विभक्तिश्चैव धात्वंशस्तद्धितः कृदिति क्रमात् । Show चतुर्धा प्रत्ययः प्रोक्तः टाबादिभिः पञ्चधाऽथवा ।। शब्दशक्तिप्रकाशिका कृदन्त भाग पाठ 31धातु से दो प्रकार के प्रत्यय होते हैं। तिङ् और कृत् । जिस तरह धातुओं से लकारों के स्थान पर तिङ् प्रत्यय होते हैं, उसी तरह धातुओं से होने वाले कृत् संज्ञा वाले प्रत्यय होते हैं। तिङ् प्रत्यय से भिन्न प्रत्ययों की कृत् संज्ञा होती है। धातुओं से कृत् प्रत्यय लगने से वह कृदन्त बन जाता है। इसकी प्रातिपदिक संज्ञा होती है। धातुओं के साथ कृत् प्रत्यय के योग करने पर संज्ञा, विशेषण या अव्यय पद बनते हैं। इस कृत् प्रत्यय से निष्पन्न कृदन्त को चार भागों में बांटा गया है- कृत्य, पूर्वकृदन्त, उत्तरकृदन्त और उणादि। वाऽसरूपोऽस्त्रियाम् सूत्र के अनुसार कृदन्त में उत्सर्ग (नित्य) शास्त्र को अपवाद शास्त्र के द्वारा विकल्प से बाधा जाता है। अर्थात् उत्सर्ग सूत्र भी लगेगा और विशेष सूत्र भी। कृदन्त में तव्यत्, तव्य, अनीयर्, यत्, ण्वुल् और तृच् प्रत्यय परस्पर असरूप अर्थात् असमान हैं । इस प्रकार धातुओं से होने वाले प्रत्ययों के वैकल्पिक रूप देखने को मिलेंगें। जैसे- अजन्त धातु से होने वाले यत् प्रत्यय को बाधकर ऋदन्त एवं हलन्त धातु से ण्यत् प्रत्यय होता है। अब यह देखना है कि कौन कृत् प्रत्यय कर्ता में तथा - कौन प्रत्यय कर्म और भाव में होगें। इसके लिए सूत्रों में व्यवस्था दी गयी है। सामान्य नियम 1. साधारणतः कृत् प्रत्यय कर्ता (संज्ञा) अर्थ में होते हैं। 'तृच्', 'क्तिन्', 'ण्वुल्', 'ल्युट्' णिनि, अण्, अच्, क, ट, खच्, क्विप् आदि प्रत्यय का कर्ता में होते हैं। 2. 'शतृ', 'शानच्' , 'तव्यत्' , 'अनीयर्' , 'यत्' प्रत्यय का जब धातु के साथ योग होने पर विशेषणवाची पद बनते हैं। 3. धातुओं से 'क्त्वा', 'ल्यप्' , 'तुमुन्' प्रत्ययों के योग होने पर अव्ययवाची पद बनते हैं। विशेष नियम कर्तरि कृत्– कृत् प्रत्यय कर्ता में होते हैं। तयोरेव कृत्यक्तखलर्थाः - धातु से कृत्य प्रत्यय, क्त तथा खलर्थ प्रत्यय भाव तथा कर्म में होते हैं। इसमें क्त प्रत्यय पूर्व कृदन्त में तथा खलर्थ प्रत्यय उत्तर कृदन्त में आते हैं। तव्यत्तव्यानीयरः– धातु से तव्यत् , तव्य और अनीयर् प्रत्यय भाव तथा कर्म में होते हैं। कृत्य प्रत्यय कभी-कभी बहुलता से होते हैं। प्रसंग आने पर कौन प्रत्यय किसमें होंगें इसकी जानकारी दी जाएगी। इससे आप शुद्ध वाक्य निर्माण करना सीख सकेंगें। 1. तव्यत् प्रत्यय का प्रयोग विधिलिङ् लकार के स्थान में होता है । 2. कर्म में प्रत्यय होने के कारण यह कर्म का विशेषण होता है। इसकी क्रिया कर्म के अनुसार होगी। 3. इसका पुल्लिंग में राम के समान, स्त्रीलिंग में रमा के समान तथा नपुंसक लिंग में फल के समान रूप बनते हैं। 4. ये प्रत्यय प्रायः सभी धातुओं से होते हैं। 5. अकर्मक धातु से तव्यत् प्रत्यय से युक्त क्रिया प्रथमान्त, नपुंसक लिंग तथा एकवचन में होगी। 6. जिस धातु के अंत में अम् हो यथा गम् तथा जिस धातु के अंत में आ हो जैसे पा उसमें तव्य, अनीयर् प्रत्यय सीधे जुड़ते हैं। 7. इकारान्त, ईकारन्त धातु के इ, ई को गुण होकर ए, उकारान्त धातु के उ को गुण होकर ओ तथा ऋकारन्त धातु के ऋ को गुण होकर अर् हो जाता है। 8. जिस धातु के अंतिम वर्ण व्यंजन हो तथा उससे पूर्व का स्वर वर्ण इ, उ, या ऋ हो तो उसे भी गुण हो जाता है। 9. खल् प्रत्यय जिस अर्थ में होता है उसी अर्थ में होने वाले प्रत्यय को खलर्थ प्रत्यय कहते हैं। 10. 'ण्वुल्', 'तृच्’, ‘शतृ', 'तव्यत्', अनीयर्', 'यत्', ण्यत् , 'क्यप्', 'क्त' आदि कृत् प्रत्यय के योग से बने शब्द विशेषण वाचक होते हैं । यथाः- कृ-कारक ( ण्वुल्/ अक् ) कर्तव्यः ( तव्यत् ), भिद्- भेदकः, भेद्यः, भिन्नः इत्यादि । इस पाठ में हम अधोलिखित प्रत्ययों का अध्ययन करेंगें।
कृदन्त के ण्वुल्, तव्य / तव्यत् , अनीयर्, यत् , ण्यत्, क्यप्, शतृ, शानच्, क्त्वा, क्त, क्तवतु, तुमुन्, णमुल् प्रत्ययों के कारण होने वाले लोप, आगम, विकार और प्रयोग विशिष्टता को समझ लेने पर कठिन से कठिन प्रश्न को सुलझाया जा सकता है। यहाँ पर कृदन्त प्रत्यय के महत्वपूर्ण प्रत्ययों से परिचय कराया जा रहा है। कृदन्त का क्रमबद्ध तथा विशिष्ट अध्ययन के लिए आप अधोलिखित लिंक पर चटका लगायें। ण्वुल् प्रत्ययण्वुल्तृचौ– धातु से ण्वुल् और तृच् प्रत्यय होते हैं। कर्तरि कृत् सूत्र के नियम से ण्वुल् प्रत्यय कर्ता अर्थ में होगा। तिङ् और शित् से भिन्न होने का कारण ण्वुल् प्रत्यय की आर्धधातुक संज्ञा होती है। अतः आर्धधातुक संज्ञा के कारण होने वाले अनेक कार्य ण्वुल् प्रत्यय में होते हैं। यथा- अस्तेर्भूः से अस् धातु को भू आदेश, ब्रुवो वचिः से ब्रु के स्थान पर वच् आदेश आदि। ण्वुल् में ण् की चुटू से तथा ल् की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा तथा तस्य लोपः से लोप हो जाने पर वु शेष रहता है। युवोरनाकौ सूत्र से वु के स्थान में अक आदेश हो जाता है। कृ + वु, वु को अक, कृ + अक, ण्वुल् में णकार की इत्संज्ञा होने के कारण कृ के ऋ को वृद्धि आर् हुआ, कार् + अक = कारक । प्रातिपदिक संज्ञा सु विभक्ति आने पर सु का रुत्व विसर्ग होकर कारकः बनेगा। कारकः का अर्थ होगा- करने वाला। उदाहरण- कृ + ण्वुल् = कारकः पठ् + ण्वुल् = पाठकः पाठि + ण्वुल् = पाठकः शिक्ष + ण्वुल् = शिक्षकः दृश् + ण्वुल् = दर्शकः भुज् + ण्वुल् = भोजकः वह् + ण्वुल् = वाहकः अश् + ण्वुल् = आशिका अस् + ण्वुल् = भावकः ब्रू + ण्वुल् = वाचकः तृच्- इस प्रत्यय का प्रयोग भी ण्वुल् के समान ही 'वाला' अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए होता है। जैसे— √कृ + तृच् = कर्तृ → कर्ता (करने वाला)। तृच् में 'तृ' शेष बचता है। च् की हलन्त्यम् से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता में है। इस प्रत्यय का प्रयोग करने पर ऋकारान्त प्रातिपदिक का निर्माण होता है तथा उसके कर्ता के अनुसार पुल्लिंग, स्त्रीलिङ्ग एवं नपुंसकलिङ्ग तीनों लिङ्गों में रूप चलते हैं। जैसे- √हृ + तृच् = हर्तृ । ये रूप पुल्लिंग में कर्ता, कर्तारौ कर्तारः स्त्रीलिङ्ग में दीर्घ ई का प्रयोग करके कर्त्री, नदी के समान तथा नपुंसकलिङ्ग में कर्तृ, कर्तॄणी, कर्तृणि इत्यादि रूप चलेंगे। तृच् प्रत्यय का प्रयोग होने पर धातु के स्वर को गुण आदेश होता है। जैसे कृ धातु के 'ऋ' स्वर को 'अर्' गुण आदेश होकर बना कर्तृ, यहाँ तृ, 'तृच्' प्रत्यय का है। इसी प्रकार √पठ् + तृच् = पठितृ, √दा + तृच् = दातृ, √पच् + तृच् = पक्तृ, गम् + तृच् = गन्तृ, आदि को भी समझना चाहिए। तव्यत् , तव्य और अनीयर्तव्यत् में त् की इत्संज्ञा तथा लोप होता है। लोप होने के पश्चात् तव्यत् और तव्य प्रत्यय से बने शब्द एक समान होते हैं। धातु से उक्त प्रत्यय होने से निम्नलिखित रूप बनेंगें। धातु विधिलिङ् तव्यत् (पु.) तव्यत् (स्त्री.) तव्यत् (नपुं.) अनीयर् गम् गच्छेत् गन्तव्यः गन्तव्या गन्तव्यम् गमनीयम् पठ् पठेत् पठितव्यः पठितव्या पठितव्यम् पठनीयम् लिख् लिखेत् लेखितव्यः लेखितव्या लेखितव्यम् खादृ खादेत् खादितव्यः खादितव्या खादितव्यम् पा पिबेत् पातव्यः पातव्या पातव्यम् नी नयेत् नेतव्यः नेतव्या नेतव्यम् गा गायेत् गातव्यः गातव्या गातव्यम् दृश् पश्येत् द्रष्टव्यः द्रष्टव्या द्रष्टव्यम् दा दद्यात् दातव्यः दातव्या दातव्यम् कृ कुर्यात् कर्तव्यः कर्तव्या कर्तव्यम् पृच्छ् पृच्छेत् प्रष्टव्यः प्रष्टव्या प्रष्टव्यम् विश् उपविशेत् ---------- ---------- उपवेष्टव्यम् इन प्रत्ययों के बारे में अधिक जानकरी लेने तथा अभ्यास करने के लिए तव्यत् अनीयर् पर चटका लगायें। पाठ- 32यत् प्रत्ययअजन्त धातु से यत् प्रत्यय होता है। यत् प्रत्यय का अर्थ होता है – योग्य । जैसे- पा पाने धातु से यत् = पेयम् (पीने योग्य ) यत् प्रत्यय में त् की इत्संज्ञा तथा लोप होने से य शेष बचता है। यत् एक आर्धधातुक प्रत्यय है अतः धातुओं में निम्न परिवर्तन होगें। यह प्रत्यय भाव तथा कर्म में होता है। 1. जिस धातु के अंत में इक् प्रत्याहार के वर्ण होंगें उसे गुण हो जाएगा। जैसे- चि + य = चेयम् 2. यत् प्रत्यय का आदि वर्ण य है अतः यह यादि प्रत्यय है। यादि होने के कारण वान्तो यि प्रत्यये से धातु के अंतिम ओ वर्ण को अव् तथा औ वर्ण को आव् आदेश होगा। जैसे- नियम 1 लू + य, लू के ऊ को गुण ओ , लो + य, नियम 2 लो के ओ को अव् आदेश ल् + अव् + य = लव्यम् 3. आकारन्त धातु के आ को इ हो जाता है। जैसे - पा + यत्, पी + य, पे + य = पेयम् विशेष नियम 4. जिस धातु के अंत में पवर्ग हो तथा अंतिम पवर्ग के ठीक पूर्व का वर्ण अ हो तो ऐसे धातु से भी यत् प्रत्यय होता है। जैसे - शप् + यत्, शप् + य = शप्यम्, लभ् + य = लभ्यम्, रम् + य = रम्यम् 5. तक्, शस्, चत्, जन्, शक्, सह् इतने हलन्त धातु से यत् प्रत्यय होता है। तक्यम्, शस्यम् रूप बनेगा। 