द्विवेदी जी ने भारतेंदु युग को कब से कब तक माना? - dvivedee jee ne bhaaratendu yug ko kab se kab tak maana?

· भारतेन्दु युग के पश्चात् सन् 1903 से 1916 तक का काल महावीर प्रसाद द्विवेदी का रहा इसलिए इस काल को द्विवेदी युग कहा जाता है। भारतेन्दु युग में हिन्दी गद्य साहित्य में वृद्धि तो हुई किन्तु उसके शुद्धिकरण पर ध्यान नहीं दिया गया। भाषा में सुधार और उसे तर्कसंगत बनाने के कारण इस काल को सुधार काल भी कहा जाता है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी न केवल हिन्दी भाषा के बल्कि संस्कृत, बंगला, मराठी और अंग्रेजी भाषाओं के भी ज्ञाता थे। हिन्दी साहित्य की सेवा के लिए उन्होंने अपनी रेलवे की नौकरी छोड़ कर “सरस्वती” पत्रिका का सम्पादन आरम्भ किया और हमेशा हिन्दी साहित्य में सुधार कार्य करते रहे।

· द्विवेदी युग में देवकीनन्दन खत्री, गोपालराम गहमरी, किशोरीलाल गोस्वामी आदि रचनाकारों ने तिलस्मी एवं जासूसी उपन्यास लिखे जो कि उन दिनों बहुत लोकप्रिय हुए। देवकीनन्दन खत्री का “चन्द्रकान्ता” उपन्यास तो लोगों को इतनी भाया कि लाखो लोगों ने उसे पढ़ने के लिए हिन्दी सीखी। तिलस्मी और जासूसी उपन्यासों के लेखकों के अतिरिक्त प्रेमचन्द, वृन्दावनलाल वर्मा, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, विश्वम्भर नाथ कौशिक, चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, सुदर्शन, जयशंकर ‘प्रसाद’ आदि द्विवेदी युग के साहित्यकार रहे।

· द्विवेदी युग में “सरस्वती” के अलावा “इन्दु”, “माधुरी”, “सुधा”, “मर्यादा”, नागरी “प्रचारिणी पत्रिका”, “हंस”, “प्रभा”, “प्रताप”, “कर्मवीर”, “विशाल भारत” आदि पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ।

· हिंदी नवजागरण की दिशा में महावीर प्रसाद द्विवेदी की सबसे बड़ी देन काव्य भाषा के रूप में खड़ी बोली हिंदी की प्रतिष्ठा करना है। गद्य और पद्य दोनों के लिए खड़ी बोली हिंदी को सर्वमान्य बनाने के साथ-साथ उन्होंने खड़ी बोली गद्य को व्याकरण सम्मत रूप दिया, एक मानक भाषा के रूप में उसे आकार प्रदान किया। हिंदी में विराम चिह्नों का प्रयोग भी द्विवेदी जी के प्रयासों की ही देन है। उनका अपने लेखकों को स्पष्ट निर्देश रहता था कि वे विवेचना को तर्कसंगत बनाएं, अभिव्यंजना में स्पष्टता का निर्वाह करें और भाषा की दुरुहता व शब्दाडम्बर से परहेज करें।

· अंग्रेजी, संस्कृत, मराठी तथा बंगला की उत्कृष्ट कृतियों को अनुदित कर उसके माध्यम से उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। इसके अलावा हिंदी पाठकों का मानसिक विकास कर उन्हें समसामयिक, वैज्ञानिक, राजनीतिक, आर्थिक हलचलों के प्रति जागृत करने का कार्य भी महावीर प्रसाद द्विवेदी ने किया।

· रीतिकालीन श्रृंगारिकता व आंलकारिकता तथा भारतेन्दु युगीन राजभक्ति के स्वरों को उन्होंने अपने युग के साहित्य में फलने-फूलने नहीं दिया। उन्होंने साहित्य में प्रखर राष्ट्रीयता के स्वरों को मुखरित किया। सांप्रदायिक वैमनस्य को मिटाकर सभी धर्मों के मूल तत्वों की साम्यता पर बल दिया।

· आचार्य द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ के माध्यम से हिंदी साहित्य को अनेक ऐसे रचनाकार प्रदान किए जिनके साहित्य ने स्वाधीनता आंदोलन में रीढ़ की हड्डी की तरह कार्य किया। मैथिलीशरण गुप्त, रामचन्द्र शुक्ल व प्रेमचन्द जैसे हिंदी के पुरोधा महावीर प्रसाद द्विवेदी की अनुपम देन हैं। मैथिलीशरण गुप्त ने अपने काव्य के माध्यम से भारतीय जनमानस में अपनी अस्मिता व स्वाभिमान का बोध कराकर उन्हें हीन भाव से मुक्त किया। वहीं प्रेमचन्द के साहित्य में भारतीय ग्रामीण जीवन के जो चित्र साकार हुए, वह द्विवेदी जी की ही प्रेरणा के परिणाम थे।

