अर्थ:कदाचित कोई किसी तरकीब से बालू में से भी तेल निकल ले, कदाचित कोई प्यासा मृगतृष्णा के जल से भी अपनी प्यास शान्त कर ले; कदाचित कोई पृथ्वी पर घुमते घुमते घरगोश का सींग भी खोज ले; परन्तु हठ पर चढ़े हुए मूर्ख मनुष्य के चित्त को कोई भी अपने काबू में नहीं कर सकता । व्यालं बाल-मृणाल-तन्तुभिरसौरोद्धं समुज्जृम्भते, भेत्तुं वज्रमपि शिरीषकुसुम-प्रान्तेन सन्नह्यते । माधुर्यं मधुबिन्दुना रचयितुं क्षाराम्बुधेरीहते, ने तुं वांछति यः खलान्पथि सतां सूक्तैः सुधास्यन्दिभिः ।। ६ ।। यदा किञ्चिज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं जौक: कुण्डलिया: साहित्यसंगीतकलाविहीनः येषां न विद्या न तपो न दानं वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह। अर्थ: इल्म चंदा कि बेशतर रव्वानी। किसी गधे पर यदि कुछ ग्रन्थ लाद दिए जाएं तो क्या वह उनसे विद्वान या बुद्धिमान बन सकता है? दोहा: शास्त्रोपस्कृत शब्द सुन्दरगिरः शिष्यप्रदेयागमाः अर्थ: हर्तुर्याति न गोचरं किमपि शं पुष्णाति यत्सर्वदा अर्थ: अधिगतपरमार्थान्पण्डितान्मावमंस्था अर्थ: महाकवि दाग: तेरी सेवा करने से सातो विलायतों का राज्य मिल जाता है । जब तू अपना हो जाता है, तो सारे जहाँ के अपना होने में क्या संदेह है । कुण्डलिया: अम्भोजिनीवनवासविलासमेव, दोहा:कोपित यदि विधि हंस को, हरत निवास विलास।पय पानी को पृथक गुण, तासु सकै नहि नाश।। केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला अर्थ: विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं अर्थ: गोस्वामी तुलसीदास: क्षान्तिश्चेत्कवचेन किं, किमिरिभिः क्रोधोऽस्ति चेद्देहिनां अर्थ: दाक्षिण्यं स्वजने, दया परजने, शाट्यं सदा दुर्जने अर्थ: जो अपने रिश्तेदारों के प्रति उदारता, दूसरों पर दया, दुष्टों के साथ शठता, सज्जनों के साथ प्रीति, राज सभा में नीति, विद्वानों के आगे नम्रता, शत्रुओं के साथ क्रूरता, गुरुजनों के सामने सेहेनशीलता और स्त्रियों में धूर्तता या चतुरता का बर्ताव करते हैं – उन्ही कला कुशल नर पुंङ्गवो से लोक मर्यादा या लोक स्थिति है; अर्थात जगत उन्ही पर ठहरा हुआ है । जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं , अर्थ: कबीरदास: जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः । अर्थ: जौक: सूनुः सच्चरितः सती प्रियतमा स्वामी प्रसादोन्मुखः वृन्द कवी: प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं जीव हिंसा न करना, पराया धन हरण करने से मन को रोकना, सत्य बोलना, समय पर सामर्थ्यनुसार दान करना, पर-स्त्रियों की चर्चा न करना और न सुन्ना, तृष्णा के प्रवाह को तोडना, गुरुजनो के आगे नम्र रहना और सब प्राणियों पर दया करना – सामान्यतया, सब शास्त्रों के मत से ये सब मनुष्य के कल्याण के मार्ग हैं । प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः अर्थ: संसार में तीन तरह के मनुष्य होते हैं:-१. नीच, २. मध्यम और ३. उत्तम । नीच मनुष्य, विघ्न होने के भय से काम को आरम्भ ही नहीं करते । मध्यम मनुष्य कार्य को आरम्भ तो कर देते हैं, किन्तु विघ्न होते ही उसे बीच में ही छोड़ देते हैं, परन्तु उत्तम मनुष्य जिस काम को आरम्भ कर देते हैं, उसे विघ्न पर विघ्न होने पर भी, पूरा करके ही छोड़ते हैं । असन्तो नाभ्यर्थाः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः । वृन्द कवी: तुलसीदास: शेखसादी: दुष्ट के हाथ से मिठाई खाने की अपेक्षा सज्जन के हाथ से इन्द्रायण का कड़वा फल खाना अच्छा । मानशौर्य प्रशंसा स्वल्पं स्नायुवसावशेषमलिनं निर्मांसमप्यस्थि गोः लाङ्गूलचालनमधश्चरणावपातम् स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् । परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ॥ ३२ ॥अर्थ:इस परिवर्तनशील जगत में मर कर कौन जन्म नहीं लेता? जन्म लेना उसी का सार्थक है, जिसके जन्म से वंशनकी गौरव वृद्धि या उन्नति हो । सन्त्यन्येડपि बृहस्पतिप्रभृतयः सम्भाविताः पञ्चषा स्तान्प्रत्येषविशेषविक्रमरुची राहुर्न वैरायते ।द्वावेव ग्रसते दिनेश्वरनिशाप्राणेश्वरौ भासुरौ भ्रान्तः पर्वणि पश्य दानवपतिः शीर्षावशेषीकृतः ॥ ३४ ॥अर्थ:आकाश में बृहस्पति प्रभृत्ति और भी पांच छः ग्रह श्रेष्ठ हैं, पर असाधारण पराक्रम दिखाने की इच्छा रखनेवाला राहु इन ग्रहों से बैर नहीं करता । यद्यपि दानवपति का सिर मात्र अवशेष रह गया है तो भी वह अमावस्या और पूर्णिमा को – दिनेश्वर सूर्य और निशानाथ चन्द्र को ही ग्रास करता है । धन महिमा मणि: शाणोल्लीढ: समरविजयी हेतनिहतो छप्पय: राजन्दुधुक्षसि यदि क्षितिधेनुमेतां दोहा: सत्याअन्रिता च परूशा प्रियवादिनी च न राम सदृशो राजा पृथिव्या नितिमानभूत । इसी पृथ्वी पर रामचन्द्र के समान नीतिमान और श्रीकृष्ण के समान कूटनीतिज्ञ राजा नहीं हुआ । रामचन्द्र जी ने अपनी नीति के बल से वानरों को अपने वश में कर लिया और श्रीकृष्ण ने अपनी ही बहिन सुभद्रा, छल से अर्जुन को ब्याह दी । विद्या कीर्तिः पालनं ब्राह्मणानां दोहा: यद्धात्रा निजभालपट्टलिखितं स्तोकं महद् वा धनम् अर्थ: पञ्चतन्त्र: जो होनहार नहीं है, वह नहीं होता और जो होनहार है, वह बिना उपाय किये हि हो जाता है । जो हमारे भाग्य में नहीं है, वह हाथ में आकर भी नष्ट हो जाता है । एक ही कर्म के दो नाम हैं । फलों की प्राप्ति का हेतु प्रत्यक्ष नहीं दीखता । फलों की प्राप्ति पूर्वजन्म के कर्मानुसार ही होती है । देखते हैं की कोई कोई बिना जरा सा भी उद्योग और परिश्रम किये अतुल संपत्ति का अधिकारी हो जाता है और कोई दिन-रात घोर परिश्रम करने पर भी पेट भर अन्न नहीं पाता । जिस तरह बछड़ा अपनी माँ कोई हजारों गायों में भी पहचान लेता है ; उसी तरह पूर्वजन्म का कर्म अपने करता को चट पहचान लेता है । किया हुआ कर्म, सोते के साथ सोता है, चलते के साथ चलता है; बहुत क्या, पूर्वकृत कर्म आत्मा के साथ रहता है । छाया और धूप का आपस में जो सम्बन्ध है, कर्ता और कर्म का भी वही सम्बन्ध है । दोहा: त्वमेव चातकाधारोડसीति केषां न गोचरः । चातक कहता है – ” हे मेघ ! संसार में नद, नदी और सरोवर आदि अनेक जलाशय हैं; हम प्यासे ही क्यों न मर जाएं, पर तुम्हारे सिवा हम किसी का जल नहीं पीते । तुम्हारे जल के सिवा गङ्गा, जमुना, सरस्वती और सिंधु प्रभृति हमारे लिए धूल हैं । हम लोगों को तुम्हारा ही आश्रय है । इस दशा में तुम्हें उचित नहीं है, कि तुम हमसे बार बार दीनता कराओ । सज्जनो को अपने आश्रितों कि दीनता की प्रतीक्षा न करनी चाहिए । उनकी अनुनय- विनय और दीन वाणी के बिना ही उनकी आशा पूरी करनी चाहिए । जो अपने आश्रित को बिना दीनता कराये दे, उसके समान कौन दाता है ? दोहा: दुर्जनो परिहर्तव्यो विद्यया भूपितोऽपि सन् । अर्थ: जिस तरह मणि धारण करने से सर्प की भयङ्करता नष्ट नहीं हो जाती; उसी तरह विद्या अध्ययन कर लेने से दुर्जनो की स्वाभाविक दुष्टता नहीं चली जाती । पञ्चतन्त्र में लिखा है: धर्मशास्त्र के पढ़ने या