प्रसाद जी के अनुसार कथा साहित्य की मूल चेतना क्या है? - prasaad jee ke anusaar katha saahity kee mool chetana kya hai?

आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के छायावाद के प्रमुख कवि जयशंकर प्रसाद (Jaishankar Prasad) के जीवन परिचय के बारे में विस्तार से पढेंगे ,आप इसे अच्छे से पढ़ें ।

प्रसाद जी के अनुसार कथा साहित्य की मूल चेतना क्या है? - prasaad jee ke anusaar katha saahity kee mool chetana kya hai?

जन्म सन् 1889 ई.
जन्म स्थान काशी (सूँघनी साहू परिवार में),उत्तरप्रदेश
निधन सन् 1936 ई.
माता मुन्नी देवी
पिता बाबू देवी प्रसाद
उपनाम झारखंडी, खांडे राव , कलाधर

उपनाम-

  • झारखण्डी- प्रसाद को बचपन में पुकारा जाता था।
  • खाण्डे राव - प्रसाद को बचपन में पुकारा जाता था।
  • कलाधार- इस नाम से ब्रजभाषा में काव्य रचना करते थे।
  • इनके परिवार की गणना वाराणसी के समृद्ध परिवारों में होती थी।
  • प्रसाद का परिवार शिव का उपासक था।
  • इनकी 12 वर्ष की आयु में इनके पिता का और 15 वर्ष की आयु में बङे भाई शंभुरतन का देहांत हो गया था।
  • प्रसाद तरूणाई में ही माता-पिता, बङे भाई, दो पत्नियों और इकलौते पुत्र की वियोग व्यथा झेल चुके थे

Jaishankar prasad ki rachnaye in hindi

प्रमुख काव्य संग्रह-

द्विवेदी युगीन ब्रजभाषा में रचित काव्य संग्रह-

  • उर्वशी (1909 ई.)
  • वनमिलन (1909 ई.)
  • प्रेम राज्य (1909 ई.)
  • अयोध्या का उद्धार (1910 ई.)
  • शोकोछच्बास (1910 ई.)
  • वभ्रुवाहन (1911 ई.)

द्विवेदी युगीन खङी बोली में रचित काव्य

  • कानन कुसुम (1913 ई.) (खङी बोली कविताओं का प्रथम संग्रह)
  • करूणालय (1913 ई.)
  • प्रेम पथिक (1913 ई.)
  • महाराणा का महत्व (1914 ई.)

छायावादी काव्य रचनाएँ

  • झरना (1918 ई.)
  • आंसू (1925 ई.)
  • लहर (1933 ई.) (43 कविताएँ)
  • कामायनी (1935)

प्रसाद की कहानी संग्रह

कुल 69 कहानियाँ लिखी जो पांच संग्रहों में संकलित है-

  • छाया (1912 ई.)
  • प्रतिध्वनि (1926 ई.)
  • आकाशदीप (1929 ई.)
  • आंधी (1931 ई.)
  • इन्द्रजाल (1936 ई.)

प्रमुख कहानियाँ

  • पुरस्कार
  • देवरथ
  • ममता
  • सालवती
  • बेङी
  • गुण्डा

अतियथार्थ परक कहानियाँ

  • नीरा
  • मधुवा
  • गुण्डा
  • छोटा जादूगर

उपन्यास

  • कंकाल (1929 ई.)
  • तितली (1934 ई.)
  • इरावती (अपूर्ण)

नाटक

1. सज्जन (1911 ई.) - दुरात्मा दुर्योधन के प्रति युधिष्ठिर की सज्जनता का चित्रण। धर्म को राज सदा जग होवे यही नाटक की मूल चेतना है।

2. कल्याणी परिणय (1912 ई.) - मौर्यवंश के प्रथम प्रतापशाली शासक चंद्रगुप्त मौर्य का इतिहास इस एकांकी में वर्णित है। इस एकांकी को चंद्रगुप्त नाटक के चतुर्थ अंक में थोङे परिवर्तन एवं परिवर्द्धन के साथ शामिल किया गया है।

3. करूणालय (1913 ई.) - वैदिककालीन यज्ञ और हिंसा के विरोध में करुणा की प्रतिष्ठा। नाटक का अंत इस प्रकार हुआ है- करुणा वरुणालय जगदीश दयानिधे और जय जय विश्व के आधार।

4. प्रायश्चित (1914 ई.) - देशद्रोह के लिए जयचंद से प्रायश्चित कराना।

5. राज्यश्री (1920 ई.) - इस रूपक में राज्यश्री का चरित्र को उद्घाटित किया गया है।

6. विशाख (1921 ई.) - प्रेम की विजय, प्रसाद की पराजय तथा असत् व्यक्ति का हृदय-परिवर्तन का नाटक।

7. अजातशत्रु (1922 ई.) - अतीत के गौरव-गान के साथ-साथ युगीन पुनर्जागरण एवं उद्बोधन से ओत-प्रोत यह नाटक असत् प्रवृत्तियों पर सत् प्रवृत्तियों की विजय एवं लोकमंगल के महान् उद्देश्य से युक्त है।

