भारत में द्वैध शासन कब से कब तक रहा? - bhaarat mein dvaidh shaasan kab se kab tak raha?


बंगाल में द्वैध शासन की शुरुआत कब हुई – 1765

बंगाल में द्वैध शासन लागू करने का श्रेय किसे है – रॉबर्ट क्लाइव

बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था का विश्लेषण कीजिए

  • बंगाल में द्वैध शासन (1765-72) बक्सर के युद्ध के पश्चात्, रॉबर्ट क्लाइव ने बंगाल में द्वैध शासन की शुरुआत की जिसमें दीवानी (राजस्व वसूलने) और निजामत (पुलिस एवं न्यायिक काय) दोनों कंपनी के नियंत्रण में आ गए।
  • कंपनी ने दीवान के रूप में दीवानी अधिकारों का और डिप्टी सबेदार को नियुक्त करके निजामत अधिकारों का प्रयोग किया। कंपनी ने मुगल शासक से दीवानी कार्य हासिल किए और निजामत कार्य बंगाल के सूबेदार से प्राप्त किए।
भारत में द्वैध शासन कब से कब तक रहा? - bhaarat mein dvaidh shaasan kab se kab tak raha?
  • द्वैध शासन इसलिए कि प्रशासनिक दायित्व तो बंगाल के नवाब पर था, जबकि राजस्व-वसूली का दायित्व ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी पर।
  • प्रशासन की रीढ़ अर्थ या वित्त होता है, किंत 1765 ई. के अगस्त महीने में स्थापित द्वैध शासन व्यवस्था के अनुसार वित्त अर्थात् कर वसूली का अधिकार कम्पनी को मिला, जबकि प्रशासन नवाब के हाथों में बने रहने दिया गया। सबसे बड़ी बात यह है कि नवाब और कम्पनी दोनों की अलग-अलग स्वतंत्र सत्ता थी।
  • दीवानी का अधिकार प्राप्त हो जाने से कम्पनी की स्थिति में आमूल परिवर्तन हो गया। दीवानी का कार्य मालगुजारी के साथ-साथ आंशिक स्तर पर न्याय करना भी था। रॉबर्ट क्लाइव ने दीवानी का भार बंगाल में महम्मद रजा खां तथा बिहार में राजा सिताब राय नामक दो भारतीय अधिकारियों को सौंपा। प्रमुख दीवानी कार्यालय मुर्शिदाबाद और पटना में स्थापित किए गए। शासन-प्रबंध और फौजदारी के मामलों का सुलझाने के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बंगाल के नवाब को 53 लाख रुपए पोषक देना निश्चित किया।
  • उस समय बंगाल का नवाब अल्पवयस्क था, इसलिए Khijra khan को नायब सूबेदार की संपूर्ण शक्ति सौंप दी गई और अब नवाब शासक रह गया। इस तरह कम्पनी ने प्रशासन पर भी अपना प्रभाव नाममात्र का शासक रह , नियंत्रण स्थापित कर लिया।

द्वैध शासन के दोष

रॉबर्ट क्लाइव एक कुशल सेनापति के साथ-साथ अच्छा प्रशासक और सफल कूटनीतिज्ञ भी था। उसने द्वैध शासन की स्थापना कर बंगाल, बिहार और उड़ीसा में अंग्रेजी शक्ति को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। इस शासन प्रबंध से कम्पनी की आय में 30 लाख पौण्ड की वृद्धि हो गई। किंतु, इस व्यवस्था के लागू होने के कुछ दिनों बाद ही इसमें अनेक प्रकार के दोष समाहित होने लगे। व्यवहारिक दृष्टि से द्वैध शासन का प्रबंध पूर्ण रूप से असफल रहा तथा इसके परिणाम बुरे निकले। एक ओर प्रशासन का पूरा दायित्व उठाने में नवाब असमर्थ था, क्योंकि एक तो वह आर्थिक दृष्टि से कमजोर था और दूसरे कम्पनी का उस पर नियंत्रण था, जबकि दूसरी आर अंग्रेजी कम्पनी के हाथों में शक्ति थी. तो उसके पास प्रशासन का कोई दायित्व नहीं था। कम्पनी ने अधिक-से-अधिक धन की उगाही को ही अपना लक्ष्य निर्धारित किया।

