नानी के घर की बातें विषय पर डायरी लिखिए - naanee ke ghar kee baaten vishay par daayaree likhie

अस्मिता 

“नीलू दी, चलो आपको मेरी नानी का घर दिखाऊं,” मैंने बच्चों की-सी खुशी से कहा। हम रेडियो कॉलोनी के पीछे से होकर गुज़र रहे थे। लगा जैसे रास्ते में बचपन की गलियों ने पुकार कर रोक लिया हो। लगा जैसे नानी के घर की बालकनी या सामने के बाग में से बीता बचपन हुलसकर आवाज़ दे रहा है, उसी हुलस से सराबोर होकर ही मैंने नीलू दी को आवाज़ दी थी। नीलू दी ने भी उसी स्वर में कहा, “हां, हां चलो!”


 मुझे बड़ी हैरानी हो रही थी, क्योंकि जब तक मेरी नानी ज़िंदा रही और हम साल में एक बार उससे मिलने जाते रहे, तब तक भी वो घर कभी नानी का नहीं था। फिर आज अचानक वो घर नानी का घर कैसे हो गया... कैसे घरों, मकानों, छतों, बगीचों, रास्तों और मोड़ों से हम रिश्ते जोड़ लेते हैं। मुझे आज भी याद है जब गर्मियों में इंदौर आते थे मामा के यहां, तो नाना-नानी से मिलने की खुशी के साथ ही उस बड़े से घर में आने का भी जोश रहता था। हालांकि वह घर हमें अपनी हैसियत की याद दिला देता था। ख़ुद पर झूठा-मूठा फ़ख्र होता था कि देखा, हम ऐसे आलीशान घर से रिश्ता रखते हैं।  वह तो बहुत बाद में वे नज़रें समझ आईं जिनसे मामा, मामी और उनके बच्चे हमें देखते थे। बहुत बाद में समझ में आया कि मेरे पापा वहां क्यों नहीं जाना चाहते थे. खैर... हम बात कर रहे थे, नानी के घर की, मतलब मामा के घर की... 

जी हां, मामा का घर! नानी का घर तो वह कभी था ही नहीं। उस घर में जब भी नानी को देखा, सहमा-सहमा-सा, डरा-सा और परेशान देखा। हमारे आने से नानी को बहुत खुशी होती थी जो वह खुलकर बता नहीं पाती थी। नानी का हंसना, मुस्काना, डांटना, हमें चुप करना अब भी यादों में वैसे ही बसा हुआ है, जैसे कल ही की बात हो।> > नानाजी को हमसे कोई ख़ास प्यार नहीं था, हमारा भी उनकी ओर रवैया वैसा ही कुछ था। उनके लिए उनकी पोतियां ही जैसे सब कुछ थीं। हमें भी उनसे कोई ख़ास उम्मीद नहीं थी। मामा का सब कुछ उसके मूड पर था। मामी भी उस समय तक ठीक ठाक ही थीं. ख़ैर... हम बात कर रहे थे, नानी के घर की..... 

घर के सामने खुला मैदान था, जिसे अब चारों से घेर दिया गया है। वह घेरा मैदान पर नहीं मानो किसी ने घर के सामने खींच दिया हो। मानो रिश्तों के आस-पास खींच दिया हो। पहले बालकनी में बैठते थे, तो मैदान के उस पार के बंगले, दो-तीन प्रोविजन स्टोर और गलियां तक दिख जाती थीं, अब मैदान की दीवारें ही दिखती होंगी। सोचते-सोचते दीवारों का घेरा मन को भी घेरने लगता है। पता नहीं क्या-क्या याद आने लगता है। एक-एक करके अपने मन के अंदर की परतें खुलने लगती हैं... क्या-क्या समाया रहता है... 

