ऊंचे कुल का क्या अर्थ है - oonche kul ka kya arth hai

मात्र ऊँचे कुल में जन्म लेने के कारण ही कोई ब्राह्मण नहीं कहला सकता। जो ब्रहात्मा को जानता है, रैदास कहते हैं कि वही ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है।

स्रोत :

  • पुस्तक : रैदास ग्रंथावली (पृष्ठ 100)
  • रचनाकार : डॉ. जगदीश शरण
  • प्रकाशन : साहित्य संस्थान
  • संस्करण : 2011

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भावार्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि ऊँचे कुल में जन्म तो ले लिया लेकिन अगर कर्म ऊँचे नहीं है तो ये तो वही बात हुई जैसे सोने के लोटे में जहर भरा हो, इसकी चारों ओर निंदा ही होती है।

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oonche kul ka janamiya, karani oonchi n hoy .
suvarn kalash sura bhara, saadhoo ninda hoy .

bhaavaarth: kabir daas ji kahate hain ki oom che kul mein janm to le liya lekin agar karm oom che nahin hai to ye to vahi baat hui jaise sone ke lot e mein jahar bhara ho, isaki chaarom or ninda hi hoti hai.

ऊँचे कुल में जनमिया करनी ऊँच न होय हिंदी मीनिंग Unche Kul Me Janamiya Karni Unch Na Hoy Hindi Meaning  कबीर दोहे हिंदी मीनिंग

कबीर दोहे व्याख्या हिंदी में
ऊँचे कुल में जनमिया, करनी ऊँच न होय ।
सबरं कलस सुरा भरा, साधू निन्दा सोय ।।
या
ऊंचे कुल का जनमिया, करणी ऊंच न होइ।
सुबरण कलश सुरा भरा, साधु निंदा सोई।। 

Oonche Kul Mein Janamiya, Karanee Oonch Na Hoy .
Sabaran Kalas Suraabhara, Saadhoo Ninda Soy ..
Or
Oonche Kul Ka Janamiya, Karanee Oonch Na Hoi.
Subaran Kalash Sura Bhara, Saadhu Ninda Soee

"ऊँचे कुल में जनमिया" शब्दार्थ Word Meaning of Unche Kul Me Janamiya

ऊँचे कुल में जनमिया-ऊँचे कुल में जनम लेने से.
करनी ऊँच न होय - कर्म ऊँचे नहीं हो जाते हैं।
सबरं कलस सुरा भरा-स्वर्ण के कलश में यदि शराब भरी है।
साधू निन्दा सोय-वह निंदा का पात्र है।

ऊँचे कुल में जनमिया करनी ऊँच न होय हिंदी मीनिंग मीनिंग Unche Kul Me Janamiya Karni Unch Na Hoy Hindi Meaning

Hindi Meaning of Kabir Doha/दोहे का हिंदी मीनिंग : कबीर साहेब ने व्यतिगत/गुणों के आधार पर श्रेष्ठता को स्वीकार किया है लेकिन जन्म आधार पर / जाति आधार पर किसी की श्रेष्ठता को नकारते हुए कहा की मात्र ऊँचे कुल में जन्म ले से ही कोई विद्वान् और श्रेष्ठ नहीं बन जाता है, इसके लिए उसमे गुण भी होने चाहिए। यदि गुण हैं तो भले ही वह किसी भी जाती और कुल का क्यों ना हो वह श्रेष्ठ ही है। यदि सोने के बर्तन में शराब भरी हुयी है, तो क्या वह श्रेष्ठ बन जायेगी ? नहीं वह निंदनीय ही रहेगी/ साधू और सज्जन व्यक्ति उसकी निंदा ही करेंगे।

पाड़ोसी सू रुसणां, तिल- तिल सुख की होणि।
पंडित भए सरखगी, पाँणी पीवें छाँणि।।

उत्पत्ति ब्यंद कहाँ थै आया, जोति धरि अरु लगी माया।
नहिं कोइ उँचा नहिं कोइ नीचे, जाका लंड तांही का सींचा।।
जो तू वामन वमनीं जाया, तो आने बाट हवे काहे न आया।
जो तू तुरक तुरकनीं जाया तो भीतरि खतना क्यूनें करवाया।।

पांडे कौन कुमति तोहि लगि, तू राम न जपहि आभागा।
वेद पुराण पढ़त अस पांडे, खर चंदन जैसे भारा।।
राम नाम तत समझत नाहीं, अति अरे मुखि धारा।
वेद पढता का यह फल पाडै राबधटि देखौ रामा।।

Kabir Bhajan By Shabnam Virmani.


