अनुवाद को किसकी संज्ञा दी गयी है? - anuvaad ko kisakee sangya dee gayee hai?

अनुवाद

'अनुवाद' शब्द आज हम लोगों के लिए बहुत ही परिचित हो गया है। एक भाषा में कही गई बात को दूसरी भाषा में व्यक्त करना ही अनुवाद है। अनुवाद एक भाषिक प्रक्रिया है।

भाषा एक प्रतीकात्मक व्यवस्था है जिसका उद्देश्य है संप्रेषण या विचारों का आदान-प्रदान। अनुवाद में अनुवादक को दो प्रतीक व्यवस्थाओं से जूझना पड़ता है। वह एक प्रतीक व्यवस्था में व्यक्त अर्थ को दूसरी प्रतीक व्यवस्था में अंतरिक करता है। अत: हमें अनुवाद के स्वरूप को समझने के लिए एक ओर प्रतीक की संकल्पना को समझना होता है क्योंकि एक स्तर पर अनुवाद अर्थ का प्रतीकात्मक भी होता है तथा दूसरी ओर भाषा-सिद्धांतों को भी समझना होता है क्योंकि अनुवाद दो भाषाओं के मध्य होने वाला भाषान्तरण भी है।

उद्देश्य

इस लेख में आपको अनुवाद के बारे में सम्पूर्ण जानकारी मिलेगी-

  • अनुवाद शब्द की व्युत्पत्ति कैसे हुई समझ सकेंगे,
  • अनुवाद से क्या तात्पर्य है यह बता सकेंगे,
  • अनुवाद का महत्त्व पहचान सकेंगे.
  • अनुवाद की परिभाषाएं बता सकेंगे,
  • अनुवाद के स्वरूप का उल्लख कर सकंगे।

अनुवाद शब्द की व्युत्पत्ति

अनुवाद शब्द अनु' उपसर्ग तथा 'वाद' शब्द के संयोग से बना है- अनु+वाद-अनुवाद। अनु' उपसर्ग का अर्थ होता है पीछे या अनुगमन करना तथा 'वाद' शब्द का संबंध है वाद् धातु से, जिसका अर्थ होता है कहना या बोलना। इस प्रकार अनुवाद शब्द का शाब्दिक अर्थ तो होगा (किसी के) कहने या बोलने के बाद बोलना।

आज अनुवाद शब्द को हम जिस अर्थ में ग्रहण करते हैं वह संस्कृत में प्रयुक्त अनुवाद के अर्थ से थोड़ा भिन्न है। आज अनुवाद शब्द को अंग्रेजी के Translation शब्द के पर्याय के रूप में ग्रहण किया जाता है। अग्रंजी का ट्रांसलेशन शब्द भी लैटिन के दो शब्दों Trans तथा lation के संयोग से बना है जिसका अर्थ होता है-पार ले जाना। वस्तुतः अनुवाद में एक भाषा में कही गई बात को दूसरी भाषा में ले जाया जाता है। अत: एक भाषा के पार (दूसरी भाषा में) ले जाने की प्रक्रिया के लिए ही ट्रांसलेशन शब्द अंग्रेजी में प्रचलित हो गया।

इस प्रकार संस्कृत तथा अंग्रेजी के शब्दों की व्युत्पत्ति के आधार पर हम कह सकते हैं कि-

  • अनुवाद शब्द का अर्थ है - एक बार कही गई बात को दोहराना या पुनर्कथन।
  • यहां शब्द तथा शब्द रूपों की बजाए अर्थ के दोहराए जाने की बात की ओर संकेत किया जा सकता है।
  • ट्रांसलेशन शब्द से भी लगभग यही अर्थ निकलता है कि अनुवाद वह प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत एक भाषा के पाठ में व्यक्त अर्थ को दूसरी भाषा में ले जाया जाता है।

इस प्रकार दोनों दृष्टियों में कोई मौलिक भेद नहीं है। एक में अर्थ को दोहराने की बात कही गई है दूसरी में अर्थ को एक भाषा से उठाकर दूसरी भाषा में ले जाने की बात कही गई है।

अनुवाद का अर्थ

अनुवाद एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम एक भाषा में व्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में व्यक्त करते हैं। जिस भाषा से अनुवाद किया जाता है उसे स्रोत भाषा तथा जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है उसे लक्ष्य भाषा कहते है। उदाहरणार्थ, स्रोतभाषा बंगला में लिखी रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानी काबुलीवाला' का अनुवाद लक्ष्यभाषा' हिन्दी में किया जाता है। एक स्रोत भाषा की रचना अनेक लक्ष्यभाषाओं में समय-समय पर अनुदित हो सकती है। अनुवाद की प्रक्रिया को अत्यंत सरल रूप में समझना हो तो यों कह सकते हैं कि बंगला की कहानी पढ़कर उसे हिन्दी में प्रस्तुत करना अनुवाद है।

अनुवाद की परिभाषा

हम चर्चा कर चुके हैं कि अनुवाद दो भाषाओं के बीच एक सेतु का काम करता है। अनुवाद वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से हम एक भाषा में व्यक्त-विचारों को दूसरी भाषा के पाठकों तक पहुंचाने का कार्य करते हैं। अब हम अनुवाद की परिभाषा देने का प्रयास करेंगे। विद्वानों ने अनुवाद की थोड़े बहुत अंतर के साथ अलग-अलग परिभाषाएं दी हैं। अनुवाद के स्वरूप को समझने में ये परिभाषाएं हमारी काफी मदद कर सकती हैं।

आइए पहले विद्वानों द्वारा दी गई इन परिभाषाओं पर दृष्टिपात करें-

नाइडा (1969)

"अनुवाद का तात्पर्य है स्रोत भाषा में व्यक्त संदेश के लिए लक्ष्य भाषा में निकटतम सहज समतुल्य संदेश को प्रस्तुत करना। यह समतुल्यता पहले तो अर्थ के स्तर पर होती है फिर शैली के स्तर पर।"

Translating consists in producing in the receptors language the closet natural equivalent to the message of the source language first in meaning and secondly in style.

इस प्रकार नाइडा अनुवाद में अर्थ अर्थात् कथ्य पक्ष तथा शैलो अर्थात् शिल्प दोनों को ही महत्त्व देकर चलते हैं। उनके अनुसार सफल अनुवादक वही हो सकता है जो लक्ष्य भाषा में अर्थ और शैली की समतुल्यता की सृष्टि कर पाने में समर्थ होता है।

कैटफोर्ड (1965)

"एक भाषा की पाठ्य-सामग्री को दूसरी भाषा की समानार्थक पाठ्य सामग्री में प्रतिस्थापित करना ही अनुवाद है।"

The replacement of material in one language by equivalent textual material in another language.

