आधुनिक बिहार का संक्रमण काल १७०७ ई. से प्रारम्भ होता है। १७०७ ई. में औरंगजेब की मृत्यु के बाद राजकुमार अजीम-ए-शान बिहार का बादशाह बना। जब फर्रुखशियर १७१२-१९ ई. तक दिल्ली का बादशाह बना तब इस अवधि में बिहार में चार गवर्नर बने। १७३२ ई. में बिहार का नवाब नाजिम को बनाया गया। Show
सिक्ख, इस्लाम और बिहार[संपादित करें]आधुनिक बिहार में सिक्ख और इस्लाम धर्म का फैलाव उनके सन्तों एवं धर्म गुरुओं के द्वारा हुआ। सिक्ख धर्म के प्रवर्तक एवं प्रथम गुरु नानक देव ने बिहार में अनेक क्षेत्रों में भ्रमण किये जिनमें गया, राजगीर, पटना, मुंगेर, भागलपुर एवं कहलगाँव प्रमुख हैं। गुरु ने इन क्षेत्रों में धर्म प्रचार भी किया एवं शिष्य बनाये। सिक्खों के नोवे गुरु श्री तेग बहादुर का बिहार में आगमन सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ था। वे सासाराम, गया होते हुए पटना आये तथा कुछ दिनों में पटना निवास करने के बाद औरंगजेब की सहायता हेतु असम चले गये। पटना प्रस्थान के समय वह अपनी गर्भवती पत्नी गुजरी देवी को भाई कृपाल चन्द के संरक्षण में छोड़ गये, तब पटना में २६ दिसम्बर १६६६ में गुरु गोविन्द सिंह (दस्वे गुरु) का जन्म हुआ। साढ़े चार वर्ष की आयु में बाल गुरु पटना नगर छोड़कर अपने पिता के आदेश पर पंजाब में आनन्दपुर चले गये। गुरु पद ग्रहण करने के बाद उन्होंने बिहार में अपने मसनद (धार्मिक प्रतिनिधि) को भेजा। १७०८ ई. में गुरु के निधन के बाद उनकी पत्नी माता साहिब देवी के प्रति भी बिहार के सिक्खों ने सहयोग कर एक धार्मिक स्थल बनाया। इस्लाम का बिहार आगमन[संपादित करें]बिहार में सभी सूफी सम्प्रदायों का आगमन हुआ और उनके संतों ने यहां इस्लाम धर्म का प्रचार किया। सूफी सम्प्रदायों को सिलसिला भी कहा जाता है। सर्वप्रथम चिश्ती सिलसिले के सूफी आये। सूफी सन्तों में शाह महमूद बिहारी एवं सैय्यद ताजुद्दीन प्रमुख थे।
बिहार में यूरोपीय व्यापारियों का आगमन[संपादित करें]बिहार मुगल साम्राज्य के शासनकाल में एक महत्वपूर्ण सूबा था। यहाँ से शोरा का व्यापार होता था फलतः पटना मुगल साम्राज्य का दूसरा सबसे बड़ा नगर एवं उत्तर भारत का सबसे बड़ा एवं महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र था। यूरोपीय व्यापारियों में पुर्तगाली, डच (हॉलैण्ड/नीदरलैण्ड)-(१६२० ई. में), डेन ने (डेनमार्क १६५१ ई.) में ब्रिटिश व्यापारियों ने १७७४ ई. में आये।
अंग्रेज और आधुनिक बिहार[संपादित करें]मुगल साम्राज्य के पतन के फलस्वरूप उत्तरी भारत में अराजकता का माहौल हो गया। बंगाल के नवाब अलीवर्दी खाँ ने १७५२ में अपने पोते सिराजुद्दौला को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। अलीवर्दी खां की मृत्यु के बाद १० अप्रैल १७५६ को सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना। प्लासी के मैदान में १७५७ ई. में हुए प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला की हार और अंग्रेजों की जीत हुई। अंग्रेजों की प्लासी के युद्ध में जीत के बाद मीर जाफर