास तथा आग्रायण यज्ञ करे।'

पूर्वोक्‍त षट्‌कर्मैको इत्यादि श्‍लोक के अर्थ में कुल्लूकभट्ट ने जो याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह का नाम लिया है वह उनका अकांडतांडव मात्र है। क्योंकि याजन आदि का तो चतुर्थ अध्याय में प्रसंग ही नहीं हैं। उनकी यह आशा कि 'अद्रोहेणैव इत्यादि श्‍लोक से इनकी सिद्धि हो सकती है, निराशा मात्र है। क्योंकि वे कहते हैं कि इस 'अद्रोहेणैव' श्‍लोक में याजन आदि का भी सामान्य रूप से संग्रह है। यदि ऐसी बात न होती और केवल आगे कही हुई मात्र जीविकाओं का सामान्य रूप से इस श्‍लोक में कथन होता तो फिर इस श्‍लोक की आवश्यकता ही क्या थी? परंतु विचारने की बात तो यह है कि यदि इस युक्‍ति से इस श्‍लोक से ऋत आदि से भिन्न याजन आदि की सिद्धि मानी जावे तो इससे अगले 'यात्रामात्र प्रसिद्धयर्थ' इस श्‍लोक से भी किसी और जीविका की सिद्धि होनी चाहिए। परंतु इस श्‍लोक में तो वे भी यही मानते हैं कि आगे कहे हुए उपायों का साधारण रूप से कथन है।

अतएव टीका में आप ही लिखते हैं कि 'कै:कर्मभिरित्यत्राहऋतामृताभ्यामिति।' अर्थात पूर्व श्‍लोकों में जो 'कर्मभि' यह पद पड़ा है उससे किन-किन कर्मों को लेना चाहिए इस तात्पर्य से मनु जी 'ऋतामृताभ्यां' यह अलग श्‍लोक पढ़ते हैं। इससे स्पष्ट है कि 'अद्रोहेणैव' इस श्‍लोक में भी केवल ऋत आदि का सामान्य रूप से कथन करते हुए यह शिक्षा दी गई है कि प्राणियों की पीड़ा का ध्यान सर्वदा रखना चाहिए और 'यात्रामात्र' इस श्‍लोक में 'अगर्हितै:' यह विशेषण दे कर निंदित अर्थात अपने हाथों हल जोत कर खेती करने आदि को मना किया है। बस, इतनी ही विशेषता इन दोनों श्‍लोकों के पृथक बनाने में है। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि शास्त्रकारों का यह नियम सर्वदा रहता है कि प्रथम सामान्य रूप से वस्तु को कहते हैं फिर विशेष रूप से। क्योंकि सामान्य ज्ञान बिना उसके विशेष की जिज्ञासा ही नहीं होती। जो आम को ही नहीं जानता वह कभी भी यह प्रश्‍न नहीं कर सकता कि वे कितने प्रकार के होते हैं। इसीलिए सृष्टि प्रकरण में प्रथम सामान्य रूप से यह कह दिया है कि :

मांवित्तास्य सर्वस्यस्रष्टारं द्विजसत्तामा:। 1 अ., 33, म.।

अर्थात 'मुझे इस संपूर्ण सृष्टि का कर्ता जानो।' फिर उसी बात को विशेष रूप से कहने लगे कि 'अहं प्रजा: सिसृक्षुस्तु' इत्यादि। अर्थात 'मैं सृष्टि की इच्छा से' इत्यादि। इसी प्रकार से न्याय आदि दर्शनों में प्रथम द्रव्य, गुण आदि पदार्थों को सामान्य रूप से कह कर फिर द्रव्य आदि के विशेष पृथ्वी और जल आदि को कहा है, न कि प्रथम सामान्यतया द्रव्य कहने से पृथ्वी आदि से भिन्न ही कोई वस्तु समझी जाती है।

दूसरी बात यह है कि अध्यापन आदि आपद्धर्म है। क्योंकि मनुस्मृति भर में दो ही जगह इनके नाम आए हैं, प्रथम और दशम अध्यायों में। उनमें भी प्रथम अध्याय में तो उनके करने की आज्ञा नहीं है, किंतु उत्पत्ति प्रकरण होने से उनकी उत्पत्ति मात्र लिख दी गई है। इसीलिए आज्ञावाचक शब्द का प्रयोग भी नहीं हैं, किंतु केवल उनको उत्पन्न कर दिया ऐसा लिखा है। जैसा कि -

अध्यापनमध्यायनं याजनं यजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहश्‍चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥ 1। 8॥

अर्थात 'अध्यापन आदि षट्‌कर्मों को उत्पन्न कर दिया।' यही बात इस श्‍लोक की टीका में कुल्लूकभट्ट ने भी लिखी है, जैसा कि -

अध्यापनादीनामिह सृष्टिप्रकरणेसृष्टिविशेषतया

भिधानं विधिस्तेषामुत्तारत्रा भविष्यति॥

अर्थात 'इस सृष्टि प्रकरण में सृष्टि विशेष होने से ही अध्यापन आदि का कथन किया गया है, उनके करने की विधि तो आगे चल कर दसवें अध्याय में होगी। पुन: दशम अध्याय आपद्धर्म प्रकरण में इनके नाम लिए हैं और वहाँ पूर्व के ही श्‍लोक में आज्ञा दे दी है कि

ते सम्यगुपजीवेयु: षट्‌कर्माणि यथाक्रमम्। 10। 74।

अर्थात 'वे ब्राह्मण आगे कहे हुए षट्‌कर्मों द्वारा जीवें। तदनंतर 75वें श्‍लोक में उन कर्मों के गिना लेने पर जब यह शंका हुई कि यज्ञ, अध्यायन और दान ये तीन क्योंकर जीविकाएँ हो सकती हैं? क्या इन्हें भी आपत्ति काल में ही करना चाहिए? तो 'षण्णांतुकर्मणामस्य' इस 76वें श्‍लोक में दिखला दिया कि तीन ही कर्म जीविकाएँ हैं और उन्हें ही आपत्काल में करना चाहिए। शेष तीन तो धर्मार्थक कर्म नित्य के हैं (जैसा प्रथम ही कह चुके हैं)। परंतु जबकि उत्पत्ति प्रकरण में इन छहों को साथ ही इसी श्‍लोक में पढ़ दिया था, अत: उसी श्‍लोक को यहाँ भी पढ़ मात्र दिया है, न कि छहों को ही आपत्तिकाल में ही करने में तात्पर्य है। इसके अतिरिक्‍त चौथे ही अध्याय में मनु भगवान लिखते हैं कि :

राजतो धनमन्विच्छेत् संसीदन स्नातक: क्षुधा।

याज्यान्तेवासिनोर्वापि न त्वन्यत इतिस्थिति:॥ 33॥

अर्थ यह है कि 'जब ब्राह्मण क्षुधातुर हो तभी राजा के धन का प्रतिग्रह करे अथवा पढ़ा और यज्ञ करा कर जीविका (धनप्राप्ति) करे और आपत्तिकाल में भी जब तक इन तीन उपायों से धन प्राप्त कर सके तब तक अन्यों से न करे।' यद्यपि चतुर्थ अध्याय आप धर्मों का प्रकरण नहीं है, तथापि इस श्‍लोक का तो स्पष्ट रूप से ही अर्थ है, और यह स्नातक के व्रत का प्रकरण था, इसीलिए व्रत के अन्तर्गत होने से यह बात भी यहाँ कहनी पड़ी। इसीलिए अगले श्‍लोक में स्पष्ट कह देते हैं कि यह आपद्धर्म है। क्योंकि लिखते हैं कि :

न सीदेत् स्नातको विप्र: क्षुधा शक्‍त: कथंचन।

न जीणमलवद्वासा भवेच्च विभवे सति॥ 34॥

अर्थात 'जब तक सामर्थ्य रहे तब तक गृहस्थ ब्राह्मण भूखों न मरे और धन रहने पर पुराने एवं मैले वस्त्र न पहने।' इससे तो स्पष्ट ही है कि तभी भूखों मरेगा जब कोई दूसरा उपाय न हो और जब यह बात हुई तो उसके ऊपर आपत्ति आ गई। इसलिए उस दशा में याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह से जीविका करेगा। इसी तरह जब तक इन तीनों उपायों से धन मिलेगा तब तक और उपाय न करेगा। परंतु इनके भी न होने पर दशम अध्याय में लिख दिया है कि 'सर्वत: प्रतिग्रह्‍णीयात्' अर्थात 'सभी से प्रतिग्रह करे' और क्षत्रिय एवं वैश्य कर्मों को भी करने की आज्ञा दे दी गई है। इसीलिए वहाँ पर जो अन्य का निषेध किया है वह तीन उपायों के होने की दशा में है, न कि सदा के लिए। अत: 'सर्वत: प्रतिगृह्‍णीयात्' के साथ इसका कोई भी विरोध नहीं है।

इसके अतिरिक्‍त अध्याय के अन्त में भी लिखा है कि :

एते चतुर्णां वर्णानामापद्धर्मा: प्रकीर्त्तिता:।

यान सम्यगनुतिष्ठन्तो व्रजंति परमां गतिम्॥ 10। 130

जिसका तात्पर्य यह है कि 'इस अध्याय में पूर्वोक्‍त चारों वर्णों के आपद्धर्म कहे गए है, जिनको अच्छी तरह से करनेवाले ज्ञान द्वारा मुक्‍ति प्राप्त कर लेते हैं।' यदि मनु जी को यह विदित होता कि अध्यापन आदि अनापत्तिकाल के धर्म है, तो चौथे अध्याय में इनके नाम क्यों न लेते? जैसा कि कृषि आदि को कहा है। इससे तो स्पष्ट ही है कि वे धर्म ब्राह्मणों के लिए आपत्तिकाल में ही हो सकते हैं। हाँ, जिन क्षत्रिय आदि के किसी भी धर्म को प्रथम नहीं कहा है उनके प्रजापालनादि धर्म जो दशम अध्याय में कहे गए हैं उनको यदि अनापत्तिकालिक मान ले और उनका यह कथन प्रसंगवश कहे तो उचित भी है। परंतु ब्राह्मण धर्मों के विषय में यह बात नितान्त असंभव है, क्योंकि उनके मुख्य कर्मों को चौथे अध्याय में ही कह चुके हैं। यदि प्रसंगवश यहाँ कहना भी माने तो फिर सभी को क्यों न गिनाया? किंतु जिन्हें कह चुके थे उन्हें कहा ही नहीं, बल्कि विलक्षण कर्मों को ही कहा। इससे इनके आपद्धर्म होने में कोई भी आपत्ति नहीं की जा सकती। याज्ञवल्क्य जी भी इस विषय में उदासीन है। क्योंकि उन्होंने सामान्यत: इन धर्मों को गिना भर दिया है, उन्हें आपद या अनापद्धर्म नहीं कहा है। प्रत्युत प्रायश्‍चित्तध्याय के 35वें श्‍लोक में लिखते हैं कि :

क्षात्रेण कर्मणा जीवेद्विशां वाप्यापदिद्विज:।

अर्थात 'आपत्तिकाल में ब्राह्मण क्षत्रियों और वैश्यों के कर्मों द्वारा भी जीएँ। इस जगह 'भी' के अर्थ में जो 'अपि' शब्द है उससे अनुक्‍त याजन आदि का भी समुच्चय उनको इष्ट है, जैसी कि रीति स्मृतियों में सर्वत्र ही है। अत: जब तक कृषि आदि हो सके तब तक याजन आदि से जीविका ब्राह्मण न करे। क्योंकि अनापत्तिकाल में आपत्तिकालिक जीविका का निषेध मनु जी ने 11वें अध्याय के 28 और 30 श्‍लोकों में किया है। यदि हम 'तुष्यतु दुर्जन' न्याय से यह भी मान ले कि याजन आदि को आपत्तिकाल से भिन्न काल में भी कर सकते हैं, तो भी कृषि वाणिज्यादि की तुलना ये कभी कर ही नहीं सकते। क्योंकि इनका निषेध मनु आदि महर्षि बहुत ही करते हैं, जैसा कि उनके 'अतपास्त्वनधीयान:' और 'प्रतिग्रह समर्थोपि' इत्यादि श्‍लोकों का अर्थ करते हुए दिखला चुके हैं।'

'प्रतिग्रह समर्थोपि' इस श्‍लोक में एक और विचित्रता हैं। वह यह कि जो प्रतिग्रह में समर्थ भी हो यह भी उसका नाम तक न ले, इस कथन से स्पष्ट है कि प्रतिग्रहादि का करना आवश्यक नहीं हैं। क्योंकि आवश्यक और नित्य कर्मों में सामर्थ्य नहीं देखते, बल्कि उनके न करने से पातक होता है। हाँ, काम्य कर्मों में सामर्थ्य की आवश्यकता हैं जैसा कि प्रथम लिख चुके हैं। इसलिए प्रतिग्रह करना शास्त्र प्रेरित न हो कर अपनी इच्छानुसार है, चाहे करे या न करे। परंतु यदि करे तो उससे होनेवाले पापों के प्रायश्‍चित की सामर्थ्य होनी चाहिए। इसलिए जो इस प्रकार की तप आदि सामर्थ्य से हीन हो वह तो इच्छा होने पर भी नहीं कर सकता। सारांश यह है कि 'प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्' अर्थात कीचड़ में पाँव डाल कर धोने से उसका न डालना ही उत्तम है, 'इस न्यायानुसार प्रतिग्रहादि का न करना ही अच्छा हैं। अतएव पार्थ सारथि मिश्र जी ने कुमारिल स्वामी रचित मीमांसा दर्शन वाक्‍तविक की टुप्टीका की टीका तन्त्ररत्‍न के चतुर्थाध्याय के द्वितीयाधिकरण के 'यस्मिन्प्रीति: पुरुषस्य तस्य लिप्सार्थलक्षणा' इस सूत्र में लिखा है कि, किमिदानीं प्रतिग्रह: प्रत्यवायक्षयकर:? यद्ये यमजस्त्रामेव यथाशक्‍ति प्रतिग्रहीतव्यं स्यात्, तन्न, प्रतिग्रहसमर्थोपि प्रसंगं तत्रा वर्जयेदितिप्रतिषेधात्, तेन दायशिलो×छायाचिताभावे यथा कथंचिद् द्रव्योपादानेवश्‍वम्भाविनि प्राप्ते पतिग्रहादिनैव कुर्वतोदृष्टसिद्धिरिति कल्प्यते।'

जिसका भावार्थ यह है, 'इस ग्रन्थ में प्रथम यह विचार हो चुका है कि जैसे संध्यादि के न करने से जो पाप होते है वे उनके करने से होते ही नहीं हैं। उसी तरह से अन्य अविहित उपायों से द्रव्यार्जन में जो पाप हो सकते हैं वे प्रतिग्रहादि करने से उत्पन्न ही नहीं होते। इसी पर यह शंका उठी कि तो क्या अब प्रतिग्रह को पाप का नाशक समझना चाहिए? यदि ऐसी बात हो तो नित्य जहाँ तक हो सके अवश्य प्रतिग्रह करना चाहिए। इसका उत्तर देते हैं कि यह बात नहीं हैं, क्योंकि 'प्रतिग्रह समर्थोपि' इस वाक्य द्वारा मनु जी ने उसका निषेध किया है। इसलिए पूर्व कथन का तात्पर्य यह है कि जब ऐसी आपत्ति का समय आ जावे कि दायभाग (पितादि की जमींदारी या धन आदि) शिल, उंछ और अयाचितादि कोई भी उपाय धनप्राप्ति के हो न सके और किसी भी प्रकार से धानार्जन अत्यन्तावश्क हो तो यदि प्रतिग्रहादि द्वारा प्राप्त किया जावे तभी उससे यज्ञादि करने से अदृष्ट (पुण्य) हो सकता है।' क्या इस कथन से यह स्पष्ट नहीं है कि प्रतिग्रहादि नहीं करने चाहिए, क्योंकि वे आपत्तिकाल के धर्म है इत्यादि? इस विषय में गौतमस्मृति और मितक्षराकार की सम्मति प्रथम ही दिखला चुके हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति आचाराध्याय में लिखा है कि :

विद्यातपोभ्यां हीनेन नतु ग्राह्य: प्रतिग्रह:।

गृह्‍णन्प्रदातारमधो नयत्यात्मानमेव च॥ 202॥

प्रतिग्रहसमर्थोपि नादत्त य: प्रतिग्रहम्।

ये लोकादानशीलानांसतानाप्नोतिपुष्कलान॥ 213॥

अर्थ यह है कि 'जो विद्या और तप रहित हो वह कभी न प्रतिग्रह करे, क्योंकि ऐसा करने से अपने आप और दाता दोनों को नरक में ले जाता है। जो प्रतिग्रह करने में सामर्थ्यवान हो कर भी उसे नहीं करता वह उन बड़े-बड़े लोकों में जाता है जिनमें दानवाले जाया करते हैं।' इसका तात्पर्य स्पष्ट ही है। लघुविष्णुस्मृति में लिखा है कि :

प्रतिग्रहं न गृहृणीयात्परेषांकिंचिदात्मवान।

दाता चैव भवेन्नित्यं श्रद्दधान: प्रियंवद:॥ 8। अ. 3॥

अर्थात 'विचारशील और आत्मज्ञानी किसी का प्रतिग्रह न करे और प्रिय वचन तथा श्रद्धापूर्वक दूसरों को नित्य ही कुछ दे।' अत्रिस्मृति में भी यही लिखा है कि:

पावका इव दीपयन्ते जपहोमैर्द्विजोत्तामा:।

प्रतिग्रहेण नश्यन्ति वारिणा इव पावक:॥ 141॥

तान्प्रतिग्रहजान्दोषाप्राणायामैद्विजोत्तामा:।

नाशयन्ति हि विद्वांसो वायुर्मेघानिबाम्बरे॥ 142॥

भावार्थ यह है कि श्रेष्ठ ब्राह्मण जप और अग्निहोत्रादि करने से अग्निवत तेजस्वी हुआ करते हैं। परंतु प्रतिग्रह से ऐसे निस्तेज हो जाते हैं जैसे पानी से अग्नि। इसलिए कदाचित प्रतिग्रह कर लेने से जो पाप हो जाते हैं उनका नाश प्राणायाम द्वारा विद्वान ब्राह्मण ऐसे ही कर डालते हैं जैसे प्रचंड वायु आकाश में रहनेवाले बादलों का नाश कर देता है। श्रीमद्‍भागवत में भी प्रसंगवश 11वें स्कंध के 17 वें अध्याय में लिखा है कि :

प्रतिग्रहं मन्यमानस्तपस्तेजोयशोनुदम्।

अन्याभ्यामेवजीवेतशिलैर्वादोषदृक्‍तयो:॥ 41॥

सीदन्विप्रोवणिग्वृत्तयापण्यैरेवापदं तरेत्।

खड्गेनवापदामन्तो नश्‍ववृत्तया कदाचन॥ 47॥

जिसका अर्थ यह है कि 'आपत्तिकाल में भी प्रतिग्रह को तप, तेज और यश का नाशक समझ ब्राह्मण याजन और अध्यापन से ही जीविका करे, अथवा उनको भी दुष्ट समझ कर शिल आदि वृत्तियों से ही शरीर यात्रा करे और वाण्श्निाज्यवृत्ति से पदार्थों को बेच कर क्षत्रिय धर्म से तलवार ले कर अर्थात युद्ध कर के भी जीविका करे, परंतु नौकरी कभी न करें।' जब विश्‍वरूप को देवताओं ने बृहस्पति के रुष्ट होने पर अपनी पुरोहिती करने को कहा तो उन्होंने उसकी बहुत ही निंदा की और कहा कि :

अकिंचनानां हि धनं शिलोछनं तेनेह नरिर्वत्तात साधुसत्क्रिय:। कथं विगर्ह्यं तु करोम्यधीश्‍वरा: पौराधासं हृष्यति येन दुर्मति:॥ श्रीमद्‍भागवत। 6। 7। 36

अर्थ यह है कि 'हे देवगण! दरिद्र ब्राह्मण के भी धन शिल और उंछादि ही है, जिनसे मैं अच्छी तरह से अपने शरीर का निर्वाह करता हूँ, इसलिए पुरोहिती क्यों करूँ? क्योंकि उससे तो केवल मूर्ख लोग ही प्रसन्न होते हैं। अध्यात्मरामायण के अयोध्याकांड में वसिष्ठ जी ने राम जी के प्रति कहा है कि 'पौरोहित्यमहं जानेविगर्ह्य द्ष्यजीवनम्।' 2। 28। जिसका अर्थ यह है कि मैं पुरोहिती को धर्मशास्त्रनिंदित और जीवन को दूषित करने वाली समझता हूँ।' जिसको गोस्वामी तुलसीदास जी ने स्पष्ट कर दिया है कि उपरोहिती कर्म अति मंदा। वेद पुराण स्मृति कर निंदा॥ वाल्मीकि रामायण बालकांड के छठें सर्ग में अयोध्यावासी तथा रामराज्यवासी ब्राह्मणों के आचारों का वर्णन करते हुए महर्षि लिखते हैं कि :

स्वकर्मनिरतानित्यं ब्राह्मणाविजितेन्द्रिया:।

दानाध्यायन शीलाश्‍च संयताश्‍च प्रतिग्रहे॥

जिसका अर्थ यह है कि 'जितेंद्रिय ब्राह्मण लोग अपने-अपने धर्मों में सदा स्थित हो कर दान और अध्यायनादि करते और प्रतिग्रह नहीं लेते हैं। इसीलिए मनु जी ने दशमध्याय में लिखा है कि :

प्रतिग्रहाद्याजनाद्वा तथैवाध्यपनादपि।

प्रतिग्रह: प्रत्यवर: प्रेत्य विप्रस्य गर्वित:॥ 109॥

जपहोमैरपैत्येनो याजनाध्यापनै: कृतम्।

प्रतिग्रहनिमित्तां तु त्यागेन तपसैव च॥ 111॥

अर्थ यह है कि इन 'याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह तीनों में से प्रतिग्रह अत्यन्त ही निंदित और परलोक में ब्राह्मण के लिए दु:खद है। याजन और अध्यापन से जो पाप होते हैं वे जप और अग्निहोत्रदि द्वारा निवृत्त हो जाते हैं। परंतु प्रतिग्रह के पाप तो उस द्रव्य के त्यागने और कृंछादिरूप तप करने से ही निवृत्त होते हैं।' इससे यह स्पष्ट है कि यदि सामान्य रीति से ये शास्त्रीय धर्म होते तो जैसे शिल, उंछादि करने से पाप नहीं लिखा, वैसे इनके करने से भी पाप न लिखते; क्योंकि शास्त्रविहित कार्य करने में पाप हो ही नहीं सकते। यदि कोई ऐसा अनुचित आग्रह करे कि सामान्य प्रतिग्रह से होनेवाले पापों का वर्णन इन श्‍लोकों में नहीं हैं, किंतु निंदित प्रतिग्रह की ही हीनता यहाँ दिखलाई गई है, तो उसको एक तो यह विचारना चाहिए कि इन श्‍लोकों में प्रतिग्रह मात्र लिखा है। दूसरे जब मनु जी यह भी प्रथम ही इसी अध्याय में कह चुके हैं कि 'विशुद्धाच्च प्रतिग्रह:।' अर्थात शुद्ध प्रतिग्रह करना चाहिए। तो फिर अनुचित प्रतिग्रह का प्रसंग ही क्या है? और 'प्रतिग्रहसमर्थोपि' इत्यादि वाक्यों द्वारा सभी प्रतिग्रहों का निषेध किया है, जैसा कि अभी पार्थसारथि मिश्रादि की सम्मति इस विषय में दिखला चुके हैं। वाल्मीकि रामायण में जो उस समय के ब्राह्मणों का आचार दिखलाया गया है वहाँ जब यह लिखा है कि वे अपने कर्मों में स्थित है, तो फिर असत प्रतिग्रह कैसे कर सकते थे? अत: सामान्य रूप से सभी प्रकार के प्रतिग्रह वे लोग भी नहीं करते थे। मत्स्यपुराण के 111वें अध्याय में युधिष्ठिर के प्रति कृष्ण जी का उपदेश है कि :

प्रतिग्रहादुपावृत्ता: सन्तुष्टो नियत: शुचि:।

अहंकारनिवृत्तश्‍च स तीर्थफलमश्‍नुते॥ 10॥

अर्थात 'जो प्रतिग्रह से रहित, संतोषी नियमी, पवित्र और अभिमानशून्य हो वह संपूर्ण तीर्थ स्नानादि के फलों को प्राप्त कर लेता है।' स्कंदपुराणांतर्गत ब्रह्मखण्ड के धर्मारण्यमहात्म्य प्रकरण में वाडवों (ब्राह्मणों) के आचार इस प्रकार से वर्णित है :

चा. उ.।

पूर्वंहिवृत्तिमस्माकंरामोवैदत्तवान द्विजा:।

चातुर्विद्या महासत्त्वा: स्वधर्मप्रतिपालका:॥ 141॥

याजनाध्यापनायुक्‍ता: काजेशेन विनिर्मिता:।

दानं दत्त्वा तु रामेण उक्तं हि भवतां पुन:॥ 142॥

स्थानं त्यक्वा न गंतव्यमितं नियम: कृत:॥ 149॥

त्यक्‍तप्रतिग्रहा: शान्ता: सत्यव्रतपरायणा।

संध्यामुपासते नित्यं त्रिकालं चैकमानसा:॥ 150।36।

जिसका भावार्थ यह है कि 'उन्हीं ब्राह्मणों में से चारों वेदों के ज्ञाता एक ने कहा कि हे ब्राह्मणो! राम जी ने प्रथम ही हम लोगों के लिए वृत्ति नियत कर दी है और हम लोग चारों वेदों के ज्ञाता और अपने धर्म के पालक हैं। याजन और अध्यापन नहीं करते और हम लोगों को यहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने स्थापित किया है इत्यादि। 'वहाँ रहनेवाले वाडव प्रतिग्रहादि से रहित और शांत थे और त्रिकाल संध्या एकाग्रचित्त हो कर करते थे।'

यदि हम अध्यापनादि के स्वरूपों का विचार करते हैं तो उन ब्राह्मणों का इनसे पृथक रहना और स्मृतियों के निषेध ये दोनों बहुत ही उचित प्रतीत होते हैं। क्योंकि जो दान देनेवाला होता है वह, जैसे बच्चे को गुड़ खिला कर कर्णच्छेद कराते हैं वैसे ही, दान द्वारा अपने पातक को द्वितीय व्यक्‍ति के ऊपर रखता हैं। या यों कहना चाहिए कि जैसे तृण खिला कर गौ दुही जाती है वैसे ही वह दान द्वारा ब्राह्मण का तप दुह लेता है। क्योंकि जैसे प्रज्वलित अग्नि तृण का नाश कर आप शांत होती है वैसे ही ब्राह्मण की तपरूप दाता के पातक को भस्मीभूत कर के आप भी समाप्त हो जाती है। इसलिए यदि दानग्राही तपस्वी न होगा तो दाता का दान व्यर्थ हो जावेगा और ग्रहण करनेवाला तो पतित होगा ही, जैसा कि प्रथम मन्वादि के वाक्यों द्वारा दिखला चुके हैं। यदि दान अपने पातक को दूसरे के सिर मढ़ने के लिए नहीं होता है तो और कौन किस काम के लिए होता है? यदि ऐसा नहीं, तो ब्रह्महत्यादि का प्रतिग्रह करने में लोग डरते क्यों हैं? और जब अन्न पर ही बुद्धि निर्भर हैं, तो फिर जैसा अन्न होगा वैसी ही बुद्धि बनेगी, क्योंकि छांदोग्योपनिषद के षष्ठ प्रपाठक में लिखा है कि 'अन्नमशितं त्रोधा विधीयते यदणिष्ठं तन्मनो भवति' अर्थात 'भोजन किए गए अन्न के स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मतर तीन अंशों में से सूक्ष्मतर अंश से मन (बुद्धि) बनता है। इसीलिए महाभारतादि ग्रन्थों में चोरी का अन्न भक्षण करने से महात्माओं की भी बुद्धियों के विकृत हो जाने का वर्णन प्राय: आया करता है। इसीलिए शिष्य अथवा यज्ञकर्ता अध्यापन और याजन के बदले जो दक्षिणा देगा वह यद्यपि मजदूरी ठहरी तथापि अपनी बुद्धि पर उसका प्रभाव अवश्य आएगा। वह अन्न या द्रव्य उसने उत्तम रीति से ही कमाया है, यह कभी हो ही नहीं सकता। क्योंकि मनुष्य की स्वभाव सिद्ध विपरीत प्रवृत्तियों का बदल जाना एकदम असंभव है। इसीलिए मनु जी ने श्राद्ध प्रकरण में :

याजयन्तिचयेपूगांस्तांश्‍च श्राद्धेनभोजयेत्। 3। 151।

भृतकाध्यापकोयश्‍च भृतकाध्यापितस्तथा॥ 3। 156।

अर्थात 'जो बहुतों के यज्ञ करानेवाले, वेतन ले कर पढ़ाने और पढ़नेवाले हैं उनको श्राद्ध में न खिलावें।' इन वाक्यों द्वारा ऐसों को श्राद्ध में निंदित ठहराया है। ऐसे ही याज्ञवल्क्यादि ने भी कहा है। इसीलिए याजनादि अगतिक गति और आपद्धर्म कहलाते हैं जिनका वाडवों (ब्राह्मणों) ने सांप्रतिक पश्‍चिम, त्यागी, महियाल, भूमिहार ब्राह्मणों की तरह सर्वथा परित्याग या निरादर किया था। क्योंकि जैसा कि आगे विदित होगा कि वे भी इन्हीं लोगों की तरह बड़े-बड़े भूम्यधिपति (जमींदार)थे।

हाँ, इस बात में कोई विवाद या शंका नहीं है कि याजन और अध्यापन ये दोनों, जैसा कि प्रथम 'अध्यापनं च त्रिविधां' इस श्‍लोक में कह चुके हैं, यदि केवल परोपकारबुद्धि से किए जावे जैसा कि प्राचीन ऋषि, महर्षि दयार्द्रचित्त हो कर किया करते थे और किसी-किसी स्थान में आज भी देख सकते हैं, तो बहुत ही उत्तम और अवश्य कर्तव्य है, जिन्हें अयाचक और याचक दोनों प्रकार के ब्राह्मण करें और तद्द्वारा प्राप्त दक्षिणा न ले कर उसे भी यदि परोपकार और अनाथपालनादि में व्यय करा दिया जावे और सर्वसाधारण का जिसमें उपकार हो सके ऐसे कार्य उससे करवा दिए जावे, जैसे कि ब्रह्मचर्याश्रम, गोशालाएँ, धर्मशालाएँ और औषधालय आदि तो दक्षिणा सहित होने से यज्ञादि भी पूर्ण हो जावे, क्योंकि संभवत: लोगों की यह धारणा हो कि भगवान कृष्ण ने गीता में 'मन्त्रहीनमदक्षिणम्' अर्थात 'मन्त्र और दक्षिणाहीन यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं' इत्यादि वाक्यों द्वारा दक्षिणा बिना सद्यज्ञसिद्धि का निषेध किया है, तो वह भी धारणा पूरी हो जावे और कार्य भी चला जावे, जिससे करनेवाले निष्कलंक ही रह जावे।

वस्तुत: तो गीता में जो यज्ञों की दक्षिणा का वर्णन है उसका तात्पर्य यह है कि सामान्य रीति से यज्ञादि में ऋत्विज वगैरह दक्षिणा ही के लोभ से आते हैं। क्योंकि यदि यह बात न होती तो मीमांसा दर्शन के प्रथमाध्याय के तृतीय पाद के तृतीय अधिकरण में 'हेतुदर्शनाच्च' इस सूत्र पर भाष्यकार श्रीशबरस्वामी तथा माधावाचार्य 'वैसर्जनहोमीयं वासोधवर्युर्गृह्णति' अर्थात 'वैसर्जनहोम संबंधी वस्त्र को अधवर्यु नाम का ऋत्विक लेता है।' इस स्मृति को अप्रामाणिक ठहराते हुए यह कभी न कहते कि :

कदाचित्कश्‍चिदधवर्युर्लोभादेतद्वासा जग्राह, तन्मूलैवैपास्मृतिरित्यपि कल्पना संभवति

दृष्टानुसारिणी चैषा कल्पना, दक्षिणयापरिक्रीतानामृत्विजां लोभदर्शनात्॥

अर्थात कभी किसी अधवर्यु ने लोभ से इस वस्त्र को ले लिया होगा, तन्मूलक ही यह स्मृति भी बन गई होगी यह भी कल्पना हो सकती है, और यह कल्पना प्रत्पक्षानुसारिणी भी है। क्योंकि दक्षिणा दे कर लाए गए ऋत्विजों को लोभ होता रहता है। और इस अधिकरण की आवश्यकता भी न होती। इसलिए यदि यजमान के लिए यज्ञ में दक्षिणा की आज्ञा न हो तो बेचारों की मजदूरी ही मारी जावे और धर्म के बदले वहाँ अधर्म ही होने लग जावे। इसीलिए यज्ञ प्रकरण में सर्वत्र ही दक्षिणा पर जोर दिया गया है। परंतु यदि यज्ञ करानेवाला धर्म प्रिय और निर्लोभ हो, जैसाकि पूर्व कह चुके हैं, तो उनके लिए दक्षिणा की कोई आवश्यकता नहीं है। हाँ, यज्ञ करानेवाला दक्षिणार्थ संगृहीत द्रव्य का उन ऋत्विजों की अनुमति से सद्वयय कर सकता है। इनसे यह शंका भी निर्मूल हो गई कि यदि याजन आदि छोड़ दिए जावे तो फिर सब यज्ञ और अध्यायनादि का लोप ही हो जावेगा। जो कथा स्कंद पुराण के नाम से अनादि पुरवासी ब्राह्मणों के विषय में 'ब्राह्मणोत्पत्ति मार्तण्ड' नामक ग्रन्थ में दी गई है और जिसकी सविस्तार समालोचना प्रसंगवश यदि हो सका तो आगे करेंगे, वह भी इस बात को पुष्ट कर रही है कि यज्ञ में दक्षिणादि लेने में विचारशील ब्राह्मणों की प्रवृत्ति न करते थे। अतएव यद्यपि दूसरे बहुत से ब्राह्मणों ने दक्षिणा सहर्ष स्वीकार की, परंतु वाडवों (ब्राह्मणों) ने उससे साफ इनकार किया।

इस स्थान पर इस बात का ध्यान रखना भी आवश्यक होगा कि जो लोग इस बात के कहनेवाले और साथ ही पांडित्य का दम भरनेवाले हैं कि यदि सभी ब्राह्मण प्रतिग्रह से रहित हो जावे तो फिर दान लेनेवाला कौन होगा? फलत: दान रूप धर्म का ही लोप हो जावेगा। उनको यह विचारना चाहिए कि प्रथमत: तो यह कहा ही नहीं जाता है कि कोई भी दान लेगा ही नहीं, बल्कि हमारा तो यह कथन है कि जो विद्या और तपोबल संपन्न होने से दान लेने में समर्थ हो वह अपनी इच्छानुसार उसे ले सकता है, न कि गायत्री तक का भी नाम न जान कर धर्म भ्रष्ट और पतित शूद्रादि के प्रतिग्रह से ही पेट पालनेवाला दान का कभी भी अधिकारी हो सकता है। हम केवल यही चाहते हैं कि पात्रपात्रा के विचार बिना ही जैसी अन्धपरम्परा आज चल पड़ी है वह एकदम शास्त्रविरुद्ध होने से सर्वथा अनादरणीय है। दूसरी बात यह है कि केवल द्रव्य और अन्नादि के ही दान तो शास्त्रों में है नहीं, जिससे दानग्राही के न रहने से दान क्रिया का लोप हो जावेगा। क्या विद्या और सदुपदेशादि के दानों का लोप होने का भी कोई भय हो सकता है? तीसरी बात यह है कि यदि दान के योग्य ब्राह्मण न हो तो उन्हें लेने का अधिकार क्या बलात हो जावेगा? ऐसी दशा में दान के पदार्थों को अन्य सदुपयोगों में लगा सकते हैं जिनकी नितान्त आवश्यकता है। देखते हैं कि लोग गोशालाएँ और ब्रह्मचर्याश्रम के लिए चिल्लाते रह जाते हैं, पर कुछ होता नहीं। यदि दान के सभी पदार्थ ऐसे कार्यों में लगा दिए जावे तो क्या कोई अनुचित कार्य होगा? क्या इससे भी बढ़ कर कोई दान के लिए अवसर मिल सकता है? मैं तो समझता हूँ कि जैसे अयाचक ब्राह्मण समाज के लोग दान ग्रहण के निकट उसे निंदित समझ कर नहीं जाते और शास्त्रोक्‍त कृष्यादि द्वारा अपनी जीविका करते हैं, वैसे ही यदि इतर (याचक) ब्राह्मण भी (क्योंकि वे भी तो कृषि इत्यादि करते ही हैं) करने लग जावे तो भारतवर्ष की गोहत्या बिना प्रयत्‍न उसी द्रव्य से बंद हो जावे। जिन द्रव्यों से वे अपना पेट पालते हैं उन्हीं से इस पुण्यभूमि में सरस्वती की पावन धारा अनवरत प्रवाहित हो कर इस भूमि के सब कल्मषों को दूर कर दे और गोरक्षा द्वारा देश की निर्धनता और व्याधियों का भी विलय हो जावे। इसीलिए अग्निपुराण में लिखा है कि :

दैंवे कर्मणि पित्रये च ब्राह्मणो नैव लभ्यते।

तदन्नं तु गवे दद्यादथवा निक्षिपेज्जले॥

अर्थात 'यदि देव और पितृ कर्म में योग्य ब्राह्मण न मिलें तो उस अन्न का द्रव्य गो निमित्त प्रदान कर दे, अथवा जल में फेंक दे।' किं बहुना, जिस दानग्रहण से स्कंदपुराण के ब्रह्मोत्तर खण्ड के छठे अध्याय में किसी ब्राह्मणी के पुत्र की दरिद्रता शांडिल्य ऋषि ने दिखलाई है, जैसा कि :

एष ते तनय: पूर्वजन्मनि ब्राह्मणोत्ताम:।

प्रतिग्रहैंर्वयो निन्ये न यज्ञाद्यै: सुकर्मभि:॥ 80॥

अतो दारिद्रयमानपन्न: पुत्रस्ते द्विजभामिनि।

तद्दोषपरिहारार्थ शरणं यातु शंकरम्॥ 81॥

अर्थ यह है कि 'महर्षि शांडिल्य ने उस ब्राह्मणी से कहा कि हे द्विजभामिनि! यह तेरा पुत्र पूर्व जन्म में बहुत उत्तम ब्राह्मण था, परंतु यज्ञादि न कर के केवल प्रतिग्रह से ही जन्म बिताता था, इसलिए इस जन्म से दरिद्र हो गया है। अत: इस दोष की निवृत्ति के लिए महादेव जी की शरण जावे।' और जिस प्रतिग्रह से अग्निहोत्र ब्राह्मण को भी श्मशान काष्ठ तुल्य अपवित्र मत्स्यपुराण के 204 अध्याय में ठहराया है, जैसा कि :

अहिताग्निर्द्विजो यस्तु तद्देयं तस्य पार्थिव:॥ 3॥

तत्प्रतिग्रहविद्विद्वानाहिताग्निर्द्विजोत्ताम:।

स्नातो वस्त्रयुगाच्छन्न: स्वशक्त्या चाप्यलंकृत:॥ 20॥

अनेन विधिना दत्वा यथावत्कृष्णमार्गकम्।

न स्पृश्योसौ द्विजो राजन चितियूपसमो हि स:॥ 23॥

तं दाने श्राद्धकाले च दूरत: परिवर्जयेत्।

स्वगृहात्प्रेष्य तं विप्रं मंगलस्नानमाचरेत्॥ 24॥

भावार्थ यह है कि 'हे राजन! जो ब्राह्मण अग्निहोत्री हो उसे ही कृष्ण मृग का चर्म देना चाहिए। प्रतिग्रह को जाननेवाला वह विद्वान, अग्निहोत्री ब्राह्मण स्नान कर के दो वस्त्रों के साथ-साथ यथाशक्‍ति भूषण धारण किया हो। इस प्रकार से उसको विधिवत कृष्ण मृगचर्म दे कर उसे स्पर्श न करे क्योंकि वह उस समय चिता के काष्ठ के सदृश हो जाता है। इसलिए उस ब्राह्मण को दान और श्राद्धकाल में दूर से ही त्याग दे और अपने घर से उसे बिदा कर के मंगल स्नान करे।' ऐसे प्रतिग्रह से सर्वथा दूर रह कर कृषि वाणिज्यादि द्वारा जीवन बिताने में ही कल्याण है।

( ग) कृषि - अब ब्राह्मण की प्रशस्त जीविका कृषि का विशेषरूप से विचार करते हैं क्योंकि आजकल अज्ञान, स्वार्थांधता और अकारण परद्वेष एवं परोत्कर्षा-सहिष्णुतामूलक बहुत सी कुशंकाएँ इस विषय में हुआ करती है। यह स्मरण रखना चाहिए कि कृषि-वाणिज्य और एकनिर्दिष्ट ब्याज पर रुपए देने ये तीनों अथवा प्रथम के दो ही दो प्रकार के होते हैं - (1) स्वयंकृत अर्थात अपने हाथों से किए गए, और (2) अस्वयंकृत अर्थात भृत्यादि अन्य पुरुष द्वारा कराए गए। जैसा दिखला चुके हैं, उनमें से प्रथम अर्थात स्वयंकृत तो आपत्तिकाल में ब्राह्मण द्वारा किए जा सकते हैं। परंतु क्षत्रियादि उन्हें अनापत्ति काल में भी कर सकते हैं। जिनका वर्णन ब्राह्मण के आपद्धर्म प्रकरण नामक मनुस्मृति के दशम अध्याय के 82, 83 और 84 श्‍लोकों में हैं। परंतु दूसरे प्रकार के अर्थात अस्वयंकृत कृषि आदि को ब्राह्मण अनापत्तिकाल में करे, जिनका वर्णन अनापत्कालिक ब्राह्मण धर्म प्रकरण नामक मनुस्मृति के चतुर्थाध्याय में किया गया है; जैसा कि प्रथम दिखला चुके हैं। इस विषय में गौतमस्मृति की सम्मति देते हुए कुल्लूकभट्ट मनुस्मृति के चतुर्थाध्याय के छठे श्‍लोक की टीका में लिखते हैं कि :

तेनचैवापि जीव्यतइतिचशब्देनवाणिज्यसमशिष्टत्वात्कुसी दमपि गृह्यतेपूर्वश्‍लोकोक्‍ता कृषिरेतच्छलोकोक्‍ते च कृषिवाणिज्ये-अनापदीत्यनुवृत्तोरस्वयंकृतान्येतानिबोद्धव्यानि, यथाह गौतम: कृषिवाणिज्ये स्वयं चाकृते कुसीदं च॥

अर्थ यह है कि 'इस श्‍लोक में पठित 'तेन चैव' इस च शब्द से वाणिज्य के साथी सूद का समुच्चय होता है। परंतु जबकि इन सभी श्‍लोकों में आदि के श्‍लोक से 'अनापदि' इस पद का सम्बन्ध है, जिसका तात्पर्य यह है कि ये जीविकाएँ अनापत्तिकालिक है। इसलिए पूर्व प्रदर्शित श्‍लोकोक्‍त कृषि और इस श्‍लोक में पठित वाणिज्य और वृद्धि (सूद) ये तीनों यहाँ पर अनापत्ति प्रकरण में अस्वयं कृत ही लिए जाते हैं, जैसा कि गौतमस्मृति में कहा है कि अस्वयंकृत कृषि, वाणिज्य और वृद्धि (सूद) भी ब्राह्मण के धर्म है।' इसलिए जहाँ कहीं भी ब्राह्मण के लिए कृषि का विधान हो और स्पष्ट लिखा न हो वहाँ अनापत्ति काल में अस्वयंकृत को ही जानना चाहिए, न कि स्वयंकृत को। और जहाँ उसके ही लिए कृषि का निषेध हो, परंतु स्पष्ट रूप से व्यवस्था न की गई हो वहाँ पर सभी जगह केवल स्वयंकृत कृषि आदि का निषेध समझना चाहिए। यही कारण है कि लोग विधि निषेध वाक्यों का तात्पर्य न समझ कर कहने लग गए और लग जाते हैं कि ब्राह्मण के लिए कृषि का निषेध है। हालाँकि, वे भी स्वयं ब्राह्मणता का दम भरते हुए वही कर्म करते हैं। परंतु इसमें उनका दोष ही क्या है? क्योंकि वे विवेकहीन तथा अकारण परछिद्रान्वेषी बन गए हैं। इसलिए 'अर्थात मूर्ख लोग शास्त्र के तात्पर्य को न समझ अनाप-सनाप बका करते हैं', 'अज्ञात्वा शास्त्रहृदयं मूढो वक्त्यन्थान्यथा, 'अर्थात मूर्ख लोग शास्त्र के तात्पर्य को न समझ अनाप-शनाप बका करते हैं', इस न्याय के ही वे लोग दृष्टांत हो रहे हैं। मनुस्मृति के दशम अध्याय के, 'कृषिगोरक्षमास्थाय जीवेद्वैश्यस्यजीविकाम्' अर्थात आपत्तिकाल में ब्राह्मण कृषि और गोरक्षा कर के वैश्यवृत्ति से भी जीविका करें। इस 82वें श्‍लोक में भी कुल्लूकभट्ट ने स्पष्ट लिख दिया है कि -

कृषिगोक्षग्रहणंवाणिज्यप्रदर्शनार्थतयाचविक्रेयाणि वक्ष्यति। स्वयंकृतं चेदं कृष्यादि ब्राह्मणापद्वृत्तिरस्वयं कृतस्यऋतामृताभ्यां जीवेतेत्यनापद्येव विहितत्वात्॥

भाव यह है कि 'इस श्‍लोक में कृषि, गोरक्षा पद से वाणिज्य को भी समझना चाहिए, इसीलिए ब्राह्मण के बेचने योग्य पदार्थों का आगे वर्णन करेंगे। स्वयंकृत ही कृष्यादि आपत्तिकाल में ब्राह्मण की जीविकाएँ हैं; क्योंकि अस्वयंकृत कृष्यादि का तो विधान अनापत्तिकाल में 'ऋतामृताभ्यां' इत्यादि वाक्यों द्वारा चतुर्थाध्याय में कर आए हैं। पराशरस्मृति से भी स्पष्टतया यही प्रतीत होता है। क्योंकि वहाँ लिखा है कि -

षट्कर्मसहितो विप्र: कृषिकर्म च कारयेत्। 2। 2।

हीनांगं व्याधितं क्लीबंवृषं विप्रो न वाहयेत्॥ 3॥

अर्थात 'पूर्वोक्‍त संध्यास्नानादि षट्कर्म करनेवाला ब्राह्मण जीविका के लिए कृषिकर्म करवावे। परंतु रोगी, हाथ या पाँव आदि अंगों से रहित, लँगड़े और नपुंसक बैलों को हल में न जुतवावे।' इस श्‍लोक में करवावे और जुतवावे इस अर्थवाले 'कार्यरत' और 'वाहयेत' शब्दों का प्रयोग करते हुए उन्होंने ब्राह्मण के लिए अस्वयंकृत कृषि का ही विधान किया है। इसीलिए आगे चल कर उन्होंने स्वयंकृत कृषि का अनापत्ति में निषेध किया है। जैसा कि :

ब्राह्मणश्‍चेत्कृषिं कुर्यात्तान्महादोषमाप्नुयात्॥ 8॥

संवत्सरेण यत्पापं मत्स्यघाती द्धमात्नुयात्।

अयोमुखेन काष्ठने तदेकाहेन लांगली॥ 11॥

पाशकोमत्स्नघाती च व्याधा: शकुनिकस्तथा।

अदाताकर्षकश्‍चैव पंचैते समभागिन: ॥ 13॥ 2॥

अर्थ यह है कि 'ब्राह्मण अपने हाथों से हल जोत कर कृषि करे तो महापापी हो जाता है। मछलियाँ मारनेवाला 1 वर्ष में जितने पाप का भागी होता है, उतने ही का हल जोतनेवाला एक ही दिन में होता है। फंदे से जंतुओं को पकड़नेवाला, मत्स्यघाती, बहेलिया, चिड़ीमार और कृपण हो कर अपने हाथ खेती करनेवाला ये पाँचों बराबर हैं।' आगे चल कर जो लिखते हैं कि :

वृक्षंछित्वामहींभित्त्वाहत्वा च कृमिकीटकान।

कर्षक: खलयज्ञेन सर्वपापै: प्रमुच्यते॥ 16॥

अर्थात 'अपने हाथ से खेती करनेवाला, वृक्षों को काट, पृथ्वी को फार और कृमि, कीटों को मार कर खलयज्ञ नामक कर्म करने से पवित्र होता है।' और अन्यत्र भी जो स्मृति और पुराणों में कृषक को प्रायश्‍चित्त लिखे गए हैं, और कृषि की निंदा की गई है वे सभी अपने हाथ से हल जोतनेवाले के ही लिए लिखे गए हैं। क्योंकि अस्वयंकृत कृषि को जब शास्त्र ही करने को कहता हैं तो उसमें दोष कहाँ हो सकता है? नहीं तो फिर यज्ञादि में भी अवश्य अनेक प्रकार से हिंसाओं के होने के कारण वहाँ भी प्रायश्‍चित्त करना चाहिए। यदि यज्ञ में भी हिंसादिजन्य पापों के लिए कोई प्रायश्‍चित्त माना जावे तो फिर अस्वयंकृत कृषि आदि में भी मानने में कोई दोष नहीं हैं। क्योंकि जैसे उस प्रायश्‍चित्त मात्र के करने से यज्ञ निषिद्ध या अधर्म नहीं समझा जाता, वैसे ही कृषि आदि की भी उस प्रायश्‍चित्त से निषिद्ध नहीं हो सकते। बल्कि जब पराशर स्मृति के द्वितीय अध्याय भर में, केवल अन्त के श्‍लोकों को छोड़ कर(क्योंकि वहाँ क्षत्रियादि के लिए कृषि का वर्णन हैं) ब्राह्मण के लिए कृषि का वर्णन है और अन्त में यह भी लिखा हुआ है कि 'चतुर्णामपिवर्णानामेषधर्म: सनातन:।' अर्थात 'चारों वर्णों के यथोक्‍त कृषि आदि सनातन धर्म है' और मध्य में यहाँ तक लिखा है कि :

स्वयंकृष्टे तथा क्षेत्रो धान्यैश्‍च स्वयमर्जितै:॥

निर्वपेत्पंच यज्ञांश्‍च क्रतुदीक्षां च कारयेत्॥ 6॥

अर्थात 'ब्राह्मण अपने से जुतवाए हुए क्षेत्र में स्वयं उपार्जित अन्नों द्वारा पंच यज्ञ और बड़े-बड़े यज्ञ करे या करवावे।' क्योंकि क्षत्रियादि के लिए आगे चल कर लिखा हुआ है कि :

क्षत्रियो पि कृषिं कृत्वा देवान्विप्रांश्‍च पूजयेत्।

वैश्य:शूद्रस्तथाकुर्यात् कृषिवाणिज्य शिल्पकम्॥ 18॥

अर्थात 'क्षत्रिय भी खेती कर के देवताओं और ब्राह्मणों की पूजा करे। इसी प्रकार वैश्य और शूद्र भी कृषि, वाणिज्य और शिल्पादि का व्यवसाय करें।' तो फिर यह कहना कि ब्राह्मण के लिए कृषि निंदित हैं, सरासर भूल है। हाँ, 'अनापत्तिकाल' में स्वयंकृता कृषि अर्थात अपने हाथों हल जोतना और अपने हाथ से वाणिज्य करना निंदित है और उसके करने से ब्राह्मण पाप का भागी अवश्य हो जाता है। परंतु इस समय प्राय: याचक ब्राह्मण दल में ऐसी बहुत जगहें पाई जाती है। क्योंकि मैंने अपनी आँखों और कानों कानपुर के पास वाजपेयी प्रभृति उच्च श्रेणी के कान्यकुब्जों को हल जोतते देखा और सुना है। यही दशा मथुरा के आसपास और गौड़ों के देश, पंजाब एवं गुजरात में भी पाई जाती है। परंतु कोई भी कान्यकुब्जों या गौड़ों आदि से इसका नाम भी नहीं लेते। केवल अयाचक ब्राह्मणों में मिथ्या दोषारोपण और इन्हें नीचा दिखाने का यत्‍न करना यही सभी का प्रधान उद्देश्य हो रहा है। परंतु ईश्‍वरानुग्रह से, चाहे अन्य ब्राह्मणों या अन्य वर्णों में अब तक जो कुछ भी हो गया है लेकिन, इस अयाचक ब्राह्मण दल का एक बच्चा भी भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक, जहाँ तक किसी-न-किसी रूप में इनकी सत्ता है, अपने हाथों हल जोतने का नाम भी नहीं जानता। और यदि कहीं जानता भी होगा तो याचक दलवाले ब्राह्मणों के ही संग थे। कारण, वही गुरु, पुरोहित और उपदेशक है। अत: अभी तक इन ब्राह्मणों की इस शुद्धता में, जो सभी अन्य ब्राह्मणों से बढ़ कर है, कोई कलंक संभावित नहीं हैं। इतर ब्राह्मण तो चाहे ऐसा करने से भले ही दोष के पात्र बन गए हैं अथवा नहीं। क्योंकि लिखा है कि :

आपत्कल्पेन यो धर्मं कुरुतेनापदि द्विज:।

स नाप्नोति फलं तस्य परत्रोति विचारितम्॥ 28॥

प्रभु: प्रथमकल्पस्य योनुकल्पेनर् वत्ताते।

न सा परायिकं तस्य दुर्मतेर्विद्यते फलम्॥ 30॥म 11।

अर्थ यह है कि 'जो ब्राह्मणादि आपत्ति के धर्म को अनापत्ति में करते हैं उन्हें उसका फल परलोक में नहीं मिलता। जो अनापत्ति के धर्मों के करने में समर्थ हो कर भी आपत्ति धर्म करता है उसे पारलौकिक फल से वंचित रहना पड़ता है।' यदि किसी प्रकार से हलवाहे आदि की सामर्थ्य या प्राप्ति न होने से उनके लिए यह भी आपत्तिकाल मान लिया जावे तो किसी तरह गुजारा हो सकता है। परंतु ऐसे कर्मों का जहाँ तक हो सके, त्याग ही श्रेयस्कर है।

इस प्रकार से ब्राह्मण के लिए जब कृषि मन्वादि वाक्यों द्वारा सनातन धर्म सिद्ध हो गई और विशेष कर आजकल जब वेदादि का अभ्यास छोड़ने से प्रतिग्रह की योग्यता न रह गई अथवा रहने पर भी अनापत्तिकालिक जीविका का संघटन बना हुआ है। ऐसी दशा में प्रतिग्रह का अधिकार ही न रहने से जैसा कि अभी कह चुके हैं, कृषि करना बहुत उत्तम जीविका ठहरी। तो मनुस्मृति के दशमध्याय में वा अन्यत्र जो कृषि का निषेध प्रतीत होता है अथवा उसकी निंदा मात्र प्रतीत होती है वह केवल, जैसा कि प्रथम कह चुके हैं, स्वयंकृता कृषि की निंदा है। क्योंकि दशमध्याय आपद्धर्म प्रकरण हैं। इसलिए पूर्वोक्‍त व्यवस्थानुसार स्वयंकृत कृषि आदि का ही प्रकरण है। क्योंकि अस्वयंकृत कृष्यादि को अनापद्धर्म प्रकरण चतुर्थ अध्याय में मनु जी स्वयं ही कह चुके हैं। परंतु कोई ऐसा न विचार ले, जैसा कि आजकल के बहुतेरे नवशिक्षितों का विचार हो रहा है, कि सर्वदा ही अपने हाथ से ब्राह्मण को हल जोतने में कोई हर्ज नहीं है' इसलिए मनु जी उस कृषि को निंदित और अगतिक गति ठहराते हुए केवल आपत्ति में ही उसे करने की आज्ञा देते हैं। क्योंकि प्रथम यह कहते हैं कि :

उभाभ्यामप्यजीवंस्तु कथंस्यादिति चेद्‍भवेत्।

कृषिगोरक्षमास्थाय जीवेद्वैश्यस्य जीविकाम्॥मनु ।अ 10॥ 82॥॥

अर्थात 'यदि यह संशय हो कि आपत्ति में अपनी वृत्ति और क्षत्रिय की भी विशेष वृत्ति न मिल सके तो ब्राह्मण कैसे जीवे? तो उसका समाधान यह है कि वैश्य वृत्ति अर्थात अपने हाथों हल जोत कर कृषि और गोरक्षा एवं वाणिज्य द्वारा जीविका करे'। यदि सामान्यत: सभी प्रकार की कृषि वैश्य के ही लिए होती तो यह क्यों कहते कि वैश्य की वृत्ति रूप जो कृषि और गोरक्षा है उनसे जीवे? क्योंकि आप तो सभी को एक-सी ही मानते हैं। परंतु हमारे मत से तो खेती दूसरे द्वारा कराना ब्राह्मण का भी कर्म है। इसलिए वैश्य की वृत्ति रूप खेती कहने से अपने हाथों वाली ही ली जावेगी और वही आपद्धर्म है। अब अगले श्‍लोकों में पूर्वोक्‍त इस कृषि में से भी विशेष प्रकार की कृषि करने को कहते हैं। क्योंकि लिखते हैं कि :

वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मण: क्षत्रियोपि वा।

हिंसाप्रायां पराधीनां कृष्रिं यत्नेन वर्जयेत्॥ मनु. अ. 10॥ 83॥

तात्पर्य यह है कि 'अपने हाथ से खेती कर के जीनेवाले ब्राह्मणादि भी उस कृषि का बहुत यत्‍न से परित्याग करे जिसमें बहुत ही हिंसा की संभावना हो, अथवा जमीन इत्यादि भी अपनी न होने से सभी प्रकार से पराधीनता ही हो। क्योंकि मनु जी प्रथम भी कह चुके हैं कि :

यद्यत्परवशं कर्म तत्ताद्यत्नेन वर्जयेत्।

यद्यदात्मवशंतुस्यात्तात्तात्सेवेत यत्‍नत:॥मनु.।अ. 4 159॥

अर्थात 'जो जो काम एकदम पराधीन हो उनका यत्‍नपूर्वक त्याग और जो स्वाधीन हो उनका सेवन करे। इसके बाद ही लिखते हैं कि :

कृषिं साध्विति मन्यन्तेसा वृत्ति: सद्विगर्हिता।

भूमिं भूमिशयांश्‍चैव हंतिकाष्ठमयोमुखम्॥मनु ।अ 10॥ 84॥

इसलिए इसका प्रकरणवश उचित अर्थ यही है कि बहुत लोग ऐसा समझते हैं कि स्वयं अर्थात 'अपने हाथ से हल जोत कर कृषि करना सर्वदा ही उत्तम है। परंतु ऐसी वृत्ति की आपत्तिकाल से भिन्न काल में सत्पुरुष लोग निंदा करते हैं, क्योंकि फलसहित जो हल का भाग है वह भूमि का विदारण और उसमें रहनेवाले जीवों का नाश करता है। अत: अपने हाथ से हल जोतनेवाला हिंसक हो जावेगा।' यही बात पराशरस्मृति में भी प्रथम दिखला चुके हैं। यदि ऐसा अर्थ न मानोगे तो मनु जी की इस सामान्य निंदा से सभी के लिए कृषि निंदित समझी जावेगी, क्योंकि इसमें किसी ब्राह्मण आदि का नाम नहीं है। ऐसी दशा में जो गीता और मनुस्मृत्यादि ग्रन्थों में सामान्य रूप से लिखा है कि :

कृषिगौरक्ष्याणिज्यंवैश्यकर्म स्वभावजम्। गीता॥ 18। 44

शात्रास्त्राभृत्त्वं क्षत्रास्य वणिक्पशुकृषिर्विश: मनु.। 79। ॥ 10॥

अर्थात 'कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य ये कर्म वैश्यों के स्वाभाविक हैं। शस्त्र और अस्त्र धारण करना क्षत्रिय की जीविका हैं और वाणिज्य, कृषि तथा पशुपालन वैश्य की।' इन सबों का तात्पर्य यह है कि स्वयंकृत (अपने हाथ से किए गए) कृषि, वाणिज्य और पशुपालन वैश्यों की स्वाभाविक जीविकाएँ हैं, परंतु अस्वयंकृत कृष्यादि तो ब्राह्मण की भी जीविकाएँ हैं। नहीं तो उन्हीं मनुस्मृति आदि ग्रन्थों का पूर्वापर अथवा परस्पर विरोध होगा।

एक बात और ध्यान देने की है जैसे ब्राह्मणत्व, ब्राह्मणता या ब्राह्मणण्य यह ब्राह्मण का असाधारण कर्म है, अर्थात ऐसा धर्म है जो उसे छोड़ कर अन्यत्र नहीं पाया जा सकता। ऐसी ही क्षत्रियत्वादि की भी दशा जाननी चाहिए। इसी प्रकार यदि कृषि भी करना केवल वैश्य (वणिक) का ही असाधारण कर्म होता तो वाणिज्य कहने में ही उसका भी बोध हो जाता, क्योंकि त्व, तल और ष्य प्रत्यय जिन शब्दों के आगे लगते हैं उनके प्रतिपाद्य अर्थों के असाधारण धर्मों और कर्मों को कहते हैं। जैसे ष्यं प्रत्ययान्त काव्य शब्द कवि के ही असाधारण कर्म (क्रिया) को कहता है। इसमें पाणिनि महर्षि जी के 'तस्यभावस्त्वतलौ' (5। 1। 119) गुणवचनब्राह्मणादिभ्य: कर्मणि च' (5। 1। 124) ये दोनों सूत्र प्रमाण हैं और फिर 'कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यम्' इस वाक्य में वाणिज्य से पृथक कृषि और गोरक्षादि के कथन की आवश्यकता न होती, क्योंकि वाणिज्य शब्द भी ष्यं प्रत्ययांत है। इससे स्पष्ट है कि कृष्यादि वैश्य के असाधारण धर्म नहीं है, किंतु ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यादि के साधारण धर्म है अर्थात उन्हें सभी कर सकते हैं। बृहस्पतिस्मृति के प्रारंभ के बीसों श्‍लोकों में भूमिदान की बहुत ही प्रशंसा की गई है, जैसा कि :

सुवर्णंरजतं वस्त्रां मणिं रत्नं च वासव।

सर्वमेव भवेद्दत्तां वसुधां य: प्रयच्छति॥ 5॥

अर्थात 'हे इंद्र! सोना, चाँदी, वस्त्र, मणि और रत्‍न इन सभी के दान का फल भूमिदान से प्राप्त होता है' इत्यादि और इस भूमिदान का पात्र ब्राह्मण ही हो सकता है। बल्कि इस बात को उसी जगह लिख भी दिया है कि :

विप्राय दद्याच्च गुणान्विताय तपोनियुक्‍ताय जितेन्द्रियाय।

यावन्मही तिष्ठतिसागरान्ता तावत्फलंतस्यभवेदनंतम्॥ 10॥

जिसका अर्थ यह है कि 'गुणवान, तपस्वी और जितेंद्रिय ब्राह्मण को पृथ्वी दान दे जिसका अनंत फल जब तक सागर पर्यंत पृथ्वी स्थित रहेगी तब तक होगा।' अब ब्राह्मण उस पृथ्वी का या तो राजा बने या उसमें कृषि करवावे, तीसरी बात तो हो सकती नहीं। यदि दूसरे को दे देना चाहे सो तो उचित नहीं है, क्योंकि याज्ञवल्क्यस्मृति के 317वें श्‍लोक के 'पार्थिव:' इस पद को ले कर मिताक्षरा में लिखा है कि 'अनेनभूपतेरेव भूमिदानेधिकारो न भोगपतेरिति दर्शितम्'। अर्थात स्मृति के 'पार्थिव' पद से यह सूचित किया है कि राजा को ही भूमिदान का अधिकार है, न कि जिन जमींदारादि को केवल भोग के लिए मिली है उनको भी। यदि कुछ द्रव्य उसके बदले ले कर उसे बेचना चाहे तो पृथ्वी बेचने का निषेध है, क्योंकि याज्ञवल्क्यादि स्मृतियों में लिखा है कि :

मृच्चर्म पुष्पकुतपकेशतक्र विषक्षिती:॥ 37॥

वैश्यवृत्यापिजीवन्नोविक्रीणीतकदाचन॥ 39॥ या. प्रा.।

नित्यंभूमिव्रीहियवाजाव्यश्‍वर्षभधोन्वन डुहश्‍चैके। गौ. अ. 7।

अर्थात 'वैश्यवृत्ति से जीविका करनेवाला ब्राह्मण भी मिट्टी, चमड़ा, फूल, कंबल, चमर, मट्ठा, विष और पृथ्वी का विक्रय कदापि न करे।' 'सर्वदा ही पृथ्वी, धन, यव, बकरी, भेड़ी, घोड़ा, बैल, धोनु और साँड़ों को बेचना न चाहिए।' यदि वह भी पृथ्वी का दान करे, तो विरोध होगा, क्योंकि वहाँ तो लिखा हुआ है कि :

यथाप्सु पतित: शक्र तैलविन्दु: प्रसर्पति।

एवं भूम्या: कृतं दानं शस्ये शस्ये प्ररोहति॥ 1॥ बृह.।

अर्थात 'हे इंद्र! जैसे जल में गिरा हुआ तेल फैलता है वैसे ही भूमि का दान ज्यों-ज्यों उसमें अन्न उत्पन्न हो कर बढ़ता है त्यों-त्यों बढ़ता है।' इससे तो जिसे प्रथम दी गई है वह कृषि करने के लिए बाध्य है। यदि वह दान भी करेगा तो ब्राह्मण को ही करेगा। इसलिए यदि प्रथम ने न की तो दूसरा ही कृषि करेगा। अन्ततोगत्वा जब करेगा तो ब्राह्मण ही। और भी आगे स्पष्टरूप से लिखा है कि :

त्रीण्याहुरतिदानानि गाव: पृथ्वीसरस्वती।

तारयंतीह दातारं जपवानपदोहमै:॥ 18॥

अर्थात 'तीन दान अतिदान कहे जाते हैं यानी गौ, पृथ्वी और विद्या, जो क्रमश: दुहने, बोने और जपने से दाता को तार देते हैं'। इससे तो स्पष्ट ही है कि पृथ्वी दानग्राही दाता को उसके फल की प्राप्ति के लिए अवश्य उसमें अन्न बोवे अर्थात कृषि करे। अग्निपुराण के 113वें अध्याय में लिखा है कि :

भूमिं दत्वा सर्वभाक् स्यात्सर्वशस्यप्रोहिणीम्।

ग्रामं वाथ पुरं वापि खेटकं वा ददत्सुखी॥ 9॥

अर्थ यह है कि 'सब शस्य से युक्‍त पृथ्वी का दान देने से सब वस्तुओं का भागी होता है और गाँव, टोला अथवा खेटक (खेड़ा) इत्यादि देने से भी सुखी होता है।' उसी के 291वें अध्याय में लिखा है कि :

संयुक्‍तहलपंत्तायाख्यं दानं सर्वफलप्रदम्।

पंक्‍तिर्दशहला प्रोक्‍ता दारुजा वृषसंयुता॥ 7॥

जिसका अर्थ यह है कि 'संयुक्‍तहलपंक्‍ति नाम का दान सब फलों का प्राप्त करानेवाला होता है। लकड़ी के दस हल जो बैलों के साथ हों उनका नाम पंक्‍ति है।' भला बैल के साथ हल का दान सिवाय ब्राह्मण के कृषि करने के और किस काम का होगा? अग्निपुराण के ही 125वें अध्याय में लिखा है कि :

कृषिगोचरक्ष्वाणिज्यं कुसीदं च द्विचश्‍चरेत्।

गोरसं गुडलवणलाक्षामांसानि वर्जयेत्॥ 2॥

हलमष्टगवं धार्म्मं षड्गवं जीवितार्थिनाम्।

चतुर्गवं नृशंसानां द्विगवं धर्मघातिनाम्।

ऋतामृताभ्यां जीवेत मृतेन प्रमृतेन वा।

सत्यानृत्याभ्यामपि वा न श्‍ववृत्तया कदाचन॥ 5॥

अभिप्राय यह है कि 'ब्राह्मण कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य करे, परंतु गोरस, गुड़, लवण व लाक्षा और मांस की बिक्री न करे। आठ बैलोंवाला हल धर्मयुक्‍त, छ: बैलोंवाला केवल जीने के लिए चार बैलोंवाला हत्यारों को और दो बैलोंवाला धर्मनाशकों का कहलाता है। ऋत, अमृत, मृत प्रमृत (कृषि) और सत्यानृत (वाणिज्य) से जीविका करे, परंतु श्‍ववृत्ति अर्थात नौकरी से जीविका कभी भी न करे।' मत्स्यपुराण के 280वें अध्याय में पंचलांगलक नाम के दान से भी ब्राह्मण का कृषि करना स्पष्टरूप से सिद्ध है। वह इस प्रकार है :

अथात: संप्रवक्ष्यामि महादानमनुत्तामम्।

पंचलांगलकं नाम महापातकनाशनम्॥1॥

पुण्यां तिथिमथासाद्य युगादिग्रहणादिकाम्।

भूमिदानं नरो दद्यात्पंचलांगलकान्वितम्॥2॥

खर्वटं खेटकं वापि ग्रामं वा शस्यशालिनम्।

नरिवत्तानशतं वापि तदर्द्धं वापि शक्‍तित:॥3॥

सारदारुमयान्कृत्वा हलान्पंच विचक्षण:।

सर्वोपकरणैर्युक्‍तानन्यान पंच च काचनान॥ 4॥

कुर्यात्पंचपलाद्द्धर्वमासहस्रपलावधि।

वृषान लक्षणसंयुक्‍तान्दश चैव धुरन्धरान।

सुवर्णशृभरणान मुक्‍तालांगूलभूषणान॥5॥

रौप्यपादाग्रतिलकान रक्‍तकौशेयभूषणान।

ग्दामचन्दनयुक्‍तान शालायामविवामयेत्॥ 6॥

ततो मंगलशब्देन शुक्लमाल्याम्बरो बुधा:।

आहूय द्विजदाम्पत्यं हेमसूत्रांगुलीयकै:॥ 9॥

कौशेयवस्त्रकटकैर्मणिभिश्‍चाभिपूजयेत्।

शय्यां सोपस्करां दद्याद्धेनुमेकां पयस्विनीम्॥ 10॥

तत: प्रदक्षिणीकृत्य गृहीतकुसुमाजलि:।

इममुच्चारयेन्मंत्रमथसर्वं निवेदयेत्॥11॥

यस्माद्देवगणा: सर्वे स्थावराणि चराणिच।

धुरन्धारांगे तिष्ठन्ति तस्माद्धिक्‍ति: शिवे स्तुमे॥12॥

यस्माच्चभूमिदानस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।

दानान्यन्यानि मे भक्‍तिर्धर्म एव दृढा भवेत्॥ 13॥

दंडेन सप्तहस्तेन त्रिंशद्दण्डं नरिवत्तानम्।

त्रिभागहीनं गोचर्ममानमाह प्रजापति:॥14॥

मानेनानेन यो दद्यान्नरिवत्तानशतं बुध:।

विधिनानेन तस्याशु क्षीयते पापसंहति:॥ 15॥

तदर्द्धमथवा दद्यादपि गोचर्ममात्रकम्।

भवनस्थानमात्रां वा सोपि पापै: प्रमुच्यते॥ 16॥

यावन्ति लांगलकमार्गमुखानिभूमे,

र्भासां पतेर्दुहितुरंगजरोमकाणि।

तावन्तिशंकरपुरे स समाहितिष्ठेद्,

भूमिप्रदानमिह य: कुरुते मनुष्य:॥ 17॥

इंद्रत्वमप्यधिगतं क्षयमभ्युपैति

नोभूमिलांगलधुरन्धर संप्रदानात्।

तस्मादघौघपटलक्षयकारिभूमे

र्दानविधोयमिति भूमिभवोद्‍भवाय॥ 19॥

सबका भावार्थ यह है कि 'अब पंचालंगलक नामक महादान का वर्णन करते हैं, जो महापातक का नाशक है। ग्रहणादि पुण्य तिथि में मनुष्य पाँच हलों सहित भूमिदान करे। वह भूमि चाहे ऊँची, नीची, खेड़ा, शस्य से पूर्ण, ग्राम अथवा सौ निवर्त्तन हो, अथवा यथाशक्‍ति उसका आधा भी हो। पाँच हल लकड़ी के सार के और पाँच सोने के बनवावे, जिनमें से लकड़ीवाले जोतने की सब सामग्री के सहित हो, परंतु सोने के तो पाँच पल से ले कर 1000 पल (परिणाम विशेष) तक के बनवावें। लकड़ी के पाँच हलों के लिए दस धुरंधर (हल की जुआ खींचनेवाले), सुवर्ण लगी सींग और मुक्‍ता लगी पूँछवाले एवं पाँवों के अग्र में चाँदी मढ़े और लाल रेशम ओढ़ाए हुए तथा चंदन और माला आदि से भूषित बैलों को भी दानशाला में ला कर रखे। उसके बाद शुक्ल वस्त्र और माला पहन मंगलजनक शब्दों से ब्राह्मणी और ब्राह्मण को बुला कर सोने की करधनी, जनेऊ और आभूषण एवं रेशमी वस्त्र, मणि और कंगनों से उनकी पूजा करे। सब समान के साथ एक शय्या और दूध देनेवाली धेनु का दान करे। उसके बाद प्रदक्षिणा कर अंजली में पुष्प ले कर इस अगले मंत्रों का उच्चारण कर के सब वस्तुएँ दे दे। हल की जुआ खींचनेवाले बैल के अंगों में सब देवता, स्थावर और जंगम निवास करते हैं, इसलिए मेरी भक्‍ति शिव में उत्पन्न हो। और अन्य दान भूमिदान के सोलहवें अंश के भी बराबर नहीं होते, इसलिए मेरी दृढ़ भक्‍ति धर्म में हो। सात हाथोंवाले दंड से तीस दंड नपी भूमि एक निवर्त्तन कहलाती है और उसी का तीसरा भाग उसमें घटा देने से वही भूमि गोचर्म प्रमाणवाली कही जाती है। इस परिणाम से जो विचारवान 100 निवर्त्तन पूर्वोक्‍त विधि से दान करता है उसका पाप समुदाय नष्ट हो जाता है। जो उसका आधा, गोचर्म मात्र अथवा मकान बनाने भर भी देता है उसके भी पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य इस प्रकार से हल आदि के सहित भूमि दान करे वह उतने ही वर्ष कैलाश में निवास करता है जितनी हराइयाँ उस भूमि पर जोतते समय बार-बार पड़ा करती है, अथवा जितने यमुना के रोम (शीकर) है। हल और जोतनेवाले बैल के सहित भूमिदान करने में प्राप्त इंद्र पदवी का भी नाश नहीं होता, इसलिए सब पापों का नाशक ऐसा भूमिदान ऐश्‍वर्य के लिए अवश्य करना चाहिए। जब-जब परशुराम ने पृथ्वी को नि:क्षत्रिया कर के उसे कश्यपादि ब्राह्मणों को दिया, जिसका विवरण वाल्मीकीय रामायण के बालकांड के 75वें सर्ग, स्कंदपुराण के नागरखण्ड के 67वें अध्याय, ब्रह्मवैवर्तपुराण और महाभारतादि सभी ग्रन्थों में पाया जाता है। तो फिर उन लोगों ने भूम्यधिपतित्व (राज्य या जमींदारी) अवश्य ही स्वीकार किया और उनमें से बहुत से कृषि भी करते थे। इसके अतिरिक्‍त बहुत सा शिष्टाचार भी कृषि में प्रमाणरूप से मिलता है। दृष्टांतार्थ धर्मारण्यस्थ ब्राह्मणों को लीजिए, जिनके याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह के त्याग की बात प्रथम ही कह चुके हैं। उन्हीं के विषय में स्कंद पुराण के ब्रह्मखण्ड के धर्मारण्यमहात्म्य प्रसंग में ऐसा लिखा है कि :

पंचदशसहस्त्राणि मध्ये ये के च वाडवा:॥ 86॥

कृषिकर्मरता आसन केचिद्यज्ञपरायणा:।

केचिन्मल्लाश्‍च संजाता: केचिद्वै वेदपाठका:॥99॥

स्वकर्मनिरता: शान्ता: कृषिकर्मपरायणा:।

धर्मारण्यान्नातिदूरे धोनू: संचारयन्ति ते॥ 300॥

बहवस्तत्रा गोपालाबभूवुर्द्विजबालका:।

तेषुग्रामेषु ते विप्राश्‍चातुर्विद्याद्विजोत्तामा:॥ 301॥ अ. 40

जिसका भावार्थ यह है कि 'उन 15 हजार वाडवों ब्राह्मणों में से कोई कृषि करते, कोई यज्ञ में लीन रहते, कोई पहलवानी करते और कोई वेदपाठ करते थे। वे लोग अपने-अपने धर्म में निरंतर संलग्न हुए शांत और कृषिकर्म में दत्तचित्त थे। उन ब्राह्मणों के बहुत से बालक गायों की रक्षा करते और धर्मारण्य के पास ही गाएँ चराया करते थे और रामचंद्र जी के दिए हुए उन्हीं ग्रामों में चारों वेदों के ज्ञाता सर्वोत्तम वाडव (ब्राह्मण) रहा करते थे। इससे जो कोई ऐसा कहा करते हैं कि कृषि करने और दान आदि त्यागने से अयाचक ब्राह्मण कट्टर ब्राह्मण न रह कर हीन समझे जाने लगे, उनका स्पष्ट रूप से खण्डन हो गया। एक तो जब पूर्वोक्‍त रीति से कृषि ब्राह्मण का सनातन धर्म है, तो फिर उसके करने से कट्टरपना कहाँ चला गया? दूसरे अभी इन और पूर्व के श्‍लोकों से स्पष्ट ही विदित हुआ है कि धर्मारण्यवासी वाडव (ब्राह्मण) प्रतिग्रहादि तीन कर्मों के त्यागी और कृषि तथा गोपालनादि करते हुए यज्ञ दानादि के कर्ता थे और साथ ही, चारों वेदों के ज्ञाता थे न कि मूर्ख, जिससे भूल कर ऐसा करते रहे हों एवं श्रीरामचंद्र द्वारा वहाँ स्थापित किए गए थे, फिर भी उनको 'द्विजोत्तामा:' अर्थात सभी ब्राह्मणों से उत्तम कहा है। ठीक उनकी सी ही दशा तथा आचार-विचार और कर्म इन अयाचक ब्राह्मणों के भी हैं तो इनकी कट्टर ब्राह्मणता चली गई और हीन समझे जाने लगे, इसे कहने की जगह 'ये बहुत ही कट्टर और सब ब्राह्मणों से उत्तम ब्राह्मण हैं' यही कहना न्यायसंगत है। वाल्मीकि रामायण के बालकांड के प्रारंभ में ही जब दशरथ जी ने 'पुत्रोष्टि' नामक यज्ञ करा कर उसकी दक्षिणा में पृथ्वी दान को सर्वोत्तम समझ उसी का देना प्रारंभ किया है तो ब्राह्मणों ने यह कह कर उसका इनकार किया है कि हम लोग तपस्वी आदि हैं, अत: हम लोगों से भूमि का प्रबंध नहीं हो सकता। इसलिए उसके बदले अन्न, द्रव्यादि दीजिए। न कि भूल कर भी यह कहा है कि भूमिपतित्व अथवा उसमें कृषि करना हम लोगों के लिए शास्त्रनिंदित है। इससे आपकी दी हुई पृथ्वी हमारे किसी काम की न होगी। अत: अन्नादि ही दक्षिणा में दीजिए। इस विषय में जिसे संदेह हो वह वाल्मीकि रामायण का बालकांड आदि में ही देख कर अपनी तुष्टि कर ले। उसी रामायण के अयोध्याकांड के 32वें सर्ग में जब श्रीराम जी वन जाते हुए अपने महल की सब वस्तुएँ याचकों को देने लगे हैं उस समय उनके पास कुछ द्रव्य प्राप्ति के निर्मित्त आए हुए एक ऐसे ब्राह्मण का वर्णन हैं, जिससे उन युगों में भी कृषि करना ब्राह्मण का उत्तम धर्म सिद्ध होता है क्योंकि वहाँ लिखा है कि :

क्षत्रावृत्तिर्वने नित्यं फालकुद्‍दाललांगली।

तत्रासीत्पिंगलो गार्ग्यस्त्रिजटानाम वै द्विज:॥ 29॥

कहीं-कहीं 'क्षतवृति:' ऐसा भी पाठ मिलता है। उसका अर्थ यह है कि 'उस जगह अथवा उस समय गंगोत्री पीतवर्ण का एक त्रिजट नामवाला ब्राह्मण था, जो अस्त्रादि द्वारा कंदमूल खोद कर, अथवा फल, कुदाल और हल से अर्थात कृषि कर के नित्य ही वन में रहता हुआ अपनी जीविका करता था। उसी जगह यह भी लिखा हुआ है कि जब उसकी स्त्री ने बहुत दु:खी हो कर उसे भगवान रामचंद्र के पास याचना करने के लिए कहा तो प्रथम उसने वहाँ न जाने के लिए बहुत ही आग्रह किया है, परंतु स्त्री के आग्रह से अन्त में हार कर भगवान के पास गया है और जब वहाँ उसके विलक्षण वेष को देख कर उसकी उत्तम ब्राह्मणता में शंका कर के परीक्षार्थ श्रीराम जी ने कहा है कि बहुत दूर तक ये गाएँ खड़ी हैं तुम अपना दंड फेंको, जहाँ तक वह पड़ेगा उतनी गाएँ ले जाना। इस पर उसने उनके भाव समझ दंड ऐसा फेंका है कि वह कई कोस दूर जा कर पड़ा है। इसलिए उसकी शुद्धता देख कर श्रीराम जी बहुत प्रसन्न हुए हैं इत्यादि। क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि कृषि करना और अस्त्रादि धारण करना कट्टर ब्राह्मणपने के लक्षण हैं, न कि हीनता के? इस आख्यान से यह भी स्पष्ट है कि दान लेना प्रभृति अगतिक गति हैं, और काल पा कर याचक ब्राह्मण अयाचक और अयाचक ब्राह्मण याचक हो सकते हैं और इसी प्रकार अयाचक और याचक ब्राह्मणों के पृथक-पृथक दल बनते और घटते-बढ़ते जाते हैं। इसलिए यदि कोई अयाचक ब्राह्मण आवश्यकता पड़ने पर अपनी वंशावली आदि से यह सिद्ध करता है कि कुछ दिन पूर्व उनके पूर्वज याचक दलवाले ब्राह्मण थे और अपना विवाह सम्बन्ध याचक दलवालों से सिद्ध करता है तो जो विचारविकल पंडितमानी यह कह कर इसकी हँसी उड़ाते हैं कि 'लो' कहाँ तो अयाचक ब्राह्मण बनते थे, कहाँ अब याचक बनने लगे इत्यादि। उनको पूर्व निर्णीत विषय और आख्यान से अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय कर उस कुशाग्र बुद्धि को इस रसायन द्वारा सुधार लेना चाहिए। महाभारत के सभापर्व के 51वें अध्याय में लिखा है कि :

गोवासना ब्राह्मणाश्‍च दाशनीयाश्‍च (दर्शनीयाश्‍च) सर्वश:।

प्रीत्यर्थं ते महाराज धर्मराज्ञो महात्मन:॥ 5॥

त्रिखर्बं बलिमादाय द्वारि तिष्ठन्ति वारिता:।

ब्राह्मणा वाटधानाश्‍च गोमन्त: शतसंघश:॥ 6॥

कमण्डलूनुपादाय जातरूपमयान शुभान।

एवं बलिं समादाय प्रवेशं लेभिरे न च॥ 7॥

इसका भावार्थ यह है कि 'जब दुर्योधन युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ से लौट कर गया है तो वहाँ उनकी जो संपत्ति उसने देखी थी उससे उसे बड़ा संताप हुआ है, जिसका कारण पूछने पर शकुनि से इन्हीं संपदाओं का वर्णन करता है कि 'हे महाराज!पृथ्वी और गाय-बैलों के संस्कारवाले (क्योंकि गो नाम पृथ्वी और गाय-बैलों का भी हैं) अर्थात बड़े-बड़े राजा और कृषि करनेवाले एवं दर्शनीय अर्थात दिव्य शरीरवाले अथवा बड़े-बड़े दाता ब्राह्मण युधिष्ठिर महाराज की प्रसन्नता के लिए तीन खर्व द्रव्य बलि(नजर) लिए हुए द्वार पर इसलिए रोके गए हैं कि बाहर ही बलि दे कर उसके भीतर जाएँ।' और वाटधान देश में रहनेवाले पूर्ववत् भूमि और गाय-बैलोंवाले ब्राह्मणों के सैकड़ों झुंड यज्ञ के लिए बहुत से सोने के कमण्डलु और दूसरी बलि (नजर) ले कर पूर्वोक्‍त कारण से भीतर जाने नहीं पाते हैं।' इससे पूर्व के 49वें अध्याय में कह चुके हैं कि -

ब्राह्मणावाटधनाश्‍च गोमन्त: शतसंघश:।

त्रिखर्वं बलिमादाय द्वारि तिष्ठन्ति वारिता:॥ 25॥

कमण्डलूनुपादाय जातरूपमयान शुभान।

एतद्धनं समादाय प्रवेशं लेभिरे न च॥ 26॥

इसका अर्थ पहले-सा ही है। वाटधान देश उत्तर भारत में गांधार, काश्मीर के पास में महाभारत के युद्धक्षेत्र के पास ही संभवत: कहीं था अथवा है। क्योंकि महाभारत के सभापर्व के 32वें अध्याय में ही नकुल के दिग्विजय प्रसंग में लिखा है कि जब इंद्रप्रस्थ से पश्‍चिम की ओर दिग्विजय करने को निकले हैं तो :

थामध्यमकेयांश्‍च वाटधनान द्विजानथ।

पुनश्‍चपरिवृत्याथ पुष्करारण्यवासिन:॥ 8॥

अर्थात 'मध्यमक देशवासियों को जीत, वाटधान देश के ब्राह्मणों को जीता। उसके बाद घूम कर पुष्करारण्य वासियों को भी जीता।' फिर उद्योगपर्व में जब हस्तिनापुर में कौरव सेना को अवकाश न मिला तो इधर-उधर के उसके पास के ही देशों में ¹क्योंकि सभी बलि (नजर) लानेवाले बड़े-बड़े राजाओं का वर्णन कर के अन्त में 52वें अध्याय में लिखा है कि:

तत्रास्था द्वारपालैस्ते प्रोच्यन्ते राजशाशनात्।

कृतकाला: सुवलय: ततो द्वारमवाप्स्यथ॥ 19॥

अर्थात उन सभी को युधिष्ठिर महाराज की आज्ञा से द्वारापालों ने यही कहा कि आप लोग बाहर ही बलि दे कर अंदर जाने पावेंगे। फैल गई है, तो वहाँ पर वह मिला तो वाटधान देश का भी नाम आया है। जैसा कि :

तत: पंचनद चैव कृत्स्नं च कुरुजांगलम्॥ 29॥

तथारोहितकारण्यं मरुभूमिश्‍च केवला।

अहिच्छत्रां कालकूटं गंगाकूलं च भारत॥ 30॥

वारणं वाटधनाश्‍च यामुनश्‍चैव पर्वत:।

एष देश: सुविस्तीर्ण: प्रभूतधनधान्यवान॥ 31॥

बभूव कौरवेयाणां बलेनातीव संवृत:॥32॥

अर्थात 'हस्तिनापुर में न ऐटने पर पचनद संपूर्ण कुरुजांगल, रोहितकारण्य, केवल मरुभूमि, अहिच्छत्रा, कालकूट, गंगातट, वारण, वाटधान और यमुना के उद्गम स्थान का पर्वत इन सुविस्तीर्ण और बहुत धनधान्यवाले देशों को कौरव सेना ने छेंक लिया।' पण्श्निडतवर नीलकण्ठ ने भी अपने 'भारत भाव प्रदीप' में इस जगह यही लिखा है कि 'अहिच्छत्रादय: प्रदेशविशेष:' अर्थात 'ये अहिच्छत्रादि नाम प्रदेश विशेष के हैं।' मत्स्यपुराण के 113वें अध्याय में भी ऐसा ही लिखा है कि :

वाल्हीका वाटधानाश्‍च आभीरा: कालतोयका:।

पुरन्ध्रराश्‍चैव शूद्राश्‍च पल्लवाश्‍चात्तखण्डिका:॥ 40॥

गान्धारा यवनाश्‍चैव सिंधुसौवीरमद्रका:।

शका द्रुरह्या: पुलिन्दाश्‍च पारदाहारमूर्त्तिका:॥ 41॥

रामठा कंटकाराश्‍च कैकेया दशनामका:।

क्षत्रियोपनिवेश्याश्‍च वैश्या: शूद्रकुलानि च॥ 42॥

अत्रायो थभरद्वाजा: प्रस्थला: सदसेरका:।

लम्पकास्तलगानाश्‍च सैनिका: सहजागलै:।

एतेदेशाउदीच्यास्तु.....................॥ 43॥

अर्थात 'वाल्हीक, वाटधान, आभीर, कालतोयक, पुरंधार, शूद्र पल्लव, आत्तखंडिक, गांधार, यवन, सिंधु-सौवीर, मद्रक, शक, दु्रह्य, पुलिंद, पारदाहारमूर्त्तिक, रामठ, कण्टकार, केकय, दशनामक, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के देश, अत्रि, भरद्वाज, प्रस्थल सदसेरक, लम्पक-तलगान, सैनिक और जंगल ये उत्तर भारत के देश हैं॥

इसी वाटधान देश के राजा और जमींदार (भूमिपति) ब्राह्मण नकुल विजय के बाद बलि ले कर आए थे। गांधारादि देशों में ब्राह्मण रहते हैं इसमें चीनी यात्री 'हुईसंग' (Hwi Seng) और 'संगयुन' (Sungyun) आदि की भी सम्मत्ति मिलती है, जो सन 517 ई. के लगभग भारत यात्रा को आए थे। यह बात 'फाह्यान और संगयुन की यात्रा' (Travels of Fah-Hian and Sungyun) नामक पुस्तक में मिलती है। उसमें काश्मीर, गांधार, बुखारा आदि कई देशों में जहाँ-तहाँ ब्राह्मणों का वर्णन करते हुए 197वें पृष्ठ में गांधार के विषय में लिखा है कि "The people of the country belonged entirely to the Brahman caste. They had a great respect for the law of Budha, and loved to read the Sacred books." अर्थात गांधार देशवासी सभी के सभी ब्राह्मण थे और बुद्ध अनुशासन से बहुत प्रेम रखते और पवित्र पुस्तकें पढ़ा करते थे। और यह उचित भी है। क्योंकि उन देशों में एक प्रकार के सारस्वत विप्र, जिनकी संज्ञा 'भूमिहार' शब्द के सदृश और इसी अर्थवाली 'महियाल या महीवाल है, रहा करते हैं। इसलिए 'भारत भ्रमण' ग्रन्थ के 52वें पृष्ठ में जो पूर्वोक्‍त मत्स्यपुराण के 113वें अध्याय के नाम पर मिथ्या ही यह लिखा गया कि वाल्हीक, वाटधान, आभीर, कालतोयक यह शूद्रों के देश हैं और पल्लव, आत्तखंडिक, गांधार यह यवनों के देश हैं' वह असंगत है। साथ ही, उस 113वें अध्याय का अर्थ भी अभी कर चुके हैं। उसमें इस प्रकार के कहीं भी नहीं लिखा है।

अस्तु, उस प्रकृति 'त्रिखर्वं', 'बलिमादाय' इस श्‍लोक में जो 'त्रिखर्वं' यह पद है, उसका किसी ने ऐसा भी अर्थ किया है कि खर्व शब्द संख्यावाचक न हो कर 'खर्वोहस्वश्‍चवामन:' (अम., 2 का. मनु. 46) इस कोश के अनुसार स्व का वाचक है और स्व शब्द छोटे या कम अर्थ में प्रयुक्‍त होता है। अत: 'त्रिखर्व' शब्द का यह अर्थ हुआ कि त्रीणि कर्माणिखर्वाणिस्वाणि न्यूनानि तेषां ते त्रिखर्वा:' अर्थात जिनके तीन कर्म याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह न्यून यानी छूट गए हैं उनका नाम त्रिखर्व है। सारांश, त्रिकर्मा यानी केवल याजन, अध्यायन और दान करनेवाला ब्राह्मण। यद्यपि 'त्रिखर्व' यह शब्द जब बलि का विशेषण हो कर संख्यावाचक होता है तो जैसा बलि शब्द द्वितीयांत एकवचन है वैसा ही 'त्रिखर्व' यह शब्द भी है, अत: अर्थ ठीक बैठता है। परंतु पूर्वोक्‍त अर्थ में ब्राह्मण:' शब्द का विशेषण होने से 'त्रिखर्वा:' ऐसा होना चाहिए। क्योंकि उसका विशेष्य 'ब्राह्मणा:' यह शब्द प्रथमांत बहुवचन है। तथापि 'त्रीणि कर्माणि खर्वाणि हृस्वानिन्यूनानियस्मिन्कर्मणि तद्यथास्यात्' अर्थात जिस क्रिया में तीन कर्म न्यून हो उसकी तरह से ऐसा विग्रह कर के 'त्रिखर्व' पद को 'तिष्ठंति' इस क्रिया पद का विशेषण कर देने से 'सामान्य नपुंसकम्' इस व्याकरण वाक्‍तविक (कात्यायनवचन) मूलक क्रियाविशेषणानां कर्मत्व क्लीवत्व च' अर्थात क्रिया-विशेषण वाचक पद नपुंसक द्वितीयांत हुआ करते हैं। इस न्याय के अनुसार 'व्रिखर्व' यह नपुंसक द्वितीयांत एकवचन ठीक हो गया और इसका अर्थ भी पूर्वोक्‍त ही रहा। [नोट-1 पंडितवर श्री नीलकंठ् ही वहाँ पर अपने 'भारत भाव प्रदीप' में लिखते हैं कि 'त्रिखर्वं' त्रीणियाजनाध्यापनाप्रतिग्रहा: खर्वाणि न्युव्जानि धनलाभरूपफलहीनानि येषां ते त्रिखर्वां याजनादिहीना इत्यर्थ:। इसका तात्पर्य ऊपर ही लिखा गया है।] बल्कि जब 'त्रिखर्व' शब्द को संख्यावाचक मानते हैं तभी त्रि शब्द का खर्वशब्द के साथ कर्मधारय समास नहीं हो सकता। क्योंकि दिक्संख्यसंज्ञायाम्'। (2। 1। 50) इस पाणिनिसूत्रनुसार दिशावाचक और संख्यावाचक शब्दों का कर्मधारय समास तभी होता है जब वह समस्त पद किसी प्रसिद्ध वस्तु का नाम हो, जैसे 'सप्तर्षि', 'त्रिगुण' और 'त्रिदेव' आदि प्रसिद्ध वस्तु का नाम है। परंतु त्रिखर्व शब्द तो किसी का नाम नहीं है। इसलिए जैसे 'अष्टी ब्राह्मणा:' इस जगह समास नहीं होता वैसे ही यहाँ भी नहीं होना चाहिए। दूसरे इस त्रिखर्व पद में समाहार द्विगु नामक कर्मधारय समाम मानना होगा। क्योंकि संख्यापूर्वो द्विगु: (पा. 2। 1। 52) अर्थात 'संख्या पूर्वक कर्मधारय समास द्विगु कहलाता है, ऐसा पाणिनि का सूत्र है। तो फिर जैसे 'सप्तशती' शब्द स्त्रीलिंग हो गया है वैसे ही 'अकारांतोत्तारपदो द्विगु: स्त्रियामिष्ट:' इस महाभाष्यकार महर्षि पतंजलि जी के अथवा महर्षि कात्यायन के वचनानुसार 'त्रिखर्व' पद का 'त्रिखर्वी' ऐसा स्त्रीलिंग रूप होना चाहिए। क्योंकि उस वाक्य का ऐसा अर्थ ही हैं कि अकारांत उत्तर पदवाला द्विगु समास स्त्रीलिंग होता है और खर्व शब्द अकारांत है। इसलिए इन सब दोषों के वारण करने के लिए जैसे 'पंचपात', 'त्रिभुवन', चतुर्युग इत्यादि शब्दों में स्त्रीलिंग नहीं होता वैसे ही इसका भी स्त्रीलिंग रूप हटाने के लिए उनकी तरह 'पात्रादि गण' में खर्व शब्द का पाठ मानना पड़ेगा। जिसमें 'पात्राद्यंतस्य न' यह व्याकरण का वार्तिक स्त्रीलिंग रूप का निषेध करेगा, क्योंकि उसका अर्थ यह है कि पात्र आदि शब्द जिस समाहार द्विगुसमास के अन्त में हो उसका स्त्रीलिंग रूप नहीं होता, जैसा कि ऊपर दिखला चुके है।

अथवा जैसे 'देवपूजा को ब्राह्मणों देवब्राह्मण:' इस जगह मध्यमपदलोपी समास होता है वैसे ही त्रिसहितं त्रिरावृत्तां वा खर्वं त्रिखर्वम' अर्थात तीन के सहित अथवा तीन आवृत्ति जिसकी की गई हो ऐसा जो खर्व उसको त्रिखर्व कहते हैं। इस प्रकार से बड़े कष्ट से 'त्रिखर्व' शब्द की सिद्धि होगी। इसलिए इस अर्थ की अपेक्षा स्ववाला ही अर्थ अच्छा है, जिससे सिद्ध होता है कि पश्‍चिम, भूमिहारादि ब्राह्मणों की तरह वे भी त्रिकर्मा थे और कृषि करते तथा भूमिपति थे। इस प्रकार से धर्मशास्त्र, पुराण, महाभारत, वाल्मीकीय रामायणादि इतिहास और शिष्टाचार से सिद्ध है कि कृषि करनेवाले ब्राह्मण बहुत कट्टर ब्राह्मण होते हैं, क्योंकि वह सनातन धर्म है और प्रतिग्रहादि उस हालत में जीविकार्थ के लिए किए जा सकते है जब कोई दूसरा उपाय कृष्यादि उसके लिए न हो। अभी आगे भी इस विषय में कुछ कहेंगे।

( घ) राज्य और युद्ध - अब हम प्रसंगवश यह भी दिखला देना चाहते हैं कि युद्ध करना और भूमिशासन (प्रजापालन या राज्य) भी ब्राह्मण का धर्म है, जिसे स्मृति, पुराण, इतिहास और सदाचार वगैरह सभी करने की आज्ञा देते हैं। साथ ही, यह भी स्मरण रखना चाहिए कि यदि राज करना ब्राह्मण का धर्म सिद्ध हो जावेगा तो फिर उसके लिए युद्ध अपरिहार्य हो जावेगा, क्योंकि राजा का ऐसा धर्म है। इसके लिए प्रथम हम यह दिखला देना उचित समझते हैं कि 'राज' शब्द क्षत्रिय मात्र का वाचक नहीं। यदि परम प्रसिद्ध और सर्वमान्य अमरकोश के द्वितीय कांडंतर्गत क्षत्रिय वर्ग में देखते हैं तो वहाँ 'क्षत्रिय' और 'राजा' ये दोनों शब्द भिन्न-भिन्न अर्थवाले मालूम होते हैं। क्योंकि लिखा है कि :

मूर्द्धाभिषिक्तो राजन्यो बाहुज: क्षत्रियों विराट्।

राजा राट्पार्थिवक्ष्माभृन्नृपभूपमहीक्षित:॥ 1॥

अर्थात 'मूर्द्धाभिषिक्‍त, राजन्य, बाहुज, क्षत्रिय और विराट ये क्षत्रियों के नाम है। और राट, पार्थिव, क्ष्माभृत, नृप, भूप और महीक्षित ये राजा के पर्याय है।' इससे स्पष्ट है कि क्षत्रिय से भिन्न भी राजा होता है। आगे चल कर और भी सफाई है क्योंकि लिखते है कि :

अथ राजकम 5 राजन्यकंचनृपतिक्षत्रियाणांगणेक्रमात 6

अर्थात 'राजक शब्द नृपतिसमूह का वाचक है और राजन्यक शब्द क्षत्रिय समूह का'। इससे स्पष्ट है कि राजन्य शब्द ही क्षत्रिय मात्र का वाचक है, न कि राज शब्द भी। मेदनीकोश में लिखा है कि :

राजा प्रभौ च नृपतौ क्षत्रिये रजनीपतौ।

अर्थात 'राजा प्रभु, नृपति, क्षत्रिय और चंद्रमा को कहते हैं।' एक जगह और भी मेदनीकोश में ही लिखा है कि 'मूर्दाभिषिक्तो भूपाले मंत्रिणि क्षत्रियेपि च।' अर्थात 'मूर्द्धाभिषिक्‍त भूपाल, मन्त्री और क्षत्रिय को कहते है।' इससे जो कोई यह शंका करते हैं कि पूर्वोक्‍त अमर कोश में जो क्षत्रिय से पृथक राजा को गिनाया है उसका यह तात्पर्य है कि सभी क्षत्रियों को राजा नहीं कहते, किंतु जिन क्षत्रियों का अभिषेक किया जाता है और जो नरों के पति होते हैं उन्हें ही कहते हैं। उसका भी खण्डन हो गया है। क्योंकि मेदिनीकोश से स्पष्ट है कि क्षत्रियमात्र को भी राजा कहते हैं। इसके बाद क्षत्रिय से पृथक नृपति, भूपाल या राजा को कहते हुए यह झलका रहे हैं कि क्षत्रिय से भिन्न राजा होता है। मनुस्मृति के 7वें अध्याय राज धर्म प्रकरण से स्पष्ट लिखा है कि :

राजधर्मान्प्रवक्ष्यामि यथा वृत्तो भवेन्नृप:॥ 1॥

अर्थात 'राजा के धर्मों का अब कथन करते हैं कि नृप यथोचित आचारवाला हो।' इस श्‍लोक में राज धर्म को प्रतिज्ञा कर के नृप धर्म का कथन करते हुए यह दिखला रहे हैं कि प्रजापालक मात्र ही राजा कहलाता है। कुल्लूकभट्ट भी यहाँ पर टीका में लिखते है कि :

राजशब्दो नात्रा क्षत्रिय जाति वचन: किंत्वभिषिक्‍त जनपद

पुरपालयितृपुरुषवचन: अतएवाह यथावृत्तोभवेन्नृपइति।

अर्थ यह है कि 'इस श्‍लोक में राज शब्द क्षत्रिय जाति का वाचक न हो कर उस पुरुष मात्र का वाचक है जिसका अभिषेक देश, ग्रामादि के पालन के लिए किया जाता है। इसीलिए श्‍लोक में लिखते हैं कि नृप यथोचित आचारवाला हो।' ऐसा ही मेधातिथि ने भी यहाँ लिखा है। परंतु अगले श्‍लोक में जो कुल्लूकभट्ट लिखते हैं 'एतेन क्षत्रिय एव राज्याधिकारी नान्य इति दर्शितम्' अर्थात 'द्वितीय श्‍लोक में क्षत्रिय पद से यह सूचित किया है कि क्षत्रिय ही राज्याधिकारी हो सकता है, न कि दूसरा।' वह उनकी विचित्र बुद्धि की महिमा है, कि अगले और पिछले श्‍लोकों के अपने लेखों को भूल कर पूर्वापर विरुद्ध बक डालते हैं। उस श्‍लोक में तो क्षत्रिय पद 'ब्राह्मण वसिष्ठ' न्याय से आदर और विशेष दृष्टि का सूचक हैं। जैसे राम जी ने या किसी अन्य ने ही कह दिया कि ब्राह्मणों को बुला लाइए और गुरु महाराज वसिष्ठ जी को बुलाते आइएगा। तो यद्यपि वसिष्ठ जी भी ब्राह्मण ही हैं, अत: उनके लिए पृथक आज्ञा की आवश्यकता नहीं है। तथापि उनका आदर और उन पर विशेष दृष्टि सूचित करने के लिए उनका पृथक नाम लिया है। वैसे ही यद्यपि राजा के कहने से क्षत्रिय राजा भी लिया जा सकता है, तथापि जबकि मनु जी स्वयमेव दशमध्याय में, जैसा कि हम पूर्व कह चुके हैं, कहते हैं कि -

वेदाभ्यासो ब्राह्मणस्य क्षत्रियस्य च रक्षणम्॥ 8॥

अर्थात 'ब्राह्मण का वेदाभ्यास और क्षत्रिय का प्रजा पालन सर्वोत्तम धर्म' है। इसलिए उसी विशेषता और आदर की सूचना के लिए पृथक क्षत्रिय शब्द का उल्लेख है। और भी जो कुछ यहाँ पर भट्ट जी ने लिखा है वह सब कुछ विस्मरण मूलक है जिसको हम पहले ही दिखला चुके हैं। 12वें अध्याय में भी मनु जी ने ऐसा ही सूचित किया है कि :

राजन: क्षत्रियाश्‍चैव राज्ञां चैव पुरोहिता:।

वादयुद्धप्रधानाश्‍च मध्यमा राजसी गति:॥ 46॥

अर्थात 'राजा, क्षत्रिय राजाओं के पुरोहित और दिन-रात शास्त्र में कलह करनेवाले ये राजसों में मध्यम कहे जाते हैं। यहाँ भी क्षत्रिय से पृथक शब्द है। ऐसा ही स्मृतियों में बहुत जगह मिला करता है। आगे चल कर इसी 12वें अध्याय में मनु जी स्पष्ट लिखते हैं कि :

सेनापत्यं च राज्यं च दंडनेतृत्वमेव च।

सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति॥ 100॥

अर्थ यह है कि 'सेना-संचालन, राज्य, न्याय और सब लोगों का आधिपत्य वेद, शास्त्रादि का ज्ञाता ही ब्राह्मणादि कर सकता है, न कि क्षत्रियादि जाति विशेष।' यही बात स्पष्ट रूप से भट्ट जी ने टीका में लिख दी है कि 'एतत्सर्वं वेदात्मकशास्त्रज्ञ एवार्हति' अर्थ वही है जो कह चुके हैं। मनुस्मृति के 9वें अध्याय में भी यही लिखा है कि :

प्रजापतिर्हिवैश्याय सृष्ट्वापरिददेपशून।

ब्राह्मणायचराज्ञे च सर्वा:परिददेप्रजा:॥ 327॥

अर्थात 'ब्रह्मा ने वैश्य को उत्पन्न कर के उसके अधिकार में पशु और ब्राह्मण तथा क्षत्रिय के अधिकार में सर्व प्रजा पालन दिया।' प्रथमाध्याय में भी लिखा है कि:

ब्राह्मणोजायमानोहिपृथिव्यामधिजायते।

ईश्‍वर:सर्वभूतानांधर्मकोशस्य गुप्तये॥ 99॥

सर्वस्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किंचिज्जगतीगतम्।

श्रेष्ठयेनाभिजनेनेदं सर्वं वै ब्राह्मणो र्हति॥ 100॥

स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च।

आनृशंस्याद्ब्राह्मणस्य भुजते हीतरे जना:॥ 101॥

जिसका तात्पर्य यह है कि 'राजा के दो काम होते हैं - (1) प्रजारक्षण, (2) कोषरक्षण। इसलिए मनु जी कहते हैं कि उत्पन्न होने के साथ ही ब्राह्मण सब प्राणियों का स्वामी और धर्म रूप कोष का रक्षक होता है। जो कुछ इस पृथ्वी पर है सभी ब्राह्मण का है, क्योंकि ब्रह्मा के सबसे श्रेष्ठ स्थान मुख से उत्पन्न होने से ही वह सबसे बड़ा है। इसलिए प्रथम सबका अधिकारी वही हो सकता है और उसके अभाव में ही दूसरा (क्योंकि यही उचित है कि प्रथम राजा का बड़ा पुत्र ही अधिकारी हो)। जो कुछ ब्राह्मण खाता, पहनता या देता है वह उसका ही है, बल्कि अन्य लोगों को जो कुछ मिला है उसे ब्राह्मण की कृपा ही समझनी चाहिए। महाभारत के शांति पर्व के राजधर्मानुशासन भाग में ऐल और वायु देवता के संवाद में 72 नवें अध्याय में भी यही लिखा है कि :

ऐलउवाच : द्विजस्य क्षत्रबंधोर्वा कस्येयं पृथ्वी भवेत्।

धर्मत: सह वित्तेन सम्यग्वायो प्रचक्ष्व मे॥ 9॥

वा. उ.। विप्रस्य सर्वमेवेदं यत्किंचिज्जगतीगतम्।

ज्येष्ठेनाभिजनेनेह तद्धर्मकुशला विदु:॥ 10॥

स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्क्तेस्वंवस्तेस्वंददाति च।

गुरुर्हि सर्ववर्णानां ज्येष्ठ: श्रेष्ठश्‍च वै द्विज:॥ 11॥

पत्यभावे यथैव स्त्री देवरं कुरुते पतिम्।

आनंतर्यात्तर्था क्षत्रां पृथ्वी कुरुते पतिम् ॥ 12॥

नारी तु पत्यभावे वै देवरं कुरुते पतिम्।

पृथ्वी ब्राह्मणलाभे क्षत्रियं कुरुते पतिम्॥ 13॥

जिसका तात्पर्य यह है कि ऐल (पुरूरवा) ने वायु से पूछा कि यह पृथ्वी वास्तव में धर्म दृष्टि से ब्राह्मण की है या क्षत्रिय की, इसे स्पष्ट रूप से कहिए। वायु ने उत्तर दिया कि जो कुछ इस पृथ्वी में है उसे धर्म ज्ञान में कुशल लोग ब्राह्मण का ही बतलाते हैं, क्योंकि वह सबकी अपेक्षा ज्येष्ठ है। ब्राह्मण जो कुछ खाता, पहनता अथवा देता है वह सब उसका ही है, क्योंकि वह सब वर्णों से ज्येष्ठ, श्रेष्ठ और सबका गुरु है। जिस प्रकार पूर्वनिश्‍चित पति के न रहने पर (मर जाने पर) उस कन्या का देवर से विवाह हो जाता है, वैसे ही ब्राह्मण राजा के न रहने पर क्षत्रिय पृथ्वी का पति होता है। यही अर्थ बाद के श्‍लोक का भी है। 'पत्यभावे यथैव स्त्री' का यह तात्पर्य भगवान मनु ने कहा है कि :

यस्याम्रियेतकन्याया वाचासत्येकृतेपति:।

तामनेनविधानेन निजोविन्देत देवर:॥ 69॥ अ.9॥

कन्यायांदत्तशुल्कायां म्रियेतयदिशुल्कद:॥

देवरायप्रदातव्या यदिकन्या नुमन्यते॥ 97॥ अ. 9॥

तात्पर्य यह है कि 'जिसके साथ विवाह की बातचीत की गई हो वह पुरुष (पति) यदि वैवाहिक कार्य सप्तपदी आदि समाप्त होने से प्रथम ही मर जावे तो उसी सामग्री और उसी प्रकार से उसका यथोचित रीति से विवाह देवर (उक्‍त पति के छोटे भाई) से कर देना चाहिए। यदि किसी ने कन्या के बदले किसी कारण से कुछ ले लिया हो (यद्यपि कन्या विक्रय का निषेध इसी अध्याय के 98 वें श्‍लोक में है, जैसा कि :

आददीत न शूद्रो पि शुक्लं दुहितरं ददन।

शुक्लं हि गृह्‍णन कुरुते छन्नं दुहितृविक्रयम्॥

अर्थात 'शूद्र भी द्रव्य ले कर कन्या न दे, क्योंकि इससे कन्या का विक्रय हो जाता है। अथवा आर्य विवाह में 1 या 2 जोड़े बैल लेने की आज्ञा हैं। जैसाकि मनुस्मृति के तृतीय अध्याय में लिखा है कि -

एकं गोमिथुनंद्वेवा वरादादाय धर्मत:।

कन्याप्रदानं विधिवार्षो धर्म: स उच्यते॥ 29॥

अर्थात 'वर से एक या दो जोड़े बैल धर्मपूर्वक ले कर कन्यादान को आर्य विवाह कहते हैं'। परंतु वे बैल भी विवाह काल में कन्या के पति को देने अथवा आवश्यक विवाह रूप यज्ञ कार्य संपादन के ही लिए जाते हैं, न कि अपने काम के लिए। क्योंकि मनु जी ने ही आगे चल कर लिखा है कि :

आर्षे गोमिथुनं शुल्कं केचिदाहुर्मृषैवतत्।

अल्पो प्येवं महान्वापि विक्रयस्तावदेव स:॥ 53 अ. 3॥

अर्थात 'जो किसी ने आर्ष विवाह में दो बैल लेने को कहा है वह मिथ्या ही है, क्योंकि ऐसा करने से चाहे थोड़ा हो या बहुत कन्या विक्रय तो हो ही गया।' इस बात को इसी श्‍लोक की टीका में कुल्लूकभट्ट ने स्पष्ट कर दिया है। ऐसी दशा में यदि उसने बैल ले लिए हों, परंतु विवाह कृत्य से प्रथम ही भावी पति का शरीर पात हो जावे तो यदि कन्या चाहे तो देवर से उसे ब्याह देना चाहिए।' इसलिए जो कोई पूर्वोक्‍त महाभारत के श्‍लोकों को देख कर अपनी अनभिज्ञता से कटाक्ष करता था कि वे श्‍लोक सनातन धर्म की दृष्टि से प्रमाण नहीं हो सकते, क्योंकि उनके मानने से विधवा विवाह या नियोग सिद्ध हो जावेगा, उसे इस पूर्व व्याख्यान रूप अंजन से अपने ज्ञानचक्षु के दोषों का मार्जन कर लेना चाहिए। राजधर्म प्रकरण नामक आठवें अध्याय में भी मनु जी ने स्पष्ट ही कह दिया है कि :

यदा स्वयं न कुर्यात्तु नृपति:कार्यदर्शनम्।

तदानियुज्याद्विद्वांसं ब्राह्मणं कार्यदर्शने॥ 9॥

सोस्य कार्याणि संपश्येत्सभ्यैरेव त्रिभिर्वृत:।

सभामेव प्रविश्याग्रयामासीन: स्थित एंव वा॥ 10। अ. 8॥

अर्थ यह है कि 'जब राजा किसी कारण से राज्य का प्रबंध न कर सके तो विद्वान ब्राह्मण को उस जगह नियुक्‍त कर दे। वह ब्राह्मण उन कार्यों को तीन सभ्यों के सहित उत्तम सभा में बैठ अथवा खड़ा हो कर उचित रीति से करे।' इसीलिए वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकांड के 67 वें सर्ग में राजा दशरथ के कोप-भवन से न लौटने पर लिखा है कि :

व्यतीतायां तु शर्वर्यामादित्यस्योदये तत:।

समेत्य राज्यकर्त्तार: सभामीयुर्द्धिजातय:॥

मार्कण्डेयोथ मौद्गल्यो वामदेवश्‍च कश्यप:।

कात्यायनो गौतमश्‍च जावालिश्‍च महायशा:॥

अर्थात 'उस दिन रात बीतने पर सूर्योदय समय राज्य करनेवाले (राज्य प्रबंध करनेवाले) सभी महान ब्राह्मण मार्कंडेय, मौद्गल्य, वामदेव, कश्यप, कात्यायन और ज्वालि प्रभृति मिल कर सभा में आए।' इन श्‍लोकों में 'राज्यकर्ता:' लिखा है, जिसका अर्थ 'राज्य करनेवाले ब्राह्मण' ऐसा होता है। इससे स्पष्ट है कि मुख्य राज्यकर्ता ब्राह्मण ही है। परंतु उसमें बहुत झंझट और तपस्या तथा विचारादि में विघ्न देख कर जो लोग उससे उपराम हो जाते हैं वे क्षत्रियों के हाथ में उसे सौंप देते है। जैसे अपने भृत्यों के हाथ में किसी कार्य का प्रबंध सौंप दिया जाता है। अथवा आजकल भी बहुत से अन्य देशों में राजा के प्रतिनिधि जैसे शासन करते हैं वैसे ही ब्राह्मण लोग क्षत्रियादि को अपना प्रतिनिधि बना कर स्वच्छंद वेदाभ्यासादि करते थे। परंतु जब किसी कारणवश उनके प्रतिनिधि स्वरूप क्षत्रियादि उसका प्रबंध न कर सकते थे तो स्वयं वे विचारशील गौतम और कात्यायनादि जैसे ब्रह्मर्षि उसका प्रबंध कर लेते थे। महर्षियों के इस राज्य प्रबंध से उस कुकल्पना का भी खण्डन हो गया जो लोग किया करते हैं कि राज्य और युद्ध करने से ही भूमिहारादि ब्राह्मण कट्टर न रह कर हीन हो गए। यदि यह कार्य कट्टर ब्राह्मणता का विरोधी होता तो क्या उन महर्षियों से भी कोई अधिक कट्टर हो सकता है जिन्होंने इसे किया है? क्या वे शास्त्र ज्ञाता न थे जिससे इसे निंदित समझ कर छोड़ देते? इस विषय में अभी बहुत वक्‍तव्य है।

प्राय: लोगों की यही धारणा है कि पुरोहिती ब्राह्मण को अवश्य कर्तव्य है। यद्यपि शास्त्रों का मत इस विषय में दिखला चुके हैं और दिखलावेंगे भी, तथापि इतना तो निर्विवाद है कि यदि किसी दशा में भी पुरोहित हो सकता है तो ब्राह्मण ही। क्योंकि मनुस्मृति के दशमध्याय में लिखा है कि :

त्रायो धर्मा निवर्तन्ते ब्राह्मणात्क्षत्रियं प्रति।

अध्यापनं याजनं च तृतीयश्‍च प्रतिग्रह:॥ 77॥

वैश्यं प्रति तथैवैते निवर्तेरन्निति स्थिति:।

न तौ प्रति हि तान्धर्मान्मनुराह प्रजापति:॥ 78॥

अर्थात 'ब्राह्मण के तीन कर्म याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह क्षत्रिय और वैश्य के लिए नहीं है, यही सिद्धांत हैं, क्योंकि प्रजापति मनु जी ने उनके लिए वे धर्म नहीं बतलाए।' अत्रि संहिता में भी लिखा है कि :

प्रतिग्रहोध्यापनं च तथा विक्रेय:विक्रय:।

याज्यं चतुर्भिरप्येतै: क्षत्राविट्पप्तनम् स्मृतम्॥ 20॥

अर्थात 'याजन, अध्यापन, प्रतिग्रह और निषिद्ध पदार्थों के विक्रय से क्षत्रिय और वैश्य पतित हो जाते हैं। अब उस पुरोहित के स्वरूप को विचारिए तो उससे भी ब्राह्मण का राज्य सम्बन्ध घनिष्ठ सिद्ध होता है। क्योंकि अमरकोश में 'पुरोधास्तुपुरोहित:' अर्थात पुरोहित का नाम पुरोधा भी है, यह क्षत्रिय वर्ग में लिखा है, न कि ब्राह्मण वर्ग में और पुरोहित शब्द का अर्थ भी यह है कि जो युद्धादि सब व्यवहारों में अग्रणी हो, अर्थात उसकी सम्मति सभी कार्यों में ली जावे। क्योंकि पुरुष अव्ययपूर्वक 'धा' धातु से 'क्‍त' प्रत्यय करने पर पुरोहित शब्द सिद्ध होता है। जिसमें अव्यय का अर्थ 'आगे' है, और 'धा' धातु का अर्थ धारण करना व रखना। अर्थात जो प्रथम रखा व माना गया हो। राजधर्म प्रकरण में ही मनु जी ने लिखा है कि पुरोहितं प्रकुर्वीत' (अ. 7/75) अर्थात राजा पुरोहित बनावे। और फिर लिखते हैं कि :

सर्वेषां तु विशिष्टेन ब्राह्मणेन विपश्‍चिता।

मन्त्रयेत्परमं मन्त्रां राजा षड्गुण्यसंयुतम्॥ 58॥

नित्यंतस्मिन्समाश्‍वस्त: सर्वकार्याणिनिक्षिपेत्।

तेन सार्द्धंविनिश्‍चित्य तत:कर्मसमारभेत् ॥ 59॥ 7॥

जिसका अर्थ यह है कि 'सर्व मंत्रियों में श्रेष्ठ पंडित ब्राह्मण मन्त्री से राजा संधि विग्रहादि संबंधी बड़ी-बड़ी सलाह करे। सर्वदा ही उसका विश्‍वास कर के सब काम करे और उसके साथ सलाह कर के ही उसके बाद कार्य प्रारंभ करे।' याज्ञवल्क्य स्मृति के आचाराध्याय में लिखा है कि :

स मंत्रिण: प्रकुर्वीत प्राज्ञान्मौलान्स्थिराञ्‍छुचीन।

तै: सार्द्धं चिन्तयेद्राज्यं विप्रेणाथ तत स्वयम्॥ 312॥

पुरोहितं प्रकुर्वीत दैवज्ञमुदितोदितम्।

दंडनीत्यां च कुशलमथर्वांगिरसे तथा॥ 313॥

अपश्यता कार्यवशाद्वयवहारान्नृपेण तु।

सभ्यै: सहनियोक्‍तव्यो ब्राह्मण: कार्यदर्शने॥ 3॥ व्यव.॥

अर्थ यह है कि 'वह राजा श्रेष्ठ, स्थिर और पवित्र स्वभाववाले मन्त्री रखे। उनके विचारने के बाद ब्राह्मण मन्त्री से विचार कर अपने आप भी कार्य विचार करे। ज्योतिष विद्या जाननेवाला, शास्त्रोक्‍त कर्मकारी, अर्थशास्त्रज्ञ और साम दानादि गुणों से युक्‍त पुरोहित रूप मन्त्री राजा बनावे। राजा यदि किसी कारण से राज्य कार्य न देख सके तो अन्य सभ्यों सहित ब्राह्मण मन्त्री को उसमें नियुक्‍त करे।' बौधायनस्मृति के 10वें अध्याय में लिखा है कि :

सर्वतोधुरं पुरोहितं वृणुयात्॥ 10॥

अर्थात 'राज्य के सर्व कार्यों का करनेवाला पुरोहित बनाए।' अग्निपुराण में लिखा है कि :

अभिषिञ्‍चदमात्यानां चतुष्टयमथो घटै:।

पूर्वतो हेमकुम्भेन घृतपूर्णेनब्राह्मण:॥ 18॥ अ. 218॥

अर्थात 'उसके बाद चारों वर्णवाले चार मन्त्री राजा का अभिषेक करें। उनमें से प्रथम ब्राह्मण मन्त्री घृतपूर्ण स्वर्ण घट से अभिषेक करे।' इन सब प्रमाणों से क्या यह सिद्ध नहीं होता कि ब्राह्मणों का राज्य से बहुत सम्बन्ध और उसमें अधिकार पूर्वकाल में भी था। इन अयाचक ब्राह्मणों के पूर्वज प्रथम इसी प्रकार के पुरोहित, ऋत्विक् और मन्त्री भी थे जिससे इनका व्यवहार राजसी था, जैसा कि मनु वाक्यों द्वारा दिखा चुके हैं कि क्षत्रिय, राजा और राज पुरोहित राजस कहलाते हैं और शांति पर्व के 76वें अध्याय में भी लिखा है कि :

ऋत्विक् पुरोहितो मन्त्री दूतो वार्त्तानुकर्षक:।

एते क्षत्रासमा राजन्ब्राह्मणानां भवन्त्युत॥ 7॥

अर्थात 'ऋत्विक, पुरोहित, मन्त्री और दूत इतने ब्राह्मण क्षत्रिय के सदृश राजस होते हैं।' इस प्रकार वे क्रमश: धनवान, बड़े-बड़े भूमिपति और जमींदार या राजे हो गए, जिससे पीछे उस राजपुरोहिती आदि को भी छोड़ कर एकदम अलग हो गए। महाभारत के शांतिपर्व के 73वें अध्याय राजधर्मनुशासन प्रकरण में लिखा है कि:

तञ्‍चैवान्वभिषिञ्‍चेत् तथा धर्मो विधीयते।

अग्रेयं हि ब्राह्मणे प्रोक्तं सर्वस्यैवेह धर्मत:।

पूर्वं हि ब्रह्मण: सृष्टिरिति ब्रह्मविदो विदु:॥ 29॥

ज्येष्ठेनाभिजनेनास्य प्राप्तं पूर्वं यदुत्तारम्।

तस्मान्मान्यश्‍च पूज्यश्‍च ब्राह्मण: प्रसृताग्रभुक्॥ 30॥

अर्थ यह है कि 'उस पुरोहित का अभिषेक राजा करे, क्योंकि राजपाट सभी का प्रथमाधिकारी धर्म विचार से ब्राह्मण ही है। क्योंकि यह वार्त्ता वेदवेत्ता लोग जानते हैं कि प्रथम ब्राह्मण ही उत्पन्न हुआ। इसलिए ज्येष्ठ होने से जो कुछ मिले वह पहले ब्राह्मण का ही है, पीछे दूसरे का। इसलिए उसे मानना और पूजना चाहिए, क्योंकि वह सब वस्तुओं का प्रथमाधिकारी है।' स्कंदपुराण के धर्मारण्य महात्म्य में बाडवों (ब्राह्मणों) के विषय में बहुत सा विवरण ग्राम और गोत्रपूर्वक दिया गया है और यह भी लिख दिया गया है कि अमुक ग्राम का अधिपति अमुक ब्राह्मण हुआ। साथ ही, स्पष्टतया लिखा गया है कि 'राज्यं चक्रुर्वनस्य' अर्थात उस धर्मारण्य का राज्य बड़ी ब्राह्मण करते थे। महाभारत के आदिपर्व के 113वें अध्याय में स्वपुत्र अश्‍वत्थामा को दूध पीने के लिए एक गौ की आवश्यकता होने पर वह द्रोणाचार्य को द्रुपद से मित्रता में माँगनी पड़ी है। वे चाहते तो आजकल की भाँति उन्हें सहस्रों गाएँ मिल जातीं। परंतु उन्हें प्रतिग्रह से डर कर ऐसा करना पड़ा। जब द्रुपद ने कोरा जवाब दिया कि राजा का मित्र भिक्षु (ब्राह्मण) न हो कर राजा ही होता है, इसलिए आपसे मेरी मैत्री नहीं हो सकती। हाँ एक दिन के लिए भोजन मिल सकता है, तो द्रोणाचार्य रुष्ट हो कर लौट गए हैं। इसी समय भीष्म पितामह ने उनसे मिल सब हाल जान कर कहा है कि :

अपज्यं क्रियतां चापं साधवस्त्रां प्रतिपादय।

भुङ्क्ष्व भोगान भृशं प्रीत: पूज्यमान: कुरुक्षये॥ 64॥

कुरूणामस्ति यद्वित्तां राज्यंचेदं सराष्ट्रकम्।

त्वमेव परमो राजा सर्वे च कुरवस्तव॥ 65॥

अर्थात 'आप धनुष रख दीजिए, इन बच्चों को शस्त्रास्त्र विद्या सिखलाइए और कौरवों द्वारा पूजित हो कर इनके देश में प्रसन्नतापूर्वक भोग भोगिए। कौरवों का जो धन और राज्य हैं वह सब आप ही का हैं और वे लोग भी आपके ही हैं। इसके बाद जब कौरव-पांडवों को युद्ध विद्या में कुशल कर के पुराना बदला चुकाने के लिए उन्हें द्रुपद को पकड़ने को भेजा है और अर्जुन उसे परास्त कर के पकड़ लाए हैं, तब द्रोणाचार्य ने शांतिपर्व के 140वें अध्याय में कहा है कि :

अराजा किल नो राज्ञ: सखा भवितुमर्हति।

अत: प्रयतितं राज्ये यज्ञसेन मया तव॥ 68॥

राजासि दक्षिणे कूले भागीरथ्याहमुत्तारे।

सखायं मां विजानीहि पाञ्‍चाल यदि मन्यसे॥ 69॥

माकन्दीमथ गंगायास्तीरे जमपदायुताम्।

सोध्यावसद्दीनमना: काम्पिल्यं च पुरोत्तामम्॥ 72॥

दक्षिणांश्‍चापि पाञ्‍चालान्यावच्चर्मण्वतीनदीम्।

अहिच्छत्रां च विषयं द्रोण: समभिपद्यत॥ 75॥

एवं राजन्नहिच्छत्रा पुरी जनपदायुता।

युधि निर्जित्य पार्थेन द्रोणाय प्रतिपादिता॥ 76॥

जिसका अर्थ यह है कि 'हे द्रुपद! क्योंकि जो राजा नहीं हैं वह राजा का मित्र नहीं हो सकता, इसलिए ही मैंने तुम्हारा राज्य लेने का यत्‍न किया है। यदि तुम चाहो तो गंगा से दक्षिण के देश का राजा रहो और मैं उत्तर का और मुझे अब से मित्र समझो। इसके बाद वह द्रुपद खिन्न चित्त हो कर गंगा तट में माकंदी में राजधनी बना कर रहने लगा, जिसके आश्रित बहुत से प्रांत थे और काम्पिल्यपुर और दक्षिण पांचाल भी चर्मण्वती (वेतवा) नदी तक उसी के अधिकार में था। उत्तर पांचाल अर्थात अहिच्छत्रादि प्रदेशों के राजा द्रोणाचार्य हुए। इस प्रकार से बहुत से प्रदेशों सहित अहिच्छत्रापुरी को अर्जुन ने युद्ध में जीत कर द्रोणाचार्य को उसका राजा बना दिया।

स्कंदपुराण के नागर खण्ड 68 और 69वें अध्याय में लिखा है कि :

सूत उवाच : भार्गवोपि च तं हत्वा रक्‍तमादाय कृत्स्नश:।

तत्रा संप्रेषयामास यत्रा गर्ताथ पैतृकी ॥ 2॥

न सवालं न वृद्धं च परित्यजति भार्गव:।

यौवनस्थं विशेषण गर्भस्थं वाथ क्षत्रियम्॥ 3॥

प्रत्यक्षं सर्वविप्राणां तथा न्येषां तपस्विनाम्।

प्रतिज्ञां पूरयित्वाथ स विशोको बभूव ह॥ 8॥

ततो नि:क्षत्रिये लोके कृत्वा हयमखं च स:।

प्रायच्छत्सकलामुर्वीं ब्राह्मणेभ्यश्‍च दक्षिणाम्॥ 9॥

अथ लब्धावराविप्रास्तमूचुर्भृगुसत्तामम्।

नास्मद्भूमौ त्वया स्थेयमेको राजा यत: स्मृत:॥ 10॥

सोपि बाढ़मिति प्रोच्य हर्षेण महतांवित:।

महीपर्यन्तमासाद्य प्रोवाचाथ नदीपतिम्॥ 11॥

आरोप्य सुमहच्चापमाग्नेयास्त्रां प्रयुज्य च।

त्रिशिखां भृकुटीं कृत्वा कोपेन महतांवित:॥ 12॥

रामउवाच। मया नि:क्षत्रिया भूमि:कृता शैलवनान्विता।

ब्राह्मणेभ्यस्ततो दत्त वाजिमेधो महामखे॥ 13॥

तस्मात्वं देहि मे स्थानं कृत्वापसरणं स्वयम्।

नहि दत्तवा ग्रहीष्यामि विप्रेभ्यो मेदिनीं पुन:॥ 14॥

न करोष्यथवा वाक्यं ममाद्य त्वं नदीपते।

स्थलरूपं करिष्यामि वद्द् यस्त्रा परिशोषितम्॥ 15॥

सूत उवाच। तस्य तद्वचनं श्रुत्वा समुद्रो भयसंकुल:।

अपसारं ततश्‍चक्रे यावत्तास्याभिविञ्‍छतम्॥ 16॥

ततश्‍चकार तत्रौव वसतिं स भृगुद्वह:।

तपश्‍चर्या समायुक्‍त: पितुर्वधामनुस्मरन॥ 17॥ अ. 68

सूत उवाच। ततो नि:क्षत्रिये लोके क्षत्रिण्यो वंशकारणात्।

क्षेत्रजान ब्राह्मणेभ्यश्‍च सुषुबुस्तनयान्वरान॥ 1॥

ते च वृद्धिं समासाद्य क्षेत्रजा: क्षत्रियोपमा:।

जगृहुर्मेदिनीं वीर्यात्संनिरस्य द्विजोत्तामान॥ 2॥

ततस्ते ब्राह्मणा: सर्वे परिभूतिपदं गता:।

प्रोचुर्भार्गग्वमभ्येत्य दु:खेन महताविन्ता:॥ 3॥

राम राम महाबाहो यत्तवया वसुधा च न:।

वाजिमेधो मखे दत्त हृता सा क्षत्रियैर्बलात्॥ 4॥

तस्मान्नो देहि तां भूतो हत्वा तान्क्षत्रियाधामान।

कुरु श्रेयोभिवृद्धिं तां यद्यस्ति तव पौरुषम्॥ 5॥

ततो राम: क्रुधाविष्टो भूयस्तै: शबरै: सह।

पुलिन्दैर्मेदकैश्‍चैव क्षत्रियान्ताय निर्ययौ॥ 6॥

तत्रौव क्षत्रियान हत्वा रक्‍तमादाय तद्बहु।

तां गत्तरां पूरयामास चकार पितृतर्पणम्॥ 7॥

प्रददौ ब्राह्मणेभ्यश्‍च वाजिमेधो धारां पुन:।

तैश्‍च निर्वासितस्तत्रा जगामोदधिसन्निधौ॥ 8॥

एवं तेन कृता पृथ्वी सर्वक्षत्रविवर्जिता।

त्रि:सप्तवारं विप्रेन्दा:! द्विजेभ्यश्‍चनिवेदिता॥ 9॥ अ. 69

भावार्थ यह है कि 'सूत जी ने कहा कि परशुराम ने सहार्जन को मार सब रक्‍त ले कर जहाँ पितृ तर्पण के लिए कुरुक्षेत्र में पाँच कुंड बनाए थे वहाँ भेज दिया। वे बाल, वृद्ध, गर्भस्थ और विशेष कर युवा क्षत्रिय को मारे बिना न छोड़ते थे। इस तरह सब ब्राह्मणों और तपस्वियों के सम्मुख अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर वे शोक रहित हो गए। इस प्रकार लोक को क्षत्रिय शून्य बना अश्‍वमेध यज्ञ कर के उसमें उन्होंने सब पृथ्वी कश्यप प्रभृति ब्राह्मणों को दक्षिणा दे दी। अब पृथ्वी का राज्य पाने पर उन ब्राह्मणों ने परशुराम जी से कहा कि हमारे राज्य में मत रहिए, क्योंकि एक राज्य में एक ही राजा रह सकता है। वे भी बहुत प्रसन्नतापूर्वक अच्छा कह पृथ्वी के किनारे समुद्र तट पर आ कर, जिस समय उससे बोले उस समय वे महान धनुष को चढ़ा, आग्नेयास्त्र का प्रयोग कर और भृकुटी टेढ़ी कर के महान कोपयुक्‍त हो रहे थे। उन्होंने कहा कि मैंने पर्वत और वन सबके सहित पृथ्वी क्षत्रिय रहित कर के अश्वमेध यज्ञ में ब्राह्मणों को दे दी। इसलिए तुम मुझे वासस्थान दो और यहाँ से हट जाओ, क्योंकि ब्राह्मणों को दे कर फिर मैं उनसे भूमि छीन नहीं सकता। यदि तू मेरी बात न मानेगा तो आज ही अग्न्येस्त्र से तुझे सुखा कर स्थलरूप बना दूँगा। समुद्र उनका वचन सुन डर कर उतनी दूर हट गया जितना उन्हें इष्ट था। उसके बाद परशुराम जी उसी जगह वासस्थान बना पिता के वध का स्मरण करते हुए तपस्या करने लगे। इस प्रकार जब पृथ्वी क्षत्रियों से रहित हो गई तो उनकी स्त्रियों ने ब्राह्मणों द्वारा श्रेष्ठ क्षत्रिय पुत्र उत्पन्न किए, क्योंकि क्षेत्रज भी पुत्र हुआ करते हैं। वे क्षेत्रज बालक क्षत्रिय सदृश हुए और उन्होंने बलपूर्वक उन ब्राह्मणों को निकाल कर पृथ्वी दबा ली। उसके बाद ब्राह्मण हार मान कर बहुत दु:खी हो परशुराम जी के पास आ कर उनसे कहने लगे कि हे राम! जो पृथ्वी आपने हम लोगों को अश्‍वमेध में दक्षिणा दी थी उसे क्षत्रियों ने छीन लिया। इसलिए यदि आपमें बल हैं, तो उन नीच क्षत्रियों को मार हमें पृथ्वी का राज्य पुन: दे कर हमारा कल्याण करिए। यह सुनते ही परशुराम जी क्रोध से लाल हो बहुत से शबरों, पुलिंदों और मेदकों के साथ उन क्षत्रियों का नाश करने के लिए निकले और उसी जगह उन क्षत्रियों को मार उनका रक्‍त ले कर उन पाँच गर्तों की भर दिया और उसी से पितृतर्पण किया। जब फिर उन्हें ब्राह्मणों ने अपने राज से निकाल दिया तो उसी समुद्र के पास चले गए। इसी प्रकार उन्होंने क्रमश: 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय शून्य कर उसका राज्य ब्राह्मणों को दे दिया।'

महाभारत के शांतिपर्व में भी जहाँ पर पूर्वोक्‍त परशुराम जी का आख्यान हैं वहीं 49वें अध्याय में सहार्जुन के यज्ञ में भी ब्राह्मणों को पृथ्वी राज्य की प्राप्ति इस प्रकार लिखी है कि :

एतस्मिन्नेव काले तु कृतवीर्यात्मजो बली।

अर्जुनो नाम तेजस्वी क्षत्रियो हैंहयाधिप:॥ 35॥

दत्तत्रोय प्रसादेन राजा बाहुसहवान।

चक्रवर्ती महातेजा विप्राणामाश्‍वमेधिके॥ 36॥

ददौ स पृथ्वीं सर्वां सप्तद्वीपां सपर्वताम्।

स्वबाह्नस्त्राबलेनाजौ जित्वा परमधर्मवित्॥ 37॥

इसका अर्थ यह है कि 'इसी समय (जिस समय परशुराम जी का जन्म हुआ) कृतवीर्य का पुत्र, महाबलवान और अर्जुन नाम का क्षत्रिय हैहय देश का राजा था। दत्तात्रेय की कृपा से जिसे सहबाहु मिले थे, ऐसे चक्रवर्ती राजा अर्जुन ने अश्‍वमेध यज्ञ में, अपने बाहु और अस्त्र बल से पर्वत सहित सप्तद्वीपर्वती पृथ्वी जीत कर ब्राह्मणों को यज्ञ में दक्षिणा दे दी।' क्या इन सब आख्यानों से ब्राह्मणों के राजा होने से अब भी कोई संदेह रह गया? इससे स्पष्ट है कि प्रथम जो ब्राह्मण अयाचक दलवाले थे, वे मन्त्री ही और अस्त्र, शस्त्रादि विद्या द्वारा एवं जो याचक दलवाले थे, वे ऋत्विक् और पुरोहित हो बड़े-बड़े राज्याधिकारी और जमींदार हो कर एक ही अयाचक दलवाले होते गए और पश्‍चात पुरोहिती और यजनादि भी उनका इसीलिए छूटता गया। विष्णुपुराण के चतुर्थांश के 24वें अध्याय में लिखा है कि :

मगधयां तु विश्‍वस्फटिकसंज्ञो न्यान्वर्णान करिष्यति॥ 61॥

करैवत्तावटुपुलिन्दब्राह्मणान्राज्ये स्थापयिष्यति॥ 63॥

'कलि में मगधपुरी अथवा मगध देश में विश्‍वस्फटिक नाम का एक प्रतापी पुरुष क्षत्रिय से अन्य वर्ण कैवर्त, वटु, पुलिन्द और ब्राह्मणों को राजा बनाएगा।' वायुपुराण के 58वें अध्याय में लिखा है कि :

गोत्रोण वै चंद्रमसो नाम्ना प्रमितिरुच्यते।

माधावस्य तु सों शेन पूर्वं स्वायम्भुवे न्तरे॥ 76॥

समा: स विंशतिं पूर्णा: पर्यटन्वै वसुन्धाराम्।

आचकर्ष च वै सेनां सवाजिरथकुञ्‍जराम्॥ 77॥

प्रगृहीतायुधौर्विप्रै: शतशोथ सहश:।

स तदा तै: परिवृतो म्लेच्छान्हन्ति सहम्त्राश:॥ 78॥

अर्थ यह है कि 'प्रथम स्वायम्भुव मन्वंतर में चंद्र गोत्र में प्रमिति नाम का (कल्कि भगवान की जगह) विष्णु के अंश से एक ब्राह्मण उत्पन्न हुआ था जिसने पूरे 20 वर्ष पृथ्वी में घूम कर घोड़े और हाथी सहित सेना एकत्रित की और आयुध धारण करनेवाले हजारों ब्राह्मणों को साथ ले बहुत से म्लेच्छों का नाश किया।' फिर 60वें अध्याय में चल कर लिखते हैं कि :

उर्व्यां जातास्तु ये शूद्रा ब्राह्मणानां निवेदिता:।

वृत्तयर्थं ब्रह्मयज्ञार्थं करस्तेषु कृतो महान॥ 74॥

अनेन विधिना जातं विप्राणां शासनं महत्॥ 75॥

अर्थात 'उस कलि में जब प्राय: शूद्र ही ब्राह्मणों के अधीन रह गए तो ब्राह्मणों ने जीविका और यज्ञादि के लिए उन्हीं पर कर लगाया। इस प्रकार से पृथ्वी में ब्राह्मणों का राज्य स्थिर हुआ।' और उसी के 57वें अध्याय में लिखा है कि :

श्रूयन्ते हि तप: सिद्धा ब्रह्मक्षत्रमया नृपा:॥ 121॥

अर्थात 'बहुत से ब्राह्मण और क्षत्रिय राजे तपोबल से सिद्ध हो गए सुने जाते हैं।' मत्स्यपुराण के 272वें अध्याय में लिखा है कि :

ब्राह्मणास्तु चतुर्विंश भविष्यन्ति शतं समा:।

तत: प्रभृत्ययं लोक: सर्वो व्यापत्स्यते भृशम्॥ 44॥

चत्वारिंशद्द्विंजा ह्येते काण्वा भोक्ष्यन्ति वै महीम्।

चत्वारिंशत्पंच चैव भोक्ष्यन्तीमां वसुन्धराम्॥ 35॥ 271॥

अर्थात 100 वर्षों तक 24 ब्राह्मण राज्य करेंगे, इसके बाद संपूर्ण लोक विपत्तिग्रस्त होगा। कण्ववंशीय 40 ब्राह्मण 45 वर्षों तक इस पृथ्वी का राज्य करेंगे।'

'ब्राह्मण राज परिचय' नामक ग्रन्थ में एक मैथिल परमहंस महोपदेशक ने ब्राह्मणों के राज्यधिकार में श्रुतियाँ भी लिखी है। यथा 'ब्रह्मणे प्रथमो गा अविंदत' (ऋग्वेद) और इस प्रकार उसका अर्थ किया है कि 'पृथ्वी का राज्य प्रथम ब्राह्मणों ने प्राप्त किया।' और भी लिख कर उसका अर्थ बतलाया है। यथा 'अस्माकं ब्राह्मणानां राजा' (यजुर्वेद), 'ब्राह्मण एव पतिर्न राजन्यो न वैश्य:' (अथर्ववेद)। अर्थ यह है कि 'हम ब्राह्मणों में से वह राजा है। राजा ब्राह्मण ही है, क्षत्रिय व वैश्य नहीं।' इस प्रकार से श्रुति, स्मृति, पुराण और सदाचारों से सिद्ध है कि ब्राह्मण राजा होते थे और होते हैं तथा यह उनका शास्त्रोचित धर्म है। इससे कट्टर ब्राह्मणता में कोई धब्बा नहीं लग सकता। इस विषय में बहुत से नए एवं प्राचीन इतिहास भी दिखलावेंगे।

जब ब्राह्मण का राज्य करना सिद्ध हो गया तो युद्ध तो उसके लिए अर्थ सिद्ध हो गया। क्योंकि राज्य के साथ उसका घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसके विषय में प्रथम वायुपुराण का प्रमाण भी दिखला चुके हैं। महाभारत के शांतिपर्व में किया है कि:

ब्राह्मणस्यापि चेद्राजन क्षत्रधर्मेण वृत्तात:।

प्रशस्तं जीवितं लोके क्षत्रंहि ब्रह्मसंभवम्॥ अ.॥ 22॥

जिसका अर्थ यह है कि 'अर्जुन ने युधिष्ठिर महाराज से कहा है कि हे राजन! जब कि ब्राह्मण का भी इस संसार में क्षत्रिय धर्म अर्थात राज्य और युद्धपूर्वक जीवन बहुत ही श्रेष्ठ हैं, क्योंकि क्षत्रिय ब्राह्मणों से ही हुए हैं, तो आप क्षत्रिय धर्म का पालन कर के क्यों शोक करते हैं?' आगे चल कर 78वें अध्याय में लिखा है कि :

ब्राह्मणास्त्रिषु वर्णेषु शस्त्रां गृह्‍णन न दुष्यति।

एवमेवात्मनस्त्यागान्नान्यं धर्मं विदुर्जना:॥ 29॥

ब्राह्मणस्त्रिषु कालंषु शस्त्रं गृह्‍णन न दृष्यति।

आत्मत्राणे वर्णदोषे दुर्दम्यनियमेषु च॥ 34॥

उनर्मय्यादे प्रवृत्तो तु दस्युभि: संगरे कृते।

सर्वे वर्णा न दुष्येषु: शस्त्रवन्तो युधिष्ठिर॥ 18॥

अर्थात अन्य तीन वर्णों के ऊपर शस्त्र चलानेवाला (युद्धकर्ता) ब्राह्मण दूषित नहीं होता, क्योंकि किसी आवश्यक कार्यवश इस प्रकार आत्मत्याग करने से बढ़ कर कोई भी धर्म नहीं माना जाता। युद्ध करनेवाले ब्राह्मण को तीनों काल में कोई दोष नहीं है, विशेष कर अपनी रक्षा, वर्णों की रक्षा और बड़े-बड़े दुष्टों को दबाने के लिए। जब दुष्ट लोगों के युद्ध करने से शास्त्रीय मर्यादा टूटने लगे तो सभी ब्राह्मणादि युद्ध करने से दूषित नहीं होते।' मत्स्यपुराण के 103वें अध्याय में लिखा है कि :