वेदाध्ययन से दुष्टात्मा, साधु-स्वभाव नहीं होता; जिसका जो स्वाभाव है, वही प्रबल है, गाय का ढूढ़ स्वभाव से ही मीठा होता है । वृन्द कवी ने कहा है : किसी का भी जन्म स्वभाव नहीं बदलता । विद्या उत्तम चीज़ है, पर स्वभाव बदलने की शक्ति उसमें भी नहीं है । विद्या से मनुष्य में बुद्धिमत्ता आती है, पर मूर्ख की मूर्खता और भी बढ़ती है । विद्या से दुष्टों को एक प्रकार का बल और मिल जाता है । विद्याबल से उनकी दुष्टताएँ और भी भीषण रूप धारण कर लेती हैं । स्वाति की बूँद सीप में पड़कर मोती का रूपधारण करती है और सर्प के मुख में पड़कर भयङ्कर विष हो जाती है । जो अयोग्य और नालायक होता है, जिसकी असलिलयात ही ख़राब होती है, उसे कैसी भी उत्तम शिक्षा दी जाये और कैसी भी अच्छी सङ्गत में रखा जाये, वह हरगिज़ उत्तम न होगा । पानी को कितना ही गरम कीजिये, थोड़ी देर बाद वह शीतल हो ही जायेगा यानि अपने असल स्वभाव पर आ जायेगा । लहसुन और हींग, कस्तूरी के हजारों पुट दिए जाने पर भी अपने स्वाभाव को नहीं त्यागते; उनकी असली गन्ध बनी ही रहती है । जीभ पर कितनी ही चिकनाई ल्हेसी जाये, पर वह चिकनी न होगी । नीम में कितना ही गुड़-घी सींचा जाये, पर वह मीठा न होगा , जिसका स्वाभाव जैसा है, वैसे ही रहेगा । रावण कम विद्वान् नहीं था, पर विद्वान् होने से क्या उसकी दुष्टता चली गयी थी ? इन बातों को हृदयंगम करके, अपना भला चाहने वालों को अपढ़-निरक्षर दुष्टों से तो बचना ही चाहिए, पर पढ़े लिखे या विद्वान् दुर्जनो से और भी अधिक दूर रहना चाहिए । निरक्षर दुर्जनो से साक्षर दुर्जन अधिक भयङ्कर होते हैं । बहुत कहने से क्या, असली स्वाभाव किसी भी उपाय से मिट नहीं सकता । जाड्यं ह्रीमति गण्यते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवं दुर्जनो को सज्जनो से स्वाभाविक बैर होता है । जिस तरह मूर्ख पण्डितों से, दरिद्र धनियों से, व्यभिचारिणी कुल-स्त्रियों से और विधवा सधवाओं से सदा जलती रहती है उसी तरह दुर्जन सज्जनो से जला करते है । ऐसो से ही दुखित होकर महाकवि ग़ालिब ने कहा है: संसार रहने की जगह नहीं, यहाँ ईर्ष्या-द्वेष का बाजार गर्म है । जी में आता है, ऐसी जगह चलकर रहिये, जहाँ कोई न हो । हमारी बात कोई न समझे और न हम किसी की समझें । मकान भी ऐसा हो जिसमें न दर हो न दीवार अर्थात शुद्ध जङ्गळ हो, न कोई साथी न पडोसी । इसी तरह एक अंग्रजी विद्वान् ने दुष्टो से दुखित हो कर कहा है – जो लोग इन दुष्टों में ही रहना चाहें अथवा इच्छा न होने पर भी रहे बिना न सरे, उनको इन दुष्टों की बातों पर कान न देना चाहिए । मन में समझना चाहिए, हम तो कौन चीज हैं, ये बड़े बड़ों की निंदा करते हैं । इनकी निन्दा से हमारा क्या बिगड़ जायेगा ? तुलसीदास ने कहा है: नीच लोग दरवाजे पर तो टाट भी नहीं लगा सकते, पर बलि और हरिश्चन्द्र जैसे महादानियों की निन्दा करते हैं, कर्ण और दधीचि तो इनकी नजरों में कोई चीज़ नहीं । लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः लोभ से ही काम, क्रोध और मोह की उत्पत्ति होती है और मोह से मनुष्य का नाश होता है । लोभ ही पापों का कारण है । लोभ से बुद्धि चञ्चल हो जाती है । लोभ से तृष्णा होती है । तृष्णार्त को दोनों लोकों में सुख नहीं । धन के लोभी को, असन्तोषी को, चञ्चल मन वाले को और अजितेन्द्रिय को सर्वत्र आफत है । लोभ सचमुच ही सब अवगुणों की खान है । लोभ होते है सब अवगुण अपने आप चले आते हैं । दुष्टों के मन में पहले लोभ ही होता है ; इसके बाद वे परनिन्दा, परपीड़न और हत्या प्रभृति कुकर्म करते है । रावण को सीता पर पहले लोभ ही हुआ था । दुर्योधन को पाण्डवों की सम्पत्ति पर पहले लोभ ही हुआ था इसलिए मनुष्य को लोभ-शत्रु से बिलकुल दूर ही रहना चाहिए । जिसमें लोभ नहीं, वह सच्चा विद्वान् और पण्डित है । निर्लोभ को जगत में आपदा कहाँ ? अगर विद्वान् के मन में लोभ है तो वो विद्वान् कहा, मूर्ख है । कहा है – जो मनुष्य अस्पष्टता के कारण किसी ग्रन्थकर्ता की निन्दा करे, वह अपने ही चित्त में, विचार कर देखे, कि क्या वहां बिलकुल स्वच्छता है ।धुंधलके में स्पष्ट से स्पष्ट लेख नहीं समझ आता । जिनका दिल स्वच्छ नहीं होता उनको ही पराया काम सदोष दीखता है । कबीरदास ने कहा है: जिसका मन शुद्ध नहीं, जिसके ह्रदय में पाप है, वही दुष्ट है । वह सौ बार तीर्थ स्नान करने से भी शुद्ध नहीं हो सकता । क्या मदिरा का पात्र जलने से शुद्ध हो जाता है ? जिनके मन में काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ प्रभृति का निवास नहीं होता – उनका ही मन शुद्ध है, उनका ही मन रोग-रहित है । अगर मन शुद्ध रहे तो सारा काम ही बन जाये – स्वयं जगदीश ही न मिल जाएँ कहा है: हमारा स्वामी – परमेश्वर, मूर्खों को धन देता है । जिन्हे वह धन देता है, उन्हें वह सिवा धन के और कुछ नहीं देता । इन दुखों के सिवा धन से एक और दुःख है । वह यह कि मरण समय भी यह कष्ट देता है । जिस गधे पर हल्का बोझ होता है, वह आसानी से चला जाता है ;उसी तरह जो गरीब होते है, जिनके हाथी घोड़े महल मकान बाग़ बगीचे, बड़ा परिवार और अनेक प्रकार के रत्न, हीरा पन्ना आदि नहीं होते, वे सहज में देह त्याग कर जाते हैं , उन्हें प्राणान्त के समय भयङ्कर वेदना नहीं होती – इन सब दुखों के कारण ही विद्वान् लोग धन को पसन्द नहीं करते । शशी दिवसधूसरो गलितयौवना कामिनी । परमात्मा ने अपने सभी कामों में कुछ न कुछ दोष रख दिए हैं और वे ही दोष चतुरों के दिल में खटकते हैं । अगर चन्द्रमा दिन में भी प्रभाहीन न होता, स्त्री का यौवन सदा रहता, सरोवर कभी कमल-शून्य न होता, रूपवान विद्वान् होते, धनी उदार होते, सज्जन धनवान होते और राजसभा में दुष्टों की पहुँच न होती – तो कैसी आनन्द की बात होती ? परमात्मा की लीला ही अजब है । वह सज्जनो को बहुधा निर्धन रखता है । कवियों ने कहा है: सोने में सुगन्ध, ऊख में फल, चन्दन में फल, विद्वान धनी और राजा चिरजीवी न किया, इससे स्पष्ट है कि विधाता को कोई अक्ल देने वाला न था । न कश्चिच्चण्डकोपानामात्मीयो नाम भूभुजाम्। कहावत प्रसिद्ध है: पञ्चतन्त्र में लिखा है : कव्वे में पवित्रता, जुआरी में सत्य, सर्प में सहनशीलता, स्त्री में कामशान्ति, नामर्द में धीरज, शराबी में तत्वचिन्ता और राजा में मैत्री किसने देखि या सुनी है ? दोहा: नीति शतक – दुर्जनों कि निन्दा 58 मानौंन्मूकः प्रवचनपटुः वाचको जल्पको वा संसार में जितने कठिन काम हैं, उनमें पराई चाकरी सबसे कठिन है । योगीजन सब तरह के कष्ट सहने के अभ्यासी होते है, उन्हें कोई कष्ट-कष्ट और कोई दुःख – दुःख नहीं मालूम होता; परन्तु, पर-सेवा उनके लिए भी महा कठिन है । नौकर को किसी तरह भी चैन नहीं । जो लोग सेवावृत्ति को कुत्ते कि वृत्ति कहते है, बड़ी गलती करते हैं । कुत्ते में और सेवक में तो बड़ा फर्क है । सेवक से कुत्ता भला है; क्योंकि कुत्ता अपनी मौज से फिरता है; पर नौकर तो प्रभु कि आज्ञा से फिरता है । वरं वनं वरं भैक्ष्यं, वरं