वाख कविता के आधार पर बताइए कि कवयित्री ललद्यद के मन में बार बार हूक क्यों उठ रही है? - vaakh kavita ke aadhaar par bataie ki kavayitree laladyad ke man mein baar baar hook kyon uth rahee hai?

RBSE Class 9 Hindi Solutions Kshitij Chapter 10 वाख

वाख Summary in Hindi

कवि-परिचय – ललद्यद कश्मीरी भाषा की लोकप्रिय कवयित्री हैं। उनका जन्म सन् 1320 के लगभग कश्मीर स्थित पाम्पोर के सिमपुरा गाँव में हुआ था। इनका निधन सन् 1391 के आसपास माना जाता है। इनके जीवन के बारे में प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती। इन्हें लल्लेश्वरी, लला, ललयोगेश्वरी, ललारिका आदि नामों से भी जाना जाता है। इनकी काव्य-शैली को ‘वाख’ कहते हैं। इनका कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं है। इनके ‘वाख’ सैकड़ों वर्षों से मौखिक रूप में पीढ़ी-दर-पीढी चले आ रहे हैं। इन्हें भक्तिकाल के कवियों में गिना जाता है।

पाठ-परिचय – प्रस्तुत पाठ में ललद्यद के चार वाखों का हिन्दी-अनुवाद पद्यात्मक रूप में दिया गया है। इन वाखों में ईश्वर-प्राप्ति के लिए किये गये प्रयासों की व्यर्थता, बाह्याडम्बरों का विरोध, माया-मोह से मुक्ति का सन्देश के महत्त्व का निरूपण किया गया है। साथ ही सामाजिक जीवन में भेद-भाव का विरोध और आत्मज्ञान का महत्त्व भी इनमें दर्शाया गया है। इन वाखों का अनुवाद मीरा कान्त द्वारा किया गया है।

भावार्थ एवं अर्थग्रहण सम्बन्धी प्रश्न

वाख

1. रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव।
जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।
पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।
जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे॥

कठिन-शब्दार्थ :

  • भवसागर = संसार, भव रूपी सागर।
  • सकोरे = मिट्टी का पात्र, कुल्हड़।
  • व्यर्थ = बेका = कोशिश।
  • हूक = तड़प, दर्द।

भावार्थ : कवयित्री ललद्यद कहती है कि यह जीवन कच्चे धागे की डोर के समान नाशवान है जिसके सहारे मैं प्रभु भक्ति की नाव को खे रही हूँ। न जाने ईश्वर मेरी पुकार या प्रार्थना कब सुनेगा और कब इस संसार रूपी सागर से पार करा देगा अर्थात् मुक्ति दे सकेगा। मेरे सारे प्रयास व्यर्थ हो रहे हैं, जैसे मिट्टी के कच्चे सकोरे से पानी टपकता रहता है अर्थात् उसमें से पानी न टपके-रुका रहे ऐसा प्रयास करना व्यर्थ रहता है। कवयित्री कहती है कि उसके मन में रह-रहकर एक तड़प या दर्द उठता रहता है और इस नश्वर संसार को छोड़कर ईश्वर के पास जाने की इच्छा हो रही है।

प्रश्न 1. ‘खींच रही मैं नाव’-इसमें ‘नाव’ से क्या आशय है?
प्रश्न 2. कवयित्री ने कच्चे धागे की रस्सी किसे कहा?
प्रश्न 3. ‘पानी टपके कच्चे सकोरे’ से क्या आशय है?
प्रश्न 4. कवयित्री के मन में हूक क्यों उठ रही है? कारण बताइए।
उत्तर :

  1. इसमें ‘नाव’ का सामान्य अर्थ न लेकर प्रतीकार्थ लिया गया है, जिससे इसका आशय प्रभु भक्ति रूपी नाव है।
  2. कवयित्री ने जीवन जीने के साधनों को कच्चे धागे की रस्सी कहा है।
  3. कच्चे सकोरे में पानी भरने पर वह टूट भी जाता है और उस पर पानी भरने से वह धीरे-धीरे टपकता रहता है और अन्ततः खाली हो जाता है। इसी प्रकार प्रभु की कृपा पाने में समय धीरे-धीरे बीत रहा है, वह कवयित्री के हाथ नहीं लग रहा है।
  4. कवयित्री अपने आराध्य परमात्मा से मिलना चाहती है, वह इस संसार को त्यागकर मुक्ति पाने के लिए प्रभु की शरण में जाना चाहती है, लेकिन इस सम्बन्ध में इसके सारे प्रयास व्यर्थ हो रहे हैं। इसी कारण उसके मन में हूक उठ रही है, वह तड़प रही है।

2. खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी।
सम खा तभी होगा समभावी,
खुलेगी साँकल बन्द द्वार की।

कठिन-शब्दार्थ :

  • अहंकारी = घमण्डी।
  • सम = शम, इन्द्रियों का दमन।
  • समभावी = समानता की भावना।
  • साँकल = जंजीर।

भावार्थ : कवयित्री ललद्यद कहती है कि हे मनुष्य ! इन सांसारिक विषय- वासनाओं में लीन मत हो, इन भोगों से तुझे कुछ भी मिलने वाला नहीं है। लेकिन भोगों को पूरी तरह त्यागो भी नहीं। इससे मन में अहंकार का भाव उत्पन्न होगा। इसलिए तू भोग और त्याग के मध्य उचित संतुलन रखते हुए जी। अर्थात् इंद्रियों पर उचित संयम रख कर जी। इसी संशय की मनोदशा में प्रभु प्राप्ति के बन्द द्वार खुल जायेंगे और परमात्मा का साक्षात्कार हो सकेगा।

प्रश्न 1. ‘खा-खाकर कुछ.पाएगा नहीं’ से क्या अभिप्राय है?
प्रश्न 2. कवयित्री के अनुसार व्यक्ति अहंकारी कब बनता है?
प्रश्न 3. मनुष्य समभावी कब बनेगा?
प्रश्न 4. कवयित्री पद में क्या प्रेरणा देना चाहती है? .
उत्तर :

  1. खा-खाकर अर्थात् निरन्तर विषय-वासनाओं का उपभोग करने से कुछ हाथ नहीं लगेगा। इन्द्रियों का ही भरण-पोषण करने पर ईश्वर-भक्ति बाधित हो जायेगी।
  2. विषय-वासनाओं पर नियन्त्रण रखने से और तपमय जीवन जीने से मनुष्य अपने आपको महात्मा मानने लगता है। इससे उसके मन में अहंकार जन्म ले लेता है।
  3. जब मनुष्य भोग और त्याग के बीच रहकर मध्यम मार्ग अपनायेगा तब वह समभावी बनेगा।
  4. कवयित्री पद में मनुष्य को सहज संयम अपनाने और ईश्वर से मिलने की प्रेरणा देना चाहती है।

3. आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
जेब टटोली, कौड़ी न पाई।
माझी को ढूँ, क्या उतराई?

कठिन-शब्दार्थ :

  • राह = रास्ता।
  • सुषुम = सुषुम्ना नाड़ी।
  • सेतु = पुल, मध्य।
  • कौड़ी न पाई = कुछ लाभ नहीं हुआ।
  • उतराई = नदी पार करने का भाड़ा।

भावार्थ : कवयित्री ललद्यद कहती है कि वह इस संसार में परमात्मा की प्राप्ति के लिए सीधी राह से आयी, परन्तु वह जीवन में उस सीधी राह पर नहीं चल पायी। उसने हठयोग का सहारा लेकर गलत राह का चयन कर लिया और वह जीवनभर सुषुम्ना नाड़ी को साधने का प्रयास करती रही। कुंडलिनी जागरण के प्रयास में लगी रही। इसी में सारा जीवन बीत गया। जीवन-यात्रा के अन्त में जब उसने अपनी जेब टटोली, तो उसे कुछ भी नहीं मिला। अब उसे चिन्ता हो रही है कि संसार रूपी विशाल नदी को पार कराने वाले ईश्वर रूपी माझी को अब वह उतराई कहाँ से दे पायेगी? अर्थात् अब उसके पास देने के लिए कुछ नहीं बचा है, क्योंकि उसने ईश्वर-भक्ति की ओर कोई ध्यान नहीं दिया।

प्रश्न 1. कवयित्री ने अपना दिन कैसे बिता दिया?
प्रश्न 2. ‘गई न सीधी राह’ कहकर कवयित्री ने क्या संकेत किया है?
प्रश्न 3. कवयित्री माझी के सामने क्यों परेशान है? बताइए।
प्रश्न 4. कवयित्री ने ‘सुषुम-सेतु’ किसे कहा है?
उत्तर :

