पर्यावरण और उसके घटक तथा विभिन्न पारिस्थितिकी अवधारणाओं के विषय में आपने पिछले पाठों में जानकारी प्राप्त की। साथ ही आपने प्राकृतिक पारितंत्र और मानव-निर्मित पारितंत्र का भी ज्ञान प्राप्त किया। मनुष्यों ने बिना सोच-विचार के अपनी आवश्यकताओं के अनुसार पारितंत्र में परिवर्तन कर लिये हैं। उनकी आवश्यकताओं ने, जो लालच से जुड़ी हुई हैं, पर्यावरण को बहुत हानि पहुँचाई है, जिसका प्रभाव भावी पीढ़ी पर अवश्य पड़ेगा। Show
कृषि, शहरीकरण और औद्योगीकरण के विस्तार के लिये भूमि की आवश्यकता हुई जिसकी आपूर्ति बड़े पैमाने पर वनों का उन्मूलन करके किया गया। वनों की कटाई ने विकसित और विकासशील देशों के परिदृश्य को बदल दिया, बहुत अधिक परिवर्तन आया जिसके परिणामस्वरूप पर्यावरण सम्बन्धी समस्याएँ पैदा हो गईं। इस पाठ में आप वनोन्मूलन, इसके कारण और पर्यावरण पर उसके प्रभाव के विषय में पढ़ेंगे। उद्देश्यइस पाठ के अध्ययन के समापन के पश्चात आपः - वनों को परिभाषित और पूरे संसार के वन्य-आवरण के सिकुड़ने को वर्णित कर पाएँगे; 9.1 वनवन हमारे पारितंत्र के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक संसाधन भी हैं। वनों का प्रबन्धन विवेकपूर्वक होना चाहिये न केवल इसलिये नहीं कि वे विभिन्न उत्पादों और उद्योगों के कच्चे माल के स्रोत हैं बल्कि इसलिये कि ये पर्यावरण के सुरक्षा कवच हैं और अनेक प्रकार की सेवाएँ भी प्रदान करते हैं। अनुमानतः पृथ्वी का एक तिहाई भाग वनों से ढका हुआ है। वनों में जंगली जीवों को पर्यावास मिलता है, इमारती लकड़ी, जलावन की लकड़ी (ईंधन) और अनेक औषधि आदि के ये स्रोत हैं, साथ ही वनों से पर्यावरण का सौन्दर्यीकरण भी होता है। अप्रत्यक्ष रूप से, जंगल मृदा अपरदन (भू-क्षरण) से जलागम (Watershed) की रक्षा करके, नदियों और जलाशयों को गाद से सुरक्षित रखकर तथा भूजल के स्तर को सुरक्षित रखकर मानव का बहुत हित करते हैं। कार्बन, जल, नाइट्रोजन और अन्य तत्वों के चक्र में वनों का महत्त्वपूर्ण हाथ है। वन क्या हैं? वन एक जटिल पारितंत्र है जिसमें मुख्य रूप से वृक्ष होते हैं जो असंख्य प्रकार के जीवों के जीवन को सहारा देते हैं। विशिष्ट पर्यावरण, जो अनेक प्रकार के जन्तुओं और पौधों का सहारा है, की संरचना में वृक्ष सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटक हैं। पेड़ जंगलों के प्रमुख निर्माता हैं जो वायु को शुद्ध और शीतल करते हैं और जलवायु को नियंत्रित रखते हैं। वनों को प्राकृतिक वन और मानव निर्मित वन में विभाजित किया जा सकता है। प्राकृतिक वन वे हैं जो स्थानीय वृक्षों के उगने से प्राकृतिक रूप से बन जाते हैं, मानव निर्मित जंगलों के लिये मानव वृक्षों को स्वयं रोपित करके तैयार करते हैं। जलवायु, मिट्टी का प्रकार, भौगोलिक स्थिति और समुद्र सतह से ऊँचाई जंगलों के विभिन्न प्रकार को निश्चित करने के मुख्य कारक हैं। जंगलों को उनकी प्रकृति और संरचना के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। जिस जलवायु में वे विकसित हैं और जैसा पर्यावरण उनके चारों ओर होता है उसी के अनुसार उनको वर्गीकृत कर दिया जाता है। भारतवर्ष में अनेक प्रकार के जंगल हैं। इनकी श्रेणी केरल और उत्तर-पूर्व के वर्षा वन से मैदानों के पर्णपाती वनाें जंगलों तक, पर्वतीय वनों से लद्दाख के अल्पाइन चारागाहों और राजस्थान के मरुस्थल तक हैं। 9.1.1 वनों के प्रकारआप इन वनों की विस्तृत जानकारी पिछले पाठ में प्राप्त कर चुके हैं। 9.1.2 वनों का महत्त्वइस ग्रह पर मानव का आरम्भिक जीवन वनों के निवासी की तरह ही शुरू हुआ था। आरम्भिक दिनों में मानव भोजन, कपड़े और आश्रय इन सभी आवश्यकताओं के लिये पूरी तरह से वनों पर ही निर्भर था। कृषि के विकास के बाद भी कुछ आवश्यकताओं के लिये मनुष्य वनों पर ही निर्भर था। जलाने के लिये लकड़ी और बहुत से काष्ठ उद्योग के लिये कच्चा माल वनों से ही प्राप्त होता था। भारतीय वन और भी कई छोटे उत्पादों जैसे सुगंधित तेल, औषधीय पौधे, रेजिन और तारपीन का तेल इत्यादि के स्रोत हैं। वन नवीनीकरण संसाधन है जो उत्पादों की एक विस्तृत किस्मों के उत्पादों को प्रदान करते हैं। वन मनुष्य की सौन्दर्य सम्बन्धी आवश्यकताओं को भी पूरा करते हैं और सभ्यता और संस्कृति के विकास के लिये प्रेरणास्रोत बने रहते हैं। वन अनेक प्रकार के पौधों, जानवरों और सूक्ष्मजीवों के लिये घर हैं। वर्षों से यह पादप जात और प्राणि जात को सुन्दर संसार प्रकृति का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। वन ही वन्य जीव