6. हन् धातु से यत् प्रत्यय विकल्प से होता है तथा हन् को वध् आदेश हो जाता है। जैसे – हन् + य, वध् + य = वध्यः 7. उपसर्ग से रहित गद्, मद्, चर्, और यम् धातु से यत् प्रत्यय होता है। गद् + य = गद्यम् । धातु के पूर्व उपसर्ग रहने पर ण्यत् होगा जैसे – प्रगाद्यम् अभ्यास- क्षि + यत् = ध्या + यत् = श्रु + यत् = गम् + यत् = दा + यत् = यम् + यत् = आ + सह् + यत्? ण्यत् प्रत्यय"ऋहलोर्ण्यत्' से ऋवर्णान्त तथा हलन्त धातुओं से ण्यत् प्रत्यय होता है। ण्यत् प्रत्यय में 'णकार' की 'चुटू' से तथा 'तकार' की 'हलन्त्यम्' सूत्र से इत् संज्ञा करके तस्य लोपः से लोप हो जाता है। ण्यत् में य शेष रहता है। इस प्रत्यय में णकार की इत्संज्ञा होने के कारण यह णित् प्रत्यय है। जिस प्रत्यय में णकार की इत्संज्ञा होती है, उसके पूर्व के स्वर वर्ण की वृद्धि हो जाती है। जैसे – कार्यम्। कृ धातु से ऋहलोर्ण्यत् सूत्र से ण्यत् प्रत्यय हुआ। कृ + ण्यत् हुआ। यहाँ ण्यत् के 'ण्' की 'चुटू' से तथा 'त्' की 'हलन्त्यम्' सूत्र से इत् संज्ञा करके तस्य लोपः से लोप हो जाता है। कृ + य शेष बचा। प्रत्यय के णकार की इत्संज्ञा होने से उसके पूर्व के स्वर वर्ण, अर्थात् ऋ को वृद्धि आ हो गयी। का + य बना। आ को बाद रपर होकर कार्यम् रूप सिद्ध हुआ। इसी तरह
अन्य उदाहरण देखें- क्यप् प्रत्ययएतिस्तुशास्वृदृजुषः क्यप् इ, स्तु, शास्, वृ, दृ, जुष् तथा वृत्, वृध् आदि अन्यान्य धातुओं से क्यप् होता
है।क्यप् में ककार की लशक्वतद्धिते से इत्संज्ञा और पकार की हलन्त्यम् से इत्संज्ञा और दोनों का तस्य लोपः से लोप होकर केवल य शेष बचता है। पित् करने का फल हृस्वस्य पिति कृति तुक् से तुक् का आगम है और कित् करने का फल क्ङिति च से गुण का निषेध करना है। क्यप् प्रत्यय में य शेष रहता है। ह्रस्वस्य पिति कृति तुक् पित् कृत् के परे रहने पर हृस्व वर्ण को तुक् का आगम होता है। तुक् में उकार और ककार की इत्संज्ञा होती है। त् बचता है। कित् होने के कारण आद्यन्तौ टकितौ के नियम से अन्तावयव होकर तकार बैठेगा। उदाहरण - इत्यः। इण् गतौ। गत्यर्थक इ धातु से अचो यत् से यत् प्रत्यय की प्राप्ति थी, उसे बाधकर एतिस्तुशास्वृदृजुषः क्यप् से क्यप् हुआ, अनुबन्धलोप हुआ, इ + य में हृस्वस्य पिति कृति तुक् से तुक् आगम हुआ, अनुबन्धलोप होकर कित् होने के कारण हृस्व वर्ण इ के (बाद में) अन्तावयव बैठा, इत्य बना। प्रातिपदिकसंज्ञा, सुं, रूत्वविसर्ग करके इत्यः बना। यदि यत् होता तो तुक् न हो पाता और गुण होकर अय् आदेश होकर अयः ऐसा अनिष्ट रूप बनने लगता। स्तुत्यः। ष्टुञ् स्तुतौ, स्तु धातु से भी इसी तरह क्यप्, तुक्, सु, रूत्वविसर्ग करके स्तुत्यः रूप बनता है। शास इदङ्हलोः अङ् या हलादि कित् और ङित् परे रहते शास् धातु की उपधा को हृस्व इकार आदेश हो। उदाहरण - शिष्यः । वृत्यः । आदृत्यः । जुष्यः ।। शिष्यः। (शासु अनुशिष्टौ) शास् धातु से ण्यत् प्राप्त था उसे बाधकर एतिस्तुशास्वृदृजुषः क्यप् से क्यप् हुआ। शास् + य में शास इदङ्हलोः से शास् के आकार को इकार आदेश हुआ शिस् + य हुआ। शिस् के इकार से परे सकार को शासिवसिघसीनां च से षत्व होकर शिष्य बना। प्रातिपदिकसंज्ञा, सुविभक्ति, रूत्वविसर्ग होकर शिष्यः सिद्ध हुआ। वृ से क्यप् और तुक् करके वृत्यः, आ पूर्वक दृ से आदृत्यः बना । जुष् से क्यप् होकर जुष्यः बनता है। मृजेर्विभाषा मृज् धातु से क्यप् प्रत्यय विकल्प से हो। मृज्यः ।। मृज्यः। मृज् से विकल्प से क्यप् हुआ । क्यप् में ककार तथा पकार का अनुबन्ध लोप होने पर य शेष रहा। मृज् + य हुआ। क्यप् का य कित् होने के कारण क्ङिति च से लघूपधगुण नहीं हुआ- मृज्यः। क्यप् ने होने के पक्ष में ऋहलोर्ण्यत् से ण्यत् होकर मृजेर्वृद्धिः से वृद्धि और चलोः मृज्यः। क्यप् न होने के पक्ष में ऋहलोर्ण्यत् से ण्यत् होकर मृजेर्वृद्धिः से वृद्धि और चजोः कु घिण्ण्यतोः से जकार को कुत्व होकर मार्ग्यः बनता है। उदाहरण - इन-क्यप् ( य )=इन् तुक् य < इन् त् य =इत्यः। ऐसे ही स्तु- स्तुत्यः । शास्-शिष्यः । वृ-वृत्यः । आ +दृ- आदृत्यः । जुष्-जुष्यः । वृत्यम्, वृध्यम् आदि। इत्यः । स्तुत्यः । शासु अनुशिष्टौ ।।
पाठ- 33शतृ औप शानच् प्रत्यय लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे--3.2.124 प्रथमा विभक्ति को छोड़कर शेष विभक्तियों में समानाधिकरण होने पर लट् के स्थान पर शतृ तथा शानच् प्रत्यय होते हैं। मुख्य स्मरणीय नियम 1. शतृ, शानच् प्रत्यय लट् लकार के स्थान पर होता है । 2. परस्मैपदी धातुओं से शतृ प्रत्यय तथा आत्मनेपदी धातु से शानच् प्रत्यय होता है। 3. उभयपदी धातुओं से शतृ और शानच् दोनों प्रत्यय होते हैं। 4. यह प्रत्यय लट् के स्थान में होता है, अतः यह वर्तमानकालिक प्रत्यय है। 5. यह प्रत्यय प्रथमा विभक्ति को छोड़कर अन्य विभक्तियों में लगता है। 6. कहीं कहीं (विकल्प से) प्रथमा समानाधिकरण में भी ये दोनों प्रत्यय होते हैं। 7. शतृ में अन् तथा शानच् में आन या मान शेष रहता है। 8. इसमें वही लिंग होगा जो विशेष्य में होगा । अतः इनके विशेष्य के अनुसार तीनों लिंगों, सभी विभक्तियों और तीनों वचनों में रूप बनते हैं। 9. जो धातु जिस गण का हो, उस गण का विकरण भी धातु के साथ प्रयोग होता है, जैसेः–पठ्- शप्- शतृ—पठत् । पठ् धातु भ्वादि गण का है, इसमें शप् विकरण होता है । इस पेज पर सभी गण हो के विकिरण दिए गए हैं शतृ और शानच् प्रत्यय लगाने के पहले यह देखना चाहिए कि वह धातु किस गण का है और उसमें कौन सा विकिरण लगेगा। 10. शतृ प्रत्ययान्त शब्द का रूप पुल्लिङ्ग में पठत् के समान,स्त्रीलिङ्ग में नदी के समान तथा नपुंसक लिंग में जगत् के समान रूप चलेगें। इसमें मूल धातु के साथ इस प्रकार रूप बनेगा । धातु पुल्लिंग स्त्रीलिंग नपुंसकलिंग अर्थ पा (पीना) पिबन् पिबन्ती पिबत् पीता हुआ/ पीती हुई घ्रा (सूंघना) जिघ्रन् जिघ्रन्ती जिघ्रत् सूंघता हुआ/ सूंघती हुई कथ् (कहना) कथयन् कथयन्ती कथयत् कहता हुआ/ कहती हुई दृश्(देखना) पश्यन् पश्यन्ती पश्यत् देखता/ देखती हुई वाक्यों द्वारा उदाहरण- पिबन्तं बालकं पश्य। माता जिघ्रन्तीं बालिकां आह्वयति। शतृ प्रत्ययान्त शब्दों के स्त्रीलिंग में नुमागम का सामान्य नियम चुंकि पहले ही कहा जा चुका है कि शतृ प्रत्यय विशेष्य के अनुसार तीनों लिंगों, सभी विभक्तियों और तीनों वचनों में रूप बनते हैं और उसके तीनों लिंगों का उदाहरण भी दिखाया गया है। इन उदाहरणों के स्त्रीलिंग में पिबन्ती, लिखन्ती, खेलन्ती आदि रूप बनता है। अहं खेलन्तीं बालिकां पश्यामि। मैं खेलती हुई बालिका को देखता हूँ। इसमें न् तथा ई वर्ण अतिरिक्त रूप से दिखायी दे रहा है। यह न् तथा ई किस- किस अवस्था में किस सूत्र से लगेगा इसपर विचार करेंगें। पा धातु में शतृ प्रत्यय लगने से पिबत् रूप बना। जब यह किसी स्त्रीलिंग के विशेषण के रूप में प्रयोग किया जाएगा तो इसे भी स्त्रीलिंग बनाना पड़ेगा। स्त्री लिंग बनाने के लिए स्त्री प्रत्यय लगाया जाता है। शतृ प्रत्यय से कौन सा स्त्री प्रत्यय लगता है इस पर विचार किया जाता है- उगितश्च 4.1.6 उगित अन्त में हो जिस प्रातिपदिक के ऐसे प्रातिपदिक से स्त्रीत्व की विवक्षा में ङीप् (ई) प्रत्यय होता है। शतृ प्रत्यय में अंतिम स्वर ऋ की इत्संज्ञा होती है। यह उक् (उ ऋ ऌ ) प्रत्याहार में आता है अतः पठत् उगित् है। ऐसे उगित प्रतिपदिक पठत् से ङीप् प्रत्यय होगा । ङीप् में ङ् तथा प् की इत्संज्ञा लोप हो जाता है। ई शेष बचता है। पठत् + ई = पठती रूप बना। अब बची बात पठन्ती में न् के आने की इसके लिए सूत्र है- शप्श्यनोर्नित्यम् 7.1.81 शप् और श्यन् (विकरण/प्रत्यय) के अवर्ण से परे जो शतृ का अवयव तदन्त को नित्य ही नुमागम होता है, शी और नदी संज्ञक (ङीप् के ईकार की नदी संज्ञा होती है) प्रत्यय बाद में हो तो। भ्वादि, चुरादि में शप् का अकार और दिवादि में श्यन् के यकारोत्तरवर्ती अकार तथा तुदादि में श का अकार उससे परे शतृ प्रत्यय रहने पर शतृ के अवयव अत् को नुमागम होगा। यहाँ तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य के अनुसार त् के पूर्व नुम् का आगम होगा। यह सूत्र आच्छीनद्योर्नुम् द्वारा विहित वैकल्पिक नुम् का बाधक है। इसलिए इन गणों के धातुओं में नित्य नुमागम होगा। भ्वादि गण के धातुओं से बनने