भारोपजीवनम् । वन में रहना अच्छा, भीख मांग कर खाना अच्छा, बोझा उठा कर जीना अच्छा, रोगी रहना अच्छा पर सेवा करके धन प्राप्त करना अच्छा नहीं । महावीर प्रसाद द्विवेदी: दोहा: उद्भासिताखिलखलस्य विशृङ्खलस्य तात्पर्य यह है कि नीच मनुष्य कि सेवा करके मनुष्य हरगिज़ सुखी नहीं हो सकता । कहा है: जो अगम्या स्त्री से गमन करता है, जो सेवा न करने योग्य की सेवा करता है, वह उसी तरह मरता है, जिस तरह खच्चरी गर्भ धारण करने से मरती है । दुर्योधन दुष्टों का सरदार और बुराइयों कि खान था, वह किसी नीति- नियम को न मानता था । जो मन में आता वही करता था । पूर्वजन्म के पापों से घोर दुराचारी था । दैव के अनुकूल होने से लक्ष्मी मिल गयी थी; परन्तु पाण्डवों के उत्तमोत्तम गुणों से वह अहर्निश जला करता था । उसकी सेवा करने से गोगृह में भीष्म को अपमानित होना पड़ा और द्रोणाचार्य को भी नीचे देखना पड़ा । भरी सभा में अन्यायाचरण देख कर भी, चाकरी के कारण, भीष्म और द्रोण कुछ न बोल सके । बहुत क्या, शेष में उन्हें अपने प्राण भी गवाने पड़े । कुण्डलिया: आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण इक्षोरग्रात्क्रमशः पर्वणि यथा रसः विशेषः । ईख के अगले हिस्से में रस कम होता है; ज्यों ज्यों आगे चलिएगा, रस अधिक मिलता जायेगा । बस, सज्जनो की मैत्री ठीक ऐसी होती है; दुर्जनो की इसके विपरीत होती है । कहा है: बिनसत बार न लागई, ओछे नर की प्रीती। नीति शतकम् – दुर्जनों की निन्दा – 61 मॄगमीनसज्जनानं तृणजलसन्तोपविहितवृत्तिनाम् । हिरन, मछली और सज्जन – ये किसी की हानि नहीं करते, पर दुष्ट लोग इन्हे वृथा ही सताते हैं । इससे मालूम होता है की दुष्टो का स्वाभाव ही ऐसा होता है । वे दूसरों को तकलीफ देने में ही अपना कर्तव्य पालन समझते हैं । कहा है: दोहा: नीति शतकम् – सज्जन प्रशन्सा – 62 वाञ्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीतिर्गुरौ नम्रता विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादादभ्यम् । तुलसीदास जी ने कहा है: विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः । कर्मों के फल भोगने से कोई नहीं बच सकता, जो किया है उसका फल भोगना ही होगा । विपत्ति और दुर्भाग्य का रोकना असम्भव है, फिर घबराने से क्या लाभ? घबराने या धैर्य त्यागने से विपत्ति बढ़ती है, घटती नहीं । धीरज धर्म मित्र अरु नारी, आपद्काल परखिये चारि । रात जितनी ही अँधेरी होती है, तारे उतनी ही तेजी से चमकते हैं; विपद जितनी ही भारी होती है, मनुष्य उतना ही अधिक गुणवान होता है विपद में ही मनुष्य के गुणों का प्रकाश होता है । विपद निश्चय ही परमात्मा का शुभाशीर्वाद है । अयोध्यानाथ महाराजा रामचन्द्र जी पर कुछ काम विपत्ति नहीं पड़ी । राजतिलक होते होते वनवास हुआ, पिता दशरथ का मरण हुआ, जननी से वियोग हुआ, सीता जैसी कोमलाङ्गी को लेकर भीषण वन और दुर्गम पर्वतों में भ्रमण करना पड़ा । वन में भी सीता का वियोग हुआ, वे जरा भी धैर्यच्युत नहीं हुए और इसीलिए महादुस्तर विपद से पार होकर विजयी हुए । महाराजा नल पर काम विपद नहीं पड़ी । राज्य गया, रानी और संतान से वियोग हुआ, अन्न और वस्त्र के लिए तरसना पड़ा, पराई चाकरी करनी पड़ी; पर वे घबराये नहीं; इसीलिए शेष में उनकी विपद भाग गई , रानी और राज्य सभी मिल गए । पाण्डवों की तरह कौन विपद सहेगा ? बेचारों पर, विपद पर विपद पड़ती रहीं, धनैश्वर्य गया, भरी सभा में घोर अपमान हुआ, वन-वन में मारे-मारे डोले, भिक्षा-वृत्ति पर भी जीवन निर्वाह करना पड़ा, पर धैर्य के बल से सारी विपदाओं को काट कर, भगवान् कृष्ण की दया से, वे युद्ध में विजयी हुए । महाराजा हरिश्चन्द्र का राज्य गया, स्त्री और पुत्र से वियोग हुआ, पुत्र का मरण हुआ, रानी को पराई दासी बनना पड़ा, स्वयं आपने शमशान में चाण्डाल की चाकरी की, पर आपने पुत्र के मरने पर भी अपने धैर्य और धर्म को न छोड़ा, इसी से भगवान् आप पर प्रसन्न हुए, आपकी सारी विपद हवा हो गयी । महात्मा लोग विपद में जिस तरह कठोर हो जाते हैं; उसी तरह सम्पद में वे एकदम नम्र बने रहते हैं और धनैश्वर्यशाली होकर इतराते नहीं; अभिमान के वश होकर किसी को कष्ट नहीं देते । इस अवस्था में उनकी सहनशीलता उल्टी बढ़ जाती है । क्षमा और नम्रता की वे मूर्ती ही बन जाते हैं; क्योंकि वे इस अवस्था को भी विपदावस्था की तरह चिरस्थायी नहीं समझते । वृन्द कवी ने कहा है: सभा चातुरी एक बहुत बड़ा गुण है । सभा चतुर मनुष्य अपनी वचन-चातुरी से सबको मन्त्र मुग्ध कर देता है । जो सुन्दर वचन रुपी द्रव्य का संग्रह नहीं करता वह परस्पर के अलाप रुपी यज्ञ में क्या दक्षिणा दे सकता है ? सभा चतुर पुरुष हजारो- लाखों विपक्षियों को भी मूक बना देता है । कहा है: श्रवण नाथन मुख नासिका, सब ही के इक ठौर । महात्मा लोग जीवन को एक-न-एक दिन अवश्य नाश होने वाला समझते हैं, उन्हें धन और प्राणो का मोह नहीं होता । वे आगे पैर रखकर पीछे पैर नहीं देते । कर्ण, अर्जुन और अभिमन्यु प्रभृति महापुरुषों के पराक्रम की बात ‘महाभारत’ पढ़ने वालों से छिपी नहीं है : रन सन्मुख पग सूर के, वचन कहें ते सन्त । महापुरुषों की तरह मनुष्य को स्त्रावलोकन के सिवा और व्यसन न रखना चाहिए । दोहा: युधि विक्रम, यश माहिं रुचि, ते नरवर गुण ऐन ।। नीति शतकं – सज्जन प्रशंसा – 64 प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते सम्भ्रमविधिः। दान करके किसी से कहना, अख़बारों में छपवाना अथवा और तरह की डोंडी पिटवाना अच्छा नहीं । इस तरह से जो दान किया जाता है, उस दान का मूल्य घाट जाता है; इसी से वास्तविक दानी अपने दान की खबर अपने दूसरे हाथ को भी नहीं पड़ने देते । बड़े बड़ेई काम कर, आप सिहायत नाहिं । सत्पुरुष, घर आये शत्रु का भी उपकार करते हैं । अपने घर में जो कुछ होता है, उसी से उसका सत्कार करते हैं । अपूजितोऽतिथिर्यस्य गृहाद्याति विनिःश्वसन् । जिसके घर में अपोजिट अतिथि सांस लेता हुआ चला जाता है, उसके यहाँ देवता पितरों सहित-विमुख होकर चले जाते हैं । अगर गृहस्थ सूर्य डूबने के पश्चात आये हुए अतिथि की सेवा करता है, तो वह देवता होता है – “आइये” कहने से अग्नि, आसान देने से इन्द्र, चरण धोने से पितर और अर्घ देने से शिव जी प्रसन्न होते हैं । जो घर आवत शत्रुहु, सुजन देत सुख चाहि । महापुरुष अपने किये उपकारों को तो छिपाते हैं, परन्तु दूसरा उनके साथ जो ज़रा सी भी भलाई करता है, उसको सौगुनी करके औरो से कहते हैं । यह सामर्थ्य सत्पुरुषों में ही होती है । नीच लोग तो अपने उपकारी के उपकार को छिपाने की ही चेष्टा किया करते हैं, क्योंकि संकीर्ण ह्रदय लोग इसमें अपनी मान-हानि समझते हैं । तिनसों विमुख न हुजिये, जे उपकार समेत । सत्पुरुषों को धन से गर्व नहीं होता । धनैश्वर्य पाकर सत्पुरुष फलदार वृक्षों की तरह उल्टा नीचे को झुक जाते हैं । वे इस बात को जानते हैं की धन, यौवन और जीवन, असार और चञ्चल हैं । जो आज ऊँचा है उसे कल नीचे गिरना ही होगा । इस