को बंगाल का नवाब बनाया गया और उसके पुत्र मीरन को बिहार का उपनवाब बनाया गया, लेकिन बिहार की वास्तविक सत्ता बिहार के नवाब नाजिम राजा रामनारायण के हाथ में थी। तत्कालीन मुगल शहजादा अली गौहर ने इस क्षेत्र में पुनः मुगल सत्ता स्थापित करने की चेष्टा की परन्तु कैप्टन नॉक्स ने अपनी सेना से गौहर अली को मार भगाया। इसी समय मुगल सम्राट आलमगीर द्वितीय की मृत्यु हो गई तो १७६० ई. गौहर अली ने बिहार पर आक्रमण किया और पटना स्थित अंग्रेजी फैक्ट्री में राज्याभिषेक किया और अपना नाम शाहआलम द्वितीय रखा। अंग्रेजों ने १७६० ई. में मीर कासिम को बंगाल का गवर्नर बनाया। उसने अंग्रेजों के हस्तक्षेप से दूर रहने के लिए अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से हटाकर मुंगेर कर दी। मीर कासिम के स्वतन्त्र आचरणों को देखकर अंग्रेजों ने उसे नवाब पद से हटा दिया। मीर कासिम मुंगेर से पटना चला आया। उसके बाद वह अवध के नवाब सिराजुद्दौला से सहायता माँगने के लिए गया। उस समय मुगल सम्राट शाहआलम भी अवध में था। मीर कासिम ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला एवं मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय से मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए एक गुट का निर्माण किया। मीर कासिम, अवध का नवाब शुजाउद्दौला एवं मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय तीनों शासकों ने चौसा अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ा। इस युद्ध में वह २२ अक्टूबर १७६४ को सर हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना द्वारा पराजित हुआ। इसे बक्सर का युद्ध कहा जाता है। बक्सर के निर्णायक युद्ध में अंग्रेजों को जीत मिली। युद्ध के बाद शाहआलम अंग्रेजों के समर्थन में आ गया। उसने १७६५ ई. में बिहार, बंगाल और उड़ीसा क्षेत्रों में लगान वसूली का अधिकार अंग्रेजों को दे दिया। एक सन्धि के तहत कम्पनी ने बिहार का प्रशासन चलाने के लिए एक नायब नाजिम अथवा उपप्रान्तपति के पद का सृजन किया। कम्पनी की अनुमति के बिना यह नहीं भरा जा सकता था। अंग्रेजी कम्पनी की अनुशंसा पर ही नायब नाजिम अथवा उपप्रान्तपति की नियुक्ति होती थी। बिहार के महत्वपूर्ण उपप्रान्तपतियों में राजा रामनारायण एवं शिताब राय प्रमुख हैं १७६१ ई. में राजवल्लभ को बिहार का उपप्रान्तपति नियुक्त किया गया था। १७६६ ई. में पटना स्थित अंग्रेजी कम्पनी के मुख्य अधिकारी मिडलटन को राजा रामनारायण एवं राजा शिताब राय के साथ एक प्रशासन मंडल का सदस्य नियुक्त किया गया। १७६७ ई. में राजा रामनारायण को हटाकर शिताब राय को कम्पनी द्वारा नायब दीवान बनया गया। उसी वर्ष पटना में अंग्रेजी कम्पनी का मुख्य अधिकारी टॉमस रम्बोल्ड को नियुक्त किया गया। १७६९ ई. में प्रशासन व्यवस्था को चलाने के लिए अंग्रेज निरीक्षक की नियुक्ति हुई। द्वैध शासन और बिहार[संपादित करें]१७६५ ई. में बक्सर के युद्ध के बाद बिहार अंग्रेजों की दीवानी हो गयी थी, लेकिन अंग्रेजी प्रशासनिक जिम्मेदारी