शृणु राजन प्रवक्ष्यामि क्षत्रीधर्मव्यस्थितिम्।

नैव दुष्टं रणे पापं युध्यमानस्य धीमत:॥ 21॥

किं पुन: राजधार्मेण क्षत्रियस्य विशेषत:॥ 22॥

अर्थात 'हे राजन (युधिष्ठिर) क्षत्रिय धर्म की व्यवस्था सुनिए। जबकि किसी भी लड़ाई में युद्ध करनेवाले को पाप नहीं होता, तो राजा हो कर युद्ध करनेवाले का क्या कहना है, उस पर भी विशेष कर क्षत्रिय का?' मत्स्यपुराण के 214वें अध्याय राजधर्म प्रकरण में लिखा है कि :

कुलीन: शीलसंपन्नो धानुर्वेदविशारद:।

हस्तिशिक्षाश्‍वशिक्षासु कुशल: शलक्ष्मणभाषिता॥ 8॥

निमित्तो शकुने ज्ञाता वेत्ता चैव चिकित्सिते।

कृतज्ञ: कर्मणां शूरस्तथा क्लेशसहो ऋजु:॥ 9॥

व्यूहतत्वविधानज्ञ: फल्गुसारविशेषवित्।

राज्ञा सेनापति: कार्यो ब्राह्मण: क्षत्रियोथवा॥ 10॥

अर्थात 'कुलीन, शीलवान, धनुर्वेद में निपुण, हस्तियों और अश्वों की शिक्षा में कुशल, मधुरभाषी, शकुनादि तथा चिकित्सा का ज्ञाता, कृतज्ञ, लड़ने में बहादुर, क्लेश सहन करनेवाला, सरल स्वभाव, सेना रचना की विधि का ज्ञाता और छोटी-बड़ी बातों का विचार करनेवाला सेनापति ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय को रखना राजा के लिए उचित है।' अग्निपुराण के 220वें अध्याय में भी लिखा है कि :

सोभिषिक्‍त: सहामात्यो जयेच्छत्रून्नृपोत्ताम:।

राज्ञा सेनापति: कार्यो ब्राह्मण: क्षत्रियो थवा॥ 1॥

अर्थात 'अभिषेक के अनंतर राजा मंत्रियों सहित हो कर शत्रुओं को जीते, जिसके लिए ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय को सेनापति बनावे।'

जब कर्ण ने द्रोणाचार्य से ब्रह्मास्त्र का ज्ञान माँगा है तो उन्होंने उत्तर दिया है कि :

ब्रह्मास्त्रां ब्राह्मणो विद्याद्यथावच्चरितव्रत:।

क्षत्रियो वा तपस्वी योनान्योविद्यात्कथंचन॥ 13॥

स तु राममुपागम्य शिरसाभिप्रणम्य च।

ब्राह्मणो भार्गवो स्मीति गौरवेणाभ्यगच्छत॥ 15 शां॥ 2

अर्थात 'ब्रह्मास्त्र केवल शास्त्रोक्‍ताचार वाला ब्राह्मण ही जान सकता है, अथवा क्षत्रिय जो तपस्वी हो, दूसरा नहीं। यह सुन वह परशुराम जी के पास, मैं भृगु गोत्री ब्राह्मण हूँ, ऐसा बन कर ब्रह्मास्त्र सीखने गया है।' अन्त में जब उन्हें उसका छल विदित हो गया तो उन्होंने शाप दिया है कि :

तस्मादेतन्न ते मूढ ब्रह्मास्त्र प्रतिभास्यति॥ 30॥

अन्यत्र वधाकालात्तो सदृशेन समेयुष:।

अब्राह्मणे नहि ब्रह्म धु्रवं तिष्ठेत्कथंचन॥ 31॥ शां. 3

अर्थात 'हे मूढ़, इसलिए ब्रह्मास्त्र का ज्ञान तुझे न रहेगा, केवल उस काल को छोड़ कर जब तेरे बराबर वाले से तेरा वध होने लगेगा। क्योंकि यह ब्रह्मास्त्र ब्रह्म ठहरा। इसलिए ब्राह्मण से भिन्न के पास नहीं रह सकता।' इसके अतिरिक्‍त परशुराम, द्रोण, कृपाचार्य और अश्‍वत्थामा विप्र धुरन्धरों के युद्धों को कौन नहीं जानता? इन पूर्वोक्‍त पुराण और महाभारतादि के वचनों और द्रोणादिक दृष्टांतों से ऐसा कहने वालों का मत निर्मूल हो गया कि यदि ब्राह्मण को युद्ध करना है भी तो केवल आपत्तिकाल में। क्योंकि द्रोणादि के ऊपर कौन-सी आपत्ति थी? और जब राजा का सेनापति ब्राह्मण ही हो सकता है, तब तो युद्ध ब्राह्मणों के लिए आपद्धर्म बतलाना नितान्त भूल है। किं बहुना, जब उनके लिए राज्य आपद्धर्म नहीं है कि तो युद्ध कैसे हो सकता है? अतएव मनुस्मृति में स्पष्ट रूप से 8वें अध्याय में लिखा है कि :

शस्त्रांद्विजातिभिर्ग्राह्यं धर्मोयत्रोपरुध्यते।

द्विजातीनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते॥ 348॥

आत्मनश्‍च परित्राणे दक्षिणानां च संगरे।

स्त्रीविप्राभ्युपपत्तौ च घ्नन्धार्मेण न दुष्यति॥ 349॥

कुल्लूकभट्ट ने भी टीका में साफ लिखा है कि 'ब्राह्मणाद्यैस्त्रिभिर्वर्णै:।' अर्थात 'जिस समय वर्णाश्रम धर्म में कोई विघ्न उपस्थित हो, कालवश ब्राह्मणादि वर्णों में परम युद्ध छिड़ जावे, अन्नादि द्वारा अपनी जीविका तथा शत्रु से रक्षा करने का अवसर हो, दक्षिणा में प्राप्त गौ प्रभृति को कोई छीनने लग जावे, अथवा चतुर लड़ाकों से काम पड़ जावे, तो ब्राह्मणादि तीनों वर्णवाले सभी युद्ध कर सकते हैं, और धर्म युद्ध से शत्रुओं को मारने में दोष भागी नहीं होते हैं।' इस पूर्वोक्‍त मनुवाक्य से जो बुद्धिमान ऐसा अर्थ निकालते हैं कि इतना अवसर गिनाने से युद्ध ब्राह्मण का आपद्धर्म सिद्ध होता है, उनकी बुद्धि की बलिहारी है। क्योंकि इतने ही तो अवसर युद्ध के लिए क्षत्रियों को भी पड़ते हैं। क्या उनके लिए व्यर्थ भी लड़ने की आज्ञा हैं? गिनाने का तात्पर्य तो केवल यह है कि जिसमें कोई भी वर्ण मनमाना हर घड़ी शस्त्रादि ले कर धूम न मचाता रहे।

इस प्रकार जब ब्राह्मण का शास्त्रोक्‍त धर्म युद्ध सिद्ध हो गया, तो जो कहीं-कहीं महाभारतादि में इसकी नाममात्र की कुछ निंदा आती है, उसका सामान्य रीति से युद्ध को निंदित ठहराने में तात्पर्य नहीं है। किंतु दशा विशेष के लिए है। अर्थात उसका मुख्य तात्पर्य यह है कि ब्राह्मण भी यह न समझ ले कि क्षत्रिय की तरह मेरा भी मुख्य धर्म युद्ध ही है। क्योंकि ऐसा समझने से अपने मुख्य धर्म वेदाभ्यास से वंचित हो जावेगा। जैसा जब कृषि, वाणिज्यादि को ब्राह्मणों का सनातन धर्म सिद्ध कर चुके हैं, तो उसके विषय में जो कुछ निंदा कहीं-कहीं आती है कि :

गोरक्षकान्वाणिजिकांस्तथकारुकुशीलवान।

प्रेष्यान्वाधरुषिकांश्‍चैव विप्राञ्‍शूद्रवदाचरेत्। 102॥ म. 8॥

कृषिकर्मरतो यश्‍च गवां च प्रतिपालक:।

वाणिज्यव्यवसायश्‍च स विप्रोवैश्यउच्यते। 378 अत्रिसंहिता।

अर्थात 'गोरक्षक, वाणिज्य करनेवाले, नट, दूत और सूदखोर ब्राह्मण के साथ गवाही के समय शूद्रवत व्यवहार करना चाहिए। कृषि करनेवाला, गोपालक और वाणिज्य करनेवाला ब्राह्मण वैश्य कहलाता है। इन सभी का तात्पर्य केवल अनापत्ति काल में अपने हाथ में (स्वयंकृत) कृषि, वाणिज्य, गोपालन और कुसीद (सूद का व्यवहार) करने में है। यानी अनापत्तिकाल में अपने हाथ से कृत्यादि करने में ब्राह्मण वैश्य या शूद्रवत हो सकता है, परंतु आपत्तिकाल में तो उसे करने से भी नहीं। क्योंकि अनापत्ति में अस्वयंकृत और आपत्ति में स्वयंकृत कृष्यादि का विधान पूर्वसिद्ध कर आए हैं, और विहित कर्म करने से कोई भी दोष भागी या नीच-ऊँच नहीं हो सकता।

अत: यह भी कथन, कि युद्धादि करने के कारण ही ये अयाचक ब्राह्मण अपने समाज में नीचे देखे जाने लगे, सर्वथा असंगत है। क्योंकि द्रोण और कृपाचार्य को कौन नीचा देखनेवाला था, है या होगा? इस प्रकार यदि कोई शास्त्रोक्‍त करने से समाज में हीन समझा जावे तो संध्या, अग्निहोत्रादि जो कुछ अवशिष्ट हैं वे भी रसातल को ही पहुँच जावे। यदि कोई ब्राह्मण सांसारिक झंझटों से उपराम हैं तो वह युद्धादि मत करे और उसके लिए वह उचित भी नहीं हैं। परंतु जो लोग सांसारिक पदार्थों से विरक्‍त न हो कर प्रतिष्ठा, राज्य और लक्ष्मी प्रभृति पदार्थों के अभिलाषी हैं, उनके लिए युद्ध क्यों उचित नहीं और वे उसे क्यों न करें एवं ऐसा करने से हीन क्यों समझे जावे? शास्त्रीय रीति से तो हमें इसमें कोई कारण दीख नहीं पड़ता। अत: निर्विवाद सिद्ध हैं कि इस प्रकार बहुत से अयाचक और याचक दलवाले भी ब्राह्मण युद्धादि द्वारा समय-समय पर राज्य और जमींदारी स्थापित करते और फलत: एक पृथक दलवाले बनते गए।

3 - अयाचक ब्राह्मणों के भूमिहार , त्यागी आदि विशेषण

यद्यपि यह वार्ता विविध प्रमाणों और युक्‍तियों से सिद्ध कर चुके हैं और अभी करेंगे भी कि प्रतिग्रहादि धर्मों से निवृत्त हो कर कृष्यादि द्वारा जीवन व्यतीत करना यही ब्राह्मणों का शास्त्रोचित उत्तम धर्म है तथापि 'रुचिनां वैचित्रयात' अपनी-अपनी रुचि विचित्र होती है, इस नियमानुसार सब लोग प्रतिग्रहादि से निवृत्त रहें यह बात कब होने की? जबकि शास्त्रों द्वारा अत्यन्त निषिद्ध और महान दंड योग्य चोरी, द्यूत, मद, हिंसा और व्यभिचारादि से ही लोग निवृत्त नहीं होते, प्रत्युत उन्हीं की संख्या अधिक है। क्योंकि 'दुरत्यया प्रकृति:' अर्थात प्रकृति मिट नहीं सकती। इसी से भगवान कृष्ण ने कहा है कि :

सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेज्र्ञानवानपि।

प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति॥ 3। 33॥

अर्थात 'जानकार (ज्ञानी) पुरुष भी उत्तम, मध्यम कार्यों के करने से नहीं रुक सकता, क्योंकि सभी प्राणी अपनी-अपनी प्रकृति (स्वभाव) के अधीन है, इसलिए वे रुक नहीं सकते।' भगवान श्री गौडपादाचार्य ने भी मांडूक्य कारिका में कहा है कि:

तभवत्यमृतं मर्त्यं न मर्त्यममृतं तथा।

प्रकृतेरन्यथा भावो न कथंविचद्‍भविष्यति (तृती. 21)॥

अर्थात 'जो अमर है उसका नाश नहीं हो सकता और जो नाश होनेवाला है वह अमर नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकृति (स्वभाव) का अन्यथभाव नहीं हो सकता।' तो फिर चाहे कैसे हुए हों, परंतु अन्ततोगत्वा जो शास्त्रोक्‍त धर्म प्रतिग्रहादि हैं उनमें भी लोगों की प्रवृत्ति क्यों न हो? बल्कि स्वभावत: मनुष्य आलसी होने के कारण जिसमें बिना कष्ट द्रव्यादि मिल जावे उसी का करना पसंद करते हैं, लोक-परलोक का विचार कौन करने लग जाता है? यदि कोई करता भी हैं तो विचार कर लेता है कि इसके लिए कुछ प्रायश्‍चित्तादि कर लेंगे। इसीलिए यद्यपि सकाम कर्मों की निंदा गीता, स्मृतियों एवं पुराणों में बहुत की गई है और साथ ही, निष्काम कर्मों की यहाँ तक प्रशंसा की गई है कि -

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥ गी. अ. 2। 40।

अर्थात 'थोड़ा भी निष्काम कर्म जन्म-मरण तक के महान भय को छुड़ा देता है।' तथापि यदि देखा जावे तो 99 प्रति सैकड़े सकाम कर्मों के ही करनेवाले हैं और निष्काम कर्म को करनेवाला तो बड़े क्लेश से एक भी नहीं मिल सकता। इसीलिए यह भी शंका करना मूर्खता मात्र है कि यदि प्रतिग्रह को अनुचित समझ सभी दानत्यागी ही हो जावे तो दान कौन लेगा? क्योंकि प्रकृति दुरत्यया है। इसलिए सभी दान लेनेवालों को शास्त्र नहीं हटा सकता।

इससे यह सिद्ध हो गया कि सृष्टि के प्रारंभ से ही दो प्रकार के धर्म ब्राह्मणों के चले आते हैं - (1) प्रवृत्ति अर्थात प्रतिग्रह, यजनादि द्वारा जीवन व्यतीत करना, (2) निवृत्ति अर्थात प्रतिग्रहादि के त्यागपूर्वक शिल, उञ्‍छ, वाणिज्य, कृष्यादि द्वाराजीविका करना। तदनुसार ही ब्राह्मण भी दो प्रकार के तभी से होते आए हैं - (1) प्रवृत्त अर्थात्प्रतिग्रहादि में प्रवृत्तिपूर्वक जीवन बितानेवाले, जिन्हें याचक भी कह सकते हैं, (2) निवृत्त अर्थात प्रतिग्रहादि की निवृत्तिपूर्वक शिल, उञ्‍छ, कृष्यादि द्वारा यथासंभव जीवन व्यतीत करनेवाले, जिन्हें अयाचक भी कह सकते हैं और इसी दल के प्रकृत भूमिहार ब्राह्मण भी है। यद्यपि अयाचक दल में सभी याचक ही नहीं है, किंतु आजकल बहुत से अयाचक भी है, एवं अयाचक दल में बहुत से याचक हैं।1 क्योंकि जैसा कि आगे दिखलाया जावेगा कि 'बहुत से अयाचक ब्राह्मणों का याचक दल के मैथिल, कान्यकुब्ज, सर्यूपारी, गौड़ आदि से विवाह सम्बन्ध हैं। यद्यपि साक्षात तो जो याचकदल में भी इस समय अयाचक हैं, उन्हीं के साथ हैं, तथापि उनका पुन: याचकों के साथ होने से परम्परया मिल जाता है। तो भी इस अयाचक ब्राह्मण दल में प्राधान्य अथवा आधिक्य अयाचकों का ही है और याचक (पुरोहित) दल में याचकों का ही और उसमें बहुत से अयाचक समय पा कर अभी हाल में धन के कारण हो गए हैं। हमने इस ग्रन्थ में'भूयसा हि व्यपदेशा भवंति' अर्थात जिस दल में जो अधिक होता है उसी के नाम से उसका व्यवहार होता है, जैसे जिस ग्राम में ब्राह्मण अधिक होते हैं वह ब्राह्मणों का ग्राम कहलाता है। इस महाभाष्योक्‍त न्यायानुसार पुरोहित दल से विशेष मिले हुए अर्थात भूमिहार, त्यागी, पश्‍चिम, जमींदारादि ब्राह्मणों से अतिरिक्‍त ब्राह्मणों का याचक

1. हजारीबाग के इटखोरी और चतरा थाने के 8-10 कोस में बहुत से भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ और माहुरी आदि की पुरोहिती सैकड़ों वर्ष से करते चले आ रहे हैं और गजरौला, ताँसीपुर के त्यागी राजपूतों की।

पद से व्यवहार किया है और भूमिहारादि ब्राह्मणों का अयाचक पद से और यही उचित भी है, जैसा कि दिखला चुके हैं और वृद्ध लोग करते भी आए हैं। इसलिए दोनों दल के ब्राह्मणों के लिए क्रमश: याचक और अयाचक शब्द इस ग्रन्थ के ही लिए नहीं, किंतु बाहर भी प्रयोग करने के लिए हैं और किए जाने चाहिए।

इसी से इन्हीं दो प्रकार के ब्राह्मणों और इनके धर्मों के विचार से मनु जी ने भी दो प्रकार के कर्म बतलाए हैं जैसा कि :

सुखाभ्युदयिकं चैव नैश्रेयसिकमेव च।

प्रवृत्तां च निवृत्तां च द्विविधां कर्म वैदिकम्॥ 88॥

इहचामुत्रा च काम्यं प्रवृत्तां कर्म करीत्यते।

निष्कामं ज्ञानपूर्वं तु निवृत्तमुपदिश्यते॥ 89॥

अकामोपहतं नित्यं निवृत्तां च विधीयते।

कामतस्तु कृतं कर्म प्रवृत्तमुपदिश्यते॥ मनु. अ.। 12॥

अर्थात 'स्वर्गादि सांसारिक सुख, ब्रह्म लोकादि और परम्परया मुक्‍ति प्राप्त करानेवाले कर्म दो प्रकार के होते हैं ─ (1) प्रवृत्त, (2) निवृत्त। पूर्वोक्‍त स्वर्ग, पुत्र एवं धनादि सांसारिक वस्तु तथा ब्रह्मलोकादि की कामनापूर्वक जो कर्म प्रतिग्रह, याजन तथा यज्ञादि किए जाते हैं, वे प्रवृत्त कहलाते हैं और पूर्वोक्‍त सुख तथा तदर्थक कर्मों में दोष ज्ञान द्वारा जो निष्काम शिल, उञ्‍छ, कृष्यादि से जीवित कर के किए जाते हैं, वे निवृत्त कहलाते हैं। धानादि की कामना छोड़ कर केवल धर्म बुद्धि से धर्मार्थ (धर्मसाधानार्थ) जो कर्म किए जाते हैं वे निवृत्त कहलाते और जो धर्म का विचार न कर के केवल धनादि के लिए प्रतिग्रहादि किए जाते हैं प्रवृत्त कर्म कहलाते हैं।' अग्नि पुराण में इसी अभिप्राय का प्राय: यही श्‍लोक हैं जैसे :

प्रवृत्तं च निवृत्तं च द्विविधं कर्म वैदिकम्।

काम्यं कर्म प्रवृत्तां स्यान्निवृत्तां ज्ञानपूर्वकम्॥ 16। 24॥

देवलस्मृति में इसको स्पष्ट रूप से कह दिया है कि :

द्विविधो गृहस्थो यायावर:शालीनश्‍च। तयोर्यायावर: प्रवरो यजनाध्यापनप्रति-ग्रहरिक्थसंचयवर्जनात्। षट्कर्माधिष्ठित:प्रेष्य चतुष्पदगृहग्राम धनधान्ययुक्तोलोकानुत्तरीशालीन:।

अर्थ यह है कि 'ब्राह्मणादि गृहस्थ दो प्रकार के होते हैं - (1) शालीन, (2) यायावर। इन दोनों में से यायावर श्रेष्ठ होता है, क्योंकि वह याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह द्वारा धन संचय नहीं करता। (किंतु अन्य कृष्यादि उपायों द्वारा) और जो यजनादि अथवा ऋत, अमृतादि षट्कर्मों का करनेवाला और नौकर-चाकर, पशु, गृह, ग्राम (जमींदारी), धन और धान्य युक्‍त हो उसे शालीन कहते हैं।' इससे स्पष्ट ही हैं कि यजनादि करने से ब्राह्मण हीन हो जाता है और पशुपालन तथा जमींदारी आदि भी करना ब्राह्मण का शास्त्रीय धर्म है। साथ ही, यह भी स्पष्ट है कि यजनादि करने और न करनेवाले, किंतु कृष्यादि करनेवाले ये दो प्रकार के ब्राह्मण अनादिकाल से ही चले आते हैं। इसीलिए वैशेषिक दर्शन के भाष्य में महर्षि प्रशस्त पाद ने धर्म निरूपण प्रकरण में स्पष्ट ही कह दिया है कि :

विद्याव्रतस्नातकस्यकृतदारस्यशालीनयायावरवृत्तयुपार्जितैरथैर्मंनुष्यभूतदेवपितृब्रह्माख्यानां महायज्ञानां सायम्प्रातरनुष्ठनम्।

अर्थात 'जिस ब्राह्मण या क्षत्रियादि गृहस्थ ने ब्रह्मचर्य के नियमों की समाप्तिपूर्वक विवाह किया है, उसे पूर्वोक्‍त शालीन अथवा यायावर की वृत्ति से धानोपार्जन कर उसी से प्रतिदिन सायंकाल और प्रात:काल मनुष्य, भूत, देव, पितृ और ब्रह्म (वेद) इन पाँचों के निमित्त पाँच महायज्ञ करने चाहिए।' इससे शालीन और यायावर ये दो प्रकार के ब्राह्मण सिद्ध होते हैं।

यद्यपि पूर्वोक्‍त देवलस्मृति में यायावर के लिए केवल प्रतिग्रहादि का निषेध ही स्पष्ट रूप से दिखलाया है और कृष्यादि का नाम नहीं लिया है, परंतु शालीन का पशुपालन और जमींदारी आदि करना स्पष्ट शब्दों में कहा है। तथापि प्रतिग्रहादि के त्यागने पर अवश्य ही मनुस्मृति के चतुर्थाध्यायोक्‍त उंछ, शिल और कृष्यादि करने पड़ेंगे। साथ ही, समय पा कर शालीन की वृत्तियाँ भी जमींदारी प्रभृति यायावरों के हाथ में जा सकती हैं, या चली गईं। क्योंकि समय-समय पर वृत्तियों या हर प्रकार के धर्मों का विनिमय (उलट-फेर) हुआ ही करता है, यह प्रकृति का दृढ़तम नियम है। इसीलिए संप्रति ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन सभी की वृत्तियाँ (जीविकाएँ) प्राय: एक-सी हो गई है और जिस सेवावृत्ति (नौकरी) का ब्राह्मण के लिए अत्यन्त निषेध है और था, आज वे प्राय: उसी के करनेवाले पाए जाते हैं। इसलिए यायावर ब्राह्मण प्रतिग्रह त्यागी और कृषक हो गए, एवं शालीन प्रतिग्रहादि करनेवाले तथा कृषक हो गए। जो बात आज भी अयाचक ब्राह्मणों और याचक (पुरोहित दल के) ब्राह्मणों में स्पष्ट रूप से पाई जाती है। क्योंकि कृषि दोनों ही करते हैं, परंतु एक (अयाचक या भूमिहार, त्यागी आदि) प्रतिग्रहादि से रहित हैं और दूसरे (याचक) प्रतिग्रहादि करनेवाले हैं। इससे स्पष्ट है कि प्राय: सभी अयाचक दल के ब्राह्मण देवलस्मृत्युक्‍त यायावर ब्राह्मण हैं और याचक (पुरोहित) ब्राह्मण शालीन ब्राह्मण हैं।

अथवा यों भी कह सकते हैं कि शालीन ब्राह्मण के लक्षण में जो यह लिखा है कि 'षट्कर्माधिष्ठित:' अर्थात षट् कर्मों का करनेवाला। उसके दो अर्थ हो सकते हैं, एक तो यह कि यजनादि षट् कर्मों का कर्ता और दूसरा यह कि उञ्‍छ, शिलादि षट्कर्मों का कर्ता। क्योंकि पूर्व ग्रन्थ में ही यह सिद्ध कर चुके हैं कि यजनादि भी शास्त्रों में षट् कर्म कहे जाते हैं और उञ्‍छ, शिलादि भी, और दोनों के करनेवाले ही षट्कर्मा कहे जाते हैं। इसलिए शालीन ब्राह्मणों में ही दो भेद सिद्ध हो गए, एक तो उञ्‍छ, शिल, कृष्यादि पूर्वक जमींदारी और पशुपालन के करनेवाले जो कि संप्रति प्राय: अयाचक (त्यागी, भूमिहार, पश्‍चिमदि) ब्राह्मण कहे जाते हैं, और दूसरे प्रतिग्रहादि पूर्वक पशुपालनादि करनेवाले, जो कि संप्रति याचक (पुरोहित) ब्राह्मण कहे जाते हैं। अत: यह तो निर्विवाद रूप से देवलस्मृति से ही सिद्ध हो गया है कि पुरोहित दलवाले ब्राह्मण शालीन कहलाते हैं और इस अयाचक दल के ब्राह्मण यायावर संज्ञक ब्राह्मण हैं। अथवा दो प्रकार के पूर्व निर्दिष्ट शालीन ब्राह्मणों में से ही हैं। साथ ही, याचक और अयाचक दो प्रकार के ब्राह्मण सिद्ध हो गए।

अथर्ववेदांतर्गत आश्रमोपनिषद, अथवा कात्यायनस्मृति के देखने से भी यही वार्त्ता सिद्ध होती है, केवल संज्ञाओं में भेद पाया जाता है। क्योंकि लिखा है कि :

गृहस्था अपि चतुर्विधा भवंति, वार्त्ताकवृत्ताय: शालीनवृत्तायो यायावरा घोरसान्यासिकाश्‍चेति। तत्रा वार्त्ताकवृत्ताय: कृषिगोरक्ष्य-वाणिज्यमगर्वितमुपयुञ्‍जानाश्शत-सम्वत्सराभि: क्रियाभिर्यजन्त आत्मानं प्रार्थयन्ते। शालीनवृत्तायो यजन्तो न याजयन्तोधीयाना नाध्यापयन्तो ददतो न प्रतिगृह्‍णत: शतसंवत्सराभि: क्रियाभिर्यजन्त आत्मानं प्रार्थयन्ते। यायावरा यजन्तो याजयन्तोधीयाना अध्यापयन्तो ददत: प्रतिगृह्‍णत: शतसंवत्सराभि: क्रियाभिर्यजन्त आत्मानं प्रार्थयन्ते। घोरसांन्यासिका उद्धृतपरिपूताभिरदि्भ कार्यं कुर्वन्त: प्रतिदिवसमास्तृतोञ्‍छवृत्तिमुपयुञ्‍जाना: शतसंत्सराभि: क्रियाभिर्यजन्त आत्मन प्रार्थयन्ते॥

इस वचन को स्वामी परमानन्द तीर्थ अथवा स्वामी महादेवानन्द तीर्थ ने 'यतिधर्म निर्णय' ग्रन्थ में अथर्ववेद के आश्रमोपनिषद का बताया है। परंतु पंडितवर श्रीराम मिश्र शास्त्री ने अपने 'तुरीयमीमांसा' नामक ग्रन्थ में कात्यायनस्मृति का बताया है। एक नाम वाली लघु तथा बृहत् वगैरह कितनी ही स्मृतियाँ और संहिताएँ हैं, जैसे लघुविष्णुस्मृति और विष्णुस्मृति प्रभृति और एक ग्रन्थ के वाक्य दूसरे ग्रन्थों में भी पाए जाते हैं, जैसा कि प्रथम 'ऋतामृताभ्यां' इस श्‍लोक को मनुस्मृति और अग्निपुराण दोनों में दिखला चुके हैं। इसलिए कोई विरोध नहीं हो सकता। अस्तु, पूर्वोक्‍त उस वचन का अर्थ यह है कि 'ब्राह्मणादि गृहस्थ भी चार प्रकार के होते हैं-(1) वार्त्ताकवृत्ति, (2) शालीनवृत्ति, (3) यायावर, और (4) घोर सांन्यासिक। उनमें से वार्त्ताक वृत्ति उनका नाम हैं जो अनिंदित अर्थात अस्वयंकृत कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य करते हुए सैकड़ों वर्ष में समाप्त होनेवाले यज्ञों द्वारा अन्त:करण को शुद्ध कर के आत्मज्ञान की इच्छा करते हैं। जो यज्ञ करते हैं, परंतु करवाते नहीं, अध्यायन करते हैं, परंतु अध्यापन नहीं करते और दान देते हैं, परंतु लेते नहीं और पूर्वोक्‍त बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा आत्मज्ञान की इच्छा करते हैं, वे शालीन वृत्ति कहलाते हैं। जो यजन, यजनादि षट्कर्म कर के पूर्वोक्‍त बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा आत्मज्ञान की अभिलाषा करते हैं, उन्हें यायावर कहते हैं और घोर सांन्यासिक वे हैं जो कूप या नदी से जल निकाल उसे शुद्ध कर उसी से नित्यक्रियादि करते हुए प्रतिदिन उञ्‍छ वृत्ति से जीविका करते और उन यज्ञों द्वारा आत्मज्ञान चाहते हैं।'

इससे सिद्ध हैं कि केवल यायावर संज्ञक ब्राह्मण प्रतिग्रहादि करते हैं और शालीनवृत्ति, वार्त्ताकवृत्ति एवं घोर सांन्यासिक ये तीनों प्रतिग्रहादि का नाम न ले कर केवल कृष्यादि द्वारा जीवन व्यतीत करते हैं। यद्यपि देवलस्मृति में प्रतिग्रह शालीन का धर्म और यायावर का धर्म उसका त्याग कहा है, परंतु यहाँ उसके विपरीत शालीन को ही प्रतिग्रह त्यागी और यायावर को प्रतिग्राही कहते हैं। तथापि संज्ञा में विवाद होने पर भी धर्म में विवाद नहीं हैं, जिससे अयाचक और याचक ये दो प्रकार के ब्राह्मण निर्विवाद सिद्ध हो गए। जिनका धर्म यह है कि याचक प्रतिग्राही और अयाचक उसका त्याग कर के कृष्यादि द्वारा अपनी जीविका करते हैं, जिन्हीं अयाचकों में से यह भूमिहारादि ब्राह्मण हैं, जिन्हें यायावर या शालीन भी प्रथम ही सिद्ध कर आए हैं।

इसी विषय को साफ शब्दों में महाभारत के शांतिपर्वान्तर्गत मोक्षधर्मपर्व के 199 अध्याय में राजा इक्ष्वाकु और एक अयाचक ब्राह्मण के संवाद द्वारा दिखलाते हुए प्रतिग्रह को बहुत ही हीन बतलाया हैं, जैसा कि :

ब्राह्मणो जापक: कश्‍चिद्धर्मवृत्तो महायशा:।

षडंगविन्महाप्राज्ञ: पैप्पलादि: स कोशिक:॥ 4॥

तस्यापरोक्षं विज्ञानं षडंगेषु बभूव ह।

वेदेषु चैव निष्णातो हिमवत्पादसंश्रय:॥ 5॥

सो न्त्यं ब्राह्मणं तपस्तेपे संहितां संयतो जपन।

तस्य वर्षसहस्त्रान्तु नियमेन तथा गतम्।

स देव्या दर्शित: साक्षात्प्रीतास्मीति तदा किल॥ 7॥

अथ वैवस्वत: कालो मृत्युश्‍च त्रितयं विभो।

ब्राह्मणं तं महाभागमुपागम्येदब्रुवन॥ 28॥

तस्मिन्नेवाथ काले तु तीर्थयात्रामुपागत:।

इक्ष्वाकुरगमत्तात्रा समेता यत्रा ते विभो॥ 34॥

सर्वानेव तु राजर्षि: संपूज्यार्थ प्रणम्य च।

कुशलप्रश्‍नमकरोत्सर्वेषां राजसत्ताम:॥ 35॥

राजोवाच! राजाहं ब्राह्मणश्‍च त्वं यदा षटकर्म संस्थित:।

ददानि वसु किंचिते प्रथितं तद्वदस्व मे॥ 38॥

ब्राह्मणउवाच। द्विविधाब्राह्मणाराजन्धार्मश्‍चद्विविधा: स्मृत।

प्रवृत्तश्‍च निवृतोश्‍च निवृतोहं प्रतिग्रहात्॥ 39॥

तेभ्य: प्रयच्छ दानानि ये प्रवृत्त नराधिप।

अहं न प्रतिगृह्‍णामि किभिष्टं किं ददामि ते॥ 40॥

बाल्ये यदि स्यादज्ञानान्मया हस्त: प्रसारित:।

निवृत्तिलक्षणं धर्मपुमासे संहितां जपन॥ 78॥

निवृत्तां मां चिराद्राजन विप्रलोभयसे कथम्।

स्वेन कार्यं करिष्यामि त्वत्तो नेच्छे फलं नृप॥

तप:स्वाध्यायशीलो हं निवृत्तश्‍च प्रतिग्रहात्॥ 79॥

अर्थ यह है कि 'पिप्पलाद ऋषि का पुत्र कौशिक गोत्री एक ब्राह्मण था, जो बहुत ही धर्मात्मा, यशस्वी, महाबुद्धिमान और षडंगों का ज्ञाता, एवं चारों वेदों की संहिताओं को जपने (पढ़ने) वाला था। उसे षडंग विषयक अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) ज्ञान था और चारों वेदों में भी कुशल हो कर हिमालय की तराई में वह रहता था। वह पवित्रता पूर्वक संहिता का जप करता हुआ वेदाध्यायन कालिक कठिन तपस्या करता था। इस प्रकार से नियमपूर्वक उसके सहस्र वर्ष व्यतीत हो गए। इस पर प्रसन्न हो कर सरस्वती ने उसे दर्शन दिया और मैं प्रसन्न हूँ ऐसा कहा। इसके बाद यम,काल और मृत्यु ये तीनों उसके पास आ उससे अपने-अपने आने का प्रयोजन कहने लगे। इसी समय तीर्थयात्रार्थ पर्यटन करते हुए राजा इक्ष्वाकु उसी जगह आ गए जहाँ पर वे सब एकत्रित थे। राजर्षि इक्ष्वाकु ने सभी को नमस्कार कर पूजा कर के पुन: उनसे कुशलप्रश्‍न इत्यादि किया। फिर राजा ने उस तपस्वी ब्राह्मण से कहा कि मैं राजा हूँ और आपषट्कर्म करनेवाले ब्राह्मण हैं; इसलिए आपको कुछ धन देने की इच्छा है। जो आपकी इच्छा हो सो कहिए। ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि हे राजन! प्रतिग्रहादि लेने में प्रवृत्ति और उनसे निवृत्ति ये दो प्रकार के धर्म ब्राह्मणों के हैं, इसलिए ब्राह्मण भी तदनुसार ही दो प्रकार के होते हैं। एक प्रतिग्रहादि में प्रवृत्त और दूसरे उनसे निवृत्त, उनमें से मुझे प्रतिग्रहादि से निवृत्त जानिए। इसलिए दान उन ब्राह्मणों को दीजिए जो प्रतिग्रहादि में प्रवृत्त हैं, मैं प्रतिग्रह नहीं कर सकता। हाँ आपको क्या चाहिए जो दूँ। यदि मैंने संभवत: बाल्यावस्था में भूल कर हाथ पसार दिए हों (दान लिया हो) तो पसार दिए, परंतु अब वेदों की संहिताओं का पाठ करता हूँ। इसीलिए धर्मसेवन करता हूँ। हे राजन! मैं बहुत काल से निवृत्ति रूप धर्म का ज्ञाता हो कर प्रतिग्रहादि से निवृत्ति रूप धर्म का सेवन करता हूँ। अत: मुझे क्या लालच दिखाते हो? मैं अपने ही सामर्थ्य से उपार्जित अन्नादि द्वारा शरीर यात्रा करनेवाले हूँ, आपसे कुछ नहीं चाहता। मैं तो केवल तपस्या करने और वेदादि पढ़नेवाला हूँ और प्रतिग्रह से निवृत्त हूँ।'

इस संपूर्ण कथन का सारांश यह है कि अयाचक और याचक ये दो प्रकार के ब्राह्मण सर्वदा से होते चले आए हैं। उनमें से याचक तो प्रतिग्रहादि अवश्य करते थे, परंतु कृष्यादि करते थे और न भी करते थे। लेकिन अयाचक दलवाले तो प्रतिग्रहादि को गर्वित समझ कृषि, वाणिज्यादि द्वारा ही अपनी जीविका करते थे और करते हैं। साथ ही, जैसे अयाचक लोग शास्त्रभ्यास करते थे वैसे ही अयाचक दलवाले भी। जिन्हीं में से हमारे यह पश्‍चिम, भूमिहारादि ब्राह्मण हैं। उन दिनों इन अयाचक ब्राह्मणों में त्यागी, पूर्ण शक्‍ति थी कि कृष्यादि भी करवाते और वेदाध्यायनादि भी करते थे। इसलिए बोधयनस्मृति में पंचमाध्याय में लिखा हुआ है कि :

वेद: कृषिविनाशाय कृषिर्वेदविनाशिनी।

शक्‍तिमाननभयम् कुर्यादशक्‍तस्तु कृषिं त्यजेत्। 101 प्र. 1।

अर्थात 'निरंतर वेदाभ्यास कृषि का विरोधी है और निरंतर कृषि भी वेद की विरोधिनी है, इसलिए अपने-अपने समय पर यदि दोनों को साथ करने की सामर्थ्य हो तो साथ-साथ करे। परंतु दोनों के एक साथ निबाह सकने की शक्‍ति यदि न हो तो ऐसी दशा में वेद के लोभ से कृषि का परित्याग भले ही कर दे।' इसीलिए उस स्मृति के तृतीय प्रश्‍न के प्रथमाध्याय में भी 9 वृत्तियों को गिना कर द्वितीयाध्याय में उनका लक्षण करते हुए स्पष्ट रूप से कृषि का विधान किया है। यदि बिलकुल ही कृषि वेदाभ्यास की विरोधिनी होती तो इससे पूर्व वेदाभ्यासादि पंचमहायज्ञों के विषय में अर्थ मे पंचमहायज्ञा: अर्थात अब इन स्वाध्याय (वेदाभ्यास) प्रभृति महायज्ञों को कहेंगे, ऐसा कह कर कभी भी कृष्यादि का निरूपण न करते। परंतु वे तो स्पष्ट लिखते हैं कि:

ता अनुव्याख्यास्याम:॥ 6॥ षण्नरिवर्त्तनी, कौद्‍दाली, धु्रवा, संप्रक्षालनी, समूह, पालनी, शिलोञ्‍छा, कापोता, सिद्धेच्छेति नवैता:। 7। तृतीयप्रश्नेप्रथमाध्याय:॥ कौद्‍दालीति।6। जलाभ्याशे कुद्‍दालेन वा फालेन वा तीक्ष्णकाष्ठेन वा खनति वीजान्यावपति॥ 7॥ कन्दमूलफलशाकौषधीर्निष्पादयति। 8। कुद्‍दालेनकरोतीति कौद्‍दाली॥ 9॥ तृतीयेप्रश्नेद्वितीया.॥

अर्थ यह है कि 'अब यायावर तथा शालीन प्रभृति की वृत्तियों (जीविकाओं) का निरूपण करते हैं। वे षण्नरिवर्त्तनी, कौद्‍दाली, धारुवा, संप्रक्षालनी, समूहा, पालनी, शिलोञ्‍छा, कापोता और सिद्धेच्छा ये नौ हैं। उनमें से कौद्‍दाली वृत्ति यह है कि जल के समीप (बीज बोने योग्य गीली भूमि में) कुदाल, फाल या चोखे काष्ठ से खोदना (भूमि जोतना) और बीज बो कर कंद मूल, फल, शाक और अन्नादि को उत्पन्न करना। यह काम कुदाल प्रभृति से ही होता है, इसलिए इस जीविका का नाम कौद्‍दाली है' उसी जगह शालीन और यायावर का अर्थ कर के ये वृत्तियाँ गिनाई गई है। वे लिखते हैं कि शालाश्रयत्वाच्छालीनत्वम्। 3। प्यावरयायातीति यायावरत्वम्। 4। अर्थात 'जो बड़े-बड़े प्रासादों में निवास करे उसे शालीन कहते हैं, और कौद्‍दाली आदि श्रेष्ठ वृत्तियों द्वारा जो जीवन व्यतीत करता है उसे यायावर कहते हैं।

इसी प्रकार याचक ब्राह्मण की प्रतिग्रहादि के साथ कृष्यादि भी करते हुए, या केवल प्रतिग्रहादि करते हुए वेदाभ्यास से चुकते न थे। बहुत दिनों क्या युग-युगांतरों तक यही बात होती रही। परंतु कालक्रम से दोनों दलों में वेदादि के अभ्यास का ह्रास होने लगा। परंतु प्रतिग्रहादि तथा कृष्यादि बिना शरीर स्थित ही नहीं हो सकती थी, इसलिए उसका ह्रास या त्याग असंभव था। हाँ उसमें भी कुछ-न-कुछ उलट-फेर अवश्य होने लगा। जहाँ लोग दो-चार बैलों के हल को अनुचित तथा महापाप समझते थे वहाँ उसे ही उचित समझने लगे। आज तक अयाचक (त्यागी, भूमिहारादि) और याचक (पुरोहित) दोनों दलों में ही दो बैलों द्वारा हल का चलाया जाना उसी वेद-शास्त्रादि के अनभ्यास मूलक धर्म के अज्ञान में प्रमाण हो रहा है। साथ ही, ब्राह्मणों की आज तक सेवावृत्ति (नौकरी) ये स्वाभाविक प्रवृत्ति भी उसी शास्त्र के सम्यक ज्ञानाभाव को सूचित कर रही है, जिससे अब धर्मज्ञान होने पर भी वह पड़ा हुआ स्वाभाविक अभ्यास नहीं छूटता। यहाँ पर यह बात भी भूलना न चाहिए कि अयाचकों तथा याचकों का सम्बन्ध प्रथम से ले कर उस समय तक भी घनिष्ठ था और परस्पर विवाह सम्बन्ध तथा खान-पान प्राय: हुआ करते थे। कुछ भी रोक-टोक न हो कर यह वार्ता प्रत्येक की इच्छा पर निर्भर थी, न कि आजकल की तरह सब सम्बन्ध बहुत ढीला हो रहा था। हाँ कुछ-कुछ मतभेद के विचार इस विषय में अवश्य उठ रहे थे जो आज बहुत बढ़ गए हैं और उन्होंने परस्पर के सम्बन्ध को बहुत स्थलों में अधिक ढीला कर दिया और बहुतेरी जगहों में तो उसका अभाव ही कर दिया है और करना चाहते हैं। इसी समय लोग यथार्थ धर्मज्ञान न होने के कारण धनोपार्जन तथा जीविका के लिए अन्यन्य उपायों का भी अवलंबन करने लग गए।

यह बात मनु भगवान के बाद की और पौराणिक काल और बौद्ध काल से पूर्व तथा मुसलमानों को बाद के समय तक की है। इस विषय को अनेक ग्रीक, पालि तथा जैन ऐतिहासिक ग्रन्थों के (क्योंकि हम लोगों का लिखा इतिहास उस समय का मिलता ही नहीं), एवं प्राचीन शिला लेखादि के आधार पर बहुत से अंग्रेजी विद्वानों ने इस प्रकार लिखा है कि :

जे. डब्ल्यू. मेक क्रिंडिल एम. ए. (J.W. Mc Crindle M.A.) ने अपनी 'प्राचीन भारत' (Ancient India) नामक अंग्रेजी पुस्तक में मेगस्थनीज और एरियन (Megasthenes and Arrian) नामक यूनानी (ग्रीक) यात्रियों के सन ईस्वी से लगभग 300 वर्ष पूर्व के भारतीय जाति विवरण का अनुवाद 136 पृष्ठ में इस प्रकार किया है कि:

For among the more civilized Indian communities life is spent in great variety of separate occupations. Some till the soil; some are soldiers; some traders; the noblest and the richest take part in the direction of state affairs, administer justice, and sit in council with the kings. A fifth class devotes itself to the philosophy prevalent in the country, which almost assumes the form of a religion and the members always put an end to their lives by a voluntary death on a burning funeral pile.

इसका मर्मानुवाद यह है कि 'क्योंकि बहुत ही शिक्षित भारतवासी अपने जीवन को विविध प्रकार के भिन्न व्यापारों में बिताते हैं। कोई जमीन जोतते अर्थात कृषि करते हैं, कोई सिपाही और व्यापारी (वाणिज्यकर्त्ता) होते हैं और जो सबसे धनी और श्रेष्ठ हैं वे राज्य के सुधार में लगे रहते, न्याय करते और राजा के साथ राजसभा में बैठते हैं। एक पाँचवाँ दल हैं जो उन दर्शनों (धर्मशास्त्र और ज्योतिषादि) में संलग्न रहता हैं जो इस समय देश में प्रचलित हैं और धार्मिक कार्य का एक अंश माने जाते हैं। समाज के बहुत से लोग सर्वदा स्वच्छंदतापूर्वक जलती चिता पर आरूढ़ हो कर प्राणांत करते हैं।'

उसी पुस्तक के 83वें पृष्ठ में लिखा है कि :

The philosophers are first in rank, but form the smallest class in point of number. Their services are employed privately by persons who wish to offer sacrifices or perform other sacred rites, and also publically by the king at what is called the great Synod, where-in at the begining of the new year all the philosophers are gathered to gether before the kings at the gates, when any philosopher, who may have committed any useful suggestion to writing or abserved any means for improving the crops and cattle, of promoting the public interests, declares it publically.

इसका भाव यह है कि 'इस समय दार्शनिकों (मन्त्र, तन्त्र और ज्योतिषादि के ज्ञाताओं) का दर्जा सबसे ऊँचा हैं, परंतु वे संख्या में सबसे कम है। उनका काम विशेष रूप से उन लोगों के यहाँ पड़ता है, जो कुछ पूजा या धार्मिक कार्य करना चाहते हैं एवं सर्वसाधारण रूप से राजा के यहाँ भी उन धर्म सभाओं में उनका काम पड़ा करता है जिनमें वर्ष के प्रारंभ में सभी दार्शनिक राजा के सामने राजद्वार पर एकत्रित किए जाते हैं। उस समय कोई भी दार्शनिक, जो लेख के लिए कोई उपयोगी बात सोचे होता, सर्वसाधारण की कृषि या पशुओं की उन्नति का कोई साधन विचारे होता, अथवा किसी भी सर्वसाधारण के हित को विचारे होता है, उसे सर्वसाधारण के संमुख वर्णन करता है।' इससे स्पष्ट है कि सन ईस्वी से 300 वर्ष पूर्व केवल पुरोहिती आदि से जीविका करने वालों की संख्या बहुत ही कम थी और ब्राह्मणादि राज-काज, कृषि, वाणिज्यादि में बहुत ही प्रवृत्त थे। साथ ही, वेदादि का अभ्यास इतना कम हो रहा था कि पुरोहिती करने और मन्त्र, तन्त्रादि जाननेवालों को भी दार्शनिक कहा करते थे।

महाराज श्री काशिराज की जो वक्तृता सभापति के रूप में काशी में होनेवाली भूमिहार ब्राह्मण महासभा में यूनानी यात्री अरस्तू (Aristotle) या किसी अन्य और फाह्यान (Fahian) नामक चीनी यात्री इन दोनों के लेखों के आधार पर सन 1900 ई. में हुई थी, वह भी इस सिद्धांत को पुष्ट करती है। वह इस प्रकार हैं :

In the year 331 B. C. Aristotle visited India in company of Alexandar the Great, and he wrote that, now the ideas about castes and profession, which have been prevalent in Hindustan for a very long time, are gradually dying out, and the Brahmans, neglecting their education,...live by cultivating the land and acquiring the territorial possessions, which is the duty of Kshatriyas. If things go on in this way, then instead of being (विद्यापति) i.e. Master of learning, they will become (भूमिपति) i.e. Master of land.

अर्थात 'सन इस्वी से 331 वर्ष पूर्व सिकंदर बादशाह के साथ अरस्तू भी भारतवर्ष में आया था। उसने उस समय भारतवर्ष में घूम कर ऐसा लिखा है कि जो बंधन जाति और उसके कर्म विषयक भारतवर्ष में बहुत दिनों से प्रचलित थे, वे अब धीरे-धीरे ढीले होते जाते हैं और ब्राह्मण लोग विद्या विमुख हो पुरोहिती वृत्ति छोड़ कर कृषि और राज्यादि द्वारा अपना जीवन बिताते हैं जो क्षत्रियों के कर्म समझे जाते हैं। यदि यही दशा रही तो ये लोग विद्यापति होने के बदले भूमिपति हो जावेंगे।' इसी प्रकार :

In the year 399 A.D. a Chinese traveller named Fahian came to India, and he wrote in his book on travles, after giving vivid description of Magadha, that owing to the families of the Kshatriyas being almost extinct, great disorder has crept in. The Brahmans having given up asceticism...are ruling here and there in the place of Kshatriyas, and are called 'Sang he Kang', which has been translated by professor Hoffman as 'Land seizer'.

अर्थात 'सन 399 ईस्वी में फाह्यान नाम का जो चीनी यात्री भारतवर्ष में आया था, उसने अपने भ्रमण वृत्तांत में मगध देश का वृत्तांत वर्णन करते हुए लिखा है कि इस देश में क्षत्रिय वंशों के नष्टप्राय हो जाने से बहुत ही गड़बड़ी मच गई है। ब्राह्मण लोग दान ग्रहण रूप अपना निजी कर्म छोड़ कर क्षत्रियों की जगह राज्य करते और 'सांग हे कांग' कहे जाते हैं। जिसका अनुवाद प्रोफेसर 'हाफमन' (Hoffman) ने भूमि छीननेवाला (land seizer) किया है।'

इससे यह भी सिद्ध है कि कम-से-कम दो सहस्र वर्षों से तो अवश्य ही अयाचक ब्राह्मणों में बहुतेरों की संज्ञा भूमिपति या भूम्यधिकारी है। क्योंकि 'लैंड सीजर' (Land seizer) शब्द का अर्थ भूमि पर अधिकार जमा लेनेवाला अर्थात भूम्यधिकारी हैं, कारण, कि अधिकार जमाने या बलात छीन लेने को ही अंग्रेजी में सीज (seize) कहते हैं। इस जगह पर लैंड सीजर (Land seizer) इस पद को देख झटपट उसका 'भूमिहार' ऐसा अर्थ कर के किसी ने ऐसा अनुमान किया है कि अयाचक ब्राह्मणों की भूमिहार संज्ञा भी दो सहस्र वर्षों से कम की नहीं है। परंतु यह बात उचित नहीं हैं। क्योंकि जिस मगध देश में ब्राह्मणों के लिए लैंड सीजर (land seizer) शब्द आया है वहाँ आज तक भूमिहार शब्द का प्रयोग हुआ ही नहीं। किंतु यहाँ तो ब्राह्मण मात्र के लिए ब्राह्मण, अथवा बाभन या ब्राह्मण शब्द आया करता है। हाँ, अब कहीं-कहीं भूमिहार ब्राह्मण महासभा के प्रचार से उसका भी प्रयोग होने लगा है। परंतु जिस बंगदेश में मगध है, उसी में, या उसके आसपास के प्रांतों में अधिकारी अथवा भूम्यधिकारी ब्राह्मण शब्द अयाचक ब्राह्मण जमींदारों के लिए आया करता है। इसीलिए जयपुर राज्यांतर्गत फुलेरा स्थान से प्रकाशित 'जात्यन्वेषण' नामक ग्रन्थ के प्रथम भाग में अकारादि नामवाली जातियों में अधिकारी या भूम्यधिकारी ब्राह्मणों का भी निरूपण आया है। इस विषय का विशेष निरूपण आगे करेंगे।

अस्तु, इसी प्रकार टी. डब्ल्यू. रियसडेविड्स, एल.एल. डी., पी-एच. डी. (T. W. Rhys Davids L. L-D. Ph.D.) ने जो अंग्रेजी पुस्तक 'बौद्धकालिक भारत - राज्यवंश-इतिहास' (The Story of the nations. Buddhist India) नामक लिखी हैं, उसमें 'जातक' प्रभृति पालि तथा अन्य ग्रन्थों के आधार पर इस प्रकार लिखा है कि :"The carpenters, smiths and potters, for instance, had villages of their own. So had the Brahmins, whose services were in request at every domestic events. Khomadussa, for instance, was a Brahmin settlement." (pages 20-21)

"The Angraja in the Buddha's time, was simply a wealthy nobleman and we only know of him as the grantor of a pension to a particular Brahmin." (Page 24)

"A very old text (Sa. B. 13-7-15) apparently implies that a piece of ground was given as a sacrificial fee." (Page 47)

"Great importance was attached to these rights of postures and forestry. The priests claimed to be able, as one result of performing a particular sacrifice, to ensure that a widet ract of such land should be provided. (Sat B. 13-3-7). And it is often made a special point, in describing the grant of a village to a priest, that it contained such commoneand." (Dialogue of Buddha, Page 48).

"It will have been seen, however, that the mass of the people, the villagers, occupied a social grade quite different from and for above our village folk. They held it degradation, to which only dire misfortune would drive them, to work for hire. They were proud of their standing, there family, and their village. And they were governed by headmen of their own class, and village, very probably selected from themselves in accordance with there own customs and ideals." (Vinaya Jatakas. Page 51)

"Then came the Brahmins claiming descent from the sacrificing priests, and though the majority of them followed then other pursuits, they were equally with the nobles (Chattris), distinguished by high birth and clear complexion. People could and did change their vocations by adopting one or other of these and low trades. Thus at Jat 5. 290, a love lorn Kshatriya works successfully (without any dishonour or penalty) as a potter, basket-maker, reedworker, garland-maker, and cook. Also at Jat, 6, 372. a Sethi works as a tailor and as a potter, and still retains the respect of his high born relations." (Page 57).

"The three upper classes had originally been one; for the nobles and priests were merely those members of the third class; the Vessas, who had raised themselves into a higher social rank. And though more difficult probably than it had been, it was still possible for analogous changes to take place. Poor men could become nobles, and both could become Brahmins" (page 55).

"That there was altogether a much freer possibility of change among the social rank than is usually suppossed is shown by the following instances of occupation; (1) A Kshstriya, a King's son, apprentices himself successively, in pursuance of a love affair, to a potter, a basket maker, a floorist and a cook, without a word being added as to loss of caste, when his action becomes known. (Jat. 11.5.290). (2) Another prince resigns his share in the kingdom in favour of his sister, and turns trader. (Jat. 4. 84). (3). A third prince goes to live with a merchant and earns his living by his hands. (Jat. 4. 169). (4) A noble takes, for a salary, as an archer (Jat. 2. 8). (5) A Brahmin takes to trade to make money to give away, (Jat. 4. 15). (6) Two other Brahmins live by trade without any such excuse. (Jat. 5. 22. 47.). (7) A Brahmin takes the post of an assistant to an archer, who had himself been previously a weaver. (Jat. 5. 127). (8-9) Brahmins live as hunters and trappers. (Jat 2. 200, 6, 170). (10) A Brahmin is a wheel-wright. (Jat. 4. 207). Brahmins are also frequently mentioned as engaged in agriculture and as hiring themselves out as cow-herds and even goat-herds. These are all instances from the Jatakas" (Page 56).

इस पूर्वोक्‍त अंग्रेजी ग्रन्थ का भाषानुवाद इस प्रकार है - 'जैसे बढ़ई, सोनार और कुम्हारों के गाँव थे, वैसे ही उन ब्राह्मणों को भी गाँव मिले थे जिनकी आवश्यकता प्रत्येक गृहकार्य में होती थी। दृष्टान्तार्थ खोमडुस्सा नामक एक ग्राम ब्राह्मणों की जमींदारी थी (पृ. 20-21)। बुद्धदेव के समय में जो अंग देश का राजा था उसके विषय में हमें इतना ही विदित हैं कि वह केवल एक धनाढय और प्रतिष्ठित पुरुष था और किसी विशेष ब्राह्मण को पेन्शन देता था (पृष्ठ 24)। एक प्राचीन ग्रन्थ (शतपथ ब्राह्मण 13। 7। 15) से यह स्पष्ट विदित होता है कि दक्षिणा में कुछ भूमि ब्राह्मणों को दी जाती थी' (पृ. 47)।

चारागाह और जंगलों के अधिकार की ओर ब्राह्मणों का विशेष ध्यान था। पुरोहित सर्वदा इस बात का दावा करते थे कि किसी यज्ञादि कराने के बदले उन्हें ऐसी ही भूमि की प्राप्ति हो। (शतपथ ब्राह्मण 13। 3। 7) दानपत्र लिखने में इस विषय का विशेष ध्यान रहता था कि इसमें इस प्रकार के एकाध चारागाह या जंगल भी रहें। (बुद्धदेव के उपदेश, पृ. 48)। देखने से प्रतीत होता है कि उस समय के सामान्य ग्रामीण जनों की सामाजिक अवस्था आधुनिक ग्रामीणों की अवस्था से बिलकुल ही मिलती-जुलती न थी, प्रत्युत बहुत ही चढ़ी-बढ़ी थी। यदि वे दुर्दैव वशात् वेतन (तनख्वाह) पर काम करते तो उसमें अपनी हतभाग्यता और अप्रतिष्ठा समझते थे। उनको अपनी सामाजिक अवस्था, कुटुंब और ग्राम का बड़ा गर्व था। बहुधा उनका शासन वे ही स्वर्गीय तथा स्वग्रामीण नेता करते थे, जिनको वे लोग अपनी परम्पराप्राप्त रीतियों और सिद्धांतों के अनुसार अपने में से चुनते थे।' (विनय जातक पृ. 51)।

'ब्राह्मण लोग अपने को पुरोहितों के वंशज कहा करते थे। और यद्यपि उस समय अधिकांश में वे लोग अन्यन्य व्यवसाय किया करते थे, तथापित भद्र पुरुषों (क्षत्रियों) की भाँति वे भी अपने उच्चवंश और गौरव के लिए प्रसिद्ध थे। लोग इन बीच व्यवसायों में से किसी को कर लेते और फिर अपने व्यवसाय को बदल सकते और बदल लेते थे। जैसाकि 'जातक' ग्रन्थ के 5/290 से विदित होता है कि एक स्त्री परित्यक्‍त क्षत्रिय निरंतर (बिना किसी मानहानि व दंड का भी भागी हुए) कुम्हार, धारिकार, चांडाल, माली तथा रसोईदार का काम करता था। यहाँ तक कि 'जातक' ग्रन्थ के 6/372 से विदित हैं कि सेठी (श्रेष्ठी या श्रेष्ठ पुरुष अथवा सेठ दर्जी और कुम्हार का काम करते हुए भी अपने को निज के उच्च श्रेणीवाले संबंधियों की भाँति गौरवान्वित ही समझते थे' (पृ. 57)।

'पहले द्विजाति लोग एक ही थे, कारण कि तृतीय अर्थात वैश्य वर्ग में से वे ही क्षत्रिय और ब्राह्मण (पुरोहित) हो जाते थे जो अपनी सामाजिक अवस्था में उन्नति कर लेते थे। यद्यपि अब यह बात संभवत: प्रथम से कठिन हो गई थी, फिर भी ऐसे परिवर्तनों की संभावना रहा करती थी। निर्धन लोग क्षत्रिय और दोनों ही ब्राह्मण हो सकते थे' (पृ. 55)।

नोट - यहाँ इस विषय को समझ लेना चाहिए कि 'सब द्विज एक ही थे, इस कथन का तात्पर्य यह नहीं है कि वस्तुत: वे लोग एक ही थे, किंतु उनके व्यवसाय ऐसे मिले थे और सभी का वेदादि का अभ्यास ऐसा छूटा था कि सभी एक से ही प्रतीत होते थे। अत: वास्तव में ब्राह्मणों में से ही जो कुछ थोड़ा-बहुत पढ़ लेते थे, वे और ऐसा प्रतीत होता था कि वे वैश्यों में ही हुए हैं। इसी प्रकार वास्तव में क्षत्रिय ही बलवान, प्रतिष्ठित और धनी हो जाता था वही क्षत्रिय प्रतीत होता था, न कि दूसरे उसके जातीय लोग। इसलिए निर्धन से क्षत्रिय और ब्राह्मण होना लिखा है, न कि वास्तव में अन्य जाति अन्य हो सकती थी। इस कथन से इस बात की पुष्टि होती है कि उस समय ब्राह्मणता का चिह्न केवल पुरोहिती या भिक्षावृत्ति न थी, किंतु वे लोग पूर्ण धनवान और प्रतिष्ठित एवं बलवान भी हुआ करते थे।

निम्नलिखित व्यवसाय (व्यापार, काम) संबंधी उदाहरणों से प्रकट होता है कि उस समय सामाजिक दशा में परिवर्तन होने की अधिकांश संभावना थी।' उदाहरण ये है :

(1) 'कोई किसी के प्रेम में बँधा हुआ क्षत्रिय राजकुमार धारिकार, माली और रसोईदार का काम निरंतर करता है, किंतु उसका यह कर्म लोगों पर प्रकट हो जाने पर भी जातिच्युत होने का दोष उस पर लगाया नहीं जाता (जातक 2। 5। 290)।

(2) कोई राजकुमार राजपाट का अपना अंश अपनी भगिनी को दे कर स्वयं वाणिज्य में प्रवृत्त हो जाता है (जातक 4। 84)।

(3) कोई राजकुमार व्यापारियों के साथ रहता और अपने हाथों कमा कर जीवन बिताता है (जातक 4। 169)।

(4) कोई क्षत्रिय वेतन (तनख्वाह) पर तीर चलाता है। (जातक 2। 8)।

(5) एक ब्राह्मण दान देने के लिए व्यापार (वाणिज्य) द्वारा धनोपार्जन करता है (जातक 4। 15)।

(6) दो ब्राह्मण ऐसे मिलते हैं जो बिना किसी विचार या शंका के व्यापार (वाणिज्य) द्वारा जीविका करते हैं (जातक 5। 22। 47)।

(7) एक ब्राह्मण जो प्रथम कपड़ा बुनता था, किसी तीर चलानेवाले का सहायक बनता है (जातक 5। 127)।

(8, 9) ब्राह्मण लोगव्याधा और शिकारी (जाल फैलानेवाले) का काम करते हैं' (जातक 2। 200, 6। 170)।

नोट - इस दृष्टांत से स्पष्ट है कि शास्त्राभ्यास की कमी से धार्मिक भाव बहुत ही शिथिल हो रहा था जिससे ब्राह्मणादि अपने को ही नहीं पहचान सके थे।

(10) 'कोई ब्राह्मण पहिया बनाने का काम करता है (जा. 4। 207)। ब्राह्मण लोग बहुधा कृषि करनेवाले पाए जाते हैं और वेतन पर अहीर और गड़रिए का काम भी करते हैं। ये सब उदाहरण जातक नामक पालि भाषा के ग्रन्थों से उदधृत है।' (पृ. 6)।

इस पूर्व कथन से यह बात स्पष्ट झलक रही है कि बौद्धकाल में ब्राह्मणों में वैदिक एवं स्मार्त्त भाव कैसा मंद हो रहा था और शास्त्रीय ज्ञान से विमुख हो सभी लोग कैसे स्वेच्छाचारी हो रहे थे। साथ ही, ब्राह्मण लोग भी विशेष रूप से कृषि वाणिज्य में ही दत्तचित्त थे। यह दशा सनातनधर्म की केवल बौद्ध धर्म के प्रभाव से ही नहीं हुई थी, किंतु 'आगमापायिनोनत्या:' अर्थात सभी सांसारिक पदार्थ एक से रहनेवाले नहीं है, इस प्रकृति के अटल नियमानुसार बौद्धधर्म के आगमन से पूर्व ही थी। जैसा कि हम कह चुके है कि सनातनधर्म का सोन्मुख हो रहा था। इसी बात को पूर्वोक्‍त ही अंग्रेजी ग्रन्थ में इस प्रकार कहा है :

And a fortiori-unless it be maintained that Buddhism brought about a great change in this respect, the state of things must have been even more lax at the time when Buddhism arose.(Page 56)

इसका भाव यह है कि 'पृष्ठ 56 में लिखा है कि जब तक प्रबल प्रमाण से यह मिल न हो जावे कि पूर्वोक्‍त विषयों में बौद्धधर्म ने बहुत बड़ा उलट-फेर किया, यह बात अवश्य स्वीकार करनी होगी कि जिस समय बौद्धधर्म भारत में आया उस समय प्राचीन बातें बहुत ढीली पड़ रही थीं।' इसके बाद पूर्वोक्‍त ही ग्रन्थ के Brahmin Position अर्थात 'ब्राह्मणों की स्थिति' नामक प्रकरण में 249वें पृष्ठ में ब्राह्मणों या पुरोहितों के विषय में विशेष रूप से सन ईस्वी से 600 वर्ष पूर्व की बात यों लिखी है :

In any case there was no central organization of the priest-hood; there where no permanent temples to their, good, and such sacred shrines as the people could frequent were the sacred trees or other objects of veneration belonging to the worship of the local gods and quite apart from the cults or influence of the priests And the latter were divided against themselves. They vied with one another for sacrificial fees. The demand for their services was insufficient, to maintain them all Brahmins followed, therefore, all sorts of other occupations; and those of them not continually busied about the sacrifice were often inclined to views of life, and of religion, different from the views of those who were, We find Brahmins ranking tappas, self-torture, above sacrifice (page 249).

इसका अर्थ यह है कि 'किसी दशा में भी पुरोहितों की कोई प्रधान संस्था न थी। उनके देवताओं के निमित्त कोई स्थायी मन्दिर न थे। ऐसे पवित्र देव स्थान, जहाँ पर लोग प्राय: जाया करते थे, या तो पवित्र वृक्ष थे या स्थानीय देव पूजा संबंधी पवित्र पदार्थ जो कि पुरोहितों के अन्धविश्‍वास और प्रभावों से बिलकुल अलग थे। पुरोहित लोगों में परस्पर विरुद्ध दलबंदी थी और वे लोग दक्षिणा के लिए परस्पर एक-दूसरे से स्पर्धा रखते थे। पुरोहितों की चाह इतनी कम थी कि पुरोहिती से सबकी जीविका न हो सकती थी। इसलिए ब्राह्मण लोग सभी प्रकार के अन्य व्यवसाय (कृषि, वाणिज्यादि) करते थे। उनमें से जो निरंतर ही पुरोहिती न करते थे अर्थात अन्य उपायों द्वारा जीविका करते थे, उनके धार्मिक और आध्यात्मिक विचार प्राय: उन लोगों के विचारों से विपरीत थे, जो पुरोहिती में दिन-रात लगे हुए थे। उस समय ऐसे भी ब्राह्मण पाए जाते थे जो पूजा-पाठ की अपेक्षा तपस्या को श्रेष्ठ समझते थे।'

इसके बाद ही लिखते हैं कि :

Unable, therefore; to stay the progress of newer ideas, the priests strove to turn the incoming tide into the channels favourable to their orders.

अर्थात 'इन पूर्वोक्‍त नए विचारों की उन्नति रोकने में असमर्थ हो पुरोहित लोग इन नए विचारों को अपने समाज के अनुकूल परिवर्तित करने के यत्‍न करने लगे।' तात्पर्य यह है कि जिन किसी प्रकार के अन्य विचारवाले पुरोहितों के फन्दे में आ फँसे उसी का यत्‍न करने लगे। पुरोहिती की प्रशंसा करने तथा अन्य व्यवसायवाले ब्राह्मण दिवर्णों को हर तरह से नीच बनाने का यत्‍न करने लगे, जिससे वे लोग उन्हें मानने और पूजने लगें। यही कारण हैं कि संपूर्ण शास्त्र, पुराण निंदित पुरोहिती भी आज श्रेष्ठ मानी जा रही है और जो उसका न करनेवाला हो वह ब्राह्मण ही नहीं समझा जाता। क्योंकि यही समझने और समझाने लग गए थे और लग गए हैं कि दान लेना ही ब्राह्मणता का चिह्न है। यद्यपि इस विषय का सूत्रपात पूर्वोक्‍त लेखानुसार बौद्ध काल में ही हुआ था, परंतु आते-आते यवन काल में उसकी पुष्टि हो गई, जिसका निरूपण आगे करेंगे।

आनरेब्ल मौंट स्टुअर्ट एलफिंस्टन साहब ने (Hon Mount Stuart Elphinstone) भी अपने 'भारतवर्ष का इतिहास' (History of India) नामक अंग्रेजी ग्रन्थ में मनु भगवान के बाद से ले कर आज तक के परिवर्तनों का निरूपण इसी प्रकार ग्रीक तथा पालि आदि ग्रन्थों के आधार पर किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक से 54-55 पृष्ठों में मनु भगवान के बाद से आज तक जो उलट-फेर हमारे रस्म-रिवाजों में हो गए हैं, उनका वर्णन करते हुए ब्राह्मणों के विषय में लिखा है कि :

The Bramins themselves, although they have preserved their own lineage undisputed, have, in great measure, departed from the rules and practices or their predecessors. In some particulars they are more than formerly, being denied the use of animal food, and restrained from inter-marriages with the inferior class; but in most respects their practice is greatly relaxed, The whole of the four-fold division of their life, with all restraints imposed on students, hermits, and abstracted devotees, is now laid aside as regards the community; though individuals at their choice. May still adopt some one of the modes of life which formerly were to be gone through in turn by all.

Bramins now enter into services, and are to be found in all trades and professions. The number of them supported by charity, according to the original system, is quite insignificant in proportion to the whole. It is common to see them as husbandmen, and, still more, as soldiers; and even of those trades which were expressly forbidden to them under severe panalties, they only scruple to exercise the most degraded, and in some places not even those. In the south of India however, their peculiar secular occupations are those connected with writing and public business. From the minister of state down to the village accountant the greater number of situations of this sort are in their hands, as in all interpretation of the Hindu Law, a large share of the ministry of religion, and many employments (such as farmers of the revenue & c.) where a knowledge of writing and business is required. In the parts of Hindostan where the Moghal system was fully introduced, the use of the Persian language has thrown public business into the hands of Mussulmans and Cayets (a caste of sudras). Even in the Nizam's territorries in the Deckan the same cause has in some degree diminished the employments of the Bramins, but still they must be admitted to have every where a more avowed share in the government then in the time of Menu'scode, when one Brahmin counsellor, together with the judges, made the whole of their protion in the direct enjoy ment of power.

It might be expected that this worldly turn of their pursuits would deprive the Bramins of some part of their religious influence; and accordingly, it is stated by a very high authority (Prof. wilson, Asiatic Researches) that (in the provinces on the Ganges, at least) they are nul as a herearchy, and as literary body few and little countenarced. Even in the direction of consciences of families and of individuals they have there been supplanted by Gosayens and other monastic orders.

Yet even in Bengal they appear still to be the objects of veneration and of profuse liberality to the laity. The ministry of most temples, and the conduct of religious ceremonies, must still remain with them; and in some parts of India no diminution whatever can be perceived in their spiritual authority. Such is certainly the case in the Maratta country and would appear, to be so like-wise in the west of Hindostan. The temporal influence derived from their number, affluence, and rank subsists in all parts; but even where the Bramins have retained their religious authority they have lost much of their popularity.

इसका मर्मानुवाद यह है कि 'यद्यपि ब्राह्मण अपनी वंश परम्परा पर स्थित हैं, तथापि अपने पूर्वजों की अपेक्षा उनके आचार-व्यवहारों में बहुत भिन्नता पाई जाती है। मांस न खाने और नीचों के साथ विवाह न करने में अपने पूर्वजों से बढ़ गए हैं, परंतु बहुत सी बातों में प्रथम की अपेक्षा उनके आचार-व्यवहार ढीले हो गए हैं। साधारणत: समाज-भर में चारों आश्रमों और उनके नियमों का पालन नहीं होता। हाँ, कोई-कोई स्वेच्छानुसार किसी-किसी आश्रम का अनियमित रूप से पालन करता है, जिनका पालन पहले सभी क्रमश: करते थे। ब्राह्मण लोग अब नौकरी एवं अन्य वाणिज्य, व्यापार करनेवाले पाए जाते हैं। प्राचीन प्रथा के अनुसार दान द्वारा जीवन व्यतीत करनेवालों की संख्या अब बहुत कम हो गई है। साधारणत: कृषि और युद्ध विद्यावाले पाए जाते हैं, और वे लोग उन वस्तुओं का भी विक्रय करते हैं जिनका विक्रय प्रथम निषिद्ध और दंडनीय समझा जाता था। कहीं-कहीं वे लोग ऐसा करना घृणित समझते हैं और कहीं-कहीं नहीं। दक्षिण भारत में उन लोगों के काम लिखना और जनसाधारण के कार्य है। मन्त्री पद से ले कर ग्राम कार्यकर्ता तक के पद बहुधा उन्हीं के हाथों में रहते हैं और जिनमें लिखने और व्यवहार की निपुणता अपेक्षित हैं ऐसे कार्य भी। जैसे धर्मशास्त्रों के अनुवाद, धार्मिक प्रबंध का अधिकांश और अन्य बहुत से व्यापार, जैसे मालगुजारी का उगाहना आदि। भारतवर्ष के उन भागों में जहाँ मुगल राज्य पूर्ण तया स्थापित था, फारसी भाषा के प्रचार ने जन साधारण का कार्य मुसलमानों और कायस्थों (एक प्रकार के शूद्रों) के हाथों में डाल दिया है। इसी प्रकार निजाम सरकार के राज्य में भी इसी कारण ने ब्राह्मणों के इन व्यवसायों को घटा दिया है। तथापि मनु के समय की अपेक्षा उनको राज्य प्रबंध का अधिक भाग मिला है इस बात को मानना पड़ेगा। क्योंकि उस समय ब्राह्मण मन्त्री न्याय कर्ताओं के सहित राज्य के सब अधिकार अपने अधीन रखते थे। इससे मालूम पड़ता है कि ब्राह्मणों की सांसारिक व्यवहार संबंधिनी प्रवृत्ति ने उनकी धार्मिक प्रवृत्तियों से उन्हें रहित कर दिया है और इसके अनुसार, जैसा कि एक अत्यन्त माननीय लेखक (प्रोफेसर विलसन) ने (एशिया संबंधी अंवेषण नामक ग्रन्थ में) लिखा है कि (कम-से-कम गंगा के निकटवर्ती प्रदेशों में) पुरोहितों के रूप में वे लोग नहीं हैं अर्थात पुरोहिती नहीं करते और विद्वान भी बहुत कम है। वंशों और व्यक्‍तियों को धार्मिक उपदेश उनकी जगह गोसाईं (साधु) लोग करते हैं। तथापि बंगाल में ये प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखे जाते हैं और गृहस्थ इन्हें दान में बहुत उदार होते हैं।

नोट - 'इससे मालूम पड़ता है', तथा विलसन की सम्मति आदि सभी कथन इन त्यागी, भूमिहारादि ब्राह्मणों को ही विशेष रूप से उद्देश्य कर के हैं, क्योंकि ठीक-ठीक यही स्थिति इस समय इनकी है और इससे कुछ दिन प्रथम भी थी।

'बहुत से मंदिरों तथा धर्म संबंधी कार्यों के अधिकार इन्हीं के हाथ में अब तक हैं और भारत के बहुत से भागों में इनके धार्मिक अधिकार में कुछ भी कमी नहीं हैं। यही दशा महाराष्ट्र और भारत के पश्‍चिमी भाग में भी है। भारतवर्ष के सभी भागों में इनकी संख्या, धन और सामाजिक अवस्था के कारण इनकी सांसारिक प्रतिष्ठा है। परंतु जहाँ ब्राह्मणों का धार्मिक अधिकार जमा हैं वहाँ भी लोकप्रियता अधिकांश में चली गई है।'

नोट - ये सब बातें विशेष कर अयाचक ब्राह्मण में ही पाई जाती है।

इस पूर्व कथन से स्पष्ट है कि मनु भगवान के बाद से आज तक ब्राह्मणों की दशा में पृथ्वी-आकाश का-सा अन्तर हो गया है, सभी रीतियाँ दूसरी ही हो गई है और ब्राह्मणों में कृषि, वाणिज्यादि करनेवाला एक अयाचक दल प्रबल हो गया है, जो आज भी स्पष्ट ही देखने में आ रहा है। किसी दल के अन्तर्गत हमारे प्रकृत अयाचक दल के ब्राह्मण भी हैं।

इसके बाद विशेष रूप से मेगस्थनीज आदि ग्रीक (यूनानी) लेखकों के ही आधार पर सन ईस्वी से 300 पूर्व की दशा का ऐसा ही वर्णन पूर्वोक्‍त ही पुस्तक के 236-237वें आदि पृष्ठों में इस प्रकार है :

They suppose as has been mentioned, that those who were the kings' councillors and judges formed a separate class. It is evident, also, that they classed the Brahmins, who exercised civil and military functions, with the casts to whom those employents properly belonged.

They appear to have possessed separate villages as early as the time of Alexander; to have already assumed the military character on occasions; and to have defended themselves with that fury and desperation which sometime still characteries Hindus. Their interference in politics, likewise, is exhibited by their instigating Sambus to fly from Alexander and Musicanus to break the peace he had concluded with that conqueror. Strabo mentions a sect called Pramnae, who were remarkable for being disputious, and who derided the Brahmins for their attention to physics and astronomy. He considers them as a separate class, but they were probably Brahmins themselves, only attached to a particular school of Philosophy.

तात्पर्य यह है - 'वे (यूनानी लेखक) ऐसा समझते थे, जैसा कि लोगों ने कहा है कि जो राजाओं के मन्त्री और न्यायकर्ता थे, उनकी अलग जाति थी। लेकिन यह बात भी स्पष्ट है कि वे लोग (मन्त्री आदि) उन ब्राह्मणों को जो न्याय और युद्ध कार्य किया करते थे उन जातियों में सम्मिलित करते थे जिनके वे समुचित धर्म समझे जाते हैं। अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रियादि युद्ध वगैरह किया करते थे।

ब्राह्मणों के पास पृथक-पृथक ग्राम सिकंदर के समय से ही थे और समय पर वे लोग युद्ध करते और उस साहस और वीरता के साथ शत्रुओं से अपनी रक्षा करते थे जो आज भी कभी-कभी हिंदुओं की प्रशंसा करवाती हैं। राजनीति में भी उनके हाथ डालने का पता इसी से चलता है कि उन्होंने सम्बुस को सिकंदर और म्यूजिकेनस के यहाँ से इसीलिए भाग जाने को दबाया कि जिसमें सिकंदर के साथ उसकी संधि न हो सके। स्ट्रैबो (यूनानी यात्री) ने एक ऐसे दल का वर्णन किया है जो प्रामणी (प्रामाणिक या नैयायिक) कहलाता और अपने झगड़ालू (वाद-विवादासक्‍त) स्वभाव के लिए प्रसिद्ध था, और ज्योतिषी तथा वैद्याकादि शारीरिक विज्ञान में आसक्‍त ब्राह्मणों की हँसी उड़ाया करता था। वह (स्ट्रैबो) उनकी अलग जाति समझता था। परंतु वे लोग ब्राह्मण ही थे। हाँ, केवल भिन्न दर्शन (न्याय के) अभ्यासी थे।'

अंग्रेज लेखकों की अब तक दी गई इतनी सम्मतियों से यही बात निर्विवाद रूप से सिद्ध हो गई कि मनु भगवान के पश्‍चात बौद्धकाल से ले कर यवन काल तक ब्राह्मणों के विचारादि पूर्व से बहुत अंशों में एकदम विपरीत हो गए थे और उनका धार्मिक, शास्त्रीय तथा सामाजिक बंधन ढीला हो गया था। इसीलिए एक प्रकार की स्वतन्त्रता (उच्छृंखलता) पिशाची ने उन्हें ग्रस लिया था। साथ ही, स्वार्थ और परस्पर ईष्या तथा राग-द्वेष की मात्रा भी बढ़ती गई और पुरोहित दल अपने प्रभाव को सभी दूसरे दल वालों पर जमाने के लिए दान लेने आदि के ही महत्व को स्वर को अलापने लगा और तदनुसार ही दान त्यागियों (अयाचकों) के दबाए जाने की चेष्टा की जाने लगी, इसको भी दिखला चुके हैं। इतना ही नहीं, बल्कि उस राग-द्वेष की मात्रा इतनी बढ़ गई कि याचक (पुरोहित) दलवाले ब्राह्मण अपने-अपने प्रकर्ष के लिए परस्पर ही एक-दूसरे को इतना दबाने लगे कि एक-दूसरे को नीच बनाते-बनाते यह भी कहने लगे कि हम ही असल ब्राह्मण हैं। दूसरों का तो कुछ पता ही नहीं हैं, वे लोग तो बनावटी हैं इत्यादि। यह बात आज तक भी याचक ब्राह्मणों में सभी जगह घूम कर आँखों देखी और कानों सुनी है।

यदि यह बात न होती तो आज सवा लक्खी (125000) बनाए हुए ब्राह्मणों की किंवदंती क्यों मैथिल, कान्यकुब्ज, दाक्षिणात्य और सर्यूपारीणादि सभी ब्राह्मणों में पाई जाती? क्या सभी जगह वस्तुत: ऐसी ही अंधेर थी, यह संभावना भी हो सकती हैं? सभी ब्राह्मणों के विषय में ऐसी किंवदंतियाँ देखने या सुनने की जिन्हें इच्छा हो वे अंग्रेजों के लिखे हुए सभी देश के ब्राह्मणों के इतिहासों को पढ़ ले। क्योंकि वे लोग इस देश के हैं नहीं, कि अपने आप भी बना लेंगे, किंतु लोगों से जैसा सुना वैसा ही लिख दिया और उसी आधार अपने इस सिद्धांत को पुष्ट करने लगे कि हिंदुओं में भी प्रथम जाति विभाग न था इत्यादि। क्या ही आश्‍चर्य हैं कि जरासंधवाली जो किंवदंती आजकल इन अयाचक (भूमिहारादि) ब्राह्मणों के विषय में रची गई है और जिसका विशेष रूप से खण्डन द्वितीय परिच्छेद में करेंगे, वही राजा सेवई सिंह के नाम पर मैथिलों में शालिवाहन या किसी अन्य के नाम पर सर्यूपारियों में आदि-आदि, सर्वत्र ही अविकल रूप से प्रचलित है! क्या यह याचक ब्राह्मणों के पूर्वोक्‍त प्रचंड राग-द्वेष और ईर्ष्या को पुष्ट नहीं कर रही है? इससे आज 10 या 20 वर्षों से इन अयाचक (भूमिहारादि) ब्राह्मणों के इतर ब्राह्मणों द्वारा बे तरह दबाए जाने का कारण पाठक अवश्य ही समझ गए होंगे।

क्या कारण हैं कि 20 या 25 वर्षों से पूर्व प्राय: जिन अंग्रेजों ने जातीय इतिहास या मनुष्य गणना की रिपोर्ट लिखी है, उन्होंने इन त्यागी, पश्‍चिम, भूमिहारादि ब्राह्मणों को साफ-साफ कान्यकुब्जों, मैथिलों, गौड़ों या अन्य प्रतिष्ठित ब्राह्मणों की ही श्रेणी में रखा है, जैसा कि आगे विदित होगा, और इसके विषय में इधर प्रचलित किंवदंतियों का नाम भी न लिया हैं, चाहे अन्य ब्राह्मणों के विषय में कहीं-कहीं पर कुछ ऐसी किंवदंतियाँ आ भी गई है? परंतु जिस तिथि को भूमिहार या त्यागी ब्राह्मण सभा का जन्म हुआ उसी दिन से हवा ही पलट गई, किंवदंतियों की झड़ी लग गई और कहीं-कहीं इधर के विदेशी एवं स्वदेशी लेखकों की लेखनी भी विपरीत दिशा में चलने लगी और याचक (पुरोहित) ब्राह्मणों द्वारा बहुत-सी मिथ्या उपन्यास सदृश पुस्तकें इनके विपरीत धड़ाधड़ लिखी जाने और प्रकाशित होने लगीं। जैसी पुस्तकों के 20 वर्ष पूर्व नाम भी न थे। क्या यह वही बात नहीं हैं जैसा कि पूर्व में 'रियसडेविड्स' (Rhys-Davids) के लेखों से दिखला चुके हैं कि पुरोहित लोग इन नए विचारों को पसंद न कर उन सबों को अपने अनुकूल बनाने के लिए बहुत से यत्‍न और कल्पनाएँ करने लगे?

अस्तु, इस प्रकार जब शास्त्राभ्यास लुप्तप्राय हो कर स्वच्छंदता और कृषि, वाणिज्य एवं राज्य तथा भूमि प्रियता ब्राह्मणों में बे तरह बढ़ गई और प्रतिग्रहादि की प्रशंसा और उसी के ब्राह्मणता के चिह्न होने की तान कहीं-कहीं सुनाने लगी, तो जैसा कि भूमिका में ही कह चुके हैं कि जो अयाचक ब्राह्मण बड़े-बड़े जमींदार और राजे-महाराजे थे, बहुत दिनों बाद उनकी क्रमश: यह धारण होने लगी कि प्रतिग्रह विशेष रूप से ब्राह्मणता का चिह्न हैं। अत: प्रतिग्राही ही माननीय ब्राह्मण है। हम लोग भी यद्यपि ब्राह्मण ही हैं, तथापि ब्राह्मणानुचित कर्म राज्य एवं कृष्यादि करने से हमारी स्थिति वैसी नहीं रह गई। अत: हम में पूज्यता भी नहीं रह गई। इस भ्रम में उनका बड़ा भारी सहकारी शास्त्रों का अज्ञान था जिससे वे स्वयं पवित्र एवं पूज्य ब्राह्मण शब्द के शुद्ध अर्थ को समझ नहीं सकते थे, किंतु जो कोई उन्हें जैसा समझा देता था वैसा ही समझ लेते थे। विशेष कर गुरु तथा पुरोहितों के वचनों पर उनका पूर्ण विश्‍वास था और लोग अपने अर्थ की सिद्धि के लिए ऐसा करते थे। यहाँ तक कि उनके दिन-रात के इस आंदोलन से प्रकृति में भी यही भाव भर रहा था, क्योंकि वे लोग ही उपदेष्टा थे।

यद्यपि पुरोहित लोग भी शास्त्राभ्यासी न होने के कारण और स्वार्थवश ही ऐसा करते थे। तथापि उनमें अपनी पवित्र (पूज्य) ब्राह्मणता के अभिमान के बने रहने में एक तो उनकी वही धारण कारण थी और दूसरे पुरोहिती के कारण कुछ-न-कुछ शास्त्रों का संपर्क उनके साथ रह गया था अत: उनका वह अभिमान बना रह गया। परंतु जो उनके दल से बाहर अयाचक ब्राह्मण थे, उनको अपनी पूज्य ब्राह्मणता का अभिमान निरवलंबन होने से क्रमश: जाता रहा। इसी प्रकार होते-होते यवन (मुसलमान) राज्य काल आ गया, और शास्त्रों का कौन कहे संस्कृत विद्या का भी अभाव-सा हो गया। प्रत्युत उसकी विरोधिनी फारसी भाषा का साम्राज्य होने लगा। जिससे राजकार्य में विशेष सम्बन्ध रखनेवाले ब्राह्मण विशेष रूप से फारसी के प्रेमी हो गए, जो बात आज तक भी विशेषत: इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों और पश्‍चिम भारत के भी प्राय: सभी ब्राह्मणों में पाई जाती है। क्योंकि वे लोग भी बड़े-बड़े जमींदार होने से यवनों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखते थे। इसीलिए उनमें और इनमें भी यवनों के बहुत से धर्म आ गए। जैसा कि फारसी का पढ़ना, तम्बाकू पीना और प्रणाम, नमस्कार की जगह सलाम करना इत्यादि। क्योंकि 'राजा नमनरुवत्तांते यथा राजा तथा प्रजा', संसर्गजादोषगुणा भवन्ति', अर्थात प्रजा राजा की अनुसारिणी होती है और जिसका विशेष संग किया जावे, उसके गुण और दोष अपने में आ जाया करते हैं', इस नियम को सभी लोग मानते हैं। इसलिए आज जिन मिथिलादि देशों में पूर्ववत संस्कृत के ही विद्वान होने चाहिए, वहाँ आज जिस ओर देखिए अंग्रेजी का ही साम्राज्य है। इस बात को भूमिका में ही विस्पष्ट रूप से दिखला चुके हैं और यह भी वहीं लिख चुके हैं कि प्राय: इस देश के पुरोहित दलवाले ब्राह्मणों में फारसी का विशेष रूप से प्रचार न हो कर क्यों कहीं-कहीं संस्कृत का प्रचार रह गया। क्योंकि जैसा कि आजकल जो ही अंग्रेजी पढ़े उसी की अंग्रेजी राज्य में प्रतिष्ठा होती है, इसलिए सभी अंग्रेजी पढ़ते हैं, वैसी बात प्रथम न थी। किंतु जो लोग बड़े-बड़े जमींदार और राजे-महाराजे थे, उन्हीं की प्रतिष्ठा फारसी पढ़ कर भी होती थी। इसीलिए लाचार हो कर और अपनी पुरोहिती को स्थित रखने के लिए भी पुरोहित ब्राह्मण संस्कृत में ही थोड़ा-बहुत लगे रहते थे।

इस प्रकार जब प्रथम ही अयाचक भूमिपति ब्राह्मण राजाओं, महाराजाओं के प्रसंग वंश पूछने पर कि 'हम लोग कैसे ब्राह्मण कहे जा सकते हैं? गुरु या पुरोहित यह कह दिया करते थे कि धर्मावतार! आप तो ब्राह्मण क्या राजा बाबू हैं और हम लोग भिक्षु हैं। तो इसे सुन वे लोग फूल कर कुप्पा हो जाया करते थे। जब यवन राज्यकाल में पूर्वोक्‍त दशा हो गई तो प्रसंगवश बहुधा उन्हीं गुरुओं तथा पुरोहितों के बार-बार कहने, अपनी स्थिति के भी वैसी ही होने और फारसी के प्रचार से भी जिन ब्राह्मणों में प्रथम अयाचक शब्द का प्रयोग होता था और पीछे भूमिपति या भूम्यधिकारी ब्राह्मण शब्द का। अब उन्हीं के लिए जमींदार ब्राह्मण शब्द का प्रयोग होने लगा। जो आज तक प्रयागादि प्रांतों में इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों और अन्य मैथिल तथा कान्यकुब्जादि ब्राह्मणों में भी कहीं-कहीं पाया जाता है, जैसा कि भूमिका में दिखला चुके हैं। इसके थोड़े ही दिन बाद जब शास्त्रानभिज्ञता पिशाची जमींदार ब्राह्मणों पर और सवार हो गई और उनकी यह धारणा होने लगी कि प्रतिग्रह लेने और पुरोहिती करनेवालों को ही ब्राह्मण कहते हैं, जैसा कि जमींदार ब्राह्मणों से अन्य ब्राह्मणों में सभी जगह वे देखते थे, तो निश्‍चय कर लिया कि ब्राह्मण जाति तो भिक्षु हुआ करती है। परंतु हम लोग तो धनाढय और जमींदार हैं। क्या हम लोग दूसरों के घर दान लेने जाते हैं कि अपने को ब्राह्मण कहें? इसलिए हम लोग जमींदार हैं! बस इसी समय से केवल जमींदार शब्द का प्रयोग अयाचक ब्राह्मणों में होने लगा। जो आज तक इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों में बहुत जगह केवल स्वतन्त्र रूप से और बहुत जगह भूमिहार, बाभन, पश्‍चिम, ब्राह्मण, बाम्हन, तगा या त्यागी शब्दों के साथ प्रचलित हैं। इसलिए लोग कभी उसका और अन्य शब्दों का भी कभी-कभी प्रयोग किया करते हैं।

इसी जगह यह बात भी स्मरण रखने योग्य है कि यद्यपि अयाचक ब्राह्मणों की संज्ञा प्रभृति में बहुत-सा उलट-फेर हो गया, तथापि साक्षात या परम्परा से अयाचक और याचक ब्राह्मणों के विवाह सम्बन्ध और खान-पान आदि बहुत जगह मिले हुए थे। हाँ, कहीं-कहीं ढीले पड़ रहे थे। परंतु एकदम छूट न गए थे और न आज तक छूट गए ही हैं। इसीलिए पश्‍चिम के अंबाला, प्रयागादि प्रांतों और पूर्व के मिथिला प्रांत में अब तक बहुत जगह खान-पान तथा विवाह-सम्बन्ध परस्पर प्रचलित हैं, जैसा कि आगे मालूम होगा। इन सब व्यवहारों के बने रहने में कारण यह था कि यद्यपि इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के एक पृथक दल के बनने का सूत्रपात अभी हो रहा था - सभी ब्राह्मणों में से, चाहे वे गौड़ देशीय, पंजाबी, कान्यकुब्ज देशीय, अथवा मिथिला देशीय हो, जो अयाचक थे और जिनके पास बड़ी-बड़ी भूसंपत्ति या प्रतिष्ठा थी, उनका एक पृथक दल भविष्य में बन जावेगा ऐसे चिह्न प्रतीत हो रहे थे - तथापि ऐसे सभी अयाचक ब्राह्मणों को ब्राह्मण शब्द से घृणा नहीं हो रही थी और न आज तक हुई ही हैं। किंतु जहाँ प्रचंड अविद्या या राज्य एवं भूमि मद था वहीं पर कहीं-कहीं इसके लक्षण दिखलाई देते थे। जैसा कि काशी के आसपास के 5, 7 या 10 जिलों में अब तक प्राय: पाया जाता है। परंतु इससे पूर्व और पश्‍चिम दोनों तरफ बराबर अयाचक, जमींदार, त्यागी, महियाल, भूमिहार या पश्‍चिम शब्द के साथ अथवा केवल ही ब्राह्मण या बाभन शब्द का प्रयोग किया जाता है। क्योंकि मिथिला (तिरहुत) में पश्‍चिम ब्राह्मण, प्रयागादि में जमींदार ब्राह्मण, मगध में केवल ब्राह्मण या बाभन, मेरठ प्रभृती में त्यागी और झेलम आदि जिलों में महियाल शब्द अब तक पाया जाता है, जो इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के लिए आता है।

इन प्रांतों में ब्राह्मण शब्द से घृणा न होने, या उसके प्रयोग बने रहने में बड़े भारी सहकारी वही पुरोहित दलवाले ब्राह्मणों के साथ साक्षात या परम्परा या विवाह-सम्बन्ध और खान-पान समझे जाने चाहिए और अन्य किसी भी याचक ब्राह्मण या दूसरी जातियों के विषय में आजकल ऐसी शंका न हो कर कहीं-कहीं इस अयाचक नामधारी ब्राह्मण जाति के विषय में जो यह उत्तम, मध्यमादि की शंका उत्पन्न होने लग गई है, उसमें भी यही कारण है कि बहुत जगह इस समाज के लोगों ने अपने को ब्राह्मण कहने से घृणा कर उस शब्द का प्रयोग उठा दिया है। परंतु फिर भी साक्षात् या परम्परा या अन्य ब्राह्मणों के साथ विवाह आदि पाए जाते हैं और साथ ही लोगों की यह भी मिथ्या धारणा हो गई है कि दान लेनेवाले को ही ब्राह्मण कहते हैं और कृष्यादि ब्राह्मणों के धर्म नहीं हैं। यदि हैं भी तो दान के साथ ही इत्यादि। ये ही दोनों प्रकार की बातें आजकल की समस्त कुशंकाओं और कुकल्पनाओं की जड़े हैं। ऐसी बात किसी भी समाज में नहीं पाई जाती कि उसमें जिस जाति का शब्द कहीं न हो उसके साथ भी खान-पान और विवाह-सम्बन्ध हो और यदि ऐसी बात कहीं हैं, तो उसके विषय में शंका भी अवश्य है या होगी।

कहीं-कहीं केवल जमींदार, भूमिहार, त्यागी (तगा), महियाल या बाभन अथवा ब्राह्मणादि शब्दों के प्रयोग करने का एक यह भी कारण समझ लेना चाहिए कि 'नामैकदेशेन नामग्रहणम्' अर्थात 'संपूर्ण यौगिक नाम की जगह उसी अर्थ में उसके एक अंश का प्रयोग भी होता है', ऐसा व्याकरण महाभाष्य में बहुत जगह लिखा है। जिसका दृष्टांत यह है कि 'भीमसेन' की जगह 'भीम', भीष्मपितामह की जगह 'भीष्म', सत्यभामा की जगह 'सत्या' अथवा 'भामा', रामचरित्र की जगह 'चरित्र' इत्यादि। परंतु इससे कोई यह नहीं का सकता कि भीम का नाम वास्तव में भीमसेन नहीं हैं, या चरित्र का रामचरित्र। इसी बात को महर्षि कात्यायन ने व्याकरण वाक्‍तविक में कहा है कि 'विनापि प्रत्यय पूर्वोत्तारयो: पदयोर्लोपो वक्‍तव्य:'। अर्थात यौगिक नामों के पूर्व अवस्था उत्तर भागों का यों ही लोप हो कर केवल एक भाग का भी प्रयोग हुआ करता है। इन्हीं सब रीतियों के अनुसार भी लोगों ने कहीं केवल त्यागी (तगा) या भूमिहार और कहीं केवल बाभन या ब्राह्मण शब्द का प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया, परंतु उनके व्यवहार पूर्ववत ही रह गए।

जब कुछ दिन बाद लोग भ्रमवश ऐसा समझने लगे कि वास्तव में नाम उतने ही बड़े हैं, तो भूमिहार या त्यागी ब्राह्मण महासभा, या अन्य उपदेशकों ने उन्हें सिर्फ चिंता-भर दिया। परंतु उनकी इस अज्ञान निद्रा के खुलने और नूतन दृष्टि के फिर हो जाने से स्वार्थांध और अकारण विद्वेषी रूप चोरों के लूटने में बाधा उपस्थित होने की संभावना होने लगी, कि ऐसा न हो कि कभी गुरुआई और पुरोहिती से भी हाथ धोना पड़ जावे। क्योंकि उनकी दशा तो ठीक ऐसी ही है, जैसा कि तुलसीदास जी ने कहा है कि :

सूख हाड़ ले भाग शठ, श्‍वान निरखि मृगराज।

छीनि लेई जिमि जानि जड़ तिमि सुरपतिहिं न लाज॥

और यदि ऐसा कदाचित हो गया तो हमारी अथवा हमारे वंशजों की बड़ी भारी आमदनी मारी जावेगी। इसलिए 'अग्रशोची सदा सुखी' इस नियम के अनुसार वे लोग, जैसा कि बौद्ध काल में 'रियसडेविड्स' के वचन दिखला चुके हैं, आजकल भी इनके विषय में धड़ाधड़ कल्पित पुस्तकें रचने और प्रकाशित करने लगे और अपनी या अपने अयोग्य पुरोहित भाइयों की सेवा ही इन लोगों का मुख्य कर्तव्य बतलाने लगे। परंतु दुर्बुद्धिवश यह नहीं विचार सके, विचार सकते या विचारते, कि जो समाज अनुचित रीति से बहुत दबाया जाता है वह अन्त में उतना ही शीघ्र नल के जल की तरह ऊँचा उठ खड़ा होता है जितना ही दबाया गया है और उस दबाव को कुछ नहीं समझता। और यह भी नहीं विचारते कि इन लोगों ने जब प्रथम से ही इस प्रतिग्रहादि को तुच्छ और गर्वित समझ उसे त्याग कर स्वात्मावलंबन किया है तो उस तुच्छ कार्य में क्योंकर प्रवृत्त हो सकते हैं? परंतु यदि ऐसी ही दुर्बुद्धि और ऐसा ही दुराग्रह रहा और बारम्बार इतने पर भी यही रटना बना रहा कि बिना पुरोहिती करवाने के ब्राह्मण कहलाता ही नहीं, तो वह दिन दूर न होगा जब कि इन दान त्यागी, पश्‍चिम, जमींदार, भूमिहार, महियाल ब्राह्मणों को भी हार कर यज्ञादि करवा लेना ही पड़ेगा। क्योंकि अयाचकता और याचकता किसी विप्र समाज या जाति का धर्म न हो कर व्यक्‍ति का धर्म है। जो आज अयाचक है कल वह चाहे तो याचक हो सकता है और याचक अयाचक। यद्यपि इस समय याचक और अयाचक दल हो गए हैं। पर, शास्त्र दृष्टि से ऐसा दल हो नहीं सकता। नहीं तो फिर अयाचक ब्राह्मण दल और क्षत्रियादि में भेद ही क्या रह जावेगा? इसके सिवाय श्री तुलसीदास जी की उक्‍ति है कि :

यद्यपि जगत दुसह दुख नाना।

सब से कठिन जाति अपमाना॥

इसलिए यद्यपि ये लोग भरसक प्रतिग्रह तो न लेंगे, किंतु उस द्रव्य को विद्यालय और धर्मशाला इत्यादि में लगवा देंगे, तथापि इनमें बहुतेरे विद्वान लोग यज्ञ करवा कर दक्षिणा ले लेंगे, क्योंकि वह तो एक प्रकार की मजदूरी (वेतन) हैं। जैसाकि प्रथम दिखला चुके हैं और अन्यत्र भी तन्त्ररत्‍न नामक मीमांसा ग्रन्थ में श्रीपार्थसारथि मिश्र जी ने मीमांसा दर्शन के दशमध्याय के तृतीय पाद में लिखा है कि :

दक्षिणाशब्दो यं यद्भृतित्वेन दीयते तस्यैव वक्‍ता।

अर्थात 'दक्षिणा शब्द यज्ञ कराने के बदले जो भूति (वेतन या मजदूरी) दी जाती है केवल उसी का वाचक है।' और शास्त्रोक्‍त मजदूरी लेने में समयानुसार कोई भी हानि नहीं है, क्योंकि आजकल सभी लोगों ने पैसे पर काम कर देना परम धर्म मान रखा है। प्रत्युत ऐसा करने से ही जाति रक्षा हो सकेगी, संस्कृत का प्रचार होगा, और बहुत सी त्रुटियों और कठिनाइयों से बच जाना होगा, जिनका अनुभव प्रतिदिन विचारशील गृहस्थ किया करते हैं। इसलिए अब मेरी यही प्रार्थना है कि चाहे याचक (पुरोहित) अथवा अयाचक दलवाले ब्राह्मण दोनों में से कोई भी हो उसे अब सँभाल और विचार कर काम करना चाहिए, जिसमें भविष्य में पश्‍चाताप करना न पड़े।

अस्तु, यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है कि जिस समय का विचार हम अभी कर रहे हैं, वह ऐसा था कि जब केवल ब्राह्मण, क्षत्रियादि संज्ञाओं के सिवाय ब्राह्मणों की जो अवांतर (बीच की) संज्ञाएँ हैं, जैसे कान्यकुब्ज, गौड़, अवस्थी, वाजपेयी, राय, सिंह आदि एवं क्षत्रियादि की राठौर, चौहान प्रभृति, उनका या तो अभी तक प्राय: प्रचार ही नहीं हुआ था, या यदि किसी-किसी का हुआ, या हो रहा था, तो भी लोगों का उस तरफ विशेष ध्यान न था। यद्यपि प्राचीन ग्रन्थों या लोगों में केवल 'भट्ट' या 'मिश्र' पदवी पाई जाती है, जैसे भट्टपाद, मंडनमिश्र, वाचस्पति मिश्र, तथापि ये विशेषण उन लोगों की प्रगल्भता या प्रतिष्ठा के सूचक हैं। जैसे कि गोमतल्लिकादि शब्दों में 'मतल्लिका' विशेषण प्रभृति और जैसे कि पितृचरण, पितृपादादि में पाद या चरण शब्द। इसीलिए वाक्‍तविककार कुमारिल स्वामी वगैरह को कभी-कभी ग्रन्थकार लोग, वाक्‍तविककार मिश्र, ऐसा लिखा करते हैं, जैसे 'यथाहुर्वार्त्तिककार मिश्रा:' अथवा 'वाक्‍तविककारपादा:'। इसी प्रकार मण्डनमिश्रादि का भी 'मिश्र' विशेषण हैं। इसलिए दो-एक को छोड़ अन्यत्र ये मिलते ही नहीं। अत: ऐसे अर्थ में भी मिश्रादि शब्द उस समय विशेष प्रचलित न थे।

क्योंकि अभी तक प्रत्येक वर्णों में न तो इतने छोटे-छोटे और परस्पर विलक्षण दल ही बन गए थे, जैसे कि आजकल पाए जाते हैं और न संज्ञाओं तथा पदवियों की इतनी गिनती या प्रतिष्ठा ही थी, जैसी कि आजकल या इससे कुछ पूर्व थी। उस समय तो सभी ब्राह्मणों का व्यवहार परस्पर मिला हुआ था एवं क्षत्रियादि का भी। इसीलिए यद्यपि इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों की जमींदारादि संज्ञाएँ प्रचलित भी हुईं तथापि उनका इतना प्रबल प्रचार उस समय न हुआ, जितना आज है क्योंकि अभी तक चाहे जो कुछ परिवर्तन हुआ था, परंतु ये लोग हर प्रकार से सभी ब्राह्मणों में मिले भी थे। लेकिन उसके बाद ही एक ऐसा समय आया जिसको लगभग 6, 7 या 8 सौ वर्षों से अधिक न हुए होंगे, जबकि विशेष कर ब्राह्मणों में अथवा अन्य सभी जातियों में भी बहुत अवांतर (छोटे-छोटे) दल तैयार हो गए, या होने लग गए, जिनका परस्पर खान-पान आदि व्यवहार भी ढीला होने लगा और जिनमें बहुत सी उपाधियाँ (पदवियाँ) नई-नई चल पड़ीं, जिनका प्रथम नाम भी न सुना गया। उन छोटे-छोटे दलों के अलग-अलग नाम भी पड़ने लगे या पड़ गए। अथवा जो पूर्व के भी नाम थे, या पदवियाँ थीं उन सभी का प्रबल प्रचार हो उठा, क्योंकि समय सब की प्रतिष्ठा कभी-न-कभी करा ही देता हैं। आचार-विचारों में बहुत से भेद पड़ गए। आज जो कहीं था, वही कल कहीं अन्यत्र जा बसा। जिससे बहुत दिनों बाद उसके इतिहास का भी पता लगाना कठिन हो गया। धार्मिक उपद्रव बहुत उठने लगे, जिससे व्यवहारों में अधिक कट्टरता दिखलाने की आवश्यकता पड़ी और धर्म रक्षार्थ ब्राह्मणादि समाजों के छोटे-छोटे दल बनाने ही पड़े। क्योंकि बड़े की सर्वात्मना रक्षा का होना असंभव हो जाता है। 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली कहानी की आलाप प्रकृति में गूँज रही थी। साथ ही, प्राचीन आध्यात्मिक विचार और धर्म की वास्तव कट्टरता ढीली हो रही थी, क्योंकि शास्त्राभ्यास बिलकुल छूट रहा था। इसलिए ब्राह्मणादि सभी वर्णों को जमींदारी, प्रतिष्ठा, आधिपत्य और मार-काट की विशेष सूझी और उन सब बातों ने उनके रूप, स्थिति और अभिमान में एक विशेष परिवर्तन कर दिया।

इस सब कथन का तात्पर्य यह है कि जब यवनों (मुसलमान) का राज्य कुछ दिन बीत गया और उनकी जड़ यहाँ अच्छी तरह जम गई, या जमने लगी, तो उन्होंने दूर तक अपने राज्य के विस्तार तथा प्रबंध के लिए बड़े-बड़े वीरों और प्रबंध कुशलों एवं रईसों का सम्मान तथा अपनी सेना में और राज्यांतर्गत विविध पदों का स्थापित करना और साथ ही, उत्साहित एवं अपनी ओर आकर्षित करने के लिए सिंह, खाँ, राय, चौधरी, दीवान और बाबू इत्यादि पदवियों का प्रदान करना प्रारंभ कर दिया। जिससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ने लगी और उन्हें देख उनके लिए दूसरे योग्य लोग भी लालायित हो यत्‍न करने और प्राप्त करने लगे।

बस अब क्या था, जितने वीर लोग थे, चाहे ब्राह्मण हों या क्षत्रियादि, उनकी सिंह और खाँ इत्यादि पदवियाँ होने लगीं, जो आजकल प्राय: सभी ब्राह्मणों में पाई जाती है, और जिनको आगे चल कर दिखलावेंगे। और वे लोग उसी में अपने को कृत-कृत्य मानने लगे। बल्कि जिसको वे उस समय न मिलीं वह अपने को महा अभागी समझता था। इसी प्रकार जो लोग रईस या प्रबंधकर्त्ता वगैरह थे उन्हें राय, चौधरी और शाह इत्यादि पदवियाँ मिलीं और इसी नूतन पदवी रूप भादों के महाजल प्रवाह में प्राचीन शर्मा, वर्मा तथा ऋषि प्रभृति पदवी रूप कितने ही ग्रामादि बहुत जगह से साफ ही हो गए, जिनका आज तक पता ही न लगा। इधर जब नवीन पदवियों की प्रतिष्ठा राजदरबारों में होने लगी तो, 'राजानमनरुवत्तांते यथा राजा तथा प्रजा' इस पूर्वोक्‍त नियमानुसार विशेष कर ब्राह्मणादि रूप प्रजाओं में भी नई पदवियों की धुन समा गई। क्योंकि उस समय की प्रकृति में यही भाव गूँज रहा था, जिससे लोगों को विवश होना पड़ा। बस जैसे उधर कामों के करने से ही राय, सिंहादि उपाधियाँ मिलती थीं और प्राचीन काल में भी -

उपनीय तु य: शिष्यं वेदमधयापयेद् द्विज:।

सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्यं प्रचक्षते॥ 140॥

एकादेशं तु वेदस्य वेदांगान्यपि वा पुन:।

योध्यापयति वृत्तयर्थमुपाध्याय: स उच्यते॥ 141॥

निषेकादीनि कर्माणि य: करोति यथाविधि।

संभावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते॥ 142॥ मनु. अ. 2॥

अर्थात 'जो ब्राह्मण शिष्य का उपनयन संस्कार कर के उसे यज्ञविद्या और उपनिषदों के सहित वेदों को पढ़ाता है उसे आचार्य कहते हैं। जो अपनी जीविका के लिए शिष्य को वेदों का केवल मन्त्र या ब्राह्मण भाग ही, अथवा व्याकरणादि अंगों को ही पढ़ाता है, उसे उपाध्याय कहते हैं। जो ब्राह्मणरूप पिता पुत्र का गर्भाधानादि संस्कार करता और उत्पन्न होने पर उसे अन्न वस्त्रदि द्वारा पालता है, उसको ही गुरु कहते हैं, न कि कान फूँकनेवाले वाचक को भी', इत्यादि व्यवहार था। जिससे काम करने से ही आचार्य, गुरु प्रभृति संज्ञाएँ हुआ करती थीं। वैसे ही जो अच्छा विवेकी हुआ उसे पांडेय कहने लगे, चारों वेदों के ज्ञाता को चतुर्वेदी, तीन के ज्ञाता को त्रिवेदी और दो के जानने से और पढ़ाने एवं पढ़ने से द्विवेदी एवं थोड़ा-थोड़ा सभी में से जानने और पढ़ानेवाले को मिश्र, वाजपेय यज्ञ करनेवाले को वाजपेयी, अग्निष्टोमादि करनेवाले को आवसथ्यी, जो बिगड़ कर अवस्थी हो गया। क्योंकि अग्निष्टोम के पाँचवें (अंतिम) दिन का नाम आवसथ्य दिन हैं। इसी प्रकार जो अन्य छोटे-मोटे यज्ञ करता था उसे दीक्षित कहते थे। क्योंकि यज्ञारम्भ से प्रथम दीक्षा रूप संस्कार हुआ करता है। जैसा कि 'ब्रह्मा यजमानंदीक्षयति' इत्यादि अर्थात 'ब्रह्मा नामक ऋत्विक यजमान की दीक्षा करता है', इत्यादि श्रुतियों में आता है और उस संस्कार के बाद ही 'दीक्षणीया' नामक यज्ञ करता है। इसलिए क्षत्रिय भी कहीं-कहीं दीक्षित कहलाते हैं। क्योंकि उनको राजसूय यज्ञ का अधिकार है, इससे उसके करवाने में उनकी भी दीक्षा होने से वे भी दीक्षित कहलाने लगे, इत्यादि। कुछ दिन में यही नवीन उपाधियाँ बिगड़ते-बिगड़ते पांडे, चौबे, दूबे इत्यादि कहलाने लगीं, जैसे ब्राह्मण शब्द भ्रष्ट हो कर बाभन या ब्राह्मन और वाराणसी शब्द बनारस हो गया।

इसीलिए इस बात के कहनेवाले नितान्त भूले हुए हैं कि शब्द में विकार होने से उसके अर्थ में (जाति में) भी विकार हो जाता है। जैसा कि मिस्टर बीम्स वगैरह ने अपने पूर्वोक्‍त ग्रन्थों में कहीं-कहीं भूमिहार ब्राह्मणों के प्रसंग में लिखने का साहस किया है। क्योंकि ऐसा मानने से सभी तिवारी, चौबे, राजपूत, बनिया और कायस्थादि की जातियों में फर्क मानना पड़ जावेगा। कारण ये कि सभी शब्द बिगड़ रहे हैं और ब्राह्मण शब्द की जगह प्राय: सभी लोग, कुछ पठित व्यक्‍तियों को छोड़ कर, सर्वत्र ही बाभन या बाम्हन शब्द का प्रयोग करते हैं। इसलिए यहीं मानना होगा कि धीरे-धीरे काल पा कर शब्द विशेष रूप से अपने आप ही बदलते जाते हैं।

अस्तु, ये पूर्वोक्‍त पांडे, तिवारी आदि पदवियाँ नवीन ही हैं। अतएव स्मृतियों और पुराणों में ब्राह्मण, क्षत्रियादि के लिए शर्मा और वर्मा आदि शब्द ही आए हैं और पूर्वोक्‍त आचार्यादि शब्द। पुराणों के पश्‍चात् के ग्रन्थों में भी ये पांडे आदि शब्द नहीं मिलते। यहाँ तक कि बंगदेशीय ब्राह्मणों के इतिहास में भी जब उस समय के बनाए हुए 'कुलदीपिकादि' ग्रन्थों में 999 शकाब्द में अर्थात लगभग आज से 838 वर्ष पूर्व कान्यकुब्ज देश से पाँच ब्राह्मणों के बंगाल (गौड़देश) में आने का हाल लिखा है, तो केवल भट्ट नारायण प्रभृति उनका नाम ही लिखा है। पांडेय, तिवारी इत्यादि उपाधियों का नाम नहीं है। हाँ, इतना पता अवश्य हैं कि बंगदेश में आने पर उनके घोष, गांगुली इत्यादि पुत्र हुए और प्रत्येक को जो ग्राम महाराज आदि शूर की ओर से मिले उनके भी वही नाम थे, जिसके पीछे उन ग्रामों में रहनेवाली उनकी संतान घोष, गांगुली, बागछी इत्यादि उपाधियों से भूषित हुई। अत: बंगदेशीय ब्राह्मणों की पदवियाँ भी गांगुली, बागछी वगैरह नूतन और उसी समय की है जिसका हम वर्णन कर रहे हैं उन्हीं बंगीय ब्राह्मणों के इतिहास से यह विदित होता है कि उस समय सभी ब्राह्मण वगैरह अस्त्र, शस्त्रादि धारी हो रहे थे। क्योंकि आदि शूर महाराज के यज्ञ के लिए कान्यकुब्ज देश से जब महाराज वीरसिंह ने अपने समय 5 गोत्रों के 5 ब्राह्मण भेजे, तो उस यज्ञ करानेवालों के वेष का वर्णन 'देवी वरघटक कृत कारिका' में ऐसा है कि :

वेदशास्त्रोष्ववगतान, सर्वास्त्रो च विशारदान।

गोयानारोहितांविप्रान खचर्मादिभिर्युतान॥

अर्थात 'वे लोग सब वेदशास्त्रों में और सभी अस्त्र, शस्त्र में भी निपुण, तलवार और ढाल आदि से सजे हुए और बैलों की गाड़ी पर सवार थे' इत्यादि। भला जहाँ यज्ञ करवानेवालों की दशा है, वहाँ उनसे अन्यों का क्या कहना हैं?

अस्तु, इससे निर्विवाद सिद्ध है कि ब्राह्मणों की ये द्विवेदी प्रभृति पदवियाँ भी उसी समय की हैं जिस समय की राय, सिंह इत्यादि। इसीलिए इनका वर्णन यदि कहीं आता है तो केवल कान्यकुब्ज और सर्यूपारी प्रभृति की वंशावलियों में ही। उस समय इतना ही नहीं होता था कि जो जैसा काम करता था उसे वैसी ही पदवी मिलती थी और उसके पुत्र, पौत्रादि में बराबर चली जाती थी। किंतु वे पदवियाँ बदल जाया करती थीं। इसीलिए जो ब्राह्मण पांडेय या तिवारी होते थे, समय पा कर राजदरबार में प्रतिष्ठा होने से उनको राय, सिंह और चौधरी आदि की पदवी मिल जाती थी। अथवा उनके लड़कों को ही ये पदवियाँ भाग्यवश प्राप्त हो जाती थीं। क्योंकि इन्हें आजकल की रायबहादुर और के.सी.आई.ई. इत्यादि उपाधियों की तरह राजा की दी हुई समझ सभी परम प्रतिष्ठाजनक समझते और तदनुसार ही उनकी प्राप्ति के लिए महान यत्‍न करते थे, जैसा कि आजकल हो रहा है। और जब भाग्यवश ये मिल जातीं तो पूर्व के पांडेय प्रभृति आस्पदों (पदवियों) का प्रयोग छूट जाता था। केवल इतना ही नहीं कि राज-पदवियों के ही पाने से इनका परित्याग हो, किंतु कर्म करने से ही पांडेय का पुत्र त्रिवेदी और उसकी संतान अवस्थी आदि कहलाती थी। क्योंकि उस समय उन कर्मों के कर्ताओं के कम होने से जो ही उन्हें करता था उसी का नाम प्रख्यात हो जाता था और वही उसकी पदवी हो जाती थी जैसा कि कान्यकुब्ज वंशावली के एक ही काश्यपगोत्र के देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि मदारपुर के अधिपति भुइंहार (भूमिहार) ब्राह्मणों के बालक गर्भू नामक ब्राह्मण के पुत्र कुतमऊ के तिवारी और उनके लड़के विनौर के अग्निहोत्री और आगे चल कर उनके ही पुत्र, पौत्रादि बिनहारपुर के दूबे, कृपालपुर के मिश्र, भागीर के दीक्षित, विधौली के शुक्ल और मिगलानी के अवस्थी इत्यादि कहलाए। यह दशा केवल कान्यकुब्ल ब्राह्मणान्तर्गत काश्यप गोत्रीय भूमिहार ब्राह्मणों की संतानों की है कि जिनके पूर्वज गर्भू की कोई ऐसी उपाधि (पदवी) नहीं उसके ही वंशज कितने ही तिवारी आदि हो गए।

इस बात को जिसे देखना हो वह 'हरिप्रसाद भागीरथ' अथवा खेमराज के यहाँ छपी हुई कान्यकुब्जों की सभी वंशावलियों में देख सकता है। यह मदारपुराधिपति कान्यकुब्ज भूमिहार ब्राह्मणों के वंशज गर्भू की बात अभी बहुत दिनों की नहीं है, किंतु बाबर बादशाह के समय सन 1527 ई. में हुई थी। ऐसा उन्हीं वंशावलियों में लिखा है। परंतु उस समय भी जहाँ-तहाँ उपाधियों का विशेष रूप से प्रचार न हुआ था। इसलिए ब्राह्मणों की ये कोई शास्त्रीय पदवियाँ नहीं हैं, जिनके न रहने से ब्राह्मण ही नहीं कहा जा सकता। किंतु जैसे राय, सिंह, चौधरी और खाँ आदि उपाधियाँ ब्राह्मणों आदि की है, वैसे ही ये भी। हाँ, भेद इतना हो सकता है कि प्रथमत: वे मुसलमानों द्वारा दी गई है और ये त्रिवेदी प्रभृति पदवियाँ ब्राह्मणादि हिंदू समाजों की दी गई है। परंतु अशास्त्रीयता दोनों में समान हैं। इस विषय में विशेष बात आगे कहेंगे।

अस्तु, जैसा इन उपाधियों का हाल है, वैसा ही ब्राह्मणादि वर्णों में छोटे-छोटे दम बनने और उनकी नाना संज्ञाएँ पड़ने का भी वृत्तांत जान लेना चाहिए। संभवत: बहुत से लोगों की यह धारणा है, अथवा होगी कि कान्यकुब्ज, गौड़ इत्यादि ब्राह्मणों के अवांतर दल और उनके नाम प्राचीन है। परंतु मेरी समझ से यह बात सरासर मिथ्या है। क्योंकि जैसा अभी पदवियों के विषय में दिखला चुके हैं कि वे आधुनिक हैं, इसीलिए प्राचीन ग्रन्थों में उनका पता भी नहीं है वही दशा ब्राह्मणों और अन्य वर्णों के इन छोटे-छोटे दलों और उनके नामों की है। वे भी उन ग्रन्थों में कहीं नहीं पाए जाते :

सारस्वता: कान्यकुब्जा उत्कला गौड मैथिला:।

पंच गौडा: समाख्याता विंध्यस्योत्तारवासिन:॥

इत्यादि रूप जो श्‍लोक स्कंदपुराण के सह्याद्रि खण्ड और भविष्य पुराण के नाम पर अब मिलने लगे हैं, वे आधुनिक और कल्पित है। क्योंकि राठौर, चौहान वगैरह नाम कहीं न आ कर ब्राह्मणों के ही नाम क्यों आए।

इसलिए वे भी उपाधियों की तरह आधुनिक है। उनमें से एकाध यदि कुछ दिन प्रथम से थे भी तो उनका प्रचार न था। या यों कहिए कि लोगों का उनकी तरफ ध्यान नहीं था। परंतु कालचक्र ने ही उनकी उत्पत्ति का प्रचार यों करवाया कि जब यवन राज्य काल में, जैसा कि पूर्व दिखला चुके हैं, शास्त्राभ्यास से रहित और प्रकृति में भरे हुए मार-काट और राजस, तामस भावों से प्रेरित हो जहाँ-तहाँ ब्राह्मणादि वर्ण, अस्त्र, शास्त्रादि से सुसज्जित हो आक्रमण करने और दुर्बलों के अधिकारों को दबाने लगे। उन लोगों के शारीरिक अभिमान और युद्धप्रियता बहुत बढ़ कर पराकाष्ठा को प्राप्त हो गई। इसलिए वे उसी अभिलाषा से बलात अपना एक देश छोड़ दूसरे प्रदेशों (प्रांतों) में जाने के लिए बाध्य होने लगे। जहाँ ही दुर्बल देखा वहाँ ही चढ़ दौड़े। आज यहाँ हैं तो कल कितनी दूर निकल गए इसका पता ही नहीं।

इसके अतिरिक्‍त यवनों के अत्याचार हिंदू धर्म पर कभी-कभी हुआ करते थे। उनकी नव प्रादुर्भूत शक्‍ति और नवीन संचारित धर्म हिंदू धर्म पर बड़े-बड़े आघात करने लगे। यह बात उस समय के इतिहासवेत्ताओं से छिपी नहीं है। जब बलपूर्वक अन्य धर्मावलम्बियों को मुसलमान बनाना भी वे अपना परम धर्म मानते थे तो फिर बेचारे अनाथ हिंदू क्यों सताए जावें? ऐसी दशा में धर्मभीरु ब्राह्मणों को विशेष कर और प्राय: कहीं-कहीं क्षत्रियों को भी धर्म रक्षा के लिए छोटे-छोटे दल बनाने पड़े। क्योंकि जैसी देखभाल या प्रबंध छोटे राज्यों या भूभागों को हो सकता है वैसा बड़े का नहीं। इसीलिए बड़े-बड़े राज्यों को भी सूबों, जिलों और तहसीलों वगैरह में बाँट देते हैं। बड़े विस्तृत ब्राह्मण साम्राज्य में यह पता चलना कठिन था कि कौन प्रदेश अपने धर्म पर स्थित है और उसके खान-पान आदि किए जा सकते हैं। अत: धर्मदृष्टि से छोटे-छोटे विभाग बनाने पड़े और अपने विभाग से बाहर खान-पान या विवाह सम्बन्ध छोड़ना पड़ा। इसी से यद्यपि पूर्वकाल में सभी ब्राह्मणों के खान-पान आदि साथ होते थे, परंतु आज न तो गौड़ों के कान्यकुब्जों के साथ और न दोनों के दक्षिणात्यों के साथ, खानपान या विवाह-सम्बन्ध आदि होते हैं।

जब एक देश से दूसरे देश (प्रांत) में ब्राह्मणादि, पूर्वोक्‍त कारणों से, चले जाते थे तो उनका पता लगना उस समय कठिन या असंभव था, क्योंकि उस समय आजकल की तरह रेल, तार न थे। इसलिए प्रत्येक दलवाले ब्राह्मणादि जिस देश से आया करते थे उसी देश के नाम से अपना व्यवहार करते थे। जैसे जो सर्यूपार से अन्य प्रांतों में चले गए थे वे अपने सर्यूपारवाले सर्यूपारीण, सर्यूपारी या सरवरिया इत्यादि कहने लगे। इसी प्रकार जो कान्यकुब्ज देश से गए थे वे अपने को कनौजिया या कान्यकुब्ज कहने लगे। ऐसे ही मैथिल, गौड़ और सारस्वतादि नामों को भी जान लेना चाहिए, क्योंकि किसी आदमी या वस्तु के नाम व ठिकाने की हुलिया तभी होता है, जब वहाँ से भाग कर अन्यत्र चला जाता है और उसका पता चलना कठिन हो जाता है। और चूँकि पूर्व समय में ब्राह्मणों को एक स्थान छोड़ कर दूसरे स्थान में जाने की प्राय: आवश्यकता न होती थी। केवल ऋषि, मुनि या तपस्वी लोग ही राक्षस वगैरह के भय अथवा अन्य कारणों से इधर-उधर जाया करते थे, क्योंकि उस समय हिंदू धर्म का प्रबल प्रतापादित्य द्वादश कलायुक्‍त था। इसलिए एक देश से दूसरे देश में बिना तीर्थ यात्रादि के जाने में बहुत बड़ा विचार उपस्थित हो पड़ता था, क्योंकि ऐसी आशाएँ थीं और हैं कि :

अंग वंग कलिंगेषु सौराष्ट्र मगधोषु च॥

तीर्थ यात्रां विना गत्वा पुन:संसकारमर्हति॥

अर्थात 'अंग, वंग, कलिंग, सौराष्ट्र और मगधदि देशों में बिना तीर्थयात्रा के जाने से उसका पुन: यज्ञोपवीतादि संस्कार करना चाहिए' इत्यादि। परंतु जिस समय का वर्णन करते हैं, उस समय न तो इतना धार्मिक भय ही था और न लोगों को इन उपदेशों का यथावत ज्ञान ही था। प्रत्युत पूर्वोक्‍त धर्म रक्षा के लिए, तथा अन्य प्रयोजनों से भी एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने के लिए बाध्य होना पड़ता ही था। इसलिए यद्यपि जो लोग कान्यकुब्ज प्रभृति देशों से भाग गए थे, उसके ही नाम कान्यकुब्जादि पड़ने उचित थे, तथापि कान्यकुब्ज देशों में रहनेवालों और उन भगेड़ों के सम्बन्ध कभी-कभी हो जाया करते थे, इसलिए एक ही होने से एक देशवाले कहीं भी हों उसी नाम से पुकारे जाते थे। इससे खान-पान और विवाह-सम्बन्ध में आसानी भी होती थी।

परंतु एक देश में रहनेवाले ब्राह्मण से अन्य भी हो सकते हैं, जैसे कान्यकुब्ज हलवाई और कान्यकुब्ज कहार भी बोले जाते हैं। इसी प्रकार मैथिल कायस्थ और मैथिल ब्राह्मण इत्यादि। अथवा देशों के बड़े होने से अमुक देश का ब्राह्मण हूँ ऐसा कहने से भी पता ठीक न चल सकता था। इसलिए फिर भी परस्पर व्यवहारों में भी बहुत क्लेश होने लगा, तो गोत्र और डीह के साथ अमुक जगह का दूबे और अमुक जगह का तिवारी मैं हूँ ऐसा कहने का संकेत किया गया। क्योंकि एक गोत्र में विवाह नहीं होता, इसलिए गोत्रदि बताने की आवश्यकता थी। इसी प्रकार अन्य बातों को भी जान लेना चाहिए। अब ऐसा करने से कोई भी ब्राह्मण कहीं भी हो, जहाँ पिंडी का तिवारी या त्रिफला का पांडे मैं हूँ ऐसा उसने बताया, वहाँ ही सब कठिनाइयाँ दूर हो गईं क्योंकि अन्य सर्यूपारी आदि भी उन्हीं ग्रामों में या उनके पास के ही रहनेवाले होते थे।

इससे यह भी सिद्ध हो गया कि ब्राह्मणों में अपने-अपने डीह (प्राचीन स्थान) के व्यवहार की प्रभा भी बहुत दिनों से नहीं हैं। इसलिए यह कोई आवश्यक नहीं हैं कि जिस ब्राह्मण में अपने डीह का व्यवहार किसी कारण से न हो वह इसी कारण से ब्राह्मण न कहा जावे कि उसका डीह ही नहीं हैं। हाँ, इतने के लिए वह खान-पान आदि दूसरे दलवाले से न कर के अपने ही दल में कर सकता है। प्रथम तो यह बात कहीं पाई नहीं जाती। परंतु संभव होने पर उसके विषय में भूल न हो इसलिए ऐसा कह दिया है। और ऐसा होता भी हैं कि लोग अपने पूर्व डीह को भूल जाते हैं और दूसरे डीह का नाम लिया करते हैं। जैसे कि निमेज के ओझा और मचैयाँ पांडे अपने डीह निमेज और मचियाँव बतलाते हुए अपने को सर्यूपारी कहते हैं, परंतु ये डीह सर्यूपार में न हो कर शाहाबाद जिले में पाए जाते हैं।

अस्तु, अब इसी स्थान पर, भूमिहार, त्यागी, महियाल, पश्‍चिम आदि संज्ञा व विशेषण संबंधी विषय का विचार कर लेना चाहिए। अभी कह चुके हैं कि यवन-काल में ही 5 या 7 सौ वर्ष पूर्व ब्राह्मणों में बहुत से अवांतर दल कैसे बन गए यद्यपि दूर-देश में गए हुए ही कान्यकुब्जादि कहे जाने चाहिए, तथापि सभी एक देशवाले कैसे उसी नाम से कहे जाने लगे। बस, इन्हीं दो बातों के सम्बन्ध में यह भी एक बात हैं कि जब ब्राह्मणों में पूर्वोक्‍त कारणों से छोटे-छोटे दल बनने लगे और कहीं-कहीं अन्य जातियों में भी, तो चूँकि केवल धर्मरक्षा की दृष्टि से यह काम हुआ, इसलिए दलों के बनाने में इस बात का पूर्ण तया ध्यान रखा गया कि जिससे धर्म का पालन ठीक-ठीक हो सके। इसके लिए जो-जो दल बने उनमें ऐसे-ऐसे ब्राह्मण प्रत्येक दल में मिलाए गए जिनके आचार-विचार या चाल-चलन और खान-पान प्राय: एक प्रकार के थे। इसीलिए भिन्न-भिन्न प्रदेशों के भिन्न-भिन्न दल बन गए। जैसे गौड़ देश, कान्यकुब्ज, मिथिला अथवा सरस्वती के पास के प्रदेशों आदि के और एक प्रांत के ब्राह्मणों में भी आचार-व्यवहार प्राय: सबके समान न होने से बहुत से अवांतर भेद बन गए। जैसे मैथिलों में श्रोत्रिय, योग्य इत्यादि एवं गौड़ों में आदि गौड़, गूजर गौड़ चमर, गौड़ इत्यादि। इसी प्रकार बंगदेशीयों में राढ़ी आदि तथा गुजरात के नागरों में सिपाही नागर वगैरह एवं कान्यकुब्जादि में दूबे, तिवारी, अग्निहोत्री प्रभृति। इसी तरह सर्वत्र सभी ब्राह्मणों में जान लेना चाहिए। और जैसे एक देश से दूसरे देश में जाने से उस देश के नाम से नाम पड़ा, वैसे ही एक दल को दूसरे में बिलगाने के लिए भी अपने-अपने देशों से अपने-अपने नाम कहे जाने लगे। इसलिए भी एक देशवाले जहाँ कहीं रहे, एक ही नाम से कहे जाने लगे। इसी तरह अपनी क्रियाओं से भी एक दल के दूसरे दल से भिन्न-भिन्न नाम होते थे। जैसे त्रिवेदी, द्विवेदी इत्यादि प्रथम ही कह चुके हैं।

यहाँ पर ध्यान देने की बात हैं कि जैसे मैथिलों में केवल वेद पढ़नेवाले श्रोत्रीय, और वेदों तथा अन्य कार्यों में योग्यता रखनेवाले 'योग्य' इत्यादि अपने-अपने कर्मों से भिन्न-भिन्न दल बने और नाम पड़े एवं गौड़ों में गूजर प्रभृति की पुरोहिती करने से गूजर गौड़ आदि नाम पड़े। नगरों में लड़ने-भिड़ने वाले सिपाही नगर कहलाने लगे और उनका दूसरे नगरों से पृथक दल हो गया और जिस प्रकार से द्विवेदी, त्रिवेदी प्रभृति कान्यकुब्जादि ब्राह्मणों के पृथक-पृथक दल अपने-अपने कर्मों और आचारों से बने। ठीक उसी प्रकार सबसे प्रथम कान्यकुब्ज ही ब्राह्मणों में जो दल जमींदारी से घनिष्ठ सम्बन्ध रखनेवाला, अतएव वीर और राजदरबार में प्रतिष्ठित था और इसीलिए उसके आचार-विचार में भी कुछ विलक्षणता थी, वह भी उसी समय भूमिहार या भुइंहार नाम से प्रसिद्ध था।

जैसे एक प्रांत के सभी ब्राह्मणों का जब उसी प्रांत के नामानुसार कान्यकुब्ज या मैथिल नाम पड़ गया, तो फिर उनके छोटे-छोटे दलों के भिन्न-भिन्न नाम उस देश के नामानुसार न हो सकने के कारण कर्मानुसार ही द्विवेदी, त्रिवेदी, श्रोत्रिय और योग्य प्रभृति हुए। उसी प्रकार उन्हीं कान्यकुब्जों में एक दल अब देश के नामानुसार कहे जा सकने के कारण भूमि के ऊपर अपने बल से या अन्य प्रकार से अधिकार कर लेने और विशेष रूप से कृष्यादि करने के कारण औरों से विलक्षण होने से भूमिहार या भुइंहार कहलाने लगा और जितने बलवान या श्रीमान और प्रतिष्ठित राजसी कान्यकुब्ज ब्राह्मण एक आचारवाले थे, वे इसी नाम से कहे जाने लगे।

यद्यपि इनकी संज्ञा प्रथम जमींदार या जमींदार ब्राह्मण थी। लेकिन एक तो, जैसा पूर्व कह चुके हैं कि उसका इतना प्रचार न था, दूसरे यह कि जब पृथक-पृथक दल बन गए तो उनके नाम भी ऐसे होने चाहिए जो एक दूसरे के न हो सकें। परंतु जमींदार शब्द तो जो ही जाति भूमिवाली हो उसे ही कह सकता है। इसलिए विचारा गया कि जमींदार नाम ठीक नहीं हैं। क्योंकि पीछे से इस नामवाले इन अयाचक कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के पहचानने में गड़बड़ होने लगेगी। इसलिए ऐसा न हो कि व्यवहार में गड़बड़ मच जावे। इसी कारण से इन लोगों ने अपने को भूमिहार या भुइंहार कहना प्रारंभ कर दिया।

यद्यपि जो जमींदार शब्द का है, अर्थात जमीन का मालिक या उसका रखनेवाला, वही भूमिहार शब्द का भी, जैसा कि अभी विदित हो जावेगा, तथापि जैसा कि भूमिका में ही कह चुके हैं कि जिस अर्थ में जिस शब्द का संकेत कर लिया, उस शब्द से वही समझा जाता है। जैसे, यद्यपि नमस्कार और प्रणाम शब्दों का अर्थ एक ही है, तथापि ब्राह्मणों ने यह संकेत कर लिया है कि हम लोगों में परस्पर नमस्कार शब्द का ही प्रयोग होना चाहिए। इसलिए नमस्कार शब्द बोलने से ही विदित हो जाता है कि इसका उच्चारण करनेवाला ब्राह्मण हैं। परंतु उसी के अर्थ में यदि प्रणाम शब्द बोलें तो प्राय: अन्य जाति ही का बोध होता है। मिथिला में तो यहाँ तक देखा जाता है कि शूद्र लोग भी ब्राह्मणों को 'प्रणाम' ही कहा करते हैं और कोई भी बुरा नहीं मानता। परंतु यदि कोई अन्य जाति उसी के अर्थवाले 'नमस्कार' शब्द का प्रयोग करे, तो फिर लड़ाई देखिए। ऐसा ही आर्य समाज के नमस्ते और सनातन धर्म के प्रणाम शब्द का हाल जान लीजिए। यदि किसी सनातनधार्मी के सन्मुख 'नमस्ते' शब्द बोला जावे तो वह बहुत ही रंज होता है, न कि प्रमाणादि शब्दों से। इसका कारण जैसे एकमात्र संकेत ही है। उसी प्रकार, यद्यपि जमींदार और भूमिहार शब्द समानार्थक ही है, तथापि जमींदार शब्द से ब्राह्मण से अन्य भी जातियाँ समझी जाती है, या जा सकती हैं, परंतु भूमिहार शब्द से साधारणत: प्राय: केवल अयाचक ब्राह्मण विशेष ही। क्योंकि उसी समाज के लिए उसका संकेत किया गया है।

इससे सिद्ध हो गया कि यद्यपि नियत तिथि विदित नहीं हैं, तथापि जैसे यवन राज्य काल में ही आज से लगभग 6, 7 या 8 सौ वर्ष पूर्व गौड़, कान्यकुब्ज सर्यूपारी, मैथिल तथा सरस्वतादि एवं दूबे, तिवारी आदि नाम प्राय: ब्राह्मणों में प्रचलित हुए, वैसे ही भूमिहार या भुइंहार नाम भी सबसे प्रथम कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के एक अयाचक दल विशेष में प्रचलित हुआ। इसीलिए जैसे ये सब नाम केवल कान्यकुब्जादि की वंशावलियों में ही पाए जाते हैं, न कि अन्यत्र भी। वैसे ही भूमिहार शब्द भी सबसे प्रथम उन्हीं कान्यकुब्ज वंशावलियों में काश्यप गोत्र के व्याख्यान में मिलता है, न कि अन्यत्र। जैसा कि 'गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास' के यहाँ छपी हुई और पं. दुर्गादत्त त्रिपाठी एवं पं. मुकुंदराम द्वारा संवत 1964 में छपवाई हुई कान्यकुब्ज वंशावली के 105वें पृष्ठ में लिखा कि :

अथ काश्यपमाख्यास्ये गौत्रां तु मुनितम्मतम्।

पूर्ववंशावलिं दृष्ट्वा ज्ञातं षष्टिशतत्रायम्॥ 1॥

मदारादिपुराख्यस्य भुइंहारा द्विजास्तु ये।

तेभ्यश्‍च यवनेण्दै्रश्‍च महद्युद्धमभूत्पुरा॥ 2॥

तेभ्यश्‍चब्राह्मणा: सर्वे परास्ता अभवंस्तत:॥ इत्यादि॥

जिसका अर्थ यह है कि जैसा कि 'हरिप्रसाद भागीरथ' के यहाँ छपे हुए 'बृहत्कान्यकुब्जकुलदर्पण' के 117वें पृष्ठ में लिखा है कि 'विक्रमीय संवत 1584 (सन 1527) मदारपुर के अधिपति भूमिहार ब्राह्मणों और यवनों से महायुद्ध हुआ और सब ब्राह्मण परास्त हुए। यह बात 360 वंशावलियों को देख कर लिखी गई है, इत्यादि यह मदारपुर गंगा के समीप कानपुर जिले में अथवा उस जिले के समीप ही है।

इसके बाद आगे चल कर, जैसा कि दिखला चुके हैं, इन्हीं भूमिहार ब्राह्मणों के वंशज गर्भू के वंश में कुतमऊ के तिवारी इत्यादि 7 या 8 स्थानवाले तिवारी, विनौर इत्यादि 5 या 6 स्थानों के अग्निहोत्री, गल्हैया इत्यादि 10 स्थानों के दूबे, कृपानपुर, नगरा आदि 3 स्थानों के मिश्र, क्यूना, मदारपुरादि 14 स्थानों के दीक्षित, विधौली और रिवाड़ी के शुक्ल, मिगलानी प्रभृति 5 स्थानों के अवस्थी इत्यादि हुए जो सभी कान्यकुब्जों में पाए जाते हैं। क्योंकि प्रथम ही यह बात कह चुके हैं कि यद्यपि इन भूमिहार नामधारी ब्राह्मणों के साथ भी गौड़ादि की तरह अन्य ब्राह्मणों के खान-पान आदि तथा विवाह सम्बन्ध ढीले पड़ रहे थे तथापि एक देशीय होने से इनके साथ सम्बन्ध एकदम टूट न गया था। इसलिए पूर्वोक्‍त तिवारी प्रभृति उसी दल में मिलते गए और आज भी भूमिहार नामधारी ब्राह्मणों के साथ विवाह सम्बन्ध याचक दलवालों का इसी कारण से बना है। परंतु गौड़ प्रभृति तो दूर देशीय थे। अत: उनके साथ का सम्बन्ध एकदम टूट गया।

एक बात यह भी विचारने योग्य है कि जैसे कान्यकुब्ज देश में ब्राह्मणों के कर्मानुसार दूबे, तिवारी प्रभृति संज्ञाएँ हुईं और जब वहाँ से वे लोग अन्य देशों में फैले तो वहाँ अमुक स्थान में दूबे और तिवारी कहलाने लगे। इसी प्रकार जब पूर्वोक्‍त युद्ध में मदारपुर के अधिपति बहुतेरे ब्राह्मण मारे गए और पं. अनंतराम जी की एक गर्भणी स्त्री के सिवाय बहुतेरे जान ले कर वहाँ से एकदम भाग गए। क्योंकि युद्ध में सभी मारे गए, कोई भी न बचा, यह तो कहीं हुआ नहीं, इसलिए असंभव हैं। हाँ, बचे-बचाए जान ले कर केवल गर्भू की माता को छोड़ कर, क्योंकि वह पिता के घर थी, सभी भाग गए और वहाँ एक भी न रहा। इसलिए लोगों ने समझा कि सभी मारे ही गए। परंतु चूँकि वहाँ कोई न रहा। इसलिए उस तरफ भूमिहार नामवाले ब्राह्मण पाए नहीं जाते, और भाग कर काशी के आस-पास निरुपद्रव जान कर आ बसे, जैसे दूसरे दूबे, तिवारी प्रभृति आए थे। इसलिए काशी के आस-पास ही इस ही नाम के ब्राह्मण पाए जाते हैं, और गर्भू की संतानों में ही दूबे, तिवारी हुए प्रथम यह संज्ञा न थी, किंतु यवन राजाओं के काल की ये पदवियाँ थीं। इसलिए और पूर्व हेतुओं से भी इस प्रांत में ये लोग प्राय: दूबे, तिवारी न कहे जा कर अब तक राय, सिंह इत्यादि पदवियों से ही पुकारे जाते हैं।

इसके बाद बहुत से अन्य स्थानों के भी कान्यकुब्ज या सर्यूपारी इस देश में आते गए और जमींदार हो हो कर इन्हीं में मिलते गए। जैसा कि सर्यूपार पिपरा के मिश्र, गौतम गोत्रीय कृष्ण या कित्थू मिश्र के वंशज द्विजराज महाराज श्री काशिराज और काशी प्रांत के अन्य गौतम भूमिहार ब्राह्मण। यह बात विजयागन्द त्रिपाठी कृत पंक्‍ति पावन परिचय नामक सर्यूपारीण वंशावली और पं. शिवराज मिश्र कृत गौतम चंद्रिकादि ग्रन्थों से स्पष्ट है। जैसा आगे भी दिखलाया जावेगा। इसी प्रकार देवकली के वत्सगोत्रीय, पांडेय आस्पदवाले दोनवार ब्राह्मण भी इनमें आ मिले जिनका निरूपण प्रसंगवश आगे करेंगे। इसी तरह क्यूना के दीक्षित काश्यप गोत्रीय भी इनमें आ मिले जिनका नाम संभवत: क्यूनावार से बिगड़ते-बिगड़ते किनवार हो गया। किनवार शब्द के विषय में आगे विशेष बात कहेंगे। अस्तु, इन सबों का निरूपण आगे होगा और जो जो ब्राह्मण मिलते जाते थे, वे अपनी मिश्र, दीक्षित प्रभृति उपाधियों को छोड़ राय, सिंह वगैरह पदवियों को ही प्रतिष्ठित जान कर ग्रहण करते थे। और जैसे अन्य दलवाले ब्राह्मण अपने को अमुक स्थान के दूबे, तिवारी इत्यादि बतलाते थे, वैसे ही इन्होंने भी अपने-अपने स्थान सूचित करने के लिए किनवार या दोनवार आदि कहना प्रारंभ कर दिया। जिसका अर्थ क्यूना अथवा ओकनी स्थानवाले इत्यादि हैं। इसी प्रकार अन्य संज्ञाओं में भी समझना चाहिए। इसका भी विशेष निरूपण आगे होगा।

इसलिए यह निर्विवाद सिद्ध है कि इन प्रकृत अयाचक ब्राह्मणों की यह वर्तमान भूमिहार संज्ञा या विशेषण यवन काल से ही हैं तथा कान्यकुब्ज, दूबे, तिवारी प्रभृति संज्ञा समकालिक ही है और कान्यकुब्ज, देश में ही इस नाम का भी जन्म हुआ है। इसलिए यदि कोई इस नाम के विषय में विवाद करें कि कब से हुआ इत्यादि तो या तो प्रथम उसे कान्यकुब्जादि नामों के काल का पता लगा कर इस विषय में पूछना चाहिए। क्योंकि उन सबों के भी समय निश्‍चित नहीं हैं, फिर केवल इसी के लिए झगड़ा क्यों? या हमारे पूर्व कथन से सभी को निश्‍चित कर के संतोष करना चाहिए।

इस भूमिहार संज्ञा विषयक पूर्वोक्‍त कथन की पुष्टि में भी यह जान लेना चाहिए कि पूर्व ग्रन्थ में धर्मारण्य में स्थापित और बाड़व शब्द बोधित ब्राह्मणों का वर्णन कर चुके हैं और उनके विषय में यह भी कह चुके हैं कि वे भी लोग याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह से रहित हो कर श्रीराम जी का दिया धर्मारण्य का राज्य करते थे। जैसा कि धर्मारण्य महात्म्य के 35 वें अध्याय में लिखा है कि :

नारदउवाच स्वस्थाने ब्राह्मणस्तत्रा कानि कर्माणि चक्रिरे।

ब्रह्मो : इष्टरापूत्तारता: शान्ता: प्रतिग्रहपरांगमुखा:॥ 3॥

राज्यं चक्रुर्यनस्यास्य पुरोधा द्विजसत्ताम।

उवाच रागपुरतस्तीर्थमहात्म्यमुत्तामम् ॥ 4॥

अर्थात 'नारद ने ब्रह्मा से पूछा कि धर्मारण्य में रहनेवाले वे सब ब्राह्मण कौन काम करते थे? ब्रह्मा ने उत्तर दिया कि वे लोग यज्ञदानादि करने और वापी, कूप तड़ाग वगैरह बनाने में दत्तचित्त थे और प्रतिग्रह से बिलकुल हटे हुए उस वन का राज्य करते थे। इसके अनंतर राम जी के पुरोहित वशिष्ठ जी ने उस तीर्थ के और महात्म्य सुनाए।'

इतना और भी जान लेना चाहिए कि जैसा कि पूर्व कह चुके हैं कि हस्तिनापुर से धर्मारण्य का सम्बन्ध महाभारत के आदिपर्व के द्वितीयाध्याय से सिद्ध होती है। क्योंकि वहाँ 'समंतपंचक' क्षेत्र के महात्म्य में यही लिखा है कि :

त्रेताद्वापरयो: सन्धौ राम: शस्त्राभृतां वर:।

असकृत्पार्थिवं क्षेत्रां जधानामर्षचोदित:॥ 3॥

स सर्वं क्षत्रामुत्साद्य स्ववीर्येणानलद्यु ति:।

समन्पंचके पंच चकार रौधिरान ह्रदान॥ 4॥

तेषां समीपे यो देशो दानां रुधिराम्भसाम्।

समन्तपंचकमिति पुण्यं तत्पररिकीत्तिततम्॥ 11॥

अन्तरे चैव सम्प्राप्तै कलिद्वापरयोरभूत।

समन्तपंचके युद्धं कुरुपांडवसेनयो:॥ 13॥ इत्यादि।

अर्थात 'त्रेता और द्वापर की संधि में परशुराम जी ने बहुत क्रोध कर कई बार क्षत्रियों का नाश कर के उनके रक्तों को पाँच कुंडों में भर कर पितृ तर्पण किया। तभी से उसके आस-पास का देश समंतपंचक कहलाया। जिसमें कलि और द्वापर की संधि में कौरव और पांडवों का परस्पर युद्ध हुआ।' और यही बात जैसा कि पूर्व कह चुके हैं, स्कंदपुराण में धर्मारण्यांतर्गत हाटकेश्‍वर क्षेत्र के महात्म्य में वर्णित है। इसलिए यद्यपि धर्मारण्य का कुरुक्षेत्र तक कुछ सम्बन्ध प्रतीत होता है। तथापि स्कंदपुराण के धर्मारण्य महात्म्य नामक भाग के पढ़ने से स्पष्ट होता है कि बरेली प्रभृति प्रांत सहित कान्यकुब्ज देश वर्तमान कानपुर प्रांत को ले कर ही प्रधान धर्मारण्य कहलाता है। इसलिए इसी प्रांत के गाँवों और वहाँ के रहनेवाले (अधिपति) ब्राह्मणों के गोत्रदि की व्यवस्था धर्मारण्य खण्ड में सविस्तार निरूपित है और यह भी वहीं ग्रंथांत में लिखा है कि* कन्नौज का राजा आम बौद्ध (जैन) मतानुयाई हो गया और अपनी कन्या का विवाह एक जैन (बौद्ध) मतानुयाई कुमारपाल नामक राजा से किया जो ब्रह्मरावत्ता (बिठूर के पास के प्रांत) का निवासी था और जब उसने धर्मारण्य को उसे दायज में दिया तो उसके दामाद (जमाता) ने वहाँ के पूर्वोक्‍त वाडवों (ब्राह्मणों) से कर माँगा एवं अपने देश से चले जाने और उनकी भूमि को (जिसे श्रीराम जी ने दिया था) छीन लेने की आज्ञा दी और कहा कि आप लोग जाइए, हम ऐसे नहीं मान सकते। परंतु यदि अपने राम और हनुमान को यहाँ लावेंगे, तभी हम आपके धर्म और बातों का विश्‍वास करेंगे। उस पार बहुत से वाडव (ब्राह्मण) रामेश्‍वर जी की ओर श्रीराम जी की प्राप्ति के लिए गए और अन्त में हनुमानजी की सहायता से उन्हें उनकी पूर्व भूमि प्राप्त हुई।

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* यथा, 'इदानीं च कलौ प्राप्ते आमो नाम्ना बभूवह। कान्यकुब्जाधिप: श्रीमान्धार्मज्ञो नीतितप्तर:॥ 11॥ प्रजानां कलिना तत्रा पापे बुद्धिरजायत। वैष्णवं धर्ममुत्सृज्य बौद्ध धर्ममुपागत:॥ 35॥ तस्य राज्ञो महादेवी मामनाम्न्यतिविश्रुता। गर्भं दधार सा राज्ञी सर्व लक्षण संयुता॥ 37॥ संपूर्णे दश मे मासि जाता तस्या: सुरूपिणी। रत्‍नगगेति नाम्ना सा मणिमाणिक्यभूषिता॥ 39॥ ब्रह्मावत्तराधिपतये कुम्भीपालाय धीमते। रत्‍नगंगा महादेवीं ददौतामिति विक्रमी। मोहेरकं ददौ तस्मै विवाहे दैवमोहित:॥ 44॥ धर्मारण्ये समागत्य राजधनी कृता तदा। देवांश्‍च स्थापयामास जैनधर्मप्रणीतकान॥ 45॥ लुप्तशासनका विप्रा लुप्तस्वाम्या अहर्निशम्। समाकुलितचित्तस्ते नृपमाम समाययु:॥ 48॥ कान्यकुब्जपुरं प्राप्य कतिभिर्वासरैर्नृप। गंगोपकण्ठे न्यवस×छ्रान्तास्ते मोढवाडबा:॥ 49 अ. 36॥ इत्युक्त्वा हनुमद्दत्ता वामकक्षोद्‍भवा पुटी। प्रक्षिप्ता चास्य निलये व्यावृत्ता द्विजसत्तामा:॥ 17॥ अग्निज्वालाकुलं सर्वं संजातं तत्रा चैवहि। जाद्दवीतीरमासाद्य त्रौविद्येभ्यो ददौ नृप:॥ 18, अ. 37॥ इत्यादि॥

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इस आख्यान से स्पष्ट है कि पूर्वोक्‍त धर्मारण्य के ब्राह्मण गंगा के उत्तर तट में कान्यकुब्ज देश (कानपुर आदि प्रांतों में) रहते और इन भूमिहार कहलानेवाले ब्राह्मणों की तरह यजनादि कर्मों से रहित हो कर राज्य या भूमिपतित्व करते थे। और जिस मदारपुर के भूमिहार ब्राह्मणों का वर्णन आया है वह भी कानपुर जिले में गंगा से उत्तर ही हैं, और धर्मारण्य का नाम मेहेर भी है, क्योंकि लिखा है कि :

धर्मारण्यं कृतयुगे त्रेतायां सत्यमन्दिरम्।

द्वापरे वेद भवनं कलौ मेहेरकं स्मृतम्॥ 27, अ 40॥

अर्थात 'सत्ययुग में जिसका नाम धर्माण्य था, उसी का त्रेता में सत्य मन्दिर, द्वापर में वेदभवन और कलि में मेहेर नाम पड़ा।' इसीलिए वहाँ उसकी राजधानी का नाम भी मेहेरपुर लिखा है। तात्पर्य यह है कि धर्मारण्य में जो प्रसिद्ध स्थान होता था, उसी का नाम मेहेरपुर होता था। और वाडव ब्राह्मण वहाँ के राजा थे। अत: जिस राजधनी में वे रहते थे, वह मेहेरपुर कहलाते-कहलाते मदारपुर कहलाने लगी और चूँकि वे लोग राजा या जबरदस्त थे, इसी से यवनों ने उनसे युद्ध किया क्योंकि साधारण लोगों से राजा लोग युद्ध नहीं करते। इसलिए जैसा कि कह चुके हैं कि समय पा कर कुछ ग्रामों में रहनेवाले उन्हीं ब्राह्मणों का नाम भूमिहार ब्राह्मण पड़ गया इसके मानने में कोई संदेह नहीं किया जा सकता।

क्योंकि भूमिहार शब्द 'भूमि' शब्द को पूर्व में रख कर हृर हरणे धातु से 'कर्मण्यण्' (पा. 3। 2। 1) इस पाणिनिसूत्रनुसार 'अण्' प्रत्यय लगाने पर 'भारहार' आदि शब्दों की तरह बना है। यह ह्रं धातु हरण रूप अर्थ का बोधक है। जिस हरण का अर्थ पंडित प्रवर भट्टोजिदीक्षित ने स्वकृत सिद्धांत कौमुदी के उत्तारार्द्ध के भ्वादि गण में इसी हृं धातु के प्रकरण में लिखा है कि 'हरणं प्रापणं, स्वीकार:, स्तेयं, नाशनं च।' जिसका तात्पर्य यह है कि जिस हरण रूप अर्थ का वाचक 'हृ' धातु है, उस हरण के चार अर्थ है - (1) प्राप्त करना अर्थात पहुँचाना, (2) स्वीकार करना, (3) चुराना, और (4) नाश करना। इन चारों अर्थों के उदाहरण 'तत्वबोधिनी' प्रभृति ग्रन्थों में ऐसे लिखे है कि जैसे -

(1) 'भारं हरति' अर्थात बोझे को हरण करता यानी पहुँचाता है,

(2) 'भागं हरति' अर्थात अपने हिस्से को हरण करता या स्वीकार करता है,

(3)'सुवर्ण हरति, अर्थात सोना हरता या चुराता है, और

(4) 'हरि हरति पापानि' अर्थात विष्णु पापों को हरते या उनका नाश करते हैं। परंतु जब कि रुपए, पैसे इत्यादि की तरह पृथ्वी की चोरी या नाश हो नहीं सकता, इसलिए प्रकृत में हृं धातु के दो ही अर्थ हो सकते हैं, प्रापण अर्थात पहुँचाना या बल से अधिकार कर लेना और स्वीकार।

इसलिए भूमिहार का यह अर्थ हुआ कि 'भूमिं हरति प्रापयपि बलादधिकरोति केनचिदुपाएन स्वीकरोति वेति भूमिहार:' अर्थात जो ब्राह्मण पृथ्वी के ऊपर अस्त्र, शस्त्रादि के बल से अधिकार कर ले, अथवा उपयांतर से प्राप्त पृथ्वी का स्वीकार कर ले - जैसा कि योगेंद्रनाथ भट्टाचार्य एम. ए. की भी सम्मति इस विषय में ग्रन्थ के अन्त में दिखलावेंगे कि जिन ब्राह्मणों ने जागीर वगैरह में भूमि प्राप्त की, वे भूमिहार कहलाए - उसे भूमिहार कहते हैं। और ये दोनों बातें धर्मारण्य के पूर्वोक्‍त ब्राह्मणों में घटती भी है। क्योंकि श्रीराम जी के यज्ञ में दक्षिणा स्वरूप भी पृथ्वी उन्हें यज्ञ करवाने के बदले मिली थी, और पीछे उस जैनी राजा के तंग करने पर उन्हें उसके गृह इत्यादि को जलाना और रुद्र-रूप धारण करना पड़ा, जिससे उसकी सब सेनाएँ नष्ट हो गईं। यह बात उसी धर्मारण्य महात्म्य ग्रन्थ से विदित होती है। और पश्‍चात भी उन्होंने यवन राज्य काल में पृथ्वी पर बहुत सा अधिकार कर लिया था। इसलिए उसी समय (यवन काल में) ये मदारपुर के अधिपति ब्राह्मण भूमिहार कहलाए और इसीलिए उन लोगों को यवनों ने बली जान घोर युद्ध किया।

इसी जगह इतना और भी जान लेना चाहिए कि जिस प्रकार अयाचक वीर ब्राह्मण दल के लिए यह भूमिहार या भुइंहार शब्द आया है क्योंकि संस्कृत भूमिहार शब्द के भूमि शब्द का अपभ्रंश 'भुइं' शब्द हो गया है। परंतु हार शब्द दोनों में ज्यों का ज्यों पड़ा है। उसी प्रकार उसी दल के लिए 'महियाल' और 'तगा' अथवा दान त्यागी शब्द आते हैं। जिनमें से 'महियाल' शब्द पंचाब प्रांत निवासी सारस्वत ब्राह्मणों के एक प्रतिष्ठित दल के लिए आता हैं। जिस दल में काशी के भूतपूर्व विद्वन्मंडली मंडन श्रीयुत काका राम शास्त्री जी हो गए हैं। जिनके सुकर्मपुष्प के कीर्तिगंध में आज भी विद्वन्मानस चंचरीक लुब्ध हो रहा हैं और तगा या दानत्यागी, अथवा त्यागी शब्द प्राय: मेरठ की कमिश्‍नरी और उसके समीपवर्ती अन्य प्रांत निवासी गौड़ ब्राह्मणों के उसी अयाचक, कर्मवीर दल के लिए आता है। इनमें से 'महियाल' शब्द का ठीक वही अर्थ है जो भूमिहार शब्द का। क्योंकि उसका शुद्ध संस्कृत शब्द 'महीवार' है, जो मही (भूमि का पर्याय) पूर्वक वृत्त अथवा वृङ धातु से उसी पूर्वोक्‍त 'कर्मण्यण' इस सूत्र से अण् प्रत्यय करने से बना हैं। जिनमें से वृत्त धातु का वरण अर्थात प्रार्थना या स्वीकार अर्थ हैं, और वृङ् धातु का भी संभक्‍ति अर्थात स्वीकार, सम्मान अथवा याद करना अर्थ हैं। अथवा वृ या वृत्त धातु से भी अण प्रत्यय करने से यह शब्द बन सकता है। इन दोनों के भी अर्थ पूर्वोक्‍त ही हैं और धारण करना (रखना) बन सकता है। इसलिए संपूर्ण शब्द का यह अर्थ हुआ कि 'महीं भूमिं वृणोति स्वीकरोति प्राथयते वा, वृणाति वृणीते स्वीकरोति सम्मानयति धारयति वेति महीवार:' अर्थात जो भूमि का जागीर वगैरह की तरह, जैसा कि इस प्रकरण के अन्त में योगेंद्रनाथ भट्टाचार्य एम.ए. की सम्मति दिखलावेंगे, स्वीकार या उसके लिए प्रार्थना करे, अथवा उसका सम्मान या पालन करे, उस अयाचक ब्राह्मण दल का नाम महीवार है। यही महीवार शब्द बिगड़ते-बिगड़ते महीबाल हो कर आजकल महियाल हो गया है। र, ल, तथा ड वर्णों का उलट-फेर संस्कृत में भी हुआ करता है। जैसे विलार और विडाल। जैसे जमींदार भूमिहार, ब्राह्मणों में कहीं-कहीं लोगों को ब्राह्मण शब्द कहने से घृणा होती है, जैसे कि प्रथम ही दिखला चुके हैं, वैसे ही महियाल और त्यागी लोग भी अपने को ब्राह्मण कहने घृणा करते हैं। केवल महियाल में या त्यागी मात्र ही कहते और मनुष्य गणनादि के विवरणों में लिखवाते हैं। क्योंकि उनमें तो संस्कृत का अत्यन्त अभाव-सा हो रहा है। इसलिए वे लोग ब्राह्मण शब्द के पवित्र अर्थ को न जान उसे विपरीत ही समझे हुए है। इसलिए उससे घृणा करते हैं। पंजाब में जमीन खरीदने वगैरह के लिए यह कानून हैं कि जराअत पेशा (कृषक) जातियाँ ही उसे कर सकती है, न कि दूसरे लोग भी और ब्राह्मणों की गिनती जराअत पेशा कौम में न होने एवं तगे और महियालों की गिनती उनमें होने से वहाँ के बहुत से गौड़ और सारस्वत अपने को महियाल और तगा ही कहना और उन्हीं से विवाह करना पसंद करते हैं।

यही दशा गुजरात देशीय सिपाही नागर संज्ञक ब्राह्मणों की भी हैं। वे लोग भी बड़ौदा प्रभृति राज्यों में बड़े-बड़े जमींदार रहे हैं और संस्कृत तो प्राय: जानते ही नहीं। तथापि वाणिज्य, व्यापार में बहुत ही कुशल होने से लक्ष्मीपात्र है और प्राय: बहुत से मजूमदार कहे जाते हैं, जिसका जमींदार ही अर्थ होता है। उनमें भी प्राय: राय अथवा भाई पदवीवाले होते हैं, अमुकराय, अमुकभाई इत्यादि। वे लोग भी अपने को 'कौन हैं' ऐसा प्रश्‍न करने पर केवल 'नागर' कहा करते हैं, बल्कि ब्राह्मण कहने से बुरा भी मानते हैं। हाँ, अब द्वारिका के गोवर्धन पीठ के श्री शंकराचार्य जी के समझाने से कुछ-कुछ समझने लगे हैं। यही दशा महियालों की है। अन्य सारस्वतों के हजार कहने पर भी अपने को केवल महियाल ही लिखवाते हैं। हाँ, वे भी अब कुछ-कुछ समझने लगे हैं उनमें बड़े-बड़े जमींदार और राजे हो गए हैं और हैं, जिनका विशेष विवरण पं. दुर्गादत्त जोशी रचित 'सारस्वत ब्राह्मण इतिहास, में मिलता है। जो अंग्रेजी और हिंदी मिश्रित उर्दू में छपा हैं और एक रुपए में स्थान-हाथी बड़कला जिला देहरादून में मिलता है।

उन्होंने तो उस पुस्तक में जमींदार, भूमिहारादि ब्राह्मणों के सभी दोनवार, किनवार प्रभृति भेदों को लिख कर और बड़े-बड़े राजों, महाराजों तथा बाबुआनों को भी जैसे कि महाराज द्विजराज श्रीकाशिराज, महाराज हथुआ एवं बाबुआन जगतगंज, चितईपुर इत्यादि, लिख कर सभी को सारस्वत ब्राह्मण सिद्ध किया है। जिसे इच्छा हो मँगा कर देख ले। उसी पुस्तक के तृतीय सर्ग (अध्याय, बाबू) के 19वें से 29वें पृष्ठ तक गोत्र और उपाधियों आदि को बतला कर युक्‍ति और प्रमाणों से यह सिद्ध किया है कि महाराज पोरस, जो सन ईस्वी 300 वर्ष पूर्व हुआ, सुधाजोझा जो सन 500 ई. में हुआ, राजा छाच जो सन 700 ई. में और जयपाल, आनन्दपाल और सुखपाल जो सन 1001 ई. में हुए ये सभी महियाल आदि सारस्वत ब्राह्मण थे। उनके कुरसीनामे को भी वहाँ लिखा है और मिलान किया है। यहाँ तक कि उन्होंने 'राजर्षि' शब्द भी उन सारस्वत ब्राह्मणों के लिए रखा है, जिनका वर्णन उस पुस्तक-भर में है।

डॉ. विल्सन के 'भारतीय जातियाँ' नामक अंग्रेजी ग्रन्थ में महियालों के विषय में द्वितीय भाग 134वें पृष्ठ में इतना ही लिखा है कि :

Saraswat Brahmans, "Another class of the character referred to is that of the Moyals, or Tvoval. They are extensively scattered over the Punjab."

