संरक्षी भोजन हमारे शरीर को क्या करता है?
Show
Answer (Detailed Solution Below)Option 2 : प्रतिरक्षा बढ़ाता है। Free AIIMS NORCET Memory Based Paper [Held on 20th November 2021] 200 Questions 200 Marks 180 Mins व्याख्या - प्रतिरक्षा में वृद्धि करता है
Additional Information
Latest AIIMS Nursing Officer Updates Last updated on Sep 27, 2022 All India Institute of Medical Science has released the AIIMS Nursing Officer Result and Cut Off 2022 for the Computer Based Examination. The CBT was held on 11th September 2022. The candidates who are qualified are eligible to apply for seat allocation at any Institute. The highest cut off is for the UR/EWS category candidates i.e 88.4221828 and least cut off is for the SC-PWBD i.e 58.8641294. The final selection list will be released after the seat allocation. The AIIMS Nursing Officer application process was held between 4th August to 21st August 2022. भोजन मनुष्य की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आधारभूत आवश्यकता है जिसके बिना कोई भी प्राणी जीवन की कल्पना नहीं कर सकता है। जीवन के प्रारंभ से जीवन के अंत तक शांत करने तथा शारीरिक विकास के लिये मनुष्य को भोजन की आवश्यकता होती है। डॉ. रंधावा के अनुसार ‘‘भोजन की आदत तथा पर्यावरण जिसमें मनुष्य जीवनयापन करता है, ये घनिष्ट संबंध होता है जिसके लिये मनुष्य सर्वप्रथम स्वयं पर्यावरण से संबंध स्थापित करता है तत्पश्चात उस पर्यावरण के अनुसार वह अपनी आदतें तथा स्वभाव को समायोजित करता है। इन आदतों में मनुष्य सर्वप्रथम भोजन की आदतों का समायोजन तथा बाद में अन्य आवश्यकताओं में संतुलन स्थापित करता है।’’ अली मोहम्मद 2 का मत है कि भोजन तथा खानपान की आदतों के निर्धारण में आय का आकार सार्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है। खानपान की आदतों में लगभग समानता रहते हुए भी आय का आकार तथा भोज्य पदार्थों की भोजन की आदतों में न्यूननाधिक अंतर उत्पन्न करते हैं। ‘‘चौहान आरवी सिंह 2 वे समय अंतराल के साथ-साथ स्थाई आदतों, स्थाई पसंद तथा स्थाई रुचियों में परिवर्तित हो जाती हैं। परिस्थितिकीय अंतर आय का आकार परिवार का आकार खाद्य पदार्थों की उपलब्धता तथा लोगों के जीने का ढंग आदि लोगों की भोजन की आदतों में अंतर के लिये उत्तरदायी होते हैं।’’ इस दृष्टि से अध्ययन क्षेत्र जनपद प्रतापगढ़ में भोजन की आदतों में बहुत अधिक भिन्नता देखने को मिलती है। यद्यपि जनपद के विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले लोग एक ही प्रशासन तंत्र के अंतर्गत नियंत्रित हैं परंतु फिर भी विभिन्न क्षेत्रों में परिस्थितिकीय अंतर, लोगों की भोजन संबंधी आदतों में अंतर उत्पन्न करती है। 1. भोजन की रासायनिक रचनाशारीरिक क्रियाएँ करने के लिये भोजन ठीक उसी प्रकार आवश्यक है जिस प्रकार मोटर कार की गति के लिये पेट्रोल/सतत क्रियाशील रहने के कारण मोटर के विभिन्न पुर्जों की भाँति हमारे शरीर के अवयव भी घिसते, छीजते व नष्ट होते रहते हैं, इस क्षति की पूर्ति अनिवार्य है, यह क्षति-पूर्ति भोजन द्वारा ही संभव होती है। संक्षेप में भोजन निम्नलिखित कार्य करता है : भोजन का वर्गीकरण :भोजन से प्राप्त पोषक तत्वों को कार्य के आधार पर तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। (अ) शारीरिक विकास, वृद्धि एवं जैविक कार्यों के लिये ऊर्जा प्रदान करने
वाले पदार्थ। (अ) शरीर को ऊर्जा प्रदान करने वाले पदार्थ :(1) कार्बोहाइड्रेट्स - (क) स्टार्च देने वाले - यह पोलीसेकेराइड्स होते हैं जो गेहूँ, चावल, चना, जौ तथा विभिन्न दालों में पाये जाते हैं। (ख) शर्करा देने वाले - यह मोनो तथा डाईसेकेराइड्स हैं जो चीनी, गुड़, मीठे फल, आदि से उपलब्ध होते हैं। गन्ने में सुक्रोज, अंगूर में ग्लूकोज अन्य फलों में फ्रक्टोज, दूध में लेक्टोज तथा फलों और सब्जियों में सेलुलोज पाये जाते हैं। (2) वसा - (क) वनस्पति वसा - तिल का तेल, सरसों का तेल, नारियल का तेल, मूंगफली का तेल आदि वनस्पति वसा हैं। (ख) पशुओं से वसा - मछली का तेल, पशुओं की चर्बी, अंडे की जर्दी, दूध, घी, मक्खन इसके अंतर्गत आते हैं। (ब) शरीर का निर्माण एवं पोषक करने वाले पदार्थ -भोज्य पदार्थों से प्राप्त तत्वों की रचना अनेक प्रकार के रासायनिक यौगिकों से हुई है जिन्हें भोजन में पोषक तत्व कहते हैं, जिन्हें अंग्राकित प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है - 1. शरीर निर्माण करने वाले पदार्थ - प्रोटीन (क) प्रोटीन्स - (1) जंतु प्रोटीन - दूध, अंडा, मांस, मछली, पनीर आदि में पाई जाने वाली प्रोटीन ए वर्ग की है। (2) वनस्पति प्रोटीन - गेहूँ, जौ, चना, चवल, मटर, सेम, हरी पत्ती वाली सब्जियों से प्राप्त प्रोटीन देर से पचने के कारण ‘बी’ वर्ग में आती है। (ख) खनिज लवण - (1) फास्फोरस - (2) लोहा - (3) कैल्शियम - (ग) विटामिन्स - (1) जल में घुलनशील विटामिन्स - बी और सी (क) जल में घुलनशील विटामिन बी -विटामिन बी में ग्यारह विटामिन (बी1, बी2, बी3 ....