वाले स्त्रीलिंग में- भू + शप् + शतृ+ ङीप् भो + अ + अत् + ई भव + अ + अ नुम् त् + ई भवन्ती होगा। विस्तृत प्रक्रिया दिवादि में देख लें। दिवादि गण के धातुओं से बनने वाले स्त्रीलिंग में- तुष् + लट्, लटः शतृ सूत्र से लट् को शतृ आदेश हुआ। तुष् + श्यन् + शतृ दिवादिभ्यः श्यन् से श्यन्, तुष् + य + अत् अतो गुणे से पररूप एकादेश तुष्यत् तुष्यत् + औ , नपुंसक लिंग प्रथमा / द्वितीया द्विवचन तुष्यत् + शी, नपुंसकाच्च से औ को शी, शी के श् का अनुबन्ध लोप तुष्यत् + ई शप्श्यनोर्नित्यम् से शतृ के अत् को नुम् तुष्य + नुम् + त् + ई नुम् के उकार तथा मकार को अनुबन्ध लोप तुष्यन्त् + ई = तुष्यती तुष्यन्ती नगरे रामः अशोकश्च निवसतः। संतुष्ट होने वाले दो नगरों में राम और अशोक निवास करता है। स्त्रीत्व की विवक्षा (स्त्रीलिंग) में तुष्यत् तुष् + ङीप् , उगितश्च से ङीप् तथा शप्श्यनोर्नित्यम् से शतृ के अत् को नुम् का आगम हुआ। तुष्य + नुम् + त् + ई, नुम् के उ तथा मकार की इत्संज्ञा एवं लोप हुआ। न् बचा। तुष्यन्त् + ई = तुष्यती बनेगा। संतुष्ट होने वाली महिला। चुरादि गण के धातुओं से बनने वाले स्त्रीलिंग में- चुर् + णिच् + शप् + शतृ + ङीप् चोरय् + अ + अत् + ई चोरय् + अ + अ नु + त् + ई चोरयन्ती सिद्ध हुआ। आच्छीनद्योर्नुम् अवर्णान्त अंग से परे जो शतृ का अवयव तदन्त अंग को नुम् का आगम विकल्प से हो, शी और नदी (ङीप् प्रत्यय का ई) परे रहते। तुदादि गण के धातुओं में विकल्प से नुम् का आगम होगा। अतः इसके शतृ प्रत्ययान्त स्त्रीलिंग के प्रतिपदिक में विकल्प से नुम् का आगम होकर तुदन्ती तथा तुदति इस प्रकार दो रूप बनेंगे। इसी प्रकार जहाँ औ विभक्ति को शी आदेश होगा वहाँ भी नुमागम होगा। उपर्युक्त 4 गणों को छोड़कर शेष गणों के धातुओं से नुमागम नहीं होता। ध्यातव्य है कि आच्छीनद्योर्नुम् के अनुसार जिस धातु के अंत में अ या आ हो ऐसे अङ्ग को नुम् का आगम करता है अतः अदादि गण के कुछ धातुओं में भी नुमागम होता है - अदादिगण इस गण में शप् विकरण / प्रत्यय का लोप हो जाता है, अतः अदन्त धातु बहुत ही कम मिलते हैं। परन्तु कुछ धातु स्वतः अदन्त होते हैं उनमें नुमागम विकल्प से होता है जैसे - या + शप् + शतृ + ङीप् या + 0 + शतृ + ङीप् यहाँ शप्-प्रत्यय का लुक् हो जाने पर भी 'या' धातु आकारान्त अङ्ग है। इसलिए उसमे “ आच्छीनद्योर्नुम् ” इस सूत्र से नुमागम विकल्प से होता है। या + नुम् +शतृ + ई या + न् + अत् + ई यान्ती सिद्ध होगा। विकल्प में 'याती' रूप बनेगा। यान्ती यान्त्यौ यान्त्यः याती यात्यौ यात्यः वा भा ष्णा श्रा द्रा प्सा पा रा ला दा ख्या प्रा मा आदि आकारान्त धातु हैं। ऐसे धातुओं से नुमागम विकल्प से होगा। जुहोत्यादि गण के अदन्त धातु को नुमागम का निषेध हो जाता है। देखें सूत्र- नाभ्यस्तच्छतुः। शतृ प्रत्यय से सम्बन्धित और अधिक जानकारी के लिए इन सूत्रों को देखें- (1) वा नपुंसकस्य (2) सम्बोधने च 3.2.125 (3) लक्षणहेत्वोः क्रियायाः 3.2.126 (4) इङ्धार्योः शत्रकृच्छ्रिणि (5) द्विषोऽमित्रे (6) सुञो यज्ञसंयोगे (7) अर्हः प्रशंसायाम् (8) ऌटः सद्वा (9) पूरणगुणसुहितार्थ-- (10) न लोकाव्ययनिष्ठा.. (11) विदेः शतुर्वसुः । शानच् प्रत्यय वाले धातुओं से "मुक्" का आगम अदादि तथा जुहोत्यादि गण को छोड़कर शेष गणों के ण्यन्त--सन्नन्त धातुओं से जब "शानच्" (आन) प्रत्यय होगा, तब "आने मुक्" से "आन" से पूर्व "मुक्" का आगम होगा । "मुक्" का "म्" शेष रहता है। जैसेः---पचमानः, मोदमानः, आदि । अदादि. और जुहोत्यादिगण की धातुओं के साथ सीधा-सीधा "आन" ही जोड देते हैं । जैसेः--सन्दिहान, व्याचक्षाणः, सञ्जिहानः । लृट् स्थानीय "शानच्" प्रत्ययान्त के रूप भी इसी प्रकार से चलेंगे । जैसेः-- पुल्लिंग में -यतिष्यमाणः, स्त्री लिंग में -यतिष्यमाणा, नपुंसक लिंग में -यतिष्यमाणम् । "शानच्" प्रत्यय दो वाक्यों को जोड़ने का भी काम करता है । जैसे--- लताः कम्पन्ते । लताभ्यः पुष्पाणि पतन्ति । कम्पमानाभ्यः लताभ्यः पुष्पाणि पतन्ति । शानच् प्रत्यय धातु (अर्थ) पुल्लिंग स्त्रीलिंग नपुंसकलिंग याच् (मांगना) याचमानः याचमाना याचमानम् मांगते हुए/ हुई शीङ् (सोना) शयानः शयाना शयानम् सोते हुए/ सोती हुई लभ् (पाना) लभमान् लभमाना लभमानम् पाते हुआ/ हुई सेव् (सेवा करना) सेवमान् सेवमाना सेवमानम् सेवा करता/करती हुई दा (देना) ददानः ददाना ददानम् देते हुआ/ हुई शानच् प्रत्ययान्त शब्द पुल्लिङ्ग में राम, स्त्रीलिङ्ग में रमा व नपुंसक लिंग पुस्तक के समान रूप चलेगें। इस प्रत्यय के प्रयोग के लिए प्रत्येक गण के विकरण का स्मरण करना चाहिए। यह लृट् प्रत्यय के स्थान पर भविष्यत् काल में विकल्प से होता है। लृटः सद्वा 3.3.14 पाठ- 34क्त्वा / ल्यप् प्रत्यय क्त्वा प्रत्यय का प्रयोगप्रथम नियम जब दो धातुओं (कार्यों) का कर्ता एक हो तो पूर्वकालिक क्रिया से क्त्वा प्रत्यय होता है। रामः भुक्त्वा व्रजति। राम खाकर के जाता है। यहाँ भुज् और व्रज् दो धातु हैं। खाने और जाने का काम भी राम ही कर रहा है, दोनों धातुओं का कर्ता एक राम ही है किन्तु यहाँ खाने कार्य पहले और जाने का कार्य बाद में है। इसलिए पूर्वकालिक क्रिया है - खाना। अतः भुज् धातु से क्त्वा प्रत्यय हो जाता है। बालकः उत्तिष्ठति ततः परं देवं नमति। यहाँ पूर्वकालिक क्रिया उत्तिष्ठति (स्था) से क्त्वा प्रत्यय होकर बालकः उत्थाय देवं नमति बन जाता है। इसी प्रकार अन्य उदाहरण- सः गृहं प्रविशति ततः परं मुखं प्रक्षालयति। सः गृहं प्रविश्य मुखं प्रक्षालयति। क्त्वा प्रत्यय होने के बाद क्त्वातोसुन्कसुनः से क्त्वा प्रत्ययान्त शब्द की अव्ययसंज्ञा हो जाती है। समानकर्तृकयोः पूर्वकाले 3/4/21 समानकर्तृकयोः धात्वर्थयोः पूर्वकाले विद्यमानाद्धातोः क्त्वा स्यात्। क्त्वा प्रत्यय के क्त्वा में "त्वा" शेष रहता है, क् हट जाता है। क्त्वा प्रत्यय का उदाहरणः- दा + क्त्वा = दत्वा पठ् + क्त्वा = पठित्वा तृ + क्त्वा = तीर्त्वा द्वितीय नियम अलं कृत्वोः प्रतिषेधयोः प्राचां क्त्वा 3/4/18 निषेधवाची अलं तथा खलु शब्द यदि किसी क्रिया के पूर्व में हो तो उस क्रिया में भी क्त्वा प्रत्यय होता है। ध्यान देने योग्य प्रयोग अथवा वैकल्पिक प्रयोग कुछ छात्र भ्रमित हो जाते हैं कि लिखित्वा प्रयोग सही है या लेखित्वा। अधोलिखित नियम के अनुसार दोनों प्रयोग सही हैं। रलो व्युपधाद्धलादेः संश्च 1/2/26 इवर्ण तथा उवर्ण हो उपधा में जिसके ऐसे रलन्त धातुओं से परे इट् सहित क्त्वा एवं सन् विकल्प से कित् होते है। इट् सहित क्त्वा प्रत्यय का उदाहरणः- लिख्+क्त्वा = लिखित्वा, लेखित्वा गुप् + क्त्वा = गोपित्वा, गुप्त्वा क्षुध् + क्त्वा = क्षुधित्वा, क्षोधित्वा क्त्वा प्रत्यय के अन्य उदाहरण- कृ + क्त्वा = कृत्वा नम् + क्त्वा = नत्वा दृश् + क्त्वा = दृष्ट्वा खाद् + क्त्वा = खादित्वा पा + क्त्वा = पीत्वा स्मृ + क्त्वा = स्मृत्वा प्रच्छ् + क्त्वा = पृष्ट्वा ज्ञा + क्त्वा = ज्ञात्वा हन् + क्त्वा = हत्वा पूज् + क्त्वा = पूजयित्वा नृत् + क्त्वा = नर्तित्वा यज् + क्त्वा = इष्ट्वा वप् + क्त्वा = उप्त्वा कथ् + क्त्वा = कथयित्वा अस् + क्त्वा = भूत्वा दा + क्त्वा = दत्त्वा, दम् + क्त्वा = दमित्वा, दान्त्वा, वृत् + क्त्वा = वर्तित्वा, वृत्वा तृ + क्त्वा = तीर्त्वा शम् + क्त्वा = शमित्वा, शान्त्वा, कृष् + क्त्वा = कृषित्वा, कर्षित्वा, वस् + क्त्वा = उषित्वा शास्+ क्त्वा = शिष्ट्वा, धा + क्त्वा = हित्वा, अद् + क्त्वा = जग्ध्वा, भिद् + क्त्वा = भित्वा, बन्ध् + क्त्वा = बद्ध्वा श्वि+ क्त्वा = श्वयित्वा जू+ क्त्वा = जरीत्वा, जरित्वा खन् + क्त्वा = खनित्वा, खात्वा तन् + क्त्वा = तनित्वा, तत्वा क्रम् + क्त्वा = क्रमित्वा, क्रान्त्वा, क्रन्त्वा,गुह् + क्त्वा = गृहित्वा, गूढ्वा, मृज् + क्त्वा = मार्जित्वा, मृष्ट्वा, क्लिश्-क्लिशित्वा, क्लिष्ट्वा, मृष् + क्त्वा = मृषित्वा, मर्षित्वा भञ्ज् + क्त्वा = भङ्क्त्वा, भक्त्वा ग्रन्थ + क्त्वा = ग्रन्थित्वा, ग्रथित्वा स्यन्द् + क्त्वा = स्यन्दित्वा, स्यन्त्वा गुम्फ् + क्त्वा = गुम्फित्वा, गुफित्वा मस्ज् + क्त्वा = मङ्क्त्वा, मक्त्वा ग्रह + क्त्वा = गृहीत्वा क्षुध् + क्त्वा = क्षुधित्वा, क्षोधित्वा वच् + क्त्वा = उक्त्वा क्त्वा (१) यदि धातु से पूर्व उपसर्ग का प्रयोग न हुआ हो तो 'करके' या (कर) की अभिव्यक्ति के लिए 'क्त्वा' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। इसके प्रारम्भ में प्रयुक्त (क्) की 'लशक्वतद्धिते' सूत्र से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है