इस तरह कैटफोर्ड अनुवाद को पाठ्य सामग्री के प्रतिस्थापन के रूप में परिभाषित करते हैं। उनके अनुसार यह प्रतिस्थापन भाषा के विभिन्न स्तरों-स्वन, स्वनिम, लेखिम, भाषा की वर्ण संबंधी इकाइयों-लिपि, वर्णमाला आदि शब्द तथा संरचना सभी स्तरों पर होना चाहिए।

नाइडा ने अनुवाद में मूल पाठ के शिल्प की तुलना में अर्थ पक्ष के अनुवाद को अधिक महत्त्व दिया था, वहां कैटफोर्ड अर्थ की तुलना में शिल्प संबंधी तत्त्वों को अधिक महत्त्व देते हैं।

न्यूमार्क

"अनुवाद एक ऐसा शिल्प है जिसमें एक भाषा में व्यक्त संदेश के स्थान पर दूसरी भाषा के उसी संदेश की प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाता है।"

उपर्युक्त तीनों ही परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि अनुवाद एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत एक भाषा के पाठ में व्यक्त संदेश को दूसरी भाषा के पाठ के माध्यम से व्यक्त किया जाता है या इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि अनुवाद एक भाषाई पाठ में व्यक्त संदेश को दूसरी भाषा के पाठ में प्रस्तुत करने की प्रक्रिया का परिणाम है । अतः अनुवाद एक प्रक्रिया भी है और उसका परिणाम भी।

हैलिडे अनुवाद को प्रक्रिया या उसके परिणाम के रूप में न देखकर उसे दो भाषाई पाठों के बीच में संबंध के रूप में देखते हैं क्योंकि उनके अनुसार ये पाठ एक जैसी स्थितियों में एक जैसा प्रकार्य ही करते हैं-

हैलिडे (1964)

"अनुवाद एक संबंध है जो दो या दो से अधिक पाठों के बीच होता है, ये पाठ समान स्थिति में समान प्रकार्य संपादित करते हैं।"

अर्थात् हैलिडे ने अनुबाद को ऐसे संबंध के रूप में परिभाषित करने का प्रयास किया है जो दो भाषाओं के पाठों के मध्य होता है। शर्त यही है कि ये दोनों पाठ समान अर्थ को व्यक्त करने वाले होने चाहिए। उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि एक भाषा में प्रस्तुत कथ्य को दूसरी भाषा में प्रस्तुत करना अनुवाद है। अनुवाद की सभी परिभाषाएं वस्तुत: अनुवाद की प्रवृत्ति को स्पष्ट करने का कार्य करती है।

निष्कर्ष रूप में हम अनुवाद के निम्नलिखित प्रमुख लक्षण बता सकते हैं-

  • अनुवाद दो भिन्न भाषाओं के बीच होने वाली एक भाषिक प्रक्रिया है।
  • जिस भाषा से अनुवाद किया जाता है उसे स्रोत भाषा तथा उसके पाठ को स्रोत भाषा पाठ या मूल पाठ तथा जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है उसे लक्ष्य भाषा एवं उसके पाठ को लक्ष्य भाषा पाठ कहा जाता है।
  • लक्ष्य भाषा पाठ को ही अनूदित-पाठ भी कहा जाता है।
  • स्रोत भाषा पाठ या मूल पाठ के जिस अर्थ का अनूदित पाठ में अंतरण या प्रतिस्थापन किया जाता है वह अर्थ ही अनुवाद का संदेश कहलाता है।
  • स्रोत भाषा पाठ तथा अनुदित पाठ दोनों के बीच एक संबंध स्थापित हो जाता है और इस संबंध का मुख्य आधार यह संदेश ही होता है। अर्थात् दोनों ही पाठ उसी संदेश या अर्थ को व्यक्त करने के कारण समानार्थी होते हैं।
  • अनुवाद मूल भाषा पाठ के जिस अर्थ को लक्ष्य भाषा में अंतरित करता है उस का क्षेत्र व्यापक होता है। यह अर्थ केवल संरचना के अर्थ तक ही सीमित नहीं होता। इस के क्षेत्र में संरचनार्थ संदर्भार्थ तथा सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भो से संबंधित सभी अर्थ आ जाते हैं।
  • अनुवादक का मुख्य ध्येय यही है कि वह मूल पाठ के भाव को संप्रेषित करने का पूरा ध्यान रखें।

अनुवाद का विस्तार

आज सारे विश्व में अनुवाद की आवश्यकता का अनुभव किसी न किसी रूप में अवश्य किया जाता है। विभिन्न भाषा-भाषी समुदायों के बीच संप्रेषण प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण घटक बन कर अनुवाद हमारे सामने आता है। आज संसार के किसी भी देश में कोई नई खोज होती है, कोई नया विचार सामने आता है तो हर व्यक्ति यही चाहता है कि उसकी सूचना जल्दी से जल्दी वह अपनी भाषा के माध्यम से अपने देशवासियों को दे सके। जिस प्रकार प्रत्येक भाषा संरचना अपने में विशिष्ट होती है उसी तरह से उस भाषा का सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ भी विशिष्ट होता है। अनुवाद दो भाषाओं को ही निकट लाने का कार्य नहीं करता बल्कि दो भिन्न संस्कृतियों को भी परस्पर निकट ले आता है।

अनुवाद के माध्यम से हम विश्व साहित्य का परिचय प्राप्त कर सकते हैं। उदाहरण के लिए पंचतंत्र की कहानियों का अनुवाद विश्व की अनेक भाषाओं में हुआ। इन कहानियों ने आगे चलकर एशिया तथा यूरोप के कथा साहित्य को प्रभावित किया। कालिदास के 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' नाटक से वहां के अनेक नाटककार अपने-अपने ढंग से प्रभावित हुए हैं। इसी प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध के आस-पास हिन्दी के एक प्रसिद्ध रूसी विद्वान् वारन्निकोव ने “रामचरिमानस" का अनुवाद रूसी भाषा में करके एक अद्भुत कार्य ही नहीं किया बल्कि उस अनुवाद ने साहित्य, संस्कार, धर्म, दर्शन आदि के अध्ययन के प्रति रूचि पैदा कर दी।