जंतुओं और उनकी प्रजातियों के लिये पर्यावास और भोजन के साथ-साथ ही जलवायु के भीषण प्रकोप से उनकी रक्षा प्रदान करते हैं। पृथ्वी की जलवायु को नियमित करने के महत्त्वपूर्ण कार्य के अतिरिक्त वनों का जैविक महत्त्व जैसे आनुवंशिक विविधता भंडार के लिये भी महत्त्वपूर्ण हैं। वनों के बहुत से महत्त्वपूर्ण जीवनाधार कार्यों की सूची नीचे दी गई तालिका में दी जा रही है। लकड़ी (काष्ठ)भारत और अन्य उष्णकटिबंधीय देशों में मुख्य रूप से लकड़ी और अंतःकाष्ठ (heartwood) बहुतायत से पाया जाने वाला संसाधन है। पृथ्वी पर बनाये जाने वाले प्रकाश संश्लेषी पदार्थों के 25% के लिये लकड़ी काम आती है और कुल बायोमॉस का लगभग आधा वनों में उत्पन्न होता है। भारत के विभिन्न भागों में पेड़ों की बड़ी संख्या व्यावसायिक अतिदोहन का शिकार हो जाती है। लकड़ी पर आधारित उद्योगों में से कुछ हैं- प्लाईवुड निर्माण, दियासलाई, मानव निर्मित रेशे, फर्नीचर, खेल का सामान, आरा-मशीन, कागज और लुग्दी और पार्टिकल बोर्ड इत्यादि। औषधीय पौधेदुनिया भर में जितनी भी औषधियां बनाई जाती हैं उनमें 40% औषधियों के मुख्य तत्व पौधों और जन्तुओं से निकाले गये होते हैं। प्राकृतिक रूप से बनाई गई दवाइयों की दुनिया भर में 40 अरब रुपये की वार्षिक बिक्री होती है। उदाहरण के लिये मलेरिया के उपचार के लिये कुनैन का प्रयोग होता है (कुनैन के पेड़ से), पुराने हृदय रोग के लिये डिजिटेलिस का प्रयोग होता है (फॉक्सग्लाब के पेड़ से, सिनकोना) व मॉर्फिन और कोकीन का प्रयोग दर्दनिवारक के रूप में होता है, ल्यूकेमिया की दवाई विन्का रोजिया से, टैक्सॉल टैक्सस ब्रिविफोलिया से आदि और सैकड़ों जीवन रक्षक एंटीबायोटिक। अभी हाल के वर्षों में वैज्ञानिकों ने 5000 से अधिक प्रजाति के पुष्पित पौधों का विश्लेषण करके प्रमाणित किया है कि उनमें मूल्यवान औषधीय तत्व हैं।
पाठगत प्रश्न 9.11. औषधि के लिये प्रयुक्त होने वाले पेड़ों के नाम के साथ-साथ उनके वानस्पतिक नाम बताइये और यह भी बताइये कि वे किस रोग के लिये प्रयोग में लाये जाते हैं? 9.2 वनोन्मूलन (DEFORESTATION)वनोन्मूलन एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है जिनके अन्तर्गत पेड़ों की कटाई, जिसमें बार-बार की जाने वाली काट-छांट, पेड़ों का गिरना, जंगल के कूड़े-कर्कट की सफाई, मवेशियों का चरना, जंगल में घूमना और नये पौधों के साथ छेड़-छाड़ करना सब कुछ सम्मिलित है। इसको ऐसे भी परिभाषित किया जा सकता है कि जंगलों की हरियाली को इस हद तक हानि पहुँचाना कि उसका प्राकृतिक सौन्दर्य, फल-फूल आदि विकसित न हो सकें।
वनोन्मूलन वृक्षों के आवरण के नष्ट होने को संदर्भित करता है। एक ऐसी भूमि जिसे जंगल के स्थान पर खेती, चारागाह, रेगिस्तान और मनुष्य के आवास के लिये परिवर्तित कर दिया हो। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हमारे ग्रह की सतह (भूमि) पर लगभग 7.0 अरब हेक्टेयर भूमि पर वन थे और 1950 तक वन्यावरण घटकर 4.8 अरब रह गया है। अगर ऐसा ही रहा तो 2000 A.D तक वन घटकर 2.35 अरब ही रह जायेंगे। FAQ/UNEP की एक रिपोर्ट में उल्लिखित है कि प्रतिवर्ष 7.3 मिलियन हेक्टेयर उष्णकटिबंधीय वन समाप्त हो रहे हैं और प्रतिमिनट 14 हेक्टेयर नियंत्रित वन समाप्त हो रहे हैं। *4,482 वर्ग किमी अंड मैंग्रोव भी निहित (देश के भौगोलिक क्षेत्र का 0.14 प्रतिशत भाग)**छोटी झाड़ी के वन भी निहित 2001 के अनुसार वन्यावरण9.2.1 भारत में वन्य हानि का विस्तारभारत एक कृषि प्रधान देश है। देश धीरे-धीरे अपने वन्यावरण को खोता जा रहा है क्योंकि खेती के लिये, चारागाहों के लिये और चाय, कॉफी की फसलों को उगाने के लिये जंगलों को काटा जा रहा है। भारत के सामने वनोन्मूलन एक गम्भीर और पर्यावरण सम्बन्धी बड़ी समस्या है। सत्तर के दशक के प्रारम्भ में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार भारत में केवल 22.7% वन्यावरण थे जबकि ‘‘राष्ट्रीय वन पॉलिसी’’ के अनुसार 33% वन्यावरण वांछित है। स्वतंत्रता के कुछ ही समय के बाद सड़कों, नहरों और बस्तियों के लिये बड़े पैमाने पर वन्य-क्षेत्रों को काटा गया। वन्य संपदा के दोहन में वृद्धि हुई। 1950 में भारत सरकार ने प्रतिवर्ष वृक्षारोपण का उत्सव मनाना प्रारम्भ किया जिसे ‘वनमहोत्सव’ का नाम दिया गया। गुजरात राज्य में यह सर्वप्रथम प्रारम्भ हुआ। 1970 से भारतीय वनों और वन्य प्राणियों के संरक्षण को अधिक प्रोत्साहन मिला। भारत विश्व के उन देशों में से एक है जिन्होंने ‘सामाजिक वनविज्ञान’ कार्यक्रम का निरूपण किया जिसमें सड़क के किनारों पर, नहरों और रेल पटरियों के किनारों पर साधारण-वन क्षेत्रों (Non-forest) में वृक्षारोपण किया। 