संक्षेपण एक मानसिक अभ्यास है जिससे विद्यार्थी में बढ़ती है - sankshepan ek maanasik abhyaas hai jisase vidyaarthee mein badhatee hai

उत्तर : निबंध-लेखन में किसी एक विषय पर अपने विचारों को क्रमिक और व्यवस्थित रूप से लगभग 300 शब्दों में व्यक्त करना होता है । स्पष्टता और सजीवता निबंध के मुख्य गुण हैं । निबंध शब्द का अर्थ ही है भली-भांति बांधी हुई गद्य रचना। एक ही विषय से संबंधित बातें क्रम से ली जाती हैं। भावों की अस्तव्यस्तता निबंध की कमजोरी है । अच्छा निबंध लिखना एक कला है और अभ्यास के द्वारा ही इसे सीखा जा सकता है।

निबंध की विषय-वस्तु को लिखते समय उसे तीन मुख्य सोपानों में बांधा जाता है ।

1. प्रस्तावना- इसे आरंभ या भूमिका भी कह सकते हैं । इसमें शीर्षक का स्पष्टीकरण और विषय का सामान्य परिचय हो सकता है । आरंभ कैसे किया जाए, इसका एक उत्तर नहीं हो सकता। यह कुछ विषय पर निर्भर करता है. कछ लेखक की शैली पर। किसी सूक्ति से, किसी घटना या लघकथा से विषय का महत्त्व बताकर या शीर्षक का अर्थ समझाकर लोग निबंध प्रारंभ करते हैं। कभी-कभी सीधे विषय पर ही आकर प्रस्तावना की जाती है ।

2. वर्णन- यह निबंध का मध्य भाग होता है जिसमें विचारों का प्रसार और विषय को समीक्षा होती है । इसमें विषय से संबंधित बातें अलग-अलग अनुच्छेदों में बंधी होनी चाहिए ।

विषयाँतर या आवृत्ति से बचना चाहिए। विभिन्न अनुच्छेदों में भी परस्पर गुंथाव हो और सारी बात एक सहज प्रवाह जैसी लगे।

3. उपसंहार- उपसंहार या अंत भी निबंध का महत्त्वपूर्ण सोपान है। निबंध के अंत तक आते-आते लेखक के विचार ऐसे बिन्दु तक सिमट आने चाहिए जहाँ पाठक को विषय की मुख्य स्थापनाओं से सहमत कराया जा सके। आरंभ की ही भांति अंत करने की भी विभिन्न रीतियाँ हो सकती हैं। विषय और लेखक की रुचि के अनुसार प्रायः सूक्ति, उद्धरण, कहावत, सारांश या भविष्य की संभावनाएँ देकर निबंध को समाप्त किया जाता है । निबंध का उपसंहार ऐसा हो कि पाठक पर उसका स्थाई प्रभाव पड़े।

सावधानियॉ- निबंध-लेखन में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-

1. दिये हुए विषयों में से एक विषय चुनिए जिस पर आप अन्य विषयों की अपेक्षा अच्छा अधिकार रखते हों। विषय चुनकर बार-बार मत बदलिए । इससे समय नष्ट होता है। और परीक्षक पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता।

2. विषय चुनने के बाद उस पर मनन कीजिए और उत्तर-पुस्तिका पर उसकी कच्ची रूपरेखा बना लीजिए । यह निबंधरूपी भवन का नक्शा होगा जिस पर निबंध की इमारत खड़ी होगी।

3. आरंभ आकर्षक होना चाहिए।

4. मध्य भाग में कसाव होना चाहिए और पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए।

5. भाषा शुद्ध, सरल और सुबोध होनी चाहिए। भारी-भरकम शब्दों, लंबे-चौड़े वाक्यों से बचना चाहिए । मुहावरे और लोकोक्तियों में भाषा को सजीव बनाने का गुण है । अतः उनका प्रयोग पर्याप्त करना चाहिए ।

6. बीच में यदि कोई उद्धरण, सूक्ति आदि विषय के प्रतिपादन में सहायक हो तो अवश्य दें पर इनका अधिक प्रयोग भी अच्छा नहीं लगता।

7. निबंध सुलेख के लिए लिखा जाए, तभी आपके विचार पाठक पर प्रभाव डालेंगे।

8. याद रखें कि निबंध के सोपान या रूपरेखा के शीर्षक आपके संदर्भ के लिए हैं। निबंध में इनका प्रयोग शीर्षक के रूप में न करें। यह अच्छा नहीं समझा जाता। कुछ प्रमुख निबंध इस प्रकार हैं-

1. पर्यावरण की समस्या

प्रस्तावना - पर्यावरण प्रदूषण एक गंभीर समस्या का रूप ले चुका है और इसके साथ मानव समाज के जीवन-मरण का महत्त्वपूर्ण प्रश्न जुड़ गया है । हमारा दायित्व है कि समय रहते ही इस समस्या के समाधन के लिए आवश्यक कदम उठायें। यदि इसके लिए आवश्यक उपाय नहीं किये गये तो प्रदूषण युक्त इस वातावरण में मानव जाति का अस्तित्व संकट में पड़ सकता है। आज मनुष्य अपनी सुख-सुविधा के लिए प्राकृतिक सम्पदाओं का अनुचित रूप से दोहन कर रहा है, जिसके परिणामस्वरूप ही प्रदूषण की समस्या सामने आई है।

प्रदूषण क्या है - सबसे पहले हमारे सामने यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रदूषण है क्या चीज? जल, वायु व भूमि के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में होने वाला कोई भी अवांछनीय परिवर्तन प्रदूषण हैं। एक ओर दुनिया तेजी से विकास कर रही है, जिन्दगी को सजाने-सँवारने के नये तरीके ढूँढ़ रही है, दूसरी ओर वह तेजी से प्रदूषित होती जा रही है। इस प्रदूषण के कारण जीना दूभर होता जा रहा है। आज आसमान जहरीले धुएं से भरता जा रहा है । नदियों का पानी गन्दा होता जा रहा है । सारी जलवायु, सारा वातावरण दूषित हो गया है। इसी वातावरण दूषण का वैज्ञानिक नाम है - प्रदूषण या 'पॉल्यूशन' ।

प्रदूषण के कारण - सबसे पहले हम इस पर विचार करें कि हमारा पर्यावरण किन कारणों से प्रदूषित हो रहा है । आज सारे विश्व के समक्ष जनसंख्या की वृद्धि सबसे बड़ी समस्या है और पर्यावरण प्रदूषण में जनसंख्या की वृद्धि ने भी अहम भूमिका का निर्वाह किया है । औद्योगीकरण के कारण आए दिन नये-नये कारखानों की स्थापना की जा रही हैं, इनसे निकलन वाले धुओं के कारण वायुमंडल प्रदूषित हो रहा है। साथ ही मोटरों रेलगाडियों आदि से निकलने वाले धुओं से भी पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। इनके कारण साँस लेने के लिए शुद्ध वायु का मिल पाना मुश्किल है।

वायु के साथ-साथ जल भी प्रदूषित हो गया है। नदियों का पानी दूषित करने में बड़े कारखानों का सबसे बड़ा हाथ है । कारखाने का सारा कूड़ा-कचरा नदी के हवाले कर दिया जाता है, बिना यह सोचे कि इनमें से बहुत कुछ पानी में इस प्रकार घुल जाएगा कि मछलियाँ मर जायेंगी और मनुष्य पी नहीं सकेंगे। राइन नदी के पानी का जब विशेषज्ञों ने समुद्र में गिरने से पूर्व परीक्षण किया तो एक घन सेन्टीमीटर में बीस लाख जीवन विरोधी तत्व मिले । कबीर दास के युग में भले ही बँधा पानी ही गन्दा होता हो, आज तो बहता पानी भी निर्मल नहीं रह गया है, बल्कि उसके दूषित होने की सम्भावना और बढ़ गई है।

पर्यावरण प्रदूषण रोकने के उपाय - सारा परिवेश विषाक्त हो गया है, सारी मानवता संकट में है। अनके प्रकार की नई- नई बीमारियों का जन्म हो रहा है। इसे रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाना अनिवार्य है । प्रदूषण की समस्या वैसे तो विश्व व्यापी समस्या है लेकिन भारतीय प्रदूषण की कुछ अपनी विशिष्ट समस्यायें भी हैं। यहाँ प्रदूषण के एक बहुत बड़े अंश का दायित्व मशीनों और वैज्ञानिक प्रयोगों पर नहीं हमारी निर्धनता और उससे उत्पन्न अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों और आदतों पर है । एक ही घर में गाय, भैंस, मनुष्य जहाँ साथ रहते हों, एक ही जलाशय में जहाँ मवेशियों को नहलाया जाता हो और वहीं से पीने का पानी लाया जाता हो, गन्दी नाली के ऊपर मछली बिकती हो, खोमचे वाले जहाँ मक्खियों को मित्र और अतिथि मानते हों वहाँ की प्रदूषण समस्या को नियंत्रित कर पाना सम्भव नहीं है। लेकिन कुछ प्रयास किये जा सकते हैं। वायु प्रदूषण को रोकने के लिए चिमनियों में फिल्टर लगाये जायें, जो प्रदूषणकारी तत्वों को वायुमंडल में प्रविष्ट न होने दें। जल-प्रदूषण को रोकने के लिए आवश्यक है कि जल स्त्रोतों में गन्दे पानी को न डाला जाये तथा उद्योग-धन्धों से निर्गत पानी को भूमिगत किया जाये।

पर्यावरण संरक्षण के लिए वनों की रक्षा पर विशेष बल दिया जाना चाहिए । वक्ष और वनस्पतियाँ वायुमंडल से कार्बन-डाआक्साइड ग्रहण करते हैं तथा आक्सीजन छोड़ते हैं। अगर वृक्ष तथा वनस्पतियाँ न हों तो पेट्रोल तथा डीजल से चलने वाले वाहनों, कारखानों और प्राणी जगत द्वारा छोड़ी हुई कार्बन डाइऑक्साइड से सम्पूर्ण वातावरण भर जाएगा। वक्ष पर्यावरण सन्तुलन के सर्वोत्तम साधन हैं अतः हम अधिक से अधिक वृक्ष लगाकर पर्यावरण प्रदषण की हानियों से बच सकते हैं।

उपसंहार - प्रदूषण के कारणों और स्वरूप पर चर्चा करें तो असंख्य कारण दिखते हैं। सब कुछ दृषित है – हवा, पानी, पेड़, पौधे । प्रसिद्ध वैज्ञानिक जार्ज वुडवल का कथन है कि परिवेश के चक्रों के प्रदूषण के बारे में हम जितना जानते हैं उससे यह ज्ञात होता है कि इस विशाल पृथ्वी पर अब कहीं स्वच्छता नहीं।

पर्यावरण की सुरक्षा सामाजिक एवं सामूहिक उत्तरदायित्व है। प्रत्येक नागरिक को इस दिशा में सहयोग देना आवश्यक है।

2. विज्ञान के चमत्कार (या) दैनिक जीवन में विज्ञान

मानव ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये नये-नये आविष्कार किये हैं। इन आविष्कारों में विज्ञान का विशेष योगदान है।

विज्ञान का अर्थ है - विशेष ज्ञान । इसके माध्यम से हमारी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति बहुत ही तेजी से और कम समय में हो रही है। विज्ञान ने मानव जीवन में आनंद को भी खूब बढ़ाया है। अंधे को आँख, बहरे को कान, पंगु को पैर और मनुष्य को पक्षियों के समान उड़ने की सुविधा प्रदान की है। वैज्ञानिक उपकरणों के सहारे आज हम घर बैठे संसार की सैर कर लेते हैं। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विज्ञान ने अभूतपूर्व योगदान दिया है।

विज्ञान के लाभ -

(1) मनोरंजन के क्षेत्र में-मनोरंजन की आधुनिक सुविधायें विज्ञान की ही देन हैं। सिनेमा, टेलीविजन, टेपरिकार्डर, रेडियो आदि के माध्यम से हम प्रतिदिन मनोरंजन के साथ ज्ञान भी प्राप्त करते हैं। हमारी शिक्षा, संस्कृति, आचार विचार पर भी इन साधनों का गहरा प्रभाव पड़ रहा है।

(2) चिकित्सा के क्षेत्र में - स्वास्थ्य और चिकित्सा के क्षेत्र में भी विज्ञान ने मानव को बड़ा लाभ पहुंचाया है। खतरनाक रोगों पर काबू पा लिया गया है। कई प्रकार के टीकों का आविष्कार हो चुका है। एक्स-रे द्वारा तो शरीर का भीतरी भाग तक अच्छी तरह देखा जा सकता है । शल्य चिकित्सा का भी अच्छा विकास हुआ है।

(3) कृषि के क्षेत्र में - कृषि और उद्योग - धन्धों के विकास में भी विज्ञान ने हमारी बड़ी मदद की है। उसने नलकूप, ट्रेक्टर, वैज्ञानिक खाद आदि ऐसे अनेक उपकरण निर्मित किये हैं जिनके कारण उत्पादन अनेक गुना बढ़ गया है। ट्रेक्टर, सिंचाई के पम्प, बीज बोने से लेकर काटने और साफ करने तक के यन्त्र, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक औषधियाँ आदि विज्ञान के कारण सम्भव हो चुकी हैं।

(4) आवागमन के क्षेत्र में - आज संसार की दूरी कम हो गई है। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना साकार हुई है। आवागमन के द्रुतगामी साधनों के कारण आज मनुष्य दिल्ली में भोजन करता है, बम्बई जाकर पानी पीता है और कलकत्ता जाकर शयन करता है । इंग्लैंड, अमेरिका, रूस देशों की यात्रा अब स्वप्न नहीं रह गई । यात्रा द्रुत, सुगम,सुखद और सुरक्षित हो गई है।

(5) अन्यक्षेत्रों में- विज्ञान ने मानव के हर क्षेत्र को प्रभावित किया है। गैस का चूल्हा, विद्युत चूल्हा, रेफ्रीजरेटर, बिजली का पंखा आदि कई वस्तुएँ हमारे दैनिक जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। नई-नई मशीनों का चलन हो गया है।

