संयुक्त परिवार के प्रकार कौन सा है? - sanyukt parivaar ke prakaar kaun sa hai?

संयुक्त परिवार के प्रकार - type of joint family

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भारत में संयुक्त परिवार के अनेक रूप विद्यमान हैं। सत्ता, वंश, स्थान पीढ़ियों की गहराई व संपत्ति के अधिकार की दृष्टि से परिवार के निम्नांकित रूप पाए जाते हैं-

1. सत्ता, वंश एवं स्थान के आधार पर

अ- पितृसत्तात्मक, पितृवंशीय एवं पितृस्थानीय परिवार उपर्युक्त प्रकार के संयुक्त परिवार में पिता ही परिवार का केंद्र बिंदु अर्थात प्रमुख होता है तथा वंश परंपरा का चलन उसी के नाम के आधार पर होता है। ऐसे परिवारों में पत्नियां पति के घर पर ही आकर निवास करती हैं एवं पुरूष पक्ष के तीन-चार पीढ़ियों के सदस्य एक साथ करते हैं। ऐसे परिवारों में संपत्ति का स्थानांतरण पिता द्वारा पुत्र को होता है। भारतीय समाज में हमें इसी प्रकार का परिवार देखने को मिलता है।

ब- मातृसत्तात्मक, मातृवंशी एवं मातृस्थानीय परिवार इस प्रकार के परिवारों में माता का प्रमुख स्थान देखने को मिलता है। परिवार की संपत्ति पर मां का स्वामित्व होता है एवं उत्तराधिकार माता से स्त्रियों को ही मिलता है।

वंश-परंपरा के चलन का आधार भी माता होती है अर्थात वंश नाम माता से पुत्रियों को मिलता है। इस प्रकार के संयुक्त परिवार में एक स्त्री. उसके भाई-बहन तथा परिवार की सभी खियों के बच्चे निवास करते हुए मिलेंगे। केरल में ऐसे परिवार को 'थारवाद' (तरवाद) के नाम से पुकारते हैं। इस तरह के परिवार नायरों और असम के खासी और गारो लोगों में पाए जाते हैं।

2. पीढ़ियों की गहराई के आधार पर

अ. संयुक्त परिवार का उदग्र (Vertical) प्रारूप- इस प्रकार के संयुक्त परिवारों में एक ही वंश के कम से कम तीन पीढ़ियों के लोग एक साथ निवास करते हैं जैसे- दादा, पिता, अविवाहित पुत्री और पुत्र। डॉ. देसाई ने ऐसे ही परिवारों को संयुक्त माना है।

ब- संयुक्त परिवार का (Horizontal) प्रारूप- इस प्रकार के परिवारों में भाई का संबंध अधिक महत्वपूर्ण होता है अर्थात ऐसे परिवारों में दो या तीन भाइयों के एकांकी परिवार एक साथ निवास करते हैं। 

स- संयुक्त परिवार का मिश्रित (Mixed) प्रारूप- संयुक्त परिवार का एक रूप उपर्युक्त दोनों प्रकार के परिवार का मिश्रित रूप है जिसमें दो या तीन पीढ़ियों के सभी भाई सम्मिलित रूप से निवास करते हैं।

3. संपत्ति के अधिकार की दृष्टि से 

संपत्ति में अधिकार की दृष्टि से संयुक्त परिवार को मिताक्षरा एवं दायभाग दो भागों में बांटा जा सकता है।

अ- मिताक्षरा संयुक्त परिवार विज्ञानेश्वर द्वारा लिखित मिताक्षरा टीका के नियमों पर आधारित है। बंगाल और असम को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में इस प्रकार के परिवार पाए जाते हैं। इन परिवारों की मुख्य विशेषताएं हैं

कि इसमें पुत्र को जन्म से ही पिता की संपत्ति में अधिकार प्राप्त हो जाता है, स्त्रियों को संपत्ति में कोई अधिकार नहीं होता है, एक व्यक्ति की मृत्यु होने पर के कोई पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र नहीं है तो उसकी संपत्ति उसके भाई आपस में बांट लेंगे. स्त्री को धन के अतिरिक्त कोई संपत्ति नहीं दी जाएगी. पुत्र पिता के जीवित रहते हुए भी कभी भी अपने हिस्से की मांग कर सकते हैं, संपत्ति पर पिता का सीमित अधिकार है वह विशेष ऋण एवं धार्मिक कार्यों के लिए संयुक्त संपत्ति को बेच सकता है।