जहां में कितने ही बाग़ लग लगकर सूख गए, आज उनका नाम-ओ-निशान भी नहीं, कितने ही दरिया चढ़े और उतर गए । सँसार की परिवर्तनशीलता का ज्ञान होने की वजह से ही वे साड़ी पृथ्वी के अकेले स्वामी होने पर भी, मुतलक़ घमण्ड नहीं करते और जो ऐश्वर्यशाली होने पर घमण्ड नहीं करते, वे निस्संदेह महात्मा और इस पृथ्वी के भूषण हैं । कहा है – धनवान, गुणवान, धर्मवान, बलवान, और सर्वप्रिय राजा से भी श्रेष्ठ, तीनों लोकों में प्रकाशित होने वाला, निरभिमान (अर्थात् जिसमें अहंकार न हो) को बताया है। महात्मा पुरुष अगर किसी का जिक्र करते हैं तो उसमें निन्दाव्यञ्जक वाक्य तो क्या – एक बुरा शब्द भी नहीं आने देते । दोष उन्ही को दीखते हैं जिनके ह्रदय स्वयं मलीन होते हैं और जो परछिद्रान्वेषण की फ़िक्र में रहते हैं । धुंधले आईने में ही चेहरा ख़राब दीखता है । शैली महाशय ने कहा है : पर को अवगुण देखिये, अपनों दृष्टी न होये । करे श्लाघ्यस्त्याग: शिरसि गुरुपादप्रणयिता । संपत्सु महतां चित्तं भवत्युत्पलकोमलं । सोरठा: सन्तप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते । यः प्रणीयेत्सुचरितै पितरं स पुत्रो । दोहा: एको देवः केशवो वा शिवो वा इसका खुलासा यह है – मनुष्य को या तो संसार में रहकर भोग भोगने चाहिए अथवा संसार को परित्याग करके वन में जा बसना चाहिए । यदि मनुष्य संसार में रहे तो उसे कृष्ण भगवान् कि भक्ति करनी चाहिए, किसी राजा से मैत्री करनी चाहिए, नगर में बसना चाहिए और किसी सुन्दर नारी का पाणिग्रहण कर उससे विलास करना चाहिए । अगर मनुष्य संसार कि असारता से विरक्त हो कर वन में रहे तो उसे शिवजी कि भक्ति और आराधना करनी चाहिए, किसी तपस्वी से मैत्री करनी चाहिए, वन में रहना चाहिए और कन्दरा – गुफा से विलास करना चाहिए । एक ही काम करना चाहिए, ‘इधर के रहे न उधर के रहे’, खुदा ही मिला न विसाले सनम” वाली कहावत न चरितार्थ करनी चाहिए । संसारी बनना हो तो संसारी ही बनना चाहिए; त्यागी का ढोंग नहीं करना ठीक नहीं । सन्यासी होकर गृहस्थों के घर आना, उत्तमोत्तम पुष्टिकारक भोजन करना, धन सञ्चय करना, युवतियों को पास बिठाना, उनसे पैर पूजाना – उचित नहीं; इस तरह करने से मनुष्य न इधर का रहता है न उधर का । ”धोबी का कुत्ता, न घर का न घाट का” यह कहावत चरितार्थ होती है । गोस्वामी जी ने कहा है: नम्रत्वेनोन्नमन्त: परगुणकथनै: स्वान्गुणान्ख्यापयन्त: सज्जन सबसे नम्रता से व्यवहार करते हैं, अपने तई सबसे नीचे समझते हैं और अपनी नम्रता से ही ऊँचे होते हैं; यानी किसी को भी अपने से कम नहीं समझते, अदना से अदना आदमी से विनीत व्यवहार करते हैं । उनके इस व्यवहार से प्रत्येक मनुष्य का आत्मा सन्तुष्ट हो जाता है; प्रत्येक मनुष्य उनका सम्मान करने लगता है और उन्हें अपने से ऊँचा समझता हैं क्योंकि वास्तविक महापुरुषों में ही नम्रता होती है; जो ओछे और थोथे होते हैं, उनमें ही अभिमान की मात्रा हद से ज्यादा होती है । कविजन कहते हैं : जो सबको ही परमात्मा समझते हैं, सभी प्राणियों में परमात्मा को देखते हैं, वे भूल कर भी किसी की निन्दा नहीं कर सकते । उनकी ऐसी समझ है तभी वे किसी से शत्रुता या द्वेषभाव नहीं रखते । कहा है: जो सबको बन्दे-खुदा समझते हैं और सभी को अपने से ज्यादा समझते हैं, वे किसी को नज़र-हिक़ारत से नहीं देख सकते । उनके मुंह से पराई प्रशंसा छोड़ निन्दा निकल ही नहीं सकती । A true man hates no one – Napoleon तीसरा गुण सज्जनो में यह होता है, कि वे सदा परोपकार में दत्तचित्त रहते हैं । जो सदा पराई भलाई में लगा रहेगा, उसका कोई काम बिना बने नहीं रह सकता । चौथा गुण सज्जनो में यह होता है कि वे अपने निन्दकों कि बातों का बुरा नहीं मानते । वे वृक्ष कि तरह होते हैं, जिसको लोग पत्थर मारते हैं तो वह फल देता है । जो लोग उनकी निन्दा करते हैं, वे उन्ही कि प्रशंसा करते हैं । उनका ख्याल है – ज़ुबाँ खोलेंगे मुझ पर बद ज़ुबाँ क्या बादशआरि से । सज्जन पुरुष नीचों कि बातों कि परवा नहीं करते । वे अपनी नम्रता और क्षमाशीलता से ही उनके मुंह बन्द कर देते हैं । बुराई करते करते जब दुष्ट थक जाते हैं तब आप ही लज्जित हो कर बुराई करना छोड़ देते हैं – नम्रता से ऊँचा होना, पराया गुणगान करके अपनी प्रसिद्धि करना, पराया भला करते हुए अपना भी स्वार्थ सिद्ध कर लेना और निन्दकों को अपनी क्षमाशीलता से लज्जित करना – ये चारों गुण अनुकरणीय हैं । जिनमें ये चारों गुण होते हैं, निश्चय ही वे सभी के पूजनीय होते हैं । नीति शतकं – धैर्य प्रशंसा – 81 रत्नैर्महार्हैस्तुपुर्न देवा न भेजिरे भीमविषेण भीतिम् । क्वचिदभूमौ शय्या क्वचिदपि च पर्यङ्कशयनम । ऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमो । शंकराचार्य कृत प्रश्नोत्तरमला में लिखा है: उत्तम से उत्तम आभूषण क्या है? शील । संसार में “स्वभाव” सबके ऊपर समझा जाता है । जिसका स्वभाव अच्छा नहीं, वह हज़ार हज़ार गुण होने पर भी निकम्मा है । जिसके स्वभाव में “शील” है, वह सब गुणियों का सरदार है । कहा है – सारांश: यदि इहलोक और परलोक में सुख चाहो, तो शील व्रत धारण करो । शील सब गुणों का राजा है । शीलवान को जगत मस्तक झुकाता है । शीलवान के लिए अग्नि शीतल हो जाती है, समुद्र में टखनों टखनों पानी हो जाता है, बड़ा भारी सुमेरु पर्वत बालू के दाने के बराबर हो जाता है, सिंह बकरी सा हो जाता है, जंङ्गळ शहर हो जाता है, विष अमृत हो जाता है, त्रिलोकी की सम्पदा चरणों में आप से आप आ जाती है, स्वर्ग उसकी बात देखता है; बहुत क्या – शीलवान को जगदीश भी मिल जाते हैं । हम तो क्या चीज़ हैं, शील की महिमा का शायद गणेश और सरस्वती भी कठिनता से बखान कर सकें । कुण्डलिया: निन्दन्तु नीतिनिपुणाः यदि वा स्ववन्तु। धीर-वीर पुरुष किसी प्रकार के लालच या भय से अपने निश्चित किये हुए नीतिमार्ग से ज़रा भी विचलित नहीं होते, जबकि नीच पुरुष ज़रा सा लालच या भय दिखने से ही नीति मार्ग से फिसल पड़ते हैं । महाराणा प्रताप को अकबर की ओर से अनेक प्रकार के प्रलोभन और भय दिखाए गए, पर वे ज़रा भी न डिगे – अपने नीति मार्ग पर अडिग होकर जमे रहे । महात्मा प्रह्लाद को उनके पिता हिरण्यकश्यप ने अनेक तरह के लालच दिए, भय दिखाए और शेष में उन्हें पर्वत शिखर से समुद्र में गिराया, अग्नि में जलाया; पर वे अपने निश्चित किये नीति या धर्म-मार्ग से ज़रा भी विचलित न हुए । सच्चा मर्द वही है, जो सर्वस्व नाश होने या फांसी चढ़ाये जाने के भय से भी, न्यायमार्ग को न छोड़े । चलन्ति गिरयः कामं युगान्तपवनाहताः । प्रलय-काल की पवन से पर्वत चलायमान हों जाते हैं, पर घोर कष्ट पड़ने पर भी, धीर पुरुषों का निश्चल चित्त चलायमान नहीं होता । भग्नाशस्य करण्डपीडितंतेनोर्म्लानेन्द्रियस्य क्षुधा । प्राणी दैवाधीन है और भी: जीव आप ही कर्म करता है; आप ही उसका फल भोगता है; आप ही संसार में भ्रमता है और आप ही उससे छुटकारा पाता है । यस्माच्च येन च यदा च यथाच यच्च। जिसने, जिस वजह से, जब, जैसा, जो, जितना और जहाँ शुभ और अशुभ कर्म किया है; उसे उसी से, तभी, तैसा ही, सो, उतना ही और वहां ही, काल की प्रेरणा से, फल मिलता है । इन प्रमाणों से स्पष्ट समझ में आ सकता है कि, मनुष्य अपने कर्मो से बन्धन में फसकर दुःख और सुख भोगता है । जो लोग दुःख सुख को मनुष्य या परमात्माकृत समझते हैं, वे बड़ी भारी गलती करते हैं । जिस समय पिटारी वाले सर्प के पापों का उदय हुआ, वह पिटारी में बन्द हुआ । जब तक पापों का अन्त न हुआ, वह भूख प्यास से कष्ट पाता रहा । ज्यों ही पुण्यों का उदय हुआ, दैव की प्रेरणा से, चूहा उसके पिटारे में छेद करके घुसा। उससे सर्प की क्षुधा शान्त हुई और वह उसी छेद की राह से निकल कर स्वतंत्र भी हो गया । इसी तरह मनुष्य भी दैव के अधीन होकर सुख भोगते हैं । पतितोऽपि कराघातैरुत्पततत्येव कन्दुकः।