विद्यापति के काव्य पर किसका प्रभाव था? - vidyaapati ke kaavy par kisaka prabhaav tha?

फलस्वरूप बंगीय पदों में विद्यापति के काव्य-कौशल का वर्चस्व स्थापित हो गया। जब स्थान-निर्धारण की बात चली तो आनन-फानन बंगदेशीय बिस्फी राजा शिवसिंह और रानी लखिमा तलाश ली गईं और विद्यापति को बंगला का कवि प्रमाणित किया जाने लगा। अनुमान किया जा सकता हे कि बंगला ओर मेथिली की लिपियों में कुछ हद तक साम्य होना भी इसमें सहायक हुआ होगा। पर महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री, जस्टिस शारदाचरन मित्र, नगेंद्र नाथ गुप्त जैसे बंगीय विद्वानों ने अपनी भागीदारी से यह विवाद समाप्त कर दिया तथा इन्होंने स्पष्ट कहा कि विद्यापति मिथिला-निवासी थे। 


इस विषय पर सर्वप्रथम डॉ. ग्रियर्स न ने चर्चा शुरू की, और व्यवस्थित तर्क के साथ विद्यापति का बिहारवासी होना प्रमाणित किया।

उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा महामहोपाध्याय हरि मिश्र से हासिल की। 

विद्यापति की प्रमुख रचनाएँ

उनकी प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ हैं- 

  1. कीर्तिलता
  2. कीर्तिपताका
  3. भूपरिक्रमा
  4. पुरुष परीक्षा
  5. लिखनावली
  6. गोरक्ष विजय
  7. मणिमंजरी नाटिका
  8.  पदावली
  9. शैवसर्वस्वसार
  10. शैवसर्वस्वसार.प्रमाणभूत संग्रह’
  11. गंगावाक्यावली
  12. विभागसार
  13. दानवाक्यावली
  14. दुर्गाभक्तितरंगिणी
  15. वर्षकृत्य
  16. गयापत्तालक’। 

इन सब में सर्वाधिक लोकप्रिय रचना उनकी ‘पदावली’ मानी गई। 

विद्यापति के काव्य में शृंगार

विद्यापति की ‘पदावली’ के पद दो तरह के हैं- शृंगारिक पद और भक्ति पद। इसके अलावा कुछ ऐसे पद भी हैं, जिनमें प्रकृति, समाज, नीति, संगीत आदि जीवन.मूल्यों को रेखांकित किया गया हे। शृंगारिक पदों में वयःसंधि, नायिका.भेद, नख-शिख वर्णन, मिलन-अभिसार, मान-मन ुहार, संयोग-वियोग, विरह-प्रवास आदि का विलक्षण चित्र उकेरा गया है। ऐसे पदों की संख्या साढ ़े सात सौ से अधिक है। 


उल्लेखनीय है कि अपने प्रिय सखा राजा शिवसिंह के तिरोधान (1406 इ .) के बाद से विद्यापति ने कोई शृंगारिक पद नहीं रचा; बाद के समय की उनकी सारी ही रचनाएं भक्ति-प्रधान पद हैं, या फिर नीति, शास्त्र, धर्म , आचार से संबंधित विचार। 


भक्ति-प्रधान पदों की संख्या लगभग अस्सी हैं; जिसमें शिव-पार्वती लीला, नचारी, राम-वंदना, कृष्ण-वंदना, दुर्गा, काली, भैरवि, भवानी, जानकी, गंगा वंदना आदि शामिल हैं। शेष पदों में ऋतु-वर्णन, बेमेल विवाह, सामाजिक जीवन-प्रसंग, रीति-नीति-संभाषण-शिक्षा आदि रेखांकित है।