अर्थात 'सारस्वत ब्राह्मणों की एक और जाति हैं जो महियाल या मोवाल कहलाती और संपूर्ण पंजाब में फैली हुई है।' उसी जगह तगा ब्राह्मणों के विषय में लिखा है कि: "Taga Brahmans of the Punjab are generally cultivators. They belong to the Gauda division of the Brahman-hood. They care little about religious rites's of any kind Yet, as if compensating for their indifference in this matter, they profess to obstain from flesh and fish....They are found principally on the bank of the Saraswati, near Thanesar. Some of the less pure agricultral Brahmans of these villages are called Taga or Gauda Tagas."

इसका अर्थ यह है कि 'पंजाब के तगे ब्राह्मण प्राय: कृषक है, वे गौड़ ब्राह्मण दल के हैं और सभी प्रकार के धार्मिक कार्यों पर कम ध्यान देते है। तथापि गोया इसी अपराध के प्रायश्‍चित्त के लिए, वे लोग मांस, मछली नहीं खाते...। वे विशेष कर थानेसर के पास सरस्वती नदी के किनारे पाए जाते हैं। इन ग्रामों में बहुत से जो पक्के कृषक ब्राह्मण नहीं हैं वे तगा या गौड़ तगा कहलाते हैं।'

अस्तु, इसी प्रकार तगा या त्यागी ब्राह्मणों का विशेष विवरण यों हैं कि महाराज आदि शूर ने 999 शब्दका में कान्यकुब्ज देश से पाँच गोत्र के पाँच ब्राह्मणों को वहाँ बुला कर यज्ञ करवाया और युक्‍ति से उन्हें वहाँ स्थापित किया। जिनके उस बंगदेशांतर्गत गौड़ देश में (ढाका, राजशाही, मुर्शदाबाद प्रभृति प्रांतों का नाम गौड़ देश हैं) कई भिन्न-भिन्न कारणों के वश दो दल हो गए, जो गंगा के इस और उस पार में बारेंद्र और राढ़ देश में बसे। इसलिए बारेंद्रीय और राढ़ीय कहलाए। उन्हीं में से मनुस्मृति के टीकाकार कुल्लुक भट्ट बारेंद्र श्रेणी के ब्राह्मण थे। अतएव अपनी टीका के प्रारंभ में ही वे लिखते हैं कि :

गौडे नन्दवासिनाम्नि सुजनैर्वन्द्ये वरेन्दयां कुले।

श्रीमद्‍भट्टदिवाकरस्य तनय: कुल्लूकभट्टो भवत्॥

जिसका अर्थ यह है कि गौड़ देश के वारेंद्र श्रेणी के ब्राह्मणों के नन्दवासा नामक कुल में श्रीमद्‍भट्ट के पुत्र कुल्लूकभट्ट हुए।

जब कन्नौज से इस देश में ब्राह्मण आए तो, उनके विषय में भिन्न-भिन्न मत है कि वे लोग फिर गौड़ देश से कन्नौज में लौटे। परंतु उनके देशवालों में मगध और बंगादि देशों में जाने के कारण उनका सत्कार न किया। इसलिए फिर लौट गए और गौड़ देश में ही स्थित हुए। किसी का मत उनके वहाँ ठहरने के विषय में भिन्न ही है और किसी का और ही। यह बात 'गौड़ हितकारी' मासिक पत्र के देखने से स्पष्ट विदित होती है, जो मैनपुरी से निकलता है। उसमें 'गौड़ देश में ब्राह्मण' शीर्षक लेख में जो अप्रैल सन 1915 ई. से प्रतिमास प्रकाशित होने लगा है, बहुत से प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर इन बातों को दिखलाया है। उसी पत्र के सितंबर सन 1915 ई. के अंक के दूसरे पृष्ठ में लिखा है कि 'बल्लालसेन के पिता विजयसेन के पश्‍चात बल्लालसेन ने राढ़ी एवं वारेंद्र श्रेणी विभाग, एवं वारेंद्र कुल में कौलीन मर्यादा स्थापित की एवं राढ़ीय श्रेणी में दानत्यागी कुलीन ब्राह्मणों का आदर-सत्कार किया।' कहते हैं कि 'बल्लालसेन ने एक स्वर्ण निर्मित गोमूर्ति दान की। परंतु कतिपय राढ़ी ब्राह्मणों ने इस स्वर्ण निर्मित धेनु के टुकड़े-टुकड़े कर के स्वस्वभाव ग्रहण किया। इससे बल्लालसेन को दु:ख हुआ और दानग्राही ब्राह्मणों को उन्होंने समाज से बहिष्कृत कर दिया।' इससे उस समय गौड़ देशीय राढ़ीय ब्राह्मणों का एक दल दान त्यागी था और दूसरा दानग्राही ऐसा प्रतीत होता है। इसके अनंतर, ऐसा मालूम होता है कि जब यवनों का आधिपत्य बंगदेश में विशेष हुआ जिसके आज तक अनेक प्रमाण है और जो बात इतिहासज्ञों से छिपी नहीं है, तब, अथवा अन्य उन्हीं कारणों से, जिनका वर्णन अन्य ब्राह्मणों के विषय में पूर्व कर चुके हैं, वे गौड़ देशीय ब्राह्मण गौड़ देश से पश्‍चिम को चले हैं। परंतु कान्यकुब्ज प्रभृति ब्राह्मणों ने बंगादि देशों में जाने और रहने से अपने पास रहने नहीं दिया है। इसलिए और कुरुक्षेत्र के पास के देशों को किसी और कारण से भी अनुकूल जान कर वे गौड़ देश के दोनों दलवाले दानत्यागी और ग्राही ब्राह्मण वहीं रह गए हैं। इसमें प्रबल प्रमाण यह है कि जहाँ अन्य गौड़ पाए जाते हैं वहीं तगे लोग भी। 'कान्यकुब्जा द्विजा: सर्वे' यह प्रसिद्ध होने और उन्हीं के एक दल के पीछे से गौड़ नामवाला प्रसिद्ध और पंच द्राविणों तक विस्तृत होने से प्रथम जिन पाँच दलों का नाम कान्यकुब्ज था, वे ही अब गौड़ कहलाए। जैसे सूर्य वंश का नाम पीछे से रघुवंश भी हुआ। इसी से शक्‍ति संगम तन्त्र में 'पंचगौड़ा:' इत्यादि लिखा है, जिसे लोग सह्याद्रि खण्ड और भविष्यपुराण का बताते हैं।

अस्तु, बल्लालसेन के समय में दान त्याग से उनका नाम प्रसिद्ध हो गया। इसलिए वे लोग दान त्यागी कहलाने लगे और दूसरे लोग ज्यों के त्यों कहलाते थे। परंतु जब गौड़ देश से कुरुक्षेत्र के आसपास आ बसे, तो अन्य ब्राह्मण तो पूर्वोक्‍त नियमानुसार गौड़ देश के नाम से गौड़ कहलाने लगे और दान त्यागी लोग गौड़ दान त्यागी, जो बिगड़ते-बिगड़ते काल पा कर गौड़ त्यागी हो कर फिर त्यागी, तागी, तगा इत्यादि हो गया। इसलिए अब वे लोग गौड़ तगा या तगा कहलाते हैं। यदि उनमें भी कहीं ब्राह्मण शब्द से घृणा है, तो उसका कारण दिखला ही चुके हैं। वे लोग बड़े-बड़े जमींदार है, और उनके व्यवहार राजसी हो रहे हैं। गौड़ों में जो आदि गौड़ कहलाते हैं उनका भी यही अर्थ है कि जिनको आदि शूर ने गौड़ देश में बुलाया था अथवा जो प्रथम गौड़ देश में गए, या वहाँ से प्रथम आ कर इन देशों में बसे। इन दान त्यागी गौड़ों के विवाह सम्बन्धादि प्राय: अन्त गौड़ों के साथ सहारनपुर, अंबाला आदि जिलों में होते हैं। परंतु महियाल लोग तो अन्य सरस्वतों के यहाँ अपने पुत्रों का ही प्राय: विवाह करते, अपने को उनसे श्रेष्ठ समझते और प्राय: लड़कियाँ उन्हें नहीं देते हैं। इस तरह से उत्तर भारत के - (1) भूमिहार, (2) दान त्यागी या तगे, (3) महियाल, (4) जमींदार (5) पश्‍चिम आदि नामधारी अयाचक ब्राह्मण ही इस समय एक-से हैं और इनके आचार, विचार, नाम और प्रतिष्ठा इत्यादि भी समान ही है।

इसी प्रकार यदि बंगदेशीय ब्राह्मणों को देखिए तो वहाँ भी दो दल हैं, अयाचक लोग देवशर्मा कहे जाते हैं, तथा याचक दलवाले भट्टाचार्य एवं दक्षिण में अयाचक लोग प्राय: राव कहलाते हैं तथा याचक दलवाले भट्ट। महाराष्ट्र के चितपावन लोग, जिनमें लोकमान्य तिलक हुए हैं, अयाचक ही है। गुजरात देश के नागरों का हाल कह ही चुके हैं। उस गुजरात में मुझे बहुत से ऐसे ब्राह्मण मिले, जिनकी वंश-परम्परा की पदवी अयाची है, जिसका अर्थ अयाचक है। कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों में भी इन जमींदार और भूमिहार ब्राह्मणों को छोड़ कर और भी प्राय: बहुत से ऐसे ब्राह्मण सर्यूपार और कान्यकुब्ज देश में अधिकतर पाए जाते हैं, जो प्रतिग्रह से घृणा करते हुए केवल कृषि, वाणिज्यादि द्वारा ही जीविका करते और कुलीन समझे जाते हैं। मैथिलों में भी प्राय: श्रोत्रिय तथा अन्य भी बहुत से अयाचक ही हैं एवं उत्कल ब्राह्मणों में भी बहुत से अयाचक ही हैं, जो जाजपुर स्थान के नाम से जाजपुर कहे जाते हैं और पडया भी। इसी तरह इस समय की कान्यकुब्जों में बहुत से दान त्यागी ब्राह्मण जगद्वंशी और धनंजई कहलाते हैं।

यद्यपि इन सबों के साथ भूमिहार, जमींदार, तगे और महियाल आदि अयाचक विप्रों के खान-पान आदि नहीं हैं, तथापि इस कथन का तात्पर्य यह है कि जो अनादि काल से याचक और अयाचक दो प्रकार के ब्राह्मण कहलाते थे, उनका इस समय भी किसी भी देश या प्रांत में अभाव नहीं है। अत: इनमें से जिनके वंश उज्ज्वल या आचार-व्यवहार अच्छे हो, उनके साथ खान-पान, विवाह आदि करने में कोई हर्ज नहीं है।

अस्तु, यह बात सिद्ध हो गई कि ब्राह्मणों की सभी नूतन संज्ञाएँ यवन काल में प्रचलित हो गईं। तदनुसार भूमिहार, तगा (दानत्यागी) और महियाल संज्ञाएँ भी उसी काल में पड़ीं। और यह भी सिद्ध हो गया कि प्रथम भूमिहार और तगा (दानत्यागी) संज्ञा कान्यकुब्जादि ब्राह्मणों के ही एक-एक दल की हुई और भूमिहारादि शब्दों के अर्थ भी विदित हो गए। इसलिए जो लोग ऐसी कुकल्पना करते हैं कि 'जब मदारपुर के ब्राह्मण लोग भूमि को हार गए, तो उनका नाम भूमिहार पड़ा' वह अज्ञानपूर्ण हैं क्योंकि व्याकरणादि भी इस अर्थ की पूर्वोक्‍त रीति से स्थान नहीं दे सकते। और यदि हारने पर ही नाम पड़ा तो जब मदारपुर के अधिपति थे उस समय लड़ाई से पूर्व काल में वे लोग क्योंकर भूमिहार कहे गए? और पीछे भी भूमिहार क्यों कहा गया? क्योंकि

आपकी सुबुद्धि में तो यह असंभव बात समाई हैं कि सभी मर गए। और गर्भू तो लड़ाई में था ही नहीं, क्योंकि उसकी माता अपने पिता के घर या अन्यत्र थीं और वह गर्भ में था। क्या आपको कहीं ऐसा भी मिला है कि लड़ाई में सभी मार डाले गए? क्या आजकल के समय में भी कोई भी कादर न था। इसलिए ये सब कुकल्पना मात्र है। वास्तव अर्थ तो पूर्व में ही दिखला चुके हैं। यदि 'तुष्यतु दुर्जन' न्याय से आपके इस कल्पित अर्थ को स्वीकार कर भी ले, तो भी भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में कोई हर्ज नहीं है। क्योंकि पूर्वोक्‍त रीति से जो युद्ध में इधर-उधर भाग गए, वही ब्राह्मण भूमिहार कहलाए। यदि 'भूम्या भूमेर्वा हारा भूमिहार:' अर्थात जो भूमि के हार रूप हो वे ब्राह्मण भूमिहार कहलाते हैं। जैसे भूमिसुर या भूसुर का अर्थ भूमि संबंधी (अर्थात इस लोक का) सुर यानी देवता हैं, अत: ब्राह्मण भूसुर कहलाते हैं। जैसे पति स्त्री का भूषण रूप होने के कारण उसका हार कहलाता है, वैसे ही पृथ्वी रूप स्त्री के पति होने से यह अयाचक ब्राह्मण भी भूमिहार कहलाने लगे, ऐसी कल्पना आप करते, तो आपकी बुद्धिमानी की प्रशंसा की जाती।

अस्तु, ये भूमिहार ब्राह्मण कन्नौज से पूर्वोक्‍त मदारपुरवाले युद्ध में हट कर काशी के आसपास के प्रांतों में भी फैल गए, क्योंकि वे निकट हैं, न कि अधिक पूर्व के देश। और अन्य अयाचक ब्राह्मणों के इनमें मिल जाने से जैसा कि कह चुके हैं, इनकी संख्या बढ़ने लगी। उसी समय जो अयाचक ब्राह्मण बड़े-बड़े जमींदार, या शक्‍ति-संपन्न और शस्त्रधारी थे, परंतु अभी तक इस भूमिहार संज्ञा वा विशेषण से भूषित न थे, और जो बढ़ते-बढ़ते तिरहुत प्रांत के मुजफ्फरपुर, दरभंगा प्रभृति जिलों में चले गए, उन्हें मिथिला देश के निवासी ब्राह्मण प्रभृति अपने को पृथक रखने के लिए पश्‍चिम देश से आए हुए ब्राह्मण जान पश्‍चिमीय ब्राह्मण कहने लगे। जो शब्द आज तक मिथिला प्रांत में बिगड़ कर 'पश्‍चिम ब्राह्मण' इन्हीं अयाचक ब्राह्मणों के लिए कहा जाता है। और इसके साथ ही उस देश के भी जो बहुत से अयाचक ब्राह्मण थे और जिनका व्यवहार याचक मैथिलों को पसंद न था और न उनका अयाचक ब्राह्मणों को, वे भी इन पश्‍चिम ब्राह्मणों से विवाह आदि कर के इनमें मिलने लगे। यह पश्‍चिम ब्राह्मणों का मैथिलों के साथ विवाह और परस्पर खाने-पीने की प्रथा आज तक प्रचलित है और बहुत से मैथिल ब्राह्मण मूर्द्धन्य पश्‍चिम ब्राह्मणों में इसी कारण मिलते चले जा रहे हैं, जिनका निरूपण आगे करेंगे। इसलिए पश्‍चिम ब्राह्मण का अब अर्थ हो गया कि जो ब्राह्मण पश्‍चिम के कान्यकुब्जादि देशों से तिरहुत में आए अथवा जो तिरहुतवाले भी विवाहादि द्वारा उनमें मिलते गए। साथ ही, इन पश्‍चिम ब्राह्मणों ने भूमिहार ब्राह्मणों को ही अपने सम्बन्ध योग्य समझा, इसलिए काशी के समीपवर्ती प्रांतों में रहनेवाले इन भूमिहार ब्राह्मणों के साथ विवाहादि करना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार से उनके इन भूमिहार ब्राह्मणों में मिल जाने से भूमिहार ब्राह्मणों का सम्बन्ध मिथिला प्रदेश में भी यद्यपि हो गया। तथापि इनके लिए वहाँ वही पश्‍चिम ब्राह्मण शब्द अब तक प्रचलित है। कहीं-कहीं केवल पश्‍चिम शब्द भी आता है।

इस 'पश्‍चिम ब्राह्मण' शब्द के विशेष प्रचार होने का कारण यह है कि जब मिथिला देश में कायस्थों और ब्राह्मणों को पंजी (मैथिल वंशावली) लिखी जाने लगी, जिसके अनुसार ही आज की मैथिल सभा केवल मैथिल ब्राह्मणों की ही नहीं है, किंतु मैथिल कायस्थों की भी है और वहाँ ब्राह्मण और कर्ण कायस्थ दोनों ही अपने को मैथिल ही कहते हैं और पाग (पगड़ी) भी दोनों की प्राय: एक-सी होती है। तो जैसे मैथिल कायस्थों से अन्य कायस्थों को पृथक करने के लिए कायस्थ के साथ पश्‍चिम शब्द लगने से पश्‍चिम कायस्थ कहलाने लगे, वैसी ही इन अयाचक ब्राह्मणों को मैथिल ब्राह्मणों से पृथक करने के लिए ब्राह्मण शब्द के साथ पश्‍चिम शब्द लगा कर ये ब्राह्मण पश्‍चिम कहलाने लगे। अब भूमिहार ब्राह्मण महासभा के उद्योग से कहीं-कहीं भूमिहार शब्द सुनने में आता हैं। हाँ मगध और तिरहुत प्रांत में भी बाभन शब्द का प्रचार है। उनमें से मगध में विशेष रूप से और तिरहुत में भी कहीं-कहीं केवल यह शब्द बोला जाता है। परंतु स्मरण रखना चाहिए कि आजकल प्राय: प्रत्येक प्रांत में ब्राह्मण मात्र के ही लिए बाभन शब्द का प्रयोग होता है। इसका प्रचार तो यहाँ तक हो गया है कि जो लोग संस्कृत पढ़े-लिखे धुरन्धर विद्वान समझे जाते हैं, वे भी किसी-किसी विशेष समय को छोड़ अपने या सभी ब्राह्मणों के लिए बाभन शब्द का ही प्रयोग साधारण बोलचाल में किया करते हैं। जैसा कि 'करिया बाभन गोर चमार, इनके संग न उतरे पार' इत्यादि किंवदंतियाँ भी सूचित करती है। इसी प्रकार से मिथिला के मैथिल लोग तो अपनी भाषा के व्यवहार में सभी ब्राह्मणों को बाभन कहा करते हैं। जैसा कि 'सोतियो बाभन थीक और कंटा हो बाभन थीक, बाभनो सब तरहक होइछथ' इत्यादि जिसका तात्पर्य यह है कि 'श्रोत्रिय भी ब्राह्मण ही हैं और महापात्रा (प्रेत ब्राह्मण) भी। ब्राह्मण भी सभी तरह के होते हैं।' थोड़ा पश्‍चिम जाने पर भी बाभन या बम्भन शब्द का प्रयोग मिलता है, जैसा कि 'क्यों जी आप तो बाभन की तरह खटराग करते हैं' इत्यादि। इसी प्रकार अन्य देश में भी 'करिया बाभन गोर शुद्दर ताहि देखि डरे रुद्दर।'

तात्पर्य यह है कि सभी प्रांत में बाभन शब्द को ही बाभन का बोधक पाते हैं, और यह उचित भी है। क्योंकि संस्कृत ब्राह्मण शब्द का अपभ्रंश बाभन शब्द है, जैसे वाराणसी का बनारस, चतुर्वेदी का चौबे, त्रिवेदी का तिवारी, और मार्ग का मग इत्यादि। और आजकल प्राय: अपभ्रंश शब्दों का ही व्यवहार होता है। यह बाभन शब्द ब्राह्मण शब्द से क्योंकर बिगड़ते-बिगड़ते बना, इसका विस्तृत विचार पटना प्रांतान्तर्गत अमहरा ग्राम निवासी श्री काशीचरण सिंह जी ने 'बाभन' नामक ग्रन्थ में किया है। जिसके देखने से इस विषय तथा अन्य उपयोगी विषयों में ज्ञान प्राप्त हो सकता है। वह अवश्य दृष्टव्य है।

सारांश यह है कि मैथिली भाषा में श्रोत्रिय शब्द की जगह सोतिय अथवा सोत शब्द का प्रयोग करते हैं, जैसा कि अभी दिखला चुके हैं। श्रोत्रिय शब्द के दोनों प्रकार उड़ा दिए गए हैं और श्रावण तथा चैत्रादि शब्दों की जगह भी सावन और चैत शब्द ही बोले जाते हैं। एवं महीष शब्द के मकार की जगह 'भैं' शब्द बोल कर हृकार, मकार अक्षरों की जगह 'स' भानस शब्द का प्रयोग होता है, जिसका अर्थ रसोईघर हैं। इसीलिए रसोई बनानेवाले को वहाँ के लोग 'भनसिया' कहा करते हैं। इन दृष्टांतों से स्पष्ट हो गया कि किस प्रकार ब्राह्मण शब्द बिगड़ते-बिगड़ते बाभन हो गया। विशेष कर मैथिल भाषा में इसके विशेष दृष्टांत मिलते हैं। इसीलिए उस भाषा में ब्राह्मण शब्द की जगह बाभन ही होना चाहिए जैसी कि उस भाषा की रीति विदित हो गई होगी। इसी से तिरहुतप्रांत में अन्य ब्राह्मणों के लिए और इस अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के लिए भी बाभन शब्द का प्रयोग होता है। क्योंकि 'जैसा देश वैसा भेष' इस नियमानुसार उस देश में उसी देश की भाषा के शब्द का प्रयोग करना या होना उचित ही है।

मगध देश मिथिला का समीपवर्ती है। इसी से पूर्वकाल में भी मगध और उसका सम्बन्ध बहुत रहा है, जैसा कि बौद्ध काल आदि के इतिहासों से विदित होता है। साथ ही, जैसा कि काशी प्रांत के आचार-विचार से मगध का आचार-विचार एकदम विपरीत ही है, वैसा मिथिला देश से नहीं, किंतु दोनों देशों के आचार-विचार प्राय: मिलते हैं। ये भी दोनों देशों के प्राचीन सम्बन्ध को सिद्ध करते हैं। और जिस बिहार अथवा बंगाल का भाग मगध है उसी का तिरहुत भी है। परंतु काशी उससे पृथक है, क्योंकि प्राय: जिन-जिन प्रांतों के आचार इत्यादि एक प्रकार के होते हैं वे ही एक में सम्मिलित किए जाते हैं। इसलिए यह आज तक देखने में आता है कि मिथिला प्रांत के अयाचक अथवा याचक ब्राह्मणों के जितने विवाह सम्बन्ध प्रभृति मगध देश में हैं, उतने तिरहुत से बाहर अन्यत्र काशी प्रभृति प्रांतों में नहीं हैं। क्योंकि जिन लोगों की भाषा इत्यादि के समझने में विशेष क्लेश नहीं होता, उनके ही सम्बन्ध परस्पर होने में आसानी होती है। मिथिला की भाषा भी मगध से मिलती-जुलती है। इन्हीं सब कारणों से मगध देश में भी उसी मिथिला देशवाले, अथवा उस भाषावाले बाभन शब्द का व्यवहार सभी याचक और अयाचक ब्राह्मणों के लिए आता हैं। न कि काशी प्रांत के भूमिहार और प्रयाग के जमींदार शब्द का प्रयोग अयाचकों के लिए आज तक आया है। क्योंकि जिसका सम्बन्ध प्रबल होता है वही अपनी ओर उसे सब तरह से घसीटता हैं। इसीलिए छपरा जिले के पूर्वी भाग में भी बाभन शब्द ही ब्राह्मणों के लिए आता है। क्योंकि वह मिथिला से बहुत निकट और काशी प्रांत से बहुत दूर हो गया है। अत एव वहाँ के बहुत से आचार-विचार भी तिरहुत से मिलते हैं।

सबसे बड़ा प्रमाण छपरा, तिरहुत और मगध के प्राचीन सम्बन्ध का यह है कि बहुत से मैथिल और पश्‍चिम आदि जो ब्राह्मण वहाँ पाए जाते हैं, वे बहुतेरे या तो छपरा से गए हैं, अथवा मगध देश से। जैसे कि एकसरिया, जैथरिया, दिघवे अथवा दिघवैत, सहौलिया, दंसवार और कोदरिया प्रभृति छपरा से तिरहुत आदि में गए हैं, और आरे, सिहुलिया वा सिहोगिया या सोहगौरिया, नैनजोरा इत्यादि मगध से तिरहुत या छपरा में गए हैं। इसीलिए इन सभी का भाषा इत्यादि में मेल है। इसलिए मिथिला भाषा का ही बाभन शब्द मगध या छपरा में भी बोला जाता है, इसमें संदेह नहीं हो सकता। इसीलिए जो लोग पांडित्य के गर्व में यह कुकल्पना करते हैं - जैसा कि मि. ई. ए. गेट साहब ने सन 1901 ई. की भारतवर्षीय मनुष्यगणना के विवरण की छठवीं जिल्द के 279 पृष्ठ के पैरा 610 के फुटनोट (टिप्पणी) में म. म. हरिप्रसाद शास्त्री की सम्मति लिखी हैं, जो उन्होंने एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल में दिखलाई थी कि जो ब्राह्मण बौद्ध काल में या तो बौद्ध हो गए थे या उसका प्रभाव उसके ऊपर पड़ गया था, उनके ही लिए बाभन शब्द प्रयुक्‍त होता है। क्योंकि यह शब्द भी बौद्ध धर्म की पालि भाषा का है इत्यादि। उनकी कल्पना की प्रशंसा जहाँ तक कि जावे सब थोड़ी ही है। क्योंकि इस कुकल्पना से तो प्राय: सभी ब्राह्मण जैसा कि दिखला चुके हैं पूर्वकाल के बौद्ध सिद्ध हो जावेंगे। फिर उनके मत में ब्राह्मण शब्द किसके लिए होगा? क्या पंजाब प्रांत तथा प्रयाग के पश्‍चिम बौद्धधर्म का प्रभाव न था? अथवा दक्षिणात्य प्रांतों में बौद्ध धर्म का प्रबल प्रतापादित्य उदित न हुआ था? यह तो आजकल के पुरातत्वविभाग और प्राचीन इतिहासों से स्पष्ट ही हैं। फिर उन प्रांतों में आपके मत से किसी भी ब्राह्मण के लिए बाभन शब्द का प्रयोग आज क्यों नहीं मिलता? इस कल्पना से तो आप यह भी कह सकते हैं कि आजकल प्राय: जितने अपभ्रंश (पालिभाषा के) शब्द हिंदी या देशी भाषाओं में जिन जड़, चेतन सभी वस्तुओं के लिए बोले जाते हैं, वे सब वस्तुएँ भी बौद्ध हो गई थीं। जिस तरह मिथिला भाषा का बाभन शब्द बौद्ध ब्राह्मणों के लिए हैं, उसी प्रकार के 'भानस' आदि शब्द भी बौद्ध रसोईघर के लिए होने चाहिए। क्योंकि जब मनुष्य बौद्ध होते होंगे, तो उनके रसोईघर भी उसी धर्म के अनुयायी हो जाते होंगे। अथवा इन शब्दों तथा अन्य अपभ्रंश बनारस, सावन, भादों, चौबे, दूबे प्रभृति के लिए और उपाय निकालिए। इसलिए इन सब कुकल्पनाओं का अवकाश यहाँ नहीं हैं।

इसी से मि. जान बीम्स ने जो लिखने का साहस दिखलाया है कि "Bhumihars are also called Babhans, by which the people say is, meant a Sham Brahman." अर्थात भूमिहार लोग बाभन भी कहलाते हैं, जिसका अर्थ लोग यह बतलाते हैं कि 'दोगला ब्राह्मण।' उसका भी खण्डन हो गया क्योंकि इस प्रकार से तो सभी ब्राह्मण दोगले सिद्ध हो जावेंगे, क्योंकि सभी बाभन कहलाते हैं, जैसा कि दिखला चुके हैं। इसका विशेष विचार आगे होगा। हाँ हम इतना अवश्य स्वीकार करेंगे कि बाभन शब्द ब्राह्मण शब्द का अपभ्रंश होने से चौबे, दूबे भूमिहारादि शब्दों की अपेक्षा प्राचीन है। इसीलिए पालि लेखों में भी कहीं-कहीं पाया जाता है, और इसीलिए उसका प्रचार भी पुराना है न कि इन शब्दों का समकालीन है। चाहे यह बाभन शब्द कैसा हो और कभी का भी हो, परंतु पूर्वोक्‍त युक्‍तियों से सही मानना पड़ेगा कि उसका विशेष रूप से प्रचार मिथिला देश से ही और उसी भाषा के अनुरोध से हुआ है इस तरह से जिन अयाचक ब्राह्मणों की स्थिति मगध प्रांत में थी उन्होंने सदृश और योग्य जमींदार और भूमिहार ब्राह्मणों अथवा पश्‍चिम ब्राह्मणों के साथ सम्बन्ध करना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार मगध प्रांत में भी अयाचक ब्राह्मणों की स्थिति नामांतर से हो गई, जैसी कि मिथिला में। इसी प्रकार से प्रयाग और बाँदा प्रभृति प्रांतों में पूर्वोक्‍त रीति से यही लोग अभी तक जमींदार ब्राह्मण कहलाते हैं। इसलिए निर्विवाद सिद्ध हो गया कि ये अयाचक ब्राह्मण इन देशों में कहीं भूमिहार ब्राह्मण, कहीं पश्‍चिम ब्राह्मण, कहीं केवल बाभन या ब्राह्मण और कहीं जमींदार ब्राह्मण इत्यादि नामों से पुकारे जाते रहे हैं और बिजनौर, अंबाला आदि जिलों में तगा या दानत्यागी और झेलम, गुरदासपुर आदि जिलों में महियाल कहलाते हैं। परंतु वस्तुत: ये सभी एक ही है। अर्थात एक आचारवाले अयाचक ब्राह्मण।

इसीलिए मिस्टर क्रुक ने भी अपनी अंग्रेजी पुस्तक 'संयुक्‍त प्रान्तीय जाति विवरण।' (The Tribes and Castes of U.P. and Oudh) के द्वितीय भाग के 64वें पृष्ठ में लिखा है कि : Bhuinhar (Sanskrit Bhumi 'land' kara (har) 'maker'). An important tribe and landowners and agriculturists in eastern districts. They are also known as Babhan, Zamindar Brahman, Grihastha Brahman, or Pachchima or 'western' Brahmans.'

जिसका अर्थ यह है कि 'भुइंहार शब्द संस्कृत के भूमिहार शब्द का अपभ्रंश हैं, जिसके भूमि शब्द का पृथ्वी और हार का अधिकार करनेवाला अर्थ है। यह एक प्रसिद्ध जमींदार और खेती करनेवाली जाति है, जो संयुक्‍त प्रांत के पूर्वीय जिलों में पाई जाती है। भूमिहार लोग बाभन, जमींदार ब्राह्मण, गृहस्थ ब्राह्मण और पश्‍चिम ब्राह्मण भी कहे जाते हैं।'

यह सिद्ध कर चुके हैं कि ये अयाचक नामधारी ब्राह्मण प्रथम थोड़े से मदारपुर के कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे, परंतु धीरे-धीरे इनमें सभी धनी और शक्‍तिशाली अयाचक जमींदार मिलते गए, जिससे इनकी संख्या आज बीस-पच्चीस लाख के लगभग हो गई है। प्रसिद्ध दृष्टांत ये हैं :

महाराज द्विजराज श्रीकाशीराज और सभी गौतम भूमिहार ब्राह्मण सर्यूपारी है। इसी तरह गाजीपुर के अन्तर्गत करंडा परगने के पुरैना ग्रामवासी भूमिहार ब्राह्मण भी सर्यूपारी, गौतम गोत्री, कित्थू मिश्र के वंशज है। जिनके पूर्वज पूरण मिश्र और पुरंदर मिश्र गोरखपुर जिले के भटनी ग्राम के पास पिपरा स्थान से लगभग 1740 ई. में आए और अपने ही नाम से पूरैना ग्राम बसाया, जो पूरणायन से बिगड़ कर पुरैना हो गया। वहाँ के राजपूतों के जबरदस्त होने से महाराज बलवन्त सिंह की तरफ से इन्हें 2400 बीघे की जमींदारी मिली और उन्होंने ही इन्हें 'राय' की पदवी भी दी। अब तक वहाँ के राजपूत जब पाँच कोस करंडा परगने के ब्राह्मणों को खिलाते हैं, तो इन लोगों को भी निमन्त्रण देते हैं। यद्यपि ये लोग अयाचक होने से अब उनके द्वार पर जा कर फिर लौट आते हैं, न कि भोजन करते हैं। भूमिहार ब्राह्मण महासभा के सेक्रेटरी श्री रघुनन्दन प्रसाद सिंह जी कोदरिया मैथिल हैं, जिनका एक भाई आज तक मैथिल ही है। सुरसर के महाराज भी मैथिल ब्राह्मण ही हैं, जिनकी 'झा' की पदवी आज भी हैं। नरहन इत्यादि के राजा बाबू जो दोनवार कहलाते हैं, कान्यकुब्ज हैं। वे वत्स गोत्रीय देवकली के पांडेय हैं, जिनके ही वंशवाले जनकपुर के पास हिसार ग्राम और छपरा के बभनगावाँ में आज तक पांडेय की ही पदवी से भूषित है। एकसरिया और सहदौलिया जो क्रमश: छपरा के चैतपुर, बगौरा आदि ग्रामों और दरभंगा के पतौर प्रभृति में पाए जाते हैं और जिनकी पदवी आज तक दीक्षित और मिश्र हैं, पराशर गोत्री कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं। इसी प्रकार नैनजोरा लोग, जो आज तक पहलेना घाट तथा नैनीजोर में तिवारी ही कहलाते हैं, नैनीजोर के तिवारी सर्यूपारी हैं। इसी प्रकार छपरा के बहुत से धनगड़हा, अटौली प्रभृति ग्रामों में डुमरा के सर्यूपारी ओझा पाए जाते हैं और आज तक अपने को डुमरैत तथा ओझा ही कहते हैं। दरभंगा के पूसा रोड स्टेशन के पास 'खैंरी' ग्राम के लोग अभी तक पांडेय कहलाते हैं और अपने को पराशर गोत्री और हस्तगामे कहते हैं, जो हस्तगाम के सर्यूपारी पांडेय हैं।

इसी प्रकार सिमरी, आरा के पांडेय लोग मनेर के पांडे मनेरिया कहाते हैं, ये सर्यूपारी हैं। टेकारी महाराज प्रभृति जिनमें से कहीं-कहीं लोग कारण वश तिवारी और दूबे भी बोले जाते हैं, दुमटिकार या दुमटेकार के पांडेय अथवा तिवारी हैं। जिनके समाजवाले प्रयाग प्रांत में इसी नामवाले अब तक पाए जाते हैं, जैसा कि आगे विदित होगा। ये लोग भी दुमटेकार ही कहलाते हैं। कहीं-कहीं लोग भूल से शब्दों का उलट-फेर कर के दुमकटार या डोमकटार बोलते हैं। परंतु दुमटिकार कहना ही उचित है क्योंकि प्रयाग आदि में यही नाम है और वहाँ टिकारा नाम का एक स्थान भी है। इसलिए डोमकटार नाम को सुन कर बिना विचारे अज्ञानमूलक जो कुकल्पनाएँ की जाती है वे रद्दी है। सकरवार लोग कन्याकुब्ज ब्राह्मण फतहपुर जिले के फतुहाबाद स्थान के सांकृत गोत्री मिश्र हैं, जिनके वंशवाले बंगाल के मुर्शिदाबाद प्रभृति जिलों के काँदी इत्यादि स्थानों में मिश्र ही कहलाते हैं, जैसे मणींद्रनारायण मिश्र इत्यादि और आरा के दुधारचक में भी। इसी प्रकार किनवार लोग क्यूना के दीक्षित काश्यप गोत्रीय कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं। मुजफ्फरपुर के मथुरापुर प्रभृति ग्रामों के पं. राजनारायण शुक्ल वगैरह मामखोर के शुक्ल गर्ग गोत्रीय सर्यूपारी ब्राह्मण हैं। आजमगढ़ के सिकरौरा बहादुर पुर आदि ग्रामों एवं गाजीपुर के धुवार्जुन आदि ग्रामों के केवल भारद्वाज और भरद्वाज गोत्रीय चौधरी लोग मचैया पांडेय सर्यूपारी हैं एवं टीकापुर, बीबीपुर प्रभृति ग्रामों के श्री मथुरा प्रसाद सिंह वगैरह भृगुवंशी लोग भार्गव (वत्स) गोत्री कनौजिया पांडे हैं, जिनके ही वंशवाले बस्ती के कोटिया आदि ग्रामों में अब तक पांडे कहलाते हैं। गाजीपुर के दवा नामक ग्राम में काश्यप गोत्रीय जिझौतिया ब्राह्मण हैं। जो बुंदेलखण्ड के बाँदा, हमीरपुर इत्यादि जिलों में बहुत पाए जाते हैं और सभी अयाचक और जमींदार होते हैं। जिनमें से बहुतेरे राय, सिंह इत्यादि कहलाते हैं। जैसा कि चित्रकूट में श्री दर्यावसिंह एक जागीरदार हैं, जो जिझौतिया ब्राह्मण हैं और बहुत प्रतिष्ठित हैं। ये लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के ही भेद हैं और हमीरपुर इत्यादि प्रांतों में न रहने से जिझौतिया कहलाए। क्योंकि उस देश का प्राचीन नाम जिझौती था। जैसा कि मिस्टर क्रुक ने अपने पूर्वोक्‍त ग्रन्थ के प्रथम भाग के 35वें पृष्ठ में जिझौतियों के विषय हुए लिखा है कि :

"A branch of the Kanaujia Brahmans. Who take their name from the country of Jajakshuku, which is mentioned in the Madanpur inscription. Of this General Cunningham writes:-'The first point deserving of notice in these two short but precious records is the name of the country, Jajakshukti, which is clearly the Jajahauti of Aburihan.' "

जिसका मर्मानुवाद यह है कि 'जिझौतिया (कहीं-कहीं जुजहुतिया भी कहलाते हैं) ब्राह्मण कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की एक शाखा है। जिनका यह नाम जजाक्शुक्‍ति देश के नाम से पड़ा हैं, जिसका वर्णन मदनपुर (ग्वालियर के पास एक ग्राम है) के प्राचीन लेख में आया है। इसके विषय में जनरल कनिंगहम साहब ने लिखा है कि 'मदनपुर के इन दोनों संक्षिप्त परंतु महत्वपूर्ण लेखों में पहली बात जो ध्यान देने योग्य है, वह जजाक्शुक्‍ति देश का नाम है, जो अबूरिहान के लिखे हुए 'जिझौती' देश का स्पष्ट रूप से दूसरा नाम है।'

बलिया जिले के वैरिया ग्राम के प्रसिद्ध कर्मठ 'पांडे' को कौन नहीं जानता? वे भी भूमिहार ब्राह्मण ही है। श्रीराम गोपाल सिंह चौधरी के पिता पांडे जी कर के प्रसिद्ध थे। इसीलिए उनके चार पुत्रों में चौधरी सोना पांडे वैसे ही कहे जाते थे। बनारस के अन्तर्गत कोल परगना वासी कोलहा भूमिहार ब्राह्मण भी सर्यूपारी ब्राह्मण, कश्यप गोत्री भरसी के मिश्र, हरिनाथ मिश्र के वंशज हैं। उन महात्मा हरिनाथ मिश्र के दो पुत्रों में से देवांग मिश्र के वंश में ये लोग और देवशरण मिश्र के वंश में इन लोगों के पुरोहित हैं। क्योंकि वे लोग भी भरसी के कश्यप गोत्री मिश्र ही हैं।

कहाँ तक गिनाया जावे? समय-समय पर सभी पाठक, चौबे, दूबे, तिवारी, मिश्र, ओझा, झा इत्यादि ब्राह्मण इस अयाचक नामधारी ब्राह्मण समाज में मिलते गए। जो आज तक उन्हीं नामों और आस्पदों (पदवियों) से दरभंगा, मुजफ्फरपुर, छपरा, शाहाबाद, पटना, गया, गोरखपुर और बस्ती एवं प्रयाग प्रभृति प्रांतों में पाए जाते हैं। जैसा कि आनापुर प्रभृति ग्रामों में चौधरी लोग पहितीपुर के पांडेय सर्यूपारी हैं और भरतपुरा वगैरह के अथर्व लोग दक्षिणी ब्राह्मण हैं।

इसीलिए मिथिला के प्राचीन धुरंधर विद्वान मीमांसक महामहोपाध्याय श्री चित्राधर मिश्र जी का यही कथन है कि भूमिहार ब्राह्मण दल में एक ब्राह्मण नहीं हैं, किंतु सभी देशों के धनवान अयाचक ब्राह्मण इस दल में समय-समय पर मिलते गए हैं।

4. आचार-व्यवहार

अब हम ब्राह्मणों के आचार-व्यवहारों पर दृष्टिपात करते हुए इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के आचार-व्यवहारों का भी वर्णन करते हैं। प्रथम ही दिखला चुके हैं कि क्यों कहीं-कहीं इनमें तम्बाकू इत्यादि पीने का अभ्यास हो गया और क्योंकर आजकल भी सभी ब्राह्मणों में बहुत से ऐसे व्यवहार घुसते चले आते हैं और चले आएँगे। जिन्हें प्राचीन लोग अनुचित समझते थे और समझते हैं। यद्यपि पूर्व समय में ब्राह्मणादि तंबाकू का खाना, पीना अथवा सूँघना निषिद्ध अथवा बुरा समझते थे। क्योंकि वह स्वदेशी वस्तु न हो कर अज्ञात, विदेशी और मादक वस्तु हैं। तथापि आजकल अथवा इससे कुछ पूर्व भी लोगों की घृणा उससे एकदम जाती रही। सिवाय अज्ञान और दंभमूलक मिथ्या अभिनिवेश और दिखावे के कुछ न गया। क्योंकि प्राय: मुसलमान लोग ही इसे इस देश में लाए। अतएव संस्कृत कोश में इसके लिए कोई पर्याय शब्द नहीं मिलता और न तो धर्मशास्त्रों में ही इसका वर्णन हैं। उन्हीं मुसलमानों के संसर्ग से या देखा-देखी कोई ब्राह्मण उसे पीने लगा और कोई खाने और कोई सूँघने में ही प्रवृत्त हो गया। कोई-कोई तो दोनों या तीनों करने लगे जो आज तक सभी ब्राह्मणों में पाए जाते हैं। यही दशा क्षत्रियादि जातियों की भी है।

यदि पीने का ही विचार करिए तो समस्त गौड़ सनाढ्‍य, जिझौतिया, सारस्वत, गुजराती, दक्षिणात्य, बंगाली और उत्कल प्रभृति इसे पीते हैं। कोई हुक्का पीता हैं और कोई बीड़ी या सिगरेट। आरा जिले में तथा मिथिला में भी प्राय: बहुत से सर्यूपारी कहलानेवाले पीते हैं। हाँ, केवल बहुत से कान्यकुब्जों, सर्यूपारियों और मैथिलों में दिखलाने मात्र के लिए यह बात रह गई है क्योंकि पीनेवाले बहुत कम हैं। तथापि अब तो धीरे-धीरे अंग्रेजी सभ्यता के प्रचार से ऐसा हो रहा है कि सिगरेट देवता कम-से-कम अंग्रेजी के विद्यार्थियों के मुख से बात कर रहे या करना चाहते हैं और यह आशा प्रतीत होती है कि थोड़े ही दिनों में इंजन की तरह मुख से फुक-फुक धुआँ निकालने में एक ब्राह्मण बच्चा भी न बचेगा। क्योंकि यवनों की घनिष्ठता कुछ देशों में न थी। कान्यकुब्ज, सर्यूपार और मिथिला में उनका इतना प्रभाव न था जितना पश्‍चिम, बंगाल, पंजाब और दक्षिण में था। इसलिए इस देश में उसकी कुछ कमी थी। परंतु अंग्रेजी सभ्यता तो घर-घर घुस रही है और अंग्रेजों के भी प्रधान व्यवहार की ये वस्तुएँ हैं। इसीलिए सभी इसका प्रयोग क्यों न करने लग जावेंगे? प्रथम तो इसके रोकने के लिए सभाएँ भी न होती थीं और न जगह-जगह व्याख्यानों की झड़ ही लगा करती थी। परंतु आजकल तो इसके रोकने का बहुत यत्‍न हो रहा है, तो भी इसके प्रचार की (सो भी विदेश के बने सिगरेट की) उन्नति छोड़ कर अवनति देखने में नहीं आती। इसलिए पूर्वकाल में इसके प्रयोग करने वालों का अपराध ही क्या था? क्योंकि जब कोई विलक्षण कालचक्र में आ जाता है, तो प्रकृति उसे बलपूर्वक करा ही डालती है, कारण कि प्रकृति में उसी के भाव भर जाया करते हैं। इसी से जबकि यवन काल में उसका भाव प्रकृति में कम था, उस समय तम्बाकू के पीनेवाले बहुत कम थे। यहाँ तक कि हमने प्राय: सभी अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के वृद्धों से पूछा है, तो मालूम हुआ है कि इन लोगों में भी इसका विशेष प्रचार प्राय: 40 या 50 वर्षों से ही हुआ है। परंतु इसी समय से ले कर उस भाव की उन्नति ही होती गई है। इसीलिए आज प्रकृति ने लोगों पर ऐसा दबाव डाला कि थोड़े दिनों में हजारों उपाय करने पर भी कोई भी इससे बचना नहीं चाहता।

हाँ, इस समय तक सभी समाजों में तंबाकू न पीनेवालों की भी कुछ संख्या है। किसी में कम किसी में अधिक। परंतु इससे क्या? जो मैथिल या कान्यकुब्ज अभी तक इसके न पीने की डींग मारा करते थे, वे लोग ही इसके विशेष रूप से व्यवहार करनेवाले हैं। प्राय: सभी के पास बड़े-बड़े बटुवे (कपड़े की थैली) हुआ करते हैं। जिनमें तंबाकू (खाने या सूँघने की) और सुपारी भरी रहती हैं। मैथिलों और कान्यकुब्जों या सर्यूपारियों पर ही क्या? सभी देश के ब्राह्मण पर खाने और सूँघनेवाला भूत सवार हो रहा हैं। क्या पीना ही खराब और खाना या सूँघना अच्छा है? यह बात किसी धर्मशास्त्र या पुराण में लिखी है? जैसा ही पीना, वैसा ही खाना या सूँघना। बल्कि पीने की अपेक्षा खाना-सूँघना और भी खराब है। क्योंकि पीने से तो धुएँ के रूप में उसके दुष्ट परमाणु मस्तिष्क वा उदर में थोड़े-थोड़े जाते हैं, परंतु खाने और सूँघनेवाले के तो साक्षात ही। कारण कि नासिका और नुखों में लोग जबरदस्ती से ठूँस दिया करते हैं। इसलिए पीनेवालों की अपेक्षा खाने और सूँघनेवालों को तो और भी बड़ा रोग लग गया है। इससे जो खाने वा सूँघनेवाले हो कर पीने वालों की निंदा करते हैं, उनकी तो वही दशा है कि 'अपना तो ढेंढर न देखे और दूसरों की फुल्ली निहारे'। हाँ जो लोग, चाहे अयाचक दल के ब्राह्मण हों, अथवा याचक ब्राह्मणों में से हो, किसी प्रकार से उसका व्यवहार नहीं करते, वे भले ही सब लोगों को ही, जो पीने, सूँघने या खानेवाले हैं, नीचा दिखला सकते हैं। इसलिए इस विषय में जो चालाक और दांभिक है उन लोगों में छल और धोखे से दूसरों को नीच बनाने के सिवाय और कोई तत्व नहीं हैं, क्योंकि कोई भी इससे बचा नहीं हैं।

यदि खाने और सूँघनेवाला पीनेवाले की निंदा करता, या उसे नीचा दिखलाता है, तो जैसा कि कह चुके कि पीनेवाला खाने और सूँघनेवाले की और भी निंदा कर सकता और उसे नीचा दिखला सकता है। क्योंकि जैसा कि कभी कह चुके हैं कि तंबाकू के वैदेशिक होने के कारण संस्कृत साहित्य में इसका वाचक कोई शब्द नहीं हैं। इसीलिए धर्मशास्त्रों में भी उसकी विधि या निषेध नहीं है, जिससे पीना खराब और मुँह एवं नाक में भूसे की तरह ठूँसना अच्छा लिखा हो। कहीं-कहीं मनुस्मृति आदि में गौड़ी सुरा के पीने का जो निषेध है, वह तो गुड़ आदि से बनी हुई जल की तरह पीने योग्य, का ही है, क्योंकि वही जल की तरह पी जा सकती है और तमाल तो काले-काले पत्तोंवाला बड़ा सा वृक्ष होता है, न कि तंबाकू का नाम तमाल है। जैसा कि रामायण में लिखा है :

नाथ देखु यह विटप विशाला। पाकर जंबु रसाल तमाला॥

इससे पुराणों के नाम पर कल्पित श्‍लोक बना कर 'तमाल पत्र दर्पण आदि पोथियों में केवल तंबाकू के पीने की जो निंदा की गई है वह पक्षपात और परस्पर द्वेष मात्र है।

हाँ, सामान्य रीति से अज्ञात वैदेशिक पदार्थ होने के कारण सभी प्रकार के अन्य पदार्थों की तरह उसके भी खाने, पीने और सूँघने सभी का निषेध समझा जावेगा। इसलिए यदि किसी ने धर्मशास्त्रों के नाम पर केवल पीने की निंदा के एक-दो मनगढ़ंत श्‍लोक बना लिए हों, तो उसकी वंचकता मात्र है क्योंकि खाने और सूँघने के विषय में भी ऐसे बहुत से कल्पित श्‍लोक बन सकते हैं।

परंतु यदि सभी प्रकार के खाने, पीने, सूँघने की निंदा के श्‍लोक मिलें तो वे सत्य की दृष्टि से माने जा सकते हैं। क्योंकि वस्तुत: मादक द्रव्य होने से अन्य मादक द्रव्यों की तरह उसका किसी प्रकार का भी सेवन अच्छा नहीं हो सकता, प्रत्युत हानिकारक ही हो सकता है। जो वैद्यकादि ग्रन्थों में कहीं-कहीं उसका निषेध आता है, वह भी सामान्य रीति से खाने, पीने सभी का हैं। इसलिए विचारदृष्टि से तंबाकू का खाना, पीना और सूँघना सभी एक प्रकार के और निंदित हैं। अत: सभी को छोड़ना चाहिए, न कि अन्ध परम्परा का अनुसरण कर के खाने एवं सूँघने को तो हथिया लेना और केवल पीने में दोष बतलाना उचित है। इसीलिए पं. भीमसेन शर्मा ने सन 1915 ई. के अपने 'ब्राह्मण सर्वस्व' पत्र के एक अंक में युक्‍तियों और वैद्यकादि ग्रन्थों का प्रमाण दे कर इसके खाने और सूँघने आदि सभी की निंदा की हैं और सभी को समान ही ठहराया है।

दूसरा व्यवहार जिसे ले कर इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों की निंदा की जाती है और एक तरफ डिगरी दी जाती है वह इनमें सब जगह तो नहीं, परंतु काशी और पश्‍चिमी प्रदेशों के जिलों और बड़े-बड़े बाबुआनों में नमस्कार, प्रणाम और पालागन की जगह 'सलाम' की प्रथा है। यद्यपि दरभंगा, मुजफ्फरपुर आदि तिरहुत के और छपरा, गाजीपुर, बलिया वगैरह जिलों में नमस्कार, प्रणाम और पालागन की ही प्रथा प्रचलित है। तथापि जो पूर्वोक्‍त स्थानों में कहीं-कहीं 'सलाम' की रीति पड़ गई है उसका कारण तो प्रथम ही दिखला चुके हैं कि यवनों का घनिष्ठ संसर्ग होने से उनके-से ही आचार-व्यवहार हो गए, और नमस्कार की जगह सलाम करने में ही लोग गौरव समझने लगे। परंतु जो लोग वहाँ तक नहीं पहुँच सकते थे, या कुछ विवेकी होते थे, उन ब्राह्मणों में प्रणाम, नमस्कार की ही प्रथा पड़ी रह गई। इसीलिए मिथिला प्रांत में मैंने ही कई जगह बाबुआनों में देखा है कि जब वहाँ की उनकी याचक ब्राह्मण प्रजा पत्रों में नमस्कार शब्द का प्रयोग करती है, तो वे लोग, यह समझ कर कि प्रजा लोग हमारी बराबरी का दावा करते हैं और प्रतिष्ठा नहीं करते, रंज होते हैं और नमस्कार शब्द को काट कर सलाम लिखने को कहते हैं। इस बात में जिसे संदेह हो वह स्वयं जा कर अथवा मेरे साथ चल कर अच्छी तरह देख सकता है। क्या यह बात पूर्वोक्‍त सिद्धांत को पुष्ट नहीं कर रही हैं?

काशीस्थ भूतपूर्व पंडित प्रवर काकाराम शास्त्री के विषय में एक ऐसा ही आख्यान है। वे भी तो महियाल ब्राह्मण ही थे। इसलिए उनके भगिनी पति (बहनोई) कोई प्रतिष्ठित महियाल, जो फौजी हवलदार थे, उनसे मिलने के लिए जब काशी में आए, तो शास्त्री जी ने अपने विद्यार्थियों को इशारा किया कि उनको भी प्रणाम या नमस्कार करें। परंतु ऐसा करने पर बहनोई जी ने विद्यार्थियों से कहा कि 'भाई! प्रणाम या नमस्कार तो उन्हें ही (शास्त्री जी को) करो, मुझे तो सलाम किया करो।' क्या यह आख्यान पूर्वोक्‍त धारणा का पोषक नहीं हैं? आजकल तो इसके सैकड़ों क्या हजारों उदाहरण हैं। क्या आजकल के अंग्रेजी पढ़नेवाले वकील, बैरिस्टर या अफसर लोग प्रणाम, नमस्कार की जगह परस्पर 'गुडमार्निंग' (Good morning) या सलाम नहीं करते? यहाँ तक की स्कूल के विद्यार्थी भी उसी का अभ्यास करते हैं। चाहे परस्पर तो कभी प्रणाम आदिशब्दों का प्रयोग भी हो जावे। परंतु जब से वे लोग बड़े-बड़े अंग्रेज और मुसलमान अफसरों से मिलते हैं, तो क्या वहाँ भी नमस्कार या प्रणाम शब्द का ही प्रयोग होता है? क्या स्कूलों और कॉलेजों में सभी छात्र 'गुडमार्निंग' (Good morning) नहीं करते? फिर उसी बारम्बार के अभ्यास से परस्पर भी वही करने लग जाते हैं, और लग जावेंगे। ठीक इसी प्रकार यवन राजाओं के यहाँ सलाम शब्द का प्रयोग होते-होते अभ्यास पड़ जाने से धीरे-धीरे परस्पर और प्रजाओं के साथ भी उसी सलाम शब्द का प्रयोग जहाँ-तहाँ हो गया। इसी से केवल राजा बाबुओं और काशी, जौनपुर, मिर्जापुर आदि में ही इस 'सलाम' शब्द का प्रचार विशेष हैं, क्योंकि यहाँ यवनों का विशेष सम्बन्ध रहा है। इसीलिए पंजाब आदि क्षेत्रों में ब्राह्मणों के प्राय: बहुत से आचार यवनों के-से हो गए हैं। क्या अन्य ब्राह्मण जमींदार की प्रजा यदि मुसलमान हो तो वह मालिक को सलाम न करेगी? क्या इससे उसकी निंदा या हीनता हो सकती है? फिर इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों की प्रजाओं का कहीं-कहीं सलाम करना देख क्यों लोगों को नशा हो जाता है, इसका कारण हम नहीं समझते।

परंतु थोड़ी-सी जगह को छोड़ कर अधिकांश स्थानों में तो प्रजा के साथ अथवा परस्पर भी प्रणाम, नमस्कार या पालागन ही होते हैं। इसीलिए इतिहास लेखक अंग्रेजों ने भी इस बात को स्पष्ट शब्दों में कहा है। जैसा कि मिस्टर फिशर बी. ए. (F.H. Fisher B.A.) ने आजमगढ़ के गजेटियर के 65वें पृष्ठ में लिखा है कि :

"They are saluted with the pranam-or pailagi, and return the salutation with sa blessing or 'ashirbad'."

अर्थात 'भूमिहार ब्राह्मणों को लोग प्रणाम या पालागन शब्द से प्रणाम किया करते हैं, जिसके बदले में वे लोग 'आशीर्वाद' दिया करते हैं।'

इसलिए सलाम शब्द से ये अयाचक दल के ब्राह्मण हीन नहीं समझे जा सकते। हाँ, यह शब्द जब प्रतिष्ठित समझा जाता था, तो था, अब तो इसकी प्रतिष्ठा नहीं हैं, इसलिए इसमें प्रतिष्ठा समझना भूल है। किंतु अब तो यही उचित हैं कि इस 'सलाम' शब्द को सर्वदा के लिए ही तिलांजलि दे दी जावे और परस्पर नमस्कार एवं प्रणाम शब्दों के ही व्यवहार हो। क्योंकि ब्राह्मणों के लिए परस्पर इन संस्कृत शब्दों का ही प्रयोग उचित है और उसी से शोभा भी है। हाँ, प्रजा लोग पालगी कर सकते हैं। परंतु सलाम शब्द तो कहीं भी न रहना चाहिए। इसमें बड़ा भारी दोष तो यह है कि जिसे लोग समझते ही नहीं। क्योंकि यदि कोई नीच जाति या प्रजा हो कर 'सलाम' करे, तो झटपट उत्तर में भी सलाम ही निकल आता हैं, जिससे बराबरी हो जाती है। यदि वहाँ आशीर्वाद शब्द का प्रयोग होता अथवा जीओ, खुश रहो इत्यादि, तब तो कोई हर्ज नहीं होता। परंतु प्राय: ऐसा नहीं होता। यदि ऐसा हो तो नीच लोग यदि सलाम भी करें, तो एक प्रकार से हर्ज नहीं हैं, परंतु पालागन तो बहुत अच्छा है।

तीसरी प्रथा दृष्टि देने योग्य यह है कि कुछ जगह अयाचक दलवाले बड़े-बड़े लोग भी पुरोहित दलवाले छोटे-छोटे बच्चों को भी प्रणाम करते हैं। यद्यपि यह प्रथा सब जगह नहीं हैं, तथापि जहाँ कहीं हैं उसके होने का उचित कारण आगे प्रसंगवश दिखलावेंगे। जिससे यह स्पष्ट हो जावेगा कि ऐसा करना केवल भूल से हैं, न कि दूसरी दृष्टि से। इसलिए हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि केवल अपने गुरु या पुरोहित को छोड़ कर, सो भी केवल पूजते समय, बाकी उसी ब्राह्मण को प्रणाम या पालागन करना चाहिए, चाहे वह अयाचक हो या याचक, जो विद्यादि सद्‍गुण संपन्न अथवा अवस्था या दर्जे में अपने से श्रेष्ठ हो, जैसे चाचा बड़ा भाई इत्यादि। अन्यों के साथ तो समानता का ही व्यवहार रखना चाहिए, चाहे प्रथम अपने ही 'नमस्कार' करना चाहिए या वे ही करें, जैसा कि पटना चौक के निवासी पं. रामजीवन भट्ट और उनके पुत्र कृष्ण भट्ट अयाचक ब्राह्मणों के साथ करते थे और करते हैं। परंतु छोटे-छोटे बच्चे, चाहे याचक दल के हों अथवा अयाचक दल के, यदि केवल प्रणाम करें, तो आशीर्वाद के ही योग्य हैं, नहीं तो अपने घर वे और अपने घर आप रहें। यही निष्कृष्ट सिद्धांत है। जिसका प्रचार मिथिला आदि के अयाचक ब्राह्मणों में है, जिनमें से प्रसिद्ध-प्रसिद्ध दृष्टांतों को प्रमाण के साथ आगे दिखलावेंगे। इसलिए सर्वत्र इसी के प्रचार की नितान्त आवश्यकता है। इसमें संकोच या मुरव्वत का काम नहीं हैं, क्योंकि धार्मिक कामों में ऐसा नहीं किया जाता।

5. आस्पद , उपाधियाँ या पदवियाँ

यद्यपि इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों तथा अन्य ब्राह्मणों की पदवियों के विषय में प्रथम ही बहुत कुछ कह चुके हैं और यह भी दिखला चुके हैं कि राय, सिंह, पांडे और तिवारी आदि उपाधियाँ क्योंकर ब्राह्मणों को दी जाने लगीं और कब से। साथ ही, यह भी कहा गया है कि प्रथम राय, सिंह आदि उपाधियाँ दी गईं। जिनकी देखा-देखी ही पांडे, तिवारी आदि पदवियों का आविर्भाव हुआ और फिर उनमें भी रद्दबदल होती रही। अर्थात जो पांडे, तिवारी थे, वे सिंह कहलाने लगे इत्यादि। अब इस जगह इसी बात को दृष्टांतों और प्रसारणों द्वारा, दिखला कर, जिन लोगों की भ्रम मूलक ऐसी धारणा है कि राय, सिंह इत्यादि ब्राह्मणों की उपाधियाँ नहीं हैं, उनके इस भ्रम का संशोधन किया जावेगा। बहुत से कहलाने के लिए पंडित इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों की कहीं-कहीं राय, सिंह, प्रभृति उपाधियों को देख कर चकरा जाते हैं और उनका माथा ठनकने लगता है, जिससे बहुत कुछ अनाप-सनाप बक जाते हैं। परंतु यदि उन्हें कभी मिथिला में जाने या वहाँ के ब्राह्मणों के नाम सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता, तो उनको सूझ जाती कि ब्राह्मणों की उपाधियों का ठिकाना नहीं है। मैथिल मूर्द्धन्य महाराजा दरभंगा का नाम ऑनरेबल सर रामेश्‍वर सिंह जी तथा इनके प्रथम के राजे, महाराजे रुद्र सिंह, महाराज छत्रासिंह तथा महाराज लक्ष्मीश्‍वरसिंह इत्यादि कहलाते थे। इनके चचा बाबू तुलापति सिंह थे।

संक्षेप में इतना ही समझ लेना चाहिए कि राघवपुर आदि ग्रामों में जितने धनी श्रोत्रिय हैं वे सभी बाबू और सिंह उपाधिवाले होते हैं। ब्राह्मण के नाम के साथ जिस बाबू शब्द को देख कर लोगों की बुद्धि चक्कर खाने लगती है, वह मिथिला प्रदेश में रसोईदार मैथिल तक के लिए बोला जाता है और उसके नाम के साथ यदि बाबू शब्द न जोड़ा जावे तो बुरा मानता हैं। बनैली के मैथिल राजा करीत्यानन्द सिंह जी प्रसिद्ध ही हैं। यहाँ तक कि काशी प्रांत में जिस ठाकुर शब्द को ब्राह्मण के नाम के साथ देख कर झट फैसला किया जाता है कि ये ब्राह्मण नहीं, किंतु क्षत्रिय है, वहीं ठाकुर शब्द मिथिला के ब्राह्मणों की प्रधान उपाधि है। महाराज दरभंगा के प्रथम पूर्वज महेश ठाकुर थे, जिन्होंने राज्य का उपार्जन किया था। महामहोपाध्याय श्री कृष्णसिंह ठाकुर के नाम के साथ सिंह और ठाकुर दोनों शब्दों का प्रयोग होता है और वे बड़े भारी विद्वान भी हैं। यदि उन शब्दों को अनुचित समझते तो अपने नाम से हटा देते। काव्यप्रदीप नामक संस्कृत साहित्य ग्रन्थ के कर्ता पं. गोविंद ठाकुर प्रसिद्ध ही हैं और मुजफ्फरपुर जिले के अथरी ग्रामवासी मिथिला के गणनीय विद्वान पं. मुक्‍तिनाथ ठाकुर को कौन नहीं जानता?

इस जगह इस बात का विचार कर लेना चाहिए कि जो मैथिल मिथिला छोड़ कर बहुत दूर पूर्व या पश्‍चिम में जा बसा है, परंतु मिथिला के ब्राह्मणों के साथ उसका विवाह सम्बन्ध अथवा आना-जाना लगा हुआ है। क्या वह अपने मिथिलावासी मैथिल ब्राह्मणों के इन सिंह और ठाकुर आदि रूप उपाधियों का परित्याग कर देगा? अथवा उनके प्रयोग करने से ब्राह्मण न समझा जावेगा? क्योंकि उस देश में उपाधियाँ ब्राह्मण से भिन्न क्षत्रियादि के ही नाम के साथ बोली जाती है। क्या आपने देखा है जिस मैथिल की पदवी मिथिला में ठाकुर हैं, वह अन्य देशों में जा कर अपने नाम के अन्त में ठाकुर न कह कर कुछ और कहता है? सारांश यह है कि कोई कहीं भी रहे, परंतु अपने प्राचीन संबंधियों के विचारों, आचारों और व्यवहारों को नहीं छोड़ता, चाहे वह किसी भी देश का कोई भी ब्राह्मणादि हो। बस यही दशा इन जमींदार, भूमिहार आदि ब्राह्मणों की भी समझ लीजिए। क्योंकि मिथिला में ये लोग भी बहुतेरे मैथिलों की तरह ठाकुर कहलाते हैं, जैसे श्री अनूपलाल ठाकुर और श्री अयोध्याप्रसाद ठाकुर मुखतार आदि। प्राय: दिघवैत और दूसरे भी ठाकुर ही कहलाते हैं। इसीलिए वहाँ से हट कर यदि शाहबादादि प्रांतों में चले आए हैं तो वहाँ भी ठाकुर ही कहलाते हैं। और काशी के आस-पास के बड़े-बड़े जमींदार, बाबुआन तथा महाराज द्विजराज श्री काशिराज प्रभृति सभी का सम्बन्ध मिथिला में बहुत दिनों से बराबर पाया जाता है और वहाँ यह ठाकुर शब्द, जैसा कि कह चुके हैं कि बड़ी प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखा जाता है, इसलिए उसी सम्बन्ध से अन्यत्र भी जहाँ-तहाँ उसका प्रचार होता गया। इसलिए उससे कोई हानि नहीं हैं और न दूसरी कल्पना की जा सकती है।

यदि क्षत्रियादि भी अन्य देशों में ठाकुर कहलाते हैं तो कहलावें, उससे इन ब्राह्मणों की हानि क्या है? वे लोग भी जमींदार है, इसलिए जमींदार के अर्थ में ठाकुर कहलाते हैं। परंतु भूमिहारादि ब्राह्मणों में ठाकुर शब्द ब्राह्मण और पूज्य, बुद्धि से ही प्रयुक्‍त होता है, जैसा कि मिथिला में दिखला चुके हैं। चाहे ये लोग भी जमींदार हो यह दूसरी बात है। यदि ऐसा न माना जावे तो दूसरे देशों में अहीर, कुर्मी आदि भी ठाकुर कहलाते हैं तो फिर क्षत्रियों के भी ठाकुर शब्द में गड़बड़ मच जावेगी और मैथिलों का तो कहना ही क्या है? नाऊ लोग भी तो सभी देशों में ठाकुर बोले जाते हैं। तो, क्या इससे क्षत्रिय भी किसी देश में ठाकुर न बोले जावें? इसलिए यह ठाकुर शब्द किसी एक जाति के लिए कहीं भी निश्‍चित नहीं है, किंतु जिस जाति में जहाँ जैसा प्रचार है, एवं उसके अनुसार ही अन्यत्र भी प्रचार है, तो जैसा एक जगह समझा जाता है वैसा ही दूसरी जगह भी समझा जाता है और जावेगा। चाहे वहाँ दूसरी जातियाँ भी उसी शब्द से क्यों न बोली जाती हो। इस पूर्वोक्‍त सिद्धांत के स्थिर हो जाने से पूर्वोक्‍त आजमगढ़ के गजेटियर के 65वें पृष्ठ में जो फिशर साहब ने लिखा है कि :

"An indeed often speak of themselves as Bhumihar Thakurs. The word Thakur, however, is in Azamgarh Rarely used as the name of a caste equivalent to Kshatri or Rajputs." ऐसा ही और भी कहीं-कहीं लिखा है।

इसका अर्थ यह है कि 'वास्तव में भूमिहार लोग अपने को बहुधा भूमिहार ठाकुर कहा करते हैं। यह ठाकुर शब्द आजमगढ़ में कभी-कभी उस जाति के लिए बोला जाता है, जो क्षत्रिय या राजपूतों के बराबर हो।'

इसका यथोचित खण्डन हो गया। और भी समझना चाहिए कि जब नाई या कुर्मी लोग भी अकसर सभी जगह ठाकुर ही बोले जाते हैं, तो वहाँ क्षत्रिय के ही लिए ठाकुर शब्द कैसे हो सकता है? और जब भूमिहार ब्राह्मण अपने को केवल ठाकुर न कह कर नाम के आगे जोड़ते हैं, जैसा कि साहब बहादुर भी केवल ठाकुर न कह कर 'भूमिहार ठाकुर' लिखते हैं। और जैसा कि पूर्व में महेश ठाकुर या गोविंद ठाकुर आदि कह चुके हैं। या जैसा कि नाऊठाकुर इत्यादि। तो फिर नहीं मालूम कि किस प्रकार से उन्होंने केवल ठाकुर के बराबर ही किसी नाम के आगे जुटे हुए ठाकुर शब्द का अर्थ लगाया? इसलिए यह सब कथन इस बात को सिद्ध कर रहा है कि उन लोगों को इसका तत्व विदित नहीं था। हाँ, यदि इस ठाकुर शब्द पर इतना आक्रमण है, तो हम इन जमींदार, भूमिहार नामधारी ब्राह्मणों से यह अनुरोध करेंगे कि कम-से-कम काशी के प्रांत में वे इस शब्द का प्रयोग न करें। क्योंकि संसार में 'तुष्यतु दुर्जन:' अर्थात 'यदि दुर्जन लोग तुष्ट हो जावे तो हम इसे स्वीकार भी कर लेंगे' यह भी तो न्याय है।

अस्तु, इसी प्रकार चौधुरी, खाँ, राय और राउत तथा ईश्‍वर प्रभृति भी उपाधियाँ मैथिलों में ही पाई जाती है। जिनमें से बहुतों को तो थोड़ा आगे चल कर दिखलावेंगे। तथापि दुलारपुर के तुरंतलाल चौधरी प्रसिद्ध ही है। एवं मिथिला मिहिर का ता. 5-2-16 ई. का अंक देखने से, जिसमें उस वर्ष में होने वाली बेगूसराय की सप्तम मैथिल महासभा का विवरण है, यह स्पष्ट हो जाता है। उसमें लिखा है कि 'तीसरे दिने वैवाहिक कुरीति पर बाबू बबुआ खाँ बहुत उत्तम व्याख्यान देलन्हि' तथा उसी में बीरसायर निवासी पं. जीवनाथ राय व्याकरण तीर्थ, गुणपतिसिंह, चनौर के बाबू यदुनन्दनसिंह झा, बनैली-रामनगर के कुमार सूर्यानन्द सिंह इत्यादि नाम आए हैं, जो सभी मैथिलों के ही हैं। किसी ने सभा में चंदा दिया और किसी ने कुछ दिया। इसलिए पूर्वोक्‍त डॉ. विल्सन ने अपने पूर्वोक्‍त ग्रन्थ के द्वितीय भाग के 193 और 194 पृष्ठों में स्पष्ट ही लिख दिया है कि भूमिहार ब्राह्मण भी मैथिल ब्राह्मण ही हैं, क्योंकि इनकी और उनकी पदवियाँ एक-सी है। जैसा कि :

"There are certainly fewer distinction recognized among the Mathilas than among any other of the great division of Brahmans in India". Those mentioned to me in Bombay, Calcutta and Benares and the following - "(1) the Ojhas, Ujhas or Jhas, (2) The Thakuras, (3) The Misras, (4) The Puras, (5) The Shrotriyas, (6) The Bhumihars; these are land holders and cultivators. Mr. Celebrooke says no more than three surnames are in use in that district, Thakura, Misra, Jha each appropriate in any family Besides these there are the Chawdhari, Raya, Parihasta, Khan and Kunara."

इसका भाव यह है कि भारतवर्ष में जितने ब्राह्मणों के अन्य भेद हैं उनमें जितने छोटे-छोटे दल हैं उनकी अपेक्षा मैथिल ब्राह्मणों में छोटे-छोटे दल कम पाए जाते हैं। मैथिलों के जिन छोटे-छोटे दलों का वर्णन मुझसे बंबई, कलकत्ता या बनारस में किया गया है, वे ये हैं:- (1) ओझा, ऊझा अथवा झा, (2) ठाकुर, (3) मिश्र, (4) पूर, (5) श्रोत्रिय, (6) भूमिहार, जो कि जमींदार और खेती करनेवाले हैं। मिस्टर कोलब्रुक ने लिखा है कि मिथिला प्रांत में तीन पदवियाँ ब्राह्मणों में विशेष रूप से प्रचलित हैं - (1) ठाकुर, (2) मिश्र, (3) झा, जिनमें से प्रत्येक प्रतिवंश में बोली जा सकती है। इन तीनों के अतिरिक्‍त चौधरी, राय, परिहस्त, खाँ और कुँवर ये पदवियाँ भी प्रचलित है। दरभंगा, वनगाँव के मैथिल ब्राह्मण खाँ कहलाते हैं।

पूर्व मिथिला का अन्त और पश्‍चिम में पंजाब इन्हीं के मध्य में ही ये अयाचक दलवाले ब्राह्मण पाए जाते हैं, अत: वहाँ भी राय, सिंह, चौधरी और राउत आदि सभी पदवियाँ हैं। राउत शब्द राजपुत्र का अपभ्रंश हैं, क्योंकि प्राकृत भाषा में आर्यपुत्र को अज्जउत कहा करते हैं। अत: जिनके पूर्व पुरुष प्रथम राजा थे, वे ब्राह्मण लोग राजपुत्र कहलाते-कहलाते, आज राज शब्द का 'रा' हो कर और पुत्र का 'उत', वे ही सब लोग राउत कहलाने लगे। ये सभी उपाधियाँ संपूर्ण प्रदेश घूमने से जो चाहे वह मालूम कर सकता है। इनमें से दृष्टांत के लिए यदि आप प्रयाग से अक्टूबर,नवंबर 1910 ई. का मुद्रित 'श्री कान्यकुब्ज' पत्र देखें तो उसके 22वें पृष्ठ में पं. रघुनन्दन सिंह दीक्षित का नाम एवं 38वें-39वें पृष्ठों में पं. अयोध्या सिंह तिवारी पं. बिहारी सिंह तिवारी, पं. जीवन सिंह तिवारी और पं. पुलंदर सिंह का नाम पावेंगे और फतहपुर जिला, तहसील खजुहा, गाँव बरारी में चौधरी कोकलसिंह प्रभृति कान्यकुब्जों को पावेंगे। कान्यकुब्जों के सभी पत्रों को देखें तो प्रभृति भी आपको मिल जावेंगे। घूमने की भी आवश्यकता न होगी। विशेष कहाँ तक लिखा जावे। कान्यकुब्ज कुल कौमुदी के 144वें पृष्ठ में लिखा है कि 'जो ब्राह्मण कान्यकुब्जों में 20 विश्‍वेवाले अर्थात सबसे श्रेष्ठ हैं, वे महत्तर कहलाते हैं।' यही महत्तर शब्द बिगड़ कर महतो हो गया। उसके 127वें पृष्ठ में लिखा है कि 'रोहन (नाम है) रौतापुर के तिवारी कहलाए। इसी से (रौतापुर के रहने से) राउत भी कहे जाते हैं। शिवानन्द देवकली के दूबे थे, जिन्हें ठाकुर ब्राह्मण भी कहते हैं।' पृष्ठ 64 में लिखा है कि 'कुछ काल पीछे बाज-बाज आस्पदों के बजाय सांकेतिक पद बादशाहों और राजाओं ने भी ब्राह्मणों के कर दिए। जैसे भट्टाचार्य, चौधरी, राउत, ठाकुर और चौकसी।' इसी प्रकार सर्यूपारियों में भी बहुत से मिलेंगे। शाहाबाद जिले में गाँव के गाँव सर्यूपारी सिंह पदवीवाले हैं। यहाँ तक कि बक्सर से पूर्व एक ग्राम 'सिंहनपुरा' कहलाता है, जहाँ के सर्यूपारी सिंह कहलाते हैं। गौड़ों, सास्वतों और सानाढय आदि ब्राह्मणों में तो राय, सिंह की भरमार है। बड़े-बड़े जमींदार सभी सिंह कहलाते हैं और चौधरी भी। गाजीपुर के श्री शिवनाथसिंह सारस्वत ही (महियाल) ब्राह्मण थे, जो प्रथम से ही यहाँ आ कर बस गए। सरस्वती के लेखकों में से पं.अयोध्या सिंह उपाध्याय को लोग जानते ही हैं। वे सनाढ्‍य ब्राह्मण ही हैं। इसी प्रकार जहाँ ढूँढ़ेंगे वहीं सभी मिल सकते हैं। कान्यकुब्ज दर्पण के 29-32 पृष्ठों में राय, सिंह और साह पदवीवालों के नाम भरे हैं।

हाँ, इतनी बात है कि मिथिलादि देशों तथा कन्नौज में राय, सिंह के आगे कहीं-कहीं ठाकुर, दीक्षित तिवारी आदि भी जोड़ देते हैं और कहीं-कहीं नहीं भी। जैसा कि पूर्व दृष्टांतों से विदित हो गया होगा। परंतु उचित है जिसका जो प्राचीन आस्पद (उपाधि) तिवारी आदि हो, उसे अवश्य राय अथवा सिंह आदि शब्दों के आगे जोड़ दे, नहीं तो धर्मशास्त्र सिद्ध शर्मा शब्द को ही उनके आगे लगा दे, अथवा उनको निकाल कर शर्मा शब्द को ही केवल रखे, अथवा पांडे आदि भी जोड़ दे। इसमें मर्जी की बात है।

इसलिए आजकल किसी अयाचक दलवाले ब्राह्मण को अपने नाम के आगे प्राचीन शर्मा या तिवारी, पांडे आदि पद लगाए देख जो कोई बुद्धि के शत्रु यह दलील कर बैठते हैं कि यदि आपकी यह पदवी प्रथम से थी तो आप लोग उसका प्रथम प्रयोग क्यों न करते थे? उनको उन कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों को देख और पूछ कर अपनी अनभिज्ञता का परिचय कर लेना चाहिए। साथ ही, विचारने की बात हैं कि 'शर्मा' उपाधि तो सभी ब्राह्मणों की धर्मशास्त्रों से सिद्ध है जैसा कि मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में लिखा है कि :

शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्।

वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्॥ 3 अ. 2 मनु.

शर्म देवश्‍च विप्रस्य वर्म त्राता च भूभुज:।

भूतिर्दत्तश्‍च वैश्यस्य दास: शूद्रस्य कारयेत्॥ यम.॥

शर्म वद्ब्राह्मणस्योक्तं वर्मेति क्षत्र संयुतम्।

गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयो:॥ विष्णुपु.॥

सबका निचोड़ यह है कि 'ब्राह्मणों के नाम के अन्त में शर्मा और देव शब्द होने चाहिए, एवं क्षत्रिय के नामान्त में वर्मा और त्राता, वैश्य के गुप्त, दत्त आदि और शूद्र के नामान्त में दास शब्द लगाना चाहिए।' अब हम आप ही से पूछते हैं कि सभी ब्राह्मणों के नाम के आगे इन नवोद्भूत तिवारी, पांडे, सिंह, ठाकुर और भट्टाचार्य प्रभृति उपाधियों के प्रबल प्रवाह ने जब उनका नाम निशान तक आज मिटा दिया है, तो फिर क्या आज उसके नए सिरे से प्रयोग करनेवाले आपके सिद्धांतनुसार अपराधी समझे जावे? अथवा 'शर्मा' उनकी उपाधि ही प्रथम की न समझी जावे? इसलिए ऐसी कुकल्पनाएँ विद्वानों को शोभा नहीं देतीं और मूर्खों को कोई रोक भी नहीं सकता।

इन सभी कथन का निष्कर्ष यही है कि राय, सिंह और चौधरी आदि उपाधियाँ रखने से भूमिहार आदि ब्राह्मणों में त्रुटि नहीं आ गई, जिससे किसी प्रकार इनका पूर्व गौरव घट गया है। क्योंकि ये ब्राह्मण मात्र में प्रचलित उपाधियाँ हैं। हाँ, इतना हम अवश्य कहेंगे कि इन सभी आधुनिक उपाधियों को सभी ब्राह्मण छोड़ कर धर्मशास्त्रादि सिद्ध शर्मा, ऋषि, देव, आचार्य और उपाध्याय रूप उपाधियों का ही अब से प्रयोग करें। क्योंकि अब आधुनिक किसी भी राय, सिंह अथवा पांडे, तिवारी प्रभृति पदवियों में तत्व नहीं रह गया और न उनसे कोई प्रतिष्ठा ही है। बल्कि निरक्षर, निरुद्योग और कर्म धर्म शून्यों में ये अन्ध परम्परा की पदवियाँ अब अत्यन्त अयोग्य प्रतीत होती है।

विवाह सम्बन्ध

हम प्रथम ही सिद्ध कर चुके हैं कि त्यागी, महियाल, पश्‍चिम, भूमिहारादि ब्राह्मण दल सभी देश के कर्मवीर, धनी और प्रतिष्ठित अयाचक ब्राह्मणों का एक दल है, जो उसी समय बना जिस समय कान्यकुब्ज, मैथिल, गौड़, सारस्वत और सर्यूपारी आदि ब्राह्मण दल बन रहे थे। अब इस प्रकरण के अन्त में उसी की पुष्टि के लिए इन अयाचक ब्राह्मणों का प्रतिष्ठित मैथिलों, कान्यकुब्जों, सर्यूपारियों और गौड़ों से विवाह सम्बन्ध दिखलाते हुए इनके श्रेष्ठ ब्राह्मण होने में प्रसिद्ध-प्रसिद्ध पंडित प्रवरों की सम्मतियाँ दिखला कर इस प्रकरण को समाप्त करेंगे। जिनके दिखलाने से बहुतों की अनभिज्ञता मूलक कुकल्पनाएँ समूल विनष्ट हो जावेंगी और उनको अपनी पंडिताई का पता लग जावेगा। उस सम्बन्ध को नाम बनाम दिखलाने से प्रथम ही हम उसके विषय में दो-एक बातें कह दिया चाहते हैं। एक तो यह कि जब काशी में भूमिहार ब्राह्मण महासभा की बैठक हुई थी तभी महाराज द्विजराज काशिराज ने अपनी वक्त्तृता में इस बात का वर्णन किया था कि इन अयाचक ब्राह्मणों का मैथिलों, कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों और गौड़ों के साथ विवाह सम्बन्ध होता था और है यद्यपि उन्होंने इसके रोकने के लिए अपनी सम्मति प्रकाशित की थी, परंतु हम उस अंश से सहमत नहीं हैं। क्योंकि रोकने में उनका तात्पर्य यह था कि हम लोग अयाचक ब्राह्मण हैं, इसलिए हमारा सम्बन्ध उन्हीं में होना चाहिए, न कि याचक ब्राह्मणों में भी। परंतु जैसा कि हम प्रथम ही कह चुके हैं और आगे भी विदित होगा कि अयाचक दल में भी बहत से अयाचक हैं और इन अयाचकों का साक्षात सम्बन्ध उन्हीं से होता है। क्योंकि दरिद्रों के साथ लोग कब करनेवाले हैं। और उन अयाचकों का भी अपने दल के अयाचकों के ही साथ होता है, इस प्रकार से तीन, चार या पाँच सम्बन्ध के बाद संभवत: याचक भी जुट जाते हैं। तो इससे क्या? वे लोग कुछ दूसरे तो हैं नहीं, केवल आचार-भेद होने से उनके मत से साक्षात सम्बन्ध न होना चाहिए। क्योंकि परम्परा सम्बन्ध तो संसार में किसी के साथ भी बचा नहीं है। सभी ब्रह्मा या ऋषियों की संतानें हैं। यदि कोई आदमी किसी चांडाल का स्पर्श नहीं करता तो साक्षात ही नहीं करता, परंतु परम्परा स्पर्श तो रहता ही है। क्योंकि दोनों उसी पृथ्वी पर रहते हैं। बल्कि हम तो साक्षात सम्बन्ध को ही पसंद करते हैं और बहुत जगह ऐसा होता भी है।

एक बात और भी हैं कि जैसे भूमिहार ब्राह्मण अयाचक हैं वैसे ही याचक दल में भी तो बहुत से अयाचक हैं। तो क्या वे लोग सम्बन्ध करना ही छोड़ कर बिना ब्याहे रह जावे? हाँ प्राय: जहाँ तक होता है साक्षात सम्बन्ध करना ही छोड़ देते हैं। वैसे ही आप लोगों (भूमिहारादि ब्राह्मणों) में भी हैं। इसलिए कोई भी हर्ज नहीं। यदि आप कहें कि हम लोगों ने तो संकल्पपूर्वक दान का परित्याग किया है, न कि याचक दलवाले अयाचकों ने, इसलिए उनका दृष्टांत नहीं दिया जा सकता। सो तो ठीक नहीं है। क्योंकि जैसा कि हम अच्छी तरह सिद्ध कर चुके हैं कि क्रमश: याचकों से अचायक होते गए और कभी-कभी अयाचक से याचक भी इत्यादि। इसलिए संकल्पपूर्वक दान त्यागने में कोई प्रमाण नहीं हैं। यह तो ऐच्छिक धर्म है।

दूसरे यह कि मैथिल परमहंस महोपदेशक नामक एक महात्मा ने भी 'ब्राह्मण सम्बन्ध' नाम की एक छोटी-सी पुस्तक लिखी है। यद्यपि उसमें विशेष रूप से मैथिलों और भूमिहार ब्राह्मणों के ही सम्बन्ध दिखलाए गए हैं। तथापि उसके चौथे पृष्ठ में लिखा है कि 'पंजी के पूर्व मैथिल, कान्यकुब्ज, सरवरिया और पश्‍चिम ब्राह्मण में सम्बन्ध था,' इत्यादि।

इसी जगह यह समझ लेना चाहिए कि मैथिल ब्राह्मणों में दो प्रकार के विवाह प्रचलित हैं, एक तो उनकी सौराष्ट्र की केवल विवाह संबंधिनी सभा में होता है, जहाँ पर कन्या विक्रय प्रधान धर्म माना गया है। जिसके लिए 'मिथिला मिहिर' प्रभृति पत्र और मैथिल महासभा चिल्लाती ही रह गई, मगर कुछ न हुआ इस विवाह से बड़ा भारी अनर्थ यह होता है कि रुपए दे कर अन्य जातियाँ भी वहाँ से लड़कियाँ ब्याह लाती है, क्योंकि वहाँ के विवाह का दारमदार पंजीकारों पर होता। जो बड़े ही लालची होने के कारण किसी से विशेष घूस पाते हैं उसी का नाम पंजी में लिख देते हैं। फिर क्या? अब तो वेद वाक्य ही हो गया और उसके मैथिल होने में कोई संदेह नहीं रहा। क्योंकि मैथिलों का निर्भर उसी काल्पनिक पंजी पर ही होता है। इस विषय में बहुत बार विचार और लिखा-पढ़ी 'मिथिला मोद' प्रभृति उनके पत्रों में भी हो चुकी है। और भागलपुर की मैथिल महासभा में इस विषय का एक प्रस्ताव भी हो चुका हैं। यद्यपि इस प्रकार के विवाह पर पुराने लकीर के फकीर मैथिलों को बड़ा अभिमान हैं, तथापि सच पूछिए तो यह विवाह नहीं, किंतु अनर्थ हैं। परंतु यह विवाह प्राय: अप्रसिद्ध और गरीबों का ही है। दूसरे प्रकार का विवाह, जिसे पुराने ढंग के मैथिल अच्छा नहीं समझते, युक्‍त प्रांतादि की रीति पर तिलक, दहेज दे कर और लड़के-लड़कियों के घर-बार देख कर हुआ करता है। जिसमें पूर्व ब्याह की तरह गड़बड़ मचने की संभावना भी नहीं रहती। क्योंकि सौराष्ट्र सभावाला विवाह दो ही चार दिनों में हो जाता है। परंतु इसमें तो परीक्षा के लिए पूर्ण समय मिलता है। इस विवाह को मैथिल लोग 'तिलकौआ विवाह' कहते हैं। यह केवल प्रतिष्ठित और धनी एवं जमींदार मैथिलों में हुआ करता है। और यही दूसरे प्रकार का विवाह उन लोगों का पश्‍चिम ब्राह्मणों के साथ होता है। क्योंकि दोनों दल जमींदार और प्रतिष्ठित ही है। इसलिए यह कहने का भी अवकाश नहीं रहा कि मिथिला के विवाह का तो कुछ ठिकाना ही नहीं, वहाँ तो धोखे से अन्यों के साथ भी हो जाता है। क्योंकि धोखे की बात प्रथम प्रकार के ही विवाह में रहती है, न कि दूसरे प्रकार के विवाह में भी। यदि पश्‍चिम ब्राह्मणों और मैथिलों का परस्पर विवाह सच्ची रीति से होता न रहता, तो भागलपुर की मैथिल महासभा में उसके रोकने का प्रस्ताव क्यों किया जाता, जिसका विवरण आगे मिलेगा?

इसके सिवाय ता. 11 जनवरी, 1916 ई. के भारतमित्र में भी इसी विषय की संपादकीय टिप्पणी ऐसी निकली है कि 'मैथिलों और भूमिहारों के वैवाहिक सम्बन्ध होते हैं इससे भूमिहार काशीनरेश के ब्राह्मण होने में संदेह करना व्यर्थ है, संपादक महोदय को कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों के साथ भूमिहार, जमींदारादि ब्राह्मणों के सम्बन्ध विदित न थे। इसलिए उन्होंने उनका वर्णन नहीं किया, यह दूसरी बात है। इस संपादकीय टिप्पणी को देखते ही किसी दरभंगा निवासी मैथिल जीवछ मिश्र का माथा ठनक उठा और चटपट उन्होंने संपादक जी को बड़े रोष के साथ लिख भेजा कि आपने विवाह सम्बन्ध के विषय में जो लिखा है वह सब गलत हैं। जो विवाह मैथिलों के नाम पर होते हैं, वे बनावटी मैथिलों के ही नाम पर, न कि सच्चे मैथिल कभी भी भूमिहार ब्राह्मणों के साथ विवाह करते हैं। अत: आपको यह बात विचार कर लिखनी थी इत्यादि। यह ता. 11 जनवरी के बाद के भारतमित्र के किसी अंक में संक्षेप से प्रकाशित है।

इस पर पुन: ता. 25-1-16 ई. के अंक में पूर्व लेख का संपादकीय उत्तर निकला कि 'किसी पिछले लेख में हमने लिखा था कि जब भूमिहारों का मैथिलों से वैवाहिक सम्बन्ध होता है, तब भूमिहारों के ब्राह्मण होने में संदेह नहीं किया जा सकता। इस पर दरभंगे के श्रीयुत जीवछ मिश्र हम पर बहुत बिगड़े हैं, परंतु इसका कोई कारण हमारी समझ में नहीं आता। जब एक समाज का मनुष्य किसी दूसरे समाज के विषय में कुछ लिखता है, तब उसका हाल वह दूसरे से ही सुन कर लिखता है, क्योंकि भीतर की बात विशेष घनिष्ठता हुए बिना वह नहीं जान सकता। परमहंस महोपदेशक नाम के एक सज्जन ने कई वर्ष हुए हमारे पास एक पुस्तक छपने को भेजी थी, जिसमें उन्होंने यह बात लिखी थी। हमारे यहाँ तो वह पुस्तक नहीं छपी, पर वह छप गई या नहीं यह भी हमें मालूम नहीं है, क्योंकि वह यहाँ से लौटा दी गई थी। उसके बाद हमने एक मैथिल वैष्णव से यही बात पूछी थी और उन्होंने भी परमहंस जी का समर्थन किया था। इस कारण हमने परमहंस जी की बात प्रामाणिक समझी और उसे लिख दिया...। जीवछ जी को अच्छी तरह खोज कर लेना चाहिए और यदि हमारी बात ठीक न ठहरे तो सूचना पाने पर हम सहर्ष उसका खण्डन प्रकाशित कर देंगे।'

इसके बाद उक्‍त मिश्र जी की लेखनी जो रुकी सो आज तक रुकी ही है। फिर ता. 28-1-16 ई. के अंक में यह प्रकाशित हुआ कि 'मोकामे से श्रीयुत आदित्य नारायण सिंह लिखते हैं : आपने गत मंगलवार के 'भारतमित्र' में दरभंगे के श्रीयुत जीवछ मिश्र जी के क्रोध का जिक्र करते हुए लिखा है कि 'जब भूमिहारों का मैथिलों से वैवाहिक सम्बन्ध होता है तब भूमिहारों के ब्राह्मण होने में संदेह नहीं किया जा सकता है।' आपका कथन निस्संदेह युक्‍तिसंगत और सत्य है। भूमिहारों तथा मैथिलों के अनेक वैवाहिक सम्बन्ध हुए और होते हैं। इसके अतिरिक्‍त अनेक मैथिल और भूमिहार धन के बढ़-घट जाने पर मैथिल से भूमिहार और भूमिहार से मैथिल कहलाने लगते हैं। यदि में कथन पर किसी को विश्‍वास न हो और इसकी सत्यता जानना चाहे तो मैं उसके साथ घूम कर इसकी सत्यता दिखा दूँगा। इसके सिवाय आपने भी श्रीयुत जीवछ मिश्र जी को अपने कथन की सत्यता प्रमाणित करने के लिए खण्डन करने की आज्ञा दे दी है। देखें मिश्र जी खण्डन में क्या लिखते हैं।'

इस पर मिश्र जी की ओर से किसी की लेखनी न उठी, और अन्त में काशीवासी पं. शयामनारायण शर्मा सं. 'भू. ब्रा.' का एक लेख ता. 8-2-16 ई. के अंक में प्रकाशित हो कर यह लिखा-पढ़ी बंद हो गई। वह लेख यों हैं :

'गत पौष शुक्ल सप्तमी को प्रकाशित 'दैनिक भारत मित्र' की संपादकीय टिप्पणी 'मैथिलों और भूमिहारों के वैवाहिक सम्बन्ध होते हैं, इससे भूमिहारों के ब्राह्मण होने में संदेह करना व्यर्थ है', देख कर दरभंगा निवासी श्री युत जीवछ मिश्र जी आपे से बाहर हो गए हैं और गत किसी अंक में संपादक महोदय को उलाहना देते हुए आप लिखते हैं कि पूर्वोक्‍त विवाह सम्बन्ध की बात मिथ्या है। भूमिहारों के साथ जिन मैथिल के ब्याह होते हैं वे कल्पित मैथिल हैं इत्यादि। परंतु मैं कहता हूँ कि यदि वास्तव में सच्चे मैथिलों के साथ भूमिहार ब्राह्मणों के ब्याह नहीं होते, तो गत सन 1911 ई. में भागलपुर की मैथिल महासभा के अधिवेशन में इनके रोकने का प्रस्ताव क्यों किया जाता? और उसके लिए एक सिलेक्ट कमिटी क्यों बनाई जाती? इसका विवरण उसी वर्ष के 29 अप्रैल के 'मिथिला मिहिर' नामक उन्हीं लोगों के पत्र में इस प्रकार है :

'तदनंतर एकटा महाशय (नाम हमरा विस्मृत भैगेल अछि, मि. मि. स) ई प्रस्ताव कैलन्हि जे बहुतो मैथिल ब्राह्मण भूमिहार ब्राह्मण सँ सम्बन्ध करैत छथि। एहि विषय में सभा क दिश स प्रबंध होवाक चाही, जाहि सही सम्बन्ध बंद हो। सर्व सम्मति सही निश्‍चय भेल जे एहि विषयक ऊपर विचार करवा कर हेतु एकटा सिलेक्ट कमिटी नियत कैल जावे। ' बनावटी मैथिलों के नाम पर जो विवाह सम्बन्ध होते थे या होते हैं, वे तो कन्या विक्रय द्वारा कन्या-विक्रय-स्थान 'सौराष्ट्र' नाम्नी मैथिलों की प्रसिद्ध वैवाहिक सभा में हुआ करते हैं। परंतु भूमिहार ब्राह्मणों के साथ सम्बन्ध में तो तिलक-दहेज की रीति पर होते हैं, जैसी प्रथा संयुक्‍त प्रांतदि देशों में प्रचलित हैं और जिसे मैथिल लोग 'तिलकौआ' ब्याह कहा करते हैं।

क्या दरभंगा प्रांतस्थ दुलारपुर निवासी मैथिल तुरंतलाल चौधरी का विवाह उसी प्रांतस्थ शेरपुर ग्राम के जलेवार मूलवाले भूमिहार ब्राह्मण खगन चौधरी के घर नहीं हुआ है, या वे सच्चे मैथिल नहीं हैं? अथवा उन्हीं के घर देवधावाले भू. ब्रा. रामबकस राय सनैवार की लड़की का ब्याह नहीं हुआ है? क्या उसी प्रांत में दहौरा निवासी मैथिल (योग्य श्रेणी के) वनमाली सरस्वती (सरस्वती बाबू) प्रभृति के घर में ठाहर ग्राम के सगोत्र वल्लीपुर निवासी दामोदर चौधरी की बहन का विवाह नहीं हुआ है? जिस ठाहर ग्राम में नया नगरस्थ सनैवार भू. ब्रा. चौधरी झरूला सिंह तथा ऊदनसिंह की बहनों का सम्बन्ध है। तथा कुरसों ग्रामस्थ मैथिल चित्रा नारायण चौधरी का ब्याह भिरहा ग्रामस्थ बेलखंडी राय की पुत्री से और नंदूराय के घर में कुरसों के सगोत्र दसौतवाले प्यारेलाल चौधरी के पुत्र का ब्याह क्या नहीं हुआ है? जिन भिरहावाले नंदूराय मैथिल के लड़के का सकरपुर ग्रामवासी सनैवार भू. ब्राह्मण नथुनी राय के घर में सम्बन्ध हैं। इत्यादि 12 गाँव भिरहा आदिवाले अनरिए मैथिलों का सम्बन्ध भू. ब्राह्मणों से नया नगरादि ग्रामों में हैं और भिरहावाले बड़े-बड़े योग्य और पंजीबद्ध मैथिलों में मिले हुए हैं। यदि आवश्यकता हो तो सहस्त्रों ऐसे सम्बन्ध नाम बनाम दिखलाए जा सकते हैं। यदि मैथिल मिश्र जी को संदेह हो तो उन ग्रामों में¹ 'ब्राह्मण सम्बन्ध' नाम की पुस्तक से स्पष्ट है कि मैथिल मूर्द्धन्य श्रोत्रिय दरभंगा महाराज का भी सम्बन्ध परम्परया भूमिहार ब्राह्मणों से मिलता है। जा जाँच कर अपना संतोष कर ले। मैथिल और भूमिहार ब्राह्मण सम्बन्धवाली पुस्तक 'ब्राह्मण' सम्बन्ध नाम्नी दरभंगास्थ रामेश्‍वर प्रेस में छप चुकी है। जिन्हें इच्छा हो' बा. महावीर सिंह, ग्राम गंगापुर, पो. ताजपुर-दरभंगा के पते से मँगा ले। मुफ्त मिलती है।'

इसके सिवाय बनावटी मैथिलों के विवाह तो केवल लड़कियों के हुआ करते हैं क्योंकि वहाँ लड़केवालों को बनावटी बनने का अवसर मिलता है, परंतु लड़कीवाले के तो घर जाना पड़ता है और दो-चार दिन रहना भी पड़ता है। इसलिए बनावट हो तो पता ही लग जावे। परंतु मैथिलों और भूमिहार (पश्‍चिम) ब्राह्मणों के सम्बन्ध तो लड़की और लड़के दोनों के ही होते हैं, जैसा कि आगे विदित होगा। अन्त में हम दरभंगा के नया नगरवासी श्री पारसमणि सिंह नामक अतिवृद्ध अत्यन्त अनुभवी और विचारशील पश्‍चिम ब्राह्मण रत्‍न सज्जन को हार्दिक धन्यवाद देते हैं, जिनकी ही सहायता से विशेष रूप से नाम बनाम सम्बन्ध संगृहीत हुआ है जैसा नाम हैं वे वैसे ही हैं। और परमहंस जी तो धन्यवाद के पात्र हैं ही। क्योंकि सम्बन्ध संग्रह का सूत्रपात उन्हीं का किया हुआ है, जिसमें प्रमाण स्वरूप पूर्वोक्‍त 'ब्राह्मण सम्बन्ध' नामक पुस्तक ही है।

अब विवाह सम्बन्ध दिखलाया जाता है। उसमें भी प्रथम मैथिल ब्राह्मणों के ही साथ अयाचक ब्राह्मणों का सम्बन्ध दिखला कर पीछे कान्यकुब्जों, सर्यूपारियों और गौड़ों के साथ दिखलाया जावेगा। क्योंकि अभी मैथिलों के सम्बन्ध में बहुत सी बातें कह चुके हैं। इस स्थान पर इतना समझ लेना चाहिए कि जिन मैथिलों का अयाचक, पश्‍चिम या भूमिहार ब्राह्मणों के साथ विवाह सम्बन्ध होता है वे सामान्यत: दो प्रकार के प्रसिद्ध है, एक तो दोगमियाँ और दूसरे दोगमियों से अन्य। दोगमियाँ नाम उस प्रांत में उन मैथिलों का है, जिनका सम्बन्ध पश्‍चिम (भूमिहार) ब्राह्मणों से भी है और मैथिलों ब्राह्मणों से भी। वे दोनों ब्राह्मण दल में विवाह के लिए जाते हैं, अत: दोगमियाँ कहलाते हैं। उनसे वे अन्य हैं जिनके सम्बन्ध केवल मैथिलों से ही है। यद्यपि जिनका सम्बन्ध केवल मैथिलों से ही है वे भी परम्परया पश्‍चिम ब्राह्मणों से दोगमियों के द्वारा विवाह सम्बन्ध में मिल जाते हैं, जैसा कि आगे स्पष्ट हो जावेगा, और कहीं-कहीं ऐसे भी मैथिल है जो दोगमियाँ न भी कहलाने पर साक्षात पश्‍चिम ब्राह्मणों से सम्बन्ध करते हैं। तथापि दोगमियों का सम्बन्ध पश्‍चिम ब्राह्मणों के साथ साक्षात और प्रसिद्ध हैं जिसे सभी जानते हैं, परंतु अन्यों का या तो अधिकतर साक्षात सम्बन्ध है ही नहीं या है भी तो कम होने से उतना प्रसिद्ध नहीं है। इसलिए वे दोगमियाँ नहीं कहलाते।

मैथिलों और पश्‍चिम (भूमिहार) ब्राह्मणों के सम्बन्ध इस प्रकार हैं - (1) परगना लोआम, जिला दरभंगा, ग्राम दुलारपुर, मूल अड़ैवारनान पुर, गोत्र वत्स, तुरंतलाल चौधरी मैथिल का विवाह सरैसा, जिला दरभंगा, ग्राम मऊ शेपुर, गोत्र शांडिल्य अथवा वत्स, मूल जलैवार, खगन चौधरी और पोखन चौधरी पश्‍चिम ब्राह्मण की बहन से हैं। जिससे उत्पन्न पुत्र बच्चा चौधरी उर्फ कारी चौधरी का विवाह ग्राम भवानीपुर जमसम, परगना हाटी, जिला दरभंगा में किसी योग्य श्रेणीवाले मैथिल के घर में हैं। इसके अतिरिक्‍त नीचे के सभी विवाह दरभंगा जिले के ही हैं। (2) पूर्वोक्‍त तुरंत लाल चौधरी के ही घर नयानगर स्टेशन के पास ग्राम देवधा, मूल सनैवार, गोत्र भारद्वाज, रामबकस राय की लड़की का विवाह है, जो पश्‍चिम ब्राह्मण हैं। (3) दुलारपुर के मगनी राम चौधरी मैथिल का विवाह भिरहा ग्राम में, परगना जखलपुर, मूल अनरिए, गोत्र शांडिल्य, पारसमणि राय दोगमियाँ मैथिल की कन्या से हैं, जिन भिरहावाले अनरियों का सम्बन्ध देवधा, नया नगर इत्यादि ग्रामवाले सनैवार मूल के पश्‍चिम ब्राह्मणों में भरा है। (4) दुलारपुर के ही मनोहर चौधरी का विवाह ग्राम माखनपुर बसहा, मूल ब्रह्मपुरिये, ब्रह्मपुर गोत्र शांडिल्य, चुरामन चौधरी की बहन से है। ये ब्रह्मपुरिए मैथिल भी सनैवार पश्‍चिम ब्राह्मणों से मिले हुए हैं। (5) पूर्वोक्‍त भिरहा ग्राम के नंदूराय मैथिल के पुत्र का विवाह ग्राम सकरपुरा, मूल सनैवार पश्‍चिम ब्राह्मण नथुनीराय की भतीजी से है। (6) उसी भिरहा नंदूराय के घर परगना भरौरा ग्राम भरौरा, छोटे झा और जगतमणि झा का सम्बन्ध है। (7) भिरहावाले बेलखंडी राय मैथिल, मूल अनरिए का भी सम्बन्ध सकरपुरा के पश्‍चिम ब्राह्मणों से है। (8) जिस बेलखंडी राय की कन्या का विवाह झंझारपुर स्टेशन के पास कुरसी ग्राम, मूल जलैवार, अवध नारायण चौधरी के पिता चित्रानारायण चौधरी मैथिल से हैं। (9) पूर्वोक्‍त भिरहावाले नंदूराय के ही घर में कुरसी ग्रामवाले प्यारे लाल चौधरी के पुत्र बच्चा चौधरी का विवाह है। (10) भिरहा ग्राम के शीतल राय मैथिल के भतीजे लाल जी राय के पुत्र बच्चन राय का विवाह ग्राम मालपुर के सनैवार पश्‍चिम ब्राह्मण नथुनी राय की बहन से हैं। (11) जिस भिरहावाले शीतल राय के घर से दरभंगा शहर से पश्‍चिम पंचोभ गाँव के कीर्तिनारायण चौधरी के पुत्र द्वारिका नाथ चौधरी मैथिल का विवाह है। (12)पूर्वोक्‍त शीतल राय के पुत्र रामकिशुन राय की विवाह बस्ती बढ़ौना ग्राम, परगना सरैसा में बबुई काल चौधरी मैथिल मूल मर्रैं मगरौनी की पुत्री से हुआ। (13) उसी बढ़ौना के इशरू चौधरी नयानगरवाले सनैवार पश्‍चिम ब्राह्मण विंधएश्‍वरी प्रसाद सिंह के नाना हैं। (14) उसी बढ़ौना के बद्री चौधरी का विवाह मौजे भथाही परगना विसारा में फतेह नारायण सिंह कोदरिया पश्‍चिम ब्राह्मण के सगोत्र (गोतिया) के घर में हुआ है और उसके निस्संतान होने से बद्री चौधरी उसके हिस्से के मालिक है। (15) उन्हीं बद्री चौधरी के पुत्र बबुवे लाल चौधरी का विवाह मैथिल के ही घर ग्राम पकड़ा, जिला भागलपुर, परगना छई में श्री गूदर सिंह के यहाँ हैं। (16) बढ़ौना के ही देवी लाल चौधरी के पुत्र रक्षाराम चौधरी का विवाह जिला पटना ग्राम (स्टेशन भी) पुनारक में श्री यदुनन्दन सिंह भूमिहार ब्राह्मण सावर्ण्य गोत्रवाले के घर हुआ है। (17) बढ़ौना के ही कुंजी लाल चौधरी का विवाह जिला मुंगेर ग्राम (स्टेशन) खगरिया के श्री जानकी प्रसाद सिंह पश्‍चिम ब्राह्मण सावर्ण्य गोत्री की बहन से हैं। (18) बढ़ौना के ही पदार्थ सिंह चौधरी का विवाह जिला मुंगेर, गाँव तथा स्टेशन बरही श्री संतोष सिंह पश्‍चिम ब्राह्मण की भतीजी से है। बस्ती बढ़ौनावाले मैथिलों का स्टेशन मुहीउद्दीन नगर हैं। बढ़ौनावालों का सम्बन्ध शांडिल्य गोत्री अनरियों में भी है जो सनैवार मूल के पश्‍चिम ब्राह्मणों से मिले हुए हैं।(19) बद्री चौधरी के संबंधी सूबाराय मैथिल अनरिए या ब्रह्मपुरिए ग्राम देकुली, परगना जबलपुर। (20) प्रयागदत्त चौधरी की बहन के लड़के श्री लक्ष्मीनारायण राय मैथिल, अनरिए, गाँव पतैली। (21) तिल्लू चौधरी के संबंधी हरिहर राय अनरिए ग्राम जगन्नाथपुर। (22) तिल्लू चौधरी के संबंधी रामगोविंद झा ग्राम फुलेरा, मूल जलैवार, गोत्र वत्स अथवा काश्यप। (23) बस्ती गाँव, स्टेशन मुहीउद्दीन नगर, जगदीश राय मैथिल मूल जलैवार का विवाह भथाही ग्राम में अवधासिंह कोदरिया की लड़की से। (24) बढ़ौना के गंगू चौधरी की पुत्री का विवाह रामसुंदर झा से, ग्राम बेला, मुजौना के पास, परगना सरैसा। (25) पूर्वोक्‍त पनचोभ गाँव से उत्तर सिमरी गाँव में रहनेवाले मैथिल मेवालाल चौधरी के भतीजे का विवाह भिरहा में दिगंबर राय के यहाँ हैं। यह मेवालाल दरभंगा के महाराज लक्ष्मीश्‍वर सिंह के मुँहलग्गू और मधुबनी के प्रसिद्ध बाबू दुर्गादत्त के तहसीलदार थे। (26) दरभंगा से दो कोस पश्‍चिम ग्राम कलि गाँव के मैथिल ज्ञानीलाल चौधरी का विवाह भिरहावाले भाईलाल की लड़की से। (27) उसी कलिगाँव के कुँवर चौधरी भिरहावाले धर्मलाल राय के भगिना (बहन के लड़के) हैं अथवा थे। (28) पूर्वोक्‍त जगन्नाथपुर के हरिहर राय अनरिए मैथिल का ब्याह सनैवार ही ब्राह्मण नया नगर निवासी भुजंगा सिंह की लड़की से और देवधा में सनैवार ही ब्राह्मण लक्ष्मण राय की लड़की से। (29) बैरमपुर के अनरिए मैथिल बच्चू राय की शादी नया नगरवाले भुजंगासिंह के घर है। इस तरह 12 गाँववाले अनरिए मैथिलों का सम्बन्ध 12 गाँववाले सनैवार पश्‍चिम ब्राह्मणों से एक में एक मिला हुआ है। जिन भिरहा प्रभृति गाँववाले अनरियों का सम्बन्ध कुरसों दसौत इत्यादि ग्रामों में तथा योग्य श्रेणी के मैथिलों में भी हैं।

इसी प्रकार केवटा, आसिनचक प्रभृति गाँवों के ब्रह्मपुरिए मैथिल शांडिल्य गोत्री भी सनैवार इत्यादि मूल के ब्राह्मणों में मिले हुए हैं, जैसे (30) केवटा के गजराज चौधरी की तीन लड़कियों के विवाह नया नगर में सनैवार ब्राह्मण नरसिंह दत्त सिंह, रघुवर शरण सिंह और जालिम सिंह से हुए। (31) केवटा के वर्तमान सेठ रामाश्रय चौधरी के बाबा रघुवर दयाल सिंह की बहन से नयानगर जीवलाल सिंह का विवाह था। (32) आसिनचक के रामदयाल चौधरी की बहन का विवाह नया नगरवाले महोदय सिंह से। (33) रामपुर कचहरी के सनैवार ब्राह्मण दिगंबर राय के पिता लेखा राय की लड़की से देकुली के अनरिए या (ब्रह्मपुरिए) हरख राय के पुत्र सूबाराय का विवाह हुआ। (34) केवटा के सेठ की लड़की से भिरहावाले दिगंबर राय का ब्याह हुआ। (35) वर्तमान सेठ श्री रामाश्रय सिंह चौधरी के चचेरे भाई का विवाह पूर्वोक्‍त बढ़ौनावाले प्रयाग दत्त चौधरी की लड़की से है। (36) और बढ़ौना के ही उदय सिंह चौधरी के घर में नया नगरवाले अमृत प्रसाद और बलदेव सिंह के विवाह है। (37) विभूत पुर नरहन के द्रोणवार ब्राह्मण श्री द्वारिका प्रसाद सिंह के भाई हरिकृष्ण सिंह का विवाह ग्राम बदलपुरा, बेगूसराय स्टेशन के पास, जिला मुंगेर में श्री वेदनारायण सिंह के भाई चमन सिंह की पोती से हुआ है, और वेदनारायण सिंह की पुत्री का विवाह केवटा के सेठ छत्रधारी चौधरी के पुत्र वर्तमान सेठ श्री रामाश्रय सिंह चौधरी से हुआ है। इन छत्रधारी चौधरी के पिता रघुवर दयाल चौधरी दरभंगा के पास के विलौठी ग्राम के रामाधीन राय मैथिल के मामा थे। जिस रामाधीन राय की पुत्री का विवाह बछौल परगना, दरभंगा, ग्राम भरतपट्टी, टोले वरदेपुर में बच्चा ठाकुर मैथिल के पुत्र से हुआ। (38) सेठ छत्रधारी चौधरी की पुत्री का विवाह दरभंगा से 4 कोस पूर्व वैगनी नेवादा ग्राम में सुवंशलाल झा के घर में हुआ। (39) दरभंगा-खिरहर के श्री भातू प्रसाद चौधरी दिघवैत पश्‍चिम ब्राह्मण के मामा दुलारपुर के भाई जी चौधरी और खुशी चौधरी हैं। क्योंकि भातू प्रसाद के मामा देवघा के मधूसिंह भाई जी चौधरी के मामा हैं। भातू चौधरी के पिता रामशिष्ठ चौधरी और खुशी चौधरी के पिता हंसराज चौधरी थे। (40) कुशेश्‍वरस्थान के पास केवटगाँव के श्री काली प्रसाद सिंह द्रोणवार भूमिहार ब्राह्मण और दरभंगा से पूर्व पोखराँव ग्राम के मैथिल कौशिकी दत्त चौधरी, इन दोनों के विवाह विभूतपुर के पास बेगूसराय सब डिवीजन के मेंघौल गाँव में वंशीराय मैथिल की पुत्रियों से हुए, जिस वंशी राय का लड़का जगद्वीप वर्तमान है। (41) विसुनपुर, बेगूसराय के पास जिला मुंगेर, के श्री रामचौधरी मैथिल, मूल मर्रै मगरौनी की पुत्री का विवाह नयानगरवाले श्री पारसमणि सिंह के पोते से हुआ है। (42) गाँव केशावे, मूल दधिअरे, काश्यप गोत्री मैथिल बाला राय की लड़की का विवाह श्री पारसमणि सिंह के भाई से हुआ। (43) गाँव नाव कोठी, मूल सुरोरे कांटी, गोत्र गौतम मैथिल चौधरी अयोध्या प्रसाद का विवाह नयानगर के श्री शिवनन्दन सिंह की फुफेरी बहन से है। जो मुहम्मदपुर गाँव की रहनेवाली हैं और जिसका मूल सिहोरिया और गोत्र शांडिल्य है। (44) गाँव जोगियारा मूल सिहोरिया अथवा सिहुलिया (सोहगौरिया) श्री खूब लाल सिंह के पुत्र ईश्‍वर दयाल सिंह का विवाह जिला मुंगेर गाँव बीरपुर, छोटी गंडक के तट में, मैथिल मूल सुरगणै, गौत्र पराशर श्री अनूप सिंह के भाई डोमन सिंह की पोती से और दोनों की फुआ से श्री शिवनन्दन सिंह नया नगरवाले के दादा चौधरी रामदयाल सिंह का विवाह था। जिस शिवनन्दन सिंह के यहाँ गंगापुर के श्री रामबहादुर सिंह द्रोणवार ब्राह्मण का विवाह है। (45) देवधावाले सनैवार ब्राह्मण रामेश्‍वर प्रसाद सिंह का विवाह केवटा में रामदीन चौधरी मैथिल ब्रह्मपुरिए के घर में हैं। (46) पूर्वोक्‍त भिरहावाले धर्मलाल राय की पुत्री का विवाह ग्राम ठाहर, परगना जखलपुर, मूल पनचोभे भानपुर, गोत्र सावर्ण्य, मैथिल भगवान दत्त चौधरी से। (47) उसी ठाहर ग्राम में मैथिल जीवन चौधरी के यहाँ नया नगर के चौधरी झरूला सिंह की बहन का विवाह और खेदन चौधरी के घर, चौधरी ऊदन सिंह की बहन का विवाह है। (48) ठाहर के सगोत्र (गोतिया) बल्लीपुर में, सकरी स्टेशन के पास दहौरा ग्राम के वनमाली सरस्वती प्रभृति (सरस्वती बाबू) योग्य श्रेणी के मैथिल के घर के किसी लड़के का विवाह हुआ है, अर्थात वर्तमान महीन्द्र नारायण सरस्वती का बल्लीपुर में मातृक (ननिहाल) है। जिस सरस्वती बाबू का सम्बन्ध श्रोत्रिय महाराजा दरभंगा से भी हैं।(49) जिस कुरसों का सम्बन्ध प्रथम पश्‍चिम ब्राह्मणों से दिखला चुके हैं, उसी कुरसों के अवध नारायण चौधरी की पुत्री से बनमाली सरस्वती दहौरावाले का विवाह था, जिसके पुत्र लक्ष्मी नारायण सरस्वती हैं। (50) बल्लीपुर के ही वंशी चौधरी का विवाह परगना सरैसा, ग्राम वमैया, मूल अरिनए, भोली चौधरी की कन्या से हुआ। (51) ग्राम लामा उजान, मूल जलैवार गरौल, गोत्र काश्यप, वंशी लाल चौधरी मैथिल का विवाह देवधा ग्राम में सनैवार मूल के ब्राह्मण बालमुकुंद राय की कन्या से हुआ। (52) नयानगरवालों के आदि पुरुष श्री पीताम्बर सिंह से भिरहावाले मैथिल रंगलाल राय के बाप की फुआ का विवाह था। (53) पूर्वोक्‍त केशावे ग्राम के दधिअरे मूलवाले सभी मैथिलों की लड़कियों के विवाह नया नगर गाँव में हैं। (54) ग्राम पटोरी, परगना सरैसा के सहदौलिया पश्‍चिम ब्राह्मण मणि मिश्र के पुत्र का विवाह पूर्वोक्‍त बस्ती ग्राम के गोपाल राय मैथिल की बहन से हैं। (55) बछवारा स्टेशन के पास नाड़ीपुर के मैथिल मोहन राय की पुत्री से पटोरी के गणपति मिश्र के पुत्र का विवाह है। (56) परगना पिड़ारुच, गाँव पिड़ारुच, गोत्र गौतम, मूल खौवाड़े नानपुर, मित्रलाल चौधरी के पिता का विवाह जिला मुंगेर, परगना नईपरु, गाँव मराँची मूल जलैवार जाले, गोत्र वत्स खेदू ईश्‍वर मैथिल की बहन से हुआ। (57) उसी खेदू ईश्‍वर की बहन का विवाह भिरहावाले वेलखंडी राय से। (58) लोहार-भवानीपुर के योग्य श्रेणी के मैथिल बच्चू चौधरी के पितामह का विवाह भूमिहार ब्राह्मणों के यहाँ मगध देश में था। (59) समौल ग्राम के फतुरीठाकुर के घर महाराज लक्ष्मीश्‍वर सिंह का दूसरा विवाह हुआ और उसी घर में बनैली का सम्बन्ध हैं। बनैली का सम्बन्ध तो पश्‍चिम ब्राह्मणों के यहाँ दिखाया जा चुका है।

इस प्रकार से दलसिंगसराय स्टेशन से 15-20 कोस उत्तर, दक्षिण और 20-22 कोस पूर्व, पश्‍चिम प्राय: सरैसा परगना और उसके आस-पास हजारों मैथिल और पश्‍चिम ब्राह्मणों के सम्बन्ध होते चले आए हैं, कहाँ तक गिनाया जा सकता है। (60) जिस दुलारपुर का सम्बन्ध पश्‍चिम ब्राह्मणों से सिद्ध कर चुके हैं, उसी दुलारपुर का सम्बन्ध भौड़खौवाड़े मूल में उस ग्राम में हुआ है, जिसमें महामहोपाध्याय श्रीकृष्णसिंह ठाकुर महाराज दरभंगा के सगोत्र रहते हैं। (61) वर्तमान दरभंगा नरेश महाराजा सर रामेश्‍वरसिंह जी का विवाह मंगरौनी पारसमणि झा की पुत्री से हुआ है जो कटिरबूझा की पितिऔत (चचेरी) बहन है। कटिरबू झा का विवाह कारज के बुच्ची चौधरी की फुआ से है। बुच्ची चौधरी की चचेरी बहनों का ब्याह सोनबरसा, भागलपुर के गोरेलाल कुँवर और गौरीपुर के लाल जी ठाकुर (चौ.) से है। कारज ग्राम का सम्बन्ध पूर्वोक्‍त मुंगेर के मराँची ग्राम में लक्खी बाबू के घर और पनचोभ ग्राम का सम्बन्ध मराँची हैं, और मराँची का तथा पनचोभ का भी सम्बन्ध पश्‍चिम ब्राह्मणों से प्रथम ही दिखला चुके हैं। (62) मूल वेलौंचे सुदई, ग्राम समौल के दौहित्र कुल में स्वर्गीय श्रीमान महाराज बहादुर दरभंगा नरेश श्रोत्रिय लक्ष्मीश्‍वर सिंह का विवाह था। जो छोटी महारानी साहिबा अभी वर्तमान हैं, और समौल का सम्बन्ध दुलारपुर और हाबी भौआड़ में है। जिस दुलारपुर का सम्बन्ध प्रथम ही पश्‍चिम ब्राह्मणों से दिखला चुके हैं और हाबी भौआड़ का भी सम्बन्ध दिखलावेंगे। इस प्रकार जब मैथिल शिरोमणि श्रोत्रिय महाराज दरभंगा भी भूमिहार (पश्‍चिम) ब्राह्मणों से विवाह में मिले हुए हैं, और योग्य श्रेणी के भी मैथिलों का सम्बन्ध दिखला चुके हैं, तो अन्य मैथिलों का क्या कहना हैं?(63) जिस कारज ग्राम का सम्बन्ध पश्‍चिम ब्राह्मणों से सिद्ध हो चुका हैं उसी का सम्बन्ध परगना सरैसा, सलेमपुर गाँव में हैं और सलेमपुर का सम्बन्ध मैथिल राजा बनैली से है। (64) खिरहर, दरभंगा के दिघवैत ब्राह्मण श्री रामजुल्म चौधरी और दुलारपुर के तुरंत लाल चौधरी दोनों मौसेरे भाई हैं। इनकी माताएँ परस्पर बैमात्र बहनें हैं और दोनों का ननिहाल समस्तीपुर के निकट झहुरी ग्राम में हैं। (65) नेहरा के श्री गोपी चौधरी का सम्बन्ध पूर्वोक्‍त बरारी (भागलपुर) के मैथिल बाबू के यहाँ है और श्री गोपी चौधरी का सम्बन्ध पूर्वोक्‍त मराँची ग्राम (मुंगेर) में नन्हा ईश्‍वर और नूनू ईश्‍वर मैथिल के घर भी है। जिस मराँची का सम्बन्ध प्रथम ही पश्‍चिम ब्राह्मणों से दिखला दिया गया है। इस प्रकार से बनैली के मैथिल महाराजा श्रीकरीत्यानन्द सिंह और बरारी के मैथिल बाबुआन और उनके सम्बन्ध में जितने बाबुआन हैं। सभी पश्‍चिम ब्राह्मणों से मिले हुए हैं और राजा बनैली का सम्बन्ध महामहोपाध्याय श्रीकृष्ण ठाकुर से हैं, इसलिए उनका भी सम्बन्ध सिद्ध हो गया। इस प्रकार से यदि परम्परा सम्बन्ध का मिलान किया जावे तो मिथिला के किसी भी मैथिल ब्राह्मण का सम्बन्ध इन अयाचक (पश्‍चिम) ब्राह्मणों से बच नहीं सकता। इसीलिए परमहंस जी ने लिखा है कि 'धाखजरी, कुरसों, वल्लीपुर, दसौत, दुलारपुर, नवादा और नेहरा प्रभृति के कुटुंब (संबंधी), कुटुंब के कुटुंब और उनके कुटुंब में सभी सोति (श्रोत्रिय), योग्य और पंजीबद्ध (मैथिल) हैं।' क्योंकि मिथिला में विख्यात ये सभी ही हैं। अब नाम बनाम सम्बन्ध न दिखला कर केवल उन ग्रामों के कुछ नाम ही लिखते हैं, जिनमें प्राय: पश्‍चिम ब्राह्मण दोगमियाँ मैथिल और अन्य मैथिल रहा करते हैं और जिनका परस्पर विवाह सम्बन्ध हैं।

(1) नीचे लिखे हुए नाम प्राय: उन ग्रामों के हैं, जिनमें पश्‍चिम ब्राह्मण रहते हैं और उनका सम्बन्ध दोगमियाँ मैथिलों अथवा अन्य मैथिलों से हैं। वे ये हैं - जिला मुंगेर, परगना नईपुर में दहिया, रसलपुर, दामोदरपुर, आगान, आलापुर, चिल्हाई, पाली, बनहरा, अंबा, रामपुर, सजात, नरहरपुर, ताजपुर, चड़िया, हरपुर नयाटोला, फतहा, रसीदपुर, आगापुर, लाड़ेपुर, बछवारा, तेमुहा, सर्यूपुरा, प्रभृति एवं परगना भुसाड़ी में मेघौल, हरखपुरा आदि ग्रामों में सुरगणै मूल पराशर गोत्रवाले ब्राह्मण रहते हैं। दरभंगा जिले के सरैसा परगने के भथाही, सुस्ता, चाँदीचौर प्रभृति 12 ग्रामों में कोदरिए मूल के ब्राह्मण रहते हैं। जलालपुर, रामपुर, सुरौली, मऊ, शेरपुर प्रभृति ग्रामों में जलैवार मूलवाले रहते हैं। देवधा, पटसा, नयानगर, रामपुर, दुधौना, कचहरी रामपुर, सकरपुर, खडहैंया, मधोपुर, सिहमा आदि ग्राम सरैसा परगने में सनैवार ब्राह्मणों के हैं। मुंगेर में बदलपुरा, मालती, बहादुर नगर प्रभृति ग्राम मर्रैं मगरौनी मूल के ब्राह्मणों के हैं। इनके अतिरिक्‍त विभूतपुर, महथी आदि ग्रामों को भी जानना चाहिए। इन पूर्वोक्‍त ग्रामों में या तो पश्‍चिम ब्राह्मण रहते हैं, अथवा वे मैथिल भी रहते हैं जिनके बहुत दिनों से पश्‍चिम ब्राह्मणों से अधिक सम्बन्ध होते-होते वे भी पश्‍चिम ब्राह्मण हो गए हैं।

(2) अब नीचे उन ग्रामों के नाम हैं जिनमें प्राय: दोगमियाँ मैथिल रहा करते हैं - भिरहा, बंदा, जगन्नाथपुर, दसौत, जोड़पुरा, बमैया, बेलसंडी, सिहमा, पतैली, ढरहा, रुपौली प्रभृति ग्रामों में जिला दरभंगा, सरैसा परगने में अनरिए मूल के शांडिल्य गोत्री मैथिल रहते हैं। लछिमिनियाँ, पवरा और कांकड़ आदि ग्रामों में टकवारे मूलवाले वत्स गोत्री मैथिल रहते हैं। अख्तियारपुर, मथुरापुर, ऐस झखड़ा, गुर्महा, तिसवारा, महेशपुर, बाजीतपुर, खजुटिया, बस्ती, बढ़ौना, तोयपुर, ब्यासपुर, सूर्यपुर, गाऊपुर, कुम्हिरा मोरवा, नौवाचक, भोजपुर प्रभृति ग्रामों में जलैवार मूल के वत्स गोत्री मैथिल सरैसा परगने में रहते हैं। उदयपुर आदि ग्रामों में परिसरै मूलवाले शांडिल्य गोत्री रहते हैं। पोखराम और मोतीपुर प्रभृति ग्रामों में गर्ग गोत्री बसे हैं, मूलवाले बसते हैं। केवटा और आसिनचक प्रभृति ग्रामों में ब्रह्मपुरिए ब्रह्मपुर मूल के गौतम गोत्री रहते हैं। नारी ग्राम करमहेउड़रा मूलवाले रहते हैं।

(3) इन दोगमियों और पूर्वोक्‍त पश्‍चिम ब्राह्मणों का भी सम्बन्ध जिन-जिन ग्रामों में होता है उन मैथिल ग्रामों को अब दिखलाते हैं। जैसे, गरौल, दसौत, कुरसों, शेरपुर, कथवार, विष्णुपुर और मकरम पुर आदि में जलैवार गरौल मूल के मैथिल रहते हैं। हाबी भौआड़, वाथो, धाड़ोड़ा, बिठौली, मोहली, सिमरामा, उफरदहाँ, पौड़ी, बैहड़ा आदि ग्रामों में बेलौचे बेहड़ा मूलवाले रहते हैं। बल्लीपुर, गाहड़, बनहार, वड़गामा, ठाहर, हसनपुर, बैजनाथपुर, गैघट्टा, टेंगरहा, गूदरघाट और प्रमाना प्रभृति ग्रामों में पनचोभे भानपुर मूलवाले रहते हैं। सहाम, पटनियाँ, डुमरी, जमुवाँ, मोहद्दीपुर आदि गाँवों में टकवारै नीमा मूल के रहते हैं। पड़री, बोरंज, दहियार, बलिगामै डरहार और गोविंदपुर प्रभृति ग्रामवासी मैथिल खौवाड़ सिमड़वार मूल के हैं। गंगा पट्टी सेनुवार आदि ग्रामों में ऊनैवार मूल के हैं। कुशोथर आदि में भुसवड़ै मूलवाले तथा लवानी आदि ग्रामों में कोइयारै जड़ैल मूलवाले रहते हैं। इसी प्रकार थलवार, मँझौलिया कारज, मिश्रौलिया, पिड़ारुच, पनचोभ और देवराम प्रभृति भी उन्हीं मैथिलों के ग्राम हैं जिनका साक्षात अथवा परम्परया अयाचक दल ब्राह्मणों से सम्बन्ध हैं।

मैथिल ब्राह्मणों के प्रसिद्ध चार विभाग हैं, जिनमें सबसे श्रेष्ठ श्रोत्रिय, उनके बाद योग्य, पंजीबद्ध और चौथे जैवार हैं। इन चारों का सम्बन्ध पश्‍चिम ब्राह्मणों से दिखलाया जा चुका है। संभव है कि कहीं-कहीं मूल, गोत्र या ग्राम दिखलाने में अन्तर पड़ गया हो, परंतु बात तो ठीक ही निकलेगी। जैसे काशी के प्रांत में स्थान या डीह कहलाता है, यथा - पिंडी के तिवारियों का पिंडी स्थान है। वैसे ही उसी स्थान को पश्‍चिम में निकास और मिथिला में मूल कहते हैं और जिन ग्रामों में उनके पूर्व पुरुष रहते थे तथा जिनको किसी प्रकार से उपार्जन किया था, उन दोनों को मिला कर प्राय: मूल की जगह वहाँ व्यापार होता है। जैसे पनचोभे भानपुर इत्यादि। एक बात और भी मैथिलों के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य यह है कि उनके बहुत से मूल और गोत्र वे ही हैं, जो पश्‍चिम ब्राह्मणों के; जैसे दिघवै या दिघवैत मूल, गोत्र शांडिल्य दोनों का एक ही हैं। इसी प्रकार, कोथवे या कोथवैत मूल, गोत्र विष्णुवृद्ध। सुरगणै मूल, गोत्र पराशर, कोदरिए मूल, शांडिल्य गोत्र बसहैं या वसमैत मूल, गोत्र गर्ग। जनकपुर पिपरा के सुबा गोपाल मिश्र बसमैत ही ब्राह्मण थे। जलैवार मूल, गोत्र वत्स या काश्यप। पनचोभे मूल, गोत्र सावर्ण्य एवं दधिअरै, चकवार और सनैवार प्रभृति को भी जानना चाहिए। यह भी इस बात में दृढ़ प्रमाण हैं कि मैथिलों और पश्‍चिम ब्राह्मणों का सम्बन्ध घनिष्ठ था और है।

सनैवार ब्राह्मणों के पूर्व पुरुष दो भाई थे, गोपालराय और केसरीराय। जिसमें से केसरीराय की संतान पटसा प्रभृति ग्रामों में हैं और गोपालराय की नयानगर प्रभृति में। 2-3 वर्षों से ही पटसावाले राघवराय आदि पश्‍चिम ब्राह्मणों से पृथक हो मैथिलों में मिले हैं। यद्यपि अभी तक नयानगरवालों से उनका खान-पान पूर्ववत हैं। सरैसा परगने के लोमा ग्राम में प्रथम कोदरिए ब्राह्मणों के आदि पुरुष रहते थे। वहीं से कुछ लोग भथाही और सुस्ता प्रभृति ग्रामों में जा बसे, जो भूमिहार ब्राह्मण या पश्‍चिम ब्राह्मण कहलाते हैं। क्योंकि भूमिहार ब्राह्मण महासभा के सेक्रेटरी श्री रघुनन्दन सिंह जी सुस्ता ग्राम के ही कोदरिया ब्राह्मण हैं। उसी लोमा ग्राम से कुछ लोग धाखजरी ग्राम में जा बसे और पंजीबद्ध हो कर मैथिलों में मिल गए। जो मुकुंद मिश्र प्रभृति अब अपने को कोदरिए लोआम अथवा धाखजरी लोआम कहते हैं। ये सब बातें क्या दोनों दल की एकता को सिद्ध नहीं करती है?