ब- दायभाग संयुक्त परिवार के नियम जीमूतवाहन द्वारा लिखित दायभाग ग्रंथ पर आधारित है। इस प्रकार के परिवार बंगाल और असम में पाए जाते हैं। इनकी मुख्य विशेषताएं हैं कि इनमें पिता के मरने के बाद ही पुत्र का संपत्ति पर अधिकार होता है, पिता के जीवित रहते पुत्र संपत्ति के बंटवारे की मांग नहीं कर सकता है. पिता संपत्ति का निरंकुश अधिकारी होता है। अपनी संपत्ति को मनमाने ढंग से खर्च कर सकता है। पुत्र का उसमें भरण पोषण के अतिरिक्त कोई अधिकार नहीं होता है, पिता के मरने पर पुत्र ना होने पर उसकी पत्नी को मिलती है, इसमें पुरुष के साथ साथ स्त्रियाँ भी संपत्ति में उत्तराधिकारी होती हैं। 

एक लंबे समय तक संपत्ति की दृष्टि से परिवार इन दो भागों में बाँटा हुआ था, किंतु सन 1956 के "हिंदू अधिकार अधिनियम" ने यह भेद समाप्त कर देश में एक सी व्यवस्था लागू कर दी है और स्त्री-पुरुषों को संपत्ति में समान अधिकार प्रदान किए हैं।

संयुक्त परिवार के प्रकार कौन सा है? - sanyukt parivaar ke prakaar kaun sa hai?

भारत में संयुक्त परिवार प्रथा, भूतकाल से चली आ रही है संयुक्त परिवार जिसमें कम से कम 5 से 25 व्यक्तियों का समूह होता है जहाँ परिवार का मुखिया दादा या बड़ा सदस्य होता है। वह परिवार की भलाई के लिए समय-समय पर निर्णय लेते है। और उसका निर्णय मान्य होता है। सब उसका आदर करते है। परिवार के सभी सदस्य मिलजुल कर कार्य करते है।

संयुक्त परिवार ज्यादातर गाँव में रहते है। जहाँ परिवार के पुरुष खेत या व्यापार में मिलकर कार्य करते है वही परिवार की महिलाएं रसोई में मिलकर कार्य करती है। बच्चे जब तक छोटे होते है परिवार पर निर्भर होते है और जैसे-जैसे वह बड़े होते जाते है उनकी निर्भरता परिवार के प्रति कम हो जाती है।

संयुक्त परिवार (जिसे विस्तृत परिवार भी कहा जाता है) एक गृहस्थ समूह है जिसमें माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची, भाई-भाभी, चचेरे भाई-बहन तथा अविवाहित भाई-बहन सम्मिलित होते हैं। इस प्रकार, संयुक्त परिवार में कई पीढि़यों के सदस्यों का एक सामान्य निवास-स्थान होता है, वे एक रसोई का पका भोजन करते हैं तथा सामान्य संपत्ति रखते हैं। 

संयुक्त परिवार की परिभाषा

के . एम. कपाडिया ने पीढि़यों की गहराई को संयुक्त परिवार का लक्षण माना है। संयुक्त परिवार की पूरी सत्ता मुखिया में केंद्रित होती है जिसे संयुक्त परिवार का कर्ता कहा जाता है। कर्ता ही पूरे परिवार के बारे में सभी प्रकार के निर्णय लेता है। इस अर्थ में भारतीय संयुक्त परिवार को निरंकुश सामाजिक संरचना वाला परिवार भी कहा गया है।

इरावती कर्वे के अनुसार ’’संयुक्त परिवार ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो एक ही निवास स्थान में रहते है। एक ही रसोई में बना हुआ भोजन करते है जिनकी सामान्य संपति होती है, जो सामान्य पूजा में भाग लेते है तथा किसी न किसी रक्त से संबंध द्वारा आपस में बंधे होते है।’’

डाॅ. देसाई के अनुसार ’’हम संयुक्त परिवार उस परिवार को कहते है जिसमें एकांकी परिवार की अपेक्षा अधिक पीढि़यों (तीन या तीन से अधिक) के सदस्य एक साथ रहते है। तथा संपत्ति, आय तथा पारस्परिक अधिकारों और दायित्यों के द्वारा परस्पर संबंधित होते है।’’

फेयर चाइल्ड के अनुसार ’’संयुक्त परिवार एक ऐसा सामाजिक समूह है जिसमें अनेक परस्पर संबंधित व्यक्तिगत परिवार हो सकते है। विशेषतः पिता और उसके पुत्र तथा माता और उसकी पुत्रियाँ, जो एक बड़े आवास में रहते है। या छोटे आवासो में एक स्थान पर रहते है।’’