इस शताब्दी में आकर तो अनुवाद हमारी अनिवार्यता ही बन गया है। विभिन्न राष्ट्रों के बीच नित्य नए-नए तरह के राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक संबंध स्थापित हो रहे हैं और नित्य विभिन्न प्रकार के दस्तावेज संबंध-पत्र दोनों देशों की भाषाओं में तैयार किए जाते हैं। यह सब कार्य अनुवाद के ही माध्यम से सुलभ हो पाता है। यू. एन. ओ. में जो भी वक्तव्य पढ़ा जाता है उसका अनुवाद तुरंत ही विश्व की अनेक भाषाओं में उपलब्ध कराया जाता है। कहने का तात्पर्य यही है कि आज विश्व मंच पर अनुवाद की कितनी महत्ता है हम स्वयं अनुभव कर सकते हैं।

भारत तो बहुभाषा-भाषी देश है।

यहां अनेक भाषाएँ बोली जाती है। इन विभिन्न भाषा-भाषी भारतीयों के बीच भावात्मक एकता बनाए रखने के लिए तो अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका है ही, साथ ही शिक्षा, कानून, प्रशासन, चिकित्सा, वाणिज्य एवं व्यवसाय, कृषि, पर्यटन, दूरसंचार आदि के क्षेत्र में भी सभी भारतीयों को एक सूत्र में बाँधे रखने के कार्य में अनुवाद की बहुत बड़ी भूमिका रही है। गोपीनाथन (1975:15) के शब्दों में हम कह सकते है कि अनुवाद एक ऐसा सेतु बंधन का कार्य है जिसके बिना विश्व संस्कृति का विकास संभव नहीं है।

अनुवाद के द्वारा हम मानव के इस विश्व कुटुम्ब में सपूर्ण एकता एवं समझदारी की भावना विकसित कर सकते हैं, मैत्री एवं भाईचारे को विकसित कर सकते है और गुटबंदी, संकुचित प्रान्तीयतावाद आदि से मुक्त होकर मानवीय एकता के मूल बिंदु तक पहुँच सकते हैं।

चूँकि अनुवादक दो अलग-अलग भाषा समाज के लागों के बीच मध्यस्थता का कार्य करता है अतः अनुवाद का महत्त्व स्वतः ही सिद्ध हो जाता है। आज संप्रेषण-व्यापार के विभिन्न संदर्भो के बीच अनुवाद एक महत्त्वपूर्ण घटक बनकर हमारे सामने आ गया है। संसार का हर छोटा बड़ा देश दूसरे देश से जुड़ना चाहता है और इस जुड़ाव में अनुवाद की विशिष्ट भूमिका दिखाई देती है। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि अनुवाद अपने प्रयोजन में बहुआयमी बन चुका है।

पुराने समय में लोग प्रायः धार्मिक ग्रंथों का अनुवाद करते थे और प्राय: वैयक्तिक रूचि ही अनुवाद का आधार होती थी। लेकिन आज अनुवाद मात्र वैयक्तिक रूचि तक ही सीमित नहीं रह गया है। आज अनुवाद व्यावसायिक सामाजिक आवश्यकता बन गया है। और उसका स्वरूप संगठित व्यवसाय के रूप में उभर कर सामने आया है। आधुनिक युग में तो अनुवाद की आवश्यकता वैयक्तिक रूचि पर आधारित न होकर सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक आवश्यकताओं पर आधारित है। इन्हीं आवश्यकताओं के कारण अब अनुवाद व्यक्ति परिधि से निकल कर समष्टि की परिधि में आ गया है। आज के समाज में अनुवाद भी संगठित रूप में किया जाने लगा है अत: निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि अनुवाद का कार्य भी आज अन्य व्यवसायों की ही भांति एक व्यवसाय बन गया है।

अनुवाद का स्वरूप

अनुवाद के स्वरूप को समझने के लिए अनुवाद को प्राय: दो संदर्भो में लिया जाता है-

  1. व्यापक संदर्भ में
  2. सीमित संदर्भ में

अनुवाद का व्यापक स्वरूप

अनुवाद की परिभाष तथा अर्थको स्पष्ट करते समय यह बताया गया था कि अनुवाद में अर्थ को एक भाषा पाठ से दूसरी भाषा के पाठ में अंतरित किया जाता है। परन्तु यह अनुवाद का सीमित संदर्भ है। व्यापक संदर्भ में यह माना जाता है कि दो भिन्न “प्रतीक व्यवस्था" के बीच होने वाला अर्थ का अन्तरण ही अनुवाद है। इसका अर्थ यही है कि अनुवाद के अन्तर्गत एक प्रतीक व्यवस्था में कही गई बात को बिना अर्थ परिवर्तन किए दूसरी प्रतीक व्यवस्था में व्यक्त किया जाता है। इस दृष्टि से यहां यह माना जाता है कि अनुवाद अर्थ या कथ्य का प्रतीकान्तरण दो प्रतीक व्यवस्थाओं के बीच होने वाला अन्तरण व्यापार है।

जब अनुवाद को प्रतीकान्तरण के रूप में लिया जाता है तो अनुवाद का स्वरूप समझने के लिए प्रतीक सिद्धान्तों, प्रतीक की संकल्पना आदि सभी को समझना पड़ता है। अर्थात् यहां अनुवाद को प्रतीक विज्ञान के सिद्धान्तों के संदर्भ में लिया जाता है।

अनुवाद का सीमित स्वरूप

अनुवाद को सीमित संदर्भो में देखने वाली दृष्टि यह मानकर चलती है कि अनुवाद दो भिन्न भाषाओं के बीच होने वाला यह व्यापार है जिसमें एक भाषा से दूसरी भाषा में अर्थ या कथ्य का अंतरण किया जाता है। इसका अर्थ यही हुआ कि सीमित संदर्भो में अनुवाद को "भाषान्तरण'' एक भाषा से दूसरी भाषा में अर्थ का अन्तरण के रूप में ग्रहण किया जाता है।

जब अनुवाद को भाषान्तरण के रूप में लिया जाता है तब यह मान कर चला जाता है कि अनुवाद पर भाषा विज्ञान के सिद्धान्त लागू होते हैं। अत: अनुवाद के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए भाषा विज्ञान के सिद्धान्तों को आधार बनाकर चलना होता है।

इस प्रकार अनुवाद को किसी भी संदर्भ में ले अनुवाद या तो प्रतीक सिद्धान्तों का अनुप्रयोगात्मक रूप है अथवा भाषा-सिद्धान्तों का अत: अनुवाद के स्परुप को स्पष्ट करने के लिए हमें प्रतीक विज्ञान तथा भाषा विज्ञान दोनों के ही आधारभूत सिद्धान्तों को समझना जरूरी होता है।