नवाब की शक्ति सीमित होने के कारण कम्पनी के अधिकारी नवाली आज्ञाओं का उल्लंघन करने लगे। राजस्व वसूली के लिए कम्पनी टा जमींदारों ने कृषकों का अमानवीय शोषण आरंभ कर दिया। इससे जनसाधार स्थिति अत्यंत दयनीय हो गयी। व्यापार की स्थिति भी बदतर हो गई। कपनीर अधिकारियों द्वारा किए गए अत्याचारों का नकारात्मक प्रभाव बंगाल के उद्योग- पर भी पड़ा-यहां का कुटीर उद्योग धीरे-धीरे बंद हो गया और शिल्पियों ने या तो अन्य व्यवसाय अपना लिए या बेरोजगारी का जीवन जीने के लिए बाध्य हो गए।

द्वैध शासन का अंत

  • क्लाइव ने बंगाल में द्वैध शासन प्रबंध की स्थापना को इसलिए महत्त्व दिया था, क्योंकि उस समय बंगाल-जैसे विशाल प्रांत का संपूर्ण शासन प्रबंध अपने हाथों में लेने के लिए कम्पनी के पास पर्याप्त अधिकारी नहीं थे।
  • क्लाइव द्वारा स्थापित द्वैध शासन को 1772 ई. में वारेन हेस्टिंग्स ने समाप्त कर दिया। द्वैध शासन की समाप्ति का आधार हेस्टिंग्स ने इस व्यवस्था के दोषों के निराकरण को बताया। उसने बंगाल, बिहार और उड़ीसा के नायब दीवान मुहम्मद रजा खां और राजा सिताब राय को पदमुक्त कर दिया तथा शासन का संपूर्ण दायित्व अपने हाथों में ले लिया।
भारत में द्वैध शासन कब से कब तक रहा? - bhaarat mein dvaidh shaasan kab se kab tak raha?
  • हेस्टिंग्स ने मुर्शिदाबाद और पटना के राजस्व बोर्ड को समाप्त कर कलकत्ता में एक राजस्व परिषद् की स्थापना की।
  • देशी समाहर्ताओं (कलक्टरों) के स्थान पर अंग्रेजी समाहर्ताओं की नियुक्ति की गई।
  • हेस्टिंग्स ने बंगाल के नवाब को शासन कार्य से पूर्ण रूप से मुक्त कर दिया तथा उसके लिए 16 लाख रुपए वार्षिक की पेशन निश्चित कर दी।
  • 1773 ई. के रेग्युलेटिंग एक्ट से बंगाल के गवर्नर के पद को गवर्नर जनरल का पद बना दिया गया तथा भारत की तत्कालीन सभी प्रेसिडेंसियों का शासन भार उसका में सौंप दिया गया।
  • 1773 ई. में वारेन हेस्टिंग्स को पहला गवर्नर जनरल बनाया गया। इस तरह से बंगाल, भारत में ब्रिटिश राजनीति का केंद्र बन गया और कम्पना न से अपने साम्राज्य विस्तार की प्रक्रिया शुरू की।

भारतीय इतिहास

  • 28 May 2021
  • 17 min read

परिचय

पृष्ठभूमि

वर्ष 1918 में राज्य सचिव एडविन सेमुअल मांटेग्यू  (Edwin Samuel Montagu) और वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड ने संवैधानिक सुधारों की अपनी योजना तैयार की, जिसे मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड (या मोंट-फोर्ड) सुधार के रूप में जाना जाता है, जिसके कारण वर्ष 1919  के भारत शासन अधिनियम को अधिनियमित किया गया।

वर्ष 1921 में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों को लागू किया गया।

इस अधिनियम का एकमात्र उद्देश्य भारतीयों का शासन में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना था।

अधिनियम ने केंद्र के साथ-साथ प्रांतीय स्तरों पर शासन में सुधारों की शुरुआत की।

अधिनियम की मुख्य विशेषताएंँ

केंद्र स्तरीय सरकार:

  • विषय:
    • ऐसे मामले जो राष्ट्रीय महत्त्व के थे या एक से अधिक प्रांतों से संबंधित थे, केंद्र स्तरीय सरकार द्वारा  शासित थे, जैसे: विदेश मामले, रक्षा, राजनीतिक संबंध, सार्वजनिक ऋण, नागरिक और आपराधिक कानून, संचार सेवाएंँ आदि।
    • इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय विधायिका को अधिक शक्तिशाली और जवाबदेह बनाया गया।
  • कार्यपालिका: 
    • इस अधिनियम ने गवर्नर-जनरल को मुख्य कार्यकारी प्राधिकारी बनाया।
    • वायसराय की कार्यकारी परिषद में आठ सदस्यों को शामिल करने का प्रावधान किया गया जिसमें तीन भारतीय सदस्यों को शामिल करना था।
    • गवर्नर जनरल को अनुदानों में कटौती करने का अधिकार था, वह केंद्रीय विधायिका द्वारा  लौटा दिये  गए बिलों को प्रमाणित कर सकता था तथा अध्यादेश जारी कर सकता था।
  • विधानमंडल में सुधार:
    • द्विसदनीय विधानमंडल: अधिनियम में द्विसदनीय विधायिका की शुरुआत की  गई जिसमें निम्न सदन या केंद्रीय विधानसभा ( Lower House or Central Legislative Assembly) और उच्च सदन या राज्य परिषद (Upper House or Council of State) शामिल थी।
    • नए सुधारों के तहत अब केंद्रीय विधानमंडल के सदस्य को सरकार से  प्रश्न पूछने,  पूरक प्रश्न करने, स्थगन प्रस्ताव पारित करने तथा बजट के हिस्से पर मतदान करने का अधिकार था लेकिन अभी भी बजट के  75% हिस्से पर  मतदान का अधिकार प्राप्त नहीं था।
    • विधायिका का गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारी परिषद पर वस्तुतः कोई नियंत्रण नहीं था।
    • निम्न सदन की संरचना: निम्न सदन में 145 सदस्य थे, जो या तो मनोनीत थे या अप्रत्यक्ष रूप से प्रांतों से चुने गए थे। इसका कार्यकाल 3 वर्ष था।
      • 41 मनोनीत (26 आधिकारिक और 15 गैर-सरकारी सदस्य)
      • 104 निर्वाचित (52 जनरल, 30 मुस्लिम, 2 सिख, 20 विशेष)।
    • उच्च सदन की संरचना: उच्च सदन में 60 सदस्य थे। इसका कार्यकाल 5 वर्ष का था और इस सदन में केवल पुरुष सदस्य को ही शामिल किया गया था।
      • 26 मनोनीत
      • 34 निर्वाचित (20 जनरल, 10 मुस्लिम, 3 यूरोपीय और 1 सिख सदस्य)
  • वायसराय की शक्तियांँ:
    • वायसराय को विधायिका को संबोधित करने का अधिकार था।
    • उसे बैठकों को  आहूत करने, स्थगित करने या विधानमंडल को निरस्त या खंडित करने का अधिकार प्राप्त रहा।
    • विधायिका का कार्यकाल ३ वर्ष का था, जिसे वायसराय अपने अनुसार बढ़ा सकता था।
  • केंद्रीय विधानमंडल की शक्तियांँ:
    • केंद्र सरकार को  प्रांतीय सरकारों पर अप्रतिबंधित नियंत्रण प्राप्त था।
    • केंद्रीय विधायिका को संपूर्ण भारत के लिये, सभी अधिकारियों और आम लोगों हेतु  कानून बनाने के लिये अधिकृत किया गया था, चाहे वे भारत में हों या नहीं।
  • केंद्रीय विधायिका पर प्रतिबंध:
    • विधायिका पर कुछ प्रतिबंध लगाए गए थे:
      • किसी विधेयक को पेश करने हेतु गवर्नर जनरल की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक था, जैसे- मौजूदा कानून में संशोधन या गवर्नर जनरल के अध्यादेश में संशोधन, विदेशी संबंध और भारतीय राज्यों, सशस्त्र बलों के साथ संबंध के मामले।
    • भारतीय विधायिका भारत के संबंध में ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किसी भी कानून को बदल या उलट नहीं सकती थी।

