मूल अधिकार से आप क्या समझते हैं? - mool adhikaar se aap kya samajhate hain?

उत्तर - अधिकार सामाजिक जीवन की उन दशाओं को कहा जाता है जिनके बिना मनुष्य प्रायः अपना पूर्ण विकास नहीं कर सकता है। अतः व्यक्ति के पूर्ण विकास के लिये जो अधिकार नितान्त आवश्यक होते हैं उनको ही हम मौलिक अधिकार कहते हैं । आधुनिक युग में प्रायः सभी लिखित संविधानों में मौलिक अधिकारों का उल्लेख मिलता है। ये अधिकार संविधान द्वारा प्रत्याभूत होते हैं, कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका के अतिक्रमण से उन्हें सुरक्षित रखा जाता है तथा न्यायपालिका उनके संरक्षक के रूप में कार्य करती है।

मौलिक अधिकारों के महत्व पर प्रकाश डालते हुए भारत के भूतपूर्व न्यायाधीश श्री के सुब्बाराव ने कहा है, "मौलिक अधिकार परस्पर प्राकृतिक अधिकारों का दूसरा नाम है ।" जैसा कि एक लेखक ने कहा है, "वे नैतिक अधिकार हैं, जिन्हें हर साल में, हर जगह, हर मनुष्य को प्राप्त होना चाहिये क्योंकि अन्य प्राणियों के विपरीत वह चेतन तथा नैतिक प्राणी है। मानव व्यक्तित्व के विकास के लिये वे आद्य अधिकार हैं । वे ऐसे अधिकार हैं जो मनुष्य को स्वेच्छानुसार जीवन व्यतीत करने का अवसर प्रदान करते हैं।”

मूल अधिकारों के उद्देश्य

भारतीय संविधान के भाग 3 में मूल अधिकारों की विवेचना की गई है। मूल अधिकार नागरिकों को मिलने वाले वे महत्वपूर्ण अधिकार होते हैं जो व्यक्तियों के विकास को बढ़ावा देते हैं। भारतीय संविधान में मूल अधिकारों को उल्लिखित करने के कुछ उद्देश्य थे! सामान्य रूप से नागरिकों के मूल्यों को संरक्षण प्रदान करना मूल अधिकारों का प्रमुख उद्देश्य है। भारतीय संविधान में मूल अधिकारों की गारंटी के लिए सरकार एवं न्यायपालिका को अधिकार प्रदान किए गए हैं। भारतीय संविधान में दिए गए मूल अधिकार नागरिकों को पूर्ण सुरक्षा और समानता प्रदान करने के लिए निर्मित किए गए हैं । मूल अधिकार नागरिकों को उच्चतम स्वभाव, सर्वोत्तम न्याय और नागरिकता प्रदान करते हैं।

मूल अधिकार नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करते हैं और उनके उल्लंघन किए जाने पर संरक्षण प्रदान करते हैं । अतः हम कह सकते हैं कि मूल अधिकारों का उद्देश्य नागरिकों को समान न्याय, समानता, स्वतंत्रता प्रदान करने के साथ उनको विकसित करना भी है।

मूल अधिकारों के लक्षण

भारतीय संविधान में उल्लिखित मूल अधिकारों के निम्न आवश्यक लक्षण होते हैं-

(1) न्यायिक प्रकृति- मूल अधिकार न्यायिक प्रकृति वाले अधिकार होते हैं । ये अधिकार भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं और उसी के द्वारा ही सुरक्षित एवं प्रत्याभूत होते हैं। भारतीय न्यायालय मूल अधिकारों के अतिलंघन पर संरक्षण प्रदान करते हैं और उन अधिकारों का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करते हैं।

(2) समान रूप से प्राप्त हैं- भारतीय संविधान में वर्णित मूल अधिकार देश के समस्त नागरिकों के लिए समान रूप से प्राप्त होते हैं। ये अधिकार समस्त भारतीय व्यक्तियों को तो प्राप्त होते ही हैं, साथ ही कुछ अधिकार अन्य सभी लोगों को भी प्राप्त होते हैं । स्वतंत्रता का अधिकार, समानता का अधिकार, सुरक्षा का अधिकार आदि समस्त भारतीय नागरिकों को प्राप्त होते हैं पर अध्याय 3 के समस्त अधिकार तथा निषेध विदेशी नागरिकों को भी प्राप्त होते हैं।

(3) वैयक्तिक अधिकार- संविधान के भाग 3 में वर्णित अधिकार राज्य के कार्य के विरुद्ध प्रत्याभूत होते हैं। अधिकतर मूल अधिकार वैयक्तिक होते हैं जो राज्य अथवा व्यक्ति दोनों के विरुद्ध प्राप्त होते हैं।

