भारत में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था कौन सी है? - bhaarat mein mahilaon ke lie aarakshan kee vyavastha kaun see hai?

सरकारी सेवाओं और संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं रखने वाले पिछड़े समुदायों तथा अनुसूचित जातियों और जनजातियों से सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने अब भारतीय कानून के जरिये सरकारी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों की इकाइयों और धार्मिक/भाषाई अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों को छोड़कर सभी सार्वजनिक तथा निजी शैक्षिक संस्थानों में पदों तथा सीटों के प्रतिशत को आरक्षित करने की कोटा प्रणाली प्रदान की है। भारत के संसद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व के लिए भी आरक्षण नीति को विस्तारित किया गया है। भारत की केन्द्र सरकार ने उच्च शिक्षा में 27% आरक्षण दे रखा है[1] और विभिन्न राज्य आरक्षणों में वृद्धि के लिए कानून बना सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय[2] के फैसले के अनुसार 50% से अधिक आरक्षण नहीं किया जा सकता, लेकिन राजस्थान जैसे कुछ राज्यों ने 68% आरक्षण का प्रस्ताव रखा है, जिसमें अगड़ी जातियों के लिए 14% आरक्षण भी शामिल है।[3]

आम आबादी में उनकी संख्या के अनुपात के आधार पर उनके बहुत ही कम प्रतिनिधित्व को देखते हुए शैक्षणिक परिसरों और कार्यस्थलों में सामाजिक विविधता को बढ़ाने के लिए कुछ अभिज्ञेय समूहों के लिए प्रवेश मानदण्ड को नीचे किया गया है। कम-प्रतिनिधित्व समूहों की पहचान के लिए सबसे पुराना मानदण्ड जाति है। भारत सरकार द्वारा प्रायोजित राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार, हालाँकि कम-प्रतिनिधित्व के अन्य अभिज्ञेय मानदण्ड भी हैं; जैसे कि लिंग (महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है), अधिवास के राज्य (उत्तर पूर्व राज्य, जैसे कि बिहार और उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व कम है), ग्रामीण जनता आदि।

मूलभूत सिद्धान्त यह है कि अभिज्ञेय समूहों का कम-प्रतिनिधित्व भारतीय जाति व्यवस्था की विरासत है। भारत की स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत के संविधान ने पहले के कुछ समूहों को अनुसूचित जाति (अजा) और अनुसूचित जनजाति (अजजा) के रूप में सूचीबद्ध किया। संविधान निर्माताओं का मानना था कि जाति व्यवस्था के कारण अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ऐतिहासिक रूप से पिछड़े रहे और उन्हें भारतीय समाज में सम्मान तथा समान अवसर नहीं दिया गया और इसीलिए राष्ट्र-निर्माण की गतिविधियों में उनकी हिस्सेदारी कम रही। संविधान ने सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की खाली सीटों तथा सरकारी/सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में अजा और अजजा के लिए 15% और 7.5% का आरक्षण था।बाद में, अन्य वर्गों के लिए भी आरक्षण शुरू किया गया। 50% से अधिक का आरक्षण नहीं हो सकता, सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से (जिसका मानना है कि इससे समान अभिगम की संविधान की गारण्टी का उल्लंघन होगा) आरक्षण की अधिकतम सीमा तय हो गयी। हालाँकि, राज्य कानूनों ने इस 50% की सीमा को पार कर लिया है और सर्वोच्च न्यायलय में इन पर मुकदमे चल रहे हैं। उदाहरण के लिए जाति-आधारित आरक्षण भाग 69% है और तमिलनाडु की करीब 87% जनसंख्या पर यह लागू होता है (नीचे तमिलनाडु अनुभाग देखें)।

विन्ध्य के दक्षिण में प्रेसीडेंसी क्षेत्रों और रियासतों के एक बड़े क्षेत्र में पिछड़े वर्गो (बीसी) के लिए आजादी से बहुत पहले आरक्षण की शुरुआत हुई थी। महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज ने 1902 में पिछड़े वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उन्हें उनकी हिस्सेदारी देने के लिए आरक्षण का प्रारम्भ किया था। कोल्हापुर राज्य में पिछड़े वर्गों/समुदायों को नौकरियों में आरक्षण देने के लिए 1902 की अधिसूचना जारी की गयी थी। यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश है।

देश भर में समान रूप से अस्पृश्यता की अवधारणा का अभ्यास नहीं हुआ करता था, इसलिए दलित वर्गों की पहचान कोई आसान काम नहीं है। इसके अलावा, अलगाव और अस्पृश्यता की प्रथा भारत के दक्षिणी भागों में अधिक प्रचलित रही और उत्तरी भारत में अधिक फैली हुई थी। एक अतिरिक्त जटिलता यह है कि कुछ जातियाँ/समुदाय जो एक प्रान्त में अछूत माने जाते हैं लेकिन अन्य प्रान्तों में नहीं। परम्परागत व्यवसायों के आधार पर कुछ जातियों को हिन्दू और गैर-हिन्दू दोनों समुदायों में स्थान प्राप्त है। जातियों के सूचीकरण का एक लम्बा इतिहास है, मनु के साथ हमारे इतिहास के प्रारम्भिक काल से जिसकी शुरुआत होती है। मध्ययुगीन वृतान्तों में देश के विभिन्न भागों में स्थित समुदायों के विवरण शामिल हैं। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान, 1806 के बाद व्यापक पैमाने पर सूचीकरण का काम किया गया था। 1881 से 1931 के बीच जनगणना के समय इस प्रक्रिया में तेजी आई.

पिछड़े वर्गों का आन्दोलन भी सबसे पहले दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु में जोर पकड़ा। देश के कुछ समाज सुधारकों के सतत प्रयासों से अगड़े वर्ग द्वारा अपने और अछूतों के बीच बनायी गयी दीवार पूरी तरह से ढह गयी; उन सुधारकों में शामिल हैं रेत्तामलई श्रीनिवास पेरियार, अयोथीदास पणृडितर www.paraiyar.webs.com, ज्योतिबा फुले, बाबा साहेब अम्बेडकर, छत्रपति साहूजी महाराज और अन्य।

जाति व्यवस्था नामक सामाजिक वर्गीकरण के एक रूप के सदियों से चले आ रहे अभ्यास के परिणामस्वरूप भारत अनेक अन्तर्विवाही समूहों, या जातियों और उपजातियों में विभाजित है। आरक्षण नीति के समर्थकों का कहना है कि परम्परागत रूप से चली आ रही जाति व्यवस्था में निचली जातियों के लिए घोर उत्पीड़न और अलगाव है और शिक्षा समेत उनकी विभिन्न तरह की आजादी सीमित है। "मनु स्मृति" जैसे प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार जाति एक "वर्णाश्रम धर्म" है, जिसका अर्थ हुआ "वर्ग या उपजीविका के अनुसार पदों का दिया जाना". वर्णाश्रम (वर्ण + आश्रम) के "वर्ण" शब्द के समानार्थक शब्द 'रंग' से भ्रमित नहीं होना चाहिए। भारत में जाति प्रथा ने इस नियम का पालन किया।