कथ्य का प्रतीकान्तरण

अभी हमने चर्चा की थी कि अनुवाद का स्वरूप यह संकल्पना लेकर चलता है कि अनुवाद वह प्रक्रिया है जिसमें अर्थ का अन्तरण दो प्रतीक व्यवस्थाओं के बीच किया जाता है। इसीलिए इसे "प्रतीकान्तरण" की संज्ञा प्रदान दी जाती है और इसके स्वरूप को समझने के लिए हमें प्रतीक विज्ञान के सिद्धान्तों का सहारा लेना होता है। इस प्रकार अनुवाद को किसी भी संदर्भ में ले अनुवाद या तो प्रतीक सिद्धान्तों का अनुप्रयोगात्मक रूप है अथवा भाषा सिद्धान्तों का।

अतः अनुवाद के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए हमें प्रतीक विज्ञान तथा भाषा विज्ञान दोनों के ही आधारभूत सिद्धान्तों को समझना जरूरी होता है।

प्रतीक विज्ञान तथा प्रतीक की संकल्पना

प्रतीक विज्ञान वह विज्ञान है जिसके अंतर्गत हम प्रतीकों का अध्ययन करते हैं। प्रतीक क्या है, कैसे बनते हैं आदि का अध्ययन प्रतीक विज्ञान के अंतर्गत किया जाता है।

तब प्रश्न उठता है कि "प्रतीक" क्या है?आपने लोगों को "लाला बती" पर रूकते हए और "हरी बत्ती" पर चलते हुए देखा होगा।अक्सर यह भी सुना होगा कि "लाल बती " रूकने का प्रतीक है और “हरी बली ' चलने का प्रतीक। वस्तुतः लाल बत्ती या हरी बत्ती का अपने के कोई ऐसा अर्थ नहीं है जो रूकने या चलने से संबंधित हो। यह तो हमने रूकने तथा चलने के लिए लाल या हरी बत्ती के संकेतों को प्रतीक चिह्न बना लिया है।

मंदिर में लोग शिवलिंग पर जल चढ़ाते हैं, भगवान शिव का प्रतीक मान कर उसकी पूजा करते हैं। "शिव लिंग" स्वयं में भगवान शिव तो हैं नहीं। वह तो एक पत्थर का टुकड़ा है। लेकिन भक्तों ने उसे भगवान शिव का प्रतीक मान लिया है। जो लोग नास्तिक हैं उनके लिए तो हमेशा ही पत्थर का टुकड़ा है। प्रतीक को समझने के लिए एक अन्य उदाहरण और ले सकते है। चित्र में बना हुआ घोड़ा वास्तव में घोड़ा जानवर नहीं है बल्कि उसका चित्रात्मक प्रतीक हैं।

इसी तरह से भाषा में भी जितने भी शब्द प्रयुक्त होते हैं वे सब प्रतीकात्मक होते हैं या प्रतीक होते हैं। उदाहरण के लिए कुर्सी, मेज, कलम, दवात, आम, अमरूद, मकान, छत आदि सभी शब्द किसी न किसी वस्तु को व्यक्त कर रहे हैं। कलम शब्द लिखने की वस्तु का प्रतीक है तथा कुर्सी शब्द बैठने की वस्तु का। परन्तु यहाँ लाल तथा हरी बत्ती रंग प्रतीक का उदाहरण है, शिवलिंग भगवान शिव के प्रतीक का तथा घोड़े का चित्र चित्रात्मक प्रतीक है, वहां कुर्सी, कलम, दवात आदि शब्द ऐसे भाविक प्रतीक है जो विभिन्न ध्वनियों (स्वर तथा व्यंजन) के संयोग से बनते हैं। ऐसे प्रतीकों को "ध्वन्यात्मक प्रतीक" कहा जाता है। इसीलिए भाषा को "ध्वनि प्रतीक" कहा जाता है।

वास्तव में प्रतीक अक्सर किसी न किसी वस्तु के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं तथा प्रतीकों का महत्त्व तथा उनका अर्थ किन्हीं निश्चित प्रयोक्ताओं के लिए ही होता है जैसे 'शिवलिंग' केवल शिवभक्तों के लिए ही भगवान शिव का प्रतीक है। कुर्सी, मेज शब्द हिन्दी भाषियों के लिए ही वस्तु कुर्सी-मेज के लिए "ध्वनि-प्रतीक" हैं। अंग्रेजी भाषा-भाषी के लिए तो चेयर-टेबल शब्द ही इन वस्तुओं के लिए प्रतीक होंगे।

प्रतीक शास्त्री पीयर्स ने प्रतीक की परिभाषा देते हुए कहा कि प्रतीक वह वस्तु है जो किसी प्रयोक्ता के लिए किसी वस्तु दूसरी वस्तु के स्थान पर प्रयुक्त होती है।

A sing..........is something that stands to somebody for something else in some respect or capacity (Pierce C. S. 1940)

प्रत्येक प्रतीक की संकल्पना तीन इकाइयों के आधार पर बनती हैं। ये तीन इकाइयां हैं-

  1. वस्तु या सांकेतिक वस्तु (referent)
  2. अर्थ या संकेतार्थ (referena) तथा
  3. प्रतीक (Sing)

"वस्तु" का संबंध तो भौतिक जगत से होता है जैसे कुर्सी, मेज, कलम, दवात आदि भौतिक वस्तुएं नित्य हमारे सामने आती हैं। ये सभी वस्तुएं हमारी इन्द्रियों का गोचर बनती है और हमारे मन में इनका एक बिम्ब खड़ा होता है। जैसे मेज, कुर्सी को हम आंख से देखते हैं, गंध को नाक से सूंघते हैं, खट्टा-मीठा, कड़वा आदि का बोध हमारे स्वाद (जिह्वा) से होता है, ठंडे-गर्म आदि का अनुभव हमें स्पर्श से होता है। अर्थात् भौतिक जगत की वस्तुओं के बिम्ब हमारे मानस पटल पर विभिन्न इन्द्रियों के माध्यम से बनते हैं। भौतिक वस्तुओं का यह मानसिक बोध या बिम्ब ही उस वस्तु का अर्थ या संकेतार्थ कहलाता है।

"वस्तु" तथा उसका 'अर्थ' संसार में सब के लिए समान होता है। "कमल" वस्तु तथा उनका अर्थ तो हिन्दी भाषी, संस्कृत भाषी, पंजाबी, गुजराती, मराठी, तमिल भाषी, अंग्रेजी भाषी, जापानी, रूसी भाषी सभी के लिए समान होते हैं। हां अंतर आता है केवल उनकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति में। कोई उसे 'कमल' कहता है (हिन्दी भाषी), कोई उसे जलज कहता है (संस्कृत भाषी) तो कोई उसे 'लोटस' कहता है। (अंग्रेजी भाषा-भाषी)।