प्रत्यक्ष रूप से नहीं थी। कोर्ट ऑफ डायरेक्टर से विचार-विमर्श करने के बाद लार्ड क्लाइब ने १७६५ ई. में बंगाल एवं बिहार के क्षेत्रों में द्वैध शासन प्रणाली को लागू कर दिया। द्वैध शासन प्रणाली के समय बिहार का प्रशासनिक भार मिर्जा मुहम्मद कजीम खाँ (मीर जाफर का भाई) के हाथों में था। उपसूबेदार धीरज नारायण (जो राजा रामनारायण का भाई) की सहायता के लिए नियुक्त था। सितम्बर १७६५ ई. में क्लाइब ने अजीम खाँ को हटाकर धीरज नारायण को बिहार का प्रशासक नियुक्त किया। बिहार प्रशासन की देखरेख के लिए तीन सदस्यीय परिषद् की नियुक्ति १७६६ ई. में की गई जिसमें धीरज नारायण, शिताब राय और मिडलटन थे। द्वैध शासन लॉर्ड क्लाइब द्वारा लागू किया गया था जिससे कम्पनी को दीवानी प्राप्ति होने के साथ प्रशासनिक व्यवस्था भी मजबूत हो सके। यह द्वैध शासन १७६५-७२ ई. तक रहा। १७६६ ई. में ही क्लाइब के पटना आने पर शिताब राय ने धीरज नारायण के द्वारा चालित शासन में द्वितीय आरोप लगाया। फलतः क्लाइब ने धीरज नारायण को हटाकर शिताब राय को बिहार का नायब नजीम को नियुक्त किया। बिहार के जमींदारों से कम्पनी को लगान वसूली करने में अत्यधिक कठिन एवं कठोर कदम उठाना पड़ता था। लगान वसूली में कठोर एवं अन्यायपूर्ण ढंग का उपयोग किया जाता था। यहाँ तक की सेना का भी उपयोग किया जाता था। जैसा कि बेतिया राज के जमींदार मुगल किशोर के साथ हुई थी। इसी समय में (हथवा) हूसपुरराज के जमींदार फतेह शाही ने कम्पनी को दीवानी प्रदान करने से इंकार करने के कारण सेना का उपयोग किया गया। लगान से कृषक वर्ग और आम आदमी की स्थिति अत्यन्त दयनीय होती चली गई। द्वैध शासनकाल या दीवानी काल में बिहार की जनता कम्पनी कर संग्रह से कराहने लगी। क्लाइब २९ जनवरी १७६७ को वापस चला गया। वर्सलेट उत्तराधिकारी के रूप में २६ फ़रवरी १७६७ से ४ दिसम्बर १७६७ तक बनकर आया। उसके बाद कर्रियसे २४ दिसम्बर १७६९ से १२ अप्रैल १७७२ उत्तराधिकारी रूप बना। फिर भी बिहार की भयावह दयनीय स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। १७६९-७० ई.में बिहार-बंगाल में भयानक अकाल पड़ा। १७७० ई. में बिहार में एक लगान परिषद् का गठन हुआ जिसे रेवेन्यू काउंसिल ऑफ पटना के नाम से जाना जाता है। लगान् परिषद के अध्यक्ष जार्ज वंसीतार्त को नियुक्त किया गया। इसके बाद इस पद पर थामस लेन (१७७३-७५ ई.), फिलिप मिल्नर इशक सेज तथा इवान ला (१७७५-८० ई. तक) रहे। १७८१ ई. में लगान परिषद को समाप्त कर दिया गया तथा उसके स्थान पर रेवेन्यू ऑफ बिहार पद की स्थापना कर दी गई। इस पद पर सर्वप्रथम विलियम मैक्सवेल को बनाया।