(6) अन्तरिक्ष में विज्ञान - वैज्ञानिकों ने आर्यभट्ट, भास्कर, रोहिणी व इनसेट क्रम के उपग्रह अन्तरिक्ष में स्थापित कर अपनी श्रेष्ठता प्रतिपादित कर दी है । मानव चन्द्र यात्रा कर आया है। अब मंगल और दूरस्थ ग्रहों की बारी है।

अभिशाप - विज्ञान ने मनुष्य को अनेक प्रकार से लाभान्वित किया है, वहीं कई प्रकार से अहित भी किया है। अनेक लाभकारी अविष्कारों के साथ उसने भयंकर से भयंकर शस्त्रों का निर्माण किया है। ये अस्त्र-शस्त्र इतने घातक होते हैं कि देखते ही देखते लाखों व्यक्तियों को मौत के घाट उतार सकते हैं । हिरोशिमा और नागासाकी में अणुबम का दुष्परिणाम हम देख ही चुके हैं। अब तो अणु बम से भी अधिक भयंकर, अधिक विनाशकारी शस्त्रास्त्र बन चुके हैं, . जिसका कि अभी हाल ही में हुए युद्ध में इराक तथा बहुराष्ट्रीय सेनाओं ने खुलकर प्रयोग किया था। इस प्रकार इन अस्त्रों के कारण मानवता के लिए जबरदस्त खतरा पैदा हो गया है ।

3. एक आकर्षक मैच (या) मैच का आँखों देखा वर्णन

प्रस्तावना - भारत में अनेक खेल खेले जाते हैं। हमारे देश के लोकप्रिय खेल हैं कबड्डी, फुटबाल, वालीबाल, हाकी इत्यादि । परन्तु पिछले वर्षों में जो ख्याति और लोकप्रियता क्रिकेट को मिली है, वह अन्य किसी खेल को नहीं। विशेषकर उन दिनों में जब भारत के खिलाड़ी किसी अन्य देश के साथ टेस्ट श्रृंखला खेलने में व्यस्त होते हैं । रेडियों पर कामेण्टरी' और टेलीविजन पर 'मैच का सीधा प्रसारण' क्रिकेट प्रेमियों को रोमांचित कर देता है । नौसिखिए भी स्वयं को विशेषज्ञ (एक्स्पर्ट) मानने लगते है। खेल की बारीकियों को समझते समय वे अपने आपको लाला अमरनाथ और गावस्कर से कम नहीं समझते।

चिरस्मरणीय क्रिकेट मैच - यद्यपि में क्रिकेट का बहुत अच्छा खिलाड़ी तो नहीं हूँ, फिर भी मुझे इस खेल का शौक है । 5 दिसम्बर, 1994 का वह रविवार हमारे लिए एक भाग्यशाली दिन था, जब हमने क्रिकेट के क्षेत्र में शानदार विजय प्राप्त की। यह मैच हमारे विद्यालय और आदर्श स्कूल के मध्य हमारे स्कूल के क्रीड़ा स्थल में खेला गया था।

मैच का वर्णन - सुबह दस बजे दोनों टीमें क्रीडा क्षेत्र में आ डटीं। हमारे दल का कप्तान विनोद था। डी.ए.वी. स्कूल का कप्तान विजय था। पहले दोनों टीमों के खिलाडियों का परिचय हुआ फिर टास हुआ। टास विरोधी पक्ष ने जीता और उन्होंने बल्लेबाजी करने का निर्णय किया। उनकी ओर से बल्लेबाजी करने सलामी बल्लेबाज के रूप में मोहन और राजेश आए । हमारी ओर से बाल देने का काम स्वयं विनोद ने संभाला। खेल बड़े साहस और उत्साह के साथ शुरू हुआ। अभी केवल 21 रन ही बने थे कि उनकी पहली विकेट मोहन के रूप में गिर पड़ी । पहले स्लिप पर उसे सुरेन्द्र मोहन ने लपक लिया। उसके बाद उनका कप्तान विजय मैदान में उतरा । उसने आते ही खेल को चमका दिया और रन संख्या 60 तक पहुँचा दी। उसके स्कोर में दो चौके और एक छक्का शामिल था। तत्पश्चात विजय के घटने को गेंद छ गई और वह आउट हो गया। इसके बाद हमारे कप्तान विनोद ने स्पिनर महेन्द्र को गेंद थमा दी। पिच की मदद से महेन्द्र की फिरकी गेंदों ने कहर ढा दिया। अगले एक घंटे में डी.ए.वी. स्कूल ने केवल 24 रन बनाए और अपने सात विकेट खो दिए। इस समय उनका स्कोर 84 रन पर 8 विकेट हो गया । उनकी तरफ से केवल राजेश का स्कोर 35 था जो किसी सीमा तक सम्माननीय कहा जा सकता है । डी.ए.वी. स्कूल की टीम 102 रन बनाकर आउट हो गयी।

भोजन के उपरान्त - लंच के पश्चात् जब खेल पुनः शुरू हुआ तो हमारी ओर से महेन्द्र तथा रमन ने खेलना शुरू किया। किन्तु तीसरे ही ओवर में तेज गेंदबाज सतीश ने दोनों सलामी बल्लेबाजों को एक ही ओवर में आउट कर दिया ।उसके पश्चात् हमारे कप्तान विनोद तथा उप-कप्तान राजेन्द्र ने किसी तरह खेल को जमाया । दोनों बड़ी जिम्मेदारी से खेल रहे थे। हमारा कप्तान विनोद हर तरह की बाल खेलने में निपुण है किन्तु अभी टीम का स्कोर 48 था कि विनोद 27 रन बनाकर आउट हो गया। अम्पायर ने उसे पगबाधा दे दिया और विनोद बड़ी निराश स्थिति में लौट आया। विनोद के आउट होते ही उनके बायें हाथ के स्पिनर अनिल को लगातार दो सफलताएँ मिलीं और हमारी टीम का स्कोर 53 रन पर 5 विकेट हो गया। यह बहुत ही रोमांचकारी स्थिति थी। लेकिन हमारा उप-कप्तान आत्मविश्वास से खेल रहा था और नया बल्लेबाज अशोक भी उसके साथ पारी जमाने में जुटा था। धीरे-धीरे ये दोनों अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने लगे और अभी भी जीत के लिए 11 रनों की आवश्यकता थी कि उसी समय उप-कप्तान राजेन्द्र दूसरी स्लिप पर कैच आउट हो गया । राजेन्द्र के बाद राकेश मैदान में आया। अब विजय बहुत ही निकट थी। जीत के लिए केवल सात रन चाहिए थे। देखते-ही-देखते दोनों खिलाड़ी एक-एक, दो-दो रन करके अन्तर को घटाने लगे। विजय का अन्तिम ‘स्ट्रोक' अशोक ने लगाकर मैच जीत लिया। चारों ओर हर्ष व उल्लास छा गया।'

उपसंहार - यद्यपि हमारी टीम मैच जीत गई तथापि दर्शकों की दृष्टि से दोनों टीमें बराबर थीं। उन्होंने दोनों टीमों के खिलाडियों को प्रोत्साहित किया । मुख्याध्यापक महोदय ने अगले दिन का अवकाश घोषित करके इस खुशी को दुगुना कर दिया।

4. किसी महापुरुष की जीवनी (महात्मा गांधी)

भूमिका - भारत महान पुरुषों की जन्म-स्थली है। प्राचीनकाल से ही यहाँ पर महापुरुष उत्पन्न होते रहे हैं, उन्होंने मानव समाज की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया । राम, कृष्ण, गौतम आदि आदर्श पुरुषों से हमारा इतिहास भरा पड़ा है। आधुनिक भारत में भी एक महापुरुष ने जन्म लिया। सारे संसार ने उसकी महानता के सम्मुख अपना शीश झुका दिया। भारतवासियों ने उसे 'राष्टपिता' और 'बापू' कहकर पुकारा । विश्व उसे महात्मा गाँधी के नाम से जानता है ।

जन्म और माता-पिता- गांधीजी का नाम मोहनदास करमचन्द गाँधी था। उनका जन्म, 2 अक्टूबर सन 1869 को गुजरात के पोरबन्दर (जिला काठियावाड) नामक स्थान में आप उनके पिता करमचन्द गाँधी राजकोट के दीवान थे ।माता का नाम पुतलीबाई था।

शिक्षा और प्रारम्भिक जीवन - गांधीजी की प्रारम्भिक शिक्षा राजकोट में हुई थी। हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे इंग्लैण्ड बैरिस्टरी पढ़ने गये। वहाँ से सन 1891 में लौटने पर वकालत आरम्भ कर दी।

गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका में - एक मुकद्दमे के संबंध में गाँधी जी को दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा वहाँ उन्होंने भारतीयों की दुर्दशा देखी। अंग्रेजों ने अनेक अवसरों पर गाँधीजी को अपमानित भी किया । यह देखकर गाँधीजी की आत्मा छटपटा उठी और उन्होंने भारतीयों की दशा सुधारने की शपथ ली। यहीं से उनका सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन आरम्भ हो गया। उन्होंने 'सत्याग्रह आन्दोलन' छेड़ दिया और शासकों को झुकने के लिए विवश कर दिया। सत्य और अहिंसा पर आधारित इस आन्दोलन को सफलता मिली । सारा संसार विस्मित रह गया।

भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के कर्णधार- भारत लौटने पर गाँधीजी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन का नेतृत्व किया। सारा देश उनके पीछे चल पड़ा। उनके अहिंसात्मक आन्दोलन से अंग्रेजी शासन की जड़ें हिलने लगीं। गाँधीजी के नेतृत्व में देश में 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' हुआ। नमक कानून तोड़ने को उन्होंने डांडी यात्रा की और सन् 1942 में उन्होंने 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का नारा दिया। अन्त में सत्य और अहिंसा की विजय हुई और सन 1947 में भारत स्वतंत्र हो गया।

गाँधीजी के आदर्श- गाँधीजी के आदर्श महान थे। वे सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। उनका जीवन अत्यन्त सादा और पवित्र था। वे मानव-मात्र की सेवा को अपना धर्म मानते थे। दीन दु:खी ओर पीड़ित लोगों की सेवा करना तथा उनका उत्थान उनका लक्ष्य था। उन्होंने हरिजनों तथा स्त्रियों के उद्धार के लिए बहत कार्य किया। वे प्रेम, त्याग और करुणा की सजीव मूर्ति थे।

गाँधीजी की मृत्यु- गाँधीजी ने सदैव हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रयास किया। वे संकीर्ण धार्मिक भावना के विरोधी थे। उनके लिए सब धर्म समान थे। कुछ लोग उनकी इस उदार धार्मिक भावना के विरोधी थे। नाथूराम गोडसे नामक एक धर्मान्ध ने 30 जनवरी, 1948 को प्रार्थना सभा में गांधीजी पर तीन गोलियां चलायीं। हाथ जोड़कर 'हे राम' करता हआ वह महापरुष संसार से विदा हो गया। उस दिन मानवता करुण क्रन्दन कर उठी । बापू की समाधि दिल्ली में राजघाट पर बनी है।

उपसहार- आज संसार में द्वेष और हिंसा का वातावरण व्याप्त है। भयंकर और प्राणघातक अस्त्र-शस्त्र के निर्माण के लिए राष्ट्रों में होड़ लगी हुई है। यद के काले बादल आकाश में छाये हए हैं. ऐसे में गांधीजी के आदर्श ही भटकते हुए मानव को सही राह दिखा सकते हैं।

5. दीपावली

प्रस्तावना - भारत त्यौहारों का देश है। यहाँ चौथे-आठवें रोज कोई न कोई त्यौहार आता रहता है। चार त्योहार प्रमुख है- रक्षा-बन्धन, होली, दशहरा और दीपावली दीपाली एक ऐसा त्योहार है, जिसे अधिकतर लोग बड़े उत्साह और बड़ी धूमधाम के साथ प्रतिवर्ष मनाते है।

त्यौहार की पृष्ठभूमि- दीपावली के त्यौहार के पीछे अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। यह विश्वास किया जाता है कि समुद्र मंथन के पश्चात् इसी दिन लक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ था। दशहरे के दिन भगवान श्रीराम ने रावण का वध किया था। रावध वध के उपरांत जिस दिन राम अयोध्या लौटे, उस दिन अयोध्यावासियों ने उनके आगमन की खुशी में घर-घर दीप जलाए । उसी दिन की याद में कार्तिक बदी अमावस्या को प्रतिवर्ष दीपोत्सव मनाया जाता है। यही पर्व दीपावली के नाम से प्रसिद्ध है।

पाँच पर्वो का एक महापर्व- यह महान पर्व धनतेरस से प्रारम्भ होकर भाईदज तक मनाया जाता है। धनतेरस के दिन व्यापारी नये सौदे करते हैं। नये कामकाज के लिए यह दिन शुभ माना जाता है.। भगवान धन्वन्तरि का जन्म इसी दिन हुआ था। चतुर्दशी को नरकासुर का वध हुआ था। इस दिन चंद्रोदय के समय स्नान करने का महत्त्व है । कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीपावली का प्रमुख त्यौहार मनाया जाता है । हर्षोल्लासपूर्वक महालक्ष्मी की पूजा की जाती है । दीपमालाएँ सजाई जाती हैं। विद्युत की सजावट देखते ही बनती है प्रतिप्रदा को गोवर्धन-पर्व मनाया जाता है। यह दिन भी अमावस्या जैसी चहल-पहल का होता है। इस दिन गाय, बैलों की पूजा की जाती है। भाईदूज पर बहनें अपने भाइयों को भोजन कराती हैं । इस तरह दीपावली पाँच दिन तक मनाई जाती है। दीपावली वर्षा के पश्चात आती है। काफी समय पहले से ही घरों की सफाई, लिपाई-पुताई आदि का कार्य प्रारम्भ हो जाता है। दीपावली के दिन गरीब भी नये वस्त्र धारण करते हैं। मित्र और सम्बन्धी एक दूसरे के घर जाकर स्नेह का परिचय देते हैं । बच्चों में विशेष उत्साह रहता है। वे फटाखे छोड़ने में व्यस्त रहते हैं।