इस प्रकार प्रतीक की संकल्पना को हम 'वस्तु' अर्थ तथा 'प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति के विवर्गीय संबंधों में ही समझ सकते है।

यहां यह बात ध्यान रखनी चाहिए के "प्रतीक' का वस्तु के साथ सीधा संबंध नहीं होता। प्रत्येक प्रतीक से पहले हम उसके अर्थ पर पहुंचते हैं और फिर अर्थ से उसकी वस्तु तक। साथ ही भाषा में यह प्रतीक ही अभिव्यक्ति है और अर्थ उसका कथ्य है अत: यह कहा जा सकता है कि भाषा कथ्य और अभिव्यक्ति की समन्वित इकाई है।

इसके साथ-साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वस्तु का जो अर्थ होता है उसके निर्माण में केवल भौतिक वस्तुओं का ही योग नहीं रहता बल्कि प्रयोग कर्ता की अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताओं का भी योग रहता है। उदाहरण के लिए 'उल्लू' शब्द का अर्थ हिन्दी भाषा-भाषी समाज के प्रयोक्ता के लिए मूर्ख है तो जापानी भाषा-भाषी प्रयोक्ता के लिए आउल विद्वान। इसी तरह गाय शब्द यदि किसी स्त्री के लिए प्रयुक्त होता है तो हिन्दी भाषो सभी प्रयोगकर्ता उसका अर्थ सोधी एवं सरल महिला के अर्थ में ग्रहण करता है तो अंग्रेजी भाषा भाषी प्रयोक्ता काउ शब्द को मूर्ख महिला के अर्थ में ग्रहण करता है। परन्तु जहां तक सामान्य “संकेतित अर्थ" का सवाल है हिन्दी और अंग्रेजी में गाय तथा का शब्द एक ही वस्तु की ओर संकेत कर रहे हैं।

कहने का तात्पर्य इतना ही है कि हर भाषा किसी एक वस्तु को भिन्न-भिन्न प्रतीकों से व्यक्त कर सकती है या किसी एक अर्थ या कथ्य को दो भिन्न प्रतीक व्यवस्थाओं के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता है।

अनुवाद में भी यही प्रक्रिया अपनाई जाती है। अनुवादक वस्तुत: एक भाषिक प्रतीक व्यवस्था में व्यक्त अर्थ को दूसरी भाषिक प्रतीक व्यवस्था के माध्यम से व्यक्त करने का कार्य करता है। इस दृष्टि से जब हम अनुवाद को व्याख्यायित करने का कार्य करते हैं तो यह मानकर चलते हैं कि अनुवाद वह व्यापार है जो दो भिन्न प्रतीक व्यवस्थाओं के मध्य घटित होता है तथा जिसके माध्यम से अर्थ या कथ्य को एक प्रतीक व्यवस्था से दूसरी प्रतीक व्यवस्था में अंतरित किया जाता है। इसीलिए व्यापक संदर्भ में अनुवाद को "अर्थ का प्रतीकात्मक" कहा जाता है।

अनुवाद व्यापक संदर्भ में

  • अन्तभाषिक अनुवाद
  • अन्तर भाषिक अनुवाद तथा
  • अन्तर प्रतीकात्मक अनुवाद

अन्तः भाषिक अनुवाद

“अन्तः भाषिक" शब्द का अर्थ है अनुवाद की वह प्रक्रिया जो एक ही भाषा के अंतर्गत घटित होती है। यहां प्रतीक 1 तथा प्रतीक 2 एक ही भाषा के प्रतीक होते हैं। दोनों ही प्रतीकों का संबंध किसी एक भाषा की दो भिन्न व्यवस्थाओं से होता है। अर्थात् यहां अनुवादक एक ही बात को उसी भाषा में कुछ दूसरी तरह से व्यक्त कर देता है। उदाहरण के लिए यदि कोई हिन्दी कविता का अनुवाद हिन्दी गद्य में या हिन्दी गद्य का अनुवाद पद्य में करता है तो यह अन्तः भाषिक अनुवाद का उदाहरण माना जाएगा। इस प्रकार जब एक ही भाषा की एक शैली से उसी भाषा की किसी दूसरी शैली में अनुवाद किया जाता है तो वह अन्तः भाषिक अनुवाद का उदाहरण होता है।

यह तो आप जानते ही है कि हिन्दी तथा उर्दू दो भिन्न भाषाएं नहीं हैं बल्कि एक ही भाषा से जन्मी दो शैलियां हैं जिनकी लिपि अलग-अलग है। हिन्दी शैली में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिक होता है तो उर्दू शैली में अरबी-फारसी के शब्दों का अधिक प्रयोग । हां यह बात अलग है कि हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है तो उर्दू फारसी लिपि में। लेकिन लिपि भिन्न हो जाने से भाषाएं भिन्न-भिन्न नहीं हो जाती। हम किसी भी भाषा को किसी भी लिपि में लिख सकते हैं। (मोहन घर जाता है) वाक्य रोमन लिपि में लिख देने से वह अंग्रेजी भाषा का वाक्य नहीं बन गया। वह वास्तव में हिन्दी भाषा का ही वाक्य है जो रोमन लिपि में लिखा गया है। इसी तरह लिपियां समान हो जाने पर भी भाषाएं परस्पर भिन्न हो सकती है। संस्कृत, मराठी, हिन्दी, नेपाली सभी भिन्न-भिन्न भाषाएं हैं पर लिखी देवनागरी लिपि में ही जाती है। अब यदि कोई व्यक्ति हिन्दी शैली (प्रतीक) से उर्दू शैली प्रतीक 2 में अनुवाद करता है तो वह अन्त भाषिक अनुवाद कहा जा सकता है।

मुंशी प्रेमचन्द ऐसे ही कहानीकार हैं जिन्होंने अपनी अनेक कहानियां पहले हिन्दी या उर्दू में लिखी और फिर उनका अन्त: भाषिक अनुवाद दूसरी शैली में किया। श्रीवास्तव तथा गोस्वामी ने अपनी पुस्तक में 'शतरंज के खिलाडी' का हिन्दी रूप 1924 में पहले "माधुरी" पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। बाद में इसका अन्तः भाषिक अनुवाद उन्होंने उर्दू शैली में किया और यह अनुवाद “शतरंज की बाजी" के नाम से दिसंबर 1924 की “जमाना" पत्रिका में छपा। श्रीवास्तव के ही शब्दों में इस अन्वयांतर (अन्तः भाषिक अनुवाद) को मात्र लिपि परिवर्तन नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस अनुवाद में न केवल शब्द और वाक्य के चयन में भेद दिखाई देता है वरन् रचना के वातावरण के घनत्व और संवेदना की विवृत्ति में भी अन्तर दिखाई देता है। इस तथ्य के प्रमाण में कहानी से निम्नलिखित अंश प्रस्तुत किया गया है-