  1. कवयित्री ने अपना दिन अर्थात् जीवन व्यर्थ की हठयोग की साधना में बिता दिया।
  2. कवयित्री ने संकेत किया है कि वह भक्ति की सीधी राह पर चलने की बजाय हठ योग के जटिल मार्ग पर चल पड़ी।
  3. कवयित्री ईश्वर रूपी माझी के सामने इसलिए परेशान है, क्योंकि उसको देने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं
  4. कवयित्री ने सुषुम-सेतु सुषुम्ना नाड़ी की साधना को कहा है। हठयोगी सुषुम्ना नाड़ी में कुंडलिनी जागरण करने के लिए विभिन्न योग-साधनाएँ करते हैं।

4. थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिन्दू-मुसलमां।
ज्ञानी है तो स्वयं को जान,
वही है साहिब से पहचान।

कठिन-शब्दार्थ :

  • थल-थल = हर जगह।
  • साहिब = ईश्वर।

भावार्थ : ईश्वर की सर्वव्यापकता बतलाती हुई कवयित्री कहती है कि ईश्वर थल-थल अर्थात् हर जगह रहता है, ईश्वर सर्वव्यापक है। इसलिए हमें धार्मिक एवं जातीय संकीर्णताओं से ऊपर उठते हुए हिन्दू एवं मुसलमान में कोई भेद नहीं करना चाहिए। यदि हम स्वयं को सच्चा ज्ञानी समझते हैं, तो पहले हमें स्वयं को पहचानना चाहिए। जब हम स्वयं को जान जायेंगे तो अपने भीतर रहने वाले अर्थात् आत्मा में रहने वाले ईश्वर को भी आसानी से पहचान लेंगे।

प्रश्न 1. कवयित्री ने शिव का निवास कहाँ बताया है?
प्रश्न 2. ‘भेद न कर’ कवयित्री ने ऐसा किस कारण कहा है?
प्रश्न 3. कवयित्री ज्ञानी जन को क्या जानने की प्रेरणा देती है?
प्रश्न 4. ईश्वर की पहचान का कौन-सा मार्ग है?
उत्तर :

  • कवयित्री ने शिव अर्थात् परमेश्वर का निवास हर स्थान और हर प्राणी में बताया है, क्योंकि ईश्वर घट घटव्यापी है।
  • कवयित्री ने ईश्वर को घट-घटवासी और सर्वव्यापक बताया है। वह किसी जाति या धर्म से परे है। अतएव मनुष्य को चाहिए कि वह जाति एवं धर्म के आधार पर हिन्दू-मुसलमान का भेद न करे, सब को समान रूप से माने।
  • कवयित्री ज्ञानी जन को प्रेरणा देती है कि वह अपने अन्दर स्थित आत्मा को पहचाने। अपने वास्तविक स्वरूप को जाने।
  • ईश्वर की पहचान का मार्ग आत्मज्ञान है।

RBSE Class 9 Hindi वाख Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
‘रस्सी’ यहाँ किसके लिए प्रयुक्त हुआ है और वह कैसी है?
उत्तर :
‘रस्सी’ शब्द यहाँ जीवन जीने के साधनों के लिए प्रयुक्त हुआ है। वह स्वभाव में कच्ची अथवा नश्वर है।

प्रश्न 2.
कवयित्री द्वारा मुक्ति के लिए किये जाने वाले प्रयास व्यर्थ क्यों हो रहे हैं?
उत्तर :
कवयित्री को प्रतीत होता है कि कोरी भक्ति के सहारे परमात्मा की प्राप्ति की कामना करना कच्चे धागे की रस्सी से नाव खींचना जैसा है। इस प्रयास में जीवन बीता जा रहा है। लेकिन ईश्वर से मिलन नहीं हो पा रहा है इससे उसे लग रहा है कि उसकी सारी साधना व्यर्थ जा रही है।

प्रश्न 3.
कवयित्री का ‘घर जाने की चाह’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर :
घर जाने की चाह से तात्पर्य है-मुक्ति या मोक्ष पाने की इच्छा। सभी ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं और परमात्मा के ही अंश हैं। वे उसी में अभेद रूप से मिल जाने या मोक्ष पाने की चाह रखते हैं और इस तरह सभी परमात्मा रूपी अपने घर जाने की इच्छा रखते हैं।

