हमने भूमि, मृदा, जल एवं वन जैसे संसाधनों के बारे में पढ़ा। इस पाठ में हम दो महत्त्वपूर्ण संसाधनों के बारे में अध्ययन करेंगे। ये संसाधन हैं- खनिज तथा ऊर्जा। पृथ्वी पर जैसे जल और थल अति महत्त्वपूर्ण खजाने हैं ठीक उतने ही महत्त्वपूर्ण खनिज संसाधन भी हैं। खनिज संसाधन के बिना हम अपने देश के औद्योगिक क्रियाकलापों को गति, युक्ति एवं दिशा नहीं दे सकते। इसलिये देश का आर्थिक विकास भी अवरुद्ध हो सकता है। Show विश्व के बहुत से देशों में खनिज सम्पदा राष्ट्रीय आय के प्रमुख स्रोत बने हुए हैं। किसी भी देश की आर्थिक, सामाजिक उन्नति उसके अपने प्राकृतिक संसाधनों के युक्ति संगत उपयोग करने की क्षमता पर निर्भर करता है। खनिजों की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि एक बार उपयोग में आने के पश्चात ये लगभग समाप्त हो जाते हैं। इसका सम्बन्ध हमारे वर्तमान एवं भविष्य के कल्याण से है। चूँकि खनिज ऐसे क्षयशील संसाधन हैं जिन्हें दोबारा नवीनीकृत नहीं किया जा सकता अतः इनके संरक्षण की आवश्यकता बहुत ज्यादा है। रोमन साम्राज्य के पतन के अनेकों कारणों में से एक कारण वहाँ के खनिज-निक्षेप का क्षीण होना तथा मृदा अपरदन था। विकसित देशों में विगत कुछ वर्षों पूर्व जो खदानों वाले शहर या कस्बे थे वे आज वीरान, उजाड़ तथा सभ्यता से परित्यक्त इसलिये हो गए हैं क्योंकि खदानों से खनिजों का सम्पूर्ण दोहन हो चुका है तथा आकर्षण समाप्त हो चुका है। कनाडा के इलियट झील के आस-पास के नगर ''आणविक-युग के प्रथम वीरान, उजाड़, परित्यक्त नगरों'' में बदल गए। इसका कारण इन नगरों से यूरेनियम खनिज जिसकी खुदाई एवं संग्रहण करने के लिये 25,000 आबादी वाली मानव-बस्ती बसाई गई थी (1950-58), जैसे ही अमेरिका को वैकल्पिक आण्विक खनिज (यूरेनियम) के भण्डार मिले, बस्ती की जनसंख्या 5000 हो गई। इस प्रकार की मानवीय क्रियाकलापों से एक आर्थिक-सामाजिक सलाह मिलती है कि खनिज एवं ऊर्जा पर आधारित चमक-दमक की सम्पन्नता एवं सभ्यता को स्थाई नहीं मानना चाहिये। इस पाठ के अध्ययन से हम पृथ्वी पर पाए जाने वाले विशिष्ट खनिज पदार्थ, खनिज-तेल एवं ऊर्जा के अन्य संसाधनों के भौगोलिक वितरण, इन संसाधनों के साथ संयुक्त समस्याएँ एवं इनके संरक्षण की आवश्यकताओं से अवगत होंगे। उद्देश्य -
देश के खनिज संसाधनों की स्थिति बता सकेंगे; 23.1 भारत
के खनिज संसाधन जैसा कि आपने इतिहास में पढ़ा होगा कि अंग्रेजों की हुकूमत के दौरान भारत के अधिकांश खनिज निर्यात कर दिये जाते थे। किन्तु स्वतंत्रता के बाद भी भारत से खनिज पदार्थों का निर्यात हो रहा है, परन्तु खनिजों का दोहन देश की औद्योगिक इकाइयों द्वारा खपत की माँग के अनुरूप भी बढ़ा है। परिणामस्वरूप भारत में खनिजों के कुल दोहन का मूल्य 2004-2005 में लगभग 744 अरब रुपयों तक पहुँच गया जो वर्ष 1950-51 में मात्र 89.20 करोड़ रुपये ही था। इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले 50 वर्षों में 834 गुना वृद्धि हुई। खनिज पदार्थों को अलग-अलग करके देखें कि उपरोक्त मूल्यों में किसका कितना योगदान है तो स्पष्ट हो जाता है कि ईंधन के रूप में प्रयुक्त खनिज (जैसे कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस और लिग्नाइट) का योगदान 77% था, धात्विक खनिजों का 10% तथा अधात्विक खनिजों का योगदान 8% था। धात्विक खनिज के अयस्क लौह अयस्क, क्रोमाइट, मैगनीज, जिंक, बॉक्साइट, ताम्र-अयस्क, स्वर्ण अयस्क हैं जबकि अधात्विक अयस्कों में चूना-पत्थर, फास्फोराइट, डोलोमाइट, केवोलीन मिट्टी, मेग्नेसाइट, बेराइट और जिप्सम इत्यादि हैं। यदि खनिजों के सकल मूल्य में इनका अलग-अलग योगदान देखें तो कोयला (36.65%), पेट्रोलियम (25.48%), प्राकृतिक गैस (12.02%), लौह अयस्क (7.2%), लिग्नाइट (2.15%), चूनापत्थर (2.15%) तथा क्रोमाइट (1.1%) आदि कुछ ऐसे खनिज हैं, जिनका अंश 1 प्रतिशत से अधिक है। अभी तक की गई विस्तृत चर्चा के अन्तर्गत खनिज पदार्थों की स्थानिक उपलब्धता उनके आर्थिक महत्त्व के बारे में बहुत से जरूरी तथ्यों का खुलासा किया गया था। अगले अनुच्छेद में इन खनिजों के भौगोलिक वितरण सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करेंगे। 23.2 खनिज पदार्थों एवं ऊर्जा संसाधनों का स्थानिक वितरण यदि हम इन खनिज पदार्थों के देश के विभिन्न भागों में वितरण को ध्यान से देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि भारतीय प्रायद्वीप के उस भाग में जो कि मंगलोर से कानपुर को जोड़ने वाली रेखा के पश्चिम में है बहुत ही कम मात्रा में खनिज पाए जाते हैं। इस रेखा के पूर्वी भागों के अन्तर्गत कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार एवं पश्चिम बंगाल के क्षेत्र आते हैं। इन राज्यों में धात्विक खनिज अयस्क जैसे लोहा, बॉक्साइट, मैगनीज इत्यादि के प्रचुर भण्डार हैं। अधात्विक खनिज जैसे कोयला, चूने के पत्थर, डोलोमाइट, जिप्सम इत्यादि के भी बहुत विशाल भण्डार हैं। इनमें से अधिकांश क्षेत्र जो खनिज सम्पदा से सम्पन्न हैं, वे प्रायद्वीपीय पठारी क्षेत्रों में संकेन्द्रित हैं। इस पठारी भाग में खनिज सम्पदा की तीन प्रमुख पट्टियाँ स्पष्ट रूप से चिन्हित की जा सकती हैं। (क) उत्तर-पूर्वी पठार - इनके अन्तर्गत छोटानागपुर के पठार, उड़ीसा के पठार और आन्ध्रप्रदेश के पठारी भाग आते हैं। इस पट्टी के अन्तर्गत खनिज-सम्पदा विशेषकर धातु कर्म उद्योगों में उपयोग आने वाले खनिजों के विशाल भण्डार हैं। इनमें से प्रमुख खनिज जिनके बड़े एवं विपुल भण्डार पाए जाते हैं, वे हैं-लौह अयस्क, मैगनीज, अभ्रक, बॉक्साइट, चूनापत्थर, डोलोमाइट इत्यादि। इस क्षेत्र में कोयले के विशाल भण्डार दामोदर नदी, महानदी, सोन नदी की घाटियों में उपलब्ध हैं। इस क्षेत्र में पर्याप्त मात्रा में तांबा, यूरेनियम, थोरियम, फास्फेट जैसे खनिजों के भण्डार भी मिलते हैं। (ख) दक्षिण पश्चिम पठार - इस क्षेत्र का विस्तार कर्नाटक पठार तथा समीपस्थ तमिलनाडु के पठारी क्षेत्र तक है। यहाँ धात्विक खनिजों में लौह अयस्क, मैगनीज, बॉक्साइट के प्रचुर भण्डार के अलावा कुछ अधात्विक खनिजों के भण्डार भी हैं। इस क्षेत्र में कोयला नहीं मिलता। भारत के तीनों प्रमुख सोने की खदानें इसी क्षेत्र में स्थित हैं। (ग) उत्तर-पश्चिम पठार - इस क्षेत्र का विस्तार गुजरात के खम्बात की खाड़ी से आरंभ होकर राजस्थान के अरावली पर्वत श्रेणियों तक है। पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस के मुख्य भण्डार इस क्षेत्र में हैं। अन्य खनिजों के भण्डार थोड़े एवं बिखरे हुए हैं। फिर भी तांबा, चाँदी, सीसा एवं जस्ता के भण्डार तथा उनके खनन के लिये इस क्षेत्र को पूरे देशभर में जाना जाता है। इन खनिज पट्टियों के अलावा ब्रह्मपुत्र नदी घाटी क्षेत्र प्रमुख पेट्रोलियम उत्पादक क्षेत्र हैं, जबकि केरल के तटवर्ती क्षेत्र भारी खनिजयुक्त (रेडियोर्धिमता वाले) रेतों के लिये देश में प्रसिद्ध हैं। इन उपर्युक्त र्विणत क्षेत्रों के अलावा देश के अन्य भूभागों में खनिज काफी कम मात्रा में व प्रकीर्ण रूप में मिलते हैं। अगले अनुच्छेद में हम खनिज तेल एवं खनिजों के प्रकारों, जैसे कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, रेडियोधर्मी विशेषकर यूरेनियम एवं थोरियम की एक-एक करके विस्तृत चर्चा करेंगे। 