हिन्दी शैली ("माधुरी" में प्रकाशित)

"अंधेरा हो चला था। बाजी बिछी हुई थी। दोनों बादशाह अपने-अपने सिंहासनों पर बैठे हुए मानों उन दोनों वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे।"

उर्दू शैली ('जनाना' में प्रकाशित)

"अंधेरा हो गया था। बाजी बिछी हुई थी। दोनों बादशाह अपने-अपने तखत पर रौनक अफरोज थे। उन पर हसरत छाई हुई थी, गोया मक्तूलीन की मौत का मातम कर रहे थे।"

अन्तरभाषिक अनुवाद

दो भिन्न-भिन्न भाषाओं की भिन्न-भिन्न प्रतीक व्यवस्थाओं के बीच जो अनुवाद किया जाता है वह अन्तरभाषिक अनुवाद कहलाता है। इसे भाषान्तर भी कहते हैं। यहां प्रतीक 1 तथा प्रतीक 2 दो भिन्न-भिन्न भाषाओं के होते हैं। यह अनुवाद का वह रूप है जिसका प्रयोग हम प्रतिदिन अपने कार्य कलापों में करते हैं। उदाहरण के लिए अंग्रेजी, रूसी, चीनी या जापानी भाषा में यदि अनुवाद किया जाता है तो वह अनुवाद “अन्तरभाषिक अनुवाद" कहलाएगा।

जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है उसे स्रोत भाषा और जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है उसे लक्ष्य भाषा कहते हैं। यहां अनुवादक से यह अपेक्षा की जाती है कि उसका दोनों ही भाषाओं पर समान अधिकार हो न केवल वह स्रोत भाषा तथा लक्ष्य भाषा की संरचना संबंधी विशेषताओं एवं जटिलताओं से बखूबी परिचित हो बल्कि दोनों भाषाओं की सामाजिक, सांस्कृतिक परंपराओं, मान्यताओं, ऐतिहासिक तथ्यों, धार्मिक विश्वासों आदि सभी का ज्ञन होना चाहिए।

अन्तर प्रतीकात्मक अनुवाद

अन्तर प्रतीकात्मक अनुवाद में अनुवाद किसी भाषा की प्रतीक व्यवस्था से किसी अन्य भाषेत्तर प्रतीक व्यवस्था में अनुवाद किया जाता है। अर्थात् उपर्युक्त प्रथम दो प्रकार के अनुवादों में प्रतीक 2 का संबंध किसी भाषा व्यवस्था से था जबकि यहां प्रतीक 2 का संबंध भाषिक व्यवस्था से नहीं होता। उदाहरण के लिए किसी कहानी या नाटक को फिल्म के रूप में अंतरित करना वस्तुत: अन्तर प्रतीकात्मक अनुवाद के अंतर्गत आता है।

आप जानते हैं कि 'गोदान', 'गबन', 'साहब बीबी और गुलाम', 'तीसरी कसम' आदि अनेक उपन्यासों को लेकर जो फिल्में बनी हैं वे अन्तर प्रतीकात्मक का उदाहरण है।

इस तरह अन्तर प्रतीकात्मक अनुवाद में प्रतीक।तो भाषा से संबंधित ही रहता है। परन्तु प्रतीक 2 का संबंध किसी अन माध्यम से हो जाता है। "कामयाबी" में जो कथ्य प्रसादजी ने कविता के माध्यम से व्यक्त किया है उसी कथ्य को चित्रात्मक अभिव्यक्ति देकर जगदीश गुप्त ने प्रस्तुत किया है। यह भी अन्तर प्रतीकात्मक अनुवाद या प्रतीकान्तर का उदाहरण है। किसी कविता को संगीत के सुरों में ढालना भी ऐसा ही अनुवाद है।

अनुवाद सीमित संदर्भ में

व्यापक संदर्भ में अनुवाद के क्षेत्र में न केवल दो भाषाओं के बीच होने वाले अनुवाद को ही सम्मिलित किया गया था बल्कि एक ही भाषा की दो बोलियों या शैलियों के बीच होने वाले अनुवाद तथा भाषिक प्रतीक व्यवस्था तथा भाषिकेतर प्रतीक व्यवस्थाओं के बीच होने वाले अनुवाद को भी शामिल किया गया था।अनुवाद का एक बड़ा ही व्यापक स्वरूप है। लेकिन सीमित संदर्भो में दो भाषाओं के बीच घटित होने वाले अनुवाद व्यापार को लिया जाता है अर्थात् जिसे हमने "अन्तर भाषिक अनुवाद"की संज्ञा प्रदान की थी केवल वही अनुवाद सीमित संदर्भ में आता है। इसीलिए इसमें दो भाषाओं के बीच अनुवाद को ही वास्तविक अनुवाद माना जाता है।

इस प्रकार के अनुवाद अंतर भाषिक अनुवाद को भी दो आयामों में समझना होता है

  1. पाठ धर्मी आयाम
  2. प्रभाव धर्मी आयाम

पाठधर्मी आयाम

पाठधर्मी आयाम के अंतर्गत अनुवाद करते समय स्रोत भाषा के पाठ या मूल पाठ को केन्द्र में रखा जाता है। यहां यह माना जाता है कि मूल भाषा पाठ स्वयं में एक स्वायत्त रचना होती है अतः अनुवादक मूल पाठ की संरचना तथा बुनवट को ध्यान में रखकर ही अनुवाद करे तथा अनुदित पाठ की संरचना तथा बुनावट यथासंभव मूल पाठ के अनुरूप ही हो। अनुवादक को यहां यह अनुमति नहीं है कि वह मूल भाषा पाठ के अभिलक्षणों से भिन्न कुछ भी अपनी ओर से अनूदित पाठ में जोड़ने घटाने का कार्य करे। यहां तो अनुवादक से यही अपेक्षा की जाती है कि अनूदित पाठ की संरचना और बुनावट मूलभाषा पाठ के अनुरूप ही हो।