“मैंने कहा न, तुम दोनों को जाना है, तो इसी वक्त जा सकती हो... मैं उसको फ़ोन कर देता हूं, वह आकर ले जाएगा,” मामा चिल्लाया था। मौसी की आवाज़ उससे भी तेज़ थी, “अभी इतनी ताकत है कि अपना और मां का ध्यान रख लूं, तुझे चिंता करने की ज़रूरत नहीं है....” वह गुस्से और दुःख से कांप रही थी... नानी बेचारी के तो बोल ही नहीं फूट रहे थे, रोती जा रही थी.... आज मैं उसके दर्द का अंदाज़ ही लगा सकती हूं, शायद अंदाज़ लगाना भी मुश्किल ही है। भैया, जो दो साल से इंदौर में नौकरी कर रहा था, वह आया और दोनों को आधी रात को अपने घर ले आया।
नानाजी दुनिया छोड़ चुके थे। यानी नानी और मौसी दोनों अकेली थीं, विधवा भी थीं। आज सोचती हूं जब कि मेरी शादी हो चुकी है, मेरे भी मां-बाप बूढ़े हैं, तो दिल जैसे रोने को हो आता है...कलेजा मुंह को आ जाता है।  कैसा लगा होगा, उस विधवा मां और बहन को.... जिनके पास रिश्तों की जमा-पूंजी के नाम पर बेटा और भाई यानी मेरा मामा ही रह गया था.... उन्हें अपनी ज़िंदगी में शामिल करने की जगह आधी रात को घर से बाहर का रास्ता दिखा रहा था।

फ़्लैशबैक में वो वाकया याद आया जब एक बार मैंने परेशान होकर अपने भैया को फ़ोन किया था। मेरे भाई ने इतना ही कहा था, “तू तो वापस आ जा, एक रोटी होगी, तो आधी-आधी खा लेंगे।” ये सब सोचते-सोचते, लिखते-लिखते भी आंसू आ जाते हैं! ये एहसास सिर्फ़ शादीशुदा बेटियां और बहनें समझ सकती हैं कि कैसे भाई-बहन का रिश्ता ज़िंदगी की सबसे बड़ी ताकत होता है। एहसासों की वह डोर जिससे भाई-बहन बंधे हुए होते हैं, उसकी मज़बूती का एहसास पूरी शिद्दत से हुआ था मुझे।

खैर... उस रात के बाद नानी एकदम ही टूट गई थी। नानी हमेशा के लिए दूसरी मौसी के यहां चली गई। और हमारा मामा के घर जाने का सिलसिला टूट गया था। तब तक हम भी समझ गए थे कि हमारी चाहत दूसरे रिश्तों से नहीं थी, बल्कि नानी से थी... उस घर से थी... जो नानी का नहीं था, मामा का था. और जो कुछ रिश्ता था, वह मामा से बिल्कुल भी नहीं था, नानी से था, सिर्फ़ नानी से.... 

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गर्मी की छुट्टियाँ... और मेरी नानी का घर.....।

जानती हूं शीर्षक पढ़ते ही दिल बल्लियों उछलने लगेगा आपका और आप पहुंच जाएंगे अपने बचपन में।उन दिनों गर्मी की छुट्टियां और नानी का घर एक दूसरे का पूरक हुआ करते थे,क्योंकि आज की तरह Holiday destination तो हुआ नहीं करते थे और ना ही नानी का घर छोड़कर हमें कहीं और जाने की तमन्ना होती थी।क्योंकि साल भर के इंतजार के बाद नानी के घर जाने की खुशी बिल्कुल ऐसी होती थी जैसे रेगिस्तान में मीलों चलने के बाद पानी का मिलना।....मुझे आज भी अच्छी तरह याद है कि,कैसे परीक्षा शुरू होने के पहले ही नाना जी का टेलीफोन या चिट्ठी आ जाती थी पापा के नाम जिसमें बहुत प्यार से इसरार किया जाता था हमारी मम्मी और हम बच्चों को मायके (नानी के घर)भेजने के लिए।जिसे हमारे पापा थोड़ी झिझक के बाद मान लेते थे।और फिर शुरू होती थी नानी के घर जाने की तैयारी।

लंबे इंतजार के बाद जब ट्रेन स्टेशन पर पहुंचती तो नज़रें नानाजी और मामाजी को ढूंढती।और जब वो दिखाई दे जाते तो जो खुशी महसूस होती वो बयां करना बहुत मुश्किल है।और जब टांगे में बैठकर नानी के घर (बिल्डिंग)के सामने पहुंचते तो वहां पहले से मौजूद बच्चे हाका (शोर) मारने लगते, ए...बुआ आ गई।और बिल्डिंग के सारे बच्चे और बड़े हमें मिलने नीचे आ जाते और कसकर गले लगा लेते।फ़िर शुरू होता मिलने मिलाने का दौर।