कतिपय दोष- अनेक अच्छाइयों के साथ इस त्यौहार के मनाने में कुछ बुराइयाँ भी आ गई हैं। फटाखों से बालक जख्मी हो जाते हैं और कहीं-कहीं आग लग जाती है । जुआ खेला जाता है। मिठाइयाँ, सजावट, शान-शौकत में अपव्यय होता है।

उपसंहार:- लक्ष्मीजी के इस महान पर्व पर संकल्प करना चाहिए कि धन का सदुपयोग करेंगे। त्यौहार की गुरुता, भव्यता और पवित्रता को ध्यान में रखते हुए इस त्यौहार में आई बुराइयों से दूर रहने और सद्भावना की वृद्धि के लिए संकल्प आवश्यक है। आपसी वैमनस्य और द्वेष-भाव को दीपों की लौ में जलाकर नवीन जीवन का शुभारम्भ करने हेतु हर सम्भव प्रयास किये जाने चाहिए।

6. मेरी पाठशाला (अथवा) हमारा विद्यालय

मैं जिस विद्यालय में पढ़ता हूँ उसका आदर्श है- विद्या, विनय, विवेक । इस पवित्र विद्यालय का नाम है- सतता सुन्दरी कालीबाड़ी उच्चतर माध्यमिक शाला। यह शाला शिक्षा के केन्द्र स्थल रायपर नगर में है। यहाँ छात्रों के चतुर्मुखी विकास का निरन्तर प्रयास किया जाता है । इस शाला का स्वरूप, संचालन, व्यवस्था सब कुछ आदर्श है। यहाँ विद्यालय की समस्त शक्ति विद्यार्थी के चरित्र-निर्माण में लगती है। विभिन्न प्रकार के खेलों, व्यायाम, उत्तम शिक्षा, उपदेश, अभ्यास और अनुकरण द्वारा विद्यार्थियों का शारीरिक, मानसिक और नैतिक विकास किया जाता है । अध्यापकों एवं छात्रों के बीच निकट का सम्बन्ध रहता है। यहाँ विद्यार्थियों के अभिभावकों के सुझावों से पूर्ण लाभ उठाया जाता है।

इस शाला में समय-समय पर विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं, जिससे कि प्रतिभाओं को उभरने का पूरा अवसर मिले। अभिनय वाद-विवाद, लेखन, भाषण, चित्रकला, संगीत, खेल आदि सभी में यह विद्यालय सदैव से ही विशेष योग्यता प्रदर्शित करता आया है।

मेरी शाला में अनुशासनहीनता की समस्या नहीं है, क्योंकि यहाँ के विद्यार्थी अनुशासन का कठोरता से पालन करने में सदैव ही तत्पर रहते हैं । ऐसे उत्तम वातावा में पढ़कर बहुत-सी अच्छी बातें सीखी जा सकती हैं।

मेरी शाला में 20 शिक्षक हैं। वे सभी स्वभाव से नम्र एवं हंसमुख हैं तथा अपने विषय में प्रवीण हैं । अध्यापक ही छात्रों का निर्माणकर्ता है । हमारी शाला में अध्यापकों को पूर्ण सम्मान दिया जाता है । हमारी शाला में न केवल शिक्षक, वरन् हमारी शाला के अन्य कर्मचारी भी गुणी हैं और एक-दूसरे को सहयोग देने को सदा तत्पर रहते हैं। हमारे प्राचार्य महोदय भी नम्र, शालीन एवं विषय के प्रकाण्ड विद्वान हैं। शरारती बालक को अनुशासित बना देना उनके बायें हाथ का खेल है।

इस प्रकार में कह सकता हूँ कि माँ सरस्वती का मन्दिर, मेरी पाठशाला एक आदर्श विद्यालय है । यह मुझे अत्यन्त प्रिय है । इस शाला में अध्ययन करते हुए मैं गौरव का अनुभव करता हूँ।

7. कम्प्यूटर (या) मानव जीवन में कम्प्यूटर का महत्त्व

प्रस्तावना- आदि काल से मानव जिज्ञासु रहा है। मानव की जिज्ञासा कभी समाप्त नहीं होती है। समय बीतने और समय की आवश्यकता ने यन्त्रों को जन्म दिया। औद्योगिक क्रान्ति ने मनुष्य की शारीरिक क्षमता को कई गुना बढ़ा दिया है । शारीरिक श्रम के सहयोग के लिए तो मानव ने अनेक यन्त्रों का आविष्कार कर लिया था। अब उसे मानसिक श्रम में हाथ बँटाने वाले की आवश्यकता होने लगी। आज प्रगतिशील और उद्यमी मानव की पुरा कल्पना कम्प्यूटर के रूप में साकार हुई ।

कम्प्यूटर का क्षेत्र- भारत में कम्प्यूटर की क्रान्ति लाने का श्रेय स्वर्गीय प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी को जाता है । कम्प्यूटर का प्रारम्भिक उपयोग कारखानों में वित्तीय लेखा-जोखा रखने तक सीमित था । आज कम्प्यूटर का उपयोग मानव विकास के क्षेत्र में हो रहा है। आज कम्प्यूटर के माध्यम से कागज पर बिना रेखा या आरेख खींचे पूरे चित्र को कम्प्यूटर के टी.वी. जैसे पर्दे पर देख सकते हैं। चित्र में मनचाहा फेरबदल कर सकते हैं। रेलवे के एक स्टेशन से पूरे भारत के मुख्य शहर की आने-जाने की टिकट प्राप्त करके आरक्षण प्राप्त कर सकते हैं। कम्प्यूटर के माध्यम से अंतरिक्ष के बड़े चित्र उतारे जा सकते हैं. उसका विश्लेषण कर सकते हैं अर्थात् यथा से व्यथा तक कम्प्यूटर हमारा सहयोगी बन गया है। पुस्तकीय कार्य में कम्प्यूटर इस समय वर्चस्व पर है।

कम्यूटर और दूर संचार का सम्बन्ध- कम्प्यूटर और दूर-संचार का दामन-चोली का सम्बन्ध है। एक स्टेशन पर किस-किस ट्रेन में कितनी टिकटों का आरक्षण हो चुका है, कम्प्यूटर द्वारा सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त हो जाती है । कम्प्यूटर नेटवर्क के माध्यम से देश के प्रमुख नगरों को एक-दूसरे से जोड़ने की व्यवस्था की जा रही है । दूर-संचार से सम्बद्ध कम्प्यूटर किसी प्रकार की सचना प्रसारण का कार्य आसानी से कर सकते हैं । आजकल कम्प्यूटर सीधे-सीधे उत्पादन मशीनों का एक अंग बनता जा रहा है ।

रोबोट' और उसकी कार्यक्षमता- मनुष्य कार्यक्षमता और अनुपात निश्चित दायरे में होता है। कार्य करते-करते मनुष्य थकान और शिथिलता का अनुभव करता है । रोबोट कई-कई दिनों तक लगातार बिना रुके और थके एक भाव से कार्य करता रहता है । विदेशी विद्वान अब सोच-विचार करने वाले कम्प्यूटर मानव निर्माण में लगे हैं। मानव मस्तिष्क की अपेक्षा कम्प्यटर बहत कम समय में समस्याओं का समाधान कर सकता है किन्तु मानवीय संवेदनाओं अभिरुचियों से रहित अर्थात भावना शून्य यह यन्त्र पुरुष वही कर सकता है, जिसके लिए उसे निर्देशित किया जाये। वह स्वयं कोई निर्णय नहीं ले सकता है और न ही स्वेच्छा से नवीन बात सोच सकता है ।

भारत और कम्प्यूटर- जब कम्प्यूटर का भारत में प्रवेश हुआ था तब इसका विरोध गिने-चुने वैज्ञानिक बुद्धिजीवियों को छोड़कर सभी ने किया था। लोगों का मानना था कि भारत विशाल जनसंख्या वाला देश है, कम्प्यूटर बेरोजगारी को बढ़ावा देगा, लोग काम के लिए दर-दर भटकेंगे।

आज जीवन के कितने ही क्षेत्रों में कम्प्यूटर का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है । कम्प्यूटर ने वायुयान, रेलवे आरक्षण और संगीत को पूर्णत: अपने हाथ में ले लिया है। आज कम्प्यूटर की ज्योतिष क्षेत्र, चुनाव क्षेत्र, मौसम सम्बन्धी जानकारी और परीक्षाफल निर्माण में उपयोगिता से सभी परिचित हैं।

उपसंहार- कम्प्यूटर अब हमारे लिए वरदान सिद्ध होता जा रहा है । मानव पूर्णत: इस पर आश्रित होता जा रहा है। विश्व सभ्यता के बढ़ते हुए चरण में कम्प्यूटर भारत के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।

8. मेरा भारत देश

प्राकृतिक सुंदरता- मेरा देश भारत संसार के देशों का सिरमौर है । यह प्रकृति की पुण्य लीलास्थली है। माँ भारती के सिर पर हिमालय मुकुट के समान शोभायमान है । गंगा तथा यमुना इसके गले के हार हैं। दक्षिण में हिन्दुमहासागर भारत माता के चरणों को निरंतर धोता रहता है । इस देश की उर्वरा धरती अन्न के रूप में सोना उगलती है । संसार में केवल यही एक देश है जहाँ षड्ऋतुओं का आगमन होता है। गंगा, यमुना, सतलुज, व्यास, गोमती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी कई नदियाँ हैं जो अपने अमृत-जल से इस देश की धरती की प्यास शांत करती है।

धन-संपन्नता- भारत पर प्रकृति की विशेष कृपा है । यहाँ पर खनिज पदार्थों का बाहुल्य है। अपनी अपार संपदा के कारण ही इसे 'सोने की चिड़िया' की संज्ञा दी गई है। धन-संपदा के कारण ही हमारा देश विदेशी आक्रमणकारियों के लिये विशेष आकर्षण का केन्द्र रहा है।

श्रेष्ठ सभ्यता-संस्कृति- भारत की सभ्यता तथा संस्कृति संसार की प्राचीनतम सभ्यताओं में गिनी जाती है । मानव संस्कृति के आदिम ग्रंथ ऋग्वेद की रचना का श्रेय इसी देश को प्राप्त है। संसार की प्राय: सभी प्राचीन संस्कृतियाँ नष्ट हो चुकी हैं लेकिन भारतीय संस्कृति समय की आंधियों तथा तूफानों का सामना करती हुई अब भी अपनी उच्चता और महानता का शंखनाद कर रही है । इसका कारण यह है कि इस देश की संस्कृति की अपनी कुछ विशेषतायें हैं। इस देश के मनीषी आत्मा और परमात्मा की गुत्थियाँ सुलझाने वाले कोरे दार्शनिक ही नहीं. थे। ज्ञान-विज्ञान का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है, जिसकी उन्होंने गहराई के साथ खोज न की हो । संगीतकला, चित्रकला, मूर्तिकला,स्थापत्य कला आदि के क्षेत्र में भी हमारी उन्नति आश्चर्य में डाल देने वाली है । जिस समय संसार का एक बड़ा भाग घुमंतू जीवन बिता रहा था, हमारा देश भारत उच्चकोटि की नागरिक सभ्यता का विकास कर चुका था। सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ सर जॉन मार्शल लिखता है- 'सिंधु घाटी का साधारण नागरिक सुविधाओं तथा विलास का जिस मात्रा में उपयोग करता था, उसकी तुलना उस समय के सभ्य संसार के दूसरे भागों से नहीं की जा सकती।

ज्ञान में अग्रणी- हमारा प्यारा देश 'विश्व गुरु' रहा है। यहाँ की कला, ज्ञान-विज्ञान, ज्योतिष, आयुर्वेद संसार के प्रकाशदाता रहे हैं । यह देश ऋषि-मुनियों, धर्म-प्रवर्तकों तथा महान कवियों का देश है । त्याग हमारे देश का सदा से मूल-मंत्र रहा है। जिसने त्याग किया, वही महान कहलाया। बुद्ध, महावीर, दधीचि, रन्तिदेव, राजा शिवि, रामकृष्ण परमहंस, गांधी इत्यादि महान विभूतियाँ इसका जीता-जागता प्रमाण हैं।

हमारे देश का इतिहास गौरवमय है। दुर्भाग्य से आज स्थिति वैसी नहीं है। आज आपसी संघर्ष के कारण देश बिखराव के कगार पर खड़ा है परंतु यदि हम मन में देशप्रेम का निश्चय करके यही सोचें-

जियें तो सदा इसी के लिये,

यही अभिमान रहे, यह हर्ष।

निछावर कर दें हम सर्वस्व,

हमारा प्यारा भारतवर्ष ।

तो भारत इन संघर्षों के बावजूद उन्नति के शिखर पर अग्रसर होता चला जायेगा।

9. राष्ट्रीय पर्व (स्वतंत्रता दिवस)

हमारे राष्ट्रीय त्यौहारों में स्वाधीनता दिवस (पन्द्रह अगस्त) का विशेष महत्त्व है । इसका महत्त्व सभी राष्ट्रीय त्यौहारों में इसलिए सर्वाधिक है कि इसी दिन हमें शताब्दियों-शताब्दियों की गुलामी की बेड़ी से मुक्ति मिली थी। इसी दिन हमने पूर्ण रूप से आजाद होकर अपने समाज और राष्ट्र को सम्भाला था।

स्वाधीनता दिवस या स्वतंत्रता दिवस हमें यह याद दिलाता है कि हम इसी दिन आजाद हुए थे। सन् 1947 को 15 अगस्त के दिन जिस अंग्रेजी राज्य का कभी सूरज नहीं डूबता था, उसी ने हमें हमारा देश सौंप दिया। हम क्यों और कैसे स्वतंत्र हुए इसका एक लम्बा इतिहास है। इस देश की आजादी के लिए बार-बार देशभक्तों ने अपने प्राणों की बाजी लगाने में तनिक भी देर नही की थी।