१३ अप्रैल १७७२ को विलियम वारेन हेस्टिंग्स बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया गया। १७७२ ई. में शिताब राय पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये गये। उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र कल्याण सिंह की बिहार के पद पर नियुक्ति हुई। बाद में कलकत्ता परिषद् से सम्बन्ध बिगड़ जाने से उसे हटा दिया गया। उसके बाद १७७९ ई. में सारण जिला शेष बिहार से अलग कर दिया गया। चार्ल्स ग्रीम को जिलाधिकारी बना दिया गया। १७८१ ई. में प्रान्तीय कर परिषद् को समाप्त कर रेवेन्यू चीफ की नियुक्ति की गई। इस समय कल्याण सिंह को रायरैयान एवं खिषाली राम को नायब दीवान नियुक्त कर दिया गया। इसी समय भरवल एवं मेंसौदी के रेंटर हुसैन अली खाँ जो बनारस राजा चैत्य सिंह के विद्रोह में शामिल था उसे गिरफ्तार कर लिया गया। हथवा के राजा फतेह सिंह, गया के जमींदार नारायण सिंह एवं नरहर के राजा अकबर अली खाँ अंग्रेजों के खिलाफ हो गये।
प्रारम्भिक विरोध- मीर जाफर द्वारा सत्ता सुदृढ़ीकरण के लिए १७५७-५८ ई. तक खींचातानी होती रही। अली गौहर के अभियान- मार्च १७५९ में मुगल शहजादा अली गौहर ने बिहार पर चढ़ाई कर दी परन्तु क्लाइब ने उसे वापसी के लिए बाध्य कर दिया, फिर पुनः १७६० ई. बिहार पर चढ़ाई की। इस बार भी वह पराजित हो गया। १७६१ ई. शाहआलम द्वितीय का अंग्रेजों के सहयोग से पटना में राज्याभिषेक किया। बक्सर की लड़ाई और बिहार[संपादित करें]१७६४ ई. बक्सर का युद्ध हुआ। युद्ध के बाद बिहार में अनेकों विद्रोह हुए। इस समय बिहार का नवाब मीर कासिम था।
बिहार में अंग्रेज-विरोधी विद्रोह[संपादित करें]१७५७ ई. से लेकर १८५७ ई. तक बिहार में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह चलता रहा। बिहार में १७५७ ई. से ही ब्रिटिश विरोधी संघर्ष प्रारम्भ हो गया था। यहाँ के स्थानीय जमींदारों, क्षेत्रीय शासकों, युवकों एवं विभिन्न जनजातियों तथा कृषक वर्ग ने अंग्रेजों के खिलाफ अनेकों बार संघर्ष या विद्रोह किया। बिहार के स्थानीय लोगों द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ संगठित या असंगठित रूप से विद्रोह चलता रहा, जिनके फलस्वरूप अनेक विद्रोह हुए। बहावी आन्दोलन[संपादित करें]१८२० ई. से १८७० ई. के मध्य भारत के उत्तर-पश्चिम पूर्वी तथा मध्य भाग में बहावी आन्दोलन की शुरुआत हुई। बहावी मत के प्रवर्तक अब्दुल बहाव था। इस आन्दोलन के जनक और प्रचारक उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के सैयद अहमद बरेलवी हुए। बहावी आन्दोलन मुस्लिम समाज को भ्रष्ट धार्मिक परम्पराओं से मुक्त कराना था। पहली बार पटना आने पर सैयद अहमद ने मुहम्मद हुसैन को अपना मुख्य प्रतिनिधि नियुक्त किया। १८२१ ई. में उन्होंने चार खलीफा को नियुक्त किया। वे हैं- मुहम्मद हुसैन, विलायत अली, इनायत अली और फरहत अली। सैयद अहमद बरेहवी ने पंजाब में सिक्खों को और बंगाल में अंग्रेजों को अपदस्थ कर मुस्लिम शक्ति की पुनर्स्थापना को प्रेरित किया। बहावियों को शस्त्र धारण करने के लिए प्रशिक्षित किया गया।