किग्सले डेविस के अनुसार ’’संयुक्त परिवार के अंदर पुरुष, उनके पूर्वज अविवाहित सन्तानें तथा विवाह के द्वारा समूह में सम्मिलित की गयी स्त्रियाँ होती है। ये सभी सदस्य एक ही घर में रहते है या आस-पास के कई घरों में रहते है। इसके सदस्यों से यह आशा की जाती है कि वे अपनी आय एकत्रित करेंगे और उस सम्पूर्ण में से उत्पादन का अपना हिस्सा प्राप्त करेंगे।’’

कर्वे-‘‘एक संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का समूह है जो एक ही छत के नीचे रहते हैं, जो एक रसोई में पका भोजन करते हैं जो सामान्य संपत्ति के अधिकारी होते है, जो सामान्य पूजा में भाग लेते हैं तथा जो परस्पर एक-दूसरे से विशिष्ट नातेदारी से संबंधित हैं।’’

कुछ अन्य (जैसे एपफ.जी.बेली, टी.एन.मदान) संयुक्त सम्पत्ति-स्वामित्व को अधिक महत्व देते हैं, और कुछ (जैसे आई.पी.देसाई) नातेदारों के प्रति दायित्यों को पूरा करने को महत्व देते हैं, भले ही उनके निवास अलग-अलग हों तथा सम्पत्ति में सहस्वामित्व न हो। ‘दायित्व को पूरा करने’ का अर्थ है अपने को परिवार का सदस्य मानना, विनीय और अन्य प्रकार की सहायता देना तथा संयुक्त परिवार के नियमों को मानना।

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अनुसार ‘सह सम्पत्ति’ तथा ‘संयुक्त सम्पत्ति’ शब्दों का अर्थ है कि सभी जीवित स्त्री व पुरुष सदस्य तीन पीढ़ियों तक पैतृक सम्पत्ति के हिस्सेदार न ही किसी को दी जा सकती है। इस प्रकार, एक व्यक्ति को अपनी पत्नी, दो पुत्रों, दो पुत्रियों, दो पौत्रों तथा दो पौत्रियों के साथ अपनी सम्पत्ति को अपनी पत्नी व चार बच्चों में बराबर बाटना होगा। पौत्र संतति अपने माता-पिता की सम्पत्ति में से ही हिस्सा लेंगे। पुत्र व पुत्री प्रत्येक की पूर्व मृत्यु पर उनके उत्तराधिकारी एक एक भाग लेंगे।

आई.पी.देसाई मानते हैं कि सह-निवास तथ सह-रसोई को संयुक्त परिवार की परिसीमा के लिए आवश्यक समझना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा करने से संयुक्त परिवार को सामाजिक सम्बन्धों का समुच्चय एवं प्रकार्यात्मक इकाई नहीं माना जायेगा। उनका कहना है कि एक घर के सदस्यों के बीच के आपसी सम्बन्धों तथा अन्य घरों के सदस्यों के साथ सम्बन्धों पर ही परिवार के प्रकार का निर्धारण किया जा सकता है। एकाकी परिवार को संयुक्त परिवार से अलग देखने के लिए भूमिका सम्बन्धों (role relations) के अन्तर को एवं विभिन्न रिश्तेदारों के बीच व्यवहार के मानदंडीय प्रतिमान (normative pattern) को समझना पड़ेगा। उनकी मान्यता है कि जब दो एकाकी परिवार नातेदारी सम्बन्धों के होने पर भी अलग-अलग रहते हों, लेकिन एक ही व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र में कार्य करते हों तो वह परिवार संयुक्त परिवार होगा। 

उन्होंने इस परिवार को ‘प्रकार्यात्मक संयुक्त परिवार’ (functional joint family) कहा है। आवासीय (residential) संयुक्त परिवार में जब तक तीन या अधिक पीढ़ियां एक साथ न रह रहीं हो तब तक यह परम्परात्मक संयुक्त परिवार नहीं हो सकता। उस के अनुसार दो पीढ़ियों का परिवार ‘सीमान्त संयुक्त परिवार’ (marginal joint family) कहलाएगा। इस प्रकार देसाई ने संयुक्त परिवार के तीन आधार माने हैं: पीढ़ी की गहराई, अधिकार एवं दायित्व, तथा सम्पत्ति।