प्रांत स्तरीय सरकार:

  • विषय:
    • इसमें वे  मामले शामिल थे जो एक विशिष्ट प्रांत से संबंधित थे जैसे:
      • सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन, शिक्षा, सामान्य प्रशासन, चिकित्सा सुविधाएंँ, भूमि-राजस्व, जल आपूर्ति, अकाल राहत, कानून और व्यवस्था, कृषि आदि।
  • द्वैध शासन की  शुरुआत:
    • इस अधिनियम ने प्रांतीय स्तर पर कार्यपालिका हेतु  द्वैध शासन प्रणाली (दो व्यक्तियों/पार्टियों का शासन) की शुरुआत की।
    • द्वैध शासन (Diarchy) को आठ प्रांतों में लागू किया गया था जिसमें
      असम, बंगाल, बिहार और उड़ीसा, मध्य प्रांत, संयुक्त प्रांत, बॉम्बे, मद्रास और पंजाब प्रांत शामिल थे।
    • द्वैध शासन व्यवस्था के तहत प्रांतीय सरकारों को अधिक अधिकार  प्रदान किये गए थे।
    • गवर्नर प्रांत का  कार्यकारी प्रमुख था।
  • विषयों का विभाजन:
    • विषयों को दो सूचियों में विभाजित किया गया था: 'आरक्षित' और 'स्थानांतरित'। आरक्षित सूची में शामिल विषयों का प्रशासन गवर्नर द्वारा नौकरशाहों की कार्यकारी परिषद के माध्यम से किया जाना था।
      • इसमें कानून और व्यवस्था, वित्त, भू-राजस्व, सिंचाई आदि जैसे विषय शामिल थे।
      • सभी महत्त्वपूर्ण  विषय को प्रांतीय कार्यकारिणी के आरक्षित विषयों में शामिल किया गया।
      • हस्तांतरित विषयों को विधान परिषद के निर्वाचित सदस्यों में से मनोनीत मंत्रियों द्वारा प्रशासित किया जाना था।
      • इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, स्थानीय सरकार, उद्योग, कृषि, उत्पाद शुल्क आदि विषय शामिल थे।
    • प्रांत में संवैधानिक तंत्र के विफल होने की स्थिति में गवर्नर हस्तांतरित विषयों का प्रशासन भी अपने हाथ में ले सकता था।
  • हस्तक्षेप पर प्रतिबंध :
    • भारत के राज्य सचिव और गवर्नर जनरल आरक्षित विषयों (Reserved Subjects) के संबंध में हस्तक्षेप कर सकते थे, जबकि स्थानांतरित विषयों (Transferred Subjects) के संबंध में उन्हें हस्तक्षेप करने का अधिकार प्राप्त नहीं था।
  • विधानमंडल में सुधार:
    • प्रांतीय विधान परिषदों का और अधिक विस्तार किया गया तथा 70% सदस्यों का चुनाव किया जाना था।
    • सांप्रदायिक (Communal) और वर्गीय मतदाताओं (class electorates) की व्यवस्था को और मज़बूत किया गया।
    • महिलाओं को भी वोट देने का अधिकार दिया गया।
    • विधान परिषदें बजट को अस्वीकार कर सकती थी  लेकिन यदि आवश्यक हो तो गवर्नर  इसे पुनः बहाल कर सकता था।
    • विधायकों (Legislators) को बोलने की स्वतंत्रता थी।
  • गवर्नर की शक्तियांँ:
    • गवर्नर जिन्हें वह आवश्यक समझे, मंत्रियों को किसी भी आधार पर बर्खास्त कर सकता था। साथ ही उसने वित्त पर पूर्ण नियंत्रण बनाए रखा।
    • विधान परिषदें कानून निर्माण की प्रक्रिया शुरू कर सकती थीं लेकिन उसके लिये गवर्नर की सहमति की आवश्यकता थी।
    • गवर्नर को विधेयक पर  वीटो शक्ति का अधिकार था तथा वह अध्यादेश जारी कर सकता था।

अधिनियम का महत्त्व: 

