भारत का पहला मंदिर कौन सा है? - bhaarat ka pahala mandir kaun sa hai?

हिन्दुओं ने मंदिर बनाकर कब से पूजा और प्रार्थना करना शुरू किया? आखिर हिन्दू मंदिर निर्माण की शुरुआत कब हुई और क्यों? मंदिर की प्राचीनता के प्रमाण क्या हैं? क्या प्राचीनकाल में हिन्दू मंदिरों में मूर्ति की पूजा होती थी? नहीं होती थी तो फिर मंदिर में क्या होता था?

हिन्दुओं ने मंदिर बनाकर कब से पूजा और प्रार्थना करना शुरू किया? आखिर हिन्दू मंदिर निर्माण की शुरुआत कब हुई और क्यों? मंदिर की प्राचीनता के प्रमाण क्या हैं? क्या प्राचीनकाल में हिन्दू मंदिरों में मूर्ति की पूजा होती थी? नहीं होती थी तो फिर मंदिर में क्या होता था?

वेद काल में न तो मंदिर थे और न ही मूर्ति। वैदिक समाज इकट्ठा होकर एक ही वेदी पर खड़े रहकर ब्रह्म (ईश्वर) के प्रति अपना समर्पण भाव व्यक्त करते थे। इसके अलावा वे यज्ञ के द्वारा भी ईश्वर और प्रकृति तत्वों का आह्वान और प्रार्थना करते थे। शिवलिंग की पूजा का प्रचलन प्राचीनकाल से ही होता आ रहा है। शिवलिंग पूजन के बाद धीरे-धीरे नाग और यक्षों की पूजा का प्रचलन हिन्दू-जैन धर्म में बढ़ने लगा। बौद्धकाल में बुद्ध और महावीर की मूर्तियों को अपार जन-समर्थन मिलने के कारण राम और कृष्ण की मूर्तियां बनाई जाने लगीं।

माना जाता है कि प्राचीनकाल में देवी या देवताओं के पूजास्थल अलग होते थे और प्रार्थना-ध्यान करने के लिए स्थल अलग होते थे। वैदिक काल में वैदिक ऋषि जंगल के अपने आश्रमों में ध्यान, प्रार्थना और यज्ञ करते थे। हालांकि लोक जीवन में मंदिरों का महत्व उतना नहीं था जितना आत्मचिंतन, मनन और शास्त्रार्थ का था। फिर भी आम जनता इंद्र, विष्णु, लक्ष्मी, शिव और पार्वती के अलावा नगर, ग्राम और स्थान के देवी-देवताओं की प्रार्थना करते थे। बहुत से अन्य समुदायों में शिव और पार्वती के साथ यक्ष, नाग, पितर, ग्रह-नक्षत्र आदि की पूजा का भी प्रचलन था।

वैदिक काल में ही चार धाम और दुनियाभर में ज्योतिर्लिंगों की स्थापना के साथ ही प्रार्थना करने के लिए भव्य मंदिरों का निर्माण किया गया। समय-समय पर इनका स्वरूप बदलता रहा और कर्मकांड भी।

मंदिर का अर्थ होता है- 'मन से दूर कोई स्थान'। मंदिर का शाब्दिक अर्थ 'घर' है और मंदिर को 'द्वार' भी कहते हैं, जैसे रामद्वारा, गुरुद्वारा आदि। मंदिर को 'आलय' भी कह सकते हैं, जैसे कि शिवालय, जिनालय आदि। लेकिन जब हम कहते हैं कि मन से दूर जो है, वह मंदिर तो उसके मायने बदल जाते हैं। द्वारा किसी भगवान, देवता या गुरु का होता है, आलय सिर्फ शिव का होता है और मंदिर या स्तूप सिर्फ ध्यान-प्रार्थना के लिए होते हैं, लेकिन वर्तमान में उक्त सभी स्थान को 'मंदिर' कहा जाता है जिसमें कि किसी देव मूर्ति की पूजा होती है।