परमहंस जी की पुस्तक 'ब्राह्मण सम्बन्ध' देखने से विदित होता है कि बहुत से मैथिल पश्‍चिम (भूमिहार) ब्राह्मणों से ही हुए हैं। दृष्टांत के लिए पूर्वोक्‍त भारद्वाज गोत्री दुमटिकारों को लीजिए। आगे चल कर कान्यकुब्ज और सर्यूपारियों के सम्बन्ध दिखलाने के समय दिखलावेंगे कि वास्तव में सर्यूपारी ब्राह्मण ही दुमटिकार के तिवारी या पांडे आदि कहलाते हैं। इसलिए ठीक नाम दुमटिकार या दुमटिकारिए होना चाहिए परंतु भूल से लोग डोमकटार, डम्म या दम्मकटरिए इत्यादि कहने लग गए हैं। पिलखवाड़ ग्राम वासी पंजीकार जयनाथ शर्मा मैथिल ने जो मैथिल ब्राह्मण वंशावली बनाई और सुगौना के बालकृष्ण शर्मा ने छपाई हैं, उससे भी भारद्वाज गोत्र के वर्णन में दम्मकरिए मूल आया है। चाहे इस समय मैथिलों ने उनका नाम बदल डाला हो, या वे लोग फिर पश्‍चिम ब्राह्मणों में ही मिल गए हों, परंतु एक समय पश्‍चिम से ही मैथिल हुए थे। अब भी दरभंगा स्टेशन के पास मिर्जापुर में डोमकटरिए मैथिल रहते हैं। इस बात को भी परमहंस जी ने सिद्ध किया है कि पश्‍चिम से मैथिल, फिर मैथिल से पश्‍चिम और पुन: मैथिल हो जानेवाले भी ब्राह्मण बहुत से हैं। दृष्टांत के लिए, सुरौरे मूलवाले पश्‍चिम से मैथिल बने और फिर पश्‍चिम बने। जैसे सबौड़ा से एघु, एघु से नावकोठी, मोहनपुर चाँदपुरा, बंदोवार और खम्हार। सबौड़ा से ही रामदीरी, गौड़ा, बिजलपुरा, सोंगडाहा और अंबा आदि है। गौड़ा से नौला, और नौला से पुन: मैथिल हुए, जैसे उजियारपुर।

परमहंस जी ने भूमिहार (पश्‍चिम) ब्राह्मणों के इस कथन के खण्डन में कि मैथिलों से विवाह नहीं होना चाहिए, यह दिखलाया है कि द्रोणवार ब्राह्मणों के वंश की जड़ तो मैथिलों से ही हैं। फिर निषेध किसका होना चाहिए? क्योंकि कान्यकुब्ज, देवकली के पांडे साधोराम के पुत्र राजा अभिमान के पुत्र राय गंगाराम ही द्रोणवार ब्राह्मणों के आदिपुरुष हैं। जिनसे गंगापुर और नरहन आदि सभी हुए हैं। उन राय गंगाराम का एक विवाह चकवारों के मूल ग्राम चाक के निवासी राजा सिंह चकवार मैथिल की पुत्री भाग रानी से और दूसरा तिसवारा ग्राम वासी पं. गोपी ठाकुर मैथिल ब्राह्मण ही की पुत्री मुक्‍ता रानी से हुआ था। जिनमें से एक के छह और दूसरी के तीन पुत्र हुए। इन्हीं नौवें से संपूर्ण द्रोणवार वंश हैं। इसलिए सच पूछा जावे तो मैथिल और भूमिहार ब्राह्मणों में बिलकुल ही भेद नहीं है। इसलिए पूर्वोक्‍त डा. विलसन और बंगदेशी ब्राह्मण लाहिरी महाशय ने अपने बंगभाषा के 'पृथिवीर इतिहास' में भूमिहार ब्राह्मणों को मैथिल ब्राह्मण लिखा है और इसीलिए मैथिल भाषा के बाभन शब्द का व्यवहार भूमिहार ब्राह्मणों में होता है, जिसका नाम लाहिरी महाशय ने भी लिया है। जैसा कि आगे स्फुट होगा।

अब सर्यूपारियों और कान्यकुब्जों के साथ भी जमींदार या भूमिहार ब्राह्मणों का विवाह सम्बन्ध दिखलाते हुए प्रथम सर्यूपारियों के साथ ही दिखलावेंगे। क्योंकि सर्यूपारी कहलानेवालों की ही संख्या काशी के आसपास बहुत हैं। इतना ही समझ लेना और उसी से अंदाज कर लेना चाहिए कि मैथिलों के शिरोमणि महाराजा दरभंगा और महामहोपाध्याय श्रीकृष्ण सिंह ठाकुर का सम्बन्ध स्पष्ट दिखलाया गया है, यों तो मिलाने से सभी के साथ पहुँच सकता है। उसी प्रकार इस तरफ मिलान करने से इधर भी कोई नहीं बच सकते।

जिला प्रयाग, परगना अरैल, गाँव पनासा आदि के भारद्वाज गोत्री भूमिहार ब्राह्मणों का उसी जिले में सम्बन्ध नीचे लिखा है। भूमिहार ब्राह्मण हीरापुरी पांडे कहलाते हैं, जिनका सम्बन्ध काशी के गौतम आदि भूमिहार ब्राह्मणों से हैं। वे लड़केवाले और सर्यूपारी ब्राह्मण प्राय: लड़कियोंवाले हैं। परंतु कहीं-कहीं विपरीत भी हैं, जो कह देंगे।

लड़केवाले भू. ब्रा. के नाम लड़कीवाले सर्यूपारी पते सहित

(1) रामकुमार सिंह : पं. महावीर पांडे, ग्राम पँवर, गौतम गोत्र परगना अरैल

(2) माताबदल सिंह : पं. शीतलाबख्श पांडे ' ' '

(3) ठाकुर प्रसाद सिंह : पं. बवोलराम पांडे, ग्राम पँवर, गोत्र गौतम, परगना अरैल

(4) राम किशोर सिंह : पं. सूर्यदीन ' ' ' '

(5) शिवबालक सिंह : पं. रामप्रसन्न तिवारी, ग्राम विरौल, गोत्र वसिष्ठ, परगना अरैल

(6) अलोपी सिंह : पं. दुर्गाप्रसाद तिवारी, ग्राम चाका '

(7) शीतल सिंह : ' ' ' ' '

(8) जगन्नाथ सिंह : पं. विंदा प्रसाद तिवारी, चाका, अरैल।

(9) ठाकुर प्रसाद सिंह : ' ' ' ' ' '

(10) बाबूसिंह मेधई : पं. मदन मोहन ' ' ' '

(11) माताबदल सिंह : पं. रामरतन ' ' ' '

(12) माताबदल सिंह : पं. शिवनन्दन राम ' शिंधुवार

(13) राधामोहन सिंह : पं. ' ' ' '

(14) रामकृपाल सिंह : ' दातादीन पांडे, ग्राम पँधार, गौतम

(15) रामकृपाल सिंह : 'संपतराम तिवारी, सिंधुवार, वसिष्ठ

(16) काशी प्र. सिंह : ' महावीर प्रसाद ' '

(17) विन्धएश्‍वरी प्र. : ' ' ' ' '

(18) वैरीसाल सिंह : पं. माताप्रसन्न पांडे वामपुरी, चौकी, पराशर,खैरागढ़।

(19) भोदू सिंह : ' ' ' ' '

(20) दानसिंह, मचैयाँ पांडे, भारद्वाज गोत्री : पं. माताप्रसन्न पांडे वामपुरी, चौकी, पराशर, खैरागढ़।

अब रामगढ़ देवरी , वसही , लकहा खाईं के भारद्वाज गोत्री , भूमिहार ब्राह्मणों के नाम है।

(21) शिवजगत सिंह, रामगढ़ : ' पं. दातादीन पांडे, ग्राम पँवर, गौतम गोत्र, परगना अरैल।

(22) शत्रुहन सिंह : ' विंदाप्रसाद तिवारी, चाका, वसिष्ठ,

(23) इंद्रजीत सिंह : ' मदन मोहन तिवारी ' '

(24) गयाप्रसाद सिंह, देवरी : ' बोधीराम पांडे, पँवर, गौतम, अरैल

(25) भरत सिंह : ' शिवनन्दन तिवारी, सिंधुवार, वसिष्ठ

(26) चंद्रभान सिंह, वसही : ' बोधीराम पांडे, पँवर, विरौल, अरैल

(27) गयाप्रसाद सिंह, देवरी : ' रामनारायण तिवारी, विरौल, वसिष्ठ

(28) गंगोत्री सिंह, लकठहा : ' मदनमोहन तिवारी, चाका, अरैल

(29) रामकृपाल सिंह : ' संपतराम ' ' '

(30) छत्राधारी, खाईं : ' हरिचंद पांडे पँवर, गौतम '

(31) ब्रजमंडल : ' शिवनन्दनराम तिवारी, सिंधुवार, ' वसिष्ठ

अब खैरागढ़ परगना के वसिष्ठ गोत्री भूमिहार ब्राह्मणों के नाम देते हैं , उनकी उपाधि मिश्र हैं।

(32) महावीर सिंह, बिहगना : पं. शीतलबख्श पांडे, पँवर, गौतम, अरैल

(33) चौ. ठाकुरप्रसाद सिंह : ' बिंदुराम तिवारी, सिन्धुवार, वसिष्ठ

(34) रघुनाथ सिंह, रामनगर : ' दुर्गा प्रसाद ' चाका '

लड़केवाले सूर्यपारियों के नाम पते सहित लड़कीवाले भू. ब्राह्मणों के नाम पते सहित।

(35) पं. गंगाराम तिवारी उनवलिया के,

ग्राम बसही कोटहा, परगना अरैल,

गोत्र वसिष्ठ : श्री पितापालसिंह, ग्राम पुरैनी, परगना अरैल, भारद्वाज गोत्री पांडे।

(36) रामसुंदर तिवारी : श्री शिवसरन सिंह ' ' '

(37) समयलाल तिवारी : श्री जयगोपाल सिंह, ग्राम पुरैनी, परगना अरैल

(38) रामफल पांडे, मलैयाँ, गाँव मलाका, तहसील सुराम,

इलाहाबाद, गोत्र सांकृत, अब महरू डीह

में रहते हैं। : जसवंत सिंह, गौतम, गं जारी, गंगापुर, कुसवार परगना, बनारस।

श्री जसवंत सिंह की लड़की का विवाह रामफल पांडे , मलैयाँ से हुआ था। वह अभी तक जीती हैं। यद्यपि जसवंत नावल्द हो गए और उनके दामाद गंगापुर में हैं।

(39)शिष्ट नारायण सिंह; ग्राम गठौली, : रामसेवक तिवारी उनवलिया के, ग्राम वसही

परगना, अरैल, गोत्र गौतम मिश्र कोटहा, परगना अरैल, गोत्र वसिष्ठ

(40) शिव प्रसाद सिंह : पं. माताभीख तिवारी, मरौ, परगना केवाई,

कठौली, परगना खैरागढ़, इलाहाबाद, कठौली, परगना इलाहाबाद

गोत्र भारद्वाज, पांडे।

(41) ननकूसिंह कठौली : पं. शिवलाल तिवारी, हरिपुर ' '

(42) लौलीन सिंह : पं. अयोध्या दूबे, खेमापट्टी, परगना मही, इलाहाबाद

(43) शिव संपत सिंह : पं. रामावतार दूबे ' ' '

(44) शिवरतन सिंह : पं. शिवदीन पांडे, मिसिरी गड़ौरा, परगना केवाई, प्रयाग।

(45) शिव दर्शन सिंह : पं. रामदीन पांडे ' ' '

(46) हनुमान सिंह : पं. गंगाराम दूबे, कोट, ' '

(47) शिवटहल सिंह : पं. यदुनन्दन शुक्ल, कृपालपुर ' '

(48) झग्गा सिंह : पं. स्वयंवर मिश्र, धर्म पूरा के, गूदनपूरा, खैरागढ़।

(49) राजनारायण सिंह : पं. रामभरोस उपाध्याय, सुरियाँवाँ, भदोही, मिर्जापुर।

(50) भोलीसिंह : पं. कोलाहल उपाध्याय, कोड़र, भदोही, मिर्जापुर।

(51) कोलई सिंह : पं. कालिका, रामदीन उपाध्याय' अबरना '

(52) हनुमान सिंह : पं. परसन उपाध्याय बरमोहनी ' ' '

(53) कालिका सिंह : पं. रघू अपा. दोहिया भदोही, मिर्जापुर

(54) गणेश सिंह : पं. नागेश्‍वर दूबे, वरमोहनी ' '

(55) आत्मनारायणसिंह : पं. झींगुर दूबे, कवल ' ' '

(56) शिवशंकर सिंह, कठौली खैरागढ़, प्रयाग : पं. रामदास दूबे, वरमोहनी, भदोही, मिर्जापुर।

(57) सूर्यनारायण सिंह : ईश्‍वरीराम उपाध्याय, सुरियाँवाँ, '

(58) कामता सिंह : पं. संपतिराम ' पतूलकी, '

(59) भवानीचरण सिंह : पं. रामकुमार ' वसवरा, '

(60) रामकृपाल सिंह : बोधराम उपाध्याय, अवरना, '

पूर्वोक्‍त ब्राह्मणों में से जिनके गोत्र में संदेह था उनका गोत्र निश्‍चित रूप से नहीं लिखा गया है, परंतु इसी पूर्वोक्‍त पते से मालूम किया जा सकता है।

अब दो-चार प्रसिद्ध-प्रसिद्ध कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के साथ भी सम्बन्ध दिखला कर फिर कान्यकुब्ज और सर्यूपारी दोनों के साथ मिले हुए सम्बन्ध एक साथ दिखलावेंगे:

(61) परगना सुराम, जिला प्रयाग, आनापुर के श्री देवकीनन्दन सिंह तथा आसपासवाले बहुत से ग्रामों में जो अयाचक (भूमिहार) ब्राह्मण रहते हैं वे सर्यूपारी ब्राह्मण, शांडिल्यगोत्री, पहिती पुर के पांडे, सूक्ष्ममति पांडे के वंशज हैं। यह बात उन लोगों की छपी हुई वंशावली से विदित हैं, परंतु बहुत दिनों से भूमिहार ब्राह्मणों के साथ विवाह सम्बन्ध करते-करते वे लोग इन्हीं में मिल गए हैं। दृष्टांत के लिए श्री देवकी नन्दन सिंह की बहन का विवाह काशी के श्री अलरव सिंह से था, जिनके पुत्र कृष्णप्रसाद सिंह हुए। और स्वयं श्री देवकीनन्दन का विवाह जिला आजमगढ़ के सूर्यपुर में कुढ़नियाँ भूमिहार ब्राह्मण श्री राम गोविंद सिंह की फुआ से था।

(62) उसी विवाह से जो लड़कियाँ श्री देवकी नन्दन की हुईं, उनमें एक का विवाह जिला फतेहपुर, गाँव वीरसिंहपुर, परगना कोड़ा जहानाबाद के कान्यकुब्ज ब्राह्मण काश्यप गोत्री सीरू के घर हुआ था, जिनके साथ अभी तक आना-जाना बना है।

(63) उनकी दूसरी लड़की का विवाह जिला फतहपुर, स्टेशन बिंदकी रोड, गाँव सुलतानागंज में कान्यकुब्ज ब्राह्मण हरनारायण सिंह और सुदर्शन सिंह सीरू के अवस्थी गोत्री के घर हुआ था, जिनके वंश में इस समय शंकर सिंह गंधर्वसिंह वगैरह मौजूद हैं और आते-जाते भी हैं।

(64) जिला कानपुर, बिठूर, के चौधरी खुमान सिंह अवस्थी, गोत्र काश्यप के यहाँ आनापुर श्री सिद्धनारायण सिंह की फुआ का ब्याह हैं। खुमान सिंह के घर में अब शिव सिंह हैं।

(65) इसी प्रकार श्री प्रसिद्धनारायण के पिता की फुआ का ब्याह जिला बस्ती, तहसील हरैया, ग्राम त्रिगनौता, राम नारायण ओझा खैरी के, वत्स गोत्री सर्यूपारी के घर था, जिनके पुत्र अवधबिहारी ओझा का आना-जाना अब तक पूर्ववत हैं।

(66) श्री सिद्धनारायण की पिता की फुआ का ही सम्बन्ध जिला बस्ती, परगना अमोढ़ा, गाँव नाथपुर विसनैयाँ, कश्यप गोत्री त्रिफला पांडे लक्ष्मीनारायण से था।

(67) जिला गोरखपुर, गाँव महावनखोर में बैसी के दीन मिश्र से उनकी तीसरी फुआ का सम्बन्ध हैं। ये दोनों सर्यूपारी हैं।

(68) जिला प्रयाग, परगना सुराम, कल्याणपुर के विक्रमाजीत सिंह आदि भी आनापुर के सगोत्र पहिती पुर के पांडे हैं। परंतु ये लोग अब जमींदार ब्राह्मण कहलाते हैं। विक्रमाजीत की लड़की का सम्बन्ध सर्यूपारी से जिला सुलतानपुर, गाँव व परगना बेरौंसा में मंगलराम, शिवचरण राम नगवा के शुक्ल गर्ग गोत्री के घर हैं।

(69) उसी ग्राम के कामताप्रसाद सिंह की लड़की का विवाह बेरौंसा के शीतलराम शुक्ल और बाबू शुक्ल के यहाँ हैं।

(70) वहीं के महावीर प्रसाद सिंह की पुत्री बेरौंसा के बालगोविंद राम शुक्ल के घर ब्याही हैं।

(71) वहाँ के ही सुखनन्दन प्रसाद सिंह की पुत्री का विवाह बेरौंसा में शालग्राम शुक्ल के घर हैं। इसके अतिरिक्‍त महरूडीह, सराय गाँव, मलाका गाँव परेशपुर, चौहारे, आनापुर, इस्माईलपुर, सराय हरीराम, चतुरी पुर, सराय गोपाल और चौरा रोड आदि ग्रामों के जमींदार ब्राह्मणों का सम्बन्ध बेरौंसा आदि 10 या 12 ग्रामों के नगवा शुक्लों में भरा हुआ है,

(72) जैसे कि बेरौंसा के भगवती शुक्ल महरूडीहवाले बैजनाथ प्रसाद सिंह की चर्चा की कन्या के पुत्र हैं इत्यादि। अब कान्यकुब्ज और सर्यूपारियों के साथ मिले हुए सम्बन्ध दिखलाए जाते हैं :

(73) जिला मिर्जापुर, कठिनहीं ग्राम के कामता प्रसाद पांडे और दुर्गाप्रसाद पांडे पिंडी के तिवारी शांडिल्य गोत्री सर्यूपारी ब्राह्मण हैं। उनका सम्बन्ध, प्रयाग-झूंसी के पन्नालाल, बेनी प्रसाद तिवारी के घर से हैं, जो खोरिया के तिवारी सर्यूपारी हैं और जिनकी कोठी आगरा-बेलनगंज में हैं। उन्हीं पन्नालाल, बेनी प्रसाद के पुत्र से जिला प्रयाग, परगना चायल, चरवा के श्री रामशरण सिंह पांडे की लड़की ब्याही है। यह कौशिक गोत्री टेकार के पांडे हैं, परंतु अब भूमिहार ब्राह्मणों से मिले हुए हैं। क्योंकि उन्हीं रामशरण सिंह की लड़की का विवाह पूर्वोक्‍त पनासा के श्री ब्रजबिहारी सिंह उर्फ मटर सिंह से भी है। और मटर सिंह की फुआ का विवाह जिला बनारस ग्राम खोचवा के श्री महावीर प्रसाद सिंह से हैं, जो गौतम भूमिहार ब्राह्मण पिपरा के मिश्र हैं।

(74) उसी पूर्वोक्‍त कटिनहीं के पांडे के घर जिला प्रयाग, परगना करारी, बेरौंचा गाँव के निवासी कुसुमी के तिवारी, शांडिल्य गोत्री, त्रिपाठी बूआ सिंह के दो पुत्रों के विवाह हुए हैं और बूआ सिंह का, या जिला बाँदा के ही मडौर आदि 24 ग्रामों में रहनेवाले त्रिपाठी नृपति सिंह, माधव सिंह, रघुवीर सिंह, अवधसिंह, शिवपालसिंह और रामशरणसिंह प्रभृति सर्यूपारी कुसुमी तिवारियों के-जो अब जमींदार ब्राह्मणों के सदृश हो रहे हैं - पुत्रों का विवाह सम्बन्ध सावर्ण्य टिकरा के पांडे लोगों में होता है, जो छप्पन गाँववाले बोले जाते हैं और जिला प्रयाग, परगना कड़ा में रहते हैं। जैसे परसरा गाँव के विश्‍वनाथ, ठाकुरदीन, चंद्रदयाल पांडे आदि बिसरा के सूर्यपाल, बलदेव पांडे प्रभृति। असवा के रामरत्‍न, भागीरथ पांडे आदि। बालक मऊ के सुखनन्दन राम, जगमोहन राम पांडे प्रभृति। ककोड़ा के शिवसहाय राम, रघुवीर राम पांडे आदि। विदनपुर के रामप्रसन्न राम पांडे प्रभृति। टिकरा डीह के रामजियावन पांडे, मथुरा प्रसाद पांडे प्रभृति हैं और इन छप्पनवाले टिकरा के पांडे लोगों का सम्बन्ध सुराम परगना के पूर्वोक्‍त आनापुर इत्यादि ग्रामों और पनासा प्रभृति ग्रामों के पूर्वोक्‍त भूमिहार ब्राह्मणों में खुल्लमखुल्ला होता है और पूर्वोक्‍त चरवा ग्राम में भी होता है, जिसका सम्बन्ध पनासा आदि में दिखला चुके हैं। चरवा ग्राम में रामशरण सिंह, रामनिधि सिंह और रामप्रताप सिंह इत्यादि 150 घर सर्यूपारी या जमींदार ब्राह्मण रहते हैं। चरवा के पास टाटा गाँव में भी ब्रह्मदत्त सिंह तिवारी इत्यादि के घर भी छप्पन गाँव वालोंका विवाह सम्बन्ध होता है। टाटा गाँव के पास चौराडीह में मथुरा प्रसाद सिंह तिवारी, साना जलालपुर में श्री कल्लू सिंह तिवारी, सिंहपुर में भग्गूसिंह, फरीदपुर में छेदी सिंह एवं कमालपुर, सुधावल, नीमी और साना प्रभृति 12 गाँवों में सर्यूपारी रहते हैं, जो अबप्राय: जमींदार ब्राह्मण हो रहे हैं और भारद्वाज गोत्री दुमटिकार के तिवारी कहलाते हैं। इसके अतिरिक्‍त चरवा में टेकार के कौशिक गोत्री पांडे और परसरा इत्यादि गाँवों में सावर्ण्य गोत्री टिकरा के पांडे लोगों को कह चुके हैं और टिकरा डीह भी बतला चुके हैं।

बस, इन्हीं टिकरा और दुमटिकार के पांडे और तिवारियों में से मगध में टिकारी के महाराज तथा अन्य भूमिहार ब्राह्मण भारद्वाज गोत्र या अन्य गोत्रों के हैं, जो अब तक बहुत जगह पांडे, तिवारी और दूबे इत्यादि उपाधियों से मगध और तिरहुत प्रभृति प्रांतों में प्रसिद्ध हैं और कहीं-कहीं राय, सिंह और चौधरी भी बोले जाते हैं। दुमटिकार के तिवारी और पांडे प्रभृति ये छप्पनवाले ब्राह्मण अपने पूर्वजों का मगध के टिकारी स्थान से आना बतलाते हैं। संभव है कि उन लोगों ने वहाँ से आने से ही उसी टिकारी के स्मरणार्थ टिकरा नामक ग्राम बसाया हो।

इसी नाम को लोग भूल से दुमकटार, डोमकाटर, डोमकटार इत्यादि भिन्न-भिन्न रूपों में भिन्न-भिन्न स्थानों में व्यवहार करते और तदनुसार ही बहुत सी मिथ्या कल्पनाएँ भी किया करते हैं। परंतु शुद्ध नाम दुमटिकार या दुमटेकार हैं। इसीलिए सर्वत्र इसी का व्यवहार होना चाहिए। ये लोग वास्तव में सर्यूपारी ब्राह्मण हैं।

(75) पूर्वोक्‍त छप्पनवालों के लड़कों का विवाह सम्बन्ध फतेहपुर जिले में सिराथू स्टेशन के पास सोनही के तिवारियों में होता है। जो भदवा, बह्मनौली और इचौली आदि 12 गाँवों में रहते हैं और कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं।

(76) चरवा गाँव के ब्राह्मण रामशरणसिंह जिनका सम्बन्ध पनासा आदि में दिखला चुके हैं - के दायाद माता दयाल सिंह की लड़की का विवाह जिला प्रतापगढ़, परगना नवाबगंज, ग्राम बंहनपुरा के लक्ष्मीनारायण मिश्र, मैनच के वत्स अथवा कात्यायन गोत्री से हुआ है, जिसका पुत्र नारायणदास मिश्र है।

(77) माता दयाल सिंह की पुत्री, प्रयाग-कटरा नवाई जयसिंह में जय (ज्वाला) शंकर दूबे, कमलाकांत दूबे, बेलवा सौरी के गोत्र वत्स के घर भी ब्याही गई है।

जिन कुसुमी के तिवारी बुआसिंह प्रभृति का सम्बन्ध भूमिहार ब्राह्मणों में दिखला चुके हैं उन्हीं की लड़कियों के विवाह रीवाँ और प्रयाग में सर्यूपारियों के यहाँ नीचे लिखे जाते हैं।

(78) जिला रीवाँ, ग्राम रंग पतेरी, बलदेवप्रसाद तिवारी के घर मंडौर के नृपतिसिंह की।

(79) जिला रीवाँ, ग्राम मटियारी, पं. अयोध्याप्रसाद मिश्र, पड़रहा के वसिष्ठ गोत्री के घर माधवसिंह की।

(80) जिला प्रयाग, गाँव बादशाही मंडई, बैजनाथ मिश्र पिपरा के, गौतम गोत्री के यहाँ रघुवीर सिंह की।

(81) जिला प्रयाग, गाँव बहादुर गंज, महादेव शुक्ल, मामखोर के गर्गगोत्री के घर अवधसिंह की।

(82) प्रयाग, परगना सुराम, किलहनापुर, रुद्रप्रसाद मिश्र, धर्मपुर लगुनीवाले के यहाँ शिवपालसिंह की।

(83) प्रयाग, परगना सुराम, गाँव बाँधपुर, सुखनन्दन राम पंडित के घर रामशरण सिंह तिवारी की लड़कियों के विवाह हैं। कुसुमी तिवारी लोग बेरौंचा और मंडौर के अतिरिक्‍त तारी, मऊ, अहिरी, सुरोधा और अखौड़ा आदि गाँवों में रहते हैं।

(84) प्रयाग में दो या तीन कोस पर जसड़ा स्टेशन के पास यमुना तट में बेरौल ग्राम के सर्यूपारी रामनारायण तिवारी आदि तिवारियों में पनासा और सुराम परगना के भूमिहार ब्राह्मणों के सम्बन्ध हैं।

पूर्वोक्‍त अरैल परगना के पनासा आदि और सुराम परगना के कल्याणपुर आदि ग्रामों के भूमिहार ब्राह्मणों से बदर्का के मिश्र, कात्यायन गोत्र के कान्यकुब्ज ब्राह्मणों का सम्बन्ध है, जो जिला इलाहाबाद, परगना मिर्जापुर चौहारी के भागीपुर आदि ग्रामों में रहते हैं। जैसे :

(85) भागीपुर के पं. विंधेश्‍वरी बख्शसिंह मिश्र का सम्बन्ध अरैल के वराँव गाँववाले राजासाहब श्री राघवेंद्रनारायण सिंह के घर ही हैं।

(86) विंधेश्‍वरी बख्श के भतीजे रामानन्दसिंह मिश्र की भतीजी का विवाह प्रयाग के सिरसा रामनगर में भूमिहार ब्राह्मण श्री आदित्यनारायण सिंह के घर हैं, जो गाना के मिश्र, वत्स गोत्री हैं।

(87) इसी प्रकार से जिस चरवा आदि के रामशरण सिंह वगैरह का सम्बन्ध भूमिहार ब्राह्मणों से दिखला चुके हैं उसी चरवा के रामनाथ सिंह और काशी प्रसन्न सिंह के घर में भी पूर्वोक्‍त विंधेश्‍वरी बख्श के लड़के का विवाह है।

(88) विंधेश्‍वरी बख्श के छोटे भाई का विवाह चौरा के अंबिका प्रसाद सिंह तिवारी, दुमटिकार के, भारद्वाज गोत्री के घर हैं। जिन चौरावालों का भूमिहार ब्राह्मणों से सम्बन्ध सिद्ध हो चुका हैं अब उसी विंधेश्‍वरी बख्श का सम्बन्ध अन्य कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों से दिखलाते हैं :

(81) विंधेश्‍वरी बख्श की लड़की का विवाह जिला फैजाबाद, गाँव अंजना, रामलाल मिश्र, मार्जनी के वसिष्ठ गोत्री, सर्यूपारी के घर है।

(90) विंधेश्‍वरी बख्श की बहन का विवाह जिला प्रतापगढ़, गाँव भकड़ा, काशी नाथ मिश्र सुगौती के, गौतम गोत्री सर्यूपारी के यहाँ है।

(91) उनकी ही दूसरी बहन का विवाह जिला जौनपुर, गाँव पहितियापुर, हूबेराज दूबे, राज किशोर दूबे, सरार के, भारद्वाज गोत्री, सर्यूपारी के घर हैं।

(92) उनकी तीसरी बहन का विवाह जिला प्रतापगढ़ गाँव छेमर सरैया, प्रयाग मिश्र, मऊ के, कश्यप गोत्री, सर्यूपारी के यहाँ हैं।

भागीपुर के अतिरिक्त बदर्का के मिश्र नीचे लिखे गाँवों में रहते हैं।

(1) गाँव हुसेनपुर - जिला प्रतापगढ़ (1) दुर्गा प्रसाद सिंह। धीनापुर जिला प्रयाग, (2) मातादयालसिंह। जिला प्रतापगढ़, गाँव वरदहा (3) शीतलदीनसिंह। गाँव केसरुवा (4) सूर्यसिंह। गढ़चंपा, भानपुर, सिंगही और महम्मदपुर में भी बदर्का के मिश्र रहा करते हैं। (5) गाँव केसरुवा गाँव में राम सुखसिंह, (6) बरदहा में जानकी सिंह और (7) इस्माइलपुर में शिव शंकर सिंह रहते हैं। इन लोगों के सम्बन्ध इस प्रकार है :

(93) जिला प्रतापगढ़ गाँव छेमर सरैया, शीतलदीन मिश्र, मऊ के, कश्यप गोत्री के घर में श्रीयुत राम सुख सिंह की लड़की ब्याही है।

(94) जिला प्रतापगढ़, गाँव डोमीपुर, जानकी मिश्र, मऊ के, कश्यप गोत्री के यहाँ जानकी सिंह की लड़की ब्याही है।

(95) प्रतापगढ़, सरुवा के शिवमंगल मिश्र मऊवाले के यहाँ शिवशंकर सिंह की पुत्री ब्याही है।

(96) प्रतापगढ़ शेखपुर, देवकीनन्दन उपाध्याय, खोरिया के, भारद्वाज गोत्री सर्यूपारी के यहाँ भागीपुर के विंधेश्‍वरी बख्शसिंह मिश्र की पुत्री का विवाह है।

(97) मिर्जापुर के ओधी आदि गाँव के गौतम गुरईसिंह, राम मनोरथ सिंह वगैरह की पुत्रियों के विवाह रीवाँ के तिलिया पाँती गाँव के पाठकों के घर हैं और वहाँ के एक पाठक ओधी में गोद लिए गए हैं।

(98) जिला प्रयाग, परगना चायल, गाँव मर्दापुर के वृजलाल पांडे, नागचौरी के, की बहन मातादयाल सिंह, सराय राघो, परगना नवाबगंज, प्रयागवाले से ब्याही है। वृजलाल पंडित अभी तक आठ-दस गाँवों के पुरोहित हैं।

(99) पं. इंद्रनारायण द्विवेदी, मन्त्री किसान सभा का भतीजा विरौंचा के कुसुमी तिवारियों के यहाँ ब्याहा है। उनकी लड़की का ननिहाल ककोड़ा है।

(100) पं. बलराज सहाय उपाध्याय, वकील (प्रतापगढ़) के भतीजे का विवाह भैरो प्रसाद सिंह कल्याणपुर, सुराम, प्रयागवाले की पुत्री से हैं और बलराज सहाय के पुत्र का विवाह गयाप्रसाद पांडे, मिर्जापुर के घर है।

इसके बाद अब त्यागियों (तगे) और गौड़ों के भी कुछ विवाह सम्बन्ध दिखलाते हैं। इसमें हरेक नाम के आगे विवाहित का निर्देश हैं और इसके आगे गाँव और जिले लिखे हैं। विवाह इस प्रकार है :

वरपक्षीय त्यागी ब्राह्मण कन्यापक्षीय गौड़ ब्राह्मण

(1) गंगाराम, स्वयं, गोविंदपुरी, अंबाला : तुलसीराम, बहन, मुलाना,अंबाला

(2) मधुसूदन दास, स्वयं, गोविंदपुरी, अंबाला : कालीराम पुत्री, छजरौली, अंबाला

(3) आया राम, स्वयं, गोविंदपुरी, अंबाला : गीताराम, पुत्री, दसानी, अंबाला

(4) दीननाथ स्वयं, गोविंदपुरी, अंबाला : बद्रीदास पुत्री, अंबाला, अंबाला

(5) आशाराम, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर : मोल्हड़मल, पुत्री, छजरौली, अंबाला

(6) कृष्णदत्त, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर : कन्हैयालाल, पुत्री, सरमोरनाहन, अंबाला

(7) मूलराज, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर : गीताराम, पुत्री, साल्हापुर, अंबाला

(8) शादीराम, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर : परशुराम, बहन, मुजाफत, अंबाला

(9) प्रतापसिंह, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर : शंकरलाल, बहन, दसानी, अंबाला

(10) धर्मसिंह, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर : तेलूराम, बहन, हरियावास, अंबाला

(11) नानकचंद्र, पुत्र, गोवर्धनपुर, सहारनपुर : बद्रीप्रसाद, बहन, दसानी, अंबाला

(12) शंभूदयाल, पुत्र, गोवर्धनपुर, सहारनपुर : माड़ेराम, बहन, दसानी, अंबाला

(13) कालीराम, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर : देवीचंद, पुत्री, जगाधारी, अंबाला

(14) हरजस शर्मा, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर : श्री निवास, पुत्री, गामली, अंबाला

(15) जीराजसिंह, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर : रामजीदास, बहन, खूड़ा, अंबाला

(16) अमीचंद, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर : अनंतराम, बहन, ममेदी, अंबाला

(17) अमीचंद, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर : मनसाराम, बहन, गढ़ीलौकरी, अंबाला

(18) बादामसिंह, पुत्र, विजैपुरा, सहारनपुर : दौलतराम, बहन, हरियावास, अंबाला

(19) सीसराम, पुत्र, विजैपुरा, सहारनपुर : दौलतसिंह, बहन, तेहिमा, अंबाला

(20) मुख्तारसिंह, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर : रामप्रसाद, पुत्री, माँड़खेड़ी, अंबाला

(21) गिरधारीलाल, स्वयं, गोवर्धनपुर, सहारनपुर : नत्थूराम, पुत्री, हरियावास, अंबाला

(22) पृथ्वीसिंह, स्वयं, बड़ागाँव, सहारनपुर : तेलूराम, पुत्री, काटकी, बधावली, अंबाला

(23) सीसूसिंह, स्वयं, सहारनपुर : नन्दराम, पुत्री, रायपुरडमोली अंबाला

(24) मनसाराम, स्वयं, रुल्हाकी, सहारनपुर : रामजीदास, पुत्री, भूड़ ब्राह्मण, अंबाला

(25) गोविंदराम, पुत्र, मेहरवानी, सहारनपुर : हरिशंकर, पुत्री, मारवा, अंबाला

(26) रामचंद्र, स्वयं, मेहरवानी, सहारनपुर : रामजीसहाय, पुत्री, विलासपुर, अंबाला

(27) आशाराम, स्वयं, सुलतानपुर, सहारनपुर : हीरालाल, पुत्री, माँड़खेड़ी, अंबाला

(28) ईश्‍वरदत्त, स्वयं, गोविंदपुरी, अंबाला : प्रभुदयाल, पुत्री, करनाल, करनाल

(29) बुधाराम, पुत्र, गोविंदपुरी, अंबाला : सूर्यभान, बहन, यारा, करनाल

(30) मोलड़सिंह, स्वयं, नुकड़, सहारनपुर : देवीचंद, पुत्री, जटलाना, करनाल

(31) रिसालसिंह, ... अघियाना, सहारनपुर : राजमीदास, ... साँच, करनाल

(32 बख्तावरसिंह, ... अघियाना, सहारनपुर : खुशीराम, ... कोहंड, करनाल

(33) मुखराम ... अघियाना, सहारनपुर : गोपीनाथ, ... जालखेड़ी, करनाल

(34) गंगासिंह, स्वयं, शिकारपुर, दिल्ली : जसराम, भतीजी, दुजाणा, रोहतक

(35) सीसासिंह स्वयं, शिकारपुर, दिल्ली : सत्तू, बहन, मकसूदपुर, रोहतक

(36) रामप्रसाद, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव : गंगाराम, बहन, सागीहेड़ा, रोहतक

(37) भनवानसहाय, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव : रामरीख, पुत्री, मकसूदपुर, रोहतक

(38) खुशहाली, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव : पीरूशर्मा, पुत्री, मकसूदपुर, रोहतक

(39) बालाराम, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव : हरीराम, पुत्री, मकसूदपुर, रोहतक

(40) किसुनराम, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव : शिवकरन, पुत्री, मकसूदपुर, रोहतक

(41) उदयराम, स्वयं, शिकारपुर, दिल्ली : बख्शीराम, फुआ, दिवाना, रोहतक

(42) कूड़ेसिंह, स्वयं, शिकारपुर, दिल्ली : नानकचंद, बहन, दिवाना, रोहतक

(43) खुशिया, स्वयं, शिकारपुर, दिल्ली : हरदेव, बहन पेरवल, रोहतक

(44) साखीराम, स्वयं, केशवपुर, दिल्ली : बद्रीप्रसाद, पुत्री, नागल, रोहतक

(45) तृखाराम, स्वयं केशवपुर, दिल्ली : कूड़ेसिंह, नंबरदार नागल, रोहतक

(46) मोहरा, स्वयं, धर्मपुर, गुरुगाँव : नन्दपंडित, बहन, मकसूदपुर, रोहतक

(47) परसा, स्वयं, मोमेढरी गुरुगाँव : शोबला, बहन, कन्नौर, रोहतक

(48) लक्ष्मण, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव : लेखी, पुत्री, भागई, झींद

(49) देवीसहाय, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव : सौजीराम, पुत्री, सितोबपुर, झींद

(50) प्रभु, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव : धर्मा, नंबरदार, पुत्री, भावास, झींद

(51) लच्छू, स्वयं, झटिकरा, गुरुगाँव : छबीले, पुत्री, घिराना, झींद

(52) जीराम, स्वयं, धर्मपुर, गुरुगाँव : शादीराम, बहन, सितोबपुर, झींद

(53) शादीराम, स्वयं, धर्मपुर, गुरुगाँव : तोताराम, बहन, समसपुर, झींद

(54) हातम, स्वयं, भगेल, बुलंदशहर : बल्लराम, पुत्री, डंडिकारामपुर, झींद

(55) चंदसेन, स्वयं, दलेलपुर, बुलंदशहर : नत्थू, पुत्री, कुरुथल, गुरुगाँव

(56) रामचंद्र, पिता सुलखनी, अंबाला पटियाला : बिशनलाल, बहन, शाहपुर, मछोड़ा,

(57) फतेह सिंह, स्वयं, धर्मपुर, गुरुगाँव : पतिराम, पुत्री, बाबल, हिसार

(58) हरज्ञान, स्वयं, मोमेढरी, गुरुगाँव : जयराम, पुत्री, थानेजी, दिल्ली

(59) हरजस, स्वयं, मोमेढरी, गुरुगाँव : शुंडराम, पुत्री, रोढ़कामुवाना, दिल्ली

(60) नत्थाराम...हैंबतपुर, अंबाला : मुंशीलाल...कुतुबपुर, मुजफ्फरनगर

(61) मथुरादास...ओंड़ाना, करनाल : उमरावसिंह,...तेवड़ा, सहारनपुर

(62) द्वारकादास...जटलाना, करनाल : गणेशीलाल, ...सुलतानपुर, सहारनपुर

(63) रामजीदास...तेहमा, अंबाला : दीनदयाल, ...सुलतानपुर, सहारनपुर

(64) शालिग्राम,...छोली, अंबाला : दीनदयाल सुलतानपुर, सहारनपुर

(65)पं. उमादत्तपुत्र, साँभली, करनाल : पं. कुंदनजी, भतीजी, जलवाना, करनाल

वरपक्षीय गौड़ ब्राह्मण कन्यापक्षीय त्यागी ब्राह्मण

(66) केशव, स्वयं, कन्नौर, रोहतक : जयलाल, बहन, शिकारपुर, दिल्ली

(67) यमुनादास, स्वयं, सलौधा, रोहतक : तूखाराम, बहन, हस्तसाल, दिल्ली

(68) जीराम, स्वयं, भैंसावल, रोहतक : मोमचंद, बहन, झटिकरा, गुरुगाँव

(69) दुब्बाबुधा, स्वयं, मकसूदपुर, गुरुगाँव : मोहराम, पुत्री, धर्मपुर, गुरुगाँव

(70) डॉ. गीताराम, स्वयं, करनाल, करनाल : नानकचंद, पुत्री, गोविंदपुरी, अंबाला

(71) शिवचरण, पिता, डीघ : करनाल साहब सिंह, गोविंदपुरी, अंबाला

(72) सुंदरलाल, स्वयं, लाड़वा, करनाल : गंगाराम, पुत्री, गोविंदपुरी, अंबाला

(73) जगन्नाथ, स्वयं, बीजलपुर, अंबाला : गंगाराम, पुत्री, गोविंदपुरी, अंबाला

(74) बिहारीलाल, पुत्र, बीजलपुर, अंबाला : आशाराम, पुत्री, गोविंदपुरी, अंबाला

(75) विश्‍वंभरदास जज, पोता, सरकोरनाहन, अंबाला : लायकराम, पुत्री, गोविंदपुरी, अंबाला

(76) छज्जूराम, पुत्र, ईसोपुर, अंबाला : रामस्वरूप, पुत्री, गोवर्धनपुर, सहारनपुर

(77) मोहनलाल, पुत्र, गदौली अंबाला : जगराम सिंह, पुत्री, गोवर्धनपुर, सहारनपुर

(78) राजाराम, स्वयं, सुलखनी, अंबाला : दीनदयालु, पुत्री, गोवर्धनपुर, सहारनपुर

(79) झटिकरा, गुरुगाँव का निवासी मोल्हड़ रोहतक के मांडू ग्राम के गौड़ों का नाती है और अब मांडू में ही नाना की जायदाद पर रहता है।

(80) शिवलाल त्यागी, रेवला, दिल्लीवाले की बहन ग्राम दतौर, रोहतक में पं. हिरौड़ा जी गौड़ से ब्याही गई, जिसके पुत्र खीमा का विवाह रोहतक जिले के कसार गाँव में है।

(81) मेरठ, असौंढ़ा के रईस और तालुकेदार चौ. रघुबीर नारायण सिंह जी के चिरंजीव सुपुत्र चौ. रघुवंश नारायण सिंह का विवाह गोवर्धनपुर, जिला सहारनपुर के रईस चौ. रूपचंदशर्मा की पुत्री से है। इसी गोवर्धनपुर के सगोत्र और भाई-बिरादर इन गाँवों में रहते हैं:- सढौलीहरिया, (पं. राम जी दास), उमरी (पं. परमानन्द), अंबष्टा वरिजादा (पं. मंगलसेन), रनदेवा (पं. सुगनचंद) वगैरह। ये लोग गौड़ कहाते हैं और गौड़ों के साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध रखते हैं। चौ. रूपचंद जी शर्मा वगैरह के साथ भी इनका खान-पान ज्यों का त्यों बना है। पूर्वोक्‍त गोविंदपुरी, अंबालावालों के सगोत्र और सगे भाई-बिरादर जो गौड़ कहलाते हैं, इन गाँवों में रहते हैं:-गदौली (स्वामी भाऊराम, सीताराम), कोराली (भ्यावी मोहनलाल), डिगौंली (चौ. हरिवंश, इच्छाराम), नलेड़ा, रायपुर (पं. तुलसीराम) वगैरह। पूर्व के दो गाँव अंबाला में हैं और शेष तीन सहारनपुर में। इनका भी खानपान गोविंदपुरीवालों के साथ है। गोविंदपुरी के सगोत्र पं. राजेंद्र मिश्र वकील अमृतसर में रहते हैं। भगल, गेझा, कुलेसरा, सुलतानपुर, गिगरोड़ा ये पाँचों गाँव कौशिक गोत्री त्यागियों के जिला बुलंदशहर में हैं। इनका निकास (डीह या मूल स्थान) पसोर हैं। मगर पसोरवाले इनके सगोत्री होने पर भी गौड़ कहे जाते हैं।

इस विवाह सम्बन्ध के देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि जैसे मैथिल ब्राह्मणों में कुछ ऐसे हैं जो पश्‍चिम और मैथिल दोनों से विवाह सम्बन्ध करते हैं, वैसे ही गौड़ों में भी कुछ ऐसे हैं जो त्यागियों और गौड़ों के साथ विवाह करते हैं। नागल, जिला रोहतक के पं. बद्री प्रसाद 12 गाँवों के पुरोहित हैं और उनके यहाँ त्यागियों का सम्बन्ध दिखलाया गया है। इसके सिवाय यह भी देखा जाता है कि एक भाई त्यागी हैं तो दूसरा गौड़ हो गया और बहुत से गौड़ धीरे-धीरे जमींदारी के कारण त्यागी हो गए और होते जा रहे हैं और कितने ही त्यागी वंश गौड़ हो गए हैं। उदाहरण के लिए पं. हेमचंद जी तहसीलदार सरधाना जो पहाड़पुर, सहारनपुर के निवासी थे गौड़ ब्राह्मण कहे जाते हैं। मगर जिस ग्राम धानूखेड़ी, करनाल से उनके पूर्वज आए थे वहाँ उन्हीं के भाई लोग अब भी त्यागी ही कहलाते हैं। इसी धानूखेड़ी से ही सहारनपुर के पहाड़पुर और नुकड़ में गए हुए पं. हरप्रसाद जी तथा पं. हरिप्रसाद जी के पूर्वज गौड़ ब्राह्मण हो गए और अभी तक उन लोगों के वंशज गौड़ ही हैं। गाँव फेराहेड़ी, सहारनपुर के त्यागियों के कुछ बिरादर रुड़की तहसील के ज्वालापुर में जा बसे और दानवाही हो कर गंगापुरोहित गौड़ कहलाते हैं। हर की पैड़ियों का दान वही लेते हैं। उनमें इस समय सरदार परमानन्द जी हैं। खेड़ी जिन्नारदार, सहारनपुर से कुछ त्यागी वंशवाले जालखेड़ी, करनाल में चले गए और उन्हीं के वंश में पं. गोपीचंद जी प्रभृति दानग्राही हो गए। राना जसमोर, जिला सहारनपुर के पुरोहित के वंशज चौ. फतह सिंह वगैरह तेवड़ा, जिन्नारदार, सहारनपुर में जा कर जमींदारी करने से त्यागी हो गए। परंतु अभी तक दोनों दल में सम्बन्ध करते हैं। पूर्वोक्‍त खेड़ी ग्राम से ही कुछ लोग करोंदी में जा कर ग्राही गौड़ कहाते हैं और बड़गाँव, तहसील नुकड़ में भी जा कर दानग्राही ही हैं। मगर इन्हीं के भाई जालखेड़ी, करनाल में त्यागी हैं और ग्राही एवं त्यागी दोनों के यहाँ विवाह करते हैं।

जैसे इस समय पश्‍चिम ब्राह्मणों में पुरोहिती करनेवाले बहुत हैं और पहले से भी हजारीबाग जिले के चतरा और इटखोरी थाने के बाभनों (भूमिहार ब्राह्मणों) का पेशा पुरोहिती हैं और यही पेशा कागजों में लिखा जाता है। वे माहुरी वैश्यों, राजपूतों और कायस्थों के पुरोहित हैं। देव-गया के सूर्यमन्दिर के पुजारी खेदा पांडे वगैरह भी सोनभदरिया बाभन मयूरभट्ट के वंशज हैं। ठीक उसी तरह त्यागियों में भी कहीं-कहीं पहले से ही पुरोहिती करनेवाले पाए जाते हैं। दृष्टांत के लिए जमधारपुर, तुगलपुर, खानपुर, गजरौला, जिला बिजनौर के तगे (त्यागी) रवे राजपूतों के पुरोहित हैं। जरौला के पुरोहित नाथूराम और सलेखू राम वगैरह हैं। लंढौरा रियासत, जिला सहारनपुर के पुरोहित ताँसी ग्राम, तहसील रुड़की के त्यागी ब्राह्मण हैं। पाँचों पुरियों के सरदार और हर की पैड़ी के दानग्राही पं. दिसौंदीराम जी त्यागी वंश से ही हैं जिनके पुत्र सरदार परमानन्द जी वर्तमान हैं। इसी प्रकार और भी बहुत से दृष्टांत ढूँढ़ने से मिल सकते हैं। जिसको मिथिला में मूल और मूल में काशी, सर्यूपार एवं कन्नौज में स्थान और डीह बोलते हैं, उसे ही पश्‍चिमी जिलों में निकास कहते हैं। करनाल जिले के जितने ग्राम विवाह सम्बन्ध में दिखलाए गए हैं वे प्राय: पानीपत, थानेसर और करनाल तहसील के हैं, सहारनपुरवाले सहारनपुर, नुकड़ के और अंबालावाले अंबाला और जगाधारी तहसील के हैं। नाहन तहसील भी है। गोविंदपुरी की तहसील जगाधारी और गोवर्धनपुर की नुकड़ हैं। ये दो गाँव बहुत प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित हैं एवं इन्हीं गाँवों का सम्बन्ध दोनों दलों में बहुत ज्यादा हैं। सढौलीहरिया, उजरी और डिगौली देवबंद तहसील में हैं। नलेड़ा रुड़की में हैं। गदौली, कोरालो नारायण गढ़ में हैं।

इस प्रकार से यह स्पष्ट हो गया है कि अयाचक ब्राह्मण दल पूर्व में मिथिला से ले कर पश्‍चिम में अंबाला, करनाल और पंजाब के झेलम तक फैले हुए हैं। इनमें से पूर्ववाले मिथिलावासी और पश्‍चिम छोरवाले या काशी पुरी से पश्‍चिम के रहनेवाले दोनों ही याचक (पुरोहित) दलवाले ब्राह्मणों के विवाह द्वारा एक में एक मिले हुए हैं। यहाँ तक कि दोनों दिशाओं में प्रतिष्ठित और प्रधान जो-जो हैं उन सभी का सम्बन्ध अयाचक ब्राह्मणों से मिलता है। इसलिए यदि मध्य के अर्थात काशी और गंडक के बीच वालों से अन्य ब्राह्मणों के विवाह सम्बन्ध, अज्ञान या किसी अन्य कारणवश क्योंकि वहाँ के याचक दलवाले प्राय: दीन हैं, नहीं भी मिलते हैं तो कोई हर्ज नहीं हैं और इससे ये मध्य के अयाचक ब्राह्मण अन्य ब्राह्मणों से पृथक नहीं समझे जा सकते हैं। प्रत्युत ब्राह्मण समाज के ही सुंदर और हृष्ट-पुष्ट अंग हो सकते हैं। क्योंकि जब इनके दल का आदि और अन्त दोनों ही ब्राह्मण मात्र से घनिष्ठ मिलाव रखता है और अन्य ब्राह्मणों से भिन्न नहीं मालूम हो रहा है, तो मध्य में यदि किसी कारण से न मिलने से भेद भी प्रतीत होता हो तो विवेकीजन उस भेद को सत्य न समझ मिथ्या ही समझते हैं। जैसे यदि किसी रस्सी को अंडाकार (0) में फैला देंवे, तो यद्यपि उसके दो छोर मिले हुए हैं और बीच का भाग एक दूसरे से दूर पड़ गया है, परंतु सभी की सभी रस्सी ही समझी जाती है, न कि बीच का हिस्सा रस्सी से भिन्न कुछ और ही समझा जाता है। क्योंकि 'जो चीजें किसी एक ही चीज के बराबर होती है वे आपस में भी बराबर होती ही होती है', यह इस जगह भी अच्छी तरह लगाया जा सकता है। इसीलिए वेदांत का सिद्धांत है कि ब्रह्म में अज्ञान होने से प्रथम और अज्ञान नाश के पश्‍चात् यदि जीव और ब्रह्म का वस्तुत: भेद नहीं है, तो मध्य में अर्थात अज्ञान काल में, जो भेद प्रतीत होता है वह मिथ्या ही है, क्योंकि जो राजा निद्रा से पूर्व और निद्रा टूटने पर भी अपने को राजा ही समझता है, वह यदि निद्रा दोष से स्वप्न देखता हुआ अपने को राजा न देख भिक्षुक के रूप में देखता हैं, तो उससे वह वस्तुत: भिखमँगा न हो कर उस समय भी राजा ही रहता हैं और विचार शक्‍ति उसे राजा ही समझते हैं, चाहे वहस्वयं अपने को प्रचंड निद्रा अथवा अज्ञान दोष से राजा न समझे वह दूसरी बात है। इसीलिए भगवान श्री गौडपादाचार्य ने मांडूक्योपनिषद की कारिकाओं में लिखा है कि :

आदावन्ते च यन्नास्ति वर्त्तमानेपि तत्तथा।

वितथै: सदृशा: सन्तौ वितथा इव लक्षिता:॥ 6, प्र. 3॥

और उसी के ऊपर भगवान श्री शंकराचार्य का भाष्य ऐसा है कि

यदादावन्ते च नास्ति वस्तुमृगतृष्णादि, तन्मधये पि नास्ति निश्‍चितं लोके। तथेमे जाग्रद्दृश्या भेदा आद्यन्तयोरभावाद्वितथैरेव मृगतृष्णिकादिभि: सदृशत्वाद्वित था एव, तथा प्यवितथा इव लक्षिता मूढैर नात्मविदि्भ:।

इन दोनों वचनों का तात्पर्य यह है कि जो वस्तु आदि और अन्त में रहे, परंतु मध्य में प्रतीत हो, तो उसे मध्य में भी मिथ्या ही समझना चाहिए। यही संसार की रीति है। केवल मूर्ख लोग ही उसे सत्य समझते हैं। क्योंकि मरुस्थल में मृगतृष्णा का जल मृग के विचार से प्रथम भी न था और आगे भी न रहेगा, केवल बीच में ही मालूम होता है। इसीलिए वह मिथ्या हैं। यही दशा इस प्रकार के पदार्थों की हैं। क्योंकि वे भी उसी तरह के हैं। फिर उन्हें सत्य मानना मूर्खता के अतिरिक्‍त कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

जब यह स्पष्ट रूप से दिखला चुके हैं कि मैथिल, कान्यकुब्ज, गौड़ और सर्यूपारी सभी ब्राह्मणों में इन अयाचक दल के ब्राह्मणों के लड़के और लड़कियों दोनों के ही विवाह होते हैं, प्रत्युत मिथिला में लड़कियों के ही अधिक और सर्यूपारी प्रभृति में लड़कों के ही और लड़कियों के कम अथवा दोनों जगह बराबर ही और यही दशा गौड़ों की भी है तो बंगाल, बिहार और उड़ीसा की 1911 ई. की मनुष्य गणना की रिपोर्ट में मनुष्य गणना के सुपरिन्टेंडेंट ने जो उसके पाँचवें भाग के प्रथम खण्ड के जाति विवरण नामक 11वें प्रकरण में 444वें पृष्ठ के नोट में लिखा है कि :

It is reported that in Purnea there have been a few Cases of Babhans marrying Maithil Brahman girls, but none of Maithil Brahmans taking wives from among Babhans.

अर्थात 'यह कहा जाता है कि पुरनिया जिले में चंद बाभनों (पश्‍चिम ब्राह्मणों) ने मैथिल ब्राह्मणों की लड़कियों से विवाह किया है, परंतु किसी भी मैथिल ब्राह्मण ने बाभनों (पश्‍चिम ब्राह्मणों) की लड़कियों से विवाह नहीं किया है।' इससे समझ लेना चाहिए कि रिपोर्ट लिखनेवाले को ब्राह्मण समाज या भारत के समाज मात्र का कितना ज्ञान था या सभी वैदेशिक लेखकों को रहा करता है। इसीलिए ऐसी दशा में वे लोग जिस किसी भारत समाज के विषय में जो कुछ न लिख डालें उसी में आश्‍चर्य है और केवल उन्हीं के आधार पर समाज के तत्व का निर्णय करना कितनी भूल है। हाँ, यदि किसी समाज के ही मनुष्य ने, जो उसके विषय में पूर्ण परिचित हो, लिखा हो तो उसके अनुसार वैदेशिक के भी लेख मानने में कोई हर्ज नहीं है। भला यह कितनी बड़ी भूल है कि जब आज तक दोनों तरफ बराबर सैकड़ों लड़के-लड़कियों के विवाह हो रहे हैं, तो केवल चंद ही बतलाना, सो भी बीते हुए, न कि वर्तमान? उसी मनुष्य गणना की रिपोर्ट में पूर्वोक्‍त ही स्थान में जो यह लिखा गया है कि :

The name Bhumihar Brahman has been recognized by Government, and they are now returned as Babhan (Bhumihar Brahman). It was however, impossible to have given them a name and status not recognized by their co-religionisto, and also because in the returns they would have been merged in the main body of Brahmans, and all record of them as a community would have been lost.

अर्थात 'गवर्नमेंट ने भूमिहार ब्राह्मण नाम को स्वीकार किया है। इसलिए अब ये लोग 'बाभन (भूमिहार ब्राह्मण)' इस प्रकार से रिपोर्ट वगैरह में लिखे जाते हैं। इन लोगों को ऐसा नाम (ब्राह्मण) और ऐसा स्थान देना असंभव था, जिसे कि इनके सधर्म (समान धर्मवाले ब्राह्मण, क्षत्रियादि) स्वीकार नहीं करते। और ऐसा करने से, अर्थात केवल 'ब्राह्मण' लिख देने से, ब्राह्मणों में ही वे लोग भी मिल जाते और इनके एक पृथक समाज होने की सब बात ही लुप्त हो जाती।' इससे पहला कारण जो यह दिखलाया गया है कि इन लोगों (भूमिहार ब्राह्मणों) को ब्राह्मण-क्षत्रियादि ब्राह्मण नाम देना स्वीकार नहीं करते, वह कहाँ तक सत्य है इसके लिए विशेष कहने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि जब सभी ब्राह्मणों के साथ इन लोगों से विवाह सम्बन्ध और खान-पान मिले हुए हैं, तो हम नहीं समझते कि इससे अधिक ब्राह्मण स्वीकार करना किसको साहब बहादुर ने समझा है। क्या अन्य ब्राह्मणों में भी एक-दूसरे को ब्राह्मण स्वीकार करने के लिए सिवाय खान-पान और विवाह सम्बन्ध के और भी कोई रजिस्टरी वगैरह की जाती है? क्या कोई ब्राह्मण अपने से भिन्न क्षत्रियादि के साथ विवाह वगैरह करते देखा गया है?

बल्कि उधर तो मैथिल केवल मैथिल को ही ऐसा स्वीकार करता है ऐसे ही अन्य ब्राह्मण भी, परंतु इधर तो सभी ब्राह्मण स्वीकार कर रहे हैं। इसलिए इससे बढ़ कर और क्या होना चाहिए? क्योंकि एक काम केवल बातों से ही किया जाता (Theoratical) है, परंतु दूसरा कार्य रूप में परिणत (Practical) कर के दिखलाया जाता है। उनमें से द्वितीय पक्ष को ही श्रेष्ठ मानते हैं और इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के विषय में दूसरा ही पक्ष है, इसे सिद्ध ही कर चुके हैं।

7 - व्यवस्थाएँ , सम्मतियाँ आदि पत्र आदि

यदि प्रथम पक्ष अर्थात बातों से कहने का भी आग्रह हो तो अन्त में उसे भी दिखला कर प्रकरण की पूर्ति करते हैं। इससे प्रथम ही इतना और भी समझ लेना चाहिए कि जब इस प्रकार से अयाचक (भूमिहार) ब्राह्मणों के सम्बन्ध और खान-पान अन्य ब्राह्मणों के साथ सिद्ध हो गए, तो जो पूर्वोक्‍त फिशर साहब ने गाजीपुर के गजेटियर के 42वें पृष्ठ में लिखा है कि : "They may not drink or smoke with Brahmans, and only under some restrictions with Rajputs."

अर्थात 'वे (भूमिहार ब्राह्मण) (इतर) ब्राह्मणों के साथ स्वयं खान-पान नहीं कर सकते और राजपूतों के साथ तो खान-पान करने में केवल बहुत-सी बाधाएँ हैं, इसीलिए नहीं कर सकते।' इसमें जो ब्राह्मणों के विषय में कहा गया है उसका भी खण्डन हो गया है। परंतु राजपूतों के विषय में ठीक ही कहा है। क्योंकि ब्राह्मणों का अन्यों के साथ खान-पान हो ही कैसे सकता है?

अस्तु, जब प्रकृत में आइए। सबसे प्रथम मिथिला के मान्य मीमांसकधुरीण महामहोपाध्याय श्री चित्राधर मिश्र जी की सम्मति इस विषय में देखिए। उन्होंने दरभंगा प्रांतस्थ पतोर ग्रामवासी पं. सर्यूप्रसाद मिश्र और राजेंद्र प्रसाद मिश्र जी की एक व्यवस्था में जिसको आगे दिखलावेंगे, ऐसा लिखा है कि :

श्री दुर्गा

पश्‍चिमदेशाभिजनस्य मिथिलानिवासस्य बाबू श्रीसर्यूप्रसादमिश्रस्य ब्राह्मणस्य प्रश्नानामुत्तारोन्नेयानामुत्तरम् :

ब्राह्मणस्वामिकस्याशीतिरक्‍तिकापरिमितस्यतदधिकस्य वा स्वर्णस्य स्तेयं महापातकप्रायश्‍चित्तस्य प्रयोजम्। ततो न्यूनपरिमाणस्य स्तेयं तु न तत्प्रायश्‍चित्तस्य प्रयोजकम्, किंतु प्रायश्‍चित्तान्तरस्य। अशीतिरक्‍तिकापरिमितत्वंतदधिकत्वं वा एकखण्डस्य समुदायस्य वा नैतावता कश्‍चिद्विशेष:। नह्येकपिंडर्स्यैव यत्राशीतिरक्‍तिकापरिमित्वादि, तत्रैव तत्स्तेयं महापातकमिति कस्यचिच्छास्त्रास्यार्थ। पश्‍चिमदेशाभिजनानां ब्राह्मणानां ब्राह्मणत्तवे चिरकालप्रवृत्तस्य शिष्टानां ब्राह्मणत्वेन परिग्रहस्य दाढर्यमेव दृढ़तरं प्रमाणम्। नह्यन्येषामपि ब्राह्मणानामनादिकालप्रवृत्तां शिष्टानां तत्तवेन परिग्रहदाढर्य मुक्त्वा ब्राह्मणत्वे न्यत्प्रमाणं संभवति, यथा वेदस्य वेदत्वे नादिकालवृत्तो वेदत्वेन शिष्टानां परिग्रह एव प्रमाणं न वेदवाक्यं स्मृत्यादि वा, तद्वदितिसंक्षेप:।

यत्रापूर्वैरुषितं सो भिजन:।

यत्रास्वयमुष्यते स निवास:। श्रीचित्रधरमिश्र:॥

इसका भाव यह है कि सर्यूप्रसाद मिश्र के किसी दामाद के ऊपर सोने की चोरी करने के अपराध में धर्मशास्त्रानुसार उन लोगों ने महापातक का प्रायश्‍चित लगाया था। उस पर किसी मैथिल ने कुछ छल कर के एक ऐसी व्यवस्था लिखी जिसमें उसे निर्दोष ही ठहराया। इस पर श्री सर्यूप्रसाद ने लूटन झा नामक किसी विद्वान से एक व्यवस्था लिखवाई और उस पर बड़े-बड़े पंडितों के हस्ताक्षर करवाए, जिसे आगे दिखलावेंगे। जब उस व्यवस्था पर श्रीचित्राधर मिश्र जी को सम्मति देने का प्रकरण आया, तो स्वतन्त्ररूप से उन्होंने पूर्वोक्‍त वचन लिखे जिनका अर्थ यह है कि पूर्वकाल में पश्‍चिम देश (इसीलिए अयाचक ब्राह्मणों को मिथिला में पश्‍चिम ब्राह्मण कहते हैं) और इस समय मिथिला देशवासी बाबू सर्यूप्रसाद मिश्र नामक ब्राह्मण के उन प्रश्नों के उत्तर हम लिखते हैं जिन्हें लोग उत्तर ही से समझ सकते हैं :

ब्राह्मण का अस्सी रत्ती या उससे अधिक सुवर्ण चुरा लेने पर महापातक का प्रायश्‍चित करना चाहिए। परंतु यदि उससे कम हो तो वह प्रायश्‍चित न हो कर उसके लिए दूसरा ही प्रायश्‍चित होता है। वह अस्सी रत्ती का एक ही टुकड़ा हो, या अनेक इसमें कोई विशेष नहीं है, क्योंकि अस्सी रत्ती के एक ही टुकड़े की चोरी करने से ही महापातक का प्रायश्‍चित करना चाहिए ऐसा कोई भी शास्त्र नहीं कहता। पश्‍चिम देश के पूर्व निवासी ब्राह्मणों (पश्‍चिम या भूमिहार ब्राह्मणों) के ब्राह्मण होने में अत्यन्त प्रबल प्रमाण यही है कि शिष्ट (श्रेष्ठ, विवेकी अथवा आस्तिक) लोग बहुत प्राचीन काल से उन्हें दृढ़तापूर्वक ब्राह्मण कहते चले आते हैं। क्योंकि अन्य ब्राह्मणों के भी ब्राह्मण होने में अनादिकाल से शिष्ट लोगों के 'ये ब्राह्मण हैं' इस कथन या व्यवहार को छोड़ कर दूसरा कोई प्रमाण नहीं हो सकता। जैसे वेदों को वेद मानने में अनादि काल से शिष्ट (श्रेष्ठ) पुरुषों का उनको वेद कहना छोड़ कर और कोई वेदवाक्य अथवा स्मृत्यादि के वचन प्रमाण नहीं हो सकते। उसी तरह ब्राह्मणों के विषय में भी संक्षेप में यही समझ लेना चाहिए।

जिस जगह अपने पूर्वपुरुष रहते थे उसे अभिजन कहते हैं, हस्ताक्षर

और जहाँ स्वयं रहे उसे निवास श्रीचित्राधरमिश्र।

क्या अब इससे भी बढ़ कर स्वीकार (recognition) चाहिए? इतना ही नहीं हैं। अब उस पूर्वोक्‍त व्यवस्था को देखिए, उसमें कितने विद्वानों के हस्ताक्षर हैं। उसमें से भी उसके बहुत बृहत होने के कारण केवल उपयोगी अंशों को लिखते हैं। वह इस प्रकार है:

ओम् स्वस्ति भूयात्। श्रीतारिणी जयति।

धर्मनिर्णयपत्रम्

नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च।

जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमोमन:॥

नहि सत्यात्परोधर्मो नानृतात्पातकं परम्।

तस्मात्सर्वात्मना मर्त्य: सत्यमेकं समाश्रयेत्॥

अदंडयान्दण्डयन्राजा दंडयांश्‍चैवाप्यदंडयन।

अयशो महवाप्नोति नरकं चैव गच्छति॥

दरभंगाप्रांतस्थितरघुनाथपुरनगरवास्तव्यो बाबू इतिपदांकितोमिश्रोपाह्न:श्रीयुत: सर्यू प्रसादशर्मा वादी 1

तादृशास्तद्‍दायादादुवंशनारायणशर्मलक्ष्मीनारायणशर्मभोला प्रसादशर्मरामशंकरशर्माण: प्रतिवादिन: 4

तत्रवादिदत्तमेकंविज्ञप्तिपत्रां मयाप्राप्तं। तत्रा यल्लिखितमासीत्तात्पुरस्ताद्विलिखामि। तथाहि वर्षाष्टादशपूर्वसमये मदीयगृहभित्तिच्छेदनं कृत्वा। बहूनि सुवर्णालंकरणादीनि वस्तूनि चोरैरपहृतानि, तत्रा बहुमूल्यं सुवर्णालंकरणत्रायंरामवल्लभमिश्रस्यासीत्, यच्चमृताया: कस्याश्‍चिदंगनायारामवल्लभशर्मणामदीयगृहे समधारि। अनंतरं राजदंडदायकैर्जनैधृतास्ताडिता: कियंतश्चौरास्तत्कर्मस्वीकारंचक्रु स्तत्रौकोरामवल्लीशर्मा येन तत्कर्म न स्वीकृतं, परंतु तदीयगृहाद्रामवल्लभमिश्रस्य पूर्वोक्‍तसुवर्णालंकरणानिबहू-निबहिर्गतानियेषां मूल्यं राजतमुद्राशतकत्रायाधिकं राजकर्मचारिलेखाद्विज्ञायते।

अथेदानीं प्रतिवादिना राजतमुद्राचतु:पंचकपरिमितान्येवसुवर्णानि स्वीकृतानि। किंच नटीसंगमतदीय सिद्धान्नभक्षण दिश्‍वासमाधाय ग्रामीणैर्जातिबाह्यो पिकृत:। तंत्रा स्वामिचौरयोर्ब्राह्मणत्वं स्वकपालकल्पितमश्रद्धेयमितिमृषाविलिख्याभिशप्तप्रायश्‍चित्तां मुसलिशर्मणादत्तां रामवल्लीशर्मणे। सच तावन्मात्रप्रायश्‍चित्तानुष्ठानेन पूतो भवितुमर्हतिनवेति व्यवस्यापत्रमस्मभ्यन्दीयतामिति। अनंतरं मया तदीयवृत्तांजातं राजकीयनिर्णयपत्रतस्सभापत्र-तो न्यतश्‍चावलोक्यपुरस्तादुद्धाटयते।

अथ महापातकभयमादायसुवर्णस्वामिचौरयोर्ब्राह्मणत्वस्य स्वकपोलकल्पितत्वंयदुक्तं मुसलिशर्मणा तद्दुग्धाकन्याचरणं दुष्टकन्याचरणंवेतिविज्ञातम्भवति। तत्रचूडाकरणादिब्राह्मणविहितानांकर्मणां परम्पराचारस्यदर्शनात्, तत्रशर्मान्तनामपाठव्य-वहाराच्च, प्राप्तामुक्‍तिसाम्राज्यमिथिला-महाराज छत्रासिंहाद्यनेक महाराजलिखितेपत्रोषु, महाराजकुमारयोर्बाबूइति पदांकितयोर्वासुदेवसिंहगुणेश्‍वरसिंहयोर्वृत्तान्तपत्रोषु, तद्वंश्यानां बहूनां पत्रोषु च शर्मनमस्कारपदलेखस्य दर्शनाच्च, गतचत्वारिंशदधिकशताब्दसमयलिखित राजकीयमुद्रांकितयवनपत्रो मिश्रोपाह्नस्य दर्शनाच्च, लाटकमिश्‍नरइत्यादिशब्दप्रसिद्धानां बहूनां राजप्रतिनिधीनां हाईकोर्ट इतिप्रसिद्धन्याय स्थानाधीशानां जय्यपदांकितानां महानुभावानां लेखेम्यश्‍च, नाना पंडितदत्त व्यवस्थापत्रोषुब्राह्मणपद लेखस्यदर्शनाच्चशंकोत्थानसामग्र् या एवाभावात्।

तथाचात्रा मिथ्याभिशापप्रायश्‍चिमत्तोन न मूलपाप शोधनमितिविदुषाम्परामर्ष :

(1) सममान्ययमर्थोलूटनशर्मणा।

(2) सम्मतो यमर्थ: श्रीबच्चाशर्मण:।

(3) समीचीनमिदंव्यवस्थापत्रमितिश्रीमुरलीशर्मण: परामर्ष:।

(4) सम्मतिरत्रभ्रीमणीश्‍वरशर्मण:।

(5) सम्मतिरत्रार्थे श्रीनव (लव) सिंहशर्मण:।

(6) व्यवस्थमिमानुमन्यतेव्याकरणतीर्थ: श्रीहरिवंशशर्मा।

(7) व्यवस्थितमर्थं संज्ञापयति श्रीलालजीशर्मा।

(8) पतोरग्रामवास्तव्या: सर्यूप्रसादशर्मप्रभृतयो ब्राह्मणाएवोपनदिसंस्काराविशेषात्। यदि तेषांमध्येकस्यचिदशीतिरक्‍तिका न्यूनंसुवर्णं स्वामिनो समक्षेकश्‍चिदाजहार तदा तस्यमहापातकित्वमेव, स्वीकृतनटीसंगमादिपाप×चाधिमेवप्रतीयते, नहि कृतयत्कि×वत्प्रायश्‍चित्तो पिस संग्राह्योभवितुमर्हतीश्रीरज्जेशर्मा।

(9) श्रीमतां पंडितवरझीणह्नलालजीशर्ममिश्रो पाह्नश्रीरज्जेशर्मझोपाह्नजुडावनशर्मणां लेखेन निश्‍चितब्राह्मस्वर्णापहारोरामवल्ली शर्मामहापातकीति निर्णयतितात्याशास्त्री।

(10) मुनिप्रणीतवचनान्यालोच्य शुभकर्मणाम्।

व्यवस्थास्वीकृतासेयं श्री जुडावनशर्मणाम्॥

इस पूर्वोक्‍त व्यवस्था के 'दरभंगा प्रांतस्थित' इत्यादि भाग का मर्मानुवाद यह है-

'दरभंगा जिले के रघुनाथपुर ग्रामवासी बाबू श्री सर्यूप्रसाद मिश्र शर्मा इस व्यवस्थापत्र में वादी (मुद्दई) है।

उसी ग्राम के उनके दायाद यदुवंश नारायण शर्मा, लक्ष्मी नारायण शर्मा, भोला प्रसाद शर्मा और रामशंकर शर्मा ये चार प्रतिवादी (मुद्दआलह) है।

वादी ने मुझे एक विज्ञापन दिया था। उसमें जो लिखा था वह यह है कि आज से 18 वर्ष पूर्व मेरे घर में सेंध लगा कर बहुत से सोने वगैरह के गहने चोर चुरा ले गए थे। उन गहनों में से तीन गहने अधिक दाम के रामवल्लभ मिश्र के घर की किसी मरी हुई स्त्री के थे। जिन्हें उन्होंने मेरे घर रखा था। इसके बाद पुलिस ने बहुत से चोरों को पकड़ कर मार-पीट प्रारंभ की, जिससे उन्होंने उस चोरी को स्वीकार किया। उनमें से एक रामवल्ली शर्मा भी थे, जिन्होंने गो कि चोरी स्वीकार न की, परंतु उनके मकान में पूर्वोक्‍त रामवल्लभ मिश्र के बहुत से सुवर्ण के आभूषण मिले, जिनका दाम अफसर लोगों ने अपने फैसले में तीन सौ रुपए से अधिक लिखा है।

अब उसके बाद रामवल्ली शर्मा ने यह स्वीकार किया कि 4 या 5 रुपए-भर सोना हमारे घर था, और किसी नट की स्त्री के साथ भोग और उसके बनाए भोजन खाने का विश्‍वास कर के गाँववालों ने उन्हें जाति से बाहर भी निकाल दिया। इस पर मुसली शर्मा ने केवल झूठा ही यह लिखा कि सुवर्ण के स्वामी और चोर दोनों को लोग अपने मन से ही ब्राह्मण मानते हैं। इसीलिए मैं उसे नहीं मानता। ऐसा लिख कर उन्होंने रामवल्ली शर्मा को केवल मिथ्या भाषण या कसम खाने का अपराधी बता कर उसी का प्रायश्‍चित उनको बतलाया। इसलिए मैं पूछता हूँ कि रामवल्ली शर्मा केवल उतने ही प्रायश्‍चित से शुद्ध हो सकते हैं या नहीं इसकी व्यवस्था मुझे दीजिए।'

इस पर मैं इन लोगों के वृत्तांत को अदालती फैसले, सभाओं की व्यवस्थाओं और अन्य प्रमाणों से निश्‍चित कर सबके सन्मुख यह घोषणा करता हूँ कि :

मुसली शर्मा ने महापातक के भय से सुवर्ण के स्वामी और चोर दोनों को जो कल्पित ब्राह्मण ठहराया है, यह या तो केवल मूर्खता, या दुष्टता मात्र है, यही मालूम होता है। क्योंकि जब वादी प्रतिवादी अर्थात भूमिहार ब्राह्मणों में ब्राह्मणों के चूड़ाकरण इत्यादि सभी कर्म परम्परा से किए जाते हैं, इन कर्मों में उन लोगों के नामों के अन्त में शर्मा शब्द का प्रयोग होता है, मुक्‍ति को प्राप्त मिथिला के महाराज छत्रासिंह आदि अनेक मैथिल महाराजाओं, महाराजकुमार बाबू वासुदेवसिंह तथा बाबू गुणेश्‍वरसिंह जी और उनके वंश के और बहुत से लोगों के पत्रों में इस सभी लोगों को शर्मा शब्द और साथ ही नमस्कार भी लिखा गया है, 140 वर्ष पूर्व के मुसलमान बादशाह के मोहर सहित आज्ञापत्र में इनको मिश्र लिखा है, बहुत से लाट और कमिश्‍नर वगैरह के लेखों और हाईकोर्ट के जजों के फैसलों में इन्हें ब्राह्मण लिखा है और बहुत से पंडितों ने अपनी दी हुई व्यवस्थाओं में इन्हें स्पष्ट ब्राह्मण लिखा है, तो ये लोग ब्राह्मण हैं या नहीं इस शंका का तो कोई कारण ही नहीं है।

इसीलिए मिथ्या भाषण और मिथ्या शपथ के प्रायश्‍चित से मूलपातक (महापातक) का शोधन नहीं हो सकता यही विद्वानों की सम्मति है। हस्ताक्षर और विद्वानों की सम्मतियाँ :

(1) मैं इस बात को मानता हूँ।

(2) मेरी इसमें से सम्मति है। हस्ताक्षर श्री बच्चा शर्मा। हस्ताक्षर लूटन शर्मा।

(3) यह व्यवस्थापत्र ठीक है ऐसा मैं मानता हूँ, हस्ताक्षर श्री मुरली शर्मा।

(4) इसमें मेरी सम्मति है,

(6) इस व्यवस्था को मैं स्वीकार करता हूँ, ह. श्री मणीश्‍वर शर्मा। ह. श्री हरिवंश शर्माभ्याकरण तीर्थ।

(5) इस विषय में मैं भी सहमत हूँ,

(7) यह बात बहुत ही उचित है। श्रीलव (नव) सिंह शर्मा। ह. श्रीलाल जी शर्मा।

(8) पतोर गाँव के रहनेवाले श्री सर्यूप्रसाद शर्मा आदि ब्राह्मण ही हैं, क्योंकि इनके उपनयनादि संस्कार अन्य ब्राह्मणों के-से ही होते हैं। इसलिए यदि उनमें से किसी ने 80 रत्ती या उससे अधिक सुवर्ण स्वामी के न रहने पर चुराया हो, तो उसे महापातकी ही समझना चाहिए और यदि नटी के साथ भोग आदि स्वीकार किया तो वह पाप अधिक ही है। इसलिए थोड़े-बहुत किसी प्रायश्‍चित के करने से वह शुद्ध नहीं हो सकता। ह. श्री रज्जे शर्मा।

(9) श्रीमान पंडित प्रवर लालजी झा, रज्जेमिश्र और जुड़ावन झा के लेखों से निश्‍चित है कि रामवल्ली शर्मा ब्राह्मण हैं और उन्होंने ब्राह्मण का सोना चुराया है। इसलिए मेरा निर्णय यही है कि वे महापात की है।

श्री तात्याशास्त्री (काशी)

(10) धर्मशास्त्रों को विचार कर मैं इस व्यवस्था को स्वीकार करता हूँ।

ह. श्री जुड़ावन शर्मा।

इसके अन्तर इस व्यवस्था के लेखक पंडितवर लूटन झा जी का पत्र दिखला कर फिर उन पत्रों को दिखलावेंगे जिनका वर्णन व्यवस्था में किया गया है। वह ऐसा है :

श्रीतारिणी जयति

विविधप्रशंसावलीविराजमानमानोन्नतेषु महोग्रप्रतापकीत्तर्यलंकृतेषु कृततपोनिक-रज्वलितेषु निखिलसज्जनानुरंजकस्वभावललितेषु बाबू इति पदोपशोभितेषु श्री श्री मत्सु सर्यूप्रसादशर्ममिश्रपीताम्बरशर्ममिश्रवेणीप्रसादशर्ममिश्रेषु महतां महत्सु सविनयनमस्कारणतं समर्प्य निवेदयति कश्‍चित्। अपने सबहि कां परम सदाचारी ब्राह्मण जानि तत्वविज्ञान परम अलभ्य वस्तु लिखि पठाओल अधि, अतीव मननीय पदार्थ जानल जायत, कदाचित पत्र लिखावक हो त पता :

ग्वालियर, रेवती फाटक, हरिप्रसाद भैया के मकान पर लूटन झा लिखल जायत।

ह. लूटनशर्मा।

इसका अनुवाद यह है :- विविध विशेषण युक्‍त, अतिप्रतिष्ठित, प्रबल प्रताप एवं कीर्ति से सुशोभित, तपस्या बल से दिव्य शरीर और निखिल सज्जनों के चित्तों को प्रसन्न करनेवाले श्रीमान बाबू सर्यूप्रसाद शर्मा मिश्र जी को सविनय शतश: नमस्कार समर्पण करने के अनंतर निवेदन है, कि आप लोगों को परम सदाचारी ब्राह्मण जान कर परम अलभ्य वस्तु तत्वविज्ञान नामक एक लेख भेजता हूँ, इसको अत्यन्त मनन करने योग्य पदार्थ जानिएगा। कदाचित पत्र लिखना हो तो पता :- ग्वालियर-रेवती फाटक - हरिप्रसाद भैया के मकान पर लूटन झा, ऐसा लिखिएगा।

हस्ताक्षर लूटनशर्मा।

अभी हाल की एक व्यवस्था इस प्रकार है :

नम: सोमाय।

समस्त सृष्टि संरक्षक यज्ञनारायण की अपार दया अथच श्री दाहु चौधरी के उद्योग से सं. 1979 चैत्रा सुदी 7 से 10 तक डुमरिया घाट पर 'महालक्ष्मीयज्ञ'शाला के सन्मुख तथा श्री 108 दंडी स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती, कवि सम्राट पं. श्री देवी प्रसाद जी काशी, व्याकरण केसरी पं. खुद्दी झा कोइलख, पं. धर्मदत्त वेदशास्त्री काशी, पं. देवराज चतुर्वेदी डुमरी, शाहाबाद, श्री राय साहिब रासधारी सिंह छितरौर इत्यादि सज्जनों की उपस्थिति में कतिपय धार्मिक विषयों पर विचार हो कर नीचे लिखा सिद्धांत निश्‍चित हुआ।

1. कान्यकुब्ज, मैथिल, भूमिहार, गौड़, उत्कल अथवा समस्त ब्राह्मण जाति मात्र में परस्पर कैसा व्यवहार होना चाहिए?

उत्तर - समस्त ब्राह्मण जाति मात्र में परस्पर समानता (नमस्कार) का व्यवहार होना चाहिए। किंतु जहाँ अवस्था, विद्या, सम्बन्ध आदि की उच्चता हो वहाँ प्रणाम आदि का व्यवहार हो।

2. भूमिहार ब्राह्मण किस श्रेणी में हैं?

उत्तर - देश भेदानुसार पंच गौड़ों के ही अन्तर्गत हैं।

3. भूमिहार ब्राह्मणों को 6 कर्म का अधिकार है या नहीं?

उत्तर - हाँ, अवश्य 6 कर्मों का अधिकार है।

4. हस्तोदकदान और कुशोदकदान में शास्त्रविहित उत्तम दान कौन है?

उत्तर - हस्तोकदान शास्त्रविहित होने से उत्तम है, कुशोपरि दान ब्राह्मण के अभाव में काल्पनिक है।

5. एकादशाह के दिन आँगन में सामान्य दान के नाम से जो दूसरा शय्यादान होता है वह होना चाहिए या नहीं?

उत्तर - दूसरे शय्यादान की विशेष व्यवस्था शास्त्र में नहीं है; करना, न करना समाज का अधिकार है।

खुद्दी झा रासधनी सिंह (छितरौर)

देवी प्रसाद शुक्ल परमेश्‍वरी प्रसाद सिंह (रहीमपुर)

धर्मदत्त त्रिपाठी देवनाथ कर्मकांडी

दरभंगा के मैथिल महाराजाओं और महाराजकुमारों के पत्र ये हैं :

(1) श्रीगुर्गा, श्रीमाधाव, श्रीगणेश 1

(मोहर) (माही)

महाराजा श्री श्री रुद्रसिंह बहादुर देव देवानां सदा समरविजयिनां श्री कन्हैया शर्मा वो श्री देवी शर्मा ठेकेदारान, तालुका पुसही, प्रगन्ना पडरी देहात मिलकिअति सरकार के नमस्कार। आगां तालुका मजकूरक सन 1256 (बारह सौ छप्पन साल) के जागह मध्ये नौ हजार रुपया (9000 रु.) कलदार बारात कैल अछि कबज लै देव, एहांक तालुका मजकूरक वोआसिलवाकी मध्ये मोजर होएत। 9000 रु.।

इसका अर्थ यह है पूर्वोक्‍त इस पत्र में जिन श्री देवीशर्मा, श्री कन्हैया शर्मा का नाम हैं वे लोग पूर्वोक्‍त पतोरग्राम के श्री सर्यूप्रसाद मिश्र प्रभृति के पूर्वज थे, जिनके नाम से लहेरिया सराय (दरभंगा) में अब तक कन्हैया मिश्र का तालाब प्रसिद्ध है। और ये लोग दरभंगा राज के ठेकेदार थे। इसलिए महाराजा का यह पत्र रुपए के लिए आया है। जिसका अनुवाद यह है कि 'सदा समर विजई देव देव महाराज श्री श्री रुद्र सिंह बहादुर का नमस्कार सरकारी मिलकिअत तालुका पुसही, परगना पड़री देहात के ठेकेदार श्री कन्हैया शर्मा और श्री देवी शर्मा को पहुँचे। आगे पूर्वोक्‍त तालुके की जगह 1256 फसली के लिए 9000 रु. में आपको ठेके में तय की गई है। इसलिए रसीद ले कर रुपए भेजिएगा। आपकी वासिल बाकी में उसका मोजरा दिया जावेगा। इस पत्र में ऊपर राजा की मोहर और मछली का चिह्न बना हुआ है। ऐसा ही अन्य पत्रों में भी है। मही=मछली।

(2) श्रीदुर्गा, श्रीमाधाव, श्रीगणेश 1

(मोहर) (माही)

महाराजकुमार बाबू वासुदेव सिंह देवानां श्री कन्हैयालाल शर्मा के नमस्कार। आगे मौजे वेलौजा गैरह प्रगन्ना जरैल देहात मिलकिअत सरकार बाबति मालगुजारी महाल वैजु पैडीक मौजे मजकूरक सन 1253 (बारह सौ त्रिपन) सालक जागह मध्य बारात कैल अछि कबज लै देव श्री कन्हाई चौधरीक बत्तीस हजार एकानवै रुपैआ मध्य दुई हजार एक सौ तीस रुपैया चौदह आना कयने छी। 2130 =)।

अर्थ यह है :- महाराज कुमार बाबू श्री वासुदेव सिंह देव का कन्हैया लालशर्मा को नमस्कार। आगे मौजे वेलौजा परगना जरैल महाल वैजूपट्टी की सरकारी मिलकिअतकी मालगुजारी का ठीका सन 1253 के लिए आपको दिया गया है, रसीद ले कर रुपए कन्हाई चौधरी को दीजिएगा। उनके जिम्मे 32091 रु. में से 2130 =) किए गए हैं।

(3) श्रीदुर्गा, श्रीमाधाव, श्रीगणेश 1

(मोहर) (माही)

महाराज श्री श्री छत्रसिंह बहादुर देव देवानां सदा समर विजयिनां श्री गिरधारी शर्मा ठेकेदार वो श्री जुपाल शर्मा माल जामीन मौजे हरिआ हरिपुर गैरह, परगना पुडरी देहात मिलकिअति सरकारकं नमस्कार। आगे मौजे मजकूरक 1233 (बारह सौ तैत्तिस) साल क जागह मध्ये बारात कैल अछि कबज लै देव चार रुपैआ आठ आना। एहांक मौजे मजकूरक वोआसिल बाकी मध्य मोजरा होएत। (4 ॥)।

यह अर्थ है :- 'श्री गिरधारी शर्मा और श्रीजुपाल शर्मा ठेकेदार मौजे हरिया हरिपुर परगना पुड़री देहात मिलकिअति सरकारी को देव देव सदासमर विजयी श्री श्री छत्रसिंह महाराज का नमस्कार। आगे पूर्वोक्‍त मौजे की जगह का ठीका सन 1233 के लिए आपको दिया गया है। रसीद लेर 4।।) दीजिएगा। आपकी उस मौजे की वासिल बाकी मैं मोजरा होगा।

(4) श्रीदुर्गा, श्रीमाधाव, श्रीगणेश 1

(मोहर) (माही)

महाराज श्री श्रीमहेश्‍वर सिंह बदादुर देव देवानां सदा समर विजयिनां श्री देवी शर्मा ठेकेदार मौजे नरगा प्रगन्ना नरगा गैरह देहात मिलकिअति सरकार के नमस्कार। आगे मौजे मजकूरक गैरहक सन 1261 सालक जागह मध्ये बारात कैल अछि कबज लै देव रुपैया कलदार। एहांक मौजे मजकूर गैरहक बोआसिलवाकी मध्ये मोजर होयत। 1967।=)।

इसका अर्थ यह है :- श्री देवी शर्मा ठेकेदार मौजे नरगा परगना नरगा देहात सरकारी मिलकिअत को देव देव सदा समर विजयी महाराज श्री श्री महेश्‍वर सिंह बहादुर का नमस्कार। आगे पूर्वोक्‍त मौजा 1261 के लिए आपको ठेके में दिया गया है। इसलिए रसीद ले कर 1967।=) दीजिएगा। वह उस मौजे की वासिल बाकी में आपको मोजरा दिया जावेगा।

(5) श्री दुर्गा, श्री माधाव, श्री गणेश 1 (माही)

महाराजश्री श्री लक्ष्मीश्‍वर सिंह देव बहादुर देव देवानां सदा समर विजयिनां श्री भगवत प्रसाद शर्मा कै नमस्कार। आगां ता. 30 जून मोताबिक आषाढ़ वदी 9, 14 रोज शुक कुमैटी करतथु अछि तँ यहाँ बरोबरी मोकाम दड़िभंगा हाजिर आएब। इति आषाढ़ वदी 15 सन 1290 साल।

अनुवाद यह है :- श्री भगवत प्रसाद शर्मा को देव देव सदासमर विजयी महाराज श्री श्री लक्ष्मीश्‍वर सिंह देव बहादुर का नमस्कार। आगे ता. 30 जून आषाढ़ वदी 9 शुक्रवार को दरभंगा में कमिटी होगी। इसलिए आप अवश्य दरभंगा मुकाम पर आएँगे। इति आषाढ़ वदी 15 सन 1290 फसली।

(6) श्री दुर्गा, श्री माधाव, श्रीगणेश 1 (माही)

महाराज कुमार बाबू श्री गुणेश्‍वर सिंह देवानां श्री देवी शर्मा के नमस्कार। आगां एहांक ऐवाक हजूर जरूर अछि, तं लिखल दिखैत बहुत जल्द हजूर हाजिर होएव, ऐवा अर्सा हरगिज हरगिज जनि करिअ। इति सावन वदि सन 1260 साल।

इसका अर्थ यह है कि श्री देवी शर्मा को महाराज कुमार बाबू श्री गुणेश्‍वर सिंह देव का नमस्कार। आगे दरबार में आपके आने की आवश्यकता है। इसलिए पत्र देखते ही बहुत जल्द आइएगा। आने में हरगिज-हरगिज देर न हो। इति सावन वदी सन 1260 फसली।

इन पूर्वोक्‍त पत्रों के अतिरिक्‍त और बहुत से पत्र महाराज बहादुरों और उनके वंशवालों के पतोर तथा अन्य ग्रामवाले पश्‍चिम ब्राह्मणों के नाम से है, जिसमें स्पष्ट रूप से शर्मा शब्द का प्रयोग हैं और उन लोगों ने पश्‍चिम ब्राह्मणों को नमस्कार ही लिखे हैं। परंतु उनके लिखने से विस्तार हो जावेगा। इसलिए आवश्यकता पड़ने पर वे भी दिखलाए जा सकते हैं। अब दरभंगा महाराजाओं के दो पत्र और दिखला कर दूसरी बातें लिखेंगे। उनमें से एक रामगढ़ (नरहन) के श्री कामेश्‍वर नारायण सिंह द्रोणवार ब्राह्मण के नाम से इस प्रकार है, जो वर्तमान महाराजा बहादुर का है:

(7) श्री दुर्गा, श्रीमाधाव, श्री गणेश 1

स्वस्ति। सर्वोपमा योग्य मर्यादा सागर बाबू श्री कामेश्‍वर नारायण सिंह महाशयेषु विविध विरुदावली विराजमान मानोन्नत महाराजाधिराज मिथिलेश श्री श्री श्री रमेश्‍वर सिंह बहादुर देव देवानां सदा समर विजयिनां नमस्कार। शमिह, तत्रात्य तदनुदिवसमीहामहे। अथोदंत:, एहांक पिताक अचानक परलोक गगन सुनि बहुत खेद भेल, एहां बालक छी शोक बहुत करैत होएब ते जिज्ञासार्थ ओ आश्‍वासन देवाक हेतु म. म. पंडित श्री चित्रधर मिश्र के पठावोल अछि धौर्य कए आश्‍वासन राखब दैवाधीन विषय में साध्य की। विशेष कुशल लिखब इति। माघ शुक्ल पंचम्यां शुक्रे सन 1311 साल।

अनुवाद यह है :- स्वस्ति, सर्वोपमा योग्य मर्याद-सागर बाबू श्री कामेश्‍वर नारायण सिंह महाशय को विविध विरुदावली विराजमान मानोन्न्त महाराजाधिराज मिथिलेश श्री श्री श्री रामेश्‍वरसिंह देव देव बहादुर देव का नमस्कार। यहाँ कुशल हैं, आपकी कुशल चाहते हैं। समाचार यह है कि आपके पिता का अचानक परलोकवास सुन कर बहुत ही खेद हुआ। आप बालक हैं। इसलिए बहुत शोक करते होंगे। इसलिए जिज्ञासा और संतोष देने के लिए महामहोपाध्याय पंडित श्री चित्रधर मिश्र जी को पठाते हैं। धैर्य कर के संतोष रखिएगा, क्योंकि दैवाधीन बात में वश ही क्या है? विशेष हाल लिखिएगा। इति। माघ शुक्ल 5, शुक्र, सन 1311।

निम्नलिखित पत्र काशीराजकुमार श्रीमान प्रसिद्ध नारायण सिंह जी के नाम से आया था, जिसमें मैथिल ब्राह्मण शिरोमणि मिथिलेश महाराज श्री रुद्रसिंह जी ने प्रणाम लिखा है। वह इस प्रकार है :

(8) श्रीदुर्गा, श्रीमाधाव श्रीगणेश 1

मदीश्‍वर।

'स्वस्ति। देवद्विजवर दत्त सदा शोभाराशि सदाशुभधाम गुणिगण गीत यशोभरशारद शशधर द्वीपित नाममहाराजाधिराज कुमार बाबू श्री प्रसिद्धनारायण सिंह महाशयेषु विविध विरुदावली विराजमना मानोन्नत महाराजाधिराज मिथिलाधीश श्री श्री श्रीमद्रुद्र सिंह बहादुर देव देवानां सदा समर विजयिनां प्रणतिराशयो विलसन्तु। शमिह, तत्रत्यं तदीशादीहामहे। अथोदंत: निमन्त्रण पत्र श्री श्री श्रीकाशीराज बहादुरक द्विरागमनक पहुँचल से देखि अत्यन्त चित्त के आनन्द प्राप्त भेल। श्री मथुरानाथ ठाकुर के पठाबोल अछि न्योंताक रसूम बमोजिब तपसील दाखिल करता है। श्री भगवान्क कृपा सं वोतयक सभक कुशल वो ई कार्य संपन्न होयवाक वार्ता शीघ्र लिखल जायत ये चित्त आनन्द होय इति। लेखो यं माधाव सित पंचम्यां चंद्रात्मजे समजनीति। ओम्॥

इसका अर्थ यह है कि देवता और श्रेष्ठ ब्राह्मणों द्वारा दी गई शोभा की राशि, सदा तेजस्वी, गुणी लोग जिनकी कीर्ति का कीर्तन करते हैं, और जिनका नाम द्विजराज पद से शोभित हैं ऐसे महाराजाधिराज श्रीकाशीराज के कुमार श्री बाबू प्रसिद्धनारायण सिंह महाशय जी को विविध विरुदावली विराजमान और मानोन्नत महाराजाधिराज मिथिलाधीश देव देव सदा समर विजयी महाराज श्रीमत रुद्रसिंह बहादुर का प्रणाम। यहाँ कुशल है, आपकी कुशल ईश्‍वर से चाहते हैं। वृत्तांत यह है कि श्री काशिराज बहादुर के द्विरागमन का पत्र पहुँचा। उसे देख कर प्रसन्नता हुई। श्री मथुरानाथ ठाकुर को भेजते हैं, वे नेवता की रस्म यथोचित रीति से पूरी करेंगे। श्री भगवान की कृपा से वहाँ के सब लोगों की कुशल और इस कार्य के पूरा होने का हाल लिखिएगा, जिससे चित्त को आनन्द हो। बैशाख शुक्ल 5 बुधवार।

इन पत्रों से स्पष्ट है कि जब मैथिल ब्राह्मणों के शिरोमणि लोग इन अयाचक दलीय ब्राह्मणों को नमस्कार या प्रणाम आज तक बराबर करते आए और करते हैं, स्पष्ट शब्दों में 'शर्मा' या 'ब्राह्मण' शब्दों से व्यवहार करते हैं, तो फिर अब ब्राह्मण मानना किसे कहते हैं? इसके अतिरिक्‍त पूर्वोक्‍त व्यवस्था में काशी के प्रसिद्ध गणनीय विद्वान तात्याशास्त्री से ले कर मिथिला के महामहोपाध्याय श्री चित्रधर मिश्र जी और अन्य ब्राह्मणों की सम्मतियाँ दिखला ही चुके हैं।

महामहोपाध्याय तर्कवारिधि श्रोत्रिय श्री श्री कृष्ण सिंह ठाकुर भी अपनी 'ब्राह्मण वंश विवेक, नामक मैथिल वंशावली में यही दिखलाते और स्पष्ट रूप से इन अयाचक दलीय ब्राह्मणों को ब्राह्मण पद से संबोधन करते हुए मैथिलों और भूमिहार ब्राह्मणों को एक ही बतलाते हैं। जैसा कि उस पुस्तक के अन्त में यह विज्ञापन या नोटिस सर्वसाधारण को देते हुए लिखते हैं कि :

मैथिल ब्राम्हणानां भूमिहारा ब्राह्मणानां चोपकार बुद्धया सर्वसीमाग्रामवास्तव्येन तंत्राविन्महेश्‍वरात्मजेन तर्क वारिधिना श्रोत्रियेणखण्डवलावंशजेनठक्कुरोपाह्न श्रीकृष्ण शर्मणा नानानिबन्ध पुराणादीन्यवलोक्य यथामति ब्राह्मणवंश विवेकनामको यंनिबन्ध:खलु विरचय्य मुद्रापयित्वा प्रकाशित:।

इसका अनुवाद यह है कि 'मैथिल ब्राह्मणों और भूमिहार ब्राह्मणों के उपकार के लिए सर्वसीमाग्रामवासी तन्त्रज्ञ महेश्‍वर पंडित के पुत्र तर्कवारिधि, श्रोत्रिय और खण्डवला मूलवाले श्री कृष्ण शर्मा ने पुराणादि नाना ग्रन्थों को देख अपनी बुद्धि के अनुसार इस ब्राह्मणवंश विवेक नामक ग्रन्थ को रच कर प्रकाशित किया।'

इस वाक्य में कई बातें समझने योग्य है। एक तो यह कि उन्होंने अपनी जातिवाले ब्राह्मणों को समझाने के लिए जैसे ब्राह्मण शब्द से पूर्व 'मैथिल', विशेषण जोड़ा है, वैसे ही इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों को बतलाने के लिए ब्राह्मण शब्द से पूर्व भूमिहार विशेषण लगाया है। इसलिए जैसे मैथिलों को वे ब्राह्मण समझते हैं, ठीक वैसे ही भूमिहारों को भी, यह उनकी इस लेखशैली से स्पष्ट है। दूसरी बात यह है कि जब 'ब्राह्मणवंशविवेक' नामक ग्रन्थ मैथिल ब्राह्मणों की वंशावली ठहरी, क्योंकि इस ग्रन्थ के प्रारंभ में ही उनकी यह प्रतिज्ञा हो चुकी है कि :

पंजीप्रबंधसारांशादुद्धस्य विदुषां मुदे।

मैथिल द्विजवंशानां गोत्रदीन वक्‍ति यत्‍नत:॥

अर्थात 'पंजी नामक मैथिल की प्राचीन लिखित बड़ी वंशावलियों से सारांश निकाल कर मैथिल ब्राह्मणों के गोत्रदि का वर्णन किया जाता है, तो फिर यदि उससे उपकार की संभावना है तो केवल मैथिल ब्राह्मणों को ही नहीं तो फिर सभी ब्राह्मणों का उससे उपकार हो सकता है, न कि केवल मैथिलों और भूमिहार ब्राह्मणों का ही। तो फिर अन्त में यह लिखना कि 'मैथिल ब्राह्मणों और भूमिहार ब्राह्मणों के उपकार के लिए यह ग्रन्थ बनाया गया है' क्या यह सिद्ध नहीं करता कि श्रीकृष्ण सिंह ठाकुर के मत में मैथिल ब्राह्मण एक ही है? इसीलिए दोनों की उपाधियाँ और गोत्र एवं मूलादि कम से कम मिथिला में प्राय: एक ही मिलते हैं। नहीं तो क्या पंजी में मैथिलों को छोड़ कर किसी अन्य ब्राह्मण समाज के भी गोत्रदि लिखे गए हैं, जिनके सारांश से भूमिहार ब्राह्मणों का भी उपकार हो सकता है? तीसरी बात यह है कि जब उस ग्रन्थ का नाम 'ब्राह्मणवंशविवेक है और इसीलिए उसमें केवल ब्राह्मणों के ही वंशों का वर्णन हैं, तो फिर उससे भूमिहार ब्राह्मणों का उपकार उसी दशा में हो सकता है यदि वे ब्राह्मण माने जावे। नहीं तो जो ब्राह्मणों के नाम या समाज से बाहर है, उसका ब्राह्मण वंश या गोत्र अथवा मूल के निरूपण से क्या लाभ हो सकता है?

इसके अतिरिक्‍त मैथिल महासभा के भागलपुरवाले अधिवेशन के विवाह संबंधी प्रस्ताव का वर्णन प्रथम ही कर चुके हैं। उस प्रस्ताव में भी, जैसे श्रीकृष्ण सिंह ठाकुर ने 'भूमिहार ब्राह्मण और मैथिल ब्राह्मण' लिखा है, वैसे ही 'बहुत मैथिल ब्राह्मण, भूमिहार ब्राह्मणों से विवाह करते हैं', ऐसा लिखा गया है। इसीलिए श्रीकृष्ण ठाकुर की तरह मैथिल महासभा भी ब्राह्मणों के बराबर दो विशेषण मैथिल और भूमिहार दे कर दोनों को समान ही ब्राह्मण स्वीकार करती है। मैथिल समाज का 'मिथिला मिहिर' पत्र तो बराबर ही इन अयाचकों को ब्राह्मण लिखा ही करता है। इसीलिए मैथिल तो स्पष्ट रूप से पश्‍चिम लोगों को ब्राह्मण मानते हैं। नीचे लिखी हुई व्यवस्था से भी यह बात स्पष्ट है। वह व्यवस्था इस प्रकार की हैं :

श्री गणेशाय नम:

सांढ़ानगरे सम्पादितायां सभायां भूमिहार शब्देन प्रसिद्धानां कान्यकुब्जब्राह्मणानां सर्यूपारीप्रभृतिब्राह्मणान्तरै: सह परस्परं नमस्कारो युज्यते न वेति प्रश्ने उत्तरम्। युज्यते नमस्कार इति। तथाहि सम्प्रदायानुसारि कान्यकुब्जब्राह्मणव्यवहारस्याधिककालव्यापकस्य दर्शनात्, श्रुतिस्मृतिपुराणेतिचनसिद्धस्य चूडाकरणोपनयनादिसंस्कारस्य तथा संध्या-वन्दनादिनामांकित द्विजातिविहितकर्मणां समाचारस्य र्शनात्, गर्भाष्टमेदब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनयनम्। ब्रह्मवर्च्चसकामस्यकार्यं विप्रस्य पंचमे, इति वचनेनैव चोपनयने व्यवस्था दृश्यते, अन्यथाराज्ञामेकादशे सैके विशामुपनयनक्रियेत्यादिना व्यवस्था स्यात्, नच तथा भवति। तथा मिताक्षरायां वर्णाश्रमेतराणां नो व्रूहि धर्मानशेषत इतिवचनव्याख्यायां ब्राह्मणो ब्रह्मचारी पालाशदंडविभृयादित्यादिना प्रदर्शितोव्यवहार एंव भूमिहारन ब्राह्मणानामुपनयनादौ प्रचरित: संगच्छते।

यद्यषिट्कर्मा ब्राह्मणो भवेदित्यादिना सर्वेषां ब्राह्मणानांषट्कर्माणि भवन्ति, एतेषांभूमिहारब्राह्मणानांच त्रीण्येव कर्माणि अध्यायनं, यजनं, दानं चेति दृश्यते, तानि च क्षत्रियाणां वैश्यानांचाप्युपलभ्यन्ते। तथा चैते भूमिहारब्राह्मणाब्राह्मणान्तराणां नमस्कारयोग्यानेति युक्तं वच:। तथापि ब्राह्मणासां सर्वैंषामपि त्रीण्येव कर्माणि यजनमध्यायनं दानंचेतिप्रशस्तानि, अवशिष्टान्यन्यानित्रीणिजीविकार्थान्येव भवन्ति, एवं चाध्यापकस्या-याच्ययाजकस्य शूद्रादित: प्रतिग्रहकस्य च मनुस्मृतिप्रभृतिभिरुक्तं प्रायश्‍चित्तां संगच्छते।

अपि चाभिषेकादिगुणयुक्‍तस्य राज्ञ: प्रजापालनं परमो धर्म इति लिखितवता मिताक्षराजारेण क्षात्रोण कर्मणार्जावेवद्विशा वाप्यापदिद्विजइत्यादित: स्वीकृतं कथंचिद्ब्राह्मण-स्यापि राजधर्मपालयत: प्रतिग्रहादीनि त्रीणि कर्माणि निवर्तन्त इति, नतु क्षत्रिय वैश्यवत्पुत्रादिभ्य आचार्येभ्यो गायत्रीदानादीनि नरिवत्तान्त इति। तथा वरपक्षीयाणां भूमिहारब्राह्मणानां कन्यापक्षीयैर्ब्राह्मणान्तरै: सह नमस्कारो भवति। अतएवान्योन्यं विप्रानमन्तीत्यादान्याप्तवाक्यानिसंगच्छन्ते। अतएवोपनयनकर्मण्येतेषामपि अभिवादयेविष्णु-शर्मा हंभी इत्यभिवादनं तथा युष्मान भव सोम्येति प्रत्यभिवादनं च संगच्छते। कन्यापक्षीयेभ्यो वरपक्षीयाणांनियतंधानादानं कान्यकुब्जेष्वेवहि प्रसिद्धम्।

करिकरभूमिगते ब्दे शिवतिथिशोचवलपक्षे।

इदमन्हिकवौविशुद्ध धर्मावितरतिपंडितमुक्‍तिनाथ शर्मा॥

शके 1828 आषाढ़शुक्ल पक्षीयाष्टमीतिथि युक्‍ते शुक्रदिने व्यवस्थापत्रां समाप्तिमगात्।

(1) सम्मतिरत्राथरें श्री देवकीनन्दनशर्मण:

(2) ' ' श्री हरिवंशशर्मण:।

(3) ' ' श्री रामप्रकाशशर्मण:।

(4) ' ' पं. श्यामानन्दपांडेयस्य।

(5) ' ' ज्योतिर्विद् विद्यानन्दपांडेयस्य

(6) ' ' श्री शिवानन्दशर्मा सम्मन्यते।

(7) ' ' सम्मति: श्रीअवधाशरणशर्मण:।

(8) ' ' सम्मति: श्रीबच्चूशर्मण:।

(9) ' ' विप्राणां विप्रांतरै: सह नमस्कारोयुक्‍ततर

इति श्रीमद्रामलोचनशर्मापि।

इसका मर्मानुवाद इस प्रकार हैं कि 'मुजफ्फरपुर जिले के साँढ़ा गाँव में एक सभा कर के यह प्रश्‍न हुआ कि भूमिहार नाम से प्रसिद्ध जो कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं उनका सर्यूपारी प्रभृति अन्य ब्राह्मणों के साथ परस्पर नमस्कार होना चाहिए अथवा नहीं ? इसका उत्तर यह हुआ कि 'होना चाहिए'। क्योंकि बहुत दिनों के परम्परानुसार इन लोगों के सभी व्यवहार कान्यकुब्जों के-से हैं, जैसे कि श्रुति, स्मृति, पुराण और इतिहास सिद्ध जो ब्राह्मण के चूड़ाकरण प्रभृति संस्कार और संध्यादि हैं वे सभी इन लोगों में पाए जाते हैं। 'गर्भ धारण से अष्टम वर्ष में ब्राह्मण का उपनयन संस्कार होना चाहिए' परंतु यदि ब्रह्म तेज की इच्छा हो तो 5 वर्ष में ही, 'इस मनुस्मृति के अनुसार ही इनके संस्कार होते हैं। नहीं तो क्षत्रिय का 11 और वैश्य का 12 वर्ष बाद उपनयन करना चाहिए, इस वचन के अनुसार होते। और वर्ण, आश्रम और इनसे भिन्नों के धर्म हम लोगों को सुनाइए, इस याज्ञवल्क्यस्मृति के वचन के व्याख्यान के समय मिताक्षराकार ने जो लिखा है कि ब्राह्मण ब्रह्मचारी पलाश का दंड धारण करे इत्यादि, उसी के अनुसार भूमिहार ब्राह्मणों के उपनयन संस्कार होते हैं।

यद्यपि 'ब्राह्मण षट्कर्मा होते हैं' इत्यादि वचनानुसार सभी ब्राह्मणों के अध्यायन, अध्यापन, यजन, याजन, दान और प्रतिग्रह ये षट्कर्म होते हैं, परंतु इन भूमिहार ब्राह्मणों में तो यजन, अध्यायन और दान ये तीन ही कर्म पाए जाते हैं, जो क्षत्रियों और वैश्यों में भी पाए जाते हैं। इसलिए भूमिहार ब्राह्मण लोग अन्य ब्राह्मणों के नमस्कार योग्य नहीं हैं, यह शंका हो सकती हैं। तथापि सभी ब्राह्मणों के धर्म के लिए उत्तम कर्म यजन, अध्यायन और दान ये तीन ही हैं, शेष तीन तो केवल जीविका के लिए हैं। इसीलिए मनुस्मृति प्रभृति धर्मशास्त्रों में अध्यापनादि करने में दोष भी लिखा है।

एक बात और भी है कि मिताक्षराकार ने 'अभिषेक होने पर राजा का परम धर्म है कि प्रजापालन करे' यह लिखते हुए यह स्वीकार किया है कि धर्म 'ब्राह्मण आपत्तिकाल में क्षत्रिय में क्षत्रिय और वैश्य के धर्मों से भी जीविका कर सकता है। इसलिए किसी प्रकार से ब्राह्मण भी यदि राजधर्म का पालन करे तो प्रतिग्रहादि तीन धर्म वह नहीं कर सकता।' और जैसे क्षत्रिय प्रभृति उपनयन काल में आचार्य बन कर ब्रह्मचारी को गायत्री का उपदेश नहीं कर सकते, वह बात इन भूमिहार ब्राह्मणों में नहीं हैं, किंतु ये लोग आचार्य बन कर उपनयन काल में गायत्री का उपदेश करते ही हैं। और भूमिहार ब्राह्मणों में कन्या और वरपक्षवाले परस्पर नमस्कार करते हैं, क्योंकि लिखा भी हैं कि 'ब्राह्मणों लोग परस्पर नमस्कार ही करते हैं'। उपनयन काल में इन लोगों के यहाँ ब्रह्मचारी यही कह कर नमस्कार करता है कि 'मैं अमुक शर्मा नमस्कार करता हूँ,' और लोग उनके उत्तर में यही कहते हैं कि 'हे सौम्य आयुष्मान हो।' जैसा कि ब्राह्मणों को ही करना चाहिए। एक बात यह भी है कि इन लोगों के यहाँ विवाह में 'तिलक' लेने की प्रबल प्रथा है जो कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में ही प्रबल रूप से पाई जाती है। इसलिए ये लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मण ही हैं। इसलिए अन्य ब्राह्मणों के साथ इनका परस्पर नमस्कार बहुत ही उचित है। इन व्यवस्था को मैंने 1828 शकाब्द आषाढ़ शुक्लपक्ष शुक्रवार को लिखा है।

(1) हस्ताक्षर पंडित मुक्‍तिनाथ शर्मा।

(2) मेरी भी सम्मति इस विषय में है, ह. श्री देवकीनन्दनशर्मा।

(3) मेरी भी सम्मति इस विषय में है, ह. श्री हरिवंश शर्मा।

(4) मेरी भी सम्मति इस विषय में है, ह. श्रीरामप्रकाशशर्मा।

(5) मेरी भी सम्मति इस विषय में है, ह. पं. श्यामानन्दन पांडेय।

(6) मेरी भी सम्मति इस विषय में है, ह. ज्योतिर्विद् विद्यानन्द पांडेय।

(7) मैं इसे मानता हूँ, हस्ताक्षर श्री शिवानन्दशर्मा।

(8) मैं इसे मानता हूँ, हस्ताक्षर श्री अवधाशरण शर्मा।

(9) मैं इसे मानता हूँ, हस्ताक्षर श्री बच्चू शर्मा।

(10) ब्राह्मणों का परस्पर नमस्कार बहुत ठीक है। हस्ताक्षर श्रीमदरामलोचन शर्मा।

इस व्यवस्था से सिद्ध है कि कान्यकुब्ज और सर्यूपारी ब्राह्मण इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों को स्पष्ट शब्दों में ब्राह्मण स्वीकार करते हैं, बल्कि कान्यकुब्ज ब्राह्मण सिद्ध करते हैं। यह ठीक भी है, क्योंकि इन ब्राह्मणों का 'भूमिहार' विशेषण या नाम कान्यकुब्जों से ही प्रथम चला है, जैसा कि प्रथम ही दिखला चुके हैं। मैथिलों या सारस्वतों के भी इस कथन को कि ये लोग मैथिल या सारस्वत हैं हम मानते हैं और प्रथम सिद्ध भी कर चुके हैं। क्योंकि ब्राह्मणों में यह एकदल भी उसी समय पृथक हुआ जब अन्य कान्यकुब्जादि दल पृथक हुए और जब सभी देश के ब्राह्मणों का व्यवहार प्राय: मिला हुआ था। इसलिए जो जिस दल में मिल गया वह उसी का हो गया। इस प्रकार इस दल में सभी जगह के धनी, मानी और प्रतिष्ठित अयाचक ब्राह्मण मिलते गए।

इस व्यवस्था में दो-एक स्मरण योग्य बातें हैं जिनको प्रसंगवश कह कर पुन: उसी प्रकृत विचार को उठाएंगे। एक मत तो यह है कि इसमें स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है कि इतर ब्राह्मण इन अयाचक दल के ब्राह्मणों को नमस्कार करें और ये लोग भी उन्हें नमस्कार ही करें। और महाराज दरभंगा प्रभृति ने अपने पत्रों में भी इन लोगों को नमस्कार ही लिखा है। फिर जो मैथिल या अन्य ब्राह्मण बिलकुल योग्यता से हीन हैं और गुरु या पुरोहित भी नहीं हैं, वे लोग जो प्रथम से ही इन लोगों के लिए बिना पूछे ही 'आशीर्वाद' की टोकरी लिए आते हैं और 'आशीर्वाद बाबू' यह कहते फिरते हैं, उन्हें इससे शिक्षा ग्रहण करना और अपनी भूल और दुर्बुद्धि अब से भी सुधार लेना चाहिए कि वे दूसरे दलवाले योग्य ब्राह्मण को भी यदि करें तो 'नमस्कार', न कि प्रणाम आदि।

दूसरी बात यह है कि इसमें यह दिखलाया गया है कि कम से कम तिरहुत में ये लोग परस्पर अपने संबंधियों के साथ 'नमस्कार' का व्यवहार रखते हैं। इनसे अन्य प्रांतवालों को भी शिक्षाग्रहण कर के परस्पर भी नमस्कार ही प्रचार करना चाहिए और बबुआई ठाट को कम से कम इस विषय में अब छोड़ देना चाहिए।

तीसरी बात ध्यान देने योग्य यह है कि जब इसमें स्पष्ट लिखा है कि कम से कम तिरहुत प्रांत में लड़कों के उपनयन काल में घरवाले ही पिता, चाचा अथवा दायाद प्रभृति आचार्य होते और उन्हें गायत्री का उपदेश करते हैं, न कि गुरु या पुरोहित, जिसे हमने आँखों भी देखा हैं, और यह उचित भी है। क्योंकि जैसा कि प्रथम ही दिखला चुके हैं कि या तो वही ब्राह्मण आचार्य हो सकता है जो वेदादि शास्त्रों को विधिवत् पढ़ावे, या पितादि ही हो सकते हैं। जैसा कि मनु जी ने द्वितीय अध्याय में लिखा है कि :

निषेकादीनि कर्माणि य: करोति यथाविधि।

संभावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते॥ 142॥

इसका अर्थ भी प्रथम ही कर चुके हैं। इसलिए गर्गस्मृति में लिखा है कि :

पिता पितामहो भ्राता ज्ञातयो गोत्रजाग्रजा:

उपायनेऽधिकारी स्यात्पूर्वाभावे पर: पर:।

अर्थात 'बालक के यज्ञोपवीत संस्कार काल में पिता, पितामह, भाई, दायाद, गोत्रवाले अथवा ब्राह्मण मात्र, यही लोग आचार्य हो कर गायत्री का उपदेश कर सकते हैं। उन में भी क्रमश: पूर्व-पूर्व के श्रेष्ठ हैं। और उनके न रहने पर ही बादवाले हो सकते हैं।' तो फिर पितादि के रहते ही पुरोहित प्रभृति क्यों आचार्य बनने का दावा करते और बनते हैं इसका कारण समझ में नहीं आता। इसलिए इससे उन प्रांतवालों को शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए जहाँ पुरोहितादि ऐसा अत्याचार करते हैं। जिससे यज्ञोपवीत काल में पिता, पितामह और भाई वगैरह ही आचार्य हो और गायत्री का उपदेश करें, न कि कनफुँकवा गुरु या पुरोहित लोग।

अस्तु, इसी प्रकार जौनपुर जिले के रामपुर ग्रामनिवासी पं. शिवराजमिश्र सर्यूपारी रचित और उनके वंशज पं. ताराप्रसाद मिश्र द्वारा संवत् 1957 में प्रकाशित 'गौतमचंद्रिका' नामक ग्रन्थ से स्पष्ट है कि उन्होंने कम से कम इन भूमिहार ब्राह्मणों में मिले हुए गौतम वंश मात्र को सर्यूपारी, पिपरा का मिश्र, गौतम गोत्री माना है। क्योंकि इन गौतम लोगों के आदि पुरुष कृष्णमिश्र या किठ्ठू मिश्र के विषय में ऐसा लिखा है कि :

'पुन: आसुतोस परितोस कृपाचारज के वंशनु।

सर्यूपार निधास कियो सुखसो बलवंतनु॥1॥

पिपरामिश्रकहाइ तहाँ परिवार बढ़यो अति।

केतिकौ पुरुस निवास कियो जेहि कहत धीरमति॥

परितोसवंस अवतंसमणि किठ्ठू मिश्र कहि गायो।

शिवराज भणैंसरुवार तजि सो काशी सेवन आयो॥ 2॥

कह त्रैसत सन ही जरी सत्तरि मध्य सुजान।

काल भूप वन्दार के, काशी करयो टिकान॥ 3॥

हुती पयासी की सुता, ताको प्रेम विचारि।

व्याह्यो तासों प्रगट भो, देवकृष्ण निरधारि॥ 4॥

हुती नाम की कन्या पयासी मिश्र (सर्यूपारी) की रही, वह (उसने) किसी के तिरस्कार से प्रन (ण) किया कि हम अपना विवाह किठ्ठू मिश्र से करेंगी। इस कारण किठ्ठू मिश्र ने उससे विवाह किया।' इत्यादि। इसके बाद उसी किठ्ठू मिश्र ने वंश में काशी या अन्यत्र के गौतम मात्र को बतलाया है। इससे तो स्पष्ट ही उनका स्वीकार सिद्ध हो गया।

काशी में सर्यूपारी ब्राह्मण सभा की तरफ से स्थापित पाठशाला के अध्यक्ष, भदैनी निवासी पं. विजयानन्द त्रिपाठी ने जो पंक्‍तिपावन परिचय नामक सर्यूपारियों का इतिहास लिखा है, उसके अन्त में जब काशी के प्रसिद्ध सर्यूपारियों के नाम गिनाए हैं, तो सबसे प्रथम महाराजाधिराज द्विजराज श्रीमत्प्रभुनारायणसिंह काशी नरेश को लिखा है। उसके बाद स्वामी मनीषानन्द (हरिनाथ शास्त्री), श्री सुधाकर द्विवेदी, पं. विंधएश्‍वरी प्रसाद द्विवेदी, पं. चंद्रभूषण चतुर्वेदी, श्री शिवकुमार शास्त्री, पं. नकछेदराम जी,

पं. रामभवन जी, पं. कुबेरपति जी प्रभृति को उसी श्रेणी में गिनाया हैं

उसी पुस्तक के 28वें पृष्ठ में भी आपने लिखा है कि 'मुझे यह दिखलाना हैं कि काशी में सर्यूपारियों का दृढ़ निवास कब से हुआ। काशी का राजा जिसका नाम नहीं जानते, कदाचित जयचंद के समय में हुआ हो, गोहरण के क्रोध से एक मुसलमान को प्रतिदिन मारता था। स्वप्न में एक तपस्वी ने उसके इस कार्य की निंदा की और उसके राज्यनाश की भविष्यवाणी कही। उसने यज्ञ किया और चारों दिशाओं से ब्राह्मणों को बुलाया। उनमें से एक श्रीकृष्ण मिश्र सर्यूपारी थे। उनको धोखे से पान में लपेट कर एक ग्राम का दान पत्र दिया। वे ही श्रीकृष्णमिश्र जी महाराज बरिवंड सिंह के पूर्वज थे।' इन बरिवंड सिंह जी का ही नाम बलवंत सिंह भी था, जो वर्तमान काशिराज के पूर्वज थे।

कान्यकुब्ज वंशावलियों का हाल कह ही चुके हैं, जिसमें स्पष्ट ही लिख दिया है कि :

अथकाश्यपमाख्यास्ये गोत्रंतु मुनिसम्मतम्।

पूर्ववंशावलि दृष्ट्वा ज्ञातं षष्टिशतत्रयम्॥ 1॥

मदारादिपुराख्यस्य भुइहाराद्विजास्तु ये।

तेभ्यश्‍चयवनेन्द्रैश्‍च महद्युद्धमभूत्पुरा॥ 2॥ इत्यादि।

अर्थात 'कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की पूर्व रचित 360 वंशावलियों को देख कर उनके अनुसार ही काश्यप गोत्र का विवरण लिखते हैं। मदारपुर के अधिपति भुइंहार (भूमिहार) ब्राह्मणों और मुसलमानों से युद्ध हुआ', इत्यादि। एक-दो नहीं, किंतु 360 वंशावलियाँ यदि इस बात को स्वीकार करती है कि वर्तमान कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के काश्यप गोत्र से जो दूबे, तिवारी, अवस्थी, दीक्षित, अग्निहोत्री और मिश्र प्रभृति उपाधियों (आस्पदों या पदवियों) वाले ब्राह्मण हैं, वे सभी भूमिहार ब्राह्मणों की संतान हैं, तो फिर यही सिद्ध हो गया कि संपूर्ण कान्यकुब्जवंश ही इस बात को स्पष्ट रूप से मानता है कि ये जमींदार या भूमिहार ब्राह्मण लोग ब्राह्मण ही क्या बल्कि बहुत से कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के पूर्वज हैं। यह बात जिस कान्यकुब्ज वंशावली को आप देखेंगे उसी में काश्यप गोत्र के निरूपण में पावेंगे।

भारतमित्र के संपादक पं. अंबिकाप्रसाद वाजपेयी प्रभृति की सम्मति दिखला ही चुके हैं, जिन्होंने स्पष्ट ही लिख दिया है कि भूमिहारों के ब्राह्मण होने में संदेह नहीं किया जा सकता। और इस बात को उन्होंने खूब ही सिद्ध किया है, जो दिखला ही चुके हैं। इससे निर्विवाद सिद्ध हो गया कि जैसे संपूर्ण मैथिल समाज इन अयाचक दल के सभी ब्राह्मणों को खुले रूप से मानता हैं, वैसे ही कान्यकुब्ज और सर्यूपारी समाज भी। सो भी एक प्रकार से नहीं किंतु हर प्रकार से। और इतने ही ब्राह्मणों के साथ ही इनका घनिष्ठ सम्बन्ध भी है, क्योंकि इस देश में ये ब्राह्मण ही पाए जाते हैं। इसके सिवाय बंगाली ब्राह्मणों की सम्मति के बारे में भी हम यह कहते हैं कि वारेंद्र या राढ़ीय श्रेणी के ब्राह्मण दुर्गादास लहेरी महाशय ने जो पुस्तक 'पृथ्वीवीर इतिहास' नामक वंगभाषा में लिखी और श्री धीरेंद्रनाथ लहेरी ने हावड़ा (कलकत्ता) से प्रकाशित की है, उसके द्वितीय खण्ड के अध्याय 22 के 347वें पृष्ठ में जो कुछ लिखा है वह इस प्रकार है :

मैथिल ब्राह्मण - भूमिहार ब्राह्मण गण मैथिल ब्राह्मण गणेरई एकटी शाखा बलिया प्रसिद्ध1 इहांदेर उत्पत्ति संबंधों किंवदंती एई - परशुराम कत्तरृक पृथ्वी नि:क्षत्रिया हईले ये सकल ब्राह्मण सेई क्षत्रियागणेर भूसंपत्ति ग्रहण करने, ब्राह्मणोचित क्रिया2कर्म परित्याग करिया राज्यशासनादि कार्ये व्रती हन, ताहाँरई भूमिहार-ब्राह्मण बलिया परिचित हइया छिलेन। आदम सुमारी रा तालिकाय ईहाँरा 'बाभन' संज्ञाय अभिहित।

इसका अनुवाद यों है :

भूमिहार ब्राह्मण गण मैथिल ब्राह्मणों की शाखा मात्र है। उनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में किंवदंती है कि जब परशुराम ने क्षत्रियों को नष्ट किया था, उस समय जिन ब्राह्मणों ने क्षत्रियों का राज्य लिया और राज्य कर्म में लगने से ब्राह्मणोचित कर्म (प्रतिग्रहादि) को त्याग दिया, उनकी ही संतान भूमिहार ब्राह्मण हैं। मर्दुमशुमारी में इनको 'बाभन' लिखा है।

इसके अतिरिक्‍त उन लोगों ने वंग देश में रहनेवाले भूमिहार ब्राह्मणों का नाम 'भूम्यधिकारी ब्राह्मण' ही रख दिया है, जैसा कि प्रथम ही कह चुके हैं और मुर्शिदाबाद-लालगोला के राजा साहब, जो गाजीपुर के 'पाली' नामक ग्राम के रहनेवाले कौशिक गोत्री भूमिहार ब्राह्मण हैं, तथा काँदी प्रभृति स्थानों में जो भूमिहार ब्राह्मण रहते हैं, वे वहाँ पर केवल 'ब्राह्मण' ही कहे जाते हैं। वे सभी प्राय: संयुक्‍त प्रांत से गए हैं, और वहाँ पर केवल मिश्र, पांडेय इत्यादि नामों से बोले जाते हैं, जैसे, विकरा ग्राम में पं. गोपीनाथ तिवारी, काजिया खाली में पं. कार्तिकचंद तिवारी, मुर्शिदाबाद-शेख अलीपुर में पं. रमाकांत शुक्ल, पं. हरिनारायण मिश्र, आलमशाही ग्राम में पं. कार्तिक पांडे इत्यादि। मिदनापुर गढ़बीटा में श्री विनाशचंद्र राय वगैरह।

यदि गौड़ों और सारस्वतों की भी सम्मति लेनी हो तो 'सारस्वत ब्राह्मण इतिहास' नामक ग्रन्थ को देखिए, जिसकी बहुत सी बातें प्रथम ही कह चुके हैं। वह सारस्वत ब्राह्मण पं. दुर्गादत्त ज्योतिषी जी का लिखा हुआ है और उसकी सारस्वत सभा तथा अन्य गणमान्य विद्वानों ने प्रशंसा की हैं, जिनकी सम्मतियाँ उस पुस्तक के अन्त में लिखी हुई है, जिनमें सारस्वत लोगों की

1. हमने आनन्दामृतवर्षिणी पुस्तक पढ़ी थी। उसमें लिखा था कि जैसे अंधों ने हाथी पाया हो और उसे हाथों से टटोला हो तो जो जिस भाग में टटोलेगा , वह समझेगा कि हाथी ठीक वैसा ही है। ठीक वैसी ही बात हमारे भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में चरितार्थ होती है।

2. ब्राह्मणोचित क्रियाकर्म त्यागने का अर्थ मालूम होता है - दान न लेने और पुरोहिती न करने से है। परंतु जानना चाहिए कि ये जीविका के कर्म हैं , उन्हें हम ब्राह्मणोचित कर्म नहीं कह सकते। दूसरे ब्राह्मणों की दशा , जो अच्छी दशा में है , इनकी-सी ही है।

संख्या विशेष हैं। उस ग्रन्थ में पश्‍चिम या भूमिहार ब्राह्मणों के सभी राजों, बाबुओं, जमींदारों और दोनवार, किनवार, सकरवार, जैथरिया एकसरिया प्रभृति सभी छोटे विभागों को सारस्वत ब्राह्मण लिखा है। यह बात उस पुस्तक में आदि से अन्त तक पाई जाती है।

इसके अतिरिक्‍त बुलंदशहर निवासी पं. गंगा सहाय जी ने, जो संभवत: गौड़ ब्राह्मण हैं, अपनी पुस्तक 'ब्राह्मण कुलदीपक' के 224वें पृष्ठ में ऐसा लिखा है कि:

'और यह कौन नहीं जानता कि हिज हाईनेस महाराजा सर प्रभुनारायण सिंह बहादुर, जी.सी.आई.ई काशी नरेश भी ब्राह्मण हैं इत्यादि।'

इसके सिवाय गौड़ ब्राह्मण वंशावतंस व्याख्यान वाचस्पति पं. दीनदयालु शर्मा जी ने सोनपुर के अखिल भारतवर्षीय सनातन धर्म के सभा भवन में गत 1915 ई. के कार्त्तिक मेले के समय 20 या 25 हजार मनुष्यों के सम्मुख जो सिंहनाद किया था, उसे भी सुन लीजिए। उन्होंने आलंकारिक वाक्य उस समय कहे थे, उनका उल्लेख ता. 27-11-1915 ई. के 'पाटलिपुत्र' में इस प्रकार है :

'सभापति (महाराज दरभंगा) की बगल में बाईं ओर महाराज रीवाँ और दाहिने ओर महाराज हथुवा विराजे। इन लोगों के यथा स्थान विराजने पर व्याख्यान वाचस्पति पं. दीनदयालु शर्मा ने खड़े हो कर आनन्द प्रकाश करते हुए कहा :

'महाराज रीवाँ के शुभागमन से आज यहाँ की अपूर्व शोभा हो गई है। जिस प्रकार हरिहर क्षेत्र में नारायणी, जाद्दवी और मही का संगम हैं, इसी प्रकार यहाँ रीवाँ, दरभंगा और हथुवा नरेशों का सम्मेलन हुआ है। कहना चाहिए कि यहाँ महाराज रीवाँ कृष्णभक्‍त होने के कारण विष्णुरूप से हमारे सभापति महोदय (रामेश्‍वर) शिवरूप से और महाराज हथुवा ब्राह्मण होने के कारण ब्रह्मास्वरूप से एकत्र हुए हैं। आज इन त्रिदेवों को सम्मेलन यथार्थ में धर्मसम्मेलन हुआ है।'

उन्होंने स्पष्टरूप से महाराज हथुआ को ब्राह्मण शब्द से संबोधित किया था। इसलिए इससे बढ़ कर स्वीकार किसे कहते हैं जहाँ मेले के सम्मुख पुकार कर कहा जा रहा हैं? इस प्रकार सिद्ध है कि सभी प्रकार के ब्राह्मण इन अयाचक ब्राह्मणों को स्पष्टरूप से स्वीकार करते थे और करते हैं।

यदि क्षत्रियों के स्वीकार की आवश्यकता हो तो क्षत्रिय मूर्द्धन्य विष्णुपरायण रीवाँ नरेश महाराज श्री रघुनाथसिंह, जी.सी.एस.आई. ने अपने हाथों लिखित 'रामस्वयंवर' के 189वें पृष्ठ में जो वेंकटेश्‍वर प्रेस में संवत्! 1955 में छपा हैं, ऐसा लिखा है:

गबने एक समय हम काशी। विश्‍वेश्‍वर के दर्शन आशी॥

तहं को भूपति परमा सुजाना। गौतम वंश सुविप्र प्रधाना॥

रामनगर गंगा तट माहीं। निवसत गौतम भूप तहांहीं॥

काशिराज महराज कहावैं। पुनिद्विजराज प्रतिष्ठा पावैं॥

जासु नाम ईश्‍वरीं प्रसादा। अन्तमाहिं नारायण वादा॥

मिल्यों जाई तिनसों हुलसि, मोहि लिय अंक लगाय।

निज बालक इव जानि कै, दीन्हीं प्रीति बढ़ाय॥

सुनि मम वचन मुदित काशीशा। फेरत पाणिघ्राण करि शीशा॥

कीन्ह्यो मैं प्रणाम वहु बारा। आशिष दीन्ह्यौ भूप उदारा॥

इसके अतिरिक्‍त इन्हीं पूर्वोक्‍त महाराज बहादुर के सुयोग्य पुत्ररत्‍न वर्तमान रीवाँ नरेश श्रीमान वेंकटरमण सिंह जी ने भी महाराजा हथुवा के साथ पूर्वोक्‍त सनातन धर्म सभा मंडप में जनसमूह के सम्मुख ऐसा ही व्यवहार किया, जिसके साक्षी हजारों हैं। यह उनका कर्तव्य उचित भी है, क्योंकि 'आत्मा वै जायते पुत्र:', 'अर्थात पिता की ही आत्मा पुत्र रूप से उत्पन्न होती है,' इस वेदानुशासन के अनुसार महाराज श्री रघुराज सिंह जी की आत्मा ही ठहरे। उनके इस कर्तव्य का भी उल्लेख पूर्वोक्‍त 'पाटलिपुत्र' के अंक में इस प्रकार किया गया है :

'इसी समय महाराज रीवाँ ने सभामंडप के दरवाजे पर दर्शन दिया। जनता ने बड़े प्रेम से महाराज रीवाँ का स्वागत और अभिनन्दन किया। महाराज रीवाँ के सभामंडप में प्रवेश करते ही महाराज दरभंगा और हथुवा ने सभामंडप के बीच अग्रसर हो महाराज की अभ्यर्थना की। ब्राह्मणभक्‍त महाराज रीवाँ ने इन दोनों नरेशों के पैर छू प्रणाम किया। यह दृश्य इस गिरे जमाने में भी ब्राह्मणगौरव का महात्म्य बढ़ानेवाला था।'

इसके अलावा भूतपूर्व खंग विलास प्रेस, बाँकीपुर के अधिष्ठाता बाबू रामदीन सिंह ने 'विहार दर्पण' के 139वें पृष्ठ में ऐसा लिखा है कि :

'बहुत दिनों से यह झगड़ा चला आता था कि बाभन (भुइंहार) कौन वर्ण हैं। महाराज रामकृष्णसिंह (टेकारी के भूतपूर्व महाराजा) ने निश्‍चय करवाया कि बाभन शब्द ब्राह्मण शब्द का अपभ्रंश है।'

उसी ग्रन्थ के 122, 123वें पृष्ठों में भी लिखा है कि :

'महाराज रामकृष्णसिंह देव बहादुर की जन्मभूमि सारन में एक गाँव रूसी है। इनके पिता का नाम बाबू कैलाशपति सिंह था। और ये जाति के एकसरिया बाभन थे। इनके जीवन-चरित्र के पहले यह जान लेना बहुत जरूरी हैं कि ये एकसरिया बाभन क्यों कहलाते हैं। लोग कहते हैं कि पंडितवर जगन्नाथ दीक्षित नामक एक ब्राह्मण कन्नौज से आ कर एकसार गाँव में बसे (यह गाँव छपरा के इलाके में हैं) इसीलिए इस देशवाले एकसरिया ब्राह्मण और दीक्षित कहलाने लगे। उसी का अपभ्रंश अब एकसरिया बाभन हो गया है। यथार्थ में ये लोग कन्नौजिया ब्राह्मण हैं।'

उसी ग्रन्थ के 125-126वें पृष्ठों में इस प्रकार लिखा मिलेगा :

'और अब बाबू कैलाशपति सिंह का ब्याह भी इनके पिता ने कस्बे शिवहर (तिरहुत में हैं) राजा यदुनन्दन सिंह के भाई बाबू राधामोहन सिंह (यह जाति के जैथरिया बाभन थे) की लड़की से बड़ी धूमधाम से किया।'

इनके अतिरिक्‍त ब्राह्मणादि वर्णों की ही कुछ स्फुट सम्मतियाँ दिखला देते हैं : पं. विष्णुकांत झा बी.ए. संपादक 'मिथिला मिहिर' ने संवत् 1967 आषाढ़ के 2 मंडल 6 प्रकाश में लिखा है कि 'अभी थोड़े दिन हुए कि टेकारी के ब्राह्मण महाराज ने एक मेम से विवाह किया है,' महाराज गोपालशरण सिंह जी की बात हैं।

स्वर्गीय डॉ. राजा राजेंद्रलाल मित्र ने अपने बंगला मासिक पत्र 'विविधार्थ संग्रह' के पर्व 4, खण्ड 40, पृष्ठ 73 (शकाब्द 1979 श्रावण मास) में लिखा है कि 'कान्यकुब्ज ब्राह्मण दीगेर पाँच ठो दल आछे, यथ सरवरिया, सनौढ़ा (सनाढ्‍य) जिझौतिया, भूमिहार एवं प्रकृत कन्नौजिया।'

बाबू गोपाल जी वर्मन ने अपनी पुस्तक 'जीव इतिहास प्रसंग' के तृतीय खण्ड के 52वें पृष्ठ में लिखा है कि 'भूमिहार बाभन लोग निस्संदेह ब्राह्मण हैं।'

स्वर्गीय महामहोपाध्याय पं. सुधाकर द्विवेदी, काशी सदा भूमिहार ब्राह्मणों को ब्राह्मण कहा करते थे। आप ने गत 30 अगस्त, सन 1910 ई. को बनारस के टाउनहाल में जो व्याख्यान दिया था उसमें आपने महाराज काशीराज को 'हमारे पूजनीय काशीनरेश' कह कर सम्बोधन किया था, जैसा कि 'नवजीवन' समाचार-पत्र भाग 2, अंक 20 के देखने से विदित हो सकता है।

काशी के प्राय: सभी विद्वान चिरकाल से महाराज काशीराज को 'द्विजराज' और 'शर्मा' कह कर सम्बोधन करते और लिखते हैं, जैसा कि स्वर्गीय महामहोपाध्याय पं. बापूदेवशास्त्री सी. आई. ई. का पंचांग और काशी धर्म सभा का पंचांग देखने से स्पष्ट हो जावेगा। इस पंचांग को पं. बलदेवदत्त जी ज्योतिषी के पुत्र पं. गणेशदत्त जी ज्योतिषी रचते हैं, जिस पर काशी के सुप्रसिद्ध प्राय: 40-50 विद्वानों के हस्ताक्षर रहते हैं।

नदिया पंडित सभा के सभापति 'कमेंटरीज और हिंदू ला' (Commentaries on Hindi law) और 'व्यवस्थाकल्पद्रुम' आदि ग्रन्थों के रचयिता पं. योगेंद्रनाथ भट्टाचार्य एम.ए.डी.एल. ने अपनी पुस्तक 'हिंदू कास्ट्स एंड सेक्ट्स' (Hindu Castes and Sects) के प्रथमाध्याय में बिहार और बनारस प्रांत के भूमिहार ब्राह्मणों के सम्बन्ध में यों लिखा है :

"The clue to the exact status of the Bhumihar Brahmans is afforded by their very name. The word litterrally means a landholder. In the language of the Indian feudal spstems, Bhoom is the name given to a kind of tenure similar to the Inams and Jaggirs of Mohamedan times. By a Bhoom according to the Rajputana gazatteer an herditary, non-resumable and inalienble property in soil was inseparably bound up with a revenue-free title. Bhoom was given as compensation for bloodshed in order to quell a feud, for distinguished services in the field, for protection of a boarder or for the watch and ward of a village.

