Show औपनिवेशिक अर्थव्यवस्थाऔपनिवेशिक अर्थव्यवस्था से तात्पर्य है कि किसी दूसरे देश की अर्थव्यवस्था का उपयोग अपने हित के लिए प्रयोग करना। भारत में औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की शुरुआत 1757 ई0 में प्लासी युद्ध से हुई, जो विभिन्न चरणों में अपने बदलते स्वरूप के साथ स्वतंत्रता प्राप्ति तक चलती रही।
ध्यातव्य है कि उपरोक्त चरणों में ऐसा नहीं है कि एक चरण समाप्त होने के बाद दूसरा चरण चला अपितु
शोषण के पुराने रूप समाप्त नहीं हुए बल्कि नए रूपों में अगले चरण में चलते रहे। यही वह काल था जब ब्रिटेन में औद्योगिक क्रान्ति हो रही थी। अतः भारतीय अर्थव्यवस्था का दोहन औद्योगिक क्रान्ति को सफल बनाने के लिए होने लगा। औद्योगिक क्रान्ति की सफलता निम्न तीन बिन्दुओं पर निर्भर थी।
उपरोक्त
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था एवं प्रशासनिक संरचना में अमूल-चूल परिवर्तन किए गये। ’’यह अंगेे्रज घुसपैठिए थे जिसने भारतीय खड्डी एवं चरखे को तोड़ दिये।’’ -माक्र्स उपनिवेशवाद का तीसरा चरण 1858 के बाद प्रारम्भ होता है, जिसे वित्तीय पूँजीवादी चरण के नाम से जाना जाता है।
उपरोक्त परिस्थितियों ने ब्रिटिश पूँजीपतियों को अनेक क्षेत्रों में निवेश के लिए प्रेरित किया। अब ब्रिटिश पूँजी के अन्तर्गत अनेक उद्योग धन्धों, चाय, काफी नील तथा जूट के बगानों, बैंंकिंग, बीमा आदि क्षेत्र आ गये।
औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के कुछ सकारात्मक प्रभाव भी पड़े, किन्तु नकारात्मक प्रभाव के सामने ये बहुत कम हैं। जो सकारात्मक प्रभाव पड़े भी उनके पीछे अंगेे्रजों की कोई सद्भावना नहीं थी। सकारात्मक परिणामों का विवरण निम्नलिखित:-
उपरोक्त तीनों चरणों में ब्रिटिश औपनिवेशिक अर्थवस्था ने भारतीय अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर दिया। भारतीय कृषि व्यापार, उद्योग, हस्त-शिल्प पूरी तरह नष्ट हो गये। विश्व की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था वाला देश अब सबसे गरीब देश की श्रेणी में आ गया। ’सोने की चिडि़या कहलाने वाला भारत अब भुखमरी, अकाल, दरिद्रता वाला देश कहलाने लगा। व्यपगत का सिद्धातडलहौजी का ब्यपगत सिद्धांत कम्पनी के साम्राज्यवादी नीति के चरमोत्कर्ष को दर्शाती है। इस नीति का कोई नैतिक आधार नहीं था, वरन यह पूरी तरह ब्रिटिश औपनिवेशिक हित से परिचालित था। इसका उद्देश्य मुगल शर्वशक्ति के मुखौटे को समाप्त करके एक विस्तृत भारतीय सामान्य का निर्माण कसा जिससे ब्रिटिश आर्थिक हित संचालित हो सके।
इसी आधार पर 1839 में माण्डवी राज्य 1840 में कोलाबा और जालौर राज्य और 1842 में सूरत की नबाबी समाप्त कर दी गयी।
डलहौजी ने अपनी इस नीति का औचित्य सिद्ध करते हुए इस बात पर बल दिया कि ’’इन कृत्रिम मध्यस्थ राज्यों को समाप्त कर जनता से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित किया जाना चाहिए।’’ इसके परिणामस्वरूप उन राज्यों में पुरानी प्रशासनिक पद्धति समाप्त हो जायेगी तथा ब्रिटिश के अधीन एक अधिक विकसित पद्धति लागू होगी। किन्तु गहराई से अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि डलहौजी का यह कदम ब्रिटिश औपनिवेशिक हित में उठाया गया। अगर भारत में एक विस्तृत बाजार का निर्माण किया जाना था तो न केवल अधिक से अधिक भारतीय राज्यों को प्रत्यक्ष नियंत्रण में लेने की जरूरत थी वरन एक उन्नत यातायात एक संचार व्यवस्था का विकास भी आवश्यक था। उदाहरणके लिए बम्बई तथा मद्रास के बीच संचार व्यवस्था विकास करने के लिए सतारा तथा बंबई एवं कलकत्ता के बीच संचार व्यवस्था के विकास के लिए नागपुर को प्रत्यक्ष नियंत्रण में लेना अनिवार्य था। वस्तुतः कोर्ट आफ डायरेक्टर्स के द्वारा प्रतिपादित एवं डलहौजी के द्वारा विकसित एवं कार्यान्वित व्यपगत का सिद्धांत अनैतिक एवं औचित्यहीन था। विश्लेषण करने पर इस पद्धति की कई खामियां स्पष्ट हो जाती हैं। कम्पनी के द्वारा व्यपगत सिद्धान्त की उद्घोषणा भारतीय रीति-रिवाज एवं सामाजिक, पंरपरा की अवहेलना थी, क्योंकि भारत में सदा से ही गोद लेने का अधिकार स्वीकृत रहा था और इसे एक धार्मिक कृत्व में भी शामिल किया गया था। ब्रिटिश से पूर्व मुगल एवं मराठे राज्य के द्वारा अधीनस्थ शासकों को नजराने के बदले गोद लेने का अधिकार प्राप्त था। दूसरे कम्पनी द्वारा किये गये भारतीय राज्यों का श्रेणीकरण अथवा वर्गीकरण अस्पष्ट था, क्योंकि अधिनस्थ एवं आश्रित दोनों राज्यों के बीच स्पष्ट विभाजन रेखा खींचा जाना बहुत ही कठिन था। तथा उस समय ऐसी कोई नायिक संस्था भी नही था जो इस बात का निपटारा हो सके। इसके अतिरिक्त इस सिद्धांत के पीछे कोई नैतिक अथवा कानूनी अवधारणा काम नहीं कर रही थी, वरन यह एक अवसरवादी नीति पर आधारित थी। उदाहरण के लिए अवध राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया जाना ब्रिटिश औपनिवेशिक हितों के लिए एक आवश्यक कदम था। चूँकि अवध पर व्यपगत का सिद्धांत लागू नहीं हो सकता था, इसलिए अवध को कुशासन के आधार पर ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। अतः एक दृष्टि से यह शाक्ति का व्यपगत न होकर नैतिकता का व्यपगत था। औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था से आप क्या समझते हैं?औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था से तात्पर्य है कि किसी दूसरे देश की अर्थव्यवस्था का उपयोग अपने हित के लिए प्रयोग करना। भारत में औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की शुरुआत 1757 ई0 में प्लासी युद्ध से हुई, जो विभिन्न चरणों में अपने बदलते स्वरूप के साथ स्वतंत्रता प्राप्ति तक चलती रही।
औपनिवेशिक का अर्थ क्या होता है?उपनिवेशवाद से तात्पर्य किसी शक्तिशाली एवं विकसित राष्ट्र द्वारा किसी निर्बल एवं अविकसित देश पर उसके संसाधनों को अपने हित में दोहन करने के लिये राजनीतिक नियत्रंण स्थापित करना है। इस क्रम में औपनिवेशिक शक्ति अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये उपनिवेशों पर सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक नियंत्रण भी स्थापित करती है।
औपनिवेशिक काल का क्या अर्थ है?भारत में अंग्रेज़ों के शासन काल को औपनिवेशिक अथवा उपनिवेश काल कहा जाता है। यह सन् 1760 से 1947 ई. तक माना जाता है। ब्रिटेन की समृद्धि और औद्योगिक क्राति के पीछे ब्रिटिश शासकों द्वारा भारत से लूटी गई संपदा का निवेश रहा है।
औपनिवेशिक क्या होता है class 8?औपनिवेशिक क्या होता है class 8? इसे सुनेंरोकेंजब एक देश पर दूसरे देश के दबदबे से इस तरह के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव आते हैं तो इस प्रक्रिया को औपनिवेशीकरण कहा जाता है। महत्वपूर्ण साधन होते हैं। अंग्रेजों को यह भी लगता था कि तमाम अहम दस्तावेशों और पत्रों को सँभालकर रखना शरूरी है।
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