(4) जीवन के रक्षक- संविधान में वर्णित समस्त मूल अधिकार नागरिकों के जीवन की रक्षा करते हैं। उनके जीवन में आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करते हैं जिससे वे अपना समुचित विकास कर सकें ।

भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार

संविधान के भाग 3 के 24 अनुच्छेदों (12 से अनुच्छेद 35 तक) में भारतीय नागरिकों को निम्नलिखित सात मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं

1. समानता का अधिकार- इसका अर्थ है कि संविधानतः भारत में जाति, वर्ण, जन्म, नस्ल, लिंग, जन्म स्थान आदि आधार पर राज्य किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं करेगा। सभी व्यक्तियों को वैधानिक नागरिकता और सामाजिक क्षमता प्रदान की गई है। निम्नलिखित क्षेत्रों में समानता का उल्लेख संविधान में किया गया है- (अ) कानून के समक्ष समानता (ब) सामाजिक समानता (स) आर्थिक समानता (द) अस्पृश्यता की समाप्ति (ई) उपाधियों की समाप्ति

2. स्वतंत्रता का अधिकार- अनुच्छेद 19 के अनुसार भारत के नागरिकों को निम्नलिखित सात स्वतंत्रताएँ दी गई हैं

((i) विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता- भारत के सभी नागरिकों को विचार प्रकट करने, भाषण देने और अपने तथा अन्य व्यक्तियों के विचारों के प्रचार की स्वतंत्रता प्राप्त है। इस स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है।

(ii) अस्त्र-शस्त्र रहित तथा शान्तिपूर्वक सम्मलेन की स्वतंत्रता- शांतिपूर्ण और बिना किसी शस्त्रों के सभा, जुलूस या प्रदर्शन आयोजित किए जा सकते हैं।

(iii) समुदाय और संघ निर्माण की स्वतंत्रता- संविधान ने सभी नागरिकों को समुदायों और संघ के निर्माण की स्वतंत्रता दी है, परन्तु यदि ये जनहित के विरुद्ध हों, तो इन पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। ऐसे समुदायों के निर्माण की स्वतंत्रता नहीं दी जाती, जिनसे शान्ति और व्यवस्था को खतरा उत्पन्न हो जाए या जो राष्ट्र विरोधी हों।

(iv) अबाध भ्रमण की स्वतंत्रता- भारत के सभी नागरिक बिना किसी प्रतिबन्ध या अधिकार पत्र के समस्त देश में घूम-फिर सकते हैं। देश की सुरक्षा की दृष्टि से इस स्वतंत्रता पर कुछ प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं, जैसे जो स्थान सैनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हों वहाँ बिना अधिकार-पत्र के प्रवेश की आज्ञा नहीं दी जाती।

(v) वृत्ति, उपजीविका या कारोबार की स्वतंत्रता- संविधान ने सभी नागरिकों को अपनी नौकरीव्यवसाय आदि चुनने की स्वतंत्रता प्रदान की है। इस स्वतंत्रता पर कुछ प्रतिबन्ध हैं, जैसे किन्हीं व्यवसायों के लिये राज्य द्वारा न्यूनतम योग्यताएँ निर्धारित करना, किसी व्यवसाय को पूर्ण या आंशिक रूप से सरकार द्वारा अपने हाथ में लेना आदि।

(vi) भारत में अबाध निवास की स्वतंत्रता - भारत के सभी नागरिक अपनी इच्छानुसार स्थायी या अस्थायी रूप से भारत के किसी भी स्थान पर बस सकते हैं। इस स्वतंत्रता पर भी जनहित तथा अनुसूचित जातियों के हित में प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।

(vii) सम्पत्ति के अर्जन, धारण तथा व्यय की स्वतंत्रता- संविधान ने नागरिकों को व्यक्तिगत सम्पत्ति के अर्जन, धारण तथा व्यय की स्वतंत्रता दी है, परन्तु राज्य सर्वसाधारण तथा अनुसूचित जनजातियों के हित में इस अधिकार पर उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।

3. शोषण के विरुद्ध अधिकार- अनुच्छेद 23 के द्वारा बेगार को गैर-कानूनी और दण्डनीय अपराध घोषित कर दिया गया है। अब हरिजनों, स्त्रियों और भूमिहीन कृषकों का शोषण नहीं किया जा सकता। इस अधिकार का एक महत्वपूर्ण अपवाद यह है कि राज्य सार्वजनिक उद्देश्य से अनिवार्य श्रम की योजना लागू कर सकता है लेकिन यह योजना बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों पर लागू होगी।