The meaning of the desiganation Bhumihar being as stated above, the Bhumihar Brahmans are evidently these Brahmans who held grants of land for secular service. Whoever held a secular fief was Bhumihar. Where a Brahman held such a tenure he was called a Bhumihar Brahman. Where the holder was a Kshatriya he was called Bhumihar Kshatria. Bhumihar Brahmans are sometimes called simply Bhumihars, just as the masons, whose class name in Bengalee is Raj mistri (Royal architect) are generally called Raj.

The Bhumihars observe all their religious ceremonies in the same manner as the good Brahmans, but as they practice secular occupations they like the Laukik Brahmans of Sothern India, are not entitled to accept religious gift or to minister to any one as priests. The usual surnames of the Bhumihar Brahmans are the same as those of other Brahmans of Northern India. Being fighting castes a few of them Rajput surnames.

इसका मर्मानुवाद यह है कि 'भूमिहार ब्राह्मणों की असल स्थिति उनके नाम नाम से ही झलक जाती है, क्योंकि इसका अर्थ जमीन रखने या स्वीकार करनेवाला, अथवा जमींदार हैं। भारतवर्षीय 'जागीर प्रदान की रीति' की भाषा में 'भूमि' एक प्रकार के अधिकार का नाम है, जैसा कि मुसलमानी समय का 'इनाम' या 'जागीर'। राजपूताना 'गजेटियर' के अनुसार 'भूमि' उस पृथ्वी संबंधी अधिकार का नाम होता था जो एक वंश परम्परा के लिए छीनी और बेची न जा सके और सर्वथा कर (मालगुजारी) रहित हो। किसी के यहाँ मार-काट होने पर बतौर खेसारा या तावान के कहीं विद्रोह के दमन के लिए, लड़ाई के मैदान में कोई महान कार्य करने के उपलक्ष्य में, सीमा प्रांत की रक्षा के लिए, अथवा किसी गाँव की पहरा, चौकी या रक्षा के लिए 'भूमि' दी जाती थी।

'जैसा कि ऊपर 'भूमिहार' शब्द का अर्थ कर चुके हैं, उसके अनुसार भूमिहार ब्राह्मण वे ब्राह्मण हैं जिन्होंने पूर्वोक्‍त सांसारिक कामों के करने के बदले पूर्वोक्‍त भूमि संबंधी अधिकार प्राप्त किए थे। जिस किसी को उक्‍त लौकिक कार्यों के करने के बदले उक्‍त अधिकार मिलता था, वह 'भूमिहार' कहलाता था। इसलिए जब वह भूमि संबंधी अधिकार किसी ब्राह्मण को मिलता था, तो वह भूमिहार ब्राह्मण कहलाता था। और जब किसी क्षत्रिय को अधिकार मिलता था तो वह भूमिहार क्षत्रिय कहलाता था। भूमिहार ब्राह्मण कभी-कभी केवल भूमिहार कहे जाते हैं जैसे कि बंगाल में जिनका नाम राजमिस्त्री हैं, वे केवल 'राज' बोले जाते हैं। भूमिहार ब्राह्मण अपने कुलधर्म, आचार-व्यवहार उसी प्रकार संपादन करते हैं जैसे कि उत्तम ब्राह्मण लोग करते हैं। ये लोग चूँकि सांसारिक व्यवसाय करते हैं, अतएव ये लोग दाक्षिणात्य लौकिक ब्राह्मणों की तरह दानग्रहण और पुरोहिती नहीं करते।'

'भूमिहार ब्राह्मणों की उपाधियाँ साधारणत: वे ही हैं जो उत्तरीय भारत के अन्य ब्राह्मणों की है। केवल युद्धप्रिय होने के कारण इनमें किसी-किसी की उपाधियाँ क्षत्रिय लोगों की उपाधियों के सदृश भी है।'

बहुत ही युक्‍तियुक्‍त विचार किया गया है। इसका आभास (तात्पर्य) हम 'भूमिहार' शब्द का अर्थ करते हुए प्रथम ही दे चुके हैं और इन्हीं महाशय की सम्मति दिखलाने के लिए प्रथम ही कह भी चुके हैं। भट्टाचार्य महोदय के इस युक्‍तियुक्‍त लेख के विचार ने उस संशय का भी उच्छेद कर दिया, जो केवल अज्ञानमूलक कहीं-कहीं 'भूमिहार' नामवाले क्षत्रियों को देख या सुन कर इन अयाचक दलीय ब्राह्मणों के विषय में हुआ करता है। इस शंका का विशेष रूप से खण्डन द्वितीय प्रकरण में भी किया जावेगा।

ता. 11 दिसंबर, सन 1910 ई. के 'वीर भारत' पत्र में ऐसा लिखा गया है: 'काशी नरेश इस समय कलकत्ते में हैं। आपको लार्ड मिण्टो सामंत राजा का अधिकार दे गए हैं। महाराज की जाति हैं ब्राह्मण। आप बनारस के हिंदुओं के शिरोमणि कहे जाते हैं। इसी से कहना पड़ता है कि सरकार ने महाराज को सम्मानित कर सनातन धर्मावलंबी मात्र को सम्मानित किया है। महाराज को कलकत्ते की कई सभाओं ने बड़ी धूमधाम से अभिनन्दन पत्र दिया है।

यथा :

स्वस्ति, विविधविरुदावलीविराजमान मानोन्नत महाराज श्री काशिराज प्रभुनारायण सिंह शर्मा, जी.सी.आई.ई. महोदय महोदारचरितेषु इत्यादि।

काशी नरेश को 'ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन' ने उस दिन जो यह एड्रेस दिया था, उसके उन श्‍लोकों को हम नीचे छापते हैं, जो उनके सम्मानार्थ पढ़े गए थे :

कारुण्याद्‍भवतेश्‍वरप्रतिकृतेर्यद्‍भारताधीशितु:,

स्वाम्यं लब्धाखण्डिताक्षमधुना श्रीकाशिकामण्डन

स्वे राज्ये द्विजराज! तेन मुदितैर्वीयविद्वदि्द्वजै:,

दत्तां प्रीतिमयं गृहाण कृपया सद्‍भावपुष्पांजलिम्॥ 1॥

सार्द्धं कुमारसचिवादिभिराप्तवर्गैंदीर्घायुराधिरहितोयशसा

प्रदीप्त:। वाराणसीक्षितिपते विजयस्व शश्‍वत्प्रोल्लासयन्न-

खिलभारतमुज्वली:॥ 2॥ राजकीय संस्कृतविद्यालयध्य-

क्षस्य संस्कृतपरीक्षासमितिसंपादकस्य वंगीयाध्यापकवर्गं-

प्रतिनिधिभूतस्य श्रीकालीप्रसन्नदेवर्शर्मण:॥

'मर्यादा' भाग 1, संख्या 2, पृष्ठ 23 में लिखा गया है कि 'यों तो ब्राह्मणों में कई विभाग हैं, तो भी दो प्रसिद्ध विभाग हैं, एक दान लेने और पुरोहिती करनेवाले और दूसरे इन कर्मों से पृथक रहनेवाले। इनमें से कोई किसी को ऊँचा-नीचा नहीं कह सकता।'

'बालहितैषी' नामक मासिक पत्र के संपादक श्री विनोदविहारी सेन राय एम.ए. ने फरवरी 1911 ई. के अंक के 24वें पृष्ठ में यों लिखा है :- 'अट्ठारहवीं शताब्दी के आदि में राजा मनसाराम मिश्र ने मुगल बादशाहों की अवनति होने पर बनारस के निकटवर्ती गाँवों और नगरों को अपने अधिकार में ला कर अपने राज्य को प्रबल किया था। उनके दादा गौतम ब्राह्मण, जिनकी पदवी मिश्र थी, पुरोहित का काम छोड़ कर जमींदार हो गए थे।' स्मरण रखना चाहिए कि यही राजा मनसाराम काशिराज के पूर्वज थे, जिनके विषय में उक्‍त सम्मति दी गई है।

बाबू साधुचरण प्रसाद कृत 'भारतभ्रमण' के दूसरे अध्याय के पृष्ठ 10 में ऐसा लिखा है :-हथुआ-सिवान से 8 मील उत्तर हथुआ ग्राम के एक राजा हैं। राजवंश भूमिहार ब्राह्मण हैं।

तीसरा खण्ड, पृष्ठ 56 - 'टिकारी के राजा भूमिहार ब्राह्मण हैं।'

सन 1910 के बुधवार की संध्या के 'इंपायर' पत्र मास दिसंबर की संख्या 16 में लिखा है कि "The Hitbadi observes that Pandit K.P. Bhattachary, the Principal of the Sanskrit College, will retire on the 30th current, and will succeeded by Mr. S.G. Udayabhushan. The sam, paper, while expressing joy at the elevation of Benares to semi-independent state, points out that, while other Indian chief are either Rajputs or Kshatriyas etc the Maharaja of Berares is the only Brahmans Prince."

इसका अर्थ यह है कि 'हितवादी' पत्र ने लिखा है कि पं. काली प्रसन्न भट्टाचार्य, जो संस्कृत कॉलेज के प्रिंसिपल हैं अब 30 तारीख को पेंशन पावेंगे और उनकी जगह मिस्टर एस.सी. उदयभूषण नियत होंगे। वही पत्र बनारस राज्य के अर्द्धस्वतन्त्र राज्य होने पर खुशी मनाता हुआ लिखता हैं कि जब कि भातर के अन्य सभी स्वतन्त्र राजे राजपूत, क्षत्रिय इत्यादि हैं, केवल महाराजा बनारस ही ब्राह्मण हैं।'

मीमांसकप्रवर महामहोपाध्याय श्री चित्रधर मिश्र जी ने मुंगेर में होनेवाली गत भूमिहार ब्राह्मण महासभा के विषय में वहाँ ये श्‍लोक कहे थे :

एषा मुद्गगिरौ नृपैर्बहुबिधैरांत्य संशोभिता,

सद्धर्मादिविशोधिनी निजसभा देन्द्रसंराजिता।

मन्ये देवसभाद्य भूमिममलां कर्तुं स्वतो वातरत्,

किन्त्वस्या यदि भूमिहारघटिता नस्यात्समाख्या तदा॥ 1॥

विप्रा: सर्वविधा: समेत्य सकलं स्वं स्वं चरित्रां सदा,

एतस्या नियमेन सम्मततरं संशोध्यकुर्युर्मुदा।

एवं चेदखिलस्य भारतदलस्यैषा महाव्यापिका,

कुर्यादिष्टफलानि हानिरियता नैवास्ति काचित्पुन:॥ 2॥

इसका अनुवाद यह है कि 'मुंगेर नगर में एकत्रित हुए बहुत से राजा बाबुओं से शोभित और सद्धर्मों का शोधन करनेवाली भूमिहार ब्राह्मण सभा ऐसी प्रतीत होती है कि गोया इंद्र से शोभित देवसभा ही स्वर्ग से यहाँ पर आज इस भूमि को पवित्र करने के लिए स्वयं आ गई है। परंतु यदि इस महासभा के नाम में भूमिधार शब्द न रहता, अर्थात भूमिहार ब्राह्मण महासभा की जगह केवल 'ब्राह्मण महासभा' इसका नाम होता, तो सभी प्रकार के ब्राह्मण इस महासभा में प्रसन्नतापूर्वक उपस्थित हो इसके सुंदर नियमों के अनुसार अपने-अपने चरित्रों का संशोधन कर के उन्हें अच्छी तरह संपन्न करते। ऐसा करने से यह सभा महाव्यापक हो कर भारतवर्ष के ब्राह्मण दल मात्र की अभिलषित वस्तुओं की साधिका हो जाती और मेरी समझ में ऐसा करने से आप लोगों की कोई हानि भी नहीं है।'

पाठक ही विचारें कि अब इससे बढ़ कर और कौन सी सम्मति वा स्वीकार भूमिहार ब्राह्मणों की ब्राह्मणता के विषय में हो सकता है, जिसका न होना पूर्वोक्‍त मनुष्यगणना के विवरण के लेखक अंग्रेज महोदय जी ने बतलाया हैं। सुरसर के पास नेपाल राज्य के पिपरा सूबा के पं. गोपाल मिश्र या उनके वंशज, जो गर्गगोत्री वसमैत मूल के भूमिहार ब्राह्मण हैं, नेपाल राजदरबार में ब्राह्मणवत ही माने जाते थे और हैं।

सब लोगों को इतने से ही विदित हो गया कि भारतवर्ष की सभी उच्च और प्रतिष्ठित जातियाँ इन भूमिहार ब्राह्मणों को स्पष्ट रूप से ब्राह्मण स्वीकार करती है, क्योंकि उनके नेता लोगों ने, सभाओं ने स्पष्टरूप से कह दिया है। इसलिए सन 1911 ई. की बिहार की मनुष्यगणना के सुपरिन्टेंडेंट की यह बात, कि भूमिहार ब्राह्मणों को इतर हिंदू केवल ब्राह्मण नहीं मानते किंतु भूमिहार ब्राह्मण, नितान्त भ्रममूलक होने के कारण मिथ्या है।

दूसरा कारण जो उन्होंने भूमिहार ब्राह्मणों के इतर ब्राह्मणों से पृथक लिखने में दिखलाया है कि 'ये लोग सभी ब्राह्मणों में मिल जावेंगे जिससे इनका पता न चल सकेगा।' वह यद्यपि सत्य है, तथापि उतने मात्र के लिए ये लोग अन्य ब्राह्मणों से पृथक लिखे नहीं जा सकते, क्योंकि गौड़, कान्यकुब्ज, सर्यूपारी और सारस्वत प्रभृति जैसे एक ही साथ लिखे जाते हैं वैसे ही ये भी क्यों न लिखे जावे? यदि उन सबों की संख्या के लोप हो जाने का डर या विचार साहब बहादुर को नहीं है, तो फिर केवल भूमिहार ब्राह्मणों पर ही इतने अनुग्रह की कौन सी आवश्यकता ठहरी? और यदि संख्या का पता लगाना चाहेंगे तो जैसे मैथिल महासभा या अन्य ब्राह्मण दलवाली महासभाएँ डायरियाँ बना कर अपने समाज की संख्या का यथावत पता लगाती है, वैसे ही इन भूमिहार ब्राह्मणों की महासभा भी अपने समाज की डायरी तैयार करा सकती हैं। इससे यह भी लाभ हो सकता है कि उसके तैयार करने में समाज भर का पता चल जावेगा और यह विदित हो जावेगा कि किसी जगह किस बात की आवश्यकता, त्रुटि अथवा बुराई है, जिसके लिए महासभा यत्‍न कर के, उसकी पूर्ति का निवारण कर सकती है। यदि न भी संख्या का पता लगे ओैर सभी ब्राह्मण एक में मिल जावे, तो इसके लिए उन्हें चिंता करने की क्या आवश्यकता है? जिसके मकान में आग लगेगी वह स्वयं उसे बुझा लेगा। जो अपने समाज की उन्नति करना चाहेगा वह उसके लिए यत्‍न कर लेगा आपको तो यदि अनुग्रह करना है, तो गौड़, कान्यकुब्ज प्रभृति सभी ब्राह्मण दलों पर करिए, न कि किसी विशेष पर। और साहब बहादुर का यह कहना कि 'इनके एक पृथक समाज होने का सभी विवरण लुप्त हो जावेगा' भी ठीक नहीं है। क्योंकि प्रथम तो पृथक दल होने में प्रमाण ही नहीं हैं। क्योंकि सभी ब्राह्मणों के साथ विवाह सम्बन्ध तथा खान-पानादि दिखला चुके हैं। यदि मान भी ले, तो केवल भूमिहार ब्राह्मण ही क्यों पृथक दलवाले हैं? क्या गौड़ों और कान्यकुब्जों के आचार, व्यवहार अथवा इतिहास वगैरह परस्पर मिलते हैं? बल्कि ये (भूमिहार ब्राह्मण) तो सभी से मिलते हैं। परंतु न तो मैथिल कान्यकुब्जों या सर्यूपारियों से मिलते और न सर्यूपारी या कान्यकुब्ज ही परस्पर मिलते हैं। इसलिए यदि पृथक दल कहा जावे, तो प्रथम उन्हीं लोगों को कहा जा सकता है, पश्‍चात् इन भूमिहार ब्राह्मणों को किसी प्रकार से कह सकते हैं। इसलिए इनके पृथक लिखे जाने की कोई आवश्यकता नहीं है, जब तक कि कान्यकुब्ज वगैरह भी अलग-अलग न लिख जावें।

यदि आपको इनके ऊपर विशेष अनुग्रह करना है, तो 'ब्राह्मण' शीर्षक (heading) वाला एक खाना बना कर उसके (अ) और (ब) दो विभाग कर के एक 'भूमिहार ब्राह्मण' और दूसरे में 'अन्य ब्राह्मण' ऐसा लिख सकते हैं। जैसे:-

ब्राह्मण

भू. ब्रा. अन्य ब्रा.

ऐसा ही त्यागियों और महियालों आदि के विषय में भी कर सकते हैं। ऐसा करने से इनकी संख्या का भी पता लग सकता है और बात भी ठीक हो सकती हैं। बल्कि युक्‍त प्रांत (U.P.) की सरकार तो कुछ विचार न कर के भूमिहार ब्राह्मणों और अन्य ब्राह्मणों को केवल 'ब्राह्मण' लिखा करती है। जैसा कि डाइरेक्टर का सर्क्यूलर स्कूलों और कॉलेजों में जारी है, जिसके विषय में भूमिहार ब्राह्मण सभा काशी के सेक्रेटरी के पास नीचे लिखा हुआ डाइरेक्टर का पत्र आया है। वह इस प्रकार है:

G 15320

No --- -1911-12

X-25

From,

The Hon'ble Mr. C. F. De La Fosse M.A.

Director of Public Instruction

United Provinces.

To

The Secretary,

Bhumihar Brahman Sabha. Benares.

Dated Allahabad. 8th Feb., 1912.

With reference to his letter dated the 7th September, 1912, has the honour to inform him that the Inspectors of schools have been requested to show Bhumihars as Brahmans in the Annual Statistical Returns.

S/d P.S.Barell M.A.

Assistant Director of P.I.

For C.F. De La Fosse M.A.

Director of P.I., U.P.

इस पत्र का भावानुवाद इस प्रकार हैं:-

जी 15320

नंबर... 1911-1912

एक्स-25

आनरेब्ल मिस्टर सी.एफ. डेलाफोस एम.ए. डाइरेक्टर, शिक्षा विभाग, संयुक्‍त प्रांत के पास से।

सेक्रेटरी, भूमिहार ब्राह्मण सभा बनारस, के पास।

इलाहाबाद, ता. 8वीं फरवरी 1912 ई.।

आपके ता. 7 सितंबर सन 1911 ई. के पत्र के उत्तर में यह निवेदन है कि स्कूलों के इन्स्पेक्टरों को कह दिया गया है कि सरकारी कागजों में भूमिहारों को ब्राह्मण लिखा करें।

द. पी. एस. बरल एम. ए.

शिक्षा विभाग के असिस्टेंट डाइरेक्टर।

सी. एफ. डेलाफोस एम.ए.,

डाइरेक्टर, शिक्षा विभाग, युक्‍त प्रांत के स्थानापन्न।

इसलिए बिहार प्रांत या अन्यत्र की सरकार को भी यही उचित है कि युक्‍त प्रांत की सरकार की तरह या तो अन्य ब्राह्मणों की तरह केवल ब्राह्मण ही लिखा करे अथवा यदि विशेष अनुग्रह या पृथक लिखने का ही आग्रह हो तो उस प्रकार से ही लिखे जैसा कि हम अभी बतला चुके हैं। इससे अन्यथा लिखना उचित नहीं है, जैसा कि सिद्ध कर चुके हैं।

8. आईन अकबरी और उपसंहार

यद्यपि जो बातें इन पश्‍चिम आदि ब्राह्मणों के विषय में लिखी गई है वे सार्वजनिक और स्पष्ट है, इसलिए इन सबों के रहते हुए इस समाज के विषय में किसी प्रकार की शंका करना या मिथ्या दोषारोपण करते हुए असभ्यतापूर्ण शब्दों का प्रयोग करना बुद्धिमान, सभ्य और प्रतिष्ठित के लिए उचित न था और न है ही। तथापि मध्य में उल्लूपक्षी को अंधकारमय ही जगत प्रतीत होता है, अथवा श्रावण मास में किसी प्रकार से नेत्रहीन हो जानेवाले को बारह महीने हरियाली ही सूझती है, प्रकृति के इस अटल नियम को कौन हटा सकता है? अथवा यों कह सकते हैं कि दुष्टों की प्रकृति भी विचित्र ही हुआ करती है। इसलिए उनके निकट अच्छी बात भी बुरी ही लगती और उसे उलटी ही समझते हैं, क्योंकि उनके लिए कोई औषधि नहीं है। जैसा कि किसी कवि ने सत्य ही कहा है :

सब की औषधि जगत में, खल की औषधि नाहिं।

चूर होंहि सब औषधी, परिके खलके माहिं॥

इसीलिए ऐसे महात्माओं के लिए ये सब जले तवे पर पानी की तरह उलटा दोष ही सूझने के साधन हो जाती है। क्योंकि :

गुणायन्ते दोषा: सुजनबदने दुर्जनमुखे,

गुणा दोषायन्ते न खलु तदिदं विस्मयपदम्।

यथा जीमृतो यं लवणजलधेर्वारि मधुरम्,

फणी पीत्वा क्षीरं वमति नगरं दु:सहतरम्॥

अर्थात 'यदि सज्जन पुरुषों के पास या उनकी दृष्टि में दोष भी गुण की तरह और इसके विपरीत दुर्जनों के लिए गुण भी दोष की तरह प्रतीत होते हैं, तो इसमें आश्‍चर्य ही क्या हैं? क्योंकि मेघ समुद्र के खारे जल को भी पी कर मीठा ही जल बरसाया करता है और साँप दूध को पी कर विष ही उगलता है।'

इसलिए ऐसी दशा में ऐसे महात्मा लोग इस समाज या अन्य के विषय में जो कुछ भी 'मुखमस्तीति वक्‍तव्यं दशहस्ता हरीतिकी', अर्थात 'यदि परमात्मा ने मुख दिया है तो क्यों न कह देंगे कि दस हाथ की हड़र (हरीतकी) हुआ करती है?' इस न्यायानुसार अपने बेलगाम और पवित्र मुँह तथा लेखनी से कह या लिख कर अपनी सज्जनता का परिचय न दे उसी में आश्‍चर्य है।

ऐसे ही सज्जनों में 'क्षत्रिय और कृत्रिम क्षत्रिय' नामक अंग्रेजी ग्रन्थ के रचयिता बाबू कुँवर छेदासिंह जी बी.ए. बैरिस्टर-ऐट-ला (Barrister-at-law) और उसके हिंदी अनुवादक, कुँवर रूपसिंह जी है। वह ग्रन्थ राजपूत प्रेस, आगरा में छपा है। हम नहीं कह सकते कि शिक्षितता, सुधारकता और सभ्यता का दम भरनेवाले नवशिक्षादीक्षित दल के अन्त:पाती उक्‍त बैरिस्टर महोदय जी की ही पवित्र लेखनी से क्यों ऐसे 'वाग्वज्र' निकल गए, जो अकारण दूसरों के मर्मवेधी है?

अथवा उनका शरीर न रह गया, इसलिए पीछे से उनके ही नाम को बदनाम करने के लिए टट्टी की ओट से उनके किसी मिथ्याचारी, अकारण परद्रोही और स्वार्थान्धा पूज्य अथवा प्रिय भाई ने शिकार खेल कर अपने हृदय की कान निकाली है, क्योंकि यदि चोरी गई तो कम से कम तुम्बाफेरि तो नहीं छूटा करती है।

अथवा अनुवादक महोदय की ही असीम कृपा हो सकती है। क्योंकि उक्‍त अंग्रेजी ग्रन्थ हमें न मिल सका, केवल भाषानुवाद ही हमारे सन्मुख है। परंतु शिक्षितों की लेखनी से ऐसे शब्दों की संभावना करने में जरा चित्त हिचकता है।

अस्तु, जो कुछ भी हो, उस ग्रन्थ की बात को देखिए। उसके 63वें पृष्ठ में खत्रियों के बनावटी या कृत्रिम क्षत्रिय सिद्ध करने के प्रसंग से आपके भूतपूर्व खत्री अबुलफजल रचित 'आईन अकबरी' नामक ग्रन्थ का विचार किया है। क्योंकि उसमें कहीं-कहीं खत्रियों को क्षत्रिय लिखा है। इसलिए आपने प्रथम से ही यह चिल्लाना शुरू कर दिया कि जाति के विषय में 'आईन अकबरी' प्रमाण नहीं मानी जा सकती। जब आपको अपनी इस निर्मूल उक्‍ति में दूसरा कुछ अवलम्ब न मिला, तो सर विलियम जोन्स की सम्मत्ति इस विषय में दे डाली। क्योंकि जहाज के कौवे को सिवाय उसके मस्तूल के दूसरी शरण ही क्या मिल सकती है? आप ही के लेखानुसार भूतपूर्व खत्री या हिंदू अबुलफजल की बात तो प्रमाण न मानी जावे, परंतु एक वैदेशिक अंग्रेज की बात उसी विषय में मान ली जावे! यह बुद्धिमत्ता नहीं तो और क्या है?

अस्तु, यह कह कर अन्त में अपनी पूर्व उक्‍ति का उपसंहार करते हुए आपने लिख मारा कि 'इसलिए आईन अकबरी पुस्तक से हिंदू जाति के विषय में विशेष हाल नहीं मालूम हो सकता है। अर्थात इस पुस्तक से भूमिहार और तेली या कहार और डोम में अन्तर नहीं प्रतीत हो सकता है।' पाठक! यदि इसे ही 'अकांड तांडव' अथवा 'हँसुए के ब्याह में खुरपे की गीत गाना' नहीं कहते तो और किसे कहते हैं? यदि खत्रियों के साथ आपका विवाद और उसी का प्रकरण था, तो उपसंहार में यदि तान तोड़ना था तो उन्हीं पर तोड़ते। भूमिहारों के ऊपर तान तोड़ने का वहाँ कौन प्रसंग था, जिससे अपनी आंतरिक दरुज्जनता दिखलाए बिना न रहा गया?

यदि हम भी 'शठे शाठयं कुर्यात' इस न्यायानुसार उलट कर यह कहने लग जावे कि तमाम इतिहास, पुराण और धर्मशास्त्र प्रभृति से भी क्षत्रियों, वर्णसंकरों, जाटों, सीदियनों, अहीरों और कुर्मियों का भेद ब्रह्मा भी सिद्ध नहीं कर सकते, तो हमारी समझ में पूर्वोक्‍त दुष्ट विचारवाले और प्रकृतिदुष्टों की नानी मर जावे, सारी आई बाई ही हज्म हो जावे, हाहाकार मच जावे और जीतों के कौन कहे मरे हुओं तक के कलेजे फट जावे। परंतु हम ऐसी दुष्टता करना नहीं चाहते। हम नहीं चाहते कि ऐसा काम करें कि प्रत्येक समाज में अन्योन्य संघर्षण हो कर उसी कलहानल से वे शुष्ककाष्ठवत दग्ध हो जावे। हम तो क्षत्रियों को भी परम प्रिय और अपना श्रेष्ठ अंग समझते हैं। और 'उदार चरितानां तु वसुधौव कुटुंबकम्' ही हमारा उद्देश्य है। इसलिए अकारण और व्यर्थ ये सब बातें लिख कर उनका दिल दुखाना नहीं चाहते। ये सब बातें आप जैसे बैरिस्टरों और सत्पुरुषों को ही मुबारक हों। इसलिए यद्यपि :

इह कुमतिरत्तवे तत्ववादी वराक:,

प्रलपति यदकाण्डे खण्डनाभासमुच्चै:।

प्रति वचनममुष्यै तस्य को वक्तु विद्वान,

नहि रुतमनुरौति ग्रामसिंहस्य सिंह:॥

अर्थात 'जो दुर्बुद्धि, मिथ्या का सत्य मानने या कहनेवाला और नीच प्रकृति पुरुष यदि बिना प्रसंग के ही सत्य बातों का भी बड़े जोर से झूठमूठ ही खण्डन करता है, तो उसकी उन बातों का उत्तर देने की इच्छा कौन विद्वान कर सकता है? क्योंकि क्या कुत्तों के भूकने पर कहीं सिंह भी उसके बदले में बोलता या भूकता है।' इस न्यायानुसार कुँवर साहब की उस दुरुक्‍ति का उत्तर देना उचित नहीं है। तथापि ऐसा करने से लोग उन्हें बैरिस्टर समझ कहीं भ्रम में पड़ कर उनकी ही उन निस्सार बातों को सत्य न मानने लग जावें, इसलिए उनकी बातों का तत्व दिखलाते हुए प्रसंगवश यह दिखला देते हैं कि सर्वमान्य प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थ 'आईन अकबरी' भी इन अयाचक दल के ब्राह्मणों को केवल ब्राह्मण कह कर अधिक कुछ नहीं कहती।

कुछ कहने से प्रथम इस बात का विचार कर लेना आवश्यक है कि आया, जैसा कुँवर जी ने लिखा है कि जाति के विषय में वह प्रमाण नहीं मानी जा सकती वही ठीक हैं, अथवा इस अंश में भी उसे प्रमाण मान सकते हैं। हम तो जहाँ तक देखते हैं इस विषय में उसके न माने जाने में कोई युक्‍ति या प्रमाण नहीं। आपने और तो कुछ युक्‍ति या प्रमाण दिए नहीं, केवल सर विलियम जोन्स के वचन लिख दिए हैं। परंतु उनसे हो ही क्या सकता है! क्योंकि यदि अबुलफजल को हिंदू समाज का विशेष ज्ञान न था, क्योंकि वह हिंदुस्तान का ही रहनेवाला प्रथम का हिंदू या खत्री था, जैसा कि आपने स्वयं लिखा है, तो सर विलियम जोन्स तो वैदेशिक थे। उनके कथन को आपने इस विषय में व्यास, वसिष्ठ का वचन कैसे मान लिया? उस पुस्तक-भर में केवल अंग्रेजी और कहीं-कहीं फारसी ग्रन्थों के ही प्रमाण भरे हैं और फिर ऐसा लिखा जाता है कि 'आईन अकबरी' नहीं मानी जा सकती। क्या उन अंग्रेजी और फारसी लेखकों की अपेक्षा भी आईन अकबरी का लेखक अप्रतिष्ठित था? धान्य हैं ऐसे कहनेवाले को। चूँकि खत्रियों के साथ आपका विवाद है, उन्हीं के ऊपर आपका आक्रमण है, उसके लेखक को आप खत्री बतलाते हैं और आईन अकबरी के मानने से खत्री भी शायद क्षत्रिय सिद्ध हो जावें। इसलिए आपने अच्छा सोचा कि जड़ ही उड़ा दे, जिससे 'रहे बाँस न बाजे बाँसुरी' की बात हो जावे। परंतु स्मरण रखिए। शायद उस मियाँ जी का-सा हाल न हो जावे जिन्होंने अपनी नाक पर बैठने वाली मक्खी से दिक हो कर उसके बैठने का अड्डा ही उड़ा दिया।

एक बात और भी विचारने योग्य है कि 'सर विलियम जोन्स' ने भी तो यही लिखा है कि फारसी ग्रन्थों में हिंदू जातियों का विवरण या हाल नहीं जाना जा सकता। क्योंकि उन्होंने ऐसा लिखा है कि 'जो मनुष्य फारसी की किताबों से हिंदू जातियों का विवरण जानता है, वह वास्तव में हिंदुओं को नहीं जान सकता है।' आईन अकबरी से हिंदू जाति के विषय में विशेष हाल नहीं मालूम हो सकता है। परंतु एकदम ही वह प्रमाण न मानी जावे, यह तो न सिद्ध ही हुआ और न आप इसे मान ही सकते हैं। यदि उस पुस्तक में राज्य की सभी बातों का विवरण विस्तारश: है और हिंदू जातियों का विवरण संक्षिप्त हैं, तो इससे जातियों का विशेष ज्ञान नहीं हो सकता, न कि इसके लिए वह ग्रन्थ ही न माना जावे। ग्रन्थकर्ता या उसके बनवानेवाले ने जिसे अपनी समझ में जैसा उपयोगी समझा वैसा लिखा या लिखवा दिया। इससे वह खराब नहीं समझी जा सकती, जब तक उसकी कही बातें किसी प्रकार मिथ्या न सिद्ध हो जावे। यह बात उसी ग्रन्थ के लिए नहीं हैं, किंतु ग्रन्थ मात्र के ही लिए है कि जो कुछ उसमें लिखा हो वह सच्चा हो तो माना जा सकता है, अन्यथा नहीं। इसलिए यदि 'आईन अकबरी' के मानने से आपका अभिष्ट सिद्ध न हो, तो इससे वह अप्रमाण नहीं हो सकती। क्योंकि यदि किसी का प्रयोजन किसी प्रमाण के मानने से नहीं हो सकता, तो इसके लिए वह प्रमाण क्यों न होगा? क्योंकि 'प्रयोजनमपेक्षन्ते न मानानीतिहि स्थित:' प्रमाण किसी के प्रयोजन को नहीं देखते, किंतु सच्ची बात बतला देते हैं।' इसलिए अवश्य ही 'आईन अकबरी' सर्वमान्य होने के कारण हिंदू जातियों के विषय में भी जितना उसमें लिखा है उसके लिए प्रमाण है।

अब हम प्रथम 'आईन अकबरी' का लेख भूमिहारादि ब्राह्मणों के विषय में दिखलाते हैं, जिसे हमने उसके अंग्रेजी अनुवाद के दो ग्रन्थों में एक-सा ही पाया है। उन अनुवादकों को नाम 'ग्लैडविन (Gladwin) और जैरेट (Jarret) है। प्रथम ग्रन्थ 1783 ई. और दूसरा 1894 ई. में छपा है। बात यह है कि 'आईन अकबरी' में ब्राह्मणों के लिए 'जुन्नारदार' शब्द आया है। यद्यपि 'जुन्नार' शब्द यज्ञोपवीत मात्र का वाचक है, तथापि वह शब्द आईन अकबरी या अन्य फारसी के ग्रन्थों में केवल ब्राह्मणों के लिए ही आया है, नहीं तो यज्ञोपवीत (जनेऊ) वाले तो क्षत्रियादि भी हैं, फिर उनका नाम 'क्षत्रिय' ऐसा अलग क्यों लिखा जाता? इसीलिए कान्यकुब्ज, सर्यूपारी या भूमिहारादि ब्राह्मणों के लिए ही 'जुन्नारदार' शब्द उस ग्रन्थ में आया है। इसीलिए 'एशियाटिक रिसर्चेज' (Asiatic Researches) नामक अंग्रेजी ग्रन्थ के जो 1793 में छपा है, 16वें पृष्ठ में मालाबार (Malabar Coast) के इतिहास में 'केरल उत्पत्ति' नामक मालाबारी ग्रन्थ के फारसी अनुवाद के आधार पर लिखा है कि :

Those who are entitled to wear Zunnar of Brahmanical thread, are superior to or more noble than all the classes of Malabar coast.

अर्थात 'जिनको जुन्नार या ब्राह्मणों का जनेऊ पहनने का अधिकार हैं, अर्थात जो ब्राह्मण हैं, वे मालाबार की सभी अन्य जातियों से श्रेष्ठ और रईस या प्रतिष्ठित समझे जाते हैं।' इसलिए जुन्नार शब्द के केवल ब्राह्मण के ही यज्ञोपवीत का नाम होने के कारण आईन अकबरी में जुन्नारदार शब्द केवल ब्राह्मणों के लिए आया है। इसीलिए अंग्रेजों ने अनुवाद में ब्राह्मण शब्द ही रख दिया है। इस जगह हम केवल कर्नल एच.एस. जैरेट के ही अनुवाद के द्वितीय भाग को उदधृत कर देते हैं। जिसमें भूमिहार ब्राह्मणों से ले कर सभी अन्य ब्राह्मणों को भी केवल ब्राह्मण ही लिखा है। उसके 161वें पृष्ठ में इलाहाबाद के जिन-जिन परगनों में ब्राह्मणों की जमींदारी लिखी गई है, या विशेष रूप से जहाँ ब्राह्मण ही प्रतिष्ठित या बाशिंदे बतलाए गए हैं, वे इस प्रकार हैं :

Allahabad-इलाहाबाद

Allahabad - इलाहाबाद Sikandarpore - सिकंदरपुर

Suraon - सुराँव Kewa - केवाई

Singarapore - सिंगारपुर Hadia bas (Jhunsi) - झूँसी

इनमें से विशेष कर सुराँव, सिकंदरपुर और केवाई परगनों में भूमिहार या जमींदार ब्राह्मण हैं और थे, जैसा कि विवाह-प्रसंग में दिखला ही चुके हैं और शेष परगनों में सर्यूपारी या कान्यकुब्ज थे और हैं।

162वें पृष्ठ में गाजीपुर और बनारस के परगनों का विवरण नीचे हैं :

Ghazipur - गाजीपुर

Chausa - चौसा Mohammadabad - मुहम्मदाबाद

Saidpur Namadi - सैदपुर Madan Benares - मदन-बनारस

Zahurabad - जहूराबाद (जमानियाँ)।

यहाँ सभी केवल भूमिहार ब्राह्मण हैं, जिनमें से चौसा में सकरवार, सैदपुर में भारद्वाज, जहूराबाद में कौशिक, जमानियाँ में सकरवार और द्रोणवार और मुहम्मदाबाद में किनवार रहते हैं और थे।

Benaras - बनारस

Afrad - अफरद Pindara - पिंडरा

Haveli - हवेली Kuswar - कुसवार

Byalisi - बसालिसी Harhua - हरहुआ

इनमें से पिंडरा में कोलहा भूमिहार ब्राह्मण थे और हैं, कुसवार में गौतम और हरहुआ में दीक्षित। बाकी में सर्यूपारी और भूमिहार ब्राह्मण दोनों थे। पृष्ठ 163 में जौनपुर के परगनों का विवरण इस प्रकार है :

Jaunpur - जौनपुर

Chandipur - चाँदीपुर Nizamabad-निजामाबाद

Sanjhauli - सँझौली Mohammadabad - मुहम्मदाबाद

Sikandarpur - सिकंदरपुर Negum-निगम

इनमें से निजामाबाद में भृगुवंशी भूमिहार ब्राह्मण थे और हैं, एवं मुहम्मदाबाद में बरुवार भूमिहार ब्राह्मण थे और हैं। शेष में सर्यूपारी और भूमिहार ब्राह्मण दोनों थे और हैं। इसी प्रकार अवधा, लखनऊ, हरदोई आदि जिलों के परगनों और महालों में ब्राह्मण ही लिखे गए हैं और वहाँ सभी कान्यकुब्ज या सर्यूपारी ब्राह्मण थे और हैं भी।

इसी आईन अकबरी के आधार पर मिस्टर नेविल ने बनारस के गजेटियर के 195वें पृष्ठ में लिखा है कि :

The Mahal of Haveli Benares comprised of the present Dehat Amanat, Jalhupur and Sheopur. It was held by Brahmans etc. Pindarah has remained unchanged and was held by Brahmans etc. Athgawan was then known as Harhua and was held by Brahmans etc. Kuswar was a large mahal and was held by Brahmans etc.

अर्थात 'बनारस हवेली महाल में देहात अमानत, जाल्हूपुर और शिवपुर भी मिले हुए थे और वहाँ ब्राह्मणों का अधिकार था इत्यादि। इसी प्रकार पिंडरा भी ब्राह्मणों के ही अधिकार में था जो आज भी बदला नहीं है इत्यादि। अठगाँवाँ का नाम प्रथम हरहुआ था ओैर यह भी ब्राह्मणों के ही अधिकार में था इत्यादि। कुसवार सबसे बड़ा महाल था और ब्राह्मण लोग ही उनके जमींदार थे इत्यादि।'

इसी प्रकार नेविल साहब ने अपने गाजीपुर के गजेटियर क 164वें पृष्ठ में गाजीपुर के ऐतिहासिक वर्णन के समय अकबर का प्रबंध वगैरह दिखलाते हुए साफ ही लिख दिया है कि गाजीपुर के मुहम्मदाबाद और जमानियाँ वगैरह महालों में जो ब्राह्मण जमींदार लिखे गए हैं वे भूमिहार ब्राह्मण ही थे और हैं, न कि दूसरे ब्राह्मण। वे इस प्रकार लिखते हैं :

It was in Akbar's days that Ghazipur became recognized seat of government and the capital of a Sarkar in the province of Allahabad. The Sarkar contained 19 mahals or parganas comprising most of the present district and Ballia, as well as Chausa, now in Shahabad and Belahabans in Azamgarh. The Ain-i-Akbari affords us a considerable amout of information as to the state of the district at that time, showing the state of cultivation, the revenue and the principal landholders of each pargana. The mahals are Ghazipur Haveli,Pachotar, Bahariabad, Zahurabad, Dehma, Mohammadabad, Madan Benares, Karanda, Sayidpur, Namadi, Baraich, Shadiabad, Bhitari, Khanpur and Mahaich. Zahurabad had 13803 bighas of cultivation paying 657808 dams; it was held by Brahmans, who contributed 20 horsemen and 500 infantry. Mohammadabad Parharbari, as it was then styled, had 44775 bighas under cultivation and paid 2260707 dams. The land-holders were Brahmans, which is the name always given to Bhumihars, and the military force fconsisted of 100 horse and 2000 foot. The present Mohammadabad pargana also includes the scattered mahal of Quriat Pali, which contained but 1394 bighas of cultivated land and was possessed at 75497 dams. Zamania is shown under the old name of Madan Benares. It was held by Brahmans, or more probably Bhumihars, who paid 2760000 dams on 66584 bighas of cultivation and furnished 50 horse and 5000 foot. Saidpur Namadi had a cultivated area of 25721 bighas, an assessment of 1250280 dams and the Brahman Zamindars contributed 20 cavalry and 1000 infantry. The remaining parganas were mostly held by Rajputs, while Bhitari by Ansari Shekhs.

इसका अर्थ यह है कि 'अकबर के समय में ही गाजीपुर राज्य कार्य का एक स्थान और इलाहाबाद के सूबे की एक सरकार की राजधनी बन गया। इस सरकार में 19 महाल या परगने थे, जिनके अन्तर्गत वर्तमान जिले का बहुत सा भाग बलिया जिला और चौसा भी था, जो अब शाहाबाद में हैं। इसके अतिरिक्‍त बेलहा बन भी था, जो अब आजमगढ़ में हैं। आईन अकबरी से इस जिले की उस समय की दशा का बहुत सा पता चलता है। क्योंकि उसमें उस समय की कृषि की दशा, मालगुजारी और प्रत्येक परगने के प्रधान जमींदारों का उल्लेख है। उसके महाल ये है :-गाजीपुर हवेली, पचोतर बहरियाबाद, जहूराबाद, डेमहा, मुहम्मदाबाद, मदन बनारस (जमानियाँ), करडा, सैदपुर, नामदी, बहराइच, शादियाबाद, भितरी, खानपुर और महाइच। परगना जहूराबाद में 13803 बीघे खेती की जमीन थी, जिसकी मालगुजारी 657808 दाम थी और इसके जमींदार ब्राह्मण थे, जो 20 सवार और 500 पैदल फौज रखते या उसका खर्च देते थे। मुहम्मदाबाद का नाम उस समय मुहम्मदाबाद परहारबारी था, जिसमें खेती की भूमि 44775 बीघे थी, जिसकी मालगुजारी 2260707 दाम थी। इसके जमींदार ब्राह्मण थे। आईन अकबरी में यह ब्राह्मण नाम भूमिहारों के लिए आया करता है। अर्थात वहाँ के जमींदार भूमिहार ब्राह्मण थे जो 100 सवार और 2000 पैदल फौज रखते थे। वर्तमान मुहम्मदाबाद परगने में उस समय करियत पाली का तितर-बितर महाल भी मिला हुआ था, जिसके 1394 बीघे में खेती होती थी और मालगुजारी 75497 दाम थी। जमानिया का प्राचीन नाम मदन बनारस ही लिखा गया है। इसके जमींदार ब्राह्मण थे, जिन्हें भूमिहार ब्राह्मण कह सकते हैं, जिनकी जमींदारी 66584 बीघे थी और मालगुजारी 276000 दाम थी। ये लोग 50 सवार और 5000 पैदल फौज रखते थे। सैदपुर के 25721 बीघे में कृषि होती थी, जिसके ब्राह्मण जमींदार 1250280 दाम मालगुजारी के देते और 20 सवार एवं 1000 पैदल सेना रखते थे। अवशिष्ट परगने विशेष कर राजपूतों के अधिकार में थे केवल भीतरी पर अंसारी शखों का दखल था।

अब हमको इस विषय में कुछ नहीं कहना है। पाठक लोग स्वयं ही समझ गए होंगे कि आईन अकबरी, उसके अनुवादकों और उसके आधार पर इतिहास लेखकों के भी मत से भूमिहार ब्राह्मण लोग ब्राह्मण सिद्ध होते हैं अथवा नहीं। भला जहाँ पर इस प्रकार लिखा जा रहा है कि आईन अकबरी में भूमिहार ब्राह्मणों के लिए ही केवल 'ब्राह्मण' नाम आया है और वैसा ही आईन अकबरी के वाक्य लिख कर स्पष्ट ही दिखला भी चुके हैं, तो फिर वहाँ भूमिहार लोग ब्राह्मण हैं या नहीं इस संशय की जगह ही कहाँ हैं? इन सब ग्रन्थों को उक्‍त 'क्षत्रिय और कृत्रिम क्षत्रिय' नामक ग्रन्थ के रचयिता कुँवर महाशय जी भी उलट गए हैं, क्योंकि उस 'ग्रन्थ-भर में प्राय: इन्हीं की दोहाई दी गई है। ऐसी दशा में पूर्वोक्‍त लेख का उनकी पवित्र लेखनी से लिखा जाना कैसी सुजनता, सभ्यता, सुधारकर्ता, निष्पक्षपातिता, निर्द्वेषता और उदारता है, इसे आप ही लोग विचार ले। हमारी समझ में तो ऐसी दशा में संभवत: वह इन भूमिहार ब्राह्मणों के उद्देश्य से न लिखा गया होगा, क्योंकि इनके विषय में वैसा लिखने की जगह ही नहीं हैं। किंतु जैसा कि पूर्व भी दिखला चुके हैं कि कहीं-कहीं क्षत्रिय भी भूमिहार कहलाते हैं, जिस बात को 'राजपूत' के संपादक कुँवर हनुमंतसिंह तथा क्षत्रिय समाज स्वीकार करता है। इसलिए खत्रियों पर रंज हो कर - क्योंकि उन्हीं के साथ विचार करने का यह प्रकरण हैं - आपने यह लिख दिया है कि आईन अकबरी से खत्री क्षत्रिय सिद्ध नहीं हो सकते। क्योंकि उन्हीं के साथ विचार करने का वह प्रकरण हैं - आपने यह लिख दिया है कि आईन अकबरी से खत्री क्षत्रिय सिद्ध नहीं हो सकते। क्योंकि उससे तो 'भूमिहार अर्थात भूमिहार क्षत्रिय अथवा क्षत्रिय और तेली या कहार और डोम में अन्तर प्रतीत नहीं हो सकता है।' अगर सच पूछा जावे तो यही तात्पर्य उस वाक्य का घटता हैं। इसीलिए ऐसी दशा में हम उक्‍त कुँवर जी को कुछ भी कहना नहीं चाहते और उनके कथन का दूसरा तात्पर्य समझ हमने जो कुछ लिखा है उसे वापस कर लेते हैं। अथवा रहने देने पर भी उनसे और उस कथन से कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं। इसलिए उनके संबंधियों को इससे बुरा न मानना चाहिए। क्योंकि वे लोग ऐसी दशा में हमारे उक्‍त कथन के लक्ष्य है ही नहीं।

अस्तु, इस प्रकार से श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण, व्यवस्थाओं, पत्रों, प्राचीन वंशावलियों, ब्राह्मणादि के लेखों, चीनी और ग्रीक यात्रियों के लेखों, पालि ग्रन्थों, गवर्नमेंट की आज्ञा और आईन अकबरी प्रभृति ग्रन्थों, एवं मैथिल, कान्यकुब्ज, सर्यूपारी और गौड़ ब्राह्मणों के साथ भूमिहार, त्यागी आदि ब्राह्मणों के विवाह सम्बन्ध और खान-पानों से सिद्ध हो गया कि सृष्टिकाल से ही जो अयाचक और याचक दो प्रकार के ब्राह्मण हैं, उनमें से अयाचक ही श्रेष्ठ और सर्वमान्य है और ये भूमिहार, पश्‍चिम, त्यागी, जमींदार, महियाल आदि ब्राह्मण उसी अयाचक दल के हैं। इसलिए यदि चाहें तो इन्हें अयाचक ब्राह्मण, भूमिहार, पश्‍चिम, त्यागी आदि ब्राह्मण अथवा ब्राह्मण इन तीनों नामों से कह सकते हैं। जैसे कान्यकुब्ज या सर्यूपारी प्रभृति ब्राह्मणों से पूछने पर वे लोग प्रथमत: 'आप कौन हैं?' इस प्रश्‍न का उत्तर 'ब्राह्मण हैं' ऐसा देते हैं। उसके बाद 'कौन ब्राह्मण हैं?' इस प्रश्‍न पर 'सर्यूपारी या कान्यकुब्ज ऐसा बतलाते हैं। वैसे ही अयाचक ब्राह्मणों से पूछने पर कि 'आप कौन हैं?' उन्हें कहना चाहिए कि 'ब्राह्मण हैं'। पश्‍चात् 'कौन ब्राह्मण हैं?' ऐसा पूछने पर 'अयाचक अथवा भूमिहार, पश्‍चिम, जमींदार, त्यागी, महियाल ब्राह्मण हैं' ऐसा उत्तर देना चाहिए। अथवा जो अयाचक ब्राह्मण दल जिस देश में हैं वह वहाँ के मैथिल, कनौजिया, सर्यूपारी, गौड़ और सारस्वतादि ब्राह्मण ही अपने को सबसे पहले कह कर पीछे अपनी विशेषता के लिए त्यागी, भूमिहार आदि कह सकते हैं। और यह भी सिद्ध हो गया कि इन अयाचक ब्राह्मणों के भूमिहारादि विशेषण जागीर वगैरह पाने या भूमि पर बल से अथवा अन्य प्रकार से अधिकार कर लेने से ही मुसलमानों के समय में पड़े। जैसे कि दो या तीन वेदों के पढ़ने, पढ़ाने आदि कामों के करने और मिथिलादि देशों में रहने से दूबे, तिवारी, श्रोत्रिय, मैथिल और गौड़ प्रभृति नाम या विशेषण अन्य ब्राह्मणों के यवन काल में ही पड़े। और राय, सिंह, पांडे और दूबे प्रभृति पदवियाँ भी उसी समय की हैं, जो कामों के करने से ही पड़ी हैं। साथ ही साथ यह भी दिखला चुके कि पश्‍चिम, जमींदार और भूमिहार ब्राह्मण, तगे, त्यागी या दानत्यागी ब्राह्मण और महियाल ब्राह्मण इस समय भी एक-से ही आचार-विचार और प्रतिष्ठावाले हैं। इसलिए इन लोगों के परस्पर विवाह सम्बन्ध वगैरह होने में कोई हर्ज नहीं हैं। और यह भी सिद्ध हो चुका कि इन लोगों में आज तक कोई शास्त्र निषिद्ध ऐसी बुराई भी नहीं आ गई है, जिससे इनकी दशा या दर्जा ब्राह्मण समाज में किसी प्रकार से भी हीन समझा जावे। बल्कि अन्य ब्राह्मण ही शास्त्रोक्‍त मार्ग से कुछ भ्रष्ट हो गए हैं। इसलिए इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों को ब्राह्मण समाज में किसी प्रकार से हीन मानना, या ऐसा लिख देना अथवा लिख देने का साहस मात्र भी करना केवल भ्रम या अज्ञान ही हैं। इसलिए इस प्रकरण के अन्त में अन्तर्यामी जगदाधार से यही प्रार्थना हैं कि सभी भारतवासियों और विशेष कर इन अयाचक दल के सभी ब्राह्मणों को शास्त्रीय सुबुद्धि प्रदान करें जिसमें सभी लोगों के पक्षपात या राग-द्वेष निवृत्त हो जावे और सभी लोग शास्त्रीय धर्म का हृदय से अनुमोदन करें, भातृभाव की वृद्धि हो और स्वार्थवश हो बेजा तौर से किसी को कोई दबाना न चाहे और ये अयाचक दलीय ब्राह्मण अपने स्वरूप को यथावत पहचान कर अपने शास्त्रोक्‍तर कर्तव्य में परायण हो॥ इति श्री ब्रह्मर्षिवंश विस्तरे याचकायाचकद्विविधाब्राह्मणविचारोनामाद्यं प्रकरणम्॥

॥ श्रीरस्तु॥

उत्तरार्द्ध-कंटकोद्धार

1 - दुरुक्‍तिदमन

अन्तश्छिद्राण्यनेकानि कण्टका बहवो बहि:।

कथं कमलनालस्य माभूवन भंगुरा गुणा:॥

यद्यपि पूर्व प्रकरण में सभी प्रकार के प्रशस्त प्रमाणों द्वारा अयाचक ब्राह्मणों का श्रुतिस्मृत्यादि सिद्ध पवित्र और सर्वमान्य स्वरूप जब दिखला दिया और यह भी सिद्ध कर दिया गया कि अन्य ब्राह्मणों के साथ इनके सभी प्रकार के विवाह सम्बन्ध; खान-पान और नमस्कार इत्यादि मिले हुए हैं, तो फिर किसी को भी किसी प्रकार का भी इनके स्वरूप के विषय में संशय या मिथ्या कल्पना करने का अवसर ही न रह गया। और यदि इतने पर भी कोई भ्रम या द्वेषवश कुछ मिथ्या कल्पना करे, तो उसका खण्डन भी पूर्व प्रमाणों द्वारा अपने आप ही हो गया। इसलिए मोहपूर्ण कुकल्पनाओं के पृथक खण्डन करने की आवश्यकता ही न रह गई। तथापि, जैसे विदेश में रहनेवाले बनिए के पास उसके घर से उसकी स्त्री ने रंज हो कर अपने पुराने नौकर से यह कहला भेजा कि जा कर कह देना कि आपकी स्त्री विधवा हो गई, क्योंकि वह बहुत दिनों से घर न गया था; इसलिए स्त्री ने अपने को विधवा की तरह समझ उसे व्यंग्य मारे थे। परंतु उस मूर्ख ने यह सुनते ही कुछ भी विवेक न कर वहाँ के अपने इष्ट मित्रों से शोक प्रकाश करना प्रारंभ कर दिया। यद्यपि उसके बुद्धिमान मित्रों ने यह बहुतेरा समझाया कि जब आप स्वयं जीते ही हैं तो भला यह कब संभव है कि आपकी स्त्री विधवा हो गई? परंतु उस प्रचंड मूर्ख ने यही उत्तर दिया कि हाँ, यह तो अच्छी तरह से समझता हूँ कि मेरे जीते-जी भला मेरी स्त्री विधवा कैसे हो सकती है? लेकिन मेरे दादा के समय का यह प्रतिष्ठित, सत्यवादी और बूढ़ा नौकर भी तो झूठ नहीं बोल सकता। उसी तरह बड़े-बड़े उपाधिधारी लोगों की बातें सुन कर विचारहीन पुरुष संभवत: इतने पर भी उलटा ही समझने लग जावें। इसलिए उनके इस भ्रम को मिटा देने के लिए दूसरे प्रकरण की आवश्यकता है। जिसमें यह स्पष्ट शब्दों में दिखला दिया जावे कि उन नाममात्र के उपाधिधारियों के वचन कैसे निस्सार है। बड़े-बड़े उपाधिधारियों के वचन सुन केवल अविवेकी लोग ही उन्हें भूलें न समझ अपने आप ही संशय करने या उलटा समझने नहीं लग जाते हैं, किंतु बड़े-बड़े लोगों को भी उनकी बातें भ्रम में डाल देती है। क्योंकि उनकी बातों को लोग यह तो कभी समझते ही नहीं कि ये भूल से भी हो सकती है। जैसा कि बिहारी जी ने कहा है :

को कहि सकै बड़ेन की, लखी बड़ीयो भूल।

दीन्हें दई गुलाब के, इन डारिन वे फूल॥

एक बात और भी है। यह भी प्रकृति का एक अटल नियम हैं कि किसी वस्तु के स्वरूप को जितना ही अच्छा बनाइए, अथवा वह स्वयं जितनी अच्छी होगी, उतने ही उसके ऊपर दुष्ट लोगों के आक्रमण होंगे। इसीलिए पंचतन्त्र में कहा है कि :

मूलंभुजंगै: शिखराणि भल्लै: शाखा: प्लवंगै: कुसुमानि भृंगै:।

नास्त्येव तच्चन्दनपादपस्य यन्नाश्रितं दुष्टतरैश्‍च हिस्त्रौ:॥

इसका अर्थ यह है 'देखिए चंदन का वृक्ष कैसा उपयोगी और सुंदर होता है, परंतु उसके कोई भी अवयव दुष्टों से बचे नहीं हैं, क्योंकि उसकी जड़ में साँप रहते हैं, चोटियों पर भालू, डालियों में बंदर और फूलों में भौंरे रहा करते हैं, जो सभी हिंसक और दुष्टतर हैं।' इसलिए केवल स्वरूप के अच्छी तरह से निरूपण कर देने से ही काम न चलेगा, किंतु दुष्टजनों के अविवेकमूलक मिथ्या आपेक्षरूप कंटकों को भी हटाने का पृथक यत्‍न अवश्य ही करना होगा। क्योंकि यद्यपि केतकी या गुलाब के पुष्प बहुत सुंदर, उपयोगी, मनोरंजक और सभी के ग्रहण योग्य होते हैं, तथापि सघन कंटकों में पड़ जाने के कारण सभी लोग उनका ग्रहण या आदर नहीं कर सकते, अथवा उनसे लाभ नहीं उठा सकते, किंतु जो उन पुष्पों के अत्यन्त प्रेमी और काँटों को कुछ भी नहीं समझनेवाले होते हैं, वे लोग ही उससे यथावत लाभ उठा सकते हैं। जैसा कि कहा है :

गुलिस्ताने जहाँ में फूल भी हैं और काँटे भी।

मगर जो गुल के जोया हैं उन्हें क्या खार का खटका॥

इसलिए जिसमें साधारणत: सभी लोग उससे लाभ उठा सकें, इसके लिए उन मिथ्या आक्षेपरूप कण्टकों को हटाने के लिए दूसरे प्रकरण की आवश्यकता है। यह बात भी है कि जब तक मनुष्य के भीतर छिद्र या बुराइयाँ रहतीं अथवा बाहर काँटे रहा करते हैं, तब उसके गुणों की कोई भी गिनती नहीं होती। इसीलिए इस प्रकरण के प्रारंभवाले श्‍लोक को किसी प्रौढ़ कवि ने कहा है। जिसका भाव यह है कि 'कमल के डंडे (पानी में रहनेवाले हिस्से) के गुण अर्थात तंतु या रेशे क्यों न भंगुर या दुर्बल हों? क्योंकि उसके भीतर छिद्र और बाहर काँटे रहा करते हैं।' इसलिए भीतर आपातत: प्रतीत होनेवाले छिद्रों के हटा देने पर भी बाहरी काँटों के हटाने का यत्‍न करना ही होगा। इसीलिए इस द्वितीय प्रकरण का आरंभ किया जाता है और तदनुसार ही इसका नाम कण्टकोद्धार रखा गया है।

अस्तु, अब हम पाठकों के सन्मुख 'वर्णविवेक चंद्रिका' नामक 10-12 पन्ने की पुस्तिका को उपस्थित करते हैं जो 10-15 वर्ष हुए वेंकटेश्‍वर प्रेस, बंबई में छपी है और जिसके रचयिता काशीनाथ सूरि हैं। इस पुस्तक का तत्व हम भूमिका ही में दिखला चुके हैं और यह सिद्ध कर चुके हैं कि यह संपूर्ण पुस्तक स्वकपोलकल्पित और गपोड़ा मात्र ही है। क्योंकि जिन 'वराहपुराण' (शुकर पुराण) और 'भुवलतन्त्र' नामक ग्रन्थों के आधार पर ग्रन्थ की रचना रचयिता ने बताई है या तो उन नामों के ग्रन्थ हैं ही नहीं, और यदि नाम में कुछ रद्दोबदल कर के कोई ग्रन्थ मिलते भी हैं, तो उनमें जाति का प्रसंग हैं ही नहीं। इसका सविस्तार विचार कर चुके हैं। ऐसी दशा में वह पुस्तक क्योंकर प्रमाण मानी जा सकती हैं? नहीं तो, फिर हम भी 'काशीनाथ' के बाप-दादे या वंश अथवा समाज के विषय में 'मुर्गीपुराण' और 'गड़बड़ तन्त्र' के आधार पर थोड़े से श्‍लोक बनाए देते हैं। उनको वे अथवा दूसरे लोग क्यों न मानेंगे? इसके अतिरिक्‍त यदि उनकी कही हुई बातें दूसरे ग्रन्थों से, जिन्हें सभी लोग मानते हैं, विपरीत न होती, तो भला कम से कम सुनने के योग्य तो वे बातें होतीं। परंतु उन्होंने मनु भगवान और याज्ञवल्क्य महर्षि के विपरीत लिखा है। क्योंकि उन दोनों महर्षियों का यह सिद्धांत हैं कि जो संतान एकानंतर अनुलोम से उत्पन्न होती है, अर्थात ब्राह्मण पुरुष से क्षत्रिय स्त्री में, क्षत्रिय से वैश्य स्त्री में, वैश्य से शूद्रा स्त्री में वह क्रम से क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ही हुआ करती है। क्योंकि मनु जी ने लिखा है :

स्त्रीष्वनंतरजातासु द्विजैरुत्पादितान सुतान।

सदृशानेव तानाहुर्मातृदोषविगर्हितान!॥ 6॥

पुत्रा ये नंतरस्त्रीजा: क्रमेणोक्‍ता द्विजन्मनाम्।

ताननंतरनाम्नस्तुमातृदोषात्प्रचक्षते॥ 14। अ. 10 मनु

अर्थ यह कि 'जो संतानें अनंतर स्त्री से अर्थात ब्राह्मण पिता से क्षत्रिय स्त्री में इत्यादि रीति उत्पन्न होती है, वहाँ वीर्य को प्रबल न मान कर वे मातृपक्ष की अर्थात जो जाति माता की होती है उसी जातिवाली समझी जाती है। जो संतानें पूर्वोक्‍त रीति से उत्पन्न होती है उसमें मातृपक्ष को ही प्रबल मान कर वे उसी जातिवाली कहलाती हैं जिस जाति की माता होती है।' जो याज्ञवल्क्यस्मृति के आचाराध्याय के 91वें श्‍लोक में लिखा है कि :

विप्रान्मूर्द्धावसिक्‍त (भिषिक्तो) हि क्षत्रियायां विश: स्त्रियाम्।

अर्थात 'ब्राह्मण' पिता में क्षत्रिय स्त्री में मूर्द्धाभिषिक्‍त संज्ञावाला बालक उत्पन्न होता है।' उसका भी यही अर्थ हैं। क्योंकि मनु जी के अनुसार उसे क्षत्रिय होना चाहिए और 'मूर्द्धाभिषिक्‍त' क्षत्रिय को ही कहते हैं। इसीलिए अमरकोश में क्षत्रियों के पर्याय में भी मूर्द्धाभिषिक्‍त शब्द आया है, जैसा कि प्रथम भी दिखला चुके हैं कि 'मूर्द्धाभिषिक्तो राजन्यो बाहुज: क्षत्रियो विराट' अर्थात मूर्द्धाभिषिक्‍त, बाहुज, राजन्य, क्षत्रिय और विराट ये सब क्षत्रियों की संज्ञाएँ हैं। इसलिए वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकांड में श्रीराम जी ने भरत को मूर्द्धाभिषिक्‍त कहा है 'नतु मूर्द्धाभिषिक्‍तनाम्' अर्थात जब उन्होंने यह प्रण किया है कि यदि आप अयोध्या को न लौट चलेंगे तो हम अनशन कर के शरीर यही छोड़ देंगे, तो राम जी ने उत्तर दिया है कि अनशन कर के शरीर छोड़ देना ब्राह्मणों का कर्म है, न कि मूर्द्धाभिषिक्तों अर्थात क्षत्रियों का। इसलिए ऐसा करना आपको उचित नहीं है। महाभारत में सैकड़ों जगह मूर्द्धाभिषिक्‍त शब्द क्षत्रियों के लिए आया है और उसके साथ अन्य स्कंदपुराण प्रभृति ग्रन्थों के देखने से भी स्पष्ट है कि ब्राह्मण पिता और क्षत्रिय स्त्री से उत्पन्न बालक क्षत्रिय ही होता है। इसके लिए कम से कम एक सौ वाक्य और दृष्टांत केवल महाभारत में ही मिलते हैं। इसलिए अनुलोम संतान अलग नहीं होती। इसका सविस्तार विचार 'भूमिहार ब्राह्मण पत्रिका' के सन 1915 ई. के नवंबर प्रभृति मासों के अंकों में मिलेगा।

यदि 'तुष्यन्तु दुर्जनन्याय' से आपके तोष के लिए स्वीकार भी कर ले कि अलग ही होती है, तो भी उसका नाम 'मूर्द्धाभिषिक्‍त' ही होता है, न कि 'भूमिहार या पश्‍चिम'। यदि भूमिहार ब्राह्मणों की ही 'मूर्द्धाभिषिक्‍त' संज्ञा आप बिना प्रमाण के ही मानना चाहते हैं तो अपने ही समाज की 'मूर्द्धाभिषिक्‍त' संज्ञा क्यों नहीं मान लेते? क्योंकि बहुत से सर्यूपारी या कान्यकुब्ज प्रभृति दल पड़े हैं, जिनका आचार-व्यवहार इस समय भूमिहार ब्राह्मणों का-सा ही हो रहा है। यदि आप यह कहें कि मूर्द्धाभिषिक्‍त का धर्म तो रथ हाँकना या सेनापति आदि का काम करना है, सो तो भूमिहार ब्राह्मणों में भी नहीं पाया जाता है, जैसा कि अन्य ब्राह्मणों में भी नहीं हैं। इसीलिए यदि अनुलोम संतानों को अलग भी मानेंगे, तो उनकी ही मूर्द्धाभिषिक्‍त संज्ञा जुदी ही पडेग़ी, न कि वे ही कान्यकुब्ज, मैथिल, पश्‍चिम या भूमिहार ब्राह्मण कहे जा सकते। इसी प्रकार जब विलोम संतान को लेते हैं, अर्थात क्षत्रिय पिता और ब्राह्मणी माता रहे, तो उसका नाम पूर्वोक्‍त महर्षियों के मत से 'सूत' सिद्ध होता है। जैसा कि लिखा है कि :

क्षत्रियाद्विप्रकन्यायां सूतो भवति जातित:। मनु. 10। अ. 11।

ब्राह्मण्यां क्षत्रियात्सूत:। याज्ञ. आचारा.॥ 93॥

अर्थात 'ब्राह्मणी के गर्भ से क्षत्रिय के वीर्य से जो लड़का होता है उसे सूत कहते हैं।' और वर्णविवेक चंद्रिका में ऐसा लिखा गया बतलाया जाता है कि क्षत्रिय पिता और ब्राह्मणी माता से जो संतान (बालक) हुई उसका नाम भूमिहार हुआ। अब बतलाइए कि उन महर्षियों के विपरीत कहनेवाले वर्ण विवेक चंद्रिकाकार महाशय की बात सुनी भी कैसे जा सकती है? सुन भी उस दशा में सकते थे, यदि उनके इस कथन में कहीं से कुछ भी प्रमाण मिलता। परंतु बिना प्रमाण के यदि कहना ठहरा तो ये अपने ही वंश को ऐसा कह ले, सो ही अच्छा होगा। क्योंकि उसमें कोई दूसरा विरोधी खड़ा न होगा। वस्तुत: यदि सत्य बात पूछी जावे - यदि उस वर्णविवेचंद्रिका की निष्प्रामाणिक बातें मान भी ली जावें - तो भी उनसे पश्‍चिम या भूमिहार ब्राह्मणों की क्षति नहीं है। क्योंकि जैसा कि श्री ज्वालाप्रसाद मिश्र विद्यावारिधि जी ने उसके वाक्य का भ्रममूलक अर्थ कर दिया है और जिसका विधिवत खण्डन अभी करेंगे, उसी के अनुसार हमने पूर्वोक्‍त बातें कही हैं। वस्तुत: तो वर्णविवेक चंद्रिका में ऐसा लिखा है :

क्षत्रियस्य च वीर्येण ब्राह्मणस्य च योषिति।

भूमिहार्य्यभवत्पुत्रो ब्रह्मक्षत्रास्य वेषभृत्॥ 70॥

अर्थात 'क्षत्रिय पिता के वीर्य और ब्राह्मणी माता के रज से जो लड़का उत्पन्न हुआ उसका नाम 'भूमिहारी' हुआ और उसका वेष ब्राह्मण और क्षत्रिय का-सा हुआ।' इससे स्पष्ट है कि 'भूमिहारी' नामक जाति विशेष की ही उत्पत्ति वहाँ लिखी गई है। इसीलिए 'भूमिहारी' शब्द के आगे 'अभवत्' शब्द के आने से इन्कार के स्थान में संधि हो कर 'य' हो गया और 'भूमिहार्य्यभवत्' ऐसा शब्द का स्वरूप हो गया। यदि भूमिहार ब्राह्मणों को कहना हो तो 'भूमिहार' शब्द से आगे अभवत आने पर 'भूमिहारोभवत' ऐसा रूप शब्दों की संधि होने पर हो जाता। परंतु वहाँ तो 'भूमिहार्य्यभवत' ऐसा ही लिखा हुआ है। यहाँ तक कि स्वयं ज्वालाप्रसाद जी ने भी अपनी 'जातिनिर्णय' नामक पुस्तक में इस श्‍लोक को उद्धृत करते हुए 'भूमिहार्य्यभवत' ऐसा ही लिखा है, अर्थ करने में भले ही सज्जनता और पांडित्य दिखलाने में नहीं चूके हैं। भूमिहारी या भुइंहारी नामक कोई शूद्र जाति है, जिसके मनुष्यों की संख्या 316787, तथा उस जाति का नाम 'भुइंहारी' साधुचरण प्रसाद कृत 'भारत भ्रमण' के प्रथम खण्ड के 44वें पृष्ठ में लिखा गया है और दरयाफ्त करने से मालूम हुआ कि यह एक व्यापार करनेवाली जाति बंबई के तरफ विशेष रूप से पाई जाती है और शूद्र है। इसीलिए वर्णविवेक चंद्रिका में भूमिहारी जाति से पूर्व माहुरी वैश्य नामक और बाद में तेली नामक शूद्र जाति का ही निरूपण किया गया है। इससे स्पष्ट है कि वह प्रकरण वैश्य, शूद्र जाति का ही है। इसलिए भूमिहारी जाति वही शूद्र जाति है, जिसका पता बता चुके हैं। जैसे भूमिहार का अपभ्रंश भुइंहार हो गया है, वैसे ही 'भूमिहारी' शब्द से बिगड़ कर 'भुइंहारी' हो गया है। इसलिए यही सिद्ध हो गया कि यदि 'वर्ण-विवेक चंद्रिका' की बातें मान भी ली जावें तो भी इन ब्राह्मणों की कोई निंदा या क्षति नहीं हैं।

अब विद्यावारिधि जी की दुरुक्‍ति रूप बडवानज्वाला का भी परिचय कर लीजिए। आप अपनी पुस्तक 'जाति निर्णय' के 86वें पृष्ठ में इसी वर्ण विवेक चंद्रिका के श्‍लोक ज्यों का त्यों उद्धृत करते हैं, क्योंकि यह उनका ग्रन्थ प्राय: उसी वर्ण विवेक चंद्रिका की टीका की तरह हैं। फिर उस भूमिहारी शब्द का अर्थ भूमिहार कर के कोष्ठ के बीच में भैंहार लिखते हैं। यहाँ पर कई बातें विचारने योग्य है। एक तो विद्यावारिधि जी को यह विचारना चाहिए था कि यदि हम यह श्‍लोक वर्ण विवेक चंद्रिका से उठा कर लिखते हैं तो वह किसी ऋषि का प्रणीत तो है ही नहीं, इसलिए जिस आधार पर वह श्‍लोक बनाया गया है उस ऋषिवचन को लिख दे। परंतु यदि विद्यावारिधि होने पर भी उसके मूल का पता न चला, तो भलेमानुसी इसी में थी कि उसे अपनी पुस्तक में लिख कर अपने आपको और उसे कलंकित भी न करते। परंतु आपने तो यह चालाकी की कि यदि 'वर्ण विवेक चंद्रिका' इसका मूल प्रमाण लिख देते हैं, तो कोई मानेगा ही नहीं और दूसरा प्रमाण तो इस विषय में कुछ मिलता ही नहीं। इसलिए यदि झूठमूँठ ही किसी प्राचीन ग्रन्थ का नाम लेते हैं तो अन्ततोगत्वा पोल खुल ही जावेगी। तो फिर झूठा बनना पड़ेगा। इसलिए यद्यपि उससे पूर्व और बाद के श्‍लोकों को लिख कर उनके आगे 'इति वर्णविवेक चंद्रिका' अर्थात ऐसी वर्णविवेक चंद्रिका में लिखा है', ऐसा लिख दिया। लेकिन इस श्‍लोक को लिख कर 'इति वर्णविवेक चंद्रिका' भी न कह कर एकबारगी चुप मार गए। जिसमें अविवेकी लोग, विद्यावारिधि महामहोपदेशक पं. ज्वाला प्रसाद मिश्र जी ने यदि लिखा है, तो अवश्य प्रामाणिक होगा, ऐसा समझ कर इन भूमिहार ब्राह्मणों को गालियाँ देने में न रुकें। वाह वाह! इसी को तो उपदेशकी कहते हैं। अवश्य आप जैसे महोपदेशकों, सुधारकों और विद्यावारिधियों की कृपा से इस दीन भारत के बह जाने में कोई विलंब नहीं हैं। क्यों जी विद्यावारिधि जी! यदि हम भी ऐसे ही श्‍लोक आपके समाज अथवा वंश के विषय में रचा कर छपवा दे और अपने को महामहोपदेशक लिखने लग जावे तो आप उन्हें मानेंगे या नहीं? हमारी समझ से तो आप कोई भी उज्र नहीं कर सकते।

जब आपने, जैसा कि हमने कह दिया है, जैसे अनुलोम संतानों को अलग लिखा है वैसे ही विलोम को भी प्रथम को मूर्द्धाभिषिक्‍त और दूसरे को सूत लिखा है और इसमें पूर्वोक्‍त मनु और याज्ञवल्क्य के ही वचन प्रमाण दिए हैं, तो फिर उनके विपरीत और अपने ही पूर्वापर लेख के विपरीत ही कैसे ऐसा लिख दिया? जब क्षत्रिय पुरुष और ब्राह्मणी स्त्री से सूत की उत्पत्ति लिखते हैं, तो फिर उन्हीं दोनों से भूमिहारों की उत्पत्ति लिखते हुए क्या आपको शर्म न आई? क्या इसी बुद्धि से वेदों के भाष्य बने हैं? यदि इस विषय में कोई स्वकपोलकल्पित व्यवस्था करें भी, तो जब आपने स्वयं उसी पुस्तक के 32वें पृष्ठ में कान्यकुब्ज या अन्य काश्यप गोत्री ब्राह्मणों की उत्पत्ति भूमिहार (भुइंहार) ब्राह्मणों से लिखी हैं, तो फिर यहाँ आ कर क्यों अर्थ का अनर्थ करने लग गए? क्या इतना भी विचार न रहा कि हम प्रथम क्या लिख चुके हैं और अब क्या लिखते हैं? क्या आप इन ब्राह्मणों को अपनी पुस्तक में लिखे हुए भूमिहार ब्राह्मणों से भिन्न समझते हैं? क्या ऐसा समझने में आपके पास कोई प्रमाण है? यदि आपकी समझ ऐसी ही है, तो फिर अपने को भी उसमें या अन्यत्र लिखे गए कान्यकुब्जों, सर्यूपारियों या गौड़ों से भिन्न समझने में आपको कोई संदेह ही न होगा। क्योंकि आप उन्हीं ब्राह्मणों में से है, क्या इसकी रजिस्टरी या हुलिया आपके पास हैं और भूमिहार ब्राह्मणों के पास नहीं है?

यदि उस श्‍लोक में 'भूमिहार्यभवत' ऐसा लिखा हुआ है तो आपने भूमिहारी अभवत ऐसा पदच्छेद न कर के भूमिहार: अभवत ऐसा पदच्छेद किस व्याकरण की रीति से किया है? क्या वेदों के भाष्यों की तरह कोई नया व्याकरण भी आपने ही बना लिया है? क्या इसीलिए विद्यावारिधि की पदवी मिल से मिल गई है? अथवा विद्या को डुबो कर रसातल भेजने से ही इस महती पदवी से अलंकृत हुए हैं? या जैसे आपकी और सब बातें कल्पित हैं वैसे ही यह उपाधि भी? आपके वारिधि होने का एक प्रबल प्रमाण यह तो अवश्य है कि इन निर्दोष ब्राह्मणों के लिए कपोलकल्पित कटूक्‍ति रूप बड़वानल का प्रयोग आपने खूब ही किया है और यह बात आपको शोभा भी देती है। क्योंकि ज्वाला प्रसाद ही जो ठहरे! उसमें भी पंडित और मिश्र जी! और फिर जो आपने भूमिहार का भैंहार अर्थ किया, वह किस प्रमाण और तात्पर्य से यह समझ में नहीं आता। शायद आपके भीतर यह छल भरा हुआ था कि यदि कोई भूमिहार ब्राह्मण हमसे जवाब-तलब करेगा और बिना प्रमाण होने से मानहानि का दावा हमारे सिर ठोंक देगा, तो इस छल से बच जावेंगे कि हमने तो वह भैंहार जाति के विषय में लिखा है, न कि भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में। परंतु शोक तो इस बात का है कि आप भैंहार नामवाली जाति बतला नहीं सकते। इसलिए हार कर मान लेना ही पड़ेगा कि भूमिहार शब्द के अपभ्रंश भुइंहार का ही अपभ्रंश कर के आपने वैसा लिखा है।

पाठकवृंद! हम इस विषय में विद्यावारिधि जी की विशेष बौछार रूप सज्जनता का परिचय दिलाते हैं, और विद्यावारिधिपने का भी। इन ब्राह्मणों के ऊपर आपका विशेष अनुग्रह प्रतीत होता है। इसीलिए अपनी अति भयंकर लहरों से इस समाज को बहा देने के लिए जी-जान से कटिबद्ध है। क्योंकि आप और आपके भाई दोनों ने मिल कर कर्नल टाड साहब के 'राजस्थान' नामक अंग्रेजी ग्रन्थ की हिंदी टीका और टिप्पणी की है। उसमें भी भूमिहार ब्राह्मणों की खूब ही खबर ली है। सभी इतिहासज्ञों और मनुष्यगणना के विवरणों के पढ़ने या जाननेवालों को विदित है कि भुइंया, भूमियाँ अथवा भोमियाँ नाम की एक जंगली जाति हैं, जो बिहार के संथाल परगने वगैरह प्रांतों, मिर्जापुर के पहाड़ों अथवा राजपूताने के प्रांतों आदि में विशेष रूप से पाई जाती है, जो कहीं-कहीं पर राजपूताने वगैरह में, जहाँ पर जाट लोग विशेष रूप से पाए जाते हैं, प्राय: उन्हीं में मिली हुई हैं और अन्यत्र अन्य जंगली जातियों के साथ उसका मेल है। अथवा कहीं-कहीं स्वतन्त्र ही है। इसके सिवाय जयपुर के शेखावाटी प्रदेश और अलवर राज्य में बहुत से गौड़ ब्राह्मण भी भूमियाँ कहे जाते हैं, क्योंकि बड़े-बड़े जमींदार हैं। मगर उनका न तो यहाँ प्रसंग ही है और न विद्यावारिधि का अभिप्राय ही ऐसा है। उसी जाति का विशेष रूप से राजपूताने के इतिहास 'राजस्थान' में कर्नल टाड साहब ने वर्णन किया है और कहीं-कहीं उसका नाम 'भोमियाँ' (Bhomia) और कहीं-कहीं 'जाट भोमियाँ' (JatBhomia) लिखा है। परंतु सबंधु विद्यावारिधि जी ने कृपा कर के जाट शब्द को तो एक प्रकार से एक बारगी छोड़ ही दिया है और भोमियाँ (Bhomia) शब्द का हिंदी अनुवाद 'भूमिहार' कर दिया है, जिससे लोगों को साफ ही धोखा हो सकता है। यदि वे लोग अंग्रेजी न पढ़े हों, तो उनके लेखानुसार इन भूमिहार ब्राह्मणों को जंगली जाति ही समझ ले। भला भूमियाँ या भोमियाँ शब्द की जगह भूमिहार शब्द लिखना कौन बुद्धिमानी है? शायद आपको किसी कोश में भोमियाँ शब्द का ऐसा अर्थ मिला होगा। अच्छा तो होता यदि सभी इतिहासों और मनुष्य गणना के विवरणों का हिंदी अनुवाद कर के भूमियाँ शब्द का भी हिंदी अनुवाद कर डालते, जिससे लोगों को संदेह की जगह ही न रह जाती और अन्य जातियों के नामों का मनमाना हिंदी अर्थ कर के जिस-जिससे चाहते बदला चुका लेते। अब हम उन दो-चार स्थलों को दिखला देते हैं, जहाँ पर आपने ऐसी कारीगरी की हैं और वहाँ का अंग्रेजी अंश भी लिख कर दिखला देना चाहते हैं कि आपके हिंदी अनुवाद का मूल अंग्रेजी ग्रन्थ से कितना सम्बन्ध हैं, जिससे आपकी योग्यता और विद्यावारिधिता का पता लोगों को भी चल जावे।

कर्नल टाड ने अपने 'राजस्थान' के प्रथम भाग 200वें पृष्ठ में जयपुर के इतिहास में ऐसा लिखा है :

When the tidings of this fatal event were conveyed to Salibahan, for 12 days the ground became his bed. He at length reached the Punjab where he fixed on a spot with abundance of water, and having collected his clansmen around him he laid the foundation of a city which is named after him Salibahanpur. The surrounding Bhumias attended and acknowledge his supremacy. 72 years of the era of Vikrama had elapsed when Salibahanpur was founded upon Sunday the 8th of the month of Bhadon.

इसका अनुवाद मिश्र जी ने स्वरचित हिंदी 'राजस्थान' के प्रथमाध्याय, द्वितीय भाग, जैसलमेर के इतिहास प्रसंग के 470वें पृष्ठ में इस प्रकार किया है :- 'जब यह हृदयभेदी शोचनीय संवाद शालिवाहन तक पहुँचा तब वह महाशोक समुद्र में मग्न हो कर 12 दिन तक पृथ्वी पर सोए और अन्त में उन्होंने पंजाब में आ कर नदनदी और तड़ागादि पूर्ण एक देश में सबको इकट्ठा किया और नवीन राजधनी स्थापित करने के उपरांत अपने नाम के अनुसार उस नगर का नाम शालिवाहनपुर रखा। उनकी नवीन राजधनी के चारों ओर के आदि भूमिहारों ने आ कर उनको अधीश्‍वर स्वीकार किया। महाराज विक्रमादित्य के प्रचलित किए संवत 72 के भादों के महीने की अष्टमी, रविवार के दिन शालिवाहनपुर नामक राजधानी प्रतिष्ठित हुई थी।'

एक तो इस अनुवाद में मूलग्रन्थ का भाव ठीक नहीं आया है। दूसरी बात यह है कि 'तब वह महाशोक सागर में मग्न हो कर' इत्यादि वाक्य ऊपर से घुसेड़े गए हैं और तीसरी यह कि मूलग्रन्थ के भूमियाँ (Bhumia) शब्द का 'भूमिहार' अर्थ जबर्दस्ती किया गया है और उसमें 'आदि' यह विशेषरूप से पैबंद अपने पास से जोड़ा गया है, जिसमें कुछ छल भरा होगा। अस्तु, अभी और लीला देखिए। आगे चल कर टाड साहब 203वें पृष्ठ में इस प्रकार लिखते हैं :

When Mangal Rao fled from the King his children were secreted in the houses of his subjects. A Bhumia named Satidas, of the tribe of Tak, whose ancestors had been reduced from power and wealth by the ancestors of the Bhatti prince, determined to avange himself and informed the king that some of the children were concealed in the house of a banker (Sahookar). The king sent the Tak with a party of troops and surrounded the house of Shridhar, who was carried before the king where he would put all his family to death, if he did not produce the young prince of Salibahan. The alarmed banker proiested that he had no children of the Raja's, for that, the infants who enjoyed his protection were the offspring of a Bhomia, who had fled on the invasion, deeply in his debt. But the king ordered him to produce them, he demanded the name of their village, sent for the Bhumias belonging to it, and not only made the royal infants of Salibahan eat with them but marry their daughters. The banker had no alternative to save their lives but to consent; they were brought forth in the peasant's garb, ate with husbandmen (jatt) and were married to their daughters. Then of spring of Kulur-Raj became Kulloorea Jatts. Those of Mond Raj and Shiva Raj, Monda and Sheora Jatts, while the younger Phool and Kevala, who were Passed as a barber (Nai) and a potter (Khomar) fell into the class.

विद्यावारिधि जी ने इसका अनुवाद यों किया है : 'जिस समय मंगल राव अपने पिता के राज्य से भाग गए उस समय उनके पुत्रों की रक्षा प्रजा ने गुप्तभाव से की थी। तक्षक जातीय सतीदास नाम का एक भूमियाँ था, जिसके पूर्व पुरुष गण पुरातन भट्टी राजाओं के द्वारा सामर्थ्यहीन हो अत्यन्त दीन दशा में पड़े थे। उसने पिता का प्राचीन बदला लेने की इच्छा से विजय पाए हुए म्लेच्छराज से प्रगट किया कि मंगलराव के कितने ही पुत्र और कुटुंब के मनुष्य इसी नगर में एक महाजन के घर रहते हैं। म्लेच्छराज ने उसके यह वचन सुन कर शीघ्र ही अपनी सेना को उसके साथ भेज दिया। सतीदास उस सेना के साथ उक्‍त श्रीधर महाजन के घर गया और उसको पकड़ कर राजा के सम्मुख ले आया। म्लेच्छराज ने श्रीधर से कहा कि यदि तुम शालिवाहन के प्रत्येक राजकुमार को मेरे सम्मुख नहीं लाओगे, तो याद रखो कि तुम्हारे कुटुंब में एक को भी जीता न छोड़ूँगा। इस पर महा भयभीत हो कर महाजन श्रीधर ने विनय कर के मलेच्छराजा के सम्मुख निवेदन किया कि मेरे यहाँ राजा का एक पुत्र भी नहीं हैं। जो कई बालक मेरे यहाँ रहते हैं वह एक भूमियाँ के पुत्र हैं। वह भूमियाँ मेरे ऋण से बँधा हुआ इस युद्ध के समय भाग गया है। म्लेच्छराज ने महाजन के उन वचनों पर किंचित भी ध्यान नहीं दिया और शीघ्र ही बालकों को अपने सम्मुख लाने की आज्ञा दी। जब महाजन श्रीधर ने देखा कि राजकुमारों के प्राणों की रक्षा के और कोई उपाय नहीं हैं तब उनके प्राणों की रक्षा करने के लिए वह म्लेच्छराजा की आज्ञानुसार कार्य करने में सम्मत हुआ। शीघ्र यदुवंशी राजकुमार किसान के बालक के वेष में म्लेच्छराजा के सम्मुख लाए गए और म्लेच्छराजा ने उनके साथ भूमिहारों की कन्या का विवाह कर दिया। इस प्रकार से शालिवाहन के वंश में उत्पन्न संपूर्ण राजकुमार जो श्रीधर के घर में थे उनमें कलोर के पुत्र कलोरिया जाट, मुंदराज और श्योराज के पुत्र मुंदाजत और शिवराजत नाम से विख्यात हुए। कुमार फूल और कुमार केवला का नाई और कुम्हार के पुत्र कह कर म्लेच्छराजा के सन्मुख परिचय दिया था, इस कारण उन दोनों जनों के वंशवाले उन दोनों श्रेणियों में गिने गए।

यह अनुवाद मूलग्रन्थ से प्राय: सम्बन्ध नहीं रखता। बहुत जगह ऊपर से मिला भी दिया गया है, और मूलग्रन्थ में कितने ही वाक्य छोड़ भी दिए गए हैं। साथ ही, श्योरा जाट और मुंदा जाट जो मूल में लिखे गए हैं, उनको शिवराजत और मुंदाजत लिखा गया है, अंग्रेजी में जो 'जाट' (Jatt) शब्द लिखा गया है उसका 'जत' अर्थ किया है। इसमें छल तो ऐसा हैं इस इतने लेख में मूलग्रन्थ में 3 या 4 जगह भूमियाँ (Bhoomia) शब्द आया है जिनमें से और जगह तो आपने उसका दूसरा अर्थ न कर केवल 'भूमियाँ' ही लिख दिया है, परंतु एक जगह मध्य में उसका अर्थ 'भूमिहार' कर दिया, जिससे लोग धोखे में पड़ जावे कि उन्होंने भूमियाँ का अर्थ 'भूमिहार' नहीं किया है किंतु सचमुच ही कोई और 'भूमिहार' जाति वहाँ थी, जिसकी लड़कियों का विवाह शालिवाहन के लड़कों से हुआ। भला इस सज्जनता का कहीं ठिकाना हैं? आगे चल कर जब फिर 'कर्नल टाड' ने अपने ग्रन्थ के तृतीय परिच्छेद, आमेर व जयपुर के ही इतिहास के 341वें पृष्ठ में बदनसिंह का इतिहास लिखते हुए साफ-साफ लिखा कि 'And when through the intercession of Jey Singh and guarantee of the Bhumia Jatts he was liberated' अर्थात जब जयसिंह के बीच में पड़ने और अन्य भूमियाँ जाटों की जिम्मेदारी पर बदनसिंह छोड़ दिया गया' इत्यादि। तो आप वहाँ भी भूमियाँ जाट का अर्थ 'भूमिहार जाट' करने में न चूके, जिससे भूमिहार ब्राह्मणों को जाट ही बना डालने में कोई संदेह न रह जावे। इस प्रकार से उस पुस्तक-भर में बहुत सी जगहें हैं, जहाँ पर इन मिश्र बंधुओं की विचित्र लीला देखने में आती है। कहीं तो आप 'भूमियाँ' ही लिख डालते हैं परंतु कहीं पर उसकी ही जगह 'भूमिहार'। शायद ऐसी चाल चलने में लोगों को पूर्वोक्‍त धोखा देने के अतिरिक्‍त आपने अपने 'जातिनिर्णय' में लिखे गए 'भूमिहार' शब्द पर आक्रमण होने पर उससे बचने के लिए यह भी उपाय सोचा हो कि हमने तो अन्य ही भूमिहारों के विषय में, यह बात लिखी है, न कि भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में, ऐसा कह कर निकल जावेंगे। इससे स्पष्ट है कि विद्यावारिधि जी भूमिहार ब्राह्मणों की खबर लेने के पीछे जी-जान से पड़े हैं। परंतु विद्यावारिधि महाशय! स्मरण रहे, ब्राह्मणों से लगने से किसी का कल्याण नहीं हुआ। यदि एक भी ब्राह्मण की दृष्टि बदल जावे, तो वारिधि का पता न लगेगा।

अब 'भूमिहारोत्पत्ति' नामक ग्रन्थ के तत्वों को देखिए। यह ग्रन्थ डुमराँव के भूतपूर्व पं. दुर्गादत्त परमहंस जी के वंशजों के परमप्रिय शाकद्वीपी अक्षयवट मिश्र ने पं. शिवबालक त्रिपाठी के नाम पर लिखा और अपने नाम पर उसका मिथ्या भाषानुवाद कर के सीधे-सादे चौधरी अविलंब राय जी डुमराँव निवासी भूमिहार ब्राह्मण के नाम पर प्रकाशित करवाया है। जिससे उसके विषय में कानून से भूमिहार ब्राह्मण समाज को बोलने की जगह न रह जावे और फिर उक्‍त परमहंस जी के वंशजों ने ही चेलों में उसे मुफ्त बाँट दिया। प्रथम तो जिस स्कंदपुराण के 11वें अध्याय में इस बात को वे बतलाते हैं, यदि उसी अध्याय में हमें आज मुद्रित पूर्वोक्‍त पुराण में उसे दिखला दे तो हमें भी उनकी बुद्धिमत्ता का पता लग जावे। हाँ, धर्मारण्य महात्म्य के 10वें अध्याय में इस प्रकार का एक आख्यान आता है। परंतु उस आख्यान और इस पुस्तक में लिखे हुए आख्यान में बहुत अन्तर है। एक तो उस अध्याय में 60 श्‍लोक मिलते हैं, परंतु आपकी पुस्तक में 55 ही। दूसरी बात यह है कि जिस 'कुचर' शब्द का आप कई जगह प्रयोग इस पुस्तक में करते और उसका अर्थ जबर्दस्ती भूमिहार करते हैं, उसका पता उस ग्रन्थ में है ही नहीं, किंतु उसकी जगह 'कुमार' शब्द आया है और जो भी श्‍लोक आपने लिखे हैं, वे मुद्रित श्‍लोकों से आधे मिलते हैं, परंतु आधे नहीं मिलते। इसके अतिरिक्‍त आप पुस्तक के अन्त में लिखते हैं कि: 'इति श्रीस्कंद पुराणे पातालखंडे धर्मारण्य महात्म्यवर्णने भूमिहारोत्पत्ति वर्णन नापैकादशोऽध्याय:'। इसका अर्थ यह लिखा है कि 'इति श्रीस्कंदपुराण के पाताल खण्ड में धर्मारण्य महात्म्य वर्णन में भूमिहारोत्पत्ति वर्णन नामक ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ।'

परंतु हम समझते हैं कि इस पुस्तक लिखने के समय लेखक जी की बुद्धि रसातल में ही चली गई थी। इसीलिए रसातल के समीपवर्ती पाताल खण्ड में लिखी गई यह बात उन्होंने बतलाई है। क्योंकि स्कंदपुराण में तो पातालखण्ड है ही नहीं। जैसा कि लिखा है कि :

माहेश्‍वरोवैष्णवब्राह्मकाश्यास्त्ववन्तिका नागरमत्रा षष्ठम्।

प्राभासिकोविप्रवरेणखण्डा: स्कान्देपुराणेकथिता: सुपुण्या:॥

अर्थात 'स्कंदपुराण में माहेश्‍वर, वैष्णव, ब्राह्म, काशी, अवंतिका, नागर और प्रभास ये सात ही खण्ड है।' इसीलिए पूर्वोक्‍त कथा ब्राह्मखण्ड में ही मिलती है। परंतु वहाँ भी अन्त में ऐसा नहीं लिखा है, जैसा कि आप लिखते हैं कि 'भूमिहारोत्पत्ति वर्णन समाप्त हुआ। किंतु वहाँ तो यह लिखा गया है कि इस अध्याय में बनियों की उत्पत्ति और वाडवों (ब्राह्मणों) की सेवा के लिए उनके स्थापन का वर्णन है। जैसा कि लिखा है कि :

इति श्रीस्कान्देमहापुराणे एकाशीतिसाह् यांसंहितायां तृतीये ब्राह्मखण्डे पूर्वभागे धर्मारण्यमाहात्म्ये वाणिक्परिग्रहवर्णनंनाम् दशामोऽध्यायं।

अर्थात 'इक्यासी हजार श्‍लोकवाले स्कंदमहापुराण के तृतीय ब्रह्मखंडांतर्गत पूर्व भाग के धर्मारण्य महात्म्य प्रसंग में वणिक लोगों की उत्पत्ति प्रभृति का वर्णन नामक दशम् अध्याय समाप्त हुआ।' इसलिए भूमिहारोत्पत्ति लिखना केवल आँख में धूल झोंकना है। इसीलिए उस अध्याय भर में बीसों जगह वणिक शब्द उन अनुचरों के लिए आया है और उनकी संज्ञा (नाम) गोभुज बतलाई गई है। परंतु आपने ऐसा यत्‍न किया है कि बहुत से 'वणिक' शब्दों को निकाल ही दिया है और यदि दो-एक को रखा भी है, तो उसका अर्थ बनिया न कर के 'भूमिहार' किया है और बहुत से 'वणिक' शब्दों की जगह 'गोभुज' शब्द या 'कुचर' शब्द लिख कर इन दोनों शब्दों का अर्थ भूमिहार ही किया है। जैसा कि वहाँ एक श्‍लोक यों है :

अन्नपानादिकं सर्वं समित्कुशफलादिकम्।

आपूरयन द्विजातीनां वणिजस्ते गवात्मजा:॥

जिसका अर्थ यह है कि 'कामधेनु द्वारा उत्पन्न किए गए वे वणिक (बनिए) उन ब्राह्मणों के अन्न, पान, समित, कुश और फल वगैरह लाया करते थे।' परंतु आप अपनी पुस्तक में उसमें और सब ज्यों का त्यों लिखते हैं, केवल 'गवात्मजा:' इस पद की जगह 'गोभुजा:' लिखते हैं और उसका अर्थ करते हैं कि 'कि वे सब गोभुज (भूमिहार) दिव्य सुंदर पवित्र धर्मारण्य में बस कर अन्न, जल, लकड़ी, कुश, पुष्प,फल आदि पदार्थों को समय-समय पर ला कर उन सब ब्राह्मणों का कार्य पूर्ण करने लगे।' इससे पूर्व के श्‍लोक में लिखा है कि 'वाणिजश्‍चमहादक्षा द्विजशुश्रुषणोत्सुका:।' अर्थात 'वे वणिक बहुत कुशल और ब्राह्मणों की सेवा में उत्कंठित थे।' परंतु इस 'वणिक' पद का अर्थ भी आपने 'भूमिहार' ही किया है। इसके बाद लिखा हुआ है कि :

वणिक्पत्नी प्रकुरुते कण्डनं पेषणादिकम्।

अर्थात 'उन बनियों की स्त्रियाँ उन ब्राह्मणों के अन्न कूटतीं और पीसती थीं। परंतु आप लिखते हैं कि 'उन गोभुजों (भूमिहारों) की स्त्री ब्राह्मणों के गृह में कूटना-पीसना आदि सकल गृह कार्यों से सेवा करने लगीं', इससे प्रथम ही एक स्थान में लिखा गया है कि :

गृहीत्वा प्रददौ सर्वावणिग्भ्यश्‍च तदा नृप।

अर्थात 'हे राजन गंधर्वराज ने सभी कन्याएँ उन वणिकों (बनियों) को दे दीं।' परंतु आप 'वाणिग्भश्‍च' इस शब्द की जगह 'गोभुजेभ्य:' ऐसा पद लिख कर ऐसा अर्थ करते हैं कि 'हे राजन उन सब कन्याओं को ला कर उन गोभुजों (भूमिहारों) के साथ शिव जी ने विवाह कर दिया।' तात्पर्य यह है कि उन ब्राह्मणों की सेवा के लिए 36000 वणिक उत्पन्न किए गए थे, जिनका नाम गोभुज था। इसीलिए 'गोभुजा ये वणिग्वरा:' 'गोभुजेभ्य: प्रदीयताम' वगैरह वाक्यों में 'गोभुज बनियों को दे दो' इत्यादि लिखा गया है और उसी धर्मारण्य महात्म्य के 32वें अध्याय में स्पष्ट शब्दों में वैश्य लिख दिया है। जैसा कि -

षट्त्रिंशच्च सहस्त्राणि वैश्या धर्मपरायणा:।

आर्यवृत्तास्तु विज्ञेया द्विजशुश्रूषणे रता:॥ 40॥

अर्थात 'उस धर्मारण्य में धर्म परायण, परम सदाचारी 36000 वैश्य थे और वाडवों (ब्राह्मणों) की सेवा में दिन-रात लगे रहते थे।' इसीलिए उस अध्याय-भर में वणिक और गोभुज शब्द लगातार उनके लिए आते गए हैं। परंतु आपने सभी जगह अपनी अगाध पंडिताई से उनका अर्थ 'भूमिहार' किया है। और कहीं-कहीं कुचर शब्द भी ऊपर से डाल कर उसका अर्थ भी ऐसा ही किया है। इससे आपकी सज्जनता और ब्राह्मणता का पूर्ण परिचय मिलता है।

अच्छा पंडित जी! भला यह तो बतलाएँ कि 'वणिक', 'गोभुज' और 'कुचर' इन तीनों शब्दों का जो आपने भूमिहार अर्थ किया है, उसमें कोई कोश, व्याकरण अथवा निरुक्‍त आदि प्रमाण हैं, या केवल गपोड़ा ही हाँका गया है। यदि ऐसा ही मनमाना अर्थ करना था, तो उसका 'मिश्र' अर्थ कर के अपने ही वंश में क्यों न लगा लिया? दूर तक परेशान होने की आवश्यकता ही क्या थी? यदि शायद आपने ऐसा अर्थ लगाया हो कि गो+भुज अर्थात पृथ्वी के पालनेवाले और कु+चर पृथ्वी (भूमि) को प्राप्त करनेवाले। क्योंकि गो नाम पृथ्वी का हैं और 'भुज' धातु पालने अर्थ में हैं। इसी प्रकार 'कु' नाम भूमि का है और 'चर' धातु का अर्थ 'प्रति' हैं, जिससे प्राप्ति भी ली जाती है। तो फिर गो नाम गाय का हैं और भुज धातु का भोजन भी अर्थ है। अर्थात गौ को ही खा जानेवाला कसाई ऐसा ही अर्थ क्यों न कर लिया? इसीलिए तुलसीदास जी ने भी 'मरु मालव महिदेव गवाशा' इस जगह गवाश का अर्थ गौ को भक्षण करनेवाला कसाई किया है। इससे भी अच्छा होता कि उसका अर्थ ऐसा कर लेते कि कुचर अर्थात पृथ्वी में घूमनेवाला, यानी भिक्षा वगैरह के लिए जो दिन-रात इधर-उधर घूमा करे ऐसा ब्राह्मण ही कुचर कहलाता है। इसीलिए सत्यनारायण की कथा में लिखा है कि 'ब्राह्मणोऽतिदरिंद्रोऽहं भिक्षार्थ भ्रमणं मम।' अर्थात 'मैं अति दरिद्र ब्राह्मण भिक्षा के लिए पृथ्वी में घूमा करता हूँ। तो ऐसा करने से आप ही 'कुचर' कहलाते और वह वृतान्त आपके ही वंश का हो जाता, जिससे आपको अपने वंश का इतिहास पृथक न लिखना पड़ता। इसी प्रकार से गोभुज का भी अर्थ गाय की भुजा या पूँछ पकड़नेवाला (क्योंकि गोदान के समय आपके भाई पुरोहित लोग ऐसा किया, कराया करते हैं) ऐसा कर के अपने ही वंश के विषय में उसे क्यों न लगा लिया?

अथवा वे गोभुज वणिक पृथ्वी को फाड़ कर बाहर आए थे, इसीलिए गो भुज कहलाते थे। क्योंकि 'भुज' धातु का अर्थ 'तोड़ना' भी होता है और देवताओं ने ही उन्हें भूमि से इस प्रकार निकाला था। और आपका याचक समाज भी भूसुर कहलाता है, जिसका वही अर्थ हो सकता है कि भूमि से देवताओं द्वारा उत्पन्न किए (पाए) गए। क्योंकि सृ धातु का गति अर्थ है और गति कहते हैं प्राप्ति को भी। इसलिए वे सभी बातें आप में ही घट जावेगी। आप दूसरे की उत्पत्ति के लिए क्यों व्यग्र हैं? इसलिए मनमाना अर्थ करने से आप ही का ठिकाना न लगेगा। 'त्रिपाठी और मिश्र जी! जैसी बिना सिर-पैर की मिथ्या रचनाएँ आप लोग इस ब्राह्मण समाज के विपरीत किया करते हैं, वैसी ही सहस्रों रचनाओं का आपके समाज या वंश के विषय में करना कुछ कठिन नहीं है, जिन्हें देखते ही आपकी सुबुद्धि ठिकाने आ जावे। परंतु हम ऐसी सज्जनता करना नहीं चाहते। ये सब बातें आप ऐसे ही पंडितों और सज्जनों को मुबारक हों।

जैसी दृष्टि आपने गोभुज वणिकों के ऊपर दी है, वैसी ही यदि उन ब्राह्मणों पर दृष्टि दी होती, जिनकी सेवा के लिए वे वणिक उत्पन्न किए गए, तो यह होता कि अयाचक ब्राह्मणों की सच्ची स्थिति का परिचय आपको अवश्य ही लग गया होता। क्योंकि हम प्रथम प्रकरण में ही यह अच्छी तरह से दिखला चुके हैं कि वे सभी ब्राह्मण धर्मारण्य का राज करते और याजन, अध्यापन एवं प्रतिग्रह से रहित हो कर इन भूमिहार ब्राह्मणों के ही सदृश त्रिकर्मा थे। और आपका पुरोहित समाज तो त्रिकर्मा होना स्वीकार नहीं करता और वास्तव में हैं भी नहीं। इसलिए वे धर्मारण्यस्थ ब्राह्मण भूमिहार ब्राह्मणों द्वारा पूर्व पुरुष न थे तो और कौन थे? यह बात भी हम प्रबल प्रमाणों द्वारा पूर्व प्रकरण में ही सिद्ध कर चुके हैं कि उन्हीं ब्राह्मणों के वंशजों का प्रथम भूमिहार नाम या विशेषण पड़ा। यह भी तो आप विचारें कि प्रथम घर दीया जला कर पश्‍चात मस्जिद में जलाया है। इसलिए भूमिहार ब्राह्मणों की उत्पत्ति की चिंता में आप क्यों पड़े हैं? प्रथम सर्यूपारियों, शाकद्वीपियों या कान्यकुब्जों की उत्पत्ति का तो पता लगाइए। क्योंकि वेदों, पुराणों या स्मृतियों में तो केवल ब्राह्मण की ही उत्पत्ति लिखी गई है। वहाँ तो सर्यूपारी, शाकद्वीपी या कान्यकुब्ज शब्द का नाम भी नहीं हैं और विशेषत: शाकद्वीपी का।

अस्तु, यह तो हुई पं. दुर्गादत्त परमहंस जी के वंशजों अथवा प्रियपात्रों की काली करतूत। अब स्वयं परमहंस जी की ही पंडिताई और परमहंसता देखिए। आपके बनाए हुए स्वकीय 'दिग्विजय' नामक ग्रन्थ और उसकी मिथ्या उक्‍तियों का परिचय भूमिका में अच्छी तरह से देख चुके हैं। अब केवल यही दिखलाना है कि आपने अपनी शुभ लेखनी से भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में क्या लिखा है और वह कहाँ तक सत्य हैं। आपकी उस पोथी का नाम हैं 'श्रीमद्योगिवर्य विप्रराजेंद्र दिग्विजय'। जो डुमराँव में संवत 1941 में छपी है। उसके 28वें पन्ने में ऐसा लिखा हुआ है:

रक्षणार्थं च विप्राणां भूमिहारोऽपिचाभ्यगात्॥ 21॥

अर्थात 'इसी प्रकार से ब्राह्मणों की रक्षा के लिए भूमिहारों की भी उत्पत्ति हुई।' इसी श्‍लोक की टीका करते हुए लिखते हैं :

एवं परशुरामानुकंपया भूमिहारोऽप्यभूदित्याह रक्षणार्थमिति। तदुक्तं स्कान्दे धर्मारण्यखण्डे, तद्यथा 'अनुतान्ब्राह्मणान्दृष्ट वा निश्शिरस्कान्कृतान्भुवि। कृतवान्यामग्न्यो हि तत: प्राह: पलायितान॥ विप्रा वयं क्षमस्वागो ब्रु वतस्तान्मुनीश्‍वर:। भवक्ष्वं ब्राह्मणा यूयं धर्मतो विप्ररक्षका:॥' इत्यादिना तत्रौव विस्तार:।

इसका भावार्थ यह है कि 'इसी प्रकार भूमिहार लोग भी परशुराम जी की ही कृपा से हुए, इसी बात को मूल ग्रन्थ में 'रक्षणार्थं च' इत्यादि श्‍लोक द्वारा दिखलाया हैं कि जब परशुराम जी ने बहुत से क्षत्रियों का सिर काट उन्हें भूमि पर गिरा दिया, तो उस समय बहुत से क्षत्रियों ने अपने को ब्राह्मण बता कर भागना शुरू किया और कहा कि हम लोग ब्राह्मण हैं, हमारा अपराध क्षमा कीजिए। इस पर परशुराम जी ने उनसे कहा कि अच्छा, जाओ, आज से तुम लोग ब्राह्मण धर्मवाले हो जाओ और ब्राह्मणों की रक्षा किया करो, इत्यादि वार्ता उसी जगह विस्तारपूर्वक लिखी गई है।

इस कथन में बड़ी-बड़ी विचित्रताएँ भरी हुई हैं। प्रथम तो यह है कि आप भूमिहार ब्राह्मणों की उत्पत्ति या स्थिति इस प्रकार की लिखते हैं, परंतु आपके ही प्यारे संबंधी लोग इससे विपरीत ही लिखते हैं। इसलिए प्रथम आप लोग घर में ही निपटारा करा ले कि दोनों में कौन झूठा हैं और कौन सच्चा। क्योंकि एक को तो अवश्य ही मिथ्याभाषी मानना होगा, क्योंकि एक ही बात दो विरुद्ध प्रकारों की हो ही नहीं सकती। आपके मुकाबिले में तो उनकी ही बात मानी जा सकती है, क्योंकि उन्होंने कुछ गलत या सही वहाँ का ग्रन्थ तो लिख दिया है, चाहे अर्थ करने में भले ही अनर्थ कर गए हैं। इसीलिए उनकी बात पहले ही खंडित हो चुकी हैं। परंतु आपके पूर्वोक्‍त कथन में तो कुछ प्रमाण नहीं हैं। आप पूर्वोक्‍त स्वकपोलकल्पित श्‍लोकों को 'धर्मारण्यखण्ड' के बतलाते हैं, परंतु वहाँ परशुराम जी का प्रसंगमात्र भी नहीं हैं। तो फिर उन श्‍लोकों का वहाँ पता कैसे लग सकता है? धर्मारण्य महात्म्य नाम का एक प्रकरण स्कंदपुराण के ब्रह्मखण्ड में हैं, न कि धर्माख्य खण्ड नाम का कोई खण्ड स्कंदपुराण में हैं, जैसा कि प्रथम में ही दिखला चुके हैं। उस धर्मारण्य महात्म्य में भी केवल 40 अध्याय हैं, जिनमें भगवान रामचंद्र जी की धर्मारण्य में यात्रा और ब्राह्मणों का विशेष रूप से वर्णन है। वहाँ तो परशुराम जी का कोई भी प्रसंग आया ही नहीं। हाँ, उसी पुराण के केवल नागर खण्ड में एक जगह हाटकेश्‍वर महात्म्य वर्णन प्रसंग से परशुराम जी की लीला का वर्णन आया है, जैसा कि प्रथम प्रकरण में दिखला चुके हैं। परंतु आपके दुर्भाग्य से वहाँ भी आपके इन कल्पित श्‍लोकों का पता नहीं हैं। बल्कि जो कुछ आपने लिखा है, उससे बिलकुल विपरीत ही वहाँ पाया जाता है। जैसा कि प्रथम ही दिखला चुके हैं कि परशुराम जी ने अपनी दारुण प्रतिज्ञा की रक्षा के लिए युवा, वृद्ध, रोगी, बालक और गर्भस्थ बालक तक को भी मार डाला है, जिससे कोई भी बचने न पाया। इसीलिए फिर ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रियों की बची हुई स्त्रियों ने लड़के पैदा किए हैं। परंतु उनका भी पुन: उसी प्रकार से नाश किया है। इसी तरह 21 बार तक परशुराम जी ने किया। यही वार्ता इसी प्रकार ब्रह्मवरैवत्तापुराण, गणेशखण्ड में लिखी हुई है। फिर नहीं मालूम कि परमहंस महोदय जी को इसके विपरीत लिखने का साहस क्यों कर हुआ?

चाहे पूर्वोक्‍त बातें वहाँ न भी लिखी रहें, परंतु आपकी बातें तभी मानी जातीं, यदि आपके लिखे श्‍लोक वहाँ मिल सकते। आपको इतना विचार नहीं कि जिस दारुण प्रतिज्ञा के लिए परशुराम जी को महादेव जी प्रभृति ने बहुत ही रोका, जैसा कि ब्रह्मवैवर्त्त देखने से विदित होता है। परंतु उन्होंने न माना और यही कहा कि अब तो प्रतिज्ञा कर ही चुके। उसी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहने पर यदि कोई मिथ्या ही कह दे कि हम क्षत्रिय नहीं हैं तो वे कैसे मान सकते थे? क्या वे आपकी तरह योगी न थे? या अल्पज्ञ ही थे, जिससे ब्राह्मण कहनेवाले क्षत्रियों को न पहचाना? और यदि उन्होंने अपने को ब्राह्मण ही कहा, तो फिर जैसा कि आप लिखते हैं, उन्हें भागने की क्या आवश्यकता थी? क्या उन्होंने ब्राह्मणों के भी मारने का प्रण किया था? क्या ऐसी दशा में भी परशुराम जी ईश्‍वर हो कर उन्हें न पहचान सके, जबकि सामान्य मनुष्य भी पहचान सकता है? संभवत: वे आपके सदृश योगिराज न रहे हों। उन्होंने 'तुम लोग ब्राह्मणधर्मवाले हो जाओ' ऐसा कह दिया और ईश्‍वर थे ही, और साथ ही, वह सत्ययुग या त्रेता का समय था। तो उस समय तो बहुत लोगों की जातियाँ तपोबल या किसी के वरदान से बदल भी सकती थीं, जिसके लिए शतश: दृष्टांत पुराणों में भरे पड़े हुए हैं और व्यास, वसिष्ठादि की उत्पत्ति के विषय में उन्हीं पुराणों में विचित्र व्याख्यान दिए गए हैं और उन्हीं के वंशज होने का दम आप लोग भरते हैं। तो फिर भूमिहार ब्राह्मणों में, आपका कथन स्वीकार कर लेने पर भी, अपने से कौन कमी देखते हैं, जिसके लिए उनके ऊपर इतना कटाक्ष है? यदि आप विचारें, तो ऐसा भी मान लेने पर आप लोगों की उत्पत्ति अच्छी ही ठहरेगी।

विचार से तो यही प्रतीत होता है कि जिन क्षत्रियों को परशुराम जी ने ब्राह्मण कहा, वे आप ही लोग हैं। क्योंकि उन्होंने उनके लिए यह आज्ञा दी थी कि तुम लोग ब्राह्मणों की रक्षा करना, और वह धर्म आप में ही पाया जाता है। क्योंकि आपका यह मिथ्या दिग्विजय केवल इसीलिए रचा गया है कि जिसमें पुरोहितों को ऐसी प्रशंसा की जावे, कि जब तक सृष्टि रहे तब संसार उनकी पूजा ही करता रहे, चाहे वे कैसे हूँ पतित हो जावे। भला इससे बढ़ कर ब्राह्मणों की रक्षा और क्या हो सकती है? जैसे भानमती के पिटारे से आपने ये कल्पित श्‍लोक निकाले हैं, वैसे ही श्‍लोक यदि हम भी आपके वंश के विषय में गढ़ कर लिख दे और उनका पता भी बतलावें कि पद्य या स्कंदपुराण के गप्प खण्ड में ये श्‍लोक लिखे गए हैं, तो आपको भी उन्हें मान कर हवा खानी होगी। हम अच्छी तरह से जानते हैं कि आपके इस विष-वमन का एक मात्र कारण यही हैं कि भूमिहार ब्राह्मणों से ही आपके वंश की विशेष रक्षा होती है। मगर आप लोग रक्षा के पात्र नहीं हैं। इसलिए आप लोगों को भूमिहार ब्राह्मणों का मान लेना क्या हो गया, गोया साँप को दूध का पिलाना। इसीलिए उसके बदले में आप काटने के लिए सपरिवार कटिबद्ध हैं और बीसों प्रकार की मिथ्या रचनाएँ ऐन्द्रजालिक की तरह किया करते हैं। जिससे सर्वदा के लिए ये लोग आपके पशु बने रहें। परंतु अब आपका यह छल नहीं चलने का। क्योंकि आपकी सज्जनता और परमहंसता का पता लोगों को चल गया।

अब हम पाठकों को किसी दूसरे मिथ्या दिग्विजय का हाल सुनाते हैं। उसकी भी पोपलीला देखनी चाहिए। इस पवित्र पुस्तक का शुभ नाम है 'जगतराज दिग्विजय', जो संवत 1960 में चरखारी खास प्रेस में छपी है। इसके रचयिता हरिकेश कवि महाशय हैं। हरिकेश जी ने पूर्वोक्‍त दुर्गादत्त परमहंस का ही अनुकरण किया है और उन्हीं की बातों को अपनी पोथी में भी उतार उसे पवित्र किया है। आप अपनी इस पोथी के 169, 170 और 171 पृष्ठों में संवत् 1777 या सन 1720 ई. में जगतराज की काशी यात्रा का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि उनके काशी में पहुँचने पर काशिराज उनसे आ कर मिले, और उसी प्रसंग में परशुराम जी वाली पूर्वोक्‍त बात इस प्रकार लिखते हैं-

दोहा

काशी नृप द्विजकुल करण, मिल्यो आय अगवान।

दै अशीश कर शीश धारि, भेंटयो जगत दिमान॥ 101॥

चौपाई

बूझत जगत राज सब पाहीं। ये द्विज कै क्षत्रिय कोउ आहीं॥

अगंद कह्यो मर्म सुनि लीजै। इन नृप को द्विज आसन दीजै॥ 402॥

परशुराम क्षत्रिन प्रति कोपे। क्षत्रा धर्म क्षत्रिन के लोपे॥

तब इन विप्ररूप धारिलीन्ह्यों। जामदग्न्य प्रति आशिष दीन्ह्यों॥

तब ते ये भुवहार कहाए। जबते क्षत्रिय धर्म दुराए॥403॥

दोहा

क्षत्रिय ते भूसुर बने, तब ते ये महाराज।

अब करुणा करि दीजिए, आपहु इनको राज॥ 404॥

इस जगह कई बातें विचारने योग्य हैं। एक तो यह कि दुर्गादत्त की ही नकल की गई है, इसलिए उसी के खण्डन से इसका भी खण्डन हो गया। क्योंकि इसमें प्रमाण ही नहीं हैं। दूसरी बात यह है जिस सन 1720 ई. का हाल हरिकेश ने लिखा है उस समय काशी का राजा मुगल बादशाह मुहम्मदशाह या और कोई था। भूमिहार ब्राह्मणों को काशी का राज्य राजा मनसाराम जी के समय में सन 1730 में या उसके बाद 1732, 1733 या 1734 में मिला है। यद्यपि ठीक तिथि में मतभेद हैं, तथापि 1730 के बाद ही मिला है इसको तो सभी इतिहास लिखनेवाले मानते हैं और बलवंतनामे में, जैसा कि दिखला चुके हैं, 1733 या 34 ई. में लिखा गया है। इसलिए सिवाय हरिकेश कवि के स्वप्न या मनोराज्य के उस लेख को और क्या कहना चाहिए? तीसरी बात यह है कि जगत राज कौन से चक्रवर्ती राजा थे, जो काशी में आ कर काशिराज को राजतिलक देने लगे? और उन्हें राजतिलक देने का कौन सा अधिकार था? उस समय काशी का राज्य भी मुगल बादशाहों के ही हाथ में था। सबसे बड़ी बात तो यह है कि यदि उस समय कोई काशी का राजा हिंदू था, तो उसका नाम उन्होंने क्यों न लिख दिया? इसलिए ये सब केवल मिथ्या बातें लिख कर कवि ने अपनी अभिज्ञता और सज्जनता का परिचय मात्र दिया है। इसके अतिरिक्‍त जब स्वयं ही अपने कल्पित काशी राज 'द्विजकुल्लकरण' अर्थात 'ब्राह्मण कुल में करण के सदृश दानी और 'द्विज' या 'भूसुर' अर्थात ब्राह्मण लिखते हैं, क्योंकि उनके ग्रन्थों में वहाँ 'द्विज' पद ब्राह्मण का ही वाचक हैं। इसीलिए राजा ने पूछा भी हैं कि ये क्षत्रिय हैं या द्विज अर्थात ब्राह्मण हैं? तो फिर इस विषय में विवाद ही क्या हो सकता है? क्योंकि ऐसा तो सभी ब्राह्मणों के विषय में पुराणों में मिल सकता है! हरिकेश कवि कोई ऋषि या सर्वज्ञ तो थे ही नहीं, कि बिना प्रमाण के ही उनका कहा मान लिया जावे और परशुरामवाले इस आख्यान में कोई भी प्रमाण नहीं मिलता जैसा कि सिद्ध कर चुके हैं। यदि ऐसे बिना प्रमाण के ही गाल बजाना है तो हरिकेश के भी बाप-दादों के विषय में हम वैसे-वैसे बहुत से कल्पित दिग्विजय लिख सकते हैं।

भूमिहार नाम पड़ने का कारण उन्होंने जो कुछ बतलाया है वह क्या ही बुद्धिमत्ता से पूर्ण हैं! क्यों महाशय जी! क्षत्रिय का वेश छिपा कर ब्राह्मण वेश धारण कर लेने और परशुराम जी के आशीर्वाद देने से भूमिहार नाम कैसे पड़ गया? हाँ ऐसा हो सकता था, कि भूमि युद्ध स्थल को कहते हैं, इसलिए यदि वे लोग लड़ते-लड़ते वहाँ हार कर कट मरते तो भूमिहार नाम भी पड़ सकता था। क्योंकि इस प्रकार जो लड़ कर युद्ध क्षेत्र में प्राण देता है उसे कहा करते हैं कि अमुक पुरुष 'खेत हार गया' 'खेत रहा।' परंतु आप तो ऐसा कहते ही नहीं। यहाँ तक कि भागना भी बताते नहीं, किंतु छलमात्र बतलाते हैं, जिस छल को आपके मत में ईश्‍वरावतार परशुराम जी जान न सके। इससे तो यह भी विदित होता है कि आप महान नास्तिक हैं। क्योंकि ईश्‍वरों की अनभिज्ञता की बातें लिखा करते हैं, जिनका प्राचीन ग्रन्थों में कहीं भी नाम तक नहीं हैं।

एक प्रश्‍न हम आपसे और करते हैं कि यदि भूमिहार नाम त्रेता या सतयुग का है, तो फिर इसे पुरुषों और स्मृतियों में अवश्य आना चाहिए, जैसे चंद्रवंश, सूर्यवंश अथवा कश्यप, वसिष्ठ और गौतम आदि गोत्रों का वर्णन सभी जगह आया करता है। परंतु भूमिहार शब्द तो केवल आपकी ही पोथी में इस प्रकार मिलता है। इसलिए उसे ही आप वेद स्मृति मान ले तो भले ही मान सकते हैं। परंतु हम अथवा विवेकी लोग तो केवल यही कहेंगे कि वह तो केवल इंद्रजाल की टोकरी हैं, जिसमें से ऐसी अलौकिक लीलाएँ निकला करती है, जिनका दूसरी जगह नाम या निशान भी नहीं हैं।

अब 'विशेनवंशवाटिका' नाम की पुस्तक का विचार करते हैं, जो सन 1887 में खंगविलास प्रेस, बाँकीपुर में बाबू रामदीन सिंह द्वारा छपवाई गई है और जिसके रचयिता मझौली क्षत्रिय राजवंश के पुरुष लाला खंगबहादुर मलजी हैं। इस पुस्तक का बहुत सा परिचय भूमिका ही में दिया जा चुका है। अतएव अवशिष्ट अंश का ही विचार यहाँ करेंगे। आपको किसी कारण से या स्वाभाविक ही भूमिहार ब्राह्मणों से वैर था, इसलिए उसका बदला चुकाना चाहते थे। परंतु सभी कामों के लिए बुद्धि की अपेक्षा होती है, इसलिए आपको सफल मनोरथ होने में चूकना पड़ा, जैसा कि अभी विदित हो जावेगा। आप उस पुस्तक के 45वें पृष्ठ में लिखते हैं कि :

मयूर भट्ट ने सामवेद में अधिक परिश्रम किया था। एक बार इन्होंने अयोध्या की यात्रा की। उस समय वहाँ श्रीरामचंद्र के वंशवाले राज्य करते थे। राजा ने इनकी विद्या और तपस्या देख प्रसन्नतापूर्वक अपनी कन्या सूर्यप्रभा का (जिसका प्रण था कि किसी योग्य पुरुष से ब्याही जाऊँ) इनके संग ब्याह किया। फिर राजगुरु ने (जो वसिष्ठ कुल के ब्राह्मण थे) अपनी कन्या नागसेनी को भी इन्हीं से ब्याह दिया। इनके संग एक कुर्मिनी दासी भी आई। कुछ दिनों बाद मयूर भट्ट ने गाधि कुल के चंद्रवंशी राजा की कन्या हय कुमारी से तीसरा ब्याह किया। प्रथम स्त्री (सूर्यप्रभा) से विश्‍वसेन उत्पन्न हुए, जो विश्‍वसेन कुल के प्रथम पुरुष थे। दूसरी स्त्री (नागसेनी) से नागेश भट्ट वा नागेश्‍वर मिश्र हुए, जो मिश्र पयासी के प्रथम पुरुष थे। तीसरी स्त्री (हय कुमारी) के वक्रसाहि वा बाघम्बरसाहि हुए, जो बगौछिया भूमिहार के प्रथम पुरुष थे, इत्यादि। यह जो कुछ हमने सुना था सो लिखा दिया।

इस लेख में कई बातें विचारणीय हैं। प्रथम तो यह देखना चाहिए कि सूर्यवंशीय लड़की से विशेन क्षत्रिय और चंद्रवंशीय से बगौछिया भूमिहार ब्राह्मण हुए, यह कहाँ तक सत्य हैं। इस लेख में विश्‍वास कैसे हो सकता है कि दोनों कन्याएँ जब क्षत्रिय ही जाति की थीं, तो उनमें से एक संतान तो क्षत्रिय हुई और दूसरे की भूमिहार ब्राह्मण? क्या यह कभी हो सकता है कि एक ही प्रकार के क्षेत्र में एक ही प्रकार के बीज बोए जावे, परंतु उनके वृक्ष भिन्न-भिन्न जाति के ही हो जावे? आपने इसमें कौन-सा कारण दिखलाया है कि जिससे दोनों के वंशज दो हो गए? अथवा उलट-पलट क्यों न हो गया? चंद्रवंशीय कन्या के ही वंशज क्षत्रिय क्यों न हो गए और सूर्यवंशीय के भूमिहार ब्राह्मण? यदि आपका ऐसा तात्पर्य हो कि भूमिहार ब्राह्मण को भी हम क्षत्रिय ही मानते हैं, सो तो नहीं कहा जा सकता। क्योंकि भूमिहार ब्राह्मण शिरोमणि द्विजराज श्रीकाशीराज को आप स्वयं ही ब्राह्मण स्वीकार करते हैं। जैसा कि उसी 'विशेन वंश वाटिका' के 24वें पृष्ठ में आपने यह स्पष्ट शब्दों में लिख दिया है कि :

सरवार देश में पयासी, पिंडी और पिपरा मुख्य स्थान है। इसी पिपरा के गौतम मिश्र के वंश में वर्तमान काशिराज भी है।

इसलिए आपको प्रथम अपनी बुद्धि की दवा कर लेनी थी और पीछे ग्रन्थ लिखना उचित था। यह भी देखना चाहिए कि जब एक विवाह उन्होंने याचक दलवाले ब्राह्मण की कन्या से किया, दूसरा क्षत्रिय कन्या से और उनकी तीसरी स्त्री कुर्मिनी थी, तो एक चौथी स्त्री फिर क्यों क्षत्रिय कन्या हो सकती थी? इसलिए वह अवश्य ही दूसरे ब्राह्मण दल अर्थात अयाचक ब्राह्मण की ही रही होगी, यही बात मानी जा सकती है। साथ ही यह भी विचारणीय है कि ब्राह्मण हो कर भी मयूरभट्ट की अधिक स्त्रियाँ अन्य अर्थात क्षत्रिय जाति की थीं, यह बात कभी भी मानी नहीं जा सकती। बल्कि बलात यही मानना होगा कि उनकी दो स्त्रियाँ ब्राह्मणी थीं और तीसरी क्षत्रिय कन्या। कोई मनुष्य किसी जाति का हो, उसकी अधिक स्त्रियाँ अपनी ही जाति की ही हुआ करती है, चाहे; वह विवेकी भी न हो। परंतु भट्ट को आप परम तपस्वी और ऋषि मानते हुए भी उनके विषय में ऐसा लिखते हैं, जिससे उनकी अत्यन्त अधामता सिद्ध हो जाती है। इससे स्पष्ट है कि आपने ऐसा लिखते समय विचार से काम न ले कर केवल द्वेष या स्वार्थांधता ही काम लिया है। इसी से पटल ने आपके ज्ञानचक्षु को आच्छादित कर दिया।

आप तो यह लिखते हैं कि मैंने लोगों से जो कुछ सुना था वह लिख दिया। परंतु हम आपसे ही यह बात पूछते हैं कि इस विषय में अंग्रेजों ने जो कुछ लिखा है, क्या उनके घर इस बात के कोई प्राचीन या उस समय के प्रणीत ग्रन्थ हैं या थे? उन्होंने भी तो यहाँ पर सुन कर ही लिखा है। बल्कि आप रागद्वेष के मारे कुछ नई बात गढ़ कर भी लिख सकते हैं, अथवा लिखी ही हैं, लेकिन वे लोग तो केवल इतिहास प्रेमी होने के कारण अच्छी तरह खोज-पूछ कर जैसा सुनते या पाते हैं वैसा ही लिख देते हैं। इसीलिए जनश्रुति का आदर जैसा वे करते हैं वैसा हम लोग नहीं करते। इसीलिए जाति के विषय में यहाँ जो कुछ भी उन लोगों ने लिखा है केवल जनश्रुतियों के ही आधार पर। अब आप विचारिए कि उन लोगों ने इस विषय में आई वैसी ही जनश्रुति बतलाई है, जैसी आप बतलाते हैं, अथवा आपसे विलक्षण ही वैसी बतलाई हैं, जैसा कि इस विषय में हम अभी अपना अनुमान दिखला चुके हैं। इस विषय में आपके ही ग्रन्थ के प्रमाण देते हैं, जिसमें आप स्वयं ही इलियट साहब की सम्मति दिखलाते हुए लिखते हैं, कि जिससे बाघम्बरसाहि उत्पन्न हुए वह भूमिहार ब्राह्मण की स्त्री थी। जैसा कि उसी विशेन वंश वाटिका के 41वें पृष्ठ में आप इलियट साहब की सम्मति यों लिखते हैं :

विशेनवंश में सलेमपुर और मझौली के राजा मुख्य माने जाते हैं। इस वंश की जड़ मयूरभट्ट थे, जिनके अनेक पूर्व पुरुष नवापार के आसपास (जिसे अब परगना सलेमपुर मझौली कहते हैं) तपस्या करते थे। मयूरभट्ट यद्यपि एक ऋषि थे, तथापि राज्य प्राप्त करने के उत्साह से रहित न हो सके और काशी की यात्रा के पश्‍चात् हाथ में कृपाण धारण कर गंगा और बड़ी गण्डक (नारायणी) के मध्य की पृथ्वी का अधिकांश अपने अधिकार में कर लिया। मयूरभट्ट की चार स्त्रियाँ थीं। जिसमें एक राजपुत्री से विश्‍वसेन उत्पन्न हुए, जिनके नामानुसार विश्‍वेन शब्द प्रचलित हुआ, जो विशेन कुल के प्रथम पुरुष थे। भूमिहारिन से बाघम्बरसाहि हुए, जिनके वंश में कुआरी (हथुआ) और तमखुही राज हैं। ब्राह्मणी से नागेश हुए, जिनके वंशवाले परगना सलेमपुर मझौली में थोड़े से गाँवों के जमींदार हैं। कुर्मिनी से वह पुरुष उत्पन्न हुआ, जिसके वंशवाले स्थान घोसी जिला आजमगढ़ में रहते हैं।

इससे स्पष्ट है कि आप-आप ही अपना खण्डन करते हैं। इसके अतिरिक्‍त मिस्टर नेविल के संयुक्‍त प्रांत के गजेटियर में भी ऐसा ही लिखा है। गोरखपुर के गजेटियर के 110, 117वें पृष्ठों में इस प्रकार लिखा हुआ है :

The early history of the house of Majhauli is lost in the mist of antiquity. The founder is traditionally said to have been an ascetic, bearing the name of Mayur or Mevar, and the story goes that he married three wives of different castes, a Brahmani, a Rajputni and a Bhumiharini, while a further legend states that he kept a Kurmini concubine. From their off spring sprang all the great families of Gorakhpur and the neighbouring country. The house of Tamakhuhi claims descent from the Bhumiharini wife of Mayur.

इसका भाषानुवाद यह है कि मझौली राज का प्राचीन इतिहास पुराने समय के अन्धकार में (कुहरे में) लापता हो गया है। इसके मूल पुरुष की किंवदंती एक तपस्वी के विषय में हैं, जिसका नाम मयूर या मेवार भट्ट था। वह किस्सा इस प्रकार का हैं कि उसकी तीन विवाहिता स्त्रियाँ थीं, जिनमें से एक ब्राह्मणी, दूसरी राजपूतनी और तीसरी भूमिहारिन। यह भी जनश्रुति है कि उसके यहाँ एक-एक कुर्मिनी रखनी भी थी। इन्हीं की संतानों से गोरखपुर और उसके पास के बड़े-बड़े घराने हुए। तमखुही राजवंश भूमिहारिन स्त्री के वंश से बतलाया जाता है।

यही बात फिशर प्रभृति के भी गजेटियरों में पाई जाती है। सन 1865 की मनुष्य गणना की रिपोर्ट में भी मिस्टर डब्ल्यू. चिचाइल प्लाउड़न ने यही लिखा है, जो प्रकाशित अंग्रेजी रिपोर्ट के प्रथम भाग के परिशिष्ट (ब) के 112वें पृष्ठ (Census of the N.W.P. for 1865, Vol. 1, Appendix B.P. 112) में मिलता है और जिसका हवाला 'रेवरेण्ड शेरिंग' (Rev. Sherring) ने अपने हिंदू जाति विवरण के प्रथम भाग के 239वें पृष्ठ में दिया है। और मिस्टर शेरिंग भी स्वयं उसी पुस्तक के 217 और 218 पृष्ठों में इस प्रकार लिखते हैं और इसी विषय में पूर्वोक्‍त सर हेनरी इलियट से सहमत होते हैं :

The founder of the political influence of the family was Mewar Bhatt, whose ancestors had for many generations resided as devotee in the neighbourhood of Nawapur, now known as Salimpur Majhauli. Mewar Bhatt, though himself a religious man was not able to withstand the soliciations of ambition; and taking up arms, after returning from a pilgrimage to Benares, aequired possession of the greater part of the country between the Ganges and the Great Gandak. Mewar had four wives. By one, a Rajputni, he had issue, Bisusen, the founder of the name of Bisen, the ancestor of the ancestor of the Raja's family. By a Bhumiharin. He had Bagamar Sahi, the ancestor of the Kawari and Tamakohi Rajas. By a Brahmani he had Nages, whose, descendants hold a few villages in Salimpur Majhauli. By a Kurmini he had the ancestor of those now resident in Ghosi of Azamgarh.

