आदिकाल को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने क्या कहा? - aadikaal ko hajaaree prasaad dvivedee ne kya kaha?

मुख्यपृष्ठनोट्सआदिकाल की समय अवधि/आदिकाल की समय सीमा क्या है

आदिकाल की समय अवधि/आदिकाल की समय सीमा क्या है

आदिकाल के सीमा अवधि के प्रश्न पर विद्वानों में मतभेद है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास नामक ग्रंथ में आरंभिक काल का समय संवत् 1050 से संवत् 1375 माना है। आचार्य शुक्ला ने आदिकाल की सीमा निर्धारित करते समय दसवीं शताब्दी से पूर्व के साहित्य अलग कर दिया था। शुक्ला जी मूंज और भोज के समय (संवत् 1050) से ही हिंदी का विकास मानते हैं। ऐसा मानते हुए वे आठवीं से दसवीं शताब्दी तक के सिद्ध जैन आदि कवियों के साहित्य को आदिकाल में सम्मिलित नहीं करते हैं। शुक्ला जी का यह मत पूर्वाग्रह से युक्त है। अतः इसे तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता।

    आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार 10वीं से 14वीं सदी तक के साहित्य को आदिकाल में शामिल करते हैं। द्विवेदी जी आदिकाल और उसकी भाषा का विवेचन करते हुए लिखते हैं कि 10 वीं -14वीं शताब्दी के उपलब्ध लोक भाषा साहित्य को अपभ्रंश से थोड़ा भिन्न भाषा का साहित्य कहा जा सकता है। वस्तुत: वह हिंदी की आधुनिक बोलियों में से किसी के रूप में ही उपलब्ध होता है। यही कारण है कि हिंदी साहित्य इतिहास लेखक 10वीं शताब्दी से इस साहित्य का आरंभ स्वीकार करते हैं। इसी समय से हिंदी भाषा का आदि काल माना जा सकता है मिश्र बंधु, ग्रियर्सन, शिवसिंह सेंगार, आदि विद्वानों का भी यही मानना है।
       दूसरी ओर जब हिंदी के प्रथम कवि के रूप में सरहपाद को स्वीकार करते हुए आदिकाल की आरंभिक सीमा का निर्धारण करते हैं तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि द्वारा निर्धारित आरंभिक सीमा पर प्रश्नचिह्न उपस्थित हो जाता है। वही राहुल सांकृत्यायन में सरहपाद का समय 769 ई. माना गया है और इस आधार पर आदिकाल की पूर्व सीमा 769 ई. के लगभग किया गया है। यह सत्य है कि कोई भी साहित्यिक आंदोलन किसी एक दिन से अथवा तिथि विशेष आरंभ नहीं हो जाता। ऐसी स्थिति में 8वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध को आदिकाल के पूर्व सीमा माना जा सकता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल वीरगाथा काल की अंतिम सीमा संवत्  (1050-1375) निर्धारित करते हैं। डॉक्टर ग्रियर्सन ने इस काल की अंतिम सीमा सन् 1400 और मिश्र बंधुओं ने सन् 1387 इसमें निर्धारित की है। ग्रियर्सन तथा मिश्रा बंधुओं द्वारा किया गया यह सीमांकन उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि इस समय तक भक्ति काव्य का सूत्रपात हो चुका था। डॉ रामकुमार वर्मा ने शुक्ला जी के मत से सहमति प्रकट की हैं। जब रामाशंकर शुक्ल रसाल ने सन् 1343 ईस्वी को आदिकाल की आरंभिक सीमा मानी है। इस प्रकार आचार्य शुक्ल के दी हुई थी थी को स्वीकार करते हुए लगभग 2-3 दशक के समय तक आदिकाल के अंतिम सीमा माना जा सकता है क्योंकि जिस प्रकार कोई साहित्यिक विचारधारा अचानक आरंभ नहीं हो जाती उसी प्रकार अचानक लुप्त भी नहीं हो जाती। अतः मोटे रूप में आदिकाल के आरंभिक सीमा 8वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध तथा अंतिम सीमा 14 वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध मानी जानी चाहिए।

इसे भी पढ़ें : आदिकाल की विशेषताएं,   आदिकाल की परिस्थितियां , भक्ति काल की विशेषताएं

अपभ्रंश साहित्य के विभिन्न स्रोतों और उसकी परंपराओं का अध्ययन करने के उपरांत एक जिज्ञासा

स्वाभाविक रूप से सामने उठ खड़ी होती है कि क्या अपभ्रंश को हिंदी कहा जाय ? क्योंकि इस जिज्ञासा के

प्रशमन में ही हिंदी के आदिकाल का बोध छिपा है। तभी तो उस काल की अर्थात आदिकालीन हिंदी साहित्य

की प्रवृत्तियों का रेखांकन संभव हो पाया न ?