स्वतन्त्रता का पूर्ण श्रेय गांधीजी को ही मिलता है। अहिंसा और शान्ति के शस्त्र से लड़ने वाले गांधी ने अंग्रेजों को भारत भूमि छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। उन्होंने बिना रक्तपात के क्रान्ति ला दी। गांधी जी के नेतृत्व में पं. जवाहरलाल नेहरू सरीखे भी इस क्रान्ति में कूद पड़े। सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था, "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।” इस प्रकार जनता भी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आतुर हो उठी। गांधीजी द्वारा चलाए गये आन्दोलनों से लोगों ने अंग्रेज सरकार का बहिष्कार कर दिया। उन्होंने सरकारी नौकरियाँ छोड़ दी,जेल गए और मृत्यु को हँसते-हँसते गले लगा लिया। अन्त में खून रंग ले ही आया।

लेकिन दुर्भाग्य का वह दिन भी आ गया। भारत की दुर्भाग्यलिपि ने भारत के ललाट पर इसकी विभाजक रेखा खींच दी। यथाशीघ्र देश का विभाजन हो गया। हिन्दस्तान और. पाकिस्तान के नाम से भारत महान बंटकर दो भागों में विभाजित हो गया। धीरे-धीरे देश का रूप-रंग बदलता गया और आज स्थिति यह है कि अब भी भारत का पूर्णत्व रूप दिखाई नहीं पड़ता है। बलिदान, त्याग आदि को याद रखने के लिए प्रत्येक वर्ष स्वतंत्रता दिवस (पन्द्रह अगस्त) को बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है। देश के प्रत्येक नगरों में तिरंगे झण्डे को लहराया जाता है। अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। भारत की राजधानी दिल्ली, जहाँ स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया, स्वतंत्रता प्राप्ति पर पन्द्रह अगस्त को ऐतिहासिक स्थल लाल किले पर स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधान मंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू ने तिरंगा झण्डा लहराया था। इसी भांति लाल किले पर प्रत्येक वर्ष झण्डा फहराया जाता है। लाखों नर-नारी इस उत्सव में भाग लेते हैं। प्रधान मंत्री झण्डा फहराने के पश्चात् भाषण देते हैं और स्वतंत्रता को कायम रखने का सब मिलकर प्रण करते हैं।

भारत की राजधानी दिल्ली में यह उत्सव बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। इस दिन लाल किले के विशाल मैदान में बाल-वृद्ध नर-नारी एकत्रित होते हैं। देश के बडे बडे नेता राजनायिक अपने-अपने स्थानों पर विराजमान रहते हैं । प्रधान मंत्री लाल किले की प्राचीर पर राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं राष्ट्रीय ध्वज को 31 तोपों की सलामी दी जाती है। इसके बाद प्रधानमंत्री देश के नाम अपना संदेश देते हैं। इसमें वे राष्ट्र की प्रगति पर प्रकाश डालते हैं। और आगे के कार्यक्रम बताते हैं । यह भाषण रेडियो और दूरदर्शन द्वारा सारे देश में प्रसारित किया जाता है। जय हिन्द के नारे के साथ यह स्वतंत्रता दिवस समारोह समाप्त होता है । रात्रि में जगह-जगह पर रोशनी होती है। सबसे अच्छी रोशनी संसद भवन और राष्ट्रपति भवन पर की जाती है।

स्वाधीनता दिवस के शुभ अवसर पर दुकानों और राजमार्गों की शोभा बहुत बढ़ जाती है। जगह-जगह सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं जिससे अत्यन्त प्रसन्नता का सुखद वातावरण फैल जाता है। सभी प्रकार से खुशियों की ही तरंगें उठती-बढ़ती दिखाई देती हैं । स्वाधीनता दिवस के शुभावसर पर चारों ओर सबमें एक विचित्र स्फूर्ति और चेतना का उदय हो जाता है राष्ट्रीय विचारों वाले व्यक्ति इस दिन अपनी किसी वस्तु या संस्थान का उद्घाटन कराना बहुत सुखद और शुभदायक मानते हैं। विद्यालयों में विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन और संचालन देखने-सुनने को मिलता है। प्रात:काल सभी विद्यालयों में राष्ट्रीय झंडा फहराया जाता है और जन गण मन अधिनायक जय हे भारत-भाग्य विधाता राष्ट्रीय गान गाया जाता है। कहीं कहीं इन बाल-सभाओं में मिष्ठान वितरण भी किया जाता है। ग्रामीण अंचलों में भी इस राष्ट्रीय पर्व की रूप-रेखा की झलक बहुत ही आकर्षक होती है । सभी प्रबुद्ध और जागरुक नागरिक इस पर्व को खूब उत्साह और उल्लास के साथ मनाते है । बच्चे तो इस दिन बहुत ही प्रसन्न होते हैं। वे इसे सचमुच में खाने-पीने और खुशी मनाने का दिन समझते हैं।

हमें चाहिए कि इस पावन और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय त्यौहार के शुभावसर पर अपने राष्ट्र के अमर शहीदों के प्रति हार्दिक श्रद्धा भावनाओं को प्रकट करते हुए उनकी नीतियों और सिद्धांतों को अपने जीवन में उतारने का सत्संकल्प लेकर राष्ट्र निर्माण की दिशा में कद्म उठाएँ। इससे हमारे राष्ट्र की स्वाधीनता निरन्तर और सुदृढ़ रूप में लौह-स्तम्भ सी अडिग और शक्तिशाली बनी रहेगी।

प्रश्न 82. भाव पल्लवन की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- पल्लवन का सीधा तथा स्पष्ट अर्थ है विस्तार करना, बढ़ाना । यह संक्षेपण से विपरीत होता है। पल्लवन किसी भावपूर्ण वाक्य, कथन, वाक्यांश, लोकोक्ति अथवा पद्यात्मक सूक्ति को समझाकर लिखने की एक कला है । यह विचारों का एक ऐसा क्रमबद्ध पुनप्रस्तुतिकरण है, जिसमें उदाहरण के सहारे बात को स्पष्ट करना होता है।

पल्लवन हेत दिये गये मूल भाव, विचार अथवा सूक्ति के अर्थ तथा भाव को विस्तार करते हुए एक निबन्ध लिखा जा सकता है पर यहाँ स्पष्ट कर देना उचित होगा कि पल्लवन निबन्ध नहीं है । निबन्ध लेखन में पर्याप्त स्वतंत्रता रहती है, जबकि पल्लवन लेखन को बंधे-बंधाये तथा एक छोटे दायरे में ही रहना पड़ता है । इसे विषय से इधर-उधर होने की छूट नहीं मिलती है। वैसे पल्लवन में मूल भाव या विचार की व्याख्या होती है, पर यह ध्यान रहे कि पल्लवन व्याख्या नहीं है । व्याख्या में प्रसंग,निर्देश,उदाहरण एवं टीका-टिप्पणी या आलोचना-समालोचना करने की स्वतंत्रता होती है। पल्लवन मुख्यतः एक संक्षिप्त रचना है जो प्रायः एक ही अनुच्छेद में लिखी होती है।

पल्लवन करते समय ध्यान रखने योग्य बातें

पल्लवन करते समय निम्नांकित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-

1. सर्वप्रथम दिये गये मूल वाक्य, सूक्ति, लोकोक्ति आदि विषय पर अत्यन्त ध्यानपूर्वक विचार करना चाहिए।

2. पल्लवन में मूल भाव या विचार की पृष्ठ-भूमि में जो भी भाव एवं विचार निहित हों, उन्हें भी स्पष्ट करना चाहिए।

3. मूल तथा गौण-भावों-विचारों को सोच-समझकर क्रमश: अनुच्छेद में लिखना चाहिए एवं इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उक्ति अथवा विषय का कोई अंश या भाव छूटे नहीं और न दुहराया जाये।

4. पल्लवन में विचार अथवा भाव का विकास धीरे-धीरे एवं स्वाभाविक रूप से किया जाना चाहिए। वाक्य भी एक-दूसरे से सहजरूपेण सम्बद्ध होने चाहिए।

5. पल्लवन के लिए उदाहरण तथा दृष्टान्त भी दिये जा सकते हैं।

6. पल्लवन सदैव अन्य पुरुष में ही होना चाहिए।

7. भाषा और अभिव्यक्ति स्पष्ट, मौलिक तथा सरल होनी चाहिए।

8. व्यास शैली पल्लवन का मूल आधार है। इसलिए इस शैली में लिखने का निरन्तर अभ्यास करना चाहिए।

9. पल्लवन में विचारों को सुगठित रूप से प्रस्तुत करना चाहिए, क्योंकि यह पल्लवन के प्राण हैं।

हिन्दी-भाषा में पल्लवन का महत्त्व

हिन्दी भाषा में 'पल्लवन' को विचार-शक्ति सुविकसित करने का सशक्त माध्यम माना गया है । 'पल्लवन' शब्द ‘पल्लव' शब्द से बना है। ‘पल्लव' शब्द का अर्थ है-वृक्षों के नये पत्ते, जो किसलय (कोपल) अवस्था को पूर्ण कर युवावस्था की विशेषताओं से समन्वित होते हैं।

आशय यह है कि जिस तरह किसलय की पूर्णता पल्लव-रूप में निहित होती है, उसी तरह कोई भी सूक्ति, विचार या मूल-भाव विविध उदाहरणों, दृष्टान्तों, अन्य सह-भावों तथा विचारों से पुष्ट होता हुआ पल्लवित होता है, तो इस भाषायी क्रिया को 'पल्लवन' कहा जाता है।

'पल्लवन' के अभ्यास से विद्यार्थियों की विचार-शक्ति विकसित होती है, विचारों में परिष्कार तथा परिमार्जन आता है । उनकी कल्पना-शक्ति में विकास होता है एवं जीवन के विविध क्षेत्रों जैसे-सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, राजनैतिक, साहित्यिक तथा व्यावहारिक (दैनिक जीवन) आदि क्षेत्रों से सम्बन्धित अनुभवों को समझने-समझाने की क्षमता का विकास होता है तथा तत्संबंधी ज्ञान में अभिवृद्धि होती है । इससे लेखन-कौशल तथा भावाभिव्यक्ति के कौशल का विकास होता है । इस तरह पल्लवन से विद्यार्थी में वैचारिक प्रतिभा एवं व्यावहारिक भाषायी कौशलों एवं दक्षताओं का विकास होता है। अतः पल्लवन को विचार-शक्ति को सविकसित करने का माध्यम मानना उचित ही है । इस दृष्टि से हिन्दी-भाषा के सीखने के क्षेसत्र में पल्लवन का विशिष्ट महत्त्व है ।

पल्लवन के प्रकार

पल्लवन कई तरह के कथ्यों का किया जाता है जैसे-कभी किसी एक शब्द का पल्लवन कराया जाता है. कभी दो या दो से अधिक शब्दों वाले किसी भाव या विचार का पल्लवन कराया जाता है. कभी किसी वाक्य का पल्लवन कराया जाता है, कभी किसी लोकोक्ति या मुहावरे को पल्लवन के लिए दिया जाता है, कभी किसी वार्ता या कथा की रूपरेखाओं का पल्लवन कराया जाता है और कभी कथा या वार्ता के किसी शीर्षक को पल्लवन के लिए दिया जाता है। इन सबको छ: भागों में विभाजित कर सकते हैं और पल्लवन के छ: प्रकार कहे जा सकते हैं-

(1) एक शब्द का पल्लवन- पंचायत, प्रतिभा, वसंत, सहकारिता, मितव्ययिता, पुस्तकालय, सूर्यग्रहण आदि ।

(2) दो या दो से अधिक शब्दों का पल्लवन- राजकीय प्रयोजन, परीक्षा का माध्यम, वैधानिक व्यवस्था, राष्ट्रहित की सिद्धि, मानसिक संकीर्णता, कुसंगति का प्रभाव, प्रात:काल का दृश्य आदि ।

(3) एक वाक्य का पल्लवन- बैर क्रोध का अचार या मुरब्वा है श्रद्धा और योग का नाम भक्ति है. अहिंसा ही परम धर्म है, मित्रता की कसोटी विपत्ति है, सत्य जीवन का धर्म है, परिश्रम सफलता की कुंजी है आदि ।

(4) किसी मुहावरे या लोकोक्ति का पल्लवन- समरथ को नहिं दोष गसाई म गगरी छलकत जाए, होनहार विरवान के होत चीकने पात, सर्व दिन होत न एक समान हो चना बाजे घना. बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद, आप काज महाकाज, परहित सरिया भाई, तिल की ओट पहाड़, सावन सूखे न भादों हरे, गड़े मुर्द उखाड़ना, ईट से ईंट बजाना के हारे हार है मन के जीते जीत आदि ।

(5) किसी कथा या वार्ता की रूप रेखाओं का पल्लवन- इसके अन्तर्गत किसी कथा या वार्ता का कुछ अंश बीच में से छोड़ कर दे दिया जाता है । एक तरह से रिक्त स्थान की पति जैसा ही यह पल्लवन होता है, जैसे किसी हाथी का नित्य तालाब की ओर जाना __ मार्ग में दर्जी की दुकान पडना __ हाथी का दर्जी की दुकान की ओर सूंड करना __ दर्जी का हाथी की सूंड में सुई चुभोना, हाथी का दर्जी की दुकान में कीचड़ फेंकना।

(6) किसी कथा या वार्ता के शीर्षक का पल्लवन- खरगोश और कछुआ, लोमडी और सारस, बंदर और मगर, सावित्री और सत्यवान, तुलसी और सालिग्राम, रुक्मिणी-हरण, पन्नाधाय का त्याग आदि ।

पल्लवन के उदाहरण

(1) ईर्ष्या

जैसे दूसरे के दुःख को देख दु:ख होता है वैसे ही दूसरे के सुख या भलाई को देखकर भी एक प्रकार का दुःख होता है, जिसे 'ईर्ष्या' कहते हैं । ईर्ष्या की उत्पत्ति कई भाव के संयोग से होती है, इससे इसका प्रादुर्भाव बच्चों में कुछ देर में देखा जाता है और पशुआ में तो शायद होता भी न हो। ईर्ष्या एक संकर भाव है, जिसकी सम्प्राप्ति आलस्य, अभिमान और नैराश्य के योग से होती है । जब दो बच्चे किसी खिलौने के लिए झगड़ते हैं तब कभी-कभी ऐसा देखा जाता है कि एक उस खिलौने को लेकर फोड़ देता है, जिससे वह किसी के काम में नहीं आता। इससे अनुमान हो सकता है कि उस लड़के के मन में यही रहता है कि चाहे वह खिलौना मझे मिले या न मिले, दूसरे के काम में न आए अर्थात् उनकी स्थिति मुझसे अच्छी न रहे। ईर्ष्या पहले-पहल इसी रूप में व्यक्त होती है ।

(2) कविता क्या है ?

