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सजीव कोशिकाओं में भोजन के आक्सीकरण के फलस्वरूप ऊर्जा उत्पन्न होने की क्रिया को कोशिकीय श्वसन कहते हैं।[1] यह एक केटाबोलिक क्रिया है[2] जो आक्सीजन की उपस्थिति या अनुपस्थिति दोनों ही अवस्थाओं में सम्पन्न हो सकती है। इस क्रिया के दौरान मुक्त होने वाली ऊर्जा को एटीपी नामक जैव अणु में संग्रहित करके रख लिया जाता है[3] जिसका उपयोग सजीव अपनी विभिन्न जैविक क्रियाओं में करते हैं। यह जैव-रासायनिक क्रिया पौधों एवं जन्तुओं दोनों की ही कोशिकाओं में दिन-रात हर समय होती रहती है। कोशिकाएँ भोज्य पदार्थ के रूप में ग्लूकोज, अमीनो अम्ल तथा वसीय अम्ल का प्रयोग करती हैं जिनको आक्सीकृत करने के लिए आक्सीजन का परमाणु इलेक्ट्रान ग्रहण करने का कार्य करता है।
कोशिकीय श्वसन एवं श्वास क्रिया में अभिन्न सम्बंध है एवं ये दोनों क्रियाएँ एक-दूसरे की पूरक हैं। श्वांस क्रिया सजीव के श्वसन अंगों एवं उनके वातावरण के बीच होती है। इसके दौरान सजीव एवं उनके वातावरण के बीच आक्सीजन एवं कार्बन डाईऑक्साइड गैस का आदान-प्रदान होता है तथा इस क्रिया द्वारा आक्सीजन गैस वातावरण से सजीवों के श्वसन अंगों में पहुँचती है। आक्सीजन गैस श्वसन अंगों से विसरण द्वारा रक्त में प्रवेश कर जाती है। रक्त परिवहन का माध्यम है जो इस आक्सीजन को शरीर के विभिन्न भागों की कोशिकाओं में पहुँचा देता है।[5] वहाँ इसका उपयोग कोशिकाएँ अपने कोशिकीय श्वसन में करती हैं। श्वसन की क्रिया प्रत्येक जीवित कोशिका के कोशिका द्रव्य (साइटोप्लाज्म) एवं माइटोकाण्ड्रिया में सम्पन्न होती है। श्वसन सम्बन्धित प्रारम्भिक क्रियाएँ साइटोप्लाज्म में होती है तथा शेष क्रियाएँ माइटोकाण्ड्रियाओं में होती हैं। चूँकि क्रिया के अन्तिम चरण में ही अधिकांश ऊर्जा उत्पन्न होती हैं। इसलिए माइटोकाण्ड्रिया को कोशिका का श्वसनांग या शक्ति-गृह (पावर हाउस) कहा जाता है।[6][7][8][9] क्रिया-स्थल[संपादित करें]श्वसन की क्रिया के प्रथम चरण में श्वसन-द्रव्यों (ग्लूकोज, ग्लाइकोजेन, स्टार्च आदि कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, पेप्टाइड या अमीनो अम्ल तथा वसा या वसीय अम्ल के विघटन से पाइरूविक अम्ल का निर्माण होता है तथा द्वितीय चरण में पाइरूविक अम्ल के पूर्ण आक्सीकरण से जल एवं कार्बन डाईऑक्साइड बनते हैं। क्रियाविधि का प्रथम चरण कोशिका के कोशिका द्रव्य में होता है, इसमें कोई भी कोशिकांग सीधे तौर पर संलग्न नहीं होते हैं। द्वितीय चरण कोशिका द्रव्य में उपस्थित माइटोकाँन्ड्रिया के मैट्रिक्स में सम्पन्न होता है। अनॉक्सीय श्वसन की क्रिया जिसमें श्वसन-द्रव्यों के विघटन से लैक्टिक अम्ल या इथाइल अल्कोहल बनता है, कोशिका द्रव्य में तथा ऑक्सीय श्वसन की क्रिया माइटोकाँन्ड्रिया में होती है।[10] प्रोकैरियोटिक कोशिकाओं माइटोकाँण्ड्रियाँ नहीं पाई जाती है इसलिए इनमें क्रेब्स चक्र की क्रिया कोशिका द्रव में ही होती है। enargy kaha se aati h ऑक्सीय श्वसन[संपादित करें]ऑक्सीय श्वसन में आक्सीजन की उपस्थिति अनिवार्य है तथा इसमें भोजन का पूर्ण आक्सीकरण होता है। इस क्रिया के अन्त में पानी, कार्बन डाई-आक्साइड तथा ऊष्मीय ऊर्जा का निर्माण होता है। एक ग्राम मोल ग्लूकोज के आक्सीकरण से ६७४ किलो कैलोरी ऊर्जा मुक्त होती है।[11] जिन जीवधारियों में यह श्वसन पाया जाता है उन्हें एरोब्स कहते हैं।[12] ग्लाइकोलिसिस[संपादित करें]