उनके शृंगारिक पदों के प्रेम और सौंदर्य-विवेचन के आधार राधा-कृष्ण विषयक पद हैं। गौरतलब है कि पूरे भारतीय वाङ्मय में राधा-कृष्ण की उपस्थिति पौराणिक गरिमा और विष्णु के अवतार- कृष्ण की अलौकिक शक्ति एवं लीला के साथ है। पर, विद्यापति के राधा-कृष्ण-अलौकिक नहीं हें, पूरी तरह लौकिक हैं, उनके प्रेम-व्यापार के सारे प्रसंग सामान्य नागरिक की तरह हैं। पूरी ‘पदावली’ में प्रेम और सौंदर्य वर्ण न के किसी बिंदु पर वे आत्मलीन नहीं दिखाई देते। हर पद में रसज्ञ और रसभोक्ता के रूप में किसी न किसी राजा, सुलतान की दुहाई देते हैं; या नायक-नायिका को प्रबोधन-उपदेश देते हैं। पूरी ‘पदावली’ में प्रेम-व्यापार के हर उपक्रम- विभाव, अनुभाव, दर्शन, श्रवण, अन ुरक्ति, संभाषण, स्मरण, अभिसार, विरह, वेदना, मिलन, उल्लास, सुरति.चर्चा, सुरति.बाधा, आशा-निराशा या फिर सौंदर्य वर्णन के हर स्वरूप- नायिका भेद, वयःसंधि, सद्यःस्नाता, कामदग्धा, नवयौवना, प्रगल्भा, आरूढ़ा, स्वकीया, परकीया आदि को रेखांकित करते हुए विद्यापति सतत तटस्थ ही देखते हें। 


पूरी ‘पदावली’ में विद्यापति भगवद ्गीतोपदेश के कृष्ण की तरह लिप्त होकर भी निर्लिप्त प्रतीत होते हैं। हर समय वे अपने नायक-नायिका के मनोभावों को रेखांकित कर एक संदेश देते हुए देखते हें।

जीवन में सौंदर्य और प्रेम के शिखरस्थ स्वरूप को रेखांकित करते हुए वे सभी पदों में जीवनमूल्य का संदेश देते प्रतीत होते हैं। नागरिक मन से हताशा मिटाने और राजाओं, सुलतानों केंदय में मानवीय कोमलता भरने का इससे बेहतर उपाय संभवतः उस दौर में और कुछ नहीं हो सकता था। इसलिए विद्यापति रचित ‘पदावली’ के अन ुशीलन की पद्धति उसमें चित्रित प्रेम.प्रसंग और सोंदर्य-निरूपण में कामुकता से परांग्म ुख होकर जीवन-मूल्य की तलाश होनी चाहिए। आम नागरिक की तरह उनकी नायिका विरह में व्यथित.व्याकुल होती है और नायक का स्मरण करती है, उन्हें पाने का उद्यम करती है, किसी तरह की अलौकिकता उनके प्रेम को छूती तक नहीं। उन्हें चंदन-लेप भी विष-बाण की तरह दाहक लगता हे, गहने बोझ लगते हैं, सपने में भी कृष्ण दर्शन नहीं देते, उन्हें अपने जीने की स्थिति शेष नहीं दीखती। 


अंत में कवि नायिका को गुणवती बताकर मिलन की सांत्वना के साथ प्रबोधन देते हैं। मिलन की स्थिति में प्रेमातुर नायिका सभी प्रकार से सुखानुभव लेती हे। भावोल्लास से भरी नायिका अपने प्रियतम की उपस्थ्तिि का सुख अलग.अलग इंद्रियों से प्राप्त कर रही है- रूप निहारती है, बोल सुनती हे, वसंत की मादक गंध पाती है, यत्नपूर्वक क्रीड़ा.सुख में लीन होती है, रसिकजन के रसभोग का अनुमान करती है। जाहिर हे कि योजनाबद्ध ढंग से अपनी रचनाशीलता में आगे बढ रहे कवि को अपने उद्देश्य की पप्ति हेतु विलक्षण रूप से संपन्न भाषा के साथ-साथ अभिव्यक्ति के सभी अवयवों पर पूर्ण अधिकार था।

विद्यापति की भाषा और काव्य सौंदर्य 

‘पदावली’ की भाषा मैथिली है, जबकि अन्य रचनाओं की भाषा संस्कृत एवं अवहटठ। पदों का संकलन तीन भिन्न.भिन्न भाषिक समाज- मिथिला, बंगाल और नेपाल के लिखित एवं मौखिक स्रोतों  से हुआ है। भाषिक संरचना के गुणसूत्रों से परिचित सभी लोग इस बात से सहमत होंगे कि रचनाकार से मुक्त हुई गेयधर्मी रचना लोक-कंठ में वास करती हुई अनचाहे में भी कुछ न कुछ अपने मूल स्वरूप से भिन्न हो जाती है और फिर संकलक तक आते-आते उसमें स्थानीयता के कई अपरिहार्य रंग चढ जाते हैं। लोक-कंठ से संकलित सामग्री का तो यह अनिवार्य विधान है! विद्यापति ‘पदावली’ इसका अपवाद नहीं है। 