9.3 वनोन्मूलन के कारणवनोन्मूलन का सबसे सामान्य कारण जलाने के लिये, इमारती लकड़ी के लिये और कागज के लिये लकड़ी काटना है। दूसरा मुख्य कारण है खेती के लिये भूमि की आवश्यकता, इसमें फसलों और चारागाह ही जरूरतें भी निहित हैं। वनोन्मूलन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:- कृषि (1) कृषिवनोन्मूलन के प्रमुख कारणों में से एक कारण कृषि का विस्तृत होना है। मनुष्य ने प्राकृतिक पारितंत्रों को सदा ही इस प्रकार परिवर्तित किया है कि फसलों की वृद्धि के लिये वह अनुकूल हो जाए चाहे कृषि की पारम्परिक या आधुनिक कोई भी पद्धति अपनाई जाए। जैसे-जैसे कृषि उत्पादों की मांग बढ़ती गई अधिक से अधिक भूमि पर खेती शुरू होती गई और इसके लिये जंगलों को समाप्त करते चले गये। घास के हरे मैदान यहाँ तक कि दलदल और पानी के नीचे की भूमि को भी खेती के लिये प्रयोग में लाया जाने लगा। इस प्रकार उपज प्राप्ति से अधिक पारिस्थितिकीय विनाश ही ज्यादा हुआ। जंगलों की भूमि सफाई के बाद भी पोषक तत्वों के पूर्ण रूप से समाप्त होने के कारण लम्बे समय तक खेती के उपयोग में नहीं आ सकी। खेती के लिये अनुपयुक्त होने वाली भूमि को मृदा अपरदन और अपक्षीर्णन (पतन) उठाना पड़ता है। (2) स्थानांतरीय जुताईमानव इतिहास के आदि काल में शिकार और संग्रहण जीविका के मुख्य साधन थे। स्थानांतरणीय जुताई या झूम कृषि 12,000 वर्ष पुरानी विधि है जिसके कारण मानव सभ्यता ने भोजन संग्रह से भोजन उत्पादन की ओर कदम बढ़ाया। इसे खेती की स्लैश और बर्न विधि के नाम से भी जाना जाता है। इस विधि से खेती करने के लिये 5 लाख हेक्टेयर जंगलों को प्रतिवर्ष साफ कर दिया जाता है। इस प्रकार की खेती में औजारों का बहुत कम प्रयोग होता है और वह भी बहुत उच्च स्तर के यंत्र नहीं होते थे। परन्तु इस प्रकार की खेती ने वनों का विनाश सबसे अधिक किया है, क्योंकि दो तीन वर्षों की खेती के बाद उस भू-भाग को स्वाभाविक रूप से पुनः ठीक होने के लिये छोड़ दिया जाता था। इस प्रकार की खेती केवल स्थानीय जरूरतों को ही पूरा करती थी या खेती करने वाले गाँववालों की सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती थी। आज भी आसाम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा राज्यों और अंडमान निकोबार द्वीप समूह में ‘‘स्थानांतरीय खेती’’ की विधि प्रयोग की जाती है। (3) जलावन लकड़ी की मांगजलावन की लकड़ी (ईंधन) को खाना पकाने और गर्माहट आदि के लिये ऊर्जा के स्रोत की तरह प्रयोग किया जाता है। लगभग विश्व की कुल लकड़ी में से 44% लकड़ी संसार की ईंधन की आवश्यकता को पूरा करती है। नीचे दी गई तालिका पर दृष्टि डालने से पता चलेगा कि विकसित देशों में ईंधन की आवश्यकता का 16% जलावन लकड़ी से पूरा किया जाता है। भारतवर्ष में लगभग 135-170 मिलियन टन जलावन लकड़ी का प्रयोग होता है जिसके लिये 10-15 हेक्टेयर वन्यावरण को काटना पड़ता है तब शहर और गाँवों के गरीबों की ईंधन की आवश्यकता पूरी हो पाती है। (4) औद्योगिक और व्यावसायिक उपयोग के लिये लकड़ीलकड़ी, एक बहुपयोगी वन्य उत्पाद है, इसका उपयोग बहुत से औद्योगिक कार्यों जैसे लकड़ी की पेटियां, पैकिंग के बॉक्स, फर्नीचर, माचिस, लकड़ी के बक्से बनाने के लिये, कागज और लुग्दी के लिये तथा प्लाईवुड के लिये किया जाता है। विभिन्न औद्योगिक उपयोगों के लिये 1.24 लाख हेक्टेयर जंगल काट दिये जाते हैं। लकड़ी का अनियंत्रित दोहन और अन्य व्यावसायिक कार्यों के लिये लकड़ी के उत्पादों का प्रयोग जंगलों के घटने का मुख्य कारण है। लकड़ी की देश में वार्षिक खपत का 2% कागज उद्योग में लगता है। और इसकी 50% जरूरत बाँस की लकड़ी से पूरी होती है। इस कारण प्रायद्वीपीय भारत के अधिकतम भाग में बांस के भंडार में निरन्तर कमी आती है। उदाहरण के लिये हिमालय के क्षेत्र में सेबों की खेती के कारण देवदार अन्य प्रजाति के वृक्षों का बहुत विनाश हुआ है। सेबों के परिवहन के लिये लकड़ी के बक्से चाहिये। इसी प्रकार चाय और अन्य उत्पादों के परिवहन के लिये प्लाइवुड के पेटी (क्रेट) चाहिए। (5) शहरीकरण तथा विकास परियोजनाप्रायः विकासशील गतिविधियाँ वनोन्मूलन को साथ लाती हैं। आधारभूत ढाँचे के साथ ही वनों का उन्मूलन सड़कों, रेलवे लाइन, बांध-निर्माण, बस्तियां, बिजली आदि के लिये शुरू हो जाता है। तापीय शक्ति संयंत्र, कोयले, खनिज और कच्चे माल के लिये खनन आदि वनों के उन्मूलन के महत्त्वपूर्ण कारण हैं। आजकल आपने गढ़वाल हिमालय क्षेत्र में टिहरी शहर के टिहरी पावर परियोजना के विषय में अवश्य सुना होगा। यह 260.5 मीटर ऊँचा मिट्टी व चट्टानों से भरा बांध है। यह परियोजना भागीरथी और भीलगंगा के संगम पर धारा के साथ-साथ बहाव की ओर स्थित है। लगभग 4,600 हेक्टेयर के अच्छे वन यहाँ पानी के नीचे डूब गये हैं जिससे वन्यावरण को भारी नुकसान हुआ है। जंगल कभी-कभी प्राकृतिक आपदाओं के कारण भी नष्ट हो जाते हैं जैसे अतिचारण, बाढ़, जंगल की आग, बीमारी या दीमकों के आक्रमण से। 