तथा शेष बचता है- 'त्वा' । (२) कुछ धातुओं में इस प्रत्यय को जोड़ने पर कोई परिवर्तन नहीं होता है जैसे- √ स्ना + क्त्वा = स्नात्वा, √ज्ञा + क्त्वा = ज्ञात्वा, √भू + क्त्वा = भूत्वा, नी + क्त्वा = नीत्वा, √कृ + क्त्वा = कृत्वा, Vधृ + क्त्वा = धृत्वा । (३) कुछ नकारान्त धातुओं के न् का लोप हो जाता है और उसके बाद इस प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। जैसे- √हन् + क्त्वा = हत्वा, √मन् + क्त्वा = मत्वा, किन्तु जन् + क्त्वा = जनित्वा, √खन् + क्त्वा = खनित्वा इसके अपवाद भी हैं। (४) यदि धातु प्रारम्भ में य, व, र, ल में से कोई भी प्रयुक्त हुआ हो तो के ऐसी धातुओं को क्त्वा प्रत्यय का प्रयोग करने पर क्रमशः य को इ, व को उ, र को ऋ तथा ल को लृ आदेश हो जाता है। जैसे- √यज् + क्त्वा = इष्ट्वा, √ वप् - क्त्वा = उप्त्वा । तृतीय नियम धातुओं के साथ प्र परा आदि उपसर्ग का प्रयोग होने पर क्त्वा को ल्यप् हो जाता है। अर्थात् धातुओं का रूप त्वान्त न होकर यान्त हो जाता है। जैसे कि - नयति - नीत्वा । आनयति - आनीय गच्छति - गत्वा । आगच्छति - आगत्य भवति – भूत्वा। सम्भवति - सम्भूय तिष्ठति-स्थित्वा । उत्तिष्ठति - उत्थाय हरति-हृत्वा । विहरति-विहृत्य क्षालयति-क्षालयित्वा । प्रक्षालयति-प्रक्षाल्य हसति - हसित्वा । उपहसति-उपहस्य | स्मरति – स्मृत्वा । विस्मरति - विस्मृत्य जानाति - ज्ञात्वा । विजानाति-विज्ञाय क्रीणाति - क्रीत्वा । विक्रीणाति-विक्रीय | नमति- नत्वा। प्रणमति- प्रणम्य गृह्णाति – गृहीत्वा । संगृह्णाति - सङ्गृह्य आप्रोति- आप्त्वा । प्राप्नोति- प्राप्य करोति – कृत्वा । उपकरोति - उपकृत्य | तिष्ठति-स्थित्वा । प्रतिष्ठति - प्रस्थाय ल्यप्– (१) यदि धातु से पहले उपसर्ग का प्रयोग हुआ हो तो 'करके' अथवा 'कर' अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'ल्यप्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। त्यप् के प्रारम्भ में प्रयुक्त 'ल्' की 'लशक्वतद्धिते' से तथा अन्तिम 'प्' की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है- 'य'। जैसे आ + दा + ल्यप् = आदारा, वि + √नी + ल्यप् = विनीय, अनु + √भू + ल्यप् = अनुभूय (२) ल्यप् प्रत्यय से पहले यदि धातु का अन्तिम स्वर हस्व हो तो 'य' न जोड़कर 'त्य' जोड़ते हैं, क्योंकि ऐसी स्थिति में प्रत्यय और धातु के बीच तुक के आगम का विधान किया गया है। तुक में उक् की इत् संज्ञा होती है। अतः उसका लोप हो जाता है, शेष बचता है 'त्'। जैसे— उप + √कृ + ल्यप् = उपकृत्य, निस् + √चि + ल्यप् = निश्चित्य, वि + √जि + ल्यप् = विजित्य, अव + √कृ + ल्यप् अवकृत्य। (३) कृत्वा प्रत्यय के समान नकारान्त धातुओं के 'न' का लोप हो जाता है, किन्तु यहाँ तुक का भी आगम होता है। जैसे- √तन् + ल्यप् वितत्य, किन्तु इस क्रम में अपवाद रूप में प्रखन् + ल्यप् = प्रखन्य को भी स्मरण रखना चाहिए। (४) √गम्, नम्, √यम् और √रम् धातु के विकल्प से दो रूप बनते हैं- जैसे गम् + ल्यप् अवगत्य, अवगम्य । (५) इसके अतिरिक्त णिजन्त एवं चुरादिगणीय धातुओं की उपधा में हस्व स्वर प्रयुक्त होने पर ल्यप् से पहले अय् का प्रयोग करते हैं। जैसे- प्र + √नम् अय् + ल्यप् प्रणम्थ्य, किन्तु इसी क्रम में प्रचोर्य (प्रचुर् चोर् + ल्यप्) को अपवाद समझना चाहिए। धातु क्त्वा ल्यप् √सृज् = बनाना सृष्ट्वा विसृज्य √कृ = करना कृत्वा अपकृत्य √मन् = मानना मत्वा अवमत्य √क्री = खरीदना क्रीत्वा विक्रीय क्षिप् = फेंकना क्षिप्त्वा निक्षिप्य √स्था = ठहरना स्थित्वा उत्थाय √भू = होना भूत्वा संभूय √श्रि = आश्रय लेना श्रित्वा √हस् = हँसना हसित्वा विहस्य √भ्रम् = घूमना भ्रमित्वा √हृ = हरण करना हृत्वा क्त्वा प्रत्यय के अभ्यास के लिए यहाँ क्लिक करें। समासेऽनञ्पूर्वे क्त्वो ल्यप् सूत्रार्थ- नञ् से भिन्न जिस समास के पूर्वपद में कोई अन्य अव्यय स्थित हो तो उस समास में धातु से परे क्त्वा के स्थान पर ल्यप् आदेश होता है। नञ् अव्यय है। अनञ् कहने से नञ् समास से भिन्न और नञ् समास के सदृश अव्यय अर्थ लिया गया है। अर्थात् समास के पूर्वपद में नञ् से भिन्न अन्य कोई अव्यय हो तो धातु से परे क्त्वा प्रत्यय के स्थान पर ल्यप् आदेश हो जाता है। उदाहरण- प्रकृत्य। प्रहृत्य। पार्श्वतः कृत्य। नानाकृत्य। द्विधाकृत्य। अकृत्वा। (नञ्) न + कृत्वा में समास करके अ + कृत्वा बना है। नञ् पूर्व में होने पर सूत्र ने ल्यप् आदेश का निषेध किया है, अतः यहाँ पर ल्यप् आदेश नहीं हुआ, क्त्वा ही रहा गया- अकृत्वा। 'ल्यप्' प्रत्ययान्त शब्द अव्यय होते हैं। अतः इनके रूप में परिवर्तन नहीं होता है। आ + नी = आनीय, आ + दा = आदाय, द्विधा + कृ= द्विधाकृत्य, निर् + भिद् = निर्भिद्य, निस् + चि= निश्चित्य, उत् + प्लु = उत्प्लुत्य, परा + जि = पराजित्य, प्र + दिव्= प्रदीव्य, अनु + भू= अनुभूय, अव + कृ = अवकीर्य, अधि + इ = अधीत्य, आ + पु = आपूर्य, प्र + इ = प्रेत्य, प्र + वच् = प्रोच्य, सम् + कृ= संस्कृत्य, आ + ह्वे = आहूय, उद् + तृ = उत्तीर्य अनु + वद् = अनूद्य नोट - 'ल्यप् ' प्रत्यय के योग में निम्नलिखित विशेष कार्य ध्यान में रखने चाहिए । १. ह्रस्वान्त धातु के परे 'तुक्' ( त् ) हो जाता है । यथा- वि + जि = विजित्य | २. तन्, मन्, हन् धातु के 'नकार' का लोप हो जाता है । यथा- वि + तन् = वितत्य, आ + हन् = आहत्य इत्यादि । ३. गम्, नम्, यम्, रम् धातुओं के 'मकार' का विकल्प से लोप हो जाता है । यथा- आ + गम् = आगत्य, प्र + नम् = प्रणत्यआदि । ४. मूल इकारान्त भिन्न अनुनासिकोपध धातुओं के अनुनासिक का लोप हो जाता है । यथा-परिष्वज्य, किन्तु चुबि से परिचुम्ब्य । ५. ण्यन्त धातुओं के 'णिच्' का लोप हो जाता है, किन्तु पूर्व स्वर लघु हो तो णिच् के स्थान में 'अय्' हो जाता है । यथा— वि + चिन्ति + य = विचिन्त्य । प्रपीडय । सम्बोध्य । किन्तु विगणय्य । विघटय्य । प्रणमय्य । पौन:पुन्य ( बारबार ) अर्थ रहने पर क्त्वा प्रत्यय के अर्थ में 'णमुल्' ( अम् ) भी होता है । यथा - स्मारं स्मारं नमति कृष्णम् । स्मृत्वा स्मृत्वा इत्यर्थः । इसी तरह पायं पायम् । भोजं भोजम् । श्रावं श्रावम् । काव्य से उदाहरण- सुग्रीवः सर्वान् वानरान् समानीय दिश: प्रति प्रस्थापयामास । अभ्यास दिये गये उदाहरण के अनुसार रिक्त स्थान को भरें । उदाहरण- अध्यापकः .......... विद्यालयम् आगच्छति । (पठति) अध्यापकः पठित्वा विद्यालयम् आगच्छति । (क) अहं नदीतीरे .......... गृहं गच्छामि । (भ्रमामि) (ख) रमेशः दुग्धं ........ स्वपिति । (पिबति) (ग) पिता .......... भगवन्तं स्मरति । (उत्तिष्ठति) (घ) मम भगिनी पुष्पम् .. ..मन्दिरं गच्छति । (आनयति) (ङ) छात्रः लेखं ............ अध्यापकं दर्शय ति । (लिखति) (च) किं त्वं फलं ......... व्यायामं करोषि ? (खादसि) (छ) सा बालिका ........ लिखति । (शृणोति) (ज) मम भ्राता कदापि ........... न गच्छति । (वदति) (झ) स्नेहा उत्तरं ................ उपविशति । (ददाति) (ज) तस्य मित्रं ...... खादति । (स्नाति) आगे और पढ़ें ---- वच्+क्त्वा = उक्त्वा का प्रयोग कैसे होता है? पाठ- 35क्त, क्तवतु प्रत्ययक्तक्तवतु निष्ठा क्त, क्तवतु प्रत्यय में त, तवत् शेष रहता है। यह प्रत्यय भूतकालिक क्रिया के अर्थ में वर्तमान धातु से क्त और क्तवतु प्रत्यय होता है। नियम-1 ‘क्त‘ प्रत्यय भाव और कर्म में होता हैं। क्तवतु प्रत्यय कर्ता में होता हैं। उदाहरण - मया हसितम्, भक्तेन कृष्णः स्तुतः, विष्णुः विश्वं कृतवान्। नियम-2 गत्यर्थक, अकर्मक एवं श्लिष्, शीड्, स्था, आस्, वस्, जन्, रूह, जृ- इतने (उपसर्ग पूर्वक सकर्मक) धातुओं से भाव और कर्म के साथ कर्ता में भी ‘क्त‘ होता है। उदाहरण - गृहं गतः। बालः भीतः। प्रियामाश्लिष्टः। हरिः शेषमधिशयितः। वैकुण्ठमधिष्ठितः। कृष्णमुपासितः। हरिदिनमुपोषितः। लक्ष्मणो भरतम् अनुजातः। यानमारूढ़ः। विश्वमनुजीर्णः। नियम-3 इच्छार्थक, ज्ञानार्थक तथा पूजार्थक धातुओं से वर्तमानकाल में ‘क्त‘ प्रत्यय होता है। उदाहरण - मम मतः, इष्टः। मम बुद्धं, विदितमस्ति। पूजितः, अर्चितः आदि। निष्ठा प्रत्ययान्त शब्दों के उदाहरण धातु क्त (त) क्तवतु (तवत् ) घ्रा घ्राणः, घ्रातः घ्राणवान्, घ्रातवान् दा दत्तः दत्तवान् आ+दा आत्तः