8. कामना (1924 ई.) - इस प्रतीकात्मक नाटक में प्रसाद ने संतोष, विवेक, विलास, कामना इत्यादि मनोविकारों का मानवीकरण किया है। यह नाटक कामना-संतोष के संबंधों के टूटने-जुङने का नाटक है। साथ-ही, विलास की विजय और पराजय का नाटक है।

9. जनमेजय का नागयज्ञ (1926 ई.) - आर्य और नाग जातियों के बीच संघर्ष समाप्त कर उनमें समन्वय स्थापित करना।

10. स्कंदगुप्त विक्रमादित्य (1928 ई.) - गुप्तवंश के पराक्रमी वीर स्कंदगुप्त के चरित्र के आधार पर राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक भावों की अभिव्यक्ति।

11. एक घूंट (1929-30 ई.) - प्रसाद जी का यह विचार प्रधान सामाजिक एकांकी नाटक है, जिसमें विवाह और स्वच्छंद प्रेम पर विचार करते हुए स्वच्छंद प्रेम के स्थान पर वैवाहिक प्रेम की प्रतिष्ठा स्थापित की गई है।

12. चन्द्रगुप्त (1931 ई.) - दो-दो यूनानी आक्रमणों से भारत की सुरक्षा कराते हुए निष्कटक मौर्य-साम्राज्य की स्थापना कराना तथा राष्ट्रीय जागरण की भावना को बलवती परतंत्र भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराना।

13. ध्रुवस्वामिनी (1933 ई.) - स्त्री-प्रधान, स्त्री-समस्या पर आधारित इस नाटक में बेमेल-विवाह की समस्या, स्त्री को भोग की वस्तु मानने के विरुद्ध स्त्री-अस्मिता, स्त्री-अधिकार, स्त्री-स्वतंत्रता पर प्रकाश डाला गया है।

14. अग्निमित्र (1944) - प्रसाद के इस अंतिम एवं अपूर्ण नाटक (1935 में लिखित यह नाटक प्रसाद की मृत्यु के उपरांत 30 अक्टूबर, 1944 को दैनिक पत्र आज में प्रकाशित हुआ था) में राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति हुई है।

निबन्ध संग्रह

  • 1939 ई. काव्य और कला तथा अन्य निबंध

साहित्य निबंध

  • प्रकृति सौन्दर्य
  • हिन्दी साहित्य सम्मेलन
  • भक्ति
  • हिंदी कविता का विकास
  • सरोज

ऐतिहासिक निबंध

  • सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य
  • आर्यवर्त का प्रथम सम्राट
  • मौर्यों का राज्य परिवर्तन
  • दशराज युद्ध

समीक्षात्मक निबंध

  • कवि और कविता
  • चम्पू
  • कविता का रसास्वाद
  • रहस्यवाद
  • काव्य और कला
  • रस
  • नाटकों में रस का प्रयोग
  • रंगमंच
  • नाटकों का प्रारंभ

महत्वपूर्ण तथ्य

  • कामायनी महाकाव्य पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ।
  • अयोध्या का उद्धार कविता में लव द्वारा अयोध्या को पुनः बसाने की कथा।
  • अशोक की चिंता अन्य कविता।
  • प्रेम पथिक पहले 1909 ई. में ब्रजभाषा में लिखा गया फिर उसे 1914 ई. में खङी बेाली में रूपांतरित किया गया।
  • शेर सिंह का आत्म समर्पण एक लम्बी कविता है जो मुक्त छन्द है।
  • आंसू में 14 मात्राओं का आनंद/सखी छंद है।
  • कामायनी का मुख्य छन्द तोटक है।
  • पैशोला की प्रतिध्वनि, प्रलय की छाया शीर्षक कविताएं लहर में संकलित है।
  • जयंशंकर प्रसाद नामक पुस्तक के रचियता नंद दुलारे वाजपेयी है।
  • कामायनी शतपथ ब्राह्मण के आठवें अध्याय से ली गई है।
  • प्रसाद को दार्शनिक कवि कहा जाता है।
  • कामायनी एक भाव प्रधान महाकाव्य है।
  • प्रसाद की प्रेरणा से ही 1909 ई. में उनके भानजे अम्बिका प्रसाद गुप्त के सम्पादककत्व में इन्दु नामक मासिक पत्र का प्रारंभ हुआ है।
  • कामायनी में प्रत्याभिज्ञादर्शन की पुष्टि हुई है।
  • पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण गुप्त की रचना रामधारी सिंह दिनकर ने की थी।
  • आंसू की प्रथम पंक्तियाँ है- अवकाश भला है किनको सुनने को करूण कथायें।
  • ⇒आंसू प्रथम संस्करण में व्यक्तिगत वेदना को महत्व है।
  • आंसू का नामकरण और छन्द मैथिलीशरण गुप्त ने दिया था।
  • ⇒आंसू द्वितीय संस्करण में प्रसाद ने व्यक्तिगत वेदना से ऊपर उठकर करूणा या विश्व कल्याण की भावना की अभिव्यक्ति की है।