          मेरे ननिहाल को एक परिवार न कहकर कुनबा कहना ज्यादा सही होगा,क्योंकि वहां मेरे तीन नानाजी का संयुक्त परिवार है।कुल मिलाकर 40 से 50 लोगों का कुनबा एक ही बिल्डिंग में रहता था ।अब आप ये जान ही गए होंगे कि हम बच्चों को नानी के घर जाने की इतनी जल्दी क्यों रहती थी....।

फिर शुरू होता हमारा धमाल... नानाजी के साथ हम सारे बच्चे सुबह पांच बजे से उठकर नीचे ग्राउंड फ्लोर मे बनी पानी के हौद(टंकी) से पीने का पानी बाल्टियों मे भरकर ऊपर पहुंचाते।इस काम में हम सब बच्चों मे बड़ा comptation होता कि कौन सबसे ज्यादा बाल्टी उठाता है।इसके बाद नानाजी हम सब बच्चों को दूर तक सैर करने ले जाते और रास्ते भर हमें ढेरों किस्से कहानियां सुनाते जाते।वापसी मे नानी जी और मामीजी के हाथ का गरमागरम परांठा और गिलास भरा दूध तैयार रहता जिसे हम बच्चे खट्टी मीठी कैरी के अचार के साथ हजम कर जाते।फ़िर हम बच्चे मिलकर सारी दोपहर खूब उधम मचाते.. कभी छुपा छुपी, कभी पकड़म पकड़ाई,कभी नदी पहाड़, कभी पिठ्ठूल ,कभी बिल्लस और कभी गुल्ली डंडा ..ना जाने कितने ही ऐसे खेल हम खेलते।और तब तक खेलते जब तक घर का कोई बड़ा हमें बुलाने नहीं आता।

   फ़िर शाम को शुरू होता घूमने फ़िरने और रिश्तेदारों से मिलने मिलाने का सिलसिला।नानीजी और मामीजी हमें लगभग रोज़ ही बाहर ले जाते,कभी खरीदारी करने,कभी किसी रिश्ते दार के घर,कभी मंदिर तो कभी सिनेमा देखने। कभी बगीचे में तो कभी कहीं और मज़े करते।घर पर भी लगभग रोज़ ही दावत होती... कभी छोटे मामाजी चटपटी तीखी भेल बनाते ,तो कभी मामीजी मज़ेदार वड़ापाव, कभी नानीजी के हाथ की लज़ीज़ पूरणपोली खाते, और कभी नानाजी का बनाया कांदा पोहा...।

   गली के नुक्कड़ पे बनी वो कुल्फी और लस्सी की दुकान हम कैसे भूल सकते हैं जहाँ बड़े मामाजी हमें रोज़ लेकर जाते थे।आज भी वो कुल्फी बहुत याद आती है।कुल्फी खाकर घर पहुंचते और देररात तक ताश के पत्तों की बाजी बिछती।जिसमें सभी बडे़ और बच्चे बराबर से भाग लेते।रम्मी, चीपों चीपों, चटाई, बजार बजार और भी ना जाने कितने से खेल खेलते ।....

   और इस तरह एक महीने की गर्मी की छुट्टी कब बीत जाती पता ही नहीं चलता।और हम फिर से अगली गर्मी की छुट्टियों मे आने का वादा करके नाना नानी, मामा मामी,और अपने सारे भाई बहनों की आंखों में(और अपनी भी)खुशी और दुःख के मिलेजुले आंसू छोड़कर वापस अपने घर आ जाते।

   ये बातें बीस साल पुरानी हैं, लेकिन आज भी जब गर्मी की छुट्टियां लगतीं हैं, और मेरे बच्चे अपनी नानी के घर (मेरे मायके) जाने की ज़िद करते हैं तो मुझे भी बरबस ही अपनी नानी का घर याद आ जाता है,और मेरे चेहरे पे एक प्यारी सी मुस्कान आ जाती है।जैसे इस समय ये ब्लॉग पढ़ते समय आपके चेहरे पे आई है.......।है... ना...।

नानी के घर की बातें विषय पर डायरी लिखिए - naanee ke ghar kee baaten vishay par daayaree likhie

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Published:Mar 23, 2018

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