विभिन्न इतिहासकार हिंदी साहित्य के इतिहास-लेखन के पूर्व अपभ्रंश साहित्य को उसकी पूर्वपीठिका

के रूप में स्वीकार करते रहे हैं। यह परंपरा मिश्रबंधुओं से ही प्रारंभ हुई है। चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने तो अपभ्रंश

को ‘पुरानी हिंदी’ ही कहा है। अपभ्रंश के संबंध में उनका यही स्पष्ट मत था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी

अपभ्रंश को ‘प्राकृताभास हिंदी’ अथवा ‘प्राकृत रूढ़ियों से बहुत कुछ बद्ध हिंदी’ ही कहा है। उनका कहना

है कि “हिंदी काव्य-भाषा के पुराने रूप का पता हमें विक्रम की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लगता है

अपभ्रंश यह प्राकृताभास हिंदी के पद्यों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और योगामर्गी बौद्धों की सांप्रदायिक

रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लगता है।” स्पष्ट है शुक्ल जी अपभ्रंश को

हिंदी का पुराना रूप मानते हैं। ‘सिद्ध-सामंत-काल’ की सार्थकता बताते हुए राहुल जी भी अपभ्रंश की पुरानी

रचनाओं को बौद्ध-सिद्ध के पदों और दोहों को हिंदी ही बता गये हैं। जाहिर है अधिकांश विद्वान प्रकारांतर

से अपभ्रंश को हिंदी के रूप में स्वीकार करते रहे हैं। हालाँकि आज भी यह उलझन बनी हुई है कि क्या वास्तव

में अपभ्रंश हिंदी ही का पूर्व रूप है ?

वास्तव में भाषा वैज्ञानिकों ने अपभ्रंश और हिंदी को पूर्णतया दो भिन्न स्वतंत्र भाषाएँ माना है। वे मानते

हैं कि 1300 ई. तक का काल अपभ्रंश साहित्य का काल है। हिंदी की रचनाएँ उसके बाद आती हैं। 13वीं-

14वीं शताब्दी तक अपभ्रंश से प्रत्यक्ष विलग हिंदी का रूप पूर्णतया निखरा हुआ नहीं मिलता । वह कार्य अभी

हो ही रहा था। राहुल जी ने बाद में स्पष्ट किया कि “हम जब पुराने कवियों की भाषा को हिंदी कहते है,

तो इस पर मराठी, उड़िया, बंगला, असमिया, गोरखा, पंजाबी एवं गुजराती भाषा-भाषियों को आपत्ति हो सकती

है क्योंकि ये सारी भाषाएँ बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में अपभ्रंश से अलग होती दिखाई पड़ती हैं। वस्तुत: ये सिद्ध-सामंतयुगीन कवियों की रचनाएँ इन सभी भाषाओं की सर्मिलत निधि हैं।” ऐसे ही आचार्य हजारी प्रसाद

द्विवेदी भी मानते हैं कि “यह विचार (अपभ्रंश को हिंदी कहना) भाषा शास्त्रीय और वैज्ञानिक नहीं है।” स्पष्ट

है, गुलेरी जी का यह विचार-“अपभ्रंश को पुरानी हिंदी कहना अनुचित नहीं” पूर्णत: अनुचित लगता है।

आदिकाल की चर्चा करते समय आचार्य द्विवेदी ने मूल हिंदी भाषी प्रदेश में हिंदी की रचनाओं के अभाव

की चर्चा करते हुए उसके लिये राजाश्रय का अभाव, धर्माश्रय का अभाव और लोक में मौखिक रूप में प्रचलन

की ओर निर्देश किया है। स्पष्ट है लगभग 12वीं शती तक अगर अपभ्रंश भाषा और साहित्य का समय था

तो फिर हिंदी की रचनाएँ तब मिलती ही कैसे? उस समय तक तो हिंदी का स्वरूप ही स्थिर नहीं हो सका

था । यही कारण है कि इस काल में हिंदी की रचनाएँ बिल्कुल नहीं मिलती। इतना ही नहीं, अपभ्रंश की

काव्य-रचनाओं में तीन प्रकार के बंध प्रयुक्त हुए हैं—दोहाबंध, पद्धड़िया बंध और गेय पदबंध । इनके अतिरिक्त

छप्पय, कुंडलिया आदि के भी बंध थोड़े-बहुत मिलते हैं। दोहा या दूहा अपभ्रंश का बड़ा ही प्यारा छंद रहा

है। अपभ्रंश को तो कई लोग ‘दूहा विधा’ तक कहते रहे हैं। दोहों में धार्मिक उपदेश, नीतिविषयक बातें,