मनुष्य अपने भावों, विचारों और व्यापारों के लिए दूसरों के भावों, विचारों और व्यापारों के साथ कहीं मिलाता और कहीं लड़ाता हआ अन्त तक चला चलता है और इसी को जीना कहता है। जिस अनन्त-रूपात्मक क्षेत्र में यह व्यवसाय चलता रहता है उसका नाम है जगत् । जब तक कोई अपनी पृथक सत्ता की भवनों को ऊपर किए इस क्षेत्र के नाना रूपों और व्यापारा को अपने योग-क्षेम, हानि-लाभ, सुख-दुख आदि से सम्बद्ध करके देखता रहता है तब तक उसका हृदय एक प्रकार से बद्ध रहता है। इनका इन रूपों और व्यापारों के सामने जब कभी वह अपना पृथक सत्ता की धारणा से छूटकर अपने आपको बिल्कुल भूलकर-विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त-हृदय हो जाता है। जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान-दशा कहलाता ह उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रस-दशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-निधान करती आई है उसे कविता कहते हैं।

(3) बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है

जिससे हमें दु:ख पहुँचा है उस पर यदि हमने क्रोध किया और यह क्रोध यदि हमार हृदय में बहुत दिनों तक टिका रहा तो वह बैर कहलाता है । इसके स्थायी रूप में टिक जान के कारण क्रोध का वेग और उग्रता तो धीमी पड़ जाती है पर लक्ष्य को पीडित करने की प्रेरणा बराबर बहुत काल तक हुआ करती है । क्रोध अपना बचाव करते हुए शत्रु को पीड़ित करने की युक्ति आदि सोचने का समय प्रायः नहीं देता, पर बैर उसके लिए बहुत समय देता है । सच पूछिए तो क्रोध और बैर का भेद केवल कालकृत है दुःख पहुँचने के साथ ही दुःखदाता को पीड़ित करन की प्रेरणा करने वाला मनोविकार क्रोध और कुछ साल बीत जाने पर प्रेरणा करने वाला भाव बेर है। जैसे यदि किसी ने आपको गाली दी और उसी समय आपने उसे मारा तो आपने क्रोध किया। मान लीजिए कि वह गाली देकर भाग गया और दो महीने बाद आपको कहीं मिला अब यदि आपने उससे बिना फिर सुने, मिलते से ही उसे मार दिया तो यह आपका बैर निकालना हुआ। इसी कारण बैर को क्रोध का अचार या मुरब्बा कहा जाता है ।

(4) लालच बड़ी बरी बला है-

लालच एक ऐसी मनोवृत्ति है जिसमें व्यक्ति अपना विवेक और बुद्धि दोनों खो देता है। यह बात एक बाल कहानी से सिद्ध होती है जिसमें एक मनुष्य के पास एक मुर्गी थी। वह नित्य एक अंडा दिया करती थी, परन्तु वह अंडा और दूसरे अंडों के समान नहीं होता था। वह सोने का होता था। ऐसे सोने के अंडे को पाकर वह आदमी बड़ा प्रसन्न रहता था, परन्तु साथ ही वह लालची भी था । वह अपने मन में सोचा करता था कि मुझे केवल एक ही सोने का अंडा रोज मिलता है । मुझे सारे सोने के अंडे एक साथ ही क्यों नहीं मिलने चाहिए। इसी कारण उसने सारे अंडे एक साथ पाने के लिए मुर्गी को मार डाला। वह मुर्गी भी अन्य मुर्गियों के ही समान थी। उसके पेट में सोने के अंडे भरे नहीं थे । मुर्गी के मरने के बाद उसको सोने का एक भी अंडा प्राप्त नहीं हुआ। इस कहानी में मुर्गी वाले व्यक्ति की सामान्य बुद्धि भी समाप्त हो गई थी कि वह इतना भी नहीं सोच सका कि मुर्गी के पेट में बहुत से अंडे एक साथ नहीं हो सकते। इसलिए कहा है कि लालच बड़ी बुरी बला है।।

(5) अब पछताय होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत अथवा का बरखा जब कृषि सुखानी

यह एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है । इसका अर्थ यह है कि जब हानि हो गई जब पश्चात्ताप करते रहने से क्या लाभ? यह लोकोक्ति समय पर सजग रहने और तत्काल कदम उठाने पर जोर देती है. क्योंकि समय हाथ से निकल जाने पर यदि कोई कितना ही चीख-चिल्लाये या पश्चात्ताप करे तो उसे दुबारा अवसर नहीं मिलता। उर्दू में इसी भाव को व्यक्त करने वाली एक कहावत है-'गया वक्त फिर हाथ आता नहीं।' बहुत से लोगों का स्वभाव होता है कि आलस्यवश समय पर काम करने की चिन्ता नहीं करते और जब समय निकल जाता है तो पछताते हैं। अत: आवश्यकता इस बात की है कि समय को हाथ से निकलने न दें। समय पर काम करें। जिस प्रकार बन्दक से गोली निकल जाने पर या कमाल से तीर छूट जाने पर गाली या तीर वापस नहीं आते उसी प्रकार समय भी निकल जाने पर वापस नहीं आता। अत: आवश्यक यह है कि हम इतने जागरूक रहें और समय पर काम करें कि पछताने का अवसर न आए।

समस्या का हल है समय को पहचानना, उसकी कीमत आंकना और समय की मांग के अनुरूप तत्काल कदम उठाना । जो लोग ऐसा करते हैं उन्हें पछताना नहीं पडता। विदाको के लिए तो समय पर काम करना बहुत जरूरी है। बहुत से विद्यार्थी सत्रारंभ में खेलकट और मौज मजे में समय गँवा देते हैं, बहुत से छात्र संघ की गतिविधियों में इतने संलग्न हो जाते हैं कि कक्षा में ही नहीं जाते। लेकिन जब परीक्षा निकट आ जाती है तो रात भर पढ़ते हैं। लेकिन उससे कुछ नहीं होता। अतः प्रश्नपत्र मालूम करने के लिए भागते दौड़ते हैं। जब परीक्षा सामने आ जाती है तो प्रश्न पत्र हल नहीं कर पाते और फेल हो जाते हैं । ऐसे छात्र निराश होकर या तो रोते रहते हैं या आत्महत्या कर लेते हैं। रोना या आत्महत्या करना कायरता है । जीवन की कठोरताओं का मुकाबला साहस और वीरता से किया जा सकता है । आत्महत्या तो पलायन है। अतः हमें समय का महत्त्व समझना चाहिए और समय को व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए। ऐसा करके ही जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है।

(6) आत्मविश्वास सफलता का पहला रहस्य है

जीवन में सफलता तभी संभव है जब व्यक्ति को स्वयं इस बात का भरोसा हो कि वह अपने प्रयासों से अवश्य ही सफलता प्राप्त कर लेगा। आत्मविश्वासी व्यक्ति ही आगे कदम बढ़ाता है तथा अपने लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ बनता है। इस तरह आत्मविश्वास सफलता का पहला रहस्य है। (किसी व्यक्ति का उदाहरण दिया जाए।)

(7) आत्मनिर्भरता ही देश की सच्ची स्वाधीनता है

किसी देश का मात्र राजनैतिक रूप से स्वतन्त्र होना ही पर्याप्त नहीं है । उसे सामाजिक तथा आर्थिक दृष्टि से भी स्वाधीन होना पड़ेगा तभी उसकी स्वाधीनता पूरी होगी। आर्थिक दृष्टि से दूसरे देशों पर निर्भर रहकर स्वाधीनता को अक्षुण्ण एवं सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है। आर्थिक स्वतन्त्रता देश के आर्थिक विकास पर अवलम्बित है । यह आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने पर प्राप्त की जा सकती है। इसलिए कहा जाता है कि आत्मनिर्भरता ही देश की सच्ची स्वाधीनता है । (भारत व अन्य विकासशील देशों में से किसी एक का उदाहरण दिया जाये)।

(8) नर-नारी एक ही गाड़ी के दो पहिए हैं

जीवन-रूपी गाड़ी के नर-नारी दो पहिए हैं। जिस तरह गाड़ी का एक पहिए से चलना संभव नहीं है, उसी प्रकार जीवन-रूपी गाड़ी भी नर या नारी किसी एक के अभाव में नहीं चल सकती है। सृजन, सृष्टि, विकास सभी में नर-नारी की समान रूप से भागीदारी व महत्ता है। जीवन की गाड़ी के संचालन के लिए दोनों में परस्पर सहयोग एवं सामन्जस्य नितान्त आवश्यक है।

(9) धीरज, धर्म, मित्र और नारी, आपातकाल परिखिए चारी

यह चौपाई गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित 'रामचरित मानस' में से उद्धृत की गई है। इसका आशय है कि व्यक्ति के धैर्य, धर्म, मित्र और पत्नी का सही परीक्षण आपातकाल (विपत्ति) के समय ही होता है । (उदाहरण देकर ही कथन का पल्लवन किया जाए।)

(10) किसान देश की रीढ़ है भारत कृषि प्रधान देश है। कृषि पर अनेक उद्योग आधारित हैं । कृषि का महत खाद्यान्न एवं उद्योगों के लिए कच्चे माल की आपूर्ति के लिए नहीं वरन् निर्यात तथा विदेशी मुद्रा अर्जन की दृष्टि से भी प्रमुख है। अतः देश की अर्थव्यवस्था में कृषि व किसान सप है। नि:संदेह किसान देश की रीढ़ है। (उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जाये)

(11) साहित्य समाज का दर्पण है

उक्त कथन आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के साहित्य की महत्ता से उद्धृत किया गया है। जिसका आशय है कि साहित्य अपने समाज की सही वस्तुस्थिति का चित्रण करता है । समाज कैसा है, उसकी सोच, आचार-विचार, रहन-सहन, उन्नति तथा अवनति सभी साहित्य में देखी जा सकती है। किसी भी समय के साहित्य को देखिए उस समय के समाज की वास्तविक स्थिति का पता सहज में चल जायेगा। इसलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है। साहित्य समाज को उसी तरह प्रभावित करता है जिस तरह समाज साहित्य को । (उदाहरण द्वारा कथन का पल्लवन किया जाये)।

(12) उचित-अनुचित का विवेक ही मनुष्यता है

मनुष्य को अशरफुक्तमखलूकात कहा गया है। अर्थात पूरे विश्व में (जगत में) मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है। मनुष्य की यह श्रेष्ठता उसके बुद्धि-विवेक के कारण होती है । तथा बुद्धि-विवेक से ही व्यक्ति अच्छे-बुरे, हानि-लाभ, पाप-पुण्य,कर्म-अकर्म, धर्म-अधर्म का विचार कर निश्चय करता है।

मनुष्य सामाजिक प्राणी है । वह समाज में जन्म लेता है, समाज ही उसे व्यक्तित्व प्रदान करता है। समाज के प्रति मनुष्य का एक दायित्व होता है। समाज में अपने व्यक्तित्व को बनाए रखने के लिए, अपना उचित सम्मान बनाए रखने हेतु मनुष्य को समाज में एक मर्यादा तथा परम्परा एवं सही जीवन-व्यवहार के लिए उचित-अनुचित का ध्यान रखकर आचरण करना होता है। यह भी कहा गया है कि आचरण वही करो, जो अपने लिए चाहते हो। यही मनुष्यता है इसलिए मनुष्य को उचित-अनुचित का विवेक बनाए रखना चाहिए ।

(13) अधजल गगरी छलकत जाए

कहावत है फल युक्त पेड़ सदा नत रहता है। नम्रता मानव का आभूषण होती है । ज्ञानवान पुरुष कभी अभिमान नहीं करता पर अर्द्धज्ञानी अपनी श्रेष्ठता दिखाने का सदैव प्रयत्न करता रहता है तथा उपेक्षा होने पर खिन्न होता है। पानी से भरा बर्तन झलकता नहीं पर आधा भरा बर्तन बार-बार झलक कर अपने में जल होने का आभास कराता है । उसी तरह की स्थिति अर्द्ध ज्ञानी की होती है।

(14) बड़ा हुआ तो क्या हआ जैसे पेड़ खजूर

मनुष्य का मूल्य उसके धन वैभव तथा शक्ति के द्वारा नहीं आंका जाता । महानता का परिचय व्यक्ति के त्याग, ज्ञान तथा उसकी सेवाओं द्वारा स्वयं मिलता है। एक धनी व्यक्ति यदि परोपकार तथा नम्रता से रहित रहा तो वह समाज के लिए निरर्थक है । समाज उससे कुछ नहीं पा सकता उसके पास जाने से निराशा ही हाथ लगेगी। अतः मनुष्य को परोपकारी होना आवश्यक है। उसी से उसका मूल्य आंका जाता है।

(15) मीठी वाणी बोलिए मन का आपा खोय

मन से अपने प्रति अहंकार का भाव मिटाकर मृदु वाणी बोलनी चाहिए। क्योंकि कहा भी गया है कि कोयल किसी को क्या देती है ? तथा कौआ किसी से क्या छीन लेता है? कुछ नहीं। कोयल तो सिर्फ कुहुक-कुहुक की मीठी वाणी से सबके मन को प्रसन्न करती है जबकि कौए की कांव-कांव सबको कर्ण कटु लगती है। अगर दोष है कौए का। वाणी का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है।