कामायनी में प्रतीक योजना-

  • मनु - मन का
  • श्रद्धा- हृदय का
  • इङा- बुद्धि का
  • मानव - मानव का

छायावादी कवितायों के दार्शनिक आधार

कवि दार्शनिक मत
जयशंकर प्रसाद शैव दर्शन
सुमित्रानंदन पंत अरविन्द दर्शन
महादेवी वर्मा सर्वात्मवाद
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला अद्वैतवाद

जयशंकर प्रसाद-

  • जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिंदी में उसे छायावाद के नाम से अभिहित किया गया।
  • कामायनी का प्रमुख उद्देश्य आनंदवाद की स्थापना रहा है।
  • जयशंकर प्रसाद ने छायावाद की निरूक्तिमूलक व्याख्या की है।

प्रसाद की प्रथम छायावादी कविता प्रथम प्रभात 1918 ई. किन दो संकलनों में संकलित है-

  1. कानन कुसुम
  2. झरना

चित्राधार प्रसाद की ब्रजभाषा की रचनाओं का संग्रह है जो दो भागों में प्रकाशित हुआ। प्रथम 1918 ई. द्वितीय 1928 ई. ।

कामायनी के 15 सर्ग

  • चिंता
  • आशा
  • श्रद्धा
  • काम
  • वासना
  • लज्जा
  • कर्म
  • ईर्ष्या
  • इङा
  • स्वप्न
  •  संघर्ष
  •  निर्वेद
  • दर्शन
  •  रहस्य
  • आनंद

ट्रिक -

कामायनी को चिंता नहीं आशा है, श्रद्धा नहीं काम में, वासना से लज्जा आई, कर्म से ईर्ष्या हुई, इङा ने स्वप्न देखा, संघर्ष है निर्वेद का, दर्शन हुए रहस्य के रहस्य से आंनद आया।

  •  जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित झरना (1918) को छायावाद की प्रथम रचना माना जाता है।
  • झरना को छायावाद की प्रथम प्रयोगशाला कहा जाता है।
  • प्रसाद कृत प्रथम कविता सावन पंचक सन् 1906 ई. में भारतेन्दु पत्रिका में कलाधर उपनाम से प्रकाशित हुई।
  • ⇒प्रसाद कृत उर्वशी एक चम्पूकाव्य है।
  • आँसू -133 छन्दों का विरह प्रधान स्मृति काव्य है।
  • ⇒आँसू को हिन्दी का मेघदूत कहा जाता है।
  • प्रसाद को प्रेम और सौंदर्य का कवि कहा जाता है।
  • आचार्य शांतिप्रिय द्विवेदी ने कामायनी को छायावाद का उपनिषद कहा है।
  • प्रेम पथिक की कथावस्तु श्रीधर पाठक द्वारा अनूदित एकांतवास योगी से मिलती है।
  • डाॅ. नगेन्द्र ने कामायनी को मानव चेतना के विकास का महाकाव्य कहा है।
  • मुक्तिबोध ने कामायनी को फैंटेसी कहा है।

छायावादी काव्य की वृहद्त्रयी-

  • जयशंकर प्रसाद
  • सुमित्रानंदन पंत
  • सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

छायावादी काव्य की लघुत्रयी-

  • महादेवी वर्मा
  • रामकुमार वर्मा
  • भगवतीचरण वर्मा
  • छायावाद के ब्रह्मा - जयशंकर प्रसाद
  • ⇒छायावाद के विष्णु - सुमित्रानंदन पंत
  • छायावाद के महेश - सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

⇔ कामायनी पर रचित रचनाएँ-
1. कामायनी एक पुनर्विचार - 1961 ई. -मुक्तिबोध
2. ⇒कामायनी की दार्शनिक पृष्ठभूमि (निबंध) - नगेन्द्र
3. कामायनी के अध्ययन की समस्याएँ (समीक्षा ग्रन्थ) - नगेन्द्र

प्रसाद की प्रमुख ऐतिहासिक कविताएँ - शेरशाह का आत्मसमर्पण, पेशोला की प्रतिध्वनि, प्रलय की छाया, अशोक की चिंता, उनके झरना काव्य संग्रह में संकलित है।

बच्चन सिंह करूणालय को एक प्रकार का गीतिनाट्य कहा है और आँसू को विरह काव्य।

डाॅ. बच्चन सिंह लिखते है कि-
सन् 1928 ई. सुधा के अक्टूबर अंक में कामायनी के चिन्तासर्ग का अंश छाया और कामायनी प्रकाशित हुई सन् 1935 ई. में। यदि इसके लेखन का आरंभ 1928 ई. मान लिया जाए तो कवि को इसे पूरा करने में सात वर्ष लग गए थे।

डाॅ. इन्द्रनाथ मदान लिखते है कि-
प्रसाद गम्भीर और शान्त प्रकृति के थे। कभी किसी कवि सम्मेलन या सभा-सोसायटी में नहीं जाते थे। शायद ही उन्होंने कभी किसी कवि सम्मेलन में कविता पढ़ी हो। वे कटु से कटु से आलोचना का भी कभी उत्तर नहीं देते थे। वे शिव के उपासक थे और माँस-मदिरा से दूर रहते थे। उनका देहान्त राजयक्ष्मा से हुआ था।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने -
कामायनी की श्रद्धा को विश्वास समन्वित रागात्मक वृति और इङा को व्यावसायात्मिका बुद्धि कहा था।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने -
यदि मधुचर्या का अतिरेक और रहस्य की प्रवृत्ति बाधक न होती तो इस काव्य के भीतर मानवता की योजना शायद अधिक पूर्ण और सुव्यवस्थित रूप में चित्रित होती।