ग्लाइकोलिसिस ऑक्सीय श्वसन की प्रथम अवस्था है जो कोशिका द्रव में होती है। इस क्रिया में ग्लूकोज का आंशिक आक्सीकरण होता है, फलस्वरूप १ अणु ग्लूकोज से पाइरूविक अम्ल के २ अणु बनते हैं तथा कुछ ऊर्जा मुक्त होती है। यह क्रिया कई चरणों में होती है एवं प्रत्येक चरण में एक विशिष्ठ इन्जाइम उत्प्रेरक का कार्य करता है। ग्लाइकोसिस के विभिन्न चरणों का पता एम्बडेन, मेयरहॉफ एवं पर्नास नामक तीन वैज्ञानिकों ने लगाया। इसलिए श्वसन की इस अवस्था को इन तीनों वैज्ञानिकों के नाम के आधार पर इएमपी पाथवे भी कहते हैं।[13] इसमें ग्लूकोज में संचित ऊर्जा का ४ प्रतिशत भाग मुक्त होकर एनएडीएच (NADH2) में चली जाती है तथा शेष ९६ प्रतिशत ऊर्जा पाइरूविक अम्ल में संचित हो जाती है। ग्लूकोज + 2 NAD+ + 2 Pi + 2 ADP → 2 पाइरूवेट + 2 NADH + 2 ATP +2H+ + 2 H2Oग्लाइकोलिसिस के पहले पाँच चरण में ६ कार्बन विशिष्ट ग्लूकोज का अणु ऊर्जा के प्रयोग से तीन कार्बन वाले अणु में विघटित होता है।
क्रेब्स चक्र[संपादित करें]क्रेब्स चक्र ऑक्सीय श्वसन की दूसरी अवस्था है। यह यूकैरियोटिक कोशिका के माइटोकाँन्ड्रिया तथा प्रोकैरियोट्स के कोशिका द्रव में होती है। इस क्रिया में ग्लाइकोलिसिस का अन्त पदार्थ पाइरूविक अम्ल पूर्ण रूप से आक्सीकृत होकर कार्बन डाईआक्साइड और जल में बदल जाता है तथा ऐसे अनेक पदार्थों का निर्माण होता है जिनका उपयोग अन्य जैव-रासायनिक परिपथों में अमीनो अम्ल, प्यूरिन, पिरिमिडिन, फैटी अम्ल एवं ग्लूकोज आदि के निर्माण में होता है तथा अधिक मात्रा में ऊर्जा मुक्त होती है। यह क्रिया कई चरणों में होती है तथा एक चक्र के रूप में कार्य करती है। इस चक्र का अध्ययन सर्वप्रथम हैन्स एडोल्फ क्रेब ने किया था, उन्हीं के नाम पर इस क्रिया को क्रेब्स चक्र कहते हैं। इस क्रिया का प्रथम क्रियाफल साइट्रिक अम्ल है अतः इस क्रिया को साइट्रिक अम्ल चक्र (साइट्रिक एसिड साइकिल) भी कहते हैं। साइट्रिक अम्ल में ३ कार्बोक्सिलिक मूलक (-COOH) उपस्थित रहता है अतः इसे ट्राइ कार्बोक्सिलिक साइकिल या टीसीए चक्र भी कहते हैं। क्रेब्स चक्र की चक्रीय प्रतिक्रियाओं में पाइरूविक अम्ल के पूर्ण उपचन से पूरे चक्र में तीन स्थानों पर कार्बन डाइऑक्साइड (CO2 ) का एक एक अणु बाहर निकलता है, अर्थात् पाइरूविक अम्ल के तीनों कार्बन परमाणु तीन अणु कार्बन डाइऑक्साइड के रूप मं बाहर निकलते हैं।
श्वसन क्रिया के क्रेब चक्र के दौरान पायरूविक अम्ल ऑक्सेलोएसिटिक अम्ल से क्रिया करता है। इसमें तीन सह-एन्जाइम (विटामिन) काम आते हैं।