आप किसी से भले ही परिचित न हों, आप कहें, भाई साहब, क्या आप बताएंगे कि यहाँ रात बिताने के लिए सही जगह, कोई होटल, धर्मशाला कहां मिलेगी? वह व्यक्ति आपको देखेगा, आपकी वाणी से आपकी मुदुता का अनुभव करते हुए आपका सही मार्गदर्शन अवश्य करेंगा। वाणी की मधुरता व्यक्तित्व में भी वैशिष्ट्य लाती है। विद्याददाति विनयं-विद्या व्यक्ति में विनम्रता लाती है। फलों से लदा पेड़ झुका होता है । गुण व्यक्ति में गंभीरता लाते हैं। मृदु भाषी होना भी ऐसे ही उच्च व्यक्तित्व की पहचान है।

(16) जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान

संतोष क्या है? वह मानसिक अवस्था, जिसमें व्यक्ति प्राप्त होने वाली वस्तु को पर्याप्त समझता है तथा उससे ज्यादा की कामना नहीं करता, संतोष है । महोपनिषद के मत में 'अप्राप्य वस्तु के लिए चिंता न करना, प्राप्त वस्तु के लिए सम रहना संतोष है ।' कबीर का कथन है-

गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन धन खान ।

जब आवे संतोष धन, सब धन धूरी समान ॥

आज के युग में धन का अर्थ रुपया-पैसा, अर्थ, सम्पत्ति रत्न के अर्थ में है तथा संतोष धन के सामने ये सभी धन-रूप नगण्य हैं। यहां इसका सीधा अभिप्राय है-जो प्राप्य है, उसमें सम रहना,जो प्राप्त नहीं है उसकी चिंता न करना एवं कामना-तृष्णा का त्याग ही संतोष है । इस तरह संतोष एक ऐसी आनन्दमय तता आध्यात्मिक संतुलित दशा का नाम है, जो शांत-सरोवर के अचल जल के समान निर्विकार रहती है। बड़े-से-बड़े आघात पर भी जिसमें हलचल या उथल-पुथल पैदा नहीं होती।

जीवन की चाहना क्या है ? जीवन को सुखपूर्वक भोगने की लालसा । सुख का निवास मन है । मन से आदमी सुख महसूस करता है। यही कारण है कि धनवान अन्त करण से दुःखी है तथा निर्धन धनहीन होते हुए भी सुखी है। कारण, जो कुछ उसे मिल जाता है, जितने से वह सांसरिक भोग भोग पाता है, उसी से संतुष्ट है, प्रसन्न है, सुखी है।

संतोष का गुण है-'रूखी-सूखी खाय के ठंडा पानी पी । देख पराई चूपड़ी मत ललचाए जी', या फिर तुलसी के शब्दों में 'जाहि बिधि राखे राम वाहि बिधि रहिए ।' भागवत का भी यह कथन हैं-'यथा देश यथा काल यथा भाग्य । जो मिल जाए उसी से संतोष करना चाहिए जो भी घटित होता है, उससे मैं संतुष्ट हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि परमात्मा द्वारा चयन मेरे चयन से ज्यादा श्रेष्ठ है । अर्थात जो मिले उससे संतुष्ट रहना चाहिए। अति लोभ-करना पाप है।

सन्तोष रूपी अमृत से तृप्त शान्त चित्त व्यक्तियों को जो सुख प्राप्त है, वह धन के लोभ में इधर-उधर भटकने वालों को कहां प्राप्त हो सकता है?

(17) परहित सरिस धर्म नहिं भाई

निःस्वार्थ तथा लोभमुक्त पर दूसरों के हितार्थ कार्य करना परहित है। परपीड़ाहरण परहित है। पारस्परिक विरोध की भावना घटाना तथा प्रेम भाव बढ़ाना परहित है। दीन, दुःखी, दुर्बल की मदद परहित है । आवश्यकता पड़ने पर नि:स्वार्थ भाव से दूसरों को सहयोग देना परहित है । मन, वचन तथा कर्म से समाज का मंगल-साधन परहित है।

धर्म क्या है ? इस लोक में सब तरह की लौकिक उन्नति या सर्वश्रेष्ठ कल्याण तथा अन्त में मोक्ष सिद्धि धर्म है। देखा जाए तो जीवन का उन्नायक तथा समपोषक धर्म है । शुक्ल जी ने कहा है-लोक में मंगल का विधान तथा अभ्युदय की सिद्धि धर्म है। इस प्रकार यही आत्मोद्धार हीनता से आत्मोद्धार की स्थिति में पहुँचना है।

गुणभाव से देखें तो ओज, तेज, सहनशक्ति, सहनशीलता, धैर्य, बल, वचन-परिपालन, जितेन्द्रियता, श्री अर्थात शोभा, सुन्दरता तथा लक्ष्मी का कारण यह धर्म ही है जो परहित म झलकता है । यही सुख प्राप्ति का सार धर्म है।

सब प्रकार ‘परहित सरिस धर्म नहिं' का अर्थ हुआ- परहित हो इस लोक में सर्व-सुख एवं सर्वउन्नति का कारण है तथा मृत्यु होने पर आवागमन से छुटकारा मिलने का साधन है।

परहित के समान दूसरा कर्तव्य (धर्म) भी नहीं है। प्यासे को पानी पिलाना, भूख का भोजन कराना, अंधे को मार्ग दर्शाना, नंगे को वस्त्र देना, दरिद्र के दुःख दूर करना, पीड़ित पौड़ा हरना, पतित को पावन करना, अशांत को शांति देना मानव के सहज धर्म हे । हरिऔध जी प्रियप्रवास' में कहते हैं कि सभी जनों का विपत्ति से रक्षण, असहाय की सहायता का भाव, अपने बन्धु-बांधव को संकट से उबारना, मुसीबत में किसी की मदद करना-मनुष्य का यही ता सबस परमधर्म है।

किसी के एहसान का बदला चुकाना धर्म नहीं है । उपकार के प्रति किया गया उपकार भी धर्म नही है। विवशता में अथवा स्वार्थवश किया गया हित भी धर्म नहीं है । बाल्क भाव-निपरेक्ष पर हित धर्म है।

(18) विपत्ति कसौटी जो कसे सोई साँचे मीत

जो विपत्ति में काम आए वही सच्चा मित्र है। यह सूक्ति वाक्य सच्चे व्यक्ति को परिभाषित करती है। हम सभी जीवन में कभी न कभी किसी न किसी विपत्ति के चक्र में फसते हैं तथा ऐसी दशा में यह भी सुनने को मिलता है-जब सुख के दिन नहीं रहे, तो दुःख के दिन भी कट जाएंगे तथा यह भी सख बांटने से बढ़ता है एवं दःख बांटने से घटता है । ये उक्तिया यूं ही नहीं बन गई। इनके पीछे एक लम्बा जीवन व्यवहार तथा जीवन की सच्चाई का दशन है।

अनुभव व्यक्ति को हमेशा नई सीख देता है तथा हम अक्सर अनुभव से सीखते हैं । हमें जीवन में न जाने कितने ऐसे लोग मिलते हैं जो जीवनभर साथ निभाने, अपना होने का दम रहते हैं, लेकिन समय पड़ने पर सब बगलें झांकने लगते हैं। मुँह फेर लेते हैं। ऐसे लोगों के लिए ही कहा जाता है-जब तक पैसा पास यार मेरा संग-संग डोले पैसा रहा न पास यार मुंह से न बोले। ये सब यारी-दोस्ती सम्पन्नता, समृद्धि की भीड़ है। बुरे समय में खोखले लोग कभी काम नहीं आते आड़े वक्त में तो असली मीत ही काम आता है। इसीलिए सही है कि जो विपत्ति की कसौटी पर खरा उतरे, वही सच्चा मित्र है।

(19) पराधीन सपनेहुं सुख नहीं

महर्षि वेदव्यास ने 'महाभारत' में स्वतंत्रता का महत्ता प्रतिपादित करते हुए लिखा है, ‘जो दूसरों के अधीन हो, वही सब द:ख है और जो अपने वश में हो, वही सब सुख है।' महर्षि के इन वचनों में ही स्वतंत्रता का रहस्य छिपा हुआ है । कहने को तो अंग्रेजों के शासनकाल में भी लोगों को अनेक प्रकार के सुख थे, परंतु वे सब सुख पराधीन थे। पराधीन के सुख भी दु:खों की भांति कष्टदायक ही होते हैं।

संसार का प्रत्येक प्राणी अधिक-से-अधिक सुख पाने का इच्छुक रहता है; परंतु उसकी सुख पाने की इच्छा पराधीन रहकर पूरी नहीं होती। इसके लिए स्वाधीनता आवश्यक है। नाना प्रकार के बंधनों में बंधा हुआ मनुष्य पवन, जल और आकाश की भांति स्वाधीनता चाहता है। स्वाधीनता के अभाव में समस्त सुख-वैभव दुःखदायी बन जाते हैं। मनुष्य को उठने-बैठने खाने-पहनने, ओढ़ने आदि की स्वाधीनता चाहिए ही, क्योंकि स्वाधीनता के बिना मनष्य का सर्वांगीण विकार' संभव नहीं होता।

व्यक्ति समाज में सम्मान के साथ जीना चाहता है। यह सम्मान मनुष्य को पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े रहकर प्राप्त नहीं हो सकता । स्वाधीन व्यक्ति अपनी इच्छा का स्वामी होता है । स्वाधीन व्यक्ति अथवा राष्ट्र अपने राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्र में उन्नति प्राप्त करता है । अतएव हम कह सकते हैं कि स्वाधीनता ही सब सुखों का मूल है।

जो पराधीन हैं, वे सदा सिर झुकाकर चलते हैं । इतिहास इस बात का साक्षी है कि मगलों तथा अंग्रेजों की अधीनता में जीवन बिताने वाले राजा-महाराजाओं तक को अपमान का जीवन व्यतीत करना पड़ा था । अंग्रेजों के युग में भारत न केवल राजनीतिक दृष्टि से बल्कि सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक दृष्टि से भी पराधीन हो गया था।

(20) जो बीत गई, सो बीत गई

जीवन में अनेक बार दुःख-सुख आते रहते हैं। व्यक्ति को चाहिए कि वह भूतकाल की घटनाओं को याद करके दु:खी न होता रहे । बीती हुई घटनाओं एवं प्रसंगों को भूल जाए। बीती हुई बातों को याद रखने वाले व्यक्ति की स्थिति कंधे पर लाश रखकर भटकने वाले व्यक्ति की तरह हो जाती है। ऐसा व्यक्ति वर्तमान को महत्व नहीं देता। वह अतीत की अंधरी गलियों में प्रेतग्रस्त व्यक्ति के समान भटकता है। बीती बातों को भूल जाने वाला व्यक्ति सदैव प्रसन्न रहता है। वर्तमान में जीने वाला व्यक्ति ही उन्नति के राजमार्ग पर आगे बढ़ सकता है।

(21) मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

व्यक्ति को किसी भी स्थिति में अपना मनोबल नहीं खोना चाहिए । मन की दृढ़ता न होने से व्यक्ति दुविधाग्रस्त रहता है तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में असफल होता है। मन की दुर्बलता व्यक्ति की शारीरिक शक्ति पर दुष्प्रभाव डालती है । ऐसी स्थिति में व्यक्ति कुछ भी नहीं कर पाता। वह साधारण कार्य को भी ठीक प्रकार से नहीं कर पाता । मन की दृढ़ता होने पर व्यक्ति असंभव प्रतीत होने वाले कार्यों को भी सुगमतापूर्वक कर लेता है । सबल मन वाला व्यक्ति सीमित साधनों के साथ भी कार्यक्षेत्र में विजय प्राप्त करता है। जीवन के कर्मक्षेत्र में विजयी होने के लिए दृढ़ संकल्प शक्ति होनी आवश्यक है ।

(22) बड़े-बड़े बाग जहान में लागे-लागे सूख गए

यह संसार नाशवान है। जीवन दो दिन का मेला है। वास्तव में प्रत्येक आरंभ एक अंत की ओर ले जाता है । महान् से महान व्यक्ति को भी इस संसार का परित्याग करना पड़ता है । व्यक्ति को इस नाशवान संसार में रहकर कभी घमंड नहीं करना चाहिए । महाबलशाली व्यक्ति तथा कुबेर के समान धनी व्यक्ति भी मृत्यु के जाल में फंसकर दम तोड़ने के लिए विवश हो जाते हैं । परम सुंदर स्त्रियां तथा प्रतिभाशाली पुरुष भी समय के रथ के विकराल पहिए के नीचे कुचले जाते हैं। सत्ता का घमंड भी रेत की दीवार की तरह क्षण-स्थायी होता है। भव्य भवन भी एक दिन खंडहर के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। अत: व्यक्ति को धन, बल, बुद्धि तथा सौंदर्य आदि का अभिमान नहीं करना चाहिए।

(23) वही मनुष्य है, जो मनुष्य के लिए मरे

यह उक्ति कवि मैथिलीशरण गुप्त की है, जो कि पूर्णतः सत्य है । हम समाज में रहते हैं और परस्पर सहयोग सामाजिक जीवन का एक अंग है। हम समाज में दीन-दुखियों और अत्यधिक धनी परिवार वालों को देखते हैं । परंतु आज के युग में खुशियों का रंगीन महफिल में प्रत्येक व्यक्ति साथ देना चाहेगा। मगर क्या कोई किसी के गम को बांटेगा नहीं। गम तो मनुष्य को अकेले ही घुट-घुटकर सहना पड़ेगा। मानव समाज में दो प्रकार के लोग हैं-स्वार्थी और नि:स्वार्थी । परस्पर सहयोग के अनेक रूप हो सकते हैं। उसके पीछ कभी स्वार्थ भावना काम करती है, तो कभी उपकार-भावना। उपकार-भावना ही सर्वश्रेष्ठ है, भले ही इस उपकार को करने में मनुष्य को त्याग करना पड़े । कारण, इससे एक आत्मिक संतुष्ट प्राप्त होती है ।

