पथ पर बढ़ते जाते पथिक के माध्यम से आपको क्या शिक्षा मिलती है? - path par badhate jaate pathik ke maadhyam se aapako kya shiksha milatee hai?

up board class 9th hindi | हरिवंशराय ‘बच्चन’

                                  जीवन-परिचय एवं कृतियाँ

प्रश्न हरिवंशराय बच्चन’ के जीवन-परिचय और काव्य-कृतियों (रचनाओं) पर प्रकाश डालिए।

उत्तर― श्री हरिवंशराय बच्चन’ उत्तर-छायावादी युग के एक ऐसे कवि हैं जिनकी मधुशाला के मधु ने

तत्कालीन युवावर्ग को मदोन्मत कर दिया था। आपकी कविताओं में व्यक्त हुई मानवीय भावनाओं की

मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति आपको कुशल कवि बनाती है।

जीवन-परिचय―हरिवंशराय बच्चन’ का जन्म प्रयाग में सन् 1907 ई० में एक सम्पन्न कायस्थ

परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री प्रतापनारायण था। इन्होंने काशी और प्रयाग में शिक्षा प्राप्त की

तथा कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्त की। कुछ वर्षों तक ये

प्रयाग विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के अध्यापक रहे। आप 1955 ई० में दिल्ली में विदेश मन्त्रालय में हिन्दी-

विशेषज्ञ होकर आये। यहीं से इन्होंने अवकाश ग्रहण किया। सन् 1966 ई० में इन्हें राज्यसभा का सदस्य

मनोनीत किया गया। कुछ समय तक बच्चन जी आकाशवाणी के साहित्यिक कार्यक्रमों से भी जुड़े रहे तथा

कुछ वर्षों पश्चात् अपने पुत्र प्रसिद्ध अभिनेता अमिताभ बच्चन के पास मुम्बई चले आये और जीवन के

अन्तिम समय तक साहित्य की सेवा करते हुए यहीं रहे। 18 जनवरी, 2003 ई० को 96 वर्ष की आयु में

आपका यह स्थूल शरीर पंचतत्त्व में विलीन हो गया।

कृतियाँ―श्री हरिवंशराय बच्चन जी की कुछ प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं―

(1) ‘मधुशाला’, ‘मधुबाला’, ‘मधुकलश’―ये तीनों कृतियाँ एक के बाद एक 1935 ई०,

1936 ई०, 1937 ई० में प्रकाश में आयीं। हिन्दी में इन्हें हालावाद की रचनाएँ कहकर सम्बोधित किया जाता

है। बच्चन जी की प्रथम कृति सन् 1932 ई० में ‘तेरा हार’ नाम से प्रकाशित हुई थी।

(2) ‘निशा-निमन्त्रण’, ‘एकान्त संगीत’―इन दो संग्रहों में कवि के हृदय की पीड़ा साकार हो

उठी है। ये कृतियाँ इनकी सबसे उत्कृष्ट काव्य-उपलब्धि कही जा सकती हैं।

(3) ‘सतरंगिणी’, ‘मिलनयामिनी’―इनमें शृंगार रस के गीतों का संग्रह है। इनके अतिरिक्त

बच्चन जी के अनेक गीत-संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें प्रमुख हैं―’आकुल अन्तर’, ‘बंगाल का अकाल’,

‘हलाहल’, ‘सूत की माला’, ‘खादी के फूल’, ‘प्रणय-पत्रिका’, ‘त्रिभंगिमा’, ‘चार खेमे चौंसठ खूँटे’, ‘बुद्ध

का नाचघर’, ‘आरती और अंगारे’, ‘दो चट्टाने’ आदि।

साहित्य में स्थान―मानवीय भावनाओं के सहज चितेरे बच्चन जी का साहित्य में श्रेष्ठ स्थान है।

छायावाद के परवर्ती कवियों में वे प्रसिद्ध हैं। कोमल कल्पनाओं और भावनाओं का यह कवि हिन्दी काव्य-