प्रमुख पंक्तियाँ –

कामायनी की प्रथम पंक्तियाँ-

1. तुम भूल गए पुरूषत्व मोह में, कुछ सत्ता है नारी की।

2. औरों को हँसते देख मनु, हँसो और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ।

3. नील परिधान बीच सुकुमार, खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघवन बीच गुलाबी रंग।।

4. बीती विभाबरी जाग री, अंबर पनघट में डुबो रही
तारा घट उषा नगरी।।

5. बाँधा था विधु को किसने, इन काली जंजीरों से।
मणिवाले फणियों का मुख, क्यों भरा हुआ है हीरो से।

6. जो घनीभूत पीङा थी मस्तक में, स्मृति सी छाई।
दुर्दिन में आँसु बनकर, वह आज बरसने आई।।

7. दोनों पथिक चले है कब से ऊँचे-ऊँचे, चढ़ते-बढ़ते
श्रद्धा आगे मनु पीछे थे, साहस उत्साह से बढ़ते-बढ़ते

8. हिमगिरी के उंतुग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह।
एक पुरुष भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।

9. ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है, इच्छा क्यों हो पूरी मन की।
एक दूसरे से न मिल सके, यह विडम्बना है जीवन की।।

10. उधर गजरती सिंधु लहरियाँ, कुटिल काल के जालों सी।
चली आ रही फेन उगलती, फन फैलाए व्यालों सी।

11. प्रकृति के यौवन का शृंगार, न करेंगे कभी बासी फूल।

12. ओ चिन्ता की पहली रेखा, अरी विश्व वन की व्याली।

13. नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पदतल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में।।

14. रो-रोकर, सिसक-सिसक कर, कहता मैं करूणा कहानी।
तुम सुमन नोचते सुनते, करते जानी अनजानी।

15. इस करूण कलित हृदय में, अब विकल रागिनी बजती।
क्यों हाहाकार स्वरों में, वंदना असीम गरजती।।

प्रसाद का जीवन दर्शन(Jay shankar prasad)

जयशंकर प्रसाद छायावाद के प्रवर्तक कवि है। कामायनी जयशंकर प्रसाद की सर्वश्रेष्ठ रचना है। उसकी रचना 1936 ई. में हुई। यह एक प्रबन्ध काव्य है। यह आधुनिक हिन्दी दर्शन का उपनिषद है। इसकी तुलना भक्तिकालीन रचना रामचरितमानस से की जा सकती है। छायावादी कविता में इसे शिखर काव्य का दर्जा प्राप्त है। प्रसाद जी के दार्शनिक विचारों पर शैव दर्शन के अन्तर्गत आने वाले प्रत्यभिज्ञा दर्शन का प्रभाव पङा है। प्रसाद जी ने प्रत्यभिज्ञा दर्शन की स्थापना की है। यह दर्शन प्राचीन और मध्ययुगीन दुःखवादी दर्शन का विरोध करता है।

प्रत्यभिज्ञा दर्शन संसार को सत्य मानता है। प्रसाद जी ने दर्शन के नीरस और शुवक विचारों को भाव एवं कल्पना के योग से सबके लिए सुलभ बनाया। इसी कारण कथा सरस है। कामायनी कर्म व भोग की चक्रीय प्रक्रिया को जीवन के सन्तुलन के रूप में देखती है। गीता में निष्काम कर्म दर्शन की व्याख्या की गई है। गीता कर्म की प्रेरणा देता है। इसके विपरीत कामायनीकार ने कामाध्यात्मवाद की स्थापना की। उनकी मान्यता है कि काम की उपलब्धि का भोग न किया जाए तो पुनः कर्म करने की प्रेरणा स्वतः ही खारिज हो जाएगी और इससे संसार की चक्रीय प्रक्रिया प्रभावित होगी। प्रसाद कहते हैं कि

एक तुम यह विस्तृत भूखण्ड प्रकृति वैभव से भरा अभन्द।
कर्म का भोग, भोग का कर्म यही जङ का चेतन आनन्द।।

कामायनी अतिशय भोग की अपेक्षा कर्म व भोग के सन्तुलन में अपना समाधान ढूँढती है।

दुःख के डर से तुम अज्ञात जटिलताओं का कर अनुमान।
काम से झिझक रहे हो आज, भविष्यत से बनकर अनजान।।

कामायनी की कथा एक मिथक कथा है जो इतिहास, पुराण, उपनिषदों और यहाँ तक कि कुरान बाइबिल में भी सर्वत्र बिखरी हुई है। मनु नाम से ऐतिहासिक तथा पौराणिक दोनों पात्रों की चर्चा है। इतिहास में स्मृतिकार मनु के रूप में अब तक सात मनवन्तर हुए। इस मनु का सम्बन्ध इस सातवें मनवन्तर से है।