पाठधर्मी अनुवाद वस्तुतः भाषा के सापेक्षतावादी सिद्धांत पर आधारित है। यह सिद्धांत यह मानकर चलता है कि सांसारिक भौतिक सत्य तथा तथ्य तो संसार में सब के लिए समान ही होते हैं पर उनको देखने की दृष्टि हर भाषा-भाषी समाज की अपनी विशिष्ट होती है। संसार का हर भाषा-भाषी भौतिक सत्य को समान रूप में ग्रहण करेगा यह आवश्यक नहीं है। यही कारण है कि एक ही भौतिक सत्य अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग ढंग से व्यक्त किया जाता है। उदाहरण के लिए विभिन्न भाषाओं में रिश्ते-नाते की शब्दावली को विभिन्न ढंग से व्यक्त किया जाता है। हिन्दी में हमें विभिन्न रिश्ते-नाते के लिए जैसे चाचा, मामा, फूफा, ताऊ, मौसी, मामी, चाची, ताई, बुआ आदि शब्द मिलते हैं। लेकिन अंग्रेजी भाषा में हम इन सभी रिश्ते-नातों के लिए दो शब्दों "अंकल" तथा "आंटी' से काम चला लिया जाता है। उनके यहां चाचा, ताऊ, मामा, मौसा आदि के लिए अलग-अलग शब्द नहीं है। अलग शब्द न होने का यह अर्थ नहीं है कि अंग्रेजी भाषा-भाषी समाज के लोग इन संबंधों में अंतर करके नहीं चलते। भौतिक सत्ता या भौतिक संबंधों के धरातल पर तो ये लोग इन नाते-रिश्तों में अंतर करके चलते हैं। जैसे मामा के लिए Mother's brother, Maternal uncle तथा चाचा के लिए Father's brother, Paternal uncle आदि परन्तु भाषिक अभिव्यक्ति के स्तर पर उनके यहां अलग-अलग शब्द नहीं है।

इस प्रकार यदि हम यह तथ्य स्वीकार कर लेते हैं कि भौतिक जगत को देखने की हर भाषा की अपनी अलग दृष्टि होती है तो अनुवाद करते समय एक सवाल खड़ा हो जाता है। अनुवाद के संदर्भ में एक बात बराबर कही जाती रही है कि अनुवाद में स्रोत भाषा के पाठ में व्यक्त अर्थ को लक्ष्य भाषा पाठ में अंतरित किया जाता है और यदि हम यह मान कर चलते हैं कि भौतिक तथ्यों को देखने की दृष्टि हर भाषा की अलग होती है तो यह मानना होगा कि एक भाषा में व्यक्त अर्थ यथावत रूप में दूसरी भाषा में अंतरित हो ही नहीं सकता। जब भी अनुवादक एक भाषा के अर्थ को दूसरी भाषा में अंतरित करने का प्रयास करेगा, उसमें तथ्य भाषा की दृष्टि के अनुरूप कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य आ जाएगा या दूसरे शब्दों में अर्थ का रूपान्तरण हो जाएगा।

परन्तु अनुवाद तो 'समतुल्यता' के सिद्धांत को लेकर चलता है। वहाँ अर्थ के रूपान्तरण की बात स्वीकार नहीं की जा सकती। अत: विद्वान यह मानने लगे हैं कि अनुवाद में अर्थ का अंतरण नहीं होता बल्कि अर्थ का प्रतिस्थापन [substitution] किया जाता है।

अत: भाषा का सापेक्षतावादी सिद्धांत यही मानकर चलता है कि "अनुवाद प्रक्रिया में श्रोत भाण के पाठ के भाषिक अभिलक्षणों का लक्ष्य भाषा के पाठ में अंतरण नहीं किया जाता वरन् प्रयोजन और प्रकार्य के आधार श्रोत भाषा के अभिलक्षणों को लक्ष्य भाषा के अभिलक्षणों द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है। इसीलिए मुहावरे, लोकोक्तियों सांस्कृतिक शब्दों एवं सामाजिक अभिव्यक्तियों आदि के अनुवाद में अंतरण-प्रक्रिया की अपेक्षा प्रतिस्थापन प्रक्रिया अधिक कारगर सिद्ध होती।

इस प्रकार हम देखते हैं कि अनुवाद का पाठ धर्मी आयाम अनुवाद के रूप स्वरूप को प्रतिष्ठित करता है जहाँ अनुवादक ऐसा अनुदित पाठ प्रस्तुत करे जिसकी प्रकृति सोत भाषा के पाठ की प्रकृति से मेल खाती हो। जिस तरह की संरचनाएँ मूल पाठ से आई है वैसी ही संरचनाएँ अनुवाद में भी प्रस्तुत की जाएँ।

प्रभाव धर्मी आयाम

जहाँ तक तकनीकी तथा सूचना प्रधान साहित्यिक पाठों के अनुवाद का प्रश्न है, पाठ धर्मी अनुवाद वहाँ कारगर हो जाता है परन्तु जब बात सर्जनात्मक साहित्य के अनुवाद की आती है तब केवल पाठ धर्मी अनुवाद से काम नहीं चल पाता। उदाहरण के लिए कविता के अनुवाद में अनुवादक से यह अपेक्षा करना कि वह अनूदित पाठ में वैसी ही संरचनाएँ, छन्द, लय आदि ले आए यह उचित नहीं है। रामचरितमानस की चौपाइयों का किसी अन्य भाषा में चौपाई जैसे छन्द में अनुवाद करें यह संभव नहीं होता। अतः अनुवाद का प्रभाव धर्मी आयाम इस मान्यता को लेकर चलता है (विशेष कर सर्जनात्मक साहित्य के अनुवाद में) कि अनुवादक मूल भाषा पाठ की संरचना तथा बुनावट की अपेक्षा उस प्रभाव को पकड़ने की कोशिश करे जो सोत भाषा के पाठकों पर पड़ा है। फिर अपने अनूदित पाठ के माध्यम से लक्ष्य भाषा के पाठकों के मन में भी वही प्रभाव उत्पन्न करने का प्रयास करे।

उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति प्रेमचन्द की किसी कहानी या उपन्यास का अनुवाद किसी विदेशी भाषा में करता है तो अनुवाद में यह ध्यान देने की अधिक आवश्यकता नहीं है कि वह प्रेमचन्द की कहानी की संरचना तथा बनावट को ध्यान में रखकर अनुवाद करे। बल्कि अनुवादक को यह देखना होता है कि प्रेमचन्द की उस कहानी का हिन्दी भाषा-भाषी पाठकों के मन पर क्या प्रभाव पड़ा है? उसका अनुवाद ऐसा होना चाहिए कि उस विदेशी भाषा के पाठकों के मन में भी अनुदित कृति के माध्यम से वही प्रभाव पड़े जो हिन्दी के पाठक वर्ग के मन पर पड़ा है।