नोनिया विद्रोह[संपादित करें]हाजीपुर, तिरहुत, सारण और पूर्णिया में बिहार में शोरा उत्पादन का प्रमुख केन्द्र था। शोरा का उपयोग बारूद बनाने में किया जाता था। शोरे के इकट्ठे करने एवं तैयार करने का काम नोनिया करते थे। कम्पनी राज्य होने के बाद शोरे की इजारेदारी अधिक थी फलतः नोनिया चोरी एवं गुप्त रूप से शोरे का व्यापार करने लगे फलतः इससे जुड़े व्यापारियों को अंग्रेजी क्रूरता का शिकार होना पड़ा। इसी कारण से नोनिया के अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह १७७०-१८०० ई. के बीच हुआ था। लोटा विद्रोह[संपादित करें]यह विद्रोह १८५६ ई. में हुआ था। यह विद्रोह मुजफ्फरपुर जिले में स्थित कैदियों ने किया था। यहाँ के प्रत्येक कैदियों को पीतल का लोटा दिया जाता था। सरकार ने इसके स्थान पर मिट्टी के बर्तन दिये। कैदियों ने इसका कड़ा विरोध किया। इस विद्रोह को लोटा विद्रोह कहा जाता है। छोटा नागपुर का विद्रोह (चुआड़ विद्रोह)[संपादित करें]१७६७ ई. में छोटा नागपुर (झारखण्ड) के आदिवासियों ने भूमिज जमींदार जगन्नाथ सिंह के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना का धनुष-बाण और कुल्हाड़ी से हिंसक विरोध शुरू किया था। १७७३ इ. में घाटशिला में भूमिज आदिवासियों ने भयंकर ब्रिटिश विरोधी संघर्ष शुरू हुआ। आदिवासियों ने स्थायी बन्दोबस्त (१७९३ ई.) के तहत जमीन की पैदाइश एवं नया जमाबन्दी का घोर विद्रोह शुरू हुआ। तमाड़ विद्रोह[संपादित करें](१७८९-९४ ई.)- यह विद्रोह आदिवासियों द्वारा चलाया गया था। छोटा नागपुर के उराँव जनजाति द्वारा जमींदारों के शोषण के खिलाफ विद्रोह शुरू किया। हो विद्रोह[संपादित करें]यह विद्रोह १८२० ई. के मध्य हुआ था। यह विद्रोह सिंहभूम (झारखंड) पर शुरू हुआ था। वहाँ के राजा जगन्नाथ सिंह के सम्पर्क में आये। हो जनजाति ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह छेड़ दिया। कोल विद्रोह[संपादित करें]यह विद्रोह रांची, सिंहभूम, हजारीबाग, मानभूमि में प्रारम्भ हुआ। कोल विद्रोह में मुण्डा, हो, उराँव एवं भूमिज जनजातियों के लोगों ने मुख्य रूप से भाग लिया था। इस विद्रोह की अवधि १८३१-३२ ई. में थी। कोल विद्रोह का प्रमुख कारण आदिवासियों की जमीन पर गैर-आदिवासियों द्वारा अधिकार किया जाना तात्कालिक कारण था- छोटा नागपुर के भाई हरनाथ शाही द्वारा इनकी जमीन को छीनकर अपने प्रिय लोगों को सौंप दिया जाना। इस विद्रोह के प्रमुख नेता बुधू भगत, सिंगराय एवं सुगी था। इस विद्रोह में करीब ८०० से लेकर १००० लोग मरे गये थे। १८३२ ई. में अंग्रेजी सेना के समक्ष विद्रोहियों के समर्पण के साथ समाप्त हो गया। भूमिज विद्रोह[संपादित करें]१८३२ ई. में यह विद्रोह प्रारम्भ हो गया था। वीरभूम के जमींदारों पर राजस्व के कर अदायगी को बढ़ा दिया गया था। किसान एवं साहूकार लोग कर्ज से दबे हुए थे। ऐसे हालात में वे सभी लोग कर समाप्ति चाहते थे फलतः गंगा नारायण के नेतृत्व में विद्रोह हुआ। चेर विद्रोह[संपादित करें]यह विद्रोह १८०० ई. में शुरू हुआ था। १७७६ ई. समयावधि में अंग्रेज पलामू के चेर शासक छत्रपति राय से दुर्ग की माँग की। छत्रपति राय ने दुर्ग समर्पण से इंकार कर दिया। फलतः १७७७ ई. में चेर और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ और दुर्ग पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। बाद में भूषण सिंह ने चेरों का नेतृत्व