23.3 खनिज ईंधन (क) कोयला जनवरी 2005 में किए गए एक आकलन के अनुसार देश में कोयले के कुल भण्डार लगभग 2,47,847 मिलियन टन है। परन्तु खेद इस बात का है कि सकल भण्डार में कम गुणवत्ता वाले कोयले की मात्रा अधिक है। कोकिंग कोयले की आवश्यकता की आपूर्ति आयात द्वारा की जाती है। भारत में ऐसे प्रयासों को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है जिसके अन्तर्गत विद्युत-ताप गृहों की उन्हीं स्थानों पर स्थापना होती है जो या तो कोयला-उत्पादक क्षेत्र में हों या उसके समीपस्थ स्थान में आते हों। इन ताप गृहों में उत्पादित विद्युत ऊर्जा को सम्प्रेषण द्वारा दूर-दराज के क्षेत्रों तक पहुँचाया जाता है। कभी कोयले की खपत का सबसे बड़ा उपभोक्ता भारतीय रेल हुआ करता था, परन्तु डीजल एवं विद्युत के प्रयोग से भारतीय रेल अब कोयले का सीधा एवं प्रत्यक्ष खपत करने वाला ग्राहक नहीं रहा।
वितरणः भारत में कोयला दो प्रमुख क्षेत्रों में उपलब्ध है। पहला क्षेत्र-गोन्डवाना कोयला क्षेत्र कहलाता है तथा दूसरा टरशियरी कोयला क्षेत्र कहलाता है। भारत के कुल कोयला भण्डार एवं उसके उत्पादनों का 98% गोन्डवाना कोयला क्षेत्रों से प्राप्त होता है तथा शेष 2% टरशियरी कोयला क्षेत्रों से मिलता है। गोन्डवाना कोयला क्षेत्र गोन्डवाना काल में बनी परतदार शैल समूहों के अन्तर्गत अवस्थित हैं। इनका भौगोलिक वितरण भी भू-वैज्ञानिकी कारकों से नियंत्रित है। यह मुख्य रूप से दामोदर (झारखण्ड़- प. बंगाल), सोन (मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़), महानदी (उड़ीसा), गोदावरी (आंध्र प्रदेश) तथा वर्धा (महाराष्ट्र) नदी घाटियों में वितरित हैं। टरशियरी कोयला क्षेत्र भारतीय प्रायद्वीप के उत्तरी बाह्य क्षेत्रों में, जिसके अन्तर्गत असम, मेघालय, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर तथा सिक्किम आते हैं, में पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त भूरा-कोयला (लिग्नाइट) तमिलनाडु के तटवर्ती क्षेत्र, गुजरात एवं राजस्थान में मिलता है। झारखण्ड कोयला भण्डार एवं उत्पादन की दृष्टि से पूरे देश में सर्वप्रथम है। कोयला झारखंड के धनबाद, हजारीबाग एवं पालामऊ जिलों में मिलता है। झरिया एवं चन्द्रपुरा के महत्त्वपूर्ण कोयला क्षेत्र धनबाद जिला में आते हैं। सबसे पुराना कोयला क्षेत्र रानीगंज, पश्चिम बंगाल में है, जो कि भारत का दूसरा सबसे बड़ा कोयला क्षेत्र है। इसका विस्तार बर्दवान और पुरुलिया जिलों में फैला है। छत्तीसगढ़ में कोयला के निक्षेप बिलासपुर तथा सरगुजा जिलों में मिलते हैं। मध्य प्रदेश में कोयले के निक्षेप सीधी, शहडोल एवं छिंदवाड़ा जिलों में मिलते हैं। आंध्रप्रदेश में कोयले के निक्षेप आदिलाबाद, करीमनगर, वारंगल, खम्मम तथा पश्चिम गोदावरी जिलों में मिलते हैं। उड़ीसा राज्य में तालचेर कोयला क्षेत्र के अलावा सम्बलपुर और सुन्दरगढ़ जिलों में भी कोयला के निक्षेप प्राप्त होते हैं। महाराष्ट्र में कोयला निक्षेप चन्द्रपुर, यवतमाल तथा नागपुर जिलों में मिलते हैं। भारत के कोयले के भण्डार क्षमता की तुलना में उसके लिग्नाइट (भूरा कोयला) के भण्डार साधारण हैं। सबसे अधिक लिग्नाइट के भण्डार नेव्हेली (तमिलनाडु) में मिलते हैं। इसके अलावा लिग्नाइट के महत्त्वपूर्ण निक्षेप राजस्थान, पुदुच्चेरी, जम्मू-कश्मीर राज्यों में भी मिलते हैं। - इसका प्रयोग कच्चे माल के रूप में रसायन एवं उर्वरक कारखानों तथा दैनिक जीवन में उपयोग की जाने वाली हजारों वस्तुओं में होता है। इसे प्रायः तरल सोना भी कहा जाता है। इसके पीछे पेट्रोलियम की बहुमुखी उपयोगिताएँ हैं। हमारी कृषि, उद्योग तथा परिवहन तंत्र कई रूपों में इस पर निर्भर है। कच्चा पेट्रोलियम दहनशील हाइड्रोकार्बन का सम्मिश्रण है जोकि गैस, तरल या गैसीय रूपों में होता है। उद्योगों में पेट्रोलियम उत्पादों का कृत्रिम पदार्थों व आवश्यक रसायनों के निर्माण के लिये तेल व चिकनाई के युक्त पदार्थों के रूप में उपयोग किया जाता है। पेट्रोलियम के महत्त्वपूर्ण उत्पादों में पेट्रोल, मिट्टी का तेल, डीजल हैं। साबुन, कृत्रिम रेशा, प्लास्टिक एवं अन्यान्य प्रसाधन उत्पाद हैं। वितरणः पेट्रोलियम भ्रंशों और अपनतियों में पाया जाता है। भारत में यह अवसादी शैल संरचना में पाया जाता है। इस प्रकार के अधिकांश क्षेत्र असम, गुजरात तथा पश्चिमी तट के अपतटीय क्षेत्रों में पाए गए हैं। अब तक भारत में पेट्रोलियम का उत्पादन असम पट्टी, गुजरात-खम्बात की पट्टी तथा बॉम्बे-हाई में हो रहा है। असम की पट्टी का विस्तार सुदूर उत्तर-पूर्वी छोर पर अवस्थित देहांग-बेसिन से लेकर पहाड़ियों के बाहरी छोर के साथ-साथ सूरमा-घाटी की पूर्वी सीमा तक विस्तृत है। गुजरात-खम्बात पट्टी गुजरात के उत्तर में मेहसाना से लेकर दक्षिण में रत्नागिरि (महाराष्ट्र) के महाद्वीपीय निमग्न तट तक फैली है। इसी के अन्तर्गत बॉम्बे हाई भी आता है जो भारत का सबसे बड़ा पेट्रोलियम उत्पादक क्षेत्र है। असम में उत्पादक क्षेत्र लखीमपुर तथा शिवसागर जिलों में स्थित हैं। पेट्रोलियम के उत्पादन के लिये खननकूप डिग्बोई, नहरकटिया, शिवसागर एवं रुद्र सागर के आस-पास स्थित हैं। इसी प्रकार गुजरात राज्य में तेल उत्पादक स्थान बड़ोदरा, भरोच, खेड़ा, मेहसाना एवं सूरत जिलों में स्थित हैं। हाल ही में पेट्रोलियम के भण्डार की खोज राजस्थान के बीकानेर जिलान्तर्गत बहुत बड़े क्षेत्र में तथा बाड़मेर एवं जैसलमेर क्षेत्रों में की गई है। इसी प्रकार आन्ध्र प्रदेश के पूर्वी तटवर्ती गोदावरी डेल्टा तथा कृष्णा डेल्टा में अन्वेषण के दौरान प्राकृतिक गैस मिली है। पेट्रोलियम भण्डार के संभावित क्षेत्र बंगाल की खाड़ी, जिसका विस्तार पश्चिम बंगाल की तटवर्ती रेखा के साथ-साथ उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु तथा अन्डमान व निकोबार द्वीप समूह तक फैला है। - पेट्रोलियम अपनतियों और भ्रंशों में पाया जाता है। भारत में यह अवसादी शैल संरचना में पाया जाता है। ऐसे अधिकांश क्षेत्र असम, गुजरात तथा पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्र के सहारे समुद्र के महाद्वीपीय निमग्न तट पर मिलते हैं। - पेट्रोलियम के महत्त्वपूर्ण उत्पादों में पेट्रोल, डीजल, मिट्टी का तेल, साबुन, कृत्रिम रेशे, प्लास्टिक, विविध सौन्दर्य-प्रसाधन वस्तुएँ आदि हैं। - उद्योगों में पेट्रोलियम उत्पादों का कृत्रिम पदार्थों व आवश्यक रसायनों के निर्माण के लिये तेल व चिकनाई युक्त पदार्थों के रूप में उपयोग किया जाता है।