  • भारतीयों में जागृति: इस अधिनियम के माध्यम से भारतीयों को प्रशासन के बारे में गुप्त सूचना मिली और वे अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक हुए।
    • इससे भारतीयों में राष्ट्रवाद और जागृति की भावना पैदा हुई और वे स्वराज के लक्ष्य (Goal of Swaraj) को प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़े।
  • मतदान के अधिकारों का विस्तार: भारत में चुनाव क्षेत्रों का विस्तार हुआ जिससे लोगों में मतदान के महत्त्व के प्रति समझ बढ़ी।
  • प्रांतों में स्वशासन: इस  अधिनियम ने भारत में प्रांतीय स्वशासन की शुरुआत की।
    • इस अधिनियम ने लोगों को  प्रशासन करने का अधिकार प्रदान किया जिससे सरकार पर  प्रशासनिक दबाव बहुत कम हो गया।
    • इसने भारतीयों को प्रांतीय प्रशासन में ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करने हेतु तैयार किया।

अधिनियम की कमियांँ:

  • गैर-ज़िम्मेदार केंद्र सरकार: अधिनियम में अखिल भारतीय स्तर पर किसी भी ज़िम्मेदार सरकार की परिकल्पना नहीं की गई।
  • सांप्रदायिकता का प्रसार: त्रुटिपूर्ण चुनावी प्रणाली और सीमित मताधिकार लोकप्रियता हासिल करने में विफल रहे। एक अलग चुनावी प्रणाली ने सांप्रदायिकता की भावना को बढ़ावा दिया।
  • मतदाताओं का सीमित विस्तार: केंद्रीय विधायिका में  मतदाताओं की संख्या लगभग 1.5 मिलियन तक बढ़ा दी गई थी, जबकि एक अनुमान के अनुसार भारत की जनसंख्या लगभग 260 मिलियन थी।
  • प्रशासनिक नियंत्रण का अभाव: केंद्र में वायसराय और उसकी कार्यकारी परिषद पर विधायिका का कोई नियंत्रण नहीं था।
    • प्रांतीय मंत्रियों का वित्त और नौकरशाहों पर कोई नियंत्रण नहीं था; इससे दोनों के मध्य लगातार संघर्ष की स्थिति बनी हुई थी ।
    • मंत्रियों से अक्सर महत्त्वपूर्ण मामलों पर भी परामर्श नहीं किया जाता था और गवर्नर  द्वारा किसी भी मामले पर जिसे बाद में विशेष माना जाता था, उसे खारिज कर दिया जाता था।
    • गवर्नर को अप्रतिबंधित शक्तियाँ प्राप्त थीं, वह अपनी परिषद और मंत्रियों के निर्णय के विरुद्ध भी निर्णय ले सकता था
      • प्रशासन से संबंधित लगभग सभी महत्त्वपूर्ण मामले राज्यपाल पर निर्भर थे।
  • विषयों का अनुपयुक्त विभाजन: केंद्र में विषयों का विभाजन उचित एवं संतोषजनक नहीं था।
    • केंद्रीय विधायिका को बहुत कम शक्ति दी गई थी और वित्त पर उसका कोई नियंत्रण नहीं था।
    • प्रांतों के स्तर पर, विषयों का विभाजन और समानांतर प्रशासन दोनों ही तर्कहीन एवं अव्यावहारिक थे। सिंचाई, वित्त, पुलिस, प्रेस और न्याय जैसे विषय 'आरक्षित' श्रेणी में शामिल थे।

अधिनियम के परिणाम:

  • सार्वजनिक प्रतिक्रिया: कॉन्ग्रेस ने अगस्त 1918 में हसन इमाम की अध्यक्षता में बॉम्बे में एक विशेष सत्र में बैठक की और सुधारों को "निराशाजनक" एवं  "असंतोषजनक" घोषित किया तथा इसके स्थान पर  प्रभावी स्वशासन की मांँग की।
    • बाल गंगाधर तिलक (Bal Gangadhar Tilak) द्वारा मोंटफोर्ड सुधारों को "अयोग्य और निराशाजनक - एक धूप रहित सुबह" कहा गया था।
    • एनी बेसेंट ने सुधारों को "इंग्लैंड के प्रस्ताव के योग्य और भारत को स्वीकार करने के लिये अयोग्य" पाया।
    • सुरेंद्रनाथ बनर्जी (Surendranath Banerjea) के नेतृत्व में वयोवृद्ध  कॉन्ग्रेसी नेता सरकारी प्रस्तावों को स्वीकार करने के पक्ष में थे।
  • शक्ति हेतु संघर्ष: अधिनियम ने भारतीयों और अंग्रेज़ों दोनों में सत्ता के लिये संघर्ष को प्रोत्साहित किया।
    • परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में सांप्रदायिक दंगे हुए जो वर्ष 1922 से 1927 तक  जारी रहे।
    •  वर्ष 1923 में स्वराज पार्टी (Swaraj Party) की स्थापना हुई तथा उसने चुनावों में मद्रास को छोड़कर  पर्याप्त संख्या में सीटें जीती।
      • जबकि पार्टी बंबई और मध्य प्रांतों में मंत्रियों के वेतन के साथ अन्य वस्तुओं की आपूर्ति को अवरुद्ध करने में सफल रही।
      • इस प्रकार दोनों प्रांतों के गवर्नरों को द्वैध शासन को समाप्त करने हेतु मजबूर होना पड़ा और स्थानांतरित विषयों को अपने नियंत्रण में ले लिया गया।
  • रॉलेट एक्ट अधिनियमन: भारतीयों को शांत करने के लिये भारत सरकार दमन के लिये तैयार थी।
    • पूरे युद्ध के दौरान राष्ट्रवादियों का दमन जारी रहा। क्रांतिकारियों का दमन किया गया, उन्हें फांँसी दी गई और जेल में डाल दिया गया।
    • मौलाना अबुल कलाम आज़ाद (Maulana Abul Kalam Azad) जैसे कई अन्य राष्ट्रवादियों को भी जेल में डाल दिया।
    • सरकार ने अब खुद को और अधिक दूरगामी शक्तियों से लैस करने का फैसला किया, जो कानून के शासन के स्वीकृत सिद्धांतों के खिलाफ थी, ताकि उन राष्ट्रवादियों की आवाज को दबाया जा सके जो सरकारी सुधारों से संतुष्ट नहीं थे।
    • मार्च 1919 में रॉलेट एक्ट (Rowlatt Act) पारित किया, हालांँकि केंद्रीय विधान परिषद के प्रत्येक भारतीय सदस्य ने इसका विरोध किया।
      • इस अधिनियम ने सरकार को राजनीतिक गतिविधियों को दबाने के लिये अधिकार प्रदान किये और दो साल तक बिना किसी मुकदमे के राजनीतिक कैदियों को हिरासत में रखने की अनुमति दी।।
      • इस अधिनियम ने सरकार को बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) के अधिकार को निलंबित करने का अधिकार प्रदान किया जिसने ब्रिटेन में नागरिक स्वतंत्रता की नींव रखी।

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भारत में द्वैध शासन कब से कब तक रहा? - bhaarat mein dvaidh shaasan kab se kab tak raha?

भारत में केंद्र में द्वैध शासन कब लागू हुआ?

1919 का द्वैध शासन 1919 ई. के भारत सरकार अधिनियम (गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट) द्वारा प्रांतीय सरकार को मजबूत बनाया गया और द्वैध शासन की स्थापना की गई। इसके पहले प्रांतीय सरकारों पर केंद्र सरकार का पूर्ण नियंत्रण रहता था।

भारत में द्वैध शासन का अंत कब हुआ?

(iv) द्वैध शासन प्रणाली को 1935 ई० के एक्ट के द्वारा समाप्त कर दिया गया.

1919 का द्वैध शासन क्या है?

प्रांतों में लागू की गई इस द्वैध शासन प्रणाली का जनक सर लियोनेल कॉटिश को माना जाता है। आरक्षित विषयों के अंतर्गत भू राजस्व, खनिज संसाधन, कानून और व्यवस्था, सिंचाई इत्यादि मामले शामिल किए गए थे, जबकि हस्तांतरित विषयों के अंतर्गत स्वास्थ्य, शिक्षा, उद्योग, कृषि, स्थानीय प्रशासन, आबकारी आदि विषय शामिल किए गए थे।