बी12) आते हैं, अत: इस समूह के विटामिन्स को ‘बी कॉम्पलेक्स के नाम से भी संबोधित किया जाता है। विटामिन बी समूह के सभी विटामिनों का नाइट्रोजन एक प्रमुख घटक होता है। इन सभी विटामिनों का प्राणी पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। विटामिन बी1 - इसको थियासिन हाइड्रोक्लोराइड भी कहते हैं यह सफेद और क्रिस्टलीय होता है और जल में घुलनशील है। मटर, अण्डे की जर्दी, सुअर के मांस, दूध तथा अनाजों में पाया जाता है। वयस्क पुरुषों को 1.2 से 1.4 मिग्रा. की आवश्यकता होती है। विटामिन बी2 - इसको राइबोफ्लोबिन भी कहते हैं। यह दूध, पत्तेदार सब्जियाँ तथा फलों में बहुतायत में मिलता है। फलों और विटामिन बी2 को निकोटनिक अम्ल या नियासिन भी कहते हैं। विटामिन बी3 - इसे पेंटोथनिक अम्ल भी कहते हैं। यह विटामिन विशेष रूप से यकृत और वृक्कों में पाया जाता है। विटामिन बी6 - यह सफेद क्रिस्टलीय पदार्थ है जो मटर, मांस, मछली, अण्डे की जर्दी तथा दूध में प्रचुर पाया जाता है। विटामिन बी10 - इसे फोलिक एसिड भी कहते हैं, यह अंकुरित गेहूँ, मटर, सेम, पालक, मसल्स आदि में मिलता है। विटामिन बी12 - यह लाल रंग का क्रिस्टलीय विटामिन है यह मुख्य रूप से दूध, दूध से बने पदार्थ, मांस तथा अण्डों में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। विकास एवं संरक्षण के लिये जितने तत्वों की आवश्यक मात्रा उपयोगी होती है ग्रहण की जानी चाहिए। जो आहार हमारे शरीर की भोजन संबंधी रक्षा एवं दीर्घायु प्राप्त करने हेतु हमारे लिये संतुलित आहार लेना परमावश्यक है। परंतु खेद का विषय है कि अध्ययन क्षेत्र में लोगों का आहार उनकी शारीरिक आवश्यकताओं के अनुसार नहीं है। अध्ययन क्षेत्र में एक बड़ी संख्या को दोनों समय भरपेट भोजन उपलब्ध हो जाये यही बड़ी बात है फिर संतुलित आहार की बात करना उनका मजाक उड़ाना होगा। यह केवल अध्ययन क्षेत्र की ही समस्या नहीं है बल्कि यह समस्या संपूर्ण भारत देश में विद्यमान है। जिन लोगों के पास संतुलित आहार प्राप्त करने के अवसर भी उपलब्ध हैं वे भी अज्ञानता के कारण संतुलित आहार नहीं प्राप्त कर पाते हैं इसी कारण न केवल अध्ययन क्षेत्र में बल्कि समग्र भारत देश में जन साधारण का स्वास्थ्य निम्न कोटि का है। संतुलित आहार की विभिन्नता -विभिन्न व्यक्तियों को अनेक कार्य के अनुसार भोजन में विभिन्न पौष्टिक तत्वों की भिन्न-भिन्न मात्रा की आवश्यकता होती है जो निम्नलिखित बातों पर निर्भर करती है : (1) आयु - बाल्यावस्था में जब शरीर विकसित होता है तब बालक को वसा व प्रोटीन अधिक मात्रा में चाहिए। वृद्धावस्था में पाचनशक्ति दुर्बल हो जाती है तब इन तत्वों की आवश्यकता कम पड़ती है। (2) जलवायु - शीतप्रधान देशों में ग्रीष्म प्रधान देशों की अपेक्षा ताप का अधिक उपयोग होता है अत: शीत प्रदान देशों को अपेक्षाकृत अधिक भोजन की आवश्यकता होती है। (3) लिंग - पुरुष की अपेक्षा नारी को भोजन की मात्रा की आवश्यकता होती है। (4) परिश्रम - शारीरिक परिश्रम करने वाले व्यक्तियों के शरीर में अधिक ऊर्जा व उष्णता का ह्रास होता है, अत: उसकी पूर्ति हेतु अधिक भोजन चाहिए। इनके भोजन में श्वेतसार की मात्रा अधिक होनी चाहिए। मानसिक श्रम करने वाले लोगों को भोजन की कम मात्रा चाहिए परंतु उसमें प्रोटीन की मात्रा अधिक होनी चाहिए। 2. कृषकों का प्रचलित आहार प्रतिरूप :प्रस्तुत शोध में इस शीर्षक के अंतर्गत कृषकों के आहार प्रतिरूप का विश्लेषण किया गया है। इसके लिये सर्वेक्षण से प्राप्त खाद्य पदार्थों को तीन प्रमुख वर्गों में विभाजित किया गया है। प्रथम मुख्य खाद्य पदार्थ, द्वितीय-सहायक खाद्य पदार्थ, तृतीय विशिष्ट खाद्य पदार्थ। मुख्य खाद्य पदार्थ तो सभी वर्गों द्वारा सामान्यतया पेट भरने के लिये ग्रहण किए जाते हैं। ये पदार्थ न केवल प्रचुर मात्रा में ग्रहण किए जाते हैं बल्कि लोगों के भोजन में इन पदार्थों की भागेदारी भी सर्वाधिक रहती है। ‘‘खाद्य पदार्थों में एक वर्ग से दूसरे वर्ग में भिन्नता कम देखने को मिलती है, परंतु तुलनात्मक रूप से छोटे कृषक परिवारों तथा बड़े कृषक परिवारों में यह भिन्नता अधिक दिखाई पड़ती है। उदाहरण के लिये रोटी तथा दाल विभिन्न वर्गों में प्रमुख खाद्य पदार्थों के रूप में प्रचलित हैं परंतु भात सामान्यतया सीमांत कृषक, लघु कृषक तथा लघु मध्यम कृषकों में मुख्य खाद्य के रूप में प्रचलित हैं जबकि मध्यम तथा बड़े आकार वाले कृषक परिवारों में भारत मुख्य खाद्य पदार्थ के रूप में सम्मिलित नहीं रहता है। यह वर्ष के केवल कुछ दिनों ही चावल के रूप में मध्याह्न भोजन में प्रचलित हैं और रात्रिकालीन भोजन के साथ यदा कदा ही सेवन किया जाता है।’’ सब्जियाँ जिन्हें क्षेत्रीय भाषा में तरकारी कहते हैं बड़े तथा मध्यम आकार वाले कृषक परिवारों में मुख्य खाद्य पदार्थों के रूप में प्रचलित हैं जबकि सीमांत और छोटे आकार वाले कृषक परिवारों में सब्जियाँ पूर्णतया अथवा आंशिक रूप से दाल की स्थानापंत पायी जाती हैं और यदाकदा ही इनका उपयोग किया जाता है। अन्य प्रमुख खाद्य पदार्थों में सीमांत तथा छोटे कृषक परिवारों में मांसाहार अधिक प्रचलित है जबकि बड़े कृषक परिवारों में मांसाहार कम प्रचलित है, मुस्लिम परिवारों में मांसाहार प्रमुख खाद्य पदार्थ के रूप में प्रचलित है जिसमें बकरे का मांस, मछली तथा पक्षियों के मांस के प्रमुखता रहती है। कुछ लोगों में अण्डों के सेवन का भी प्रचलन देखा गया। विभिन्न वर्गों की भोजन संबंधी आदतों में प्रचलित कुछ विशेष खाद्य पदार्थों को शामिल किया जा सकता है जिसमें पराठा, खिचरी, सत्तू, महेरी, गादा, कोहरी आदि छोटे कृषक परिवारों में प्रात: कालीन भोजन (नाश्ते) में सामान्य रूप से प्रचलित हैं जबकि बड़े आकार वाले कृषक परिवारों में हलुवा, पूड़ी, दही, सत्तू तथा खिचरी अधिक पसंद किए जाते हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि कठिन परिश्रम के कारण सभी वर्गों में ठोस आहार लेने का प्रचलन है। एक अन्य महत्त्वपूर्ण वर्गीकरण में सहायक खाद्य पदार्थ आते हैं जिनको सूची नं. 