भारत में तेलशोधक संयंत्र इन तेल शोधक संयंत्रों को कच्चे तेल की आपूर्ति या तो जहाजों द्वारा अथवा पाइप लाइनों के द्वारा की जाती है। यद्यपि पेट्रोलियम उत्पादन की वार्षिक दर बढ़ती नजर आती है, किन्तु भारत को अपनी आवश्यकताओं की आपूर्ति पेट्रोलियम एवं पेट्रोलियम उत्पादों के बाहर से आयात द्वारा करना पड़ता है। - वर्तमान में भारत में 17
तेलशोधक संयंत्र सार्वजनिक क्षेत्र के अन्तर्गत तथा 1 संयंत्र निजी क्षेत्र में है। (ग) प्राकृतिक गैस (घ) आण्विक खनिज यूरेनियम वर्तमान में यूरेनियम का उत्पादन सिंहभूमि जिले (झारखण्ड) की जादूगुड़ा खदानों से किया जा रहा है। भारत में यूरेनियम के भण्डार 5,000 से 10,000 मेगावाट बिजली उत्पादन करने में सक्षम हैं। थोरियम - वर्तमान में यूरेनियम का उत्पादन जादूगुड़ा की खदानों से किया जा रहा है। पाठगत प्रश्न 23.1 23.4 कुछ प्रमुख खनिजों का वितरण (क) लौह खनिज 1. धात्विक लौह खनिज (i) लौह अयस्क भारत में पाए जाने वाले लौह अयस्क तीन प्रकार के हैं- (i) हेमेटाइट, (ii) मैग्नेटाइट, (iii) लिमोनाइट। हेमेटाइट नामक अयस्क में लोहे का अंश 68% तक होता है। इस अयस्क का रंग लाल होता है। इसलिये प्रायः इसे ''लाल अयस्क'' के नाम से भी जाना जाता है। इसके बाद दूसरे स्थान पर मैग्नेटाइट नामक लौह अयस्क आता है जिसका रंग काला होता है, इसलिये इसे ''काला अयस्क'' भी कहते हैं। मैग्नेटाइट अयस्क की भण्डार मात्रा तथा लौह धातु के प्रतिशत की दृष्टि से स्थान हेमेटाइट के बाद दूसरा है। इसमें लौह धातु का भाग 60 प्रतिशत तक होता है। तीसरा लौह अयस्क ''लिमोनाइट'' कहलाता है। जिसमें लौह धातु 35.40 प्रतिशत तक होता है। इसका रंग पीला होता है। चूँकि हेमेटाइट तथा मेग्नेटाइट अयस्क के इतने विशाल भण्डार हैं अतः लिमोनाइट अयस्क का दोहन भारत में फिलहाल नहीं हो रहा है।
वितरण उड़ीसा एवं झारखण्ड में भारत के उच्च श्रेणी के कुल लौह अयस्क का 50% भाग विद्यमान है। उड़ीसा में लौह अयस्क सुन्दरगढ़, मयूरभंज एवं क्योंझर जिलों में तथा झारखण्ड में सिंहभूम जिले में मिलता है। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश में देश के कुल लौह अयस्क भण्डार का 25% विद्यमान है। इसी प्रकार देश के कुल लौह अयस्क उत्पादन का 20.25% भी छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश राज्यों से होता है। इन अयस्क के भण्डार बैलाडिला की पहाड़ियों में स्थित है। इसी प्रकार से अरिडोंगरी (बस्तर जिला) तथा दल्ली-राजहरा के पहाड़ी क्षेत्रों (दुर्ग जिला) में पाए जाते हैं। गोवा में लौह अयस्क यद्यपि अच्छे दर्जे का नहीं है फिर भी देश के कुल उत्पादन में गोवा में मिलने वाले लौह अयस्कों का योगदान महत्त्वपूर्ण है। गोवा में लौह अयस्क की खदान सीढ़ीदार, खुले व सुव्यवस्थित होते हैं तथा उत्खनन एवं उत्खनित अयस्कों को बाहर जमीन पर फेंकने की प्रणाली पूरी तरह यांत्रिकीय इंजीनियरिंग द्वारा संचालित होती है। लगभग पूरा लौह अयस्क गोवा के मरमगाओ बन्दरगाह से जापान को निर्यात कर दिया जाता है। कर्नाटक में सबसे मशहूर लौह अयस्क के निक्षेप साँडूर-होसपेट क्षेत्र (बेल्लारी जिले), चिकमंगलूर जिले के बाबाबूदन के पहाड़ी क्षेत्र तथा शिमोगा एवं चित्रदुर्ग जिलों में पाए जाते हैं। आन्ध्र प्रदेश में लौह अयस्क के निक्षेप अनन्तपुर, खम्मम, कृष्णा, करनूल, कुडप्पा तथा नेल्लूर जिलों में बिखरे एवं छिटपुट रूप में पाए जाते हैं। कुछ निक्षेप इसी रूप में तमिलनाडु, महाराष्ट्र एवं राजस्थान में भी मिलते हैं। सकल विश्व व्यापार में भारत का योगदान 7 से 8 प्रतिशत है। अब लौह अयस्कों के निक्षेपों का विकास निर्यात को विशेष ध्यान में रखकर किया जाता है। जैसे बैलाडिला एवं राजहरा (छत्तीसगढ़) के लौह अयस्कों के निक्षेपों तथा उड़ीसा के किरुबुरू खदानों से लौह अयस्कों का उत्पादन सीधे निर्यात के लिये किया जाता है। जापान, रोमानिया एवं चेकोस्लोवाकिया एवं पोलैण्ड देश भारत के लौह अयस्कों का आयात करते हैं। भारत से इन अयस्कों का निर्यात हल्दिया, पारादीप, मरमगाओ, मैंगलोर एवं विशाखापट्टनम बन्दरगाहों से होता है। - भारत में विश्व के सकल भण्डार का 20 प्रतिशत लौह अयस्क विद्यमान है। (ii) मैगनीज अयस्क लौह एवं इस्पात के निर्माण में मैगनीज अयस्क एक महत्त्वपूर्ण अवयव है। मैगनीज की उपयोगिता शुष्क बैटरियों के निर्माण में, फोटोग्राफी में, चमड़ा और माचिस उद्योगों में महत्त्वपूर्ण होती है। भारत में सकल मैगनीज अयस्क के लगभग 85 प्रतिशत भाग की खपत धातुकर्मीय उद्योगों में हो जाती है। वितरण उड़ीसा भारत में मैगनीज अयस्क के उत्पादन में शीर्ष पर है जहाँ भारत के कुल उत्पादन का 37 प्रतिशत उत्पादन होता है। इस राज्य में उपलब्ध मैगनीज अयस्क के निक्षेप भारत के कुल भण्डार का 12 प्रतिशत है। मैगनीज की प्रमुख खदानें सुन्दरगढ़, रायगढ़, बोलांगीर, क्योंझर, जाजपुर एवं मयूरभंज जिलों में है। कर्नाटक में मैगनीज अयस्क के निक्षेप शिमोगा, चित्रदुर्ग, तुमकूर तथा बेल्लारी जिलों में हैं। छुटपुट निक्षेप बीजापुर, चिकमंगलूर एवं धारवाड़ जिलों में पाए गए हैं। यद्यपि कर्नाटक में मैगनीज अयस्क के भण्डार काफी कम हैं (भारत के कुल भण्डार का 6 प्रतिशत) फिर भी अयस्क का उत्पादन कर्नाटक में भारत के मैगनीज उत्पादन का 26 प्रतिशत होता है। आन्ध्र प्रदेश में मैगनीज का उत्पादन भारत के कुल उत्पादन का 8 प्रतिशत होता है जो काफी अच्छा है। यद्यपि यहाँ मैगनीज अयस्क के निक्षेप काफी कम है। गोवा, झारखण्ड एवं गुजरात में भी मैगनीज अयस्क के निक्षेप पाए जाते हैं। - विश्व में मैगनीज अयस्क के उत्पादन करने वाले देशों में भारत का स्थान तीसरा है। 2. धात्विक अलौह खनिज (i) बॉक्साइट
