छायावाद की दो प्रवृतियां क्या है? - chhaayaavaad kee do pravrtiyaan kya hai?

छायावाद की चार विशेषताएं [chhayavad ki visheshta]  class 10th 12th very very important question MP board 2021


छायावाद की दो प्रवृतियां क्या है? - chhaayaavaad kee do pravrtiyaan kya hai?



छायावादी युग- "स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह ही छायावाद है"


डॉ रामकुमार वर्मा के अनुसार "परमात्मा की  छाया आत्मा में पड़ने लगी है और आत्मा की छाया परमात्मा में, यही छायावाद है।



छायावादी युग की विशेषताएं-



1.प्रकृति का मानवीकरण- प्रगति पर मानव व्यक्तित्व का आरोप छायावादी की मुख्य विशेषता है। छायावादी कवियों ने प्रकृति को चेतन मानते हुए का सजीव चित्रण किया है 


2.कल्पना की प्रधानता- छायावादी काव्य में कल्पना को प्रधानता दी गई है |छायावादी कवियों ने यथार्थ की अपेक्षा कल्पना को काव्य में अधिक अपनाया है |


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3.व्यक्तिवाद की प्रधानता-  छायावादी काव्य में व्यक्तिगत भावनाओं की प्रधानता है वहां कवि अपने सुख-दुख एवं हर्ष शोक को ही वाणी प्रदान करते हुए खुद को अभिव्यक्त किया है।


4.श्रंगार भावना - छायावादी काव्य मुख्यतः श्रृंगारी काव्य है।छायावाद का श्रंगार उपभोग की वस्तु नहीं अपितु कौतूहल और विस्मय में का विषय है ।

छायावाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ Hindi PDF

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छायावाद हिंदी साहित्य के रोमांटिक उत्थान की वह काव्य-धारा है जो लगभग ई.स. 1918 से 1936 तक की प्रमुख युगवाणी रही। छायावाद नामकरण का श्रेय मुकुटधर पाण्डेय को जाता है। मुकुटधर पाण्डेय ने श्री शारदा पत्रिका में एक निबंध प्रकाशित किया जिस निबंध में उन्होंने छायावाद शब्द का प्रथम प्रयोग किया। छायावादी काव्य में वैयक्तिकता का प्राधान्य है। कविता वैयक्तिक चिंतन और अनुभूति की परिधि में सीमित होने के कारण अंतर्मुखी हो गई, कवि के अहम् भाव में निबद्ध हो गई। कवियों ने काव्य में अपने सुख-दु:ख,उतार-चढ़ाव,आशा-निराशा की अभिव्यक्ति खुल कर की। उसने समग्र वस्तुजगत को अपनी भावनाओं में रंग कर देखा। जयशंकर प्रसाद का’आंसू’ तथा सुमित्रा नंदन पंत के ‘उच्छवास’ और ‘आंसू’ व्यक्तिवादी अभिव्यक्ति के सुंदर निदर्शन हैं। इसके व्यक्तिवाद के स्व में सर्व सन्निहित है।

हिंदी की छायावादी कविता की सबसे बड़ी विशेषता व्यक्तिवाद है । छायावादी कविता मूलतः व्यक्तिवाद की कविता है । विषयवस्तु की खोज में कवि बाहर नहीं अपने मन के भीतर झांकता है । इन कवियों में अपने व्यक्तित्व के प्रति अगाध विश्वास है .इस अतिशय विश्वास को बड़े उत्साह के साथ उसने भाव और काला में बाधकर अपने सुख – दुःख की अभिव्यक्ति की है। प्रसाद के आँसू तथा पन्त के उच्छ्वास में व्यक्तिवाद की ही अभिव्यक्ति हुई है।

छायावाद की मुख्य विशेषताएँ प्रवृत्तियां – छायावाद एक विशेष प्रकार की भाव पद्धति है, जीवन के प्रति एक विशेष भावात्मक दृष्टिकोण है। इस दृष्टिकोण का आद्येय नवजीवन के स्वप्नों और कुंठाओंके सम्मिश्रण से बना है। इसकी प्रवृत्ति अन्तर्मुखी और मानवीय है। छायावाद की काव्यगत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. छायावादी काव्य में व्यक्तिवाद का प्राधान्य-

छायावादी कवि वस्तुतः अहंनिष्ठ होकर भावभिव्यंजना करता है। डॉ. शिवदानसिंह चौहान ने इस संदर्भ में उचित ही कहा है-