1 में दर्शाया गया है, ये खाद्य पदार्थ या तो स्वाद बदलने के लिये मुख्य पदार्थों के साथ सेवन किए जाते हैं या फिर भोजन की मात्रात्मक वृद्धि के लिये इन खाद्य पदार्थों का उपयोग किया जाता है जो अनजाने ही शरीर की अम्लीय आवश्यकताओं की आपूर्ति करने में सहायक बनते हैं। इन पदार्थों का सेवन सभी लोगों द्वारा समान रूप से नहीं किया जाता है इनका सेवन अत्यंत सीमित लोगों तक ही रहता है। सर्वेक्षण में यह पाया गया कि अचार, चटनी तथा मट्ठे का प्रचलन इनकी उपलब्धता के आधार पर लगभग सभी वर्गों में पाया गया जबकि दही, सुरब्बा, घी तथा मक्खन का प्रचलन कुछ बड़े लोगों तक ही सीमित रहता है। शराब का यदा कदा प्रचलन लगभग सभी वर्गों में न्यूनाधिक पाया गया परंतु कच्ची शराब, ठेकेवाली शराब तथा अंग्रेजी शराब के सेवन का आधार आय का आकार बताया गया। अध्ययन क्षेत्र में खाद्य पदार्थ का एक तीसरा महत्त्वपूर्ण वर्ग गौण खाद्य पदार्थों के रूप में सूचीबद्ध किया गया है जिनमें से कुछ स्वादिष्ट तथा यदा कदा अथवा विशेष अवसरों पर ग्रहण किए जाने वाले खाद्य पदार्थ हैं इनमें से कुछ तो सभी लोगों में प्रचलित महत्त्वपूर्ण खाद्य पदार्थ हैं तथा कुछ सामान्य खाद्य पदार्थ हैं। गौण खाद्य पदार्थों में अनेक खाद्य पदार्थ मिश्रित व्यंजन के रूप में सेवन किए जाते हैं, परंतु गुणात्मक भिन्नता वाले ये खाद्य पदार्थ लोगों द्वारा स्वल्प मात्रा में ग्रहण किए जाते हैं क्योंकि इनमें से कुछ तो अत्यंत महँगे होने के कारण आर्थिक रूप से संपन्न, शिक्षित तथा छोटे आकार वाले कृषक परिवारों की पहुँच में आते हैं, जबकि आर्थिक रूप से विपन्न परिवारों की पहुँच से बाहर होने के कारण ये व्यंजन यदाकदा त्योहारों और विशेष अवसरों पर ही सुलभ हो पाते हैं। इन खाद्य पदार्थों का उपयोग परिवार का उपयोग स्तर, जातिगत परंपराएँ तथा व्यक्तिगत आर्थिक स्थिति को चित्रित करता है। सूची नं. 1 विभिन्न वर्ग के परिवारों द्वारा ग्रहण किए जाने वाले शाकाहारी तथा मांसाहारी खाद्य पदार्थों का चित्र प्रस्तुत कर रही है। इन खाद्य पदार्थों का महत्त्व और उनका उपयोग भिन्न-भिन्न वर्ग के लोगों के लिये भिन्न-भिन्न है। मौसम के अनुसार खाद्य पदार्थों की क्षेत्रीय उपलब्धता गौण खाद्य पदार्थों के उपयोग की महत्त्वपूर्ण निर्धारक होती है, ये खाद्य पदार्थ लगभग संपूर्ण अध्ययन क्षेत्र में वर्ष के कुछ दिवसों में ही उपभोग किए जाते हैं। अत: विभिन्न वर्ग के लोगों द्वारा वर्ष में इनकी मात्रा तथा उपयोग अवधि की गणना एक अत्यंत दुष्कर कार्य है परंतु फिर भी अनेक तर्क वितर्कों के बाद निष्कर्ष रूप में यह मत व्यक्त किया जा सकता है कि मुख्य खाद्य पदार्थ तथा सहायक खाद्य पदार्थ वर्ष के अधिकांश दिवसों में उपभोग किए जाते हैं और गौण खाद्य पदार्थ स्वाद बदलने के लिये या विशेष अवसरों पर या त्योहारों पर अथवा स्वास्थ्य लाभ या व्यक्तिगत रुचि के लिये सेवन किए जाते हैं।परंपरागत खाद्य पदार्थों की पहचान के लिये पुन: खाद्य पदार्थों को तीन भागों में बाँटा गया है, जिन्हें सूची नं. 2 में वर्गीकृत करके रखा गया है। इनमें से प्रथम वर्ग में परंपरागत सामान्य खाद्य पदार्थ, दूसरे वर्ग में विशिष्ट खाद्य पदार्थ तथा तीसरे वर्ग में आधुनिक खाद्य पदार्थ रखे गये हैं। खाद्य पदार्थों की इस पहचान का उद्देश्य यह है कि वर्ष भर सेवन किए जाने विभिन्न क्षेत्रीय खाद्य पदार्थ को क्षेत्रीय परंपरागत खाद्य पदार्थ तथा ग्रहण किए गये (गैर परंपरागत) खाद्य पदार्थों को अलग-अलग विभाजित किया जा सके। परंपरागत खाद्य पदार्थ कृषकों द्वारा अपने खेतों पर अथवा क्षेत्र में उत्पन्न किए जाते हैं जबकि ग्रहण किए जाने वाले (तदर्थ) खाद्य पदार्थ या तो बाजार से अपक्व अवस्था में क्रय करके खाने योग्य तैयार किए जाते हैं अथवा खाने योग्य परिपक्व अवस्था में बाजार से क्रय करके उपयोग किए जाते हैं। सूची नं. 2 में वर्गीकृत सामान्य परंपरागत खाद्य पदार्थ सभी क्षेत्रों में सामान्य रूप से उपयोग किए जाते हैं ये खाद्य पदार्थ संपूर्ण रूप से क्षेत्रीय है। इस संबंध में यह कहा जा सकता है कि रोटी दाल भात/चावल तरकारी/सब्जी, सत्तू, खिचरी अध्ययन क्षेत्र में सभी लोगों के लिये प्रमुख खाद्य हैं। विशिष्ट पदार्थों को इस अर्थ में विशिष्ट कहा जाता है कि ये अधिकांश रूप से विशिष्ट अवसरों पर अथवा व्यक्तिगत इच्छानुसार ही उपयोग किए जाते हैं। अधिकांश आधुनिक पदार्थ या तो साप्ताहिक। दैनिक बाजारों से क्रय किए जाते हैं। इन खाद्य पदार्थों में वे पदार्थ भी सम्मिलित है जो भोजन की आंशिक पूर्ति करते हैं अथवा नाश्ते के रूप में ग्रहण किए जाते हैं, इनमें से कोई भी खाद्य पदार्थ संपूर्ण भोजन का स्थान नहीं ग्रहण कर पाता है। इस प्रकार यह वर्गीकरण परंपरागत तथा आधुनिक खाद्य पदार्थों के मध्य एक विभाजन रेखा खींचने में सहायक होता है।खाद्य पदार्थों का एक महत्त्वपूर्ण वर्गीकरण उनके उपयोग की आवृत्ति के अनुसार किया गया है, जिसे विभिन्न जातियों के उपयोग के महत्त्व के आधार पर सूची नं. 3 में प्रस्तुत किया गया है। उपयोग की आवृत्ति के अनुसार खाद्य पदार्थों का वर्गीकरण सामाजिक ढाँचे की भोजन व्यवस्था समझने में सहायक हो सकता है। सूची में प्रस्तुत अति-उच्च आवृत्ति का अर्थ है कि वर्ष में खाद्य पदार्थ लोगों के भोजन में 70 प्रतिशत से अधिक की भागेदारी करते हैं। उच्च आवृत्ति के अंतर्गत के खाद्य पदार्थ आते हैं जिनकी भागेदारी 40 से 70 प्रतिशत के मध्य रहती है। निम्न आवृत्ति 10 से 40 प्रतिशत के मध्य भागेदारी को प्रकट करती है जबकि अतिनिम्न आवृत्ति के अंतर्गत 10 प्रतिशत से कम या यदाकदा ही उपयोग किए जाने वाले खाद्य पदार्थ रखे गये हैं। इन खाद्य पदार्थों का सेवन आर्थिक प्रतिष्ठा अनिवार्य सामाजिक परंपराओं अथवा निजी रुचियों के निर्वहन के लिये किए जाते हैं। इस प्रकार वर्गीकरण करने पर यह देखा गया है कि परंपरागत खाद्य आदतों के कारण विभिन्न वर्ग के लोग उन खाद्य पदार्थों के उपभोग में विशेष रुचि रखते हैं जिन्हें वे एक लंबे समय से उपभोग करते आ रहे हैं। सूची नं. 