प्रायेण साधुवृत्तानामस्थायिन्यो विपत्तयः।। ८३ ।। आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।नास्त्युद्यमसमो बंधुर्यं कृत्वा नावसीदति ।। ८७ ।। छिन्नोऽपिरोहत तरुः क्षीणोऽप्युपचीयते पुनश्चन्द्रः। इति विमृशन्तः सन्तः सन्तप्यन्ते न विप्लुता लोके ।। ८८ ।।अर्थ:कटा हुआ वृक्ष फिर चढ़ कर फैल जाता है, क्षीण हुआ चन्द्रमा भी फिर धीरे धीरे बढ़ कर पूरा हो जाता है, इस बात को समझ कर, संतपुरुष अपनी विपत्ति में नहीं घबराते । नेता यस्य बृहस्पति: प्रहरणं वज्रं सुराः सैनिकाः ।स्वर्गो दुर्गमनुग्रहः किल हरेरैरावतो वारणः ।।इत्यैश्वर्यबलान्वितोऽपि बलिभिद्भग्नः परैः संगरे ।तद्युक्तं वरमेव दैवशरणं धिक् धिक् वृथा पौरुषं ।। ८९ ।। कर्मायत्तं फलं पुंसां, बुद्धि: कर्मानुसारिणी। तथापि सुधिया भाव्यं, सुविचार्यैव कुर्वता ।। ९० ।। खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैःसन्तापितो मस्तके ।गच्छन्देशमनातपं विधिशात्तालस्य मूलं गतः ।। तत्राप्यस्य महाफ़लेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः ।प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहितस्तत्रैव यान्त्यापदः ।। ९१ ।। बिना उद्योग किये भी, पुरुषों को दुसरे जन्म का शुभाशुभ फल, विधि के नियोग से मिलता ही है । जिस देश, काल और अवस्था में, जिसने जैसा बुरा या भला कर्म किया है, उसका वैसा ही फल उसे भोगना होता है । शशिदिवाकरयोग्रहपीडनं गजभुजङ्गमयोरपिबन्धनम् ।मतिमतांचविलोक्य दरिद्रतां विधिरही ! बलवानिति मे मतिः ।। ९२ ।।अर्थ:हाथी और सर्प में बंधन को देखकर, सूर्य और चन्द्रमा में ग्रहण लगते देखकर और बुद्धिमानो की दरिद्री देखकर – मेरी समझ में यही आता है, कि विधाता ही सबसे बलवान है । पत्रं नैव यदा करीर विटपे दोषो वसन्तस्य किं नोलुकोऽप्यव्लोकते यदि दिवा सूरस्य किं दूषणम् ।धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम् यत्पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तत् मार्जितुः कः क्षमः ।। ९४ ।। उदधि : समुद्र, सागर, बादल की परिभाषा कर्म प्रशंसा नमस्यामो देवान्ननु हतविधेस्तेऽपि वशगा ।विधिर्वन्द्यः सोऽपि प्रतिनियतकर्मैकफलदः ।।फलं कर्मायत्तं किमरगणैः किं च विधिना ।नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति ।। ९५ ।। ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे । किसी कवी ने कहा है: राम को जिसने वन-वन फिराया, सुन्दर चन्द्रमा को कलङ्क लगाया, समुद्र को खारा किया, नहुष को सर्प बनाया, महादेव को कापालिक बनाया, माण्डव मुनि को सूली पर चढ़ाया, पाण्डवों से भीख मंगाई और राजा बलि को जिसने पाताल पठाया, उस कर्म को नमस्कार है । दोहा: नैवाकृति: फलति नैव कुलं न शीलं । कवी ने खूब कहा है: सब जगह भाग्य फलता है; विद्या और पौरुष नहीं फलते । हरि और हर, दोनों ने मिलकर समुद्र मथा; पर हरि को लक्ष्मी मिली और महादेव को विष । शेख सादी कहते हैं : जब भाग्य अनुकूल नहीं होता, तब हुनरमंद जहाँ जाता है, वहीँ उसको कोई नहीं पूछता – अथवा वह जाता ही ऐसी जगह है, जहाँ उसका कोई नाम तक नहीं लेता । गिरधर कविराज कहते हैं: वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा। सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ।। ९८ ।। या साधूँश्च खलान्करोति विदुषो मूर्खान्हितान्द्वेषिणः खुलासा – अगर आप इस जगत में इच्छानुसार सुख भोगने की अभिलाषा रखते हैं; तो आप और गुणों के संग्रह करने में वृथा परिश्रम न करें । इसके लिए आप केवल ‘सदाचरण’ की सच्ची आराधना करें । शुक्रनीति में कहा है – अच्छे कामों से अच्छा और बुरे कामों से बुरा फल मिलता है; इसलिए शास्त्र द्वारा अच्छे और बुरे का ज्ञान प्राप्त करके बुरे कामो को त्याग दो और अच्छे काम करो । सदाचारी अपने निर्मल और विशुद्ध चरित्र तथा अपनी प्रमाणिकता और शुद्ध वासना से जगत को वश में कर लेता है । संसार उसका विश्वास करता है और उसके इशारों पर नाचता है – नाचता ही नहीं, उसकी आज्ञा से प्राण तक देने को तैयार हो जाता है । जगत के प्राणिमात्र उसकी वन्दना करते हैं । सदाचारी अपनी कठिन तपस्या के कारण, सबका पूजनीय होता है । सदाचारी ऊँची से ऊँची पदवी पाता और संसार के सभी सुख भोगता है । सदाचारी का शत्रु कोई नहीं; सभी उसके हितैषी मित्र होते है । आज तक इस धरा-धाम पर जितने भी ऋषि-मुनि, अवतार-औलिया हुए हैं, उन सबकी प्रतिष्ठा और इज़्ज़त केवल उनके सदाचार के कारण से ही हुई है । सदाचारी होने की वजह से ही, उनकी ईश्वर के समान पूजा और आराधना होती है । महात्मा बुद्ध, हज़रत इसा और हज़रत मुहम्मद साहब के करोडो अनुयायी उनके सदाचार के कारण से ही हुए हैं । सदाचार के कारण ही राम और कृष्ण भगवान् माने जाते हैं । सदाचारियों के सर पर तलवार रख दी जाय, उन्हें फांसी का भय दिखाया जाय; उन्हें आग में जलाया जाय अथवा उन्हें दुनिया की बड़ी से बड़ी न्यामत का लालच दिखाया जाय, पर वे आचरण कभी ख़राब नहीं करते । रावण ने सीता माता को बहुत धमकाया, डराया और लालच भी दिखाया; पर वह सती अपने सत पर डटी रही । उसने अपने चरित्र में जरा भी धब्बा नहीं लगाया और अपना शील नहीं छोड़ा । इसीलिए आजतक उनका नाम है और यावत् चन्द्र-दिवाकर इसी तरह रहेगा । गुणवदगुणवद्वा कुर्वता कार्यमादौ परिणतिरवधार्यां यत्नतः पण्डितेन। अतिरभसकृतानां कर्मणानां विपत्तेः भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः ।। १०० ।। स्थाल्यां वैदूर्मय्यां पचति च लशुनं चान्दनैरीन्धनोघैःसौवर्णेर्लाङ्गलाग्रैविलिखति वसुधामर्कमूलस्य हेतोः ।