इसका भाषानुवाद वही हैं, जो विशेनवंशवाटिका में इलियट साहब के कथन का दिया हुआ है और जिसे हम प्रथम ही दिखला चुके हैं। इन सभी वैदेशिकों के लेखों से पाठक समझ गए होंगे कि वास्तव में बगौछिया ब्राह्मणों के विषय में किंवदंती कैसी हैं और खंगबहादुर मल की लिखी जनश्रुति आयी सत्य हैं, या उन्होंने द्वेष वश गढ़ डाली हैं। क्योंकि यदि सच्ची होती तो कोई भी अंग्रेज या देशी लेखक उससे सहमत हो ही जाते, कारण कि लोग जनश्रुतियों के बहुत प्यासे होते हैं। इससे स्पष्ट है कि उस जनश्रुति से भूमिहार ब्राह्मणों में कोई दोषारोपण किया नहीं जा सकता। क्योंकि मयूरभट्ट भी ब्राह्मण ही थे। इसलिए ब्राह्मण और ब्राह्मणी (भूमिहार ब्राह्मण) के वंशज बगौचिया ब्राह्मण शुद्ध ही ब्राह्मण ठहरे। जैसे कि मयूरभट्ट के ही वंशज पयासी के मिश्र लोग हैं।

ये जो बातें हमने लिखी हैं, वे सभी मयूरभट्ट वाली किंवदंती को सत्य मान कर ही लिखी हैं। वस्तुत: तो यह किंवदंती अश्रद्धेय हैं। क्योंकि जिस ब्राह्मण को हम ऋषि, वेदशास्त्रज्ञ, तपस्वी और परमधार्मिक स्वीकार करते हैं, उसके विषय में ऐसे महान अधर्म का कार्य लिखना या कहना विचार से बाहर हैं। भला ऐसा कब हो सकता है कि ऐसा विचारशील और तपस्वी ब्राह्मण शास्त्रविरुद्ध क्षत्रिय कन्या से शादी कर सकता, या कुर्मिनी को रख सकता था? यदि प्रसाद भी हो जावे तो एकाध, न कि बहुत से अत्याचार ऐसों से हो सकते हैं। इस प्रकार के इतने विवाहों से तो सूचित हो जाता है कि वह कोई अत्यन्त विषयासक्‍त और लंपट पुरुष था। परंतु उन्हें सभी तपस्वी के वंशज और तपस्वी स्वीकार करते हैं। इसलिए ऐसे पुरुष के विषय में ये बिना सिर-पैर की बातें नितान्त अश्रद्धेय हैं। दूसरी बात यह भी है कि 'विशेनवंशवाटिका' के कर्त्ता ने मयूरभट्ट से अपने समय तक 15 राजे गिनाए हैं। इससे उनका समय दो वा ढाई हजार वर्षों के मध्य में हो सकता है। उन दिनों ब्राह्मणों में ये भट्ट प्रभृति उपाधियाँ प्राय: अप्रचलित थीं, जैसा कि प्रथम ही दिखला चुके हैं। इसलिए उस समय के नामों के साथ आचार्य या ऋषि प्रभृति शब्द ही पाए जाते हैं। इसके साथ ही यह भी निर्विवाद हैं कि भूमिहार संज्ञा या विशेषण भी किसी अयाचक ब्राह्मण दल का मुसलमानी समय में ही पड़ा हैं, जैसी कि ब्राह्मणों को ही कान्यकुब्ज प्रभृति संज्ञाएँ हैं, जिनके विषय में सविस्तार विचार प्रथम ही किया जा चुका है। इसलिए आज से दो-ढाई हजार वर्ष पूर्ववर्ती मयूरभट्ट ने भूमिहार ब्राह्मण की लड़की से ब्याह किया, जिससे बाघम्बर साही हुए, यह बात भी विश्‍वास योग्य नहीं है। इसलिए भी विशेन, या दूसरे लोग मयूरभट्ट की संतान हैं यह वार्त्ता माननीय? नहीं हैं।

हाँ, यह बात तो हो सकती है कि सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के वंशज विशेन लोग हो। क्योंकि चंद्रगुप्त को भी दो सहस्र वर्षों से अधिक हुए और उसी मौर्य शब्द को देख कर लोग मौर्यवंशी न कह कर विशेनों को मयूरवंशीय वा मयूरज कहने लगे। वह कल्पना श्रद्धेय भी मालूम होती है। अब रह गई पयासी के मिश्रों की बात। यदि ये लोग मयूरभट्ट की संतान हो तो कोई खटका या शंका नहीं हो सकती, और यही बात बगौछिया ब्राह्मणों के विषय में कही जा सकती है। परंतु कुर्मिनी की बात तो बिलकुल ही असत्य प्रतीत होती है। वस्तुत: तो बगौछिया लोग मयूरभट्ट के ही वंशज ब्राह्मणी के गर्भ से हुए हैं, इस विषय में भी हम सहमत नहीं हैं। क्योंकि ऐसा कहनेवाले इन भूमिहार ब्राह्मणों के बगौछिया नाम पड़ने का कोई कारण नहीं दिखलाते या दिखला सकते हैं। प्रत्युत सिद्ध है कि सोन के किनारे मयूरभट्ट रहते थे। इसी से उनके वंशज वत्स गोत्री सोनभदरिया ब्राह्मण कहे जाते हैं। वहीं गया जिले में उनका पुराना डीह है। वहीं से कुष्ठ रोगग्रस्त होने पर गया जिले के देव के सूर्य मन्दिर मैं उन्होंने सूर्य की आराधना की और सूर्य शतक बना कर आरोग्य लाभ किया। अभी तक सोनभदरियों के ही वंशज पं. खेदा पांडे के हाथ में सूर्य मन्दिर का कुछ अंश रह गया है और वे उसके पुजारी हैं। शेष अंश गरीबी के कारण शाकद्वपियों के हाथ उन लोगों ने बेच दिया है। इससे उनकी उक्‍त कल्पना मिथ्या ही प्रतीत होती है।

प्रथम प्रकरण में ही हम यह वार्त्ता अच्छी तरह सिद्ध कर चुके हैं कि ब्राह्मणों के अवान्तर (छोटे-छोटे) दलों के नाम या व्यवहार स्थानों के नामानुसार पड़े। जैसे गौड़, मैथिल, पिंडी के तिवारी, दिघवे या दिधावैत, दिभवेसंदहपुर, किनवार इत्यादि। इसीलिए बगौछिया नाम भी किसी स्थान से ही पड़ा होगा, जैसा एकसार ग्राम के नाम से एकसरिया और जैथर (जयस्थल) से जैथरिया इत्यादि।

बंग प्रदेशांतर्गत गौड़ देश में कान्यकुब्ज देश से ब्राह्मणों के जाने का जो इतिहास मिलता है, उससे स्पष्ट है कि वत्स, शांडिल्य, सावर्ण्य, भारद्वाज और कश्यप इन पाँच गोत्रों के ब्राह्मण कन्नौज से गौड़ देश में गए थे। उन्हीं में से 19 ब्राह्मणों के विषय में यह भी प्रथम ही दिखला चुके हैं कि वे लोग अयाचक या दानत्यागी हो गए थे, जिससे बल्लाल सेन ने उनकी बहुत ही प्रतिष्ठा की थी। वे लोग बंगदेशांतर्गत राढ़ और वारेंद्र देशों में निवास करते थे। वे लोग जिन-जिन ग्रामों में रहते थे, प्राय: उन ग्रामों के ही नाम से ही उनके नाम हुए, यह भी उस इतिहास से पता चलता हैं। उनके रहने के बहुत से ग्रामों में से एक ग्राम 'बागछी' नाम का भी था जिस ग्राम में रहने से बहुत से बंगदेशीय ब्राह्मण अब भी 'बागछी' कहलाते हैं। यह बात 'गौड़ हितकारी' पत्र के सितंबर मास 1911 ई. के अंक में भी 'गौड़देश में ब्राह्मण' शीर्षक लेख में आई हैं। यद्यपि बागछी ग्रामवासी शांडिल्य गोत्री दो-एक ब्राह्मणों का ही नाम वहाँ लिखा गया है, तथापि जो विदित था वही, अथवा अन्यों के विदित रहने पर भी दो-एक के ही नाम लिख दिए हैं। उससे यह कदापि सिद्ध नहीं हो सकता कि वत्स या अन्य गोत्र के ब्राह्मण बागछी ग्राम में नहीं रहते थे। इससे यही अनुमान सत्य और विश्‍वसनीय हो सकता है कि जिस समय बंगदेशान्तर्गत गौड़ देश से गौड़ ब्राह्मण दानत्यागी या तगे ब्राह्मणों के सहित हटे या भाग कर कुरुक्षेत्र के प्रांत और बिजनौर प्रभृति स्थानों में चले गए। उसी समय या उससे कुछ आगे-पीछे 'बागछी' ग्रामवाले अयाचक ब्राह्मण भी वहाँ से हट कर इधर चले आए और सुदूर पश्‍चिम में न जा कर किसी अनुकूलतावश छपरा प्रांत में ठहर गए। इसीलिए उनकी संज्ञा 'बागछिया' हो गई जो बिगड़ते-बिगड़ते अब बगौछिया कहलाती है। यह बात लगभग हजारों वर्षों की हो गई। इसीलिए हथुवा या तमकुही बगौछिया राजवंशों की इस देश में प्राचीनता भी रक्षित रह गई और उनके इस नाम के पड़ने का कारण भी ठीक-ठीक मिल गया। इसलिए बंगदेशीय ब्राह्मणों में वत्स गोत्रीय ब्राह्मण इस समय कम पाए जाते हैं।

वस्तुत: गोरखपुर जिला के तमकुही राज्य के बगौछ गाँव में, जो खनुवा नदी के किनारे भरहे चौरा से 6 कोश उत्तर नारायणपुर कोठी के पास है, एक बड़ा डीह है जहाँ से बगौछिया ब्राह्मणों का विस्तार बताया जाता है। निकट होने से यही अधिक विश्‍वसनीय प्रतीत होता है। इनके पूर्वज बंगाल या गया से प्रथम बगौछ में आए और वहीं से पीछे सर्वत्र फैले। इसीलिए यही अनुमान श्रद्धेय और युक्‍तियुक्‍त प्रतीत होता है, जिससे बगौछिया ब्राह्मणों की उज्ज्वलता भी अक्षुण्ण रह गई। अत: विशेनवंशवाटिका की जो बातें भूमिहार ब्राह्मणों के विपक्ष में लिखी गई है वे बिना सिर-पैर की है। उनसे भूमिहार ब्राह्मणों की कोई हानि नहीं हो सकती।

इसके अनंतर हम 'भारतवर्षीय राजदर्पण' नाम की पुस्तक की आलोचना करते हैं। इसके विषय की बहुत सी बातें भूमिका में ही कही जा चुकी है। ग्रन्थ कर्ता महोदय निरंजन मुखोपाध्याय ने उक्‍त ग्रन्थ के 3-4 पृष्ठों में लिखा है कि:

'एक और भी जनश्रुति है कि कृष्ण मिश्र का विवाह क्षत्रिय कन्या के साथ हुआ था। इसी से उनकी संतान भुइंहार ब्राह्मण कहलाती है। यद्यपि बहुत काल से प्राय: विक्रमादित्य के राज्य के पश्‍चात क्षत्रिय कन्या के साथ ब्राह्मण का विवाह अप्रचलित है, तथापि इस विवाह के होने में एक लोकोक्‍ति चली आती है कि भागलपुर के निकट एक क्षत्रिय की कन्या अपनी बाल्यावस्था में अत्यन्त पवित्रता से रहती थी। यहाँ तक कि अपना वस्त्र और पात्र अपने घर के लोगों से फरक रखती थी। किसी रोज उसके चिढ़ाने के लिए उसकी भ्रातृ-पत्‍नी ने अपने लड़के को उसके कपड़े पर बैठा दिया। इस पर वह बहुत दिक हो कर उस वस्त्र को अशुद्ध समझ उसे धोने लगी। तब उसकी भ्रातृ-पत्‍नी (भौजाई) ने हँस कर कहा कि क्या तुम कित्थू मिश्र की स्त्री हो, जिससे हम लोगों को अशुद्ध समझती हो? ऐसा सुन कर उस कन्या ने प्रतिज्ञा की कि कित्थू मिश्र से अन्य के साथ अपना विवाह न करूँगी। ऐसा उसका बहुतकाल तक हठ देख कर उसके भाइयों ने कित्थू मिश्र की प्रार्थना कर के उसको स्वीकार करवाया।' इससे प्रथम ही आप भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में ऐसा लिख चुके हैं कि :

बनारस के निकट कुसवार परगने में थुथुरिया ग्राम में, जो कि अब गंगापुर कहलाता है, मनोरंजन सिंह नामक एक भुइंहार ब्राह्मण बसते थे। उनके चार पुत्र थे। सबसे ज्येष्ठ का नाम मनसाराम था, जो बनार के राजवंश के मूल पुरुष थे। थुथुरिया ग्राम के अर्द्धाश के मालिक इनके पिता मनोरंजन सिंह के पूर्वपुरुषों का विवरण कुछ नहीं पाया जाता है। जनश्रुति हैं कि बनार राजा के राज्य काल में काशी में कृष्ण मिश्र अथवा कित्थू मिश्र नामक गौतम गोत्र के दतरिया ग्राम निवासी एक ब्राह्मण उनके मन्त्र गुरु थे और वे सिद्धपुरुष थे। राजा के पास से उनके कभी कुछ दान न ग्रहण न करने से राजा सर्वदा बहुत खेदयुक्‍त रहा करते थे। एक दिन राजा बनार ने विचार कर उनकी पगड़ी में कई ग्राम का दान-पत्र में छिपा कर बाँध दिया। कित्थू मिश्र जब अपने घर में आ कर अपने इष्टदेव के ध्यान में बैठे, तो और दिनों की तरह उनका चित्त एकाग्र न हो कर अतिशय चंचल होने लगा। उस पर वह बहुत आश्‍चर्यवान हो कर चिंता करने लगे। पीछे जब राजा का व्यवहार मालूम हुआ तब उन्होंने अत्यन्त क्रुद्धांत:करण से शाप दे कर कहा है कि जैसा कि तुमने हमारा तेज ध्वंस किया है, वैसा ही तुम्हारा समस्त अधिकार हमारे वंश के आधिपत्य में आएगा।'

अब यहाँ पर विचारना यह है कि काशी के प्रांत या सर्यूपार में तो बहुत जिज्ञासा या खोज-पूछ करने पर भी कित्थू मिश्र के साथ क्षत्रिय कन्या के विवाह वाली किंवदंती का पता नहीं लगता। इसी से अंग्रेजों या अन्य लोगों ने जो केवल किंवदंती के ही आधार पर चलनेवाले हैं, इस किंवदंती का वर्णन कहीं भी नहीं किया है। इससे मालूम होता है कि ग्रन्थकर्ता महोदय के जन्म स्थान बंगाल में ही यह किंवदंती प्रसिद्ध रही होगी, जिससे उन्होंने इसको लिखा है। वाह रे द्वेष और मिथ्या कल्पना! जिस भागलपुर की कन्या की बात उन्होंने लिखी है, वह सर्यूपार, गोरखपुर में मझौली राज्य के पास हैं। वहाँ यह जनश्रुति विशेन क्षत्रियों के विषय में हैं, जिसे खड्गबहादुरमल ने 'विसेनवंशवाटिका' में लिखा है जैसा कि प्रथम दिखला चुके हैं। उसके 45वें पृष्ठ में लिखा है कि 'मयूरभट्ट ने सामवेद में अधिक परिश्रम किया था। एक बार इन्होंने अयोध्या की यात्रा की। उस समय वहाँ श्रीरामचंद्र के वंशवाले राज्य करते थे। राजा ने इनकी विद्या और तपस्या देख प्रसन्नतापूर्वक अपनी कन्या सूर्यप्रभा को (जिसका प्रण था कि किसी योग्य पुरुष से ब्याही जाऊँ) इनके संग ब्याह दिया' इत्यादि।

दूसरी बात यह है कि काशी-रामेश्‍वर के पास के कई ग्रामों में जो गौतम क्षत्रिय रहा करते हैं, वे अपने को कित्थू मिश्र के वंशज कहा करते हैं। जब हमने कईयों से इसका कारण पूछा तो, उन्होंने यही उत्तर दिया कि हमारे पूर्वज कित्थूमिश्र के वंशज भूमिहार ब्राह्मण थे। परंतु बहुत दिन हुए जब कि वंशज अन्य भूमिहार ब्राह्मणों में उसका हिस्सा दबा लिया, तो उस समय हमारे पूर्वजों ने हिस्से के लोभ से एक क्षत्रिय राजा की कन्या से विवाह कर लिया और उसी दिन से उनके वंशज हम लोग क्षत्रिय कहलाने लगे। यह बात काशी के प्रांत में प्रसिद्ध हैं। जिसे सभी ब्राह्मण या क्षत्रिय स्वीकार करते हैं। संभव हैं कि इसी बात को निरंजन मुखोपाध्याय ने सुन कर भूल छल या द्वेष से भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में लिख मारा और उसमें कुछ पैबंद भी लगा दिया। भूमिहार ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों ही गौतम कहे जाते हैं। इसीलिए गौतम नाम देख कर इस भ्रान्ति का हो जाना संभव है कि क्षत्रियों के विषय की बात भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में लिखी गई।

एक ऐसी ही किंवदंती जौनपुर जिले के 'चौपट खंभ' नामवाले क्षत्रियों के विषय में है। जिसे सुन कर भी निरंजन मुखोपाध्याय को भ्रम हो गया, ऐसी कल्पना की जा सकती है। उसी किंवदंती को सन 1865 की युक्‍त प्रान्तीय मनुष्य गणना की रिपोर्ट के प्रथम भाग के 115वें पृष्ठ में इस प्रकार लिखा है :

Chowpat Khambha - Two Brahmans named Buldeo and Kooldeo, came from Sarwar, and took up their residence in Mouzah Putkhohee, pergunnah Kirakut Zillah Jownpure. Raja Jaichand, a descendant of Rajah Bindar of the Lunar race, gave his daughter in marrige to Buldeo, and his descendants are called Chowpat Khambha. The origin of the name is from 'Khambha' a pillar. Kooldeo was annoyed with Buldeo for marrying out of his caste, and setting up a pillar of a degenerate family; hence the tribe was called Chowpat Khambha.

इसका अनुवाद यह है कि 'चौपटखंभ-दो ब्राह्मण सर्यूपार से बलदेव और कुलदेव नामक इस देश में आए और जौनपुर के परगने केराकत, ग्राम पटखोही में बस गए। चंद्रवंशीय क्षत्रिय राजा बनार ने अपनी कन्या का विवाह बलदेव से कर दिया। इसलिए उसके वंशज चौपटखंभ क्षत्रिय कहलाते हैं। नाम पड़ने का कारण यह है कि खंभ नाम है स्तंभ या खंभे का। चूँकि कुलदेव अपने भाई बलदेव से रंज हो गया, क्योंकि उसने अपनी जाति से अन्य जाति में विवाह कर लिया और इससे एक वर्णसंकर या चौपट जाति अथवा स्तंभ चलाया। इसीलिए उसके वंशज चौपटस्तंभ कहलाने लगे।

सबसे विलक्षण और आश्‍चर्य की बात तो यह है कि आप स्वयं ही कृष्णमिश्र को परम विवेकी, तपस्वी, विद्वान और सिद्ध स्वीकार करते हैं, जो अपने शिष्य राजा बनार से भी एक पैसा स्वीकार करना शास्त्र और सत्पुरुष द्वारा निंदित होने के कारण अधर्म समझते थे। अतएंव बनार के छल से दानपत्र देने से क्रुद्ध हो कर शाप दे बैठे। क्योंकि इस अधर्म से उन्होंने अपनी ब्राह्मणता की हानि समझी। फिर ऐसी दशा में वह किसी क्षत्रिय कन्या के साथ, चाहे वह कैसी ही क्यों न हो, क्यों कर विवाह कर सकते थे, जो नितान्त अनुचित और शास्त्र निषिद्ध हैं? इस बात को आप भी स्वयं स्वीकार करते हैं। इसलिए उनके विषय में ऐसी कल्पना करना केवल पापमयी बुद्धि का फल है।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि 'गौतम चंद्रिका' में उन्हीं कित्थू मिश्र के वंशज जौनपुर प्रांत निवासी याचक दलवाले ब्राह्मण पं. शिवराम मिश्र और पं. ताराप्रसाद मिश्र जब यह स्वीकार करते हैं, कि कित्थू मिश्र का विवाह पयासी के मिश्र की कन्या हुती या देवहुती से हुआ है, जिसके ही वंशज वर्तमान सभी गौतम भूमिहार ब्राह्मण या अन्य ब्राह्मण हैं, जैसा कि प्रथम ही दिखला चुके हैं। वहाँ यों लिखा है :

हुती पयासी की सुता, ताको प्रेम विचारि।

व्याह्यो तासों प्रगट भे, देवकृष्ण निरधारि॥

हुती नाम की कन्या पयासी मिश्र (सर्यूपारी) की रही। उसने किसी के तिरस्कार से प्रण किया कि हम अपना विवाह कित्थू मिश्र से करेंगी। इस कारण कित्थू मिश्र ने उससे विवाह किया।

तो फिर दूसरे को इससे विपरीत लिखने या कहने का अधिकार ही क्या है? और उसकी बात क्योंकर मानी जा सकती हैं? पूर्वोक्‍त 'गौतमचंद्रिका' के वाक्यों से पाठकों को यह भी विदित हो गया होगा कि निरंजन मुखोपाध्याय ने भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में पूर्वोक्‍त किंवदंती लिख केवल अपने हृदय की गाढ़ कलुषता और द्वेष का परिचय दिया है। क्योंकि वह किंवदंती या बात पयासी मिश्र की कन्या के विषय में ज्यों की त्यों है, न कि किसी क्षत्रिय कन्या के विषय में।

इसी प्रकार पं. विजयानन्द त्रिपाठी जी ने सर्यूपारीण इतिहास पंक्‍ति पावन परिचय में संपूर्ण गौतम भूमिहार ब्राह्मण वंश और द्विजराज श्री काशिराज को सर्यूपारीण ब्राह्मणों में अग्रणी माना हैं, जैसा कि प्रथम परिच्छेद के अन्त में दिखला चुके हैं तो फिर निरंजन मुखोपाध्याय ने केवल मिथ्या ही लिखा है यही कहा जा सकता है। गौतम चंद्रिका के अनुसार पयासी मिश्र के घर ही कित्थू मिश्र का विवाह उचित है। इसलिए गौतम भूमिहार ब्राह्मणों के जो पुरोहित ब्राह्मण हैं, उन लोगों का यह कथन है कि आप लोगों के पूर्वजों ने हम लोगों के पूर्वजों को कन्यादान दे कर पूजा था, इसलिए उसी समय से हम लोग आप लोगों के मान्य और पुरोहित हुए। इससे पाठकों को मुखोपाध्याय जी की सज्जनता का परिचय अवश्य ही लग गया होगा। आपका यह कथन भी क्या ही बुद्धिमत्ता का है कि 'कृष्ण मिश्र का विवाह क्षत्रिय कन्या के साथ हुआ था। इसी से इनकी संतान भुइंहार ब्राह्मण कहलाई!' क्यों साहब! क्या क्षत्रिय कन्या के साथ विवाह का होना भूमिहार ब्राह्मण नाम पड़ने का कारण हैं? उस विवाह और भूमिहार ब्राह्मण नाम से क्या सम्बन्ध है? यदि ऐसा ही माना जावे तो आपके मुखोपाध्याय नाम पड़ने के भी इसी प्रकार के कुत्सित, मिथ्या और कल्पित कारण बताए जा सकते हैं। क्योंकि आपकी ही तरह कुछ अनाप-सनाप बक देंगे और वही आपके सिद्धान्तानुसार पत्थर की लकीर हो जावेगी, जिससे आपके होशहवासों का पता न लगेगा और लेने के देने पड़ जावेंगे।

अस्तु, जब इस पर भी आपको संतोष न हुआ तो इसके बाद ही लिखते हैं कि 'वह भी प्रसिद्ध हैं कि मगधदिपति महाराज जरासन्धा के यज्ञ के समय लक्ष ब्राह्मण भोजन करने के प्रयोजन होने पर राजा के अज्ञात में उनके किसी-किसी कर्माध्यक्षों ने जिनको ब्राह्मणों के लाने की आज्ञा हुई थी, अनेक कष्ट से भी आज्ञानुयायी ब्राह्मण संग्रह करने में असमर्थ हो कर राजदंड के भय से अपर जाति के लोगों के गले में यज्ञोपवीत डाल भोजन करवा दिया। पीछे से उन सबों की जाति-बिरादरी के उनके साथ आचार-व्यवहार परित्याग करने से वे सब कोई राजा जरासंध के पास गए और उनके कर्माध्यक्ष के नाम पर नालिश कर के उन्होंने साद्योपांत सब वृत्तांत प्रकाश कर दिया, जिस पर लाचार हो कर उन्होंने उनके गुजरान के लिए अपने अधिकार में भूमि दे कर उन सबों को बसाया। इसी से उनके खानदानों को आज तक भी भूमिहार ब्राह्मण कहते हैं और इसका एक प्रमाण यह है कि इन भूमिहारों के वास स्थान उस समय के मगध राज्य की सीमा के बाहर और अन्यत्र प्राय: दृष्टिगोचर नहीं होते हैं।'

इस किंवदंती में बहुत-सी बातें विचार योग्य हैं। प्रथम तो यह देखना चाहिए कि जरासंध ने इस प्रकार का कोई भी यज्ञ किया था या नहीं। हमने तो महाभारत से ले कर सभी पुराणों का आलोडन किया, परंतु जरासंध के इस यज्ञ का कहीं भी पता नहीं है। महाभारत प्रभृति ग्रन्थों में उसके जीवन-चरित्र वगैरह का बहुत सी जगह वर्णन है और उसे बहुत ही धार्मिक भी लिखा है परंतु यह तो कहीं भी नहीं आता, कि उसने मद्यप की तरह ब्राह्मणों और चमारों को एक पंक्‍ति में भोजन करा धर्म के नाम पर महान अधर्म किया। अत: इस किंवदंती में मूल ही क्या है जिससे यह मानी जा सके?

दूसरी बात यह है कि जैसे भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में आप इस कल्पित किंवदंती रूप उपन्यास को खड़ा करते हैं, उसी प्रकार सर्यूपारीण, कान्यकुब्ज और मैथिल प्रभृति सभी ब्राह्मणों में इस प्रकार की किंवदंती पाई जाती है। मैथिलों के विषय में सेवई सिंह का यज्ञ और सर्यूपारियों के विषय में शालिवाहन या दूसरे का यज्ञ इत्यादि बतलाया जाता है। फिर कभी-कभी भूमिहार ब्राह्मणों और अन्य ब्राह्मणों की इन किंवदंतियोंवाले यज्ञकर्ता दूसरे ही बतलाए जाते हैं। इससे विश्‍वास क्यों कर हो सकता है? यह लीलाएँ जिसे देखनी हों वह हिंदू जाति के विषय में लिखे हुए अंग्रेजों के ग्रन्थों को देखे। उनमें ये किंवदंतियाँ भिन्न-भिन्न नामों से आती है। यह बात क्यों कर हो सकती है कि सभी ब्राह्मण दलों में हिंदू राजाओं ने इस प्रकार के अत्याचार किए हों? तिस पर भी करनेवाले का ठिकाना नहीं। क्या उस समय एक-दो लाख ब्राह्मण नहीं मिल सकते थे? यह बात तो विश्‍वास योग्य नहीं हैं, क्योंकि आजकल की अपेक्षा उन दिनों ब्राह्मणों की संख्या कम न थी। और आजकल भारत-भर में करोड़ों ब्राह्मण मिल सकते हैं? यदि कम ही थी तो क्या उन राजाओं को यह भी न विदित था कि हमारे राज्य में कितने ब्राह्मण हैं? क्या वे लोग शराबी थे, जिससे कुछ भी विचार न कर के मनमाना काम कर डालते थे? आप कहते हैं कि सभी जातियों को जनेऊ पहना कर यज्ञ में खिला दिया। क्या उन दिनों ब्राह्मणों की परीक्षा न की जाती थी? क्या महानन्द और चाणक्य की कथा लोगों को नहीं विदित हैं? क्या परीक्षा करने वालों को अहीर, चमार और ब्राह्मणों में भेद नहीं मालूम हुआ? क्या उस समय सभी वर्ण गायत्री जप वगैरह करते थे, जिससे परीक्षा न हो सकती थी? क्या उन दिनों धार्मिक कार्यों में मनु वचनों का भी लोग अनादर करते थे? क्योंकि मनु जी ने लिखा है कि :

दूरादेवपरीक्षेत ब्राह्मणंवेदपारगम्।

तीर्थं तद्धव्यकव्यानां प्रदाने सोऽतिथि: स्मृत:॥130॥

द्वौदैवेपितृकार्येत्रीनेकैकमुभयत्रा वा।

भोजयेत्सुसमृद्धोऽपि नप्रसज्येतविस्तरे॥125॥

सत्क्रियांदेशकालौ च शौचं ब्राह्मणसंपद:।

पंचैतांविस्तरोहंति तस्मान्नेहेतविस्तारम्॥126॥

ज्ञाननिष्ठा द्विजा: केचित् तपोनिष्ठास्तथाऽपरे।

तप:स्वाध्यायनिष्ठाश्‍चकर्मनिष्ठास्तथाऽपरे॥134॥

ज्ञान निष्ठेषुकव्यानिप्रतिष्ठाप्यानि यत्‍नत:।

हव्यानितुयथान्यायं सर्वेष्वेवचतरुष्वपि॥135। 3॥

इसका अर्थ यह है कि 'यज्ञादि में खिलाने के समय अच्छी तरह से परीक्षा करे कि यह ब्राह्मण वेदज्ञ हैं या नहीं, क्योंकि वेदज्ञाता ब्राह्मण ही देवता और पितरों के अन्न के भक्षण का अधिकारी हैं। देवकार्य में दो ब्राह्मण और पितृकार्य में तीन, अथवा दोनों कार्यों में एक-एक ही खिलावे। बहुत धनी होने पर भी अधिक ब्राह्मणों के खिलाने का यत्‍न न करे। क्योंकि ऐसा करने से पाँच बातों की गड़बड़ होती है। ठीक सत्कार नहीं हो सकता, उत्तम जगह और उत्तम समय समुदाय के लिए नहीं मिल सकते, पवित्रता नहीं रह सकती और गुणवान ब्राह्मण नहीं मिल सकते। इसीलिए यज्ञादि में ब्राह्मण का विस्तार नहीं करना चाहिए। ब्राह्मण चार प्रकार के होते हैं-ज्ञानी, तपस्वी, वेदपाठी और कर्मकाण्डी। इनमें से श्राद्ध में केवल ज्ञानी को ही खिलाना चाहिए, परंतु यज्ञादि में चारों को।

इसलिए धर्मज्ञ राजाओं ने इसके विपरीत क्यों कर किया? यदि आपका यह कथन मान लिया जावे, तो भी प्रश्‍न यह उपस्थित होता है, कि क्या उनको थोड़े-बहुत भी सच्चे ब्राह्मण न मिल सके? ऐसा तो नहीं कह सकते। क्योंकि यदि ऐसा होता तो तूफान मच जाता। क्योंकि आसपास के भुक्खड़ ब्राह्मण अवश्य ही पुकार मचाते। तो क्या सच्चे ब्राह्मणों ने भी मिथ्या ब्राह्मणों के साथ ही भोजन किया? क्या यज्ञ के करानेवाले ऋत्विक् वगैरह भी साथ ही साथ भोजन करने लग गए? यदि यह कहा जावे कि सभी को कुछ न कुछ घूस दे कर कर्मचारियों ने बनावटी ब्राह्मणों के साथ या अलग खिला दिया। तो क्या यह बात विश्‍वसनीय हो सकती है? क्या आजकल भी, जबकि लोगों के धार्मिक विचार एकबारगी ढीले पड़ रहे हैं, ऐसा देखने में आता है? जब आजकल भी हजार यत्‍न करने पर भी ये बातें नहीं छिप सकतीं, तो उस समय कैसे हो सकती? साथ ही, इन बातों का कहीं कुछ भी लेख नहीं मिलता। इसलिए ये सब रचनाएँ एक-दूसरे को नीचा दिखलाने के लिए ही की गई है। क्योंकि जब तक समाज दूसरे के विरुद्ध कुछ कहता है, तो दूसरा भी प्रथम के विरुद्ध अवश्य ही कुछ कहता है। इसीलिए सभी ब्राह्मण या अन्य समाजों में इस प्रकार की बातें पाई जाती है। अत: इन पर विश्‍वास नहीं किया जा सकता। विशेष कर भूमिहार ब्राह्मणों के विषय की यह कल्पित किंवदंती तो नहीं ही मानी जा सकती। इसीलिए इस विषय में अंग्रेजों ने भी इसका खण्डन किया है। जैसा कि मिस्टर 'डब्ल्यू. क्रुक' ने अपने 'युक्‍त प्रान्तीय जाति विवरण' के द्वितीय भाग के 64वें पृष्ठ और उसके अगले पृष्ठों में लिखा है और इस विषय में रिजले साहब की भी सम्मति दी है। वह लेख यों हैं :

The theory that they are mixed race derived from a congeries of low caste people accidentally brought together, is disapproved by the high and uniform type of physiognomy and personal appearance which prevails among them. This, as Mr. Risley says, would not be the case, if they were descended from a crowd of low caste men promoted by the cxigencies of particular occasion, for brevet rank thus acquired, would in on case, carry with it the right of intermarriage with pure Brahmans or Rajputs, and the artficially formed group, being complled to marry within its own limits, would necessarily perpetuate the low caste type of features and complexion. As a matter of fact, this is what happens with Sham Rajputs, whom we find in most of the out lying districts of Bengal. They marry among themselves, never among true Rajputs and their features reproduce of the particular aboriginal tribe from which they may happen to be sprung.

इसका अनुवाद यों हैं कि 'यह कथन, कि ये (भूमिहार-ब्राह्मण) कई जातियों के समुदाय से बने हैं और उन नीच जातीय लोगों की संतान है, जो किसी कारणवश इकट्ठे कर दिए गए थे, इन लोगों के ऊँचे और एक समान शरीर के ढाँचे और चेहरे-मोहरे से ही खंडित हो जाता है। ये ढाँचे और चेहरे-मोहरे इनमें आज तक पाए जाते हैं। मिस्टर रिजले ने कहा है कि यदि ये लोग उन नीच जाति के लोगों के वंशज होते, जो किसी विशेष आवश्यकता के कारण ब्राह्मण बना दिए गए, तो इनमें यह बात कहीं न पाई जाती। क्योंकि जिन लोगों का दर्जा इस प्रकार ऊँचा बना दिया जाता, उनको किसी दशा में सच्चे ब्राह्मण या राजपूतों के साथ परस्पर विवाह करने का अधिकार नहीं मिलता। इसलिए वह बनावटी दल अपने ही में विवाह करने को मजबूर होता, जिससे उसके प्रथम के नीच जातियों के ही प्राचीन ढाँचे और चेहरे-मोहरे बने रह जाते। यही कारण है, जिससे यही दशा आज तक उन दोगले राजपूतों में पाई जाती है, जो बंगाल के बाहरी जिलों में पाए जाते हैं। क्योंकि वे लोग आपस में ही विवाह करते हैं, न कि सच्चे राजपूतों में। इसीलिए उनकी शारीरिक बनावट वैसी ही हैं जैसी कि उन प्राचीन (जंगली) जातियों की, जिनसे वे पैदा हुए होंगे।

आपने उस पूर्वोक्‍त किंवदंती की पुष्टि में जो यह लिखा है कि और इसका यह प्रमाण है कि 'इन भूमिहारों के वासस्थान उस समय के मगध राज्य की सीमा के बाहर और अन्यत्र प्राय: दृष्टिगोचर नहीं होते।' वह भी क्या बुद्धिमत्ता है! क्या समस्त तिरहुत, भागलपुर और पूर्णियाँ जिले को लिए हुए तथा छपरा, गोरखपुर, बस्ती, आजमगढ़, प्रयाग, सुलतानपुर आदि जिलों को, जिनमें पश्‍चिम, भूमिहार, जमींदार ब्राह्मण विशेष रूप से पाए जाते हैं, आप मगध में ही समझते हैं? क्या इस विषय का आपके पास कोई प्रमाण हैं कि उस समय मगध संज्ञा युक्‍त प्रांत तथा तिरहुत वगैरह की भी थी? क्या आपने महाभारत या 'फाह्यान' और 'ह्नेनसांग' का मगध वर्णन नहीं पढ़ा है? जब गाजीपुर, बलिया, बनारस और शाहाबाद भी मगध से बाहर है, तो अन्य प्रांतों का कहना ही क्या है? यह भी प्रथम ही दिखला चुके हैं कि प्रथम भी भूमिहार ब्राह्मणों के विशेष वासस्थान प्राय: छपरा वगैरह सभी प्रांतों में ही थे, जिससे अन्यत्र जाने पर उन्हीं प्रांतों के स्थानानुसार उनके एकसरिया प्रभृति नाम पड़े।

और 'चूँकि इन लोगों को जरासंध ने भूमि दे दी, इसलिए ये लोग तभी से भूमिहार ब्राह्मण कहलाने लगे, जो अब तक प्राय: मगध में ही पाए जाते हैं,' यह कैसी बेसमझ और बेसिर-पैर की बात हैं? क्योंकि आप मगधवासी भूमिहार ब्राह्मणों के भूमिहार नाम पड़ने का यह कारण बतलाते हैं। परंतु यह नहीं देखते कि वहाँ तो, जैसा कि प्रथम प्रकरण में भी कह चुके हैं, वे लोग आज तक ब्राह्मण या बाभन ही बोले जाते हैं। भूमिहार शब्द का तो प्रयोग वहाँ हुआ ही नहीं। हाँ, अब भूमिहार ब्राह्मण महासभा के होने से कहीं-कहीं पढ़े-लिखे लोग भूमिहार शब्द का प्रयोग करने लगे हैं। ये नेत्रों के पटल आपके खुल गए होते, यदि भाग्यवश आपको मगध में जाना पड़ा होता, अथवा भूमिहार ब्राह्मणों के सामाजिक विवरण के पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ होता। उस दशा में आपके मुख से ऊटपटाँग बात न निकल सकती। अफसोस और आश्‍चर्य तो यह है कि आप इन अयाचक ब्राह्मणों को भूमिहार ब्राह्मण कहते और लिखते जाते हैं और साथ ही उनके विषय में बहुत सी मिथ्या कल्पनाएँ और मनोराज्य भी करते हैं। ऐसी दशा में तो आप बंगदेशीय ब्राह्मण, मैथिल ब्राह्मण, कान्यकुब्ज ब्राह्मण, गौड़ ब्राह्मण और सर्यूपारीण ब्राह्मण इत्यादि नामों के भी विषय में कुछ न कुछ मनमानी हाँक सकते हैं। यदि नहीं तो फिर भूमिहार ब्राह्मण नाम से ही आपका क्या ले लिया हैं, जिसके ऊपर इस तरह जी-जान से रंज हैं? बस कृपा करिए, रहने दीजिए।

पाठक यह तो हुई 'भारतवर्षीय राजदर्पण' की बात। जिससे संभवत: इस दर्पण के भविष्य में खोलने की अब आवश्यकता या योग्यता न रह गई होगी। क्योंकि यह कुदर्पण हैं, जिससे इसमें उलटा ही दीखेगा। अत: इसके खोलने में पश्‍चाताप ही हाथ लगेगा। अब दूसरे दर्पण को खोलते और उसका भी परिचय यहीं दे कर उसके भी भविष्य में बंद करने का अनुरोध आप लोगों से करते हैं। उस दर्पण का नाम हैं विहार दर्पण। उसके रचयिता भूतपूर्व खंगविलास प्रेस, बाँकीपुर के अधिष्ठाता या संचालक बाबू रामदीन सिंह थे। इनके विषय में हमें यहाँ विशेष नहीं कहना हैं। क्योंकि, जैसाकि प्रथम प्रकरण के अन्त में दिखला चुके हैं, इन्होंने टेकारी के भूतपूर्व महाराज रामकृष्ण सिंह जी के जीवन-चरित्र के वर्णन प्रसंग से कई जगह भूमिहार ब्राह्मणों को स्पष्ट शब्दों में ब्राह्मण लिखा और सिद्ध भी किया है। परंतु हँसी तो हमें उनकी इस बात पर आती हैं कि उनसे भी अपनी आंतरिक कलुषता प्रकट किए बिना रहा नहीं गया और एक जगह टिप्पणी में वही जरासंधवाली किंवदंती को भारतवर्षीय राजदर्पण से ज्यों का त्यों उदधृत कर दिया और लिख भी दिया कि 'भारतवर्षीय राजदर्पण' में ऐसा लिखा है। भला उनको इस लेख के सारासार का विचार तो करना चाहता था। परंतु शोक, कि उस अन्ध परम्परा के कीचड़ में आप भी फँस गए। अस्तु, उसके पृथक खण्डन की आवश्यकता नहीं हैं, किंतु जिस पुस्तक से उन्होंने उद्धृत किया, उसी पुस्तक के खण्डन से उसका भी खण्डन हो चुका। विशेष हँसी तो हमको उसी लेख पर आती है, जो उन्होंने पूर्वोक्‍त महाराज रामकृष्ण सिंह जी के जीवन-चरित्र के वर्णन प्रसंग में लिखा है कि किसी ग्राम के निवासी भूमिहार ब्राह्मण क्षत्रियों के हुक्के पिया करते थे, जिसे महाराज रामकृष्ण ने छुड़ाया। भला क्या ही विचित्र बात है! आपको वैसा लिखते लज्जा भी न आई! क्योंकि जब मगध या अन्य सभी प्रांतों में उनके भाई सभी क्षत्रिय भूमिहार ब्राह्मणों को अन्य ब्राह्मणों की तरह पालागन या प्रणाम करते हैं, तो यह कब संभव था कि वे ही क्षत्रिय उनके साथ हुक्का-पानी रखते थे? और यदि हुक्का-पानी था, तो खान-पान या विवाह-सम्बन्ध वगैरह भी उनके साथ जरूर ही रहा होगा। क्योंकि यह नियम है कि जिनके साथ खानपान होता है उन्हीं के साथ हुक्का-पानी भी होता है। इसलिए अच्छा हुआ होता कि उस खानपान और विवाह सम्बन्ध वगैरह का भी परिचय आपने दिया होता। क्योंकि इससे आपके लेख की पुष्टि हो जाती और वह प्रमाणित हो जाता। नहीं तो अब यही प्रश्‍न उठता है कि बिना जड़-मूल की ऐसी बात जो क्षत्रिय और भूमिहार ब्राह्मणों में इस समय कहीं भी नहीं पाई जाती है, आपने किस आधार पर लिखी? यदि आपको विवेक था, तो उस प्रमाण को भी उसी पुस्तक में उद्धृत कर देना था। नहीं तो यदि हम भी आपके वंश या समाज के विषय में ऐसी कल्पित बातें लिख डालें कि अमुक ग्राम के क्षत्रिय अमुक नीच जाति के लोगों के साथ हुक्का-पानी करते थे, जिसे आपके अमुक पुरुष ने हटाया। तो कम से कम आपको भी अवश्य ही मान लेना पड़ेगा।

अब रही बाबू हरिश्‍चंद्र की बात, जो उन्होंने अपने मुद्राराक्षस नाटक के हिंदी अनुवाद ग्रन्थ में लिखी हैं। उसके विषय में हम क्या कहें, जो कुछ कहना था कह चुके। क्योंकि उन्होंने केवल भूमिहार ब्राह्मणों के दिल दुखाने की ही इच्छा से अपने उक्‍त ग्रन्थ में उसी मगधराज जरासंध के यज्ञवाली किंवदंती को भारतवर्षीय राजदर्पण से उद्धृत कर दिया। गोया वह भारतवर्षीय राजदर्पण ऋषि ग्रन्थ हो गया, जिसे ऐसे-ऐसे प्रतिष्ठित लोग भी प्रमाण देने लगे। वाह रे अंधापक्षपात! जिस ग्रन्थ की बात ऐसी निर्मूल, वही माननीय लोगों में भी आदर पावे! किसी कवि ने ठीक ही कहा है कि:

अहोमहान्तोऽपिमहेन्द्रजालेमज्जन्तिमायाविवरस्यतस्य॥

अर्थात 'क्या ही आश्‍चर्य है कि बड़े लोग भी परमात्मा के मायाजाल में फँस कर अनाप-सनाप ही कर बैठते हैं।' बाबू रामदीन सिंह बाबू हरिश्‍चन्द्र के अनन्य भक्‍त थे, जिससे उनकी सब पुस्तकें खंगविलास प्रेस में छपवाईं। इसलिए जो बात रामदीन सिंह लिखें वह इनसे क्योंकर छूटने की? अथवा इनकी बात उनसे क्योंकर छूट सकती थी? इसीलिए दोनों बाबू मिल गए। परंतु बाबू हरिश्‍चंद्र तो हिंदी समाज में एक बड़े ही प्रतिष्ठित पुरुष थे। अत: उनको यह बात लिखते समय अवश्य यह विचारना था कि किसी समाज के विषय में यह हमारा अकांड तांडव कैसी हलचल मचावेगा। लेकिन उनका अपराध ही क्या कहा जा सकता है? क्योंकि उस समय तो मुद्राराक्षस लिख रहे थे! यदि उन्होंने ऐसा लिखने का निश्‍चय ही कर लिया था तो क्या ही अच्छा होता कि इसे प्रमाणित कर देते! जिससे भविष्य के लिए उनकी ये बातें पत्थर की लकीर हो जातीं और कोई भी उन्हें खण्डन करने का साहस न करता। परंतु उस बात को तो वैदेशिकों ने युक्‍ति से ही बात की बात में उड़ा दिया। हालाँकि वे लोग हमारे हिंदू समाज से विशेष परिचित नहीं होते हैं। परंतु एक मान्य हिंदू धोखा खा जावे यह क्या ही आश्‍चर्य है!!

अन्त में बाबू हरिश्‍चंद्र के दो-एक और अनुयायियों और भक्‍तों की लीला दिखला कर इस विषय को समाप्त करना चाहते हैं। काशी नागरी प्रचारिणी सभा की तरफ से जो रामायण इंडियन प्रेस में छपी है उनके आरंभ में उसके संपादक बाबू श्यामसुंदर दास ने तुलसीदास की जीवनी लिखते हुए उनके 'मित्र और स्नेही' प्रसंग में भदैनी, काशी के चौधरी लोगों के पूर्वज टोडर का जिक्र किया है और लिखा है कि 'इस टोडर के वंशज क्षत्रिय हैं।' यही बात फिर उन्होंने स्वसंपादित सटीक तुलसीकृत में दोहराई हैं और फिर 'तुलसी ग्रंथावली' में श्री रामचंद्र शुक्ल, लाला भगवानदीन और बाबू ब्रजरत्‍न दास रूप संपादकत्रयी ने उसे ही ज्यों का त्यों उद्धृत कर दिया है। इस प्रकार हम देख रहे हैं कि अंधपरम्परा का प्रवाह बह चला है। बिना समझे-बूझे करने की आदत हम लोगों में ऐसी आ गई है कि हम अपने अनुसन्धान और विचार को ताक पर रख आँख मूँद कर दूसरों का थूका चाट लेने में ही अपने को कृतकृत्य मानते हैं। नहीं तो ऐसे विवादग्रस्त विषय में यों आँख मूँद कर क्यों लिखा जाता? डॉ. ग्रियर्सन ने उक्‍त टोडर को अकबर का मन्त्री राजा टोडरमल लिखा, तो आप लोगों ने उसका खण्डन कर उन्हें क्षत्रिय लिख मारा। वाह रे खोज! और वाह रे नागरी प्रचारिणी सभा का अनुसन्धान! आप लोग उसके कर्णधार हैं। मगर जब स्वयं बह रहे हैं तो ईश्‍वर ही बेड़ा पार करे। भलेमानुसो, जिस टोडर को आप क्षत्रिय लिख रहे हैं वे ब्राह्मण हैं। उन्हीं के वंशज भदैनी, नई बस्ती, नदेसर और सुरही के चौधरी लोग हैं। आप लोगों ने जिन पाँच गाँवों का जिक्र किया है वह इन्हीं के अधिकार में थे और इन्हीं से महाराज बनारस को मिले। अभी तक उनका कुछ अंश इन लोगों में से किसी के अधिकार में हैं भी। ये लोग कश्यप गोत्री भूमिहार ब्राह्मण हैं। मगर इसे लिखने में आप लोगों का दोष ही क्या? जबकि आप लोगों को साधारण भूगोल का ज्ञान भी नहीं हैं। क्योंकि कांट ब्रह्मपुर को आप लोग उन्हीं पोथों से बलिया जिले में लिखते हैं। हालाँकि वह स्थान शाहाबाद में हैं। तो फिर यह तो अनुसंधान की बात ठहरी। पर, स्मरण रहे कि नागरी प्रचारिणी एक जबावदेह संस्था है, न कि आपकी बपौती। यदि उसके नाम पर ऐसा लबड़धोंधों होगा तो ठीक नहीं। इसका परिणाम ठीक न होगा। क्या इसी बुद्धि से 'हिंदी शब्द सागर' का संपादन हो रहा है। खुदा ही खैर करे! यदि शायद यह कहें कि ये लोग क्षत्रिय ही हैं, न कि ब्राह्मण तो हम आप लोगों को शाबाशी देंगे और कहेंगे कि आप लोगों ने बहादुर का काम किया। पर याद रहे कि खत्री लोगों को क्षत्रिय लिखने में आपको जितना सबूत मिला क्या भूमिहारों के ब्राह्मण होने में उतना भी न मिला? क्या खत्रियों के साथ क्षत्रियों के विवाह और खानपान वगैरह होते हैं? और भूमिहारों के मैथिलों, कान्यकुब्जों या सर्यूपारियों के साथ? इसका पता तो इसी ग्रन्थ से ही लग गया होगा या लग जावेगा। हाँ, जाग कर सोना और बात है।

जब ऐसा लिखने का प्रमाण आप से पूछा गया तो आप लिखते हैं कि 'टोडर को क्षत्रिय मानने का कोई दृढ़ प्रमाण मेरे पास नहीं हैं। तुलसीदास के दोहे का 'ठाकुरो' शब्द और टोडर के वंश के नाम से यह अनुमान किया है कि ये लोग क्षत्रिय थे। डॉ. ग्रियर्सन और पं. सुधाकर द्विवेदी ने भी यही माना हैं। यदि इस वंश के लोग अपने को भूमिहार कहते हैं तो यही मानना उचित होगा।' यह तो खासी बुद्धिमानी ठहरी, कि 'ठाकुर' शब्द और नाम के अन्त में शायद 'सिंह' देख कर क्षत्रिय निश्‍चय कर लिया! मैथिली, कान्यकुब्ज, गौड़ और सनाढ्‍य ब्राह्मणो, सजग! नहीं तो इस चक्की में पिस जाओगे! इस कसौटी पर खरे न निकल सकोगे! क्यों जनाब, क्या तुलसीदास का ही 'कहहिं सचिव सब ठकुरसुहाती' भूल गया, जिससे यह अनर्थ कर डाला? क्या खत्रिय को क्षत्रिय लिखने में इस कसौटी का प्रयोग किया गया है? वहाँ भी तो आपने कमाल किया है! 'हिंदी शब्द सागर' में उन्हें क्षत्रिय लिखते हैं और यहाँ लिखते हैं कि 'राजा' टोडरमल टंडन खत्री थे और इस टोडर के वंशज क्षत्रिय हैं।' उन बेचारों की फजीहत क्यों करते हैं? अथवा मर्जी ही तो ठहरी! अस्तु।

इन्हीं कूपमंडूक भलेमानुसों की एक और भी काली करतूत दिखला कर बस करेंगे। काशी नागरी प्रचारिणी की तरफ से जो कोश 'हिंदी शब्द सागर' तैयार हो रहा है उसके संपादक तो वही हुजूर श्यामसुंदर दास हैं और उनके ही-हुजूरों में लाला भगवानदीन के सिवाय लाला जगन्मोहन और श्रीरामचंद्र शुक्ल वगैरह हैं। इस कोश में भी ये महारथी एक प्रकार से लोगों के विधाता ही बन रहे हैं और जिस किसी के बारे में जो ही मन में आता लिख कर दिल की कसक निकाल लेते हैं। साथ ही, अपना और अपने इष्ट मित्रों का काम भी बना लेते हैं। वे 'तगा' शब्द के बारे में लिखते हैं कि 'एक जाति जो रुहेलखण्ड में बसती हैं। इस जाति के लोग जनेऊ पहनते और अपने आपको ब्राह्मण मानते हैं।' जिस छल, नीचता और चालाकी से यह लिखा गया है वह उन्हीं को मुबारक हो। अच्छा फिर 'भूमिहार' शब्द पर लिखते हैं कि 'एक जाति जो प्राय: बिहार में और कहीं-कहीं संयुक्‍त प्रांत में भी पाई जाती है। इस जाति के लोग अपने आपको ब्राह्मणों के अन्तर्गत बतलाते हैं और प्राय: अपने आपको 'बाभन' कहते हैं। इस जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की बातें सुनने में आती है। कुछ लोग कहते हैं कि जब परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रियों से रहित कर दिया था, तब जिन ब्राह्मणों को उन्होंने राज्य भार सौंपा था, उन्हीं के वंशधर ये भूमिहार या बाभन हैं। कुछ लोगों का कहना है कि मगध के राजा जरासंध ने अपने यज्ञ में एक लाख ब्राह्मण बुलाए थे। पर, जब इतनी संख्या में ब्राह्मण न मिले, तब उनके एक मन्त्री ने छोटी जाति के बहुत से लोगों को यज्ञोपवीत पहना कर ला खड़ा किया था और उन्हीं की संतान ये लोग हैं। जो हो, पर इसमें संदेह नहीं कि इस जाति में ब्राह्मणों के यजन, याजन आदि कर्मों का नितान्त अभाव देखने में आता हैं और प्राय: क्षत्रियों की अनेक बातें इनमें पाई जाती है। ये लोग दान नहीं लेते और प्राय: खेती-बारी या नौकरी कर के निर्वाह करते हैं, सारांश इससे खराब लिखा नहीं जा सकता।

इस मूर्खतापूर्ण बातों का अब हमें उत्तर देना नहीं हैं। जो कहना था कह चुके हैं। पर, इतना अवश्य कहना है कि सिवाय कूपमंडूक के और कोई इसे यदि कहेगा तो सिर्फ पक्षपाती। हजारीबाग में तो भूमिहार पुरोहिती पेशा करते ही हैं और गया-देव-के सूर्य मन्दिर में पुजारी यही लोग हैं। यह गायत्री के आचार्य होते ही हैं। यह पुरोहिती सैकड़ों, हजारों वर्षों से हैं। इसके सिवाय अब तो इनमें हजारों पुरोहिती करनेवाले हैं। फिर पुरोहिती का इनमें नितान्त अभाव बताना मूर्खता नहीं तो और क्या है? लाख या सवा लाख ब्राह्मणों की कहानी तो सभी ब्राह्मण दलों में फैली है और उनकी पुस्तकों में लिखी भी है। फिर सिर्फ भूमिहारों के ही विषय में उसके नाम लेने की क्या आवश्यकता आ पड़ी? यह केवल आंतरिक नीचता है। अच्छा, तो क्या कायस्थों और खत्रियों के विषयों में एकबारगी साफ ही मामला हैं? क्या खत्रियों को लोग क्षत्रिय या क्षत्रियों की एक शाखा मानते हैं या सिर्फ उन्हीं लोगों को श्याम सुंदर के भाइयों का ही दावा है? तो फिर उनके बारे में केवल क्षत्रिय या क्षत्रियों की शाखा ही क्यों लिखा गया और यह दावे की बात क्यों न लिखी गई? सिर्फ इसलिए कि श्यामसुंदर दास कोश के संपादक ठहरे और वह उनकी जाति। लाला लोग इसलिए चुप रहे कि कायस्थों के विषय में भी ऐसा ही लिख दिया जावेगा, शायद यह समझौता हो चुका था। बस फिर क्या? 'हम-तुम राजी तो क्या करेंगे शहर के काजी।' हम लाला भगवानदीन की 'लक्ष्मी' वाली भलेमानुसी खूब जानते हैं, भूले नहीं हैं।

जब कायस्थों और उनके भेद-करण, अंबष्ठ का प्रसंग आया तो 'हिंदुओं की एक जाति का नाम', 'कायस्थों का एक अवांतर भेद', 'कायस्थों का एक भेद' इत्यादि लिख कर मौन हो गए। याज्ञवल्क्यस्मृति के आचाराध्याय के 91, 92 और 336 श्‍लोक आप लोग भूल ही गए। क्योंकि आपको तो विशेष चिंता इस बात की हैं कि भूमिहारों का विवरण जैसे हो दिया जावे, दूसरों का नहीं। क्यों हुजूरों, अंबष्ठ और करण का जो अर्थ मनु और याज्ञवल्क्य ने किया है कि ब्राह्मण पुरुष से वैश्य स्त्री में और वैश्य से शूद्रा में उत्पन्न होनेवाली जाति और जिसे आप लोगों ने भी लिखा है उसमें और आपके कारण एवं अंबष्ठ कायस्थों में यदि कोई भेद हैं तो उसे भी क्यों न लिख दिया और 336वें श्‍लोक का उत्तर भी क्यों न दे दिया? ताकि आपके राज्य में आप लोगों की जाति अचल हो जाती और आपके भाई खूब समझ जाते कि 'सैंया भए कोतवाल अब डर काहे का।' हालाँकि वह लोग तो इस समय भी ऐसा ही समझते हैं। यदि मिथिला और बंगाल के करण और अपने दूसरे भाइयों की दशा जाँचें तो आपकी गरमी ही ठंडी हो जावे वहाँ दूसरे करण नहीं हैं। हमें तो आश्‍चर्य है कि जैसे एक 'दास' ने अपने समाज को साफ ही क्षत्रिय लिख दिया वैसे ही दूसरे दो दासों ने ऐसा क्यों नहीं कर डाला? क्या पीछे से समझौते में फर्क पड़ गया? हमें 'वर्मा' नामधारियों की इस बदकिस्मती पर तरस आता है! कोश में 'भूमिका' शब्द पर आप लोगों ने लिख मारा कि 'वेदांत के अनुसार चित्त की पाँच अवस्थाएँ, जिनके नाम ये हैं - क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध।' भलेमानुसो, ये योग के अनुसार चित्त की अवस्थाएँ हैं। वेदांत के अनुसार तो 7 हैं, जिन्हें योगवासिष्ठ में 'सप्तभूमिका' कहा है। क्या इसी बुद्धि से शब्द सागर तैयार हो रहा है? यह तो आप लोगों के दिमाग शरीफ का एक छोटा सा नमूना है। आपने कितने अनर्थ कर के नागरी प्रचारणी को बदनाम किया होगा इसका ठिकाना नहीं! अस्तु।

पूर्वोक्‍त अब तक की बातों से पाठकों को विदित हो गया होगा कि भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में जितनी कुकल्पनाएँ आज तक की गईं और पुस्तकों में भी लिखी गई है, वे कैसी निर्मूल और लेखकों के हृदय की कालिमा की सूचक हैं।हिंदू समाज के प्रतिष्ठित पुरुषों द्वारा किए गए पुस्तकाकार आक्षेप आज तक मेरी दृष्टि में इतने ही पड़े हैं, जिनका समुचित खण्डन इस प्रकरण में कर दिया गया है। इसलिए अब इन्हीं कल्पित आधारों पर अपने-अपने मानसिक प्रासाद खड़े करनेवाले - इन्हीं को ब्रह्म वाक्य माननेवाले उद्धृत सज्जनों से मेरी यही विनीत प्रार्थना है कि अब इसी अंजन से वे अपने ज्ञान नेत्र को निर्दोष करे ले, जिससे भविष्य में उन्हें कभी भी भूमिहार ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति के विषय में दोष की स्फूर्ति न हो।

2. दोनवार आदि शब्द मीमांसा

यह तो हुई हमारे पंडितमानियों, बाबुओं और नेताओं की पोपलीला अब उनकी इन पूर्वोक्‍त कुकल्पनाओं के कल्पित आधारों का भी विचार यहीं कर लेना चाहिए। इन लोगों ने जो कुछ बक डाला, वैदेशिकों ने भी जो कुछ विपरीत स्वर आलापे और बहुतेरे अन्य लोगों को भी जो ऐसी शंकाएँ उठा कीं या करती है, जिनका सम्बन्ध केवल अयाचक ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति से ही हैं, उन सभी का कारण यह है कि ये सभी कूपमण्डूक-प्राय हो रहे हैं, इसलिए अदनी-अदनी बातों का भी तत्व न समझ मनमानी बात सुनाने लग जाते हैं। बात असल यह है कि इस ब्राह्मण समाज में कुछ अवांतर (छोटे-छोटे) दल (Sub-communities) ऐसे हैं जिन्हें देखते ही अपरिपक्व विचार वालों के दिल फड़क उठते हैं। अर्थात पश्‍चिम, भूमिहारादि ब्राह्मणों में बहुत से छोटे-छोटे दलों के ऐसे नाम है, जो क्षत्रियों या अन्य वर्णों में भी पाए जाते हैं। जैसे द्रोणवार या दोनवार, सकरवार, किनवार, बरुआर, बेमुआर, कुढ़नियाँ, गौतम, भृगुवंश, दीक्षित, कौशिक और सोनपोखरिया या सरफकरिया इत्यादि नाम दोनों (ब्राह्मण और क्षत्रिय) समाजों में पाए जाते हैं। बस अब क्या था, इतना देखते ही लोगों ने जो चाहा लिख मारा। परंतु इस विषय में हमारा निवेदन यह है कि जब 'आईन-ए-अकबरी' जैसे प्राचीन ग्रन्थों में जैसे अन्य ब्राह्मण जमींदारों को ब्राह्मण या जुन्नारदार लिखा, वैसे ही इन दोनवार और किनवार आदि अयाचक ब्राह्मण दलों को भी जुन्नारदार या ब्राह्मण ही लिखा है, जैसा कि प्रथम परिच्छेद में ही विस्तृत रूप से दिखला चुके हैं, तो क्षत्रियों में या अन्य जातियों में दोनवार आदि संज्ञाएँ देख कर संदेह करना या मिथ्या कल्पनाएँ करना अनभिज्ञता नहीं तो और क्या कहा जा सकता है?

एक बात और भी विचारणीय है कि यदि केवल नामों की एकता देख कर ही एकता का संशय कर लिया जावे, तो क्या दुनिया में एक नामवाले भिन्न-भिन्न जाति और समाज के लोग नहीं होते? तो फिर क्या उन्हें एक ही जाति के समझ लेना होगा? दूसरी बात यह है कि यदि मैथिल संज्ञा मिथिला के ब्राह्मण और करण कायस्थों की है और दोनों का वेष भी लगभग एक-सा ही हैं, तो क्या उन दोनों को एक जाति का ही समझ लेना चाहिए? अथवा उसे देख उनमें से किसी की भी असलियत में संदेह करना उचित है? क्या लोगों को यह नहीं विदित हैं कनौजिया (कान्यकुब्ज) ब्राह्मण, हलवाई, कहार और क्षत्रिय आदि भी कहे जाते हैं? क्योंकि 'कान्यकुब्ज हलवाई वैश्य' नामक मासिक पत्र काशी से ही प्रकाशित होता है। इसी तरह कायस्थ आदि भी गौड़ नहीं कहे जाते हैं क्या? तो क्या कान्यकुब्ज या गौड़ कहलाने के कारण सभी ब्राह्मण, क्षत्रिय, हलवाई, कहार और कायस्थ एक ही जाति के समझे जावेंगे? बहुत संभव हैं कि उन लोगों के गोत्र भी एक हो। क्योंकि जो ही गोत्र ब्राह्मणों के होते हैं, वे ही अन्य जातियों के भी, कारण कि गोत्र चलानेवाले ऋषि लोग तो प्राय: सभी के एक ही थे।

साथ ही, संभवत: इसी कारण से यह भी नियम रख दिया गया है कि पुरोहित का जो गोत्र हो वही क्षत्रियादि यजमान को भी अपना बताना और संकल्प आदि में उसी का व्यवहार करना चाहिए। इसीलिए यदि कोई यह कहने का भी उत्साह करता कि प्राय: दोनवार क्षत्रियों, निर्णय सिंधु, तृतीय परिच्छेद, गोत्रप्रवर के प्रकरण में लिखा है कि 'अज्ञात बंधो: पुरोहित प्रवरेणाचार्यप्रवरेण वेतिस्वगोत्राद्यज्ञाने'-यदि अपने गोत्रप्रवर का ज्ञान न हो तो पुरोहित वा आचार्य के गोत्रप्रवर से ही व्यवहार किया जाना चाहिए। मगर आश्‍वलायन, कात्यायन और लौगाक्षि का सिद्धांत है कि क्षत्रियों और वैश्यों का व्यवहार सर्वदा ही आचार्य या पुरोहित के ही गोत्रप्रवर से होना चाहिए, जैसा कि 'पुरोहित प्रवरो राज्ञामेतेन वैश्यप्रवरो व्याख्यात:' इत्यादि। और भूमिहार ब्राह्मणों के गोत्र एक ही होते हैं। इसी प्रकार किनवार वगैरह के भी। इसी से उनके विषय में विविध शंकाएँ हुआ करती है। परंतु कान्यकुब्ज, गौड़ और मैथिल आदि नाम यद्यपि बहुत सी जातियों के एक ही हैं, तथापि गोत्रों का भेद होने से उनके विषय में कोई भी शंका नहीं होती। तो उसकी यह उक्‍ति भी खंडित हो गई, क्योंकि कान्यकुब्ज कहलानेवालों के भी गोत्र एक ही हो सकते हैं। इस विषय में अभी आगे भी कहेंगे।

इसी तरह यह भी देखा जाता है कि कायस्थ जाति के जो अवांतर दल श्रीवास्तव और सक्सेना वगैरह कहलाते हैं और क्षत्रियों में राठौर आदि कहे जाते हैं वे ही नाम भड़भूजों में भी पाए जाते हैं। जैसा कि मिस्टर क्रुक ने अपनी उक्‍त जाति संबंधी पुस्तक के द्वितीय भाग के 13वें पृष्ठ में यों लिखा है :

BHARBHUJA-The last census classifies them under the main heads of Bhatnagar, Jagjadon, Kaithiya, Kandu, Rathaur, Seksena, Sribastab. Some illustrate soma real or supposed connetion with other castes and tribes; such as the Bhadauriya, Chanbe, Chauhan, Kanjar, Kayath, Khatri and Lodhi.

P. 13. Vol. 11

इसका अनुवाद यह है कि अंतिम मनुष्य गणना के अनुसार भड़भूजा लोग भटनागर, जगजादों, कैथिया, कांदू, राठौर, सक्सेना और श्रीवास्तव इन छोटे-छोटे दलों में विभक्‍त हैं। बहुतेरे अपने वास्तविक अथवा काल्पनिक सम्बन्ध भदौरिया, चौबे, चौहान, कंजर, कायथ, खत्री और लोधियों के साथ सिद्ध करते हैं।

इसी तरह गौड़ ब्राह्मणों में चमर गौड़ और गूजर गौड़ इत्यादि संज्ञाएँ हैं। क्या इन सब नामों को देख कर आस्तिक और विचार बुद्धि से यह संदेह करना उचित है कि भड़भूजा, कायस्थ, श्रीवास्तव, सक्सेना, चौबे, चौहान, खत्री और राठौर एवं गूजर, चमार और गौड़ ब्राह्मण इत्यादि एक ही हैं? इन सब बातों को ही देख कर यही मानना होगा कि नामों के एक हो जाने या गोत्रों के भी एक हो जाने से जाति एक नहीं समझी जा सकती। क्योंकि जो गाजीपुर, बनारस या मुजफ्फरपुर में उत्पन्न होने वा रहनेवाले हैं और उनकी जातियाँ भिन्न-भिन्न हैं और संभव हैं कि बहुतेरों के गोत्र भी एक ही हों। अब यदि वे लोग किसी कारण से अन्यत्र चले जावे तो गाजीपुरी, बनारसी या मुजफ्फरपुरी इस एक ही नाम से वे सभी बोले जावेंगे। जैसा कि लोग कहा करते हैं कि यह तो बनारसी माल, बनारसी साड़ी या बनारसी जवान हैं। इसी तरह भोजपुरी इत्यादि। ऐसा होने पर भी वे सभी कदाचित भी एक नहीं समझे जाते या जा सकते हैं। उसी तरह मिथिला, कान्यकुब्ज अथवा गौड़ वगैरह देशों में भी रहनेवाले सभी जातिवाले एक ही नाम से कहे जाने पर भी एक जाति या दल के समझे जाते या जा सकते हैं। ठीक वही दशा दोनवार और किनवार आदि नामों के भी विषय में समझना चाहिए, कि ब्राह्मण या क्षत्रिय अथवा अन्य जातीय भी एक स्थान में रहने से एक नाम से पुकारे जाने लगे, जैसा कि अभी दिखलाया जावेगा। और यद्यपि सभी एक नामवाले भूमिहार ब्राह्मण और क्षत्रियों के गोत्र एक नहीं हैं, जैसा कि इसी प्रकरण में विदित होगा, तथापि जिनके गोत्र एक से हैं उनके विषय में वही बात हो सकती है जैसी कि अन्य लोगों में कह चुके हैं, कि एक ही गोत्रवाले भी भिन्न-भिन्न जातिवाले एक स्थान में रह सकते हैं और उसी से उनका नाम भी एक ही पड़ सकता है।

यह भी बात हुई होगी कि जब वे लोग किसी स्थान से हट चले, तो क्षत्रियों ने देखा कि हमारे पूर्वस्थानवाले अयाचक ब्राह्मण कहाँ बसे हैं। और जहाँ उन्हें पाया, आप भी उन्हीं के पास ही बस गए। क्योंकि अन्य देश में जाने पर भी वहाँ पर लोग विशेष कर स्वदेश के ही लोगों का साथ ढूँढ़ा करते हैं। इसीलिए एक नामवाले अयाचक ब्राह्मण और क्षत्रिय एक ही जगह पाए जाते हैं। जैसा कि मैथिल और गौड़ एवं कान्यकुब्ज नाम वाली सभी जातियाँ प्राय: पास ही पास पाई जाती है। अयाचक ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बहुत से गोत्रों के एक ही होने का एक यह भी कारण हो सकता है, कि कोई ब्राह्मण प्रथम याचक (पुरोहित) रहा होगा और क्षत्रियों की पुरोहिती करता रहा होगा। परंतु समय पा कर वह अयाचक हो गया, जैसा कि सर्वदा से हुआ करता है, तो अपने सगोत्र अयाचक ब्राह्मणों से मिल गया, जैसा कि अभी तक बराबर हुआ करता है। परंतु प्रथम पुरोहित होने से उसी का गोत्र उन क्षत्रियों का भी कहलाता था, इसलिए उसके पश्‍चात आज तक एक ही गोत्र कहलाता ही रह गया।

सबसे विश्‍वसनीय और प्रामाणिक बात यह है कि दोनवार और किनवार इत्यादि नामवाले जो क्षत्रिय हैं, ये प्रथम अयाचक ब्राह्मण ही थे। परंतु किसी कारणवश इस ब्राह्मण समाज से अलग कर दिए गए वा हो गए। बनारस-रामेश्‍वर के पास गौतम क्षत्रिय अब तक अपने को कित्थू मिश्र या कृष्ण मिश्र के ही वंशज कहते हैं, जिन मिश्र जी के वंशज सभी गौतम भूमिहार ब्राह्मण हैं और भूमिहार ब्राह्मणों से पृथक होने का कारण वे लोग ऐसा बतलाते हैं कि कुछ दिन हुए हमारे पूर्वजों को गौतम ब्राह्मण हिस्सा (जमींदारी वगैरह का) न देते थे, इसलिए उन्होंने रंज हो कर किसी बलवान क्षत्रिय राजा की शरण ली। परंतु उसने कहा कि यदि हमारी कन्या से विवाह कर लो, तो हम तुम्हें लड़ कर हिस्सा दिलवा देंगे। इस पर उन्होंने ऐसा ही किया और तभी से भूमिहार ब्राह्मणों से अलग हो कर क्षत्रियों में मिल गए यह उचित भी है। क्योंकि जैसा कि प्रथम ही इसी प्रकरण में दिखला चुके हैं कि, मनु, याज्ञवल्क्यादि सभी महर्षियों का यही सिद्धांत है कि ब्राह्मण यदि क्षत्रिय की कन्या से विवाह कर ले, तो उसका लड़का शुद्ध क्षत्रिय ही होगा। क्योंकि उसका मूर्द्धाभिषिक्‍त नाम याज्ञवल्क्य ने कहा है और 'मूर्द्धाभिषिक्तो राजन्य' इत्यादि अमरकोश के प्रमाण से तथा महाभारत और वाल्मीकि रामायण आदि से मूर्द्धाभिषिक्‍त नाम क्षत्रिय का ही है। मनु भगवान ने तो :

पुत्रा येऽनंतरस्त्रीजा: क्रमेणोक्‍ता द्विजन्मनाम्।

ताननंतरनाम्नस्तु मातृदोषात्प्रचक्षते॥अ.10॥

इत्यादि श्‍लोकों में उसे स्पष्ट ही क्षत्रिय बतलाया है। ये गौतम क्षत्रिय केवल काशी-रामेश्‍वर के पास दो-चार ग्रामों में रहते हैं।

इसी तरह किनवार क्षत्रियों की भी बात है। वे केवल बलिया जिले के छत्ता और सहतवार आदि दो ही चार गाँवों में प्राय: पाए जाते हैं। जिनके विषय में विलियम इरविन साहब (William Iruine Esqr.) कलक्टर 1780-85 ई. ने बंदोबस्त की रिपोर्ट (Reports on the Settlement) में लिखा है कि किनवार ब्राह्मणों के एक पुरुष कलकल राय ने किसी क्षत्रिय जाति की कन्या से ब्याह कर लिया। जिससे उनके वंशज भूमिहार ब्राह्मणों से अलग हो गए और उन्हीं पूर्वोक्‍त दो-चार ग्रामों में पाए जाते हैं। इसी तरह दोनवार क्षत्रिय भी किसी कारणवश दोनवार ब्राह्मणों से अलग कर दिए गए। जो मऊ (आजमगढ़) के पास कुछ ही ग्रामों में पाए जाते हैं, परंतु वहाँ दोनवार ब्राह्मण लोग 12 कोस में विस्तृत है। इसी तरह बरुवार क्षत्रियों को भी जानना चाहिए। वे भी केवल आजमगढ़ जिले के थोड़े से ग्रामों में है। परंतु बरुवार नाम के ब्राह्मण तो उसी जिले के सगरी परगने के 14 कोस में भरे पड़े हुए हैं। सकरवार क्षत्रिय भी उसी तरह किसी कारण विशेष ये सकरवार ब्राह्मणों से विलग हो गए, जो गहमर वगैरह दो-एक ही स्थानों में पाए जाते हैं। जबकि सकरवार नाम के ब्राह्मण गाजीपुर के जमानियाँ परगने और आरा के सरगहाँ परगने के प्राय: 125 गाँवों में भरे पड़े हुए हैं। जो दोनवार अयाचक ब्राह्मण जमानियाँ परगने के ताजपुर और देवरिया प्रभृति बीसों ग्रामों में पाए जाते हैं, उन्हीं में से कुछ लोग किसी वजह से निकल कर क्षत्रियों में मिल गए और गाजीपुर शहर से पश्‍चिम फतुल्लहपुर के पास दो-चार ग्रामों में अब भी पाए जाते हैं। इसी प्रकार अन्य भी भूमिहार ब्राह्मणों के से नामवाले क्षत्रियों को जानना चाहिए।

सारांश यह है कि सभी दोनवार आदि नामवाले क्षत्रियों की संख्या बहुत ही थोड़ी हैं, परंतु इन नामोंवाले भूमिहार ब्राह्मणों की संख्या ज्यादा हैं। इससे स्पष्ट है कि इन्हीं अयाचक ब्राह्मणों में से वे लोग किसी कारण से विलग हो गए हैं। इसीलिए उनकी दोनवार आदि संज्ञाएँ और गोत्र वे ही हैं जो दोनवार आदि नामवाले ब्राह्मणों के हैं। इस संख्या वगैरह का पता हमने स्वयं उन-उन स्थानों में भ्रमण कर और जानकार लोगों से मिल कर लगाया है। जिसे इच्छा हो वह प्रथम जाँच कर ले, पीछे कुछ कहे या लिखे। यद्यपि सकरवार क्षत्रिय आगरे के आस-पास तथा अन्य प्रांतों में बहुत पाए जाते हैं, तथापि उन लोगों का गहमर आदि ग्रामोंवाले सकरवार क्षत्रियों से कुछ सम्बन्ध नहीं हैं। क्योंकि ये सब सकरवार कहे जाते हैं और आगरेवाले सिकरीवार; कारण कि उनका आदिम स्थान फतहपुर सिकरी या सीकरी हैं और इनका स्थान सकराडीह है। साथ ही, आगरे वालों का गोत्र शांडिल्य हैं और गहमरवालों का सांकृत, जैसा कि सकरवारों के निरूपण में आगे दिखलावेंगे। अत: सकरवारों को सिकरीवारों से पृथक ही मानना होगा।

बहुत जगह अनेक अंग्रेजों ने यह लिखा है कि जब बहुत से भूमिहार (ब्राह्मणों) और राजपूतों के गोत्र एक ही हैं, जैसे किनवार या दोनवार, तो फिर वे एक ही क्यों न समझे जावें? पर उनकी यह भूल है। क्योंकि एक तो सामान्यत: वैदेशिकों को यही पता नहीं चलता कि गोत्र या मूल किसे कहते हैं। दूसरे वे लोग यह भी देखते हैं कि बहुत से लोग गोत्रों से ही पुकारे जाते हैं, जैसे भारद्वाज, गौतम और कौशिक इत्यादि। इससे उन्हें यह भ्रम हो गया कि दोनवार और किनवार भी गोत्रों के ही नाम है। इसी से उन्होंने ऐसा बक डाला, जिसे देख कर आजकल के अर्द्धदग्ध लकीर के फकीर भी वही स्वर आलापने लग जाते हैं। परंतु वास्तव में किनवार और दोनवार आदि संज्ञाएँ प्रथम निवास के स्थानों या डीहों से पड़ी है, जिन्हें मिथिला में मूल कहते हैं,

और मेरठ वगैरह में निकास, न कि ये गोत्रों के नाम है। जैसे अन्य मैथिलादि ब्राह्मणों तथा अन्य निकास, न कि गोत्रों के नाम है। जैसे अन्य मैथिलादि ब्राह्मणों तथा अन्य लोगों की गौड़, कान्यकुब्ज, मैथिल, चकवार और सनैवार आदि संज्ञाएँ भी स्थानों के नाम से ही पड़ी है, न कि ये सब गोत्रों के नाम है।

अब हम पाठकों को इन दोनवार आदि नामों का कुछ संक्षिप्त विवरण सुना देना चाहते हैं, जिससे सब शंकाएँ आप ही आप निर्मूल हो जाएँगी। इस जगह इस बात को पुन: स्मरण कर लेना चाहिए, कि यवन राज्य काल में जब अनेक कारणों से इतस्तत: भगेड़ मच रही थी, तो उन दिनों विशेष धर्मभीरु होने के कारण ब्राह्मणों ने अपनी धर्म रक्षा के लिए छोटे-छोटे दल बनाए, जिनमें एक प्रकार के समीपवर्ती ब्राह्मण सम्मिलित हुए। यह बात प्रथम परिच्छेद में ही सविस्तार दिखलाई जा चुकी है। उसी समय में प्रत्येक ब्राह्मण दल के साथ डीह (पूर्वजों के निवास स्थान) के कहने का भी प्रचार चला। जैसे पिंडी के तिवारी या खैरी के ओझा आदि। क्योंकि इससे ठीक-ठीक पता लग जाता था कि ये ब्राह्मण वास्तव में कान्यकुब्ज या सर्यूपारी है, क्योंकि इनके पूर्वजों के स्थान पिंडी और खैरी आदि सर्यूपार और कान्यकुब्ज आदि देशों में ही है। इसी 'डीह' को मिथिला में मूल और पच्छिम में निकास कहते हैं, जिसका अर्थ 'आदिम निवास स्थान' है, जैसा कि 'डीह' का अर्थ है। परंतु यह 'डीह' या 'मूल' का व्यवहार प्राय: केवल ब्राह्मणों में ही प्रचलित था। इसीलिए अब तक भी सिवाय ब्राह्मण के अन्य जातियों में उसका व्यवहार प्राय: कहीं भी नहीं पाया जाता है। इससे भी स्पष्ट है कि जो क्षत्रियों में किनवार वगैरह नाम है, उनके पड़ने का वही कारण है जैसा कि अभी दिखला चुके हैं। क्षत्रिय लोगों के वंशों के नाम प्राय: उनके प्रधान पुरुषों के नाम से ही होते हैं, न कि किसी डीह। जैसे कि रघुवंशी, यदुवंशी इत्यादि।

अस्तु, जिस तरह कान्यकुब्ज लोग डीह का व्यवहार इस प्रकार करते हैं कि क्यूना के दीक्षित, सीरू के अवस्थी और देवकुली के पांडे। इसी तरह सर्यूपारी भी। मैथिल लोग वैसा न कह कर मूल पूछने पर या तो उस स्थान का नाम-भर बतला देते है, जैसे दिघवे, जाले इत्यादि। अथवा जालेवार, दिघवैत, सनैवार, चकवार इत्यादि कहते हैं कि जिसका अर्थ यह है कि दिघवा, जाले या चाक आदि स्थानों में रहनेवाले। और कहीं-कहीं पर अनरिया, कोदरिया और ब्रह्मपुरिया आदि भी कहते हैं। जिनके अर्थ है कि अनारी, कोदरा और ब्रह्मपुर के रहनेवाले। इसी तरह करमहे और दघिअरे इत्यादि भी समझे जाने चाहिए। तात्पर्य यह है कि वे लोग 'डीह' या 'मूल' को बहुत तरह से कहा करते हैं। और प्रथम यह बात दिखला चुके हैं कि अयाचक दलवाले ब्राह्मणों ने भी 'डीह', 'मूल' के कहने की रीति प्राय: वही स्वीकार की जो मैथिलों में थी और तदनुसार ही दोनवार, किनवार, कुढ़नियाँ, कोलहा, तटिहा, एकसरिया, जैथरिया, ननहुलिया और जिझौतिया आदि कहने लगे। कान्यकुब्जों आदि से भी इनका व्यवहार मिलता है। अत: उनकी तरह भी ये लोग कहीं-कहीं बोले जाते हैं। जैसे भारद्वाज गोत्री कान्यकुब्ज या सर्यूपारी बाँदा के आसपास और जौनपुर जिले में दो-एक जगह रबेली पंचपटिया वगैरह में दुमटेकार के तिवारी ही कह जाते हैं और बहुत से भारद्वाज गोत्री भूमिहार ब्राह्मण भी पांडे या तिवारी ही कह जाते हैं और अपने को दुमटेकार कहते हैं जो कहीं-कहीं बिगड़ कर 'दुमकटार' या 'डोमकटार' हो गया है, एवं बहुत से सर्यूपारी, गौड़ और कान्यकुब्ज वगैरह डीह का नाम न ले कर केवल गोत्रों से ही अपने को पुकारते हैं, जैसा कि भारद्वाज, कौशिक इत्यादि। इस बात को पं. छोटेलाल श्रोत्रिय ने अपनी 'जात्यन्वेषण' नामक पुस्तक में स्पष्ट ही लिखा है। आजमगढ़ के जिले में भी बभनपुरा आदि दो-चार ग्रामों में कुछ सर्यूपारी ब्राह्मण दूबे कहलाते हैं और अपने को 'मौनस' गोत्र से व्यवहार करते हुए, 'मौनस' कहा करते हैं। इसी प्रकार भूमिहार ब्राह्मणों में भी बहुत से ऐसे दल है, जो कहीं-कहीं गोत्रों से ही अपने को पुकारते हैं, जैसे खजुरा-धुवार्जुन आदि ग्रामोंवाले भारद्वाज और सुर्वत-पाली वगैरह ग्रामवाले कौशिक कहलाते हैं। ये सब स्थान गाजीपुर जिले में हैं, इसी प्रकार बनारस में गौतम और आजमगढ़ के टीकापुर-बीबीपुर आदि ग्रामों में दोनों दलवाले भृगुवंश वा भार्गव कहे जाते हैं।

गोत्र से पुकारे जाने में यही कारण हैं कि यवन काल से प्रथम तो लोग स्थायी रूप से जहाँ-तहाँ पड़े रहते थे। इसलिए 'डीहों' या 'मूलों' के कहने की कोई आवश्यकता न होने से केवल गोत्रों से आपस के व्यवहार करते थे, जो विवाह वगैरह में आवश्यक भी था। जब यवन काल में इधर-उधर भगेड़ मची तो हुलिया (पहचान) के लिए 'डीह' वा 'मूल' का व्यवहार थोड़े दिनों तक चलता रहा। परंतु उस समय भी जो लोग किसी प्रथम के निश्‍चित एक ही स्थान में जमे रह गए, उन्हें डीहों की आवश्यकता ही न हुई। इसलिए उनका व्यवहार पूर्ववत गोत्रों से ही होता रहा। जैसे गौतम लोग प्रथम से ही बनारस में टिके थे और वहीं रह गए इसलिए वे लोग गौतम ही कहलाते रह गए। परंतु जो लोग उनमें से ही छपरा के किसी बड़रमी या बड़रम स्थान से भाग गए वे बड़रमियाँ कहलाए और कहलाते हैं और उन्हीं गौतमों में से जो प्रथम आजमगढ़ के करमा स्थान में रहते थे, जहाँ अब उनके स्थान में बरुवार ब्राह्मण किसी कारण से रहते हैं और वे लोग वहाँ से चले आ कर देवगाँव के पास 10 या 12 गाँवों में बस गए वे करमाडीह के कारण करमाई कहलाए। परंतु वे लोग सर्यूपारी ब्राह्मण गौतम गोत्री पिपरा के मिश्र ही है, जैसा कि प्रथम ही कह चुके हैं। इसी प्रकार भृगुवंश भी आजमगढ़ के प्रथम से ही थे और वहीं रह गए। इससे उनका वही नाम रहा। परंतु जो उनके रहने के तप्पे (परगने या इलाके) कोठा से भाग कर बस्ती के कोठिया आदि स्थानों में चले गए, वे उसी तप्पे के नाम से 'कोठहा' पुकारे जाते हैं। इसी तरह गाजीपुर के जहूराबाद परगने में पुराने समय से ही रह जाने के कारण वे लोग कौशिक ही कहलाते रह गए। परंतु छपरा के नेकती नामक स्थान से भाग कर मुजफ्फरपुर और दरभंगा में जानेवाले कौशिक नेकतीवार कहलाते हैं। इसी तरह के भारद्वाजों और आजमगढ़ आदि के गर्गों को भी समझना चाहिए।

अब दोनवार आदि शब्दों के अर्थ सुनिए। वास्तव में दोनवार ब्राह्मण कान्यकुब्ज ब्राह्मण, वत्स गोत्रवाले देकुली या देवकली के पांडे है। यह बात दोनवारों के मुख्य स्थान नरहन, नामगढ़, विभूतपुर और गंगापुर आदि दरभंगा जिले के निवासी दोनवार ब्राह्मणों के पास अब तक विद्यमान बृहत वंशावली में स्पष्ट लिखी हुई हैं। वहाँ यह लिखा हुआ है कि देवकली के पांडे वत्सगोत्री दो ब्राह्मण, जिनमें से एक का नाम इस समय याद नहीं, मुगल बादशाहों के समय में किसी फौजी अधिकार पर नियुक्‍त हो कर दिल्ली से मगध और तिरहुत की रक्षा के लिए आए और पटना-दानापुर के किले में रहे। इसी जगह वे लोग रह गए और उन्हें बादशाही प्रतिष्ठा और पेंशन वगैरह भी मिली। उनमें एक के कोई संतान न थी। परंतु दूसरे भाई समुद्र पांडे के दो पुत्र थे। एक का नाम साधोराम पांडे और दूसरे का माधोराम पांडे था। जिनमें साधोराम पांडे के वंशज दरभंगा प्रांत के सरैसा परगने में विशेष रूप से पाए जाते हैं, यों तो इधर-उधर भी किसी कारणवश दरभंगा जिले-भर और बाहर भी फैले हुए हैं। बल्कि दरभंगा के हिसार ग्राम में (जनकपुर के पास) अब तक दोनवार ब्राह्मण पांडे ही कहलाते हैं। माधावराम पांडे के वंशज मगध के इकिल परगने में भरे हुए पाए जाते हैं। साधोराम पांडे के पुत्र राजा अभिराम और उनके राय गंगाराम हुए; जिन्होंने अपने नाम से गंगापुर बसाया। वे बड़े ही वीर थे। उनके दो विवाह हुए थे, और दोनों मैथिल कन्याओं से ही हुए थे। एक स्त्री श्रीमती भागरानी चाक स्थान के राजासिंह मैथिल की और दूसरी मुक्‍तारानी तिसखोरा स्थान के पं. गोपीठाकुर मैथिल की पुत्री थी। एक से तीन और दूसरी से छह, इस प्रकार राय गंगाराम के नौ पुत्र हुए। जिन्होंने नरहन, रामगढ़, विभूतपुर और गंगापुर आदि नौ स्थानों में अपने-अपने राज्य उसी प्रांत में जमाए। उन्हीं में से पीछे कोई पुरुष, जिनका नाम विदित नहीं है, आजमगढ़ जिले के रैनी स्थान में मऊ से पश्‍चिम टोंस नदी के पास आ बसे, जिनके वंशज वहाँ 12 कोस में विस्तृत हैं। फिर वहाँ से दो आदमी आ कर जमानियाँ परगना, जिला गाजीपुर में बसे और पीछे से बहुत गाँवों में फैल गए। इनमें से ही कुछ बनारस प्रांत से मध्दूपुर आदि स्थानों में भी आ बसे और इसी तरह दो-दो एक-एक ग्राम या घर बहुत जगह फैल गए। रैनी स्थान से ही जो लोग बलिया के पास जीराबस्ती आदि तीन या चार ग्रामों में बसे हुए हैं, वे किसी कारणवश पांडे न कहे जा कर तिवारी कहलाने लगे, जो अब तक तिवारी ही कहे जाते हैं। जैसे पं. नगीना तिवारी इत्यादि। इस प्रकार साधोराम पांडे के वंशजों की वृद्धि बहुत हुई। परंतु माधावराव पांडे के वंशज केवल मगध में ही पाए जाते हैं। तथापि उनकी संख्या वहाँ कम नहीं हैं। दिघवारा (छपरा) के पास बभनगाँव तथा ऐसे ही दो-एक और स्थानों के भी दोनवार लोग अब तक पांडे ही कहलाते हैं। जबकि दोनवार नाम के ब्राह्मण बिहार और संयुक्‍त प्रांत में भरे हुए हैं और क्षत्रिय दोनवार केवल कुछ ही ग्रामों में पाए जाते हैं। तो इससे निस्संशय यही बात सिद्ध है कि उन क्षत्रियों के विषय में वही बात हो सकती है जो अभी कही जा चुकी है।

अयाचक ब्राह्मणों के दोनवार नाम पड़ने में तीन बातें हो सकती है। पहली बात तो यह है कि इनके मूल पुरुष दिल्ली से आए और वह गुरु द्रोणाचार्य का निवास स्थान था, बल्कि उत्तर पांचाल के राजा भी वहीं थे। इसीलिए वहाँ दिल्ली प्रांत के समीप ही गुरुगाँव जिला भी है, जिसका भाव यह है कि द्रोणाचार्य गुरुउस स्थानीय गाँव में रहते थे, जिससे वह गुरुगाँव कहलाता है। परंतु संभव हैं कि वही या वहाँ कोई स्थान द्रोणाचार्य के भी नाम से प्रथम पुकारा जाता रहा हो और वहीं से आने से ये ब्राह्मण लोग उसी डीह से कहे जाने लगे। जिससे इनका नाम द्रोणवार हो गया। जिसका अर्थ यह है कि द्रोण (द्रोणाचार्य) के स्थान में प्रथम के रहनेवाले।

दूसरा अनुमान इस विषय में इससे अच्छा और विश्‍वसनीय यह है कि 'द्रोण' शब्द संस्कृत में देशांतर (अन्यदेश या विदेश) का वाचक है। जैसा कि मेदिनी कोश में लिखा है कि 'द्रोण:स्यान्नीवृदंतरे' अर्थात 'द्रोण शब्द देशांतर का भी वाचक है।' और जब मिथिला देश में काशी देशवाले और पश्‍चिम के रहनेवाले ब्राह्मण यवन समय में गए तो उन्होंने (मिथिलावासियों ने) अपने और अन्य देशीय ब्राह्मणों को अलग-अलग रखने अथवा पहचान के लिए अपने को तिरहुतिया या मैथिल कहना प्रारंभ किया और नए आए हुओं को पश्‍चिम। जिनमें से तिरहुतिया का अर्थ 'तिरहुत देश में रहनेवाला' और पश्‍चिम का अर्थ पश्‍चिम देश में रहनेवाला' है, परंतु जब तक विशेष रूप से अन्य देशीय ब्राह्मण वहाँ न गए थे। किंतु साधोराम पांडे या उनके वंशज ही उन देशों में आए, तो उन मिथिलावासियों ने उन्हें द्रोणवार कहना प्रारंभ किया, जिसका अर्थ यह है कि ये लोग इस देश (मिथिला) के प्राचीन निवासी नहीं है, किंतु अन्य देश के। वही व्यवहार मगध में भी चल पड़ा। क्योंकि यह बात प्रथम ही सिद्ध कर चुके हैं कि मगध और मिथिला के व्यवहार वगैरह प्राय: एक से ही हैं। परंतु जब और भी ब्राह्मण मिथिला देश में पश्‍चिम से आए और द्रोणवार कहने से यह संदेह भी होने लगा कि ये लोग पश्‍चिम से आए हैं या पूर्व देश से, क्योंकि देशांतर तो दोनों ही हैं, और इस संदेह से विवाह सम्बन्ध आदि करने में गड़बड़ होने की संभावना हुई। क्योंकि धर्मशास्त्रनुसार बंग आदि पूर्व देशों को निषिद्ध समझ लोग उनसे व्यवहार करना घृणित समझते थे। तो प्रथम जिन्हें द्रोणवार कहते थे, उन्हें तथा अन्य नए आए हुए पश्‍चिम देश के ब्राह्मणों को भी 'पश्‍चिम' कहने लगे। परंतु प्रथम से प्रचलित द्रोणवार शब्द भी रह गया और मिथिला वगैरह देशों में आजकल पश्‍चिम और द्रोणवार इन दोनों शब्दों का प्रयोग होता है। पश्‍चिम शब्द पश्‍चिमीय का अपभ्रंश है।

सबसे विश्‍वसनीय और तीसरा अनुमान इस विषय में यह है कि मगध और मिथिला इन दोनों स्थानों के दोनवारों के मूल पुरुष सबसे प्रथम आ कर पटना-दानापुर के बादशाही किले में ठहरे और वहीं से दोनों प्रदेशों में फैले और वह दीना या दानापुर स्थान अति प्रसिद्ध भी था। और साथ ही यह दिखला चुके हैं कि ब्राह्मणों में अपने डीहों के कहने की रीति थी और विशेष रूप से यह भी देखा जाता है कि अधिकतर अपने पुराने डीह से बहुत दूर वे लोग नहीं पाए जाते हैं, जैसा कि किनवार, सकरवार, बेमुआर, तटिह आदि के विषय में दिखलावेंगे। इसलिए साधोराम पांडे और माधावराम पांडे के वंशजों ने भी उसी दीना या दानापुर डीह के नाम से अपने को दीनावार वा दानावार प्रकाशित किया जो समय पा कर बिगड़ते-बिगड़ते दनवार हो कर आजकल दोनवार हो रहा है, जिसका अर्थ यह है कि पहले दानापुर के रहनेवाले ब्राह्मण। यही दोनवार शब्द का संक्षिप्त विवरण हैं जो डीह को बतलाता है।

अब 'किनवार' शब्द का विवरण सुनिए। किनवार ब्राह्मण भी कान्यकुब्ज काश्यप गोत्री, क्यूना के दीक्षित हैं। इसीलिए इनके विषय में किसी का मत है कि ये लोग काशी के पास विशेष कर गाजीपुर में क्यूना से आए, इसीलिए उसी डीह के नाम से क्यूनवार कहलाने लगे और वही शब्द बिगड़ कर किनवार हो गया। परंतु गाजीपुर जिले में ही इन लोगों के निवास स्थान के पास ही कुंडेसर ग्राम के पूर्व और वीरपुर, नारायणपुर से पश्‍चिम-उत्तर प्रथम ओकिनी नाम की नदी बहती थी, जो अब एकबारगी मिट्टी से पट गई है, केवल उसका थोड़ा सा चिह्न रह गया है और कुंडेसर से नारायणपुर को जाने वाली पक्की सड़क के पश्‍चिम ही उसी ओकिनी के तट पर अब तक किनवार लोगों का पुराना डीह ऊँचा-सा पड़ा है। इसलिए उसी ओकिनी के डीह पर रहने से ये लोग ओकिनीवार कहलाते-कहलाते अब 'ओ' शब्द के काल पा कर छूट जाने से किनवार कहलाने लगे।

यद्यपि किनवार ब्राह्मणों की वंशावली में यह लिखा हुआ है कि ये लोग कर्नाटक-पदुमपुर से आए और उस पदुमपुर के विषय में बहुत लोगों ने अंदाज से बहुत कुछ बक डाला है। फिर भी ठीक पता वे न लगा सके और यद्यपि वह पदुमपुर कर्नाटक देश और केरल देश की सरहद पर केरल देश का एक खण्ड है, इस बात को अभी प्रमाणित करेंगे, तथापि किनवार ब्राह्मण प्रथम के कान्यकुब्ज ब्राह्मण ही हैं, न कि केरल देशीय ब्राह्मण। यह बात इनकी प्राचीन वीरता और व्यवहार-आचारों से सिद्ध है। यद्यपि कर्नाटक-पदुमपुर से ये लोग आए, इस विषय में कुछ विशेष प्रमाण या कारण नहीं मिलता। क्योंकि दक्षिण में ऐसी भगेड़ न थी जैसी कन्नौज वगैरह देशों में थी। इसीलिए इन देशों में दक्षिण देश के ब्राह्मण प्राय: नहीं पाए जाते। तथापि यदि वहाँ से ही किनवार ब्राह्मणों का आना मान भी ले तो भी ये लोग वहाँ भी कान्यकुब्ज देश से ही गए थे और फिर किसी कारणवंश हट कर इसी देश में चले आए। कान्यकुब्ज देश से केरल देश या उसके पदुमपुर स्थान में ब्राह्मणों के जाने और वहाँ से आने की बात 'केरल उत्पत्ति' नामक ग्रन्थ में लिखी हुई हैं। यह ग्रन्थ मालाबारी भाषा में लिखा गया था और पीछे से उसका अनुवाद फारसी में हुआ था, जिसे मिस्टर जोनाथन डुनकन' (Jonathan Duncn) ने 1793 ई. में अंग्रेजी में अनुवादित किया। यह सब पूर्वोक्‍त बातें एशियाटिक रिसर्चेज (Asiatic Researches) नामक अंग्रेजी पुस्तक में लिखी गई है, जो सन 1801 ई. में छपी थी। उस ग्रन्थ के 56वें पृष्ठ में मालाबार देश के प्राचीन विवरण को लिखते हुए उसी सम्बन्ध में ये बातें लिखी गई है। उस ग्रन्थ का कुछ अंश नीचे उद्धृत किया जाता है, जिससे पूर्वोक्‍त बातों का थोड़ा-सा पता लग जावेगा :

In the book called Kerul-oodputteeor the emerging of the country of Kerul (of which during my stay at Calicut in the year 1793, I made the best translation into English in my power, through the medium of a version first rendered into Persian, under my own inspection from the Malabarie copy procured from one of the Rajahs of Zamorin’s family), the origin of that coast is ascribed to the piety or penitence of Puresuram or Pruseram (one of the incarntions of Vishnu), who stung with remorse for the blood he had so profusely shed in overcoming the Rajahs of the Kshatery tribe, applied to Varuna, the God of the ocean, to supply him with a tract of ground to bestow on the Brahmans; and Varuna accordingly having withdrawn his waters from the Gowkern (a hill in the vicinity of Mangalore) to Cape Comorin, this trip of territory has, from its situation, as lying along the foot of the Sukhien (by the Europeans called the Ghaut) range of mountains, acquired the name of Mulyalum (i.e, skirting at the bottom of the hills), a term that may have been shortened into Maliyam or Maleam, whence are also probably its common names of Mulievar and Malabar; all of whcih Purseram is firmly believed, by its native Hindus inhabitants, to have parcelled out among different tribes of Brahmans, and to have directed that the entire produce of the soil should be appropricated to their maintenance and towards the edifications of temples, and for the supports of divine worship; whence it still continues to be distinguished in their writing by term of Kerm-bhoomy or ‘the Land of good works for the expiation of sin. The country thus obtained from the ocean, is represented to have remained long in a marshy and scarcely habitable state; in so much, that the first occupants, whom Purseram is said to have brought into it from the eastern and even the northern part of India, again abandoned and it, being more especially scared by the multitude of serpents with which the mud has then abounded, and to which numerous accidents are ascribed. Until Purseram taught the inhabitants to propitate these animal, by introducing the worship of them, and of their images, which became from that period objects of adoration.

In manuscript account of Malabar that I have seen and which is ascribed to a Bishop of Virpoli, (the seat of a famous Roman Catholic seminary near Coachin), he observes, that by the accounts of the learned natives of the Coast, it is little more than 2300 years since the sca came up to the foot of the Sukhien or Ghaut mountains; and that once did so he thinks extremely probable from the nature of and the quantity of land, oyster-shells and other fragments, met with in making deep excavations.

The country of Malyalum was according to the Kerul-oodputtee, afterwards divided into the following Tookrees or divisions.

1st. from Gowkern, already mentioned, to the Perumbura river, was Called the Tooroo or Tnuru Rauje.

2nd. from the Perumbura to Poodumputtum, was called the Moshak Rauje.

3rd. from Poodum or Poodumputtum, to the limits of Kunety was catled the Kerul or Keril Rauje and as the principal seat of the ancient government was fixed in this middle division of Malabar. Its name prevailed over and was in course of time under stood in a general sense to comprehend the three others.

4th. from Kunety to Kunea Loomary or Cape Comorin was called the Koop Rajue.

However this may he, according to the book above quoted, the Brahmans appear to have first set up and for some time maintained, a fort of republican or aristocratical government, under two or three principal chiefs, elected to administer the government, which was thus carried on, till, on jealousies arising among themselves, the great body of the Brahman landholders had recourse to foreign assisstance, which terminated either by conquest or coverntion in their receing to rule over them a Permal, or Chei Governor from the Prince of the neighbouring country of Choldesh (a part of the Southern Cornatic), this succession of viceroys was changed and relived every twelve years till at length one of those officers named Sheoram or Shermanoo Permaloo, and by others called Cheruma Perumal appears to have rendered himself so popular during his government, that at expiration of its term he was enabled, by the encouragement of those over whom his delegated sway had extended to confirm his own authority, and to set at defience that of his late soverign, the Prince of the Choldesh, who is known in their book by the name of Rajah Kishan Rao, and who having sent an army to Malabar with a view to recover his authority, is statated to havebeen successfully withstood by Shermanoo and the Malabarians; an event which is supposed to have happened about 1000 years anterior to the present period, and is otherwise worthy of notice.

इसका भावार्थ यह है कि 'केरल-उत्पत्ति नामक पुस्तक में (जिसका 1793 ई. में कालीकट में अपने रहने के समय मैंने यथाशक्‍ति अंग्रेजी में उत्तम अनुवाद उसके फारसी में अनुवादित उस ग्रन्थ से किया जो प्रथम मालाबारी भाषा की पुस्तक से मेरे सामने लिखा गया था, और जो मालाबारी भाषा की पुस्तक जमोरिन वंशज एक राजा के यहाँ मिली थी) मालाबार किनारे की उत्पत्ति परशुराम (जो कि विष्णु के अवतारों में से थे) के उस प्रायश्‍चित के कारण बताई गई है, जो उन्होंने क्षत्रिय राजाओं के नाश के लिए खून बहाने के शोक से किया था और जिसके लिए समुद्रपति (देवता) वरुण से यह प्रार्थना की कि उन्हें वे थोड़ी सी भूमि ब्राह्मणों को दान करने के लिए दे। तदनुसार वरुणदेव ने मंगलोर के समीपवर्ती गोकर्ण पर्वत से कुमारी अन्तरीप तक का जल हटा लिया और इस प्रकार वह भूखण्ड सुखेन (घाट) पर्वत के मूल में रहने से मूल्यलम कहलाया, जिसका अर्थ यह होता है कि 'पर्वत की जड़ में निकला हुआ' और संभव हैं कि यही शब्द संक्षिप्त हो कर 'मलियम' हो गया हो और इसी से संभवत: इसके साधारण नाम मालेबार और मालाबार पड़े हों। इसके निवासी हिंदुओं का यह दृढ़ विश्‍वास हैं कि इस संपूर्ण भू-भाग को परशुराम जी ने वहाँ की भिन्न-भिन्न ब्राह्मण जातियों में विभक्‍त कर दिया था और उनको यह शिक्षा दी थी कि इस भूमि की संपूर्ण पैदावार को वे लोग अपने पालन, मंदिरों की मरम्मत और देवपूजाओं में खर्च किया करें। इसलिए उसी समय से इस भूमि को वे लोग अपने कागजों में 'कर्मभूमि' (अर्थात पाप के प्रायश्‍चित के लिए सत्कार्य करने की भूमि) लिखने लगे और अब तक वैसा ही करते हैं। इस प्रकार जो देश समुद्र से मिला वह बहुत दिनों तक दलदल से पूर्ण था, जिसमें लोग कठिनता से निवास कर सकते थे। उसकी ऐसी दशा थी कि जिन प्रथम के ब्राह्मणों को परशुराम जी ने वहाँ भारतवर्ष के उत्तर और पूर्व भाग से ला कर बसाया था, उन लोगों ने फिर उसे छोड़ दिया। क्योंकि उस समय उसकी कीचड़ में रहनेवाले बहुत से सर्पों से उन्हें बहुत भय हुआ और बहुत से ब्राह्मण उनसे मर भी गए। जब तक कि ये फिर परशुराम ने वहाँ के निवासियों को उन सर्पों और उनकी मूर्तियों की पूजा द्वारा उन्हें प्रसन्न करने की शिक्षा न दी तब तक यह बात रही और वह पूजा उस समय से होने लगी। मालाबार के एक प्राचीन लेख में, जिसे मैंने देखा हैं और जो विरापोली (कोचीन के निकट रोमन कैथोलिक पाठशाले की जगह) क़े एक बिशप (पादरी) के पास था, यह लिखा हुआ बतलाया जाता है कि पढ़े-लिखे मालाबारियों के कथन से कुछ अधिक 2300 वर्षों से समुद्र घाट के पहाड़ों की जड़ में नहीं आया है और यह बात वहाँ की भूमि के विस्तार और उन सीप या घोंघे वगैरह के देखने से बिलकुल ही सत्य प्रतीत होती है, जो खोदने से भूगर्भ में पाए जाते हैं। 'केरल उत्पत्ति' पुस्तक के अनुसार मलयालम (मालाबार) देश पीछे से चार भागों या टुकड़ों में विभक्‍त किया गया। जिनमें से प्रथम भाग, जो गोकर्ण से परंबरा नदी तक था, 'तूरू' राज्य कहलाया। दूसरा, जो परंबरा नदी से पदमपुत्ताम (पदमपुर) तक था, 'मशक' राज्य कहलाया। तीसरा, जो पदम या पदमपुत्ताम से कुनटी की सीमा तक था 'केरल' राज्य कहलाया और चूँकि पुरानी राजधनी मालाबार के इसी मध्य भाग में थी इसलिए इसी का नाम चारों ओर फैल गया और कुछ दिन बाद लोग शेष तीन खंडों के सहित सबको सामान्यत: 'केरल' ही समझने लगे। और चौथा भाग, जो कुनटी से कुमारी अन्तरीप तक था 'कूप' राज्य कहलाता था।

अस्तु जो कुछ भी हो। पूर्वोक्‍त पुस्तक (केरल-उत्पत्ति) के अनुसार पहले पहल ब्राह्मणों ने राज्य-प्रबंध के लिए चुने गए दो या तीन सरदारों के अधीन प्रजा-सत्ताक राज्य प्रबंध चलाया और उस दिन तक उसे कायम रखा जब कि परस्पर द्वेष के कारण अधिकांश जमींदार ब्राह्मण अन्य देशीयों से सहायता की बातचीत करने लगे और उनकी समाप्ति विजय या परस्पर सुलह से हो गई। जिसमें उन लोगों के ऊपर शासन करने के लिए एक चीफ गवर्नर पड़ोस के चोल देश (कर्नाटक के दक्षिण भाग) के शहजादे की तरफ से नियत किया गया। इन वाइसरायों (चीफ गवर्नरों) की तबदीली हर बारहवें बरस होती हुई उस समय तक चली गई जब कि उन्हीं अफसरों में एक ने, जिसका नाम शिवराम या शरमनू परमलू था, अपने को उन ब्राह्मणों की दृष्टि में अपने प्रबंध काल में ही ऐसा प्रेमपत्र बनाया कि जब उसके शासन काल का अन्त आया तो जिनके ऊपर वह राज्य करता था उनकी सहायता से अधिकार को दृढ़ बनाने में समर्थ हुआ और चोल देश के राजा के अधिकार को हटा दिया। उस राजा का नाम किशनराव था। उस राजा ने अपने अधिकार को फिर से प्राप्त करने के लिए फौज भेजी। परंतु कहा जाता है कि शरमनू और मालाबारियों ने उसे हरा दिया। बात आज (1793) से लगभग 1000 वर्ष हुई और ध्यान देने योग्य है।’

इस पूर्वोक्‍त कथन से स्पष्ट है कि कर्नाटक से मिला हुआ और उसकी सीमा पर ही पदमपुर स्थित हैं। इसी से किनवार ब्राह्मणों की वंशावली ने उसे पदमपुर कर्नाटक लिखा है। यह भी स्पष्ट है कि वहाँ जो ब्राह्मण लाए जा कर उस देश के राजा या जमींदार बनाए गए वे उत्तर-पूर्व भारत अर्थात कान्यकुब्ज देश से ही लाए गए। यह बात सत्य भी है, क्योंकि कान्यकुब्ज देश में बहुत प्राचीन काल से ही ब्राह्मणों का निवास चला आता है। इसलिए इन किनवार ब्राह्मणों का वहाँ से आना मान भी लिया जावे तो भी ये लोग वास्तव में कान्यकुब्ज ही है। और यदि पदमपुर से आए भी होंगे तो, या तो जैसा कि ऊपर लिखा है कि सर्पों के भय से बहुत से ब्राह्मण लोग भाग गए, उसके अनुसार लगभग 2300 वर्षों से ही वहाँ से आए अथवा जो युद्ध आज से 1100 वर्ष पूर्व कर्नाटक देश के राजा और मालाबारियों एवं शिवराम के बीच हुआ था उसमें ही हट कर चले आए। क्योंकि शिवराम या उन लोगों की विजय हुई सही, तथापि एक राजा के विरुद्ध लड़ने से उनको बहुत कष्ट भोगना पड़ा और बहुत ह्रास हो गया। जिससे शिवराम (जिसके लिए युद्ध ठाना गया था) भी दु:खी हो कर युद्ध के बाद कहीं अन्यत्र चला गया। यह बात आगे चल कर उसी 'केरल उत्पत्ति' में लिखी गई है और चूँकि वे लोग इसी देश से गए थे, अत: फिर यहीं चले आए। युद्ध के समय का आना ही विशेष विश्‍वसनीय हो सकता है, क्योंकि उन दिनों सभी देशों में गड़बड़ मच रही थी और लोग इधर-उधर भाग रहे थे। जो कुछ भी हो, चाहे किनवार ब्राह्मण पदुमपुर से आए अथवा कन्नौज से ही, परंतु ये लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मण, दीक्षित और काश्यप गोत्री हैं और इस समय भूमिहार ब्राह्मण कहे जाते हैं।

किनवार क्षत्रियों का जो केवल बलिया के छत्ता और सहतवार आदि गाँवों में पाए जाते हैं, विवरण प्रथम ही सुना चुके हैं और जहाँ पर किनवार ब्राह्मण गाजीपुर के मुहम्मदाबाद परगने में भरे पड़े हुए हैं और वीरपुर, नारायणपुर, कुंडेसर, भरौली, विश्‍वंभरपुर, परसा, लट्ठूडीह गोढ़उर और करीमुद्दीनपुर आदि उनके बड़े-बड़े ग्राम है। वहाँ उनसे पृथक दो या चार गाँवों में रहनेवाले क्षत्रियों की बात वही हो सकती है जैसी कि कही जा चुकी है, और वही बात सन 1880-85 ई. के गाजीपुर की सेट्लमेंट रिपोर्ट में उस समय के कलेक्टर विलियम इरविन (William Irvine) ने यों लिखी है :

Amog Dichhit had three sons, kulkal Rai, Baijal Rai and Mahipal Rai. As they thought that they could not perform all the religious ceremonies required, they began to call themselves Rai, Kulkal Rai, without the consent of his brothers, married the daughter of a chhatri in Pargana Panchotor, and therefore he was excluded from his caste of Brahman; but the two brothers, having taken pity on him, gave him some property and the village Chhata in the Ballia district; as is recorded in the following verse:

Bijal o mahipal bhum adha kar lin;

Jeth putra Kulkal tahiko chhata din.—Page 33.

इसका मर्मानुवाद यह है कि 'किनवारों के पूर्वज अमोघ दीक्षित के कलकल राय, बैजल राय और महीपाल राय तीन पुत्र थे। उन्होंने समझा था कि हम लोग पुरोहिती आदि नहीं करवा सकते हैं, इसलिए अपने को दीक्षित की जगह राय कहने लगे। कलकल राय ने बिना अपने भाइयों की सम्मति के ही पचोतर परगने के किसी क्षत्रिय की पुत्री से ब्याह कर लिया, इसलिए वे अपनी ब्राह्मण जाति से च्युत कर दिए गए। परंतु दोनों छोटे भाइयों ने उनके ऊपर दया कर के कुछ धन और बलिया जिले का छाता गाँव उन्हें दे दिया। जैसी कि कहावत हैं कि ‘बैजल और महिपाल भुइं आधा करि लीन। जेठ पुत्र कलकल, ताहि को छाता दीन’। किनवारों के पुरोहित जो नगवाँ पांडे कहलाते हैं, काश्यप गोत्री ही हैं और उन लोगों में यह प्रसिद्ध हैं एवं उनकी वंशावलियों में भी लिखा है कि वे और किनवार दोनों भाई हैं। एक भाई का वंश यजमान हुआ और दूसरे का पुरोहित।

अब सकरवार नामवाले अयाचक दलीय ब्राह्मणों का विवरण सुनिए। ये ब्राह्मण भी कान्यकुब्ज ब्राह्मण सांकृत गोत्रवाले फतुहाबाद के मिश्र है। जो अन्य ब्राह्मणों की तरह यवन राज्यकाल में वहाँ से इस देश में चले आए जैसा कि प्रथम दिखलाया जा चुका है। फतुहाबाद फतहपुर जिले में एक स्थान है। वहाँ से आ कर इनके पूर्वज प्रथम रेवतीपुर, गहमर और करहिया ग्रामों (जो गाजीपुर के जमानियाँ परगने में हैं) के बीच में रहनेवाले सकरा नामक स्थान में बसे। जो अब भी नाम के लिए डीह के रूप में ऊँचा स्थान पड़ा हुआ है और वहाँ मकान वगैरह कुछ भी नहीं रह गए हैं। परंतु लोग उसे 'सकराडीह' अब तक पुकारते ही हैं। फिर वहाँ से बहुत विस्तार होने या और अनुकूलताओं एवं प्रतिकूलताओं के कारण वे लोग हट कर रेवतीपुर, शेरपुर, सुहवल तथा आरा जिले के सैकड़ों गाँवों मे जा बसे और उस जिले का सरगहा परगना और जमानियाँ परगने का बहुत सा भाग अब छेंके हुए हैं, बल्कि मुहम्मदाबाद परगने (गाजीपुर) में भी शेरपुर, रामपुर, हरिहरपुर आदि गाँवों में रहते थे। अन्त में सकराडीह से हट कर चारों ओर बसे। इसीलिए सकरा में रहने के समय अपना पूर्व स्थान फतहपुर ही बतलाते थे। परंतु जब वहाँ से भी हटे तो सकरा ही पूर्व स्थान बतलाने लगे। लेकिन पूर्व का फतूहाबाद या फतहपुर नहीं छूटा, इसलिए सकरवार कहलाने पर भी पूछने पर यही कहते थे कि फतहपुर सकरा से आए हैं, क्योंकि फतहपुर के साथ सकरा भी जुड़ गया। काल पा कर सकरा की जगह सकरी और सिकरी भी कहलाने लगा और फतहपुर प्रथम का था ही। बस लोग भूल से समझने लगे कि हम लोग फतेहपुर सीकरी से आए हैं, जो आगरे के पास हैं। इस भ्रम या भूल में विशेष सहायता सिकरीवार राजपूतों के (जो आगरे के पास और अन्य जिलों में तथा ग्वालियर में विशेष रूप से पाए जाते हैं) वंचक भाटों ने की। क्योंकि उन्होंने सिकरीवार और सकरवार को एक ही समझ लिया और रुपया ठगने के लालच से सकरवार ब्राह्मणों का फतेहपुर सीकरी से ही आना बतलाया। परंतु असल बात तो यही हैं कि फतहपुर जिले से आ कर सकरा में रहे, इसलिए फतहपुर सकरा ही उनके डीह कहे जा सकते हैं। इसमें प्रबल प्रमाण यह है कि सकरवार और सिकरीवार इन नामों के भेद के साथ-साथ गोत्रों में भी भेद है। अर्थात सिकरीवार राजपूतों का जो आगरे की तरफ पाए जाते हैं, शांडिल्य गोत्र है, ऐसा अंवेषण करने से पता लगा है। और इस बात को स्वीकार करते हुए मिस्टर शेरिंग ने भी अपनी जाति विषयक अंग्रेजी पुस्तक (जिसका हाल प्रथम कह चुके हैं) के प्रथम खण्ड के 189 पृष्ठ में सकरवारों के वर्णन प्रसंग में सिकरीवार क्षत्रियों का शांडिल्य गोत्र ही लिखा है। जैसा कि 'They are Sandel gotra or order. परंतु सकरवार ब्राह्मणों का तो सांकृत गोत्र प्रसिद्ध ही है। इससे नि:संशय ही सकरवार ब्राह्मणों को फतहपुर सकरा से आने के बदले फतेहपुर सीकरी से आना बतलानेवाले सभी ठग है।

इन सकरवार नामधारी ब्राह्मणों का प्रसिद्ध सांकृत गोत्र ही उस किंवदंती को मिथ्या सिद्ध कर रहा है, जो मूर्खतावश जोड़ी गई है और जिसको बहुत से अंग्रेजों ने भी लिख दिया है कि ‘गाजीपुर के प्राचीन राजा गाधि के चार पुत्र अचल, विचल, सारंग और रोहित थे, जिनके ही वंशज रेवतीपुर, सुहवल और सरंगहा परगना आदि स्थानों के सकरवार है’ इत्यादि। क्योंकि यदि ये लोग गाधि के वंशज होते, तो इनका गोत्र कौशिक होता, जैसा कि गाधि और उनके पुत्र विश्‍वामित्र आदि का माना जाता है। इससे ये सब कल्पनाएँ निर्मूल और अश्रद्धेय है। इससे इन्हीं के आधार पर करहिया और गहमर के सकरवार क्षत्रियों और सकरवार ब्राह्मणों को एक सिद्ध करने का साहस करना नितान्त भूल है। जबकि वे लोग दो-एक गाँवों में ही रहते हैं, परंतु सकरवार ब्राह्मण तो सुहवल, रेवतीपुर, रामपुर और शेरपुर एवं सरंगहा आदि में भरे पड़े हैं। अत: इन सकरवार राजपूतों के विषय में वही बात विश्‍वसनीय है, जिसका कथन प्रथम ही कर चुके हैं और जो दोनवार और किनवार क्षत्रियों के विषय में भी कही जा चुकी है।

यद्यपि कोई-कोई ऐसा सिद्ध करने का साहस कर सकते हैं कि जो सिकरीवार राजपूत पश्‍चिम में पाए जाते हैं, उन्हीं की एक शाखा ये सकरवार राजपूत भी है और सिकरीवार शब्द ही बिगड़ते-बिगड़ते सकरवार हो गया है। तथापि यह उनका प्रयत्‍न व्यर्थ ही है, क्योंकि यदि ऐसी बात होती तो सिकरीवार और सकरवार इन दोनों राजपूतों के गोत्र एक ही होते। परंतु वे लोग (सिकरीवार) शांडिल्य गोत्रवाले और ये गहमर, करहियावाले सकरवार राजपूत सांकृत गोत्रवाले ही हैं। ये लोग गाधि राजा के भी वंशज नहीं हैं, क्योंकि ऐसी दशा में इनका गोत्र कौशिक होना चाहिए। इसलिए इन राजपूतों की व्यवस्था वही हैं जो कही जा चुकी है। यदि इन सकरवार क्षत्रियों को गाधिवंशजों या सिकरीवार क्षत्रियों से ही मिलाने का कोई यत्‍न करे तो अच्छा है, वे लोग उधर ही जा मिलें। इससे भी सकरवार ब्राह्मणों का कोई हर्ज नहीं है। ये लोग तो कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं ही। जैसे अयाचक ब्राह्मणों और राजपूतों में सकरवार नामवाले पाए जाते हैं, वैसे ही मैथिल ब्राह्मणों में भी सकरीवार या सकरवार नामवाले ब्राह्मण पाए जाते हैं। यह नाम उन लोगों के प्रथम सकरी स्थान में रहने से हैं, जो दरभंगा शहर से उत्तर-पूर्व में स्थित है और बंगाल नार्थ-वेस्टर्न रेलवे की मधुबनी और झंझारपुर वाली लाइनों का जंक्शन है। इस कथन का यहाँ तात्पर्य यह है कि एक ही नामवाले एक या भिन्न-भिन्न स्थानों में रहने से अनेक जातियों के लोग एक ही नामवाले हो सकते हैं। परंतु इससे उनके एक जाति संबंधी होने का संशय नहीं किया जा सकता। अत: निर्विवाद सिद्ध है कि ब्राह्मणों का सकरवार भी नाम प्रथम सकराडीह के निवास से ही पड़ा है।

अब आजमगढ़ के यगरी परगने के 14 कोस में विस्तृत बरुवार नामक ब्राह्मणों का विवरण संक्षेपत: लिखा जाता है। बरुवार ब्राह्मण भी कान्यकुब्ज ब्राह्मण बरुवा के तिवारी काश्यप गोत्री है। यह बरुवा स्थान कान्यकुब्ज देश में है। और प्राय: इसी स्थान से आने से ये लोग बरुवा कहलाते-कहलाते अब बरुवार कहलाते हैं। यद्यपि ये लोग पूछने से केवल इतना ही बतलाते हैं कि हमारे पूर्वज पश्‍चिम कन्नौज की ओर से आए और हम लोगों का गोत्र काश्यप है। परंतु वही बरुवार नाम और काश्यप गोत्र ही इस बात का पता दे देता हैं कि ये लोग कन्नौज देश के बरुवा स्थान के रहनेवाले थे और यवनों के समय में वहाँ से आ कर देवगाँव तहसील के वेला तप्पे के जिहुली स्थान में प्रथम बसे। जिहुली के पास ही बेला नाम का गाँव भी है। फिर वहाँ से सगरी परगने में पीछे आ कर बसे। बहुत संभव और विश्‍वसनीय है कि जैसे भृगुवंश लोग कोठा तप्पे से कोठहा कहलाते हैं, वैसे ही इनका नाम भी बेला तप्पे से बेलवार हो कर अब बेरुवार या बरुवार हो गया। क्योंकि र और ल अक्षरों का उलट-फेर विलार और विडाल शब्दों में देखा जाता है। भूमिहार ब्राह्मणों के डीह प्राय: निकट के ही है, यह बात भी इस अनुमान में अनुकूल है। अस्तु। अभी कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में बहुत से काश्यप गोत्रवाले बरुवा के तिवारी पाए जाते हैं। यद्यपि बरुवार नामवाले क्षत्रिय भी आजमगढ़ में बरुवार ब्राह्मणों से हट कर पाए जाते हैं। परंतु इनकी संख्या थोड़ी सी ही है, जैसी कि दोनवार, किनवार क्षत्रियों की। इसलिए इन बरुवार क्षत्रियों की भी व्यवस्था वैसी ही है, जैसी कि दोनवार, किनवार या सकरवार क्षत्रियों की बतलाई जा चुकी है। अथवा सामान्यत: इनके विषय में भी वैसी ही है जैसा प्रथम ही कह चुके हैं। कुछ बरुवार ब्राह्मण आजमगढ़ के मुहम्मदाबाद परगने के केरमा, भुजही और छठियाँव नामक ग्रामों में भी पाए जाते हैं।

बेमुवार नामवाले ब्राह्मणों का संक्षिप्त विवरण जानने के लिए प्रथम यह जानना आवश्यक है कि इनका गोत्र सावर्ण्य हैं और इन सावर्ण्य गोत्रवाले ब्राह्मणों के तीन छोटे-छोटे दल अब प्रसिद्ध हैं। एक पनचोभै, दूसरे अरापै, तीसरे केवल सावर्ण्य या सावर्णियाँ कहलाते हैं, अर्थात केवल गोत्र से ही बोले जाते हैं। और सावर्णियाँ या सावर्ण्य गोत्रवाले ब्राह्मण प्राय: कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों में नहीं ही है और मैथिलों में भरे पड़े हुए हैं। बल्कि जो इनका एक दल पनचोभै कहलाता है वह मिथिला ही में पाया जाता है और ये लोग बिहार में ही विशेष रूप से पाए भी जाते हैं। और पटना तथा आरा जिले में इनकी संख्या बहुत है। जहाँ मिथिला से आए हुए दिधावैत वगैरह भी पाए जाते हैं। इसलिए ये लोग पूर्व के मैथिल ब्राह्मण ही है ऐसा ही हमारा अनुमान है। इनके पनचोभै और अरापै आदि संज्ञाओं के विषय में बहुत सी गढ़ंत किंवदंतियाँ हैं, परंतु सब निर्मूल हैं, ये लोग बनारस के नरवन परगने के कुछ गाँवों में भी पाए जाते हैं। वास्तव में पटना जिले में जहाँ ये लोग विशेष रूप से हैं, उसके पास ही बिहटा स्टेशन से उत्तर कुछ दूर गंगा के पास इनका पुराना गढ़ अरापा नाम का था, जो अब भग्नावस्था में नाममात्र के लिए कहने को रह गया है और इनके पूर्वज वहाँ प्रथम रहते थे इसीलिए ये लोग अरापै कहलाए। इसी तरह मिथिला, दरभंगा से पश्‍चिम से पनचोभ गाँव में रहने से ये लोग पनचौभे कहलाए, जो वहाँ ही विशेष रूप से इधर-उधर पाए जाते हैं। तीसरा दल जो केवल गोत्र के नाम से ही पुकारा जाता है वह भी मिथिला में बहुत हैं। इससे भी स्पष्ट है कि ये लोग मिथिला से ही इन पटना आदि के प्रांतों में आए। परंतु जो लोग प्रथम से अरापा गढ़ या पनचोभ गाँव में न रह कर अन्य स्थानों में ही पटना प्रांत में या अन्यत्र प्रथम से ही रहते हुए पीछे तक रह गए वे केवल सावर्णियाँ या सावर्ण्य ही कहलाते रह गए। उन्हीं पटना जिले में रहनेवाले सावर्ण्य गोत्री ब्राह्मणों में से कुछ लोग इधर-उधर बढ़े। जिनमें से कुछ बनारस की ओर भी चले गए और जैसा कि बेमुवारों कहना हैं कि आँव नामक स्थान में बसे। परंतु जो पटना के समीप बेमूपुर नामक परगने में बसे हुए थे, वे लोग जब वहाँ से हट कर बक्सर के आस-पास आरा जिले में ठहरे, तो उसी बेमूपुर से आने के कारण बेमुवार नामवाले कहलाए।

यह बेमूपुर परगना अकबर के समय में था। क्योंकि आईन-ए-अकबरी में जहाँ पर अकबर के राज्य-भर के जिलों और परगनों का वर्णन हैं, वहाँ पटना के आसपास में ही बेमूपुर नामक महाल या परगना भी लिखा गया है। संभव है कि अब वह नाम न हो। परंतु बक्सर के पास आरा जिले से भी, डुमराँव के राजाओं से बराबर लड़ाई होती रहने के कारण वे लोग हट कर गंगा के उत्तर तट में नहरी इत्यादि गाँवों में बलिया जिले के गुड़हा परगने में अकबर बादशाह के पीछे आ बसे और वहाँ के प्रथम निवासी क्षत्रिय तथा अन्य जातियों को निकाल दिया। अभी नरही, सुहाँव, टुटुआरी, भरौलीं तथा उजियार आदि गाँवों में आए हुए उन्हें थोड़े ही दिन हुए। जिसे वे लोग स्वयं कहाँ करते हैं। और इसी कारण से बलिया के गड़हा परगने में अकबर के समय में राजपूतों की ही जमींदारी लिखी हुई है। यह बात कि ये लोग पटना के पास बेमूपुर से आए, यों भी पुष्ट होती है कि ये लोग भी इतना कहते हैं कि हम लोगों के पूर्वज लोग बेमूपुर-पाटन से आए जो आगरा या इटावे के पास है। परंतु वहाँ तो इस नाम के किसी भी स्थान का पता नहीं चलता। इसलिए पटना को ही भूल से पाटन कहने लग गए और जैसा सब लोग पश्‍चिम से ही आना बतलाते हैं, वैसा ही इन लोगों ने भी कहना प्रारंभ किया, यही अनुमान है। ऐसी भूलें हुआ भी करती है, जैसा कि पदमपुर, कर्नाटक और फतेहपुर सीकरी आदि के विषय में दिखला चुके हैं।

इससे सिद्ध होता है कि बेमूपुर डीह से, जो पटना जिले में हैं और जहाँ अब तक सावर्ण्य ब्राह्मणों की बहुत बड़ी संख्या है, आने से ही नरही आदि के अयाचक दलीय ब्राह्मण बेमुवार कहलाएँ। यदि इन्हें सर्यूपारी और इटार के पांडे मानें तो भी हमें विवाद नहीं है।

इसी जगह प्रसंगवश हम यह भी शंका हटा देना चाहते हैं, जो लोगों की अनभिज्ञता के कारण हुआ करती है। अर्थात लोग कभी-कभी यह बकने का साहस किया करते हैं, कि यदि पश्‍चिम, त्यागी, अयाचक, भूमिहारादि ब्राह्मणों को आप वास्तव में कान्यकुब्ज, सर्यूपारी, गौड़ और मैथिलादि बतलाते हैं, अर्थात जिन दिनों मैथिल, गौड़, सर्यूपारी और कान्यकुब्ज आदि छोटे-छोटे दल ब्राह्मणों में बनने लगे, उसी समय मिथिला, गौड़, कन्नौज और सर्यूपार आदि सभी देशों के अयाचक ब्राह्मणों का भी एक दल संगठित होने लगा। क्योंकि स्वगुणे परमाप्रीति: ‘अर्थात जो जिस प्रकार का होता है वह वैसों से ही मिलता है।’ तो फिर इन लोगों के सभी डीह कन्नौज, सर्यूपार या मिथिला में न बता कर कुछ तो उन देशों में और कुछ अन्यत्र क्यों बतलाते हैं? क्योंकि दोनवार आदि शब्दों को आप डीह या मूल का वाचक बतलाते हैं, परंतु उनसे जो डीह सिद्ध होते हैं ये तो कन्नौज या सर्यूपार आदि देशों में नहीं हैं। यद्यपि एकसरिया वगैरह नामवाले एकसार आदि डीह सर्यूपार के हैं, तथापि सब तो नहीं ही हैं इत्यादि। इसका समुचित उत्तर यह है कि सभी ब्राह्मणों में बहुत से डीह ऐसे मिलते हैं। जैसे सर्यूपारियों में मचैयाँ पांडे या निमेज के ओझा तथा बटवा उपाध्याय या बड़हरिया पांडे इत्यादि कहलाते हैं। और यद्यपि वे लोग अपने को कभी-कभी कान्यकुब्ज भी कहा करते हैं, तथापि सर्यूपारी कहलानेवाले से विवाह करते हैं। परंतु उनके निमेज, मचियाँव, बड़हर और बटवा आदि डीह न तो कन्नौज देश में ही मिलते हैं और न सर्यूपार ही में। किंतु आरा जिला, पटना या मिर्जापुर आदि में पाए जाते हैं। तो क्या इससे सर्यूपारी होने का अभिमानवाले या सर्यूपारी बननेवाले उनको अपने समाज से पृथक कर देने का साहस भी कर सकते हैं?

साथ ही, जो लोग अन्य देशों में भी रह कर अपना डीह मिथ्या या सत्य ही सर्यूपार में बतलाते हैं, क्या उनके साथ सर्यूपार में रहनेवाले सर्यूपारी खानपान या विवाह सम्बन्ध भी करते व करवा सकते हैं? तो क्या ऐसा न होने से वे लोग अपने को सर्यूपारी न मानें? मैथिलों में भी यही दशा है। उनमें जो कोदरिया या दिघवै इत्यादि नामवाले मैथिल हैं, उनके डीह या मूल कोदरा और दिघवा आदि छपरा प्रांत में हैं, न कि मिथिला में। परंतु इससे क्या वे लोग मैथिल समाज से अलग समझे जा सकते हैं? अत: यह शंका निर्मूल ही है।

बेमुवार नामवाले क्षत्रिय यदि बलिया में या अन्यत्र थोड़े-बहुत पाए जाते हों, तो या तो उन्हें किसी प्रकार से बेमूपुर से आना सिद्ध करने का यत्‍न करना होगा, या दूसरे प्रकार से बेमुवार शब्द की व्याख्या उन्हें करनी होगी। परंतु यदि उनका भी गोत्र सावर्ण्य ही हो, तो सावर्ण्य गोत्रवाले क्षत्रिय पटना-बेमूपुर में इस समय पाए नहीं जाते, परंतु सावर्ण्य ब्राह्मण तो गड़हा, पटना, काशी और दरभंगा में भरे पड़े हैं। अत: ऐसी दशा में इने-गिने बेमुवार क्षत्रियों की वही दशा हो सकती हैं जो सामान्यत: प्रथम कही जा चुकी है।

कुढ़नियाँ नामवाले ब्राह्मणों का निवास आजमगढ़ के सर्यूपुर आदि बहुत से ग्रामों में हैं और इन्हीं में से कुछ दरभंगा जिले के सरायरंजन आदि गाँवों में तथा अन्यत्र भी कहीं-कहीं पाए जाते हैं। ये लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मण अंटेर के दीक्षित काश्यप गोत्री हैं। इसीलिए इन्हीं की एक शाखा मिर्जापुर के सुधावल आदि 10 या 12 ग्रामों में पाई जाती है। जिनमें से 3 ग्रामवाले याचक दलवाले ब्राह्मणों में मिले हुए हैं, परंतु 9 गाँववाले अयाचक दलवाले ब्राह्मण ही हैं। परंतु सबके-सब अपने को एक ही बतलाते और काश्यप गोत्री अंटेर के दीक्षित ही कहते हैं और अब तक उनकी पदवी दीक्षित ही है। वे अपने को कुढ़नियाँ नहीं कहते। क्योंकि यहाँ से जाने के बाद ही आजमगढ़वाले कुढ़नियाँ कहलाए। परंतु अंटेर से आ कर प्रथम यहीं रहे थे। यह बात कुढ़नियाँ ब्राह्मणों की बृहत् वंशावली में लिखी हर्इु हैं और अण्टेर स्थान को ग्वालियर के पास बताया है। सो भी ठीक ही है। सुधावल के पूर्वोक्‍त दीक्षित ब्राह्मणों के विषय में सन 1865 ई. की मनुष्य गणना की रिपोर्ट में इस प्रकार लिखा है :

There is a Sect of Dikshit Bhoimhars inhabiting Mouzah Soodhawal & c. Most of them still retain their primary character, and make intermarriages among their own class; and some of them following the manners and customs of Surwaria Brahmans have mixed with them.—Vol-I, P.120.

अर्थात ‘भूमिहारों का एक दल दीक्षित कहलाता है और सुधावल आदि गाँवों में पाया जाता है। उनमें से अधिकांश प्रथम की तरह अयाचक ही बने हुए हैं और अपने ही दल में विवाह आदि करते हैं। परंतु थोड़े से सरवरिया ब्राह्मणों की चाल-ढाल और रस्म-रिवाजों (याचकता, पुरोहिती आदि) का अनुसरण कर उनमें ही मिल गए हैं। भाग-1, पृ. 120।’ इन्हीं दीक्षितों में से कुछ गाजीपुर जिले के शादियाबाद परगने में भी पारा और छपरी आदि गाँवों में पाए जाते हैं। जो अब तक काश्यप गोत्री और दीक्षित पदवीवाले ही हैं। ब्राह्मणों के दीक्षित नाम पड़ने का कारण प्रथम ही बतला चुके हैं कि इनके पूर्वजों ने बड़े-बड़े यज्ञ किए थे, जिनमें उन्हें दीक्षा दी गई थी, इसलिए वे दीक्षित कहलाए। यद्यपि गाजीपुर के पचोतर परगने के क्षत्रिय भी दीक्षित कहलाते हैं, तथापि उनका गोत्र काश्यप नहीं हैं। परंतु दीक्षित नाम तो उनका भी वैसे ही पड़ा जैसे कि ब्राह्मणों का। क्योंकि यज्ञ में जिसकी ही विधिवत दीक्षा हो वही दीक्षित कहला सकता है, न कि ब्राह्मण मात्र ही। क्योंकि यज्ञ करने का अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों को है।

अस्तु, कुढ़नियाँ ब्राह्मणों की वंशावली में, जो सूर्यपुर, आजमगढ़ में पाई जाती है, यह लिखा हुआ है कि अंतेर से पंडित प्रवर गोल्हन भट्ट नामक इनके पूर्वज काशी आए और वे बड़े यज्ञ करनेवाले थे, इसीलिए उनको दीक्षित पदवी मिली और काशिराज की ओर से सूर्यपुर के पास पाँच गाँव मिले। इसलिए वे अथवा उनके वंशज वहाँ जा बसे और कुछ लोग सुधावल आदि गाँवों में ही रह गए। जो लोग आजमगढ़ में बसे, उनके उस प्रथम निवास का स्थान कुढ़नी नामवाला तप्पा (परगने का एक भाग) था, इसलिए पीछे वहाँ से इधर-उधर हटने से वे लोग उसी तप्पे के नाम से कुढ़नियाँ कहलाए। कुढ़नी नामवाला तप्पा सगरी परगने में था और शायद अब धोसी में है और सगरी में ही ये लोग पाए भी जाते हैं। उस तप्पे का नाम आजमगढ़ के गजेटियर (Gazetteer) में भी लिखा हुआ है। जो लोग कुढ़नियाँ नाम को बिगाड़ कर कुंडहवनियाँ इत्यादि कहा करते हैं और उसके स्वकपोलकल्पित अर्थ भी किया करते हैं, वह उनकी भूल है। क्योंकि ब्राह्मणों के ये सब नाम डीह या मूल स्थान से ही पड़े हैं। जैसे एकसार में रहने से एकसरिया, जैथर से जैथरिया और नोनहुल से नोनहुलिया आदि। नोनहुल ब्राह्मण और नोनहुल डीह बलिया जिले में सर्यू के तट पर है। इसी तरह एकसार और जैंथर छपरा जिले में हैं और एकसरिया तथा जैंथरिया ब्राह्मण छपरा और मुजफ्फरपुर जिले में पाए जाते हैं। एकसार वगैरह में उनके पूर्व पुरुषों के आने का विवरण उन लोगों की वंशावलियों में पाया जाता है और थोड़ा-बहुत प्रथम भी लिख चुके हैं। अस्तु, इससे सिद्ध है कि कुढ़नियाँ नाम कुढ़नी स्थान में रहने से ही पड़ा। यदि कुढ़नियाँ नामवाले राजपूत थोड़े-बहुत कहीं मिलते हों, तो या तो कुढ़नी तप्पे में रहने से वे भी कुढ़नियाँ कहलाए, अथवा अन्य कारणों से, जैसा कि साधारणत: कह चुके हैं।

गौतम ब्राह्मणों का तो सविस्तार वर्णन प्रथम ही परिच्छेद में तथा इसमें भी बहुत जगह किया जा चुका हैं और काशी के गौतम क्षत्रियों का भी हाल कह ही चुके हैं। गौतम ब्राह्मणों के विषय में 1865 ई. की मनुष्य गणना की बनारस की रिपोर्ट के 118वें पृष्ठ, प्रथम भाग में भी वही बात लिखी गई है, जिसका प्रदर्शन आगे करेंगे।

तटिहा नामवाले ब्राह्मण छपरा जिले में और कुछ बलिया में भी सर्यू के दोनों तटों पर पाए जाते हैं। ये लोग सर्यूपारी ब्राह्मण सीसोटाँड़ के मिश्र, काश्यप गोत्री है और अब तक सीसोटाँड़ में भी पाए जाते हैं। छपरा जिला तो सर्यूपार में गिना जाता है और है ही। ये लोग सर्यू नदी के दोनों तटों पर फैले हुए हैं। इसीलिए इनका नाम तटहा, टटहा, या तटिहा इत्यादि पड़ा। जिसका अर्थ यह है कि 'नदी के तट के रहनेवाले'। यदि क्षत्रिय भी इस नामवाले अधिक पाए जाते हों, तो उनका नाम भी तट पर रहने से तटिहा वा टटिहा पड़ा होगा, अथवा उनके विषय में कोई अन्य ही बात होगी। जो लोग तटिहा को बिगाड़ कर टेंटिहा बना देते और उस पर मनगढ़ंत कल्पनाएँ करते हैं वह उनकी भूल है।

कौशिक नामवाले ब्राह्मण विशेष कर गाजीपुर जिले के जहूराबाद परगने में पाए जाते हैं और छपरा, मुजफ्फरपुर और दरभंगा जिलों में भी उनकी कमी नहीं है। परंतु वहाँ नेकतीवार और कुसौंजिया इत्यादि नामों से कहे जाते हैं। जिसका तात्पर्य यह है कि वे लोग प्रथम नेकती या कुसौंजी स्थानों में थे। अत: वहाँ से हटने पर नेकतीवार और कुसौंजिया कहलाए। वे सब लोग अभी तक पांडे ही बोले जाते हैं। इससे स्पष्ट ही है कि जहूराबादवाले कौशिक ब्राह्मण भी प्रथम पांडे ही कहलाते थे, परंतु पीछे से उन्होंने 'राय' की पदवी धारण कर ली। मुर्शिदाबाद-लालगोला के वर्तमान राजा साहब इसी जहूराबाद के सुर्वंत पाली ग्राम के रहनेवाले कौशिक ब्राह्मण के पुत्र हैं। बहुत दिनों से ये लोग सर्यूपार या कन्नौज से आ कर यहीं रहते थे और पीछे भी यहाँ से न हटे, इसलिए ये लोग पूर्ववत गोत्र के नाम से ही पुकारे जाते रह गए। आईन-ए-अकबरी में भी इनको जहूराबाद का जमींदार लिखा है। यदि क्षत्रिय भी कौशिक नामवाले हों, तो हो सकते हैं। क्योंकि जैसा कि दिखला चुके हैं, कि गोत्र तो सभी जातियों के एक ही हो सकते हैं।

भृगुवंश नामवाले ब्राह्मण निजामाबाद परगने में आजमगढ़ के जिले में पाए जाते हैं। ये लोग टीकापुर, बीबीपुर आदि गाँवों में पाए जाते हैं। इनका गोत्र भार्गव है, और प्रवर भार्गव, च्यवन, आवप्नवान, और्व और यमदग्नि है। इनके पुरोहित भी भार्गव गोत्री ही हैं। इसी से इन लोगों का कथन है कि हम लोग वास्तव में एक ही है। परंतु जो लोग हमीं में ही गरीब थे, वे हमारी ही पुरोहिती करने लगे और याचक कहलाए, और धनी लोग अयाचक या भूमिहार ब्राह्मण कहलाए। अस्तु, जो कुछ हो ये लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मण है और इनकी प्राचीन पदवी पांडे है। इसी से इन्हीं लोगों में से जो बस्ती के कोटिया आदि गाँवों और फैजाबाद में हैं, वे अब तक पांडे ही कहलाते हैं। इन्हीं लोगों में से कुछ लोग गाजीपुर जिले के असावर आदि गाँवों में चले गए हैं, जो अपने को प्रथम असावर में रहने से असवरिया कहते हैं और यहीं से जाना बतलाते हैं। इन लोगों के 50 वर्ष के पूर्व के दस्तावेज आदि कागजों में ब्राह्मण कौम ही इनकी लिखी गई है। यहाँ तक कि भूमिहार शब्द भी नहीं लिखा गया है¹। ये लोग निजामाबाद परगने के बहुत प्राचीन रहनेवाले हैं और वहीं रह गए, क्योंकि इनका पुराना डीह भी उसी जगह है। इसलिए ये लोग पूर्ववत अपने गोत्रों से ही पुकारे जाते रह गए, क्योंकि भृगुवंश का अर्थ हैं भृगु या भार्गव गोत्रवाला।

यद्यपि बनारस के जिले में काशी से दक्षिण बहुत से गाँवों में भृगुवंश क्षत्रिय भी पाए जाते हैं, तथापि उनका इन भृगुवंश ब्राह्मणों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं। क्योंकि एक भृगुवंश क्षत्रिय से, जो बहुत होशियार था, हमने उसका गोत्र पूछा तो उसने उत्तर दिया कि हम लोगों का गोत्र सावर्ण्य हैं। परंतु जब उससे पुन: प्रश्‍न किया गया कि भृगुवंश कहला कर सावर्ण्य गोत्र आप लोगों का कैसे हो गया? तो इस विषय में उसने समाधान (उत्तर) करने के लिए बहुत यत्‍न किया, परंतु उचित उत्तर न दे सका और अन्त में उसने यही कहा कि हमारा गोत्र किसी तरह से भी हो सावर्ण्य ही हैं, इसमें तो संदेह नहीं, परंतु हम लोग भृगुवंश क्यों कहलाए यह बात हम नहीं जानते। साथ ही, भृगुवंश क्षत्रिय और ब्राह्मण ये दोनों एक-दूसरे से बहुत दूर हैं। यदि गोत्र एक भी होता तो भी कोई बात नहीं क्योंकि गोत्र एक भी हो सकते हैं, यह दिखलाया जा चुका है।

सोनपकरिया, सोनपखरिया या सरपखरिया इत्यादि अनेक प्रकार से कहे जानेवाले ब्राह्मण आजमगढ़ जिले के इंदोरा स्टेशन के आसपास 12 या 14 ग्रामें में फैले हुए हैं। यद्यपि इनको लोग अनेक नामों से पुकारते हैं, तथापि एक उसी दल के चतुर ब्राह्मण से हमने उसका हाल पूछा, तो उसने अपना गोत्र भारद्वाज और सोनपकरिया नाम बतलाया और यह भी कहा कि हमारे पूर्वज खजुरा, धुवार्जुन या सोनबरसा की तरफ से आए। ये सब धुवार्जुन आदि ग्राम गाजीपुर के सैदपुर परगने में है और वहाँ पर भारद्वाज गोत्रवाले ब्राह्मण 24 गाँवों में पाए जाते हैं। संभव है कि वहीं के सोनबरसा गाँव से आने के कारण ये लोग सोनबरसिया कहलाते-कहलाते इन पूर्वोक्‍त नामों से कहलाने लग गए हों, क्योंकि काल पा कर शब्दों के रूप बिगड़ जाया करते हैं, यह बात सभी को मालूम है। नहीं तो कहाँ वाराणसी और कहाँ बनारस?