3 से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि अनुसूचित जाति से संबंधित परिवारों में तथा कुछ हद तक पछिड़ी जातियों में यह देखा गया है कि विभिन्न खाद्य पदार्थों के उपभोग की आवृत्ति मौसम के अनुसार खाद्य पदार्थों की क्षेत्रीय उपलब्धता पर बहुत कुछ निर्भर करता है उदाहरण के लिये रोटी का उपभोग सभी जातियों में अति उच्च आवृत्ति का प्रदर्शन कर रहा है, परंतु उच्च जातियों में सामान्ता गेहूँ की रोटी का प्रचलन है जबकि अनुसूचित जाति तथा पिछड़ी जातियों में मोटे अनाजों की रोटी का भी प्रचलन है। मोटे अनाजों में इन जातियों में दिसंबर से फरवरी तक भात का प्रमुख स्थान रहता है। यह भी देखा गया कि एक ही खाद्य पदार्थ की विभिन्न जातियों में भिन्न-भिन्न पद्धति से उपभोग प्रचलन है। सामान्यतया किसी पदार्थ के उपभोग की पद्धति लोगों की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है, उदाहरण के लिये कच्चे पक्के ज्वार से तैयार होना गेहूँ चना से तैयार होने वाली कोहरी तथा बाजरा-मक्का से निर्मित घुघरी, अनुसूचित वर्ग तथा पिछड़ी जाति निम्न आय वर्ग में केवल उबालकर नमक सहित सेवन करने की प्रथा है जबकि उच्च आय वर्ग के लोगों में उक्त खाद्य सामग्री में मिर्च मसाला आदि मिलाकर अथवा तलकर खाने का प्रचलन है। कुछ खाद्य पदार्थों के संबंध में यह देखा गया कि कुछ लोगों द्वारा इन पदार्थों का सेवन सामाजिक संस्कृति का एक अंग है परंतु कुछ लोगों की जीवन पद्धति में इनका सेवन पूर्णतया वर्जित है जैसे मांस मछली का सेवन मुस्लिम संस्कृति में पारंपरिक है जबकि कुछ हिंदू परिवारों में इनका प्रयोग पूर्णतया वर्जित है। मध्यवर्गीय परिवारों में भी मांसाहार पूर्णतया स्वतंत्र नहीं है। इसी प्रकार यह भी देखा गया कि कुछ खाद्य पदार्थों को पकाने की कुछ परिवारों में अत्यंत सरल विधि है जबकि कुछ परिवारों में यह विधि अत्यंत जटिल है। उच्च जाति की अधिकांश महिलाओं में यह प्रवृत्ति पाई गई कि उनके लिये स्वादिष्ट, उत्तम तथा जटिल पद्धति से खाना पकाना एक सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रश्न होता है और एक ही खाद्य पदार्थ को विभिन्न विधियों से तैयार करना उनकी पाक विद्या की श्रेष्ठता तथा पाक कुशलता का प्रतीक माना जाता है जबकि अनुसूचित जाति तथा पिछड़ी जाति के परिवार की महिलाओं में पुरुषों के समान शारीरिक श्रम तथा कार्यकुशलता को ही महत्व प्रदान किया जाता है।अध्ययन क्षेत्र में प्रचलित आहार प्रतिरूप को समग्र रूप से देखने पर यह तथ्य स्पष्ट होता है कि उपलब्ध समस्त क्षेत्रीय खाद्य पदार्थों को अपक्व, पकाकर या तलकर, एकल रूप में अथवा अन्य खाद्य पदार्थों के साथ मिश्रित रूप में उपभोग करने का प्रचलन है। परंतु भोजन पकाने की विधि एक वर्ग से दूसरे वर्ग में या एक परिवार से दूसरे परिवार में भिन्न भिन्न प्रचलित हैं। भोजन पकाने के संबंध में कहा जा सकता है कि उच्च जाति की महिलाओं में विभिन्न खाद्य पदार्थों को पकाने की विभिन्न विधियाँ सामाजिक श्रेष्ठता, प्रतिष्ठा अथवा उच्च सामाजिक गुणों तथा विभिन्न महिलाओं के मध्य संबंध स्थापन में एक पुल का कार्य करती हैं। इसके बावजूद भी पुरुषों तथा महिलाओं दोनों में संतुलित आहार, पोष्टिक भोजन तथा कुपोषण के ज्ञान का सर्वथा अभाव पाया गया। 3. कृषकों का आहार संतुलन पत्रक :इस शीर्षक के अंतर्गत अध्ययन क्षेत्र के लोगों द्वारा ग्रहण किए जाने वाले खाद्य पदार्थों की मात्रा की गणना करने का प्रयास किया गया है। प्रकाश विश्व के अनुसार ‘‘परिवर्तन के इस दौर में लोगों द्वारा कम पोषक तत्वों से युक्त क्षेत्रीय खाद्य पदार्थों का परित्याग कर अधिक पोषक तत्वों से युक्त खाद्य पदार्थों को महत्त्व दिया जाने लगा है परंतु यह परिवर्तन अभी तक बहुत सीमित स्तर तक ही देखने में आता है, जिन परिवारों का आर्थिक स्तर ऊँचा है या जो परिवार शिक्षित हैं केवल उन्हीं परिवारों में भोजन की पौष्टिकता की ओर कुछ ध्यान आकर्षित किया जा रहा है परंतु संतुलित और पौष्टिक भोजन में विभिन्न खाद्य पदार्थों का संयोजन किस प्रकार किया जाये, इस बारे में ग्रामीण क्षेत्र अभी तक अनजान है।’’ अध्ययन क्षेत्र में विभिन्न खाद्य पदार्थों की क्षेत्रीय उपलब्धता पर निर्भर करता है। दैनिक, साप्ताहिक तथा विशिष्ट अवसरों पर ग्रहण किए जाने वाले खाद्य पदार्थों को इसी शीर्षक में रखा गया है, जिसके अतिरिक्त गर्भवती महिलाओं, शिशु जन्म के बाद तथा शिशिओं को दूध पिलाती माताओं, 3 वर्ष से कम आयु के बच्चों को दिए जाने वाले खाद्य पदार्थ, विवाहोत्सव तथा अंत्येष्टि संबंधी धार्मिक कृत्य संपन्न करने के अवसर पर दिए जाने वाले भोज, लोगों द्वारा प्रात:कालीन, मध्याह्न तथा सांध्यकालीन भोजन में ग्रहण किए जाने वाले खाद्य पदार्थों के साथ-साथ रिश्तेदारों, अन्य आगुन्तकों तथा धार्मिक क्रियाकलाप संपन्न करने वाले पुरोहितों, मौलवियों आदि के लिये की जाने वाली भोजन व्यवस्था को भी इसी शीर्षक में रखा गया है। ग्रामीण लोगों द्वारा प्रतिदिन तथा विशिष्ट अवसरों पर उपभोग किए जाने वाले खाद्य पदार्थों की विस्तृत