‘कवि का मैं प्रत्येक प्रबुद्ध भारतवासी का ‘मैं’ था। इस कारण कवि की विषयगत दृष्टि ने अपनी सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए जो लाक्षणिक भाषा और अप्रस्तुत योजना शैली अपनाई, उसके संकेत और प्रतीक हर व्यक्ति के लिए सहज और प्रेषणीय बन सके।

‘जयशंकर प्रसाद’ छायावाद के ब्रह्मा’
‘सुमित्रानन्दन पन्त’ छायावाद के ‘विष्णु

‘और निराला छायावाद के ‘शंकर’ थे।

2. छायावादी काव्य में प्रकृति-

चित्रण-एक समीक्षक ने मानव और प्रकृति के सम्बन्ध को ही छायावाद की संज्ञा दी है यह असंदिग्ध रूप से सत्य है कि छायावादी साहित्य का प्रकृति के साथ अभिन्न सम्बन्ध है। प्रकृति के आलम्बन उद्दीपन अलंकार स्वरूप बिम्बग्राही ध्वन्यार्थव्यंजक तथा अनेक सूक्ष्मातिसूक्ष्म सुकोमल एवं विकाल स्वरूप छायावादी साहित्य में अवलोक्य है। प्रकृति के साथ अपनी अन्तरंगता की स्मृति करता हुआ कवि इसीलिए तो गाता है-

‘वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे,
जब सावन धन सघन बरसते,
इन नयनों की छाया भर थे।’

3. छायावादी काव्य में रहस्यात्मकता-

कुछ विद्वान रहस्यवाद को छायावाद का प्राण मानते हैं। महादेवीजी के अनुसार-“विश्व के अथवा प्रकृति के सभी उपकरणों में चेतना का आरोप छायावाद की पहली सीढ़ी है तो किसी असीम के प्रति अनुराग जनित आत्म विसर्जन का भार अथवा रहस्यवाद छायावाद की दूसरी सीढ़ी है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने तो छायावाद को आध्यात्मिक भावमयी कविता के रूप में ही देखा है। रहस्यवाद की परिभाषा देते हुए उन्होंने लिखा है-‘जो चिन्तन के क्षेत्र में अद्वैतवाद है वहीं भावना के क्षेत्र में रहस्यवाद। परन्तु छायावादी कवियों का रहस्यवाद अत्यन्त भाव संकुलित है। यही कारण है कि एक ओर सुमित्रानंदन पन्त कहते हैं-

‘न जाने नक्षत्रों से कौन,
निमन्त्रण देता मुझको मौन।’

तो दूसरी ओर प्रसादजी कहते हैं-

“तुम तुंग हिमालय शृंग और
मैं चंचल गति सरिता।’

तो कहीं महादेवी जी कहती हैं-

‘सो रहा है विश्व पर प्रिय तारकों में जागता है।’

जब छायावादी कवि स्व से पर की ओर भाव लोक से विचरण करने लगता है तो वह एक अनन्त सत्ता की अनुभूति करता है। इतना ही नहीं एकान्त में उसके सामीप्य की कल्पना भी करता है यही कारण है कि वह भाव बलित होकर गाता है-

‘ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे,

जिस सागर के तट पर लहरी, अम्बर के कानों में गहरी

निश्चल प्रेम कथा कहती हो, वज कोलाहाल के अवनीरे।’

इस प्रकार स्पष्ट है कि महादेवी वर्मा के भाव लोक में रहस्य भावना की रमणीयता है, छायावादी कवियों का रहस्यवाद भावनात्मक है सन्त कवियों की भाँति साधानात्मक नहीं है।

4. नारी के सौन्दर्य एवं प्रेम का चित्रण-

छायावादी काव्य में सौंदर्य और प्रेम का अत्यन्त रमणीय एवं मधुरिमामय चित्रण है। कवि प्रकृति कीद अधिरमता के प्रति तो विशेष रूप से आकर्षित है ही साथ ही साथ मानवी सौंदर्य और उसके प्रेम का मनोरम चित्रण करने का छायावादी साहित्य में स्तुत्य उपक्रम हुआ है। छायावाद के श्रेष्ठतम कामायनी की नायिका श्रद्धा के सौन्दर्य का निरूपण करते हुए कविवर प्रसाद ने नहीं की प्रेम और श्रेय दोनों ही रूपों में निरूपित किया है। जहाँ एक ओर नारी सौंदर्य की साक्षात् प्रतिमा है यथा-

‘कुसुम कानन वैभव में नन्द
पवन प्रेरित सौरभ साकाम
रचित रमाणु पराग शरीर
खड़ा हो ले मधु का आधार।’