साहित्य में अमर हो गया है।

                    पधांशों की ससन्दर्भ व्याख्या (पठनीय अंश सहित)

◆ पथ की पहचान

(1)      पूर्व चलने के बटोही,

           बाट की पहचान कर ले।

                                          पुस्तकों में है नहीं

                                      छापी गयी इसकी कहानी,

हाल इसका ज्ञात होता

है न औरों की जबानी,

                             अनगिनत राही गये इस

                              राह से, उनका पता क्या,

पर गये कुछ लोग इस पर

छोड़ पैरों की निशानी,

                           यह निशानी मूक होकर

                           भी बहुत कुछ बोलती है,

खोल इसका अर्थ, पंथी,

पंथ का अनुमान कर ले।

                              पूर्व चलने के बटोही,

                              बाट की पहचान कर ले।

[बटोही = पथिक। बाट = रास्ता। हाल = दशा, स्थिति। राही = रास्ते पर चलने वाले। मूक = शान्त,

गूंगा। पंथी = पथिक।]

सन्दर्भ―यह पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड’ में संकलित श्री हरिवंशराय

‘बच्चन’ की कविता ‘पथ की पहचान’ से उद्धृत है। यह बच्चन जी के संकलन ‘सतरंगिणी’ से

संकलित है।

[विशेष―इस शीर्षक के अन्तर्गत आने वाले समस्त पद्यांशों के लिए यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग―इस पद्यांश में कवि कहता है कि हमें कोई भी कार्य सोच-विचारकर करना चाहिए। लक्ष्य

चुन लेने के बाद उस काम की कठिनाइयों से घबराना नहीं चाहिए।

व्याख्या―यात्रा पर निकलने को तैयार पथिक के सम्बोधन के माध्यम से कवि मनुष्य को जीवन-

पथ में आगे बढ़ने से पहले कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य को समझ लेने के लिए सावधान करता हुआ कहता है कि हे

पथिक! अपनी यात्रा आरम्भ करने से पहले यदि तुम अपने सही मार्ग की पहचान कर लोगे तो गन्तव्य पर

पहुंँचने में तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी, अर्थात् लक्ष्य को पहचाने बिना जीवन जीना व्यर्थ है।

कवि आगे कहता है कि हमारे जीवन-पथ की कहानी पुस्तकों में नहीं छपी होती, वह तो स्वयं ही

बनानी पड़ती है। दूसरे लोगों के कथन के अनुसार भी हम अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित नहीं कर सकते।

इसका निर्धारण हमें स्वयं ही करना पड़ेगा। इस संसार-पथ पर अनेक लोग आये और चले गये अर्थात् पैदा

हुए और मृत्यु को प्राप्त हो गये; उन सबकी गणना नहीं की जा सकती, परन्तु कुछ ऐसे कर्मवीर भी इस

जीवन-मार्ग से गुजरे हैं, जिनके कर्मरूपी पदचिह्न आज भी आने वाले पथिकों का मार्गदर्शन करते हैं; उनसे

प्रेरणा ग्रहण करते हैं; अर्थात् इस संसार में अनेक लोग जन्मे हैं, जिनके पदचिह्न मौन भाषा में उनके महान्

कार्यों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं। उनके पदचिह्नों की मूक भाषा में जीवन की सफलता के अनेक

रहस्य छिपे हैं। हे पथिक! तू उस मूक भाषा के उन रहस्यमयी अर्थों को समझकर अपने लक्ष्यरूपी गन्तव्य

और उस तक जाने के मार्ग का पूर्व निर्धारण कर ले। उन सभी कर्मठ महापुरुषों ने काम करने से पहले खूब

सोच-विचार किया और फिर मन-प्राण से अपने कार्य में जुटकर सफलता प्राप्त की। हे पथिक! चलने से

पहले अवश्य ही अपने मार्ग को भली प्रकार से पहचान ले।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) कार्य करने से पहले सोच-विचार करने की प्रेरणा दी गयी है। (2) सच्चा