वितरण झारखण्ड में भारत के सकल बॉक्साइट भण्डार का 13 प्रतिशत भाग तथा उत्पादन में देश के कुल उत्पादन का 37 प्रतिशत भाग मिलता है। बॉक्साइट के महत्त्वपूर्ण निक्षेप इस राज्य के पलामू, राँची एवं लोहरदरगा जिलों में अवस्थित हैं। गुजरात में बॉक्साइट अयस्क के निक्षेपों की भण्डारण राशि देश के कुल भण्डार के 12 प्रतिशत भाग के बराबर तथा इतनी ही प्रतिशत की भागीदारी उत्पादन के मामले में है। बॉक्साइट के निक्षेप इस राज्य के भावनगर, जूनागढ़ तथा अमरेली जिलों में अवस्थित हैं। मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ को मिलाकर देखा जाए तो देश के कुल बॉक्साइट भण्डार के 22 प्रतिशत भाग तथा उत्पादन में देश के कुल उत्पादन का 25 प्रतिशत भाग इन दोनों राज्यों के निक्षेपों से प्राप्त होते हैं। इन राज्यों में बॉक्साइट के तीन प्रमुख क्षेत्र हैं - अमरकंटक पठार में सरगुजा, रायगढ़ एवं बिलासपुर जिले; मैकल पर्वत श्रृंखला के अन्तर्गत बिलासपुर, दुर्ग, (दोनों छत्तीसगढ़) एवं मण्डला, शहडोल व बालाघाट जिले (मध्यप्रदेश) तथा कटनी जिला (मध्यप्रदेश) सम्मिलित हैं। महाराष्ट्र में बॉक्साइट अयस्क के निक्षेप तथा उत्पादन अपेक्षाकृत कम है। देश के कुल उत्पादन का 18 प्रतिशत भाग का उत्पादन यहाँ होता है, परन्तु निक्षेपों का कुल भण्डार देश के कुल भण्डार के 22 प्रतिशत भाग के बराबर है। बॉक्साइट के महत्त्वपूर्ण निक्षेप कोल्हापुर, रायगढ़, थाणे, सतारा एवं रत्नागिरी जिलों में अवस्थित हैं। कर्नाटक के बेलगाम जिले के उत्तर-पश्चिमी भूभाग में बॉक्साइट के निक्षेप मिलते हैं। देश के पूर्वी घाट क्षेत्रों में बॉक्साइट के विशाल निक्षेप अवस्थित हैं। इस घाट क्षेत्र में उड़ीसा तथा आन्ध्र प्रदेश के क्षेत्र आते हैं। अन्य क्षेत्रों में जैसे तमिलनाडु के सालेम, नीलगिरी तथा मदुरै जिलों में; उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में बॉक्साइट अयस्क के महत्त्वूपर्ण निक्षेप मिलते हैं। भारत विभिन्न देशों को बॉक्साइट का निर्यात करता है। प्रमुख आयातक देश हैं- इटली, यूनाइटेड किंगडम, पश्चिम जर्मनी एवं जापान। - बॉक्साइट अयस्क से अल्युमिनियम धातु निकाली जाती है। (B) अधात्विक खनिज (i) अभ्रक वितरण बिहार और झारखण्ड में उत्तम कोटि के रूबी अभ्रक का उत्पादन होता है। बिहार, झारखण्ड के मिले-जुले भूभाग में अभ्रक खनिज की निक्षेप पट्टी का विस्तार पश्चिम में गया जिला से हजारीबाग, मुँगेर होते हुए पूर्व में भागलपुर जिले तक फैला हुआ है। इस पट्टी के बाहरी क्षेत्र में धनबाद, पालामू, राँची एवं सिंहभूमि जिलों में भी अभ्रक के भण्डार मिलते हैं। बिहार, झारखण्ड मिलाकर भारत के कुल अभ्रक उत्पादन का 80 प्रतिशत भाग उत्पादित करते हैं। आन्ध्र प्रदेश में अभ्रक की पट्टी नैलूर जिले में ही सीमित है। राजस्थान देश का तीसरा प्रमुख अभ्रक उत्पादक राज्य है। इस राज्य में अभ्रक खनिज से सम्पन्न पट्टी का विस्तार जयपुर, उदयपुर, भीलवाड़ा, अजमेर और किशनगढ़ जिलों में फैला है। यहाँ अभ्रक की गुणवत्ता अच्छी नहीं है। इन तीन प्रमुख पट्टियों के अलावा अभ्रक के निक्षेप केरल, तमिलनाडु एवं मध्य प्रदेश में भी मिलते हैं। भारत में अभ्रक खनिज का उत्खनन निर्यात के लिये होता रहा है। भारत के अभ्रक का आयात प्रमुख रूप से (कुल निर्यात का 50 प्रतिशत भाग) संयुक्त राज्य अमेरिका करता रहा। (ii) चूना पत्थर वितरण - भारत संसार का अग्रणी अभ्रक उत्पादक देश है। पाठगत प्रश्न 23.2 23.5 समस्याएँ (क) खनिजों का तीव्रता से समापन (ख) पारिस्थितिकीय समस्याएँ इससे उत्पन्न कई समस्याएँ जैसे बार-बार बाढ़ प्रभावित होना, अपवाह क्षेत्र में अवरोध उत्पन्न होने से पानी का इधर-उधर जमाव मच्छरों का आश्रय स्थान बनते हैं, जिससे मलेरिया जैसे संक्रामक बीमारियाँ फैलने की प्रबल सम्भावनाएँ बनती हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में खनन कार्य से भूस्खलन बार-बार होता है जिससे जीव-जन्तु, पशु-सम्पदा तथा मानवों की जान-माल की हानि होती है। कई खदानों में, खनन श्रमिकों को बहुत ही खतरनाक माहौल में काम करना पड़ता है। कोयले की खदानों में आग लगने से अथवा पानी भर जाने से सैकड़ों श्रमिकों को जान गंवानी पड़ती है। कई खदानों में कभी-कभी विषैली गैस अचानक मिल जाने से कई श्रमिक मर जाते हैं। (ग) प्रदूषण (घ) सामाजिक समस्याएँ 23.6 संसाधनों का संरक्षण खनिज संसाधनों का संरक्षण निम्नलिखित युक्तिसंगत उपायों द्वारा संभव है- (क) पुनरुद्धार (ख) पुनः चक्रण (ग) प्रतिस्थापन (घ) अधिक कौशलयुक्त उपयोग 23.7 ऊर्जा संसाधन 23.8 ऊर्जा के स्रोत एवं उनके वर्गीकरण ऊर्जा संसाधनों को दूसरे आधार पर भी वर्गीकृत किया गया है, जो मूलतः स्रोतों की सजीवता पर आधारित हैं। जैसे खनिज संसाधनों में कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, रेडियोधर्मी खनिज इत्यादि सभी एक निश्चित समय के पश्चात समाप्त हो जाएँगे, परन्तु इसके विपरीत प्रवाही जल, सूरज की किरणें, पवन, समुद्री लहरें, गरम जल के झरने, बायोगैस इत्यादि ऊर्जा के ऐसे स्रोत हैं जो अक्षय हैं, ये समाप्त या नष्ट नहीं होते। ऊर्जा के इन स्रोतों से प्राप्त ऊर्जा प्रदूषणमुक्त होती है। ऊर्जा के खनिज स्रोतों में कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस शामिल है। इन सभी खनिजों में छिपी ऊर्जा वास्तविक रूप में सूर्य द्वारा प्राप्त ऊर्जा का एकत्रित रूप में अंश ही है जो अश्मीभूत हो गए। इन खनिजों को इसीलिये जीवाश्म ईंधन भी कहा जाता है। दूसरे प्रकार को रेडियोधर्मी या आण्विक खनिज कहा जाता है, इनसे प्राप्त ऊर्जा प्रदूषण युक्त होती है। खनिजों के अलावा ऊर्जा के अन्य स्रोत हैं- प्रवाही जल, सूर्य, पवन, ज्वार एवं गरम पानी के झरने। इनसे प्राप्त ऊर्जा प्रदूषण मुक्त होती है। - ऊर्जा स्रोतों का एक और वर्गीकरण परम्परागत और गैर-परम्परागत स्रोतों के आधार पर भी किया जाता है। परम्परागत स्रोतों में कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस इत्यादि आते हैं। गैर-परम्परागत स्रोतों में सूर्य, पवन, ज्वार, गरम झरने एवं बायोगैस इत्यादि सम्मिलित हैं। - ईंधन की लकड़ी, गोबर तथा फसलों के अपशिष्ट पदार्थ इत्यादि सभी परम्परागत या गैर-वाणिज्यिक ऊर्जा के स्रोत कहलाते हैं। - कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, जल-प्रपात एवं यूरेनियम, थोरियम (आण्विक खनिज) इत्यादि परम्परागत स्रोत के अन्तर्गत आते हैं। - सूर्य, पवन, बायोगैस, ज्वार, गरम पानी का झरना इत्यादि ऊर्जा के गैर-परम्परागत स्रोत हैं। इन सभी परम्परागत स्रोतों से ऊर्जा का उत्पादन अभी भी प्रारंभिक विकास की अवस्था में है। उचित तकनीकी प्रविधियों के अभाव में इन स्रोतों का व्यापक दोहन नहीं हो पा रहा है। - गैर परम्परागत ऊर्जा के स्रोत महत्त्वपूर्ण है इसलिये कि ये सभी प्रदूषण मुक्त ऊर्जा प्रदान करते हैं तथा इनका पुनर्चक्रण संभव है। 