    • 1882 - हण्टर आयोग की नियुक्ति हुई। महात्मा ज्योतिराव फुले ने नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियों में सभी के लिए आनुपातिक आरक्षण/प्रतिनिधित्व की माँग की।
    • 1891- त्रावणकोर के सामन्ती रियासत में 1891 के आरम्भ में सार्वजनिक सेवा में योग्य मूल निवासियों की अनदेखी करके विदेशियों को भर्ती करने के खिलाफ प्रदर्शन के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए माँग की गयी।
    • 1901- महाराष्ट्र के सामन्ती रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज द्वारा आरक्षण शुरू किया गया। सामन्ती बड़ौदा और मैसूर की रियासतों में आरक्षण पहले से लागू थे।
    • 1908- अंग्रेजों द्वारा बहुत सारी जातियों और समुदायों के पक्ष में, प्रशासन में जिनका थोड़ा-बहुत हिस्सा था, के लिए आरक्षण शुरू किया गया।
    • 1909 - भारत सरकार अधिनियम 1909 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
    • 1919- मोंटागु-चेम्सफोर्ड सुधारों को शुरु किया गया।
    • 1919 - भारत सरकार अधिनियम 1919 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
    • 1921 - मद्रास प्रेसीडेंसी ने जातिगत सरकारी आज्ञापत्र जारी किया, जिसमें गैर-ब्राह्मणों के लिए 44 प्रतिशत, ब्राह्मणों के लिए 16 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए 16 प्रतिशत, भारतीय-एंग्लो/ईसाइयों के लिए 16 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के लिए आठ प्रतिशत आरक्षण दिया गया था।
    • 1935 - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने प्रस्ताव पास किया, जो पूना समझौता कहलाता है, जिसमें दलित वर्ग के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए।
    • 1935- भारत सरकार अधिनियम 1935 में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
    • 1942 - बी आर अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों की उन्नति के समर्थन के लिए अखिल भारतीय दलित वर्ग महासंघ की स्थापना की। उन्होंने सरकारी सेवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण की मांग की।
    • 1946 - 1946 भारत में कैबिनेट मिशन अन्य कई सिफारिशों के साथ आनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया।
    • 1947 में भारत ने स्वतन्त्रता प्राप्त की। डॉ॰ अम्बेडकर को संविधान भारतीय के लिए मसौदा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। भारतीय संविधान ने केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है।[4] बल्कि सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछले वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएँ रखी गयी हैं।[4] 10 सालों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किए गए हैं। (हर दस साल के बाद सांविधानिक संशोधन के जरिए इन्हें बढ़ा दिया जाता है).
    • 1947-1950 - संविधान सभा में बहस.
    • 26/01/1950- भारत का संविधान लागू हुआ।
    • 1953 - सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग को स्थापित किया गया। जहां तक अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का सम्बन्ध है रिपोर्ट को स्वीकार किया गया। अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी (OBC)) वर्ग के लिए की गयी सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया गया।
    • 1956- काका कालेलकर की रिपोर्ट के अनुसार अनुसूचियों में संशोधन किया गया।
    • 1976- अनुसूचियों में संशोधन किया गया।
    • 1979 - सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग को स्थापित किया गया।[5] आयोग के पास उपजाति, जो अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी (OBC)) कहलाती है, का कोई सटीक आँकड़ा था और ओबीसी की 52% आबादी का मूल्यांकन करने के लिए 1930 की जनगणना के आँकड़े का इस्तेमाल करते हुए[6] पिछड़े वर्ग के रूप में 1,257 समुदायों का वर्गीकरण किया।[6]
    • 1980 - आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की और मौजूदा कोटा में बदलाव करते हुए 22% से 49.5% वृद्धि करने की सिफारिश की[5].2006 के अनुसार  पिछड़ी जातियों की सूची में जातियों की संख्या 3743 तक पहुँच गयी, जो मण्डल आयोग द्वारा तैयार समुदाय सूची में 60% की वृद्धि है।
    • 1990 मण्डल आयोग की सिफारिशें विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया। छात्र संगठनों ने राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन शुरू किया। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह की कोशिश की। कई छात्रों ने इसका अनुसरण किया।
    • 1991- नरसिम्हा राव सरकार ने अलग से अगड़ी जातियों में गरीबों के लिए 10% आरक्षण शुरू किया।
    • 1992- इन्दिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उपजाति के लिए आरक्षण को सही ठहराया। आरक्षण और न्यायपालिका अनुभाग भी देखें।
    • 1995- संसद ने 77वें सांविधानिक संशोधन द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की पदोन्नति आरक्षण का समर्थन करते हुए अनुच्छेद 16(4A) जोड़ा। बाद में आगे भी 85वें संशोधन द्वारा इसमे अनुवर्ती वरिष्ठता को शामिल किया गया था। जो ज्येष्ठता का नियम पर आधारित होगा।
    • 1998- केन्द्र सरकार ने विभिन्न सामाजिक समुदायों की आर्थिक और शैक्षिक स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए पहली बार राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण किया। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण का आँकड़ा 32% है [1]. जनगणना के आँकड़ों के साथ समझौतावादी पक्षपातपूर्ण राजनीति के कारण अन्य पिछड़े वर्ग की सटीक संख्या को लेकर भारत में काफी बहस चलती रहती है। आमतौर पर इसे आकार में बड़े होने का अनुमान लगाया गया है, लेकिन यह या तो मण्डल आयोग द्वारा या और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा दिए गए आँकड़े से कम है।[2] मण्डल आयोग ने आँकड़े में जोड़-तोड़ करने की आलोचना की है। राष्ट्रीय सर्वेक्षण ने संकेत दिया कि बहुत सारे क्षेत्रों में ओबीसी (OBC) की स्थिति की तुलना अगड़ी जाति से की जा सकती है।[3]
    • 12 अगस्त 2005- उच्चतम न्यायालय ने पी. ए. इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य के मामले में 12 अगस्त 2005 को 7 जजों द्वारा सर्वसम्मति से फैसला सुनाते हुए घोषित किया कि राज्य पेशेवर कॉलेजों समेत सहायता प्राप्त कॉलेजों में अपनी आरक्षण नीति को अल्पसंख्यक और गैर-अल्पसंख्यक पर नहीं थोप सकता हैं।
    • 2005- निजी शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए आरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए 93वां सांविधानिक संशोधन लाया गया। इसने अगस्त 2005 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को प्रभावी रूप से उलट दिया।
    • 2006- सर्वोच्च न्यायालय के सांविधानिक पीठ में एम. नागराज और अन्य बनाम यूनियन बैंक और अन्य के मामले में सांविधानिक वैधता की धारा 16(4) (ए), 16(4) (बी) और धारा 335 के प्रावधान को सही ठहराया गया।
    • 2006- से केन्द्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण शुरू हुआ।।कुल आरक्षण 49.5% तक चला गया। हाल के विकास भी देखें।
    • 2007- केन्द्रीय सरकार के शैक्षिक संस्थानों में ओबीसी (OBC) आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगन दे दिया।
    • 2008-भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 10 अप्रैल 2008 को सरकारी धन से पोषित संस्थानों में 27% ओबीसी (OBC) कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया। न्यायालय ने स्पष्ट रूप से अपनी पूर्व स्थिति को दोहराते हुए कहा कि "मलाईदार परत" को आरक्षण नीति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए। क्या आरक्षण के निजी संस्थानों आरक्षण की गुंजाइश बनायी जा सकती है, सर्वोच्च न्यायालय इस सवाल का जवाब देने में यह कहते हुए कतरा गया कि निजी संस्थानों में आरक्षण कानून बनने पर ही इस मुद्दे पर निर्णय तभी लिया जा सकता है। समर्थन करने वालों की ओर से इस निर्णय पर मिश्रित प्रतिक्रियाएँ आयीं और तीन-चौथाई ने इसका विरोध किया।

मलाईदार परत को पहचानने के लिए विभिन्न मानदण्डों की सिफारिश की गयी, जो इस प्रकार हैं:[7]

साल में 2,50,000 रुपये से ऊपर की आय वाले परिवार को मलाईदार परत में शामिल किया जाना चाहिए और उसे आरक्षण कोटे से बाहर रखा गया। इसके अलावा, डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट, अभिनेता, सलाहकारों, मीडिया पेशेवरों, लेखकों, नौकरशाहों, कर्नल और समकक्ष रैंक या उससे ऊँचे पदों पर आसीन रक्षा विभाग के अधिकारियों, उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों, सभी केन्द्र और राज्य सरकारों के ए और बी वर्ग के अधिकारियों के बच्चों को भी इससे बाहर रखा गया। अदालत ने सांसदों और विधायकों के बच्चों को भी कोटे से बाहर रखने का अनुरोध किया है।

भारतीय न्यायपालिका ने आरक्षण को जारी रखने के लिए कुछ निर्णय दिए हैं और इसे सही ढंग से लागू करने के लिए के कुछ निर्णय सुनाया है। आरक्षण संबंधी अदालत के अनेक निर्णयों को बाद में भारतीय संसद द्वारा संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से बदलाव लाया गया है। भारतीय न्यायपालिका के कुछ फैसलों का राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा उल्लंघन किया गया है। भारतीय अदालतों द्वारा किये गये बड़े फैसलों और उनके कार्यान्वयन की स्थिति नीचे दी जा रही है[8][9]:

वर्षफैसलाकार्यान्वयन विवरण1951अदालत ने स्पष्ट किया है कि सांप्रदायिक अधिनिर्णय के अनुसार जाति आधारित आरक्षण अनुच्छेद 15 (1) का उल्लंघन है। (मद्रास राज्य बनाम श्रीमती चंपकम दोराईरंजन एआईआर (AIR) 1951 SC 226)पहला संवैधानिक संशोधन (अनुच्छेद 15 (4)) फैसले को अमान्य करने के लिए पेश किया गया।1963एम् आर बालाजी बनाम मैसूर एआईआर (AIR)) 1963 SC 649 में अदालत ने आरक्षण पर 50% की अधिकतम सीमा लगा दीतमिलनाडु (9वीं सूची के तहत 69%) और राजस्थान (2008 की गुज्जर हिंसा के पहले, अगड़ी जातियों के 14% सहित 68% कोटा) को छोड़कर लगभग सभी राज्यों ने 50% की सीमा को पार नहीं किया। तमिलनाडु ने 1980 में सीमा पार की। आंध्र प्रदेश ने 2005 में सीमा पार करने का प्रयास किया, जिसे उच्च न्यायालय द्वारा फिर से रोक दिया गया।1992इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम केंद्र सरकार (यूनियन ऑफ़ इंडिया) में सर्वोच्च न्यायालय. एआईआर (AIR)) 1993 SC 477 : 1992 Supp (3)SCC 217 ने केंद्रीय सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए अलग से आरक्षण लागू करने को सही ठहराया.फैसला लागू हुआआरक्षण सुविधाओं का लाभ उठाने वाले अन्य पिछड़े वर्ग की मलाईदार परत को हटाने का फैसला सुनाया गया।तमिलनाडु को छोड़कर सभी राज्यों ने लागू किया। अन्य पिछड़े वर्गों के लिए शिक्षण संस्थानों में आरक्षण प्रदान करने के लिए हाल ही के आरक्षण विधेयक से भी कुछ राज्यों में मलाईदार परत को हटाना नहीं शामिल किया गया है। (यह अभी भी स्थायी समिति के विचाराधीन है).50% की सीमा के अंदर आरक्षणों को सीमाबद्ध करने का फैसला दिया गया।तमिलनाडु को छोड़कर सभी राज्यों ने इसका पालन किया।अगड़ी जातियों के आर्थिक रूप से गरीबों के लिए अलग से आरक्षण को अमान्य कर दिया गया।फैसला लागू हुआमहाप्रबंधक, दक्षिण रेलवे बनाम रंगचारी एआईआर (AIR)) 1962 SC 36, पंजाब राज्य बनाम हीरालाल 1970(3) SCC 567, अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ (रेलवे) बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (1981) 1 SCC 246 में फैसला हुआ था कि अनुच्छेद 16(4) के तहत नियुक्तियों या पदों के आरक्षण में प्रोन्नति भी शामिल हैं। इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया में इसे नामंजूर कर दिया गया था। एआईआर (AIR)) 1993 SC 477 : 1992 Supp (3) SCC 217 और फैसला हुआ कि प्रोन्नतियों में आरक्षण को लागू नहीं किया जा सकता.यूनियन ऑफ इंडिया बनाम वरपाल सिंह एआईआर (AIR) 1996 SC 448, अजीतसिंह जानुजा व अन्य बनाम पंजाब राज्य एआईआर (AIR) 1996 SC 1189, अजीतसिंह जानुजा व अन्य बनाम पंजाब राज्य व अन्य एआईआर (AIR) 1999 SC 3471, एम्.जी. बदप्पन्नावर बनाम कर्नाटक राज्य 2001 (2) SCC 666.अशोक कुमार गुप्ता: विद्यासागर गुप्ता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य. फैसले को अमान्य करने के लिए 1997 (5) SCC 20177वां संविधान संशोधन (अनुच्छेद 16 (4 ए) व (16 4 बी) लाया गया। एम. नागराज एवं अन्य बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया व अन्य. एआईआर (AIR) 2007 SC 71 ने संशोधन को संवैधानिक करार दिया। 1. अनुच्छेद 16(4)(ए) और 16(4)(बी) अनुच्छेद 16(4) से प्रवाहित होते हैं। वो संवैधानिक संशोधन अनुच्छेद 16(4) के ढांचे में परिवर्तन नहीं करते हैं। 2. राज्य प्रशासन की समग्र क्षमता को ध्यान में रखते हुए आरक्षण प्रदान करने के लिए पिछड़ापन और प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता राज्यों के लिए नियंत्रक/अकाट्य कारण हैं। 3. किसी वर्ग/समूह को नौकरियों में पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए सरकार को रोस्टर परिचालन में एक इकाई के रूप में कर्मी क्षमता को लागू करना है। रिक्तियों के आधार पर नहीं बल्कि प्रतिस्थापन की अन्तर्निहित अवधारणा के साथ रोस्टर को पद विशिष्ट होना चाहिए। 4. अगर कोई अधिकारी सोचता है कि पिछड़े वर्ग या श्रेणी का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए, इसमें सीधी भर्ती प्रदान करना आवश्यक है, तो ऐसा करने के लिए उसे छूट होनी चाहिए। 5. बकाया रिक्तियों को एक भिन्न समूह के रूप में देखा जाना चाहिए और इन्हें 50% की सीमा से बाहर रखा गया है। 6. अगर आरक्षित श्रेणी का कोई सदस्य सामान्य श्रेणी में चयनित हो जाता है, तो उसके चयन को उसके वर्ग के लिए आरक्षित कोटा सीमा के अंतर्गत नहीं माना जाएगा और आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवार सामान्य श्रेणी के लिए प्रतिस्पर्धा करने के हकदार हैं। 7. आरक्षित उम्मीदवार अपने आप में प्रोन्नति के लिए सामान्य उम्मीदवारों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के हकदार हैं। उनके चयन पर, कर्मियों की सूची के अनुसार उन्हें सामान्य पद में समायोजित किया जाना है और आरक्षित उम्मीदवारों को आरक्षित उम्मीदवारों की कर्मियों की सूची में निश्चित किये गये स्थान में समायोजित किया जाना चाहिए। नियुक्ति के लिए उम्मीदवार की विशेष श्रेणी के लिए प्रत्येक पद को चिह्नित किया जाता है और बाद में कोई भी रिक्त पद को सिर्फ उसी श्रेणी (प्रतिस्थापन सिद्धांत) द्वारा भरा जाना है। आर.के. सभरवाल बनाम पंजाब राज्य एआईआर (AIR) 1995 SC 1371 : (1995) 2 SCC 745.कर्मी-क्षमता भरने के लिए रोस्टर का परिचालन खुद ही सुनिश्चित करता है कि आरक्षण 50% सीमा के अंदर हो।भारतीय संघ बनाम वरपाल सिंह AIR 1996 SC 448 तथा अजीतसिंह जानुजा व अन्य बनाम पंजाब राज्य AIR 1996 SC 1189 में फैसला हुआ कि रोस्टर अंक पदोन्नति पाने वाला त्वरित प्रोन्नति का लाभ पाता है उसे अनुवर्ती वरीयता नहीं मिलेगी और प्रोन्नत श्रेणी में आरक्षित श्रेणी उम्मीदवारों तथा सामान्य श्रेणी उम्मीदवारों के बीच वरीयता उनकी पैनल स्थिति से नियंत्रित होंगी. जगदीश लाल व अन्य बनाम हरियाणा राज्य व अन्य (1997) 6 SCC 538 के मामले में इसे नामंजूर कर दिया गया था, निर्णय हुआ कि पद पर लगातार कार्यरत रहने की तारीख को ध्यान में रखा जाना है, अगर ऐसा होता है तो रोस्टर-अंक पदोन्नति पाने वाला निरंतर पद पर कार्यरत रहने के लाभ का हकदार होगा। अजितसिंह जानुजा व अन्य बनाम पंजाब राज्य व अन्य AIR 1999 SC 3471 ने जगदीशलाल को ख़ारिज कर दिया एम जी बदप्पन्वर बनाम कर्नाटक राज्य 2001(2) SCC 666:AIR 2001 SC 260 ने फैसला किया कि रोस्टर प्रोन्नतियां सिर्फ विभिन्न स्तर पर पिछड़े वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व देने के सीमित उद्देश्य के लिए है और इसीलिए ऐसी रोस्टर पदोन्नतियां परिणामस्वरूप रोस्टर अंक पदोन्नति पाने वाले को वरीयता प्रदान नहीं करतीं.85वें संविधान संशोधन द्वारा निर्णय को अमान्य करके परिणामी वरीयता को अनुच्छेद 16(4)(A) में सम्मिलित किया गया था। एम. नागराज व अन्य बनाम भारतीय संघ व अन्य. AIR 2007 SC 71 ने संशोधन को संवैधानिक ठहराया.जगदीश लाल व अन्य बनाम हरियाणा राज्य व अन्य (1997) 6 SCC 538 ने निर्णय सुनाया कि निरंतर पद पर कार्यरत रहने की तारीख को ध्यान में रखा जाना है और अगर ऐसा होता है तो रोस्टर-अंक पदोन्नति पाने वाला निरंतर पद पर कार्यरत रहने के लाभ का हकदार होगा।एस विनोदकुमार बनाम भारतीय संघ 996 6 SCC 580 के फैसले में प्रोन्नति में आरक्षण के मामले में अर्हता अंकों में और मूल्यांकन के मानक में छूट की अनुमति नहीं दी गयीसंविधान (82वां) संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 335 के अंत में एक प्रावधान डाला गया। एम. नागराज व अन्य बनाम भारतीय संघ व अन्य. AIR 2007 SC 71 ने संशोधन को संवैधानिक बताया।1994सर्वोच्च न्यायलय ने तमिलनाडु को 50% सीमा का पालन करने की सलाह दीतमिलनाडु आरक्षणों को संविधान की 9वीं अनुसूची में डाल दिया गया। एल आर एस द्वारा आई आर कोएल्हो (मृत) बनाम तमिलनाडु राज्य 2007 (2) SCC 1 : 2007 AIR(SC) 861 के फैसले में कहा गया कि नौवीं अनुसूची क़ानून को पहले ही न्यायालय द्वारा वैध ठहराया गया है, सो इस निर्णय द्वारा घोषित सिद्धांतों के आधार पर ऐसे क़ानून को चुनौती नहीं दी जा सकती. हालांकि, अगर कोई क़ानून भाग III में शामिल किसी अधिकार का उल्लंघन करता है तो उसे बाद में 24 अप्रैल 1973 के बाद नौवीं अनुसूची में शामिल किया जाता है, इस तरह के उल्लंघन/अतिक्रमण को इस आधार चुनौती दी जा सकती है कि इससे अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 के साथ अनुच्छेद 21 को पढ़े जाने पर बताये गये सिद्धांत और इनके तहत अंतर्निहित सिद्धांतों की बुनियादी संरचना नष्ट या क्षतिग्रस्त होती है। कार्रवाई की गयी और परिणाम के रूप में कार्य-विवरण तय किये गये कि रद्द कानूनों को चुनौती नहीं दी जा सकेगी.2005उन्नी कृष्णन, जेपी व अन्य बनाम आंध्रप्रदेश राज्य व अन्य (1993 (1) SCC 645), यह निर्णय किया गया कि अनुच्छेद 19(1)(g) के अर्थ के अंतर्गत शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार न तो कोई व्यापार या कारोबार हो सकता है न ही यह अव्यवसाय हो सकता है। टी.एम.ए. पई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य (2002) 8 SCC 481 में इसे ख़ारिज कर दिया गया था। पी.ए. इनामदार बनाम महाराष्ट्र राज्य 2005 AIR(SC) 3226 में सर्वोच्च न्यायलय ने निर्णय किया कि निजी गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों को आरक्षण के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता.93वां संवैधानिक संशोधन ने अनुच्छेद 15(5) पेश किया। अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारतीय संघ[10] 1. जहां तक इसका संबंध सरकारी संस्थानों और सरकारी सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों से है, संविधान (तिरानबेवां संशोधन) अधिनियम, 2005 संविधान के "बुनियादी ढांचा" का उल्लंघन नहीं करता है। जहां तक "निजी गैर-सहायताप्राप्त" शिक्षण संस्थाओं का संबंध है, सवाल है कि क्या संविधान (तिरानबेवां संशोधन) अधिनियम, 2005 इस बारे में संवैधानिक रूप से मान्य हो सकता है या नहीं, इसे एक उपयुक्त मामले में निर्णय के लिए खुला छोड़ रखा गया है। 2."पिछड़े वर्ग की पहचान के लिए मलाईदार परत" सिद्धांत एक पैरामीटर है। इसलिए, विशेष रूप से, "मलाईदार परत" सिद्धांत अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों के लिए लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि अजा और अजजा अपने आपमें अलग वर्ग हैं। 3. प्राथमिकता के साथ हालात में परिवर्तन पर ध्यान देने के लिए दस वर्षों के बाद एक समीक्षा करनी चाहिए। मात्र एक स्नातक (तकनीकी स्नातक नहीं) या पेशेवर को शैक्षिक रूप से अगड़ा माना जाता है। 5. मलाईदार परत के बहिष्करण का सिद्धांत अन्य पिछड़ा वर्ग पर लागू होता है। 6. अन्य सामाजिक हितों के साथ संतुलन और उत्कृष्टता के मानकों को बनाए रखने के लिए अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के उम्मीदवारों से संबंधित अंक कटौती के निर्धारण की वांछनीयता की जांच केंद्र सरकार करेगी। यह गुणवत्ता को सुनिश्चित करेगी और योग्यता पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा. इन कसौटियों को अपनाने से अगर कोई सीट खाली रह जाती है तो उन्हें सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों द्वारा भरा जाएगा.7. जहां तक पिछड़े वर्गों के निर्धारण की बात है, भारतीय संघ द्वारा एक अधिसूचना जारी की जानी चाहिए। मलाईदार परत के बहिष्करण के बाद ही यह काम किया जा सकता है, जिसके लिए केंद्र सरकार को राज्य सरकारों तथा केंद्र शासित क्षेत्रों से आवश्यक तथ्य प्राप्त किया जाना चाहिए। गलत तरीके से बहिष्करण या समावेशन के आधार पर ऐसी अधिसूचना को चुनौती दी जा सकती है। विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों की अपनी विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए कसौटियां तय की जानी चाहिए। अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) की उचित पहचान जरुरी है। पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए, इंद्र साहनी मामले में इस न्यायालय के निर्देशों के अनुरूप आयोग का गठन किया जाय, किसीको अधिक प्रभावी ढंग से काम करना चाहिए और महज जातियों के समावेशन या बहिष्करण के लिए आवेदन पत्रों पर फैसला नहीं करना चाहिए। संसद को एक समय सीमा का निर्धारण करना चाहिए कि हर बच्चे तक कब तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा पहुंच जाएगी. इसे छह महीने के भीतर किया जाना चाहिए, क्योंकि निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा संभवतः सभी मौलिक अधिकारों (अनुच्छेद21 ए) में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि शिक्षा के बिना, अन्य मौलिक अधिकारों का उपयोग करना अत्यंत कठिन हो जाता है। केन्द्र सरकार को अगर ऐसे तथ्य दिखाए जाते हैं कि कोई संस्थान केन्द्रीय शैक्षिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 (2007 का नंबर 5) की अनुसूची में शामिल होने के योग्य है (वो संस्थान जिन्हें आरक्षण से अलग रखा गया है), तो दिए गये तथ्यों के आधार पर और संबंधित मामलों की जांच करके केंद्र सरकार को उचित निर्णय लेना चाहिए कि वो संस्थान उक्त अधिनियम के अनुभाग 4 में प्रदत्त उक्त अधिनियम की अनुसूची में शामिल होने के योग्य है या नहीं। निर्णय किया गया कि SEBCs का निर्धारण पूरी तरह से जाति के आधार पर नहीं किया गया है और इसलिए SEBCs की पहचान संविधान के अनुच्छेद 15(1) का उल्लंघन नहीं है।