4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार- भारतीय संविधान में अनुच्छेद 25 से 28 तक धार्मिक स्वतंत्रता के संबंध में विस्तृत वर्णन है, जिसका सारांश निम्नलिखित है

(i) अन्त:करण की स्वतंत्रता- सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य आदि को ध्यान में रखते हुए सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतंत्रता तथा कोई भी धर्म का प्रचार करने के लिए स्वतंत्रता दी गई है।

(ii) धार्मिक मामलों का प्रबन्ध करने की स्वतंत्रता- इसके अन्तर्गत प्रत्येक धर्म के अनुयायियों को निम्नलिखित अधिकार दिये गये हैं-
(a) धार्मिक संस्थाओं तथा दान से स्थापित सार्वजनिक सेवा संस्थाओं की स्थापना तथा उनके पोषण का अधिकार,
(b) धर्म संबंधी निजी मामलों का स्वयं प्रबन्ध करने का अधिकार,
(c) चल और अचल सम्पत्ति के अर्जन तथा स्वामित्व का अधिकार तथा
(d) उक्त सम्पत्ति का विधि के अनुसार प्रबन्ध करने का अधिकार।

(iii) करों में छूट- अनुच्छेद 27 के अन्तर्गत राज्य किसी भी व्यक्ति को ऐसे कर देने के लिये बाध्य नहीं कर सकता है, जिनकी आय किसी विशेष धर्म अथवा सम्प्रदाय की उन्नति या पोषण में व्यय करने के लिये विशेष रूप से निश्चित कर दी गई हो।

(iv) राजकीय शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा निषिद्ध- भारत एक धर्म निरपेक्ष या धार्मिक क्षेत्र में निष्पक्ष या तटस्थ राज्य है । संविधान के अनुच्छेद 28 के अनुसार राज्य द्वारा संचालित,मान्यता प्राप्त और आर्थिक सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं की जा सकती। इस प्रकार किसी को भी किसी धर्म की शिक्षा प्राप्त करने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता व ऐसी शिक्षण संस्था में सभी धर्म वाले प्रवेश ले सकते हैं।

5. सांस्कृतिक तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकार- भारत के सभी नागरिकों को संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार प्रदान किये गये हैं। नागरिकों के प्रत्येक वर्ग को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को सुरक्षित रखने का अधिकार है। राज्य द्वारा संचालित,मान्यता प्राप्त और सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाएँ सभी के लिए बिना किसी भेदभाव के खुली रहेंगी।

6. सम्पत्ति का अधिकार- भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को सम्पत्ति का अधिकार दिया गया है, लेकिन सार्वजनिक कल्याण को दृष्टि में रखते हुए व्यक्तिगत सम्पत्ति पर नियन्त्रण की आवश्यकता में सन्तुलन स्थापित किया गया है। अनुच्छेद 31 के अनुसार किसी व्यक्ति को उसको सम्पत्ति से उस समय तक वंचित नहीं किया जायेगा, जब तक कि ऐसा करने के लिए 'विधि का अधिकार प्राप्त न कर लिया जाए और क्षतिपूर्ति की व्यवस्था न कर दी जाय ।

सम्पत्ति का अधिकार एक अत्यन्त विवादग्रस्त विषय रहा है और संविधान लागू होने से लेकर अब तक इसी अधिकार के सम्बन्ध में सबसे अधिक संशोधन किये गये हैं। अनेक पक्षों द्वारा समय-समय पर यह बात कही जाती रही है कि सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अभिजार के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं होनी चाहिए । 44 वें संविधान संशोधन द्वारा सम्पत्ति का अधिकार अब मौलिक अधिकार नहीं रह गया है।

7. संवैधानिक उपचारों का अधिकार- इस अधिकार का यह अर्थ है कि नागरिक अपने अधिकारों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों की शरण ले सकते हैं । न्यायालयों के द्वारा व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित उन सभी कानूनों और कार्यपालिका के आदेशों व कार्यों को अवैधानिक घोषित कर दिया जायेगा, जो इन अधिकारों के विरुद्ध होंगे।

मौलिक अधिकारों का महत्व

लॉस्की के शब्दों में , अधिकार राज्य की आधारशिला होते हैं । ये वे गुण हैं जो राज्य द्वारा शक्ति के उपयोग को नैतिक रूप देते हैं । वे प्राकृतिक अधिकार इस तरह हैं कि अच्छे जीवन के लिए उनका रहना जरूरी है। इसी कारण वर्तमान् प्रजातंत्रात्मक राज्य में नागरिकों के अधिकारों का होना जरूरी है। अधिकार नागरिक के संपूर्ण नैतिक, भौतिक और आध्यात्मिक विकास हेतु जरूरी माने जाते हैं। अत: इन्हें मौलिक अधिकार कहते हैं।