23.9 विद्युत का बढ़ता उत्पादन एवं उपभोग भारत में सन 1947 में प्रति व्यक्ति बिजली की उपलब्धि मात्र 2.4 किलो वाट प्रति घंटे थी, जो 1995-1996 के अन्तराल में बढ़कर 53 किलो वाट प्रति घंटे हो गई। व्यापक सुधार एवं उत्पादन के बावजूद भी बिजली की प्रति व्यक्ति उपलब्धता विश्व के बहुत से देशों की तुलना में काफी कम है। भारत में लगभग 6,00,000 गाँव हैं। 1947 में बमुश्किल 300 ग्रामों में ही बिजली उपलब्ध थी। आज बिजली करीब 5 लाख गाँवों में उपलब्ध है। यह इसलिये संभव हो सका क्योंकि 1947 से 2005 तक के अन्तराल में बिजली उत्पादन में 85 गुणा की अभिवृद्धि हुई। कुल संस्थापित उत्पादन क्षमता जो 1947 में लगभग 1400 मेगावाट थी आज बढ़कर (31 मार्च 2005 तक) 1,18,419.09 मेगावाट तक हो गई। इसमें 80,902.45 मे.वा. ताप विद्युत, 30,935.63 मे.वा. जल विद्युत 3811.01 मे.वा. पवन ऊर्जा तथा 2770 मे.वा. आण्विक बिजली शामिल हैं। आइये हम सब देखें कि विगत पाँच दशकों में विद्युत के वास्तविक उत्पादन कैसा रहा। 1950-51 में कुल विद्युत उत्पादन 6.6 अरब कि.वा.घं. था जो 1995-96 तक बढ़कर 415 अरब कि.वा.घं. हो गया। इसमें से 380 अरब कि.वा.घं. की ही विस्तृत जानकारी उपलब्ध है। बाकी के 35 कि.वा.घं. 'उपयोग के लिये नहीं' शीर्षक में अंकित थे। जल विद्युत का उत्पादन 1950-51 में 2.5 अरब कि.वा.घं. था। 45 वर्षों में यह बढ़कर 72.5 अरब कि.वा.घं. हो गया (1995-96 तक)। इसी प्रकार ताप विद्युत का उत्पादन भी जल विद्युत उत्पादन से कोई ज्यादा भिन्न नहीं था। ताप विद्युत उत्पादन 1950-51 में 2.6 अरब कि.वा.घं. था। यह वर्तमान जल विद्युत उत्पादन की तुलना में चार गुना से भी अधिक है। इस अवधि में आण्विक विद्य़ुत उत्पादन का कुल उत्पादन में स्थान नगण्य था। पाठगत प्रश्न 23.3 II. सही विकल्प चुनिए- 23.10 ताप विद्युत स्रोत ताप विद्युत के प्रमुख स्रोत कोयला, डीजल एवं प्राकृतिक गैस है जिनका प्रयोग विद्युत उत्पादन में होता है। ताप विद्युत ही देश में बिजली की आपूर्ति में सबसे अधिक योगदान करती है। विद्युत उत्पादन के अधिष्ठापित संयंत्रों से ताप विद्युत की क्षमता, जलविद्युत से तीन गुना अधिक है। 2004-2005 में ताप विद्युत का योगदान 80,903 मे.वा. रहा है जो कि देश में विद्युत उत्पादन (1,18,419 मे.वा.) का लगभग 60 प्रतिशत था। सन 1975 में राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम (एन.टी.पी.सी.) की स्थापना के बाद ताप विद्युत के योगदान में लगातार तीव्र वृद्धि हो रही है। वर्तमान में एन.टी.पी.सी. के अन्तर्गत कोयले पर आधारित 13 सुपर ताप विद्युत परियोजनाएँ तथा 7 गैस/द्रव ईंधन पर संचालित संयंत्र चल रहे हैं। वर्ष 2004-2005 में एन.टी.पी.सी. ने 24,435 मेगावाट ताप विद्युत का उत्पादन किया जो देश में उत्पादित ताप विद्युत का 30 प्रतिशत था। कोयले पर आधारित ताप विद्युत संयंत्रों की स्थापना कोयले की खदानों के समीपस्थ क्षेत्र में की गई ताकि संयंत्र तक परिवहन लागत बचाई जा सके। विद्युत का सम्प्रेषण दूरस्थ क्षेत्रों में करने में भी किफायती साबित होता है हालाँकि संप्रेषण में कुछ शक्ति ह्रास अवश्य होता है। सुपर ताप विद्युत संयंत्रों की स्थापना भी कोयले की खदानों के समीप की गई है। ये हैं- सिंगरौली (उत्तर प्रदेश), कोरबा (छत्तीसगढ़), रामागुन्डम (आन्ध्र प्रदेश), फरक्का (पश्चिम बंगाल), विन्ध्याचल (मध्य प्रदेश), रिहन्द (उत्तर प्रदेश), कावस (गुजरात), गांदार (गुजरात) तथा तालचेर (उड़ीसा)। इनमें से अधिकांश संयंत्रों ने अपनी कार्यदक्षता एवं लाभांश को प्लाण्ट लोड फैक्टर को प्रोन्नत कर बढ़ा लिया है (राष्ट्रीय औसत 63 % की तुलना में 78 %)। रेल विभाग अपनी मुख्य लाइनों का विद्युतीकरण करने की योजना कार्यान्वित करना चाहता है और इसके लिये वह प्रमुख कोयला क्षेत्रों के निकट अपने सुपर ताप विद्युत केन्द्र स्थापित कर रहा है। भारतीय रेल ने अपना सुपर ताप विद्युत संयंत्र नेव्हेली (तमिलनाडु) में स्थापित किया है। इसे कोयले की आपूर्ति नेव्हेली लिग्नाइट कोल क्षेत्र से की जाती है। कोयला पर आधारित ताप विद्युत संयंत्रों के साथ आजकल की नवीनतम प्रवृत्ति डीजल तथा प्राकृतिक गैस पर आधारित ताप विद्युत संयंत्र को प्रोत्साहित करना है। ऐसे संयंत्रों को विपणन के अथवा उपयोग के क्षेत्र या बाजार के केन्द्र के पास स्थापित किया जा सकता है। तेल तथा गैस पर आधारित ताप बिजली संयंत्रों को लगाने व चालू करने की अवधि सामान्यतः बहुत छोटी होती है। इसके अलावा पेट्रोलियम/गैस पर आधारित संयंत्र की उत्पादन क्षमता भी कोयले पर आधारित संयंत्रों से अच्छी होती है। परन्तु इन संयंत्रों के कार्यशील रहने के लिये पेट्रोलियम या प्राकृतिक गैस को पाइप लाइन बिछाकर अनवरत आपूर्ति करना होता है। चूँकि भारत खनिज तेल एवं प्राकृतिक गैस संसाधनों में समृद्ध नहीं है, इसलिये भारत को इनका तथा नेप्था आदि का मध्य-पूर्व खाड़ी के देशों से आयात करना पड़ता है। महाराष्ट्र के कोंकण तटवर्ती क्षेत्र में इन्हीं आयातित खनिज तेल एवं अन्य सामग्रियों पर आधारित डाभोल ताप विद्युत संयंत्र स्थापित किया गया है। इस संयंत्र की स्थापना भारत में नई प्रवृत्ति का संकेत हैं। खनिज तेल पर आधारित अधिकांश ताप विद्युत संयंत्र भारत के उत्तर-पूर्व सुदूर क्षेत्रों तथा हिमालय क्षेत्र में स्थापित किए गए हैं। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि दक्षिण के कर्नाटक तथा केरल राज्यों में एक भी ताप-विद्युत संयंत्र की स्थापना आज तक नहीं की गई है। क्या आप इसका कारण समझा सकते हैं? 