प्रासंगिक मामले

  1. भारतीय संविधान की 12, 14, 15, 16, 19, 335 धाराएं देखें.
  2. मद्रास राज्य बनाम श्रीमती चंपकम दोराइरंजन AIR 1951 SC 226
  3. महाप्रबंधक, दक्षिण रेलवे बनाम रंगचारी एआईआर (AIR)) 1962 SC 36
  4. एम आर बालाजी बनाम मैसूर राज्य एआईआर (AIR) 1963 एससी (SC) 649
  5. टी. वी देवदासन बनाम संघ एआईआर (AIR) 1964 SC 179.
  6. सी. ए. राजेंद्रन बनाम भारतीय संघ एआईआर (AIR) 1965 एससी (SC) 507.
  7. चामाराजा बनाम मैसूर एआईआर (AIR) 1967 मैसूर 21
  8. बेरियम केमिकल्स लिमिटेड बनाम कंपनी लॉ बोर्ड एआईआर (AIR) 1967 एससी (SC) 295
  9. पी. राजेंद्रन बनाम मद्रास राज्य एआईआर (AIR) 1968 SC 1012
  10. त्रिलोकी नाथ बनाम जम्मू और कश्मीर राज्य एआईआर (AIR) 1969 एससी (SC) 1
  11. बनाम पंजाब राज्य बनाम हीरा लाल 1970(3) 567 एससीसी (SCC)
  12. ए. पी. राज्य बनाम यू.एस.वी. (USV) बलराम एआईआर (AIR) के 1972 एससी (SC) 1375
  13. केसवानंद भारती बनाम केरल राज्य एआईआर (AIR) 1973 एससी (SC) 1461
  14. केरल राज्य बनाम एन. एम. थॉमस एआईआर (AIR) 1976 SC 490 : (1976) 2 एससीसी (SCC) 310
  15. जयश्री बनाम केरल राज्य एआईआर (AIR) के 1976 एससी (SC) 2381
  16. मिनर्वा मिल्स लिमिटेड बनाम संघ (1980) 3 एससीसी (SCC) 625: एआईआर (AIR) 1980 एससी (SC) 1789
  17. अजय हसिया बनाम खालिद मुजीब एआईआर (AIR) 1981 एससी (SC) 487
  18. अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ बनाम संघ (1981) 1 एससीसी (SCC) 246
  19. के.सी. वसंत कुमार बनाम कर्नाटक एआईआर (AIR) 1985 एससी (SC) 1495
  20. भारतीय नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, ज्ञान प्रकाश बनाम के. एस. जग्गन्नाथन (1986) 2 एससीसी (SCC) 679
  21. हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड बनाम ए. पी. राज्य बिजली बोर्ड (1991) 3एससीसी (3SCC) 299
  22. इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम भारतीय संघ एआईआर (AIR) 1993 अज 477: 1992 पूरक (3) एससीसी (SCC) 217
  23. उन्नी कृष्णन बनाम ए. पी. राज्य एवं अन्य. (1993 (1) एससीसी (SCC) 645
  24. आर.के. सभरवाल बनाम पंजाब एआईआर (AIR) 1995 एससी (SC) 1371: (1995) 2 एससीसी (SCC) 745
  25. भारतीय संघ बनाम वरपाल सिंह एआईआर (AIR) 1996 एससी (SC) 448
  26. अजीतसिंह जानुजा एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य एआईआर (AIR) 1996 एससी (SC) 1189
  27. अशोक कुमार गुप्ता: विद्यासागर गुप्ता बनाम उत्तर प्रदेश राज्य. 1997 (5) 201 एससीसी (SCC)
  28. जगदीश लाल एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (1997) 6 एससीसी (SCC) 538
  29. चंदर पाल एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य (1997) 10 एससीसी (SCC) 474
  30. पोस्ट ग्रैजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एडुकेशन एंड रिसर्च, चंडीगढ़ बनाम फैकल्टी एसोसिएशन 1998 एआईआर (AIR)(एससी (SC)) 1767: 1998 (4) एससीसी (SCC) 1
  31. अजीतसिंह जानुजा एवं अन्य बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य एआईआर (AIR) 1999 एससी (SC) 3471
  32. इंदिरा साहनी बनाम भारतीय संघ. एआईआर (AIR) 2000 एससी (SC) 498
  33. एमजी बदप्पन्वर बनाम कर्नाटक राज्य 2001(2) एससीसी (SCC) 666: एआईआर (AIR) 2001 एससी (SC) 260
  34. टी. एस. ए. पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य (2002) 8 एससीसी (SCC) 481
  35. एनटीआर युनिवर्सिटी ऑफ हेल्थ साइंस विजयवाड़ा बनाम जी बाबू राजेंद्र प्रसाद (2003) 5 एससीसी (SCC) 350
  36. इस्लामिक अकाडमी ऑफ एडुकेशन एवं एएनआर. (Anr) बनाम कर्नाटक एवं अन्य. (2003) 6 एससीसी (SCC) 697
  37. सौरभ चौधरी एवं अन्य बनाम भारतीय संघ. (2003) 11 एससीसी (SCC) 146
  38. पी. ए. इनामदार बनाम महाराष्ट्र राज्य 2005 एआईआर (AIR) (एसस‍ी (SC)) 3226
  39. आई.आर. चेलो (स्व.) एलआरएस (LRS) द्वारा बनाम तमिलनाडु राज्य 2007 (2) एससीसी (SCC) 1: 2007 एआईआर (AIR)(एससी (SC))861
  40. एम. नागराज एवं अन्य बनाम भारतीय संघ एवं अन्य. एआईआर (AIR) 2007 (एससी (SC)) 71
  41. अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारतीय संघ. 2008

शब्द क्रीमी लेयर को पहली बार केरल राज्य बनाम एनएम थॉमस मामले में 1975 में बनाया गया था जब एक न्यायाधीश ने कहा था कि "आरक्षण के लाभ पिछड़े वर्ग की शीर्ष मलाईदार परत से छीन जाएंगे, इस प्रकार कमज़ोरों में सबसे कमजोर और पूरे केक का उपभोग करने के लिए भाग्यशाली परतों को छोड़कर "। 1992 में इंद्र सवनी बनाम भारतीय संघ के फैसले ने राज्य की शक्तियों की सीमा निर्धारित की: इसने 50 प्रतिशत कोटा की छत को बरकरार रखा, "सामाजिक पिछड़ापन" की अवधारणा पर जोर दिया, और पिछड़ेपन का पता लगाने के लिए 11 संकेतक निर्धारित किए। इस फैसले ने गुणात्मक बहिष्कार की अवधारणा भी स्थापित की, जैसे कि "क्रीमी लेयर"। क्रीमी लेयर केवल ओबीसी पर लागू होती है। मलाईदार परत मानदंड 1993 में 1 लाख रुपये में पेश किया गया था, और 2004 में 2.5 लाख रुपये, 2008 में 4.5 लाख रुपये और 2013 में 6 लाख रुपये तक संशोधित किया गया था, लेकिन अब छत को ₹ 8 लाख तक बढ़ा दिया गया है (सितंबर में, 2017)। 26 सितंबर 2018 को, सुप्रीम कोर्ट के 5 न्यायाधीशीय संविधान खंडपीठ ने फैसला सुनाया कि "क्रीमी लेयर बहिष्करण" सिद्धांत, अनुसूचित जाति (अनुसूचित जाति) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) को बढ़ाया जा सकता है ,दो वंचित समुदायों के बीच "अभिजात वर्ग" आरक्षण को अस्वीकार करने के लिए के लिए।[11]