जानकारी के आधार पर ही उनकी खाद्य पदार्थों की मात्रा का निर्धारण किया गया है। स्वामीपन के एक प्रतिवेदन के आधार पर क्षेत्र में प्रात: लिये जाने वाले खाद्य पदार्थों में, जिसे क्षेत्रीय भाषा में नाश्ता, चबेना तथा कलेवा आदि के नाम से जाना जाता है, सामान्य रूप से परांठा-अचार, सत्तू तथा महेरी का प्रचलन है कुछ परिवार पेय पदार्थ दूध, चाय, मट्ठा आदि का सेवन करते पाये गये जबकि कुछ परिवार दूध से बने पदार्थ खीर, सेवई, दही तथा कुछ परिवार मौसमी उपलब्धता के आधार कोहरी, गादा, भूंजा, चिल्ला, चौसेला तथा यदा कदा नाश्ते में पूड़ी, कचौड़ी, पकौड़ी तथा आलू बण्डे आदि का सेवन करते देखे गये। मध्याह्न के भोजन में रोटी दाल, भात तरकारी, सालन की प्रमुखता पाई गई, कुछ परिवारों में मांसाहारी भोजन भी पाया गया। संध्याकालीन भोजन में भी मध्याह्न के भोजन में सम्मिलित खाद्य पदार्थों का ही प्रमुखता रहती है, हिंदू परिवार मांसाहार सामान्यतया सांध्यकालीन भोजन में ही लेते हैं। निर्धनर परिवारों के लिये उनकी निर्धनता सामान्य भोज्य पदार्थों की आवश्यक मात्रा में उपभोग एक बड़ी बाधा है जिसके कारण निम्न निर्धन तथा कठिन श्रम करने वाले लोगों में मादक पेय पदार्थों के सेवन की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। निर्धनता के कारण ग्रामीण समाज का एक बड़ा वर्ग इस स्थिति में नहीं है कि वह अपने सामान्य भोजन में किसी विशिष्ट खाद्य पदार्थ का समायोजन कर सकें। सर्वेक्षण में यह पाया गया कि मुस्लिम परिवारों को छोड़कर विधवाओं में पूर्णतया शाकाहारी भोजन प्रचलित है जिसमें प्याज़ तथा लहसुन का प्रयोग भी वर्जित है। इसी प्रकार जो लोग साप्ताहिक विशेष दिवसों में, एकादशी, शिवरात्रि, जन्माष्टमी, नव दुर्गा तथा रामनवी आदि पर धार्मिक उपवास अथवा व्रत आदि रखते हैं उनमें भी शुद्ध शाकाहारी भोजन प्रचलित है जिसमें लहसुन, प्याज, नमक तथा कभी-कभी खाद्यान्न का प्रयोग पूर्णतया अथवा आंशिक रूप से वर्जित है, इन लोगों में अधिकांश फलाहार तथा दूध अथवा दूध से बने पदार्थों के सेवन का प्रचलन है, कुछ अवसरों पर प्रसाद के रूप में भी खाद्य पदार्थों के वितरण का भी प्रचलन है, कुछ खाद्य पदार्थ दान दक्षिणा के रूप में पुरोहितों, मौलवियों को भी अर्पित किए जाते हैं। साधू संतों तथा भिक्षाटन में भी खाद्य पदार्थ ही प्रदान किए जाते हैं। किसी क्षेत्र में एक परिवार के लिये उसकी भोजन पद्धति सामाजिक संबंधों की महत्त्वपूर्ण निर्धारण होती है। यह देखा गया है कि लोग अपने वर्ग के आगंतुकों, नाते रिश्तेदारों के लिये सामान्यतया किसी विशेष प्रकार की भोजन व्यवस्था नहीं करते हैं बल्कि सामान्य भोजन जिसमें रोटी, दाल, चावल, सब्जी अचार, चटनी आदि खाद्य प्रमुख होते हैं, प्रस्तुत करते हैं, परंतु कुछ विशेष अवसरों पर लोग आगंतुक अतिथियों के लिये पूड़ी, कचौड़ी, एक से अधिक सब्जियाँ, खीर, रायता, दही, हलवा तथा मिष्ठान आदि की व्यवस्था करते हैं। यह विशिष्ट प्रकार का भोजन विभिन्न वर्गों में उनके आर्थिक स्तर के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है। विशेष भोजन व्यवस्था में मांसाहारी खाद्य पदार्थों के अंतर्गत मांस (बकरे अथवा पक्षियों) मछली, अण्डे की व्यवस्था के साथ-साथ मादक तरल भोजन का ही प्रचलन है, अन्य पेय पदार्थों में चाय तथा शर्बत का आम प्रचलन है। लगभग सभी मुस्लिम परिवारों में मेहमानों को विशेष मांसाहारी भोजन की व्यवस्था की जाती है। जातिगत और आर्थिक स्तर के अनुसार अतिथि सत्कार में प्रचलित खाद्य पदार्थों का प्रचलन है। मौसमी परिवर्तन तथा खाद्य आदतें :किसी क्षेत्र की खाद्य पद्धति तथा खाद्य आदतें बहुत कुछ मौसम परिवर्तन द्वारा नियंत्रित रहती हैं, क्योंकि क्षेत्रीय खाद्य पदार्थों के उत्पादन में विभिन्न मौसमों में भिन्नता पाई जाती है। सर्वेक्षण में यह पाया गया है कि अध्ययन क्षेत्र में सत्तू, कोहरी गादा तथा परांठा, प्रात: कालीन नाश्ते में परंपरागत रूप से प्रचलित है परंतु मौसम परिवर्तन के साथ इन खाद्य पदार्थों की आवृत्ति बदलती रहती है जैसे मई जून तथा जुलाई में चना अथवा चना, जौ से तैयार सत्तू का जबकि अक्टूबर, नवम्बर में मक्का का सत्तू, जुलाई-अगस्त में जब धान की रोपाई का समय होता है तो गेहूँ, चना, मटर, ज्वार तथा बाजरा को उबालकर तैयार कोहरी, परंतु नवंबर दिसंबर में गादा जो हरे ज्वार हरे बाजरा को उबालकर बनाया जाता है, का प्रचलन है, अन्य दिवसों में परांठा, चटनी/अचार, खीर, महेरी, लप्सी, चिल्ला, भकोसा, चौसेला तथा सेवई का सेवन प्रचलित है। इसी प्रकार सायंकालीन तथा मध्याह्न के भोजन में खाद्य पदार्थों का प्रचलन भिन्न-भिन्न देखा गया है। जैसे उच्च वर्ग में तथा आर्थिक रूप से संपन्न वर्गों में लगभग वर्ष भर गेहूँ की रोटी के सेवन की प्रवृत्ति देखी गई, इन परिवारों में मोटे अनाज ज्वार-बाजरा तथा मक्का की रोटी का सेवन केवल स्वाद बदलने तक ही सीमित है जबकि निम्न तथा आर्थिक रूप से विभिन्न जातियों में मोटे अनाज की सेवन प्रवृत्ति अधिक है। इसी प्रकार दालों के संबंध में भिन्नता देखी गई, उच्च वर्ग में अरहर, उड़द, मूंग की दालों का अधिक प्रयोग होता है जबकि निम्न वर्ग में चना तथा मटर दाल का प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक होता है। यही अंतर चावल के उपयोग में देखा गया। निम्न वर्ग में दिसंबर जनवरी तथा फरवरी में चावल/भात की आवृत्ति अधिक रहती है, जबकि मार्च के बाद चावल का प्रयोग कम हो जाता है। सब्जियों का उपयोग भी मौसम परिवर्तन द्वारा नियंत्रित रहता है, अप्रैल से सितंबर तक