9.4 वन और आदिवासी समाजविश्व की 4% जनसंख्या विशेष भूभागों में निवास करती है। ये स्थानीय लोग या आदिवासी एक विशेष स्थान पर अपना अधिकार रखते हैं। विशेष स्थान के लिये उनके सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और आर्थिक बन्धन होते हैं और अधिकतर वे उस स्थान या क्षेत्र को रखते और उसके प्रबन्धन में स्वयं सक्षम होते हैं। इस तरह वे उस स्थान की जैवविविधता और स्थानीय संस्कृति का, ज्ञान का और संसाधनों के प्रबन्धन के कौशल की रक्षा और संरक्षण करते हैं। उदाहरण के लिये आदिवासियों को उन कृषि विधियों का ज्ञान है जो पारिस्थितिकी के अनुसार उपयुक्त है और वह ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी शताब्दियों से चला आ रहा है। वे जानते हैं कि किस प्रकार भिन्न प्रकार के भोजन और रेशा फसलों को एक साथ एक जमीन के टुकड़े पर उगाया जा सकता है जिससे वह जमीन कई वर्षों तक लगातार उपजाऊ बनी रहती है। फिर उस जमीन के टुकड़े को पुनः जंगल बनने के लिये कई वर्षों तक छोड़ दिया जाता है। कुछ वर्षों बाद फिर सफाई और खेती का नया चक्र प्रारम्भ होता है।
पाठगत प्रश्न 9.21. वनोन्मूलन के कारणों की सूची बनाइये। 9.5 वनोन्मूलन के परिणामवनोन्मूलन का प्रभाव पर्यावरण पर भौतिक और जैविक दोनों ही प्रकार से पड़ता है। - मृदा अपरदन और आकस्मिक बाढ़ें (1) मृदा अपरदन और आकस्मिक बाढेंघटते हुए वन्यावरण और भूजल के असीमित दुरुपयोग और शोषण ने निचले हिमालयों के ढलान अरावली की पहाड़ियों का क्षय (नाश) तीव्रता से कर दिया, जिससे वे भूस्खलन की ओर उन्मुख हो गये। वनों के विनाश ने वर्षा का ढंग भी बदल दिया। 1978 में भारत ने बहुत भयानक बाढ़ का सामना किया था। दो दिन की भीषण वर्षा ने 66,000 गाँवों को जलमग्न किया था, 2000 लोग डूब गये थे और 40,000 पशु बह गये थे। 2008 में बिहार राज्य की कोसी नदी में भयंकर बाढ़ आई। जिसमें बहुत सी जानें चली गई और बड़ी संख्या में जानवर बह गये। वन्यावरण के कम होने से पानी धरती के ऊपर-ऊपर बहता रहा जिसके साथ मिट्टी की ऊपरी सतह बहकर नदियों के तल में गाद की तरह बैठ गई। वन मिट्टी के अपरदन को, भू-स्खलन को रोकते हैं जिससे बाढ़ और सूखे की तीव्रता कम होती है।
(2) जलवायु परिवर्तनवन स्थानीय अवक्षेपण को बढ़ाते हैं और मिट्टी की पानी रोकने की शक्ति को समृद्ध बनाते हैं, जल-चक्र को नियंत्रित करते हैं। पेड़ों से जो पत्तियां या कूड़ा-करकट गिरता है उसकी सड़न से मिट्टी को पोषकता मिलती है और वह उर्वरक होती है। वन मृदा अपरदन, भूस्खलन को सीमित करते हैं और बाढ़ों और सूखे की तीव्रता को भी कम करते हैं। वन वन्यजीवों के निवास होते हैं इससे समाज का सौन्दर्य, पर्यटन और सांस्कृतिक मूल्य विकसित होता है। वनों का जलवायु पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जंगल वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को सोख लेते हैं और ऑक्सीजन (प्राणवायु) और कार्बन डाइऑक्साइड का अनुपात वातावरण में उचित मात्रा में रखते हैं। वनों के कारण ही हवा में, जिसमें हम सांस लेते हैं, ऑक्सीजन की मात्रा उचित बनी रहती है। वन, वातावरण में जल-नियमन (जल-चक्र) को नियंत्रित रखने का महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं जलवायु और वातावरणीय आर्द्रता को नियमित रखने में पर्यावरणीय सहयोगी का अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं। शताब्दी की एक महत्त्वपूर्ण समस्या वातावरण में उष्णता (ऊष्मा) का संचयन होना है जिसे शीशे की बनी पौधशाला का प्रभाव (ग्रीनहाउस प्रभाव, Green house effect) जाना जाता है। इस प्रभाव का मुख्य कारण वनोन्मूलन ही है। सम्पूर्ण हिमालय का पारितंत्र खतरे में है और असंतुलित होती जा रही है क्योंकि हिमरेखा पतली होती जा रही है और बारहमासी झरने भी सूखने लगे हैं। वार्षिक वर्षा भी 3 से 4% कम होने लगी है। दीर्घकालीन सूखा तमिलनाडू और हिमाचल प्रदेश जैसे क्षेत्रों में भी होने लगा जहाँ ये