[14] सर्वप्रथम पाइरूविक अम्ल इन्जाइम की उपस्थिति में आक्सीकृत होकर कार्बन डाईआक्साइड तथा हाइड्रोजन में बदल जाता है। हाइड्रोजन डाइड्रोजन ग्राही एनएडी (NAD) के साथ संयुक्त होकर एनएडीएच टू (NADH2) बनाता है तथा कार्बन डाईआक्साइड गैस वायुमंडल में मुक्त हो जाती है। एनएडीएच टू (NADH2) में उपस्थित हाइड्रोजन कई श्वसन इन्जाइमों (फ्लेवोप्रोटीन, साइटोक्रोम) की उस्थिति में आक्सीजन से मिलकर जल में बदल जाता है तथा ऊर्जा मुक्त होती है। यह ऊर्जा एडीपी से मिलकर एटीपी के रूप में संचित हो जाती है। एक अणु ग्लूकोज के पूर्ण रूप से आक्सीकरण के फलस्वरूप ३८ अणु एटीपी का निर्माण होता है। एटीपी ऊर्जा का भंडार है जिसे ऊर्जा की मुद्रा भी कहते हैं।[2] एटीपी में संचित ऊर्जा जीवों के आवश्यकतानुसार विघटित होकर ऊर्जा मुक्त होती है जिसमें जीवों की विभिन्न जैविक क्रियाएँ संचालित होती है। अनाक्सीय श्वसन[संपादित करें]अनाक्सीय श्वसन में आक्सीजन की आवश्यकता नहीं पड़ती है तथा यह आक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है। इस क्रिया में भोजन का अपूर्ण आक्सीकरण होता है। जन्तुओं में इस क्रिया के फलस्वरूप कार्बन डाई-आक्साइड तथा लैक्टिक अम्ल का निर्माण होता है तथा पौधों में कार्बन डाई-आक्साइड तथा इथाइल अल्कोहल बनता है एवं बहुत कम मात्रा में ऊर्जा मुक्त होती है। इस प्रकार का श्वसन कुछ निम्न श्रेणी के पौधों, यीस्ट, जीवाणु, एवं अन्तः परजीवी जन्तुओं जैसे गोलकृमि, फीताकृमि,[15] मोनोसिस्टिस इत्यादि में होता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में उच्च श्रेणी के जन्तुओं, पौधों के ऊतकों, बीजों, रसदार फलों आदि में भी आक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है। मनुष्यों या उच्च श्रेणी के जीवों की माँसपेशियों के थकने की अवस्था में यह श्वसन होता है। जिन जीवधारियों में यह श्वसन होता है उसे एनएरोब्स कहते हैं। ऑक्सीय श्वसन के समान ही अनाक्सी श्वसन के प्रारम्भ में ग्लाइकोलिसिस की क्रिया होती है जिसके अंत में पाइरूविक अम्ल बनता है। आगे की प्रक्रिया में आक्सीजन के अभाव में पाइरूविक अम्ल का पूर्ण आक्सीकरण नहीं हो पाता है अतः इस श्वसन में आक्सीय श्वसन की तुलना में बहुत कम ऊर्जा उत्पन्न होती है। पौधों में यह पाइरूविक अम्ल कार्बोक्सीलेज इन्जाइम की उपस्थिति में एसिटल्डिहाइड और कार्बन डाइ आक्साइड में बदल जाती है। इसके बाद एसिटल्डिहाइड डिहाइड्रोजिनेज इन्जाइम की उपस्थिति में NADH2 द्वारा अवकृत होकर NAD तथा इथाइल अल्कोहल में परिणत हो जाता है।[16] प्राणियों की पेशियों तथा कुछ जीवाणुओं में आक्सीजन की अनुपस्थिति में ग्लाइकोलिसि के अंत में निर्मित पाइरूविक अम्ल NADH2 की सहायता से लैक्टिक अम्ल में बदल जाता है। C6H12O6→ 2CH3CH2OH + 2CO2 + 118 किलो जूल ऊर्जा किण्वन[संपादित करें]किण्वन अनाक्सी श्वसन की एक विशिष्ट रासायनिक क्रिया है। इसमें सूक्ष्म जीवों तथा इन्जाइमों की उपस्थिति में जटिल कार्बनिक यौगिकों का विघटन सरल यौगिकों के रूप में होता है। किण्वन की क्रिया खमीर, लैक्टोबेसिलस तथा अंकुरित बीजों आदि में होती है। किण्वन की क्रिया को मुख्यतः दो भागों में बाँटा जा सकता है- अल्कोहोलिक किण्वन तथा अम्लीय किण्नव। अल्कोहोलिक किण्वन की क्रिया में ग्लूकोज का विघटन इथाइल अल्कोहल तथा कार्बन डाइ-आक्साइड में होता है तथा कुछ ऊर्जा मुक्त होती है। यह इस्ट तथा अंकुरित बीज आदि में होती है। C6H12O6 + इस्ट + जाइमेज → 2C2H5OH + 2CO2 + 27 किलो कैलोरी