रामकृष्ण मुखर्जी ने पांच प्रकार के सम्बन्ध बताते हुए, वैवाहिक (conjugal), माता-पिता पुत्र-पुत्री (parentalfilial), भाई-भाई व भाई-बहन (inter-sibling), समरेखीय (lineal), तथा विवाहमूलक (affinal) सम्बन्ध-कहा है कि संयुक्त परिवार वह है जिसके सदस्यों में उपरोक्त पहले तीन सम्बन्धों में से एक या अधिक और या समरेखीय या विवाहमूलक या दोनों सम्बन्ध पाये जाते हैं।

देसाई -‘‘हम उस परिवार को संयुक्त परिवार कहते हैं जिसमें एकाकी परिवार की अपेक्षा अधिक पीढि़यों नोट

(तीन या उससे अधिक) के सदस्य सम्मिलित होते हैं और जो एक-दूसरे से संपत्ति, आय और परस्पर

अधिकारों तथा कर्तव्यों द्वारा बँधे होते हैं।’’

स श्रीनिवास-‘‘वह गृहस्थ समूह, जो प्रारंभिक परिवार से बड़े होते हैं और जिनमें सामान्यतः दो या दो से

अधिक एकाकी परिवार पाए जाते हैं, संयुक्त या विस्तृत परिवार कहलाते हैं।’’

स वाॅटमोर-‘‘भूतकाल में यह एक संगठित समूह के समान था जिसमें सामान्य संपत्ति तथा रक्षक देवता की

आमतौर पर पूजा तथा परिवार के प्रमुख (साधारणतः पुरुषों में सबसे ज्येष्ठ पुरुष) के द्वारा शक्ति का प्रयोग

होता है।’’

संयुक्त परिवार की प्रमुख विशेषताएं

परम्परागत (संयुक्त) परिवार के कुछ प्रमुख लक्षण हैं:

1. सत्तात्मक संरचना – सत्तात्मकता का यहां अर्थ है कि निर्णय तथा निश्चय करने की शक्ति एक व्यक्ति में होती है जिसकी आज्ञा का पालन बिना चुनौती के होना चाहिए। प्रजातंत्रीय परिवार में सत्ता जबकि एक या एक से अधिक लोगों में निहित होती है जिसका आधार दक्षता और योग्यता होता है, सत्तात्मक परिवार में परम्परा से सत्ता आयु एवं वरिष्ठता के आधार पर सबसे बड़े पुरुष के पास ही होती है।

परिवार का मुखिया अन्य सदस्यों को थोड़ी ही स्वतंत्रता प्रदान करता है और निर्णय करने में वह भले ही अन्य सदस्यों की राय जाने या न जाने, उसका निर्णय अन्तिम रुप से मान्य होता है। लेकिन जनतंत्रीय परिवार में मुखिया का कर्तव्य होता है कि वह अन्य सदस्यों की सलाह ले और कोई भी निर्णय करने से पूर्व उनकी राय को पूर्ण महत्व प्रदान करें।

2. पारिवारिक संगठन – इसका अर्थ है कि व्यक्ति के हितों का पूरे परिवार के हितों के सामने कम महत्व होता है, अर्थात् परिवार क लक्ष्य ही व्यक्ति का लक्ष्य होना चाहिए, जैसे यदि बच्चा स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उच्च शिक्षा जारी रखना चाहता है परन्तु यदि उसे परिवार के व्यापार को देखने के लिए दुकान पर बैठने को कहा जाये तो उसे परिवार के हितों के आगे अपने हितों की अनदेखी करनी होगी।

3. आयु और संबंधों के आधार पर सदस्यों की परिस्थिति का निर्धारण – परिवार के सदस्यों की परिस्थिति का निर्धारण उनकी आयु और संबंधों द्वारा निश्चित होता है। पति का पद पत्नी से ऊचा होता है। दो पीढ़ियों में ऊची पीढ़ी वाले व्यक्ति की परिस्थिति निम्न पीढ़ी के व्यक्ति की परिस्थिति से अधिक ऊची होती है। लेकिन उसी पीढ़ी में बड़ी आयु वाले व्यक्ति की परिस्थिति कम आयु वाले व्यक्ति की परिस्थिति से ऊची होती है। पत्नी की परिस्थिति उसके पति की परिस्थिति ने निश्चित होती है।

4. सन्तान तथा भ्रातृक संबंधों की दाम्पत्य संबंधों पर वरीयता – रक्त सम्बन्धों को वैवाहिक सम्बन्धों की अपेक्षा वरीयता दी जाती है। दूसरे शब्दों में पति-पत्नि के सम्बन्ध, पिता-पुत्र या भाई-भाई सम्बन्धों की अपेक्षा निम्न माने जाते हैं।