चौदहवीं से बीसवीं शताब्दी तक के छह सौ वर्षों की यात्रा में इन पदों में कब, कहाँ ओर किनके कौशल से क्या जुड़ा, क्या छूटा, यह जान पाना मुश्किल है। इसके अलावा एक तथ्य यह भी है कि इन पदों के प्रारंभिक संकलनकर्ताओं की मातृभाषा मैथिली नहीं थी। इसलिए ध्वनियों, शब्दों, पदों और संदर्भ-संकेतों को लिखित रूप में व्यक्त करते हुए निश्चय ही परिवर्तन आ गया होगा। पर यह तथ्य है कि विद्यापति के जीते जी ‘पदावली’ की पंक्तियाँ मुहावरों और कहावतों की श्रेणी पा गई थीं। जीवनोपयोगी विषय एवं सांगीतिकता के अलावा ‘पदावली’ की इस लोकप्रियता में लोक-रंजक भाषा की उल्लेखनीय भूमिका है। इनके एक-एक पद कई-कई रागों में गाए जाते हैं। 


विद्यापति के सभी पद मात्रिक सम छंद में रचित हैं। अधिकांश पदों की रचना एक ही छंद में हुई हे; पर कई पदों में मिश्रित छंद का भी उपयोग हुआ है; अर्थात दो.तीन या अधिक छंदों के चरणों का मेल किया गया है। लगभग सत्रह छंद- अहीर, लीला, महानुभाव, चंडिरका, हाकलि, चौपई, चौपाई, चैबोला, पद्धरि, सुखदा, उल्लास, रूपमाला, नाग, सरसी, सार, मरहठामाधवी, झूलना आदि का स्वतंत्र प्रयोग; और अखंड, निधि, शशिवदना, मनोरम, कज्जल, रजनी, गीता, गीतिका, विष्णुपद, हरिगीतिका, ताटंक, वीरछंद, समानसवैया जैसे छंदों के चरणों को अन्य छंदों में जोड़कर किया गया है। 


उल्लेख मिलता हे कि उल्लास, नाग, रंजनी, गीता छंद के निर्माता विद्यापति ही हैं; क्योंकि उनसे पूर्व के किसी रचनाकार के यहाँ ये चारों छंद नहीं देखते।

विद्यापति के काव्य पर किसका प्रभाव है?

विद्यापति के पदों में मधुरता और योग्यता का गुण अद्वितीय है। अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने उनके काव्य की प्रशंसा करते हुए लिखा है- "गीत गोविन्द के रचनाकार जयदेव की मधुर पदावली पढ़कर जैसा अनुभव होता है, वैसा ही विद्यापति की पदावली पढ़ कर। अपनी कोकिल कंठता के कारण ही उन्हें 'मैथिल कोकिल' कहा जाता है।"

विद्यापति की काव्यगत विशेषता क्या है?

विद्यापति के काव्य की एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि कहीं-कहीं उनकी कविताओं के बीच में गद्य के दर्शन भी होते हैं। कीर्तिलता ऐसा ही रचना है। इसे वर्णन की दृष्टि से देखें तो विद्यापति का काव्य वीर,शृंगार व भक्ति का अद्भुत समन्वय है। कीर्तिलता वीर रस प्रधान रचना है, वहीं पदावलीशृंगार व भक्ति का मिश्रण है।

विद्यापति कैसे कवि हैं किस प्रकार के कवि हैं?

“गीत गोविंद के रचनाकार जयदेव की मधुर पदावली पढ़कर जैसा अनुभव होता है, वैसा ही विद्यापति की पदावली पढ़कर।” विद्यापति दरबारी कवि थे और उनके प्रत्येक पद पर उनका दरबारी रूप हावी है। विद्यापति की कविता श्रृंगार व विलास के रूप में है और मूलतः श्रृंगार रस का प्रयोग किया है।

विद्यापति के काव्य की सबसे बड़ी प्रेरणा क्या है?

'प्रेम' विद्यापति के काव्य की सबसे बड़ी प्रेरणा है।