कर्मवीर बनने हेतु उत्साहित किया गया है। (3) आत्म-प्रेरणा का भाव भी मुखरित हुआ है। (4) भाषा-

सरल तथा सरस खड़ी बोली। (5) शैली―गीति। (6) रस―वीर। (7) गुण―ओज। (8) छन्द―तुकान्त-

मुक्त। (9) अलंकार―‘यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है’ में विरोधाभास तथा अनुप्रास।

(10) शब्द-शक्ति―लक्षणा और व्यंजना। (11) भावसाम्य―महाभारत में ‘महाजनो येन गतः स पन्थाः’

कहकर जीवन का उचित मार्ग चुनने की सलाह दी है।

(2)                यह बुरा है या कि अच्छा,

                     व्यर्थ दिन इस पर बिताना

                     अब असंभव, छोड़ यह पथ

                     दूसरे पर पग बढ़ाना,

तू इसे अच्छा समझ,

यात्रा सरल इससे बनेगी,

                              सोच मत केवल तुझे ही

                              यह पड़ा मन में बिठाना,

                              हर सफल पंथी, यही

                              विश्वास ले इस पर बढ़ा है,

                              तू इसी पर आज अपने

                              चित्त का अवधान कर ले।

पूर्व चलने के बटोही,

बाट की पहचान कर ले।

[बिताना = व्यतीत करना। पग = कदम । चित्त = मन, अन्तःकरण। अवधान = केन्द्रीकरण, एकाग्रता,

निश्चय।]]

प्रसंग―यहाँ कवि कहता है कि विवेकपूर्वक किसी मार्ग को चुन लेने के बाद उसमें आने वाली

कठिनाइयों या अन्य कारणों से उसे छोड़ देना ठीक नहीं है। उस पर ही आगे बढ़ते रहना चाहिए।

व्याख्या―कवि कहता है कि हे पथिक! विवेकपूर्वक मार्ग का चुनाव करने के पश्चात् उसकी

अच्छाई-बुराई को लेकर शंकित होना व्यर्थ है; क्योंकि उस पथ को छोड़कर दूसरे पर चलना भी अब सम्भव

नहीं हो सकेगा। कठिनाइयाँ तो हर मार्ग में होती हैं। तुम्हें अपने मार्ग को ही सर्वश्रेष्ठ समझकर दृढ़तापूर्वक

आगे बढ़ना चाहिए, तभी तुम्हारी लक्ष्य तक पहुँचने की यात्रा आसान होगी। इसलिए अपने मार्ग को श्रेष्ठ

समझना चाहिए। इससे मार्ग पर चलते समय आनन्द की अनुभूति होती रहेगी तथा जीवन-पथ की यात्रा भी

बहुत सुगम हो जाएगी। ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि कठिनाइयाँ केवल मुझे ही उठानी पड़ रही हैं।

वास्तविकता यह है कि जीवन-पथ में, जिसने भी अपने मार्ग को श्रेष्ठ समझा है, उसे ही सफलता की प्राप्ति

हुई है। तुमसे पहले इस मार्ग से जितने भी सफल पथिक गुजरे हैं, उन सभी ने दृढ़तापूर्वक एक मार्ग का चयन

किया है और शंकित हुए बिना आगे बढ़ते रहे। यही सफलता का सिद्धान्त है। इसलिए तुम भी अपने मन को

उचित और निश्चित मार्ग पर एकाग्र कर लो। सोच-विचार करना है तो कार्य का चुनाव करने से पहले करो।

हे पथिक! जीवन-पथ पर चलने से पूर्व उचित मार्ग की पहचान कर लो तभी जीवन में सफलता प्राप्त की जा

सकती है।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) कवि व्यक्ति को चुने हुए मार्ग पर दृढ़ निश्चय से चलने की प्रेरणा देता है।