कबीर साहेब इन इस दोहे में स्वंय / आत्मा का परिचय देते हुए स्पष्ट किया है की मैं कौन हूँ,

जाती हमारी आत्मा, प्राण हमारा नाम। 

अलख हमारा इष्ट, गगन हमारा ग्राम।।

जब आत्मा चरम रूप से शुद्ध हो जाती है तब वह कबीर कहलाती है जो सभी बन्धनों से मुक्त होकर कोरा सत्य हो जाती है। कबीर को समझना हो तो कबीर को एक व्यक्ति की तरह से समझना चाहिए जो रहता तो समाज में है लेकिन समाज का कोई भी रंग उनकी कोरी आत्मा पर नहीं चढ़ पाता है। कबीर स्वंय में जीवन जीने और जीवन के उद्देश्य को पहचानने का प्रतिरूप है। कबीर का उद्देश्य किसी का विरोध करना मात्र नहीं था अपितु वे तो स्वंय में एक दर्शन थे, उन्होंने हर कुरीति, बाह्याचार, मानव के पतन के कारणों का विरोध किया और सद्ऱाह की और ईशारा किया। कबीर के विषय में आपको एक बात हैरान कर देगी। कबीर के समय सामंतवाद अपने प्रचंड रूप में था और सामंतवाद की आड़ में उनके रहनुमा मजहब के ठेकेदार अपनी दुकाने चला रहे थे। जब कोई विरोध का स्वर उत्पन्न होता तो उसे तलवार की धार और देवताओं के डर से चुप करवा दिया जाता। तब भला कबीर में इतना साहस कहाँ से आया की उन्होंने मुस्लिम शासकों के धर्म में व्याप्त आडंबरों का विरोध किया और सार्वजनिक रूप से इसकी घोषणा भी की। कबीर का यही साहस हमें आश्चर्य में डाल देता है। 



जहाँ एक और कबीर ने हर आडंबर और बाह्याचार का विरोध किया वहीँ तमाम तरह के अत्याचार सहने के बावजूद कबीर की वाणी में प्रतिशोध और बदले की भावना कहीं नहीं दिखती है। कबीर साहेब ने आम आदमी को धर्म को समझने की राह दिखलाई। जहाँ धर्म वेदों के छंदों, क्लिष्ट श्लोकों, वृहद धार्मिक अनुष्ठान थे जिनसे आम जन त्रस्त था, वही कबीर ने एक सीधा सा समीकरण लोगों को समझाया की ईश्वर ना तो किसी मंदिर विशेष में है और ना ही ईश्वर किसी मस्जिद में, ना तो वो काबे तक ही सीमित है और ना ही कैलाश तक ही, वह तो हर जगह व्याप्त है। आचरण की शुद्धता और सत्य मार्ग का अनुसरण करके कोई भी जीवन के उद्देश्य को पूर्ण कर सकता है। यही कारण है की कबीर साहेब ने किसी भी पंथ की स्थापना नहीं की, यह एक दीगर विषय है की आज कुछ लोग अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए कबीर साहेब के बताये मार्ग का अनुसरण नहीं कर रहे हैं और वास्तव में उसके विपरीत कार्य कर रहे हैं जो की एक गंभीर विषय है। 


कबीर साहेब के विषय में एक बात और है जो गौरतलब है उनका ख़ालिश सत्य के साथ होना, उसमे हिन्दू मुस्लिम, बड़े छोटे का कोई भेद नहीं था। जहाँ  एक और विदेशी शासकों के मुस्लिम धर्म में व्याप्त अंधविश्वास और स्वार्थ जनित रीती रिवाजों का विरोध कबीर साहेब ने किया वहीँ उन्होंने हिन्दू धर्म में व्याप्त पोंगा पंडितवाद, धार्मिक भाह्याचार, कर्मकांड, अंधविश्वास, चमत्कार, जाति प्रथा का भी मुखर विरोध किया। वस्तुतः कबीर आम जन, पीड़ित, शोषित, लोगों की जबान थे और इन लोगों ने कबीर के पथ का अनुसरण भी किया। 


उल्लेखनीय है की कबीर साहेब ने ईश्वर को लोगों तक पहुंचाया। वेदों की भारी भरकम ऋचाएं, संस्कृत की क्लिष्टता को दूर करते हुए कबीर साहेब ने लोगो को एक ही सूत्र दिया की ईश्वर किसी ग्रन्थ विशेष, स्थान विशेष तक ही सिमित नहीं है, वह हर जगह व्याप्त है। कोई भी व्यक्ति सत्य को अपनाकर ईश्वर की प्राप्ति बड़ी ही आसानी से कर सकता है।


मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे
मै तो तेरे पास में

ना तीरथ में ना मूरत में
ना एकांत निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में
ना काबे कैलास में

ना में जप में ना में तप में
ना में बरत उपास में
ना में क्रिया करम में रहता
नहिं जोग संन्यास में

ना ब्रह्माण्ड आकाश में
ना में प्रकृति प्रवार गुफा में
नहिं स्वांसो की स्वांस में

खोजि होए तुरत मिल जाऊं
इक पल की तालास में
कहत कबीर सुनो भई साधो
मै तो हूँ विश्वास में

