सवालीराम Show सवाल: पारस पत्थर क्या है? क्या सचमुच यह लोहे को सोना बना देता है? शुरुआती रसायनविद अरस्तू का दर्शन ईसा की पहली सदी तक आते-आते अलकेमी शुद्ध धातु संबंधी विज्ञान न रहकर इसमें ज्योतिष, रहस्यमयी बिचार, जादू-टोना, आध्यात्म आदि भी जुड़ता चला गया। यही नहीं, उस समय तक विज्ञान और जादू में कोई स्पष्ट विभाजन रेखा भी स्थापित नहीं हो पाई थी। इस दौर में अलकेमी का एक और उद्देश्य सामने आया - इंसानी शरीर को रोगों से मुक्त कर अमरत्व प्रदान करना। कोशिश यह थी कि विविध रासायनिक क्रियाओं से वह रहस्यमयी पदार्थ प्राप्त किया जाए जिसे लोहे या ऐसी किसी धातु में मिलाने पर वह धातु तो सोना बन ही जाए और उसे दवा की तरह पीने पर शरीर अमर हो जाए। उस रहस्यमयी पदार्थ को फिलॉसॉफर स्टोन, दार्शनिक पत्थर, पारस पत्थर आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता था। भारत, चीन, मिस्र, ग्रीक एवं कई यूरोपीय देशों में सैंकड़ों वर्षों तक लोग पूर्ववर्ती मान्यताओं पर यकीन करते हुए पारस पत्थर की खोज में विविध पदार्थों के गुणों को पहचानने की कोशिश में पदार्थ के पृथक्करण, गर्म करने, ठंडा करने, वाष्पीकरण, उर्ध्वपातन, गलाने, निथारने, आसवन, सुखाने जैसी कई गतिविधियां करते थे। कई कीमियागर अपने प्रयोगों के ब्यौरे भी लिखते थे। हालांकि ये ब्यौरे सांकेतिक भाषा में होते थे फिर भी इनमें रसायन विज्ञान को आसानी से खोजा जा सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि आधुनिक रसायन विज्ञान को कई तरह की जानकारी और सामग्री कीमियागरों ने ही दी है।भारत में कीमियागरी और यूरोप में ... अलकेमी के इतिहास में 16वीं सदी में एक नया मोड़ आता है जब ज्यूरिख निवासी पेरासेल्सस ने घोषणा की कि उसका उद्देश्य सोना बनाना नहीं है। वह इंसानी शरीर को रोग मुक्त रवने के लिए दवाइयां बनाना चाहता है। पेरासेल्सस यह मानता था कि अलकेमी का प्रमुख लक्ष्य दवाओं को तैयार करने की विधियों की खोज होना चाहिए। वह यह भी कहता था कि हो सकता है अलकेमी से सोना बनाना भी मुमकिन हो लेकिन यह एक गौण लक्ष्य होना चाहिए। इस घोषणा के बाद अलकेमी में एक नया अध्याय शुरू हुआ जिसमें रसायन की खोजों से चिकित्सा में सहयोग लिया जाने लगा; पदार्थों के गुण और मानव शरीर पर उनके प्रभावों के अध्ययन पर जोर दिया जाने लगा। 20वीं सदी में आखिरी सिक्काः अलकेमी काफी खर्चीला काम था। यदि सोना बनाने के इस काम के लिए राजकीय या किमी धनी व्यक्ति ने वित्तीय सहायता दी हो तब तो विघोष चिंता की बात नहीं थी। लेकिन अधिकांश अलकेमिस्ट अपनी पूंजी लगाकर साधारण धातु से सोना बनाने की जुगत में अपनी सारी उम्र खपा देते थे। यहां एक मध्यकालीन अलकेमिस्ट और उसकी दुखी पत्नी को दिखाया गया है। अलकेमिस्ट मियां ने अपनी मारी पूंजी इस खोज में लगा दी, फिर पत्नी के पास मौजूद सोने के सिक्कों की