छित्त्वा कर्पूर खण्डानवृतिमिह कुरुते कोद्रवाणाम् समन्तात् प्राप्येमां कर्मभूमि न चरति मनुजो यस्तपो मद्भाग्यः ।। १०१ ।। मज्जत्वंभसि यातु मेरुशिखर शत्रुञ्जय त्वाहवे महात्मा शेखसादी ने भी “गुलिस्तां” में कहा है कि संसार में दो बातें असंभव हैं :- १। भाग्य में लिखा है, उससे अधिक सुख भोगना । “ऐ रोजी-जीविका चाहने वाले ! भरोसा रख, तुझे बैठे बैठे खाने को मिलेगा और तू, जिसको यम-मन्दिर से बुलावा आ गया है, भाग मत, तू कहीं क्यों न जाए, भागकर बच न सकेगा । हाँ अगर तेरे मरने का दिन अभी नहीं आया है, तो तू शेरों के मुंह में ही क्यों न चला जाए, वे तुझे हरगिज़ न खाएंगे ।” बलिहारी इस उपदेश की ! क्या ही खूब नसीहत दी है । मनुष्य समझे तो समझ सकता है कि उसे अपने भले-बुरे कर्मों के फल तो भोगने ही होंगे । उनसे वह किसी तरह पीछा नहीं छुड़ा सकता । पाठकों के लाभार्थ एक किस्सा लिखते हैं : राजा और मस्त हाथी——————————एक राजा हाथी पर सवार होकर कहीं जा रहा था । वह हाथी बदमाश था । किसी काम से राजा नीचे उतरा, तो हाथी अपनी सूंड से राजा पर आक्रमण करने लगा । भय के मारे राजा भागा और भागते भागते एक अन्धे कुएं में जा गिरा । उस कुँए की एक बगल में एक पीपल का वृक्ष खड़ा था । उस वृक्ष कि जड़ें कुँए के भीतर थी और उसने आधा कुआँ घेर रखा था । घबराहट में भागते भागते राजा जो कुँए में गिरा तो उसका सिर नीचे और पैर ऊपर को हो गए क्योंकि वह उस पीपल के पेड़ की जड़ों में उलझ गया । राजा न नीचे ही जा सकता था और न ऊपर ही आ सकता था । वह हाथी भी राजा का पीछा करता हुआ उसी कुँए पर आ गया और राजा के बाहर निकलने कि राह देखने लगा । राजा के नजर नीचे गयी तो उसने देखा कि भयङ्कर कालसर्प, बिसखपरे, बिच्छू, कनखजूरे प्रभृति भयानक-भयानक जानवर ऊपर कि तरफ मुंह किये हुए खुश हो रहे हैं कि हमारा भक्ष्य आ गया । राजा उन्हें देखते ही काँप उठा । राजा ने ऊपर कि ओर देखा तो क्या देखता है कि दो चूहे, जिनमें एक काला और एक सफ़ेद था, जिस जड़ में राजा के पैर उलझे थे, उसे काट रहे हैं । राजा घवरा गया कि थोड़ी ही देर में उनके जड़ काट देते ही मैं नीचे गिरूंगा और सर्प तथा बिच्छू प्रभृति जीवों का भोजन बनूँगा । उसने फिर किसी तरह ऊपर चढ़कर निकल भागने का विचार किया और कुँए के ऊपर दृष्टी फेंकी तो क्या देखा कि वह दुष्ट हाथी खड़ा है । राजा ने सोचा कि मेरे ऊपर जाते ही हाथी मुझे चीर डालेगा । राजा सब ओर आफत देखकर बहुत ही गहराया । उस पीपल के वृक्ष में मधु-मक्खियों का एक छत्ता था । उससे मधु कि बूंदे टपकती थीं । उनमें से कोई कोई बूँद राजा के मुंह में भी जा गिरती थी । उसी शहद के चाटने में राजा सारी आफतों को भूला हुआ था । बाज बाज वक्त तो वह शहद के मजे में ऐसा गर्क हो जाता था, कि इसे इस बात का भी ख्याल न रहता था कि चूहों के जड़ काट देते ही मेरी क्या दुर्दशा होगी । किसी ने खूब कहा है – गजल जब जीवात्मा-रुपी राजा कर्म-रुपी हाथी से उतरना चाहता है, तब कर्म-रुपी हाथी उसे खदेड़कर गर्भाशय-रुपी अन्धे कुँए में डाल देता है । इस दृष्टान्त का बड़ा गहरा मतलब है । इसके समझने से आँखें खुल जाती है । आयु की अस्थिरता – चंचलता आखों के सामने आ जाती है; पर हम यहाँ इससे इतना ही समझायेंगे कि मनुष्य कहीं क्यों न जाय; शुभाशुभ कर्मों के फल उसके साथ ही रहेंगे । राजा ने प्राणों की रक्षा की भरसक चेष्टा की; पर कर्मवश, उस कुँए में भी हर तरफ मौत ही मौत दिखने लगी । मतलब यह है कि कर्म अपना फल भुगाये बिना हरगिज़ पीछा नहीं छोड़ता । इसलिए किसी ने ठीक ही कहा है – अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम । अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना होता है, बिना भोगे कर्म का फल सौ करोड़ कल्प में भी क्षय नहीं होता । दोहा: भीम वनं भवति तस्य पुरं प्रधानं गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं – सच है; जिसके पूर्वजन्म के पुण्य होते हैं, उसके लिए जङ्गळ में मङ्गळ होता है, उसके कट्टर शत्रु भी उसके पक्के मित्र हो जाते हैं और उनकी रात दिन हितचिन्तना और खुशामद करते हैं, वह जहाँ नज़र डालता है उसे धन ही धन दिखाई देता है और वह मिटटी छूता है तो सोना हो जाता है । जब तक पुण्य का ओर नहीं आता, तब तक सुन्दर भवन, विलासवती युवतियां, दासदासी और छत्र-चामर आदि विभूति, सभी स्थिर रहते हैं; पर पुण्यों का क्षय होते ही वे सब वैभव रस-केलि की कलह में टूटी हुई मोतियों की लड़ी की तरह विलायमान होते हैं । तात्पर्य यह है, पुण्यवान का सर्वत्र मङ्गळ है । उसका न कोई शत्रु होता है और न उसे किसी प्रकार का कष्ट या अभाव ही होता है । को लाभों गुणसङ्गमः किमसुखं प्राज्ञेतरैः प्रश्नोत्तर के रूप में योगिराज कैसी अमूल्य अमूल्य शिक्षाएं दे रहे हैं । इन्ही भावों के दो श्लोक, स्वामी शंकराचार्य महाराज की ‘प्रश्नोत्तरमाला’ से पाठकों के लाभार्थ नीचे देते हैं – विद्या हि का ब्रह्मगतिप्रदात्री बोधो हि को यस्तु विमुक्तिहेतुः। किं दुर्लभः सद्गुरुस्ति लोके सत्सङ्गतिब्रह्मविचारणा च। विद्या क्या है? ब्रह्मगति देनेवाली । संसार में दुर्लभ क्या है? सद्गुण, सत्संग और ब्रह्म विचार । पाठक ! समझे ? कैसी अनमोल शिक्षा है ! आप इनको कई कई बार पढ़ें और इन पर विचार करें । एकान्त में, तर्क-वितर्क के साथ, इनको समझने की चेष्टा करने से अपपोरव आनन्द आएगा । अगर आप चाहते हैं कि हम संसार में रहकर सुख पावें, जन्म मरण के फन्दे से बच, परमात्मा की भक्ति करें; तो आप इस पर अमल करें; पढ़कर यदि अमल न किया, तो वृथा समय नष्ट किया । पढ़कर, पढ़े हुए पर जो अमल करता है और उसके अनुसार चलता है, वह वास्तविक विद्वान् है । अप्रियवचनदरिद्रैः प्रियवचनाद्यैः स्वदारपरितुष्टैः । मधुर भाषण तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता । चटाई, जमीन, जल और सत्य-सहित प्रिय वाक्य – इनसे भले आदमियों का घर कभी खाली नहीं होता; यानी दरिद्र होने पर भी सज्जनो के घर में ये तो अवश्य ही होते हैं । तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चहुँ ओर। और भी कहा है – समर्थ पुरुषों को बड़ा भार क्या है ? व्यवसाइयों को दूर कौन सी जगह है ? विद्वानों के लिए विदेश कौन सा है ? प्रिय बोलने वालों को गैर कौन है ? कठोर भाषण मधुर भाषण की जगत के सभी विद्वानों और महापुरुषों ने बड़ी महिमा लिखी है; इसलिए सभी समझदारों को भूलकर भी किसी से कड़वी बात न करनी चाहिए । कठोर वचन से घनिष्ठ मित्र भी शत्रु हो जाते हैं । कठोर वचन बोलने वाले की सभी अहित-कामना करते हैं । कटुवादी की कोई सहायता नहीं करता । तीर का जख्म अच्छा हो जाता है पर जुबान का जख्म जीवन भर अच्छा नहीं होता । कहा है – बाण का घाव भर जाता है; कुल्हाड़ी से काटा वृक्ष फिर हरा हो जाता है; पर कठोर वाणी से हुआ घाव कभी नहीं भरता । वाक्यवाण नहि छोड़िये तीच्छनतायुत जोय। महापुरुष, भूल से भी, किसी का दिल दुखने वाली बात नहीं कहते; क्योंकि वे पराया दिल दुखने को ही सबसे बड़ा पाप समझते हैं । इतना ही नहीं, महापुरुष अपने तईं गाली देने वाले को भी गाली नहीं देते; क्योंकि उनके पास कठोर वचन या गाली होती ही नहीं, दें कहाँ से ? जिनके पास जिस चीज़ का अभाव होगा, वह उसे कहाँ से देगा ? एक महात्मा को दुष्ट लोग व्यथा ही सताया करते थे; पर वे बदले में मीठी मीठी बातें ही किया करते थे । एक बार तंग होकर वह कहने लगे – दो, दो, आप गालीबंत हैं । कोई धनवान होता है, कोई बलवान होता है, आप गालिवान हैं । पर मेरे पास तो गालियों का अभाव है; मैं