कबीर साहेब किसी वर्ग विशेष से ना तो स्नेह रखते थे और नाहीं किसी वर्ग विशेष से उनको द्वेष ही था। उन्होंने मानव जीवन में जहाँ भी कोई कमी देखी उसे लोगों के समक्ष सामान्य भाषा में रखा। उल्लेखनीय है की संस्कृत भाषा तक आम जन की कोई पकड़ नहीं थी, एक तो उन्हें धार्मिक ग्रंथों से दूर रखा जाता था और दूसरा संस्कृत भाषा की क्लिष्टता। धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में थे और वे एक जाति और वर्ग विशेष तक सीमित रह गए थे। कबीर साहेब ने गूढ़ रहस्यों को घरेलू आम जन की भाषा में लोगो को समझाया और लोगों को उनकी सुनते ही समझ में आ जाती थी, यही कारण है कबीर साहेब के लोकप्रिय होने का। भले ही जिन लोगों की दुकाने कबीर साहेब ने चौपट कर दी थी वे कबीर साहेब के आलोचक थे लेकिन कई मौकों पर उन्होंने भी कबीर साहेब की बातों को सुनकर उसे समझा और उनकी सराहना की।
कबीर साहेब ने अपने अंतिम समय के लिए 'मगहर' को क्यों चुना ? Why Kabir went to 'Magahar' in his Last Time : कबीर साहेब ताउम्र लोगों के अंधविश्वास के खंडन करते रहे और अपने अंतिम समय में भी उन्होंने 'मगहर को चुना जिसके माध्यम से वे लोगों में व्याप्त एक और अंध प्रथा का खंडन करना चाहते थे। काशी या वाराणशी को लोग बहुत ही पवित्र और मोक्षदायिनी मानते थे जबकि इसके विपरीत मगहर के विषय में प्रचलित मान्यता यह थी की यदि कोई मगहर में अपने प्राणों का त्याग करता है तो वह अगले जन्म में गधा बनेगा या फिर नरक का भागी होगा। कबीर ने इस विषय पर लोगो को समझाया की स्थान विशेष का पुनर्जन्म से कोई सीधा सबंध नहीं है। यदि व्यक्ति सद्कर्म करता है और ईश्वर की प्राप्ति हेतु सत्य अपनाता है तो भले ही वह मगहर में अपने प्राण त्यागे उसका जीवन सफल होता है। 



कबीर साहेब ने अपना जीवन जहाँ वाराणसी में बिताया वही उन्होंने इसी मिथक को तोड़ने के लिए अपने अंतिम समय के लिए मगहर को चुना जहां १५१८ में उन्होंने दैहिक जीवन को छोड़ दिया। मगहर में जहाँ कबीर साहेब ने दैहिक जीवन छोड़ा वहां पर मजार और मस्जिद दोनों स्थापित है जहाँ पर प्रति दिन कबीर विचारधारा को मानने वाले व्यक्ति आते रहते हैं। 

‘क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा
जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा’

जिस हृदय में राम का वास है उसके लिए काशी और मगहर दोनों एक ही समान हैं। यदि काशी में रहकर कोई प्राण का त्याग करें तो इसमें राम का कौनसा उपकार होगा ? भाव है की भले ही काशी हो या फिर मगहर यदि हृदय में राम का वास है तो कहीं भी प्राणों का त्याग किया जाय, राम सदा उसके साथ हैं। यहाँ राम से अभिप्राय निर्गुण ईश्वर से है।


गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान॥


गुरू को कीजै दंडवत, कोटि कोटि परनाम।
कीट न जानै भृंग को, गुरू करिले आप समान॥

दंडवत गोविंद गुरू, बन्दौं ‘अब जन’ सोय।
पहिले भये प्रनाम तिन, नमो जु आगे होय॥

गुरू गोविंद कर जानिये, रहिये शब्द समाय।
मिलै तो दंडवत बंदगी, नहिं पल पल ध्यान लगाय॥

गुरू गोविंद दोऊ खङे, किसके लागौं पाँय।
बलिहारी गुरू आपने, गोविंद दियो बताय॥

गुरू गोविंद दोउ एक हैं, दूजा सब आकार।
आपा मेटै हरि भजै, तब पावै दीदार॥

गुरू हैं बङे गोविंद ते, मन में देखु विचार।
हरि सिरजे ते वार हैं, गुरू सिरजे ते पार॥

गुरू तो गुरूआ मिला, ज्यौं आटे में लौन।
जाति पाँति कुल मिट गया, नाम धरेगा कौन॥

गुरू सों ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजिये दान।
बहुतक भौंदू बहि गये, राखि जीव अभिमान॥

गुरू की आज्ञा आवई, गुरू की आज्ञा जाय।
कहै कबीर सो संत है, आवागवन नसाय॥

गुरू पारस गुरू पुरुष है, चंदन वास सुवास।
सतगुरू पारस जीव को, दीन्हा मुक्ति निवास॥