वीररसात्मक उद्गार और शृंगारपरक उक्तियाँ मिलती हैं। ‘संगीत रत्नकार’ में दोहे का व्युत्पादन द्विपथ से किया

गया है। रासो’ के ‘साटक गाह दुहत्थ’ में प्रयुक्त ‘दुहत्थ’ शब्द के हत्थ’ का अर्थ यदि पंक्ति में लिया जाय

तो ऐसी स्थिति में ‘दुहत्थ’ (द्विहस्त) से भी व्युत्पादन माना जा सकता है।

अधिकांश जैन चरित-काव्यों में पद्धड़ियाबंध में मिलते हैं। पद्धरी या पद्धड़िया छंद की लगभग

आठ-आठ पंक्तियों के बाद धत्ता देने की पद्धति मिलती है। इसे ‘कड़बक’ कहते हैं। ‘पद्धरी’ सोलह मात्राओं

का छंद है। इसी के नाम पर ‘पद्धड़िया, बंध कहा जाता है। ‘अलिल्लह’ आदि छंदों में लिखे गये काव्य भी

‘पद्धड़िया छंद’ के अंतर्गत ही हैं। पूर्वी अंचल में इसी बंध के समानान्तर चौपाई और दोहों की पद्धति मिलती

है। इसी का प्रयोग कवि सरहपा ने किया है। गेय पदबंध में गाने योग्य पद रखे जाते थे, जिसका साहित्य

अपेक्षया कम है। संदेश रासक में यही बंध है। संपूर्ण रूप से ‘रासक’ छंद ‘गेय पदबंध, के अंतर्गत ही

आते हैं।

कई बार बंध को अपभ्रंश में काव्य-रूप का पर्याय मान लेने की भी स्थिति बनती है। काव्य-रूपों की

दृष्टि से अपभ्रंश में प्रबंधात्मक काव्य, खंडकाव्य और मुक्तक काव्य मिलते हैं। जैन चरितकाव्य अधिकतर

प्रबंधात्मक ही हैं। इनमें भाषा, छंद, अलंकार, भाव इत्यादि का रूप अधिक निखरा हुआ मिलता है। खंडकाव्यों

में दो के नाम ही महत्त्वपूर्ण है—’संदेश रासक, और विद्यापति कृत ‘कीर्तिलता’ । विशुद्ध साहित्य की दृष्टि से

इन दोनों काव्यों का संपूर्ण अपभ्रंश साहित्य में अत्यधिक महत्त्व है। मुक्तक रचनाएँ अधिकतर सांप्रदायिक शिक्षा

के लिये ही उपयोगी हैं। इनमें धर्मोपदेश आदि ही प्रमुख हैं।

परंतु यह तय है कि अपभ्रंश भाषा और साहित्य का हिंदी भाषा और साहित्य दोनों से गहरा संबंध

है। भाषा, भाव, छंद-विधान, काव्य-रूप और काव्य-रूढ़ियाँ आदि सभी दृष्टियों से हिंदी अपभ्रंश की ऋणी

है। अपभ्रंश के चरित-काव्यों का स्पष्ट रूपेण हिंदी रासो काव्य पर प्रभाव देखा जा सकता है। राजाओं के वैभव, बहुविवाह, युद्ध इत्यादि के वर्णन में अपभ्रंश के चरित-काव्यों की प्रवृत्ति पूर्णतया मिलती है। संदेश रासक

और ‘भविस्यत कहा’ आदि काव्यों का प्रभाव हिंदी के विरह-काव्यों पर अत्यधिक पड़ा है। कल्पनापसूत

आख्यान-काव्यों में इन ग्रंथों का ही प्रभाव है। भक्तिकाल में जो संत-काव्य लिखे गये, उनपर सिद्धों और नार्थों

का स्पष्ट प्रभाव है। बल्कि संत-काव्य की भूमि वहीं तैयार हुई है। इनकी खंडनात्मक प्रवृत्ति, उलटबाँसियों एवं

दृष्टकूटों का पूर्व रूप यहीं उपलब्ध हो जाता है। सूफी आख्यानों का धार्मिक रूप लगभग जैन-आख्यानों में

मिल जाता है। शृंगारकालीन काव्य में ‘नख-शिख-वर्णन’ षड्ऋतु-वर्णन एवं शृंगार-अतिरेक के चित्रण भरे

पड़े हैं। स्पष्ट है, शृंगार-काल तक अपभ्रंश से काव्य-विषय तक लिये गये मिलते हैं। इसीलिये आदिकालीन

साहित्य पर विचार करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है-“वस्तुत: छंद, काव्यगत रूप,

वक्तव्य-वस्तु, कवि-रूढ़ियों और परंपराओं की दृष्टि से यह साहित्य अपभ्रंश साहित्य का बढ़ावा है।”