कर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। संथाल विद्रोह[संपादित करें]यह विद्रोह बिहार राज्य के भागलपुर से राजमहल तक फैला था। संथाल विद्रोह का नेतृत्व सिद्धू और कान्हू ने किया। सिद्धू-कान्हू ने घोषित कर रखा था कि आजादी पाने के लिए ठाकुर जी (भगवान) ने हमें हथियार उठाने का आदेश दिया है। अंग्रेजों ने इनकी कार्यवाहियों के विरुद्ध मार्शल लॉ लगा दिया और विद्रोहियों के बन्दी के लिए दस हजार का इनाम घोषित कर दिया। यह विद्रोह १८५५-५६ ई. में हुआ था। पहाड़िया विद्रोह[संपादित करें]यह विद्रोह राजमहल की पहाड़ियों में स्थित जनजातियों का था। इनके क्षेत्र को अंग्रेजों ने दामनी कोल घोषित कर रखा था। अंग्रेजों द्वारा आदिवासियों (जनजातियों) के क्षेत्रों में प्रवेश करना व उनकी परम्पराओं में हस्तक्षेप करने के विरुद्ध किया। यह विद्रोह १७९५-१८६० ई. के मध्य हुआ था। खरवार विद्रोह[संपादित करें]यह विद्रोह भू-राजस्व बन्दोबस्त व्यवस्था के विरोध में किया गया था। यह विद्रोह मध्य प्रदेश व बिहार में उभरा था। सरदारी लड़ाई[संपादित करें]१८६० ई. में मुण्डा एवं उराँव जनजाति के लोगों ने जमींदरों के शोषण और पुलिस के अत्याचार का विरोध करने के लिए संवैधानिक संघर्ष प्रारम्भ किया इसे सरदारी लड़ाई कहा जाता है। यह संघर्ष रांची से प्रारम्भ होकर सिंहभूम तक फैल गया। लगभग ३० वर्षों तक चलता रहा। बाद में इसकी असफलता की प्रतिक्रिया में भगीरथ मांझी के नेतृत्व में खरवार आन्दोलन संथालों द्वारा प्रारम्भ किया गया, लेकिन यह प्रभावहीन हो जायेगा। मुण्डा विद्रोह[संपादित करें]जनजातीय विद्रोह में सबसे संगठित एवं विस्तृत विद्रोह १८९५ ई. से १९०१ ई. के बीच मुण्डा विद्रोह था जिसका नेतृत्व बिरसा मुण्डा ने किया था।
सफाहोड आन्दोलन[संपादित करें]इस आन्दोलन का आरम्भ १८७० ई. में हो चुका था। इसका प्रणेता लाल हेम्ब्रन था। इसका स्वरूप धार्मिक था, लेकिन जब यह आन्दोलन भगीरथ मांझी के अधीन आया तब आन्दोलन का धार्मिक रूप बदलकर राजनीतिक हो गया। ब्रिटिश सत्ता से संघर्ष के लिए आलम्बन एवं चरित्र का निर्माण करना तथा धार्मिक भावना को प्रज्वलित करना ही इसका उद्देश्य था। आन्दोलनकारी राम नाम का जाप करते थे फलतः ब्रिटिश अधिकारियों ने राम नाम जाप पर पाबन्दी लगा दी थी। आन्दोलन के नेता लाल हैम्ब्रन तथा पैका मुर्यू को डाकू घोषित कर दिया गया। लाल हेम्ब्रन ने नेता सुभाषचन्द्र बोस की तरह ही संथाल परगना में ही हिन्द फौज के अनुरूप देशी द्वारक दल का गठन किया। उसने १९४५ ई. में महात्मा गाँधी के आदेश पर आत्मसमर्पण कर दिया। ताना भगत आन्दोलन[संपादित करें]ताना भगत का जन्म १९१४ ई. में गुमला जिला के बिशनुपुर प्रखण्ड (छोटा नागपुर) के एक ग्राम से हुआ था। इसका नेतृत्व आदिवासियों में रहने वाले धर्माचार्यों ने किया था। यह संस्कृतीकरण आन्दोलन था। इन जनजातियों (आदिवासी) के मध्य गाँधीवादी कार्यकर्ताओं ने अपने रचनात्मक कार्यों से प्रवेश प्राप्त कर लिया था। जात्रा भगत इस आन्दोलन का प्रमुख नेता था। यह नया