प्रश्न 4.
भाव स्पष्ट कीजिए
(क) जेब टटोली कौड़ी न पाई।
उत्तर :
कवयित्री को अनुभव होता है कि वह जीवन भर हठ योग साधना में लगी रही किन्तु उसे कोई सफलता न मिल सकी। उसकी जेब खाली ही रही।

(ख) खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,
न खाकर बनेगा अहंकारी।
उत्तर :
मनुष्य भोग कर-कर के अपना शरीर भी नष्ट कर लेता है और उसे कोई उपलब्धि नहीं हो पाती है। वह भोग के प्रति आसक्त रहकर परमात्मा से दूर हो जाता है।

प्रश्न 5.
बन्द द्वार की साँकल खोलने के लिए ललद्यद ने क्या उपाय सुझाया है?
उत्तर :
बन्द द्वार की साँकल खोलने के लिए कवयित्री ललद्यद ने यह उपाय सझाया है कि भोग और त्याग के बीच सन्तुलन बनाये रखना चाहिए। अर्थात् मध्यम मार्ग को ही अपनाना चाहिए। तभी प्रभु-मिलन के द्वार खुलेंगे।

प्रश्न 6.
ईश्वर-प्राप्ति के लिए बहुत से साधक हठयोग जैसी कठिन साधना भी करते हैं, लेकिन उससे लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती। यह भाव किन पंक्तियों में व्यक्त हुआ है?
उत्तर :
यह भाव इन पंक्तियों में व्यक्त हुआ है –
आई सीधी राह से, गई न सीधी राह!
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
जेब टटोली कौड़ी न पाई।
माझी को दूं क्या उतराई?

प्रश्न 7.
‘ज्ञानी’ से कवयित्री का क्या अभिप्राय है?
उत्तर :
‘ज्ञानी’ से कवयित्री का अभिप्राय है-जिसने परमात्मा को जाना हो, आत्मा को पहचाना हो।

रचना और अभिव्यक्ति –

प्रश्न 8.
हमारे सन्तों, भक्तों और महापुरुषों ने बार-बार चेताया है कि मनुष्यों में परस्पर किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं होता, लेकिन आज भी हमारे समाज में भेदभाव दिखाई देता है
(क) आपकी दृष्टि में इस कारण देश और समाज को क्या हानि हो रही है?
(ख) आपसी भेदभाव को मिटाने के लिए अपने सुझाव दीजिए।
उत्तर :
(क) आपसी भेदभाव के कारण देश और समाज को बहुत बड़ी हानि हो रही है। सबसे बड़ी हानि तो यह हुई है कि समाज आपस में बँट गया है जिसके कारण अनेक झगड़े खड़े हो रहे हैं। हिन्दू और मुसलमानों के बीच भेदभाव की दीवार खड़ी हो गयी है। इस कारण साम्प्रदायिक दंगे होते रहते हैं। यह देश और समाज की बहुत बड़ी हानि है।

(ख) आपसी भेदभाव मिटाने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि हमें उन बातों की चर्चा नहीं करनी चाहिए जिससे आपसी भेदभाव बढे। हमें आपसी प्रेम, सौहार्द्र और एकता पर बल देना चाहिए। जाति समाप्त की जानी चाहिए। सभी सम्प्रदायों और धर्मों को बिना किसी भेद-भावों के दूसरे के त्योहारों में मिलकर भाग लेना चाहिए। संक्षेप में इन उपायों से आपसी भेदभाव दूर हो सकता है।

पाठेतर सक्रियता –

भक्तिकाल में ललद्यद के अतिरिक्त तमिलनाडु की आंदाल, कर्नाटक की अक्क महादेवी और राजस्थान की मीरा जैसी भक्त कवयित्रियों के बारे में जानकारी प्राप्त कीजिए एवं उस समय की सामाजिक परिस्थितियों के बारे में कक्षा में चर्चा कीजिए।
उत्तर :
छात्र स्वयं करें।

