तुलसी की भक्ति का स्वरूप क्या है? - tulasee kee bhakti ka svaroop kya hai?

तुलसीदास भक्तिकाल की सगुण काव्य धारा के प्रमुख कवि हैं | उन्हें राम काव्यधारा का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है | तुलसीदास जी मूलतः एक भक्त हैं | राम-भक्ति ही उनके जीवन का एकमात्र ध्येय है | श्री राम की भक्ति में रम कर उन्होंने जो कुछ भी लिखा वह काव्य बन गया | यही कारण है कि उनकी भक्ति-भावना उनके सम्पूर्ण काव्य में प्रतिबिम्बित होती है |

भारतीय साहित्य में भक्ति के स्वरूप पर विस्तार से चिंतन-मनन किया गया है | भागवत पुराण में नौ प्रकार की भक्ति का उल्लेख मिलता है | इसे हम नवधा भक्ति कहते हैं | नवधा भक्ति ( Navadha Bhakti ) के अंतर्गत – श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्म निवेदन ; भक्ति के नौ प्रकार माने जाते हैं |
यह सही है कि तुलसीदास जी के साहित्य में नवधा भक्ति के सभी रूप मिलते हैं लेकिन उनकी भक्ति मूल रूप से दास्य-भक्ति है |

तुलसीदास जी की भक्ति भावना को निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है –

1️⃣ सगुण-भक्ति — तुलसीदास जी की भक्ति सगुण भक्ति है | वे दशरथ पुत्र राम को अपना आराध्य देव मानते हैं | वे श्री राम को कोई सामान्य मानव न मानकर भगवान विष्णु का अवतार मानते हैं | उनका मानना है कि अपने भक्तों का उद्धार करने के लिए उन्होंने पृथ्वी पर अवतार लिया है | तुलसी के राम सृष्टि के कर्त्ता, धर्त्ता और संहारकर्त्ता हैं | वे दीनबंधु, भक्तवत्सल और दया-निधान हैं | वह शील, शक्ति और सौंदर्य के समन्वित रूप हैं | वह परब्रह्म हैं |

2️⃣ दास्य-भावना — तुलसीदास जी भगवान राम को सबसे महान और अपने आप को सबसे तुच्छ मानते हैं | उनकी संपूर्ण भक्ति इसी दास्य भावना पर आधारित है | वे कहते हैं –

राम सो बड़ो है कौन मौसो कौन छोटो |

राम सो खरो है कौन, मौसो कौन खोटो |

तुलसीदास जी की भक्ति-भावना में दीनता का भाव प्रमुख है | वे अपने काव्य में बार-बार अपनी दीनता का वर्णन करते हैं | उनका मानना है कि प्रभु दीन-हीन व्यक्तियों पर शीघ्र ही कृपा करते हैं और उनके दुखों का निवारण करते हैं | इसलिए तुलसीदास जी अपने काव्य में अपनी दीन-भावना का वर्णन करके उन्हें प्राप्त करना चाहते हैं | व्यावहारिक जीवन में भी जब हम किसी से कुछ मांगना चाहते हैं तो हम उसके समक्ष अपनी विवशता प्रकट करते हैं | यही स्थिति भक्तों की भी होती है |

तुलसीदास जी अपने काव्य में स्वयं को सेवक के रूप में प्रस्तुत करते हैं | उनके शब्दों में भक्त और प्रभु के बीच में सेवक-सेव्य भाव होना चाहिए | उनका मानना है कि जब तक भक्त और प्रभु में सेवक और सेव्य का भाव नहीं होगा तब तक भक्त इस भव-सागर से पार नहीं हो सकता | वे कहते हैं –

” सेवक-सेव्य भाव बिनु भव न तरिय उरगारि |”

3️⃣ सगुण और निर्गुण का समन्वय — यद्यपि तुलसीदास जी सगुण भक्ति में विश्वास रखते हैं लेकिन फिर भी उनकी भक्ति में सगुण और निर्गुण का समन्वय दिखाई देता है | कई स्थानों पर जहां वे श्री रामचंद्र जी को विष्णु के अवतार के रूप में तथा परब्रह्म के रूप में चित्रित करते हैं तो उनकी निर्गुण भक्ति के दर्शन होते हैं |

इसके अतिरिक्त वे स्वयं स्वीकार करते हैं कि निर्गुण-भक्ति और सगुण-भक्ति में कोई अधिक अंतर नहीं है | दोनों एक ही ईश्वर को पाने के साधन मात्र मात्र हैं |

वे कहते हैं –

सगुनहि अगुनहि नहीं कछु भेदा |

गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा ||

4️⃣ ज्ञान और भक्ति का समन्वय — तुलसीदास जी अपने काव्य में ज्ञान तथा भक्ति का समन्वय प्रस्तुत करते हैं | वे मानते हैं कि इस संसार के दुखों से छुटकारा पाने के लिए मनुष्य के पास दो ही रास्ते हैं – ज्ञान और भक्ति | तुलसीदास जी यद्यपि इन दोनों को ही समान रूप से महत्व देते हैं लेकिन फिर भी वह भक्ति के मार्ग को सरल मानते हैं | उनका मानना है कि ज्ञान का मार्ग तलवार की धार के समान है जिसमें हल्की सी चूक भी घातक सिद्ध होती है | इसके स्वरूप भक्ति का मार्ग प्रत्येक व्यक्ति के लिए सरल और सहज है | ज्ञान और भक्ति इन दोनों को ही वे भवसागर से पार लगाने का रास्ता मानते हैं | वे कहते हैं –