· दूसरी तरफ स्वाधीनता आंदोलन में विशेष भूमिका निभाने वाले हिंदी पत्रकारिता जगत के नींव के पत्थर ‘आज’ व ‘प्रताप’ जैसे पत्रों के संपादक क्रमश: बाबू राव विष्णु पराड़कर व गणेश शंकर विद्यार्थी ने भी महावीर प्रसाद द्विवेदी से प्रेरणा पाकर पत्रकारिता जगत में प्रवेश किया। बाबू राव विष्णु पराड़कर ने स्वयं स्वीकार किया है कि ”सन् 1906 से, जब मैंने स्वयं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया, प्रति मास सरस्वती का अध्ययन मेरा एक कर्तव्य हो गया। मैं सरस्वती देखा करता था संपादन सीखने के लिए।”

· गणेश शंकर विद्यार्थी ने तो अपना साहित्यिक जीवन सरस्वती के सहायक संपादक की हैसियत से प्रारंभ किया था। विद्यार्थी जी ने जब कानपुर में ‘प्रताप’ की स्थापना की, तब द्विवेदी जी से ही वह मूल मंत्र लिया जो प्रताप पर छपता रहा-

‘जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है / वह नर नहीं नर पशु निरा है और मृतक समान है।’

· महावीर प्रसाद द्विवेदी अंग्रेजों की कुटिल व विभाजनकारी नीतियों को अच्छी तरह जानते-समझते थे। अंग्रेजी को शिक्षा की भाषा बनाने का उन्होंने विरोध किया। अंग्रेजों द्वारा हिंदी को आधुनिक शिक्षा के अयोग्य कहने के प्रश्न पर भी उन्होंने अनेक तर्कों से यह सिद्ध किया कि हिंदी में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा न केवल संभव है अपितु बेहतर तरीके से हो सकती है। हिन्दुओं और मुसलमानों को बांटने के लिए अंग्रेजों द्वारा लागू की जा रही नीतियों की भी उन्होंने जमकर भर्त्सना की। स्वदेशी आंदोलन का भी द्विवेदी जी ने खुलकर समर्थन किया।

महावीर प्रसाद द्विवेदी का समग्र जीवन हिंदी भाषा तथा साहित्य के विकास में लगा। उनका महत्व न केवल इस मायने में स्तुत्य है कि उन्होंने भारत की भाषा समस्या को हल किया बल्कि उसे दरबारी संस्कृति की कारा से मुक्त कर लोकजागरणवादी परंपरा से जोड़ा। हिंदी साहित्य में साहित्येतर विषयों के माध्यम से भारतीय जनमानस को झकझोरकर स्वदेशाभिमान जाग्रत किया।

द्विवेदी युग के साहित्य की मुख्य प्रवृत्तियाँ

· राष्ट्रीयता : भारत में बढ़ती हुई राजनीतिक चेतना (political awareness) और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के कारण राष्ट्रीयता द्विवेदी युग के साहित्य की प्रधान भावधारा थी। देशभक्ति और देशप्रेम के ऊपर कई कविताओं की रचना इस युग में हुई। भारत के अतीत पर गर्व और वर्तमान स्थिति पर दुख प्रकट किया गया। स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने और विदेशी वस्तुओं कॊ त्यागने का आग्रह किया गया।

· सामान्य मानवता: पहले का साहित्य आमतौर पर ईश्वर, राजा, सामंत, योध्याओं या नायिकाओं को ध्यान में रखकर लिखा गया था। किन्तु द्विवेदी युग में सामान्य मनुष्य को साहित्य में स्थान मिला। आम लोगों के सुख-दुख और परिस्थितियों का वर्णन काव्य में सहज भाव से किया गया। मैथिली शरण गुप्त की ’किसान’, सियारामशरण की ’अनाथ’ और सनेही की ’कृषक क्रंदन’ इसी प्रकार की कविताएँ हैं।

· नीति और आदर्श: द्विवेदी युग का काव्य आदर्शवादी और नीतिपरक है। काव्य में असत्य पर सत्य की विजय दिखलाई गई है। स्वार्थ-त्याग, कर्तव्यपालन, आत्मगौरव आदि ऊँचे आदर्शों की प्रेरण दी गई है। मैथिलीशरण गुप्त का “साकेत”, हरिऔध का “प्रियप्रवास” और रामनरेश त्रिपाठी की मिलन ऐसी ही रचनाएँ हैं। आदर्शों को प्रस्तुत करने के लिए इतिहास-पुराण से कहानियों को लिया गया है।

· वर्ण्य विषय का विस्तार : द्विवेदी युग के साहित्य में वर्ण्य विषय (described subjects) का अधिक विस्तार हुआ। जीवन के सभी दृश्यों और चीज़ों पर साहित्य लिखा गया। मेहंदी, मुरली, साधु, बालक, निद्रा, मानव, कामना, विद्यार्थी, दरिद्र जैसे अनेक विषयों पर कविताएँ लिखी गई हैं।