ललद्यद कश्मीरी कवयित्री हैं, कश्मीर पर एक अनुच्छेद लिखिए।
उत्तर :
कश्मीर भारत का स्वर्ग कहलाता है। यह प्राकृतिक-सौन्दर्य से समृद्ध है। हिमालय की गोद में झेलम, सिन्ध आदि नदियों से सिंचित, हरे-भरे वनों से परिवेष्ठित और शुभ्र-हिमशिखरों से आच्छादित कश्मीर को लेकर कवियों एवं शायरों ने सुन्दर-ललित भाव व्यक्त किये हैं। कश्मीर प्रकृति का वरदान रहा है। यह प्राचीन काल में सारस्वत-साधना का एवं शैवदर्शन का केन्द्र रहा है। यहाँ पर अनेक स्वनामधन्य कवियों पर सरस्वती का वरदहस्त रहा है, जिन्होंने संस्कृत एवं कश्मीर की अन्य भाषाओं में सुन्दर काव्यों की रचनाएँ कीं। इसी कारण इसे सारस्वत प्रदेश भी कहा जाता है।

कश्मीर का जन-जीवन यद्यपि विषमतापूर्ण रहा है, तथापि यहाँ के लोग बड़े हँसमुख, मिलनसार, अतिथि सेवा करने वाले तथा सुन्दर हैं। यहाँ की संस्कृति अपनी अनेक विशेषताओं के कारण अनुपम मानी जाती है। यहाँ पर हिन्दू-मुसलमान एकता के अनेक पवित्र स्थल हैं। भले ही कुछ वर्षों से भ्रष्ट राजनीति के कारण यहाँ पर रक्तपात का दौर रहा, अशान्त वातावरण रहा, परन्तु यहाँ के निवासियों में मानवता का लोप नहीं हुआ है। आज भी सभी दृष्टियों से कश्मीर भारत का सिरमौर प्रदेश है।

RBSE Class 9 Hindi वाख Important Questions and Answers

प्रश्न 1.
परमात्मा को जानने के लिए आवश्यक है –
(क) संयम का पालन
(ख) भक्तिपूर्ण आराधना
(ग) कुंडली जागरण
(घ) आत्मज्ञान की प्राप्ति
उत्तर :
(घ) आत्मज्ञान की प्राप्ति

प्रश्न 2.
कवयित्री ने मुक्ति का आधार-मार्ग बताया है –
(क) मध्यम मार्ग
(ख) हठयोग और साधना
(ग) सहज समर्पण
(घ) अहंकार का त्याग
उत्तर :
(क) मध्यम मार्ग

प्रश्न 3.
‘खींच रही मैं नाव’। नाव प्रतीक है –
(क) सागर पार करने की
(ख) संसार-उद्धार की
(ग) माया-मुक्ति की
(घ) ईश्वर-भक्ति की
उत्तर :
(घ) ईश्वर-भक्ति की

प्रश्न 4.
कवयित्री ने हिन्दू और मुसलमान दोनों को आराधना करने के लिए कहा है –
(क) राम की
(ख) शिव की
(ग) परामात्मा की
(घ) निराकार की।
उत्तर :
(ख) शिव की

बोधात्मक प्रश्न –

प्रश्न 1.
‘वाख’ से क्या आशय है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘वाख’ का आशय है-वाणी, शब्द या कथन। ज्ञानानुभव के आधार पर लिखी गई कविता को ‘वाख’ कहते हैं। कश्मीर में सन्तों की वाणी जैसी भक्ति सम्बन्धी जो काव्य-शैली अपनायी जाती है, जो कि चार पंक्तियों में बद्ध तथा सुगेय रचना होती है, उसे ‘वाख’ कहते हैं।

प्रश्न 2.
‘रस्सी कच्चे धागे…..”चाह है घेरे’ पद का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
इस कविता में कवयित्री ललद्यद ने ईश्वर प्राप्ति के लिए किये जाने वाले प्रयासों की चर्चा की है तथा बताया है कि माया-मोह के कारण नश्वर साधनों के आधार पर ईश्वर-प्राप्ति संभव नहीं है। अतएव साधक को ऐसे साधन अपनाने की प्रेरणा दी गई है, जो सर्वथा आडम्बर-रहित हों।

प्रश्न 3.
‘खा-खाकर कछ पाएगा नहीं’-पद में क्या सन्देश दिया गया है?
उत्तर :
इसमें कवयित्री ने बताया है कि व्यक्ति को बाह्याडम्बरों का विरोध करके अहंकार का त्याग करना चाहिए। इन्द्रियों को नियन्त्रित कर अन्तःकरण के समभावी होने पर ही मनुष्य की चेतना व्यापक हो सकती है। मनुष्य को माया-मोह में कम से कम लिप्त रहना चाहिए, इससे ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग मिल जायेगा।