कामायनी में प्रसाद जी ने प्रत्यभिज्ञा दर्शन अथवा कश्मीरी शैववाद की स्थापना की है। यह दर्शन प्राचीन तथा मध्ययुगीन दुःखवादी दर्शन का विरोध करता है। हिन्दूवादी तथा बौद्धवादी दर्शनों में जीवन के प्रति नश्वरता तथा मृत्यु बोध को उद्घाटित किया था। हिन्दूवादी दर्शनों में संसार की उत्पत्ति में माया को सहयोगी माना गया। इसी वजह से वहाँ संसार मिथ्या प्रतीत हुआ। इसके विपरीत प्रत्यभिज्ञा माना गया। इसी वजह से वहाँ संसार मिथ्या प्रतीत हुआ। इसके विपरीत प्रत्यभिज्ञा दर्शन संसार को सत्य मानता है। इसके पहले के दर्शनों में जगत में जङ व चेतन के बीच अन्तर को स्पष्ट करना चाहा। कामायनीकार ने जङ व चेतन को प्रकृति की दो अवस्थाओं के रूप में देखा। उनमें एक ही तत्त्व बरकरार है। सिर्फ स्वरूप परिवर्तन लक्षित है।

नीचे जल था ऊपर हिम था एक तरल एक सघन।
दोनों में एक ही तत्त्व की प्रधानता कहो जङ या चेतन।।

बौद्ध दर्शन में समस्त दुःखों का कारण इच्छा को माना। इसलिए इच्छा को निराद्रित करने की बात की गई। हिन्दूवादी दर्शनों में भी इच्छा को निषेध के रूप में देखा गया। प्रसाद जी का शैवाद्वैतवाद एक वैज्ञानिक अर्थशास्त्री की तरह इच्छा के आदर की बात करता है। इच्छा यदि प्रभावपूर्ण इच्छा बन जाए तो वहीं आवश्यकता है और आवश्यकता आविष्कार की जननी है। जयशंकर प्रसाद जी ने इच्छा को सर्जना का मूल माना। उत्पादन की सभी गतिविधियाँ इच्छा पर ही निर्भर होती है। उदाहरण-

काम मंगल से मण्डित श्रेय, सर्ग इच्छा का है परिणाम।
तिरस्कृत कर उसको तुम मूल बनाते हो असफल मवधाम।।

प्रसाद जी ने प्राचीन दुःखवादी दर्शनों को आसुरी दर्शन कहा जहाँ कर्म व भोग को अनैनिक दृष्टिकोण के तहत रखा गया। इन सभी दर्शनों ने काम व भोग का निषेध किया। इसके विपरीत प्रसाद जी ने माना कि काम मन की ऊर्जा है। यह काम देह से जुङकर वासना का रूप ले लेता है परन्तु इस पर यदि मन का नियन्त्रण हो तो यह सर्जना का रूप ले लेता है। काम ही कर्म है। कर्म की उपलब्धि ही भोग है। कामायनी इस कर्म व भोग की चक्रीय प्रक्रिया को जीवन के सन्तुलन के रूप में देखती है।

गीता में निष्काम कर्म दर्शन की व्याख्या की गई है। यह दर्शन कर्म की प्रेरणा तो देता है परन्तु कर्मफल या उपलब्धि को निलम्बित मानता है। इसके विपरीत जयशंकर प्रसाद जी ने कामाध्यात्मवाद की स्थापना की। प्रसाद जी की मान्यता है कि यदि कर्म का योग न किया जाए तो पुनः कर्म करने की प्रेरणा स्वतः ही खारिज हो जाती है। इससे संसार की चक्रीय प्रक्रिया प्रभावित होगी।

एक तुम यह विस्तृत भूखण्ड प्रकृति वैभव से भरा अभन्द।
कर्म का भोग, भोग का कर्म यही जङ का चेतन आनन्द।

प्रसाद जी ने दुःखवाद के केन्द्र में मृत्यु बोध को माना। इस मृत्युबोध से दो प्रकार के दृष्टिकोण विकसित होंगे भोगवादी और वैराग्यवादी। प्रसाद जी ने इन दोनों अतिवादों का विरोध किया। यदि वैराग्य निवृत्ति का मार्ग है और पलायनवाद है तो अतिशय भोगवाद ही पलायन का कारण है। श्रद्धा के माध्यम से उन्होंने इस बात को स्थापित करना चाहा है कि

तप नहीं है रे जीवन सत्य तरल आकांक्षाओं से भरा है
जीवन का आह्लाद।

भोगवाद को कर्मवाद की परिणति मानकर जो इसका निषेध करते हैं कामायनी उनका भी विरोध करती है इसलिए अतिशय भोग की अपेक्षा कर्म व भोग के सन्तुलन में अपना समाधान ढूँढती है।

दुःख के डर से तुम अज्ञात जटिलताओं का कर अनुमान,
काम से झिझक रहे हो आज भविष्यत से बनकर अनजान।