गुरू पारस को अन्तरो, जानत है सब सन्त।
वह लोहा कंचन करै, ये करि लेय महन्त॥

कुमति कीच चेला भरा, गुरू ज्ञान जल होय।
जनम जनम का मोरचा, पल में डारे धोय॥

गुरू धोबी सिष कापङा, साबू सिरजनहार।
सुरति सिला पर धोइये, निकसै जोति अपार॥

गुरू कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहिर वाहै चोट॥

गुरू समान दाता नहीं, याचक सीष समान।
तीन लोक की संपदा, सो गुरू दीन्ही दान॥

पहिले दाता सिष भया, तन मन अरपा सीस।
पाछै दाता गुरू भये, नाम दिया बखसीस॥

गुरू जो बसै बनारसी, सीष समुंदर तीर।
एक पलक बिसरे नहीं, जो गुन होय सरीर॥

लच्छ कोस जो गुरू बसै, दीजै सुरति पठाय।
शब्द तुरी असवार ह्वै, छिन आवै छिन जाय॥

गुरू को सिर पर राखिये, चलिये आज्ञा मांहि।
कहे कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहिं॥

गुरू को मानुष जो गिनै, चरनामृत को पान।
ते नर नरके जायेंगे, जनम जनम ह्वै स्वान॥

गुरू को मानुष जानते, ते नर कहिये अंध।
होय दुखी संसार में, आगे जम का फ़ंद॥

गुरू बिन ज्ञान न ऊपजै, गुरू बिन मिलै न भेव।
गुरू बिन संशय ना मिटै, जय जय जय गुरूदेव॥

गुरू बिन ज्ञान न ऊपजै, गुरू बिन मिलै न मोष।
गुरू बिन लखै न सत्य को, गुरू बिन मिटै न दोष॥

गुरू नारायन रूप है, गुरू ज्ञान को घाट।
सतगुरू वचन प्रताप सों, मन के मिटे उचाट॥

गुरू महिमा गावत सदा, मन अति राखे मोद।
सो भव फ़िरि आवै नहीं, बैठे प्रभु की गोद॥

गुरू सेवा जन बंदगी, हरि सुमिरन वैराग।
ये चारों तबही मिले, पूरन होवै भाग॥

गुरू मुक्तावै जीव को, चौरासी बंद छोर।
मुक्त प्रवाना देहि गुरू, जम सों तिनुका तोर॥

गुरू सों प्रीति निबाहिये, जिहि तत निबहै संत।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरू कंत॥

गुरू मारै गुरू झटकरै, गुरू बोरे गुरू तार।
गुरू सों प्रीति निबाहिये, गुरू हैं भव कङिहार॥


 हिरदे ज्ञान न ऊपजे, मन परतीत न होय।
ताको सदगुरू कहा करै, घनघसि कुल्हरा न होय॥

घनघसिया जोई मिले, घन घसि काढ़े धार।
मूरख ते पंडित किया, करत न लागी वार॥

सिष पूजै गुरू आपना, गुरू पूजे सब साध।
कहै कबीर गुरू सीष का, मत है अगम अगाध॥

गुरू सोज ले सीष का, साधु संत को देत।
कहै कबीरा सौंज से, लागे हरि से हेत॥

सिष किरपन गुरू स्वारथी, मिले योग यह आय।
कीच कीच कै दाग को, कैसे सकै छुङाय॥

देस दिसन्तर मैं फ़िरूं, मानुष बङा सुकाल।
जा देखै सुख ऊपजै, वाका पङा दुकाल॥

सत को ढूंढ़त में फ़िरूं, सतिया मिलै न कोय।
जब सत कूं सतिया मिले, विष तजि अमृत होय॥

स्वामी सेवक होय के, मन ही में मिलि जाय।
चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के मांय॥