(24) दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है

व्यक्ति को जीवन में अनेक बार सुख उपलब्ध होता है तथा अनेक बार व्यक्ति स्वय को दुःख के चक्रव्यूह में घिरा हुआ अनुभव करता है। व्यक्ति को जब किसी विशेष कारण स दुःख मिलता है अथवा उसे हानि उठानी पड़ती है, तो वह व्यक्ति सजग हो जाता है । इस प्रकार का व्यक्ति शीघ्र ही किसी पर विश्वास नहीं करता, क्योंकि उसके मन में शंका का धुआ भर जाता है। यदि कोई देश अन्य देश पर आक्रमण कर देता है तथा उस देश को पराजय का सामना करना पड़ता है तो वह देश आक्रामक देश के प्रति सदैव सशंक रहता है । सन् 1962 में भारत को चीन से पराजित होना पड़ा था। उसके पश्चात् अब भारतीय नेता चीनी नेताओं पर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं। सामान्य जीवन में भी यदि किसी व्यक्ति को व्यापार में हानि होती है, तो उसके पश्चात वह बहत सावधान होकर व्यापार करता है। इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति को यह ज्ञात होता है कि उसकी पत्नी चरित्रहीन है, तो वह अन्य स्त्रियों के प्रति भी शंका से घिरा रहता है। इसमें संदेह नहीं कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है।

(25) ईश्वर की माया, कहीं धूप-कहीं छाया

संसार की अधिकांश वस्तुएं विपरीतता के सिद्धांत से जुड़ी हुई हैं । जैसे अंधकार और प्रकाश का विपरीत संबंध है। इन दोनों में से किसी की भी सत्ता समाप्त नहीं हो सकती। इन दोनों का पृथक महत्व भी है। इसी प्रकार समाज में विषमता लक्षित होती है। समाज में अनेक व्यक्ति ऐसे हैं, जिनके पास अपार संपत्ति है तथा अनेक व्यक्ति ऐसे भी हैं जो अन्न के अभाव में तड़प कर मर जाते हैं । इसी प्रकार संसार में कहीं भव्य राजमहल दिखाई देते हैं और कई स्थानों पर ऐसे खंडहर दिखाई देते हैं, जिनमें केवल उल्लू अथवा चमगादड़ निवास कर सकते हैं । समाज में अनेक नारियां सौंदर्य की आभा से मंडित हैं। उनका एक कटाक्ष बाण किसी भी पुरुष के हृदय को घायल कर सकता है तथा ऐसी भी नारियों का अभाव नहीं है जिन्हें देखकर भूत-प्रेतों की कल्पना सत्य प्रतीत होने लगती है। किसी ने सच ही कहा है-ईश्वर की माया, कहीं धूप-कहीं छाया।

(26) निर्बल का है नहीं जगत् में कहीं ठिकाना

जीवन संघर्षमय है। यहां पग-पग पर तरह-तरह की कठिनाइयां आती हैं । तरह-तरह के लोगों से पाला पड़ता है। जगत् में शक्तिशाली लोगों का ही प्रभुत्व होता है । जो दुर्बल और कायर होते हैं, उन्हें कोई नहीं पूछता, उनकी सर्वत्र अवमानना होती है । निर्बल व्यक्तियों को सर्वत्र धक्के ही खाने पड़ते हैं, उपेक्षा का ही शिकार होना पड़ता है । सबल को ही सब मानते हैं तथा महत्व देते हैं। इस जगत् में तो जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली ही बात चरितार्थ होती है । यही कारण है कि शक्तिशाली जीवन की दौड़ में बहुत आगे बढ़ जाते हैं और दुर्बल पिछड़ जाते हैं । निर्बलों का बराबर शोषण होता है । उन्हें अपना जीवन बोझ-सा लगता है । उनका इस जगत में कहीं कोई ठिकाना नहीं है।

(27) एकता में बल है

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य का समाज बनाकर रहने का स्वभाव है । संसार में ऐसे अनेक काम हैं, जिन्हें मनुष्य अकेला नहीं कर सकता। कहावत भी प्रसिद्ध है. अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।' नि:संदेह एक मनुष्य कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, परंतु एक विशाल सेना का सामना वह नहीं कर सकता। इसलिए मिल-जुलकर काम करने की आवश्यकता पड़ती है । एक साथ एक विचार और एक दृष्टिकोण के साथ काम करने की भावना को 'एकता' कहते हैं ।

एकता का महत्व सर्वविदित है । ‘एक और एक ग्यारह' के कथन के अनुसार एकता में बड़ी भारी शक्ति है । मिट्टी का एक कण कुछ भी नहीं है, परंतु एकता के प्रभाव से उनकी बनी हुई दीवान चट्टान की तरह अटूट हो जाती है । अकेली बूंद की कोई सत्ता नहीं होती परंतु सागर या नदी की बाढ़ के दृश्य को देखकर उनकी शक्ति की कल्पना की जा सकती है।

हमारा इतिहास भी इसका साक्षी है कि जब-जब देश में एकता का अभाव रहा, तभी शत्रुओं ने हमारी फूट से लाभ उठाकर हम पर आक्रमण किया और हमें पराधीन बना दिया। मुसलमानों के पश्चात् अंग्रेज आए, तो उन्होंने 'फूट डालो और राज्य करो' का मल-मंत्र निकाला क्योंकि वे देख चुके थे कि यदि भारतीयों में एकता की भावना जाग उठी, तो संसार की कोई भी शक्ति उन्हें पराधीन नहीं रख सकती।

(28) देव-देव आलसी पुकारा

हम मानव को दो श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं- प्रथम कर्मवीर, द्वितीय कर्मभीरू । कर्मवीर संसार और समाज की अनंत असफलताओं, संघर्षों और हानियों से लड़ता हुआ अपना पथ स्वयं ढूंढ लेता है। कर्मवीर का सिद्धांत होता है, कार्य वा साधये देह, वा पातयेयम्' अर्थात् या तो कार्य में सिद्धि प्राप्त करूंगा अन्यथा अपना शरीर नष्ट कर दूंगा। इसे हम दूसरे शब्दों में 'करो या मरो' का सिद्धांत कह सकते हैं। इसके विपरीत कर्मभीरू मनुष्य काम करने से डरता है, काम को देखकर भयभीत होता है । वह परान्न और पराश्रय पर ही अपना जीवन निर्वाह करता है । स्वावलंबन और आत्म-निर्भरता उससे कोसों दूर रहती है। न उसमें आह्वान की शक्ति होती है और न आदर की । क्या आपने कभी सोचा है कि इस प्रकार के कर्मभीरू मानव के पुरुषार्थ और शक्ति को उससे किसने छीन लिया? वह अकर्मण्य क्यों बन बैठा? उदासी ने उसके जीवन में घर क्यों बना लिया? इन सब प्रश्नों का आप केवल एक ही उत्तर पाएंगे कि उसके सुनहरे जीवन को आलस्यरूपी कीटाणुओं ने खोखला बना दिया है । आलस्य मानव-जीवन का सबसे बड़ा शत्रु है, जो उसकी समस्त सृजनात्मक और रचनात्मक शक्तियों को छीनकर उसे मिट्टी का माधो बना देता है।

(29) साहस जहां, सिद्धि तहं होई

साहस की भावना कष्टों का आह्वान करती है, संकटों को ललकारती है, आपत्तियों से भिड़ जाती है। ऊंची आकांक्षाओं की पूर्ति से उसे तृप्ति मिलती है। वे ही मानवता का नेतृत्व किया करते हैं, जो आराम और शारीरिक सुख को दूर फेंक कर अपने वांछित कार्य को करने में उत्साह से जुट जाते हैं। ऐसे साहसी व्यक्ति पुरानी सड़ी-गली हानिकारक कुरीतियों के बंधनों को तोड़ डालते हैं। वे कार्य के बासी रीति-रिवाजों का परित्याग कर दिया करते हैं। वे समाज और शासन के घिसे-पिटे नियमों को मानने से इंकार कर देते हैं, जो महान् लक्ष्य की सिद्धि में बाधक हों। ऐसे व्यक्ति ही समाज और राष्ट्र में क्रांतिकारी परिवर्तन करने में समर्थ होते हैं ।

(30) सुनिए सब की, करिए मन की

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। विभिन्न स्थितियों में व्यक्ति को विभिन्न व्यक्तियों के विचार सुनने को मिलते हैं। यदि कोई व्यक्ति सभी व्यक्तियों के विचारों को स्वीकार करे तो वह कुछ भी करने में असमर्थ होगा। संसार में प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को बुद्धिमान समझता है तथा अन्य व्यक्तियों को उपदेश देना अपना परम कर्तव्य मानता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति के लिए उचित ही कहा जा सकता है कि अपने विवेक से काम ले तथा सोच-समझकर जो भी निर्णय वह ले, दृढ़ संकल्प से उसी निर्णय का सम्मान करे। भाव यह है कि व्यक्ति को समाज में सभी लोगों की बात सुननी चाहिए, परंतु उसे स्वीकार वही बात करनी चाहिए, जिसे उसका पवित्र हृदय उचित मानता हो । प्रश्न यह उठता है कि सबकी बात क्यों सुननी चाहिए? इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति यदि समाज में रहकर समाज के लोगों की बात को नहीं सुनता, तो लोग उसका सम्मान नहीं करेंगे। समाज की दृष्टि में ऐसा व्यक्ति मूर्ख कहलाएगा। अंत में यही कहा जा सकता है कि 'सुनिए सब की, करिए मन की' कहावत व्यावहारिक धरातल पर खरी उतरती है।

(31) घर का भेदी लंका ढाए

इस अदभत संसार में निवास करने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने हृदय कक्ष में अनेक रहस्यों को कैद करके रखता है। व्यक्ति की अनेक दुर्बलताएं होती हैं। वह अपनी स्वाभाविक दुर्बलतावश अनेक अपराध करता है। व्यक्ति के जीवन में ऐसे भी क्षण आते हैं, जब उसे विवश होकर अपराध करना पड़ता है। अपराध की स्मृतियां अनेक बार व्यक्ति के मन में उभरती हैं ।

व्यक्ति यदि अपने उन अपराधों को अथवा किसी विशिष्ट रहस्य को किसी अन्य व्यक्ति को बता देता है, तो उसके मन में एक आशंका जन्म ले लेती है कि उसके रहस्य को जानने वाला व्यक्ति उसे हानि पंहुचा सकता है। जो व्यक्ति किसी विशेष रहस्य की अधिक जानकारी रखता है, वह अधिक हानि पहुंचाने में भी समर्थ हो सकता है । यदि हम अपने देश के इतिहास को देखें, तो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि भारत की लंबी गुलामी के पीछे ऐसे ही लोगों का हाथ अधिक था।

(32) करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।

अभ्यास में बड़ी शक्ति है । अभ्यास करते-करते तो लंगड़ा चलने लगता है, गूंगा बोलने लगता है और असंभव भी संभव हो जाता है। इसलिए कहा गया है-

करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान ।

रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान ।।

कुएं की जुगत पर लगे कठोर पत्थरों को ही ले लीजिए । पानी भरते समय उन पर रस्सी की रगड़ लगती है और इस रगड़ से पत्थरों पर गहरे निशान पड़ जाते हैं। जब जड़ वस्तु में इतना परिवर्तन हो सकता है, तो विवेकशील तथा संवेदनशील मनुष्य के लिए अभ्यास की सहायता से कुछ भी कर लेना असंभव नहीं है।

आज एवरेस्ट पर विजय पाई जा चुकी है। सागर की अतल गहराइयों में छिपी संपदा का हर रहस्य खुल चुका है। आकाश में नक्षत्रों का व्यापक अध्ययन हो चुका है । पृथ्वी के गर्भ में मूल्यवान व कीमती धातुओं तथा खनिज पदार्थों का पता लगाया जा चुका है । यह सब अंततः यों ही नहीं हो गया। यह मनुष्य की खोज के सतत् अभ्यास का परिणाम है । अभ्यास से व्यक्ति आगे बढ़ता है । संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, उन्होंने अपनी प्रतिभा तथा अभ्यास के बल पर नये-नये कीर्तिमान स्थापित किए और समाज को नई-नई दिशाएं दीं।

अर्जुन ने सतत् अभ्यास से शास्त्रविद्या सीखी थी। गुरु द्रोणाचार्य ने भील पुत्र एकलव्य को शस्त्र-विद्या सिखाने से मना कर दिया, तो क्या वह निराश हुआ? नहीं, उसने सतत् अभ्यास से अपने को इतना निपुण तथा प्रवीण कर लिया कि अर्जुन के भी दांत खट्टे कर दिए। इसी प्रकार महाकवि वाल्मीकि, कालिदास, न्यूटन, मैडम क्यूरी, रोनेल्ड रौस, महात्मा गांधी आदि के जीवन-प्रसंग अभ्यास के संदर्भ में दृष्टांत का काम देते हैं। इसलिए कहा जाता है कि निरंतर अभ्यास मानव-जीवन में उस महामंत्र तथा महाशक्ति का काम करता है, जिससे असफलता सफलता में, निराशा आशा में और मरण को जीवन में परिवर्तित किया जा सकता है। आज चिकित्सा विज्ञान ने अपने सतत् अभ्यास तथा खोजों के बल पर मानव को कितने ही जानलेवा रोगों के विषाक्त मुख से निकालकर जीवन क्रांति खड़ी कर दी है। अभ्यास की पीठिका में श्रम का विशेष महत्व है । अभ्यास से ही सारे मनोरथ पूरे होते हैं ।

(33) जाको राखे साइयां मार सके न कोय

मानव स्वार्थ वश दूसरे का अहित सोचता है, वह द्वेष वश दूसरे को हानि पहुंचाने का प्रयत्न करता है। पर उसकी यह दुराशा मात्र होती है । जीवन मरण लाभ हानि सब ईश्वर के हाथ में रहता है । न तो कोई किसी को जीवन दे सकता है तथा न किसी को मार सकता है। ईश्वर सर्वशक्तिमान है । वह सबका रक्षक है । फिर जिसकी रक्षा भगवान करता है उसका मानव क्या अनिष्ट कर सकता है।