23.11 जल शक्ति संसाधन काँगो, रूस, कनाड़ा, संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद भारत अपनी संभावित क्षमता 41,000 मेगावाट के साथ पाँचवे स्थान पर है। जल विद्युत शक्ति - भारत में जल विद्युत का विकास, 19वीं सदी के अन्तिम दशक में सन 1897 में दार्जिलिंग में बिजली की आपूर्ति हेतु जल विद्युत संयंत्र की स्थापना से शुरू हुआ। इसके बाद 1902 में कर्नाटक के शिवसमुद्रम में कावेरी नदी के जलप्रपात पर दूसरे जल विद्युत संयंत्र की स्थापना हुई। बाद में पश्चिमी घाट पर्वतीय क्षेत्र में कुछ संयंत्र डाले गए जिससे विद्युत की आपूर्ति मुम्बई को हो सके। जल विद्युत शक्ति के कुछ संयंत्र उत्तर भारत में उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और दक्षिण भारत में तमिलनाडु एवं कर्नाटक में 1930 के दशक में स्थापित किए गए। इस प्रकार से स्थापित संयंत्रों से पूरे देश में बिजली उत्पादन की सकल क्षमता 1947 तक 508 मेगावाट हो गई थी। इसके पश्चात देश की पंचवर्षीय योजनाओं के तहत सघन प्रयास किए गए। कई बहुउद्देश्यीय योजनाओं को संचालित किया गया ताकि जल विद्युत शक्ति का समुचित और शीघ्र विकास हो सके। वर्ष 2000-01 के अंत तक जल विद्युत की स्थापित क्षमता बढ़कर 25,219.55 मेगावाट हो गई जो कि विद्युत की कुल स्थापित क्षमता के एक-चौथाई के करीब था। ऊर्जा का सस्ता, प्रदूषण मुक्त व पुनःचक्रीय स्रोत होते हुए भी स्वतंत्रता के पश्चात इसका महत्त्व घटा है। कुल ऊर्जा उत्पादन में इसका हिस्सा 1950-51 में 49 प्रतिशत से घटकर 2000-01 में केवल 14.9 प्रतिशत रह गया। इसके बाद भी जल विद्युत उत्तरी, पश्चिमी व दक्षिणी ग्रिड में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उत्तर-पूर्वी ग्रिड तो प्रमुख रूप से जल शक्ति पर ही निर्भर है। देश में शक्ति की कमी के संदर्भ में जल विद्युत शक्ति केन्द्रीय भूमिका निभा सकता है। भारतीय नदियाँ प्रतिवर्ष 1677 करोड़ घन मीटर जल सागरों में बहा देती हैं। केन्द्रीय जल एवं ऊर्जा आयोग ने इन नदियों की जल विद्युत क्षमता 60 प्रतिशत लोड फैक्टर पर लगभग 40 मिलियन किलोवाट आकलित की है। केन्द्रीय विद्युत परिषद ने यह क्षमता 60 प्रतिशत लोड फैक्टर पर 84,000 मेगावाट आँकी है।
उपरोक्त अन्तर्निहित जल विद्युत क्षमता कई भौतिक एवं आर्थिक कारकों पर आश्रित हैं। इन कारकों में से नदी पथ, नदी जल की राशि, नदी के जल प्रवाह में निरंतरता (ये सब वर्षा जल के कम या अधिक होने पर आश्रित हैं), भौम्याकृति, विद्युत शक्ति के अन्य स्रोत के उपलब्ध होने, स्थानीय आर्थिक विकास के स्तर (जिस पर विद्युत शक्ति की मांग निर्भर है) एवं स्थान विशेष का प्रौद्योगिकी स्तर, इत्यादि महत्त्वपूर्ण हैं। नदी में नियमित रूप से तीव्र प्रवाह के साथ पर्याप्त जल की राशि का मिलते रहना जल-विद्युत शक्ति के संयंत्र की स्थापना के लिये उपयुक्त परिस्थितियां प्रदान करती हैं। स्थान विशेष पर वर्षा जल की विशेष उपलब्धता तथा ढाल वाली भूमि की आकृतियां नदी-बेसिन में जल एवं प्रवाह दोनों को प्रभावित करते हैं। चूँकि उपर्युक्त कारकों के सहित स्थितियां पूरे देश में असमान रूप से विद्यमान है, इसलिये जल-विद्युत शक्ति की क्षमता का भी पूरे देश में असमान वितरण है। भारत में उत्तरी पर्वतीय श्रेणियों से निकलने वाली नदियाँ इस सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण हैं। इन नदियों को हिमानियों तथा हिम क्षेत्रों से जल प्राप्त होता है इसलिये इनमें वर्ष भर नियमित जल प्रवाह बना रहता है। नदी के प्रवाह क्षेत्र की ऊँची नीची, कटाव युक्त भूमि संरचना के कारण नदी वेगवती बन जाती हैं। इसके साथ इस क्षेत्र में नदी जल के अन्य उपयोग करने की कोई विशेष स्पर्धा न होने से भी जल-प्रवाह अवरुद्ध नहीं है। इस पर्वतीय क्षेत्र का उत्तर-पूर्वी भाग जिसमें ब्रह्मपुत्र बेसिन प्रमुख है, सर्वाधिक जल-विद्युत शक्ति क्षमता का बेसिन है। दूसरा स्थान भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्र में बहने वाली सिंधु नदी का है। हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं से निकलने वाली गंगा की अनेक सहायक नदियों में संभावित जल-विद्युत शक्ति क्षमता कुल 11,000 मेगावाट की अनुमानित है। इस प्रकार संभावित सकल जल-विद्युत क्षमता का तीन-चौथाई भाग हिमालय पर्वत श्रृंखला से निकलने वाली नदियों के बेसिनों में सीमित है। भारत के प्रायद्वीपीय क्षेत्र की नदियाँ इस संदर्भ में सशक्त नहीं है। यहाँ की समस्त नदियाँ वर्षाऋतु पर आश्रित हैं। इसलिये इन नदियों में जल प्रवाह एवं वेग मानसून के समय प्रचण्ड रहता है किन्तु वर्षाऋतु उपरान्त एक लम्बे समय तक नदी में जल की राशि एवं उसका प्रवाह दोनों अनिश्चित हो जाते हैं। इन्हीं सब कारणों से नदी-जल का संचय करना आवश्यक हो जाता है। जल विद्युत शक्ति की क्षमता का अधिकांश भाग नदियों के पर्वतीय क्षेत्रों में है जो नदियों के ऊपरी एवं मध्य प्रवाह क्षेत्रों में होते हैं। इन पर्वतीय क्षेत्रों में जमीन ऊँची-नीची व ऊबड-खाबड़ होने से सिंचाई हेतु संसाधन विकसित करने के लिये उपयुक्त नहीं होती। इस कारण जल-विद्युत शक्ति संयंत्र के स्थापित करने में जल संसाधन को किसी प्रकार के अन्य प्राथमिकता वाले विकास सम्बन्धित विरोध का भी सामना नहीं करना पड़ता। विद्युत शक्ति उत्पादन क्षमता के संभावित क्षेत्र ऊपरी नर्मदा बेसिन, पश्चिमी घाट, उत्तर-पश्चिमी कर्नाटक तथा अन्नामलाई पहाड़ियों में विद्यमान हैं। इसके बावजूद भी दक्षिण भारत के राज्यों में जल विद्युत शक्ति का उत्पादन अपेक्षाकृत ज्यादा होता है क्योंकि ये क्षेत्र प्रमुख कोयला क्षेत्रों से बहुत दूर है।
23.12 परमाणु शक्ति परमाणु शक्ति कार्यक्रम पिछली शताब्दी के पाँचवें दशक में प्रारंभ किए गए और अगस्त 1948 में टाटा परमाणु ऊर्जा आयोग की स्थापना एक शीर्ष संस्थान के रूप में की गई जो परमाणु कार्यक्रमों पर निर्णयात्मक गतिविधि का संचालन करता है। परन्तु इस दिशा में प्रगति परमाणु ऊर्जा संस्थान की ट्राम्बे में 1954 में स्थापना के बाद ही हो सकी। इसी संस्थान को 1967 में एक नया नाम ''भाभा परमाणु शोध केन्द्र'' (बार्क) दिया गया। भारत का सर्वप्रथम परमाणु शक्ति केन्द्र (320 मेगावाट शक्ति) मुम्बई के पास तारापुर में 1969 में स्थापित किया गया। इसके बाद परमाणु रिएक्टर 'रावत भाटा' (300 मेगावाट) कोटा (राजस्थान), कलपक्कम (400 मेगावाट) तमिलनाडु, नरोरा (उत्तर प्रदेश), कैगा (कर्नाटक) एवं काकरापारा (गुजरात) में भी स्थापित हुए। इस प्रकार वर्तमान में परमाणु शक्ति का उत्पादन 10 इकाइयों से जोकि 6 केन्द्रों में अवस्थित हैं, से हो रही हैं। परमाणु ईंधन एवं भारी जल की आवश्यकताओं की आपूर्ति क्रमशः ''परमाणु ईंधन संयंत्र समूह'' हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) तथा 'भारी जल संयंत्र' वडोदरा (गुजरात) से की जाती है। 2004-05 में 16,707 मे.वा. परमाणु शक्ति का उत्पादन हुआ जो कि देश के कुल विद्युत ऊर्जा उत्पादन का एक छोटा सा अंश है। परमाणु ऊर्जा विभाग (डी.ए.ई.) के पास बहुत ही महत्त्वाकांक्षी परमाणु शक्ति योजना है जिसका लक्ष्य 2020 तक 20,000 मे.