प्रश्न 4.
‘सुषुम-सेतु खड़ी थी’ का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
हठयोग में शरीर को कष्ट देने वाली क्रियाओं को अपनाया जाता है। अतः उसमें इंगला और पिंगला को शरीर-रचना की साधारण वाहिका (नाड़ियाँ) माना जाता है जो शरीर में समानान्तर रहती हैं। सुषुम्ना नाड़ी उन दोनों से जुड़कर साधक की चेतना को ऊर्ध्वगामी करती है। यह नासिका के ऊपर और दोनों नेत्रों के मध्यभाग (ब्रह्मरन्ध्र) में स्थित मुख्य नाड़ी है। इसी कारण कवयित्री ने सुषुम्ना नाड़ी को सेतु अर्थात् पुल कहा है जो इंगला-पिंगला को आपस में जोड़कर सक्रिय रखती है। हठयोगी सुषुम्ना वाहिका को जगाने का निरन्तर प्रयास करते रहते हैं।

प्रश्न 5.
‘ज्ञानी है तो स्वयं को जान’ कवयित्री ने स्वयं को पहचानने की बात क्यों कही है?
उत्तर :
कवयित्री का भाव है कि स्वयं को जानने अर्थात् आत्मज्ञान होते ही मनुष्य सबको समान समझता है और वह समस्त संकीर्णताओं से ऊपर उठ जाता है। उस दशा में ही वह ईश्वर की पहचान कर पाता है। प्रत्येक प्राणी के अन्तःकरण में आत्मा के रूप में परमात्मा (साहिब) रहता है। अतः स्वयं को अर्थात् अपनी आत्मा को पहचानने से परमात्मा का भी साक्षात्कार हो जाता है। कवयित्री ने इसी दृष्टि से यह बात कही है।

प्रश्न 6.
संकलित कविता के आधार पर कवयित्री ललद्यद की भक्ति- भावना पर प्रकाश डालिये।
उत्तर :
कवयित्री ललद्यद ऐसी भक्त कवयित्री थी जिन्होंने जाति व धर्म की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर ईश्वरीय प्रेम की श्रेष्ठता का ही प्रतिपादन किया। उन्होंने आत्मज्ञान को ही सच्चा ज्ञान और अन्त:करण की पवित्रता के साथ सत्कर्मों को अपनाने पर बल दिया। उन्होंने ईश्वर को कबीर की तरह सर्वव्यापक, मायाजाल से दूर मुक्तिदाता बताया और हठ योग का विरोध कर भक्ति के लिए ज्ञानमार्गी साधना को श्रेष्ठ बताया।

प्रश्न 7.
‘गई न सीधी राह’ कथन से कवयित्री ने क्या सन्देश दिया है?
उत्तर :
कवयित्री ने सन्देश दिया है कि भक्त को सदैव आत्मालोचन करना चाहिए, सत्कर्मों की ओर प्रवृत्ति रखनी चाहिए। मन की पवित्रता, वाणी का संयम तथा वासनाओं की निवृत्ति ही भक्ति की सीधी राह है। जो इस पर नहीं चलता है, वह असफल रहता है, अर्थात् उसे ईश्वर-प्राप्ति नहीं होती है।

प्रश्न 8.
‘पानी टपके कच्चे सकोरे’ का क्या आशय है? इसके माध्यम से कवयित्री क्या कहना चाहती है?
उत्तर :
सकोरा मिट्टी से बना गिलास जैसा पात्र होता है। मिट्टी के कच्चे पात्रों से पानी टपकता रहता है। कवयित्री द्वारा प्रयुक्त ‘पानी टपके कच्चे सकोरे’ का सामान्य अर्थ यही है कि मिट्टी के कच्चे पात्र से पानी रिसता रहता है। इससे कवयित्री यह कहना चाहती है कि इस नश्वर शरीर का जीवन-काल धीरे-धीरे कम होता जा रहा है और प्रभु-प्राप्ति के मेरे सारे प्रयास व्यर्थ जा रहे हैं। यदि जीवनान्त से पहले प्रभु-दर्शन हो जाते, तो कितना अच्छा रहता? मेरी यह चाहत पूरी हो जाती तो मेरा जीवन धन्य हो जाता।