शैक्षिक संस्थानों और नौकरियों में सीटें विभिन्न मापदंड के आधार पर आरक्षित होती हैं। विशिष्ट समूह के सदस्यों के लिए सभी संभावित पदों को एक अनुपात में रखते हुए कोटा पद्धति को स्थापित किया जाता है। जो निर्दिष्ट समुदाय के तहत नहीं आते हैं, वे केवल शेष पदों के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं, जबकि निर्दिष्ट समुदाय के सदस्य सभी संबंधित पदों (आरक्षित और सार्वजनिक) के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, रेलवे में जब 10 में से जब 2 कार्मिक पद सेवानिवृत सैनिकों, जो सेना में रह चुके हैं, के लिए आरक्षित होता है तब वे सामान्य श्रेणी के साथ ही साथ विशिष्ट कोटा दोनों ही श्रेणी में प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं।

केंद्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा विभिन्न अनुपात में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों (मुख्यत: जन्मजात जाति के आधार पर) के लिए सीटें आरक्षित की जाती हैं। यह जाति जन्म के आधार पर निर्धारित होती है और कभी भी बदली नहीं जा सकती. जबकि कोई व्यक्ति अपना धर्म परिवर्तन कर सकता है और उसकी आर्थिक स्थिति में उतार -चढ़ाव हो सकता है, लेकिन जाति स्थायी होती है।

केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित उच्च शिक्षा संस्थानों में उपलब्ध सीटों में से 22.5% अनुसूचित जाति (दलित) और अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) के छात्रों के लिए आरक्षित हैं (अनुसूचित जातियों के लिए 15%, अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5%). ओबीसी के लिए अतिरिक्त 27% आरक्षण को शामिल करके आरक्षण का यह प्रतिशत 49.5% तक बढ़ा दिया गया है 10. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) में सीटें 14% अनुसूचित जातियों और 8% अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। इसके अलावा, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के विद्यार्थियों के लिए केवल 50% अंक ग्रहणीय हैं। यहां तक कि संसद और सभी चुनावों में यह अनुपात लागू होता है, जहां कुछ समुदायों के लोगों के लिए चुनाव क्षेत्र निश्चित किये गये हैं। तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों में आरक्षण का प्रतिशत अनुसूचित जातियों के लिए 18% और अनुसूचित जनजातियों के लिए 1% है, जो स्थानीय जनसांख्यिकी पर आधारित है। आंध्र प्रदेश में, शैक्षिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए 25%, अनुसूचित जातियों के लिए 15%, अनुसूचित जनजातियों के लिए 6% और मुसलमानों के लिए 4% का आरक्षण रखा गया है।

जाति-समर्थक आरक्षण के पैरोकारों के अनुसार प्रबंधन कोटा सबसे विवादास्पद कोटा है। प्रमुख शिक्षाविदों द्वारा भी इसकी गंभीर आलोचना की गयी है क्योंकि जाति, नस्ल और धर्म पर ध्यान दिए बिना आर्थिक स्थिति के आधार पर यह कोटा है, जिससे जिसके पास भी पैसे हों वह अपने लिए सीट खरीद सकता है। इसमें निजी महाविद्यालय प्रबंधन की अपनी कसौटी के आधार पर तय किये गये विद्यार्थियों के लिए 15% सीट आरक्षित कर सकते हैं। कसौटी में महाविद्यालयों की अपनी प्रवेश परीक्षा या कानूनी तौर पर 10+2 के न्यूनतम प्रतिशत शामिल हैं।

महिला आरक्षण महिलाओं को ग्राम पंचायत (जिसका अर्थ है गांव की विधानसभा, जो कि स्थानीय ग्राम सरकार का एक रूप है) और नगर निगम चुनावों में 33% आरक्षण प्राप्त है। संसद और विधानसभाओं तक इस आरक्षण का विस्तार करने की एक दीर्घावधि योजना है। इसके अतिरिक्त, भारत में महिलाओं को शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण या अधिमान्य व्यवहार मिलता है। कुछ पुरुषों का मानना है कि भारत में विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में प्रवेश में महिलाओं के साथ यह अधिमान्य व्यवहार उनके खिलाफ भेदभाव है। उदाहरण के लिए, भारत में अनेक कानून के विद्यालयों में महिलाओं के लिए 30% आरक्षण है। भारत में प्रगतिशील राजनीतिक मत महिलाओं के लिए अधिमान्य व्यवहार प्रदान करने का जोरदार समर्थन करता है ताकि सभी नागरिकों के लिए समान अवसर का निर्माण हो सके।

महिला आरक्षण विधेयक 9 मार्च 2010 को 186 सदस्यों के बहुमत से राज्य सभा में पारित हुआ, इसके खिलाफ सिर्फ एक वोट पड़ा. अब यह लोक सभा में जायेगा और अगर यह वहां पारित हो गया तो इसे लागू किया जाएगा.

तमिलनाडु सरकार ने मुसलमानों और ईसाइयों प्रत्येक के लिए 3.5% सीटें आवंटित की हैं, जिससे ओबीसी आरक्षण 30% से 23% कर दिया गया, क्योंकि मुसलमानों या ईसाइयों से संबंधित अन्य पिछड़े वर्ग को इससे हटा दिया गया।[12] सरकार की दलील है कि यह उप-कोटा धार्मिक समुदायों के पिछड़ेपन पर आधारित है न कि खुद धर्मों के आधार पर.[12]

आंध्र प्रदेश प्रशासन ने मुसलमानों को 4% आरक्षण देने के लिए एक क़ानून बनाया। इसे अदालत में चुनौती दी गयी। केरल लोक सेवा आयोग ने मुसलमानों को 12% आरक्षण दे रखा है। धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों के पास भी अपने विशेष धर्मों के लिए 50% आरक्षण है। केंद्र सरकार ने अनेक मुसलमान समुदायों को पिछड़े मुसलमानों में सूचीबद्ध कर रखा है, इससे वे आरक्षण के हकदार होते हैं।

कुछ अपवादों को छोड़कर, राज्य सरकार के अधीन सभी नौकरियां उस सरकार के तहत रहने वाले अधिवासियों के लिए आरक्षित होती हैं। पीईसी (PEC) चंडीगढ़ में, पहले 80% सीट चंडीगढ़ के अधिवासियों के लिए आरक्षित थीं और अब यह 50% है।

पूर्वस्नातक महाविद्यालय[संपादित करें]

जेआईपीएमईआर (JIPMER) जैसे संस्थानों में स्नातकोत्तर सीट के लिए आरक्षण की नीति उनके लिए है, जिन्होंने जेआईपीएमईआर (JIPMER) से एमबीबीएस (MBBS) पूरा किया है।[एआईआईएमएस] (एम्स) में इसके 120 स्नातकोत्तर सीटों में से 33% सीट 40 पूर्वस्नातक छात्रों के लिए आरक्षित हुआ करती हैं (इसका अर्थ है जिन्होंने एम्स से एमबीबीएस पूरा किया उन प्रत्येक छात्रों को स्नातकोत्तर में सीट मिलना तय है, इसे अदालत द्वारा अवैध करार दिया गया।)

कुछ आरक्षण निम्नलिखित के लिए भी बने हैं:

  • स्वतंत्रता सेनानियों के बेटे/बेटियों/पोते/पोतियों के लिए।
  • शारीरिक रूप से विकलांग.
  • खेल हस्तियों.
  • शैक्षिक संस्थानों में अनिवासी भारतीयों (एनआरआई (NRI)) के लिए छोटे पैमाने पर सीटें आरक्षित होती हैं। उन्हें अधिक शुल्क और विदेशी मुद्रा में भुगतान करना पड़ता है (नोट: 2003 में एनआरआई आरक्षण आईआईटी से हटा लिया गया था).
  • विभिन्न संगठनों द्वारा उम्मीदवार प्रायोजित होते हैं।
  • जो सशस्त्र बलों में काम कर चुके हैं (सेवानिवृत सैनिक कोटा), उनके लिए।
  • कार्रवाई में मारे गए सशस्त्र बलों के कर्मियों के आश्रितों के लिए।
  • स्वदेश लौट आनेवालों के लिए।
  • जो अंतर-जातीय विवाह से पैदा हुए हैं।
  • सरकारी उपक्रमों/सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSU) के विशेष स्कूलों (जैसे सेना स्कूलों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (PSU) के स्कूलों आदि) में उनके कर्मचारियों के बच्चों के लिए आरक्षण.
  • पूजा स्थलों (जैसे तिरूपति (बालाजी) मंदिर, तिरुथानी मुरुगन (बालाजी) मंदिर) में भुगतान मार्ग आरक्षण है।
  • वरिष्ठ नागरिकों/पीएच (PH) के लिए सार्व‍जनिक बस परिवहन में सीट आरक्षण.

यह एक तथ्य है कि दुनिया में सबसे ज्यादा चुने जाने वाले आईआईएम (IIMs) में से भारत में शीर्ष के बहुत सारे स्नातकोत्तर और स्नातक संस्थानों जैसे आईआईटी (IITs) हैं, यह बहुत चौंकानेवाली बात नहीं है कि उन संस्थानों के लिए ज्यादातर प्रवेशिका परीक्षा के स्तर पर ही आरक्षण के मानदंड के लिए आवेदन पर ही किया जाता है। आरक्षित श्रेणियों के लिए कुछ मापदंड में छूट दे दी जाती है, जबकि कुछ अन्य पूरी तरह से समाप्त हो जाते हैं। इनके उदाहरण इस प्रकार हैं:

  1. आरक्षित सीटों के लिए उच्च विद्यालय के न्यूनतम अंक के मापदंड पर छूट दिया जाता है।
  2. आयु
  3. शुल्क, छात्रावास में कमरे के किराए आदि पर.