धार्मिक आन्दोलन उरॉव जनजाति द्वारा प्रारम्भ हुआ था। ताना भगत आन्दोलन बिहार जनजातियों का राष्ट्रीय आन्दोलन था। १९२० के दशक में ताना भगत आन्दोलनकारियों ने कांग्रेस में रहकर सत्याग्रहों व प्रदर्शनों में भाग लिया था तथा राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी की थी। इस आन्दोलन में खादी का प्रचार एवं प्रसार हुआ। इसाई धर्म प्रचारकों का विरोध किया गया। इस आन्दोलन की मुख्य माँगें थीं- स्वशासन का अधिकार, लगान का बहिष्कार एवं मनुष्यों में समता। जब असहयोग आन्दोलन कमजोर पड़ गया तब इन आन्दोलनकारियों ने स्थानीय मुद्दों को उठाकर आन्दोलन किया। बिहार में स्वतन्त्रता आन्दोलन[संपादित करें]१८५७ ई. का विद्रोह अंग्रेजों के खिलाफ भारतवासियों का प्रथम सशक्त विद्रोह था। १८५७ ई. की क्रान्ति की शुरुआत बिहार में १२ जून १८५७ को देवधर जिले के रोहिणी नामक स्थान से हुई थी। यहाँ ३२वीं इनफैन्ट्री रेजीमेण्ट का मुख्यालय था एवं पाँचवीं अनियमित घुड़सवार सेना का मेजर मैक्डोनाल्ड भी यहीं तैनात था। इसी विद्रोह में लेफ्टीनेंट नार्मल लेस्ली एवं सहायक सर्जन ५० ग्राण्ट लेस्ली भी मारे गये। मेजर मैक्डोनाल्ड ने इस विद्रोह को निर्दयतापूर्ण दबा दिया एवं विद्रोह में सम्मिलित तीन सैनिकों को फाँसी पर लटका दिया गया। ३ जुलाई १८५७ को पटना सिटी के एक पुस्तक विक्रेता पीर अली के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष हो गया। शीघ्र ही पटना की स्थिति बिगड़ने लगी। पटना के कमिश्नर विलियम टेलर ने छपरा, आरा, मुजफ्फरपुर, गया एवं मोतिहारी में अवस्थित सेना को सख्ती से निपटने का निर्देश दिया। फलतः टेलर ने इस विद्रोह को बलपूर्वक दबा दिया। पीर अली के घर को नष्ट कर दिया गया। १७ व्यक्तियों को फाँसी की सजा दी गई थी।
अगस्त में भागलपुर में विद्रोह भड़क उठा था। विद्रोहियों ने गया पहुँचकर ४०० लोगों को मुक्त कर लिया। राजगीर, बिहार शरीफ एवं गया क्षेत्र में छिटपुट विद्रोह शुरू हो गया। दानापुर के तीनों रेजीमेण्ट ने सैनिक विद्रोह कर जगदीशपुर के जमींदार वीर कुँअर सिंह के साथ शामिल हो गये थे। बाबू कुँअर सिंह के पूर्वज परमार राजपूत थे और उज्जैन से आकर शाहाबाद जिले में बस गये थे। कुँअर सिंह का जन्म सन् १७८० में भोजपुर जिले के जगदीशपुर गाँव में हुआ था। पिता साहबजादा सिंह एक उदार स्वभाव के जमींदार थे। वे अपने पिता के ज्येष्ठ पुत्र थे। इनका विवाह देवयुँगा (गया) में हुआ था। उनके पूर्वज परमार राजपूत (जो उज्जैन से आकर शाहाबाद जिले में बस गये) थे। २५ जुलाई १८५७ को दानापुर में हिन्दुस्तानी सिपाही विद्रोह शुरू कर दिया। वे इस समय ८० वर्ष के थे। वीर कुँअर सिंह ने कमिश्नर टेलर से मिलने के आग्रह को ठुकराकर अपने लगभग ५,००० सैनिकों के साथ आरा पर आक्रमण कर दिया। आरा नगर की कचहरी और राजकोष पर अधिकार कर लिया। आरा को मुक्त करवाने के लिए दानापुर अंग्रेज एवं सिक्ख सैनिक कैप्टन डनवर के नेतृत्व में आरा पहुँचे। २ अगस्त १८५७ को कुँअर सिंह एवं मेजर आयर की सेनाओं के बीच वीरगंज