· हास्य-व्यंग्य काव्य: द्विवेदी युग में हास्य-व्यंग्य (satire) काव्य के माध्यम से सामाजिक और धार्मिक बुराइयों की निंदा की गई है। साथ ही अपनी संस्कृति छोड़कर विदेशी पाश्चात्य (western) संस्कृति को अपनाने वालों पर व्यंग्य (मज़ाक) किया गया है। उदाहरण के लिए कृष्ण को पाश्चात्य वेषभूषा (Dress) पहनने का आग्रह कर विदेशियों की नकल करने वाले भारतीयों का मज़ाक उड़ाया गया है----भड़क भुला दो भूतकाल की, सजिए वर्तमान के साज। फेसन फेर इंडिया भर के, गॉड बनो ब्रजराज॥

· काव्यरूप: द्विवेदी युग के साहित्य के सभी काव्यरूपों का इस्तेमाल हुआ है जैसे प्रबंध, मुक्तक, प्रगीत और प्रभृति। हिन्दी के कई प्रसिद्ध महाकाव्य भी इसी युग में लिखे गए जैसे साकेत (मैथिली शरण गुप्त), प्रियप्रवास (हरिऔध) आदि। कई प्रसिद्ध खंडकाव्य भी इसी युग मे लिखे गए जैसे रंग में भंग (गुप्त), प्रेमपथिक (जयशंकर प्रसाद) आदि।

· भाषा: द्विवेदी युग में खड़ी बोली हिन्दी ने ब्रजभाषा का स्थान ले लिया। इस काल के साहित्य ने खड़ी बोली को भाषा-सौन्दर्य, मार्दव (कोमलता) और अभिव्यंजना क्षमता (विचारों या भावों को शब्दों या संकेतों द्वारा ठीक तरह से तथा स्पष्ट रूप से प्रकट करने की क्रिया) के रूप में समृद्ध बनाया।

द्विवेदी युग का गद्य साहित्य:

इस काल में निबंध, उपन्यास, कहानी, नाटक एवं समालोचना का अच्छा विकास हुआ। इस युग के निबंधकारों में महावीर प्रसाद द्विवेदी, माधव प्रसाद मिश्र, श्याम सुंदर दास, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बाल मुकंद गुप्त और अध्यापक पूर्ण सिंह आदि उल्लेखनीय हैं। इनके निबंध गंभीर, ललित एवं विचारात्मक हैं। किशोरीलाल गोस्वामी और बाबू गोपाल राम गहमरी के उपन्यासों में मनोरंजन और घटनाओं की रोचकता है।

हिंदी कहानी का वास्तविक विकास द्विवेदी युग से ही शुरू हुआ। किशोरी लाल गोस्वामी की “इंदुमती” कहानी को कुछ विद्वान हिंदी की पहली कहानी मानते हैं। अन्य कहानियों में बंग महिला की “दुलाई वाली”, शुक्ल की “ग्यारह वर्ष का समय”, जयशंकर प्रसाद की “ग्राम” और चंद्रधर शर्मा गुलेरी की “उसने कहा था” महत्त्वपूर्ण हैं। समालोचना के क्षेत्र में पद्मसिंह शर्मा उल्लेखनीय हैं। हरिऔध, शिवनंदन सहाय तथा राय देवीप्रसाद पूर्ण द्वारा कुछ नाटक लिखे गए। इस युग ने कई सम्पदकों को जन्म दिया। पन्डित इश्वरी प्रसाद शर्मा ने आधा दर्जन से अधिक पत्रो का सम्पादन किया। इस युग मे हिन्दी आलोचना को एक दिशा मिली। इस युग ने हिन्दी के विकास की नीव रखी। यह कई मायनो मे नई मान्यताओ की स्थापना करने वाला युग रहा।

द्विवेदी जी ने भारतेन्दु युग को कब से कब तक माना?

द्विवेदी युग का समय सन 1900 से 1920 तक माना जाता है। बीसवीं शताब्दी के पहले दो दशक के पथ-प्रदर्शक, विचारक और साहित्य नेता आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम पर ही इस काल का नाम 'द्विवेदी युग' पड़ा।

युग कब से कब तक माना जाता है?

युगों का यह परिमाण दिव्य वर्ष में है। दिव्य वर्ष = 360 मनुष्य वर्ष है; अत: 12000 x 360 = 4320000 वर्ष चतुर्युग का मानुष परिमाण हुआ। तदनुसार सत्ययुग = 1728000; त्रेता = 1296000; द्वापर = 864000; कलि = 432000 वर्ष है। ईद्दश 1000 चतुर्युग (चतुर्युग को युग भी कहा जाता है) से एक कल्प याने ब्रह्मा की आयु 100 वर्ष है।

द्विवेदी युग का प्रारंभ कब हुआ था?

आधुनिक हिन्दी साहित्य के दूसरे चरण (सन् 1903 से 1916) को द्विवेदी-युग के नाम से जाना जाता है। यह आधुनिक हिन्दी साहित्य के उत्थान व विकास का काल है। सन् 1903 में महावीर प्रसाद द्विवेदी 'सरस्वती' पत्रिका के संपादक बने और 17 साल तक इन्होंने इस पत्रिका का संपादन किया।

द्विवेदी युग का दूसरा नाम क्या है?

आधुनिक काल के दूसरे पड़ाव को Dwivedi Yug | द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है। इसको जागरण सुधारकाल भी कहा जाता है।