हालांकि यह ध्यान रखना जरूरी है कि किसी संस्थान से स्नातक करने के लिए आवश्यक मापदंड में छूट कभी नहीं दी जाती, यद्यपि कुछ संस्थानों में इन छात्रों की विशेष जरूरत को पूरा करने के लिए बहुत ज्यादातर कार्यक्रमों के भार (जैसा कि आईआईटी (IIT) में किसी के लिए) को कम कर देते हैं।

तमिलनाडु में आरक्षण नीति[संपादित करें]

तमिलनाडु में आरक्षण व्यवस्था शेष भारत से बहुत अलग है; ऐसा आरक्षण के स्वरूप के कारण नहीं, ‍बल्कि इसके इतिहास के कारण है। मई 2006 में जब पहली बार आरक्षण का जबरदस्त विरोध नई दिल्ली में हुआ, तब चेन्नई में इसके विपरीत एकदम विषम शांति देखी गयी थी। बाद में, आरक्षण विरोधी लॉबी को दिल्ली में तरजीह प्राप्त हुई, चेन्नई की शांत गली में आरक्षण की मांग करते हुए विरोध देखा गया। चेन्नई में डॉक्टर्स एसोसिएशन फॉर सोशल इक्विलिटी (डीएएसई (DASE)) समेत सभी डॉक्टर केंद्रीय सरकार द्वारा चलाये जानेवाले उच्च शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण की मांग पर अपना समर्थन जाताने में सबसे आगे रहे।

मौजूदा समय में, दिन-प्रतिदिन के अभ्यास में, आरक्षण 69% से कुछ हद तक कम हुआ करता है, यह इस पर निर्भर करता है कि गैर-आरक्षित श्रेणी के विद्यार्थियों का प्रवेश कितनी अतिउच्च-संख्यांक सीटों में हुआ। अगर 100 सीटें उपलब्ध हैं, तो पहले समुदाय का विचार किये बिना (आरक्षित या अनारक्षित) दो योग्यता सूची तैयार की जाती है, 31 सीटों के लिए एक और 50 सीटों के लिए एक दूसरी, क्रमशः 69% आरक्षण और 50% आरक्षण के अनुरूप. किसी भी गैर-आरक्षित श्रेणी के छात्र को 50 आरक्षित खुले प्रवेश सूची के रूप में प्रयोग किया जाता है और 69% आरक्षण का प्रयोग करके 69 सीटें भरी जाती हैं (30 सीटें अन्य पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़े वर्गों के 20 सीटें, 18 सीटें अनुसूचित जाति और 1 सीट अनुसूचित जनजाति के लिए). प्रभावी आरक्षण प्रतिशत इस पर निर्भर करता है कि कितने गैर-आरक्षित श्रेणी के विद्यार्थी 50 की सूची में आते हैं और न कि 31 सूची में. एक चरम पर, सभी 19 (31 से 50 की सूची बनाने के लिए जोड़ा जाना) गैर-आरक्षित श्रेणी के विद्यार्थी हो सकते हैं, इस मामले में कुल आरक्षण 58%(69/119) हो जाता है; यह भी तर्क दिया जा सकता है कि गैर-आरक्षित श्रेणी के विद्यार्थियों के लिए इसे 19% 'आरक्षण' मानने से यह (69+19)/119 या 74% हो जाता है! दूसरे चरम पर, 31 की सूची में 19 में कोई भी गैर-आरक्षित श्रेणी से नहीं जोड़ा जाता है, तो इस मामले में कोई भी अतिउच्च-संख्यांक सीटों का निर्माण नहीं किया जाएगा और राज्य क़ानून के आदेश के अनुसार 69% आरक्षण किया जाएगा.

रीडिफ.कॉम के नए आलेख के स्रोत से[13].

195116% आरक्षण अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए और 25% आरक्षण ओबीसी (OBC) के लिए शुरू हुआ। कुल आरक्षण हुआ 41%1971सत्तनाथान आयोग ने "मलाईदार परत" के लिए आरक्षण शुरू करने और पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण प्रतिशत में फेरबदल कर उसे 16% करने और ज्यादातर पिछड़े वर्ग (MBCs) के लिए अलग से 17% आरक्षण की सिफारिश की.द्रमुक सरकार ने ओबीसी (OBC) के लिए 31% और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए 18% आरक्षण में वृद्धि की. कुल आरक्षण हुआ 49%1980अन्ना द्रमुक सरकार ने ओबीसी आरक्षण लाभ से "मलाईदार परत" को अलग कर दिया. आरक्षण का लाभ उठाने के लिए आय सीमा 9000 रुपए प्रति वर्ष निर्धारित किया गया है। द्रमुक और अन्य विपक्षी दलों ने फैसले का विरोध किया।मलाईदार परत योजना वापस ले ली गई और ओबीसी के लिए आरक्षण प्रतिशत बढ़ा कर 50% कर दिया गया। कुल आरक्षण हुआ 68%1989वन्नियार जाति के लिए विशेष रूप से राज्य सरकार की नौकरियों में 20% आरक्षण और केंद्रीय सरकार की नौकरियों में 2% आरक्षण की मांग करते हुए वन्नियार संगम (पट्टाली मक्कल काची की जनक संस्था) द्वारा राज्यव्यापी चक्का जाम आंदोलन शुरू किया गया।द्रमुक सरकार ने ओबीसी (OBC) आरक्षण को 2 भागों में बांट दिया, 30% ओबीसी (OBC) के लिए और 20% अति पिछड़े वर्गों (MBC) के लिए. 1% अनुसूचित जनजातियों के लिए अलग से आरक्षण शुरू किया। कुल आरक्षण का प्रतिशत रहा 69%.1992मंडल फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि आरक्षण का प्रतिशत 50% से अधिक नहीं हो सकता और आरक्षण के लाभ से "मलाईदार परत" को अलग कर देने के लिए कहा गया।1994वीओआईसीई (VOICE) उपभोक्ता फोरम की ओर से प्रसिद्ध वकील के. एम. विजयन द्वारा दायर किए गए मामले में अदालत ने तमिलनाडु सरकार को 50% आरक्षण के पालन का निर्देश दिया. निगरानी समिति के एक सदस्य आनंदकृष्णन और अन्ना विश्वविद्यालय के तत्कालीन अध्यक्ष ने घोषणा की कि 50% आरक्षण का पालन किया जाएगा.9वीं अनुसूची में 69% आरक्षण को शामिल किया गया था।9 वीं अनुसूची में 69% आरक्षण शामिल किए जाने के खिलाफ एक मामला सर्वोच्च न्यायालय में दायर करने के लिए नई दिल्ली जाते समय के. एम. विजयन पर निर्दयतापूर्वक हमला हुआ और उन्हें घायल कर दिया गया।[14]2006सर्वोच्च न्यायालय ने तमिलनाडु सरकार से आरक्षण लाभ से मलाईदार परत को अलग कर देने को कहा.मई 2006-अगस्त 2006भारत के विभिन्न हिस्सों में आरक्षण का विरोध तेज हो गया।[15][16][17]). मीडिया पूर्वाग्रह के कारण आरक्षण के समर्थन में विरोध तेज हो गया".[18] तमिलनाडु शांत रहा. भारत में 36% की तुलना में तमिलनाडु (13%) में अगड़ी जातियों के कम प्रतिशत के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है।मल्टीपल इंडेक्स रिलेटेड अफर्मटिव एक्शन एमआईआरएए (MIRAA) -http://www.sabrang.com/cc/archive/2006/june06/report3.html के रूप में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज - http://www.hindu.com/2006/05/22/stories/2006052202261100.हतं[मृत कड़ियाँ] के प्रो॰ सतीश देशपांडे और डॉ॰ योगेंद्र यादव द्वारा द्वारा प्रस्तावित वैकल्पिक प्रणालियों के सकारात्मक कार्रवाईउच्च शिक्षा (https://web.archive.org/web/20110726175023/http://www.indiadaily.org/entry/sam-pitroda-review-quota-policy/) संस्थानों में ओबीसी (OBC) के लिए जाति आधारित आरक्षण के विस्तार की प्रस्तावित योजना का राष्ट्रीय ज्ञान आयोग [प्रधानंमत्री मनमोहन सिंह द्वारा गठित एक सलाहकार मंडल] के अध्यक्ष डॉ॰ सैम पित्रोदा ने विरोध किया।आरक्षण नीति के विरोध में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के ससदस्य-संयोजक डॉ॰ प्रताप भानु मेहता ने अपने पद से इस्तीफा दिया. [डॉ॰ मेहता के इस्तीफे का खुला पत्र - https://web.archive.org/web/20080704194302/http://www.indianexpress.com/story/4916.html].अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण को लागू करने के लिए सुझाव और शैक्षिक संस्थानो में सीटों में वृद्धि करने के उपाय के लिए सुझाव देने के लिए भारत के प्रधानमंत्री ने कर्नाटक के भूतपूर्व मुख्यमंत्री एम. वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में निगरानी समिति नियुक्त किया।निगरानी समिति ने अंतरिम रिपोर्ट पेश किया और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए केंद्रीय शैक्षिक संस्थानों में चरणबद्ध रूप से आरक्षण के कार्यान्वयन का सुझाव दिया.[4]लोकसभा में ओबीसी आरक्षण बिल पेश हुआ और स्थाई समिति को संदर्भित किया गया। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के आधार पर इसने मलाईदार परत (अमीर और पिछड़े वर्गों में धनाढ्य) को आरक्षण का लाभ लेने से अलग नहीं किया।[5]सर्वोच्च न्यायालय ने 9 सदस्यीय पीठ को तमिलनाडु में 9 अनुसूची में 69% आरक्षण को शामिल करने के लिए कहा.सितंबर 2006-2007सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि केंद्रीय सरकार बगैर पर्याप्त डेटा के कोटा शुरू करने की कोशिश में है।निगरानी समिति ने अंतरिम रिपोर्ट पेश की.अनुसूचित जातियों और जनजातियों के विकास के लिए प्रोन्नतियों में आरक्षण प्रदान करने के लिए सांविधानिक संशोधन को सर्वोच्च न्यायालय ने सही ठहराया. इसने 50% की सीमा और आरक्षण की सुविधा उठा रहे मलाईदार परत को बाहर करने को दोहराया.[6]संसदीय स्थायी समिति ने पिछड़े वर्गों के बीच आरक्षण में गैर-मलाईदार परत (पिछड़ों में गरीब) को प्राथमिकता देने और असली पिछड़े लोगों की पहचान के लिए व्यापक जनसंख्या सर्वेक्षण करने की सिफारिश की.[7]सच्चर समिति ने भारतीय मुसलमानों के पिछड़ेपन के बारे में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की. भारतीय मुसलमानों के उत्थान के लिए इसने कई सिफारिशें की हैं। इसने शिक्षण संस्थानों में गैर-मुस्लिम ओबीसी नामांकन को लगभग उनकी आबादी के बराबर/करीब बताया. इसने जरूरतमंदों की पहचान करने के लिए वैकल्पिक प्रणाली की भी सिफारिश की.[8]केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक ने संसदीय स्थायी समिति की सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया और मलाईदार परत (अति धनी) को शामिल करके आरक्षण विधेयक लाने का फैसला किया। संसद ने ध्वनि मत से ओबीसी आरक्षण पारित किया।[9]अप्रैल 200810 अप्रैल 2008, भारत के सर्वोच्च न्यायलय ने केंद्र सरकार द्वारा समर्थित शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों को 27% आरक्षण देने के क़ानून का अनुमोदन किया, जबकि ओबीसी के बीच के मलाईदार परत को कोटा से बाहर करने करने का सुझाव दिया.[19][20]