बारी आई। इम चित्र में पत्नी अपने पास का आखिरी सोने का सिक्का दे रही है। ज़मीन पर पड़ा वाली बटुआ भी दिखाई दे रहा है। हम सिक्के को गंवाने का दुख उसके चेहरे पर साफतौर पर देखा जा सकता है। और मियां शायद उसे दिलासा दे रहे हैं। उस दौर में अलकेमिस्टों की फटेहाल बीवियों और भूखे बच्चों के कई ब्यौरे मिलते हैं। व रेडियो एक्टिव तत्वों की खोज हुई, अल्फा, बीटा, गामा कणों के बारे में विस्तार से जानकारियां मिलीं। पदार्थों के बारे में इतना कुछ जानने के बाद कीमियागरों के सोना बनाने की क्षमताओं पर किसी को यकीन नहीं रहा। बीसवीं सदी में रेडियो सक्रिय तत्वों के अध्ययन के साथ यह बात समझ में आई कि किसी तत्व के नाभिक से अल्फा कणों के बाहर निकल जाने से एक नया तत्व निर्मित होता है। उदाहरण के लिए युरेनियम जिसमें 92 प्रोटॉन होते हैं, उसके नाभिक में से एक अल्फा कण निकल जाए तो युरेनियम के नाभिक में दो प्रोटॉन कम हो जाते हैं; यानी अब 90 प्रोटॉन बच जाते हैं और यूरेनियम थोरियम में तब्दील हो जाता है। इस थोरियम के नाभिक में 90 प्रोटॉन और 144 न्युट्रॉन होते हैं। इसी तरह बीटा कणों के बाहर निकलने से भी नया तत्व बनता है। एक तत्व से दूसरे तत्व के बनने को ट्रांसम्यूटेशन कहते हैं। प्रकृति में भी यह क्रिया चलती रहती है लेकिन धीमी गति से। रेडियो एक्टिविटी, आइसोटॉप्स और परमाणु के नाभिक की समझ बढ़ने के साथ एक बात साफ हो गई कि पिछले दो हज़ार साल तक अलकेमिस्टों ने जो कुछ किया उससे सीसे से या लोहे से सोना क्यों नहीं बन सकता था। वास्तव में अलकेमिस्ट जो रासायनिक क्रियाएं कर रहे थे उनसे परमाणु के नाभिक में कोई बदलाव नहीं हो रहा था। ये सभी क्रियाएं परमाणु की सबसे बाहरी कक्षा के इलेक्ट्रॉन के साथ हो रही थीं। साधारण रासायनिक क्रियाओं से सीसे से सोना बना पाना मुमकिन नहीं था। हां, सोने की पॉलिश जरूर चढ़ाई जा सकती थी। लेकिन कीमियागरों की
कोशिशों को कमतर आंकना बिल्कुल भी उचित नहीं होगा। रदरफोर्ड के प्रयोग से प्रेरणा लेने वालों में से जर्मनी का फ़ैज़ टाउसेंड प्रमुख था। वह म्यूनिख में रसायन सहायक के ओहदे पर काम कर रहा था। उसे यकीन था कि साधारण धातुओं से सोना बनाया जा सकता है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद जब हिटलर जेल में था तो नाज़ी पार्टी के लिए चंदा जुटाने का काम वॉन ल्यूडेनड्रॉफ के कंधों पर आया था। वॉन ने भी फ्रेंज के बारे में काफी कुछ सुन रखा था। उन दिनों म्यूनिख में यह खबर थी कि फ्रेंज ने सोना बनाने में सफलता प्राप्त की है। ऐसा कहा जाता था कि फ्रेंज ने आयरन ऑक्साइड और क्वार्ट्ज के मिश्रण से सोना बनाने की विधि खोज निकाली है। ल्यूडेनड्रॉफ ने एक कम्पनी की स्थापना की। इसका नाम या कंपनी-164। बह इस कंपनी का प्रमुख था और कंपनी के लाभ का 75 प्रतिशत का हिस्सेदार भी। फ्रेज़ इस कंपनी में 5 