अथवा यह संभव है जैसा कि आगे लिखा है। वह यह है कि भारद्वाज या भरद्वाज कहलानेवाले ब्राह्मणों के पूर्वज पं. गजाधर पांडे सर्यूपार से आ कर आरा जिले के मचियाँव गाँव में प्रथम आ बसे और वहाँ से उनके वंशजों में से एक पुरुष, जो आजमगढ़ में देवगाँव की तरफ सिकरौरा, बहादुरपुर आदि गाँवों के भारद्वाज गोत्री चौधरी कहलानेवाले ब्राह्मणों के पूर्वज थे, उसी तरफ आ कर बसे, जिनके वंशज उन 10 या 12 ग्रामों में फैले हुए हैं। और दूसरे पुरुष, जो धुवार्जुन आदि पूर्वोक्‍त 24 गाँववालों के पूर्वज थे, धुवार्जुन आदि की तरफ गाजीपुर जिले में आए और उन्हीं के वंशज उन 24 गाँवों इस समय पाए जाते हैं। उन लोगों का यह भी कहना है कि हमारे पूर्वजों ने प्रथम मसोन की कोट को, जो खण्डहर स्वरूप में औरिहार या सैदपुर के पास है, अन्य लोगों से जीत लिया था और वहाँ पर ही अधिकार जमाए बहुत दिन तक रहे। परंतु जब अन्त में किसी साधु के कोप से वह कोट उजड़ने या उलटनेवाली हुई तो वहाँ से हट कर वे लोग इन 24 गाँवों में फैल गए। वह कोट खण्डहर कर दी गई या उलट दी गई। इसी से उसका नाम मसोन हुआ। क्योंकि जितने स्थानों के नाम मसोन या मसौनी आदि हमें मिले हैं, उनका ऐसा ही इतिहास मिलता है कि वे किसी कारण से खण्डहर कर दिए गए। और साधु या फकीर ने उसे मसोन बनाया था, इसलिए उसका नाम मसोनफकीर भी हुआ और वहीं से दूर चले आने के कारण आजमगढ़ के भारद्वाज गोत्रवाले ये ब्राह्मण मसोन फकीरिया कहलाते-कहलाते काल पा कर सोनफकीरिया या सोनपकरिया इत्यादि कहलाए।

तीसरी बात यह भी हो सकती है कि जब भारद्वाज लोग मसोन कोट से भाग गए, तो उस समय सोनपकरिया लोगों के पूर्वज मसोन से भाग कर इन्दोरा के पास पकरी नामक स्थान में बसे। परंतु वहाँ से भी किसी कारण से हट कर इधर-उधर पास में ही फैल जाने से पूर्व के मसोन और हाल के पकरीडीह को मिला कर अपने को मसोन पकरिया कहने लगे, और कुछ दिन बाद वही नाम सोनपकरिया या सोनपोखरिया इत्यादि हो गया। परंतु धुवार्जुन आदि गाँवोंवाले भारद्वाज गोत्री लोग बहुत प्रथम काल से ही वहीं थे और रह गए, कहीं दूर न गए। इसलिए उनका नाम पूर्व की तरह गोत्र से ही कहलाता रहा और अब तक वे 'भारद्वाज' कहलाते हैं। आईन-ए-अकबरी में इन्हीं भारद्वाज ब्राह्मणों की जमींदारी सैदपुर के परगने में लिखी हुई हैं, जैसा कि प्रथम ही कहा गया है। किंतु वास्तव में सोनपकरिया धुवार्जुन आदिवाले और सिकरौरा बहादुरपुरवाले चौधरी लोग एक ही वंश के भारद्वाज गोत्री सर्यूपारी मचैयाँ पांडे हैं। इसलिए इन लोगों में से जा कर बलिया जिले के बैरिया ग्राम में रहनेवाले पं. प्रमोद नारायण पांडे वगैरह अभी तक पांडे ही कहलाते हैं। और वे लोग 'बैरिया के पांडे' प्रसिद्ध हैं। जिनका वंश ही बड़ा कर्मठ, अग्निहोत्र परायण और आदर्श चरित्र हैं। क्योंकि अब तक बराबर अग्निहोत्र का अनुष्ठान उनके घर होता है। उनके इस व्यवहार का अनुकरण सभी ब्राह्मणों को करना चाहिए। यदि क्षत्रिय भी सोनपोखरिया कहलाते हों, तो उनका हाल पूर्ववत जान लेना चाहिए। यदि वे लोग होंगे भी तो नाममात्र को।

इसी गाजीपुर के ही शादियाबाद परगने के देवा नामक ग्राम में रहनेवाले और जुझौतिया कहलानेवाले ब्राह्मणों के जुझौतिया नाम पड़ने का कारण प्रथम परिच्छेद में ही दिखलाया जा चुका है कि बुंदेलखण्ड का कुछ भाग का नाम प्रथम जुझौती था, इसलिए वहाँ के रहनेवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण जुझौतिया वा जिझौतिया कहलाए और इन्हीं में से कुछ लोग देवा में भी जा कर बसे और अयाचक होने और अपने प्रथम के देश से दूर होने के कारण अयाचक ब्राह्मणों के साथ ही इसी देश में विवाह सम्बन्ध आदि करने लग गए।

इसी तरह एकसरिया और जैंथरिया आदि का भी संक्षिप्त विवरण लिख चुके हैं। छपरा-चैनपुर के प्राचीन दंसी परगने से भाग कर मुजफ्फरपुर के मिहिला परगने में जा बसनेवाले काश्यप गोत्री अचानक ब्राह्मणों का नाम दंसवार पड़ा और एकसार के पास ही सहदौली ग्राम में रहनेवाले अयाचक ब्राह्मणों के वहाँ से दरभंगा से पतोर आदि ग्रामों में चले जाने से वे लोग सहदौलिया कहलाए और अब तक वे लोग मिश्र कहलाते हैं, जैसा कि पं. श्रीराजेंद्र प्रसाद मिश्र इत्यादि। इन लोगों का स्वाभिमान तथा इनके आदर्श व्यवहार सभी ब्राह्मणों के अनुकरणीय है। सहदौलिया और एकसरिया लोग एक ही वंश के पराशर गोत्री है।

प्रथम आरा अथवा दरभंगा के सहस्राम में रहने के कारण आजकल दरभंगा के रपुरा आदि गाँवों में रहनेवाले काश्यप गोत्री ब्राह्मण सहस्रा में कहलाते हैं। सहस्राम गाँव दोनों जिलों में है। छपरा के दिघवा स्थान में रहने के कारण छपरा या मुजफ्फरपुर और दरभंगा आदि में रहनेवाले ब्राह्मण दिघवे अथवा दिघवैत कहलाए। इनका गोत्र शांडिल्य हैं। जैसे अरापा डीह में प्रथम निवास के कारण सावर्णियाँ लोग अरापै कहलाते हैं और वह डीह भी उनके पास ही पटना जिले में है। इसी तरह चौधरी टोला-पटना के रहनेवाले श्री रामगोपाल सिंह चौधरी और श्रीकृष्ण प्रसाद सिंह चोधुरी आदि भी प्रथम शाहाबाद जिले के ही परहाप स्थान में, जहाँ से वे लोग अपना आना चौधरी टोले में बतलाते हैं, रहने के पश्‍चात् परहापै कहलाए। उनका गोत्र काश्यप हैं और वे लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं और पांडे उनका आस्पद है। जैसा कि उनके भाई चौधरी सोना पांडे अन्त तक पांडे ही कहलाते रहे और इनके पिता को तो लोग पांडे जी कहते ही थे। जो काश्यप गोत्रवाले और मिश्र पदवीवाले कान्यकुब्ज ब्राह्मण भूपोल (मालवा) से आ कर हाजीपुर के बैकुंठपुर (बकठपुर) आदि गाँवों में अब तक रहते हैं वे भूपाली कहलाते हैं। कोई-कोई नाम को बिगाड़ कर भूमपाली या भूमापाली कहते हैं। ये लोग अब तक बहुत से गाँवों में मिश्र ही बोले जाते हैं, जैसे श्री मूर्तिनारायण मिश्र, मुखतार, मुजफ्फरपुर। परंतु कहीं-कहीं सिंह या अन्य पदवियों से भी बोले जाते हैं, जैसे पं. संत प्रसाद सिंह शर्मा, बकठपुर इत्यादि। ऐसे ही और भी अथर्व आदि नामों के अर्थ और विवरण अथर्व वेद के ज्ञाता आदि समझना चाहिए।

गाजीपुर जिले के मुहम्मदाबाद परगने में ही कुछ ब्राह्मण रहते हैं, जिनको कस्तुवार कहते हैं और जिसका वसिष्ठ गोत्र हैं। इन लोगों का विवरण, जैसा कि वहाँ के सभी लोग जानते हैं, ऐसा ही हैं कि राजा जयचंद का चचेरा भाई मान्धाता कुष्ठ रोग से पीड़ित हो कर तीर्थयात्रा के लिए जगन्नाथ जी जाता था। परंतु जब ऊसी मुहम्मदाबाद में वर्तमान कठौत (गौसपुर) नामक स्थान के पास आया, तो उस स्थान पर स्थित एक तालाब में हाथ धोने के समय तुरंत उतने का कुष्ठ रोग हटा हुआ देख उस तालाब में स्नान किया, जिससे उसका संपूर्ण शरीर कुष्ठ से रहित और दिव्य हो गया। इससे अत्यन्त प्रसन्न हो कर पाँच ब्राह्मणों को, जिनकी मिश्र उपाधि (पदवी) थी और जो एक या दो गोत्रों के थे, वहाँ बुला कर पाँच गाँव दान दिए और उसी जगह उनके रहने का स्थान बनवा दिया और अपने आप भी बहुत दिनों तक वहाँ रहा। वहाँ ही उसका कुष्ठ रोग अच्छा हुआ था, अर्थात वह कुष्ठ रोग से पूत (रहित) हुआ था। इसीलिए उस स्थान का नाम कुष्टपूत हुआ। परंतु कालार में संस्कृत शब्द 'पूत' का अपभ्रंश 'उत' हो गया जैसा कि प्राकृत भाषा में 'पुत्र' शब्द को 'उत्ता' कहते हैं, अर्थात जैसे आर्य पुत्र को 'अज्ज उत्त' कहते हैं, उसी तरह 'कुष्ट पूत' शब्द का 'कुष्ठ उत' हो कर कुछ दिन और पीछे 'कु (क) ष्टौत' और 'कठौत' हो गया। जो आज तक कठौत ही कहा जाता है और वहाँ पर मांधाता की बनवाई हुई कोट भी अब तक भग्नावस्था में हैं। और ये ब्राह्मण प्रथम उसी स्थान पर गए थे और रहते भी थे, इसलिए कुष्टौतवार कहलाने लगे, जो पीछे बिगड़ते-बिगड़ते कष्टरार, कुष्टवार और कस्तुवार हो गया। इन सबों की पदवी मिश्र है और वसिष्ठ गोत्र है। संभवत: कुछ लोगों का गोत्र दूसरा भी हो।

उन्हीं में से जिनको राजा मांधाता या उनके वंशजों ने योग्यता देख कर अपना प्रधान या मन्त्री बनाया था, अथवा अन्य ब्राह्मणों के प्रधान बना कर रखा था, वे अब तक प्रधान पदवीवाले ही कहलाते हैं। उन सबों ने भूमि लेने के बाद धनी होने के काण अपनी याचकता वृत्ति छोड़ दी और भूमिहार ब्राह्मणों में मिल गए। अथवा जिन ब्राह्मणों ने दान में भूमि ली थी वे दूसरे ही होंगे। ये लोग तो राजा के प्रधान थे, इसलिए जागीर की तरह इन लोगों को भूमि मिली होगी और उसी से आज तक प्रधान ही कहलाते हैं। अथवा ऐसा भी हुआ होगा कि दान न दे कर जागीर के तौर पर ही इनको भूमि दी गई होगी और उसी को भूल कर दान की तरह मिलना कहते हैं। चाहे जो कुछ भी हो, इसमें किसी प्रकार का हर्ज नहीं हैं। क्योंकि यह सिद्ध कर चुके हैं कि ब्राह्मण लोग सर्वदा ही याचक से अयाचक और अयाचक से याचक, धनी और गरीब होने के कारण हुआ करते हैं, न कि अयाचक सदा अयाचक ही और याचक सदा याचक ही बने रहते हैं। क्योंकि याचकता और अयाचकता ये दोनों ब्राह्मणों के व्यक्‍तिगत धर्म है। हाँ याचकता आपत्तिकाल धर्म है और विवेकी एवं धनी लोग उसका अनादर कर अयाचकता को ही स्वीकार करते हैं, यह अन्य बात है। परंतु यह बात केवल अपने-अपने विचार और इच्छा पर निर्भर है, न कि कोई शास्त्रीय आज्ञा है कि अयाचक पुरोहिती न करे और याचक पुरोहिती को न त्यागे।

बस, पाठक लोग इतने ही से समझ गए होंगे कि अयाचक ब्राह्मणों के छोटे-छोटे दलों के नामों को अन्य समाज के नामों की तरह देख कर लोगों ने जो-जो मिथ्या कल्पनाएँ की हैं, वे कहाँ तक सत्य है। सारांश यह है कि ऐसी कल्पनाओं के करने से भारत वर्ष का ब्राह्मण से ले कर शूद्र पर्यन्त सभी समाज एक ही सिद्ध किया जा सकता है, क्योंकि सभी समाजों अथवा उनके छोटे-छोटे दलों के बहुत से नाम एक ही है, जैसा कि अच्छी तरह सिद्ध कर चुके हैं। अत: आशा हैं कि पाठक उस भूल को सुधार लेंगे। नहीं तो कहीं ऐसा न हो जावे कि उसी कल्पित तंत्री (वीणा) पर विपरीत स्वर आलापनेवाले पंडितमानी लोगों को विचारकों के सन्मुख मुँह की खानी पड़े।

3. वैदेशिक उक्‍तियाँ और उपसंहार

अब हमारा वक्‍तव्य यहीं पर संपूर्ण होता है। हमको केवल कुछ अंग्रेजी ग्रन्थ लेखकों (प्राय: वैदेशिक) की उन सम्मतियों को उद्धृत कर देना है, जो उन्होंने इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के विषय में प्रकाशित की है। यद्यपि यह काम हम अपने वक्‍तव्य की पुष्टि के लिए नहीं करते हैं, क्योंकि इस विषय में तो सभी कुछ दिखला चुके हैं और अंग्रेजों की सम्मतियों को इस विषय में हम प्रमाण मानते भी नहीं, कारण कि उनको हमारे हिंदू समाज के आंतरिक भावों या हमारे रस्म-रिवाजों का पूर्णत: परिचय ही क्या हैं कि वे लोग यथार्थत: उनकी आलोचना निष्पक्षपात भाव से कर सकें? उन्होंने तो जो कुछ सुना, लिख दिया। उसमें भी निज के सिद्धांत को ही सिद्ध करने का यत्‍न करते हैं कि वर्णव्यवस्था कोई वस्तु है ही नहीं इत्यादि। तथापि जिन बाबुओं की जिज्ञासा रूप पिपासा केवल उन्हीं की उक्‍ति रूप जल से शांत होती है - जो उन्हीं की उक्‍ति रूप स्वाती नक्षत्र के बूँद के प्यासे चातक है - उनके ही संतोष के लिए हमारा यह यत्‍न है। सूत्र रूप से यहाँ इतना समझ लेना चाहिए कि सभी वैदेशिकों की सम्मतियाँ अयाचक दलीय ब्राह्मणों के अनुकूल ही है। यदि किसी ने केवल एकाध बात कुछ-कुछ विपरीत लिखने का साहस डरते-डरते किया भी है, तो दूसरे ने उसको युक्‍तियुक्‍त प्रमाणों से खंडित कर दिया है, जैसा कि प्रसंगवश संभव होगा तो आगे विदित ही होगा और पाठक लोग यत्‍न करने से - सबकी सम्मतियों को स्वयं जानने का प्रयत्‍न करने से-अन्यत्र भी देख सकते हैं। सर. एच. इलियट साहब की सप्लीमेंटल ग्लासरी (Sir. Elliot’s Supplemetal Glossary) नामक अंग्रेजी पुस्तक के अनुसार आगरा जिले के वर्णन में सन 1865 ई. की युक्‍त प्रांत की मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट के प्रथम खण्ड के 65 वें पृष्ठ में इस तरह लिखा है :

(1) Kankubj Proper There are five divisions of the Kankoobj Brahmans,

(2) Sunadh given in the margin. The first two appear in

(3) Surwaria great force in this district, but of the others I

(4) Jijhotia have discovered no traces and their true

(5) Bhoimhar country lies to the east of the Ganges.

(1) प्रधान कान्यकुब्ज कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के पाँच भेद हैं, जो इस

(2) सनाढ्‍य पृष्ठ के किनारे पर लिखे हुए हैं। उनमें से

(3) सरवरिया प्रथम दो तो इस जिले में अधिकतर पाए

(4) जिझौतिया जाते हैं, परंतु अन्य तीनों का यहाँ पतान

(5) भूमिहार मिला। उनके निवास स्थान गंगा के पूर्व के देश हैं।

उसी पुस्तक के 91वें पृष्ठ में इटावा जिले के विवरण में लिखा है कि :

The Kankubj, with whom we are chiefly connected in these provinces, contains five sub families-(1) Sunoreea or Sunadh; (2) Canojeea; (3) Jijhotea; (4) Bhoomihar; (5) Surwaria, These do intermarry.

अर्थ यह है कि 'कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में, जिनसे हमको इन प्रांतों में विशेष सम्बन्ध है, पाँच छोटे-छोटे वंश या दल हैं - (1) सनोरिया या सनाढ्‍य (2) कनौजिया (3) जिझौतिया (4) भुइंहार, और (5) सरवरिया ये पाँचों परस्पर विवाह करते ही है।

आगे चल कर उसी पुस्तक के 117 और 118 पृष्ठों में मिर्जापुर के वर्णन में लिखा है कि :

Gautams have sprung up from Misra Brahmans, In this tehseel daree there are no other castes except Gautams residing in Talooqa Majhava. The Gautams were originally Surwaria Misras, the most of whom with a view to show their pomp and splendour on being ilaqadars, commenced smoking hookkah, and consequently rest of their brethren discontinued eating and drinking with them. These Gautams, being thus excommunicated, commenced marriages with Bhoinhars who settled in the easern districts, and since then this tribe is increasing. As these Gautamas sprang up from Misras, who had their gotra or family title, Gautam, they became known by that appellation.

There are several subdivision among the Bhoimhars. They are the descendants of Ujach Brahmans. In other countries the Ujach Brahmans are called Chitpawan and by other different denominations. The Brahmins have gotras, which they have assumed from Rishees, from whom they have sprung up; for instance Gautambuns. Who are said to be offspring of Kithoo Misra, who descended from Gautam Ujach Brahmins, Kripacharya family. There is no distinction between them and the other Brahmins, besides this that the fromers carry arms and have a military life, and cons equently they have assumed the title of ‘Singh’and have forsaken eating with other Brahmins. Owing to their title of ‘Singh’ being celebrated, their original titles of Misra, Pande, Upadhia &c. have fallen into disuse. Still up to this day in some places they are known by their old titles.

अर्थात ‘गौतम लोग मिश्र ब्राह्मणों के वंशज है। इस तहसील (मिर्जापुर) में गौतमों को छोड़ कर, जो मझवा तालुका में रहते हैं, दूसरी जातियाँ नहीं हैं। गौतम लोग सरवरिया ब्राह्मण थे, परंतु तालुकादार होने पर उनमें से बहुतों ने अपनी बड़ाई और प्रतिष्ठा दिखलाने के लिए तंबाकू पीना प्रारंभ कर दिया, जिससे उनके शेष भाइयों ने उनके साथ खान-पान छोड़ दिया। ये लोग इस प्रकार अलग हो कर भूमिहारों के साथ विवाह आदि करने लग गए जो पूर्व जिलों में रहते थे। उसी समय से ये लोग बढ़ते जा रहे हैं चूँकि ये गौतम उन मिश्र ब्राह्मणों के वंशज है जिनका गोत्र गौतम था इसलिए ये लोग गौतम कहलाने लगे। भूमिहार लोगों के बहुत से छोटे-छोटे दल हैं। ये लोग अयाचक ब्राह्मणों के वंशज हैं। अन्य देशों में अयाचक ब्राह्मण चितपावन एवं अन्य नामों से पुकारे जाते हैं। ब्राह्मणों के गोत्र हुआ करते हैं, जो उन ऋषियों के सूचक होते हैं जिनसे वे लोग पैदा हुए हैं जैसे, गौतम वंश कित्थू मिश्र के वंशज हैं, जो कृपाचार्य के वंश के गौतम ऋषि नामक अयाचक ब्राह्मण के वंशज थे। इन भूमिहार ब्राह्मणों और अन्य ब्राह्मणों के बीच कोई भेद नहीं हैं, सिवाय इसके कि भूमिहार ब्राह्मण अस्त्र-शस्त्र ग्रहण करते और वीरों (योद्धाओं) का-सा जीवन बिताते हैं और इसलिए उन्हें 'सिंह' की पदवी मिल गई है और अन्य (याचक) ब्राह्मणों के साथ खाना-पीना भूल गए हैं। और इसी 'सिंह' की पदवी के प्रसिद्ध हो जाने से उनकी पुरानी मिश्र, पांडे और उपाध्याय इत्यादि पदवियों का प्रयोग नहीं होता। तथापि अब तक बहुत से स्थानों में वे लोग उन्हीं पुरानी मिश्र आदि पदवियोंवाले पाए जाते हैं।’

उसी पुस्तक के मिर्जापुर के केरा नामक तहसील का हाल यों लिखा है :

The Brahmins are said to be the aborigines of Kankuj, from where a portion of them imigrated in to Surwar and several other places. Among them there two sects, Shut-Karma and Tri-Karma. They procure their livelihood by priesthood; agriculture and other occupations in this pergannah.

तात्पर्य यह है कि ‘ब्राह्मण लोग कन्नौज के प्रथम निवासी बतलाए जाते हैं, जहाँ से ये लोग सरवार तथा अन्य देशों में फैले हैं। ब्राह्मणों के दो भेद हैं - (1) षट्कर्मा और (2) त्रिकर्मा। इस परगने में रहनेवाले इन लोगों में से कोई-कोई पुरोहिती से जीविका करते हैं और कोई खेती तथा अन्य पेशों से’।

सन 1909 ई. के आजमगढ़ के गजेटियर के 85, 86 और 87 पृष्ठों में लिखा है कि:

Next on the list come Bhumihars, who at the last census numbered 55669 parsons, or 4. 24 percent of the Hindus. They are to be found in all Tahsils, but nearly half of the total number in Sagri, and nearly one half of the reminder are in Deogaon. According to their own tribal traditions. When Paras Ram destroyed the Kshatris, the soil was given to the Brahmans, who in taking possession of land assumed the title of Bhumihars. Their Brahman and Rajput neighbours generally insinuate that they are of mixed Brahman and Rajput breed, but there is no evidence in particular to support this view. Some Bhumihars describe them selves as Brahmans and some as Rajputs. In popular estimation they share something of the sanctity ottaching to a Brahman,while on the other their subdivisions are often hand the same as those of the well known Rajput clans. All the Bhumihars of Azamgarh claim to be of Brahman stock.

अर्थ यह है कि ‘राजपूतों के बाद भूमिहारों की संख्या हैं, जो गत मनुष्य गणना में 55669, या सब हिंदुओं में से 4.24 फी सैकड़े थे। वे लोग सभी तहसीलों में पाए जाते हैं, परंतु लगभग आधे केवल सगरी में और शेष के आधे देवगाँव में पाए जाते हैं। उनकी जाति के विषय में ऐसा प्रसिद्ध हैं कि जब परशुराम ने क्षत्रियों का नाश किया तो उनकी भूमि ब्राह्मणों को दी गई और वे ही ब्राह्मण भूमि के मालिक होने से भूमिहार कहलाने लगे। उनके ब्राह्मण और राजपूत पड़ोसी छिप कर चुपके से यह इशारा करते हैं कि ये लोग ब्राह्मण और राजपूत के मेल से उत्पन्न हुए हैं। परंतु उन लोगों के इस कहने में कोई खास प्रमाण नहीं हैं। कुछ भूमिहार ब्राह्मण हैं और कुछ राजपूत भी भूमिहार है। जन साधारण की दृष्टि में भूमिहार लोग बहुत सी बातों में वैसे ही पवित्र समझे जाते हैं जैसे (अन्य) ब्राह्मण। लेकिन उनके बहुत से छोटे-छोटे दलों के नाम ऐसे हैं जो राजपूतों के भी है। आजमगढ़ के सभी भूमिहार अपने को ब्राह्मण बतलाते हैं’।

राजपूतों के भी भूमिहार नाम पड़ने का कारण और भूमिहार ब्राह्मण तथा राजपूतों के बहुत से नामों के एक होने का पूर्ण विवरण लिखा जा चुका है। इसी ब्राह्मण और राजपूतों के पूर्वोक्‍त इशारे के खण्डन से मिस्टर 'रीड' वगैरह ने जो यही इशारा लिखा है, उसका भी खण्डन गजेटियर ने ही कर दिया। साथ ही गजेटियर के इस कथन से कि ‘ये लोग जन साधारण की दृष्टि में ब्राह्मणों की तरह पवित्र समझे जाते हैं।’ और मिस्टर 'ओल्डहम के भी इस कथन से कि ‘In popular estimation they share something of the sacredness which attaches to Brahmins’ अर्थात ‘बहुत सी बातों में सब लोगों की दृष्टि में ये लोग ऐसे पवित्र समझे जाते हैं जैसे ब्राह्मण लोग।’ मिस्टर रीड का वह कथन भी स्वयमेव खंडित हो गया, जो उन्होंने लिखा है कि लोग इन्हें क्षत्रिय समझते हैं।

गाजीपुर के गजेटियर के 42वें पृष्ठ में लिखा है कि : “In popular estimation they share in something of the sacredness that attaches to the Bhramins, and they like genuine Brahmans, were exempted from capital punishment by the old law of the Benares Province.”

अर्थात ‘जनसाधारण इनको बहुत बातों में ब्राह्मणों की तरह पवित्र समझते हैं और सूबा बनारस के पुराने कानून के मुताबिक जैसे ब्राह्मणों को फाँसी की सजा न मिलती थी, वैसे ही इन्हें (भूमिहारों को) भी न मिलती थी’।

जरासंधवाली किंवदंती का खण्डन मिस्टर कुक ने अपनी पुस्तक (The Tribes and Castes of U.P. and Oudh) में इस प्रकार किया है कि : “The theory that they are a mixed race, derived from a congeries of low caste people accidentally brought togethere, is disapproved by the high and uniform type of physiognomy and personal appearance which prevails among them etc.

इसका पूरा अर्थ इसी प्रकरण में प्रथम ही दिखला चुके हैं।

ईस्ट इंडिया कंपनी की कार्यवाही की जाँच के लिए जो सिलेक्ट कमिटी बैठी थी, उसकी जो पाँचवीं रिपोर्ट बंगाल प्रेसिडेन्सी के विषय में प्रकाशित हो कर सन 1812 ई. में लंडन में छपी है, उसके प्रथम भाग के 511 से 513 पृष्ठों तक ऐसा लिखा हुआ है :

SUBAH BEHAR (First Circar Behar) : 3. Ten perganas zamindary of Meterjet Singh. Brahman, residing at Tekari. 5. Two perganraszamindary of Jaswant Singh ete. Brahmans, composed of Arenzil and Musaodih. 8. Two pergannas Pilich and Malda, the former held by Nandoo Singh Brahmin in zamindary. 9. Two pergannas Sauret and Bellia, in zamindary, chiefly to Howlass Chowdhery and Anagir Singh Brahmans. 11. One perganna Gyaspur to Sheo Prasad Singh, Brahmin, with other lessor zamindars. 16. One parganna of Baykoonthpur to Kesari Singh Brahmin.

SIX CIRCAR HAJIPUR. 37. One parganna Havellee to Hardan Singh etc. Brahmins in zamindary. 38. One Perganna Saraisa to Suchit Singh Brahman. 50. Two pergannas Rutty and Gursand principally in zamindary to pertap singh Brahmin, 51. Five pergannas Moulky etc. Herlal etc. Brah mins, and usually united with the pergannas of Ballia etc. belonging to Mongeer.

SEVEN CIRCAR SARAN. 53. 15 pergannas Gowah etc. of which 13 to Gopal Narayan etc. five brothers, 2 Callynpur and Sipah to Raja Fateh Naryan Singh of Brahman caste.

इसका अनुवाद यह है कि ‘सूबा बिहार (प्रथम सरकार बिहार) - (3) 10 परगनों की जमींदारी मित्राजीत सिंह की थी, जो टिकारी के निवासी ब्राह्मण थे। (5) अरंजील और मुसाऊ डीह इन दो परगनों के जमींदार जसवंत सिंह वगैरह ब्राह्मण थे। (8) पिलिछ और मालदा इन दो परगनों में से पिलिछ के जमींदार नंदू सिंह ब्राह्मण थे। (9) सौरत और बलिया ये दो परगने खास कर हुलास चौधरी और आनागिर सिंह नामक ब्राह्मणों की जमींदारी थी। (11) ग्यासपुर परगने की जमींदारी शिवप्रसाद सिंह ब्राह्मण की थी और उसमें छोटे-छोटे जमींदार भी शरीक थे। (16) बैकुंठपुर परगना केसरी सिंह ब्राह्मण की जमींदारी थी। (छह सरकार हाजीपुर)-(37) परगना हवेली हरदान सिंह ब्राह्मण का था। (38) सरैसा परगना सूचित सिंह नामक ब्राह्मण का था। (50) रत्ती और गुरसंद ये दो परगने प्रधान तया प्रताप सिंह ब्राह्मण की जमींदारी में थे। (51) मुलकी इत्यादि पाँच परगनों के जमींदार हरलाल वगैरह ब्राह्मण थे। और ये परगने मामूली तौर पर मुंगेर के बलिया वगैरह परगनों में मिले हुए थे। (सात सरकार सारन)-(53) 15 परगने गोवा वगैरह में से 13 गोपालनारायण इत्यादि पाँच भाइयों के थे और कल्याणपुर और सिपाह ये दो परगने राजा फतेहनारायण सिंह के थे, जिनकी ब्राह्मण जाति थी।’

जो 'गोल्डन बुक ऑफ इंडिया' (The Golden book of India ) नामक अंग्रेजी पुस्तक 'सर रापर लेथब्रिज के. सी. आई. ई. (By Sir Ropper Lethbridge K.C.I.E.) द्वारा विशेष आज्ञा से लिखी गई और भारत सम्राज्ञी महारानी श्री विक्टोरिया को 1893 में समर्पित है (Dedicated to Her Gracious Majesty, Victoria, Queen Empress of India, 1893) उसमें लिखा है कि :

Page 66. Benares— His Highness Sir Prabhu Narayan Singh K.C.I.E. Maharaja Bahadur. The family are Brahmans of the Bhumihar class, and their traditions go back to the year 1000 when a Brahman ascetic of Utaria, a village near Benares forestood the succession of his posterity to the dominions then governed by Hindu Rajas.

Page 67. Bettiah-Maharaja Sir Hirendra Kishore singh K.C.I.E. Maharaja Bahadur belongs to Jaitheria Brahmans (Hindu family descended from Gangeshwar Deo, who settled at Jaither in Saran, Bengal, about 1244 A.D.).

Page 174. Hathua-Maharaja Sir Krishna Pratap Sahi Bahadur K.C.I.E. Maharaja Bahadur belongs to a Begochhia Brahman family.

Page 493, Raja Shambhu Narayan belongs to Gautam clan of Bhumihar Brahmans.

इसका अर्थ यह है कि ‘पृष्ठ 66 में लिखा है कि हिज हाईनेस सर प्रभु नारायण सिंह के.सी.आई.ई. महाराज बहादुर बनारस का वंश ब्राह्मणों में भूमिहार ब्राह्मण दलवाले ब्राह्मणों से है। इनके विषय में यही प्रसिद्ध है कि 1000 वर्ष पूर्व बनारस के पास उतरिया गाँव में एक तपस्वी ब्राह्मण रहते थे। उन्होंने उस समय के हिंदू राजा के राज पर अपने वंशजों का राज्य चलाया।

67वें पृष्ठ में लिखते हैं कि महाराज सर हीरेंद्र किशोरसिंह के.सी.आई.ई. महाराज बहादुर बेतिया, जैथरिया ब्राह्मण वंश के हैं। यह वंश गंगेश्‍वरदेव से चला, जो बंगाल के सारन (छपरा) जिले के जैथर गाँव में 1244 ई. में रहते थे।

174वें पृष्ठ में हैं कि महाराज सर कृष्णप्रताप साही बहादुर के.सी.आई.ई. महाराज बहादुर हथुवा बगौछिया ब्राह्मण वंश के हैं।

और 493वें पृष्ठ में है कि राजा शंभूनारायण सिंह (औसानगंज) भूमिहार ब्राह्मणों के गौतम वंश के हैं।

डॉ. विलियम ओल्डहैंम (William Oldham B.C.S.LL.D.) ने स्व पुस्तक (North Western Provinces Historical and Statistical Memoir of the Ghazipur District) के प्रथम भाग के 43वें पृष्ठ में लिखा है कि : “Bhumihars, both by themselves and by ethnologists, are belived to be the descendants of Brahmins, who on becoming cultivators and landholders gave up their priestly functions. In popular estimation they share in something of the sacredness which attached to the Brahmins, and by the old law of the Benares Province, they like the genuine Brahmins, were exempted from capital punishment; but family priests or spritual guides are never chosen from among them by men of their own race nor by other Hindus.”

अर्थ यह है कि ‘भूमिहार लोग अपने आप और वंश परम्परा के जाननेवालों द्वारा भी उन ब्राह्मणों में से माने जाते हैं, जिन्होंने कृषक और जमींदार होने पर पुरोहिती छोड़ दी। जन साधारण की दृष्टि में बहुत से अंशों में ये लोग अन्य ब्राह्मणों की तरह पवित्र समझे जाते हैं और इन्हीं की तरह इन लोगों को भी बनारस प्रांत के पुराने कानून के अनुसार प्राणदंड (फाँसी) की सजा नहीं मिलती थी, (क्योंकि हिंदू धर्म में ब्राह्मणों को फाँसी देना वर्जित हैं)। लेकिन ये लोग न तो अपने ही समाज के पुरोहित और गुरु होते हैं और न अन्य हिंदुओं के ही।’ डॉ. ओल्डहैंम के बहुत से अंशों में 'अन्य ब्राह्मणों की तरह पवित्र माना जाना' लिखने का तात्पर्य अन्त के वाक्यों से स्फुट हैं। अर्थात ये लोग गुरु या पुरोहित नहीं होते, इसीलिए सब अंशों में अन्य ब्राह्मणों की तरह पूजा कैसे हो सकती है?’

56वें पृष्ठ में लिखा है कि : “A Bhumihar family of Pande Brahmins settled at Byreah in Doab pergannah, have for generations past been the Tehseeldars or land agents of the Domaraon faimly.”

अर्थात ‘पांडे कहलानेवाले ब्राह्मणों में से एक भूमिहार ब्राह्मण वंश, जो बलिया जिले के दोआब परगने के बैरिया गाँव में प्रथम से ही आ कर बसा है, बहुत पीढ़ियों से डुमराँव राज्य का तहसीलदार होता चला आया है।’

68वें पृष्ठ में लिखा है कि : “The family of the Benares Rajahs belong to a clan of Goutum Bhumihar Brahmans, land holders of the pergannah Kuswar, which lies a few miles to the west of Benares. They trace their descent from a Brahmin Kitthoo Misra etc.”

अर्थात ‘बनारस के राजाओं का वंश गौतम भूमिहार ब्राह्मण हैं। जो काशी से चंद मील दूर पश्‍चिम तरफ के कुसवार परगने के जमींदार हैं। ये लोग अपनी उत्पत्ति कित्थू मिश्र नामक एक ब्राह्मण से बतलाते हैं इत्यादि।’

फिर उसी पुस्तक के द्वितीय खण्ड के 43वें पृष्ठ में उक्‍त साहब बहादुर ने लिखा है कि :

The Hindu land-owing tribes of Benares are either Bhumihars, secular Brahmans, of Rajputs.

अर्थात ‘बनारस जिले के मुख्य जमींदार या तो भूमिहार यानी दुनिया भी का ब्राह्मण हैं (यहाँ दुनिया भी का का अर्थ याचकों या पुरोहितों से भिन्न हैं, क्योंकि वे लोग पुरोहितों को हिंदू धर्मानुसार पारलौकिक समझते हैं), या राजपूत।’

बाबू नीलमणिदास रायबहादुर, सदरआला, मुजफ्फरपुर के 1897 ई. के फैसले की जो अपील राजकुमार श्री गिरिजा नन्दन सिंह जी ने महारानी जानकी कुंवरि के विरुद्ध की थी, उसके फैसले के 107वें पृष्ठ में इस तरह लिखा है कि :

Maharajadhiraj Rajendra Kishore Sinha Bahadur, son of Maharaj Nawal Kishore Sinha Bahadur, proprietor of Nimak-Saeer Mahal out of Sarcar Champaran inhabitant of Kasaba Betteah, pergannah Majhwa Jaitharia Brahman by caste, a zamindar by profession.

अर्थात ‘महाराजा राजेंद्र किशोर सिंह बहादुर महाराजा नवल किशोर सिंह बहादुर के पुत्र और निमक सायर महाल के मालिक हैं, जो चंपारन सरकार से बाहर हैं। ये मझवा परगने के कसवा बेतिया में रहते हैं। इनकी जाति जैथरिया ब्राह्मण और पेशा जमींदारी हैं।’

इसी प्रकार बेतिया के समीपवर्ती मधुवन के मुकदमे के सन 1907 के फैसले की अपील के फैसले 1078वें पृष्ठ में लिखा कि :

“This statement of Sir W.B. Hudson is fully borne out by the acknowledgement of Sir Ropper Lethbridge in the introduction to his compilation, called the Golden Book of India, in para 67 of which work we find Maharaja Sir Harindra Kishore Sinha described as Jaithria Brahman, descended from Gangeshwar Deo the ancestor of Raja Ugrasen Sinha.”

अर्थ यह है कि ‘सर डब्ल्यू. बी. हडसन का यह कथन सर रापर लेथब्रिज के कथन से अच्छी तरह प्रमाणित हो जाता है, क्योंकि उन्होंने अपनी पुस्तक 'गोल्डन बुक ऑफ इंडिया' की भूमिका के 67वें पैरा में लिखा है कि महाराज हरींद्र किशोर सिंह जैथरिया ब्राह्मण 'गंगेश्‍वर देव के वंशज हैं, जो राजा उग्रसेन सिंह के पूर्वज थे।’

गाजीपुर के इस्तिमरारी बंदोबस्त की रिपोर्ट, सन 1880-85 ई. के 27वें और 63वें पृष्ठों में 'विलियम इरविन, (William Irvin) साहब कलेक्टर ने लिखा है कि: “Raja Shambhu Narayan Singh is Bhumihar Brahman, Gauri Shankar Prasad Sinha and Harishankar Prasad Sinha are great grand sons of Deokinandan Sinha, Brahman of the Allahabad district.”

अर्थात ‘राजा शम्भूनारायण सिंह भूमिहार ब्राह्मण हैं। गौरीशंकर प्रसाद सिंह और हरिशंकर प्रसाद सिंह ये दोनों देवकीनन्दन सिंह नामक प्रयाग जिले के एक ब्राह्मण के प्रपौत्र हैं।’

सन 1891 ई. की भारतवर्षीय मनुष्य गणना के विवरण के 191वें और 203वें पृष्ठों में लिखा गया है कि :

“The Babhan is a caste, confined, according to the returns, to Behar, but the Bhumihars of the adjacent territory of the N.W.P. should, no doubt, be added. It is an offshoot of a community of fairly pure Arya blood, descended from some of the early settlers of Hindustan.

“In the Brahmans caste, returned as such, we have every sort and grades of sub-divisions, In the Punjab there is the Mohial, whose aim is military service, like Pande of the Gangotri basis in Hindustan, The cultivating classes of Orissa are both turned Mastans but this title is shared by other castes of cultivating Brahmans in Upper India. Some of the last perform the whole cycle of operations connected with tillage. Whilst others draw the line at holding the plough, and employ their serfs on that task. There is a considerable number of Brahmans engaged as family and village priest, but the majority have taken to secular Pursuits and been divided accordingly.

“In Hindustan the number of Brahman cultivators is very large, and on the West Coast of, both in Malabar and along the Kankan, this caste in various district communities is prominent amongst the land holders. In the Deccan, again the Brahmans almost monopolise the occupations barring trade, that require reading and writing.”

अर्थ यह है कि ‘बाभन एक जाति हैं जो सरकारी विवरण के अनुसार बिहार में पाई जाती है, परंतु इसमें संदेह नहीं कि समीप के युक्‍त प्रदेशवाले भूमिहार भी इसी में शामिल हैं। ये लोग उन शुद्ध आर्य वंशजों के एक दल है, जो भारतवर्ष के प्रथम के कुछ निवासियों के वंश में थे। ब्राह्मण जाति में, जिसे मनुष्य गणना में ब्राह्मण जाति नाम से लिखा है, हर प्रकार और दर्जे के छोटे-छोटे दल पाए जाते हैं। पंजाब में महियाल लोग हैं जिनका मुख्य उद्देश्य युद्ध सेवा हैं जैसे कि भारतवर्ष के गंगोत्री स्थान के मूल में रहनेवाले पांडे लोग हुआ करते हैं। दक्षिण गुजरात की कृषक जाति जो देसाई कहलाती है और उसी तरह के उड़ीसा निवासी ये दोनों मस्तान लिखे जाते हैं। लेकिन यह पदवी उत्तर भारत की अन्य कृषक ब्राह्मण जातियों की भी है। उत्तर भारत के बहुत ब्राह्मण कृषि संबंधी सभी कार्य करते हैं, परंतु कुछ लोग हल जोतना अच्छा या उचित न समझ उसके लिए हलवाहे नौकर रखते हैं। कुछ ऐसे ब्राह्मण हैं जो खानदानों या गाँवों की पुरोहिती किया करते हैं, परंतु अधिकांश दुनिया भी का कामों लग गए हैं और इसी से पृथक भी हो गए हैं ओल्डहैंम साहब ने भी भूमिहार ब्राह्मणों को दुनिया भी लिखा है और ऐसा करने से इतर ब्राह्मणों से अलग बताया है, जैसा कि दिखला चुके हैं)। हिंदुस्तान में खेती करनेवाले ब्राह्मणों की संख्या बहुत हैं और कोंकण तथा मालाबार के पश्‍चिमी किनारे पर यह जाति जिले के भिन्न-भिन्न समाजों में सबसे बड़ी भूम्यधिकारिणी है। दक्षिण में भी जो काम वाणिज्य के सिवाय है और जिनमें पढ़ने-लिखनेवाले की आवश्यकता हैं, उनको ब्राह्मणों ने संपूर्ण अधिकार में कर लिया है।

'सर हेनरी एम. इलियट' (Sir Henry M.Elliot K.C.B.) की जो 'सप्लीमेंट ग्लसारी ऑफ इंययन टर्म्स' (Supplementae Glossary of Indian Terms) नामक पुस्तक है और उस पर जो टिप्पणी 'जान बीम्स' (John Beams M.R.A.S.) ने की है, उसके प्रथम भाग के 21वें पृष्ठ में यों लिखा है :

By Elliot - Bhumihar. A tribe of Hindus to be found in great number in Gorakhpur. Azemgarh and the province of Benares. The Maharaja of Benares is of this caste. They call themselves some times Brahmans and sometimes Thakurs. They were originally Brahmans of Sarawaria stock; but from having, as they say received the pergannah of Kaswar form Raja Banar and become addicted, to, agricultural, Pursuits, and cultivators of land (भुई) they last their rank of Brahmans, though they frequently receive marks of respect due only to that priviledged class. Others say when Parasaram destroyed all the Kshatriyas, he introduced Brahmans to occupy their place, and hence they became proprietors of land. It will be observed that several of these are subdivisions of the Sarawaria Brahmans, and those whose origin is distinguished, by new names have all same titles connecting them with the Sarawaria stock. Thus the Sakarwas are Misras, the Donwars Tewari and so on.

By Beames - From that day they ranked as an inferior caste of Brahmans. They are a fine manly race with the delicate Aryan type of feature in full perfection.

Page 85. Domtikar, one of the Subdivisions of Sarawaria Brahman.

Page 116. The Jaganbansi Kanaujia Brahmans of Kora are said to have received the Chandrahat of that Purgannah from Birsingh Deo, a Gautam chieftain.

Page 141. Jaganbansi, a tribe of Brahmans who hold zamindari possessions in pergannah Kora, zillah Fatehpur.

Page 146. Of Brahmans there ten well known sub-divisions of which five are Gaur and five Dravida. Of the five Gaurs, Kanaujia is one and also is considered the most numerous as it extends from the Sivalik Hills to the Narbada, and the Bay of Bengal. The sub-divisions of the Kanaujia are five; Kanaujia proper, Sarwaria, Sanadhya or Sanaudha, Jijhoutia and Bhumihar.

Page 149. The Sarwarias including the Bhumihars touch the Kanaujias one the East.

Page 150 In the census of N.W.P. in 1865, the Brahmans of the Province are thus classified and numerated :-

Kanaujia ... ... ... ... ...

Sarwaria ... ... ... ... ...

Sanadhya ... ... ... ... ...

Jijhautia ... ... ... ... ...

Bhumihar 52199, Gorakhpur, Benares.

अर्थ यह है ‘इलियट साहब भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में लिखते हैं कि यह एक हिंदू जाति है, जो बहुत संख्या में गोरखपुर, आजमगढ़ और बनारस के प्रांतों में पाई जाती है। महाराज बनारस इसी जाति के हैं। ये लोग अपने को कभी ब्राह्मण कहा करते हैं और कभी ठाकुर¹। ये लोग प्रथम सरवरिया ब्राह्मण थे। परंतु राजा बनार के कुसवार परगना पाने और खेती करने तथा भूमि संबंधी काम करने से, जैसा कि वे लोग कहते हैं, उन लोगों ने अपने ब्राह्मण दर्जे को खो दिया। जोकि अभी तक अकसर उन लोगों को वे ही प्रतिष्ठाएँ मिला करती है जो अन्य ब्राह्मणों को मिलती है। अन्य लोगों का यह कहना है कि जब परशुराम ने क्षत्रियों का नाश किया तो ब्राह्मणों को ही उनकी जगह नियत किया। इसलिए ये लोग भूमि के मालिक बन गए। यह भी देखा जाता है कि इन लोगों (भूमिहार ब्राह्मणों) के बहुत से छोटे-छोटे दल वे ही हैं, जो सरवरिया ब्राह्मणों के हैं और जिनके मूल का पता उनके नवीन नामों से लगता है, उन लोगों की पदवियाँ सबकी-सब वे ही हैं जो उनको सरवरिया ब्राह्मणों में मिला देती हैं। जैसे सकरवार मिश्र कहलाते हैं और दोनवार तिवारी इत्यादि।

मिस्टर इलियट के पूर्वोक्‍त कथन 'खेती करने से इन लोगों ने अपने ब्राह्मण दर्जे को खो दिया' का तात्पर्य मिस्टर बीम्स ऐसा लिखते हैं कि 'उस समय से ये लोग ब्राह्मणों में मध्यम समझे जाने लगे इत्यादि।2 ये लोग उत्तम मनुष्य जाति के हैं और इनके शरीर की संपूर्ण बनावट ठीक और बहुत ही सुंदर एवं आर्यों की ही हैं।'

85 वें पृष्ठ में इलियट साहब ने लिखा है कि दुमटिकार लोग सरवरिया ब्राह्मणों के एक भेद हैं। (इससे स्पष्ट है कि दुमटिकार ही नाम ठीक है, दुमटकार या डोमकटार कहना भूल है, जैसा कि प्रथम ही सिद्ध कर चुके हैं)।

116वें और 141वें पृष्ठों में जगदवंशी या जगद्वंशी ब्राह्मणों को लिखते हैं कि ये लोग ब्राह्मणों की एक जातिवाले हैं, जो फतहपुर जिले के कोड़ा परगने के जमींदार हैं। जो जगद्वंशी कनौजिया ब्राह्मण कोडा में रहते हैं, उन्हें उस परगने का चंद्रहाट स्थान एक गौतमवंशी क्षत्रिय वीर सिंह देव द्वारा प्राप्त हुआ है।

146वें पृष्ठ में लिखा है कि ब्राह्मणों के प्रसिद्ध दस भेद हैं, जिनमें से पाँच द्राविड़ और पाँच गौड़ हैं। पाँच गौड़ों में कनौजिया भी एक भेद हैं। ये लोग सबसे अधिक है; क्योंकि सिवालिक पर्वत से नर्मदा और बंगाल की खाड़ी तक फैले हुए हैं। कनौजियों के पाँच भेद हैं - (1) खास कनौजिया, (2) सरवरिया, (3) सनाढ्‍य या सनौढा, (4) जिझौतिया, और (5) भूमिहार।

149-पृष्ठ में है कि 'भूमिहारों को अपने में लेते हुए सरवरिया लोग पूर्व में कनौजियों से मिल जाते हैं।

150-पृष्ठ में लिखा है कि युक्‍त प्रांत की 1865 ई. की मनुष्यगणना में इस

¹ अन्य ब्राह्मण भी ठाकुर कहे जाते हैं, जैसा कि दिखला चुके हैं और चूँकि जमींदार हैं, इसलिए ठाकुर कहलाते हैं, क्योंकि उसका अर्थ जमींदार हैं।

2 परंतु खेती करने से ब्राह्मण माध्यम नहीं हो सकता है, यह अच्छी तरह प्रमाणित किया जा चुका हैं।

प्रांत के ब्राह्मणों के विभाग और उनकी संख्या यों हैं :

कनौजिया ... ... ... ... ... ... ...

सरवरिया ... ... ... ... ... ... ...

सनाढ्‍य ... ... ... ... ... ... ...

जिझौतिया ... ... ... ... .... ... ...

भूमिहार ...52199 ... गोरखपुर और बनारस।

मिस्टर शेरिंग (Rev. M.A. Sherring M.A.,LL.B.) ने जाति विवरण (Tribes and Castes) नामक पुस्तक में इस तरह लिखा है :

Part I. Page 9, 10. Great important distinctions subsist between the various tribes of Brahmans. Some are given to learning some to agriculture, some to politics and some to trades. The Maharastra Brahman is very different being from the Bengali, while the Kanaujia differs from both.

Only those Brahmans that perform all these six duties are reckoned perfectly orthodox. Some perform three of them, namely, the first, third and fifth and omit the other three; yet they suffer in rank in consequence. Hence Brahmans are divided into two kinds, the Shat-karmas and the Tri-karmas or those who perform the six duties and those who perform the three only. The Bhumihar Brahmans, for instance are Tri-karmas, and merely pay heed to three duties.

Page 23. The Bhumihars, of whom many though not all belong to the Sarjupariya division, are a large and influential body in all that province.

अर्थ यह है कि 'प्रथम भाग, 9 और 10 पृष्ठ-ब्राह्मणों की बहुत सी जातियों में बड़े-बड़े और प्रसिद्ध भेद हैं। कोई केवल पढ़ता ही हैं, कोई केवल खेती, कोई राजनीति और कोई वाणिज्य में लगा रहता है। महाराष्ट्री ब्राह्मण बंगाली ब्राह्मणों से बिलकुल भिन्न हैं और कनौजिया दोनों से भिन्न है।

केवल वे ही ब्राह्मण, जो षट्कर्म करते हैं कट्टर समझे जाते हैं।

बहुत से ब्राह्मण षट्कर्मों में प्रथम, तृतीय और पंचम (अध्ययन, यज्ञ और दान) तीन ही करते हैं शेष तीन छोड़ देते हैं। इसीलिए उनका दर्जा कुछ नीचा समझा जाता है। इस प्रकार ब्राह्मणों के दो भेद है, षट्कर्मा और त्रिकर्मा। अर्थात एक तो वे जो छह कर्मों को करते हैं और दूसरे वे जो केवल तीन ही करते हैं। दृष्टांत के लिए भूमिहार ब्राह्मणों को ले सकते हैं, जो केवल तीन ही कर्मों पर ध्यान देते हैं।

23वाँ पृष्ठ - भूमिहार लोग जिनमें सब नहीं तो अधिकांश सर्यूपारी ब्राह्मण हैं, इस प्रांत-भर में बहुसंख्यक और प्रभावशाली है।

आगे चल कर मिस्टर शेरिंग ने ब्राह्मणों के निरूपण प्रकरण में ही पंचगौड़ों में से सर्यूपारियों के निरूपण प्रसंग में ही जिझौतिया, सारस्वत एवं गौड़ों से प्रथम ही भूमिहार ब्राह्मणों का निरूपण करते हुए 39वें और 40वें पृष्ठ में ऐसा लिखा है :

BHUMIHAR BRAHMANS - These Brahmans belong chiefly, though not exclusively, to the Sarwaria branch of the Kanaujia tribe. They are found in large numbers in the city of Benares, and in the district and province of the same name, and even as far as the northern part of Behar. Some doubt has been thrown on the purity of their blood of as Brahmans. It has been said that they are Kshatriya Brahmans : or partly Rajputs and partly of other castes; or are a race of bastard Brahmans. I have been unable to obtain any trustworthy evidence for such assertion. Nevertheless there is no question that they do not occupy a high rank and position among the Brahmanical races. The reasons for this I conceive to be three-fold :

(1) The Bhumihars are addicted to agriculture, a pursuit considered to be beneath the dignity of pure or orthodox Brahman. The word is Partly derved from Bhuin or Bhumi ‘land’.

(2) They have accepted and adopted in their chief families the secular title of Raja, Maharaja, and so forth distinctions which high Brahmans altogether eschew. Hence, such Bhumihars have in a sense degraded from their position of Brahmans to that of Rajputs, whose honoric title of Singh they commonly affix to their names. The Maharaja of Benares, who is the acknowledge head of the Bhumihar Brahmans in that City, is styled Maharaja Ishwaree Narain Singh. The title is borne by all the members, near and remote of the Maharaja’s family.

(3) The Bhumihars only perform or half of the Prescribed Brahmanical duties. They give alms, but do not receive them; they offer sacrifices to their idols, but do not perform the duties and offices of priest hood; they read the sacred writings, but do not teach them.

Sir Henry Elliot says - “we perhaps have some inications of the true origin of Bhumihars in the name of Gargabhumi and Vatsabhumi, who are mentioned in the Harvansa as Kshatriya Brahmans, descendants of Kasiya princes, name of Bhumi and residence at Kasi (Benares), are much in favour of this view. Moreover, there are to this day Garga and Vatsa Gots or Gotras, amongst the Sarwaria Brahmans.”

It is quite true, as before remarked, that this tribe is numerous in Benares and its neighbourhood, though not as descendants of Kasiya princes. The Maharaja of Benares is undoubtedly a Bhumihar; but his family dates only from the first-half of the Preceeding century. There is no evidence to show that in olden times princes of Benares were ever Bhumihars.

By the people of the country of other castes, among whom they dwell, they are called indiscriminatly Bhumihars, Gautams and Thakurs. The term Brahman, is not, I believe applied to them in common conversations as it is to other Brahmans; but this is no valid argument against their right to the title. The Bhumihars call themselve Brahmans: have the Gotras titles and family names of Brahmans: practise, for the most part, the usages of Brahmans, and in default of proper evidence to the country, must be regarded as Bhrahmans. While the Gautams of Benares are called Bhumihars they are so simply from the accident of the Bumihars there mostly belonging to the Gautam Gotra. There are other Gotras of Bhumihars besides the Gautam. Moreover although the Bhumihars are chiefly united whith the Sarwaria branch of the Kankubja tribe of Brahmans, yet some of them are allied to the Kanaujia Brahmans Proper. For instance, the Babus of Chainpur in the Chaprah district are Bhumihars of the latter sub-tribe. The name of their clan is Ekasariya; of their Gotra Prasar; of their title Dikshit.

In face of the peculiar Brahmanical terminology and nomenclature in use among the Bhumihars, who differ 'in toto coelo' from those employed by all other coates, of their Brahmanical habits and costoms, of their claim to be regarded as Brahmans, the statement of Mr. Campbell in his recent work on the ethnology of India (page 66). that “there seems to be no doubt that this class is formed by an intermixture of Brahmans with some other inferior caste,” is untenable. He assigns no reason for such an observation further than that, “they live in strong and pugnatious brotherhoods, and are in character much more like Rajpoots than Brahmins.” The opinion of Mr. Beams, in his edition of Sir H. Elliot’s Supplemental Glossary on the physical charcterstics of the Bhumihars, is true and worth recording. “They are fine manly race, with the delicate Aryan type of feature in perfection, yet.” headds, “their character is bold and overbearing and decidedly inclined to be turbulent,” a strong expression, which it would not be easy to substantiate or justify. The most important of these clans in Benares is the Bipra branch of the Gautam Gotra of the Misra rank, to which belongs the Maharaja of Benares together with the noble families connected with him, and the family of the Late Raja Sirdeo Narayan Singh and of his son Raja Shambhu Narain Singh.

It is of the Kauthumiya Sakha, or branch, of Brahmans, following the ritual of the Sama. Veda it has three Parvars (distinguished by the number of knots in the Brahmanical card) the Gautam, Angiras and Authathiya. The clan intermarries with the Bhumihars, of the Madhyandina Sakha, or branch of Brahmans, observing the ritual of the Yajur-Veda. It is traditionally allied to the Sarjupari Brahmans of the Village of Madhubani, beyond the Gogra who, strange to say, are Shat-karmas that is perform the six duties enjoined on Brahmans. This relationship seems to show that the Bhumihars, Brahmans, who now observe only three of the Brahmanical obligations, were once orthodox and observed the entire six.

इसका मर्मानुवाद यह है :- ‘भूमिहार ब्राह्मण - ये ब्राह्मण यद्यपि सब नहीं, तथापि अधिकांश कनौजिया ब्राह्मणों के सरवरिया दलवाले ब्राह्मणों में है। ये लोग बहुसंख्यक बनारस शहर, बनारस जिला और बनारस प्रांत में और बिहार के उत्तर भाग तक पाए जाते हैं। इनके शुद्ध ब्राह्मण वंशज होने में कुछ संदेह किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि ये लोग क्षत्रिय अथवा राजपूत ब्राह्मण है, राजपूत तथा अन्य जातियों के मेल से हुए हैं, अथवा दोगले ब्राह्मण हैं। परंतु मैं इस कथन में कोई विश्‍वास योग्य प्रमाण पाने में असमर्थ हूँ। तथापि इस बात में तो कुछ कहना ही नहीं कि ब्राह्मण जातियों में इनका दर्जा ऊँचा नहीं माना जाता। मेरी समझ में इसके तीन ही कारण है :- (1) भूमिहार लोग कृषि किया करते हैं, जो सच्चे (कट्टर) ब्राह्मणों का धर्म नहीं माना जाता है। भूमिहार शब्द भी इसी भुइं या भूमि शब्द से बना है। (2) उनके बड़े-बड़े वंशों में राजा, महाराजा इत्यादि पदवियों का स्वीकार और प्रयोग होता है, जिससे कट्टर ब्राह्मण बिलकुल ही घृणा करते हैं। इसीलिए लोगों ने यह मतलब लगा लिया है कि भूमिहार लोग ब्राह्मण दर्जे से हट कर राजपूत दर्जे को प्राप्त हो गए हैं और उनकी पदवियों को बहुधा अपने नामों के पीछे लगाया करते हैं। महाराजा बनारस, जो बनारस के भूमिहार ब्राह्मणों के माननीय नेता है, महाराज ईश्‍वरी प्रसाद नारायण सिंह कहलाते हैं। महाराजा के वंश के निकट या दूर के सभी लोग 'सिंह' कहलाते हैं। (3) भूमिहार लोग ब्राह्मणों के षट्कर्मों में से तीन ही करते हैं, अर्थात वे लोग दान देते हैं, परंतु लेते नहीं; यज्ञ करते हैं, परंतु करवाते नहीं, और पवित्र ग्रन्थों को पढ़ते हैं, परंतु पढ़ाते नहीं¹ सर हेनरी इलियट ने कहा है कि ‘भूमिहार लोगों के वास्तविक मूल का कुछ पता संभवत: हमें गर्गभूमि और वत्सभूमि इन नामों से चलता है, जो हरिवंश (पुराण) में क्षत्रिय ब्राह्मण और काशी के राजाओं के वंशज लिखे गए हैं। उनका भूमि नाम और काशी (बनारस) के पास निवास भी इस अनुमान के अनुकूल है। इसके अतिरिक्‍त सर्यूपारी ब्राह्मणों में आज तक गर्ग और वत्सगोत्र भी पाए जाते हैं।

जैसा कि प्रथम कह चुके हैं, उससे यह बात तो ठीक हैं कि ये लोग बनारस और उसके आस-पास में बहुत पाए जाते हैं। परंतु प्राचीन काशी के राजाओं के वंशज नहीं कहलाते। यद्यपि महाराज बनारस भूमिहार हैं इसमें संदेह नहीं हैं, परंतु इनका वंश केवल गत शताब्दी के पूर्वार्द्ध से ही यहाँ पर सिद्ध होता है। इसमें कोई प्रमाण नहीं हैं कि प्राचीन समय में भी काशी के राजे भूमिहार ही थे। इस देश की अन्य जातियों के लोग, जिनके मध्य में ये लोग रहा करते हैं, इन्हें अज्ञानवश कभी भूमिहार, कभी गौतम और कभी ठाकुर कहा करते हैं। मेरा विश्‍वास है कि साधारण बातचीत में इनके नाम के साथ ब्राह्मण शब्द नहीं लगाया जाता है। परंतु इन्हें ब्राह्मण मानने के विपरीत यह कोई सच्चा प्रमाण नहीं है। क्योंकि भूमिहार लोग अपने को ब्राह्मण कहते, ब्राह्मणों के ही गोत्र, उनकी ही पदवियों और वंशनाम रखते और अधिकांश ब्राह्मणों की ही रस्म-रिवाजों को करते हैं। इसलिए इनके विपक्ष में कोई उचित प्रमाण न होने के कारण इन्हें अवश्य ही ब्राह्मण समझना चाहिए।

बनारस के गौतम लोग भूमिहार कहलाते हैं। यह बात इस कारण से हैं कि वहाँ भूमिहार लोग अधिकांश गौतम गोत्री ही हैं। गौतम गोत्र के अतिरिक्‍त भी भूमिहार ब्राह्मणों में गोत्र पाए जाते हैं। इसके सिवाय गोकि विशेषत: भूमिहार ब्राह्मण सरवरिया ब्राह्मणों से ही मिले हुए हैं, तथापि बहुत से भूमिहार ब्राह्मण खास कनौजिया ब्राह्मण भी हैं। जैसे, चैनपुर के भूमिहार बाबुआन कनौजिया ब्राह्मण हैं। वे लोग एकसरिया

¹ ये तीन कारण, जिनसे लोग भूमिहार ब्राह्मणों को हीन समझने का भ्रम करते हैं, प्रथम ही खंडित किए जा चुके हैं और यह प्रमाणित किया जा चुका हैं कि कृषि ब्राह्मणों का प्रधान कर्म हैं और राय, सिंह इत्यादि पदवियाँ भी क्षत्रिय या ब्राह्मण विशेष की न हो कर उन सभी की है जो इसके योग्य थे या हैं इसीलिए ब्राह्मणों और अन्य जातियों में भी आज तक पाई जाती है। और वस्तुत: ब्राह्मण त्रिकर्मा ही होते हैं, न कि षट्कर्मा होना उनका धर्म है, यह भी सिद्ध हो चुका है। यज्ञ करा या पढ़ा कर के केवल द्रव्यार्जन करना अनावश्यक हैं, जिसे भूमिहार ब्राह्मण नहीं करते। परंतु उपकार के लिए या धर्मार्थ पढ़ाने आदि से उन्हें इनकार नहीं है। परंतु मिस्टर शेरिंग ने तो अन्य लोगों की धारणा मात्र बतलाई है, न कि अपनी राय। अब तो सब करते हैं।

कहलाते हैं और उनका गोत्र पराशर और पदवी दीक्षित है।

जो अन्य जाति के लोगों में बिलकुल ही नहीं पाए जाते, ऐसे जो केवल ब्राह्मण संबंधी संकेत और नाम इन भूमिहार ब्राह्मणों में पाए जाते हैं, उनके मुकाबिले में, इन लोगों को ब्राह्मण संबंधी रस्म-रिवाजों और स्वभाव के मुकाबिले में और इन लोगों के ब्राह्मण होने के दावे के भी मुकाबिले में मिस्टर कैंपबेल की वह उक्‍ति तुच्छ या अनादरणीय है, जो उनके हाल के भारतीय जाति विवरण संबंधी ग्रन्थ के 66वें पृष्ठ में है कि ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह जाति ब्राह्मण और कुछ नीच जातियों के मेल से बनी है।’ क्योंकि वे अपने इस कथन की पुष्टि में इससे अधिक प्रमाण नहीं देते कि ‘ये लोग मजबूत और लड़ाके पड़ोसियों में रहा करते और चाल-ढाल में ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रियों से अधिक मिलते हैं।’¹

सर हेनरी इलियट की सप्लीमेंटल ग्लासरी में जो मिस्टर बीम्स की सम्मति भूमिहार लोगों की शारीरिक रचना के विषय में है वह सत्य और उल्लेख योग्य हैं अर्थात वे कहते हैं कि ‘ये लोग बहुत ही सुंदर मनुष्य जाति के हैं और इनकी शरीर रचना पूर्णतया सुंदर और आर्यों की शारीरिक बनावट जैसी है।’ परंतु इनका यह कथन कि ‘ये लोग साहसी और झटपट उबल पड़नेवाले, एवं नि:स्संदेह झगड़ालू होते हैं, बहुत ही सख्त (कड़ा) है, जिसको प्रमाणित करना जरा टेढ़ी खीर है।

भूमिहार ब्राह्मणों में सबसे प्रसिद्ध बनारस में गौतम गोत्र और मिश्र पदवीवाली विप्र शाखा है, जिसमें महाराज बनारस अपने संबंधी बड़े-बड़े वंशों के साथ सम्मिलित है और भूतपूर्व राजा सर देवनारायण सिंह और उनके पुत्र राजा शंभूनारायण सिंह का वंश भी उसी में शामिल हैं। ब्राह्मणों की कौथुमी शाखा ही इनकी शाखा और सामवेद ही वेद है। इन लोगों के तीन प्रवर गौतम, अंगरिस और औतथ्य है, जिनकी सूचना के लिए यज्ञोपवीत में तीन ग्रन्थियाँ दी जाती है। ये लोग यजुर्वेद की माध्यंदिन शाखावाले भूमिहार ब्राह्मणों के साथ विवाह करते हैं और इनके विषय की कथा ऐसी है जिसमें इन लोगों का सम्बन्ध सर्यूपार के मधुबनी ग्राम के सर्यूपारी ब्राह्मणों से सिद्ध होता है। जिनके विषय में यह कहते आश्‍चर्य होता है कि वे लोग षट्कर्मा ब्राह्मण हैं। इस सम्बन्ध से यह भी पता चलता हैं कि ‘भूमिहार ब्राह्मण, जो केवल तीन ही कर्म करते हैं, प्रथम कट्टर और षट्कर्मा ब्राह्मण ही थे।’

शेरिंग साहब ने पूर्वोक्‍त ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड के 189वें और 229वें पृष्ठों में लिखा है कि : The truth is that the word Bhumihar applies to Rajputs as well as to Brahmans. A similarity of nature, however, amounting even to an exact correspondence, is frequently found subsisting between Brah

¹ इन बातों का खण्डन उनके पूर्वोक्‍त रस्म-रिवाजों इत्यादि से ही हो गया, जो केवल ब्राह्मणों में ही पाए जाते हैं और जमींदारी करने के कारण मजबूती वगैरह की जरूरत मजबूर हो कर ही पड़ती है। अतएव मिस्टर शेरिंग इस विषय में कैंपबेल का अनादर करते हैं।

mans and Rajputs. Both races have their Gautams, their Bhumihars, their Kinwars and likewise; have the same Gotras, thereby professing to be descended from the same Rishis or sages of primitive Hinduism.

अर्थात ‘सत्य बात तो यह है कि भूमिहार शब्द का प्रयोग राजपूत और ब्राह्मण दोनों जातियों में किया जाता है। राजपूतों और ब्राह्मणों के स्वभाव की भी समानता पाई जाती है, जो ठीक-ठीक मिल जाती है। दोनों में गौतम, भूमिहार, किनवार आदि भेद और बहुत से एक ही गोत्र पाए जाते हैं, जिससे यह कहा जाता है कि वे लोग एक ही ऋषि के वंशज है।’

श्रीयुत योगेंद्रनाथ भट्टाचार्य एम.ए.डी.एल. की सम्मति भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में दी जा चुकी है। यहाँ पर केवल उनके कथन के उस अवशिष्ट अंश को लिखते हैं, जिसमें उन्होंने मिस्टर रिजले तथा अन्य लोगों के मिथ्या आक्षेपों का युक्‍तियों द्वारा खण्डन किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक 'हिंदू कास्ट्स एंड सेक्ट्स' के 109वें-113वें पृष्ठों में इस प्रकार लिखा है :

The Bhumihar Brahmans of Behar and Benares—There are various legends regarding the origin of the caste. The Bhumihar Brahmans themselves claim to be true Brahmans, descended from the rulers whom Parsuram set up in the place of the Kshatriya kings slain by him. The Brahmans and the Kshatriyas of the country look down upon them and insinuate that they are of a mixed breed, the offspring of Brahman men and Kshatriya women. It is even said that the class was formed by the promotion of low caste men under the orders of a minister to a Raja, who wanted a very large number of Brahmans to celebrate a religious ceremony; but for whom his minister could not procure the required number of true Brahmans. But the legendry theory is strongly contradicted by the Aryan physiognomy of the Bhumihars, who in respect of personal appearance are in no way inferior to the Brahmans or the Rajputs. One of the most important points of difference between the Bhumihar Brahmans and the majority of the ordinary Brahmans is, that while the latter are divided into only those Exogamous classes called Gotras, the former have among them, like Rajputs, a two-fold division based upon both Gotra and tribe. From this circumstance Mr. Risley has been laid to conclude that the Bhumihar Brahmans are an offshoot of the Rajputs and not true Brahmans. But as there are similar tribal divisions among the Maithila Brahmans of Tirhut and the Saraswat Brahmans of the Punjab, it might, on the same ground, be said that the Saraswats and the Maithlas are offshoots of the Rajputs.

In theory that Bhumihar Brahmans are an offshoot of the Rajputs, involves the utterly unfounded assumption that any of the military clans could have reason to be ashamed of their caste-status. The ‘royal race’ had very good reason to be proud of such surnames as Sinha, Roy and Thakur, and it seems very unlikely that any of their clans could, at any time, be so foolish as to club together for the purpose of assuming the Brahmanic surnames of Dobe, Tewari, Chobe and Upadhyay. On the theory that the Bhumihar Brahmans are an offshoot of the Rajputs, the clans that now profess to be Bhumihar Rajputs, are residents that have stuck to their original status, and have never aspired to a higher one. But on this supposition it would be difficult to find any reason for the distinctions between Bhumihar Rajput and the ordinary Rajputs.

The usual surnames of the Bhumihar Brahmans are the same as those of the other Brahmans of northern India. Being a fighting caste, a few of them have the Rajput surnames.

अर्थ यह है 'बिहार और बनारस के भूमिहार ब्राह्मण-इस जाति की उत्पत्ति के विषय में बहुत सी किंवदंतियाँ हैं। भूमिहार ब्राह्मण स्वयं अपने आपको पक्के ब्राह्मण कहते हैं और उन ब्राह्मणों के वंशज बतलाते हैं, जिन्हें परशुराम जी ने क्षत्रियों को मार कर उनकी जगह पर स्थापित किया था। इस देश के ब्राह्मण और क्षत्रिय उनको हीन दृष्टि से देखते और चुपके से इशारा करते हैं कि वे लोग ब्राह्मण पुरुष और क्षत्रिय स्त्री के संयोग से उत्पन्न हुए हैं। यह भी कहा जाता है कि यह जाति उन नीच जातियों के पुरुषों से बनी है जो किसी राजा के मन्त्री की आज्ञा से ब्राह्मण बना दिए गए। क्योंकि उस राजा ने किसी धार्मिक कार्य के करने के लिए बहुसंख्यक ब्राह्मणों के लाए जाने की इच्छा प्रकट की थी; परंतु वह मन्त्री उतने ब्राह्मण न पा सका। परंतु ये सब किंवदंतियाँ भूमिहार ब्राह्मणों की शारीरिक रचना से ही अच्छी तरह खंडित हो जाती है। क्योंकि देह की बनावट में वे लोग ब्राह्मणों या क्षत्रियों से किसी प्रकार न्यून नहीं है। बहुत से साधारण ब्राह्मणों और भूमिहार ब्राह्मणों में भेद होने के प्रसिद्ध कारणों में से एक यह भी है कि साधारण ब्राह्मणों का विभाग गोत्रों के ही अनुसार होता है, परंतु राजपूतों की तरह भूमिहार ब्राह्मणों में भी गोत्र और अवांतर जाति दोनों के अनुसार विभाग होता है। इसी को देख कर मिस्टर रिजले ने यह नतीजा निकाला है कि भूमिहार ब्राह्मण राजपूतों के वंशज हैं, न कि सच्चे ब्राह्मण। परंतु अवान्तर जाति के अनुसार तिरहुत के मैथिल ब्राह्मणों और पंजाब के सारस्वत ब्राह्मणों में भी ऐसे ही विभाग पाए जाते हैं। अत: इसी पूर्वोक्‍त कारण से मैथिल और सारस्वत ब्राह्मण भी राजपूतों के वंशज सिद्ध हो सकते हैं¹

भूमिहार ब्राह्मण राजपूतों के वंशज हैं, इस कल्पना के मानने में यह भी बिलकुल ही निर्मूल कल्पना माननी होगी कि कोई भी जाति युद्ध विशारद बनने में अपने जातीय दर्जे के सम्मुख (विचार से) लजा सकती थी (क्योंकि उसे राजपूत बन जाना पड़ता)। राजपूत जातियाँ अपनी सिंह, राय और ठाकुर आदि पदवियों का बड़ा अभिमान रखती थीं। इससे यह कल्पना एकदम असंभव जान पड़ती है कि उनमें से कोई भी जातियाँ ऐसी मूर्ख हो गई, जिससे वे एक दल में इसलिए पृथक हो गईं कि उनको ब्राह्मणों को दूबे, तिवारी, चौबे और उपाध्याय इत्यादि पदवियाँ मिलें। भूमिहार ब्राह्मणों को राजपूत वंशज मानने में यह भी बात माननी होगी कि जो राजपूत अपने को भूमिहार कहते हैं वे अपनी प्राचीन ही दशा में पुराने बाशिन्दों की तरह पड़े हुए हैं और ऊँचे दर्जे की कभी इच्छा नहीं करते। साथ ही, उनके और साधारण राजपूतों के बीच कोई भी अन्तर मालूम करना इसी कल्पना के कारण कठिन हो जावेगा।

भूमिहार ब्राह्मणों की पदवियाँ विशेष कर वे ही हैं जो उत्तर भारत के अन्य ब्राह्मणों की। परंतु वीर जाति होने के कारण उनमें से कुछ लोगों ने राजपूतों की पदवियों को भी स्वीकार कर लिया है।

मुजफ्फरपुर के गजेटियर में मिस्टर एल.एस.एस. ने लिखा है कि :

These traditions are not recognized by the Babhans themselves, who claim to be true Brahmans. According to their own account, they are pure Brahmans and have been recognized as such from the rest of the Brahmans only in having taken to cultivation and given up the principal functions of Brahmans connected with priestcraft, viz officiating as priests in religious ceremonies, teaching the Vedas, and receiving alm; and they therefore call themselves Bhumihar Brahmans. They claims that, even at the present day Maithil Brahmans, who secede from their own community, are admitted among them on condition that they give up priestly occupations, and they contend that many of their ceremonies are performed in the same manners and styles and with the same Mantras as those of the Brahmans.

अर्थात ‘बाभन इन किंवदन्तियों को स्वयं नहीं मानते और अपने सच्चे ब्राह्मण होने का दावा रखते हैं। उनके कथनानुसार वे लोग सच्चे ब्राह्मण हैं और अनादि काल से सच्चे ब्राह्मण

¹ वस्तुत: तो सभी ब्राह्मणों में दोनों प्रकार के विभाग पाए जाते हैं, क्योंकि खैरी के ओझा और पिंडी के तिवारी ये विभाग तो गोत्र के अनुसार नहीं हैं और न दुमटिकार इत्यादि ही।

माने जाते हैं। उनका कहना हैं कि अन्य ब्राह्मणों से उनका भेद इसलिए है कि वे खेती करते हैं और पुरोहिती संबंधी प्रधान कर्मों को बिलकुल नहीं करते। अर्थात न पुरोहिती करते, न वेदों को पढ़ाते और न दान लेते हैं और इसी से भूमिहार ब्राह्मण कहलाते हैं। उनका दावा है कि आज तक भी जो मैथिल ब्राह्मण अपने समाज से अलग होना चाहता है वह हमारे समाज में इस शर्त पर मिला लिया जाता है कि वह फिर पुरोहिती नहीं करेगा। वे लोग यह भी कहते हैं कि हमारे बहुत से कर्म उसी रीति से और उन्हीं मंत्रों द्वारा किए जाते हैं, जैसे अन्य ब्राह्मणों के।’

The Right Hon’ble Sir Richard Temple, Bart, M.P., G.C.S.I.E.,D C. L. .LL. D., F.R.S. Governor of Bombay, Lieutenant Governor of Bengal and Finance Minister to India Government.(राइट आनरेब्ल सर रिचर्ड टेंपुल, बार्ट ने जो बंबई के गवर्नर, बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर और भारत सरकार के अर्थ सचिव थे), अपनी पुस्तक 'सन 1880 ई., का भारत वर्ष' (India in 1880) के 111वें और 117 वें पृष्ठों में इस प्रकार लिखा है :

Higher in the scale are those Brahmans who follow secular pursuits, apart from their brethern of the priestly orders. Their influence in landed concerns is comparatively slight in Northern India, but is considerable in Eastern, western and Central India and almost dominant in many parts of the country.

The priestly classes are still numerous through out the Empire. The Hindu priest-hood includes only those Brahmans who follow religious calling, and not those who are engaged in secular pursuits, though a certain sanctity is attached to them.

अर्थात ‘प्रतिष्ठा की दृष्टि से वे ही ब्राह्मण बड़े माने जाते हैं जो दुनियाबी कार्य (व्यापार और कृषि आदि) करते हैं और अपने पुरोहित भाइयों से पृथक है। यद्यपि उनकी जमींदारी उत्तर भारत में कुछ कम है, तथापि पूर्व, पश्‍चिम और मध्यभारत में अच्छी है और देश के बहुत से भागों में तो बहुत ही प्रबल या अधिक है।

पुरोहिती करनेवाले भी ताहम बहुत हैं और ब्रिटिश राज्य-भर में फैले हुए हैं। हिंदू पुरोहित वे ही ब्राह्मण लोग कहलाते हैं जो केवल धार्मिक काम किया करते हैं, न कि वे लोग भी, जो दुनियाबी काम करते हैं, जो कि बहुत अंशों में वे भी पवित्र समझे जाते हैं।

विन्सेंट ए. स्मिथ एम.ए. (Vincent A. Smith M.A.) ने 'भारत का प्रारंभिक इतिहास' (Early History of India) के 374वें पृष्ठ में लिखा है कि :

Occasionally a Raja might be a Brahman by caste, but the Brahman’s natural place at court was that of minister rather than that of king. Chandra Gupta Mourya Presumably was considered to be a Kshatriya, his minister Chanakya certainly was Brahman.

अर्थ यह है कि ‘कभी-कभी ब्राह्मण भी राजा हुआ करते थे। परंतु ब्राह्मणों का राजदरबार में स्वाभाविक कार्य राजा के कार्य की अपेक्षा मन्त्री का अधिक हुआ करता था। संभवत: चंद्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय समझा जाता था, परंतु उसका मन्त्री चाणक्य तो अवश्य ही ब्राह्मण था।’

'मीडोज टेलर' (Meadows Taylor) ने अपने 'भारत वर्ष के इतिहास' (A Student Manual of the History of India) के 24, 47 और 54वें पृष्ठों पर क्रमश: ऐसा लिखा है :

Brahmans who follow the profession of the priesthool only, frequently hold themselves superior to, and distinct from others, who are soldiers or merchants, or who have taken themselves to any secular callings for a livelihood. Hence an immense variety of Brahmanical cases have been created, which, though in general terms they have not affected the peculiar sanctity and exclusiveness of their original foundation, haveyet broken the unity of their order, and reduced its power.

The power of the Brahman priest-hood in all spiritual matters was very great and they were esteemed holy, as yet they had not adopted secular employments and lived apart as professions of religion.

At Kanauj, in Oudh, under the hills of Nepal another great Hindu Dynasty sprang up, or at least materially increased in power during the period under notice. Their Princes did not join the Boodhist movement, they were exclusively Hindus and perhaps Brahmans.

It is least certain that they protected vast numbers of Brahmans during their persecution by the Boodhists; for one of the most numerous of the Northern Brahmanicl sects is termed Kanaujia. Grants of land were made to them and they became farmers, as many continue to be. The Kanaujia Brahmans are not esteemed as of the purest rank by others; the seldom hold priestly offices, and many of them enter the military service. They are perhaps, the finest physical race in India and of true Aryan type.

अर्थात ‘जो ब्राह्मण केवल पुरोहिती करते हैं, वे प्राय: अपने को उन ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और अलग समझते हैं जो योद्धा या व्यापार करनेवाले होते हैं। अथवा जो जीविका के लिए कोई भी दुनियाबी कार्य करते हैं इसी से ब्राह्मणों में बहुत से जाति-भेद हो गए हैं, जिनसे गो साधारण तौर पर उनकी पवित्रता नहीं नष्ट हुई हैं और न उनकी जड़ ही बिगड़ने पाई हैं, तथापि उनकी एकता नष्ट हो गई और शक्‍ति घट गई है।

सभी पारलौकिक कार्यों में पुरोहित का दर्जा बहुत बड़ा था एवं वे लोग पवित्र समझे जाते थे। और चूँकि अभी तक वे लोग दुनिया भी का काम न करते थे, अत: केवल पृथक रूप से पुरोहिती या धार्मिक कार्य ही में लगे रहते थे।

अवध प्रांत की नेपाली पर्वतों की तराई में कनौज में एक दूसरा बड़ा भारी हिंदू वंश उत्पन्न हुआ, अथवा कम से कम उस समय शक्‍ति संपन्न हुआ। उस वंश के राजे बुद्धधर्म को नहीं मानते थे और वे लोग बिलकुल ही हिंदू और संभवत: ब्राह्मण थे। कम से कम यह तो निश्‍चित ही हैं कि उन्होंने बहुसंख्यक ब्राह्मणों को बौद्धों द्वारा सताए जाने से बचाया। क्योंकि उत्तर भारत के ब्राह्मणों के बड़े-बड़े दलों में से एक दल कनौजिया भी है। उन लोगों को भूमि दी गई और वे लोग कृषक हो गए, जैसा कि बहुत से अब तक वैसे ही पाए जाते हैं। दूसरे लोग कनौजिया ब्राह्मणों को अति उत्तम या सच्चे दर्जे के नहीं मानते। वे लोग मुश्किल से पुरोहिती करते हैं, और बहुतेरे उनमें से युद्ध का काम करते हैं। संभवत: वे लोग शारीरिक बनावट में सबसे अच्छे और सच्चे आर्यों के सदृश होते हैं।’

आनरेब्ल माउंट स्टुअर्ट एल्फिन्स्टन (Mount Stuart Elephinston) ने अपनी 'हिस्ट्री ऑफ इंडिया' (History of India) के 111वें पृष्ठ में लिखा है कि : “A strict Brahmin performing his full ceremonies, would still be occupied for not less than four hours in the day. But even a Brahman, if engaged in worldly affairs, may perform all his religious duties within half an hour. Of the eighty four Gurus (or spiritual chiefs) of the sect of Ramanuja, for instance, seventy nine were secular Brahmins.”

अर्थ यह है कि ‘कट्टर ब्राह्मण अपने धार्मिक कार्यों के करने में अब भी प्रतिदिन चार घंटे से कम न लगा रहेगा। लेकिन तो भी जो ब्राह्मण सांसारिक कार्यों में लगा रहता है वह आधा घंटे में ही अपने धार्मिक कार्यों को कर डालता हैं। दृष्टांत के लिए रामानुज सम्प्रदाय के 84 गुरुओं में से 79 केवल दुनियाबी (सांसारिक) ब्राह्मण थे, अर्थात पुरोहित दल के न थे।’

हिंदुस्तान के 'इम्पीरियल गजेटियर' (The Imperial Gazetteer of India), जो आक्सफोर्ड-क्लेरेंडन प्रेस (Oxford Clarendon Press) में छपा हैं, के द्वितीय भाग के 315वें पृष्ठ में इस प्रकार लिखा है :

The eleventh and tweilveth centuries were the Golden age of the new civilization. That civilization was founded partly on the theocracy; partly on military despotism. The Brahmans were divine by birth. They sometimes degind to hold the highest offices of state, but their special business was the pursuits of literature, science and philosophy; and the Rajput courts vied with each other in the patronage of learning, Brahmans of low rank were the spiritual guides (purohits) of the people and even they condescended to act as the priest of the more respectable and popular deities.

अर्थ यह है कि ‘ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दियाँ (सदियाँ) नवीन सभ्यता के सत्ययुग थीं। वह सभ्यता कुछ तो दैविक शक्‍ति और कुछ नवीन सैनिक अत्याचार पर निर्भर थी। ब्राह्मण जन्म से ही देवता माने जाते थे। वे लोग कभी-कभी राज्य के सबसे ऊँचे दर्जे पर भी रहते थे, लेकिन उनका प्रधान काम साहित्य, विज्ञान और दर्शनों का पढ़ना था। विद्या की अभिभावकता या प्रभुत्व के लिए राजपूत दरबार परस्पर चढ़ा-बढ़ी किया करते थे। हीन दर्जे के ब्राह्मण ही लोगों के पुरोहित हुआ करते और प्रसिद्ध-प्रसिद्ध सर्वप्रिय देवताओं के पुजारी भी हुआ करते थे।’

बस, अब हम वैदेशिक विद्वानों या अंग्रेजी लेखकों के बहुत से वचन लिख कर ग्रन्थ विस्तार करना उचित नहीं समझते। पाठकों को इतने ही से पता चल गया होगा कि उन लोगों की सम्मतियाँ इन ब्राह्मणों के विषय में किनती अनुकूल हैं और यह भी पता लग गया होगा कि यह अयाचक ब्राह्मण समाज के विषय में जो कुछ मिथ्या आक्षेप इस देश या अन्य देश के लोगों ने किए हैं, उनका खण्डन भी उन्हीं लोगों ने कर के इस बात में 'मियाँ की जूती और मियाँ का ही सिर' वाली कहावत चरितार्थ कर दी है, जिसके लिए अब पृथक यत्‍न करने की आवश्यकता ही न रह गई। साथ ही, यह भी विदित हो गया कि इस देश के कोई-कोई बाबू लोग जो किसी अंग्रेजी विद्वान के लेख के एक अंश को ले कर इस ब्राह्मण समाज पर आक्षेप कर बैठते हैं वे कितनी भूल करते हैं क्योंकि ऐसे कोई भी आक्षेप नहीं हैं जिनका खण्डन उसी अंग्रेज विद्वान या अन्य विद्वानों ने न किया हो। अत: ऐसे साहसियों को अब इस ग्रन्थांजन से अपने ज्ञानचक्षु को निर्मल कर लेना और करने का उद्योग करना चाहिए, जिससे भविष्य में ऐसा ही साहस करने से पश्‍चाताप और निंदा का भागी न होना पड़े। अन्त के वाक्यों ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि पुरोहिती करना हीन ब्राह्मणों का ही काम है और था, न कि श्रेष्ठ और प्रतिष्ठितों का, जैसा कि सभी लोग समझते थे और समझते हैं।

अब सभी विद्वन्मंडली से बद्धांजलि यही प्रार्थना है कि जो कुछ बातें इस द्वितीय 'कंटकोद्धार' नामक परिच्छेद में किसी के वाक्यों के खण्डन-मण्डन रूप से कही गई है। उनका निष्पक्षपात भाव से परिशीलन कर हंसवत नीर-क्षीर का विवेक करें और साथ ही यह भी ध्यान रखें कि ये बातें उन विपरीत लेखकों या अन्य समाज पर आपेक्ष दृष्टि से नहीं लिखी गई है, किंतु केवल अपने पक्ष की परिपुष्टि के लिए। जैसा कि मीमांसा भाष्कार श्री शबर स्वामी ने कहा है कि 'नहि निंदा निंद्‍य' 'निन्दयितु' प्र्रवत्ताते, किंतु 'निंदितादितरत्प्रशंसयितुम्'। अर्थात किसी की निंदा ग्रन्थों में इसलिए नहीं की जाती है कि वह वास्तव में निंद्‍य समझा जावे। किंतु निंदित वस्तु से भिन्न वस्तु की प्रशंसा के लिए निंदा हुआ करती है'। इसलिए इसे आक्षेप समझ कर व्यर्थ किसी को दुखी न होना चाहिए। क्योंकि किसी का दिल नाहक ही दुखाना हमें इष्ट नहीं हैं। और यदि कहीं आपातत: आक्षेप प्रतीत हो तो वह प्रसंगवश दूसरे लोगों की राय ही होगी, न कि हमारा स्वतन्त्र लेख होगा।

उपसंहार में उस विश्‍व व्यापक अन्तर्यामी से यही प्रार्थना हैं कि वह अपनी नैसर्गिक अनुकंपा सलिल से लोगों की बुद्धि के कालुष्य का संक्षालन कर दे, जिससे लोग स्वाभाविक रागद्वेष रहित हो और परस्पर भातृभाव की अभिवृद्धि करें। साथ ही, लकीर के झूठे फकीर न हो तथ्यातथ्य का विचार करें, निष्पक्षपातभाव का आदर करना सीखें, हमारे इस केवल परोपकारार्थ परिश्रम से लाभ उठाने का यत्‍न करें और लाभ उठावें। और इन अयाचक दलीय ब्राह्मणों को भी ऐसी सुबुद्धि और जागृति को प्रदान करे कि ये लोग अपने वास्तविक पवित्र और सर्वोत्तम ब्राह्मण स्वरूप को पहचान कर उसके कर्मों में यत्‍नशील हो, कल्पित बाह्य आक्षेपों का मर्दन कर निर्द्वंद्व बनें और अपने आंतरिक छिद्रों को ऐसा दूर करें कि उनका निशान भी न रहने पावे। जिससे इस प्रकार बाह्य कंटक और आंतरिक छिद्रों के हटा देने से स्थायी गुणवान हो इस लोक और परलोक में देववत पूजित और प्रतिष्ठित हो।

इतिश्री ब्रह्मर्षिवंशविस्तरे कण्टकोद्धारो नाम द्वितीयं प्रकरणम्।

पूर्व परिशिष्ट

अहिंसैकपरा नित्यमप्रतिग्राहिणस्तथा।

सत्रिणो दाननिरता ब्राह्मणा: पंक्‍तिपावना:। - बृ. उशना:।

1 - स्फुट प्रश्‍न समालोचना

यद्यपि पूर्व के दो प्रकरणों में युक्‍ति और प्रमाणों द्वारा ब्राह्मणों का वास्तविक स्वरूप और धर्मों के प्रदर्शन कर देने, याचक और अयाचक दलवाले ब्राह्मणों का परस्पर प्रसिद्ध विवाह सम्बन्ध एवं खान-पान दिखला देने और अज्ञान तथा द्वेषमूलक अयाचक ब्राह्मणों के ऊपर किए गए निर्मूल अतएव मिथ्या आक्षेपों को विविध उपायों द्वारा विधिवत निर्मूल कर देने से अयाचक ब्राह्मणों का सर्वोत्तम और शास्त्र सिद्ध वास्तविक स्वरूप अच्छी तरह विदित ही हो गया। अत: अब कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। तथापि दो-एक प्रसिद्धतर प्रश्नों की मीमांसा करते और बंगदेशीय कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में से दो-चार प्रसिद्ध घरों के साथ भी विवाह सम्बन्ध दिखलाते हुए अत्यंतोपयोगी और नित्य कर्तव्य संध्योपासन एवं श्राद्धादि विषयों की आवश्यकता और उनमें भोजन कराने योग्य ब्राह्मणों का निरूपण कर के इस ग्रन्थ को संपूर्ण करना है। इसीलिए थोड़ा सा यह यत्‍न और भी कर दिया जाता है। यद्यपि जिन प्रश्नों की मीमांसा यहाँ की जावेगी उनकी भी सामान्य रूप से प्रथम ही आलोचना हो चुकी है, तथापि वे बहुत प्रसिद्ध या प्रचलित हैं, इसीलिए उनका विशेष रूप से विचार किया जाता है।

प्रथम और सबसे प्रचलित प्रश्‍न तो यह है कि जब कभी और जहाँ कहीं भी ब्राह्मणों के स्वरूप या धर्म का विचार उपस्थित होता है, वहाँ लोग झट से यह कह बैठते हैं कि अजी साहब! जैसी कान्यकुब्ज और सर्यूपारी आदि ब्राह्मणों की उत्पत्ति शास्त्रों में मिलती है, एवं क्षत्रिय वगैरह की भी, वैसी भूमिहार आदि ब्राह्मणों की उत्पत्ति का तो कहीं भी पता नहीं है, फिर यदि इनके विषय में कुकल्पनाएँ न हों तो और हो क्या? और यदि आप इनके विषय में किसी प्रकार का दावा करते हैं तो बस, इनकी उत्पत्ति कहीं दिखला दीजिए, हम आपकी सब बातें मानने को तैयार हैं। इस पर यदि उन लोगों से यह कहा जावे कि अच्छा, तो फिर प्रथम आप ही बतलाइए कि कान्यकुब्ज, सर्यूपारी या गौड़ आदि की उत्पत्ति कहाँ लिखी है? तो वे लोग झटपट बोल बैठते हैं कि 'ब्राह्मणस्य मुखमासीत्' इस वेद मन्त्र, 'लोकानां तु विवृद्धयर्थं मुख बाहूरुपादत:। ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निर्रवत्तायत्'। इस मनुवाक्य और समस्त पुराणों में ही लिखी है। इसमें पूछने की क्या बात है? परंतु विचारने की बात है कि जिन वचनों का नाम ऊपर लिया गया है, उनमें केवल ब्राह्मण शब्द ही आया है, न कि कान्यकुब्ज या गौड़ आदि शब्द आए हैं। वहाँ 'कान्यकुब्जोस्य मुखमासीत्' 'गोडोस्य मुखमासीत्' ऐसा तो लिखा हुआ है नहीं। अब यह देखना चाहिए कि उस ब्राह्मण शब्द से कान्यकुब्ज या गौड़ आदि ब्राह्मण ही लिए जावेंगे और भूमिहार, त्यागी, पश्‍चिम आदि ब्राह्मण नहीं, इसमें प्रमाण ही क्या है? क्या इसकी कोई रजिस्टरी या हुलिया उनके पास खासतौर पर है कि वहाँ ब्राह्मण शब्द उन्हीं का वाचक है, कि त्यागी आदि ब्राह्मणों का भी? यह अंधा पक्षपात या मिथ्या अभिनिवेश नहीं हैं तो और है क्या?

दूसरी बात यह है कि जब कान्यकुब्ज लोग स्वयं ही इस बात को स्वीकार करते हैं कि काश्यप गोत्रवाले सभी कान्यकुब्ज मदारपुर के अधिपति भूमिहार ब्राह्मणों के ही वंशज हैं और उन काश्यप गोत्रवाले कान्यकुब्जों का खानपान या विवाह सम्बन्ध सभी गोत्रवाले कान्यकुब्जों से से होता है और सर्यूपारी लोग भी उन्हीं कान्यकुब्जों की एक शाखा अपने को स्वीकार करते हैं। तो फिर हमारा इस विषय में केवल इतना ही वक्‍तव्य है कि आप सर्यूपारी या कान्यकुब्ज ही अपनी-अपनी उत्पत्तियाँ बतलावें, उसी से भूमिहार आदि ब्राह्मणों की उत्पत्ति का भी पता चल जावेगा, क्योंकि वे लोग भूमिहार ब्राह्मणों के ही वंशज है। अथवा संक्षेपत: इस उत्पत्तिवाले प्रश्‍न का यही उत्तर है कि भूमिहार आदि ब्राह्मण कान्यकुब्ज आदि ब्राह्मणों के पिता या पूर्वज हैं। जैसी कि उनकी राय और सिंह वगैरह पदवियाँ दूबे और चौबे आदि पदवियों की जन्मानेवाली प्रथम ही सिद्ध की गई है। कान्यकुब्ज और भूमिहार आदि शब्दों का विचार करते हुए यह बात प्रथम प्रकरण में ही सविस्तार वर्णित है। अत: इसका विशेष ज्ञान वहीं से प्राप्त कर लेना चाहिए।

दूसरा प्रश्‍न हुआ करता है कि यदि दान लेना ब्राह्मणों का धर्म नहीं है, तो भूमिहार ब्राह्मण कन्यादान को क्यों स्वीकार करते हैं? वाह! वाह! क्या ही अच्छा प्रश्‍न है! हमने यह कब कहा है कि दान लेना सर्वथा ही ब्राह्मणों का धर्म नहीं है? किंतु उसे केवल आपद्धर्म बतलाया है, जिसका तात्पर्य यह है कि जब जिस दान ग्रहण किए बिना काम किसी प्रकार भी चल नहीं सकता, तो उस समय उसका स्वीकार ब्राह्मण कर सकता है। और कन्यादान के स्वीकार किए बिना किसी प्रकार भी काम नहीं चल सकता, प्रत्युत वंश या संसार का ही उच्छेद हो जावेगा और महान उत्पात मच जावेगा। इसलिए अगत्या उसके करने की शास्त्र ने भी आज्ञा दी है। परंतु वह भी हमारी इच्छा पर निर्भर है, चाहे हम उसे ले या न। दूसरी बात यह है कि हम सामान्य रूप से दान का निषेध करते हैं, न कि नाम ले कर एक-एक का। ऐसी दशा में यदि कोई विशेष वचन किसी कन्यादान आदि विशेष दान के स्वीकार की आज्ञा देता है तो उससे उस सामान्य निषेध का विशेष अंश में संकोच हो कर यह तात्पर्य सिद्ध होगा, कि कन्यादानादि से भिन्न दानों का स्वीकार शास्त्र निषिद्ध है, क्योंकि सामान्य शास्त्र को विशेष शास्त्र बाँध लेता है। न कि उस कन्यादान स्वीकारवाले शास्त्र के विशेष वचन के बल से सभी दानों का ग्रहण करना सिद्ध हो जावेगा। यदि ऐसा होने लगे तो फिर शास्त्रों में बड़ा ऊधम मच जावेगा और 'मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि' अर्थात किसी भी प्राणी की हिंसा न करें।' यह जो वचन सामान्यत: सभी हिंसाओं का निषेध करता है, उसके विरोधी 'अग्नीषोमीयं पशुमालभेत' अर्थात 'अग्नीषोमीय याग में पशु की हिंसा (वा स्पर्श) करना चाहिए' इस वचन के होने से उस सामान्य वचन का संपूर्ण बोध होने पर सभी प्रकार की हिंसाएँ शास्त्र विहित हो जावेंगी। इसीलिए भगवान पतंजलि ने महाभाष्य में कहा है कि :

प्रकल्प्य चापवादिविषयं तत उत्सर्गो निविशते।

इसका तात्पर्य वही है जो पूर्व दिखला चुके हैं कि विशेष वचन के होने पर सामान्य शास्त्र का विशेष अंश में संकोच हो जाया करता है। बड़ी खूबी तो इस प्रश्‍न में यह है कि जिस कन्यादान के स्वीकार से आप लोग दान लेना ब्राह्मणों का उच्च धर्म सिद्ध किया चाहते हैं, उसे ब्राह्मण से ले कर चांडाल पर्यंत सभी करते हैं। तो फिर क्या आपकी इस दलील के अनुसार चांडाल पर्यंत सभी जातियों को दान ग्रहण करना चाहिए? तो फिर आप इस युक्‍ति से इतना भी कदापि सिद्ध नहीं कर सकते कि जो दान न ले वह श्रेष्ठ ब्राह्मण ही नहीं हैं।

तीसरा प्रश्‍न यह किया जाता है कि जैसे अन्य जातीय याचक, भिक्षु या पुरोहित दलवाले ब्राह्मणों को पूजते या प्रणाम करते हैं, वैसे ही आपके अयाचक या भूमिहार आदि ब्राह्मण भी किया करते हैं। तो फिर इनके विषय में संदेह या कुकल्पनाएँ क्यों न हों? परंतु इस प्रश्‍न को भी सुन कर हँसी आती है क्योंकि यदि इसी दलील के अनुसार अयाचक ब्राह्मणों के विषय में संदेह किया जावे अथवा वे ब्राह्मण ही समझे न जावें, तो फिर सभी ब्राह्मण कहलाने वालों को अपनी ब्राह्मणता का बाजी दावा लिखना या उससे हाथ धोना पड़ेगा। क्योंकि ऐसा प्रश्‍न करनेवाला जो ही याचक दलवाला ब्राह्मण होगा वही अपने गुरु या पुरोहित को वैसे ही प्रणाम करता, या उनकी पूजा करता होगा जैसे कि अयाचक ब्राह्मण किया करते हैं। क्योंकि गुरु या पुरोहित तो सभी के हुआ करते हैं। तो फिर वह याचक दलवाला ब्राह्मण भी इसी दलील के मुताबिक ब्राह्मण न ठहरा। इसी प्रकार उसके गुरु या पुरोहित के भी गुरु और पुरोहित होंगे और फिर उनके भी वैसे ही होंगे और वे लोग भी अपने-अपने गुरुओं और पुरोहितों के पूजन और प्रणाम करने से ब्राह्मण न ठहरे। इसका अन्त में नतीजा यह निकलेगा कि कोई भी ब्राह्मण सिद्ध न हो सकेगा। यह तो वही 'सूद के लिए मूल के भी गँवाने' वाली बात हुई।

बात तो असल यह है कि अधिकतर अयाचक ब्राह्मण तो पुरोहिती वगैरह करते ही नहीं। ऐसी दशा में अगत्या याचक ब्राह्मणों को पुरोहित वगैरह बना कर यदि अयाचक ब्राह्मण उन्हें प्रणाम आदि करते हैं तो इसमें हानि ही क्या है? यदि कोई ऐसा कहने का साहस करे कि सभी अयाचक ब्राह्मण सभी याचक ब्राह्मणों को प्रणाम आदि करते हैं, तो यह बात कभी भी मानी नहीं जा सकती। जैसा कि प्रथम ही कह चुके हैं कि ऐसे-ऐसे अयाचक दलीय ब्राह्मण वंश पड़े हुए हैं जिन्हें याचक दलवाले प्रथम ही प्रणाम करते हैं। यहाँ तक कि उस दल के राजे-महाराजे भी प्रणाम करते और पत्र वगैरह में भी लिखा करते हैं। इसके लिए प्रमाण स्वरूप बहुत से पत्र और व्यवस्थाएँ प्रथम ही प्रकरण में प्रदर्शित कर दी गई है। जिन्हें इस बात का आग्रह हो उन्हें हम ऐसे-ऐसे लाखों दृष्टांत दिखला सकते हैं। यदि कहीं-कहीं पुरोहितादि से भिन्न याचक दलवालों को भी अयाचक ब्राह्मण लोग प्रणाम करते हों, तो इससे भी पुरोहित दलवालों की उत्तमता सिद्ध नहीं हो सकती, किंतु इसका कुछ और ही कारण है। वह यह कि जिन गुरु या पुरोहित से भिन्न किसी-किसी याचक ब्राह्मणों को अयाचक ब्राह्मण कहीं-कहीं प्रणाम कर देते हैं, उनके पूर्वज प्रथम बड़े-बड़े तपस्वी और शास्त्रज्ञ थे। जिससे 'विप्राणां ज्ञानतो ज्यैष्ठयम्' अर्थात ब्राह्मणों में अधिक ज्ञानवाला ही ज्येष्ठ समझा जाता है, न कि अधिक अवस्था वाला' इस मनुवचन के अनुसार उन्हें ज्येष्ठ समझ कर गुरु या पुरोहित न होने पर भी अयाचक ब्राह्मणों के पूर्वज प्रणाम कर दिया करते थे। जैसा कि करना उचित ही है और याचक दलवाले भी किया करते थे और करते भी हैं। परंतु सभी घुरहू कतवारू को आँख मूँद कर प्रणाम न तो याचक ही और न अयाचक ही किया करते थे, या किया करते हैं। काल पा कर यद्यपि उनके वंशजों में वह योग्यता न भी रह गई जिससे उन्हें प्रणाम करना उचित था, परंतु लोक तो अन्धपरम्परा है। जो बात एक बार चल पड़ी उसे रोकना सहज नहीं हैं, जैसाकि नीतिकारों ने कहा है कि :

गतानुगति को लोको न लोक: पारमार्थिक:।

अर्थात ‘संसार अन्धपरम्परा की तरह देखा-देखी किया करता है न कि सच्ची या झूठी, अथवा योग्य, अयोग्य, बातों का विचार किया करता है।’ इसीलिए अब तक उनके वंशजों को कहीं-कहीं लोग प्रणाम कर दिया करते हैं। इसके लिए दृढ़तर प्रमाण एक तो याचकों का आचरण ही हैं और दूसरा यह है - जैसा कि सभी लोग जानते और देखते हैं कि प्राय: प्रत्येक गाँवों में जो गोसाईं हुआ करते हैं, जिन्हें लोग घरबारी गोसाईं या अतीथ कहा करते हैं और जिनके लड़केवाले भी होते हैं उन्हें प्राय: सभी जाति के लोग जहाँ-तहाँ 'नमो नारायन बाबा!' कह कर प्रणाम करते हैं। परंतु यदि विचार दृष्टि से देखा जावे तो वास्तव में वे किसी के प्रणाम के योग्य नहीं है, क्योंकि जैसा कि लिखा है कि जो संन्यासी हो कर स्त्री रख लेता या विवाह कर लेता है, वह और उसके वंशज पतित हो जाते हैं। वे वचन इस प्रकार है :

चाण्डाला: प्रत्यवसिता: परिव्राजकतापसा:।

तेषां जातान्यपत्यानि चाण्डालै: सह वासयेत्। द.। 4। 20॥

येतुप्रव्रजितापत्या याचैषांवोजसंतति:।

विदुरानामचाण्डाला जायन्तेनात्रासंशय:। अ.। 35। 165॥

यस्तु प्रव्रजिताज्जातो ब्राह्मण्यांशूद्रतश्यच:।

द्वावेतौ विद्धि चाण्डालौ सगोत्राद्यस्तु जायते। ग.। 42। 21॥

अर्थात ‘दक्षस्मृति का वचन है और अग्निपुराण में भी लिखा है कि जो चांडाल, अन्य के छूने के अयोग्य, संन्यासी और तपस्वी (वानप्रस्थ) है, इन चारों के लड़के बराबर ही होते हैं। अत: उन्हें चांडालों के साथ ही रखना या खाना-पीना चाहिए। जो लोग संन्यास ले कर स्त्री से भोग करते हैं और उससे जो लड़के उत्पन्न होते हैं वे सभी विदुर नामवाले चाण्डाल होते हैं इसमें संशय नहीं हैं। गरुड़ पुराण के प्रेतखण्ड में लिखा है कि जो संन्यासी से जन्मा हो, जो ब्राह्मण में शूद्र के वीर्य से पैदा हो, जो सगोत्र में ब्याह से पैदा हो उन्हें चांडाल जानो।’ अग्निपुराणवाला ही श्‍लोक अत्रिस्मृति के 8 वें अध्याय का 18 वाँ है। इसीलिए इन लोगों का यात्रा वगैरह में दर्शन निषिद्ध मानते हैं। न कि संन्यासी (दंडी) का दर्शन निषिद्ध है क्योंकि वह तो नारायण स्वरूप है। जैसा कि लिखा है कि :

दंडग्रहणमात्रोण नरोनारायणो भवेत्।

अर्थात ‘ब्राह्मण दंड धारण करने से ही नारायण स्वरूप हो जाता है।’ और नारायण का दर्शन सिवाय मंगल के अमंगल हो सकता नहीं। अस्तु, फिर भी लोग उन्हें प्रणाम करते ही हैं। इसका कारण यह है कि इन गोसाइयों के पूर्वज प्रथम सच्चे संन्यासी थे। इसी से लोग उन्हें 'ओम नमोनारायणाय' कह कर प्रणाम किया करते थे। परंतु यद्यपि काल पा कर वे या उनके बाद के जो साधु (संन्यासी) उस स्थान पर रहते थे; वे भ्रष्ट भी हो गए और स्त्री-लड़केवाले हो गए। परंतु लोग वही पुरानी लकीर के फकीर हो कर अब तक वैसे ही प्रणाम करते चले आते हैं, और वही 'ओम नमोनारायणाय' बिगड़ कर 'नमोनरायन बाबा!' हो गया। तो क्या इतना होते रहने पर भी वे गोसाईं वास्तव में उन प्रणाम करने वालों से श्रेष्ठ हो सकते हैं? बस, यही दशा अन्य याचक ब्राह्मणों की भी समझ कर संतोष कर लीजिए।

चौथा प्रश्‍न जो प्राय: हुआ करता है कि यदि अयाचक ब्राह्मण लोग उत्तम ब्राह्मण हैं तो फिर दान ले कर क्यों नहीं पचा लेते? परंतु यह भी निरी अनभिज्ञता को प्रकट करता है। क्योंकि दान ले कर हज्म करना तो प्राय: श्रेष्ठ ब्राह्मणों का कर्म है ही नहीं, प्रत्युत वे लोग उसे निंदित कर्म ही समझते हैं, यह बात प्रथम ही सिद्ध की जा चुकी है। और यदि वास्तव में पूछा जावे तो जो याचक ब्राह्मण दान ले कर हज्म करने का अभिमानवाले हैं वे भी यह नहीं समझते कि वे लोग दान ले कर उसे हज्म कर लेते हैं अथवा अपनी हज्म करनेवाली शक्‍ति का कुछ भी विचार न कर इतना दान ले रहे हैं कि जिससे उन्हें बदहजमी हो रही है और अन्त में पेट के फट जाने से मर जावेंगे। अर्थात उन्हें परलोक में नरकवासी होना होगा। क्योंकि प्रथम ही यह सिद्ध कर चुके हैं कि बिना तप करने और वेद पढ़नेवाले के जो दूसरा ब्राह्मण प्रतिग्रह की इच्छा भी करता है वह दान को ले कर ही पत्थर की नाव की तरह डूब जाता है। जैसा कि मनु भगवान ने कह दिया है कि :

अतपास्त्वनधीयान: प्रतिग्रहरुचिर्द्विज:।

अम्भस्यश्मप्लवेनेव सह तेनैव मज्जति॥

तो फिर कैसे कहा जा सकता है कि आजकल के निरक्षर भट्टाचार्य लोग दान को हज्म करनेवाले हैं? किंतु हार कर यही मानना पड़ेगा कि उन्हें बदहजमी हो रही है। परंतु अयाचक ब्राह्मण लोग तो प्राय: कीचड़ में पाँव डाल कर पीछे से धोना और बदहजमी से तंग होना नापसंद करते थे और करते हैं, क्योंकि बुद्धिमान उसे ही कहते हैं जो कभी हीन कार्य न करे। यदि दान को हज्म करने के ही अभिमान से आप श्रेष्ठ बनने की डींग हाँकते हैं, तो फिर महापात्र या महाब्राह्मण तो आपसे भी श्रेष्ठ सिद्ध हो जावेंगे, क्योंकि जिस शय्यादान आदि को आप भी हज्म नहीं कर सकते, उसे वे पचा जाने का दावा करते हैं। इतना ही क्यों? शायद आपकी इस दलील के मुताबिक चांडाल सभी ब्राह्मणों से अथवा सारे संसार से श्रेष्ठ ठहर गया, क्योंकि जिस ग्रहण काल के दान को आप लोग कोई भी पचाने की शक्‍ति नहीं रखते, उसे वह हाँक दे कर पचाने का दावा रखता है। इसलिए ऐसे-ऐसे प्रश्नों की चर्चा भी नहीं करनी चाहिए, प्रश्नों से दूर रहें, नहीं तो लेने के देने पड़ जावेंगे। ये सब प्रश्न अत्यन्त प्रसिद्ध है, अत: इनका स्वतन्त्र विचार कर दिया। ब्राह्मण तो दस प्रकार के ही हैं, ग्यारहवें कहाँ से आ गए? इसका तो उत्तर हो ही चुका है कि अयाचक ब्राह्मण दशविधा ब्राह्मणों से बाहर है नहीं। इसके अतिरिक्‍त 'सारस्वता: कान्यकुब्जा:' इत्यादि श्‍लोक आधुनिक है। क्योंकि वे जितनी जगह मिलते हैं उतने ही प्रकार से उलटा-पलटा लिखे हैं और किसी-किसी ने उनमें सर्यूपारी आदि पद घुसेड़ कर अन्य पद निकाल दिए हैं। जैसा कि पं. दुर्गादत्त के दिग्विजय और ब्राह्मणोत्पत्तिर्मात्तण्ड आदि से विदित है। यथा :

ब्राह्मणोत्पत्तिर्मात्तण्ड

कार्णाटकाश्‍च तैलंगा द्राविडा महाराष्ट्रका:।

गुर्जराश्‍चेति पंचैव द्राविडा विन्धयदक्षिणे॥ 16॥

सारस्वता: कान्यकुब्जा गौडा उत्कल मैथिला:।

पंच गौडा इतिख्याता विन्धयस्योत्तारवासिन:॥ 17॥ पृ. 3॥

त्रिहोत्राह्यग्निवैश्याश्‍चण् कान्यकुब्जा: कनौजिया:।

मैत्रायणा: पंचविधा एते गौड़ा: प्रकीर्त्तिता:। 3। पृ. 349॥

शैवब्राह्मणोत्पत्ति

सारस्वता: कान्यकुब्जा गौडाश्‍च मैथिलोत्कला:।

गौडा: पंच समाख्याता विन्धयस्योत्तारवासिन:॥ 23॥

महाराष्ट्रा द्राविडाश्‍च तैलंगा गुर्जरास्तथा।

कार्णाटा द्राविडा: पंच विन्धयदक्षिणवासिन:। 24। पृ. 12॥

पं. दुर्गादत्तदिग्वि

महाराष्ट्राश्‍च तैलंगा द्राविडा गुर्जरास्तथा।

कारणाटाश्‍च पंचैते दक्षिणात्या: प्रकीर्त्तिता:॥

सरय्वा: कान्यकुब्जाश्‍च सारस्वताश्‍च मैथिला:।

नागराश्‍चेति पंचैते पंच गोडा: प्रकीर्त्तिता:॥ पृ. 2॥

यदि शक्‍तिसंगमतन्त्र के भी होते तो उनकी ऐसी दुर्दशा न होती। अथवा उसमें मानने पर भी वह भी आधुनिक ही है। साथ ही, यदि दस प्रकार के ही ब्राह्मण माने जावेंगे तो सर्यूपारी, सनाढ्‍य जिझौतिया और बंगाली आदि ब्राह्मणों की क्या व्यवस्था होगी? वैसी ही यहाँ भी जान लीजिए। अवशिष्ट सब प्रश्नों या बातों का विचार तो अच्छी तरह से प्रथम ही किया जा चुका है।

2. वंगीय ब्राह्मण सम्बन्ध

अब कान्यकुब्ज तथा अन्य देशों से बंगाल में गए हुए प्रसिद्ध कान्यकुब्ज और सर्यूपारी ब्राह्मणों के साथ दो-एक भूमिहार ब्राह्मणों के विवाह सम्बन्ध दिखला देते हैं :

मुर्शिदाबाद - लालगोला के राजा साहब योगेंद्रनारायण राय गाजीपुर सुर्वत पाली से गए हुए हैं और कौशिक गोत्री भूमिहार ब्राह्मण हैं। उनकी पुत्री की शादी गाजीपुर-सुहवल निवासी श्री श्यामनारायण राय के पुत्र श्री सुरेंद्र राय एम.ए. से हुई थी और राजा साहब के दामाद श्री गिरीशनारायण राय के घर भी श्री श्याम नारायण का सम्बन्ध है। उक्‍त राजा साहब के दामाद श्री शरदिंदु नारायण राय और श्री द्विजेंद्र नारायण राय दो भाई मुर्शिदाबाद-जमुवाँ में रहते हैं। उन्हीं शरदिंदु नारायण राय की बहन का विवाह रिपन कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. रमेंद्र सुंदर द्विवेदी जी से हुआ था, जो जिझौतिया ब्राह्मण पुंडरीक गोत्र के थे। उक्‍त राजा साहब के राजकुमार श्री सत्येन्द्र नारायण राय और हेमेंद्र नारायण राय की लड़कियों से मुर्शिदाबाद-टेयाँ ग्रामवासी डॉ. नृसिंह प्रसाद द्विवेदी के पुत्रों की शादी हुई हैं, कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं। मुर्शिदाबाद-शेखअलीपुर में श्री शशिभूषण राय रहते हैं, जो सावर्ण्य गोत्रवाले भूमिहार ब्राह्मण बलिया के नरही ग्राम से गए हैं। उनकी शादी राजशाही जिले के हरग्राम के निवासी सर्यूपारी गर्ग गोत्रवाले श्री सुमेश्‍वर राय शुक्ल के यहाँ हुई हैं और उसी ग्राम में मालदह-सिंहाबाद के राजा साहब भैरवेंद्र नारायण राय की बहन का ब्याह श्री रामचंद्र शुक्ल के यहाँ हुआ है। राजा भैरवेंद्र नारायण राय किनवार ब्राह्मण गाजीपुर के सोनाड़ी से गए हैं। मुर्शिदाबाद-आलमशाही ग्राम निवासी सर्वेश्‍वर पांडे से पूर्वोक्‍त श्री शशिभूषण राय की बहन का विवाह हुआ है। बागडांडा निवासी श्री मानवेंद्र नारायण की बहन से जैसोर-वंदनपुर निवासी मन मोहन पांडे (मिनर्वा थिएटरवाले) का विवाह है और उनके भाई का विवाह मालदह-बुलबुल चंडी निवासी राजेंद्र बाबू की स्त्री की बहन से हुआ है। ये दोनों जमुवाँ पास खोसवासपुर निवासी श्री किष्टनाथ राय की कन्याएँ हैं। इत्यादि सहस्रों विवाह सम्बन्ध वहाँ भी प्रसिद्ध-प्रसिद्ध सर्यूपारियों, कनौजियों और जिझौतियों से हुए और होते हैं।

3. आवश्यक कर्तव्य

जैसे यह बात दिखलाई गई है कि गोसाईं लोगों को प्रणाम करना बहुत ही निंदित और अनुचित है। परंतु लोग अन्ध परम्परावश करते चले आते हैं और समझदार होने पर पीछे से भी छोड़ देते हैं। उसी तरह यह भी देखा जाता है कि बहुत से ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वंशों के आचार्य या मन्त्र देनेवाले (कान फूँकनेवाले) गुरु वे ही गोसाईं या निरक्षर भट्टाचार्य और दुराचारी याचक दलवाले ब्राह्मण उसी पूर्वोक्‍त अंधीपरम्परा के अनुसार चले आते हैं। परंतु उनको हटा कर अपने ही दल का गुरु बनाना चाहिए क्योंकि अब उनमें वह योग्यता न रह गई जो उनके पूर्वजों में थी। शास्त्रकारों का तो यहाँ तक कथन है कि यदि गुरुवंश या आचार्य वंश अपढ़ और दुराचारी हो गया हो तो उसे आगे के लिए ही नहीं छोड़ देना चाहिए, किंतु जिस समय ही उसके इन दुर्गुणों का पता लग जावे उसी समय उसे त्याग देना चाहिए। जैसा कि वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकांड में श्रीराम जी के प्रति लक्ष्मण जी ने कहा है कि :

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानत:।

उत्पथं प्रतिप्रन्नस्य शास्त्रौस्त्यागो विधीयते॥

अर्थात ‘गुरु भी यदि अभिमानी हो जावे, अपने कर्तव्य और अकर्तव्य को न जाने और शास्त्रनिंदित काम करता हो तो उसको दंडित करने और उसे त्याग देने की आज्ञा शास्त्रों में है।

पूर्व ग्रन्थ के अवलोकन से ब्राह्मणों का सच्चा स्वरूप और उनके धर्मों का यथावत ज्ञान हो गया और यह विदित हो गया कि उनका सच्चा स्वरूप वही है जो अयाचक नामधारी ब्राह्मणों का सदा से ही चला आता है। इसीलिए औशनसस्मृति में लिखा भी है कि :

अहिंसैकपरो नित्यमप्रतिग्राहिणस्तथा।

सत्रिणो दाननिरता: ब्राह्मणा: पंक्‍तिपावना:॥

अर्थात ‘जो ब्राह्मण हिंसा और प्रतिग्रह (दान लेने) से रहित हों और सत्र (यज्ञ) करनेवाले एवं दान देनेवाले हों, वे पंक्‍तिपावन कहलाते हैं, अर्थात जिस पंक्‍ति में बैठते हैं उसे पवित्र कर देते हैं।’ इसलिए हमारा वक्‍तव्य इन अयाचक ब्राह्मणों के स्वरूप या धर्म के विषय में कुछ नहीं रह गया, जिसके लिए विवाद या आकांक्षा हो। इसी से हम इन सब विषयों को अब यहाँ पर ही छोड़ कर ग्रन्थ के अन्त में ब्राह्मण आदि वर्णों के अत्यन्त उपयोगी और नित्य, अथवा नित्य नहीं तो बहुधा पड़नेवाले विषयों का कुछ संक्षेपत: निरूपण कर देते हैं। जिससे लोगों को अल्प श्रम से ही विशेष लाभ हो। मनु भगवान ने अपनी स्मृति के द्वितीय अध्याय में ब्राह्मण के जन्म से ले कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश में प्रथम के धर्मों को बतलाया है। ये संक्षेपत: वे हैं :

नामधोमं दशम्यां तु द्वादश्यां वास्य कारयेत्।

पुण्ये तिथौ मुहूर्ते वा नक्षत्रो वा गुणान्विते॥ 30॥

मंगल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्।

वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्॥ 31॥

शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्।

वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्॥ 32॥

ततश्‍च नाम कुर्वीत पिता वै दशमेऽहनि।

देवपूर्वं नराख्यं हि शर्मवर्मादिसंयुतम्॥ 3। 10। 8॥

शर्मवद्ब्राह्मणस्योक्तं वर्मेतिक्षत्रासंयुतम्।

गुप्तदासात्मकं प्रशस्तं वैश्यशूद्रयो:॥ 3। 10। 9।

चतुर्थे मासि कर्त्तव्यं शिशोर्निष्क्रमणं गृहात्।

षष्ठेऽन्नप्राशनं मासि यद्वेष्टं मंगलं कुले॥ 34॥

चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामेव धर्मत:।

प्रथमेऽब्दे तृतीये वा कर्त्तव्यं श्रुतिचोदनात्॥ 35॥

गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्।

गर्भादेशकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विश:॥ 36॥

ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पंचमे।

राज्ञो बलार्थिन: षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे॥ 37॥

आषोडशाद्ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते।

आद्वाविंशात् क्षत्राबंधोराचतुर्विंशतेविंश:॥ 38॥

अत ऊधर्वं त्रायोऽप्येते यथाकालमसंस्कृता:।

सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिता:॥ 39॥

नैतैरपूतैर्विधिवदापद्यपिहि कर्हिचित्।

ब्राह्मान्यौनांश्‍च सम्बन्धनाचरेद्ब्राह्मण: सह॥ 40॥

कार्ष्णरौरवबास्तानि चर्माणि ब्रह्मचारिण:।

वसीरन्नानुपरूव्येण शाणक्षौमाविकानि च॥ 41॥

मौंजी त्रिवृत्समा कार्याश्लक्ष्णा विप्रस्य मेखला।

क्षत्रियस्य तु मौर्वीज्या वैश्यस्य शणतान्तवी॥ 42॥

कार्पासमुपवीतंस्याद्विप्रस्योर्ध्ववृत्तां त्रिवृत्।

शणसूत्रमयं राज्ञो वैश्यस्याविकसौत्रिकम्॥ 44॥

ब्राह्मणो वैल्वल्पालाशौक्षत्रियोवाटखादिरौ।

पैलवौदुम्बरौ वैश्यो दण्डानर्हन्ति धर्मत:॥ 45॥

केशांतिकोब्राह्मणस्यदंड:कार्य: प्रमाणत:।

ललाटसम्मितो राज्ञ:स्यात्तु नासान्तिको विश:॥ 46॥

पिता पितामहा भ्राता ज्ञातयो गोत्रजाग्रजा:।

उपायनेऽधिकारीस्यात् पूर्वाभावे पर: पर:॥ वृद्धगर्ग॥

पितैवोपनयेत्पूर्वं तदभावे पितु: पिता।

तदभावे पितुर्भ्राता तदभावे तु सोदर:॥ वृद्धगर्ग॥

उपनीयगुरु:शिष्यंशिक्षयेच्छौचमादित:।

आचारमग्निकार्यं च संधयोपासनमेव च॥ 69॥

प्राक्कूलान्पर्युपासीन: पवित्रौश्‍चैपावित:।

प्राणायामैस्त्रिभि: पूतस्तत ओंकारमर्हति॥ 75॥

अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापति:।

वेदत्रायान्निरदुहद्भूर्भुव:स्वरितीति च॥ 76॥

त्रिभ्य एव तु वेदेभ्य:पादं पादमदूदुहत्।

तादिस्यृचोऽस्या:सावित्रया: परमेष्ठी प्रजापति:॥ 77॥

एतदक्षरमेतां च जपन्व्याहृतिपूर्विकाम्।

सन्ध्ययोर्वेदविद्विप्रो वेदपुण्येनयुज्यते॥ 78॥

सहस्रकृत्वस्त्वभ्यस्य बहिरेतत् त्रिकं द्विज:।

महतोऽप्येनसो मासात्तवचेवाहिर्विमुच्यते॥ 79॥

एतयर्चा विसंयुक्‍त: काले च क्रियया स्वया।

ब्रह्मक्षत्रियवडयोनिर्गर्हणां याति साधुषु॥ 80॥

ओंकारपूर्विकास्तिस्त्रो महाव्याहृतयोऽव्यया:।

त्रिपदा चैव सावित्री विज्ञेयं ब्रह्मणोमुखम्॥ 81॥

योऽधीतेऽहन्यहन्येतांस्त्रीणिवर्षाण्यतन्द्रित:।

स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूत:खमूर्तिमान॥ 82॥

एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायाम: परन्तप:।

सावित्रयास्तुपरंनास्तिमौनात्सत्यंविशिष्यते॥ 83॥

विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टोदशभिर्गुणै:।

उपां:शुस्याच्छतगुण: साहस्रोमनस: स्मृत:॥ 85॥

पूर्वांसंधयांजपंस्तिष्ठेत्सावित्रीमार्कदर्शनात्।

पश्‍चिमां तु समासीन:सम्यगृक्षविभावनात्॥ 101॥

पूर्वां सन्ध्यांजपंस्तिष्ठन्नैशमेनोव्यपोहति।

पश्‍चिमांतुसमासीनोमलंहंतिदिवाकृतम्॥ 102॥

नतिष्ठति तु य:पूर्वां नोपास्तेय श्‍च पश्‍चिमम्।

स शूद्रवद्बहिष्कार्य: सर्वस्माद्द्विजकर्मण:॥ 103॥

विप्रोवृक्षस्तस्यमूलंचसंध्यावेदा: शाखाधर्मकर्माणि

तस्मान्मूलंयत्‍नतोरक्षणीयंछिन्नेमूलेनैवशाखानपत्रम्। वि.।

शय्यासनेऽध्याचरिते श्रेयसानसमाविशेत्।

शय्यासनस्थश्‍चैवैनं प्रत्युत्थायाभिवादयेत्॥ 119॥

ऊर्घ्वंप्राणाह्युत्क्रामन्ति यून:स्थविर आयति।

प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान्प्रतिपद्यते॥ 120॥

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपिसेविन:।

चत्वारि सम्प्रवर्र्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्॥ 121॥

अकारश्‍चास्य नाम्नोन्ते वाच्य: पूर्वाक्षर: प्लुत:।

आयुष्मान्भव सौम्येति वाच्यो विप्रोऽभिवादने॥ 125॥

ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् क्षत्राबंधुमनामयम्।

वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च॥ 127॥

उपाध्यायान्दशाचार्यआचार्याणां शतं पिता।

सहस्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते॥ 145॥

न हायनैर्नपलितैर्न वित्तेन न बंधुभि:।

ऋषयश्‍चक्रिरे धर्मं योऽनूचान: स नो महान॥ 154॥

विप्राणां ज्ञानतोज्यैष्ठयं क्षत्रियणां तु वीर्यत:।

वैश्यानां धान्यघनत: शूद्राणामेव जन्मत:॥ 155॥

न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिर:।

यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवा:स्थविरंविदु:॥ 156॥

यथाकाष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग:।

यश्‍च विप्रोऽनधीयानस्त्रायस्ते नामविभ्रति॥ 157॥

यथा षण्ढोऽफल: स्त्रीषु यथा गौर्गविचाफला।

यथाचाज्ञेऽफलंदानं तथा विप्रोनृचोऽफल:॥ 158॥

वेदमेव सदाऽभ्यस्येत्तापस्तप्स्यन्द्विजोत्ताम:।

वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तप: परमिहोच्यते॥ 166॥

नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसन्निधौ।

गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनोभवेत्॥ 198॥

यं मातापितरौ क्लेशं सहेते संभवे नृणाम्।

न तस्य निष्कृति: शक्या कत्तरुं वर्षशतैरपि॥ 227॥

तयोर्नित्यं प्रियं कुर्यादाचार्यस्य च सर्वदा।

तेष्वेव त्रिषु तुष्टेषु तप: सर्वं समाप्यते॥ 228॥

सर्वे तस्यादृता धर्मा यस्यैंतेत्रयआदृता:।

अनादृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफला: क्रिया:॥ 234॥

इसका अनुवाद यह है कि ‘पुत्र के उत्पन्न होने के ग्यारहवें अथवा तेरहवें दिन उसका नाम रखें अथवा अच्छी तिथि, अच्छे मुहूर्त और शुभ नक्षत्र में उसके बाद भी जब चाहे तभी रखे। ब्राह्मण का नाम मंगल सूचक होना चाहिए। पुत्र का नाम पिता ही रखे और वह नाम पुरुष वाचक और आदि में देवताओं के नाम से युक्‍त हो जैसे सोम शर्मा आदि, न कि यमुना प्रसाद वगैरह। ब्राह्मण के नाम के अन्त में शर्मा पदवी, क्षत्रिय की वर्मा, वैश्य की गुप्त और शूद्र की दास पदवी होनी चाहिए। बच्चे को जन्मवाले (प्रसूति) गृह से चौथे मास में बाहर निकालना और छठे महीने में अन्न प्राशन (अन्न खिलाना) उचित है, अथवा जैसी कुल परम्परा हो वैसा ही करे। एक अथवा तीन वर्ष के होने पर बालक का मुंडन करवाना चाहिए। गर्भ के आठवें वर्ष ब्राह्मण का, ग्यारहवें वर्ष क्षत्रिय का और बारहवें वर्ष वैश्य का उपनयन संस्कार (यज्ञोपवीत वा जनेऊ) होना चाहिए। परंतु यदि ब्राह्मण को ब्रह्मतेज की, क्षत्रिय को बल की और वैश्य को धन की इच्छा हो तो क्रम से 5, 6 और 8 वर्षों में ही यज्ञोपवीत करे। जन्म से 16वें वर्ष तक भी ब्राह्मण का, 22वें तक क्षत्रिय का और 24वें तक वैश्य का यज्ञोपवीत कर देने से वे पतित नहीं हो सकते। परंतु इसके उपरांत बिना यज्ञोपवीत के वे लोग गायत्री पतित और सत्पुरुषों द्वारा निंदित होते और व्रात्य कहलाते हैं। ये लोग प्रायश्‍चित्त¹ कर के फिर संस्कार और यज्ञोपवीत द्वारा

¹ व्रात्य लोगों के लिए प्रायश्‍चित्त मनुस्मृति के ग्यारहवें अध्याय में इस प्रकार लिखा हुआ है:-

येषां द्विजानां सावित्री नानूच्येत यिथाविधि।

तांश्‍चारयित्वात्रीन्कृछान यथाविध्युपनाययेत्॥ 191॥

अर्थात ‘जिन लोगों के संस्कार ठीक समय पर न होने से वे व्रात्य हो गए हों, उनसे तीन कृछ (प्राजापत्य) व्रत करवा कर पुन: विधिवत् उनके यज्ञोपवीत करवावे।

प्राजापत्य का स्वरूप मनु भगवान ने स्वयं आगे बतलाया है:-

त्रयहं प्रातस्त्रायहं सायं त्रयहमद्यादयाचितम्।

त्रयहं परंच नाश्नीयात् प्राजापत्यं चरन्द्विज:॥ 211॥

अर्थात ‘प्रथम तीन दिन तक दिन में, बाद तीन दिन तक रात्रि में और फिर तीन दिन तक बिना माँगे किसी समय मिलने पर एक बार भोजन करे और फिर तीन दिन तक भूखा ही रहे तो एक प्राजापत्य (कृछ्) व्रत होता है।’

सायंद्वार्विंशतिर्ग्रासा: प्रात: षड्विंशतिस्तथा।

अयाचिते चतुर्विंशत् परं चानशनं स्मृतम्॥

कुक्कुटाण्डप्रमाणं च यावांश्‍च प्रविशेन्मुखम्।

एतं ग्रासं विजानीयात् शुद्धयर्थं ग्रासमात्मन:॥

हविष्यंचान्नमश्नीयाद्यथा रात्रौ तथा दिवा।

यदि पवित्र न किए जावे, तो ब्राह्मण इनके साथ खान-दान, पठन-पाठन और विवाह सम्बन्ध कभी भी न करें। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ब्रह्मचारियों को बिछाने के लिए क्रमश: कृष्णमृग, रुरुमृग, और बकरे के चर्म और पहनने के लिए सन, दुकूल और भेड़ी के बालों के कंबल रखने होते हैं। ब्राह्मण ब्रह्मचारी के लिए कमर में पहनने को तीन तागेवाली मूँज की मौंजी (मेखला) बनानी चाहिए, क्षत्रिय के लिए मूर्वा औषधि की धनुष की ताँत की तरह और वैश्य को सन की तीन तागेवाली। ब्राह्मण का जनेऊ रुई का, क्षत्रिय का सन का और वैश्य का भेड़ के बाल का होता है। ब्राह्मण के लिए बिल्व अथवा पलाश, क्षत्रिय को वट या खदिर और वैश्य के लिए (या गूलर के दंड बनाने चाहिए)। ब्राह्मण का दंड शिखा तक, क्षत्रिय का ललाट तक और वैश्य का नासिका तक होना चाहिए। यज्ञोपवीत काल में प्रथम तो पिता ही गायत्री का उपदेश करे, परंतु उनके न रहने पर पितामह, भाई, दायाद और गोत्रवाले क्रम से एक के न रहने पर दूसरे गायत्री का उपदेश करें। परंतु जब ये कोई भी न हो तो कुलीन ब्राह्मण ही करे। यज्ञोपवीत के बाद गुरु शौच, आचार, अग्निहोत्र और सन्ध्योपासन शिष्य को सिखलावे। कुशों का अग्रभाग पूर्व को कर के उन पर बैठे और कुशों से शरीर पर जल छिड़के और तीन प्राणायाम कर के पुन: ओंकार युक्‍त गायत्री का उच्चारण करे। ओंकार में जो 'अं', 'उ' और 'म' ये तीन अक्षर हैं उन्हें और भू:, भुव: और स्व: इन महाव्याहृतियों को परमात्मा ने क्रम से तीनों वेदों से मथ कर निकाला है। और गायत्री मन्त्र के 24 अक्षरों में से जो आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण हैं, उन्हें भी क्रम से तीनों वेदों से ही दुह कर भगवान से निकाला है। इसलिए ये सायं-प्रात:काल जो ब्राह्मण ओंकार, व्याहृति और गायत्री मन्त्र को मिला कर-ओं भूर्भुव:स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात - जप करता है उसे सब वेदों के पाठ करने का पुण्य मिलता है¹

¹ यद्यपि यह प्रमाण मिलता है :

ओंकार पूर्वमुच्चार्य भूर्भुव: स्वस्तथैवच।

अन्ते च प्रणवं दद्यादेतज्जपमुदाहृतम्॥

अर्थात ‘प्रथम ओंकार, फिर भूर्भुव: स्व: और उसके बाद 'तत्सवितु:' इत्यादि और अन्त में पुन: ओंकार लगा कर जप करना चाहिए।’ तथापि देवीभागवत में लिखा है कि :

सम्पुटैकषडोंकारा गायत्री त्रिविधा मता।

तत्रौकप्रणवा ग्राह्या गृहस्थैर्ब्रह्मचारिभि:॥

अर्थात ‘दो, छह और एक ओंकारवाला, इस प्रकार गायत्री मन्त्र तीन प्रकार का है। उनमें से गृहस्थ और ब्रह्मचारी को एक ओंकारवाले का अर्थात आदि में ही ओंकार लगा कर जप करना चाहिए।’ इस वचन के अनुसार दो ओंकार वाला वानप्रस्थ के लिए है, गृहस्थ और ब्रह्मचारी एक ही ओंकार लगावें, ऐसा ही प्रतीत होता है मनु जी की भी ऐसी सम्मति प्रतीत होती है।

अर्थात ‘आपस्तंब लिखते हैं कि दिन में 26, रात्रि में 22 और बिना माँगे 24 ग्रास खावे। ग्रास मुर्गी के अंडे भर के हो, अथवा मुख में जितना जा सके उतने बड़े हो। सर्वदा हविष्य (खीर वगैरह, भोजन करना चाहिए। किसी के मत से व्रात्यस्तोम भी प्रायश्‍चित्त के लिए करते हैं।’

एक मास तक ग्राम से बाहर एक हजार प्रतिदिन गायत्री जप करने से महापाप से भी आदमी वैसे ही छूट जाता है, जैसे सर्प केंचली से अलग हो जाता है। सायं-प्रात:काल जो द्विज इस गायत्री का जप और अग्निहोत्र आदि नहीं करता है उसको सत्पुरुष निंदित समझते हैं। ओंकार और तीन महाव्याहृतियों के सहित गायत्री मन्त्र परमात्मा का मुख हैं। जो ब्राह्मण इस पूर्वोक्‍त गायत्री का तीन वर्ष तक बराबर जप करता है वह स्वेच्छाविहारी और परमात्मा का स्वरूप हो जाता है। ओंकार परमात्मा का स्वरूप है, प्राणायाम से बढ़ कर तपस्या और गायत्री से बढ़ कर मन्त्र नहीं है और मौन रहने की अपेक्षा सत्य बोलना अच्छा है। सब यज्ञों की अपेक्षा बोल कर भी गायत्री या अन्य मन्त्र का जप करना दस गुना फल देता है, केवल ओष्ठ हिलते हुए जप करना सौगुना मन ते जप करना तो हजार गुना फल देनेवाला है। प्रात: काल में खड़ा हो कर तारे दीखते रहने से सूर्य के दीखने तक और सायंकाल में सूर्य दीखते रहने से तारे दीखने तक बैठ कर जप करे। प्रात:काल खड़े हो कर गायत्री जपने से रात्रि-भर भूल-चूकवाले पापों का, और सायंकाल बैठ कर जपने से दिनभर के ऐसे पापों का नाश हो जाता है। जो एक दिन भी प्रात: और सायं संध्या नहीं करता वह शूद्र की तरह किसी भी द्विज कर्मों का अधिकारी नहीं रहता है। ब्राह्मण रूप वृक्ष की जड़ संध्या, शाखा वेद और अन्य धर्म-कर्म पत्ते हैं, अत: संध्या रूप जड़ की यत्‍नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि जड़ के कटने पर शाखा और पत्ते एक भी नहीं रह सकते। अपने से श्रेष्ठ माता-पिता वगैरह के आने के समय छोटे लोगों के प्राणाम ऊपर को निकलते हैं, परंतु उठ कर उन बड़ों को प्रणाम करने से फिर शरीर में रह जाते हैं। माता-पिता आदि बड़ों के साथ अथवा उनके सामने आसन या खाट पर न बैठे और यदि बैठा भी हो तो उनके आने पर उठ कर उन्हें प्रणाम करे। जो वृद्ध जनों को नित्य प्रणाम और उनकी सेवा करते हैं उनकी आयु, विद्या, यश और बल बढ़ते हैं। अपने से छोटे ब्राह्मण को प्रणाम करने पर 'हे सौम्य आयुष्मानन्भव' ऐसा कहना चाहिए।

यदि समान अथवा अल्प अवस्थावाला विशेष अपरिचित कोई भी ब्राह्मण मिले तो उसे प्रणाम न कर 'कुशलम्?' ऐसा पूछे, क्षत्रिय को 'अनामयम्?', वैश्य को, 'क्षेमम्?' और शूद्र को 'आरोग्यम्?' ऐसा केवल पूछ भर ले। दस उपाध्याय के बराबर एक आचार्य, सौ आचार्य के बराबर एक पिता और हजार पिता के बराबर एक माता श्रेष्ठ है। अवस्था अधिक होने, बाल पकने और अधिक धन और बंधु वर्ग होने से ब्राह्मण श्रेष्ठ नहीं होता। किंतु जो भी वेदशास्त्र का ज्ञाता है वही श्रेष्ठ है। अधिक ज्ञानवाला ही ब्राह्मण, अधिक बलवाला क्षत्रिय, अधिक धनवाला वैश्य और अधिक अवस्थावाला शूद्र ही श्रेष्ठ माना जाता है। इसलिए बाल पकने से ही ब्राह्मण श्रेष्ठ नहीं होता। किंतु यदि अल्प अवस्थावाला भी वेदज्ञ हो तो वही श्रेष्ठ है। जैसे काठ का हाथी और चमड़े का मृग बेकार है, वैसे ही जो ब्राह्मण नहीं पढ़ता वह नाममात्र के ही लिए है। जैसे स्त्री के लिए नपुंसक पति, गाय के लिए गाय और मूर्ख को दान देना ये सब निष्फल है, वैसे ही वेद का न जाननेवाला ब्राह्मण ही निष्फल है। यदि ब्राह्मण को तप करना हो तो वह वेद का ही अभ्यास करे, क्योंकि उसके लिए वही महान तप है। ज्ञानोपदेश करनेवाले गुरु तथा श्रेष्ठजनों के सन्मुख नीचे पर बैठे। उनके सामने हाथ-पाँव फैला कर न बैठें। पुत्र के जन्म में माता-पिता को जो क्लेश होता है उसका उद्धार पुत्र से सैकड़ों वर्षों में भी नहीं हो सकता। माता, पिता और ज्ञानोपदेश करनेवाले गुरु के इच्छानुसार ही सदा काम करे, क्योंकि उनके प्रसन्न रहने से ही सब तपस्याओं का फल मिल जाते हैं। जो इन तीनों का आदर करता है, उसने सब धर्म कर लिए। परंतु जो इनका आदर करता है उसके सभी धर्म निष्फल हो जाते हैं।

इसके बाद भगवान मनु ने तृतीय अध्याय में इस प्रकार लिखा है :

असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितु:।

सा प्रशस्त्रा द्विजातिनां दारकर्मणि मैथुने॥ 5॥

महान्त्यपि समृद्धानि गीडजाविधनधान्यत:।

स्त्री संबन्धो दशैतानि कुलानि परिवर्जयेत्॥ 6॥

हीनक्रियं निष्पुरुषं निश्छन्दो रोमशार्शसम्।

क्षय्यामयाव्यपस्मारि श्‍वित्रिकुष्ठिकुलानि च॥ 7॥

आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्।

आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्म: प्रकीर्तित:॥ 27॥

न कन्याया: पिता विद्वान गृह्‍णीयाच्छुल्कमण्वपि।

गृहणंछुल्कं हि लोभेन स्यान्नरोऽपत्यविक्रयी॥ 51॥

स्त्रीधानानि तु ये मोहादुपजीवन्ति बान्धवा:।

नारीयानानि वस्त्रां वा ते पापायान्त्यधोगतिम्॥ 52॥

कुविवाहैं: क्रियालोपैर्वेदानध्यायनेन च।

कुलान्यकुलतां यान्ति ब्राह्मणातिक्रमेण च॥ 63॥

पंच सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्कर:।

कण्डनी चोदकुम्भश्‍च वध्यते यास्तुवाहयन॥ 68॥

तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभि:।

पंच क्लृप्ता महायज्ञा: प्रत्यहं गृहमेधिनाम्॥ 69॥

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ: पितृयज्ञस्तु तर्पणम्।

होमोदैवोबलिर्भौतोनृयज्ञोऽतिथिपूजनम्॥ 70॥

देवताऽतिथिभृत्यानां पितृणामात्मनश्‍च य:।

न निर्वपति पंचानामुच्छ्वसन्न स जीवति॥ 72॥

कुर्यादहरह: श्राद्धमन्नाद्येनोदकेन वा।

पयोमूलफलैर्वापि पितृभ्य:प्रीतिमावहन॥ 82॥

वैश्‍वदेवस्य सिद्धस्य गृह्येग्नौ विधिपूर्वकम्।

आभ्य:कुर्याद्देवताभ्यी ब्राह्मणो होममन्वहम्॥ 84॥

अग्ने सोमस्यचैवादौ तयोश्‍चैव समस्तयो:।

विश्‍वेभ्यश्‍चैवदेभ्य: धान्वन्तरय एव च॥ 85॥

कुह्वैचैवानुमत्यै च प्रजापतय एव च।

सह द्याबापृथिव्योश्‍च तथा स्विष्टकृतेऽन्तत:॥ 86॥

एवं सम्यग्घविर्हुत्वा सर्वदिक्षु प्रदक्षिणम्।

इन्द्रान्तकाप्पतीन्दुभ्य: सानुगेभ्यो बलिं हरेत्॥ 87॥

मरुद्भ्यइतितुद्वारि क्षिपेदप्स्वद्भ्यइत्यपि।

वनस्पतिभ्यइत्येवं मुसलोलूखले हरेत्॥ 88॥

उच्छीर्षकेश्रियैकुर्याद्‍भद्रकाल्यै च पादत:।

ब्रह्मवास्तोष्पतिभ्यांतु वास्तुमध्ये बलिं हरेत्॥ 89॥

विश्‍वेभ्यश्‍चैवदेभ्यो बलिमाकाश उत्क्षिपेत्।

दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नक्‍तचारिभ्य एव च॥ 90॥

पृष्ठवास्तुनि कुर्वीत बलिं सर्वात्मभूतये।

पितृभ्यो बलिशेषं तु सर्वं दक्षिणतो हरेत्॥ 91॥

शुनां च पतितानां च श्‍वपचां पापरोगिणाम्।

वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वमेद्भुवि॥ 92॥

द्वौ दैवे पितृकार्येत्रीनेकैकमुभयत्रा वा।

भोजयेत्सुसमृद्धोऽपि न प्रसज्येत विस्तरे॥ 125॥

सत्क्रियां देशकालौच शौचं ब्राह्मणासंपद:।

पंचैतांविस्तरोहंति तस्मान्नेहेतविस्तारम्॥ 126॥

श्रोत्रियायैवदेयानि हव्यकव्यानिदातृभि:।

अर्हत्तामायविप्राय तस्मै दत्तां महाफलम्॥ 128॥

एकैकमपिविद्वांसं दैवे पित्रयेचभोजयेत्।

पुष्कलं फलमाप्नोति नामन्त्रज्ञान्बहूनपि॥ 129॥

ज्ञाननिष्ठाद्विजा:केचित्तपोनिष्ठास्तथापरे।

तप: स्वाध्यायनिष्ठाश्‍च कर्मनिष्ठास्तथापरे॥ 134॥

ज्ञाननिष्ठेषु कव्यानि प्रतिष्ठाप्यानि यत्‍नत:।

हव्यानि तु यथान्यायं सर्वेष्वेवचतरुष्वपि॥ 135॥

एष वै प्रथम: कल्प: प्रदाने हव्यकव्ययो:।

अनुकल्पस्त्वयं ज्ञेय: सदा सदि्भरनुष्ठित:॥ 147॥

मातामहं मातुलं च स्वस्त्रीयं श्‍वशुरं गुरुम्।

दौहित्रां विट्पतिं बंधुमृत्विग्याज्यौचभोजयेत्॥ 148॥

न ब्राह्मणं परीक्षेत दैवे कर्मणि धर्मवित्।

पित्रये कर्मणि तु प्राप्ते परीक्षेत प्रयत्‍नत:॥ 149॥

चिकित्सकान्देवलकान मांसविक्रयिणस्तथा॥ 152॥

भृतकाधयापको यश्‍च भृतकाध्यायपितस्तथा॥ 156॥

कुशीलवऽवकीर्णो च वृषलीपतिरेवच।

ब्राह्मैर्यौनैश्‍च संबन्धौ: संयोगं पतितैर्गत:॥ 157॥

हस्तिगोश्वोष्ट्रदमको नक्षत्रौर्यश्‍चजीवति॥ 162॥

आचारहीन: क्लीवश्‍च नित्यं याचनकस्तथा।

कृषिजीवीश्लीपदी च सदि्भर्निन्दित एवच॥ 165॥

एतांविगर्हिताचारानपाङ्क्तेयान्द्विजाधामान।

द्विजातिप्रवरो विद्वानुभयत्रा विवर्जयेत्॥ 167॥ याज्ञ.।

अग्रया: सर्वेषु वेदेषु श्रोत्रियो ब्रह्मविद्युवा।

वेदार्थविज्ज्येष्ठसामा त्रिमधुस्त्रिपर्णिक:॥ 219॥

स्वस्त्रीयऋत्विग्यामातृयाज्यश्‍वशुरमातुला:।

त्रिणाचिकेत दौहित्र शिष्यसंबंधिबान्धावा:॥ 220॥

कर्मनिष्ठास्तपोनिष्ठा: पंचाग्निब्रह्मचारिण:।

पितृमातृपराश्‍चैव ब्राह्मणा: श्राद्धसंपद:॥ 221॥

इन सब पूर्वोक्‍त श्‍लोकों का तात्पर्य यह है कि ‘जो स्त्री माता के पाँच पुरुषों तक की अथवा माता के गोत्र की न हो तथा पिता के सात पुरुषों तक की और पिता के भी गोत्र की न हो उससे ही विवाह करना चाहिए। जिस वंश में जात कर्म और प्रेत कर्म आदि न होते हों केवल लड़कियाँ हों, वेद न पढ़ा जाता हो, शरीर में अधिक बाल होता हो, बवासीर हो, क्षय और अन्य रोग हों, श्‍वेत और दूसरे प्रकार के कुष्ठ हों, धन-धान्य से पूर्ण भी इन दस कुलवालों के साथ विवाह न करे। कन्या और वर दोनों को प्रीतिपूर्वक बुला, सुंदर वस्त्र पहना और आभूषणों से अलंकृत कर शास्त्र ज्ञानी और शीलवान वर को जो विधिवत कन्यादान किया जाता है उसे ही ब्राह्म विवाह कहते हैं। कन्या का पिता वर से कुछ भी न ले, क्योंकि ऐसा करना कन्या विक्रय कहलाता है। जो मनुष्य मोहवश कन्या के बदले वर से द्रव्य, दासी, यान या वस्त्र आदि लेते हैं वे पापी नरकगामी होते हैं। कुत्सित विवाह करने, संध्या और अग्निहोत्र आदि के न करने, वेदों के पठन-पाठन न करने और विद्वान एवं तपस्वी ब्राह्मण का निरादर करने से वंश नीच हो जाते हैं। गृहस्थों के यहाँ चूल्हा, चक्की, ओखली, झाड़ई, जल के पात्र ये पाँच स्थान हिंसा के हैं, जिनसे प्रतिदिन पाप हुआ करता है। इन्हीं पाँच हत्याओं को मिटाने के लिए महर्षियों ने गृहस्थों को प्रति दिन पंच महायज्ञ करने को बतलाया है। वेद शास्त्रों तथा स्तोत्र आदि का पठन-पाठन ब्रह्मयज्ञ, तर्पण, पितृयज्ञ, अग्निहोत्र अथवा अन्य गायत्री आदि मन्त्र द्वारा हवन देवयज्ञ, भोजन के समय काक वगैरह की बलि (भाग) निकालना भूत यज्ञ और अतिथि सत्कार मनुष्य यज्ञ कहलाता है। जो इन पाँच यज्ञों को नहीं करता, वह श्‍वास लेता हुआ भी मुर्दा है। प्रतिदिन पितरों की तृप्ति के लिए अन्न, जल, दूध, मूल या फलों से ही श्राद्ध करे, और इसी प्रकार पितृपक्ष आदि में भी। अग्निहोत्र की अग्नि से भिन्न अग्नि में पकाए अन्न से बलि वैश्यदेव करने के लिए इन अगले मंत्रों से हवन करे। (1) अग्नए स्वाहा, (2) सोमाय स्वाहा, (3) अग्नीषोमाभ्यां स्वाहा, (4) विश्‍वेभ्गो देभ्य: स्वाहा, (5) धान्वंतरए स्वाहा, (6) कुह्नैस्वाहा, (7) अनुमत्यै स्वाहा,(8) प्रजापतए स्वाहा, (9) द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा, (10) अग्नएस्विष्टकृते स्वाहा। इसके बाद पूर्व दिशा में, (11) इन्द्रायनम: इंद्रपुरुषेभ्योनम:। दक्षिण दिशा में, (12) यमायनम: यमपुरुषेभ्योनम:। पश्‍चिम दिशा में, (13) वरुणायनम: वरुणपुरुषेभ्योनम:। उत्तर दिशा में, (14) सोमायनम: सोमपुरुषेभ्योनम:। द्वार में, (15) मरुद्‍भयोनम:, जल में, (16) अद्‍भयोनम:, ओखली और मूसल पर, (17) वनस्पस्पतिभ्योनम:। घर के उत्तर-पूर्व कोने या खाट के सिरहाने की ओर, (18) श्रियै स्वाहा। घर के दक्षिण-पश्‍चिम कोने या खाट के पाँव के भाग की ओर, (19) भद्रकाल्यैनम:। मकान के मध्य में, (20) वास्तोष्पतिभ्यां नम:, आकाशमें, (21) विश्‍वेभ्यो देभ्यो नम:, दिन में, (22) दिवाचरेभ्यो भूतेभ्योनम:, रात में, (23)नक्तंचारिभ्यो भूतेभ्योनम:। कोठे पर अथवा अपने पीछे, (24) सर्वात्मभूतएनम:, दक्षिण मुख हो और जनेऊ को अपसव्य (बाएँ) कर, (25) स्वधा पितृभ्य:, इस मन्त्र से दक्षिण दिशा में बचे अन्न की बलि दे। थोड़ा दूसरा अन्न ले कर, (26) श्‍वभ्योनम:, (27) पतितेभ्योनम:, (28) पापरोगिभ्योनम:, (29) वायसेभ्योनम:, और (30) कृमिभ्योनम:। इन मंत्रों से जमीन पर बलि दे। इसके बाद अतिथि को भोजन करवावे।

बहुत धनी होने पर भी जब कभी श्राद्ध और देवयज्ञ करें तो देवयज्ञ में दो और श्राद्ध में तीन अथवा दोनों एक ही एक ब्राह्मण खिलावे, अधिक नहीं। बहुत ब्राह्मण खिलाने से एक तो अच्छे और सुपात्रा ब्राह्मण नहीं मिलते, दूसरे उनका सत्कार ठीक नहीं होता, तीसरे उत्तम स्थान और चौथे उत्तम काल में उन्हें भीड़ के कारण खिला नहीं सकते और पाँचवें पवित्रता भी नहीं रह जाती। इसीलिए अधिक ब्राह्मणों को भोजन न करावें। अत्यन्त योग्य और वेदशास्त्रों के जाननेवाले ही ब्राह्मण को यज्ञ अथवा श्राद्ध में भोजन करवाना चाहिए, तभी फल मिलता है। यज्ञ और श्राद्ध में एक-एक भी विद्वान ब्राह्मण को खिलाने से महाफल की प्राप्ति होती है, न कि बहुत से मूर्खों के खिलाने से। कोई ब्राह्मण ज्ञानी, कोई तपस्वी, कोई वेद पढ़नेवाले और कोई यज्ञ आदि कर्म करनेवाले होते हैं। उनमें से श्राद्ध में केवल ज्ञानी को ही खिलाना चाहिए, परंतु देवकार्य में चारों प्रकार के ब्राह्मणों को। यदि इस प्रकार के योग्य ब्राह्मण मिल सकें, तभी उन्हें श्राद्ध आदि में भोजन करावे। परंतु ऐसे ब्राह्मणों के न मिलने पर सर्वदा सत्पुरुष लोग जिन्हें खिलाया करते हैं, वे ये हैं, अपने नाना, मामा, बहन के लड़के, ससुर, आचार्य, माता, पिता, लड़की के पुत्र, दामाद, भाई-बिरादर, और यज्ञ कराने और करनेवाले इनको श्राद्ध में भोजन करावे। देव कार्य में तो खिलाने के समय ब्राह्मणों की विशेष परीक्षा न भी करे, परंतु श्राद्ध में तो यत्‍नपूर्वक परीक्षा करें। दवा करनेवाले (वैद्य), मूर्ति दिखा कर पैसे माँगनेवाले, मांस बेचनेवाले, रुपया ले कर पढ़ने और पढ़ानेवाले, नाचने और गानेवाले, शूद्र अथवा अन्य जाति की स्त्री को रखनेवाले, पतितों (नीचों) के साथ पठन-पाठन करनेवाले, हाथी, गाय, घोड़े और ऊँटों को फँसानेवाले, ज्योतिषी, भ्रष्टाचार, नपुंसक, नित्य नाच करनेवाले, अपने हाथों हल जोतनेवाले और सत्पुरुषों द्वारा निंदित इत्यादि निषिद्ध, पंक्‍ति में बैठाने के अयोग्य और अधम ब्राह्मणों को बुद्धिमान कभी भी यज्ञ या श्राद्ध में भोजन न करावे।

याज्ञवल्क्यस्मृति में भी लिखा है कि युवावस्थावाले वेदों के विलक्षण ज्ञाता, सामान्यत: वेदों और उनके अर्थों के जाननेवाले, सामवेद, ऋग्वेद और यजुर्वेदों के कुछ-कुछ अंशों के पंडित, बहन के लड़के, यज्ञ करानेवाले, दामाद, यज्ञ करनेवाले ससुर, मामा, लड़की के लड़के, शिष्य, दायाद, (भाई-बिरादर), नातेदार, कर्मकांडी और तपस्वी, अन्य योग्य ब्राह्मण, पाँचों अग्नियों की उपासना करनेवाले, ब्रह्मचारी और माता-पिता के भक्‍त ब्राह्मण, इतने ही लोगों को श्राद्ध में भोजन करवाना उत्तम है।

श्राद्ध का काल भी सामान्यत: मनु जी ने आगे कह दिया है :

यथाचैवापर: पक्ष: पूर्वपक्षाद्विशिष्यते।

तथा श्राद्धस्य पूर्वाह्णदपराह्णो विशिष्यते॥ 278॥

रात्रौ श्राद्धं न कुर्वीत राक्षसी कीर्तिता हि सा।

सन्ध्ययोरुभयोश्‍चैव सूर्येचैवाचिरोदिते॥ 280॥

अर्थात ‘जैसे श्राद्ध के लिए शुक्लपक्ष की अपेक्षा कृष्णपक्ष उत्तम है वैसे ही दिन के पूर्वार्द्ध भाग से उत्तारार्द्ध भाग श्रेष्ठ है। रात्रि राक्षसी हैं, इसीलिए रात्रि को, दिन-रात के संधिकाल में और सूर्य निकलने के बाद ही तुरंत श्राद्ध न करे।’

घर या सापिंड (मरे या जन्मे से 7वीं पीढ़ी तक) में किसी के मर जाने या जन्म लेने से ब्राह्मण दस दिन तक अशुचि रहता और यदि जन्म या मरण के दस दिन के भीतर ही दूसरा जन्म या मरण हो जावे, तो साधारण तया दस दिन के बाद ही दूसरे जन्म और मरण का, भी अशौच मिट जाता है। जैसा कि मनु भगवान ने पाँचवें अध्याय में लिखा है :

अन्तर्दशाहे स्यातां चेत्पुनर्मरणजन्मनी।

तावत्स्यादशुचिर्विप्रो याव त्स्यादनिर्दशम्॥ 79॥

शुध्ययेद्विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिप:।

वैश्य: पंचदशाहेन शूद्रो मासेन शुद्धयति॥ 83॥

अर्थात ‘यदि जन्म के दस दिन के भीतर ही फिर जन्म और मरण हो जावे तो प्रथम के दस दिन पूरे होने तक ही ब्राह्मण अशुचि रहता हैं। ब्राह्मण जन्म और मरण में दस दिन तक अशुचि रहता है, क्षत्रिय बारह दिन तक, वैश्य पंद्रह दिन तक और शूद्र एक मास तक अशुचि रहता हैं। इस विषय का विशेष प्रचार आगे उत्तर परिशिष्ट में मिलेगा। अशौच काल में नैमित्तिक कर्म दान आदि तो नहीं ही करने चाहिए। यही सभी ऋषियों का मत हैं। परंतु नित्यकर्म संध्या आदि में विवाद है। किसी का मत है कि -

संधयां पंचमहायज्ञान्नैत्यकं स्मृतिकर्म च।

तन्मध्ये हापयेदेषां दशाहान्ते पुन: क्रिया॥

मरणाशौचमाख्यातं जननेऽप्येवमेव च॥ जाबालि॥

अर्थात ‘जाबालिस्मृति में लिखा है कि जन्म या मरण काल में दस दिन तक संध्या, पंच महायज्ञ, अन्य नित्य कर्म और प्रतिमा पूजा आदि इन सभी का त्याग कर देना और उसके बाद करना चाहिए।’

परंतु निर्णय सिंधु आदि ग्रन्थों में यह सिद्ध किया है कि अशौच काल में भी नित्य कर्मों का त्याग नहीं होता है। इसीलिए अन्य ग्रन्थकारों ने यह लिखा है कि संध्या वगैरह नित्यकर्मों में भी जितने कर्म बिना जल के हो, उन्हें तो कर ले, परंतु आचमन या सूर्य को अर्घ प्रदानादि न करे। इसीलिए यह विषय विवाद का हो गया और इनमें बहुत से मत हो गए। ऐसी दशा में चाहे बिलकुल ही करे या केवल गायत्री आदि जप ले और प्राणयाम कर ले इसमें मर्जी की बात है। परंतु प्रतिमा की पूजा आदि तो नहीं ही करे। यह भी लिखा है कि :

अजागावौ महिष्यश्‍च ब्राह्मणो च प्रसूतिका।

दशरात्रोण शुद्धियन्ति भूमिस्थं च नवोदकम्॥

अर्थात ‘बकरी, गाय, भैंस और ब्राह्मणी ये सब पुत्रजन्म के दस दिन बाद शुद्ध हो जाती है और जमीन पर पड़ा हुआ नया पानी भी शुद्ध ही होता है।’ संध्या काल में प्राणायाम का मन्त्र यह है :

ओं भू: ओं भुव: ओं स्व: ओं मह: ओं जन: ओं तप: ओं सत्यम् ओं तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात् ओं आपोज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्मभूर्भुव: स्वरोम्।

जैसा कि योगी याज्ञवल्क्य ने लिखा है कि :

सव्याहृतिं सप्रणवां गायत्री शिरसा सह।

त्रि: पठेदायतप्राण: प्राणायाम: स उच्यते॥

अर्थात ‘ओंकार, सप्तव्याहृति, गायत्री मन्त्र और 'आपोज्योती' इत्यादि सिर मन्त्र इन सबों को मिला तीन बार पढ़ कर प्राणों के रोकने का नाम प्राणायाम है।’

गायत्री मन्त्र से शिखा बंधन करना और सूर्य को अर्घ भी देना चाहिए। जैसा कि लिखा है कि :

स्मृत्वोंकारं च गायत्रीं निबध्नीयाच्छिखां तत:।

कराभ्यां तोपमादाय गायत्रीया चाभिमंत्रितम्॥

आदित्याभिमुखस्तिष्ठॅस्त्रिरूधर्वं सन्ध्ययो: क्षिपेत्।

सकृदेव तु मधयाद्दे क्षेपणीयं द्विजातिभि:॥

अर्थात ‘ओंकार सहित गायत्री पढ़ कर शिखा बाँधो। दोनों हाथों की अंजलि में जल ले, गायत्री पढ़ कर प्रात: और सायंकाल सूर्य की तरफ ऊपर को उसे तीन बार फेंके परंतु मधयाद्द में एक ही बार।

गायत्री मन्त्र के विषय में प्रतिदिन के लिए लिखा है कि :

अष्टोत्तारशतं नित्यमष्टाविंशतिरेव वा।

विधिनादशकं वापि त्रिकालेषुजपेद्बुधा:। व्यास॥

आरभ्यानामिकामधयं पर्वाण्युक्‍तान्यनुक्रमात्।

तर्ज्जनीमूलपर्यन्तं जपेद्दशसु पर्वसु॥

मध्यमांगुलिमूले तु यत्पर्वद्वितयं भवेत्।

तं वैं मेरु विजानायाज्जपे तं नातिलंघयेत्॥ गा. क.॥

अर्थात ‘प्रतिदिन 108, 28 अथवा कम से कम 10 बार तीनों काल में जप करे। अनामिका अँगुली के मध्य पर्व (पोर) से आरंभ कर क्रम से 10 पर्वों पर बराबर जपे। परंतु मध्यम अँगुली के जड़ के दो पर्वों को छोड़ दे, क्योंकि वे अँगुली के मेरु हैं और जप में मेरु का लंघन नहीं किया जाता है।’

गायत्री मन्त्र का यह अर्थ है कि : ओंकार स्वरूप व सर्वरक्षक। भूर्भुव: स्व: - तीनों लोकस्वरूप, या स्वयंभू, सर्वाधार और आनन्द स्वरूप। तत - संपूर्ण वेदों और शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित। वरेण्यं - सबके भजन और प्रार्थना के योग्य। सवितु: - जगत् और प्राणियों के कल्याण को उत्पन्न करनेवाले। देवस्य - स्वयं प्रकाश स्वरूप परमात्मा के। भर्ग: - ज्योति: स्वरूप को। धीमहि-हम लोग ध्यान करते हैं। य: - जो ज्योति: स्वरूप। न: - हम लोगों की। धिय: - बुद्धियों को। प्रचोदयात् - अपनी ओर, विचारऔर सत्कर्मों में लगावे। अर्थात ‘संपूर्ण जगत् को रचनेवाले और प्राणियों के कल्याणकर्ता स्वयं प्रकाश स्वरूप परमात्मा के इस ज्योति:स्वरूप का ध्यान हम लोग करते हैं, जो ओंकार स्वरूप, और सर्वरक्षक तीनों लोक स्वरूप और स्वयंभू, सर्वाधार, आनन्द स्वरूप, सब शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित और सभी लोगों की प्रार्थना एवं भजन के योग्य हैं। वह ज्योति:स्वरूप हमारी बुद्धियों को अपनी ओर, सत्कर्म और विचार में लगावे।’

पुराने यज्ञोपवीत (जनेऊ) के त्यागने का मन्त्र यह है :

एताबद्दिपर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया।

जीर्णत्वात्तवत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथासुखम्।

इस मन्त्र से जनेऊ को सिर की तरफ से निकाल कर पवित्र स्थान में रख दे। नवीन यज्ञोपवीत धारण करने के बाद पुराने को निकालना चाहिए। धारण करने का मन्त्र यह है :

यज्ञोपवीतं परमं पवित्र प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।

आयुष्यमग्र यं प्रतिमु×च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तुतेज:

यज्ञो पवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीतेनोपनह्यामि॥

इस मन्त्र को पढ़ कर गृहस्थ को सर्वदा दो जनेऊ और ब्रह्मचारी को एक धारण करना चाहिए। जनेऊ के विषय में ऐसा लिखा हुआ है :

पृष्ठवंशे च नाभ्यां च धृतं यद्विन्दते कटिम्।

तद्धार्यमुपवीतं स्य:न्नातिलम्बं नचोच्छितम्। छं. पं.॥

ब्रह्मचारिण एकं स्यात्स्नातस्य द्वे बहूनि वा॥

विना यज्ञोपवीतेन तौयं पिवति यो द्विज:।

उपवासेन चैकेन पंचगव्येन शुद्धयतिं।

विना यज्ञोपवीतेन विण्मूत्रोत्सर्गकृद्यदि।

उपवासद्वयं कृत्वा दानैंर्होमैस्तु शुद्धयति॥

सूतके मृतके चेव गते मासचतुष्टये।

नव यज्ञोपवीतानिं धृत्वा जीर्णानि संत्यजेत्॥ संग्रह॥

अर्थ यह है कि 'नाभि और पीठ पर होता हुआ जो यज्ञोपवीत कमर तक पहुँच जावे वही उत्तम और धारण करने योग्य है, उससे छोटा या बड़ा नहीं। ब्रह्मचारी को एक और गृहस्थ को साधारणत: दो जनेऊ पहनने चाहिए। जो द्विज बिना जनेऊ के पानी पी लेता है वह एक दिन उपवास करने और पंचगव्य पीने से शुद्ध हो जाता है। यदि बिना जनेऊ के मल-मूत्र का त्याग कर दे तो दो दिनों के उपवास के बाद दान और होम द्वारा शुद्ध हो जाता है। सूतक में, मृतक में और चार मास बीतने पर नए यज्ञोपवीत को पहन कर पुराने को त्याग देना चाहिए।’ जनेऊ बनाने के विषय में मदन पारिजात में लिखा है कि पवित्र देश में हाथ के कते पवित्र सूत 96 चतुरंगुल (चौआ) का जनेऊ बनावे। चतुरंगुल (चौआ) चारों अंगुलियों को सटा कर उनकी जड़ में बनाना चाहिए और दस बार गायत्री को पढ़ कर जल से जनेऊ का अभिमन्त्रण करना चाहिए। प्रवरग्रंथि भी रहे।

स्नान काल में प्रतिदिन नीचे लिखे मंत्रों से तर्पण करना चाहिए। देव तर्पण में जनेऊ सीधा ही रहे, पितृ तर्पण में बाएँ कंधे पर और ऋषि तर्पण में गले में लटकना चाहिए, और देव तर्पण में प्रत्येक मन्त्र से एक-एक अंजली, ऋषि तर्पण में दो-दो और पितृतर्पण में तीन-तीन देनी चाहिए।

देव तर्पण-ब्रह्मादयो देवास्तृप्यन्ताम्। ओं भूर्देवास्तृप्यन्ताम्। ओं भुवर्देवास्तृप्यन्ताम्। ओं स्वर्देवाष्तृप्यन्ताम्। ओं भूर्भुव:स्वर्देवास्तृप्यन्ताम्॥ ऋषि तर्पणओं सनकादिद्वैपाय-नादयोऋषयस्तृप्यन्ताम्। ओं भूवर्ऋषयस्तृप्न्ताम्। ओं स्वर्ऋषयस्तृप्ययन्ताम्। ओं भूर्भुव: स्वर्ऋषस्तृप्यन्ताम्॥ पितृ तर्पण-ओंकव्यवाडनलादय: पितरस्तृप्यन्ताम्। भू: पितरस्तृप्यन्ताम्। ओं भुव: पितरस्तृप्यन्ताम्। ओं स्व: पितृरस्तृप्यन्ताम्। ओं भूर्भुव: पितरस्तृप्यन्ताम्॥

इसके बाद आचमन कर, जनेऊ को सीधा कर के 'यक्ष्म' तर्पण करे, अर्थात नीचे लिखे मन्त्र से जल के किनारे एक अंजलि दे। मन्त्र -

यन्मया दूषितं तोयं शरीरमलसंभवात्।

तस्य पापस्य शुद्धयर्थं यक्ष्मैतत्तो तिलोदकम्॥

इसके बाद अपनी दक्षिण ओर तृण अथवा लता आदि में शिखा के जल को निचोड़ दे। मन्त्र यह है -

लतागुल्मेषु वृक्षेषु पितरो ये व्यवस्थिता:।

ते सर्वे तृप्तिमायान्तु मयोत्सृष्टै: शिखोदकै:॥

ब्राह्मण को भोजन काल में संक्षेपत: यह विधि करनी चाहिए :

जल अथवा भस्म से चौकोना मण्डल बना कर उसके ऊपर अन्न का पात्र रखे और नमो भगवते वासुदेवाय' इस मन्त्र से हाथ में जल ले कर दाहिनी तरफ से थाली के चारों ओर गिरावें। इसे पंक्‍ति वारण कहते हैं। पुन: हाथ जोड़ कर अन्न की स्तुति करे। उसका मन्त्र यह है : ‘ओं नम: शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नम: शिवाय च शिवतराय च’ इसके बाद हाथ में जल ले कर दिन में 'सत्यन्त्वत्तौनपरिषिंचामि' इस मन्त्र से और रात में 'ऋतं त्वा सत्येन परिषिंचामि' इस मन्त्र से उस जल को अन्न पर छिड़क कर हाथ से अन्न का स्पर्श करे। उसका मन्त्र यह है, 'तेजोसि शुकमस्यमृतमसि धामनामासि। प्रियं देवानामनाधृष्ट देव यजनमसि।' फिर इन तीनों मंत्रों को पढ़ कर थाली से उत्तर एक से उत्तर दूसरी और उससे उत्तर तीसरी इस प्रकार तीन बलि दे। मन्त्र ये हैं : 'ओं भूपतए स्वाहा नम:। ओं भुवन पतये स्वाहा नम:। ओं भूतानां पतये स्वाहा नम:।' बाद को बाएँ हाथ में जल ले कर ‘अमृतोपस्तरणमसि' इस मन्त्र से उसे पी जावे। और फिर जरा-जरा अन्न ले कर पाँच प्राणाहुति करे, अर्थात नीचे के मंत्रों को पढ़-पढ़ कर पाँच बार मुख में डाले। मन्त्र ये हैं : ‘प्राणाय स्वाहा। ‘अपानाय स्वाहा। ‘व्यानाय स्वाहा। ओं समानाय स्वाहा। ओं उदानाय स्वाहा।' फिर बाएँ हाथ में जल ले कर दोनों नेत्रों में लगावे। पंक्‍ति वारण, प्राणाहुति और नेत्र में जल लगाना, ये तीन काम तो भोजन काल में अवश्य कर के फिर भोजन करे। याद रहे प्राणाहुति पर्यंत जितनी बलि वगैरह दी जाती है वह केवल घृत या मीठा से मिश्रित अन्न या केवल अन्न की हो, न कि उसमें नमक का सम्बन्ध हो। इसके अनंतर विष्णु के स्मरणपूर्वक बाएँ हाथ से शिखा को खोल कर चुपचाप भोजन करे। भोजन के बाद उच्छिष्ट अन्न में से बेर के फल-भर की चित्राहुति पात्र की बाईं ओर दे। फिर दाहिने हाथ में जल ले कर 'ओं अमृतापिधानमसि स्वाहा' यह मन्त्र पढ़ कर उसका आधा पी कर शेष उसी 'चित्राहुति' पर गिरा दे। फिर चुपचाप बाएँ हाथ से शिखा बाँध, उसे चित्राहुति आदि को काकों को दे कर हाथ, मुँह आदि धो डाले और एक आचमन कर के

अगस्त्यं वैनतेयं च शनिं च वडवानलम्।

अन्नस्य परिणामार्थं स्मरेद्भीमं च पंचमम्॥

इस मन्त्र को पढ़ता हुआ पेट पर हाथ फेरे। इति भोजन विधि:।

इति श्री ब्रह्मर्षि वंश विस्तरे पूर्व परिशिष्टम्॥

उत्तर परिशिष्ट

1. वाटधान

इस ग्रन्थ के 53 आदि पृष्ठों में प्रसंगवश जिन वाटधान ब्राह्मणों का उल्लेख हुआ है उसके सम्बन्ध में लोगों के दिलों में जो एकाध शंकाएँ हुआ करती है उन्हें दूर कर देना जरूरी है। यद्यपि उन ब्राह्मणों से हमें कोई विशेष तात्पर्य नहीं है और न हमारे या किसी और के ही पास कोई ऐसा सबूत है कि उन्हीं के वंशज महियाल, तगे या भूमिहार आदि हैं और न हमने ऐसा स्पष्ट रूप से कहीं लिखा ही है। तथापि न्याय के नाते ही हमें ऐसा करना पड़ता है। न जाने क्यों कुछ दिनों से साधारणत: लोगों की यह धारणा हो चली थी कि राज्य, युद्ध या कृषि आदि ब्राह्मणों के धर्म नहीं हैं। फलत: इसी भ्रान्त धारणा के आधार पर कितने अनर्थ हो गए हैं जिनका दिग्दर्शन और इस धारणा का निराकरण ग्रन्थ में किया जा चुका है, अस्तु। इसी धारणा से लोगों का यह कहना हैं कि यदि वाटधान ब्राह्मण शुद्ध ब्राह्मण होते तो एक तो पांडव उनके साथ युद्ध कर उन्हें परास्त न करते। दूसरे वे लोग नजर देने के समय दरवाजे पर ही रोक न दिए जाते। भीतर यज्ञशाला में अवश्य जाने पाते। मगर वे रोके गए यह तो द्वारि तिष्ठंति वारिता:, प्रवेशं लेभिरे न च - वे दरवाजे पर ही रोक दिए गए, भीतर न जाने पाए, से स्पष्ट ही है। इसलिए मानना होगा कि वे शुद्ध नहीं, किंतु व्रात्य या पतित ब्राह्मण थे, जैसा कि उन्हीं श्‍लोकों की टीका में नीलकंठ ने भी अपने 'भारतभावप्रदीप' में लिख दिया है कि 'वारिता इत्येन तेषामत्यन्तहीनता दर्शिता - ’द्वार पर रोके जाने से उनकी अत्यन्त नीचता सूचित होती है।’ इसलिए वे ही ब्राह्मण थे जिनके बारे में मनु ने 10वें अध्याय में लिखा है कि:

व्रात्यात्तु जायते विप्रात्पापात्मा भूर्जकण्टक:।

आवन्त्यवाटधानौ च पुष्पधा: शैख एव च॥ 21॥

‘यथा समय उपनयनादि संस्कार रहित जो पतित व व्रात्य ब्राह्मण हो उसके ही वंशज भूर्जकण्टक, आवन्त्य, वाटधान, पुष्पधा और शैख कहाते हैं।’

यद्यपि इस शंका का विचार कर के ही ग्रन्थ के उसी प्रसंग के 54 वें पृष्ठ में टिप्पणी दे दी गई है कि विचारवान उनके रोके जाने का असली कारण समझ कर शांत हो जावेंगे। मगर जिन्हें उतनी भी बुद्धि नहीं है और जिन्होंने महाभारतादि ग्रन्थ पढ़े भी नहीं हैं, उनके लिए उस विचार का स्पष्टीकरण किया जाता है। पहली शंका जो युद्ध के बारे में है उसका उत्तर तो यही है कि वे आततायी थे और आततायी के साथ युद्ध करने या उसे मारने में कोई दोष नहीं है, चाहे वह कोई भी हो। अतएव मनु ने (8-350, 351) लिखा है कि -

गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।

आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन॥ 350॥

नाततायिवधो दोषो हन्तुर्भवति कश्‍चन॥ 351॥

‘गुरु, बालक, वृद्ध अथवा सर्व वेदशास्त्रज्ञ ब्राह्मण आततायी के चढ़ आने पर बिना विचारे ही उसे मार डाले। इससे मारनेवाले को कोई दोष नहीं होता।’ अब रही आततायी की बात। उसका स्वरूप वसिष्ठस्मृति (3-16) ये यों हैं -

अग्निदो गरदश्‍चैव शस्त्रापाणिर्धानापह:।

क्षेत्रदारापहत्तरा च पडेते ह्याततायिन:॥

‘घर जलानेवाला, विष देनेवाला, हाथ में हथियार ले कर चढ़ आनेवाला, धन हरनेवाला और जमीन और स्त्री को लूटनेवाला, ये छह आततायी कहाते हैं।’ इस प्रकार वाटधान ब्राह्मण और द्रोण, कृपाचार्य और अश्‍वत्थामा वगैरह भी आततायी श्रेणी में आ गए। इसी से धर्मप्राण युधिष्ठिर ने उन सभी के साथ युद्ध किया। यहाँ तक कि उन्हें मार भी डाला। इसीलिए अपने विद्यागुरु परशुराम जी के साथ 21 दिनों तक भीष्म ने युद्ध कर उनके दाँत खट्टे कर दिए और बड़े परिश्रम से किसी प्रकार युद्ध से हटाए जा सके। उन्होंने उद्योगपर्व (179-24) में स्पष्ट कह दिया है कि:

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानत:।

उत्पथंप्रतिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम्।

‘यदि गुरु भी घमंड में चूर हो, विपरीत मार्ग पर चले और कार्य-अकार्य का विचार न करे तो उसको दंडित करना चाहिए और उसे छोड़ देना चाहिए।’

अब रही द्वार पर रोके जाने की बात। असल में यज्ञ का पूरा ब्योरा न जानने और वहाँ के पूर्वापर ग्रन्थ के न देखने से ही अथवा उसकी विस्मृति से ही लोगों को भ्रम हो गया है। युधिष्ठिर के यज्ञ के नजरों का वर्णन सभापर्व में ही है और वहाँ कहीं-कहीं लिखा है कि 'व्यापागच्छन्युधिष्ठिरम्' - 'लोग नजर ले कर युधिष्ठिर के पास गए।' मगर इसका आशय यह कदापि नहीं हैं कि नजरें युधिष्ठिर के हाथ दी जाती थीं। वह तो यजमान की दीक्षा ग्रहण कर यज्ञक्रिया में प्रवृत्त थे। उसका आशय सिर्फ यही है कि सभी नजरें युधिष्ठिर के ही लिए थीं। उस समय काम बाँट दिया गया था, जिसमें दुर्योधन के जिम्मे सिर्फ नजर (भेंट) लेने का काम था। जैसा कि 35वें अध्याय में लिखा है -

एवमुक्त्वा स तान्सर्वान्दीक्षित: पांडवाग्रज:।

युयोज स यथायोगमधिकारेष्वनंतरम्॥ 4॥

भक्ष्यभोज्याधिकारेषु दु:शासनमयोजयत्।

परिग्रहे ब्राह्मणनामश्‍वत्थामानमुक्‍तवान॥ 5॥

दुर्योधनस्त्वर्हणानि प्रतिजग्राह सर्वश:॥ 9॥

‘दीक्षा के बाद युधिष्ठिर ने लोगों को यथा योग्य कामों में पृथक-पृथक नियुक्‍त कर दिया। इसके अनुसार दु:शासन भोजन के अधिकार पर नियुक्‍त हुआ, अश्‍वत्थामा ब्राह्मणों के उठाने-बिठाने में और दुर्योधन सभी प्रकार की सर्वश: - नजरों के लेने में।’ इसी से दुर्योधन को पीछे ताप भी हुआ था; कारण, वह धन उसे असह्य हो गया। इसी दु:ख को उसने 49-50 अध्यायों में कुछ प्रसिद्ध-प्रसिद्ध नजरों का वर्णन करते हुए बताया है, जिसमें उल्लेख योग्य कांबोज देश के राजा, वाटधान देशीय ब्राह्मणों और समुद्र तथा सोम की अत्यन्त प्रसिद्ध और अभिषेकोपयोगी घृत, मधु, दही आदि वस्तुएँ 49वें अध्याय के 18-26 श्‍लोकों में लिखी है। अनंतर विशेषत: लोगों की भीड़ और शंखादि के शब्दों का वर्णन करते हुए सामान्यत: धन की बहुलता कही गई है और दुर्योधन ने कहा है कि मुझे चैन नहीं है, मेरे हृदय में आग लगी है - शांति न परिगच्छामि दह्यमानेन चेतसा।' फिर बदला लेने के लिए शकुनी के द्यूतवाली युक्‍ति बतलाने पर यह बात धृतराष्ट्र से कही गई है। धृतराष्ट्र और विदुर दोनों ने रोका है कि ऐसा न करो। मगर अन्त में धृतराष्ट्र के भी ढल जाने पर विदुर रंज हो कर भीष्म के पास चले गए हैं। इसके बाद 50वें अध्याय में विदुर की बात को विचार कर फिर धृतराष्ट्र ने दुर्योधन को रोका और दु:ख का वास्तविक कारण पूछा हैं। पर, दुर्योधन ने हठ कर अपना दुखड़ा सुनाना शुरू किया है। और साधारणतया अनाधिक्य दिखला कर कहा है कि मेरे जीने को धिक्कार है। क्योंकि धन का असह्य दु:ख तो था ही, सभा में मेरी हँसी भी की गई। यदि उस पर कुछ बोलता तो मारा जाता। ‘वहाँ तो इतना धन नजर के रूप में आया था कि उन अमूल्य रत्‍नों का आर-पार ही न था। मुझे ज्येष्ठ भ्राता समझ मेरे सत्कारार्थ युधिष्ठिर ने मुझे ही उन नजरों के लेने को नियत किया था। पर वह धन इतना अधिक था और उसे देख मुझे इतनी खिन्नता हो गई थी कि मेरा हाथ चलता ही न था। इससे दूर-दूर से आए हुए नजर देनेवालों को द्वार पर ही खड़े रह कर प्रतीक्षा करनी पड़ती थी’ :

ज्येष्ठोऽयमिति मां मत्वा श्रेष्ठश्‍चेतिविशांपते।

युधिष्ठिरेण सत्कृत्य युक्तो रत्‍नपरिग्रहे॥ 22॥

उपस्थित:नां रत्‍नानां प्रेष्ठानामर्वंहारिणाम।

नादृश्यत पर: पारो नापास्तत्र भारत॥ 24॥

नमे हस्त: समभवद्वसुतत्प्रतिमृह्णत:।

अतिष्ठन्त मयि श्रान्ते गृह्य दूराहृतं वसु॥ 25॥

फिर 51वें अध्याय में अपने देखे मुख्य-मुख्य धनों के नाम सुनाने लगा है :

यन्मया पण्डवेयानां दृष्टं तच्छृणु भारत।

आहृतं भूमिपालैर्हि वसुमुख्यं ततस्तत:॥ 1॥

नाविदं मूढमात्मानं द्ष्ट्वाहं तदरेर्धानम्।

फलतो भूमितो वापि प्रतिपद्यस्व भारत॥ 2॥

यह वर्णन पूरे 51वें और 52वें के 40 के श्‍लोकों में पूरा हुआ है। इसी वर्णन प्रसंग में नजर दाताओं के द्वार पर ही रोके जाने के कारण की बात भी आ गई है। बात यह है कि जब दुर्योधन बड़ी-बड़ी कीमती नजरें लेते-लेते कुछ तो परिश्रम और कुछ भीतरी जलन से थक गया और फलत: उसका हाथ रुक गया तो नजरवाले गृह के द्वार पर बड़ी भीड़ हो गई और लोगों ने द्वारपालों को दिक करना और पूछना शुरू कर दिया कि हम लोग कब तक यहीं बाहर ही खड़े रहेंगे, भीतर जाने क्यों नहीं देते हो? तो उन्होंने सबको सुना दिया कि अपनी-अपनी पारी आने पर बाहर ही नजरें दे कर आप लोग भीतर जाने पावेंगे, यह महाराज युधिष्ठिर की आज्ञा है :

तत्रस्था द्वारपालैस्ते प्रोच्यन्ते राजशासनात्।

कृतकाला: सुवलयस्ततो द्वारमवाप्स्यथ॥ 19॥

इस श्‍लोक के 'कृतकाला:' पद का अर्थ नीलकण्ठ ने भी 'पारी आने पर' ही किया है -'कृतकाला: कृतप्रस्तावा:।' बस, इसी 51-52 अध्याय के बलिके लगातार वर्णन प्रसंग के वाटधान देशीय ब्राह्मणों के भी नजरों का वर्णन आया है, जो 51वें के 5-7 श्‍लोकों के हैं। इससे स्पष्ट है कि द्वारपालों ने जो पारी-पारी से दे कर भीतर जाने को कहा है वह सभी के लिए हैं, न कि केवल किरात, दरद, काश्मीर आदि के निवासियों के ही लिए हैं। कारण प्रसंग और सिलसिला एक ही हैं और उसी सिलसिले में सभी आए हैं। हाँ 49वें अध्याय के प्रासंगिक वर्णन का यदि इस सिलसिले से कोई सम्बन्ध न हो तो कोई बात भी नहीं है। मगर वही बात फिर 51, 52 में कही गई है। जबकि 50वें अध्याय के 24वें श्‍लोक में दुर्योधन ने साफ-साफ कह दिया है कि मेरे हाथ रुक जाने से लोगों को ठहर कर इंतजार करना पड़ता था और वहाँ पर नीलकंठ ने भी इसे स्वीकार किया है कि : ‘समभवत् समर्थो नाभवत् अतिष्ठन्त प्रतीक्षा कृतवंतो वसुन आहत्तरारो वसु दातुम्’। तो फिर समझ में नहीं आता कि उन वाटधान ब्राह्मणों के ही द्वार पर रोके जाने का नीलकंठ ने भी दूसरा अभिप्राय क्यों निकाला, न कि औरों के रोके जाने का भी? द्वारि तिष्ठंति वारिता:, प्रवेशं लेभिरे नच, ‘ये अथवा एतदर्थक दूसरे शब्द पूर्वोक्‍त दो अध्यायों के लगभग 6, 7, 13, 15, 18, 24, 29, 31 तथा 6, 12, 35, 37 श्‍लोकों में 12 बार आए हैं और कई बार 'वलिं च कृत्स्नमादाय द्वारि तिष्ठन्ति वारिता:’ यह आधा श्‍लोक ही आया है। शल्य भगदत्त और पूर्वदेशीय सभी राजाओं के लिए भी यही शब्द आए हैं। चोल और पांडय देशीय राजाओं के लिए भी लिखा गया है कि उन्हें प्रवेश न मिला - 'चोलपांडयावपिद्वारं न लेभाते ह्युपस्थितौ।' फिर रोके ही जाने से और लोग हीन न हो कर केवल वाटधान देशीय ब्राह्मण ही क्यों हीन समझे जावे? और नीलकण्ठ की इस अकांड तांडव कल्पना में प्रमाण ही क्या? किसी-किसी का यह भ्रम कि उनकी नजरें भी कबूल न हुईं, निर्मूल हैं। क्योंकि वे लोग सोने के कमण्डलु वगैरह लाए थे और वे घृतपूर्ण भी थे, जैसा कि 'कमण्डलूमुपादायजातरूपमयान्शुभान' श्‍लोक और उसकी नीलकंठी टीका 'कमंडलूनिति घृत पूर्णानिति द्रष्टव्यम्' से स्पष्ट है कि वह हैं अभिषेक सामग्री जिसके लानेवाले सिर्फ वाटधान ब्राह्मण ही थे, जैसा कि नीलकण्ठ ने स्वयं माना है। फिर उसका इनकार कैसे किया जा सकता था? यह कहना तो निरी मूर्खता है।

उक्‍त श्‍लोक के 'दासनीया:' शब्द को देख कर किसी-किसी का यह अनुमान है कि वे ब्राह्मण ही दास योग्य थे। इसीलिए नीच माने गए। मगर यह भी भ्रम ही हैं। 'दासनीयाश्‍च' में जो उस शब्द के साथ 'च' है जिसका अर्थ 'और' है, उससे स्पष्ट है कि उन ब्राह्मणों के सिवाय दास योग्य शूद्रादि भी उनके साथ थे, जो नजरों को साथ में ढो कर लाए थे। इसे नीलकंठ भी मानते हैं। एक बात और है। वहाँ पाठ-भेद है। वह शब्द तीन ढंग का मिलता है, दासनीया, दाशनीया: और दर्शनीया:। इसमें 'दर्शनीय' पाठ में तो दर्शन योग्य यह अर्थ सुगम ही हैं, मगर दासनीय या दाशनीय का अर्थ दास योग्य न हो कर 'बड़े-बड़े दाता' यही अधिक उचित है। जैसे प्रवचनीय, मोहनीय, कोपनीय आदि शब्दों के अर्थ 'प्रवचनकर्ता या पढ़ानेवाला' इत्यादि होते हैं जैसा कि न्याय दर्शन के वात्स्यायन भाष्य के चतुर्थाध्याय के प्रथमाद्दिक के 6ठे सूत्र के भाष्य की तात्पर्यटीका में श्री वाचस्पति मिश्र ने लिखा है। उसी प्रकार 'दाशृ या दाष्ट' दाने धातु से 'अनीयर' प्रत्यय कर्ता में कर के 'बड़े-बड़े दाता' यही अर्थ ठीक होगा।

एक शंका लोगों को और भी होती है। लोगों का कहना है कि वाटधान, वाधीक, गंधार आदि देशों में ब्राह्मण रहते ही नहीं। इसका कुछ उत्तर तो ग्रन्थ में ही दिया जा चुका हैं। भरत को ननिहाल से लाने के लिए दूतों के जाने के प्रसंग में अयोध्या कांड में वाल्मीकि जी लिखते हैं-’दूत लोग वाधीक देश के वेद पारंगत और अंजली से जल पीनेवाले ब्राह्मणों को देखते हुए उस देश के बीच मार्ग से सुदामा पर्वत को गए’ :

अवेक्ष्यांजलिपानांश्‍चब्राह्मणान्वेदपारगान।

ययुर्मध्येनबाल्हीकान्सुदामानंच पर्वतम्॥ 18। 68॥

कर्णपर्व के 42-43 प्रभृति अध्यायों में कर्ण और शल्य का परस्पर वाद-विवाद और हँसी-मजाक आया है और परस्पर एक-दूसरे को और उसके देशवासियों को भी नीच बनाने का यत्‍न किया गया है। वहाँ गंधार आदि अनेक देशों का नाम आया है। अन्त में शल्य ने डपट कर कहा है कि :

सर्वत्र ब्राह्मणा: सन्ति सन्ति सर्वत्र क्षत्रिय:।

वैश्या: शूद्रास्तथा कर्ण स्त्रिय: साधव्यश्‍च सुव्रया:॥ 42॥

रमन्ते चावहासेन पुरुषा: पुरुषै: सह।

अन्योन्यमवरक्षन्तो देशे देशे समैथुना:॥ 43॥

परवाच्येषु निपुण: सर्वो भवति सर्वदा।

आत्मवाच्यं न जानीते जानन्नपि च मुह्यति॥ 44॥

सर्वत्र सन्ति राजान: स्वं स्वं धर्ममनुव्रता:।

दुर्मनुष्यान्निगृह्‍णन्ति सन्ति सर्वत्र धार्मिका:॥ 45॥

न कर्ण देशसामान्यात्सर्व: पापं निषेवते।

यादृशा: स्वस्वभावेन देवा अपि न तादृशा:॥ 46। 45॥

‘हे कर्ण सभी देशों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा सती स्त्रियाँ रहा करती है। सर्वत्र ही पुरुष लोग मैथुन करनेवाले और पुरुषों के साथ हँसी करनेवाले होते हैं। सभी दूसरों के दोष देखने में निपुण होते हैं। पर अपना दोष नहीं देखते अथवा देख कर भी भूल जाते हैं। सभी देशों में धर्मात्मा पुरुष एवं स्वधर्म पालक राजे रहा करते हैं जो दुष्टों का निग्रह करते हैं। ऐसा कोई भी देश नहीं जहाँ सबके-सब पापी ही हों। सभी जगह ऐसे बहुत से पुरुष होते हैं जैसे देवता भी नहीं होते।’ इसी प्रसंग में यह भी लिखा है, कि ‘उत्तर दिशा के देशों की रक्षा ब्राह्मणों के सहित भगवान चंद्रमा करते हैं - उदीचीं भगवान्सोमो ब्राह्मण: सहरक्षति।' 'उदीची' का अर्थ 'उत्तर के देश' ही हैं न कि उत्तर दिशा। क्योंकि देशों और वहाँ के निवासियों का ही प्रसंग है।

एक बात और भी है। यदि गंधार, मद्र, केकय आदि देशों में जो पश्‍चिम पंजाब में है और ये ब्राह्मण न रहते तो पांडु, धृतराष्ट्र और दशरथ के विवाह कैसे होते? क्या ये सब संस्कार बिना आचार्य, पुरोहित आदि के ही वहाँ के क्षत्रियादि के घर हो जाते थे? केकय देश से भरत के मामा युधाजित ने अपने गुरु ब्रह्मर्षि अंगिरा के पुत्र को रामचंद्र के पास कैसे भेजा था? जैसा कि वाल्मीकि रामायण (उ. कां. अ. 10) में लिखा है :

कस्यचित्त्वथ कालस्य युधाजित्केकयोनृप:।

स्वगुरुं प्रेषयामास राघवायमहात्मने॥ 1॥

गार्ग्यमंगिरस: पुत्रां ब्रह्मर्षिममितौजसम्॥ 2॥

‘कुछ दिनों बाद केकय देश के राजा युधाजित ने अंगिरा के पुत्र, गर्गहोत्री ब्रह्मर्षि और परम प्रतापी अपने गुरु को अयोध्या भेजा।’ सबसे बड़ी बात यह है कि उन देशों में सारस्वत और काश्मीरी आदि ब्राह्मण आज भी पाए ही जाते हैं।

एक बात यह भी देखने की है कि यदि वे वाटधान ब्राह्मण व्रात्य वा व्रात्यों के वंशज होते तो फिर उन्हें तो किसी भी श्रौतस्र्मात्त कर्म का अधिकार न होता, जैसा कि पूर्व परिशिष्ट में दिखलाया जा चुका है। मगर वे लोग नीलकंठ के अनुसार ही त्रिकर्मा थे। यह बात तो ग्रन्थ में ही सिद्ध की गई है। इसीलिए वाटधान का अर्थ नीलकण्ठ स्वयमेव कहते हैं कि ‘वाटधान शब्द में व्यधिकरण बहुव्रीहि समास है और वाट शब्द का अर्थ क्षेत्र रक्षा के लिए बनी खाई या वृत्ति और 'धाना' का अर्थ है नई बनी हुई। यह बात विश्‍वकोश में लिखी है। तदनुसार जिन देशों या देशवासी ब्राह्मणों के पास अन्नवाले खेतों के रक्षार्थ नई-नई खाइयाँ बनी थीं वही वाटधान कहलाए - वाटा: क्षेत्रादि वृत्तायस्तासां धाना अभिनवोद्भेदो येषामितिव्यधिकरणोबहुव्रीहि:, सस्यादिसंपन्नेक्षेत्रादि वृत्तिमन्त इत्यर्थ:। वाटो वृत्तौ च मागरें चेति, धाना भृष्टयवे प्रोक्‍ता धान्याऽकेभिनवोदि्भदीतिविश्‍व:।’ इससे सिद्ध है कि वाटधान देश के रहने के कारण ही ब्राह्मण वाटधान कहे गए और वे पवित्र एवं कुलीन ब्राह्मण थे, न कि पतितों के वंशज। वे तो कोई दूसरे ही होंगे जिनका पता लगाना वैसा ही कठिन है जैसा भूर्जकंटक, पुष्पधा आदि का।

2. धर्मारण्य और वाडव

जिस धर्मारण्य का विशेष जिक्र ग्रन्थ में आया है और जो सीतापुर के कानपुर तक बताया गया है उसके विषय में भी लोगों में बहुत सी भ्रान्त धारणाएँ हैं, जिनका निराकरण आवश्यक है। यह भ्रम भी लोगों को प्राय: इसी से हो जाता है कि प्राचीन ग्रन्थों में कई धर्मारण्यों का वर्णन है। परंतु 'अंधों के हाथी' की तरह जिसने जहाँ जो देख लिया उसी को मान कर शंका करने लगा कि आपने गलत लिखा है। यदि सभी ग्रन्थों के परिशीलन का सौभाग्य लोगों को मिले तो यह शंका ही न हो। जैसे भृगु, गौतमादि ऋषियों के नाम से बहुत से स्थान प्रसिद्ध है और वह सिर्फ इसलिए कि विभिन्न काल में विभिन्न स्थानों पर वे लोग रहे या वहाँ तप आदि किया। ठीक इसी तरह धर्म ने विभिन्न समय में जिन-जिन स्थानों में तप या निवास किया अथवा जो स्थान धर्म प्रधान थे वही धर्मारण्य कहलाए। इस प्रकार अभी तक हमारे जानते तीन स्थान धर्मारण्य के नाम से प्राचीन ग्रन्थों में विख्यात है, जिनमें से दो में तो धर्म के यज्ञ और तप करने का भी वर्णन मिला है। एक गया क्षेत्र, दूसरा बरेली, सीतापुर वगैरह का प्रदेश जिसे नैमिषारण्य भी कहते हैं और तीसरा पुष्कर क्षेत्र से दक्षिण-पश्‍चिम सिद्धपुर के निकट मोढ़ेरा के इर्द-गिर्द। इन तीनों का पता महाभारत के वनपर्व के तीर्थयात्रा प्रकरण, पर्पिुंराण के स्वर्ग खण्ड के तीर्थ निरूपण प्रकरण, स्कंदपुराण के धर्मारण्य प्रकरण और वायुपुराण के गया महात्म्य से चलता है। वनपर्व में अजमेर (पुष्कर) से पृथ्वी की दक्षिणरावत्त परिक्रमा करने में उसके बाद ही 82वें अध्याय में लिखा है कि -

कण्वाश्रमं ततो गच्छ्रेच्छीजुष्टं लोकपूजितम्।

धर्मारण्यं हि तत्पुण्यमाद्यं च भरतर्षभ॥ 45॥

‘हे युधिष्ठिर पुष्कर के बाद कण्वाश्रम में जाना चाहिए जहाँ लक्ष्मी रहती है और लोकपूजित है। वह सबसे प्रथम का और पवित्र धर्मारण्य है।’ फिर 84वें अध्याय में लिखा है कि :

ततो गयां समासाद्य ब्रह्मचारी समाहित:।

अश्‍वमेधमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्॥ 82॥

ततो ब्रह्मसरो गत्वा धर्मारण्योपशोभितम्॥ 85॥

‘उसके बाद ब्रह्मचर्यपूर्वक मन को एकाग्र कर के गया जाने से अश्‍वमेध का फल और कुल का उद्धार होता है। फिर (गया में ही) ब्रह्मसर में जाना चाहिए जो धर्मारण्य से शोभित है।’ यही बात पर्पिुंराण के स्वर्गखण्ड में भी है। स्कंदपुराण में तो ब्रह्मखण्ड का एक भाग ही धर्मारण्य है जिसमें धर्म के तप आदि का सविस्तार वर्णन है। जिसे बरेली, सीतापुर वगैरह का प्रदेश या वर्तमान नैमिषारण्य ही कुछ विस्तृत रूप में धर्मारण्य सिद्ध होता है। जैसा कि उसके 25वें अध्याय में लिखा है :

मू. उ. - अथान्यत्संप्रवक्ष्यामि तीर्थमहात्म्यमुत्तामम्।

धर्मारण्ये यथानीता सत्यलोकात्सरस्वती॥ 1॥

भगवन्नैमिषारण्ये सत्रो द्वादशवार्षिके।

त्वयावतररिता ब्रह्मन्नदी या ब्राह्मण: सुता॥ 6॥

मा. - धर्मारण्ये मया विप्रा: सत्यलोकात्सरस्वती।

समानीता सुरेखाद्रौ शरण्या शरणर्थिनाम्॥ 10॥

‘सूत ने कहा कि हम धर्मारण्य का दूसरा महात्म्य सुनाते हैं कि जैसे ब्रह्मलोक से वहाँ सरस्वती लाई गई। मुनियों ने मार्कंडेय से प्रश्‍न किया कि आप ने नैमिषारण्य में सरस्वती कैसे लाई। उन्होंने उत्तर दिया कि शरणोच्छुओं को शरण देने वाली सरस्वती पहले मैंने सुरेख पर्वत पर ला कर फिर धर्मारण्य में लाई।’ इससे धर्मारण्य में सरस्वती का लाया जाना सिद्ध है और शल्यपर्व से पता लगता है कि सरस्वती की सात धाराओं में एक नैमिषारण्य में थी। इससे नैमिषारण्य और धर्मारण्य एक ही सिद्ध होते हैं और पूर्व के श्‍लोकों से भी। आगे चल कर धर्मारण्य में यज्ञ करने के लिए श्री रामचंद्र जी की यात्रा का वर्णन करते हुए 31वें अध्याय में लिखा है कि अयोध्या से प्रथम थोड़ा उत्तर और फिर पश्‍चिम जा कर 10वें दिन धर्मारण्य में पहुँचे। जैसा कि आगे है:

वसिष्ठं चाग्रत: कृत्वा महामाण्डलिकैनृपै:।

पुनश्‍चविधिं कृत्वां प्रस्थितश्चोत्तरां दिशम्॥ 82॥

वसिष्ठं चाग्रत: कृत्वा प्रतस्थे पश्‍चिमां दिशम्।

ग्रामाद्ग्रामतिक्रम्य देशाद्देशं वनाद्वनम्॥ 83॥

दशमेऽहनि सम्प्राप्तं धर्मारण्यमनुत्तामम्॥84॥

पहले जमाने में अयोध्या से 8-10 दिनों का पैदल रास्ता, सो भी नौकर-चाकर और दल-बादल के साथ और उत्तर-पश्‍चिम दिशा में वही बरेली, सीतापुर का प्रदेश ही हो सकता है। वहाँ यह भी लिखा है कि यज्ञ के बाद श्री राम जी ने सीता जी के नाम से सीतापुर बसाया है। अब भी सीतापुर में सीता जी की मूर्ति मौजूद है। वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड के 91-92वें सर्गों में श्री राम जी का नैमिषारण्य में ही अश्‍वमेध करना यों लिखा है :

यज्ञवाटश्‍च सुमहान्गोमत्या नैमिषे वने॥ 15॥

अनुभूय महायज्ञ नैमिषे रघुनन्दन:॥ 17॥

ऋत्विग्भिलक्ष्मणं सार्द्धमश्‍वेच विनियुज्य च।

ततोऽभ्यगच्छत्काकुत्स्थ: सहसैन्येन नैमिषम्॥ 2॥

‘श्री रघुनन्दन ने इस बात की आवश्यकता अनुभव की कि अश्‍वमेध महायज्ञ गोमतीवाले नैमिषारण्य में ही होना चाहिए और वहीं महती यज्ञशाला बननी चाहिए। ऋत्विजों के साथ लक्ष्मण को यज्ञ के अश्‍व की रक्षा में नियुक्‍त कर सेना के साथ श्रीराम जी नैमिषारण्य को गए।’ इससे निर्विवाद सिद्ध है कि नैमिषारण्य का ही कुछ विस्तृत रूप धर्मारण्य हैं। सिद्धपुर के निकट और गया और धर्मारण्य न तो अयोध्या के 8-10 दिन के पैदल रास्ते पर हैं, न उत्तर-पश्‍चिम में है, न वहाँ गोमती ही है और न उन्हें नैमिषारण्य कहते ही हैं। पर, यहाँ एक बात ध्यान रखने की है कि सीतापुर से कानपुर तक विस्तृत रहने पर भी धर्मारण्यतीर्थ, जिसका विशेष महत्व है, उतना विस्तृत न था। किंतु वह तो संकुचित ही रहा होगा। जैसा कि काशी बृहत् और लघु पंचकोशी 84 और 25 की होने पर भी उसका विशेष महात्म्य वरुणा और अस्सी के बीच में ही है। इसीलिए वहाँ के ब्राह्मणों के बालकों का धर्मारण्य तीर्थ या क्षेत्र के निकट गाएँ चराने का वर्णन आया है, न कि समूचे धर्मारण्य से बाहर। उसी धर्मारण्य में प्रथम ब्रह्मा, विष्णु और महेश द्वारा जिन 18000 ब्राह्मणों की स्थापना हुई थी, उन्हीं को अश्वमेध यज्ञ के अनंतर रामचंद्र जी ने उस धर्मारण्य का राज्य ताम्रपत्र लिख कर दिया। वे ब्राह्मण चुन-चुन कर त्रिदेवों द्वारा अनेक देशों से लाए गए थे और साक्षात ऋषि थे। हमने ग्रन्थ में यह दिखलाया है कि इन्हीं पवित्रात्मा ब्रह्मर्षियों के वंश में वर्तमान जमींदार, भूमिहार आदि ब्राह्मण हैं, जिनका विस्तार (विस्तार) बहुत दूर तक हुआ है। इसी से ग्रन्थ का नाम भी ब्रह्मर्षि वंश विस्तर है। मगर इसका यह अभिप्राय नहीं है कि सिर्फ धर्मारण्य के ब्राह्मण ऋषियों (ब्रह्मर्षियों) के ही वंशज आजकल के अयाचक और याचक, त्यागी, महियाल, जमींदार, भूमिहार, पश्‍चिम, चितपावन, नागर, जगद्वंशी धानंजयी, जाजपुरी, मैथिल, कनौजिया, गौड़, सारस्वत आदि ब्राह्मण हैं। उनके वंशधार तो कुछ ही लोग हो सकते हैं। शेष ब्राह्मण तो अन्य ब्रह्मर्षियों के ही वंशज हैं, जिन्हें गोत्रकार ऋषि भी कहते हैं। अस्तु।

उन धर्मारण्य के ब्राह्मणों की सामाजिक स्थिति का मनोहर और विशद् वर्णन ग्रन्थ के 51वें पृष्ठ में आया है। उन्हें त्रिदेवों ने स्थापित किया था इसी से त्रौविद्य कहे जाते थे। मगर पीछे से राजा कुमारपाल द्वारा राज्य हरण कर लेने पर उनमें से 3000 तो रामेश्‍वर की ओर हनुमान की सहायता के लिए गए। क्योंकि उन्हें श्री राम जी का आदेश था कि संकट आने पर मेरा और हनुमान का स्मरण करने से वह दूर हो जावेगा। शेष 15000 वहीं राजा के बहकाव से और जप, होम, पूजा आदि के लिए भी रहे, जिन्हें राजा ने सुखवास स्थान में रखा था। यही लोग पीछे चातुर्विद्य कहे गए। क्योंकि तीन देवों के सिवाय चतुर्थ (राजा) की सहायता इन्होंने अपने रहने में ली। मगर उन 3000 ने दूसरे की सहायता न ली और रामेश्‍वर की ओर से हनुमान जी की कृपा से दो पुड़िया ले कर आए और जैसाकि ग्रन्थ में लिखा जा चुका है, एक पुड़िया से राजा कुमारपाल का राजभवन जला कर उसके शरणागत होने पर दूसरी से अग्नि को शांत कर दिया और इस प्रकार अपनी तपो महिमा और शक्‍ति से फिर धर्मारण्य का राज्य प्राप्त कर लिया। क्योंकि राजा ने अपराध क्षमा कराके उनका राज्य उन्हें सौंप दिया। इसी से वे त्रौविद्य ही कहाते रह गए। यह सभी बातें नीचे के श्‍लोकों से स्पष्ट है :

यस्मिन्स्थाने च ये विप्रा: सदाचारशुभव्रता:

अशेषधर्मकुशला: सर्वशास्त्रविशारदा:॥ 19॥

तपोज्ञाने महाख्याता ब्रह्मयज्ञपरायणा:।

स्थापिता ऋषय: सर्वे सहस्राण्यष्टादशैवतु॥ 20॥

नानादेशात्समानीय स्थापितास्तत्र वै सुरै:॥ 219॥

त्रयीविद्यास्तु विख्याता: सर्वे वाडवपुंगवा:।

सहस्राणि च त्रीण्येव त्रैविद्याअभवन्धु्रवम्॥ 120॥

पंचदश सहस्राणि ततस्तु द्विजपुंगवा:।

यथागतं गता: सर्वे चातुर्विद्या द्विजोत्तमा:॥ 124॥

ते पंचदशसाहस्रा: पुनस्तानूचुरादरात्।

अस्माभिरत्रास्थातव्यमग्निसेवार्थतत्परै:॥ 138॥

त्रिसाहस्रास्तदातस्मात्प्रस्थिताद्विजसत्तामा:॥ 147। 36।

त्रयीविद्यास्तु ते ज्ञेया स्थापिता ये त्रिमूर्त्तिभि:।

चतुर्थेनैव भूपेन स्थापिता: सुखवासने॥ 80॥

ते बभूबुर्द्धिजश्रेष्ठाश्‍चातुर्विद्या: कलौयुगे।

चातुर्विद्याश्‍चतेसर्वे धर्मारण्ये प्रतिष्ठिता:॥ 81॥ 39॥

इन सभी का निचोड़ यह है कि ‘नाना देशों से ढूँढ़ कर 18000 वेदशास्त्र पारंगत, सदाचारी, तपस्वी, धर्मात्मा ब्राह्मण महर्षि (ब्रह्मर्षि) ब्रह्मा, विष्णु, महेश द्वारा धर्मारण्य में स्थापित किए गए। यद्यपि सभी त्रैविद्य कहलाते थे। पर, पीछे से 3000 ही कहलाते रह गए। 15000 उत्तम ब्राह्मण जैसे आए थे वैसे ही चले गए और वे चातुर्विद्य कहलाए। उन्होंने 3000 विप्रों को कहा कि हम लोग यहीं अग्निहोत्रादि करने के लिए रह जाते हैं। इसलिए उस समय वे 3000 ही रामेश्‍वर को रवाना हुए। जिन्हें त्रिदेवों ने प्रथम स्थापित किया था वे सभी त्रैविद्य कहाते थे। मगर पीछे जिनको चतुर्थ राजा ने रामेश्‍वर जाने से रोक कर सुखवास नामक स्थान में रख लिया वे लोग कलि में चातुर्विद्य कहलाए। वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण धर्मारण्य में प्रतिष्ठित हो गए।’ उन्हें वाडव भी कहा है और वाडव का अर्थ ब्राह्मण हैं, जैसा कि अमरकोश आदि में लिखा है। बडवा ब्राह्मणी को कहते हैं और उसके ब्राह्मण द्वारा जो पुत्र हो उसी का नाम वाडव हैं। यह बात अमरकोश के द्वितीय कांड के ब्राह्मण वर्ग और उसकी टीका रामाश्रमी ने स्पष्टतया लिखी है। ग्रन्थ के 129-132 पृष्ठों को देख कर इस इतिहास का मिलान कर लेना चाहिए।

3. याचक और अयाचक

ग्रन्थ में बहुत जगह जो प्रवृत्त और निवृत्त शब्द आए हैं उनके सम्बन्ध में लोगों का कहना है कि ये शब्द सकाम और निष्काम कर्म अथवा सांसारिक और विरक्‍त के वाचक है, न कि याचक और अयाचक या पुरोहित और उससे भिन्न के। हमें इसमें विवाद नहीं हैं कि इन शब्दों के उक्‍त अर्थ भी हो सकते हैं। पर, याचक और अयाचक आदि अर्थ नहीं हो सकते इसे हम न तो मान ही सकते और न यह संभव ही है। ग्रन्थ के 85-86 आदि पृष्ठों से आईने की तरह झलकता है कि वहाँ प्रवृत्त और निवृत्त शब्दों के याचक, अयाचक के सिवाय और अर्थ हो ही नहीं सकते। इसमें तो वाद-विवाद के लिए स्थान है ही नहीं। लेकिन जिन मूर्खों ने इन शब्दों का द्वैत और अद्वैत अर्थ किया है उन्होंने तो कमाल ही कर डाला है! मगर उनके बारे में कुछ न कहना ही उचित है। क्योंकि यह उनकी अनोखी सूझ हैं जो कथमपि संभव नहीं और न जिसे आज तक किसी ने माना ही है।

बहुत लोगों का कहना है कि पुरोहित याचक नहीं हो सकता, पुरोहित और याचकता एक चीज नहीं है। निस्संदेह पुरोहिती और याचकता कभी भी एक चीज नहीं हैं और न हमने ऐसा लिखा ही है। पर, पुरोहित समाज को हमने याचक अवश्य लिखा है और वह अनुचित नहीं, ठीक ही है। याचक नाम है माँगनेवाले का, दो-देही कहनेवाले का। फिर भी, माँगनेवाला हाथ फैलाता है और पुरोहित भी दान लेने के समय या दक्षिणा के समय अवश्य हाथ फैलाता है। इसी समानता से पुरोहित को भी याचक कहा है। जैसे श्येन नाम बाज पक्षी का हैं। मगर अभिचार कर्म का नाम श्येन इसी कारण रखा गया है कि जैसे श्येन दूसरे पक्षियों को अपने चंगुल में फँसा लेता है उसी तरह वह अभिचार कर्म भी शत्रु को फँसा कर मार डालता हैं। यह वैदिक कर्म के ज्ञाता मीमांसकों को विदित हैं। इसी प्रकार 'सिंहो देवदत्त:' - देवदत्त तो सिंह हैं, इत्यादि व्यवहारों में भी जान लेना चाहिए। सिंह कहने से देवदत्त जंगल का जानवर नहीं हो जाता अथवा आजकल के सिंह नामधारी पशु नहीं हैं।

रह गई एक बात। कभी-कभी लोग यह कह बैठते हैं कि जो अयाचक हैं, या उस दल के हैं वे पुरोहिती नहीं कर सकते। नहीं तो फिर अयाचक कैसे रहेंगे, या उनका दल अयाचक क्यों कर कहलाएगा? मगर विचारना तो यह है कि पुरोहितों में भी बहुतों के अयाचक रहने पर भी जैसे उसका दल याचक कहलाता है। कारण, उनमें प्रधानता या मनोवृत्ति अधिकांश लोगों की उसी तरफ पाई जाती है। मालूम होता है, कि उन पर गोया पुरोहिती की छाप लगी हुई हैं। ठीक उसी प्रकार अयाचक दल में भी कुछ पुरोहितों के होने से भी वह दल अयाचक ही कहलाएगा। क्योंकि प्रधानता या छाप तो उसी की है और मनोवृत्ति भी वैसी ही है। नियम भी है कि जिसकी प्रधानता होती है उसी से व्यवहार किया जाता है। जैसे जिस गाँव में ब्राह्मणों की प्रधानता हो वह ब्राह्मणों का गाँव कहाता है। मगर इसका यह अर्थ नहीं है कि उस गाँव में दो-चार घर भी शूद्रादि न होंगे। यह बात ग्रन्थ में लिखी जा चुकी हैं। एक बात यह भी कही जा चुकी हैं कि पुरोहिती का ग्रहण या त्याग तो व्यक्‍तिगत धर्म है न कि ब्राह्मणों में कोई ऐसा समाज हो सकता है जो पुरोहिती से एकबारगी ही अलग हो। फिर क्षत्रियों में और उस समाज में बाहरी व्यवहार में फर्क क्या रह जावेगा? दुनिया तो व्यवहार ही देखती है। शास्त्र कौन देखने जाता है? इसलिए इच्छा हुई तो हमने आज पुरोहिती की और कल छोड़ दी। फिर परसों कर ली। इसका कोई नियम न तो हो सकता है और न होना उचित है। शास्त्रकारों ने इसके लिए कोई बंधन नहीं रखा है। और शास्त्र दृष्टि से ब्राह्मणों में याचक या अयाचक नाम का कोई दल हो नहीं सकता। हाँ, व्यक्‍तिगत रूप से प्रवृत्त, निवृत्त या याचक, अयाचक ये दो प्रकार के ब्राह्मण हो सकते हैं। एक भाई याचक है तो दूसरा अयाचक। अभी तक यह होता भी आया है। मगर यह दलबंदी तो बहुत ही हाल की है, जैसे गौड़, मैथिल आदि दलबंदी। मगर यह वहीं तक ठीक है जहाँ तक व्यवहार और शास्त्र का विरोध न हो। मगर यदि पुरोहिती के न करने और करने का किसी दल विशेष का अधिकार दे दिया जावे तो फिर शास्त्र और व्यवहार दोनों का विरोध होगा फलत: अत्याचार होना अनिवार्य है, जैसा कि हम देख भी रहे हैं। मनुस्मृति के चौथे अध्याय के प्रारंभ में श्‍लोकों से स्पष्ट है कि याचित और अयाचित वृत्तियों से ब्राह्मण जीविका करते हैं और यह उनकी मर्जी पर है कि चाहे जिसे करें। मगर वहाँ की याचिक वृत्ति पुरोहिती नहीं है किंतु भिक्षा।

इसी सम्बन्ध में एक बात दक्षिणा और प्रतिग्रह की है। इन दोनों शब्दों का अर्थ और इनका भेद ग्रन्थ में प्रतिपादित है। जिसका निचोड़ यह है कि दक्षिणा तो कर्म कराने की मजदूरी है और प्रतिग्रह किसी के पापों को हटाने के लिए अपना ब्रह्मतेज या तपोबल दे कर उसके बदले में अन्न, धनादि के स्वीकार को कहते हैं। और पुरोहिती के अन्तर्गत प्रतिग्रह खामख्वाह आ भी नहीं जाता। हाँ, दक्षिणा तो पुरोहित को लेनी ही पड़ती है और वह ठीक भी है, जिसे वह अपने काम में ला सकता है। मगर प्रतिग्रह के लिए तो वह मजबूर नहीं है और चाहे तो ले कर किसी परोपकार कार्य में लगा सकता है। इसलिए दक्षिणा और प्रतिग्रह या दान लेने को एक समझ कर जो पुरोहिती करने में हो-हल्ला मचाया जाता है वह नितान्त अनुचित और हेय है।

4. अशौच और उसका संकर

पूर्व परिशिष्ट में ब्राह्मण के जन्म और मरण के अशौच का साधारण विचार किया गया है। कभी-कभी ऐसा होता है कि दो-तीन अशौच एक साथ आगे-पीछे पड़ जाते हैं। उनके विषय में यद्यपि मनु जी का मोटा और साधारण सिद्धांत यही बताया गया है कि पहले अशौच के दस दिन के भीतर यदि दूसरा अशौच हो जावे तो पहले ही से दूसरे की निवृत्ति हो जाती है। तथापि उसके विषय में थोड़ा सा सूक्ष्म विचार भी कर लेना आवश्यक है। साधारणतया यही नियम हैं कि ब्राह्मण के सपिंड को दस दिन का और सो (समानों) दक को तीन दिन का अशौच होता है। जैसा कि मनु ने 5वें अध्याय में लिखा है - ‘दशाहं शावमाशौचं सपिण्डेषु विधीयते। 59। त्रयहादुदकदायिन:। 64। जन्मन्येकोदकानांतु त्रिरात्राच्छुद्धिरिष्यते। 79।’ जन्मे या मरे से सातवीं पीढ़ी तक पिता के वंश में और माता के कुल में पाँचवीं पीढ़ी तक को सपिंड कहते हैं और उसके बाद तो जहाँ तक कुल के किसी भी पुरुष के जन्म और नाम का ज्ञान हो वहाँ तक पिता पक्ष में सोदक कहलाते हैं। जैसा कि याज्ञवल्क्य और मनु ने कहा है :

पंचमात्सप्तमादूधर्वं मातृत: पितृतस्तथा॥ या. 53॥

समानोदकभावस्तुजन्मनाम्नोरवेदने। म. 5। 60॥

परंतु यदि पुत्र वा पुत्री नामकरण से प्रथम ही मर जावे तो स्नान मात्र से ही शुद्धि हो जाती है। उसके बाद और दाँत निकलने से पहले ही मरने पर यदि दाह करे तो एक दिन में और यदि न करे तो स्नान मात्र से ही शुद्धि होती है। दाँत निकलने पर प्रथम वर्ष में ही मुंडन से प्रथम ही मरने पर एक दिन में और उसके बाद मुंडन हो जाने पर तीन वर्ष पर्यन्त तीन दिन में पुत्र का और कन्या का तो वाग्दान से पहले मुंडन न होने तक स्नान मात्र से ही और मुंडन हो चुकने पर एक दिन में अशौच निवृत्त हो जाता है। पर, कन्या के विषय में सपिंडता वाग्दान से प्रथम तीन ही पुरुष तक मानी जाती है। यदि पुत्र का मुंडन तीन वर्ष तक भी न हुआ हो तो एक ही दिन का अशौच होता है। तीन वर्ष के बाद तो मुंडन न होने पर भी उपनयन पर्यन्त तीन दिन का अशौच होता है और उपनयन के बाद दस दिन का। वाग्दान (तिलक) के बाद और विवाह से पहले कन्या का अशौच पिता और पति दोनों कुल में तीन दिन का लगता हैं और विवाह हो जाने पर सिर्फ पति कुल को ही दस दिन का अशौच होता है। दाँत निकलने के बाद और तीन वर्ष पहले मरने पर दाह और पिंडदानादि करना, न करना अपनी इच्छा पर हैं। पर, बाद को तो करना ही होगा। दो वर्ष से कम अवस्थावाले का दाह न कर शुद्ध भूमि में गाड़ देना चाहिए। पर गंगाजल में निक्षेप करने के लिए कोई रोक-टोक नहीं है। जिसे चाहें फेंक सकते हैं। सभी अशौच मालूम होने पर ही होते हैं। न मालूम होने पर नहीं। यही मनु, याज्ञवल्क्य और मिताक्षरा आदि का निचोड़ है। जैसा कि :

आदंतजन्मन: सद्य आचूडान्नैशिकी स्मृता।

त्रिरात्रमाव्रतादेशाद्दशरात्रमत:परम्। या. प्रा. 23॥

ऊनद्विवार्षिकं प्रेतं दिनधयुर्बान्धावा बहि:।

अलंकृत्य शुचौ भूमावस्थिसंचयवादृते॥ 68॥

नात्रिवर्षस्य कर्त्तव्या बान्धवैरुदकक्रिया।

जातदंतस्य वा कुर्युर्नाम्नि वापिकृतेसति॥ 70॥

स्त्रीणामसंस्कृतानां तु त्रयहाच्छुद्धय्न्तिबान्धवा:।

यथोक्‍तेनैव कल्पेन शुद्धयन्तितु सनाभय:। 72॥ म.॥

प्राङ्नामकरणात्सद्य: शौचन्तदूधर्वं दंतजननादर्वागग्निसंस्कारक्रियायामेकाह:, इतर्था सद्य:शौचम्। जादंतस्य च प्रथमवार्षिकाच्चौलादर्वागेकाह:। प्रथमवर्षादूधर्वं त्रिवर्ष पर्यन्तं कृत चूडस्यत्रयहम् इतरस्यत्वेकाह:। वर्षत्रायादूधर्वमकृतचूडस्यापित्रयहम्। उपनयनादूधर्वं सवरेंषां ब्राह्मणादीनां दशरात्रदिकम्। अप्रत्तानांतुस्त्रीणां त्रिपुरुषी (सपिंडता) विज्ञायतइतिवसिंष्ठस्मरणादितिमिताक्षरा या.॥ प्रा.। 23-24॥

अशौच में एक बात का और भी विचार रहना चाहिए कि वह दो प्रकार का होता है, एक तो स्पर्श की अयोग्यता और दूसरे कर्म की अयोग्यता। इनमें मरणाशौच में तो दोनों ही प्रकार का अशौच साधारणतया माना जाता है। परंतु जन्म में माता को तो दोनों प्रकार का होता है। परंतु स्नान के बाद पिता स्पर्श योग्य हो जाता है और अन्य सपिंड तो सदा ही स्पर्श योग्य होते हैं। परंतु कर्म की योग्यता नहीं रहती है जब तक कि पूरे दिन न बीत जावे। मनु जी का यही अभिप्राय नीचे के श्‍लोक से स्पष्ट है :

सर्वेषां शावमाशौचं माता पित्रोस्तु सूतकम्।

सूतकं मातुरेव स्यादुपस्पृश्य पिता शुचि:॥ 5। 62॥

इसलिए जो कोई सपिंड विदेश में हो तो दशाह के बाद और एक वर्ष के भीतर जन्म या मरण की खबर मिलने पर तीन दिन तक कर्म अनधिकारी रहता है। मगर सवस्त्र स्नान के बाद छूने योग्य हो जाता है। मगर एक वर्ष के बादखबर मिलने पर तो सिर्फ स्नान कर लेने पर ही पवित्र हो जाता है। जैसा कि मनु ने कहा है :

अतिक्रान्ते दशाहे च त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्।

सवत्सरे व्यतीते तु स्पृष्ट्वैववापो विशुद्धयति॥ 76॥

निदशं ज्ञातिमरणं श्रुत्वा पुत्रस्य जन्म च।

सवासां जलमाप्लुत्य शुद्धो भवति मानव:॥ 5॥ 77॥

गर्भपात हो जाने पर जितने महीने का गर्भ हो उतने दिनों तक स्त्री अपवित्र रहती है। किसी का मत है कि तीन महीने के बाद के ही गर्भ का यह नियम है और छठे मास तक के ही लिए। इसके बाद तो पूरा अशौच लगता है। रजस्वला स्त्री तीन दिन तक अपवित्र रहती हैं और चौथे दिन स्नान कर शुद्ध होती है। जैसाकि मनु ने कहा है :

रात्रिभिर्मासतुल्याभि:गर्भस्रावे विशुद्धयति।

रजस्युपरते साध्वी स्नानेन स्त्री रजस्वला॥ 5। 6॥

समान, असमान, सजातीय, विजातीय इस तरह अशौच चार प्रकार का होता है और इनमें से दो से अधिक यदि एक साथ या आगे-पीछे प्रथम की निवृत्ति के पहले ही पड़ जावे तो उसे अशौचसंकर कहते हैं। जिन अशौचों की दिन संख्या बराबर हो वे समान और जिनकी बराबर न हो वे असमान हैं। इसी तरह जन्म संबंधी सभी अशौच परस्पर सजातीय हैं और मरण संबंधी भी। परंतु मरण और जन्म एक दूसरे के विजातीय हैं। सजातीय अशौच का यह नियम हैं यदि अधिक दिनवाले के भीतर उसका सजातीय कम दिनवाला या बराबर वाला अशौच हो जावे तो पहले से ही दूसरे की भी निवृत्ति हो जाती है। परंतु यदि अधिक दिनवाला कम दिनवाले सजातीय के भीतर आ पड़े तो अधिक दिनवाले से ही कम दिनवाला निवृत्त होता है। जैसा कि याज्ञवल्क्य और उसकी मिताक्षरा में उशना का वचन हैं कि :

अन्तरा जन्ममरणे शेषाहोमिर्विशुध्यति। प्रा. 20।

स्वल्पाशौचस्य मध्येतु दीर्घाशौचं भवेद्यदि।

नपूर्वेणविशुद्धि:स्यात्स्वकालेनैव शुध्यति॥ उश.॥

विजातीय का यह नियम है कि चाहे मरण में जन्म हो या जन्म में मरण, पर, मरणाशौच की निवृत्ति से ही जनना शौच की भी निवृत्ति होती है। फिर चाहे मरण समान हो या असमान। जैसा कि अंगिरा का वचन है कि :

सूतके मृतकं चेत्स्यान्मृतकेत्वथ सूतकम्।

तत्राधिकृत्य मृतकं शौचं कुर्यान्न सूतकम्॥

परंतु माता-पिता के मरण के संकर में मिताक्षराकार ने लिखा है कि यदि माता के मरने पर बीच में ही पिता मर जावे तो पिता के ही अशौच की निवृत्ति से माता के भी अशौच की शुद्धि होती है। और यदि पिता के बाद माता मरी हो तो पिता के अशौच के बाद दो दिन और उनके बीच की रात बिता कर शुद्ध होता है। जैसा कि :

मातर्यग्रे प्रमीतायाशुद्धौ म्रियते पिता।

पितु: शेषेण शुद्धि:स्यान्मातु:कुर्यात्तु पक्षिणीम्।

यद्यपि पूर्व प्रदर्शित याज्ञवल्क्य के वचनानुसार और मनु ने भी लिखा है कि दस दिन के भीतर यदि दूसरा जन्म या मरण हो जावे तो तभी तक अशौच रहता है जब तक कि दस दिन पूरा नहीं होता। जैसा कि :

अन्तर्दशाहे स्यातां चेत्पुनर्मरणजन्मनी।

तावत्स्यादशुचिर्विप्रो यावत्तात्स्यात्तदनिर्दशम्॥ 5॥ 79॥

तथापि यही सिद्धांत किया गया है कि दस दिन के भीतर का अर्थ है नौवें दिन और रात के तीन पहर तक। इसलिए यदि उस समय तक कोई दूसरा अशौच आ जावे तो पूर्व से ही वह भी निवृत्त हो जावेगा। जैसा कि बौधायन ने प्रथम प्रश्‍न के पाँचवें अध्याय में कहा है :

अथ यदि दशरात्रात्सन्निपतेयुराद्यंदशरात्रामाशौचमानवमाद्दिवसात्। 124।

परंतु उसके बाद दसवें दिन की शाम तक दूसरे अशौच के हो जाने पर पहले के पूरा होने के दो दिन बाद शुद्धि होती है और शाम के बाद एक पहर रात रहे तक होने पर तीन दिन और बिताना पड़ता है। रात्रि का संस्कृत नाम त्रियामा है, जिससे तीन ही पहर की रात मानते हैं और शेष पहर प्रात:काल कहलाता है। यह बात गौतम, वसिष्ठ, शातातप स्मृतियों में लिखी है। जैसा कि :

रात्रिशेषे सतिद्वाभ्यांप्रभाते सति तिसृभि:। व. 4। 23।

रात्रिशेषे द्वयहाच्छुद्धिर्यामशेषेशुचिस्त्रयहात्। शाता.।

अशौच के अंतिम या दसवें दिन गाँव से बाहर स्नान करना, कपड़ा बदलना, दाढ़ी-मूँछ आदि बनवाना और नख कटवाना चाहिए, न कि उसके बाद या पहले। जैसा कि :

दशमेऽहनि संपाप्तेस्नानं ग्रामाद्वहिर्भवेत्।

तत्रत्याज्यानिवासांसि केशश्मश्रुनखानिच। देवल.॥

प्रेत (मरे) के लिए सोलह श्राद्ध किए जाते हैं जिनका नाम षोडशी है। जिनके नाम ये हैं -ऊन मासिक, प्रथम मासिक, त्रिपाक्षिक, द्वितीय मा., तृ. मा., च., पं, ऊनषाण्मासिक, षाण्मासिक, स., अ., न., दश., एका. ऊनवार्षिक, वार्षिक! यदि बीच में अधिमास हो जावे तो 17 और न्यूनमास हो तो 15 ही होते हैं। इनमें पहला एकादशाह को करते हैं और शेष यथासमय। प्राचीन नियम यही था कि वार्षिक श्राद्ध जो 12वें मास में होता है उसी के बाद सपिंडीकरण श्राद्ध किया जावे और बिना सपिंडी के कोई मंगल कार्य घर में न हो। मगर अब ऐसा नियम है कि साधारणतया एकादशाह को पहला श्राद्ध कर के शेष 15 को द्वादशाह के दिन करते हैं उसी दिन सपिंडन भी किया जाता है। अथवा सोलहों श्राद्ध एकादशाह को ही कर डालते हैं। सिर्फ सपिंडन द्वादशाह को करते हैं। दोनों प्रकार के वचन मिलते हैं। मगर फिर सपिंडन के बाद भी मासिक आदि श्राद्ध किए जाते हैं और उन्हें अवश्य करना चाहिए और पूरा वर्ष बीतने पर वार्षिक होना चाहिए, न कि बीच में ही, क्योंकि उसका नाम ही वार्षिक है। सब सपिंडन हो गया तो फिर मंगल कार्य करने में कोई हर्ज नहीं है। ब्रह्मभोज भी श्राद्ध के दिन ही होना चाहिए यही निचोड़ है।

5. गोत्र, प्रवर और साधारण होम

विवाह आदि संस्कारों में और साधारणतया सभी धार्मिक कामों में गोत्र प्रवर और शाखा आदि की आवश्यकता हुआ करती है। इसीलिए उन सभी का संक्षिप्त विवरण आवश्यक हैं। समान गोत्र प्रवर की कन्या के साथ विवाह करने से जो संतान होती है वह चाण्डाल श्रेणी में गिनी जानी चाहिए। जैसा कि यमस्मृति का वचन हैं कि:

आरूढपतितापत्यं ब्राह्मण्यां यश्‍चशूद्रज:।

सगोत्रोढासुतश्‍चैव चाण्डालास्त्रायईरिता:॥

‘संन्यासी का पुत्र, ब्राह्मणी स्त्री से शूद्र का पुत्र और समान गोत्र वाली कन्या से विवाह कर के जन्माया पुत्र, ये तीनों चाण्डाल कहाते हैं’ पर देखते हैं कि सभी देशों के ब्राह्मण आदि समाजों में ऐसा बहुधा होता है। यहाँ तक कि बहुतों को तो गोत्र का ज्ञान भी नहीं होता। प्रवर, शाखा आदि की बात ही दूर रहे। और विवाह गोत्र भिन्न रहने पर भी यदि प्रवरों की एकता हो जावे तो भी नहीं होना चाहिए। जैसा कि पूर्वपरिशिष्ट में लिखा गया।

गोत्र नाम है कुल, संतति, वंश, वर्ग का। यद्यपि पाणिनीय सूत्रों के अनुसार 'अपत्यं पौत्राप्रभृतिगोत्रम्' 4-1-162, पौत्रा आदि वंशजों को गोत्र कहते हैं। तथापि वह सिर्फ व्याकरण के लिए संकेत है। इसी प्रकार यद्यपि वंश या संतति को ही गोत्र कहते हैं तथापि विवाह आदि में जिस गोत्र का विचार है वह भी सांकेतिक ही है और सिर्फ विश्‍वामित्रा, जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप और अगस्त्य, इन आठ ऋषियों या इनके वंशज ऋषियों की ही गोत्र संज्ञा है। जैसाकि बोधयन के महाप्रवराध्याय में लिखा है कि :

विश्‍वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतम:।

अत्रिवर्सष्ठि: कश्यपइत्येतेसप्तर्षय:॥ सप्तानामृषी-

णामगस्त्याष्टमानां यदपत्यं तदोत्रामित्युच्यते॥

इस तरह आठ ऋषियों की वंश-परम्परा में जितने ऋषि (वेदमन्त्र द्रष्टा) आ गए वे सभी गोत्र कहलाते हैं। और आजकल ब्राह्मणों में जितने गोत्र मिलते हैं वह उन्हीं के अन्तर्गत है। सिर्फ भृगु, अंगिरा के वंशवाले ही उनके सिवाय और हैं जिन ऋषियों के नाम से भी गोत्र व्यवहार होता है। इस प्रकार कुल दस ऋषि मूल में है। इस प्रकार देखा जाता है कि इन दसों के वंशज ऋषि लाखों हो गए होंगे और उतने ही गोत्र भी होने चाहिए। तथापि इस समय भारत में तो उतने गोत्रों का पता है नहीं। प्राय: 80 या 100 गोत्र मिलते हैं।

जो गोत्र के नाम से ऋषि आए हैं वही प्रवर भी कहाते हैं। ऋषि का अर्थ है वेदों के मंत्रों को समाधि द्वारा जाननेवाला। इस प्रकार प्रवर का अर्थ हुआ कि उन मन्त्रद्रष्टा ऋषियों में जो श्रेष्ठ हो। प्रवर का एक और भी अर्थ है। यज्ञ के समय अधवर्यु या होता के द्वारा ऋषियों का नाम ले कर अग्नि की प्रार्थना की जाती है। उस प्रार्थना का अभिप्राय यह है कि जैसे अमुक-अमुक ऋषि लोग बड़े ही प्रतापी और योग्य थे। अतएव उनके हवन को देवताओं ने स्वीकार किया। उसी प्रकार, हे अग्निदेव, यह यजमान भी उन्हीं का वंशज होने के नाते हवन करने योग्य है। इस प्रकार जिन ऋषियों का नाम लिया जाता है वही प्रवर कहलाते हैं। यह प्रवर किसी गोत्र के एक, किसी के दो, किसी के तीन और किसी के पाँच तक होते हैं न तो चार प्रवर किसी गोत्र के होते हैं और न पाँच से अधिक। यही परम्परा चली आती हैं। पर, मालूम नहीं कि ऐसा नियम क्यों हैं? ऐसा ही आपस्तंब आदि का वचन लिखा है। हाँ, यह अवश्य है कि किसी ऋषि के मत से सभी गोत्रों के तीन प्रवर होते हैं। जैसा कि :

त्रीन्वृणीते मंत्राकृतोवृणीते॥ 7॥

अथैकेषामेकं वृणीते द्वौवृणीते त्रीन्वृणीते न चतुरोवृणीते न

पंचातिवृणीते॥ 8॥

जो दस गोत्र कर्ता ऋषि मूल में बताए गए हैं, उनके वंश का विस्तार बहुत हुआ और आगे चल कर जहाँ-जहाँ से एक-एक वंश की शाखा अलग होती गई वहाँ से उसी शाखा का नाम गण कहलाता है और उस शाखा के आदि ऋषि के नाम से ही वह गण बोला जाता है। इस प्रकार उन दस ऋषियों के सैकड़ों गण हो गए हैं और साधारणतया यह नियम है कि गणों के भीतर जितने गोत्र हैं न तो उनका अपने-अपने गण-भर में किसी दूसरे के साथ विवाह होता है और न एक मूल ऋषि के भीतर जितने गण हैं उनका भी परस्पर विवाह हो सकता है। क्योंकि सबका मूल ऋषि एक ही है। हाँ, भृगु और अंगिरा के जितने गण हैं उनमें हरेक का अपने गण के भीतर तो विवाह नहीं हो सकता पर, गण से बाहर दूसरे गण में तभी विवाह होगा जबकि दोनों के प्रवर एक न हो जावे। प्रवर एक होने का भी यह अर्थ नहीं कि दोनों के 3 या 5 जितने प्रवर हैं सब एक ही रहें। बल्कि यदि दोनों के तीन ही प्रवर हों और उनके दो ऋषि दोनों में हों तो यह प्रवर एक ही कहलाएगा। इसी प्रकार यदि पाँच प्रवर हों तो तीन के एक होने से ही एक होगा। सारांश, आधे से अधिक ऋषि यदि एक हों तो समान प्रवर हो जाने से विवाह नहीं होना चाहिए। जैसा कि बोधयन ने लिखा है :

द्वयार्षेयसन्निपातेऽविवाहस्त्रयार्षेयाणांत्रयार्षेयसन्निपातेऽविवाह:प×चार्षेयाणामसमानप्रवरैर्विवाह:॥

इसीलिए बोधयन आदि ने गोत्र का जो सांकेतिक अर्थ किया है उसमें भृगु और अंगिरा को न कह कर आठ ही को गिनाया है, नहीं तो जैसे अत्रि आदि के गणों में जहाँ तक एक गोत्र कर्ता ऋषि उनके किसी भी गोत्र के प्रवरों में विद्यमान रहे वह वास्तव में एक ही गोत्र कहलाते हैं, चाहे व्यवहार के लिए भिन्न ही क्यों न हों और चाहे उनके प्रवर तीन हों या पाँच। उसी प्रकार भृगु और अंगिरा के भी गणों के प्रवरों में सिर्फ एक ही ऋषि के समान होने से ही उनके तीन और पाँच प्रवरवाले गोत्रों का विवाह नहीं हो पाता। मगर अब हो सकता है। क्योंकि एक ऋषि की समानता का नियम सिर्फ आठ ही ऋषियों के लिए है, न कि भृगु और अंगिरा के लिए भी। जैसा कि -

एक एव ऋषिर्यावत्प्रवरेष्वनुवर्त्तते।

तावत्समानगोत्रत्वमन्यत्रांगिरसोभृगो:॥

भृगु और अंगिरा के वंशजों के जो गण है उसमें कुछ तो गोत्र के उन आठ ऋषियों के ही गण में आ गए हैं और कुछ अलग हैं। इस प्रकार भृगु और केवल भृगु एवं अंगिरा और केवल अंगिरा इस तरह के उनके दो-दो विभाग हो गए हैं। भृगु के 7 गणों में वत्स, विद और आर्ष्टिषेण ये तीन तो जमदग्नि के भीतर आ गए। शेष यस्क, मिवयुव, वैन्य और शुनक ये केवल भार्गव कहाते हैं। इसी प्रकार अंगिरा के गौतम, भारद्वाज और केवल आंगिरस ये तीन गण हैं। उनमें दो तो आठ के भीतर ही है। गौतम के 10 गण हैं, अयास्य, शरद्वन्त, कौमण्ड, दीर्घतमस, औशनस, करेणुपाल, रहूगण, सोमराजक, वामदेव, बृहदुक्थ। इसी प्रकार भारद्वाज के चार हैं, भारद्वाज, गर्ग, रौक्षायण, कपि। केवलांगिरस के पाँच हैं, हरित, कण्व, रथीतर, मुद्गल, विष्णुबृद्ध। इस तरह सिर्फ भृगु और अंगिरा के ही 23 गण हो गए। इससे स्पष्ट है कि भरद्वाज या भारद्वाज गोत्र का गर्ग या गार्ग्य के साथ विवाह नहीं हो सकता। क्योंकि उनका गण एक ही है।

अत्रि के चार गण हैं, पूर्वात्रोय, वाद्भुतक, गविष्ठिर, मुद्गल।

विश्‍वामित्र के दस हैं - कुशिक, रोहित, रौक्ष, कामकायन, अज्ञ, अघमर्षण, पूरण, इंद्रकौशिक, धनंजय, कत। धनंजय और कौशिक का परस्पर विवाह नहीं हो सकता।

कश्यप के पाँच हैं - कश्यप, निध्रुव, रेभ, शांडिल्य, लौगाक्षि। शांडिल्य, कश्यप, लौगाक्षि का परस्पर विवाह असंभव है।

वसिष्ठ के पाँच हैं - वसिष्ठ, कुंडिन, उपमन्यु, पराशर और जातूकर्ण्य। वसिष्ठ और पराशर आदि का परस्पर विवाह ठीक नहीं है।

अगस्त्य का कोई अन्तर्गण नहीं है। इस प्रकार कुल 51 गण हैं। किसी-किसी के मत से कुछ कम या अधिक भी है।

कोई-कोई गौत्र द्वयामुष्यायण कहलाते हैं, जैसे सांकृति या साकृत्य और लौगाक्षि आदि। इसका अर्थ यह है कि इन ऋषियों का सम्बन्ध दो गोत्रों से हैं। ये ऋषि किसी कारण से दोनों गोत्रों से सम्बन्ध रखते हैं, न कि एक छोड़ कर दूसरे से मिल गए। इसीलिए सांकृति का वसिष्ठ के साथ और लौगाक्षि का भी वसिष्ठ के साथ, एवं लौगाक्षि का और सांकृति का भी परस्पर विवाह नहीं होगा। क्योंकि लौगाक्षि और सांकृति दोनों वसिष्ठ गोत्र में गए और साथ ही, सांकृति का केवलांगिरस के गण में और लौगाक्षि का कश्यप के गण में जन्म हैं।

भरद्वाज, भारद्वाज, कश्यप, काश्यप, गर्ग, गार्ग्य, भृगु, भार्गव ये अलग-अलग गोत्र हैं, न कि कश्यप और काश्यप आदि एक ही है। परंतु विवाह तो फिर भी कश्यप काश्यप आदि का परस्पर नहीं हो सकता। कारण, मूल ऋषि एक ही हैं। इसी प्रकार यद्यपि भृगु के वंश में ही वत्स हुए, तथापि वत्सगोत्र अलग ही है। विश्‍वामित्र के प्रकरण में इंद्र कौशिक गोत्र है जो कौशिक से भिन्न ही है। इसी प्रकार धृत गोत्र भी उसी में हैं। मगर कहीं-कहीं सर्यूपारियों में धृत कौशिक को एक ही गोत्र मान कर व्यवहार करते हैं। यह भूल है। इसी प्रकार गर्दभीमुख नाम के एक ऋषि कश्यप के गण में हैं और शांडिल्य भी। पर इसका अर्थ न समझ लोगों ने गर्दभी मुख का कल्पित अर्थ कर डाला है और श्रीमुख नाम का एक दूसरा गोत्र भी मान रखा है। उनके विचार से शांडिल्य गोत्र के ही ये दो भेद हैं। मगर बात यह नहीं है। यह तो परस्पसर नीच-ऊँच के भावों का फल है। श्रीमुख कोई गोत्रकार ऋषि नहीं हैं। हाँ गर्दभीमुख है। पर शांडिल्य से भिन्न है। फिर भी, कश्यप के अन्तर्गत होने से दोनों का परस्पर विवाह नहीं हो सकता। कोई-कोई इंद्र और कौशिक ये दो गोत्र मानते हैं और धृत को घृत पढ़ते हैं। पाठ-भेद हो सकता है। पर, हरिवंश के सातवें अध्याय में धृत ही मिलता है और उनको धर्मभृत भी कहा है। इससे धृत पाठ ही अधिक माननीय है।

गोत्रों के प्रवर के सिवाय वेद, शाखा, सूत्र पाद, सिखा और देवता का भी विचार है। ऐसा संप्रदाय अभी तक बराबर चला आता है। इनमें से वेद का अभिप्राय यह है कि उस गोत्र का ऋषि ने उसी वेद के पठन-पाठन या प्रचार में विशेष ध्यान दिया और उस गोत्रवाले प्रधानतया उसी वेद का अध्ययन और उसमें कहे गए कर्मों का अनुष्ठान करते आए। इसीलिए किसी का गोत्र यजुर्वेद है तो किसी का सामवेद और किसी का ऋग्वेद है, तो किसी का अथर्ववेद। उत्तर के देशों में प्राय: साम और यजुर्वेद का ही प्रचार था। किसी-किसी का ही अथर्ववेद मिलता है। अब आगे चल कर लोग संपूर्णतया एक वेद भी पढ़ न सके, किंतु उसकी अनेक शाखाओं में से सिर्फ एक ही, तो फिर उन गोत्रों के लोगों ने शाखा का व्यवहार करना शुरू किया। सूत्रों का तो सिर्फ यही अर्थ हैं कि उन वेदों की उन-उन शाखाओं में कहे गए कर्मों की विधि और उनके अंगों के क्रम आदि के विचार के लिए ऋषियों ने जिन-जिन श्रौत या गृह्य सूत्रों का निर्माण किया है, उन्हीं के अनुसार विभिन्न गोत्रों की पद्धतियाँ तैयार की गई है और उन्हीं के अनुसार कर्म-कलाप होते हैं। हरेक वेदों के ये सूत्र विभिन्न ऋषियों द्वारा बनाए गए हैं। जैसे यजुर्वेद का कात्यायन ने बनाया है, सामवेद का गोभिल ने, ऋग्वेद का आश्‍वलायन ने और अथर्ववेद का कौशिक ने। और भी ऋषि हैं जिनके सूत्र वेदों की शाखाओं पर हैं। हरेक ऋषि ने अपनी ही शाखा का सूत्र ग्रन्थ बनाया है। हरेक वेद या उसकी शाखा के पढ़नेवाले किसी विशेष देवता की आराधना करते थे। वही उनके देवता कहे गए। इसी तरह तुरंत पहचान के लिए उनके बाहरी व्यवहार में भी कुछ अन्तर रखा जाता था। जैसे कोई शिखा में जो ग्रंथि देता वह बाईं तरफ घुमा कर और कोई दाहिनी तरफ। इसी प्रकार पूजा के समय प्रथम कोई बायाँ पाँव धोता या धुलाता था और कोई दाहिना। बस वही व्यवहार अब तक कहने मात्र को रह गया है और वही पाद कहलाता है। प्राय: यही नियम था कि सामवेदियों की बाईं शिखा और बायाँ ही पाद और विष्णु देवता हों। इसी प्रकार यजुर्वेदियों की दाहिनी शिखा, दाहिना पाद और शिव देवता। कहीं-कहीं शिखा और पाद में शायद उलट-पलट है। परंतु वह हमारे जानते काल पा कर भूल से बदल गया होगा। क्योंकि जब और बातों में नियम हैं तो यहाँ भी एक ही नियम लागू होना चाहिए। इसी तरह सामवेदियों की कौथुमी शाखा और गोभिल सूत्र एवं यजुर्वेदियों की माध्यंदिनीय शाखा और कात्यायन सूत्र हैं। चारों वेदों के चार उपवेद भी है और उनका भी व्यवहार पाया जाता है। यजुर्वेद का धानुर्वेद, ऋग्वेद का आयुर्वेद, सामवेद का गांधर्व वेद और अथर्ववेद का अर्थवेद वा अर्थशास्त्र है।

किस गोत्र का कौन वेद हैं, इसमें इस समय बड़ी गड़बड़ी है, कारण व्यवहार और संप्रदाय हर प्रदेश में कुछ न कुछ बदल गए हैं। कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों में पाँच गोत्रों का और कहीं-कहीं छह का सामवेद बताया है। वे पाँच कश्यप, काश्यप, वत्स, शांडिल्य और धनंजय हैं और छठां कौशिक हैं। परंतु इसके विपरीत मैथिलों में सिर्फ एक शांडिल्य का ही सामवेद लिखा है शेष गोत्रों का यजुर्वेद ही। हालाँकि उनकी एक वंशावली में, जो पिलखबाड़ ग्राम के पंजीकार श्री जयनाथ शर्मा की लिखी है, लिखा है कि :

कश्यपौ वत्सशांडिल्यौ कौशिकश्‍च धनंजय:।

षडेते सामगा विप्रा: शेषा वाजसनेयनि:॥

इससे पूर्व के छह गोत्र सामवेदी सिद्ध होते हैं। कान्यकुब्ज वंशावली में लिखते हैं कि पाँच ही सामवेदी हैं, कौशिक नहीं :

कश्यप: काश्यपो वत्स: शांडिल्यश्‍च धनंजय:।

पंचैते साम गायन्ति यजुरधयायिनोऽपरे॥

यह बात असंभव-सी भी मालूम होती है कि सिर्फ शांडिल्य ने ही सामवेद का प्रचार किया और दूसरे किसी भी ऋषि ने नहीं। इससे पाँच या छह गोत्रों का ही सामवेद मानना ठीक हैं। इसलिए त्यागी, पश्‍चिम, जमींदार या भूमिहार आदि अयाचक ब्राह्मणों में भी इसी के अनुसार संस्कार आदि और प्रचार होना चाहिए। गौड़, जिझौतिया वगैरह में भी इसी का प्रचार है।

आजकल एक गोत्र पाया जाता है जिसका उल्लेख पुराने ग्रन्थों में कहीं नहीं मिलता। वह है कविस्त, काविस्त अथवा कावित्स। अत्रि के एक गण के ऋषि का नाम गविष्ठिर है। संभव है इसी का विपर्याय हो गया हो। लेकिन प्रवर में भेद है।

प्रवरों के विषय में बड़ा मतभेद और वाद-विवाद है। एक प्रवर तो सिर्फ चार प्रचलित गोत्रों में है। वसिष्ठ का वासिष्ठ शुनक का शौनक, मित्रायुव का बाधय्रश्‍व और अगस्त्य का आगस्त्य। कश्यप का ही सिर्फ दो प्रवर है, देवल और असित। मगर इनके भी तीन प्रवर लिखे हैं। इसी प्रकार पाँच प्रवर गर्ग, सावर्णि, वत्स, भार्गव, भरद्वाज, भारद्वाज, जमदग्नि और गौतम के हैं। मगर तीन प्रवर भी इनके लिखे हैं। हरेक गोत्रों के प्रवरों की जितनी संख्या हो उतनी ग्रंथि जनेऊ में दी जाती है।

कुछ प्रसिद्ध गोत्रों के प्रवर आदि नीचे लिखे हैं :

(1) कश्यप,

(2) काश्यप के काश्यप, असित, देवल अथवा काश्यप, आवत्सार, नैधु्रव तीन प्रवर हैं। इस गोत्र के ब्राह्मण ये हैं - जैथरिया, किनवार, बरुवार, दन्सवार, मनेरिया, कुढ़नियाँ, नोनहुलिया, तटिहा, कोलहा, करेमुवा, भदैनी चौधरी, त्रिफला पांडे, परहापै, सहस्रामै, दीक्षित, जुझौतिया, बवनडीहा, मौवार, दघिअरे, मररें, सिरियार, धौलानी, डुमरैत, भूपाली आदि।

(3) पराशर के वसिष्ठ, शक्‍ति, पराशर तीन प्रवर हैं। इस गोत्र के ब्राह्मण एकसरिया, सहदौलिया, सुरगणे हस्तगामे आदि है।

(4) वसिष्ठ के वसिष्ठ, शक्‍ति, पराशर अथवा वसिष्ठ, भरद्वसु, इंद्र प्रमद ये तीन प्रवर हैं। ये ब्राह्मण कस्तुवार, डरवलिया, मार्जनी मिश्र आदि हैं। कोई वसिष्ठ, अत्रि, संस्कृति प्रवर मानते हैं।

(5) शांडिल्य के शांडिल्य, असित, देवल तीन प्रवर हैं। दिघवैत, कुसुमी-तिवारी, नैनजोरा, रमैयापांडे, कोदरिए, अनरिए, कोराँचे, चिकसौरिया, करमहे, ब्रह्मपुरिए, पहितीपुर पांडे, बटाने, सिहोगिया आदि इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।

(6) भरद्वाज,

(7) भारद्वाज के आंगिरस, बार्हस्पत्य, भारद्वाज अथवा आंगिरस, गार्ग्य, शैन्य तीन प्रवर हैं। दुमटिकार, जठरवार, हीरापुरी पांडे, बेलौंचे, अमवरिया, चकवार, सोनपखरिया, मचैयांपांडे, मनछिया आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।

(8) गर्ग।

(9) गार्ग्य के आंगिरस, गार्ग्य, शैन्य तीन अथवा धृत, कौशिक मांडव्य, अथर्व, वैशंपायन पाँच प्रवर हैं। मामखोर के शुक्ल, बसमैत, नगवाशुक्ल, गर्ग आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।

(10) सावर्ण्य के भार्गव, च्यवन, आप्नवान, और्व, जामदग्न्य पाँच, या सावर्ण्य, पुलस्त्य, पुलह तीन प्रवर हैं। पनचोभे, सवर्णियाँ, टिकरा पांडे, अरापै बेमुवार आदि इस गोत्र के हैं।

(11) वत्स के भार्गव, च्यवन, आप्नवान, और्व, जामदग्न्य पाँच, या भार्गव, च्यवन, आप्नवान तीन प्रवर हैं। दोनवार, गानामिश्र, सोनभदरिया, बगौछिया, जलैवार, शमसेरिया, हथौरिया, गगटिकैत आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।

(12) गौतम के आंगिरस बार्हिस्पत्य, भारद्वाज या अंगिरा, वसिष्ठ, गार्हपत्य, तीन, या अंगिरा, उतथ्य, गौतम, उशिज, कक्षीवान पाँच प्रवर हैं। पिपरामिश्र, गौतमिया, करमाई, सुरौरे, बड़रमियाँ दात्यायन, वात्स्यायन आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।

(13) भार्गव के भार्गव, च्यवन, आप्नवान, तीन या भार्गव, च्यवन आप्नवन, और्व, जायदग्न्य, पाँच प्रवर हैं, भृगुवंश, असरिया, कोठहा आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।

(14) सांकृति के सांकृति, सांख्यायन, किल, या शक्‍ति, गौरुवीत, संस्कृति या आंगिरस, गौरुवीत, संस्कृति तीन प्रवर हैं। सकरवार, मलैयांपांडे फतूहाबादी मिश्र आदि इन गोत्र के ब्राह्मण हैं।

(15) कौशिक के कौशिक, अत्रि, जमदग्नि, या विश्‍वामित्रा, अघमर्षण, कौशिक तीन प्रवर हैं। कुसौझिया, टेकार के पांडे, नेकतीवार आदि इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।

(16) कात्यायन के कात्यायन, विश्‍वामित्र, किल या कात्यायन, विष्णु, अंगिरा तीन प्रवर हैं। वदर्का मिश्र, लमगोड़िया तिवारी, श्रीकांतपुर के पांडे आदि इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।

(17) विष्णुवृद्ध के अंगिरा, त्रासदस्यु, पुरुकुत्स तीन प्रवर हैं। इस गोत्र के कुथवैत आदि ब्राह्मण हैं।

(18) आत्रेय।

(19) कृष्णात्रेय के आत्रेय, आर्चनानस, श्यावाश्‍व तीन प्रवर हैं। मैरियापांडे, पूले, इनरवार इस गोत्र के ब्राह्मण हैं।

(20) कौंडिन्य के आस्तीक, कौशिक, कौंडिन्य या मैत्रावरुण वासिष्ठ, कौंडिन्य तीन प्रवर हैं। इनका अथर्ववेद भी है। अथर्व विजलपुरिया आदि ब्राह्मण इस गोत्र के हैं।

(21) मौनस के मौनस, भार्गव, वीतहव्य (वेधास) तीन प्रवर हैं।

(22) कपिल के अंगिरा, भारद्वाज, कपिल तीन प्रवर हैं।

इस गोत्र के ब्राह्मण जसरायन आदि हैं।

(23) तांडय गोत्र के तांडय, अंगिरा, मौद्गलय तीन प्रवर हैं।

(24) लौगाक्षि के लौगाक्षि, बृहस्पति, गौतम तीन प्रवर हैं।

(25) मौद्गल्य के मौद्गल्य, अंगिरा, बृहस्पति तीन प्रवर हैं।

(26) कण्व के आंगिरस, आजमीढ़, काण्व, या आंगिरस, घौर, काण्व तीन प्रवर हैं।

(27) धनंजय के विश्‍वामित्र, मधुच्छन्दस, धनंजय तीन प्रवर हैं।

(28) उपमन्यु के वसिष्ठ, इंद्रप्रमद, अभरद्वसु तीन प्रवर हैं।

(29) कौत्स के आंगिरस, मान्धाता, कौत्स तीन प्रवर हैं।

(30) अगस्त्य के अगस्त्य, दाढर्यच्युत, इधमवाह तीन प्रवर हैं। अथवा केवल अगस्त्यही।

इसके सिवाय और गोत्रों के प्रवर प्रवरदर्पण आदि से अथवा ब्राह्मणों की वंशावलियों से जाने जा सकते हैं।

होम की साधारण विधि इस प्रकार है :

सभी होम के प्रारंभ में सात प्रायश्‍चित आहुतियाँ पाँच पंचवारुणी कुल बारह आहुतियाँ दी जाती है। वह इस प्रकार है :

(1) ओं प्रजापतये स्वाहा इदं प्रजापतये न मम।

(2) ओं इन्द्राय स्वाहा इदमिन्द्राय न मम।

(3) ओं अग्नये स्वाहा इदमग्नये न मम।

(4) ओं सोमाय स्वाहा इदं सोमाय न मम।

(5) ओं भू: स्वाहा इदमग्नये न मम।

(6) ओं भुव: स्वाहा इदं वायवे न मम।

(7) ओं स्व: स्वाहा इदं सूर्याय न मम।

इसके बाद नीचे लिखा मन्त्र पढ़ कर जल छिड़के, या केवल मन्त्र ही पढ़ दे :

यथा वाण महाराणां कवचंवारकं भवेत्। तद्वद्दैवोपघातानां शांतिर्भवति वारिका। शांतिरस्तु पुष्टिरस्तु वृद्धिरस्तु यत्पापं तत्प्रतिहतमस्तु द्विपदे चतुष्पदे सुशांतिर्भवतु।

फिर पंचवाणी से होम करे :

(1) ओं त्वन्नोअग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठा। यजिष्ठो वद्दितम: शोशुचानो विश्‍वा द्वेषांसि प्रमुमुग्धयस्मत्स्वाहा इदमग्नीवरुणायाभ्यां न मम।

(2) ओं सत्वन्नोऽअग्नेवमोभवीती नेदिष्ठो अस्या उषसोव्युष्टौ। अवयक्ष्वनोवरुण-रंराणो वीहि मृडीकं सुहवो न एधिस्वाहा इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।

(3) ओं अयाश्‍चाग्येस्यनभि शस्तिपाश्‍च सत्वमित्तवमयाअसि। अयानो यज्ञं वहास्ययानो धोहि भेषजं स्वाहा इदमग्नये न मम।

(4) ओं येते शतं यं सहस्रं यज्ञिया: पाशा वितता महान्त:। तेभिर्नोऽअद्य सवितोत विष्णुर्विश्‍वे मुंचन्तु मरुत: स्वर्का: स्वाहा इदं वरुणाय सवित्रो विष्णवे विश्‍वेभ्यो देभ्यो मरुद्‍भय: स्वर्केभ्यश्‍च न मम।

(5) ओं उदुत्तामं वरुणपाशमस्मदवाधामं विमध्यमं श्रथाय। अथावयमादित्यव्रते तवानागसोऽअदितये स्याम स्वाहा इदं वरुणाय न मम।

इसके बाद थोड़ा जल गिरा कर नवग्रह आदि देवताओं के नाम ले कर और जिस देवता का होम करना हो उसका भी नाम ले कर स्वाहा शब्द के साथ चतरुथ्यंत उच्चारण कर के आहुतियाँ दे और अन्त में 'ओं अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा इदमग्नये स्विष्टकृते न मम' पढ़ कर आहुति दे और पूर्णाहुति करे। होम के आरंभ में संकल्प कर के होम शुरू करे और अन्त में पूर्णाहुति का संकल्प करे। यदि दूसरा आदमी होम करनेवाला हो तो भी संकल्प स्वयं पढ़ना चाहिए और 'इदं प्रजापतये न मम' इत्यादि प्रतिमन्त्र के अन्त में स्वयं बोलना चाहिए और उसी के साथ आहुति छोड़नी चाहिए, न कि 'स्वाहा' के साथ। इनका नाम त्याग है और इसके बोलने का अधिकार केवल यजमान को ही है। इसके बिना आहुति अधूरी रह जाती है।

6. ब्राह्मणों की पदवियाँ

यद्यपि ब्राह्मणों की पुरानी और नवीन पदवियों के विषय में अच्छी तरह लिखा जा चुका हैं। और कुछ नाम भी पदवियों के साथ लिखे गए हैं। तथापि कुछ अधिक नामों और पदवियों के दिखला देने से लोगों को बहुत दिनों की भ्रान्त धारणा के दूर होने में आसानी होगी। हम हरेक ब्राह्मण दलों के कुछ इने-गिने नाम ही दिखलाएँगे। सभी नाम वर्तमान लोगों के ही नहीं हैं।

कान्यकुब्ज

(1) चौधरी खुमान सिंह, बिठूर, कानपुर। (2) चौधरी हरनारायण सिंह, सुलतानगंज, फतहपुर। (3) प. अयोध्या सिंह तिवारी, जहानागंज, फतहगढ़। (4) ठाकुर नारायण सिंह, सीरू के अवस्थी। (5) रुद्रसाह, खजुहा, फतहपुर। (6) खांडेराय, फतहपुर। (7) लालसाह, फतहपुर। (8) रनजीत राय, फतहपुर। इसके सिवाय (9) सावर्णि। (10) ठकुरिया। (11) राउत। (12) मैरहा। (13) अधवर्यु इत्यादि पदवियाँ भी प्रचलित है।

सर्यूपारी

(1) बाबू बैजनाथ सिंह, कुरौना, बनारस। (2) श्री युतविवेकी सिंह, सिंहनपुरा, शाहाबाद। (3) त्रिपाठी बूआ सिंह, बेरौचा, बांदा। (4) त्रिपाठी नृपति सिंह, मंडौर, बांदा। (5) श्री रामशरण सिंह, चरवा, इलाहाबाद। (6) ब्रह्मदत्त सिंह, टाटा, इलाहाबाद। (7) कल्लू सिंह, थरी, मिर्जापुर। (8) श्री त्रिभुवन सिंह, गंगहरा, मिर्जापुर। (9) श्री बलदेव सिंह, परवापाल, रीवाँ राज्य। (10) श्री शंभू सिंह, मनिकबरा, रीवाँ राज्य।

गौड़

(1) पं. अमर सिंह, एम.ए., तहसीलदार, दिल्ली। (2) राजा फतह सिंह, शेखूपुरा, लाहौर, सभापति गौड़ सभा। (3) पं. रघुवीर सिंह, डिप्टी कलेक्टर, हिसार। (4) पं. बद्रीदास, निरीक्षक, गौड़ सभा, कुरुक्षेत्र। (5) पं. रामस्वरूप चौधरी रईस, शिकारपुर। (6) श्री भाऊराम स्वामी, कोराली, अंबाला।

सनाढ्‍य

(1) कुँवर हनुमान सिंह, आनरेरी मजिस्ट्रेट, अलीगढ़। (2) रायसाहिब ठाकुर केहरी सिंह रईस, मथुरा। (3) कुँवर सुजान सिंह रईस, जिला अलीगढ़। (4) रायबहादुर पलिया राधोबा रत्तीराम रईस, अलीगढ़। (5) भटैले श्याम बिहारी लाल रईस, जिला एटा। (6) पं. अयोध्या सिंह उपाध्याय, निजामाबाद, आजमगढ़।

पालीवाल

(1) शाह रामचंद्र शर्मा रईस, रामपुरा, मैनपुरी, सभापति पालीवाल सभा। (2) सेठ भगवान दास रईस, सुकीट, एटा, उपसभापति। (3) शाह किशोरी लाल रईस, बाजीदपुर, अलीगढ़, मन्त्री। (4) शाह मोहन लाल शर्मा, ताल्लुकेदार, सिमरा आगरा। (5) शाह दुर्गा प्रसाद शर्मा, ताल्लुकेदार।

मैथिल

(1) सर रामेश्‍वर सिंह, महाराज बहादुर, दरभंगा। (2) महाराज लक्ष्मीश्‍वर सिंह, (3) बाबू तुलापति सिंह, महाराज दरभंगा के चचा। (4) महामहोपाध्याय श्री कृष्णसिंह ठाकुर, दरभंगा। (5) पं. बबुआ खाँ, बनगाँव, दरभंगा। (6) पं. गुणपति सिंह, वीरसायर। (7) बाबू यदुनन्दन सिंह झा, चनौर। (8) कुमार सूर्यानन्द सिंह, बनैली रामनगर। (9) पं. मुक्‍तिनाथ ठाकुर, अथरी, मुजफ्फरपुर। (10) पं. जीवनाथ राय, व्याकरणतीर्थ, वीरसायर। (11) तुरंतलाल चौधरी, दुलारपुर। (12) सेठ रामाश्रय सिंह, केवटा। (13) खेदू ईश्‍वर, मराँची, मुँगेर। (14) पं. योगानन्द कुँवर, भूतपूर्व संपादक, मिथिला मिहिर, दरभंगा।

जिझौतिया

(1) श्रीयुत दर्याव सिंह जागीरदार, चित्रकूट। जुझौतियों की वंशावली में ही उनकी। (2) राव (राउ) त, (3) राय, (4) अरिजरिया, (5) नायक, (6) भंड़ैरिया, (7) पटैरिया, (8) गंगेले, (9) सुल्लेरे, (10) फौजदार, (11) बोहरे या बहोरे, (12) दीन, (14)घड़ियाली, (15) पारसाई, (16) सराफ आदि पदवियाँ लिखी हैं।

भूमिहार, पश्‍चिम, जमींदार

(1) द्विजराज काशीराज श्रीमत्प्रभुनारायण सिंह शर्मा। (2) श्रीमान आदित्य नारायण सिंह शर्मा, महाराज कुमार, बनारस। (3) श्री कवींद्र नारायण सिंह, जगतगंज, काशी। (4) श्री इंद्रजीत प्रताप बहादुर साही, राजा साहब, तमकुही। (5) श्री गुरुमहादेव आश्रम प्रसाद साही, महाराजा, हथुवा। (6) श्री बेनीप्रसाद सिंह, सराय गोवर्धन, काशी। (7) पं. रघुनाथ प्रसाद साही शर्मा, साँढ़ा, मुजफ्फरपुर। (8) पं. रामदास राय मिश्र, काव्यतीर्थ, प्रोफेसर, भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज, मुजफ्फरपुर। (9) राजा हरिहर प्रसाद नारायण सिंह, अमाव। (10) पं. संतप्रसाद सिंह शर्मा, बकठपुर, मुजफ्फरपुर।

त्यागी

(1) श्री चौधरी रघुवीर नारायण सिंह, ताल्लुकेदार, असौढ़ा मेरठ। (2) पं. पद्मसिंह शर्मा, नायकनगला, बिजनौर। (3) चौधरी अनूप सिंह, नहटौर, बिजनौर। (4) चौधरी बैजनाथ सिंह, रतनगढ़, बिजनौर। (5) पं. रामावतार शास्त्री, रतनगढ़, बिजनौर। (6) चौधरी रूपचंद शर्मा, गोवर्धानपुर, सहारनपुर। (7) पं. शालिग्राम शर्मा, चरथावल, मुजफ्फरनगर। (8) पं. कूड़ेराम जी शर्मा, खरखौदा, मेरठ। (9) प्रोफेसर पं. धर्मवीर शर्मा।

महियाल

(1) बाबू शिवनाथ सिंह, गाजीपुर। (2) महते योगध्यान सिंह, प्रधान, महियाल सभा, लाहौर। (3) बा. हीरासिंह जी दत्त, मन्त्री, महियाल सभा। (4) पं. रामभज दत्त चौधरी, लाहौर। (5) रायजादा नत्थूराम वैद्य, मन्त्री, महियाल सभा, शिमला। (6) रामरिक्खा मलदत्त, मन्त्री, महियाल सभा, झेलम। (7) श्रीयुत् दीवान भीमसेन, सेनापति, राजा सूचित सिंह, जम्मू। (8) दीवान हेमराज, सेनापति, जम्मू। (9) रिसालदार मेजर हुकुम सिंह। (10) सूबेदार संध्यादास, 25वीं पंजाबी पैदल सेना। (11) सूबेदार लाखा सिंह, पहली सिख पैदल सेना। (12) जमादार रामसिंह, दूसरी पंजाब घुड़सवार फौज।

इसके सिवाय पूर्व के प्रदर्शित इन सभी ब्राह्मण दलों में मिश्र, चौबे, दूबे, तिवारी, पांडे, पाठक, शुक्ल, ओझा, झा, उपाध्याय वगैरह पदवियाँ पाई जाती है, जिनका दिग्दर्शन ग्रन्थ में ही कराया जा चुका है। इसीलिए जानबूझ कर उन्हें यहाँ नहीं लिखा है :

7. चरम उपसंहार और समर्पण

प्रसंगादपमानोक्‍ति: कटूक्‍तिर्यदिवोद्गता:।

निवत्तर्यसंतस्तां क्षान्तसांजलि: प्रार्थयाम्यहम्॥ 1॥

भाद्रमासि सिते पक्षे शुभे चंद्रजवासरे।

द्वितीयायां तिथौ रात्रौ गुणाश्वांकेन्दुवत्सरे॥ 2॥

अविमुक्‍ते निवसता परोपकृतिबुद्धिना।

रचित: सहजानन्दसरस्वत्याख्यदंडिना॥ 3॥

वर्द्धितश्‍च पुनर्भाद्रे भूवस्वंकमहीमिते।

ब्रह्मर्षिवंशविस्तार: सोऽयं सर्वांगसंयुत::॥ 4॥

सुमनोंऽललिरूपेण सुमनोभोददायिना।

अमुना पार्वतीजानि: प्रीयतां जगतीपति:॥ 5॥

इति श्रीवाराणसेयदशाश्‍वमेधाघट्टस्थमठभूतपूर्वालारश्रीमद्विश्‍वरूपसरस्वती पूज्यपादविनेयपरम्परा प्रविष्ट श्रीमत्स्वामिवर्याद्वैतानन्द सरस्वती पूज्य चरणाम्बुज भृगयमाण स्वामि सहजानन्द सरस्वती विरचिते ब्रह्मर्षि वंश विस्तरे उत्तर परिशिष्टाख्यं चतुर्थं प्रकरणम्॥

॥ समाप्तश्‍चायं ग्रन्थ:॥ शुभम्भूयादनिशम्॥

परिशिष्ट

प्राचीनकाल में मिथिला के व्यवहार से धर्म का निर्णय किया जाता था - मिथिलाया व्यवहारत:, ‘अर्थात धर्म आदि के सम्बन्ध में मिथिला के निवासी जो कुछ कहते या करते थे, वह शास्त्रानुमोदित होता था। शास्त्र प्रतिकूल वे कुछ भी रागद्वेषवश कहने या करने को तैयार नहीं होते थे। इसी से उनके वचन मान्य होते थे। मिथिला में आज भी भूमिहार ब्राह्मण को पछिमा ब्राह्मण कहते हैं। इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं। फिर भी कुछ दुराग्रही लोग भूमिहार को ब्राह्मण मानने से कतराते हैं। यहाँ तक तो गनीमत है, क्योंकि जिसका मानसिक स्तर द्वेषग्रस्त है उससे सद्विवेक की बात करना ही अनावश्यक है। किंतु इधर जातिगत वाद-विवाद संबंधी एक मुकदमे का विषय जो मुझे दंडी स्वामी विमलानन्द सरस्वती रचित पुस्तक 'ब्राह्मण कौन' में पढ़ने को मिला, उससे मुझे आश्‍चर्य हुआ। पश्‍चात मेरे एक मित्र ने इस संबध में अपना विचार प्रकट करने के लिए मुझसे आग्रह किया। अतएव इस लेख में आगे रखे जानेवाले अपने विचार के उपोद्वलक उक्‍त मुकदमे का संक्षिप्त विवरण पहले यहाँ उद्धृत किया जा रहा है - ’अयोध्या जी में पुराना 'आनन्द भवन' नामक एक मठ है, जिसकी स्थापना भूमिहार ब्राह्मण कुल में उत्पन्न एक विरक्‍त महात्मा ने की थी। उस मठ के महंथ 'सियावर शरण' अपना उत्तराधिकारी घोषित किए बिना ही साकेतवासी हो गए। अस्तु, उनके भंडारे में उपस्थित संत-महंथों ने परम्परा के अनुसार उनके शिष्य 'महावीर शरण' को चादर दे कर महंथ घोषित किया। 'आनन्द भवन' की भूसंपत्ति फैजाबाद जिले के बीकापुर विकास प्रखण्ड भीतर 'मंझनपुर' ग्राम में पड़ती है। वहाँ का एक लोभी व्यक्‍ति मठ की कुछ भूमि हथियाना चाहता था। महंथ महावीर शरण के रहते इसकी संभावना न देख उसने एक कठपुतली वैरागी संत नामधारी 'राम दुलारे शरण' के द्वारा अदालत में 'श्री महावीर शरण' की महंथी को चुनौती देते हुए यह दावा कराया कि महंथ 'सियावर शरण' का भंडारा मैंने किया था और संत-महंथों ने आनन्द भवन का महंथ मुझे चुना है। उनका यह भी कहना था कि आनन्द भवन मठ का महंथ वसीयतनामे के अनुसार वही हो सकता है जो विरक्‍त वैरागी तथा ब्राह्मण हो। महावीर शरण भूमिहार है, इसलिए मठ का महंथ होने के योग्य नहीं है। क्योंकि भूमिहार ब्राह्मण नहीं होते। उन्होंने मठ पर अवैध अधिकार कर लिया है। उन्हें वहाँ से हटा दिया जावे। किंतु सब-जज श्री रामकुमार सक्सेना ने मूल वाद संख्या 22 सन 1962 में 31-3-64 को अपने पारित निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा कि महावीर शरण भूमिहार ब्राह्मण है और उनकी शपथ के अनुसार मैं यह मानता हूँ कि उनकी जाति ब्राह्मण मानी जाती है। मैं उन्हें ब्राह्मण मानता हूँ और वे अहदनामे के अनुसार मन्दिर के सरबराहकार बनने के लिए सर्वथा योग्य है। महावीर शरण सियावर शरण के पुराने चेला है। निर्माणकर्ता द्वारा निर्मित सभी योग्यताएँ महावीर शरण में विराजमान है। अत: मैं रामदुलारे शरण का दावा खारिज करता हूँ।

इसके बाद रामदुलारे शरण ने दूसरी अपील की। तत्कालीन जिला जज श्री आर.पी. दीक्षित ने पुनर्विचार के लिए मुकदमे को उसी न्यायपीठ में लौटा दिया। उस समय श्री सक्सेना साहब का स्थानांतरण हो चुका था और उनकी जगह पर श्री जी.डी. चतुर्वेदी आ चुके थे। उन्होंने बिना सोचे-समझे अपने निर्णय में लिखा कि भूमिहार लोग ब्राह्मण नहीं होते और उस वंश से संबंधित महाराज बनारस, महाराज हथुआ और महाराज तमकुही भी ब्राह्मण नहीं है।

तत्पश्‍चात् कुछ विद्वानों एवं सन्तों ने महावीर शरण की ओर से जी.डी. चतुर्वेदी महोदय के निर्णय के प्रतिकूल जिला जज के पास अपील दाखिल किया।

जज साहब ने पुन: सुनवाई के लिए मुकदमे को एडिशनल जिला जज, 'श्री एस.ए. अब्बासी' महोदय की न्यायपीठ में भेज दिया। विद्वान, अनुभवी और कुशाग्र बुद्धिवाले न्यायमूर्ति 'अब्बासी' महोदय ने पुन: नए सिरे से अभियोग का परीक्षण किया और बड़े मनोयोग से ग्रन्थों तथा अभिलेखों का अध्यायन एवं गवाहियाँ लीं। सारे परीक्षण के बाद वे इस निर्णय पर पहुँचे कि 'भूमिहार ब्राह्मण उत्तम ब्राह्मण' हैं इस प्रकार उक्‍त मुकदमे में महंत महाराज महावीर शरण की विजय हुई।

इसके बाद विपक्ष की ओर से जिला जज, फैजाबाद के यहाँ अपील की गई। किंतु एडिशनल (अतिरिक्‍त जज) (न्यायाधीश ने अब्बासी महोदय के फैसले को बरकरार रखा। तब अन्त में विपक्ष की ओर से उच्च न्यायालय के लखनऊ पीठ में अपील की गई। किंतु उच्च न्यायालय ने भी नीचे के न्यायाधीशों के फैसलों को पूर्ण समर्थन के साथ बहाल रखा।

अब इस सम्बन्ध में हमारा निवेदन है कि जैसे अन्य ब्राह्मणों के विषय के 'जाति विलास', 'जाति भास्कर' एवं 'जाति निर्णय' आदि संकलित ग्रन्थ ही प्रमाण माने जाते हैं, वेदादि शास्त्र नहीं। क्योंकि उनमें तो ब्राह्मण मात्र का उल्लेख है, न कि देशोपाधि विशिष्ट ब्राह्मण जाति का। उसी प्रकार भूमिहार ब्राह्मण के विषय में महर्षि 'मरीति प्रणीत' 'जाति विलास' को क्यों न प्रमाण माना जावे? 'जाति विलास' ग्रन्थ के 152वें अध्याय में भूमिहार ब्राह्मणों की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है, जो कि संक्षेप में इस प्रकार है -

‘पुराणों में यह बात प्रसिद्ध है कि भगवान परशुराम ने इक्कीस बार दुष्ट राजाओं का विनाश कर के देश, काल, पात्र के अनुसार ब्राह्मणों के लिए पृथ्वी दान कर दी और स्वयं तप करने के लिए वन में चले गए। इसलिए 'श्रीमद्‍भागवत्' में लिखा है कि - 'सर्वस्व ब्राह्मणस्येदं यत्किंच जगतीतले' अर्थात इस संसार में जो कुछ है, वह ब्राह्मण का ही धन है। कालांतर में ब्राह्मण ने ही धन वितरित कर के संसार का व्यवहार चलाया। अस्तु प्रस्तुत प्रसंग में जब परशुराम जी ने ब्राह्मणों को पृथ्वी दे दी तब शांतिप्रिय ब्राह्मणों ने उनसे निवेदन किया - ‘प्रभु! आप तो वन में जा रहे हैं। यदि दुष्ट लोग युद्ध की इच्छा से हम पर आक्रमण करें तो हमारी रक्षा कौन करेगा?’ इस पर परशुराम जी ने ब्राह्मणों को एक शंख देते हुए कहा - ‘जब भी कभी कोई तुम पर आक्रमण करे तो यह शंख बजा देना। मैं तुरंत आ कर दुष्टों को दंड दूँगा।’ यह पा कर ब्राह्मण निश्‍चिन्त हो बड़ी निपुणता से संसार का पालन करने लगे।

कुछ समय के उपरांत एक बार ब्राह्मण परिषद् में कुछ खल प्रकृति के ब्राह्मणों ने वह भाव प्रकट किया कि इस शंख की परीक्षा ली जावे। इसको हममें से कोई बजावे। यदि इसकी ध्वनि सुन कर परशुराम जी आ जाते हैं तो हमें विश्‍वास हो जावेगा कि समय पर परशुराम जी हमारी रक्षा अवश्य करेंगे, अन्यथा हमें राजनीति के चक्कर में पड़ना अच्छा नहीं। यद्यपि इस विचार को उत्तम प्रकृति के ब्राह्मणों ने पसंद नहीं किया, किंतु अश्रद्धालुओं ने बहुमत से इसको पास कर के शंखध्वनि कर डाली। ध्वनि सुनते ही भगवान परशुराम आ पहुँचे और ब्राह्मणों से कहने लगे कि शीघ्र बतलाओ तुम्हारा शत्रु कहाँ हैं? मैं क्षण-भर में उसका विनाश करूँगा। ब्राह्मण भय से काँपने लगे और बोले - 'प्रभु! अपराध क्षमा हो, हम लोगों ने आपके पुण्य दर्शन की अभिलाषा से शंख बजा दिया था। अब हम लोग आपके दर्शन से कृतार्थ हो गए।' किंतु अन्तर्यामी भगवान का क्रोध शांत नहीं हुआ। उन्होंने ब्राह्मणों को शाप दे दिया कि ‘तुम लोग राज्य करने के योग्य नहीं हो। तुम्हें दरिद्रता से कष्ट भोगना पड़ेगा। फिर जो ब्राह्मण शंखध्वनि की परीक्षा लेने के पक्ष में नहीं थे, उनसे कहा कि तुम लोग भूमिपति होगे। तुम्हें दरिद्रता का सामना नहीं करना पड़ेगा' यह कह कर भगवान चले गए। जो ब्राह्मण परीक्षा लेने के पक्ष में नहीं थे, वे विश्‍वामित्र के पक्षधर थे, इसलिए कौशिक गोत्र में उनकी जीविका वृत्ति की उपकल्पना की गई। जिस वंश से जिसका रक्षण होता है उसके उसी वंश से गोत्र का व्यवहार होता है। यही कारण है कि कौशिक गोत्रोत्पन्न भूमिहार ब्राह्मणों की संख्या अधिक हैं। किंतु सावर्ण्य, वत्स, शांडिल्य आदि गोत्र भी भूमिहारों के होते हैं। संभवत: ये ऋषि भी कौशिक के समर्थक रहे होंगे।’

यहाँ हम 'जाति-विलास' के कुछ अंतिम श्‍लोकों को उद्धृत कर रहे हैं :

तथा कालेन चारम्भस्सद्‍भावो भावमावृत:।

एतस्यात्मात्कौशिके गोत्रे भूमिहार: समन्वय:॥ 99॥

एवं प्रयोज्यमानत्वात्तत्वधर्मा निराकृत:।

भानुदप्रो महासौम्य: सर्वमूल्लमनुस्मृतम्॥ 100॥

अजीतगर्तस्त्रयोपुत्र: भानुदत्तस्य पंचका:।

जयद्रथस्यषट् पुत्रा: सोमसिंधुर्दशाब्रत:॥ 101॥

भूमिहारा: प्रजायन्ते परशुरामप्रभावत:।

एतस्मात् शाश्‍वतोधर्मोब्रह्मवृत्तर्व्य वस्थिता॥ 102॥

ब्राह्मकालं विजानीयाद्ब्राह्मतत्वव्यवस्थितम्।

ब्रह्मदेशं तथाकार्य तथावृत्ति: तथा क्रिया॥ 103॥

अर्थ - इस प्रकार भगवान परशुराम जी के सम्बन्ध से भूमिहार जाति-भेद से नियुक्‍त हुए और कौशिकादि गोत्रीय भूमिहार ब्राह्मणों का वंश प्रवृत्त हुआ। जिनके आदिपुरुष महासौम्य भानुदत्त हुए। तथा अजीतगर्त और उनके तीन पुत्र हुए। भानुदत्त के पाँच पुत्र हुए, जयद्रथ के छह पुत्र हुए। इस प्रकार सोम, सिंधु और दस वंशज अन्य :

इस प्रकार शाश्‍वत् धर्म और व्यवस्थित ब्राह्म वृत्ति के पालक भूमिहार ब्राह्मण परशुराम जी के प्रभाव से ब्राह्मकाल, ब्राह्मतत्व तथा तत्वदेशादि व्यवहार-वृत्ति में कुशल हुए॥ 99-103॥

उपर्युक्‍त प्रकार से 'जाति-विलास' में भूमिहार ब्राह्मण उत्पत्ति का वर्णन मिलता है। इस प्रकार 'कान्यकुब्ज वंशावली' पुस्तक में भी भूमिहार को ब्राह्मण प्रतिपादित किया गया है -

मदारादिपुराख्यस्य भूमिहारा द्विजास्तु ये।

तेभ्यश्‍च यवनेन्द्रैश्‍च महद्यद्वमभूत् पुरा॥

अर्थात मदारपुर (कानपुर जिले में गंगा तट पर अवस्थित) के भूमिहार ब्राह्मण से यवनेन्द्रों का महान युद्ध हुआ था। आधुनिक युग के महामनीषी डॉ. राजेंद्र लाल मित्र के भूमिहार ब्राह्मण के सम्बन्ध में अपने 'बंगला मासिक' पत्र के पर्व 4, खण्ड 47, पृष्ठ 73, शकाब्द 1719 में लिखा है-‘कान्यकुब्ज ब्राह्मण दीगेर 5 ठो दल आछे, यथा सरवरिया, सनौढ़ा या सनाढ्‍य, जिझौतिया, भूमिहार एवं प्रकृत कनौजिया।’

इसी मन्तव्य का रूपांतर करते हुए लिखित श्‍लोक में कान्यकुब्ज के पाँच भेद बतलाए गए हैं :

सर्यूपारी सदाढयश्‍च भूमिहारो जिझौतय:।

प्राकृताश्‍च इति पंचभेदास्तस्य प्रकर्तिता:॥

यही आजकल के निष्पक्ष विद्वानों की भी धारणा है कि भूमिहार ब्राह्मण कान्यकुब्ज ब्राह्मण का ही एक भेद हैं जैसे सर्यूपारी, सनाढ्‍य आदि कान्यकुब्ज के भेद हैं।

अब प्रश्‍न यह उठता है कि भूमिहार ब्राह्मण में भूमिहार विशेषण क्यों लगा? इसका उत्तर इतिहास आदि के उद्‍भट विद्वान योगेंद्रनाथ भट्टाचार्य के शब्दों में यह है - ये ब्राह्मण 'जायगीर' इत्यादि रूपे भूमि प्राप्त हइया छेन से भूमिहार:। 'भूमिहार' शब्द है - भूमिं हरति केनचित उपायेन स्वीकारेति गृह्‍णाति इति भूमिहार: भूमिं हृ + अण्। अर्थात भूमि को स्वीकार करने या ग्रहण करनेवाला 'हृ, हरणो' धातु से बना है। हरण का अर्थ स्वीकार भी होता - ‘हरणा पापणं स्वीकार: स्तेयं नाशनं च इति चत्वार: अर्था:।’

योगेंद्र भट्टाचार्य ने अपनी अंग्रेजी पुस्तक 'हिंदू कास्ट एंड सेक्ट्स' में इस बात को और भी स्पष्ट किया है जिसका सारांश इस प्रकार है :

भूमिहार ब्राह्मण की सामाजिक स्थिति का पता तो सिर्फ उनके नाम से ही मिल जाता है। इसका शब्दार्थ है - 'भूमिग्राही ब्राह्मण'। राजपूताना गजेटियर के अनुसार भूम एक प्रकार का जमीन में हक था जो पुश्त दर-पुश्त तक चलता रहता था। इस भूमि का लगान नहीं देना पड़ता था, यह छीनी नहीं जाती थी, इत्यादि।

इस प्रकार विद्वानों ने जो 'भूमिहार' शब्द का विश्‍लेषण-विवेचन किया है, उससे जिन ब्राह्मणों को भगवान परशुराम द्वारा भूमि दी गई थी, उनका सम्बन्ध स्पष्ट रूप से जुड़ जाता है, जो अपने आप में साक्षात इतिहास है।

प्राचीनकाल से ले कर आज तक के बड़े-बड़े विद्वानों की भी यही सम्मति है कि भूमिहार ब्राह्मण ही हैं। जैसे मैथिल मनीषी महामहोपाध्याय चित्रधर मिश्र, महामहोपाध्याय बालकृष्ण मिश्र आदि। सर्यूपारी विद्वान महामहोपाध्याय द्विवेदी, महोपाध्याय शिवकुमार शास्त्री, डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि। कान्यकुब्ज विद्वान संपादकाचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, पं. लक्ष्मीनारायण दीक्षित शास्त्री, पं. वेंकटेश नारायण तिवारी आदि। इस प्रकार अन्य ब्राह्मणों तथा ब्रह्मणेतर जातियों के विद्वानों ने भी इस सत्य को स्वीकारा है कि भूमिहार ब्राह्मण ही हैं।

- आचार्य तारिणीश झा


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