जयशंकर प्रसाद ने एक ओर सामन्ती अतिशय भोगवाद का विरोध किया तो वहीं दूसरी ओर पश्चिमी उपभोक्तावाद का भी विरोध किया। छायावादी काव्यधारा पर भी भारतीय आध्यात्म व पश्चिमी विज्ञानवाद का सतत द्वन्द्व दिखाई पङता है। कामायनी का पहला सर्ग यदि भोगवाद का विरोध करता है तो इसके दसवें और बारहवें सर्ग में उपभोक्तावाद का विरोध है। दोनों में दो प्रकार की दृष्टियाँ काम कर रही होती हैं। भोगवाद दैहिक परिधि से जुङा होता है। इसके विपरीत उपभोक्तावाद पश्चिमी पूँजीवादी संस्कृति की उपज है।

भोगवादी, नैतिकता तथा अनैतिकता का विवेक सतत बना रहता है, जबकि उपभोक्तवाद, नैतिकता, अनैतिकता जैसे पहलुओं से मुक्त रहता है, जबकि उपभोक्तावाद, नैतिकता, अनैतिकता जैसे पहलुओं से मुक्त रहता है। वहाँ अधिकतम लाभ की मानसिकता काम करती है। कामायनी में यदि देवसृष्टि का नाश भोगवाद के कारण सम्भव हो सका तो नायक मनु के भीतर अहंकारवाद तथा निरंकुशता जैसे तत्त्वों की उत्पत्ति यान्त्रिक संस्कृति के उपभोगवाद के कारण सम्भव हो सकी।

जयशंकर प्रसाद, गाँधीजी की तरह यान्त्रिक संस्कृति व अतिशय विज्ञानवाद के घोर विरोधी थे। रामधारी सिंह दिनकर ने भी लिखा है कि अतिशय विज्ञानवाद मानवघाती है।

कामायनी एक प्रतीकात्मक काव्य है जिसे एलीगरी कथा का नाम दिया गया है। इसके तीन प्रमुख पात्र मनु, श्रद्धा व इङा है। ये तीनों क्रमशः मन, हृदय व बुद्धि के परिचायक हैं। मन के ही दो हिस्से माने गए हैं हृदय व बुद्धि। डाॅ. नगेन्द्र ने इन तीनों को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जोङते हुए कहा कि जिसे प्रसाद जी ने इच्छा क्रिया व ज्ञान कहा वही आज का धर्म राजनीति व विज्ञान है। इन तीनों के बीच सही सन्तुलन से ही आनन्दवाद या समरसतावाद की उपलब्धि सम्भव है। प्रसाद जी ने मनु के बिखराव को मन, हृदय व बुद्धि के असन्तुलन का कारण माना। जब तक व्यक्ति ज्ञान व विवेक पर आधारित क्रिया नहीं करेगा तब तक सन्तुलित विकास सम्भव नहीं हो सकेगा और सन्तुलित विकास की कामना सहज कामना ही रह जाएगी।

ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न है क्यों इच्छा पूरी हो मन की।
एक-दूसरे से मिल न सके यही विडम्बना जीवन की।।

छायावाद में नारी चेतना का विशेष सन्दर्भ देखा गया। प्रसाद जी पर यह आरोप लगा कि उनकी नारी चेतना मध्ययुगीन सामन्ती दृष्टिकोण का परिचायक रही। सम्भवतः यह आरोप लज्जा सर्ग में उनके द्वारा लिखी एक पंक्ति को देखकर प्रभावकारी हुआ होगा।

आँसू से भीगे आँचल पर मन का सब कुछ रखना होगा।
तुमको अपनी स्मृति रेखा से यह सन्धि-पत्र लिखना होगा।।

प्रसाद जी की कामायनी भारतीय नारी को भोगवादी तथा उपभोक्तावादी संस्कृति से मुक्ति दिलाने की कोशिश करती है। यदि भोगवादी नारी के प्रति वस्तु नजरिया देखा गया तो उपभोक्तावाद भी उसे मात्र बाजारवादी वस्तु की दृष्टि से देखता है। प्रसाद जी ने भारतीय नारी को पश्चिमी बाजारवादी आकर्षण से बचाकर उसे भारतीय नारी के त्याग, समर्पण, सेवा, ममता तथा दया जैसे मूल्यों से युक्त देखना चाहा व उनके लिए नारी महज श्रद्धा थी।

नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में,
पीयूष स्रोत सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में।

जयशंकर प्रसाद: सांस्कृतिक दृष्टि(Jaishankar Prasad)

जयशंकर प्रसाद की गिनती प्रमुख रूप से ऐसे कवियों में होती है जो भारतीय संस्कृति के पोषक है। प्रसाद जी का भारतीय अतीत से गहरा लगाव है। इसी कारण उनकी रचनाओं में सांस्कृतिक दृष्टि की अभिव्यक्ति हुई है। जयशंकर प्रसाद जी नाट्यकृतियों में पौराणिक युग के आख्यानों से लेकर हर्षवर्द्धनकालीन भारतीय इतिहास के स्वर्णिम एवं गौरवमयी कालखण्ड पर आधारित इन सभी नाट्य रचनाओं में भारतीय संस्कृति की शक्ति, समृद्धि एवं औदात्य का भावांकन किया है। अपने ऐतिहासिक नाटकों में उन्होंने ऐसे चरित्र प्रस्तुत किए हैं जिनमें भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्वों का सन्निवेश है तथा भारत के अतीत गौरव के सार्थक चित्र है।