प्रतिशत का भागीदार था। फ्रेंज के लिए एक बड़ी प्रयोगशाला मुहैया करवाई गई। कंपनी बड़े पैमाने पर सोना बनाकर भारी मुनाफा कमाने सोने से पारा बनाया गया इस प्रयोग की सफलता के बाद यह उम्मीद जागी कि क्या परमाणु भट्टियों से निकलने वाले रेडियोधर्मी कचरे को भी किसी सुरक्षित पदार्थ में बदला जा सकता है। लेजर किरणों में एक तत्व से दूसरा तत्व बनाने में काफी ऊर्जा खर्च होती है। यहां ऊर्जा का अनुमान इस तरह से लगा सकते हैं कि एक परमाणु बिजलीघर के कचरे को निपटाने के लिए एक और बिजलीघर चाहिए होगा! ऊर्जा की विशाल खपत को देखते हुए निकट भविष्य में इस तकनीक के इस्तेमाल की संभावना थोड़ी कम ही है। वानी थी। जल्द ही प्रचार-प्रसार के ज़रिए कंपनी ने निवेशकों को खुब आकर्षित किया। कंपनी अपने निवेशकों को शेयर के बदले काफी सोना देने वाली थी। शेयरों के बदले सोना पाने की चाहत में बहुत से लोगों ने इस कंपनी में निवेश किया। ल्युडेनड्रॉफ ने जल्द ही एक मोटी रकम नाज़ी पार्टी फंड में डाली। 1926 में ल्यूडेनड्रॉफ ने कंपनी प्रमुख के पद से इस्तीफा देकर सारे अधिकार
फ्रेंज़ को सौंप दिए। फ्रेंज़ प्रयोगशाला में लगातार काम करता रहा, लेकिन जल्द ही यह साफ हो गया कि कंपनी अपने निवेशकों को वायदे के मुताबिक सोना देने में असमर्थ है। फ्रेंज को दगाबाज़ी के अपराध में गिरफ्तार किया गया और चार साल कारावास का दंड दिया गया। पारस पत्थर से सोना कैसे बनाते हैं?इस लेख में विकिपीडिया के गुणवत्ता मापदंडों पर खरे उतरने के लिए सफ़ाई की आवश्यकता है। कृपया इस लेख को सुधारने में यदि आप सहकार्य कर सकते है तो अवश्य करें। इसके पारस पत्थर (अंग्रेज़ी: Philosopher's Stone; फिलॉसोफ़र्स स्टोन) एक मिथकीय पत्थर है जिसके बारे में यह मान्यता है कि यह धातुओं को सोने में बदल सकता है।
पारस के स्पर्श से सोना क्या बन जाता है?ये भी कहा जाता है कि हमारे देश में एक पारस पत्थर होता था, जिसके छूने से लोहा सोना बन जाता था. हमारे प्राचीन ग्रंथों और वेदों में उल्लेख है कि ऐसा पत्थर होता था.
पारस पत्थर कैसे प्राप्त होगा?यही वजह है कि हर साल किले में लोग खुदाई करने पहुंच जाते हैं। पारस पत्थर के बारे में कहा जाता है कि ये वो पत्थर है जिसे छूते ही लोहा भी सोना बन जाता है। माना जाता है कि भोपाल से 50 किलोमीटर दूर रायसेन के किले में यह पत्थर मौजूद है। कहा जाता है कि इस किले के राजा के पास पारस पत्थर मौजूद था।
पारे से सोना कैसे बनाया जाता है?– सोना बनाने के लिए एक बड़ा ताम्रपात्र लें, जिसमें लगभग 30 किलो पानी आ सके. सर्वप्रथम, उस पात्र में पारा रखें. तदुपरांत, पारे के ऊपर बारीक पिसा हुआ गंधक इतना डालें कि वह पारा पूर्ण रूप से ढँक जाए. उसके बाद, बारीक पिसा हुआ नीला थोथा, पारे और गंधक के ऊपर धीरे धीरे डाल दें.
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