पहले जाने ही नहीं जाते थे। (3) जैवविविधताजीवन के प्रत्येक रूप को जैवविविधता कहा जाता है। जैवविविधता (Biodiversity जैविक विविधता) विविधता का माप है, इसमें सभी जीवित प्राणियों और वस्तुओं के प्रकारों का समावेश जैवविविधता में होता है। जैवविविधता को कई प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है जिसमें प्रजातियों में अनुवांशिक स्टेंनों (भिन्नताओं) की संख्या और क्षेत्र की विभिन्न पारिस्थितिकीय भिन्नताएं निहित हैं। किसी विशेष क्षेत्र में (स्थानीय विविधता) या किसी विशेष प्रकार के पर्यावास में (पर्यावास विविधता) या पूरे विश्व में (विश्वव्यापी विविधता) रहने वाली विभिन्न जाति प्रजातियों की संख्या को सामान्य रूप से जैवविविधता कहा जाता है। जैवविविधता स्थिर नहीं होती है। विकास के साथ-साथ समय परिवर्तन से कुछ नई प्रजाति जन्म ले लेती हैं और कुछ प्रजाति लुप्त हो जाती हैं। विश्वव्यापी स्तर पर हमारा ज्ञान अधूरा है, लगभग 1.4 मिलियन प्रजातियों को अभी तक पहचाना गया है। पृथ्वी पर रहने वाली विभिन्न प्रजाति अनुमानतः 10 और 100 मिलियन के बीच है। जैव-विविधता के संरक्षण के लिये बहुत सोच विचार और चिन्ता की जा रही है। आप पाठ 15 में विस्तार से जैव विविधता के संरक्षण के विषय में पढ़ेंगे। जैव विविधता के संरक्षण से एक बड़ा लाभ यह होगा कि मानव प्रयोग और कल्याण के लिये अनेक प्रकार के उत्पाद उपलब्ध होंगे। यह कृषि के लिये बहुत बड़ा सम्भावित स्रोत है। साथ ही कृषि और उद्योग के लिये भी उपयोगी स्रोत है। जैव विविधता में कमी आने के कुछ कारण इस प्रकार हैं:- शिकार, चोरी से शिकार और व्यावसायिक शोषण। ऊपर के सभी कारण जैवविविधता पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। 9.5.1 लुप्त प्रजातियाँप्रत्येक प्रजाति का चरम भाग्य यही है कि उसे लुप्त होना है परन्तु औद्योगिकीकरण के बाद इसकी गति तीव्रता से बढ़ी हैं। लुप्त प्रजातियाँ या तो चिड़ियाघर में देखने को मिलती हैं या केवल चित्रों में। लुप्त प्रजातियों का सबसे सामान्य उदाहरण है यात्री या डाकिया कबूतर (Passanger pigeon)। संभावित खतरे वाली प्रजातियाँकुछ पौधे और पशु प्रजातियाँ लुप्त होने के कगार पर हैं परन्तु इस बात को कितनी गंभीरता से लिया जाता है इसमें विभिन्न मत हैं। अन्तरराष्ट्रीय प्राकृतिक संरक्षक संघ (आईयूसीएन) ने संभावित खतरे वाली प्रजातियों को चार वर्गों में बांटा हैः (i) खतरे में (Endamgered)- खतरे में उस प्रजाति को माना जाता है जिसकी संख्या बहुत कम हो और उसके घर का भूभाग बहुत छोटा हो या दोनों भी हो सकते हैं। यदि इनको विशेष सुरक्षा नहीं दी गई तो ये लुप्त हो सकते हैं। उदाहरण के लिये शेर की सी दुम वाले बंदर (Lion tailed monkey) जो वर्षावनों और दक्षिणी भारत के शोलास (Sholas) में पाये जाते हैं। (ii) दुर्लभ (Rare)- ये वे प्रजातियाँ हैं जिनकी संख्या बहुत कम होती है और ये बहुत छोटे क्षेत्र या बहुत असामान्य वातावरण में रहते हैं कि ये बहुत शीघ्रता से गायब हो सकते हैं। ‘‘ग्रेट इंडियन बस्टर्ड’’ भारत में दुर्लभ प्रजाति का एक उदाहरण है। (iii) संख्या में कमी (Depleted)- ये वे प्रजातियाँ हैं जिनकी संख्या पहले से बहुत कम हो गई है और निरंतर घटती जा रही है। चिन्ता का विषय यह है कि संख्या का घटना जारी है। इन प्रजातियों के पशु और पौधे शीघ्र ही दुर्लभ या खतरे में जाने वाले वर्ग में पहुँच सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों में काश्मीर के बाजारों में तेंदुए (नियो फेलिये निबुलोस) का घना फर गैरकानूनी तौर पर बिकता रहा है। (iv) अनिश्चित (Indeterminate)- ऐसी प्रजातियाँ जो लुप्त होने के खतरे में हैं परन्तु उनके विषय में कुछ अधिकृत सूचना नहीं है उन्हें ‘‘अनिश्चित’’ वर्ग में रखते हैं। 1968 में हिम तेंदुए (लियो अनसिया) को अनिश्चित प्रजाति में घोषित किया था, परन्तु 1970 में उसे ‘‘खतरे में’’ वर्ग में रख दिया गया। आपको ज्ञात होगा कि हिम तेंदुए का शिकार उसके सुन्दर फर के लिये किया जाता है। 