प्रश्न 9.
कवयित्री ललद्यद ने परमात्मा की प्राप्ति का क्या उपाय बताया है?
उत्तर :
कवयित्री ललद्यद के अनुसार परमात्मा-प्राप्ति के लिए हृदय में ‘हूक’ उठनी जरूरी है जिससे ज्ञान साधना बढ़ती रहे। जीवन में त्याग और भोग, सुख एवं दु:ख के बीच समन्वय बना रहे, साधना करते समय मध्यम मार्ग अपनाते रहें। इस तरह विषयासक्ति, अहंकार एवं हठयोग को न अपनाकर समत्व भाव से आत्मज्ञानी बनना जरूरी है। इस तरह के उपाय अपनाने से ईश्वर-प्राप्ति हो सकती है। आत्मज्ञान से ही साहिब से मिलन हो सकता

प्रश्न 10.
‘बीत गया दिन आह!’ कवयित्री ललद्यद का दिन किस प्रकार बीत गया?
उत्तर :
कवयित्री ललद्यद परमात्मा की प्राप्ति के लिए सीधे भक्ति-पथ पर चलना चाहती थी, वह केवल ज्ञान चेतना को जगाना चाहती थी, परन्तु उसने गलत राह पकड़ ली अर्थात् उसने हठयोग का मार्ग पकड़कर गलती कर दी। इस तरह उसका सारा दिन व्यर्थ की साधनाओं में बीत गया, जिससे उसे ईश्वर-भक्ति का सहज मार्ग नहीं मिला। इसी बात पर उसने अपना पछतावा व्यक्त किया।

प्रश्न 11.
कवयित्री ललद्यद ने मुक्ति के लिए कौनसे प्रयास किये, जिनमें वे व्यर्थ रहे?
उत्तर :
कवयित्री ललद्यद ने बताया कि मुक्ति के लिए सरल-सीधे रास्ते पर चलना चाहती थी, परन्तु गलती से उसने हठयोग की साधना के प्रयास किये। उसके ये प्रयास व्यर्थ गये, क्योंकि हठयोग-साधना में उसके जीवन का सारा समय यों ही बीत गया। अतः कवयित्री द्वारा परमात्मा की प्राप्ति तथा मुक्ति के लिए जितने भी प्रयास किए गए, उनमें उचित सन्तुलन न होने से उसे सफलता नहीं मिली। क्योंकि त्याग और भोग के मध्य सन्तुलन रखने से ही परमात्मा प्राप्ति की हूक उठ पाती है।

प्रश्न 12.
ललद्यद के अनुसार ‘माझी’ और ‘उतराई’ शब्दों का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
‘माझी’ का शाब्दिक अर्थ है-नाव पार लगाने वाला और ‘उतराई’ का अर्थ है-नाव पार कराने का किराया। कवयित्री ललद्यद के अनुसार माझी का आशय परमात्मा है, जो भक्तों को संसार-सागर से पार कराता है। ईश्वर ही मनुष्य को इस संसार की कठिनाइयों या कष्टों से मुक्तकर अपनी शरण में लेता है। अतः ऐसे माझी को उतराई के रूप में अपनी एकनिष्ठ भक्ति समर्पित करनी पड़ती है, अपना जीवन भेंट करना पड़ता है। क्योंकि बिना समर्पण-भाव के सच्ची प्रभु भक्ति नहीं हो पाती है। कवयित्री ने ज्ञान-साधक सद्गुरु को भी सन्त-परम्परा के अनुसार ‘माझी’ कहा है तथा उसके प्रति समर्पण-भाव रखने का सन्देश दिया है।

प्रश्न 13.
‘जी में उठती रह-रह हूक’ कवयित्री के मन में किसकी हूक उठती है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
कवयित्री ललद्यद के मन में ईश्वर-मिलन या ईश्वर-प्राप्ति की हूक उठती है। कवयित्री मानती है कि यह शरीर मिट्टी का कच्चा सकोरा जैसा है, इस पर से आयु या जीवन रूपी पानी निरन्तर टपक रहा है, जीवन-काल बीतता जा रहा है। मृत्यु-समय नजदीक आ रहा है, परन्तु प्रभु-मिलन के सारे प्रयास व्यर्थ जा रहे हैं। इन बातों का विचारकर कवयित्री के हृदय में रह-रहकर एक तड़प उठती है कि कब मैं प्रिय-प्रभु से मिल सकूँगी।

प्रश्न 14.
कवयित्री ललद्यद ने परमात्मा-प्राप्ति में कौन-सी बाधाओं का उल्लेख किया है?
उत्तर :
कवयित्री ललद्यद ने परमात्मा-प्राप्ति में इन बाधाओं का उल्लेख किया है