प्रसाद जी ने भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्वों, जैसे - आध्यात्मिकता, समन्वयशीलता, विश्वबन्धुत्व, कर्मव्यता, साहस नैतिकता, संयम त्याग, बलिदान देशभक्ति एवं राष्ट्रीयता के भाव मिलते हैं। प्रसाद जी की काव्य सर्जना में भारतीय संस्कृति के इन तत्त्वों के दर्शन होते हैं। चन्द्रगुप्त नाटक में चाणक्य, चन्द्रगुप्त, अलका, सिंहरण जैसे आदर्श पात्र हैं जो साहस देशभक्ति और स्वदेशप्रेम की प्रेरणा देते हैं। यथा-

अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।

सरस तामरस गर्भ विधा पर, नाव रही तरू शिखा मनोहर,
छिटका जीवन हरियाली पर मंगल कुंकुम सारा।।

भारतवासियों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने अनजान विदेशियों को भी अपना बन्धु समझकर गले लगाया। जिसे सभी ने ठुकराया हो, उसको हमने गले लगाया। हमारी सांस्कृतिक विरासत रही है कि हम अत्यन्त संवेदनशील, भावुक एवं करुणार्द प्रवृत्ति के लोग है। दूसरों के दुःख को देखकर वे करुणार्द हो जाते हैं। प्रसाद के नाटक उनके ऐतिहासिक सांस्कृतिक प्रेम को व्यक्त करते है।

शेर सिंह का शस्त्र समर्पण तथा पेशोला की प्रतिध्वनि ऐसी ही कविताएं है, जिनमें राष्ट्रीयता के साथ-साथ सांस्कृतिक मूल्य उभरकर सामने आए है।

भिक्षा नहीं माँगता हूँ, आज इन प्राणों की।
क्योंकि प्राण जिसका आहार, वही इसकी
रखवाली आप करता है महाकाल की।

प्रसाद द्वारा सृजित महाराणा का महत्त्व कविता भी सांस्कृतिक चेतना से युक्त है। प्रसाद अपनी कहानियों में सांस्कृतिक मूल्यों का सन्देश देते हैं। इनकी कहानी ममता, पुरस्कार, चूङीवाली, आकाशदीप, भिखारिन, सभी में सांस्कृतिकता के दर्शन होते है। प्रसाद कामायनी में भारतीय संस्कृति की समृद्धि की चर्चा करते हुए सृजित करते हैं कि-

अवयव की दृढ़ मांसपेशियाँ, ऊर्जस्वित था वीर्य अपार।
स्फीत शिराएँ, स्वस्थ रक्त का, होता था जिनमें संचार।

प्रसाद जी भारतीय संस्कृति के चारों आश्रमों में वानप्रस्थ आश्रम की भी चर्चा करते हैं और वे समरसता तभी मानते हैं जब व्यक्ति सांसारिकता से निवृत्त होकर तपस्यालीन हो। तथा-

समरस थे जङ या चेतन, सुन्दर साकार घना था।
चेतनता एक विलसती, आनन्द अखण्ड घना था।

इसी प्रकार प्रसाद जी देव के सन्दर्भ में कहते है कि-

देव न थे हम और न ये हैं, सब परिवर्तन के पुतले।
हाँ कि गर्व रथ में तुरंग सा, जितना जी चाहे जुत ले।।

प्रसाद जी की महाराणा का महत्त्व कविता भी सांस्कृतिक चेतना से युक्त है। प्रसाद जी ने कहानियों के माध्यम से भी सांस्कृतिक मूल्यों का सन्देश देने का प्रयास किया है। पुरस्कार नामक कहानी में मधुलिका अपने व्यक्तिगत प्रेम को शब्द प्रेम पर कुर्बान कर देती है। उसे दुःख नहीं कि उसका प्रेमी उसे विश्वासघाती कहे या नहीं।

कामायनी के कथानक का आधार प्राचीन आख्यान है जिसके अनुसार मनु के अतिरिक्त सम्पूर्ण देव जाति प्रलय का शिकार हो जाती है और मनु तथा श्रद्धा या कामायनी के संयोग से मानव सभ्यता का प्रवर्तन होता है। प्रसाद जी ने इसमें जीवन के अनेक पक्षों को समन्वित करके मानव जीवन के लिए एक व्यापक आदर्श व्यवस्था की स्थापना का प्रयास किया है।

⋅कामायनी की कथा विषमतामूलक समाज की जगह समतामूलक समाज की कामना करती है। प्रसाद जी ने मनु के माध्यम से मानव सभ्यता के सन्तुलित विकास को दर्शाने की कोशिश की है। इसी कारण कहीं मनु श्रद्धाविहीन दिखाई देते हैं तो कभी बौद्धिकविहीन। श्रद्धा व विवेक के सन्तुलन से ही सन्तुलित विकास सम्भव है।
कामायनी में आध्यामिकता समरसतावाद विश्वबन्धुत्व का जो सन्देश प्रसाद जी ने दिया है वह भारतीय संस्कृति के ही अनुकूल है। श्रद्धा कहती है-