धन धन सिष की सुरति कूं, सतगुरू लिये समाय।
अन्तर चितवन करत है, तुरतहि ले पहुंचाय॥

गुरू विचारा क्या करै, बांस न ईंधन होय।
अमृत सींचै बहुत रे, बूंद रही नहि कोय॥

गुरू भया नहि सिष भया, हिरदे कपट न जाव।
आलो पालो दुख सहै, चढ़ि पाथर की नाव॥

चच्छु होय तो देखिये, जुक्ती जानै सोय।
दो अंधे को नाचनो, कहो काहि पर मोय॥

गुरू कीजै जानि कै, पानी पीजै छानि।
बिना विचारै गुरू करै, पङै चौरासी खानि॥

गुरू तो ऐसा चाहिये, सिष सों कछू न लेय।
सिष तो ऐसा चाहिये, गुरू को सब कुछ देय॥ 


अंतर ज्योति सब्द यक नारी, हरि ब्रह्मा ताके त्रिपुरारी ।
ते तिरिये भग लिंग अंनता, तेउ न जानै आदि न अंता ।
बाखरि एक विधातै कीन्हा, चौदह ठहर पाटि सो लीन्हा ।
हरि हर ब्रह्मा महंतो नाउं, तिन पुनि तीनि बसाबल गाऊॅ ।
तिन पुनि रचल खंड ब्रह्मांडा, छौ दर्शन छानव पाखंडा ।
पेटहि काहु न वेद पढ़ाया, सुनति कराय तुरक नहिं आया ।
नारी मोचित गर्भ प्रसूति? स्वांग धरै बहुतै करतूती ।
तहिया हम तुम एकै लोहू, एकै प्राण बियापै मोहू ।
एकै जनी जना संसारा? कौन ज्ञान ते भयो निनारा?
भौ बालक भगद्वारे आया? भग भोगे ते पुरुष कहाया ।
अविगति की गति काहु न जानी, एक जीभ कत कहौं बखानी ।
जो मुख होइ जीभ दस लाखा, तो को आय महंतो भाखा ।
कहिह कबीर पुकारि कै, ई लेऊ व्यवहार ।
राम नाम जाने बिना, बूडि मुवा संसार । 


जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर।
एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शारीर॥  


जस जिव आपु मिलै अस कोई, बहुत धर्म सुख हृदया होई ।
जासों बात राम की कही, प्रीति ना काहू सों निर्वही ।
एकै भाव सकल जग देखी, बाहर परे सो होय बिबेकी ।
विषय मोह के फंद छोडाई, जहाँ जाय तहँ काटु कसाई ।
अहै कसाई छूरी हाथा, कैसेहु आवै काटौ माथा?
मानुस बडे बडे हो आए, एकै पंडित सबै पढाये ।
पढना पढौ धरौ जनि गोई, नहिं तो निश्चय जाहु बिगोई ।
सुमिरन करहु राम के, छाडहु दुख की आस ।
तर ऊपर धर चापि हैं, जस कोल्हु कोट पचास ।


क्या कबीर साहेब विवाहित थे : जिस प्रकार से कबीर साहेब के माता पिता के सबंध में अनेकों विचार प्रसिद्द हैं तो एक दुसरे से मुख्तलिफ हैं, वैसे ही उनके परिवार के विषय में कोई भी एक मान्य राय की सुचना उपलब्ध नहीं है। कबीर को जहाँ कुछ लोग अविवाहित मानते हैं वही कुछ लोग कबीर का भरा पूरा परिवार बताते हैं। इन्ही मान्यताओं के आधार पर ऐसा माना जाता है की कबीर साहेब की पत्नि का नाम लोई था। कबीर पंथ के विद्वान व्यक्ति कहते हैं की कबीर ब्रह्मचारी थे और वे नारी को साधना में बाधक मानते थे।
नारी कुण्ड नरक का, बिरला थंभै बाग।
कोई साधू जन ऊबरै, सब जग मूँवा लाग॥

पहलो कुरूप, कुजाति,
कुलक्खिनी साहुरै येइयै दूरी।
अबकी सरूप, सुजाति, सुलक्खिनी सहजै उदर धरी।
भई सरी मुई मेरी पहिली वरी। जुग-जुग जीवो मेरी उनकी घरी।
मेरी बहुरिया कै धनिया नाऊ।

कबीर साहेब के पुत्र का नाम कमाल माना जाता है। 

बूडा़ वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल।
हरि का सुमिरन छाँड़ि कै, भरि लै आया माल।।

ऊँचे कुल में जनमिया करनी ऊँच न होय हिंदी मीनिंग Unche Kul Me Janamiya Karni Unch Na Hoy Hindi Meaning  कबीर दोहे हिंदी मीनिंग

कबीर के विचार जो बदल सकते हैं आपका जीवन / Kabir Thoughts Can Change Your Life :