चित्र:PopulationEstimations.jpg

**एनएफएचएस (NFHS) सर्वेक्षण केवल हिन्दू ओबीसी (OBC) आबादी का अनुमान है। कुल ओबीसी (OBC) जनसंख्या व्युपत्रित करते हैं यह अभिमान करते हुए के हिंदू ओबीसी (OBC) आबादी मुसलमान ओबीसी जनसंख्या के बराबर है

अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजातिभारतीय जनगणना में केवल अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति जनसंख्या का विवरण जमा किया गया। अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या 24.4% है।[21]अन्य पिछड़े वर्ग1931 के बाद, जनगणना में गैर-अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति जाति समूहों के जाति के आकड़े जमा नहीं किये गये। मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना के आधार पर ओबीसी आबादी 52% होने का अनुमान लगाया.ओबीसी जनसंख्या की गणना के लिए मंडल आयोग द्वारा आकलन के लिए इस्तेमाल किये गये तर्क पर विवाद जारी है। प्रसिद्ध चुनाव विश्लेषक और शोधकर्ता, सीएसडीएस के डॉ॰ योगेन्द्र यादव [जो सकारात्मक कार्रवाई के एक ज्ञात पैरोकार हैं] मानते हैं कि मंडल के आंकड़े का कोई अनुभवजन्य आधार नहीं है। उनके अनुसार "अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति, मुसलमानों और अन्य की संख्या को कम करके फिर एक संख्या पर पहुंचने पर आधारित यह एक कल्पित रचना है।"

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 1999-2000 (एनएसएस 99-00) चक्र के अनुमान में देश की आबादी के लगभग 36 प्रतिशत हिस्से को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के रूप में परिभाषित किया गया है। मुसलमान ओबीसी को हटा देने से अनुपात 32 प्रतिशत हो जाता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सांख्यिकी (एनएफएचएस) द्वारा 1998 में किये गये एक सर्वेक्षण ने गैर-मुसलमान ओबीसी का अनुपात 29.8 प्रतिशत बताया। [22] निरीक्षण समिति द्वारा अपनी अंतिम रिपोर्ट में और डॉ॰ योगेंद्र यादव द्वारा इन सर्वेक्षणों को बड़े हद तक स्वीकार किया गया। निरीक्षण समिति ने अपनी अंतिम रिपोर्ट में इन सर्वेक्षणों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया।[10] एनएसएस 99-00 में पिछड़े वर्ग की राज्य जनसंख्या इस लेख के अन्य भाग में पायी जा सकती है।

आरक्षण के समर्थन और विरोध में अनेक तर्क दिए गये हैं। एक पक्ष की ओर से दिए गये तर्कों को दूसरे पक्ष द्वारा खंडित किया जाता है, जबकि अन्य दोनों पक्षों से सहमत हुए हैं, ताकि दोनों पक्षों को समायोजित करने के लिए एक संभाव्य तीसरा समाधान प्रस्तावित हो।

आरक्षण समर्थकों द्वारा प्रस्तुत तर्क[संपादित करें]

  • आरक्षण भारत में एक राजनीतिक आवश्यकता है क्योंकि मतदान की विशाल जनसंख्या का प्रभावशाली वर्ग आरक्षण को स्वयं के लिए लाभप्रद के रूप में देखता है। सभी सरकारें आरक्षण को बनाए रखने और/या बढाने का समर्थन करती हैं। आरक्षण कानूनी और बाध्यकारी हैं। गुर्जर आंदोलनों (राजस्थान, 2007-2008) ने दिखाया कि भारत में शांति स्थापना के लिए आरक्षण का बढ़ता जाना आवश्यक है।
  • हालांकि आरक्षण योजनाएं शिक्षा की गुणवत्ता को कम करती हैं लेकिन फिर भी अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका, मलेशिया, ब्राजील आदि अनेक देशों में सकारात्मक कार्रवाई योजनाएं काम कर रही हैं। हार्वर्ड विश्वविद्याल में हुए शोध के अनुसार सकारात्मक कार्रवाई योजनाएं सुविधाहीन लोगों के लिए लाभप्रद साबित हुई हैं।[23] अध्ययनों के अनुसार गोरों की तुलना में कम परीक्षण अंक और ग्रेड लेकर विशिष्ट संस्थानों में प्रवेश करने वाले कालों ने स्नातक के बाद उल्लेखनीय सफलता हासिल की। अपने गोरे सहपाठियों की तुलना में उन्होंने समान श्रेणी में उन्नत डिग्री अर्जित की हैं। यहां तक कि वे एक ही संस्थाओं से कानून, व्यापार और औषधि में व्यावसायिक डिग्री प्राप्त करने में गोरों की तुलना में जरा अधिक होनहार रहे हैं। वे नागरिक और सामुदायिक गतिविधियों में अपने गोरे सहपाठियों से अधिक सक्रिय हुए हैं।[24]
  • हालांकि आरक्षण योजनाओं से शिक्षा की गुणवत्ता में कमी आई है लेकिन विकास करने में और विश्व के प्रमुख उद्योगों में शीर्ष पदों आसीन होने में, अगर सबको नहीं भी तो कमजोर और/या कम प्रतिनिधित्व वाले समुदायों के अनेक लोगों को सकारात्मक कार्रवाई से मदद मिली है। (तमिलनाडु पर अनुभाग देखें) शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण एकमात्र समाधान नहीं है, यह सिर्फ कई समाधानों में से एक है। आरक्षण कम प्रतिनिधित्व जाति समूहों का अब तक का प्रतिनिधित्व बढ़ाने वाला एक साधन है और इस तरह परिसर में विविधता में वृद्धि करता है।
  • हालांकि आरक्षण योजनाएं शिक्षा की गुणवत्ता को कमजोर करती हैं, लेकिन फिर भी हाशिये में पड़े और वंचितों को सामाजिक न्याय प्रदान करने के हमारे कर्तव्य और उनके मानवीय अधिकार के लिए उनकी आवश्यकता है। आरक्षण वास्तव में हाशिये पर पड़े लोगों को सफल जीवन जीने में मदद करेगा, इस तरह भारत में, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी व्यापक स्तर पर जाति-आधारित भेदभाव को ख़त्म करेगा। (लगभग 60% भारतीय आबादी गांवों में रहती है)
  • आरक्षण-विरोधियों ने प्रतिभा पलायन और आरक्षण के बीच भारी घाल-मेल कर दिया है। प्रतिभा पलायन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार बड़ी तेजी से अधिक अमीर बनने की "इच्छा" है। अगर हम मान भी लें कि आरक्षण उस कारण का एक अंश हो सकता है, तो लोगों को यह समझना चाहिए कि पलायन एक ऐसी अवधारणा है, जो राष्ट्रवाद के बिना अर्थहीन है और जो अपने आपमें मानव जाति से अलगाववाद है। अगर लोग आरक्षण के बारे में शिकायत करते हुए देश छोड़ देते हैं, तो उनमें पर्याप्त राष्ट्रवाद नहीं है और उन पर प्रतिभा पलायन लागू नहीं होता है।
  • आरक्षण-विरोधियों के बीच प्रतिभावादिता (meritrocracy) और योग्यता की चिंता है। लेकिन प्रतिभावादिता समानता के बिना अर्थहीन है। पहले सभी लोगों को समान स्तर पर लाया जाना चाहिए, योग्यता की परवाह किए बिना, चाहे एक हिस्से को ऊपर उठाया जाय या अन्य हिस्से को पदावनत किया जाय. उसके बाद, हम योग्यता के बारे में बात कर सकते हैं। आरक्षण या "प्रतिभावादिता" की कमी से अगड़ों को कभी भी पीछे जाते नहीं पाया गया। आरक्षण ने केवल "अगड़ों के और अधिक अमीर बनने और पिछड़ों के और अधिक गरीब होते जाने" की प्रक्रिया को धीमा किया है। चीन में, लोग जन्म से ही बराबर होते हैं। जापान में, हर कोई बहुत अधिक योग्य है, तो एक योग्य व्यक्ति अपने काम को तेजी से निपटाता है और श्रमिक काम के लिए आता है जिसके लिए उन्हें अधिक भुगतान किया जाता है। इसलिए अगड़ों को कम से कम इस बात के लिए खुश होना चाहिए कि वे जीवन भर सफेदपोश नागरिक हुआ करते हैं।

आरक्षण-विरोधियों के तर्क[संपादित करें]