आत्तवान् हितः पा पीतः पीतवान् हा हीनः हीनवान् क्षि क्षीणः क्षीणवान् श्वि शूनः शूनवान् ली लीनः लीनवान् शी शयितः शयितवान् ह्री ह्रीतः,ह्रीणः ह्रीतवान्जागृ जागरितः जागरितवान् धातुक्त क्तवतु धातुक्त क्तवतु अर्च अर्चितः, अर्चितवान् ईक्ष ईक्षितः, ईक्षितवान् कृ कृतः, कृतवान् इष् इष्टः, इष्टवान् कुप् कुपितः, कुपितवान् क्रुध् क्रुद्धः, क्रुद्धवान् खिद् खिन्नः, खिन्नवान् गम् गतः, गतवान् ग्रस् ग्रस्तः, ग्रस्तवान् क्षिप् क्षिप्तः, क्षिप्तवान् चि चित:, चितवान् चेष्ट् चेष्टितः, चेष्टितवान् जागृ जागरितः, जागरितवान् जुष् जुष्टः, जुष्टवान् ज्ञा ज्ञात:, ज्ञातवान् त्यज् त्यक्तः, त्यक्तवान् दण्ड्
दण्डितः, दण्डितवान् दीप् दीप्तः, दीप्तवान् ख्या ख्यातः, ख्यातवान् गर्ज् गर्जितः, गर्जितवान् ग्रह गृहीतः, गृहीतवान् खाद् खादितः, खादितवान् चिन्त चिन्तितः, चिन्तितवान् छिद् छिन्नः, छिन्नवान् जि जित:, जितवान् आप् आप्तः, आप्तवान् कथ् कथितः, कथितवान् क्री क्रीतः, क्रीतवान् गद् गदितः, गदितवान् गै गीत:, गीतवान् । घुष् घोषितः, घोषितवान् चल् चलितः, चलितवान् चुम्ब् चुम्बित:, चुम्बितवान् जन् जातः, जातवान् जीव जीवितः, जीवितवान् पठ् पठितः, पठितवान् पच् पक्व:, पक्ववान् पीड् पीडितः, पीडितवान् पूज् पूजितः, पूजितवान् बाध् बाधित:, बाधितवान् भक्ष् भक्षितः, भक्षितवान् भुज् भुक्तः, भुक्तवान् भ्रंश् भ्रष्टः, भ्रष्टवान् मद् मत्तः, मत्तवान् मिल् मिलित:, मिलितवान् मृ मृतः, मृतवान् याच् याचितः, याचितवान् रक्ष् रक्षितः, रक्षितवान् राज् राजितः, राजितवान् रुध् रुद्धः, रुद्धवान् लिख् लिखित:, लिखितवान् वन्द् वन्दितः, वन्दितवान् विद् विदितः, विदितवान् वेष्ट् वेष्टितः, वेष्टितवान् शक् शक्तः, शक्तवान् शम् शान्त:, शान्तवान् हु हुत:, हुतवान् शुभ् शोभितः, शोभितवान् श्रिश्रितः, श्रितवान् सह सोढः, सोढवान् सृज् सृष्टः, सृष्टवान् स्तु स्तुतः, स्तुतवान् स्पृश् स्पृष्टः, स्पृष्टवान् हन् हतः, हतवान् अधोलिखित धातुओं में क्त तथा क्तवतु प्रत्ययों का लगाकर अभ्यास करें। ध्यै, शकि, लिख्, मृज्, पच्, मुच्, भञ्ज्, नृत्, गद्, क्लिद्, मद्,खन्, जन्, मन्, अद्, क्षुद्,खिद्,प्याय्, स्फाय्, धाव्, सिव्, भ्रंश्, रञ्ज्, क्लिद्, स्फाय्, सह् मुह् । क्त प्रत्ययान्त- ध्यातः शङ्कितः लिखितः मृष्टः पक्वः मुक्तः भग्नः रक्तः नृत्तः गदितः क्लिन्नः मत्तः खातः जातः मतः जग्धः अन्नम् क्षुण्णः खिन्नः पीनः स्फीतः धौतः धावितः स्यूतः भ्रष्ट: शुष्कः सोढः मुग्धः, मूढः। क्तवतु प्रत्ययान्त- ध्यातवान् शङ्कितवान्, लिखितवान् मृष्टवान् पक्ववान् मुक्तवान् भग्नवान् रक्तवान् नृत्तवान् गदितवान् क्लिन्नवान् मत्तवान् खातवान् जातवान् मतवान् जग्धवान् क्षुण्णवान् खिन्नवान् पीनवान् स्फीतवान् धौतवान् धावितवान् स्यूतवान् भ्रष्टवान् शुष्कवान् सोढवान् मुग्धवान्, मूढवान्। पाठ- 36तुमुन् प्रत्यय "तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम्" ( पा० सू० ) किसी क्रिया की सिद्धि के लिए जब कोई दूसरी क्रिया की जाती है तब इसे क्रियार्थक क्रिया कहते हैं। उत्तरक्रिया के बोधक धातुओं से तुमुन् ( तुम् ) और ण्वुल् ( वु = अक ) प्रत्यय होते हैं । जब किसी अन्य क्रिया के पास (उपपद) में क्रियार्थक क्रिया हो तो समीपवर्ती धातु में तुमुन् प्रत्यय हो जाता है। इन दोनों क्रियाओं का कर्ता एक व्यक्ति होता है। को अथवा के लिए को प्रकट करने के लिए तुमुन् प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। तुमुन् में उन् हट जाता है एवं तुम् शेष रहता है । तुमुन् प्रत्ययान्त शब्दों का प्रयोग अव्यय की तरह होता है। अतः इसके रूप नहीं चलते हैं। तुमुन् प्रत्यय का उदाहरण - भोक्तुं याति में दो क्रिया है । 1. भुज् 2. या । यहाँ भोजन क्रिया के लिए गमन क्रिया हो रही है। अतः गमन क्रिया क्रियार्थक क्रिया है। अतः याति इस क्रियार्थक क्रिया के समीपवर्ती धातु भुज् से तुमुन् प्रत्यय होता है। तुमुन् तथा ण्वुल् प्रत्यय भविष्यत् काल की विवक्षा में होती है, अर्थात् जिसे तुमुन् तथा ण्वुल् प्रत्यय किया जा रहा है वह क्रिया अभी नहीं हुई है। ण्वुल् प्रत्यय का उदाहरण - कृष्णं दर्शको याति । धातु तुमुन् प्रत्ययान्त रूप अर्थ कथ् (कहना) कथितुम् कहने के लिए स्था (ठहरना) स्थातुम् ठहरने के लिए विशेष- इच्छार्थक धातु उपपद में रहने पर ( उसके कर्मरूप क्रियाबोधक ) धातुओं से, यदि दोनों का कर्ता एक ही व्यक्ति हो तो 'तुमुन्' होता है'। यथा - स इच्छति भोक्तुम् । गृहं गन्तुं इच्छामि। शक्, धृष् आदि धातुओं के योग में, पर्याप्त (समर्थ अर्थ) का वाचक शब्द तथा कालार्थक शब्द उपपद रहने पर धातुओं से 'तुमुन्' होता है । यथा कर्तुं शक्नोति, धृष्णोति आदि । गन्तुं समर्थः, शक्तः, प्रवीणः आदि । भोक्तुं कालः समागतः, समयः, वेला आदि । तुमुन् प्रत्ययान्त शब्द । भू-भवितुम् अद्-अत्तुम् । हु-होतुम् । दिव्-देवितुम् । सु-सोतुम् । तुद्-तोत्तुम् । रूध्-रोद्धुम् । तन्-तनितुम् । क्री-केतुम् । चुर्-चोरयितुम्। बोधि-बोधयितुम् । चिकीर्ष-चिकीर्षितुम् । पुत्रीय- पुत्रीयितुम् । इ-एतुम् । चि-चेतुम् । जागृ-जागरितुम् । मृ-मर्तुम्। जीव-जीवितुम् । क्षम्-क्षमितुम्, क्षन्तुम् । वस्-वस्तुम् । दह् - दग्धुम् । यज्-यष्टुम् । सह-सहितुम्, सोढुम् । हन्- हन्तुम् । सिच्-सेक्तुम् । गुप्-गोपायितुम्, गोपितुम्, गोप्तुम् । दुह-दोग्धुम् । मुह्, मोहितुम्, मोग्धुम् । पाठ- 37ण्वुल्- 'वाला' अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए इस प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे- पढ़ने वाला (पाठक:) खाने वाला (भक्षकः) करने वाला (कारक:). पकाने वाला (पाचकः) । ण्वुल् में ण् तथा ल् की क्रमशः 'चुटू' तथा 'हलन्त्यम्' से इत् सज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है- 'वु' एवं इसे भी 'अक' आदेश हो जाता है।" णमुल के समान इसमें भी 'ण' की इत्संज्ञा होने से धातु के पूर्व स्वर को वृद्धि आदेश हो जाता है। जैसे-पच् + ण्वुल् प् + अ आ (वृद्धि आदेश) पा + च् + अक= पाचकः, पठ् + ण्वुल् = पाठकः, √हृ + ण्वुल् = हारकः आदि। णमुल् प्रत्ययआभीक्ष्ण्ये णमुल् च हमेशा, निरन्तर, बार बार के भाव को आभीक्ष्ण्य कहते हैं। आभीक्ष्ण्य (पौनःपुन्य) अर्थ में समानकर्तृक दो धातुओं में पूर्वकालिक धातु से ‘णमुल्' (और क्त्वा) होता है। आभीक्ष्ण्य द्योतित पर समान कर्तृक (बार - बार एक समान की जाने वाली क्रिया) पूर्व कालिक विद्यमान धातु से परे क्त्वा तथा णमुल् प्रत्यय हो। णमुल् में णकार, उकार तथा लकार की इत्संज्ञा तथा लोप हो जाता है । अम् शेष बचता है। आप सोच रहे होंगें कि णमुल् में जब अम् ही शेष रखना था तब णकार, उकार तथा लकार की इत्संज्ञा तथा लोप करने की क्या आवश्यकता थी? सीधे अम् प्रत्यय ही कर देते। णमुल् प्रत्यय में अकार की इत्संज्ञा होने से यह णित् हो जाता है। णित् होने का फल (1)यह है कि जिस धातु से णमुल् प्रत्यय होगा वहाँ यदि इगन्ताङ्ग होगा तब अचो णिति 7.2.115 से इगन्ताङ्ग वृद्धि होगी। (2) अत उपधायाः 7.2.116 से उपधा अकार को वृद्धि होगी। (3) हनस्तोऽचिण्णलोः 7.3.32 से हन् को तकार आदेश होगा। (4) आतो युक् चिण्कृतोः 7.3.33 से आकारान्त अङ्ग को युक्-आगम होगा। (5) नोदात्तोपदेशस्य. 7.3.34 से उदात्तोपदेश एवं मान्त ('चमि' को छोड़कर) को उपधावृद्धि नहीं होगी।(6) जनिवध्योश्च 7.3.35 से जन् तथा वध् को (7.2.116 से) उपधा-वृद्धि नहीं होती है। मकारान्त कृत् प्रत्यय बन जाने का फल 1. कृन्मेजन्तः 1.1.39 से कृदन्त मकारान्त की अव्यय संज्ञा तथा अव्ययादाप्सुपः 2.4.82 से सुप् का लोप। उदाहरण - 1. स्मारं स्मारम् में स्मृ धातु से णमुल् प्रत्यय करने पर स्मृ + अम् । णमुल् में णकार की इत्संज्ञा होने कारण यह णित् है, अतः णित्व होने के कारण अचो ञ्णिति सूत्र से ऋ की वृद्धि और होगी आर् । स्म + आर् = स्मार् बना । स्वादि विभक्ति की उत्पत्ति प्रक्रिया पूर्ण कर स्मारं रूप बना लें। ध्यातव्य की स्मारम् में मकारांत कृत् प्रत्यय है, ऐसा शब्द कृन् मेजन्तः सूत्र के नियम के अनुसार अव्यय हो जाता है। नित्य - वीप्सयोः नित्यता और वीप्सा के अर्थ पद को द्वित्व होता है। ( व्याप्त होने की इच्छा को वीप्सा कहते हैं) यह निरंतरता तिङन्त और अव्यय संज्ञक कृदन्त की क्रिया की बताई जाती है । स्मारं को नित्यता या निरंतरता के अर्थ में होने के कारण इस पद को द्वित्व हो गया। 2. भुज् + णमुल् = भोजम् (पुगन्तलघू. 7.3.86 से उपधागुण) आभीक्ष्ण्य में धातु को द्वित्व होता है। प्रयोग- भोजं भोजं व्रजति (खा खाकर चलता है) 3. पा + णमुल् = पायम् (आतो युक्. 