  • पुरुषार्थ से धन अर्जन करो। किसी के ऊपर आश्रित ना बनो। माँगना मौत के सामान है।  
  • गुरु का स्थान इस्वर से भी महान है क्यों की गुरु ही साधक को सत्य की राह दिखाता है और सद्मार्ग की और अग्रसर होता है। गुरु किसे बनाना चाहिए इस विषय को गंभीरता से लेते हुए गुरु का चयन करना चाहिए। दस बीस लोगों का झुण्ड बनाकर कोई गुरु नहीं बन सकता है।  
  • समय रहते ईश्वर का सुमिरन करना चाहिए। एक रोज यहाँ संसार छोड़कर सभी को जाना है। व्यक्ति में दया, धर्म जरुरत मंदों की मदद करने जैसे मानवीय गुण होने चाहिए। निर्धन को मदद करनी चाहिए। 
  • सुख रहते हुए अगर प्रभु को याद कर लिया जाय तो दुःख नहीं होगा।तृष्णा और माया के फाँस को समझकर इन्हे त्यागकर सदा जीवन बिताना चाहिए।  
  • जो पैदा हुआ है वो एक रोज मृत्यु को प्राप्त होगा। सिर्फ चार दिन की चांदनी है। पलाश के वृक्ष में जब फूल लगते हैं तो बहुत आकर्षक और मनोरम प्रतीत होता है। कुछ ही समय बाद फूल झड़ जाते हैं और वह ठूंठ की तरह खड़ा रहता है। काया की क्षीण होने से पहले प्रभु को याद करना जीवन का उद्देश्य है। राजा हो या रंक यम किसी को रियायत नहीं देता है।  
  • जैसे घर में छांया के लिए वृक्ष होना चाहिए उसी भांति निंदक को दोस्त बनाना चाहिए। निंदक हमारी कमियों को गिनाता है जिससे सुधार करने में सहायता मिलती है। जो मित्र हां में हां भरे वो मित्र नहीं शत्रु होता है। 
  • अति हर विषय में वर्जित है। ना ज्यादा बोलना चाहिए और ना ज्यादा चुप। संतुलित व्यवहार उत्तम है। 
  • कोशिश करने वालों की कभी पराजय नहीं होती। एक बार कोशिश करके निराश नहीं होना चाहिए सतत प्रयाश करने चाहिए। जो गोताखोर गहरे पानी में गोता लगाता है वह कुछ न कुछ प्राप्त अवश्य करता है। 
  • धैर्य व्यक्ति का आभूषण है। धैर्य से ही सभी कार्य संपन्न होते हैं। जल्दबाजी में लिए गए निर्णय सदा घातक होते हैं। जैसे माली सब्र रखता है और पौधों को सींचता रहता है और ऋतू आने पर स्वतः ही फूल लग जाते हैं। उसकी जल्दबाजी से फूल नहीं आएंगे इसलिए हर कार्य में धैर्य रखना चाहिए। 
  • उपयोगी विचारों का चयन करके जीवन में उतार लेने चाहिए। निरर्थक और सारहीन विचारों का त्याग कर देना चाहिए, जैसे सूप उपयोगी दानों को छांट कर अलग कर देता है और थोथा उड़ा देता है उसी प्रकार से महत्वहीन विचारों को छोड़कर उपयोगी विचारों का चयन कर लेना चाहिए।  
  • समय रहते प्रभु की शरण में चले जाना चाहिए। काया के क्षीण होने पर यम दरवाजे पर दस्तक देने लग जाता है। उस समय उस दास की फरियाद कौन सुनेगा। विडम्बना है की बाल्य काल खेलने में, जवानी दम्भ में और फिर परिवार के फाँस में फसकर व्यक्ति सत्य के मार्ग से विमुख हो जाता है और इस संसार को अपना स्थायी घर समझने लग जाता है। बुढ़ापे में प्रभु जी याद आते है लेकिन उसकी फरियाद नहीं सुनी जाती और वह फिर से जन्म मरण के भंवर में गिर जाता है। 
  • जीवन की महत्ता अमूल्य है, इसे कौड़ियों के भाव से खर्च नहीं करना चाहिए। यह जीवन प्रभु भक्ति के लिए दिया गया है। विषय विकार और तृष्णा इसे कौड़ी में बदल कर रख देते हैं। इसके महत्त्व को समझ कर प्रभु के चरणों में ध्यान लगाना चाहिए।जीवन अमूल्य मोती के समान है इसे कौड़ी में मत बदलो। 
  • व्यक्ति को उसी स्थान पर रहना चाहिए जहाँ पर उसके विचारों को समझ कर उसकी क़द्र हो। मुर्ख व्यक्तियों के बीच समझदार उपहास का पात्र बनता है। जैसे धोभी का उस स्थान पर कोई कार्य नहीं है जहां लोगो के पास कपडे ही ना हों। इसलिए सामान विचारधारा के लोगों के बीच ही व्यक्ति को रहना चाहिए और अपने विचार रखने चाहिए अन्यथा वह मखौल का पात्र बनकर रह जाता है।  
  • जीवन में धीरज का अत्यंत महत्त्व होता है। जल्दबाजी से कोई निर्णय नहीं निकलता है। जीवन का कोई भी क्षेत्र हो धीरज वो आभूषण है जो मनुष्य को सुशोभित करता है। जैसे कबीरदास जी ने कहा है वो हर आयाम में लागू होता है। माली पौधों को ना जाने कितनी बार सींचता है, ऐसा नहीं है की पानी डालते ही उसमे फूल लग जाते हैं। फूल लगने का एक निश्चित समय होता है, निश्चित समय के आने पर ही पौधों में फूल लगते हैं। आशय स्पष्ट है की हमें हर क्षेत्र में धीरज धारण करना चाहिए और अपने प्रयत्न करते रहने चाहिए। अनुकूल समय के आने पर फल स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। 
  • जीवन कोई भी आयाम हो या फिर भक्ति ही क्यों ना हो, बगैर कठोर मेहनत के किसी क्षेत्र में सफलता प्राप्त नहीं होती है। जैसे सतही रूप से व्यक्ति कोशिश करता है, किनारे पर डूबने के डर से बैठा रहता है, निराश हो जाता है, वो कुछ भी करने से डरता है। जो इस डर को दूर करके गहरे पानी में गोता लगाता है, वह अवश्य ही मोती प्राप्त कर पाता है। यहाँ कबीर का साफ़ उद्देश्य है की कठोर मेहनत से मनवांछित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं।