9.5.2 वन्य जीवन की हानिपिछले 2000 वर्षों में पृथ्वी से पशुओं की 600 प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं या लुप्त होने के कगार पर हैं। इसी प्रकार पौधों की 3000 प्रजातियों को संरक्षण की आवश्यकता है। हरियाली के आवरण के सिकुड़ने से पारितंत्र की स्थिरता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। गैरकानूनी ढंग से चोरी से शिकार वन्यजीवन की कमी का एक बड़ा कारण है। इस तरह से शिकार हुए जानवरों की सूची अनन्त है। पिछले कुछ वर्षों से अफ्रीका के जंगलों में 95 प्रतिशत काले गैंडे उसके सींग के लिये चोरी से मारे गये और अफ्रीका के जंगलों के एक तिहाई हाथी उनके दांत के लिये मार दिये गये। चमकीला सिंदूरी लम्बी पूंछ वाला तोता जो दक्षिणी अमेरिका में सामान्य रूप से पाया जाता था धीरे-धीरे मध्य अमेरिका के क्षेत्र में लुप्त ही हो गया है। चित्तीदार बिल्ली प्रजाति के कुछ पशु जैसे एक विशेष तेंदुआ (आस्लॉट) और जगुआर अपने फर की विशेष मांग के कारण लुप्त होने की कगार पर हैं। 9.5.3 भारत में वन्यजीवन की क्षतिभारत में प्रायः 45,000 प्रजातियाँ पौधों की और 75,000 प्रजातियाँ पशु-पक्षियों की पाई जाती हैं। पारितंत्र में स्थिरता रखने के लिये इस जैव-विविधता का संरक्षण अत्यंत आवश्यक है। वनोन्मूलन के साथ निर्जनता और रेगिस्तान के बढ़ने से पृथ्वी की प्राकृतिक सम्पदा बहुत हद तक नष्ट कर दी है। हाथी, शेर और चीते की संख्या में भारी कमी आई है। ‘‘चीता’’ तो लगभग लुप्त ही हो गया है। हाथी जो पूरे भारत में पाये जाते थे। अब आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र से गायब ही हो गये हैं। एशियाई बाघ जो पूरे एशिया में बहुत आम था। अब एशिया से गायब ही हो गया है केवल भारत के गीर जंगलों के कुछ सौ किलोमीटर में एशियाई बाघ रहते हैं। भारतवर्ष में पिछले 100 वर्षों में तीन स्तनपायी प्रजातियाँ और तीन पक्षियों की प्रजाति एकदम लुप्त हो चुकी है। अन्य 40 स्तनपायी प्रजाति, 20 पक्षियों की प्रजातियाँ और 12 प्रजाति रेंगनेवाले जंतुओं की सर्वाधिक खतरे की श्रेणी में हैं और इसका मुख्य कारण जंगलों का अतिदोहन है। पाठगत प्रश्न 9.31. भारत की खतरे में होने वाली एक प्रजाति का नाम बताइये। 9.6 मरुस्थलीकरण (DESERTIFICATION)मरुस्थलीकरण (निर्जनीकरण) क्या है? इसको इस तरह परिभाषित किया जा सकता है ‘‘किसी भूभाग की जैविक क्षमता का” ह्रास या विनाश इस तरह होना कि धीरे-धीरे उसमें निर्जनता और मरुस्थल जैसी स्थितियाँ बन जाए। शुष्क या अर्ध-शुष्कता वाले क्षेत्र जहाँ की जलवायु शुष्क है, वहाँ पुनर्स्थापन बहुत धीमा होता है। खनन और अतिचारण आदि निर्जनीकरण के दबाव में वृद्धि कर देते हैं। मरुस्थलीकरण एक सोचा-समझा व्याप्त होने वाला विषय है जो वृक्षों की अधिक कटाई होने के कारण होती है। इसके कारण मिट्टी की उर्वरता समाप्त होती है, हवा का वेग बढ़ जाता है, आर्द्रता का संरक्षण कम हो जाता है, और प्रभावित क्षेत्र में शुष्कता बढ़ जाती है और तापमान प्रचंड हो जाता है। जिन वनस्पतियों और पशुओं ने अत्यंत प्रतिकूल मौसम को अपना लिया है, उनको मरुथल से बहुत कम मदद मिलती है। यद्यपि निर्जनीकरण प्राकृतिक कारणों से भी संभव होता है, परन्तु मानव की दखलअंदाजी से पहले से ही शुष्क क्षेत्र और अधिक निर्जन और मरुथल होते गये। यह किसी भी जलवायु क्षेत्र या पारितंत्र में हो सकता है, जहाँ कहीं भी मनुष्य प्राकृतिक पारितंत्र से छेड़-छाड़ या उसका शोषण करेगा। अभी नये बने मरुथल निम्नलिखित मानव गतिविधियों के ही फलस्वरूप निर्मित हुए हैं: (i) चारागाहों का अनियंत्रित और अतिशोषण, पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और वन स्रोतों का बिना सोचे समझे दोहन निश्चिय ही सूखा, मृदा अपरदन और मिट्टी की उर्वर शक्ति को कम करने में, मुख्य कारण हैं और इस सबके परिणाम स्वरूप पेड़-पौधों का विकास धीमा हो जाता है। (ii) शुष्क और अर्ध शुष्क क्षेत्र में खनिज, कोयला, चूना पत्थर निकालने के लिये खनन करने से वृक्षों को और वन्यावरण को क्षति पहुँचती है और हरियाली को बढ़ाने में सहायक स्थितियों का पूर्ण विनाश हो जाता है। (iii) ऐसी भूमि पर खेती करने से जिसमें कोई लाभ नहीं है साथ वाली उपजाऊ भूमि मृदा अपरदन के कारण प्रभावित होती है। (iv) जलस्रोतों के अनार्थिक और अत्यधिक उपयोग से भूजलस्तर घटता जाता है, रिसाव बढ़ जाता है और मिट्टी में अत्यधिक खारापन आ जाता है। 