वा. को प्राप्त करना है। परमाणु शक्ति के उत्पादन की प्रक्रिया जटिल एवं जोखिम भरी है। जरा सी चूक अथवा सावधानियों के पालन में भूल बहुत बड़ा हादसा पैदा कर सकती है जिससे संयंत्र के परिवेष एवं आस-पास के क्षेत्रों में भारी तबाही तथा हजारों लोगों की जानें भी जा सकती हैं। इसलिये परमाणु शक्ति केन्द्रों की सुरक्षा के कठोर उपायों की नितान्त आवश्यकता है। 23.13 विद्युत उत्पादन के स्रोतों के आधार पर क्षेत्रीय वर्गीकरण (क) जल-विद्युत प्रधान क्षेत्र: इस क्षेत्र के अन्तर्गत शामिल राज्यों में कर्नाटक, केरल, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, जम्मू-कश्मीर, मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम राज्य आते हैं। ये राज्य कोयला खनिज क्षेत्रों से काफी दूर स्थित है परन्तु यहाँ की भौगोलिक परिस्थितियां जल-विद्युत शक्ति उत्पादन में यथेष्ठ सहायक हैं। (ख) ताप-शक्ति प्रधान क्षेत्र: इस क्षेत्र में सम्मिलित राज्य हैं- पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, असम, दिल्ली, हरियाणा और पंजाब। इनमें से अधिकांश राज्यों में कोयले के अपार भण्डार हैं जिनका उपयोग विद्युत ऊर्जा के उत्पादन में होता है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार में यद्यपि कोयला भण्डार के क्षेत्र नहीं हैं फिर भी इन राज्यों को रेलवे लाइनों द्वारा सीधी पहुँच उपलब्ध है। ये राज्य आजकल ऊर्जा के स्रोतों में विविधता ला रहे हैं। (ग) परमाणु-शक्ति प्रधान क्षेत्र: राजस्थान ही एक मात्रा राज्य है जो इसके अन्तर्गत आता है। इस राज्य में पचास प्रतिशत से ज्यादा वाणिज्य ऊर्जा परमाणु शक्ति पर आधारित है। यह इसलिये कि इस राज्य में जल तथा कोयला दोनों का अभाव है। पाठगत प्रश्न 23.4 23.14 ऊर्जा के गैर-परम्परागत स्रोत (क) सौर ऊर्जाः पृथ्वी के लिये सूर्य ही प्राथमिक रूप से सभी प्रकार की ऊर्जा का स्रोत है। सूर्य ही सर्वाधिक सजीव एवं सशक्त एवं प्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध होने वाली शक्तियों का केन्द्र है। भारतवर्ष उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र में आने वाला विशाल देश है जहाँ प्रचुर सौर-प्रकाश प्रतिदिन लम्बे समय तक मिलता रहता है। यहाँ पर अपरमित संभावनाएं हैं जिसके अन्तर्गत बहुत कम लागत में सौर ऊर्जा को विद्युत शक्ति के रूप में विकसित कर सकते हैं। सौर ऊर्जा को सोलर फोटो वोल्टिक (एस.पी.व्ही.) व्यवस्था द्वारा बैटरियों में कैद कर लिया जाता है। इस प्रकार की बैटरियों में समाहित सौर ऊर्जा को कई प्रकार से उपयोग में लाया जाता है-जैसे इससे उर्त्सिजत तापीय ऊर्जा गरम करने में (पानी गरम करना, सोलर कुकर में खाना पकाना, खाद्यान्न को सुखाने में) प्रयुक्त होती है। सौर ऊर्जा का विकास तो पूरे देश में किया जा सकता है। परन्तु राजस्थान जैसे क्षेत्र जो इतने गरम, शुष्क एवं मेघाच्छादन से मुक्त रहते हैं, आदर्श क्षेत्र है जहाँ सौर ऊर्जा अच्छी तरह विकसित हो सकती है। (ख) पवन ऊर्जा: पवन ऊर्जा को शक्ति के स्रोत के रूप में उन क्षेत्रों में विकसित किया जा सकता है जहाँ साल भर शक्तिशाली तेज रफ्तार वाली पवन चलती हों। पवन के वेग से चलने वाली पवनचक्की में पवन ऊर्जा का ही प्रयोग होता है। इस चक्की से न केवल विद्युत शक्ति उत्पन्न की जाती है, अपितु कई जगहों में सिंचाई के लिये पम्पों को संचालित किया जाता है। भारत में पवन ऊर्जा की संभावित क्षमता 45,000 मेगावाट है। इस संसाधन को विकसित करने के उपयुक्त स्थलों की पहचान की गई हैं जो तमिलनाडु, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं केरल के अन्तर्गत आते हैं। पवन ऊर्जा क्षमता जो कि उपयोग की जा सकती है 13,000 मेगावाट तक सीमित है। वर्तमान में 2,438 मेगावाट शक्ति का उत्पादन पवन ऊर्जा स्रोत से भारत में किया जा रहा है। इस प्रकार भारत की विश्व में स्थिति जर्मनी, संयुक्त राज्य अमेरिका, डेनमार्क और स्पेन के बाद पाँचवें स्थान पर है। (ग) बायो-गैसः बायो-गैस पशुओं के गोबर से प्राप्त की जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में आजकल घरेलू ईंधन के रूप में इसका बहुत प्रचलन हो रहा है। इसे पूरे देशभर में प्रचलित करने के लिये प्रोत्साहनयुक्त प्रयास किए जा रहे हैं। बड़े शहरों और औद्योगिक केन्द्रों में शहरी व औद्योगिक अपशिष्ट बायोगैस के अन्य प्रमुख स्रोत हैं। इन पदार्थों का प्रयोग विद्युत उत्पादन या बायोगैस हेतु किया जा सकता है। इस दिशा में कार्य अभी प्राथमिक स्तर पर ही है। दिल्ली और कुछ अन्य बड़े शहरों में ऐसे संयंत्रों की स्थापना की गई है। (घ) बायोमास ऊर्जाः खेत-खलिहान में पड़े कूड़ा-करकट अपशिष्ट या कृषि आधारित औद्योगिक इकाइयों से निष्कासित अपशिष्ट इत्यादि से पैदा की गई ऊर्जा को बायोमास ऊर्जा कहते हैं। देश में बायोमास ऊर्जा की संभावित क्षमता 19,500 मेगावाट है। अब तक 614 मेगावाट क्षमता वाले बायोमास शक्ति उत्पादन संयंत्र स्थापित किए गए हैं और 643 मेगावाट क्षमता के संयंत्र स्थापित करने की प्रक्रियाएँ प्रगति पर हैं। (ङ) ज्वारीय ऊर्जा: समुद्र में जब ऊँची लहरें उत्पन्न होती हैं तो उन लहरों में समाहित ऊर्जा को भी विकसित कर बिजली प्राप्त की जा सकती है। कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण स्थलों की पहचान कर ली गई हैं जहाँ ज्वारीय लहरों से बिजली उत्पन्न की जाएगी, ये हैं- कच्छ की खाड़ी एवं खम्भात (दोनों गुजरात में) तथा केरल के तटवर्ती क्षेत्र 150 मेगावाट क्षमता का एक संयंत्र केरल तट पर स्थापित किया गया है। (च) भूतापीय ऊर्जाः भारत में भू-तापीय ऊर्जा के स्रोत सीमित हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण स्थलों का चयन किया गया है जहाँ पर भू-तापीय ऊर्जा से बिजली उत्पन्न की जा सकती है। ये हैं हिमाचल प्रदेश (मनिकरन) तथा जम्मू एवं कश्मीर (लद्दाख में पूगा-घाटी)। इसके अलावा हिमाचल प्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर, उत्तराखण्ड, झारखण्ड तथा छत्तीसगढ़ राज्यों में भी संभावित स्थलों की खोजबीन जारी है। जैसा कि हम पहले चर्चा कर चुके हैं कि ऊर्जा के गैर-पारम्परिक स्रोत नवीकृत किए जा सकते हैं तथा वे प्रदूषण मुक्त भी होते हैं। भारत में विषम तथा असमान रूप में वितरित संसाधनों के उपयोग में गैर-परंपरागत स्रोत से प्राप्त ऊर्जा का प्रयोग लाभकारी सिद्ध होगा। परन्तु ऊर्जा के इन स्रोतों का विकास अभी अत्यन्त धीमी गति से हो