के निकट भयंकर संघर्ष हुआ। इसके बाद कुँअर सिंह ने नाना साहेब से मिलकर आजमगढ़ में अंग्रेजों को अह्राया। २३ अप्रैल १८५८ को कैप्टन ली ग्राण्ड के नेतृत्व में आयी ब्रिटिश सेना को कुँअर सिंह ने पराजित किया। लेकिन इस लड़ाई में वे बुरी तरह से घायल हो गये थे। मरने से पूर्व कुँअर सिंह की एक बांह कट गई थी और जाँघ में सख्त चोट थी। २६ अप्रैल १८५८ को उनकी मृत्यु हुई। अदम्य साहस, वीरता, सेनानायकों जैसे महान गुणों के कारण इन्हें बिहार का सिंह’ कहा जाता है। संघर्ष का क्रम उनके भाई अमर सिंह ने आगे बढ़ाया। उन्होंने शाहाबाद को अपने नियन्त्रण में बनाये रखा। ९ नवम्बर १८५८ तक अंग्रेजी सरकार इस क्षेत्र पर अधिकार नहीं कर सकी थी। उसने कैमूर पहाड़ियों में मोर्चाबन्दी कर अंग्रेज सरकार को चुनौती दी। उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध छापामार युद्ध जारी रखा। महारानी द्वारा क्षमादान की घोषणा के बाद ही इस क्षेत्र में विद्रोहियों ने हथियार डाले। अमर सिंह सहित १४ आदमियों को क्षमादान के प्रावधान से पृथक रखा गया एवं इन्हें दण्डित किया गया। १८५९ ई. तक ब्रिटिश सत्ता की बहाली न केवल बिहार बल्कि सारे देश में हो चुकी थी। कम्पनी शासन का अन्त हुआ और भारत का शासन इंग्लैण्ड की सरकार के प्रत्यक्ष नियन्त्रण में आ गया। अगस्त क्रांति[संपादित करें]रामजीवन सिंह[संपादित करें]रामजीवन सिंह मढ़ौरा गाँव के निवासी और मैट्रिक के विद्यार्थी थे जो 18 अगस्त 1942 को सारण में अंग्रेजों से लड़ते हुये शहीद हुये जब अंग्रेजी फौज की एक टुकड़ी बहुरिया रामस्वरूपा की सभा को तितर-बितर करने जा रही थी।[1] आधुनिक बिहार के इतिहास के स्रोत[संपादित करें]आधुनिक बिहार के ऐतिहासिक स्रोत[संपादित करें]बिहार का आधुनिक इतिहास १७ वीं शताब्दी से प्रारंभ माना जाता है। इस समय बिहार का शासक नवाब अली वर्दी खान था। आधुनिक बिहार के ऐतिहासिक स्रोतों को प्राप्त करने के लिये विभिन्न शासकों की शासन व्यवस्था, विद्रोह, धार्मिक एवं सामाजिक आन्दोलन आदि पर दृष्टिपात करना पड़ता है।
आन्दोलनकारियों की जीवनी से विभिन्न आन्दोलन और बिहार की स्थिति की जानकारी मिलती है। चम्पारण में गाँधी जी की यात्रा एक भारतीय राजनीतिक घटना थी। वीर कुँअर सिंह द्वारा १८५७ का विद्रोह, खुदीराम बोस को फाँसी, चुनचुन पाण्डेय द्वारा अनुशीलन समिति का गठन प्रमुख घटनाएँ हैं। डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद, वीर अली, मौलाना मजरूल हक, डॉ° अनुग्रह नारायण सिंह ,हसन इमाम, सत्येन्द्र नारायण सिंह, मोहम्मद यूनुस, डॉ॰ कृष्ण सिंह आदि महान पुरुषों की राजनीतिक गतिविधियाँ आधुनिक बिहार के महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत हैं। रामधारी सिंह ‘दिनकर’, रामवृक्ष बेनीपुरी, फणीश्वर नाथ ‘रेणु’, नागार्जुन आदि की रचनाओं से आधुनिक बिहार की सामाजिक एवं आंचलिक गतिविधियों की जानकारी मिलती है। देखें[संपादित करें]
सन्दर्भ[संपादित करें]
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