(2) भाषा―सरल सुबोध खड़ी बोली। (३) शैली―प्रवाहपूर्ण गीति। (4) रस―वीर। (5) गुण―ओज।

(6) छन्द―तुकान्त-मुक्त। (7) शब्द-शक्ति―व्यंजना। (8) अलंकार―सर्वत्र अनुप्रास (9) भाव-

साम्य―भले-बुरे की बात सोचना छोड़कर कर्त्तव्य-पथ पर बढ़ने की प्रेरणा कवि भगवतीचरण वर्मा

कुछ इस प्रकार देते हैं―

                      हम भला-बुरा सब भूल चुके, नतमस्तक हो मुख मोड़ चले,

                      अभिशाप उठाकर होठों पर, वरदान दृगों से छोड़ चले।

(3)                            है अनिश्चित किस जगह पर सरित, गिरि, गह्वर मिलेंगे

                                 है अनिश्चित, किस जगह पर बाग, बन सुन्दर मिलेंगे।

किस जगह यात्रा खतम हो

जाएगी, यह भी अनिश्चित,

                                 है अनिश्चित, कब सुमन, कब कंटकों के शर मिलेंगे,

                                 कौन सहसा छूट जाएँगे मिलेंगे कौन सहसा,

                                 आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले।

पूर्व चलने के बटोही,

बाट की पहचान कर ले।

सरित = नदी। गिरि = पर्वत। गह्वर = गुफा। सुमन = फूल। शर = बाण। सहसा = अचानक। आन =

प्रतिज्ञा।]

प्रसंग―यहाँ पर कवि जीवन-पथ पर आने वाले सुख-दुःखों के प्रति सचेत करता हुआ मनुष्य को

निरन्तर आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा दे रहा है।

व्याख्या―कवि कहता है कि हे जीवन-पथ के पथिक ! यह पहले से ही नहीं निश्चित किया जा

सकता है कि तेरे मार्ग में किस स्थान पर नदी, पर्वत और गुफाएँ मिलेंगी; अर्थात् तेरे मार्ग में कब कठिनाइयाँ

और बाधाएँ आएँगी, यह नहीं कहा जा सकता, यह सब कुछ अनिश्चित है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि

तेरे जीवन के मार्ग में किस स्थान पर सुन्दर वन और उपवन मिलेंगे, अर्थात् तुम्हारे जीवन में कब सुख-

सुविधाएँ प्राप्त होंगी? यह भी निश्चित नहीं है कि कब अचानक तुम्हारी जीवन-यात्रा समाप्त हो जाएगी

अर्थात् कब तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी?

कवि आगे कहता है कि यह बात भी अनिश्चित है कि मार्ग में कब तुझे फूल मिलेंगे और कब काँटे

तुझे घायल करेंगे; अर्थात् तुम्हारे जीवन में कब सुख प्राप्त होगा और कब दुःख-यह निश्चित रूप से नहीं

कहा जा सकता। यह भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि तेरे जीवन-मार्ग में कौन अपरिचित

अचानक आकर तुझसे मिलेंगे और कौन प्रियजन अचानक तुझे छोड़ जाएंगे। हे पथिक! तू अपने मन में प्रण

कर ले कि जीवन की कठिनाइयों के सम्मुख नतमस्तक न होकर बड़ी-से-बड़ी विपत्ति के आ पड़ने पर भी

तुझे आगे ही बढ़ते जाना है।

हे जीवन-पथ के यात्री! तू पथ पर चलने से पूर्व जीवन में आने वाले सुख-दुःख को भली-भाँति

जानकर अपने मार्ग की पहचान कर ले।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) कवि ने जीवन में आने वाली कठिनाइयों के प्रति मानव को सचेत किया है

तथा यह भी निर्देश दिया है कि सुख-दुःख की चिन्ता किये बिना जीवन में निरन्तर आगे बढ़ते रहना