9.6.1 मरुस्थलीकरण का विस्तारभारतवर्ष के कुल मरुस्थल में से 76.15% मनुष्य द्वारा निर्मित निर्जनीकरण की प्रक्रिया का परिणाम है। बाकी बचा 19.5% मध्यम या हल्के मरुस्थलीकरण (निर्जनीकरण) के कारण बना मरुथल है। यह क्षेत्र अरावली पहाड़ियों की निचली पहाड़ियों के समानान्तर पूर्वी राजस्थान में उत्तर पूर्व से दक्षिण पश्चिम के क्षेत्र में सीमित है। भारतवर्ष में अधिकतर रेगिस्तान राजस्थान और पश्चिमी गुजरात में हैं। यहाँ लगभग 23.8 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र मरुस्थलीकरण से प्रभावित है। इस क्षेत्र का लगभग 4.34% भाग राजस्थान के पश्चिम की अंतिम सीमा जैसलमेर जिले में फैला हुआ है। गंगानगर, चुरु, बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, जालौर, झुंझुनू और नागौर जिलों के क्षेत्र में यह मरुस्थल व्याप्त है। वायुक्षरण से रेत के टीलों का स्थानांतरण और रेत के आवरण के विस्तार से यहाँ निर्जनीकरण की प्रक्रिया सर्वाधिक है। प्राकृतिक मरुस्थलीकरणएशिया और पेसेफिक (प्रशांत) क्षेत्र के लगभग 4.361 लाख हेक्टेयर भूभाग प्राकृतिक निर्जनीकरण से प्रभावित है। इन क्षेत्रों को उपोष्ण (sub-tropical) शांत तटीय, रेन शैडो और आन्तरिक महाद्वीप मरुथल श्रेणी में विभक्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त दुनिया के ध्रुवीय क्षेत्र भी एक प्रकार के मरुथल ही हैं, जहाँ पर पानी तो बहुतायत में है पर जमी हुई बर्फ की स्थिति में होने के कारण पौधों और जन्तुओं को उपलब्ध नहीं होता। उत्तर-पश्चिमी एशिया क्षेत्र का गोगी मरुस्थल ठंडा मरुस्थल है। जम्मू कश्मीर का लद्दाख क्षेत्र 0.7 लाख वर्ग किमी क्षेत्र को घेरे हुए है और 11000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है जहाँ वर्ष के 5-6 महीने शीत दशायें अपनी चरम सीमा पर होती हैं। यह एक शीत मरुस्थल भी है। 9.6.2 थार मरुस्थल-एक वृत अध्ययन (Case study)थार मरुस्थल में जैविक विविधता देखने योग्य है क्योंकि ऐसा इसकी भौगोलिक स्थिति और विकासात्मक इतिहास के कारण है। यह उत्तर पश्चिमी भारत और पूर्वी पाकिस्तान में रेतीले मरुस्थल का एक विस्तृत क्षेत्र है। थार मरुथल लगभग 805 किमी लम्बा और 485 किमी चौड़ा है। वर्षा बहुत कम या यदा कदा होती है और वर्ष भर में 127 से 254 मिमी तक औसतन वर्षा होती होगी। तापमान जुलाई में सबसे उच्च 52.8°C हो जाता है। (i) पौधेपारिस्थितिकी के अनुसार थार मरुस्थल क्षेत्र में कंटीले वन होते हैं। परन्तु निरन्तर और तीव्र मानव गतिविधियों और छेड़-छाड़ के कारण वहाँ की प्राकृतिक हरियाली में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। कहना न होगा कि प्राकृतिक वनस्पति का ‘खेजरी’ वृक्ष के उत्पादन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इन पेड़ों का बहुत महत्त्व है और इनका रख-रखाव सोच समझ से होता है। यहाँ पौधों की 700 प्रजाति हैं जिसमें केवल घास की ही 107 प्रजातियाँ हैं। देश के इस भाग की प्राकृतिक वनस्पति की सबसे बड़ी मात्रा में क्षति पशुधन द्वारा अति चराई के कारण हुई है। मरुस्थल में पौधों का पुनः पनपना बहुत कठिन होता है। मानव गतिविधियाँ और मूलभूत संरचनात्मक तथ्य और हमारे समाज के भौतिक प्रक्रियाएँ ऐसी हैं जिनके कारण डाइनोसौर के अन्तिम दिन से आज तक सभी प्रजातियाँ अद्वितीय गति से गायब और नष्ट हो रही हैं। समय को व्यर्थ गंवाने का समय नहीं बचा है। हमें अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिये जैविक विविधता की रक्षा करनी ही होगी। (ii) पशुथार मरुथल लुभावना है। एशियाई बाघ कुछ समय पूर्व तक राजस्थान, पंजाब और सिंध के मैदानों में निवास करते थे। रेगिस्तान के अन्तिम बाघ का शिकार 1976 में हुआ, यह बात रिकॉर्ड में दर्ज है। भारत से लुप्त होने वाला चीता एक समय में कठियावाड़ क्षेत्र में पाया जाता था। इसी प्रकार तेंदुए, वनबिलाव, जंगली सुअर, जंगली गधा, एशियाई भेड़िया आदि सब का भी यही भाग्य हुआ। अन्य स्तनपायी जानवरों में भारतीय चिकारा, ब्लू नील बुल और काला खरगोश (ब्लेक बक) भी पशुओं की खतरे में आई प्रजाति वर्ग में आते हैं। अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में पाई जाने वाली पक्षियों की प्रजातियाँ भी बहुत कम रह गई हैं, विशेषकर पश्चिमी राजस्थान के रतीले निवासों में। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, हाउबरा और लैसर फ्रलोरिकन की संख्या भी थार रेगिस्तान में पिछले समय की तुलना में बहुत कम हो गई है। मोर (पी-फाउल) को राष्ट्रीय पक्षी होने के कारण लोग पूरी सुरक्षा देते हैं। सरीसृपों में से मगरमच्छ और कछुए, इन दो प्रजातियों को अरावली की निचली पहाड़ियों में सिरोही जिले के जवाई बांध में सीमित रह गए हैं। बड़े-बड़े स्थलीय सरीसृप (रेंगने वाले जानवर) जैसे रॉक पाइथन जो अरावली की निचली पहाड़ियों में पाये जाते थे। अब रेगिस्तान से लुप्त हो गये हैं। इस प्रकार यदि थार रेगिस्तान के इतिहास को देखें तो ज्ञात होता है कि पशुओं की एक बड़ी संख्या लुप्त होने के कगार पर है और कुछ लुप्त हो चुकी हैं। पाठगत प्रश्न 9.41. ‘‘मरुस्थलीकरण’’ क्या है? आपने क्या