गले कहाँ से लाऊँ ? संसार जानता है, जिसके पास जो चीज़ होती है, उसे ही वह दुसरे को दे सकता है । खरगोश अपने सींग क्यों नहीं देता? भैया ! मैं तो पण्डितराज जगन्नाथ के इस कौल पर चलता हूँ – दुश्मन चाहे मेरे सिर पर लगातार आग जलाते रहे, चाहे मुझ पर तलवार की चोटें करें; पर में जरा भी अपभाषण न करूँ; यानी मेरे मुंह से कोई ख़राब शब्द न निकले । सज्जनो का स्वाभाव ही होता है कि वे अपने हानि पहुँचाने वाले का भी भला ही करते हैं; गाली देने वालों का मधुर वचनो से समादर करते हैं और मारने वाले के सामने अपना सिर कर देते हैं । आम के वृक्ष पर लोग पत्थर मारते हैं, मगर वह उत्तम फल प्रदान करता है । दूध को लोग चाहे कितना ही तपायें, चाहे कितना ही विकृत करें और कितना ही मथें; पर वह प्रहार – चोट सहता हुआ भी अपने प्रहकर्ताओं के लिए चिकनाई – घी ही देता है । जो लोग सज्जनो का अनुकरण करते हैं; सज्जन और दुर्जन, मित्र और शत्रु, सबसे मीठा बोलते हैं; वे मधुर वाणी वाले मोर की तरह सबके प्यारे होते हैं । जो प्रिय बोलते हैं, प्रिय के सत्कार की इच्छा करते हैं; वे मनुष्य शरीर में होते हुए भी देवता हैं । स्त्री दुःख और नरक की मूल है स्त्री वास्तव में विष है, पर वह अमृत सी दीखती है । अथाह जल में डूबने से आदमी बच सकता है; पर स्त्री में डूबने से नहीं बच सकता। भक्ति, मुक्ति और ज्ञान की, स्त्री दुश्मन है और परमात्मा के मिलने की राह में दुर्गम घाटी है । स्त्री अपने तीखे नयन-बाणों से पुरुष को मदिरा की तरह मतवाला कर देती है और अपनी इच्छानुसार चलाती है । स्त्री दीपक है और पुरुष पतंग है । पुरुष अज्ञान से, उसके मिथ्या रूप पर मुग्ध होकर अपना लोक-परलोक गंवाता है । स्त्री संसार बन्धन में बाँधने वाली, दुखों की मूल – ममता की जड़, नरक का द्वार और अविश्वास योग्य है – उसकी प्रीति का कुछ भी भरोसा नहीं; वह करवट बदलते बदलते पराई हो जाती है । अपने सुख और स्वार्थ के लिए वह पुरुष को मतवाला करके, उससे कौन कौन से नीच कर्म नहीं कराती ? उसी के कारण पुरुष जने-जने के कठोर वचन सहता, अपमानित होता, आदमी-आदमी की खुशामद करता और नाना प्रकार के दुःख भोगा करता है । ऐसी दुखों की खान और नरक की नसैनी स्त्री के पीछे जो मरे मिटते हैं, वे क्या बुद्धिमान हैं ? जो ऐसी एक स्त्री के होने पर भी सन्तुष्ट नहीं रहते – और स्त्रियों को चाहते हैं, यहाँ तक की पराई स्त्रियों पर नीयत डिगते हैं – उन अधर्मियों को क्या कहें ? पूर्व जन्म के पापों से उनकी बुद्धि मारी गयी है । संसारी को स्त्री बिना सुख नहीं बारीक नज़र से देखने पर स्त्री महा गन्दी और लोक-परलोक का नाश करने वाली मालूम होती है; पर उसके बिना संसार चल ही नहीं सकता । स्त्री न हो तो परमात्मा की सृष्टि का ही लोप हो जाये – उस खिलाडी का सारा खेल ही बिगड़ जाये । स्त्री ही पुरुषों की खान है । उसी से ध्रुव, प्रह्लाद, भगीरथ, रामचन्द्र, अर्जुन, भीम, मान्धाता और हरिश्चन्द्र जैसे महापुरुष पैदा हुए हैं । वह हज़ारों दोष होने पर भी अच्छी है; पत्थर होने पर भी रत्न है; विष होने पर भी अमृत है । स्त्री ही घर की शोभा और लक्ष्मी है । बिना स्त्री घर, घर नहीं वन है । जिस तरह बिना मित्र के पुरुष निर्जीव देह है; उसी तरह बिना स्त्री के पुरुष जीवन रहित शरीर है । स्त्री और पुरुष दोनों से एक देह बनती है । अतः बिना स्त्री पुरुष अधूरा है स्वास्थ्य और स्त्री ये ही दो संसार के सच्चे सुख हैं । अपना घर और अपनी पतिव्रता स्त्री – दोनों सुवर्ण और मोतियों के समान मूलयवान हैं । बिना स्त्री के हमें अपने जीवन के आरम्भ में सहायता करने वाला नहीं, जीवन के दौरान में सुखी करने वाला नहीं; जीवन के अंतिम दिनों में तसल्ली और तसफ्फी करने वाला नहीं । अत्यागियों को संसार में स्त्री बिना, जरा भी सुख नहीं । इतना ही नहीं, बिना स्त्री धर्मकार्य भी उचित रूप से सम्पादित नहीं हो सकते । इसी से अनेक ऋषि मुनि, वनवास करते हुए भी स्त्रियों को रखते थे और परमात्मा की सृष्टि को बढ़ाते थे । अतएव कट्टर त्यागियों और रोगी संस्यासियों के सिवा पुरुषमात्र को स्त्री त्याग देना उचित नहीं । अपनी ही स्त्री से सन्तुष्ट रहो अपनी स्त्री कैसी ही बुरी बावली हो; पुरुष को उसे ही अप्सरा समझ कर उसी से अपना चित्त सन्तुष्ट करना चाहिए । अपनी स्त्री के कुरूपा या बदशकल होने पर भी पराई स्त्री पर मन न डिगाना चाहिए – पर स्त्रियों को अपनी माता के समान समझना चाहिए । जैसी ही अपनी स्त्री, वैसी ही पराई । पराई स्त्री में हीरे नहीं लटकते । पर नादानो को अपनी अच्छी चीज़ भी अच्छी नहीं मालूम होती और पराई बुरी भी अच्छी मालूम होती है । इसका कारण ? कारण, अपनी स्त्री हर समय नेत्रों के सामने रहती है । मनुष्य का स्वभाव है कि उसे सुलभ वास्तु बुरी और दुर्लभ अच्छी लगती है । कहा है – पर-स्त्री सब तरह हानिकर है जिस तरह कठोर भाषण बुरा है, जिस तरह स्त्रियों पर मन चलना बुरा है, उसी तरह परनिन्दा करनी भी बुरी है । निन्दक से बढ़कर पापी नहीं, अतः बुद्धिमान को सच्ची और झूठी, कैसी भी निन्दा न करनी चाहिए । कदर्थितस्यापि हि धैर्यवृत्तेर्न शक्यते धैर्यगुणः प्रमार्ष्टुम्। कान्ताकटाक्षविशिखा न दहन्ति यस्य चित्तं न निर्दहति कोपकृषानुतापः । स्त्री, क्रोध और विषय – ये तीनो ही आफत की जड़ और नाश की निशानी हैं । जो इनके काबू में नहीं आता वह सचमुच बहादुर है । शंकराचार्यकृत प्रश्नोत्तरमला में लिखा है – संसार में सबसे बड़ा बहादुर कौन है ? जो काम-बाणो से पीड़ित न हो । क्या खूब कहा है । जो स्त्री के नयनबाणो से घायल होने के करण होश में नहीं रहता, उस बेहोश और विवेकहीन को काम, क्रोध, मद और लोभ प्रभृति सभी शत्रु मार लेते हैं । इसके विपरीत जिस पर स्त्री के कटाक्ष बाण असर नहीं करते, उसे मोह नहीं होता – उसके होश हवास ठीक रहते हैं । पर यह बढ़ी टेढ़ी खीर है । कदाचित मनुष्य और सबसे पीछा छुड़ा ले पर कामिनी से पीछा छुड़ा लेना बड़ा कठिन है । बड़े-बड़े मुनिराजो ने यहाँ गोते खाये हैं । और तो क्या – स्वयं योगेश्वर कामारि, कामिनी के पीछे पागल हो गए हैं । पण्डितेन्द्र जगन्नाथ महाराज ने ठीक ही कहा है – सारे विषयों को भी मैं भूल गया और विद्या की मुझे याद न रही; पर वह मृग के बच्चे की सी आँखों वाली, इष्ट देवता की तरह, मेरे ह्रदय से दूर नहीं होती (मर गयी है, तो भी याद नहीं भूलती)। अज्ञानी कामी ही स्त्री को नहीं भूल सकते; किन्तु जो ज्ञानी हैं; जिनकी विवेक बुद्धि नष्ट नहीं हुई है, वे स्त्री मोह-जाल में नहीं फंसते और फंस भी जाते हैं, तो उसकी असलियत को समझकर उसे त्याग देते हैं । क्रोध-शत्रु मनुष्य के शरीर में छिपा हुआ क्रोध इस प्रकार देह को नाश कर देता है, जिस तरह काठ के भीतर छुपी हुई अग्नि प्रज्वलित होने पर काठ को नाश कर देती है । संसार में ऐसा कोई पुत्र चाण्डाल न होगा, जो अपनी जननी को ही खा जाये; पर यह चाण्डाल क्रोध, जिस ह्रदय-भूमि रुपी जननी से पैदा होता है पहले उसे ही खाता