मौलिक अधिकारों की आलोचना

1. अपर्ण- आलोचकों का कहना है कि इन अधिकारों में कछ अन्य अधिकार सम्मिलित किये जाने चाहिये थे, जैसे काम करने का अधिकार, कुछ परिस्थितियों (बेकारी आदि) में सरकार से सहायता प्राप्त करने का अधिकार, निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार, आदि ।

2. अपवाद और प्रतिबन्ध- आलोचकों का यह भी कहना है मौलिक अधिकारों के साथ इतने अधिक अपवाद और प्रतिबन्ध लगा दिये गये हैं कि वे लगभग निरर्थक हो जाते हैं। इस प्रकार संविधान एक हाथ से मौलिक अधिकार प्रदान करता है और दूसरे हाथ से प्रतिबन्धों व अपवादों द्वारा वापस ले लेता है।

3. संकटकाल में स्थगन- मौलिक अधिकारों के विरुद्ध यह भी तर्क है कि संकटकालीन परिस्थितियों मंअ कार्यपालिका को इनके स्थगन का अधिकार दे दिया गया है तथा सामान्य परिस्थितियों में भी निवारक निरोध की व्यवस्था कर दी गई है। श्री एच.वी.कामथ के अनुसार, “इस व्यवस्था से हम तानाशाही राज्य की ओर पुलिस राज्य की स्थापना कर रहे हैं।"

4. जटिल व अस्पष्ट - सर आइवर जैनिंग्स के अनुसार, “मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में दी गई भाषा ठीक नहीं है, उसमें अनेक जटिल बातें हैं और अमेरिका के अधिकार-पत्र जैसा स्पष्ट और संक्षिप्त नहीं है । भारतीय अधिकार-पत्र को बहुत विस्तृत भी बना दिया गया है।"

5. सम्पत्ति के अधिकार के सम्बन्ध में विवाद- सम्पत्ति के अधिकार के सम्बन्ध में संविधान लागू होने के समय से ही विवाद चल रहा है और न्यायालयों से लगभग सारा नियन्त्रण छीन लिया गया है।

निष्कर्ष

भारतीय संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों में कुछ दोष तथा कमियाँ होते हुए भी यह कहना गलत न होगा कि ये लोकतन्त्र की आधारशिला हैं। भारत के पास इतने साधन नहीं हैं कि अन्य अधिकारों को भी इनमें शामिल किया जा सके। आलोचक यह भी भूल जाते हैं कि असीमित स्वतंत्रता और अधिकार प्रदान करना न तो सम्भव है और न हितकर । संकटकाल में इनके स्थगन की आलोचना के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि राष्ट्र की सुरक्षा व्यक्ति की स्वतंत्रता से कहीं अधिक मूल्यवान है । श्री अल्लादिकृष्ण स्वामी अय्यर ने इस सम्बन्ध में कहा था, “यह व्यवस्था (मौलिक अधिकारों के संकटकाल में स्थगन सम्बन्धी) अत्यन्त ही आवश्यक है। यही व्यवस्था संविधान का जीवन होगी। इससे प्रजातन्त्र की हत्या नहीं वरन् रक्षा होगी।"

मूल अधिकार से आप क्या समझते हो?

संविधान द्वारा संरक्षित: सामान्य कानूनी अधिकारों के विपरीत मौलिक अधिकारों को देश के संविधान द्वारा गारंटी एवं सुरक्षा प्रदान की गई है। कुछ अधिकार सिर्फ नागरिकों के लिये उपलब्ध हैं, जबकि अन्य सभी व्यक्तियों के लिये उपलब्ध हैं चाहे वे नागरिक, विदेशी या कानूनी व्यक्ति हों जैसे- परिषद एवं कंपनियाँ।

मूल अधिकार से आप क्या समझते हैं भारतीय संविधान?

मूल अधिकार से तात्पर्य ये अधिकार देश में व्यवस्था बनाए रखने के साथ ही राज्य के कठोर नियमों के विरुद्ध नागरिकों को स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। ये विधानमंडल द्वारा पारित कानून के क्रियान्वयन पर तानाशाही को मर्यादित करते हैं। इनके प्रावधानों का उद्देश्य कानून का राज स्थापित करना है न कि व्यक्तियों का।