पिरामिडनुमा होते हैं मंदिर : प्राचीनकाल से ही किसी भी धर्म के लोग सामूहिक रूप से एक ऐसे स्थान पर प्रार्थना करते रहे हैं, जहां पूर्ण रूप से ध्यान लगा सकें, मन एकाग्र हो पाए या ईश्वर के प्रति समर्पण भाव व्यक्त किया जाए इसीलिए मंदिर निर्माण में वास्तु का बहुत ध्यान रखा जाता है। यदि हम भारत के प्राचीन मंदिरों पर नजर डालें तो पता चलता है कि सभी का वास्तुशिल्प बहुत सुदृढ़ था। जहां जाकर आज भी शांति मिलती है। यदि आप प्राचीनकाल के मंदिरों की रचना देखेंगे तो जानेंगे कि सभी कुछ-कुछ पिरामिडनुमा आकार के होते थे। शुरुआत से ही हमारे धर्मवेत्ताओं ने मंदिर की रचना पिरामिड आकार की ही सोची है। ऋषि-मुनियों की कुटिया भी उसी आकार की होती थी। हमारे प्राचीन मकानों की छतें भी कुछ इसी तरह की होती थीं। बाद में रोमन, चीन, अरब और यूनानी वास्तुकला के प्रभाव के चलते मंदिरों के वास्तु में परिवर्तन होता रहा।

मंदिर पिरामिडनुमा और पूर्व, उत्तर या ईशानमुखी होता है। कई मंदिर पश्चिम, दक्षिण, आग्नेय या नैऋत्यमुखी भी होते हैं, लेकिन क्या हम उन्हें मंदिर कह सकते हैं? वे या तो शिवालय होंगे या फिर समाधिस्थल, शक्तिपीठ या अन्य कोई पूजास्थल।

मंदिर के मुख्यत: उत्तर या ईशानमुखी होने के पीछे कारण यह है कि ईशान से आने वाली ऊर्जा का प्रभाव ध्यान-प्रार्थना के लिए अतिउत्तम माहौल निर्मित करता है। मंदिर पूर्वमुखी भी हो सकता है किंतु फिर उसके द्वार और गुंबद की रचना पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

प्राचीन मंदिर ध्यान या प्रार्थना के लिए होते थे। उन मंदिर के स्तंभों या दीवारों पर ही मूर्तियां आवेष्टित की जाती थीं। मंदिरों में पूजा-पाठ नहीं होता था। यदि आप खजुराहो, अजंता-एलोरा, कोणार्क या दक्षिण के प्राचीन मंदिरों की रचना देखेंगे तो जान जाएंगे कि मंदिर किस तरह के होते हैं। ध्यान या प्रार्थना करने वाली पूरी जमात जब खत्म हो गई है तो इन जैसे मंदिरों पर पूजा-पाठ का प्रचलन बढ़ा। पूजा-पाठ के प्रचलन से मध्यकाल के अंत में मनमाने मंदिर बने। मनमाने मंदिर से मनमानी पूजा-आरती आदि कर्मकांडों का जन्म हुआ, जो वेदसम्मत नहीं माने जा सकते।

मंदिर की घंटी : मंदिर में घंटी लगाने का प्रचलन भी बहुत प्राचीनकाल से शुरू हो चुका था। इसका प्रमाण कई प्राचीन मंदिरों की दीवारों पर बनी मूर्तियां, भित्तिचित्र आदि से ज्ञात हो सकता है। घंटी लगाने के दो कारण थे- पहला घंटी बजाकर सभी को प्रार्थना के लिए बुलाना और सकारात्मक वातावरण का निर्माण करना। जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ तब जो नाद था, घंटी की ध्वनि को उसी नाद का प्रतीक माना जाता है। यही नाद ओंकार के उच्चारण से भी जाग्रत होता है। जिन स्थानों पर घंटी बजने की आवाज नियमित आती है, वहां का वातावरण हमेशा शुद्ध और पवित्र बना रहता है। इससे नकारात्मक शक्तियां हटती हैं। नकारात्मकता हटने से समृद्धि के द्वार खुलते हैं। प्रात: और संध्या को ही घंटी बजाने का नियम है, वह भी लयपूर्ण। घंटी या घंटे को काल का प्रतीक भी माना गया है।

ऊर्जा के केंद्र मंदिर : अनेक प्राचीन मंदिर ऐसे स्थलों या पर्वतों पर बनाए गए हैं, जहां से चुंबकीय तरंगें घनी होकर गुजरती हैं। इस तरह के स्थानों पर बने मंदिरों में प्रतिमाएं ऐसी जगह रखी जाती थीं, जहां चुंबकत्व का प्रभाव ज्यादा हो। यहीं पर तांबे का छत्र और तांबे के पाट रखे होते थे और आज भी कुछ स्थानों पर रखे हैं। तांबा बिजली और चुंबकीय तरंगों को अवशोषित करता है। इस प्रकार जो भी व्यक्ति प्रतिदिन मंदिर जाकर इस मूर्ति की घड़ी के चलने की दिशा में परिक्रमा करता है, वह इस एनर्जी को अवशोषित कर लेता है। इससे उसको मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य लाभ मिलता है। हालांकि यह एक धीमी प्रक्रिया मानी जा सकती है लेकिन इससे मस्तिष्क में सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है।