कबीर के गुरु कौन थे Who Was Kabir's Guru : मान्यता है की कबीर साहेब के गुरु का नाम रामानंद जी थे। "काशी में परगट भये , रामानंद चेताये " हालाँकि कबीर साहेब के जानकारों की एक अलाहिदा राय है की कबीर साहेब स्वंय परमब्रह्म थे और उनका कोई गुरु नहीं था। कबीर साहेब का जन्म कहाँ हुआ : When was Kabir Born : महान संत और आध्यात्मिक कबीर दास का जन्म वर्ष 1440 में और मृत्यु वर्ष 1518 में हुई थी। इस्लाम के अनुसार ‘कबीर’ का अर्थ महान होता है। 

क्या कबीर साकार ईश्वर को मानते थे What are the ideas of Kabir on God : कबीर साहेब परम सत्ता को एक ही मानते थे उनके अनुसार लोगों ने उसका अपनी सुविधा के अनुसार नामकरण मात्र किया है जबकि वह एक ही है और सर्वत्र विद्यमान हैं। 

राम-रहीम एक है, नाम धराया दोय। 

कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम परौ मति कोय।। 

वह किसी स्थान विशेष का मोहताज नहीं है, वह सर्वत्र विद्यमान है और वह घर पर भी है उसे ढूंढने के लिए किसी भी यात्रा की जरूरत हैं है। जो भी सत्य है वह ईश्वर ही है। 

कबीर साहेब ने तात्कालिक मूर्तिपूजा का घोर खंडन करते हुए ईशर को निराकार घोषित किया।

कबीर साहेब ने मानव देह कब छोड़ी Where did Sant Kabir die? : कबीर साहेब ने जीवन भर लोगो को शिक्षाएं दी जो आज भी प्रसंगिक हैं और उन्होंने अपनी मृत्य को भी लोगो के समक्ष एक शिक्षा के रूप में रखा। उस समय मान्यता थी की यदि कोई काशी में मरता है तो स्वर्ग और मगहर में यदि कोई मरता है तो वह गधा बनता है, इसी रूढ़ि को तोड़ने के लिए कबीर साहेब ने मगहर को चुना। क्या कबीर सूफी संत थे Was Kabir a Sufi saint? : कबीर के विचार स्वतंत्र थे, निष्पक्ष थे और आडंबरों से परे थे, यही बात कबीर साहेब को अन्य पंथ और मान्यताओं से अलग करती है। कबीर साहेब सूफी संत नहीं थे लेकिन यह एक दीगर विषय है की बाबा बुल्ले शाह के विचार कबीर साहेब से बहुत मिलते जुलते हैं, मसलन-

मक्का गयां गल मुकदी नाहीं, भावें सो सो जुम्मे पढ़ आएं
गंगा गयां गल मुकदी नाहीं, भावें सो सो गोते खाएं
गया गयां गल मुकदी नाहीं, भावें सो सो पंड पढ़ आएं
बुल्ले शाह गल त्यों मुकदी, जद "मैं" नु दिलों गवाएँ
चल वे बुल्लेया चल ओथे चलिये जिथे सारे अन्ने,
न कोई साड्डी जात पिछाने ते न कोई सान्नु मन्ने
पढ़ पढ़ आलम फाज़ल होयां, कदीं अपने आप नु पढ़याऍ ना
जा जा वडदा मंदर मसीते, कदी मन अपने विच वडयाऍ ना
एवैएन रोज़ शैतान नाल लड़दान हे, कदी नफस अपने नाल लड़याऍ ना
बुल्ले शाह अस्मानी उड़याँ फडदा हे, जेडा घर बैठा ओन्नु फडयाऍ ना
मस्जिद ढा दे मंदिर ढा दे, ढा दे जो कुछ दिसदा
एक बन्दे दा दिल न ढाइन, क्यूंकि रब दिलां विच रेहेंदा
बुल्ले नालों चूल्हा चंगा, जिस ते अन्न पकाई दा
रल फकीरा मजलिस करदे, भोरा भोरा खाई दा
रब रब करदे बुड्ढे हो गए, मुल्ला पंडित सारे
रब दा खोज खरा न लब्बा, सजदे कर कर हारे
रब ते तेरे अन्दर वसदा, विच कुरान इशारे
बुल्ले शाह रब ओनु मिलदा, जेडा अपने नफस नु मारे
सर ते टोपी ते नीयत खोटी, लेना की टोपी सर धर के
चिल्ले कीता पर रब न मिलया, लेना की चिल्लेयाँ विच वड के
 तस्बीह फिरि पर दिल न फिरेया, लेना की तस्बीह हथ फेर के
 बुल्लेया झाग बिना दूध नई जमदा, ते भांवे लाल होवे कढ कढ के
पढ़ पढ़ इल्म किताबां नु, तू नाम रखा लया क़ाज़ी
हथ विच फर के तलवारां, तू नाम रखा लया ग़ाज़ी
मक्के मदीने टी फिर आयां, तू नाम रखा लया हाजी
ओ बुल्लेया! तू कुछ न कित्तां, जे तू रब न किता राज़ी
जे रब मिलदा नहातेयां धोतयां, ते रब मिलदा ददुआन मछलियाँ
 जे रब मिलदा जंगल बेले, ते मिलदा गायां वछियाँ
जे रब मिलदा विच मसीतीं, ते मिलदा चम्चडकियाँ
ओ बुल्ले शाह रब ओन्नु मिलदा, तय नीयत जिंना दीयां सचियां
रातीं जागां ते शेख सदा वें , पर रात नु जागां कुत्ते, ते तो उत्ते
रातीं भोंकों बस न करदे, फेर जा लारा विच सुत्ते, ते तो उत्ते
यार दा बुहा मूल न छडदे, पावें मारो सो सो जूते, ते तो उत्ते
बुल्ले शाह उठ यार मन ले , नईं ते बाज़ी ले गए कुत्ते, ते तो उत्ते