7.3.33 से युक्) प्रयोग- पायं पायं व्रजति (पी पीकर चलता है)। ‘क्त्वा के पक्ष में, भुक्त्वा व्रजति, पीत्वा व्रजति। णमुल् प्रत्यय के बारे में विशेष- न यद्यनाकाक्षे 3.4.23 समानकर्तृक दो धातुओं में से पूर्वकालिक धात्वर्थ में 'यत्' शब्द के उपपद होने पर आभीक्ष्ण्ये णमुल् च 3.4.22 से होनेवाले णमुल् एवं क्त्वा नहीं होते हैं, यदि अन्य वाक्य की आकाङ्क्षा न रखनेवाला वाक्य हो। प्रयोग- यद् अयं भुङ्क्ते ततः पठति 'यह बार-बार पहले खाता है, पीछे पढ़ता है'। यद् अयम् अधीते ततः शेते ‘यह पहले बारबार पढ़ता है तब सोता है'। यहाँ प्रथम में भोजन अथवा द्वितीय में पठन करनेवाला वाक्य अन्य किसी वाक्य की आकाङ्क्षा नहीं रखता है। अतः णमुल नहीं हुआ। 3. विभाषाऽग्रेप्रथमपूर्वेषु 3.4.24 अग्रे, प्रथम एवं पूर्व उपपद हों तो समानकर्तृक पूर्वकालिक धातु से विकल्प से क्त्वा एवं णमुल् होता है। पाठ- 38अन्य कृत प्रत्यय 'घञ्' प्रत्यय"भावे" ( पा० सू० ) घञ् ( अ ) - भाव में धातुओं से ' घञ्' प्रत्यय होता है। कहीं कहीं कारकों के अर्थों में भी 'घञ्' होता है । घञ् प्रत्ययान्त शब्द पुल्लिङ्ग होते हैं । यथा पठनम्- पाठः । पचनम्-पाक: आदि । कारकों में - चित्तं दारयन्ति = विद्रावयन्तीति = दाराः । जरयति = नाशयति कुलमिति = जारः । लभ्यते इति लाभः । रज्यति अनेन इति रागः । उपेत्य अधीयते अस्मात् इति उपाध्यायः । आध्रियते अत्रेति आधारः । ष्यतृ- अभी हमने शतृ और शानच्, जिन्हें सत् भी कहा जाता है तथा वर्तमान काल में प्रयोग किए जाते हैं, का उल्लेख किया था, उन्हें ही यदि लृट् लकार, प्रथम पुरुष एकवचन के अन्तिम 'ति' को हटाकर लगा दिया जाए तो `ष्यतृ' प्रत्ययान्त रूप बन जाते हैं। जैसे- √भू + तिप् (लृट् लकार, प्र. पु. ए.व.) = भविष्यति = भविष्य + अत् भविष्यत् । इसीलिए इसे 'ष्यत्' भी कहते हैं। इसके रूप भी शतृ प्रत्यय के समान ही पुल्लिंग में 'भवत्' की तरह चलते हैं। मूल प्रातिपादिक- पठिष्यत्, करिष्यत्, गमिष्यत्, नेष्यत् आदि बनेगा। यह प्रत्यय भी परस्मैपदी धातुओं के साथ प्रयोग किया जाता है। ष्यमाण- ष्यत् प्रत्यय के समान ही इसका प्रयोग भी होता है, किन्तु यह केवल आत्मनेपदी धातुओं के साथ किया जाता है। शेष सभी नियम ष्यत्' के समान ही होंगे, रूप बनेंगे । धातु ष्यतृ √भू = होना भविष्यत् भविष्यन् √गम् = जाना गमिष्यत् गमिष्यन् √मृ= मरना मरिष्यत् मरिष्यन् हन् = मारना हनिष्यत् हनिष्यन् प्र + √आप् = प्राप्त करना प्राप्स्यत् प्राप्स्यन् आ + √रुह् =चढ़ना आरोक्ष्यत् आरोक्ष्यन् लभ् = प्राप्त करना लप्स्यमानः धातु स्यमान ष्यतृ √ज्ञा = जानना ज्ञास्यामानः ज्ञास्यन् कृ - करना करिष्यमाणः करिष्पन् √दा = देना दास्यमानः दास्यन् √छिद् = काटना छेत्स्यमानः छेत्स्यन् = √क्रीड्= खेलना क्रीडिष्यत् क्रीडिष्यन् √नी =ले जाना नेष्यमाण: नेष्यन् √ग्रह = पकड़ना ग्रहीष्यमाणः ग्रहीष्यन् पूर्वकालिक क्रिया- जब एक क्रिया के होने बाद दूसरी क्रिया आरम्भ होती है, तब पहले सम्पन्न हुई क्रिया को पूर्वकालिक क्रिया कहते हैं। इस प्रकार के वाक्यों में उस क्रिया के बाद 'करके' अथवा 'कर' पट का प्रयोग किया जाता है। जैसे- मैं पढ़कर जाता हूँ. अहं पठित्वा गच्छामि। प्रस्तुत उदाहरण में 'पढ़ना' क्रिया जाना क्रिया से पूर्व होने तथा उसके साथ 'कर' (पढ़कर) पद का प्रयोग होने से पूर्वकालिक प्रत्यय 'क्त्वा' का प्रयोग इस अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए क्त्वा, ल्यप् और णमुल् तीन प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है। इन प्रत्ययों से निर्मित पद अव्यय होते हैं, उनके रूप नहीं चलते। अब हम क्रमशः इनका उल्लेख करेंगे। पाठ- 39णमुल्- (१) एक ही क्रिया को बार-बार करने के भाव की अभिव्यक्ति के लिए क्त्वा प्रत्ययान्त शब्द अथवा 'णमुल्' प्रत्ययान्त शब्द का प्रयोग करते हैं। इस प्रत्यय से युक्त शब्द का दो बार प्रयोग होता है। जैसे- वह पानी पी-पीकर खाता है- सः जल पीत्वा पीत्वा अथवा पायं पायं खादति। (२) यहाँ पीत्वा पीत्वा में 'क्त्वा' प्रत्यय का प्रयोग करके उसका दो बार प्रयोग किया है तथा पायं पायं में णमुल् प्रत्यय का प्रयोग करके उसका दो बार प्रयोग किया है। क्त्वा प्रत्यय के विषय में हम पहले विस्तार से उल्लेख कर चुके हैं। अब हम यहाँ णमुल् प्रत्यय के विषय में लिखेंगे। (३) णमुल् में केवल 'अम्' बचता है। शेष का लोप हो जाता है। इसीलिए धातु में इस प्रत्यय का प्रयोग करने पर इस प्रकार रूप बनाते हैं- √पा + णमुल् पायं पायम्, √भुज् + णमुल्= भोज भोजम्। (४) इस प्रत्यय से युक्त शब्द अव्यय होते हैं। अतः इनके रूप नहीं चलते हैं। अकारान्त धातु से 'णमुल्' प्रत्यय का प्रयोग होने पर प्रत्यय से पूर्व और धातु के बाद 'य्' का आगम होने से धातु के बाद 'यम्' (य् + अम्) जोड़ते हैं। जैसे पायं पायम्। √दा + णमुल्दा + य् + अम्दायम्, दायम् । इसी प्रकार स्नायं स्नायं में भी समझना चाहिए। (५) 'णमुल्' में 'ण' की इत् संज्ञा होने के कारण धातु के पूर्व स्वर को वृद्धि आदेश हो जाता है। जैसे- श्रु+ णमुल् श्रावे. √स्मृ + णमुल्स्मार स्मारम्। = (उ) कर्तृवाचक- ऐसे प्रत्यय जिनका प्रयोग करने पर धातु से कर्तापन का बोध होता हो, कर्तृवाचक कहलाते हैं। इनमें ण्वुल्, तृच्, त्यु, णिनि, अणु, अच् क, ट, खच्, क्विप् आदि प्रत्यय आते हैं। ल्यु- (१) नन्दि, वाशि, मदि, दूषि, साधि, वर्धि, शोभि तथा रोचि धातुओं के बाद कर्तृवाचक शब्द बनाने के लिए 'त्यु' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। ल्यु में 'लशक्वतद्धिते' से ल् की इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है जैसे- नन्द + ल्यु (अन) नन्दन वाश ल्यु (अन) वाशन, मद् ल्यु (अन) मदन दूषल्यु (अन) दूषणः, √साधु + ल्यु (अन) साधन, √ + ल्यु (अन) वर्धन, शोभ् + ल्यु (अन) शोभन रोच्ल्यु (अन) रोचन:। जन + √अर्द + ल्यु- जनार्दन, √लू + ल्यु लवणः । (२) ल्यु प्रत्ययान्त शब्दों के रूप पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति एकवचन में राम के. समान चलते हैं तथा इनसे 'वाला' अर्थ की अभिव्यक्ति होती है-नन्दनः आनन्दित करने वाला। विशेष- यह भावार्थक ल्युट् प्रत्यय से भिन्न है। णिनि- ग्रह आदि धातुओं से 'वाला' अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए, गिनि प्रत्यय का प्रयोग होता है। णिनि के प्रारम्भ में स्थित 'ण' की चुटू' से तथा अन्त में स्थित 'इ' की 'उपदेशेऽजनुनासिक इत्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है - 'इन्'। जैसे— √ग्रह् + इन् (णिनि) = ग्राहिन्। ण की इत् संज्ञा होने से धातु के पूर्व स्वर को वृद्धि आदेश होता है। इसीलिए से √ग्रह् धातु के ग्र में स्थित स्वर 'अ' को वृद्धि आदेश 'आ' होकर बना ग्राह् + इन् • ग्राहिन् (गृहह्णाति, इति ग्राही) = इस प्रत्यय का प्रयोग करने पर नकारान्त प्रातिपदिक बनता है तथा पुल्लिंग, प्रथमा विभक्ति एकवचन में ग्राही उत्साही, स्थायी, मन्त्री, अयाची, अवादी, विषयी, अपराधी इत्यादि शब्द बनते हैं। णिनि प्रत्यय का प्रयोग करने पर, उत् + √सह् + णिनि उत्साहिन्, √स्था + H युक् + णिनि स्थायिन्, √मन्त्र + णिनि = मन्त्रिन्, नञ् + √याच् + णिनि = अयाचिन्, नञ् + √वद् + णिनि अवादिन्, विषय णिनि विषयिन्, अप + राध् + णिनि अपराधिन्, नकारान्त प्रातिपदिक का निर्माण होता है। = अच्- पच्, वद्, चल, पत्, जू. मॄ. क्षम्, सेव् वण्, सृ आदि धातुओं से कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'अच्' प्रत्यय का प्रयोग होता है। अच् के अन्त में प्रयुक्त च की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है-- 'अ'। जो व्यञ्जनान्त धातु के अन्त में जुड़कर उस वर्ण को पूरा कर देता है। जैसे- √पच् + अच् (अ) पचः। = अच् प्रत्ययान्त शब्द पुल्लिंग होते हैं। जैसे- √वद् + अच् = वद्], √चल् + + अच् = चलः, √पत् + अच् = पतः, √जू + अच् = जरः, √सृ + अच् = मरः, √क्षम् + अच् = क्षमः, √सेव् + अच् = सेवः, √वण् + अच् व्रणः, √सृज् + अच् = सर्जः। पाठ- 40क प्रत्यय(१) जिन धातुओं की उपधा (अलोऽन्त्यात् पूर्व उपधा) में इ. उ, ऋ, ऌ, में से कोई भी स्वर प्रयुक्त हुआ हो, उन धातुओं के बाद तथा √ज्ञा (जानना), श्रीञ् (प्रसन्न होना) और √कृ (बिखेरना) धातुओं के बाद कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'क' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। 'क' में कु की 'लशक्वतद्धिते' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है— 'अ'। जैसे- √क्षिप् + क = क्षिपः (फेंकने वाला) । उपर्युक्त उदाहरण में √क्षिप् धातु के अन्तिम 'अल्' अर्थात् 'प' से पूर्व 'इ' ह्रस्व स्वर प्रयुक्त हुआ है। अतः कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'क' प्रत्यय का प्रयोग करके बना- 'क्षिप', पुनः प्रथमा विभक्ति एकवचन, पुल्लिंग में रूप हुआ- क्षिपः। इसी प्रकार अन्य उदाहरणों में भी समझना चाहिए - √लिख्+ क = लिखः, √बुध् + क = • बुधः, √कृश् + क = कृशः, √ज्ञा + क = ज्ञः, प्री + क = प्रियः। √कृ + क = किर:। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः (३/१/१३५)। (२) इसके अतिरिक्त आकारान्त धातु तथा ए, ऐ, ओ, औ स्वर वर्णों में समाप्त होने वाली वह धातु जो आकारान्त हो जाती है, यदि उनसे पहले कोई उपसर्ग आया हो तो कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'क' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं।' जैसे- प्र + √ज्ञा + क = प्रज्ञः (प्रकृष्टेन जानाति, इति) अभि + √ज्ञा + क = अभिज्ञः, वि + √ज्ञा + क = विज्ञः, सु + √ज्ञा + क = सुज्ञः। (३) धातु आकारान्त प्रयुक्त हो तथा उससे पूर्व कोई उपसर्ग भी न आया हो, किन्तु यदि उससे पूर्व कोई कर्म पद प्रयुक्त हुआ हो तो कर्तृवाचक अर्थ में 'क' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। जैसे- गो छदा + क = गोदः (गां ददाति, इति) सुख + बृछदा + क = सुखदः, दुःख + छदा + क = -दुःखदः । (४) कोई शब्द धातु से पहले रहने पर आकारान्त धातु से कर्तृवाचक अर्थ में क प्रत्यय का प्रयोग होता है। जैसे- द्वि + √पा + क = द्विपः, सम + √स्था + क = समस्थ, विषम् + √स्था + क = - = विषमस्थः । (५) ग्रह धातु में 'गृह' अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'क' प्रत्यय का प्रयोग होता है। जैसे— √ग्रह् + क = गृहम् (गृह्णाति धान्यादिकमिति) अण्यदि धातु से पूर्व कर्मवाची पद प्रयुक्त हुआ हो तो आकारान्त धातुओं से भिन्न धातुओं में कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'अण्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। " `अण्' में स्थित `ण्’ की `हलन्त्यम्' से 'इत्' संज्ञा होकर लोप हो जाता है तथा शेष बचता है (अ)। ण् की इत् संज्ञा होने से धातु के आदिस्वर को वृद्धि होती है। आकारान्त धातु को 'क' प्रत्यय होता है, जिसका उल्लेख किया जा चुका है। जैसे- कुम्भ + √कृ + अण् = कुम्भकारः (कुम्भं करोतीति) भार + √हृ + अण् भारहारः (भारं हरति इति) । (१) √चर् धातु से पहले यदि अधिकरणवाची पद का प्रयोग हुआ हो तो कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'ट' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। 'ट' में स्थित 'ट्' की 'चुटू' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है- 'अ'। जैसे- कुरुषु चरतीति १८. ट - कुरुचर: = कुरु √चर् + ट (अ)। (२) इसके अतिरिक्त यदि 'चर्' धातु से पहले भिक्षा, सेना और आदाय शब्दों में से किसी भी शब्द का प्रयोग हुआ हो तो भी उक्त अर्थ में 'ट' प्रत्यय का प्रयोग होगा। जैसे- भिक्षा + √चर् + ट (अ) = भिक्षाचर:। सेना + √चर् + ट (अ) = सेनाचरः । आदाय + √चर् + ट (अ) = आदायचरः। (३) यदि √सृ धातु के पहले पुरः, अग्र, अग्रतः अथवा अग्रे पदों का प्रयोग हुआ हो तो उक्त अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'ट' प्रत्यय का प्रयोग करते है- जैसे- पुरः + √सृ + ट = पुरस्सरः । अग्र + √सृ + ट = अग्रसरः । अग्रतः + √सृ + ट = अग्रतस्सरः । अग्रे + √सृ + ट = अग्रेसरः। (४) यदि √कृ धातु से पहले दिवा, विभा, निशा, प्रभा, भास्कर, किं. बहु, लिपि, चित्र, क्षेत्र, लिबि, बलि, भक्ति, कर्तृ, संख्यावाचक शब्द, जड्या, बाहु, अहः, यत्, तत्, धनुष्, अरुष आदि शब्द कर्म रूप में प्रयुक्त हो तो कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिये 'ट' प्रत्यय का प्रयोग होता है, अण् नहीं। यह नियम वस्तुतः 'अण्' का अपवाद है। जैसे- दिवा + √कृ + ट = दिवाकर, विभा + √कृ + ट= विभाकर, निशा + √कृ + ट= निशाकर, बहु + √कृ + ट= बहुकरः, एक + √कृ + ट= एककर धनुष + कृ. + ट= धनुष्करः, अरुष् + √कृ + ट= अरुष्करः। यत् + √कृ + ट यत्कर, तत् + √कृ + ट= तत्करः । (५) इसी प्रकार √कृ धातु से पहले कर्म का योग होने तथा 'हेतु', आदत, अथवा अनुकूलता अर्थ की अभिव्यक्ति कराने के लिए अण् का प्रयोग न करके 'ट' प्रत्यय का ही प्रयोग करते हैं। यह नियम भी अणु का अपवाद है। जैसे- यशस् + √कृ + ट + डीप्= यशस्करी (विद्या) यशस्करोतीति। श्राद्धं करोतीति (श्राद्ध करने की आदत वाला) श्राद्ध + √कृ + ट= श्राद्धकरः। वचनं करोतीति (वचनों के अनुकूल कार्य करने वाला) वचन + √कृ + ट = वचनकरः। पाठ- 41खच् (१) यदि प्रिय अथवा वश शब्दों का √वद् धातु से पहले कर्म के रूप में प्रयोग हुआ हो तो कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'खच्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। खच् के प्रारम्भ में स्थित 'ख्' की 'लशक्वतद्धिते' से तथा अन्तिम च की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है- 'अ'। जैसे- प्रिय + मुक् (म्) आगम + √वद् + खच् (अ) = प्रियंवदः (प्रियं वदतीति)। वश + मुक् (म्) आगम + √वद् + खच् (अ) = वशंवदः। (२) यदि भृ, तृ, वृ, जि, धृ, सह, तप्, दम् और गम् धातुओं से पहले कोई संज्ञा शब्द कर्म के रूप में प्रयुक्त हुआ हो तो कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए खच् (अ) प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। जैसे- विश्वं बिभर्ति, इति विश्वम् + √भृ + खच् (अ) + टाप् = विश्वम्भरा । पतिं वरतीति, पतिम् + √वृ + खच् (अ) + टाप् पतिंवरा । रथं तरतीति, इति रथम् + √तृ + खच् (अ) =रथन्तरम् (साम का नाम) । युगं धरति, इति युगम् + √धृ + खच् (अ) - युगन्धरः । अरिं दमयति, इति अरिम् + √दम् + खच् (अ) । शत्रुं जयति इति शत्रुम्+जि + खच् (अ) = शत्रुञ्जयः । शत्रुम् सहते इति शत्रुम् + √सह् + खच् (अ) शत्रुंसहः । (३) यदि √कृ धातु से पहले क्षेम, प्रिय और मद्र शब्दों का प्रयोग कर्म के रूप में हुआ हो तो कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए खच् और अण् दोनों प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है। जैसे- क्षेमम् + √कृ + खच् (अ) = क्षेमङ्करः । प्रियम् + √कृ + खच् (अ) =प्रियङ्करः । मद्रम् + √कृ + खच् (अ) = मद्रङ्करः । अण् प्रत्यय होने पर क्रमशः क्षेमकार, प्रियकार: और मद्रकारः रूप बनेंगे। विशेष – किन्तु जब 'क्षेम' पद में कर्म की विवक्षा नहीं होगी तब 'अच्' प्रत्यय होकर क्षेमस्य करः, इति, क्षेम + √कृ + अच् = क्षेमकरः बनेगा। क्विप्(१) – यदि √सद् (बैठना), √सू (उत्पन्न करना), द्विष् (शत्रुता करना), √द्रुह (द्रोह करना), √दुह (दुहना), √युज् (जोड़ना), √विद् (जानना) √भिद् (भेदना), √छिद् (काटना), √जि (जीतना), √नी (ले जाना) और राज् (सुशोभित होना) धातुओं से पहले उपसर्ग आए अथवा न आए, दोनों ही स्थितियों में कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'क्विप्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। इस • प्रत्यय का कुछ भी शेष नहीं बचता है, सब कुछ लोप हो जाता है। द्यु + √सद् + क्विप् = घुसत्, प्र + √सू + क्विप् = प्रसूः, √द्विष् + क्विप् = द्विट्, मित्र + √द्रुह् + क्लिप् = मित्रधुक्, गो + √दुह् + क्विप् = गोधुक्, अश्व + √युज् + क्विप् = अश्वयुक्, वेद + √विद् + क्विप् = वेदवित्, गोत्र + √भिद् + क्विप् + = गोत्रभित्, पक्ष + √छिद् + क्विप् = पक्षच्छित्, इन्द्र + √जि + क्विप् = इन्द्रजित्, = सम् + √राज् + क्विप् = सम्राट्। (२) √कृ धातु से पहले सु, कर्म, पाप, मन्त्र तथा पुण्य शब्दों का प्रयोग कर्म के रूप में होने पर भी क्विप् प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। जैसे सु + √कृ + क्विप् = सुकृत्, कर्म + √कृ + क्विप् = कर्मकृत्, पाप + √कृ + क्विप् = पापकृत्, मन्त्र + √कृ + क्विप् = मन्त्रकृत्, पुण्य + √कृ + क्विप् = पुण्यकृत् । (३) √हन् धातु से पहले बह्म, भ्रूण तथा वृत्र शब्दों के कर्म रूप में प्रयुक्त होने पर कर्तृवाचक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए क्विप् प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। जैसे- ब्रह्म + √हन् + क्विप् = ब्रह्महा, भ्रूण + √हन् + क्विप् = भ्रूणहा, वृत्र + √हन् - क्विप् = वृत्रहा। पाठ- 42भावार्थक प्रत्ययधातु के अर्थ की सिद्धि होने पर भाव कहा जाता है तथा भाव की अभिव्यक्ति के लिए जिन प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है। उन्हें भावार्थक प्रत्यय कहते हैं। इनमें घञ्, ल्युट्, क्तिन्, अच्, अप्, नङ् और युच् प्रमुख प्रत्यय हैं । घञ् धातु के अर्थ को बताने के लिए तथा कर्ता को छोड़कर अन्य कारक के अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'घञ्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। (१) घञ् में 