अत: अन्य सर्जनात्मक साहित्यिक विधाओं में भी विशेष रूप से कविता के अनुवाद में तो प्रभाव धर्मी अनुवाद का ही आश्रय लेना होता है। यहाँ यह मानकर चला जाता है कि पाठ तो पाठक तथा लेखक के बीच संबंध स्थापित करने वाला एक ऐसा उपकरण है जिसके आधार पर यह पता लगाया जाता है कि पाठक के मन पर क्या प्रभाव पड़ा है।

सारांश

इस इकाई के अंतर्गत आपको अनुवाद क्या है, अनुवाद की कौन-कौन सी परिभाषाएं विद्वानों ने दी है, अनुवाद के प्रमुख अभिलक्षण कौन से हो सकते हैं तथा अनुवाद का स्वरूप क्या है आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई। आपने सीखा कि 'अनुवाद' शब्द तथा ट्रांसलेशन' शब्द परस्पर कितने निकट है तथा उनकी व्युत्पत्तियां किस प्रकार हुई हैं। अनुवाद की परिभाषाओं के आधार पर आपको बताया गया है कि अनुवाद दो भाषाओं के बीच घटित होने वाला ऐसा क्रिया व्यापार है जिसमें एक भाषा के पाठ में व्यक्त संदेश को दूसरी भाषा के पाठ में प्रतिस्थापित किया जाता है।

अनुवाद के स्वरूप का अध्ययन करते समय आपने यह देखा कि अनुवाद केवल दो भिन्न भाषाओं के बीच घटित होने वाला व्यापार ही नहीं है। दो भाषाओं के बीच घटित होने वाला अनुवाद जिसे 'अन्तर भाषिक अनुवाद' या 'भाषिक अनुवाद' कहा जाता है। वस्तुतः अनुवाद का सीमित संदर्भ है। व्यापार संदर्भ में हम भाषिक अनुवार को तो शामिल करते ही हैं इसके अलावा एक ही भाषा की दो शैलियों, बोलियों, साहित्यिक विद्याओं जैसे कविता से कहानी में या कहानी से कविता में आदि के अनुवाद को भी ले लेते हैं।

इसी को हमने अन्तः भाषिक अनुवाद की संज्ञा प्रदान की थी। इसके अलावा व्यापक संदर्भ में दो भिन्न माध्यमों या प्रतीक व्यवस्थाओं (एक भाषिक माध्यम तथा दूसरा दृश्य, चित्र आदि का माध्यम) के बीच घटित होने वाले अनुवाद को भी व्यापक संदर्भो में अनुवाद का ही क्षेत्र मान लेते हैं। हां व्यावहारिक धरातल पर अन्तर भाषिक अनुवाद या भाषिक अनुवाद को ही अनुवाद का वास्तविक क्षेत्र माना जाता है।

अनुवाद का व्यापक संदर्भ चूंकि प्रतीक विज्ञान के सिद्धांतों के आधार पर खड़ा हुआ है अतः आपको प्रतीक की संकल्पना तथा प्रतीक विज्ञान की आधार मूल मान्यताओं से भी परिचित कराया गया। दूसरी ओर सीमित संदर्भ में भाषा के सापेक्षतावादी सिद्धांत के विषय में आपको परिचय देते हुए यह बताया गया कि सीमित संदर्भो में अनुवाद के दो आयाम पाठ धर्मी तथा प्रभाव धर्मी सामने आते हैं। वस्तुत: पाठ धर्मी अनुवाद सूचना प्रधान तथा तकनीकी साहित्य के अनुवाद में उपयोगी है जबकि सर्जनात्मक साहित्य का अनुवाद प्रभाव धर्मी आयाम के क्षेत्र का विषय है। पाठ धर्मी अनुवाद में मूल पाठ की संरचना तथा बुनावट को ध्यान में रखकर अनुवाद किया जाता है तथा अनूदित पाठ को मूल भाषा के अभिलक्ष्यों, संरचना, बुनावट आदि के अनुरूप प्रस्तुत किया जाता है जबकि प्रभाव धर्मी अनुवाद यह मानकर चलता है कि अनुवाद के माध्यम से लक्ष्य भाषा के पाठकों के मन पर वही प्रभाव पैदा किया जाए तो प्रभाव मूल लेखक ने स्रोत भाषा के पाठकों के मन पर छोड़ा है।

अनुवाद को किसकी संज्ञा दी गयी है? - anuvaad ko kisakee sangya dee gayee hai?

अनुवाद को किसकी संज्ञा दी जाती है?

संस्कृत के 'वद्' धातु से 'अनुवाद' शब्द का निर्माण हुआ है। 'वद्' का अर्थ है बोलना। 'वद्' धातु में 'अ' प्रत्यय जोड़ देने पर भाववाचक संज्ञा में इसका परिवर्तित रूप है 'वाद' जिसका अर्थ है- 'कहने की क्रिया' या 'कही हुई बात'। 'वाद' में 'अनु' उपसर्ग उपसर्ग जोड़कर 'अनुवाद' शब्द बना है, जिसका अर्थ है, प्राप्त कथन को पुनः कहना।

शब्द अनुवाद को क्या कहते हैं?

शब्दानुवाद : स्रोत-भाषा के शब्द एवं शब्द क्रम को उसी प्रकार लक्ष्य-भाषा में रूपान्तरित करना शब्दानुवाद कहलाता है। इसमें अनुवादक का लक्ष्य स्रोत-भाषा में अभिव्यक्त भावों, विचारों एवं अर्थों का लक्ष्य-भाषा में अन्तरण करना होता है।

अनुवाद का मूल अर्थ क्या है?

अनुवाद शब्द की व्युत्पत्ति अनुवाद शब्द अनु' उपसर्ग तथा 'वाद' शब्द के संयोग से बना है- अनु+वाद-अनुवाद। अनु' उपसर्ग का अर्थ होता है पीछे या अनुगमन करना तथा 'वाद' शब्द का संबंध है वाद् धातु से, जिसका अर्थ होता है कहना या बोलना। इस प्रकार अनुवाद शब्द का शाब्दिक अर्थ तो होगा (किसी के) कहने या बोलने के बाद बोलना।

अनुवाद किसे कहते हैं कितने प्रकार के होते हैं?

स्रोत भाषा के पाठ का अनुवाद जब भाव के आधार पर लक्ष्य भाषा में किया जाता है तो उस अनुवाद को भावानुवाद कहते हैं। भावानुवाद के रूप में साहित्यिक पाठों का अनुवाद विशेष रूप से किया जाता है। छायानुवाद: किसी कृति की छाया का अनुवाद यदि एक भाषा से दूसरी भाषा में किया जाता है तो उस अनुवाद को छायानुवाद कहा कहा जाता है।