कबीर साहेब ने किस भाषा में लिखा है In which language Kabir Das wrote : गौरतलब है की कबीर साहेब ने स्वंय कुछ भी नहीं लिखा है। जो भी लिखित है वह उनके समर्थक /अनुयायिओं के द्वारा कबीर साहेब की वाणी को सुन कर लिखा गया है। “मसि कागद छूऔं नहीं, कलम गहौं नहि हाथ चारों जुग कै महातम कबिरा मुखहिं जनाई बात” कबीर साहेब ने जो देखा वही कहा और यही कारण है की उनके अनुयायिओं के द्वारा विभिन्न भाषा / अपने क्षेत्र, अंचल की भाषा को काम में लिया गया जिसके कारन से हिंदी पंजाबी, राजस्थानी और गुजराती के शब्द हमें उनकी लेखनी में मिलते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल इस इस मिलीजुली भाषा को सधुकड़ि भाषा का नाम दिया है। 

ऊँचे कुल में जनमिया करनी ऊँच न होय हिंदी मीनिंग Unche Kul Me Janamiya Karni Unch Na Hoy Hindi Meaning  कबीर दोहे हिंदी मीनिंग


कबीर की जाति क्या थी? What is the Cast of Kabir, What is the Religion of Kabir Hindu or Muslim: वैसे तो यह सवाल ही अनुचित है की कबीर के जाति क्या थी क्योंकि कबीर ने सदा ही जातिवाद का विरोध किया। यह सवाल जहन में उठता है क्योंकि हम जानना चाहते हैं ! संत की कोई जाति नहीं होती और ना ही उसका कोई धर्म ! कबीर की जाति और धर्म जानने की उत्सुकता का कारन है की वस्तुतः हम मान लेते हैं की दलित साहित्य चिंतन और लेखन करने वाला दलित ही होना चाहिए। कबीर साहेब ने बरसों से चली आ रही सामजिक और जातिगत मान्यताओं को खारिज करते हुए मानव को मानव होने का गौरव दिलाया और घोषित किया की 

एक बूंद एकै मल मूत्र, एक चम् एक गूदा।
एक जोति थैं सब उत्पन्ना, कौन बाम्हन कौन सूदा।। 

जातिगत और जन्म के आधार पर कबीर साहेब ने किसी की श्रेष्ठता मानने से इंकार किया। बहरहाल, क्या कबीर दलित थे ? मान्य चिंतकों और साहित्य की जानकारी रखने वाले विद्वानों के अनुसार कबीर साहेब दलित नहीं थे क्यों की समकालिक सामाजिक परिस्थितियों में दलितों को 'अछूत' माना जाता था। कबीर साहेब के विषय में ऐसा कोई प्रमाण नहीं है। मान्यताओं के आधार पर कबीर साहेब जुलाहे (मुस्लिम जुलाहे ) से सबंध रखते थे और मुस्लिम समाज में अश्प्रश्य, छूआछूत जैसे कोई भी अवधारणा नहीं रही है, हाँ, गरीब और अमीर कुल का होना एक दीगर विषय हो सकता है। 

जाँति  न  पूछो  साधा  की  पूछ  लीजिए  ज्ञान।
मोल  करो  तलवार  का  पड़ा  रहने  दो  म्यान।

इसके विपरीत आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी कबीर साहेब का जन्म ब्राह्मण जाती में होना बताते हैं और कबीर साहेब को 'नाथपंथी होना' बताते हैं। डॉक्टर धर्मवीर भारती जी के अनुसार कबीर साहेब मुस्लिम जुलाहे तो थे ही और अछूत भी थे जो कुछ समझ से परे की बात लगती है। कबीर साहेब दलित थे या नहीं यह विवाद का विषय हो सकता है लेकिन कबीर साहेब की दलित चेतना सभी को एक स्वर में मान्य है।



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