सीखा- वन जीवन और जीवों के लिये रीढ़ की हड्डी हैं। पृथ्वी पर जीवन उन्हीं के कारण संभव है। - वनों के तीन मुख्य कार्य हैं- (1) उत्पादन कार्य (2) सुरक्षात्मक कार्य (3) नियमित करने का कार्य - लकड़ी और कुछ विशेष प्रकार की वनस्पति जो औषधि के काम आती है वनों से ही मिलती है। - आदिवासी लोग भोजन के लिये पूर्णरूप से जंगलों पर ही निर्भर हैं। आश्रय और कपड़े के लिये भी वे जंगलों पर निर्भर हैं और बदले में वे वन-संरक्षण भी करते हैं। - स्थानांतरित पैदावार, लकड़ी की मांग कागज और लुग्दी के लिये, व्यावसायिक लकड़ी और जलावन के लिये और खनन प्रक्रियाओं के कारण जंगलों का विनाश होता है। - वनोन्मूलन के कारण मृदा अपरदन व बाढ़ें, जलवायु परिवर्तन और वन्य जीव की क्षति होती है। - वनोन्मूलन के समय जैवविविधता की सर्वाधिक क्षति होती है क्योंकि अनेक अपरिचित प्रजातियाँ हमारे ग्रह पृथ्वी से सदा के लिये समाप्त हो जाती हैं। - लुप्त प्रजातियाँ वे होती हैं जो बदलते पर्यावरण में जीवित नहीं रह सकतीं अतः समाप्त हो जाती हैं। - जो प्रजाति खतरे में है, उनका वातावरण यदि और अधिक विकृत हुआ तो वे भी लुप्त हो सकती हैं। जो प्रजातियाँ खतरे में हैं उनकी संख्या सीमित है और उनका निवास स्थान भी बहुत छोटा है अतः वातावरण में विकृति उनको लुप्त कर सकती है। - जिन प्रजातियों की संख्या में कमी आई है और निरन्तर आती जा रही है वे संख्या में कमी प्रजातिवर्ग में आती हैं। सूचना की कमी के कारण जिन प्रजातियों की स्थिति का ज्ञान नहीं है वे अनिश्चित वर्ग में आती हैं। - मरुस्थलीकरण एक प्राकृतिक प्रक्रिया है परन्तु मानव गतिविधियों के कारण उसमें तीव्रता आ जाती है। जैसे अतिचारण, पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, अत्यधिक खनन, कृषिभूमि का अनार्थिक उपयोग और जलस्रोतों का शोषण। - ‘वनोन्मूलन’ और मरुस्थलीकरण की समस्याएँ परस्पर गुंथी हुई हैं जिनका जन्म मानव गतिविधियों के कारण प्राकृतिक संसाधनों के अतिशोषण से हुआ है। यह पृथ्वी की ऐसी क्षति है जिसे सुधारना या ठीक करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। पाठांत प्रश्न1. वनों के कोई तीन कार्य लिखिये। कौन सा कार्य आपकी समझ से सबसे महत्त्वपूर्ण है और क्यों? 5. विभिन्न पुस्तकों और पत्रिकाओं के माध्यम से भारत में लुप्त हुए पशु और वनस्पतियों की सूची बनाइये। 6. ‘‘विकास परियोजनाओं से आदिवासी समाज को भारी क्षति पहुँची है’’। इस कथन पर अपने विचार दें। 7. ‘‘वनोन्मूलन का परिणाम मरुस्थलीकरण है।’’ व्याख्या कीजिए। 8. ‘‘मानव जीवन में वनों का महत्त्व’’ विषय का विस्तृत वर्णन लिखिये। अपने उत्तर में चित्रों का प्रयोग करें। पाठगत प्रश्नों के उत्तर9.11. पौधा औषधीय उपयोग 4. प्लाइवुड निर्माण, आरा मशीन, कागज और लुग्दी, संयोजित (कम्पोजिट) लकड़ी, दियासलाई, मानव निर्मित रेशे, खेल का सामान और पार्टिकल बोर्ड। 9.21. कृषि, स्थानान्तरीय खेती लकड़ी और जलावन की मांग, विकास परियोजनाओं के लिये भू-भाग और कच्चे माल की आवश्यकता। - वे एक साथ अनेक फसलें उगाते हैं
और कुछ वर्षों के बाद उस भूभाग का पुनः उद्धार और जंगल बनने के लिये छोड़ देते हैं। 5. 82% 9.31. शेर जैसी पूंछ वाला बंदर - असाधारण प्रजातियों का परिचय 9.41. भूमि की जैवीय क्षमता को क्षति पहुँचाने से मरुस्थल जैसी स्थिति पैदा हो जाती है। वनोन्मूलन के दुष्परिणाम क्या क्या है?वनों की कटाई के परिणाम:. भूजल में कमी. मिट्टी को गर्मी और बारिश के लिए उजागर करना. जैव विविधता के नुकसान. स्वदेशी समुदायों का विस्थापन. जलवायु परिवर्तन. आर्थिक नुकसान. भूस्खलन. वनोन्मूलन के क्या दुष्परिणाम हो रहे हैं आप अपने स्तर पर इस दुष्परिणाम से बचने के लिए क्या उपाय करेंगे?1) धरती पर वर्षा की कमी। वर्षा के लिए वृक्षों की भूमिका सबसे अहम मानी जाती है और जैसे-जैसे वृक्ष कम होते जा रहे हैं वर्षा भी कम हो रही है। 2) भू स्खलन भी एक दुष्प्रभाव है जो पहाड़ी क्षेत्रों में अधिक देखने को मिलता है। वृक्ष ज़मीन को अपनी जड़ों से पकड़े रहते हैं परंतु इनकी कमी से ज़मीन ढीली हो जाती है।
वनोन्मूलन कैसे होता है कोई तीन कारण बताइए?वनोन्मूलन एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है जिनके अन्तर्गत पेड़ों की कटाई, जिसमें बार बार की जाने वाली काट-छांट, पेड़ों का गिरना, जंगल के कूड़े-कर्कट की सफाई, मवेशियों का चरना, जंगल में घूमना और नये पौधों के साथ छेड़छाड़ करना सब कुछ सम्मिलित है।
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