मंदिर में शिखर होते हैं। शिखर की भीतरी सतह से टकराकर ऊर्जा तरंगें व ध्वनि तरंगें व्यक्ति के ऊपर पड़ती हैं। ये परावर्तित किरण तरंगें मानव शरीर आवृत्ति बनाए रखने में सहायक होती हैं। व्यक्ति का शरीर इस तरह से धीरे-धीरे मंदिर के भीतरी वातावरण से सामंजस्य स्थापित कर लेता है। इस तरह मनुष्य असीम सुख का अनुभव करता है। पुराने मंदिर सभी धरती के धनात्मक (पॉजीटिव) ऊर्जा के केंद्र हैं। ये मंदिर आकाशीय ऊर्जा के केंद्र में स्थित हैं।

मंदिर: रामायण काल में मंदिर होते थे, इसके प्रमाण हैं। राम का काल आज से 7129 वर्ष पूर्व था अर्थात 5114 ईस्वी पूर्व। राम ने रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना की थी। इसका मतलब यह कि उनके काल से ही शिवलिंग की पूजा की परंपरा रही है। राम के काल में सीता द्वारा गौरी पूजा करना इस बात का सबूत है कि उस काल में देवी-देवताओं की पूजा का महत्व था और उनके घर से अलग पूजास्थल होते थे।

देश में सबसे प्राचीन शक्तिपीठों और ज्योतिर्लिंगों को माना जाता है। इन सभी का समय-समय पर जीर्णोद्धार किया गया। प्राचीनकाल में यक्ष, नाग, शिव, दुर्गा, भैरव, इंद्र और विष्णु की पूजा और प्रार्थना का प्रचलन था। बौद्ध और जैन काल के उत्थान के दौर में मंदिरों के निर्माण पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा।

विश्व का सबसे बड़ा हिन्दू मंदिर अब सिर्फ कंबोडिया के अंकोरवाट में ही बचा हुआ है। हिन्दू मंदिरों को खासकर बौद्ध, चाणक्य और गुप्तकाल में भव्यता प्रदान की जाने लगी और जो प्राचीन मंदिर थे उनका पुनर्निर्माण किया गया।

मंदिर समय : हिन्दू मंदिर में जाने का समय होता है। सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है। संध्या वंदन को 'संध्योपासना' भी कहते हैं। संधिकाल में ही संध्या वंदना की जाती है। वैसे संधि 5 वक्त (समय) की होती है, लेकिन प्रात:काल और संध्याकाल- उक्त 2 समय की संधि प्रमुख है अर्थात सूर्य उदय और अस्त के समय। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायाम आदि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। दोपहर 12 से अपराह्न 4 बजे तक मंदिर में जाना, पूजा, आरती और प्रार्थना आदि करना निषेध माना गया है अर्थात प्रात:काल से 11 बजे के पूर्व मंदिर होकर आ जाएं या फिर अपराह्न काल में 4 बजे के बाद मंदिर जाएं।

Edited By: Preeti jha

भारत में सबसे पहला मंदिर कब बना?

7वीं शताब्दी तक देश के आर्य संस्कृति वाले भागों में पत्थरों से मंदिरों का निर्माण होना पाया गया है। चौथी से छठी शताब्दी में गुप्तकाल में मन्दिरों का निर्माण बहुत द्रुत गति से हुआ।

भारत का सबसे पहला मंदिर कौन सा था?

अंकोरवाट मंदिर.

इतिहास का पहला मंदिर कौन सा है?

कुछ लोग मुंडेश्वरी मंदिर को भारत का सबसे पुराना मंदिर मानते हैं जो बिहार के कैमूर जिले में स्थित है। यह भारत का सबसे पुराना मंदिर है जो अभी भी श्रद्धालुओं के लिये खुला है। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण ने इसे बहाल कर दिया है और इसका निर्माण संभवतः 108 ईस्वी दिनांकित है।

विश्व का पहला मंदिर कौन सा है?

विश्‍व का पहला ग्रेनाइट मंदिर तमिलनाडु के तंजौर का बृहदेश्‍वर मंदिर है। इसका निर्माण 1003- 1010 ई.