(34) आवश्यकता आविष्कार की जननी है।

मनुष्य के स्वभाव,रंग, रूप, कद, विचार आदि एक दूसरे से भिन्न होते हैं । उसी प्रकार उसको आवश्यकताओं में भिन्नता होती है। जैसे-मानव शरीर समय के साथ विकास पाता जाता है, उसकी आवश्यकताओं में भी वृद्धि होती जाती है। अपनी इन्हीं भिन्न व अनेक एवं निरंतर वृद्धिशील आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव निरंतर नये आविष्कार करता जाता है। वह अपना समय, श्रम और धन बचाने के लिए अनेक अनुसंधान नवीन साधनों की खोज के लिए करता है और आविष्कारों की संख्या बढ़ती जाती है । आवश्यकता ने मानव को वक्ष से गफाओं में गफाओं से मकानों में, मकानों से अट्टालिकाओं में और अट्टालिकाओं से अंतरिक्ष तक पहुंचने के लिए हजारों उपयोगी आविष्कार किये हैं । इसलिए कहा गया है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है।

(35) हिम्मत करे इन्सान तो क्या काम है मुश्किल

संसार में हिम्मती लोगों का ही प्रभुत्व होता है । जो दुर्बल और कायर होते हैं, उन्हें कोई नहीं पूछता । साहस की भावना कष्टों का आह्वान करती है संकटों को ललकारती है तथा आपत्तियों से चिड़ जाती है । हिम्मत करने पर कठिन से कठिन कार्य भी हो जाता है, बगैर हिम्मत के आसान से आसान कार्य भी नहीं हो पाता । साहस दिखाने पर सारी आपत्तियां दूर हो जाती हैं तथा असंभव दिखने वाले कार्य भी संभव हो जाते हैं ।

(36) गहरे पानी पैठने से मोती मिलता है।

श्रम से ही मानव कुछ प्राप्त कर सकता है। किसी भी विषय में हम जितना अधिक मनन करेंगे, जितना अधिक प्रयत्न करेंगे उतना ही हम प्राप्त कर सकेंगे। केवल चाह से कुछ पाना असंभव है। उसके लिए गहराई से उसमें उतरना होगा। यदि हम सच्चे मन से प्रयत्न करेंगे तो मन वांछित वस्तु प्राप्त कर सकेंगे। दही को मथ कर ही हम उसमें से घी निकाल सकते हैं ।

(37) निंदक नियरे राखिए

जब से मनुष्य ने सभ्यता-संस्कृति का चोला धारण किया स्वयं को अन्य पश-पक्षियों, जंगली जंतुओं से भिन्न बनाया, तभी से मनुष्य में प्रगति की संचेतना उत्पन्न हुई। जिस समय समाज का उसने निर्माण किया उसमें उसके अतिरिक्त शत्रु, आलोचक, प्रशंसक आदि सभी ने अपना स्थान बनाया । मनुष्य ने स्वयं को सामाजिक प्राणी बनाया। इस समाज में प्रगति करना उसका प्रारंभ से ही महान लक्ष्य रहा है । मनुष्य समाज में उन्नति तभी कर सकता है जब उसके कुछ आलोचक होंगे। आलोचक को यथार्थ निंदक नहीं कहा जा सकता। आज तो संसार में प्रत्येक वस्तु के, प्रत्येक प्राणी के दो स्वरूप हैं। उसी प्रकार मानव-मात्र के सहयोगियों के भी दो रूप हैं। एक प्रशंसक तथा दूसरा निंदक । प्रशंसक कभी-कभी झूठी प्रशंसा भी करते रहते हैं। निंदक कभी झूठी निंदा नहीं करता । जो हमें झूठी निंदा प्रतीत होती है उसे भी हमें वास्तविक जानकर अपने अवगुणों को दूर करना चाहिए। जिस प्रकार प्रजातंत्र तभी सफल होगा जब उसका विरोधी पक्ष प्रबल होगा उसी प्रकार मनुष्य तभी प्रगति करेगा जब उसके निंदक उसके निकटवर्ती रहेंगे।

(38) बीती ताहि विसार दे

जीवन में अनेक बार दुःख-सुख आते रहते हैं। व्यक्ति को चाहिए कि वह भूतकाल की घटनाओं को याद करके दुःखी न होता रहे । बीती हुई घटनाओं तथा प्रसंगों को भूल जाए । बीती हुई बातों को याद रखने वाले व्यक्ति की स्थिति कंधे पर लाश रखकर भटकने वाले व्यक्ति वर्तमान को महत्व नहीं देता। वह अतीत की अंधेरी गलियों में प्रेतग्रस्त व्यक्ति के समान भटकता है । बीती बातों को भूल जाने वाला व्यक्ति हमेशा प्रसन्न रहता है। वर्तमान में जीने वाला व्यक्ति ही उन्नति के राजमार्ग पर आगे बढ़ सकता है।

(39) सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा

भारत देश हमारे लिए स्वर्ग के समान सुन्दर है । इसने हमें जन्म तो दिया है। साथ ही इसकी गोद में पल कर हम बड़े हुए हैं । इसके अन्न-जल से ही हमारा पालन-पोषण हुआ है। अत: हमारा कर्तव्य है कि हम इसे प्यार करें। इसे अपना समझें, इस पर अपना सर्वस्व निछावर कर दें।

हमारे देश का नाम भारत या भारतवर्ष है। पहले इसका नाम आर्यावर्त था। कहते है कि महाराज दुष्यन्त और शकुन्तला के न्यायप्रिय पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत प्रसिद्ध हुआ। हिन्दू-बहुल होने के कारण इसे हिन्दुस्तान भी कहते हैं।

आधुनिक भारत उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक तथा पूर्व में असम से लेकर पश्चिम में गुजरात तक फैला हआ है। उत्तर में हिमालय पर्वत भारतमाता के सिर पर हिममुकुट के समान सुशोभित है तथा दक्षिण में हिन्द महासागर इसके चरणों को निरन्तर धोता रहता है।

भारत संसार का सबसे विशाल प्रजातांत्रिक राष्ट्र है । जनसंख्या की दृष्टि से विश्व में इसका दूसरा स्थान है। यहां पर प्रायः सभी धर्मों के लोग मिल-जुलकर रहते हैं। यहां के झरने, पर्वत, नदियां, वन-उपवन, हरे-भरे मैदान, रेगिस्तान, समुद्र तट इस देश की शोभा के अंग हैं। धरती का स्वर्ग एक ओर कश्मीर में दिखाई देता है तो दूसरी ओर केरल की हरियाली स्वर्ग का आनन्द देती है। यहां की गंगा, यमुना, कावेरी, कृष्णा, रावी, व्यास आदि नदियां प्रसिद्ध हैं।

भारतवर्ष में राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर आदि महापुरुषों ने अवतार लिये। यहां अनेक प्रतापी राजा हुए। गरीबों के मसीहा महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, पं. जवाहर लाल नेहरू का जन्म भी इसी देश में हुआ।

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- 'हमारी मातृभूमि दर्शन, धर्म, नीति-विज्ञान, मधुरता, कोमलता अथवा मानव-जाति के प्रति अकपट प्रेमरूपी सदगुणों को जन्म देने वाली है। ये सब चीजें अभी भारत में उपस्थित हैं। मुझे पृथ्वी के सम्बन्ध में जो जानकारी है, उसके बल पर मैं दृढ़तापूर्वक कह सकता हूं कि इन चीजों में पृथ्वी के अन्य देशों की अपेक्षा भारत श्रेष्ठ है।

इस प्रकार धर्म, संस्कृति, दर्शन का संगम, संसार को शान्ति ओर अहिंसा का सन्देश देने वाला मानवता का पोषक 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का नारा देने वाला भारत किसको प्रिय न होगा। इसकी इन्हीं विशेषताओं के कारण महान् शायर इकबाल ने कहा था 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा

(40) बुरा मत देखो, बुरा मत कहो, बुरा मत सुनो

गांधीजी तीन बन्दरों को हमेशा अपने पास रखते थे और उन्हें अपना गुरु मानते थे। इन तीनों बन्दरों की विशेषता यह थी कि एक अपनी आंख बन्द किए रहता, दूसरा अपने कान बन्द किए रहता और तीसरा अपना मुंह बन्द किए रहता। यह तीनों बन्दर हमें यह सन्देश देते हैं- 'बुरा मत देखो, बुरा मत कहो, बुरा मत सुनो।' अर्थात् हमें बुरा का त्याग प्रत्येक रूप में करना चाहिए। हम यदि बुरा नहीं देखेंगे तो अच्छा देखेंगे जिससे हमारे संस्कार अच्छे होंगे तथा हम अच्छे को ही ग्रहण करेंगे। बुरा मत कहो से तात्पर्य है कि हमें किसी की बुराई नहीं करना चाहिए । बुरा कहने से हमारे विचारों में बुराई का मिश्रण हो जाता है जो हमारी सोच को दषित कर देता है अतः इसका भी त्यागना उचित ही है । बुरा मत सुनो का अर्थ है कि बरा सनना भी उतना ही गलत है जितना कि बुरा कहना और बुरा देखना । इस प्रकार ये तीनों बन्दर हमें सन्देश देते हैं कि हमें जीवन में बुरे आचरण, बुरी आदतों, बुरे ज्ञान से दूर रहते हुए अच्छे आचरण अच्छी आदतों तथा अच्छे ज्ञान को ग्रहण करना चाहिए।

(41) परहित सरिस धर्म नहीं भाई

ईश्वर की पूजा-पाठ, आराधना ही धर्म नहीं है। धर्म प्राणिमात्र हेतु सुख तथा आनंद का दाता है। अगर हम दूसरों के हित का ध्यान रखें, तो यह भी किसी धर्म से कम नहीं है । वास्तव में, यह मानव-धर्म है, व्यावहारिक धर्म है। यह व्यावहारिक धर्म भी मानवीय गुणो के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। परोपकार की भावना आ जाने पर धर्म का मूल उद्देश्य स्वतः पूर्ण हो जाता है। जीवन में कई बार ऐसी स्थितियां आती हैं, जबकि सत्य और अहिंसा को त्यागना पड़ता है। शठ के साथ शठता, कपटी के साथ कपट तथा शिष्ट के साथ शिष्टता का व्यवहार करना पड़ता है। परंतु परोपकार एक ऐसा गुण है, जिसे अगर सभी व्यक्ति अपना लें, तो संसार का ढांचा ही बदल जाये। धर्म का कोई भी सिद्धांत परोपकार से बड़ा नहीं है। यदि सभी लोग एक-दूसरे के कार्यों में हाथ बंटाएं, एक-दूसरे के हितों का ध्यान रखें, तो आपसी वैमनस्य स्वतः मिट जाएगा। धर्मज्ञों का कहना है कि 'जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही तुम दूसरों के लिए करो।' इस कथन का यही अर्थ है कि स्वहित तथा परहित में कोई विशेष भेद नहीं है । स्पष्ट है परोपकार ही सबसे बड़ा धर्म है । परोपकार के लिए ही महापुरुष इस संसार में जन्म लेते हैं। श्रीकृष्णजी ने स्वयं लोगों के कल्याण के लिए इस धरती पर अवतार लिया था।

(42) सबै दिन होत न एक समान

प्रकृति परिवर्तनशील है। जीवन और जगत की गति सदैव एक जैसी नहीं रहती। प्रात:काल का सूर्य संध्याकाल में निस्तेज हो जाता है जो आज समस्त व्यंजनों का भोग करता पाया जाता है वह कल भूख से बिलखता फिरता है । दाने-दाने को तरसता हुआ व्यक्तिधन-संपदा के असीम समुद्र में तैरते हुए मिलता है । आनंद. से फूला न समाने वाला अगले दिन विपत्तियों से घिरा हुआ आंसू बहाता है । उन्नति के शिखर पर आसीन व्यक्ति दूसरे ही क्षण अवनति के गर्त में गिरा पाया जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि इस संसार में किसी की गति एक सी नहीं रहती। किसी का समय सदैव एक जैसा नहीं रहता। कभी अच्छे दिन आते हैं तो कभी बुरे । यह क्रम चलता रहता है।

संक्षेपण एक मानसिक अभ्यास है जिससे विद्यार्थियों में क्या बढ़ती है?

(43) संक्षेपण का अर्थ ही है कम से कम शब्दों का प्रयोग कर किसी भी अनुच्छेद एवं विचारों को ज्यादा से ज्यादा रूप में व्यक्त कर पाना और अपनी पूरी बात कह देना। (45) संक्षेपण से किसी भी विद्यार्थी या मनुष्य में तर्क एवं निर्णय लेने की काबिलियत का विकास होता है , क्यूंकि वह व्यक्ति कम से कम शब्दों में अपनी बात रखपाता है।

संक्षेपण के विषय गत नियम क्या है?

संक्षेपण के विषयगत नियम इसके लिए यह आवश्यक है कि मूल अवतरण कम-से-कम तीन बार पढ़ा जाय। (2) मूल के भावार्थ को समझ लेने के बाद आवश्यक शब्दों, वाक्यों अथवा वाक्यखण्डों को रेखांकित करें, जिनका मूल विषय से सीधा सम्बन्ध हो अथवा जिनका भावों या विचारों की अन्विति में विशेष महत्त्व हो। इस प्रकार, कोई भी तथ्य छूटने न पायेगा।

शीर्षक क्या कहलाता है?

शीर्षक सदैव सामग्री पर आधारित और उसके केंद्रीय भाव से जुड़ा हुआ होना चाहिए। सार-संक्षेपण लिखने से पहले ही यदि शीर्षक स्पष्ट हो जाए तो विचारों को सार रूप में कागज़ पर उतारने में बहुत सुविधा रहती है। शीर्षक का चुनाव करना किसी चीज़ को जैसे का तैसा रट लेने वाला कार्य नहीं है बल्कि इसका प्रयोग चतुराई के साथ करना चाहिए।

गद्यांश का सारांश कैसे लिखते हैं?

जिस भी गद्यांश या पद्यांश का सार लिखना है, उसे बार-बार (अर्थ ग्रहण करते हुए) पढ़िए। कठिन शब्दों के अर्थ अवश्य समझने चाहिए।.
भाव और विचारों की पुनरावृत्ति छोड़ दें।.
विशेषणों का अनावश्यक प्रयोग न करें।.
उपमा, दृष्टांत आदि अलंकारों के प्रति मोह न करें।.
शब्द-जाल से बचें।.
व्यास शैली का प्रयोग न करें।.