लौकी, कद्दू, तरोई, चचेंड़ा, घुइयां, भिण्डी, करेला तथा टिंडा आदि का प्रयोग किया जाता है जबकि अक्टूबर के बाद आलू, टमाटर, फूलगोभी, बंदगोभी तथा बैंगन, मूली का प्रयोग बढ़ जाता है, आलू का प्रयोग न्यूनाधिक वर्ष भर रहता है। पत्तेदार सब्जियों में उच्चवर्ग में पालक, चौलाई, मूली, बथुआ, मेंथी, हरे चने की पत्तियाँ, सरसों की पत्तियाँ, बाकड़ा की पत्तियाँ लहिया की पत्तियां, नुनिया, पोई तथा घुइयां के पत्तों का प्रयोग प्रचलित है जबकि निम्न वर्ग में साग, चौलाई, मूली के पत्ते, बथुआ, नुनिया आदि प्राय: प्रचलित है ये पदार्थ कम कीमत पर नि:शुल्क प्राप्त हो जाते हैं। स्पष्ट है कि अधिकांश लोग क्षेत्रीय तथा मौसमी खाद्य पदार्थों से नियंत्रित तथा संचालित होते हैं। जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि अध्ययन क्षेत्र में मुख्यत: हिंदू और मुस्लिम संस्कृति के लोग निवास करते हैं और इन दोनों वर्गों की खाद्य आदतों का बहुत अधिक भिन्नता पाई जाती है, जहाँ तक हिंदू परिवारों का प्रश्न है तो आर्थिक रूप से सुदृढ़ परिवारों का भोजन मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों ही दृष्टियों से निर्बल परिवारों का दृष्टि से बेहतर है। निर्धन परिवार के लोग भोजन के गुणात्मक पक्ष तथा उनसे प्राप्त पोषक तत्वों पर ध्यान दिए बगैर केवल अपने उदर पूर्ति पर ही ध्यान केंद्रित रखते हैं, इन परिवारों का भोजन न तो गुणात्मक रूप से श्रेष्ठ होता है और न मात्रात्मक रूप से पर्याप्त होता है। विभिन्न वर्गों द्वारा खाद्य पदार्थ का मात्रात्मक उपयोग :अध्ययन क्षेत्र का एक व्यापक सर्वेक्षण करके विभिन्न वर्ग के परिवारों द्वारा वर्ष के उपयोग किए जाने वाले पदार्थों की वास्तविक मात्रा के आधार पर उनका आहार संतुलन पत्रक तैयार किया गया है जिनका विवरण अग्रांकित है।
सारिणी 7.1 में सीमांत कृषक परिवार के सदस्यों द्वारा प्रतिदिन उपयोग किए जाने वाले खाद्य पदार्थों का विवरण दर्शाया गया है। यह देखा गया है कि सामान्यत: सभी वर्गों में शरद ऋतु में उपयोग की जाने वाली खाद्य सामग्री की मात्रा बढ़ जाती है जिनमें खाद्यान्नों तथा सब्जियों का अधिकांश भाग रहता है चूँकि इस मौसम में आलू तथा टमाटर सस्ता हो जाता है जिससे सब्जियों में जड़दार सब्जियों की मात्रा बढ़ जाती है, पत्तेदार सब्जियों में भी इस मौसम में चने का साग, बथुआ, मूली आदि कम कीमत पर सरलता से उपलब्ध हो जाते हैं, इस वर्ग में दूध से बने पदार्थ और मांसाहार का प्रयोग भी ग्रीष्म की अपेक्षा बढ़ जाता है जबकि फलों का उपयोग गर्मी के मौसम में बढ़ जाता है क्योंकि इस मौसम में आम, जामुन, खरबूजा, तरबूजा, ककड़ी, खीरा आदि क्षेत्रीय स्तर पर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो जाते हैं। ‘‘संतरा, सेब, अंगूर आदि फलों के महँगे होने के कारण इस वर्ग द्वारा केवल पथ्य के रूप में ही उपयोग किए जा सकते हैं।’’ समग्र दृष्टि से यदि देखा जाये तो हर वर्ग द्वारा विभिन्न खाद्य पदार्थों का 1171.96 ग्राम उपयोग शीत ऋतु में किया जाता है जो अन्य मौसमों की अपेक्षा सर्वाधिक स्तर है इसके उपरांत, ग्रीष्म ऋतु का द्वितीय स्थान है जबकि वर्षा ऋतु 940.70 ग्राम अंतिम स्थान पर है। संपूर्ण भोजन में यदि विभिन्न खाद्य पदार्थों का आनुपातिक वितरण देखा जाये तो खाद्यान्नों तथा दालों की औसत भागेदारी लगभग 70 प्रतिशत पाई जबकि सब्जियों का भाग लगभग 21 प्रतिशत है, इस प्रकार भोजन में खाद्यान्नों, दालों तथा सब्जियों की भागेदारी इस वर्ग में लगभग 91 प्रतिशत हो जाती है जिससे यह अनुमान सरलता से लगाया जा सकता है कि अन्य खाद्य पदार्थों का उपयोग अत्यल्य मात्रा में किया जाता है जबकि व्यक्ति के आहार से इस प्रकार का संतुलन होना चाहिए कि उसे पर्याप्त पोषक पदार्थ प्राप्त होते रहे, अत: वर्ग द्वारा ग्रहण किए जाने वाले खाद्य पदार्थों में चिकनाई, दूध तथा दूध से बने पदार्थ, मांसाहार और फलों का उपयोग बढ़ाया जाना चाहिए। क्योंकि इन पदार्थों से प्राप्त पोषक तत्व खाद्यान्नें से प्राप्त पोषक तत्वों से श्रेष्ठ कोटि में होते हैं, परंतु इस वर्ग की आय का स्तर नीचा होने के कारण भोजन का प्रथम उद्देश्यों उदरपूर्ति होता है, इसके बाद स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाता है इसीलिये यह वर्ग खाद्यान्न, दालों तथा जड़दार और कम मूल्य वाली पत्तेदार सब्जियों पर ही निर्भर करता है।
सारिणी 7.2 लघु कृषक परिवार के सदस्यों द्वारा उपयोग किए जाने वाले विभिन्न खाद्य पदार्थों की औसत मात्रा का विवरण प्रस्तुत किया गया है। इस वर्ग में भी वर्षा तथा ग्रीष्मऋतु की तुलना में शीतऋतु में खाद्यान्नों का सर्वाधिक उपयोग किया जाता है जबकि दालों का सर्वाधिक 90.15 ग्राम ग्रीष्मऋतु में किया जाता है, जड़दार तथा पत्तेदार सब्जियों का भी सर्वाधिक क्रमश: 188.64 ग्राम तथा 136.94 ग्राम उपयोग शीतऋतु में किया जाता है जिससे चिकनाई का भी औसत उपयोग बढ़ जाता है। दूध तथा दूध से बने पदार्थों का उपयोग इस वर्ग में वर्षाऋतु में अधिक किया जाता है। चीनी/गुड़ 19.89 ग्राम ग्रीष्मऋतु में सर्वाधिक उपयोग होता है, मांसाहार वर्षाऋतु में बढ़ जाता है जबकि फलों का उपयोग ग्रीष्म में अधिक किया जाता है। समग्र दृष्टि से यदि देखा जाये तो वर्ष भर में विभिन्न खाद्य पदार्थों के उपयोग में खाद्यान्नों की भागेदारी सर्वाधिक लगभग 62 प्रतिशत रहती है, दालों का यदि और योग कर दिया जाये तो यह अनुपात 69 प्रतिशत तक पहुँच जाता है। सब्जियों का योगदान लगभग 23 प्रतिशत है। मांसाहार तथा फल दोनों की भागेदारी 4 प्रतिशत से अधिक है। भोजन में वसा प्रदान करने वाले खाद्य पदार्थों का उपयोग अत्यंत न्यून 1.41 प्रतिशत है। जबकि चिकनाई की हिस्सेदारी 1.26 प्रतिशत तक सीमित है। सारिणी को देखकर ज्ञात होता है कि एक स्वस्थ्य मनुष्य के संतुलित भोजन में विभिन्न खाद्य पदार्थों की आवश्यक मात्रा खाद्यान्न को छोड़कर अत्यंत न्यून है, जिसमें आवश्यक पौष्टिक पोषक तत्वों का प्राप्त होना संभव नहीं लगता है। पौष्टिक तत्वों के अभाव का प्रभाव इस वर्ग की कार्यशक्ति को भी प्रभावित करता है।