वह नारी श्रेय का स्वरूप बनकर श्रद्धा स्वरूपिणी हो जाती है। और मानव को सन्देश देती हुई कहती है-

‘जिसे तुम समझे थे अभिशाप
जगत की बाधाओं का मूल
ईश का वह रहस्य वरदान
इसे तुम कभी न जाना भूल।’

(5) छायावादी काव्य में वेदना विवृत्ति-

वेदना या पीड़ा काव्य के भार लोक में अपना अप्रतिम स्थान रखती है कि ‘Our sweetest songs are those that tell ofraddest thought’ अर्थात ‘अच्छे होते वे गीत जिन्हें हम दर्द के स्वर में गाते हैं।’

यही कारण है कि कवियित्री महादेवी वर्मा कहती हैं-

‘पीड़ा में तुमको ढूढूँ
तुममें ढूँढूगी पीड़ा।
यात्रा की भूमिका में तो उन्होंने यहाँ तक लिखा-
‘पीड़ा मेरे मानस से भीगे पट-सी लिपटी है।’

वेदना की यह अभिव्यक्ति छायावादी काव्य में अत्यधिक मार्मिक रूप में हुई है। यही कारण है कि महादेवी अपने जीवन को वेदना की प्रतिमूर्ति बताती हुई कहती है-

‘मैं नीर भरी दुःख की बदली,
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही,
उमड़ी कल थी मिट आज चली
मैं नीर भरी दुःख की बदली।’

इस प्रकार छायावादी साहित्य में वेदना अपने चरम मार्मिक रूप में अभिव्यक्ति हुई है।

6. छायावादी काव्य में राष्ट्रीय भावना-

छायावादी कवियों में राष्ट्र प्रेम की प्रवृत्ति भी अवलोक्य है जहाँ एक ओर प्रसादजी की कारनेलिया ‘अरूण या मधुमय देश हमारा’ कहकर राष्ट्र प्रेम की भावनाओं का उद्घोष करती है वहाँ अन्यत्र हमें कवि निराला ‘जागो फिर एक बार का उद्घोष करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। तो माखनलाल चतुर्वेदी पुष्प की अभिलाषा में मातृभूमि प्रेम का गान करते हुए कहते हैं-

‘मुझे तोड़ लेना वन माली,
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,
जिस पथ पर जावे वीर अनेक।’

7. छायावादी काव्य में मानवतावादी दृष्टिकोण-

छायावादी काव्य में रवीन्द्र और अरविन्द की मानवतावादी दृष्टि का विकास हुआ है। यही मानवतावाद कई रूपों में अभिव्यक्ति हुआ है। कहीं नारी के प्रति उच्च भावना के रूप में तो कहीं छायावादी कवि ने नवीन मानवतावादी दृष्टि से नारी को देखा है-

‘खोलो हे मेखला युगों की
कटि प्रदेश से, तन से
अमर प्रेम हो उसका बन्धन
वह पवित्र हो मन से।’

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छायावाद की दो प्रवृत्तियां कौन कौन सी हैं?

छायावाद की मुख्य विशेषताएँ (प्रवृत्तियाँ).
आत्माभिव्यक्ति.
नारी-सौंदर्य और प्रेम-चित्रण.
प्रकृति प्रेम.
राष्ट्रीय / सांस्कृतिक जागरण.
रहस्यवाद.
स्वच्छन्दतावाद.
कल्पना की प्रधानता.
दार्शनिकता.

छायावाद की प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्तियां क्या थी एवं प्रमुख कवि कौन कौन थे?

छायावादी कवि एवं उनकी रचनाएँ.
जयशंकर प्रसाद– कामायनी (महाकाव्य), आँसू, लहर, झरना।.
सुमित्रानंदन पंत– पल्लव, गुंजन, ग्रंथि, वीणा, उच्छवास।.
महादेवी वर्मा– नीरजा, रश्मि, निहार, सांध्यगीत।.
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'– परिमल, गीतिका, तुलसीदास, अनामिका।.
रामकुमार वर्मा– चित्र-रेखा, निशीथ, आकाशगंगा।.

छायावाद की प्रथम कृति कौन सी मानी जाती है?

आचार्य शुक्ल ने छायावाद का प्रवर्तक मुकुटधर पांडेय और मैथिलीशरण गुप्त को मानते हैं और नंददुलारे वाजपेयी पंत तथा उनकी कृति 'उच्छ्वास' (1920) से छायावाद का आरंभ माना है।

छायावाद के जनक कौन है?

जयशंकर प्रसाद ने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई और वह काव्य की सिद्ध भाषा बन गई।