चाहिए। (2) भाषा―सरल खड़ी बोली। (3) शैली―प्रतीकात्मक और वर्णनात्मक। (4) रस―वीर।

(5) गुण―ओज। (6) छन्द―तुकान्त-मुक्त। (7) शब्द-शक्ति―व्यंजना। (8) अलंकार―पद्य में सर्वत्र

रूपक एवं अनुप्रास की छटा दर्शनीय है। (9) भावसाम्य―कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ भी दुःख से

विचलित न होकर निरन्तर कर्तव्य-पथ पर बढ़ते रहने को ही लक्ष्य प्राप्ति का मूलमन्त्र बताते हुए सतत

कर्मशील रहने की प्रेरणा देते हैं―

                              शुरू हुई आराध्य-भूमि यह, क्लान्ति नहीं रे राही;

                              और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग-से?

                               बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है।

                                थककर बैठ गये क्यों भाई ! मंजिल दूर नहीं है।

4.                                              कौन  कहता  है  कि स्वप्नों

                                                  को   न  आने  दे  हृदय  में,

                                                  देखते   सब      हैं       इन्हें

                                                 अपनी उमर, अपने समय में,

                                                                  और  तू  कर  यत्न  भी तो

                                                                   मिल नहीं सकती सफलता,

                                          ये उदय होते, लिये कुछ

                                          ध्येय नयनों के निलय में,

                                          किन्तु जग के पंथ पर यदि

                                          स्वप्न दो तो सत्य दो सौ,

                                          स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो,

                                          सत्य का भी ज्ञान कर ले।

                                                                       पूर्व चलने के बटोही,

                                                                       बाट की पहचान कर ले।

[स्वप्नों = मधुर कल्पनाओं। यत्न = प्रयास, कोशिश। ध्येय = उद्देश्य, लक्ष्य। निलय = नीड़

(घोसला), घर। मुग्ध होना = रीझना, प्रसन्न होना। ]

(5) प्रसंग―इस पद्य में कवि कहता है कि मानव द्वारा कल्पना करना स्वाभाविक है, किन्तु इसके साथ

सत्य का भी आभास होना आवश्यक है।

व्याख्या―हे पथिक! स्वप्न देखना अर्थात् कल्पना करना मानव का स्वभाव है। तुमसे यह किसने

कहा है कि जीवन में सुनहरे स्वप्न देखना मना है। सभी अपनी-अपनी इच्छाओं एवं आयु के अनुरूप कल्पना

करते हैं। इसलिए मनुष्य भी कल्पना अवश्य करेगा, प्रयत्न करने पर भी इन्हें कल्पना करने से रोका नहीं

जा सकता। जिस प्रकार नील-गगन में तारे उदित होते हैं, ऐसे ही मन में सुन्दर-सुन्दर कल्पनाएँ भी

झिलमिलाती हैं। ये स्वप्न अर्थात् कल्पनाएँ तभी सार्थक हैं, जब इनका कोई उद्देश्य हो, परन्तु इस संसार में

कुछ ही कल्पनाएँ पूरी होती हैं, जब कि यथार्थ अनगिनत हैं। इसलिए केवल कल्पना-लोक में ही मत अटक

जाओ, सत्य को भी अवश्य देखो। तात्पर्य यह है कि सुख के स्वप्नों में ही नहीं डूब जाना चाहिए, वरन्

जीवन की वास्तविकताओं की भी अनदेखी नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने पर ही उन्नति का पथ प्रशस्त हो

सकेगा। जो कुछ सोच-विचार करना है, अपना पथ निर्धारित करने से पहले ही कर लेना चाहिए।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) जीवन में कल्पना के साथ-साथ सत्य को भी देखना-समझना चाहिए।

(2) भाषा―सरल खड़ी बोली। (3) शैली―गीति। (4) रस―शान्त। (5) गुण―प्रसाद। (6) छन्द―

तुकान्त-मुक्ता (7) शब्द-शक्ति―व्यंजना। (8) अलंकार―‘ध्येय नयनों के निलय में’, ‘किन्तु