ऊर्जाजीइमेज एक इन्जाइम है जो इस्ट के द्वारा उत्पन्न होता है। अम्लीय किण्वन जीवाणु एवं मांसपेशियों में होती है। इसमें अम्लों का निर्माण होता है। C6H12O6 (ग्लूकोज) + जीवाणु → 2CH3CHOHCOOH (लेक्टिक अम्ल) + 36 किलो कैलोरी ऊर्जाC6H12O6 (ग्लूकोज) + जीवाणु → 3CH3COOH + 28 किलो कैलोरी ऊर्जाइसका आर्थिक महत्त्व भी है। इसकी सहायता से मदिरा (अल्कोहल), सिरका, दही आदि का निर्माण होता है तथा शिल्प उद्योग में रासायनिक पदार्थों का उत्पादन होता है।[11] श्वसन भागफल[संपादित करें]
श्वसन की क्रिया में कार्बन डाइ-ऑक्साइड का वह आयतन जो बाहर निकलता है तथा जितना आयतन ऑक्सीजन का अवशोषण होता है उसके अनुपात को श्वसन भागफल (RQ) कहते हैं। यह सदैव संख्या में निरूपित किया जाता है जैसे- 6CO2/6O2 = १ श्वसन भागफल से इस बात का संकेत मिलता है कि श्वसन की क्रिया में किस प्रकार के खाद्यपदार्थ का उपचयन हो रहा है, क्योंकि यह अनुपात विभिन्न खाद्यपदार्थों के उपचयन में विभिन्न होता है। श्वसन की क्रिया में उपयोग में आने वाले खाद्यपदार्थों के आधार पर इसका मान इकाई, इकाई से कम, इकाई से अधिक होता है। जब श्वसन की क्रिया में उपचयित होनेवाला खाद्यपदार्थ कार्बोहाइड्रेट होता है तब श्वसन भागफल का मान इकाई होता है, जैसे अंकुरित गेंहूँ के बीजों में।
जब श्वसन में उपयोग होने वाला खाद्यपदार्थ वसा या प्रोटीन हो तब श्वसन भागफल का मान इकाई से कम होता है। श्वसन में उपयोग आने वाला खाद्यपदार्थ जब प्रोटीन होता है तब श्वसन-गुणांक का मान ०.४ से ०.९ तक हो सकता है। यदि हमें RQ का मान ज्ञात हो तो इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि श्वसन की क्रिया में किस प्रकार के खाद्यपदार्थ का उपचयन हो रहा है।[17] महत्त्व[संपादित करें]वातावरण में संतुलन[संपादित करें]एटीपी को कोशिका की करेंसी (मुद्रा) कहा जाता है।[2] प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया में पौधे प्रकाश की उपस्थिति में वातावरण से कार्बन डाई-ऑक्साइड को ग्रहण करते हैं तथा ऑक्सीजन गैस वातावरण में मुक्त करते हैं।[18] जिससे वातावरण में ऑक्सीजन की सान्द्रता का बढ़ जाना तथा कार्बन डाई-ऑक्साइड का कम होना स्वाभाविक होता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता है। श्वसन की क्रिया में सजीव दिन और रात हर समय ऑक्सीजन गैस ग्रहण करते हैं तथा कार्बन डाई-ऑक्साइड गैस का वातावरण में त्याग करते हैं। इस प्रकार श्वसन क्रिया द्वारा वातावरण में ऑक्सीजन एवं कार्बन डाई-ऑक्साइड गैसों का संतुलन बना रहता है।[19] ऊर्जा की मुक्ति[संपादित करें]श्वसन एक ऊर्जा-उन्मोचन प्रक्रिया है। श्वसन की क्रिया में भोज्य पदार्थों का ऑक्सीकरण होता है, जिससे उनमें संचित ऊर्जा मुक्त होती है। श्वसन के समय मुक्त ऊर्जा का कुछ भाग कोशिका के माइटोकॉन्ड्रिया में एटीपी के रूप में संचित हो जाती है। एटीपी के रूप में संचित यह ऊर्जा भविष्य में सजीव जीवधारियों के विभिन्न जैविक क्रियायों के संचालन में प्रयुक्त होती है। मुक्त होनी वाली ऊष्मीय ऊर्जा सजीवों के शरीर के तापक्रम को संतुलित बनाए रखने में सहायता करती है। कुछ कीटों तथा समुद्री जंतुओं के शरीर से प्रकाश उत्पन्न होता है। यह प्रकाश श्वसन द्वारा उत्पन्न ऊर्जा का ही एक रूपान्तरित रूप है। कुछ समुद्री जीवों जैसे- इलेक्ट्रिक-रे मछली तथा टारपीडो आदि का शरीर आत्म-रक्षा के लिए विद्युतीय तरंगे उत्पन्न करता है, यह विद्युत श्वसन द्वारा उत्पन्न ऊर्जा के रूपान्तरण से उत्पन्न होता है।