सारिणी 7.3 लघु मध्यम कृषक परिवारों के सदस्यों द्वारा उपयोग किए जाने वाले विभिन्न खाद्य पदार्थों का चित्र प्रस्तुत कर रही है। इस वर्ग द्वारा सर्वाधिक खाद्य पदार्थों का उपयोग 1089.98 ग्राम शीतऋतु में किया जाता है। और वर्षा ऋतु में न्यूनतम मात्रा 395.82 ग्राम उपयोग की जाती है। इस वर्ग का उपयोग भी खाद्यान्नों के वर्चस्व बना हुआ है जिसमें आटा सर्वाधिक ग्रीष्म में, शीत ऋतु में सर्वाधिक 326.66 ग्राम चावल तथा दालों का सर्वाधिक उपयोग ग्रीष्म ऋतु में किया जाता है। सब्जियों का उपयोग शीतऋतु में तथा तेल-घी की भी सर्वाधिक मात्रा 14.88 ग्राम शीतऋतु में उपयोग की जाती है। चीनी/गुड़ गमिर्यों में अधिक तथा वर्षाऋतु में न्यूनतम उपयोग किया जाता है। मांसाहार वर्षाऋतु में तथा इस वर्ग में फलों की मात्रा वर्षाऋतु में अधिक पाई गई। समग्र रूप से देखें तो लगभग 67 प्रतिशत खाद्यान्नों की सहभागिता पाई गई जबकि सब्जियों की भागेदारी 23 प्रतिशत से कुछ अधिक है। मांसाहार तथा फलाहार सम्मिलित रूप में 5 प्रतिशत की भागेदारी कर रहे हैं। चिकनाई का प्रयोग इस वर्ग में भी अत्यंत निम्न 1.29 प्रतिशत, दूध तथा दूध से बने पदार्थ 1.82 प्रतिशत तथा चीनी/गुड़ केवल 1.74 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। समग्र भोजन में विभिन्न खाद्य पदार्थों के समा भोजन को देखकर लगता है कि यह वर्ग विभिन्न पोषक तत्वों की अधिकांश मात्रा खाद्यान्नों से प्राप्त कर रहे हैं जिसके कारण आवश्यक पोषक तत्वों का शरीर में असंतुलन हो जाता है, कुछ पोषक तत्वों की अधिकता हो जाती है तथा कुछ पोषक तत्व आवश्यकता से कम प्राप्त हो पाते हैं।
सारिणी 7.4 मध्यम कृषक परिवारों में विभिन्न खाद्यान्नों की मात्रा का चित्र प्रस्तुत कर रही जिससे यह स्पष्ट होता है कि इस वर्ग द्वारा सर्वाधिक खाद्यान्न की मात्रा 1132.51 ग्राम शीतऋतु में उपयोग की जाती है, दूसरा स्थान 1035.80 ग्राम ग्रीष्मऋतु का तथा न्यूनतम 996.87 ग्राम वर्षाऋतु में उपयोग की जाती है। विभिन्न खाद्य पदार्थों में आटा की सर्वाधिक मात्रा ग्रीष्मऋतु में, चावल सर्वाधिक 182.99 ग्राम शीतऋतु में जड़दार सब्जियाँ 168.91 ग्राम शीतऋतु में पत्तेदार सब्जियाँ तथा दालें सर्वाधिक क्रमश: 118.35 व 98.76 ग्राम ग्रीष्मऋतु में उपयोग की जाती है। तेल/घी का सर्वाधिक उपयोग 21.16 ग्राम गर्मियों में किया जाता है। दूध तथा दूध से बने पदार्थ सर्वाधिक 56.71 ग्राम वर्षाऋतु में उपयोग हो रहे हैं। इस वर्ग में मांसाहार सर्वाधिक शीतऋतु में उपयोग किया जाता है जबकि सर्वाधिक शीतऋतु में उपयोग हो रहे हैं। औसत रूप में विभिन्न खाद्य पदार्थों की मात्रा 1055.06 ग्राम उपभोग की जा रही है। आनुपातिक रूप से देखें तो इस वर्ग के भोजन में सर्वाधिक भागेदारी 39.12 प्रतिशत आटा की पाई गई जबकि जड़दार सब्जियों की भागेदारी 14.44 प्रतिशत दूसरे स्थान पर पाई गई। चावल 12.72 प्रतिशत तीसरे स्थान पर देखा गया। पत्तेदार तथा जड़दार दोनों सब्जियों का सामूहिक उपयोग 24.85 प्रतिशत किया जा रहा है जबकि दालों की भागेदारी केवल 8.88 प्रतिशत हो रही है। दूध तथा दूध से बने पदार्थ इस वर्ग द्वारा 4.13 प्रतिशत उपयोग किए जा रहे हैं। मांसाहार और फल 5.88 प्रतिशत भागेदारी कर रहे हैं। समग्र दृष्टि से देखे तो इस वर्ग द्वारा अन्य वर्गों की तुलना में अधिक पौष्टिक खाद्य पदार्थों का उपयोग किया जा रहा है।
सारिणी 7.5 बड़े आकार कृषक परिवारों द्वारा उपयोग किए जाने वाले खाद्य पदार्थों का विवरण दिया गया है जिसमें इस वर्ग द्वारा शीतऋतु में 1114.29 ग्राम उपयोग करके प्रथम स्थान पर है जबकि दूसरा स्थान ग्रीष्मऋतु का है जिसमें 1032.45 ग्राम विभिन्न खाद्यान्नों का उपयोग किया जा रहा है। शीतऋतु में चावल 208.31 ग्राम, जड़दार सब्जियाँ 177.57 ग्राम, तेल/घी 21.08 ग्राम, मांसाहार 42.42 ग्राम तथा फल 5.54 ग्राम का उपयोग करके प्रथम प्राथमिकता दी जा रही है। ग्रीष्मऋतु में आटा 431.77 ग्राम दालें 99.44 ग्राम, पत्तेदार सब्जियाँ 107.09 ग्राम उपयोग करके प्रथम प्राथमिकता पर रखा जा रहा है, वर्षाऋतु में केवल दूध तथा दूध से बने पदार्थों को ही प्रथम प्राथमिकता प्रदान की जा रही है। समग्र रूप से देखें तो समस्त खाद्य पदार्थों में 63 प्रतिशत से अधिक आटा, चावल तथा दालों की भागेदारी हो रही है जबकि सब्जियों का प्रतिनिधित्व 23.37 प्रतिशत है। ये चारों खाद्य पदार्थ लगभग 87 प्रतिशत का भोजन में योगदान कर रहे हैं। दूध तथा दूध से बने पदार्थों का योगदान मात्र 3.01 प्रतिशत है जबकि फलों का योगदान केवल 3.41 प्रतिशत रखा जा रहा है। आर्थिक रूप से संपन्न माने जाने वाले इस वर्ग का उपयोग यद्यपि खाद्यान्नों की दृष्टि से अन्य वर्गों की तुलना में कम मात्रा में उपयोग कम किया जा रहा है परंतु अन्य पौष्टिक पदार्थों का भी उपयोग मानक स्तर से निम्न स्तरीय प्रदर्शन कर रहा है जिसके कारण संतुलित भोजन में विभिन्न खाद्य पदार्थों का समुचित समन्वय नहीं हो पा रहा है इसलिये खाद्य पदार्थ से प्राप्त होने वाले पोषक तत्वों का असंतुलन स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है जिससे अनजाने ही कुपोषण जनित बीमारियों के लोग शिकार हो जाते हैं।