जग………. दो सौ’ में रूपक और अनुप्रास।

5.                      स्वप्न आता स्वर्ग का, दृग-

                         कोरकों में दीप्ति आती,

                         पंख लग जाते पगों को,

                         ललकती उन्मुक्त छाती,

रास्ते का एक काटा

पाँव का दिल चीर देता,

                         रक्त की दो बूंद गिरती,

                         एक दुनिया डूब जाती,

                         आँख में हो स्वर्ग लेकिन

                         पाँव पृथ्वी पर टिके हों,

                         कंटकों की इस अनोखी

                         सीख का सम्मान कर ले।

पूर्व चलने के बटोही,

बाट की पहचान कर ले।

[दृग = नेत्र। कोरक = कोने, कली। दीप्ति = चमक। पग = कदम। ललकती = उत्साहित होती है।

उन्मुक्त = खुली हुई। कंटक = काँटे।]

प्रसंग―इन पंक्तियों में कवि ने पथिक को आदर्श और यथार्थ का उचित समन्वय करके ही

जीवन-पथ पर बढ़ने के लिए सचेत किया है।

व्याख्या―हे पथिक! कल्पना का आनन्द स्वर्ग जैसा प्रतीत होता है। जब मनुष्य स्वर्ग के सुखों की

कल्पना करता है तो उसकी आँखों में प्रसन्नता का प्रकाश भर जाता है। उसके चरण उस रंगीन कल्पना तक

पहुँचने के लिए बड़ी तीव्रता से बढ़ने लगते हैं। उसका हृदय उस सुन्दर कल्पना को गले लगाने के लिए

उत्कण्ठित रहता है, परन्तु कर्मपथ पर कोई एक ही कठिनाई जब किसी काँटे की तरह उसके पैर में चभती है।

तो उससे जो रक्त निकलता है, उसी में कल्पना का सारा संसार डूब जाता है; अर्थात् व्यक्ति कठोर

कठिनाइयों से विचलित होकर उन सुखों की प्राप्ति की कल्पना करना ही छोड़ देता है। इस प्रकार यथार्थ

जीवन की कठोरता मनुष्य की कोमल कल्पना को साकार नहीं होने देती है। कवि बच्चन यहाँ परामर्श देते हैं

कि जीवन में कोमल कल्पना और कठोर यथार्थ के बीच समन्वय होना आवश्यक है. तभी जीवन का लक्ष्य

प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए आँखों में स्वर्ग के सुख की कल्पना तो अवश्य करो, परन्तु अपने पैर

यथार्थ के धरातल पर ही जमाये रखो; अर्थात् कल्पना और यथार्थ में सामंजस्य बनाये रखो। पथ के कांँटे हमें

यही सन्देश देते हैं कि जीवन कष्टों से भरा पड़ा है और हमें उन्हीं के मध्य अपने सपनों की दुनिया बसानी है।

उन कष्टों से जूझने के लिए तैयार रहो और पर्याप्त सोच-विचार के बाद ही कोई कार्य करो एवं एक बार

काम शुरू कर देने पर विघ्न-बाधाओं से मत घबराओ।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) जीवन में सफलता के लिए आदर्श और यथार्थ का उचित समन्वय

आवश्यक है। कवि ने इस भाव की बहुत ही उत्कृष्ट अभिव्यक्ति की है। (2) पथ की बाधाएँ व्यक्ति को बहुत

कुछ सिखाती हैं। (3) भाषा―सरल सुबोध खड़ी बोली, मुहावरों का सुन्दर प्रयोग। (4) शैली―

गीति। (5) रस―शान्ता (6) गुण―प्रसादा (7) छन्द―तुकान्त-मुक्त। (8) शब्द-शक्ति―व्यंजना।

(9) अलंकार―सम्पूर्ण पद्य में अनुप्रास और रूपक की छटा विराजती है। ‘पंख लग जाते पगों को’ में

अतिशयोक्ति भी मन को हरती है। (10) भावसाम्य―ऐसे ही भाव कवि ‘बच्चन’ ने अन्यत्र भी व्यक्त

किये हैं―

आँख से मस्ती झलकती, बात से मस्ती टपकती,

थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खायी,

वह गयी तो ले गयी उल्लास के आधार, माना,

पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है ?