[16] प्रकाश-संश्लेषण एवं श्वसन में सम्बन्ध[संपादित करें]प्रकाश-संश्लेषण एवं श्वसन की क्रियाएँ एक दूसरे की पूरक एवं विपरीत होती हैं। प्रकाश-संश्लेषण में कार्बन डाइ-ऑक्साइड और जल के बीच रासायनिक क्रिया के फलस्वरूप ग्लूकोज का निर्माण होता है तथा ऑक्सीजन मुक्त होती है। श्वसन में इसके विपरीत ग्लूकोज के ऑक्सीकरण के फलस्वरूप जल तथा कार्बन डाइ-ऑक्साइड बनती हैं। प्रकाश-संश्लेषण एक रचनात्मक क्रिया है इसके फलस्वरूप सजीव के शुष्क भार में वृद्धि होती है। श्वसन एक नासात्मक क्रिया है, इस क्रिया के फलस्वरूप सजीव के शुष्क भार में कमी आती है।[2] प्रकाश-संश्लेषण में सौर्य ऊर्जा के प्रयोग से भोजन बनता है, विकिरण ऊर्जा का रूपान्तरण रासायनिक ऊर्जा में होता है। जबकि श्वसन में भोजन के ऑक्सीकरण से ऊर्जा मुक्त होती है, भोजन में संचित रासायनिक ऊर्जा का प्रयोग सजीव अपने विभिन्न कार्यों में करता है। इस प्रकार ये दोनों क्रियाएँ अपने कच्चे माल के लिए एक दूसरे के अन्त पदार्थों पर निर्भर रहते हुए एक दूसरे की पूरक होती हैं। श्वसन एवं पोषण में सम्बंध[संपादित करें]पोषक पदार्थों जैसे प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट एवं वसा का पाचन एवं श्वसन में उपयोग को दर्शाता एक सरल चित्र सजीवों के शरीर में प्रत्येक कोशिका में जैव-रासायनिक क्रियाएँ होती रहती हैं। इन क्रियाओं के सम्पादन हेतु दैनिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। ऊर्जा का मुख्य स्रोत भोजन है। सौर ऊर्जा भोजन में स्थितिज ऊर्जा के रूप में संचित रहती है। श्वसन क्रिया में श्वसन का मुख्य पदार्थ ग्लूकोज का ऑक्सीजन की उपस्थिति या अनुपस्थिति में पूर्ण या अपूर्ण ऑक्सीकरण होता है, जिसके फलस्वरूप भोजन में संचित स्थितिज ऊर्जा गतिज ऊर्जा के रूप में मुक्त होता है,[20] जिससे जीवन की दैनिक क्रियाओं के सम्पादन हेतु आवश्यक ऊर्जा का उन्मोचन तथा पूर्ति होती है। श्वसन में ऑक्सीकरण के लिए आवश्यक ग्लूकोज, पोषण के मध्य ही निर्मित होता है। पोषण के लिए आवश्यक ऊर्जा, श्वसन क्रिया में उत्पन्न ऊर्जा से प्राप्त होती है। इस प्रकार श्वसन तथा पोषण एक-दूसरे से अभिन्न रूप से सम्बन्धित है। श्वसन का जैवविकास[संपादित करें]स्वपोषी सजीवों के उद्गम के साथ पृथ्वी के वायुमंजल में बढ़ते आक्सीजन के स्तर को दर्शाता ग्राफ कोशिकीय श्वसन के द्वारा एटीपी निर्माण के लिए अधिकांश सजीव श्वसन की वातपेक्षी विधि पर निर्भर हैं परन्तु क्रम-विकास के दौरान पहले वातनिरपेक्षी श्वसन का विकास हुआ था। वातनिरपेक्षी श्वसन के सर्वप्रथम विकसित होने का कारण पृथ्वी के वायुमंडल में आक्सीजन गैस की अनुपलब्धता थी। ४.६ बिलियन वर्ष पहले पृथ्वी के वायुमंडल में मुख्य गैसें कार्बन डाइ-ऑक्साइड, नाइट्रोजन, जल वाष्प एवं हाइड्रोजन सल्फाइड थीं। इसी वातावरण में ३.