  • जाति आधारित आरक्षण संविधान द्वारा परिकल्पित सामाजिक विचार के एक कारक के रूप में समाज में जाति की भावना को कमजोर करने के बजाय उसे बनाये रखता है। आरक्षण संकीर्ण राजनीतिक उद्देश्य की प्राप्ति का एक साधन है।
  • कोटा आवंटन भेदभाव का एक रूप है, जो कि समानता के अधिकार के विपरीत है।
  • आरक्षण ने चुनावों को जातियों को एक-दूसरे के खिलाफ बदला लेने के गर्त में डाल दिया है और इसने भारतीय समाज को विखंडित कर रखा है। चुनाव जीतने में अपने लिए लाभप्रद देखते हुए समूहों को आरक्षण देना और दंगे की धमकी देना भ्रष्टाचार है और यह राजनीतिक संकल्प की कमी है। यह आरक्षण के पक्ष में कोई तर्क नहीं है।
  • आरक्षण की नीति एक व्यापक सामाजिक या राजनीतिक परीक्षण का विषय कभी नहीं रही। अन्य समूहों को आरक्षण देने से पहले, पूरी नीति की ठीक से जांच करने की जरूरत है और लगभग 60 वर्षों में इसके लाभ का अनुमान लगाया जाना जरूरी है।
  • शहरी संस्थानों में आरक्षण नहीं, बल्कि भारत का 60% जो कि ग्रामीण है उसे स्कूलों, स्वास्थ्य सेवा और ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं की जरूरत है।
  • "अगड़ी जातियों" के गरीब लोगों को पिछड़ी जाति के अमीर लोगों से अधिक कोई भी सामाजिक या आर्थिक सुविधा प्राप्त नहीं है। वास्तव में परंपरागत रूप से ब्राह्मण गरीब हुआ करते हैं।
  • आरक्षण के विचार का समर्थन करते समय अनेक लोग मंडल आयोग की रिपोर्ट का हवाला देते हैं। आयोग मंडल के अनुसार, भारतीयों की 52% आबादी ओबीसी श्रेणी की है, जबकि राष्ट्रीय सर्वेक्षण नमूना 1999-2000 के अनुसार, यह आंकड़ा सिर्फ 36% है (मुस्लिम ओबीसी को हटाकर 32%).[25]
  • सरकार की इस नीति के कारण पहले से ही प्रतिभा पलायन [11] में वृद्धि हुई है और आगे यह और अधिक बढ़ सकती है। पूर्व स्नातक और स्नातक उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालयों का रुख करेंगे।
  • अमेरिकी शोध पर आधारित आरक्षण-समर्थक तर्क प्रासंगिक नहीं हैं क्योंकि अमेरिकी सकारात्मक कार्रवाई में कोटा या आरक्षण शामिल नहीं है। सुनिश्चित कोटा या आरक्षण संयुक्त राज्य अमेरिका में अवैध हैं। वास्तव में, यहां तक कि कुछ उम्मीदवारों का पक्ष लेने वाली अंक प्रणाली को भी असंवैधानिक करार दिया गया था।[26]. इसके अलावा, सकारात्मक कार्रवाई कैलिफोर्निया, वाशिंगटन, मिशिगन, नेब्रास्का और कनेक्टिकट में अनिवार्य रूप से प्रतिबंधित है[27]. "सकारात्मक कार्रवाई" शब्दों का उपयोग भारतीय व्यवस्था को छिपाने के लिए किया जाता है जबकि दोनों व्यवस्थाओं के बीच बड़ा फर्क है।
  • आधुनिक भारतीय शहरों में व्यापारों के सबसे अधिक अवसर उन लोगों के पास हैं जो ऊंची जातियों के नहीं हैं। किसी शहर में उच्च जाति का होने का कोई फायदा नहीं है।
  • आरक्षण वैसे खत्म नहीं होना चाहिए सिर्फ आर्थिक स्थिति देखकर आरक्षण देना चाहिए जाति के आधार पर नहीं

समस्या का समाधान खोजने के लिए नीति में परिवर्तन के सुझाव निम्नलिखित हैं।

सच्चर समिति के सुझाव

  • सच्चर समिति जिसने भारतीय मुसलमानों के पिछड़ेपन का अध्ययन किया है, ने असली पिछड़े और जरूरतमंद लोगों की पहचान के लिए निम्नलिखित योजना की सिफारिश की है।[12]
योग्यता के आधार पर अंक: 60घरेलू आय पर आधारित (जाति पर ध्यान दिए बिना) अंक : 13जिला (ग्रामीण/शहरी और क्षेत्र) जहां व्यक्ति ने अध्ययन किया, पर आधारित अंक : 13पारिवारिक व्यवसाय और जाति के आधार पर अंक : 14कुल अंक : 100

सच्चर समिति ने बताया कि शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग हिंदुओं की उपस्थिति उनकी आबादी के लगभग बराबर/आसपास है।[28]. भारतीय मानव संसाधन मंत्री ने भारतीय मुसलमानों पर सच्चर समिति की सिफारिशों के अध्ययन के लिए तुरंत एक समिति नियुक्त कर दी, लेकिन किसी भी अन्य सुझाव पर टिप्पणी नहीं की। इस नुस्खे में जो विसंगति पायी गयी है वो यह कि प्रथम श्रेणी के प्रवेश/नियुक्ति से इंकार की स्थिति भी पैदा हो सकती है, जो कि स्पष्ट रूप से स्वाभाविक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है।

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के सुझाव

  • यह सुझाव दिया गया है कि यद्यपि भारतीय समाज में काम से बहिष्करण में जाति एक महत्वपूर्ण कारक है; लेकिन लिंग, आर्थिक स्थिति, भौगोलिक असमानताएं और किस तरह की स्कूली शिक्षा प्राप्त हुई; जैसे अन्य कारकों को पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता हैं। उदाहरण के लिए, किसी गांव या नगर निगम के स्कूल में पढ़नेवाला बच्चा समाज में उनके समान दर्जा प्राप्त नहीं करता है जिसने अभिजात्य पब्लिक स्कूल में पढ़ाई की है, भले ही वह किसी भी जाति का हो। कुछ शिक्षाविदों का कहना है कि सकारात्मक कार्रवाई की बेहतर प्रणाली यह हो सकती है कि जो समाज में काम में बहिष्करण के सभी कारकों पर ध्यान दे, जो किसी व्यक्ति की प्रतिस्पर्धी क्षमताओं को प्रतिबंधित करते हैं। इस संबंध में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल द्वारा मल्टीपल इंडेक्स अफर्मटिव एक्शन [एमआईआरएए (MIRAA)] प्रणाली (यहां देखें: https://web.archive.org/web/20101111110115/http://www.sabrang.com/cc/archive/2006/june06/report3.html) के रूप में और सेंटर फॉर द स्टडी डेवलपिंग सोसाइटीज [सीएसडीएस (CSDS)] के डॉ॰ योगेंद्र यादव और डॉ॰ सतीश देशपांडे द्वारा उल्लेखनीय योगदान किया गया है।

अन्य द्वारा दिये गये सुझाव

  • आरक्षण का निर्णय उद्देश्य के आधार पर लिया जाना चाहिए।
  • प्राथमिक (और माध्यमिक) शिक्षा पर यथोचित महत्व दिया जाना चाहिए ताकि उच्च शिक्षा संस्थानों में और कार्यस्थलों में अपेक्षाकृत कम प्रतिनिधित्व करनेवाले समूह स्वाभाविक प्रतियोगी बन जाएं.
  • प्रतिष्ठित उच्च शिक्षा संस्थानों (जैसे आईआईटी (IITs)) में सीटों की संख्या को बढ़ाया जाना चाहिए।
  • आरक्षण समाप्त करने के लिए सरकार को दीर्घकालीन योजना की घोषणा करनी चाहिए।
  • जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए सरकार को बड़े पैमाने पर[29] अंतर्जातीय विवाह[30] को बढ़ावा देना चाहिए, जैसा कि तमिलनाडु द्वारा शुरू किया गया।[31]

ऐसा इस कारण है क्योंकि जाति व्यवस्था की बुनियादी परिभाषिक विशेषता सगोत्रीय विवाह है। ऐसा सुझाव दिया गया है कि अंतर्जातीय विवाह से पैदा हुए बच्चों को आरक्षण प्रदान किया जाना समाज में जाति व्यवस्था को कमजोर करने का एक अचूक तरीका होगा।

भारत में महिलाओं के लिए आरक्षण की क्या व्यवस्था है?

यह भारत की संसद के निचले सदन, लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए सभी सीटों में से 1/3 सीटों को आरक्षित करने के लिए भारत के संविधान में संशोधन करने का प्रस्ताव करता है। राज्यसभा ने 9 मार्च 2010 को विधेयक पारित किया था। हालांकि, लोकसभा ने विधेयक पर कभी मतदान नहीं किया।

महिलाओं को 50% आरक्षण कब दिया गया?

संवैधानिक प्रावधान भारतीय संविधान के 73 वें संविधान संशोधन अधिनियम, अप्रेल 1993 ने पंचायत के विभिन्न स्तरों पर पंचायत सदस्य और उनके प्रमुख दोनों पर महिलाओं के लिए एक-तिहाई स्थानों के आरक्षण का प्रावधान किया । जिसमें देश के सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में सन्तुलन आये।

महिलाओं को कितना आरक्षण प्राप्त है?

Conclusion Point. भारत के ज्यादातर 21 बड़े राज्यों में ग्राम पंचायत के पदों में महिलाओं को 50% आरक्षण प्राप्त है. इसका सीधा मतलब यह हुआ कि, पंचायती राज के पद में महिलाओं के लिए 50% सीट सुरक्षित यानी Reversed है. ग्राम पंचायतों में महिलाओं के लिए 50% सीटों का आरक्षण सही दिशा में एक कदम है।

महिला आरक्षण से आप क्या समझते हैं?

महिला आरक्षण विधेयक भारतीय संसद में प्रस्तुत किया गया वह विधेयक है जिसके पारित होने से संसद में महिलाओं की भागीदारी 33% सुनिश्चित हो जाएगी। यद्यपि इस विधेयक को पहले भी कई बार संसद में प्रस्तुत किया जा चुका है, लेकिन इस बार लगभग सभी दल इस विधेयक के समर्थन में हैं