हिंदी में जिन मात्रिक छंदों का प्रचलन प्रचुर रूप में हो रहा है, उनके पूर्व रूप यहीं उपलब्ध होते हैं।

पद्धरी, दोहा, चौपाई, सवैया, घनाक्षरी, छप्पय, कुंडलिया, रोला इत्यादि छंद यहाँ भरपूर रूप में उपलब्ध होते हैं।

सवैया ‘अपभ्रंश’ के त्रोटक का द्विगुणित रूप ही है। रोला का उपयोग धनपाल ने किया है। अन्य छंद तो

बहुप्रचलित रहे ही हैं। काव्य रूपों के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है। ‘रासक काव्य-रूप’ अपभ्रंश

से ही हिंदी में आया है। चरित-काव्यों की परंपरा तो शृंगारकालीन प्रशस्ति-काव्यों तक में मिलती है। कबीर,

सूर, तुलसी और मीरा आदि की पदशैली का पूर्व रूप अपभ्रंश में ही वर्तमान है। प्रबंध काव्यों में मंगलाचरण,

आत्मनिवेदन, सज्जनप्रशंसा, दुर्जन-निंदा, संवाद के सहारे कथा का बढ़ना आदि काव्य-रूढ़ियाँ अपभ्रंश से ही

गृही हैं। डॉ. नामवर सिंह इसी लिये कहते हैं “भावधारा के विषय में अपभ्रंश से हिंदी का जहाँ केवल

ऐतिहासिक संबंध है, वहाँ काव्य-रूपों और छंदों के क्षेत्र में उसपर अपभ्रंश की गहरी छाप है। रूप-विधान

विषय-वस्तु की अपेक्षा धीरे-धीरे बदलता है। यही कारण है कि हिंदी ने अपभ्रंश की काव्य संबंधी अनेक

परिपाटियों को ज्यों का त्यों और कुछ थोड़ा सुधार कर स्वीकार कर लिया। इस तरह हिंदी ने अपभ्रंश की जीवंत

परंपरा को भाषा और साहित्य दोनों क्षेत्रों में ऐतिहासिक विकास दिया।”

आचार्च द्विवेदी लिखते हैं—“इस प्रकार, हिंदी साहित्य में प्रायः पूरी परंपराएँ ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं।

शायद ही किसी प्रांतीय साहित्य में ये सारी की सारी विशेषताएँ इतनी मात्रा में और इस रूप में सुरक्षित हों।

यह सब देखकर यदि हिंदी को अपभ्रंश साहित्य से अभिन्न समझा जाता है तो इसे बहुत अनुचित नहीं कहा

जा सकता। इन ऊपरी साहित्य-रूपों को छोड़ भी दिया जाय, तो भी इस साहित्य की प्राणधारा निरविच्छिन्न

रूप से परवर्ती हिंदी साहित्य में प्रवाहित होती रही है।”

अस्तु यह निर्विवाद है कि अपभ्रंश साहित्य ने हिंदी-साहित्य को हर तरह से प्रभावित किया है। अस्तु यह कहना एक यथार्थ है कि पुरानी हिंदी का विकास अपभ्रंश से ही हुआ है। जहाँ पर अंतर थोड़ा होता है वहाँ संक्रांति के समय का पता लगाना कठिन हो जाता है। संवत् 1050 के लगभग अपभ्रंश के दूहा साहित्य का खूब प्रचार था । लगभग उसी समय से हिंदी का जन्म समझा जाना चाहिये । इसी आधार पर काशी प्रसाद जायसवाल ने सहपा नामक प्रसिद्ध सिद्ध को हिंदी का प्रथम कवि माना था । वे सातवीं सदी में विद्यमान थे। सिद्धों और जैनाचार्यों ने धर्म की प्रेरणा से अधिक लिखा, साहित्यिक प्रेरणा से कम । इस प्रकार जैसे-जैसे हिंदी का विकास होता गया, वह प्राकृत और अपभ्रंश के बंधनों से छूटती गयी और संस्कृत के तत्सम शब्दों को अपनाती गयी।

इस काल में दो प्रकार की रचनाएँ हुई हैं—अपभ्रंश की और दूसरी ‘देस-भाषा’ की। अपभ्रंश के पाँच

साहित्य-ग्रंथ मिलते हैं और ‘देस-भाषा के आठ काव्य ग्रंथ मिलते हैं—(1) खुम्माण रासो, (2) वीसलदेव रासो

(3) पृथ्वीराज रासो (4) जयचंद्र प्रकाश (5) जयमयंक जस चंद्रिका (6) परमाल रासो (7) खुसरो की पहेलियाँ,

और (8) विद्यापति की पदावली । इनमें से पहली छह कृतियाँ वीरगाथाओं से संबंध रखती हैं और अंतिम दो स्वतंत्र।