  1. जीवन नश्वर एवं क्षण भंगुर है, जबकि परमात्मा का मार्ग बहुत लम्बा है।
  2. सांसारिक विषय-भोग मनुष्य को लक्ष्य से भटकाते हैं।
  3. मनुष्य त्यागी तपस्वी होने का आडम्बर करता है, जिससे वह अहंकारी बन जाता है, अहंकार उसे परमात्मा से दूर कर देता है।
  4. हठयोग की साधना करने से परमात्मा-प्राप्ति कठिन लगती है।
  5. ऊँच-नीच, हिन्दू-मुसलमान, राम-रहीम का भेद-भाव रखने से भक्त सच्चे मार्ग से भटक जाते हैं।
  6. लोगों का स्वयं के बारे में, आत्मा के विषय में अज्ञानी होना भी बाधक है।

प्रश्न 15.
कवयित्री ललद्यद ने किन आडम्बरों का विरोध किया है?।
उत्तर :
कवयित्री ललद्यद ने सन्त परम्परा के अनुसार समाज में प्रचलित इन आडम्बरों का विरोध किया है –

  1. मनुष्य हिन्दू-मुसलमान आदि रूप में धार्मिक संकीर्णता रखता है, जबकि ये दोनों ईश्वर की समान रूप से सन्तान हैं।
  2. लोग सच्ची भक्ति न करके तपस्वी होने का अहंकार रखते हैं, इससे भक्ति की हानि होती है।
  3. माया-मोह, तृष्णा, विषय-सुख आदि में पड़कर भी व्यक्ति अनेक साधनों से भक्त होने का दिखावा करते हैं।
  4. आत्मज्ञानी न होकर कोरे हठयोग की साधना करते हैं।
  5. घट-घटवासी प्रभु को इधर-उधर खोजते हैं।

प्रश्न 16.
‘थल-थल में बसता है शिव ही,
भेद न कर क्या हिन्दू-मुसलमां।’
इससे कवयित्री ललद्यद ने क्या सन्देश दिया है?
उत्तर :
इससे कवयित्री ने सन्देश दिया है कि परमात्मा शिव है अर्थात् समस्त सृष्टि का कल्याणकारी है। वह परमात्मा प्रत्येक स्थान पर निवास करता है अर्थात् परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है,सबमें विद्यमान है। इसलिए निराकार परमात्मा को अपनाने में हिन्दू और मुसलमान को भेद-भाव नहीं करना चाहिए। इस तरह कवयित्री ने (1) ज्ञानी बनने का, (2) साम्प्रदायिक भेद-भाव न रखने का, (3) राम-रहीम में अभेद मानने का औ (4) ईश्वर की सर्वव्यापक सत्ता मानने का सन्देश दिया है।

कवयित्री के मन में बार बार हूक क्यों उठ रही है?

कवयित्री के मन में रह रह हूक इसलिए उठ रही है क्योंकि उनके मन में घर जाने की चाह है अर्थात् परमात्मा से मिलने की इच्छा है किंतु वह पूरी नहीं हो रही है।

वाख कविता के आधार पर माँझी और उतराई का प्रतीकार्थ क्या है?

उत्तर : कवयित्री ने अपने वाख में 'माँझी' और 'उतराई' शब्दों का प्रयोग किया है, जो क्रमशः प्रतीकार्थ है- उसका प्रभु तथा सद्कर्म और भक्ति। यह माँझी (कवयित्री का प्रभु) उसे भवसागर के पार ले जाता है तथा मोक्ष प्रदान करता है।

कवयित्री के मन में क्या हूक उठती है वाख के आधार पर बताइए?

उत्तर : कवयित्री ललद्यद के मन में ईश्वर-मिलन या ईश्वर-प्राप्ति की हूक उठती है।

कवयित्री ललद्यद ने वाख में क्या सुझाव दिया है?

मनुष्य को सांसारिक विषयों में न अधिक लिप्त रहना चाहिए और न इनसे विमुख होना चाहिए। उसे बीच का रास्ता अपनाकर संयमपूर्ण जीवन जीना चाहिए। मनुष्य को सभी प्राणियों को समान दृष्टि या समान भाव से देखना चाहिए। प्रभु की सच्ची भक्ति करनी चाहिए।