                       काव्य-सौन्दर्य एवं व्याकरण-बोध सम्बन्धी प्रश्न

प्रश्न 1 निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकारों के नाम लिखिए तथा स्पष्टीकरण भी दीजिए―

(क) पंख लग जाते पगों को                 (ख) यह निशानी मूक होकर

      ललकती उन्मुक्त छाती।                       भी बहुत कुछ बोलती है।

उत्तर― (क) अलंकार―अतिशयोक्ति, अनुप्रास।

                कदमों को पंख लग जाने के कारण अतिशयोक्ति है।

(ख) अलंकार―विरोधाभास, अनुप्रास।

       मूक होकर भी बोलने का गुण होने के कारण विरोधाभास अलंकार है।

प्रश्न 2 निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त रसों को पहचानकर उनके स्थायी भाव लिखिए―

(क) आ पड़े कुछ भी, रुकेगा                  (ख) किन्तु जग के पंथ पर यदि

      तून,ऐसीआन करले।                               स्वप्न दो तो सत्य दो सौ,

      पूर्व चलने के बटोही,                               स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो,

       बाट की पहचान करले।                          सत्य का भी ज्ञान करले।

उत्तर― (क) रस―वीर, स्थायी भाव―उत्साह।

          (ख) रस―शान्त, स्थायी भाव―निर्वेद।

प्रश्न 3 निम्नलिखित पदों से उपसर्ग और प्रत्ययों को पृथक्-पृथक् करके मूल-शब्द के साथ

लिखिए―

पंथी, अनुमान, सफलता, असम्भव, अनिश्चित, अवधान।

उत्तर―    शब्द         मूलशब्द         उपसर्ग          प्रत्यय

                पंथी         पंथ                    ―              ई

            अनुमान      मान                 अनु               ―

           सफलता      सफल                ―               ता

           असम्भव     सम्भव                अ                ―

           अनिश्चित     निश्चित               अ                 ―

           अवधान        धान                अव               ―

पथिक से कविता से हमें क्या प्रेरणा मिलती है?

Answer: प्रस्तुत कविता में कवि बच्चन ने पथिक के माध्यम से यह प्रेरणा दी है कि मनुष्य को अपने पथ की पहचान स्वयं करनी चाहिए, क्योंकि जीवन के मार्ग में अपने ही अनुभव सबसे श्रेष्ठ होते हैं। इस मार्ग का निर्धारण किसी दूसरे उपदेश या पुस्तकों को पढ़कर नहीं किया जा सकता है।

कविता से आपको क्या शिक्षा मिलती है?

क्योंकि शिक्षकों का यही मानना होता है कि भाषा तो बच्चे तभी सीखेंगे जब उन्हें मात्राओं और अक्षरों का ज्ञान होगा और माध्यमिक कक्षाओं में ज़ोर होता है कविता की व्याख्या पर। देवयानी ने अपनी बात को ठोस रूप से रखने के लिए कविताओं की ही मदद ली है जिससे लेख में कही गई बातों के निहितार्थ समझने में मदद मिलती है। सं.

पथिक को मार्ग में क्या मिलेगा?

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले। स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो, सत्य का भी ज्ञान कर ले।

पथिक के तेज चलने का कारण क्या था?

प्रश्न : (ग) पथिक के तेज चलने का क्या कारण हैं? उत्तर : (ग) पथिक तेज इसलिए चलता है, क्योंकि शाम होने वाली है। उसे अपना लक्ष्य समीप नजर आता है। रात न हो जाए, इसलिए वह जल्दी चलकर अपनी मंजिल तक पहुँचना चाहता है।