'घ' और 'ञ्' की क्रमशः 'लशक्वतद्धिते' तथा 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है- 'अ' 'ञ्' इत् होने के कारण धातु की उपधा के अ को आ, इ को ए, उ को ओ तथा ऋ को अर् गुण आदेश हो जाता है तथा धातु के अन्तिम इ ई उ ऊ और ऋ ॠ को वृद्धि आदेश (ऐ, औ और आर) हो जाते हैं। घञ् प्रत्ययान्त शब्द पुल्लिंग होते हैं। घ् इत् होने के कारण धातु के च् को कृ तथा ज् को ग् आदेश हो जाता है। जैसे- चि + घञ् = काय, नि+घञ् = नायः प्र + √स्तु + घञ् = प्रस्तावः √भू + घञ् = भाव, √पठ् + घञ् = पाठः, √लिख्+ पञ्लेख √रध् + घञ् रोधः, वि + √रुध् + घञ् = विरोध, अव + √तृ + घञ् = अवतारः, उप + √कृ घञ् = उपकार, वि + √कृ + घञ् = विकारः प्र + √कृ + घञ् = प्रकार, √पच् + घञ् = पाकः, √त्यज् + घञ् = त्यागः, √शुच् + घञ् = शोक, √भुज् + घञ् = भोगः, √युज् + घञ् = योगः, √रुज् + घञ् = रोगः, √भज् + घञ् = भागः, सिच् + घञ् = सेकः । = + ल्युट्धातुओं में नपुंसकलिङ्ग की भाववाचक संज्ञा बनाने के लिए 'क्त' और 'ल्युट्' प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। ल्युट् के प्रारम्भ में स्थित 'ल्' की 'लशक्वतद्धिते' से तथा अन्तिम 'ट' की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है तथा अवशिष्ट 'यु' को 'युवोरनाको' सूत्र से 'अन' आदेश होता है। यहाँ ध्यान रहे 'न' हलन्त नहीं होता। जैसे- √पठ् + ल्युट् (अन) = पठनम्, √हस् + ल्युट् (अन) = हसनम्, गम् ल्युट् (अन) + = गमनम्, √क्रीड् + ल्युट् (अन) = क्रीडनम्, √चल् + ल्युट्(अन) = चलनम्, √धाव् + ल्युट् (अन) = धावनम्, √वद् + ल्युट् (अन) वदनम्, √लिख्+ल्युट् (अन) = लेखनम्, √कृ + ल्युट् (अन) = करणम्, √दृश् + ल्युट् (अन) ल्युट् (अन) दर्शनम्। पाठ- 43क्तिन् स्त्रीलिङ्ग भाववाचक शब्द बनाने के लिए धातुओं में 'क्तिन' प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। 'क्तिन्' में 'क्' और 'न्' की क्रमश: 'लशक्वतद्धिते' तथा हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है- 'ति'। क्तिन् प्रत्ययान्त शब्दों के रूप 'मति' के समान चलते हैं। जैसे- √कृ + क्तिन् = कृतिः, √धृ + क्तिन् = धृतिः, √चि + क्तिन् = चितिः, √स्तु + क्तिन् = स्तुतिः, √गा + क्तिन् गीतिः, √वच् + क्तिन् = उक्तिः, √ हृ क्तिन् - हृतिः, √प्री + क्तिन् प्रीतिः, √ख्या + क्तिन् ख्यातिः, √सुप् + क्तिन् सुप्तिः। अच्ह्रस्व इ तथा दीर्घ ईकारान्त धातुओं से भाववाचक शब्द बनाने के लिए 'अच्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। 'अच्' में च्' की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है 'अ'। भाववाचक 'अच्' प्रत्ययान्त शब्द पुल्लिंग और नपुंकलिङ्ग दोनों होते हैं, जैसे- जि + अच् जयः (पुल्लिंग), √नी + अच्नयः (पुल्लिंग), √भी + अच् = भयम् (नपुंसकलिङ्ग) अप् (१) ऋकारान्त और उकारान्त धातुओं में भाववाचक शब्द बनाने के लिए 'अप्' प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। अप् के अन्तिम् 'प्' की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष 'अ' बचता है। अप् प्रत्ययान्त शब्द पुल्लिंग होते हैं। जैसे + अप् करः (बिखेरना), √कृ+ यु [ + अप्= यवः (जोड़ना), √स्तु + अप्स्तवः (स्तुति) √भू + अप्= भवः (होना) √गृ+ अप्= गरः (विष) √लू + अप्लवः (काटना) √पू + अप् = पवः (पवित्र करना) (२) √ग्रह, √वृ, √दृ, निस् + √चि, √गम्, √वश् और चरण धातुओं में भी भावार्थक शब्द बनाने के लिए 'अप्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं जैसे- √ग्रह + अप् = ग्रहः, √वृ + अप् = वरः, √दृ + अप् = दरः निस् + √चि + अप् = निश्चयः, √गम् + + अप् गमः, √वश् + अप्वशः, √रण् + अप्रणः । पाठ- 44नङ् यज्, याच्, यत्, विच्छ् (चमकना), प्रच्छ और रस् धातुओं में भाववाचक शब्द बनाने के लिए 'नङ्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। 'न' के 'ङ' की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष 'न' बचता है। जैसे √यज् + नङ् = यज्ञः, √याच् + नङ् = याच्या, √यत् + नङ् = यत्नः, विच्छ् + नङ् = विश्नः, √प्रच्छ् + नङ् = प्रश्नः, √रव् + नङ् = रक्षणः। युच् प्रेरणार्थक धातुओं में एवं आस्, श्रन्थ्, घट्ट, वन्द्, विद् धातुओं से भावार्थक शब्द बनाने के लिए 'युच्' प्रत्यय का प्रयोग होता है। इस प्रत्यय से युक्त शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। युच्' के अन्तिम च् की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है तथा 'युवोरनाकौ' से शेष 'यु' को 'अन' आदेश हो जाता है। जैसे- √कृ + णिच् + युच् + टाप् कारणा, √हृ + णिच् + युच् + टाप् हारणा, आस् +युच् + टाप् आसना, √वन्द् + युच् + टाप् वन्दना, विद्+ = युच् + टाप् वेदना । (ए) शील-धर्म-साधुकारिता वाचक- किसी भी धातु के बाद शील, धर्म तथा भलीप्रकार सम्पादन करना इन तीनों में से किसी भी एक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए षाकन्, इष्णुच् तथा आलुच् प्रत्ययों का प्रयोग करते हैं। षाकन्जल्म्, भिक्षु, √कुछ (अलग करना, काटना) √लुण्ट् (लूटना) तथा √वृ (वरण करना) धातुओं में शील, धर्म तथा साधुकारिता अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'चाकन्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। 'षाकन्' के प्रारम्भ में स्थित प्' की 'षःप्रत्ययस्य' सूत्र से तथा अन्तिम 'न्' की हलन्त्यम् से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है 'आक' । जैसे जिल्प् + षाकन् (आक) = जल्पाकः, (बहुत बोलने वाला), √भिक्षु + षाकन् (आक) = भिक्षाकः (भिक्षा मांगने वाला) √कुछ + षाकन् (आक) = कुट्टाक, लुण्ट् +षाकन् (आक) = लुण्टाक, √वृ + चाकन् (आक) = वराक: (बेचारा)। पाठ- 45इष्णुच् अलं + √कृ, निर् + आ + √कृ, प्र + √जन्, उत् + √पच्, उत् √पत्, उत् + √मद्, रुच्, अप + √त्रप्, √वृत्, वृध्, √सह और √चर् धातुओं के पश्चात् 'शील', 'धर्म' और 'भलीप्रकार' सम्पादन अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'इष्णुच्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। इष्णुच् के अन्तिम 'च' की 'हलन्त्यम्' से 'इत्' संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है- 'इष्णु'। जैसे अलम् + √कृ + इष्णुच् = अलङ्करिष्णुः, निर् + + √कृ + इष्णुच् निराकरिष्णुः (अपमान करने वाला), प्र + √जन् + इष्णुच् = प्रजनिष्णु: उत् + √पच् + इष्णुच् = उत्पचिष्णुः, उत् + √पत् + इष्णुच् = उत्पतिष्णुः, उत् + √मद् + इष्णुच् = उन्मदिष्णुः √रुच् + इष्णुच् रोचिष्णुः अप + √त्रप् + इष्णुच् = अपत्रपिष्णुः, √वृत् + इष्णुच् = वर्तिष्णु वृध् + इष्णुच् = वर्धिष्णुः √सह इष्णुच् = सहिष्णु, √चर् + इष्णुच्चरिष्णु: (भ्रमणशील) । आलुच्√स्पृह, गृह, √पत्, दय्, √शी (सोना) धातुओं के बाद एवं निद्रा, तन्द्रा, श्रद्धा शब्दों के बाद उक्त अर्थों की अभिव्यक्ति के लिए 'आलुच्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। 'आलुच्' के अन्तिम च्' की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है- 'आलु'। जैसे- स्पृहयालु, दयालु, गृहयालु, पतयालुः, शयालु, निद्रालुः, तन्द्रालु, श्रद्धातुः आदि । कृत् प्रत्यय की संख्या कितनी है?कृत् प्रत्यय कहलाते हैं। हिन्दी में कृत् प्रत्ययों की संख्या अठ्ठाईस है, ये निम्न प्रकार है - अक, इन, अना, आई, इत, इत्र, ई, उक, ति, दान, नाक एवं बाज आदि।
संस्कृत के प्रत्यय की संख्या कितनी है?धातुओं के साथ उपसर्ग, प्रत्यय आदि मिलकर तथा सामासिक क्रियाओं के द्वारा सभी शब्द जैसे – संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया आदि बनते हैं। दूसरे शब्दों में- संस्कृत का लगभग हर शब्द धातुओं के रूप में अलग किया जा सकता है। कृ, भू, मन्, स्था, अन्, गम्, ज्ञा, युज्, जन्, दृश् आदि कुछ प्रमुख धातुएँ हैं। संस्कृत में लगभग 3356 धातुएं हैं।…
कृत प्रत्यय कितने प्रकार के हैं?कृत प्रत्यय के भेद:. कर्तृवाचक कृत प्रत्यय. विशेषणवाचक कृत प्रत्यय. भाववाचक कृत प्रत्यय. कर्मवाचक कृत प्रत्यय. करणवाचक कृत प्रत्यय. क्रियावाचक कृत प्रत्यय. कृत प्रत्यय कितने प्रकार के होते हैं class 9?Solution : प्रत्यय दो प्रकार के होते हैं-(i) कृत् प्रत्यय, (ii) तद्धित प्रत्यय। <br> (i) कृत् प्रत्यय-जो प्रत्यय क्रिया या धातु के अन्त में प्रयुक्त होते हैं, उन्हें कृत् प्रत्यय या कृदन्त कहते हैं। जैसे-तैरना + आक (प्रत्यय) = तैराक।
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