रहा है। इसे गति प्रदान करने के लिये अधिक अच्छी और उन्नत तकनीक जो आर्थिक रूप से उचित भी हो, की आवश्यकता है। इन दुविधाओं के बावजूद आने वाले भविष्य में ऊर्जा के ये ही स्रोत यथार्थ रूप में विश्वसनीय एवं अपरिहार्य रूप से शक्ति प्राप्त करने के स्रोत होंगे। भारत के कोने-कोने में निर्माण उद्योगों व कृषि का विकास हो रहा है। इसलिये नैसर्गिक रूप से गैर परम्परागत स्रोतों से प्राप्त ऊर्जा की अधिक माँग होगी। पाठगत प्रश्न 23.5 आपने क्या सीखा भारत में कोयला ऊर्जा शक्ति का प्राथमिक स्रोत है। कोयला गोन्डवाना समूह के शैल स्तरों में एवं टर्शियरी काल के शैल स्तरों में मिलता है। गोन्डवाना कोयला क्षेत्रों में उपलब्ध कोयला का भण्डार एवं उत्पादन देश के सकल भण्डार एवं उत्पादन का 96 प्रतिशत है। पेट्रोलियम के भण्डार एवं उत्पादन के मामले में भारत की स्थिति संतोषप्रद नहीं है। असम की पट्टी तथा गुजरात-खम्भात और बॉम्बे हाई ऐसे दो महत्त्वपूर्ण क्षेत्र हैं जहाँ से पेट्रोलियम का उत्पादन हो रहा है। यूरेनियम एवं थोरियम दो मुख्य परमाणु खनिज भारत में मिलते हैं। खनिज संसाधनों को जिन बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है उनमें से पहला है खनिज भण्डारों का तेजी से ह्रास होना, पारिस्थितिकीय समस्याएं, प्रदूषण एवं सामाजिक समस्याएं। खनिज संसाधनों के संरक्षण के लिये कई उपाय अपनाए जा रहे हैं। इन उपायों में पुनरुद्धार करना, पुनः चक्रीकरण, प्रतिस्थापन तथा अधिक दक्षतापूर्ण उपयोग आदि मुख्य हैं। समुद्री तट तथा अप तट क्षेत्रों में, हाल ही में पेट्रोलियम कुओं में तेल प्राप्त हुए हैं। राजस्थान तथा आन्ध्र प्रदेश व तमिलनाडु के तटवर्ती क्षेत्रों में पेट्रोलियम क्षेत्र पाए गए। प्राकृतिक गैस के एक महत्त्वपूर्ण वाणिज्यिक ऊर्जा शक्ति के रूप में उभर कर आने से, देश में इसके उपलब्ध हो सकने वाले संभावित क्षेत्रों में जैसे पूर्वी समुद्री तट में कृष्णा, गोदावरी एवं महानदी के मुहानों पर अन्वेषण से प्राकृतिक गैस के भण्डार का पता चला है। ऊर्जा एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ढांचागत संसाधन है, जिस पर देश का आर्थिक विकास आधारित होता है। कोयला, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस, परमाणु शक्ति एवं जल-विद्युत शक्ति ये सभी ऊर्जा के प्रमुख स्रोत हैं। इन सभी स्रोतों को पारम्परिक स्रोत कहते हैं क्योंकि परम्परागत ऊर्जा उत्पादन इन्हीं स्रोतों से हो रहा है। कोयला, पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस को प्रयोग करने से ऊर्जा प्राप्त होती है, उसे ''ताप शक्ति'' कहते हैं। ये सभी स्रोत भविष्य में समाप्त हो जाएँगे, इन्हें पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसके अलावा इनके प्रयोग से विभिन्न प्रकार के प्रदूषण फैलते हैं। जल विद्युत शक्ति सतत प्राप्त हो सकने वाला स्रोत है, जो प्रदूषण मुक्त भी है। इस स्रोत एवं ऊर्जा शक्ति उत्पादन में बहुत अधिक पूँजी का निवेश करना पड़ता है। इसके साथ ही परमाणु शक्ति उत्पादन में उच्च कोटि की प्रौद्योगिक सुविज्ञता तथा वैज्ञानिक सूझबूझ की आवश्यकता होती है। इस ऊर्जा के उत्पादन एवं विकास में बहुत सावधानी एवं सुरक्षित उपायों को हमेशा प्रयोग में लाना अनिवार्य है ताकि कोई अप्रत्याशित आकस्मिक दुर्घटना न होने पाए। ताप-शक्ति का योगदान सकल विद्युत उत्पादन का 70 प्रतिशत है। इसके बाद जल विद्युत शक्ति का योगदान आता जो 26 प्रतिशत है। परमाणु ऊर्जा शक्ति का योगदान मात्रा 2.5 प्रतिशत ही है। कोयला आधारित ताप विद्युत संयंत्रों की स्थापना या तो कोयला क्षेत्रों में ही हुई है अथवा उपभोग केन्द्रों के समीप। अधिकांश संयंत्रों की स्थापना मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड एवं उड़ीसा राज्य में हुई है। कुछ ताप-विद्युत संयंत्रों की स्थापना महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश राज्यों की सीमाओं पर की गई हैं। इन संयंत्रों से विद्युत की आपूर्ति इन राज्यों के दूर-दराज क्षेत्रों में की जाती है। भारत के दक्षिण राज्यों में जल-विद्युत शक्ति का विकास सन्तोषप्रद हुआ है। भारत ने अपने जल-शक्ति की संभावित क्षमता का करीब 50 प्रतिशत विकसित कर लिया है। सौर ऊर्जा, पवन, ज्वार, गरम झरने, बायोगैस इत्यादि शक्ति के वैकल्पिक स्रोत हैं। इन्हें ऊर्जा के गैर-परम्परागत स्रोत के रूप में जाना जाता है। इनको पुनः सजीव किया जा सकता है। ये प्रदूषण मुक्त स्रोत हैं। इनका कम लागत में उत्पादन एवं संचालन किया जा सकता है। उपयुक्त एवं आर्थिक रूप से व्यवहार्य प्रविधियों के अभाव में इन गैर-परम्परागत स्रोतों की उपयोगिता एवं उत्पादन की रफ्तार धीमी चल रही है। पाठान्त प्रश्न पाठगत प्रश्नों के उत्तर 23.21. (क) (iii) विशाखापट्टनम, (ख) (ii) हेमेटाइट, (ग) (iii) उड़ीसा, (घ) (ii) धातुकर्म उद्योग, (3) (i) अलौह समुदाय का धात्विक खनिज है, (छ) (ii) बॉक्साइट, (ज) (iii) अभ्रक23.3 23.4 23.5 पाठान्त प्रश्नों के संकेत भारत में कुल कितने खनिज पाए जाते हैं?हमारे देश में 100 से अधिक खनिजों के प्रकार मिलते हैं। इनमें से 30 खनिज पदार्थ ऐसे हैं जिनका आर्थिक महत्त्व बहुत अधिक है। उदाहरणस्वरूप कोयला, लोहा, मैगनीज़, बॉक्साइट, अभ्रक इत्यादि। दूसरे खनिज जैसे फेल्सपार, क्लोराइड, चूनापत्थर, डोलोमाइट, जिप्सम इत्यादि के मामले में भारत में इनकी स्थिति संतोषप्रद है।
भारत में कौन कौन से खनिज पाए जाते हैं?कोयला, लौह अयस्क, मैंगनीज़, अभ्रक, बॉक्साइट, तांबा, क्यानाइट, क्रोमाइट, बेरिल, एपेटाइट आदि, खुल्लर इस क्षेत्र को भारत के खनिज गढ़ कहते है और आगे अध्ययन का हवाला देते हुए लिखते है: 'इस क्षेत्र के पास भारत के 100 प्रतिशत क्यानाइट, 93 प्रतिशत लौह अयस्क, 84 प्रतिशत कोयला, 70 प्रतिशत क्रोमाइट, 70 प्रतिशत अभ्रक, 50 प्रतिशत ...
खनिज किसे कहते हैं कितने प्रकार के होते हैं?खनिज तीन प्रकार के होते हैं; धात्विक, अधात्विक और ऊर्जा खनिज। धात्विक खनिज: लौह धातु: लौह अयस्क, मैगनीज, निकेल, कोबाल्ट, आदि। अलौह धातु: तांबा, लेड, टिन, बॉक्साइट, आदि।
खनिज कहाँ पाया जाता है?खनिज विभिन्न प्रकार की शैलों में पाए जाते हैं। कुछ आग्नेय शैलों में पाए जाते हैं, कुछ कायांतरित शैलों में जबकि अन्य अवसादी शैलों में पाए जाते हैं। धात्विक खनिज आग्नेय और कायांतरित शैल समूहों, जिनसे विशाल पठारों का निर्माण होता है, में पाए जाते हैं।
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