सारिणी 7.6 विभिन्न खाद्य पदार्थों के औसत उपयोग का चित्र प्रस्तुत कर रही है जिसमें विभिन्न वर्गों में आटा का प्रयोग 368.48 से लेकर 412.72 तक किया जा रहा है जिसमें न्यूनतम मात्रा सीमांत कृषक परिवारों की है और अधिकतम मात्रा मध्यम कृषक परिवारों की गणना की गई। चावल के उपयोग में विचलन 134.18 ग्राम से लेकर 267.48 ग्राम तक देखी जा रही है, इस खाद्य पदार्थ की अधिकतम मात्रा सीमांत कृषकों में तथा न्यूनतम मात्रा मध्यम कृषकों में पाई जा रही है। दालों का सर्वाधिक उपयोग 93.71 ग्राम मध्यम कृषक परिवारों का है जबकि न्यूनतम 68.42 ग्राम सीमांत कृषक परिवार के सदस्यों का पाया जा रहा है। सब्जियों के औसत उपयोग में मध्यम कृषक परिवार के सदस्यों को पाया जा रहा है। सब्जियों के औसत उपयोग के मध्यम कृषक परिवार सर्वोच्च स्थान रखते हैं जबकि न्यूनतम मात्रा सीमांत कृषकों में देखी जा रही है, जड़दार सब्जियों में आलू, घुइयां, मूली, प्याज तथा लहसून ही समान्यतया प्रचलन में है जबकि पत्तेदार सब्जियों में पालक, बथुआ, मूली, चने का साग, नारी, नुनिया, कद्दू, लौकी, तरोई, टिंडा आदि का सामान्य प्रयोग किया जाता है। तेल/घी के उपयोग में 11.43 ग्राम से लेकर 18.77 तक देखा जा रहा है, जैसे-जैसे जोत का आकार बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे इस पदार्थ में वृद्धि की प्रवृत्ति पाई गई है। दूध का न्यूनतम उपयोग लघु कृषक परिवारों में देखी गई है जबकि इस पदार्थ के उपयोग के दृष्टिकोण से सीमांत कृषक कुछ अच्छी स्थिति में हैं। इसी प्रकार चीनी गुड़ का भी उपयोग किया जा रहा है। मांसाहार में बड़े कृषक सर्वोच्च स्थिति में है जबकि लघु कृषक न्यूनतम स्तर को प्रस्तुत कर रहे हैं, फलाहार सर्वाधिक मध्यम कृषकों द्वारा प्रदर्शित किया जा रहा है न्यूनतम उपयोग स्तर सीमांत कृषकों का देखा जा सकता है। समग्र रूप में विभिन्न खाद्य पदार्थों के उपयोग में भी मध्यम कृषक परिवार प्रथम पायदान पर हैं जबकि लघु कृषक सबसे निचली पायदान पर स्थित हैं। इस प्रकार विभिन्न वर्गों में खाद्यान्नों के उपयोग को मानक स्तर से ऊपर है जबकि अन्य पोषक खाद्य पदार्थ मानक स्तर से कम उपयोग किए जा रहे हैं जिससे एक स्वस्थ्य मनुष्य का शारीरिक आवश्यकताओं के लिये पोषक तत्वों में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। कृषकों के आहार में पोषक तत्व :शरीर को स्वस्थ, निरोग और क्रियाशील रखने के लिये भोजन की उसी प्रकार आवश्यकता है जिस प्रकार मोटर के लिये पेट्रोल की। सतत क्रियाशील रहने के कारण मोटर के पुर्जों की भांति ही शरीर के अवयव भी घिसते, छीजते व नष्ट होते रहते हैं, इस क्षति की पूर्ति करना अनिवार्य है, यह क्षति-पूर्ति भोजन के माध्यम से ही संपन्न होती है अत: संक्षेप में भोजन के कार्यों को इस प्रकार देख सकते हैं : 1. भोजन पर प्रमुख कार्य है शरीर के लिये शक्ति व उष्णता प्रदान करना। भोजन द्वारा ही शरीर क्रियाशील रहता है तथा इसी से शरीर को शक्ति व उष्णता प्राप्त होती है। 2. शारीरिक वृद्धि एवं विकास भोजन द्वारा ही संभव है। बाल्यावस्था से युवावस्था तक शरीर को पहुँचाने का श्रेय भोजन को ही है, क्योंकि भोजन कई कोशिकाओं के निर्माण में अपना सहयोग देता है, निरंतर कार्यरत रहने से कोशिकाओं को जो क्षति होती है उनकी क्षति-पूर्ति भी भोजन द्वारा ही होती है। 3. स्वास्थ्य के लिये आवश्यक पदार्थ प्रस्तुत करना भी भोजन का ही कर्तव्य है। भोजन द्वारा शरीर की विभिन्न क्रियाएँ नियंत्रित होकर शरीर को स्वस्थ एवं नीरोग बनाए रखती हैं। अत: अध्ययन क्षेत्र में विभिन्न वर्गों के लोगों द्वारा भोजन में ग्रहण किए जाने वाले विभिन्न खाद्य पदार्थों से प्राप्त होने वाले विभिन्न पोषक तत्वों का विवरण वर्गानुसार आगे प्रस्तुत किया जा रहा है। 1. सीमांत कृषक परिवार द्वारा ग्रहण किए जाने वाले खाद्य पदार्थों से प्राप्त विभिन्न पोषक तत्व :- 2. लघु कृषक परिवार द्वारा भोजन में ग्रहण किए जाने वाले
पोषक तत्व : 3. लघु मध्यम आकार वाले कृषक परिवारों द्वारा उपभोग किए जाने वाले खाद्य पदार्थों से प्राप्त पोषक तत्व : 4. मध्यम कृषक परिवार द्वारा ग्रहण किए जाने वाले भोजन में पोषक तत्व : 5. बड़े आकार वाले कृषकों द्वारा ग्रहण किए जाने वाले खाद्य पदार्थों से प्राप्त पोषक तत्व : भोजन हमारे शरीर में क्या क्या कार्य करता है?भोजन के कार्य निम्नलिखित प्रकार से हैं - <br> (1) भोजन से हमें ऊर्जा मिलती है। <br> (2) भोजन क्षतिग्रस्त कोशिकाओं, ऊतकों और अंगों की मुरम्मत और पुनर्निर्माण में सहायक है। <br> (3) भोजन शारीरिक वृद्धि और प्रजनन में सहायक है। <br> (4) भोजन रोगों के प्रति प्रतिरक्षात्मक शक्ति पैदा करके हमें उनसे, बचाता है।
हमारे भोजन में क्या होता है?Solution : हमारे भोजन के मुख्य पोषक तत्त्व कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, विटामिन तथा खनिज-लवण हैं। इनके अतिरिक्त हमारे भोजन में रूक्षांश (आहारी रेशे) और जल भी होते हैं, जो हमारे शरीर के लिए आवश्यक हैं।
भोजन का हमारे शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है?भोजन का शरीर के साथ मस्तिष्क पर भी सीधा प्रभाव पड़ता है। भोजन ताजा व शुद्ध खाना चाहिए। यदि जैविक खाद से तैयार किए खाद्यान्न मिले तो उन्हें ही भोजन में शामिल करना चाहिए। दरअसल, रसायनिक खाद से तैयार खाद्यान्न में हानिकर रसायनों की मात्रा बढ़ जाती, जो कि सेहत के लिए हानिकर होते हैं।
|