है, दुसरे को पीछे । इसके सिवा, जिसमें रहता है, उसी के धर्म ज्ञान को नाश करता है और उसे सदा दुखी रखता है । तात्पर्य यह कि क्रोधी पुरुष, धर्म-अधर्म को नहीं समझता । कहा है – मत्त, प्रमत्त, उन्मत्त, थका हुआ, क्रोधी, भूखा, लोभी, डरपोक, जल्दबाज, कामातुर, रोगार्त या शोकार्त – इनको धर्मज्ञान नहीं रहता । बाइबिल में लिखा है – “क्रोध मूर्खों कि छाती में रहता है” । यह बहुत ठीक बात है । जो अज्ञानी होते हैं, जिन्हे संसार का अनुभव नहीं होता, जिन्हे शास्त्र ज्ञान नहीं होता, जो महात्माओं कि सङ्गति नहीं करते, प्रायः उन्ही में क्रोध पाया जाता है । ज्ञानी और अनुभवी पुरुष काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ और मात्सर्य – इन छः को त्यागे रहते हैं और ऐसे ही नररत्न त्रिलोक-विजयी हो सकते हैं । विषयों कि फांसी असल में विषयों का ध्यान ही पहले किया जाता है । अगर मनुष्य विषयों का ध्यान ही न करे, तो विषयों में प्रीति क्यों हो – उनके भोगने कि इच्छा क्यों हो ? इच्छा न हो, तो मनुष्य बुद्धि खोकर नष्ट-भ्रष्ट क्यों हो ? अब सोचना चाहिए कि विषयों का ध्यान काहे में होता है ? ध्यान मन से होता है । मन में ध्यान होने के बाद इन्द्रियां अपना काम करती है । अगर मन वश में हो तो इन्द्रियां कुछ न कर सकें । अगर मन वश में न किया जाये, केवल इन्द्रियां वश में कर ली जाएं । परन्तु अगर मन वश में किया जाये तो इन्द्रियां कुछ भी न कर सकेंगी । मन सारथी है और इन्द्रियां घोड़े हैं । घोड़े सारथी के वश में रहते हैं । वह उन्हें जिधर ले जाता है वह उधर ही जाते हैं । जो अपने मन को वश में कर लेता है, उसकी इन्द्रियां भी, मन के वश में होने के करण, वश में हो जाती हैं । जिसका मन वश में नहीं वह मन से भांति भांति के विषयों का ध्यान करता हुआ नष्ट हो जाता है । इसलिए बुद्धिमान को चाहिए कि अपने मन को वश में करे ताकि विषयों का ध्यान ही न हो । जिस मन में विषय-वासना नहीं, वही मन शुद्ध है, उसी मन की शोभा है । कहा है – पंकैर्विना सरो भाति सभा खलजनैर्विना । कीचड-रहित तालाब की शोभा है, दुर्जन-रहित सभा की शोभा है; कठोर वर्ण-रहित काव्य की शोभा है और विषय-वासना रहित मन की शोभा है । J. G. Harder महोदय कहते हैं: “सिंह को पराजित करने वाला वीर पुरुष है, संसार को परास्त करने वाला भी वीर है; पर जिसने अपने तईं पराजित किया है, वह उनसे भी बड़ा वीर है।” निश्चय ही बहादुरी अपने तईं जीतने में ही है; पर अपने तईं जीतना बड़ा कठिन काम है । मन को वश में करना लड़कों का खेल नहीं । अगर कोई हवा को वश में कर सकता है, तो मन को भी वश में कर सकता है । किसी कवी ने कहा है – कबीर साहब कहते हैं – मन को वश में करने की तरकीब एक दृष्टान्त बताते हैं, पाठक इसे पढ़ें और शिक्षा का लाभ लें विषयों की असलियत सेठजी ने अपनी कन्या को यह माजरा कह सुनाया । कन्या ने कहा – “पिताजी ! आप राजकुमार से कह आइये, कि मेरी लड़की आपसे सोमवार को मिलेगी; आप खाना पीना कीजिये।” सेठजी यह बात राजकुमार से कह आये । उधर कन्या ने किसी नौकर से जमालगोटा मँगाकर उसका जुलाब ले लिया । अब क्या था, दस्त पर दस्त होने लगे । जो दस्त होता, उसे वह एक सुन्दर पीतल की बाल्टी में रखवा, ऊपर से रेशमी कपडा ढकवा देती । इस तरह कोई ४०-५० बाल्टियां तैयार हो गयी । सेठ की कन्या के गाल बैठ गए, चेहरा भूतनी का सा हो गया । देखने से नफरत होती थी । एक काम उसने और भी किया, वह एक टूटी सी चारपाई पर गूदड़ी बिछवा कर लेट गयी । गूदड़ी पर और अपने पहनने के कपड़ो पर, उसने थोड़ा सा पाखाना छिड़कवा लिया । जब इस तरह सब काम हो गया, तब उसने सेठ जी से कहा – “पिताजी ! आज का वादा है । आप राजकुमार को लिवा लाइए।” सेठ जी राजकुमार के पास पहुंचे और उनसे अपने घर चलने की प्रार्थना की । राजकुमार तो तैयार ही बैठे थे, फ़ौरन साथ हो लिए । घर में घुसते ही बदबू के मारे उनका दिमाग सड़ने लगा, पर उन्हें कन्या से प्रेम था, इसलिए नाक को रुमाल से दबाकर उसके पलंग के पास पहुंचे । कन्या ने पड़े पड़े ही कहा – “राजकुमार ! अगर आपको मुझसे प्रेम है तो मैं आपकी सेवा में मौजूद हूँ । आपकी इच्छा हो सो कीजिये और अगर आपको मेरी सुन्दरता से प्रेम है, तो वह उन बाल्टियों में भरी रखी है ।” राजकुमार कुछ मूढ़ था । उसने पीतल की चमकदार बाल्टियों पर रेशमी कपडे ढके देख मन में समझा कि संभवतः सुन्दरता ही ढकी हो । उसने अपने हाथ से जो रेशमी रुमाल हटाया, तो सदा हुआ पाखाना नजर आया । देखते ही राजकुमार नाक दबाकर वह से भाग पड़ा । अब उसे होश हो गया । संसार की और खासकर विषयों की असलियत उसे मालूम हो गयी । उसने कहा – “ओह ! संसार में कुछ भी नहीं है; जैसा यह दीखता है वैसा नहीं है।” उसी समय उसे संसार से विरक्ति हो गयी । वह राज को परित्याग कर, अंग में भस्म लगा, मृगछाला और तूम्बी ले, वन को चला गया और परमात्मा की भक्ति में लीन हो गया । पाठकों के चित्त पर योगिराज महाराज भर्तृहरि के अमूल्य उपदेशों का असर पूर्ण रूप से हो जाये इसलिए हम एक भजन भी नीचे देते हैं – मूरख छाँड़ वृथा अभिमान।। टेक ।। इतना बहुत है; जो समझने वाले हैं, वे समझकर सचेत हो जाएं । ऐकोनापि हि शूरेण पादाक्रान्तं महीतलम् । दोहा – वह्निस्तस्य जलायते जलनिधिः कुल्यायते तत्क्षणात् महाकवि दाग ने कहा है – सच है, जिसका स्वाभाव अच्छा है, जिसके स्वाभाव में शील है, उसे संसार प्यार करता है और सभी प्राणी उसके क़दमों में गिरते हैं । पर खेद का विषय है की सच्चे शीलवान विरले ही होते हैं । लज्जागुणौघजननीं जननीमिव स्वा- प्रतिज्ञा पालन मनुष्य का परम कर्तव्य है । जो प्रतिज्ञा पालन नहीं करते, वे मनुष्य कहलाने के अधिकारी नहीं है; लोग अपने स्वार्थ के लिए प्रतिज्ञा भङ्ग कर बैठते हैं, यह बहुत ही बुरी बात है । मनुष्य को अपने जीवन की अपेक्षा अपने शब्दों का अधिक ध्यान रखना चाहिए । महत पुरुष प्राण त्याग कर देते हैं; पर वचन भङ्ग नहीं करते । सूरज पश्चिम से उदय हो तो हो, सुमेरु चलायमान हो तो हो, अग्नि शीतल हो तो हो, कमल पर्वतों पर पैदा हो तो हो, चन्द्रमा सूर्य की तरह अग्नि उगले तो उगले – कितने सत्पुरुषों की प्रतिज्ञा पूरी हुए बिना नहीं रह सकती । बातहिं से दशरथ मरे, बातहिं राम फिरे बन जाई। और भी – बड़ों के वाक्य, हाथी-दान्त के समान होते हैं; निकले सो निकले, निकल कर फिर भीतर नहीं जाते। पर नीचों के वाक्य कछुए की गर्दन के समान होते हैं, जो कभी भीतर जाती है और कभी बाहर आती है । पण्डित शिरोमणि जगन्नाथ महोदय भी कहते हैं – विद्वानों के मुंह से सहसा कोई बात नहीं निकलती और यदि निकली तो हाथी के दाँतों की तरह निकलकर भीतर फिर नहीं जाती । नीतिशतक में पदों की संख्या कितनी है?नीतिशतकम् भर्तृहरि के तीन प्रसिद्ध शतकों जिन्हें कि 'शतकत्रय' कहा जाता है, में से एक है। इसमें नीति सम्बन्धी सौ श्लोक हैं।
नीतिशतकम् के लेखक कौन है?भर्तृहरिनीतिशतकम् / लेखकnull
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