औरों को हँसते देखो मनु हँसो और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो सब को सुखी बनाओ।।

प्रसाद जी ने प्राचीन दुःखवादी दर्शन को आसुरी दर्शन कहा क्योंकि इन दर्शनों में काम और भोग का निषेध है। प्रसाद जी की मान्यता है कि काम मन की ऊर्जा है। यह काम देह से जुङकर वासना का रूप ले लेता है यदि इस पर मन का नियन्त्रण हो तो यह सर्जना का रूप ले लेता है। काम ही कर्म व कर्म की उपलब्धि है। कामायनी इस कर्म व भोग की चक्रीय प्रक्रिया को जीवन का सन्तुलन के रूप में देखती है। प्रसाद जी ने कामायनी में भोगवाद और वैराग्य दोनों का निषेध किया है क्योंकि वैराग्य जीवन से निवृत्ति तथा अतिशय भोगवाद भी पलायन का कारण है।

यदि श्रद्धा के माध्यम से दोनों में सन्तुलन हो तो जीवन राग बन जाता है उसमें समरसता आ जाती है। श्रद्धा जीवन के मूल में कर्म व भोग दोनों के सन्तुलन को स्वीकार करती है क्योंकि जीवन को अतिवादी नजरिए से जीना सम्भव नहीं है। प्रसाद जी की कामायनी की वर्तमान में भी प्रासंगिकता है क्योंकि यह कर्म व भोग का सन्तुलन कर जीवन को रागात्मक बनाने की सीख देती है।

जयशंकर प्रसाद: सौन्दर्य चेतना(Jaishankar Prasad)

जयशंकर प्रसाद छायावाद के प्रवर्तक कवि है। प्रसाद जी के काव्य में सौन्दर्य चेतना विविध रूपों में व्याप्त है। इनके काव्य में नारी, प्रकृति एवं भाव तीनों सौन्दर्य दिखाई देते हैं। सौन्दर्य को प्रसाद जी पवित्र मानते हैं जिसमें वासना की कोई जगह नहीं है। अपनी कृति आँसू में वे नायिका के पवित्र तन की शोभा का बखान करते हुए कहते हैं कि-

चंचला स्नान कर आवे, चन्द्रिका पर्व में जैसी।
उस पावन तन की शोभा, आलोक मधुर थी ऐसी।।

प्रसाद जी ने लौकिक प्रेम को आध्यात्मिक प्रेम का रूप दे दिया है परन्तु इसकी लौकिकता के चिह्न पूरी तरह लुप्त नहीं है। कवि ने आलिंगन में आते-आते मुस्कुराकर भाग जाने वाला प्राणी कोई लौकिक है या पारलौकिक इसका आभास उसकी पलकों, काली आँखों और चाँद के मुख आदि से हो जाता है। प्रसाद जी कहते हैं कि आप स्वयं पहचाने यह नारी का चित्रण हे अथवा प्रभु का?

बाँधा था विधु को किसने, इन काली जंजीरोें से।
मणिवाले फणियों का मुख, क्यों भरा हुआ है हीरों से।
काली आँखों में कितनी यौवन, की मद की लाली।
मानिक मदिरा से भर दी।
किसने नीलम की प्याली।।

नायिका के अंग-प्रत्यांगों का वर्णन आँसू में प्रसाद जी करते हुए कहते है कि इस सौन्दर्य चित्रण में पावनता का बोध है। यथा-

काली आँखों में कितनी, यौवन के मद की लाली।
मानिक मदिरा से भर दी, किसने नीलम की प्याली।।

प्रसाद जी की प्रेयसी का हृदय यौवन की सम्पूर्ण विभूतियाँ से परिपूर्ण है तथा वह धरती के यथार्थ सौन्दर्य और स्वर्ग की काल्पनिक सुषमा से सुसज्जित है। प्रसाद जी ने नारी सौन्दर्य के कई चित्र उकेरे हैं

नील परिधान बीच सुकुमार, खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघवन बीच गुलाबी रंग।।

प्रसाद जी ने कामायनी में मनु की दृढ़ मांसपेशियों को देखकर देवदार के सुडौल वृक्षों के उपमान का प्रयोग किया है। प्रसाद जी ने रजनी के माध्यम से शुक्लाभिसारिका नायिका का कैसा मधुर भावपूर्ण एवं सजीव चित्रण किया है।

पगली हाँ संभाल ले कैसे, छट पङा तेरा अँचल।
देख बिखरती है मणिरानी,
देख अचन जगत लूटता, तेरी छवि भोली भाली।

प्रसाद जी सौन्दर्य दर्शन एवं सौन्दर्य चिन्तन में खोए हुए दिखाई देते हैं। उन्होंने मानव सौन्दर्य के आरोपण द्वारा कई स्थलों पर प्रकृति के असुन्दर रूपों को सुन्दर बना दिया है। प्रलयकालीन विशाल समुद्र में सिकुङी पङी हुई पृथ्वी को प्रसाद जी ने सुन्दर बना दिया है-

सिन्धु सेज पर धरावधू, तनिक संकुचित बैठी सी।
प्रलय निशा की हलचल स्मृति में, मान किए-सी ऐंठी सी।

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