5. संयुक्त दायित्यों के आदर्श पर परिवार का कार्य संचालन – परिवार संयुक्त परिवार के उत्तर दायित्वों के आदर्शो के आधार पर कार्य करता है। यदि पिता अपनी पुत्री के विवाह के लिए प्ण लेता है तो उसके पुत्रों का भी यह दायित्व हो जाता है कि वह उसकी वापसी का प्रयत्न करें।

6. सभी सदस्यों के प्रति समान बर्ताव – परिवार के सभी सदस्यों पर समान ध्यान दिया जाता है। यदि एक भाई के पुत्र को 4000 रुपये मासिक आय के साथ एक खर्चीले कन्वेन्ट स्कूल में प्रवेश दिलाया जाता है तो दूसरे भाइयों के (कम मासिक आय वाले) पुत्र को इन्हीं सुविधाओं के साथ अच्छे स्कूल में पढ़ाया जायेगा।

7. वरिष्ठता के सिद्धान्त के आधार पर सत्ता-निर्धारण – परिवार में (स्त्री-पुरुषों, पुरुषों-पुरुषों, स्त्रियों-स्त्रियों के) बी के सम्बन्धों का निर्धारण वरीयता क्रम के अनुसार निर्धारित होता है। यद्यपि सबसे बड़ी आयु का पुरुष (या स्त्री) किसी दूसरे को सत्ता सौंप सकते हैं, लेकिन यह भी वरीयता के सिद्धान्त पर ही होगा जिससे व्यक्तिवाद की भावना विकसित न हो सके।

    संयुक्त परिवार का विघटन

    भारतीय समाज में एक आधारभूत संस्था संयुक्त परिवार प्रणाली थी, इस परिवार प्रणाली का आजकल विघटन होते जा रहा है। संयुक्त परिवार में सम्मिलित-सम्पत्ति और सम्मिलित-निवास होता है, पारस्परिक कर्तव्य के सम्बन्ध में समानता होती है। संयुक्त परिवार में रहते हुए पहले बच्चे उदारता, सहिष्णुता, सेवा, सहयोगिता, प्रेम, सद्भाव, आज्ञाकारिता और हिल-मिलकर रहने की कला का पाठ पढ़ते हैं और परिवार में सबके लाभार्थ अपने स्वार्थों की बलि देना सीखते हैं। पलायन के कारण एक पुरुष अपने गाँव को छोड़कर शहर जाता है, अपने ही राज्य में या राज्य से बाहर, वह अपनी पत्नी और बच्चों को भी अपने साथ ले जाता है और इसका परिणाम संयुक्त परिवार का बिखरना होता है।

    संयुक्त परिवार के कितने प्रकार होते हैं?

    अ- पितृसत्तात्मक, पितृवंशीय एवं पितृस्थानीय परिवार उपर्युक्त प्रकार के संयुक्त परिवार में पिता ही परिवार का केंद्र बिंदु अर्थात प्रमुख होता है तथा वंश परंपरा का चलन उसी के नाम के आधार पर होता है।

    परिवार के प्रकार्य क्या है?

    परिवार के कुछ सामाजिक प्रकार्य भी हैं। यह बच्चों का पालन पोषण करता है और उनके समाजीकरण में सहायता देता है। बच्चे परिवार के बीच में ही विकसित होते हैं। वे परिवार में ही भाषा, रीति-रिवाज, परम्परा तथा आचार को सीखते हैं।

    संयुक्त परिवार का क्या अर्थ है?

    हिन्दू संयुक्त परिवार जिसमें एक साथ एक ही घर में कई पीढ़ियों के लोग रहते हैं जिस परिवार मे तीन या अधिक पीढ़ियों के सदस्य साथ साथ निवास करते है जिनकी रसोई,पूजा पाठ एवं संपत्ति सामूहिक होती है उसे ही सयुंक्त परिवार कहते है।

    परिवार कितने प्रकार के हैं संयुक्त परिवार से क्या लाभ है?

    संयुक्त परिवार में मिलती है आर्थिक मदद एकल परिवार के मुकाबले संयुक्त परिवार में आर्थिक समस्याओं का आसानी से सामना किया जा सकता है। परिवार में तीन से अधिक सदस्य आर्थिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हैं। एकल परिवार के मुकाबले संयुक्त परिवारों में कई व्यक्ति कमाते हैं। इससे आर्थिक बोझ को एक दूसरे में बांट दिया जाता है।