५ बिलियन वर्ष पहले प्रथम कोशिकीय सजीव की उत्पत्ति हुई। ये प्रोकैरियोट्स थे। इनकी कोशिकीय संरचना अत्यन्त सरल थी। चूंकि वातावरण में स्वतंत्र आक्सीजन नहीं था इसलिए इन सजीवों में श्वसन की वातनिरपेक्षी प्रक्रिया का विकास हुआ जिसके लिए आक्सीजन की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इसके बाद करीब १ बिलियन वर्ष तक यही प्रोकैरियोट्स पृथ्वी पर राज करते रहे। इनमें अपना भोजन स्वयं बनाने के लिए प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया होती थी। प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया में सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में कार्बन डाई-आक्साइड और जल की सहायता से कार्बोहाइड्रेट का निर्माण होता है तथा आक्सीजन गैस मुक्त होती है।[21] इस मुक्त हुए आक्सीजन का परिमाण धीरे-धीरे वातावरण में बढ़ने लगा। आक्सीजन की उपस्थिति में सजीव कोशिकाओं में श्वसन की एक नई विधि का विकास हुआ जिसमें अधिक एटीपी उत्पन्न हो सकती थी। इस विधि (वातपेक्षी विधि) के द्वारा कोशिकाएँ पहले से अधिक ऊर्जा उत्पन्न करने लगीं। इससे उनका आकार बढ़ने लगा एवं सरल प्रोकैरियोट्स से जटिल यूकैरियोटिक जीवों का क्रम-विकास हुआ। इन्हीं यूकैरियोटिक जीवों से वर्तमान समय के शैवाल, कवक, पादप एवं जन्तुओं का विकास हुआ है जिनमें कोशिकीय श्वसन अत्यन्त विकसित है। यदि कोशिकीय श्वसन का जैव-विकास नहीं हुआ होता तो शायद आज भी प्राचीन प्रोकैरियोटिक जीवों का धरती पर राज होता। सारणी[संपादित करें]प्रस्तुत सारणी में कोशिकीय श्वसन की पूरी क्रियाविधि का संक्षेप में विवरण है। प्रत्येक चरण में उत्पन्न ऊर्जा के उपयोग से कितनी एटीपी का निर्माण हो रहा है इसका विवरण प्रतिक्रिया के महत्त्व को प्रदर्शित करता है।
सन्दर्भ[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में ग्लूकोज के ऑक्सीकरण को क्या कहते हैं?Solution : ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में ग्लूकोस के ऑक्सीकरण को अनॉक्सी श्वसन कहते हैं।
ग्लूकोज पेशी में ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में क्या बदलेगा?ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में, ग्लूकोज शराब और कार्बन डाइऑक्साइड में टूट जाता है।
ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में पेशियों में क्या बनता है?यदि विखंडन ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है, तो श्वसन अवायवीय श्वसन कहलाता है। अत्यधिक व्यायाम करते समय जब हमारी पेशी - कोशिकाओं में ऑक्सीजन की आपूर्ति अपर्याप्त होती है, तब भोजन का विखंडन अवायवीय श्वसन द्वारा होता है ।
ग्लूकोज के ऑक्सीकरण से क्या प्राप्त होता है?उत्तर : ग्लूकोज़ के ऑक्सीकरण से ऊर्जा प्राप्त होती है और यह श्वसन प्रक्रिया के लिए प्रमुख कच्ची सामग्री के रूप में कार्य करता है। यह ऑक्सीजन की उपलब्ध मात्रा तथा जीव के प्रकार पर निर्भर करता है। (i) सभी जीवों में ग्लाइकोलिसिस होती है जसिमें ग्लूकोज़ पाइरुवेट में बदलता है, जो तीन कार्बन वाला यौगिक है।
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