” भगतहिं ज्ञानहिं नहीं कछु भेदा |

उभय हरहिं भव सम्भव खेदा | |”

दोनों मार्गों का गंतव्य स्थान एक ही है फिर भी तुलसीदास जी की दृष्टि में भक्ति श्रेष्ठ है | उनके अनुसार भक्ति के क्षेत्र में सच्चे मन से अपने आराध्य देव का उल्टा-सीधा नाम ले लेना ही पर्याप्त है | इसके साथ-साथ तुलसीदास जी यह भी मानते हैं कि ज्ञान को माया भी मोहित कर सकती है परंतु भक्तों को नहीं | इसलिए वे भक्ति के मार्ग को ही सरल, सुखद और शीघ्र फलदायी मानते हैं |

5️⃣ भक्ति वैविध्य — यह सही है कि तुलसीदास जी के काव्य में मुख्य रूप से दास्य-भक्ति के दर्शन होते हैं परंतु उनके काव्य में नवधा भक्ति के अन्य रूपों की झलक भी मिलती है | दास्य-भक्ति के अतिरिक्त श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वंदन, सख्य और आत्म-निवेदन प्रकार की भक्ति भी उनके काव्य में मिलती है | श्री राम के बाल-रूप का वर्णन करते हुए वात्सल्य भाव उभर कर सामने आता है तो राम को परब्रह्म के रूप में दर्शाते हुए निर्गुण भक्ति के दर्शन होते हैं |

◼️ निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि तुलसीदास की भक्ति-भावना का मूल स्वारूप सगुण भक्ति का है | वे दशरथ पुत्र राम को अपना आराध्य देव मानते हैं | राम की सगुण रूप में आराधना करना ही उनकी भक्ति का मूल लक्ष्य और दास्य-भावना ही उनकी भक्ति का मूल आधार है |

यह भी देखें

कबीरदास के पदों की व्याख्या ( बी ए – हिंदी, प्रथम सेमेस्टर )

कबीरदास का साहित्यिक परिचय ( Kabirdas Ka Sahityik Parichay )

तुलसीदास के पदों की व्याख्या

लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप ( Lakshman Murcha Aur Ram Ka Vilap ) : तुलसीदास

कवितावली ( तुलसीदास )

तुलसीदास की भक्ति-भावना ( Tulsidas Ki Bhakti Bhavna )

तुलसीदास का साहित्यिक परिचय ( Tulsidas Ka Sahityik Parichay )

सूरदास के पदों की व्याख्या ( बी ए हिंदी – प्रथम सेमेस्टर )

सूरदास का साहित्यिक परिचय ( Surdas Ka Sahityik Parichay )

सूरदास का वात्सल्य वर्णन ( Surdas Ka Vatsalya Varnan)

सूरदास का श्रृंगार वर्णन ( Surdas Ka Shringar Varnan )

मीराबाई के पद

मीराबाई का साहित्यिक परिचय

रसखान के पद

रसखान का साहित्यिक परिचय

बिहारीलाल के दोहों की व्याख्या ( Biharilal Ke Dohon Ki Vyakhya )

कवि बिहारी की काव्य-कला ( Kavi Bihari Ki Kavya Kala )

कवि बिहारी का साहित्यिक परिचय ( Kavi Bihari Ka Sahityik Parichay )

घनानंद के पद

घनानंद का साहित्यिक परिचय ( Ghananand Ka Sahityik Parichay )

तुलसी की भक्ति का स्वरूप क्या था?

इन्हें राम भक्ति का सबसे श्रेष्ठ कवि माना जाता है। इन्होंने अपनी रचनाओं में राम के प्रति अनन्य भक्ति भाव को प्रकट किया है। तुलसीदास ने विद्वानों आचार्यों द्वारा बताए गए भक्ति के आधार को स्वीकार किया किया और कहा कि राग और क्रोध को जीतकर नीति पथ पर चलते हुए राम की प्रीति करना ही भक्ति है।

तुलसीदास की भक्ति भावना का मुख्य स्वर क्या है?

राम के अनन्य भक्त तुलसीदासजी ने अपने इष्टदेव के प्रतत अनन्य भक्तक्त और परम तवश्वास प्रकट करते हुए अपनी भक्तक्त-भावना को प्रकट तकया है । तुलसी की भक्तक्त में श्रध्दा और तवश्वास का तनगूढ समन्वय तमलता है । तुलसी की दृतष्ट में राम के बराबर महान् और अपने बराबर लघु कोई नहीीं है ।

तुलसीदास की भक्ति कौन से वर्ग की है?

तुलसी दास की भक्ति भावना एक वर्ग सगुण भक्ति धारा का था जिसकी दो प्रमुख शाखाएं हुई रामभक्ति शाखा और कृष्ण भक्ति शाखा तथा दूसरा वर्ग निर्गुण भक्ति धारा का हुआ जिसकी दो प्रमुख शाखाएँ हुई- ज्ञानमार्गी शाखा और प्रेममार्गी भाषा।

तुलसी काव्य में मुख्य भाव क्या है?

तुलसी के दैन्य भाव में आत्मसर्मपण, आत्मग्लानि, आत्मनिवेदन, अनुताप, लोक कल्याण का स्वर है । उनकी भक्ति परहित सुखाय कर्म को प्रेरणा देती है। 'कवितावली' तुलसी की दूसरी महान रचना है । जिसमें राम की जीवन गाथा का यशोगान कोमलकांत पदावली में हुआ है।